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असंवृत अनगार अर्थात् ऋण से होने वाले दुःख की अपेक्षा भी अधिक दुःखदायी। जिसके सिर पर ऋण होता है, उसे शान्ति नहीं मिलती । कहावत है-'ऋणकर्ता पिता शत्रुः' अर्थात् ऋण (कर्ज) करने वाला पिता अपने पुत्र का शत्रु है। जिस पर ऋण होता है, उसे घोर दुःख होता है। उसकी स्थिति सदैव विगड़ी रहती है। वह घड़ी भर चैन नहीं लेने पाता। सदा संताप एवं प्रशान्त के कारण ऋणी को बड़ी व्यग्रता रहती है। अतएव यहाँ संसार का 'अपाइयं' विशेषण ऋणातीतम् है, जिसका अर्थ है-ऋण के दुःख से भी अधिक दुःख वाला। ऐसे संसार में असंवृत अनगार को भ्रमण करना है।
अपाइयं का चौथा अर्थ है-श्रणातीतम् । 'अण' का अर्थ 'पाप' है और प्रणातीत का अर्थ है-अतिशय पाप । सारांश यह है कि संसार में पाप तो अनेक है, मगर साधु होकर श्रास्रव का सेवन करना सब पापा से बढ़ कर पाप है, इसलिए असंवृत अनगार अतिशय पापरूप संसार में भ्रमण करता है।
संसार का दूसरा विशेषण है-श्रणवयग्गं । यहाँ 'अचयग्ग' शब्द देशी प्राकृत भाषा का है, जिसका अर्थ होता हैअन्त । इसमें निषेध वाचक 'श्रण लगा देने से 'श्रणवयग्ग' शब्द बना है । 'अणवयग्ग' का अर्थ अनन्त है।
अथवा 'अवयग्ग 'शब्द का अर्थ है जिसका अन्त समीप हो । उसमें निषेधवाची 'अण' लगा देने से यह अर्थ होता है जिसका अन्त समीप न हो।
. अथवा-'अणवयग्गं' का अर्थ 'अनवताग्रम् ' है। जिसका परिमाण ज्ञात न हो, जिसके अन्त का पता न चले, वह 'अनवतार' कहलाता है।