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________________ [३१५] चलमाणे चलिए यद्यपि प्रदेशी राजा चढ़े हुए जहर को उतार सकता था और रानी को दंड भी दे सकता था, लेकिन जिन्हें कर्म की उदीरणा करनी होती है, वे दूसरे की बुराइयों का हिसाव नहीं लगाते । राजा प्रदेशी लोचने लगा-हे पात्मन् ! यह विष तुझे नहीं मिला है। किन्तु तेरे कर्म को मिला है।तू ने जो प्रगाढ़ कर्म वधि हैं, उन्हें नष्ट करने के लिए इस ज़हर की जरूरत थी। मैंने जीव और शरीर को अलग-अलग समझ लिया है । यह स्पष्ट हो रहा है कि यह जहर आत्मा पर नहीं, शरीर पर अपना असर कर रहा है। आत्मा तो वह है कि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । नैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोपयति मारुतः।। अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ . अर्थात् आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती । आत्मा छिदने योग्य नहीं है, सड़ने गलने योग्य नहीं है, सूखने योग्य नहीं है। वह नित्य है, प्रत्येक शरीर में रहता है, स्थायी है, अचल है और सनातन है। . राजा प्रदेशी सोचता है-हे श्रात्मा ! यह विष तुझे मार नहीं सकता, यह तेरे कर्मों को ही काट रहा है । इस , लिए चिन्ता न कर । तू बैठा वैठा तमाशा देख । मित्रों ! इसका नाम प्रशस्त परिणाम है । इसी से कौं की उदीरणा होती है। ऐसा परिणाम उदित होने पर
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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