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१७ वाँ वर्ष
भावनाबोध
(द्वादशानुप्रेक्षा-स्वरूपदर्शन)
उपोद्घात
सच्चा सुख किसमें है ? चाहे जैसे तुच्छ विषयमे प्रवेश होनेपर भी उज्ज्वल आत्माओकी सहज प्रवृत्ति वैराग्यमे जुट जाने की होती है। बाह्य दृष्टिसे जब तक उज्ज्वल आत्मा ससारके मायिक प्रपंचमे दिखायी देते हैं तब तक इस कथनकी सिद्धि कदाचित् दुर्लभ है, तो भी सूक्ष्म दृष्टिसे अवलोकन करनेपर इस कथनका प्रमाण सर्वथा सुलभ है, यह निःसशय है।
एक छोटेसे छोटे जन्तुसे लेकर एक मदोन्मत्त हाथी तक सभी प्राणी, मनुष्य और देवदानव इन सवकी स्वाभाविक इच्छा सुख और आनद प्राप्त करनेकी है। इसलिये वे उसकी प्राप्तिके उद्योगमे जुटे रहते हैं, परतु विवेक बुद्धिके उदयके बिना वे उसमे विभ्रमको प्राप्त होते है । वे ससारमे नाना प्रकारके सुखोका आरोप करते है । अति अवलोकनसे यह सिद्ध है कि वह आरोप वृथा है। इस आरोपको अनारोप करनेवाले विरले मनुष्य विवेकके प्रकाश द्वारा अद्भुत परन्तु अन्य विषयको प्राप्त करनेके लिये कहते आये है । जो सुख भयवाले हैं वे सुख नही है परन्तु दु ख है। जिस वस्तुको प्राप्त करनेमे महाताप है, जिस वस्तुको भोगनेमे इससे भी विशेष ताप है, तथा परिणाममे महाताप, अनन्त शोक और अनन्त भय है, उस वस्तुका सुख मात्र नामका सुख है, अथवा है ही नही। इसलिये विवेकी उसमे अनुरक्ति नहीं करते । संसार के प्रत्येक सुखसे विराजित राजेश्वर होनेपर भी, सत्य तत्त्वज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होनेसे, उसका त्याग करके योगमे परमानन्द मानकर सत्य मनोवीरतासे अन्य पामर आत्माओको भर्तृहरि उपदेश देते हैं कि
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभय वित्ते नृपालाद्भयं, माने दैन्यभय बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयम्। " शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं,
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ भावार्थ-भोगमे रोगका भय है, कुलमे पतनका भय है, लक्ष्मीमे राजाका भय है; मानमे दीनता का भय है, बलमे शत्रुका भय है, रूपसे स्त्रीको भय है। शास्त्रमे वादका भय है, गुणमे खलका भय है, और काया पर कालका भय है, इस प्रकार सभी वस्तुएँ भयवाली है, एकमात्र वैराग्य ही अभय है ।।।
महायोगी भर्तृहरिका यह कथन सृष्टिमान्य अर्थात् सभी उज्ज्वल आत्माओको सदैव मान्य रखने योग्य है। इममे सारे तत्त्वज्ञानका दोहन करनेके लिये इन्होने सकल तत्त्ववेत्ताओंके सिद्धातरहस्यरूप और संसारशोकका स्वानुभूत तादृश चित्र प्रस्तुत किया है। इन्होंने जिन-जिन वस्तुओपर भयकी छाया प्रदर्शित