________________
[६५३ ]
द्वीन्द्रिय आदि जाव समान हे ? में ही नहीं आता। समझ में प्राने योग्य बात भी तो नहीं । है । भगवान ने संयतासंयत तिर्यंच पंञ्चेन्द्रिय को भी तीन ही क्रियाएँ बतलाई हैं, मगर तेरहपन्थी मनुष्य श्रावक को भी अव्रत की क्रिया लगाते हैं। अगर यह कहा जाय कि श्रावक स्वस्त्री का श्रागार रखता है, इसलिए वह अवती है. तो फिर भगवान् ने श्रावक को तीन ही क्रियाएँ क्यों वत. लाई हैं ? भगवान ने उसे अवत की क्रिया प्यों नहीं चतलाई? कदाचित् वे यह कहे कि श्रावक में पूर्ण रूप से श्रव्रत नहीं पाया जाता, इस लिए.अव्रत की क्रिया नहीं बतलाई गई है। उसमें तीन क्रिया पूरी है, चौथी अधूती है। श्रावक ने जितना त्याग किया है उतनावत में है, अतएव उसे चौथी क्रिया नहीं यतलाई । इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रावक ने अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपक्षम किया है, वह क्या कहलाया? थावक में एक देश व्रत होने से अगर अत्रत की क्रिया नहीं लगती तो माया की क्रिया भी नहीं लगनी. चाहिए क्योंकि श्रावक में माया भी एक देश से ही है। मगर माया की क्रिया तो दसवें गुणस्थान तक लगना कहा है। किञ्चित् लोभ रहने से भी प्रिया बतलाई है, फिर एक देश से चौथी क्रिया लगने पर भी श्रावक को प्रनत क्रिया क्यों नहीं बताई ?
तेरहपन्थी पूछते हैं-श्रावक ने जितने अंशों में त्याग किया है, उतने अंशों में व्रत.है, मगर जितने अंशों में त्याग नहीं किया, उतने अंश किसमें गिनने चाहिए। इसका उत्तर यह है कि त्यागने से जो शेष रह गया है वह परिग्रह में शामिल है, क्योंकि श्रावक में परिग्रहि की किया विद्यमान है। इस विषय का विशेष विचार 'सद्धर्ममण्डन' नामक ग्रन्थ में किया गया है।