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श्री भगवती सूत्र
[५३४] । अव प्रश्न यह है कि तप इस भव में है, परमव में है, या दोनों भवों में है ? इस प्रश्न का उत्तर चारित्र के समान होहै।
तेरहपंथियों की यह मान्यता है कि अहिंसा, संयम और तप, इस क्रम में से संयम तो ऊपर के गुणस्थानवालों में ही होता है, लेकिन तप मिथ्यात्वी को भी होता है। मगर यह मान्यता भ्रमपूर्ण है, क्योंकि तप, चारित्र से अलग नहीं है। चारित्र में ही तप का अन्तर्भाव होता है।
अनन्तानुवंधी चौकड़ी (क्रोध, मान, माया, लोम ) का क्षयोपशम या क्षय होने पर सम्यग्दृष्टि होती है और अप्रत्याख्यान-चौकड़ी का क्षयोपशम या क्षय होने पर-देश चारित्र होता है। उदाहरणार्थ-जिसकी अप्रत्याख्यानी चौकड़ी का क्षय या क्षयोपशम नहीं हुआ है, उसने अगर तेला किया, तो वह तेला चारित्र के अंश रूप तप में अन्तर्गत नहीं होगा, अपितु अभिग्रह रूप होगा। इस प्रकार तप और संयम चारित्र के ही अंग होने से उनके संबंध में प्रश्न और उत्तर भी उसी प्रकार के होंगे, जो चारित्र के विषय में है।
किसी-किसी का कथन है कि दर्शन से भ्रष्ट होने वाला सिद्ध नहीं हो सकता, किन्तु चारित्रभ्रष्ट सिद्ध हो सकता है। अतएव चारित्र की अपेक्षा दर्शन अधिक वांछनीय है और दर्शन की अपेक्षा चारित्र सामान्य वस्तु है। यह कथन शास्त्रकार को स्वीकार नहीं है। अतएव जिनका ऐसा कथन है, उन्हें गौतम! स्वामी और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर में शिक्षा दी जाती है।