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श्रीभगवती सूत्र
[३६] हां, गौतम ! नारकी जीव समस्त आत्म-प्रदेशों से श्राहार करते हैं (इत्यादि)। ..
समस्त प्रात्म-प्रदेशों से आहार करते हैं, इसका अर्थ यह है कि जैसे घी की कड़ाई में पूरी छोड़ने पर वह सभी ओर से अपने में घृतं को खींचती है, इसी प्रकार जीव सभी ओर से सभी प्रदेशों से-श्राहार खींचता है।
वाह्य रूप ले पुद्गल को खींचना आहार नहीं कहलाता वरन् शरीर और गृहीत पुद्गलों को एक संप बना देना, सर्वप्रदेशं श्राहार कहलाता है।
आहार, रस परियमन करता है। वह रस-परिणमन सभी प्रदेशों में होता है। आहार और कर्मबन्ध दोनों के विषय में यह कथन लागू पड़ता है । तात्पर्य यह है कि जीव सब ओर से आहार कर सब प्रदेशों में परिणमाता है।
इसी प्रकार सव प्रदेशों से उच्छ्वास लेता है, सब प्रदेशों से निःश्वास निकालता है। • . सर्व साधारण मनुष्य जो श्वासोच्छ्वास लेते हैं तो
उन्हें ऐसा मालूम होता है मानो पेट में श्वास लेते हैं और पेट से ही उच्छ्वास निकालते हैं। लेकिन श्वास वास्तव में सभी प्रदेशों से आता जाता है । इस ओर पूर्ण ध्यान दिया जाय तो नाड़ी की गति से यह वात समझी जा सकती है।'
भगवान् फरमाते हैं-हे गौतम ! जीव निरन्तर भी आहार करता है और कदाचित् भी श्रीहार करता है। इसी प्रकार परिणमत, श्वास और उच्छवास के संबंध में जानना