Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1061
________________ ९२८ रमता ३७४ राग ९२, ० मोक्षमें विघ्नरूप २३३ रात्रिभोजन, त्यागवत ८०, ०के दोप ७११ रुचक प्रदेश २२९ लक्ष्मी १९, ७०, ० अघता देती है १६९, ०का उपार्जन व्यवहारशुद्धिपूर्वक १८१ लब्धि ६५७-८ ७०९, ७१४ लेश्या ५८० श्रीमद राजचन्द्र लोक, ०स्वरूप भावना ५८, ० पुरुषाकार २१३, ०का स्वरूप ५१५-६, ५९७, ०का स्वरूप आलंकारिक भाषा में ६५४ लोकलाज-कहाँ छोडना और कहाँ रखना ? ७१४ लोकोपकार ६५७, ६८४ लोच क्यो ? ७४२ लौकिक अभिनिवेश ५०२ लौकिक दृष्टि ५१९, ५२१, ० और ज्ञानीकी दृष्टिमे अन्तर ६२४ वचनामृत १५६-६१ वचनावली २६५-६ वर्णाश्रमधर्मं ५३३ वचनाबुद्धि ४३० वाणीका सयम ३९५ वासित बोध ६७६ विकल्प ५८० विक्षेप ३७९, ६२९ विचार, ०दशा ४४१, मार्ग ३११, ०योग ५०४ विज्ञान ५८० विद्या ३९७, ७५७ विनय, ० से तत्त्वसिद्धि ८३, ०मार्ग ५४३ विपर्यासबुद्धि ४१४ विभाव ७७२, ०दशा ६५९, ०योग ८१९ विरति ७६१-२, ०ज्ञानका फल ५७९ विवेक ८०, ९७, ०ज्ञान ४५९ वीतराग, • देव क्यो पूज्य ? ६८३-४; ०घर्मं पूर्ण सत्य ४१३, ६५४, ०के वचन पूर्ण प्रतीति योग्य ४७०, ८२४, ० दर्शन (देखें जैनदर्शन), ०सयम ७१८ वीर्य, भेद-प्रभेद २३३, ०दो प्रकारसे प्रवर्तन ७९६-७ वृत्ति, सक्षेप ४१८, ५२३; ०का क्षय ७००; ०कैसे ठगती हैं ? ७०१, ०को रोकेँ ७३५ वृद्धावस्थाका स्वरूप १८, २३५-६ वेद ४३५ वेदकता ३७५ वेदक सम्यक्त्व ५२७, ७३३, ७७७ वेदना ७९०-१, ०को देहका घर्म मानकर सम्यक् प्रकारसे सहन करना ३८५, ० वेदते विषमभाव होना अज्ञानका लक्षण ४१७, ०पर औषघकी उपकारिता ६०९-११, ० में आत्मार्थीका अनुप्रेक्षण ६६२, ०परम निर्जरारूप ६६५ वेदनीय कर्म ७८८, ७९०, ७९२, ७९५ वेदात ओर जैनधर्मकी तुलना १३४, ४२१, ४६९, ४७०, ५१८, ७५८ वैराग्य २२४, २८४, ४१४, ४५९, ४९७, ५२३, ७७६, ५३५; ०का बोध क्यो दिया ? ९८, ०धर्मका स्वरूप १०१, ० मोहगर्भित ७०७ व्रत ६८५, ७२२; ० निर्दम्भतासे ६९८, ०करना या नही ? ७३०, ०के प्रकार ७३८ व्यवहार, ०काल ५१५- ६, ०धर्म ६६, ० सत्य ६८७ - ९, • सम्यक्त्व ७२१, ०सयम ४९७, ०शुद्धि १८१ व्याख्यान, किस लक्ष्य से ? २६४, ४९९, ५००, ५३२, ६९० शम २२९, ७२९ शास्त्र १८५, २२९, ६७४, ० योग्यता वगर शस्त्र ३६७, ०की रचना क्यो ? ७१२ शास्त्रीय अभिनिवेश ४९६ शाति ३९८ शिथिल कर्म ४० ३ शुक्लध्यान १९०, ६४३ शुष्क, ०अध्यात्मी ३६७, ७१७, ०क्रिया ३६७, ०ज्ञानी ५३५, ५३७, ०ज्ञान ६५९ शैलेशीकरण ७७६ शौचाशौचस्वरूप १००, २९० श्रावक ७४२, ७९५ श्रीमद् - नित्यस्मृति १५; सुख सम्बन्धी विचार १०८, दूसरा महावीर १६७, ०परमेश्वर ग्रह १६७, • लक्ष्मी पर प्रीति न होनेपर भी १६९, ०बायी

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