Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1062
________________ परिशिष्ट ६-विषयसूची ९२९ आँखमे चमकाग १७०, दिनचर्या १७०; oमैं के प्रति उपशात वृत्ति ६४७, सहज दशा ८०५, किसी गच्छमे नही, आत्मामे हूँ १७२; प्रतिमासिद्धि स्वात्मवृत्तात काव्य-धन्य रे दिवस आ अहो ८१६१७५, ० प्रणाम करने लायक ही हूँ १७९, ०व्यव- ७, ०वैश्यवेश और निग्नन्य भावसे स्थिति ८१८, हारशुद्धि १८१, ०समीप ही हूँ १८६, ०स्त्रो ०मौनदशा लोगोके लिये कपायका निमित्त ८१९ सम्बन्धी विचार १९७-८, दुखी मनुष्योका श्रीमान् पुरुषोत्तम २४०, २४१ सिरताज १९९; गृहाश्रम सम्बन्धी विचार २००- श्रुतज्ञान ७५७, ०ठेठ तक अवलम्बन भूत ४६१, ५७८, १, २१८, ०समुच्चयवयचर्या २०५, जूठाभाईके ५८०, ६२१-२ मरणकी पूर्वसूचना २२०, जैनधर्मके आग्रहसे मोक्ष श्वासजय १९०, १९३ नही २२१, परिभ्रमण न करनेके प्रत्याख्यान श्वेताम्वर वृत्ति ४१३, ६२३, ७७९, ७९२, ७९८ २२५, ०एक परमार्थका ही मनन २२७, ०'केवल- पट्चक्र ७७३ ज्ञान हवे पामशु' २३४; ०रेवाशकरसे कैसे व्यवहार पड्दर्शन ५२८, ८१८, ०पर दृष्टात ६९० करना ? २३७-८; ०हे सहजात्मस्वरूपी । २४५, सकामनिर्जरा ७५० केवलज्ञान तकका परिश्रम व्यर्थ नही २४८, सज्जनता ३० आत्माने ज्ञान पा लिया यह नि सशय २५१, सजीवनमूर्ति, °से मार्गप्राप्ति २७१ दृढ़ विश्वाससे मानिये कि २५४, ०अमृतके सत् २४९, २६९, २७०, २७३, २७५, ३०५, ३४५, नारियलका पूरा वृक्ष २५८, मुमुक्षुओकी चरण- की प्राप्तिको जिज्ञासा २८४ सेवाकी ही इच्छा २६०, कोई माधव ले २६६; सत्पुरुष १७२, ३०५, ४०२, ४०५, ६८९, ६९८, ०का ०यम से भी अधिक सग दु खदायक २७४, ० अथाह समागम अमूल्य लाभ १७०, ०के अन्तरात्मामें मर्म वेदना, साता पूछने वाला नही २८७; हम देह- १८५, ०के चरणकमलमे सर्वभावअर्पणतासे मोक्ष घारी हैं या नहीं यह भी मुश्किल से जान पाते हैं १९६; ०को पुराणपुरुपसे अधिक महत्ता २७२, ०को २९२; सर्व हरिमय २९४-६; ०देह होते हुए भी शरण औषधरूप २७३, मूर्तिमान मोक्ष २८९, पूर्ण वीतराग ऐसा निश्चल अनुभव ३२६, हमने में परमेश्वरबुद्धि २९१, ०के प्रति व्यावहारिक कर्म बाँधे इसलिये हमारा दोष ३२८, ०आत्मभाव कल्पना कैसे दूर हो ? ३२५, ०के सम्प्रदायको से जन्म न लेने की प्रतिज्ञा ३४२, ०अशरीरी भाव सनातन करुणावस्था ३७०, ०की पहचानका फल से हमारी आत्मस्थिति, भावनयसे सिद्धत्व ३६१, ४२६, ०की वाणी विषयकपायके अनुमोदनसे आत्मिक बधनसे हम ससारमें नही ३६२, हममे रहित ६२०; ०का योग शीतलवृक्षकी छाया मार्गानुसारिता, अज्ञानयोगिता नही ३८१, ०सर्वके समान ६२४, ०के वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम प्रति समदृष्टि ३९०, प्रभावना हेतुमें प्रवृत्ति क्यो ६४५, ०का ययार्थ स्वरूप ६९७-८, ०की पहचान नहीं ? ४२५, सर्व सग वडा आस्रव है यह अनु- कैसे हो? ७३२, ०कसे है ? ७४० (देखें ज्ञानी भव सिद्ध ४४७, ०लग्न प्रसग; बाह्य आडवर पुरुष, सद्गुरु) नही ४५२, ०लोगोको मदेह हो ऐसे वाह्य व्यवहार- सत्य १३८, ३१४, ३३०, ७९१, सृष्टिका आधार के उदयमे उपदेश देना मागंके विरोध जैसा ४६४, ७६; के भेद ६८७-८, वोलना सहज ७३७ दूसरे श्री राम अथवा श्री महावीर ५०५-६, सत्शास्य (सल्युत) ६२२, ६२९, ६३२, ६४० छोटी उमर मे मार्ग का उद्धार करने को नभि- सत्सग ७७, २६४, २८९, ३८२, ३८९, ४००, ४२९. लापा और अपनी योग्यता ५२५-६, भीष्मवतका ४७६, ४२१, ६२४, भावमे क्या रिना ? वारवार स्मरण ६१९; मेरी चित्तवृत्तियां इतनी २९७, कल्याण का बलवान कारण ३३८, ०काम शात हो जाये ६३८, तप्त हृदयसे और सात जलानेका बलवान उपाय ४२०, र निपाल आत्माने सहन करनेमे हर्ष ६३९, माघ प्रताप- ४३१, ४७६, ०ल्पी रत्यक्षा ६६४, से समता

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