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नारक-वर्णन 'चाहिए । पर्याप्त अवस्था होने पर निरन्तर आहार करता है, निरन्तर परिणमाता है, निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेता है, परन्तु अपर्याप्त अवस्था में कदाचित् आहार आदि करता है । जव विग्रह गति को प्राप्त होता है तव आहार आदि नहीं ग्रहण करता, परन्तु अविग्रह-गति में ग्रहण करता है।
आगे गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-भगवन् ! जिन पुद्गलों को आहार रूप.में ग्रहण किया है, उनमें से नरक के जीव किंतने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वाद करते हैं।
भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! असंख्यात भाग -का आहार करते हैं और अनन्त भाग का आस्वाद करते हैं।
इस प्रश्न के मूल पाठ में 'सेयालसि * ' प्राकृत भाषा का पद आया है। इसका संस्कृत रूप 'एण्यति' (भविष्यति) है। तात्पर्य यह है कि गृहीत आहार-पुद्गलों में से ग्रहण करने के पश्चात् कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ?
असख्यात भाग का आहार करते हैं, इस पद की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। एक आचार्य का यह मत है कि जैसे गाय पहले प्रास में मुंह . . * मूल पाठ इस प्रकार है:
नेरझ्या णं भते ! जे पोंगाले आहारत्ताए गिण्हंति, ते णं तेर्सि पोग्गलाणं सेयालसि कइभागं श्राहारेति, कइभागं श्रासायति ? गोयमा! असंखज्जइभागं आहारोंत, अणतभाग श्रासाइंति ।-पण्णवणा सुत्त ।