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. एकार्थ-अनेकार्थ
महाराज की सेवा में उपस्थित होकर इस दोष की आलोचना काँगा । आलोचना करने का संकल्प करके उसने गुरु महा-- राज की सेवा में प्रस्थान किया। किन्तु वहाँ पहुँचने से पहले ही-मार्ग में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। ऐसी स्थिति में दोष लगाने वाला वह मुनि अराधक कहलाएगा या नहीं?
भगवान् ने उत्तर दिया-आराधक होगा।
गौतम स्वामी ने फिर पूछा-अभी उसने आलोचना तो की ही नहीं है, फिर श्राराधक कैसे हो गया ?
भगवान् ने फरमाया-'चलमाणे चलिए' अर्थात् जो चलने लगा वह चला, इस सिद्धान्त के अनुसार वह मुनि
आराधक है । वह आलोचना करने चला, मगर कार्य पूर्ण न हुआ तो यह उसके अधिकार की बात नहीं है।
अगर 'चलमाणे चलिए' सिद्धान्त न माना जाय तो आराधक पद में भी कमी आ जायगी और इस प्रकार मोक्ष का भी प्रभाव हो जायगा।
इस प्रकार निश्चय नय की अपेक्षा जो चलने लगा वह चला, ऐसा मानना उचित है। लेकिन केवल निश्चय नय को ही मानकर बैठ रहने से और व्यवहार का त्याग कर देने से भी काम नहीं चल सकता। निश्चय और व्यवहार-दोनों का ही यथायोग्य आश्रय लेना चाहिए । एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाला नय ही सम्यक् होता है अन्य-निरपेक्ष नय एकांत रूप होने से मिथ्या है। एकान्त व्यवहारवादी परमार्थ से दूर रहता है और एकान्त निश्चयवादी भी परमार्थ तक नहीं पहुँच सकता। इसीलिए कहा है