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________________ [५३२ श्री भगवती सूत्र . . ही आता है, मंगर उपकार की दृष्टि से पहले. सम्यग्ज्ञान क ही उल्लेख किया जायगा । मेघ हटने पर सूर्य जव उदित होत है तो उसका प्रताप.और प्रकाश एक साथ ही प्रकट होता है उसी प्रकार जब मिथ्यात्वमोहनीय रूपी मेघ पटल का विनाए होता है तब सम्यग्दर्शन और सस्यग्ज्ञान एक ही साथ प्रात्म में प्रकट होते हैं। उनमें क्रम की कल्पनानहीं की जा सकती। इसी प्रकार जान और दर्शन लहभावी हैं। जहाँ ज्ञान है, वहाँ दर्शन है, जहाँ दर्शन है वहाँ जान भी है। ऐसा होने पर भी ज्ञान को सम्यक् बनाने वाला दर्शन है। अतएव कहीं-कहीं दर्शन को प्रथम स्थान दिया गया है। मगर ज्ञान के विना श्रद्धा (सम्यक्त्व ) नहीं जानी जा सकती, इसलिए ज्ञान की महत्ता प्रदर्शित करने के लिए यहाँ उसे प्रथम स्थावदिया गया है। : अव चारित्र का प्रश्न उपस्थित होता है। गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! चारित्र ऐहभविक हैं, पारभविक है या लभयभविक है ? भगवान् इसका उत्तर देते हैं-गौतम ! चारित्र इसी अव में रहता है, परभव में साथ नहीं जाता। . चारित्र की ही तरह तप और संयम का भी प्रश्नोत्तर है । अर्थात् जैसे चारित्र परभव में साथ नहीं जाता, उसी प्रकार तप और संयम भी नहीं जाता। . . . चारित्रवान पुरुष, इस भव में जिस चारित्र से चारित्री हुआ था, परभव में भी इसी चारित्र से चारित्री हो या वही चारित्र परलोक में भी सार्थ जाय, यह बात नहीं है। इसी कारण चारित्र धारण करते समय यावज्जीवन की प्रतिज्ञा ली जाती है, जन्मान्तर की नहीं । चारित्र की अवधि, . मृत्यु हो जाने पर पूर्ण हो जाती है। ..
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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