________________
श्रीभगवती सूत्र .. . [५२६]
तेजोलेश्या आदि में समुच्चय जीव की अपेक्षा इतनी विशेषता है कि इनमें असंसारसमापन्नक (सिद्ध नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध अलेश्य हैं।
संसार-परिभ्रमण का हेतु प्रारंभ माना गया है। जितने . आरंभ हैं, सव दोषयुक्त हैं। मुक्ति पूर्ण निर्दोष को प्राप्त होती है, दोषी को नहीं। गीता में भी कहा है किः
'सारम्भा हिदोषेणं धूमेनाग्निरिवावृता'
जितने भी प्रारंभ है, सब दोष से व्याप्त हैं। जैसे अग्नि के विना धूम नहीं होता, उसी प्रकार दोष के विना आरंभ नहीं होते।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना श्रावश्यक है। प्रश्न होता है कि जीव का घात न करना ही आरंभ का त्याग है, या . इसके लिए और भी फिसी क्रिया का सेवन करना आवश्यक है ? इसका उत्तर यह है कि अगर जीव-घात न करना ही
आरंभ का त्याग कहलाता तो पृथ्वीकाय के जीव भी अनारंभी कहलाते । पृथ्वीकाय के जीव स्थिर पड़े हैं। वे प्रायः किसी जीव का घात नहीं कर पाते। लेकिन इतने मात्र ले पृथ्वीकाव के जीव अनारंभी नहीं हो सकते। अनारंभी होने के लिए एक और विशेषता होनी चाहिए। वह है ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विद्यमानता। जिसमें इस रत्नत्रय का सद्भाव है,वही निरारंभी हो सकता है। अतएव अव ज्ञान का प्रकरण भारंभ होता है। .