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एकार्थ-अनेकार्थ यहाँ मोक्ष-विचार का प्रकरण है अतः कर्मों को जलाना अर्थ ही मानना उचित है।
'चौथा पद है-'मिजमाणे मडे । अर्थात् जो मर रहा है वह मरा । इस पद से आयु कर्म के नाश का निरूपण किया गया है। अन्य पदों से इस पद का अर्थ भिन्न है। आयु कर्म के पुद्गलों का क्षय करना ही मरण है।
प्रत्येक योनि वाला संसारी जीव मरण करता है। संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, जिसे लगातार जन्ममरण न करना पड़ता हो । लेकिन यहाँ सामान्य मरण से अभिप्राय नहीं है। यहाँ उस मरण से तात्पर्य है कि जिसके पश्चात् फिर कभी जन्म-मरण न करना पड़े-अर्थात् वह मरण जो मोक्ष प्राप्त करने से पहले, एक बार करना पड़ता है। पहले बँधे हुए आयु कर्म का क्षय होजाय और नया श्रायु कर्म न बधे, यही मोक्ष का कारण है।
यद्यपि मरण असंख्यात समय में होता है, लेकिन पहले समय में ही जो मरने लगा, उसे 'मरा' कहा जा सकता है।
पाँचवा पद है-'निजरिजमाणे निजिरणे ।' समस्त कमों को अकर्म रूप में परिणत कर देना यहाँ निर्जरा करना कहा गया है । यह स्थिति संसारी जीव ने कभी नहीं प्राप्त की है। उसने कभी शुभ कर्म किये, कभी अशुभ कर्म किये, परन्तु समस्त कर्मों का नाश कभी नहीं किया । श्रात्मा के लिए यह स्थिति अपूर्व है। अतएव इस पद का अर्थ अन्य पदों से भिन्न है । इस प्रकार अन्त के पाँचों पद भिन्न-भिन्न अर्थ वाले हैं।