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श्रीमद राजचन्द्र
मोक्षके साधन जो सम्यक्दर्शन आदि है उनमे 'ध्यान' गर्भित है । इसलिये ध्यानका उपदेश अब प्रकट करते हुए कहते हैं- "हे आत्मन् । तू ससारदु खके विनाशके लिये ज्ञानरूपी सुधारसको पी और ससारसमुद्रको पार करनेके लिये ध्यानरूप जहाजका अवलबन कर । [ अपूर्ण ]
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बबई, माघ, १९४६
कुटुम्वरूपी काजलको कोठरीमे रहनेसे ससार बढता है । चाहे जितना उसका सुधार करें, तो भी एकान्तवाससे जितना ससार क्षय होनेवाला है उसका सौवाँ हिस्सा भी उस काजलगृहमे रहने से नही होनेवाला है । वह कषायका निमित्त है, मोहके रहनेका अनादिकालीन पर्वत है । वह प्रत्येक अतर गुफामे जाज्वल्यमान है । सुधार करते हुए कदाचित् श्राद्धोत्पत्ति' होना संभव है, इसलिये वहाँ अल्पभाषी होना, अल्पहासी होना, अल्प परिचयी होना, अल्पसत्कारी होना, अल्पभावना बताना, अल्प सहचारी होना, अल्पगुरु होना, परिणामका विचार करना, यही श्रेयस्कर है ।
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बबई, माघ वदी २, शुक्र, १९४६ आपका पत्र कल मिला । खम्भातवाले भाई मेरे पास आते है । मैं उनकी यथाशक्ति उपासना करता हूँ। वे किसी तरह मताग्रही हो ऐसा अभी तक उन्होने मुझे नही दिखलाया है । जीव धर्मजिज्ञासु मालूम होते हे । सत्य केवलीगम्य ।
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आपका आरोग्य चाहता हूँ । आपकी जिज्ञासाके लिये मै निरुपाय हूँ । व्यवहारक्रमको तोडकर मैं कुछ भी नही लिख सकता यह आपको अनुभव है, तो अब क्यो पुछवाते हो आपकी आत्मचर्या शुद्ध रहे ऐसी प्रवृत्ति करें । जिनेन्द्रके कहे हुए पदार्थं यथार्थ ही है । अभी यही विज्ञापन ।
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महावीरके बोधका पात्र कौन ?
१ सत्पुरुषके चरणोका इच्छुक, २ सदैव सूक्ष्म बोधका अभिलाषी,
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३ गुणपर प्रशस्त भाव रखनेवाला,
४ ब्रह्मव्रतमे प्रीतिमान,
५ जब स्वदोष देखे तब उसे दूर करनेका उपयोग रखनेवाला,
६ एक पल भी उपयोग पूर्वक बितानेवाला,
७ एकातवासकी प्रशसा करनेवाला,
८ तीर्थादि प्रवासका उमगी,
बबई, फागुन सुदी ६, १९४६
९ आहार, विहार और निहारका नियम रखनेवाला,
१० अपनी गुरुताको छिपानेवाला,
ऐसा कोई भी पुरुष महावीरके बोधका पात्र है, सम्यग्दशाका पात्र है । पहले जैसा एक भी
नही है ।
? 'श्राद्ध' अर्थात् श्रावक धर्म और 'उत्पत्ति' अर्थात् प्रगटता ।