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________________ श्रीभगवती सूत्र [३४६] तो बढ़ जाएँ । यही कारण है कि शास्त्रकार ने पहले के चार पदों को एकार्थक बतलाकर भी, अंत के पांच पदों को अलग अनेकार्थक बतलाया है। तात्पर्य यह कि 'छिज्जमाणे हिरणे' से लगाकर 'निजरिज्जमाणे निज्जिरणे' तक के पांच पद भिन्न-भिन्न व्यंजन वाले, विभिन्न घोप वाले और भिन्न-भिन्न अर्थ चाले हैं। यह वात विगत पक्ष की अपेक्षा से कही गई है। यहां इन पांच पदों का जरा विस्तार से विचार किया जाता है। अंतिम पाँच पदों में 'छिज्जमाणे छिरणे' यह प्रथम पद है । यह पद कर्मों की स्थिति की अपेक्षा से है। केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने के अनन्तर, तेरहवें गुणस्थान वाले सयोग केवली, जब अयोग केवली होने वाले होते हैं, मन, वचन, काय के योग को रोक कर अयोगी अवस्था में पहुंचने के उन्मुख होते हैं, तब वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म की जो प्रकृति शेष रहती है, उसकी लम्बे काल की स्थिति को सर्वापवर्तन नामक करण द्वारा अन्तर्मुहूर्त की स्थिति बना डालते हैं। अर्थात् लम्बी स्थिति को छोटी कर लेते हैं। यही कर्मों का छेदन करना कहलाता है। । यद्यपि कर्मों का यह छेदन असंख्यात समयों में होता । है लेकिन प्रथम समय में ही, जब छेदन-क्रिया होने लगी तभी छौजे-छिन्न हुए, ऐसा कहना चाहिए। कर्मों के छेदन होने में और भेदन होने में अंन्तर है। छेदन स्थिति बंध के आश्रित हैं और भेदन अनुभागवंध के .. के आश्रित हैं। स्थिति का छेदन होना 'छिजमाण'. होना
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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