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________________ श्रीभगवती सूत्र [३६२] अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी सदृश धर्म को आधार मानकर अभेद और विसदृश धर्म को प्राधार बनाकर भेद की कल्पना करता है, क्योंकि वस्तुओं में अनेक सदृश और विसदृश धर्म विद्यमान हैं। यहाँ व्याघ्न्या की सुगमता के लिए चौवीस भेदों की कल्पना की गई है, यद्यपि इससे भी कम या अधिक की कल्पना की जा सकती है और अन्यत्र की भी गई है। यहाँ इन चौवीस भेदों को दण्डक इसलिए कहा है कि इन स्थानों में रहकर आत्मा ने घोर कष्ट सहन किये हैं। यह चौवीस दण्ड के स्थान हैं। अनादि काल से अब तक आत्मा इनमें निवास करके दण्ड भोग रहा है। यद्यपि इस जन्म में कुछ सुख मिला है, लेकिन वह सुख, स्थायी शान्ति देने वाला नहीं है, अतएव इसे भी दण्डक कहा है । आत्मा ने नरक आदि पर्यायों में रहकर किस प्रकार दु:खमय स्थिति भोगी है, इस बात को दिखाने के लिए ही शास्त्रकारों ने नरक आदि के भेद दिखलाये हैं । उनका विवरण क्रम से आगे किया जायगा। Sin
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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