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श्रीभगवती सूत्र
[४००] ख्यात भाग का आहार करता है, इसका अभिप्राय यह है कि असंख्यातवाँ भाग शरीर रूप में परिणत होता है।
श्राहार के जो पुद्गल ग्रहण किये हैं, उनका अनन्त भाग श्रास्वाद में आता है, अर्थात् गृहीत पुद्गलों के अनन्तवें भाग का रस रूप में रसना इन्द्रिय श्रास्वादन कर सकती है। मान लीजिए, किसी ने मिश्री की डली मुँह में रक्खी । उस डली पर जीभ फिरी, उसका स्वाद आया। मगर डली का भीतरी भाग अछूता ही रह गया-उसका पास्वादन नहीं हुपा। इस प्रकार जीभ ऊपर का आस्वाद ले सकती है, भीतर का उसे पता नहीं चलता। अतएव वह अनन्तवें भाग पुद्गलों के रस का ही श्रास्वादन कर सकती है, सब का नहीं। इसी कारण यह कहा गया है कि अनन्तवें भाग का प्रास्वादन होता है । यहाँ तक अड़तीस द्वारों का विवेचन हुआ।
अब संग्रह-गाथा के 'सव्वाणि' पद की व्याख्या प्रारंभ की जाती है । गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! नारकी जीव जिन पुद्गलों को शरीर रूप में परिणत करते हैं, क्या वे. सव पुद्गलों का आहार करते हैं या एक देश का आहार करते हैं ? . .
भगवान् उत्तर देते हैं-गौतम ! समस्त पुद्गलों का । आहार करते हैं।
. तात्पर्य यह है कि नारकी जीवों ने आहार के जिन पुद्गलों को शरीर के रूप में परिणत किया है, उन सब का आहार वे करते हैं । यहां सब पुद्गल कहने से विशिष्ट पुद्