________________
३० वाँ वर्ष
जब तक चित्तमे दूसरा भाव हो तब तक यदि यह प्रदर्शित करें कि आपके सिवाय दूसरे में मेरा कोई भी भाव नही है तो यह वृथा ही है और कपट है । और जब तक कपट है तब तक भगवानके चरणो मे आत्मार्पण कहाँसे हो ? इसलिये जगतके सभी भावोसे विराम प्राप्त करके, वृत्तिको शुद्ध चैतन्य भावयुक्त करनेसे ही उस वृत्तिमे अन्यभाव न रहनेसे शुद्ध कही जाती है और वह निष्कपट कही जाती है। ऐसी चैतन्यवृत्ति भगवानमे लीन की जाये वही आत्मार्पणता कही जाती है।
धन-धान्य आदि सभी भगवानको अर्पित किये हो, परन्तु यदि आत्मा अर्पण न किया हो अर्थात् उस आत्माकी वृत्तिको भगवानमे लीन न किया हो तो उस धन-धान्य आदिका अर्पण करना सकपट ही है, क्योकि अर्पण करनेवाला आत्मा अथवा उसकी वृत्ति तो अन्यत्र लीन है। जो स्वय अन्यत्र लीन है उसके अर्पण किये हुए दूसरे जड पदार्थ भगवानमे कहाँसे अर्पित हो सकेंगे? इसलिये भगवानमे चित्तवृत्तिको लीनता ही आत्म-अर्पणता है, और यही आनदघनपदकी रेखा अर्थात् परम अव्याबाध सुखमय मोक्षपदकी निशानो है। अर्थात् जिसे ऐसी दशाको प्राप्ति हो जाये वह परम आनदघनस्वरूप मोक्षको प्राप्त होगा। ऐसे लक्षण ही लक्षण है ॥६॥
ऋषभजिनस्तवन सपूर्ण। प्रथम स्तवनमे भगवानमे वृत्तिके लीन होनेरूप हर्प बताया, परन्तु वह वृत्ति अखड और पूर्णरूपसे लीन हो तो ही आनंदघनपदकी प्राप्ति होती है, जिससे उस वृत्तिकी पूर्णताको इच्छा करते हुए आनदघनजी दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथका स्तवन करते है। जो पूर्णताकी इच्छा है, उसे प्राप्त होनेमे जो जो विघ्न देखे उन्हे आनदघनजी सक्षेपमे इस दूसरे स्तवनमे भगवानसे निवेदन करते है, और अपने पुरुषत्वको मद देखकर खेदखिन्न होते है, ऐसा बताकर, पुरुषत्व जाग्रत रहे ऐसी भावनाका चिंतन करते है।
हे सखी | दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भगवानने पूर्ण लीनताका जो मार्ग प्रदर्शित किया है अर्थात् जो सम्यक् चारित्ररूप मार्ग प्रकाशित किया है वह, देखता हूँ, तो अजित अर्थात् जो मेरे जैसे निर्बल वत्तिके मुमुक्षुसे जीता न जा सके ऐसा है, भगवानका नाम अजित है वह तो सत्य है, क्योकि जो बडे बडे पराक्रमी पुरुष कहे जाते है. उनसे भी जिस गुणोके धामरूप पथका जय नही हुआ, उसका भगवानसे जय किया है, इसलिये भगवानका अजित नाम तो सार्थक ही है। और अनत गुणोके धामरूप उस मार्गको जीतनेसे भगवानका गुणधामत्व सिद्ध है। हे सखी । परन्तु मेरा नाम पुरुष कहा जाता है, वह सत्य नही है। भगवानका नाम अजित है। जैसे वह तद्रूप गुणके कारण है वसे मेरा नाम पुरुप तद्रूप गुणके कारण नही है। क्योकि पुरुष तो उसे कहा जाता है कि जो पुरुषार्थसहित हो-स्वपराक्रमसहित हो, परन्तु मैं तो वैसा नही है। इसलिये भगवानसे कहता हूँ कि हे भगवान | आपका नाम जो अजित हे वह तो सच्चा है. परन्तु मेरा नाम जो पुरुष है वह तो झूठा है। क्योकि आपने राग, द्वेप, अज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषोका जय किया है, इसलिये आप अजित कहे जाने योग्य हैं, परन्तु उन्ही दोपोने मुझे जीत लिया है, इसलिये मेरा नाम पुरुष कैसे कहा जाये ? ॥१॥
हे सखी । उस मार्गको पानेके लिये दिव्य नेत्र चाहिये । चर्मनेत्रोंसे देखते हुए तो समस्त ससार १ दूसरा श्री अजितजिनस्तवन
पथडो निहाळु रे वीजा जिन तणो रे, अजित अजित गणधाम । जे तें जीत्या रे तेणे हु जोतियो रे, पुरुष किश्यं मुज नाम ? ॥ पवडो० १ चरम नयण करी मारग जोवता रे, भल्यो सयल ससार । जेणे नयणे करी मारग जोविये रे, नयण ते दिव्य विचार ।। पयडो० २
----
mra/.animan