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________________ [३४५] एकार्थ-अनेकार्थ इस प्रकार यह चारों पद आत्मप्रदेश से कर्मों को हटा देते हैं, तब केवलज्ञान प्रकट होता है। केवलज्ञान के इस उत्पन्न पक्ष को ग्रहण करके ही इन चारों पदों को एकार्थक कहा है। टीकाकार आचार्य का कथन है कि यह व्याख्या 'भगवती-सूत्र की प्राचीन टीका के आधार पर की गई है। अन्य श्राचार्यों का अभिप्राय इस संबंध में भिन्न प्रकार का है। उनका कथन है कि यह चार पद स्थितिबंध-विशेष रहित अर्थात् सामान्य कर्म के आश्रित होने से एकार्थक हैं और केवलज्ञान की उत्पत्ति के साधक हैं । एक ही अन्तर्मुहूर्त में, यह केवलज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार करते हैं। अतएव ' इन्हें एकार्थक कहा गया है। · प्रश्न-पहले के चार पदों को एकार्थक बतलाने से ही यह सिद्ध हो जाता है कि शेष अंत के पाँच पद अनेकार्थक हैं। फिर उन्हें अलग अनेकार्थक क्यों कहा है ? • उत्तर-सूत्र की रचना दो प्रकार से होती है-एक विद्वत्तापूर्वक, दूसरी दयापूर्वक । विद्वत्तापूर्वक जो रचना होती है उसमें संक्षेप का वहुत ध्यान रखना पड़ता है। वही अर्थ कायम रहे और रचना में एक मात्रा की कमी हो जाय तो ऐसे लेखकों को इतनी खुशी होती है, मानों पुत्र की उत्पत्ति हुई हो । 'एकमात्रा लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः' यह कथन प्रसिद्ध है । मगर ऋषियों की रचना इस दृष्टि से नहीं रची जाती। वे अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करने के लिए रचना में संक्षेप करने की आवश्यकता नहीं समझते । अल्प से अल्प बुद्धि वाला भी जिस प्रकार वस्तु-तत्त्व को समझ सके, उसी प्रकार का यत्न वे करते हैं । चाहे अक्षर बढ़ जाएँ
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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