________________
4.४२५)
विभाजनादि-स्वरूप मिन्न-भिन्न पुद्गलों को इकट्ठा करके धारण करना निधत्त करना कहलाता है। अर्थात् कर्म-पुद्गलों को एक दूसरे पर रच देना, जैसे एक थाली में बिखरी हुई सुइयों को एक के ऊपर दूसरी, आदि के क्रम से जमा देना, निधत्त करना कहलाता है । निधत्त शब्द यहाँ रूढ़ है।
निधत्त, कर्म की अवस्था-विशेष है। इस अवस्था को प्राप्त हुए कर्मों में उद्वर्तना या अपवर्तना करण ही परिवर्तन कर सकते हैं, अन्य करण नहीं। तात्पर्य यह है कि निधत्त अवस्था से पहले तो और भी करण लग सकते थे, मगर नियस अवस्था में उक दो फरणों के अतिरिक्त कोई तीसरा करण नहीं लग सकता । जब फर्म पूर्वोश उद्वर्त्तना और अप
वर्त्तना करण के सिवाय और किसी फरण का विषय न हो, .. उस अवस्था का नाम निधत्त है।
. अब प्रश्न यह है कि नारकी कितने प्रकार के कर्मों को निकाचित करते हैं?
जिन फर्मों को निधत्त किया गया था, उन्हें ऐसा मज़चूत कर देना कि जिससे वे एक-दूसरे से अलग न हो सके
और जिनमें कोई भी फरण कुछ भी फेरफार न कर सके, इसे निकाचित करना कहते हैं। उदाहरणार्थ-सुइयों को एक-दूसरे के पास इकट्ठा कर देना निधत्त करना कहलाता है। और उसके पश्चात् उन्हें अग्नि में तपाकर थोड़े से ठोक दिया और प्रापस में इस प्रकार मिला दिया, जिससे वे एक-दूसरी से अलग न हो सकें । सूइयों के समान कर्मों का इस प्रकार मज़बूत हो जाना कि फिर उसमें कोई परिवर्तन न हो, निकाचित हो जाना कहलाता है।