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श्रीमद् राजचन्द्र
'सुन्दरविलास' सुन्दर, अच्छा ग्रन्थ है। उसमे कहां कमी, भूल हे उसे हम जानते हैं। वह कमी दूसरेकी समझमे आना मुश्किल है। उपदेशके लिये यह ग्रन्थ उपकारी है।
छः दर्शनोपर, दृष्टात-छ भिन्न भिन्न वैद्योकी दुकान है। उनमे एक वैद्य सम्पूर्ण सच्चा है। वह सब रोगोको, उनके कारणोको और उनके दूर करनेके उपायोको जानता है। उसका निदान एवं चिकित्सा सच्चे होनेसे रोगीका रोग निर्मल हो जाता है। वैद्य कमाई भी अच्छी करता है । यह देखकर दूसरे पाँच कूटवैद्य भी अपनी-अपनी दुकान खोलते हैं। उसमे जितनी सच्चे वैद्यके घरकी दवा अपने पास होती है उतना तो रोगीका रोग वे दूर करते हैं, और दूसरी अपनी कल्पनासे अपने घरकी दवा देते हैं, उससे उलटा रोग वढ जाता है, परन्तु दवा सस्ती देते है इसलिये लोभके मारे लोग लेनेके लिये बहुत ललचाते हैं, और उलटा नुकसान उठाते हैं।
इसका उपनय यह है कि सच्चा वैद्य वीतरागदर्शन है, जो सम्पूर्ण सत्य, स्वरूप है। वह मोह, विपय आदिको, रागद्वेपको, हिंसा आदिको सम्पूर्ण दूर करनेको कहता है जो विषयविवश रोगीको महँगा पड़ता है, अच्छा नही लगता। और दूसरे पाँच कूटवैद्य है वे कुदर्शन हैं, वे जितनी वीतरागके घरकी - बातें करते हैं उस हद तक तो रोग दूर करनेकी बात है, परन्तु साथ साथ मोहकी, ससारवृद्धिकी, मिथ्यात्वकी, हिंसा आदिकी धर्मके बहानेमे बात करते है, वह अपनी कल्पनाकी है, और वह ससाररूप, रोग दूर करनेके बदले वृद्धिका कारण होती है। विषयमे आसक्त पामर ससारीको मोहकी बाते तो मीठो लगती है, अर्थात् सस्ती पडती हैं, इसलिये कूट वैद्यकी तरफ आकर्षित होता है, परन्तु परिणाममे अधिक रोगी हो जाता है।
वीतरागदर्शन त्रिवेद्य जैसा है, अर्थात् (१) रोगीका रोग दूर करता है (२) नोरोगीको. रोग होने नही देता, और (३) आरोग्यकी पुष्टि करता है। अर्थात् (१) सम्यग्दर्शनसे जीवका मिथ्यात्व रोग दूर करता है, (२) सम्यग्ज्ञानसे जीवको रोगका भोग होनेसे बचाता है और (३) सम्यक चारित्रसे सम्पूर्ण . शुद्ध' चेतनारूप आरोग्यकी पुष्टि करता है।'
स० १९५४ - जो सर्व वासनाका क्षय करता है वह सन्यासी है । जो इन्द्रियोको काबूमे रखता है वह गोसाई है। जो ससारका पार पाता है वह यति (जति) है।
समकितीको आठ मदोमेसे एक भी मद नही होता।
(१) अविनय, (२) अहकार, (३) अर्धदग्धता-अपनेको ज्ञान न होते हुए भी अपनेको ज्ञानी मान बैठना, और (४) रसलुब्धता--इन चारमेसे एक भी दोष हो तो जीवको समकित नहीं होता, ऐसा श्री 'ठाणागसूत्र'मे कहा है ।-:.-... ,
मुनिको व्याख्यान करना,पडता हो तो स्वय स्वाध्याय करता है ऐसा भाव रखकर व्याख्यान करे । मुनिको मवेरे स्वाध्यायकी आज्ञा है, उसे मनमे ही क्यिा जाता है, उसके बदले व्याख्यानरूप स्वाध्याय ऊंचे स्वरसे, मान, पूजा, सत्कार, आहार आदिको अपेक्षाके बिना केवल निष्काम बुद्धिसे, आत्मार्थके, . लिये करे। .. .. ., :..
.:., . ... क्रोध आदि कषायका उदय हो, तव उसके विरुद्ध होकर उसे बताना ;कि तूने मुझे अनादि कालसे हैरान किया है। अब मैं इस तरह तेरा बल नहीं चलने दूंगा । देख, अब मैं तेरे विरुद्ध युद्ध करने बैठा हूँ।
निद्रा आदि प्रकृति, -(क्रोध आदि-अनादि वैरी ), उनके प्रति, क्षत्रियभावसे वर्तन करें, उन्हे अपमानित करें, फिर भी न मानें तो उन्हे क्रूर बनकर शात करें, फिर भी न, मानें तो ख्यालमे रखकर,