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दण्डकों में आत्मारस्भादि वर्णन ... . इससे यह सिद्ध हुआ.कि कृष्णलेश्या वाला जीव जव अनारंभी होता ही नहीं है, तय इसमें प्रमादी और अप्रमादी का भेद कहाँ से आएगा? . . . . . .
गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! आपने जो निरूपण किया है सो किस हेतु से इसका उत्तर भगवान देते हैं-अवत की अपेक्षा से कृष्णलेश्या वाले जीव आत्मारंभी होते हैं, परारंभी होते हैं, उभयारंभी होते हैं, किन्तु अनारंभी नहीं होते।
शास्त्रकारों ने विरताविरत (एकदेशविरत-श्रावक) में तीन 'अशुद्ध लेश्याएँ भी मानी हैं, लेकिन कई ग्रंथ इससे सहमत नहीं हैं। गोम्मटसार में, श्रावक में तीन शुद्ध लेश्याएँ ही बताई हैं। इसके अनुसार खोटी लेश्या वाला श्रावक भी नहीं हो सकता। .. - जैसा प्रश्न और उत्तर कृष्णलेश्या के विषय में ऊपर लिखा गया है, वैसा ही नील और कापोत लेश्या में भी समझना चाहिए !
तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के प्रश्नोत्तर वैसे ही समझना चाहिए, जैसे समुच्चय जीव के विषय में हैं। इन लेश्याओं में संयत, असंयत, प्रमादी और अप्रमादी का भेद भी है। ..
प्रमादी में भी तेजोलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या होती है । उसमें शुभयोग और अशुभयोग भी होता है। अगर वह उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है तो अनारंभी है अगर ऐसा नहीं करता तो अनारंभी नहीं है।