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श्रीभगवती सूत्र
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गनिर्वर्तित आहार का प्रकरण है। आभोगनिर्तित
आहार के अन्तर्मुहर्त में तीन भाग करने चाहिए। यह तीन भाग आदि,मध्य और अन्त के होंगे। आहार के भाग न करके काल के भाग करने चाहिए और काल के साथ
आने वाले आहार को आदि, मध्य और अवसान का समझो। इस प्रकार समझने से तनिक भी विरोध न होगा। ऋजुसूत्रनय यही कहेगा कि श्रादि का ही पाहार करना है, क्योंकि उसके हिसाब से जो काम में श्रा रहा है वह आदि ही है। किन्तु व्यवहार नय के मत से तीनों ही समयों में श्राहार कहा लाएगा। जैन शास्त्र किसी भी एक नय को स्वीकार न करके सभी नयों को स्वीकार करता है। यहाँ तक तेतीस द्वारों का वर्णन हुवा।
गौतम स्वामी-भगवन् ! जो श्रादि, मध्य और अन्त समय में आहार करता है वह स्त्रविषय में प्राहार करता है या अ-स्वविषय में श्राहार करता है? . भगवान् महावीर-हे गौतम! स्वविषयमें श्राहार करता है, अस्वविषय में नहीं करता।
स्वविषय क्या है ? और अस्वविषय किसे कहते हैं ? . इसका उत्तर यह है कि अपना स्पृष्ट, अवगाढ़ और अनन्त. रावगाढ़ रूप विषय, स्वविषय कहलाता है अर्थात् ऐसे पुद्गलों का श्राहार करना स्वविषय कहलाता है और इससे विपरीत अस्वविषय कहलाता है।
गौतम स्वामी-भगवन् ! स्वविषय में जिन पुद्गलों का आहार नारकी करते हैं, वह श्रानुपूर्वी ले या विना ही आनुपूर्वी से ? अर्थात् क्रम से या अक्रम से ? ' .