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श्रीभगवती सूत्र
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भर लेती है, पर उसमें से बहुत-सा भाग नीचे गिर जाता है और कुछ वह खाती है । इसी प्रकार नरक के जीव पहले-पहल आहार के जो पुद्गल खींचते हैं, उन खींचे हुए पुद्गलों का बहुतसा भाग गिर जाता है और असंख्य भाग मात्र का आहार करते हैं ।
दूसरे श्राचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है । यहां नयविशेष की अपेक्षा से कथन है । ऋसूत्रमय के अनुसार शरीर रूप में परिणत पुद्गलों के असंख्य भाग का श्रहार करता है । जो पुद्गल शरीर रूप में परिणत नहीं हुए उन्हें ऋजुसूत्रनय शुद्ध होने से श्राहार रूप नहीं मानता ।
ऋजुसूत्रतय भूत और भविष्य को छोड़कर केवल वर्त्त मान को स्वीकार करता है । श्रतः जितने पुद्गल श्राहार रूप में ग्रहण किये हैं, उन्हें व्यवहार नय तो चाहार कहता है, लेकिन ऋजुसूत्रनय के मत से जो पुद्गल उनमें से शरीर रूप परिणत हुए हैं, वही आहार रूप हैं ।
उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति ने दूध पिया। उसमें से कुछ भाग खल-मल रूप में परिणत हो गया और शेष भाग से रस आदि धातुएँ बनीं। ऋऋजुसूत्र नय इस परिणति को ही श्राहार मानता है ।
जैसे गाय बहुत-सा घास एक साथ मुँह में भरती है, पर उसमें से बहुत भाग गिर जाता है, वह श्राहार में परिगणित नहीं होता । ऋजुसूत्र नय के अनुसार वही पुद्गल श्राहार-रूप कहलाते हैं, जो वास्तव में श्राहार रूप में परिणत होते हैं, सब ग्रहण किये हुए पुद्गल नहीं । असल में हार