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________________ [५२१] दण्डकों में आत्मारम्भादि वर्णन नहीं होते। शेष आगे की तीन लेश्या वालों में यह भेद होते हैं । जहाँ लेश्या पद आवे वहाँ सिद्धों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में लेश्या नहीं होती। कृष्ण श्रादि द्रव्यों के निमित्त से जीव के जो परिणाम होते हैं, उन्हें लेश्या कहते हैं। कहा भी है:कृष्णादिद्रव्य साचिव्याव, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ प्राचार्य-रचित इस श्लोक का अर्थ यह है कि कृष्ण श्रादि द्रव्यों की सन्निकटता से आत्मा में जो परिणाम उद्भूत होते हैं, उसे लेश्या कहते हैं । जैसे स्फटिक के नीचे काले रंग की वस्तु रखने से स्फटिक काला दिखाई देता है, वैले ही लेश्या से आत्मा हो जाता है। लेश्यावाले जीवों का जहाँ निरूपण करना हो वहाँ 'संसारसमापनक और असंसारसमापनक भेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि लेश्या वाले संसारसमापनक ही होते हैं, असंसारसमापनक नहीं होते। , 'हे भगवन् ! क्या लेश्या वाले जीव आत्मारंभी है?" यह लेश्या का प्रश्न-क्रम है। इसी तरह के छह प्रश्न, छह लेश्याओं के संबंध में और समझ लेने चाहिए । अतः लेश्या संबंधी सात प्रश्न होते हैं। इनके उत्तर में कृष्ण, नाल और कापोत लेश्या में जीव-सामान्य के समान समझना चाहिए, सिर्फ प्रमादी और अप्रमादी के भेद छोड़ देने चाहिए । संयत,
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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