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श्रीभगवती सूत्र
1४२४) संक्रमण के विषय में दूसरे प्राचार्य का यह मत है कि श्रायुकर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय को छोड़कर, शेप प्रकृतियों का उत्तर प्रकृतियों के साथ जो संचार होता है, वह संक्रमण कहलाता है। उदाहरणार्थ, कल्पना कीजिए किसी प्राणी के शुभ कर्म उदय में आये । वह साता वेदनीय का अनुभव कर रहा है। इसी समय उसके अशुभ कर्मों की ऐसी कुछ परिणति हुई कि उसका सातावेदनीय, असातावेदनीय के रूप में परिणत हो गया। इसी प्रकार असाता भोगते समय शुभ कर्मों की ऐसी परिणति हो गई कि उसकी असाता, लाता में परिणत हो गई। यह वेदनीय कर्म का संक्रमण कहलाया।
यद्यपि यह सत्य है कि कृत कर्म निष्फल नहीं होते, तथापि निराश होने का कोई कारण नहीं है। पाप को काट डालना या पुण्य रूप में पलट देना हमारी शक्ति के बाहर . नहीं है। पाप, पुण्य रूप में परिणत हो सकता है और कट भी सकता है। अगर ऐसा न होता तो दान, तप श्रादि अनु. छान निरर्थक हो जाता लेकिन यह अनुष्ठान निरर्थक नहीं हैं। तपस्या में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उससे घोर से घोर कर्म भी नष्ट किये जा सकते हैं। प्रदेशी राजा अपने अशुभ कमाँ को शुभ रूप में पलट कर सूर्याभ देव हुआ था। तात्पर्य यह है कि आत्मा ही कमाँ का कर्ता और हर्ता है। उसमें असीम शक्ति है । वह शुभ को अशुभ रूप में और अशुभ को शुभ रूप में परिवर्तित भी कर सकता है। यह परिवर्तन ही संक्रमण । कहलाता है। • अगला प्रश्न है-नारकियों के कितने प्रकार के पुद्गल निघत्त हुए