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श्रीमद राजचंद्र
(मूल गुजरातीका हिंदी अनुवाद )
जिसने आत्माको जाना उसने सब जाना । - निर्ग्रथ प्रवचन
पुस्तक प्राप्ति स्थल श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल चौकशी चेम्बर्स, दूसरा माला,
खारा कुवा, जवेरी बाजार, बम्बई - ४००००२
अनुवादक हसराज जैन
श्रीमद राजचद्र आश्रम
स्टे अगाम,
पोस्ट बोरिया,
पीन ३८८१३०
गुजरान
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प्रकाशक मनुभाई भ मोदी, अध्यक्ष श्रीमद् राजचद्र आश्रम, म्टे अगाम, पो वोरिया-३८८१३० वाया-आणद (गुजरात)
अहो मर्वोत्कृष्ट शात रसमय मन्मार्ग
अहो। उस सर्वोत्कृष्ट शात रमप्रधान मार्गके
मूल मर्वज्ञदेव , -
तृतीय मस्करण प्रतियाँ ५००० ईम्वी सन् १०९१ विक्रम मवत् २०४७ वीर मवत् २५१७
___ अहो।
उस सर्वोत्कृष्ट शातरसको जिन्होंने मुप्रतीत कराया
ऐसे परमकृपालु मद्गुरुदेवइम विश्वमे मर्वकाल
आप जयवत रहे, जयवत रहे।
-सस्मरण पोथी ३/२३
मुद्रक
अनामिका ट्रेडिंग क भवानी शकर रोड, दादर, मुबई-४०० ०२८ फोन ४३०७२ ८६
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श्रीमद राजचंद्र विचाररत्न
"परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम ज्ञान सुखधाम । जेणे आप्युं भान निज, तेने सदा प्रणाम ॥"
*
"सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो । अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूर्च्छा नव जोय जो ॥ अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?"
आक २६६
-- आक ७३८ नाथा २
*
"जिसके एक रोममे किचित् भी अज्ञान, मोह या असमाधि नही रही उस सत्पुरुषके वचन और बोधके लिये कुछ भी नही कहते हुए, उसीके वचनमे प्रशस्तभावसे पुनः पुनः प्रसक्त होना, यह भी अपना सर्वोत्तम श्रेय है ।
कैसी इसकी शैली | जहाँ आत्माके विकारमय होनेका अनताश भी नही रहा है। शुद्ध, स्फटिक, फेन और चद्रसे भी उज्ज्वल शुक्लध्यानकी श्रेणीसे प्रवाहरूपसे निकलते हुए उस निग्रंथके पवित्र वचनोको मुझे और आपको त्रिकाल श्रद्धा रहे ।
यही परमात्माके योगबलके आगे प्रयाचना ।"
*
"अनन्तकालसे जो ज्ञान भवहेतु होता था, उस ज्ञानको एक समयमात्रमे जात्यतर करके जिसने भवनिवृत्तिरूप किया उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनको नमस्कार ।”
आक ८३९
- आक ५२
*
"जगतके अभिप्रायको ओर देखकर जीवने पदार्थका बोध पाया है। ज्ञानीके अभिप्रायकी ओर देखकर पाया नही है । जिस जीवने ज्ञानीके अभिप्रायसे बोध पाया है उस जीवको सम्यग्दर्शन होता है ।"
-आक ३५८
+
“विचारवानको देह छूटने सम्बन्धी हर्षविषाद योग्य नही है । आत्मपरिणामकी विभावता ही हानि और वही मुख्य मरण है | स्वभावसन्मुखता तथा उसकी दृढ इच्छा भी उस हर्षविषादको दूर करती है ।"
--आक ६०५
*
"श्री सद्गुरूने कहा है ऐसे निग्रंथमार्गका सदैव आश्रय रहे ।
मैं देहादिस्वरूप नही हूँ, और देह, स्त्री, पुत्र आदि कोई भी मेरे नही हैं, शुद्ध चैतन्य स्वरूप. अविनाशी ऐसा मै आत्मा हूँ, इस प्रकार आत्मभावना करते हुए रागद्वेषका क्षय होता है ।"
-आफ ६९२
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"अनन्तबार देहके लिये आत्माका उपयोग किया है। जिस देहका आत्माके लिये उपयोग होगा उस देहमे आत्मविचारका आविर्भाव होने योग्य जानकर, सर्व देहार्थकी कल्पना छोड़कर, एकमात्र आत्मार्थमे ही उसका उपयोग करना, ऐसा निश्चय मुमुक्षुजीवको अवश्य करना चाहिये।"
-आक ७१९
"विषयसे जिसकी इद्रियाँ आर्त है उसे शीतल आत्मसुख, आत्मतत्त्व कहाँसे प्रतीतिमे आयेगा? 'जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि ।' हे आर्यजनो | इस परम वाक्यका आत्मभावसे आप अनुभव करे।"
-आक८३२
"लोकसज्ञा जिसकी जिंदगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे जैसी श्रीमतता, सत्ता या कुटुम्ब परिवार आदिके योगवाली हो तो भी वह दुखका ही हेतु है। आत्मशाति जिस जिंदगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे तो एकाकी, निर्धन और निर्वस्त्र हो तो भी परम समाधिका स्थान है।" -आक ९४९
"श्रीकृष्ण महात्मा थे और ज्ञानी होते हुए भी उदयभावसे ससारमे रहे थे, इतना जैन शास्त्रसे भी जाना जा सकता है, और यह यथार्थ है; तथापि उनकी गतिके विषयमे जो भेद बताया है उसका भिन्न कारण है। और भागवत आदिमे तो जिन श्रीकृष्णका वर्णन किया है वे तो परमात्मा ही हैं। परमात्माकी लीलाको महात्मा कृष्णके नामसे गाया है। और इस भागवत और इस कृष्णको यदि महापुरुषसे समझ ले तो जीव ज्ञान प्राप्त कर सकता है । यह बात हमे बहुत प्रिय है।"
-आक २१८
"सबकी अपेक्षा वीतरागके वचनको संपूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है, क्योकि जहां राग आदि दोषोका सपूर्ण क्षय होता है वहां संपूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होना योग्य है ऐसा नियम है।
श्री जिनेन्द्रमे सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता होना सभव है, क्योकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जिस किसी पुरुषमे जितने अशमे वोतरागताका सभव है, उतने अशमे उस पुरुषका वाक्य मानने योग्य है ।"
-सस्मरण पोथी १/६१
"जैसे भगवान जिनेन्द्रने निरूपण किया है वैसे ही सर्व पदार्थका स्वरूप है।
भगवान जिनेन्द्रका उपदिष्ट आत्माका समाधिमार्ग श्री गुरुके अनुग्रहसे जानकर, परम प्रयत्लसे उसकी उपासना करे।"
-सस्मरण पोथी २/२१
"सर्व प्रकारसे ज्ञानीकी शरणमे बुद्धि रखकर निर्भयताका, शोकरहितताका सेवन करनेकी शिक्षा श्री तीर्थंकर जैसोने दी है, और हम भी यही कहते हैं। किसी भी कारणसे इस संसारमे क्लेशित होना योग्य नहीं है। अविचार और अज्ञान ये सर्व क्लेगके, मोहके और अशुभगतिके कारण है। सद्विचार और आत्मज्ञान आत्मगतिके कारण हैं।"
-आक ४६०
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प्रकाशकीय निवेदन
'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थ मूल गुजराती भाषामे है। इसका प्रथम हिन्दी अनुवाद प० जगदीशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० कृत विक्रम संवत् १९४४ (ई० सन् १९३८) मे श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल द्वारा प्रकाशित हुआ था जो काफी समयसे अप्राप्य था। इस दौरान 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थका गुजरातीमे नवीन सशोधित परिवधित संस्करण वि० स० २००७ मे इसी आश्रम द्वारा प्रकाशित हुआ जिसका हिन्दी अनुवाद स्वतंत्र रूपसे करनेकी आवश्यकता थी।
प्रसंगवशात् ललितपुरके प० परमेष्ठीदास जैनका आश्रममे आना हुआ। उनकी भावना एवं उत्साह देखकर उन्हे अनुवादका काम सौंपा गया। उन्होने आक ३७५ तक अनुवाद किया भी, परन्तु बादमे शारीरिक अस्वस्थताके कारण वे स्वेच्छासे इस अनुवादकी जिम्मेदारीसे मुक्त हुए। उसी अरसेमे संयोगवश श्री हंसराजजी जैनका परिचय हुआ और अनुवाद पूरा करनेके लिये उनसे कहा गया जिसे उन्होने सहर्ष एव सोत्साह मान्यकर, दृढ निष्ठा एव बड़े परिश्रमसे यह कार्य यथासम्भव शीघ्र ही पूरा कर दिया । संस्कृतमे एम० ए० होनेसे उनका सस्कृत भाषाका ज्ञान अच्छा था और मूल पजाबी होते हुए भी बरसोसे गुजरातमे रहनेसे उनका गुजराती भाषाका ज्ञान भी प्रशस्त था। इस प्रकार वि० स० २०३० मे इस ग्रन्थका सशोधित-परिवर्धित प्रथम हिन्दी सस्करण श्रीमद् राजचन्द्र आश्रमके अन्तर्गत श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डलकी ओरसे दो भागोमे प्रगट हुआ।
तत्पश्चात् सभी प्रतियां बिक जानेसे इसके पुनर्मुद्रणकी आवश्यकता प्रतीत हुई परन्तु शीघ्र मुद्रणके कारण प्रथम सस्करणमे काफी अशुद्धियाँ रह गई थी तथा अमुक जगह वाक्याश छूट गये थे अतः अनुवादको फिरसे मूलके साथ मिलान करना अत्यत जरूरी था। सद्भाग्यसे दो-तीन मुमुक्षुओने यह कार्य हाथमे लिया और सम्पूर्ण ग्रन्थको यथासम्भव शुद्ध कर दिया । उसीका परिणाम है कि आज हिंदीभाषी मुमुक्षुओके समक्ष वि० स० २००७ के आश्रम प्रकाशित गुजराती सस्करणके अनुसार ही यह द्वितीय हिन्दी सस्करण श्रीमद् राजचन्द्र आश्रमकी ओरसे प्रस्तुत हो रहा है। सन्दर्भकी दृष्टिसे दो भागके व्दले एक ही भागमे ग्रन्थ मुद्रित करना योग्य लगनेसे वैसा किया है ।
प्रथम सस्करणकी तरह इसमे भी मूल गुजराती काव्योके भावार्थ (छायामात्र अर्थ) पादटिप्पणीमे दिये हैं जिससे हिन्दीभाषी जिज्ञासु उन काव्योका सामान्य अर्थ समझ सके । विशेषार्थके जिज्ञासुओको "नित्यनियमादि पाठ (भावार्थ सहित)" का हिन्दी अनुवाद देखनेका अनुरोध है।
लन्तमे लिखना है कि अनुवाद अनुवाद ही होता है, वह मूलकी समानता कभी नही कर सकता। यथासम्भव शुद्ध करनेका पूरा प्रयास करने पर भी कही पर आशय-भेद (अर्थस्खलना) हुआ हो अथवा त्रुटियाँ रह गई हो तो पाठकगण हमारे ध्यानमे लानेकी कृपा करे ताकि भविष्यमे उन्हे शुद्ध किया जा सके।
पथका विशेष परिचय न देकर मूल गुजराती प्रथम एवं द्वितीय सस्करणको प्रस्तावनाओका हिन्दी-रूपान्तर ही दे दिया है जिससे ग्रन्थकर्ता, ग्रन्थका विषय तथा ग्रन्थकी संकलना एव उसका आधार इत्यादिका परिचय मिल ही जाता है।
__ यह आत्मश्रेयसाधक ग्रन्थ मुमुक्षुवधुओको आत्मानन्दकी साधनामे सहायक सिद्ध हो यही प्रार्थना । श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
-प्रकाशक चैत्र गदी ५ २० २०४१ ,
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प्रथमावृत्तिका निवेदन
( हिन्दी-रूपान्तर)
"जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत । समजाव्यु ते पद नर्मू, श्री सद्गुरु भगवंत ॥" -आत्मसिद्धि, दोहा १ अहो सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम |
सुषुप्त चेतनको जागृत करनेवाले,
गिरती वृत्तिको स्थिर रखनेवाले, दर्शनमात्रसे भी निर्दोष अपूर्व स्वभावके प्रेरक,
स्वरूपप्रतीति, अप्रमत्त सयम और पूर्ण वीतराग निर्विकल्प स्वभावके कारणभूत,
अन्तमे अयोगी स्वभाव प्रगट करके, अनत अव्यावाध स्वरूपमे स्थिति करानेवाले। त्रिकाल जयवत रहे।
-आक८७५ " हम ऐसा ही जानते हैं कि एक अश सातासे लेकर पूर्णकामता तककी सर्व समाधिका कारण सत्पुरुष हो है।"
-आक २१३ आत्माके अस्तित्वका किसी भी प्रकारसे स्वीकार करनेवाले दर्शनोंके सभी महात्मा इस बातको मानते है कि यह जीव निजस्वरूपके अज्ञानसे, भ्रातिसे अनादिकालसे इस ससारमे भटक रहा है और अनेक प्रकारके अनत दुखोका अनुभव कर रहा है । उस जीवको किसी भी प्रकारसे निजस्वरूपका भान कराकर शुद्धस्वरूपमे स्थिति करानेवाला यदि कोई हो तो वह मात्र एक सत्पुरुष और उनकी बोधवाणी है।
जिस पुण्यश्लोक महापुरुषके आत्मोपकारको पुनीत स्मृति श्रीमान् लधुराजस्वामीको इस श्रीमद् राजचद्र आश्रमके नामसस्करणमे हेतुभूत हुई-ऐसी समीपवर्ती परम माहात्म्यवान विभूति श्रीमद् राजचंद्रके सर्व पारमार्थिक प्राप्त लेखोका यह सग्रह-ग्रन्थ श्रीमद् राजचंद्र आश्रमकी ओरसे प्रसिद्ध करनेकी दीर्घकालसेवित शुभ भावना आज साकार होनेसे हृदय आनदसे भर उठता है। सर्व साधकादिको यह अक्षरदेह आत्मश्रेय साधनाका एक सत्य साधन सिद्ध हो यही हार्दिक अभिलाषा है।
जिन महापुरुषके वचनोका यह ग्रन्थ सग्रह है उन श्रीमद् राजचंद्र जैसे परम उत्कृष्ट कोटिके शुद्धात्माके वारेमे लिखते हुए अपनी अयोग्यताके कारण क्षोभ हुए बिना नहीं रहता । इस ग्रथमे सग्रहित पत्रोमे अपने अतरग अनुभव, आत्मदशा, कर्म उदयको विचित्रतामे भी अतरग आत्मवृत्तिकी स्थिरता
और अन्य अनेक गह्न विषयो सबधी सहज, सरल भाववाही भाषामे उन्होंने स्वय ही अपना मथन और नवनीत प्रगट किया है। विपरीत कर्मसयोगोमेसे निज शुद्ध स्वरूपस्थितिकी ओर गमन करते हुए, अंतरमे प्रज्वलित आत्मज्योतके प्रकाशको मद न होने देते हुए, इस आत्मप्रकाशके प्रकाशसे बाह्यजीवनको उज्ज्वल
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। ७ करता हुआ अद्भुत जीवनदर्शन दृष्टिगोचर होता है। उनके लेख निर्भयतासे, निर्दभतासे स्वानुभूत परमसत्यका निरूपण करते हैं।
____ छोटी आयुमे ही जातिस्मरणज्ञानकी प्राप्ति, आश्चर्यकारी तोन स्मरणशक्ति, शतावधान जैसे एकाग्रता और स्मरणशक्तिके विरल प्रयोग, साक्षात् सरस्वतीकी उपाधिसे सन्मानित सहज काव्यस्फुरणा (कला) आदि पूर्व जन्मके उत्कट आत्मसस्कारोको झाँकी कराते हैं।
कृष्णादि अवतारोमे भक्ति तथा प्रीति, फिर जैनसूत्रोकी प्रियता और मुक्तिमार्गमे एक साधनरूप मूर्तिकी उपयोगिता इनकी जिस तरह सत्य प्रतीति इन्हे हुई उसी तरह उन्हे सरलतासे माना और प्ररूपित किया। अन्य दर्शनोकी अपेक्षा श्री वीर आदि वोतराग पुरुषो द्वारा प्ररूपित वीतराग दर्शन ज्यादा प्रमाणयुक्त और प्रतीति-योग्य लगा, ऐसा 'मोक्षमाला' मे दर्शनाभ्यासकी तुलनात्मक शैलीसे प्रगट किया है।
निज अनुभवकी परिपक्व विचारणाके फलस्वरूप प्राप्त सत्यदर्शनको अपनानेमे महापुरुष जितने तत्पर होते है उतने ही उसे पकड़ रखनेमे दृढ होते हैं। अत इसमे विघ्न करनेवाले सभी दोषोका नाश करनेके लिये ये उतने ही तत्पर और दृढ पुरुषार्थी होते हैं। हम श्रीमद्जीके जीवनमे देखते हैं कि जो कर्मवध किया है उसे भोगनेके लिये वे दीर्घकाल तक धैर्य धारण करते है, परतु उनका हृदय आत्मवृत्तिकी असमाधि समयमात्र भी सहन करनेके लिये तैयार नही है, इतना ही नही किन्तु असमाधिसे प्रवृत्ति करनेकी अपेक्षा वे देहत्याग उचित मानते हैं । (आक ११३)
इसी आत्मवृत्तिके कारण, अपनेको पर्याप्त ज्योतिषज्ञान होनेपर भी (आक ११६/७) वह परमार्थमार्गमे कल्पित लगनेसे, तथा शतावधान जैसे विरल प्रयोगोसे प्राप्त लोगोका आदर और प्रशसा आदि कि जिसे पानेके लिये जगत के जीव आकाश-पाताल एक कर देते हैं, वह भी आत्ममार्गमे अविरोधी न लगनेसे, उनका त्याग करते हुए उन्हे अशमात्र भी रज नही होता ।
गृहस्थभावसे बाह्यजीवन जीते हुए, अतरग निग्रंथभावसे अलिप्त रहते हुए, इस ससारमे प्राप्त होनेवाली अनेक उपाधियाँ सहन करनेमे अतरात्मवृत्तिको भूले बिना कैसी धीरज, कैसी आत्मविचारणा और पुरुषार्थमय तीक्ष्ण उपयोगदृष्टि रखी है यह उनके कई पत्रोमे स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है जो आत्मश्रेयसाधकके लिये एक ज्वलन्त दृष्टातरूप है ।
__ सत्पुरुषोका जीवन आत्माकी अतरविशुद्धि पर अवलबित होनेसे, जब तक जीवकी अतर्दृष्टि खुली न हो तब तक उसे पहचान होना दुर्घट है, इसलिये सत्पुरुषकी पहचान उनके वाह्यजीवन और प्रवृत्तिसे हो या न भी हो। यद्यपि उनके अतरमे आविर्भत आत्मज्योति तो उनके प्रत्येक कार्यमे झलकती है ही परन्तु जगतके जीवोको आत्मलक्ष्य न होनेसे इस ज्योतिके दर्शनकी अतर्दृष्टि उनमे नही होती। यह सत्य, है कि यदि महापुरुप स्वय अपनी अतरगदशाके वारेमे न बताते तो अन्य जीवोको महापुरुपोकी पहचान होना दुर्लभ ही होता। (आक १८) आत्मानुभवी पुरुषके बिना कोई यथार्थरूपसे आत्मकथन नहीं कर सकता । अनुभवहीन वाणी आत्मा प्रगट करनेमे समर्थ नहीं होती। जव तक आत्मलक्ष्य नही होता तव तक आत्मप्राप्ति स्वप्नवत् है इसमे आश्चर्य नही है ।
अपनी अतरगदशाके बारेमे उल्लेख करते हुए श्रीमद्जी लिखते हैं--"निसदेहस्वरूप ज्ञानावतार है और व्यवहारमे रहते हुए भी वीतराम हैं ।" (आक १६७) "आत्माने ज्ञान पा लिया यह तो नि संशय है। ग्रथिभेद हुआ यह तीनो कालमे सत्य बात है।" (आक १७०) "अविषमतासे जहाँ आत्मध्यान रहता है ऐसे 'श्री रायचद्र' के प्रति बार-बार नमस्कार करते हैं ।" (आक ३७६) "हममे मार्गानुसारिता कहना
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संगत नही है । अज्ञानयोगिता तो जबसे इस देहको धारण किया तभीसे नही होगी ऐसा लगता है । सम्यकदृष्टिपन तो जरूर सम्भव है ।" ( आक ४५० ) - इत्यादि अपनी अतरदगा सवधी अनेक उल्लेख कई पत्रामे दृष्टिगोचर होते है । स्वय अपने वारेमे ऐसा क्यो कहा ? ऐसा विकल्प, श्रीमद्जी जैसे उच्च कोटि
आत्मा लिये, अनुचित है । परन्तु जैसा कि पहले कहा है कि सत्यनिरूपणके लिये यह जरूरी है, जिससे उनकी सच्ची पहचान हो और परमार्थप्रेमी जिज्ञासु जीव उनके वचनोकी आराधना करके त्रिविध तापाग्निको शात कर सके ।
श्रीमद्जी के साहित्यमे, जैन, वेदात आदि सप्रदायोके ग्रथोका विशाल वाचन, निदिध्यासन और अपने अतरमे ओतप्रोत आत्मानुभवका प्रवाह सहज वहता है । आत्मसमाधिके लिये जैसे उनका सारा जीवन है, वैसे ही मात्र परमार्थ कहनेके लिये उनका साहित्य है ।
धर्म-प्रवर्तन करनेको तीव्र करुणावृद्धि होने पर भी (आक ७०८) अपनी उस कार्यकी योग्य तैयारी न होनेसे परम सयमितभावसे उस भावनाको अपनेमे समाविष्ट कर देनेकी शक्ति - उनके अंतरकी, प्रवृत्ति - की ओर लेखनकी सत्यता प्रगट करती है ।
मात्मस्वरूपकी प्राप्तिके बिना जगतके जीवोके दु.खोका अत आनेवाला नही है, आत्मा जिन्होने जाना है ऐसे सत्पुरुपके सत्सगके बिना, उनकी आज्ञाके आराधनके बिना आत्मप्राप्ति होनेवाली नही हैऐसा कहकर वारवार सत्पुरुष और सत्सगकी आराधना करनेके लिये वलपूर्वक कहा है। सत्सग और सत्पुरुषके आज्ञाराधनमे विघ्नरूप मिथ्याग्रह, स्वच्छद, इद्रियविपय, कषाय, प्रमाद आदि दोषोका त्याग करनेके लिये भी उतने ही बलपूर्वक कहा है। फिर भी इस कालके जीवोकी वीर्यहीनता तथा अनाराधकता देखकर सत्सगका ही उत्कटरूपसे वर्णन किया है ।
आत्मप्राप्ति एक बडा विघ्न मतमतातर है । मताग्रह दूर करनेके लिये वे अपने प्रसगमे आनेवाले मुमुक्षुओको वेदात, जेन आदि भिन्न भिन्न सप्रदायोके ग्रथ पढनेका अनुरोध करते हैं । उनके विचारो और पत्रो जेन और वेदात - दोनो शैलीका दर्शन होता है । अपना अतर अनुभव प्रगट करनेके लिये उन्होने दोनों शैलीका उपयोग किया है। साथ ही यह भी स्पष्ट बताया है कि जैन या वेदातका आग्रह मोक्षका कारण नही है, परन्तु जिस प्रकारसे आत्मा आत्मभावको प्राप्त हो वही मोक्षका साधन है । वह परमतत्त्व परमसत्, सत्, परमज्ञान, आत्मा, सर्वात्मा, सत्-चित्-आनंद, हरि, पुरुषोत्तम, सिद्ध, ईश्वर आदि अनत नामोंसे कहा गया है । (आक २०९ ) " मे किसी गच्छमे नही हूँ, परन्तु आत्मामे हूँ, इसे न भूलियेगा ।" ( आक ३७) तात्पर्य कि परमार्थ - वाचन आत्मा जाननेके लिये है, आत्माको वधन होनेके लिये नही है । " वध - मोक्षको यथार्थं व्यवस्था कहने योग्य यदि किसीको हम विशेषरूपसे मानते हो तो वे श्री तीर्थंकरदेव हैं ।” (आक ३२२) यो लिखकर उन्होने श्री तीर्थंकरके वचनोकी सत्यताकी अपनी आत्मानुभवजन्य अतर प्रतीति प्रगट की है ।
इसके अतिरिक्त उन्होने अनेक गूढ प्रश्नोके भी सरल अर्थं समझाये है; और अपने आत्मानुभवके बलसे केवलज्ञानकी व्याख्या, अधिष्ठान आदिके संबंधमे, तथा इस कालमे मोक्ष नही होता, क्षायिक सम्यक्त्व नही होता इत्यादि मान्यताओंके सबंधमे आत्महितकारी स्पष्टीकरण किये हैं ।
सोलह वर्षकी लघु वयमे तीन दिनमे "मोक्षमाला" जैसी विविध विषयोका शास्त्रोक्त विवेचन करनेवाली १०८ शिक्षापाठयुक्त उत्तम पुस्तक लिखना, और सभी शास्त्रोके निचोड़रूप आत्मज्ञानप्राप्तिका
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[९] सरल, सत्य और अचूक मार्ग दिखानेवाला १४२ दोहोका "आत्मसिद्धिशास्त्र" मात्र डेढ घंटेमे चाहे जहाँ, चाहे जिस स्थितिमे लिखना-यह गूढ और गहन आत्मज्ञानका विषय उन्हे कैसा हस्तामलकवत् था इसका सहज सूचन करता है।
"धन्य रे दिवस आ अहो ।' (संस्मरण पोथी १/३२) और 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?" (आक ७३८) इत्यादि काव्योमे श्रीमद्जीने अपनी अतर्दशा और भावना सुवाच्यरूपसे प्रगट की है।
श्रीमद्जीके जीवनप्रसगोमे सर्वोच्च प्रामाणिकता, सत्यनिष्ठा, नीतिमत्ता,, अन्यको लेशमात्र भी दुभानेकी अनिच्छा और अनुकपा आदि अनेक अनुकरणीय गुणोका स्वाभाविक दर्शन होता है। ऐसे प्रसंग तथा विस्तृत जीवन जाननेके लिये इस आश्रमसे प्रकाशित "श्रीमद् राजचंद्र, जीवनकला' नामकी पुस्तक पढनेका अनुरोध करता हूँ।
श्रीमद्जीके हस्ताक्षरोक, एक लघु ग्रथ "श्री सद्गुरु प्रसाद" के नामसे इस आश्रमकी ओरसे प्रकाशित हुआ है । उस ग्रथकी प्रस्तावनामे श्रीमद्जीके वचनोके बारेमे परमकृपालु मुनिवर्य महात्मा श्री लघुराजस्वामीने जो लिखा है वह इस ग्रथके पाठकोको उपकारक होनेसे यहाँ देता हूँ
__ "परम माहात्म्यवान सद्गुरु श्रीमद् राजचद्र देवके वचनोमे जिसे तल्लीनता, श्रद्धा हुई है या होगी उसका महद् भाग्य है । वह भव्य जीव अल्पकालमे मोक्ष पाने योग्य है, ऐसी अतरग प्रतीति-विश्वास होनेसे मुझे सद्गुरुकृपासे प्राप्त हुए वचनोमेसे यह संग्रह 'श्री सद्गुरु प्रसाद' के नामसे प्रकाशित किया गया है। इसमेके पत्र तथा काव्य सरल भाषामे होते हुए भी गहन विषयोकी समृद्धिसे भरपूर हैं, अत अवश्य मनन करने योग्य है, भावना करने योग्य है, अनुभव करने योग्य है। ।
लघु कद होने पर भी श्री सद्गुरुके गौरवसे गौरवान्वित यह 'श्री सद्गुरु प्रसाद' सर्व आत्मार्थी जीवोको मधुरताका आस्वाद करायेगा, तत्त्वप्रीतिरसका पान करायेगा और मोक्षरुचिको प्रदीप्त करेगा। मुझे तो उनके हस्ताक्षर और मुद्रासहित यह ग्रथ देखकर वृद्धकी लकड़ीकी तरह आधार, उल्लासपरिणामके कारण, प्राप्त हुआ है।"
श्रीमद्ज़ीकी विद्यमानतामे हो उनके परमभक्त खभातवासी भाई श्री अंबालाल लालचदने, श्रीमद्जी की अनुमतिसे, मुमुक्षुओको लिखे गये पत्र तथा अन्य लेखोका संग्रह किया था और उसमेसे श्री अवालालभाईने परमार्थ सबधी लेखोकी. एक पुस्तक तैयार की थी जिसे खुद श्रीमद्जीने जांच ली थी और अपने हाथसे कुछ शुद्धि-वृद्धि की थी। . . .
यह सशोधित मूल पुस्तक, श्रीमद्जीके हस्ताक्षरके मूल पत्र, जो मूल पत्र मुमुक्षुओने वापिस मांग लिये थे उन पत्रोको नकलें, तथा अन्य लेखोकी हस्तलिखित नकलें-इत्यादि जो-जो साहित्य श्री अंबालालभाईने सग्रहित किया था वह सारा साहित्य श्री परमश्रुत प्रभावक मंडलको सौप दिया गया है।
___इस श्री परमश्रुत प्रभावक मडलकी स्थापना श्रीमद्जीने अपनी विद्यमानतामे सवत् १९५६ मे श्री वीतरागश्रुतके प्रकाशन तथा प्रचारके लिये की थी। यह मडल आज भी श्री वीतरागश्रुतके प्रकाशनका सुदर कार्य कर रहा है। इस श्री परमश्रुत प्रभावक मडलने इस श्रीमद् राजचद्र वचनामृतका प्रथम संस्करण वि० सवत् १९६१ मे प्रकट किया था और द्वितीय सस्करण वि० सवत् १९८२ में प्रगट किया था जिसमे बहुत-कुछ अप्रगट साहित्यका समावेश कर दिया गया था । श्रीमद्जीके लेख गुजराती भाषामे होते हुए भी दोनो सस्करण महत्तादर्शक नागरी लिपिमे मुद्रित किये गये थे। श्री परमश्रुत प्रभावक मडलने १. इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकट हो चूका है ।
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[१०] यह सारा वचनामृत हिंदी भाषामे अनुवादित करा कर वि० सवत् १९९४ मे प्रकट किया था जिसमे अनुवादक प० श्री जगदीशचंद्र शास्त्रीने श्रीमद्जीके जीवन और विचारो संबधी विस्तृत विवेचन किया है । इस संस्करणके संबंध में :--
श्रीमद्जीके अनन्य उपासक, परम भक्तिमान श्री लघुराजस्वामी के आश्रयमे स्थापित इस श्रीमद् राजचद्र आश्रम व्यवस्थापकों की बहुत समयसे अपने आराध्यदेव श्रीमद्जीके लेख प्रकाशित करनेकी भावना थी । तत्संबंधी श्री परमश्रुत प्रभावक मंडलकी अनुमति मिलनेसे इस कार्यके लिये सशोधन कर पूरी नयी पाण्डुलिपि निम्न साधनोके आधार पर तैयार की गई है -
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१. श्रीमद्जीके हस्ताक्षरके मूल पत्र, अन्य लेख तथा सस्मरणपोथियाँ तथा मूल हस्ताक्षरके पत्रों परसे इस आश्रम द्वारा तैयार कराये हुए चित्र ( फोटे ) |
२ श्री अंबालालभाई द्वारा तैयार की गई पुस्तक जिसमे श्रीमद्जीने स्वय शुद्धि वृद्धि की है । ३ श्री दामजीभाई केशवजी द्वारा मूल पत्र तथा अन्य साहित्यकी कराई गई नकलें ।
४. श्रीमद्जीको सूचनासे श्री अवालालभाईने श्री लघुराजस्वामी आदि मुनियोको नकल कर दी हुई डायरियाँ |
17
५ मुमुक्षुओसे प्राप्त मूलपत्रोकी नकलें ।
६ उपदेशछाया, उपदेशनोध, व्याख्यानसार आदिकी लिखी हुई डायरियाँ |
७ अब तक प्रकाशित सस्करण ।
संग्रहका विवरण :
1
इस सग्रह (१) श्रीमद्जी द्वारा मुमुक्षुओको लिखे गये पत्र, (२) स्वतंत्र काव्य, (३) मोक्षमाला, भावनाबोध, आत्मसिद्धिशास्त्र ये तीन स्वतंत्र ग्रन्थ, (४) मुनिसमागम, प्रतिमासिद्धि आदि स्वतत्र लेख, (५) पुष्पमाला, बोधवचन, वचनामृत, महानीति आदि स्वतंत्र बोधवचनमालायें, (६) ‘पचास्तिकाय’ ग्रन्थका गुजराती भाषान्तर, (७) श्री रत्नकरड श्रावकाचारमेसे तीन भावनाओका अनुवाद तथा स्वरोदयज्ञान, द्रव्यसंग्रह, दशवेकालिक आदि ग्रन्थोमेसे कुछ गाथाओका भाषान्तर, आनन्द घनचौबीसीमे से कुछ - एक स्तवन के अर्थ, (८) वेदात और जैनदर्शन सम्बन्धी टिप्पणियाँ, (९) स० १९४६ को देनंदिनी आदि श्रीमद्जीके लेख आक १ से ९५५, पृष्ठ ६७२ तक दिये गये हैं। आक ७१८ मे आत्मसिद्धिशास्त्र के दोहोका श्री अवालालभाई कृत सक्षिप्त विवेचन दिया गया है जिसे श्रीमद्जी देख गये थे। उस विवेचनके साथ खुद श्रीमद्जीका लिखा हुआ किसी-किसी दोहेका विस्तृत विवेचन भी दिया गया है । पृष्ठ ६७३ से ८०० तक उपदेशनोव, उपदेशछाया, व्याख्यानसार १ और २ दिये गये हैं जो श्रीमद्जी के उपदेश और व्याख्यानकी मुमुक्षुओ द्वारा की गई नोध पर आधारित है । इसमेसे 'उपदेशछाया' शीर्षकातर्गत बोध श्रीमद्जीकी नजरसे निकल चुका है ऐसा सुना जाता है ।
पृष्ठ ८०१ से ८४९ तक श्रीमद्जीको स्वहस्तलिखित तीन संस्मरण-पोथियाँ (Diaries) दी गई है। इस संस्करण संबंधी सामान्य विवरण :
१ इस सस्करणमे, पूर्व संस्करणोमे अप्रकाशित ऐसा बहुतसा साहित्य समाविष्ट कर लिया गया है ।
२ मूल लेख - जितना श्रीमद्जीका स्वय लिखा हुआ प्रतीत हुआ उतना ही लिया है। पूर्व सस्करणोमे मूल लेखरूपमे प्रकाशित, किन्तु वस्तुतः उपदेशनोध होनेसे ऐसे लेख वर्तमान संस्करणमे उपदेशनोधके अतर्गत दिये है ।
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[ ११ ] ३ श्री परमश्रुत प्रभावक मडलके द्वितीय संस्करणमे तीनो सस्मरण-पोथियोके लेख-लेख परसे मितीका अनुमान करके संवधित वर्षके अन्तर्गत मुद्रित किये गये है। इस संस्करणमे वैसा नही किया परन्तु प्रथम सस्करणके अनुसार तीनो सस्मरण-पोथियाँ, एक,साथ दी है। ४ पूर्व सस्करणोमे कई स्थलो पर एक हो लेखके भागकर भिन्न-भिन्न आकके अतर्गत दिये गये
हैं तथा कई लेख अलग होने पर भी एक आकके अंतर्गत दिये गये हैं, परन्तु इस सस्करणमे , मूल आधारका अनुसरण करके एक लेख; एक ही आकके अतर्गत दिया गया है। ५ मूल लेखमे आनेवाले व्यक्तियोके नाम प्रायः रहने दिये हैं। : - ६ ,मूल स्थिति हो लेख प्रकाशित हो ऐसा लक्ष्य रखा गया है। - अत पूर्व सस्करणोके लेखका अपेक्षा इसमे कई स्थलो पर , न्यूनाधिक लगेगा परन्तु वह शुद्धि-वृद्धि मूलके आधार पर ही
की गई है। ७ पूर्वापर सम्बन्ध बना रहे यह ध्यानमे रखकर व्यक्तिगत और व्यावहारिक लेख पत्रमेसे निकाल __ दिये गये है और इसे सूचित करनेके लिये कोई चिह्न भी नही रखा है। फिर भी सामान्यत • उपकारक ऐसा व्यक्तिगत लेख ले लिया गया है। ८ पाठक स्वतत्रतासे और सुगमतासे पढ-विचार कर अपना निर्णय कर सके इस हेतुसे किसी वाक्य या शब्दके नीचे न तो लोटी खीची है और न ही उसे बडे अक्षरोमे लिया है । परन्तु मूल लेखके अनुसार ही मुद्रित किया है। खास आवश्यकताके बिना या हकीकत विदित करनेके सिवाय पादटिप्पण भी नही दिया है । क्रमबद्ध एक सरीखे अक्षरोमे पूरा वचनामृत मुद्रित किया है। ९ स्वतत्र रीतिसे नये अनुक्रमाक दिये है। १० श्री परमश्रुत प्रभावक मडलके "द्वितीय सस्करणके आक दायी ओर [ ] ऐसे कोष्ठकमे दिये गये
है । जहाँ ऐसा आक नही है उसे अप्रगट साहित्य समझें। ११ सामान्यतया श्री परमश्रुत प्रभावक मडलके द्वितीय सस्करणके क्रमका अनुसरण कर, लेख
वयक्रममे रखे हैं । जहाँ मितीमे प्रमाणभूत भूल लगी, वह लेख नयी मितीके अनुसार अन्यत्र
रखा है। १२ प्रत्येक लेखके ऊपर प्राप्त मिती दी गई है। १३ विस्तृत अनुक्रमणिका तथा परिशिष्ट देकर, हो सका उतना ग्रन्थका अभ्यास सुगम करनेका
प्रयास किया है।
परिशिष्टोमे-इस ग्रन्थमे आनेवाले अन्य ग्रन्थोंके उद्धरण और उनके मूल स्थान, पत्रो सम्बन्धी विशेष जानकारी, पारिभाषिक और कठिन शब्दोके अर्थ, ग्रन्थनाम, स्थल, विशेषनाम तथा विषयसूची भो दिये गये हैं । इस तरहके विवरणसे ग्रन्थ समझनेमे सुगमता होगी।
अवधान-समयके काव्य, स्त्रीनीतिबोधक, अन्य पत्रिकाओमे प्रकाशित करत त्याँकिमोल वर्षको आयुके पहलेके काव्य आदि 'सुबोध सग्रह' ग्रन्थरूपसे अलग प्रकाशित करने की भावनासे इस नही दिये हैं।
क्रमाक 1.3.8.78.. ____ अवधान सम्बन्धी लिखित एक पत्र (आक १८) इस ग्रन्थमे दिया है।
* ये आक प्रस्तुत सस्करणमेंसे निकाल दिये गये है।
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[१०] यह सारा वचनामृत हिंदी भाषामे अनुवादित करा कर वि० सवत् १९९४ मे प्रकट किया था जिसमे अनुवादक प० श्री जगदीशचद्र शास्त्रीने श्रीमद्जीके जीवन और विचारों संबंधी विस्तृत विवेचन किया है। इस संस्करणके संबंध :--
___श्रीमद्जीके अनन्य उपासक, परम भक्तिमान श्री लघुराजस्वामीके आश्रयमे स्थापित इस श्रीमद् राजचद्र आश्रमके व्यवस्थापकोकी बहुत समयसे अपने आराध्यदेव श्रीमद्जीके लेख प्रकाशित करनेकी भावना थी । तत्संवधी श्री परमश्रुत प्रभावक मडलकी अनुमति मिलनेसे इस कार्यके लिये सशोधन कर पूरी नयी पाण्डुलिपि निम्न साधनोके आधार पर तैयार की गई है- .
१. श्रीमद्जीके हस्ताक्षरके मूल पत्र, अन्य लेख तथा सस्मरणपोथियाँ तथा मूल हस्ताक्षरके पत्रो __ परसे इस आश्रम द्वारा तैयार कराये हुए चित्र (फोटे)। २ श्री अबालालभाई द्वारा तैयार की गई पुस्तक जिसमे श्रीमद्जीने स्वयं शुद्धि-वृद्धि की है। ३ श्री दामजीभाई केशवजी द्वारा मूल पत्र तथा अन्य साहित्यकी कराई गई नकले। ४ श्रीमद्जीकी सूचनासे श्री अवालालभाईने श्री लघुराजस्वामी आदि मुनियोको नकल कर दी , हुई डायरियाँ । ५..मुमुक्षुओसे प्राप्त मूलपत्रोकी नकलें। ६ उपदेशछाया, उपदेशनोध, व्याख्यानसार आदिकी लिखी हुई डायरियाँ ।
७ अव तक प्रकाशित सस्करण। संग्रहका विवरण :
इस सग्रहमे (१) श्रीमदजी द्वारा मुमुक्षुओको लिखे गये पत्र, (२) स्वतत्र काव्य, (३) मोक्षमाला, भावनाबोध, आत्मसिद्धिशास्त्र ये तीन स्वतत्र ग्रन्थ, (४) मुनिसमागम, प्रतिमासिद्धि आदि स्वतत्र लेख; (५) पुष्पमाला, बोधवचन, वचनामृत, महानीति आदि स्वतत्र बोधवचनमालायें, (६) 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थका गुजराती भाषान्तर, (७) श्री रत्नकरड श्रावकाचारमेसे तोन भावनाओका अनुवाद तथा स्वरोदयज्ञान, द्रव्यसग्रह, दशवैकालिक आदि ग्रन्थोमेसे कुछ गाथाओका भाषान्तर, आनन्दधनचौबीसीमेसे कुछ-एक स्तवनोके अर्थ, (८) वेदात और जैनदर्शन सम्बन्धी टिप्पणियाँ, (९) स० १९४६ को दैनंदिनी आदि श्रीमद्जीके लेख आक १ से ९५५, पृष्ठ ६७२ तक दिये गये है। आंक ७१८ मे आत्मसिद्धिशास्त्रके दोहोका श्री अंबालालभाई कृत सक्षिप्त विवेचन दिया गया है जिसे श्रीमदजी देख गये थे। उस विवेचनके साथ खुद श्रीमद्जीका लिखा हुआ किसी-किसी दोहेका विस्तृत विवेचन भी दिया गया है । पृष्ठ ६७३ से ८०० तक उपदेशनोध, उपदेशछाया, व्याख्यानसार १ और २ दिये गये हैं जो श्रीमद्जीके उपदेश और व्याख्यानको मुमुक्षुओ द्वारा की गई नोध पर आधारित है। इसमेसे 'उपदेशछाया' शीर्षकातर्गत बोध श्रीमद्जीकी नजरसे निकल चुका है ऐसा सुना जाता है।
पृष्ठ ८०१ से ८४९ तक श्रीमद्जोको स्वहस्तलिखित तीन संस्मरण-पोथियाँ (Diaries) दी गई है। इस संस्करण संबंधी सामान्य विवरण :
१. इस सस्करणमे, पूर्व संस्करणोमे अप्रकाशित ऐसा बहुतसा साहित्य समाविष्ट कर लिया
गया है। २ मूल लेखमे-जितना श्रीमद्जीका स्वयं लिखा हुआ प्रतीत हुआ उतना ही लिया है। पूर्व सस्करणोमे मूल लेखरूपमे प्रकाशित, किन्तु वस्तुतः उपदेशनोध होनेसे ऐसे लेख वर्तमान सस्करणमे उपदेशनोधके अतर्गत दिये है। । ।
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[११]
३ श्री परमश्रुत प्रभावक मंडलके द्वितीय सस्करणमे तीनो संस्मरण-पोथियोके लेख - लेख परसे मितीका अनुमान करके संबंधित वर्षके अन्तर्गत मुद्रित किये गये हैं । इस सस्करणमे वैसा नही किया परन्तु प्रथम संस्करणके अनुसार तीनो सस्मरण-पोथियाँ एक साथ दी है ।
४ पूर्व सस्करणोमे कई स्थलो पर एक हो लेखके भागकर भिन्न-भिन्न आकके अतर्गत दिये गये है तथा कई लेख अलग होने पर भी एक आकके अंतर्गत दिये गये है, परन्तु इस सस्करणमे मूल आधारका अनुसरण करके एक लेख एक ही आकके अंतर्गत दिया गया है ।
५ मूल लेखमे आनेवाले व्यक्तियो के नाम प्रायः रहने दिये हैं ।
६ मूल स्थितिमे ही लेख प्रकाशित हो ऐसा लक्ष्य रखा गया है । अत पूर्व सस्करणोके लेखका अपेक्षा इसमे कई स्थलो पर न्यूनाधिक लगेगा परन्तु वह शुद्धि-वृद्धि मूलके आधार पर ही की गई है । -
७ पूर्वापर सम्बन्ध बना रहे यह ध्यान मे रखकर व्यक्तिगत और व्यावहारिक लेख पत्र से निकाल दिये गये है और इसे सूचित करनेके लिये कोई चिह्न भी नही रखा है । फिर भी सामान्यत उपकारक ऐसा व्यक्तिगत लेख ले लिया गया है ।
८ पाठक स्वतत्रतासे और सुगमता से पढ-विचार कर अपना निर्णय कर सके इस हेतुसे किसो शब्द नीचे न तो लोटो खीची है और न ही उसे बड़े अक्षरोमे लिया है । परन्तु मूल बिना या हकीकत विदित करनेके अक्षरोमे पूरा वचनामृत मुद्रित
लेखके अनुसार ही मुद्रित किया है । खास आवश्यकता के सिवाय पादटिप्पण भी नही दिया है । क्रमबद्ध एक सरीखे किया है ।
९ स्वतंत्र रीतिसे नये अनुक्रमाक दिये है ।
१० श्री परमश्रुत प्रभावक मंडलके द्वितीय संस्करणके आक दायी ओर [] ऐसे कोष्ठकमे दिये गये हैं । जहाँ ऐसा आक नही है उसे अप्रगट साहित्य समझें ।
११ सामान्यतया श्री परमश्रुत प्रभावक मंडलके द्वितीय सस्करणके क्रमका अनुसरण कर, लेख वयक्रममे रखे हैं । जहाँ मितीमे प्रमाणभूत भूल लगी, वह लेख नयी मितीके अनुसार अन्यत्र रखा है।
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१२ प्रत्येक लेखके ऊपर प्राप्त मिती दी गई है ।
१३. विस्तृत अनुक्रमणिका तथा परिशिष्ट देकर, हो सका उतना ग्रन्थका अभ्यास सुगम करनेका प्रयास किया है ।
परिशिष्टोमे - इस ग्रन्थमे आनेवाले अन्य ग्रन्थोके उद्धरण और उनके मूल स्थान, पत्रो सम्बन्धी विशेष जानकारी, पारिभाषिक और कठिन शब्दोके अर्थ, ग्रन्थनाम, स्थल, विशेषनाम तथा विषयसूची भो दिये गये हैं । इस तरह के विवरणसे ग्रन्थ समझनेमे सुगमता होगी ।
अवधान-समयके काव्य, स्त्रोनीतिबोधक, अन्य पत्रिकाओमे प्रतशितत कोण रती त्यांकि सोलह वर्षकी आयु के पहले काव्य आदि 'सुबोध सग्रह' ग्रन्थरूपसे अलग प्रकाशित करने की भावना से इस ब नही दिये है । क्रमाक 139.78.....
raar सम्बन्धी लिखित एक पत्र ( आक १८) इस ग्रन्थमे दि
* ये आक प्रस्तुत सस्करणमेंसे निकाल दिये गये है ।
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[१४] अहो श्री सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम ।
श्रीमद् राजचन्द्र ऐसे विरल स्वरूपनिष्ठ तत्त्ववेत्ताओमेसे एक है । श्रीमद् राजचन्द्र यानि अध्यात्मगगनमे झिलमिलाती हुई अद्भुत ज्ञानज्योति । मात्र भारतकी ही नहीं, अपितु विश्वकी एक विरल विभूति । अमूल्य आत्मज्ञानरूप दिव्यज्योतिके जाज्वल्यमान प्रकाशसे, पूर्वमहापुरुषो द्वारा प्रकाशित सनातन मोक्षमार्गका उद्योतकर भारतकी पुनीत पृथ्वीको विभूषित कर इस अवनीतलको पावन करनेवाले परम ज्ञानावतार, ज्ञाननिधान, ज्ञानभास्कर, ज्ञानमूर्ति ।
शास्त्रके ज्ञाता तथा उपदेशक तो हमे अनेक मिल जायेंगे परन्तु जिनका जीवन ही सत्शास्त्रका प्रतीक हो ऐसी विभूति प्राप्त होना दुर्लभ है। श्रीमद् राजचन्द्रके पास तो जाज्वल्यमान आत्मज्ञानमय उज्ज्वल जीवनका अतरग प्रकाश था और इसीलिये इन्हे अद्भुत अमृतवाणीकी सहज स्फुरणा थी। ____"काका साहेब कालेलकरने श्रीमद्के लिये 'प्रयोगवीर' ऐसा सूचक अर्थभित शब्द प्रयोग किया है सो सर्वथा यथार्थ है । श्रीमद् सचमुचें प्रयोगवीर ही थे। प्रयोगसिद्ध समयसारका दर्शन करना हो अथवा परमात्मप्रकाशका दर्शन करना हो, प्रयोगसिद्ध समाधिशतकका दर्शन करना हो अथवा प्रशमरतिका दर्शन करना हो, प्रयोगसिद्ध योगदृष्टिका दर्शन करना हो अथवा आत्मसिद्धिका दर्शन करना हो तो 'श्रीमद' को देख लीजिये। उन उन समयसार आदि शास्त्रोमे वणित भावोका जीता-जागता अवलम्बन उदाहरण चाहिये तो देख लोजिये श्रीमद्का जीवनवृत्त । श्रीमद् ऐसे प्रत्यक्ष प्रगट परम प्रयोगसिद्ध आत्मसिद्धिको प्राप्त हुए पुरुष हैं, इसीलिये उनके द्वारा रचित आत्मसिद्धि आदिमे इतना अपूर्व सामर्थ्य दिखाई देता है ।" . .,
-श्रीमद् राजचन्द्र जीवनरेखा । भारतको विश्वविख्यातविभूति राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी लिखते है
"मेरे जीवनको श्रीमद् राजचन्द्रने मुख्यतया प्रभावित किया है। महात्मा टोल्स्टोय तथा रस्किनकी अपेक्षा भी श्रीमद्ने मेरे जीवन पर गहरा असर किया है। बहुत बार कह और लिख गया हूँ कि मैने बहुतोके जीवनमेंसे बहुत कुछ लिया है। परन्तु सबसे अधिक किसीके जीवनमेसे मैंने ग्रहण किया हो तो वह कवि (श्रीमद् राजचन्द्र) के जीवनमेसे है । • " ।'
श्रीमद् राजचन्द्र असाधारण व्यक्ति थे। उनके लेख अनुभवबिदुस्वरूप है। उन्हे पढनेवाले, विचारनेवाले और तदनुसार आचरण करनेवालेको मोक्ष सुलभ होता है। उसके कषाय मन्द पड़ते है, उसे ससारमे उदासीनता रहती है और वह देह-मोह छोडकर आत्मार्थी हो जाता है।
इस परसे पाठक देखेगा कि श्रीमद्के लेख अधिकारीके लिये है। सभी पाठक उसमेसे रस नही ले सकते । टीकाकारको उसमे टीकाका कारण मिलेगा, परन्तुं श्रद्धावान तो उसमेसे रस ही लूटेगा । रनके लेखोमे सत् हो टपक रहा है ऐसा मुझे हमेशा भास होता है। उन्होने अपना ज्ञान दिखानेके लिये एक भी अक्षर नही लिखा । लेखकका हेतु पाठकको अपने आत्मानंदमे साझीदार बनानेका था। जिसे आत्मक्लेश दूर करना है, जो अपना कर्तव्य जाननेको उत्सुक है उसे श्रीमद्के लेखोमेसे बहुत कुछ मिल जायेगा ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले ही वह हिन्दु हो या अन्य धर्मी । .
जो वैराग्य ( अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ? ) इन पद्योमे झलझला रहा है वह मैने उनके दो वर्षके गाढ परिचयमे प्रतिक्षण उनमे देखा है। उनके लेखोमे एक असाधारणता यह है कि उन्होने स्वयं जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमे कही भी कृत्रिमता नहीं है.।. दूसरे पर प्रभाव डालनेके लिये एक पक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नही देखा।'. . . . . .
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[१५] खाते, बैठते, सोते प्रत्येक क्रिया करते उनमे वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगतके किसी भी वैभवके प्रति उन्हे मोह हुआ हो ऐसा मैंने नही देखा । "
यह वर्णन सयमीमे सभवित है। बाह्याडबरसे मनुष्य वीतराग- नही हो सकता। वीतरागता आत्माकी प्रसादी है । अनेक जन्मोके प्रयत्नसे मिल सकती है ऐसा प्रत्येक व्यक्ति अनुभव कर सकता है । रागभावोको दूर करनेका प्रयत्न करनेवाला जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है.? यह रागरहित दशा कविको स्वाभाविक थी, ऐसा मुझ-पर प्रभाव पड़ा था। .. । मोक्षको प्रथम सीढी वीतरागता है। जब तक जगतकी एक भी वस्तुमे मन धंसा हुआ है, तब तक मोक्षकी बात कैसे रुचे ? अथवा रुचे तो केवल कानको ही-अर्थात् जैसे हमे अर्थ जाने-समझे बिना किसी संगीतका केवल स्वर ही रुव जाये वैसे । ऐसे मात्र कर्णप्रिय आनन्दसे मोक्षानुसारी वर्तन आते तो बहुत काल बीत जायें । अन्तर्वैराग्यके बिना मोक्षको लगन नही होती । ऐसी वैराग्यकी लगन कविको थी। . । इसके अलावा इनके जीवनमेसे दो मुख्य बातें सीखने जैसी हैं--सत्य और अहिंसा। स्वय जिसे सच्चा मानते थे वही कहते हैं और तदनुसार ही आचरण करते थे ।
इनके जीवनमेसे ये चार बातें ग्रहण की जा सकती है
(१). शाश्वत वस्तुमे तन्मयता, (२) जीवनकी सरलता; समस्त ससारके साथ एक सी वृत्तिसे व्यवहार; (३) सत्य और (४) अहिंसामय जीवन ।" . . . . . .
मात्र क्लेश और दु.खके, सागररूप इस असार ससारमे जन्म-जरा-मरण, आधि-व्याधि-उपाधि आदि त्रिविध तापमय दुखदावानलसे प्राय सभी जीव सदैव जल रहे है ।। उससे बचनेवाले ज्ञान और वैराग्यकी मूर्ति समान, परमशातिके धामरूप मात्र एक आर्षद्रष्टा तत्त्ववेत्ता स्वरूपनिष्ठ महापुरुष ही भाग्यशाली है । उन्हीकी शरण, उन्हीकी वाणीका अवलबन-यही त्रिलोकको त्रिविध तापाग्निसे बचानेके लिये समर्थ उपकारक है.1. - ।
। "मायामय अग्निसे चौदह राजूलोक प्रज्वलित है। उस मायामे जीवकी बुद्धि अनुरक्त हो रही है, और इस कारणसे जोव भी उस त्रिविध-ताप-अग्निसे जला करता है, उसके लिये परम कारुण्यमूर्तिका उपदेश ही परम शीतल जल है, तथापि जीवको चारो ओरसे अपूर्ण पुण्यके कारण उसकी प्राप्ति होना दुर्लभ हो गया है।"
-आक २३८ "तत्त्वज्ञानकी गहरी . गुफ़ाका दर्शन करने जायें तो वहाँ नेपथ्यमेसे ऐसी ध्वनि हो निकलेगी कि आप कौन है ? कहाँसे आये हैं ? क्यो आये हैं ? आपके पास यह सब क्या है ? आपको अपनी प्रतीति है ? आप विनाशी, अविनाशी अथवा कोई त्रिराशी है ? ऐसे अनेक प्रश्न उस ध्वनिसे हृदयमे प्रवेश करेंगे। ओर इन प्रश्नोंसें जव आत्मा घिर गया तब फिर दूसरे विचारोके लिये बहुत ही थोडा अवकाश रहेगा। यद्यपि इन विचारोसे ही अतमे सिद्धि हैं इन्ही विचारोके मननसे अनतकालकी उलझन दूर होनेवाली है बहुतसे आर्य पुरुष इसके लिये विचार कर गये है, उन्होने इस पर अधिकाधिक मनन किया है । जिन्होने आत्माकी शोध करके, उसके अपार मार्गकी बहुतोको प्राप्ति करानेके लिये अनेक क्रम बांधे है, वे महात्मा जयवान हो । और उन्हे त्रिकाल नमस्कार हो ।'
-आक ८३ यो ऐसे समर्थ तत्त्वविज्ञानी स्वरूपनिष्ठ महापुरुषको अनुभवयुक्त वाणीका अवलम्बन कोई महाभाग्यके योगसे ही प्राप्त होने योग्य है। '
तत्त्वजिज्ञासुओकी ज्ञानपिपासाको परितृप्त करनेवाले और आत्मार्थियोंके हृदयमे आत्मज्योति जगानेवाले ऐसे एक समर्थ तत्त्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र इस कालमे हमारे महाभाग्यसे प्रगट हुए हैं।
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[१६] उनकी अमृततुल्य अमूल्य वाणी हमे संप्राप्त हुई है यही हमारा महाभाग्य है। उसके पठन, मनन और परिशीलनसे हम अपना श्रेय कर लें तो ही उसकी प्राप्तिकी सार्थकता है । .
उनका जो कुछ साहित्य उपलब्ध है वह सारा इस ग्रन्थमे प्रसिद्ध किया गया है। यह साहित्य तत्त्वज्ञान या अध्यात्मके क्षेत्रमे अत्युत्तम कक्षाका अमूल्य साहित्य है। तत्त्वरसिकोकी तत्त्वपिपासाके सतोषके लिये अथवा आत्मार्थियोको आत्मोन्नतिमे प्रगतिमान होनेके लिये गूर्जर भाषामे यह एक अपूर्व साहित्य है। मोक्षार्थियोको निज शुद्ध सहज आत्मतत्त्वकी उपासनासे परमानदमय मोक्षमहलमे सुगमतासे चढनेके लिये यह एक दुषमकालमे अनोखा ही अवलम्बन है जो सोपान समान उपकारी हो सकता है। इसमे विविध पारमार्थिक विषयोको छूनेवाला, मुख्यत मोक्षमार्गको स्पष्टतासे और सुगमतासे दर्शानेवाला, अमूल्य यत्र-तत्र बिखरे हुए वचनरत्नोके प्रकाशसे सर्वत्र चमकता हुआ, रत्नाकरकी तरह अगाध और सर्वत्र शातरसमित उच्चतम आध्यात्मिक साहित्य भरा पड़ा है, जो शोधकके लिये अमूल्य रत्नत्रयकी प्राप्तिसे परमश्रेयको प्राप्त करानेवाले निधान समान है। यह साहित्य तत्त्वसाधकोको परमानदकी साधनामे सहायक बनकर परम श्रेयका कारण होओ। अथवा विदग्धमुखमडन भवतु-विद्वानोके मुखका आभूषणरूप होओ।
'अज्ञानवश बाह्यदृष्टिसे, लांकिकभावसे, वैसे किसी आग्रहसे या सकुचित मनोवृत्तिसे यदि श्रीमद्को मात्र गृहस्थ, जौहगे या कविके रूपमे पहचाननेकी क्वचित् भूल होती हो तो कुछ गुणानुराग या प्रमोदभावसे, सत्यको खोजनेकी एवं स्वीकार करनेकी विशाल दृष्टि रखकर आग्रहरहित होकर इस ग्रन्थका अवलोकन या अभ्यास करेगे तो अवश्य इतना तो दृष्टिगोचर होगा ही कि श्रीमद् कोई सामान्य कोटिके मनुष्य नही, प्रत्युत् ईश्वर कोटिके मनुष्य है अथवा वे मनुष्यदेहमे परमात्मा, परम ज्ञानावतार, साक्षात् धर्ममूर्तिरूपसे ही भारतको विभूषित कर गये है। पूर्वकालमे अनेक भवोमे आराधित योगके फलस्वरूप इस भवमे अपूर्व आत्मसमाधि साध्य करनेवाले कोई अद्भुत योगोश्वर ही हैं ।
"एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसपत्तिके विना हमे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, हमे किसी पदार्थमे रुचिमात्र नही रही हैं, कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नही होती, व्यवहार कैसे चलता है इसका भान नही है, जगतं किस स्थितिमे है इसकी स्मृति नहीं रहती, शत्रुमित्रमे कोई भेदभाव नही रहा; कौन शत्रु है और कौन मित्र है, इसका ख्याल रखा नही जाता, हम देहधारी है या नही इसे जब याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते है, हमे क्या करना है, यह किसीसे जाना नही जा सकता।" -आक २५५
"किसी भी प्रकारसे विदेही दशाके बिनाका, यथायोग्य जीवन्मुक्तदशारहित और यथायोग्य निग्रंथदशा रहित एक क्षणका जीवन भी देखना जीवको सुलभ नही लगता। एक पर राग और एक पर द्वेष ऐसी स्थिति एक रोममे भी उसे प्रिय नहीं है। "
-आक १३४ 'चैतन्यका निरन्तर अविच्छिन्न अनुभव प्रिय है, यही चाहिये है। दूसरी कोई स्पृहा नही रहती। रहती हो तो भी रखनेकी इच्छा नही है । एक 'तू ही, तू ही' यही यथार्थ अस्खलित प्रवाह चाहिये।" .
-आक १४४ "निरजनपदको समझनेवालेको निरजन कैसी स्थितिमे रखते है, यह विचार करते हुए अकल गति पर गभीर एव समाधियुक्त हास्य आता है | अब हम अपनी दशाको किसी भी प्रकारसे नहीं कह सकेंगे, तो फिर लिख कैसे सकेंगे?"
" मुझे भी असगता बहुत ही याद आती है, और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस
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-आक १८७
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[१७]
असंगताक़े बिना परम दु ख होता है । यम अतकालमे प्राणीको दुःखदायक नही लगता होगा, परन्तु हमे सग दुखदायक लगता है ।"
-आक २१७
" समय समय पर अनन्तगुणविशिष्ट आत्मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जिसे प्राय भाँपने नही दिया जाता, अथवा भॉप सकनेवालेका प्रसग नही है ।"
--आक ३१३
"देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योकि हम भी निश्चयसे उसी स्थितिकी प्राप्त करनेवाले हैं, यो हमारा आत्मा अखण्डरूपसे कहता है, और ऐसा ही है, अवश्य ऐसा ही है । पूर्ण वीतरागकी चरणरज निरन्तर मस्तकपर हो, ऐसा रहा करता है । अत्यन्त विकट ऐसा वीतरागत्व अत्यन्त आश्चर्यकारक है, तथापि यह स्थिति प्राप्त होती है, सदेह प्राप्त होती है, यह निश्चय है, प्राप्त करनेके लिये पूर्ण योग्य है, ऐसा निश्चय है । सदेह ऐसे हुए बिना हमारी उदासीनता दूर हो ऐसा मालूम नही होता और ऐसा होना सम्भव है, अवश्य ऐसा ही है ।"
-आक ३३४
"मनमे वारवार विचार करनेसे निश्चय हो रहा है कि किसी भी प्रकारसे उपयोग फिरकर अन्यभावमे ममत्व नही होता, और अखण्ड आत्मध्यान रहा करता है ।" -आक ३६६
" हम कि जिनका मन प्राय क्रोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे, हास्यसे, रतिसे, शोकसे, जुगुप्सासे या शब्द आदि विषयोसे अप्रतिबद्ध जैसा है, कुटुम्बसे, धनसे, पुत्रसे, या देहसे मुक्त जैसा है, ऐसे मनको भी सत्संगमे बाँध रखनेकी अत्यधिक इच्छा रहा करती है । "
अरतिसे, भयसे, 'वैभव' से, स्त्रीसे
—ओक ३४७
"जगह जगह पर ऐसे असग, अप्रतिबद्ध स्वदशा सूचक वचन उनकी अतरगचर्या या आत्ममग्नताका अवश्य दिग्दर्शन कराते हैं । उनका ज्ञान एवं वैराग्यकी अखंड ' धारारूप अतरंग पुरुषार्थ- पराक्रम बाह्यदृष्टि भाँपा नही जा सकता । इसीलिये कहा है कि “मुमुक्षुके नेत्र महात्माको पहचान लेते है ।" अंतरंग चर्या तक दृष्टि जानेके लिये मुमुक्षुतारूप नेत्रोकी जरूरत है ।
जैसे जनक राजा राज्य करते हुए भी विदेहीरूपसे रहते थे और त्यागी सन्यासियोसे भी उत्कृष्ट असग अप्रतिबद्ध विदेही दशामे रहकर आत्मानदमे मग्न थे तथा भरत महाराजा चक्रवर्तीपदका समर्थ ऐश्वर्य तथा छ खण्डके साम्राज्यकी उपाधि वहन करते हुए भी अंतरग ज्ञान-वैराग्यके बलसे आत्मदशा सभालते हुए अलिप्तभावमे रहकर आत्मानंदकी मजा लूटते थे, वैसे ये महात्मा भी, प्रतिसमय अनतगुणविशिष्ट आत्मभाव वर्धमान होता रहे ऐसी बलवान त्यागवैराग्यको अखंण्ड अप्रमत्तधारासे किसी अपूर्व अतरग चर्यासे रागद्वेष आदिका पराजय करके मोक्षपुरी पहोचनेके लिये मानो वायुवेगसे, त्वरित गति से दौड़े, न जा रहे हो । यो अत्यन्त उदासीनता पूर्वक आत्मानदमें लीन, अन्तर्मग्न रहते थे । ऐसा उनके इस ग्रन्थमे सग्रहित लेखोमे-जगह - जगहपर दृष्टिगोचर होने योग्य हैं, और अनेक शास्त्रोंके पठनसे भी जो लाभ प्राप्त होना मुश्किल है, वह लाभ इस एक ही ग्रन्थके शातभावसे पठन, मनन, परिशीलन व अभ्यास द्वारा सरलतासे प्राप्त कर जिज्ञासु अपनेको धन्यरूप, कृतार्थरूप कर सकते हैं ।
इसके अतिरिक्त उनकी अतरंग असग, अप्रतिबद्ध, जीवन्मुक्त, वैराग्यपूर्ण, विदेही, वीतराग, समाधिबोधिमय, अद्भुत, अलौकिक, अचित्य, आत्ममग्न, परमशात, शुद्ध, सच्चिदानंदमय सहजात्मदशाको झांकी होनेसे, सद्गुणानुरागीको तो अपनी मोहाधीन पामर दशा देखकर समस्त गर्व नष्ट होकर ऐसी उच्चतम दशाके प्रति सहज ही सिर झुके बिना नही रहता । और उस अलौकिक असंग दशाके प्रति प्रेम, प्रतीति, भक्ति प्रगट होकर उनके शुद्ध चैतन्यस्वरूप, परमार्थस्वरूप, सत्यस्वरूपकी पहचान होने से उनमे आविर्भूत हुए शुद्ध आत्मदर्शन, आत्मज्ञान व आत्मरमणतारूप रत्नत्रयादि आत्मिक गुण जो साक्षात् मूर्तिमान मोक्ष
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मार्ग है, उसके प्रति अत्यन्त प्रमोद, प्रेम एवं उल्लास आने योग्य है। अन्तमे, अनादिसे अप्रगट जो अपना परमात्मस्वभाव है उसका भी भान होता है और उसे प्रगट करनेका लक्ष्य और पुरुषार्थ जागृत होनेपर, आत्मा परमात्मा होकर परम श्रेयको प्राप्तकर शाश्वतपदमे स्थित होनेरूप भाग्यशाली हो ता तकका सन्मार्ग और सत्साधन सप्राप्त होने योग्य है । मुनि श्री लघुराज स्वामी, श्री सौभाग्यभाई, श्री जूठाभाई, श्री अबालालभाई आदि उज्ज्वल आत्मा इस सद्गुणानुरागसे मुमुक्षुतारूप नेत्र अथवा अलौकिक दृष्टि पाकर श्रीमद्की सच्ची पहचान करनेवाले भाग्यशाली हुए और फलस्वरूप आत्मज्ञानादि गुणोसे विभूषित होकर स्वपरका श्रेय कर गये, यह प्रत्यक्ष दृष्टातरूप है।
सत्पदाभिलाषी सज्जनोको सत्पदकी साधनामें इस अत्युत्तम सद्ग्रन्थका विनय और विवेकपूर्वक सदुपयोग आत्मश्रेय साधनमे प्रबल उपकारी हो यही अभ्यर्थना।
जेना प्रतापे अंतरे परमात्म पूर्ण प्रकाशतो, जेयी अनादिनो महा मोहांधफार टळी जतो। वोधि समाधि शाति सुखनो सिंधु जेयो अछळतो, ते राजचद्र प्रशान्त फिरणो उर अम उजाळजो ॥
श्रीमद् राजचद्र आश्रम, अगास ता० १-१-६४, स० २०२० पौष वदी २
।
सतसेवक रावजीभाई छ देसाई
प्रस्तुत संस्करण हिन्दी मे श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत नामक इस वृहद् ग्रन्थ को आश्रम द्वारा प्रकाशित करते हुए हमे प्रसन्नता हो रही है। हिन्दी भाषी जिज्ञासु मुमुक्षुओ ने जिस उत्साह से इस ग्रन्थ को स्वीकारा है उसमे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्रीमद् राजचन्द्र के अगाध आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति लोगो की श्रद्धा वढ रही है।
श्रीमद् राजचन्द्र जी के वचन दार्शनिक होकर भी सम्पूर्ण मुक्ति मार्ग की प्राप्ति मे सर्वथा व्यवहारिक और अन्तर को स्पर्श करने मे अद्वितीय है। जैसे किसी भी भाषां के लेखक की कृतियो का यथार्थ भाव उसी भापा मे आत्मसात् किया जा सकता है वैसे ही श्रीमद् जी के वचनो का सही भाव उन्ही की भाषा गुजराती मे और सत्सग मे बैठकर समझा जा सकता है। फिर भी यह हिन्दी अनुवाद तैयार करने में श्रीमद् के वचनो के अध्येता' और योग्य व्यक्तियो का सहयोग मिला है जिससे मुमुक्षुओ को समझने मे सरलता आयेगी। फिर भी इतना निवेदन है कि जो मुमुक्ष गुजराती मे श्रीमद् राजचन्द्र जी के वचनो के अभ्यासी रहे है ऐसे हिन्दी भापी आत्मार्थीजनो के सान्निध्य मे इन वचनो का स्वाध्याय किया जाय तो अधिक लाभदायी होगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ सम्बन्धी विस्तृत जानकारी जो पिछली आवृत्तियो की प्रस्तावना मे दी गई है। मुमुक्षुओ के अवलोकनार्थ इसके साथ प्रकाशित है।
इस आत्मउद्धारक ग्रन्थ को सावधानीपूर्वक, विनय, विवेक सहित सदुपयोग करने का निवेदन है।
-प्रकाशक ता १-७-९१, स २०४७'---
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अनुवादकका नम्र निवेदन
:: (प्रथम सस्करण)
,
___'श्रीमद् राजचद्र' शब्द व्यक्ति और कृति दोनोका बोधक है । श्रीमद् राजचद्र जन्मसे महान है और उनकी आध्यात्मिकता जन्मसिद्ध है । श्रीमद्जी नीति एव न्यायसे सासारिक कार्य करते हुए आत्मविकासको पराकाष्ठा तक पहुँचे हैं, यह उनके जीवनकी एक अनोखी अनुकरणीय विशेषता है। श्रीमद्जीने खुद ही अपने सस्कार, विचार और आचार अपनी विविध रचनाओ-मुख्यत. मुमुक्षुओको लिखे गये पत्रोमे अति स्पष्टता एव सुदृढतासे प्रदर्शित किये है। धर्म और अध्यात्म जीवन है, इस सनातन सत्यके श्रीमद्जी एक ज्वलत तथा अनुपम उदाहरण है अर्थात् वे धर्ममूर्ति एवं अध्यात्ममूर्ति है । उन्होने अपनी अलौकिक स्मृति, प्रज्ञा आदि अनेकविध शक्तियोका उपयोग लौकिक ऐश्वर्यकी प्राप्ति या सिद्धिके लिये नही किया है, किन्तु आत्मिक ऐश्वर्यकी सिद्धिके लिये किया है। और इसके लिये उन्होने अपनी देहकी भी आहुति देकर मनुष्यदेहकी सार्थकताका एक अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनका जीवन गृहस्थ तथा साधु दोनोके लिये प्रेरक एवं उत्साहवर्धक है। उनकी कृति ही उनके जीवनका दर्पण है। यदि उन्होने 'आत्मसिद्धि' की भाँति संपूर्ण आत्मकथा लिखी होती तो वह भी एक अपूर्व देन होती । उनके जीवनको जानने और समझनेके लिये इन आकोका तो अध्ययन, मनन और निदिध्यासन करना ही चाहिये -३०, ५०, ७७,७८, ८२, ८३, ८९. (समुच्चय वयचर्या), ११३, १२६, १२८, १३३, १५७, (दैनदिनी) के ७ व १३, १६१, १६२, १६३, १७०, २४७, २५५, २६४, ३२२, ३२९, ३३४, ३३९, ३९८, ५८६, ६८०, ७०८, ७३८ (अपूर्व अवसर) ९५१,९५४, ९६० (सस्मरण पोथी १/३२ धन्य रे दिवस आ अहो) .. . ।। ३३ वर्षके जीवनका दिग्दर्शन ।
जन्म-सवत् १९२४ कार्तिक सुदी पूर्णिमा, रविवार रातको २ बजे ववाणिया गाँव (काठियावाड) मे, नामपरिवर्तन-चौथे वर्षमे प्यारा नाम'लक्ष्मीनदन 'बदलकर रायचन्द, जातिस्मरणज्ञान-७वें वर्षमे बबूलके पेड पर, शिक्षा-७वें से ११वें वर्ष तक, गुजराती ७ श्रेणि, लेखन-प्रवृत्ति-८वें वर्षमे ही कविता करनेका श्रीगणेश, ५००० कड़ियाँ, ९वें वर्षमे सक्षिप्त रामायण और महाभारत काव्य, 'स्वदेशीओने विनति' (स्वदेशियोको विनती) 'श्रीमत जनोंने शिखामणं' (श्रीमतोको सिखावन), 'हुन्नरकळा वधारवा विषे' (हुनरकला बढानेके विषयमे) 'आर्यप्रजानी पडती' (आर्यप्रजाकी अधोगति), 'स्त्रीनीतिबोधक' आदि सामाजिक और देशोन्नति-विषयक अनेक काव्य, अवधान-१६वेंसे १९वें वर्ष तक, स० १९४२ मे ववईमे शतावधान, विवाह-१९वें वर्षमे-स० १९४३ माघ सुदी १२,' गृहस्थजीवन लगभग १२ साल, व्यापार२२वें वर्षमे श्री रेवाशंकर जगजीवनदासके साझेमे बंबईमे जवाहरातका व्यवसाय, व्यापारी जीवन लगभग ११ साल, क्षायिक सम्यग्दर्शन (आत्मज्ञान)-२३वें वर्षमे (स० १९४७), तभीसे कल्पित एव आध्यात्मिक प्रगतिमे महत्त्वहीन ज्योतिषका त्याग, कंचनकामिनीत्याग-मुनि शिष्योंके सामने ३२वें वर्षमे (स० १९५६), श्रीपरमश्रुतप्रभावक-मण्डल-सं० १९५६ मे स्थापना; अस्वस्थता-विशेषत स० १९५६ मे उनकी शरीरप्रकृति अधिक बिगडने लगी। युवावस्थामे उनका वजन १३२ पौड था, जो कम होते-होते ६५ पौंड हो गया। समाधिमरण-सं०१९५७ चैत्र वदो पंचमी मंगलवार, दिनके २ बजे राजकोटमे,वजन ४५ पौंड।
श्रीमद्जो समय-समयपर अपने प्रवृत्तिमय जीवनसे निवृत्ति लेने और सत्संग करनेके लिये वड़वा,
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५ अनाथी मुनि - भाग १
६
-भाग २
--भाग ३
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७
८ सदेवतत्त्व
९ सद्धर्मतत्त्व
ار
"
१० सद्गुरुतत्त्व -- भाग १
११
--भाग २
१२ उत्तम गृहस्य
१३ जिनेश्वरकी भक्ति - भाग १
१४
१५ भक्तिका उपदेश ( काव्य )
१६ सच्ची महत्ता
"
१७ बाहुवल
१८ चार गति
१९ ससारकी चार उपमाएँ - भाग १
२०
-भाग २
२१ बारह भावना
२२ कामदेव श्रावक
२३ सत्य
"
"
२४ सत्सग
२५ परिग्रहको मर्यादित करना
२६ तत्त्वको समझना
२७ यत्ना
२८ रात्रिभोजन
२९ सर्व जीवोकी रक्षा - भाग १
३०
-भाग २
३१ प्रत्याख्यान
३२ विनयसे तत्त्वकी सिद्धि है
३३ सुदर्शन सेठ
३४ ब्रह्मचर्यं सवधी सुभाषित ( काव्य )
-भाग २
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३५ नवकार मंत्र
३६ अनानुपूर्वी
३७ सामायिक विचार - भाग १
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४० प्रतिक्रमणविचार
४१ भिखारीका खेद भाग १
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४३ अनुपम क्षमा
४४ राग
४५ सामान्य मनोरथ ( काव्य )
४६ कपिलमुनि
१- भाग १
४७
-भाग २
४८
- भाग ३
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४९ तृष्णाकी विचित्रता ( काव्य )
५० प्रमाद
५१ विवेक किसे कहते हैं।
?
५२ ज्ञानियोने वैराग्यका बोध क्यो दिया ?
५३ महावीरशासन
५४ अशुचि किसे कहना ?
५५ सामान्य नित्यनियम
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५६ क्षमापना
५७ वैराग्य धर्मका स्वरूप है
५८ धर्मके मतभेद – भाग १
-भाग २
10000066
५९
६०
-भाग ३
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६१ सुख सवधी विचार - भाग १
६२
भाग २
६३
-भाग ३
--भाग ४
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भाग ५
६६
-भाग ६
६७ अमूल्य तत्त्वविचार ( काव्य )
६८ जितेन्द्रियता
६९ ब्रह्मचयंकी नो बाडें
७० सनतकुमार - भाग १
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-भाग २
71
71
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33
"
७२ बत्तीस योग
७३ मोक्षसुख
७४ धर्मध्यान - भाग १
७५
-भाग २
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-भाग ३
"
७७ ज्ञानसवधी दो शब्द - भाग १
७८
-भाग २
-भाग ३
भाग ४
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८१ पचमकाल
१२० | २३ जीवतत्त्वसम्बन्धी विचार ८२ तत्त्वावबोध-भाग १ १२० २४ जीवाजीवविभक्ति
१६६ " -भाग २
१२१ २५ प्रमादसे आत्मस्वरूपकी विस्मृति १६६ -भाग ३
१२२ २६ मनकी विचित्र दशा, सावधानी शूरका भूषण १६७ -भाग ४
१२२ २७ दूसरा महावीर, सर्वज्ञ जैसी स्थितिमें, सच्चे -भाग ५
१२३
धर्मके प्रवर्तनकी उत्कठा। -भाग ६
१२३ २८ धर्मप्रवर्तनमे विलब, किसीको निराश नही -भाग ७ १२४ करूंगा
१६८ -भाग ८ - - १२४
२१ वो वर्ष -भाग ९ - १२५ | २९ भाइयोमे प्रीति आदिकी वृद्धि करें, समयका -भाग १० । सदुपयोग करें, निश्चित रहें।
१६९ -भाग ११ - , १२६ | ३० लग्न सम्बन्धी विचार, परार्थ करते हुए -भाग १२
१२६
लक्ष्मीसे अघता आदिका सभव, विवाह -भाग १३ १२७ दिलका रिश्ता
१६९ -भाग १४
३१ दुनियामें सत्समागम ही अमूल्य लाभ १७० __ -भाग १५'
३२ एक अद्भुत बात, बायी आँखमें चमकारा १७०
३३ आर्थिक वेफिक्री न रखें, आत्मसुखके लिये , -भाग १७
१२९ व्यय-सकोच
१७० ९९ समाजकी आवश्यकता
३४ चमत्कारसे आत्मशक्तिमें परिवर्तन १७० १०० मनोनिग्रहके विघ्न
३५ समय-यापन, सत्सग न मिलनेसे विवेक १०१ स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य १३१
व्याकुलता
१७० १०२ विविध प्रश्न-भाग १
१३१
३६ मतभेदसे अनतकालमें भी धर्म नही पाया १७१ १०३ , -भाग २ -
३७ जगतको अच्छा दिखानेके लिये अनतवार प्रयत्न, १०४ -भाग ३
१३२
उपयोगशुद्धि, इस कालकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग, १०५ -भाग ४
१३३
आपके 'पूज्य' की निर्विकल्प होनेकी इच्छा, १०६ -भाग ५
१३४
रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म, सर्वसम्मत १०७ जिनेश्वरकी वाणी (काव्य) १३४
धर्म, आत्मामें हूँ, देह धर्मोपयोगके लिये १७१ १०८ पूर्णमालिका मगल (काव्य) - १३५ ।। ३८ स्वभावमुक्त प्रत्यक्ष अनुभवस्वरूप आत्मा,
अगम-अगोचर, सुगम-सुगोचर
१७२ १९ वॉ वर्ष १८ बावन अवघान, अवधान आत्मशक्तिका कार्य,
| ३९ चैतन्य सत्ता प्रत्यक्ष व सन्मुख, आत्मज्ञानसे विश्राम -
१७२ न्यायशास्त्र, अभ्यासार्थ काशीयात्राविचारणीय १३६ ,
४० तत्त्व पानेके लिये उत्तम पाय, सुलभ वोधित्व२०वा वर्ष
की योग्यता, निम्रन्य दर्शन मानने योग्य, १९ महानीति (वचन सप्तशती) . १३८ दु पम काल, मत-प्रवर्तनमें मुख्य कारण, २० एकान्तवाद हो ज्ञानकी अपूर्णता
१५६ धर्मकी दुर्लभता, सच्चे दीक्षित एव शोधक २१ वचनामृत
१५६ पुरुष विरल, -मुख्य विवाद प्रतिमापूजन, २२ स्वरोदयज्ञान-प्रस्तावना और पद्यार्थ,
प्रतिमासिद्धिके प्रमाण, शास्त्र-सूत्र कितने, आत्मज्ञ चिदानदजीकी मध्यम अप्रमत्तदशा १६१ मन्तिम अनुरोध
१७२
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[२४] २२ वाँ वर्ष
। ६० (१) संयत धर्म-यतना, 'पहले ज्ञान और ४१ निरन्तर सत्पुरुषकी कृपादृष्टि चाहे, शोक
फिर दया', जीव, अजीव, गति, पुण्य रहित रहें।
१७८ आदिके स्वरूपज्ञानसे संसार-निवृत्ति, ४२ आत्मा अनादिकालसे क्यो भटकता रहा? १७८ संवर, निर्जरा, केवलज्ञान, सिद्धगति १८६ ४३ मेरे प्रति मोहदशा न रखे, सत्पुरुषोका गुण- । ।
(२) अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रत, एक स्मरण और समागम करें।
१७८
बार खाना, रात्रिभोजन त्याग, छकाय ४४ शोचसम्बन्धी न्यूनता और पुरुषार्थकी
जीवकी रक्षा अधिकता
६१ ज्ञानवृद्धताकी प्राप्ति
१८९ ४५ यदि न चले तो प्रशस्त राग रखें। १७९, ६२ परमात्माके ध्यानसे परमात्मा, ध्यान सत्पुरुष४६ आत्मत्वप्राप्तिका मार्ग खोजें ।
की विनयोपासनासे, धर्मध्यान राजमार्ग, ४७ सात प्रकृतियोका ग्रन्थिछेदन और आत्म
धर्मध्यानकी प्राप्ति, उसकी भूमिकाएँ, भेद दर्शन, सतप्त आत्माको शीतल करना ही
और भूषण, जहाँ वासना जय वहाँ श्वास कृतकृत्यता, "धर्म" बहुत गुप्त वस्तु,
जय, उसके साधन, श्रेणि, वर्षमानता, उसकी प्राप्ति अत शोघनसे
१७९
सबका मूल सत्पात्रता
६३ चित्तकी दशा विदित करना उपकारक , १९१ ४८ व्यवहारशुद्धि, उसके नियम
१८१
६४ जहाँसे 'यथार्थदृष्टि' अथवा 'वस्तुधर्म' प्राप्त ४९ आशीर्वाद देते ही रहें, तन-मन-वचन और
करें वहाँसे सम्यग्ज्ञान सप्राप्त हो, जो एकको आत्मस्थितिको संभाले
जानता है वह सवको जानता है, ज्ञानवृद्धता, ५० अत करणको प्रदर्शित करनेके स्थान बहुत ही
पुनर्जन्मसवधी विचार, चैतन्य और जडकी कम, चार पुरुषार्थोकी प्राप्ति, प्रमाद करना
भिन्नता, आत्मज्ञान श्रेष्ठ, उसकी प्राप्ति, महामोहनीयका वल
सत्पुरुषोंके चरित्र दर्पणरूप - १९१ ५१ महान बोध-नया कर्मबंध न होनेके लिये
६५ धर्मनिष्ठ आत्माको शाति एक पुण्य १९४ सचेतता, समभावकी श्रेणि
६६ निग्रंथ द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोकी शोधके लिये ५२ सर्वोत्तम श्रेय, कैसो इसकी शैली ! मात्म
आगमन
१९४ पहचानकी ओर ध्यान दे।
१८३ ६७ धर्मप्रशस्त ध्यानके लिये विज्ञापन ५३ सत्सग खोजें, सत्पुरुपकी भक्ति करें। १८४
६८ अनंत भवके आत्मिक दुखका परमौषध, ५४ मोक्षके मार्ग दो नही, एक ही मार्गके लिये
___यथार्थदृष्टि हुए बिना सव दर्शनोका तात्पर्य सभी क्रियाएँ और उपदेश, यह मार्ग सर्वत्र
ज्ञान हृदयगत नहीं होता, वुद्ध चरित्र मननीय १९४ सभव, वह मार्ग आत्मामें, उसकी प्राप्तिमें
६९ महासतीजी मोक्षमालाका यथार्थ श्रवण-मनन मतभेद बाधक
१८४
___ करें, अनुभव और कालभेदके अनुसार ५५ कर्म जड वस्तु, अबोधताकी प्राप्तिका कारण,
उसका लेखन
१९५ समत्व-श्रेणिसे चेतनशुद्धि, मोक्ष हथेलीमें १८४ |
७० सत्सगकी बलवत्तरता है।
१९५ ५६ धर्मसाधन-देहकी सभाल'
१८५
७१ शास्त्रबोध, क्रिया आदिका प्रयोजन स्वरूप५७ मैत्री आदि चार भावनाएँ
प्राप्ति, सर्वसगपरित्यागकी आवश्यकता, ५८ शास्त्र में मार्ग, मर्म तो सत्पुरुपके अंतरात्मामें १८५ / अतरग निग्रंथश्रेणिसे सर्वसिद्धि, अन्य दर्शनमें ५९ में आपके समीप ही हूँ, देहत्यागका भय न मध्यस्थता, प्राप्त अनुत्तरजन्मका साफल्य, समझें, दशवकालिक अपूर्व बात, परम
प्रत्येक पदार्थकी प्रज्ञापनीयता, आत्मव्याख्या कल्याणकी एक श्रेणि १८६ । भी उसीसे
१९५
१८२
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७२ बाह्यभावसे जगतमें रहें और अतरगमें निर्लेप
रहें
७३ शोकरहित प्रवृत्ति करें
७४ क्षमा-याचना, परतत्रताके लिये खेद ७५ मुझ पर शुद्ध राग रखें, लोभी गुरु दोनोके
लिये अधोगतिका कारण
७६ सत्पुरुषको ही खोज, सत्पुरुषके लक्षण, उसकी सेवासे पद्रह भवमें मोक्ष
[ २५ ]
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१९६
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७७ सुखकी सहेली, अध्यात्मकी जननी उदासीनता, लघुवयथी अद्भुत थयो .. ( काव्य ) १९७ ७८ स्त्रीके संबध में मेरे विचार, निरावाघ सुख
व परम समाधिका आश्रय शुद्ध ज्ञान, स्त्रीमें दोष नही परतु आत्मामे, शुद्ध उपयोगसे मोहनीय भस्मीभूत
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७९ दृष्टिभेदसे भिन्न भिन्न मत ( काव्य ) ८० प्रतापी पुरुष
८१ कर्मकी विचित्र aघ- स्थिति, महान मनोजयो वर्धमान आदि
८२ दुखिया मनुष्योका सिरताज बन सकूं, अतरङ्गचर्या प्रगट करने योग्य पात्रोकी दुर्लभता ही महा दुःख है
८३ गृहाश्रमवधी विचार आपके सामने रखनेका हेतु, तत्त्वज्ञानकी गहरी गुफाका दर्शन और निवास, जगतकी विचित्रता त्रिकाल २०० २३ वाँ वर्ष
१९९
१९९
८४ भाई, इतना तो तेरे लिये अवश्य करने योग्य है
२०२
८५ समझकर अल्पभाषी होनेवालेको पश्चात्तापका अवसर कम, आत्माको पहचाननेके लिये आत्म-परिचयी एव पर वस्तुका त्यागी होना २०३ ८६ अनतकाल हुआ, जीवको निवृत्ति क्यो नही
होती ? ससारमें रहना और मोक्ष होना कहना यह होना असुलभ, चार भावना ८७ परमतत्त्वको सामान्य ज्ञानमें प्रस्तुत करनेकी हरिभद्राचार्यकी स्तुत्य चमत्कृति, नास्तिकके उपनामसे जैनदर्शनका खडन यथार्थ नही, अतरङ्ग अभिलापा, तरनेका एक ही मार्ग
२०३
२०३
८८ सर्वव्यापक चेतनका चित्तसे विचार, प्रकाश
स्वरूप घाम, अत करण व आत्मा
८९ समुच्चयदयचर्या
९० अद्भुत योजना -- धर्मके दो प्रकार - १. सर्वसगपरित्यागी २ देशपरित्यागी, ज्ञानका
उद्धार, निग्रंथ धर्म आदिको योजना, मतमतातरादिकी विचारणा ९१ वह पवित्र दर्शन होनेके बाद वघन नही, सत्स्वरूपदर्शिताकी बलिहारी ९२ आत्मदर्शिता तव प्राप्त होगी
आदि
९३ नवपदध्यानियोकी वृद्धिकी अभिलाषा ९४ बँधे हुमोंको छुडाना
९५ उपालभ, सर्वगुणाश सम्यक्त्व
९६ धर्म, अर्थ, कामकी एकत्रता
९७ चार पुरुषार्थकी समझ दो प्रकारसे
९८ समाधिभाव प्रशस्त रहता है, वीतराग देवमें वृत्तिपूर्वक प्रवृत्त रहें
९९ चार आश्रमवाला काल धन्य
१०० श्री ऋषभदेव द्वारा व्यवहार धर्मोपदेश, भरत द्वारा वेद, आश्रम, वर्ण और पुरुपार्थकी योजना
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१०१ मनुष्यात्मा चार वर्गकी सिद्धि के योग्य, आश्चर्यकारी विचित्रता, मोहदृष्टिसे दु ख २११ १०२ मनुष्यजन्म दुर्लभ, परम पुरुषार्थ, मोक्षका स्वरूप, ध्यानरूप जहाज उपादेय
२११
१०३ कुटुम्बरूपी काजलको कोठरीमे रहने से सारवृद्धि
२१२
१०४ व्यवहारक्रम तोडकर लिखनेमे अशक्त, जिनोक्त पदार्थ यथार्थ ही हैं १०५ महावीरके वोघका पात्र कौन ? १०६ रचनाकी विचित्रता सम्यग्ज्ञान- वोधक, जनसमूहको अपेक्षासे यह काल अति निकृष्ट १०७ लोक पुरुषसस्थाने कह्यो ( काव्य ) पुरुषाकार लोकका रहस्य क्या ? हम कौन ? कहाँसे ? सुखी-दुखी क्यो ? जहाँ शका वहाँ सताप, गुरु-पहचानके लिये वैराग्य आवश्यक, सव घर्मो में एक तत्त्वका गुणगान, जीवन्मुक्त दशा
२१२
२१२
२१३
२१३
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१५९ सर्वरूपसे एक श्री हरि, श्री हरि निराकार, श्री पुरुषोत्तम साकार, हरि स्वेच्छासे बहुरूप
१६० विश्व चैतन्याविष्ठित, विशिष्टाद्वैत और शुद्धाद्वैत, परमात्म-सृष्टि और जीव-सृष्टि, हरि और माया, जीव - परिभ्रमण, परमात्मा का अनुग्रह, ब्राह्मी स्थिति, सर्व ब्रह्म है, हरिका अश हूँ, केवल पद, वस्तु, अवस्तु १६१ सहजात्मस्वरूपीकी दुविधा, सभी दर्शनोमे आत्माकी शका, आस्था, आत्माकी व्यापकता, मुक्तिस्थान आदिमें शका ही शका, सद्गुरुका अयोग, दर्शनपरिषह, जहर पी या उपाय कर ।
१६२ शकारूप भँवरमे, यथेष्ट सत्समागमकी दुर्लभता, सामान्य सत्समागमी स्वविचार दशाके लिये प्रतिबन्चरूप
१६३ कलिकालका स्वरूप, हमें भी कलियुगका प्रसगी जीवोकी वृत्तिविमुखता हमारा सग, परम दुख १६४ हे हरि । तेरा स्वरूप परम अचित्य, अद्भुत । अनुग्रह कर ।
२४ वाँ वर्ष
निर्भयता
१६५ केवलबीजसपन्न, सर्व गुणसपन्न भगवानमें भी अपलक्षण, केवलज्ञान तकका परिश्रम व्यर्थ नही जायेगा, नि. शकता, आदिकी जरूरत, मोक्षकी नही १६६ सत्पुरुषके एक-एक वाक्यमें एक-एक शब्दमें अनंत आगम, मगलरूप वाक्य -- मायिक सुखको इच्छा छोडे विना छुटकारा नही, मायिक वासनाके अभाव के लिये सद्गुरुको आत्मार्पण, मोक्षमार्ग आत्मामे है । १६७ सत्य एक हैं, दो प्रकारका नही, व्यवहारमें रहते हुए वीतराग, कबीरपथीके सत्सगके लिये ज्ञानावतारकी प्रेरणा और शिक्षा १६८ किसे ससारका सग अच्छा नही लगता ग्यारहवें गुणस्थानकसे गिरे हुएका मोक्ष १६९ अभिलाषा के प्रति पुरुषार्थ करना
?
[ २८ ]
२४१
२४१
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२४६
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२४७
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२४८
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२५१
१७० आत्माने ज्ञान पा लिया, ग्रन्थिभेद हुआ, अतिम निर्विकल्प समाधि सुलभ, गुप्तता, वेदोदय तक गृहवास, तीर्थंकरके किये अनुसार करनेकी इच्छा, उपशम और क्षपक श्रेणियां, आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ श्रवणके भी अयोग्य
१७१ पत्र लिखनेका उद्देश, सग किसका ? १७२ अनंत कालसे स्वयको स्वविषयक भ्राति, परम रहस्य, ईश्वरके घरका मर्म पानेका महामार्ग, छुटकारा कब ?
१७३ व्यवहार-वघन न होता तो अपूर्व हितकारी होता, मार्ग मर्मदाता,
१७४ सत्सग वडेसे वडा साधन, सत्पुरुष श्रद्धा १७५ सत्सगकी वृद्धि करें १७६ ससार परिभ्रमणका मुख्य कारण, दोनवधुकी दृष्टि, अलख 'लय' में आत्मा, अवधूत हुए, अवधूत करने की दृष्टि, भक्तिसत्सग दुर्लभ
१७७ धर्मेच्छुको पत्र - प्रश्नादि वघनरूप, नित्यनियम
१७८ अभी धर्म बतानेके अयोग्य हूँ, पहले जिज्ञासुता
१७९ उपशम भाव
१८० दृढज्ञानप्राप्तिका
लक्षण, अमरवरके आनन्दका अनुभव, 'इस कालमें मोक्ष'
२५१
२५३
जीवोको सद्दर्शन करनेमें बाघक १८२ निर्वाण मार्ग के इच्छुक विरल, इस कालमें हमारा जन्म कारणयुक्त १८३ सत्पुरुषसेवा, जीवने अपूर्वको नही पाया, पूर्वानुपूर्वकी वासनाके त्यागका अभ्यास, क्रिया आदि सब आत्माको छुडानेके लिये १८४ आघार निमित्तमात्र, निष्ठा सबल करें १८५ हृदय भर आया है
१८६ मार्गानुसारी होनेका प्रयत्न करें १८७ अतिम स्वरूप समझमें आया है, परिपूर्ण स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न, कुनबी - कोली
२५३
२५४
२५५
२५५
२५५
२५६
२५६
२५७
का स्याद्वाद, अमृतके नारियलका पूरा वृक्ष २५७ १८१ यहाँ तीनो काल समान, प्रवृत्ति मार्ग
२५८
२५८
२५८
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२५९
२५९
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खेद
५०२ उम पुरुपकी आत्मदशा और उपकार ४१० | ५१८ त्याग, वैराग्य और उपशम प्रगट होनेपर ५०३ महाव्रतादिमे कभी अपवाद, ब्रह्मचर्यमें । आत्मस्वरूपका यथार्थरूपमे विचार हो
सर्वथा अनपवाद, साघुके पत्र-समाचारादिमें । सकता है
अपवाद, प्रमाद सब कर्माका हेतु ४११ | ५१९ सकुचित चित्तपरिणामके कारण पत्रादिका ५०४ सर्वज्ञको पहचानका फल दुषमकाल
लेखन अशक्य ___असयतिपूजा नामसे आश्चर्ययुक्त ४१३ । ५२० चित्तकी अस्थिरता, समयसार (नाटक) में ५०५ वीतरागकथित परम शान्तरसमय धर्म पूर्ण
बीजज्ञानका प्रकाश, बनारसीदासको अनुसत्य है, ऐसा निश्चय रखना ४१३ भवदशा, प्रभावनाहेतुके अवरोधक बलवान ५०६ आत्मपरिणामी ज्ञानीपुरुपको भी प्रारब्ध .
कारणोसे खेदपूर्वक प्रारब्धवेदन व्यवसायमे जागृति रखना योग्य, दो
५२१ प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग प्रकाशक सत्पुरुषकी प्रकारका बोध-सिद्धान्तबोध और उपदेश
करुणास्वभावता वोध, वैराग्य, उपशम और विवेक, आरभ
। ५२२ सत्पुरुषकी पहचानका परिणाम, सारे परिग्रह वैराग्य उपशमके काल
लोककी अधिकरणक्रियाका हेतु ५०७ निवृत्तिकी इच्छा, आत्माकी शिथिलतासे
! ५२३ अज्ञानमार्ग प्राप्त करते देखकर करुणा,
पदोको पढने आदिमे उपयोगका अभाव, ५०८ वारवार ससार भयरूप लगता है। ४१६ ।
सिद्धकी अवगाहना ५०९ ज्ञानसस्कारसे जीव और कायाकी भिन्नता
५२४ क्षमायाचना एकदम स्पष्ट, आत्माका अव्याबाधत्व और वेदनीय, सिद्ध और ससारी, जीवको ।
५२५ बोधवीज, उदासीनता, मुक्तता, ज्ञानीसमानता, आत्मस्वरूपमें जगत नही है।
पुरुषके लिये भी पुरुषार्थ प्रशस्त, निवृत्ति
४१६ । ५१० वन्धवृत्तियोके उपशमन और निवर्तनका
1. बुद्धिकी भावना कर्तव्य, सत्सगकी आवसतत अभ्यास कर्तव्य, पिता-पुत्रकी मान्यता
श्यकता जीवकी मूढता
। ५२६ अहवृत्तिका प्रतिकार, वचनाबुद्धि ५११ सिद्धपदका सर्वश्रेष्ठ उपाय-ज्ञानीकी
५२७ कौन अधिक उपकारी महावीरस्वामी या आज्ञाका आराधन, अज्ञानदशामें समय
प्रत्यक्ष सद्गुरु ? व्यावहारिक जजालमें
उत्तर देने अयोग्य ममयपर अनतकर्मवन्ध होते हुए भी मोक्षका अवकाश, काम जलानेका वलवान
५२८ ससारमें लौकिकभावसे आत्महित अशक्य, उपाय सत्सग
४१८ सत्सग भी निष्फल ५१२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोका अग्नि आदिसे ५२९ भगवान भगवानका संभालेगा व्याघात
५३० गाघोजीके आत्मा, ईश्वर, मोक्ष आदि ५१३ वेदान्त और जिनसिद्धात, सिद्धात-विचार
सबधी २७ प्रश्न और उनके उत्तर योग्यता होनेपर, मुमुक्षुका मुख्य कर्तव्य ४२१ ।
५३१ परमार्थ-प्रसगी आजीविका आदि विषयमे ५१४ आत्मासे असह्य व्यवसायको सहन करते हैं ४२२
लिखे तो परेशानी ५१५ आत्मवल अप्रमादी होनेके लिये कर्तव्य ४२२ । ५३२ साक्षीवत् देखना श्रेयरूप ५१६ व्यवसाय समाधिशीतल पुरुषके प्रति उष्णता
२८ वां वर्ष हेतु, वर्धमानस्वामीका भी असग प्रवर्तन ४२२ | ५३३ दुषमकालमें सबके प्रति अनुकपा ५१७ अप्रतिबद्धता प्रधानमार्ग होते हुए भी ५३४ बीस दोहे, आठ त्रोटककी अनुप्रेक्षाका हेतु सत्सगर्ने प्रतिवद्ध बुद्धि
४२२ | ५३५ श्रीकृष्णकी दशा विचारणीय
४१८
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४५३
४५५
।
४५६
[ ३९] ५३६ मुमुक्षु जीवको दो प्रकारकी दशा- ५५७ जगत मिथ्या विचारदशा, स्थितप्रज्ञदशा
४४१ / ५५८ उदय प्रारब्धके बिना सब प्रकारोमें असगता ४५३ ५३७ विचारवानको भय और इच्छा, अज्ञान- ५५९ अधिक समागममें आनेकी उदासीनता ४५४ परिषह और दर्शनपरिषह, जीव दिशामूढ
५६० ज्ञानीपुरुषके दृढाश्रयसे सर्व साधन सुलम, रहना चाहता है, समझे तो मोक्ष सहज,
मुमुक्षु कठिनसे कठिन आत्मसाधनकी प्रथम मान्यता ही ससार है ।
___- इच्छा करे, ज्ञानीपुरुष भी पुरुषार्थको मुख्य ५३८ सत्पुरुषके सगका माहात्म्य, निदान वुद्धिसे
रखे, व्यापारादिसे निवृत्तिको इच्छा ४५४ सम्यक्त्वका रोध
५६१ मुमुक्षुताको दुष्करता ५३९ दासानुदासरूपसे ज्ञानीकी अनन्य भक्ति, ५६२ ज्ञानीको भिन्नता
४५५ सर्वांश दशाके विना शिष्यमें दासानुदासता ४४३ ५६३ उदास भावना होनेके साधन ५४० विवाह जैसे कार्यमें चित्त अप्रवेशक, हमारे 1. ६४ उपरामताकी इच्छा
४५६ प्रति व्यावहारिक बुद्धि अयथार्थ, प्रवृत्तिकी '] ५६५ छूटनेका एक प्रकार
४५६ थकावटकी विश्राति, दूसरे व्यवहारको ५६६ ससारके मुख्य कारण रागद्वेप, भयकर प्रत ४५६ सुनते-पढते आकुलता
४४३ | ५६७ अतापार वधमोक्षका हेतु । ४५६ ५४१ ज्ञानीको समय-समयमें अनत सयमपरिणाम ४४५ / ५६८ अनादिकी भूल, 'दुःखनिवृत्तिका उपाय ५४२ ठाणागसूत्रकी एक चौभगी । ४४५ आत्मज्ञान, समाधि, असमाधि, धर्म, कर्म, ५४३ अन्यसवघी तादात्म्यकी निवृत्तिसे मुक्ति . ४४५ वेदान्तादिसे भिन्नता, देहकी अनित्यता, ५४४ निर्बल प्रारब्धोदयमें सभाल, हमारे वचनके
द्रव्य अनन्त पर्यायवाला
४५७ प्रति गौण भाव
४४५
| ५६९ आत्मज्ञानसे मोक्ष, मुनि-अमुनि, मनुष्यता५४५ बढ़ता हुआ व्यवसाय
का मूल्य, उपाधि-कार्यसे छूटनेकी आत्ति, ५४६ परमाणुके अनत पर्याय, सिद्धके भी अनन्त
जीवन्मुक्तदशा, त्याग और ज्ञान ४५८ पर्याय
__,४४६ | ५७० उपाधि और समाधि, अविचारसे मोह। ५४७ अप्रतिवध भावके प्रवाहमें, बड़े आस्रवरूप
बुद्धि, विवेकज्ञान अथवा सम्यग्दर्शन, मोहसर्वसगमें उदासीनता
४४७. बुद्धिको दूर करनेके लिये अत्यन्त पुरुषार्थ ४५९ ५४८ उपार्जित प्रारब्ध भोगना पडे, मलिनवासना ४४७ ५७१ मुक्तसे ससारी त्रिकाल अनन्त गुने, उपाधि ५४९ दुषमकालमें कौन समझकर शात रहेंगा?
और असगदशा देखते रहना
| ५७२ तीव्रज्ञानदशा, उसमे मुक्ति, आश्रय भक्ति५५० अयोग्य याचना, निष्काम भक्ति कर्तव्य ४४९ मार्ग, ज्ञानीके आश्रयमे विरोध करनेवाले ५५१ समाधि व असमाधि, आर्तध्यान, पदार्थके
दोष तथा उनकी निवृत्ति
४६० परिणाम और पर्याय, मोक्षमार्गमें कौन? ४५० | ५७३ ससारकी आस्था छोडनेसे आत्मस्वभावकी ५५२ सकाम भक्तिसे प्रतिवघ, सकाम वृत्ति दुषम
प्राप्ति और निर्भयता कालके कारण
५७४ तृष्णासे जन्ममरण
४६१ ५५३ असगतासे आत्मभाव सिद्ध हो उस प्रकारसे ५७५ सद्गुरुका माहात्म्य और आश्रयका स्वरूप ४६१ प्रवृत्ति करना
५७६ कल्पितका माहात्म्य ? जगतकी प्रवृत्ति ५५४ अन्तर्घम श्रेयरूप, परमार्थके लिये वाह्य
लेनेके लिये, अपनीप्रवृत्ति देनेके लिये ४६२ आडवरका निषेध
४५२ | ५७७ वेदातके पृथक्करणके लिये जिनागम विचार ५५५ प्रत्यक्ष कारागृह
४५३ करने योग्य ५५६ ब्रह्मरस, त्यागावसरसम्बन्धी समागममें ४५३ । ५७८ सट्टेको न अपनायें
४६२
४६१
४६२
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२३७
[२७] १३५ सम्यकदशाके पॉच लक्षण-शमादि २२८ | १५७ दैनदिनी१३६ देहभाव व अहभावमें आत्मशा ति दुर्लभ २२९
(१) आत्मदृष्टिसे सिद्धि
२३५ १३७ आत्मशातिमें प्रवृत्ति करें
२२९ (२) मोहनीय बलवत्तरतासे युवावस्था दुख१३८ योग्यता प्राप्त करें
२२९
मय, फिर सुखका समय कौनसा ? १३९ आठ रुचकप्रदेश निर्बधन, शास्त्रकारकी शैली,
अतरग विचारजन्य विवेकसे सुख २३५ अन्तर्मुहूर्तका अर्थ, समुद्घात वर्णनका हेतु, (३) छद्मस्थावस्थामें एक रात्रिकी महाप्रतिमा २३६ ज्ञानमें कुछ न्यून चौदह पूर्वधारी निगोदमें, (४) बहुत ध्यान देने योग्य नियम २३६ जघन्य ज्ञानी मोक्षमें, लवणसमुद्र व मीठी (५) आज मने उछरग अनुपम (काव्य) २३७ 'वीरडी', उपाधिग्रस्त इस देहधारीको पूर्ण (६) मनुष्यप्राणी-अधोवृत्तिवत्, ऊर्ध्वकसौटी करें
२२९ गामीवत्
२३७ १४० पात्रताप्राप्तिका प्रयास अधिक करें २३१ (७) परिचयीसे अनुरोध १४१ व्यासवचन-इच्छाद्वेषविहीनेन २३१ (८) सबेरेका समय समाधियुक्त बीता, १४२ आत्माका विस्मरण क्यो हुआ होगा? ___अखाजीके विचारोका मनन २३७ अपनी किसी न्यूनताको पूर्णता कैसे कहूँ ? २३१ (९) रेवाशकरजीके आनेपर क्रम
२३७ १४३ पांच अभ्यास, निर्वाणमार्ग
२३२ (१०) अपने अस्तित्वमे शका ठीक नही २३८ १४४ चैतन्यका अविच्छिन्न अनुभव प्रिय, 'तू तू तू (११) अद्भुत स्वप्नसे परमानद २३८ ही' का अस्खलित प्रवाह
२३२ (१२) कलिकाल, धन्य व्यक्ति, सत्सग और १४५ आत्मनिवृत्ति कीजियेगा
२३२
आत्मश्रेणि १४६ जो समझे वे सद्गतिको प्राप्त हुए, इस (१३) व्यवहारोपाधि ग्रहण करनेका हेतु, व्यक्तिके प्रति राग हितकारक कैसे होगा ? २३३
इसी क्रममें प्रवृत्ति कर, व्यवहारमें १४७ आत्मामें ही एकतान हुए बिना परमार्थमार्ग
सबद्धके साथ बरताव, किसीके दोष की प्राप्ति बहुत ही असुलभ
मत देख, आत्मप्रशसा न कर, १४८ सिद्धि किस प्रकारसे ?
२३३
निवृत्तिश्रेणीका लक्ष्य प्रिय २३८ १४९ धर्मध्यान आदिकी वृद्धि करें
२३३ (१४) विश्वाससे व्यवहार करके अन्यथा १५० मौतका औषध, कर्मको आज्ञा २३३
व्यवहार करनेवाले पछतावा १५१ वीर्यके भेद-प्रभेद, यह अर्थ समर्थ है । २३३
करते हैं।
२३९ १५२ सर्वार्थसिद्धकी ध्वजासे बारह योजन दूर
(१५) क्षुद्र और वाचाहीन जगत मुक्तिशिला, कबीर ध्वजासे आनद विभोर,
(१६) दृष्टिकी स्वच्छता
२३९ मूलपदका अति स्मरण, 'केवलज्ञान अब
(१७) वीजज्ञान और केवलज्ञान, ज्ञानीपायेंगे 'रे' २३४ - रत्नाकर, नियतियां
२३९ १५३ उदासीनता अध्यात्मजननी, ससारमें रहना,
(१८) बंधे हुए मोक्ष पाते हैं, पाये हुए पदार्थमोक्ष होना कहना
२३४
का स्वरूप शास्त्रोमें क्यो नही ? २४० १५४ बीजा साधन बहु कर्यां (काव्य) दूसरे बहुतसे
१५७अ श्रीमान पुरुषोत्तम, उनका मूर्तिमान साधन किये, सद्गुरुफा योग, निश्चय,
स्वरूप, उनकी भक्तिरुचि
२४० सत्सग
१५८ श्रीमान पुरुषोत्तम, श्री सद्गुरु और सत १५५ मात्र आत्मग्राह्य वाते, श्री मघशाप, श्री
तीनों एक, विश्व और भगवान, जड और बखलाघ
जीव दोनो भगवद्प, तत्त्वमसि, अहं १५६ महावीरका अगतदर्शन
ग्रह्मास्मि
२४०
२३८
س
२३३
२३९
२३५
२३५
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१७० मा
[२८] १५९ सर्वरूपमे एक श्री हरि, श्री हरि निराकार, १७० आत्माने ज्ञान पा लिया, ग्रन्थिभेद हुआ,
श्री पुरुषोत्तम साकार, हरि स्वेच्छासे ____ अतिम निर्विकल्प समाघि सुलभ, गुप्तता, बहुरूप
२४१ वेदोदय तक गृहवास, तीर्थकरके किये १६० विश्व चैतन्याधिष्ठित, विशिष्टाद्वैत और
अनुसार करनेकी इच्छा, उपशम और शुद्धाद्वैत, परमात्म-सृष्टि और जीव-सृष्टि,
क्षपक श्रेणियां, आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ
२५१
श्रवणके भी अयोग्य हरि और माया, जीव-परिभ्रमण, परमात्मा का अनुग्रह, ब्राह्मी स्थिति, सर्व ब्रह्म है,
१७१ पत्र लिखनेका उद्देश, सग किसका? २५३ हरिका अश हूँ, केवल पद, वस्तु, अवस्तु २४१ ।
१७२ अनत कालसे स्वयको स्वविषयक भ्राति, १६१ सहजात्मस्वरूपीकी दुविधा, सभी दर्शनोमें
परम रहस्य, ईश्वरके घरका मर्म पानेका शका, आत्माकी आस्था, आत्माकी
महा मार्ग, छुटकारा कब?
२५३ व्यापकता, मुक्ति-स्थान आदिमे शका ही
१७३ व्यवहार-वधन न होता तो अपूर्व हितकारी शका, सद्गुरुका अयोग, दर्शनपरिषह,
होता, मार्गमर्मदाता,
२५४ जहर पी या उपाय कर ।
२४५
१७४ सत्सग बडेसे वडा साधन, सत्पुरुष-श्रद्धा २५५ १६२ शकारूप भंवरमे, यथेष्ट सत्समागमकी १७५ सत्सगकी वृद्धि करें।
२५५ दुर्लभता, सामान्य सत्समागमी स्वविचार । १७६ ससार-परिभ्रमणका मुख्य कारण, दीनदशाके लिये प्रतिवन्धरूप
बधुकी दृष्टि, अलख 'लय'मे आत्मा, १६३ कलिकालका स्वरूप, हमें भी कलियुगका
अवधूत हुए, अवधूत करनेकी दृष्टि, भक्तिप्रसगी सग, जीवोकी वृत्ति विमुखता हमारा
सग दुर्लभ
२५५ परम दुख
२४७ १७७ धर्मेच्छुकोके पत्र-प्रश्नादि वधनरूप, नित्य१६४ हे हरि । तेरा स्वरूप परम अचित्य,
- नियम
२५६ अद्भुत ! अनुग्रह कर
२४७/ १७८ अभी धर्म बतानेके अयोग्य हूँ, पहले जिज्ञासुता
२५६ २४ वां वर्ष १७९ उपशम भाव
२५७ १६५ केवलबीजसपन्न, सर्व गुणसपन्न भगवानमे १८० दृढज्ञानप्राप्तिका लक्षण, अमरवरके
भी अपलक्षण, केवलज्ञान तकका परिश्रम __ आनन्दका अनुभव, 'इस कालमें मोक्ष' व्यर्थ नही जायेगा, नि. शकता, निर्भयता
का स्याद्वाद, अमृतके नारियलका पूरा वृक्ष २५७ आदिकी जरूरत, मोक्षकी नही २४८ | १८१ यहाँ तीनो काल समान, प्रवृत्ति मार्ग १६६ सत्पुरुषके एक-एक वाक्यमें एक-एक शब्दमें
जीवोको सद्दर्शन करनेमें बाधक २५८ अनत आगम, मगलरूप वाक्य-मायिक १८२ निर्वाण मार्गके इच्छुक विरल, इस कालमें सुखको इच्छा छोडे विना छुटकारा नही,
हमारा जन्म कारणयुक्त
२५८ मायिक वासनाके अभावके लिये सद्गुरुको १८३ सत्पुरुषसेवा, जीवने अपूर्वको नही पाया,
आत्मार्पण, मोक्षमार्ग आत्मामें है। २४८ पूर्वानुपूर्वकी वासनाके त्यागका अभ्यास, १६७ सत्य एक है, दो प्रकारका नही, व्यवहारमें
क्रिया आदि सब आत्माको छुडानेके लिये २५८ रहते हुए वीतराग, कबीरपथीके सत्सगके १८४ आधार निमित्तमात्र, निष्ठा सवल करें २५९ लिये ज्ञानावतारकी प्रेरणा और शिक्षा २४९ / १८५ हृदय भर आया है
२५९ १६८ किसे ससारका सग अच्छा नही लगता? । १८६ मार्गानुसारी होनेका प्रयत्न करें २५९
ग्यारहवें गुणस्थानकसे गिरे हुएका मोक्ष २५१ / १८७ अतिम स्वरूप समझमें आया है, परिपूर्ण १६९ अमिलापाके प्रति पुरुषार्थ करना २५१ . स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न, कुनबी-कोली
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जातिके मार्गप्राप्तपुरुष अतिम ज्ञानको अप्राप्त, ज्ञानीकी अपेक्षा मुमुक्षुपर उल्लाम, मुक्ति भी नही चाहिये, जैनका केवलज्ञान भी नही चाहिये, यह भूमि उपाधिकी शोभाका सग्ग्रहालय
[ २९ ]
२५९
१८८ कहनेरूप मैं
२६०
१८९ अलखनामकी वुन लगी है
२६०
१९० पूर्वापर असमाधि न करनेकी शिक्षा २६१ १९१ हरिजनकी भक्ति प्रिय, परमार्थकी परम
आकाक्षा की पूर्ति ईश्वराधीन १९२ आत्मसाधनरूप वृत्ति, कबीरका पद ' करना फकीरी क्या दिलगीरी' निष्कारण परमार्थवृत्ति
१९३ मुमुक्षुओका दासत्व प्रिय, आश्रम छोडना
अनावश्यक
१९७ परिपूर्ण दर्शन असगतामें, एकान्तवाससे परदा दूर होगा
१९८ सजीवन-मूर्ति सत्प्राप्ति, जीवने क्या नहीं किया ? क्या करना है ? इसे विचारों, योग्यता के लिये ब्रह्मचर्य
२६१
२६१
२६२
१९४ मार्ग सरल परन्तु प्राप्ति-योग दुर्लभ, सत्स्वरूप - प्राप्ति किंवा ज्ञान-प्राप्तिका मार्ग ज्ञानीकी चरणसेवा है, मुनियोकी सामायिक, आणाए धम्मो आगाए तवो, लक्ष न समझनेका प्रधान कारण स्वच्छन्द २६२ १९५ परिभ्रमणनिवत्ति किससे हो ? इसे विचारें २६३ १९६ दो बडे बन्चन - स्वच्छद और प्रतिवन्ध, व्याख्यानको प्रतिवन्वरूप समझें
२६३
२६४
२६४
१९९ मनुष्यताको सफलताके लिये जियें, मिथ्या वासनाओको निवृत्तिका विचार २०० वचनावली – अपनेको भूलनेसे सत्सुखका वियोग, अनन्तानुवन्धी कषायका मूल, ज्ञानीकी आज्ञाका माराधन कौन कर सके. ज्ञानमागंकी श्रेणिकी प्राप्तिसे मोक्ष २०१ निरजनदेवका अनुग्रह, भागवतकी कथा - 'कोई माघव ले', पराभक्तिका अनुपम उदय, भागवत अद्भुत भक्ति, भक्ति सर्वोपरि मागं २६६ २०२ परमार्थमार्गमं प्रेम हो धर्म
२६५
२६७
२६५
२०३ विकल्प न कीजियेगा
२०४ परमार्थके लिये परिपूर्ण इच्छा, प्रगट होनेकी अनिच्छा
२०५ तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत वास्तविक सुख जगतकी दृष्टिमे नही आया, ज्ञानीको भी विचारकर पैर रखने जैसा जगत २६८ २०६ महात्माओका रिवाज
२६८
२०७ सच्चे धर्म और ज्ञान, परमार्थ- प्रीति होनेमें सत्सग अनुपम साधन, विकट पुरुषार्थ, 'सत्' सरल है, सतुको बतानेवाला सत् चाहिये, ज्ञानियोकी वाणी नयमें उदासीन २०८ नयके रास्तेसे पदार्थनिर्णय अशक्य, २०९ परम तत्त्व अनत नामोसे
२१० सब जीवोके, विशेषत धर्मजीवके दास, पुरानेको छोडे बिना छुटकारा नही २११ 'मत्' का स्वरूप और प्राप्ति, परम पद दायक वचन, समस्त द्वादशागी, षड्दर्शनका सर्वोत्तम तत्त्व और वोघवीज, गुप्त रीतिसे कहने का हमारा मत्र २१२ अनन्य भक्तिभाव, सजीवनमूर्तिका योग ओर पहचान, मार्गको निकटता
२१३ पुराण पुरुष और सत्पुरुष, सत्पुरुषकी विशेपता, महत्ता, त्रिकालिक बात और ज्ञानी, भक्ति और असगता प्रिय
२१४ अभेददशा आनेके लिये रचनाके कारणमें प्रीति और अहरूप भ्रातिका त्याग, सत्पुरुषकी शरण अपूर्व औषध, जगतके प्रति हमारा उदासीन भाव, परमात्माकी विभूतिरूप हमारा भक्तिवाम २१५ परमात्माके प्रसन्न होने योग्य भक्तिमान, हम आपके आसरेसे ही जीवित है २१६ सत् ही सब कुछ, सत्
जगतरूपसे अनेक
प्रकारका
२१७ परमात्मामें परम स्नेह और अनन्य भक्ति, घर भी वनवास, जडभरतको दशा, यमकी अपेक्षा मग दुखदायक, 'सत् सत्' की रटन, पागल शिक्षा, हम निर्वल परंतु सम्मति सबल
२६७
२६८
२६८
२६९
२६९
२७०
२७०
२७१
२७१
२७३
२७३
२७३
२७४
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[ ३२ ]
१०
निवासी मुमुक्षुओकी दशा और प्रथा, अखड | ३१४ जिनेश्वरकी आराधनासे जिनेश्वर, आत्मसत्सगकी ही इच्छा
स्वरूपका ध्यानी ममत्व-जालमें नहीं फंसता ३१७ २९२ निकटभवी, स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति ३१० |
३१५ स्वरूप सहज और ज्ञानीकी चरणसेवा ३१७ २९३ श्री हरिकी अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र । ३११
३१६ 'एक परिनामके न करता दरव दोई', ३१७ २९४ धर्मध्यानमें वृत्ति लगना श्रेयस्कर, स्वच्छद
३१७ 'एक परिनामके न करता दरव दोई,
इत्यादिका विवेचन, आत्मा तो मुक्तस्वरूप वहुत वडा दोष
लगता है, वीतरागता विशेष है ३१८ २९५ मन जीतनेकी सच्ची कसौटी
३११ २९६ उदयको कैसे भोगना ? अछेद्य अभेद्य वस्तु ३११
३१८ अन्यत्वभावनासे प्रवृत्तिका अभ्यास, प्रमाद
और मुमुक्षुता २९७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्ति
३१९ स्वरूपविस्मरण एव अन्य भाव दूर करनेका मार्ग, केवलदर्शन सम्बन्धी आशका
उपाय, पूर्ण स्वरूपस्मृति सभव ३१९ २५ वा वर्ष
३२० जीव पौद्गलिक पदार्थ नही है ३२० २९८ कही भी चैन नही, यह बडी विडवना ३१२ /
| ३२१ माया दुस्तर एव दुरत, अवधपरिणामी २९९ जगतकी विस्मृति करना और सत्के चरणमें
प्रवृत्ति, जनककी विदेहीरूपसे प्रवृत्ति, । रहना, एक लक्ष्य-सिद्धिके लिये सभी साधन,
महात्माके आलम्बनकी प्रवलता ३२० केवल उपर्युक्त समझनेके लिये सभी शास्त्र ३१२ | ३२२ तो अलौकिक दृष्टिसे कौन प्रवृत्ति करेगा? ३०० प्रसिद्धि अभी प्रतिवघरूप
३१२ ज्ञानीमें अखड विश्वासका फल मुक्ति, ससार ३०१ ससारमें किस तरह रहना योग्य है ? ३१३ तथा परमार्थकी चिंताके लिये स्पष्ट सूचन, ३०२ सत्य परं धीमहि । नथ पृच्छा हेतु ३१३ सिद्धियोग और विद्यायोगसम्बन्धी प्रतिज्ञा, ३०३ अभी प्रगटरूपसे समागम बद, अप्रगट सत् ३१३ हमारी निर्विकल्प समाधिका कारण, अनुभव ३०४ 'परमार्थमौन' कर्म उदयमें, सत्की अप्राप्तिके
ज्ञानका फल वीतरागता, जगत-कल्याणकी तीन कारण
३१३
इच्छा, 'जीव नवि पुग्गली'का अर्थ ३२० ३०५ यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान, तेजोमयादिक दर्शन- ३२३ पूर्णज्ञानयुक्त समाधिको याद
३२२ __ की अपेक्षा यथार्थवोष श्रेष्ठ है
३१४ ३२४ उपाधिकी ज्वालामें समाघि परम दुष्कर, ३०६ श्री सुभाग्य प्रेमसमाधिमें
३१४ सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता ३२२ ३०७ सर्व समर्पणसे देहाभिमान निवृत्ति ३१४ ३२५ अद्भुत दशा-'जवहीतें चेतन विभावसो ३०८ असगवृत्ति, वस्तुको समझें
उलटि आपु'
३२२ ३०९ क्षायिक भावको प्राप्त सिद्धार्थ पुत्रकी भाव ३२६ 'शुद्धता विचारे ध्यावे'
३२२ पूजा
३१५ । ३२७ अनुभवके सामर्थ्यसे काव्यादिका परिणमन ३२२ ३१० आत्मज्ञानी दर्शन या मतमें अनाग्रही, ओघ- ३२८ 'लेवेको न रही ठोर' का अर्थ, स्वरूपदृष्टि, योगदृष्टि, योगके बीज
भानसे पूर्णकामता
३२३ ३११ मोक्ष-सिद्धिका उपाय, वीर परमात्माका ३२९ पूर्वकर्मका निवधन, ज्ञानीको उपाधि भी
ध्यान, अनुभवके बिना ध्यानसुख अगम्य ३१६ अवाघ–समाधि है, एक बडा आश्चर्य, ३१२ क्षायिक चारित्रको याद करते हैं ३१६ ज्ञानीकी अवस्थामें प्रवेश करनेका द्वार ३२३ ३१३ ज्ञानीके आत्माको देखते हैं, यो सहन करना । ३३० बोघबीजकी प्राप्ति, बोधवीज निश्चय योग्य, ज्ञानी अन्यथा नही करते, अपूर्व
सम्यक्त्व, दर्शन और अज्ञान परिषह विचावीतरागता, पूर्ण वीतराग जैसे बोधकी सहज
रणीय, छ पद विचारणीय
३२४ याद
३१.६ ३३१ ससारगत प्रीतिको अससारगत प्रीति करना ३२५
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३३२ आरम्भ - परिग्रहका मोह मिटनेसे मुमुक्षुता
३३३ सत्पुरुषके प्रति अपने समान
कल्पना,
सेद्धातिक ज्ञान
C
३३४ हमारे जैसे उपाधि प्रसग और चित्तंस्थिति
वाले अपेक्षाकृत थोडे, 'सर्वसंग' का लक्ष्यार्थ, देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है
S
३३५ उदास - परिणाम, निरुपायताका उपाय काल वस्तुत ज्ञानीको पहचाननेवाला ध्यान आदि नही चाहता, उत्तम मुमुक्ष
३३६ 'वैराग्य प्रकरण' के वैराग्यके कारण पुन. पुन विचारणीय
" 1.
३३७ शोचनीय बात विचारणीय, 'सुखदुखका समताभावसे वेदन करना"
-
३३८ पूर्वनिबद्ध कर्म "निवृत्त होनेके लिये शीघ्र उदय में आते हैं
*"
1
३३९ कर्मैबघ हमारा दोष, सतके ज्ञान में ही रुचि, व्यवहारमें आत्मा प्रवृत्त, नही होता, इस कार्यके पश्चात् 'त्याग'
[ ३३ ]
३२५
३२५
३२६
v =
उलझनेका ध्यान रखना योग्य ३५२ दुखको समतासे भोगनेमें सच्चा कल्याण
और सुख
३२६
३२७
३२७
३२७
३२७.
३२८
३४० भवातकारी ज्ञानकी प्राप्ति
'दुष्कर
३४१ समाधि ही बनाये रखनेकी दृढता, पारमार्थिक दोषका ख्याल दुष्कर
३२९
३४२ भावसमाधि तो है, द्रव्यसमाघि मानेके लिये ३२९
३४३ भाव समाविष
३२९
३४४ उपाषि उदयरूपसे
३२९
३४५ सत्सग करते रहना
३२९
३२९
३४६ पूर्वकर्म शीघ्र निवृत्त हो ऐसा करते हैं ३४७ मन व्यवहारमें नही जमता, 'कर्तव्यरूप
t
श्रीसत्सग' दुर्लभ, क्रोधादिसे अप्रतिवद्ध, कुटुम्बादिसे मुक्त जैसे मनको सत्सगका बघन ३३०
३४८ लोकस्थिति और रचना
३३० ३३०
३४९ लोकस्थिति आश्चर्यकारक
३५० ज्ञानीके सर्वसंगपरित्यागका हेतु क्या होगा ? ३३१ ३५१ सद्विचारके परिचय और उपाधिमें न
३३१
३३१
३५३ अप्रमत्त आत्माकार मन उदयाघीन
३५४ समतिकी स्पर्शना और दशा
३५५ प्रतिवधता दुखदायक
३५६ ज्ञानियोने शरीर आदिकी प्रवर्तनाके भानका भी त्याग किया था
३५७ रुचि सत्यके ध्यानी संत आदिमें, आत्मा तो कृतार्थं प्रतीत होता है
३५८ सम्यग्दर्शन किसे ? दो प्रकारका मार्ग --- १ उपदेश प्राप्तिका, २ वास्तविक आत्मा जैनी व वेदान्ती नही है
1 7
३५९ अपनापन दूर करना योग्य है । देहाभिमान रहतके लिये सबकुछ सुखरूप, हरीच्छामे दृढ विश्वास ३६० जहाँ पूर्णकामता वहाँ सर्वज्ञता, बोघबीजकों उत्पत्तिसे स्वरूपसुखसे परितृप्तता, क्षणिक
-1971
जीवनमें नित्यता, अखड आत्मबोधका लक्षण ३३३ ३६१ उपाधिमें समावि ३३३ ३६२ आत्मता होनेसे समाधि, पूर्ण ज्ञानका लक्षण, सच्चे आत्मभानसे अहप्रत्ययी बुद्धिका विलय
+
1
३६५ 'प्राणविनिमय' – मिस्मि रेजमकी
-
T
३६३ व्यवहारको झझटमें परमार्थका विसर्जन
न हो
३६४ ज्ञानवार्ता लिखनेका व्यवसाय
"
J
पुस्तक
सम्बन्धी
३६६ अखड आत्मध्यान, 'वनकी मारी कोयल' ३६७ उपाधि प्रसग तथापि आत्मसमाधि ३६८ ज्ञानोसे घनादिकी इच्छासे दर्शनावरणीय, ज्ञानीका उपजीवन पूर्वकर्मानुसार, ईश्वर आदि सहित सबमें उदासीनता, मोक्ष तो हमें सर्वानिकट
३६९ सब कुछ हरिके अघीन ३७० अविच्छिन्न रूपसे
आत्मध्यान, चित्तको
३३१
३३१
३३२
7३३२
नमस्कार
३७१ सत्सगसेवनसे लोकभावना कम हो, लोकसहवास भवरूप, मुमुक्षुका वर्तन, प्राप्ति में
कालक्षेप हानि नही, भ्राति होनेमे हानि ३७२ समागमका अभेद चिंतन
३३२
३३२
३३२
३३३
३३३
३३४
३३४
३३४
३३४
३३४
३३५
३३५
३३६ ३३६
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________________
२८४
२७७
२८५
२८५
[३०] २१८ सत् सर्वत्र, कालावाधित और सवका अधि- २३४ 'अपना-पराया' रहित दशा, निर्विकल्प हुए प्ठान, सत्की प्राप्ति, लोकस्वरूपकी रूपा
विना छुटकारा नही, परम प्रेम परतु
२८२ न्तरता, जैनकी वाह्य और अतर शैली,
निरुपायता तीर्थकरदेव और अधिष्ठानरहित जगत
२८३
२३५ राग-द्वेषकी निवृत्ति निरूपण, जनक विदेहीकी दशा, श्रीकृष्ण २३६ परमार्थ-चर्चाकी प्रेरणा, परमार्थमे विशेष और भागवत, स्वर्ग, नरक आदिकी
उपयोगी बातें, अवघ वधनयुक्त २८३ प्रतीतिका उपाय, मोक्षकी शब्द व्याख्या, २३७ "परेच्छानुचारीको शब्दभेद नही," अर्थ जीव एक और अनेक २७५ समागममें
२८४ २१९ “एक देखिये, जानिये," प्रेमभक्ति, पर- २३८ परम कारुण्यमूर्तिका उपदेश मार्थ उदासीनता
२७७
२३९ 'दिया सवको वह अक्षरधाम रे' । मत्रका २२० 'अधिष्ठान' का अर्थ
अर्थ, परम अभेद मत् सर्वत्र २२१ श्रीमद् भागवत परम भक्तिरूप ही, ज्योति- | २४० मुमुक्षु-प्रतिबंध भी अनिष्ट, आपको पोषण पादि कल्पित पर ध्यान नही है २७७
| देनेकी मेरी अशक्यता २२२ ज्योतिष कल्पित, कालको कलिकालका
२८५
२४१ ब्राह्मीवेदना, सुगम मोक्षमार्ग उपनाम, कलियुगकी कृपा
२७८
| २४२ सुदृढ स्वभावसे आत्मार्थका प्रयत्न, आत्म२२३ देहाभिमाने गलिते । किसे सर्वत्र समाधि ?
कल्याण और प्रबल परिषह, उपाश्रयमें
शाति एव विवेकसे बरताव करें। २८५ निःस्पृह दशा, पराभक्तिकी आखिरी हद,
| २४३ समागम एकात अज्ञात स्थानमें, सच्चे ज्ञानी तो परमात्मा ही है, परमात्म-भक्ति
पुरुषको कैसे पहचानें ?
२८६ और कठिनाई
२७८
२४४ परब्रह्मविचार, अथाह वेदना, साता पूछने२२४ योगवासिष्ठ आदि वैराग्य-उपशमके शास्त्र २८०
वाला नही २२५ परमार्थके लिये स्पष्ट कह सकने जैसी दशा
२४५ उपाधि-योगसे उपेक्षा नही है।
२८०
२४६ अतिशय विरहाग्निसे साक्षात् हरिप्राप्ति, २२६ वासनाके उपशमका सर्वोत्तम उपाय, प्रति
पूर्णकाम हरिके लयवाले पुरुषोंसे भारत वद्धतामें भी आत्मा अप्रमत्त चाहिये २८०
शून्यवत्
२८७ २२७ प्रारब्धका समाधान होनेके लिये २८०
२४७ हरिका स्वरूप मिलनेपर समझायेंगे, चित्त२२८ सदुपदेशात्मक वचन लिखनेमें वृत्तिमन्दता,
की दशा चैतन्यमय, पूर्णकामता, जगउसका कारण
जीवनरसका अनुभव होनेपर हरिमे लय, २२९ सत्मस्कारोको दृढता होनेके लिये लोक
पराभक्ति एव तीन मुमुक्षुताका अभाव, लज्जाकी उपेक्षा
अनत गुणगभीर ज्ञानावतारका लक्ष्य, सर्व२३० तिनकेके दो टुकडे करनेकी सत्ता भी हम
सत्ता हरिको अर्पण, सर्व कृति, वृत्ति और नही रखते
लिखनेका हेतु
२८७ २३१ कबीरजी और नरसिंहको भक्ति , २४८ 'प्रबोधशतक' चित्तस्थिरतार्थ
२८८ नि स्पृहताके विना विडवना । २८१ २४९ कराल काल होनेसे समाधिकी अप्राप्ति, २३२ कार्यका जाल, मायाका स्वम्प और प्रपच,
सत्मग मोक्षका परम साधन, सत्सग और कल्पद्रुमछाया प्रशस्त, योग्य व्यवहार २८१ परम सत्सगका अर्थ, प्रत्यक्ष योगमे विना २३३ जवूस्वामीके त्यागका आगय, ईश्वर
ममझाये भी स्वरूपस्थिति, सत्पुरुष ही प्रसन्नताका मार्ग, ज्योतिषसवधी
मूर्तिमान मोक्ष
૨૮૨
नाही
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[३१] २५० भक्ति पूर्णता पानेके योग्य कव ? व्यवहार २६७ 'जिनवर कहे छे ज्ञान ।' (काव्य) ३०२
चिंताकी व्याकुलता अयोग्य, प्रत्यक्ष दर्शन २८९ २६८ फ्लदय झीश बादी ईश्रो-जीव कैसे पाया २५१ हरीच्छासे जीना, परेच्छासे चलना २९० जाये ।
३०४ २५२ पठनीय और मननीय पुस्तकादि २९०
२६९ मोक्षको अपेक्षा सतकी चरणसमीपता प्रिय ३०४
२७० ज्ञान एक अभिप्रायी, अनुभवज्ञानसे निवटारा ३०४ २५३ अकाल और अशुचि दोष, सेव्य भक्ति और
२७१ परिचय करने योग्य पदार्थ
३०५ स्वरूपचिंतन भक्तिके योग्य काल, सर्व
२७२ महात्माके प्रति मुमुक्षुकी दृष्टि ३०५ शुचिका कारण
२९०
२७३ कलियुगमें सत्पुरुषकी पहचान, कचन२५४ निशकतासे निर्भयता, उससे नि सगता,
कामिनीका मोह, जीवकी वृत्ति ३०५ सबसे बडा दोष, मुमुक्षुता और तीव्र मुमुक्षुता, स्वच्छद-हानिसे बोधबीज योग्य
२७४ 'सत्' अभी तो केवल अप्रगट, मुमुक्षुका
आचरण भूमि, मार्गप्राप्तिके रोधक कारण, परम
३०५ धर्म, परम दीनता, परमयोग्यता, महात्माके
२७५ कलिकालने अनर्थको परमार्थ वना दिया ३०५ प्रति परम प्रेमार्पण, महात्मामोकी शिक्षा २९१
२७६ धर्मज सत्सगार्थ जानेकी आज्ञा ३०६ २५५ हमारी विदेह दशा, हमारी दशा मद योग्य
२७७ चित्तकी उदासीन स्थिति, मतभेदकी बातसे को अलाभकर, बीजज्ञानके साथ सिद्धातज्ञान
हृदयमे मृत्युसे अधिक वेदना
३०६ आवश्यक, हमारा देश, जाति सर्व हरि है २९२
२७८ आत्मारामी मुनि भी भगवद्भक्तिमें ३०६ २५६ जीव, आत्मा आदिके विषयमें समागममें २७९ मतमतातरमें मध्यस्थता
३०६ बतानेका विचार
२९४
२८० बताने जैसा तो मन है, परिपूर्ण प्रेम-भक्ति ३०६ २५७ दोप देखना यह अनुकपा त्याग
२९४ २८१ उपजीविकाके वियोगसे वृत्ति
३०७ २५८ 'विना नयन पावे नहिं '(काव्य) तृषातुर २८२ महात्मा व्यासजीकी तरह भक्तिसम्बन्धी और अतृषातुरको
२९४ विह्वलता, कलियुगकी विषमता, धर्मसम्बन्ध २५९ हरीच्छा सदैव सुखरूप, हमारा वियोग
और मोक्षसम्बन्वसे भी विरक्ति
३०७ रहनेमें हरिको इच्छा, मूल मार्ग पूरी तरह २८३ भगवानकी कृपणता
३०७ कहेंगे, हरि हमारे हाथसे आपको परा- २८४ परसमय, स्वसमय, परद्रव्य, स्वद्रव्य, जितने भक्ति दिलायेंगे, चित्त हरिमय परतु सग
वचन-मार्ग उतने नयवाद, कर्ता और कर्म, कलियुगका
२९५ जीव और शिव
३०७ २६० सर्वोत्तम योगीका लक्षण
२९६ ! २८५ जीवका भुलावा, ठाणागमें आठ वाद, तीर्थ२६१ निवृत्तिके योग्य स्थल
करकी जन्मसे जान-पहचान, परमार्थमौन२६२ सत्सगकी प्राप्तिकी दुर्लभता, वियोगमे
कर्मका उदय
३०८ गुणोत्पत्तिके लिये पुरुषार्थ, निवृत्तिके कारणो- २८६ 'हम परदेशी पखी', काल क्या खाता है ? ३०९ का विचार, दोषस्थितिमें जगतके जीवोके | २८७ भगवत्सम्बन्धी ज्ञान और प्रगट मार्गका तीन प्रकार, सद्विचारसे स्वरूपको उत्पत्ति २९७ प्रकाशन कव?
३०९ २६३ प्रेमरूप भक्तिके विना ज्ञान शून्य २९७ . २८८ आदि पुरुष लीला शुरू करके बैठा है? २६४ 'हे प्रभु, हे प्रभु' (काव्य) भक्तिके वीस i नया पुराना तो एक आत्मवृत्ति ३०९ दोहे-सद्गुरुभक्ति रहस्य २९८ २८९ परमार्थ-पत्रव्यवहार प्रतिकृल
३१० २६५ 'यम नियम सजम आप कियो' (काव्य) ३०० | २९० एक दशासे प्रवृत्ति, उदयानुसार प्रवर्तन २६६ 'जह भावे जड परिणम
३०१ । २९१ पूर्णकाम चित्त, आत्मा ब्रह्म-समाधिमें, मन 'परम पुरुष प्रभु सद्गुरु' (काव्य)
३०२ } वनमे, एक दूसरेके आभाससे देहक्रिया, धर्मज
३०७
२९६
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[ ३२ ]
३११
HAN
३२०
निवासी मुमुक्षुओकी दशा और प्रथा, अखड | ३१४ जिनेश्वरकी आराधमासे जिनेश्वर, आत्मसत्सगकी ही इच्छा
३१० | स्वरूपका ध्यानी ममत्व-जालमें नही फंसता ३१७ २९२ निकटभवी, स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति ३१०
३१७
३१५ स्वरूप सहज और ज्ञानीकी चरणसेवा २९३ श्री हरिकी अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र
३१६ 'एक परिनामके न करता दरव दोई', ३१७
३१७ 'एक परिनामके न करता दरव दोई', २९४ धर्मध्यानमे वृत्ति लगना श्रेयस्कर, स्वच्छद
इत्यादिका विवेचन, आत्मा तो मुक्तस्वरूप बहुत वडा दोष
३११
लगता है, वीतरागता विशेष है ३१८ २९५ मन जीतनेकी सच्ची कसोटी
३१८ अन्यत्वभावना
अभ्यास, प्रमाद २९६ उदयको कैसे भोगना ? अछेद्य अभेद्य वस्तु ३११
और मुमुक्षुता ,
३१९ २९७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्ति
३१९ स्वरूपविस्मरण एव अन्य भाव दूर करनेका मार्ग, केवलदर्शन सम्बन्धी आशका
उपाय, पूर्ण स्वरूपस्मृति सभव ३१९ २५ वा वर्ष
३२० जीव पोद्गलिक पदार्थ नहीं है २९८ कही भी चैन नही, यह बडी विडबना ३१२
३२१ माया दुस्तर एव दुरत, अवधपरिणामी २९९ जगतकी विस्मृति करना और सत्के चरणमें
प्रवृत्ति, जनककी विदेहीरूपसे प्रवृत्ति, रहना, एक लक्ष्य-सिद्धिके लिये सभी साधन,
महात्माके आलम्वनकी प्रवलता
३२० केवल उपर्युक्त समझनेके लिये सभी शास्त्र ३१२ ३२२ तो अलौकिक दृष्टिसे कौन प्रवृत्ति करेगा? ३०० प्रसिद्धि अभी प्रतिवघरूप
३१२ ज्ञानीमें अखड विश्वासका फल मुक्ति, ससार ३०१ ससारमें किस तरह रहना योग्य है ? ३१३ तथा परमार्थकी चिंताके लिये स्पष्ट सूचन, ३०२ सत्य पर धीमहि । ग्रथ पृच्छा हेतु ३१३ सिद्धियोग और विद्यायोगसम्बन्धी प्रतिज्ञा, ३०३ अभी प्रगटरूपसे समागम बद, अप्रगट सत् ३१३ हमारी निर्विकल्प समाधिका कारण, अनुभव ३०४ 'परमार्थमौन' कर्म उदयमें, सत्की अप्राप्तिके
ज्ञानका फल वीतरागता, जगत-कल्याणकी तीन कारण
३१३ इच्छा, 'जीव नवि पुग्गली'का अर्थ ३२० ३०५ यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान, तेजोमयादिक दर्शन- ३२३ पूर्णज्ञानयुक्त समाधिको याद
३२२ की अपेक्षा यथार्थबोव श्रेष्ठ है
३२४ उपाधिकी ज्वालामें समाघि परम दुष्कर, ३०६ श्री सुभाग्य प्रेमसमाधिमें
३१४ सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता ३२२ ३०७ सर्व समर्पणसे देहाभिमान निवृत्ति ३१४ ३२५ अद्भुत दशा-'जवहीते चेतन विभावसो ३०८ असगवृत्ति, वस्तुको समझें ३१४ उलटि आपू'
३२२ ३०९ क्षायिक भावको प्राप्त सिद्धार्थ पुत्रकी भाव ३२६ 'शुद्धता विचारे ध्यावे'
३२२ ३१५ ३२७ अनुभवके सामर्थ्यसे काव्यादिका परिणमन ३२२ ३१० आत्मज्ञानी दर्शन या मतमें अनाग्रही, ओघ- ३२८ 'लेवेको न रही ठोर' का अर्थ, स्वरूपदृष्टि, योगदृष्टि, योगके बीज ३१५ __ भानसे पूर्णकामता
३२३ ३११ मोक्ष-सिद्धिका उपाय, वीर परमात्माका ३२९ पूर्वकर्मका निवधन, ज्ञानीको उपाधि भी
ध्यान, अनुभवके विना ध्यानसुख अगम्य ३१६ अवाघ-समाधि है, एक बडा आश्चर्य, ३१२ क्षायिक चारित्रको याद करते हैं ३१६ । ज्ञानीकी अवस्थामें प्रवेश करनेका द्वार ३२३ ३१३ ज्ञानीके आत्माको देखते हैं, यो सहन करना | ३३० वोघवीजकी प्राप्ति, बोधवीज निश्चय योग्य, ज्ञानी अन्यथा नही करते, अपूर्व
सम्यक्त्व, दर्शन और अज्ञान परिषह विचावीतरागता, पूर्ण वीतराग जैसे वोधकी सहज
रणीय, छ पद विचारणीय
३२४ याद
३१६ | ३३१ ससारगत प्रीतिको अससारगत प्रीति करना ३२५
३१४
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३३३
३३२ आरम्भ-परिग्रहका मोह मिटनेसे मुमुक्षुता । ३२५ । ३५३ अप्रमत्त आत्माकार मन उदयावीन ३३१ ३३३ सत्पुरुषके प्रति अपने समान कल्पना, ३५४ समकितकी स्पर्शना और दशा
३३१ सेडातिक ज्ञान ३२५ । ३५५ प्रतिवधता दु खदायक
३३२ ३३४ हमारे जैसे उपाधि-प्रसग और चित्तस्थिति- ३५६ ज्ञानियोने शरीर आदिकी प्रवर्तनाके भानका वाले अपेक्षाकृत थोडे, 'सर्वसग' का लक्ष्यार्थ,
भी त्याग किया था ।
३३२ देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो । ३५७ रुचि सत्यके ध्यानी संत आदिमें, आत्मा तो सकता है
__ कृतार्थ प्रतीत होता है ।
३३२ ३३५ उदास-परिणाम, निरुपायताका उपाय काल ३५८ सम्यग्दर्शन किसे? दो प्रकारका मार्गवस्तुत ज्ञानीको पहचाननेवाला ध्यान आदि
१ उपदेश प्राप्तिका, २ वास्तविक आत्मा नही चाहता, उत्तम मुमुक्षु
३२६ जैनी व वेदान्ती नही है । ३३२ ३३६ 'वैराग्य प्रकरण' के वैराग्यके कारण पुन. . ३५९ अपनापन दूर करना योग्य है। देहाभिमान । पुन विचारणीय
३२७ रहितके लिये सब कुछ सुखरूप, हरीच्छामे ३३७ शोचनीय बात' विचारणीय, सुखदु खका
दृढ विश्वास
३३२ ____समताभावसे वेदन करना'.
३६० जहाँ पूर्णकामता वहाँ सर्वज्ञता, बोधबीजकी। ३३८ पूर्वनिबद्ध कर्म निवृत्त होनेके लिये शीघ्र _ उत्पत्तिसे स्वरूपसुखसे परितृप्तता, क्षणिक उदयमें आते है
३२७ , 'जीवनमें नित्यता, अखड'मात्मवोधका लक्षण ३३३ ३३९ कर्मवध हमारा दोष, सत्के ज्ञानमें ही रुचि, 1. ३६१ उपाधिमें समाधि व्यवहार में आत्मा प्रवृत्त, नहीं होता, इस
३६२ आत्मता होनेसे समाधि, पूर्ण ज्ञानका लक्षण, कार्यके पश्चात् 'त्याग' . ' ३२७.
सच्चे आत्मभानसे अप्रत्ययी बुद्धिका ३४० भवातकारी ज्ञानकी प्राप्ति दुष्कर ३२८
विलय
' '३३३ ३४१ समाघि ही बनाये रखनेकी दृढता, पार
३६३ व्यवहारको झझटमें परमार्थका विसर्जन माथिक दोषका ख्याल दुष्कर
न हो
३३३ ३२९ ३४२ भावसमाधि तो है, द्रव्यसमाधि आनेके लिये ३२९
३६४ ज्ञानवार्ता लिखनेका व्यवसाय
३३४ ३४३ भाव-समाधि
३२९
३६५ 'प्राणविनिमय'-मिस्मिरेजमकी पुस्तक ३४४ उपाधि उदयरूपसे
सम्बन्धी
३३४ १२९ ३४५ सत्संग करते रहना
३२९
३६६ अखड आत्मध्यान, 'वनको मारी कोयल' ३३४ ३४६ पूर्वकर्म शीघ्र निवृत्त हो ऐसा करते है ३२९
३६७ उपाधि-प्रसग तथापि आत्मसमाधि ३३४ ३४७ मन व्यवहारमें नही जमता, 'कर्तव्यरूप
| ३६८ ज्ञानीसे धनादिको इच्छासे दर्शनावरणीय,
ज्ञानीका उपजीवन पूर्वकर्मानुसार, ईश्वर श्रीसत्सग' दुर्लभ, क्रोधादिसे अप्रतिवद्ध,
आदि सहित सबमें उदासीनता, मोक्ष तो कुटुम्बादिसे मुक्त जैसे मनको सत्सगका बघन ३३०
हमें सर्वथा निकट
३३४ ३४८ लोकस्थिति और रचना
३३० ३६९ सब कुछ हरिके अधीन
३३५ ३४९ लोकस्थिति आश्चर्यकारक
३७० अविच्छिन्नरूपसे आत्मव्यान, चित्तको ३५० ज्ञानीके सर्वसंगपरित्यागका हेतु क्या होगा? ३३१ नमस्कार ३५१ सद्विचारके परिचय और उपाधिमें न ३७१ सत्सगसेवनसे लोकभावना कम हो, लोकउलझनेका ध्यान रखना योग्य
३३१
सहवास'भवरूप, मुमुक्षुका वर्तन, प्राप्तिमें ३५२ दुखको समतासे भोगनेमै सच्चा कल्याण
कालक्षेप हानि नही, भ्राति होनेमें हानि ३३६ और सुख
"३३१ ] ३७२ समागमका अभेद चिंतन
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P
३७३ " मनके कारण यह सव है", महात्माकी देह दो कारणोने विद्यमान उपाधियोगमे प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर कब २७४ ज्ञानीका वैभव और मुमुक्षु वर्तमानमें ममतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ निश्चय करना योग्य, भविष्यचिताने परमार्थका विस्मरण, लज्जा और आजीविका मिथ्या, ममपरिणाममें परिणमित होना
-
३७९ तरनतारन, मोक्ष दुर्लभ नही, दाता दुर्लभ, निस्पृह बुद्धि, 'वनकी मारी कोयल'
३८० मोक्षका धुरवर मार्ग, प्रभुभक्ति मनकी
स्थिरताका उपाय, सद्गुणोसे योग्यता प्राप्त
करना
३८१ वैराग्ययुक्त पुस्तकें पढ़ें
३८२ वैराग्यवर्धक अध्ययन, मतमतातरका त्याग ३८३ विचारवानको ससार सर्वधा क्लेशरूप
[ ३४ ]
तेरहवें गुणस्थानकवर्तीका स्वरूप ३८४ 'दुपम कत्रियुगमे' जिसका चित्त विह्वलता, विक्षेप आदि अलिप्त रहा वह 'दूसरा श्रीराम' है, लगभग १७ घंटे उपाधि योग, अनादि कालवा दृष्टिभ्रम दूर नही हुआ ! ३८५ मूयं जैसे ही शादी है, ज्ञानीके मवधमें अपने जैमी दारीपना हमारा चित्त नेत्र जैसा, धन्यरूप - कृतार्थम्प हममें यह उपनियोग
३३७
३७५ जिनागम उपशमस्वरूप, आत्मार्थके लिये उसका आराधन, राग आदि दोषोकी निवृनि एक आत्मज्ञानसे, मत्सगका माहात्म्य, कर्मक्लेशकी निवृत्ति एव आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये सूत्रकृतागका अध्ययन व श्रवण कर्तव्य
३७६ प्रानीकी देह और वर्तन, प्रवृत्ति-योग परेच्छासे, अविपमताने आत्मध्यान ३७७ नवपदको मपत्ति भी आत्मामें आत्मस्थज्ञानी पुरुषका स्वरूप, 'ईश्वरेच्छा' का अर्थ ३४० ३७८ निश्चयसे अकर्ता, व्यवहारसे कर्ता इत्यादि विचारणीय, छ मामसे परमार्थके प्रति निर्विकल्प
३३७
३३८
३३९
३४०
३८१
३४१
३४२
३४२
૨૪૨
३४९
३४३
३८६ परिपक्व समाविरूप ३८७ स्वस्वरूपज्ञानसे छुटकारा, जिन होकर जिनकी आराधना, मुख्य समाधि ३८८ जगत जिसमे सोता है, उसमे ज्ञानी जागता
1
३८९ 'सत्ज्ञान' को समझ कव ? जगत और मोक्षका मार्ग एक नही
३९० त्वरासे कर्मक्षय करनेका अनेक वर्षोका
4
३४४
३९६ अनवकाश आत्मस्वरूप, उम पुरुषके स्वरुपको जानकर उसकी भक्तिके सत्मगका महान फल, 'मन महिलानु वहाला उपरे' का पुन' विवेचन ३९७ क्षायिक ममकित, उसके निषेवक जीवोके प्रति केवल निष्काम करुणादृष्टि, यही परमार्थ मार्ग है, ज्ञानीपुरुषको अवज्ञा और गुणगानका फल, क्षायिक ममकितकी आश्चर्यकारक व्याख्या, व्याख्याओको सत्पुरपके आशय से जानना सफल, माननेका फल नहीं पर दशाका फल है, उपदेशक जीव अपनी दशा विचारे, उपर्युक्त शब्द आगम ही है । ३९८ कालकी दु पमता, परमार्थवृत्तिको क्षीणता, कालका स्वरूप देखकर अनुकपा, दुर्लभ पुरुपयोग, वर्तमानमें जीवीका कल्याण हमसे ही, परमार्थ किस प्रकारके सप्रदायते
३४४
३४४
३४४
सकल्प, ध्यानसुख
३९१ 'सत्' एक प्रदेश भी दूर नही, तथापि अनत
अतराय अप्रमत्ततासे 'सत्' का श्रवण आदि ३४५ ३९२ सनातनधर्म - अवसरप्राप्तमें सतुष्ट रहना ३४५ ३९३ पूर्वकाल में आराधित उपाधि उदयरूपसे
३४५
समाधि है, आनदघनजीके दो पद्योकी स्मृति ३४५ ३९४ 'मन महिलानु रे वहाला उपरे', और 'जिनस्वरूप थई जिन आराधे' पद्योका विवेचन, भक्तिप्रधान दशा, उस मूर्तिको प्रत्यक्षता में गृहाश्रम और चित्रपटमें मन्यस्ताश्रम, उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा विचारणीय है ३४६ ३९५ 'तेम श्रुतवर्मे रे मन दृढ घरे' का विवेचन, दुख मिटनेका मार्ग
३४७
३४८
३४९
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कहना ? आत्माकार स्थिति, चित्त अबढ़, ससारसुखवृत्तिमे निरतर उदासीनता, सबसे अभेददृष्टि
३९९ सत्सगमें आत्मसाघन, अल्पकालमे ज्ञानीमें, ज्ञानीके आश्रयमें समपरिणाम, गुणगान करने योग्यका अवर्णवाद, उपाधिमें निरुपाधिका विसर्जन न करें
こ
४०० सर्वथा अप्रतिबद्ध पुरुष, उपाधियोगमें चित्तकी अपूर्व मुक्तता
४०१ कल्याण कैसे प्राप्त हो ? जपतपादि ससाररूप होने का कारण क्या ? उपाधि ऐसी कि तीर्थंकर जैसे पुरुषके विषयमें निर्धार करना विकट दीक्षावृत्ति शात करें ४०२ उदय देखकर उदास न होवे, किसी भी जीवके प्रति दोष अकर्तव्य
४०३ आत्मा आत्मभाव प्राप्त करे वह प्रकार धर्मका, आत्मधर्मका श्रवणादि आत्मस्थित पुरुषसे ही
४१० वर अथवा शापसे शुभाशुभ कर्मका ही फल ४११ भवातरका वर्णन, भवातरका ज्ञान और आत्मज्ञान, सुवर्णवृष्टि, पूर्ण आत्मस्वरूप और महत् प्रभावयोग, दस बोलोका विच्छेद दिखाने का आशय, सर्वथा मोक्ष और चरमशरीरिता, अशरीरी भावसे आत्मस्थिति
४०४ क्षमायाचना
४०५ क्षमायाचना
४०६ इस सबके विसर्जन करनेरूप उदासीनता ४०७ दीक्षा कब योग्य और सफल ? आरभपरिग्रहका सेवन अयोग्य
४०८ ज्ञानी पुरुषो का सनातन आचरण हमे उदयरूप, साक्षीरूपसे रहना और कर्ताकी तरह भासमान होना, उपशम और ईश्वरेच्छा ४०९ पारेका चाँदी आदि रूप हो जाना, कौतुक आत्मपरिणामके लिये अयोग्य
४१२ आत्माकारता
१३ स्वयंप्रकाशित ज्ञानीपुरुष यथार्थ द्रष्टा
[३५]
३५२
-३५४
,३५५
३५६
३५७
३५७
३५७
३५८
३५८
३५८
३५९
३५९
३५९
३६०
३६१
३६१
४१४ इतना अवकाश आत्माको रहता है, ज्ञानीपुरुषोका मार्ग, तीव्र वैराग्य, तीर्थकर के 1. मार्ग से बाहर ४१५ आत्मिक-वघनसे हम समारमें नही रह रहे है, अतरगका भेद ४१६ ध्यानका स्वरूप, आत्मध्यान सर्वश्रेष्ठ, ज्ञानीपुरुषकी पहचान न होने देनेवाले तीन दोष, स्वच्छद और असत्सग ४१७ परमकृपालुदेवका उपकार ४१८ रविकै उदोत अस्त होत - ( काव्य ) ४१९ ससारका प्रतिवघ
४२० कि बहुणा -, कितना कहें ?. प्रवृत्ति कैसे
करना ?
-
1
४२१ व्यवसाय- प्रसग और वर्तन, आत्माको
1
ཁ་ན
अफल प्रवृत्ति
४२२ कालकी दुषमता क्यो ? परमार्थमार्ग की प्राप्ति दु खसे और उसके कारण शुष्कक्रियाप्रधानता आदिमें मोक्षमार्ग की कल्पना, शुष्क अध्यात्मी, दु.षमता होने पर भी एकावतारिता शक्य, मुमुक्षुताके लक्षण ४२३ विचारमार्गमें स्थिति
४२४ पुनर्जन्म है - जरूर है, तापमें विश्रातिका स्थान मुमुक्षु '४२५ उपाधि-वेदनके लिये अपेक्षित दृदृता मुझमें नही, चित्तका उद्वेग, देह मूर्च्छापात्र नही है, देह और आत्माकी भिन्नता
४२६ उदासीनता एक उपाय
४२७ ज्ञानीपुरुषकी सेवाके इच्छावान, अपराधयोग्य परिणाम नही
४२८ प्रमाद कम होनेके लिये सद्ग्रन्य पढ़ें ४२९ मेरी चित्तवृत्तिके विषयमें लिखनेका अर्थ, उपाघिताप या लोकसज्ञाभय
४३० सत्पुरुषोंके सप्रदायकी सनातन करुणा, लोकसवघी मार्ग मात्र ससार, सारे समूहमें कल्याण मानना योग्य नही, कल्याणमार्गके दो कारण, असगताका अर्थ, दीक्षा नवघी, प्रतिवध और तीर्थंकरदेवका मार्ग
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३६२
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३६९
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[.४० ] • ५७९ मौन, आत्मा सबसे अत्यत प्रत्यक्षः । ०४६३: ५९७ वर्षमानस्वामी, आदिका आत्मकल्याणका ५८० पूछने-लिखनेमें प्रतिवध नही
४६३ | " निर्धार अद्वितीय, वेदान्तकथित आत्म५८१ चेतनका चेतन पर्याय, जडका जड पर्याय ४६३ स्वरूप पूर्वापर विरोधी, जिनकथित विशेष - ५८२ आत्मवीर्यके प्रवर्तन और सकोच करनेमे • विशेष अविरोधी, सम्पूर्ण आत्मस्वरूप "विचार, आत्मदशाकी स्थिरताके लिये
प्रगट करने योग्य पुरुष - ४७० असगताका ध्यान, उस तरफ अभी न आने- ५९८ अल्पकालमें उपाधिरहित होनेके लिये,
का आशय ! : ४६४ विचारवानको मानदशा अयोग्य, निवृत्ति.., ५८३ एक आत्मपरिणतिके सिवाय दूसरे विषयोमें
क्षेत्रमें समागम अधिक योग्य
४७० चित्त अव्यवस्थित, लोकव्यवहार अरुचिकर, ५९९ शरण और निश्चय कर्तव्य ।
४७२ अचलित आत्मरूपसे रहनेकी इच्छा, स्मृति, ६०० ज्ञानीपुरुषका उपकार, कभी विचारवानको
वाणी और लेखनशक्तिकी मदता ४६४ प्रवृत्तिक्षेत्रमे समागम विशेष लाभकारक, ' ५८४ 'जम निर्मलता रे', संगसे व्यतिरिक्तता।' , भीडमे, ज्ञानीपुरुषकी निर्मलदशा, नववाड' परम श्रेयरूप'
४६५ विशुद्ध ब्रह्मचर्य दशासे 'अवर्णनीय सयमसुख ४७२ ५८५ असगता और सुखस्वरूपता, स्थिरताके हेतु ४६५ / ६०१ अष्टमहासिद्धि आदि है, आत्माका सामर्थ्य ४७३ ५८६"पूर्णज्ञानी श्री ऋषभादिको भी प्रारव्योदय' - ६०२ समयकी सूक्ष्मता और रागद्वेषादि मनपरि- " । भोगना पडा, मोतीसम्बन्धी व्यापारसे । णाम और उनका उद्भव, स्वाध्याय काल : ४७४ छूटनेकी लालसा, परमार्थ एंव व्यवहार ६०३ ज्ञानीपुरुषको स्वभावस्थितिका सुख, ज्ञानीसम्वन्धी लेखनसे कटाला, वीतरागकी
का दशाफेर तो भी, प्रयत्न ,स्वधर्ममें, शिक्षा-द्रव्यभाव सयोगसे छूटना , ४६५ सम्पूर्ण ज्ञानदशामे परिग्रहका अप्रसग ४७४ ५८७ केवलज्ञानसे पदार्थ किस प्रकार दिखायी ६ ०४ वचनोकी पुस्तक ५ -
४७४ देते हैं ? दीपक आदिकी भांति , - ४६७, ६०५ आत्मपरिणामकी, विभावता ही मुख्य मरण .४७५ ५८८ वीतरागकी शिक्षा द्रव्य भाव सयोगसे छूटना, . “६०६ ज्ञानका फल विरति, पूर्वकर्मकी सिद्धि . ४७५
__ अनादिको भूल, सर्व जीवोंका परमात्मत्व ४६७ । ६०७ जगमकी युक्तियाँ । .. ४७५ ५८९ वेदात ग्रन्थ वैराग्य और उपशमके लिये ४६८, ६०८ सात भर्तारवाली - - - -- ४७५ ५९० चारित्रदशाकी अनुप्रेक्षासे स्वस्थता, स्व-.., ६०९ आत्मामें -निरन्तर- परिणमन करने योग्य
स्थताके बिना ज्ञान निष्फल - ४६८ वचन-सहजस्वरूपसे, स्थिति,,, - सत्सग । ५९१.ज्ञानदशाके बिना विषयको निमू लता अस
निर्वाणका मुख्य हेतु, असगता, सत्सग भव, ज्ञानीपुरुषको भोगप्रवृत्ति । । ४६८ निष्फल क्यो ? सत्सगकी पहचान, आत्म- । ५९२ क्षणभगुर देहमें प्रीति क्या करें ? आत्मा
कल्याणार्थ ही प्रवृत्ति से शरीर भिन्न देखनेवाले धन्य, महात्मा ६१० मिथ्याभाव प्रवृत्ति और सत्य ज्ञान, देव
पुरुषोकी प्रामाणिकता- 7 - ४६८. लोकसे आनेवालोको लोभ विशेष ४७७ ५९३ सर्व ज्ञानका सार, प्रन्थिभेदके-लिये,वीर्य । | ६११ आमका विपरिणाम काल , ४७७
गति और उनके साधन - ४६९ . ६१२ अहोरात्र विचारदशा, कबीरपथीका सग ४७८ ५९४ दुखरूप काया और विचारवान , - ४६९ । ६१३ अनतानुवधी और उसके स्थानक, मुमुक्षु ५९५ वेदातादि और जिनागममें आत्मस्वरूपकी | पुरुषका भूमिकाधर्म . .
४७८ विचारणामें भेद . . . . . ४६९ ६१४ त्यागका क्रम
, , . ४७९ -५९६ सर्वकी अपेक्षा वीतराग-वचन सपूर्ण ६१५ केवलज्ञान आदि सवधी -वोलोके, प्रति । प्रतीतिका स्थान
- ४७० । विचारपरिणति कर्तव्य . •,४७९
४७६
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[ ४१]
६१६ अपने दोष कम किये विना सत्पुरुषके मार्गका ।' प्राप्ति, आत्मज्ञानको पात्रताके लिये यमफल पाना कठिन है '
४८० । नियमादि साधन, तत्त्वका तत्त्व ४८९ ६१७ केवलज्ञान विशेष विचारणीय, स्वरूप । ६३२ युवावस्थामें इन्द्रिय-विकारके कारण। ४४९
प्राप्तिका हेतु विचारणीय, सब दर्शनोका ६३३ आत्मसाधनके लिये कर्तव्यका विचार ४८९ तुलनात्मक विचार, अल्पकालमें सर्व प्रकार-- ६३४ सवत्सरी क्षमापना - " . ४९ का सर्वांग समाधान
- ४८० | ६३५ निवृत्तिक्षेत्रमें स्थितिकी वृत्ति ४९० ६१८ उदयप्रतिवध आत्महितार्थ दूर करनेका क्या ६३६ निमित्ताधीन जीव निमित्तवासी जीवोका ।। ( उपाय ?
.....४८१ । । सग छोडकर सत्संग करें ।" १९० ६१९ सर्व प्रतिबघमुक्तिके बिना सर्व दुखमुक्ति .. ६३७ सर्वदु ख मिटानेका उपाय । ४९० , असभव, अल्पकालकी अल्प असगताका |: ६३८ धर्म, अधर्मकी निष्क्रियता और सक्रियता, , विचार .
.. ४८२ | जीव, परमाणुकी सक्रियता ' ४९१ ६२० महावीरस्वामीका मौनप्रवर्तन उपदेशमार्ग- ६३९ आत्मार्थके लिये चाहे जहाँ श्रवणादिका , . प्रवर्तकको शिक्षावोधक, उपयोगकी जागृति
प्रसग करना योग्य
४९१ पूर्वक प्रारब्धका वेदन,, सहज प्रवृत्ति और - ६४० आत्माकी असगता' मोक्ष है, 'तदर्थ सत्सग उदीरण प्रवृत्ति -
कर्तव्य
४९१ ६२१ अधिक समागम नही कर सकने योग्य दशा, ६४१ देखतभूलीके प्रवाहमें न बहनेका कौन-सा
अविरतिरूप उदय विराधनाका हेतु ४८३ आधार? ६२२ 'अनन्तानुवन्धी'का विशेषार्थ, उपयोगकी ... ६४२ परकथा-परवृत्तिमें बहते विश्वमें स्थिरता
___ शुद्धतासे स्वप्नदशाको परिक्षोणता ४८४ कहाँसे ? आत्मप्राप्ति एकदम सुलभ - ४९१ ६२३ मुमुक्षुकी आसातनाका डर । ४८४
६४३ आत्मदशा कैसे आये ?
४९ ६२४ अमुक प्रतिबघ करनेकी अयोग्यता । ४८५ ६४४ वैराग्य, उपशमादि भावोकी परिणति कठिन ६२५ पर्याय पदार्थका विशेष स्वरूप, मन पर्याय
होनेपर भी सिद्धि - ४९२ ज्ञानको ज्ञानोपयोगमें गिना है, दर्शनोपयोग- ६४५ 'समज्या ते शमाई रह्या' 'गया'. ४९२ मानही -
। ४८५ ६४६ विचारवानकी विचारश्रेणि, अपनी त्रिकाल ६२६ निमित्तवासी यह जीव है।
विद्यमानता, वस्तुता बदलती नही, सर्व ६२७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्ग ... ज्ञानका फल आत्मस्थिरता - ४९२ 'आराधनीय
४८५ ६४७ निर्वाणमार्ग अगम-अगोचर है ४९३ ६२८ गुणसमुदाय और गुणीका स्वरूप ४८५ ६४८ ज्ञानीका अनंत 'ऐश्वर्य-वीर्य
४९३ ६२९ गुण-गुणीके स्वरूपका विचार, इस कालमें ६४९ जीवनका हीन उपयोग' ''
४९३ केवलज्ञानका विधार, जातिस्मरणज्ञान, जीव ६५० अतर्मुख पुरुषोको भी सतत जागृतिको शिक्षा ४९३ प्रति समय मरता है, केवलज्ञानदर्शनमें
२९ वॉ वर्ष भूत-भविष्य पदार्थका दर्शन
४८६ / ६५१ 'समजीने शमाई रह्या गया'का अर्थ, ६३० क्षयोपशमजन्य इन्द्रियलब्धि, जीवके ज्ञान
सत्सग, सद्विचारसे शात होने तकके पद दर्शन (प्रदेशको निरावरणता) क्षायिक भाव
सच्चे, नि संदेह है .
४९४ और क्षयोपशम भावके अधीन, वेदनाक । ६५२ वेदान्तमें निरूपित मुमुक्षु तथा जिननिरूपित ___वेदनमें उपयोग रुकता है।
सम्यग्दृष्टि के लक्षण
४९५ ६३१ एक आत्माको जानते हुए समस्त लोकालोक- ६५३ द्रव्यसयमरूप साधुत्व किसलिये? . ४९५ का ज्ञान, और सब जाननेका फल आत्म- । ६५४ अतर्लक्ष्यवत् वृत्ति
४९५
ज्ञान
४७
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४३१ तीर्थकरके आशय से केवलज्ञान और परमार्थसम्यक्त्व, बीजरुचिसम्यक्त्व, मार्गानुसारी जीव, 'आत्मत्व' यही ध्वनि ४३२ आत्मस्थ होनेके लिये ज्ञानीकी भक्ति, स्वरूप विस्मरण विचारणीय
४३३ हुडाअवसर्पिणी, मुमुक्षुता, सरलता आदि साधन परम दुर्लभ, तीर्थकरवाणी सत्य करनेके लिये ऐसा उदय
४३४ यहाँ उपाधियोग
४३५ चितारहित परिणामसे उदयका वेदन ४३६ 'समता, रमता, ऊरघता ।' तीर्थकर, उनके वचन, मार्गबोध और उद्देशवचनको
नमस्कार
४३७ कल्याण-प्राप्तिकी दुर्लभता, जीव-समुदायकी भ्रातिके दो कारणोका एकत्र अभिप्राय, असत्सग आदि दूर करनेका उपाय, आत्मत्वको जाननेके लिये तीथंकरादिका दुष्कर पुरुषार्थ
४३८ 'समता, रमता, ऊरघता
,
इस दोहे में बताये गये जीवके लक्षणोका विवेचन
४३९ वर्तमान अवस्था उपाधिरहित होनेके लिये अत्यत योग्य
४४० कल्याणके प्रतिवधक कारण, उनमें उदासीनता
४४१ सत्सग योगकी इच्छा करना और अपने दोष देखना योग्य
[ ३६ ]
३७१
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४४२ 'घार तरवारनी सोहली, " मार्गकी ऐसी दुष्करता किसलिये ?
४४३ तीर्थंकर या तीर्थंकर जैसा पुरुष ४४४ जलको सूर्यादिके ताप-योग जैसा प्रवृत्तियोग हमें हैं ।
४४५ विशेषरूपसे सत्सग करना ४४६ आकर्षक ससारमें अवकाश लेनेकी सर्वथा ना, चिता उपद्रव कोई शत्रु नही हैं। ४४७ अनुकूल प्रसगोमें ससार त्याग दुष्कर, प्रतिकूल प्रसंग आत्मसाघक ४४८ 'माहण' 'श्रमण' 'भिक्षु' और 'निर्ग्रन्थकी' वीतराग अवस्थाएँ, 'आत्मवादप्राप्त' का अर्थ ३७८
३७६
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३७७
३७७
३७७
परम साधन, ज्ञानी पुरुषकी प्रवृत्ति, अनादिके तीन दोष, उन्हें दूर करनेके उपाय, कल्याणका उपाय, हमारे समागमके अतरायमे निराश व प्रमादी न हो, स्वाध्याय, निवृत्ति आदिमें प्रयत्नशील रहें
४५० जीव । तू किसलिये शोक करता है ? मार्गानुसारी और अज्ञानयोगी पुरुषोमें भी सिद्धियोग, सिद्धियोग और गुणस्थान, ज्ञानीसे सिद्धियोग स्वाभाविक परिणामी, सिद्धि योग साधनका हमने कभी विचार नहीं किया, राम, पाडव और गजसुकुमारके दुखकी तुलनामें आपका और हमारा दुख कुछ भी नही
४५१ सत्सगके इच्छावान जीवोकी उपकारक देखभाल
४४९ सत्सग
३७८
३८०
३८१
३८१
४५२ दु.ख कल्पित है ४५३ दुषमकालमें आत्मप्रत्ययी पुरुषके बचनेका एक मात्र उपाय - निरंतर सत्सग, उपाधि परिणामसे आत्मप्रत्ययी, मूर्खकी भाँति उदय-व्यवहारका सेवन किया करते हैं । ३८१ ४५४ ज्ञानीको देखने सुननेवाला पुरुष न तो ससारसे प्रीति और न स्त्रीमें राग कर सकता है, ज्ञानीपुरुषका मार्गानुसारीको बोध, ध्यानमें रखने योग्य बातें ३८३ ४५५ अनुकूलता-प्रतिकूलताके कारणमे अविषमता ३८३ ४५६ प्राणी आशासे जीते हैं, आत्मज्ञानी आत्मस्वरूपसे जीता है, आशामें समाधि किस तरह ?
४५७ रखा कुछ रहता नही, छोडा कुछ जाता नही
३८३
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३८४
४५८ विचारस्थिति
४५९ श्री कृष्णादिकी क्रिया उदासीन-सी, भाव अप्रतिबन्धके प्रमाणमें सम्यग्दृष्टिपन, अनन्तानुवधी कषाय और सम्यक्त्व, परमार्च मार्गका लक्षण, परमार्थ- बडका बीज ३८४ ४६० शारीरिक वेदना
सम्यक् प्रकारसे सहन
करने योग्य, देहमें अपारिणामिक ममता,
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[ ३७ ]
आर
३८७ |
३९९
निर्भयता और खेदशून्यताका सेवन करनेकी ४७९ वाणीका सयम श्रेयरूप, जीवकी मूढताके शिक्षा, सद्विचार और आत्मज्ञान आत्म
विचारमें सावधानी
३९५ गतिके कारण हैं
३८५ ४८० मुमुक्षु जीवको परिधम देना अपराध ३९६ ४६१ आत्मज्ञान वेदक होनेसे उद्विग्न नही करता, | ४८१ मुमुक्षुको परिश्रम देनेमें खेद. ३९६
आत्मवार्ताका वियोग उद्विग्न करता है, ४८२ चित्तका सोप भाव, अप्रमत्तदशामें चिन्तामें समता ३८६ | | सम्पर्णज्ञान
३९६ ४६२ दुर्लभ माणिकका वो अद्भुत माहात्म्य, ४८३ विचारभूमिकामें विचारणीय, कविताका और दुर्लभ सत्संगमें अरुचि यह आश्चर्य
आराधन आत्मकल्याणके लिये ३९७ विचारणीय
३८६ । ४८४ उपाधि प्रसगमें गुणकी विशेष स्पष्टता ३९७ ४६३ मेरु आदि सम्बन्धी, उदासी एकदम गुप्त ४८५ ससार-स्वरूपका वेदन मोक्षोपयोगी ३९७ जैसी, आत्मा समाधिप्रत्ययी
३८७ ४८६ ज्ञानी और अज्ञानीका स्वरूप, सर्व धर्मोका ४६४ गुजरातके किसी निवृत्तिक्षेत्रका विचार
आधार शान्ति
३९८ सम्भव
४८७ प्रारब्ध-कर्मको निवृत्ति, प्रारब्ध स्थितिमे ४६५ प्राणघातक उपाधियोग, अखड आत्मधुन
जड मौनदशा
३९८ पूर्वक भक्तिको आतुरता निकी मातरता ४८८ सुदर्शन सेठ
३९९ ४६६ आत्मतामार्गरूप धर्म, प्रत्यक्ष ज्ञानी मीठे ४८९ 'शिक्षापत्र'मे भक्तिका प्रयोजन , पानीका कलश, ज्ञानी पुरुषने कुछ कहना ४९० उपाधि दूर करनेके लिये दो पुरुषार्थ, बाकी नही रखा है, जीवने करना बाकी
आकुलतासे मार्गका विरोध
३९९ रखा है
३८८ ४९१ तीर्थकरका उपदेश, दुःख-मुक्तिके लिये ४६७ ज्ञानीपुरुषमें विभ्रमबुद्धि अथवा विकल्प
आत्म-गवेषणा, सत्सगकी भक्ति और बुद्धि, ज्ञानी-अज्ञानीकी दशाकी विलक्षणता ३८९ सर्वोत्तम अपूर्वता ४६८ सच्ची ज्ञानदशा होनेपर दु.खमें अविषमता ३९० । ४९२ ससारको प्रतिकूलदशा उपकारक ४०० ४६९ सर्व आत्माओंके प्रति समदृष्टि, सर्व ४९३ छ पद सम्यग्दर्शनके निवासके सर्वोत्कृष्ट पदार्थोके प्रति उदासीनता, सबसे अभिन्न
स्थानक
४०१ भावना, अविकल्परूप स्थिति
३९०
४९४ दो प्रकारके पूर्वकर्म और उनकी निवृत्ति ४०३ ४७० कल्याणका महान निश्चय, मुमुक्षु भाई. ४९५ ससारमें अधिक व्यवसाय न करना, सत्सग बहनका परस्पर व्यवहार
३९१
करना, विशेष अपराधीकी भांति आत्मामें ४७१ सुधारस बोजज्ञान-स्वरूप कब?
सलग्न रहेंगे
४०४ ४७२ सुधारससम्बन्धी, सहजस्वभावसे परमार्थरूप
४९६ गृहस्थको अखड नीतिके मलके बिना ३९२ उपदेशादि निष्फल
४०४ ४७३ व्याकुलता धीरजसे सहन करने योग्य ३९३ ४९७ उपदेशकी आकाक्षा
४०५ ४७४ आत्मभावना भाते-भाते केवलज्ञान ३९४
४९८ मुमुक्षुताका मुख्य लक्षण
४०५ ४७५ सुधारसका माहात्म्य
४९९ व्यवसायके सक्षपसे वोधका फलित होना ४०५ ४७६ मनुष्य प्रयत्न और प्रारब्ध
३९४ / ५०० वैराग्य-उपशमका वल, सब भूलोकी बीज२७ या वर्ष
भूत भूल, उपदेशज्ञान और सिद्धातजान ४०६ ४७७ शालिभद्र और घनाभद्रका वैराग्य, कालका | ५०१ साधुका पत्र-समाचार मात्र आत्मार्थके विश्वास
३९५ लिये, जिनेन्द्रकी आज्ञाएं-आत्मकल्याणके ४७८ बाह्य चित्तकी अव्यवस्था
३९५ लिये पाँच महाव्रत आदि और अपवाद ४०७
४००
प्रवर्तन
३९४
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४३१ तीर्थकरके आशय से केवलज्ञान और परमार्थसम्यक्त्व, वीजरुचिसम्यक्त्व, मार्गानुसारी जीव, 'आत्मत्व' यही ध्वनि ४३२ आत्मस्थ होनेके लिये ज्ञानीकी भक्ति, स्वरूप विस्मरण विचारणीय ४३३ हुडाअवसर्पिणी, मुमुक्षुता, सरलता आदि साधन परम दुर्लभ, तीर्थंकरवाणी सत्य करने के लिये ऐसा उदय
४३४ यहाँ उपाधियोग
४३५ चितारहित परिणाम से उदयका वेदन ४३६ 'समता, रमता, ऊरघता ।' तीर्थकर, उनके वचन, मार्गबोध और उद्देशवचनको
नमस्कार
४३७ कल्याण-प्राप्तिकी दुर्लभता, जीव-समुदायकी भ्रातिके दो कारणोका एकत्र अभिप्राय, असत्संग आदि दूर करनेका उपाय, आत्मत्वको जाननेके लिये तीर्थकरादिका दुष्कर पुरुषार्थ
४३८ 'समता, रमता, ऊरघता , इस दोहे में बताये गये जीवके लक्षणोका विवेचन ४३९ वर्तमान अवस्था उपाधिरहित होनेके लिये अत्यत योग्य
४४० कल्याणके प्रतिवषक कारण, उनमें उदासीनता
४४१ सत्सग योगकी इच्छा करना और अपने दोष देखना योग्य
[ ३६ ]
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३७६
३७६
४४२ 'घार तरवारनी सोहली, ' मार्गकी ऐसी दुष्करता किसलिये ?
४४३ तीर्थंकर या तीर्थंकर जैसा पुरुष
४४४ जलको सूर्यादिके ताप-योग जैसा प्रवृत्तियोग हमें हैं ।
४४५ विशेषरूपसे सत्सग करना ४४६ आकर्षक ससारमें अवकाश लेनेकी सर्वथा ना, चिता उपद्रव कोई शत्रु नही हैं। ३७७ ४४७ अनुकूल प्रसगोंमें ससार त्याग दुष्कर, प्रति
३७६
३७६
३७७
३७७
कूल प्रसग आत्मसाघक
४४८ 'माहण' 'श्रमण' 'भिक्षु' और 'निर्ग्रन्यकी' वीतराग अवस्थाएँ, 'आत्मवादप्राप्त' का अर्थ ३७८
३७७
४४
४५०
४५
४५
४५
४५
४५
४५
४५
४
४८
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३११
३१९
निवासी मुमुक्षुओकी दशा और प्रथा, अखड | ३१४ जिनेश्वरकी आराधनासे जिनेश्वर, आत्मसत्सगकी ही इच्छा
स्वरूपका ध्यानी ममत्व-जालमें नही फंसता ३१७ २९२ निकटभवी, स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति ३१०
३१५ स्वरूप सहज और ज्ञानीकी चरणसेवा ३१५ २९३ श्री हरिकी अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र ३११
३१६ 'एक परिनामके न करता दरव दोई', ३१५ २९४ धर्मध्यानमे वृत्ति लगना श्रेयस्कर, स्वच्छद
३१७ 'एक परिनामके न करता दरव दोई',
इत्यादिका विवेचन, आत्मा तो मुक्तस्वरूप बहुत वडा दोप
३११
लगता है, वीतरागता विशेष है ३१८ २९५ मन जीतनेकी सच्ची कसोटी २९६ उदयको कैसे भोगना ? अछेद्य अभेद्य वस्तु ३११ |
३१८ अन्यत्वभावनासे प्रवृत्ति का अभ्यास, प्रमाद ।
और मुमुक्षुता २९७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्ति
३१९ स्वरूपविस्मरण एव अन्य भाव दूर करनेका मार्ग, केवलदर्शन सम्बन्धी आशका
३१९ २५ वां वर्ष
उपाय, पूर्ण स्वरूपस्मृति सभव
३२० जीव पौद्गलिक पदार्थ नहीं है ३२० २९८ कही भी चैन नही, यह वडी विडबना ३१२ |
३२१ माया दुस्तर एव दुरत, अवधपरिणामी २९९ जगतकी विस्मृति करना और सत्के चरणमें
प्रवृत्ति, जनककी विदेहीरूपसे प्रवृत्ति, रहना, एक लक्ष्य-सिद्धि के लिये सभी साधन,
महात्माके आलम्बनकी प्रबलता ३२० केवल उपर्युक्त समझनेके लिये सभी शास्त्र ३१२ | ३२२ तो अलौकिक दृष्टिसे कौन प्रवृत्ति करेगा ? ३०० प्रसिद्धि अभी प्रतिवघरूप
३१२ ज्ञानीमें अखड विश्वासका फल मुक्ति, ससार ३०१ ससारमे किस तरह रहना योग्य है ? ३१३ तथा परमार्थकी चिंताके लिये स्पष्ट सूचन, ३०२ सत्य पर धीमहि । ग्रथ पृच्छा हेतु ३१३ सिद्धियोग और विद्यायोगसम्बन्धी प्रतिज्ञा, ३०३ अभी प्रगटरूपसे समागम बद, अप्रगट सत् ३१३ हमारी निर्विकल्प समाधिका कारण, अनुभव ३०४ परमार्थमौन' कर्म उदयमें, सत्की अप्राप्तिके । ज्ञानका फल वीतरागता, जगत कल्याणकी तीन कारण
३१३ इच्छा, 'जीव नवि पुग्गली'का अर्थ ३२० ३०५ यथार्थ वोघ सम्यग्ज्ञान, तेजोमयादिक दर्शन- ३२३ पूर्णज्ञानयुक्त समाधिको याद
३२२ को अपेक्षा यथार्थवोव श्रेष्ठ है
३१४ ३२४ उपाधिकी ज्वालामें समाघि परम दुष्कर, ३०६ श्री सुभाग्य प्रेमसमाधिमें
३१४ सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता ३२२ ३०७ सर्व समर्पणसे देहाभिमान निवृत्ति
३२५ अद्भुत दशा-'जवहीतें चेतन विभावसो ३०८ असगवृत्ति, वस्तुको समझें ३१४ उलटि आपु
३२२ ३०९ क्षायिक भावको प्राप्त सिद्धार्थ पुत्रकी भाव ३२६ 'शुद्धता विचारे घ्यावे'
३२२ पूजा
३१५ ३२७ अनुभवके सामर्थ्यसे काव्यादिका परिणमन ३२२ ३१० आत्मज्ञानी दर्शन या मतमें अनाग्रही, ओघ- ३२८ 'लेवेको न रही ठोर' का अर्थ, स्वरूपदृष्टि, योगदृष्टि, योगके बीज ३१५ भानसे पूर्णकामता
३२३ ३११ मोक्ष-सिद्धिका उपाय, वीर परमात्माका ३२९ पूर्वकर्मका निवधन, ज्ञानीको उपाधि भी
ध्यान, अनुभवके विना ध्यानसुख अगम्य ३१६ अवाघ-समाधि है, एक बडा आश्चर्य, ३१२ क्षायिक चारियको याद करते है ३१६
ज्ञानीको अवस्थामे प्रवेश करनेका द्वार ३२३ ३१३ ज्ञानीके आत्माको देखते है, यो सहन करना ३३० वोधबीजकी प्राप्ति, बोधवीज निश्चय योग्य, ज्ञानी अन्यथा नहीं करते, अपूर्व
सम्यक्त्व, दर्शन और अज्ञान परिपह विचावीतरागता, पूर्ण वीतराग जैसे वोधकी सहज
रणीय, छ पद विचारणीय
३२४ याद
३१६ | ३३१ ससारगत प्रीतिको अससारगत प्रीति करना ३२५
३१४
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.३३२
.
.
.
...
३३२ आरम्भ-परिग्रहका मोह मिटनेसे मुमुक्षुता । ३२५ ) ३५३ अप्रमत्त आत्माकार मन उदयाचीन - ३३१ ३३३ सत्पुरुषके प्रति अपने समान कल्पना, ३५४ समकितकी स्पर्शना और दशा सेद्धातिक ज्ञान ३२५. ३५५ प्रतिवधता दुखदायक
३३२ ३३४ हमारे जैसे उपाधि-प्रसंग और चित्तस्थिति- | ३५६ ज्ञानियोने शरीर आदिकी प्रवर्तनाके भानका वाले अपेक्षाकृत थोडे, 'सर्वसग' का लक्ष्यार्थ,
भी त्याग किया था , ",
३३२ देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो | ३५७ रुचि सत्यके ध्यानी संत आदिमें आत्मा तो सकता है
। “३२६ | कृतार्थ प्रतीत होता है ।
३३२ ३३५ उदास-परिणाम, निरुपायताका उपाय काल | ३५८ सम्यग्दर्शन किसे ? दो प्रकारका मार्ग
वस्तुत ज्ञानीको पहचाननेवाला घ्यान आदि । १ उपदेश प्राप्तिका, २ वास्तविक आत्मा । नहीं चाहता, उत्तम मुमुक्षु
३२६ / जैनी व वेदान्ती नही है .. ३३२ ३३६ 'वैराग्य प्रकरण' के वैराग्यके कारण पुन. ३५९ अपनापन दूर करना योग्य है। देहाभिमान पुन विचारणीय
३२७ । रहितके लिये सब कुछ सुखरूप, हरीच्छामे ३३७ शोचनीय बात' विचारणीय, सुखदु खका
दृढ विश्वास
"
'३३२ समताभावसे वेदन करना । '३२७ / ३६० जहाँ पूर्णकामता वहाँ सर्वज्ञता, वोघबीजकी ३३८ पूर्वनिबद्ध कर्म निवृत्त होनेके लिये' शीघ्र ___ उत्पत्तिसे स्वरूपसुखसे परितृप्तता, क्षणिक उदयमें आते हैं ।
३२७ | 'जीवनमें नित्यता, अखड आत्मवोधका लक्षण ३३३ ३३९ कर्मवघ हमारा दोष, सत्के ज्ञानमें ही रुचि, ३६१ उपाधिमें समाधि
३३३ व्यवहारमें आत्मा प्रवृत्त नहीं होता, इस
३६२ आत्मता होनेसे समाधि, पूर्ण ज्ञानका लक्षण, कार्यके पश्चात् 'त्याग' .
३२७
सच्चे आत्मभानसे अप्रत्ययी वृद्धिका ३४० भवातकारी ज्ञानकी प्राप्ति दुष्कर ३२८
विलय ३४१ समाघि ही बनाये रखनेकी दृढता, पार
J३६३ व्यवहारकी झझटमें परमार्थका विसर्जन मार्थिक दोषका ख्याल दुष्कर ३२९ न हो
।
३३३
३६४ ज्ञानवार्ता लिखनेका व्यवसाय । ३४२ भावसमाधि तो है, द्रव्यसमाधि आनेके लिये ३२९
३३४ ३४३ भाव-समाधि
३६५ 'प्राणविनिमय'-मिस्मिरेजमकी पुस्तक '
सम्बन्धी ३४४ उपाधि उदयरूपसे ३२९
३३४ ३४५ सत्सग करते रहना
३६६ अखड आत्मध्यान, 'वनकी मारी कोयल' ३३४ ३४६ पूर्वकर्म शीघ्र निवृत्त हो ऐसा करते हैं. ३२९
३६७ उपाधि-प्रसग तथापि आत्मसमाधि ३३४
३६८ ज्ञानीसे घना दिकी इच्छासे दर्शनावरणीय, ३४७ मन व्यवहारमें नही जमता, 'कर्तव्यरूप
ज्ञानीका उपजीवन पूर्वकर्मानुसार, ईश्वर श्रीसत्सग' दुर्लभ, क्रोधादिसे अप्रतिवद्ध,
आदि सहित सबमें उदासीनता, मोक्ष तो कुटुम्वादिसे मुक्त जैसे मनको सत्सगका बधन,३३०
हमें सर्वथा निकट ३४८ लोकस्थिति और रचना
३६९ सब कुछ हरिके अधीन
३३५ ३४९ लोकस्थिति आश्चर्यकारक
३३० ३७० अविच्छिन्न रूपसे आत्मध्यान, चित्तको ३५० ज्ञानीके सर्वसंगपरित्यागका हेतु क्या होगा? ३३१ नमस्कार
३३५ ३५१ सद्विचारके परिचय और उपाधिमें न ३७१ सत्सगसेवनसे लोकभावना कम हो, लोक
उलझनेका ध्यान रखना योग्य ३३१ सहवास भवरूप, मुमुक्षुका वर्तन, प्राप्तिमें ३५२ दुखको समतासे भोगनेमें सच्चा कल्याण
कालक्षेप हानि नही, भ्राति होनेमें हानि ३३६ ३३१ | ३७२ समागमका अभेद चिंतन
३३६
३२९
३२६
हम सबथा निकट
३३४
३३०
और सुख
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३४४
". ३४४
३.१ "मनके कारण यह मब है", महात्माको
! ३८६ परिपक्व समाधिरूप देह दो कारणोंसे विद्यमान, उपाधियोगमे । ३८७ स्वस्वरूपज्ञानसे छुटकारा, जिन होकर
प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर कब? ३३७ / जिनकी आराधना, मुख्य समाघि ३४४ ३७४ बानीका वैभव जार मुमुक्षु, वर्तमानमे | ३८८ 'जगत जिसमे सोता है, उसमे ज्ञानी जागता समतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ निश्चय
, ३४४ करना योग्य, भविष्यचिंतासे परमार्थका ३८९ 'सत्तान' की समझ कब ? जगत और विस्मरण, लज्जा और आजीविका मिय्या,
मोक्षका मार्ग एक नही ममपरिणाममें परिणमित होना ३३७ : ३९० त्वरासे कर्मक्षय करनेका अनेक वर्षाका ३७५ जिनागम उपशमस्वरूप, आत्मार्थके लिये
सकल्प, ध्यानसुख .
___३४५ उसका आराधन, राग आदि दोपोकी ३९१ 'सत्' एक प्रदेश भी दूर नही, तथापि अनत निवृत्ति एक आत्मनानसे, सत्सगका
अतराय अप्रमत्ततासे 'सत्'का श्रवण आदि ३४५ माहात्म्य, कर्मक्लेशकी निवृत्ति एव आत्म- ३९२ सनातनधर्म-अवसरप्राप्तमे सतुष्ट रहना ३४५ स्वरूपकी प्राप्तिके लिये सूत्रकृतागका ३९३ पूर्वकालमें आराधित उपाघि उदयरूपसे अध्ययन व श्रवण कर्तव्य
३३८ समाधि है, आनदघनजीके दो पद्योकी स्मृति ३४५ ३७६ ज्ञानीकी देह और वर्तन, प्रवृत्ति-योग , ३९४ 'मन महिलानु रे वहाला उपरे', और 'जिन
परेच्छासे, अविषमतामे आत्मध्यान ३३९ स्वरूप थई जिन आराधे' पद्योका विवेचन, ३७८ नवपदको सपत्ति भी आत्मामें, आत्मस्थ
भक्तिप्रधान दशा, उस मूर्तिको प्रत्यक्षतामें ज्ञानी पुरपका स्वरूप, 'ईश्वरेच्छा' का अर्थ ३४० / गृहाश्रम और चित्रपटमे सन्यस्ताश्रम, उस ३७८ निश्चयसे अकर्ता, व्यवहारसे कर्ता इत्यादि
आत्मस्वरूप पुरुपकी दशा विचारणीय है ३४६ विचारणीय, माससे परमार्थके प्रति ३९५ 'तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ़ घरे' का विवेचन, निर्विकल्प ३४० दु ख मिटनेका मार्ग
३४७ ३७९ तरनतारन, मोक्ष दुर्लभ नही, दाता दुर्लभ, | ३९६ अनवकाश आत्मस्वरूप, उस पुरुपके
निस्पृह बुद्धि, 'वनकी मारी कोयल' ३४१ स्वरूपको जानकर उसकी भक्तिके सत्सग३८० मोक्षका धुरधर मार्ग, प्रभुभक्ति मनको
का महान फल, 'मन महिलानु वहाला स्थिरनाका उपाय, सद्गुणोसे योग्यता प्राप्त
उपर का पुन' विवेचन करना
३४१ ३९७ क्षायिक ममकित, उसके निषेधक जीवोके ३८१ वैराग्ययुक्त पुस्तकें पढ़ें
३४२
प्रति केवल निष्काम करुणादृष्टि, यही ३८२ पराग्यवक अध्ययन, मतमतातरका त्याग ३४२ परमार्थ मार्ग है, ज्ञानीपुरुपको अवज्ञा और ३८३ विचारवानको मसार मर्वथा क्लेशरूप
गुणगानका फल, क्षायिक समकितकी तेरहवें गुणस्थान स्वर्तीका स्वरूप
आश्चर्यकारक व्याख्या, व्याख्याओको ३८४ 'दु पम कलियुगमे' जिसका चित्त विह्वलता,
सत्पुरुपके आशयसे जानना सफल, माननेका विलेप आदिरो अलिप्त रहा वह 'दूसरा
फल नहीं पर दशाका फल है, उपदेशक श्रीराम' है, लगभग १७ घटे उपाधि-योग,
जीव अपनी दशा विचारे, उपर्युक्त शब्द अनादि-कालका दृष्टिभ्रम दूर नहीं हुआ! ३४५ आगम ही है।
३४९ ३८५ मं जैसे ही शादी है, ज्ञानोके मधमे ३९८ कालकी दुष्पमता, परमार्थवृत्तिकी क्षीणता, अपने जैसी दशा पल्पना, हमारा चित्त
कालका स्वरूप देखकर अनुकपा, दुर्लभ नेत्रगंगा, धन्यल्प-नाम हममें यह
पुरुषका योग, वर्तमानमें जीवोका कल्याण उपाधि-योग
हमसे ही, परमार्थ किस प्रकारके मप्रदायसे
३४८
૩૪૨
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कहना ? आत्माकार स्थिति, चित्त अबद्ध, ससारसुखवृत्तिसे निरतर उदासीनता, सबसे अभेददृष्ट
३९९ सत्सगमें आत्मसाघन अल्पकालमें ज्ञानीमें, ज्ञानीके आश्रयमें समपरिणाम, गुणगान करने योग्यका अवर्णवाद, उपाधिमें निरुपाधिका विसर्जन न करे. ४०० सर्वथा अप्रतिबद्ध पुरुष, उपाधियोगमे चित्त
T
अपूर्व मुक्ता
४०१ कल्याण कैसे प्राप्त हो ? जपतपादि ससाररूप होने का कारण क्या ? उपाधि ऐसी कि तीर्थंकर जैसे पुरुषके विषयमें निर्धार करना विकट दीक्षावृत्ति शात करें ४०२ उदय देखकर उदास न होवे, किसी भी जीवके प्रति दोष अकर्तव्य
: ३५४
४०३ आत्मा आत्मभाव प्राप्त करे वह प्रकार धर्मका, आत्मधर्मका श्रवणादि आत्मस्थित पुरुषसे ही
४०४ क्षमायाचना
४०५ क्षमायाचना
४०६ इस सबके विसर्जन करनेरूप उदासीनता ४०७ दीक्षा कब योग्य और सफल ? आरंभपरिग्रहका सेवन अयोग्य ४०८ ज्ञानीपुरुषका सनातन आचरण हमे उदयरूप, साक्षी रूपसे रहना और कर्ताकी तरह भासमान होना, उपशम और ईश्वरेच्छा ४०९ पारेका चाँदी आदि रूप हो जाना, कौतुक आत्मपरिणामके लिये अयोग्य
४१० वर अथवा शापसे शुभाशुभ कर्मका ही, फल ४११ भवातरका वर्णन, भवातरका ज्ञान और आत्मज्ञान, सुवर्णवृष्टि, पूर्ण आत्मस्वरूप और महत् प्रभावयोग दस बोलोका विच्छेद दिखानेका आशय, सर्वथा मोक्ष और चरमशरीरिता, अशरीरी भावसे आत्मस्थिति
४१२ आत्माकारता
१३ स्वयंप्रकाशित ज्ञानीपुरुष यथार्थ द्रष्टा
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३६१
३६१
२५ ।
४१४ इतना अवकाश आत्माको रहता है, ज्ञानीपुरुषोका मार्ग, तीव्र वैराग्य, तीर्थकर के मार्गसे बाहर
३६१ ४१५ आत्मिक-वघनसे हम ससारमें नही रह रहे हैं, अतरगका भेद
३६२
:
४१६ ध्यानका स्वरूप, आत्मध्यान सर्वश्रेष्ठ, ज्ञानी पुरुषकी पहचान न होने देनेवाले तीन दोष, स्वच्छद और असत्सग
४१७ परमकृपालुदेवका उपकार
४१८ रविकै उदोत अस्त होत ( काव्य ) ४१९ ससारका प्रतिवध
४२० कि
बहुणा, कितना कहें ? प्रवृत्ति कैसे
करना ?
और वर्तन, आत्माको
४२१ व्यवसाय- प्रसग अफल प्रवृत्तिसे खेद
४२२ कालकी दुषमता क्यो ? परमार्थमार्गकी प्राप्ति दु खसे और उसके कारण शुष्कक्रियाप्रधानता आदिमें मोक्षमार्ग की कल्पना, शुष्क अध्यात्मी, दु षमता होने पर भी एकावतारिता शक्य, मुमुक्षुताके लक्षण ४२३ विचारमार्गमें स्थिति
४२४ पुनर्जन्म है —— जरूर है, तापमे विश्रातिका स्थान मुमुक्षु ४२५ उपाधि-वेदनके लिये अपेक्षित दृढता मुझमें नही, चित्तका उद्वेग, देह मूर्च्छापात्र नही है, देह और आत्माकी भिन्नता
४२६ उदासीनता एक उपाय
४२७ ज्ञानीपुरुषकी सेवाके इच्छावान, अपराधयोग्य परिणाम नही
४२८ प्रमाद कम होनेके लिये सद्ग्रन्य पढ़ें ४२९ मेरी चित्तवृत्तिके विषय में लिखनेका अर्थ, उपाघिताप या लोकसज्ञाभय
४३० सत्पुरुषोंके सप्रदायकी सनातन करुणा, लोकसवधी मार्ग मात्र ससार, सारे समूहमें कल्याण मानना योग्य नही, कल्याणमार्गके दो कारण, असगताका अर्थ, दीक्षा सववी, प्रतिवध और तीर्थंकरदेवका मार्ग
1
३६२
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Jarb
४३१ तीर्थकरके आशय से केवलज्ञान और परमार्थसम्यक्त्व, वीजरुचिसम्यक्त्व, मार्गानुसारी जीव, 'आत्मत्व' यही ध्वनि ४३२ आत्मस्थ होनेके लिये ज्ञानीकी भक्ति, स्वरूप विस्मरण विचारणीय
४३३ हुडाअवसर्पिणी, मुमुक्षुता, सरलता आदि साधन परम दुर्लभ, तीर्थंकरवाणी सत्य करनेके लिये ऐसा उदय
४३४ यहाँ उपाधियोग
४३५ चितारहित परिणाम से उदयका वेदन ४३६ 'समता, रमता, ऊरघता ।' तीर्थकर,
उनके
वचन, मार्गबोध और उद्देशवचनको
नमस्कार
४३७ कल्याण-प्राप्तिकी दुर्लभता, जीव-समुदाय - की भ्रातिके दो कारणोका एकत्र अभिप्राय, असत्सग आदि दूर करनेका उपाय, आत्मत्वको जाननेके लिये तीथंकरादिका दुष्कर पुरुषार्थ
४३८ 'समता, रमता, ऊरघता 1 इस दोहे बताये गये जीवके लक्षणोका विवेचन ४३९ वर्तमान अवस्था उपाधिरहित होनेके लिये अत्यत योग्य
४४० कल्याणके प्रतिबधक कारण, उनमें उदासीनता
४४१ सत्सग योगकी इच्छा करना और अपने दोष देखना योग्य
४४२ 'घार तरवारनी सोहली, ' मार्गकी ऐसी दुष्करता किसलिये ?
४४३ तीर्थंकर या तीर्थंकर जैसा पुरुष ४४४ जलको सूर्यादिके ताप-योग जैसा प्रवृत्तियोग हमें हैं ।
४४५ विशेषरूपसे सत्सग करना
४४६ आकर्षक ससारमें अवकाश लेनेकी सर्वथा ना, चिता उपद्रव कोई शत्रु नही हैं। ४४७ अनुकूल प्रसगोमें ससार त्याग दुष्कर, प्रति
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कूल प्रसंग आत्मसाघक ४४८ 'माहण' 'श्रमण' 'भिक्षु' और 'निर्ग्रन्थकी'
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वीतराग अवस्थाएं, 'आत्मवादप्राप्त' का अर्थ ३७८
४४९ सत्सग परम साधन, ज्ञानी पुरुषकी प्रवृत्ति, अनादिके तीन दोष, उन्हें दूर करनेके उपाय, कल्याणका उपाय, हमारे समागमके अतरायमे निराश व प्रमादी न हो, स्वाध्याय, निवृत्ति आदिमें प्रयत्नशील रहें
४५० जीव । तू किसलिये शोक करता है ? मार्गानुसारी और अज्ञानयोगी पुरुषोमें भी सिद्धियोग, सिद्धियोग और गुणस्थान, ज्ञानीसे सिद्धियोग स्वाभाविक परिणामी, सिद्धि योग साधनका हमने कभी विचार नही क्रिया, राम, पाडव और गजसुकुमारके दुखकी तुलना में आपका और हमारा दुख कुछ भी नही
४५१ सत्सगके इच्छावान जीवोकी उपकारक देखभाल
३७८
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३८१
३८१
४५२ दुख कल्पित है
४५३ दुषमकालमें आत्मप्रत्ययी पुरुषके बचनेका एक मात्र उपाय - निरतर सत्सग, उपाघि परिणामसे आत्मप्रत्ययी, मूर्खकी भाँति उदय - व्यवहारका सेवन किया करते है । ३८१ ४५४ ज्ञानीको देखने सुननेवाला पुरुष न तो ससारसे प्रीति और न स्त्रीमें राग कर सकता है, ज्ञानीपुरुषका मार्गानुसारीको बोध, ध्यान में रखने योग्य बातें
३८३ ४५५ अनुकूलता-प्रतिकूलताके कारणमें अविषमता ३८३ ४५६ प्राणी आशासे जीते हैं, आत्मज्ञानी आत्मस्वरूपसे जीता है, आशामें समाधि किस तरह
?
४५७ रखा कुछ रहता नही, छोड़ा कुछ जाता नही
३८३
३८४
३८४
४५८ विचारस्थिति
४५९ श्री कृष्णादिकी क्रिया उदासीन-सी, भाव अप्रतिबन्धके प्रमाणमें सम्यग्दृष्टिपन, अनन्तानुबधी कषाय और सम्यक्त्व, परमार्थ मार्गका लक्षण, परमार्थ - बडका बीज ३८४ ४६० शारीरिक वेदना सम्यक् प्रकारसे सहन करने योग्य, देहमें अपारिणामिक ममता,
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निर्भयता और खेदशून्यताका सेवन करनेकी . शिक्षा, सद्विचार और आत्मज्ञान आत्मगतिके कारण हैं
४६१ आत्मज्ञान वेदक होनेसे उद्विग्न नही करता, आत्मवार्ताका वियोग उद्विग्न करता है, चिन्तामें समता
४६२ दुर्लभ माणिकका तो अद्भुत माहात्म्य, और दुर्लभ सत्सगमें अरुचि यह आश्चर्यं विचारणीय
४६३ मेरु आदि सम्बन्धी, उदासी एकदम गुप्त जैसी, आत्मा समाधिप्रत्ययी
४६४ गुजरात के किसी निवृत्तिक्षेत्रका विचार
सम्भव
४६५ प्राणघातक उपाघियोग, अखड आत्मधुन पूर्वक भक्तिकी आतुरता
४६६ आत्मतामार्गरूप धर्मं, प्रत्यक्ष ज्ञानी मीठे
7
पानीका कलश, ज्ञानी पुरुषने कुछ कहना बाकी नही रखा है, जीवने करना बाकी रखा है
बहनका परस्पर व्यवहार
४७१ सुधारस बोजज्ञान- स्वरूप कब ?
४७२ सुधारससम्बन्धी, सहजस्वभावसे परमार्थरूप
प्रवर्तन
४७३ व्याकुलता धीरजसे सहन करने योग्य
४७४ आत्मभावना भाते भाते केवलज्ञान
४७५ सुधारसका माहात्म्य
४७६ मनुष्य प्रयत्न और प्रारब्ध
२७ वॉ वर्ष
४७७ शालिभद्र और घनाभद्रका वैराग्य, कालका
[३७]
विश्वास
४७८ बाह्य चित्तकी अव्यवस्था
३८५
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३८८
1
४६७ ज्ञानीपुरुषमें विभ्रमबुद्धि अथवा विकल्प - बुद्धि, ज्ञानी- अज्ञानीकी दशाकी विलक्षणता ३८९ ४६८ सच्ची ज्ञानदशा होनेपर दुखमें अविषमता ३९० ४६९ सर्व आत्माओंके प्रति समदृष्टि, सर्वं पदार्थोके प्रति उदासीनता, सबसे अभिन्न भावना, अविकल्परूप स्थिति
४७० कल्याणका महान निश्चय, मुमुक्षु भाई
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३९४
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३९५
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४७९ वाणीका संयम श्रेयरूप, जीवकी मूढ़ताके विचारमें सावधानी
४८० मुमुक्षु जीवको परिश्रम देना अपराध ४८१ मुमुक्षुको परिश्रम देने में खेद ४८२ चित्तका सक्षेप भाव,
अप्रमत्तदशामे
सम्पूर्णज्ञान
४८३ विचारभूमिका में विचारणीय, कविताका आराधन आत्मकल्याणके लिये
४८४ उपाधि प्रसगमें गुणकी विशेष स्पष्टता ४८५ ससार स्वरूपका वेदन मोक्षोपयोगी ४८६ ज्ञानी और अज्ञानीका स्वरूप, सर्व धर्मोंका आघार शान्ति
४८७ प्रारब्ध कर्मको निवृत्ति, प्रारब्ध स्थिति मे जड मौनदशा
४८८ सुदर्शन सेठ
४८९ 'शिक्षापत्र' में भक्तिका प्रयोजन
४९० उपाधि दूर करनेके लिये दो पुरुषार्थ, आकुलतासे मार्गका विरोध
४९१ तीर्थकरका उपदेश, दु.ख मुक्तिके लिये आत्म- गवेषणा, सत्सगकी भक्ति और सर्वोत्तम अपूर्वता
}
४९२ ससारकी प्रतिकूलदशा उपकारक
४९३ छ पद सम्यग्दर्शनके निवासके सर्वोत्कृष्ट
स्थानक
४९४ दो प्रकारके पूर्वकर्म और उनकी निवृत्ति ४९५ ससारमें अधिक व्यवसाय न करना, सत्सग करना, विशेष अपराधीकी भांति आत्मामें सलग्न रहेंगे
४९६ गृहस्थको अखड नीतिके मूलके बिना उपदेशादि निष्फल
४९७ उपदेशकी आकाक्षा
४९८ मुमुक्षुताका मुख्य लक्षण
४९९ व्यवसायके सक्ष पसे वोधका फलित होना ५०० वैराग्य-उपशमका वल, सब भूलोकी वीजभूत भूल, उपदेशज्ञान और सिद्धातज्ञान ५०१ साधुका पत्रसमाचार मात्र आत्मार्थक लिये, जिनेन्द्रकी आज्ञाएँ - आत्मकल्याणके लिये पांच महाव्रत आदि और अपवाद
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४७ ४७
५७९ मौन, आत्मा सबसे अत्यत प्रत्यक्ष : ४६३ । ५९७ वर्धमानस्वामी, आदिका आत्मकल्याणका ५८० पूछने-लिपने में प्रतिवध नही
निर्धार अद्वितीय, वेदान्तकथित आत्म५८१ चेतनका चेतन पर्याय, जडका जड पर्याय ४६३ । स्वरूप पूर्वापर विरोधी, जिनकथित विशेष ५८२ आत्मवीर्यके प्रवर्तन और सकोच करनेमे
विशेष अविरोधी, सम्पूर्ण आत्मस्वरूप विचार, आत्मदशाकी स्थिरताके लिये
प्रगट करने योग्य पुरुष - - ४७ असगताका व्यान, उस तरफ अभी न आने- ५९८ अल्पकालमें उपाधिरहित होनेके लिये, का आशय
४६४ 1 विचारवानको मानदशा अयोग्य, निवृत्ति ५८३ एक आत्मपरिणतिके सिवाय दूसरे विषयोमें
क्षेत्रमें समागम अधिक योग्य चित्त अव्यवस्थित, लोकव्यवहार अरुचिकर, ५९९ शरण और निश्चय कर्तव्य अचलित आत्मरूपसे रहनेकी इच्छा, स्मृति, ६०० ज्ञानीपुरुषका उपकार, कभी विचारवानको
वाणी और लेखनशक्तिकी मदता ४६४ प्रवृत्तिक्षेत्रमे समागम विशेष लाभकारक, ५८४ 'जेम निर्मलता रे', सगसे व्यतिरिक्तता । भीडमे ज्ञानीपुरुषकी निर्मलदशा, नववाडपरम श्रेयरूप
विशुद्ध ब्रह्मचर्य दशासे अवर्णनीय सयमसुख ४७ः ५८५ असगता और सुखस्वरूपता, स्थिरताके हेतु ४६५ / ६०१ अष्टमहासिद्धि आदि है, आत्माका सामर्थ्य ४७३ ५८६ पूर्णज्ञानी श्री ऋषभादिको भी प्रारब्धोदय ६०२ समयकी सूक्ष्मता ओर रागद्वेषादि मनपरिभोगना पडा, मोतीसम्बन्धी व्यापारसे
णाम और उनका उद्भव, स्वाध्याय काल ४७४ छूटनेकी लालसा, परमार्थ एव व्यवहार ६०३ ज्ञानीपुरुषको स्वभावस्थितिका सुख, ज्ञानीसम्बन्धी लेखनसे कटाला, वीतरागकी
का दशाफेर तो भी प्रयत्न स्वधर्ममें, शिक्षा-द्रव्यभाव सयोगसे छूटना ४६५ ।। सम्पूर्ण ज्ञानदशामे परिग्रहका अप्रसग ४७४ ५८७ केवलज्ञानसे पदार्थ किस प्रकार दिखायी ६०४ वचनोकी पुस्तक , . ४७४
देते है ? दीपक आदिकी भांति . ४६७ ६०५ आत्मपरिणामकी विभावता ही मुख्य मरण -४७५५ ५८८ वीतरागकी शिक्षा द्रव्य-भाव सयोगसे छूटना, ६०६ ज्ञानका फल विरति, पूर्वकर्मकी सिद्धि ४७५
अनादिको भूल, सर्व जीवोका परमात्मत्व ४६७ ६०७ जगमकी युक्तियाँ । ! . ५८९ वेदात ग्रन्थ वैराग्य और उपशमके लिये ४६८ | ६०८ सात भर्तारवाली
४७५ ५९० चारित्रदशाको अनुप्रेक्षासे स्वस्थता, स्व- ६०९ आत्मामें निरन्तर परिणमन करने योग्य स्थताके बिना ज्ञान निष्फल
वचन-सहजस्वरूपसे, स्थिति,, सत्सग ५९१ ज्ञानदशाके विना विपयकी
निर्वाणका मुख्य हेतु, असगता, सत्सग भव, ज्ञानीपुरुषको भोगप्रवृत्ति । ४६८ निष्फल क्यो? सत्सगकी पहचान, आत्म५९२ क्षणभगुर देहमें प्रीति क्या करें ? आत्मा
कल्याणार्थ ही प्रवृत्ति से शरीर भिन्न देखनेवाले धन्य, महात्मा |६१० मिथ्याभाव प्रवृत्ति और सत्य ज्ञान, देवपुरुषोकी प्रामाणिकता
४६८ लोकसे आनेवालोको लोभ विशेष ४७७ ५९३ सर्व ज्ञानका सार, ग्रन्यिभेदके लिये वीर्य ६११ आमका विपरिणाम काल
४७७ गति और उनके साधन
४६९ | ६१२ अहोराय विचारदशा, कबीरपथीका सग ४७८ ५९४ दुखरूप काया और विचारवान
६१३ अनतानुवघी और उसके स्थानक, मुमुक्षु ५९५ वेदातादि और जिनागममें आत्मस्वरूपकी
पुरुषका भूमिकाधर्म विचारणाम भेद ६१४ त्यागका क्रम
४७९ ५९६ सर्वकी अपेक्षा वीतराग-वचन सपूर्ण ६१५ केवलज्ञान आदि सवधी वोलोके प्रति प्रतीतिका स्थान
४७० विचारपरिणति कर्तव्य
४७५
४७६
.४७८
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________________
४८९
। ४८०६
[ ४१ ६१६ अपने दोष कम किये विना सत्पुरुषके मार्गका. . | " प्राप्ति, आत्मज्ञानको पात्रताके लिये यम___ फल पाना कठिन है
४८ नियमादि साधन, तत्त्वका तत्त्व' ४८९ ६१७ केवलज्ञान विशेष विचारणीय, स्वरूप ६३२ युवावस्थामें इन्द्रिय-विकारके कारण । । ४८९ • प्राप्तिका हेतु विचारणीय, सव। दर्शनोका
६३३ आत्मसाधनके लिये कर्तव्यका विचार तुलनात्मक विचार, अल्पकालमे सर्व प्रकार- ६३४ सवत्सरी क्षमापना ।। . ४९४ का सर्वांग समाधान
६३५ निवृत्तिक्षेत्रमें स्थितिकी वृत्ति । ४९० ६१८ उदयप्रतिवध आत्महितार्थ दूर करनेका क्या ।, ६३६ निमित्ताधीन जीव निमित्तवासी जीवोका '' - उपाय ? ,
- ४८१ '' सग छोडकर सत्सग करें। ' ४९० ६१९' सर्व प्रतिबघमुक्तिके विना सर्व दुखमुक्ति ,' ६३७ सर्वदु ख मिटानेका उपाय ।। ४९० । असभव, अल्पकालकी अल्प असगताका ६३८ धर्म, अधर्मको निष्क्रियता और सक्रियर्ता, .. विचार . . . ४८२ | ' ' जीव, परमाणुकी सक्रियता
४९१ ६२० महावीरस्वामीका मौनप्रवर्तन उपदेशमार्ग- ६३९ आत्मार्थके लिये चाहे जहाँ श्रवणादिका . प्रवर्तकको शिक्षाबोधक, उपयोगकी जागृति-,
प्रसग करना योग्य पूर्वक प्रारब्धका वेदन, सहज प्रवृत्ति और , । ६४० आत्माकी असगता' मोक्ष है, तदर्थ सत्सग उदीरण प्रवृत्ति . . ,४८२ | कर्तव्य
। ६२१ अधिक समागम नही कर सकने योग्य दशा, । ६४१ देखतभूलीके प्रवाहमें न बहनेका कौन-सा । ____अविरतिरूप उदय विराधनाका हेतु ४८३ | आधार? ६२२ 'अनन्तानुबन्धी'का विशेषार्थ, उपयोगकी ६४२ परकथा-परवृत्तिमें बहते विश्वमें स्थिरता ___शुद्धतासे स्वप्नदशाकी परिक्षीणता ४८४ । कहाँसे ? आत्मप्राप्ति एकदम सुलभ . ४९१ ६२३ मुमुक्षुकी आसातनाका डर । ४८४ ६४३ आत्मदशा कैसे आये ? । ४९२ ६२४ अमुक प्रतिबघ करनेकी अयोग्यता '' ४८५ ६४४ वैराग्य, उपशमादि भावोकी परिणति कठिन ६२५ पर्याय पदार्थका विशेष स्वरूप, मन पर्याय
होनेपर भी सिद्धि
४९२ ज्ञानको ज्ञानोपयोगमें गिना है, दर्शनोपयोग- ६४५' 'समज्या ते शमाई रह्मा' गया' ४९२ में नही .
। । ४८५ ६४६ विचारवानकी विचारश्रेणि, अपनी त्रिकाल ६२६ निमित्तवासी यह जीव है . ४८५
। विद्यमानता, वस्तुता बदलती नही, सर्व ६२७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्ग
ज्ञानका फल आत्मस्थिरता - ..' ४९२ ' आराघनीय ४८५ ६४७ निर्वाणमार्ग अगम-अगोचर है
४९३ ६२८ गुणसमुदाय और गुणीका स्वरूप'' ४८५ .६४८ ज्ञानीका अनंत ऐश्वर्य-वीर्य' . ४९३ ६२९ गुण-गुणीके स्वरूपका विचार, इस कालमे ६४९ जीवनका हीन उपयोग ।
४९३ केवलज्ञानका विचार, जातिस्मरणज्ञान, जीव ६५० अतर्मुख पुरुषोको भी सतत जागृतिको शिक्षा ४९३ प्रति समय मरता है, केवलज्ञानदर्शनमे
२९ वॉ वर्ष भूत-भविष्य पदार्थका दर्शन
४८६ / ६५१ 'समजीने शमाई रह्या गया'का अर्थ, ६३० क्षयोपशमजन्य इन्द्रियलब्धि, जीवके ज्ञान
सत्सग, सद्विचारसे शात होने तक पद दर्शन (प्रदेशको निरावरणता) क्षायिक भाव
सच्चे, नि संदेह है और क्षयोपशम भावके अधीन, वेदनाक ६५२ वेदान्तमें निरूपित मुमुक्षु तथा जिननिरूपित वेदनमें उपयोग रुकता है। ४८७ सम्यग्दृष्टि के लक्षण
४९५ ६३१ एक आत्माको जानते हुए समस्त लोकालोक- | ६५३ द्रव्यसयमरूप साधुत्व किसलिये ? ४९५ का ज्ञान, और सब जाननेका फल आत्म- । ६५४ अतर्लक्ष्यवत् वृत्ति
४९५
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________________
५०२ उस पुरुपकी आत्मदशा और उपकार ४१० / ५१८ त्याग, वैराग्य और उपशम प्रगट होनेपर ५०३ महाव्रतादिमे कभी अपवाद, ब्रह्मचर्यमें ____आत्मस्वरूपका यथार्थरूपमे विचार हो सर्वथा अनपवाद, साचुके पन-समाचारादिमें
सकता है
४२३ अपवाद, प्रमाद सव कर्मोका हेतु ४११ | ५१९ सकुचित चित्तपरिणामके कारण पत्रादिका ५०४ सर्वज्ञको पहचानका फल दुपमकाल
लेखन अशक्य
४२३ असयतिपूजा नामसे आश्चर्ययुक्त ४१३ | ५२० चित्तकी अस्थिरता, समयसार (नाटक) में ५०५ वीतरागकथित परम शान्तरसमय धर्म पूर्ण वीजज्ञानका प्रकाश, बनारसीदासकी अनुसत्य है, ऐसा निश्चय रखना
४१३ । भवदशा, प्रभावनाहेतुके अवरोधक बलवान ५०६ आत्मपरिणामी ज्ञानीपुरुपको भी प्रारब्ध - कारणोसे खेदपूर्वक प्रारब्धवेदन ४२३ व्यवसायमे जागृति रखना योग्य, दो
५२१ प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग प्रकाशक सत्पुरुषकी प्रकारका बोध-सिद्धान्तबोध और उपदेश
करुणास्वभावता
४२५ बोध, वैराग्य, उपशम और विवेक, आरभ
१५२२ सत्पुरुपकी पहचानका परिणाम, सारे . परिग्रह वैराग्य उपशमके काल ४१३
लोककी अधिकरणक्रियाका हेतु ४२६ ५०७ निवृत्ति की इच्छा, आत्माकी शिथिलतासे
| ५२३ अज्ञानमार्ग प्राप्त करते देखकर करुणा, खेद
४१६ ॥
पदोको पढने आदिमें उपयोगका अभाव, ५०८ वारवार ससार भयरूप लगता है। ४१६
सिद्धकी अवगाहना
४२७ ५०९ ज्ञानसस्कारसे जीव और कायाकी भिन्नता
| ५२४ क्षमायाचना
४२४ एकदम स्पष्ट, आत्माका अव्यावाघत्व और
| ५२५ वोघवीज, उदासीनता, मुक्ता, ज्ञानीवेदनीय, सिद्ध और ससारी जीवको, समानता, आत्मस्वरूपमे जगत नही है। ४१६ ।
पुरुषके लिये भी पुरुषार्थ प्रशस्त, निवृत्ति
वुद्धिकी भावना कर्तव्य, सत्संगकी आव५१० बन्यवृत्तियोंके उपशमन और निवर्तनका -
४२८ सतत अभ्यास कर्तव्य, पिता-पुत्रकी मान्यता
५२६'अहवृत्तिका प्रतिकार, वचनाबुद्धि ४२९ जीवकी मूढता
४१८ | ५११ सिद्धपदका सर्वश्रेष्ठ उपाय-ज्ञानीकी
| ५२७ कौन अधिक उपकारी महावीरस्वामी या आज्ञाका आराधन, अज्ञानदशामें समय
प्रत्यक्ष सद्गुरु ? व्यावहारिक जजालमें
उत्तर देने अयोग्य - ४३० समयपर अनतकर्मबन्ध होते हुए भी मोक्षका अवकाश, काम जलानेका वलवान
५२८ ससारमें लौकिकभावसे आत्महित अशक्य, उपाय सत्सग ४१८ । सत्सग भी निष्फल
४३० ५१२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोका अग्नि आदिसे ५२९ भगवान भगवानका संभालेगा व्याघात
४२० | ५३० गाधोजीके आत्मा, ईश्वर, मोक्ष आदि । ५१३ वेदान्त और जिनसिद्धात, सिद्धात-विचार
। सवधी २७ प्रश्न और उनके उत्तर ४३१ योग्यता होनेपर, मुमुक्षुका मुख्य कर्तव्य ४२१ | ५३१ परमार्थ-प्रसगी बाजीविका आदि विषयमे
४३९ ५१४ आत्मासे असह्य व्यवसायको सहन करते है ४२२
लिखे तो परेशानी ५१५ आत्मवल अप्रमादी होनेके लिये कर्तव्य ४२२
५३२ साक्षीवत् देखना श्रेयरूप
-४३९ ५१६ व्यवसाय समाधिशीतल पुरुषके प्रति उष्णता
२८ वां वर्ष हेतु, वर्धमानस्वामीका भी असग प्रवर्तन ४२२ | ५३३ दुषमकालमें सबके प्रति अनुकपा
४४० ५१७ अप्रतिबद्धता प्रधानमार्ग होते हुए भी | ५३४ वीस दोहे, आठ त्रोटककी अनुप्रेक्षाका हेतु ४४० सत्सगमें प्रतिवद्ध बुद्धि ४२२ । ५३५ श्रीकृष्णकी दशा विचारणीय
४४१
श्यकता '
४३१
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७२८ देहान्तसे पहले ही ममत्वनिवृत्ति कर्तव्य ७२९ लोकदृष्टिमे वडप्पनवाली वस्तुएँ प्रत्यक्ष
ज़हर
७३० एक समय भी सर्वोत्कृष्ट चिन्तामणि ७३१ कर्मानुसार आजीविकादि, प्रयत्न, निमित्त, चिन्ता आत्मगुणरोधक
७३२ भावसयमकी सफलताके साधन
७३३ वैराग्य-उपशमकी वृद्धिके लिये विचारणीय
ग्रन्थ
७३४ पत्रोकी अलग प्रति लिखें
७३५ निरपेक्ष अविषम उपयोग
७३६ ज्ञानी के ज्ञानके विचारसे महती निर्जरा
७३७ त्यागमार्ग अनुसरणीय
७३८ अपूर्व अवसर ( काव्य )
७३९ निर्ग्रथके लिये अप्रतिवधता
७४० सदाचार तथा सयम इच्छुकको उपदेशसे
अधिक लाभकारी
"
[ ४४ ]
७५३ 'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे' मोर पथsो निहाळु रे' का विशेषार्थ
५७०
७५४ कालकी वलिहारी । शासनदेवीसे विनती ७५५ दुख किस तरह मिट सके ? दुख, उसके कारण आदि सम्बन्धी मुख्य अभिप्राय, सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र, दुखक्षयका मार्ग, द्वादशाग, निर्ग्रथ सिद्धान्तकी उत्तमता
५७०
५७१
५७१
५७१
५७६
७४१ इस बार समागम विशेष लाभकारी
५७६
५७७
५७७
७४२ संस्कृतका परिचय, परस्पर ज्ञानकथा ७४३ ससारी इन्द्रियरामी आत्मरामी निष्कामी ७४४ शास्त्रानुसार चारित्र की शुद्धसेवा प्रदान करे ५७७ ७४५ केवलज्ञान होनेमे श्रुतज्ञानका अवलवन ७४६ मोहनीयका स्वरूप वारवार विचारणीय ७४७ 'दीनता' के बीस दोहे मुखाग्र करने योग्य ५७८ ७४८ कर्मवधकी विचित्रता
५७८ ५७८
५७८
५७१
५७१
५७१
५७२
५७२
५७२
५७६
७४९ मुमुक्षुके लिये स्मरणीय वचन - 'ज्ञानका
फल विरति है ।' विचारकी सफलता ५७९ ७५० वडवाके समागमसवघी, अद्वेषभावनामें स्वधर्म ५७२ ७५१ 'आत्मसिद्धि' में तीन प्रकारके समकित सत्पुरुषके वचनोका आलवन
७५२ लेश्या आदिका अर्थ
५८०
५८०
५८१ ५८६
५८६
७५६ जैनमार्गविवेक
५९०
७५७ मोक्षसिद्धात
५९०
७५८ द्रव्यप्रकाश
५९२
७५९ दुख क्यो नही मिटता ? प्राणी के भेद-प्रभेद ५९२ ७६० जीवलक्षण, ससारी जीव, सिद्धात्मा,
भावकर्म, द्रव्यकर्म
५९३
७६१ नव तत्त्व, रत्नत्रय, ध्यान
५९४
७६२ मोक्ष और उसका उपाय - वीतराग सन्मार्ग ५९५
७६३ आत्मस्वरूपका ध्यान, निर्जरा
७६४ वीतराग सन्मार्गकी उपासना कर्तव्य
७६५ मोक्षमार्गमें प्रयोजनभूत विषय ७६६ पचास्तिकाय प्रथम अध्याय द्वितीय अध्याय
७६७ कठोर क्रियाओंके उपदेशमें रहस्य दृष्टि, निथका परम धर्म, पाँच समिति
७६८ केन्द्रियको मैथुनादि सज्ञा, ज्ञान, अज्ञान और ज्ञानावरणीय
७६९ समकित और मोक्ष
७७० मिथ्यात्वज्ञान 'अज्ञान' और सम्यग्ज्ञान
७७४ बघ और शुभाशुभ कर्मयोग, पुद्गल विपाकी, वेदना
७७५ अप्रमत्त उपयोग होने का साधन, जीवका आगमन, शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन
७७६ कर्मवध पाँच कारण, प्रदेशवघका अर्थ ७७७ आप्तपुरुष समागम आदिमे पुण्यहेतु, विशुद्धि स्थानकका अभ्यास कर्तव्य
७७८ सत्समागम परम पुण्ययोग ७७९ स्वभावजागृतदशा,
५९५
५९६
५९६
५९७
६०२
'ज्ञान'
६०७
६०९
७७१ समकित और ससारकाल, प्रतीतिरूप समकित ६०८ ७७२ कर्मबधानुसार औषधका असर, निरवद्य औषघादि ग्रहण आज्ञाका अनतिक्रम ७७३ वेदनीय और औषध, परिणामानुसार वष, हिंसा और असत्य आदिका पाप, अर्हतको प्रथम नमस्कार क्यो ?
अनुभव - उत्साहदशा स्थितिदशा, मुक्त और मुक्तदशा ७८० इस देहकी विशेषता, इस देहसे करने योग्य कार्य, कल्याणका मुख्य निश्चय
६०६
६०७
६०७
६१०
टा
६११
६१२
६१२
६१३
६१३
६१३
६१५
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७८१ परम पुरुषदशावर्णन, सर्वथा असग उपयोगसे आत्मस्थिति करे, वीतरागदशा रखना ही सर्व ज्ञानका फल
७८२ संसारका मुख्य वीज, श्रीसोभागकी दशा, उनके
देहत्याग करते हुए
अद्भुत गुणका
७८६ आतमरामी निष्कामी, सोभागकी अतरदशा अनुप्रेक्षा योग्य
७८७ ज्ञानीका मार्गं स्पष्ट सिद्ध
७८८ परम सयमी पुरुषोंका भीष्मव्रत
७८९ सत्शास्त्रपरिचय कर्तव्य
2
स्मरण
७८३ दुखक्षयका उपाय,' प्रत्यक्ष सत्पुरुषसे सर्व
साघन सिद्ध, आरंभपरिग्रहकी वृत्ति मद करें ६१७ ७८४ सच्चे ज्ञान और चारित्रसे कल्याण ७८५ ज्ञानीके वचन त्यागवैराग्यका निषेध नही
६१८
७९० दीर्घकालको अति अल्पकालमें लानेके
ध्यानमें, एकत्वभावनासे
आत्मशुद्धिकी
-
हितकारी दृष्टि
७९९ श्रुतज्ञानका अवलबन
८०० आत्मदशा होनेके प्रबल अवलवन
८०१ क्षमापना
८०२ असद्वृत्तिके निरोध के लिये
८०३ क्षमापना
८०४ क्षमापना
८०५ क्षमापना
t
७९३ व्रत आदि और सम्यग्दर्शनका बल सत्पुरुषकी वाणी
७९४ ऐसा वर्तन करें कि गुण उत्पन्न हो ७९५ किसका समागमादि कर्तव्य ? ७९६ 'मोहमुद्गर' और 'मणिरत्नमाला' पढें
७९७ श्रीडुगरकी दशा
७९८ 'मोक्षमार्गप्रकाश' का श्रवण,
7
[ ४५ ]
६१५
21
1
उत्कृष्टता
६१९
७९१ सद्वर्तन आदि प्रमाद अकर्तव्य
-६२०
७९२ परमोत्कृष्ट सयमका स्वरूपविचार भी "
विकट
६२०
श्रोताकी
६१६
६१८
६१.९
६१९
- ६१९
६१८
६२०
६२०
६२१
६२१
६२१
६२१
“६२१
६२२
६२२
६२२
६२२
६२२
६२३
1
1
८०६ सत्समागमसे कैवल्यपर्यंत निर्विघ्नता ८०७ दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व, 'मोक्षमार्गप्रकाश' में जिनागमका निषेध अयोग्य
८०८ सयम प्रथम दशामें कालकूट विष और परिनाममें अमृत
८०९ निष्काम भक्तिमानका सत्सग या दर्शन यह
.
३१ वाँ वर्ष
८१५ विहार योग्य क्षेत्र
८९६ सर्व दुखक्षयका उपाय, प्रमाद
८१७ सम्यग्दर्शनसे दु खकी आत्यंतिक निवृत्ति ८१८ ज्ञान आदि समझनेके लिये अवलबनभूत
क्षयोपशमादि भाव
पुण्यरूप
६२४
८१० लोकदृष्टि और ज्ञानीकी दृष्टि, प्रमादमें रति ६२४ ८११ सबके प्रति क्षमादृष्टि, सत्पुरुषका योग
शीतल छाया समान
८१२ निवृत्तिमान द्रव्य आदिके योगसे उत्तरोत्तर ऊँची भूमिका, जीवको भान कव आये ? ६२४ ८१३ ऊपरको भूमिकाओ में अनादि वासनाका सक्रमण, अतराय परिणाममें शुरवीरता और सद्विचार ८१४ योगदृष्टिसमुच्चय आदि योग-प्रथ, अष्टाग योग दो प्रकारसे
TI
८१९ मोक्षपट्टन सुलभ ही है, शौर्य
८२० सद्विचारवानके लिये हितकारी प्रश्न
८२१ आत्महितके लिये बलवान प्रतिबंध, 'आत्म
सिद्धि' ग्रथमें अमोहदृष्टि
'८२२ समागमके प्रति उदासीनता
८२३. अबघताके लिये अधिकार
६२३
८२४ सत्त और समागमका सेवन ८२५ आत्मस्वभावकी निर्मलताके साधन
८२६ सत्त-परिचयमें अतराय
८२७ उत्तापका मूल हेतु क्या ?
८२८ अहमदाबादमें जानेको वृत्ति अयोग्य
८२९ मुमुक्षुता दृढ करें
८३० नियमित शास्त्रावलोकन कर्तव्य
८३१ दु षमकालमें भी परम शातिके मार्गकी
प्राप्ति सभव
६२३
६२३
६२४
६२५
६२५
६२६
६२६
६२६
६२७
६२७
६२७
६२७
६२८
६२८
६२८
६२९
६२९
६२९
६२९
६३०
६३०
६३०
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________________
६२५
[-४५] ७८१ परम पुरुषदशावर्णन, सर्वथा असग उपयोग- ८०६ सत्समागमसे कैवल्यपर्यंत निविघ्नता ६२३
से आत्मस्थिति करें, वीतरागदशा रखना ८०७ दिगम्वरत्व और श्वेताम्बरत्व, 'मोक्षमार्ग' ही सर्व ज्ञानका फल
प्रकाश' में जिनागमका निषेध अयोग्य ६२३ ७८२ ससारका मुख्य वीज, देहत्याग करते हुए - | ८०८ सयम प्रथम दशामें कालकूट विष और परि
.
णाममे अमृत श्रीसोभागकी दशा, उनके अद्भुत गुणोका
६२३ स्मरण
६१६ | ८०९ निष्काम भक्तिमानका सत्सग या दर्शन यह पुण्यरूप
६२४ ७८३ दु खक्षयका उपाय, प्रत्यक्ष सत्पुरुषसे सर्व
८१० लोकदृष्टि और ज्ञानीकी दृष्टि, प्रमादमे रति ६२४ साधन सिद्ध, आरंभपरिग्रहकी वृत्ति मद करें ६१७
८११ सबके प्रति क्षमादृष्टि, सत्पुरुषका योग ७८४ सच्चे ज्ञान और चारित्रसे कल्याण ६१८
शीतल छाया समान
६२४ ७८५ ज्ञानीके वचन त्यागवैराग्यका निषेध नही .
1 ८१२ निवृत्तिमान द्रव्य आदिके योगसे उत्तरोत्तर करते
. . . ६१८
__ऊँची भूमिका, जीवको भान कब आये ? ६२४ ७८६ आतमरामी निष्कामी, सोभागकी अतर
| ८१३ ऊपरकी भूमिकाओमें अनादि वासनाका दशा अनुप्रेक्षा योग्य
६१८
। सक्रमण, अतराय-परिणाममें शुरवीरता ७८७ ज्ञानीका मार्ग स्पष्ट सिद्ध
- और सद्विचार ७८८ परम सयमी पुरुषोका भीष्मवत
। ८१४ योगदृष्टिसमुच्चय आदि योग-ग्रंथ, अष्टाग ७८९ सत्शास्त्रपरिचय कर्तव्य
____ योग दो प्रकारसे । ७९० दीर्घकालको अति अल्पकालमें लानेके
३१ वा वर्ष " ध्यानमें, एकत्वभावनासे आत्मशुद्धिकी " । ८१५ विहार योग्य क्षेत्र ।
६२६ उत्कृष्टता - . ६१९ / ८१६ सर्व दु खक्षयका उपाय, प्रमाद
६२६ ७९१ सद्वर्तन आदिमें प्रमाद अकर्तव्य , ६२०८१७ सम्यग्दर्शनसे दुखकी आत्यतिक निवृत्ति ६२६ ७९२ परमोत्कृष्ट, सयमका स्वरूपविचार भी ../
८१८ ज्ञान आदि समझनेके लिये अवलबनभूत विकट
६२० क्षयोपशमादि भाव ७९३ व्रत आदि और सम्यग्दर्शनका बल सत्पुरुष- ८१९ मोक्षपट्टन सुलभ ही है, शौर्य ' की वाणी
६२० | ८२० सद्विचारवानके लिये हितकारी प्रश्न ६२७ ७९४ ऐसा वर्तन करें कि गुण उत्पन्न हो
६२०
८२१ आत्महितके लिये बलवान प्रतिबघ, 'आत्म७९५ किसका समागमादि कर्तव्य ? ६२१ । सिद्धि' ग्रथमें अमोहदृष्टि
६२७ ७९६ 'मोहमुद्गर' और 'मणिरत्नमाला' पढे ६२१ / ८२२ समागमके प्रति उदासीनता
६२८ ७९७ श्रीडुगरकी दशा
८२३ अवधताके लिये अधिकार
६२८ ७९८ 'मोक्षमार्गप्रकाश' का श्रवण, श्रोताकी ८२४ सत्श्रुत और स्त्पमागमका सेवन . हितकारी दृष्टि
६२६ .८२५ आत्मस्वभावकी निर्मलताके साधन ६२९ ७९९ श्रुतज्ञानका अवलबन
६२१ ८२६ सत्श्रुत-परिचयमें अतराय ८०० आत्मदशा होनेके प्रबल अवलवन ६२२ । ८२७ उत्तापका मूल हेतु क्या ?
६२९ ८०१ क्षमापना
६२२ ८२८ अहमदावादमें जानेको वृत्ति अयोग्य ६२९ ८०२ असत्तिके निरोधके लिये
६२२ । ८२९ मुमुक्षुता दृढ करें ८०३ क्षमापना
८३० नियमित शास्त्रावलोकन कर्तव्य ६३० ८०४ क्षमापना
८३१ दुषमकालमें भी परम शातिके मार्गकी ८०५ क्षमापना
प्राप्ति सभव
६३०
,६२७
६२८
६३०
६२२
६२३ ]
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५७१
५७२
७२८ देहान्तसे पहले ही ममत्वनिवृत्ति कर्तव्य ५७० । ७५६ जैनमार्गविवेक ७२९ लोकदृष्टिमे बडप्पनवाली वस्तुएँ प्रत्यक्ष | ७५७ मोक्षसिद्धात ज़हर
५७० ७५८ द्रव्यप्रकाश ७३० एक समय भी सर्वोत्कृष्ट चिन्तामणि ५७१
७५९ दु ख क्यो नही मिटता ? प्राणीके भेद-प्रभेद ७३१ कर्मानुसार आजीविकादि, प्रयत्ल, निमित्त, ७६० जीवलक्षण, ससारी जीव, सिद्धात्मा, चिन्ता आत्मगुणरोधक
भावकर्म, द्रव्यकर्म ७३२ भावसयमकी सफलताके साधन ५७१ ७६१ नव तत्त्व, रत्नमय, ध्यान ७३३ वैराग्य-उपशमकी वृद्धिके लिये विचारणीय ७६२ मोक्ष और उसका उपाय-बीतराग सन्मार्ग ग्रन्थ
५७१ | ७६३ आत्मस्वरूपका ध्यान, निर्जरा . ७३४ पत्रोकी अलग प्रति लिखें
५७१ | ७६४ वीतराग सन्मार्गकी उपासना कर्तव्य ७३५ निरपेक्ष अविपम उपयोग
५७१ | ७६५ मोक्षमार्गमें प्रयोजनभूत विषय ७३६ ज्ञानीके ज्ञान के विचारसे महती निर्जरा ५७२ । ७६६ पचास्तिकाय . प्रथम अध्याय ७३७ त्यागमार्ग अनुसरणीय
५७२
द्वितीय अध्याय ७३८ अपूर्व अवसर (काव्य)
| ७६७ कठोर क्रियाओंके उपदेशमें रहस्य दृष्टि, ७३९ निग्रंथके लिये अप्रतिवधता
५७६ निग्रंथका परम धर्म, पाँच समिति ७४० सदाचार तथा सयम इच्छुकको उपदेशसे ७६८ एकेन्द्रियको मैथुनादि सज्ञा, ज्ञान, अज्ञान अधिक लाभकारी
और ज्ञानावरणीय ७४१ इस बार समागम विशेष लाभकारी ५७६ | ७६९ समकित और मोक्ष ७४२ सस्कृतका परिचय, परस्पर ज्ञानकथा ५७७ | ७७० मिथ्यात्वज्ञान 'अज्ञान' और सम्यग्ज्ञान ७४३ ससारी इन्द्रियरामी आत्मरामी निष्कामी ५७७ 'ज्ञान' ७४४ शास्त्रानुसार चारित्रकी शुद्धसेवा प्रदान करे ५७७ | ७७१ समकित और ससारकाल, प्रतीतिरूप समकित ७४५ केवलज्ञान होनेमे श्रुतज्ञानका अवलवन ५७८ | ७७२ कर्मवधानुसार औषधका असर, निरवद्य ७४६ मोहनीयका स्वरूप वारवार विचारणीय ५७८ औपधादिके ग्रहणमें आज्ञाका अनतिक्रम ७४७ 'दीनता' के वीस दोहे मुखाग्र करने योग्य ५७८ | ७७३ वेदनीय और औषध, परिणामानुसार वध, ७४८ कर्मवघकी विचित्रता
५७८ हिंसा और असत्य आदिका पाप, अर्हतको ७४९ मुमुक्षुके लिये स्मरणीय वचन–'ज्ञानका
प्रथम नमस्कार क्यो? ___ फल विरति है।' विचारकी सफलता ५७९ | ७७४ वघ और शुभाशुभ कर्मयोग, पुद्गल विपाकी ७५० वडवाके समागमसववी, अद्वेषभावनामें स्वधर्म ५७१ वेदना ७५ १ 'आत्मसिद्धि'में तीन प्रकारके समकित, ७७५ अप्रमत्त उपयोग होने का साधन, - जीवका सत्पुरुपके वचनोका आलवन
आगमन, शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन ७५२ लेश्या आदिका अर्थ
५८० | ७७६ कर्मवघके पॉच कारण, प्रदेशवधका अर्थ . ७५३ 'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे' और ७७७ आप्तपुरुषके समागम आदिमें पुण्यहेतु,
__ पथडो निहाळु-रे' का विशेपार्थ ५८१ | विशुद्धि स्थानकका अभ्यास कर्तव्य ७५४ कालकी वलिहारी | शासनदेवीसे विनती ५८६ | ७७८ सत्समागम परम पुण्ययोग ७५५ दु ख किस तरह मिट सके ? दुख, उसके ७७९ स्वभावजागृतदशा, अनुभव-उत्साहदशा कारण आदि सम्बन्धी मुख्य अभिप्राय,
स्थितिदशा, मुक्त और मुक्तदशा सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र, दुखक्षयका मार्ग, - ७८० इस देहकी विशेषता, इस देहसे करने योग्य द्वादशाग, निग्रंथ सिद्धान्तकी उत्तमता, . ५८६ । कार्य, कल्याणका मुख्य निश्चय
५८०
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[ ४८ ] ९२९ निग्रंथ महात्माओके दर्शन, समागम और ९५४ 'इच्छे छे जे जोगीजन, अनत सुखस्वरूप' वचन
. , ६६२ (काव्य), अतिम सदेश-जिन और जीव ९३० कुदकुदाचार्यकृत समयसार, आर्य त्रिभोवनकी दोनो एक, जिनप्रवचन सद्गुरुके अवलबनसे आत्मस्थिति
६६२ सुगम, आत्मप्राप्तिकी प्रथम-मध्यम भूमिका, ९३१ वजनके बिनाका मनुष्य निकम्मा
आत्मप्राप्तिके मार्गके श्रेष्ठ अधिकारी, आत्म९३२ शरीरप्रकृति स्वस्थास्वस्थ
६६३ स्वभावमें मनका लय-ससारविलय, अनत ९३३ अपूर्व शाति और अचल समाधि, पाँचो वायु ६६३ सुखधाम ९३४ मनुष्यता, आर्यता आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ ६६४ ९५५ रोग नही हैं, निर्बलता है । ६७२ ९३५ मनुष्यदेहका एक समय भी अमूल्य, प्रमाद- ९५६ उपदेश नोध
जय परमपदजय, शरीरप्रकृति ६६४ १ षड्दर्शनसमुच्चयका भाषातर ६७३ ९३६ मनुष्यदेह चिंतामणि, ग्यारहवाँ आश्चर्य ६६४
२ वेशभूषा, धर्मद्रोह, प्रयोगके बहाने पशुवध ६७३ ९३७ वाकीका समय आत्मविचारमें, निर्जराका
३ ज्ञानियोंको सदाचार प्रिय, अकाम और ' सुन्दर मार्ग
सकाम निर्जरासे प्राप्त मनुष्यदेह ६७३ ९३८ 'समयचरण सेवा शुद्ध देजो, 'शरीरस्थिति ६६५
४ आठ दृष्टि आत्मदशामापक यत्र, शास्त्र ९३९ वेदना सहन करना परम धर्म, शुद्ध चारित्रका
अर्थात् शास्तापुरुषके वचन, ऋतुको , मार्ग, परम निर्जरा : -) - ६६५ सन्निपात, व्यसन, पटा हुआ भूलनेसे - ९४० असातामुख्यता उदयमान, आत्माके शुद्ध
छुटकारा ।
६७४ , स्वरूपकी याद
५ परम सत् पीडित होता हो तो, सपूर्ण ९४१ आज्ञा करना भयकर, नियममें स्वेच्छाचार
निरावरण ज्ञान होने तक श्रुतज्ञानकी प्रवर्तनसे मरण श्रेयस्कर ।
आवश्यकता ।
। ६७५ ९४२ परम निवृत्तिका सेवन, दुषमकालमें प्रमाद
६ मनके पर्याय जाने जा सकते हैं, आसन- ; . ___ अकर्तव्य, आत्मबलाधीनतासे पत्रलेखन ६६६ जय, परमाणुकी दृश्यता ६७५ ९४३ ज्ञानीकी प्रधान आज्ञा. परम भगलकारी
७ मोक्षमालाकी रचना, भावनाबोध, किस - सुदृढता
६६६ विचारसे नव तत्त्वके तत्त्वज्ञानका बोध ? ९४४ प्रमत्तभाव
कल्पित क्या?
६७५ ९४५ श्री पर्युषण-आराधना
८ योगको तरतमतासे वासनाकी तरतमता ६७६ ९४६ श्री 'मोक्षमाला'के 'प्रज्ञावबोध' भागकी
९ श्री हेमचद्राचार्य और आनदघनजीका सकलना
६६८ निष्कारण लोकानुग्रह, अतरालमें वीतराग३४ वॉ वर्ष
मार्गकी विमुखता, विषमताके कारण ६७६ ९४७ वर्तमान दुपमकालमें ध्यान रखने योग्य ६६९ । १० जैनधर्मसे भारतवर्षकी अधोगति या ९४८ मदनरेखाका अधिकार आदिकी चर्चा भयोग्य ६६९ उन्नति ?
६७८ ९४९ जिन्दगीका लक्ष्यबिंदु-लोकसज्ञा और ' ११ श्री आत्मारामजी, श्रावकता या साधुता , आत्मशाति
कुलसप्रदायमे नही, आत्मामें है, ज्योतिष ९५० अधिकारोको दीक्षा
- -६७०
कल्पित समझकर छोड दिया, मानपत्र ९५१ प्रवाममें सहराका रेगिस्तान, निकाचित
आदिमें विवेकहीनता, परिग्रहधारी । उदयमान थकान, स्वरूप अन्यथा नही होता ६७० यतियोके सन्मानसे मिथ्यात्वका पोषण, ९५२ गरीरसवधी अप्राकृत क्रम -
___ बढे जैसे कहें वैसे करना, जैसे करें वैसे ९५३ वेदनीयको वेदन करनेमें हर्पशोक क्या ? ६७०
नही करना, कबीरका दृष्टात ६७८
.६६७
६६७
Ciao ६७०
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१२ सिद्धकी अवगाहना, सिद्धात्माकी ज्ञाय- । २९ व्रतसंवधी -
६८५ कता और भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व, गोमटे
३० मोहकषाय सबधी
. ६८५ श्वरकी प्रतिमा, निदान बाँचना अयोग्य, ३१ आस्था तथा श्रद्धा, ज्ञानीका अवलबन ६८६ वसुदेवका दृष्टात -
६७९ ३२ 'जे अबुद्धा महाभागा , मिथ्यादृष्टिको १३ अवगाहनाका अर्थ - - - - ६८० क्रिया सफल, सम्यग्दृष्टिकी क्रिया अफल ६८६ १४ समतासे निर्जरा, ज्ञानीका मार्ग सुलभ,
३३ नित्यनियम - - ६८७ पाना दुर्लभ
। ६८० ३४ परमार्थसत्य और व्यवहारसत्य ६८७ १५ श्री सत्श्रुत ।
- ६८१ ३५ सत्पुरुष अन्याय नही करते, आत्मा अपूर्व १६ ज्ञानीको पहचानें, आज्ञाका आराधन करें ६८१ वस्तु, जागृति और पुरुषार्थ, स्वच्छदसे १७ लोकभ्रातिका कारण, जीव-अजीवका भेद ६८१ ध्यान, उपदेश आदि, आत्मा और देह, १८ 'इनॉक्युलेशन' महामारीकी टीका ६८२ 'सुदर विलास' उपदेशार्थ, छ दर्शनोपर १९ प्रारब्ध और पुरुषार्थ .
६८२ दृष्टात, वीतरागदर्शन त्रिवैद्य जैसा ६८९ २० भगवद्गीतामें पूर्वापर विरोध, उसपर
३६ सन्यासी, गोसाई, यति, किस दोषसे समभाष्य और टीकाएँ, विद्वत्ता और ज्ञान,
कित नही होता ? मुनि और व्याख्यान, हरीभद्रसबधी मणिभाईका अभिप्राय ६८२ कपायके सामने युद्ध, क्षत्रिय भावसे वर्तन २१ क्षयरोगका मुख्य उपाय - ६८२ पूजामें पुष्प, मुमुक्षुके लिये साधन, २२ 'प्रशमरस निमग्न ' देव कौन ? दर्शन
'सिज्झति', 'वुज्झति आदिका रहस्य ६९० योग्य मुद्रा कौनसी ? 'स्वामी कार्तिकेया
३७ अज्ञानतिमिरान्धाना का अर्थ, मोक्षनुप्रेक्षा' वैराग्यका उत्तम ग्रन्थ, कार्तिक
मार्गस्य नेतार ' का विवेचन ६९१ स्वामी
६८३ ___ ३८ आत्मा, जड आदि सबंधी प्रश्नोत्तर ६९२ २३ ‘षड्दर्शनसमुच्चय और योगदृष्टि समु
३९ कर्मकी मूल आठ प्रकृति, चार घातिनी, च्चय' का भाषातर, , 'योगशास्त्र' का । चार अघातिनी मगलाचरण-नमो दुर्वाररागादिवैरिवार ' ४० मूर्छाभाव और ज्ञानकी न्यूनता, ज्ञानीनिवारिणे, सच्चा मेला ६८३ का ससारमें वर्तन २४ 'मोक्षमाला'के पाठ, श्रोता-चाचकमें। ४१ चार गोलोंके दृष्टातसे जीवके चार भेद ६९३
अपने आप अभिप्राय उत्पन्न होने दें, - | ९५७ उपदेश छाया 'प्रज्ञाववोध के मनके, परम सत्श्रुतके
१ मूल ज्ञानसे वचित कर देनेकी भावना, प्रचाररूप योजना '
६८३ ज्ञानीपुरुषोको भी सर्वथा असगता श्रेय२५ श्री 'शातसुधारस'का विवेचनरूप भाषातर ६८४ स्कर, निर्वस परिणाम मनुष्यभव निर२६ देवागमनभोयान' मद्देवका महत्त्व, श्री
र्थक जाने के कारण, झूठ बोलकर सत्सगमें समतभद्रसूरि, लोक कल्याण करते हुए ।
आना अनावश्यक ध्यान रखने योग्य
" ६८४ ।
२ स्व-उपयोग और पर-उपयोग, सिद्धातकी २७ मन.पर्यायज्ञान किस तरह. प्रगट होता । रचना, ज्ञानीके आज्ञाकारी और शुष्कहै ? उसका विषय
ज्ञानीको स्त्री आदि प्रसग, प्राप्त और २८ मोहनीयकर्मके त्यागका क्रामक अभ्यास,
आप्त, पारमार्थिक और अपारमार्थिक गुरु ६९६ यथासभव पाँच इद्रियोके विषयोको
३ तीन प्रकारके ज्ञानीपुरुष, सत्पुरुषकी पहशिथिल करना, प्रवृत्तिकी आडमे
चान, सद्वृत्ति और सदाचारका सेवन, निवृत्तिका विचार न करना एक बहाना ६८५ । ।
याचाराग आदि नियमित पढ़ना, सच्चा
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[ ४९.]
१२ सिद्धकी अवगाहना, सिद्धात्माकी ज्ञाय-
२९ व्रतसबधी
६८५ कता और भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व, गोमटे
३० मोहकपाय सवधी श्वरकी प्रतिमा, निदान बाँचना अयोग्य, ३१ आस्था तथा श्रद्धा, ज्ञानीका अवलबन ६८६ वसुदेवका दृष्टात
६७९ ३२ 'जे अबुद्धा महाभागा मिथ्यादृष्टिको १३ अवगाहनाका अर्थ ) ६८० क्रिया सफल, सम्यग्दृष्टिकी क्रिया अफल ६८६ १४ समतासे निर्जरा, ज्ञानीका मार्ग सुलभ,
३३ नित्यनियम -
६८७ पाना दुर्लभ
। ६८० ३४ परमार्थसत्य और व्यवहारसत्य ६८७ १५ श्री सत्श्रुत ,
६८१ ३५ सत्पुरुष अन्याय नही करते, आत्मा अपूर्व १६ ज्ञानीको पहचानें, आज्ञाका आराधन करें ६८१ वस्तु, जागृति और पुरुषार्थ, स्वच्छदसे १७ लोकभ्रातिका कारण, जीव-अजीवका भेद ६८१ ध्यान, उपदेश आदि, आत्मा और देह, १८ 'इनॉक्युलेशन' महामारीकी टीका ६८२ 'सुदर विलास' उपदेशार्थ, छ दर्शनोपर १९ प्रारब्ध और पुरुषार्थ
६८२ दृष्टात, वीतरागदर्शन त्रिवैद्य जैसा ६८९ २० भगवद्गीतामें पूर्वापर विरोध, उसपर
३६ सन्यासी, गोसाई, यति, किस दोषसे समभाष्य और टीकाएँ, विद्वत्ता और ज्ञान,
कित नही होता? मुनि और व्याख्यान, हरीभद्रसबधी मणिभाईका अभिप्राय ६८२ कपायके सामने युद्ध, क्षत्रिय भावसे वर्तन २१ क्षयरोगका मुख्य उपाय
६८२ पूजामें पुष्प, मुमुक्षुके लिये साधन, २२ 'प्रशमरस निमग्न 'देव कौन ? दर्शन
'सिज्झति', 'बुज्झति' आदिका रहस्य ६९० योग्य मुद्रा कौनसी ? 'स्वामी कार्तिकेया
३७ अज्ञानतिमिरान्धाना का अर्थ, म नुप्रेक्षा' वैराग्यका उत्तम ग्रन्थ, कात्तिक
___ मार्गस्य नेतार' का विवेचन , ६९१ स्वामी । । ६८३ ३८ आत्मा, जड आदि सवधी प्रश्नोत्तर ६९२ २३ 'षड्दर्शनसमुच्चय और योगदृष्टि समु
३९ कर्मकी मूल आठ प्रकृति, चार घातिनी, ज्वय' का भाषातर, 'योगशास्त्र' का ।
चार अघातिनी मगलाचरण-नमो दुर्वाररागादिवैरिवार , ४० मूर्छाभाव और ज्ञानकी न्यूनता, ज्ञानीनिवारिणे, · सच्चा मेला - ६८३
का ससारमें वर्तन
। ६९३ २४ 'मोक्षमाला के पाठ. श्रोता-वाचकमें
४१ चार गोलोके दृष्टातसे जीवके चार भेद ६९३ अपने आप : अभिप्राय उत्पन्न होने दें, ९५७ उपदेश छाया - .. 'प्रज्ञाववोध के मनके, परम 'सत्श्रुतके । १ मूल ज्ञानसे वचित कर देनेकी भावना, प्रचाररूप योजना
ज्ञानीपुरुषोको भी सर्वथा असगता श्रेय२५ श्री 'शातसुधारस'का विवेचनरूप भाषातर ६८४ | स्कर, निवंस परिणाम मनुष्यभव निर२६ देवागमनभोयान सद्देवका महत्त्व, श्री
र्थक जानेके कारण, झूठ बोलकर सत्सगमें समतभद्रसूरि, लोक कल्याण करते हुए
आना अनावश्यक ध्यान रखने योग्य
२ स्व-उपयोग और पर-उपयोग, सिद्धातकी २७ मन पर्यायज्ञान किस तरह प्रगट होता
रचना, ज्ञानीके आज्ञाकारी और शुष्कहै ? उसका विषय
६८४
ज्ञानीको स्त्री आदि प्रसग, प्राप्त और २८ मोहनीयकर्मके त्यागका क्रामक अभ्यास,
आप्त, पारमार्थिक और अपारमार्थिक गुरु ६९६ यथासभव पॉच इद्रियोके विषयोको
३ तीन प्रकारके ज्ञानीपुरुष, सत्पुरुषकी पहशिथिल करना, प्रवृत्तिको आडमें
चान, सद्वृत्ति और सदाचारका सेवन, निवत्तिका विचार न करना एक बहाना ६८५
आचाराग आदि नियमित पढ़ना, सच्चा
६८४
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आशातनादि
सम्यक्त्व, सत्पुरुपकी
टालना, सत्सगका फल
४ भक्ति सर्वोत्कृष्ट मार्ग, आत्मानुभवी कौन ? ज्ञान, सम्यग्दृष्टिकी जागृति, ज्ञानी और मिथ्यादृष्टि, बारह उपागका सार--- वृत्तियोका क्षय करना, चौदह गुणस्थानक, वृत्तियोकी ठगाई, सुपच्चक्खान, दुपच्चक्खान, पुरुषार्थधर्मका मार्ग . खुला, श्रेणिक, चार लकडहारेके दृष्टातसे चार प्रकार के जीव, पहचानके अनुसार माहात्म्य, ज्ञानीकी पहचान, ज्ञानीको अतर्दृष्टि से देखनेके बाद रागकी अनुत्पत्ति, ससाररूपी शरीरका वल विषयादिरूप कमरपर, ज्ञानी पुरुषके बोधका सामर्थ्य, श्री महावीरस्वामीकी अद्भुत समता, तीर्थंकर ममत्व करते ही नही, इस कालमें चरमशरीरी और एकावतारी, केशीस्वामीकी सरलता, ज्ञानीपुरुषकी आज्ञा, गौतमस्वामी और आनदश्रावक, सास्वादनस मकित, निग्रंथ गुरु, सद्गुरुमे सदेव और केवली, सद्गुरु और असदगुरुको परखनेकी शक्ति, मिथ्यात्वरूपी समुद्रका खारापन दूर करना, सबसे वडा रोग मिथ्यात्व, दुराग्रह और स्वच्छद छोडने से कल्याण, उदय-कर्म, मोहर्गाभित और दु खर्गाभित वैराग्य, सत्सगका माहात्म्य ६९९ ५ ज्ञानीको योग होता है प्रमाद नही होता, स्वभावमे रहना और विभावसे छूटना, स्वच्छद, अहकार आदिसे तपश्चर्या नही करना, सद्गरुकी आज्ञासे साधन करे, चौदह पूर्वधारी भी निगोदमें आस्रव, सवर, वृत्तियोको अतर्मुख करना, कर्मसे पुरुषार्थ बलवान, मिथ्यात्वरूपी भसा, मिथ्यादृष्टि और समकितीके जप, तप आदि, जैन धर्ममें दयाका सूक्ष्म वर्णन, अपूर्व वचनोके अतर परिणमनसे उल्लास एव भान, केशीस्वामीकी कठोर वाणी, कल्याणका मुख्य मार्ग, आस्रव ज्ञानीको
६९७
माक्ष हतु-उपयाग जागृातस, उपयोगक दो प्रकार, द्रव्यजीव, भावजीव, कर्मवध और उसका अभाव उपयोगानुसार ६ जीवका सामर्थ्य, जीवकी अनादि भूल, रात्रिभोजनके दोप, ज्ञानीका सब कुछ सीधा, अज्ञानीका सब कुछ उलटा, ज्ञानी क्रोधादिका वैद्य, ज्ञानसे निर्जरा, स्वस्वरूप समझनेके लिये सिद्धस्वरूपका विचार, भूल होनेपर साधुता और श्रावकपन, वस्तुओपर तुच्छभाव लानेसे इन्द्रियवशता, लौकिक-अलौकिक भाव, वीजज्ञानका प्रगट होना, मुक्तिमे प्रत्येक आत्मा भिन्न, स्मशान-वैराग्य, आज्ञा स्व व सयमके लिए, कठिन मार्गका रूप पण, केशीस्वामी और गौतमस्वामीकी सरलता, आत्मोन्नतिके लिए लोकलाज त्याज्य, शुद्धतापूर्वक सद्व्रतका सेवन, मतरहित हितकारी, आवश्यकके छ प्रकार, हीन पुरुषार्थकी बातें, उपादान, और निमित्तकारण, मीराबाई और नाभा भगत की भक्ति, सामायिकका विधान, तिथिमर्यादा आत्मार्थके लिये क्रिया मोक्षके लिये, लोग तो आत्माका ही त्याग कर देते हैं, पचमकालमें गुरु, अध्यात्मज्ञान, अध्यात्मशास्त्र, द्रव्यअध्यात्मी, मोक्षमार्ग में विघ्न, विचारदशामें अतर, अध्यवसायका क्षय ज्ञानसे, मोक्षकी अपेक्षा सत्सग अधिक यथार्थ, ढूँढिया सम्प्रदाय, यथाख्यात चारित्र, भय अज्ञानसे, वीतरागसयम, भ्राति, शका, आशका, आगकामोहनीय, मिथ्या प्रतीति, अप्रतीति
७०७
७ यह जीव क्या करे ? समझ आ जानेसे आत्मा सहज में प्रगट हो, अत करण शुद्धिसे ज्ञान अपने आप, बाह्य त्याग - किसलिये श्रेष्ठ ? मायाका भुलावा, भक्ति माया जीती जाये, जनक- विदेहीकी दशा, सच्चे शिष्य - गुरु, परम ज्ञानी गृहस्थावस्था में मार्ग नही चलाते,
·
७११
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[ ५९ ]
निष्काम भक्तिमे ज्ञान, ज्ञानी - अज्ञानीका उपदेश, कदाग्रह छुडानेके लिये तिथियाँ, बडा पाप अज्ञानका, अपनी शिथिलताके बदले उदयको दोष, पुरुषार्थ करना श्रेष्ठ ७१८ ८ पुरुषार्थजयका आलबन, साधन मिलनेसे आत्मज्ञान, ज्ञानके दो प्रकारबीजभूत और वृक्षभूत, आत्मा अरूपी,
की मूल प्रकृति आठ, गच्छके भेद, कल्याणका मार्ग एक ही, आत्माकी सामायिक, आत्माकी पहचानसे कर्मनाश, सम्यक्त्वके प्रकार, सात प्रकृतियोके क्षयसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, सच्ची भक्तिकी प्राप्ति, व्रतादि नियमसे कोमलता ९ गृहस्थाश्रममे सत्पुरुषका त्याग वैराग्य, सत्पुरुषके गृहस्थाश्रम की स्थिति प्रशस्त, सदाचार, सत्पुरुष और योग्यता, स्वयजागृत रहे, दोषोका ही दोष, मुमुक्षुका त्याग-वैराग्य,, सम्यक्त्व अपने पास ही, सच्चा शिष्य, आज्ञासे कल्याण, ममत्व मिथ्यात्व, सच्चा सग, भेद भासना अनादि भूल, मोक्ष क्या है ? सम्यक्त्वका मार्ग, षड्दर्शन, केवलज्ञान, सम्यक्त्व कैसे ज्ञात हो ? सम्यक्त्व सर्वोत्कृष्ट साधन, अतरात्मा होनेके बाद परमात्मत्व, उपयोग और मन, कदाग्रह, आत्मा तिलमात्र दूर नही है, ग्रन्थिभेद, उपशम सम्यक्त्व, व्रतमे उपयोग
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१० कामना पाप, आत्मामे आटी, आत्मज्ञान, जीवन्मुक्त होना, निष्क्रियता, विचारानुसार भावात्मा, ब्रह्मचर्य, देहकी मूर्च्छा, जीव कैसे वर्तन करे ? ज्ञानीका सदाचरण परोपकारके लिये, जैनधर्मकी स्थिति, तीन प्रकारके जीव, पडिक्कमामि आदिका अर्थ, सूत्र आदि साघन आत्मपहचान के लिये, समकिती में गुण, नय आत्माको समझने के लिये, समकितीको देशकेवलज्ञान, व्रतनियम, सच्चे झूठेको परीक्षा, उपवास तिथिके लिए नही
७२०
७२२
!
परंतु आत्मा के लिये, तप बारह प्रकारका, समकित और सामायिक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र, आत्मा और सद्गुरु एक, सच्ची सामायिक, महावीरके दीक्षा जुलूसकी बात, सत्पुरुष के लक्षण, तरनेका कामी, आत्मस्वरूप, केवलज्ञान, सम्यक्त्वके प्रकार, स्वभावस्थिति ७२६ ११ इस कालमे मोक्ष, शुभाशुभ क्रिया, सहजसमाधि, कुगुरु, समकित देशचारित्र, देशकेवलज्ञान, मोक्षमार्ग है, भगवानका स्वरूप, समकित सर्वोत्कृष्ट, उलटे मार्गपर सिद्धका सुख, वृत्ति रोकना, ममत्व दुख, आहार आदिकी बातें तुच्छ, क्रोध आदि कृश करना, विवेक, शम और उपशमसे मोक्ष, वेदाती और पूर्वमीमासककी मुक्तिमान्यता, सिद्धमे सवर - निर्जरा नही, धर्मसन्यास, जीव सदा ही जीवित, आत्माकी निंदा करें, पुरुषार्थमें पाँच कारण, चौथे गुणस्थानकमें व्यवहार, पुरुषार्थवृद्धिके लिये नय, सत्सगसे अना - यास गुणोत्पत्ति, सत्य बोलना बिलकुल सहज, सच्चा नय, सदाचारका सेवन, ज्ञानका अभ्यास, विभावके त्यागके लिये सत्साधन, समकितके मुल बारह व्रत, सत्पुरुषके योगसे व्रतादि सफल, सत्सगसे शल्य दूर हो, सदा भिखारी, सदा सुखी, सच्चे देव, गुरु और धर्म की पहचान, सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ १२ मिथ्यात्व जानेपर फल, जैनके साघु, सच्चा ज्ञान, मनुप्यभव भी वृथा, सत्पुरुषकी पहचान, सचमुच पाप, अल्प व्यवहारमें बडप्पन और अहकार, परिग्रहकी मर्यादा, क्रोधादिका त्याग, ब्रह्मचर्य, मेरा स्वरूप भिन्न, क्षणिक आयु, वडप्पनकी तृष्णा, अज्ञानी की क्रिया निष्फल, विभाव ही मिथ्यात्व अधमाधम पुरुषके लक्षण, नाककी राख, देहका स्वरूप, ससारप्रीतिसे पराधीनता के दुख, सच्चा श्रावक, जीव अविचारसे भूला हूँ ।
७३३
७४०
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१३ पद्रह भेदोसे सिद्ध, लोच किसलिये ? यात्राका हेतु, सत्पुरुपका उपदेश निष्कारण, महावीरस्वामी, ज्ञानीका सगमें व्यवहार, वाडा और मताग्रह, जैनमार्ग, शश्वतमार्ग, धर्मका मिथ्याभिमान, लिंगधारी अनत वार भटका, मनुष्यदेहकी सार्थकता ७४२ १४ देहका प्रत्यक्ष अनुभव होनेपर भी मूर्च्छा, देहात्मबुद्धि और सम्यक्त्व, समकिती की दशा छिपी नही रहती, पश्चक्खान, कल्पित ज्ञानी, समकित और मिथ्यात्वीकी वाणी, अतरकी गाँठ, साधुका आहार, तृष्णा कैसे कम हो ? कत्याणकी कुजी, सम्यक्त्व प्राप्ति, सूत्र और अनुभव, घातीकर्म, निकाचितकर्म, यथार्थज्ञान, जगतकी झझट और कल्पना, सम्यग्ज्ञान, तरनेका कामी, जीवका स्वरूप और कुलधर्म आदिका आग्रह, मनुष्यभवमें विचार कर्तव्य -
९५८ श्री व्याख्यानसार --१
१ प्रथम गुणस्थानक, ग्रथिभेद, चौथो गुणस्थानक - वोवीज,
२ गुणस्थानको आत्मानुभव,
३ केवलज्ञान, मोक्ष
७ इस कालमें मोक्ष
१२ सकाम और अकाम निर्जरा
१६ लौकिक और लोकोत्तरमार्ग
१९ अनानुवधी कषाय
२४ केवलज्ञानसवधी विवेचन, अनुभवगम्य और बुद्धिगम्यं निर्णय
२७ ज्ञानक्षीणतासे मतभेद
२८ श्रुतश्रवण आदि निष्फल
२९ छोटी-छोटी शकाओमें उलझना
३० ग्रथिभेद
३१ पुरुषार्थसे सम्यक्त्वप्राप्ति
३२ कर्मप्रकृति और सम्यक्त्वका सामर्थ्य
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७५०
७५०
७५१
३३ सम्यक्त्वका ज्ञान विचारवानको
३४ सम्यक्त्वप्राप्ति में अतराय
७५३
३६ इस कालमें मोक्ष और ज्ञान, दर्शन, चारित्र ७५३
७५१
७५२
७५२
७५२
७५३
७५३
७५३
७५३
४१ सामायिक और कोटियाँ ४३ मोक्षमार्ग तलवारकी घार जैसा ४४ वादर और बाह्य क्रियाका निपेध ४९ ज्ञानीकी आज्ञा और स्वच्छदता
५१ छ. पदकी नि शकता
५२ श्रद्धा दो प्रकारसे
५३ मतिज्ञान और मन पर्ययज्ञान
५७ सम्यक्त्व और निश्चयसम्यक्त्व होनेका
ज्ञान
६० सम्यक्त्वके बाद सादिसात ससार
६२ आत्मज्ञान आदिका सूक्ष्म स्वरूप प्रकाशित करनेमें हेतु
६३ कर्मके प्रकार
६५ कर्मवध प्रकार
६६ सम्यक्त्वके अन्योक्तिसे दूषण, उसकी
महत्ता
६७ सम्यक्त्वका केवलज्ञानको ताना
६८ ग्रन्थ आदि पढनेमें मगलाचरण और
अनुक्रम
६९ आत्मजनितसुख और मोक्षसुख
७० केवलज्ञानीकी पहचान
७१ केवलज्ञानका स्वरूप समझनेके लिये
मतिश्रुतज्ञान अपेक्षि
७२ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान
७३ ज्ञानीके मार्ग और आज्ञासे चलनेवाले
को कर्मबध नही, फिर भी 'ईर्यापथ' की क्रिया
७४ विद्यासे कर्मबधन और मुक्ति
) ७६ क्षेत्रसमासकी बातोमें श्रद्धा
७७ ज्ञानके आठ प्रकार
७९ कर्म और निर्जरा
७० 'मोक्ष नही होता, परन्तु समझमें आता
है' का तात्पर्य
८१ नव पदार्थ सद्भाव
८२ वेदात और जिनदर्शन
८३ नव तत्त्वका जीव - अजीवमे समावेश
८४ निगोद और कदमूलमें अनत जीव
८५ सम्यक्त्व होनेके लिये
७५४
७५४
७५४
७५४
७५४
७५५
७५५
७५५
७५५
७५६
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७५६
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७५८
७५८
७५८
७५८
७५८
७५८
७५८
७५९
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________________
[५३ ]
.
.
tacha
७६२
८६ जीवमें सकोच-विस्तारकी शक्ति ७५९ ८८ पदार्थमें अचिंत्य शक्ति
७५९ ८९ परभावके सूक्ष्म निरूपणके कारण ७५९ ९२ जीवकी अल्पज्ञता
७६० ९३ उत्तम मार्ग, द्रव्यके सामर्थ्यकी अनुभवसिद्धिका पुरुषार्थ
७६० ९४ कर्मबधमें देहस्थित आकाशके सूक्ष्म पुद्__ गलोका ग्रहण
७६० ९७ नामकर्मका सबघ
७६० ९८-१०२ विरति, अविरति, अविरतिपाके । __ वारह प्रकार, अविरतिपनाकी पापक्रिया ७६१ १०३-१०४ व्यक्त व अव्यक्त क्रिया, क्रियासे
होनेवाले वघके पाँच प्रकार ७६१ १०५-१०७ बाह्याभ्यतर विरतिपन, मोहभावसे मिथ्यात्व
. ७६२ १०८ बारह प्रकारकी विरतिमें जीवाजीवकी
विरति । १०९-११० ज्ञानीकी वाणी और आशा ७६२ १११ वस्तुस्वरूपकी प्रतिष्ठितता ७६२ ११३ लोकके पदार्थों का प्रवर्तन ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार
७६२ ११४-११६ काल औपचारिक द्रव्य, ऊर्ध्वप्रचय, तिर्यक्प्रचय
७६३ ११७ द्रव्यके अनत धर्म
७६३ ११८-११९ असख्यात और अनत
७६३ १२०-१२५ नय प्रमाणका एक अश, नय सात,
जितने वचन उतने नय, नयका स्वरूप ७६३ १२६ केवलज्ञान और रागद्वेष
७६४ १२७ गुण और गुणी
७६४ १२८ केवलज्ञानीकी आत्मा
७६४ १२९-१३० ज्ञान और अज्ञान, 'जन'का अर्थ जैनत्व
७६४ १३१-१३२ सूत्र और सिद्धात, उपदेशमार्ग और सिद्धातमार्ग
७६४ १३३-१३५ सिद्धात और तर्क
७६५ १३६-१३८ सुप्रतीतिसे अनुभवसिद्ध, सिद्धातके
दृष्टात
१३९-१४१ क्षयोपशमके अतिरिक्तकी बातें.
पूर्ण शक्ति लगाकर ग्रन्थिभेद करनेसे
मोक्षकी मुहर, अविरतिसम्यग्दृष्टि ७६५ १४२-१४३ तेरहवां और सातवाँ गुणस्थानक ७६६ १४४-१४७ पहले और चौथे गुणस्थानकमे ।
स्थिति अथवा भावकी भिन्नता ७६६ १४८-१५१ सातवें गुणस्थानकमें आगेके ,
विचारकी सुप्रतीति और सिंहका दृष्टात,
मतभेद आदि और सत्यकी प्रतीति ७६६ १५२ परिणाम और बादरदशा . , . ७६६ १५३ चतुराई और स्वेच्छा दूर करनेके लिये,
सम्यक्त्वप्राप्ति, जिनप्रतिमासे शातदशाकी प्रतीति
७६७ १५४ जैनमार्गमे गच्छोकी परस्पर मान्यता, नौकोटि
७६७ १५५ मोक्षमार्ग और रूढ़ि
७६७ १५६ सम्यक्त्वकी चमत्कृति
७६७ १५७ दुर्घर पुरुषार्थसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति ७६७ १५८-१६० सूत्र आदिकी सफलता, व्यव
हारका भेद और मोक्षमार्ग ७६७ १६१-१६४ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व विचार ज्ञान' मोक्ष
७६७ १६५ कर्मपरमाणु दृश्य
७६८ १६६ पदार्थधर्मका वक्तव्य
७६८ १६७-१६८ यथाप्रवृत्ति आदि करण, युजन करण और गुणकरण
७६८ १६९-१७० कर्मप्रकृतिके वध आदि भावोका __वर्णन करनेवाला पुरुष ईश्वर कोटिका ७६८ १७१ जातिस्मरण मतिज्ञानका भेद ७६८ १७२ आज्ञा और अदत्तग्रहण
७६८ १७३ उपदेशके मुख्य चार प्रकार-द्रव्यानु
योग आदि १७४ परमाणुके गुण और पर्याय, उसके विचारसे क्रमश ज्ञान
७६९ १७५-१७६ तेजस और कार्मण शरीर ७६९ १७७-१७८ चार अनुयोगके विचारसे निर्जरा ७६९ १७९ पुद्गल पर्याय आदिका सूक्ष्म कथन आत्मार्थ
७६९
७६९
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________________
१९ वह दशा किस लिये आवृत हुई ? वही
परमात्मा है
२० 'कोई ब्रह्मरसना भोगी ।"
२१ परिग्रह मर्यादा
२२ चेतन और चैतन्य
२३ चक्षु और मन अप्राप्यकारी, - चेतनका
बाह्य अगमन
१४ समय-समयमे अनत सयमपरिणाम, योगदश में आत्माका सकोच - विकास,
२५ ध्यान
२६ पुरुषाकार चिदानंदघनका ध्यान करें,
चमत्कारका धाम
२७ विश्व, जीव, परमाणु और कर्मसबध अनादि
३४ छ पद
३५ आत्मा
नित्यत्व आदि सम्बन्धी छ
दर्शनकी मान्यताका कोष्ठक
३६ बुद्धि, आत्मा, विश्व और परमात्माके विषयमें जिन, वेदात आदिके कथन ३७ महावीरस्वामीके पुरुषार्थसे वोघ, अपनी कल्पनासे वर्तन करनेसे भववृद्धि ३८ सर्वसग महास्रव, मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति, वैश्यवेष और निग्रंथभाव, विभावयोगका विचार, ज्ञानका तारतम्य और उदयवल, हतपुण्य लोगोने भरत - क्षेत्रको घेरा है
३९ व्यवहारका विस्तार और निवृत्ति, उदय रूप दोष
[ ५६ ]
८१५
२८ आत्मभावना करनेका क्रम
८१५
३० प्राण, वाणी, रसमे
८१५
३१ जैन सिद्धात ग्रथकी रचनाका प्रकार ८१५
३२ वन्य रे दिवस ( काव्य )
८१६
३३ बघ और मोक्ष
४० चित्तकी शाति के लिये समाधान ४१ जीवनकाल भोगनेका विचार
४२ तत्त्वज्ञानी अपनी देहमें भी ममत्त्व नही
करते
४३ काम आदिका सम
८१२
८१३
८१३
८१३
८१३
८१४
८१४
८१४
८१७
८१७
८१८
८१८
८१८
८१८
८२०
८२०
८२०
८२०
४४ व्यवसायसे निवृत्त हो, प्रारव्यसे सहज निवृत्ति
४५ सग या अश सग निवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा, निवृत्ति ही प्रशस्त
५६ प्रत्याख्यान
४७ क्षायोपशमिक ज्ञान
४८ 'जेम निर्मलतारे जिनवीर - प्रकाशित
धर्म
४९ वीतरागदर्शनके निर्धारित ग्रन्थका विषय
५० जैन और वेदात पद्धतिके एकीकरके लिये
विचारित विषय
वाणी-कायासयम
५६ जीव आदि द्रव्यसम्बन्ची
५७ हे योग
५८ एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटता ?
५९ विभाव परिणाम क्षीण न करनेसे दु खका वेदन
८२१
८२२
५१ जैनशासनकी विचारणा
८२२
५२ जैनपद्धतिके विचारणीय मूलोत्तर प्रश्न ८२३ ५३ न्यायविषयक प्रश्न
८२३ ५४ आत्मदशा और लोकोपकार प्रवृत्तिसवघी ८२३ ५५ आत्म परिणामकी विशेष स्थिरताके लिये
८२१
८२१
८२१
८२१
८२२
अगुरुलघुता
६५ आत्मध्यानके लिये ज्ञान- तारतम्यतादि
६६ जगतका त्रिकालवर्तित्व
६७ वस्तुका अस्तित्व, दो प्रकारका पदार्थ
' ८२३
८२४
८२४
- ८२४
८२४ ६० चिंतनानुसार आत्माका प्रतिभासन, ' विचारशक्ति और विपयार्तता, चेतनकी अनुत्पत्ति, नित्यत्व और द्रव्यत्व ६१ वीतरागके सम्पूर्ण प्रतीतियोग्य वचन, वीततागताके प्रमाणमें श्रद्धेयत्व, जिनकी शिक्षा अविकल
६२ जैनदर्शन आदिका मथन
६३ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोक
८२४
7
८२४
८२५
८२५
सस्थान आदिके रहस्य सम्वन्धी प्रश्न ६४ सिद्ध आत्माकी लोकालोक-प्रकाशकता, '
८२६
८२६
८२६
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________________
[ ५७ ],
७ सर्व द्रव्यसे मुक्त स्वरूप का अनुभव, सम्यग्दर्शनी और । सम्यक्चारित्रीको उद्बोधन
८३४ ८ दुख और उसका बीज आदि, कर्मके ' पाँच कारण, उसके अभावका क्रम ८३५ ९ ध्यान और स्वाध्याय, कैसी दशाका
सेवन करते केवलज्ञान उत्पन्न हो ८३५ १० सहजात्मस्वरूप लक्षी विचारश्रेणि ८३६ ११ अप्रमत्त होनेके लिये प्रतीति करने योग्य -
भाव ।
६८ गुणातिशयता क्या? केवलज्ञानमें आहार,
निहार आदि क्रियायें किस तरह ? । ८२६ ६९ ज्ञानके भेद ।
८२७ ७०,परमावधिके बाद केवलज्ञान, द्रव्योकी
गुणातीतता, केवलज्ञानकी निर्विकल्पता ८२७ ___७१ अस्तित्व, बध, अमूर्तता, पुद्गल और ,
जीवका सयोग, धर्मादिकी क्षेत्रव्यापिता, द्रव्यस्वरूप, केवलज्ञान और अनतताअनादिताकी शकायें ।
८२७ ७२ सर्वप्रकाशकता और सर्वव्यापकता, आत्मा
सम्वन्धी विचारणीय विषय . .८२८ ७३-७४ मार्गप्रवर्तनसम्बन्धी विचारणा -८२८ ७५ ‘सोह'. आश्चर्यकारक गवेषणा, आत्म____ ध्यान सम्बन्धी ऊहापोह
८२९ ७६ आत्माका असख्यातप्रदेश-प्रमाणत्व . ८२९ ७७ अमूर्तत्व, अनतत्व, मूर्तामूर्तत्व और बघ । आदि
८२९ ७८ केवलज्ञान और ब्रह्म
८३० ७९ जिनके अभिमतसे आत्मा
८३० ८० मध्यम परिमाणका नित्यत्व, कर्मबंधका
हेतु, द्रव्य और गुण, अभव्यत्व धर्मास्ति
काय आदिका वस्तुत्व, सर्वज्ञता ८३० ८१ वेदातके आत्मादि सम्बन्धी निरूपण ८३० ८२-८३ जनमार्ग
८३१ ८४ मोहमयीसबधी उपाधिको अवधि ८५ कुछ स्वविचार ८६ देव, गुरु, धर्म
८३२ ८७ जिनसदृश ध्यानसे तन्मयात्मस्वरूप कब होऊँगा?
८३३ ८८ अपूर्वसयम प्रगट करनेके लिये ८३३
सस्मरणपोयो-२ १ सहज शुद्ध आत्मस्वरूप
८३३ २ सर्वज्ञपदका ध्यान करें
८३३ ३ सत्पुरुषोको नमस्कार
८३३ ४ जिनतत्त्वसक्षेप
८३३ ५ मुख्य आवरण, मुमुक्षुता आदि उत्पन्न कैसे हो?
८३४ ६ जीयफे बघनके मुख्य हेतु
१२ तीन वैराग्यसे लेकर अचित्य सिद्धस्वरूप तकके विचार
८३६ १३ सयम, समाधान, पद्धति और वृत्ति ८३७ १४-१५ सत्य धर्मके उद्धारसम्बन्धी ८३८ १६ नयदृष्टि विचार
८३८ १७ मै असग शुद्ध चेतन हूँ'। अनुभवस्वरूप .
८३९ १८ चैतन्य जिनप्रतिमा हो,' - ८३९ १९ अतराय करनेवाले काम आदिको सम्बोधन
। ८३९ २० सम्यग्दर्शन, जिनवीतराग आदिको भक्तिसे " नमस्कार
८३९ २१ उपासनीय समाधिमार्ग
८४० २२ बघ, कर्म, मोक्ष
८४० २३ मोक्ष और मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शनसे १२वें गुणस्थानकपयंत दशाओके लक्षण ८४०
सस्मरणपोयी-३ १ सर्वज्ञ, जिन, वीतराग, सर्वज्ञ है, जीवका
ज्ञानसामर्थ्य सपूर्ण २ सर्वज्ञपद श्रवण-पठन-विचार करने योग्य
और स्वानुभवसे सिद्ध करने योग्य ८४१ ३ देव, गुरु, धर्म
८४१ ४ प्रदेश, समय, परमाणु, द्रव्य, गुण, पर्याय; जड, चेतन
८४२ ५ मूल द्रव्य और पर्याय
८४२ ६ दुखका आत्यतिक अभाव मोक्ष सम्यरज्ञान-दर्शन-चारित्र और मोक्ष, सकर्म जीव, भावकर्म, तत्त्वार्थप्रतीति ८४२
८३२ ८३२
८३४
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________________
७७०
७७०
७७७
७७०
[ ५४ ] १८० मान और मताग्रह मार्गमें अवरोधक स्तभरूप
७७० । १८१ स्वाध्यायके भेद
ওও ০ १८२ धर्मके मुख्य चार अग १८३-१८६ मिथ्यात्वके भेद और मिथ्यात्व
गुणस्थानक १८७ मिश्रगुणस्थानक और मिथ्यात्वगुणस्थानक
७७० १८८ दूसरा गुणस्थानक १८९-१९१ श्वेताम्बर और दिगम्बर दृष्टिसे केवलज्ञान
७७० १९२ ओघ आस्थासे विचारसहित आस्था ७७० १९३-१९८ त्यागकी आवश्यकता, प्रकार,
त्यागकी कसरत, अभ्यास किस तरह ? ७७१ १९९-२०० अनतानुवघी आदि कपाय, ,
उसके उदय और क्षयका क्रम तथा बघ ७७१ २०१ घनघाती और अघाती कर्मके क्षयसबघी ७७२ २०२ उन्माद-चारित्रमोहनीयका पर्याय ७७२ २०३ सज्ञाके विविध भेद
७७२ २०४ कर्म या प्रकृतिके प्रकार
७७२ २०५ भाव अथवा स्वभाव और विभाव ७७२ २०६-७ कालके अणुओका पृथक्त्व और ।
धर्मास्तिकाय आदिकी प्रदेशात्मकता ७७३ २०८-२०९ वस्तु और गुण-पर्याय ७७३ २१०-२११ पदार्थमात्रमें रहनेवाली त्रिपदी
और काल , २१२ पदार्थवर्ती षट्चक्र .
७७३ २१३ पदार्थके गमनमें समश्रेणिका कारण ७७३ २१४-२१९ इन्द्रिय और अतीन्द्रिय ज्ञान ७७३ २२०-२२१ आत्माके अस्तित्वका भासनासम्यक्त्वका अग
७७४ २२२ धर्मसम्बन्धी (श्री रलकरडश्रावकाचार) ७७५ ८५९ श्री व्याख्यानसार-२
१ ज्ञान और वैराग्य, ज्ञानीके वचन, 'छपस्य' और 'शैलेशीकरण' का अर्थ, मोक्षमें अनुभव, ऊर्ध्वगमनस्वभावी आत्मा, भरत, सगर और नमिराजकी कथायें।। ७७६
२ जैन आत्माका स्वरूप, अनादि आत्म धर्म,
कर्मप्रकृतिके उत्कर्प, अपकर्प और सक्रमण, परमाणु और चैतन्य द्रव्यकी शक्ति ७७६ ३ वेदक सम्यक्त्व, पाँच स्थावर वादर व सूक्ष्म, गुणस्थानकका स्पर्श, परिणामकी तीन वारायें, उदय, आयुकर्म, चक्षुके प्रकार ४ अष्ट पाहुड, आत्मधर्मका भावन, द्रव्य,
और पर्याय, आत्मसिद्धि, छ, दर्शन, जीवपर्यायके भेद, विपयका नाश, जिन
और जैन, आत्माका सनातन धर्म, ज्ञानोका आश्रय, वस्तुव्यवच्छेद और पुरुषार्थ ७७८ ५ चार पुरुषार्थ, मोक्षमार्ग, सम्यग्ज्ञान, , जीवके भेद
७८० ६ जातिस्मरणज्ञान, आत्माको नित्यता, अप्रमत्त गुणस्थानक, स्मृति, प्रथिके भेद, आयुकर्मसम्बन्धी (कर्मग्रन्थसे) ज्ञानकी कसौटी, परिणामकी धारा थर्मामीटर ७८१ ७ मोक्षमालामेंसे असमजसता आदि हेम- । __ चन्द्राचार्य
८ सरस्वती, ससारप्रपचके कारण ७८३ • ९ योगदृष्टिसम्बन्धी, सूत्रसिद्धात, जिनमुद्रा, ईश्वरत्व तीन प्रकारसे
७८३ १० 'भगवती आराधना', मोक्षमार्ग अगम्य
तथा सरल, नितात विषम मार्ग परमशात होना, काम आदि छोडनेमें अप्रमादी सच्चे गुरुसे आत्मशाति सहजमें, मोक्ष पुरुषार्थके अधीन
७८४ ११ रासभवृत्ति, 'भगवती आराधना' मेंसे
परिणाम, लेश्या तथा योग, बघ, आस्रव,
सवर, दर्शन और ज्ञानमें भूल, भेदज्ञान ७८६ १२ ज्ञान-दर्शनका फल
७८८ १३ देवागमस्तोत्र, आप्तके लक्षण, करणा
नुयोग या द्रव्यानुयोग, निराकुलता सुख, सकल्प दुख, चैतन्य स्पष्ट, मुक्ति,
मोहनीय और वेदनीय, जिनकल्पीके गुण, ' 'चेतनाके प्रकार
७८८
७८३
. ७७३
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________________
[ ५५ ]
८०५
१४ इन्द्रिय, मन और आत्मा, कर्मवध अदृश्य,
कामका बहाना, सम्यग्दृष्टिकी प्रवृत्ति, विपाक दृश्य अनागार आदिके अर्थ ७९० सिद्धि आदि शक्तियां सच्ची, वीर्यमदता, १५ अनुपपन्नका अर्थ
७९१ 'काम कर लेनेका योग्य : समय, ज्ञानी-- १६ श्रावक आश्रयी अणुव्रतके विषयमें । - ७९१ पुरुपकी व्यवहारमें भी अतरात्मदृष्टि,' १७ दिगम्बर और श्वेताम्बर दृष्टिसे केवल .
उपाधिमें उपाधि और समाधिमें समाधि ज्ञान, तेजस और कार्मण आदि शरीर,
रखना, व्यवहारमें आत्मकर्तव्य, कर्मरूपी आठ रुचक प्रदेश, मौतकी औषधि नही ७९२ कर्ज, इद्र आदि भी अशक्तिमान, १८ अतवृत्ति और उसकी प्रतीति, सम्यग्दृष्टि
आत्माका अप्रमत्त उपयोग, करणानुयोग की निर्जरा, गाढ आदि सम्यक्त्व और .
और चरणानुयोग, ९वें गुणस्थानकमें गुणस्थानक, धर्मकी कसौटी, आचार्यका
वेदोदयका क्षय
७९९ उत्तरदायित्व
| ९६० आभ्यतर-परिणामावलोकन १९ अवविज्ञान, मन पर्यायज्ञान और पर
प्रस्तावना
८०२ मावधिज्ञान
। ७९३
___ सस्मरण पोयो-१ २० आराधना, उसके प्रकार और विधि, गुण- ।
१ स्वरूप दृष्टिगत न होनेका कारण ८०३ की अतिशयता ही पूज्य, सिद्धि, लब्धि
२ छ पदका दृढनिश्चय
८०४ आदि आत्माके जागृत भावमें, लब्धि , ।
३ जीवकी व्यापकता, परिणामिता, कर्मआदि ज्ञानीसे तिरस्कृत, आत्मा और
____सबद्धता आदिके निर्णयकी दुष्करता ८०५ मृत्यु, स्थविरकल्प, जिनकल्प ७९४
४ सहज २१ जिनका अहिंसा धर्म, हिन्दी और
५ स्वविचारभुवन-कल्याणमार्ग ८०६ युरोपियनका विद्याभ्यास , । ७९५ २२ वेदनीय कर्मको स्थिति
६ अतिम समझ
८०८ और वध, प्रकृतियोका एक साथ, वध, मूलोत्तर
७ आत्मसाधन-आत्माके द्रव्य क्षेत्र, काल भाव
८०८ प्रकृतियोका वध
७९५ ८ मन वचन कायाका सयम
८०८ २३ आयुका बघ, उदय और उदीरणा - -७९६
९ सुख न चाहनेवाला
८०९ ज्ञानावरणीय, आदि और क्षयोपशमभाव ज्ञान, दर्शन और वीर्यका काम, कर्म
१० स्यात् मुद्रा, सच्चिदानद और नय प्रमाण प्रकृतिको वर्णनमे निच्चितता ७९६
आदि, दृष्टिविष जाने के बाद, पुनर्जन्म २५ ज्ञान धागेवाली सूई
. ७९७
है, इस कालमें मेरा जन्म लेना, हम जो २६ प्रतिहार, नग्न आदि शब्दोके अथ, ज्ञान
है वह पायें, विकराल काल-कर्म-आत्मा ८०९ और दर्शन
११ इतना ही खोजा जाय तो सब मिलेगा ८१० २७ चयोपचय, चयविचय, चिंताका शरीरपर
१२ मारग साचा मिल गया (काव्य) ८१० ___ असर, वनस्पतिमें आत्मा
७९८
१३ स्वभुवनमें विचारमें २८ साधु, यति, मुनि, ऋपि
७९८
१४ होत आसवा परिसवा (काव्य) ८११ २९ भव्य और अभव्य
१५ अनुभव ३० वध और मोक्ष, प्रदेश आदि वघ, विपाक,
१६ यह त्यागी भी नही अत्यागी भी नही, चार्वाक कौन ? तेरहवें गुणस्थानकमें एक
सतपना अति दुलभ
८१२ समयवर्ती वध, कपायका रस, श्रवण,
१७ प्रकाशभुवन-आप इस ओर मुडें, यह मनन आदि, आत्मासवधी विचारमें
बोध सम्यक है, यह पुरुष यथार्थवक्ता या ८१२
८११
८१२
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________________
[ ५६]
।
१९ वह दशा किस लिये आवृत हुई ? वही । परमात्मा है
८१२ २० 'कोई ब्रह्मरसना भोगी ।। ८१३ २१ परिग्रह मर्यादा - ८१३ २२ चेतन और चैतन्य
८१३ २३ चक्षु और मन अप्राप्यकारी, चेतनका बाह्य अगमन -
८१३ १४ समय-समयमें अनत सयमपरिणाम, योग
दशामे आत्माका सकोच-विकास ८१४ २५ ध्यान
८१४ २६ पुरुषाकार चिदानदधनका ध्यान करें, चमत्कारका धाम
८१४ २७ विश्व, जीव, परमाणु और कर्मसवध अनादि
८१५ २८ आत्मभावना करनेका क्रम ८१५ ३० प्राण, वाणी, रसमें
८१५ ३१ जैन सिद्धातके ग्रथकी रचनाका प्रकार ८१५ ३२ धन्य रे दिवस (काव्य) ८१६ ३३ बध और मोक्ष
८१७ ३४ छ पद ३५ आत्माके नित्यत्व आदि सम्बन्धी छ ___दर्शनकी मान्यताका कोष्ठक ८१८ ३६ बुद्धि, आत्मा, विश्व और परमात्माके
विषयमें जिन, वेदात आदिके कथन ८१८ ३७ महावीरस्वामीके पुरुपार्थसे बोध, अपनी
कल्पनासे वर्तन करनेसे भववृद्धि ८१८ ३८ सर्वसग महास्रव, मिश्रगुणस्थानक जैसी
स्थिति, वैश्यवेष और निग्रंथभाव, विभावयोगका विचार, ज्ञानका तारतम्य और उदयबल, हतपुण्य लोगोने भरत
क्षेत्रको घेरा है . : ८१८ ३९ व्यवहारका विस्तार
रूप दोष ४० चित्तकी शातिके लिये समाधान ४१ जीवनकाल भोगनेका विचार । - ८ ४२ तत्त्वज्ञानी अपनी देहमें भी ममत्त्व नही करते
८२० ४३ काम आदिका सयम
४४ व्यवसायसे निवृत्त हो, प्रारव्यसे सहज निवृत्ति
। ८२१ । ४५ सग या अश सग निवृत्तिरूप कालकी '
प्रतिज्ञा, निवृत्ति ही प्रशस्त । ८२१ ५६ प्रत्याख्यान
८२१ ४७ क्षायोपशमिक ज्ञान
। ८२१ ४८ 'जेम निर्मलता रे 'जिनवीर-प्रकाशित धर्म " -
८२१ ४९ वीतरागदर्शनके निर्धारित ग्रन्थका विषय ८२२ ५० जैन और वेदात पद्धतिके एकीकरके लिये विचारित विपय
८२२ ५१ जनशासनकी विचारणा
८२२ ५२ जनपद्धतिके विचारणीय मूलोत्तर प्रश्न ८२३ . ५३ न्यायविषयक प्रश्न
८२३ ५४ आत्मदशा और लोकोपकार प्रवृत्तिसवधी ८२३ ५५ आत्म परिणामकी विशेष स्थिरताके लिये वाणी-कायासयम
८२३ ५६ जीव आदि द्रव्यसम्बन्धी
- ८२४ ५७ हे योग
८२४ ५८ एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटता
८१७
८२४
का
५९ विभाव परिणाम क्षीण न करनेसे दुखका वेदन
८२४ ६० चिंतनानुसार आत्माका प्रतिभासन,
विचारशक्ति और विपयार्तता, चेतनकी
अनुत्पत्ति, नित्यत्व और द्रव्यत्व १८२४ ६१ वीतरागके सम्पूर्ण प्रवीतियोग्य वचन, " ...
वीततागताके प्रमाणमें श्रद्धेयत्व, जिनकी शिक्षा अविकल
८२४ ६२ जनदर्शन आदिका मथन ६३ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोक• सस्थान आदिके रहस्यसम्बन्धी प्रश्न ८२५ ६४ सिद्ध आत्माकी लोकालोक-प्रकाशकता. अगुरु लघुता
८२६ ६५ आत्मध्यानके लिये ज्ञान-तारतम्यतादि ८२६ । ६६ जगतका त्रिकालवर्तित्व
' ८२६ ६७ वस्तुका अस्तित्व, दो प्रकारका पदार्थस्वभाव स्पष्ट
८२६
८२५
य
८२१ ।
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[ ५७ ]
८३९
६८ गुणातिशयता क्या ?, केवलज्ञानमें आहार,
७ सर्व द्रव्यसे मुक्त स्वरूपका अनुभव, निहार आदि क्रियायें किस तरह? ८२६ सम्यग्दर्शनी और । सम्यक्चारित्रीको ६९, ज्ञानके भेद । - - ८२७ उद्बोधन
८३४ .७० परमावधिके बाद केवलज्ञान, द्रव्योकी .
८ दु ख और उसका बीज आदि, कर्मके ... गुणातीतता; केवलज्ञानकी-निर्विकल्पता ८२७ पाँच कारण, उसके अभावका क्रम ८३५ ७१, अस्तित्व, वध, अमूर्तता, पुद्गल और
९ ध्यान 'और स्वाध्याय, कैसी दशाका जीवका सयोग, धर्मादिकी क्षेत्रव्यापिता,
सेवन करते केवलज्ञान उत्पन्न हो ८३५ द्रव्यस्वरूप, केवलज्ञान और अनतता
१० सहजात्मस्वरूप लक्षी विचारश्रेणि ८३६ अनादिताको शकायें !
८२७ ११ अप्रमत्त होनेके लिये प्रतीति करने योग्य ; ७२ सर्वप्रकाशकता और सर्वव्यापकता, आत्मा
भाव
८३६ सम्बन्धी विचारणीय विषय ८२८ १२ तीव्र वैराग्यसे लेकर अचित्य सिद्धस्वरूप ७३-७४ मार्गप्रवर्तनसम्बन्धी विचारणा ८२८ ' 'तकके विचार
तकके विचार
८३६ ७५ 'सोह' आश्चर्यकारक गवेषणा, आत्म- . । १३ सयम, समाधान, पद्धति और वृत्ति ८३७ ____ ध्यान सम्बन्धी ऊहापोह
८२९ |: १४-१५ सत्य धर्मके उद्धारसम्बन्धी ८३८ ७६ आत्माका असख्यातप्रदेश-प्रमाणत्व . ८२९ १६ नयदृष्टि विचार
८३८ ७७ अमूर्तत्व, अनतत्व, मूर्तामूर्तत्व और बघ १७ मैं असग शुद्ध चेतन हूँ।" अनुभवस्वरूप ।
आदि ७८ केवलज्ञान और ब्रह्म
१८ चैतन्य जिनप्रतिमा हो,
८३९ ७९ जिनके अभिमतसे आत्मा
१९ अतराय करनेवाले काम' आदिको ८० मध्यम परिमाणका नित्यत्व, कर्मबंधका
'' - सम्बोधन
८३९ हेतु, द्रव्य और गुण, अभन्यत्व धर्मास्ति
२० सम्यग्दर्शन, जिनवीतराग आदिको भक्तिसे काय आदिका वस्तुत्व, सर्वज्ञता ८३० * नमस्कार
८३९ ८१ वेदातके आत्मादि सम्बन्धी निरूप ८३० २१ उपासनीय समाधिमार्ग
८४० ८२-८३ जनमार्ग ८३१ २२ बघ, कर्म, मोक्ष
८४० ८४ मोहमयीसबधी उपाधिकी अवधि ८३२ २३ मोक्ष और मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शनसे ८५ कुछ स्वविचार
१२वें गुणस्थानकपर्यंत दशाओके लक्षण ८४० ८६ देव, गुरु, धर्म
८३२
संस्मरणपोयो-३ ८७ जिनसदृश ध्यानसे तन्मयात्मस्वरूप कब
१ सर्वज्ञ, जिन, वीतराग, सर्वज्ञ है, जीवका होऊँगा?
८३३
ज्ञानसामर्थ्य सपूर्ण ८८ अपूर्वसयम प्रगट करनेके लिये ८३३ २ सर्वज्ञपद श्रवण-पठन-विचार करने योग्य सस्मरणपोयी-२
__ और स्वानुभवसे सिद्ध करने योग्य ८४१ १ सहज शुद्ध आत्मस्वरूप
८३३ ३ देव, गुरु, धर्म २ सर्वज्ञपदका ध्यान करें
८३३
४ प्रदेश, समय, परमाणु, द्रव्य, गुण, ३ सत्पुरुषोको नमस्कार
पर्याय; जड, चेतन ४ जिनतत्त्वसक्षेप
८३३ ५ मूल द्रव्य और पर्याय
८४२ ५ मुख्य आवरण, मुमुक्षुता आदि उत्पन्न
६ दुःखका आत्यतिक अभाव मोक्ष सम्यकैसे हो?
८३४
ज्ञान-दर्शन-चारित्र और मोक्ष. सकर्म ६ जीवके वघनके मुख्य हेतु ८३४ जीव, भावकर्म, तत्त्वार्थप्रतीति
८४२
८३२
८४१
८३३
८४२
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राष्ट
८४३
७ शद्ध निर्विकल्प चैतन्यकी स्वरूपरहस्यमय
उक्ति-आपसे जगत भिन्न, अभिन्न, भिन्नाभिन्न है ८ केवलज्ञानका स्वरूप,
८४३ ९ केवलज्ञान कैसे हो?
८४४ १० आकाशवाणी-तप करें, चैतन्यका ध्यान करें
८४४ -११ अपना स्वरूप चित्रसहित १२ शुद्ध चेतन्य, सद्भावकी प्रतीति-सम्य
ग्दर्शनज्ञानसम्बन्धी प्रश्न, ध्यान और अध्ययन
. ८४४ १३ ठाणागमे विचारणीय एक सूत्र ८४५ १४ अवधूतवत्, विदेहवत्, जिनकल्पीवत्
विचरनेवाले पुरुष भगवानके स्वरूपका ध्यान
८४५ १५ प्रवृत्तिकी विरति, सग और स्नेहपाशको
तोडना १६ स्वरूपवोध आदि स्वविचार ८४५ १७ सर्वज्ञ-वीतरागदेव-ईश्वर, मनुष्यदेहमें
उस पदकी प्राप्ति
१८ अप्रमत्त उपयोगसे केवल अखडाकार __ स्वानुभवस्थिति
८४६ १९ ब्रह्मचर्य अद्भुत अनुपम सहायकारी ८४६ २० सयम
८४६ २१ जागृतसत्ता, ज्ञायकसत्ता, आत्मस्वरूप ८४६ २२ आत्मध्यानार्थ विचरनेकी भावना ८४६ २३ सन्मार्ग, सद्देव और सद्गुरु जयवत रहें ८४६ २४ विश्वके द्रव्योका विचार
८४७ २५ परम गुणमय चारित्र आदिको आवश्यकता, एक ग्रन्यकी सकलना
८४७ २६ स्वपर-उपकारका कार्य कर लेनेकी भावनाके मत्रात्मक वाक्य
८४७ २७ निग्रंन्यप्रवचनसम्बन्धी सूत्रकृतागका अव___तरण २८ शरीरसवघी दूसरी वार अप्राकृत क्रम ८४८ २९ निर्विकल्परूपसे अतर्मुखवृत्ति करके आत्मध्यानका क्रम
८४९ ३० वीतरागदर्शनसक्षेप एक पुस्तककी संकलना
८४८
.८४५
४९
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श्रीमद् राजचंद्र
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श्रीमद् राजचंद्र __१७वें वर्षसे पहले
प्रथम शतक
शार्दूलविकोरितवृत्त *ग्रंथारभ प्रसंग रंग भरवा, कोडे कर कामना; बोधू धर्मद मर्म भर्म हरवा, छे अन्यथा काम ना; भाखं मोक्ष सुबोध धर्म धनना, जोडे कथु कामना; एमां तत्व विचार सत्त्व सुखदा, प्रेरो प्रभु कामना ॥१॥
। छप्पय नाभिनंदन नाय, विश्ववंदन विज्ञानी; भव बंधनना फंव, करण खंडन सुखदानी; ग्रंथ पंथ आद्यंत, खंत प्रेरक भगवंता;
अखडित अरिहंत तंतहारक जयवंता; श्री मरणहरण तारणतरण, विश्वोद्धारण अघ हरे; ते ऋषभदेव परमेशपद, रायचद वंदन करे ॥२॥
प्रभुप्रार्थना - दोहा जळहळ ज्योति स्वरुप तु, केवळ कृपानिधान । प्रेम पुनित तुज प्रेरजे, भयभंजन भगवान ॥३॥
* भावार्थ-१. अथके आरभरूप प्रसगको सुन्दर एव मनोहर बनानेकी उल्लासपूर्ण कामना करता हूँ। इस ग्रथमें भ्रम-अज्ञानको दूर करनेके लिये धर्मका वोष करानेवाले मर्मको प्रकाशित करना चाहता हूँ, अन्य कोई प्रयोजन नही है। इसमे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थोंके सुवोध-सम्यग्ज्ञानका वर्णन करना चाहता हूँ। वोवराग प्रभो ! आप मुझे सुखद तत्त्वविचारकी शकि प्रदान करें।
२ नाभिनदन, नाथ, विश्ववद्य, विज्ञानी-विशिष्ट ज्ञानी, भवबघनके फदेका खडन करनेवाले, सुखदानी, ग्रथके पथमें आदिसे अन्त तक उत्साहित करनेवाले भगवान, अखडित, अरिहत, कर्मसततिके नाशक, विजयी, मरणहरण, तरनतारन, विश्वोद्धारक प्रभु पापको दूर करें । उन श्री ऋषभदेव परमेश्वरके चरणोमें रायचद वदन करते हैं।
३ हे भयभजन भगवान ! तू प्रकाशमान, ज्योतिस्वरूप और सर्वथा कृपानिधान है। तेरा पुनित प्रेम मुझे प्रेरित करे।
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"
श्रीमद राजचन्द्र
नित्य निरंजन नित्य छो, गंजन गंज गुमान । अभिवदन अभिवदना, भयभंजन भगवान ॥ ४ ॥ धर्मधरण तारणतरण, शरण चरण सन्मान । विघ्नहरण पावनकरण, भयभंजन भगवान ॥ ५ ॥ भद्रभरण भीतिहरण, सुधाझरण शुभवान । क्लेशहरण चिताचूरण, भयभंजन भगवान ॥ ६ ॥ अविनाशी अरिहंत तुं, एक अखंड अमान । अजर अमर अणजन्म तुं, भयभंजन भगवान ॥ ७ ॥ आनंदी अपवर्गी तुं, अकळ गति अनुमान । आशिष - अनुकूल आपजे, भयभंजन भगवान ॥ ८ ॥ निराकार निर्लेप छो, निर्मळ नीतिनिधान । निर्मोहक नारायणा, भयभंजन
भगवान ॥ ९ ॥
सचराचर स्वयंभू प्रभु, सुखद सोपजे सान । सृष्टिनाथ सर्वेश्वरा, भयभंजन भगवान ॥१०॥
संकट शोक सकळ हरण, नौतम ज्ञान निदान । इच्छा विकळ अचळ करो, भयभंजन भगवान ॥ ११ ॥ आधि व्याधि उपाधिने, हरो तंत तोफान । करुणाळु करुणा करो, भयभंजन भगवान ॥ १२ ॥ किंकरनी कंकर मति, भूल भयंकर भान ।
शंकर ते स्नेहे हरो, भयभंजन भगवान ॥ १३ ॥
४ हे भयभजन भगवान । तू नित्य निरजन, नित्य और अहकारपुजका नाशक है । तुझे वारवार अभि
वन्दन हो ।
५ हे भयभजन भगवान । तू धर्मका धारक, तरनतारन, विघ्नहारी एव पावनकारी है । तेरे चरणोकी उपासना मेरी शरण है ।
६ हे भयभजन भगवान । तू कल्याणकारी, भीतिहारी, सुधाका झरना, भगलमय, क्लेशहर और चिन्ता
नाशक है ।
७ हे भयभजन भगवान । तू अविनाशी, अरिहत, एक अखड एव असीम है । तू अजन्मा, अजर और
अमर है।
८ हे भयभजन भगवान | तू आनन्दमय, मोक्षंमय और अनुमानसे अगोचर है । मुझे अनुकूल आशीर्वाद दे । ९ हे भयभजन भगवान । तू निराकार, निर्लेप, निर्मल, नीविनिधान और निर्मोहक नारायण है । १० हे भयभजन भगवान । तू सचराचर, स्वयंभू, प्रभु, विश्वनाथ और सर्वेश्वर है । मुझे सुखद बोघ दे | ११ हे भयभजन भगवान ! तू समस्त सकट और शोकका निवारक और नूतन ज्ञानका मूल कारण है । मेरी विकल इच्छाको अचल कर ।
१२ हे भयभजन भगवान । करुणालु करुणा कर । आषि, व्याधि, उपाधि और कर्मसन्ततिका उपद्रव दूर कर । १३ हे भयभजन भगवान ! किकरकी मति ककड जैसी है, आत्मभानकी भयंकर भूल | हे शकर | उसे
प्रेमसे दूर कर ।
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१७वें वर्षसे पहले शक्ति शिशुने आपशो, भक्ति मुक्तिनु दान । तुज जुक्ति जाहेर छे, भयभजन भगवान ॥ १४ ॥ नीति प्रोति नम्रता, भली भक्तिनु भान । आर्य प्रजाने आपशो, भयभंजन भगवान ॥१५॥ दया शाति औदार्यता, धर्म मर्म मनध्यान। . सप जंप..वण कंप दे, भयभजन भगवान ॥१६॥ हर आळस एदीपणु, हर अघ ने अज्ञान। हर भ्रमणा भारत -तणी, भयभंजन भगवान ॥ १७॥ , तन, मन, धन ने अन्ननु, दे सुख सुधा समान। आ अवनी- कर भलु, भयभजन भगवान ॥१८॥ विनय विनति रायनी, धरो कृपाथी ध्यान । मान्य करो महाराज ते, भयभंजन भगवान ॥ १९॥'
धर्म विषे.
कवित . दिनकर विना जेवो, दिननो देखाव दीन, शशि विना जेवी जोजो, शर्वरी सुहाय छ; , प्रतिपाळ विना जेवी, प्रजा पुरतणी पेखो, सुरस विनानी जेवी, कविता कहाय छे; सलिल विहीन जेवी सरितानी शोभा अने, भरि विहीन जेवी भामिनी भळाय छे; 'वदे रायचद वीर एम धर्ममर्म विना, 'मानवी महान ' पण, कुकर्मी' कळाय छे ॥२०॥ (अपूर्ण)
१४ हे भयभजन भगवान । तेरी युक्ति प्रसिद्ध है । शिशुको शक्ति, भक्ति और मुक्तिका दान दे । १५ हे भयभजन भगवान । तू नीति, प्रीति, नम्रता और सद्भक्तिका ज्ञान आर्य प्रजाको दे ।
१६ हे भयभंजन भगवान । तू आर्य प्रजाको दया, शाति, उदारता, धर्म-मर्मका ध्यान, एकता और निश्चल शाति दे।
१७ हे भयभजन भगवान | तू भारतका आलस्य एवं अकर्मण्यता दूर कर, और पाप, अज्ञान तथा भ्रान्ति दूर कर।
१८ हे भयभजन भगवान | तन, मन, धन तथा अन्नका सुधाके समान सुख दे । इस विश्वका भला कर ।
१९ हे भयभजन भगवान । रायचदकी सविनय विनति पर कृपया ध्यान दे, हे महाराज | उसे मान्य कर। , २० देखिये, दिनकरके विना जैसे दिन निस्तेज दीखता है, शशिके बिना जैसे रात शोभाहीन लगती है, प्रतिपाल-रक्षकके बिना जैसे नगरकी प्रजा सुरक्षित नहीं है, सुरसके बिना जैसे कविता नीरस कहलाती है, जलके विना जैसे नदी शोभित नही होती, पतिके बिना जैसे स्त्री दुखी होती है, वैसे, रायचद कहते है कि वीर भगवानके धर्मका मर्म जाने बिना महान मानव भी अधार्मिक-पापी समझा जाता है ।
(अपूर्ण)
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श्रीमद राजचन्द्र
पुष्पमाला १ रात्रि बीत गई, प्रभात हुआ, निद्रासे मुक्त हुए । भावनिद्राको दूर करनेका प्रयत्न करें। २ व्यतीत रात्रि और अतीत जीवन पर दृष्टि डाल जायें।
३ सफल हुए समयके लिये आनन्द माने, और आजका दिन भी सफल करें। निष्फल हुए दिनके लिये पश्चात्ताप करके निष्फलताको विस्मृत करें।
४. क्षण क्षण करके अनन्त काल व्यतीत हुआ, तो भी सिद्धि नही हुई। ५ यदि तुझसे एक भी कृत्य सफल न बन पाया हो तो बार-बार शरमा ।
६ यदि तुझसे अघटित कृत्य हुए हो तो लज्जित होकर मन, वचन और कायके योगसे उन्हे न करनेकी प्रतिज्ञा ले। ७ यदि तू स्वतत्र हो तो ससार-समागममे अपने आजके दिनके निम्नलिखित विभाग कर
(१) १ प्रहर-भक्तिकर्तव्य । (२)१ प्रहर-धर्मकर्तव्य । (३) १ प्रहर-आहारप्रयोजन । (४) १ प्रहर-विद्याप्रयोजन । (५) २ प्रहर-निद्रा। (६) २ प्रहर-ससारप्रयोजन ।
८प्रहर ८ यदि तू त्यागी हो तो त्वचारहित वनिताके स्वरूपका विचार करके ससारकी ओर दृष्टि कर | ९ यदि तुझे धर्मका अस्तित्व अनुकूल न आता हो तो नीचेके कथन पर विचार कर देख
(१) तू जिस स्थितिको भोग रहा है वह किस प्रमाणसे ? (२) आगामी कालकी बातको क्यो नही जान सकता ? (३) तू जो चाहता है वह क्यो नही मिलता ?
(४) चित्रविचित्रताका प्रयोजन क्या है ? . १०. यदि तुझे धर्मका अस्तित्व प्रमाणभूत लगता हो, और उसके मूल तत्त्वमे आशका हो तो नीचे कहता हूँ
९१ सर्व प्राणियोमे समदृष्टि,१२ अथवा किसी प्राणोको प्राणरहित नही करना, शक्तिसे अधिक उससे काम नही लेना। १३ अथवा सत्पुरुष जिस मार्ग पर चले, उस मार्गको ग्रहण कर ।
१४ मूल तत्त्वमे कही भी भेद नही है, मात्र दृष्टिमे भेद है, ऐसा मानकर और आशयको समझ. कर पवित्र धर्ममे प्रवृत्ति कर।
१५ तू चाहे जिस धर्मको मानता हो, मुझे उसका पक्षपात नही है। मात्र कहनेका तात्पर्य यह है कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो, उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर.। ..
१६ तू चाहे जितना परतत्र हो तो भी मनसे पवित्रताका विस्मरण किये बिना आजका दिन रमणीय कर।
१७. यदि आज तू दुष्कृतकी ओर जा रहा हो, तो मरणका स्मरण कर ।
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१७वें वर्षसे पहले १८. यदि आज किसीको दुःख देनेमे तत्पर हो तो अपने दुखसुखकी घटनाओंकी सूची याद कर ले।
१९. तू राजा हो या रक हो, चाहे जो हो, परंतु यह विचार करके सदाचारकी ओर आ कि इस कायाके पुद्गल थोडे समयके लिये मात्र साढे तीन हाथ भूमि मॉगनेवाले है।
२० तू राजा हो तो फिक्र नही, परन्तु प्रमाद न कर, क्योकि नीचसे नीच, अधमसे अधम, व्यभिचारका, गर्भपातका, निवंशका, चाण्डालका, कसाईका और वेश्याका कण तू खाता है । तो फिर ?
२१ प्रजाके दुख, अन्याय और करको जाँच करके आज कम कर | तू भी हे राजन् । कालके घर आया हुआ अतिथि है।
२२ यदि तू वकील हो तो इससे आधे विचारका मनन कर जा। २३. यदि तू श्रीमत हो तो पैसेके उपयोगका विचार कर । कमानेका कारण आज खोजकर कह ।
२४ धान्यादिके व्यापारमे होनेवाली असख्य हिंसाका स्मरण करके आज न्यायसपन्न व्यापारमे अपने चित्तको लगा।
२५. यदि तू कसाई हो तो अपने जीवके सुखका विचार करके आजके दिनमे प्रवेश कर। २६ यदि तू समझदार बालक हो तो विद्या और आज्ञाकी ओर दृष्टि कर । २७ यदि तू युवान हो तो उद्यम और ब्रह्मचर्यकी ओर दृष्टि कर। २८ यदि तू वृद्ध हो तो मृत्युकी ओर दृष्टि करके आजके दिनमे प्रवेश कर ।
२९ यदि तू स्त्री हो तो अपने पति सम्बन्धी धर्मकर्तव्यको याद कर,-दोष हुए हो उनकी क्षमा मॉग और कुटुम्बकी ओर दृष्टि कर ।
३० यदि तू कवि हो तो असंभवित प्रशसाका स्मरण करके आजके दिनमे प्रवेश कर । ३१ यदि तू कृपण हो तो,- . ३२ यदि तू अमलमस्त हो तो नेपोलियन बोनापार्टका, दोनो स्थितियोसे स्मरण कर।
३३ यदि कल कोई कार्य अपूर्ण रह गया हो तो उसे पूर्ण करनेका सुविचार करके आजके दिनमे प्रवेश कर।
३४ यदि आज किसी कृत्यका आरभ करना चाहता हो तो समय, शक्ति और परिणामका विवेकपूर्वक विचार करके आजके दिनमे प्रवेश कर ।
३५ कदम रखनेमे पाप है, देखनेमे जहर है, और सिर पर मौत सवार है, यह विचार करके आजके दिनमे प्रवेश कर।
३६ यदि आज तुझे अघोर कर्म करनेमे प्रवृत्त होना हो तो, राजपुत्र हो तो भी भिक्षाचर्या मान्य करके आजके दिनमे प्रवेश कर।
३७. यदि तू भाग्यशाली हो तो उसके आनदमे दूसरेको भी भाग्यशाली कर, परतु दुर्भाग्यशाली हो तो दूसरेका बुरा करनेसे रुककर आजके दिनमे प्रवेश कर ।
३८ धर्माचार्य हो तो अपने अनाचारकी ओर कटाक्षदृष्टि करके आजके दिनमे प्रवेश कर ।
३९. अनुचर हो तो प्रियसे प्रिय ऐसे शरीरको निभानेवाले अपने अधिराजकी नमकहलाली चाहकर आजके दिनमे प्रवेश कर ।
४० दुराचारी हो तो अपने आरोग्य, भय, परतत्रता, स्थिति और सुखका विचार करके आजके दिनमे प्रवेश कर।
४१ दुःखी हो तो ( आजको ) आजीविका जितनी आशा रखकर आजके दिनमे प्रवेश कर । ४२. धर्मकर्मके लिये अवश्य समय निकालकर तू आजकी व्यवहारसिद्धिमे प्रवेश कर ।
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श्रीमद् राजचन्द्र ४३ कदाचित् प्रथम प्रवेशमे अनुकूलता न हो तो भी रोज जाते हुए दिनके स्वरूपका विचार करके आज कभी भी उस पवित्र वस्तुका मनन कर ।
४४ आहार, विहार और निहार सबधी अपनी प्रक्रियाकी जाँच करके आज के दिनमे प्रवेश कर।
४५ यदि तू कारीगर हो तो आलस्य और शक्तिके दुरुपयोगका विचार करके आजके दिनमे प्रवेश कर।
४६ तू चाहे जो धधा करता हो, परतु आजीविकाके लिये अन्यायसपन्न द्रव्यका उपार्जन मत कर। ४७ यह स्मृति ग्रहण करनेके बाद शौचक्रियायुक्त होकर भगवद्भक्तिमे लीन होकर क्षमा मांग।
४८ यदि तू ससार प्रयोजनमे अपने हितके लिये अमुक समुदायका अहित कर डालता हो तो रुक जा।
४९ अत्याचारी, कामी और अनाडीको उत्तेजन देता हो तो रुक जा। ५० कमसे कम आधा प्रहर भी धर्मकर्तव्य और विद्यासपादनमे लगा।
५१ जिंदगी छोटी है और जजाल लम्बा है, इसलिये जजाल कम कर, तो सुखरूपसे जिंदगी लबी लगेगी।
५२ स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, लक्ष्मी इत्यादि सभी सुख तेरे घरमे हो तो भी इन सुखोमे गौणतासे दुःख रहा हुआ है, ऐसा मानकर आजके दिनमे प्रवेश कर ।
५३ पवित्रताका मूल सदाचार है। ५४ चचल हो जाते हुए मनको सँभालनेके लिये,
५५ शात, मधुर, कोमल, सत्य और पवित्र वचन बोलनेकी सामान्य प्रतिज्ञा लेकर आजके दिनमे प्रवेश कर।
५६ काया मलमूत्रका पिण्ड है, इसके लिये 'मैं यह क्या अयोग्य कार्य करके आनद मानता हूँ,' ऐसा आज विचार कर।
५७ तेरे द्वारा आज किसीकी आजीविका नष्ट होनेवाली हो तो,५८ अब तूने आहारक्रियामे प्रवेश किया। मिताहारी अकबर सर्वोत्तम बादशाह माना गया है।
५९ यदि आज दिनमे सोनेका तेरा मन हो, तो उस समय ईश्वरभक्ति-परायण हो जा, अथवा सत्शास्त्रका लाभ उठा ले।
६० मैं समझता हूँ कि ऐसा होना दुष्कर है, तो भी अभ्यास सबका उपाय है। ६१ चला आता हुआ वैर आज निर्मूल किया जाये तो उत्तम, नही तो उसकी सावधानी रख ।
६२. इस तरह नया वैर मत बढा, क्योकि वैर करके कितने समयका सुख भोगना है यह विचार तत्त्वज्ञानी करते हैं।
६३. आज महारभी एव हिंसायुक्त व्यापारमे लगना पडता हो तो रुक जा। ६४ बहुत लक्ष्मी मिलने पर भी आज अन्यायसे किसीकी जान जाती हो तो रुक जा।
६५ समय अमूल्य है, इस बातका विचार करके आजके दिनके २,१६,००० विपलोका उपयोग कर।
६६ वास्तविक सुख मात्र विरागमे है, इसलिये आज जजालमोहनीसे अभ्यतरमोहनीको मत बढा । ६७ फुरसतका दिन हो तो आगे कही हुई स्वतत्रताके अनुसार चल | ६८ किसो प्रकारका निष्पाप विनोद किंवा अन्य कोई निष्पाप साधन आजके आनदके लिये खोज ।
६९. सुयोजक कृत्य करनेमे प्रवृत्त होना हो तो विलम्ब करनेका आजका दिन नही है, क्योकि आज जैसा मगलदायक दिन दूसरा नही है।
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१७वें वर्षसे पहले ७० अधिकारी हो तो भी प्रजाहितको मत भूल, क्योकि जिसका ( राजाका ) तू नमक खाता है, वह भी प्रजाका प्रिय सेवक है।
७१ व्यावहारिक प्रयोजनमे भी उपयोगपूर्वक विवेकी रहनेकी सत्प्रतिज्ञा लेकर आजके दिनमें प्रवृत्ति कर।
७२ सायंकाल होनेके बाद विशेष शान्ति ले। ७३ आजके दिनमे इतनी वस्तुओको बाधा न आये तभी वास्तविक विचक्षणता मानी जाये -
१ आरोग्य, २ महत्ता, ३ पवित्रता और ४ कर्तव्य । ७४ यदि आज तुझसे कोई महान कार्य होता हो, तो अपने सर्व सुखका त्याग भी कर दे।
७५ करज यह नीच रज (क+ रज) है, * करज यह यमके हाथसे उत्पन्न वस्तु है, (कर+ज) कर यह राक्षसी राजाका क्रूर कर उगाहनेवाला है । यह हो तो आज चुका दे, और नया करते हुए रुक जा।
७६ दैनिक कृत्यका हिसाब अब देख जा। ७७ सवेरे याद दिलायी है, फिर भी कुछ अयोग्य हुआ हो तो पश्चात्ताप कर और शिक्षा ले।
७८ कोई परोपकार, दान, लाभ अथवा दूसरेका हित करके आया हो तो आनन्द मान और निरभिमान रह।
७९ जाने-अनजाने भी यदि कुछ विपरीत हुआ हो तो अब ऐसा काम मत कर। ८० व्यवहारका नियम रख और अवकाशमे ससारकी निवृत्ति खोज ।
८१ आज तूने जैसा उत्तम दिन भोगा है वैसा अपना जीवन भोगनेके लिये तू आनदित हो, तो ही आ०
८२ आज जिस पलमे तू मेरी कथाका मनन करता है, उसीको अपनी आयु समझकर सद्वृत्तिमे लग जा।
८३ सत्पुरुष विदुरके कहे अनुसार आज ऐसा कृत्य कर कि रातमे सुखसे सोया जा सके ।
८४. आजका दिन सुनहरा है, पवित्र है, कृतकृत्य होनेरूप है, ऐसा सत्पुरुषोने कहा है, इसलिये मान्य कर।
८५ जैसे हो सके वैसे आजके दिनमे और स्वपत्नीमे भी विषयासक्त कम रहना।
८६ आत्मिक और शारीरिक शक्तिकी दिव्यताका वह मूल है, यह ज्ञानियोका अनुभवसिद्ध वचन है।
८७ तम्बाकू सूंघने जैसा छोटा व्यसन भी हो तो आज उसे छोड दे ।-( • ) नवीन व्यसन करनेसे रुक जा।
८८ देश, काल, मित्र इन सबका विचार सभी मनुष्योको इस प्रभातमे यथाशक्ति करना उचित है।
८९ आज कितने सत्पुरुषोका समागम हुआ, आज वास्तविक आनन्दस्वरूप क्या हुआ ? यह चिन्तन विरले पुरुष करते है।
९० आज तू चाहे जैसे भयकर किंतु उत्तम कृत्यके लिये तत्पर हो तो हिम्मत मत हार । ९१ शुद्ध, सच्चिदानद, करुणामय परमेश्वरकी भक्ति आजके तेरे सत्कृत्यका जीवन है।
९२ तेरा, तेरे कुटुम्बका, मित्रका, पुत्रका, पत्नीका, मातापिताका, गुरुका, विद्वानका, सत्पुरुषका यथाशक्ति हित, सन्मान, विनय और लाभका कर्तव्य हुआ हो ता वह आजके दिनको सुगव है ।
___९३ जिसके घर यह दिन क्लेशरहित, स्वच्छतासे, शुचितासे, एकतासे, सतोषसे, सौम्यतासे, स्नेहसे, सभ्यतासे और सुखसे बीतेगा उसके घरमे पवित्रताका वास है।
* करज ( कर+ज)
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श्रीमद् राजचन्द्र ९४ कुशल और आज्ञाकारी पुत्र, आज्ञावलंबी धर्मयुक्त अनुचर, सद्गुणी सुन्दरी, मेलजोलवाला कुटुम्ब, सत्पुरुष जैसी अपनी दशा जिस पुरुषको होगी उसका आजका दिन हम सबके लिए वन्दनीय है।
९५ इन सब लक्षणोसे सयुक्त होनेके लिये जो पुरुष विचक्षणतासे प्रयत्न करता है, उसका दिन हमारे लिये माननीय है।
९६ इससे विपरीत बर्ताव जहाँ हो रहा है वह घर हमारी कटाक्षदृष्टिकी रेखा है।
९७ भले ही तू अपनी आजीविका जितना प्राप्त करता हो, परन्तु यदि निरुपाधिमय हो तो उस उपाधिमय राजसुखकी इच्छा करके अपने आजके दिनको अपवित्र मत कर।
९८ किसीने तुझे कटुवचन कहा हो तो उस समय सहनशीलता-निरुपयोगी भी, ९९. दिनकी भूलके लिये रातमे हँसना, परतु वैसा हँसना फिरसे न हो, यह ध्यानमे रख ।
१०० आज कुछ बुद्धिप्रभाव बढाया हो, आत्मिक शक्ति उज्ज्वल की हो, पवित्र कृत्यकी वृद्धि की हो तो वह,
१०१ आज अपनी किसी शक्तिका अयोग्य रीतिसे उपयोग मत कर,-मर्यादालोपनसे करना पड़े तो पापभीरु रह। __ १०२ सरलता धर्मका बीजस्वरूप है। प्रज्ञापूर्वक सरलताका सेवन किया गया हो तो आजका दिन सर्वोत्तम है।
१०३ स्त्री, राजपत्नी हो या दोनजनपत्नी हो, परन्तु मुझे उसकी कोई परवा नहीं है। मर्यादासे चलनेवालीकी, मैने तो क्या परतु पवित्र ज्ञानियोने भी प्रशसा की है।
१०४ सद्गुणके कारण यदि आप पर जगतका प्रशस्त मोह होगा तो हे स्त्री | मै आपको वंदन करता हूँ।
१०५ बहुमान, नम्रभाव और विशुद्ध अन्त करणसे परमात्माका गुणसबधी चिन्तन, श्रवण, मनन, कीर्तन, पूजा, अर्चा-इनकी ज्ञानी पुरुषोने प्रशसा की है, इसलिये आजके दिनको सुशोभित कर ।
१०६ सत्-गोलवान् सुखी है, दुराचारी दुखी है, यह बात यदि मान्य न हो तो अभीसे आप ध्यान रखकर इस बातका विचार कर देखे ।
१०७ इन सबका सरल उपाय आज कहे देता हूँ कि दोपको पहचानकर दोषको दूर करना।
१०८ लबी छोटो या क्रमानुक्रम चाहे जिस स्वरूपमे यह मेरी कही हुई, पवित्रताके पुष्पोंसे गूंथो हुई माला प्रातःकाल, सायंकाल और अन्य अनुकूल निवृत्तिके समय विचार करनेसे मगलदायिका होगी । विशेष क्या कहूँ?
काळ कोईने नहि मके !
हरिगीत
*मोतीतणी माळा गळामा मूल्यवंती मलकती, हीरातणा शुभ हारथी बहु कंठकाति झळकती; आभूषणोथी ओपता भाग्या मरणने जोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥१॥
काल किसीको नही छोड़ता! *भावार्थ-१ जिनके गले में मोतियोकी मूल्यवती माला सुशोभित हो रही थी, जिनकी कठकाति हीरेके उत्तम हारसे बहुत प्रकाशित हो रही थी, और जो अनेक आभूषणोंसे विभुषित हो रहे थे, वे भी मृत्युको देखकर
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१७वे वर्षसे पहले मणिमय मुगट माये घरीने कर्ण कंडल नाखता, कांचन कडां करमा घरी कशीये कचाश न राखता; पळमां पड्या पृथ्वीपति ए भान भूतळ खोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥२॥ वश आंगळीमां मांगलिक मुद्रा जडित माणिक्यथी, जे परम प्रेमे पेरता पोची कळा बारीकथी; ए वेढ वींटी सर्व छोडी चालिया मुख धोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥३॥ मूछ वांकडी करी फाकडा थई लोंबु धरता ते परे, कापेल राखो कातरा हरकोईनां हैयां हरे; ए साकडीमां आविया छटक्या तजी सहु सोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥४॥ छो खंडना अधिराज जे चंडे करीने नीपज्या, ब्रह्मांडमां बळवान थईने भूप भारे ऊपज्या; ए चतुर चक्री चालिया होता नहोता होईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥५॥ जे राजनीतिनिपुणतामां न्यायवंता नीवड्या, अवळा कयें जेना बधा सवळा सदा पासा पड्या; ए भाग्यशाळी भागिया ते खटपटो सौ , खोर्डने.
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥६॥ भाग गये। अर्थात् कालकवलित हो गये । इसलिये हे मनुष्यो | इसे भली भांति जाने और मनमें ठानें कि काल किसीको नही छोडता।
२. जो मस्तक पर मणिमय मुकुट धारण करते थे, कानोमें कुण्डल पहनते थे, हाथोंमें सोनेके कडे पहनते थे, और वस्त्रालकारसे सुशोभित होनेमें कोई कमी न रखते थे, ऐसे पृथ्वीपति भी क्षणभरमें बेहोश होकर भूतल पर गिर पडे । इसलिये हे मनुष्यो । इसे भली भॉति जाने और मनमें ठाने कि काल किसीको नही छोडता। '
३. जो दसो अगुलियोमे माणिकसे जडित मागलिक अॅठियाँ पहनते थे, और कलाइयोमे सूक्ष्म कलामय पहुंचियाँ परम प्रेमसे पहनते थे, वे ॲगठियों आदि सब छोडकर, मुँह घोकर चल बसे । इसलिये हे मनुष्यो! इसे भली भाँति जानें ओर मनमें ठाने कि काल किसीको नही छोडता ।
४ जो वांकी कर, फक्कड वनकर मूंछोपर निवू रखते थे, और जो सुदर कटे हुए वालोंसे हर किसीके मनको हरते थे, वे भी संकटमें आ गये और सब सुविधाएँ छोडकर चल दिये । इसलिये हे मनुष्यो । इमे भली भांति जानें ओर मनमें ठानें कि काल किसीको नही छोडता।
५ जो अपने प्रतापसे छ खंडके अविराज बने हुए थे, और ब्रह्माण्डमें बलवान होकर महान सम्राट् कहलाते थे, ऐसे चतुर चक्रवर्ती भी इस तरह चल बसे कि मानो वे हुए ही न थे । इसलिये हे मनुष्यो । इसे भली भांति जानें और मनमें ठानें कि काल किसीको नही छोडता।
६ जो राजनीतिको निपुणतामें न्यायवान् सिद्ध हुए थे, और जिनके उलटे पामे सदा सोचे ही पडते थे, ऐसे भाग्यशाली भी सव खटपटें छोडकर भाग निकले। इसलिये हे मनुष्यो । इसे भली भाति जानें और मनमें ठाने कि काल किसोको नही छोडता ।
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श्रीमद राजचन्द्र
११ अनादिका जो स्मृतिमे है उसे भूल जाना। १२ जो स्मृतिमे नही है उसे याद करे | १३ वेदनीय कर्मका उदय हुआ हो तो पूर्वकर्मस्वरूपका विचार करके घबराना नही । १४ वेदनीयका उदय हो तो निश्चय रूप 'अवेद' पदका चिंतन करना। १५ पुरुष वेदका उदय हो तो स्त्रीका शरीर पृथक्करणपूर्वक देखना-ज्ञानदशासे । १६ त्वरासे आग्रह-वस्तुका त्याग करना, त्वरासे आग्रह 'स' दशाका ग्रहण करना । १७ परतु बाह्य उपयोग नहीं देना। १८ ममत्व ही बध है। १९ बंध ही दुख है। २० दु खसुखसे पराड्मुख होना । २१. सकल्प-विकल्पका त्याग करना । २२ आत्म-उपयोग कर्मत्यागका उपाय है। २३ रसादिक आहारका त्याग करना । २४ पूर्वोदयसे न छोड़ा जाये तो अवधरूपसे भागना । २५. जो जिसकी है उसे वह सौप दे (विपरीत परिणति )। २६ जो है सो है परतु मन विचार करनेके लिये शक्तिमान नही है । २७ क्षणिक सुख पर लुब्ध नही होना । २८. समदृष्टिके लिये गजसुकुमारके चरित्रका विचार करना । २९ रागादिसे विरक्त होना यही सभ्यग्ज्ञान है । ३० सुगधी पुद्गलोको नही सघना । स्वभावत. वैसी भूमिकामे आ गये तो राग नही करना। ३१ दुर्गधसे द्वेष नही करना। ३२ पुद्गलकी हानिवृद्धिसे खेदखिन्न या प्रसन्न नही होना । ३३. आहार अनुक्रमसे कम करना ( लेना )।३४. हो सके तो कायोत्सर्ग अहोरात्र करना, नही तो एक घटा करनेसे नही चूकना। ३५ ध्यान एकचित्तसे रागद्वेष छोड़कर करना । ३६ ध्यान करनेके बाद चाहे जैसा भय उत्पन्न हो तो भी नही डरना। अभय आत्मस्वरूपका
विचार करना । 'अमर दशा जानकर चलविचल नही होना।' ३७. अकेले शयन करना। ३८ अतरंगमे सदा एकाकी विचार लाना। ३९ शका, कखा या वितिगिच्छा नही करना । ऐसेकी सगति करना कि जिससे शीघ्र आत्महित
हो। ४० द्रव्यगुण देखकर भी राजी नहीं होना। ४१ पड़ द्रव्यके गुणपर्यायका विचार करें। ४२ सबको समदृष्टिसे देखे । ४३ बाह्य मित्रसे जो जो इच्छा रखते हो, उसकी अपेक्षा अभ्यंतर मित्रको शीघ्र चाहे । ४४ वाह्य स्त्रीकी जिस प्रकारसे इच्छा रखते हो, उससे विपरीत प्रकारसे आत्माकी स्त्री तद्रूप
वही चाहे। ४५ बाहर लड़ते हैं, उसकी अपेक्षा तो अभ्यतर महाराजाको हरायें।
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१७वें वर्षसे पहले ४६. अहंकार न करें। ४७. भले कोई द्वेष करे परतु आप वैसा न करें। ४८. क्षण क्षणमे मोहका सग छोड़ें। ४९ आत्मासे कर्मादिक अन्य है, तो ममत्वरूप परिग्रहका त्याग करें।
५० सिद्धके सुख स्मृतिमे लायें। । ५१ एकचित्तसे आत्माका ध्यान करें। प्रत्यक्ष अनुभव होगा। ५२. बाह्य कुटुम्ब पर राग न करें। ५३. अभ्यतर कुटुव पर राग न करें। ५४ स्त्री पुरुषादिक पर अनुरक्त न हो। ५५. वस्तुधर्मको याद करे। ५६ कोई बाँधनेवाला नही है, अपनी भूलसे बँधता है। ५७ एकको उपयोगमे लायेगे तो सब शत्रु दूर हो जायेंगे । ५८. गीत और गायनको विलापतुल्य जाने । । ५९ आभरण ही द्रव्यभार ( भाव ) भारकर्म। ६० प्रमाद ही भय है।
' ६१. अप्रमाद भाव ही अभयपद है। ६२. जैसे भी हो, त्वरासे प्रमाद छोड़ें। ६३ विषमता छोडें।। ६४. कर्मयोगसे आत्मा नयी नयी देह धारण करते हैं। ६५ अभ्यंतर दयाका चिन्तन करना। . ६६ स्व और परके नाथ बनें। ६७ बाह्य मित्र आत्महितका मार्ग बताये, उसे अभ्यंतर मित्रके रूपमें६८ जो बाह्य मित्र पौद्गलिक बातो और पर वस्तुका संगकरायें, उन्हे त्वरासे छोडा जा सके
तो छोड़े और कदाचित् छोडा न जा सके तो अभ्यतरसे लुब्ध एवं आसक्त न हो। उन्हे भी,
जो जानते हो उसका बोध दें। ६९ जैसे चेतनरहित काष्ठका छेदन करनेसे काष्ठ दुख नही मानता, वैसे आप भी समदृष्टि - रखिये। ७०. यतनासे चलना। ७१. विकारको घटायें। ७२ सत्पुरुषके समागमका चिंतन करे और मिल जाने पर दर्शनलाभसे न चूकें । ७३. कुटुंबपरिवारके प्रति आन्तरिक चाह न रखें। ७४. अत्यत निद्रा न लें। ७५. व्यर्थ समय न जाने दें। ७६. व्यावहारिक कामसे जिस समय मुक्त हो जायें, उस समय एकातमे जाकर आत्मदशाका
विचार करें। ७७ सकट आने पर भी धर्म न चूकें । ७८. असत्य न बोलें। ७९. आर्त एवं रौद्र ध्यानका शीघ्र त्याग करें।
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श्रीमद् राजचन्द्र तरवार बहादुर टेकधारी पूर्णतामा पेखिया, हाथी हणे हाथे करी ए केशरी सम देखिया; एवा भला भडवीर ते अंते रहेला रोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥७॥
धर्म विषे
कवित्त * साह्यबी सुखद होय, मानतणो मद होय,
खमा खमा खुद होय, ते ते कशा कामर्नु ? जुवानीनू जोर होय, एशनो अंकोर होय, दोलतनो दोर होय, ए ते सुख नामनु; वनिता विलास होय, प्रौढता प्रकाश होय, दक्ष जेवा दास होय, होय सुख घामर्नु, वदे रायचंद एम, सद्धर्मने धार्या विना, जाणी लेजे सुख ए तो, बेए ज बदामर्नु ! ॥१॥ मोह मान मोडवाने, फेलपणं फोडवाने, जाळफंद तोडवाने, हेते निज हाथथी; कुमतिने कापवाने, सुमतिने स्थापवाने, ममत्वने मापवाने, सकल सिद्धांतथी; महा मोक्ष माणवाने, जगदीश जाणवाने, अजन्मता आणवाने, वळी भली भातथी; अलौकिक अनुपम, सुख अनुभववाने,
धर्म धारणाने धारो, खरेखरी खांतथी ॥२॥ ७ जो तलवार चलानेमे बहादुर थे, जो अपनी टेकपर मरनेवाले थे, सब प्रकारसे परिपूर्ण दीखते थे, जो अपने हाथोसे हाथीको मारकर केसरीके समान दिखायी देते थे, ऐसे सुभटवीर भी अतमें रोते ही रह गये। इसलिये हे मनष्यो ! इसे भली भांति जाने और मनमें ठाने कि काल किसीको नही छोडता।
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धर्मविषयक * भावार्य-१. सुखद वैभव हो, मानका मद हो, 'जीते रहें', 'जीते रहें' के उद्गारोंसे बधाई मिलती हो-यह सब किस कामके ? जवानीका जोर हो, ऐशका सामान हो, दौलतका दौर हो -यह सब सुख तो नामका है । वनिताका विलास हो, प्रौढताका प्रकाश हो, दक्ष जैसे दास हो, सुविधायुक्त घर हो । रायचद यह कहते हैं कि सद्धर्मको धारण किये बिना यह सब सुख दो ही कौडीका है।
२ अपने ही हाथसे प्रेमपूर्वक मोह और मानको दूर करनेके लिये, ढोगको मिटानेके लिये, कपटजालके फदको तोडनेके लिये, सकल सिद्धान्तकी सहायतासे कुमतिको काटनेके लिये, सुमतिको स्थापित करनेके लिये और ममत्वको मापनेके लिये, भली भांति महामोक्षको भोगनेके लिये, जगदीशको जाननेके लिये, अजन्मताको प्राप्त करनेके लिये, तथा अलौकिक एव अनुपम सुखका अनुभव करनेके लिये सच्चे उत्साहसे धर्मको धारण करें।
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१७वें वर्षसे पहले दिनकर विना जेवो, दिननो देखाव दीसे, शशी विना जेवी रीते, शर्वरी सुहाय छे, प्रजापति विना जेवी, प्रजा पुरतणी पेखो, सुरस विनानी जेवी, कविता कहाय छे; सलिल विहीन जेवी, सरितानी शोभा अने, भर्तार विहीन जेवी, भामिनी भळाय छे; वदे रायचंद वीर, सद्धर्मने धार्या विना, मानवी महान तेम, कुकर्मी कळाय छे ॥३॥ चतुरो चोंपेथी चाही चितामणि चित्त गणे, पंडितो प्रमाणे छे, पारसमणि प्रेमथी; कविओ कल्याणकारी, कल्पतरु कथे जेने, सुधानो सागर कथे, साधु शुभ क्षेमथी; आत्मना उद्धारने उमंगथी अनुसरो जो, निर्मळ थवाने काजे, नमो नीति नेमथी; वदे रायचंद वीर, एवु धर्मरूप जाणी, "धर्मवृत्ति ध्यान धरो, विलखो न वे'मथी" ॥४॥
बोधवचन १ आहार नही करना। २ यदि आहार करना तो पुद्गलके समूहको एकरूप मानकर करना, परंतु लुब्ध नही होना। ३ आत्मश्लाघाका चिन्तन नही करना । ४. त्वरासे निरभिमान होना। ५ स्त्रीका रूप नही देखना। ६ स्त्रीका रूप देखा जाये तो रागयुक्त नही होना, परंतु अनित्यभावका विचार करना। ७ यदि कोई निंदा करे तो उसपर द्वेषबुद्धि नही रखना। ८ मतमतातरमे नही पड़ना।। ९ महावीरके पथका विसर्जन नही करना । १०. त्रिपदके उपयोगका अनुभव करना।
३ इस पद्यका भावार्थ पृष्ठ ३ पर देखें।
४ जिसे चतुर लोग उत्कठासे चाहकर चित्तमे चितामणि मानते हैं, जिसे प्रेमसे पडित लोग पारसमणि मानते है, जिसे कवि कल्याणकारी कल्पतरु कहते हैं, जिसे साधु शुभ क्षेमसे सुधाका सागर कहते हैं-ऐसा धर्मका स्वरूप है। यदि उत्साहपूर्वक आत्माका उद्धार करना चाहते हो तो निर्मल होनेके लिये नियमपूर्वक नीति-धर्मका पालन करें। रायचन्द वीर कहते हैं कि ऐसा धर्मका स्वरूप जानकर धर्मवृत्तिमें ध्यान रखे और भ्रान्त मान्यतासे दुःखी न हो।
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श्रीमद राजचन्द्र
११ अनादिका जो स्मृतिमे है उसे भूल जाना। १२ जो स्मृतिमे नही है उसे याद करे। १३ वेदनीय कर्मका उदय हुआ हो तो पूर्वकर्मस्वरूपका विचार करके घबराना नही । १४ वेदनीयका उदय हो तो निश्चय रूप 'अवेद' पदका चिंतन करना। १५ पुरुष वेदका उदय हो तो स्त्रीका शरीर पृथक्करणपूर्वक देखना-ज्ञानदशासे । १६ त्वरासे आग्रह-वस्तुका त्याग करना, त्वरासे आग्रह 'स' दशाका ग्रहण करना । १७ परंतु बाह्य उपयोग नही देना। १८ ममत्व ही बध है। १९ वध हो दुख है। २० दुखसुखसे पराड्मुख होना। २१. सकल्प-विकल्पका त्याग करना । २२ आत्म-उपयोग कर्मत्यागका उपाय है। २३ रसादिक आहारका त्याग करना । २४ पूर्वोदयसे न छोड़ा जाये तो अवधरूपसे भागना । २५ जो जिसकी है उसे वह सौप दे (विपरीत परिणति ) । २६ जो है सो है परतु मन विचार करनेके लिये शक्तिमान नहीं है। २७. क्षणिक सुख पर लुब्ध नही होना । २८. समदृष्टिके लिये गजसुकुमारके चरित्रका विचार करना । २९ रागादिसे विरक्त होना यही सभ्यग्ज्ञान है। ३० सुगधी पुद्गलोको नही सघना । स्वभावत. वैसी भूमिकामे आ गये तो राग नही करना । ३१ दुर्गधसे द्वेप नही करना। ३२ पुद्गलकी हानिवृद्धिसे खेदखिन्न या प्रसन्न नही होना । ३३ आहार अनुक्रमसे कम करना ( लेना )। ३४. हो सके तो कायोत्सर्ग अहोरात्र करना, नही तो एक घटा करनेसे नही चूकना । ३५ ध्यान एकचित्तसे रागद्वेष छोड़कर करना। ३६ ध्यान करनेके वाद चाहे जैसा भय उत्पन्न हो तो भी नही डरना। अभय आत्मस्वरूपका
विचार करना । 'अमर दशा जानकर चलविचल नही होना।' ३७ अकेले शयन करना। ३८ अतरंगमे सदा एकाकी विचार लाना। ३९ शका, कखा या वितिगिच्छा नही करना। ऐसेकी सगति करना कि जिससे शीघ्र आत्महित
४० द्रव्यगुण देखकर भी राजी नहीं होना। ४१ पड् द्रव्यके गुणपर्यायका विचार करें। ४२ सवको समदृष्टिसे देखें। . ४३ वाह्य मित्रसे जो जो इच्छा रखते हो, उसकी अपेक्षा अभ्यंतर मित्रको शीघ्र चाहे। . ४४ बाह्य स्त्रीकी जिस प्रकारसे इच्छा रखते हो, उससे विपरीत प्रकारसे आत्माकी स्त्री तद्रूप , वही चाहे। ४५. बाहर लड़ते हैं, उसकी अपेक्षा तो अभ्यंतर महाराजाको हरायें।
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१७वें वर्षसे पहले ४६. अहंकार न करें। ४७. भले कोई द्वेष करे परतु आप वैसा न करें। ४८. क्षण क्षणमे मोहका सग छोड़ें। ४९. आत्मासे कर्मादिक अन्य है, तो ममत्वरूप परिग्रहका त्याग करें। ५० सिद्धके सुख स्मृतिमे लायें। ५१ एकचित्तसे आत्माका ध्यान करें। प्रत्यक्ष अनुभव होगा। ५२. बाह्य कुटुम्ब पर राग न करें। ५३ अभ्यंतर कुटुब पर राग न करें। ५४ स्त्री पुरुषादिक पर अनुरक्त न हो। ५५ वस्तुधर्मको याद करे । ५६ कोई बाँधनेवाला नही है, अपनी भूलसे बँधता है। ५७ एकको उपयोगमे लायेंगे तो सब शत्रु दूर हो जायेंग। ५८ गीत और गायनको विलापतुल्य जानें। ५९ आभरण ही द्रव्यभार ( भाव ) भारकर्म । ६० प्रमाद ही भय है। ६१ अप्रमाद भाव ही अभयपद है। ६२ जैसे भी हो, त्वरासे प्रमाद छोडें। ६३. विषमता छोडें।। ६४ कर्मयोगसे आत्मा नयी नयी देह धारण करते हैं। - ६५ अभ्यंतर दयाका चिन्तन करना । ६६ स्व और परके नाथ बनें। ६७ बाह्य मित्र आत्महितका मार्ग बताये, उसे अभ्यतर मित्रके रूपमें- .. ६८ जो बाह्य मित्र पौद्गलिक बातो और पर वस्तुका संग करायें, उन्हे त्वरासे छोडा जा सके
तो छोड़ें और कदाचित् छोडा न जा सके तो अभ्यतरसे लुब्ध एव आसक्त न हो। उन्हे भी,
जो जानते हो उसका बोध दें। ६९ जैसे चेतनरहित काष्ठका छेदन करनेसे काष्ठ दु.ख नही मानता, वैसे आप भी समदृष्टि
रखिये। ७०. यतनासे चलना। ७१ विकारको घटायें। ७२ सत्पुरुषके समागमका चिंतन करे और मिल जाने पर दर्शनलाभसे न चूकें। ७३. कुटुबपरिवारके प्रति आन्तरिक चाह न रखें। ७४ अत्यत निद्रा न लें। ७५ व्यर्थ समय न जाने दें। ७६. व्यावहारिक कामसे जिस समय मुक्त हो जायें, उस समय एकातमे जाकर आत्मदशाका
विचार करें। ७७. सकट आने पर भी धर्म न चूकें । ७८. असत्य न बोलें। ७९. आर्त एवं रौद्र ध्यानका शीघ्र त्याग करें।
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१४
८० धर्मध्यानके उपयोगमे चलना । ८१ शरीर पर ममत्व न रखें ।
श्रीमद राजचन्द्र
८२ आत्मदशा नित्य अचल है, इसमे संशय न करे ।
८३ किसीकी गुप्त बात किसीसे न करे ।
८४ किसी पर जन्म पर्यंन्त द्वेषबुद्धि न रखे ।
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८५ यदि किसीको कुछ द्वेपवश कहा गया हो, तो अति पश्चाताप करे, और क्षमा माँगें । फिर कभी वैसा न करें ।
८६ कोई तुझसे द्वेषबुद्धि करे, परंतु तू वैसा नही करना !
८७ जैसे भी हो, ध्यान शीघ्र करें।
८८ यदि किसीने कृतघ्नता की हो तो उसे भी समदृष्टि से देखें ।
८९ दूसरेको उपदेश देनेका लक्ष्य है, इसकी अपेक्षा निजधर्ममे अधिक लक्ष्य देना ।
९०. कथकी अपेक्षा मथनपर अधिक ध्यान देना ।
९१ वीरके मार्गमै सशय न करें ।
९२ ऐसा न हो तो केवलीगम्य है, ऐसा चिंतन करें, जिससे श्रद्धा बदलेगी नही ।
९३ बाह्य करनीकी अपेक्षा अभ्यतर करनी पर अधिक ध्यान देना ।
९४ 'मै कहाँसे आया ?" 'मै कहाँ जाऊँगा ?" 'मुझे क्या बंधन है ?" 'क्या करनेसे बधन चला जाये ?' 'कैसे छूटना हो ?' ये वाक्य स्मृतिमे रखें |
९५. स्त्रियोके रूप पर ध्यान रखते हैं, इसकी अपेक्षा आत्मस्वरूप पर ध्यान दें तो हित होगा ।
९६ ध्यानदशा पर ध्यान रखते है, इसकी अपेक्षा आत्मस्वरूप पर सहजतासे होगा और समस्त आत्माओको एक दृष्टिसे देखेंगे । आपके लिये यह इच्छा अन्तरसे अमर हो जायेगी । यह अनुभवसिद्ध वचन है !
ध्यान देंगे तो उपशम भाव एकचित्तसे अनुभव होगा तो
९७ किसीके अवगुण की ओर ध्यान न देना । परन्तु अपने अवगुण हो तो उन पर अधिक दृष्टि
रखकर गुणस्थ हो जाना ।
९८ बद्ध आत्माको जैसे बाँधा उससे विपरीत वर्तन करनेसे वह छूट जायेगा ।
९९ स्वस्थानक पर पहुँचनेका उपयोग रखें ।
१०० महावीर द्वारा उपदिष्ट वारह भावनाएँ भावे ।
१०१. महावीरके उपदेशवचनोका मनन करें ।
१०२ महावीर प्रभु जिस मार्गसे तरे और उन्होने जैसा तप किया वैसा तप निर्मोहतासे करना ।
१०३. परभावसे विरक्त हो ।
१०४ जैसे भी हो, आत्माका आराधन त्वरासे करें ।
१०५ सम, दम, खमका अनुभव करे ।
१०६ स्वराज पदवी स्वतप आत्माका लक्ष रखे ( दें ) |
१०७ रहन-सहन पर ध्यान देना ।
१०८. स्वद्रव्य और अन्य द्रव्यको भिन्न-भिन्न देखे |
१०९ स्वद्रव्यके रक्षक शीघ्र हो । ११० स्वद्रव्यके व्यापक शीघ्र हो । १११. स्वद्रव्यके धारक शीघ्र हो । ११२. स्वद्रव्यके रमक शोघ्र हो ।
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१७ वर्षसे पहले
११३. स्वद्रव्यके ग्राहक शीघ्र हो
११४. स्वद्रव्यको रक्षकता पर ध्यान रखे ( दे ) |
११५ परद्रव्यकी धारकता शीघ्र छोडें ।
११६ परद्रव्यकी रमणता शीघ्र छोडें ।
११७ परद्रव्यकी ग्राहकता शीघ्र छोड़ें ।
११८ जब ध्यानकी स्मृति हो तब स्थिरता करें, उसके बाद सर्दी, गर्मी, छेदन, भेदन इत्यादिइत्यादि देह ममत्वका विचार न करे ।
११९ जब ध्यानकी स्मृति हो तब स्थिरता करें, उसके बाद देव, मनुष्य, तिर्यंचके परिषह आयें तो एक उपयोगसे, आत्मा अविनाशी है, ऐसा विचार लाये, तो आपको भय नही होगा, और शीघ्र कर्मवधसे मुक्त होगे । आत्मदशाको अवश्य देखेंगे । अनत - ज्ञान, अनत दर्शन इत्यादि-इत्यादि ऋद्धि प्राप्त करेंगे ।
१२० फुर्सतके वक्त व्यर्थ कूट और निंदा करते हैं, इसकी अपेक्षा वह वक्त ज्ञानध्यानमे लगायें तो कैसा योग्य गिना जाये ।
१२१ देनदार मिल जाये किन्तु आप कर्ज सोच-बूझ कर लेना ।
;
१२२ देनदार चक्रवृद्धि व्याज लेने के लिये कर्ज दे, परतु आप उस पर ख्याल रखें 1, १२३ यदि तू कर्ज़का ख्याल नही रखेगा तो बादमे पछतायेगा । १२४ द्रव्यऋणको चुकानेकी चिंता करते है,
"
तत्परता रखें ।
१२५ कर्ज़ चुकानेके लिये अधिक शीघ्रता करें |
*
१ अन्तिम निर्णय होना चाहिये । २ सर्व प्रकारका निर्णय तत्त्वज्ञानमे है । ३ आहार, विहार, निहारकी नियमितता । ४ अर्थकी सिद्धि |
जहाँ उपयोग वहाँ धर्म है । महावीरदेवको नमस्कार ।
इसकी अपेक्षा भावऋण चुकानेकी अधिक
१५
आर्यजीवन
उत्तम पुरुषोने आचरण किया है ।
-
७
नित्यस्मृति
१ जिस महान कार्यके लिये तू जन्मा है, उस महान कार्यका अनुप्रेक्षण कर ।
२ ध्यान धारण कर, समाधिस्थ हो जा ।
३ व्यवहारकार्यका विचार कर ले। जिसका प्रमाद हुआ है, उसके लिये अब प्रमाद न हो, ऐसा
कर। जिसमे साहस हुआ हो, उससे ऐसा वोध ले कि अब वैसा न हो ।
४ तू दृढ योगी है, वैसा ही रह ।
५. कोई भी अल्प भूल तेरी स्मृतिमेसे नही जाती यह महाकल्याण है ।
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५ Ivo
r
.
।
७ महागभीर हो। ८. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका विचार कर ले। ९ यथार्थ कर। १० कार्यसिद्धि करके चला जा।
१ पला जा
-
-
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सहजप्रकृति १ परहितको ही निजहित समझना, और परदु खको अपना दुःख समझना । २ सुखदुःख दोनों मनकी कल्पनाएँ है । ३. क्षमा ही मोक्षका भव्य द्वार है। ४. सबके साथ नम्रभावसे रहना ही सच्चा भूषण है। ५. शान्त स्वभाव ही सज्जनताका सच्चा मूल है। ६ सच्चे स्नेहीकी चाह सज्जनताका विशेष लक्षण है। ७. दुर्जनका कम सहवास। ८ विवेकवुद्धिसे सब आचरण करना । ९. द्वेषभावको विषरूप समझना। १० धर्मकर्ममे वृत्ति रखना। ११. नीतिके विधान पर पैर नही रखना। १२. जितेन्द्रिय होना। १३. ज्ञानचर्चा और विद्याविलासमे तथा शास्त्राध्ययनमे जुट जाना। १४ गभीरता रखना। १५. संसारमे रहते हुए भो तथा उसे नीतिसे भोगते हुए भी विदेही दशा रखना। १६. परमात्माकी भक्तिमे रत होना । १७. परनिंदाको ही प्रबल पाप मानना । १८ दुर्जनता करके जीतना यही हारना है, ऐसा मानना । १९ आत्मज्ञान और सज्जन-सगति रखना।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न १ जगतमे आदरणीय क्या है ? २ शीघ्र करने योग्य क्या? ३ मोक्षतरुका बीज क्या ? ४ सदा त्याज्य क्या? ५ सदा पवित्र कौन ? ६ सदा यौवनवान् कौन?
उत्तर १ सद्गुरुका वचन । २ कर्मका निग्रह। ३ क्रियासहित सम्यग्ज्ञान । ४. अकार्य काम। ५ जिसका अन्त करण पापरहित हो । ६. तृष्णा (लोभ दशा)।
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७ शूरवीर कौन ? ८ महत्ताका मूल क्या ? ९ सदा जागृत कौन ? १० इस ससारमे नरक जैसा ?
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दुःख क्या
१६ अधा कौन ?
१७ बहरा कौन ? १८. गूँगा कोन ?
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११ अस्थिर वस्तुं क्या
१२ इस जगतमे अति गहन क्या ?
“१३ चन्द्रमांकी किरणोके समान श्वेत कीर्तिके १३ सुमति और सज्जन ।
धारक कौन ? -
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'१४ जिसे चोर भी न ले सके वह खज़ाना कौनसा ? १४ १५ जीवका सदा अनर्थ करनेवाला कौन ?
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१९ शल्यकी भाँति सदा दुखदायी क्या - २० अविश्वास करने योग्य कौन ? २१. सदा ध्यान रखने योग्य क्या ?, २२ सदा पूजनीय कौन ?
७ जो स्त्रीके कटाक्षसे बीधा न जाये ।
८ किसीसे प्रार्थना ( याचना ) नही करना | ९. विवेकी ।
१० परतत्रता ( परवश रहना ) ।
११ यौवन, लक्ष्मी और आयु ।”
१२ स्त्रीचरित्र और उससे अधिक पुरुषचरित्र ।
१७
विद्या, सत्य और शीलव्रत ।
१५ आत्तं और रौद्र ध्यान ।
१६ कामी तथा रागी ।
१७ जो हितकारी वचन न सुने ।
१८ जो अवसर आने पर प्रिय वचन न
बोल सके ।
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१९. गुप्त किया हुआ काम ।
२० युवती और असज्जन (दुर्जन) मनुष्य |
२१ ससारकी असारता ।
२२ वीतराग देव, सुसाधु और सुधर्मं ।
१०
द्वादशानुप्रेक्षा
आत्माके लिये परमहितकारी द्वादशानु प्रेक्षा अर्थात् वैराग्यादि - भाव-भावित बारह चिन्तनाओ के स्वरूपका चिन्तन करता हूँ ।
१ अनित्य, २ अशरण, ३ ससार, ४ एकत्व, ५. अन्यत्व, ६ अशुचि, ७ आस्रव, ८. सवर, ९ निर्जरा, १० लोक, ११ - बोधिदुर्लभ और १२ धर्म । इन बारह चिन्तनाओके नाम प्रथम कहे हैं । भगवान तीर्थकर भी इनके स्वभावका चिन्तन करके संसार, देह एव भोगसे विरक्त हुए है | ये चिन्तनाएँ वैराग्यकी माता हैं । समस्त जीवोका हित करनेवाली है । अनेक- दु.खोसे व्याप्त ससारी जीवोंके लिये ये चिन्तनाएँ अति उत्तम शरण हैं । दुःखरूप अग्निसे सतप्त जीवोके लिये शीतल पद्मवनके मध्यमे निवासके समान हैं । परमार्थ मार्गको दिखानेवाली हैं । तत्त्वका निर्णय करानेवाली है । सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाली हैं । अशुभ ध्यानका नाश करनेवाली हैं। इन द्वादश चिन्तनाओके समान इस जीवका हित करनेवाला दूसरा कोई नही है । ये द्वादशागका रहस्य हैं । इसलिये इन बारह अनुप्रेक्षाओमेसे अब अनित्य अनुप्रेक्षाका भावसहित चिन्तन करते हैं ।
अनित्य अनुप्रेक्षा
देव, मनुष्य और तिर्यंच, यह सब देखते ही देखते पानीकी बूँद और ओसके पुजको भाँति विनष्ट हो जाते हैं । देखते ही देखते विलीयमान होकर चले जाते हैं। और यह सब ऋद्धि, सपदा और परिवार स्वप्न-समान हैं । जिस तरह स्वप्नमे देखी हुई वस्तु पुन दिखायी नही देती, उसी तरह ये विनाशको
रत्नकरड श्रापकाचारमेंसे प्रथम तीन अनुप्रेक्षाओका यह अनुवाद है, जो अपूर्ण हूँ ।
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श्रीमद राजचन्द्र प्राप्त होते है। इस जगतमे धन, यौवन, जीवन और परिवार सब क्षणभंगुर है। संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इन्हें अपना स्वरूप, अपना हित मानता है। अपने स्वरूपकी पहचान हो तो परको अपना स्वरूप क्यो माने ? समस्त इन्द्रियजनित सुख जो दृष्टिगोचर होता है, वह इन्द्रधनुषके रगोकी भाँति देखते ही देखते नष्ट हो जाता है। जवानीका जोश सध्याकालकी लालीकी भॉति क्षण क्षणमे विनाशको प्राप्त होता है । इसलिये, यह मेरा गाव, यह मेरा राज्य, यह मेरा घर, यह मेरा धन, यह मेरा कुटुम्ब, इत्यादि विकल्प करना ही महामोहका प्रभाव है । जो-जो पदार्थ आँखसे देखनेमे आते है, वे सब नष्ट हो जायेंगे, इन्हे देखने जाननेवाली इद्रियाँ भी अवश्य नष्ट हो जायेगी। इसलिये आत्महितके लिये ही शीघ्र उद्यम करें। जैसे एक जहाजमे अनेक देशो और अनेक जातियोके मनुष्य इकट्ठे होकर बैठते है और फिर किनारे पर पहुँचकर विविध देशोकी ओर चले जाते है, वैसे कुलरूप जहाजमे अनेक गतियोसे आये हुए प्राणी एक साथ रहते है, फिर आयु पूरी होने पर अपने-अपने कर्मानुसार चारो गतियोमे जाकर उत्पन्न होते हैं । जिस देहसे स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई आदिके साथ सबध मानकर रागी हो रहा है, वह देह अग्निसे भस्म हो जायेगी, फिर मिट्टोमे मिल जायेगी । तथा इसे जीव खायेंगे तो विष्ठा एव कृमिकलेवररूप हो जायेगी। इसके परमाणु एक-एक करके जमीन और आकाशमे अनत विभागरूपमे बिखर जायेगे, फिर कहाँसे मिलेंगे? इसलिये यह निश्चित समझें कि इसका संबंध फिर प्राप्त नही होगा। स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुंब आदिमे ममता करके धर्म बिगाडना, यह महान अनर्थ है। जिन पुत्र, स्त्री भाई, मित्र, स्वामी, सेवक आदिके सहवासके सुखसे जीवन चाहते हैं, वह समस्त कुटु ब शरत्कालके बादलोकी तरह बिखर जायेगा। यह संबध जो इस समय दिखायी देता है वह नही रहेगा, जरूर बिखर जायेगा, ऐसा नियम समझें । जिस राज्यके लिये और जमीनके लिये तथा हाट, हवेली, मकान एव आजीविकाके लिये हिसा, असत्य, छल-कपटमे प्रवृत्ति करते हैं, भोले भालोको ठगते है, स्वय बलवान होकर निर्वलको मारते हैं, उस समस्त परिग्रहका सबध आपसे अवश्य बिछड जायेगा। अल्प जीवनके लिये नरक व तिर्यंचगतिके अनतकाल पर्यंत अनत दुखसतानको ग्रहण न करें। उनके स्वामित्वका अभिमान करके अनेक चले गये, और अनेक प्रत्यक्ष चले जाते हुए देखते है। इसलिये अब तो ममता छोडकर, अन्यायका परिहार करके अपने आत्माके कल्याणके कार्यमे प्रवृत्ति करें। जैसे ग्रीष्म ऋतुमे चौराहेके वृक्षकी छायामे अनेक देशोंके राहगीर विश्राम लेकर अपने-अपने स्थानको चले जाते है, वैसे कुलरूप वृक्षको छायामे साथमे रहे हुएं भाई, मित्र, पुत्र, कुटुब आदि कर्मानुसार अनेक गतियोंमे चले जाते हैं। जिनसे आप अपनी प्रीति मानते हैं वे सभी मतलबके है। आँखके रागकी भॉति क्षणमात्रमे प्रीतिका राग नष्ट हो जाता है। जैसे पक्षी पूर्व सकेत किये बिना ही एक वृक्ष पर आकर बसते है, वैसे ही कुटुम्बके मनुष्य सकेत किये बिना कर्मवश इकट्ठे होकर बिखर जाते हैं। यह सब धन, संपदा, आज्ञा, ऐश्वर्य, राज्य और इद्रियोके विषयोकी सामग्री देखते हा देखते अवश्य ही वियोगको प्राप्त हो जायेगी। युवानी मध्याह्नकी छायाकी तरह ढल जायेगी, स्थिर नही रहेगी। चद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि तो अस्त होकर पुनः उदित होते है, और, हेमत , वसत आदि ऋतुएँ भी चली जाकर फिर आ जाती हैं; परतु गई हुई इद्रियाँ, युवानी, आयु, काया आदि वापस नहीं आती। जैसे पर्वतसे गिरनेवाली नदीको तरगे रुके बिना चली जाती है, वैसे ही आयु रुके विना क्षण क्षणमे व्यतीत होती है। जिस देहके अधीन जीना है उस देहको जर्जरित करनेवाली वृद्धावस्था प्रति समय आती है। यह वृद्धावस्था युवानीरूप वृक्षको दग्ध करनेके लिये दावाग्निके समान है। यह भाग्यरूप पुष्पो ( मौर ) के नाशक कुहरेकी वृष्टिके समान है। स्त्रीकी प्रीतिरूप हरिणीके लिये व्याघ्रके समान है। ज्ञाननेत्रको अन्ध करनेके लिये धूलकी वृष्टिके समान है। तपरूप कमलवनके लिये हिमके समान है। दीनताकी जननी है। तिरस्कारको बढ़ानेवाली धायके समान है। उत्साह घटानेके, लिये तिरस्कार जैसी है। रूपंधनको चुरानेवाली है। बलका नाश करनेवाली है। जंघाबलको बिगाडने
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वालों हैं। आलस्यको बढानेवाली है। स्मृतिका नाश करनेवाली है । ऐसी यह वृद्धावस्था है । मौतसे मिलाप करानेवाली दूती जैसी वृद्धावस्थाको प्राप्त होनेसे अपने आत्महितका विस्मरण करके स्थिर हो रहे हैं, यह महान अनर्थ है । वांरवार मनुष्यजन्मादि सामग्री नही मिलती । नेत्र आदि इद्रियोका जो तेज है उसका क्षण-क्षणमे नाश होता है । समस्त सयोग वियोगरूप समझे । इन इद्रियो के विषयोमे राग करके कौन-कौन नष्ट नही हुए ? ये सभी विषय भी नष्ट हो जायेंगे, और इद्रियां भी नष्ट हो जानेवाली हैं । किसके लिये आत्महितको छोड़कर घोर पापरूप अशुभ ध्यान कर रहे है ? विषयोमे राग करके अधिकाधिक लीन हो रहे है ? सभी विपय आपके हृदयमे तीव्र दाह उत्पन्न करके विनाशको प्राप्त होगे । इस शरीरको सदा रोगसे व्याप्त जानें। जीवको मरणसे घिरा हुआ जानें । ऐश्वर्यको विनाशके सन्मुख जाने । यह जो सयोग है उसका नियमसे वियोग होगा । ये समस्त विषय आत्मस्वरूपको भुलानेवाले है । इनमे अनुरक्त होकर त्रिलोक नष्ट हो गया है। जिन विषयोके सेवनसे सुख चाहते हैं, वह जीने के लिये विष पीना है, शीतल होनेके लिये अग्निमे प्रवेश करनेके समान है, मीठे भोजनके लिये जहरके वृक्षको पानी देना है । विषय महामोहमदके उत्पादक है, उनका राग छोडकर आत्मकल्याण करनेका यत्न करें । अचानक मृत्यु आयेगी, फिर यह मनुष्यजन्म तथा जिनेन्द्रका धर्मं चले जानेके बाद पुन प्राप्त होने अनतकालमे दुर्लभ है। जैसे नदीका प्रवाह निरतर चला जाता है, फिर नही आता, वैसे आयु, काया, रूप, बल, लावण्य और इद्रियशक्ति चले जानेके बाद वापस नही आते । जो ये प्रिय माने हुए स्त्री, पुत्र' आदि नजरसे दिखायी देते है, उनका संयोग नही रहेगा । स्वप्न- संयोगके समान जान कर इनके लिये अनीति-पाप छोडकर शीघ्र ही सयमादि धारण करें। वह इद्रजालकी भाँति लोगोमे भ्रम पैदा करनेवाला है । इस ससारमे धन, योवन, जीवन, स्वजन और परजनके समागममे जीव अंधा हो रहा है । यह धनसंपत्ति चक्रवर्तियों के यहाँ भी स्थिर नही रही, तो फिर दूसरे पुण्य होनके यहाँ कैसे स्थिर रहेगी ? यौवन वृद्धावस्थासे नष्ट होगा। जीवन मरणसहित है । स्वजन परजन वियोग के सन्मुख है । किसमे स्थिर बुद्धि करते हैं ? इस देहको नित्य स्नान कराते हैं, सुगन्ध लगाते हैं, आभरण, वस्त्र आदिसे विभूषित करते है, विविध प्रकारके भोजन कराते है, वांरवार इसी की दासतामे समय व्यतीत करते हैं, शय्या, आसन, कामभोग, निद्रा, शीतल, उष्ण आदि अनेक उपचारोसे इसे पुष्ट करते है । इसके रागमे ऐसे अधे हो गये हैं कि भक्ष्य-अभक्ष्य, योग्य-अयोग्य, न्याय-अन्यायके विचारसे रहित होकर, आत्मधर्मको बिगाडना, यशका विनाश करना, मरणको प्राप्त होना, नरकमे जाना, निगोदमे वास करना - इन सबको नही गिनते । इस शरीरका जलसे भरे हुए कच्चे घडेकी तरह शीघ्र विनाश हो जायेगा । इस देह का उपकार कृतघ्नके उपकारकी भांति विपरीत फलित होगा । सर्पको दूध मिसरीका पान कराने के समान अपनेको महान दुख, रोग, क्लेश, दुर्ध्यान, असयम, कुमरण और नरकके कारणरूप शरीरका मोह है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानें | इस शरीरको ज्यो-ज्यो विषयादिसे पुष्ट करेंगे त्यो त्यो यह आत्माका नाश करनेमे समर्थ होगा । एक दिन इसे आहार नही देंगे तो यह बहुत दुख देगा । जो-जो शरीरके रागी हुए हैं, वे वे ससारमे नष्ट होकर एव आत्मकार्यको बिगाडकर अनतानत काल नरक और निगोदमे भ्रमण करते हैं । जिन्होने इस शरीरको तपसयममे लगाकर कृश किया है उन्होने अपना हित किया है । ये इद्रियाँ ज्यो ज्यो विषयोको भोगती है, त्यो त्यो तृष्णाको बढाती है । जैसे अग्नि ईंधनसे तृप्त नही होती, वैसे ही इद्रियाँ विपयोसे तृप्त नही होती । एक-एक इद्रियके विषयकी वाछा करके बडे-बडे चक्रवर्ती राजा भ्रष्ट होकर नरकमे जा पहुँचे है, तो फिर दूसरोका तो क्या कहना ? इन इद्रियोको दुखदायी, पराधीन करनेवाली, नरकमे पहुँचानेवाली जानकर, इन इन्द्रियोका राग छोडकर इन्हे वश करें ।
ससारमे हम जितने निंद्य कर्म करते हैं, वे सब इंद्रियोके अधीन होकर करते है । इसलिये इद्रियरूपी सर्प विपसे आत्माकी रक्षा करें। यह लक्ष्मी क्षणभंगुर है । यह लक्ष्मी कुलीनमे नही रमती । धीरमे,
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श्रीमद राजचन्द्र गुरमे, पडितमे, मूर्खम, रूपवानमे, कुरूपमे, पराक्रमीमे, कायरमे, धर्मात्मामे, अधर्मीमे, पापीमे, दानीमे, कृपणमे-कही भी नही रमती। यह तो पूर्व जन्ममे जिसने पुण्य किया हो उसकी दासी है। कुपात्र दानादि एव कुतप करके उत्पन्न हुए जीवको, बुरे भोगमे, कुमार्गमे, मदमे लगाकर दुर्गतिमे पहुँचानेवाली है। इस पचमकालमे तो कुपात्र दान करके, कुतपस्या करके लक्ष्मी पैदा होती है। यह वुद्धिको बिगाड़ती है, महादु खसे उत्पन्न होती है, महादु खसे भोगी जाती है। पापमे लगाती है। दानभोगमे खर्च किये विना मरण होने पर, आर्तध्यानसे लक्ष्मीको छोड़कर जीव तिर्यच गतिमे उत्पन्न होता है। इसलिये लक्ष्मीको तृष्णा बढानेवाली और मद उत्पन्न करनेवाली जानकर दुखित और दरिद्रीके उपकारमे, धर्मवर्धक धर्मस्थानोमे, विद्यादानमे, वीतराग-सिद्धान्तके लिखवानेमे लगाकर सफल करें। न्यायके प्रामाणिक भोगमे, जैसे धर्म न बिगडे वैसे लगायें । यह लक्ष्मी जलतरगवत् अस्थिर है । अवसर पर दान एव उपकार कर लें। यह परलोकमे साथ नही आयेगी। इसे अचानक छोडकर मरना पड़ेगा। जो निरतर लक्ष्मीका सचय करते है, दान-भोगमे इसका उपयोग नही कर सकते, वे अपने आपको ठगते हैं। पापका आरंभ करके, लक्ष्मीका सग्रह करके, महामूर्छासे जिसका उपार्जन किया है, उसे दूसरेके हाथमे देकर, अन्य देशोमे व्यापारादिसे बढानेके लिये उसे स्थापित करके, जमीनमे अति दूर गाडकर, और दिनरात उसीका चिंतन करते-करते दुानसे मरकर दुर्गतिमे जा पहुंचते है। कृपणको लक्ष्मीका रखवाला और दास समझना । दूर जमीनमे गाड़कर लक्ष्मीको पत्थर-सा कर दिया है। जैसे जमीनमे दूसरे पत्थर पड़े रहते हैं, वैसे लक्ष्मीको समझें । राजाके, उत्तराधिकारीके तथा कूटबके कार्य सिद्ध किये, परतु अपनी देह तो भस्म होकर उड जायेगी, इसे प्रत्यक्ष नही देखते ? इस लक्ष्मीके समान आत्माको ठगनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जीव अपने समस्त परमार्थको भूलकर लक्ष्मीके लोभका मारा रात और दिन घोर आरभ करता है। समय पर भोजन नही करता। सर्दी-गर्मीकी वेदना सहन करता है। रागादिकके दुखको नही जानता। चिंतातुर होकर रातको नीद नही लेता । लक्ष्मीका लोभी यह नही समझता कि मेरा मरण हो जायेगा। वह सनामके घोर सकटमे चला जाता है। समुद्रमे प्रवेश करता है । घोर भयानक वीरान पर्वत पर जाता है । धर्मरहित देशमे जाता है, जहाँ अपनी जाति, कुल या घरका कोई व्यक्ति देखनेमे नही आता । ऐसे स्थानमे केवल लक्ष्मीके लोभसे भ्रमण करता-करता मरकर दुर्गतिमे जा पहुंचता है। लोभी नही करने योग्य और नीच भीलके करने योग्य काम करता है। अत तू अब जिनेंद्रके धर्मको पाकर संतोष धारण वार । अपने पुण्यके अनुरूप न्यायमार्गको प्राप्त होकर, धनका संतोषी होकर, तीन राग छोड़कर, न्यायके विपय भोगोमे और दुखित, बुभुक्षित, दीन एव अनाथके उपकारके लिये दान एव सन्मानमे लक्ष्मीको लगा । इस लक्ष्मीने अनेकोको ठग कर दुर्गतिमे पहुँचाया है। लक्ष्मीका सग करके जगतके जीव अचेत हो रहे है । पुण्यके अस्त होते ही यह भी अस्त हो जायेगी । लक्ष्मीका सग्रह करके मर जाना ऐसा लक्ष्मीका फल नही है । इसके फल हैं केवल उपकार करना और धर्मका मार्ग चलाना। जो इस पापरूप लक्ष्मीको ग्रहण नही करते वे धन्य है। और जिन्होने इसे ग्रहण करके इसकी ममता छोड़कर क्षण मात्रमे इसका त्याग कर दिया है वे धन्य हैं। विशेष क्या लिखे ? इस धन, यौवन, जीवन, कुटुम्बके सगको पानीके बुलबुलेके समान अनित्य जानकर आत्महितरूप कार्यमे प्रवृत्ति करें । ससारके जितने-जितने सम्बन्ध हैं उतने-उतने सभी विनाशी हैं।
इस प्रकार अनित्य भावनाका विचार करें। पुत्र, पौत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि कोई परलोकमे न तो साय गया हे और न जायेगा । अपने उपार्जित किये हुए पुण्यपापादि कर्म साथ आयेंगे। यह जाति, कुल, रूप आदि तथा नगर आदिका सवध देहके साथ ही नष्ट हो जायेगा। इस अनित्य अनुप्रेक्षाका क्षण मात्र भी विस्मरण न हो, जिससे परका ममत्व छूट कर आत्मकार्यमे प्रवृत्ति हो ऐसी अनित्य भावनाका वर्णन किया ॥१॥
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१७ वर्षसे पहले
अशरण अनुप्रेक्षा
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अ अशरण अनुप्रेक्षाका चिन्तन करते हैं
इस ससारमे कोई देव, दानव, इन्द्र, मनुष्य ऐसा नही है कि जिसपर यमराजकी फाँसी न पडी हो । मृत्युके वश होने पर कोई आश्रय नही है । आयु पूर्ण हो जानेके समय इन्द्रका पतन क्षण मात्रमे हो जाता है। जिसके असख्यात देव आज्ञाकारी सेवक हैं, जो सहस्रो ऋद्धियोवाला है, जिसका स्वर्ग मे असख्यात कालसे निवास है, जिसका शरीर रोग, क्षुधा, तृषादि उपद्रवोसे रहित है, जो असख्यात बलपराक्रमका धारक है, ऐसे इन्द्रका पतन हो जाये वहाँ भी अन्य कोई शरण नही है । जैसे उजाड वनमे शेरसे पकडे हुए हिरनके बच्चेकी रक्षा करनेके लिये कोई समर्थ नही है, वैसे मृत्युसे प्राणीकी रक्षा करनेके लिये कोई समर्थ नही है | इस ससारमे पहले अनन्तानन्त पुरुष प्रलयको प्राप्त हुए है । कोई शरण है ? कोई ऐसा औषध, मत्र, यत्र अथवा देवदानव आदि नही हैं कि जो एक क्षण मात्र भी कालसे रक्षा करे । यदि कोई देव, देवी, वैद्य, मत्र तत्र आदि एक मनुष्यकी मरणसे रक्षा कर पाते तो मनुष्य अक्षय हो जाता । इसलिये मिथ्या बुद्धिको छोडकर अशरण अनुप्रेक्षाका चिन्तन करें। मूढ मनुष्य ऐसा विचार करता है कि मेरे सगेका हितकारी इलाज नही हुआ. औषधि न दी, देवताकी शरण नही ली, उपाय किये बिना मर गया, इस प्रकार अपने स्वजनका शोक करता है । परन्तु अपनी चिन्ता नही करता कि मै यमकी दाढोके बीच बैठा हूँ | जिस कालको करोडो उपायोसे भी इन्द्र जैसे भी न रोक सके, उसे बेचारा मनुष्य भला क्या रोकेगा ? जैसे हम दूसरेका मरण होते हुए देखते है वैसे हमारा भी अवश्य होगा ।
जैसे दूसरे जीवोका स्त्री, पुत्रादिसे वियोग होता देखते हैं, वैसे, हमारे लिये भी वियोगमे कोई शरण नही है | अशुभ कर्मकी उदीरणा होने पर बुद्धिनाश होता है, प्रबल कर्मोदय होने पर एक भी उपाय काम नही आता । अमृत विषमे परिणमित हो जाता है, तृण भी शस्त्रमे परिणत हो जाता है, अपना प्रिय मित्र भी शत्रु हो जाता है, अशुभ कर्मके प्रबल उदयसे बुद्धि विपरीत होकर स्वयं अपना ही घात करता है। जब शुभ कर्मका उदय होता है, तब मूर्खको भी प्रबल बुद्धि उत्पन्न होती है । किये बिना अनेक सुखकारी उपाय अपने आप प्रगट होते है । शत्रु मित्र हो जाता है, विष भी अमृतमे परिणत हो जाता है । जव पुण्यका उदय होता है तब समस्त उपद्रवकारी वस्तुएँ नाना प्रकारके सुख देनेवाली हो जाती हैं । यह पुण्यकर्मका प्रभाव है |
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पापके उदयसे हाथमे आया हुआ धन क्षण मात्रमे नष्ट हो जाता है । पुण्यके उदयसे बहुत ही दूरकी वस्तु भी प्राप्त हो जाती है । जब लाभातरायका क्षयोपशम होता है तव यत्नके बिना निधिरत्न प्रगट होता है । जब पापोदय होता है तब सुन्दर आचरण करनेवालेको भी दोष एव कलक लग जाते हैं, अपवाद तथा अपयश होते है । यश नाम कर्मके उदयसे समस्त अपवाद दूर होकर दोप गुणमे परिणत हो जाते है ।
यह ससार पुण्यपापके उदयरूप है ।
परमार्थसे दोनो उदयो (पुण्यपाप) को परकृत और आत्मासे भिन्न जानकर उनके ज्ञाता अथवा साक्षी मात्र रहे, हर्ष एव खेद न करे । पूर्वमे बाँधे हुए कर्म अब उदयमे आये हैं। अपने किये हुए कर्म दूर नही होते । उदयमे आनेके बाद उपाय नही है । कर्मके फल जो जन्म, जरा, मरण, रोग, चिंता, भय, वेदना, दुःख आदि है, उनके आने पर मत्र, तत्र, देव, दानव, आपध आदि कोई उनसे रक्षा करनेके लिये समर्थ नही है। कर्मका उदय आकाश, पाताल अथवा कही भी नही छोड़ता । औपचादि बाह्य निमित्त, अशुभ कर्मका उदय मन्द होने पर उपकार करते हैं ! दुष्ट, चोर, भील, वैरी तथा सिंह, वाघ, सर्प आदि गाँवमे या वनमे मारते है, जलचरादि जोव पानीमे मारते है, परन्तु अशुभ कर्मका उदय तो जल मे
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श्रीमद राजचन्द्र
स्थलमे, वन में, समुद्रमे, पर्वतमं, गढमे, घरमै शय्यामे, कुटुम्बमे, राजादि सामन्तोके वीचमे शस्त्रोंसे रक्षा करते हुए भी कहीं भी नहीं छोड़ता । इस लोकमे ऐसे स्थान है कि जहाँ सूर्य व चन्द्रका प्रकाश, पवन तथा वैकिकाले नहीं जा सकते, परन्तु कर्मका उदय तो सर्वत्र जाता है । प्रबल कर्मका उदय होने पर विद्या, मत्र, बल, औषधि, पराक्रम, प्रिय मित्र, सामन्त, हाथी, घोडे, रथ, पैदल सेना, गढ, कोट, शस्त्र, साम दाम दंड भेद आदि सभी उपाय शरणरूप नही होते । जैसे उदित होते हुए सूर्यको कौन रोक सकता है ? बैंस कर्मके उदयको नही रोका जा सकता, ऐसा समझकर समताभावकी शरण ग्रहण करें, तो अशुभ कर्मकी निर्जरा होती है और नया बंध नहीं होता। रोग, वियोग, दारिद्र्य, मरण आदिका भय छोडकर परम धैर्य ग्रहण करें, अपना वीतराग भाव, सतोषभाव, और परम समताभाव ही शरण है, अन्य कोई कारण नही है । इस जीवके उत्तम क्षमादि भाव स्वयमेव शरणरूप है । कोचादि भाव इस लोक एव परलोकमे इस जीवके घातक हैं। इस जीवके लिये कषायकी मदता इस लोक मे हजारो विघ्नोका नाश करनेवाली परम शरणरूप है, और परलोकमे नरक व तियंच गतिसे रक्षा करती है । मन्दकपायी जीव देवलाक तथा उत्तम मनुष्यजातिमे उत्पन्न होता है । यदि पूर्वकर्म के उदय के समय आर्न एव रौद्र परिणाम करेंगे तो उदीरणाको प्राप्त हुए कर्मो को रोकनेमे कोई समर्थ नहीं है | केवल दुर्गतिके कारण नवीन कर्म और वढेगे । कर्मोदयके लिये अपेक्षित वाह्य निमित्त - क्षेत्र, काल और भावके मिलनेके बाद उस कर्मोदयको इन्द्र, जिनेन्द्र, मणि, मत्र, औषध आदि कोई भी रोकने मे समर्थ नही है । रोगके इलाज तो औपचादि जगतमे हम देखते है, परन्तु प्रवल कर्मोदयको रोकनेके लिये औप आदि समर्थ नही है, प्रत्युत वे विपरीतरूपसे परिणत होते है ।
इस जीवको जब असातावेदनीय कर्मका उदय तीव्र होता है तब औषध आदि विपरीत रूपसे परिणत होते है | असाताका मद उदय हो अथवा उपशम हो तब औषध आदि उपकार करते हैं। क्योकि मन्द उदयको रोकनेमे समर्थ तो अल्प शक्तिवाले भी होते हैं । प्रबल शक्तिवालेको रोकनेमे अल्प शक्तिवाला नमर्थ नही है । इस पंचम कालमे अल्प मात्र वाह्य द्रव्य, क्षेत्रादि सामग्री है, अल्प मात्र ज्ञानादि, हे, अल्प मात्र पुरुषार्थ है । और अशुभका उदय आनेसे वाह्य सामग्री प्रवल है, तो वह अल्प सामग्री अल्प पुरुषार्थसे प्रबल असाताके उदयको कैसे जीत सकती है ? बड़ी नदियोका प्रवाह प्रवल तरगोको उछालता हुआ चला आता हो तो उसमे तैरनेकी कलामे समर्थ पुरुष भी तैर नही सकता । जव नदीके प्रवाहका मन्द होता जाता हे तव तैरनेकी विद्याका जानकार तैर कर पार हो जाता है, उसी प्रकार प्रबल कर्मोदयमे अपनेको अशरण जाने । पृथ्वी और समुद्र दोनो विशाल है, परन्तु पृथ्वीका छोर पानेके लिये ओर समुद्रको तेरनेके लिये बहुतसे समर्थ देखे जाते हैं, परन्तु कर्मोदयको तैरनेके लिये समर्थ दिखायी नही देते | इन ससारमे सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक् तप-सयम शरण है । इन चार आराधनाओंके बिना और कोई शरण नही है । तथा उत्तम क्षमादि दश धर्म इस लोकमे समस्त क्लेश, दुल, मरण, अपमान और हानिसे प्रत्यक्ष रक्षा करनेवाले हे । मद कषायके फल स्वाधीन सुख, जात्मरक्षा, उज्ज्वल यश क्लेशाभाव तथा उच्चता इस लोकमे प्रत्यक्ष देखकर उसकी शरण ग्रहण करें । परलोकमे उसका फल स्वर्गलोक हे ! विशेषत व्यवहारमे चार शरण है- अर्हत, सिद्ध, साधु और केवल ज्ञानी द्वारा प्ररूपित वर्म । इन्हीको गरण जाने। इस प्रकार यहाँ इनकी शरणके विना आत्माकी उज्ज्वलता प्राप्त नही होती, ऐमा वतानवाली अशरण अनुप्रेक्षाका विचार किया ||२||
ससार अनुप्रेक्षा
जब नमार अनुप्रेक्षां स्वरूपका विचार करते है
नानादि कालके मिथ्यात्वके उदयसे अचेत हुआ जीव, जिनेन्द्र सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रति सत्यार्थ धर्मको प्राप्त न होकर चारो गतियोंमे भ्रमण करता है । ससारमे कर्मरूप दृढ बन्धनसे
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१७ वें वर्षसे पहले बॅध कर पराधीन होकर, त्रसस्थावरमे निरन्तर घोर दुखको भोगता हुआ वारवार जन्ममरण करता है। जो-जो कर्मका उदय आकर रस देता है, उस उदयमे तन्मय होकर अज्ञानी जीव अपने स्वरूपको छोडकर नया-नया कर्मबंध करता है। कर्मबधके अधीन हुए प्राणीके लिये ऐसी कोई दुखकी जाति बाकी नही रही कि जिसे उसने न भोगा हो। सभी दु खोको अनतानत वार भोगकर अनन्तानत काल व्यतीत हो गया है । इस प्रकार इस ससारमे इस जीवके अनन्त परिवर्तन हुए है। ससारमे ऐसा कोई पुद्गल नही रहा कि जिसे इस जीवने शरीररूपसे, आहाररूपसे ग्रहण न किया हो । अनन्त जातिके अनन्त पुद्गलोंके शरीर धारणकर आहाररूप (भोजनपानरूप) किया है।
तीन सौ तैंतालोस धनरज्जुप्रमाण लोकमे ऐसा कोई एक भी प्रदेश नही है कि जहाँ ससारी जीवने अनतानत जन्म-मरण नही किये हो। उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालका ऐसा एक भी समय बाकी नही रहा कि जिस समयमे यह जीव अनतवार जन्मा नही हो और मरा नही हो । नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव. इन चारो पर्यायोमे इस जीवने जघन्य आयुसे लेकर उत्कृष्ट आयु पर्यंत समस्त आयुओके प्रमाण धारण करके अनतवार जन्म ग्रहण किया है। केवल अनुदिश, अनुत्तर विमानमे वह उत्पन्न नही हुआ, क्योकि इन चौदह विमानोमे सम्यग्दृष्टिके विना अन्यका जन्म नही होता। सम्यग्दृष्टिको ससार-भ्रमण नही है। कर्मकी स्थितिबधके स्थान और स्थितिबधके कारण असख्यात, लोकप्रमाण कपायाध्यवसायस्थान, उसके कारण असंख्यात लोकप्रमाण अनुभाग बधाध्यवसायस्थान तथा जगतश्रेणीके संख्यातवें भाग जिनने योगस्थानोमेसे ऐसा कोई भाव बाकी नही रहा कि जो ससारी जीवको न हुआ हो। केवल सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रके योगभाव नही हुए। अन्य समस्त भाव ससारमे अनतानत बार हुए हैं। जिनेद्रके वचनके अवलम्बनसे रहित पुरुषको मिथ्या ज्ञानके प्रभावसे अनादिसे विपरीत बुद्धि हो रही है इसलिये सम्यग्मार्गको ग्रहण न करके ससाररूप वनमे नष्ट होकर जीव निगोदमे जा गिरता है । कैसी है निगोद ? अनतानत काल बीत जाने पर भी जिसमेसे निकलना बहुत मुश्किल है। कदाचित् पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय और साधारण वनस्पतिकायमे लगभग समस्त ज्ञानका नाश होनेसे जडरूप होकर, एक स्पर्गेन्द्रिय द्वारा कर्मोदयके अधीन होकर आत्मशक्तिरहित, जिह्वा, नासिका, नेत्र, कर्णादि इद्रियसे रहित होकर दु खमे दीर्घकाल व्यतीत करता है । और द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिंद्रियरूप विकलत्रय जीव, आत्मज्ञानरहित केवल रसना आदि इद्रियोके विषयोकी अति तृष्णाके मारे उछल-उछलकर विषयोके लिये गिर-गिर कर मरते हैं । असख्यात काल विकलत्रयमे रहकर पुन एकेंद्रियमे फिर-फिर कर वारंवार कुएँके रहँटकी घटीकी भांति नयी-नयी देह धारण करते-करते चारो गतियोमे निरतर जन्म, मरण, भूख, प्यास, रोग, वियोग और सताप भोगकर अनतकाल तक परिभ्रमण करते हैं । इसका नाम ससार है।
जैसे उबलते हुए अदहनमे चावल सब तरफ फिरते हुए भी सीझ जाते हैं, वैसे ससारी जीव कमसे तप्तायमान होकर परिभ्रमण करते हैं । आकाशमे उडते हुए पक्षीको दूसरा पक्षी मारता है, जलमे विचरते हुए मत्स्यादिको दूसरे मत्स्यादि मारते हैं, स्थलमे विचरते हुए मनुष्य, पशु आदिको स्थलचारी सिंह, वाघ, सर्प आदि दुष्ट तिर्यंच तथा भील, म्लेच्छ चोर, लुटेरे तथा महान निर्दय मनुष्य मारते है। इस ससारमे सभी स्थानोमे निरतर भयभीत होकर निरतर दुखमय परिभ्रमण करते है। जैसे शिकारीके उपद्रवसे भयभीत हुए जीव मुंह फाडकर बैठे हुए अजगरके मुंहमे विल समझकर प्रवेश करते है, वैसे अज्ञानी जीव भूख, प्यास, काम, कोप इत्यादि तथा इद्रियोंके विषयोकी तृष्णाके आतापसे सतप्त होकर, विपयादिरूप अजगरके मुंहमे प्रवेश करते है। विषयकषायमे प्रवेश करना ससाररूप अजगरके मुंहमे प्रवेश करना है। इसमे प्रवेश करके अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्ता आदि भावप्राणोका नाश करके, निगोदमे अचेतन तुल्य होकर, अनतवार जन्म-मरण करते हुए अनतानत काल व्यतीत करते है । वहाँ आत्मा अभाव तुल्य है, जब ज्ञानादिका अभाव हुआ तब नाश भी हुआ।
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श्रीमद् राजचन्द्र निगोदमे अक्षरका अनतवाँ भाग ज्ञान है, यह सर्वज्ञने देखा है। त्रस पर्यायमें जितने दुःखके प्रकार है वे सब दुख जीव अनतवार भोगता है। दु.खकी ऐसी कोई जाति बाकी नही रही, कि जिसे इस जीवने ससारमे नही पाया । इस ससारमे यह जीव दु खमय अनत पर्याय पाता है, तब कही एक बार इंद्रियजनित सुखका पर्याय प्राप्त करता है, और वह भी विषयोके आताप सहित, भय शंकासे सयुक्त अल्पकालके लिये प्राप्त करता है । पश्चात् अनत पर्याय दु खके, फिर इद्रियजनित सुखका कोई एक पर्याय कदाचित् प्राप्त होता है।
अब चतुर्गतिके कुछ स्वरूपका परमागमके अनुसार चिंतन करते है। नरककी सात पृथ्वियाँ हैं, उनमे उनचास भूमिकाएं हैं। उन भूमिकाओमे चौरासी लाख बिल है, जिन्हे नरक कहते है। उनकी वज्रमय भूमि दीवारकी भाँति छजी हुई है। कितने ही बिल सख्यात योजन लंबे-चौडे है और कितने ही विल असख्यात योजन लबे-चौडे है। उस एक एक विलकी छतमे नारकीके उत्पत्तिस्थान है। वे ऊँटके मुखके आकार आदि वाले, तग मुखवाले और उलटे मुंह होते है। उनमे नारकी जीव उत्पन्न होकर नीचे सिर और ऊपर पैर किये हुए आकर वज्राग्निमय पृथ्वीमे पडकर नारकी जोरसे गिरी हुई गेदकी तरह इधरउधर उछलते और लोटते है । कैसी है नरकभूमि ? असख्यात बिच्छ्रके एक साथ काटनेसे जो वेदना होती है, उससे भी असख्यातगुनी अधिक वेदना देनेवाली है।
ऊपरकी चार पश्वियोके चालीस लाख बिल और पाँचवी पृथ्वीके दो लाख बिल, यो बयालीस लाख विलोमे तो केवल आताप, अग्निको उष्ण वेदना है। उस नरककी उष्णता बतानेके लिये यहाँ कोई पदार्थ देखने-जाननेमे नही आता कि जिसकी उपमा दी जा सके। तो भी भगवानके आगममे उष्णताका ऐसा अनुमान कराया गया है कि यदि लाख योजनप्रमाण मोटा लोहेका गोला छोडे तो वह नरकभूमिमे न पहुंचकर, पहुँचनेसे पहले ही नरक क्षेत्रको उष्णतासे रसरूप होकर बह जाता है। (अपूर्ण)
मुनिसमागम राजा-हे मुनिराज | आज मैं आपके दर्शन करके कृतार्थ हुआ है। एक बार मेरा अभी और आगे घटित सुनने योग्य चरित्र सुननेके बाद आप मुझे अपने पवित्र जैन धर्मका सत्त्वगुणी उपदेश दें। इतना बोलनेके बाद वह चुप हो गया ।
मुनि-हे राजन् । तेरा चरित्र धर्म सबंधी हो तो भले आनदके साथ कह सुना ।
राजा-(स्वगत ) अहो । इन महान मुनिराजने 'मै राजा हूँ', 'ऐसा कहाँसे जाना । भले, यह वात फिर । अभी तो अवसरके ही गीत गाऊँ । (प्रकट ) हे भगवन् । मैने एकके बाद एक इस तरह अनेक धर्म देखे । परतु उम प्रत्येक धर्ममेसे कुछ कारणोसे मेरी आस्था उठ गयी। मैं जब प्रत्येक धर्मका ग्रहण करता तब उसके गुण विचार कर, परतु बादमे न मालूम क्या हो जाता कि जमी हुई आसक्ति एकदम नष्ट' हो जाती । यद्यपि ऐसा होनेके कुछ कारण भी थे। केवल मेरी मनोवृत्ति ही ऐसी थी, यह बात नही थी । किसी धर्ममे धर्मगुरुओकी धूर्तता देख कर, उस धर्मको छोड़कर मैने दूसरा स्वीकार किया, फिर उसमे कोई व्यभिचार जैसी दुगंध देखकर उसे छोडकर तीसरा ग्रहण किया । फिर उसमे हिंसायुक्त सिद्धात देखनेसे, उसे छोडकर चौथा ग्रहण किया। फिर किसी कारणसे उसे छोड़ देनेका फरज आ पडनेसे उसे छोडकर पाँचवाँ धर्म स्वीकार किया। इस तरह जैन धर्मके सिवाय अनेक धर्म अपनाये और छोड़े। जैन धर्मका केवल वेराग्य ही देखकर मूलत. उस धर्म पर मुझे भाव हुआ ही नही था। बहुतसे धर्मोंकी उधेड़बुनमे आखिर मैंने ऐसा सिद्धात निश्चित किया कि सभी धर्म मिथ्या हे | धर्माचार्योंने अपनी-अपनी रुचिके अनुसार
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१७ वर्षसे पहले
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पाखंडी जाल फैला रखे हैं। बाकी कुछ भी नही है । यदि धर्मपालन करनेका सृष्टिका स्वाभाविक नियम होता तो सारी सृष्टिमे एक ही धर्मं क्यो न होता ? ऐसी-ऐसी तरगोसे में केवल नास्तिक हो गया । ससारी शृगारको ही मैने मोक्ष ठहरा दिया । न पाप है और न पुण्य है, न धर्म है और न कम है, न स्वर्ग है और न नरक है, ये सव पाखड है । जन्मका कारण मात्र स्त्रीपुरुषका सयोग है । और जैसे जीर्ण वस्त्र कालक्रमसे नाशको प्राप्त होता है, वैसे यह काया धीरे-धीरे क्षीण होकर अतमे निष्प्राण होकर नष्ट हो जाती है । बाकी सब मिथ्या है | इस प्रकार मेरे अत करणमे दृढ हो जानेसे मुझे जैसा रुचा, जैसा अच्छा लगा, जैसा रास आया वैसा करने लगा । अनीतिके आचरण करने लगा । बेचारी दीन प्रजाको पीड़ित करनेमे मैने किसी भी प्रकारकी कसर नही रखी । शीलवती सुन्दरियोका शीलभग कराकर मैने हाहाकार मचानेमे किसी भी प्रकारकी कसर नही छोड़ी । सज्जनोको दडित करनेमे, सतोको सतानेमे और दुर्जनोको सुख देनेमे मैंने इतने पाप किये है कि किसी भी प्रकारको न्यूनता नही रहने दी। मै मानता हूँ कि मैंने इतने पाप किये है कि उन पापोका एक प्रबल पर्वत खड़ा किया जाये तो वह मेरु पर्वतसे भी सवाया हो । यह सब होनेका कारण मात्र धूर्त धर्माचार्य थे । ऐसीकी ऐसी मेरी चाडालमति अभी तक रही है । मात्र अद्भुत कौतुक हुआ कि जिससे मुझमे शुद्ध आस्तिकता आ गयी । अब मै यह कौतुक आपके समक्ष निवेदन करता हूँ
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मै उज्जयिनी नगरीका अधिपति हूँ । मेरा नाम चन्द्रसिंह है । विशेषत दयालुओका दिल दुखाने के लिये मै प्रबल दलके साथ शिकारके लिये निकला था । एक रक हिरनके पीछे दौडते हुए में सैन्य से बिछुड़ गया। और उस हिरनके पीछे अपने घोडेको दौडाता दौडाता इस तरफ निकल पडा । अपनी जान बचानेकी किसे इच्छा न हो ? और वैसा करनेके लिये उस बेचारे हिरनने दौडनेमे कुछ भी कसर नही रखी । परन्तु इस पापी प्राणीने अपना जुल्म गुजारनेके लिये उस बेचारे हिरनके पीछे घोडा दौडाकर उसके नजदीक आनेमे कुछ कम प्रयास नही किया । आखिर उस हिरनको इस बागमे प्रवेश करते हुए देखकर मैने धनुष पर बाण चढा कर छोड़ दिया । उस समय मेरे पापी अन्त करणमे लेशमात्र भी दयादेवीका अश न था । सारी दुनियाके धीवरो और चाण्डालोका सरदार मैं ही न होऊँ, ऐसा मेरा कलेजा क्रूरावेशमे बॉसो उछल रहा था। मैंने ताककर मारा हुआ तीर व्यर्थ जानेसे मुझे दुगुना पापावेश आ गया । इस लिये मैंने अपने घोडेको एडी मार कर इस तरफ खूब दौडाया । दोडाते - दौडाते ज्यो ही इस सामनेवाली झाडीके गहरे मध्य भागमे आया त्यो ही घोडा ठोकर खाकर लड़खडाया । लड़खडानेके साथ वह चौक गया । और चौकते ही खड़ा रह गया । जैसे ही घोडा लडखडाया था वैसे ही मेरा एक पैर एक ओर की रकाब पर और दूसरा पैर नीचे भूमिसे एक बित्ता दूर लटक रहा था । म्यानमेसे चमकती तलवार भी निकल पडी थी । जिससे यदि में घोडे पर चढने जाऊँ तो वह तेज तलवार मेरे गलेके आर-पार होनेमे एक पलकी भी देर करनेवाली न थी । और नीचे जहाँ दृष्टि करके देखता हूँ वहाँ एक काला एव भयकर नाग नज़र आया । मुझ जैसे पापीका प्राण लेनेके लिये ही अवतरित उस काले नागको देखकर मेरा कलेजा काँप उठा। मेरा अग-अग थरथराने लगा । मेरी छाती धडकने लगी । मेरी जिन्दगी अव पूरी हो जायेगी । हाय । अब पूरी हो जायेगी । ऐसा भय मुझे लगा । हे भगवान् | ऊपर कहे अनुसार, उम समय में न तो नीचे उतर सकता था और न घोडे पर चढ सकता था । इसीलिये अब मैं कोई उपाय खोजनेमे निमग्न हुआ | परन्तु निरर्थक | केवल व्यर्थ और वेकार || धीरे से आगे खिसक कर रास्ता लूं, ऐसा विचार करके मैं ज्यो ही दृष्टि उठाकर सामने देखता हूँ त्यो ही वहाँ एक विकराल सिंहराज नजर आया। रे । अव तो मैं जाडेकी ठडसे भी सौगुना थर्राने लग गया । और फिर विचारमे पड गया, 'खिसक कर पीछे मुडू तो कैसा ?" ऐसा लगा, वहाँ तो उस तरफ घोडेकी पीठ पर नगी पौनी तलवार देखी । इसलिये यहाँ अब मेरे विचार तो पूरे हो चुके । जहाँ देखेँ वहाँ मौत । फिर विचार किम कामका ? चारो दिशाओमे मौतने अपना जबरदस्त पहरा बिठा दिया । हे महामुनिराज । ऐसा चमत्कारिक परन्तु भयकर दृश्य देखकर मुझे
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श्रीमद् राजचन्द्र अपने जीवनकी शका होने लगी। मेरा प्यारा जीव कि जिससे मै सारे ब्रह्माण्डके राज्य जैसा वैभव भोग रहा है, वह अब इस नरदेहको छोड कर चला जायेगा। रेचला जायेगा | अरे । अब मेरी कैसी विपरीत गति हो गयी। मेरे जैसे पापीको ऐसा ही उचित है। ले पापी जीव | तू ही अपने कर्तव्यको भोग । तूने अनेकोके कलेजे जलाये है। तूने अनेक रक प्राणियोका दमन किया है, तूने अनेक सतोको सतप्त किया है। तूने अनेक मती सुन्दरियोका गील भग किया है। तूने अनेक मनुष्योको अन्यायसे दडित किया है। सक्षेपमे तुने किसी भी प्रकारके पापमे कमी नही रखी। इसलिये रे पापी जीव । अव तू ही अपना फल भोग । तू अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करता रहा, और साथ ही मदाध होकर ऐसा भी मानता था कि मैं क्या दुखी होनेवाला था ? मुझे क्या कष्ट आने वाले थे ? परन्तु रे पापी प्राण | अव देख ले । तू अपने इम मिथ्या मदका फल भोग ले । तू मानता था कि पापका फल है ही नहीं। परन्तु देख ले, अब यह क्या है ? इस तरह मै पश्चात्तापमे डूब गया | अरे हाय । मै अव वचूँगा ही नही ? यह विडम्वना मुझे हो गयी। इस समय मेरे पापी अन्त करणमे यह आया कि यदि अभी कोई आकर मुझे एकदम बचा ले तो कैसा मागलिक हो । वह प्राणदाता इसी क्षण जो माँगे उसे देनेके लिये बँध जाऊ। वह मेरे सारे मालवा देशका राज्य माँगे तो देनेमे ढील न करूँ। और इतना सव देते हुए भी और माँगे तो अपनी एक हजार नव-यौवना रानियाँ दे दूं। वह माँगे तो अपनी विपुल राजलक्ष्मी उसके चरणकमलोमे धर दूं। और इतना सव देते हुए भी वह कहता हो तो मै जीवन पर्यंत उसके किंकरका किंकर होकर रहूँ। परन्तु मुझे इस समय कौन जीवनदान दे ? ऐसी-ऐसी तरगोमे झोके खाता-खाता मै आपके पवित्र जैन धर्मके चिन्तनमे पड गया । इसके कथनका मुझे उस समय भान हो आया । इसके पवित्र सिद्धान्त उस समय मेरे अन्तःकरणमे प्रभावक ढगसे अकित हो गये । और उसने उनका यथार्थ मनन शुरू कर दिया, कि जिससे आपके समक्ष आनेके लिये यह पापी प्राणी समर्थ हुआ।
१ अभयदान-यह सर्वोत्कृष्ट दान है । इसके जैसा एक भी दान नही है। इस सिद्धातका प्रथम मेरा अन्त करण मनन करने लगा। अहो | इसका यह सिद्धात कैसा निर्मल और पवित्र है। किसी भी प्राणीभूतको पीडा देना महापाप है। यह वात मेरे रोम-रोममे व्याप्त हो गयी-व्याप्त हुई तो ऐसी कि हजार जन्मातरमे भी न छटके | ऐसा विचार भी आया कि कदाचित् पुनर्जन्म न हो, ऐसा क्षणभरके लिये मान ले, तो भी की गयी हिंसाका किंचित् फल भी इस जन्ममे मिलता जरूर है। नही तो तेरी ऐसी विपरीत दशा कहाँसे होती? तुझे सदा शिकारका पापी शोक लगा था, और इसीलिये तूने आज जानबूझकर दयालुओका दिल दुखानेका उपाय किया था, तो अब यह उसका फल तुझे मिला ! तू अब केवल पापी मीतके पजेमे फंसा । तुझमे केवल हिंसामति न होती, तो ऐसा वक्त तुझे भिलता ही क्यो ? मिलता ही नहीं । केवल यह तेरी नीच मनोवृत्तिका फल है। हे पापी आत्मन् । अव तू यहाँसे अर्थात् इस देहसे मुक्त होकर चाहे कही जा, तो भी इस दयाका ही पालन करना । अव तेरे और इस कायाके अलग होनेमे क्या देर हे ? इमलिये इस सत्य, पवित्र और अहिंसायुक्त जैन धर्मके जितने सिद्धात तुझसे मनन किये जा सकें उतने कर
और अपने जीवकी शाति चाह। इसके सभी सिद्धांत, ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए और सूक्ष्म वुद्धिसे विचार करते हुए सत्य ही हैं । जैसे अभयदान सवधी इसका अनुपम सिद्धात इस समय तुझे अपने इस अनुभवसे यथार्थ प्रतीत हुआ, वैसे इसके दूसरे सिद्धात भी सूक्ष्मतासे मनन करनेसे यथार्थ ही प्रतीत होगे। इसमे कुछ न्यूनाधिक है ही नही। सभी धर्मोमे दया संवधी थोडा-थोडा वोध जरूर है, परन्तु इसमे जैन तो जैन ही है। हर किसी प्रकारसे भी सूक्ष्ममे सूक्ष्म जन्तुओकी रक्षा करना, उन्हे किसी भी प्रकारसे दुख न देना ऐसे जैनके प्रवल और पवित्र सिद्धान्तोसे दूसरा कौनसा धर्म अधिक सच्चा था । तूने एकके वाद एक ऐसे अनेक धर्म अपनाये और छोडे, परतु तेरे हाथ जैन धर्म आया ही नही। रे । कहाँसे आये ? तेरे प्रचुर पुण्य के उदयके विना कहाँसे आये ? यह धर्म तो गदा है.। नही नही, म्लेच्छ जैसा
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१७वें वर्षसे पहले है। इस धर्मको भला कौन ग्रहण करे ? ऐसा मानकर ही तूने इस धर्मकी ओर तनिक दृष्टि तक भी नही की। अरे । तू दृष्टि क्या कर सके ? अपने अनेक भवोके तपके कारण तू राजा हुआ। तो अब नरकमे जानेसे कैसे रुके ? 'तपेश्वरी सो राजेश्वरी और राजेश्वरी सो नरकेश्वरी' यह कहावत, तेरे हाथ यह धर्म आनेसे मिथ्या ठहरती। और तू नरकमे जानेसे रुक जाता। हे मूढात्मन् । यह सब विचार अब तुझे रह रहकर सूझते हैं । परतु अब यह सूझा हुआ किस कामका ? कुछ भी नही । प्रथमसे ही सूझा होता तो यह दशा कहाँमे होती ? होनेवाला हुआ। परतु अब अपने अत करणमे दृढ कर कि यही धर्म सच्चा है, यही धर्म पवित्र है। और अब इसके दूसरे सिद्धातोका अवलोकन कर।
२. तप-इस विपय सबंधी भी इसने जो उपदेश दिया है, वह अनुपम है। और तपके महान योगसे मैंने मालवा देशका राज्य पाया है, ऐसा कहा जाता है, यह भी सच्चा ही है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, ये तीन इसने तपके भाग किये है। ये भी सच्चे है । ऐसा करनेसे उत्पन्न होनेवाले सभी विकार शात होते-होते कालक्रमसे विलीन हो जाते है। जिससे बँधनेवाला कर्मजाल रुक जाता है । वैराग्य सहित धर्म भी पाला जा सकता है। और अतमे यह महान सुखप्रद सिद्ध होता है। देख | इसका यह सिद्धात भो कैसा उत्कृष्ट है !
३. भाव-भावके विपयमे इसने कैसा उपदेश दिया है | यह भी सच्चा ही है। भावके बिना धर्म कैसे फलीभूत हो ? भावके बिना धर्म हो ही कहॉसे ? भाव तो धर्मका जीवन है। जब तक भाव न हो तब तक कौनसी वस्तु भली प्रतीत हो सकती थी? भावके बिना धर्मका पालन नहीं हो सकता। तब धर्मके पालनके बिना मुक्ति कहाँसे हो सकती है ? इसका यह सिद्धात भी सच्चा और अनुपम है।
४. ब्रह्मचर्य-अहो । ब्रह्मचर्य सबधी इसका सिद्धात भी कहाँ कन है ? सभी महाविकारोमे काम विकार अग्रेसर है । उसका दमन करना महा दुर्घट है। इसे दहन करनेसे फल भी महा गातिकारक होता है, इसमे अतिशयोक्ति क्या ? कुछ भी नहीं । दु साध्य विषयको सिद्ध करना तो दुर्घट ही है। इसका यह सिद्धात भी कैसा उपदेशजनक है ।
५. संसारत्याग- साधु होने सबधी इसका उपदेश कुछ लोग व्यर्थ मानते है। परंतु यह उनकी केवल मूर्खता है। वे ऐसा मत प्रदर्शित करते है कि तव स्त्रीपुरुपका जोडा उत्पन्न होनेकी क्या आवश्यकता थी ? परतु यह उनकी भ्राति है। सारी सृष्टि कही मोक्ष जानेवाली नही है, ऐसा जैनका एक वचन मैंने सुना था। तदनुसार थोडे ही जीव मोक्षवासी हो सकते है, ऐसा मेरी अल्पबुद्धिमे आता है। फिर संसारका त्याग भी थोडे ही जीव कर सकते है, यह बात कौन नही जानता ? ससारत्याग किये विना मुक्ति कहाँसे हो ? स्त्रीके शृगारमे लुब्ध हो जानेसे कितने ही विषयोमे लुब्ध हो जाना पड़ता है । सतान उत्पन्न होती है । उसका पालन-पोषण और सवर्धन करना पडता है। मेरा-तेरा करना पडता है । उदरभरणादिके लिये प्रपचसे व्यापारादिमे छलकपटका आयोजन करना पड़ता है। मनुष्योका ठगनेके लिये 'सोलह पॉचे बियासी और दो गये छुटके' ऐसे प्रपंच करने पडते है । अरे । ऐसी तो अनेक झझटोमे जुटना पडता है । तब फिर ऐसे प्रपचोमेसे मुक्तिको कौन सिद्ध कर सकनेवाला था ? और जन्म, जरा, मरणके दु खोको कहाँसे दूर करने वाला था ? प्रपचमे रहना ही बधन है। इसलिये इसका यह उपदेश भी महा मगलदायक है।
६. सुदेवभक्ति- इसका यह सिद्धात भी जैसा-तैसा नहीं है। जो केवल संसारसे विरक्त होकर, सत्य धर्मका पालन करके अखड मुक्तिमे विराजमान हुए है, उनकी भक्ति क्यो न सुखप्रद हो ? उनकी भक्तिके स्वाभाविक गुण अपने सिरसे भवबंधनके दुख दूर कर दें, यह वात कोई सशयात्मक नहीं है। ये अखड परमात्मा कुछ राग या द्वेषवाले नही है, परतु परम भक्तिका यह फल स्वत होता है। अग्निका स्वभाव जैसे उष्णता हे वैसे, ये तो रागद्वेषरहित हे परतु इनकी भक्ति न्यायदृष्टिसे गुणदायक है। परतु जो
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श्रीमद् राजचन्द्र
भगवान जन्म, जरा तथा मरणके दुखमे डुबकियाँ लगाया करते है, वे क्या तार सकते है ? पत्थर पत्थरको कैसे तारे ? इसलिये इसका यह उपदेश भी दृढ हृदयसे मान्य करने योग्य है ।
७. नि. स्वार्थी गुरु- जिसे किसी भी प्रकारका स्वार्थ नही है वैसा गुरु धारण करना चाहिये, यह बात इसकी एकदम सच्ची ही है । जितना स्वार्थ होता है उतना धर्म और वैराग्य कम होता है । सभी धर्मोमे मैने धर्मगुरुओका स्वार्थ देखा, केवल एक जैन धर्मके सिवा । उपाश्रयमे आते वक्त चपटी चावल या आधी अजलि ज्वार लानेका भी इन्होने बोध नही दिया और इसी तरह इन्होने किसी भी प्रकारका स्वार्थ नही चलाया । तब ऐसे धर्मगुरुओके आश्रयसे मुक्ति क्यो न मिले ? मिले ही । इनका यह उपदेश महा श्रेयस्कर है । नाव पत्थरको तारती है, इसी तरह सुगुरु उपदेश देकर अपने शिष्योको तार सकता है, इसमे
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असत्य क्या
८. कर्म -सुख और दुख, जन्म और मरण आदि सब कर्मके अधीन है । जीव अनादिकालसे जैसे कर्म करता आ रहा है वैसे फल पा रहा है । यह उपदेश भी अनुपम ही है । कुछ कहते है कि भगवान अपराध क्षमा करे तो यह हो सकता है । परन्तु नही । यह उनकी भूल है । इससे वह परमात्मा भी रागद्वेषवाला सिद्ध होता है । ओर इससे कालक्रमसे मनमाना बरताव करना होता है । इस तरह इन सभी दोषोका कारण परमेश्वर होता है। तब यह बात सत्य कैसे कही जाय ? जैनियोका सिद्धात है कि फल कर्मानुसार होता है, यही सत्य है । ऐसा ही मत उनके तीर्थकरोने भी प्रदर्शित किया है । इन्होने अपनी प्रशसा नही चाही । और यदि चाहे तो वे मानवाले ठहरें । इसलिये उन्होने सत्य प्ररूपित किया है। कीर्तिके बहाने धर्मवृद्धि नही की । तथा उन्होने किसी भी प्रकारसे अपने स्वार्थकी गन्ध तक भी नही आने दी । कर्म सभीके लिये बाधक है । मुझे भी किये हुए कर्म नही छोडते और उन्हे भोगना पडता है। ऐसे विमल वचन भगवान श्री वर्धमानने कहे है। और फिर दृष्टान्त सहित वर्णन करके उन्हे दृढ किया है । भरतेश्वरजीने भगवान श्रीऋषभदेवजीसे पूछा - 'हे भगवन् । अब अपने वशमे कोई तीर्थंकर होगा ?" तब आदि तीर्थंकर भगवानने कहा—'हाँ, यह बाहर बैठा हुआ त्रिदडी वर्तमान चौबीसीमे चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा ।' यह सुनकर भरतेश्वरजी आनंदित हुए, और विनययुक्त अभिवन्दन करके वहाँसे उठे । बाहर आकर त्रिदडीको वदन किया और सूचित किया- 'तेरा अभीका पराक्रम देखकर मै कुछ वदन नही करता; परंतु त वर्तमान चौवीसीमे "भगवान वर्धमानके नामसे अतिम तीर्थंकर होनेवाला है, उस पराक्रमके कारण वदन करता हूँ।' यह सुनकर त्रिदडीजीका मन प्रफुल्लित हुआ, और अह आ गया - 'मै तीर्थंकर होऊँ इसमे क्या आश्चर्य ? मेरा दादा कौन है ? आद्य तीर्थंकर श्रीऋपभदेवजी । मेरा पिता कौन है ? छ खण्डके राजाधिराज चक्रवर्ती भरतेश्वर । मेरा कुल कौनसा है ? इक्ष्वाकु । तब मै तीर्थंकर होऊँ इसमे क्या ?' इस प्रकार अभिमानके आवेशमे हँसे, खेले और उछले - कूदे, जिससे सत्ताईस श्रेष्ठ व अनिष्ट भव बाँधे और उन भवोको भोगनेके बाद वर्तमान चौबीसीके अतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हुए । यदि उन्होने स्वार्थ या कीर्तिके लिये धर्मप्रवर्तन किया होता तो वे इस बातको प्रगट भी करते ? परन्तु उनका धर्म स्वार्थरहित था । इसलिये सच कहने से क्यो रुकते ? देखो भाई । मुझे भी कर्म नही छोड़ते, तो आपको कैसे छोडेंगे ? इसलिये इनका यह कर्मसिद्धात भी सच्चा है । यदि उनका स्वार्थी और कीर्तिके बहाने भुलावा देनेवाला धर्म होता तो वे यह वात प्रदर्शित भी करते ? जिन्हे स्वार्थ हो वे तो ऐसी बातको केवल भूमिमे ही दफना दे, और दिखावे कि, नही नही, मुझे कर्म पीडा नही देते । मै सबको जैसे चाहूँ वैसे कर सकता हूँ, तरनतारन हूँ ऐसी शान बघारते । परंतु भगवान वर्धमान जैसे निस्वार्थी और सत्यनिष्ठको अपनी झूठी प्रशसा कहना - करना छाजे ही क्यो ? ऐसे निर्विकारी परमात्मा ही यथार्थं उपदेश दे सकते है | इसलिये इनका यह सिद्धात भी किसी भी प्रकारसे शका करने योग्य नही है ।
९. सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दृष्टि अर्थात् भली दृष्टि । निष्पक्षतासे सदसद्का विचार करना । इसका नाम
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१७वें वर्षसे पहले विवेकदृष्टि और दिवेकदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि । इनका यह बोध सपूर्ण सत्य ही है । विवेकदृष्टिके बिना सत्य कहाँसे सूझे ? और सत्य सूझे बिना सत्यका ग्रहण भी कहाँसे हो ? इसलिये सभी प्रकारसे सम्यग्दृष्टिका उपयोग करना चाहिये । यह भी इसका सूचन क्या कम श्रेयस्कर है ?
___ हे पापी आत्मन् । तूने अनेक स्थलो पर जैन मुनीश्वरोको अहिसा सहित इन नौ सिद्धातोका उपदेश देते हुए सुना था। परन्तु उस समय तुझे भली दृष्टि ही कहाँ थी? इसके ये नवो सिद्धात कैसे निर्मल है । इसमे तिलभर बढती या जौ भर घटती नही है । इनके धर्ममे किंचित् विरोध नही है। इसमे जितना कहा है उतना सत्य ही है। मन, वचन और कायाका दमन करके आत्माकी शाति चाहो । यही इसका स्थल-स्थल पर उपदेश है। इसका प्रत्येक सिद्धात सृष्टिनियमका स्वाभाविक रूपसे अनुसरण करता है। इसने शील सबधी जो उपदेश दिया है, वह कैसा प्रभावशाली है | पुरुषोको एक पत्नीव्रत और स्त्रियोको एक पतिव्रतका तो (ससार न छोडा जा सके, और कामका दहन न हो सके तो) पालन करना ही चाहिये। इसमे उभय पक्षमे कितना फल है । एक तो मुक्तिमार्ग और दूसरा ससारमार्ग, इन दोनोमे इससे लाभ है। आज केवल ससारका लाभ तो देख । एक पत्नीव्रत ( स्त्रीको पतिव्रत) को पालते हुए प्रत्यक्षमे भी उसकी सुमनोकामना धारणानुसार पूरी हो जाती है। यह कीर्तिकर और शरीरसे भी आरोग्यप्रद है। यह भी ससारी लाभ है । परस्त्रीगामी कलकित होता है । आतशक, प्रमेह, और क्षय आदि रोग सहन करने पड़ते हैं । और दूसरे अनेक दुराचार लग जाते है। यह सब ससारमे भी दुखकारक है, तो वे मुक्तिमार्गमे किसलिये दुःखप्रद न हो ? देख, किसोको अपनी पुनीत स्त्रीसे वैसा रोग हुआ सुना है ? इसलिये इसके सिद्धात दोनो पक्षोमे श्रेयस्कर है। सच्चा तो सर्वत्र अच्छा ही हो न ? गरम पानी पीने सबधी इसका उपदेश सभीके लिये है और अन्तमे जो वैसा न कर सके वह भी छाने बिना तो पानी न ही पिये। यह सिद्धात दोनो पक्षमे लाभदायक है। परन्तु हे दुरात्मन् | तू मात्र ससारपक्ष ही ( तेरी अल्पबुद्धि है तो) देख । एक तो रोग होनेका सभव कम ही रहता है। अनछना पानी पीनेसे कितने-कितने प्रकारके रोगोकी उत्पत्ति होतो है । नारू, हैजा आदि अनेक प्रकारके रोगोकी उत्पत्ति इसीसे होती है। जब यहाँ पवित्र रूपसे लाभकारक है, तब मुक्तिपक्षमे किसलिये न हो ? इन नौ सिद्धातोमे कितना अधिक तत्त्व रहा है। जो एक सिद्धान्त है वह एक जवाहरातकी लडी है। वैसे नौ सिद्धातोसे बनी हुई यह नौलडी माला जो अंतकरणरूपी गलेमे पहने वह किसलिये दिव्य सुखका भोक्ता न हो ? यथार्थ एव नि स्वार्थ धर्म तो यह एक ही है। हे दुरात्मन् । यह काला नाग अब करवट बदल कर तेरी ओर ताकनेको तैयार हुआ है। इसलिये तू अब इस धर्मके 'नवकार स्तोत्र'का स्मरण कर । और अब आगेके जन्ममे भी इसी धमकी मॉग । ऐसा जब मेरा मन हो गया और “नमो अरिहताण" यह शब्द मुखसे कहता हूँ तब दूसरा कौतुक हुआ। जो भयकर नाग मेरे प्राण लेनेके लिये करवट बदल रहा था वह काला नाग वहाँसे धीरेसे खिसककर बाबीकी ओर जाता हआ मालूम हुआ। इसके मनसे ही ऐसी इच्छा उत्पन्न हुई कि मै धीरे-धीरे खिसक जाऊँ, नही तो यह बेचारा पामर प्राणी अब भयमे ही कालधर्मको प्राप्त हो जायेगा । ऐसा सोच कर वह खिसककर दूर चला गया। दूर जाते हुए वह बोला-'हे राजकुमार । तेरे प्राण लेनेमे मैं एक पलकी भी देर करनेवाला न था, परन्तु तुझे शुद्ध वैराग्य और जैनधर्ममे निमग्न देखकर मेरा दिल धीरेधीरे पिघलता गया। वह ऐसा तो कोमल हो गया कि हद हो गयी। यह सब होनेका कारण मात्र जैनधर्म ही है। तेरे अत'करणमे जब उस धर्मकी तरगे उठ रही थी तब मेरे मनमे उसी धर्मकी तरगसे तुझे न मारना ऐसा स्फरित हो आया था। जैसे-जैसे धीरे-धीरे तुझपर उस धर्मका असर बढता गया वैसेवैसे मेरी सुमनोवृत्ति तेरी ओर होती गयी । अन्तमे तूने जब “नमो अरिहताण" इतना कहा तब तुझे पूरा जैनास्तिक हआ देखकर मैंने अपना शरीर खिसका दिया । इसलिये तू मन, वचन और कायासे उस धर्मका पालन करना । तू यह मान कि मैं जैनधर्मके प्रतापसे ही अब तुझे जिंदा छोड़ रहा हूँ। यह धर्म तो धर्म
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श्रीमद् राजचन्द्र ही है। रे । मुझे मनुष्यजन्म मिला नही है। नही तो इस धर्मका ऐसा सेवन करता कि बस | परतु जैसा मेरा कर्मप्रभाव । तो भी मुझसे जैसे हो सकेगा वैसे मै इस धर्मका शुद्ध आचरण करूँगा । हे राजकुमार । अब तू आनदसे पैर नीचे रख कर अपनी तलवारको म्यानमे डाल । जिनशासनके शृंगार-तिलकरूप महामुनीश्वर यहाँ सामनेवाले सुन्दर बागमे बिराजते है। इसलिये तू वहाँ जा। उनके मुखकमलसे पवित्र उपदेशका श्रवण करके अपना मानवजन्म कृतार्थ कर ।' हे महामुनिराज | मणिधरके ऐसे वचन सुनकर मैं तो दग रह गया। कैसा जैनधर्मका प्रताप | मै मौतके पजेसे छटक गया। तब मै सचमुच दंग तो रह गया, परतु उस आश्चर्यके साथ अहो | जीवनदान देनेवाला तो यही जैनधर्म है । उस समय मेरे आनदका कोई पार नही रहा। मेरा सारा शरीर ही मानो हर्षसे बना हुआ हो ऐसा हो गया, और तुरत ही मैं उस दया करनेवाले नागदेवको प्रणाम करके और तलवारको म्यानमे रखकर दूसरे रास्तेसे होकर आपका पवित्र दर्शन करनेके लिये इस तरफ मुडा। अब मुझे उस धर्मकी यथार्थ सूक्ष्मताका उपदेश करें। एक नवकार मत्रके प्रतापसे मैने जीवनदान पाया तो इस सारे धर्मका पालन करते हुए क्या नही हो सकेगा? हे भगवन् । अब आप मुझे उस नौलडी मालाका अनुपम उपदेश दे।
शार्दूलविक्रीडितवृत्त "पाम्या मोद मुनि सुणी मन विषे, वृत्तांत राजा तणो, पार्छ निज चरित्र ते वरणव्यु, उत्साह राखी घणो; थाशे त्यां मन भूपने दृढ दया, ने बोध जारी थशे, त्रीजो खंड खचीत मान सुखदा, आ मोक्षमाला विषे। (अपूर्ण)
श्री परमात्मने नमः।
___ॐ नमः सच्चिदानंदाय । सज्जनता तीन भुवनका तिलकरूप है। सज्जनता सच्ची प्रीतिके मूल्यसे भरपूर चमकदार हीरा है। सज्जनता आनदका पवित्र धाम है। सज्जनता मोक्षका सरल और उत्तम राजमार्ग है। सज्जनता धर्म विषयकी प्यारी जननी है। सज्जनता ज्ञानीका परम एव दिव्य भूषण है। सज्जनता सुखका ही केवल स्थान है। सज्जनता ससारकी अनित्यतामे मात्र नित्यतारूप है। सज्जनता मनुष्यके दिव्य भागका प्रकाशित सूर्य है। सज्जनता नीतिके मार्गमे समझदार मार्गदर्शक है । सज्जनता निरतर स्तुतिपात्र लक्ष्मी है। सज्जनता सभी स्थलोमे प्रेम करनेका प्रवल मूल है। सज्जनता भव एव परभवमे अनुसरणके योग्य सुदर सड़क है। ' (दूसरे स्थलमे इसका विवेचन करनेका विचार है।)
'भावार्थ-राजाका वृत्तात सुनकर मुनि मनमे मुदित हुए, और पश्चात् अति उत्साहसे अपना चरित्र सुनाया । उधर राजाके मनमें दया दृढ होगी और इधर मुनिराजका उपदेश जारी होगा। इस तरह इस मोक्षमालाके तीसरे खडको सुखकारी अवश्य मानो।
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१७ वर्षसे पहले
३१
आप इस सज्जनताका सन्मान करते है यह सचमुच इस लेखकके अतःकरणको ठंडा करनेके लिये पवित्र औषध है ।
प्यारे भाई। इस सज्जनता सबंधी मुझमे कुछ भी ज्ञान नही है, तो भी जो स्वाभाविक रूपसे लिखना सूझा उसे यहाँ प्रदर्शित करता हूँ ।
वृन्दसतसईमे एक दोहा ऐसे भावार्थसे सुशोभित है कि - " कानको बीध कर बढ़ाया जा सकता है । परतु आँखके लिये वैसा नही हो सकता ।" इसी तरह विद्या बढानेसे बढती है, परंतु सज्जनता बढाये नही बढती ।
इस महान कविराज मतका बहुधा हम अनुसरण करेगे तो कुछ अयोग्य नही माना जायेगा । मेरे के अनुसार तो सज्जनता जन्मके साथ ही जोडी जानी चाहिये । ईश्वरकृपासे अति यत्नसे भी प्राप्त अवश्य होती है । मन जीतनेकी यह सच्ची कसोटी है ।
सज्जनताके लिये शंकराचार्यजी एक श्लोकमे ऐसा भावार्थ प्रदर्शित करते है कि (सत्सगका) एक क्षण भी, मूर्खके जन्मभरके सहवासकी अपेक्षा, उत्तम फलदायक सिद्ध होता है ।
ससारमे सज्जनता ही सुखप्रद है ऐसा यह श्लोक बताता हैसंसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
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काव्यामृतरसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ॥ *
इसके बिना भी यह समझा जा सकता है कि जो नीति है वह सकल आनदका विधान है ।
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श्री शांतिनाथ भगवान
स्तुति
* परिपूर्ण ज्ञाने परिपूर्णं ध्याने, परिपूर्ण चारित्र बोधित्व दाने; नीरागी महाशांत मूर्ति तमारी, प्रभु प्रार्थना शाति लेशो अमारी । ऊ उपमा तो अभिमान मारु, अभिमान टाळ्या तणुं तत्त्व तारु; छतां बालरूपे रह्यो शिर नामी, स्वीकारो घणी शुद्धिए शांतिस्वामी । स्वरूपे रही शातता शाति नामे, बिराज्या महा शाति आनंद घामे ।
(अपूर्ण)
*ससाररूपी विषवृक्षके अमृततुल्य दो फल हैं- एक काव्यामृतका रसास्वाद और दूसरा सज्जनोके साथ वार्तालाप |
• भावार्थ - हे शातिनाथ भगवन् । आप ज्ञान, ध्यान, और चारित्रमें परिपूर्ण है एव बोधित्व देनेमें परिपूर्ण हैं, आप वीतराग हैं और आपकी मूर्ति महाशात है । है शाति प्रभो । हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। यदि मैं आपके लिये कोई उपमा हूँ, तो यह मेरा अभिमान ठहरता है, और आपका तत्त्ववोध तो अभिमानका नाशक है । फिर भी मैं बालरूपमें अति शुद्ध भावसे सिर झुकाकर वन्दना कर रहा हूँ । है शातिनाथ । मेरी वन्दना स्वीकार करें | आपके स्वरूप में शातता है, आपके नाममें शाति है, और आप महाशाति एव आनन्दके धाम में विराजमान है ।
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१७ वाँ वर्ष
भावनाबोध
(द्वादशानुप्रेक्षा-स्वरूपदर्शन)
उपोद्घात
सच्चा सुख किसमें है ? चाहे जैसे तुच्छ विषयमे प्रवेश होनेपर भी उज्ज्वल आत्माओकी सहज प्रवृत्ति वैराग्यमे जुट जाने की होती है। बाह्य दृष्टिसे जब तक उज्ज्वल आत्मा ससारके मायिक प्रपंचमे दिखायी देते हैं तब तक इस कथनकी सिद्धि कदाचित् दुर्लभ है, तो भी सूक्ष्म दृष्टिसे अवलोकन करनेपर इस कथनका प्रमाण सर्वथा सुलभ है, यह निःसशय है।
एक छोटेसे छोटे जन्तुसे लेकर एक मदोन्मत्त हाथी तक सभी प्राणी, मनुष्य और देवदानव इन सवकी स्वाभाविक इच्छा सुख और आनद प्राप्त करनेकी है। इसलिये वे उसकी प्राप्तिके उद्योगमे जुटे रहते हैं, परतु विवेक बुद्धिके उदयके बिना वे उसमे विभ्रमको प्राप्त होते है । वे ससारमे नाना प्रकारके सुखोका आरोप करते है । अति अवलोकनसे यह सिद्ध है कि वह आरोप वृथा है। इस आरोपको अनारोप करनेवाले विरले मनुष्य विवेकके प्रकाश द्वारा अद्भुत परन्तु अन्य विषयको प्राप्त करनेके लिये कहते आये है । जो सुख भयवाले हैं वे सुख नही है परन्तु दु ख है। जिस वस्तुको प्राप्त करनेमे महाताप है, जिस वस्तुको भोगनेमे इससे भी विशेष ताप है, तथा परिणाममे महाताप, अनन्त शोक और अनन्त भय है, उस वस्तुका सुख मात्र नामका सुख है, अथवा है ही नही। इसलिये विवेकी उसमे अनुरक्ति नहीं करते । संसार के प्रत्येक सुखसे विराजित राजेश्वर होनेपर भी, सत्य तत्त्वज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होनेसे, उसका त्याग करके योगमे परमानन्द मानकर सत्य मनोवीरतासे अन्य पामर आत्माओको भर्तृहरि उपदेश देते हैं कि
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभय वित्ते नृपालाद्भयं, माने दैन्यभय बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयम्। " शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं,
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ भावार्थ-भोगमे रोगका भय है, कुलमे पतनका भय है, लक्ष्मीमे राजाका भय है; मानमे दीनता का भय है, बलमे शत्रुका भय है, रूपसे स्त्रीको भय है। शास्त्रमे वादका भय है, गुणमे खलका भय है, और काया पर कालका भय है, इस प्रकार सभी वस्तुएँ भयवाली है, एकमात्र वैराग्य ही अभय है ।।।
महायोगी भर्तृहरिका यह कथन सृष्टिमान्य अर्थात् सभी उज्ज्वल आत्माओको सदैव मान्य रखने योग्य है। इममे सारे तत्त्वज्ञानका दोहन करनेके लिये इन्होने सकल तत्त्ववेत्ताओंके सिद्धातरहस्यरूप और संसारशोकका स्वानुभूत तादृश चित्र प्रस्तुत किया है। इन्होंने जिन-जिन वस्तुओपर भयकी छाया प्रदर्शित
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श्रीमद् राजचद्र ( वर्ष १६ )
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श्रीमद् राजचन्द्र
छत्रप्रबंधस्य प्रेमप्रार्थना
जेतपुर, कार्तिक सुदी १५,१९४१
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AVEVO
1451
AMAATAKAM
१
२
अन्तर्गत-भुजगी छन्द अरिहंत आनंदकारी अपारी, सदा मोक्षदाता तथा दिव्यकारी; विनंति वणिके विवेके विचारी, वडी वंदना साथ हे ! दुःखहारी॥
कर्ता उपजाति ववाणियावासी वणिक रचेल तेणे शुभ हित सुबोध दाख्यो रवजी आ रायचदे मनथी
ज्ञाति, कांति; तनुजे, रमूजे ॥
दना
न तिव|णि के
प्रयोजन प्रमाणिका वणिक जेतपुरना, रिझाववा कसूर ना; रच्यो प्रबंध चित्तथी, चतुरभुज हितथी॥
.
डा
इस प्रबंधमे दृष्टिदोष, हस्तदोष या मनोदोष दृष्टिगोचर हो तो उनके लिये क्षमा चाहते हुए विनयपूर्वक वंदना करता हूँ। मै हूँ,
" रायचंद्र रवजी
१ अरिहत सदा आनद देनेवाले अपार गुणवाले, मोसके देनेवाले, दिव्यकर्म करनेवाले हैं । हे दु खहारी । यह वणिक् विवेकपूर्वक विचार करके वदनाके साथ आपसे विनती करता है।
२ जो ववाणियावासी और वणिक जातिका है उसने शभ, हित और कातिके लिये यह रचना की है। श्री रवजीभाईके पुत्र इस रायचदने मनसे विनोदमें यह सुवोध दिया है।
३ जेतपुरके वणिक निर्दोप चतुर्भुजको प्रसन्नता तथा हितके लिये चित्तकी उमगसे यह प्रवध रचा है।
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१७वे वर्षसे पहले
१५
दोहे
ज्ञानी के अज्ञानी जन, सुख दुःख रहित न कोय । वेदे धैर्ययी, अज्ञानी वेदे
ज्ञानी
रोय ॥
मंत्र तंत्र औषध नहीं, जेथी पाप वीतराग वाणी विना, अवर न कोई
पलाय ।
उपाय ॥
वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूल । औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूल ॥
जन्म, जरा ने मृत्यु, मुख्य दुःखना हेतु । कारण तेनां बे कह्यां, राग द्वेष अणहेतु ॥
नयी घर्यो देह विषय नथो धर्यो देह परिग्रह
वधारवा । धारवा ॥
३३
भावार्थ - ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी मनुष्य सुखदु खसे रहित नही है । ज्ञानी सुखदुखको धैर्यसे भोगता है और अज्ञानी रो रोकर भोगता है ।
ससारमें कोई भी मत्र, तत्र और औषध नही है कि जिससे पाप दूर किया जाये । वीतरागकी वाणीके सिवाय पापका नाशक अन्य कोई उपाय नही है ।
वीतरागके वचनामृत परम शांतरसके मूल हैं, जो भवरोगके औषध है, परन्तु कायरके लिये प्रतिकूल हैं ।
जन्म, जरा और मृत्यु दु खके मुख्य हेतु है । अनावश्यक राग और द्वेष ही उनके दो कारण कहे हैं ।
हे जीव । तूने विषयको बढानेके लिये देह धारण नही की है, और परिग्रहको अपनानेके लिये भी देह धारण नही की है ।
Joi
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१७ वॉ वर्ष की है वे सब वस्तुएँ ससारमे मुख्यतः सुखरूप मानी गयी हैं । ससारका सर्वोत्तम सुखका साधन जो भोग है वह तो रोगका धाम ठहरा । मनुष्य ऊँचे कुलसे सुख मानता है, वहाँ पतनका भय दिखाया। ससारचक्र मे व्यवहारका ठाठ चलानेके लिये दडरूप लक्ष्मी है वह राजा इत्यादिके भयसे भरपूर है। कोई भी कृत्य फरके यश-कीर्तिसे मान प्राप्त करना या मानना, ऐसो ससारके पामर जीवोकी अभिलाषा है, तो उसमे महादीनता और दरिद्रताका भय है । बल-पराक्रमसे भी ऐसी ही उत्कृष्टता प्राप्त करनेकी चाह रही है, तो उसमे शत्रुका भय रहा हुआ है । रूप-काति भोगीके लिये मोहिनीरूप है तो उसे धारण करनेवाली स्त्रियाँ निरतर भययुक्त ही हैं । अनेक प्रकारसे गूंथी हुई शास्त्रजालमे विवादका भय रहा है । किसी भी सासारिक सुखका गुण प्राप्त करनेसे जो आनद माना जाता है, वह खल मनुष्यकी निंदाके कारण भयान्वित है। जिसमे अनत प्रियता रही है वह काया एक समय कालरूपी सिंहके मुखमे पडनेके भयसे भरी है । इस प्रकार ससारके मनोहर परतु चपल सुख-साधन भयसे भरे हुए है। विवेकसे विचार करनेपर जहॉ भय है वहाँ केवल शोक ही है, जहाँ शोक हो वहाँ सुखका अभाव है, और जहाँ सुखका अभाव है वहाँ तिरस्कार करना यथोचित है।
योगीद्र भर्तृहरि एक हो ऐसा कह गये हैं ऐसा नही है । कालानुसार सृष्टिके निर्माण समयसे लेकर भर्तृहरिसे उत्तम, भर्तृहरिके समान और भर्तृहरिसे कनिष्ठ ऐसे असख्य तत्त्वज्ञानी हो गये है। ऐसा कोई काल या आर्य देश नही है जिसमे तत्त्वज्ञानियोकी उत्पत्ति बिलकुल न हुई हो । इन तत्त्ववेत्ताओने ससारसुखकी प्रत्येक सामग्रोको शोकरूप बताया है, यह इनके अगाध विवेकका परिणाम है। व्यास, वाल्मीकि, शकर, गौतम, पतजलि, कपिल और युवराज शुद्धोदनने अपने प्रवचनोमे मार्मिक रीतिसे और सामान्य रोतिसे जो उपदेश दिया है, उसका रहस्य नीचेके शब्दोमे कुछ आ जाता है -
"अहो लोगो । समाररूपी समुद्र अनत एव अपार है । इसका पार पानेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो | उपयोग करो।"
ऐसा उपदेश करनेमे इनका हेतु प्रत्येक प्राणीको शोकसे मुक्त करनेका था। इन सब ज्ञानियोकी अपेक्षा परम मान्य रखने योग्य सर्वज्ञ महावीरके वचन सर्वत्र यही है कि ससार एकात और अनत शोकरूप तथा दुखप्रद है। अहो भव्य लोगो | इसमे मधुरी मोहिनी न लाकर इससे निवृत्त होओ | निवृत्त होओ।।
महावीरका एक समयमात्रके लिये भी ससारका उपदेश नही है। इन्होने अपने सभी प्रवचनोमे यही प्रदर्शित किया है तथा स्वाचरणसे वैसा सिद्ध भी कर दिया है । कचनवर्णी काया, यशोदा जैसी रानी, अपार साम्राज्यलक्ष्मी और महाप्रतापो स्वजन परिवारका समूह होनेपर भी उनकी मोहिनीका त्यागकर ज्ञानदर्शनयोगपरायण होकर इन्होने जो अद्भुतता प्रदर्शित की है वह अनुपम है। यहीका यही रहस्य प्रकट करते हुए पवित्र उत्तराध्ययनसूत्रके आठवें अध्ययनकी पहलो गाथामे महावीर कपिल केवलीके समोप तत्त्वाभिलाषीके मुखकमलसे कहलवाते हैं :
अधुवे असासयम्मि ससारम्मि दुक्खपउराए ।
किं नाम हुज्ज कम्मं जेणाहं दुग्गई न गच्छिज्जा ॥ 'अध्रुव एव अशाश्वत ससारमे अनेक प्रकारके दुःख हैं, मै ऐसी कौनसी करनी करूँ कि जिस करनी से दुर्गतिमे न जाऊँ ?" इस गाथामे इस भावसे प्रश्न होनेपर कपिलमुनि फिर आगे उपदेश चलाते हैं :
अधुवे असासयम्मि-ये महान तत्त्वज्ञानप्रसादीभूत वचन प्रवृत्तिमुक्त योगीश्वरके सतत वेराग्यवेगके है । अति बुद्धिशालियोको ससार भी उत्तमरूपसे मान्य रखता है, फिर भी वे बुद्धिशाली उसका त्याग करते है, यह तत्त्वज्ञानका स्तुतिपात्र चमत्कार है । वे अति मेधावी अतमे पुरुषार्थकी स्फुरणा कर महायोग साधकर आत्माके तिमिरपटको दूर करते है । ससारको शोकाब्धि कहनेमे तत्त्वज्ञानियोकी भ्राति नही है, परतु ये सभी तत्त्वज्ञानी कही तत्त्वज्ञानचंद्रकी सोलह कलाओसे पूर्ण नहीं होते, इसी कारणसे सर्वज्ञ
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३६
महावीरके वचन तत्त्वज्ञानके लिये जो महावीरके तुल्य ऋषभदेव जैसे जो जो हितैषीकी पदवी प्राप्त की है ।
श्रीमद् राजचन्द्र
प्रमाण देते हैं वे महत्त्वपूर्ण, सर्वमान्य और सर्वथा मगलमय हैं । सर्वज्ञ तीर्थंकर हुए हैं, उन्होने नि स्पृहतासे उपदेश देकर जगत्
ससारमे जो एकात और अनत भरपूर ताप है वह ताप तीन प्रकारका है-आधि, व्याधि और उपाधि। इससे मुक्त होनेके लिये सभी तत्त्वज्ञानी कहते आये है । ससारत्याग, शम, दम, दया, शाति, क्षमा, घृति, अप्रभुत्व, गुरुजनोकी विनय, विवेक, निस्पृहता, ब्रह्मचर्य, सम्यक्त्व और ज्ञान, इन सबका सेवन करना, क्रोध, लोभ, मान, माया, अनुराग, अनबन, विषय, हिंसा, शोक, अज्ञान और मिथ्यात्व, इन सबका त्याग करना । यही सभी दर्शनोका सामान्यत. सार है । नीचेके दो चरणोमे इस सारका समावेश हो जाता है
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प्रभु भजो नीति सजो, परठो परोपकार.
सचमुच | यह उपदेश स्तुतिपात्र है । यह उपदेश देनेमे किसीने किसी प्रकारकी और किसीने किसी प्रकारकी विचक्षणता प्रदर्शित की है । यह सब उद्देशकी दृष्टिसे तो समतुलित - से दिखायी देते है । परंतु सूक्ष्म उपदेशकके तौरपर सिद्धार्थ राजाके पुत्र श्रमण भगवान प्रथम पदवीके धनी हो जाते हैं । निवृत्तिके लिये जिन-जिन विषयोको पहले बताया है उन उन विषयोके सच्चे स्वरूपको समझकर सर्वांशमे मगलमय बोध देनेमे ये राजपुत्र बाजी ले गये हैं । इसके लिये उन्हे अनत धन्यवाद छाजता है ।
इन सब विषयोका अनुकरण करनेका क्या प्रयोजन अथवा क्या परिणाम है ? अब इसका निर्णय करें | सभी उपदेशक यो कहते आये है कि इसका परिणाम मुक्ति प्राप्त करना, और प्रयोजन दुखकी निवृत्ति है । इसीलिये सब दर्शनोमे सामान्यतः मुक्तिको अनुपम श्रेष्ठ कहा है । द्वितीय अग सूत्रकृताग प्रथम श्रुतस्कधके छठे अध्ययनकी चौबीसवी गाथाके तीसरे चरणमे कहा है कि
निव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा ।
सभी धर्मो मुक्तिको श्रेष्ठ कहा है ।
साराश यह है कि मुक्ति अर्थात् ससारके शोकसे मुक्त होना । परिणाममे ज्ञानदर्शनादि अनुपम वस्तुओको प्राप्त करना । जिसमे परम सुख और परमानदका अखंड निवास है, जन्म-मरणकी विडबनाका अभाव है, शोक एव दुखका क्षय है, ऐसे इस वैज्ञानिक विषयका विवेचन अन्य प्रसगमे करेंगे ।
यह भी निर्विवाद मान्य रखना चाहिये कि उस अनंत शोक एव अनत दुखकी निवृत्ति इन्ही सांसारिक विषयोसे नही है । रुधिरसे रुधिरका दाग नहीं जाता, परतु जलसे वह दूर हो जाता है, इसी तरह शृगारसे या शृगारमिश्रित धर्मसे ससारकी निवृत्ति नही होती । इसीलिये वैराग्यजलकी आवश्यकता निसराय सिद्ध होती है, और इसीलिये वीतरागके वचनोमे अनुरक्त होना उचित है। निदान इससे विषय - रूप विषका जन्म नही होता । परिणाममे यही मुक्तिका कारण है । इन वीतराग सर्वज्ञके वचनोका विवेकबुद्धिसे श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके हे मनुष्य । आत्माको उज्ज्वल कर ।
प्रथम दर्शन
इसमे वैराग्यबोधिनी कुछ भावनाओका उपदेश करेंगे । वैराग्य एव आत्महितैषी विषयोकी सुदृढता होनेके लिये तत्त्वज्ञानी बारह भावनाएँ बताते हैं
१. अनित्यभावना - शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुम्ब परिवार आदि सर्व विनाशी हैं। जीवका मूल धमं अविनाशी है, ऐसा चिन्तन करना, यह पहली अनित्यभावना |
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१७ वाँ वर्ष
२. अशरणभावना-संसारमे मरणके समय जीवको शरणमे रखनेवाला कोई नही है, मात्र एक शुभ धर्मकी शरण ही सत्य है, ऐसा चिंतन करना, यह दूसरी अशरणभावना ।
३. संसारभावना-इस आत्माने ससारसमुद्रमे पर्यटन करते-करते सर्व भव किये हैं। इस ससार बेड़ीसे मैं कब छुटूंगा? यह संसार मेरा नही है, मैं मोक्षमयी हूँ, इस तरह चिंतन करना, यह तीसरी संसारभावना।
४. एकत्वभावना-यह मेरा आत्मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला जायेगा, अपने किये हुए कर्मोको अकेला भोगेगा, अंत करणसे इस तरह चिंतन करना, यह चौथी एकत्वभावना।।
५. अन्यत्वभावना-इस ससारमे कोई किसीका नही है, इस तरह चिंतन करना, यह पाँचवी, अन्यत्वभावना।
६. अशुचिभावना-यह शरीर अपवित्र है, मल-मूत्रकी खान है, रोग-जराका निवासधाम है, इस शरीरसे मैं न्यारा हूँ, इस तरह चिंतन करना, यह छठी अशुचिभावना।
७. आस्रवभावना-राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सर्व आस्रव हैं, इस तरह चिंतन करना, यह सातवी आस्रवभावना।
८. संवरभावना-ज्ञान, ध्यानमे प्रवर्तमान होकर जीव नये कर्म नही बॉधता, यह आठवी सवरभावना।
९. निर्जराभावना-ज्ञानसहित क्रिया करना यह निर्जराका कारण है, इस तरह चिंतन करना, यह नौवी निर्जराभावना।
१०. लोकस्वरूपभावना-चौदह राजूलोकके स्वरूपका विचार करना, यह दसवी लोकस्वरूपभावना।
११. बोधिदुर्लभभावना-संसारमे भ्रमण करते हुए आत्माको सम्यग्ज्ञानको प्रसादी प्राप्त होना दुर्लभ है, अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ तो चारित्र-सर्वविरतिपरिणामरूप धर्म प्राप्त होना दुर्लभ है, इस तरह चिंतन करना, यह ग्यारहवी बोधिदुर्लभभावना।।
१२. धर्मदुर्लभभावना-धर्मके उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रके बोधक गुरु और उनके उपदेशका श्रवण मिलना दुर्लभ है, इस तरह चिंतन करना, यह बारहवी धर्मदुर्लभभावना ।
इस प्रकार मुक्ति साध्य करनेके लिये जिस वैराग्यकी आवश्यकता है उस वैराग्यको दृढ़ करनेवाली बारह भावनाओमेसे कुछ भावनाओका इम दर्शनके अन्तर्गत वर्णन करेंगे। कुछ भावनाएं कुछ विषयोमे वाट दी गयी हैं, और कुछ भावनाओके लिये अन्य प्रसगको आवश्यकता है, अतः यहाँ उनका विस्तार नही किया है।
प्रथम चित्र अनित्यभावना
( उपजाति ) , विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग,
आयुष्य ते तो जळना तरंग; पुरंदरी चाप अनंग रंग,
शुं राचीए त्यो क्षणनो प्रसंग !
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श्रामद् राजचन्द्र विशेषार्थ-लक्ष्मी विजलीके समान है। जैसे बिजलीका चमकारा हाकर विलीन हो जाता है, वैसे लक्ष्मी आकर चली जाती है । अधिकार पतंगके रंगके समान है। पतगका रंग जैसे चार दिनकी चॉदनी है, वैसे अधिकार मात्र थोडा समय रहकर हाथसे चला जाना है। आयुष्य पानीकी हिलोरके समान है। जैसे पानोकी हिलोर आयो कि गयी वैसे जन्म पाया और एक देहमे रहा या न रहा, इतनेमे दूसरी देहमे जाना पडता है। कामभोग आकाशमे उत्पन्न होनेवाले इद्रधनुषके सदृश है। जैसे इन्द्रधनुप वर्षाकालमे उत्पन्न होकर क्षणभरमे विलीन हो जाता है वैसे यौवनमे कामविकार फलीभूत होकर जरावस्थामे चले जाते है । सक्षेपमे हे जीव ! इन सभी वस्तुओका सम्बन्ध क्षणभरका है, इनमे प्रेमवधनकी सॉकलसे बँधकर क्या प्रसन्न होना ? तात्पर्य कि ये सब चपल एव विनाशी हैं, तू अखड एव अविनाशी है, इसलिये अपने जैसी नित्य वस्तुको प्राप्त कर ।
भिखारीका खेद दृष्टांत-इस अनित्य और स्वप्नवत् सुखके विषयमे एक दृष्टात कहते है
एक पामर भिखारी जगलमे भटकता था । वहाँ उसे भूख लगी। इसलिये वह विचारा लडखड़ाता हुआ एक नगरमे एक सामान्य मनुष्यके घर पहुंचा। वहां जाकर उसने अनेक प्रकारकी आजिजी की । उसकी गिड़गिडाहटसे करुणार्द्र होकर उस गृहपतिको स्त्रीने घरमेसे जीमनेसे बचा हुआ मिष्टान्न लाकर उसे दिया। ऐसा भोजन मिलनेसे भिखारी बहुत आनन्दित होता हुआ नगरके बाहर आया । आकर एक वृक्षके नीचे बैठा । वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओर अपना बहुत पुराना पानीका घड़ा रख दिया, एक ओर अपनी फटो पुरानी मलिन गुदडो रखो और फिर एक ओर वह स्वयं उस भोजनको लेकर बैठा । खुशी-खुशीसे उसने कभी न देखे हुए भोजनको खाकर पूरा किया। भोजनको स्वधाम पहुँचानेके बाद सिरहान एक पत्थर रखकर वह सो गया । भोजनके मदसे जरासी देरमे उसकी आँखे मिच गयी । वह निद्रावश हुआ कि इतनेमे उसे एक स्वप्न आया। मानो वह स्वयं महा राजऋद्धिको प्राप्त हुआ है, इसलिये उसने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये हैं, सारे देशमे उसकी विजयका डका बज गया है, समीपमे उसको आज्ञाका पालन करनेके लिये अनुचर खडे हैं, आसपास छड़ीदार ‘खमा । खमा !" पुकार रहे है, एक उत्तम महालयमे,
सुन्दर पलंगपर उसने शयन किया है, देवांगना जैसी स्त्रियाँ उसकी पॉव-चप्पी कर रही है, एक ओरसे __ मनुष्य पखेसे सुगन्धी पवन कर रहे है, इस प्रकार उसने अपूर्व सुखकी प्राप्तिवाला स्वप्न देखा। स्वप्ना-,
वस्थामे उसके रोमाच उल्लसित हो गये। वह मानो स्वयं सचमुच वैसा सुख भोग रहा है ऐसा वह मानने लगा। इतनेमे सूर्यदेव बादलोसे ढंक गया, विजलो कौंधने लगो, मेघ महाराज चढ आये, सर्वत्र अंधेरा छा गया; मूसलधार वर्षा होगी ऐसा दृश्य हो गया, और घनगर्जनाके साथ बिजलीका एक प्रबल कडाका हुआ । कडाकेकी प्रबल आवाजसे भयभीत हो वह पामर भिखारी शीघ्र जाग उठा। जागकर देखता है तो न है वह देश कि न है वह नगरी, न है वह महालय कि न है वह पलग, न हैं वे चामरछत्रधारी कि न हैं वे छड़ीदार, न है वह स्त्रीवृन्द कि न है वे वस्त्रालंकार, न हे वे पखे कि न है वह पवन, न है वे अनुचर कि न है वह आज्ञा, न हे वह सुखविलास कि न है वह मदोन्मत्तता । देखता है तो जिस जगह पानीका पुराना घड़ा पड़ा था उसी जगह वह पडा है, जिस जगह फटी-पुरानी गुदड़ी पड़ी थी उसी जगह वह फटी-पुरानी गुदड़ी पड़ी है। महाशय तो जैसे थे वैसेके वैसे दिखायी दिये । स्वय जैसे मलिन और अनेक जाली-झरोखेवाले वस्त्र पहन रखे थे वेसेके वैसे वही वस्त्र शरीरपर विराजते है । न तिलभर घटा कि न रत्तीभर बढा। यह सब देखकर वह अति शोकको प्राप्त हुआ। 'जिस सुखाडबरसे मैने आनन्द माना, उस सुखमेसे तो यहाँ कुछ भी नही है । अरे रे । मैंने स्वप्नके भोग तो भोगे नही और मुझे मिथ्या खेद प्राप्त हुआ।' इस प्रकार वह विचारा भिखारी ग्लानिमे आ पड़ा।
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१७ वा वर्ष प्रमाणशिक्षा-स्वप्नमे जैसे उस भिखारीने सुखसमुदायको देखा, भोगा और आनन्द माना; वैसे पामर प्राणी संसारके स्वप्नवत् सुखसमुदायको महानन्दरूप मान बैठे है। जैसे वह सुखसमुदाय जागृतिमे उस भिखारीको मिथ्या प्रतीत हुआ, वैसे तत्त्वज्ञातरूपी जागृतिसे ससारके सुख मिथ्या प्रतीत होते हैं। स्वप्नके भोग न भोगे जानेपर भी जैसे उस भिखारीको शोककी प्राप्ति हुई, वैसे पामर भव्य जीव ससारमे सुख मान बैठते हैं, और भोगे हुएके तुल्य मानते है, परन्तु उस भिखारीकी भाँति परिणाममे खेद, पश्चात्ताप और अधोगतिको प्राप्त होते है। जैसे स्वप्नको एक भी वस्तुका सत्यत्व नहीं है, वैसे ससारकी एक भी वस्तुका सत्यत्व नही है। दोनो चपल और शोकमय है। ऐसा विचार करके बुद्धिमान पुरुष आत्मश्रेयको खोजते हैं।
इति श्री 'भावनाबोध' ग्रन्थके प्रथम दर्शनका प्रथम चित्र 'अनित्यभावना' इस विषयपर सदृष्टान्त वैराग्योपदेशार्थ समाप्त हुआ।
द्वितीय चित्र अशरणभावना
(उपजाति) सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी। अनाथ एकात सनाथ थाशे, -
एना विना कोई न बाह्य सहाशे ॥ विशेषार्थ-सर्वज्ञ जिनेश्वरदेवके द्वारा नि स्पहतासे उपदिष्ट धर्मको उत्तम शरणरूप जानकर, मन, वचन और कायाके प्रभावसे हे चेतन | उसका तू आराधन कर, आराधन कर। तू केवल अनाथरूप है सो सनाथ होगा। इसके बिना भवाटवीभ्रमणमे तेरी बाँह पकडनेवाला कोई नही है ।
जो आत्मा ससारके मायिक सुखको' या अवदर्शनको शरणरूप मानते हैं, वे अधोगतिको प्राप्त करते हैं, तथा सदैव अनाथ रहते है, ऐसा बोध करनेवाले भगवान अनाथी मुनिका चरित्र प्रारम्भ करते है, इससे अशरणभावना सुदृढ होगी।
अनाथी मुनि दृष्टान्त-अनेक प्रकारको लीलाओसे युक्त मगध देशका श्रेणिक राजा अश्वक्रीडाके लिये मडिकुक्ष नामके वनमे निकल पडा । वनकी विचित्रता मनोहारिणी थी। नाना प्रकारके तरुकुञ्ज वहाँ नजर आ रहे थे, नाना प्रकारकी कोमल वल्लिकाएँ घटाटोप छायी हुई थी, नाना प्रकारके पक्षी आनन्दसे उनका सेवन कर रहे थे, नाना प्रकारके पक्षियोके मधुर गान वहाँ सुनायो दे रहे थे, नाना प्रकारके फूलोसे वह वन छाया हुआ था, नाना प्रकारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे, सक्षेपमे सृष्टिसौदर्यका प्रदर्शनरूप होकर वह वन नंदनवनकी तुल्यता धारण कर रहा था। वहाँ एक तरुके नीचे महान समाधिमान पर सुकुमार एव सुखोचित मुनिको उस श्रेणिकने बैठे हुए देखा । उनका रूप देखकर वह राजा अत्यन्त आनन्दित हुआ। उस अतुल्य उपमारहित रूपसे विस्मित होकर मनमे उनकी प्रशसा करने लगा-'अहो । इस मनिका कैसा अद्भुत वर्ण है | अहो। इसका कैसा मनोहर रूप है । अहो । इस आर्यको कैसो अद्भुत सौम्यता है। अहो । यह कैसी विस्मयकारक क्षमाके धारक है | अहो । इसके अगसे वैराग्यकी कैसी उत्तम स्फरणा है। अहो । इसकी कैसी निर्लोभता मालम होती है | अहो | यह संयति कसा निर्भय अप्रभुत्व-नम्रता धारण किये हुए है | अहो । इसकी भोगको नि सगता कितनो सुदृढ है ।" यो चिंतन करते-करते मदित होते-होते. स्तुति करते-करते, धीरेसे चलते-चलते, प्रदक्षिणा देकर उस मुनिको वदन करके, न अति समीप और न
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श्रीमद राजचन्द्र
अति दूर वह बैठा । फिर अजलिबद्ध होकर विनयसे उसने मुनिको पूछा - "हे आर्य | आप प्रशंसा करने योग्य तरुण हैं; भोगविलासके लिये आपकी वय अनुकूल है, ससारमे नाना प्रकारके सुख है; ऋतुऋतुके कामभोग, जलसंबंधी कामभोग तथा मनोहारिणी स्त्रियोके मुखवचनोका मधुर श्रवण होने पर भी इन सबका त्याग करके मुनित्वमे आप महान उद्यम कर रहे हैं, इसका क्या कारण ? यह मुझे अनुग्रहसे कहिये ।"
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राजा के ऐसे वचन सुनकर मुनिने कहा, "मैं अनाथ था । हे महाराजन् । मुझे अपूर्व वस्तुको प्राप्त करानेवाला तथा योगक्षेमका करनेवाला, मुझपर अनुकपा लानेवाला, करुणा करके परम सुखका देनेवाला सुहृत्- मित्र लेशमात्र भी कोई न हुआ । यह कारण मेरी अनाथताका था ।”
श्रेणिक, मुनिके भाषण से मुस्कराया । "अरे ! आप जैसे महान ऋद्धिमानको नाथ क्यो न हो ? लीजिये, कोई नाथ नही है तो मैं होता हूँ । हे भयत्राण | आप भोग भोगिये । हे संयति । मित्र । जातिसे दुर्लभ ऐसे अपने मनुष्य-भवको सफल कीजिये ।”
अनाथीने कहा—“परन्तु अरे श्रेणिक, मगधदेशके राजन् । तू स्वयं अनाथ है तो मेरा नाथ क्या होगा ? निर्धन धनाढ्य कहाँसे बना सके ? अबुध बुद्धिदान कहाँसे दे सके ? अज्ञ विद्वत्ता कहाँसे दे सके ? वध्या सतान कहाँसे दे सके ? जब तू स्वय अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा ?" मुनिके वचनोंसे राजा अति आकुल और अति विस्मित हुआ । जिन वचनोका कभी श्रवण नही हुआ, उन वचनोका यतिमुखसे श्रवण होनेसे वह शकाग्रस्त हुआ और बोला - " मैं अनेक प्रकार के अश्वोका भोगी हूँ, अनेक प्रकारके मदोन्मत्त हाथियोका धनी हूं, अनेक प्रकारकी सेना मेरे अधीन हैं, नगर, नाम, अत. पुर, तथा चतुष्पादकी मेरे कोई न्यूनता नही है, मनुष्यसम्बन्धी सभी प्रकारके भोग मुझे प्राप्त हैं, अनुचर मेरी आज्ञाका भलीभाँति पालन करते हैं, पाँचो प्रकारकी सपत्ति मेरे घरमे है, सर्व मनोवाछित वस्तुएँ मेरे पास रहती हैं ! ऐसा मैं जाज्वल्यमान होते हुए भी अनाथ कैसे हो सकता हूँ ? कही हे भगवन् । आप मृषा बोलते हो ।" मुनिने कहा - "हे राजन् । मेरे कहे हुए अर्थको उपपत्तिको तूने ठीक नही समझा । तू स्वयं अनाथ है, परन्तु तत्सम्बन्धी तेरी अज्ञता है। अब में जो कहता हूँ उसे अव्यग्र एव सावधान चित्तसे तू सुन, सुनकर फिर अपनी शंकाके सत्यासत्यका निर्णय करना । मैंने स्वय जिस अनाथतासे मुनित्वको अंगीकृत किया है उसे मैं प्रथम तुझे कहता हूँ
कौशाम्बी नामकी अति प्राचीन और विविध प्रकारके भेदोको उत्पन्न करनेवाली एक सुन्दर नगरी थी । वहाँ ऋद्धिसे परिपूर्ण धनसचय नामके मेरे पिता रहते थे । प्रथम यौवनावस्थामे हे महाराजन् | मेरी आँखो मे अतुल्य एव उपमारहित वेदना उत्पन्न हुई । दुःखप्रद दाहज्वर सारे शरीरमे प्रवर्तमान हुआ । शस्त्र से भी अतिशय तीक्ष्ण वह रोग वैरोकी भाँति मुझपर कोपायमान हुआ । आँखोकी उस असह्य वेदनासे मेरा मस्तक दुखने लगा । इन्द्रके वज्र के प्रहार सरीखी, अन्यको भी रौद्र भय उत्पन्न करानेवाली उस अत्यत-परम दारुण वेदनासे में बहुत शोकार्त था । शारीरिक विद्यामे निपुण, अनन्य मंत्रमूलके सुज्ञ वैद्यराज मेरी उस वेदनाका नाश करनेके लिये आये, अनेक प्रकारके औषधोपचार किये परंतु वे वृथा गये । वे महानिपुण गिने जानेवाले वैद्यराज मुझे उस रोगसे मुक्त नही कर सके । हे राजन् । यही मेरी अनायता थी। मेरी आँखो की वेदनाको दूर करनेके लिये मेरे पिता सारा धन देने लगे, परन्तु उससे भी मेरी वह वेदना दूर नही हुई । हे राजन् ! यही मेरी अनायता थी । मेरी माता पुत्रके शोकसे अति दु खार्तं हुई, परन्तु वह भी मुझे उस रोगसे नही छुड़ा सकी, हे महाराजन् । यही मेरी अनायता थी । एक उदरसे उत्पन्न हुए मेरे ज्येष्ठ एव कनिष्ठ भाई भरसक प्रयत्न कर चुके परंतु मेरी वेदना दूर नही हुई, हे राजन् । यही मेरी अनायता थी । एक उदरसे उत्पन्न हुई मेरी ज्येष्ठा एवं कनिष्ठा भगिनियोंसे मेरा दुःख दूर नही हुआ । हे महाराजन् । यही मेरो अनायता थी । मेरी स्त्री जो पतिव्रता, मुझपर अनुरक्त और प्रेमवती थी, वह
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४१ अश्रुपूर्ण आँखोंसे मेरे हृदयको सीचती और भिगोती थी। उसके अन्न-पानी देनेपर और नाना प्रकारके उबटन, चूवा आदि सुगंधी द्रव्य तथा अनेक प्रकारके फूल-चंदनादिके ज्ञात अज्ञात विलेपन किये जानेपर भी मैं उस यौवनवती स्त्रीको भोग नही सका। जो मेरे पाससे क्षणभर भी दूर नही रहती थी, अन्यत्र जाती नही थी, हे महाराजन् । ऐसी वह स्त्री भी मेरे रोगको दूर नही कर सको, यही मेरी अनाथता थी । यो किसीके प्रेमसे, किसीकी औषधिसे, किसोके विलापसे या किसीके परिश्रमसे वह रोग उपशात नही हुआ। मैंने उस समय पुन पुन असह्य वेदना भोगी।
___फिर मैं अनंत ससारसे खिन्न हो गया। यदि एक बार मैं इस महाविडवनामय वेदनासे मुक्त हो जाऊँ तो खती, दती और निरारभी प्रव्रज्याको धारण करूँ, यो चिन्तन करता हुआ मैं शयन कर गया। जब रात्रि व्यतीत हो गयी तब हे महाराजन् । मेरो उस वेदनाका क्षय हो गया, और मै नीरोग हो गया। मात, तात और स्वजन, बाधव आदिसे प्रभातमे पूछकर मैंने महाक्षमावान, इन्द्रियनिग्रही और आरभोपाधिसे रहित अनगारत्वको धारण किया। तत्पश्चात् मैं आत्मा परात्माका नाथ हुआ। सर्व प्रकारके जीवोका मैं नाथ हूँ।" अनाथी मुनिने इस प्रकार उस श्रेणिकराजाके मनपर अशरण भावनाको दृढ किया। अब उसे दूसरा अनुकूल उपदेश देते हैं
"हे राजन् । यह अपना आत्मा ही दु खसे भरपूर वैतरणीको करनेवाला है। अपना आत्मा ही क्रूर शाल्मली वृक्षके दु.खको उत्पन्न करनेवाला है। अपना आत्मा ही मनोवाछित वस्तुरूपी दूध देनेवाली कामधेनु गायके सुखको उत्पन्न करनेवाला है। अपना आत्मा ही नदनवनकी भॉति आनदकारो है । अपना आत्मा ही कर्मका करनेवाला है। अपना आत्मा ही उस कर्मको दूर करनेवाला है। अपना आत्मा ही दु खोपार्जन करनेवाला है। अपना आत्मा ही सुखोपार्जन करनेवाला है। अपना आत्मा हो मित्र और अपना आत्मा ही वैरी है। अपना आत्मा ही निकृष्ट आचारमे स्थित और अपना आत्मा ही निर्मल आचारमे स्थित रहता है।" इस प्रकार तथा अन्य अनेक प्रकारसे उस अनाथी मुनिने श्रेणिक राजाको ससारकी अनाथता कह सुनायी। इससे श्रेणिकराजा अति सतुष्ट हुआ। वह अजलिबद्ध होकर यो बोला, "हे भगवन् । आपने मुझे भलीभॉति उपदेश दिया । आपने जैसी थी वैसी अनाथता कह सुनायी। हे महर्षि । आप सनाथ, आप सबाधव और आप सधर्म हैं, आप सर्व अनाथोके नाथ है । हे पवित्र सयति । मै आपसे क्षमा मांगता हूँ। ज्ञानरूपी आपकी शिक्षाको चाहता हूँ। धर्मध्यानमे विघ्न करनेवाले भोग भोगने सवधी, हे महाभाग्यवान् । मैंने आपको जो आमन्त्रण दिया तत्सबधो अपने अपराधकी नत-मस्तक होकर क्षमा माँगता हूँ।" इस प्रकार स्तुति करके राजपुरुष-केसरी परमानन्दको पाकर रोमाचसहित प्रदक्षिणा देकर सविनय वदन करके स्वस्थानको चला गया।
प्रमाणशिक्षा--अहो भव्यो । महातपोधन, महामुनि, महाप्रज्ञावान, महायशस्वी, महानिग्रंथ और महाश्रुत अनाथी मुनिने मगधदेशके राजाको अपने बीते हुए चरित्रसे जो बोध दिया है वह सचमुच अशरणभावना सिद्ध करता है । महामुनि अनाथीके द्वारा सहन किये गये दु खोके तुल्य अथवा इससे अति. विशेष असह्य दु.ख अनंत आत्मा सामान्य दृष्टिसे भोगते हुए दिखायी देते हैं। तत्सबधी तुम किंचित् विचार करो । ससारमे छायी हुई अनन्त अशरणताका त्याग करके सत्य शरणरूप उत्तम तत्त्वज्ञान और परम सुशीलका सेवन करो, अन्तमे ये हो मुक्तिके कारणरूप हैं। जिस प्रकार संसारमे रहे हुए अनाथी अनाथ थे, उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञानको उत्तम प्राप्तिके बिना सदैव अनाथ ही हे। सनाथ होनेके लिये पुरुषार्थ करना यही श्रेय है ।
इति श्री 'भावनावोघ' ग्रन्यके प्रथम दर्शनके द्वितीय चित्रमे 'अशरणभावना' के उपदेशार्थ महानिग्रंथका चरित्र समाप्त हुआ।
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श्रीमद राजचन्द्र
तृतीय चित्र
एकत्वभावना ( उपजाति ) शरीरमां व्याधि प्रत्यक्ष थाय, ते कोई अन्ये लई ना शकाय । ए भोगवे एक स्व-आत्म पोते, एकत्व एथी नयसुज्ञ गोते ॥
विशेषार्थ - शरीरमे प्रत्यक्ष दीखनेवाले रोग आदि जो उपद्रव होते है वे स्नेही, कुटुम्बी, पत्नी या पुत्र किसीसे लिये नही जा सकते, उन्हे मात्र एक अपना आत्मा स्वयं ही भोगता है । इसमे कोई भी भागी नही होता । तथा पाप-पुण्य आदि सभी विपाक अपना आत्मा ही भोगता है । यह अकेला आता है, अकेला जाता है, ऐसा सिद्ध करके विवेकको भलीभाँति जाननेवाले पुरुष एकत्वको निरन्तर खोजते हैं ।
दृष्टांत - महापुरुष के इस न्यायको अचल करनेवाले नमिराजर्षि और शक्रेंद्रका वैराग्योपदेशक सवाद यहॉपर प्रदर्शित करते है | नमिराजर्षि मिथिला नगरीके राजेश्वर थे । स्त्री, पुत्र आदिसे विशेष दुःख समूह को प्राप्त न होते हुए भी एकत्व के स्वरूपको परिपूर्ण पहचाननेमे राजेश्वरने किंचित् विभ्रम किया नही है । शक्रेद्र पहले जहाँ नमिराजपि निवृत्तिमे विराजते हैं, वहाँ विप्ररूपमे आकर परीक्षा हेतुसे अपना व्याख्यान शुरू करता है
विप्र-- हे राजन् | मिथिला नगरी मे आज प्रबल कोलाहल व्याप्त हो रहा है । हृदय एव मनको उद्वेग करनेवाले विलापके शब्दोंसे राजमंदिर और सामान्य घर छाये हुए है । मात्र तेरी दीक्षा ही इन सब दुखोका हेतु है । परके आत्माको जो दुख अपनेसे होता है उस दुःखको संसारपरिभ्रमणका कारण मानकर तू वहाँ जा, भोला न बन ।
नमिराज—(गौरवभरे वचनोसे) हे विप्र । तू जो कहता है वह मात्र अज्ञानरूप है। मिथिला नगरी मे एक बगीचा था, उसके मध्यमे एक वृक्ष था, शीतल छायाके कारण वह रमणीय था, पत्र, पुष्प और फलसे वह युक्त था, नाना प्रकार के पक्षियोको वह लाभदायक था, वायु द्वारा कपित होनेसे उस वृक्षमे रहनेवाले पक्षी दु खार्तं एवं शरणरहित हो जाने से आक्रद करते है । वे स्वय वृक्षके लिये विलाप करते नही हैं, अपना सुख न हो गया, इसलिये वै शोकातं है ।
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विप्र – परन्तु यह देख | अग्नि और वायुके मिश्रणसे तेरा नगर, तेरे अन्त पुर और मन्दिर जल रहे है, इसलिये वहाँ जा और उस अग्निको ज्ञात कर 1
नमिराज - हे विप्र | मिथिला नगरी, उन अन्त पुरो और उन मन्दिरोके जलने से मेरा कुछ भी नही जलता है, जैसे सुखोत्पत्ति है वैसे मै वर्तन करता हूँ । उन मंदिर आदिमे मेरा अल्पमात्र भी नही है । मैंने पुत्र, स्त्री आदिके व्यवहारको छोड दिया है । मुझे इनमेसे कुछ प्रिय नही है और अप्रिय भी नही है | विप्र - परन्तु हे राजन् | तू अपनी नगरीके लिये सघन किला बनाकर, सिंहद्वार, कोठे, किवाड़ और भुगाल बनाकर और शतघ्नी खाई बनवानेके बाद जाना ।
मिराज - ( हेतु-कारण- प्रे० ) हे विप्र ! में शुद्ध श्रद्धारूपी नगरी बनाकर, सवररूपी भुंगाल बनाकर, क्षमारूपी शुभ गढ बनाऊँगा, शुभ, मनोयोगरूपी कोठे वनाऊँगा, वचनयोगरूपी खाई बनाऊँगा, कायायोगरूपी शतघ्नी बनाऊँगा, पराक्रमरूपी धनुष करूँगा, ईर्यासमितिरूपी पनच करूँगा, धीरतारूपी कमान पकड़ने की मूठ करूंगा, सत्यरूपी चापसे धनुष्को बाँधूंगा, तपरूपी वाण करूंगा और कर्मरूपी वैरीकी सेनाका भेदन करूँगा । लौकिक सग्रामकी मुझे रुचि नहीं है। मैं मात्र वैसे भावसंग्रामको चाहता हूँ ।
१. हेतु और कारणसे प्रेरित ।
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१७ वॉ वर्ष
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विप्र - ( हेतु-कारण- प्रे०) हे राजन् । शिखरबध ऊँचे आवास करवाकर, मणिकचनमय गवाक्षादि रखवाकर और तालाब मे क्रीडा करनेके मनोहर महालय बनवाकर फिर जाना ।
नमिराज - (हेतु कारण-प्रे०) तूने जिस प्रकारके आवास गिनाये है उस उस प्रकारके आवास मुझे अस्थिर एव अशाश्वत मालूम होते है । वे मार्गके घररूप लगते है । इसलिये जहाँ स्वधाम है, जहाँ शाश्वतता है, और जहाँ स्थिरता है वहाँ मैं निवास करना चाहता हूँ ।
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विप्र - (हेतु-कारण-प्रे०) हे क्षत्रियशिरोमणि । अनेक प्रकारके तस्करोके उपद्रवको दूर करके, और इस तरह नगरीका कल्याण करके तू जाना ।
मिराज - विप्र | अज्ञानी मनुष्य अनेक बार मिथ्या दड़ देते हैं । चोरी न करनेवाले जो शरीरादिक पुद्गल है वे लोकमे बाँधे जाते है, और चोरी करनेवाले जो इन्द्रियविकार है उन्हे कोई बाँध नहो सकता । तो फिर ऐसा करनेकी क्या आवश्यकता ?
विप्र - हे क्षत्रिय । जो राजा तेरी आज्ञाका पालन नही करते हैं और जो नराधिप स्वतत्रतासे चलते है उन्हे तू अपने वशमे करनेके बाद जाना ।
नागराज - ( हेतु - कारण - प्रे०) दस लाख सुभटोको सग्राममे जीतना दुष्कर गिना जाता है, तो भी ऐसी विजय करनेवाले पुरुष अनेक मिल जाते है, परन्तु एक स्वात्माको जीतनेवाला मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । उन दस लाख सुभटोपर विजय पानेवालेकी अपेक्षा एक स्वात्माको जीतनेवाला पुरुष परमोत्कृष्ट है । आत्माके साथ युद्ध करना उचित है । बहिर्युद्धका क्या प्रयोजन है ? ज्ञानरूप आत्मासे क्रोधादि युक्त आत्मा को जीतनेवाला स्तुतिपात्र है । पाँचो इन्द्रियोको क्रोधको, मानको, मायाको तथा लोभको जीतना दुष्कर है । जिसने मनोयो॒गादिको जीता उसने सबको जीता ।
विप्र—(हेतु-कारण प्रे०) समर्थ यज्ञ करके, श्रमण, तपस्वी, ब्राह्मण आदिको भोजन देकर, सुवर्ण आदिका दान देकर, मनोज्ञ भोगोको भोगकर हे क्षत्रिय । तू बादमे जाना ।
नमिराज – (हेतु-कारण-प्रे०) हर महीने यदि दस लाख गायोका दान दे तो भी उस
गायोके दानकी अपेक्षा जो सयम ग्रहण करके सयमकी आराधना करता है, वह उसकी अपेक्षा विशेष मगल प्राप्त करता है ।
विप्र--निर्वाह करनेके लिये भिक्षासे सुशील प्रव्रज्यामे असह्य परिश्रम सहना पड़ता है, इसलिये उस प्रव्रज्याका त्याग करके अन्य प्रव्रज्यामे रुचि होती है, इसलिये इस उपाधिको दूर करनेके लिये तू गृहस्थाश्रममे रहकर पौषधादि व्रतमे तत्पर रहना । हे मनुष्याधिपति । मै ठीक कहता हूँ ।
नमिराज - ( हेतु - कारण -प्रे०) हे विप्र । बाल अविवेकी चाहे जैसा उग्र तप करे परतु वह सम्यक् - श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्मके तुल्य नही हो सकता । एकाध कला सोलह कलाओ जैसी कैसे मानो जाये ? विप्र - अहो क्षत्रिय । सुवर्ण, मणि, मुक्ताफल, वस्त्रालकार और अश्वादिकी वृद्धि करके पीछे
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जाना ।
नमिराज - ( हेतु - कारण - प्रे० ) मेरु पर्वत जैसे कदाचित् सोने-चांदी के असख्यात पर्वत हो तो भी लोभी मनुष्यकी तृष्णा नही बुझती । वह किंचित् मात्र सतोषको प्राप्त नही होता । तृष्णा आकाश जैसी अनत है । धन, सुवर्ण, चतुष्पाद इत्यादिसे सकल लोक भर जाये इतना सब लोभी मनुष्यकी तृष्णा दूर करनेके लिये समर्थ नही है। लोभकी ऐसी निकृष्टता है । इसलिये सतोषनिवृत्तिरूप तपका विवेकी पुरुष आचरण . करते हैं ।
विप्र - ( हेतु-कारण-प्रे०) हे क्षत्रिय । मुझे अद्भुत आश्चर्य होता है कि तू विद्यमान भोगोको छोड़ता है। फिर अविद्यमान कामभोगके सकल्प-विकल्प करके भ्रष्ट होगा । इसलिये इस सारी मुनित्वसवधी उपाधिको छोड़ |
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श्रीमद् राजचन्द्र नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) कामभोग शल्य सरीखे हैं, कामभोग विष सरीखे है, कामभोग सर्पके तुल्य है, जिनकी इच्छा करनेसे जीव नरकादिक अधोगतिमे जाता है, तथा क्रोध एव मानके कारण दुर्गति होती है, मायाके कारण सद्गतिका विनाश होता है, लोभसे इस लोक व परलोकका भय होता है । इसलिये हे विप्र | इसका तू मुझे वोध न दे । मेरा हृदय कभी भी विचलित होनेवाला नही है, इस मिथ्या मोहिनीमे अभिरुचि रखनेवाला नही है । जानबूझ कर जहर कौन पिये ? जानबूझ कर दीपक लेकर कुएँमे कौन गिरे ? जानबूझकर विभ्रममे कौन पड़े? मैं अपने अमृत जैसे वैराग्यके मधुर रसको अप्रिय करके इस विषको प्रिय करनेके लिये मिथिलामे आनेवाला नही हूँ।
महर्षि नमिराजको सुदृढ़ता देखकर शकेंद्रको परमानंद हुआ, फिर ब्राह्मणके रूपको छोडकर इन्द्रका रूप धारण किया । वदन करनेके बाद मधुर वाणीसे वह राजर्षीश्वरकी स्तुति करने लगा-'हे महायशस्विन् । बडा आश्चर्य है कि तूने क्रोधको जीता। आश्चर्य, तूने अहकारका पराजय किया । आश्चर्य, तूने मायाको दूर किया। आश्चर्य, तूने लोभको वशमे किया। आश्चर्य, तेरी सरलता। आश्चर्य, तेरा निर्ममत्व । आश्चर्य, तेरी प्रधान क्षमा । आश्चर्य, तेरी निर्लोभता। हे पूज्य । तू इस भवमे उत्तम है, और परभवमे उत्तम होगा। तू कर्मरहित होकर प्रधान सिद्धगतिमे जायेगा।" इस प्रकार स्तुति करते-करते प्रदक्षिणा देते-देते श्रद्धाभक्तिसे उस ऋषिके पादावुजको वंदन किया। तदनतर वह सुदर मुकुटवाला शकेंद्र आकाशमार्गसे चला गया।
प्रमाणशिक्षा-विप्ररूपमे नमिराजक वैराग्यको परखनेमे इंद्रने क्या न्यूनता की है ? कुछ भी नही की । ससारकी जो-जो लोलुपताएँ मनुष्यको विचलित करनेवाली है, उन-उन लोलुपताओ सबधी महागौरव से प्रश्न करनेमे उस पुरदरने निर्मल भावसे स्तुतिपात्र चातुर्य चलाया है । फिर भी निरीक्षण तो यह करना है कि नमिराज सर्वथा कचनमय रहे है। शुद्ध एव अखड वैराग्यके वेगमे अपने बहनेको उन्होने उत्तरमे प्रदर्शित किया है- "हे विप्र! तू जिन-जिन वस्तुओको मेरी कहलवाता है वे वे वस्तुएँ मेरी नही है । मैं एक ही हूँ, अकेला जानेवाला हूँ, और मात्र प्रशसनीय एकत्वको हो चाहता हूँ।" ऐसे रहस्यमे नमिराज अपने उत्तर और वैराग्यको दृढीभूत करते गये है। ऐसी परम प्रमाणशिक्षासे भरा हुआ उन महर्षिका चरित्र है। दोनो महात्माओका पारस्परिक सवाद शुद्ध एकत्वको सिद्ध करनेके लिये तथा अन्य वस्तुओका त्याग करनेके उपदेशके लिये यहाँ दर्शित किया है । इसे भी विशेष दृढीभूत करनेके लिये नमिराजने एकत्व कैसे प्राप्त किया, इस विषयमे नमिराजके एकत्व-सबधको किंचित् मात्र प्रस्तुत करते हैं।
वे विदेह देश जैसे महान राज्यके अधिपति थे। अनेक यौवनवती मनोहारिणी स्त्रियोके समुदायसे घिरे हुए थे। दर्शनमोहनीयका उदय न होनेपर भी वे ससारलुब्धरूप दिखायी देते थे। किसी समय उनके शरीरमे दाहज्वर नामके रोगकी उत्पत्ति हुई । सारा शरीर मानो प्रज्वलित हो जाता हो ऐसी जलन व्याप्त हो गयी। रोम-रोममे सहस्र बिच्छुओको दशवेदनाके समान दुख उत्पन्न हो गया। वैद्य-विद्यामे प्रवीण -पुरुषोके औषधोपचारका अनेक प्रकारसे सेवन किया, परन्तु वह सब वृथा गया। लेशमात्र भी वह व्याधि कम न होकर अधिक होतो गयी। औषधमात्र दाहज्वरके हितैषी होते गये। कोई औषध ऐसा न मिला कि जिसे दाहज्वरसे किंचित् भी द्वेष हो ! निपुण वैद्य हताश हो गये, और राजेश्वर भी उस महाव्याधिसे तग आ गये । उसे दूर करनेवाले पुरुषकी खोज चारो तरफ चलती थी। एक महाकुशल वैद्य मिला, उसने मलयगिरि चदनका विलेपन करनेका सूचन किया । मनोरमा रानियाँ चन्दन घिसनेमे लग गयी। चदन घिसनेसे प्रत्येक रानीके हाथोमे पहने हुए ककणोका समुदाय खलभलाहट करने लग गया । मिथिले के अगमे एक दाहज्वरकी असह्य वेदना तो थी ही और दूसरी उन ककणोके कोलाहलसे उत्पन्न खलभलाहट सहन नही कर सके, इसलिये उन्होने रानियोको आज्ञा की, "तुम चदन न घिसो. भलाहट करती हो ? मुझसे यह खलभलाहट सहन नहीं हो सकती । एक तो मैं महाव्याधि"
सासत हूँ, और
खिल
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१७ वाँ वर्ष
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ह दूसरा व्याधितुल्य कोलाहल होता है सो असह्य है ।" सभी रानियोने मगलके तौर पर एक एक ककण खकर ककण-समुदायका त्याग कर दिया, जिससे वह खलभलाहट शात हो गयी । नमिराजने रानियोंसे हा, "तुमने क्या चदन घिसना बन्द कर दिया ?" रानियोने बताया, "नही, मात्र कोलाहल शात करनेके ये एक एक ककण रखकर, दूसरे ककणोका परित्याग करके हम चदन घिसती हैं । ककणके समूहको ब हमने हाथमे नही रखा है, इससे खलभलाहट नही होती ।" रानियोके इतने वचन सुनते ही नमिराज रोम-रोममे एकत्व स्फुरित हुआ, व्याप्त हो गया और ममत्व दूर हो गया - "सचमुच ' बहुतोके मिलनेसे हुत उपाधि होती है । अब देख, इस एक ककणसे लेशमात्र भी खलभलाहट नही होती, ककणके समूहके कारण सिर चकरा देनेवाली खलभलाहट होती थी । अहो चेतन । तू मान कि एकत्वमे ही तेरी सिद्धि है । अधिक मिलने से अधिक उपाधि है । ससारमे अनन्त आत्माओके सम्बन्धसे तुझे उपाधि भोगनेकी क्या आवश्यकता है ? उसका त्याग कर और एकत्वमे प्रवेश कर। देख | यह एक ककण अब खलभलाहटके बना कैसी उत्तम शातिमे रम रहा है ? जब अनेक थे तब यह कैसी अशाति भोगता था ? इसी तरह [ भी ककणरूप है । इस ककणकी भाँति तू जब तक स्नेही कुटुम्बीरूपी ककणसमुदाय पडा रहेगा तब क भवरूपी खलभलाहटका सेवन करना पडेगा, और यदि इस कंकणकी वर्तमान स्थितिकी भाँति एकत्वका आराधन करेगा तो सिद्धगतिरूपी महा पवित्र शांति प्राप्त करेगा ।" इस तरह वैराग्यमे उत्तरोत्तर प्रवेश करते हुए उन नमिराजको पूर्वजातिकी स्मृति हो आयी । प्रव्रज्या धारण करनेका निश्चय करके वे शयन कर गये । प्रभातमे मागल्यरूप बाजोकी ध्वनि गूँज उठी, दाहज्वरसे मुक्त हुए । एकत्वका परिपूर्ण सेवन करनेवाले उन श्रीमान् नमिराज ऋषिको अभिवन्दन हो ।
( शार्दूलविक्रीडित )
राणी सर्व मळी सुचंदन घसी, ने चर्चवामां हती, वृझ्यो त्यां ककळाट कंकणतणो, श्रोती नमि भूपति । सवादे पण इन्द्रथी दृढ़ रह्यो, एकत्व साधुं कयुं,
.
एवा ए मिथिलेश चरित आ, संपूर्ण अत्रे थयु ॥
विशेषार्थ - रानियो का समुदाय चदन घिसकर विलेपन करनेमे लगा हुआ था, उस समय ककणकी खलभलाहटको सुनकर नमिराज प्रतिबुद्ध हुए । वे इन्द्र के साथ सवादमे भी अचल रहे, और उन्होने एकत्व को सिद्ध किया ।
ऐसे उन मुक्तिसाधक महावैरागीका चरित्र 'भावनावोध' ग्रन्यके तृतीय चित्रमें पूर्ण हुआ ।
चतुर्थ चित्र अन्यत्वभावना
( शार्दूलविक्रीडित )
भ्रात ना,
ना मारा तन रूप काति युवती, ना पुत्र के ना मारा भृत स्नेहीओ स्वजन के, ना गोत्र ना मारा धन धाम यौवन धरा, ए मोह
के
ज्ञात ना । अज्ञात्वना;
रे ! रे ! जीव विचार एम ज सदा, अन्यत्वदा भावना ॥
V
विशेषार्थ - यह शरीर मेरा नही, यह रूप मेरा नही, यह काति मेरी नही, यह स्त्री मेरी नही, ये पुत्र मेरे नहीं, ये भाई मेरे नहीं, ये दास मेरे नही, ये स्नेही मेरे नही, ये संबंधी मेरे नही, यह गोत्र मेरा नही, यह जाति मेरी नही, यह लक्ष्मी मेरी नही, ये महालय मेरे नही, यह यौवन मेरा नही और यह भूमि
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श्रीमद राजचन्द्र मेरी नही, यह मोह मात्र अज्ञानताका है। सिद्धगति साधनेके लिये हे जीव | अन्यत्वका बोध देनेवाली अन्यत्वभावनाका विचार कर | विचार कर ।
मिथ्या ममत्वको भ्राति दूर करनेके लिये और वैराग्यकी वृद्धिके लिये उत्तम भावसे मनन करने योग्य राजराजेश्वर भरतका चरित्र यहाँ पर उद्धृत करते हैं .
___ दृष्टांत-जिसकी अश्वशालामे रमणीय, चतुर और अनेक प्रकारके तेज अश्वोका समूह शोभा देता था, जिसकी गजशालामे अनेक जातिके मदोन्मत्त हस्ती झूम रहे थे, जिसके अत पुरमे नवयौवना, सुकुमारी और मुग्धा सहस्रो स्त्रियाँ विराजित हो रही थी, जिसकी निधिमे समुद्रकी पुत्री लक्ष्मी, जिसे विद्वान चचलाकी उपमासे जानते है, स्थिर हो गयी थी, जिसकी आज्ञाको देवदेवागनाएँ अधीन होकर मुकुटपर चढा रहे थे, जिसके प्राशनके लिये नाना प्रकारके पड्रस भोजन पल-पलमे निर्मित होते थे, जिसके कोमल कर्णके विलासके लिये बारीक एव मधुर स्वरसे गायन करनेवाली वारागनाएँ तत्पर थी, जिसके निरीक्षण करनेके लिये अनेक प्रकारके नाटक चेटक थे; जिसको यश कीर्ति वायुरूपसे फैलकर आकाशको तरह व्याप्त थी, जिसके शत्रुओको सुखसे शयन करनेका वक्त नही आया था, अथवा जिसके वैरियोकी वनिताओके नयनोसे सदैव ऑसू टपकते थे, जिससे कोई शत्रुता दिखानेके लिये तो समर्थन था, परन्तु जिसकी ओर निर्दोषतासे उँगली उठानेमे भी कोई समर्थ न था, जिसके समक्ष अनेक मन्त्रियो का समुदाय उसकी कृपाकी याचना करता था, जिसके रूप, काति और सौदर्य मनोहारी थे, जिसके अंगमे महान वल, वीर्य, शक्ति और उन पराक्रम उछल रहे थे, जिसके क्रोडा करनेके लिये महासुगन्धिमय बागबगीचे और वनोपवन थे, जिसके यहाँ प्रधान कुलदीपक पुत्रोका समुदाय था, जिसकी सेवामे लाखो अनुचर सज्ज होकर खडे रहते थे, वह पुरुष जहाँ-जहाँ जाता था वहाँ-वहाँ खमा-खमाके उद्गारोंसे, कचनके फूलो से और मोतियोंके थालोंसे उसका स्वागत होता था; जिसके कुकुमवर्णी पादपकजका स्पर्श करनेके लिये इन्द्र जैसे भी तरसते रहते थे, जिसकी आयुधशालामे महायशस्वी दिव्य चक्रकी उत्पत्ति हुई थी, जिसके यहाँ साम्राज्यका अखड दीपक प्रकाशमान था, जिसके सिरपर महान छ खडकी प्रभुताका तेजस्वी और . प्रकाशमान मुकुट सुशोभित था। कहनेका आशय यह है कि जिसके दलकी, जिसके नगर-पुरपट्टनकी, जिसके वैभवकी और जिसके विलासकी ससारकी दृष्टिसे किसी भी प्रकारकी न्यूनता न थी, ऐसा वह श्रीमान् राजराजेश्वर भरत अपने सुन्दर आदर्शभुवनमे वस्त्राभूषणोसे विभूषित होकर मनोहर सिंहासनपर वैठा था। चारो ओरके द्वार खुले थे, नाना प्रकारके धूपोका धूम्र सूक्ष्म रीतिसे फैल रहा था, नाना प्रकारक सुगन्धी पदार्थ खूब महक रहे थे, नाना प्रकारके सुस्वरयुक्त वाजे यात्रिक कलासे बज रहे थे, शीतल, मंद और सुगधी यो त्रिविध वायुकी लहरें उठ रही थी, आभूपण आदि पदार्थों का निरीक्षण करते-करते वह श्रीमान् राजराजेश्वर भरत उस भुवनमे अपूर्वताको प्राप्त हुआ।
उसके हाथकी एक उँगलीमेसे अगूठी निकल पडी। भरतका ध्यान उस ओर आकृष्ट हुआ और उँगली सर्वथा शोभाहीन दिखायी दी । नौ उँगलियाँ अगूठियोसे जो मनोहरता रखती थी उस मनोहरतासे रहित इस उँगलीको देखकर भरतेश्वरको अद्भुत मूलभूत विचारको प्रेरणा हुई। किस कारणसे यह उँगली ऐसी लगती है ? यह विचार करनेपर उसे मालूम हुआ कि इसका कारण अगुठीका निकल जाना है। इस वातको विशेष प्रमाणित करनेके लिये उसने दूसरी उँगलीको अगूठी खोच निकाली । ज्यो ही दूसरी उँगलीमेसे अगूठी निकली त्यो ही वह उँगली भी शोभाहोन दिखायी दी, फिर इस बातको सिद्ध करनेके लिये उसने तीसरी उँगलीमेसे भो अंगूठी सरका ली, इससे यह बात और अधिक प्रमाणित हुई। फिर चौथों उँगलीमेसे अगूठो निकाल लो, जिससे यह भी वैसी ही दिखायी दी। इस प्रकार अनुक्रमसे दसो उँगलियाँ खाली कर डाली, खाली हो जानेसे सभीका देखाव शोभाहीन मालूम हुआ। शोभाहीन दीखनेसे राजराजेश्वर अन्यत्वभावनासे गद्गद होकर इस प्रकार बोला
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१७ वॉ वर्ष, 'अहोहो | कैसी विचित्रता है कि भूमिमे उत्पन्न हुई वस्तुको पीटकर कुशलतासे घडनेसे मुद्रिका बनी; इस मुद्रिकासे मेरी उँगली सुन्दर दिखायी दी, इस उँगलीमेसे मुद्रिका निकल पड़नेसे विपरीत दृश्य नजर आया, विपरीत दृश्यसे उंगलीको शोभाहीनता और बेहूदापन खेदका कारण हुआ। शोभाहीन लगने का कारण मात्र अँगूठी नही, यही ठहरा न ? यदि अंगूठी होती तब तो ऐसी अशोभा मैं न देखता। इस मुद्रिकासे मेरी यह उँगली शोभाको प्राप्त हुई, इस उँगलीसे यह हाथ शोभा पाता है, और इस हाथसे यह शरीर शोभा पाता है। तब इसमे मैं किसकी शोभा मानूं ? अति विस्मयता | मेरी इस मानी जानेवाली मनोहर कातिको विशेष दीप्त करनेवाले ये मणिमाणिक्यादिके अलकार और रग-बिरगे वस्त्र ठहरे। यह काति मेरी त्वचाकी शोभा ठहरी । यह त्ववा शरीरको गुप्तताको ढंककर उसे सुन्दर दिखाती है। अहोहो । यह महाविपरीतता है । जिस शरीरको मै अपना मानता है, वह शरीर मात्र त्वचासे, वह त्वचा कातिसे और वह काति वस्त्रालकारसे शोभा पाती है। तो फिर क्या मेरे शरीरकी तो कुछ शोभा ही नही न ? रुधिर, मास और हड्डियोका ही केवल यह ढाँचा है क्या ? और इस ढाँचेको मैं सर्वथा अपना मानता हूँ। कैसी भूल । कैसी भ्राति । और कैमी विचित्रता है । मैं केवल पर पुद्गलकी शोभासे शोभित होता हूँ। किसीसे रमणीयता धारण करनेवाले इस शरीरको मैं अपना कैसे माने? और कदाचित् ऐसा मानकर मै इसमे ममत्वभाव रखू तो वह भी केवल दु खप्रद और वृथा है। इस मेरो आत्माका इस शरोरसे एक समय वियोग होनेवाला है | आत्मा जब दूसरी देहको धारण करनेके लिये जायेगा तब इस देहके यही रहनेमे कोई शंका नही है। यह काया मेरी न हुई और न होगी तो फिर मैं इसे अपनी मानता हूँ या मानूं, यह केवल मूर्खता है। जिसका एक समय वियोग होनेवाला है, और जो केवल अन्यत्वभाव रखती है उसमे ममत्वभाव क्या रखना ? यह जब मेरी नही होतो तब मुझे इसका होना क्या उचित है ? नही, नहीं, यह जब मेरी नही तब मै इसका नही, ऐसा विचार करू, दृढ करूं, और प्रर्वतन करूँ, यह विवेकबुद्धिका तात्पर्य है । यह सारी सृष्टि अनत वस्तुओसे और पदार्थोंसे भरी हुई है, उन सब पदार्थोकी अपेक्षा जिसके जितनी किसी भी वस्तुपर मेरी प्रीति नही है, वह वस्तु भी मेरी न हुई, तो फिर दूसरी कौनसी वस्तु मेरी होगी ? अहो । मैं बहुत भूल गया । मिथ्या मोहमे फंस गया। वे नवयौवनाएं, वे माने हुए कुलदीपक पुत्र, वह अतुल लक्ष्मी, वह छ खडका महान राज्य, ये मेरे नही हैं । इनमेसे लेशमात्र भी मेरा नहीं है। इनमें मेरा किंचित् भाग नही है। जिस कायासे मै इन सब वस्तुओका उपभोग करता हूँ, वह भोग्य वस्तु जब मेरी न हुई तब अपनी मानो हुई अन्य वस्तुएँ-स्नेही, कुटुम्बी इत्यादि क्या मेरी होनेवाली थी? नही, कुछ भी नही । यह ममत्वभाव मुझे नही चाहिये । ये पुत्र, ये मित्र, ये कलत्र, यह वैभव और यह लक्ष्मी, इन्हे मुझे अपना मानना ही नही है । मैं इनका नही और ये मेरे नही | पुण्यादिको साधकर मैंने जो जो वस्तुएँ प्राप्त की वे वस्तुएँ मेरी न हुई, इसके जैसा संसारमे क्या खेदमय है ? मेरे उन पुण्यत्वका परिणाम यही न? अतमे इन सबका वियोग ही न? पुण्यत्वका यह फल प्राप्त कर इसकी वृद्धिके लिये मैने जो जो पाप किये वह सब मेरे आत्माको हो भोगना है न ? और वह अकेले ही न ? इसमे कोई सहभोक्ता नहीं हो न ? नहीं नहीं । इन अन्यत्वभाववालोके लिये ममत्वभाव दिखाकर आत्माका अहितैषी होकर मैं इसे रौद्र नरकका भोक्ता बनाऊँ इसके जैसा कौनसा अज्ञान है ? ऐसी कौनसी भ्राति है ? ऐसा कौनसा अविवेक है ? सठ शलाकापुरुषोमे मै एक गिना गया, फिर भी मै ऐसे कृत्यको दूर न कर सकूँ और प्राप्त प्रभुताको खो बैठू', यह सर्वथा अयुक्त है। इन पुत्रोका, इन प्रमदाओका, इस राजवैभवका और इन वाहन आदिके सुखका मुझे कुछ भी अनुराग नहीं है । ममत्व नहीं है ।"
राजराजेश्वर भरतके अन्त करणमे वैराग्यका ऐसा प्रकाश पड़ा कि तिमिरपट दूर हो गया । शुक्लध्यान प्राप्त हुआ। अशेषकर्म जलकर भस्मीभूत हो गये ।। महादिव्य और सहस्र किरणसे भी अनुपम कातिमान केवलज्ञान प्रकट हुआ। उसी समय इन्होने पचमुष्टि केशलुचन किया। शासनदेवीने इन्हे सत
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श्रीमद राजचन्द्र
साज दिया, ओर ये महाविरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर चतुर्गति, चौबीस दंडक, तथा आधि, व्याधि एवं उपाधि विरक्त हुए । चपल ससार के सकल सुख - विलाससे इन्होने निवृत्ति ली, प्रियाप्रियका भेद चला गया, और ये निरन्तर स्तवन करने योग्य परमात्मा हो गये ।
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प्रमाणशिक्षा - इस प्रकार ये छ खंडके प्रभु, देवोंके देव जैसे, अतुल साम्राज्यलक्ष्मी के भोक्ता, महायुके धनी, अनेक रत्नोके धारक, राजराजेश्वर भरत आदर्शभुवनमे केवल अन्यत्वभावना उत्पन्न हो शुद्ध विरागी हुए I
सचमुच भरतेश्वरका मनन करने योग्य चरित्र संसारकी शोकार्तता और उदासीनताका पूरा-पूरा भाव, उपदेश और प्रमाण प्रदर्शित करता है । कहिये । इनके यहाँ क्या कमी थी ? न थी इन्हे नवयौवना स्त्रियोकी कमी कि न थी राजऋद्धिको कमी, न थी विजयसिद्धिकी कमी कि न थी नवनिधिकी कमी, न थी पुत्र समुदायकी कमी कि न थी कुटुम्ब परिवारकी कमी, न थी रूपकातिकी कमी कि न थी यश कीर्तिकी कमी !
इस तरह पहले कही हुई इनकी ऋद्धिका पुनः स्मरण कराकर प्रमाणसे शिक्षाप्रसादीका लाभ देते है कि भरतेश्वरने विवेक से अन्यत्वके स्वरूपको देखा जाना और सर्पकचुकवत् ससारका परित्याग करके उसके मिथ्या ममत्वको सिद्ध कर दिया । महावैराग्यकी अचलता, निर्ममता और आत्मशक्तिकी प्रफुल्लितता, यह सब इस महायोगीश्वरके चरित्र गर्भित है ।
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एक पिता के सौ पुत्रोमेले निन्यानवें पुत्र पहले से ही आत्मसिद्धिको साधते थे । सौवें इन भरतेश्वरने आत्मसिद्धि साधी । पिताने भो यही सिद्धि साधी । उत्तरोत्तर आनेवाले भरतेश्वरी राज्यासनके भोगी इसी आदर्शभुवनमे इसी सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ऐसा कहा जाता है । यह सकल सिद्धिसाधक मंडल अन्यत्वको ही सिद्ध करके एकत्वमे प्रवेश कराता है। अभिवन्दन हो उन परमात्माओको ।
( शार्दूलविक्रीडित )
देखी आगळी आप एक अडवी, वैराग्य वेगे गया, छांडी राजसमाजने भरतजी, कैवल्यज्ञानी थया । चोथु चित्र पवित्र ए ज चरिते, पाम्युं अहीं पूर्णता, ज्ञानीना मन तेह रंजन करो, वैराग्य भावे यथा ॥
विशेषार्थ - जिसने अपनी एक उँगलोको शोभाहीन देखकर वैराग्य के प्रवाहमे प्रवेश किया, और जिसने राजसमाजको छोड़कर केवलज्ञान प्राप्त किया, ऐसे उस भरतेश्वरके चरित्रको धारण करके यह चौथा चित्र पूर्णताको प्राप्त हुआ । यह यथोचित वैराग्य भाव प्रदर्शित करके ज्ञानीपुरुषोके मनको रजन करनेवाला हो ।
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भावनावोघ ग्रन्थमें अन्यत्वभावनाके उपदेशके लिये प्रथम दर्शनके चतुर्थ चित्रमे भरतेश्वरका दृष्टान्त और प्रमाणशिक्षा पूर्णताको प्राप्त हुए ।
पंचम चित्र
अशुचिभावना
( गीतिवृत्त )
खाण मूत्र ने मळनी, रोग जरानुं निवासनु धाम । काया एवी गणीने, मान त्यजीने कर सार्थक आम ॥
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१७ वॉ वर्ष विशेषार्थ हे चैतन्य | इस कायाको मल और मूत्रकी खानरूप, रोग और वृद्धताके रहनेके धाम जैसी मानकर उसका मिथ्या मान त्याग करके सनत्कुमारकी भाँति उसे सफल कर।
इस भगवान सनत्कुमारका चरित्र अशुचिभावनाकी प्रामाणिकता बतानेके लिये यहाँ पर शुरू किया जाता है।
दृष्टान्त-जो जो ऋद्धि, सिद्धि और वैभव भरतेश्वरके चरित्रमे वर्णित किये, उन सब वैभवादिसे युक्त सनत्कुमार चक्रवर्ती थे । उनका वर्ण और रूप अनुपम था। एक बार सुधर्मसभामे उस रूपकी स्तुति हुई । किन्ही दो देवोको यह बात न रुची। बादमे वे उस शकाको दूर करनेके लिये विप्रके रूपमे सनत्कुमारके अतःपुरमे गये। सनत्कुमारकी देहमे उस समय उबटन लगा हुआ था, उसके अगोपर मर्दनादिक पदार्थोंका मात्र विलेपन था । एक छोटी अङ्गोछी पहनी हुई थी। और वे स्नानमज्जन करनेके लिये बैठे थे। विपके रूपमे आये हुए देवता उनका मनोहर मुख, कचनवर्णी कागा और चन्द्र जैसी कान्ति देखकर बहुत आनन्दित हुए और जरा सिर हिलाया। इसपर चक्रवर्तीने पूछा, "आपने सिर क्यो हिलाया ?" देवोने कहा, "हम आपके रूप और वर्णका निरीक्षण करनेके लिये बहुत अभिलाषी थे। हमने जगह-जगह आपके वर्ण, रूपकी स्तुति सुनी थी, आज वह बात हमे प्रमाणित हुई, अत हमे आनन्द हुआ, और सिर इसलिये हिलाया कि जैसा लोगोमे कहा जाता है वैसा ही आपका रूप है। उससे अधिक है परन्तु कम नही।" सनत्कुमार स्वरूपवर्णकी स्तुतिसे गर्वमे आकर बोले, "आपने इस समय मेरा रूप देखा सो ठीक है, परन्तु मै जब राजसभामे वस्त्रालकार धारण करके सर्वथा सज्ज होकर सिंहासनपर बैठता हूँ, तब मेरा रूप और मेरा वर्ण देखने योग्य है, अभी तो मैं शरीरमे उबटन लगाकर बैठा हूँ। यदि उस समय आप मेरा रूप वर्ण देखेंगे तो अद्भुत चमत्कारको प्राप्त होगे और चकित हो जायेगे।" देवोने कहा, "तो फिर हम राजसभामे आयेगे," यो कहकर वे वहाँसे चले गये ।
तत्पश्चात् सनत्कुमारने उत्तम और अमूल्य वस्त्रालंकार धारण किये। अनेक प्रसाधनोसे अपने शरीरको विशेष आश्चर्यकारी ढगसे सजाकर वे राजसभामे आकर सिंहासनपर बैठे । आसपास समर्थ मत्री, सुभट, विद्वान और अन्य सभासद अपने-अपने आसनोपर बैठ गये थे। राजेश्वर चमरछत्रसे और खमाखमाके उद्गारोसे विशेष शोभित तथा सत्कारित हो रहे थे। वहाँ वे देवता फिर विपके रूपमे आये। अद्भुत रूपवर्णसे आनन्दित होनेके बदले मानो खिन्न हुए हो ऐसे ढगसे उन्होने सिर हिलाया। चक्रवतीने पूछा, "अहो ब्राह्मणो | गत समयको अपेक्षा इस समय आपने और ही तरहसे सिर हिलाया है, इसका क्या कारण है सो मुझे बतायें ।' अवधिज्ञानके अनुसार विप्रोने कहा, "हे महाराजन् | उस रूपमे और इस रूपमे भूमि-आकाशका फर्क पड़ गया है।" चक्रवर्तीने उसे स्पष्ट समझानेके लिये कहा । ब्राह्मणोने कहा, "अधिराज | पहले आपकी कोमल काया अमृततुल्य थी, इस समय विपतुल्य है। इसलिये जव अमृततुल्य अग था तब हमे आनन्द हुआ था। इस समय विषतुल्य है अत हमे खेद हुआ है। हम जो कहते हैं उस बातको सिद्ध करना हो तो आप अभी ताबूल थूके, तत्काल उस पर मक्षिका वैठेगी और परधामको प्राप्त होगी।"
__ सनत्कुमारने यह परीक्षा की तो सत्य सिद्ध हुई। पूर्व कर्मके पापके भागमे इस कायाके मदका मिश्रण होनेसे इस चक्रवर्तीकी काया विपमय हो गयी थी। विनाशी और अशुचिमय कायाका ऐसा प्रपच देखकर सनत्कुमारके अत करणमे वैराग्य उत्पन्न हुआ। यह ससार सर्वथा त्याग करने योग्य है। ऐसीकी ऐसी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके शरीरमे है । यह सब मोह-मान करने योग्य नहीं है, यो कहकर वे छ खण्डकी प्रभुताका त्याग करके चल निकले। वे जव साधुरूपमे .विचरते थे तव महारोग उत्पन्न हुआ। उनके सत्यत्वकी परीक्षा लेनेके लिये कोई देव वहाँ वैद्यके रूपमे आया। साधुको कहा, "मैं वहत कुशल राजवैद्य हूँ, आपकी काया रोगका भोग बनी हुई है, यदि इच्छा हो तो तत्काल मै उस रोगको दूर कर
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श्रीमद राजचन्द्र
दूँ ।" साधु बोले, "हे वैद्य । कर्मरूपी रोग महोन्मत्त है, इस रोगको दूर करनेकी यदि आपकी समर्थता हो तो भले मेरा यह रोग दूर करे। यह समर्थता न हो तो यह रोग भले रहे ।” देवताने कहा, "इस रोगको दूर करने को समर्थता तो मैं नही रखता ।" बादमे साधुने अपनी लब्धिके परिपूर्ण बलसे थूकवाली अगुलि करके उसे रोगपर लगाया कि तत्काल वह रोग नष्ट हो गया और काया फिर जैसी थी वैसी हो गयी। बादमे उस समय देवने अपना स्वरूप प्रगट किया, धन्यवाद देकर, वदन करके वह अपने स्थानको चला गया ।
प्रमाण शिक्षा - रक्तपित्त जैसे सदैव खून - पोप से खदबदाते हुए महारोगकी उत्पत्ति जिस कायामे है, पलभरमे विनष्ट हो जानेका जिसका स्वभाव है, जिसके प्रत्येक रोममे पौने दो दो रोगोका निवास है, वैसे साढे तीन करोड़ रोमोसे वह भरी होनेसे करोडो रोगोका वह भडार है, ऐसा विवेक से सिद्ध है । अन्नादिकी न्यूनाधिकतासे वह प्रत्येक रोग जिस कायामे प्रगट होता है, मल, मूत्र, विष्ठा, हड्डी, मास, पीप और श्लेष्मसे जिसका ढाँचा टिका हुआ है, मात्र त्वचासे जिसकी मनोहरता है, उस कायाका मोह सचमुच । विभ्रम ही है । सनत्कुमारने जिसका लेशमात्र मान किया वह भी जिससे सहन नही हुआ उस कायामे अहो पामर । तू क्या मोह करता है ? 'यह मोह मगलदायक नही है ।"
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ऐसा होनेपर भी आगे चलकर मनुष्यदेहको सर्व- देहोत्तम कहना पडेगा । इससे सिद्धगतिकी सिद्धि है, यह कहनेका आशय है । वहॉपर निःशंक होनेके लिये यहाँ नाममात्रका व्याख्यान किया है ।
आत्माके शुभ कर्मका जब उदय आता है तब उसे मनुष्यदेह प्राप्त होती है । मनुष्य अर्थात् दो हाथ, दो पैर, दो आँखे, दो कान, एक मुख, दो ओष्ठ और एक नाकवाली देहका अधीश्वर ऐसा नही है । परन्तु उसका मर्म कुछ और ही है। यदि इस प्रकार अविवेक दिखायें तो फिर वानरको मनुष्य माननेमे क्या दोष है ? उस बेचारेने तो एक पूंछ भी अधिक प्राप्त की है। पर नहीं, मनुष्यत्वका मर्म यह हैविवेकबुद्धि जिसके मनमे उदित हुई है, वही मनुष्य है, बाकी सभी इसके बिना दो पैरवाले पशु ही हैं । मेधावी पुरुष निरतर इस मानवत्वका मर्म इसी प्रकार प्रकाशित करते है । विवेकबुद्धिके उदयसे मुक्तिके राजमार्गमे प्रवेश किया जाता है । 'और इस मार्गमे प्रवेश यही मानवदेहकी उत्तमता है। फिर भी इतना स्मृति रखना उचित है कि यह देह केवल अशुचिमय और अशुचिमय ही है । इसके स्वभावमे और कुछ भी नही है ।
भावनावोध ग्रन्थमें अशुचिभावनाके उपदेशके लिये प्रथम दर्शनके पाँचवें चित्रमें सनत्कुमारका दृष्टात और प्रमाणशिक्षा पूर्ण हुए ।
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अंतर्दर्शन: षष्ठ चित्र निवृत्तिबोध
( नाराच छद)
अनंत सौख्य नाम दुःख त्यां रही न मित्रता ! अनंत दुःख नाम सौख्य प्रेम त्यां, विचित्रता !! उघाड न्याय-नेत्र ने निहाळ रे ! निहाळ तुं; निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं ॥
विशेषार्थ - जिसमे एकात और अनत सुखको तरगे उछलती हैं ऐसे शील, ज्ञानको नाममात्रके दुखत आकर, मित्ररूप न मानते हुए उनमे अप्रीति करता है; और केवल अनत दुःखमय ऐसे जो
१ द्वि० आ० पाठा० - यह किंचित् स्तुतिपात्र नही है ।'
२. देखिये मोक्षमाला शिक्षापाठ ४ - मानवदेह |
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१७ वाँ वर्ष ससारके नाममात्रके सुख' है, उनमे तेरा परिपूर्ण प्रेम है, यह कैसी विचित्रता है | अहो चेतन | अब तू अपने न्यायरूपी नेत्रोको खोलकर देख | रे देख | || देखकर शीघ्रमेव निवृत्ति अर्थात् महावैराग्यको धारण कर, और मिथ्या कामभोगकी प्रवृत्तिको जला दे ।
ऐसी पवित्र महानिवृत्तिको दृढीभूत करनेके लिये उच्च विरागी युवराज मृगापुत्रका मनन करने योग्य चरित्र यहाँ प्रस्तुत करते है । तूने कैसे दुखको सुख माना है ? और कैसे सुखको दुःख माना है ? इसे युवराजके मुखवचन तादृश सिद्ध करेंगे ।
दृष्टान्त-नाना प्रकारके मनोहर वृक्षोंसे भरे हुए उद्यानोंसे सुशोभित सुग्रीव नामक एक नगर है। उस नगरके राज्यासनपर बलभद्र नामका एक राजा राज्य करता था। उसकी प्रियवदा पटरानीका नाम मृगा था। इस दम्पतीसे बलश्री नामके एक कुमारने जन्म लिया था। वे मृगापुत्रके नामसे प्रख्यात ये । वे मातापिताको अत्यन्त प्रिय थे। उन युवराजने गृहस्थाश्रममे रहते हुए भी सयतिके गुणोको प्राप्त किया था, इसलिये वे दमीश्वर अर्थात् यतियोमे अग्रेसर गिने जाने योग्य थे। वे मृगापुत्र शिखरबद आनन्दकारी प्रासादमे अपनी प्राणप्रिया सहित दोगुदक देवताकी भाँति विलास करते थे। वे निरतर प्रमुदित मनसे रहते थे। प्रासादका दीवानखाना चद्रकातादि मणियो तथा विविध रत्नोसे जड़ित था। एक दिन वे कुमार अपने झरोखेमे बैठे हुए थे। वहाँसे नगरका परिपूर्ण निरीक्षण होता था । जहाँ चार राजमार्ग मिलते थे ऐसे चौकमे उनकी दृष्टि वहाँ पड़ी कि जहाँ तीन राजमार्ग मिलते थे। वहाँ उन्होने महातप, महानियम, महासयम, महाशील, और महागुणोके धामरूप एक शान्त तपस्वी साधुको देखा । ज्योज्यो समय बीतता जाता है त्यों-त्यो मृगापुत्र उस मुनिको खूब गौरसे देख रहे हैं।
इस निरीक्षणसे वे इस प्रकार बोले-"जान पडता है कि ऐसा रूप मैंने कही देखा है।" और यो बोलते-बोलते वे कुमार शुभ परिणामको प्राप्त हुए । मोहपट दूर हुआ और वे उपशमताको प्राप्त हुए । जातिस्मृतिज्ञान प्रकाशित हुआ। पूर्वजातिको स्मृति उत्पन्न होनेसे महाऋद्धिके भोक्ता उन मुगापुत्रको पूर्वके चारित्रका स्मरण भी हो आया। शीघ्रमेव वे विषयमे अनासक्त हुए और सयममे आसक्त हुए। मातापिताके पास आकर वे बोले, "पूर्व भवमे मैंने पाँच महाव्रत सुने थे, नरकमे जो अनन्त दुख है वे भी मैंने सुने थे, तिर्यंचमे जो अनन्त दुख हैं वे भी मैंने सुने थे। उन अनन्त दु खोसे खिन्न होकर मै उनसे निवृत्त होनेका अभिलाषी हुआ हूँ। ससाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये हे गुरुजनो | मुझे उन पांच महाव्रतोको धारण करनेकी अनुज्ञा दीजिये।" _ कुमारके निवृत्तिपूर्ण वचन सुनकर मातापिताने उन्हे भोग भोगनेका आमत्रण दिया । आमत्रण-वचनसे खिन्न होकर मृगापुत्र यो कहते है-"अहो मात । और अहो तात | जिन भोगोका आप मुझे आमत्रण देते हैं उन भोगोको मै भोग चुका हूँ। वे भोग विषफल-किंपाक वृक्षके फलके समान हैं, भोगनेके बाद कडवे विपाकको देते है और सदैव दुखोत्पत्तिके कारण है । यह शरीर अनित्य और केवल अशुचिमय है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, यह जीवका अशाश्वत वास है, और अनन्त दुखोका हेतु है। यह शरीर रोग, जरा और क्लेशादिका भाजन है, इस शरीरमे मैं कैसे रति करूँ ? फिर ऐसा कोई नियम नही है कि यह शरीर बचपनमे छोडना है या बुढापेमे । यह शरीर पानीके फेनके बुलबुले जैसा है, ऐसे शरीरमे स्नेह करना कैसे योग्य हो सकता है ? मनुष्यभवमे भी यह शरीर कोढ, ज्वर आदि व्याधियोसे तथा जरा-मरणमे ग्रसित होना सम्भाव्य है । इससे मैं कैसे प्रेम करूं?
जन्मका दुख, जराका दुख, रोगका दुःख, मृत्युका दुख, इस तरह केवल दु खके हेतु संसारमे हैं। भूमि, क्षेत्र, आवास, कंचन, कुटुम्ब, पुत्र, प्रमदा, वाधव, इन सबको छोडकर मात्र क्लेशित होकर इस शरीरसे अवश्यमेव जाना है। जैसे किंपाक वृक्षके फलका परिणाम सुखदायक नही है वैसे भोगका परिणाम
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श्रीमद् राजचन्द्र भी सुखदायक नही है । जैसे कोई पुरुष महा प्रवासमे अन्न-जल साथमे न ले तो क्षुधा तृषासे दुखी होता है वैसे ही धर्मके अनाचरणसे परभवमे जानेपर वह पुरुष दुखी होता है, जन्म-जरादिकी पीड़ा पाता है । महाप्रवासमे जाता हुआ जो पुरुष अन्न-जलादि साथमे लेता है वह पुरुष क्षुधा-तृषासे रहित होकर सुख पाता है उसी प्रकार धर्मका आचरण करनेवाला पुरुष परभवमे जानेपर सुख पाता है, अल्प कर्मरहित होता है और असातावेदनीयसे रहित होता है । हे गुरुजनो । जैसे किसी गृहस्थका घर प्रज्वलित होता है तब उस घरका मालिक अमूल्य वस्त्रादिको ले जाकर जीर्ण वस्त्रादिको वही छोड़ देता है, वैसे ही लोकको जलता देखकर जीर्ण वस्त्ररूप जरामरणको छोडकर अमूल्य आत्माको उस दाहसे (आप आज्ञा दें तो मैं) बचाऊँगा।"
मृगापुत्रके वचन सुनकर उसके मातापिता शोकार्त होकर बोले, "हे पुत्र | यह तू क्या कहता है ? चारित्रका पालन अति दुष्कर है। यतिको क्षमादिक गुण धारण करने पड़ते हैं, निभाने पड़ते हैं, और यत्नासे सँभालने पडते है । सयतिको मित्र और शत्रुमे समभाव रखना पडता है, सयतिको अपने आत्मा
और परात्मापर समवुद्धि रखनी पडती है, अथवा सर्व जगतपर समान भाव रखना पडता है। ऐसा पालनेमे दुष्कर प्राणातिपातविरति प्रथम व्रत, उसे जीवनपर्यन्त पालना पड़ता है। सयतिको सदैव अप्रमत्ततासे मृषा वचनका त्याग करना और हितकारी वचन बोलना, ऐसा पालनेमे दुष्कर दूसरा व्रत धारण करना पडता है । सयतिको दत-शोधनके लिये एक सलाईके भी अदत्तका त्याग करना और निरवद्य एव दोषरहित भिक्षाका ग्रहण करना, ऐसा पालनेमे दुष्कर तीसरा व्रत धारण करना पड़ता है । कामभोगके स्वादको जानने और अब्रह्मचर्यके धारण करनेका त्याग करके ब्रह्मचर्यरूप चौथा व्रत सयतिको धारण करना तथा उसका पालन करना बहुत दुष्कर है । धनधान्य, दास-समुदाय, परिग्रहके ममत्वका वर्जन और सभी प्रकारके आरंभका त्याग करके केवल निर्ममत्वसे यह पाँचवाँ महाव्रत सयतिको धारण करना अति विकट है। रात्रिभोजनका वर्जन तथा घृतादि पदार्थोके वासी रखनेका त्याग करना अति दुष्कर है ।
हे पुत्र । तू चारित्र चारित्र क्या करता है ? चारित्र जैसी दु.खप्रद वस्तु दूसरी कौनसी है ? क्षुधा का परिषह सहन करना, तृषाका परिषह सहन करना, शीतका परिषह सहन करना, उष्ण तापका परिषह सहन करना, डॉस-मच्छरका परिषह सहन करना, आक्रोशका परिषह सहन करना, उपाश्रयका परिषह सहन करना, तृणादिके स्पर्शका परिषह सहन करना, तथा मैलका परिषह सहन करना, हे पुत्र । निश्चय मान कि ऐसा चारित्र कैसे पाला जा सकता है ? वधका परिषह और बन्धका परिषह कैसे विकट हैं। भिक्षाचरी कैसी दुष्कर है ? याचना करना कैसा दुष्कर है ? याचना करनेपर भी प्राप्त न हो, यह अलाभपरिषह कैसा दुष्कर है ? कायर पुरुषके हृदयका भेदन कर डालनेवाला केशलुचन कैसा विकट है ? तू विचार कर, कर्मवैरीके लिये रौद्र ऐसा ब्रह्मचर्य व्रत कैसा दुष्कर है ? सचमुच । अधीर आत्माके लिये यह सब अति-अति विकट है।
प्रिय पुत्र | तू सुख भोगनेके योग्य है । तेरा सुकुमार शरीर अति रमणीय रीतिसे निर्मल स्नान करनेके योग्य है । प्रिय पुत्र | निश्चय ही तू चारित्र पालनेके लिये समर्थ नही है। जीवन पर्यन्त इसमे विश्राम नहीं है । सयतिके गुणोका महासमुदाय लोहेकी भांति बहुत भारी है। सयमका भार वहन करना अति अति विकट है । जैसे आकाशगगाके प्रवाहके सामने जाना दुष्कर है वैसे ही यौवनवयमे सयम महादुष्कर है। जैसे प्रतिस्रात जाना दुष्कर है, वैसे ही यौवनमें सयम महादुष्कर है। भुजाओसे जैसे समुद्रको तरना दुष्कर है वैसे ही यौवनमे सयमाणसमुद्र पार करना महादुष्कर है। जैसे रेतका कौर नीरस है वैसे ही सयम भी नीरस है। जैसे खड्ग-धारापर चलना विकट है वैसे ही तपका आचरण करना महाविकट हैं । जस सर्प एकात दृष्टिसे चलता है, वैसे ही चारित्रमे ईर्यासमितिके लिये एकातिक चलना महादुष्कर है । हे
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१७ वा वर्ष
५३ प्रिय पुत्र | जैसे लोहेके चने चबाना दुष्कर है वैसे ही संयमका आचरण करना दुष्कर है। जैसे अग्निकी शिखाको पीना दुष्कर है, वैसे ही यौवनमे यतित्व अगीकार करना महादुष्कर है। सर्वथा मद सहननके धनी कायर पुरुषके लिये यतित्व प्राप्त करना तथा पालना दुष्कर है । जैसे तराजूसे मेरु पर्वतका तौलना दुष्कर है वैसे ही निश्चलतासे, नि शकतासे दशविध यतिधर्मका पालन करना दुष्कर है। जैसे भुजाओसे स्वयभूरमणसमुद्रको पार करना दुष्कर है वैसे ही उपशमहीन मनुष्यके लिये उपशमरूपी समुद्रको पार करना दुष्कर है।
हे पुत्र | शब्द, रूप, गध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकारसे मनुष्यसबधो भोगोको भोगकर भुक्तभोगी होकर तू वृद्धावस्थामे धर्मका आचरण करना।"
मातापिताका भोगसबधी उपदेश सुनकर वे मृगापुत्र मातापितासे इस तरह बोल उठे
"जिसे विषयकी वृत्ति न हो उसे संयम पालना कुछ भी दुष्कर नही है। इस आत्माने शारीरिक एव मानसिक वेदना असातारूपसे अनत बार सहन की है, भोगी है। महादु.खसे भरी, भयको उत्पन्न करनेवाली अति रौद्र वेदनाएँ इस आत्माने भोगी है। जन्म, जरा, मरण-ये भयके धाम हैं । चतुर्गतिरूप ससाराटवीमे भटकते हुए अति रौद्र दुःख मैने भोगे हैं । हे गुरुजनो । मनुष्यलोकमे जो अग्नि अतिशय उष्ण मानी गयो है, उस अग्निसे अनत गुनी उष्ण तापवेदना नरकमे इस आत्माने भोगो है। मनुष्यलोकमे जो ठंड अति शीतल मानी गयी है उस ठडसे अनत गुनी ठड नरकमे इस आत्माने असातासे भोगी है । लोहमय भाजनमे ऊपर पैर बाँधकर और नीचे मस्तक करके देवतासे वैक्रिय की हुई धाय धायँ जलती हुई अग्निमे आक्रदन करते हुए इस आत्माने अत्युन दु ख भोगे है। महा दवकी अग्नि जैसे मरुदेशमे जैसी बालू है उस बालू जैसी वज्रमय बालू कदब नामक नदीको बालू हैं, उस सरीखी उष्ण बालूमे पूर्वकालमे मेरे इस आत्माको अनत बार जलाया है ।
___ आक्रदन करते हुए मुझे पकानेके लिये पकानेके बरतनमे अनत बार डाला है। नरकमे महारौद्र परमाधामियोने मुझे मेरे कडवे विपाकके लिये अनत बार ऊंचे वृक्षकी शाखासे बांधा था। बान्धवरहित मुझे लम्बी करवतसे चीरा था । अति तीक्ष्ण कॉटोसे व्याप्त ऊँचे शाल्मलि वृक्षसे बाँधकर मुझे महाखेद दिया था । पाशमे बाँधकर आगे-पीछे खीचकर मुझे अति दुखी किया था। अत्यन्त असह्य कोल्हूमे ईखकी भांति आक्रदन करता हुआ मै अति रौद्रतासे पेला गया था। यह सब जो भोगना पडा वह मात्र मेरे अशुभ कर्मके अनत बारके उदयसे ही था । साम नामके परमाधामीने मुझे कुत्ता बनाया, शबल नामके परमाधामीने उस कुत्तेके रूपमे मुझे जमीन पर पटका, जीर्ण वस्त्रको भॉति फाडा, वृक्षकी भाँति छेदा, उस समय मैं अतीव तड़फडाता था।
विकराल खड़गसे, भालेसे तथा अन्य शस्त्रोंसे उन प्रचडोने मुझे विखडित किया था। नरकमे पाप कर्मसे जन्म लेकर विषम जातिके खंडोका दु ख भोगनेमे कमी नही रही। परतत्रतासे अनंत प्रज्वलित रथ मे रोझकी भाँति बरबस मुझे जोता था। महिषकी भांति देवताकी वैक्रिय की हुई अग्निमे मै जला था। मैं भुरता होकर असातासे अत्युन वेदना भोगता था । ढक-गीध नामके विकराल पक्षियोकी सँडसे जैसी चोचोंसे चूंथा जाकर अनत बिलबिलाहटसे कायर होकर मै विलाप करता था। तृपाके कारण जलपानके चिन्तनसे वेगमे दौडते हुए, वैतरणीका छरपलाकी धार जैसा अनत दुखद पानी मुझे प्राप्त हुआ था। जिसके पत्ते खड़गकी तीव्र धार जैसे हैं, जो महातापसे तप रहा है, वह असिपत्रवन मुझे प्राप्त हुआ था, वहाँ पूर्वकालमे मुझे अनन्त बार छेदा गया था । मुद्गरसे, तीव्र शस्त्रसे, त्रिशूलसे, मूसलसे तथा गदासे मेरे शरीरके टुकड़े किये गये थे । शरणरूप सुखके बिना मैने अशरणरूप अनन्त दुख पाया था। वस्त्रकी भॉति मझे छरपलाकी तीक्ष्ण धारसे, छुरीसे और कैचीसे काटा गया था। मेरे खड खड टुकड़े किये गये थे। मझे
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श्रीमद राजचन्द्र
तिरछा छेदा गया था । चररर शब्द करती हुई मेरी त्वचा उतारी गयी थी । इस प्रकार मैंने अनत दुःख
पाया था।
परवशतासे मृगकी भाँति अनत वार पाशमे पकडा गया था । परमाधामियोने मुझे मगरमच्छ के रूपमे जाल डालकर अनत वार दुख दिया था । वाजके रूपमे पक्षीकी भाँति जालमे बाँध कर मुझे अनन्त वार मारा था । फरसा इत्यादि शस्त्रोसे मुझे अनन्त बार वृक्षकी तरह काटकर मेरे सूक्ष्म टुकडे किये गये थे । जैसे लुहार घनसे लोहेको पीटता है वैसे ही मुझे पूर्व कालमे परमाधामियोने अनन्त बार पीटा था । तॉवे, लोहे और सीसेको अग्निसे गला कर उनका उबलता हुआ रस मुझे अनन्त बार पिलाया था । अति रौद्रतासे वे परमाधामी मुझे यो कहते थे कि पूर्व भवमे तुझे माँस प्रिय था, अव ले यह मॉस । इस तरह मैने अपने ही शरीर के खण्ड-खण्ड टुकडे अनन्त वार निगले थे । मद्यकी प्रियताके कारण भी मुझे इससे कुछ कम दुख उठाना नही पडा। इस प्रकार मैंने महाभयसे, महात्राससे और महादु खसे कंपायमान काया द्वारा अनन्त वेदनाएँ भोगी थी । जो वेदनाएँ सहन करनेमे अति तीव्र, रौद्र और उत्कृष्ट कालस्थितिवाली हैं, और जो सुननेमे भी अति भयकर है, वे मैंने नरकमे अनन्त बार भोगी थी । जैसी वेदना मनुष्यलोकमे है वैसी दोखती परन्तु उससे अनन्त गुनी अधिक असातावेदना नरकमे थी । सभी भवोमे असातावेदना मैंने भोगी है । निमेषमात्र भी वहाँ साता नही है ।"
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इस प्रकार मृगापुत्रने वैराग्य भावसे ससार परिभ्रमणके दुख कह सुनाये। इसके उत्तरमे उसके माता पिता इस प्रकार बोले -" हे पुत्र । यदि तेरी इच्छा दीक्षा लेनेकी है तो दीक्षा ग्रहण कर, परन्तु चारित्रमे रोगोत्पत्तिके समय चिकित्सा कौन करेगा ? दुख - निवृत्ति कौन करेगा ? इसके विना अति दुष्कर है ।" मृगापुत्रने कहा - "यह ठोक है, परन्तु आप विचार कीजिये कि अटवीमे मृग तथा पक्षी अकेले होते है; उन्हे रोग उत्पन्न होता है तब उनकी चिकित्सा कौन करता है ? जैसे वनमे मृग विहार करता है वैसे ही मैं चारित्रवनमे विहार करूँगा, और सत्रह प्रकारके शुद्ध सयमका अनुरागी बनूँगा, वारह प्रकारके तपका आचरण करूँगा, तथा मृगचर्यासे विचरूंगा। जब मृगको वनमे रोगका उपद्रव होता है, तब उसकी चिकित्सा कौन करता है ?" ऐसा कहकर वे पुन बोले, "कौन उस मृगको औषध देता है ? कौन उस मृग को आनन्द, शाति और सुख पूछता है ? कौन उस मृगको आहार जल लाकर देता है ? जैसे वह मृग उपद्रवमुक्त होनेके बाद गहन वनमे जहाँ सरोवर होता है वहाँ जाता है, तृण-पानी आदिका सेवन करके फिर जैसे वह मृग विचरता है वैसे ही मैं विचरूँगा । साराश यह कि मैं तद्रूप मृगचर्याका आचरण करूँगा । इस तरह में भी मृगकी भाँति सयमवान बनूँगा । अनेक स्थलोमे विचरता हुआ यति मृगकी भाँति अप्रतिबद्ध रहे। मृगकी तरह विचरण करके, मृगचर्याका सेवन करके और सावद्यको दूर करके यति विचरे । जैसे मृग तृण, जल आदिकी गोचरी करता है वैसे ही यति गोचरी करके संयमभारका निर्वाह करे । दुराहारके लिये गृहस्थकी अवहेलना न करे, निंदा न करे, ऐसे सयमका मै आचरण करूँगा ।"
“एवं पुत्ता जहासुख —– हे पुत्र । जैसे तुम्हे सुख हो वैसे करो ।" इस प्रकार मातापिताने अनुज्ञा दी । अनुज्ञा मिलनेके बाद ममत्वभावका छेदन करके जैसे महा नाग कचुकका त्याग करके चला जाता है वैसे ही वे मृगापुत्र ससारका त्याग कर सयम धर्ममे सावधान हुए । कचन, कामिनी, मित्र, पुत्र, जाति और सगे सबधियोके परित्यागी हुए। जैसे वस्त्रको झटक कर धूलको झाड़ डालते हैं वैसे ही वे सब प्रपचका त्याग कर दीक्षा लेनेके लिये निकल पडे । वे पवित्र पाँच महाव्रतसे युक्त हुए, पच समितिसे सुशोभित हुए, त्रिगुप्तिसे अनुगुप्त हुए, वाह्याभ्यतर द्वादश तपसे सयुक्त हुए, ममत्वरहित हुए निरहकारी हुए । स्त्री आदिके सगसे रहित हुए, और सभी प्राणियोमे उनका समभाव हुआ । आहार जल प्राप्त हो या न हो, सुख प्राप्त हो या दुख, जीवन हो या मरण, कोई स्तुति करे या कोई निन्दा करे, कोई मान दे या कोई अपमान करे, उन सब पर वे समभावी हुए । ऋद्धि, रस और सुख इस त्रिगारवके अहपदसे वे विरक्त हुए ।
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१७ वाँ वर्ष
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मनदड, वचनदड और तनदंडको दूर किया। चार कषायसे विमुक्त हुए । मायाशल्य, निदानशल्य तथा मिथ्यात्वशल्य इस त्रिशल्यसे विरागी हुए । सप्त महाभयसे वे अभय हुए । हास्य और शोकसे निवृत्त हुए । निदानरहित हुए । रागद्वेषरूपी बन्धनसे छूट गये । वाछारहित हुए। सभी प्रकारके विलासोसे रहित हुए । कोई तलवारसे काटे और कोई चन्दनका विलेपन करे, उसपर समभावी हुए । उन्होने पाप आनेके सभी द्वार रोक दिये । शुद्ध अन्त करणसहित धर्मंध्यानादिके व्यापार मे वे प्रशस्त हुए । जिनेन्द्रके शासनतत्त्वमे परायण हुए । ज्ञानसे, आत्मचारित्रसे, सम्यक्त्वसे, तपसे, प्रत्येक महाव्रतकी पाँच भावनाओसे अर्थात् पाँच महाव्रतोकी पच्चीस भावनाओंसे और निर्मलतासे वे अनुपम विभूषित हुए । सम्यक् प्रकारसे बहुत वर्ष तक आत्मचरित्रका परिसेवन करके एक मासका अनशन करके उन महाज्ञानी युवराज मृगापुत्रने प्रधान मोक्षगतिमे गमन किया ।
प्रमाणशिक्षा — तत्त्वज्ञानियो द्वारा सप्रमाण सिद्ध की हुई द्वादश भावनाओमे से ससार भावनाको दृढ करनेके लिये मृगापुत्रके चरित्रका यहाँ वर्णन किया है । ससाराटवीमे परिभ्रमण करते हुए अनन्त दुःख है, यह विवेकसिद्ध है, और इसमे भी, निमेषमात्र भी जिसमे सुख नही है ऐसी नरकाधोगतिके अनन्त दु खोका वर्णन युवज्ञानी योगीद्र मृगापुत्रने अपने मातापिता के समक्ष किया है, वह केवल ससारसे मुक्त होनेका विरागी उपदेश प्रदर्शित करता है। आत्मचारित्रको धारण करनेमे तपपरिषहादिके बहिर्दुःखको दुख माना है, और महाधोगति के परिभ्रमणरूप अनन्त दुखको बहिर्भावमोहिनीसे सुख माना है, यह देखो, कैसी भ्रमविचित्रता है ? आत्मचारित्रका दुःख दुख नही परन्तु परम सुख है, और परिणाममे अनन्त सुखतरगकी प्राप्तिका कारण है, और भोगविलासादिका सुख जो क्षणिक एव बहिर्दृष्ट सुख है वह केवल दुख ही है, और परिणाममे अनन्त दुःखका कारण है, इसे सप्रमाण सिद्ध करनेके लिये महाज्ञानी मृगापुत्रका वैराग्य यहाँ प्रदर्शित किया है । इन महाप्रभावक, महायशस्वी मृगापुत्रकी भाँति जो तपादिक और आत्मचारित्रादिक शुद्धाचरण करे, वह उत्तम साधु त्रिलोकमे प्रसिद्ध और प्रधान परमसिद्धिदायक सिद्धगतिको पाये । ससारममत्वको दुखवृद्धिरूप मानकर तत्त्वज्ञानी इन मृगापुत्रकी भाँति परम सुख और परमानन्दके लिये ज्ञानदर्शनचारित्ररूप दिव्य चिन्तामणिकी आराधना करते हैं ।
महर्षि मृगापुत्रका सर्वोत्तम चरित्र (ससारभावनारूपसे) ससार परिभ्रमणकी निवृत्तिका और उसके साथ अनेक प्रकारकी निवृत्तिका उपदेश देता है । इस परसे अतर्दर्शनका नाम निवृत्तिबोध रखकर आत्मचारित्रकी उत्तमताका वर्णन करते हुए मृगापुत्रका यह चरित्र यहाँ पूर्ण होता है । तत्त्वज्ञानी ससारपरिभ्रमणनिवृत्ति और सावद्यउपकरणनिवृत्तिका पवित्र विचार निरतर करते हैं ।
इति अन्तर्दर्शनके ससारभावनारूप छठे चित्रमें मृगापुत्रचरित्र समाप्त हुआ ।
सप्तम चित्र आस्रवभावना
द्वादश अविरति षोडश कषाय, नव नोकषाय, पच मिथ्यात्व और पंचदश योग यह सब मिलकर सत्तावन आस्रव-द्वार अर्थात् पापके प्रवेश करनेके प्रणाल है ।
दृष्टान्त - महाविदेहमे विशाल पुडरीकिणी नगरीके राज्यसिहासनपर पुडरीक और कुंडरीक नामके दो भाई आरूढ थे । एक बार वहाँ महातत्त्वज्ञानी मुनिराज विहार करते हुए आये । मुनिके वैराग्य वचनामृत कुडरीक दीक्षानुरक्त हुआ और घर आनेके बाद पुडरीकको राज्य सौंपकर चारित्र अगीकार किया । सरस-नीरस आहार करनेसे थोडे समयमे वह रोगग्रस्त हुआ, जिससे वह चारित्रपरिणामसे भ्रष्ट हो गया ।
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५६
श्रीमद राजचन्द्र
गुडरीकिणी महानगरीको अशोकवाटिकामे आकर उसने ओघा, मुखपटी वृक्षपर लटका दिये । वह निरन्तर यह परिचिंतन करने लगा कि पुडरीक मुझे राज देगा या नही ? वनरक्षकने कुडरीकको पहचान लिया । उसने जाकर पुडरीकको विदित किया कि आकुलव्याकुल होता हुआ आपका भाई अशोकबागमे ठहरा हुआ है । पुडरोकने आकर कुडरीक के मनोभाव देखे और उसे चारित्रसे डगमगाते हुए देखकर कुछ उपदेश देनेके बाद राज सांपकर घर आया ।
कुडरीककी आज्ञाको सामत या मत्री कोई भी नही मानते थे, बल्कि वह हजार वर्ष तक प्रव्रज्या पालकर पतित हुआ, इसलिये उसे विक्कारते थे । कुडरीकने राज्यमे आनेके वाद अति आहार किया । इ कारण वह रात्रि अति पीडित हुआ और वमन हुआ । अप्रीतिके कारण उसके पास कोई आया नही, इससे उसके मनमे प्रचण्ड क्रोध आया। उसने निश्चय किया कि इस पीडासे यदि मुझे शाति मिले तो फिर प्रभातमे इन सबको मे देख लूंगा । ऐसे महादुर्ध्यानसे मर कर वह सातवी नरकमे अपयठाण पाथडमे तेतीस
पकी आयु के साथ अनन्त दुखमे जाकर उत्पन्न हुआ । कैसा विपरीत आस्रवद्वार ||
इति सप्तम चित्र आस्रवभावना समाप्त हुई ।
अष्टम चित्र संवरभावना
संवरभावना - उपर्युक्त आस्रवद्वार और पापप्रणालको सर्वथा रोकना ( आते हुए कर्म - समूहको रोकना) यह सवरभाव है ।
दृष्टांत - (२) (कुडरीकका अनुसवध) कुंडरीकके मुखपटी इत्यादि उपकरणोको ग्रहण करके पुडरीकने निश्चय किया कि मुझे पहले महर्षि गुरुके पास जाना चाहिये और उसके बाद ही अन्न-जल ग्रहण करना चाहिये | नगे पैरोसे चलने के कारण पैरोमे ककर एव काँटे चुभनेसे लहूको धाराएँ बह निकली, तो भी वह उत्तम ध्यानमे समताभावसे रहा । इस कारण यह महानुभाव पुंडरीक मृत्यु पाकर समर्थ सर्वार्थसिद्ध विमानमे तैंतीस सागरोपमको उत्कृष्ट आयुसहित देव हुआ । आस्रवसे कुडरोककी कैमी दुखदशा । और सवरसे पुडरीककी कैसी सुखदशा
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दृष्टात - ( २ ) श्री वज्रस्वामी कचनकामिनी के द्रव्यभावसे सर्वथा परित्यागी थे । एक श्रीमतकी रुक्मिणी नामकी मनोहारिणी पुत्री वज्रस्वामीके उत्तम उपदेशको सुनकर उनपर मोहित हो गयी । घर आकर उसने मातापितासे कहा, "यदि मै इस देहसे पति करूँ, तो मात्र वज्रस्वामीको ही करूँ, अन्यके साथ सलग्न न होनेकी मेरी प्रतिज्ञा हे ।" रुक्मिणीको उसके मातापिताने बहुत ही कहा, "पगली | विचार तो मही कि क्या मुनिराज भी कभी विवाह करते है ? उन्होने तो आस्रवद्वारकी सत्य प्रतिज्ञा ग्रहण की है ।" तो भी रुक्मिणीने कहना नही माना । निरुपाय होकर धनावा सेठने कुछ द्रव्य और सुरूपा रुक्मिणीको साथ लिया, और जहाँ वज्रस्वामी विराजते थे वहाँ आकर कहा, "यह लक्ष्मी है, इसका आप यथारुचि उपयोग करे, और वैभवविलासमे लगायें, और इस मेरी महासुकोमला रुक्मिणी नामकी पुत्रीसे पाणिग्रहण करे ।" वो कहकर वह अपने घर चला आया ।
यौवनमागरमे तैरती हुई रूपराशि रुक्मिणीने वज्रस्वामीको अनेक प्रकारसे भोगसंबंधी उपदेश किया, भोग के मुसीका अनेक प्रकारने वर्णन किया, मनमोहक हावभाव तथा अनेक प्रकार के अन्य चलित करने के उपाय नये, परंतु वे मवथा वृथा गये, महासुदरी रुक्मिणी अपने मोहकटाक्षमे निष्फल हुई । उग्रचरित्र विजयमान वज्रयानी मेरुको नाति अचल और अडोल रहे । रुक्मिणोके मन, वचन और तनके
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१७ वौ वर्ष
५७ सभी उपदेशो तथा हावभावोसे वे लेशमात्र न पिघले। ऐसी महाविशाल दृढतासे रुक्मिणीने बोध प्राप्त करके निश्चय किया कि ये समर्थ जितेंद्रिय महात्मा कभी चलित होनेवाले नहीं है। लोहे और पत्थरको पिघलाना सरल है, परन्तु इन महापवित्र साधु वज्रस्वामीको पिघलानेकी आशा निरर्थक होते हुए भी अधोगतिका कारणरूप है । इस प्रकार सुविचार करके उस रुक्मिणीने पिताकी दी हुई लक्ष्मीको शुभ क्षेत्रमे लगाकर चारित्र ग्रहण किया, मन, वचन और कायाका अनेक प्रकारसे दमन करके आत्मार्थ साधा। इसे तत्त्वज्ञानी सवरभावना कहते हैं ।
इति अष्टम चित्रमें सवरभावना समाप्त हुई।
नवम चित्र
निर्जरा भावना द्वादश प्रकारके तपसे कर्म-समूहको जलाकर भस्मीभूत कर डालनेका नाम निर्जराभावना है । तपके बारह प्रकारमे छ बाह्य और छः अभ्यत र प्रकार है । अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसक्षेप, रस-परित्याग, कायक्लेश और संलीनता ये छ बाह्य तप है । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, शास्त्र-पठन, ध्यान और कायोत्सर्ग ये छ. अभ्यंतर तप है । निर्जरा दो प्रकारकी है-एक अकाम निर्जरा और दूसरी सकाम निर्जरा । निर्जराभावनापर एक विप्र-पुत्रका दृष्टात कहते है।
दृष्टांत-किसी ब्राह्मणने अपने पुत्रको सप्तव्यसनभक्त जानकर अपने घरसे निकाल दिया। वह वहाँसे निकल पडा और जाकर उसने तस्करमडलोसे स्नेहसबंध जोडा । उस मडलीके अग्रेसरने उसे अपने काममे पराक्रमी जानकर पुत्र बनाकर रखा। वह विप्रपुत्र दुष्टदमन करनेमे दृढप्रहारी प्रतीत हुआ । इससे उसका उपनाम दृढप्रहारी रखा गया । वह दृढप्रहारी तस्करोमे अग्रेसर हुआ। नगर, ग्रामका नाश करनेमे वह प्रबल हिंमतवाला सिद्ध हुआ। उसने बहुतसे प्राणियोके प्राण लिये । एक बार अपने सगति समुदायको लेकर उसने एक महानगरको लूटा । दृढप्रहारी एक विपके घर बैठा था । उस विप्रके यहाँ बहुत प्रेमभावसे क्षीरभोजन बना था। उस क्षीरभोजनके भाजनको उस विप्रके मनोरथी बाल-बच्चे घेरे बैठे थे। दृढप्रहारी उस भाजनको छूने लगा, तब ब्राह्मणीने कहा, "हे मूर्खराज | इसे क्यो छूता है ? यह फिर हमारे काम नही आयेगा, इतना भी तू नही समझता ?" दृढप्रहारीको उन वचनोसे प्रचड क्रोध आ गया और उसने उस दीन स्त्रीको मौतके घाट उतार दिया । नहाता नहाता ब्राह्मण सहायताके लिये दौड आया, उसे भी उसने परभवको पहुँचा दिया। इतनेमे घरमेसे गाय दौडती हुई आयी, और वह सीगोसे दृढप्रहारीको मारने लगी। उस महादृष्टने उसे भी कालके हवाले कर दिया। उस गायके पेटमेसे एक बछड़ा निकल पडा, उसे तड़फडाता देखकर दृढप्रहारीके मनमे बहुत बहुत पश्चात्ताप हुआ । “मुझे धिक्कार है कि मैंने महाघोर हिंसाएँ कर डाली । मेरा इस महापापसे कब छुटकारा होगा? सचमुच | आत्मकल्याण साधनेमे ही श्रेय है।"
ऐसी उत्तम भावनासे उसने पचमुष्टि केशलुचन किया । नगरके द्वार पर आकर वह उन कायोत्सर्गमे स्थित रहा। वह पहिले सारे नगरके लिये सतापरूप हुआ था, इसलिये लोग उसे बहुविध सताप देने लगे। आते जाते हए लोगोंके धूल-टेंलो, ईंट-पत्थरो और तलवारकी मूठोंसे वह अति सतापको प्राप्त हआ। वहाँ लोगोने डेढ महीने तक उसे तिरस्कृत किया, फिर थके और उसे छोड दिया। दृढप्रहारी वहाँसे कायोत्सर्ग पूरा कर दूसरे द्वार पर ऐसे ही उग्र कायोत्सर्गमे स्थित रहा। उस दिशाके लोगोंने भी उसी तरह तिरस्कत किया, डेढ महीने तक छेडछाड कर छोड दिया । वहाँसे कायोत्सर्ग पूरा कर दृढप्रहारी तीसरे द्वारपर स्थित रहा । वहाँके लोगोने भी बहुत तिरस्कृत किया। डेढ महीने बाद छोड देनेसे वह वहाँसे चौथे द्वार पर डेढ मास तक रहा । वहाँ अनेक प्रकारके परिषह सहन करके वह क्षमाधर रहा । छठे मासमे अनन्त कर्म-सम
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५८
श्रीमद् राजचन्द्र दायको जलाकर उत्तरोत्तर शुद्ध होकर वह कर्मरहित हुआ। सर्व प्रकारके ममत्वका उसने त्याग किया। अनुपम केवलज्ञान पाकर वह मुक्तिके अनत सुखानंदसे युक्त हो गया। यह निर्जराभावना दृढ हुई । अब
दशम चित्र लोकस्वरूपभावना
लोकस्वरूपभावना-इस भावनाका स्वरूप यहाँ सक्षेपमे कहना है। जैसे पुरुष दो हाथ कमरपर रखकर पैरोको चौडा करके खडा रहे, वैसा ही लोकनाल किंवा लोकस्वरूप जानना चाहिये। वह लोकस्वरूप तिरछे थालके आकारका है। अथवा खड़े मर्दलके समान है। नीचे भवनपति, व्यतर और सात नरक हैं | मध्य भागमे अढाई द्वीप है। ऊपर वारह देवलोक, नव ग्रेवेयक, पाँच अनुत्तर विमान और उनपर अनन्त सुखमय पवित्र सिद्धोको सिद्धशिला है। यह लोकालोकप्रकाशक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और निरुपम केवलज्ञानियोने कहा है । सक्षेपमे लोकस्वरूपभावना कही गयी।
पापप्रणालको रोकनेके लिये आस्वभावना और संवरभावना, महाफली तपके लिये निर्जराभावना और लोकस्वरूपका किंचित् तत्त्व जाननेके लिये लोकस्वरूपभावना इस दर्शनके इन चार चित्रोमे पूर्ण हुई।
दशम चित्र समाप्त।
जान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहाँ विचार । ए भावे शुल भावना, ते ऊतरे भव पार ॥
१ भावार्य-ज्ञान, ध्यान और वैराग्यमय उत्तम विचारोफे साथ जो इन शुभ भावनाओका चितन करता है। वह समार से पार हो जाता है।
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१७
मोक्षमाला
( वा लाववोध )
उपोद्घात
निग्रंथ प्रवचनके अनुसार अति सक्षेपमे इस ग्रथकी रचना करता हूँ । प्रत्येक शिक्षाविषयरूपी म कैसे इसकी पूर्णाहुति होगी । आडबरी नाम ही गुरुत्वका कारण है, यो समझते हुए भी परिणाममे अप्रभु रहा होनेसे इस प्रकार किया है, सो उचित सिद्ध होओ । उत्तम तत्त्वज्ञान और परम सुशीलका उपदे करनेवाले पुरुष कुछ कम नही हुए हैं, और फिर यह ग्रथ उससे कुछ उत्तम अथवा समान नही है; परन विनयरूपमे उन उपदेशकोके धुरधर प्रवचनोके आगे यह कनिष्ठ है । यह भो प्रमाणभूत है कि प्रधान पुरुष समीप अनुचरकी आवश्यकता है, उसी तरह वैसे घुरधर ग्रन्थोके उपदेशबीजको बोनेके लिये तथा अत करणको कोमल करनेके लिये ऐसे ग्रन्थका प्रयोजन है ।
इस प्रथम दर्शन और दूसरे अन्य दर्शनोमे तत्त्वज्ञान और सुशीलको प्राप्तिके लिये और परिण मत अनत सुखतरगको प्राप्त करनेके लिये जो-जो साध्य - साधन श्रमण भगवान ज्ञातपुत्रने प्रकाशित कि है, उनका स्वल्पतासे किंचित् तत्त्वसंचय करके उसमे महापुरुषोके छोटे-छोटे चरित्र एकत्र करके इ भावनाबोध और इस मोक्षमालाको विभूषित किया है । यह - "विदग्धमुखमडन भवतु ।” - कर्त्ता पुरुष
[ सवत् १९४३ ]
शिक्षणपद्धति और मुखमुद्रा
यह एक स्याद्वाद तत्त्वावबोध वृक्षका बीज है । यह ग्रथ तत्त्वप्राप्तिकी जिज्ञासा उत्पन्न कर सकने की कुछ अशमे भी सामर्थ्य रखता है । यह समभावसे कहता हूँ । पाठक और वाचक वर्गसे मुख्य अनुरोध यह है कि शिक्षापाठोको मुखाग्र करनेकी अपेक्षा यथाशक्ति मनन करे, उनके तात्पर्यका अनुभव करें, जिनकी समझमे न आता हो वे ज्ञाता शिक्षक या मुनियोसे समझे और ऐसा योग न मिले तो पाँच सात बार उन पाठोको पढ जायें । एक पाठ पढ़ जानेके बाद आधी घडो उसपर विचार करके अन्त करणसे पूछे कि क्या तात्पर्य मिला ? उस तात्पर्यमेसे हेय, ज्ञेय और उपादेय क्या ? ऐसा करनेसे पूरा ग्रन्थ समझा जा सकेगा । हृदय कोमल होगा, विचारशक्ति खिलेगी और जैन तत्त्वपर सम्यक् श्रद्धा होगी । यह ग्रन्थ कुछ पठन करनेके लिये नही है, मनन करनेके लिये है । इसमे अर्थरूप शिक्षाकी योजना की है । यह योजना 'बालाववोध ' रूप है । 'विवेचन' और 'प्रज्ञावबोध' भाग भिन्न हैं, यह उनका एक खण्ड है, फिर भी सामान्य तत्त्वरूप है ।
जिन्हे स्वभाषासवधी अच्छा ज्ञान है, और नव तत्त्व तथा सामान्य प्रकरण ग्रन्थोको जो समझ सकते है, उन्हें यह ग्रन्थ विशेष बोधदायक होगा । इतना तो अवश्य अनुरोध है कि छोटे बालकोको इन शिक्षापाठोका तात्पर्य सविधि समझायें ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
ज्ञानशालाके विद्यार्थियोको शिक्षापाठ मुखाग्र करायें और वारंवार समझाये। जिन-जिन ग्रन्थोकी इसके लिये सहायता लेनो योग्य हो वह ली जाये। एक-दो बार पुस्तकको पूरा सीख लेनेके बाद उसका अभ्यास उलटेसे करायें।
मैं मानता हूँ कि सुज्ञ वर्ग इस पुस्तककी ओर कटाक्ष दृष्टिसे नही देखेगा। बहुत गहराईसे मनन करनेपर यह मोक्षमाला मोक्षका कारणरूप हो जायेगी। इसमे मध्यस्थतासे तत्त्वज्ञान और शीलका बोध देनेका उद्देश्य है।
इस पुस्तकको प्रसिद्ध करनेका मुख्य हेतु यह भी है कि जो उगते हुए बाल युवक अविवेकी विद्या प्राप्त करके आत्मसिद्धिसे भ्रष्ट होते है, उनकी भ्रष्टता रोकी जाये।
मनमाना उत्तेजन नही होनेसे लोगोकी भावना कैसी होगी इसका विचार किये बिना ही यह साहस किया है, मैं मानता हूँ कि यह फलदायक होगा। शालामे पाठकोको भेंटरूप देनेमे उत्साहित होनेके लिये और जैनशालामे अवश्य इसका उपयोग करनेके लिये मेरा अनुरोध है। तभी पारमार्थिक हेतु सिद्ध होगा।
शिक्षापाठ १ : वाचकसे अनुरोध वाचक | मैं आज तुम्हारे हस्तकमलमे आती हूँ। मुझे यत्नापूर्वक पढना। मेरे कहे हुए तत्त्वको हृदयमे धारण करना । मै जो-जो बात कहूँ उस-उसका विवेकसे विचार करना। यदि ऐसा करोगे तो तुम ज्ञान, ध्यान, नीति, विवेक, सद्गुण और आत्मशाति पा सकोगे।
__ तुम जानते होगे कि कितने ही अज्ञानी मनुष्य न पढने योग्य पुस्तकें पढकर अपना वक्त खो देते है, और उल्टे रास्ते पर चढ जाते हैं। वे इस लोकमे अपकीर्ति पाते है, तथा परलोकमे नीच गतिमे जाते है ।
तुमने जिन पुस्तकोको पढा है, और अभी पढते हो, वे पुस्तकें मात्र ससारकी है, परन्तु यह पुस्तक तो भव और परभव दोनोमे तुम्हारा हित करेगी। भगवानके कहे हुए वचनोका इसमे थोडा उपदेश किया है।
तुम किसी प्रकारसे इस पुस्तककी अविनय न करना, इसे न फाडना, इसपर दाग न लगाना या दूसरी किसी भी तरहसे न विगाडना। विवेकसे सारा काम करना। विचक्षण पुरुषोने कहा है कि जहाँ विवेक है वही धर्म है।
तुमसे एक यह भी अनुरोध है कि जिन्हें पढना न आता हो और उनकी इच्छा हो तो यह पुस्तक अनुक्रमसे उन्हें पढ सुनाना ।
तुम जिस वातको न समझ पाओ उसे सयाने पुरुषसे समझ लेना। समझनेमे आलस्य या मनमे शका न करना।
तुम्हारे आत्माका इससे हित हो, तुम्हे ज्ञान, शाति और आनद मिले, तुम परोपकारी, दयालु, क्षमावान, विवेकी और बुद्धिशाली बनो, ऐसी शुभ याचना अर्हत भगवानसे करके यह पाठ पूर्ण करता हूँ।
शिक्षापाठ २ : सर्वमान्य धर्म
चौपाई *धर्मतत्त्व जो पूछयं मने, तो संभळा, स्नेहे तने;
जे सिद्धात सकळनो सार, सर्वमान्य सहुने हितकार ॥१॥ *मावार्थ- यदि तूने धर्मतत्त्व मुझसे पूछा है, तो उसे तुझे स्नेहसे सुनाता हूँ। जो सकल सिद्धातका सार है, सर्वमान्य और सर्वहितकर है ॥१॥
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१७ वर्ष
भाख्यं भाषणमां भगवान, धर्म न बीजो दया समान; अभयदान साथ संतोष, द्यो प्राणीने, दळवः दोष ॥ २ ॥ सत्य शीळ ने सघलां दान, दया होईने रह्यां प्रमाण; क्या नहीं तो ए नहीं एक, विना सूर्य किरण नहि देख ॥ ३ ॥ पुष्पपांखडी ज्यां दूभाय, जिनवरनी ल नहि आज्ञाय; सर्व जीवनुं इच्छो सुख, महावीरनं शिक्षा मुख्य ॥ ४ ॥ सर्व दर्शने ए उपवेश, ए एकते, नहीं विशेष; सर्व प्रकारे जिननो बोध, वया दय निर्मळ अविरोध ! ॥ ५ ॥ ए भवतारक सुंदर राह, घरिने तरये करी उत्साह; धर्म सकळनुं ए शुभ मूळ, ए वण धर्म सदा प्रतिकूळ ॥ ६ तत्त्वरूपथी ए ओळखे, ते जन पहोंचे शाश्वत सुखे; शांतिनाथ भगवान प्रसिद्ध, रजचंद्र करुणाए सिद्ध ॥ ७ ॥
६१
ove
शिक्षापाठ ३ : के चमत्कार
'तुम्हें बहुतसी सामान्य विचित्रताएं बताये / देता हूँ, इनपर विचार करोगे तो तुम्हें परभवकी श्रद्धा दृढ होगी ।
एक जीव सुन्दर पलगपर पुष्पशय्यामे शय करता है, और एकको फटी-पुरानी गुदड़ी भी नसीब नही होती । एक भाँति-भाँति के भोजनोंसे तृप्त हता है और एक दाने-दानेको तरसता है । एक अगणित लक्ष्मीका उपभोग करता है और एक फूटी कौर के लिये दर-दर भटकता है । एक मधुर वचनोंसे मनुष्यका मन हरता है और एक मूक-सा होकर रहता है। एक सुन्दर वस्त्रालकारसे विभूषित होकर फिरता है और एकको कड़े जाड़ेमे चीथडा भी ओढनेको नहीं मिलता । एक रोगी है और एक प्रबल है । एक बुद्धिशाली है और एक जडभरत है । एक मनोहर नयवाला है और एक अधा है । एक लूला है और एक लगडा है । एक कीर्तिमान् है और एक अपयश भोता है। एक लाखो अनुचरोपर हुक्म चलाता है और एक लाखोके ताने सहन करता है । एकको देकर आनन्द होता है और एकको देखकर वमन होता है । एककी भगवान प्रवचन में कहा है कि दया समान दूसरा धर्म नही है । दोषोका नाश करनेके लिये प्राणियोको अभयदानके साथ दो ॥ २ ॥
न
शील और सभी दान दयाके होनेपर ही प्रमाणित हैं । जैसे सूर्यके विना किरणें नही हैं, वैसे ही दयाके पर सत्य, शील, दान आदि एक भी गुग नही है | ३ ||
जिससे पुष्पकी एक पखडीको भी दुख होता है, वह करनेकी जिनवरकी आज्ञा ही नही है । सब जीवोका सुख चाहो यही महावीरकी मुख्य शिक्षा है ॥ ४ ॥
सब दर्शनोमें दयाका उपदेश है । यह एकात है, विशेष नहीं । सर्व प्रकारसे जिन भगवानका यही बोघ है कि दया एव विरोधरहित निर्मल दया परम धर्म है ॥ ५ ॥
यह ससारसे पार करनेवाला सुदर मार्ग है, इसे उत्साहसे अपनाओ और ससार-सागरको तर जाओ । यह सकल धर्मका शुभ मूल है । इसके बिना धर्म सदा अधर्म है ॥ ६ ॥
जो मनुष्य इसे तत्त्वरूपसे जान-समझ लेते हैं, वे इसके आचरणसे शाश्वत सुखको प्राप्त करते है । राजचद्र कहते हैं कि शातिनाथ भगवान करुणासे सिद्ध हुए है यह बात प्रसिद्ध है ॥ ७ ॥
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अन्त भी नहीं है।
श्रीमद् राजवन्द्र इन्द्रियाँ सम्पूर्ण हैं और एकको अपूर्ण है। एकको दीनदुनियाका लेश भान नहीं है और एकके दु खर
एक गर्भमे आते ही मर जाना है, एक जन्म लेते ही मर जाता है एक मरा हुआ जन्म लेता और एक सौ वर्षका वृद्ध होकर मरता है।
किसीका मुख, भापा और स्थिति समान नही है । मूर्ख राजगद्दीपर खमा-खमाके उद्गारोसे अ]ि नन्दन पाते है और समर्थ विद्वान धक्के खाते है ।
इस प्रकार सारे जगतकी विचित्रता भिन्न-भिन्न प्रकारसे तुम देखते हो, इस परसे तुम्हें कुछ विचा आता हे ? मैने कहा है, फिर भी विचार आता हो तो कहो कि यह सब किस कारणसे होता है ?
अपने वॉये हुए शुभाशुभ कर्मसे । कर्मसे सारे ससारमे भ्रमण करना पड़ता है। परभव नही मानने वाला स्वय यह विचार किससे करता है ? यह विचार करे तो अपनी यह वात वह भी मान्य रखे ।
शिक्षापाठ ४ : मानवदेह 'तुमने सुना तो होगा कि विद्वान मानवदेहको दूसरी सभी देहोकी अपेक्षा उत्तम कहते हैं। पर उत्तम कहनेका कारण तुम नही जानते होगे इसलिये मै उसे कहता हूँ।
यह ससार बहुत दु खसे भरा हुआ है। ज्ञानी इसमेसे तरकर पार होनेका प्रयत्न करते हैं। मोक्षक साधकर वे अनत सुखमे विराजमान होते हैं। यह मोक्ष दूसरी किसी देहसे मिलनेवाला नही है। देव तिथंच या नरक इनमेसे एक भी गतिसे मोक्ष नहीं है; मात्र मानवदेहसे मोक्ष है।
__ अब तुम पूछोगे कि सभी मानवोका मोक्ष क्यो नही होता? इसका उत्तर भी मै कह दूं। जो मानवताको समझते है वे ससारशोकसे पार हो जाते हैं। जिनमे विवेकबुद्धिका उदय हुआ हो उनमे विद्वान मानवता मानते हैं। उससे सत्यासत्यका निर्णय समझकर परम तत्त्व, उत्तम आचार और सद्धर्मका सेवन करके वे अनुपम मोक्षको पाते हैं । मनुष्यके शरीरके देखावसे विद्वान उसे मनुष्य नही कहते, परतु उसके विवेकके कारण उसे मनुष्य कहते हैं। जिसके दो हाथ, दो पैर, दो ऑखें, दो कान, एक मुख, दो होठ और एक नाक हो उसे मनुष्य कहना, ऐसा हमे नही समझना चाहिये। यदि ऐसा समझें तो फिर वदरको भी मनुष्य मानना चाहिये । उसने भी तदनुसार सव प्राप्त किया है। विशेषरूपसे उसके एक पूछ भी है। तव क्या उसे महामनुष्य कहें ? नही , जो मानवता समझे वही मानव कहलाये। ..
ज्ञानी कहते है कि यह भव बहुत दुर्लभ है, अति पुण्यके प्रभावसे यह देह मिलती है, इसलिये इससे शोघ्र आत्मसार्थकता कर लेनी चाहिये। अयमतकुमार, गज़सूकूमार जैसे छोटे बालक भी मानवताको समझनेसे मोक्षको प्राप्त हुए । मनुष्यमे जो शक्ति विशेष है उस शक्तिसे वह मदोन्मत्त हाथी जैसे प्राणीको भी वशमे कर लेता है, इसी शक्तिसे यदि वह अपने मनरूपी हाथीको वशमे कर ले तो कितना कल्याण हो!
किसी भी अन्य देहमे पूर्ण सद्विवेकका उदय नही होता और मोक्षके राजमार्गमे प्रवेश नहीं हो सकता । इसलिये हमे मिली हुई अति दुर्लभ मानवदेहको सफल कर लेना आवश्यक है। बहुतसे मूर्ख दुराचारमे, अज्ञानमे, विपयमे और अनेक प्रकारके मदमे, मिली हुई मानवदेहको वृथा गँवा देते है। अमूल्य कौस्तुभ खो वठते है । ये नामके मानव गिने जा सकते हैं, बाकी तो वे वानररूप ही हैं।
मौतके पलको निश्चितरूपसे हम नहीं जान सकते, इसलिये यथा-सभव धर्ममे त्वरासे सावधान होना चाहिये।
१ देखिये 'भावनावोघ', पचम चित्र-प्रमाणशिक्षा ।
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१७वाँ वर्ष
शिक्षापाठ ५ : अनाथी मुनि--भाग १
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अनेक प्रकारकी ऋद्धिवाला मगधदेशका श्रेणिक नामक राजा अश्वक्रीडाके लिये मडिकुक्ष नामके वनमे निकल पडा । वनकी विचित्रता मनोहारिणी थी । नाना प्रकार के वृक्ष वहाँ नज़र आ रहे थे, नाना प्रकारकी कोमल वेले घटाटोप छायी हुई थी, नाना प्रकार के पक्षी आनदसे उसका सेवन कर रहे थे; नाना प्रकारके पक्षियोके मधुर गान वहाँ सुनायी दे रहे थे, नाना प्रकार के फूलोसे वह वन छाया हुआ था; नाना प्रकारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे, संक्षेपमे वह वन नदनवन जैसा लग रहा था। उस वनमे एक वृक्षके नीचे महान् समाधिमान्, पर सुकुमार एवं सुखोचित मुनिको उस श्रेणिकने बैठे हुए देखा । उसका रूप देखकर वह राजा अत्यन्त आनदित हुआ । उपमारहित रूपसे विस्मित होकर मनमे उसकी प्रशसा करने लगा - "इस मुनिका कैसा अद्भुत वर्ण है । इसका कैसा मनोहर रूप है । इसकी कैसी अद्भुत सौम्यता है । यह कैसी विस्मयकारकं क्षमाका धारक है । इसके अगसे वैराग्यका केसा उत्तम प्रकाश निकल रहा है । इसकी कैसी निर्लोभता मालूम होती है ! यह सयति कैसी निर्भय नम्रता धारण किये है । यह भोगसे कैसा विरक्त है ।" यो चितन करते करते मुदित होते-होते, स्तुति करते-करते, धीरेसे चलते-चलते, प्रदक्षिणा देकर उस मुनिको वन्दन करके, न अति समीप और न अति दूर वह श्रेणिक बैठा । फिर अजलिबद्ध होकर विनयसे उसने उस मुनिसे पूछा - "हे आर्य | आप प्रशसा करने योग्य तरुण हैं; भोगविलासके लिये आपकी वय अनुकूल है, ससारमे नाना प्रकारके सुख हैं, ऋतु ऋतुके कामभोग, जलसबधी विलास, तथा मनोहारिणी स्त्रियोके मुखवचनोका मधुर श्रवण होनेपर भी इन सबका त्याग करके मुनित्वमे आप महान् उद्यम कर रहे है, इसका क्या कारण ? यह मुझे अनुग्रहसे कहिये ।” राजाके ऐसे वचन सुनकर मुनिने कहा - "हे राजन् | में अनाथ था । मुझे अपूर्व वस्तुको प्राप्त करानेवाला तथा योगक्षेमका करनेवाला, मुझ पर अनुकंपा लानेवाला, करुणासे परम सुखका देनेवाला ऐसा मेरा कोई मित्र ही हुआ, यह कारण था मेरी अनाथताका ।”
हुए
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शिक्षापाठ ६ : अनाथी मुनि - भाग २
श्रेणिक, मुनिके भाषणसे मुस्कराकर बोला - "आप जैसे महान ऋद्धिमानको नाथ क्यो न हो ? यदि कोई नाथ नही है तो मैं होता हूँ । हे भयत्राण । आप भोग भोगये । हे सयति । मित्र, जातिसे दुर्लभ ऐसे अपने मनुष्यभवको सफल कीजिये ।" अनाथीने कहा - "अरे श्रेणिक राजन् ! परंतु तू स्वय अनाथ है तो मेरा नाथ क्या होगा ? निर्धन धनाढ्य कहाँसे बना सके ? अबुध बुद्धिदान कहाँसे दे सके ? अज्ञ विद्वत्ता कहाँसे दे सके ? वध्या सतान कहांसे दे सके ? जब तू स्वयं अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा ?" मुनिके वचनोसे राजा अति आकुल और अति विस्मित हुआ । जिन वचनोका कभी श्रवण नही हुआ उन वचनोंका यति मुखसे श्रवण होनेसे वह शक्ति हुआ और बोला - "मैं अनेक प्रकारके अश्वोंका भोगी हैं; अनेक प्रकारके मदोन्मत्त हाथियोका धनी हूँ; अनेक प्रकारकी सेना मेरे अधीन है, नगर, ग्राम, अन्तःपुर और चतुष्पादको मेरे कोई न्यूनता नही है, मनुष्य संबंधी सभी प्रकारके भोग मैंने प्राप्त किये हैं; अनुचर मेरी आज्ञाका, भलीभाँति आराधन करते हैं, पाँचों प्रकारकी सपत्ति मेरे घरमे हैं, अनेक मनोवालित वस्तुएँ मेरे पास रहती है। ऐसा मे महान् होते हुए भी अनाथ कैसे हो सकता हूँ ? कही हे भगवन् । आ मृषा बोलते हो ।” मुनिने कहा - " राजन् । मेरा कहना तू न्यायपूर्वक समझा नही है | अब में जैसे अनाथ हुआ; और जैसे मैंने ससारका त्याग किया वह तुझे कहता हूँ । उसे एकाग्र एवं सावधान चित्तसे सुन, सुनकर फिर अपनी शंकाके सत्यासत्यका निर्णय करना
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कौशाम्बी नामको अति प्राचीन और विविध प्रकारकी भव्यतासे भरी हुई एक सुन्दर नगरी थी । वहाँ ऋद्धिसे परिपूर्ण धनसचय नामके मेरे पिता रहते थे । हे महाराजन् । योवनवयके प्रथम भागमे मेरी
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श्रीमद् राजचन्द्र
आँखें अति वेदनासे ग्रस्त हुईं, सारे शरीरमे अग्नि जलने लगी, शस्त्रसे भी अतिशय तीक्ष्ण वह रोग वैरीकी भाँति मुझ पर कोपायमान हुआ । आँखोकी उस असह्य वेदनासे मेरा मस्तक दुखने लगा । वज्रके प्रहार सरीखी, दूसरेको भी रौद्र भय उत्पन्न करानेवाली उस दारुण वेदनासे मैं अत्यन्त शोकमे था । वहुतसे वैद्यशास्त्र-निपुण वैद्यराज मेरी प्य वेदनाका नाश करनेके लिये आये, अनेक औषधोपचार किये, परन्तु वे वृथा गये । वे महानिपुण गिने जानाले वैद्यराज मुझे उस रोगसे मुक्त नही कर सके, यही है राजन् । मेरी अनाथता थी । मेरी आँखकी वेदको दूर करनेके लिये मेरे पिता सारा धन देने लगे; परन्तु उससे भी मेरी वह वेदना दूर नही हुई, हे राजन् यही मेरी अनाथता थी । मेरी माता पुत्रके शोकसे... अति दुःखार्त हुई, परन्तु वह भी मुझे उस रोगसे छुडा नह यको, यही हे राजन् । मेरी अनायता थी । एक पेटसे जन्मे हुए मेरे ज्येष्ठ और कनिष्ठ भाई भरसक प्रयत्न पर चुके, परन्तु मेरी वह वेदना दूर नही हुई, हे राजन् । यही मेरी अनाथता थी । एक पेटसे जन्मी हुई मेरी उठा और कनिष्ठा भगिनियों से मेरा वह दुख दूर नही हुआ, हे महाराजन् । यही मेरी अनाथता थी। मेरी स्वे जो पतिव्रता, मुझपर अनुरक्त और प्रेमवती थी वह ऑसुओसे मेरे हृदयको भिगोती थी । उसके अन्न-पाग देनेपर भी और नाना प्रकारके उबटन, चूवा आदि सुगंधी पदार्थों तथा अनेक प्रकारके फूल-चदनादिके ज्ञात अज्ञात विलेपन किये जानेपर भी मै उन विलेपनोसे अपना रोग शात नही कर सका, क्षणभर भी दूर न रहता थी ऐसी वह स्त्री भी मेरे रोगको मिटा न सकी, यही हे महाराजन् । मेरी अनाथता थी । इस प्रकार किसीके रेमसे, किसीके औषधसे, किसीके विलापसे या किसीके परिश्रमसे वह रोग शान नही हुआ । उस समय मैंने पुनः पुनः असह्य वदना भोगी । फिर मै प्रपची ससारसे खिन्न हो गया । एक वार यदि इस महान् विडम्बनामय वेदनासे मुक्त हो जाऊँ तो खती, दती और निरारंभी प्रव्रज्यको धारण करूँ, यो चिन्तन करके में शयन कर गया । जब रात्रि व्यतीत हो गयी तब हे महाराजन् । मेरो उस वेदनाका क्षय हो गया, और में नीरोग हो गया। माता, पिता, स्वजन, बाधव आदिसे पूछकर प्रभातमे मैने महाक्षमावान, इन्द्रियनही, और आरंभोपाधिसे रहित अनगारत्वको धारण किया ।
शिक्षापाठ ७
अनाथी मुनि--भंग ३
हे श्रेणिक राजन् । तदनन्तर मै आत्मा परात्माका नाथ हुअ । अब मैं सर्वं प्रकारके जीवोका नाथ हूँ । तुझे जो शका हुई थी वह अब दूर हो गयी होगी । इस प्रकार सारा जगत चक्रवर्ती पर्यन्त अशरण और अनाथ है । जहाँ उपाधि है वहाँ अनाथता है । इसलिये जो कहता हूँ उस कथनको तू मनन कर जाना । निश्चयसे मानना कि अपना आत्मा ही दुखसे भरपूर वैतरणीको करनेवाला है, अपना आत्मा ही क्रूर शाल्मली वृक्षके दुखको उत्पन्न करनेवाला है । अपना आग ही वाछित वस्तुरूपी दूध देनेवाली कामधेनु गायके सुखको उत्पन्न करनेवाला है, अपना आत्मा ही नन्दावनकी तरह आनन्दकारी है; अपना आत्मा ही कर्मको करनेवाला है, अपना आत्मा ही इस कर्मको दूर करनेवाला है । अपना आत्मा ही दुखोपार्जन करनेवाला है । अपना आत्मा ही सुखोपार्जन करनेवाला है । पना' आत्मा ही मित्र ओर अपना आत्मा ही वैरी है । अपना आत्मा ही निकृष्ट आचारमे स्थित और अपन आत्मा ही निर्मल आचारमे स्थित रहता है ।"
इस प्रकार उन अनाथी मुनिने श्रेणिकको आत्मप्रकाशक वोध दिया। श्रेणिक बहुत सतुष्ट हुआ । अजलिवद्ध होकर वह इस प्रकार बोला - "हे भगवन् । आपने मुझे भलीभाँति उपज दिया । आपने जैसी थी वैसी अनायता कह सुनायी। महर्षि । आप सनाथ, आप सवाधव, और आप सर्म है, आप सर्व अनाथोंके नाथ है। हे पवित्र सयति । मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ । आपकी ज्ञानपूर्ण शि
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१७वा वर्ष
मुझे लाभ हुआ है। धर्मध्यानमे विघ्न करनेवाले भोग भोगने सम्बन्धी, हे महाभाग्यवान् | मैन आपको जो आमन्त्रण दिया तत्सम्बन्धी अपने अपराधकी नतमस्तक होकर क्षमा मांगता हूँ।" इस प्रकारसे स्तुति करके राजपुरुषकेसरी श्रेणिक विनयसे प्रदक्षिणा करके अपने स्थानको गया।
महातपोधन, महामुनि महाप्रज्ञावान्, महायशस्वी, महानिर्ग्रन्थ और महाश्रुत अनाथ मुनिने मगध देशके राजा श्रेणिकको अपने बीते हुए चरित्रसे जो बोध दिया है वह सचमुच अशरणभावना सिद्ध करता है। महामुनि अनाथीसे भोगी हुई वेदना जैसी अथवा उससे अति विशेष वेदनाको भोगते हुए अनन्त आत्माओको हम देखते हैं, यह कैसा विचारणीय है | ससारमे अशरणता और अनन्त अनाथता छायी हुई है, उसका त्याग उत्तम तत्त्वज्ञान और परम शीलका सेवन करनेसे ही होता है। यही मुक्तिका कारणरूप है । जैसे ससारमे रहते हुए अनाथी अनाथ थे, वेसे ही प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके बिना सदैव अनाथ ही है । सनाथ होनेके लिये सद्देव, सद्धर्म और सद्गुरुको जानना आवश्यक है।
शिक्षापाठ ८ : सद्देवतत्त्व तीन तत्त्व हमे अवश्य जानने चाहिये। जब तक इन तत्त्वोके सम्बन्धमे अज्ञानता रहती है तब तक आत्महित नही होता । ये तीन तत्त्व है-सदेव, सद्धर्म और सद्गुरु । इस पाठमे सद्देवस्वरूपके विषयमे कुछ कहता हूँ।
जिन्हे केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है, जो कर्मसमुदायको महोग्रतपोपध्यानसे विशोधन करके जला डालते हैं, जिन्होने चन्द्र और शखसे भी उज्ज्वल शुक्लध्यान प्राप्त किया है, चक्रवर्ती राजाधिराज अथवा राजपुत्र होते हुए भी जो ससारको एकात अनत शोकका कारण मानकर उसका त्याग करते हैं; जो केवल दया, शाति, क्षमा, वीतरागता और आत्मसमृद्धिसे त्रिविध तापका नाश करते है, संसारमे मुख्य माने जानेवाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अतराय इन चार कर्मोको भस्मीभूत करके जो स्व-स्वरूपमे विहार करते हैं, जो सर्व कर्मोके मूलको जला डालते है, जो केवल मोहिनीजनित कर्मका त्याग करके निद्रा जैसी तीन वस्तुको एकातत दूर करके शिथिल कर्मोके रहने तक उत्तम शीलका सेवन करते है, जो विरागतासे कर्मग्रीष्मसे अकुलाते हुए पामर प्राणियोको परम शाति प्राप्त होनेके लिये शुद्धबोधबीजका मेघधारा वाणीसे उपदेश करते हैं, किसी भी समय किंचित्मात्र भी ससारी वैभव विलासका स्वप्नाश भी जिनको नही रहा है, जो कर्मदलका क्षय करनेसे पहले छद्मस्थता मानकर श्रीमुखवाणीसे उपदेश नही करते, जो पाँच प्रकारके अतराय, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, मिथ्यात्व, अज्ञान, अप्रल्गख्यान, राग, द्वेष, निद्रा और काम इन अठारह दूषणोंसे रहित हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरूपमे विराजमान हैं, और जिनमे महोद्योतकर बारह गुण प्रकट होते हैं, जिनका जन्म, मरण और अनन्त ससार चला गया है, उन्हे निर्ग्रन्थ आगममे सदेव कहा है। वे दोषरहित शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त होनेसे पूजनीय परमेश्वर कहलाते है । जहाँ अठारह दोषोमेसे एक भी दोष होता है वहाँ सद्देवका स्वरूप नही है। इस परम तत्त्वको उत्तम सूत्रोंसे विशेष जानना आवश्यक है ।
शिक्षापाठ ९ : सद्धर्मतत्त्व अनादिकालसे कर्मजालके बन्धनसे यह आत्मा ससारमे भटका करता है । समयमात्र भी इसे सच्चा सुख नही है। यह अधोगतिका सेवन किया करता है, और अधोगतिमे गिरते हुए आत्माको धारण करनेवाली जो वस्त है उसका नाम 'धर्म' है। इस धर्मतत्त्वके सर्वज्ञ भगवानने भिन्न-भिन्न भेद कहे हैं। उनमेसे मुख्य दो है-१. व्यवहार धर्म, २ निश्चय धर्म ।
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श्रीमद राजचन्द्र ___ व्यवहार धर्ममे दया मुख्य है । शेष चार महाव्रत भी दयाकी रक्षाके वास्ते है। दयाके आठ भेद हैं-१ द्रव्यदया, २ भावदया, ३ स्वदया, ४ परदया, ५ स्वरूपदया, ६ अनुबन्धदया, ७ व्यवहारदया, ८ निश्चयदया।
१ प्रथम द्रव्यदया-किसी भी कामको यत्नापूर्वक जीवरक्षा करके करना यह 'द्रव्यदया' है।
..२ दूसरी भावदया-दूसरे जीवको दुर्गतिमे जाते देखकर अनुकपाबुद्धिसे उपदेश देना यह 'भावदया' है।
। ३ तीसरी स्वदया-यह आत्मा अनादिकालसे मिथ्यात्वसे ग्रसित है, तत्त्वको नही पाता है, जिनाज्ञाको पाल नही सकता है, इस प्रकार चिन्तन करके धर्म मे प्रवेश करना यह 'स्वदया' है । । ४ चौथी परदया-छ.काय जीवकी रक्षा करना यह 'परदया' है।
५ पाँचवी स्वरूपदया-सूक्ष्म विवेकसे स्वरूपका विचार करना यह ‘स्वरूपदया' है।
६ छठी अनुबन्धदया- गुरु या शिक्षकका शिष्यको कड़वे वचनसे उपदेश देना, यह देखनेमे तो अयोग्य लगता है, परतु परिणाममे करुणाका कारण है, इसका नाम 'अनुवन्धदया' है।
७ सातवी व्यवहारदया-उपयोगपूर्वक और विधिपूर्वक दया पालनेका नाम 'व्यवहारदया' है।
८ आठवी निश्चयदया- शुद्ध साध्य उपयोगमे एकता भाव और अभेद उपयोगका होना यह 'निश्चयदया' है।
इन आठ प्रकारकी दयायुक्त व्यवहार धर्म भगवानने कहा है । इसमे सर्व जीवोका सुख, संतोष और अभयदान, ये सब विचारपूर्वक देखनेसे आ जाते है ।
दूसरा, निश्चयधर्म-अपने स्वरूपका भ्रम दूर करना, आत्माको आत्मभावसे पहचानना। 'यह ससार मेरा नही है, मै इससे भिन्न, परम असंग सिद्धसदृश शुद्ध आत्मा हूँ', ऐसी आत्मस्वभाववर्तना यह निश्चयधर्म है।
. जिसमे किसी प्राणीका दुख, अहित या असतोष रहा है वहाँ दया नही है, और जहाँ दया नही है वहाँ धर्म नही है । अर्हत भगवानके कहे हुए धर्मतत्त्वसे सर्व प्राणी अभय होते है। .
शिक्षापाठ १० : सद्गुरुतत्त्व--भाग १ पिता-पुत्र । तू जिस शालामे अभ्यास करने जाता है उस शालाका शिक्षक कौन है ? पुत्र-पिताजी । एक विद्वान और समझदार ब्राह्मण है। पिता-उसकी वाणी, चाल-चलन आदि कैसे है ?
- पुत्र-उनकी वाणी बहुत मधुर है । वे किसीको अविवेकसे नही बलाते और बहुत गभीर है। जब वोलते है तब मानो मुखसे फूल झडते है। वे किसीका अपमान नही करते, और हमे समझपूर्वक शिक्षा
देते हैं।
पिता-तू वहाँ किसलिये जाता है ? यह मुझे कह तो सही।
पुत्र-आप ऐसा क्यो कहते है, पिताजी ? ससारमे विचक्षण होनेके लिये युक्तियाँ समझू, व्यवहारनीति सीखू, इसीलिये तो आप मुझे वहाँ भेजते है।
पिता-तेरे ये शिक्षक दुराचारी अथवा ऐसे होते तो? __ पुत्र-तब तो बहुत बुरा होता । हमे अविवेक और कुवचन बोलना आता, व्यवहारनीति तो फिर सिखाता भी कौन ?
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१७वाँ वर्ष
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पिता – देख पुत्र, इसपरसे मै अव तुझे एक उत्तम शिक्षा देता हूँ । जैसे संसारमे पड़ने के लिये व्यवहारनीति सीखनेका प्रयोजन है, वैसे ही परभवके लिये धर्मतत्त्व और धर्मनीतिमे प्रवेश करनेका प्रयोजन है । जैसे यह व्यवहारनीति सदाचारी शिक्षकसे उत्तम मिल सकती है, वैसे ही परभवमे श्रेयस्कर धर्मनीति उत्तम गुरुसे मिल सकती है । व्यवहारनीतिके शिक्षक तथा धर्मनीति के शिक्षकमे बहुत भेद है । बिल्लौरके टुकडे जैसा व्यवहार - शिक्षक है और अमूल्य कौस्तुभ जैसा आत्मधर्म शिक्षक है।
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पुत्र — सिरछत्र | आपका कहना वाजिब है । धर्मके शिक्षककी संपूर्ण आवश्यकता है । आपने वारवार ससारके अनन्त दु खोके सबधमे मुझे कहा है । इससे पार पानेके लिये धर्म ही सहायभूत है । तब धर्म कैसे गुरुसे प्राप्त किया जाये तो वह श्रेयस्कर सिद्ध हो, यह मुझे कृपा करके कहिये ।
शिक्षापाठ ११ : सद्गुरुतत्त्व- - भाग २
पिता-पुत्र | गुरु तीन प्रकारके कहे जाते है- १. कोष्ठस्वरूप, २ कागजस्वरूप, ३ पत्थरस्वरूप। १ काष्ठस्वरूप गुरु सर्वोत्तम है, क्योकि ससाररूपी समुद्रको काष्ठस्वरूप गुरु ही तरते है, और तार सकते है । २ कागजस्वरूप गुरु मध्यम है । ये ससारसमुद्रको स्वय तर नही सकते, परंतु कुछ पुण्य उपार्जन कर सकते है । ये दूसरेको तार नही सकते । ३. पत्थरस्वरूप गुरु स्वयं डूबते है और परको भी डुबाते हैं । काष्ठस्वरूप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवानके शासनमे है । बाकी दो प्रकारके जो गुरु है वे कर्मावरण की वृद्धि करनेवाले है । हम सब उत्तम वस्तुको चाहते है, और उत्तमसे उत्तम वस्तु मिल सकती है। गुरु यदि उत्तम हो तो वे भवसमुद्रमे नाविकरूप, होकर सद्धर्मनावमे बैठाकर पार पहुँचा दें । तत्त्वज्ञानके भेद, स्व-स्वरूपभेद, लोकालोक विचार, ससार स्वरूप यह सब उत्तम गुरुके बिना मिल नही सकते । अव तुझे प्रश्न करनेकी इच्छा होगी कि ऐसे गुरुके लक्षण कौन-कौनसे है ? उन्हे मे कहता हूँ । जो जिनेश्वर भगवानकी कही हुई आज्ञाको जानें, उसे यथातथ्य पाले, और दूसरेको उसका उपदेश करें, कचनकामिनी के सर्वभावसे त्यागी हो, विशुद्ध आहार-जल लेते हो, बाईस प्रकार के परिषह सहन करते हो, क्षात, दात, निरारभी और जितेन्द्रिय हों, संद्धातिक ज्ञानमे निमँग्न रहते हो, मात्र धर्मके लिये शरीरका निर्वाह करते हों, निर्ग्रन्थ पथ पालते हुए कायर न हो, सलाई मात्र भी अदत्त न लेते हो, सर्वं प्रकारके रात्रिभोजनके त्यागी हो, समभावी हो और नीरागतासे' सत्योपदेशक हो । सक्षेपमे उन्हे काष्ठस्वरूप सद्गुरु जानना । पुत्र । गुरुके आचार एव ज्ञानके सबधमे आगममे बहुत विवेकपूर्वक वर्णन किया है। ज्योज्यो तू आगे विचार करना सीखता जायेगा, त्यो त्यो फिर मै तुझे उन विशेष तत्त्वोका उपदेश करता जाऊँगा ।
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पुत्र - पिताजी | आपने मुझे सक्षेप मे भी बहुत उपयोगी और कल्याणमय बताया है । मै निरन्तर इसका मनन करता रहूँगा ।
शिक्षापाठ १२ उत्तम गृहस्थ
ससारमे रहते हुए भी उत्तम श्रावक गृहाश्रमसे आत्मसाधनको साध्य करते है, उनका गृहाश्रम भी सराहा जाता है ।
ये उत्तम पुरुष सामायिक, क्षमापना, चौविहार- प्रत्याख्यान इत्यादि यमनियमोका सेवन करते है । परपत्नीकी ओर माँ बहनकी दृष्टि रखते हैं ।
यथाशक्ति सत्पात्रमे दान देते हैं ।
शात, मधुर और कोमल भाषा बोलते है । सत्शास्त्रका मनन करते है ।
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श्रीमद राजचन्द्र
व्यासभव उपजीविकामे भी माया, कपट इत्यादि नही करते ।
स्त्री, पुत्र, माता, पिता, मुनि ओर गुरु इन सवका यथायोग्य सन्मान करते है । माँ-बापको धर्मका वोध देते हैं ।
यत्नासे घरकी स्वच्छता, रांधना, शयन इत्यादिको कराते है ।
स्वयं विचक्षणतासे आचरण करके स्त्रा-पुत्रको विनयी और धर्मी बनाते है । सारे कुटुम्बमे ऐक्यकी वृद्धि करते है ।
आये हुए अतिथिका यथायोग्य सन्मान करते हैं । याचकको क्षुधातुर नही रखते ।
सत्पुरुपोका समागम और उनका बोध धारण करते हैं । निरन्तर मर्यादासहित और सन्तोषयुक्त रहते है । यथाशक्ति घरमे शास्त्रसचय रखते है
अल्प आरम्भसे व्यवहार चलाते हैं ।
ऐसा गृहस्थाश्रम उत्तम गतिका कारण होता है, ऐसा ज्ञानी कहते है ।
शिक्षापाठ १३ . जिनेश्वरको भक्ति - भाग १
जिज्ञासु - विचक्षण सत्य । कोई शकरकी, कोई ब्रह्माकी कोई विष्णुकी कोई सूर्यकी, कोइ afast, कोई भवानीकी, कोई पैगम्बरकी और कोई ईसाको भक्ति करता । ये भक्ति करके क्या आशा रखते होगे ?
सत्य -- प्रिय जिज्ञासु । ये भाविक मोक्ष प्राप्त करनेकी परम आशासे इन देवोकी भक्ति करते है । जिज्ञासु - तब कहिये, क्या आपका ऐसा मत है कि ये इससे उत्तम गति प्राप्त करेंगे ?
सत्य—ये उनकी भक्तिसे मोक्ष प्राप्त करेंगे, ऐसा मै नही कह सकता। जिनको ये परमेश्वर कहते है वे कुछ मोक्षको प्राप्त नही हुए है, तो फिर वे उपासकको मोक्ष कहाँसे देगे ? शकर इत्यादि कर्मक्षय नही कर सके हैं और दूषणसहित है, इसलिये वे पूजनीय नही हैं ।
जिज्ञासु वे दूषण कौन-कौनसे हैं ? यह कहिये ।
सत्य–“अज्ञान, काम, हास्य, रति, अति इत्यादि मिलकर अठारह' दूषणोमेसे एक दूषण हो तो भी वे अपूज्य है । एक समर्थ पडितने भी कहा है कि, 'मैं परमेश्वर हूँ' यो मिथ्या रीतिसे मनानेवाले पुरुष स्वय अपनेको ठगते है, क्योकि पासमे स्त्री होनेसे वे विषयी ठहरते है, शस्त्र धारण किये होनेसे वे द्वेषी ठहरते हैं । जप माला धारण करनेसे यह सूचित होता है कि उनका चित्त व्यग्र है । 'मेरी शरण में आ, मै सब पापोको हर लूंगा', यो कहनेवाले अभिमानी और नास्तिक ठहरते हैं । ऐसा है तो फिर वे दूसरेको कैसे तार सकते हैं ? और कितने ही अवतार लेनेके रूपमे अपनेका परमेश्वर कहलवाते हैं, तो 'ऐसी स्थितिमे यह सिद्ध होता है कि अमुक कर्मका प्रयोजन शेष है ।'
जिज्ञासु - भाई । तब फिर पूज्य कौन और भक्ति किसको करनो कि जिससे आत्मा स्वशक्तिका प्रकाश करे ?
द्वि० आ० पाठा० - १ 'अज्ञान, निद्रा, मिय्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, भय, शोक, जुगुप्सा, दानातराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगातराय और उपभोगावराय, काम, हास्य, रति और अरति, ये '' अठारह २ ऐसी स्थितिमें यह सिद्ध होता है कि उनके लिये अमुक कर्मका भोगना बाकी है ।'
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१७वाँ वर्ष
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सत्य - शुद्धसच्चिदानन्दस्वरूप "अनन्त सिद्धकी' भक्ति से तथा सर्वदूषणरहित, कर्ममलहीन, मुक्त, नीराग, सकलभयरहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवानकी भक्ति से आत्मशक्ति प्रकाशित होती है |
जिज्ञासु -- इनकी भक्ति करनेसे ये हमे मोक्ष देते हैं, ऐसा मानना ठीक है ?
सत्य - भाई जिज्ञासु | ये अनन्तज्ञानी भगवान तो नीराग और निर्विकार है । इन्हें स्तुति-निदाका हमे कुछ भी फल देनेका प्रयोजन नही है । हमारा आत्मा जो कर्मदलसे घिरा हुआ है, तथा अज्ञानी एव मोहाध बना हुआ है, उसे दूर करनेके लिये अनुपम पुरुषार्थकी आवश्यकता है । सर्व कर्मदलका क्षय करके अनन्त जीवन, अनन्त वीर्य, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से स्वस्वरूपमय हुए ' ऐसे जिनेश्वरोका स्वरूप आत्माकी निश्चयनयसे ऋद्धि होनेसे " यह पुरुषार्थता देता है, विकारसे विरक्त करता है, शान्ति और निर्जरा देता है । जैसे हाथमे तलवार लेनेसे शौर्य और भांगसे नशा उत्पन्न होता है, वैसे ही इस गुणचिन्तनसे आत्मा स्वस्वरूपानदकी श्रेणि पर चढता जाता है । हाथमे दर्पण लेनेसे जैसे मुखाकृतिका भान होता है वैसे ही सिद्ध या जिनेश्वर स्वरूपके चिन्तनरूप दर्पणसे आत्मस्वरूपका भान होता है ।
शिक्षापाठ १४ : जिनेश्वरकी भक्ति - भाग २
जिज्ञासु - आर्य सत्य | सिद्धस्वरूपको प्राप्त जिनेश्वर तो सभी पूज्य है, तो फिर नामसे भक्ति करनेकी कुछ जरूरत है ?
सत्य — हॉ, अवश्य है । अनन्त सिद्धस्वरूपका ध्यान करते हुए जो शुद्ध स्वरूपका विचार आता है वह तो कार्य है, परन्तु वे जिनसे उस स्वरूपको प्राप्त हुए वे कारण कौनसे हैं ? इसका विचार करते हुए उग्र तप, महान वैराग्य, अनन्त दया, महान ध्यान, इन सबका स्मरण होगा । अपने अर्हत तीर्थंकरपदमे जिस नामसे वे विहार करते थे उस नामसे उनके पवित्र आचार और पवित्र चरित्रका अन्त करण उदय होगा, जो उदय परिणाममे महा लाभदायक है । जैसे महावीरका पवित्र नामस्मरण करनेसे वे कौन थे ? कब हुए ? उन्होने किस प्रकारसे सिद्धि पायी ? इन चरित्रोकी स्मृति होगी, और इससे हमे वैराग्य, विवेक इत्यादिका उदय होगा ।
जिज्ञासु—– परन्तु ‘लोगस्स' मे तो चौबीस जिनेश्वरोके नाम सूचित किये हैं, इसका क्या हेतु है ? यह मुझे समझाइये |
सत्य — इस कालमे इस क्षेत्रमे जो चौबीस जिनेश्वर हुए, उनके नाम और चरित्रका स्मरण करनेसे शुद्ध तत्त्वका लाभ हो, यह इसका हेतु है । वैरागीका चरित्र वैराग्यका बोध देता है । अनन्त चौबीसीके अनन्त नाम सिद्धस्वरूपमे समग्रत आ जाते है । वर्तमानकालके चौबीस तीर्थकरोके नाम इस कालमे लेनेसे कालकी स्थितिका अति सूक्ष्म ज्ञान भी याद आ जाता है। जैसे इनके नाम इस कालमे लिये जाते हैं वैसे ही चोबीसी चौबीसीके नाम, काल और चौबीसी बदलने पर लिये जाते रहते है । इसलिये अमुक नाम लेना ऐसा कुछ निश्चित नही है, परन्तु उनके गुण और पुरुपार्थकी स्मृतिके लिये वर्तमान चौबोसीकी स्मृति करना, ऐसा तत्त्व निहित है । उनका जन्म, विहार, उपदेश यह सव नामनिक्षेपसे जाना जा सकता है । इससे हमारा आत्मा प्रकाश पाता है । सर्प जैसे वॉसुरीके नादसे जागृत होता हे वैसे ही आत्मा अपनी सत्य ऋद्धि सुनने से मोहनिद्रासे जागृत होता है ।
जिज्ञासु - आपने मुझे जिनश्वरकी भक्तिसम्बन्धी बहुत उत्तम कारण बताया । आधुनिक शिक्षासे जिनेश्वरकी भक्ति कुछ फलदायक नही है ऐसी मेरी आस्था हुई थी, वह नष्ट हो गयी है। जिनेश्वर भगवानकी भक्ति अवश्य करनी चाहिये, यह मैं मान्य रखता हूँ ।
द्वि० आ० पाठा०-१
सिद्ध भगवान की ।' २ 'अनत ज्ञान, अनत दर्शन, अनत चारित्र, अनत वीर्य, और स्वस्वरूपमय हुए ।' ३ ‘उन भगवानका स्मरण, चितन, ध्यान और भक्ति वे पुस्पार्थता देते है ।'
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श्रीमद राजचन्द्र
सत्य -1 - जिनेश्वर भगवानकी भक्तिसे अनुपम लाभ है । इसके कारण महान है । 'उनके उपकारसे उनकी भक्ति अवश्य करनी चाहिये । उनके पुरुषार्थका स्मरण होता है, जिससे कल्याण होता है । इत्यादि इत्यादि मात्र सामान्य कारण मैंने यथामति कहे हैं । वे अन्य भाविकोके लिये भी सुखदायक हो ।"
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शिक्षापाठ १५ : भक्तिका उपदेश तोटक छन्द
*शुभ शीतळतामय छाय रही, मनवाछित ज्यां फळपंक्ति कही । जिनभक्ति ग्रहो तरु कल्प अहो, भजीने भगवंत भवत लहो ॥१॥ निज आत्मस्वरूप मुदा प्रगटे, मनताप उताप तमाम मटे । अति निर्जरता वणदाम ग्रहो, भजीने भगवत भवंत लहो ॥२॥ समभावी सदा परिणाम थशे, जड मंद अधोगति जन्म जशे । शुभ मंगळ आ परिपूर्ण चहो, भजीने भगवंत अवंत लहो ||३|| शुभ भाव वडे मन शुद्ध करो, नवकार महापदने समरो । नहि एह समान सुमत्र कहो, भजीने भगवंत भवंत लहो ॥४॥ करशो क्षय केवल रागकथा, धरशो शुभ तत्त्वस्वरूप यथा । नृपचंद्र प्रपंच अनंत दहो, भजीने भगवत भवंत लहो ॥५॥
शिक्षापाठ १६ : सच्ची महत्ता
कितने मानते है कि लक्ष्मोसे महत्ता मिलती है, कितने मानते हैं कि महान कुटुम्बसे महत्ता मिलती है, कितने मानते हैं कि पुत्रसे महत्ता मिलती है, कितने मानते है कि अधिकारसे महत्ता मिलती है । परंतु उनका यह मानना विवेकदृष्टिसे मिथ्या सिद्ध होता है । वे जिसमे महत्ता मानते हैं उसमे महत्ता नही, परन्तु लघुता है। लक्ष्मीसे ससारमे खानपान, मान, अनुचरोपर आज्ञा, वैभव, ये सब मिलते है और यह १ द्वि० आ० पाठा० उनके परम उपकारके कारण भी उनकी भक्ति अवश्य करनी चाहिये । और उनके पुरुषार्थका स्मरण होनेसे भी शुभ वृत्तियोका उदय होता है । ज्योज्यो श्रीजिनेद्र के स्वरूपमें वृत्तिका लय होता है, त्यो-त्यो परम शाति प्रगट होती है । इस प्रकार जिनभक्तिके कारण यहाँ सक्षेपमे कहे हैं, वे आत्मार्थियो के लिये विशेषरूपसे मनन करने योग्य हैं ।'
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*भावार्थ-जिसकी शुभ शीतलतामय छाया है, जिसमे मनोवाछित फलोकी पक्ति लगी है । अहो भव्यो ! तुम कल्पतरुरूपी जिनभक्तिका आश्रय लो और भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥१॥
इससे अपने आत्मस्वरूपका आनद प्रगट होता है, मनका ताप एव अन्य सब उत्ताप मिट जाते हैं । मुफ्त कर्मोकी अति निर्जरा होती है। तुम भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥ ॥
इससे परिणाम सदा समभावी होगे, जड, मद और अधोगतिके जन्म नष्ट होगे, इस परिपूर्ण शुभ मंगलकी इच्छा करो और भगवद्-भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥३॥
शुभ भावसे मनको शुद्ध करो, नवकार महामत्रका स्मरण करो, इसके समान दूसरा कोई सुमत्र नही है । तुम भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ||४||
रागकथाका मर्जथा क्षय करो, यथार्थ शुभ तत्त्वस्वरूपको धारण करो । राजचद्र कहते है कि भगवद्भक्ति ससारके अनत प्रपचका दहन करो, और भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥५॥
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१७वां वर्ष
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महत्ता है, ऐसा तुम मानते होगे, परन्तु इतनेसे उसे महत्ता माननेकी जरूरत नही है। लक्ष्मी अनेक पापोसे पैदा होती है। आनेके बाद यह अभिमान, बेभानता और मूढता लाती है। कुटुम्बसमुदायकी महत्ता पानेके लिये उसका पालन-पोषण करना पडता है। उससे पाप और दु ख सहन करने पड़ते हैं। हमे उपाधिसे पाप करके उसका उदर भरना पडता है। पुत्रसे कोई शाश्वत नाम नही रहता। इसके लिये भी अनेक प्रकारके पाप और उपाधि सहने पड़ते हैं, फिर भी इससे अपना क्या मगल होता है ? अधिकारसे परतत्रता या सत्तामद आता है और इससे जुल्म, अनीति, रिश्वत तथा अन्याय करने पडते हैं अथवा होते हैं। तव कहिये, इसमेसे महत्ता किसकी होती है ? मात्र पापजन्य कर्मकी । पापकर्मसे आत्माकी नीच गति होती है, जहाँ नीच गति है वहाँ महत्ता नही है परन्तु लघुता है।
आत्माकी महत्ता तो सत्य वचन, दया, क्षमा, परोपकार और समतामे रही है। लक्ष्मी आदि तो कर्ममहत्ता है । ऐसा होने पर भी सयाने पुरुष लक्ष्मीको दानमे देते है, उत्तम विद्याशालाएँ स्थापित करके परदु खभजन होते हैं । १‘एक स्त्रीसे विवाह करके' मात्र उसमे वृत्ति रोककर परस्त्रीकी ओर पुत्रीभावसे देखते हैं । कुटुम्ब द्वारा अमुक समुदायका हितकाम करते हैं । पुत्र होनेसे उसे ससारभार देकर स्वय धर्ममार्गमे प्रवेश करते हैं। अधिकार द्वारा चतुराईसे आचरण करके राजा-प्रजा दोनोका हित करके धर्मनीतिका प्रकाश करते हैं। ऐसा करनेसे कुछ सच्ची महत्ता प्राप्त होती है, फिर भी यह महत्ता निश्चित नही है। मरण-भय सिर पर सवार है। धारणा धरी रह जाती है। योजित योजना या विवेक शायद हृदयमेसे चला जाय, ऐसी ससारमोहिनी है, इसलिये हमे यह नि सशय समझना चाहिये कि सत्य वचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य और समता जैसी आत्ममहत्ता किसी भी स्थलमे नही है। शुद्ध पच महाव्रतधारी भिक्षुकने जो ऋद्धि और महत्ता प्राप्त की है उसे ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्तीने लक्ष्मी, कुटुब, पुत्र या अधिकारसे प्राप्त नही की, ऐसा मेरा मानना है |
शिक्षापाठ १७ : बाहुबल वाहुबल अर्थात् अपनी भुजाका बल यह अर्थ यहाँ नही करना है, क्योकि बाहुबल नामके महापुरुषका यह एक छोटा परन्तु अद्भुत चरित्र है।
ऋषभदेवजी भगवान सर्वसगका परित्याग करके भरत और बाहुबल नामके अपने दो पुत्रोको राज्य सौंप कर विहार करते थे। तब भरतेश्वर चक्रवर्ती हुआ। आयुधशालामे चक्रको उत्पत्ति होनेके वाद उसने प्रत्येक राज्य पर अपना आम्नाय स्थापित किया और छः खडकी प्रभुता प्राप्त की। मात्र बाहुबलने ही यह प्रभुता अगीकार नही की। इससे परिणाममे भरतेश्वर और बाहुबलके बीच युद्ध शुरू हुआ । बहुत समय तक भरतेश्वर या वाहुबल इन दोनोमेस एक भी पीछे नही हटा, तब क्रोधावेशमे आकर भरतेश्वरने वाहुवल पर चक्र छोडा । एक वीर्यसे उत्पन हुए भाई पर वह चक्र प्रभाव नही कर सकता, इस नियमसे वह चक्र फिरकर वापस भरतवरके हालम आया । भरतके चक्र छोडनेसे वाहुवलको बहुत क्रोध आया । उसने महावलवत्तर मुष्टि उठायी। तत्काल वहाँ उसकी भावनाका स्वरूप बदला । उसने विचार किया, "मैं यह बहुत निदनीय कर्म करता हूँ। इसका परिणाम कैसा दुखदायक है। भले भरतेश्वर राज्य भोगे । व्यर्थ ही परस्परका नाश किसलिये करना? यह मुष्टि मारनी योग्य नहीं है, तथा उठायी है तो इसे अब पीछे हटाना भी योग्य नहीं है।" यो कहकर उसने पचमुष्टि केशलुचन किया, और वहासे मुनित्वभावसे चल निकला । उसने, भगवान आदोश्वर जहाँ अठानवे दीक्षित पुत्रो और आर्यआयकि साथ विहार करते थे, वहा जानेकी इच्छा की, परन्तु मनमे मान आया। 'वहाँ मैं जाऊँगा तो अपनेसे छोटे
१ द्वि. का. पाग-एक विवाहिता स्त्री हो ।'
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अठानवे भाइयोको वदन करना पडेगा । इसलिये वहाँ तो जाना योग्य नही ।" फिर वनमे वह एकाग्र व्यानमे रहा। धीरे-धीरे बारह मास हो गये । महातपसे काया हड्डियोका ढाँचा हो गयी । वह सूखे पेड जेमा दीखने लगा, परतु जब तक मानका अकुर उसके अत करणसे हटा न था तब तक उसने सिद्धि नही पायी । ब्राह्मी ओर सुंदरीने आकर उसे उपदेश दिया, "आर्य वीर। अब मदोन्मत्त हाथीसे उतरिये, इसके कारण तो बहुत मन किया ।" उनके इन वचनोसे बाहुवल विचारमे पडा । विचार करते-करते उसे भान हुआ, "सत्य है । मैं मानरूपी मदोन्मत्त हाथीमे अभी कहाँ उतरा हूँ ? अब इससे उतरना ही मंगलकारक है।" ऐसा कहकर उसने वदन करनेके लिये कदम उठाया कि वह अनुपम दिव्य कैवल्यकमलाको प्राप्त हुआ । पाठक | देखो, मान कैसी दुरित वस्तु है ||
शिक्षापाठ १८ चार गति
' सातावेदनीय और अमातावेदनीयका वेदन करता हुआ शुभाशुभ कर्मका फल भोगने के लिये इस समारवनमे जीव चार गतियोमे भ्रमण करता रहता है।' ये चार गति अवश्य जाननी चाहिये ।
१. नरकगति - महारभ, मदिरापान, मासभक्षण इत्यादि तीव्र हिमाके करनेवाले जीव भयानक नरकमे पडते हैं । वहाँ लेशमात्र भी साता, विश्राम या सुख नही है । महान अंधकार व्याप्त है । अगछेदन सहन करना पडता है, अग्निमे जलना पड़ता है, और छरपलाकी धार जैसा जल पीना पड़ता है। जहाँ अनत दुखसे प्राणीभूतोको तगी, अमाता और विलविलाहटको सहन करना पडता है, जिन दुखोको केवलज्ञानी भी नहीं कह सकते । अहोहो || वे दु ख अनत वार इस आत्माने भोगे हैं ।
२ तिर्यचगति – छल, झूठ, प्रपच इत्यादिके कारण जीव सिंह, वाघ, हाथी, मृग, गाय, भैंस, बैल इत्यादितियंचके गरीर धारण करता है । इस तिर्यंचगतिमे भूख, प्यास, ताप, वध, वंधन, ताडन, भारवाहन इत्यादिके दुख सहन करता है ।
३ मनुष्यगति - खाद्य, अखाद्यके विषयमे विवेकरहित है, लज्जाहीन, माता-पुत्रीके साथ कामगमन करनेमे जिन्हे पापापापका भान नही है, निरतर मास भक्षण, चोरी, परस्त्रीगमन इत्यादि महापातक किया करते हैं, ये तो मानो अनार्य देशके अनार्य मनुष्य ह । आर्य देगमे भी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य आदि मतिहीन, दरिद्री, अज्ञान और रोगसे पीडित मनुष्य है । मान-अपमान इत्यादि अनेक प्रकारके दुख वे भोग रहे है । ४ देवगति - परस्पर वैर, द्वेप, क्लेग, शोक, मत्सर, काम, मद, क्षुवा, इत्यादिसे देवता भी आयु व्यतीत कर रहे हैं, यह देवगति है ।
इम प्रकार चार गति मामान्यरूपसे कही । इन चारो गनियोमे मनुष्यगति सबसे श्रेष्ठ और दुर्लभ है । आत्माका परम हित मोक्ष इस गतिसे प्राप्त होता है । इस मनुष्यगतिमे भी कितने ही दुख और आत्ममाधन करनेमें अतराय है ।
एक तरुण मुकुमारको रोम रोममे लाल अंगारे सूएँ भोकनेसे जो असह्य वेदना उत्पन्न होती है, उसमे आठ गुनी वेदना गर्भस्थानमे रहते हुए जीव पाता है । मल, मूत्र, लहू, पीप आदिमे लगभग नौ महीने अहोरात्र मूर्च्छागत स्थितिमे वेदना भोग भोगकर जन्म पाता है । जन्मके समय गर्भस्थानकी वेदनासे अन गुनी वेदना उत्पन्न होती है । उसके बाद बाल्यावस्था प्राप्त होती है । मल, मूत्र, धूल और नग्नावस्थामे नाममझीमे रो-भटककर यह बाल्यावस्था पूर्ण होती है, और युवावस्था आती है। धनउपार्जन करनेके लिये नाना प्रकारके पाप करने पडते हैं । जहाँसे उत्पन्न हुआ है वहाँ अर्थात् वविकार वृत्ति जाती है | उन्माद, आलस्य, अभिमान, निद्यदृष्टि, सयोग, वियोग आदिके चक्कर मे युवा
१ द्वि० आ० पाठा०—'मसारवनमें जीव मातावेदनीय-असातावेदनीयका वेदन करता हुआ शुभाशुभ कर्मफल भोगने के लिये इन चार गतियोंमें भ्रमण करता रहता है ।'
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१७वा वर्ष वस्था चली जाती है। फिर वृद्धावस्था आती है। शरीर कांपता है, मुखसे लार झरती है, त्वचा पर झुर्रा पड़ जाती है, सँघने, सुनने और देखनेकी शक्तियाँ सर्वथा मंद हो जाती हैं, केश सफेद होकर झडने लगते है । चलनेकी शक्ति नहीं रहती, हाथमे लकडी लेकर लडखडाते हुए चलना पडता है, या तो जीवनपर्यत खाट पर पड़ा रहना पडता है । श्वास, खासी इत्यादि रोग आकर घेर लेते हैं, और थोडे कालमे काल आकर कवलित कर जाता है। इस देहमेसे जीव चल निकलता है। काया हुई न हुई हो जाती है। मरण के समय कितनी अधिक वेदना होती है ? चतुर्गतिमे श्रेष्ठ जो मनुष्य-देह है उसमे भी कितने अधिक दुख रहे हुए हैं । फिर भी ऊपर कहे अनुसार अनुक्रमसे काल आता है ऐसा नही है। चाहे जब वह आकर ले जाता है। इसीलिये विचक्षण पुरुष प्रमाद किये बिना आत्मकल्याणकी आराधना करते हैं।
शिक्षापाठ १९ : संसारकी चार उपमाएँ-भाग १ १ महातत्त्वज्ञानी ससारको एक समुद्रकी उपमा भी देते है। संसाररूपी समुद्र अनत और अपार है। अहो लोगो | इसका पार पानेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो। उपयोग करो। इस प्रकार उनके स्थान-स्थान पर वचन है । ससारको समुद्रकी उपमा छाजती भी है। समुद्रमे जैसे मौजोकी उछाले उछला करती है, वैसे ससारमे विषयरूपी अनेक मौजें उछलती हैं। समुद्रका जल जैसे, ऊपरसे सपाट दिखाई देता है वैसे ससार भी सरल दिखायी देता है । समुद्र जैसे कही बहुत गहरा है, और कही भंवरोमे डाल देता है, वैसे ससार कामविषयप्रपंचादिमे बहुत गहरा है, वह मोहरूपी भंवरोमे डाल देता है । थोडा जल होते हुए भी समुद्रमे खडे रहनेसे जैसे कीचडमे फँस जाते है, वैसे संसारके लेशभर प्रसगमे वह तृष्णारूपी कीचडमे फंसा देता है । समुद्र जैसे नाना प्रकारकी चट्टानो और तूफानोंसे नाव या जहाजको हानि पहुंचाता है, वैसे स्त्रियोरूपी चट्टानो और कामरूपी तुफानोसे ससार आत्माको हानि पहँचाता है। समुद्र जैसे अगाध जलसे शीतल दिखायी देने पर भी उसमे वडवानल नामकी अग्निका वास है, वैसे ससारमे मायारूपी अग्नि जला ही करती है । समुद्र जैसे चौमासेमे अधिक जल पाकर गहरा हो जाता है, वैसे पापरूपी जल पाकर ससार गहरा हो जाता है, अर्थात् जड जमाता जाता है।
२ ससारको दूसरी उपमा अग्निकी छाजती है। अग्निसे जैसे महातापकी उत्पत्ति होती है, वैसे ससारसे भी त्रिविध तापकी उत्पत्ति होती है । अग्निसे जला हुआ जीव जैसे महान बिलबिलाहट करता है, वैसे ससारसे जला हुआ जीव अनत दुखरूप नरकसे असह्य विलबिलाहट करता है। अग्नि जैसे सब वस्तुओका भक्षण कर जाती है वैसे अपने मुखमे पडे हुओको ससार भक्षण कर जाता है। अग्निमे ज्यो-ज्यो घी और ईंधा होमे जाते हैं त्यो त्यो वह वृद्धि पाती है, "वैसे ससारमे ज्यो-ज्यो तीव्र मोहिनीरूपी घी और विपयरूपी ईधन होमे जाते हैं त्यो-त्यो वह वृद्धि पाता है।'
___३ ससारको तीसरी उपमा अधकारकी छाजती है । अधकारमे जैसे रस्सी सर्पका ज्ञान कराती है, वैसे ससार सत्यको असत्यरूप बताता है । अंधकारमे जैसे प्राणी इधर-उधर भटक कर विपत्ति भोगते हैं, वैसे ससारमे वेभान होकर अनत आत्मा चतुर्गतिमे इधर-उधर भटकते हैं ! अधकारमे जैसे काँच और हीरेका ज्ञान नही होता, वैसे ससाररूपी अधकारमे विवेक-अविवेकका ज्ञान नही होता। जैसे अधकारमे प्राणी आँखें होने पर भी अधे बन जाते हैं, वैसे शक्तिके होनेपर भी ससारमे वे मोहाध बन जाते है । अधकारमे जैसे उल्लू इत्यादिका उपद्रव बढ जाता है, वैसे ससारमे लोभ, माया आदिका उपद्रव बढ जाता है। अनेक प्रकारसे देखते हुए ससार अधकाररूप ही प्रतीत होता है।
१ द्वि० आ० पाठा--'उसी प्रकार ससाररूपी अग्निमें तीव्र मोहिनीरूपी घी और विषयरूपी इंधन होमा जानेसे वह वृद्धि पातो है।'
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श्रीमद् राजचन्द्र शिक्षापाठ २० संसारकी चार उपमाएँ--भाग २ ४ ससारको चौथी उपमा शकटचक्र अर्थात् छकड़ेके पहियेकी छाजती है। चलता हुआ शकटचक्र जैसे घूमता रहता है, वैसे ससारमे प्रवेश करनेसे वह फिरता रहता है। शकटचक्र जैसे धुराके बिना नही चल सकता, वैसे ससार मिथ्यात्वरूपी धुराके बिना नहीं चल सकता। शकटचक्र जैसे आरोसे टिका हुआ है, वैसे संसार शका, प्रमाद आदि आरोंसे टिका हुआ है। इस तरह अनेक प्रकारसे शकटचक्रकी उपमा भी ससारको लागू हो सकती है।
"ससारको' जितनी हीन उपमाएँ दे उतनी थोडी हैं। हमने ये चार उपमाएँ जानी। अब इनमेसे तत्त्व लेना योग्य है।
१ जैसे सागर मजबूत नाव और जानकार नाविकसे तैरकर पार किया जाता है, वैसे सद्धर्मरूपी नाव और सद्गुरुरूपी नाविकसे ससारसागर पार किया जा सकता है। सागरमे जैसे चतुर पुरुषोने निर्विघ्न मार्ग खोज निकाला होता है, वैसे जिनेश्वर भगवानने तत्त्वज्ञानरूप उत्तम मार्ग बताया है, जो निर्विघ्न है।
२ जैसे अग्नि सबका भक्षण कर जाती है परन्तु पानीसे बुझ जाती है, वैसे वैराग्यजलसे संसाराग्नि बुझाई जा सकती है।।
३ जैसे अधकारमे दीया ले जानेसे प्रकाश होनेपर देखा जा सकता है, वैसे तत्त्वज्ञानरूपी न बुझनेवाला दीया ससाररूपी अधकारमे प्रकाश करके सत्य वस्तुको बताता है।
४. जैसे शकटचक्र बैलके बिना नहीं चल सकता, वैसे ससारचक्र रागद्वेषके बिना नही चल सकता।
इस प्रकार इस ससार रोगका निवारण उपमा द्वारा अनुपानके साथ कहा है। आत्महितैषी निरतर इसका मनन करे और दूसरोको उपदेश दे।
- शिक्षापाठ २१: बारह भावना वैराग्यकी और ऐसे आत्महितैषी विषयोकी सुदृढताके लिये तत्त्वज्ञानी बारह भावनाओका चिन्तन करनेको कहते हैं
१ शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुम्ब, परिवार आदि सर्व विनाशी हैं। जीवका मूल धर्म अविनाशी है, ऐसा चिन्तन करना, यह पहली 'अनित्यभावना'।
२. संसारमे मरणके समय जीवको शरण देनेवाला कोई नही है; मात्र एक शुभ धर्मकी ही शरण सत्य है, ऐसा चिन्तन करना, यह दूसरी 'अशरणभावना' ।
३ इस आत्माने ससारसमुद्रमे पर्यटन करते-करते सर्व भव किये है । इस संसारकी बेडीसे मैं कब छूटूगा ? यह ससार मेरा नही है, मैं मोक्षमयी हूँ, ऐसा चिंतन करना, यह तीसरी 'ससांरभावना' । - ४ यह मेरा आत्मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला जायेगा, अपने किये हुए कर्मोंको अकेला भोगेगा, ऐसा चिंतन करना, यह चौथी 'एकत्वभावना' ।
५ इस संसारमे कोई किसीका नहीं है, ऐसा चिन्तन करना, यह पाँचवी 'अन्यत्वभावना' ।
६ यह शरीर अपवित्र है, मलमूत्रकी खान है, रोग-जराके रहनेका धाम है, इस शरीरसे मैं भिन्न हूँ, ऐसा चिन्तन करना, यह छठी 'अशुचिभावना'।
७ राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सर्व आस्रव हैं, ऐसा चिन्तन करना, यह सातवी 'आस्रवभावना
१ द्वि० आ० पाठा०--'इस प्रकार ससारको' ।
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८ ज्ञान, ध्यानमे प्रवर्त्तमान होकर जीव नये कर्म नही बाँधता, ऐसा चिन्तन करना, यह आठवी 'सवरभावना' ।
९ ज्ञानसहित क्रिया करना यह निर्जराका कारण है, ऐसा चिन्तन करना, यह नौवी 'निर्जराभावना' । १० लोकस्वरूपकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके स्वरूपका विचार करना, यह दसवी 'लोकस्वरूपभावना' ।
११ संसारमे परिभ्रमण करते हुए आत्माको सम्यग्ज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होना दुर्लभ है, अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ तो चारित्र - सर्वविरतिपरिणामरूप धर्म-प्राप्त होना दुर्लभ है, ऐसा चिन्तन करना, यह ग्यारहवीं 'बोधिदुर्लभ भावना' ।
१२ धर्मके उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रके बोधक गुरु तथा उनके उपदेशका श्रवण मिलना दुर्लभ है, ऐसा चिन्तन करना, यह बारहवी 'धर्मदुर्लभभावना' ।
इन बारह भावनाओका मननपूर्वक निरन्तर विचार करनेसे सत्पुरुष उत्तम पदको प्राप्त हुए है, प्राप्त होते हैं, और प्राप्त होगे ।
शिक्षापाठ २२ : कामदेव श्रावक
महावीर भगवानके समयमे द्वादश व्रतको विमल भावसे धारण करनेवाला, विवेकी और निग्रंथवचनानुरक्त कामदेव नामका एक श्रावक उनका शिष्य था । एक समय इन्द्रने सुधर्मासभामे कामदेवकी धर्म - अचलताकी प्रशंसा की । उस समय वहाँ एक तुच्छ बुद्धिमान देव बैठा हुआ था । " वह बोला"यह तो समझमे आया, जब तक नारी न मिले तब तक ब्रह्मचारी तथा जब तक परिषह न पडे होत तक सभी सहनशील और धर्मदृढ ।' यह मेरी बात में उसे चलायमान करके सत्य कर दिखाऊँ ।” धर्मदृढ कामदेव उस समय कायोत्सर्गमे लीन था । देवताने विक्रियासे हाथीका रूप धारण किया, और फिर कामदेवको खूब रौदा, तो भी वह अचल रहा, फिर मूसल जैसा अंग बनाकर काले वर्णका सर्प होकर भयकर फुंकार किये, तो भो कामदेव कायोत्सर्गंसे लेशमात्र चलित नही हुआ । फिर अट्टहास्य करते हुए राक्षसकी देह धारण करके अनेक प्रकारके परिषह किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्गसे डिगा नही । सिंह आदिके अनेक भयकर रूप किये, तो भी कामदेवने कायोत्सर्गमे लेश हीनता नही आने दी । इस प्रकार देवता रात्रिके चारो प्रहर उपद्रव करता रहा, परतु वह अपनी धारणामे सफल नही हुआ । फिर उसने उपयोगसे देखा तो कामदेवको मेरुके शिखरकी भाँति अडोल पाया । कामदेवकी अद्भुत निश्चलता जानकर उसे विनयभावसे प्रणाम करके अपने दोषोकी क्षमा माँगकर वह देवता स्वस्थानको चला गया ।
'कामदेव श्रावककी धर्मदृढता हमे क्या बोध देती है, यह बिना कहे भी समझमे आ गया होगा । इसमेसे यह तत्त्वविचार लेना है कि निग्रंथ-प्रवचनमे प्रवेश करके दृढ रहना । कायोत्सर्ग इत्यादि जो ध्यान करना है उसे यथासंभव एकाग्र चित्तसे और दृढतासे निर्दोष करना ।' चलविचल भावसे कायोत्सर्ग बहुत दोषयुक्त होता है । 'पाईके लिये धर्मंकी सौगन्ध खानेवाले धर्ममे दृढता कहाँसे रखें ? और रखें तो कैसी रखें ?” यह विचारते हुए खेद होता है ।
द्वि० आर पाठा०-- १ 'उसने ऐसी सुदृढताके प्रति अविश्वास बताया और कहा कि जब तक परिपह न पडे हो तब तक सभी सहनशील और धर्मदृढ मालूम होते हैं ।' २ 'कामदेव श्रावककी धर्मदृढता ऐसा वोघ करती है कि सत्य धर्म और सत्य प्रतिज्ञामें परम दृढ रहना और कायोत्सर्गादिको यथासंभव एकाग्र चित्तसे और सुदृढ़तासे निर्दोष करना ।' ३ 'पाई जैसे द्रव्यलाभके लिये धर्मकी सौगन्ध खानेवालेकी धर्म में दृढता कहांसे रह सके ? और रह सके तो कैसी रहे ?"
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श्रीमद् राजचन्द्र
शिक्षापाठ २३ : सत्य सामान्य कथनमे भी कहा जाता है कि सत्य इस "सृष्टिका आधार' है, अथवा सत्यके आधार पर यह २ सृष्टि टिकी है' | इस कथनसे यह शिक्षा मिलती है कि धर्म, नीति, राज और व्यवहार ये सब सत्य द्वारा चल रहे हैं, और ये चार न हो तो जगतका रूप कैसा भयंकर हो ? इसलिये सत्य "सृष्टिका आधार' है, यह कहना कुछ अतिशयोक्ति जैसा या न मानने योग्य नही है।
___ वसुराजाका एक शब्दका असत्य बोलना कितना दुखदायक हुआ था, "उसे तत्त्वविचार करनेके लिये मै यहाँ कहता हूँ।'
वसुराजा, नारद और पर्वत ये तीनो एक गुरुके पास विद्या पढ़े थे। पर्वत अध्यापकका पुत्र था। अध्यापक चल बसा ! इसलिये पर्वत अपनी मॉके साथ वसुराजाके राजमे आकर रहा था। एक रात उसकी माँ पासमे बैठी थो, और पर्वत तथा नारद शास्त्राभ्यास कर रहे थे। इस दौरानमे पर्वतने 'अजैर्यष्टव्यम्' ऐसा एक वाक्य कहा। तव नारदने कहा, "अजका अर्थ क्या है, पर्वत ?" पवतने कहा, "अज अर्थात् बकरा ।" नारद बोला, "हम तीनो जब तेरे पिताके पास पढते थे तब तेरे पिताने तो 'अज' का अर्थ तीन वर्षके 'व्रीहि' वताया था, और तू उलटा अर्थ क्यो करता है ?" इस प्रकार परस्पर वचनविवाद बढा । तब पर्वतने कहा, “वसुराजा हमे जो कहे वह सही।" यह वात नारदने भी मान ली और जो जीते उसके लिये अमुक शर्त की । पर्वतकी माँ जो पासमे बैठी थी उसने यह सब सुना । 'अज' अर्थात् 'बीहि' ऐसा उसे भी याद था । शर्तमे अपना पुत्र हार जायेगा इस भयसे पर्वतकी माँ रातको राजाके पास गयी और पूछा, 'राजन् | 'अज' का क्या अर्थ है ?" वसुराजाने सवधपूर्वक कहा, "अजका अर्थ 'व्रीहि' है।" तब पर्वतकी माँने राजासे कहा, "मेरे पुत्रने अजका अर्थ बकरा कह दिया है, इसलिये आपको उसका पक्ष लेना पडेगा। आपसे पूछनेके लिये वे आयेंगे।" वसुराजा बोला, "मै असत्य कैसे कहूँ ? मुझसे यह नही हो सकेगा।" पर्वतकी माताने कहा, "परतु यदि आप मेरे पुत्रका पक्ष नही लेंगे, तो मैं आपको हत्याका पाप दूंगी।" राजा विचारमे पड गया--"सत्यके कारण मै मणिमय सिंहासन पर अधरमे बैठता हूँ। लोकसमुदायका न्याय करता हूँ। लोग भी यह जानते हैं कि राजा सत्य गुणके कारण सिंहासनपर अतरिक्षमे बैठता है। अब क्या करूँ ? यदि पर्वतका पक्ष न लें तो ब्राह्मणी मरती है, और यह तो मेरे गुरुको स्त्री है।" लाचार होकर अतमे राजाने ब्राह्मणीसे कहा, "आप खुशीसे जाइये । मै पर्वतका पक्ष. लंगा।" ऐसा निश्चय कराकर पर्वतकी माता घर आयी। प्रभातमे नारद, पर्वत और उसकी माता विवाद करते हुए राजाके पास आये । राजा अनजान होकर पूछने लगा-"पर्वत, क्या है '' पवतन कहा, "राजाधिराज | 'अज' का अर्थ क्या है ? यह बताइये।" राजाने नारदसे पूछा-"आप क्या कहते है " नारदने कहा-"'अज' अर्थात् तीन वर्पके 'व्रीहि', आपको कहॉ याद नही है ?" वसुराजाने कहा-"अजका अर्थ हे बकरा, व्रीहि नही।" उसी समय देवताने उसे सिंहासनसे उछालकर नीचे पटक दिया, वसु कालपरिणामको प्राप्त हुआ।
__ इसपरसे यह मुख्य बोध मिलता है कि "हम सबको सत्य और राजाको सत्य एव न्याय दोनो ग्रहण करने योग्य हैं।'
१. द्वि० आ० पाठा०--'जगतका आधार ।' २. द्वि० आ० पाठा--'जगत टिका है।' ३ द्वि० आ० पाठा०--'वह प्रसंग विचार करनेके लिये यही कहेंगे।'
४ द्वि० आ० पाठा०-'सामान्य मनुष्योको सत्य तथा राजाको न्यायमें अपक्षपात और सत्य दोनो ग्रहण करने योग्य हैं।
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१७वा वर्ष भगवानने जो पाँच महाव्रत प्रणीत किये हैं, उनमेसे प्रथम महाव्रतकी रक्षाके लिये शेष चार व्रत वाडरूप हैं, और उनमे भी पहली बाड सत्य महाव्रत है । इस सत्यके अनेक भेदोको सिद्धातसे श्रवण करना आवश्यक है।
शिक्षापाठ २४ सत्संग सत्संग सर्व सुखका मूल है। "सत्सग मिला' कि उसके प्रभावसे वाछित सिद्धि हो ही जाती है। चाहे जैसा पवित्र होनेके लिये सत्सग श्रेष्ठ साधन है। सत्संगकी एक घडी जो लाभ देती है वह लाभ कुसंगके एक करोड वर्ष भी नही दे सकते, अपितु वे अधोगतिमय महापाप कराते हैं, तथा आत्माको मलिन करते है । सत्संगका सामान्य अर्थ'यह कि उत्तमका सहवास । जहाँ अच्छी हवा नही आती वहाँ रोगकी वृद्धि होती है, वैसे जहाँ सत्संग नही वहाँ आत्मरोग बढता है । दुगंधसे तग आकर जैसे नाक पर वस्त्र रख लेते हैं, वैसे ही कुसंगका सहवास बंद करना आवश्यक है। ससार भी एक प्रकारका संग है, और वह अनत कुसगरूप एव दुखदायक होनेसे त्याग करने योग्य है। चाहे जिस प्रकारका सहवास हो परतु जिससे आत्मसिद्धि नही है वह सत्सग नही है । आत्माको जो सत्यका रग चढ़ाये वह सत्सग है । जो मोक्षका मार्ग बताये वह मैत्री है। उत्तम शास्त्रमे निरतर एकाग्न रहना यह भी सत्सग है, सत्पुरुषोका समागम भी सत्सग है। मलिन वस्त्रको जैसे सावुन तथा जल स्वच्छ करते हैं वैसे आत्माकी मलिनताको, शास्त्रबोध और सत्पुरुषोका समागम दूर करके शुद्ध करते है। जिसके साथ सदा परिचय रहकर राग, रग, गान, तान और स्वादिष्ट भोजन सेवित होते हो वह तुम्हे चाहे जैसा प्रिय हो, तो भी निश्चित मानो कि वह सत्सग नही प्रत्युत कुसग है । सत्सगसे प्राप्त हुआ एक वचन अमूल्य लाभ देता है। तत्त्वज्ञानियोने मुख्य बोध यह दिया है कि सर्वसगका परित्याग करके, अंतरमे रहे हुए सर्व विकारसे भी विरक्त रहकर एकातका सेवन करो। इसमे सत्सगकी स्तुति आ जाती है। सर्वथा एकात तो ध्यानमे रहना या योगाभ्यासमे रहना यह है, परंतु समस्वभावीका समागम, जिसमेसे एक ही प्रकारकी वर्तनताका प्रवाह निकलता है वह, भावसे एक ही रूप होनेसे बहुत मनुष्योके होने पर भी और परस्परका सहवास होनेपर भी एकातरूप ही है और ऐसा एकात मात्र सत समागममे रहा है। कदाचित् कोई ऐसा विचार करेगा कि विषयीमडल मिलता है वहाँ समभाव होनेसे उसे एकात क्यो न कहा जाये ? इसका समाधान तत्काल हो जाता है कि वे एकस्वभावी नही होते । उनमे परस्पर स्वार्थबुद्धि और मायाका अनुसधान होता है, और जहाँ इन दो कारणोसे समागम होता है वह एकस्वभावी या निर्दोष नही होता। निर्दोष और समस्वभावी समागम तो परस्पर शात मुनीश्वरोका है, तथा धर्म-ध्यानप्रशस्त अल्पारभी पुरुषोका भी कुछ अशमे है। जहाँ स्वार्थ और माया-कपट ही हैं वहां समस्वभावता नही है और वह सत्सग भी नही है। सत्सगसे जो सुख, आनन्द मिलता है वह अति स्तुति-पात्र है । जहाँ शास्त्रोके सुन्दर प्रश्न होते हो, जहाँ उत्तम ज्ञान-ध्यानकी सुकथा होती हो, जहाँ सत्पुरुषोके चरित्र पर विचार किया जाता हो, जहाँ तत्त्वज्ञानके तरगकी लहरें उठती हो, जहाँ सरल स्वभावसे सिद्धातविचारकी चर्चा होती हो और जहाँ मोक्षजनक कथनपर पुष्कल विवेचन होता हो, ऐसा सत्सग महादुर्लभ है। कोई यो कहे कि सत्सगमडलमे क्या कोई मायावी नही होता ? तो इसका समाधान यह हे-जहां माया और स्वार्थ होता है वहाँ सत्सग ही नहीं होता | राजहसको सभामे काग देखावसे कदाचित् न भांपा जाये तो रागसे अवश्य भांपा जायेगा, मौन रहा तो मुखमुद्रासे ताडा जायेगा, परन्तु वह छिपा नही रह पायेगा। उसी प्रकार मायावी स्वार्थसे सत्संगमे जाकर क्या करेंगे? वहाँ पेट भरनेकी बात तो होती नही। दो घडो वहाँ जाकर विधाति लेते हो तो भले लें कि जिससे रग लगे, और रग न लगे, तो दूसरी बार उनका आगमन नही होगा । जैसे पृथ्वो पर तेरा नही जाता, वैसे ही
१. दि० आ० पाठा०-'सत्सगका लाभ मिला'
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श्रीमद राजचन्द्र
सत्सगसे डूबा नही जाता, ऐसी सत्सगमे चमत्कृति है । निरतर ऐसे निर्दोप समागम मे माया लेकर आये भी कौन ? कोई दुर्भागी ही, और वह भी असंभव है । सत्सग आत्माका परम हितैषी औषध है ।
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शिक्षापाठ २५ : परिग्रहको मर्यादित करना
जिस प्राणीको परिग्रहकी मर्यादा नही है, वह प्राणी सुखी नही है । उसे जो मिला वह कम है; क्योकि उसे जितना मिलता जाये उतनेसे विशेष प्राप्त करनेकी उसकी इच्छा होती है । परिग्रहकी प्रबलतामे जो कुछ मिला हो उसका सुख तो भोगा नही जाता, परन्तु जो होता है वह भी कदाचित् चला जाता है । परिग्रहसे निरन्तर चलविचल परिणाम और पापभावना रहती है, अकस्मात् योगसे ऐसी पापभावनामे यदि आयु पूर्ण हो जाये तो बहुधा अधोगतिका कारण हो जाता है । सपूर्ण परिग्रह तो मुनीश्वर त्याग सकते हैं, परन्तु गृहस्थ उसकी अमुक मर्यादा कर सकते हैं । मर्यादा हो जानेसे उससे अधिक परिग्रहकी उत्पत्ति नही है, और इसके कारण विशेष भावना भी बहुधा नही होती, और फिर जो मिला है उसमे सन्तोप रखनेकी प्रथा पडती है, जिससे सुखमे समय वीतता है । न जाने लक्ष्मी आदिमे कैसी विचित्रता है कि ज्यो- ज्यो लाभ होता जाता है त्यो त्यो लोभ बढता जाता है । धर्मसंबधी कितना ही ज्ञान होने पर, धर्मकी दृढता होने पर भी परिग्रहके पाशमे पडा हुआ पुरुप कोई विरल ही छूट सकता है, वृत्ति इसीमे लटकी रहती है, परन्तु यह वृत्ति किसी कालमे सुखदायक या आत्महितैषी नही हुई है । जिन्होंने इसकी मर्यादा कम नही की वे बहुत दु खके भोगी हुए हैं ।
छ खंडोको जीतकर आज्ञा मनानेवाले राजाधिराज चक्रवर्ती कहलाते हैं । इन समर्थ चक्रवर्तियो सुभूम नामक एक चक्रवर्ती हो गया है। उसने छ' खड जीत लिये इसलिये वह चक्रवर्ती माना गया, परन्तु इतनेसे उसकी मनोवाछा तृप्त न हुई, अभी वह प्यासा रहा । इसलिये धातकी खडके छ. खड जीतने का उसने निश्चय किया। “सभी चक्रवर्ती छ खड जीतते है, और में भी इतने ही जीत, इसमे महत्ता कौनसी ? बारह खड जीतनेसे मैं चिरकाल तक नामाकित रहूँगा, और उन खडोपर जीवनपर्यंत समर्थ आज्ञा चला सकूँगा ।" इस विचारसे उसने समुद्रमे चर्मरत्न छोड़ा, उसपर सर्व सैन्यादिका आधार था । चर्मरत्नके एक हजार देवता सेवक कहे जाते है, उनमे से प्रथम एकने विचार किया कि न जाने कितने ही वर्षों मे इससे छुटकारा होगा ? इसलिये देवागनासे तो मिल आऊँ, ऐसा सोचकर वह चला गया, फिर दूसरा गया, तीसरा गया, और यो करते-करते हजारके हजार देवता चले गये । तव चर्मरत्न डूब गया, अश्व, गज और सर्व सैन्यसहित सुभूम नामका वह चक्रवर्ती भी डूब गया । पापभावनामे और पापभावनामे मरकर वह अनन्त दु खसे भरे हुए सातवे तमतमप्रभा नरकमे जाकर पड़ा। देखो । छ. खडका आधिपत्य तो भोगना एक ओर रहा, परन्तु अकस्मात् और भयकर रीतिसे परिग्रहकी प्रीति से इस चक्रवर्तीकी मृत्यु हुई, तो फिर दूसरेके लिये तो कहना ही क्या ? परिग्रह पापका मूल है, पापका पिता है, अन्य एकादश व्रतको महादूपित कर दे ऐसा इसका स्वभाव है । इसलिये आत्महितैषीको यथासभव इसका त्याग करके मर्यादापूर्वक आचरण करना चाहिये ।
शिक्षापाठ २६ : तत्त्वको समझना
• जिन्हे शास्त्रोके शास्त्र मुखाग्र हो, ऐसे पुरुष बहुत मिल सकते हैं परतु जिन्होने थोडे वचनोपर प्रौढ़ और विवेकपूर्वक विचार करके शास्त्र जितना ज्ञान हृदयगत किया हो, ऐसे पुरुष मिलने दुर्लभ है । तत्त्वको पा जाना यह कोई छोटी बात नही है, कूदकर समुद्र लाँघ जाना है ।
अर्थ अर्थात् लक्ष्मी, अर्थ अर्थात् तत्त्व और अर्थ शब्द बहुत अर्थ होते हैं । परंतु यहाँ 'अर्थ' अर्थात् 'तत्त्व'
अर्थात् शब्दका दूसरा नाम । इस प्रकार 'अर्थ' इस विषयपर कहना है । जो निग्रंथ-प्रवचनमे
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१७ वॉ वर्ष
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आये हुए पवित्र वचनोंको मुखाग्र करते हैं, वे अपने उत्साहके बलसे सत्फलका उपार्जन करते हैं, परंतु यदि उनका मर्म पाया हो तो इससे वे सुख, आनन्द, विवेक और परिणाममे महान फल पाते है । अनपढ पुरुष सुन्दर अक्षर और खीची हुई मिथ्या लकीरें इन दोनोंके भेदको जितना जानता है, उतना ही मुखपाठी अन्य ग्रथ-विचार और निर्ग्रथ प्रवचनको भेदरूप मानता है, क्योकि उसने अर्थपूर्वक निग्रंथ वचनामृतको धारण नही किया है और उस पर यथार्थ तत्त्व-विचार नही किया है । यद्यपि तत्त्वविचार करनेमे समर्थ बुद्धिप्रभावकी आवश्यकता है, तो भी कुछ विचार कर सकता है, पत्थर पिघलता नही तो भो पानीसे भीग जाता है । इसी प्रकार जो वचनामृत कंठस्थ किये हो, वे अर्थ सहित हो तो बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, नही तो तोतेवाला रामनाम । तोतेको कोई परिचयसे रामनाम कहना सिखला दे, परन्तु तोतेकी बला जाने कि राम अनार है या अगूर । सामान्य अर्थके समझे बिना ऐसा होता है । कच्छी वैश्योका एक दृष्टात कहा जाता है, वह कुछ हास्य्युक्त जरूर है परन्तु इससे उत्तम शिक्षा मिल सकती है । इसलिये उसे यहाँ कहता हूँ ।
कच्छके किसी गाँव मे श्रावक धर्मको पालते हुए रायसी, देवसी और खेतसी नाम के तीन ओसवाल रहते थे । वे सध्याकाल और प्रात कालमे नियमित प्रतिक्रमण करते थे । प्रात कालमे रायसी और सध्या - कालमे देवसी प्रतिक्रमण कराते थे । रात्रिसबधी प्रतिक्रमण रायसी कराता था और रात्रिके सबधसे, 'रायसी पडिक्कमणु ठायमि' इस तरह उसे बुलवाना पडता था । इसी तरह देवसीको दिनका सबध होनेसे 'देवसी पडिक्कमणु ठायमि' ऐसा बुलवाना पडता था । योगानुयोगसे बहुतों के आग्रहसे एक दिन सध्या - कालमे खेतसीको प्रतिक्रमण बुलवानेके लिये बैठाया । खेतसी ने जहाँ 'देवसी पडिक्कमणुं ठायमि', ऐसा आया, वहाँ 'खेतसी पडिक्कमणु ठायमि' यह वाक्य लगा दिया। यह सुनकर सब हास्यग्रस्त हो गये और पूछा, ऐसा क्यो ? खेतसी बोला, "क्यो, इसमे क्या हो गया ?" वहाँ उत्तर मिला, 'खेतसी पडिक्कमण ठायमि' ऐसा आप क्यो बोलते हैं ? खेतसीने कहा, “मैं गरीब हूँ इसलिये मेरा नाम आया कि तुरन्त ही तकरार खड़ी कर दी, परन्तु रायसी और देवसीके लिये तो किसी दिन कोई बोलता भी न था । ये दोनो क्यो ‘रायसी पडिक्कमणु ठायंमि' और 'देवसी पडिक्कमणु ठायमि' ऐसा कहते हैं, तो फिर मैं 'खेतसी पडिक्कमणु ठायमि' यो क्यो न कहूँ ?" इसकी भद्रिकताने तो सबका मन बहलाया, बादमे उसे प्रतिक्रमणका कारण सहित अर्थ समझाया, जिससे खेतसी अपने रटे हुए प्रतिक्रमणसे शर्मिन्दा हुआ ।
यह तो एक सामान्य वार्ता है, परन्तु अर्थकी खूबी न्यारी है । तत्त्वज्ञ उसपर बहुत विचार कर सकते है। बाकी तो गुड जैसे मीठा ही लगता है वैसे निर्ग्रन्थ- वचनामृत भी सत्फल ही देते हैं । अहो | परन्तु मर्म पानेको वातकी तो बलिहारी ही है ।
शिक्षापाठ २७ : यत्ना
जैसे विवेक धर्म का मूलतत्त्व है, वैसे हो यत्ना धर्मका उपतत्त्व है । विवेकरो धर्मतत्त्वको ग्रहण किया जाता है और यत्नासे वह तत्त्व शुद्ध रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया जा सकता है । पाँच समितिरूप यत्ना तो बहुत श्रेष्ठ हैं, परन्तु गृहस्थाश्रमोसे वह सर्व भावसे पाली नही जा सकती, फिर भी जितने भावाशमे पाली जा सके उतने भावाशमे भी असावधानीसे वे पाल नही सकते। जिनेश्वर भगवान द्वारा बोधित स्थूल और सूक्ष्म दयाके प्रति जहाँ बेपरवाहो है वहाँ बहुत दोषसे पाली जा सकती है । इसका कारण यत्नाकी न्यूनता है । उतावली ओर वेगभरी चाल, पानी छानकर उसको जीवानी रखनेकी अपूर्ण विधि, काष्ठादि ईंधनका विना झाडे, विना देखे उपयोग, अनाजमे रहे हुए सूक्ष्म जन्तुओकी अपूर्ण देखभाल, पोछे-मांजे बिना रहने दिये हुए वरतन, अस्वच्छ रखे हुए कमरे, आँगनमे पानीका
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श्रीमद राजचन्द्र गिराना, जूठनका रख छोडना, पटरेके बिना खूब गरम थालीका नीचे रखना, इनसे अपनेको अस्वच्छता, असुविधा, अनारोग्य इत्यादि फल मिलते है, और ये महापापके कारण भी हो जाते है। इसलिये कहनेका आशय यह है कि चलनेमे, बैठनेमे, उठनेमे. जीमनेमे और दूसरी प्रत्येक क्रियामे यत्नाका उपयोग करना चाहिये । इससे द्रव्य एव भाव दोनो प्रकारसे लाभ है। चाल धीमो और गम्भीर रखनी, घर स्वच्छ रखना, पानी विधिसहित छनवाना, काष्ठादि ईंधन झाड़कर डालना, ये कुछ हमारे लिये असुविधाजनक कार्य नही हैं और इनमे विशेष वक्त भी नहीं जाता। ऐसे नियम दाखिल कर देनेके बाद पालने मुश्किल नही है । इनमे विचारे असख्यात निरपराधी जन्तु बचते है।
प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक ही करना यह विवेकी श्रावकका कर्तव्य है।
शिक्षापाठ २८ : रात्रिभोजन अहिसादिक पच महाव्रत जैसा भगवानने रात्रिभोजनत्याग व्रत कहा है। रात्रिमे जो चार प्रकारका आहार है वह अभक्ष्यरूप है। जिस प्रकारका आहारका रग होता है उम प्रकारके तमस्काय नामके जीव उस आहारमे उत्पन्न होते हैं। रात्रिभोजनमे इसके अतिरिक्त भी अनेक दोप।। रात्रिमे भोजन करनेवालेको रसोईके लिये अग्नि जलानी पडती है, तव समीपकी भीतपर रहे हुए निरपराधी सूक्ष्म जन्तु नष्ट होते हैं। इंधनके लिये लाये हुए काष्ठादिकमे रहे हुए जन्तु रात्रिमे न दीखनेसे नष्ट होते हैं, तथा सपक विषका, मकडीकी लारका और मच्छरादिकं सूक्ष्म जन्तुओका भी भय रहता है। कदाचित् यह कुटुम्ब आदिको भयङ्कर रोगका कारण भी हो जाता है।
पुराण आदि मतोमे भो सामान्य आचारके लिये रात्रिभोजनके त्यागका विधान है, फिर भी उनमें परम्परागत रूढिसे रात्रिभोजन घुस गया है, परन्तु ये निषेधक तो है ही।
शरीरके अन्दर दो प्रकारके कमल है, वे सूर्यास्तसे सङ्कचित हो जाते हैं; इसलिये रात्रिभोजनमें सूक्ष्म जीवोका भक्षण होनेरूप अहित होता है, जो महारोगका कारण है, ऐसा कई स्थलोपर आयुर्वेदका भी मत है।
सत्पुरुष तो दो घडी दिन रहनेपर व्यालू करते है, और दो घडी दिन चढनेसे पहले किसी भी प्रकारका आहार नही करते। रात्रिभोजनके लिये विशेष विचार मुनि-समागममे या शास्त्रसे जानना चाहिये। इस सम्बन्धमे बहुत सूक्ष्म भेद जानने आवश्यक है। रात्रिमे चारो प्रकारके आहारका त्याग करनेसे महान फल है, यह जिन-वचन है ।
शिक्षापाठ २९ : सर्व जीवोंको रक्षा-भाग १ दया जैसा एक भी धर्म नही है। दया ही धर्मका स्वरूप है। जहाँ दया नही वहाँ धर्म नही । जगतीतलमे ऐसे अनर्थकारक धर्ममत विद्यमान है जो, जीवका हनन करनेमे लेश भी पाप नही होता, बहुत तो मनुष्यदेहकी रक्षा करो, ऐसा कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये धर्ममतवाले जनूनी और मदान्ध हैं, और दयाका लेश स्वरूप भी नही जानते। यदि ये लोग अपने हृदयपटको प्रकाशमे रखकर विचार करें तो उन्हे अवश्य माल्म होगा कि एक सूक्ष्मसे सूक्ष्म जन्तुके हननमे भी महापाप है। जैसा मुझे अपना आत्मा प्रिय है, वैसा उसे भी अपना आत्मा प्रिय है। मै अपने थोड़ेसे व्यसनके लिये या लाभके लिये ऐसे असख्यात जीवोका वेधडक हनन करता है, यह मुझे कितने अधिक अनन्त दुखका कारण होगा? उनमे बुद्धिका वीज भी न होनेसे वे ऐसा विचार नही कर सकते। वे दिन-रात पाप ही पापमे मग्न रहते है। वेद और वैष्णव आदि पन्थोमे भी सूक्ष्म दया सम्बन्धी कोई विचार देखनेमें नही आता, तो भी ये दयाको
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१७ वा वर्ष
सर्वथा न समझनेवालोकी अपेक्षा बहुत उत्तम है। स्थूल जीवोकी रक्षा करनेमे ये ठोक समझे है, परन्तु इन सबकी अपेक्षा हम कैसे भाग्यशाली हैं कि जहाँ एक पुष्पपङ्खडीको भी पीडा हो वहां पाप है, इस यथार्थ तत्त्वको समझे है और यज्ञ-यागादिको हिंसासे तो सर्वथा विरक्त रहे है। जहाँ तक हो सके वहाँ तक जीवोको बचाते हैं, फिर भी जानबूझकर जीवहिंसा करनेकी हमारी लेशमात्र इच्छा नही है। अनन्तकाय अभक्ष्यसे प्राय हम विरक्त ही है। इस कालमे यह समस्त पुण्यप्रताप सिद्धार्थ भूपालके पुत्र महावीरके कहे हुए परम तत्त्वबोधके योगवलसे बढा हैं। मनुष्य ऋद्धि पाते हैं, सुन्दर स्त्री पाते है, आज्ञाकारी पुत्र पाते है, बडा कुटुम्ब-परिवार पाते है, मानप्रतिष्ठा और अधिकार पाते है, और यह सब पाना कुछ दुर्लभ नही है, परन्तु यथार्थ धर्मतत्त्व या उसकी श्रद्धा या उसका थोड़ा अश भी माना महादुर्लभ है। यह ऋद्धि इत्यादि अविवेकसे पापका कारण होकर अनन्त दु खमे ले जाती है परन्तु यह थोड़ी श्रद्धाभावना भी उत्तम पदवीपर पहुंचाती है। ऐसा दयाका सत्परिणाम है। हमने धर्मतत्त्वयुक्त कुलमे जन्म पाया है, तो अब यथासम्भव हमे विमल दयामय वर्तनको अपनाना चाहिये। वारस्वार यह ध्यानमे रखना चाहिये कि सब जीवोकी रक्षा करनी है। दूसरोको भी युक्ति-प्रयुक्तिसे ऐसा ही बोध देना चाहिये । सर्व जीवोकी रक्षा करनेके लिये एक बोधदायक उत्तम युक्ति बुद्धिशाली अभयकुमारने की थी उसे मै अगले पाठमे कहता हूँ। इसी प्रकार तत्त्वबोधके लिये यौक्तिक न्यायसे अनार्य जैसे धर्ममतवादियोको शिक्षा देनेका अवसर मिले तो हम कैसे भाग्यशाली ।
शिक्षापाठ ३० : सर्व जीवोंकी रक्षा-भाग २ मगध देशकी राजगृही नगरीका अधिराज श्रेणिक एक बार सभा भरकर बैठा था । प्रसगोपात्त बातचीतके दौरान जो मासलुब्ध सामत थे वे बोले कि आजकल मास विशेष सस्ता है । यह बात अभयकुमारने सुनी । इसलिये उसने उन हिंसक सामतोको बोध देनेका निश्चय किया। साय सभा विसजित हुई, राजा अत पुरमे गया। उसके बाद अभयकुमार कर्तव्यके लिये जिस-जिसने मासकी बात कही थी उसउसके घर गया। जिसके घर गया वहाँ स्वागत करनेके बाद उसने पूछा-"आप किसलिये परिश्रम उठा कर मेरे घर पधारे है ?" अभयकुमारने कहा-"महाराजा श्रेणिकको अकस्मात् महारोग उत्पन्न हुआ है। वैद्योको इकट्ठे करनेपर उन्होने कहा कि कोमल मनुष्यके कलेजेका सवा टकभर मास हो तो यह रोग मिटे । आप राजाके प्रियमान्य हैं, इसलिये आपके यहाँ यह मास लेने आया हूँ।" सामतने विचार किया-"कलेजेका मास मैं मरे बिना किस तरह दे सकूँ ?" इसलिये अभयकुमारसे पूछा-"महाराज, यह तो कैसे हो सके ?" ऐसा कहनेके बाद अपनी बात राजाके आगे प्रकट न करनेके लिये अभयकुमारको बहुतसा द्रव्य "दिया जिसे वह अभयकुमार लेता गया । इस प्रकार अभयकुमार सभी सामतोके घर फिर आया। सभी मास न दे सके और अपनी बातको छुपानेके लिये उन्होने द्रव्य दिया ।
फिर जब दूसरे दिन सभा मिली तब सभी सामत अपने-अपने आसनपर आकर बैठे। राजा भो सिंहासनपर विराजमान था। सामृत आ-आकर राजासे कलकी कुशल पूछने लगे। राजा इस बातसे विस्मित हुआ। अभयकुमारकी ओर देखा। तब अभयकुमार बोला-"महाराज | कल आपके सामंत सभामे वोले थे कि आजकल मास सस्ता मिलता है, इसलिये मैं उनके यहाँ मास लेने गया था, तव सबने मुझे बहुत द्रव्य दिया, परतु कलेजेका सवा पैसा भर मास नहीं दिया। तब यह मास सस्ता या महँगा ?" यह सुनकर सब सामत शरमसे नीचे देखने लगे, कोई कुछ बोल न सका। फिर अभयकुमारने कहा"यह मैने कुछ आपको दुख देनेके लिये नही किया परतु बोध देनेके लिये किया है। यदि हमे अपने १ द्वि० आ० पाठा० 'प्रत्येक सामत देता गया और वह'
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श्रीमद राजचन्द्र
बुलाया । अनेक प्रकारकी वातचीत करनेके वाद अभयाने सुदर्शनको भोग भोगनेका आमंत्रण दिया । सुदर्शनने बहुत-सा उपदेश दिया तो भी उसका मन शात नही हुआ । आखिर तग आकर सुदर्शनने युक्तिसे कहा, “बहिन । मैं पुरुषत्वहीन हूँ ।" तो भी रानीने अनेक प्रकारके हावभाव किये । परंतु उन सारी कामचेष्टाओ से सुदर्शन विचलित नही हुआ, इससे तग आकर रानीने उसे जाने दिया ।
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एक बार उस नगरमे उत्सव था, इसलिये नगर के बाहर नगरजन आनदसे इधर-उधर घूमते थे । धूमधाम मची हुई थी । मुदर्शन सेठके छ देवकुमार जैसे पुत्र भी वहाँ आये थे । अभया रानी कपिला नामकी दासीके साथ ठाटवाटसे वहाँ आयी थी । सुदर्शनके देवपुतले जैसे छः पुत्र उसके देखनेमे आये । उसने कपिलासे पूछा, "ऐसे रम्य पुत्र किसक हैं ?" कपिलाने सुदर्शन सेठका नाम लिया । यह नाम सुनते ही रानीकी छाती मानो कटार भोकी गयो, उसे घातक चोट लगी । सारी धूमधाम वीत जानेके बाद मायाकथन गढकर अभया और उसकी दासीने मिलकर राजा से कहा - " आप मानते होगे कि मेरे राज्यमे न्याय और नीतिका प्रवर्तन है, दुर्जनोसे मेरी प्रजा दुःखीं नही है, परतु यह सब मिथ्या है । अत पुरमे भी दुर्जन प्रवेश करे यहाँ तक अभी अधेर हे । तो फिर दूसरे स्थानोके लिये तो पूछना हो क्या ? आपके नगरके सुदर्शन नामके सेठने मुझे भोगका आमंत्रण दिया, न कहने याग्य कथन मुझे सुनने पडे, परतु मैंने उसका तिरस्कार किया । इससे विशेष अधेर कौनसा कहा जाय ।" राजा मूलतः कानके कच्चे होते हैं, यह बात तो यद्यपि सर्वमान्य ही है, उसमे फिर स्त्रीके मायावी मधुर वचन क्या असर न करें ? तत्ते तेलमे ठंडे जल जैसे वचनोंसे राजा क्रोधायमान हुआ । उसने सुदर्शनको शूली पर चढा देनेकी तत्काल आज्ञा कर दी तदनुसार सब कुछ हो भी गया । मात्र सुदर्शनके शूली पर चढ़नेकी देर थी ।
और
चाहे जो हो परन्तु "सृष्टिके' दिव्य भण्डारमे उजाला है । सत्यका प्रभाव ढका नही रहता । और सुदर्शनको शूलीपर बिठाया कि शूली मिट कर जगमगाता हुआ सोनेका सिंहासन हो गयी, देव-दुभिका नाद हुआ, सर्वत्र आनन्द छा गया । सुदर्शनका सत्य शील विश्वमण्डलमे झलक उठा । सत्य शीलकी सदा जय है । गोल और सुदर्शनको उत्तम दृढ़ता ये दोनो आत्माको पवित्र श्रेणिपर चड़ाते हैं ।
शिक्षापाठ ३४ : ब्रह्मचर्य सम्बन्धी सुभाषित ( दोहे ) * नीरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान । गणे काष्ठनी पूतळी, ते भगवान समान ॥१॥ आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप ए त्यागी, त्याग्युं बघु, केवळ शोकस्वरूप ॥२॥ एक विषयने जीततां, जीत्यो सौ संसार 1
नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार ॥३॥
१ द्वि० आ० पाठा ० ' जगतके'
* भावार्थ -नवयौवनाको देखकर जिसके मनमें विषय-विकारका लेश भी उदय नही होता और जो उसे काठकी पुतली समझता है, वह भगवान के समान है ॥२॥
इस सारे ससारकी नायकरूप रमणी सर्वया दु ख स्वरूप है, जिसने इसका त्याग कर दिया उसने सब कुछ त्याग दिया ॥२॥
जैसे एक नृपतिको जीतनेसे उसका सैन्य, नगर और अधिकार जीते जाते हैं, वैसे एक विषयको जीतनेसे सारा सम्रार जीता जाता है ॥३॥
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१७ वॉ वर्ष
विषयरूप अंकुरथी, टळे ज्ञान ने ध्यान । लेश मदिरापानथी, छाके ज्यम अज्ञान ॥४॥ जे नव वाड विशुद्धथी, धरे शियल सुखदाई। भव तेनो लव पछी रहे, तत्त्ववचन ए भाई ॥५॥ सुन्दर शियल सुरतरु, मन वाणी ने देह। जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह ॥६॥ पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान । पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान ॥७॥
शिक्षापाठ ३५ : नवकारमंत्र
नमो अरिहन्ताण। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं। नमो उवज्झायाणं।
नमो लोए सव्वसाहूण। इन पवित्र वाक्योको निर्ग्रन्थप्रवचनमे नवकारमन्त्र, नमस्कारमन्त्र या पचपरमेष्ठीमन्त्र कहते है।
अहंत भगवानके बारह गुण, सिद्ध भगवानके आठ गुण, आचार्यके छत्तीस गुण, उपाध्यायके पच्चीर गुण, और साधुके सत्ताईस गुण मिलकर एक सौ आठ गुण होते है। अँगूठेके बिना बाकीको चा अँगुलियोकी बारह पोरें होती है, और इनसे इन गुणोका चिन्तन करनेकी योजना होनेसे बारहको नौर गुणा करनेपर १०८ होते है। इसलिये नवकार कहनेमे ऐसा सूचन भी गर्भित मालूम होता है कि है भव्य । अपनी अंगुलियोकी पोरोसे नवकार मन्त्र नौ बार गिन । 'कार' शब्दका अर्थ 'करनेवाला' भी होत है। बारहको नौसे गुणा करनेपर जितने हो उतने गुणोसे भरा हुआ मन्त्र, इस प्रकार नवकारमन्त्र तौरपर इसका अर्थ हो सकता है। और पचपरमेष्ठो अर्थात इस सकल जगतमे पाँच वस्तुएँ परमोत्कृष्ट हैं, वे कौन-कौनसी ? तो कह बतायी कि अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हे नमस्का करनेका जो मन्त्र वह परमेष्ठीमन्त्र, और पांच परमेष्ठियोको एक साथ नमस्कार होनेसे 'पचपरमेष्ठीमन्त्र ऐसा शब्द हुआ। यह मन्त्र अनादिसिद्ध माना जाता है, कारण कि पचपरमेष्ठी अनादिसिद्ध है अर्थात् ये पांचो पात्र आदिरूप नही हैं । ये प्रवाहसे अनादि है. और उसके जपनेवाले भी अनादिसिद्ध हैं, इसलिए यह जाप भी अनादिसिद्ध ठहरता है।
प्रश्न-इस पचपरमेष्ठीमन्त्रको परिपूर्ण जाननेसे मनुष्य उत्तम गति पाता है, ऐसा सत्पुरुष कहते है। इस विषयमे आपका क्या मत है ?
जैसे लेश भर मदिरापानसे मनुष्य ज्ञान खोकर नशेसे उन्मत्त हो जाता है, वैसे थोडी-सी विषय-वासनासे ज्ञान और ध्यान नष्ट हो जाते हैं ॥४॥
जो नो बाडपूर्वक विशुद्ध एव सुखदायी ब्रह्मचर्यका पालन करता है, उसका भवभ्रमण लवलेश रह जाता है हे भाई । यह तत्त्ववचन है ॥५॥
जो नर-नारी मन-वचन-कायासे शोलरूप सुन्दर कल्पवृक्षका सेवन करेंगे वे अनुपम फलको पायेंगे ॥६॥
पात्रके बिना वस्तु नही रहती, पात्र में ही आत्मज्ञान होता है । हे मतिमान मनुष्यो । पात्र बननेके लिये सद ब्रह्मचर्यका सेवन करो ॥७॥
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श्रीमद राजचन्द्र शरीरका मास देना पडे तो अनत भय होता है, क्योकि हमे अपनी देह प्रिय है। इसी प्रकार जिस जीवका वह मास होगा उसे भी अपना जीव प्यारा होगा। जैसे हम अमूल्य वस्तुएँ देकर भी अपनी देहको बचाते है वैसे ही उन विचारे पामर प्राणियोको भी होना चाहिये। हम समझवाले, बोलते-चालते प्राणी हैं, वे विचारे अवाचक और नासमझ हैं। उन्हे मौतका दुख दें यह कैसा पापका प्रबल कारण है ? हमे इस वचनको निरतर ध्यानमे रखना चाहिये कि सब प्राणियोको अपना जीव प्यारा है, और सब जीवोकी रक्षा करना इसके जैसा एक भी धर्म नही है।" अभयकुमारके भाषणसे श्रेणिक महाराजा संतुष्ट हुए, सभी सामत भी प्रतिबुद्ध हुए। उन्होने उस दिनसे मास न खानेकी प्रतिज्ञा को, क्योकि एक तो यह अभक्ष्य है, और किसी जीवको मारे विना मिलता नहीं है, यह बड़ा अधर्म है। इसलिये अभय मत्रीका कथन सुनकर उन्होने अभयदानमे ध्यान दिया, जो आत्माके परम सुखका कारण है ।
शिक्षापाठ ३१ : प्रत्याख्यान 'पच्चक्खान' शब्द वारंवार तुम्हारे सुननेमे आया है। इसका मूल शब्द 'प्रत्याख्यान' है, और यह अमुक वस्तुकी ओर चित्त न जाने देनेका जो नियम करना उसके लिये प्रयुक्त होता है। प्रत्याख्यान करने का हेतु अति उत्तम तथा सूक्ष्म है। प्रत्याख्यान न करनेसे चाहे किसी वस्तूको न खाओ अथवा उसका भोग न करो तो भी उससे सवर नही होता, कारण कि तत्त्वरूपसे इच्छाका निरोध नही किया है। रातमे हम भोजन न करते हो, परन्तु उसका यदि प्रत्याख्यानरूपसे नियम न किया हो तो वह फल नही देता, क्योकि अपनी इच्छाके द्वार खुले रहते हैं। जैसे घरका द्वार खुला हो और श्वान आदि प्राणी या मनुष्य भीतर चले आते है वैसे ही इच्छाके द्वार खुले हो तो उनमे कर्म प्रवेश करते हैं। अर्थात् उस ओर अपने विचार यथेच्छरूपसे जाते हैं, यह कर्मवधनका कारण है। और यदि प्रत्याख्यान हो तो फिर उस ओर दृष्टि करनेकी इच्छा नहीं होती। जैसे हम जानते है कि पीठका मध्य भाग हमसे देखा नही जा सकता, इसलिये उस ओर हम दृष्टि भी नही करते, वैसे ही प्रत्याख्यान करनेसे अमुक वस्तु खायी या भोगी नही जा सकती, इसलिये उस ओर अपना ध्यान स्वाभाविकरूपसे नही जाता। यह कर्मोको रोकनेके लिये बीचमे दुर्गरूप हो जाता है। प्रत्याख्यान करनेके बाद विस्मृति आदिके कारण कोई दोष लग जाये तो उसके निवारणके लिये महात्माओने प्रायश्चित्त भी बताये हैं।
प्रत्याख्यानसे एक दूसरा भी बड़ा लाभ है, वह यह कि अमुक वस्तुओमे ही हमारा ध्यान रहता है, बाकी सब वस्तुओका त्याग हो जाता है । जिस-जिस वस्तुका त्याग किया है, उस-उस वस्तुक सबधम फिर विशेष विचार, उसका ग्रहण करना, रखना अथवा ऐसी कोई उपाधि नही रहती । इससे मन बहुत विशालताको पाकर नियमरूपी सड़कपर चला जाता है। अश्व यदि लगाममे आ जाता है तो फिर चाहे जैसा प्रवल होनेपर भी उसे इच्छित रास्तेसे ले जाया जाता है, वैसे ही मन इस नियमरूपी लगाममे आनेके वाद चाहे जैसी शुभ राहमे ले जाया जाता है. और उसमे वारंवार पर्यटन करानेसे वह एकाग्र, विचारशील और विवेकी हो जाता है । मनका आनद शरीरको भी नीरोग बनाता है। और अभक्ष्य, अनतकाय, परस्त्री आदिका नियम करनेसे भी शरीर नीरोग रह सकता है। मादक पदार्थ मनको उलटे रास्तेपर ले जाते हैं, परतु प्रत्याख्यानसे मन वहाँ जाता हुआ रुकता है, इससे वह विमल होता है।
प्रत्याख्यान यह कैसी उत्तम नियम पालनेकी प्रतिज्ञा है, यह बात इस परसे तुम समझे होगे। विशेष सद्गुरुके मुखसे और शास्त्रावलोकनसे समझनेका मैं बोध करता हूँ।
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१७ वॉ वर्ष
शिक्षापाठ ३२ विनयसे तत्त्वकी सिद्धि है राजगृही नगरीके राज्यासनपर जब श्रेणिक राजा विराजमान था तब उस नगरीमे एक चाडाल रहता था। एक बार उस चाडालकी स्त्रीको गर्भ रहा तब उसे आम खानेकी इच्छा उत्पन्न हुई। उसने आम ला देनेके लिये चाडालसे कहा। चाडालने कहा, "यह आमका मौसम नही है, इसलिये मैं निरुपाय हूँ, नही तो मै आम चाहे जितने ऊँचे स्थानपर हो वहाँसे अपनी विद्याके वलसे लाकर तेरी इच्छा पूर्ण करूं।" चाडालोने कहा, "राजाकी महारानीके बागमे एक असमयमे आम देनेवाला आम्रवृक्ष है, उसपर अभी आम लचक रहे होगे, इसलिये वहाँ जाकर आम ले आओ।" अपनी स्त्रीकी इच्छा पूरी करनेके लिये चाडाल उस बागमे गया । गुप्तरूपसे आम्रवृक्षके पास जाकर मन्त्र पढकर उसे झुकाया और आम तोड़ लिये। दूसरे मत्रसे उसे जैसाका तैसा कर दिया। बादमे वह घर आया और अपनी स्त्रीकी इच्छापूर्तिके लिये निरन्तर वह चाडाल विद्याके बलसे वहाँसे आम लाने लगा। एक दिन फिरते-फिरते मालीकी दृष्टि आम्रवृक्षकी ओर गयी। आमोकी चोरी हुई देखकर उसने जाकर श्रेणिक राजाके सामने नम्रतापूर्वक कहा । श्रेणिककी आज्ञासे अभयकुमार नामके बुद्धिशाली मत्रीने युक्तिसे उस चाडालको खोज निकाला। चांडालको अपने सामने बुलाकर पूछा, "इतने सब मनुष्य बागमे रहते हैं, फिर भी तू किस तरह चढकर आम ले गया कि यह बात किसीके भाँपनेमे भी न आई ? सो कह ।" चाडालने कहा, "आप मेरा अपराध क्षमा करे। मैं सच कह देता हूँ कि मेरे पास एक विद्या है, उसके प्रभावसे मै उन आमोको ले सका।' अभयकुमारने कहा, "मुझसे तो क्षमा नही दी जा सकती, परन्तु महाराजा श्रेणिकको तू यह विद्या दे तो उन्हे ऐसी विद्या लेनेकी अभिलाषा होनेसे तेरे उपकारके बदलेमे मैं अपराध क्षमा करा सकूँ।" चाडालने वैसा करना स्वीकार किया। फिर अभयकुमारने चाडालको जहाँ श्रेणिक राजा सिंहासनपर बैठा था वहाँ लाकर सामने खड़ा रखा, और सारी बात राजाको कह सुनायी। इस बातको राजाने स्वीकार किया। फिर चाडाल सामने खडे रहकर थरथराते पैरोंसे श्रेणिकको उस विद्याका बोध देने लगा, परतु वह बोध लगा नही। तुरन्त खडे होकर अभयकुमार बोले, "महाराज | आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी हो तो सामने आकर खडे रहे, और इसे सिंहासन दे।" राजाने विद्या लेनेके लिये वैसा किया तो तत्काल विद्या सिद्ध हो गयी।
यह बात केवल बोध लेनेके लिये है। एक चाडालकी भी विनय किये बिना श्रेणिक जैसे राजाको विद्या सिद्ध न हुई, तो इसमेसे यह तत्त्व ग्रहण करना है कि, सद्विद्याको सिद्ध करनेके लिये विनय करनी चाहिये । आत्मविद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुकी विनय करें तो कैसा मगलदायक हो ।
विनय यह उत्तम वशीकरण है। भगवानने उत्तराध्ययनमे विनयको धर्मका मूल कहकर वणित किया है। गुरुकी, मुनिकी, विद्वानकी, माता-पिताको, और अपनेसे बडोकी विनय करनी यह अपनी उत्तमताका कारण है।
शिक्षापाठ ३३ सुदर्शन सेठ प्राचीन कालमे शुद्ध एकपत्नीव्रतको पालनेवाले असख्य पुरुष हो गये हैं, उनमेसे सकट सहन करके प्रसिद्ध होनेवाला सुदर्शन नामका एक सत्पुरुप भी है । वह धनाढ्य, सुन्दर मुखाकृतिवाला, कातिमान और युवावस्थामे था। जिस नगरमे वह रहता था, उस नगरके राजदरवारके सामनेसे किसी कार्य-प्रसगके कारण उसे निकलना पड़ा। वह जब वहाँसे निकला तब राजाकी अभया नामकी रानी अपने आवासके झरोखेमे बैठी थी। वहाँसे सुदर्शनकी ओर उसकी दृष्टि गयी। उसका उत्तम रूप और काया देखकर उसका मन ललचाया। एक अनुचरीको भेजकर कपटभावसे निर्मल कारण बताकर सुदर्शनको ऊपर
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श्रीमद् राजचन्द्र
बुलाया | अनेक प्रकारकी वातचीत करनेके बाद अभयाने सुदर्शनको भोग भोगनेका आमंत्रण दिया । सुदर्शनने बहुत-मा उपदेश दिया तो भी उसका मन शात नही हुआ । आखिर तग आकर सुदर्शनने युक्तिसे कहा, "बहिन । में पुरुषत्वहीन हूं ।" तो भी रानोने अनेक प्रकारके हावभाव किये। परंतु उन सारी कामचेष्टाजी सुदर्शन विचलित नही हुआ, इमसे तग आकर रानीने उसे जाने दिया ।
एक बार उम नगरमे उत्सव था, इसलिये नगर के बाहर नगरजन आनदसे इधर-उधर घूमते थे । धूमधाम मची हुई थी । सुदर्शन सेठके छ' देवकुमार जैसे पुत्र भी वहाँ आये थे । अभया रानी कपिला नामकी दासीके साथ ठाटवाटसे वहाँ आयी थी । सुदर्शनके देवपुतले जैसे छ' पुत्र उसके देखनेमे आये । उसने कपिलासे पूछा, "ऐसे रम्य पुत्र किसका है ?" कपिलाने सुदर्शन सेठका नाम लिया । यह नाम सुनते ही रानीकी छाती मानो कटार भोकी गयो, उसे घातक चोट लगी । सारी धूमधाम बीत जानेके बाद मायाकथन गढ़कर अभया और उसकी दासीने मिलकर राजा से कहा - " आप मानते होगे कि मेरे राज्यमे न्याय जोर नोतिका प्रवर्तन है, दुर्जनोसे मेरी प्रजा दुखीं नही है, परतु यह सब मिथ्या है । अत पुरमे भी दुर्जन प्रवेश करे यहाँ तक अभी अधेर हे ! तो फिर दूसरे स्थानोके लिये तो पूछना हो क्या ? आपके नगरके सुदर्शन नामके सेठने मुझे भोगका आमंत्रण दिया, न कहने याग्य कथन मुझे सुनने पड़े; परंतु मैने उसका तिरस्कार किया । इससे विशेष अधेर कौनसा कहा जाय ।" राजा मूलत. कानके कच्चे होते हैं, यह बात तो यद्यपि सर्वमान्य ही है, उसमे फिर स्त्रीके मायावी मधुर वचन क्या असर न करें ? तत्ते तेलमे ठडे जल जैसे वचनोसे राजा क्रोधायमान हुआ । उसने सुदर्शनको शूली पर चढा देनेकी तत्काल आज्ञा कर दी, और तदनुसार सब कुछ हो भी गया । मात्र सुदर्शनके शूली पर चढनेको देर थी ।
और
चाहे जो हो परन्तु "सृष्टिके' दिव्य भण्डारमे उजाला है । सत्यका प्रभाव ढका नही रहता । सुदर्शनको शूली पर बिठाया कि शूली मिट कर जगमगाता हुआ सोनेका सिंहासन हो गयी, देव-दुदुभिका नाद हुआ, सर्वत्र आनन्द छा गया । सुदर्शनका सत्य शील विश्वमण्डलमे झलक उठा । सत्य शोलकी सदा जय है । गोल और सुदर्शनकी उत्तम दृढता ये दोनो आत्माको पवित्र श्रेणिपर चढ़ाते हैं
८८
शिक्षापाठ ३४ : ब्रह्मचर्य सम्बन्धी सुभाषित ( दोहे ) * नोरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान । गणे काष्ठनी पुतळी, ते भगवान समान ॥१॥ आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप । ए त्यागी, त्याग्युं वधुं केवळ शोकस्वरूप ॥२॥ एक विषयने जीततां, जोत्यो सौ संसार 1
,
नृपति जीतता जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार ॥३॥
? द्वि० आ० पाठा० ' जगठके'
★ भावार्थ-नवयौवनाको देखकर जिसके मनमें विषय-विकारका लेश भी उदय नही होता और जो उसे काकी पुतलीमा है, यह भगवान के समान है || २ ||
सारे नमारकी नायकरूप रमणी सर्वया दुस स्वरूप है, जिसने इसका त्याग कर दिया उसने सन कुछ लोग दिया ॥२॥
जैन गुरु नृपतिको जीवनसे उम्रना सैन्य, नगर और अधिकार जीते जाते हैं, वैसे एक विषयको जीतने से सारा मवार नाता जाता है ॥३॥
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१७ वॉ वर्ष
अज्ञान ॥४॥
विषयरूप अंकुरथी, टळे ज्ञान ने ध्यान । लेश मदिरापानथी, छाके ज्यम जे नव वाड विशुद्धथी, घरे शियल सुखदाई | भव तेनो लव पछी रहे, तत्त्ववचन ए भाई ॥५॥ सुन्दर शियल सुरतरु, मन वाणी ने देह । जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह ॥६॥ पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान । पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्यं मतिमान ॥७॥
शिक्षापाठ ३५ : नवकारमंत्र
नमो अरिहन्ताणं ।
नमो सिद्धाण |
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नमो आयरियाणं ।
नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्वसाहूण |
इन पवित्र वाक्योको निर्ग्रन्थप्रवचनमे नवकारमन्त्र, नमस्कारमन्त्र या पचपरमेष्ठीमन्त्र कहते है । अहंत भगवानके बारह गुण, सिद्ध भगवानके आठ गुण, आचार्यके छत्तीस गुण, उपाध्यायके पच्चीस गुण, और साधुके सत्ताईस गुण मिलकर एक सौ आठ गुण होते है । अँगूठेके बिना बाकीकी चार अँगुलियोकी बारह पोरें होती है, और इनसे इन गुणोका चिन्तन करनेकी योजना होनेसे बारहको नौसे गुणा करनेपर १०८ होते है । इसलिये नवकार कहनेमे ऐसा सूचन भी गर्भित मालूम होता है कि है भव्य | अपनी अंगुलियोकी पोरोसे नवकार मन्त्र नौ बार गिन । 'कार' शब्दका अर्थ 'करनेवाला' भी होता है । बारहको नौसे गुणा करनेपर जितने हो उतने गुणोंसे भरा हुआ मन्त्र, इस प्रकार नवकार मन्त्रके तौरपर इसका अर्थ हो सकता है । और पचपरमेष्ठो अर्थात इस सकल जगतमे पाँच वस्तुएँ परमोत्कृष्ट हैं, वे कौन-कौनसी ? तो कह बतायी कि अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हें नमस्कार करनेका जो मन्त्र वह परमेष्ठीमन्त्र, और पांच परमेष्ठियोको एक साथ नमस्कार होनेसे 'पचपरमेष्ठीमन्त्र' ऐसा शब्द हुआ । यह मन्त्र अनादिसिद्ध माना जाता है, कारण कि पचपरमेष्ठी अनादिसिद्ध है अर्थात् ये पाँचो पात्र आदिरूप नही हैं। ये प्रवाहसे अनादि है, और उसके जपनेवाले भी अनादिसिद्ध है, इसलिये यह जाप भी अनादिसिद्ध ठहरता है ।
प्रश्न - इस पचपरमेष्ठीमन्त्रको परिपूर्ण जाननेसे मनुष्य उत्तम गति पाता है, ऐसा सत्पुरुष कहते हैं। इस विषय मे आपका क्या मत है
?
जैसे लेश भर मदिरापानसे मनुष्य ज्ञान खोकर नशेसे उन्मत्त हो जाता है, वैसे थोडी-सी विषय-वासनासे ज्ञान और ध्यान नष्ट हो जाते हैं ॥४॥
बाsपूर्वक विशुद्ध एव सुखदायी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसका भवन्रमण लवलेश रह जाता है; हे भाई । यह तत्त्ववचन है ॥५॥
जो
जो नर-नारी मन-वचन-कायासे शीलरूप सुन्दर कल्पवृक्षका सेवन करेंगे वे अनुपम फलको पायेंगे ||६|| पात्र के बिना वस्तु नही रहती, पात्र में ही आत्मज्ञान होता है । हे मतिमान मनुष्यो । पात्र बननेके लिये सदा ब्रह्मचर्य का सेवन करो ||७||
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श्रीमद् राजचन्द्र उत्तर-यह कहना न्यायपूर्वक है, ऐसा मैं मानता हूँ। प्रश्न-इसे किस कारणसे न्यायपूर्वक कहा जा सकता है ?
उत्तर-हाँ। यह मै तुम्हे समझाता हूँ-मनके निग्रहके लिये एक तो सर्वोत्तम जगद्भूषणके सत्य गुणोका यह चिन्तन है तथा तत्त्वसे देखनेपर अर्हतस्वरूप, सिद्धस्वरूप, आचार्यस्वरूप, उपाध्यायस्वरूप और साधुस्वरूप, इनका विवेकपूर्वक विचार करनेका भी यह सूचक है। क्योकि वे किस कारणसे पूजने योग्य है ? ऐसा विचार करनेपर इनके स्वरूप, गुण इत्यादिका विचार करनेको सत्पुरुषको तो सच्ची आवश्यकता है । अब कहो कि इससे यह मन्त्र कितना कल्याणकारक है ?
प्रश्नकर्ता-सत्पुरुष नवकारमन्त्रको मोक्षका कारण कहते है, इसे इस व्याख्यानसे मै भी मान्य रखता हूँ।
अर्हत भगवान, सिद्ध भगवान, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनका एक-एक प्रथम अक्षर लेनेसे "असिआउसा" यह महान वाक्य बनता है। जिसका ॐ ऐसा योगबिन्दुका स्वरूप होता है । इसलिये हमे इस मन्त्रका अवश्य ही विमलभावसे जाप करना चाहिये।
शिक्षापाठ ३६ : अनानुपूर्वी
So
२ | १ | ३ | ४ ।
। ३ । २
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पिता-इस प्रकारके कोष्ठकसे भरी हुई एक छोटी पुस्तक है उसे तूने देखा है ? पुत्र-हाँ, पिताजी। पिता-इसमे उलटे-सीधे अक रखे हैं उसका कुछ भी कारण तेरी समझमे आता है ? पुत्र-नही पिताजी, मेरी समझमे नही आता | इसलिये आप वह कारण बताइये।
पिता-पुत्र | यह प्रत्यक्ष है कि मन एक बहुत चंचल वस्तु है, और इसे एकाग्न करना अत्यन्त विकट है। वह जब तक एकान नही होता तब तक आत्ममलिनता नही जाती, पापके विचार कम नही होते । इस एकाग्रताके लिये बारह प्रतिज्ञा आदि अनेक महान साधन भगवानने कहे हैं। मनकी एकाग्रतासे महायोगकी श्रेणिपर चढने के लिये और उसे अनेक प्रकारसे निर्मल करनेके लिये सत्पुरुषोने यह एक कोष्ठकावली बनायी है । इसमे पहले पचपरमेष्ठी मन्त्रके पांच अक रखे है, और फिर लोमविलोमस्वरूपमे लक्ष्यबद्ध इन्ही पाँच अकोको रखकर भिन्न-भिन्न प्रकारसे कोष्ठक बनाये हैं। ऐसा करनेका कारण भी यही है कि मनकी एकाग्रता प्राप्त करके निर्जरा की जा सके।
पुत्र-पिताजी, अनुक्रमसे लेनेसे ऐसा क्यो नही हो सकता?
पिता-यदि लोमविलोम हो तो उन्हे व्यवस्थित करते जाना पडे और नाम याद करते जाना पडे । पाँचका अक रखनेके बाद दोका अंक आये कि 'नमो लोए सव्वसाहूण के बाद 'नमो अरिहन्ताणं'
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१७ वाँ वर्ष
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यह वाक्य छोडकर 'नमो सिद्धाण' यह वाक्य याद करना पडे । इस प्रकार पुन पुनः लक्ष्यकी दृढ़ता रखनेसे मन एकाग्रतापर पहुँचता है । यदि ये अक अनुक्रमबद्ध हो तो वैसा नही हो सकता, क्योकि विचार करना नही पडता । इस सूक्ष्म समयमे मन परमेष्ठीमन्त्रमेसे निकलकर ससारतन्त्रकी खटपटमे जा पडता है, और कदाचित् धर्म करते हुए अनर्थ भी कर डालता है, इसलिये सत्पुरुषोने इस अनानुपूर्वीकी योजना की है, यह बहुत सुन्दर और आत्मशान्तिको देनेवाली है ।
शिक्षापाठ ३७ : सामायिकविचार - भाग १
आत्मशक्तिका प्रकाश करनेवाला, सम्यग्ज्ञानदर्शनका उदय करनेवाला, शुद्ध समाधि भावमे प्रवेश करानेवाला, निर्जराका अमूल्य लाभ देनेवाला, रागद्वेषमे मध्यस्थबुद्धि करनेवाला ऐसा सामायिक नामका शिक्षाव्रत है । सामायिक शब्दको व्युत्पत्ति सम + आय + इक इन शब्दोसे होती है । 'सम' अर्थात् रागद्वेषरहित मध्यस्थ परिणाम, 'आय' अर्थात् उस समभावसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्गका लाभ, और ‘इक’का अर्थ भाव होता है । अर्थात् जिससे मोक्षके मार्गका लाभदायक भाव उत्पन्न हो वह 'सामायिक' । आर्त्त और रौद्र इन दो प्रकारके ध्यानका त्याग करके, मन, वचन और कायाके पाप भावोको रोककर विवेकी श्रावक सामायिक करता है ।
मनके पुद्गल' दोरगे है । सामायिकमे जब विशुद्ध परिणामसे रहना कहा है तब भी यह मन आकाश-पातालकी योजनाएँ बनाया करता है । इसी तरह भूल, विस्मृति, उन्माद इत्यादिसे वचनकायामे भी दूषण आनेसे सामायिकमे दोष लगता है। मन, वचन और कायाके मिलकर बत्तीस दोष उत्पन्न होते हैं। दस मनके, दस वचनके और बारह कायाके इस प्रकार बत्तीस दोषोको जानना आवश्यक है । जिन्हे जाननेसे मन सावधान रहता है।
मनके दस दोष कहता हूँ
१. अविवेकदोष - सामायिकका स्वरूप न जाननेसे मनमे ऐसा विचार करे कि इससे क्या फल होनेवाला है ? इससे तो कौन तरा होगा ? ऐसे विकल्पोका नाम 'अविवेकदोष' है ।
२. यशोवाछादोष- -स्वय सामायिक करता है यह अन्य मनुष्य जाने तो प्रशसा करे, इस इच्छासे सामायिक करे इत्यादि, यह 'यशोवाछादोष' है ।
३. धनवाछादोष-धनको इच्छासे सामायिक करना, यह 'धनवाछादोष' है ।
४. गर्वदोष -- मुझे लोग धर्मी कहते हैं और में सामायिक भी वैसी ही करता हूँ, यह 'गर्वदोष' है । ५. भयदोष - श्रावक कुलमे जन्मा हूँ, मुझे लोग बड़ा समझकर सम्मान देते है, और यदि मैं सामायिक नही करूँ तो कहेंगे कि इतना भी नही करता, इससे निदा होगी, यह 'भयदोष' है ।
६. निदानदोष - सामायिक करके उसके फलसे धन, स्त्री, पुत्र आदि प्राप्त करनेकी इच्छा करना, यह ' निदानदोष' है ।
७. संशयदोष -- सामायिकका परिणाम होगा या नही ? यह विकल्प करना 'सशयदोष' है ।
८. कषायदोष - क्रोध आदिसे सामायिक करने बैठ जाय अथवा किसी कारणसे फिर क्रोध, मान, माया और लोभमे वृत्ति रखे, यह 'कषायदोष' है ।
९. अविनयदोष - विनयरहित सामायिक करे, यह 'अविनय दोष' है ।
१०. अबहुमानदोष—भक्तिभाव और उमगपूर्वक सामायिक न करे, यह 'अवहुमानदोष' हैं ।
१. द्वि० आ० पाठा० तरगी ।
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श्रीमद् राजचन्द्र शिक्षापाठ ३८ : सामायिकविचार-भाग २ मनके दस दोष कहे, अब वचनके दस दोष कहता हूँ :१. कुवचनदोष-सामायिकमे कुवचन बोलना, यह 'कुवचनदोप' है । २ सहसात्कारदोष-सामायिकमे साहससे अविचारपूर्वक वाक्य बोलना, यह 'सहसात्कारदोष' है। ३. असदारोपणदोष-दूसरेको खोटा उपदेश दे, यह 'असदारोपणदोष' है। ४. निरपेक्षदोष--सामायिकमे शास्त्रकी अपेक्षा बिना वाक्य बोले, यह 'निरपेक्षदोष' है।
५. संक्षेपदोष-सूत्रके पाठ इत्यादिक सक्षेपमे बोल डाले, और यथार्थ उच्चारण नही करे, यह सक्षेपदोष' है।
६. क्लेशदोष-किसीसे झगडा करे, यह 'क्लेशदोष' है। ७. विकथादोष-चार प्रकारको विकथा ले बैठे यह 'विकथादोष' है। ८ हास्यदोष-सामायिकमे किसीकी हँसो, मसखरी करे, यह 'हास्यदोष' है। ९. अशुद्धदोष-सामायिकमे सूत्रपाठ न्यूनाधिक और अशुद्ध वोले, यह 'अशुद्धदोष' है।
१० मुणमुणदोष-सामायिकमे गडबडीसे सूत्रपाठ बोले, जिसे स्वयं भी पूरा मुश्किलसे समझ सके, यह 'मुणमुणदोष' है। .
ये वचनके दस दोष कहे, अब कायाके बारह दोष कहता हूँ :
१. अयोग्यासनदोष-सामायिकमे पैरपर पैर चढाकर वैठे यह गुर्वादिकका अविनयरूप आसन है, इसलिये यह पहला 'अयोग्यासनदोष' है।
२. चलासनदोष-डगमगाते आसनसे बैठकर सामायिक करे, अथवा जहाँसे वारवार उठना पड़े ऐसे आसनपर वैठे यह 'चलासनदोष' है।
३. चलदृष्टिदोष-कायोत्सर्गमे आँखे चंचल रखे, यह 'चलदृष्टिदोष' है। ४. सावधक्रियादोष-सामायिकमे कोई पाप क्रिया या उसकी सज्ञा करे, यह 'सावद्यक्रियादोष' है ।
५. आलंबनदोष-भीत आदिका सहारा लेकर बैठे, इससे वहां बैठे हुए जन्तु आदिका नाश हो और खुदको प्रमाद हो, यह 'आलवनदोष' है।
६. आकुचनप्रसारणदोष-हाथ-पैरको सिकोडे, लम्बा करे आदि, यह "आकुचनप्रसारणदोष' है। ७. आलसदोष-अंगको मरोडे, उँगलियाँ चटकावे आदि, यह 'आलसदोष' है। ८. मोटनदोष-उँगली आदिको टेढी करे, उसे चटकावे यह 'मोटनदोष' है। ९. मलदोष-घिस-घिस कर सामायिकमे खुजाकर मैल उतारे, यह 'मलदोष' है । १०. विमासणदोष-गलेमे हाथ डालकर बैठे इत्यादि, यह 'विमासणदोष' है। ११. निद्रादोष-सामायिकमे ऊंघ आना, यह 'निद्रादोष' है।
१२. वस्त्रसंकोचनदोष-सामायिकमे ठड आदिको भीतिसे वस्त्रसे शरीरको सिकोडे, यह 'वस्त्रसकोचनदोप' है।
इन बत्तीस दूपणोंसे रहित सामायिक करनी चाहिये और पांच अतिचार टालने चाहिये।
शिक्षापाठ ३९ . सामायिकविचार-भाग ३ एकाग्रता और सावधानोके बिना इन बत्तीस दोपोमेसे कोई न कोई दोष लग हो जाते है । विज्ञानवेत्ताओने सामायिकका जघन्य प्रमाण दो घड़ीका वाँधा है । यह व्रत सावधानीपूर्वक करनेसे परम शाति देता है। कितने ही लोगोका यह दो घड़ीका काल जव नही वीतता तब वे बहुत तग आ जाते हैं। सामा
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१७ वाँ वर्ष यिकमे निठल्ले बैठनेसे काल बीते भी कहाँसे ? आधुनिक कालमे सावधानीसे सामायिक करनेवाले बहुत ही थोडे है। प्रतिक्रमण सामायिकके साथ करना होता है तब तो वक्त गुजरना सुगम पड़ता है। यद्यपि ऐसे पामर लक्षपूर्वक प्रतिक्रमण नही कर सकते, फिर भी केवल निठल्ले बैठनेको अपेक्षा इसमे जरूर कुछ अन्तर पड़ता है। जिन्हे सामायिक भी पूरी नही आती वे बिचारे फिर सामायिकमे बहुत व्याकुल हो जाते है । बहुतसे बहुलकर्मी इस अवसरमे व्यवहारके प्रपच भी गढ़ रखते है। इससे सामायिक बहुत दूषित होती है।
विधिपूर्वक सामायिक न हो यह बहुत खेदकारक और कर्मकी बहुलता है । साठ घडीका अहोरात्र व्यर्थ चला जाता है। असख्यात दिनोसे भरपूर अनत कालचक्र व्यतीत करते हुए भी जो सार्थक नही हुआ उसे दो घडीकी विशुद्ध सामायिक सार्थक कर देती है। लक्षपूर्वक सामायिक होनेके लिये सामायिकमे प्रवेश करनेके बाद चार लोगस्ससे अधिक लोगस्सका कायोत्सर्ग करके चित्तकी कुछ स्वस्थता लाना। फिर सूत्रपाठ या उत्तम ग्रन्थका मनन करना । वैराग्यके उत्तम काव्य बोलना। पिछले अध्ययन किये हुयेका स्मरण कर जाना। नूतन अभ्यास हो सके तो करना। किसीको शास्त्रावारसे बोध देना । इस तरह सामायिकका काल व्यतीत करना । 'यदि मुनिराजका समागम हो तो आगमवाणी सुनना और उसका मनन करना, वैसा न हो और शास्त्रपरिचय न हो तो विचक्षण अभ्यासोसे वैराग्यबोधक कथन श्रवण करना, अथवा कुछ अभ्यास करना । यह सारा योग न हो तो कुछ समय लक्षपूर्वक कायोत्सर्गमे लगाना, और कुछ समय महापुरुषोकी चरित्रकथामे उपयोगपूर्वक लगाना । परन्तु जैसे बने वैसे विवेक और उत्साह से सामायिकका काल व्यतीत करना। कोई साधन न हो तो पचपरमेष्ठीमत्रका जप ही उत्साहपूर्वक करना । परन्तु कालको व्यर्थ नही जाने देना । धैर्यसे, शातिसे और यत्नासे सामायिक करना । जैसे बने वैसे सामायिकमे शास्त्रपरिचय बढाना ।
साठ घडीके वक्तमेसे दो घडी अवश्य बचाकर सामायिक तो सद्भावसे करना।
शिक्षापाठ ४० : प्रतिक्रमण विचार प्रतिक्रमण अर्थात् सामने जाना-स्मरण कर जाना-फिरसे देख जाना-ऐसा इसका अर्थ हो सकता है । "जिस दिन जिस समय प्रतिक्रमण करनेके लिये बैठे उस समयसे पहले उस दिन जो-जो दोष हुए है उन्हे एकके बाद एक देख जाना और उनका पश्चात्ताप करना या दोषोका स्मरण कर जाना इत्यादि सामान्य अर्थ भी है।'
उत्तम मुनि और भाविक श्रावक सध्याकालमे और रात्रिके पिछले भागमे दिन और रात्रिमे यो अनुक्रमसे हुए दोषोका पश्चात्ताप या क्षमापना करते है, इसका नाम यहाँ प्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण हमे भी अवश्य करना चाहिये, क्योकि आत्मा मन, वचन और कायाके योगसे अनेक प्रकारके कर्म वाँधता है। प्रतिक्रमणसूत्रमे इसका दोहन किया हुआ है, जिससे दिन-रातमे हुए पापोका पश्चात्ताप उसके द्वारा हो सकता है। शुद्ध भावसे पश्चात्ताप करनेमे लेश पाप होते हुए परलोकभय और अनुकपा प्रगट होते है. आत्मा कोमल होता है। त्याग करने योग्य वस्तुका विवेक आता जाता है। भगवानकी साक्षीसे, अज्ञान इत्यादि जिन-जिन दोषोका विस्मरण हुआ हो उनका पश्चात्ताप भी हो सकता है। इस प्रकार यह निर्जरा करनेका उत्तम साधन है।
१ द्वि० आ० पाठा-'भावकी अपेक्षासे जिस दिन जिस समय प्रतिक्रमण करना हो, उस समयसे पहले अथवा उस दिन जो-जो दोप हुए हो उन्हें एकके बाद एक अतरात्मभावसे देख जाना और उनका पश्चात्ताप करके दोपोंमे पीछे हटना, यह प्रतिक्रमण है।'
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श्रीमद् राजचन्द्र इसका 'आवश्यक' ऐसा भी नाम है। आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य, यह सत्य है। इससे आत्माकी मलिनता दूर होती है, इसलिये अवश्य करने योग्य ही है।
सायकालमे जो प्रतिक्रमण किया जाता है, उसका नाम 'देवसिय पडिक्कमण' अर्थात् दिवससंबधी पापका पश्चात्ताप, और रात्रिके पिछले भागमे जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वह 'राइय पडिक्कमण' कहलाता है। 'देवसिय' और 'राइय' ये प्राकृत भापाके शब्द हैं। पक्षमे किया जानेवाला प्रतिक्रमण पाक्षिक और सवत्सरमे किया जानेवाला प्रतिक्रमण सावत्सरिक कहलाता है। सत्पुरुषोने योजनासे बाँधा हुआ यह सुन्दर नियम है।
कितने ही सामान्य बुद्धिमान ऐसा कहते है कि दिन और रात्रिका सबेरे प्रायश्चित्तरूप प्रतिक्रमण किया हो तो कुछ हानि नही है, परतु यह कहना प्रामाणिक नही है। रात्रिमे यदि अकस्मात् कोई कारण या मृत्यु हो जाये तो दिवससबधी भी रह जाये।
प्रतिक्रमणसूत्रकी योजना बहुत सुन्दर है। इसके मूल तत्त्व बहुत उत्तम हैं। जैसे बने वैसे प्रतिक्रमण धैर्यसे, समझमे आये ऐसी भापासे, शातिसे, मनकी एकाग्रतासे और यत्नापूर्वक करना चाहिये।
शिक्षापाठ ४१ : भिखारीका खेद-भाग १ एक पामर भिखारी जंगलमे भटकता था । वहाँ उसे भूख लगी इसलिये वह विचारा लड़खड़ाता हुआ एक नगरमे एक सामान्य मनुष्यके घर पहुंचा। वहाँ जाकर उसने अनेक प्रकारकी आजिजी की, उसकी गिडगिडाहटसे करुणार्द्र होकर उस गृहस्थकी स्त्रीने उसे घरमेसे जीमनेसे बचा हुआ मिष्टान्न भोजन लाकर दिया । भोजन मिलनेसे भिखारी बहुत आनदित होता हुआ नगरके बाहर आया, आकर एक वृक्षके नीचे बैठा, वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओर अपना बहुत पुराना पानीका घड़ा रख दिया। एक ओर अपनी फटी-पुरानी मलिन गुदडी रखी और एक ओर वह स्वय उस भोजनको लेकर बैठा । बहुत खुश होते हुए उसने वह भोजन खाकर पूरा किया। फिर सिरहाने एक पत्थर रखकर वह सो गया। भोजनके मदसे जरासी देरमे उसको आँख लग गयी। वह निद्रावश हुआ कि इतनेमे उसे एक स्वप्न आया। वह स्वय मानो महा राजऋद्धिको प्राप्त हुआ है; उसने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये हैं, सारे देशमे उसकी विजयका डका बज गया है, समीपमे उसको आज्ञाका पालन करनेके लिये अनुचर खड़े है, आसपास छड़ीदार खमा-खमा पुकार रहे हैं, एक रमणीय महलमे सुन्दर पलगपर उसने शयन किया है, देवागना जैसी स्त्रियाँ उसकी पाँवचप्पी कर रही हैं, एक ओरसे पखेसे मद-मद पवन दिया जा रहा है, ऐसे स्वप्नमे उसका आत्मा तन्मय हो गया। उस स्वप्नका भोग करते हुए उसके रोम उल्लसित हो गये। इतनेमे मेघ महाराज चढ आये, बिजली कौंधने लगी, सूर्यदेव बादलोंसे ढक गया, सर्वत्र अधकार छा गया, मूसलधार वर्षा होगी ऐसा मालूम हुआ और इतनेमे घनगर्जनाके साथ बिजलीका एक प्रबल कडाका हुआ। कडाकेकी आवाजसे भयभीत होकर वह बिचारा पामर भिखारी जाग उठा।
शिक्षापाठ ४२ : भिखारीका खेद-भाग २ देखता है तो जिस जगह पानीका टूटा-फूटा घडा पडा था उसी जगह वह घडा पडा है, जहाँ फटी. गुदडी पड़ी थी वही वह पडी है। उसने जैसे मलिन और जाली झरोखेवाले कपडे पहन रखे थे वैसे
वैसे वे वस्त्र शरीरपर विराजते है। न तिलभर बढा कि न जौभर घटा। न हैं वह देश कि न है वह नगरी, न है वह महल कि न है वह पलग, न है वे चमरछत्रधारी कि न हैं वे छड़ीदार, न हैं वे स्त्रियों
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१७ वा वर्ष
कि न हैं वे वस्त्रालकार, न है वह पंखा कि न है वह पवन, न है वे अनुचर कि न है वह आज्ञा, न है वह सुख-विलास कि न है वह मदोन्मत्तता | महाशय तो स्वय जैसे थे वैसेके वैसे दिखायी दिये । इससे उस देखावको देखकर वह खेदको प्राप्त हुआ। स्वप्नमे मैने मिथ्या आडबर देखा, उससे आनद माना, उसमेसे तो यहाँ कुछ भी नही है। मैंने स्वप्नके भोग तो भोगे नही, और उसका परिणाम जो खेद है उसे मैं भोग रहा हूँ, इस प्रकार वह पामर जीव पश्चात्तापमे पड़ गया।
अहो भव्यो । भिखारीके स्वप्नकी भॉति ससारके सुख अनित्य है। जिस प्रकार स्वप्नमे उस भिखारीने सुखसमुदायको देखा और आनद माना, उसी प्रकार पामर प्राणी ससारस्वप्नके सुखसमुदायमे आनद मानते हैं । जैसे वह सुखसमुदाय जागृतिमे मिथ्या मालूम हुआ वैसे ही ज्ञान प्राप्त होने पर ससारके सुख वैसे मालूम होते है। स्वप्नके भोग न भोगनेपर भी जैसे भिखारीको खेदकी प्राप्ति हुई, वैसे ही मोहाध प्राणी ससारमे सुख मान बैठते हैं, और उन्हे भोगे हुओके समान मानते है, परतु परिणाममे खेद, दुर्गति और पश्चात्ताप पाते है। वे चपल और विनाशी होनेपर भी उनका परिणाम स्वप्नके खेद जैसा रहा है । इसलिये बुद्धिमान पुरुष आत्महितको खोजते है । ससारको अनित्यतापर एक काव्य है कि
(उपजाति ) विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य ते तो जळना तरंग;
पुरदरी चाप अनंगरंग, श राचिये त्या क्षणनो प्रसग ? विशेषार्थ-लक्ष्मी बिजली जैसी है। जैसे बिजलीकी चमक उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है, वैसे लक्ष्मी आकर चली जाती है। अधिकार पतगके रग जैसा है। पतगका रग जैसे चार दिनको चाँदनी है, वैसे अधिकार मात्र थोडा समय रहकर हाथमेसे चला जाता है। आयु पानीकी लहर जैसी है। जैसे पानीकी हिलोर आयी कि गयी वैसे जन्म पाया, और एक देहमे रहा या न रहा कि इतनेमे दूसरी देहमे जाना पड़ता है । कामभोग आकाशमे उत्पन्न होनेवाले इन्द्रधनुष जैसे है। जैसे इद्रधनुष वर्षाकालमे उत्पन्न होकर क्षणभरमे विलीन हो जाता है, वैसे यौवनमे कामके विकार फलीभूत होकर जरावयमे चले जाते है। सक्षेपमे हे जीव । इन सारी वस्तुओका सवध क्षणभरका है। इसमे प्रेमबधनकी साँकलसे बँधकर क्या प्रसन्न होना ? तात्पर्य यह कि ये सब चपल और विनाशी है, तू अखड और अविनाशी है, इसलिये अपने जैसी नित्य वस्तुको प्राप्त कर | यह बोध यथार्थ है।
शिक्षापाठ ४३ : अनुपम क्षमा क्षमा अतर्शत्रुको जीतनेका खड्ग है। पवित्र आचारको रक्षा करनेका बख्तर है। शुद्धभावसे असह्य दुःखमे समपरिणामसे क्षमा रखनेवाला मनुष्य भवसागरको तर जाता है।
कृष्ण वासुदेवके गजसुकुमार नामके छोटे भाई महा सुरूपवान एव सुकुमार मात्र बारह वर्षको आयुमे भगवान नेमिनाथके पास ससारत्यागी होकर स्मशानमे उग्र ध्यानमे स्थित थे, तब वे एक अद्भुत क्षमामय चरित्रसे महा सिद्धिको पा गये, उसे मैं यहां कहता हूँ।
सोमल नामके ब्राह्मणकी सुरूपवर्णसपन्न पुत्रीके साथ गजसुकुमारकी सगाई हुई थी। परतु विवाह होनेसे पहले गजसुकुमार तो ससार त्यागकर चले गये। इसलिये अपनी पुत्रीके सुखनाशके द्वेषसे उस सोमल ब्राह्मणको भयकर क्रोध व्याप्त हो गया। गजसुकुमारकी खोज करता करता वह उस स्मशानमे आ पहुंचा जहाँ महा मुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्ध भावसे कायोत्सर्गमे थे । उसने कोमल गजसुकुमारके माथेपर चिकनी मिट्टीकी बाड बनाई और उसके अदर धधकते हुए अगारे भरे और इंधन भरा जिससे महा ताप उत्पन्न हुआ। इससे गजसुकुमारकी कोमल देह जलने लगी, तब सोमल वहांसे
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श्रीमद राजचन्द्र जाता रहा । उस समय गजसुकुमारके असह्य दु खके बारेमे भला क्ण कहा जाये ? परतु तब वे समभाव परिणाममे रहे। किंचित् क्रोध या द्वेष उनके हृदयमे उत्पन्न नहीं हुआ। अपने आत्माको स्वरूपस्थित करके बोध दिया, "देख | यदि तूने इसकी पुत्रीके साथ विवाह किया होता तो यह कन्यादानमे तुझे पगडो देता। वह पगडी थोड़े समयमे फट जाने वाली तथा परिणाममे दुखदायक होती। यह इसका बड़ा उपकार हुआ कि उस पगडीके बदले इसने मोक्षकी पगड़ी बँधवायी।" ऐसे विशुद्ध परिणामोसे अडिग रहकर समभावसे उस असह्य वेदनाको सहकर, सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर वे अनत जीवनसुखको प्राप्त हुए । कैसी अनुपम क्षमा और कैसा उसका सुन्दर परिणाम ! तत्त्वज्ञानियोके वचन है कि आत्मा मात्र स्वसद्भावमे आना चाहिये, और वह उसमे आया तो मोक्ष हथेलीमे ही है । गजसुकुमारको प्रसिद्ध क्षमा कैसा विशुद्ध बोध देती है।
शिक्षापाठ ४४ : राग श्रमण भगवान महावीरके अग्रेसर गणधर गौतमका नाम तुमने बहुत बार पढा है । गौतमस्वामीके प्रबोधित कितने ही शिष्य केवलज्ञानको प्राप्त हुए, फिर भी गौतम स्वय केवलज्ञानको पाते न थे, क्योकि भगवान महावीरके अगोपाग, वर्ण, वाणी, रूप इत्यादि पर अभी गौतमको मोहनी थी । निर्ग्रन्थ प्रवचनका निष्पक्ष न्याय ऐसा है कि किसी भी वस्तुका राग दुखदायक है। राग ही माहिनी और मोहिनी ही ससार है । गौतमके हृदयसे यह राग जब तक दूर नहीं हुआ तब तक वे केवलज्ञानको प्राप्त नही हुए। फिर श्रमण भगवान ज्ञातपुत्र जब अनुपमेय सिद्धिको प्राप्त हुए, तब गौतम नगरमेसे आ रहे थे। भगवानके निर्वाणके समाचार सुनकर उन्हे खेद हुआ। वे विरहसे अनुरागपूर्ण वचन बोले, "हे महावीर । आपने मुझे साथ तो न लिया, परन्तु याद भी न किया। मेरी प्रीतिकी ओर आपने दृष्टि भी नहीं की। ऐसा आपको छाजता न था।" ऐसे विचार करते-करते उनका लक्ष्य बदला और वे नीरागश्रेणि पर आरूढ हुए । “मै बहुत मूर्खता करता हूँ। ये वीतराग निर्विकारी और नीरागी भला मुझमे कैसे मोहिनी रखे ? इनको शत्रु और मित्र पर सर्वथा समानदृष्टि थी । मै इन नीरागीका मिथ्या मोह रखता हूँ। मोह संसारका प्रवल कारण है।" इस प्रकार विचार करते-करते वे शोक छोड़कर नीरागी हुए। तब उन्हे अनतज्ञान प्रकाशित हुआ और अन्तमे वे निर्वाण पधारे। ___गौतम मुनिका राग हमे बहुत सूक्ष्म वोध देता है। भगवान पर का मोह गौतम जैसे गणधरको दुखदायक हुआ, तो फिर ससारका और वह भी पामर आत्माओका मोह कैसा अनन्त दु ख देता होगा। संसाररूपी गाडीके रागद्वेषरूप दो बैल हैं। यदि ये न हो तो ससारका रोध है। जहाँ राग नही है वहाँ द्वेष नहीं है, यह मान्य सिद्धान्त है । राग तीव्र कर्मबधका कारण है, इसके क्षय से आत्मसिद्धि है ।
शिक्षापाठ ४५ . सामान्य मनोरथ
(सर्वया) *मोहिनीभाव विचार अधीन थई, ना नीरखु नयने परनारी, पय्यरतुल्य गणु परवैभव, निर्मळ तात्त्विक लोभ समारी । द्वादश व्रत अने दीनता धरी, सात्त्विक थाउं स्वरूप विचारी;
ए मुज नेम सदा शुभ क्षेमक, नित्य अखंड रहो भवहारी ॥१॥ *भावार्य-मोहिनीभावके विचारोंके अधीन होकर नयनोंसे परनारीको नही देखें, लोभको निर्मल एव तात्त्विक बनाकर परवैभवको पत्थरतुल्य समझू । द्वादश व्रत और दीनता धारण कर स्वरूपका विचार करके सात्त्विक वर्नू । यह मेरा सदा शुभ क्षेमकारी और भवहारी नियम नित्य अखड रहे ॥१॥
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१७वाँ वर्ष
ते त्रिशलातनये मन चितवी, ज्ञान, विवेक, विचार वधारु ; नित्य विशोध करी नव तत्त्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चारं । संशयबीज ऊगे नही अन्दर, जे जिनना कथनो अवधारु, राज्य, सदा मुज ए ज मनोरथ, धार, थशे अपवर्ग उतार ॥२॥
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शिक्षापाठ ४६ कपिलमुनि - भाग १
कौशाम्बी नामकी एक नगरी थी । वहाँके राजदरबारमे राज्यका आभूषणरूप काश्यप नामका एक शास्त्री रहता था । उसकी स्त्रीका नाम श्रीदेवी था । उसके पेटसे कपिल नामका एक पुत्र जन्मा था । जब वह पद्रह वर्षका हुआ तब उसके पिताका स्वर्गवास हो गया । कपिल लाडप्यार मे पला होनेसे विशेष विद्वत्ताको प्राप्त नही हुआ था, इसलिये उसके पिताका स्थान किसी दूसरे विद्वानको मिला । काश्यप शास्त्री जो पूँजो कमाकर गये थे, उसे कमानेमे अशक्त कपिलने खाकर पूरी कर दी । एक दिन श्रीदेवी घरके दरवाजेमे खडी थी कि इतनेमे दो-चार नौकरो सहित अपने पतिकी शास्त्रीय पदवीको प्राप्त विद्वान जाता हुआ उसके देखनेमे आया । बहुत मानसे जाते हुए उस शास्त्रीको देखकर श्रीदेवीको अपनी पूर्वस्थितिका स्मरण हो आया । "जब मेरे पति इस पदवीपर थे तब मैं कैसा सुख भोगती थी । यह मेरा सुख तो गया, परन्तु मेरा पुत्र भी पूरा पढा ही नही ।" इस प्रकार विचारमे डोलते डोलते उसकी आँखो मेसे टपाटप आँसू गिरने लगे। इतनेमे घूमता- घूमता कपिल वहाँ आ पहुँचा । श्रीदेवीको रोती हुई देखकर उसका कारण पूछा । कपिलके बहुत आग्रहसे श्रीदेवीने जो था वह कह बताया। फिर कपिल बोला, " देख माँ | मै बुद्धिशाली हूँ, परन्तु मेरो बुद्धिका उपयोग जैसा चाहिये वैसा नही हो सका । इसलिये विद्याके बिना मैंने यह पदवी प्राप्त नही की । तू जहाँ कहे वहाँ जाकर अब मै यथाशक्ति विद्या सिद्ध करूँ।” श्रीदेवीने खेदपूर्वक कहा, "यह तुझसे नही हो सकेगा, नही तो आर्यावर्तको सीमापर स्थित श्रावस्ती नगरीमे इन्द्रदत्त नामका तेरे पिताका मित्र रहता है, वह अनेक विद्यार्थियोको विद्यादान देता है, यदि वहाँ जा सके तो अभीष्ट सिद्धि अवश्य होगी ।" एक दो दिन रुक कर सज्ज होकर 'अस्तु' कह कर कपिलजीने रास्ता पकडा ।
अवधि बीतने पर कपिल श्रावस्तीमे शास्त्रीजीके घर आ पहुँचा । प्रणाम करके अपना इतिहास कह सुनाया । शास्त्रीजीने मित्रपुत्रको विद्यादान देनेके लिये बहुत आनन्द प्रदर्शित किया । परन्तु कपिलके पास कोई पूंजी न थी कि उसमेसे वह खाये और अभ्यास कर सके, इसलिये उसे नगरमे भिक्षा माँगनेके लिये जाना पडता था । माँगते माँगते दोपहर हो जाती थी, फिर रसोई बनाता और खाता कि इतनेमे सध्याका थोडा समय रहता था, इसलिये वह कुछ भी अभ्यास नही कर सकता था । पण्डितजीने उसका कारण पूछा तो कपिलने सब कह सुनाया । पण्डितजी उसे एक गृहस्थके पास ले गये और उस गृहस्थने कपिलपर अनुकपा करके एक विधवा ब्राह्मणीके घर ऐसी व्यवस्था कर दी कि उसे हमेशा भोजन मिलता रहे, जिससे कपिलको यह एक चिता कम हुई ।
शिक्षापाठ ४७. कपिलमुनि - भाग २
यह छोटो चिन्ता कम हुई, वहाँ दूसरी बडी झझट खडी हुई । भद्रिक कपिल अब जवान हो गया था, और जिसके यहाँ वह खाने जाता था वह विधवा स्त्रो भी जवान थी ।
उसके साथ उसके घरमे
उन त्रिशलातनयका मनमें चिन्तन करके ज्ञान, विवेक और विचारको बढ़ाऊँ, नित्य नव तत्त्वोका विशोधन करके अनेक प्रकारकै उत्तम बोघवचन मुखसे कहूँ । जिनभगवान के जो कथन है उनका अवधारण करूँ ताकि मनमें सशयबीजका उदय न हो । राजचन्द्र कहते हैं कि मेरा सदा यही मनोरथ हैं, इसे धारण कर मोक्षपयिक बनुं ॥२॥
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श्रीमद राजचन्द्र
दूसरा कोई आदमी नही था । दिन प्रतिदिन पारस्परिक बातचीतका सबध बढा, बढकर हास्य-विनोदरूपमे परिणत हुआ, यो होते होते दोनो प्रेमपाशमे बँध गये । कपिल उससे लुभाया । एकात बहुत अनिष्ट है 11
"वह विद्या प्राप्त करना भूल गया । गृहस्थकी ओरसे मिलने वाले सीधेसे दोनोका मुश्किलसे निर्वाह होता था, परन्तु कपडेलत्ते की तकलीफ हुई । कपिलने गृहस्थाश्रम बसा लेने जैसा कर डाला | चाहे जैसा होने पर भी लघुकर्मी जीव होनेसे उसे ससार के प्रपचकी विशेष जानकारी भी नही थी । इसलिये वह बेचारा यह जानता भी न था कि पैसा कैसे पैदा करना । चचल स्त्रीने उसे रास्ता बताया कि व्याकुल हासे कुछ नही होगा, परतु उपायसे सिद्धि है । इस गाँवके राजाका ऐसा नियम है कि सबेरे पहले जा कर जो ब्राह्मण आशीर्वाद दे उमे वह दो माशा सोना देता है । वहाँ यदि जा सको और प्रथम आशीर्वाद दे सको तो वह दो माशा सोना मिले । कपिलने यह बात मान ली । आठ दिन तक धक्के खाये परन्तु समय बीत जानेके बाद पहुँचनेसे कुछ हाथ नही आता था । इसलिये उसने एक दिन निश्चय किया कि यदि मैं चौकमे सोऊँ तो सावधानी रखकर उठा जायगा । फिर वह चौकमे सोया । आधी रात बीतने पर चद्रका उदय हुआ । कपिल प्रभात समीप समझकर मुट्ठियाँ बाँधकर आशीर्वाद देनेके लिये दौडते हुए जाने लगा । रक्षपालने उसे चोर जानकर पकड लिया । लेने के देने पड गये । प्रभात होने पर रक्षपालने उसे ले जाकर राजाके समक्ष खडा किया। कपिल बेसुध सा खडा रहा, राजाको उसमे चोरके लक्षण दिखाई नही दिये । इसलिये उससे सारा वृत्तात पूछा | चंद्रके प्रकाशको सूर्य के समान माननेवालेकी भद्रिकतापर राजाको दया आयी । उसकी दरिद्रता दूर करनेकी राजाकी इच्छा हुई, इसलिये कपिलसे कहा, “आशीर्वाद देनेके लिये यदि तुझे इतनी झझट खडी हो गई है तो अब तू यथेष्ट माँग ले, मे तुझे दूँगा ।" कपिल थोडी देर मूढ जैसा रहा । इससे राजाने कहा, "क्यो विप्र । कुछ माँगते नही हो ?" कपिलने उत्तर दिया, “मेरा मन अभी स्थिर नही हुआ है, इसलिये क्या माँगें यह नही सूझता ।" राजाने सामनेके बागमे जाकर वहाँ बैठकर स्वस्थतापूर्वक विचार करके कपिलको मॉगनेके लिये कहा । इसलिये कपिल उस बागमे जाकर विचार करने बैठा ।
शिक्षापाठ ४८ : कपिलमुनि - भाग ३
दो माशा सोना लेनेकी जिसकी इच्छा थी, वह कपिल अब तृष्णातरगमे बहने लगा । पाँच मुहरें माँगनेकी इच्छा की, तो वहां विचार आया कि पाँचसे कुछ पूरा होनेवाला नही है । इसलिये पच्चीस मुहरें माँगें । यह विचार भी बदला । पच्चीस मुहरोंसे कही सारा वर्ष नही निकलेगा, इसलिये सौ मुहरें माँग लूँ। वहाँ फिर विचार बदला । सौ मुहरोसे दो वर्ष कट जायेंगे, वैभव भोगकर फिर दुःखका दुःख, इसलिये एक हजार मुहरोकी याचना करना ठीक है; परन्तु एक हजार मुहरोंसे, बाल-बच्चोके दो चार खर्च आ जायें, या ऐसा कुछ हो तो पूरा भी क्या हो इसलिये दस हजार मुहरें माँग लूँ कि जिससे जीवनपर्यत भी चिन्ता न रहे । वहाँ फिर इच्छा बदली। दस हजार मुहरें खत्म हो जायेगी तो फिर पूँजीहीन होकर रहना पडेगा | इसलिये एक लाख मुहरोकी माँग करूँ कि जिसके ब्याज मे सारा वैभव भोगूँ, परन्तु जीव । क्षाधिपति तो बहुतसे हैं, इनमे में नामाकित कहाँसे हो पाऊँगा ? इसलिये करोड़ मुहरें माँग लूँ कि जिससे में महान श्रीमान कहा जाऊं । फिर रंग बदला । महती श्रीमत्तासे भी घरमे सत्ता नही कहलायेगी, इसलिये राजाका आधा राज्य माँगूं । परन्तु यदि आधा राज्य माँगूँगा तो भी जायेगा; और फिर में उसका याचक भी माना जाऊँगा । इसलिये माँगूँ तो पूरा तरह वह तृष्णामेवा, परन्तु वह था तुच्छ ससारी, इसलिये फिरसे पीछे लौटा। कृतघ्नता किसलिये करनी पड़े कि जो मुझे इच्छानुसार देनेकों तत्पर हुआ
राजा मेरे तुल्य गिना राज्य ही माँग लूँ । इस भले जीव । मुझे ऐसी उसीका राज्य ले लेना और
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१७ वर्ष
उसीको भ्रष्ट करना ? यथार्थ दृष्टिसे तो इसमे मेरी ही भ्रष्टता है । इसलिये आधा राज्य माँगना, परन्तु यह उपाधि भी मुझे नही चाहिये । तब पैसेकी उपाधि भी कहाँ कम है ? इसलिये करोड लाख छोडकर सौ दो सौ मुहरें ही मांग लूँ । जीव । सौ दो सौ मुहरें अभी मिलेगी तो फिर विषय- वैभवमे वक्त चला जायेगा, और विद्याभ्यास भी धरा रहेगा, इसलिये अभी तो पाँच मुहरें हो ले जाऊँ, पीछेको बात पीछे । अरे । पाँच मुहरोकी भी अभी कुछ जरूरत नही है, मात्र दो माशा सोना लेने आया था वही मांग लूँ । जीव | यह तो हद हो गई । तृष्णासमुद्रमे तूने बहुत गोते खाये । सम्पूर्ण राज्य माँगते हुए भी जो तृष्णा नही बुझती थी, मात्र संतोष एव विवेकसे उसे घटाया तो घट गई। यह राजा यदि चक्रवर्ती होता तो फिर मैं इससे विशेष क्या माँग सकता था ? और जब तक विशेष न मिलता तब तक मेरी तृष्णा शात भी न होती, जब तक तृष्णा शात न होती तब तक मे सुखी भी न होता । इतनेसे भी मेरी तृष्णा दूर न हो तो फिर दो माशेसे कहाँसे दूर होगी ? उसका आत्मा सुलटे भावमे आया और वह बोला, "अब मुझे दो माशे सोनेका भी कुछ काम नही, दो माशेसे बढकर में किस हद तक पहुँचा । सुख तो सतोषमे ही है । यह तृष्णा ससारवृक्षका बीज है। इसकी हे जीव । तुझे क्या आवश्यकता है ? विद्या ग्रहण करते हुए तू विषयमे पड गया, विषयमे पड़नेसे इस उपाधिमे पडा, उपाधिके कारण तू अनत तृष्णासमुद्रकी तरगोमे पडा । इस प्रकार एक उपाधिसे इस संसारमे अनत उपाधियाँ सहनी पडती है । इसलिये इसका त्याग करना उचित है । सत्य संतोष जैसा निरुपाधि सुख एक भी नही है ।" यो विचार करते करते तृष्णाको शान्त करनेसे उस कपिलके अनेक आवरण क्षय हो गये । उसका अन्त करण प्रफुल्लित और बहुत विवेकशील हो गया । विवेक ही विवेकमे उत्तम ज्ञानसे वह स्वात्माका विचार कर सका । अपूर्वं श्रेणिपर चढकर वह केवलज्ञानको प्राप्त हुआ ऐसा कहा जाता है ।
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तृष्णा कैसी कनिष्ठ वस्तु है । ज्ञानी ऐसा कहते है कि तृष्णा आकाश जैसी अनत है । निरतर वह नवयौवना रहती है। कुछ चाह जितना मिला कि वह चाहको बढा देती है । सतोष ही कल्पवृक्ष है, और यही मात्र मनोवाछाको पूर्ण करता है ।
शिक्षापाठ ४९ : तृष्णाकी विचित्रता
मनहर छद
( एक गरीवकी वढती हुई तृष्णा ) *हती दोनताई त्यारे ताकी पटेलाई अने, मळी पटेलाई त्यारे ताकी छे शेठाईने; सांपडी शेठाई त्यारे ताकी मंत्रिताई अने, आवी मत्रिताई त्यारे ताकी नृपताईने; मळी नृपताई त्यारे ताकी देवताई अने, दोठी देवताई त्यारे ताकी शंकराईने; अहो ! राजचंद्र मानो मानो शंकराई मळी, वघे तृषनाई तोय जाय न मराईने ॥१॥
* भावार्थ- - जव गरीब था तब मुखिया होनेकी इच्छा हुई, जव मुखिया हो गया तब नगरसेठ होनेकी इच्छा हुई, जब नगरसेठ हुआ तब मन्त्री होनेकी इच्छा हुई, जव मन्त्री हुआ वव राजा होनेकी इच्छा हुई, जब राजा हुआ तव देव होनेकी इच्छा हुई, जब देव हुआ तब शकर - महादेव होनेकी इच्छा हुई । राजचद्र कहते हैं कि यह आश्चर्य है कि यदि वह शंकर हो जाये तो भी उसकी तृष्णा वढती ही रहे, मरे नही ॥१॥
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रामचन्द्र
श्रीमद् राजचन्द्र करोचली पड़ी दाढी डाचां तणो दाट वळयो, काळी केशपटी विषे श्वेतता छवाई गई: सूंघ, सांभळवं, ने देखq ते माडी वाळयं, तेम दांत आवली ते, खरी के खवाई गई। वळी केड वांकी, हाड गयां, अंगरग गयो, ऊठवानी आय जतां लाकडी लेवाई गई; अरे ! राजचंद्र एम, युवानी हराई पण, मनथी न तोय रांड ममता मराई गई ॥२॥ करोडोना करजना शिर पर डंका वागे, रोगथी रूंधाई गयु, शरीर सुकाईने; पुरपति पण माथे, पीडवाने ताकी रह्यो, पेट तणी बेठ पण, शके न पुराईने । पितृ अने परणी ते, मचावे अनेक धंध, पुत्र, पुत्री भाखे खाउँ खाउं दुःखदाईने, अरे | राजचंद्र तोय जीव झावा दावा करे, जंजाळ छडाय नहीं, तजी तृषनाईने ॥३॥ . थई क्षीण नाडी अवाचक जेवो रह्यो पडी, जीवन दीपक पाम्यो केवळ झखाईने; छेल्ली ईसे पड्यो भाळी भाईए त्यां एम भाख्यं; हवे टाढी माटी थाय तो तो ठीक भाईने । हाथने हलावी त्यां तो खोजी बुढ्ढे सूचव्यु ए, बोल्या विना बेस बाळ तारो चतुराईने ! अरे ! राजचंद्र देखो देखो आशापाश केवो ? जतां गई नही डोशे ममता मराईने ॥४॥
___ मुंहपर झुर्रियां पड गई, गाल पिचक गये, काली केशपट्टियाँ सफेद हो गई, सूंघने, सुनने और देखनेकी शक्ति जाती रही, दाँत गिर गये या सड गये, कमर टेढी हो गई, हड्डियाँ कमजोर हो गई, शरीरकी शोभा जाती रही, उठने-बैठनेकी शक्ति जाती रही, और चलने-फिरने में लकडी लेनी पडी। राजचन्द्र कहते हैं कि यह आश्चर्य है कि इस तरह जवानी तो चली गई, परन्तु फिर भी मनसे यह राड ममता नही मरी ।।२॥
करोडोके कर्जका सिरपर डका बज रहा है शरीर सूखकर रोगोका घर हो गया है, राजा भी पीडा देनेके लिये मौका ताक रहा है और पेट भी पूरी तरहसे भरा नही जा सकता, माता-पिता और स्त्री अनेक उपद्रव मचाते है, पुत्र-पुत्री दु खदायीको खानेको दौडते हैं। राजचन्द्र कहते हैं कि यह आश्चर्य है कि तो भी यह जीव मिथ्या प्रयत्न करता रहता है परन्तु इससे तृष्णाको छोडकर जजाल नही छोडा जाता ॥३॥ .
नाडी क्षीण हो गई है, अवाचकको भांति पड़ा हुआ है, जीवनका दीया वुझनेको है, इस अन्तिम अवस्थामें पड़ा देखकर भाईने यो कहा कि अव मिट्टी ठडी हो जाय तो ठोक है। इतनेमें उस वुड्ढेने खीजकर हाथको हिलाकर ईशारेसे कहा--"अरे मूर्ख । चुप रह, अपनी चतुराईको चूल्हेमें डाल ।" राजचन्द्र कहते हैं कि यह आश्चर्य है कि देखिये, देखिये आशापाश कैसा है । मरते-मरते भी बुड्ढेकी ममता नही मरी ॥४॥
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१७वों वर्ष
शिक्षापाठ ५० प्रसाद धर्मका अनादर, उन्माद, आलस्य और कषाय ये सब प्रमादके लक्षण है।
भगवानने उत्तराध्ययनसूत्रमे गौतमसे कहा-“हे गौतम । मनुष्यकी आयु कुशकी अनीपर पड़े हुए जलके बिन्दु जैसी है। जैसे उस बिंदुके गिरनेमे देर नही लगती, वैसे इस मनुष्यकी आयुके बीत जानेमे देर नही लगती।" इस बोधके काव्यमे चौथी पक्ति स्मरणमे अवश्य रखने योग्य है । 'समय गोयम मा पमायए।' इस पवित्र वाक्यके दो अर्थ होते है। एक तो यह कि हे गौतम | समय अर्थात् अवसर पाकर प्रमाद नही करना, और दूसरा यह कि निमेषोन्मेषमे बीतते हुए कालका असख्यातवाँ भाग जो समय कहलाता है उतने वक्तका भी प्रमाद नही करना । क्योकि देह क्षणभगुर है। कालशिकारी सिरपर धनुषबाण चढाकर खड़ा है। उसने शिकारको लिया अथवा लेगा यह दुविधा हो रही है। वहाँ प्रमादसे धर्मकर्तव्यका करना रह जायेगा।
अति विचक्षण पुरुष ससारकी सर्वोपाधिका त्याग करके अहोरात्र धर्ममे सावधान होते हैं, पलका भी प्रमाद नही करते। विचक्षण पुरुष अहोरात्रके थोडे भागको भो निरन्तर धर्मकर्तव्यमे बिताते है, और अवसर अवसरपर धर्मकर्तव्य करते रहते है। परन्तु मूढ पुरुष निद्रा, आहार, मौज-शौक और विकथा एवं रागरगमे आयु व्यतीत कर डालते है। इसके परिणाममे वे अधोगतिको प्राप्त करते हैं।
यथासम्भव यत्ना और उपयोगसे धर्मको सिद्ध करना योग्य है। साठ घड़ीके अहोरात्रमे बीस घडी तो हम निद्रामे बिता देते हैं। बाकीकी चालीस घडी उपाधि, गपशप और बेकार घूमने-फिरनेमे गुजार देते हैं । इसकी अपेक्षा साठ घडीके समयमेसे दो चार घडी विशुद्ध धर्मकर्तव्यके लिये उपयोगमे लें तो यह आसानीसे हो सकता है। इसका परिणाम भी कैसा सुन्दर हो ?
पल एक अमूल्य वस्तु है ।' चक्रवर्ती भी यदि एक पल पाने के लिये अपनी सारी ऋद्धि दे दे तो भी वह उसे पा नही सकता । एक पल व्यर्थ खोनेसे एक भव हार जाने जैसा है, यह तात्त्विक दृष्टिसे सिद्ध है ।
शिक्षापाठ ५१ : विवेक किसे कहते हैं ? लघु शिष्य-भगवन् । आप हमे स्थान-स्थानपर कहते आये हैं कि विवेक महान श्रेयस्कर है। विवेक अन्धकारमे पडे हुए आत्माको पहचाननेका दीपक है। विवेकसे धर्म टिकता है । जहाँ विवेक नही वहाँ धर्म नही, तो विवेक किसे कहते हैं ? यह हमे कहिये ।
गुरु-आयुष्मानो | सत्यासत्यको अपने-अपने स्वरूपसे समझना, इसका नाम विवेक है।
लघु शिष्य--सत्यको सत्य और असत्यको असत्य कहना तो सभी समझते हैं। तब महाराज ! वे धर्मके मूलको पा गये ऐसा कहा जा सकता है ?
गुरु-तुम जो बात कहते हो उसका एक दृष्टात भी तो दो।
लघु शिष्य-हम स्वय कडवेको कड़वा ही कहते है, मधुरको मधुर कहते हैं, जहरको जहर और अमृतको अमृत कहते हैं।
गुरु-आयुष्मानो | ये सब द्रव्य पदार्थ हैं। परन्तु आत्माको कोनसी कटुता और कोनसी मधुरता, कौनसा विप और कौनसा अमृत है इन भावपदार्थोको इससे क्या परीक्षा हो सकती है ?
लघु शिष्य-भगवन् | इस ओर तो हमारा लक्ष्य भी नही है।
गुरु-तब यही समझना है कि ज्ञानदर्शनरूप आत्माके सत्य भावपदार्थको अज्ञान और अदर्शनरूप असत् वस्तुने घेर लिया है। इसमे इतनी अधिक मिश्रता हो गई है कि परीक्षा करना अति अति दुष्कर है। आत्माने ससारके सुख अनन्त वार भोगे फिर भी उसमेसे अभी तक मोह दूर नहीं हुआ और उसे अमृत जैसा माना यह अविवेक है, क्योकि ससार कडवा है, कड़वे विपाकको देता है। इसी प्रकार
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श्रीमद राजचन्द्र वैराग्य जो इस कडवे विपाककी औषध है, उसे कड़वा माना, यह भी अविवेक है । ज्ञान, दर्शन आदि गुणोको अज्ञान और अदर्शनने घेरकर जो मिश्रता कर डाली है उसे पहचान कर भाव अमृतमे आना, इसका नाम विवेक है । अब कहो कि विवेक कैसी वस्तु ठहरी ?
लघु शिष्य--अहो । विवेक ही धर्मका मूल और धर्मरक्षक कहलाता है, यह सत्य है । आत्मस्वरूपको विवेकके बिना पहचाना नही जा सकता, यह भी सत्य है | ज्ञान, शील, धर्म, तत्त्व और तप ये सब विवेकके बिना उदयको प्राप्त नही होते, यह आपका कहना यथार्थ है। जो विवेकी नही है वह अज्ञानी और मन्द है। वही पुरुष मतभेद और मिथ्यादर्शनमे लिपटा रहता है। आपकी विवेकसम्बन्धी शिक्षाका हम निरन्तर मनन करेंगे।
शिक्षापाठ ५२ : ज्ञानियोने वैराग्यका बोध क्यों दिया? ससारके स्वरूपके सम्बन्धमे पहले कुछ कहा गया है वह तुम्हारे ध्यानमे होगा । ___ ज्ञानियोने इसे अनन्त खेदमय, अनन्त दुखमय, अव्यवस्थित, चलविचल और अनित्य कहा है। ये विशेषण लगानेसे पहले उन्होने ससारसम्बन्धी सम्पूर्ण विचार किया है, ऐसा मालूम होता है । अनन्त भवोका पर्यटन, अनन्त कालका अज्ञान, अनन्त जीवनका व्याघात, अनन्त मरण और अनन्त शोकसे आत्मा ससारचक्रमे भ्रमण किया करता है। ससारकी दीखती हई इन्द्रवारुणी जैसी सुन्दर मोहिनीने आत्माको सम्पूर्ण लीन कर डाला है। इस जैसा सुख आत्माको कही भी भासित नही होता । मोहिनीसे सत्य सुख और उसके स्वरूपको देखनेकी इसने आकाक्षा भी नही को है। पतगकी जैसे दीपकके प्रति मोहिनी है वैसे आत्माकी ससारके प्रति मोहिनी है । ज्ञानी इस ससारको क्षणभरके लिये भी सुखरूप नही कहते । इस ससारकी तिलभर जगह भी जहरके बिना नही रही है। एक सूअरसे लेकर एक चक्रवर्ती तक भावकी अपेक्षासे समानता है, अर्थात् चक्रवर्तीकी ससारमे जितनी मोहिनी है उतनी ही बल्कि उससे अधिक मोहिनी सूअरकी है। चक्रवर्ती जैसे समग्र प्रजापर अधिकार भोगता है वैसे उसकी उपाधि भी भोगता है । सूअरको इसमेसे कुछ भी भोगना नही पड़ता । अधिकारकी अपेक्षा उलटे उपाधि विशेष है। चक्रवर्तीका अपनी पत्नीके प्रति जितना प्रेम होता है, उतना ही बल्कि उससे विशेष सूअरका अपनी सूअरनीके प्रति प्रेम रहा है। चक्रवर्ती भोगमे जितना रस लेता है उतना ही रस सूअर भी मान बैठा है। चक्रवर्तीको जितनी वैभवकी बहुलता है, उतनी ही उपाधि है। सूअरको उसके वैभवके अनुसार उपाधि है। दोनो उत्पन्न हुए हैं और दोनो मरनेवाले हैं। इस प्रकार अति सूक्ष्म विचार करनेपर क्षणिकता, रोग और जरासे दोनो ग्रसित है। द्रव्यसे चक्रवर्ती समर्थ है, महापुण्यशाली है, सातावेदनीय भोगता है, और सूअर बेचारा असातावेदनीय भोग रहा है। दोनोको असाता-साता भी है, परन्तु चक्रवती महासमर्थ है। परन्तु यदि वह जीवनपर्यन्त मोहाध रहा तो सारी बाजी हार जाने जैसा करता है। सूअरका भी यही हाल है। चक्रवर्ती शलाकापुरुष होनेसे सूअरसे इस रूपमें उसकी तुलना ही नही है, परन्तु इस स्वरूपमे है । भोग भोगनेमे भी दोनो तुच्छ हैं, दोनोंके शरीर माँस, मज्जा आदिके हैं । ससारको यह उत्तमोत्तम पदवी ऐसी है, उसमे ऐसा दुख, क्षणिकता, तुच्छता और अन्धता रहे है तो फिर अन्यत्र सुख किसलिये मानना चाहिये? ये सुख नही हैं, फिर भी सुख मानो तो जो सुख भयवाले और क्षणिक है वे दुःख हो है। अनन्त ताप, अनन्त शोक, अनन्त दुख देखकर ज्ञानियोने इस संसारको पीठ दी है, यह सत्य है। इस ओर पीछे मुडकर देखने जैसा नही है, वहाँ दु.ख, दुःख और दुःख ही है। दुखका यह समुद्र है।
वैराग्य ही अनत सुखमे ले जानेवाला उत्कृष्ट मार्गदर्शक है ।
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१७वॉ वर्ष
शिक्षापाठ ५३ महावीरशासन अभी जो शासन प्रवर्तमान है वह श्रमण भगवान महावीरका प्रणीत किया हुआ है । भगवान महावीरको निर्वाण पधारे २४१४ वर्ष हो गये। मगध देशके क्षत्रियकुण्ड नगरमे त्रिशलादेवो त्रियाणीकी कोखसे सिद्धार्थ राजासे भगवान महावीर जन्मे थे। महावीर भगवानके बडे भाईका नाम नन्दिवर्धन था। महावीर भगवानकी स्त्रीका नाम यशोदा था। ये तीस वर्ष गृहस्थाश्रममे रहे। एकातिक विहारमे साढे बारह वर्ष एक पक्ष, तपादिक सम्यक् आचारसे इन्होने अशेष घनघाती कर्मोको जलाकर भस्मीभूत किया;
और अनुपमेय केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ऋजुवालिका नदीके किनारे प्राप्त किया। कुल लगभग ७२ वर्षको आयु भोगकर सब कर्मोको भस्मीभूत करके सिद्धस्वरूपको प्राप्त किया। वर्तमान चौवीसीके ये अतिम जिनेश्वर थे। __इनका यह धर्मतीर्थ प्रवर्तमान है। यह २१००० वर्ष अर्थात् पंचम कालको पूर्णता तक प्रवर्तमान रहेगा, ऐसा भगवतीसूत्रमे प्रवचन है।
यह काल दस अपवादोसे युक्त होनेसे इस धर्मतीर्थपर अनेक विपत्तियाँ आ गयी हैं, आती है और प्रवचनके अनुसार आयेंगी भी सही।
___ जैन समुदायमे परस्पर मतभेद बहुत पड़ गये है । परस्पर निंदाग्रथोंसे जजाल मॉड वैठे हैं । मध्यस्थ पुरुष विवेक-विचारसे मतमतातरमे न पड़ते हुए जैनशिक्षाके मूल तत्त्व पर आते है, उत्तम शीलवान मुनियोपर भक्ति रखते है, और सत्य एकाग्रतासे अपने आत्माका दमन करते है।
समय समयपर शासन कुछ सामान्य प्रकाशमे आता है, परन्तु कालप्रभावके कारण वह यथेष्ट प्रफुल्लित नही हो पाता।
_ 'वंक जडा य पच्छिमा' ऐसा उत्तराध्ययनसूत्रमे वचन है, इसका भावार्थ यह है कि अतिम तीर्थंकर (महावीरस्वामो) के शिष्य वक्र एव जड़ होगे, और उनकी सत्यताके विपयमे किसीको कुछ बोलने जैसा नही रहता । हम कहाँ तत्त्वका विचार करते है ? कहाँ उत्तम शीलका विचार करते हैं ? नियमित समय धर्ममे कहाँ व्यतीत करते है ? धर्मतीर्थके उदयके लिये कहाँ ध्यान रखते हैं ? कहाँ लगनसे धर्मतत्त्वकी खोज करते हैं ? श्रावककुलमे जन्मे इसलिये श्रावक, यह बात हमे भावको दृष्टि से मान्य नही करनी चाहिये, इसके लिये आवश्यक आचार, ज्ञान, खोज अथवा इनमेसे कोई विशेष लक्षण जिसमे हो उसे श्रावक मानें तो वह यथायोग्य है। अनेक प्रकारकी द्रव्यादिक सामान्य दया श्रावकके घर जन्म लेती है और वह उसका पालन भी करता है, यह बात प्रशसा करने योग्य है, परन्तु तत्त्वको कोई विरले ही जानते हैं, जाननेकी अपेक्षा अधिक शका करनेवाले अर्घदग्ध भी हैं, जानकर अहकार करनेवाले भी हैं, परन्तु जानकर तत्त्वके कॉटेमे तोलनेवाले कोई विरले ही है। परपर आम्नायसे केवल, मन पर्यय और परमावधिज्ञानका विच्छेद हो गया । दृष्टिवादका विच्छेद हो गया, सिद्धातके बहुतसे भागका विच्छेद हो गया, मात्र थोड़े रहे हुए भागपर सामान्य समझसे शका करना योग्य नहीं है। जा शका हो उसे विशेप जानकारसे पूछना चाहिये। वहाँसे मनमाना उत्तर न मिले तो भी जिन-वचनकी श्रद्धा चलविचल नहीं करनी चाहिये। अनेकात शैलीके स्वरूपको विरले जानते हैं।
भगवानके कथनरूप मणिके घरमे कई पामर प्राणी दोषरूपी छिद्रको खोजनेका मथन करके अघोगतिजनक कर्म बाँधते है । हरी शाकभाजीके वदलेमे उसे सुखाकर उपयोगमे लेनेकी बात किसने और किस विचारसे ढूंढ निकाली होगी ?
यह विषय बहुत बड़ा है । इस सवधमे यहाँ कुछ कहना योग्य नही है। सक्षेपमे कहना यह है कि १. मोक्षमालाकी प्रथमावृत्ति वीर सवत् २४१४ अर्थात् विक्रम सवत् १९४४ मे छपी थी।
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१००
श्रीमद् राजचन्द्र
हमे अपने आत्माकी सार्थकताके लिये मतभेदमे नही पडना चाहिये । उत्तम और शात मुनिका समागम, विमल आचार, विवेक, दया, क्षमाका सेवन करना चाहिये। हो सके तो महावीर तीर्थके लिये विवेकी वोध कारण सहित देना चाहिये । तुच्छ बुद्धिसे शक्ति नही होना चाहिये, इसमे अपना परम मगल है, इसका विसर्जन नही करना चाहिये ।
शिक्षापाठ ५४ : अशुचि किसे कहना ?
जिज्ञासु -- मुझे जैन मुनियोंके आचारकी बात बहुत अच्छी लगी है । इनके जैसा सतोका आचार नही है । चाहे जैसे जाडेकी ठडमे इन्हे अमुक वस्त्रोसे निभाना पड़ता है, जैसा ताप पडनेपर भी ये पैरमे जूते अथवा सिरपर छत्री नही रख सकते। इन्हे गरम रेतमे पडता है । यावज्जीवन गरम पानी पीते है । गृहस्थके घर ये बैठ नही सकते । शुद्ध ब्रह्मचर्यं पालते है । फूटी कौडी भो पासमे नही रख सकते । ये अयोग्य वचन नही बोल सकते । ये वाहन नही ले सकते । ऐसे पवित्र आचार, सचमुच । मोक्षदायक है । परंतु नो बाड़मे भगवानने स्नान करनेका निषेध किया है यह वात तो मुझे यथार्थ नही जँचती ।
1
सत्य - किसलिये नही जँचती ?
जिज्ञासु - क्योकि इससे अशुचि बढ़ती है । सत्य - कौनसी अशुचि बढ़ती है ?
किसी दर्शनके गरमी मे चाहे आतप लेना
जिज्ञासु - शरीर मलिन रहता है यह ।
सत्य - भाई । शरीरकी मलिनताको अशुचि कहना, यह बात कुछ विचारपूर्ण नही है । शरीर स्वय किसका बना है, यह तो विचार करो । रक्त, पित्त, मल, मूत्र, श्लेष्मका यह भडार है । इसपर मात्र त्वचा है तब फिर यह पवित्र कैसे हो ? और फिर साधुओने ऐसा कोई ससारी कर्तव्य किया नही होता जिससे उन्हें स्नान करनेकी आवश्यकता रहे ।
जिज्ञासु - परतु स्नान करनेसे उन्हे हानि क्या है ?
सत्य -- यह तो स्थूल वुद्धिका ही प्रश्न है । नहानेसे असख्यात जन्तुओका विनाश, कामाग्निकी प्रदीप्तता, व्रतका भग, परिणामका बदलना, यह सारी अशुचि उत्पन्न होतो है और इससे आत्मा महा मलिन होता है । प्रथम इसका विचार करना चाहिये । शरीरकी, जीवहसायुक्त जो मलिनता है वह अशुचि है । अन्य मलिनतासे तो आत्माकी उज्ज्वलता होती है, इसे तत्त्वविचारसे समझना है । नहाने से व्रत भग होकर आत्मा मलिन होता है, और आत्माकी मलिनता ही अशुचि है ।
जिज्ञासु - मुझे आपने बहुत सुन्दर कारण बताया । सूक्ष्म विचार करनेसे जिनेश्वरके कथनसे बोध ओर अत्यानद प्राप्त होता है । अच्छा, गृहस्थाश्रमियोको जीवहिंसा या ससार कर्तव्यसे हुई शरीरकी अशुचि दूर करनी चाहिये या नही ?
सत्य - - समझपूर्वक अशुचि दूर करनी ही चाहिये। जैन जैसा एक भी पवित्र दर्शन नही है, और वह अपवित्रताका बोध नही करता । परन्तु शौचाशौचका स्वरूप समझना चाहिये ।
शिक्षापाठ ५५ : सामान्य नित्यनियम
प्रभातसे पहले जागृत होकर नमस्कार मंत्रका स्मरण करके मन विशुद्ध करना चाहिये । पापव्यापारको वृत्तिको रोककर रात्रि-सवधी हुए दोपोका उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण करना चाहिये ।
प्रतिक्रमण करनेके वाद यथावसर भगवानकी उपासना, स्तुति तथा स्वाध्यायसे मनको उज्ज्वल
करना चाहिये ।
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१७वॉ वर्ष
१०१ माता-पिताकी विनय करके, आत्महितका लक्ष विस्मृत न हो इस तरह यत्नासे ससारी काममे प्रवृत्ति करनी चाहिये।
स्वयं भोजन करनेसे पहले सत्पात्रमे दान देनेकी परम आतुरता रखकर वैसा योग मिलनेपर यथोचित प्रवृत्ति करनी चाहिये ।
आहार-विहारका नियमित समय रखना चाहिये, तथा सत्शास्त्रके अभ्यासका और तात्त्विक ग्रन्थके मननका भी नियमित समय रखना चाहिये।
सायकालमे सध्यावश्यक उपयोगपूर्वक करना चाहिये । चौविहार प्रत्याख्यान करना चाहिये। नियमित निद्रा लेनी चाहिये।
सोनेसे पहले अठारह पापस्थान, द्वादशवतदोष और सर्व जीवोसे क्षमा मांगकर, पचपरमेष्ठी मत्रका स्मरण करके महा शातिसे समाधिभावसे शयन करना चाहिये।
ये सामान्य नियम बहुत लाभदायक होगे । ये तुम्हे सक्षेपमे कहे है । सूक्ष्म विचारसे और तदनुसार प्रवर्तन करनेसे ये विशेप मंगलदायक होगे।
शिक्षापाठ ५६ क्षमापना हे भगवन् ! मैं बहुत भूल गया, मैंने आपके अमूल्य वचनोको ध्यानमे लिया नही । आपके कहे हुए अनुपम तत्त्वोका मैंने विचार किया नही । आपके प्रणीत किये हुए उत्तम शीलका सेवन किया नहीं। आपको कही हुई दया, शाति, क्षमा और पवित्रताको मैंने पहचाना नहीं । हे भगवन् | मै भूला, भटका, धूमा-फिरा और अनत ससारकी विडबनामे पड़ा हूँ। मैं पापी हूँ। मैं बहुत मदोन्मत्त और कर्मरजसे मलिन हूँ। हे परमात्मन् ! आपके कहे हुए तत्त्वोंके बिना मेरा मोक्ष नही। मैं निरतर प्रपचमे पडा हूँ। अज्ञानसे अघ हुआ हूँ, मुझमे विवेकशक्ति नही है और मै मूढ हूँ, मैं निराश्रित हूँ, अनाथ हूँ। नीरागी परमात्मन् । मैं अब आपकी, आपके धर्मकी और आपके मुनियोकी शरण लेता हूँ। मेरे अपराधोका क्षय होकर मै उन सब पापोसे मुक्त होऊँ यह मेरी अभिलाषा है। पूर्वकृत पापोका मैं अब पश्चात्ताप करता हूँ । ज्यो-ज्यो मै सूक्ष्म विचारसे गहरा उतरता हूँ त्यो त्यो आपके तत्त्वोंके चमत्कार मेरे स्वरूपका प्रकाश करते हैं । आप नीरागी, निर्विकारी, सच्चिदानदस्वरूप, सहजानंदी, अनतज्ञानी, अनतदर्शी और त्रैलोक्यप्रकाशक हैं । मैं मात्र अपने हितके लिये आपकी साक्षीमे क्षमा चाहता हूँ। एक पल भी आपके कहे हुए तत्त्वोकी शका न हो, आपके बताये हुए मार्गमे अहोरात्र मैं रहूँ, यही मेरी आकाक्षा और वृत्ति हो । हे सर्वज्ञ भगवन् । आपसे मै विशेष क्या कहूँ ? आपसे कुछ अज्ञात नही है । मात्र पश्चात्तापसे मै कर्मजन्य पापकी क्षमा चाहता हूँ।
___ॐ शाति. शाति शाति।
शिक्षापाठ ५७ : वैराग्य धर्मका स्वरूप है एक वस्त्र खूनसे रगा गया । उसे यदि खूनसे धोयें तो वह धोया नहीं जा सकता, परतु अधिक रगा जाता है । यदि पानीसे उस वस्त्रको धोयें तो वह मलिनता दूर होना सभव है । इस दृष्टातसे आत्माका विचार करे । आत्मा अनादिकालसे ससाररूप खूनसे मलिन हुआ है। यह मलिनता रोम-रोममे व्याप्त हो गई है । इस मलिनताको हम विषयशृगारसे दूर करना चाहे तो यह दूर नहीं हो सकती। खूनसे जैसे खून नही धोया जाता, वेसे शृगारसे विषयजन्य आत्म-मलिनता दूर होनेवाली नही हे यह मानो निश्चित ही है। अनेक धर्ममत इस जगतमे प्रचलित हैं, उनके सवधमे अपक्षपातसे विचार करते हुए पहले इतना विचार करना आवश्यक हे कि, जहां स्त्रियाँ भोगनेका उपदेश किया हो, लक्ष्मी-लीलाकी शिक्षा दी
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श्रीमद राजचन्द्र
हो, रग, राग, मौज-शौक और ऐशो-आराम करनेका तत्त्व बताया हो वहाँसे अपने आत्माको सत्-शाति नही है । कारण कि इसे धर्ममत माना जाये तो सारा ससार धर्ममतयुक्त ही है । प्रत्येक गृहस्थका घर इसी योजनासे भरपूर होता है । वाल-बच्चे, स्त्री, राग-रंग, गान-तान वहाँ जमा रहता है, और उस घरको धर्मं-मंदिर कहे तो फिर अधर्म -स्थान कौन-सा ? और फिर जैसे हम बरताव करते है वैसे बरताव करनेसे बुरा भी क्या ? यदि कोई यो कहे कि उस धर्म-मदिरमे तो प्रभुकी भक्ति हो सकती है तो उनके लिये खेदपूर्वक इतना ही उत्तर देना है कि वे परमात्मतत्त्व और उसकी वैराग्यमय भक्तिको जानते नही हैं । चाहे जो हो परन्तु हमे अपने मूल विचारपर आना चाहिये । तत्त्वज्ञानको दृष्टिसे आत्मा ससारमे विपयादिक मलिनतासे पर्यटन करता है । उस मलिनताका क्षय विशुद्ध भावजलसे होना चाहिये | अर्हत के कहे हुए तत्त्वरूपी साबुन और वैराग्यरूपी जलसे उत्तम आचाररूप पत्थरपर रखकर आत्मवस्त्रको धोनेवाला निर्ग्रन्थ गुरु है | इसमे यदि वैराग्यजल न हो तो सभी साधन कुछ नही कर सकते, इसलिये वैराग्यको धर्मका स्वरूप कहा जा सकता है। यदि अर्हतप्रणीत तत्त्व वैराग्यका ही वोध देते हैं तो वही धर्मका स्वरूप है ऐसा समझना चाहिये ।
शिक्षापाठ ५८ धर्मके मतभेद -- भाग १
इस जगतीतलपर अनेक प्रकार के धर्ममत विद्यमान है। ऐसे मतभेद अनादिकालसे है, यह न्यायसिद्ध है । परन्तु ये मतभेद कुछ-कुछ रूपान्तरित होते रहते है । इस सम्बन्धमे कुछ विचार करें ।
कितने मतभेद परस्पर मिलते हुए और कितने परस्पर विरुद्ध हैं, कितने ही मतभेद केवल नास्तिको द्वारा फैलाये हुए भी हैं । कितने सामान्य नीतिको धर्म कहते हैं । कितने ज्ञानको ही धर्मं कहते हैं। कितने अज्ञानको घर्ममत कहते हे | कितने भक्तिको कहते है, कितने क्रियाको कहते है, कितने विनयको कहते है और कितने शरीर की रक्षा करना इसे धर्ममत कहते हैं ।
इन धर्ममतस्थापकोने ऐसा उपदेश किया मालूम होता है कि हम जो कहते हैं वह सर्वज्ञवाणीरूप और सत्य है, बाकी के सभी मत असत्य और कुतर्कवादी है, इसलिये उन मतवादियोने परस्पर योग्य या अयोग्य खडन किया है | वेदान्तके उपदेशक यही उपदेश देते हैं, साख्यका भी यही उपदेश है, बुद्धका भी यही उपदेश है, न्याय-मतवालोका भी यही उपदेश है, वैशेषिकोका यही उपदेश है, शक्तिपथीका यही उपदेश है, वैष्णवादिकका यही उपदेश है, इस्लामका यही उपदेश है, और ईसा मसीहका यही उपदेश है कि यह हमारा कथन आपको सर्व सिद्धि देगा । तब हमे अव क्या विचार करना ?
वादी प्रतिवादी दोनो सच्चे नही होते और दोनो झूठे भी नही होते । बहुत हुआ तो वादी कुछ अधिक सच्चा और प्रतिवादी कुछ कम झूठा होता है ।" दोनो की वात सर्वथा झूठी नही होनी चाहिये । ऐसा विचार करने पर तो एक धर्ममत सच्चा ठहरता है और बाकीके झूठे ठहरते हे ।
जिज्ञासु - यह एक आश्चर्यकारक बात है । सबको असत्य और सवको सत्य कैसे कहा जा सकता है ? यदि सबको असत्य कहे तो हम नास्तिक ठहरते है और धर्मकी सच्चाई जाती रहती है। यह तो निश्चित है कि धर्मकी सच्चाई है, और सृष्टिपर उसकी आवश्यकता है। एक धर्ममत सत्य और बाकीके सव असत्य ऐसा कहे तो इस वातको सिद्ध करके बतलाना चाहिये । सबको सत्य कहे तो फिर यह बालूकी भीत हुई, क्योकि फिर इतने सारे मतभेद किसलिये हो ? सब एक ही प्रकारके मत स्थापित करनेका यत्न किसलिये, न करें ? इस तरह अन्योन्यके विरोधाभासके विचारसे थोड़ी देर रुकना पडता है।
१ द्वितीयावृत्ति में यह पाठ विशेष है--' अथवा प्रतिवादी कुछ अधिक सच्चा और वादी कुछ कम झूठा होता है ।"
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तो भी तत्संबधी यथामति में कुछ स्पष्टता करता हूँ। यह स्पष्टता सत्य और मध्यस्थ भावनाकी है, एकातिक या मताग्रही नही है, पक्षपाती या अविवेकी नही है, परन्तु उत्तम और विचार करने योग्य है । देखनेमे यह सामान्य लगेगी, परन्तु सूक्ष्म विचारसे बहुत मर्मवाली लगेगी ।
शिक्षापाठ ५९ धर्मके मतभेद – भाग २
इतना तो तुम्हे स्पष्ट मानना चाहिये कि कोई भी एक धर्म इस सृष्टिपर संपूर्ण सत्यता रखता है । अब एक दर्शनको सत्य कहते हुए बाकीके धर्ममतोको सर्वथा असत्य कहना पड़े, परन्तु मैं ऐसा नही कह सकता। शुद्ध आत्मज्ञानदाता निश्चयनयसे तो वे असत्यरूप सिद्ध होते है, परन्तु व्यवहारनयसे वे असत्य नही कहे जा सकते । एक सत्य और वाकीके अपूर्ण और सदोष है ऐसा में कहता हूँ । तथा कितने ही कुतर्कवादी और नास्तिक है वे सर्वथा असत्य है, परन्तु जो परलोकसंबंधी या पापसंबंधी कुछ भी बोध या भय बताते हैं उस प्रकारके धर्ममतोको अपूर्ण और सदोष कहा जा सकता है। एक दर्शन जिसे निर्दोष और पूर्ण कहनेका है उसकी बात अभी एक ओर रखे ।
अब तुम्हे शंका होगी कि सदोष और अपूर्ण कथनका उपदेश उसके प्रवर्तकने किसलिये दिया होगा ? उसका समाधान होना चाहिये। उन धर्ममतवालोकी जहाँ तक बुद्धिकी गति पहुँची वहाँ तक उन्होने विचार किये । अनुमान, तर्क और उपमा आदिके आधारसे उन्हे जो कथन सिद्ध प्रतीत हुआ वह प्रत्यक्षरूपसे मानो सिद्ध है ऐसा उन्होने बताया । जो पक्ष लिया उसमे मुख्य एकातिकवाद लिया, भक्ति, विश्वास, नीति ज्ञान या क्रिया इनमेसे एक विषयका विशेष वर्णन किया, इससे दूसरे मानने योग्य विषयोको उन्होने दुषित कर दिया। फिर जिन विपयोका उन्होने वर्णन किया वे सर्व भावभेदसे उन्होने कुछ जाने नही थे, फिर भी अपनी महाबुद्धिके अनुसार उनका बहुत वर्णन किया । तार्किक सिद्धात तथा दृष्टात आदिसे सामान्य बुद्धिवालो या जडभरतोके आगे उन्होने सिद्ध कर बताया । कीर्ति, लोकहित या भगवान मनवानेकी आकाक्षा इनमेसे एकाध भी उनके मनका भ्रम होनेसे अत्युग्र उद्यमादिसे वे विजयको प्राप्त हुए। कितनोने शृगार और लहरी' साधनोसे मनुष्योक मन जीत लिये । दुनिया मोहिनीमे तो मूलत. डूबी पडी है, इसलिये ऐसे लहरी दर्शनसे भेडियाधसानरूप होकर उन्होने प्रसन्न होकर उनका कहना मान्य रखा । कितनोने नीति तथा कुछ वैराग्य आदि गुण देखकर उस कथनको मान्य रखा। प्रवर्तककी बुद्धि उनकी अपेक्षा विशेष होनेसे उसे फिर भगवानरूप ही मान लिया । कितनोने वैराग्यसे धर्ममत फेलाकर पीछे से कुछ सुखशील सावनोका बोध घुसेड़ दिया । अपने मतका स्थापन करनेके महान भ्रमसे और अपनी अपूर्णता इत्यादि चाहे जिस कारणसे दूसरेका कहा हुआ स्वयको न रुचा इसलिये उसने अलग ही मार्ग निकाला । इस प्रकार अनेक मतमतातरोका जाल फैलता गया । चार-पांच पीढियो तक एकका एक धर्मका पालन हुआ इसलिये फिर वह कुलधर्म हो गया। इस प्रकार स्थान-स्थानपर होता गया ।
शिक्षापाठ ६० : धर्मके मतभेद -- भाग ३
यदि एक दर्शन पूर्ण और सत्य न हो तो दूसरे धर्ममतोको अपूर्ण और असत्य किसी प्रमाणसे नही कहा जा सकता, इसलिये जो एक दर्शन पूर्ण और सत्य है उसके तत्त्वप्रमाणसे दूसरे मतोकी अपूर्णता और एकातिकता देखे ।
इन दूसरे धर्ममतोमे तत्त्वज्ञानसवधी यथार्थ सूक्ष्म विचार नही है । कितने ही जगत्कर्ताका उपदेश करते हैं, परन्तु जगत्कर्त्ता प्रमाणसे सिद्ध नही हो सक्ता । कितने ज्ञानसे मोक्ष है ऐसा कहते हैं वे एकातिक है, इसी प्रकार क्रियासे मोक्ष है, ऐसा कहनेवाले भी एकातिक है । ज्ञान और क्रिया इन दोनोसे मोक्ष १ द्वि० आ० पाठा० लोकेच्छित ।
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श्रीमद् राजचन्द्र कहनेवाले उसके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानते और वे इन दोनोके भेदको श्रेणिबद्ध नही कह सके, इसीसे उनकी सर्वज्ञताकी कमी सिद्ध होती है। सद्देवतत्त्वमे कहे हुए अठारह दूपणोसे वे धर्ममतस्थापक रहित नहीं थे ऐसा उनके रचे हुए चरित्रोसे भी तत्त्वको दृष्टिसे दिखायी देता है। कितने ही मतोमे हिंसा, अब्रह्मचर्य इत्यादि अपवित्र विपयोका उपदेश है वे तो सहज ही अपूर्ण और सरागी द्वारा स्थापित दिखायी देते है। इनमेसे किसीने सर्वव्यापक मोक्ष, किसीने शून्यरूप मोक्ष, किसीने साकार मोक्ष, किसीने अमुक काल तक रहकर पतित होनेरूप मोक्ष माना है, परन्तु इनमेसे उनकी कोई भी बात सप्रमाण नही हो सकती । १"उनके अपूर्ण विचारोका खडन वस्तुत देखने जैसा है और वह निग्रंथ आचार्योंके रचे हुए शास्त्रोमे मिल सकेगा।'
वेदके अतिरिक्त दूसरे मतोके प्रवर्तक, उनके चरित्र, विचार इत्यादि पढनेसे वे अपूर्ण है ऐसा मालूम हो जाता है। "वेदने प्रवर्तकोको भिन्न-भिन्न करके वेधडकतासे वातको मममे डालकर गभीर डौल भी किया है। फिर भी उसके पुष्कल मतोको पढनेसे यह भी अपूर्ण और एकातिक मालम हो जायेगा।' ..
जिस पूर्ण दर्शनके विषयमे यहाँ कहना है वह जैन अर्थात् नीरागीके स्थापन किये हुए दर्शनके विषयमे है । इसके बोधदाता मर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे । कालभेद है तो भी यह बात सैद्धातिक प्रतीत होती है। दया, ब्रह्मचर्य, शील, विवेक, वैराग्य, ज्ञान, क्रिया आदिका इनके जैसा पूर्ण वर्णन एकने भी नही किया है। उसके साथ शुद्ध आत्मज्ञान, उसकी कोटियाँ, जीवके च्यवन, जन्म, गति, विगति, योनिद्वार, प्रदेश, काल और उनके स्वरूपके विषयमे ऐसा सूक्ष्म बोध है कि जिससे उनकी सर्वज्ञताकी नि शंकता होती है। कालभेदसे परम्पराम्नायसे केवलज्ञानादि ज्ञान देखनेमे नही आते, फिर भी जो जो जिनेश्वरके रहे हुए सैद्धातिक वचन हैं वे अखड है। उनके कतिपय सिद्धात ऐसे सूक्ष्म हैं कि जिनमेसे एक एकका विचार करते हुए सारी जिंदगी बोत जाये ऐसा है । आगे इस सवधमे बहुत कुछ कहना है ।
जिनेश्वरके कहे हुए धर्मतत्त्वोसे किसी भी प्राणीको लेशमात्र खेद उत्पन्न नहीं होता। मर्व आत्माओको रक्षा और सर्वात्मशक्तिका प्रकाश इसमें निहित है । इन भेदोको पढनेसे, समझनेसे और इन पर अति अति सूक्ष्म विचार करनेसे आत्मशक्ति प्रकाश पाकर जैनदर्शनकी सर्वज्ञताके लिये, सर्वोत्कृष्टताके लिये हाँ कहलवाती है। बहुत मननपूर्वक सभी धर्ममतोको जानकर फिर तुलना करनेवालेको यह कथन अवश्य सत्य सिद्ध होगा।
इस सर्वज्ञदर्शनके मूल तत्त्वो और दूसरे मतोके मूल तत्त्वोके विषयमे यहाँ विशेप कह सकने जितनो जगह नही है।
शिक्षापाठ ६१ सुखसंबधी विचार--भाग १ एक ब्राह्मण दरिद्रावस्थासे बहुत पीडित था। उसने तग आकर आखिर देवकी उपासना करके लक्ष्मी प्राप्त करनेका निश्चय किया। स्वय विद्वान होनेसे उसने उपासना करनेसे पहले विचार किया कि कदाचित् कोई देव तो सतुष्ट होगा, परन्तु फिर उससे कौन-सा सुख मांगना ? तप करनेके बाद माँगनेमे कुछ सूझे नही, अथवा न्यूनाधिक सूझे तो किया हुआ तप भी निरर्थक हो जाये, इसलिये एक बार सारे देशमे प्रवास करूँ । ससारके महापुरुपोके धाम, वैभव और सुख देखू। ऐसा निश्चय करके वह प्रवासमे निकल पडा। भारतके जो जो रमणीय और ऋद्धिमान शहर थे वे देखे । युक्ति-प्रयुक्तिसे राजाधिराजोके अन्त.पुर सुख और वैभव देखे । श्रीमानोके आवास, कारोवार, वाग-बगीचे और कुटुम्ब परिवार देखे,
द्वि० आ० पाठा०-२ 'उनके विचारोकी पूर्णता नि स्पृही तत्त्ववेत्ताओने बतायी है उसे यथास्थित जानना योग्य है ।' २ 'वर्तमानमें जो वेद हैं वे बहुत प्राचीन ग्रथ हैं, इसलिये उस मतकी प्राचीनता है। परतु वे भी हिंसाके कारण दूपित होनेसे अपूर्ण है, और सरागी के वाक्य हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है ।'
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परन्तु इससे उनका मन किसी तरह माना नही । किसीको स्त्रीका दुःख, किसीको पतिका दुख, किसीको अज्ञानसे दुःख, किसीको प्रियजनोके वियोगका दुख, किसीको निर्धनताका दुःख, किसीको लक्ष्मीकी उपाधिका दुख, किसीको शरीरसबधी दुख, किसीको पुत्रका दुःख, किसीको शत्रुका दुख, किसीको जडताका दुख, किसीको माँ-बापका दुख, किसीको वैधव्यदु ख, किसीको कुटुम्वका दुःख, किसीको अपने नीच कुलका दुख, किसीको प्रीतिका दुख, किसीको ईर्ष्याका दुख, किसी को हानिका दुख, इस प्रकार एक, दो, अधिक अथवा सभी दुख स्थान स्थानपर उस ब्राह्मणके देखनेमे आये । इससे उसका मन किसी स्थानमे नही माना, जहाँ देखे वहाँ दुख तो था ही। किसी भी स्थानमे सपूर्ण सुख उसके देखनेमे नही आया । अब फिर क्या माँगना ? यो विचार करते-करते एक महाधनाढ्यको प्रशसा सुनकर वह द्वारिकामे आया । द्वारिका महाऋद्धिसम्पन्न, वैभवयुक्त, वागबगीचोसे सुशोभित और बस्तीसे भरपूर शहर उसे लगा । सुन्दर एव भव्य आवासोको देखता हुआ और पूछता - पूछता वह उस महाधनाढ्य के घर गया । श्रीमान् दीवानखानेमे बैठा हुआ था । उसने अतिथि जानकर ब्राह्मणका सन्मान किया, कुशलता पूछी और उसके लिय भोजनको व्यवस्था करवाई । थोडी देर के बाद सेठने धीरजसे ब्राह्मणको पूछा, “आपके आगमनका कारण यदि मुझे कहने योग्य हो तो कहिये ।" ब्राह्मणने कहा, "अभी आप क्षमा कीजिये । पहले आपको अपने सभी प्रकार के वैभव, धाम, बागबगीचे इत्यादि मुझे दिखाने पडगे, उन्हे देखनेके बाद मे अपने आगमनका कारण कहूँगा ।" सेठने इसका कुछ मर्मरूप कारण जानकर कहा, “भले आनदपूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार करिये।" भोजनके बाद ब्राह्मणने सेठको स्वय साथ चलकर धामादिक बतानेके लिपे विनती की। धनाढ्यने उसे मान्य रखा और स्वय साथ जाकर बागबगीचा, धाम, वैभव यह सव दिखाया । सेठकी स्त्री, पुत्र भी वहाँ ब्राह्मणके देखनेमे आये । उन्होने योग्यतापूर्वक उस ब्राह्मणका सत्कार किया । उनके रूप, विनय स्वच्छता तथा मधुरवाणीसे ब्राह्मण प्रसन्न हुआ। फिर उसकी दुकानका कारोबार देखा । सौ एक कारिदे वहाँ बैठे हुए देखे । वे भी मायालु, विनयी और नम्र उस ब्राह्मणके देखनेमे आये । इससे वह बहुत सतुष्ट हुआ । उसके मनको यहाँ कुछ सतोष हुआ । सुखी तो जगतमे यही मालूम होता है ऐसा उसे लगा ।
शिक्षापाठ ६२ : सुखसम्बन्धी विचार - भाग २
कैसे सुन्दर इसके भवन हैं। इनकी स्वच्छता और सभाल कैसी सुन्दर है ! - कैसी सयानी और मनोज्ञा इसकी सुशील स्त्री है । इसके कैसे कातिमान और आज्ञाकारी पुत्र हैं । कैसा मेलजोलवाला इसका कुटुम्ब ह । लक्ष्मोको कृपा भी इसके यहाँ कैसी है। सारे भारतमे इसके जैसा दूसरा कोई सुखी नही है । अब तप करके यदि मैं माँगें तो इस महाधनाढ्य जेसा ही सब माँगूं, दूसरी चाह न करूँ । दिन बीत गया और रात्रि हुई । सोनेका वक्त हुआ ।' धनाढ्य और ब्राह्मण एकातमे बैठे थे, फिर धनाढ्यने विप्रसे आगमनका कारण कहनेकी विनती की । विप्र - मै घरसे ऐसा विचार करके निकला था कि सबसे अधिक सुखी कौन है यह देखें; और तप करके फिर उस जैसा सुख प्राप्त करूँ सारा भारत और उसके सभी रमणीय स्थल देखे, परन्तु किसी राजाधिराज वहाँ भी सम्पूर्ण सुख मेरे देखने मे नही आया । जहाँ देखा वहाँ आधि, व्याधि और उपाधि देखनेमे आई । इस ओर आने पर आपकी प्रशसा सुनी, इसलिये मै यहाँ आया, और सन्तोष भी पाया। आपके जैसी ऋद्धि, सत्पुत्र, कमाई, स्त्री, कुटुम्ब, घर आदि मेरे देखने मे कही भी नही आये । आप स्वय भी धर्मशील, सद्गुणी और जिनेश्वरके उत्तम उपासक है। इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि आपके जैसा सुख अन्यत्र नही हे। भारतमे आप विशेष सुखी हैं । उपासना करके कदाचित् देवसे माँगूँ तो आपके जैसी सुखस्थिति माँगें ।
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श्रीमद राजचन्द्र
धनाढ्य - पडितजी, आप एक बडे मर्मभरे विचारसे निकले हैं, इसलिये मैं अवश्य आपसे अपने अनुभवकी बात ज्यो की त्यो कहता हूँ, फिर आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें। मेरे यहाँ आपने जो-जो सुख देखे वे वे सुख भारत भरमे कही भी नही हैं यह आपने कहा, तो वैसा होगा, परन्तु सचमुच यह मुझे सम्भव नही लगता । मेरा सिद्धान्त ऐसा है कि जगतमे किसी स्थानमे वास्तविक सुख नही है । जगत दु खसे जल रहा है | आप मुझे सुखी देखते है परन्तु वस्तुत मै सुखी नही हूँ ।
विप्र --- आपका यह कहना कोई अनुभव सिद्ध और मार्मिक होगा। मैंने अनेक शास्त्र देखे है, फिर भी ऐसे मर्मपूर्वक विचार ध्यानमे लेनेका मैने परिश्रम ही नही उठाया और मुझे ऐसा अनुभव सबके लिये नही हुआ । अब आपको क्या दुख है, वह मुझसे कहिये ।
धनाढ्य --पडितजी, आपकी इच्छा है तो मै कहता हूँ, वह ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य है, और इस पर से कोई मार्गदर्शन मिल सकता है ।
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शिक्षापाठ ६३ सुखसम्बन्धी विचार -- भाग ३
आप अभी मेरी जैसी स्थिति देखते हैं वैसी स्थिति लक्ष्मी, कुटुम्ब और स्त्रीके सम्बन्धमे पहले भी थी । जिस समयकी मै बात कर रहा हूँ, उस समयको लगभग बीस वर्षं हो गये । व्यापार और वैभवकी बहुलता यह सब कारोबार उलटा पडनेसे घटने लगी । करोडपति कहलानेवाला मै लगातार घाटेका भार वहन करनेसे मात्र तीन वर्षमे लक्ष्मीहीन हो गया । जहाँ सर्वथा सीधा समझकर दाव लगाया था वहाँ उलटा दाव पडा । उस अरसे मे मेरो स्त्री भी गुजर गई। उस समय मेरे कोई सन्तान न थी । प्रबल हानियोके कारण मुझे यहाँसे निकल जाना पडा । मेरे कुटुम्बियोने यथाशक्ति रक्षा की, परन्तु वह आकाश फटनेपर थिगली लगाना था । अन्न और दॉतमे वैर होनेकी स्थितिमे मै बहुत आगे निकल पड़ा । जब मै वहाँसे निकला तब मेरे कुटुम्बी मुझे रोककर कहने लगे - " तूने गॉवका दरवाजा भी नही देखा, इसलिये तुझे जाने नही दिया जा सकता । तेरा कोमल शरीर कुछ भी कर नही सकेगा, और तू वहाँ जाये और सुखी हो जाये तो फिर वापस भी नही आयेगा, इसलिये यह विचार तुझे छोड देना चाहिये ।" मैंने अनेक प्रकारसे उन्हे समझाया और यदि मैं अच्छी स्थिति प्राप्त करूँगा तो यहाँ अवश्य आऊँगा ऐसा वचन देकर मैं जावाबन्दरके पर्यटनमे निकल पडा ।
प्रारब्ध पलटनेकी तैयारी हुई । दैवयोगसे मेरे पास एक दमडी भी रही न थी । एक या दो महीने उदरपोपण चलाने जितना साधन भी रहा न था । फिर भी मे जावामे गया । वहाँ मेरी बुद्धिने मेरे प्रारब्धको चमकाया जिस जहाजमे मैं बैठा था उस जहाजके नाविकने मेरी चपलता और नम्रता देखकर अपने सेठसे मेरे दुखकी बात की। उस सेठने मुझे बुलाकर एक काममे लगा दिया, जिसमे मैं अपने पोपणसे चौगुना पैदा करता था । इस व्यापारमे मेरा चित्त जब स्थिर हो गया तव भारतके साथ इस व्यापारको बढानेका मैंने प्रयत्न किया और उसमे सफल हुआ। दो वर्षमै पाँच लाख जितनी कमाई हुई | फिर सेठसे राजी-खुशीसे आज्ञा लेकर मै कुछ माल खरीदकर द्वारिकाकी ओर चल दिया । थोडे समयमे वहाँ आ पहुँचा, तब बहुत से लोग मेरा स्वागत करने आये थे । मे अपने कुटुम्बियोसे आनन्दपूर्वक जाकर मिला । वे मेरे भाग्यको प्रशसा करने लगे । जावेसे लिये हुए मालने मुझे एकके पॉच कराये । पडितजी | वहाँ अनेक प्रकारसे मुझे पाप करने पडे थे, पेटभर खानेको भी मुझे नही मिला था, परन्तु एक बार लक्ष्मी सिद्ध करनेकी जो मैंने प्रतिज्ञा की थी वह प्रारब्धयोगसे पूर्ण हुई । जिस दुःखदायक स्थितिमे में था उसमे दुखकी क्या कमी थी ? स्त्री, पुत्र ये तो यद्यपि थे ही नही, माँ-बाप पहलेसे परलोक सिधार गये थे । कुटुम्बियोके वियोगसे और विना दमडीके जिस समय जावा गया था उस समयकी स्थिति अज्ञानदृष्टिसे आँखो मे आँसू ला देती है । ऐसे समयमे भी मैंने धर्ममे ध्यान रखा था, दिनका अमुक भाग उसमे
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१७वॉ वर्ष लगाता था, वह लक्ष्मी या ऐसी किसी लालच से नही, परन्तु यह मानकर कि यह ससारदुःखसे पार करनेवाला साधन है | मौतका भय क्षणभर भी दूर नही है, इसलिये यथासम्भव यह कर्तव्य कर लेना चाहिये, यह मेरी मुख्य नीति थी । दुराचारसे कोई सुख नही है, मनकी तृप्ति नही है, और आत्माकी मलिनता है । इस तत्त्वकी ओर मैंने अपना ध्यान लगाया था ।
शिक्षापाठ ६४ : सुखसम्बन्धी विचार -- भाग ४
यहाँ आनेके बाद मैंने अच्छे घरकी कन्या प्राप्त की । वह भी सुलक्षणी और मर्यादाशील निकली । उससे मेरे तीन पुत्र हुए। कारोबार प्रबल होनेसे और पैसा पैसेको खीचता है इस न्याय से मैं दस वर्षमे महान करोडपति हो गया । पुत्रोकी नीति, विचार और बुद्धिको उत्तम रखनेके लिये मैंने बहुत सुन्दर साधनोकी व्यवस्था की, जिससे वे इस स्थित्तिको प्राप्त हुए है । अपने कुटुम्बियोको यथायोग्य स्थानो लगाकर उनकी स्थितिको सुधारा | दुकानके मैने अमुक नियम बनाये | उत्तम मकान बनवानेका आरम्भ कर दिया । यह मात्र एक ममत्वके लिये किया । गया हुआ फिर प्राप्त किया, और कुल परपराकी प्रसिद्धिको जानेसे रोका, ऐसा कहलवानेके लिये मैने यह सब किया । इसे मैं सुख नही मानता । यद्यपि मैं दूसरोकी अपेक्षा सुखी हूँ, तो भी यह सातावेदनीय है, सत्सुख नही है । जगतमे बहुधा असातावेदनीय है । मैने धर्म-' मे अपना समय बितानेका नियम रखा है । सत्शास्त्रोका वाचन, मनन, सत्पुरुषोका समागम, यमनियम, एक मासमे बारह दिन ब्रह्मचर्य, यथाशक्ति गुप्तदान, इत्यादि धर्ममे अपना समय बिताता हूँ । सर्व व्यवहारसबधी उपाधियोमेसे कितना ही भाग मैने अधिकतर छोड दिया है । पुत्रोको व्यवहारमे यथायोग्य बनाकर मै निग्रंथ होनेकी इच्छा रखता हूँ । अभी निग्रंथ हो सकूं ऐसी स्थिति नही है, इसमे ससारमोहिनो या ऐसा कोई कारण नही है, परन्तु वह भी धर्मसंबधी कारण है । गृहस्थधर्मके आचरण बहुत निकृष्ट हो गये हैं, और मुनि उन्हे सुधार नही सकते । गृहस्थ गृहस्थको विशेष बोध दे सकता है, आचरणसे भी असर डाल सकता है । इसीलिये में गृहस्थवर्गको प्राय धर्मसंबधो बोध देकर यमनियममे लगाता हूँ । प्रति सप्ताह अपने यहाँ लगभग पाँचसो सद्गृहस्थोकी सभा होती है। उन्हे आठ दिनके नये अनुभव और बाकी के पिछले धर्मानुभवका दो-तीन मुहूर्त्त तक बोध देता हूँ । मेरी स्त्री धर्मशास्त्रकी कुछ जानकार होनेसे वह भी स्त्रीवर्गको उत्तम यमनियमका बोध देकर साप्ताहिक सभा करती है । पुत्र भी शास्त्रोका यथाशक्ति परिचय रखते है । विद्वानोका सन्मान, अतिथिका सन्मान, विनय ओर सामान्य सत्यता, एक ही भाव - ऐसे नियम बहुधा मेरे अनुचर भी पालते हे । इसलिये ये सब साता भोग सकते है | लक्ष्मोके साथसाथ मेरी नीति, धर्म, सद्गुण और विनयने जनसमुदायपर बहुत अच्छा असर किया है । राजा तक भी मेरी नीतिको बातको अङ्गीकार करे, ऐसी स्थिति हो गयी है । यह सब मै आत्मप्रशसा के लिये कहता नही हूँ, यह आप ध्यान रखें, मात्र आपको पूछी हुई बातकी स्पष्टताके लिये यह सव सक्षेपमे कह रहा हूँ ।
शिक्षापाठ ६५ : सुखसंबंधी विचार - भाग ५
इन सब बातोसे आपको ऐसा लग सकेगा कि मे सुखी हूँ और सामान्य विचारसे आप मुझे बहुत सुखी मानें तो माना जा सकता । धर्म, शील और नीतिसे तथा शास्त्रावधान से मुझे जो आनन्द प्राप्त होता है वह अवर्णनीय है । परन्तु तत्त्वदृष्टिसे मे सुखो न माना जाऊँ । जब तक मैंने वाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहका सब प्रकार से त्याग नही किया तब तक रागदोषका भाव है । यद्यपि वह बहुत अंशमे नही है, परतु है सही, तो वहां उपाधि भी है । सर्वसंगपरित्याग करनेकी मेरी सम्पूर्ण आकाक्षा है, परन्तु जब तक ऐसा नही हुआ हे तब तक अभी किसी माने गये प्रियजनका वियोग, व्यवहारमे हानि और कुटुम्बीका दु.ख ये थोडे अशमे भी उपाधि दे सकते है । अपनी देहमे मौतके सिवाय भी नाना प्रकारके रोगोका
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श्रीमद् राजचन्द्र होना मभव है। इसलिये जब तक सर्वथा निग्रंथ बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग, अल्पारंभका त्याग यह सब नहीं हुआ तब तक मैं अपनेको सर्वथा सुखी नही मानता। अब आपको तत्त्वदृष्टिसे विचार करनेपर मालूम होगा कि लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र या कुटुम्बसे मुख नही है, और इसे यदि सुख मानूं तो जब मेरी स्थिति पतित हुई थी तब यह सुख कहाँ गया था ? जिसका त्रियोग है, जो क्षणभगुर है और जिसमे एकत्व या अव्याबाधत्व नही है वह मुख सम्पूर्ण नही है । इसलिये मै अपनेको सुखी नही कह सकता | मैं बहुत विचार विचारकर व्यापार कारोबार करता था, तो भी मुझे आरम्भोपाधि, अनीति और लेश भी कपटका सेवन करना नही पड़ा, ऐसा तो है हो नही। अनेक प्रकारके आरम्भ और कपटका मुझे सेवन करना पड़ा था। आप यदि मानते हो कि देवोपासनासे लक्ष्मी प्राप्त करना, तो वह यदि पुण्य न हो तो कदापि मिलनेवाली नही है। पुण्यसे लक्ष्मी प्राप्त करके महारभ, कपट और मान इत्यादि बढाना ये महापापके कारण है, पाप नरकमे डालता है। पापसे आत्मा, प्राम की हुई महान मनुष्यदेहको व्यर्थ गवॉ देता है। एक तो मानो पुण्यको खा जाना, और फिर पापका वध करना, लक्ष्मीकी और उसके द्वारा सारे ससारको उपाधि भोगना, यह बात विवेकी आत्माको मान्य नही होगी ऐसा मै मानता हूँ।, मैंने जिस कारणसे लक्ष्मीका उपार्जन किया था, वह कारण मैंने पहले आपको बताया था । जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करें। आप विद्वान है, मैं विद्वानको चाहता हूँ। आपकी अभिलाषा हो तो धर्मध्यानमे प्रसक्त होकर सहकुटुम्ब यहाँ भले रहे । आपकी आजीविकाकी सरल योजना जैसे कहे वैसे मैं रुचिपूर्वक करा दूं। यहाँ शास्त्राध्ययन और सद्वस्तुका उपदेश करें। मिथ्यारभोपाधिकी लोलुपतामे, मै समझता हूँ कि न पडे, फिर आपकी जैसी इच्छा।
पंडित-आपने अपने अनुभवकी बहुत मनन करने जैसी आख्यायिका कही। आप अवश्य कोई महात्मा है, पुण्यानुवधी पुण्यवान जीव हैं, विवेकी है, आपकी शक्ति अद्भुत है । मैं दरिद्रतासे तग आकर जो इच्छा रखता था वह एकातिक थी। ऐसे सर्व प्रकारके विवेकी विचार मैने किये नही थे। ऐसा अनुभव, ऐसो विवेकशक्ति, मै चाहे जैसा विद्वान हूँ फिर भी मुझमे है ही नही। यह मै सत्य ही कहता हूँ। आपने मेरे लिये जो योजना बताई है उसके लिये आपका बहुत उपकार मानता हूँ, और नम्रतापूर्वक उसे अगीकार करनेके लिये मैं हर्ष प्रकट करता हूँ। मै उपाधिको नही चाहता। लक्ष्मीका फदा उपाधि ही देता है । आपका अनुभवसिद्ध कथन मुझे बहुत अच्छा लगा है। ससार जलता ही है, इसमे सुख नही है। आपने निरुपाधिक मुनिसुखकी प्रशसा की वह सत्य है । वह सन्मार्ग परिणाममे सर्वोपाधि, आधि, व्याधि और सर्व अज्ञानभावसे रहित ऐसे शाश्वत मोक्षका हेतु है।
शिक्षापाठ ६६ सुखसंबंधी विचार-भाग ६ धनाढय-आपको मेरी बात अच्छी लगी इससे मुझे निरभिमानपूर्वक आनन्द होता है ! आपके लिये मैं योग्य योजना करूंगा। मै अपने सामान्य विचार कथानुरूप यहां कहनेकी आज्ञा चाहता हूँ।
जो केवल लक्ष्मीको उपार्जन करनेमे कपट, लोभ और मायामे उलझे पड़े है वे बहुत दुखी है। वे उसका पूरा या अधूरा उपयोग नही कर सकते, मात्र उपाधि ही भोगते है । वे असख्यात पाप करते हैं। उन्हे काल अचानक उठा ले जाता है । अधोगतिको पाकर वे जीव अनत ससारको वृद्धि करते हैं। प्राप्त मनुष्यदेहको वे निर्मूल्य कर डालते है, जिससे वे निरनर दुःखी ही है।
जिसने अपनी आजीविका जितने ही साधन अल्पारभसे रखे है, गुद्ध एकपत्नीनत सतोष परात्माको रक्षा, यम, नियम, परोपकार, अल्पराग, अल्प द्रव्यमाया और सत्य तथा शास्त्राप्ययन रखे है, जो मन्पुरुषोकी सेवा करता है, जिसने निग्रंथताका मनोरथ रखा है, जो बहुत प्रकारसे जहार त्रिरत जैसा है, जिसके वैराग्य और विवेक उत्कृष्ट है, वह पवित्रतामे सुखपूर्वक काल निर्गमन करता है।
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जो सर्व प्रकारके आरभ और परिग्रहसे रहित हुए हैं, द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे जो अप्रतिवधरूपसे विचरते है, शत्रु-मित्र के प्रति जो समान दृष्टिवाले है और शुद्ध आत्म ध्यानमे जिनका समय व्यतीत होता है, अथवा स्वाध्याय एव ध्यानमे जो लीन है, ऐसे जितेन्द्रिय और जितकषाय निग्रंथ परम सुखी है। सर्व घनघाती कर्मोंका जिन्होने क्षय किया है, जिनके चार कर्म दुर्बल पड गये हैं, जो मुक्त है, जो अनतज्ञानी और अनतदर्शी हैं, वे तो सम्पूर्ण सुखी ही है । वे मोक्षमे अनत जीवनके अनत सुखमे सर्व कर्मविरक्ततासे विराजते हैं ।
इस प्रकार सत्पुरुषो द्वारा कहा हुआ मत मुझे मान्य है । पहला तो मुझे त्याज्य है, दूसरा अभी मान्य है, और प्राय इसे ग्रहण करने का मेरा बोध है। तीसरा बहु मान्य है । और चौथा तो सर्वमान्य तथा सच्चिदानदस्वरूप ही है ।
इस प्रकार पण्डितजी । आपकी और मेरी सुखसबधी बातचीत हुई । प्रसगोपात्त इस बातकी चर्चा करते रहेगे और इसपर विचार करेगे । ये विचार आपको कहने से मुझे बहुत आनन्द हुआ है । आप ऐसे विचारोंके अनुकूल हुए इससे तो आनदमे और वृद्धि हुई है । परस्पर यो बातचीत करते करते हर्षंके साथ वे समाधिभावसे शयन कर गये ।
जो विवेकी यह सुखसम्बन्धी विचार करेंगे वे बहुत तत्त्व और आत्मश्रेणिकी उत्कृष्टताको प्राप्त करेंगे। इसमे कहे हुए अल्पारभी, निरारभी और सर्वमुक्तके लक्षण लक्ष्यपूर्वक मनन करने योग्य है । यथासभव अल्पारभी होकर समभावसे जनसमुदायके हितकी ओर लगना, परोपकार, दया, शान्ति, क्षमा और पवित्रताका सेवन करना यह बहुत सुखदायक है । निग्रंथताके विषयमे तो विशेष कहने की जरूरत ही नही है । मुक्तात्मा तो अनतं सुखमय ही है ।
शिक्षापाठ ६७ अमूल्य तत्त्वविचार (हरिगीत छद)
* बहु पुण्यकेरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळयो, तोये अरे ! भवचक्रनो आटो नहि एक्के टळयो; सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो, क्षण क्षण भयंकर भावमरणे' का अहो राची रहो ? ॥१॥ लक्ष्मी भने अधिकार वघतां, शुं वध्युं ते तो कहो ? शुं कुटुंब के परिवारथी वघवापणु, ए नय ग्रहो; वधवापणुं संसारनु नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहीं अहोहो ! एक पळ तमने हवो !!! ॥२॥
* भावार्थ - वहुत पुण्यके पुजसे यह शुभ मानवदेह मिली, तो भी यह खेदकी बात है कि भवचक्रका एक भी चक्कर दूर नही हुआ । इसे जरा ध्यानमे लो कि सुख प्राप्त करते हुए सुख दूर होता है । यह आश्चर्य है कि क्षणक्षणमें होनेवाले भावमरणमें तुम क्यो खुश हो रहे हो ? ॥१॥
भला यह तो बताओ कि लक्ष्मी और अधिकार वढनेसे तुम्हारा क्या वढा ? कुटुम्ब और परिवार बढ़नेसे तुम्हारी क्या बढ़ती हुई? इस रहस्य को समझो । क्योकि ससारका बढना तो मनुष्यदेहको हार जाना है । यह कितना आश्चर्य है कि तुम्हें इसका विचार एक क्षणभरको भी नही हुआ ! ! ॥२॥
निर्दोप सुख और निर्दोष आनद चाहे जहांसे भले लो, जिससे यह दिव्य शक्तिमान आत्मा बघनसे मुक्त हो ।
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श्रीमद राजचन्द्र निर्दोष सुख निर्दोष आनद, ल्यो गमे त्यांथी भले, ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे; परवस्तुमा नहि मूंझवो, एनी दया मुजने रही, ए त्यागवा सिद्धात के पश्चात्दु.ख ते सुख नहीं ॥३॥ हुं कोण छु ? क्याथी थयो ? शु स्वरूप छे मारुखरु ? कोना संबंधे वळगणा छ ? राखु के ए परहरु ? एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्या, तो सर्व आत्मिक ज्ञानना सिद्धांततत्त्व अनुभव्या ॥४॥ ते प्राप्त करवा वचन कोनु सत्य केवळ मानवु ? निर्दोष नरनुं कथन मानो 'तेह' जेणे अनुभव्य; रे ! आत्म तारो । आत्म तारो । शीघ्र एने ओळखो, सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो आ वचनने हृदये लखो ॥५॥
शिक्षापाठ ६८ : जितेन्द्रियता जब तक जोभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जब तक नासिका सुगध चाहती है, जब तक कान वारागनाके गायन और वाद्य चाहते है, जब तक आँखें वनोपवन देखनेका लक्ष रखती हैं, जब तक त्वचा सुगन्धीलेपन चाहती है, तब तक यह मनुष्य नीरागी, निग्रंथ, निष्परिग्रही, निरारभी और ब्रह्मचारी नही हो सकता। मनको वश करना यह सर्वोत्तम है। इससे सभी इन्द्रियाँ वश की जा सकती हैं। मनको जीतना बहुत बहुत दुष्कर है। एक समयमे असख्यात योजन चलनेवाला अश्व यह मन है । इसे थकाना बहुत दुष्कर है । इसकी गति चपल और पकडमे न आ सकनेवाली है। महाज्ञानियोने ज्ञानरूपी लगामसे इसे स्तभित करके सब पर विजय प्राप्त की है। ___उत्तराध्ययनसूत्रमे नमिराज महर्पिने शक्रेन्द्रसे ऐसा कहा कि दस लाख सुभटोको जीतनेवाले कई पड़े है, परन्तु स्वात्माको जीतनेवाले बहुत दुर्लभ है, और वे दस लाख सुभटोको जीतनेवालोकी अपेक्षा अति उत्तम है।
मन ही सर्वोपाधिकी जन्मदात्री भूमिका है। मन हो बध और मोक्षका कारण है। मन ही सर्व ससारकी मोहिनीरूप है। यह वश हो जानेपर आत्मस्वरूपको पाना लेशमात्र दुप्कर नहीं है।
मनसे इन्द्रियोकी लोलुपता है। भोजन, वाद्य, सुगन्ध, स्त्रीका निरीक्षण, सुन्दर विलेपन यह सब मन ही मांगता है। इस मोहिनीके कारण यह धर्मको याद तक नहीं करने देता । याद आनेके बाद सावधान नही होने देता। सावधान होनेके बाद पतित करनेमे प्रवृत्त होता है अर्थात् लग जाता है । इसमे परवस्तुमें तुम मोह मत करो। परवस्तुमे तुम मोह कर रहे हो इसकी मुझे दया आती है । परवस्तुके मोहको छोडनेके . लिये इस सिद्धातको ध्यानमें रखो कि जिस वस्तुके अतमे दुख है वह सुख नही है ॥३॥
___ मैं कौन हूँ ? कहाँसे आया हूँ ? मेरा सच्चा स्वरूप क्या है ? ये सारे लगाव किसके सवघसे है ? इन्हें रखू या छोड दूं ? यदि विवेकपूर्वक और शातभावसे इन वातोका विचार किया तो आत्मज्ञानके सभी सिद्धाततत्त्व अनुभवमें आ गये ॥४॥
इसे प्राप्त करनेके लिये किसके वचनको सर्वथा सत्य मानना ? जिसने इसका अनुभव किया है उस निर्दोष पुरुषके कथनको सत्य मानो । हे भव्यो । अपने आत्माको तारो | अपने आत्माको तारो। उसे शीघ्र पहचानो, और सभी आत्माओमें समदृष्टि रखो, इस वचनको हृदयमें अकित करो ।।५।।
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१७वों वर्ष
१११ सफल नही होता तो सावधानीमे कुछ न्यूनता पहुंचाता है। जो इस न्यूनताको भी न पाकर अडिग रहकर मनको जीतते हैं वे सर्वसिद्धिको प्राप्त करते हैं।
मन अकस्मात् किसीसे ही जीता जा सकता है, नहीं तो अभ्यास करके ही जीता जाता है । यह अभ्यास निग्रंथतामे बहुत हो सकता है, फिर भी गृहस्थाश्रममे हम सामान्य परिचय करना चाहे तो उसका मुख्य मार्ग यह है कि यह जो दुरिच्छा करे उसे भूल जायें, वैसा न करें। यह जब शब्द, स्पर्श आदि विलासकी इच्छा करे तब इसे न दें। सक्षेपमे, हम इससे प्रेरित न हो, परन्तु हम इसे प्रेरित करे और वह भी मोक्षमार्गमे । जितेन्द्रियताके विना सर्व प्रकारकी उपाधि खडी ही रहती है । त्यागने पर भी न त्यागने जैसा हो जाता है, लोक-लज्जासे उसे निभाना पड़ता है। इसलिये अभ्यास करके भो मनको जीतकर स्वाधीनतामे लाकर अवश्य आत्महित करना चेहिाये ।
शिक्षापाठ ६९ · ब्रह्मचर्यकी नौ बाड़ें ज्ञानियोने थोडे शब्दोमे कैसे भेद और कैसा स्वरूप बताया है ? इससे कितनी अधिक आत्मोन्नति होती है ? ब्रह्मचर्य जैसे गभीर विषयका स्वरूप सक्षेपमे अति चमत्कारी ढगसे दिया है। ब्रह्मचर्यरूपी एक सुन्दर वृक्ष और उसकी रक्षा करनेवाली जो नौ विधियाँ हैं उसे बाडका रूप देकर ऐसी सरलता कर दी है कि आचारके पालनमे विशेष स्मृति रह सके। ये नौ बा. जैसी हैं वैसी. यहाँ कह जाता हैं।
१. वसति-जो ब्रह्मचारी साधु है वह जहाँ स्त्री, पशु या पण्डग से सयुक्त वसति हो वहाँ न रहे । स्त्री दो प्रकारकी हैं मनुष्यिणी और देवागना। इस प्रत्येकके फिर दो-दो भेद है एक तो मूल और दूसरी स्त्रीको मूर्ति या चित्र । इस प्रकारका जहाँ वास हो वहाँ ब्रह्मचारी साधु न रहे। पशु अर्थात् तिर्यचिणी गाय, भैंस इत्यादि जिस स्थानमे हो उस स्थानमे न रहे, और जहाँ पण्डग अर्थात् नपुसकका वास हो वहाँ भो न रहे। इस प्रकारका वास ब्रह्मचर्यको हानि करता है। उनकी कामचेष्टा, हावभाव इत्यादिक विकार मनको भ्रष्ट करते है।
२ कथा-केवल अकेली स्त्रियोको ही या एक ही स्त्रीको ब्रह्मचारी धर्मोपदेश न करे। कथा मोहकी जननी है । स्त्रीके रूपसम्बन्धी ग्रन्थ, कामविलाससम्बन्धी ग्रन्थ ब्रह्मचारी न पढे, या जिससे चित्त चलित हो ऐसी किसी भी प्रकारको शृङ्गारसम्बन्धी कथा ब्रह्मचारी न करे। .
३ आसन-स्त्रियोंके साथ एक आसनपर न बैठे । जहाँ स्त्री बैठी हो वहाँ दो घडी तक ब्रह्मचारी न बैठे । यह स्त्रियोको स्मृतिका कारण है, इससे विकारको उत्पत्ति होती है, ऐसा भगवानने कहा है।
४ इन्द्रियनिरीक्षण-ब्रह्मचारी साधु स्त्रियोंके अगोपाग न देखे, उनके अमुक अंगपर दृष्टि एकाग्र होनेसे विकारको उत्पत्ति होती है।
५ कुड्यांतर-भीत, कनात अथवा टाटका व्यवधान बोचमे हो और जहाँ स्त्री-पुरुष मैथुन करते हो वहाँ ब्रह्मचारी न रहे। क्योकि शब्द चेष्टादिक विकारके कारण हैं ।
६. पूर्वकोड़ा-स्वय गृहस्थावासमे चाहे जिस प्रकारके शृगारसे विषयक्रीडा की हो उसकी स्मृति न करे, वैसा करनेसे ब्रह्मचर्यका भग होता है।
___७. प्रणोत-दूध, दही, घृतादि मधुर और चिकने पदार्थोंका बहुधा आहार न करे। इससे वीर्यको वृद्धि और उन्माद होते हैं और उससे कामकी उत्पत्ति होती है। इसलिये ब्रह्मचारी वैमा न करे।
८ अतिमात्राहार-पेट भरकर आहार न करे तथा जिससे अति मात्राकी उत्पत्ति हो ऐसा न करे । इससे भी विकार बढता है।। ___९ विभूषण-स्नान, विलेपन, पुष्प आदिको ब्रह्मचारी ग्रहण न करे। इससे ब्रह्मचर्यको हानि होती है।
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श्रीमद राजचन्द्र - इस प्रकार भगवानने नौ बा. विशुद्ध ब्रह्मचर्यके लिये कही हैं। बहुधा ये तुम्हारे सनने आती होगी। परन्तु गृहस्थावासमे अमुक अमुक दिन ब्रह्मचर्य धारण करनेमे अभ्यासियोके ध्यान रखना यहाँ कुछ समझाकर कही है।
शिक्षापाठ ७० . सनत्कुमार-भाग १ चक्रवर्तक वैभवमे क्या कमी हो ? सनत्कुमार चक्रवर्ती थे। उनका वर्ण और रूप अत्यत्तम था। बार मधर्मसभामे उस रूपकी स्तुति हुई। किन्ही दो देवोको यह बात न रुची। फिर वे उस शकाको करने के लिये विपके रूपमे सनत्कुमारके अत पुरमे गये । सनत्कुमारकी देहमे उस समय उबटन लगा या था। उसके अगोपर मर्दनादिक पदार्थोंका मात्र विलेपन था.। एक छोटी अगीछी पहनी हुई थी और वै स्नानमज्जन करनेके लिये बैठे थे । विपके रूपमे आये हुए देवता उनका मनोहर मुख, कचनवर्णी काया और चन्द्र जैसी काति देखकर वहुत आनदित हुए और सिर हिलाया । इस पर चक्रवर्तीने पूछा, "आपने सिर क्यो हिलाया? ' देवोने कहा, "हम आपके रूप और वर्णका निरीक्षण करनेके लिये बहुत अभिलापो थे। हमने स्थान-स्थानपर आपके वर्ण-रूपकी स्तुति सुनी थी, आज उसे हमने प्रत्यक्ष देखा, इससे हमे पूर्ण आनद हुआ। सिर हिलानेका कारण यह है कि जैसा लोगोमे कहा जाता है वैसा ही आपका रूप है, उससे अधिक है, परन्तु कम नही ।" सनत्कुमार स्वरूपवर्णकी स्तुतिसे गर्वमे आकर वोले, "आपने इस समय मेरा रूप देखा सो ठीक है, परन्तु मै जव राजसभामे वस्त्रालकार धारण करके सर्वथा सज्ज होकर सिंहासनपर बैठता हूँ, तब मेरा रूप और मेरा वर्ण देखने योग्य है। अभी तो मै शरीरमे उबटन लगाकर बैठा हूँ। यदि उस समय आप मेरे रूप-वर्णको देखेगे तो अद्भुत चमत्कारको प्राप्त होगे और चकित हो जायेंगे।" देवोने कहा, "तो फिर हम राजसभामे आयेंगे" ऐसा कहकर वे वहाँसे चले गये।
तत्पश्चात् सनत्कुमारने उत्तम वस्त्रालकार धारण किये । अनेक प्रसाधनोंसे अपने शरीरको विशेष आश्चर्यकारी ढगसे सजाकर वे राजसभामे आकर सिंहासनपर बैठे। आसपास समर्थ मंत्री, सुभट, विद्वान और अन्य सभासद अपने-अपने योग्य आसनोपर बैठे हुए थे । राजेश्वर चमरछत्रसे और खमा खमाके उद्गारोंसे विशेप शोभित तथा सत्कारित हो रहे थे। वहाँ वे देवता फिर विपके रूपमे आये। अद्भुत रूप-वर्णसे आनदित होनेके बदले मानो खिन्न हुए हो ऐसे ढगसे उन्होने सिर हिलाया। चक्रवर्तीने पूछा, "अहो ब्राह्मणो । गत समयकी अपेक्षा इस समय आपने और ही तरहसे सिर हिलाया है, इसका क्या कारण है सो मुझे बतायें।" अवधिज्ञानके अनुसार विप्रोने कहा, "हे महाराजन् | उस रूप और इस रूपमे भूमि-आकाशका फर्क पड गया है ।" चक्रवर्तीने उसे स्पष्ट समझानेके लिये कहा । ब्राह्मणोने कहा, “अधिराज | पहले आपकी कोमल काया अमृततुल्य थी, इस समय विपतुल्य है। जब अमृततुल्य अग था तब हमे आनद हुआ था और इस समय विपतुल्य है अत. हमे खेद हुआ है। हम जो कहते है उस बातको सिद्ध करना हो तो आप ताम्बूल थूकें । तत्काल उसपर मक्खी वैठेगी और परलोक पहुँच जायेगी।"
शिक्षापाठ ७१ : सनंतकुमार-भाग २ सनत्कुमारने यह परीक्षा को तो सत्य सिद्ध हुई । पूर्व कर्मके पापके भागमे इस कायाके मदका मिश्रण होनेसे इस चक्रवर्तीको काया विषमय हो गई थी। विनाशी और अशुचिमय कायाका ऐसा प्रपच देखकर सनत्कुमारके अत करणमे वैराग्य उत्पन्न हुआ। यह ससार सर्वथा त्याग करने योग्य है । ऐसीकी ऐसी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके शरीरमे रही है । यह सब मोह-मान करने योग्य नहीं है, यो कहकर वे छ खडकी प्रभुताका त्याग करके चल निकले। वे जब साधुरूपमे विचरते थे तव महारोग उत्पन्न
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हुआ। उनके सत्यत्वकी परीक्षा लेनेके लिये कोई देव वहाँ वैद्यरूपमे आया । साधुसे कहा, "मैं बहुत कुशल राजवैद्य हैं, आपकी काया रोगका भोग बनी हुई है, यदि इच्छा हो तो तत्काल में उस रोगको दूर कर दूं।" साधु बोले, "हे वैद्य | कर्मरूपी रोग महोन्मत्त है, इस रोगको दूर करनेकी आपकी समर्थता हो तो भले मेरा यह रोग दूर करें। यह समर्थता न हो तो यह रोग भले रहे।" देवताने कहा, "इस रोगको दूर करनेको समर्थता तो मैं नही रखता।" साधुनें अपनी लब्धिके परिपूर्ण बलसे थूकवाली अगुलि करके उसे रोग पर लगाया कि तत्काल वह रोग नष्ट हो गया, और काया फिर जैसी थी वैसी हो गई। बादमे उस समय देवने अपना स्वरूप प्रकट किया, धन्यवाद देकर वदन करके वह अपने स्थानको चला गया। ,
रक्तपित्त जैसे सदैव खून-पीपसे खदबदाते हुए महारोगकी उत्पत्ति जिस कायामे है, पलभरमे विनष्ट हो जानेका जिसका स्वभाव है, जिसके प्रत्येक रोममे पौने दो दो रोगोका निवास है, ऐसे साढे तीन करोड रोमोसे भरी होनेसे वह रोगोका भडार है , ऐसा विवेकसे सिद्ध है। अन्न आदिकी न्यूनाधिकतासे वह प्रत्येक रोग जिस कायामे प्रगट होता है, मल, मूत्र, विष्ठा, हड्डी, मास, पीप और श्लेष्मसे जिसका ढाँचा टिका हुआ है, मात्र त्वचासे जिसकी मनोहरता है, उस कायाका मोह सचमुच विभ्रम ही है । सनत्कुमारने जिसका लेशमात्र मान किया, वह भी जिससे सहन नही हुआ, उस कायामे अहो पामर ! तू क्या मोह करता हैं ? यह मोह मगलदायक नहीं है।
शिक्षापाठ ७२ : बत्तीस योग सत्पुरुष नीचेके बत्तीस योगोका सग्रह करके आत्माको उज्ज्वल करनेके लिये कहते हैं
१ 'शिष्य अपने जैसा हो इसके लिये उसे श्रुतादिका ज्ञान देना। · २ 'अपने आचार्यत्वका जो ज्ञान हो उसका दूसरेको बोध देना और उसे प्रकाशित करना।२
३ आपत्तिकालमे भी धर्मकी दृढताका त्याग नही करना। ४. लोक-परलोकके सुखके फलको इच्छाके बिना तप करना। ५ जो शिक्षा मिली है उसके अनुसार यत्नासे वर्तन करना, और नयी शिक्षाको विवेकसे
• ग्रहण करना। ६. ममत्वका त्याग करना। ७ गुप्त तप करना। ८ निर्लोभता रखना। ९ परिषहउपसर्गको जीतना। १०. सरल चित्त रखना। ११ आत्मसयम शुद्ध पालना। १२ सम्यक्त्व शुद्ध रखना। १३, चित्तकी एकाग्र समाधि रखना। १४ कपटरहित आचार पालना। १५ विनय करने योग्य पुरुषोकी यथायोग्य विनय करनी । १६ सतोषसे तृष्णाकी मर्यादा कम कर डालना। १७ वैराग्यभावनामे निमग्न रहना। १८ मायारहित वर्तन करना।
द्वि० आ० पाठा०-१. 'मोक्षसाधक योगके लिये शिष्य आचार्यके पास मालोचना करे।' २ 'आचार्य आलोचनाको दूसरेके पास प्रकाशित न करे ।'
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श्रीमद् राजचन्द्र
१९ शुद्ध करनीमे सावधान होना। २० सवरको अपनाना और पापको रोकना। २१ अपने दोषोको समभावपूर्वक दूर करना । २२ सर्व प्रकारके विषयसे विरक्त रहना। -२३ मूल गुणोमे पचमहाव्रतोको विशुद्ध पालना । २४ उत्तर गुणोमे पचमहाव्रतोको विशुद्ध पालना । २५ उत्साहपूर्वक कायोत्सर्ग करना । २६ प्रमादरहित ज्ञान व ध्यानमे प्रवर्तन करना । २७ सदैव आत्मचारित्रमे सूक्ष्म उपयोगसे प्रवृत्त रहना । २८ जितेन्द्रियताके लिये एकाग्रतापूर्वक ध्यान करना। २९. मरणात दु खसे भी भयभीत नही होना । ३० स्त्री आदिके सगका त्याग करना । ३१ प्रायश्चित्तसे विशुद्धि करना । ३२ मरणकालमे आराधना करना । यह एक एक योग अमूल्य है । इन सबका सग्रह करनेवाला परिणाममे अनत सुखको प्राप्त होता है।
शिक्षापाठ ७३ : मोक्षसुख __इस सृष्टिमंडलमे भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ और मनकी इच्छाएँ रही हैं कि जिन्हे कुछ अशमे जानते हुए भी कहा नहीं जा सकता। फिर भी ये वस्तुएँ कुछ सम्पूर्ण शाश्वत या अनत भेदवाली नही हैं। ऐसी वस्तुका जब वर्णन नही हो सकता तब अनन्त सुखमय मोक्षसम्बन्धी उपमा तो कहाँसे मिलेगी ? गौतम स्वामीने भगवानसे मोक्षके अनन्त सूखके विषयमे प्रश्न किया तब भगवानने उत्तरमे कहा"गोतम | यह अनतसुख । मै जानता हूँ, परन्तु उसे कहा जा सके ऐसी यहाँ पर कोई उपमा नही है। जगतमे इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु या सुख नही है ।" ऐसा कहकर उन्होने निम्न आशयका एक भीलका दृष्टान्त दिया था। ____एक जगलमे एक भद्रिक भील अपने बालबच्चो सहित रहता था । शहर आदिको समृद्धिकी उपाधिका उसे लेश भान भी न था। एक दिन कोई राजा अश्वक्रीडाके लिये घूमता घूमता वहाँ आ निकला। उसे बहुत प्यास लगी थी, जिससे उसने इशारेसे भीलसे पानी मॉगा। भीलने पानी दिया। शीतल जलसे राजा सन्तुष्ट हुआ। अपनेको भीलकी तरफसे मिले हुए अमूल्य जलदानका बदला चुकानेके लिये राजाने भीलको समझाकर अपने साथ लिया। नगरमे आनेके बाद राजाने भीलको उसने जिन्दगीमे न देखी हुई वस्तुओमे रखा। सुन्दर महल, पासमे अनेक अनुचर, मनोहर छत्रपलग, स्वादिष्ट भोजन, मंद मद पवन और सुगन्धी विलेपनसे उसे आनन्दमय कर दिया । विविध प्रकारके हीरा, माणिक, मौक्तिक, मणिरत्न और रंग-बिरगी अमूल्य वस्तुएँ निरन्तर उस भीलको देखनेके लिये भेजा करता था, और उसे वाग-बगीचोमे घूमने-फिरनेके लिये भेजा करता था। इस प्रकार राजा उसे सुख दिया करता था । एक रात जब सब सो रहे थे तब उस भीलको वालवच्चे याद आये, इसलिये वह वहाँसे कुछ लिये किये बिना एकाएक निकल पड़ा। जाकर अपने कुटुम्बियोसे मिला। उन सबने मिलकर पूछा, "तू कहाँ था ?" भोलने कहा, “बहुत सुखमें ! वहाँ मैंने बहुत प्रंशसा करने योग्य वस्तुएँ देखी।"
कुटुम्बी-परतु वे कैसी थी ? यह तो हमे बता।
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१७ या वर्ष
भील-क्या कहूँ ? यहाँ वैसी एक भी वस्तु नही है।
कुटुम्बी-भला ऐसा हो क्या ? ये शख, सोप, कौड़ा कैसे मनोहर पड़े है | वहाँ ऐसी कोई देखने लायक वस्तु थी?
भील-नही, नही भाई, ऐसी वस्तु तो यहाँ एक भी नही है । उनके सौवे या हजारवे भाग जितनी भी मनोहर वस्तु यहाँ नही है।
कुटुम्बी-तब तो तू चुपचाप बैठा रह, तुझे भ्रम हुआ है, भला, इससे अच्छा और क्या होगा?
हे गौतम | जैसे यह भील राजवैभवसुख भोगकर आया था, और जानता भी था, फिर भी उपमायोग्य वस्तु न मिलनेसे वह कुछ कह नही सकता था, वैसे हो अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानन्द स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असख्यातवें भागके भी योग्य उपमेय न मिलनेसे मैं तुझे नहीं कह सकता।
मोक्षके स्वरूपके विषयमे शका करनेवाले तो कुतर्कवादी हैं, उन्हे क्षणिक सुखसंबधी विचारके कारण सत्सुखका विचार नही आता । कोई आत्मिकज्ञानहीन यो भी कहता है कि इससे कोई विशेष सुखका साधन वहाँ है नही, इसलिये अनत अव्यावाध सुख कह देते हैं। उसका यह कथन' विवेकपूर्ण नही है । निद्रा प्रत्येक मानवको प्रिय है, परन्तु उसमे वह कुछ जान या देख नहीं सकता, और यदि कुछ जाननेमे आये तो मात्र स्वप्नोपाधिका मिथ्यापना आता है जिसका कुछ असर भी हो। वह स्वप्नरहित निद्रा जिसमे सूक्ष्म एव स्थूल सब जाना और देखा जा सके, और निरुपाधिसे शात ऊँघ ली जा सके तो उसका वह वर्णन क्या कर सकता है ? उसे उपमा भी क्या दे सकता है ? यह तो स्थूल दृष्टात है, परन्तु बाल, अविवेकी इस परसे कुछ विचार कर सके, इसलिये कहा है।
भीलका दृष्टात, समझानेके लिये भाषाभेदके फेरफारसे तुम्हे कह बताया।
शिक्षापाठ ७४ : धर्मध्यान-भाग १ भगवानने चार प्रकारके ध्यान कहे है-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । पहले दो ध्यान त्यागने योग्य है । पिछले दो ध्यान आत्मसार्थकरूप है । श्रुतज्ञानके भेदोको जाननेके लिये, शास्त्रविचारमे कुशल होनेके लिये, निग्रंथप्रवचनका तत्त्व पानेके लिये, सत्पुरुपोके द्वारा सेवन करने योग्य, विचारने योग्य और ग्रहण करने योग्य धर्मध्यानके मुख्य सोलह भेद है। पहले चार भेद कहता हूँ। १. आणाविजय (आज्ञाविचय), २ अवायविजय (अपायविचय), ३ विवागविजय (विपाकविजय), ४ सठाणविजय (सस्थानविचय)।
१. आज्ञाविचय-आज्ञा अर्थात् सर्वज्ञ भगवानने धर्मतत्त्व सम्बन्धी जो-जो कहा है वह वह सत्य है, इसमे शका करने योग्य नही है । कालकी होनतासे, उत्तम ज्ञानका विच्छेद होनेसे, बुद्धिका मदतासे या ऐसे अन्य किसी कारणसे मेरी समझमे वह तत्त्व नही आता। परन्तु अर्हत भगवानने अशमात्र भी मायायुक्त या असत्य कहा हो नही है, क्योकि वे नीरागी, त्यागी और नि स्पृहो थे। मृषा कहनेका उन्हे कोई कारण न था, और वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होनेसे अज्ञानसे भी मघा नही कहेगे । जहाँ अज्ञान ही नहीं है, वहाँ तत्सवधी मृषा कहाँसे होगा ? ऐसा जो चिंतन करना वह 'आज्ञाविचय' नामका प्रथम भेद है ।
२. अपायविचय-राग, द्वेष, काम, क्रोध इनसे जो दुख उत्पन्न होता है उसका जो चिंतन करना वह 'अपायविचय' नामका दूसरा भेद है । अपाय अर्थात् दु ख ।
३. विपाकविचय-मैं क्षण-क्षणमे जो जो दुःख सहन करता हूँ, भवाटवीमे पर्यटन करता हूँ, अज्ञानादिक पाता हूँ, वह सब कर्मके फलके उदयसे है, इस प्रकार जो चिंतन करना वह धर्मध्यानका तीसरा भेद है।
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श्रीमद् राजचन्द्र ४. सस्थानविचय-तीन लोकके स्वरूपका चिंतन करना। लोकस्वरूप सुप्रतिष्ठकके आकारका है, जोव-जोवमे मम्पूर्ण भरपूर है। अमख्यात योजनकी कोटानुकोटिसे तिरछा लोक हे, जहाँ असख्यात दोप-नमुद्र है । असत्यात ज्योतिपी, वाणव्यतर आदिके निवास है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी विचित्रता इसमें लगी हुई है । ढाई द्वीपमे जघन्य तीर्थंकर वीस, उत्कृष्ट एक सौ सत्तर होते है, तथा केवली भगवान और निग्रंथ मुनिराज विचरते है, उन्हे "वदामि, नमसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मगल, देवय, चेइय, पज्जुवासामि' इस प्रकार तथा वहाँ रहनेवाले श्रावक श्राविकाओका गुणगान करें। उस तिरछे लोकसे असल्यातगुना अधिक अवलोक हे। वहाँ अनेक प्रकारके देवताओंके निवास है। फिर ईपत् प्राग्भारा है। उसके बाद मुक्तात्मा विराजते है, उन्हे "वंदामि, यावत् पज्जुवासामि ।" उस ऊवलोकसे कुछ विशेप अधोलोक है, वहाँ अनन्त दु खसे भरे हुए नरकावास हे और भवनपतिके भवनादिक है । इन तीन लोकके सर्व स्थानकोको इस आत्माने सम्पक्त्वरहित करनीसे अनतवार जन्ममरण करके स्पर्श किया है, ऐसा जो चिंतन करना वह 'सस्थानविचय' नामका धर्मध्यानका चौथा भेद है। इन चार भेदोको विचारकर सम्यक्त्वसहित श्रुत और चारित्रधर्मकी आराधना करनी चाहिये जिससे ये अनंत जन्ममरण दूर हो । धर्मध्यानके इन चार भेदोको स्मरणमे रखना चाहिये।
शिक्षापाठ ७५ : धर्मध्यान-भाग २ धर्मध्यानके चार लक्षण कहता है । १. आज्ञारुचि-अर्थात् वीतराग भगवानकी आज्ञा अगीकार करनेकी रुचि उत्पन्न होना । २. निसर्गरुचि-आत्मा स्वाभाविकरूपसे जातिस्मरणादि ज्ञानसे श्रुतसहित चारित्रधर्मको धारण करनेकी रुचि प्राप्त करे उसे निसर्गरुचि कहते हैं। ३. सूत्ररुचि-श्रुतज्ञान आर अनत तत्त्वके भेदोके लिये कहे हए भगवानके पवित्र वचनोका जिनमे गूंथन हुआ है, उन सूत्रोका श्रवण करने, मनन करने और भावसे पठन करनेकी रुचि उत्पन्न हो, उसे सूत्ररुचि कहते हैं। ४. उपदेशरुचिअज्ञानसे उपार्जित कोंको हम ज्ञानसे खपायें, तथा ज्ञानसे नये कर्मोंको न वॉवे, मिथ्यात्वसे उपाजित कोको सम्यक्भावसे खपायें और सम्यक् भावसे नये कर्मोको न बांधे, अवैराग्यसे उपार्जित कर्मोको वैराग्यसे खपायें और वैराग्यसे फिर नये कर्मोको न वाँधे, कपायसे उपार्जित कर्मोको कपायको दूर करके लपायें और क्षमादिसे नये कर्मोको न वांधे, अशुभयोगसे उपार्जित कर्मोंको शुभयोगसे खपायें और शुभयोगसे नये कोको न वां, पांच इन्द्रियोके स्वादरूप आत्रवसे उपार्जित कर्मोको सवरसे खपायें, और तपरूप. सवरसे नये कर्मोको न बाँचे, इसके लिये अज्ञानादिक आस्रव मागं छोड़कर ज्ञानादिक सवर मार्ग ग्रहण करने के लिये तीर्थंकर भगवानके उपदेशको सुननेकी रुचि उत्पन्न हो, उसे उपदेशरुचि कहते हैं। ये धर्मध्यानके चार लक्षण कहे गये।
धर्मध्यानके चार आलबन कहता हूँ। १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परावर्तना, ४ धर्मकया। १. याचना अर्थात् विनय सहित निर्जरा तथा ज्ञान प्राप्त करनेके लिये सूत्र-सिद्धातके मर्मके जानकार गुरु अथवा सत्पुरुषके समीप सत्र तत्त्वका वाचन लें, उसका नाम वाचनालबन है। २. पच्छना-अपूर्व गान प्राप्त करने के लिये, जिनेश्वर भगवानके मार्गको रोशन करनेके लिये तथा शकाशल्यके निवारणके लिये नथा अन्य तत्त्वोकी मध्यस्थ परीक्षाके लिये यथायोग्य विनय सहित गुरु आदिको प्रश्न पूछे. उसे पृच्छनालगन कहते है। ३. परावत्तंना-पूर्व में जो जिनभापित सूयार्थ पढे हो उन्हे स्मरणमे रसनेके लिये, निराके लिये शुद्ध उपयोग सहित शुद्ध सूत्रायंका वारवार स्वाध्याय करें, उसका नाम परावर्तनालपन है। ४. धर्मकया-वीतराग भगवानने जो भाव जैसे प्रणीत किये हैं. उन भावोको उसी तरह समझ फरले, गहण करके, विशेषरूपसे निश्चय करके, मका, कंवा ओर वितिगिच्छारहितल्पसे, अपनी निजराके रियसभामं उन भावोको उसी तरह प्रणीत करे, उसे धमकथालवन कहते हैं। इससे सुननेवाला और
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१७ वाँ वर्ष
११७ श्रद्धा करनेवाला दोनो भगवानकी आज्ञाके आराधक होते है। ये धर्मध्यानके चार आलवन कहे गये। धर्मध्यानकी चार अनुप्रेक्षा कहता हूँ । १ एकत्वानुप्रेक्षा, २ अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा, ४. ससारानुप्रेक्षा । इन चारोका बोध बारह भावनाके पाठमे कहा जा चुका है वह तुम्हे स्मरणमे होगा।
शिक्षापाठ ७६ : धर्मध्यान-भाग ३ धर्मध्यानको पूर्वाचार्योने और आधुनिक मुनीश्वरोने भी विस्तारपूर्वक बहुत समझाया है । इस ध्यानसे आत्मा मुनित्वभावमे निरतर प्रवेश करता है।
जो जो नियम अर्थात् भेद, आलबन और अनुप्रेक्षा कहे है वे बहुत मनन करने योग्य है। अन्य मुनीश्वरोके कथनानुसार मैंने उन्हे सामान्य भाषामे तुम्हे कहा है, इसके साथ निरतर यह ध्यान रखनेकी आवश्यकता है कि इनमेसे हमने कौनसा भेद प्राप्त किया, अथवा किस भेदकी ओर भावना रखी है ? इन सोलह भेदोमेसे कोई भी भेद हितकारी और उपयोगी है, परतु जिस अनुक्रमसे लेना चाहिये उस अनुक्रमसे लिया जाये तो वह विशेष आत्मलाभका कारण होता है।
___ कितने ही लोग सूत्र-सिद्धातके अध्ययन मुखाग्र करते हैं, यदि वे उनके अर्थ और उनमे कहे हुए मूलतत्त्वोकी ओर ध्यान दें तो कुछ सूक्ष्मभेदको पा सकते हैं। जैसे केलेके पत्रमे, पत्रमे पत्रको चमत्कृति है वैसे ही सूत्रार्थमे चमत्कृति है। इस पर विचार करनेसे निर्मल और केवल दयामय मार्गका जो वीतरागप्रणीत तत्त्वबोध है उसका बीज अतःकरणमे अकुरित हो उठेगा। वह अनेक प्रकारके शास्त्रावलोकनसे, प्रश्नोत्तरसे, विचारसे और सत्पुरुषके समागमसे पोषण पाकर बढकर वृक्षरूप होगा। फिर वह वृक्ष निर्जरा और आत्मप्रकाशरूप फल देगा।
श्रवण, मनन और निदिध्यासनके प्रकार वेदातवादियोने बताये है, परतु जैसे इस धर्मध्यानके पृथक्-पृथक् सोलह भेद यहाँ कहे है वैसे तत्त्वपूर्वक भेद किसो स्थानमे नही है, ये अपूर्व है। इनसे शास्त्रको श्रवण करनेका, मनन करनेका, विचारनेका, अन्यको बोध करनेका शंका कखा दूर करनेका, धर्मकथा करनेका, एकत्व विचारनेका, अनित्यता विचारनेका, अशरणता विचारनेका, वैराग्य पानेका, ससारके अनत दुखका मनन करनेका और वीतराग भगवानकी आज्ञासे सारे लोकालोकका विचार करनेका अपूर्व उत्साह मिलता है । भेद-प्रभेद करके इनके फिर अनेक भाव समझाये हैं।
इनमेसे कतिपय भावोको समझनेसे तप, शाति, क्षमा, दया, वैराग्य और ज्ञानका बहुत बहुत उदय होगा। ।
तुम कदाचित् इन सोलह भेदोका पठन कर गये होगे, फिर भी पुन पुन उसका परावर्तन करना ।
शिक्षापाठ ७७ : ज्ञानसंबधी दो शब्द--भाग १ जिसके द्वारा वस्तुका स्वरूप जाना जाता है वह ज्ञान है। ज्ञान शब्दका यह अर्थ है । अब यथामति यह विचार करना है कि इस ज्ञानकी कुछ आवश्यकता है? यदि आवश्यकता है तो इसकी प्राप्तिके कुछ साधन है ? यदि साधन है तो उसके अनुकूल देश, काल और भाव हे ? यदि देशकालादि अनुकूल हैं तो कहाँ तक अनुकूल है ? विशेषमे यह भी विचार करना है कि इस ज्ञानके भेद कितने हे ? जानने योग्य क्या है ? इसके फिर कितने भेद हैं ? जाननेके साधन कौन कौनसे है ? उन साधनोको किस-किस मार्गसे प्राप्त किया जाता है ? इस ज्ञानका उपयोग या परिणाम क्या है ? यह सब जानना आवश्यक है।
१ ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? पहले इस विषयमे विचार करें। इस चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोकमे चतुर्गतिमे अनादिकालसे सकर्मस्थितिमे इस आत्माका पर्यटन हे । निमेपमात्र भी सुखका जहाँ भाव
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श्रीमद् राजचन्द्र
नही है ऐसे नरक - निगोदादिक स्थानोका इस आत्माने वहुत बहुत काल तक वारम्वार सेवन किया है, असह्य दुखोको पुन पुन अथवा यो कहिये कि अनतवार सहन किया है । इस उत्तापसे निरंतर संतप्त होता हुआ आत्मा मात्र स्वकर्मविपाकसे पर्यटन करता है । पर्यटनका कारण अनत दुखद ज्ञानावरणीयादि कर्म है, जिनके कारण आत्मा स्वस्वरूपको पा नही सकता, और विषयादिक मोह बधनको स्वस्वरूप मान रहा है। इन सबका परिणाम मात्र ऊपर कहा वही है कि अनत दुःखको अनत भावोंसे सहन करना, चाहे जितना अप्रिय, चाहे जितना दुखदायक और चाहे जितना रौद्र होनेपर भी जो दुख अनतकालसे अनतवार सहन करना पडा, वह दुख मात्र उस अज्ञानादिक कर्मके कारण सहन किया, उस अज्ञानादिकको दूर करनेके लिये ज्ञानकी परिपूर्ण आवश्यकता है ।
शिक्षापाठ ७८ : ज्ञानसंबंधी दो शब्द --- भाग २
२ अव ज्ञानप्राप्तिके साधनोके विषयमे कुछ विचार करे । अपूर्ण पर्याप्तिसे परिपूर्ण आत्मज्ञान सिद्ध नही होता, इसलिये छ पर्याप्तिसे युक्त देह ही आत्मज्ञानको सिद्ध कर सकती है। ऐसी देह एक मात्र मानवदेह है | यहा पर यह प्रश्न उठेगा कि मानवदेहको प्राप्त तो अनेक आत्मा हैं, तो वे सब आत्मज्ञानको क्यो नही प्राप्त करते ? इसके उत्तरमे हम यह मान सकेंगे कि जिन्होने सपूर्ण आत्मज्ञानको प्राप्त किया है उनके पवित्र वचनामृतको उन्हे श्रुति नही है। श्रुतिके बिना सस्कार नही है । यदि सस्कार नही है तो फिर श्रद्धा कहाँसे होगी ? और जहाँ यह एक भी नही है वहाँ ज्ञानप्राप्ति कहाँसे होगी ? इसलिये मानवदेहके साथ सर्वज्ञवचनामृतकी प्राप्ति और उसकी श्रद्धा यह भी साधनरूप है । सर्वज्ञवचनामृत अकर्मभूमि या केवल अनार्यभूमिमे नही मिलते, तो फिर मानवदेह किस उपयोग की ? इसलिये आर्यभूमि भी साधनरूप है । तत्त्व की श्रद्धा उत्पन्न होनेके लिये और बोध होनेके लिये निर्ग्रन्थ गुरुकी आवश्यकता है । द्रव्यसे जो कुल मिथ्यात्वी है उस कुलमे हुआ जन्म भी आत्मज्ञानकी प्राप्ति मे हानिरूप ही है । क्योकि धर्ममतभेद अति दुःखदायक है । परपरासे पूर्वजो द्वारा ग्रहण किये हुए दर्शनमे ही सत्यभावना बनती है, इससे भी आत्मज्ञान रुकता है । इसलिये उत्तम कुल भी आवश्यक है । इन सवको प्राप्त करनेके लिये भाग्यशाली होना चाहिये। इसमे सत्पुण्य अर्थात् पुण्यानुवधी पुण्य इत्यादि उत्तम साधन है । यह साधनभेद कहा ।
३ यदि साधन है तो उनके अनुकूल देश और काल हैं ? इस तीसरे भेदका विचार करें। भारत, महाविदेह इत्यादि कर्मभूमि और उसमे भी आर्यभूमि यह देशकी अपेक्षासे अनुकूल है । जिज्ञासु भव्य । तुम सब इस कालमे भारतमे हो, इसलिये भारत देश अनुकूल है । कालकी अपेक्षासे मति और श्रुत प्राप्त किये जा सके इतनी अनुकूलता है; क्योंकि इस द षम पचमकालमे परम्पराम्नायसे परमावधि, मन पर्याय और केवल ये पवित्र ज्ञान देखनेमे नही आते, इलिये कालकी परिपूर्ण अनुकूलता नही है ।
४ देश, काल आदि यदि अनुकूल है कहाँ तक है ? इसका उत्तर है कि शेष रहा हुआ सैद्धातिक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान सामान्यमतसे कालकी अपेक्षासे इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा। इनमेसे ढाई हजार वर्ष वोत गये, बाकी साढे अठारह हजार वर्ष रहे, अर्थात् पचमकालकी पूर्णता तक कालको अनुकूलता है । इसलिये देश, काल अनुकूल हैं ।
शिक्षापाठ ७९ अव विशेष विचार करें
१ आवश्यकता क्या है ? इस महान विचारका मंथन पुन विशेषतासे करें । मुख्य आवश्यक यह है कि स्वस्वरूप स्थितिकी श्रेणिपर चढना । जिससे अनत दुःखका नाश हो, दुःखके नाशसे आत्माका
ज्ञानसबंधी दो शब्द --
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- भाग, ३
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१७ वां वर्ष
११९ श्रेयस्कर सुख है, और सुख निरंतर आत्माको प्रिय ही है, परतु जो स्वस्वरूपसुख है वह । देश, काल और भावकी अपेक्षासे श्रद्धा, ज्ञान इत्यादि उत्पन्न करनेकी आवश्यकता है। सम्यग्भावसहित उच्चगति, वहाँसे महाविदेहमे मानवदेहके रूपमे जन्म, वहाँ सम्यगभावकी पुन उन्नति, तत्त्वज्ञानकी विशुद्धता और वृद्धि, अन्तमे परिपूर्ण आत्मसाधन ज्ञान और उसका सत्य परिणाम सर्वथा सर्व दुखका अभाव अर्थात् अखंड, अनुपम, अनंत शाश्वत पवित्र मोक्षकी प्राप्ति, इस सबके लिये ज्ञानकी आवश्यकता है।
२ ज्ञानके भेद कितने हैं तत्सबधी विचार कहता हैं । इस ज्ञानके भेद अनत है, परतु सामान्यदृष्टि समझ सके इसलिये सर्वज्ञ भगवानने मुख्य पाँच भेद कहे हैं। उन्हे मैं ज्यो का त्यो कहता हूँ। प्रथम मति, द्वितीय श्रुत, तृतीय अवधि, चतुर्थ मन पर्यय और पचम संपूर्ण स्वरूप केवल। इनके पुनः प्रतिभेद है । और फिर उनके अतीद्रिय स्वरूपसे अनत भग जाल हैं ।
___३ जानने योग्य क्या है ? इसका अब विचार करे । वस्तुके स्वरूपको जाननेका नाम जब ज्ञान है, तब वस्तुएँ तो अनत हैं, उन्हे किस क्रमसे जानना ? सर्वज्ञ होनेके बाद सर्वदर्शितासे वे सत्पुरुप उन अनत वस्तुओके स्वरूपको सवं भेदोंसे जानते है और देखते है, परतु वे किन किन वस्तुओको जाननेसे इस सर्वज्ञश्रेणिको प्राप्त हुए ? जब तक अनत श्रेणियोको नही जाना तब तक किन वस्तुओको जानते-जानते उन अनत वस्तुओको अनंतरूपसे जान सकें? इस शकाका समाधान अब करें। जो अनंत वस्तुएँ मानो हे व अनत भगोकी अपेक्षासे हैं, परन्तु मुख्य वस्तुत्व-स्वरूपसे उनकी दो श्रेणियाँ है-जीव और अजीव । विशेष वस्तुत्व-स्वरूपसे नव तत्त्व किवा षड्द्रव्यको श्रेणियाँ जानने योग्य हो जाती हैं। इस क्रमसे चढतेचढते सर्व भावसे ज्ञात होकर लोकालोकस्वरूप हस्तामलकवत जाना देखा जा सकता है। इसलिये जानने योग्य पदार्थ जीव और अजीव हैं। ये जानने योग्य मुख्य दो श्रेणियाँ कही गई।
शिक्षापाठ ८० : ज्ञानसंबंधी दो शब्द-भाग ४ ४ इनके उपभेदोको सक्षेपमे कहता हूँ। 'जीव' चैतन्य लक्षणसे एकरूप है, देहस्वरूपसे और द्रव्यस्वरूपसे अनतानंत है। देहस्वरूपसे उसको इन्द्रिय आदि जानने योग्य है, उसकी गति, विगति इत्यादि जानने योग्य है, उसकी ससर्गऋद्धि जानने योग्य है। इसी प्रकार 'अजीव', उसके रूपी-अरूपी पुद्गल, आकाशादिक विचित्र भाव, कालचक्र इत्यादि जानने योग्य हैं । प्रकारान्तरसे जीव-अजीवको जाननेके लिये सर्वज्ञ सर्वदर्शीने नौ श्रेणोरूप नौ तत्त्व कहे है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर; निर्जरा, बध और मोक्ष । इनमेसे कुछ ग्रहण करने योग्य, कुछ जानने योग्य और कुछ त्यागने योग्य है। ये सभी तत्त्व जानने योग्य तो हैं ही।
५ जाननेके साधन यद्यपि सामान्य विचारसे इन साधनोको जान तो लिया है, तो भी विशेषरूपसे कुछ जानें। भगवानकी आज्ञा और उसका शुद्ध स्वरूप यथातथ्य जानना चाहिये । स्वय तो कोई ही जानता है, नही तो निग्रंथ ज्ञानी गुरु बता सकते है । नीरागी ज्ञाता सर्वोत्तम हैं। इसलिये श्रद्धाके बीजका रोपण करनेवाले या उसका पोषण करनेवाले गुरु साधनरूप हैं। इस साधन आदिके लिये ससारको निवृत्ति अर्थात् शम, दम, ब्रह्मचर्य आदि अन्य साधन है। यदि इन्हे साधन प्राप्त करनेका मार्ग कहे तो भो योग्य है।
६ इस ज्ञानके उपयोग अथवा परिणामके उत्तरका आशय ऊपर आ गया है, परतु कालभेदसे कुछ कहना है, और वह इतना हो कि दिनमे दो घडीका समय भी नियमित रखकर जिनेश्वर भगवानके कहे हुए तत्त्ववोधका परिशोलन करो। वीतरागके एक सैद्धातिक शब्दसे ज्ञानावरणीयका बहुत क्षयोपशम होगा यह मैं विवेकसे कहता हूँ।
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श्रीमद राजचन्द्र
शिक्षापाठ ८१ : पंचमकाल
कालचक्रके विचार अवश्य जानने योग्य हैं। जिनेश्वरने इस कालचक्र के दो भेद कहे हैं१ उत्सर्पिणी, २ अवसर्पिणी। एक-एक भेदके छ छ आरे है । आधुनिक प्रवर्तमान आरा पंचमकाल कहलाता है और वह अवसर्पिणी कालका पाँचवा आरा है । अवसर्पिणी अर्थात् उतरता हुआ काल । इस उतरते हुए कालके पाँचवें आरेमे इस भरतक्षेत्रमे कैसा वर्तन होना चाहिये इसके बारेमे सत्पुरुषोंने कुछ विचार बताये है, वे अवश्य जानने योग्य है ।
वे पचमकालके स्वरूपको मुख्यत इस आशयमे कहते है । निर्ग्रथ प्रवचनमे मनुष्योकी श्रद्धा क्षीण होती जायेगी। धर्मके मूल तत्त्वोमे मतमतातर बढेंगे । पाखडी और प्रपची मतोका मडन होगा । जनसमूहको रुचि अधर्म की ओर जायेगी । सत्य, दया धीरे-धीरे पराभवको प्राप्त होगे । मोहार्दिक दोषोकी वृद्धि होती जायेगी । दभी और पापिष्ठ गुरु पूज्य होगे । दुष्टवृत्तिके मनुष्य अपने प्रपचमे सफल होगे । मीठे परंतु घू वक्ता पवित्र माने जायेंगे | शुद्ध ब्रह्मचर्य आदि शीलसे युक्त पुरुष मलिन कहलायेगे । आत्मिक ज्ञानके भेद नष्ट होते जायेंगे । हेतुहौन क्रियाएँ वढती जायेंगी । अज्ञान क्रियाका बहुधा सेवन किया जायेगा । व्याकुल करनेवाले विपयोके साधन वढते जायेंगे । एकातिक पक्ष सत्ताधीश होगे । शृगारसे धर्म माना जायेगा ।
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सच्चे क्षत्रियोके बिना भूमि शोकग्रस्त होगी । निस्सत्त्व राजवंशी वेश्याके विलास मे मोहित होगे । धर्म, कर्म और सच्ची राजनीतिको भुल जायेगे, अन्यायको जन्म देगे, जैसे लूट सकेंगे वैसे प्रजाको लूटेंगे। स्वयं पापिष्ठ आचरणोका सेवन करके प्रजासे उनका पालन करायेंगे । राजबीजके नामपर शून्यता आती जायेगी । नोच मत्रियोकी महत्ता बढती जायेंगी । वे दीन प्रजाको चूसकर भडार भरनेका राजाको उपदेश ' देंगे । शील भग करनेका धर्म राजाको अगीकार करायेंगे। शौर्य आदि सद्गुणोका नाश करायेंगे। मृगया आदि पापोमे अध बनायेंगे । राज्याधिकारी अपने अधिकारसे हजारगुना अहंकार रखेंगे । विप्र लालची और लोभो हो जायेंगे। वे सद्विद्याको दवा देगे, ससारी साधनोको धर्मं ठहरायेंगे । वैश्य मायावी, केवल स्वार्थी और कठोर हृदयके होते जायेंगे । समग्र मनुष्यवर्गकी सद्वृत्तियाँ घटती जायेगी । अकृत्य और भयकर कृत्य करते हुए उनकी वृत्ति नही रुकेगी। विवेक, विनय, सरलता इत्यादि सद्गुण घटते जायेंगे । अनुकप्रात्रे नामपर हीनता होगी। माताकी अपेक्षा पत्नीमे प्रेम बढेगा, पिताकी अपेक्षा पुत्रमे प्रेम बढेगा, नियमपूर्वक पतिव्रत पालनेवाली सुन्दरियां घट जायेंगी । स्नानसे पवित्रता मानी जायेगी, धनसे उत्तम कुल माना जायेगा । शिष्य गुरुसे उलटे चलेंगे। भूमिका रस घट जायेगा । सङ्क्षेपमे कहनेका भावार्थ यह है कि उत्तम वस्तुओकी क्षीणता होगी और निकृष्टं वस्तुओका उदय होगा । पंचमकालका स्वरूप इनका प्रत्यक्ष सूचन भी कितना अधिक करता है ?
मनुष्य सद्धर्मतत्त्वमे परिपूर्ण श्रद्धावान नही हो सकेगा, सपूर्ण तत्त्वज्ञान नही पा सकेगा, जम्बुस्वामी - के निर्वाणके बाद दस निर्वाणी वस्तुओका इस भरतक्षेत्रसे व्यवच्छेद हो गया ।
पचमकालका ऐसा स्वरूप जानकर विवेकी पुरुष तत्त्वको ग्रहण करेंगे, कालानुसार धर्मतत्त्वश्रद्धाको पाकर उच्चगतिको साधकर परिणाममे मोक्षको साधेंगे। निर्ग्रन्थ प्रवचन, निर्ग्रन्थ : प्राप्ति साधन है । इनकी आराधना से कर्मकी विराधना है ।
गुरु इत्यादि धर्मतत्त्वकी
शिक्षापाठ ८२ : तत्त्वावबोध - भाग १
दशवैकालिकसूत्रमे कथन है कि जिसने जीवाजीवके भावोको नही जाना वह अब सयममे कैसे स्थिर रह सकेगा ? इस वचनामृतका तात्पर्य यह है कि तुम आत्मा एव अनात्माके स्वरूपको जानो, इसे जाननेकी परिपूर्ण आवश्यकता है ।
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१७ वॉ वर्ष
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आत्मा-अनात्माका सत्य स्वरूप निर्ग्रन्थ प्रवचनमेसे प्राप्त हो सकता है, अनेक मतोमे इन दो तत्त्वोंके विषयमे विचार प्रदर्शित किये है वे यथार्थं नही है । महाप्रज्ञावान आचार्यों द्वारा किये गये विवेचन सहित प्रकारातरसे कहे हुए मुख्य नव तत्त्वोको जो विवेकबुद्धिसे जानता है, वह सत्पुरुष आत्मस्वरूपको पहचान सकता है।
द्वादशैली अनुपम और अनत भेदभावसे भरपूर है । इस शैलीको परिपूर्णरूपसे तो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी ही जान सकते है, फिर भी उनके वचनामृतोके अनुसार आगमकी सहायतासे यथामति नव तत्त्वके स्वरूपको जानना आवश्यक है। इस नव तत्त्वको प्रिय श्रद्धाभावसे जाननेसे परम विवेकबुद्धि, शुद्ध सम्यक्त्व और प्रभावक आत्मज्ञानका उदय होता है । नंव तत्त्वमे लोकालाकका सपूर्ण स्वरूप आ जाता है । जिनकी जितनी बुद्धि की गति है वे उतनी तत्त्वज्ञानकी ओर दृष्टि पहुँचाते हैं, और भावानुसार उनके आत्माकी उज्ज्वलता होती है । इससे वे आत्मज्ञान के निर्मल रसका अनुभव करते हैं । जिनका तत्त्वज्ञान उत्तम और सूक्ष्म है, तथा जो सुशोलयुक्त तत्त्वज्ञानकी उपासना करते हैं वे पुरुष बड़भागी है ।
इन नव तत्त्वोके नाम मै पिछले शिक्षापाठमे कह गया हूँ, इनका विशेष स्वरूप प्रज्ञावान आचार्योंके महान ग्रन्थोंसे अवश्य जानना चाहिये, क्योकि सिद्धातमे जो जो कहा है उन सबको विशेष भेदसे समझने के लिये प्रज्ञावान आचार्यो द्वारा विरचित ग्रन्थ सहायभूत हैं । ये गुरुगम्यरूप भी है । नव तत्त्वके ज्ञानमे नय, निक्षेप और प्रमाणके भेद आवश्यक है, और उनका यथार्थं बोध उन प्रज्ञावानोने दिया है ।
शिक्षापाठ ८३ : तत्त्वावबोध - भाग २
सर्वज्ञ भगवानने लोकालोकके सपूर्ण भावोको जाना और देखा । उसका उपदेश भव्य लोगोको किया । भगवानने अनत ज्ञानसे लोकालोकके स्वरूपविषयक अनत भेद जाने थे, परतु सामान्य मनुष्योको उपदेशसे श्रेणी चढनेके लिये उन्होने मुख्य दीखते हुए नौ पदार्थ बताये । इससे लोकालोकके सर्वभावोका इसमे समावेश हो जाता है । निर्ग्रन्थ प्रवचनका जो जो सूक्ष्म बोध है वह तत्त्वकी दृष्टिसे नव तत्त्वमे समा जाता है, तथा सभी धर्ममतोका सूक्ष्म विचार इस नव तत्त्व विज्ञानके एक देशमे आ जाता है । आत्माकी जो अनत शक्तियाँ आवरित हो रही है उन्हे प्रकाशित करनेके लिये अर्हत भगवानका पवित्र बोध है । ये अनत शक्तियाँ तब प्रफुल्लित हो सकती है जब आत्मा नवतत्त्वविज्ञानमे पारगत ज्ञानी हो ।
सूक्ष्म द्वादशागीका ज्ञान भी इन नवतत्त्वके स्वरूपज्ञानमे सहायरूप है । यह भिन्न-भिन्न प्रकार से नवतत्त्वके स्वरूपज्ञानका वोध करता है, इसलिये यह नि शक मानने योग्य है कि जिसने नव तत्त्वको अनत भाव-भेदसे जाना, वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुआ ।
इन नव तत्त्वोको त्रिपदीकी अपेक्षासे घटाना योग्य है। हेय, ज्ञेय और उपादेय अर्थात् त्याग करने योग्य, जानने योग्य और ग्रहण करने योग्य – ये तीन भेद नव-तत्त्वस्वरूपके विचारमे निहित हैं ।
प्रश्न - जो त्यागने योग्य है उसे जानकर क्या करना ? जिस गॉवको जाना नहो उसका मार्ग किसलिये पूछना ?
उत्तर- आपकी इस शकाका समाधान सहजमे हो सकता है। त्यागने योग्यको भी जानना आवश्यक है । सर्वज्ञ भी सव प्रकारके प्रपचोको जान रहे हैं । त्यागने योग्य वस्तुको जाननेका मूलतत्त्व यह है कि यदि उसे न जाना हो तो अत्याज्य समझकर किसी समय उसका सेवन हो जाय । एक गाँवसे दूसरे गाँवमे पहुँचने तक रास्तेमे जो जो गॉव आनेवाले हो उनका रास्ता भी पूछना पडता है, नही तो जहाँ जाना है वहाँ नही पहुँचा जा सकता । जैसे वे गाँव पूछे परतु वहाँ वास नही किया, वैसे ही पापादि तत्त्वांको
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श्रीमद राजचन्द्र जानना तो चाहिये परन्तु ग्रहण नही करना चाहिये । जैसे रास्तेपे आनेवाले गाँवोका त्याग किया वैसे उनका भी त्याग करना आवश्यक है।
शिक्षापाठ ८४ : तत्त्वावबोध-भाग ३ जो सत्पुरुष गुरुगम्यतासे श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक नवतत्त्वका ज्ञान कालभेदसे प्राप्त करते है, वे सत्पुरुष महापुण्यशाली तथा धन्यवादके पात्र है। प्रत्येक सुज्ञ पुरुषको मेरा विनयभावभूषित यही बोध है कि वे नव तत्त्वको स्ववुद्धिके अनुसार यथार्थ जाने।
महावीर भगवानके शासनमे बहुत मतमतातर पड गये है, उसका एक मुख्य कारण यह भी है कि तत्त्वज्ञानकी ओर उपासक वर्गका ध्यान नही रहा । वह मात्र क्रियाभावमे अनुरक्त रहा, जिसका परिणाम दृष्टिगोचर है। वर्तमान खोजमे आई हुई पृथ्वीकी आबादी लगभग डेढ अरब मानी गयी है, उसमे सब गच्छोको मिलाकर जन प्रजा केवल बोस लाख है। यह प्रजा श्रमणोपासक है। मै मानता हूँ कि इसमेसे दो हजार पुरुष भी मुश्किलसे नवतत्त्वको पठनरूपसे जानते होगे । मनन और विचारपूर्वक जाननेवाले तो उँगलिकी नोक पर गिने जा सके उतने पुरुप भी नही होगे। जव तत्त्वज्ञानकी ऐसी पतित स्थिति हो गया है तभी मतमतातर बढ गये है। एक लौकिक कथन है कि 'सौ सयाने एक मत' । इस तरह अनेक तत्त्वविचारक पुरुपोके मतमे बहुधा भिन्नता नही आती।
इस नवतत्त्वके विचारके सबधमे प्रत्येक मनिसे मेरी विज्ञप्ति है कि वे विवेक और गुरुगम्यतासे इसके ज्ञानकी विशेष वृद्धि करें। इससे उनके पवित्र पाँच महाव्रत दृढ होगे, जिनेश्वरके वचनामृतके अनुपम आनंदको प्रसादी मिलेगी, मुनित्वके आचारका पालन सरल हो जायेगा, ज्ञान और क्रिया विशुद्ध रहनेसे सम्यक्त्वका उदय होगा; परिणाममे भवात हो जायेगा।
शिक्षापाठ ८५ : तत्त्वावबोध-भाग ४ जो जो श्रमणोपासक नव तत्त्वको पठनरूपसे भी नही जानते वे उसे अवश्य जानें । जाननेके बाद बहुत मनन करें। जितना समझमे आ सके, उतने गम्भीर आशयको गुरुगम्यतासे सद्भावसे समझें। इससे आत्मज्ञान उज्ज्वलताको प्राप्त होगा, और यमनियम आदिका पालन होगा।
नवतत्त्व अर्थात् नवतत्त्व नामकी कोई रचित सामान्य पुस्तक नही, परतु जिस जिस स्थलमे जो जो विचार ज्ञानियोने प्रणीत किये हैं वे सब विचार नवतत्त्वमेसे किसी एक दो या अधिक तत्त्वके होते हैं। कवला भगवानने इन श्रेणियोसे सकल जगतमडल दिखा दिया है, इससे ज्यो ज्यो नय आदिके भेदसे यह तत्त्वज्ञान मिलेगा त्यो त्यो अपूर्व आनद और निर्मलताकी प्राप्ति होगी, मात्र विवेक, गुरुगम्यता और अप्रमाद चाहिये । यह नवतत्त्वज्ञान मुझे बहुत प्रिय है । इसके रसानुभवी भी मुझे सदैव प्रिय हैं।
कालभेदसे इस समय भरतक्षेत्रमे मात्र मति और श्रत ये दो ज्ञान विद्यमान है, बाकोके तोन ज्ञान परपराम्नायसे देखनेमे नही आते, फिर भी ज्यो ज्यो पूर्ण श्रद्धाभावसे इस नवतत्त्वज्ञानके विचारोकी गुफामे उतरा जाता है, त्यो त्यो उसके अदर अद्भुत आत्मप्रकाश, आनद, समर्थ तत्त्वज्ञानको स्फुरणा, उत्तम विनोद और गंभीर चमक चकित करके वे विचार शुद्ध सम्यग्ज्ञानका बहुत उदय करते है। स्याद्वादवचनामृतके अनत सुन्दर आगयोको समझनेकी परम्परागत शक्तिका इस कालमे इस क्षेत्रसे विच्छेद हो गया है, फिर भी उम मवधी जो जो सुन्दर आशय समझमे आते है वे सब आशय अति अति गभीर तत्त्वसे भरे हुए हैं। उन आशयोका पुन पुनः मनन करनेसे चार्वाकमतिके चचल मनुष्य भी सद्धममे स्थिर हो
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१२३ जाते हैं । सक्षेपमे सर्व प्रकारको सिद्धि, पवित्रता, महाशील, निर्मल गहन और गभीर विचार, स्वच्छ वैराग्यकी भेंट ये सब तत्त्वज्ञानसे मिलते है ।
शिक्षापाठ ८६ : तत्त्वावबोध-भाग ५ एक बार एक समर्थ विद्वानसे निग्रंथ प्रवचनकी चमत्कृतिके सबधमे बातचीत हुई। उसके सबधमे उस विद्वानने बताया-"मै इतना तो मान्य रखता हूँ कि महावीर एक समर्थ तत्त्वज्ञानी पुरुप थे, उन्होने जो बोध दिया है, उसे ग्रहण करके प्रज्ञावान पुरुषोने अग, उपागकी योजना की है, उनके जो विचार है वे चमत्कृतिसे भरे हुए है, परन्तु इससे मै यह नहीं कह सकता कि इनमे सारी सृष्टिका ज्ञान निहित है । ऐसा होने पर भी यदि आप इस सबधमे कुछ प्रमाण देते हो तो मैं इस बात पर कुछ श्रद्धा कर सकता हूँ।" इसके उत्तरमे मैंने यह कहा कि मैं कुछ जैन वचनामृतको यथार्थ तो क्या परन्तु विशेष भेदसे भी नही जानता, परन्तु सामान्य भावसे जो जानता हूँ उससे भी प्रमाण अवश्य दे सकता हूँ। फिर नवतत्वविज्ञानसबधी बातचीत निकली। मैने कहा कि इसमे सारी सृष्टिका ज्ञान आ जाता है, परन्तु यथार्थ समझनेकी शक्ति चाहिये । फिर उन्होने इस कथनका प्रमाण मॉगा, तब मैने आठ कर्म कह बताये। उसके साथ यह सूचित किया कि इनके सिवाय इनसे भिन्न भाव बतानेवाला कोई नौवाँ कर्म खोज निकाले । पाप और पुण्यकी प्रकृतियोको बताकर कहा कि इनके सिवाय एक भी अधिक प्रकृति खोज निकालें । यो कहते कहते अनुक्रमसे बात चलायी। पहले जीवके भेद कहकर पूछा कि क्या इनमे आप कुछ न्यूनाधिक कहना चाहते हैं ? अजीवद्रव्यके भेद कहकर पूछा कि क्या आप इससे कुछ विशेष कहते हैं ? यो नवतत्त्वसबधी बातचीत हुई तब उन्होने थोडी देर विचार करके कहा-“यह तो महावीरकी कहनेकी अद्भुत चमत्कृति है कि जीवका एक भी नया भेद नही मिलता, इसी तरह पापपुण्य आदिको एक भी विशेष प्रकृति नहीं मिलती, और नौवॉ कर्म भी नही मिलता । ऐसे ऐसे तत्त्वज्ञानके सिद्धात जैनदर्शनमे है यह मेरे ध्यानमे नही था । इसमे सारो सृष्टिका तत्त्वज्ञान कुछेक अशोमे अवश्य आ सकता है।"
शिक्षापाठ ८७ : तत्त्वावबोध-भाग ६ . इसका उत्तर हमारी ओरसे यह दिया गया कि अभी आप जो इतना कहते है वह भी तब तक कि जब तक आपके हृदयमे जैनधर्मके तत्त्वविचार नही आये है, परन्तु मै मध्यस्थतासे सत्य कहता है कि इसमे जो विशुद्ध ज्ञान बताया है वह कही भी नही है, और सर्व मतोने जो ज्ञान बताया है वह महावीरके तत्त्वज्ञानके एक भागमे आ जाता है। इनका कथन स्याद्वाद है, एकपक्षी नही।
आपने यो कहा कि इसमे सारी सृष्टिका तत्त्वज्ञान कुछेक अशोमे अवश्य आ सकता है, परतु यह मिश्र वचन है। हमारी समझानेको अल्पज्ञतासे ऐसा अवश्य हो सकता है, परन्तु इससे इन तत्त्वोमे कुछ अपूर्णता है ऐसा तो है ही नहीं। यह कुछ पक्षपाती कथन नहीं है। विचार करनेपर सारी सृष्टिमेसे इनके सिवाय कोई दसवाँ तत्त्व खोजनेसे कभी मिलनेवाला नही है। इस सवधमे प्रसगोपात्त हमारी जब बातचीत और मध्यस्थ चर्चा होगी तब निःशकता होगी।
उत्तरमे उन्होने कहा कि इसपरसे मुझे यह तो निःशकता है कि जैन एक अद्भुत दर्शन है। आपने मुझे श्रेणिपूर्वक नवतत्त्वके कुछ भाग कह बताये, इससे मै यह वेधडक कह सकता हूँ कि महावीर गुप्तभेदको प्राप्त पुरुष थे। इस प्रकार थोड़ीसी वात करके 'उप्पन्ने वा', 'विगमे वा', 'धुवेइ वा' यह लब्धिवाक्य उन्होने मुझे कहा। यह कहनेके बाद उन्होने यो वताया- "इन शब्दोके सामान्य अर्थमे तो कोई चमत्कृति नहीं दीखती। उत्पन्न होना, नाश होना और अचलता ऐसा इन तीन
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श्रीमद् राजचन्द्र शब्दोका अर्थ है । परन्तु श्रीमान गणधरोने तो ऐसा उल्लेख किया है कि इन वचनोको गुरुमुखसे श्रवण करनेसे पहलेके भाविक शिष्योको द्वादशागीका आशयपूर्ण ज्ञान हो जाता था। इसके लिये मैंने बहुत कुछ विचार किये, फिर भी मुझे तो ऐसा लगा कि यह होना असभव है, क्योकि अतीव सूक्ष्म माना हुआ सैद्धातिक ज्ञान इसमे कहाँसे समा सकता है ? इस सबधमे आप कुछ प्रकाश डाल सकेंगे ?"
शिक्षापाठ ८८: तत्त्वावबोध-भाग ७ मैने उत्तरमे कहा कि इस कालमे तीन महाज्ञान परम्पराम्नायसे भारतमे देखनेमे नही आते, ऐसा होनेपर भी मैं कोई सर्वज्ञ या महाप्रज्ञावान नही हैं, फिर भी मैं सामान्य बुद्धिसे जितना विचार कर सकूँगा, उतना विचार करके कुछ समाधान कर सकूँगा ऐसा मुझे सभव लगता है। तब उन्होने कहा कि यदि ऐसा सभव हो तो यह त्रिपदी जीवपर 'ना' और 'हाँ' के विचारसे घटित करे । वह यो कि जीव क्या उत्पत्तिरूप है ? नही । जीव क्या व्ययरूप है ? नही । जीव क्या ध्रुवरूप है ? नही । इस तरह एक बार घटित करें। और दूसरी बार, जीव क्या उत्पत्ति रूप है ? हॉ। जीव क्या व्ययरूप है ? हॉ। जीव क्या ध्रुवरूप है ? हाँ । इस तरह घटित करें । ये विचार सारे मडलने एकत्र करके योजित किये है । यदि ये यथार्थ न कहे जा सकें तो अनेक प्रकारसे दूपण आ सकते हैं । जो वस्तु व्ययरूप हो वह ध्रुवरूप न हो, यह पहली शका । यदि उत्पत्ति, व्यय और ध्रुवता नही है तो जीवको किन प्रमाणोंसे सिद्ध करेंगे ? यह दूसरी शका | व्यय और ध्रवतामे परस्पर विरोधाभास है. यह तीसरी शका। जीव केवल ध्रव है तो उत्पत्तिमे जो 'हाँ' कही वह असत्य ठहरेगी. यह चौथा विरोध। उत्पत्तियक्त जीवका ध्रवभाव कहे तो उत्पत्ति किसने की ? यह पाँचवाँ विरोध । अनादिता जाती रहती है यह छठी शका | केवल ध्रुव-व्ययरूप है ऐसा कहे तो चार्वाकमिश्र वचन हुआ, यह सातवाँ दोष । उत्पत्ति और व्ययरूप कहेगे तो केवल चार्वाकका सिद्धात होगा, यह आठवॉ दोष । उत्पत्तिकी ना, व्ययकी ना और ध्रुवताको ना कहकर फिर तीनोकी हाँ कही इसके पुन रूपमे छ दोष । इस प्रकार कुल मिलाकर चौदह दोष हुए। केवल ध्रुवता चली जानेसे तीर्थकरके वचन खडित हो जाते हैं, यह पन्द्रहवाँ दोष । उत्पत्ति, ध्रुवता लेनेपर कर्ताकी सिद्धि हो जानेसे सर्वज्ञवचन खडित हो जाते है, यह सोलहवा दोष । उत्पत्ति-व्ययरूपसे पापपुण्यादिकका अभाव अर्थात् धर्माधर्म सबका लोप हो जाता है, यह सत्रहवाँ दोष । उत्पत्ति, व्यय और सामान्य स्थितिसे (केवल अचलता नही) त्रिगुणात्मक माया सिद्ध होती है, यह अठारहवाँ दोष ।
शिक्षापाठ ८९ : तत्त्वावबोध-भाग ८ ये कथन सिद्ध न होनेसे इतने दोष आते है । एक जैनमुनिने मुझे और मेरे मित्रमडलसे यो कहा था कि जैन सप्तभगो नय अपूर्व है, और इससे सर्व पदार्थ सिद्ध होते है। इसमे नास्ति-अस्तिके अगम्य भेद निहित है । यह कथन सुनकर हम सब घर आये, फिर योजना करते-करते इस लब्धिवाक्यको जीवपर योजित किया। मै मानता हूँ कि ऐसे नास्ति-अस्तिके दोनो भाव जीवपर घटित नही हो सकते। लब्धिवाक्य भी क्लेशरूप हो पडेगे । यद्यपि इस ओर मेरी कोई तिरस्कारकी दृष्टि नही है । इसके उत्तरमे मैंने कहा कि आपने जो नास्ति और अस्ति नय जीवपर घटित करनेका सोचा है वह सनिक्षेप शैलीसे नही है, इसलिये कदाचित् इसमेसे एकातिक पक्ष भी लिया जा सकता है । और फिर मै कोई स्यावाद शैलीका यथार्थ ज्ञाता नहीं हूँ। मन्दमतिसे लेश भाग जानता हूँ । नास्ति-अस्ति नयको भी आपने शैलीपूर्वक घटित नही किया है; इसलिये मै तर्कसे जो उत्तर दे सकता हूँ, उसे आप सुनें।
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१२५ उत्पत्तिमे 'नास्ति' की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'जीव अनादि अनन्त है।' व्ययमे 'नास्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'इसका किसी कालमे नाश नही है।'
ध्रुवतामे 'नास्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'एक देहमे वह पदेवके लिये रहनेवाला नही है।'
शिक्षापाठ ९० : तत्त्वावबोध--भाग १ उत्पत्तिमे 'गस्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'जीवका मोश होने नक एक देहमेसे च्युत होकर वह दूसरी देहमे उत्पन्न होता है।'
व्ययमे 'अस्ति'की जो याजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'वह जिम देहमेसे आया वहाँ से व्ययको प्राप्त हुआ. अथवा प्रतिक्षण इसकी आत्मिक ऋद्धि विषयादि मग्णसे रुद्ध हो रही है', इस प्रकार व्ययको घटित कर सकते हैं।
ध्रुवतामे 'अस्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'द्रव्यकी अपेक्षा जीव किसी कालमे नाशरूप नही है, त्रिकाल सिद्ध है।'
मैं समझता हूँ कि अब इस प्रकारसे योजित दोष भी दूर हो जायेंगे । १ जीव व्ययरूप नही हैं, इसलिये ध्रुवता सिद्ध हुई। यह पहला दोष दूर हुआ।
२. उत्पत्ति, व्यय और ध्रुवता ये न्यायसे भिन्न भिन्न सिद्ध हुए, इसलिये जीवका मत्यत्व सिद्ध हुआ, यह दूसरा दोष दूर हुआ।
३ जीवकी सत्यस्वरूपसे ध्रुवता सिद्ध हुई इसलिये व्यय चला गया। यह तीसरा दोष दूर हुआ। ४. द्रव्यभावसे जीवकी उत्पत्ति असिद्ध हुई । यह चौथा दोष दूर हुआ। ५ जीव अनादि सिद्ध हुआ, इसलिये उत्पत्तिसबधी पाँचवाँ दोष दूर हुआ। ६ उत्पत्ति असिद्ध हुई इसलिये कर्त्तासबधी छठा दोष दूर हुआ। ७ ध्रुवताके साथ व्यय लेनेमे अबाध हुआ इसलिये चार्वाकमिश्रवचनका साना दोप दूर हआ ।
८ उत्पत्ति और व्यय पृथक् पृथक् देहमे सिद्ध हुआ, इसलिये केवल चार्वाकसिद्धान नामका आठवाँ दोष दूर हुआ।
९. से १४ शकाका पारस्परिक विरोधाभास दूर हो जानेसे चौदह तकके दोष दूर हो गये। १५ अनादि अनतता सिद्ध हो जानेसे स्याद्वादवचन सत्य हुआ, यह पद्रहवां दोष दूर हुआ । १६ कर्ता नही है, यह सिद्ध होनेसे जिनवचनकी सत्यता सिद्ध हुई, यह सोलहवॉ दोष दूर हुआ। १७ धर्म, अधम, देह आदिका पुनरावर्तन सिद्ध होनेसे सत्रहवाँ दोष दूर हुआ। १८ ये सब बातें सिद्ध होनेसे त्रिगुणात्मक माया असिद्ध हुई, यह अठारह्वा दोष दूर हुआ।
शिक्षापाठ ९१ तत्वावबोध-भाग १० ___ मैं समझता हूँ कि आपको योजित योजनाका इससे समाधान हुआ होगा। यह कोई यथार्थ शैली घटित नही की है, तो भी इसमें कुछ भी विनोद मिल सकता है। इसपर विशेष विवेचन करनेके लिये बहुतसा वक्त चाहिये, इसलिये अधिक नही कहता, परन्तु एक दो सक्षिप्त बातें आपसे कहनी है, सो यदि इससे योग्य समाधान हुआ हो तो कहूँ। बादमे उनकी ओरसे मनमाना उत्तर मिला और उन्होंने कहा कि एक दो बातें जो आपको कहनी हो उन्हे सहर्ष कहे।
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श्रीमद् राजचन्द्र फिर मैने अपनी वातको सजीवित करके लब्धिके सवधमे कहा । आप इस लब्धिके संवधमे शंका करें या इसे क्लेशरूप कहे तो इन वचनोके प्रति अन्याय होता है। इसमे अति-अति उज्ज्वल आत्मिक शक्ति, गुरुगम्यता और वैराग्यकी आवश्यकता है । जब तक ऐसा नही है तब तक लब्धिके विपयमे शका अवश्य रहेगी । परतु मै समझता हूँ कि इस समय इस सवधमे कहे हुए दो शव्द निरर्थक नही होगे । वे ये हैं कि जैसे इस योजनाको नास्ति-अस्तिपर योजित करके देखा, वैसे इसमे भी बहुत सूक्ष्म विचार करना है। प्रत्येक देहको पृथक्-पृथक् उत्पत्ति, च्यवन, विश्राम, गर्भाधान, पर्याप्ति, इद्रिय, सत्ता, ज्ञान, संज्ञा, आयु, विषय इत्यादि अनेक कर्मप्रकृतियोको प्रत्येक भेदसे लेनेपर जो विचार इस लब्धिसे निकलते है वे अपूर्व है । जहाँ तक लक्ष पहुंचता है वहाँ तक सभी विचार करते है, परतु द्रव्यार्थिक और भावार्थिक नयसे सारी सृष्टिका ज्ञान इन तीन शब्दोमे निहित है उसका विचार कोई विरला ही करता है, वह सद्गुरुमुखकी पवित्र लब्धिके रूपमे जब आये तव द्वादशागीका ज्ञान किसलिये न हो ? 'जगत' ऐसा कहनेसे जैसे मनुष्य, एक घर, एक वास, एक गाँव, एक शहर, एक देश, एक खड, एक पृथ्वी इन सबको छोडकर असख्यात द्वीप समुद्र आदिसे भरपूर वस्तु एकदम कैसे समझ जाता है ? इसका कारण मात्र इतना ही है कि इस शब्दकी विशालताको उसने समझा है, किंवा लक्षकी अमुक विशालताको समझा है, जिससे 'जगत' यो कहते हो इतने बडे ममको समझ सकता है, इसी तरह ऋजु और सरल सत्पात्र शिष्य निर्ग्रन्थ गुरुसे इन तीन शब्दोकी गम्यता लेकर द्वादशागीका ज्ञान प्राप्त करते थे। और वह लब्धि अल्पज्ञतासे भी विवेकपूर्वक देखनेपर क्लेशरूप भी नही है ।
शिक्षापाठ ९२ : तत्वावबोध-भाग ११ इसी प्रकार नव तत्त्वके सबधमे है । जिस मध्यवयके क्षत्रियपुत्रने 'जगत अनादि है', यो बेधडक कहकर कर्ताको उडाया होगा, उस पुरुपने क्या कुछ सर्वज्ञताके गुप्त भेदके बिना किया होगा? इसी तरह जब आप इनकी निपिताके विषयमे पढेंगे तब अवश्य ऐसा विचार करेंगे कि ये परमेश्वर थे । कर्ता न था और जगत अनादि था, इसलिये ऐसा कहा । इनके अपक्षपाती और केवल तत्त्वमय विचार आपको अवश्य विशोधन करने योग्य हैं। जैनदर्शनके अवर्णवादी मात्र जैनदर्शनको नही जानते इसलिये अन्याय करते है । मैं समझता हूँ कि वे ममत्वसे अधोगतिको प्राप्त करेंगे ।
इसके बाद बहुत-सी बातचीत हुई। प्रसगोपात्त इस तत्त्वका विचार करनेका वचन लेकर मै सहर्ष वहाँसे उठा था।
तत्त्वाववोधके सवधमे यह कथन कहा गया । अनंत भेदसे भरे हुए ये तत्त्वविचार जितने कालभेदसे जितने ज्ञेय प्रतीत हो उतने ज्ञेय करना, जितने ग्राह्य हो उतने ग्रहण करना और जितने त्याज्य दिखायी दें उतने त्यागना।
इन तत्वोको जो यथार्थ जानता है वह अनत चतुष्टयसे विराजमान होता है यह मै सत्यतासे कहता हूँ। इन नव तत्त्वोके नाम रखनेमे भी मोक्षकी निकटताका अर्ध सूचन मालूम होता है।
शिक्षापाठ ९३ : तत्त्वावबोध-भाग १२ यह तो आपके ध्यानमे है कि जीव, अजीव-इस अनुक्रमसे अतमे मोक्षका नाम आता है। अब इन्हे एकके बाद एक रखते जायें तो जीव और मोक्षको अनुक्रमसे आद्यत रहना पड़ेगा।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा, वध, मोक्ष ।
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१२७ मैंने पहले कहा था कि इन नामोके रखनेमे जीव और मोक्षकी निकटता है। फिर भी यह निकटता तो न हुई, परन्तु जीव और अजीवकी निकटता हुई, परन्तु ऐसा नही है। अज्ञानसे तो इन दोनोकी ही निकटता है । ज्ञानसे जीव और मोक्षकी निकटता है, जैसे कि :
पुण्य
अजीव
hin
नवतत्त्वनामचक्र
आस्रव
अब देखो, इन दोनोमे कुछ निकटता आई है ? हाँ, कही हई निकटता आ गई है। परतु यह निकटता तो द्रव्यरूप है। जब भावसे निकटता आये तब सर्व सिद्धि हो। इस निकटताका साधन सत्परमात्मतत्त्व, सद्गुरुतत्त्व और सद्धर्मतत्त्व है। केवल एक ही रूप होनेके लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।
___ इस चक्रसे ऐसी भी आशंका हो सकती है कि जब दोनो निकट हैं तब क्या बाकीका त्याग करना? उत्तरमे यो कहता हूँ कि यदि सबका त्याग कर सकते हो तो त्याग कर दो, जिससे मोक्षरूप ही हो जाओगे। नही तो हेय, ज्ञेय, उपादेयका बोध लो, इससे आत्मसिद्धि प्राप्त होगी।
शिक्षापाठ ९४ : तत्त्वावबोध-भाग १३ जो जो मैं कह गया हूँ वह सब केवल जैनकुलमे जन्म पानेवाले पुरुषोके लिये नही है परन्तु सबके लिये है। इसी तरह यह भी निशक माना कि मै जो कहता हूँ वह अपक्षपातसे और परमार्थबुद्धिसे कहता हूँ।
तुमसे जो धर्मतत्त्व कहना है वह पक्षपात या स्वार्थबुद्धिसे कहनेका मुझे कोई प्रयोजन नही है। पक्षपात या स्वार्थसे मैं तुम्हे अधर्मतत्त्वका बोध देकर अधोगतिको किसलिये साधू ? वारवार में तुमसे निर्ग्रन्थके वचनामृतके लिये कहता हूँ, उसका कारण यह है कि वे वचनामृत तत्त्वमे परिपूर्ण हैं । जिनेश्वरोके लिये ऐसा कोई भी कारण न था कि जिसके निमित्तसे वे मृपा या पक्षपाती बोध देते, और वे अज्ञानी भी न थे कि जिससे मृषा उपदेश दिया जाय । आशका करेंगे कि वे अज्ञानी नही थे यह किस प्रमाणसे मालूम हो ? तो इसके उत्तरमे कहता हूँ कि उनके पवित्र सिद्धान्तोंके रहस्यका मनन करो; और जो ऐसा करेगा वह तो फिर लेश भी आशका नही करेगा। जैनमतप्रवर्तकोने मुझे कोई भूरसी दक्षिणा नही दी है, और वे मेरे कोई कुटुम्ब-परिवारी भी नही हैं कि उनके पक्षपातसे मैं तुम्हे कुछ भी कह दूं। इसी तरह अन्यमतप्रवतंकोके प्रति मेरी कोई वैरबुद्धि नही है कि मिथ्या ही उनका खडन करूँ। दोनोके प्रति मैं तो मदमति मध्यस्थरूप हूँ। बहुत बहुत मनन करनेसे और मेरी मति जहाँ तक पहुंची वहाँ तक विचार करनेसे
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श्रीमद राजचन्द्र
मै विनयपूर्वक इतना कहना है कि प्रिय भव्यो । जेन जैसा एक भी पूर्ण और पवित्र दर्शन नहीं है, वीतराग जेगा एक की देव नहीं है, तैरकर अनत दुखसे पार पाना हो तो इस सर्वज्ञ-दर्शनरूप कल्पवृक्षका सेवन
कग।
शिक्षापाठ ९५ : तस्वावबोध-- भाग १४
दर्शन इतनी अधिक सूक्ष्म विचारसकलतासे भरा हुआा दर्शन है कि जिसमे प्रवेश करनेमे भी बहुत उक्त चाहिये। ऊपर-ऊपरसे या किसी प्रतिपक्षीके कहनेसे अमुक वस्तुसबधी अभिप्राय वना लेना या अभिप्राय दे देना, यह विवेकीका कर्तव्य नहीं है । एक तालाव सपूर्ण भरा हुआ हो, उसका जल ऊपरसे समान लगता है, परन्तु ज्योज्यो आगे चलते हे त्यो त्यो अधिक-अधिक गहराई आती जाती है, फिर भी ऊपर तो जल सपाट ही रहता है, इसी प्रकार जगतके सभी धर्ममत एक तालाबरूप है । उन्हें ऊपरसे सामान्य सतह देखकर समान कह देना यह उचित नही है । यो कहनेवाले तत्त्वको पाये हुए भी नही है । जैन एक एक पवित्र सिद्धान्तपर विचार करते हुए आयु भी पूर्ण हो जाये तो भी पार न पाये, ऐसी स्थिति है। बाकी के सभी धर्ममतोके विचार जिनप्रणीत वचनामृतसिंधुके आगे एक बिन्दुरूप भी नहीं हैं । जिसने जैनदर्शनको जाना और सेवन किया वह सर्वथा नीरागी और सर्वज्ञ हो जाता है । इसके पवर्तक कैसे पवित्र पुरुष थे ? इसके सिद्धात कैमे अखड, संपूर्ण और दयामय है ? इसमे दूषण कोई भी नही है । सर्वथा निर्दोष तो मात्र इनका दर्शन है। ऐसा एक भी पारमार्थिक विषय नही है कि जो जैनदर्शनमे न हो और ऐसा एक भी तत्त्व नहीं है कि जो जैनदर्शन नहीं है । एक विषयको अनत भेदोंसे परिपूर्ण कहनेवाला तो जैनदर्शन ही है । प्रयोजनभूत तत्त्व इसके जेसे कही भी नही हैं। एक देहमे दो आत्मा नही है इसी प्रकार सारी सृष्टिमे दो जैन अर्थात् जैनके तुल्य एक भी दर्शन नही है मात्र उसकी परिपूर्णता, नोरागिता, सत्यता और जगद्द्द्द्तैिषिता ।
।
ऐसा कहनेका कारण क्या ?
शिक्षापाठ ९६ : तत्त्वावबोध - भाग १५
न्यायपूर्वक इतना मुझे भी मान्य रखना चाहिये कि जब एक दर्शनको परिपूर्ण कहकर बात सिद्ध करनी हो तब प्रतिपक्षको मध्यस्थवुद्धिसे अपूर्णता दिखानी चाहिये। और इन दो बातो पर विवेचन करने जितना यहा स्थान नही है, तो भी थोड़ा थोडा कहता आया हूँ | मुख्यत. जो बात है वह यह है कि मेरी यह बात जिसे रुचिकर न लगती हो या असम्भव लगनी हो' उसे जनतत्त्वविज्ञानी शास्त्रोको और अन्य तत्त्वविज्ञानी शास्त्रोको मध्यस्थबुद्धिसे मनन करके न्यायके काँटेपर तौलना चाहिये । इसपरसे अवश्य हो इतना महावाक्य फलित होगा कि जो पहले डकेकी चोटसे कहा गया था वह सच था ।
गत भेडियाधसान है । धर्मके मतभेदसम्बन्धी शिक्षापाठमे प्रदर्शित किये अनुसार अनेक धर्ममतोका जाल फैला हुआ है । विशुद्ध आत्मा कोई ही होता है । विवेकसे कोई ही तत्त्वको खोजता है ! इसलिये मुझे कुछ विशेष खेद नही है कि अन्य दार्शनिक जैनतत्त्वको किसलिये नही जानते ? यह आशका करने योग्य नही है ।
फिर भी मुझे बहुत आश्चर्य लगता है कि केवल शुद्ध परमात्मतत्त्वको पाये हुए, पकल दूषणरहित, मृपा कहनेका जिन्हे कोई निमित्त नही है ऐसे पुरुषोके कहे हुए पवित्र दर्शनको स्वयं तो जाना नही, अपने आत्माका हित तो किया नही, परन्तु अविवेकसे मतभेदमे पडकर सर्वथा निर्दोष और पवित्र दर्शनको नास्तिक किसलिये कहा होगा ? मैं समझता हूँ कि ऐसा कहनेवाले इसके तत्त्वोको जानते न थे । तथा इसके तत्त्वोको जाननेसे अपनी श्रद्धा बदल जायेगी, तब लोग फिर अपने पहले कहे हुए मतको नही मानेंगे,
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१७ दो वर्ष
१२२ जिस लोकिक मतसे अपनी आजीविका चल रही है, ऐसे वेदोकी महत्ता घटानेसे अपनी महता घटेगी, अपना मिथ्या स्थापित किया हुआ परमेश्वरपद नही चलेगा, इसलिये जनतत्वमे प्रवेश करनेकी रुविको मूलसे ही बद करनेके लिये लोगोको ऐसी भ्रमभस्म दी कि जैनदर्शन नास्तिक है। लोग तो बेचारे भोले भेडें हैं, इसलिये वे फिर विचार भी कहाँसे करे ? यह कहना कितना अनर्थकारक और मृषा है, इसे दे ही जानते है जिन्होने वीतरागप्रणीत सिद्धान्त विवेकसे जाने है । सभवतः मदबुद्धि मेरे कहनेको पक्षपातपूर्ण मान लें।
शिक्षापाठ ९७ : तत्वावबोध-भाग १६ पवित्र जैनदर्शनको नास्तिक कहलवानेमे वे एक दलीलसे व्यर्थ ही मफल होना चाहते है कि जेनदर्शन इस जगतके कर्ता परमेश्वरको नही मानता, और जो परमेश्वरको नहीं मानता वह तो नास्तिक ही है। यह बात भद्रिक जनोको शीघ्र जम जाती है, क्योकि उनमे यथार्थ विचार करनेको प्रेरणा नहीं है। परन्त यदि इस परसे यह विचार किया जाये कि फिर जैन जगतको अनादि अनत तो कहता है तो किस न्यायसे कहता है ? जगतकर्ता नही है यो कहनेमे इसका कारण क्या है ? यो एकके वाद एक भेदरूप विचारसे वे जैनकी पवित्रताको समझ सकते हैं। जगतको रचनेकी परमेश्वरको क्या आवश्यकता थी? रचा तो सख-दख रखनेका क्या कारण था ? रचकर मौत किसलिये रखी? यह लोला किसे दिखानी थी? रचा तो किस कर्मसे रचा? उससे पहले रचनेको इच्छा क्यो नही थी? ईश्वर कान है ? जगतके पदार्थ क्या है ? और इच्छा क्या है ? रचा तो जगतमे एक ही धर्मका प्रवर्तन रखना था, यो भ्रममे डालनेकी क्या आवश्यकता थी ? कदाचित् मान लें कि यह सब उस बेचारेसे भूल हुई। खैर, क्षमा करें, परन्तु ऐसी सवाई बुद्धि कहाँसे सूझी कि उसने अपनेको ही जड-मूलसे उखाड़नेवाले महावीर जैसे पुरुषोको जन्म दिया ? इनके कहे हुए दर्शनको जगतमे क्यो विद्यमान रखा ? अपने हो हाथसे अपने ही पाँव पर कुल्हाडी मारनेकी उसे क्या आवश्यकता थी ? एक तो मानो इस प्रकारसे विचार और बाकी दूसरे प्रकारसे ये विचार कि जैनदर्शनके प्रवर्तकोको इससे कोई द्वेष था ? यह जगत्कर्ना होता तो यो कहनेसे उनके लाभको कोई हानि पहुँचती थी ? जगतकर्ता नही है, जगत अनादि अनत हे यो कहनेमे उन्हे कुछ महत्ता भिल जाती थी ? ऐसे अनेक विचार करनेसे मालूम होगा कि जैसा जगतका स्वरूप था वैसा ही उन पवित्र पुरुषोने कहा है। इससे भिन्न रूपमे कहनेका उन्हे लेशमात्र प्रयोजन नहीं था। सूक्ष्मसे सूक्ष्म जीवको रक्षाका जिन्होने विधान किया है, एक रजकणसे लेकर सारे जगतके विचार जिन्होने सर्व भेदोंसे कहे है, ऐसे पुरुषोंके पवित्र दर्शनको नास्तिक कहनेवाले किस गतिको प्राप्त होगे यह सोचते हुए दया आती है।
शिक्षापाठ ९८ : तत्त्वावबोध-भाग १७ जो न्यायसे जय प्राप्त नही कर सकता वह फिर गालियाँ देने लगता है, इसी तरह जब गकराचार्य, दयानन्द संन्यासी इत्यादि पवित्र जैनदर्शनके अखण्ड तत्त्व-सिद्धान्तोका खण्डन नही कर सके तब फिर वे 'जैन नास्तिक है', 'वह चार्वाकमेसे उत्पन्न हुआ है', ऐसा कहने लगे। परन्तु यहाँ कोई प्रश्न करे कि महाराज | यह विवेचन आप बादमे करै । ऐसे शब्द कहनेमे कुछ समय, विवेक या ज्ञानकी जरूरत नही है, परन्तु इसका उत्तर दें कि जैनदर्शन वेदसे किस बातमे कम है, इसका ज्ञान, इसका बोध, इसका रहस्य और इसका सत्शील कैसा है उसे एक बार कहे | आपके वेदविचार किस विषयमे जैनदर्शनसे उत्तम हैं ? इस प्रकार जब बात मर्मस्थानपर आतो हे तव मौनके सिवाय उनके पास दूसरा कोई साधन नही रहता । जिन सत्पुरुपोके वचनामृत और योगवलसे इस सृष्टिमे सत्य, दया, तत्त्वज्ञान और महाशील
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१३०
श्रीमद् राजचन्द्र उदयको प्राप्त होते है, उन पुरुषोकी अपेक्षा जो पुरुष शृगारमे रचे पचे पडे है, सामान्य तत्त्वज्ञानको भो नही जानते, जिनका आचार भी पूर्ण नही है, उन्हे उत्तम कहना, परमेश्वरके नामसे स्थापित करना, सत्यस्वरूपकी निन्दा करना तथा परमात्मस्वरूपको प्राप्त पुरुषोको नास्तिक कहना, यह सब उनकी कितनी अधिक कर्मकी बहुलताका सूचन करता है । परन्तु जगत मोहान्ध है, जहाँ मतभेद है वहाँ अँधेरा है, जहाँ ममत्व या राग है वहाँ सत्यतत्त्व नही है यह बात हम किसलिये न विचारें? ____ मैं एक मुख्य बात तुमसे कहता हूँ कि जो ममत्वरहित और न्याययुक्त है। वह यह है कि तुम चाहे जिस दर्शनको मानो, फिर चाहे जो तुम्हारी दृष्टिमे आये वैसे जैनदर्शनको कहो, सब दर्शनोंके शास्त्रतत्त्वको देखो उसी तरह जैनतत्त्वको भी देखो। स्वतन्त्र आत्मिक शक्तिसे जो योग्य लगे उसे अगीकार करो। मेरी या किसी दूसरेकी बातको भले एकदम तुम मान्य न करो, परन्तु तत्त्वका विचार करो।
शिक्षापाठ ९९ : समाजकी आवश्यकता __ आग्लभौमिक ससारसम्बन्धी अनेक कला-कौशलमे किस कारणसे विजयको प्राप्त हए ? यह विचार करनेसे हमे तत्काल मालम होगा कि उनका बहुत उत्साह और उस उत्साहमे अनेकोका मिल जाना उनकी विजयका कारण है। कला-कौशलके इस उत्साही काममे उन अनेक पुरुषोकी खडी हुई सभा या समाजने क्या परिणाम पाया? तो उत्तरमे यह कहा जायेगा कि लक्ष्मी, कीर्ति और अधिकार | उनके इस उदाहरणसे उस जातिके कला-कौशलोकी खोज करनेका मैं यहाँ उपदेश नहीं करता, परन्तु यह बतलाता हूँ कि सर्वज्ञ भगवानका कहा हुआ गुप्त तत्त्व प्रमादस्थितिमे आ पड़ा है, उसे प्रकाशित करनेके लिये तथा पूर्वाचार्योंके रचे हुए महान शास्त्रोको एकत्र करनेके लिये, गच्छोके पड़े हुए मतमतान्तरको दूर करनेके लिये तथा धर्मविद्याको प्रफुल्लित करनेके लिये सदाचारी श्रीमान और धीमान दोनोको मिलकर एक महान समाजकी स्थापना करनेकी आवश्यकता है। पवित्र स्याद्वादमतके ढंके हुए तत्त्वको प्रसिद्धिमे लानेका जब तक प्रयत्न नही होता तब तक शासनकी उन्नति भी नही होगी। संसारी कलाकौशलसे लक्ष्मी, कीर्ति और अधिकार मिलते हैं, परन्तु इस धर्मकलाकौशलसे तो सर्व सिद्धि सम्प्राप्त होगी। महान समाजके अन्तर्गत उपसमाज स्थापित करना । साम्प्रदायिक बाडेमे बैठे रहनेकी अपेक्षा मतमतान्तर छोडकर ऐसा करना उचित है। मै चाहता हूँ कि इस कृत्यकी सिद्धि होकर जैनके अन्तर्गच्छमतभेद दूर हो, सत्य वस्तुपर मनुष्य मण्डलका ध्यान आओ और ममत्व जाओ।
शिक्षापाठ १०० : मनोनिग्रहके विघ्न वारवार जो बोध करनेमे आया है उसमेसे मुख्य तात्पर्य यह निकलता है कि आत्माको तारो और तारनेके लिये तत्त्वज्ञानका प्रकाश करो तथा सत्शीलका सेवन करो। इसे प्राप्त करनेके लिये जो-जो मार्ग बतलाये है वे सब मार्ग मनोनिग्रहके अधीन है। मनोनिग्रहके लिये लक्ष्यकी विशालता करना यथोचित है। इसमे निम्नलिखित दोष विघ्नरूप है .१ आलस्य
७ अकरणीय विलास २ अनियमित निद्रा
८ मान ३ विशेष आहार
९ मर्यादासे अधिक काम ४ उन्माद प्रकृति
१० आत्मप्रशसा ५ माया प्रपच
११ तुच्छ वस्तुसे आनन्द ६. अनियमित काम
१२. रसगारवलुब्धता
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१३ अतिभोग
१४ दूसरेका अनिष्ट चाहना १५ निष्कारण कमाना
१७ वाँ वर्ष
१६. बहुतोका स्नेह
१७ अयोग्य स्थानमे जाना
१८ एक भी उत्तम नियमको सिद्ध नही करना । अष्टादश पापस्थानकका क्षय तव तक नही होगा जब तक इन अष्टादश विघ्नोंसे मनका सम्बन्ध है । ये अष्टादश दोप नष्ट होनेसे मनोनिग्रह और अभीष्ट सिद्धि हो सकती है । जब तक ये दोष मनसे निकटता रखते है तब तक कोई भी मनुष्य आत्मसार्थकता नही कर सकता । अति भोगके स्थानपर सामान्य भोग नही परन्तु जिसने सर्वथा भोगत्यागव्रत धारण किया है तथा जिसके हृदयमे इनमे से एक भी दोषका मूल नही है वह सत्पुरुष बडभागी है ।
शिक्षापाठ १०१ : स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य
१ एक भेदसे नियम ही इस जगतका प्रवर्तक है ।
२ जो मनुष्य सत्पुरुषोके चरित्ररहस्यको पाता है वह मनुष्य परमेश्वर हो जाता है ।
३ चचल चित्त हो सर्व विषम दुखोका मूल है ।
४ बहुतोका मिलाप और थोडोके साथ अति समागम ये दोनो समान दु खदायक है ।
५ समस्वभावीका मिलना इसे ज्ञानी एकान्त कहते हैं ।
६ इन्द्रियां तुम्हे जीतें और तुम सुख मानो इसकी अपेक्षा उन्हे जीतनेमे हो तुम सुख, आनन्द और परमपद प्राप्त करोगे ।
७ रागके बिना ससार नही और ससारके बिना राग नही ।
८ युवावस्थाका सर्वसंगपरित्याग परमपदको देता है ।
९ उस वस्तु विचारमे लगो कि जो वस्तु अतीन्द्रियस्वरूप है । १० गुणीके गुणमे अनुरक्त होओ।
शिक्षापाठ १०२ विविध प्रश्न - भाग १
आज मै तुमसे कितने ही प्रश्न निग्रन्थप्रवचनके अनुसार उत्तर देनेके लिये पूछता हूँ ।
प्र० - कहो धर्मकी आवश्यकता क्या है ?
उ०- अनादिकालीन आत्माके कर्मजालको दूर करनेके लिये ।
प्र० - जीव पहले या कर्म ?
१३१
उ०- दोनो अनादि ही है, यदि जीव पहले हो तो इस विमल वस्तुको मल लगनेका कोई निमित्त चाहिये । कर्म पहले कहो तो जीवके विना कर्म किये किसने ? इस न्यायसे दोनो अनादि ही है ।
प्र० - जीव रूपी या अरूपी ?
उ०- रूपी भी है और अरूपी भी है ।
प्र०-
-रूपी किस न्यायसे और अरूपी किस न्यायसे ? यह कहो । उ०- देहके निमित्तसे रूपी और स्वस्वरूपसे अरूपी है । प्रo - देह निमित्त किस कारणसे है ?
उ०- स्वकर्मके विपाकसे ।
?
प्र० - कर्मकी मुख्य प्रकृतियाँ कितनी हैं
उ०- आठ ।
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१३२
प्र० -- कौन कौन-सी ?
उ०- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, आयु और अन्तराय । प्र० - इन आठो कर्मोंकी सामान्य जानकारी दो ।
श्रीमद राजचन्द्र
उ०- ज्ञानावरणीय आत्माकी ज्ञानसम्बन्धी जो अनन्त शक्ति है उसका आच्छादन करता है । दर्शनावरणीय आत्माकी जो अनन्त दर्शनशक्ति है उसका आच्छादन करता है । वेदनीय अर्थात् देहनिमित्तमे साता असाता दो प्रकारके वेदनीय कर्मोंसे अव्याबाय सुखरूप आत्माकी शक्ति जिससे अवरुद्ध रहती है वह । मोहनीय कर्मसे आत्मचारित्ररूप शक्ति अवरुद्ध रही है । नामकर्मसे अमूर्तरूप दिव्य शक्ति अवरुद्ध रही है । गोत्रकर्मसे अटल अवगाहनारूप आत्मशक्ति अवरुद्ध रही है । आयुकर्मसे अक्षयस्थिति गुण अवरुद्ध रहा है | अन्तरायकर्मसे अनन्त दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोगकी शक्ति अवरुद्ध रही है ।
प्र० - इन कर्मकि दूर होनेसे आत्मा कहाँ जाता है ?
उ०- - अनन्त और शाश्वत मोक्षमे ।
शिक्षापाठ १०३ : विविध प्रश्न- भाग २
प्र० - इस आत्माका मोक्ष कभी हुआ है ?
उ०- नहीं ।
प्र०-कारण
?
उ०
उ०- मोक्षप्राप्त आत्मा कर्ममलरहित है, इसलिये उसका पुनर्जन्म नही है ।
प्र० -- केवलीक लक्षण क्या हैं ?
उ०—चार घनघाती कर्माका क्षय करके और शेष चार कर्मोंको दुर्बल करके जो पुरुष त्रयोदश गुणस्थानमे विहार करता है ।
प्र० -- गुणस्थानक कितने ? उ०- चौदह । प्र०—– उनके नाम कहो ।
१ मिथ्यात्व गुणस्थानक २ मास्वादन गुणस्थानक ● मिश्र गुणस्थानक ४ अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थानक
५ देशविरति गुणस्थानक
६ प्रमत्तसंयत गुणस्थानक
७ अप्रमत्तसयत गुणस्थानक
८ अपूर्वकरण गुणस्थानक ९ अनिवृत्तिबादर गुणस्थानक १० सूक्ष्मसापराय गुणस्थानक ११ उपशातमोह गुणस्थानक
१२ क्षीणमोह गुणस्थानक
१३ सयोगीकेवली गुणस्थानक १४ अयोगकेवली गुणस्थानक
शिक्षापाठ १०४ : विविध प्रश्न- भाग ३
प्र० - केवली और तीर्थकर इन दोनोमे क्या अन्तर है ?
उ०- केवली और तीर्थंकर शक्तिमे समान है, परन्तु तीर्थकरने पूर्वमे तीर्थंकरनामकर्मका उपार्जन किया है, इसलिये वे विशेषरूपसे बारह गुण और अनेक अतिशय प्राप्त करते हैं ।
प्र० - तीर्थंकर पर्यटन करके किसलिये उपदेश देते है ? वे तो नीरागी है ।
उ०—पूर्वमे जो तीर्थंकरनामकर्म बाँधा है उसे वेदन करनेके लिये उन्हे अवश्य ऐसा करना
पड़ता है ।
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१७ वाँ वर्ष
१३३ प्र.-अभी प्रवर्तमान शासन किसका है ? उ०-श्रमण भगवान महावीरका । प्र०-महावीरसे पहले जैनदर्शन था ? उ०-हाँ। प्र०-उसे किसने उत्पन्न किया था ? उ०-उनसे पहलेके तीर्थंकरोने । प्र०-उनके और महावीरके उपदेशमे कोई भिन्नता है क्या?
उ०-तत्त्वस्वरूपसे एक ही है । पात्रको लेकर उपदेश होनेसे और कुछ कालभेद होनेसे सामान्य मनुष्यको भिन्नता अवश्य मालूम होती है, परन्तु न्यायसे देखते हुए यह भिन्नता नही है ।
प्र०-उनका मुख्य उपदेश क्या है ?
उ.-आत्माको तारो, आत्माकी अनत शक्तियोका प्रकाश करो और उसे कर्मरूप अनंत दु.खसे मुक्त करो।
प्र०-इसके लिये उन्होने कौनसे साधन बताये हैं ?
उ०-व्यवहारनयसे सदेव, सद्धर्म और सद्गुरुका स्वरूप जानना, सद्देवका गुणगान करना, त्रिविध धर्मका आचरण करना और निर्ग्रन्थ गुरुसे धर्मका बोध पाना ।
प्र०-त्रिविध धर्म कौनसा? उ०-सम्यग्ज्ञानरूप, सम्यग्दर्शनरूप और सम्यक्चारित्ररूप ।
शिक्षापाठ १०५ : विविध प्रश्न-भाग ४ प्र०-ऐसा जैनदर्शन जब सर्वोत्तम है तब सभी आत्मा इसके वोधको क्यो नही मानते? उ०-कर्मको बहुलतासे, मिथ्यात्वके जमे हुए दलसे और सत्समागमके अभावसे । प्र०—जैनमुनियोंके मुख्य आचार क्या है ?
उ० –पाँच महाव्रत, दशविध यतिधर्म, सप्तदशविध सयम, दशविध वैयावृत्य, नवविध ब्रह्मचर्य, द्वादश प्रकारका तप, क्रोधादिक चार प्रकारके कषायका निग्रह, इनके अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन और चारित्रका आराधन इत्यादि अनेक भेद है।
प्र०—जैनमुनियोके जैसे ही सन्यासियोके पांच याम है, बौद्धधर्ममे पाँच महाशील है। इसलिये इस आचारमे तो जैनमुनि, सन्यासी तथा बौद्धमुनि एक-से है न ?
उ.-नही। प्र०—क्यो नही?
उ.--उनके पाँच याम और पांच महाशील अपूर्ण है। महाव्रतके प्रतिभेद जैनमे अति सूक्ष्म हैं । उन दोनोंके स्थूल हैं।
प्र०-सूक्ष्मताके लिये कोई दृष्टान्त भी तो दो ।
उ०–दृष्टान्त प्रत्यक्ष ही है । पचयामी कदमूलादिक अभक्ष्य खाते हे, सुखशय्यामे सोते है, विविध प्रकारके वाहनो और पुष्पोका उपभोग करते हैं, केवल शीतल जलसे व्यवहार करते है, रात्रिमे भोजन करते है । इसमे होनेवाला असख्यात जतुओका विनाश, ब्रह्मचर्यका भग इत्यादिकी सूक्ष्मता वे नही जानते ।
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१९ वाँ वर्ष
१८
वाणिया, मि २६-१-८-१९
मुकुटमणि रवजीभाई देवराजको पवित्र सेवामे,
ववाणिया बदरसे वि० रायचंद वि० रवजीभाई मेहताका प्रेमपूर्वक प्रणाम मान्य कीजियेगा । य धर्म-प्रभाव वृत्तिसे कुशल हूँ । आपकी कुशलता चाहता हूँ । आपका दिव्य प्रेमभावभूपित पत्र मुझे मिल पढकर अत्यानदार्णवतरगें उमड आईं है । दिव्य प्रेमका अवलोकन करके आपका परम स्मरण हो आया है ऐसे प्रेम भरे पत्र निरतर मिलते रहनेका निवेदन है, और उसे स्वीकृत करना आपके हाथकी बात है । इ लिये चिन्ता जैसा नही है | आपके द्वारा पूछे गये प्रश्नो के उत्तर यहाँ प्रस्तुत करनेकी अनुमति लेता हूँ । प्रवेशक. - आपका लिखना उचित है । स्वस्वरूपका चित्रण करते हुए मनुष्य झिझकता जरूर है। परतु स्वस्वरूपमे जब आत्मस्तुतिका किंचित् अश मिल जाये तब, नही तो कदापि नही, ऐसा मेरा अभिप्रा है । आत्मस्तुतिका सामान्य अर्थ भी ऐसा होता है कि अपनी झूठी आपवडाई चित्रित करना, अन्यथा व आत्मस्तुतिका उपनाम प्राप्त करती है, परंतु यथार्थ चित्रण वैसा नही कहा जाता । और यदि यथा स्वरूपको आत्मस्तुति माना जाये तो फिर महात्मा प्रख्यातिमे आवे ही कैसे ? इसलिये आपके पूछनेप स्वस्वरूपकी सत्यता किंचित् बताते हुए यहाँ मैंने सकोच नही किया है, और तदनुसार करते हुए मैं न्याय पूर्वक दोषी भी नही हुआ हैं ।
अ—बम्बई-निवासी पडित लालाजीके अवधानोके सवधमे आपने बहुत कुछ पढा होगा । ये पडित राज अष्टावधान करते है, जो हिंदप्रसिद्ध है ।
यह लिखनेवाला बावन अवधान खुले आम एक वार कर चुका है, और उसमे यह विजयी सिद्ध ह सका है । वे बावन अवधान
१ तीन व्यक्तियोके साथ चौपड खेलते जाना
२ तीन व्यक्तियोके साथ ताश खेलते जाना
३ एक व्यक्तिके साथ शतरज खेलते जाना
४ झालरके बजते टकोरे गिनते जाना
५ जोड, बाकी, गुणाकार एव भागाकार मनमे गिनते जाना
६ माला के मनकेपर ध्यान रखकर गिनती करना
७ आठेक नयी समस्याओकी पूर्ति करना
८ विवादकोसे निर्दिष्ट सोलह नये विषयोपर निर्दिष्ट छदोमे रचना करते जाना ९ ग्रीक, अँग्रेजी, संस्कृत, अरबी, लेटिन, उर्दू, गुजराती, मराठी, बगाली, मारवाडी, जाडेजी आदि सोलह भाषाओके अनुक्रमविहीन चारसी शब्द कर्ता-कर्मसहित पुन. अनुक्रमबद्ध कह सुनाना बीचमे दूसरे काम भी करते जाना
१० विद्यार्थीको समझाना
११ कतिपय अलकारोका विचार
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श्रीमद् राजचद्र
जन्म -
- ववाणीआ सन् १९२४ कार्तिक पूर्णिमा रविवार
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मृत्यु - राजकोट
सन् १९५७ चैत कृष्ण पक्ष पंचमी मगलवार
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श्रीमद् राजचन्द्र इसी प्रकार बौद्धमुनि मासादिक अभक्ष्य और सुखशील साधनोंसे युक्त हैं। जैनमुनि तो इनसे सर्व विरक्त हो हैं।
शिक्षापाठ १०६ : विविध प्रश्न-भाग ५ प्र०-वेद और जैनदर्शनमे प्रतिपक्षता है क्या ?
उ०-जैनदर्शनकी वेदसे किसी द्वेषसे प्रतिपक्षता नही है, परन्तु जैसे सत्यका असत्य प्रतिपक्ष गिना जाता है वैसे जैनदर्शनसे वेदका सबध है।
प्र०-इन दोनोमे आप किसे सत्यरूप कहते हैं ? उ०-पवित्र जनदर्शनको। - प्र०-वेददर्शनवाले वेदको कहते हैं, उसका क्या ?
उ०--यह तो मतभेद और जैनदर्शनके तिरस्कारके लिये है। परन्तु न्यायपूर्वक दोनोंके मूलतर आप देख जाइये।
प्र०-इतना तो मुझे लगता है कि महावीरादिक जिनेश्वरोका कथन न्यायके कॉटे पर है, परन जगतकर्ताका वे निषेध करते है, और जगत अनादि अनत है ऐसा कहते है, इस विषयमे कुछ कुछ शव होती है कि यह असख्यात द्वीप-समुद्रयुक्त जगत बिना बनाये कहाँसे हुआ ?
उ०-आपको जब तक आत्माकी अनत शक्तिकी लेश भी दिव्य प्रसादी नही मिली तब तक ऐस लगता है, परन्तु तत्त्वज्ञानसे ऐसा नही लगेगा। 'सम्मतितर्क' ग्रन्थका आप परिशीलन करेंगे तो यह शंक दूर हो जायेगी।
प्र०-परतु समर्थ विद्वान अपनी मृषा बातको भी दृष्टातादिकसे सैद्धान्तिक कर देते है, इसलिए वह खडित नही हो सकती, परन्तु वह सत्य कैसे कही जाये ?
उ०—परन्तु उन्हे कुछ मृषा कहनेका प्रयोजन न था, और थोडी देरके लिये यो मानें कि हमे ऐसे शंका हुई कि यह कथन मृषा होगा तो फिर जगतकाने ऐसे पुरुषको जन्म भी क्यो दिया ? नामडुबाउ पुत्रको जन्म देनेका क्या प्रयोजन था ? और फिर वे सत्पुरुष सर्वज्ञ थे, जगतकर्ता सिद्ध होता तो ऐस कहनेसे उन्हे कुछ हानि न थी।
शिक्षापाठ १०७ : जिनेश्वरकी वाणी
( मनहर छन्द) *अनंत अनंत भाव भेदथी भरेली भली, अनंत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानी छे; सकल जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोक्षचारिणी प्रमाणी छे; उपमा आप्यानी जेने तमा राखवी ते व्यर्थ,
आपवाथी निज मति मपाई मे मानी छे; *भावार्थ-जिनेश्वरकी वाणी अनतानत भावभेदोंसे भरी हुई है, इसलिये मनोहर है, अनतानत नय-निक्षेपोसे जिसकी व्याख्या की गई है, जो सकल जगतका हित करनेवाली, मोहको हरनेवाली, भवसागरसे तारनेवाली है और जिसे मोक्ष देनेके लिये समर्ध एव प्रमाणभूत माना है, जिसे उपमा देनेकी लालसा रखना व्यर्थ है, और उपमा देनेसे
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१७ वॉ वर्ष
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अहो ! राजचन्द्र, बाळ ख्याल नथी पामता ए, जिनेश्वर तणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे ॥१॥
शिक्षापाठ १०८ : पूर्णमालिका मंगल
(उपजाति) *तपोपध्याने रविरूप थाय, ए साघीने सोम रही सुहाय; महान ते मंगळ पंक्ति पामे, आवे पछी ते बुधना प्रणामे ॥१॥ निर्गन्य ज्ञाता गुरु सिद्धिदाता, कां तो स्वयं शुक्र प्रपूर्ण ख्याता; त्रियोग त्यां केवळ मंद पामे, स्वरूप सिद्धे विचरी विरामे ॥२॥
अपनी मतिका माप निकल जाता है, ऐसा मैंने माना है। राजचन्द्र कहते हैं कि यह कितना आश्चर्य है कि अज्ञानी जीवोको जिनवाणीका ख्याल भी नही आता अर्थात् वे उसकी महिमाको नही जानते हैं। जिनेश्वरकी वाणीको जिसने जाना है उसीने जाना है ॥१॥
*भावार्य-आत्मा तप और ध्यानसे सूर्यकी भांति तेजस्वी होता है। तप और ध्यानकी सिद्धिसे शान्त तथा शीतल होकर आत्मा चद्रकी तरह शोभता है। फिर महामगलकी महापदवीको प्राप्त होता है। फिर वह बुधके परिणाममें आता है अर्थात् बोधिस्वरूप हो जाता है ।। १ ।।
फिर वह सिद्धिदाता एव ज्ञाता निर्ग्रन्थ गुरु अथवा पूर्ण व्याख्याता स्वय शुक्रका स्थान ग्रहण करता है। उस दशामें त्रियोग सर्वथा मद हो जाते हैं। परिणामत आत्मा स्वरूप सिद्ध होनेपर ऊर्ध्वगमन करके सिद्धालयमें विराजता है ॥२॥
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१९वां वर्ष
१३७ इस प्रकार किये गये बावन अवधानोके सवधमे लिखनेकी यहाँपर पूर्णाहुति होती है।
ये वावन काम एक समयमे एक साथ मनःशक्तिमे धारण करने पड़ते है। अज्ञात भाषाके विकृत अक्षर सुकृत करने पड़ते हैं । सक्षेपमे आपसे कह देता हूँ कि यह सब याद ही रह जाता है। (अभी तक कभी विस्मृति नही हुई है ।) इसमे बहुत-कुछ मर्म समझना रह जाता है। परन्तु दिलगीर हूँ कि वह समझाना प्रत्यक्षमे ही सभव है। इसलिये यहाँ लिखना वृथा है। आप निश्चय कीजिये कि यह एक घटेका कितना कौशल्य है ? सक्षिप्त हिसाब गिनें तो भी बावन श्लोक तो एक घंटेमे याद रहे या नहीं? सोलह नये (विषय), आठ समस्याएँ, सोलह भिन्न-भिन्न भाषाके अनुक्रमविहीन अक्षर और बारह दूसरे काम कुल मिलाकर एक विद्वानने गिनती करनेपर मान्य रखा था कि ५०० श्लोकोका स्मरण एक घटेमे रह सकता है। यह बात अब यहॉपर इतनेसे ही समाप्त कर देते है।
आ-तेरह महीने हुए देहोपाधि और मानसिक व्याधिके परिचयसे कितनी ही शक्ति दबाकर रखने जैसी ही हो गई है। ( बावन जैसे सौ अवधान तो अभी भी हो सकते है । ) नही तो आप चाहे जिस भाषाके सौ श्लोक एक बार बोल जाये तो उन्हे पुनः उसी प्रकार स्मृतिमे रखकर कह सुनानेकी समर्थता इस लेखकमे थी। और इसके लिये तथा अवधानोके लिये इस मनुष्यको 'सरस्वतीका अवतार' ऐसा उपनाम मिला हआ है। अवधान आत्मशक्तिका कार्य है, यह मुझे स्वानुभवसे प्रतीत हुआ है। आपका प्रश्न ऐसा है कि “एक घटेमे सौ श्लोक स्मरणमे रह सकते है ?" इसकी मार्मिक स्पष्टता तो उपर्यक्त विषय कर ही देंगे, ऐसा मानकर उसे यहाँ नही लिखा है। आश्चर्य, आनन्द और सदेहमेसे अब आपको जो योग्य लगे उसे ग्रहण करें।
इ-मेरी क्या शक्ति है ? कुछ भी नही। आपको शक्ति अद्भुत है । आप मेरे लिये आश्चर्यचकित होते है और मै आपके लिये आनदित होता हूँ।
आप सरस्वती सिद्ध करनेके लिये काशीक्षेत्रकी ओर पधारनेवाले है, . यह पढकर मै अत्यानद-कुशल हुआ हूँ। अस्तु | आप कौनसे न्यायशास्त्रकी बात करते है ? गौतम मुनिका या मनुस्मृति, हिंदु धर्मशास्त्र, मिताक्षरा, व्यवहार, मयूख आदि प्राचीन न्यायग्रन्थ या आधुनिक ब्रिटिश लॉ, प्रकरण? इसकी स्पष्टता मुझे नही हुई। मुनिका न्यायशास्त्र मुक्ति-प्रकरणमे समाविष्ट होने योग्य है । दूसरे ग्रन्थ राज्य-प्रकरणमे
"ब्रिटिशमा माठा"-समाविष्ट होते हैं । तीसरा खास ब्रिटिशके लिये ही है, परन्तु वह अंग्रेजीमे है। तो अब आपने इनमेसे किसे पसन्द किया है ? यह मर्म खुलना चाहिये। यदि मुनिशास्त्र और प्राचीन शास्त्रके सिवाय गिना हो तो इसका अभ्यास काशीमे नही होता । परन्तु मेट्रिक्युलेशन पास होनेके बाद बम्बई और पूनामे होता है। दूसरे शास्त्र समयानुकूल नही हैं। आपका विचार जाने बिना ही यह सब लिख डाला है। परन्तु लिख डालनेमे भी एक कारण है । वह यह है कि आपने साथमे अंग्रेजी विद्याभ्यासकी वात लिखी है, तो मैं मानता हूँ कि इसमे आप कुछ भूल करते होगे। बम्बईकी अपेक्षा काशीकी तरफ अंग्रेजीअभ्यास कुछ उत्कृष्ट नही है; जब उत्कृष्ट न हो तब दूर जानेका हेतु कुछ सौर होगा। आप लिखें तो जानें, तब तक शंकाग्रस्त हूँ।
१ मुझे अभ्यासके बारेमे पूछा है इसकी जो स्पष्टता मुझे करनी है, वह उपर्युक्त वातकी स्पष्टता हुए बिना नहीं की जा सकती; और जो स्पष्टता में करनेवाला हूँ वह दलीलोंसे करूंगा।
ज्ञानवर्धक सभाके व्यवस्थापकका उपकार मानता हूँ, क्योकि वे इस अनुचरके लिये कष्ट उठाते हैं। यह सारी स्पष्टता सक्षेपमे कर दी है। विशेषकी आवश्यकता हो तो पूछिये ।
१ यह किसी ग्रन्थका नाम है।
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२० वाँ वर्ष
' 'महानीति
(वचन सप्तशती) १. सत्य भी करुणामय बोलना। २. निर्दोष स्थिति रखना। ३. वैरागी हृदय रखना। ४. दर्शन भी वैरागी रखना। ५ पहाड़की तलहटीमे अधिक योग साधना । ६ बारह दिन पत्नी संसर्गका त्याग करना । ७ आहार, विहार, आलस्य, निद्रा इत्यादिको वशमे करना । ८. संसारकी उपाधिसे यथासंभव विरक्त रहना । ९. सर्व-संगउपाधिका त्याग करना । १०. गृहस्थाश्रमको विवेकी बनाना। ११. तत्त्वधर्मको सर्वज्ञतासे प्रणीत करना। १२ वैराग्य और गम्भीरभावसे बैठना। १३. सारी स्थिति वैसी ही। १४. विवेकी, विनयी ओर प्रिय भी मर्यादित बोलना। १५. साहसिक कार्य करनेसे पहले विचार करना । १६. प्रत्येक प्रकारसे प्रमादको दूर करना । १७ सभी कार्य नियमित ही रखना। १८. शक्ल भावसे मनुष्यका मन हरना । १९. सिर जाते हुए भी प्रतिज्ञा भंग न करना। २०. मन, वचन और कायाके योगसे परपत्नीका त्याग । २१. इसी प्रकार वेश्या, कुमारी, विधवाका त्याग ।
२२ मन, वचन और कायाका अविचारसे उपयोग न करूं। । २३. निरीक्षण नहीं करूँ। २४. हावभावसे मोहित न होऊँ। २५. वातचीत नही करूं। २६. एकान्तमे नही रहूँ।
२७ स्तुति नही करूँ। १. देखें आक २१ में न० १६ तथा आक २७ ।
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सन् १९४३
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श्रीमद् राजचद्र
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वर्ष १८
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१३९
२०वाँ वर्ष २८ चिंतन नही करूं। २९ शृंगार-साहित्य नही पहूँ। ३०. विशेष प्रसाद नही लूँ। ३१ स्वादिष्ट भोजन नही लें। ३२. सुगंधी द्रव्यका उपयोग नही करूं । ३३. स्नान व मजन नही करूं। ३४. ३५. काम विषयको ललित भावसे नही चाहूँ। ३६. वीर्यका व्याघात नही करूँ। ३७ अधिक जलपान नही करूँ। ३८ कटाक्ष दृष्टिसे स्त्रीको नही देखें। ३९ हँसकर बात नही करूँ । (स्त्रीसे) ४० शृङ्गारी वस्त्र नही देखू । ४१ दपती-सहवासका सेवन नही करूँ। ४२. मोहनीय स्थानकमे नही रहूँ। ४३. इस प्रकार महापुरुषोको पालन करना चाहिये । मै पालन करनेमे प्रयत्नशील हूँ। ४४ लोकनिंदासे नही डरू। ४५. राज्यभयसे त्रस्त न होऊँ। ४६ असत्य उपदेश नही हूँ। ४७ सदोष क्रिया नही करूँ। ४८ अहंपद रखू या बोलू नही । ४९ सम्यक् प्रकारसे विश्वकी ओर दृष्टि करूँ। ' ५० नि स्वार्थभावसे विहार करूँ। ५१ अन्यमे मोहनी उत्पन्न करनेवाला देखाव नही करू। ५२ धर्मानुरक्त दर्शनसे विचरण करूं। ५३. सब प्राणियोमे समभाव रखें। ५४. क्रोधी वचन नही बोलू। ५५ पापी वचन नही बोलू । ५६ असत्य आज्ञा नही हूँ। ५७. अपथ्य प्रतिज्ञा नही हूँ। ५८ सृष्टिसौदर्यमे मोह नही रखू । ५९ सुख-दुःखमे समभाव रखू। ६०. रात्रिभोजन नहीं करूं। ६१ नशीली वस्तुका सेवन नही करू। ६२ प्राणीको दुख देनेवाला असत्य नही बोलूं। ६३ अतिथिका सन्मान करूं। ६४ परमात्माकी भक्ति करूं। ६५. प्रत्येक स्वयबुद्धको भगवान मानूं।
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१४०
श्रीमद राजचन्द्र ६६. उसकी प्रतिदिन पूजा करूं। ६७ विद्वानोका सन्मान करूँ। ६८. विद्वानोंसे माया नही करूँ। ६९ मायावीको विद्वान नही कहूँ। ७० किसी दर्शनकी निंदा नही करूँ। ७१. अधर्मकी स्तुति नही करूँ । ७२ एक पक्षीय मतभेद नही बनाऊँ । ७३ अज्ञान पक्षकी आराधना नही करूं। ७४ आत्मप्रशसा नही चाहूँ। ७५ किसी कृत्यमे प्रमाद नही करूं। ७६. मासादिक आहार नही करूं । ७७. तृष्णाको शांत करूँ। ७८ तापसे मुक्त होनेमे मनोज्ञता मानूं । ७९ उस मनोरथको पूरा करनेके लिये परायण होऊँ । ८० योगसे हृदयको शुक्ल करूँ। ८१. असत्य प्रमाणसे वार्तापूर्ति नही करूँ। ८२ असंभव कल्पना नही करूँ । ८३ लोक-अहितका विधान नही करूं। ८४. ज्ञानीकी निंदा नही करूं। ८५ वैरीके गुणकी भी स्तुति करू । ८६. किसीसे वैरभाव नही रखू । ८७. माता-पिताको मुक्तिमार्गपर चढाऊँ। ८८. सुमार्गसे उनका बदला चुकाऊँ। ८९ उनकी मिथ्या आज्ञा नही मान। ९०. स्वस्त्रीसे समभावसे वर्ताव करूं।
९१.
९२ जल्दीसे नही चले। ९३ तीव्र वेगसे नही चलं। ९४ ऐंठकर नही चलू। ९५. उच्छृङ्खल वस्त्र नही पहनें। ९६ वस्त्रका अभिमान नही करूँ। ९७. अधिक बाल नही रखू । ९८ तग वस्त्र नही पहनें। ९९. अपवित्र वस्त्र नही पहनूं। १०० ऊनके वस्त्र पहननेका प्रयत्न करूं । : -- - - - १०१ रेशमी वस्त्रका त्याग करूं। १०२ शात चालसे चलू। १०३ मिथ्या आडंबर नही करूँ।
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२०वा वर्ष
१४१
१०४. उपदेशकको द्वेषसे नही देखू । १०५. द्वेषमात्रका त्याग करूँ। १०६ रागदृष्टिसे एक भी वस्तुका आराधन नही करूं। १०७. वैरीके सत्य वचनका मान करू। १०८. १०९. ११०.
१११.
११२.
११३
११४. ११५. ११६ बाल नही रखू । (गृ०) ११७ कचरा नही रखू । ११८. कीचड नही करूँ-आँगनके पास । ११९. मुहल्लेमे अस्वच्छता नही रखू। (साधु) १२० फटे कपडे नही रखें। १२१. अनछना पानी नही पीऊँ। १२२. पापी जलसे नही नहाऊँ । १२३. अधिक जल नही गिराऊ । १२४ वनस्पतिको दुख नही हूँ। १२५ अस्वच्छता नही रखू । १२६ प्रहरका पकाया हुआ भोजन नही करूँ। १२७. रसेंद्रियकी वृद्धि नही करूं । १२८. रोगके बिना औषधका सेवन नही करू। १२९ विषयका औषध नही खाऊँ । १३०. मिथ्या उदारता नही करूं। १३१. कृपण नही होऊँ। १३२. आजीविकाके सिवाय किसीमे माया नहीं करूं। १३३ आजीविकाके लिये धर्मका उपदेश नही करूँ। १३४ समयका अनुपयोग नही करूं। १३५. विना नियम कार्य नहीं करूं। १३६. प्रतिज्ञा-व्रत नही तोडूं। १३७. सत्य वस्तुका खडन नही करूँ। १३८. तत्त्वज्ञानमे शकित नही होऊँ। १३९ तत्त्वका आराधन करते हुए लोकनिंदासे नही डरूँ। १४०. तत्त्व देते हुये माया नही करूं । १४१. स्वार्थको धर्म नही कहूँ।
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१४२
श्रीमद् राजचन्द्र १४२. चारो वर्गका मंडन करूं। १४३ धर्मसे स्वार्थ सिद्ध नही करूँ । १४४ धर्मपूर्वक अर्थ कमाऊँ । १४५ जड़ता देखकर रोष नही करूं। १४६. खेदकी स्मृति नही लाऊँ । १४७. मिथ्यात्वका विसर्जन करूं। . १४८. असत्यको सत्य नही कहूँ। १४९. श्रृंगारको उत्तेजन नही हूँ। १५०. हिंसासे स्वार्थ नही चाहूँ। १५१. सृष्टिका खेद नही बढाऊँ। १५२. मिथ्या मोह उत्पन्न नही करूँ । १५३. विद्याके बिना मूर्ख नही रहूँ। १५४ विनयकी आराधना करके रहूँ। १५५. मायाविनयका त्याग करूं। १५६ अदत्तादान नही लें। १५७. क्लेश नही करूं । १५८. दत्ता अनीति नही लूं। १५९ दुःखी करके धन नही लूं। १६०. झूठा तौल नही तौलं। १६१. झूठी गवाही नही हूँ। १६२. झूठी सौगंध नही खाऊँ। १६३. हँसी नही करूं। १६४. मृत्युको समभावसे देखू । १६५. मौतसे हर्ष मानना। १६६ किसीकी मौतपर नही हँसना । १६७. हृदयको विरागी करता जाऊँ । १६८ विद्याका अभिमान नही करूँ। १६९. गुरुका गुरु नही बनूं। . १७० अपूज्य आचार्यकी पूजा नही करूं। १७१. उसका मिथ्या अपमान नही करूँ। १७२ अकरणीय व्यापार नहीं करूं। १७३. गुणहीन वक्तृत्वका सेवन नही करूं । १७४. तात्त्विक तप अकालिक नही करूँ। १७५ शास्त्र पढूं। १७६. अपने मिथ्या तर्कको उत्तेजन नही दूं। १७७ सर्व प्रकारकी क्षमा चाहूँ। १७८ सतोषकी प्रयाचना करूँ। १७९. स्वात्मभक्ति करूं। १८०. सामान्य भक्ति करूं।
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२०वा वर्ष
१४३
१८१. अनुपासक होऊँ। १८२. निरभिमानी होऊ। १८३. मनुष्यजातिमे भेद न गिनें । १८४. जडकी दया खाऊँ । १८५. विशेषसे नयन ठंडे करू । १८६ सामान्यसे मित्रभाव रखू । १८७ प्रत्येक वस्तुका नियम करूँ। १८८. सादी पोशाकको चाहूँ। १८९. मधुर वाणी बोलू। १९०. मनोवीरत्वकी वृद्धि करूँ। १९१ प्रत्येक परिषह सहन करूँ। १९२ आत्माको परमेश्वर मानें। १९३ पुत्रको तेरे मार्गपर चढाऊँ। (पिता इच्छा करता है।) १९४ खोटे लाड़ नही लड़ाऊँ । १९५ मलिन नही रख। १९६. उलटी बातसे स्तुति नही करू। , १९७ मोहभावसे नही देखू । १९८ पुत्रीकी सगाई योग्य गुणवालेसे करूँ। १९९. समवयस्क देखू । २०० समगुणी देखू । २०१ तेरे सिद्धातका भग करनेवाला ससारव्यवहार न चलाऊ । २०२ प्रत्येकको वात्सल्यका उपदेश दूं। २०३ तत्त्वसे नही उकताऊँ । २०४ विधवा हूँ। तेरे धर्मको अगीकार करूं । (विधवा इच्छा करती है ।) २०५ सुवासिनी साज नही सā । २०६. धर्मकथा करूं। २०७ निठल्ली नही रहूँ। २०८. तुच्छ विचारपर नही जाऊँ । २०९ सुखकी ईर्ष्या नही करूं । २१० ससारको अनित्य मानूं। २११. शुद्ध ब्रह्मचर्यका सेवन करूं। २१२. परघरमे नही जाऊँ। २१३ किसी पुरुषके साथ बात नही करूं। २१४ चचलतासे नही चलूँ। २१५ ताली देकर बात नहीं करूं । २१६ पुरुष-लक्षण नही रखू । २१७ किसीके कहनेसे रोष नही लाऊँ। २१८ त्रिदडसे खेद नही मानें।
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श्रीमद् राजचन्द्र २१९. मोहदृष्टिसे वस्तुको नही देखू । २२० हृदयसे दूसरा रूप नही रखू। २२१ सेव्यकी शुद्ध भक्ति करूं । (सामान्य) २२२ नीतिसे चलूं। २२३. तेरी आज्ञाका भङ्ग नही करूँ। २२४. अविनय नही करूं। २२५ छाने बिना दूध नही पीऊँ। २२६ तेरे द्वारा निषिद्ध वस्तु उपयोगमे नही लाऊँ। २२७. पापसे जय करके आनन्द नही मानूँ । २२८ गायनमे अधिक अनुरक्त नही होऊँ । २२९. नियम तोड़नेवाली वस्तु नही खाऊँ। २३० गृहसौदर्यकी वृद्धि करूँ। २३१ अच्छे स्थानोकी इच्छा नही करूं । २३२ अशुद्ध आहार-जल नही लूं । ( मुनित्व भाव ) २३३ केशलुचन करूँ।। २३४ प्रत्येक प्रकारसे परिषह सहन करूं । २३५ तत्त्वज्ञानका अभ्यास करूँ। २३६ कदमूलका भक्षण नही करूं। २३७ किसी वस्तुको देखकर प्रसन्न न होऊँ । २३८ आजीविकाके लिये उपदेशक नही बनूँ (२) २३९, तेरे नियमको नही तोड्। २४० श्रुतज्ञानकी वृद्धि करूँ। २४१ तेरे नियमका मडन करूं। २४२ रसगारव नही होऊँ। २४३ कषाय धारण नही करूँ। २४४ बन्धन नही रखू । २४५ अब्रह्मचर्यका सेवन नही करूं । २४६ आत्मा परात्माको समान मानूं । (२) २४७ लिये हुए त्यागका त्याग नही करूँ। २४८ मृषा इत्यादि भापण नही करूं। २४९ किसी पापका सेवन नही करूं । २५० अवध पापकी क्षमापना करूँ। २५१. क्षमायाचनामे अभिमान नही रखू। (मुनि सामान्य) २५२ गुरुके उपदेशका भङ्ग नही करूँ। २५३ गुरुका अविनय नही करूं । २५४ गुरुके आसनपर नही वैलूं । २५५ उससे किसी प्रकारकी महत्ताका भोग नही करूं। २५६. उससे शुक्लहृदयसे तत्त्वज्ञानकी वृद्धि करूँ।
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१४५
२० वॉ वर्ष २५७ मनको अंतःस्थिर रखू । २५८. वचनको रामबाण रखू । २५९. कायाको कूर्मरूप रखू । २६०. हृदयको भ्रमररूप रखू । २६१ हृदयको कमलरूप रखू। २६२ हृदयको पत्थररूप रखें। २६३ हृदयको निंबूरूप रखू। २६४. हृदयको जलरूप रखू। २६५ हृदयको तेलरूप रखें। २६६ हृदयको अग्निरूप रखू । २६७ हृदयको आदर्शरूप रखू। २६८. हृदयको समुद्ररूप रखू। २६९ वचनको अमृतरूप रखू । २७०. वचनको निद्रारूप रखू । २७१. वचनको तृषारूप रखू। २७२ वचनको स्वाधीन रखू। २७३ कायाको कमानरूप रखू। २७४. कायाको चचल रखू। २७५ कायाको निरपराधी रखू। २७६ किसी प्रकारको चाह नही रखू । (परमहस) २७७ तपस्वी हूँ, वनमे तपश्चर्या किया करूं। (तपस्वीकी इच्छा) . २७८ शीतल छाया लेता हूँ। २७९ समभावसे सर्व सुखका संपादन करता हूँ। - २८० मायासे दूर रहता हूँ। २८१ प्रपचका त्याग करता हूँ। .. .. २८२ सर्व त्यागवस्तुको जानता हूँ। २८३ मिथ्या प्रशसा नही करूं । (मु०, ७०, उ०, गृ०, सामान्य) २८४ झूठा कलंक नही लगाऊँ। २८५ मिथ्या वस्तु प्रणीत नही करूं। २८६ कुटुम्बक्लेश नही करूं । (गृ०, उ०) । २८७ अभ्याख्यान धारण नही करूं । (सा०) २८८. पिशन नही बनं। २८९ असत्यसे प्रसन्न नही होऊँ । (२) २९० खिलखिलाकर नही हँसू । (स्त्री) । २९१. विना कारण नही मुस्कराऊँ। . २९२ किसो समय नही हँसं। २९३ मनके आनन्दको अपेक्षा आत्मानन्दको चाहूँ। २९४ सवको यथातथ्य मान दूं। (गृहस्थ)
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श्रीमद राजचन्द्र २९५ स्थितिका गर्व नही करूँ । (गृ०, मु.) २९६ स्थितिका खेद नही करूँ । २९७ मिथ्या उद्यम नही करूं। २९८ अनुद्यमी नही रहूँ। २९९. खोटी सलाह नहीं हूँ। (गृ०) ३०० पापी सलाह नही हूँ। ३०१. न्यायविरुद्ध कृत्य नही करूं । (२-३) ३०२ किसीको झूठी आशा नही दूं। (गृ०, मु०, ब्र०, उ०) ३०३. असत्य वचन नही हूँ। ३०४. सत्य वचनका भग नही करू। ३०५ पांच समितिको धारण करूं । (मु०) ३०६ अविनयसे नहीं बैठू।। ३०७ बुरे मण्डलमे नही जाऊँ। (गृ०, मु०) ३०८ वेश्याकी ओर दृष्टि नही करूं । ३०९ इसके वचनोका श्रवण नही करूँ। ३१० वाद्य नही सुनूं । ३११ विवाह विधि नही पूछ् । ३१२ इसकी प्रशसा नही करूं। ३१३. मनोरममे मोह नही मानूं। ३१४ कर्माधर्मी नही करूँ । (गृ०) ३१५. स्वार्थसे किसीकी आजीविकाका नाश नही करूं । (गृ०) ३१६. वधबंधनकी शिक्षा नही करूँ। ३१७ भय तथा वात्सल्यसे राज्य चलाऊँ । (रा०) ३१८ नियमके बिना विहार नही करूं । (मु०) ३१९ विषयकी स्मृति होनेपर ध्यान किये बिना न रहूँ। (मु०, गृ०, ब्र०, उ०) . ३२० विषयकी विस्मृति ही करूँ। (मु०, गृ०, ७०, ८०) ३२१. सर्व प्रकारकी नीति सीखू । (मु०, गृ०, ब्र०, उ०) ३२२ भयभाषा नही बोलू। ३२३ अपशब्द नही बोलं। ३२४. किसीको नही सिखाऊँ । ३२५. असत्य मर्मभाषा नही बोलू। ३२६ लिया हुआ नियम कर्णोपकणिकाकी रीतिसे नही तोडूं। । ३२७ पीठचौर्य नही करूँ। ३२८ अतिथिका तिरस्कार नही करूँ । (गृ०, उ०) । ३२९ गुप्त बातको प्रसिद्ध नही करूं । (गृ०, उ०) ३३० प्रसिद्ध करने योग्यको गुप्त नही रखू। ३३१ उपयोगके विना द्रव्य नही कमाऊँ । (गृ०, उ०,७०) ३३२ अयोग्य करार नही कराऊँ । (गृ०)
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१४७
२० वा वर्ष ३३३. अधिक व्याज नही लूँ। ३३४. हिसाबमे नही भुलाऊँ। ३३५ स्थूल हिंसासे आजीविका नही चलाऊँ। ३३६. द्रव्यका दुरुपयोग नही करूँ। ३३७. नास्तिकताका उपदेश नही हूँ। (उ०) ३३८. वयमे विवाह नहीं करूं । (गृ०) ३३९. वयके बाद विवाह नहीं करूँ। ३४०. वयके बाद स्त्रीका भोग नही करूँ। ३४१. वयमे स्त्रीका भोग नहीं करूं। ३४२. कुमार पत्नीको नहीं बुलाऊँ । ३४३ विवाहितपर अभाव नही लाऊँ। ३४४. वैरागी अभाव नही गिनूं । (गृ०, मु०) ३४५. कटु वचन नही कहूँ। ३४६ हाथ नही उठाऊँ। ३४७. अयोग्य स्पर्श नही करूं। ३४८ बारह दिन स्पर्श नही करूँ । ३४९ अयोग्य उलाहना नही दूं। ३५०. रजस्वलाका भोग नही करूँ। ३५१. ऋतुदानमे अभाव नही लाऊँ। . ३५२ शृङ्गार भक्तिका सेवन नही करूँ। ३५३. सबपर यह नियम, न्याय लागू करूं। ३५४ नियममे खोटी दलीलसे नही हूँ। ३५५. खोटी रीतिसे नही उकसाऊँ। ३५६. दिनमे भोग नही भोगें। ३५७. दिनमे स्पर्श नही करूं । ३५८ अवभाषासे नही बुलाऊ । ३५९ किसीका व्रतभग नही कराऊँ । ३६०. अधिक स्थानोमे नही भटकं ।। ३६१. स्वार्थके बहानेसे किसीका त्याग नही छुड़ाऊँ। ३६२. क्रियाशीलकी निंदा नही करूं। ३६३ नग्नचित्र नही देखू। ३६४. प्रतिमाकी निंदा नही करूँ। ३६५. प्रतिमाको नही देखू। ३६६. प्रतिमाकी पूजा करूं । (केवल गृहस्थ स्थितिमे) ३६७ पापसे धर्म नही मानें । (सर्व) ३६८ सत्य व्यवहारको नहीं छोडूं। (सर्व) ३६९. छल नही करूँ। ३७०. नग्न नही सोऊँ।
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"साला
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श्रीमद् राजचन्द्र
३७१. नग्न नही नहाऊँ । ३७२ महीन कपड़े नही पहनूं । ३७३. अधिक अलंकार नही पहनूं । ३७४. अमर्यादासे नही चलूँ । ३७५. तेज आवाजसे नही बोलं ।
३७६. पतिपर दबाव नही रखूं । (स्त्री) ३७७. तुच्छ संभोग नही भोगना । (गृ०, उ० ) ३७८. खेदमे भोग नही भोगना ।
३७९ सायंकालमे भोग नही भोगना । ३८०. सायकालमे भोजन नही करना । ३८१. अरुणोदयमे भोग नही भोगना । ३८२ ऊँघमेसे उठकर भोग नही भोगना । ३८३. ऊँघमेसे उठकर भोजन नही करना ।
३८४. शौचक्रियासे पहले कोई क्रिया नही करना ।
३८५ क्रियाकी कोई आवश्यकता नही है । (परमहस )
३८६ ध्यानके बिना एकात मे नही रहूँ । (मु०, गृ०, ब्र०, उ०, प० )
३८७. लघुशकामे तुच्छ नही होॐ ।
३८८. दीर्घशकामे समय नही लगाऊँ ।
३८९. प्रत्येक ऋतुके शरीरधर्म की रक्षा करू । (गृ०)
३९०. मात्र आत्माकी ही धर्मकरनीकी रक्षा करूँ । (मु०) ३९१ अयोग्य मार, बधन नही करू ।
३९२. आत्मस्वतत्रता नही खोऊ । (मु०, गृ०, ब्र०) ३९३ बधनमे पड़ने से पहले विचार करू । (सा० ) ३९४ पूर्वकृत भोगको याद नही करू । ( मु०, गृ०) ३९५. अयोग्य विद्या नही सार्धं । (मु०, गृ०, ब्र०, उ० ) ३९६. बोध भी नही दूँ ।
३९७ अनुपयोगी वस्तु नही लूँ ।
३९८. नही नहाऊँ । (मु० ) ३९९. दातुन नही करू" ।
४०० संसार-सुख नही चाहूँ ।
४०१. नीति बिना संसारका भोग नही करू" । (गृ०)
४०२ प्रकट रूपमे कुटिलतासे भोगका वर्णन नही करूँ |- (गृ०)
४०३. विरहग्रंथ नही रचूं | ( मु०, गृ०, ब्र०)
४०४ अयोग्य उपमा नही दूँ । (मु०, गृ०, ब्र०, उ० )
४०५. स्वार्थके लिये क्रोध नही करूं । (मु०, गृ० ) ४०६. वादयश प्राप्त नही करूँ । ( उ० )
४०७. अपवादसे खेद नही करू ।
४०८. धर्मद्रव्यका उपयोग नही कर सकूं। (गृ०)
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२० वो वर्ष
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४०९. दशाश या-धर्ममे निकालूं। (गृ०) ४१० सर्वसंगका परित्याग करूं। (परमहंस) ४११ तेरा कहा हुआ अपना धर्म नही भूलूं । (सर्व) ४१२. स्वप्नानदखेद नही करूँ। ४१३. आजीविक विद्याका सेवन नही करूं । (मु०) ४१४. तपको नहीं बेचूं । (गृ०, ब्र०) ४१५. दो बारसे अधिक नही खाऊँ । (गृ०, मु०, ब्र०, उ०) ४१६. स्त्रीके साथ नही खाऊँ । (ग०, उ०) ४१७. किसीके साथ नही खाऊँ । (स०) ४१८. परस्पर कवल नही ढूं, नही लूं। (स.) ४१९. न्यूनाधिक पथ्यका साधन नही करूं । (स०) । ४२०. नीरागीके वचनोको पूज्यभावसे मान हूँ। ४२१. नीरागी ग्रंथोको पढूं। ४२२. तत्त्वको ही ग्रहण करूँ । ४२३. निःसार अध्ययन नही करूं। ४२४. विचारशक्तिका विकास करूं। ४२५. ज्ञानके बिना तेरे धर्मको अगीकार नही करू। ४२६. एकातवादको नही अपनाऊँ । ४२७ नीरागी अध्ययनोको मुखाग्न करूं। ४२८ धर्मकथाका श्रवण करूं । ४२९ नियमित कर्तव्य नही चूकू। ४३० अपराधशिक्षाका भंग नही करूँ। ४३१. याचकको हँसी नही करूँ। ४३२. सत्पात्रमे दान हूँ। ४३३ दीनपर दया करूँ। ४३४. दुःखीकी हँसी नही करू । ४३५. क्षमापनाके बिना शयन नही करूं। ४३६. आलस्यको उत्तेजन नही हूँ। ४३७. सृष्टिक्रम-विरुद्ध कर्म नहीं करूं । ४३८ स्त्रीशय्याका त्याग करूँ।। ४३९ निवृत्ति-साधनके सिवाय सबका त्याग करता हूँ। ४४० मर्मलेख नही लिखू। ४४१ पर दुःखसे दुखी होऊँ। ४४२ अपराधीको भी क्षमा करूँ। ४४३ अयोग्य लेख नही लिखू। ४४४. आशुप्रज्ञकी विनयको संभालूं। ४४५. धर्मकर्तव्यमे द्रव्य देते हुए माया नही करू । ४४६ नम्रवीरत्वसे तत्त्वका उपदेश करू।
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श्रीमद् राजचन्द्र ४४७. परमहसकी हँसी नही उड़ाऊँ। ४४८ आदर्श नही देखें। ४४९ आदर्शमे देखकर नही हँ । ४५० प्रवाही पदार्थमे मुख नही देखू। ४५१ तसवीर नही खिंचवाऊँ। ४५२. अयोग्य तसवोर नही खिंचवाऊँ । ४५३ अधिकारका दुरुपयोग नही करूँ। ४५४ झूठी हाँ नही कहूँ। ४५५ क्लेशको उत्तेजन नही दूं। ४५६ निंदा नही करूँ। ४५७ कर्तव्य नियम नही चूकूँ। ४५८ दिनचर्याका दुरुपयोग नही करू । ४५९ उत्तम शक्तिको सिद्ध करूं। ४६० बिना शक्तिका कृत्य नही करूं। ४६१ देश, काल आदिको पहचानें। ४६२ कृत्यका परिणाम देखें। ४६३. किसीके उपकारका लोप नही करूं। ४६४. मिथ्या स्तुति नही करूँ। ४६५. कुदेवकी स्थापना नही करूं । ४६६. कल्पित धर्मको नही चलाऊँ। ४६७ सृष्टिस्वभावको अधर्म नही कहूँ। ४६८. सर्व श्रेष्ठ तत्त्वको लोचनदायक मा। ४६९. मानता नही मान। ४७०. अयोग्य पूजन नहीं करूँ। ४७१. रातमे शीतल जलसे नही नहाऊँ । ४७२ दिनमे तीन बार नहीं नहाऊँ। ४७३. मानकी अभिलाषा नही रखू।। ४७४ आलापादिका सेवन नहीं करूँ। ४७५ दूसरेके पास बात नही करूं। ४७६ छोटा लक्ष्य नही रखू । ४७७. उन्मादका सेवन नही करूँ। ४७८. रौद्रादि रसका उपयोग नही करूं। ४७९. शात रसकी निंदा नही करूं। ४८०. सत्कर्मके आड़े नही आऊँ । (मु०, गृ०) ४८१. पीछे हटानेका प्रयत्न नही करूँ। ४८२. मिथ्या हठ नही पकड़ें। ४८३. अवाचकको दुःख नहीं दूं। ४८४. अपगकी सुखशाति बढ़ाऊँ। ४८५ नीतिशास्त्रको मान दूं।
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४८६. हिंसक धर्मको ग्रहण नही करूँ। ४८७ अनाचारी धर्मसे लगाव नही रखू। ४८८ मिथ्यावादीसे लगाव नही रखू। ४८९. शृङ्गारी धर्मको ग्रहण नहीं करूं । ४९० अज्ञान धर्मसे दूर रहूँ। ४९१ केवल ब्रह्मको नही पकड़ें। ४९२ केवल उपासनाका सेवन नही करूं। ४९३. नियतिवादका सेवन नहीं करूं। ४९४ भावसे सृष्टिको अनादि अनंत नही कहूँ।, ४९५. द्रव्यसे सृष्टिको सादिसात नही कहूँ। ४९६ पुरुषार्थको निंदा नही करूं। ४९७ निष्पापको चचलतासे नही छलू। ४९८ शरीरका भरोसा नहीं करूं। ४९९. अयोग्य वचनसे नही बुलाऊँ। ५००. आजीविकाके लिये नाटक नही करूं। ५०१ मां, बहनके साथ एकातमे नही रहूँ। ५०२ पूर्वके स्नेहियोंके यहाँ आहार लेने नही जाऊँ। ५०३ तत्त्वधनिंदकपर भी रोष नही करना। ५०४. धैर्यको नहीं छोड़ना। ५०५ चरित्रको अद्भुत बनाना। ५०६ सर्व पक्षी विजय, कीर्ति और यश प्राप्त करना। ५०७ किसीके घरसंसारको नही तोडना। ५०८ अतराय नही डालना। ५०९ शुक्लधर्मका खंडन नही करना। ५१० निष्काम शीलका आराधन करना । ५११ त्वरित भाषा नहीं बोलना। ५१२. पापग्रंथ नही रचूँ। ५१३. क्षौरके समय मौन रहें। ५१४ विषयके समय मौन रहूँ। ५१५ क्लेशके समय मौन रहूँ। ५१६ जल पोते हुए मौन रहूँ। ५१७. खाते हुए मौन हूँ। ५१८. पशु पद्धतिसे जलपान नही करूं। ५१९ छलाग मारकर जलमे नही पडूं। ५२० श्मशानमे वस्तुमात्रको नही चलूँ । ५२१ औधे शयन नहीं करूं। ५२२. दो पुरुष साथमे न सोएँ। ५२३ दो स्त्रियां साथमे न सोएँ ।
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श्रीमद राजचन्द्र ५२४ शास्त्रकी आशातना नही करू। ५२५. उसी प्रकार गुरु आदिकी भी। ५२६ स्वार्थसे योग और तप नही साधू । ५२७ देशाटन करूं। ५२८. देशाटन नही करूं। ५२९ चातुर्मासमे स्थिरता करूँ । ५३० सभामे पान नही खाऊँ। ५३१ स्वस्त्रीके साथ मर्यादाके सिवाय नही फिरू । ५३२ भूलकी विस्मृति नही करना । ५३३ क० कलाल, सुनारकी दुकानपर नही बैलूं। ५३४. कारीगरके यहाँ (गुरुभावसे) नही जाना। ५३५. तम्बाकूका सेवन नही करना । ५३६ सुपारी दो बार खाना । ५३७ गोल कूपमे नहानेके लिये नही पडूं । ५३८ निराश्रितको आश्रय हूँ। ५३९ समयके विना व्यवहारकी बात नही करना । ५४० पुत्रका विवाह करूँ। ५४१ पुत्रीका विवाह करूं। ५४२. पुनर्विवाह नहीं करूं। ५४३ पुत्रीको पढाये बिना नही रहूँ। ५४४ स्त्री विद्याशाली ढूंढे, करूं। ५४५. उन्हे धर्मपाठ सिखलाऊँ। ५४६ प्रत्येक घरमे शातिविराम रखना। ५४७ उपदेशकका सन्मान करू । ५४८ अनंत गुणधर्मसे भरपूर सृष्टि है, ऐसा मानू। ' ५४९ किसी समय तत्त्व द्वारा दुनियामेसे दुःख चला जायेगा ऐसा मानूं । ५५०. दु ख और खेद भ्रम हैं । ५५१ मनुष्य चाहे सो कर सकता है। ५५२ शौर्य, बुद्धि इत्यादिका सुखद उपयोग करूँ। ५५३ किसी समय अपनेको दुखी नही मानूं। ५५४ सृष्टिके दु.खोका प्रणाशन करूं । ५५५ सर्व साध्य मनोरथ धारण करूँ। ५५६ प्रत्येक तत्त्वज्ञानीको परमेश्वर मानूं । ५५७ प्रत्येकका गुणतत्त्व ग्रहण करू। ५५८ प्रत्येकके गुणको प्रफुल्लित करूं। ५५९ कुटुवको स्वर्ग बनाऊँ। ५६० सृष्टिको स्वर्ग बनाऊँ तो कुटुवको मोक्ष बनाऊँ। ५६१ तत्त्वार्थसे सृष्टिको सुखी करते हुए मैं स्वार्थका त्याग करूँ।। ५६२ सृष्टिके प्रत्येक (-) गुणकी वृद्धि करूँ।
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५६३ सृष्टिके प्रवेश होने तक पाप पुण्य है ऐसा मानूं ।
५६४ यह सिद्धात तत्त्वधर्मका है, नास्तिकताका नही ऐसा मानूँ । ५६५. हृदयको शोकातुर नही करूँ ।
५६६ वात्सल्यसे वैरीको भी वश करूँ ।
५६७. तू जो करता है उसमे असभव नही मानूँ 1
५६८. शंका न करूं, खण्डन न करूँ, मंडन करूँ । ५६९ राजा होनेपर भी प्रजाको तेरे मार्गपर लगाऊँ । ५७०. पापीका अपमान करूँ ।
५७१. न्यायको चाहूँ और पालूँ ।
५७२. गुणनिधिका मान करूँ । ५७३ तेरा मार्ग सर्व प्रकारसे मान्य रखूँ ।
५७४ धर्मालय स्थापित करूँ ।
५७५ विद्यालय स्थापित करूँ । ५७६ नगर स्वच्छ रखूँ । ५७७ अधिक कर नही लगाऊँ । ५७८ प्रजापर वात्सल्य रखूँ । ५७९ किसी व्यसनका सेवन नही करूँ ।
५८० दो स्त्रियोंसे विवाह नही करूँ ।
५८१ तत्त्वज्ञानके प्रायोजनिक अभावमे दूसरा विवाह करूं तो यह अपवाद ।
५८२ दोनो (
) पर समभाव रखूँ ।
५८३ तत्त्वज्ञ सेवक रखूँ । ५८४. अज्ञान क्रियाको छोड़ दूँ ।
५८५ ज्ञान क्रियाका सेवन करनेके लिये । ५८६ कपटको भी जानना ।
५८७. असूयाका सेवन नही करूँ ।
५८८ धर्मकी आज्ञाको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ । ५८९ सद्गति मूलक धर्मका ही सेवन करूँगा । ५९० सिद्धात मानूंगा, प्रणीत करूँगा । ५९१ धर्म महात्माओका सन्मान करूँगा ।
५९२ ज्ञानके सिवाय सभो याचनाएँ छोड़ता हूँ ।
५९३ भिक्षाचरी याचनाका सेवन करता हूँ ।
५९४ चातुर्मासमे प्रवास नही करू ।
५९५ जिसका तूने निषेध किया उसे नही खोजूं या उसका कारण नही पूछें ।
५९६ देहघात नही करू ।
५९७ व्यायामादिका सेवन करूंगा ।
५९८ पौषधादिक व्रतका सेवन करता हूँ ।
५९९ अपनाये हुए आश्रमका सेवन करता हूँ ।
६०० अकरणीय क्रिया और ज्ञानकी साधना नही करूँ ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
६०१ पाप व्यवहार के नियम नही बनाऊँ । ६०२ द्युतरमण नही करूँ । ६०३ रातमे क्षौरकर्म नही कराऊँ ।
६०४. पैरसे सिर तक खूब खीचकर नही ओढूँ । ६०५ अयोग्य जागृतिका सेवन नही करू" । ६०६ रसास्वादसे तनधर्मको मिथ्या नही करूँ । ६०७ शारीरिक धर्मका एकात आराधन नही करूँ । ६०८. अनेक देवोकी पूजा नही करू । ६०९ गुणस्तवनको सर्वोत्तम मानूं । ६१०. सद्गुणका अनुकरण करू । ६११. श्रृंगारी ज्ञाता प्रभु नही मानूँ । ६१२ सागर - प्रवास नही करूँ । ६१३ आश्रमके नियमोको जानूं । ६१४ क्षौरकर्म नियमित रखना । ६१५ ज्वरादिमे स्नान नही करना । ६१६ जलमे डुबकी नही लगाना । ६१७ कृष्णादि पाप लेश्याका त्याग करता हूँ ।
६१८. सम्यक् समयमे अपध्यानका त्याग करता हूँ । ६१९. नामभक्तिका सेवन नही करूँगा ।
६२० खड़े खड़े पानी नही पीऊ । ६२१ आहारके अंतमे पानी नही पीऊ । ६२२ चलते हुए पानी नही पीऊ । ६२३ रातमे छाने बिना पानी नही पीऊं । ६२४ मिथ्या भाषण नही करूँ । ६२५ सत्शब्दोका सन्मान करू । ६२६ अयोग्य आँखसे पुरुष नही देखूं । ६२७ अयोग्य वचन नही बोलूँ । ६२८ नगे सिर नही बैठूं । ६२९. वारवार अवयवोको नही देखूं ।
६३० स्वरूपकी प्रशंसा नही करूँ ।
६३१ कायापर गृद्धभावसे प्रसन्न नही होऊँ । ६३२. भारी भोजन नही करूँ ।
६३३. तीव्र हृदय नही रखूँ ।
६३४. मानार्थ कृत्य नही करूँ । ६३५. कीर्तिके लिये पुण्य नही करूँ ।
६३६ कल्पित कथा - दृष्टातको सत्य नही कहूँ । ६३७ अज्ञात मार्गपर रातमे नही चलूँ । ६३८. शक्तिका दुरुपयोग नही करू ।
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६३९. स्त्री पक्षसे धन प्राप्त नही करूँ" ।
६४०. वंध्याका मातृभावसे सत्कार करूौं । ६४१. अकृतधन नही लूँ ।
६४२. बलदार पगड़ी नही बाँधूं ।
६४३ बलदार — चूड़ीदार पायजामा नही पहनूं । ६४४. मलिन वस्त्र पहनूं ।
६४५ मृत्युपर रागसे नही रोऊ ।
६४६ व्याख्यानशक्तिकी आराधना करूँ ।
६४७. धर्मके नामपर क्लेशमे नही पडूं ।
६४८ तेरे धर्मके लिये राजद्वारमे केस नही चलाऊँ ।
६४९ यथासंभव राजद्वारमे नही जाऊँ ।
६५० श्रीमतावस्थामे वि० शालासे करूँ ।
६५१ निर्धनावस्थाका शोक नही करूँ ।
६५२ परदुःखमे हर्ष नही मानूँ । ६५३ यथासंभव धवल वस्त्र पहनूँ । ६५४. दिनमे तेल नही लगाऊँ । ६५५ स्त्री रातमे तेल न लगाये ।
६५६ पापपर्वका सेवन नही करूँ ।
६५७ धर्मी, यशस्वी एक कृत्य करनेका मनोरथ रखता हूँ ।
६५८ गाली सुनूँ परन्तु गाली दूँ नही ।
६५९ शुक्ल एकातका निरंतर सेवन करता हूँ ।
६६० सभी घूमधाममे नही जाऊँ ।
६६१ रातमे वृक्षके नीचे नही सोऊँ ।
६६२ रातमे कुएंके किनारे नही बैठूं ।
६६३ ऐक्य नियमको नही तोडूं ।
६६४ तन, मन, धन, वचन और आत्माका समर्पण करता हूँ ।
६६५ मिथ्या परद्रव्यका त्याग करता हूँ ।
६६६. अयोग्य शयनका त्याग करता हूँ । ६६७ अयोग्य दानका त्याग करता हूँ । ६६८ बुद्धिकी वृद्धिके नियमोको नही छोडूं । ६६९. दासत्व - परम - लाभका त्याग करता हूँ । ६७० धर्मधूत्तंताका त्याग करता हूँ । ६७१ मायासे निवृत्त होता हूँ ।
६७२ पापमुक्त मनोरथका स्मरण करता हूँ ।
६७३ विद्यादान देते हुए छलका त्याग करता हूँ ।
६७४. संतको सकट नही दूँ
६७५ अनजानको रास्ता बताऊँ ।
६७६ दो भाव नही रखूँ ।
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श्रीमद राजचन्द्र
६७७ वस्तुमे मिलावट नही करूँ । ६७८ जीवहिंसक व्यापार नही करूँ । ६७९ निषिद्ध अचार आदि नही खाऊ । ६८० एक कुलमे कन्या नही दूं, नही लूं । ६८१. दूसरे पक्ष के सगे (सबंधी) स्वधर्मी ही ढूंढूंगा ।
६८२ धर्मकर्त्तव्यमे उत्साह आदिका उपयोग करूंगा ।
६८३ आजीविकाके लिये सामान्य पाप करते हुए भी डरता रहूँगा ।
६८४ धर्ममित्रसे माया नही करूँ ।
६८५. चातुर्वर्ण्य धर्मको व्यवहारमे नही भूलूँगा ।
६८६ सत्यवादीका सहायक बनूंगा ।
६८७ धूर्त त्यागका त्याग करता हूँ ।
६८८ प्राणीपर कोप नही करना ।
६८९ वस्तुका तत्त्व जानना ।
६९०. स्तुति, भक्ति और नित्यकर्मका विसर्जन नही करूँ ।
६९१. अनर्थ पाप नही करूँ ।
६९२ आरभोपाधिका त्याग करता हूँ ।
६९३ कुसगका त्याग करता हूँ ।
६९४. मोहका त्याग करता हूँ । ६९५ दोषका प्रायश्चित्त करूँगा ।
६९६. प्रायश्चित्त आदिको विस्मृति नही करूँ ।
६९७. सबकी अपेक्षा धर्मवर्गको प्रिय मानूंगा ।
६९८. तेरे धर्मका त्रिकरण शुद्ध सेवन करनेमे प्रमाद नही करूँगा ।
६९९.
७००.
२०
aft | मुझे आपके लिये एकातवाद ही ज्ञानकी अपूर्णताका लक्षण दिखाई देता है, क्योकि “नौसिखिये” कवि काव्यमे जैसे तैसे दोष दबानेके लिये 'ही' शब्दका उपयोग करते हैं, वैसे आप भी 'ही' अर्थात् 'निश्चितता', 'नौसिखिया' ज्ञानसे कहते हैं । मेरा महावीर ऐसा कभी नही कहेगा, यही इसकी सत्कविकी भाँति चमत्कृति है !!!
1
२१
वचनामृत
१. इसे तो अखण्ड सिद्धात मानिये कि सयोग, वियोग, सुख, दुःख, खेद, आनन्द, अराग, अनुराग इत्यादिका योग किसी व्यवस्थित कारणपर आधारित है ।
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२ एकात भावी अथवा एकात न्यायदोषका सन्मान न कीजिये ।
३. किसीका भी समागम करना योग्य नही है, फिर भी जब तक वैसी दशा न हो तब तक सत्पुरुषका समागम अवश्य करना योग्य है ।
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४. जिस कृत्यके परिणाममे दुःख है उसका सन्मान करनेसे पहले विचार करें ।
५ किसीको अन्त. करण न दीजियेगा, जिसे दें उससे भिन्नता न रखियेगा, भिन्नता रखे तो अतः - करण दिया न दिया समान है ।
६. एक भोग भोगता है फिर भी कर्मकी वृद्धि नही करता, और एक भोग नही भोगता फिर भी कर्मको वृद्धि करता है, यह आश्चर्यकारक परतु समझने योग्य कथन है |
७ योगानुयोगसे बना हुआ कृत्य बहुत सिद्धि देता है ।
८ आपने जिससे अतर्भेद पाया उसे सर्वस्व अर्पण करते हुए न रुकियेगा ।
९ तभी लोकापवाद सहन करना कि जिससे वे ही लोग अपने किये हुए अपवादका पुन पश्चात्ताप करें ।
१० हजारो उपदेश-वचन और कथन सुननेकी अपेक्षा उनमेसे थोडे भी वचनोका विचार करना विशेष कल्याणकारी है ।
११ नियमसे किया हुआ कार्य त्वरासे होता है, निर्धारित सिद्धि देता है, और आनदका कारण जाता है ।
१२ ज्ञानियो द्वारा एकत्र की हुई अद्भुत निधिके उपभोगी बने ।
१३. स्त्री जातिमे जितना मायाकपट है उतना भोलापन भी है ।
१४ पठन करनेकी अपेक्षा मनन करनेकी ओर अधिक ध्यान दीजिये ।
१५. महापुरुषके आचरण देखनेको अपेक्षा उनका अत. करण देखना, यह अधिक परीक्षा है ।'
१६ वचनसप्तशतीको' पुनः पुन. स्मरणमे रखें।
१७ महात्मा होना हो तो उपकारबुद्धि रखें, सत्पुरुषके समागममे रहे, आहार, विहार आदि
अलुब्ध और नियमित रहे, सत्शास्त्रका मनन करें, और ऊँची श्रेणिमे ध्यान रखें ।
१८ इनमे से एक भी न हो तो समझकर आनद रखना सीखे ।
१९ वर्तनमे बालक बनें, सत्यमे युवक बनें और ज्ञानमे वृद्ध बनें ।
२० राग नही करना, करना तो सत्पुरुषसे करना, द्वेष नही करना, करना तो कुशीलसे करना । २१ अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनतचारित्र और अनतवीर्यसे अभिन्न ऐसे आत्माका एक पल भी विचार करें ।
२२ जिसने मनको वश किया उसने जगतको वश किया ।
२३ इस ससारको क्या करे ? अनत बार हुई मॉको आज हम स्त्रीरूपसे भोगते है ।
२४ निर्ग्रन्थता धारण करनेसे पहले पूर्ण विचार कीजिये, इसे अपनाकर दोष लगानेकी अपेक्षा अल्पारम्भी बने ।
२५ समर्थं पुरुष कल्याणका स्वरूप पुकार पुकारकर कह गये हैं, परन्तु किसी विरलेको ही वह यथार्थ समझमे आया है ।
२६ स्त्रीके स्वरूपपर होनेवाले मोहको रोकनेके लिये उसके त्वचारहित रूपका वारम्वार चिंतन करना योग्य है ।
२७ कुपात्र भी सत्पुरुपके रखे हुए हाथसे पात्र हो जाता है, जैसे छाछसे शुद्ध किया हुआ सखिया शरीरको नीरोग करता है ।
२८ आत्माका सत्यस्वरूप केवल शुद्ध सच्चिदानदमय है, फिर भी भ्रातिसे भिन्न भासित होता है, जैसे कि तिरछी आँख करनेसे चंद्र दो दिखायी देते हैं ।
१ देखें महानीति, आक १९
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श्रीमद् राजचन्द्र २९ यथार्थ वचन ग्रहण करनेमे दभ न रखियेगा या देनेवालेके उपकारका लोप न कीजियेगा।
३० हमने बहुत विचार करके यह मूल तत्त्व खोजा है कि,-गुप्त चमत्कार ही सृष्टिके ध्यानमे नही है।
३१ रुलाकर भी बच्चेके हाथमे रहा हुआ सखिया ले लेना। ३२. निर्मल अंत करणसे आत्माका' विचार करना योग्य है। ३३ जहाँ 'मै' मानता है वहाँ 'तू नही है, जहाँ 'तू' मानता है वहाँ 'तू' नही है। ३४ हे जीव | अब भोगसे शात हो, शात । विचार तो सही कि इसमे कौनसा सुख है ? ३५ बहुत परेशान होकर ससारमे मत रहना । ३६ सत्ज्ञान और सत्शीलको साथ-साथ बढ़ाना। ३७. एकसे मैत्री न कर, करना हो तो सारे जगतसे कर ।
३८ महा सौंदर्यसे परिपूर्ण देवांगनाके क्रीडाविलासका निरीक्षण करते हुए भी जिसके अंतःकरणमे कामसे विशेषातिविशेष विराग स्फुरित होता है, वह धन्य है, उसे त्रिकाल नमस्कार है।
३९. भोगके समय योग याद आये यह लघुकर्मीका लक्षण है।
४०. इतना हो तो मैं मोक्षकी इच्छा नही करता-सारी सृष्टि सत्शील का सेवन करे, नियमित आयु, नोरोग शरीर, अचल प्रेमी प्रमदा, आज्ञाकारी अनुचर, कुलदीपक पुत्र, जीवनपर्यन्त बाल्यावस्था और आत्मतत्त्वका चिंतन । '
४१ ऐसा कभी होनेवाला नहीं है, इसलिये मै तो मोक्षको ही चाहता हूँ। ४२ सृष्टि सर्व अपेक्षासे अमर होगी?
४३ किसी अपेक्षासे मैं ऐसा कहता हूँ कि यदि सृष्टि मेरे हाथसे चलती होती तो बहुत विवेकी स्तरसे परमानदमे विराजमान होती।
४४ शुक्ल निर्जनावस्थाको मैं बहुत मान्य करता हूँ। ४५ सृष्टिलीलामे शातभावसे तपश्चर्या करना यह भी उत्तम है। ४६ एकातिक कथन करनेवाला ज्ञानी नही कहा जा सकता। ४७. शुक्ल अंतःकरणके बिना मेरे कथनको कौन दाद देगा? ४८ ज्ञातपुत्र भगवानके कथनकी ही बलिहारी है।
४९ मैं आपकी मूर्खतापर हँसता हूँ कि-नही जानते गुप्त चमत्कारको फिर भी गुरुपद प्राप्त करनेके लिये मेरे पास क्यो पधारें ?
५०. अहो | मुझे तो कृतघ्नी ही मिलते मालूम होते हैं, यह कैसी विचित्रता है।
५१. मुझ पर कोई राग करे इससे मै प्रसन्न नही हूँ, परन्तु कटाला देगा तो मैं स्तब्ध हो जाऊँगा और यह मुझे पुसायेगा भी नहीं।।
५२ मै कहता हूँ ऐसा कोई करेगा? मेरा कहा हुआ सब मान्य रखेगा? मेरा कहा हुआ शब्दशः अंगीकृत करेगा ? हाँ हो तो ही हे सत्पुरुष | तू मेरी इच्छा करना।
५३. संसारी जोवोने अपने लाभके लिये द्रव्यरूपसे मुझे हँसता-खेलता लीलामय मनुष्य बनाया!
५४ देवदेवीको तुष्यमानताको क्या करेंगे? जगतकी तुष्यमानताको क्या करेगे ? तुष्यमानता तो सत्पुरुषकी चाहे ।
५५ मै सच्चिदानद परमात्मा हूँ।
१. पाठा० गुप्त चमत्कारका ।
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१५९ ५६ ऐसा समझे कि आपको अपने आत्माके हितकी ओर जानेकी अभिलाषा रखते हुए भी निराशा प्राप्त हुई तो वह भी आपका आत्महित ही है।
५७ आप अपने शुभ विचारमे सफल होवें, नही तो स्थिर चित्तसे ऐसा समझें कि सफल हुए हैं। ५८ ज्ञानी अंतरंग खेद और हर्षसे रहित होते है । ५९ जब तक उस तत्त्वकी प्राप्ति न हो तब तक मोक्षकी तात्पर्यता नही मिली।
६० नियम-पालनको दृढ करते हुए भी वह नही पलता यह पूर्वकर्मका ही दोष है ऐसा ज्ञानियोका कहना है।
६१. ससाररूपी कुटुम्बके घरमे अपना आत्मा अतिथि तुल्य है। ६२ वही भाग्यशाली है कि जो दुर्भाग्यशालीपर दया करता है। ६३ महर्षि कहते हैं कि शुभ द्रव्य शुभ भावका निमित्त है। ६४ स्थिर चित्त होकर धर्म और शुक्ल ध्यानमे प्रवृत्ति करें। ६५ परिग्रहकी मूर्छा पापका मूल है।
६६ जिस कृत्यको करते समय व्यामोहसयुक्त खेदमे हैं और परिणाममे भी पछताते है, तो उस कृत्यको ज्ञानी पूर्वकर्मका दोष कहते है।
६७ जडभरत और विदेही जनककी दशा मुझे प्राप्त हो । ६८. सत्पुरुषके अत करणने जिसका आचरण किया अथवा जिसे कहा वह धर्म है । ६९ जिसकी अतरग मोहग्रंथि चली गई वह परमात्मा है। ७०. व्रत लेकर उल्लासित परिणामसे उसका भग न करें। ७१ एक निष्ठासे ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करनेसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है।
७२ क्रिया ही कर्म, उपयोग ही धर्म, परिणाम ही बध, भ्रम ही मिथ्यात्व, ब्रह्म ही आत्मा और शका ही शल्य है । शोकका स्मरण न करें; यह उत्तम वस्तु ज्ञानियोंने मुझे दी।
७३ जगत जैसा है वैसा तत्त्वज्ञानको दृष्टिसे देखें।
७४ श्री गौतमको पठन किये हुए चार वेद देखनेके लिये श्रीमान महावीरस्वामीने सम्यक्नेत्र दिये थे।
७५ भगवतीमे कही हुई 'पुद्गल नामके परिव्राजककी कथा तत्त्वज्ञानियोका कहा हुआ सुन्दर रहस्य हैं।
७६ वीरके कहे हुए शास्त्रोमे सुनहरी वचन जहाँ तहाँ अलग-अलग और गुप्त है। ७७ सम्यक्नेत्र प्राप्त करके आप चाहे जिस धर्मशास्त्रका विचार करे तो भी आत्महित प्राप्त होगा।।।
७८ हे कुदरत | यह तेरा प्रबल अन्याय है कि मेरी निर्धारित नीतिसे मेरा काल व्यतीत नही कराती | [कुदरत अर्थात् पूर्वकृत कर्म]
७९ मनुष्य परमेश्वर होता है ऐसा ज्ञानी कहते है। ८० उत्तराध्ययन नामके जैनसूत्रका तत्त्वदृष्टिसे पुन पुनः अवलोकन करें। ८१ जोते हुए मरा जाये तो फिर मरना न पड़े ऐसे मरणको इच्छा करना योग्य है। ८२ कृतघ्नता जैसा एक भी महा दोष मुझे नहीं लगता। ८३ जगतमे मान न होता तो यही मोक्ष होता। ८४ वस्तुको वस्तुरूपसे देखें। १ शतक ११, उद्देश १२ में ।
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१६०
विशेष |
श्रीमद् राजचन्द्र
८५ धर्मका मूल वि० है |
८६ उसका नाम विद्या है कि जिससे अविद्या प्राप्त न हो ।
८७ वीरके एक वाक्यको भी समझें ।
८८ अहपद, कृतघ्नता, उत्सूत्रप्ररूपणा और अविवेकधर्म ये दुर्गतिके लक्षण है ।
८९ स्त्रीका कोई अग लेशमात्र भी सुखदायक नही है, फिर भी मेरी देह उसे भोगती है ।
९० देह और देहार्थममत्व यह मिथ्यात्वका लक्षण है ।
९१. अभिनिवेशके उदयमे उत्सूत्रप्ररूपणा न हो उसे मै ज्ञानियोंके कहने से महाभाग्य कहता हूँ । ९२ स्याद्वाद शैली से देखते हुए कोई मत असत्य नही है ।
८९३ जानी स्वादके त्यागको आहारका सच्चा त्याग कहते है ।
९४ अभिनिवेश जैसा एक भी पाखंड नही है ।
९५ इस कालमे इतना बढ़ा - अतिशय मत, अतिशय ज्ञानी, अतिशय माया और अतिशय परिग्रह
९६ तत्त्वाभिलाषासे मुझे पूछे तो मै आपको नीरागीधर्मका उपदेश जरूर कर सकूँगा ।
९७ जिसने सारे जगतका शिष्य होनेरूप दृष्टिका वेदन नही किया वह सद्गुरु होने योग्य नही है । ९८. कोई भी शुद्धाशुद्ध धर्मकरनी करता हो तो उसे करने दें ।
९९ आत्माका धर्म आत्मामे ही है ।
१०० मुझपर सभी सरल भावसे हुक्म चलाये तो मै राजी हूँ ।
१०१. मैं संसारसे लेश भी रागसयुक्त नही, फिर भी उसीको भोगता हूँ, मैने कुछ त्याग नहीं किया । १०२ निर्विकारी दशासे मुझे अकेला रहने दें ।
१०३ महावीरने जिस ज्ञानसे इस जगतको देखा है वह ज्ञान सब आत्माओमे है, परंतु उसका आविर्भाव करना चाहिये ।
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१०४ बहुत बहक जाएँ तो भी महावीरकी' आज्ञाका भग न कीजियेगा । चाहे जेसी शका हो तो भी मेरी ओरसे वीरको निशक मानिये ।
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१०५ पार्श्वनाथस्वामीके ध्यानका स्मरण योगियोको अवश्य करना चाहिये । नि ० - नागकी छत्रछायाके समयका वह पार्श्वनाथ ओर ही था ।
१०६ गजसुकुमारकी क्षमा और राजेमती रहनेमीको जो बोध देती है वह बोध मुझे प्राप्त होवें । १०७ भोग भोगने तक [जब तक वह कर्म है तब तक ] मुझे योग ही प्राप्त रहे ।
१०८ सव शास्त्रोका एक तत्त्व मुझे मिला है ऐसा कहूँ तो यह मेरा अहपद नही है ।
१०९ न्याय मुझे बहुत प्रिय है। वीरकी शैली हो न्याय हैं, समझना दुष्कर है । ११० पवित्र पुरुषोकी कृपादृष्टि ही सम्यग्दर्शन है ।
१११ भर्तृहरिका कहा हुआ त्याग, विशुद्ध बुद्धिसे विचार करनेसे बहुत ऊर्ध्वज्ञानदशा होने तक
रहता है ।
११२ में किसी धर्मसे विरुद्ध नही हूँ। मै सव धर्मोंका पालन करता हूँ । आप सभी धर्मोसे विरुद्ध है यो कहने मेरा उत्तम हेतु है ।
११३. आपके माने हुए धर्मका उपदेश मुझे किस प्रमाणसे देते है उसे जानना मेरे लिये आवश्यक है ।
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११४ शिथिल व दृष्टिसे नीचे आकर ही बिखर जाये (-यदि निर्जरामे आये तो ) ११५ किसी भी शास्त्रमे मुझे शका न हो ।
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२०वाँ वर्ष
११६ दुखके मारे वैराग्य लेकर ये लोग जगतको भ्रममे डालते है ।
११७ अभी मै कौन हूँ इसका मुझे पूर्ण भान नही है । ११८ तू सत्पुरुषका शिष्य है ।
११९. यही मेरी आकाक्षा है ।
१२० मेरे लिये गजसुकुमार जैसा कोई समय आये । १२१ राजेमती जैसा कोई समय आये ।
१२२ सत्पुरुष कहते नही करते नही, फिर भी उनकी सत्पुरुपता निर्विकार मुखमुद्रामे निहित है । १२३ सस्थानविचयध्यान पूर्वधारियोको प्राप्त होता होगा, ऐसा मानना योग्य लगता है । आप भी उसका ध्यान करे ।
१-१२४ आत्मा जैसा कोई देव नही है ।
१२५ भाग्यशाली कौन ? अविरति सम्यग्दृष्टि या विरति ? १२६ किसीकी आजीविका नष्ट न करें ।
१६१
२२ स्वरोदयज्ञान
बबई, कार्तिक, १९४३
यह 'स्वरोदयज्ञान' ग्रन्थ पाठकके करकमलमे रखते हुए इस विषयमे कुछ प्रस्तावना लिखना योग्य मानकर उसे लिखता हूँ । हम यह देख सकेंगे कि 'स्वरोदयज्ञान' की भाषा आधी हिन्दी और आधी गुजराती है। इसके कर्ता एक आत्मानुभवी व्यक्ति थे, परन्तु ऐसा कुछ मालूम नही होता कि उन्होने दोनोमेसे किसी एक भी भाषाका विधिपूर्वक पढ़ा हो। इससे उनकी आत्मशक्ति या योगदशामे कोई बाधा नही आती । और यह बात भी नही है कि वे भाषाशास्त्री होनेकी कुछ इच्छा भी रखते थे। इसलिये उन्हे स्वय जो कुछ अनुभवसिद्ध हुआ है उसमेसे लोगोको मर्यादापूर्वक कुछ भी बोध दे देनेकी उनकी अभिलाषासे इस ग्रन्थकी उत्पत्ति हुई है । और ऐसा होने से ही भाषा या छन्दको टीमटाम अथवा युक्ति प्रयुक्तिका अधिक दर्शन इस ग्रन्थमे नही कर सकते ।
जगत जब अनादि अनन्त कालके लिये है तब फिर उसको विचित्रताके लिये क्या विस्मय करें ? आज जडवादके बारेमे जो शोधन चल रहा है वह कदाचित् आत्मवादको उडा देनेका प्रयत्न है, परन्तु ऐसे भी अनन्त काल आये हैं कि जब आत्मवादका प्राधान्य था, और इसी तरह कभी जडवादका भी बोलवाला था । इसके लिये तत्त्वज्ञानी किसी विचारमे नही पड जाते, क्योकि जगतकी ऐसी ही स्थिति है, तो फिर विकल्पसे आत्माको दु खी क्यो करना ? परन्तु सब वासनाओका त्याग करनेके बाद जिस वस्तुका अनुभव हुआ, वह वस्तु क्या है, अर्थात् स्व और पर क्या है ? अथवा इस बातका निर्णय किया कि स्व तो स्व है, फिर तो भेदवृत्ति रही नही । इसलिये सम्यक्दर्शनसे उनकी यही सम्मति रही कि मोहाधीन आत्मा अपनेआपको भूलकर जडत्व स्वीकार करता है, इसमे कुछ आश्चर्य नही है । फिर उसका स्वीकार करना शब्दकी तकरारमे
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वर्तमान शताब्दीमे और फिर उसके भी कितने ही वर्ष व्यतीत होने तक आत्मज्ञ चिदानन्दजी विद्यमान थे । बहुत ही समीपका समय होनेसे जिन्हे उनके दर्शन हुए थे, समागम हुआ था और जिन्हे उनकी दशाका अनुभव हुआ था उनमेसे कुछ प्रतीतिवाले मनुष्योसे उनके विषय मे जाना जा सका है, तथा अव भी वैसे मनुष्योसे जाना जा सकता है ।
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१६२
श्रीमद राजचन्द्र जैन मुनि होनेके बाद अपनी निर्विकल्प दशा हो जानेसे उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे अब क्रमपूर्वक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे यम-नियमोका पालन नही कर सकेगे। जिस पदार्थकी प्राप्तिके लिये यमनियमका क्रमपूर्वक पालन करना होता है, उस वस्तुकी प्राप्ति हो गयी तो फिर उस श्रेणिसे प्रवृत्ति करना और न करना दोनो समान है ऐसी तत्त्वज्ञानियोको मान्यता है । जिसे निर्ग्रन्थ प्रवचनमे अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि माना है, उसमेसे सर्वोत्तम जातिके लिये कुछ कहा नही जा सकता। परन्तु एकमात्र उनके वचनोका मेरे अनुभवज्ञानके कारण परिचय होनेसे ऐसा कहा जा सका है कि वे प्रायः मध्यम अप्रमत्तदशामे थे। फिर उस दशामे यम-नियमका पालन गौणतासे आ जाता है। इसलिये अधिक आत्मानन्दके लिये उन्होने यह दशा मान्य रखी । इस कालमे ऐसी दशाको पहुँचे हुए बहुत ही थोड़े मनुष्योकी प्राप्ति भी दुर्लभ है । उस अवस्थामे अप्रमत्तता विषयक वातका असम्भव त्वरासे होगा ऐसा मानकर उन्होने अपना जीवन अनियतरूपसे और गुप्तरूपसे बिताया । यदि एसी ही दशामे वे रहे होते तो बहुतसे मनुष्य उनके मुनिपनेकी स्थितिशिथिलता समझते और ऐसा समझनेसे उनपर ऐसे पुरुपका अभीष्ट प्रभाव नही पडता। ऐसा हार्दिक निर्णय होनेसे उन्होने यह दशा स्वीकार की।
णमो जहट्ठियवत्थुवाईणं।
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रूपातीत व्यतीतमल, पूर्णानंदी ईस।
चिदानन्द ताक नमत, विनय सहित निज शोस ॥' जो रूपसे रहित हैं, कर्मरूपी मल जिनका नष्ट हो गया है, और जो पूर्णानदके स्वामी है, उन्हे चिदानन्दजी अपना मस्तक झुकाकर विनयसहित नमस्कार करते हैं।
रूपातीत-इस शब्दसे यह सूचित किया कि परमात्म-दशा रूपरहित है। व्यतीतमल-इस शब्दसे यह सूचित किया कि कर्मका नाश हो जानेसे वह दशा प्राप्त होती है।
पूर्णानन्दी ईस-इस शब्दसे उस दशाका सुख बताया कि जहां सम्पूर्ण आनन्द है, अर्थात् यह सूचित किया कि परमात्मा पूर्ण आनन्दके स्वामी है। फिर रूपरहित तो आकाश भी है, इसलिये कर्ममलके नाशसे आत्मा जडरूप सिद्ध हो जाये । इस शंकाको दूर करनेके लिये यह कहा कि उस दशामे आत्मा पूर्णानन्दका ईश्वर है, और ऐसी उसकी रूपातीतता है।
चिदानन्द ताकुं नमत-इन शब्दोसे अपनी उनपर नाम लेकर अनन्य प्रीति बतायी है । सर्वाङ्ग नमस्कार करनेकी भक्तिमे अपना नाम लेकर अपना एकत्व बता करके विशेष भक्तिका प्रतिपादन किया है।
विनयसहित-इस शब्दसे यथायोग्य विधिका बोध दिया। यह सूचित किया कि भक्तिका मूल विनय है।
निज शोस-इन शब्दोसे यह बताया कि देहके सर्व अवयवोमे मस्तक श्रेष्ठ है, और उसके झुकानेसे सर्वाङ्ग नमस्कार हुआ । तथा यह भी सूचित किया कि मस्तक झुकाकर नमस्कार करनेकी विधि श्रेष्ठ है । 'निज' शब्दसे आत्मत्व भिन्न बताया कि मेरे उपाधिजन्य देहका जो उत्तमाग वह (शीस)
कालज्ञानादिक थकी, लही आगम अनुमान ।
गुरु करुना करी कहत हूँ, शुचि स्वरोदयज्ञान ॥ 'कालज्ञान' नामके ग्रन्थ इत्यादिसे, जैनसिद्धातमे कहे हुए बोधके अनुमानसे और गुरुकी कृपाके प्रतापसे स्वरोदयका पवित्र ज्ञान क
१. पद्य संख्या ८
२. पद्य सख्या ९
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२०वा वर्ष
१६३ 'कालज्ञान' इस नामका अन्य दर्शनमे आयुका बोधक उत्तम ग्रथ है और उसके सिवाय 'आदि' शब्दसे दूसरे ग्रन्थोका भी आधार लिया है, ऐसा कहा ।
आगम अनुमान-इन शब्दोंसे यह बताया कि जैनशास्त्रमे ये विचार गौणतासे प्रदर्शित किये है, इसलिये मैंने अपनी दृष्टिसे जहाँ जहाँ जैसा बोध लिया वैसा प्रर्शित किया है। मेरी दृष्टिसे अनुमान है, क्योकि मै आगमका प्रत्यक्ष ज्ञानी नहीं हूँ, यह हेतु है।
गुरु करुना-इन शब्दोसे यह कहा कि कालज्ञान और आगमके अनुमानसे कहनेकी मेरी समर्थता न होती, क्योकि वह मेरी काल्पनिक दृष्टिका ज्ञान था, परन्तु उस ज्ञानका अनुभव करा देनेवाली जो गुरु महाराजको कृपादृष्टि
स्वरका उदय पिछानिये, अति थिरता चित्त धार।
ताथी शुभाशुभ कीजिये, भावि वस्तु विचार ॥ चित्तकी अतिशय स्थिरता करके भावी वस्तुका विचार करके "शुभाशुभ" यह,
अति थिरता चित्त धार--इस वाक्यसे यह सूचित किया कि चित्तकी स्वस्थता करनी चाहिये ताकि स्वरका उदय यथायोग्य हो।
शुभाशुभ भावि वस्तु विचार-इन शब्दोसे यह सूचित किया कि वह ज्ञान प्रतीतभूत है, अनुभव कर देखें। अब विषयका प्रारभ करते हैं
नाड़ी तो तनमे घणी, पण चौबीस प्रधान।
तामे नव पुनि ताहुमे, तीन अधिक कर जान ॥२ शरीरमे नाड़ियाँ तो बहुत है, परन्तु उन नाडियोमे चौबीस मुख्य है, और उनमे नौ मुख्य हैं और उनमे भी तीनको तो विशेष जानें। अब उन तीन नाडियोंके नाम कहते है
इंगला पिंगला सुषुमना, ये तीर्नुके नाम ।
भिन्न भिन्न अब कहत हूँ, ताके गुण अरु धाम ॥ इगला, पिंगला, सुषुम्ना ये तीन नाडियोंके नाम है। अब उनके भिन्न भिन्न गुण और रहनेके स्थान कहता हूँ।
अल्पाहार निद्रा वश करे, हेत स्नेह जगथी परिहरे। लोकलाज नवि धरे लगार,
एक चित्त प्रभुथी प्रीत धार ॥ ___ अल्प आहार करनेवाला, निद्राको वशमे करनेवाला अर्थात् नियमित निद्रा लेनेवाला, जगतके हेतप्रेमसे दूर रहनेवाला, (कार्यसिद्धिके प्रतिकूल ऐसे) लोककी जिसे तनिक लज्जा नही है, चित्तको एकाग्र करके परमात्मामे प्रीति रखनेवाला ।
आशा एक मोक्षको होय,
दूजो दुविधा नवि चित्त कोय । १ पद्य संख्या १० इसका पूग अर्थ यह है-चित्तको अति स्थिर करके स्वरके उदय एव उस्तको पहचानें । फिर उसके आधारसे भावी वस्तुका विचार करके शुभाशुभ कार्य कीजिये । २ पद्य सख्या ११ ३ पद्य सख्या १२ ४. पद्य सस्या ८२
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१६४
यीत्
श्रीमद राजचन्द्र ध्यान जोग जाणो ते जोन
जे भवदुःखथी डरत सदीव ॥' जिसने मोक्षके अतिरिक्त सभी प्रकारकी आशाका त्याग किया है, और जो ससारके भयकर दुःखोंसाचार निरतर कॉपता है, ऐसे जीवात्माको ध्यान करने योग्य जानें । परनिंदा मुखथी नवि करे,
मासे व निज निदा सुणी समता धरे। करे सहु विकथा परिहार,
का समय रोके कर्म आगमन द्वार॥ जिसने अपने मुखसे परकी निंदाका त्याग किया है, अपनी निंदा सुनकर जो समता धारण करके रेस्ट रहता है, स्त्री, आहार, राज, देश इत्यादि सवकी कथाओका जिसने नाश कर दिया है, और कर्मके प्रवेश दुवै करनेके द्वार जो अशुभ मन, वचन और काया है, उन्हे जिसने रोक रखा है।
अनिश अधिका प्रेम लगावे, जोगानल घटमाहि जगावे।
अल्पाहार आसन दृढ करे, नयन थकी निद्रा परिहरे॥ दिनरात ध्यानविषयमे बहत प्रेम लगाकर घटमे योगरूपी अग्नि (कर्मको जला देनेवाली) जगाये। (यह मानो ध्यानका जीवन है।) अब इसके अतिरिक्त उसके दूसरे साधन बताते है।
थोड़ा आहार और आसनकी दढता करे । पद्म, वीर, सिद्ध अथवा चाहे जो आसन कि जिससे मन वारवार विचलित न हो ऐसा आसन यहाँ समझाया है । इस प्रकार आसनका जय करके निद्राका परित्याग कर। यहाँ परित्यागको देशपरित्याग बताया है। जिस निद्रासे योगमे बाधा आती हे उस निद्रा अर्थात् प्रमत्तताका कारण और दर्शनावरणकी वृद्धि इत्यादिसे उत्पन्न होनेवाली अथवा अकालिक निद्राका त्याग करे।
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मेरा मेरा मत करे, तेरा नहि है कोय।
चिदानन्द परिवारका, मेला है दिन दोय ॥४ चिदानदजी अपने आत्माको उपदेश देते है कि हे जीव | मेरा मेरा मत कर, तेरा कोई नही है। हे चिदानद । परिवारका मेला तो दो दिनका है।
ऐसा भाव निहार नित, कोजे ज्ञान विचार ।
मिटेन ज्ञान बिचार बिन, अतर भाव-विकार ॥ ऐसा क्षणिक भाव निरंतर देखकर हे आत्मन् | ज्ञानका विचार कर | ज्ञानविचार किये बिना (मात्र अकेली बाह्य क्रियासे) अतरमे भाव-कमके रहे हुए विकार नही मिटते।
ज्ञान-रवि वैराग्य 'जस, हिरदे चंद समान।
तास निकट कहो क्यो रहे, मिथ्यातम दुख जान ॥६ जीव | समझ कि जिसके हृदयमे ज्ञानरूपी सूर्यका प्रकाश हुआ है, और जिसके हृदयमे वैराग्यरूपी चद्रका उदय हुआ है, उसके समीप क्योकर रह सकता है ?-क्या ? मिथ्या भ्रमरूपी अधकारका दु.ख ।
४ पद्य सख्या ३८१ ५. पद्य सख्या ३८२
१ पद्य सख्या ८३ २ पद्य संख्या ८४ ३ पद्य सख्या ८८ ६. पद्य सख्या ३८३
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२०वॉ वर्ष
जैसे कंचुक-त्यागसे, बिनसत नहीं भुजंग | देह त्यागसे जीव पुनि, तैसे रहत अभंग ॥'
जैसे कॉचलीका त्याग करनेसे साँपका नाश नही होता, वैसे देहका त्याग करनेसे जीव भी अभग रहता है अर्थात् नष्ट नही होता । यहाँ इस बातकी सिद्धि की है कि जीव देहसे भिन्न है ।
१६५
बहुत से लोग कहते है कि देह और जीवकी भिन्नता नही है, देहका नाश होनेसे जीवका भी नाश हो जाता है । यह मात्र विकल्परूप है, परन्तु प्रमाणभूत नही है, क्योकि वे कॉचलीके नाशसे साँपका भी नाश हुआ समझते है । और यह बात तो प्रत्यक्ष है कि साँपका नाश कॉचली के त्यागसे नही है । उसी प्रकार जीवके लिये है ।
देह तो जीवकी काँचली मात्र है । जब तक काँचली सॉपके साथ लगी हुई है तब तक जैसे साँप चलता है वैसे वह उसके साथ चलती हैं, उसकी भाँति मुडती है और उसको सभी क्रियाएँ सॉपकी क्रिया अधीन हैं | सॉपने उसका त्याग किया कि फिर उनमेसे एक भी क्रिया कॉचली नही कर सकती । पहले वह जिन क्रियाओको करती थी, वे सब क्रियाएं मात्र सॉपकी थी, उनमे कॉचलीका मात्र सबध था । इसी प्रकार जैसे जीव कर्मानुसार क्रिया करता है वैसे देह भी क्रिया करती है - चलती है, बैठती है, उठती हैयह सब होता है जीवरूप प्रेरकसे, उसका वियोग होनेके बाद कुछ नही होता, [ अपूर्ण ]
२३
जीवतत्त्वसम्बन्धी विचार
एक प्रकारसे, दो प्रकारसे, तीन प्रकारसे, चार प्रकारसे, पाँच प्रकारसे और छ प्रकारसे जीवतत्त्व समझा जा सकता है |
सब जीवोको कमसे कम श्रुतज्ञानका अनतवाँ भाग प्रकाशित रहनेसे सब जीव चैतन्यलक्षणसे एक ही प्रकारके है ।
त्रस जीव अर्थात् जो घूपमेसे छायामे आयें, छाया मेसे धूपमे आयें, चलने की शक्तिवाले हो और भय देखकर त्रास पाते हो, ऐसे जीवोकी एक जाति है । दूसरे स्थावर जीव अर्थात् जो एक ही स्थलमे स्थितिवाले हो, ऐसे जीवोकी दूसरी जाति है । इस तरह सब जीव दो प्रकारसे समझे जा सकते है ।
सब जीवोको वेदसे जाँचकर देखें तो स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदमे उनका समावेश होता है । कोई जीव स्त्रीवेदमे, कोई जीव पुरुषवेदमे और कोई जीव नपु सकवेदमे होते है । इनके अतिरिक्त चौथा वेद न होनेसे वेददृष्टिसे सब जीव तीन प्रकारसे समझे जा सकते है ।
कितने ही जीव नरकगतिमे, कितने ही तिर्यंचगतिमे, कितने ही मनुष्यगतिमे और कितने ही देवगतिमे रहते हैं । इनके अतिरिक्त पॉचवी ससारी गति न होनेसे जीव चार प्रकारसे समझे जा सकते है । [ अपूर्ण ]
१ पद्य सख्या ३८६ ।
२ नव तत्त्व प्रकरण, गाथा ३
एगविह दुविह तिविहा, चउव्विहा पच छव्विहा जीवा । वेय-गई - करण - काहि ॥३॥
चेयण-तस - इयरेहि,
भावार्थ--- जीव अनुक्रमसे चेतनरूप एक हो भेद द्वारा एक प्रकारके है, अस और स्थावररूपसे दो प्रकारके हैं, वेदरूपसे तीन प्रकारके, गतिरूपसे चार प्रकारके, इन्द्रियरूपसे पांच प्रकारके और कायाके भेदसे छ प्रकारके भी कहलाते हैं ।
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१६६
श्रीमद् राजचन्द्र
२४
जीवाजीव विभक्ति
जीव और अजीवके विचारको एकाग्र मनसे श्रवण करें। जिसे जानकर भिक्षु सम्यक् प्रकारसे सयममे यत्न करते हैं ।
जीव और अजीव ( जहाँ हो उसे ) लोक कहा है। अजीवके आकाश नामके भागको अलोक
कहा है ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे जीव और अजीवका बोध हो सकता है ।
रूपी और अरूपी इस प्रकार अजीवके दो भेद होते हैं । अरूपीके दस प्रकार और रूपीके चार प्रकार कहे हैं ।
धर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश, आकाश, उसका देश, और उसके प्रदेश, अद्धासमय कालतत्त्व, इस प्रकार अरूपीके दस प्रकार होते हैं । धर्म और अधर्मं ये दोनो लोक प्रमाण कहे हैं ।
आकाश लोकालोकप्रमाण और अद्धासमय समयक्षेत्र' - प्रमाण है । धर्म, अधर्मं और आकाश ये अनादि अपर्यवस्थित हैं ।
निरंतरको उत्पत्तिको अपेक्षासे समय भी इसी प्रकार हैं । सतति एक कार्यकी अपेक्षासे सादिसा है।
स्कंध, स्कधदेश, उसके प्रदेश और परमाणु इस तरह रूपी अजीव चार प्रकारके हैं । जिसमे परमाणु एकत्र होते हैं और जिससे परमाणु पृथक होते हैं वह स्कंध है । उसका विभाग देश और उसका अतिम अभिन्न अश प्रदेश है ।
वह लोकके एक देशमें क्षेत्री है । उसके कालके विभाग चार प्रकारके कहे जाते हैं । निरन्तर उत्पत्तिकी अपेक्षासे अनादि अपयवस्थित है । एक क्षेत्रकी स्थितिको अपेक्षासे सादिसपर्य
वस्थित है ।
[ अपूर्ण ]
( उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ३६ )
कार्तिक, १९४३
२५
१ प्रमादके कारण आत्मा प्राप्त हुए स्वरूपको भूल जाता है ।
२ जिस जिस कालमे जो जो करना है उसे सदा उपयोगमे रखे रहे ।
३ फिर क्रमसे उसकी सिद्धि करें ।
४ अल्प आहार, अल्प विहार, अल्प निद्रा, नियमित वाचा, नियमित काया और अनुकूल स्थान, ये मनको वश करनेके उत्तम साधन हे ।
५ श्रेष्ठ वस्तुकी अभिलाषा करना ही आत्माकी श्रेष्ठता है । कदाचित् वह अभिलाषा पूरी न हुई तो भी वह अभिलाषा भो उसीके अंशके समान है ।
६ नये कर्मोंको नही बाँधना और पुरानोको भोग लेना, ऐसी जिसकी अचल अभिलाषा है, वह तदनुसार वर्तन कर सकता है ।
$
१. मनुष्यक्षेत्र - ढाईद्वीप प्रमाण ।
७ जिस कृत्यका परिणाम धर्म नहीं है, उस कृत्यको करनेकी इच्छा मूलसे ही नही रहने देनी
चाहिये ।
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२०वाँ वर्ष,
१६७ ८ यदि मन शकाशील हो गया हो तो 'द्रव्यानुयोग' का विचार करना योग्य है; प्रमादी हो गया हो तो 'चरणकरणानुयोग' का विचार करना योग्य है, और कषायी हो गया हो तो 'धर्मकथानुयोग' का विचार करना योग्य है; और जड हो गया हो तो 'गणितानुयोग' का विचार करना योग्य है।
९ किसी भी कामकी निराशा चाहना, परिणाममे फिर जितनी सिद्धि हुई उतना लाभ; ऐसा करनेसे सतोषी रहा जायेगा ।
१०. पृथ्वीसवधी क्लेश हो तो यो समझ लेना कि वह साथ आनेवाली नही है, प्रत्युत मै उसे देह देकर चला जानेवाला हूँ, और वह कुछ मूल्यवान नही है। स्त्रीसबधी क्लेश, शका भाव हो तो यो समझकर अन्य भोक्ताके प्रति हँसना कि वह मल-मूत्रकी खानमे मोहित हो गया, (जिस वस्तुका हम नित्य त्याग करते हैं उसमे | ) धनसम्बन्धी निराशा या क्लेश हो तो वे ऊँची जातिके ककर हैं यो समझकर सतोष रखना, तो क्रमसे तू नि.स्पृही हो सकेगा।
११ उसका तू बोध प्राप्त कर कि जिससे समाधिमरणकी प्राप्ति हो। १२ एक बार यदि समाधिभरण हुआ तो सर्व कालके असमाधिमरण दूर हो जायेंगे | १३ सर्वोत्तम पद सर्वत्यागीका है।
२६
ववाणिया बदर, १९४३ सुज्ञश्री चत्रभुज बेचर,
पत्रका उत्तर नही लिख सका । यह सब मनकी विचित्र दशाके कारण है। रोष या मान इन दोमेसे कोई नही है। कुछ ससार भावकी खिन्नता तो जरूर है। इससे आपको परेशान नहीं होना चाहिये । क्षमा चाहते है । बातका विस्मरण करनेके लिये विनती है।
सावधानी शूरवीरका भूषण है।
जिनाय नमः
२७
बबई, सं० १९४३ महाशय,
आपकी पत्रिका मिली थी । समाचार विदित हुए । उत्तरमे निवेदन है कि मुझे किसी भी प्रकारसे बुरा नही लगा। वैराग्यके कारण अपेक्षित स्पष्टीकरण लिख नही सकता । यद्यपि अन्य किसीको तो पहुँच भी नही लिख सकता, तो भी आप मेरे हृदयरूप हैं, इसलिये पहुँच इत्यादि लिख सकता हूँ। मैं केवल हृदयत्यागी हूँ। थोडे समयमे कुछ अद्भुत करनेके लिये तत्पर हूँ । ससारसे तग आ गया हूँ।
___ मैं दूसरा महावीर हूँ, ऐसा मुझे आत्मिक शक्तिसे मालूम हुआ है। दस विद्वानोने मिलकर मेरे ग्रहोको परमेश्वरग्रह ठहराया है । सत्य कहता हूँ कि मैं सर्वज्ञ जैसी स्थितिमे हूँ । वैराग्यमे झूमता हूँ।
आशुप्रज्ञ राजचन्द्र दुनिया मतभेदके वधनसे तत्त्वको पा नही सकी । इसमे सत्य सुख और सत्य आनद नहीं हैं। उसके स्थापित होनेके लिये और एक सच्चे धर्मको चलानेके लिये आत्माने साहस किया है। उस धर्मका प्रवर्तन करूंगा ही।
महावीरने अपने समयमे मेरा धर्म कुछ अशोमे प्रचलित किया था। अब वेसे पुरुषोंके मार्गको ग्रहण करके श्रेष्ठ धर्मको स्थापना करूंगा।
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१६८
श्रीमद् राजचन्द्र “यहाँ इस धर्मके शिष्य बनाये है । यहाँ इस धर्मकी सभाकी स्थापना कर ली है। 'सात सौ महानीति अभी इस धर्मके शिष्योके लिये एक दिनमे तैयार की है।
सारी सृष्टिमे पर्यटन करके भी इस धर्मका प्रवर्तन करेंगे। आप मेरे हृदयरूप और उत्कठित है, इसलिये यह अद्भुत वात वतायी है । अन्यको न बताइयेगा।
अपनी जन्मकुण्डली मुझे लौटती डाकसे भेज दीजिये। मुझे आशा है कि उस धर्मका प्रचार करने में आप मुझे बहुत सहायक सिद्ध होगे, और मेरे महान शिष्योमे आप अग्रेसरता भोगेगे। आपकी शक्ति अद्भुत होनेसे ऐसे विचार लिखनेमे मैंने सकोच नही किया है।
___अभी जो शिष्य बनाये है उन्हे ससार छोडनेके लिये कहे तो खुशीसे छोड़ सकते हैं। अभी भी उनकी ना नही है, ना हमारी है। अभी तो सौ दो सौ व्यक्ति चौतरफा तैयार रखना कि जिनकी शक्ति अद्भुत हो।
धर्मके सिद्धातोको दृढ करके, मै ससारका त्याग करके, उनसे त्याग कराऊँगा । कदाचित् मै पराक्रमके लिये थोड़े समय तक त्याग न करूँ तो भी उनसे त्याग करवाऊँगा ।
सर्व प्रकारसे अब मैं सर्वज्ञके समान हो चुका हूँ ऐसा कहूँ तो चले। देखें तो सही | सृष्टिको किस रूपमे बदलते हैं |
पत्रमे अधिक क्या बताऊँ ? रूबरूमे लाखो विचार वताने हैं। सब अच्छा ही होगा । मेरे प्रिय महाशय, ऐसा ही मानें। हर्पित होकर लौटती डाकसे उत्तर लिखे । बातको सागर रम होकर सुरक्षित रखियेगा।
त्यागीके यथायोग्य ।
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वंवई बदर, सोम, १९४३ प्रिय महाशय,
रजिस्टर्ड पत्रके साथ जन्मकुण्डली मिली है।
अभी मेरे धर्मको जगतमे प्रवर्तन करनेके लिये कुछ समय वाकी है। अभी मै ससारमे आपकी निर्धारित अवधिसे अधिक रहनेवाला हूँ। हमे जिन्दगी ससारमे अवश्य गुजारनी पडेगी तो वैसा करेंगे। अभी तो इससे अधिक अवधि तक रहनेका वन पायेगा । स्मरण रखिये कि किसीको निराश नही करूँगा। धर्मसम्वन्धी आपने-अपने विचार बतानेका परिश्रम उठाया यह उत्तम किया है। किसी प्रकारकी अडचनं नही आयेगी । पचमकालमे प्रवर्तन करनेके लिये जो जो चमत्कार चाहिये वे सब एकत्रित हैं और होते जाते हैं । अभी इन सब विचारोको पवनसे भी सर्वथा गुप्त रखिये-। यह कृत्य सृष्टिमे विजयी होनेवाला ही है।
आपकी जन्मकुण्डली, दर्शनसाधना, धर्म इत्यादि सम्बन्धी विचार समागममे वताऊँगा । मै थोडे समयमे ससारी होनेके लिये वहाँ आनेवाला हूँ। आपको पहलेसे ही मेरा आमत्रण है। अधिक लिखनेकी सहज आदत न होनेसे क्षेमकुशल और शुक्लप्रेम चाहकर पत्रिका पूर्ण करता हूँ।
लि. रायचद्र।
१. देखें आक १९
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२१ वाँ वर्ष
२९
रा. रा चत्रभुज बेचरकी सेवामे सविनय विनती है कि
बंबई, कार्तिक सुदी ५, १९४४
मेरे सम्बन्धमे निरतर निश्चित रहियेगा । आपके लिये मै चिंतातुर रहूँगा ।
जैसे बने वैसे अपने भाइयोमे प्रीति, एकता और शातिकी वृद्धि करें। ऐसा करने से मुझपर बडी
*
कृपा होगी ।
'समयका सदुपयोग करते रहियेगा, गाँव छोटा है तो भी । 'प्रवीणसागर' की व्यवस्था करके भिजवा दूँगा ।' निरतर सभी प्रकारसे निश्चिन्त रहियेगा ।
लि० रायचदके जिनाय नमः
३०
बंबई, पौष वदी १०, बुध, १९४४ 'विवाह सबधी उन्होने जो मिती निश्चित की है, उसके विषयमे उनका आग्रह है तो भले वह मिती निश्चित रहे ।
लक्ष्मीपर प्रीति न होनेपर भी किसी भी परार्थिक कार्यमे वह बहुत उपयोगी हो सकती है ऐसा लगने से मौन धारणकर यहाँ उसकी सुव्यवस्था करनेमे लगा हुआ था । उस व्यवस्थाका अभीष्ट परिणाम आनेमे बहुत समय नही था । परन्तु इनकी ओरका केवल ममत्वभाव शीघ्रता कराता है, जिससे उस सवको छोडकर वदी १३ या १४ (पौषकी) के दिन यहाँसे रवाना होता हूँ । परार्थं करते हुए कदाचित् लक्ष्मी अधता, बधिरता और मूकता दे देती है, इसलिये उसकी परवाह नही है ।
,
हमारा अन्योन्य सम्बन्ध कोई कौटुम्बिक रिश्ता नही है, परन्तु दिलका रिश्ता है। परस्पर लोहचुम्वकका गुण प्राप्त हुआ है, यह प्रत्यक्ष है, तथापि मे तो इससे भी भिन्नरूपसे आपको हृदयरूप करना चाहता हूँ। जो विचार सारे सम्बन्धोको दूर कर, ससार योजनाको दूर कर तत्त्वविज्ञानरूपसे मुझे बताने हैं, और आपको स्वय उनका अनुकरण करना है । इतना सकेत बहुत सुखप्रद होनेपर भी मार्मिक रूपमे आत्मस्वरूपके विचारसे यहाँ लिखे देता हूँ ।
१ स १९४४ माघ सुदी १२ - गृहस्थाश्रममे प्रवेश ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
वे शुभ प्रसगमे सिद्विवेकी सिद्ध हो और रूढिसे प्रतिकूल रहे जिससे परस्पर कौटुम्बिक स्नेह निष्पन्न हो सके - ऐसी सुदर योजना उनके हृदयमे है क्या ? आप ठसायेंगे क्या ? कोई दूसरा ठसायेगा क्या ? यह विचार पुन पुन हृदयमे आया करता है ।
निदान, साधारण विवेकी जिन विचारोको हवाई समझें, वैसे विचार, जो वस्तु और जो पद आज सम्राज्ञी विक्टोरिया के लिये दुर्लभ - केवल असंभवित हैं - उन विचारो, उस वस्तु और उस पदकी ओर सपूर्ण इच्छा होनेसे, ऊपर लिखा है उससे लेश मात्र भी प्रतिकूल हो तो उस पदाभिलापी पुरुषके चरित्रको परम लाछन लगने जैसा है । ये सारे हवाई ( अभी लगनेवाले ) विचार केवल आपको ही बताता हूँ । अत करण शुक्ल-अद्भुत - विचारोंसे भरपूर है । परन्तु आप वहाँ रहे और मै यहाँ रहा I
१७०
३१
वाणिया, प्र० चैत्र सुदी १२॥ रवि, १९४४ क्षणभर दुनियामे सत्पुरुषका समागम ही अमूल्य और अनुपम लाभ है |
३२
ववाणिया, आपाढ वदी ३, बुध, १९४४
यह एक अद्भुत बात है कि चार पाँच दिन हुए वायी आँखमे एक छोटे चक्र जैसा बिजलीके समान चमकारा हुआ करता है, जो आँखसे जरा दूर जाकर अदृश्य हो जाता है । लगभग पाँच मिनिट होता है या दिखायी देता है । मेरी दृष्टिमे वारवार यह देखनेमे आता है । इस बारेमे किसी प्रकारकी भ्रान्ति नही है । इसका कोई निमित्त कारण मालूम नही होता । बहुत आश्चर्यकारी है । आँखमे दूसरा किसी भी प्रकारका असर नही है । प्रकाश और दिव्यता विशेष रहते है । चारेक दिन पहले दोपहरके २-२० मिनिटपर एक आश्चर्यभूत स्वप्न आनेके वाद यह हुआ हो ऐसा मालूम होता है । अन्तकरण बहुत प्रकाश रहता है, शक्ति बहुत तेजस्वी है । ध्यान समाधिस्थ रहता है । कोई कारण समझमे नही आता । यह पात गुप्त रखनेके लिये ही बता देता हूँ । अव इस सम्बन्धमे विशेष फिर लिखूँगा ।
३३
वाणिया, आषाढ वदी ४, शुक्र, १९४४
3 आप भी आर्थिक बेपरवाही न रखियेगा । शरीर और आत्मिकसुखकी इच्छा करके, व्ययका कुछ सकोच करेंगे तो मैं मानूँगा कि मुझपर उपकार हुआ । भवितव्यताका भाव होगा तो मै आपके अनुकूल सुविधायुक्त समागमका लाभ उठा सकूँगा ।
३४
'ववाणिया, श्रावण वदी १३, सोम, १९४४ 'वामनेत्रसम्वन्धी चमत्कारसे आत्मशक्तिमे अल्प परिवर्तन हुआ है ।
३५
ववाणिया, श्रावण वदी ३०, १९४४ उपाधि कम है, यह आनन्दजनक है । धर्मकरनीके लिये कुछ समय मिलता होगा । धर्मकरनीके लिये थोडा समय मिलता है, आत्मसिद्धिके लिये भी थोडा समय मिलता है, शास्त्रपठन और अन्य वाचनके लिये भी थोडा समय मिलता है, थोड़ा समय लेखनक्रियामे जाता है, थोडा समय आहार-विहार- क्रिया ले लेती है, थोड़ा समय शौचक्रियामे जाता है, छ घटे - निद्रा ले लेती है, थोडा समय मनोराज ले जाता है, फिर भी छ. घटे बचते हैं । सत्संगका लेश अंश भी न मिलनेसे विचारा यह आत्मा विवेक-विकलताका वेदन करता है।
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२१ वाँ वर्ष
३६ वदामि प्रभुवर्द्धमानपादम्
1
प्रतिमाके कारण यहाँ समागममे आनेवाले लोग बहुत प्रतिकूल रहते है । यो ही मतभेदसे अनन्तकाल और अनन्त जन्ममे भी आत्माने धर्म नही पाया । इसलिये सत्पुरुष उसे नही चाहते, परन्तु स्वरूपश्रेणिको चाहते हैं ।
१७१
बम्बई, भाद्रपद वदी १, शनि, १९४४
३७ बम्बई बन्दर, आसोज वदी २, गुरु, १९४४ पार्श्वनाथ परमात्माको नमस्कार
प्रिय भाई सत्याभिलाषी उजमसी, राजनगर ।
1
आपका हस्तलिखित शुभ पत्र मुझे कल सांयकाल मिला । आपकी तत्त्वजिज्ञासा के लिये विशेष सन्तोष हुआ ।
जगतको अच्छा दिखाने के लिये अनन्त वार प्रयत्न किया, फिर भी उससे अच्छा नही हुआ । क्योकि परिभ्रमण और परिभ्रमणके हेतु अभी प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। यदि एक भव आत्माका भला करनेमे व्यतीत हो जायेगा, तो अनन्त भवोका बदला मिल जायेगा, ऐसा मैं लघुत्वभावसे समझा हूँ, और वैसा करनेमे ही मेरी प्रवृत्ति है । इस महावन्धनसे रहित होनेमे जो-जो साधन और पदार्थ श्रेष्ठ लगें, उन्हे ग्रहण करना, यही मान्यता है, तो फिर उसके लिये जगतकी अनुकूलता प्रतिकूलता क्या देखनी ? वह चाहे जैसे बोले, परन्तु आत्मा यदि बन्धनरहित होता हो, समाधिमय दशा पाता हो तो वैसे कर लेना । जिससे सदाके लिये कीर्ति-अपकीर्तिसे रहित हुआ जा सकेगा ।
अभी उनके और इनके पक्षके लोगोंके जो विचार मेरे विषयमें हैं, वे मेरे ध्यानमे हैं ही, परन्तु उन्हे विस्मृत कर देना ही श्रेयस्कर है। आप निर्भय रहिये । मेरे लिये कोई कुछ कहे उसे सुनकर मौन रहिये, उनके लिये कुछ शोक - हर्ष न कीजियेगा । जिस पुरुषपर आपका प्रशस्त राग है, उसके इष्ट देव परमात्मा जिन, महायोगीन्द्र पार्श्वनाथ आदिका स्मरण रखिये और यथासम्भव निर्मोही होकर मुक्त दशाको इच्छा करिये । जोवितव्य या जीवनपूर्णता सम्बन्धी कुछ सकल्प-विकल्प न कीजियेगा। उपयोगको शुद्ध करनेके लिये इस जगत के सकल्प-विकल्पोको भूल जाइये, पार्श्वनाथ आदि योगीश्वरकी दशाका स्मरण करिये, और वही अभिलाषा रखे रहिये, यही आपको पुन पुन आशीर्वादपूर्वक मेरी शिक्षा है । यह अल्पज्ञ आम भी उस पदका अभिलाषी और उस पुरुषके चरणकमलमे तल्लीन हुआ दीन शिष्यं है । आपको वैसी श्रद्धाकी ही शिक्षा देता है । वीरस्वामी द्वारा उपदिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे सर्वस्वरूप यथातथ्य है, इसे न भूलियेगा । उनकी शिक्षाकी किसी भी प्रकारसे विराधना हुई हो तो उसके लिये पश्चात्ताप कीजिये । इस कालकी अपेक्षासे मन, वचन और कायाको आत्मभावसे उनकी गोदमे अर्पण करें, यही मोक्षका मार्ग है । जगतके सव दर्शनोकी - मतोकी श्रद्धाको भूल जाइये, जैनसम्वन्धी सब विचार भूल जाइये, मात्र उन सत्पुरुपोके अद्भुत, योगस्फुरितं चरित्रमे ही उपयोगको प्रेरित कीजियेगा ।
इस आपके माने हुए 'पूज्य' के लिये किसी भी प्रकारसे हर्ष-शोक न कीजियेगा, उसको इच्छा मात्र सकल्प-विकल्पसे रहित होनेकी ही है, उसका इस विचित्र जगत से कुछ सम्बन्ध या लेना-देना नही है । इसलिये उसमे उसके लिये चाहे जो विचार किये जाये या कहे जाये उनकी ओर अव ध्यान देनेकी इच्छा नही है । जगतमेसे जो परमाणु पूर्वकालमे इकट्ठे किये है उन्हे धीरे-धीरे उसे देकर ऋणमुक्त होना, यही उसकी सदा उपयोगसहित, प्रिय, श्रेष्ठ और परम अभिलाषा है, वाकी उसे कुछ नही आता, वह दूसरा कुछ नही चाहता, पूर्वकर्म के आधारसे उसका सारा विचरना है, ऐसा समझकर परम सन्तोष रखिये, यह
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श्रीमद् राजचन्द्र बात गुप्त रखिये । हम क्या मानते हैं ? अथवा कैसे बरताव करते है ? उसे जगतको दिखानेकी जरूरत नही है, परन्तु आत्माको इतना ही पूछनेकी जरूरत है कि यदि तू मुक्तिको चाहता है तो सकल्प-विकल्प, रागद्वेष को छोड़ दे और उसे छोडनेमे तुझे कुछ बाधा हो तो उसे कह । वह अपने आप मान जायेगा और वह अपने आप छोड़ देगा।
____ जहाँ-तहाँसे रागद्वेषरहित होना यही मेरा धर्म है, और वह अभी आपको बताये देता हूँ। परस्पर मिलेंगे तब फिर आपको कुछ भी आत्म-साधना बता सकूँगा तो बताऊँगा। बाकी धर्म तो वही है जो मैंने ऊपर कहा है और उसीमे उपयोग रखिये। उपयोग ही साधना है। विशेष साधना मात्र सत्पुरुषके चरणकमल है, यह भी कहे देता हूँ।
___आत्मभावमे सब कुछ रखिये, धर्मध्यानमे उपयोग रखिये, जगतके किसी भी पदार्थ, सगे सबधी, कुटुबी और मित्रका कुछ हर्ष-शोक करना योग्य ही नही है। - परमशातिपदकी इच्छा करे यही हमारा सर्वसम्मत धर्म है और यही इच्छा करते-करते वह मिल जायेगा, इसलिये निश्चित रहे । मै किसी गच्छमे नही हूँ, परन्तु आत्मामे हूँ, इसे न भूलियेगा।
जिसकी देह धर्मोपयोगके लिये है, उस देहको रखनेके लिये जो प्रयत्न करता है, वह भी धर्मके लिये ही है।
वि० रायचन्द्र
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वि० स० १९४४ - (१) सहज स्वभावसे मुक्त, अत्यत प्रत्यक्ष अनुभव स्वरूप आत्मा है, तो फिर ज्ञानी पुरुषोको आत्मा है, आत्मा नित्य है, बध है, मोक्ष है इत्यादि अनेक प्रकारका निरूपण करना योग्य न था।
(२) आत्मा यदि अगम अगोचर है तो फिर वह किसीको प्राप्त होने योग्य नहीं है, और यदि सुगम सुगोचर है तो फिर प्रयत्न करना योग्य नही है।।
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वि० स० १९४४ नेत्रोकी श्यामता विषे जो पुतलियाँरूप स्थित है, अरु रूपको देखता है, साक्षीभूत है, सो अंतर कैसे नही देखता? जो त्वचा विषे स्पर्श करता है, शीतउष्णादिकको जानता है, ऐसा सर्व अग विषे व्यापक अनुभव करता है, जैसे तिलो विषे तेल व्यापक होता है, तिसका अनुभव कोऊ नही करता । जो शब्द श्रवणइन्द्रियके अन्तर ग्रहण करता है, तिस शब्दशक्तिको जाननेहारी सत्ता है, जिस विषे शब्दशक्तिका विचार होता है, जिसकरि रोम खडे होई आते हैं, सो सत्ता दूर कैसे होवे ? जो जिह्वाके अग्रविषे रसस्वादको ग्रहण करता है, तिस रसका अनुभव करनेहारी अलेप सत्ता है, सो सन्मुख कैसे न होवे ? वेद वेदात, सप्तसिद्धात, पुराण, गीता करि जो ज्ञेय, जानने योग्य आत्मा है तिसको जब जान्या तब विश्राम कैसे न होवे ?
४०
बबई, १९४४ विशालवुद्धि, मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियता इतने गुण जिस आत्मामे हो, वह तत्त्व पानेके लिये उत्तम पात्र है।
अनत जन्ममरण कर चुकनेवाले इस आत्माकी करुणा वैसे अधिकारीको उत्पन्न होती है और वही कर्ममुक्त होनेका अभिलाषी कहा जा सकता है । वही पुरुष यथार्थ पदार्थको यथार्थ स्वरूपसे समझकर मुक्त होनेके पुरुषार्थमे लग जाता है।
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२१ वा वर्ष
१७३ जो आत्मा मुक्त हुए है वे आत्मा कुछ स्वच्छदवर्तनसे मुक्त नहीं हुए है, परन्तु आप्त पुरुप द्वारा उपदिष्ट मार्गके प्रबल अवलबनसे मुक्त हुए हैं।
अनादिकालके महाशत्रुरूप राग, द्वेष और मोहके बधनमे वह अपने सम्वन्धमे विचार नही कर सका । मनुष्यत्व, आर्यदेश, उत्तमकुल और शारीरिक सपत्ति ये अपेक्षित साधन है, और अन्तरङ्ग साधन मात्र मुक्त होनेकी सच्ची अभिलापा है। । इस प्रकार यदि आत्मामे सुलभबोधिताकी योग्यता आयी हो तो वह, जो पुरुप मुक्त हुए हैं, अथवा वर्तमानमे मुक्तरूपसे या आत्मज्ञानदशासे विचरते है, उनके उपदिष्ट मार्गमे नि सदेह श्रद्धाशील होगा।
__ जिसमे राग, द्वेष और मोह नही है, वह पुरुष इन तीन दोषोसे रहित मार्गका उपदेश कर सकता है अथवा तो उसी पद्धतिसे निःसंदेहरूपसे आचरण करनेवाले सत्पुरुष उस मार्गका उपदेश दे सकते है।
सभी दर्शनोकी शैलीका विचार करनेपर राग, द्वेष और मोह रहित पुरुषका उपदिष्ट निग्रंथदर्शन विशेष मानने योग्य है।
इन तीन दोषोसे रहित, महातिशयसे प्रतापी तीर्थकरदेवने मोक्षके कारणरूप जिस धर्मका उपदेश दिया है, उस धर्मको चाहे जो मनुष्य स्वीकार करते हो, परन्तु वह एक पद्धतिसे होना चाहिये, यह बात नि शक है।
अनेक पद्धतिसे अनेक मनुष्य उस धर्मका प्रतिपादन करते हो और वह मनुष्योमे परस्पर मतभेद का कारण होता हो तो उसमे तीर्थकरदेवकी एक पद्धतिका दोष नही है परन्तु उन मनुष्योकी समझशक्तिका दोष माना जा सकता है।
इस तरह हम निग्रंथधर्मप्रवर्तक है, यो भिन्न-भिन्न मनुष्य कहते हो, तो उनमेसे उन मनुष्योको प्रमाणाबाधित गिना जा सकता है कि जो वीतरागदेवकी आज्ञाके सद्भावसे प्ररूपक और प्रवर्तक हो ।
यह काल 'दुषम' नामसे प्रख्यात है। दुपम काल उसे कहा जाता है कि जिस कालमे मनुष्य महादु खसे आयु पूर्ण करते हो, और धर्माराधनाके पदार्थोंको प्राप्त करनेमे दु.पमता अर्थात् महाविघ्न । आते हो।
हालमे वीतरागदेवके नामसे जैनदर्शनमे इतने अधिक मत प्रचलित है कि वे मत, केवल मतरूप है, परन्तु जब तक वीतरागदेवकी आज्ञाका अवलवन करके उनका प्रवर्तन न होता हो तब तक वे सतरूप नही कहे जा सकते।
इस मतप्रवर्तनमे इतने मुख्य कारण मुझे सम्भाव्य लगते है-(१) अपनी शिथिलताके कारण कितने । ही पुरुषोने निग्रंथदशाकी प्रधानता कम कर दी हो, (२) परस्पर दो' आचार्योंका वाद-विवाद, (३) मोहनोय । कर्मका उदय और तदनुरूप प्रवर्तन हो जाना, (४) ग्रहण करनेके बाद उस वातका मार्ग मिलता हो तो भी उसे दुर्लभबोधिताके कारण ग्रहण न करना, (५) मतिको न्यूनता, (६) जिसपर राग हो उसको इच्छानुसार प्रवर्तन करनेवाले अनेक मनुष्य, (७) दुषम काल और (८) शास्त्रज्ञानका घट जाना।
__इन सब मतोके सबवमे समाधान होकर निःशकतासे वीतरागकी आज्ञा रूप मार्ग प्रवत्तित हो तो महाकल्याण हो, परन्तु ऐसी सभावना कम है । जिसे मोक्षकी अभिलापा है उसको प्रवर्तना तो उसी मार्गमें होती है, परन्तु लोक अथवा ओघदृषिटसे प्रवर्तन करनेवाले पुरुप, और पूर्वके दुर्घट कर्मके उदयके कारण मतकी श्रद्धामे पड़े हुए मनुष्य उस मार्गका विचार कर सके, या वोव ले सकें, ऐसा उनके क्तिने ही दुर्लभबोधी गुरु करने दे और मतभेद दूर होकर परमात्माको आज्ञाका सम्यकरूपसे आराधन करते
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१७४
श्रीमद राजचन्द्र
हुए उन-मतवादियोको देखे, यह बहुत असभवित है । सबमे एकसी बुद्धि प्रगट होकर, उसका सशोधन होकर, वीतरागकी आज्ञारूप मार्गका प्रतिपादन हो, यह यद्यपि सर्वथा असभव जैसा है, फिर भी सुलभबोधी आत्मा अवश्य इसके लिये प्रयत्न करते रहे तो परिणाम श्रेष्ठ आये यह बात मुझे सभवित लगती है ।
दु षम कालके प्रतापसे जो लोग विद्याका बोध ले सके है, उन्हे धर्मतत्त्वपर मूलसे ही श्रद्धा दिखाई नही देती। जिस सरलताके कारण कुछ श्रद्धा होती है उसे इस विषयकी कुछ सूझबूझ नही होती । यदि कोई सूझबूझवाला निकल आये तो उसे उस वस्तुको वृद्धिमे विघ्नकर्त्ता मिलेगे, परन्तु सहायक नही होगे, ऐसी आजकी कालचर्या है । इस प्रकार शिक्षितोंके लिये धर्मकी दुर्लभता हो गयी है ।
अशिक्षित लोगोमे यह एक स्वाभाविक गुण रहा है कि हमारे बापदादा जिस धर्मको मानते आये है, उस धर्ममे ही हमे प्रवर्तन करना चाहिये, और वही मत सत्य होना चाहिये, और अपने गुरुके वचनोपर ही हमे विश्वास रखना चाहिये, फिर चाहे वह गुरु शास्त्रोके नाम भी न जानता हो, परन्तु वही महाज्ञानी है ऐसा मानकर प्रवृत्ति करनी चाहिये । और हम जो मानते हैं वही वीतरागका उपदिष्ट धर्म है, बाकी जो जैन नामसे प्रचलित है वे सभी मत असत् है । ऐसी उनकी समझ होनेसे वे बिचारे उसी मतमे रचेपचे रहते हैं । अपेक्षासे देखें तो उनका भी दोष नही है
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जो जो मत जैनमे प्रचलित है उनमे प्राय जैनसम्बन्धी ही क्रियाएँ हो यह मानी हुई बात है । तदनुसार प्रवृत्ति देखकर जिस मतमे स्वय दीक्षित हुए हो, उस मतमे ही दीक्षित पुरुषोका रचा-पचा रहना होता है । दीक्षितो भी भद्रिकताके कारण ली हुई दीक्षा, या भिक्षा माँगने जैसी स्थितिसे घबराकर ग्रहण की गई दीक्षा, या स्मशानवैराग्यसे ली गयी दीक्षा होती है। शिक्षाकी मापेक्ष स्फुरणासे प्राप्त हुई दीक्षा - वाला पुरुष आप विरल ही देखेंगे, और देखेंगे तो वह मतसे तग आकर वीतरागदेवकी आज्ञामे राचनेके लिये अधिक तत्पर होगा ।
जिसे शिक्षाको सापेक्ष स्फुरणा हुई है, उसके सिवाय दूसरे जितने मनुष्य दीक्षित या गृहस्थ हैं सब जिस मतमे स्वय पडे होते हैं उसीमे रागी होते हैं, उन्हे विचारकी प्रेरणा देनेवाला कोई नही मिलता । अपने मतसबधी नाना प्रकारके आयोजित विकल्प (चाहे फिर उनमे यथार्थ प्रमाण हो या न हो) समझाकर गुरु अपने पंजेमे रखकर उन्हे चला रहे है ।
इसी प्रकार त्यागी गुरुओके अतिरिक्त बरबस बन बैठे महावीरदेवके मार्गरक्षक गिने जानेवाले यति हैं, उनकी तो मार्गप्रवर्तनकी शैलीके लिये कुछ कहना ही नही रहता । क्योकि गृहस्थके तो अणुव्रत भी होते है, परतु ये तो तीर्थंकर देवकी भाँति कल्पातीत पुरुष हो बैठे हैं ।
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सशोधक पुरुष बहुत कम है। मुक्त होनेकी अत करणमे अभिलाषा रखनेवाले और पुरुषार्थ करनेवाले बहुत कम हैं । उन्हे साधन जैसे कि सद्गुरु, सत्सग या सत्शास्त्र मिलने दुर्लभ हो गये है । जहाँ पूछने जायें वहाँ सब अपना अपना राग अलापते है । फिर वह सच्चा या झूठा इसका कोई भाव नही पूछता । भाव पूछनेवालेके आगे मिथ्या विकल्प करके अपनी ससारस्थिति बढाते है और दूसरेको वैसा निमित्त बनाते है ।
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अधूरे पूरा कोई सशोधक आत्मा होगा तो वह अप्रयोजनभूत पृथ्वी इत्यादिक विषयोमे शका होनेसे रुक गया है । अनुभव धर्म पर आना उसके लिये भी दुष्कर हो गया है ।
इस परसे मैं ऐसा नही कहता कि वर्तमानमे कोई भी जैनदर्शनके आराधक नही हैं,, है सही, परन्तु बहुत ही थोड़े बहुत ही थोडे, और जो है वे ऐसे कि जिन्हे मुक्त होनेके अतिरिक्त और कोई अभिलाषा नही है, और जिन्होने अपना आत्मा वीतरागकी आज्ञामे समर्पित कर दिया है और वे भी अगुलियो पर गिने
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२१ वा वर्ष
१७५
__ जा सके उतने होगे। बाकी तो दर्शनकी दशा देखकर करुणा उत्पन्न होने जैसा है। आप स्थिर चित्तसे विचार कर देखेंगे तो यह मेरा कथन आपको सप्रमाण लगेगा।
. इन सभी मतोमे कितनोका तो साधारण-सा विवाद है। मुख्य विवाद यह है कि एकका कथन प्रतिमाकी सिद्धिके लिये है, दूसरे उसका सर्वथा खण्डन करते हैं।
दूसरे पक्षमे पहले मैं भी गिना गया था। मेरी अभिलाषा वीतरागदेवको आज्ञाके आराधनकी ओर है । ऐसा सत्यताके लिये कह कर बता देता हूँ कि प्रथम पक्ष सत्य है, अर्थात् जिनप्रतिमा और उसका पूजन शास्त्रोक्त, प्रमाणोक्त, अनुभवोक्त और अनुभवमे लेने योग्य है । मुझे उन पदार्थोंका जिस रूपसे बोध हुआ अथवा उस विषय सम्बन्धी मुझे जो अल्प शका थी वह दूर हो गयी, उस वस्तुका किंचित् भी प्रतिपादन होनेसे कोई भी आत्मा तत्सम्बन्धी विचार कर सकेगा, और उस वस्तुको सिद्धि प्रतीत हो तो तत्सम्बन्धी उसके मतभेद दूर हो जायेंगे, यह सुलभदोधिताका कार्य होगा ऐसा समझकर, सक्षेपमे कुछेक विचार प्रतिमासिद्धिके लिये प्रदर्शित करता हूँ।
मेरी प्रतिमामे श्रद्धा है, इसलिये आप सब श्रद्धा करें, इसके लिये मेरा कहना नही है, परन्तु यदि उससे वोर भगवानकी आज्ञाका आराधन होता दिखाई दे, तो वैसा करे । परन्तु इतना स्मरण रखें कि -
कतिपय आगमप्रमाणोकी सिद्धिके लिये परपरा, अनुभव इत्यादिकी आवश्यकता है। यदि आप कहे तो कुतर्कसे पूरे जैनदर्शनका भी खण्डन कर दिखाऊँ, परन्तु उसमे कल्याण नही है। जहाँ प्रमाणसे और अनुभवसे सत्य वस्तु सिद्ध हो गई हो, वहाँ जिज्ञासु पुरुष अपने चाहे जैसे हठको भी छोड़ देते हैं।
'यदि ये महान विवाद इस कालमे न पड़े होते तो लोगोको धर्मप्राप्ति बहुत सुलभ होतो। , सक्षेपमे मै इस बातको पाँच प्रकारके प्रमाणोसे सिद्ध करता हूँ१ आगमप्रमाण, २ इतिहासप्रमाण, ३ परंपराप्रमाण, ४ अनुभवप्रमाण, ५ प्रमाणप्रमाण। ..
१. आगमप्रमाण आगम किसे कहा जाये इसकी पहले व्याख्या होनेकी जरूरत है। जिसका प्रतिपादक मूल पुरुष आप्त हो और जिसमे उसके वचन होते है वह आगम है।
गणधरोने वीतरागदेव द्वारा उपदिष्ट अर्थकी योजना करके सक्षेपमे मुख्य वचनोको लिया, वे आगम या सूत्रके नामसे पहचाने जाते है । सिद्धात, शास्त्र ये उसके दूसरे नाम हैं। ___गणधरोने तीर्थंकरदेव द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोकी द्वादशागीरूपसे योजना की, उन बारह अगोके नाम कह देता हूँ-आचाराग, सूत्रकृताग, स्थानाग, समवायाग, भगवतो, ज्ञाताधर्मकथाग, उपासकदशाग, अतकृतदशाग, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ।
१ जिससे वीतरागकी किसी भी आज्ञाका पालन हो ऐसी प्रवृत्ति करना यह मुख्य मान्यता है।
२ मैं पहले प्रतिमाको नही मानता था और अब मानता हूँ, इसमे कोई पक्षपाती कारण नही है, परन्तु मझे उसकी सिद्धि प्रतीत हुई इसलिये मान्य रखता हूँ, और सिद्धि होनेपर भी नहीं माननेसे पहलेकी मान्यताकी भी सिद्धि नही है, और वैसा होनेसे आराधकता नही है।
३ मेरी इस मत या उस मतकी मान्यता नही है, परन्तु रागद्वेषरहित होनेको परमाकाक्षा है, ओर उसके लिये जो जो साधन हो, उन सबको चाहना और करना ऐसी मान्यता है, और इसके लिये महावीरके वचनोपर मुझे पूर्ण विश्वास है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
४ अभी मात्र इतनी प्रस्तावना करके प्रतिमासंबधी अनेक प्रकारसे जो सिद्धि मुझे प्रतीत हुई उसे अब कहता हूँ । उस सिद्धिका मनन करनेसे पहले वाचक निम्न विचारोको कृपया ध्यानमे रखें- ।
, (अ) आप भी तरनेके इच्छुक हैं, और मैं भी हूँ, दोनो महावीरके बोध, आत्महितैषी बोधको चाहते है और वह न्याययुक्त है । इसलिये जहाँ सत्यता हो वहाँ दोनो अपक्षपातसे सत्यता कहे। ' (आ) कोई भी बात जब तक योग्य रीतिसे समझमे न आये तब तक उसे समझे, तत्संबधी कुछ कहते हुए मौन रखें। ,
(इ) अमुक बात सिद्ध हो तभी ठीक है. ऐसा न चाहे, परतु सत्य, सत्य सिद्ध हो ऐसा चाहे। प्रतिमाको पूजनेसे ही मोक्ष है किंवा उसे न माननेसे मोक्ष है, इन दोनो विचारोके बारेमे, इस पुस्तकका योग्य प्रकारसे मनन करने तक मौन रहे।
(ई) शास्त्रकी शैलीसे विरुद्ध अथवा अपने मानकी रक्षाके लिये कदाग्रही होकर कोई भी बात
न कहे।
(उ) एक बातको असत्य और दूसरोको सत्य माननेमे जब तक अटूट कारण न दिया जा सके, तब तक अपनी बातको मध्यस्थवृत्तिमे रोक रखें।
(ऊ) किसी धर्मको माननेवाला सारा समुदाय कही मोक्षमे चला जायेगा ऐसा शास्त्रकारका कहना नही है, परन्तु जिसका आत्मा धर्मत्वको धारण करेगा वह सिद्धिसप्राप्त होगा, ऐसा कहना है। इसलिये स्वात्माको धर्मबोधकी पहले प्राप्ति करानी चाहिये। उसका एक साधन यह भी है, उसका परोक्ष या प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना खंडन कर डालना योग्य नही है।
(ए) यदि आप प्रतिमाको माननेवाले है तो उससे जिस हेतुको सिद्ध करनेकी परमात्माकी आज्ञा है उसे सिद्ध कर ले, और यदि आप प्रतिमाके उत्थापक है तो इन प्रमाणोको योग्य रीतिसे विचारकर देख लें। दोनो मुझे शत्रु या मित्र कुछ भी न मानें। चाहे जो कहनेवाला है, ऐसा समझकर ग्रन्थको पढ जायें।
(ऐ) इतना ही सच्चा है अथवा इतनेमेसे ही प्रतिमाकी सिद्धि हो तो हम मानें ऐसा आग्रह न रखियेगा । परन्तु वीरके उपदिष्ट शास्त्रोसे सिद्धि हो ऐसी इच्छा कीजियेगा।
(ओ) इसीलिये पहले इस बातको ध्यानमे लेना पडेगा कि वीरके उपदिष्ट शास्त्र कौनसे कहे जा सकते है, अथवा माने जा सकते है, इसलिये मै पहले इस सबधमे कहूँगा।
(औ) मुझे सस्कृत, मागधी या किसी भाषाका अपनी योग्यताके अनुसार परिचय नही है, ऐसा मानकर मुझे अप्रामाणिक ठहरायेगे तो न्यायके प्रतिकूल जाना पडेगा । इसलिये मेरे कथनकी शास्त्र और आत्ममध्यस्थतासे जॉच कीजियेगा।
. (अ) यदि मेरे कोई विचार योग्य न लगे-तो सहर्ष पूछियेगा, परतु उससे पहले उस विषयमे अपनी समझसे शकायुक्त निर्णय न कर वैठियेगा।
(अ) सक्षेपमे कहना यह है कि जैसे कल्याण हो वैसे प्रवर्तन करनेके सवधमे मेरा कहना अयोग्य लगता हो, तो उसके लिये यथार्थ विचार करके फिर जैसा हो वैसा मान्य करे ।
शास्त्र-सूत्र कितने ? १ एक पक्ष यो कहता है कि आजकल पैतालीस या उससे अधिक सूत्र है। और उनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टोका इन सबको मानना चाहिये। दूसरा पक्ष कहता है कि बत्तीस ही सूत्र है, और वे
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२१ या वर्ष
१७७ बत्तीस ही भगवानके उपदिष्ट है, बाकी मिश्र हो गये हैं, और नियुक्ति इत्यादि भी वैसे ही है, इसलिये बत्तीस मानना चाहिये । इस मान्यताके लिये पहले अपनी समझमे आये हुए विचार बताता हूँ।
दूसरे पक्षकी उत्पत्तिको आज लगभग चार सौ वर्ष हुए हैं। वे जो बत्तीस सूत्र मानते है वे निम्नलिखित है :
११ अग, १२ उपाग, ४ मूल, ४ छेद, १ आवश्यक
अंतिम अनुरोध अब इस विषयको सक्षेपमे पूर्ण किया है। केवल प्रतिमासे ही धर्म है, ऐसा कहनेके लिये अथवा प्रतिमापूजनकी ही सिद्धिके लिये मैने इस लघु ग्रन्थमे कलम नही चलायी। प्रतिमाके विषयमे मुझे जो जो प्रमाण ज्ञात हुए थे ,उन्हे सक्षेपमे बतला दिया। शास्त्रविचक्षण और न्यायसपन्न पुरुषोको उसमे औचित्य अनौचित्य देखना है, और फिर जैसे सप्रमाण लगे वैसे प्रवृत्ति करना या प्ररूपण करना यह उनके आत्मापर आधार रखता है । इस पुस्तकको मै प्रसिद्ध न करता, क्योकि जिस मनुष्यने एक बार प्रतिमापूजनका विरोध किया हो, वही मनुष्य जब उसका समर्थन करे तब वह प्रथम पक्षवालोके लिये बहत खेद और कटाक्षका विषय हो जाता है। मैं मानता हूँ कि आप भी मेरे प्रति कुछ समय पहले ऐसी स्थितिमे आ गये थे । यदि उस समय इस पुस्तकको मैने प्रसिद्ध किया होता तो आपके अत करण अधिक दुःखी होते और दु.खी करनेका निमित्त मैं होता । इसलिये मैने वैसा नही किया। कुछ समय बीतनेपर मेरे अत - करणमे एक ऐसे विचारने जन्म लिया कि तेरे लिये उन लोगोको सक्लिष्ट विचार आते रहेगे, तूने जिन प्रमाणोसे इसे माना है वे भी केवल तेरे हृदयमे रह जायेंगे, इसलिये उन्हे सत्यतापूर्वक अवश्य. प्रसिद्ध किया जाये । इस विचारको मैंने अपना लिया । तब उसमेसे बहुत निर्मल विचारको प्रेरणा हुई, उसे सक्षेपमे बता देता हूँ। प्रतिमाको मानें इस आग्रहके लिये यह पुस्तक लिखनेका कोई हेतु नही है, तथा वे प्रतिमाको मानें इससे मैं कुछ धनवान होनेवाला नही हूँ, तत्संबंधी जो विचार मुझे आये थे ।
. (अपूर्ण प्राप्त)
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४१ भरुच, मार्गशीर्ष सुदी ३, गुरु, १९४५ पत्रसे समाचार मालूम हुए । अपराध नही, परंतु परतत्रता है । निरंतर सत्पुरुषकी कृपादृष्टि चाहे और शोकरहित रहे, यह मेरा परम अनुरोध है। उसे स्वीकार कीजियेगा। विशेष न लिखे तो भी इस आत्माको उसका ध्यान है । बडोको प्रसन्न रखें । सच्चा धैर्य रखें। पूर्ण खुशीमे हूँ।
भरुच, मार्गशीर्ष सुदी १२, १९४५ चिं० जूठाभाई,
जहाँ पत्र देने जाते है, वहाँ निरन्तर कुशलता पूछते रहियेगा । प्रभुभक्तिमे तत्पर रहियेगा । नियमका पालन कीजियेगा, और सब बडोकी आज्ञाके अनुकूल रहियेगा, यह मेरा अनुरोध है ।
जगतमे नीरागत्व, विनय और सत्पुरुषकी आज्ञा न मिलनेसे यह आत्मा अनादिकालसे भटकता रहा, परन्तु निरुपायता हुई सो हुई। अब हमे पुरुषार्थ करना उचित है । जय हो । यहाँ चारेक दिन ठहरना होगा।
वि. रायचन्द
बंबई, मार्गशीर्ष वदी ७, मंगल, १९४५
जिनाय नमः सुज्ञ,
आपका सूरतसे लिखा हुआ पत्र मुझे आज सवेरे ११ बजे मिला । उसका ब्योरा पढकर एक प्रकारसे शोच हुआ, क्योकि आपको निष्फल चक्कर काटना पड़ा। यद्यपि मैने यह बतलानेके लिये पहलेसे एक पत्र लिखा था कि मैं सूरतमे कम ठहरनेवाला हूँ, मैं मानता हूँ कि वह पत्र आपको समय पर नही मिला होगा । अस्तु । अब हम थोडे समयमे वतनमे मिल सकेंगे। यहाँ मैं कुछ बहुत समय रुकनेवाला नहीं हूँ। आप धैर्य रखें, और शोचका त्याग करें, ऐसी विनती है । मिलनेके बाद मै यह चाहता हूँ कि आपको प्राप्त हुआ नाना प्रकारका खेद दूर हो । और ऐसा होगा । आप उदास न हो।
साथका चि० का विनतीपत्र मैने पढा था। उन्हे भी धीरज दे। दोनो भाई धर्ममे प्रवृत्ति करे।
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२२ वाँ वर्ष
१७९ मेरे प्रति मोहदशा न रखे, मैं तो एक अल्पशक्तिवाला पामर मनुष्य हूँ। सृष्टिमे अनेक सत्पुरुष गुप्तरूपमे मौजूद हैं। प्रगटरूपमे भी मौजूद हैं। उनके गुणोका स्मरण करे । उनका पवित्र समागम करे और आत्मिक लाभसे मनुष्यभवको सार्थक करे यह मेरी निरन्तर प्रार्थना है। दोनो साथ मिलकर यह पत्र पढे । जल्दी होनेसे इतनेसे ही अटकता हूँ।
लि० रायचन्दके प्रणाम विदित हो ।
. ४४
। बंबई, मार्गशीर्ष वदी १२, शनि, १९४५
___ सुज्ञ,
विशेष विदित हुआ होगा। "
मै यहाँ समयानुसार आनन्दमे हूँ। आपका आत्मानन्द चाहता हूँ। चि० जूठाभाईका आरोग्य सुधरनेके लिये पूर्ण धीरज दीजियेगा । मै भी अब यहाँ कुछ समय रहनेवाला हूँ। ... एक बड़ी विज्ञप्ति है कि पत्रमे निरन्तर शोचसम्बन्धी न्यूनता और पुरुषार्थकी अधिकता प्राप्त हो, इस तरह पत्र लिखनेका परिश्रम लेते रहें। विशेष अब फिर।।' . '
रायचंदके प्रणाम ।
बबई, मार्गशीर्ष वदी ३०, १९४५ सुज्ञ,
जूठाभाईकी स्थिति विदित हुई। मैं निरुपाय हूँ। यदि न चले तो प्रशस्त राग रखें, परन्तु मझे खुदको, आप सबको इस रास्तेके अधीन न करे। प्रणाम लिखू इसकी भी चिन्ता न करें । अभी प्रणाम करने लायक ही हूँ, करवानेके नही।
वि० रायचदके प्रणाम ।
४६
। “मार्गशीर्ष, १९४५ आपका प्रशस्तभावभूषित पन मिला । सक्षेपमे उत्तर यह है कि जिस मार्गसे आत्मत्व प्राप्त हो उस मार्गको खोजें। मझपर प्रशस्तभाव लायें ऐसा मैं पात्र नही हूँ, फिर भी यदि आपको इस तरह शाति मिलती हो तो करें।
दसरा चित्रपट तैयार नही होनेसे जो है वह भेजता हूँ। मुझसे दूर रहनेमे आपके आरोग्यको हानि हो ऐसा नही होना चाहिये । सब कुछ आनन्दमय ही होगा। अभी इतना ही।
रायचदके प्रणाम । ४७ वाणिया बदर, माघ सुदी १४, बुध, १९४५
सत्पुरुषोको नमस्कार सुज्ञ,
मेरी ओरसे एक पत्र पहुंचा होगा। आपके पत्रका मैंने मनन किया । आपको वृत्तिमे हुआ परिवर्तन मुझे आत्महितकारी लगता है।
अनतानुवधी क्रोध, अनतानुबधी मान, अनतानुवघी माया और अनतानुबंधी लोभ ये चार तथा मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय ये तीन इस तरह इन सात प्रकृतियोका जब तक क्षयोपशम, उपशम या क्षय नहीं होता तब तक सम्यक्दृष्टि होना सम्भव नही है। ये सात प्रकृतियाँ ज्यो ज्यो मद होती जाती हैं त्यो त्यो सम्यक्त्वका उदय होता है। इन प्रकृतियोका ग्रन्यिछेदन परम दुष्कर है।
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१८०
श्रीमद राजचन्द्र जिसका यह ग्रन्थिछेदन हो गया उसे आत्मप्राप्ति होना सुलभ है। तत्त्वज्ञानियोने इसी ग्रन्थिभेदनका पुन पुनः उपदेश किया है । जो आत्मा अप्रमत्ततासे उस ग्रन्थिभेदनकी ओर दृष्टि रखेगा वह आत्मा आत्मत्वको प्राप्त होगा यह नि सदेह है।
इस 'वस्तुसे आत्मा अनत कालसे सर्वथा बद्ध रहा है। इसपर दृष्टि होनेसे निजगृहपर उसकी यथार्थ दृष्टि नहीं हुई है। सच्ची तो पात्रता है, परन्तु मैं इस कषायादिके उपगमनमे आपके लिये निमित्तभूत हुआ ऐसा आप मानते है, इसलिये मुझे आनन्द माननेका यही कारण है कि निग्रंथ शासनकी कृपा प्रसादीका लाभ लेनेका सुन्दर समय मुझे मिलेगा ऐसा सभव है । ज्ञानीदृष्ट सो सच्चा ।
जगतमे मत्परमात्माकी भक्ति, सद्गुरु, सत्सग, सत्शास्त्राध्ययन, सम्यग्दृष्टित्व और सत्योग, ये कभी प्राप्त नहीं हुए। हुए होते तो ऐसी दशा नहीं होती। परन्तु 'जव जागे तभी सवेरा' यो सत्पुरुपोका वोध विनयपूर्वक ध्यानमे लेकर उस वस्तुके लिये प्रयत्न करना, यही अनत भवकी निष्फलताका एक भवमे दूर होना मेरी समझमे आता है।'
सद्गुरुके उपदेशके बिना और जीवकी सत्पात्रताके बिना ऐसा होना रुका हुआ है। उसकी प्राप्ति करके ससारतापसे अत्यन्त सतप्त आत्माको शीतल करना, यही कृतकृत्यता है ।
___ इस प्रयोजनमे आपका चित्त आकर्षित हुआ, यह भाग्यका सर्वोत्तम अश हे। आशीर्वचन है कि इसमे आप फलीभूत होवें।
___भिक्षासबधी प्रयत्न अभी स्थगित करें। जब तक ससारको जैसे भोगनेका निमित्त होगा वैसे भोगना पडेगा-। इसके बिना छुटकारा भी नही है । अनायास योग्य स्थान मिल जाये तो ठीक, नही तो प्रयत्न करें। और भिक्षाटनके सम्बन्धमे योग्य समय पर पुन. पूछे । विद्यमानता होगी तो उत्तर दूंगा।
"धर्म" यह वस्तु बहुत गुप्त रही है । यह वाह्य शोधनसे मिलनेवाली नही है । अपूर्व अन्त शोधनसे यह प्राप्त होती है । यह अन्त शोधन कोई एक महाभाग्य सद्गुरुके अनुग्रहसे पाता है।
आपके विचारोको सुन्दर श्रेणिमे आये हुए देखकर मेरे अन्तःकरणने जो भाव उत्पन्न किया है उसे यहाँ बतानेसे सकारण रुक जाता हूँ।
चि० दयालभाईके पास जायें। वे कुछ कहे तो मुझे बतायें।
लिखनेके सम्बन्धमे अभी मुझे कुछ कटाला रहता है। इसलिये जितना सोचा था उसके आठवें भागका भी उत्तर नही लिख सकता।
यह मेरी विनयपूर्वक अन्तिम शिक्षा ध्यानमे रखियेगा :। एक भवके थोडे सुखके लिये अनत भवके अनत दुखको नही बढानेका प्रयत्न सत्पुरुप करते हैं।
स्याद्वाद शैलोसे यह बात भी मान्य है कि जो होनेवाला है वह बदलनेवाला नही है और जो बदलनेवाला है वह होनेवाला नही है। तो फिर धर्मप्रयत्नमे, आत्महितमे अन्य उपाधिके अधीन होकर प्रमाद क्यो करना ? ऐसा है फिर भी देश, काल, पात्र और भाव देखने चाहिये।
सत्पुरुपोका योगवल जगतका कल्याण करे । ऐसी इच्छा करके वापसी डाकसे पत्र लिखनेकी विनती करके पत्रिका पूर्ण करता हूँ। "
मात्र रवजी आत्मज रायचंदके प्रणाम-नीराग श्रेणी समुच्चयसे ।
१ ग्रन्धिसे
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२२ वा वर्ष
१८१
ववाणिया, माघ, १९४५
जिज्ञासु,
आपके प्रश्नको उद्धृत करके अपनी योग्यताके अनुसार आपके प्रश्नका उत्तर लिखता हूँ। प्रश्न-व्यवहारशुद्धि कैसे हो सकती है ?
उत्तर-व्यवहारशुद्धिको आवश्यकता आपके ध्यानमे होगी, फिर भी विषयके प्रारभके लिये आवश्यक समझकर यह बतलाना योग्य है कि जो ससारप्रवृत्ति इस लोक और परलोकमे सुखका कारण हो उसका नाम व्यवहारशुद्धि है। सुखके सब अभिलाषी हैं, जब व्यवहारशुद्धिसे सुख मिलता है तब उसकी आवश्यकता भी निःशक है।
१ जिसे धर्मसबधी कुछ भी बोध हुआ है, और जिसे कमानेकी जरूरत नही है, उसे उपाधि करके कमानेका प्रयत्न नही करना चाहिये ।
२ जिसे धर्मसम्बन्धी बोध हुआ है, फिर भी स्थितिका दुख हो तो उसे यथाशक्ति उपाधि करके कमानेका प्रयत्न करना चाहिये ।
( जिसकी अभिलाषा सर्वसगपरित्यागी होनेको है उसका इन नियमोसे सम्बन्ध नही है।)
३. उपजीवन सुखसे-चल सके ऐसा होनेपर भी जिसका मन लक्ष्मीके लिये वेचैन रहता हो वह पहले उसकी वृद्धि करनेका कारण अपने आपको पूछे । यदि उत्तरमे परोपकारके सिवाय कुछ भी प्रतिकूल बात आती हो, अथवा पारिणामिक लाभको हानि पहुंचनेके सिवाय कुछ भी आता हो तो मनको सतोषी बना ले, ऐसा होनेपर भी मन न मुड सकनेको स्थितिमे हो तो अमुक मर्यादामे आ जाये। वह मर्यादा ऐसी होनी चाहिये कि जो सुखका कारण हो । - ४ परिणामत. आतध्यान करनेकी जरूरत पडे, तो वैसा करके बैठ रहनेकी अपेक्षा कमाना अच्छा है।
। ५ जिसका उपजीवन अच्छी तरह चलता है, उसे किसी भी प्रकारके अनाचारसे लक्ष्मी प्राप्त नही करनी चाहिये। जिससे मनको सुख नही होता उससे काया या वचनको भी सुख नही होता । अनाचारसे मन सुखी नही होता, यह स्वत अनुभवमे आने जैसा कथन है।'
६ लाचारीसे उपजीवनके लिये कुछ भी अल्प अनाचार ( असत्य और सहज माया) का सेवन करना पडे तो महाशोचसे सेवन करना, प्रायश्चित्त ध्यान रखना । सेवन करनेमे निम्नलिखित दोप नही आने चाहिये - १ किसीसे महान विश्वासघात
८ अन्यायी भाव कहना . २ मित्रसे विश्वासघात
९. निर्दोषको अल्प मायासे भी ठगना ३. किसीकी धरोहर हड़प कर जाना १० न्यूनाधिक तोल देना ४ व्यसनका सेवन करना
११ एकके बदले दूसरा अथवा मिश्रण करके देना ५ मिथ्या दोषारोपण
१२ कर्मादानी धंधा। ६ झूठा दस्तावेज लिखना
१३ रिश्वत अथवा अदत्तादान ७. हिसाबमे भुलाना । -इन मार्गोसे कुछ नी कमाना नही । यह मानो उपजीवनके लिये सामान्य व्यवहारशुद्धि कह गया।
[ अपूर्ण]
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१८२
श्रीमद राजचन्द्र
४९
ववाणिया, माघ वदी ७, शुक्र, १९४५
सत्पुरुषोको नमस्कार
कल सबेरे आपका पत्र मिला । किसी भी प्रकारसे खेद न कीजियेगा । ऐसा होनहार था सो ऐसा हुआ, यह कोई विशेष बात न थी ।
आत्माकी इस दशाको यथासंभव रोककर योग्यता के अधीन होकर, उन सबके मनका समाधान करके इस सगतको चाहे और यह सगत या यह पुरुष उस परमात्मतत्त्वमे लीन रहे, यह आशीर्वाद देते ही रहे । तन, मन, वचन और आत्मस्थितिको संभालें । धर्मध्यान करनेके लिये अनुरोध है । यह पत्र जूठाभाईको तुरत दें ।
वि० रायचदके प्रणाम विदित हो ।
ववाणिया, माघ वदी ७, शुक्र, १९४५
५०
सत्पुरुषोको नमस्कार
सुज्ञ,
आप मेरे वैराग्यसबधी आत्मवर्तनके बारेमे पूछते हैं, इस प्रश्नका उत्तर किन शब्दोमे लिखूँ ? और उसके लिये आपको क्या प्रमाण दे सकूँगा ? तो भी संक्षेपमे यह कि ज्ञानीके माने हुए (तत्त्व ?) को मान्य करें कि उदयमे आये हुए प्राचीन कर्मोको भोग लेना और नूतन कर्म न बँधने पायें इसीमे अपना आत्महित है । इस श्रेणिमे वर्तन करनेकी मेरी प्रपूर्ण आकाक्षा है, परन्तु वह ज्ञानीगम्य है, इसलिये अभी उसका एक अंश भी बाह्य प्रवृत्ति नही हो सकती ।
आर-प्रवृत्ति चाहे जितनी नीरागश्रेणिकी ओर जाती हो परन्तु बाह्यके अधीन अभी बहुत बरतना पडे यह स्पष्ट है । —बोलते, चलते, बैठते, उठते और कुछ भी काम करते हुए लौकिक श्रेणिका अनुसरण करके चलना पड़े । यदि ऐसा न हो सके तो लोग कुतर्कमे ही लग जायें, ऐसा मुझे सभव लगता है तो भी कुछ प्रवृत्ति रखी है।
आप सबकी दृष्टिमे मेरी (वेराग्यमयी ) चर्या कुछ आपत्तिपूर्ण है, तथा, किसीकी दृष्टिमे मेरी वह श्रेणि शंकापूर्ण भी हो सकती है, इसलिये आप इत्यादि वैराग्यमे जाते हुए मुझे रोकनेका प्रयत्न करें और शंकावाले उस वैराग्यसे उपेक्षित होकर माने नही, इससे खिन्न होकर ससारकी वृद्धि करनी पड़े, इसलिये मेरी मान्यता यही है कि प्राय भूमितलपर सत्य अंत. करणको प्रदर्शित करनेके स्थान बहुत ही कम भवित है; जैसे हो वैसे आत्माको आत्मामे समाकर जीवनपर्यन्त समाधिभाव सयुक्त रहा जाये तो फिर संसारके उस खेदमे पड़ना ही न हो। अभी तो आप जैसा देखते हैं वैसा हूँ । जो संसारी प्रवर्तन होता है वह करता हूँ | धर्म सम्बन्धी मेरी चर्या उस सर्वज्ञ परमात्मा के ज्ञानमे दीखती हो वह ठीक, उसके बारेमे 'पूछना नही चाहिये था । पूछनेसे वह कही भी नही जा सकती । सहज उत्तर देना योग्य था, सो दिया है। क्य
पात्रता कहाँ है, यह देखता हूँ । उदयमे आये हुए कर्म भोगता हूँ । 'यथार्थ स्थितिमे अभी एकाध अश भी आया होऊँ यो कहनेमे तो 'आत्मप्रशंसा की ही सभावना है ।
1
यथाशक्ति प्रभुभक्ति, सत्सग, सत्य व्यवहारके साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ प्राप्त करते रहे । प्रयत्नसे जैसे आत्मा ऊर्ध्वगतिका परिणामी हो वैसे करें ।
प्रति समय क्षणिक जीवन व्यतीत होता जाता है, इसमें हम प्रमाद करते हैं यही महामोहनीयका वि० रायचदके 'सत्पुरुषोको नमस्कारसहित प्रणाम ।
वल है ।
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२२ वो वर्ष
१८३ ५१ ववाणिया बंदर, माघ वदो ७, १९४५
नौरागी पुरुषोको नमस्कार उदयमे आये हुए कर्मोंको भोगते हुए नये कर्म न बँधे इसके लिये आत्माको सचेत रखना यह सत्पुरुषोंका महान बोध है। आत्माभिलाषी,
यदि वहाँ आपको समय मिलता हो तो जिनभक्तिमे विशेष विशेष उत्साहकी वृद्धि करते रहियेगा, और एक घड़ो भी सत्संग, या सत्कथाका संशोधन करते रहियेगा ।
(किसी समय) शुभाशुभ कर्मके उदय के समय हर्ष-शोकमे न पडते हुए भोगनेसे ही छुटकारा है, और यह वस्तु मेरी नहीं है ऐसा मानकर समभावकी श्रेणिको बढाते रहियेगा। ।। विशेष लिखनेसे अब रुक जाता हूँ। .
" वि० रायचदके सत्पुरुषोको नमस्कारसहित प्रणाम विदित हो ।
_५२ ववाणिया बदर, माघ वदी १०, सोम, १९४५
, , नोरागो पुरुषोको नमस्कार । आत्महिताभिलाषी आज्ञाकारी,
आपका आत्मविचारपूर्ण पत्र कल प्रभातमे मिला ।
निग्रंथ भगवान प्रणीत पवित्र धर्मके लिये जो जो उपमाएँ दें वे सब न्यून ही हैं। आत्मा अनत काल भटका, यह मात्र उसके निरुपम धर्मके अभावसे । जिसके एक रोममे किंचित् भी अज्ञान, मोह या असमाधि नही रही उस सत्पुरुषके वचन और बोधके लिये कुछ भी नही कहते हुए, उसीके वचनमे प्रशस्तभावसे पुन पुन प्रसक्त होना, यह भी अपना सर्वोत्तम श्रेय है।
__ कैसी इसको शैली । जहाँ आत्माके विकारमय होनेका अनताश भी नही रहा है। शुद्ध, स्फटिक, फेन और चंद्रसे भी उज्ज्वल शुक्लध्यानकी श्रेणिसे प्रवाहरूपसे निकलते हुए उस निग्रंथके पवित्र वचनोकी मुझे और आपको त्रिकाल श्रद्धा रहे ।
यही परमात्माके योगबलके आगे प्रयाचना ।
दयालभाईने जो बताया उसके अनुसार आपने लिखा है, और मैं मानता हूँ कि वैसा ही होगा। दयालभाई सहर्ष पत्र लिखे ऐसा उन्हे कहे और धर्मध्यानकी ओर प्रवृत्ति हो, इस कर्तव्यकी सूचना दे । "प्रवीणसागर" संबधी कोई उत्तर नही है सो लिखे।
शासभव आत्माको पहचाननेको ओर ध्यान दे यही प्रार्थना है। कविराज-आपके निःस्वार्थ प्रेमके लिये विशेष'क्या लिखे ? मैं धनादिकसे तो आपका सहायक नहीं हो सकता, (और वैसा परमात्माका योगवल भी न करे । ) परन्तु आत्मासे सहायक होऊँ और कल्याणके मार्गपर आपको ला सकूँ, तो सर्व जय मंगल ही है । इतना उन्हे पढवाएँ। इसमेसे आपके लिये भी कुछ मनन करने योग्य है।
दयालभाईके पास जाते रहे । नोकरीके दौरान जब-जब समय मिले तब-तब उनके सत्सगमे रहे, ऐसा मेरा अनुरोध है । अभी इतना ही।
वि० रायचन्दके प्रणाम सत्पुरुषोको नमस्कारसहित ।
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श्रीमद् रामचन्द्र
५३ ववाणिया, फागुन सुदी ६, गुरु, १९४५ चि०,
जो जो आपको अभिलाषाएँ है उन्हे भलीभाँति नियममे लायें और फलीभूत हों ऐसा प्रयत्न करें। यह मेरी इच्छा है । शोच न करे । योग्य होकर रहेगा। सत्संग खोजें । सत्पुरुषकी भक्ति करे।
वि० रायचन्दके प्रणाम।
५४ ववाणिया, फाल्गुन सुदी ९, रवि, १९४५
निग्रंथ महात्माओंको नमस्कार । मोक्षके मार्ग दो नही हैं। जिन जिन पुरुषोने मोक्षरूप परमशान्तिको भूतकालमे पाया है, उन सब सत्पुरुषोने एक ही मार्गसे पाया है, वर्तमानकालमे भी उसीसे पाते हैं, और भविष्यकालमे भी उसीसे पायेंगे। उस मार्गमे मतभेद नही है, असरलता नही है, उन्मत्तता नही है, भेदाभेद नहीं है, मान्यामान्य नहीं है। वह सरल मार्ग है, वह समाधिमार्ग है, तथा वह स्थिर मार्ग है, और स्वाभाविक शान्तिस्वरूप है। सर्व कालमे उस मार्गका अस्तित्व है, जिस मार्गके मर्मको पाये बिना कोई भूतकालमे मोक्षको प्राप्त नही हुआ, वर्तमानकालमे प्राप्त नही होता और भविष्यकालमे प्राप्त नही होगा।
श्री जिनने इस एक ही मार्गको बतानेके लिये सहस्रश क्रियाएँ कही हैं और सहस्रशः उपदेश दिये है, और इस मार्गके लिये वे क्रियाएँ और उपदेश ग्रहण किये जायें तो सब सफल हैं। और इस मार्गको भूलकर वे क्रियाएँ और उपदेश ग्रहण किये जायें तो सब निष्फल है ।
श्री महावीर जिस मार्गसे तरे उस मार्गसे श्रीकृष्ण तरेंगे। जिस मार्गसे श्रीकृष्ण तरेंगे उस मार्गसे श्री महावीर तरे है। यह मार्ग चाहे जिस स्थानमे, चाहे जिस कालमें, चाहे जिस श्रेणिमे, और चाहे जिस योगमे जब प्राप्त होगा, तब उस पवित्र और शाश्वत सत्पदके अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव होगा । यह मार्ग सर्वत्र सम्भव है। योग्य सामग्री न प्राप्त करनेसे भव्य भी इस मार्गको पानेसे रुके हुए है, तथा रुकेंगे और रुके थे।
___ किसी भी धर्मसम्बन्धी मतभेद रखना छोडकर एकाग्र भावसे सम्यक्योगसे जिस मार्गका शोधन करना है, वह यही है। मान्यामान्य, भेदाभेद अथवा सत्यासत्यके लिये विचार करनेवालो या बोध देनेवालोको मोक्षके लिये जितने भवोका विलम्ब होगा उतने समयका (गौणतासे) शोधक और उस मार्गके द्वारपर आ पहुंचे हुओको विलम्ब नही होगा।
विशेष क्या कहना ? वह मार्ग आत्मामे रहा है। आत्मत्वप्राप्त पुरुष-निग्रंथ आत्मा-जब योग्यता समझकर उस आत्मत्वका अर्पण करेगा-उदय करेगा तभी वह प्राप्त होगा, तभी वह मार्ग मिलेगा, और तभी वे मतभेद आदि दूर होगे।
मतभेद रखकर किसीने मोक्ष नही पाया है । विचारकर जिसने मतभेद दूर किया, वह अन्तर्वृत्तिको पाकर क्रमश शाश्वत मोक्षको प्राप्त हुआ है, प्राप्त होता है और प्राप्त होगा।
किसी भी अव्यवस्थित भावसे अक्षरलेख हुआ हो तो वह क्षम्य होवे ।
५५ । ववाणिया, फाल्गुन सुदी ९, रवि, १९४५
नीरागी महात्माओको नमस्कार कर्म जड वस्तु है । जिस जिस आत्माको इस जड़से जितना जितना आत्मबुद्धिसे समागम है, उतनी उतनो जड़ताकी अर्थात् अवोधताकी उस उस आत्माको प्राप्ति होती है, ऐसा अनुभव होता है। आश्चर्य है
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२२.वों वर्ष
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कि स्वय जड होते हुए भी चेतनको अचेतन मनवा रहा है | चेतन चेतनभावको भूलकर उसे स्वस्वरूप ही मानता है। जो पुरुष उस कर्मसयोग और उसके उदयसे उत्पन्न हुए पर्यायोको स्वस्वरूप नही मानते और पूर्वसयोग सत्तामे है, उन्हे अबध परिणामसे भोग रहे है, वे आत्मा स्वभावकी उत्तरोत्तर ऊर्ध्वश्रेणि पाकर शुद्ध चेतनभावको पायेगे ऐसा कहना सप्रमाण है। क्योकि अतीत कालमे वैसा हुआ है, वर्तमानकालमे वैसा होता है और अनागत कालमे वैसा ही होगा।
कोई भी आत्मा उदयी कर्मको भोगते हुए समत्वश्रेणिमे प्रवेश करके अवध परिणामसे प्रवृत्ति करेगा तो वह अवश्य चेतनशुद्धि प्राप्त करेगा। - आत्मा विनयी होकर, सरल और लघुत्वभावको पाकर सदैव सत्पुरुषके चरणकमलमे रहे तो जिन महात्माओको नमस्कार किया है उन महात्माओकी जिस प्रकारकी ऋद्धि हैं उस प्रकारकी ऋद्धि सप्राप्त की जा सकती है।
अनन्तकालमे या तो सत्पात्रता नही हुई और या तो सत्पुरुष (जिसमे सद्गुरुत्व, सत्सग और सत्कथा निहित है) नही मिले, नही तो निश्चय है कि मोक्ष हथेलीमे है, ईषत्प्राग्भारा अर्थात् सिद्ध-पृथ्वीपर उसके बाद है। इससे सर्वशास्त्र भी सम्मत हैं, (मनन कोजियेगा) और यह कथन त्रिकाल सिद्ध है।
५६
__ मोरबी, चैत्र सुदी ११, बुध, १९४५
आपके आरोग्यकी स्थिति मालूम हुई। आप देहकी संभाल रखें। देह हो तो धर्म हो सकता है। इसलिये वैसे साधनको सँभाल रखनेके लिये भगवानका भी उपदेश है।' .
वि० रायचन्दके प्रणाम।
५७
मोरवी, चैत्र वदी ९, १९४५ चि०,
'कर्मगति विचित्र है । निरन्तर मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा भावना रखियेगा।
मैत्री अर्थात् सर्व जगतसे निर्वैरबुद्धि, प्रमोद अर्थात् किसी भी आत्माके गुण देखकर हर्पित होना, करुणा अर्थात् ससारतापसे दुखी आत्माके दु खसे अनुकम्पा आना, और उपेक्षा अर्थात् नि स्पृहभावसे जगतके प्रतिबन्धको भूलकर आत्महितमे आना । ये भावनाएँ कल्याणमय और पात्रता देनेवाली है।
मोरबी, चैत्र वदी १०, १९४५ आप दोनोंके पत्र मिले। स्याद्वाद-दर्शनका स्वरूप जाननेके लिये आपकी परम अभिलापासे मुझे सन्तोष हुआ है। परन्तु यह एक वचन अवश्य स्मरणमे रखे कि शास्त्रमे मार्ग कहा है, मर्म नही कहा। मर्म तो सत्पुरुषके अन्तरात्मामे रहा है । इसके बारेमे मिलने पर विशेष चर्चा की जा सकेगी।
धर्मका रास्ता सरल, स्वच्छ और सहज है, परन्तु वह विरल आत्माओको प्राप्त हुआ है, प्राप्त होता है और प्राप्त होगा।
अपेक्षित काव्य मौका मिलने पर भेज दूंगा। दोहोके अर्थके लिये भी यही वात है। अभी तो ये चार भावनाएँ भाये
मैत्री ( सर्व जगतपर निर्वैरवुद्धि ), अनुकंपा ( उनके दु खपर करुणा), प्रमोद (आत्मगुण देखकर आनद), उपेक्षा (निःस्पृह बुद्धि) | इससे पात्रता आयेगी ।
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१८६
श्रीमद राजचन्द्र
ववाणिया, वैशाख सुदी १, १९४५ ____ आपकी देहसम्बन्धी शोचनीय स्थिति जानकर व्यवहारकी अपेक्षासे खेद होता है। मुझपर अतिशय भावना रखकर बरतनेकी आपकी इच्छाको मै रोक नही सकता, परन्तु वैसी भावना भानेसे आपकी देहको यत्किचित् हानि हो ऐसा न करे। मुझपर आपका राग रहता है, इस कारण आपपर राग रखनेकी मेरी इच्छा नहीं हैं, परन्तु आप एक धर्मपात्र जीव है और मुझे धर्मपात्रपर कुछ विशेष अनुराग उत्पन्न करनेकी परम इच्छा है, इस कारण किसी भी तरह आपके प्रति कुछ अशमे भी चाह रहती है ।
निरन्तर समाधिभावमे रहे । यो समझे कि मैं आपके समीप ही बैठा हूँ। अब मानो देह दर्शनका ध्यान हटाकर आत्मदर्शनमे स्थिर रहे । ममीप ही हूँ, यो समझकर शोक कम करें। जरूर कम कर। आरोग्य बढेगा; जिन्दगीको सँभाल रखे, अभी देहत्यागका भय न समझें, ऐसा वक्त होगा तो और ज्ञानीदृष्ट होगा तो जरूर पहलेसे कोई बता देगा अथवा कोई सहायक हो जायेगा । अभी तो वैसा नहीं है।
प्रत्येक लघु कामके आरम्भमे भी उस पुरुषको याद करे, समीप ही है। यदि ज्ञानीदृष्ट होगा तो कुछ समय वियोग रहकर सयोग होगा और सब अच्छा ही होगा।
अभी दशवकालिक शास्त्रका पुन मनन करता हूँ। अपूर्व बात है।
यदि पद्मासन लगाकर अथवा स्थिर आसनसे बैठा जा सकता हो, लेटा जा सकता हो तो भी चलेगा, परन्तु स्थिरता चाहिये । देह चल विचल न होती हो, तो आँखें बन्द करके नाभिके भाग पर दृष्टि पहुंचाकर, फिर छातीके मध्य भागमे लाकर, ठेठ कपालके मध्य भागमे उस दृष्टिको लाकर सर्व जगतका शून्याभासरूप चिन्तन करके, अपनी देहमे सर्वत्र एक तेज व्याप्त हुआ है ऐसी कल्पना- करके जिस रूपसे पार्श्वनाथ आदि अर्हतकी प्रतिमा स्थिर एव धवल दिखायी देती है, ऐसा विचार छातीके मध्य भागमे करे । इनमेसे कुछ न हो सकता हो तो सवेरे चार या पांच बजे जागकर मेरे दुपट्टे (मैने जो रेशमी किनारीका रखा था) को ओढकर मुंह ढंककर एकाग्रताका चिन्तन करना। हो सके तो अर्हत्स्वरूपका चिन्तन करना, नही तो कुछ भी चिन्तन न करते हुए समाधि या वोधि इन शब्दोका ही चिन्तन करना । अभी इतना ही। परम कल्याणकी एक श्रेणि होगी। कमसे कम बारह पल और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकी स्थिति रखना।
वि० रायचन्द वैशाख, १९४५
६०
संयत धर्म १ अयतनासे चलते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोकी हिंसा होती है, जिससे वह पापकर्म बांधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है।
२. अयतनासे खडे होते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जोवोकी हिंमा होती है, जिससे वह पापकर्म वॉधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है ।
४ अयतनासे सोते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोको हिंसा होती है, जिससे वह पापकर्म बांधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है।
५ अयतनासे भोजन करते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोकी हिंसा होती है, जिससे वह पापकर्म बाँधता है; उसका उसे कडवा फल मिलता है।
६ अयतनासे बोलते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोको हिंसा होती है जिससे वह पापकर्म बाँधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है।
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२२ या वर्ष
१८७ ७ किस तरह चले ? किस तरह खडा रहे ? किस तरह बैठे ? किस तरह सोये ? किस तरह भोजन करे ? किस तरह वोले ? तो वह पापकर्म न बाँधे ।
८ यतनासे चले, यतनासे खडा रहे, यतनासे बैठे, यतनासे सोये, यतनासे भोजन करे, यतनासे बोले, तो वह पापकर्म नही बाँधता ।
____९ जो सब जीवोको अपने आत्माके समान समझता है, जो सब जीवोको मन, वचन, कायासे सम्यक् प्रकारसे देखता है, जिसने आस्रवोके निरोधसे आत्माका दमन किया है, वह पापकर्म नही बाँधता।
१० 'पहले ज्ञान और फिर दया' इस सिद्धातमे सब सयमी स्थित है अर्थात् मानते है । अज्ञानी (सयममे) क्या करेगा यदि वह कल्याण या पापको नही जानता ?
११ श्रवण कर कल्याणको जानना चाहिये, पापको जानना चाहिये, दोनोको श्रवण कर जाननेके बाद जो श्रेय हो उसका सम्यक् प्रकारसे आचरण करना चाहिये ।
१२..जो जीव अर्थात् चैतन्यके स्वरूपको नही जानता, जो अजीव अर्थात् जडके स्वरूपको नही जानता, अथवा जो उन दोनोंके तत्त्वको नही जानता वह साधु सयमको बात कहाँसे जानेगा ? ___- १३ जो चैतन्यका स्वरूप जानता है, जो जडका स्वरूप जानता है और जो दोनोका स्वरूप जानता है, वही साधु सयमका स्वरूप जानता है ।
१४ जब जीव और अजीव इन दोनोको जानता है, तब सब जोवोकी बहुत प्रकारसे गति-आगतिको जानता है।
१५ जब सब जीवोकी बहुविध गति-आगतिको जानता है, तभी पुण्य, पाप, वध और मोक्षको जानता है।
१६ जब पुण्य, पाप, बध और मोक्षको जानता है, तब मनुष्यसम्बन्धी और देवसम्बन्धी भोगोकी इच्छासे निवृत्त होता है।
- १७ जब देव और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंसे निवृत्त होता है, तब सब प्रकारसे वाह्य और अभ्यतर सयोगोका त्याग कर सकता है।
___ १८ जब बाह्य और अभ्यतर सयोगका त्याग करता है, तब द्रव्य और भावसे मुडित होकर मुनिकी दोक्षा लेता है।
१९ जब मडित होकर मुनिकी दीक्षा लेता है, तव उत्कृष्ट सवरकी प्राप्ति करता है और उत्तम धर्मका अनुभव करता है।
२० जब उत्कृष्ट सवरकी प्राप्ति करता है और उत्तम धर्ममय होता हे तव कर्मरूप रज, जो अबोधि-मिथ्याज्ञानजन्य कलुषरूपसे जीवको मलिन कर रही है, उसे दूर करता है।
२१ जब अबोधि-मिथ्याज्ञानजन्य कलुषसे उपार्जित कर्मरजको दूर करता है, तब सर्वव्यापी केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त होता है।
२२ जब सर्वव्यापी केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त होता है, तब नोरागी होकर वह केवली लोकालोकके स्वरूपको जानता है।
२३ जब नीरागी होकर केवली लोकालोकके स्वरूपको जानता है तब मन, वचन और कायाके योगका निरोध कर शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है।
२४ जब योगका निरोधकर शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है, तब सर्व कर्मक्षय करके निरजन होकर सिद्धि अर्थात् सिद्धगतिको प्राप्त हो जाता है।
(दशवैकालिक, अध्ययन ४, गाथा १ से २४)
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१८८
श्रीमद् राजचन्द्र
(२) १ उममे 'प्रथम स्थानमे महावीर देवने, सब जीवोके साथ सयमपूर्वक वरतना यही सुखद एव उत्तम अहिंसा है, ऐसा उपदेश दिया है।
२ संमारमे जितने त्रस और स्थावर प्राणी है, उन सबका साधु जाने-अनजाने स्वय वध न करे और दूसरेसे वध न कराये।
३ सब जीव जीना चाहते है, मरना नही चाहते । इसलिये निग्रंथ भयकर प्राणीवधका त्याग करे ।
४ साधु क्रोध या भयसे अपने लिये तथा दूसरोके लिये प्राणियोको पीडाकारी असत्य स्वय न बोले और न दूसरेसे बुलवाये ।
५ सब सत्पुरुषोने मृषावादका निपेध किया है। वह प्राणियोमे अविश्वास उत्पन्न करता है । इस लिये साधु उसका त्याग करे।
६ सचित्त या अचित्त पदार्थ-थोडे या बहुत, यहाँ तक कि दतशोधनके लिये एक तृण भी साधु बिना माँगे न ले।
७ स्वय अयाचित वस्तु न ले, तथा दूसरेसे न लिवावे, और अन्य लेनेवालेका अनुमोदन न करें। जो सयत पुरुप है वे ऐसा करते है।
८ महारौद्र, प्रमादके रहनेका स्थान तथा चारित्रका नाश करनेवाला ऐसे अब्रह्मचर्यका इस जगतमे मुनि सेवन न करे।
९ अधर्मका मूल, और महादोपोकी जन्मभमि ऐसे मैथुनके आलाप-प्रलापका निग्रंथ त्याग करे ।
१० ज्ञातपुत्र महावीरके वचनोमे प्रीति रखनेवाले मुनि सेधा और समुद्री नमक, तेल, घी, गुड़ आदि खाद्य-पदार्थ अपने पास रातमे नही रखे ।।
११ लोभसे तृणका भी स्पर्श न करे । जो ऐसे किसी पदार्थको रात्रिमे अपने पास रखना चाहे वह मुनि नही, किन्तु गृहस्थ है।
१२ जो वस्त्र, पात्र, कम्बल तथा रजोहरण है, उन्हे भी संयमकी रक्षाके लिये ही साधु धारण करे, नही तो त्याग करे।
१३ जो पदार्थ सयमकी रक्षाके लिये रखने पडते है उन्हे परिग्रह नही कहना, ऐसा छ कायके रक्षक ज्ञातपुत्रने कहा है, परन्तु मूर्छाको परिग्रह कहना ऐसा पूर्वमहर्षियोने कहा है।
१४. तत्त्वज्ञानको प्राप्त मनुष्य छ कायकी रक्षाके लिये मात्र उतना ही परिग्रह रखे, परन्तु ममत्व तो अपनी देहमे भी न रखे । ( यह देह मेरी नहीं है इसो उपयोगमे रहे । )
१५ आश्चर्य | निरतर तपश्चर्या और जिसको सर्व सर्वज्ञोने प्रशंसा की है ऐसे सयमको अविरोधी एव जीवननिर्वाहरूप एक बार भोजन लेना।
१६ स्थूल और सूक्ष्म प्रकारके बस और स्थावर जीव रात्रिमे दिखाई नही देते, इसलिये साधु उस समय आहार कैसे करे ?
१७ पानीसे भीगी हुई और वोज आदिसे युक्त पृथ्वीपर प्राणो विखरे पड़े हो, वहाँ दिनमे भी चलनेका निषेध है, तो फिर रातको मुनि भिक्षाके लिये कैसे जा सकता है ? "
१८ इन हिंसा आदि दोषोको देखकर ज्ञातपुत्र भगवानने ऐसा कहा है कि निग्रंथ साधु, रात्रिमे सभी प्रकारका आहार न करे।
३ तीसरा सयमस्थान ४ चौथा
१ अठारह सयमस्थानमें पहला सयमस्थान २ दुसरा सयमस्थान सयमस्थान ५ पांचवां सयमस्थान ६ छठा सयमस्थान ।
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२२ वां वर्ष
१८९ १९ सुसमाधिवाले साधु मन, वचन और कायासे स्वयं 'पृथ्वीकायकी हिंसा नही करते, दूसरोसे नही करवाते और करनेवालोका अनुमोदन नही करते ।'
२० पृथ्वीकायकी हिंसा करते हुए तदाश्रित चक्षुगोचर और अचक्षुगोचर विविध त्रस और स्थावर प्राणियोकी हिंसा होती है।
२१ इसलिये दुर्गतिको बढानेवाले इस पृथ्वीकायके समारभरूप दोषका जीवनपर्यन्त त्याग करे।
२२. सुसमाधिवाले साधु मन, वचन और कायासे स्वय जलकायकी हिंसा नही करते, दूसरोंसे नही करवाते और करनेवालोका अनुमोदन नही करते ।।
२३ जलकायकी हिंसा करते हुए तदाश्रित चक्षुगोचर और अचक्षुगोचर विनिभ त्रस एव स्थावर प्राणियोकी हिंसा होती है।
२४ इसलिये जलकायका समारम्भ दुर्गतिको बढानेवाला दोष जानकर जीवनपर्यंत उसका त्याग करे।
२५ मुनि अग्नि जलानेकी इच्छा नहीं करते क्योकि वह जीवघातके लिये सबसे भयकर तीक्ष्ण शस्त्र है।
२६ पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर इन चार दिशाओमे और चार विदिशाओमे और ऊपर एव नीचेको दो दिशाओमे रहे हुए जीवोको यह अग्नि जलाकर भस्म कर देती है।
२७ यह अग्नि प्राणियोकी घातक है ऐसा निसशय माने, और ऐसा हे इसलिये साधु प्रकाश या तापनेके लिये अग्नि न जलाये। . .
२८ इसलिये दुर्गतिको बढानेवाले हिंसारूप दोषको जानकर साधु अग्निकायके समारभका जीवन
___ पर्यंत त्याग कर दे |* .
. . .
(दशवकालिक सूत्र, अध्ययन ६,
६१ वाणिया, वैशाख सुदी ६, सोम, १९४५
सत्पुरुषोको नमस्कार आपके दर्शन मुझे यहाँ लगभग सवा मास पहले हुए थे । धर्म सम्बन्धी जो कुछ मौखिक चर्चा हुई थी वह आपको याद होगी ऐसा समझकर उस चर्चा सम्बन्धी कुछ विशेष बतानेकी आज्ञा नही लेता। धर्मसम्बन्धी माध्यस्थ, उच्च और अदभी विचारोंसे आप पर मेरी कुछ विशेष प्रशस्त अनुरक्तता हो जानेसे कभी कभी आध्यात्मिक शैली सम्बन्धी प्रश्न आपके समक्ष रखनेकी आज्ञा लेनेका आपको कष्ट देता हूँ, योग्य लगे तो आप अनुकूल होवे ।
____ मैं अर्थ या वयकी दृष्टिसे वृद्ध स्थितिवाला नही हूँ, तो भी कुछ ज्ञानवृद्धता प्राप्त करनेके लिये आप जैसोके सत्सगका, उनके विचारोका और सत्पुरुषकी चरणरजका सेवन करनेका अभिलाषी हूँ। मेरी यह बालवय विशेषतः इसी अभिलाषामे बीती है, इससे जो कुछ भी मेरी समझमे आया है, उसे दो शब्दोमे समयानुसार आप जैसोके समक्ष रखकर विशेष आत्महित कर सकूँ, यह प्रयाचना इस परसे करता है।
१ सातवां सयमस्थान २ आठवां सयम-स्थान ३ नौवां सयम स्थान * शेष सयम-स्थान निम्नलिखित है
१० वायुकायकी हिंसा नही करना । ११. वनस्पतिकायकी हिंसा नही करना। १२ यसकायको हिंसा नही करना। १३ अकल्पित वस्तुका त्याग । १४ गृहस्थक पात्रमे नही खाना । १५ गृहस्थको शय्यापर नही सोना। १६. गृहस्यके आसनपर नही बैठना । १७ स्नान नही करना । १८ शृङ्गार नहीं करना।
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श्रीमद राजचन्द्र
इस कालमे आत्मा पुनर्जन्मका निश्चय किससे, किस प्रकार और किस श्रेणिमे कर सकता है, इस सम्बन्धमे जो कुछ मेरी समझमे आया है, उसे यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके समक्ष रखूँगा ।
वि० आपके माध्यस्थ विचारोका अभिलाषी रायचद रवजीभाईके पञ्चागी प्रशस्त भावसे प्रणाम ।
वाणिया, वैशाख सुदी १२, १९४५
६२ सत्पुरुषोको नमस्कार
परमात्माका ध्यान करनेसे परमात्मा हुआ जाता है । परन्तु आत्मा उस ध्यानको सत्पुरुषके चरणकमलकी विनयोपासनाके बिना प्राप्त नही कर सकता, यह निग्रंथ भगवानका सर्वोत्कृष्ट वचनामृत है । मैने आपको चार भावनाओके बारेमे पहले कुछ सूचन किया था । उस सूचनको यहाँ विशेषता किंचित् लिखता हूँ ।
आत्माको अनन्त भ्रातिमेसे स्वरूपमय पवित्रं श्रेणिमे लाना यह कैसा निरुपम सुख है, यह कहने कहा नही जाता, लिखनेसे लिखा नही जाता और मनसे विचारनेसे विचारा नही जाता ।
१९०
इस कालमे शुक्लध्यानकी मुख्यताका अनुभव भारतमे असभव है । उस ध्यानकी परोक्ष कथारूप अमृतताका रस कुछ पुरुष प्राप्त कर सकते है, परंतु मोक्षके मार्गकी अनुकूलता प्रथम धर्मध्यानके राजमार्ग है ।
इस कालमे रूपातीत तकके धर्मध्यानकी प्राप्ति कितने ही सत्पुरुषोको स्वभावसे, कितनोको सद्गुरुरूप निरुपम निमित्तसे और कितनो को सत्सग आदि अनेक साधनोंसे हो सकती है, परन्तु वैसे पुरुषनिर्ग्रथमतके-लाखोमे भी विरले ही निकल सकते है । प्रायः वे सत्पुरुष त्यागी होकर एकात भूमिमे वास करते है, कितने ही बाह्य अंत्यागके कारण संसारमे रहते हुए भी संसारीपन ही दिखाते हैं। पहले पुरुषका मुख्योत्कृष्ट और दूसरे पुरुषका गौणोत्कृष्ट ज्ञान प्राय गिना जा सकता है ।
चौथे गुणस्थानकमे आया हुआ पुरुष पात्रताको प्राप्त हुआ माना जा सकता है, वहाँ धर्मध्यानको गौणता है । पाँचवें मध्यम गोणता है। छठेमे मुख्यता तो है परन्तु वह मध्यम है। सातवेमे मुख्यता है । हम गृहवासमे सामान्य विधिसे उत्कृष्टत पाँचवे गुणस्थानमे आ सकते हैं, इसके सिवाय भावकी अपेक्षा तो और ही है ।
इस धर्मध्यानमे चार भावनाओंसे भूषित होना संभव है
१ मंत्री - सर्वं जगतके जीवोको ओर निर्वैरबुद्धि |
२ प्रमोद --- अशमात्र भी किसीका गुण देखकर उल्लासपूर्वक रोमाचित होना ।
३ करुणा -- जगतके जीवोंके दुख देखकर अनुकपित होना ।
४ माध्यस्थ या उपेक्षा -- शुद्ध समदृष्टिके बलवीर्य के योग्य होना ।
-
इसके चार आलबन हैं। इसकी चार रुचि हैं। इसके चार पाये हैं । इस प्रकार धर्मध्यान अनेक भेदोमे विभक्त है ।
जो पवन (श्वास) का जय करता है, वह मनका जय करता है । जो मनका जय करता है वह आत्मलीनता प्राप्त करता है । यह जो कहा वह व्यवहार मात्र है । निश्चयसे निश्चय- अर्थकी अपूर्व योजना तो सत्पुरुषके अन्तरमे निहित है ।
श्वासका जय करते हुए भी सत्पुरुषको आज्ञासे पराङ्मुखता है, तो वह श्वासजय परिणाममे ससारको ही बढ़ाता है। श्वासका जय वहाँ है कि जहाँ वासनाका जय है । उसके दो साधन हैं -सदगुरु
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२२ वाँ वर्ष
१९१ और सत्सग। उसकी दो श्रेणियाँ हैं-पर्युपासना और पात्रता। उसकी दो वर्धमानताएँ हैं-परिचय और पुण्यानुबधी पुण्यता | सबका मूल आत्माकी सत्पात्रता है।
अभी इस विषयके संबधमे इतना ही लिखता हूँ।
दयालभाईके लिये "प्रवीणसागर" भेज रहा हूँ। "प्रवीणसागर" को समझकर पढा जाये तो दक्षता देनेवाला ग्रन्थ है, नही तो अप्रशस्तछदी ग्रन्थ है।
ववाणिया, वैशाख वदी १३, १९४५ अतिम समागमके समय चित्तकी जो दशा थी, वह आपने लिखी, सो योग्य है। वह दशा ज्ञात थी, ज्ञात है ऐसा मालूम हो तो भी यथावसर आत्मार्थी जीवको वह दशा उपयोगपूर्वक विदित करनी चाहिये, इससे जीवका विशेष उपकार होता है।
___ जो प्रश्न लिखे हैं उनका समागमयोगमे समाधान होनेकी वृत्ति रखना योग्य है, उससे विशेष उपकार होगा । इस ओर विशेष समय अभी स्थिति होना सभव नही है।
६४ ववाणिया बदर, ज्येष्ठ सुदी ४, रवि, १९४५ पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥ -श्री हरिभद्राचार्य आपका वैशाख वदी ६ का धर्मपत्र मिला। आपके विशेष अवकाशके लिये विचार करके उत्तर लिखनेमे मैंने इतना विलब किया है, जो विलब क्षमापात्र है ।
उस पत्रमे आप लिखते है कि किसी भी मार्गसे आध्यात्मिक ज्ञानका संपादन करना चाहिये. यह ज्ञानियोका उपदेश है, यह वचन मुझे भी मान्य है । प्रत्येक दर्शनमे आत्माका हो उपदेश है, और मोक्षके लिये सबका प्रयत्न है, तो भी इतना तो आप भी मान्य कर सकेंगे कि जिस मार्गसे आत्मा आत्मत्व-सम्यग्ज्ञानयथार्थदृष्टि प्राप्त करे वह मार्ग सत्पुरुषकी आज्ञानुसार मान्य करना चाहिये । यहाँ किसो भो दर्शनके लिये कुछ कहना उचित नही है, फिर भी यो तो कहा जा सकता है कि जिस पुरुषका वचन पूर्वापर अखण्डित है उसका उपदिष्ट दर्शन पूर्वापर हितकारी है । आत्मा जहाँसे 'यथार्थदृष्टि' अथवा 'वस्तुधर्म' प्राप्त करे वहाँसे सम्यग्ज्ञान सप्राप्त होता है यह सर्वमान्य है।
आत्मत्व प्राप्त करनेके लिये क्या हेय, क्या उपादेय और क्या ज्ञेय है, इस विषयमे प्रसगोपात्त सत्पुरुषकी आज्ञानुसार आपके समक्ष कुछ न कुछ रखता रहूँगा। यदि ज्ञेय, हेय और उपादेयरूपसे किसी पदार्थको, एक भी परमाणुको नही जाना तो वहाँ आत्माको भी नहीं जाना । महावीरके उपदिष्ट 'आचाराग' नामके एक सैद्धातिक शास्त्रमे ऐसा कहा है कि-जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ। अर्थात जिसने एकको जाना उसने सबको जाना और जिसने सबको जाना उसने एकको जाना। यह वचनामत ऐसा उपदेश करता है कि कोई एक आत्मा जव जाननेका प्रयत्न करेगा, तव सबको जाननेका प्रयत्न होगा, और सबको जाननेका प्रयत्न एक आत्माको जाननेके लिये है, तो भी जिसने विचित्र जगतका स्वरूप नही जाना वह आत्माको नही जानता । यह उपदेश अयथार्थ नही ठहरता ।
___आत्मा किससे, क्यो और किस प्रकारसे बंधा हुआ है यह ज्ञान जिसे नही हुआ, उसे वह किससे, क्यो और किस प्रकारसे मुक्त हो, इसका ज्ञान भी नही हुआ, और न हुआ हो तो यह वचनामृत भी प्रमाणभूत हे। महावीरके उपदेशका मुख्य आधार उपर्युक्त वचनामृतसे शुरू होता है, और इसका स्वरूप उन्होने सर्वोत्तम बताया है। इसके लिये आपको अनुकूलता होगी तो आगे कहूंगा।
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१९२
श्रीमद् राजचन्द्र ____ यहाँ आपको एक यह भी विज्ञापना करना योग्य है कि महावीर या किसी भी दूसरे उपदेशकके पक्षपातके लिये मेरा कोई भी कथन अथवा मानना नहीं है, परतु आत्मत्व प्राप्त करने के लिये जिसका उपदेश अनुकूल है, उसके लिये पक्षपात ( 1 ), दृष्टिराग, प्रशस्त गग या मान्यता है, और उसके आधारपर मेरी प्रवृत्ति है, इसलिये यदि मेरा कोई भी कथन आत्मत्वको बाधा करनेवाला हो, तो उसे बताकर उपकार करते रहे । प्रत्यक्ष सत्सगकी तो वलिहारी है, और वह पुण्यानुवधी पुण्यका फल है, फिर भी जव तक ज्ञानीदृष्टानुसार परोक्ष सत्सग मिलता रहेगा तब तक भी मेरे भाग्यका उदय ही है।
२ निग्रंथशासन ज्ञानवृद्धको सर्वोत्तम वृद्ध मानता है। जाति वृद्धता, पर्यायवृद्धता ऐसे वृद्धताके अनेक भेद है, परतु ज्ञानवृद्धताके बिना ये सारी वृद्धताएं नामतृद्धताएँ है, अथवा शून्यवृद्धताएँ है ।
३ पुनर्जन्मसवधी मेरे विचार प्रदर्शित करनेके लिये आपने सूचित किया था उसके लिये यहाँ प्रसगोचित सक्षेपमात्र बताता हूँ -
(अ) कुछ निर्णयोके आधारपर मै यह मानने लगा हूँ कि इस कालमे भी कोई कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणज्ञानसे जान सकते है, जो जानना कल्पित नही परन्तु सम्यक् होता है। उत्कृष्ट सवेग, ज्ञानयोग और सत्सगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवरूप हो जाता है।
जब तक पूर्वभव अनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालका धर्मप्रयत्न शकासहित किया करता है, और शकासहित प्रयत्न योग्य सिद्धि नही देता।
___ (आ) 'पुनर्जन्म है,' इतना परोक्ष या प्रत्यक्षसे नि शकत्व जिस पुरुपको प्राप्त नही हुआ, उस पुरुषको आत्मज्ञान प्राप्त हुआ हो ऐसा शास्त्रशैली नही कहतो । पुनर्जन्मके सवधमे श्रुतज्ञानसे प्राप्त हुआ जो आशय मुझे अनुभवगम्य हुआ हे उसे यहाँ थोडासा बतलाये देता हूँ।
(१) 'चैतन्य' और 'जड' इन दोनोको पहचाननेके लिये इन दोनोके बीच जो भिन्न धर्म हैं उनका पहले ज्ञान होना चाहिये, और उन भिन्न धर्मोंमे भी जिस मुख्य भिन्न धर्मको पहचानना है वह यह है कि 'चैतन्य'मे 'उपयोग' (अर्थात् जिससे किसी भी वस्तुका बोध होता है वह गुण) रहता है, और 'जड' मे वह नही है। यहाँ कदाचित् कोई यह निर्णय करना चाहे कि 'जड'मे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गध ये गुण रहते हैं और चैतन्यमे वे नहीं है, परन्तु यह भिन्नता आकाशकी अपेक्षा लेनेसे समझमे नही आ सकती, क्योकि निरजनता, निराकारता, अरूपिता इत्यादि कितने ही गुण आत्माकी भाँति आकाशमे भी रहते हैं तो फिर आकाशको आत्माके सदृश गिना जा सकता है क्योकि दोनोमे भिन्न धर्म न रहे। परन्तु भिन्न धर्म आत्माका पूर्वोक्त 'उपयोग' नामका गुण हे जो जड-चैतन्यकी भिन्नता सूचित करता है और फिर जड चैतन्यका स्वरूप समना सुगम हो जाता है।
(२) जीवका मुख्य गुण या लक्षण 'उपयोग' (किसी भी वस्तुसवधी सवेदन, बोध, ज्ञान) है। जिसमे अशुद्ध और अपूर्ण उपयोग रहता है वह व्यवहारनयकी अपेक्षासे जीव है। निश्चयनयसे आत्मा स्वस्वरूपसे परमात्मा ही है, परतु जब तक आत्माने स्वस्वरूपको यथार्थ नहीं समझा तब तक वह छद्मस्थ जीव है 'अथात् वह परमात्मदशामे नही आया । जिसे शुद्ध और सपूर्ण यथार्थ उपयोग रहता है उसे परमात्मदशाको प्राप्त हुआ आत्मा माना जाता है। अशुद्ध उपयोगी होनेसे ही आत्मा कल्पितज्ञान (अज्ञान) को सम्यग्ज्ञान मान रहा है और सम्यग्ज्ञानके बिना पुनर्जन्मका निश्चय किसी अशमे भी यथार्थ नहीं होता । अशुद्ध उपयोग होनेका कुछ भी निमित्त होना चाहिये । वह निमित्त अनुपूर्वीसे चले आते हुए बाह्यभावसे गृहीत कमपुद्गल है। (उस कर्मका यथार्य स्वरूप सूक्ष्मतासे समझने योग्य है, क्योकि आत्माकी ऐसी दशा किसी भी निमित्तसे ही होनी चाहिये, और जब तक वह निमित्त जिस प्रकारसे है उस प्रकारसे समझमे न आये तब तक जिस मार्गसे जाना है उस मार्गकी निकटता नही होती ।). जिसका परिणाम विपर्यय हो उसका प्रारभ
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२२ वॉ वर्ष अशुद्ध उपयोगके बिना नहीं होता, और अशुद्ध उपयोग भूतकालको किसी भी सलग्नताके बिना नही होत वर्तमान कालमेसे हम एक-एक पलको निकालते जायें और देखते जायें, तो प्रत्येक पल भिन्न-भिन्न स्वरू से बीता हुआ मालूम होगा। (उसके भिन्न-भिन्न होनेका कोई कारण तो होगा ही।) एक मनुष्यने ऐ दृढ सकल्प किया कि यावज्जीवन स्त्रीका चिंतन भी मुझे करना नही है, फिर भी पाँच पल न बीत प कि उसका चिंतन हो गया तो फिर उसका कारण होना चाहिये। मुझे जो शास्त्रसबधी अल्प बोध हुआ उससे यह कह सकता हूँ कि वह पूर्वकर्मका किसी भी अशमे उदय होना चाहिये। कैसे कर्मका? तो व सकूगा कि मोहनीयकर्मका | उसकी किस प्रकृतिका ? तो कह सकूँगा कि पुरुषवेदका । (पुरुषवेदको पर प्रकृतियाँ है ।) पुरुषवेदका उदय दृढ सकल्पसे रोकनेपर भी हुआ, उसका कारण अव कहा जा सकेगा वह कोई भूतकालका होना चाहिये, और अनुपूर्वोसे उसके स्वरूपका विचार करनेसे पुनर्जन्म सिद्ध होग यहाँ इस बातको बहुत दृष्टातोंसे कहनेकी मेरी इच्छा थी, परन्तु निर्धारितसे अधिक कहा गया है, मैं आत्माको जो बोध हुआ उसे मन यथार्थ नही जान सकता और मनके बोधको वचन यथार्थ नही कह सकते वचनका कथनबोध भी कलम नही लिख सकती, ऐसा होनेसे और इस विषयके सवधमे कुछ पारिभाषि शब्दोके उपयोगकी आवश्यकता होनेसे अभी इस विषयको अपूर्ण छोड़ देता हूँ। यह अनुमानप्रमाण व गया। प्रत्यक्ष प्रमाणसबधी ज्ञानीदृष्ट होगा, तो उसे फिर, अथवा प्रत्यक्ष समागम होगा तब कुछ बता सकंग आपके उपयोगमे रम रहा है, फिर भी यहाँ दो-एक वचन प्रसन्नतार्थ लिखता हूँ'
१ सबकी अपेक्षा आत्मज्ञान श्रेष्ठ है । २ धर्मविषय, गति, आगति निश्चयसे है। ३ ज्यो ज्यो उपयोगकी शुद्धता होती जाती है, त्यो-त्यो आत्मज्ञान प्राप्त होता जाता है। ४ इसके लिये निर्विकार दृष्टिकी आवश्यकता है। ५ 'पुनर्जन्म है', यह योगसे, शास्त्रसे और सहजरूपसे अनेक सत्पुरुपोको सिद्ध हुआ है।
इस कालमे इस विषयमे अनेक पुरुषोको नि शकता नही होती इसके कारण मात्र सात्त्विकता न्यूनता, विविधतापकी मूर्च्छना, 'श्रीगोकुलचरित्र'मे आपको बतायी हुई निर्जनावस्थाको कमी, सत्सग अभाव, स्वमान और अयथार्थ दृष्टि हैं।
आपकी अनुकूलता होगी तो इस विषयमे विशेष फिर बताऊँगा। इससे मुझे आत्मोज्ज्वलताव परम लाभ है । इसलिये आपको अनुकूल होगा ही। अवकाश हो तो दो चार बार इस पत्रका मनन होने मेरा कहा हुआ अल्प आशय आपको बहुत दृष्टिगोचर होगा। शैलीके कारण विस्तारसे कुछ लिखा है, पि भी जैसा चाहिये वैसा नही समझाया गया ऐसा मेरा मानना है । परन्तु मै समझता हूँ कि धीरे-धीरे आप समक्ष सरलरूपमे रख सकूँगा।
बुद्ध भगवानका जोवनचरित्र मेरे पास नही आया। अनुकूलता हो तो भिजवानेकी सूचना करें सत्पुरुषोंके चरित्र दर्पणरूप है । बुद्ध और जैनके उपदेशमे महान अतर है।
सब दोषोकी क्षमा चाहकर यह पत्र पूरा (अपूर्ण स्थितिमे) करता हूँ। आपकी आज्ञा होगी तो ऐस वक्त निकाला जा सकेगा कि जिससे आत्मत्व दृढ हो।
असुगमतासे लेख दूषित हुआ है, परन्तु कितनी ही निरुपायता थी। नही तो सरलताका उपयो करनेसे आत्मत्वकी प्रफुल्लितता विशेष हो सकती है।
वि० धर्मजीवनके इच्छुक रायचद रवजीभाईके विनयभावसे प्रशस्त प्रणाम
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६६
श्रीमद राजचन्द्र १९४
६५ मोरबी, ज्येष्ठ सुदी १०, सोम, १९४५ . आपका अतिशय आग्रह है और न हो तो भी एक धर्मनिष्ठ आत्माको यदि मुझसे कुछ शाति होती हो तो एक पुण्य समझकर आना चाहिये। और ज्ञानीदृष्ट होगा तो मैं जरूर कुछ ही दिनोमे आता है। विशेष समागममे ।
अहमदावाद, ज्येष्ठ वदी १२, मंगल, १९४५ मैने आपको ववाणियावंदरसे पुनर्जन्मसबधी परोक्षज्ञानकी अपेक्षासे दो-एक विचार लिखे थे, और इस विषयमे अवकाश पाकर कुछ बतानेके बाद प्रत्यक्ष अनुभवगम्य ज्ञानसे इस विषयका जो कुछ निश्चय मेरी समझमे आया है उसे बतानेकी इच्छा रखी है।।
वह पत्र आपको ज्येष्ठ सुदी पचमीको मिल गया होगा। अवकाश प्राप्तकर कुछ उत्तर देना ठीक लगे तो उत्तर, नही तो पहुँच मात्र लिखकर प्रशम दीजियेगा, यह विज्ञापना है। निग्रंथ द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोकी शोधके लिये सातेक दिनोसे मेरा यहाँ आना हुआ है।
धर्मोपजीवनके इच्छुक
रायचन्द रवजीभाईके यथाविधि प्रणाम ।
६७ वढवाणकेम्प, आषाढ सुदी ८, शनि, १९४५ आत्माका कल्याण खोजनेके लिये आपको जो अभिलाषाएँ दिखायो देती हैं, वे मुझे प्रसन्न करती है। धर्म प्रशस्त ध्यान करनेके लिये विज्ञापन करके अब यह पत्र पूरा करता हूँ।
रायचन्द
६८ बजाणा-काठियावाड, आषाढ सुदी १५, शुक्र, १९४५ आपका आपाढ सुदी ७ का लिखा हुआ पत्र मुझे वढवाणकेम्पमे मिला। उसके बाद मेरा यहाँ आना हुआ, इसलिये पहुंच लिखनेमे विलम्ब हुआ । पुनर्जन्मसवधी मेरे विचार आपको अनुकूल होनेसे मुझे इस विषयमे आपकी सहायता मिली । आपने अत करणीय-आत्मभावजन्य जो अभिलाषा प्रदर्शित की है उसे सत्पुरुष निरतर रखते आये हैं, उन्होने मन, वचन, काया और आत्मासे वैसी दशा प्राप्त की है, और उस दशाके प्रकाशसे दिव्यताको प्राप्त आत्माने वाणी द्वारा सर्वोत्तम आध्यात्मिक वचनामृत प्रदर्शित किये हैं, जिनका आप जैसे सत्पात्र मनुष्य निरतर सेवन करते हैं, और यही अनन्तभवके आत्मिक दुखको दूर करनेका परमोषध है।
सभी दर्शन पारिणामिकभावसे मुक्तिका उपदेश करते हैं, यह नि सशय है, परन्तु यथार्थदृष्टि हुए बिना सब दर्शनोका तात्पर्यज्ञान हृदयगत नही होता । जिसके होनेके लिये सत्पुरुपोकी प्रशस्त भक्ति, उनके पादपकज और उपदेशका अवलवन और निर्विकार ज्ञानयोग आदि जो साधन हैं, वे शुद्ध उपयोगसे मान्य होने चाहिये।
पुनर्जन्मका प्रत्यक्ष निश्चय तथा अन्य आध्यात्मिक विचार अब फिर प्रसगानुकूल प्रदर्शित करनेको आज्ञा लेता हूँ।
बुद्ध भगवानका चरित्र मनन करने योग्य है, यह मानो निष्पक्षपाती कथन है। कितने ही आध्यात्मिक तत्त्वोसे भरपूर वचनामृत अव लिख सकूँगा।
धर्मोपजीवनके इच्छुक रायचन्दके विनययुक्त प्रणाम ।
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२२ वॉ वर्ष
१९५
६९
वाणिया, आषाढ वदी १२, बुध, १९४५ महासतीजी 'मोक्षमाला' का श्रवण करती है, यह बहुत सुखद और लाभदायक है । उनसे मेरी ओरसे विनती कीजियेगा कि इस पुस्तकका यथार्थ श्रवण करे और मनन करे । इसमे जिनेश्वरके सुन्दर मार्गसे बाहरका एक भी विशेष वचन रखनेका प्रयत्न नही किया है । जैसा अनुभवमे आया और कालभेद देखा वैसे मध्यस्थतासे यह पुस्तक लिखी है । में मानता हूँ कि महासतीजी इस पुस्तकका एकाग्र भावसे श्रवण करके आत्मश्रेयमे वृद्धि करेंगी ।
७०
भरुच, श्रावण सुदी १, रवि, १९४५ आपके आत्मबोधके कारण प्रसन्नता होती है । यहाँ आत्मचर्चा श्रेष्ठ चलती है । सत्सगकी बलवत्तरता है । वि० रायचन्दके प्रणाम ।
७१
भरुच, श्रावण सुदी ३, बुध, १९४५
बजाणा नामके गाँवसे मेरा लिखा हुआ एक विनयपत्र आपको प्राप्त हुआ होगा । मै अपनी निवासभूमिसे लगभग दो माससे सत्योग और सत्सगकी वृद्धिके लिये प्रवासरूपसे कितने हो स्थानोमे विहार कर रहा हूँ । प्राय एक सप्ताहमे आपके दर्शन और समागमके लिये मेरा वहाँ आगमन होना संभव है ।
सब शास्त्रोके बोधका क्रियाका, ज्ञानका, योगका और भक्तिका प्रयोजन स्वस्वरूपप्राप्तिके लिये है, और ये सम्यकश्रेणियाँ आत्मगत हो तो ऐसा होना प्रत्यक्ष संभव है, परन्तु इन वस्तुओको प्राप्त करनेके लिये सर्वसंगपरित्यागको आवश्यकता है । निर्जनावस्था - योगभूमिमे वास - से सहज समाधिकी प्राप्ति नही है, वह तो सर्वसंगपरित्यागमे नियमसे रहती है । देश (भाग) सगपरित्यागमे उसकी भजना सभव है । जब तक पूर्वकर्मके बलसे गृहवास भोगना बाकी है, तब तक धर्म, अर्थ और कामको उल्लासित उदासीनभावसे सेवन करना योग्य है । बाह्यभावसे गृहस्थश्रेणि होनेपर भी अतरग निर्ग्रथश्रेणि चाहिये, और जहाँ ऐसा हुआ है वहाँ सर्वसिद्धि है ।
मेरी आत्माभिलाषा बहुत माससे उस श्रेणिमे रहा करती है। धर्मोपजीवनकी पूर्ण अभिलाषा कई एक व्यवहारोपाधियोके कारण पूरी नही हो सकती, परन्तु आत्माको सत्पदकी सिद्धि प्रत्यक्ष होती है, यह तो मान्य हो है, और इसमे कुछ वय - वेषकी विशेष अपेक्षा नही है । निर्ग्रन्थके उपदेशको अचलभावसे और विशेषत' मान्य करते हुए अन्य दर्शनके उपदेशमे मध्यस्थता प्रिय है ।
चाहे जिस मार्ग से और चाहे जिस दर्शनसे कल्याण होता हो तो उसमे फिर मत-मतातरकी कोई अपेक्षा खोजनी योग्य नही है । जिस अनुप्रेक्षासे, जिस दर्शनसे या जिस ज्ञानसे आत्मत्व प्राप्त हो, वह अनुप्रेक्षा, वह दर्शन या वह ज्ञान सर्वोपरि है, और जितने आत्मा तरे, वर्तमानमे तरते है और भविष्य मे तरेंगे वे सब इस एक ही भावको पाकर । हम इसे सर्व भावसे प्राप्त करें यह मिले हुए अनुत्तर जन्मका साफल्य है
कितने ही ज्ञानविचारोको लिखते हुए उदासीन भावकी वृद्धि हो जानेसे इच्छित लिखा नही जा सकता और न ही उसे आप जैसोको बताया जा सकता है । यह किसी का कारण ।
नाना प्रकारके विचार चाहे जिस रूपमे अनुक्रमविहीन आपके पास रखूं, तो उन्हे योग्यतापूर्वक आत्मगत करते हुए दोपके लिये - भविष्य के लिये भी- क्षमाभाव ही रखें ।
इस बार लघुत्व भावसे एक प्रश्न करनेकी आज्ञा लेता हूँ । आपके ध्यानमे होगा कि प्रत्येक पदार्थप्रज्ञापनीयता चार प्रकारसे है- द्रव्य (उसके वस्तुस्वभाव) से, क्षेत्र (कुछ भी उसका व्याप्त होना
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श्रीमद राजचन्द्र
स्त्री ससारका सर्वोत्तम सुख है, यह मात्र आवरणिक दृष्टिसे कल्पित किया गया है परंतु वह वैसा है ही नही । स्त्रीसे सयोगसुख भोगनेका जो अग है वह विवेक दृष्टिसे देखनेपर वमन करने योग्य भूमिके भी योग्य नही ठहरता । जिन-जिन पदार्थोपर जुगुप्सा आती है, वे सभी पदार्थ तो उसके शरीरमे रहे हुए है, और उनकी वह जन्मभूमि है। फिर यह सुख क्षणिक, खेदमय और खुजलीके दर्द जैसा ही है | उस समयका दृश्य हृदयमे चित्रित होकर हँसाता है कि यह कैसा भुलावा है ? सक्षेपमे यह कहना है कि उसमे कुछ भी सुख नही है, और यदि सुख हो तो उसका अपरिच्छेद रूपसे वर्णन कर देखें तो यही मालूम होगा कि मात्र मोहदशाके कारण वैसी मान्यता हुई है । यहाँ मै स्त्रीके अवयव आदि भागोका विवेक करने नही बैठा हूँ, परन्तु उस ओर आत्मा पुन आकर्षित ही न हो, यह विवेक आया है, उसका सहज सूचन किया है । स्त्री दोष नही है, परन्तु आत्मामे दोप है, और इस दोपके चले जानेसे आत्मा जो देखता है वह अद्भुत आनन्दमय ही है, इसलिये इस दोपसे रहित होनेकी ही परम अभिलाषा है ।
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यदि शुद्ध उपयोगकी प्राप्ति हो गई तो फिर वह प्रति समय पूर्वोपार्जित मोहनीयको भस्मीभूत कर सकेगा । यह अनुभवगम्य प्रवचन है ।
परन्तु पूर्वोपार्जित कर्म अभी तक मुझे उदयमे है, तब तक मेरी किस प्रकारसे शान्ति हो ? इसका विचार करते हुए मुझे निम्न प्रकारसे समाधान हुआ
स्त्रीको सदाचारी ज्ञान देना । उसे एक सत्सगी मानना । उसके साथ धर्मवहनका सम्बन्ध रखना | अन्तकरणसे किसी भी प्रकारसे माँ बहन और उसमे अन्तर नही समझना । उसके शारीरिक भागका किसी भी तरह मोहकर्मके वश होकर उपभोग किया जाता है, वहाँ योगकी ही स्मृति रखकर, 'यह है तो मैं कैसे सुखका अनुभव करता हूँ ।" इसे भूल जाना । (तात्पर्य - वह मानना असत् है ।) मित्र परस्पर जैसे साधारण वस्तुका उपभोग करते है वैसे उस वस्तु (वि०) का सखेद उपभोग करके पूर्वबधनसे छूट जाना । उसके साथ यथासम्भव निर्विकारी बात करना । कायासे विकारचेष्टाका अनुभव करते हुए भी उपयोग लक्ष्य पर ही रखना |
उससे कोई सन्तानोत्पत्ति हो तो वह एक साधारण वस्तु है, ऐसा समझकर ममत्व नही करना । परन्तु ऐसा चिंतन करना कि जिस द्वारसे लघुशका की जाती है उस द्वारसे उत्पन्न हुआ पदार्थ ( यह जीव) पुनः उसमे क्यो भूल जाता है-महान अँधेरी कोठरीसे परेशान होकर आनेके बाद भी फिर वही मित्रता करने जाता है । यह कैसी विचित्रता है । चाहना यह कि दोनोके संयोगसे कुछ हर्षशोक या बालबच्चेरूप फलकी उत्पत्ति न हो। मुझे इस चित्रकी याद भी न करने दें। नही तो एक मात्र सुन्दर मुखमंडल और सुदर वर्ण (जड पदार्थका ) आत्माको कितना बाँध कर संपत्तिहीन करता है, उसे यह आत्मा किसी भी प्रकारसे न भुला दे ।
( २ )
स्त्रीके सबंध मे किसी भी प्रकारसे रागद्वेप रखनेकी मेरी अश मात्र इच्छा नही है, परतु पूर्वोपार्जनके कारण इच्छाके प्रवर्तनमे अटका हूँ ।
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जगतमे भिन्न भिन्न मत और दर्शन देखनेने आते हैं यह दृष्टिभेद है | * भिन्न भिन्न मत देखीए, भेद दृष्टिनो एक तत्त्वना मूळमां, व्याप्या मानो तेह ॥१॥
एह ।
*भावार्थ - यह दृष्टिका भेद है कि भिन्न भिन्न मत दिखायी देते मूलमें व्याप्त हैं ॥१॥
वि० स० १९४५
। वे सव मत मानो एक ही तत्त्वके
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मूळ
२२ वाँ वर्ष तेह तत्त्वरूप वृक्षनुं, आत्मघमं छे स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूळ ॥२॥ प्रथम आत्मसिद्धि थवा, करोए ज्ञान विचार । अनुभवी गुरुने सेवी, बुधजननो निर्धार ॥३॥ क्षण क्षण जे अस्थिरता, अने विभाविक मोह | ते जेनामांथी गया, ते अनुभवी गुरु जोय ॥४॥ बाह्य तेम अभ्यन्तरे, ग्रथ ग्रंथि नहि परम पुरुष तेने कहो, सरळ दृष्टियी बाह्य परिग्रह ग्रथि छे, अभ्यंतर मिथ्यात्व । स्वभावथी प्रतिकूळता, -
होय ।
जोय ॥५॥
॥६॥
1
८०
वि० सं० १९४५
जिसकी मनोवृत्ति निराबाधरूपसे बहा करती है, जिसके सकल्प-विकल्प मद हो गये हैं, जिसमे पाँच विषयोसे विरक्त बुद्धिके अकुर फूट निकले हैं, जिसने क्लेशके कारण निर्मूल कर दिये हैं, जो अनेकातदृष्टियुक्त एकातदृष्टिका सेवन किया करता है, और जिसकी मात्र एक शुद्ध वृत्ति ही है, वह प्रतापी पुरुष जयवत रहे ।
हमे वैसा बननेका प्रयत्न करना चाहिये ।
१९९
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वि० सं० १९४५
अहो हो | कर्मकी कैसी विचित्र बधस्थिति है ? जिसकी स्वप्नमे भी इच्छा नही होती, जिसके लिये परम शोक होता है, उसी अगंभीरदशासे प्रवृत्त होना पडता है ।
वे जिन - वर्धमान आदि सत्पुरुष कैसे महान मनोजयी थे । उन्हे मौन रहना - अमौन रहना दोनो ही सुलभ थे, उन्हे सर्व अनुकूल प्रतिकूल दिन समान थे, उन्हे लाभ हानि समान थी, और उनका क्रम मात्र आत्मसमताके लिये था । यह कैसा आश्चर्यकारक है कि एक कल्पनाका जय एक क्ल्पमे होना दुष्कर है, ऐसी अनत कल्पनाओको उन्होने कल्पके अनतवे भागमे शात कर दिया ।
८२
वि स १९४५
दुखी मनुष्योका प्रदर्शन करनेमे आये तो जरूर उनका सिरताज मैं बन सकूँ । मेरे इन वचनोको पढकर कोई विचारमे पडकर, भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ करेगा अथवा इसे मेरा भ्रम मान बैठेगा; परंतु इसका समाधान यही सक्षेपमे किये देता हूँ । आप मुझे स्त्री सबधी दुख न समझे, लक्ष्मी सवधी दु ख न समझे,
पुरुष मानें ॥५॥
उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल आत्मधर्म है। जो धर्म स्वभावकी सिद्धि करता है, वही धर्म उपादेय है ॥२॥ आत्मसिद्धिके लिये पहले तो ज्ञानका विचार करें, और फिर ज्ञानकी प्राप्ति के लिये अनुभवी गुरुकी सेवा करें, ऐसा ज्ञानियोका निश्चय है ॥ ३॥
जिसके आत्मामेंसे क्षण-क्षणको अस्थिरता और वैभाविक मोह दूर हो गये है, वही अनुभवी गुरु हैं ॥४॥ जिसकी बाह्य एव अम्यतर परिग्रहकी प्रथियां छिन्न हो चुकी हैं और जो सरल दृष्टिसे देखते है, उसे परम
परिग्रह वाह्य प्रथि हैं और मिथ्यात्व अन्यतर ग्रंथि है । स्वभावसे प्रतिकूलता, ॥६॥
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१९६
श्रीमद राजचन्द्र
उपचार या अनुपचारसे) से, कालसे और भाव ( उसके गुणादिक भाव) से । अब हम आत्माकी व्याख्या भी इसके बिना नही कर सकते। आप यदि इस प्रज्ञापनीयता से आत्माकी व्याख्या अवकाशानुकूल बतलायें, तो संतोषका कारण होगी । इसमेसे एक अद्भुत व्याख्या निकल सकती है, परंतु आपके विचार पहलेसे कुछ सहायक हो सकेंगे ऐसा मानकर यह प्रयाचना की है। धर्मोपजवन प्राप्त करनेमे आपकी सहायताकी प्रायः आवश्यकता पडेगी, ऐसा लगता है, परन्तु सामान्यत वृत्ति-भाव सबधी आपके विचार जान लेनेके बाद उस बातको जन्म देना, ऐसी इच्छा है । शास्त्र परोक्षमार्ग है, और प्रत्यक्षमार्ग है । इस बार इतना ही लिखकर इस पत्रको विनय भावसे पूरा करता हूँ ।
यह भूमिका एक श्रेष्ठ योगभूमिका है । यहाँ मुझे एक सन्मुनि इत्यादिका प्रसग रहता है । वि० आ० रायचंद रवजीभाईके प्रणाम ।
७२
भरुच, श्रावण सुदी १०, १९४५ बाह्यभावसे जगतमे रहे और अतरगमे एकात शीतलीभूत - निर्लेप रहे, यही मान्यता और उपदेश है ।
७३
बबई, श्रावण वदी ७, शनि, १९४५ आपके आरोग्यकी खबर अभी नही मिली है। उसे अवश्य लिखें और शरीर की स्थिति के लिये यथासंभव शोकरहित होकर प्रवृत्ति करें ।
ववाणिया, भादो सुदी २, १९४५
सुज्ञ चि०,
सवत्सरी सबधी हुए अपने दोषों की शुद्ध बुद्धिसे क्षमा-याचना करता हूँ । आपके सारे कुटुम्ब अविनय आदिके लिये क्षमा चाहता हूँ ।
७४
परतत्रता के लिये खेद है । परन्तु अभी तो निरुपायता है ।
पत्रका उत्तर लिखने मे सावधानी रखियेगा । महासतीजीको अभिवदन कीजियेगा ।
राज्य० के य० आ०
७५
बबई, भादो वदी ४, शुक्र, १९४५
मुझ पर शुद्ध राग समभावसे रखें । विशेषता न करे । धर्मध्यान और व्यवहार दोनोकी रक्षा करें । लोभी गुरु, गुरु-शिष्य दोनोके लिये अधोगतिका कारण है । मे एक ससारी हूँ । मुझे अल्प ज्ञान है । आपको शुद्ध गुरुकी जरूरत है ।
७६ मोहमयी, आसोज वदी १०, शनि, १९४५ दूसरा कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमे सर्वभाव अर्पण करके प्रवृत्ति करता रह । फिर यदि मोक्ष न मिले तो मुझसे लेना ।
सत्पुरुष वही है कि जो रात दिन आत्माके उपयोगमे है, जिसका कथन शास्त्रमे नही मिलता, सुननेमे नही आता, फिर भी अनुभवमे आ सकता है, अतरग स्पृहारहित जिसका गुप्त आचरण है, बाकी तो कुछ कहा नही जा सकता और ऐसा किये विना तेरा कभी छुटकारा होनेवाला नही है, इस अनुभव - प्रवचनको प्रामाणिक मान ।
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७७
२२ वा वर्ष
१९७ एक सत्पुरुषको प्रसन्न करनेमे, उसकी सर्व इच्छाओको प्रशसा करनेमे, उसे ही सत्य माननेमे पूरी जिन्दगी बीत गई तो अधिकसे अधिक पद्रह भवमे तू अवश्य मोक्षमे जायेगा।
वि० रायचंदके प्रणाम
वि० स० १९४५ *"सुखकी सहेली है, अकेली उदासीनता"।
अध्यात्मनी जननी ते उदासीनता ॥ लघु वयथी अद्भुत थयो, तत्त्वज्ञाननो बोध । ए ज सूचवे एम के, गति आगति का शोध ? ॥१॥ जे संस्कार थवो घटे, अति अभ्यासे काय। विना परिश्रम ते थयो, भवशंका शी त्यांय ? ॥२॥ जेम जेम मति अल्पता, अने मोह उद्योत । तेम तेम भवशकना, अपात्र अन्तर ज्योत ॥३॥ करी कल्पना दृढ़ करे, नाना नास्ति विचार। पण अस्ति ते सूचवे, ए ज खरो निर्धार ॥४॥ आ भव वण भव छे नहीं, ए ज तर्क अनुकूळ। विचारता पामी गया, आत्मधर्मनु मूळ ॥५॥ [ अगत] ७८
वि० सं० १९४५ स्त्रीके संबधमे मेरे विचार
(१) अति अति स्वस्थ विचारणासे ऐसा सिद्ध हुआ है कि शुद्ध ज्ञानके आश्रयमे निरावाध सुख रहा है, और वही परम समाधि रही है।
*भावार्थ-अकेली उदासीनता सुखकी सहेली है । यह उदासीनता अध्यात्मको जननी है।
छोटी उमरमें ही तत्त्वज्ञानका अद्भुत बोध हुआ। यही सूचित करता है कि अब गमन-आगमन अर्थात जन्म-मरणकी खोज किसलिये? वैयक्तिक दृष्टिसे इस पद्यका अर्थ यह है-छोटी उमरमें ही तत्त्वज्ञानका वोघ हो जानेसे यह फलित होता है कि 'पुनर्जन्म है' इसलिये तुझे जन्म-मरणको खोज करनेकी जरूरत नही है ॥१॥
___ जो ज्ञान-सस्कार अत्यत अभ्याससे होने योग्य है, वह परिश्रमके बिना ही सहज हो गया, तो फिर अव पुनर्भवकी शका कैसी ? ॥२॥
ज्यो ज्यो वद्धि-ज्ञान कम होता जाता है, और मोह बढ़ता जाता है, त्यो त्यो अपान जीवोके अतरमें अज्ञानकी अधिकता होनेसे, पुनर्भव सवधी शका प्रवल होती जाती है ॥३॥
कोई कल्पना करके नाना प्रकारके नास्तिक विचारो-आत्मा नहीं है, मोक्ष नही है इत्यादि-को दढ करता है, परन्तु वे विविध 'नास्ति' विचार ही 'अस्ति' का सूचन करते हैं, क्योकि 'नास्ति'--न + अस्तिमे ही 'अस्ति'का सूचन निहित है । और यही निणय वास्तविक ह ॥४॥
यही एक वडा अनुक्ल तर्क है कि यह भव दूसरे भवके बिना नहीं हो सकता। यह न्याययुक्त तर्क तत्त्वप्राप्तिके लिये अनुक्ल योग्य साधन है। इस तरह उत्तरोत्तर विचार करते-करते विचारशील जीव भात्मधर्मका मूल प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं ॥५॥
[निजो
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श्रीमद् राजचन्द्र
स्त्रीससारका सर्वोत्तम सुख है, यह मात्र आवरणिक दृष्टिसे कल्पित किया गया है परंतु वह वैसा है ही नही । स्त्रीसे सयोगसुख भोगनेका जो अग है वह विवेक - दृष्टिसे देखनेपर वमन करने योग्य भूमिके भी योग्य नही ठहरता । जिन-जिन पदार्थोपर जुगुप्सा आती है, वे सभी पदार्थ तो उसके शरीरमे रहे हुए है, और उनकी वह जन्मभूमि है । फिर यह सुख क्षणिक, खेदमय और खुजलीके दर्द जैसा ही है । उस समयका दृश्य हृदयमे चित्रित होकर हँसाता है कि यह कैसा भुलावा है ? सक्षेपमे यह कहना है कि उसमे कुछ भी सुख नही है, और यदि सुख हो तो उसका अपरिच्छेद रूपसे वर्णन कर देखें तो यही मालूम होगा कि मात्र मोहदशाके कारण वैसी मान्यता हुई है । यहाँ मै स्त्रीके अवयव आदि भागोका विवेक करने नही बैठा हूँ, परन्तु उस ओर आत्मा पुन आकर्षित ही न हो, यह विवेक आया है, उसका सहज सूचन किया है । स्त्री दोष नही है, परन्तु आत्मामे दोप है, और इस दोपके चले जानेसे आत्मा जो देखता है वह अद्भुत आनन्दमय ही है, इसलिये इस दोष से रहित होनेकी ही परम अभिलापा है ।
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यदि शुद्ध उपयोगकी प्राप्ति हो गई तो फिर वह प्रति समय पूर्वोपार्जित मोहनीयको भस्मीभूत कर सकेगा । यह अनुभवगम्य प्रवचन है ।
परन्तु पूर्वोपार्जित कर्म अभी तक मुझे उदयमे है, तब तक मेरी किस प्रकारसे शान्ति हो ? इसका विचार करते हुए मुझे निम्न प्रकारसे समाधान हुआ
स्त्रीको सदाचारी ज्ञान देना । उसे एक सत्सगी मानना । उसके साथ धर्मवहनका सम्बन्ध रखना | अन्तकरणसे किसी भी प्रकारसे माँ-वहन और उसमे अन्तर नहीं समझना । उसके शारीरिक भागका किसी भी तरह मोहकर्मके वश होकर उपभोग किया जाता है, वहाँ योगकी ही स्मृति रखकर, 'यह है तो मे कैसे सुखका अनुभव करता हूँ ।" इसे भूल जाना । (तात्पर्य - वह मानना असत् है ।) मित्र परस्पर जैसे साधारण वस्तुका उपभोग करते है वैसे उस वस्तु (वि०) का सखेद उपभोग करके पूर्वबधनसे छूट जाना । उसके साथ यथासम्भव निर्विकारी बात करना । कायासे विकारचेष्टाका अनुभव करते हुए भी उपयोग लक्ष्य पर ही रखना ।
उससे कोई सन्तानोत्पत्ति हो तो वह एक साधारण वस्तु है, ऐसा समझकर ममत्व नही करना । परन्तु ऐसा चिंतन करना कि जिस द्वारसे लघुशका की जाती है उस द्वारसे उत्पन्न हुआ पदार्थ (यह जीव) पुन उसमे क्यो भूल जाता है - महान अँधेरी कोठरीसे परेशान होकर आनेके बाद भी फिर वही मित्रता करने जाता है । यह कैसी विचित्रता है । चाहना यह कि दोनोके सयोगसे कुछ हर्षशोक या बालबच्चेरूप फलकी उत्पत्ति न हो। मुझे इस चित्रकी याद भी न करने दें। नहीं तो एक मात्र सुन्दर मुखमडल और सुदर वर्ण (जड पदार्थका ) आत्माको कितना बाँध कर सपत्तिहीन करता है, उसे यह आत्मा किसी भी प्रकारसे न भुला दे ।
( २ )
स्त्रीके सबधमे किसी भी प्रकारसे रागद्वेप रखनेकी मेरी अश मात्र इच्छा नही है, परतु पूर्वोपार्जन - के कारण इच्छाके प्रवर्तनमे अटका हूँ ।
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जगतमे भिन्न भिन्न मत और दर्शन देखनेने आते हैं यह दृष्टिभेद है । * भिन्न भिन्न मत देखीए, भेद दृष्टिनो एह ।
एक तत्त्वना मूळमां, व्याप्या मानो तेह ॥ १॥ *भावार्थ - यह दृष्टिका भेद है कि भिन्न भिन्न मत दिखायी देते - मूलमें व्याप्त है ||१||
वि० स० १९४५
। वे सब मत मानो एक ही तत्त्वके
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२२ वाँ वर्ष तेह तत्त्वरूप वृक्षन, आत्मधर्म छे मूळ। स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूळ ॥२॥ प्रथम आत्मसिद्धि थवा, करीए ज्ञान विचार। अनुभवी गुरुने सेवीए, बुधजननो निर्धार ॥३॥ क्षण क्षण जे अस्थिरता, दाने विभाविक मोह। ते जेनामांथो गया, ते अनुभवी गुरु जोय ॥४॥ बाह्य तेम अभ्यन्तरे, ग्रथ ग्रंथि नहि होय । परम पुरुष तेने कहो, सरळ दृष्टियी जोय ॥५॥ बाह्य परिग्रह ग्रथि छे, अभ्यंतर मिथ्यात्व ।। स्वभावथी प्रतिकूळता,
॥६॥
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वि० सं० १९४५ जिसकी मनोवृत्ति निराबाधरूपसे बहा करती है, जिसके सकल्प-विकल्प मद हो गये हैं, जिसमे पाँच विषयोसे विरक्त बुद्धिके अकुर फूट निकले हैं, जिसने क्लेशके कारण निर्मूल कर दिये हैं, जो अनेकातदृष्टियुक्त एकातदृष्टिका सेवन किया करता है, और जिसकी मात्र एक शुद्ध वृत्ति ही है, वह प्रतापी पुरुष जयवत रहे।
हमे वैसा बननेका प्रयत्न करना चाहिये।
वि० स० १९४५ अहो हो । कर्मकी कैसी विचित्र बधस्थिति है ? जिसकी स्वप्नमे भी इच्छा नहीं होती, जिसके लिये परम शोक होता है, उसी अगंभीरदशासे प्रवृत्त होना पडता है।।
वे जिन-वर्धमान आदि सत्पुरुष कैसे महान मनोजयी थे | उन्हे मौन रहना-अमौन रहना दोनो ही सुलभ थे, उन्हे सर्व अनुकूल प्रतिकूल दिन समान थे, उन्हे लाभ हानि समान थी, और उनका क्रम मात्र आत्मसमताके लिये था। यह कैसा आश्चर्यकारक है कि एक कल्पनाका जय एक क्ल्पमे होना दुष्कर है, ऐसी अनत कल्पनाओको उन्होने कल्पके अनतवे भागमे शात कर दिया !
८२
वि स १९४५ दुखी मनुष्योका प्रदर्शन करनेमे आये तो जरूर उनका सिरताज में बन सकूँ। मेरे इन वचनोको पढकर कोई विचारमे पडकर, भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ करेगा अथवा इसे मेरा भ्रम मान बैठेगा, परतु इसका समाधान यही सक्षेपमे किये देता हूँ। आप मुझे स्त्री सवधी दुख न समझे, लक्ष्मी सवधी दु ख न समझे,
उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल आत्मधर्म है । जो धर्म स्वभावकी सिद्धि करता है, वही धर्म उपादेय है ॥२॥
आत्मसिद्धिके लिये पहले तो ज्ञानका विचार करें, और फिर ज्ञानकी प्राप्तिके लिये अनुभवी गुरुकी सेवा करें, ऐसा ज्ञानियोका निश्चय है ॥३॥
जिसके आत्मामेंसे क्षण-क्षणकी अस्थिरता और वैभाविक मोह दूर हो गये हैं, वही अनुभवी गुरु है ॥४॥
जिसकी बाह्य एव अभ्यतर परिग्रहकी ग्रथियां छिन्न हो चुकी हैं और जो सरल दृष्टिसे देखते है, उसे परम पुरुष मानें ॥५॥
परिग्रह वाह्य ग्रयि है और मिथ्यात्व अभ्यतर ग्रथि है । स्वभावसे प्रतिकूलता,-॥६॥
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२००
श्रीमद् राजचन्द्र पुत्र सवधी दुख न समझे, कीर्ति सबंधी दु ख न समझे, भय सवधी दु ख न समझे, काया संवधी दुग्ख न समझो अथवा सवसे दु ख न समझे । मुझे दुख अन्य प्रकारका है । वह दुख वातका नही है, कफका नही है या पित्तका नही है, वह गरीरका नहीं है, वचनका नही है या मनका नही है। समझें तो सभीका है और न समझें तो एकका भी नहीं है। परतु मेरी विज्ञापना उसे न समझनेके लिये है, क्योकि इसमे कोई और मर्म निहित है। आप जरूर मानिये कि मै विना किसो पागलपनके यह कलम चला रहा हूँ। मै राजचद्र नामसे पहचाना जानेवाला. ववाणिया नामके छोटे गाँवका, लक्ष्मोमे साधारण परतु आर्य गिने जाते दशाश्रीमाली-वैश्यका पुत्र माना जाता हूँ | मैने इस देहमे मुख्य दो भव किये है, अमुख्यका हिसाव नही है । बचपनकी छोटी समझमे कौन जाने कहाँसे वडी-वडी कल्पनाएँ आया करती थी । सुखकी अभिलापा भी कम न थी और सुखमे भो महालय , वागवगीचे, और लाडीवाड़ीके कुछ सुख माने थे | बडी कल्पना इसकी थी कि यह सव क्या है। इस कल्पनाका एक बार ऐसा परिणाम देखा कि-पुनर्जन्म भी नहीं है, पाप भी नही है, पुण्य भो नहीं है, सुखसे रहना और संसार भोगना, यही कृतकृत्यता है। परिणामस्वरूप दूसरी झझटमे न पडते हुए धर्मकी वामनाएं निकाल डाली। किसी धर्मके लिये न्यूनाधिक भाव या श्रद्धाभाव नहीं रहा। कुछ समय बीतनेके बाद इसमेसे कुछ और ही हुआ। जिसके होनेको मेने कोई कल्पना नही की थी तथा उसके लिये मेरा ऐसा कोई प्रयत्न न था कि जो मेरे ख्यालमे हो, फिर भी अचानक परिवर्तन हो गया; कोई और अनुभव हुआ, और यह अनुभव ऐमा था कि जो प्राय न तो शास्त्रमे लिखा है और न जडवादियोकी कल्पनामे भी है। वह क्रमसे बढा, बढकर अव एक 'तू ही', 'तू ही' का जाप करता है। अब यहाँ समाधान हो जायेगा। भूतकालमे न भोगे हुए अथवा भविष्य कालके भय आदिके दु खोमेसे कोई दुख नही है । ऐसा अवश्य समझमे आयेगा । स्त्रीके सिवाय दूसरा कोई पदार्थ खास करके मुझे नहीं रोक सकता। दूसरा कोई भी ससारी साधन मेरी प्रीतिका विपय नही बना, और किसी भयने बहुलतासे मुझे आक्रात नही किया। स्त्रीके संवधमे मेरी अभिलापा कुछ और है तथा वर्तन कुछ और है। एक पक्षने उसका कुछ काल तक सेवन करना सम्मत किया है। तथापि उसमे सामान्य प्रीति-अप्रीति है । परतु दु ख यह है कि अभिलापा नही होने पर भी पूर्वकर्म क्यो घेरते है ? इतनेसे पूरा नही होता, परन्तु उसके कारण अरुचिकर पदार्थोंको देखना संघना और छूना पडता है, और इसी कारणसे प्रायः उपाधिमे रहना पडता है।
महारभ, महा परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ या ऐसा तेसा जगतमे कुछ भी नही है, ऐसा विस्मरणध्यान करनेसे परमानद रहता है। उसे उपयुक्त कारणोसे देखना पडता है यह महाखेद है। अतरग चर्या भी कही प्रगट नही की जा सकती, ऐसे पात्र मेरे लिये दुर्लभ हो गये है, यही महा दुखकी बात है।
वि स १९४५ यहां कुशलता है। आपकी कुशलता चाहता हूँ। आज आपका जिज्ञासु पत्र मिला। उस जिज्ञासु पत्रके उत्तरमे जो पत्र भेजना चाहिये वह पत्र यह है - .
इस पत्रमे गृहाश्रमसवधी अपने कुछ विचार आपके सामने रखता हूँ। इन्हे रखनेका हेतु मात्र इतना ही है कि किसी भी प्रकारके उत्तम क्रममे आपके जीवनका झुकाव हो, और उस क्रमका जवसे आरभ होना चाहिये वह काल अभी आपके पास आया है, इसलिये उस क्रमको वतानेका उचित समय है, और बताये हुए क्रमके विचार अति सास्कारिक होनेसे पत्र द्वारा प्रगट हुए हैं। आपको और किसी भी आत्मोन्नति या प्रशस्त क्रमके इच्छुकको वे अवश्य अधिक उपयोगी सिद्ध होगे, ऐसी मेरी मान्यता है।
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२२ वाँ वर्ष
२०१ तत्त्वज्ञानकी गहरी गुफाका दर्शन करने जाये तो वहाँ नेपथ्यमेसे ऐसी ध्वनि ही निकलेगी कि आप कौन हैं ? कहाँसे आये है ? क्यो आये हे ? आपके पास यह सब क्या है ? आपको अपनी प्रतीति है ? आप विनाशी, अविनाशी अथवा कोई त्रिराशी है ? ऐसे अनेक प्रश्न उस ध्वनिसे हृदयमे प्रवेश करेंगे । और इन प्रश्नोसे जब आत्मा घिर गया तब फिर दूसरे विचारोके लिये बहत ही थोडा अवकाश रहेगा । यद्यपि इन विचारोसे ही अतमे सिद्धि है, इन्ही विचारोके विवेकसे जिस अव्यावाध सुखकी इच्छा है, उसकी प्राप्ति होती है, इन्ही विचारोके मननसे अनतकालको उलझन दूर होनेवाली है, तथापि ये सबके लिये नही है । वास्तविक दृष्टिसे देखनेपर उसे अत तक पानेवाले पात्रोकी न्यूनता बहुत है, काल बदल गया है, इस वस्तुका अधीरता अथवा अशौचतासे अत लेने जानेपर जहर निकलता है, और भाग्यहीन अपात्र दोनो लोकोसे भ्रष्ट होता है। इसलिये अमुक सन्तोको अपवादरूप मानकर बाकीको उस क्रममे आनेके लिये उस गुफाका दर्शन करनेके लिये बहुत समय तक अभ्यासकी जरूरत है । कदाचित् उस गुफाके दर्शन करनेकी उसकी इच्छा न हो तो भी अपने इस भवके सुखके लिये भी जन्म और मरणके वीचके भागको किसी तरह बितानेके लिये भी इस अभ्यासकी अवश्य जरूरत है। यह कथन अनुभवसिद्ध है, बहुतोको यह अनुभवमे आया है। बहुतसे आर्य पुरुष इसके लिये विचार कर गये है, उन्होने इसपर अधिकाधिक मनन किया है। जिन्होने आत्माकी शोध करके, उसके अपार मार्गकी बहुतोको प्राप्ति करानेके लिये, अनेक क्रम बाँधे हैं, वे महात्मा जयवान हो । और उन्हे त्रिकाल नमस्कार हो ।
हम थोडी देरके लिये तत्त्वज्ञानकी गुफाका विस्मरण करके आर्यों द्वारा उपदिष्ट अनेक क्रमोपर आनेके लिये परायण हैं, उस समयमे यह बता देना योग्य ही है कि जिसे पूर्ण आह्लादकर माना है और जिसे परमसुखकर, हितकर और हृदयमय माना है, वह वैसा है, अनुभवगम्य है, वह तो उसी गुफाका निवास है, और निरन्तर उसीकी अभिलाषा है। अभी कुछ उस अभिलाषाके पूर्ण होनेके चिह्न नहीं हैं, तो भी कमसे, इसमे इस लेखकका भी जय होगा ऐसी उसकी अवश्य शुभाकाक्षा है, और यह अनुभवगम्य भी है। अभीसे ही यदि योग्य रीतिसे उस क्रमकी प्राप्ति हो जाये, तो इस पत्रके लिखने जितनी देर करनेकी इच्छा नही है; परन्तु कालकी कठिनता है, भाग्यको मदता है, सन्तोको कृपादृष्टि दृष्टिगोचर नही है, सत्संगकी कमी है, वहाँ, कुछ ही
तो भी उस क्रमका बीजारोपण हृदयमे अवश्य हो गया है, और यही सुखकर हुआ है। सृष्टिके राजसे जिस सुखके मिलने की आशा न थी, तथा किसी भी तरह चाहे जैसे औषधसे, साधनसे, स्त्रीसे, पुत्रसे, मित्र से या दूसरे अनेक उपचारसे जो अत शाति होनेवाली न थी, वह हुई है। निरतरको भविष्य कालकी-भीति चली गई है और एक साधारण उपजीवनमे प्रवृत्ति करता हुआ ऐसा आपका यह मित्र इसीको लेकर जीता है, नही तो जीनेमे अवश्य शका ही थी, विशेप क्या कहना ? यह भ्रम नही है, वहम नही है. अवश्य सत्य ही है। त्रिकालमे इस एक ही परम प्रिय और जीवनवस्तुकी प्राप्ति, उसका बीजारोपण क्यो और कैसे हआ इस व्याख्याका प्रसग यहाँ नही है, परन्तु अवश्य यही मुझे त्रिकाल मान्य हो । इतना हो कहनेका प्रसग हे । क्योकि लेखन समय बहुत थोडा है ।
इस प्रियजीवनको सभी पा जाये, सभी इसके योग्य हो, सभीको यह प्रिय लगे, सभीको इसमे रुचि हो, ऐसा भूतकालमे हुआ नही है, वर्तमानकालमे होनेवाला नहीं है, और भविष्यकालमे भी होना असम्भव है, और इसी कारणसे इस जगतकी विचित्रता त्रिकाल है।
मनष्यके सिवाय दुसरे प्राणीकी जाति देखते हैं तो उसमे तो इस वस्तुका विवेक मालूम नहीं होता, अब जो मनुष्य रहे, उन सब मनुष्योमे भी वैसा नहीं देख सकेगे।
[अपूर्ण)
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२३ वाँ वर्ष
वि० स० १९४६ भाई, इतना तो तेरे लिये अवश्य करने योग्य है .
१. देहमे विचार करनेवाला बैठा है वह देहसे भिन्न है ? वह सुखी है या दु.खी है ? यह याद कर ले।
२. दुःख लगेगा ही, और दु.खके कारण भी तुझे दृष्टिगोचर होगे, फिर भी कदाचित् न हो त मेरे० किसी भागको पढ जा, इससे सिद्ध होगा। उसे दूर करनेका जो उपाय है वह इतना ही कि उससे बाह्याभ्यन्तररहित होना।
३ रहित हुआ जाता है, और ही दशाका अनुभव होता है, यह प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ।
४ उस साधनके लिये सर्वसंगपरित्यागी होनेकी आवश्यकता है । निर्ग्रन्थ सद्गुरुके चरणमे जाकर पड़ना योग्य है।
५ जैसे भावसे पड़ा जाये वैसे भावसे सर्वकाल रहनेका विचार पहले कर ले । यदि तुझे पूर्वकर्म बलवान लगते हो तो अत्यागी, देशत्यागी रहकर भी उस वस्तुको मत भुलाना।
६. प्रथम चाहे जैसे करके तू अपने जीवनको जान । जानना किसलिये ? भविष्यसमाधि होनेके लिये | अब अप्रमादी होना।
७ इस आयुका मानसिक आत्मोपयोग तो निर्वेदमे रख ।
८ जीवन बहुत छोटा है, उपाधि बहुत है, और उसका त्याग नही हो सकता है, तो नीचेकी बाते पुन पुनः ध्यानमे रख
१ उस वस्तुकी अभिलाषा रखना ।
२ ससारको बधन मानना । __३ पूर्वकर्म नही है ऐसा मानकर प्रत्येक धर्मका सेवन किये जाना। फिर भी यदि पूर्वकर्म
दुःख दे तो शोक नही करना। ४. देहकी जितनी चिन्ता रखता है उतनी नही परन्तु उससे अनन्तगुनी चिंता आत्माकी
रख, क्योकि अनन्त भवोको एक भवमे दूर करना है। ५ न चले तो प्रतिश्रोती हो जा। ६. जिसमेसे जितना हो उतना कर । ७. पारिणामिक विचारवाला हो जा। ८. अनुत्तरवासी होकर रह । ९ अतिमको किसी भी समय न चूकियेगा । यही अनुरोध और यही धर्म ।
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८५
२३ वो वर्ष
२०३
बम्बई, वि० स० १९४६ समझकर अल्पभाषी होनेवालेको पश्चात्ताप करनेका अवसर कम ही सम्भव है।
हे नाथ । सातवे तमतमप्रभा नरककी वेदना मिली होती तो शायद मान्य करता, परतु जगतकी मोहिनी मान्य नहीं होती।
पूर्वके अशुभकर्मके उदय आनेपर वेदन करते हुए शोक करते है तो अब यह भी ध्यान रखे कि नये कर्मोको बाँधते हुए परिणाममे वैसे ही तो नही बँधते ?
आत्माको पहचानना हो तो आत्माका परिचयी होना और परवस्तुका त्यागी होना। जो जितना अपना पौद्गलिक बड़प्पन चाहते है वे उतने ही हलके होने सभव हैं। प्रशस्त पुरुषकी भक्ति करे, उसका स्मरण करें, गुणचिंतन करें।
स० १९४६ निस्पृह महात्माओको अभेदभावसे नमस्कार "जीवको परिभ्रमण करते हुए अनतकाल हुआ, फिर भी उसकी निवृत्ति क्यो नही होती, और वह क्या करनेसे हो ?' इस वाक्यमे अनेक अर्थ समाये हुए हैं। उनका विचार किये बिना या दंढ विश्वाससे व्यथित हुए बिना मार्गके अंशका अल्प भान नही होता । दूसरे सब विकल्प दूर करके इस एक ऊपर लिखे हुए सत्पुरुषोंके वचनामृतका वारवार विचार कर लें।
ससारमे रहना और मोक्ष होना कहना यह होना असुलभ है। मैत्री-सब जीवोके प्रति हितचिन्तन । प्रमोद-गुणी जीवके प्रति उल्लासपरिणाम । करुणा-कोई भी जीव जन्म-मरणसे मुक्त हो ऐसा प्रयत्न करना । मध्यस्थता-निर्गुणी जीवके प्रति मध्यस्थता ।
बबई, कार्तिक सुदी ७, गुरु, १९४६ 'अष्टक' और 'योगबिंदु' नामकी दो पुस्तकें आपकी दृष्टिसे निकल जानेके लिये मैं इसके साथ भेज रहा है। 'योगबिंद' का दूसरा पन्ना ढूंढनेपर मिल नही सका, तो भी बाकीका भाग समझा जा सकता है इसलिये यह पुस्तक भेज रहा हूँ। 'योगदृष्टिसमुच्चय' वादमे भेजूंगा । परमतत्त्वको सामान्य ज्ञानमे प्रस्तुत करनेकी हरिभद्राचार्यकी चमत्कृति स्तुत्य है। किसी स्थलमे खडन-भडनका भाग सापेक्ष होगा, उस ओर आपकी दृष्टि नही होनेसे मुझे आनन्द है।
अथसे इति तक अवलोकन करनेका समय निकालनेसे मेरे पर एक कृपा होगी। (जैनदर्शन ही मोक्षका अखण्ड उपदेश करनेवाला और वास्तविक तत्त्वमे श्रद्धा रखनेवाला दर्शन है । फिर भी कोई 'नास्तिक' के उपनामसे उसका पहले खण्डन कर गये हैं, यह यथार्थ नही हुआ, यह बात इस पुस्तक के पढनेसे प्राय आपको दृष्टिमे आ जायेगी।)
मैं आपको जैनसम्बन्धी कुछ भी अपना आग्रह नही बताता । और आत्मा जिस रूपमे हो उस रूपमे चाहे जिससे हो जाये इसके सिवाय दूसरी कोई मेरी अतरग अभिलाषा नही है, ऐसा कुछ कारणसे कहकर,
१. देखें आक १९५। २ देखें आक १५३ में भी यह वाक्य है।
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२०४
श्रीमद राजचन्द्र
जैन भी एक पवित्र दर्शन है ऐसा कहनेकी आज्ञा लेता हूँ। यह मात्र यो समझकर कहता हूँ कि जो वस्तु जिस रूपमे स्वानुभवमे आयी हो उसे उस रूपमे कहना चाहिये ।
सभी सत्पुरुष मात्र एक ही मार्गसे तरे है, और वह मार्ग वास्तविक आत्मज्ञान और उसकी अनुचारिणी देहस्थितिपर्यंत सत्क्रिया या रागद्वेष और मोहसे रहित दशा होनेसे वह तत्त्व उन्हे प्राप्त हुआ हो ऐसा मेरा निजी मत है ।
आत्मा ऐसा लिखने के लिये अभिलाषी था, इसलिये लिखा है। इसकी न्यूनाधिकता क्षमापात्र है । वि० रायचदके विनयपूर्वक प्रणाम |
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बबई, कार्तिक, १९४६
( १ )
यह पूरा कागज है, यह 'सर्वव्यापक चेतन है । उसके कितने भागमे माया समझनी ? जहाँ जहाँ वह माया हो वहाँ-वहाँ चेतनको बध समझना या नही ? उसमे भिन्न-भिन्न जीव किस तरह मानने ? और उन जीवोको बध किस तरह मानना ? और उस बधकी निवृत्ति किस तरह माननी ? उस बधकी निवृत्ति होनेपर चेतनका कौनसा भाग मायारहित हुआ माना जाये ? जिस जिस भागमेसे पूर्वमे मुक्त हुए हो उस उस भागको निरावरण समझना अथवा किस तरह ? और एक जगह निरावरणता, तथा दूसरी जगह आवरण, तीसरी जगह निरावरण ऐसा हो सकता है या नही ? इसका चित्र बनाकर विचार करें । सर्वव्यापक आत्मा -
घटाकाश, जीव, बोध, घटव्यय, क्याफल ?
भारता है
चेतन
बोध
इस तरह तो यह घटित नही होता ।
१ 'मानो कि' अध्याहार ।
माया
लोक
ईश्वर
जगत
विराट
को आवरण,
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२३ वो वर्ष
२०५
(२) प्रकाशस्वरूप धाम .. उसमे,अनत अप्रकाश भासमान अंत करण | .
इससे क्या होता है ?
जहाँ जहाँ वे'अंतःकरण व्याप्त हो वहाँ वहाँ माया भासमान हो, आत्मा असग होनेपर भी सगवान मालूम हो, अकर्ता होनेपर भी कर्ता मालूम हो, इत्यादि विपरीतताएं होती है ।'
इससे क्या होता है ? आत्माको बधकी कल्पना होती है उसका क्या करना ? अत करणका सम्बन्ध दूर करनेके लिये उससे अपनी भिन्नता समझनी। भिन्नता समझनेसे क्या होता है ? आत्मा स्वस्वरूपमे अवस्थित रहता है। एकदेश निरावरण होता है या सर्वदेश निरावरण होता है ?
, बबई, कार्तिक सुदी १५,१९४६
समुच्चयवयचर्या ' 'सम्वत् १९२४ को कार्तिक सुदी १५, रविवारको मेरा जन्म होनेसे आज मुझे सामान्य गणनासे बाईस वर्ष पूरे हए । बाईस वर्षकी अल्प वयमे मैने अनेक रग आत्माके सम्बन्धमे, मनके सम्बन्धमे, वचनके सम्बन्धमे, तनके सम्बन्धमे और धनके सम्बन्धमे देखे हैं। नाना प्रकारकी सृष्टिरचना, नाना प्रकारकी सासारिक तरंगें, अनत दु खमूल, इन सबका अनेक प्रकारसे मुझे अनुभव हुआ है। समर्थ तत्त्वज्ञानियोने और समर्थ नास्तिकोने जो जो विचार किये हैं उस प्रकारके अनेक विचार इस अल्प वयमे मैने किये है। महान चक्रवर्ती द्वारा किये गये तृष्णाके विचार और एक निस्पृही महात्मा द्वारा किये गये निस्पृहताके विचार मैंने किये है । अमरत्वकी सिद्धि और क्षणिकत्वको सिद्धिका खूब विचार किया है। अल्प वयमे महान विचार कर डाले है । महान विचित्रताकी प्राप्ति हुई है । यह सब बहुत गम्भीर भावसे आज मै दृष्टि डालकर देखता है तो पहलेकी मेरी उगती हुई विचारश्रेणि, आत्मदशा और आजकी, दोनोमे आकाशपातालका अतर है, उसका सिरा और इसका सिरा किसी कालमे मानो मिलाया मिले वैसा नही है। परन्तु आप सोचेंगे कि इतनी सारी विचित्रताका किसी स्थलपर कुछ लेखन-चित्रण किया है या नही? तो इस विषयमे इतना ही कह सकंगा कि लेखन-चित्रण सब स्मृतिके चित्रपट पर है। किन्तु पत्र-लेखनीका समागम करके जगतमे दर्शानेका प्रयत्न नही किया है । यद्यपि मैं ऐसा समझ सकता है कि वह वयचर्या जनसमूहके लिये बहुत उपयोगी, पुन पुन मनन करने योग्य तथा परिणाममे उनकी ओरसे मुझे श्रेयकी प्राप्ति हो वैसी है, परन्तु मेरी स्मृतिने वह परिश्रम उठानेकी मुझे स्पष्ट ना कही थी, इसलिये निरुपायतासे क्षमा मांग लेता है। पारिणामिक विचारसे उस स्मृतिको इच्छाको दबाकर उसी स्मृतिको समझाकर, वह वयचर्या धीरे धीरे सभव हुआ तो अवश्य धवल-पत्रपर रखूगा, तो भी समुच्चयवयचर्याको याद कर जाता हूँ :-.
सात वर्ष तक बालवयकी खेलकूदका अत्यत सेवन किया था। उस समयकी मुझे इतनी तो याद आती है कि विचित्र कल्पना-कल्पनाका स्वरूप या हेतु समझे बिना-मेरे आत्मामे हुआ करती थी। खेलकूदमे भी विजय पानेकी और राजेश्वर जैसी उच्च पदवी प्राप्त करनेकी परम अभिलापा थी । वस्त्र पहननेकी, स्वच्छ रखनेको, खाने-पीनेकी, सोने-बैठनेकी, सारी विदेही दशा थी, फिर भी अत.करण कोमल
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भीमद राजचन्द्र था। वह दशा आज भी बहुत याद आती है । आजका विवेकी ज्ञान उस वयमे होता तो मुझे मोक्षके लिये विशेष अभिलाषा न रहती । ऐसी निरपराध दशा होनेसे पुन पुन वह याद आती है।
सात वर्पसे ग्यारह वर्ष तकका समय शिक्षा लेनेमे बीता। आज मेरी स्मृतिको जितनी ख्याति प्राप्त है, उतनी ख्याति प्राप्त होनेसे वह किंचित् अपराधी हुई है, परन्तु उस समय निरपराध स्मृति होनेसे एक ही वार पाठका अवलोकन करना पड़ता था, फिर भी ख्यातिका हेतु न था, अत उपाधि बहुत कम थी। स्मृति ऐसी बलवत्तर थी कि वैसी स्मृति बहुत ही थोडे मनुष्योमे इस कालमे, इस क्षेत्रमे होगी। पढनेमे प्रमादी बहुत था। बातोमे कुशल, खेलकूदमे रुचिवान और आनदी था। जिस समय शिक्षक पाठ पढाता, मात्र उसी समय पढकर उसका भावार्थ कह देता | इस ओरकी निश्चितता थी। उस समय मुझमे प्रीतिसरल वात्सल्यता-बहुत थी, सबसे ऐक्य चाहता, सबमे भ्रातृभाव हो तभी सुख, इसका मुझे स्वाभाविक ज्ञान था । लोगोमे किसी भी प्रकारसे जुदाईके अकुर देखता कि मेरा अत.करण रो पडता। उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत आदत थी। आठवें वर्षमे मैंने कविता की थी, जो बादमे जाँचनेपर समाप थी।
अभ्यास इतनी त्वरासे कर सका था कि जिस व्यक्तिने मुझे प्रथम पुस्तकका बोध देना आरम्भ किया था उसीको गुजराती शिक्षण भली भाँति प्राप्त कर उसी पुस्तकका पुन. मैंने बोध किया था । तब कितने ही काव्यग्रन्थ मैंने पढे थे। तथा अनेक प्रकारके इधर-उधरके छोटे-मोटे बोधग्रन्थ मैने देखे थे, जो प्राय अभी तक स्मृतिमे विद्यमान है। तव तक मुझसे स्वाभाविकरूपसे भद्रिकताका ही सेवन हुआ था। मै मनुष्यजातिका बहुत विश्वासी था । स्वाभाविक सृष्टिरचनापर मुझे बहुत प्रीति थी।
मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति करते थे। उनसे उस वयमे कृष्णकीर्तनके पद मैंने सुने थे, तथा भिन्नभिन्न अवतारोके सम्बन्धमे चमत्कार सुने थे, जिससे मुझे भक्तिके साथ-साथ उन अवतारोमे प्रीति हो गयी थी, और रामदासजी नामके साधुके पास मैने बाललीलामे कठी बंधवाई थी। नित्य कृष्णके दर्शन करने जाता, समय समयपर कथाएं सुनता, बार बार अवतारो सम्वन्धी चमत्कारोमे मै मुग्ध होता और उन्हे परमात्मा मानता, जिससे उनके रहनेका स्थान देखनेकी परम अभिलाषा थी। उनके सम्प्रदायके महंत होवें, जगह-जगहपर चमत्कारसे हरिकथा करते होवे और त्यागी होवे तो कितना आनन्द आये? यही कल्पना हुआ करती, तथा कोई वैभवी भूमिका देखता कि समर्थ वैभवशाली होनेकी इच्छा होती । 'प्रवीणसागर' नामका ग्रन्थ उस अरसेमे मैंने पढा था, उसे अधिक समझा नही था, फिर भी स्त्रीसम्बन्धी नाना प्रकारके सुखोमे लीन होवें और निरुपाधिरूपसे कथाकथन श्रवण करते होवे तो कैसी आनददायक दशा, यह मेरी तृष्णा थी। गुजराती भापाकी वाचनमालामे जगतकर्तासम्बन्धी कितने ही स्थलोमे उपदेश किया है वह मुझे दृढ हो गया था, जिससे जैन लोगोंके प्रति मुझे बहुत जुगुप्सा आती थी, बिना बनाये कोई पदार्थ नही बन सकता, इसलिये जैन लोग मूर्ख है, उन्हे कुछ मालूम नही है। तथा उस समय प्रतिमाके अश्रद्धालु लोगोकी क्रियाएँ मेरे देखनेमे आती थी, जिससे वे क्रियाएँ मलिन लगनेसे मैं उनसे डरता था अर्थात् वे मुझे प्रिय न थी।
जन्मभूमिमे जितने वणिक रहते है, उन सबकी कुलश्रद्धा भिन्न भिन्न होनेपर भी कुछ प्रतिमाके अश्रद्धालु जैसी ही थी, इससे मुझे उन लोगोका ही ससर्ग था । लोग मुझे पहलेसे ही समर्थ शक्तिशाली और गांवका नामाकित विद्यार्थी मानते थे, इसलिये मै अपनी प्रशसाके कारण जानबूझकर वैसे मडलमे बैठकर अपनी चपलशक्ति दर्शानेका प्रयत्न करता। कठीके लिये बारवार वे मेरो हास्यपूर्वक टीका करते, फिर भी मै उनसे वाद करता ओर उन्हे समझानेका प्रयत्न करता। परन्तु धीरे-धीरे मुझे उनके प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढनेके लिये मिली, उनमे बहुत विनयपूर्वक जगतके सब जीवोसे मित्रता चाही है अतः मेरी
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२३ वाँ वर्ष प्रीति इसमे भी हुई और उसमे भी रही । धीरे-धीरे यह प्रसग बढा । फिर भी स्वच्छ रहनेके तथा दूसरे आचारविचार मुझे वैष्णवोके प्रिय थे और जगतकर्ताकी श्रद्धा थी । उस अरसेमे कठी टूट गई, इसलिये उसे फिरसे मैने नही बाँधा । उस समय बाँधने, न बाँधनेका कोई कारण मैंने ढूंढा न था । यह मेरी तेरह वर्षकी वयचर्या है | फिर मैं अपने पिताकी दूकानपर बैठता और अपने अक्षरोकी छटाके कारण कच्छदरबारके उतारेपर मुझे लिखनेके लिये बुलाते तब मै वहाँ जाता । दूकानपर मैने नाना प्रकारकी लीलालहर की है, अनेक पुस्तके पढी हैं; राम इत्यादिके चरित्रोपर कविताएँ रची हैं, सासारिक तृष्णाएँ की हैं, फिर भी किसी को मैंने न्यूनाधिक दाम नही कहा या किसीको न्यून अधिक तौल कर नही दिया, यह मुझे निश्चित याद है ।
बबई, कार्तिक, १९४६
९०
दो भेदोमे विभक्त धर्मको तीर्थकरने दो प्रकारका कहा है
१ सर्वसंगपरित्यागी |
२ देशपरित्यागी ।
सर्व परित्यागी :--
पात्र
भाव और द्रव्य । उसका अधिकारी |
पात्र, क्षेत्र, काल, भाव ।
-
वैराग्य आदि लक्षण, त्यागका कारण और पारिणामिक भावकी ओर देखना ।
क्षेत्र -
उस पुरुषकी जन्मभूमि, त्यागभूमि ये दो ।
अधिकारीकी वय, मुख्य वर्तमान काल ।
विनय आदि, उसकी योग्यता, शक्ति ।
गुरु उसे प्रथम क्या उपदेश करे ?
'दशवेकालिक', 'आचाराग' इत्यादि सम्बन्धी विचार,
काल---
भाव
उसके नवदीक्षित होनेक कारण उसे स्वतंत्र विहार करने देनेकी आज्ञा इत्यादि ।
नित्यचर्या ।
वर्ष कल्प |
अतिम अवस्था ।
देशत्यागी :आवश्यक क्रिया ।
नित्य कल्प । भक्ति ।
( तत्सम्बन्धी परम आवश्यकता है । )
अणुव्रत ।
दान-शील-तप-भावका स्वरूप । ज्ञानके लिये उसका अधिकार ।
( तत्सवधी परम आवश्यकता है । )
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ज्ञानका उद्धार
ご
-
श्रुत ज्ञानका उदय करना चाहिये ।
योगसम्बन्धी ग्रन्थ |
त्यागसम्बन्धी ग्रन्थ | प्रक्रियासम्बन्धी ग्रन्थ |
अध्यात्मसम्बन्धी ग्रन्थ |
धर्मसम्बन्धी ग्रन्थ |
उपदेश ग्रन्थ ।
आख्यान ग्रन्थ ।
द्रव्यानुयोगी ग्रन्थ |
उसका क्रम और उदय करना चाहिये । निर्ग्रथधर्मं ।
आचार्य |
उपाध्याय ।
मुनि । गृहस्थ ।
श्रीमद राजचन्द्र
मतमतातर ।
उसका स्वरूप |
उसको समझाना |
( इत्यादि विभाग करने चाहिये । )
गच्छ ।
प्रवचन ।
द्रव्यलिगी ।
अन्य दर्शन सम्बन्ध |
( इन सबकी योजना करनी चाहिये । ) मार्गकी शैली | जीवनका बिताना ।
उद्योत ।
( यह विचारणा । )
1
९१
बंबई, कार्तिक, १९४६
वह पवित्र दर्शन होने के बाद चाहे जैसा वर्तन हो, परन्तु उसे तीव्र बधन नही है, अनन्त ससार नही है, सोलह भव नही है, अभ्यतर दुख नही है. शकाका निमित्त नही है, अतरग मोहिनी नही है, सत् सत् निरुपम, सर्वोत्तम, शुक्ल, शीतल, अमृतमय दर्शनज्ञान, सम्यक् ज्योतिर्मय, चिरकाल आनन्दकी प्राप्ति, अद्भुत सत्स्वरूपदर्शिताकी बलिहारी है ।
जहाँ मतभेद नही है, जहाँ शका, कखा, वितिगिच्छा, मूढदृष्टि इनमेसे कुछ भी नहीं है । जो है उसे कलम लिख नही सकती, वचन कह नही सकता, और मन जिसका मनन नही कर सकता ।
है
वह ।
९२
बबई, कार्तिक, १९४६
_सब दर्शनोसे उच्च गति है । परतु ज्ञानियोने मोक्षका मार्ग उन शब्दोमे स्पष्ट नही बताया है, गौणतासे रखा है। उस गोणताका सर्वोत्तम तत्त्व यह मालूम होता है
निश्चय, निर्ग्रथ ज्ञानी गुरुकी प्राप्ति, उसकी आज्ञाका आराधन, सदैव उसके पास रहना, अथवा सत्सगकी प्राप्तिमे रहना, आत्मदर्शिता तब प्राप्त होगी ।
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२३ वा वर्ष
२०९
,
बबई,, कार्तिक, १९४६
।
नवपदके ध्यानियोकी वृद्धि करनेकी मेरी अभिलाषा है।
बंबई, मगसिर सुदी ९, रवि, १९४६ सुज्ञश्री,
____आपने मेरे विषयमे जो जो प्रशसा प्रदर्शित की है, उस सबपर मैंने बहुत मनन किया है। वैसे गुण प्रकाशित हो ऐसी प्रवृत्ति करनेकी अभिलाषा है। परंतु वैसे गुण कुछ मुझमे प्रकाशित हुए हो, ऐसा मुझे नही लगता । मात्र रुचि उत्पन्न हुई है, ऐसा माने तो माना जा सकता है। हम यथासभव एक ही पदके इच्छुक होकर प्रयत्नशील होते हैं, वह यह कि "बँधे हुओको छुडाना ।" यह बधन जिससे छूटे उससे छोड़ लेना, यह सर्वमान्य है।
वि० रायचंदके प्रणाम ।
बबई, पौष, १९४६ इस प्रकारसे ते. समागम मुझे किसलिये हुआ? कहाँ तेरा गुप्त रहना हुआ था ?
सर्वगुणांश सम्यक्त्व है।
बबई, पौष सुदी ३, बुध, १९४६ कोई ऐसा योजक पुरुष (होना, चाहे तो ) धर्म, अर्थ, कामकी एकत्रता प्राय. एक पद्धतिएक समुदायमे, कितने ही उत्कृष्ट साधनोसे, साधारण श्रेणिमे लानेका प्रयत्न करे, और वह प्रयत्न अनासक्त भावसे~
१ धर्मका प्रथम साधन.। .. . २. फिर अर्थका साधन । ३ कामका साधन । ४. मोक्षका साधन ।
बबई, पौष सुदी ३, १९४६ सत्परुषोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंको प्राप्त करनेका उपदेश दिया है। ये चार पुरुषार्थ नीचेके दो प्रकारसे समझमे आये है1. - १. वस्तुके स्वभावको धर्म कहा गया है।
२. जडचैतन्यसम्बन्धी विचारोको अर्थ कहा है। - . ३. चित्तनिरोधको काम कहा है। ४: सवं बधनसे मुक्त होना मोक्ष हे।
। । इस प्रकार सर्वसगपरित्यागीकी अपेक्षासे घटित हो सकता है। सामान्यतः निम्न प्रकारसे है :
भी जो 'ससारमे अधोगतिमे गिरनेसे रोककर धारण कर रखता है वह धर्म है। अर्थ-वैभव, लक्ष्मी, उपजीवनमें सासारिक साधन |
काम-नियमितरूपसे स्त्री-सहवास करना काम है।
___ मोक्ष-सब बन्धनोंसे मुक्ति मोक्ष है। 'धर्म' को पहले रखनेका हेतु इतना ही है कि 'अर्थ' और 'काम' ऐसे होने चाहिये कि जिनका मल
'धर्म' हो।
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२१०
श्रीमद् राजचन्द्र
इसीलिये 'अर्थ' और 'काम' बादमे रखे गये हैं ।
गृहस्थाश्रमी सर्वथा धर्मसाधन करना चाहे तो वैसा नही हो सकता, सर्वसगपरित्याग ही चाहिये ।। गृहस्थके लिये भिक्षा आदि कृत्य योग्य नही है । और गृहस्थाश्रम यदि
[ अपूर्ण]
बंबई, पौष वदी ९, मगल, १९४६ आपका पत्र आज मिला, समाचार विदित हुए।
किसी प्रकारसे उसमे शोक करने जैसा कुछ नही है। आप शरीरसे सुखी हो ऐसा चाहता हूँ। आपका आत्मा सद्भावको प्राप्त हो यही प्रार्थना है।
मेरा आरोग्य अच्छा है । मुझे समाधिभाव प्रशस्त रहता है । इसके लिये भी निश्चित रहियेगा। एक वीतरागदेवमे वृत्ति रखकर प्रवृत्ति करते रहियेगा ।
आपका शुभचिंतक रायचद्र ।
१००
बबई, पौष, १९४६ आर्य ग्रन्थकर्ताओ द्वारा उपदिष्ट चार आश्रम जिस कालमे देशकी विभूषाके रूपके प्रचलित थे उस कालको धन्य है।
चार आश्रमोका अनुक्रम यह है-पहला ब्रह्मचर्याश्रम, दूसरा गहस्थाश्रम, तीसरा वानप्रस्थाश्रम और चौथा सन्यासाश्रम । परतु आश्चर्यके साथ यह कहना पड़ता है कि यदि जीवनका ऐसा अनुक्रम हो तो वे भोगनेमे आवें। कुल मिलाकर सौ वर्षकी आयुवाला व्यक्ति वैसे ही ढंगसे चलता आये तो वह आश्रमोका उपभोग कर सकता है। प्राचीनकालमे अकालिक मौतें कम होती होगी ऐसा इस आश्रमव्यवस्थासे प्रतीत होता है।
बबई, पौष, १९४६ प्राचीनकालमे आर्यभूमिमे चार आश्रम प्रचलित थे, अर्थात् आश्रमधर्म मुख्यत चलता था । परमर्षि नाभिपुत्रने भारतमे निग्रंथधर्मको जन्म देनेसे पहले उस कालके लोगोंको व्यवहारधर्मका उपदेश इसी आशयसे किया था । उन लोगोका व्यवहार कल्पवृक्षसे मनोवाछित पदार्थ मिलनेसे चलता था, जो अब क्षीण होता जाता था। उनमे भद्रता और व्यवहारकी भी अज्ञानता होनेसे, कल्पवृक्षकी सम्पूर्ण क्षीणताके समय वे बहुत दुःख पायेंगे, ऐसा अपूर्वज्ञानी ऋषभदेवजीने देखा। प्रभुने अपनी परम करुणादृष्टिसे उनके व्यवहारको क्रममालिका बना दी।
___ जब भगवान तीर्थंकररूपमे विहार करते थे, तब उनके पुत्र भरतने व्यवहारशुद्धि होनेके लिये, उनके उपदेशका अनुसरण कर, तत्कालीन विद्वानोसे चार वेदोकी योजना करायी और उसमे चार आश्रमधर्म और चार वर्णको नातिरीतिका समावेश किया। भगवानने परम करुणासे जिन लोगोको भविष्यमे धर्मप्राप्ति होनेके लिये व्यवहार शिक्षा और व्यवहारधर्म बताया था, उन्हे भरतजीके इस कार्यसे परम सुगमता हो गयी।
इसपरसे चार वेद, चार आश्रम, चार वर्ण और चार पुरुषार्थ के सम्बन्धमे यहाँ कुछ विचार करनेकी इच्छा है, उसमें भी मुख्यत. चार आश्रम और चार पुरुषार्थक सम्बन्धमे विचार करेंगे, और अतमे हेयोपादेयके विचारसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको देखेंगे।
चार वेद, जिनमे आर्यगृहधर्मका मुख्य उपदेश था, वे इस प्रकार थे।
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२३ वाँ वर्ष
२१६
वबई, पौष, १९४६ 'जो मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुपार्थोंकी प्राप्ति कर सकना चाहते हो, उनके विचारमे सहायक होना' इस वाक्यमे इस पत्रको जन्म देनेका सब प्रकारका प्रयोजन बता दिया है। उसे कुछ प्रेरणा देना योग्य है।
इस जगतमे विचित्र प्रकारके देहधारी हैं, और प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाणसे यो सिद्ध हो सका है, कि उनमे मनुष्यरूपमे प्रवर्तमान देहधारी आत्मा इन चारो वर्गोको सिद्ध कर सकनेके लिये विशेष योग्य है। मनुष्यजातिमे जितने आत्मा है उतने सब कही एकसी वृत्तिके, एकसे विचारके या समान जिज्ञासा और इच्छावाले नही हैं, ऐसा हम प्रत्यक्ष देख सकते है। प्रत्येकको सूक्ष्मदृष्टिसे देखते हुए वृत्ति, विचार और इच्छाकी इतनी अधिक विचित्रता लगती है कि आश्चर्य होता है । इस आश्चर्यका बहुत प्रकारसे अवलोकन करनेसे यह फलित होता है कि सर्व प्राणियोकी अपवादके विना सुख प्राप्त करनेकी जो इच्छा है वह अधिकाश मनुष्यदेहमे सिद्ध हो सकती है, ऐसा होनेपर भी वे सुखके बदले दुःख ले लेते हैं, यह मात्र मोहदृष्टिसे हुआ है।
१०२
ॐ ध्यान दुरंत तथा सारवर्जित इस अनादि ससारमे गुणसहित मनुष्यजन्म जीवको दुष्प्राप्य अर्थात् दुर्लभ है।
हे आत्मन् । तूने यदि यह मनुष्यजन्म काकतालीय न्यायसे प्राप्त किया है, तो तुझे अपनेमे अपना निश्चय करके अपना कर्तव्य सफल करना चाहिये । इस मनुष्य जन्मके सिवाय अन्य किसी भी जन्ममे अपने स्वरूपका निश्चय नहीं होता । इसीलिये यह उपदेश है ।
अनेक विद्वानोने पुरुषार्थ करनेको इस मनुष्यजन्मका फल कहा है। यह पुरुषार्थ धर्म आदि के भेदसे चार प्रकारका है । प्राचीन महर्षियोने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यो चार प्रकारका पुरुषार्थ कहा है। इन पुरुषार्थोमे पहले तीन पुरुषार्थ नाशसहित और ससाररोगसे दूषित हैं ऐसा जानकर तत्त्वज्ञ ज्ञानीपुरुष अतके परमपुरुषार्थ अर्थात् मोक्षका साधन करनेमे ही यत्न करते है । कारण कि मोक्ष नाशरहित अविनाशी है।
प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप समस्त कर्मोके सम्बन्धके सर्वथा नाशरूप लक्षणवाला तथा जो ससारका प्रतिपक्षी है वह मोक्ष है। यह व्यतिरेक प्रधानतासे मोक्षका स्वरूप है। दर्शन और वीर्यादि गुणसहित तथा ससारके क्लेशोसे रहित चिदानदमयी आत्यतिक अवस्थाको साक्षात् मोक्ष कहा है। यह अन्वय प्रधानतासे मोक्षका स्वरूप कहा है।
जिसमे अर्त द्रिय, इद्रियोसे अतिकात, विषयोसे अतीत. उपमारहित और स्वाभाविक विच्छेद रहित पारमार्थिक सुख हो उसे मोक्ष कहा जाता है। जिसमे यह आत्मा निर्मल, शरीररहित, क्षोभरहित, शातस्वरूप, निष्पन्न ( सिद्धरूप ), अत्यत अविनाशी सुखरूप, कृतकृत्य तथा समीचीन सम्यग्ज्ञान स्वरूप हो जाता है उस पदको मोक्ष कहते हैं।
धीर वीर पुरुष इस अनन्त प्रभाववाले मोक्षरूप कार्यके निमित्त समस्त प्रकारके भ्रमोको छोडकर, कर्मबंधके नाश करनेके कारणरूप तपको अगीकार करते हैं।
श्री जिन सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्रको मुक्तिका कारण कहते है । अतएव जो मुक्तिको इच्छा करते है वे सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्रको ही मोक्षका साधन कहते हैं।
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श्रीमद राजचन्द्र
मोक्षके साधन जो सम्यक्दर्शन आदि है उनमे 'ध्यान' गर्भित है । इसलिये ध्यानका उपदेश अब प्रकट करते हुए कहते हैं- "हे आत्मन् । तू ससारदु खके विनाशके लिये ज्ञानरूपी सुधारसको पी और ससारसमुद्रको पार करनेके लिये ध्यानरूप जहाजका अवलबन कर । [ अपूर्ण ]
1
२१२
१०३
बबई, माघ, १९४६
कुटुम्वरूपी काजलको कोठरीमे रहनेसे ससार बढता है । चाहे जितना उसका सुधार करें, तो भी एकान्तवाससे जितना ससार क्षय होनेवाला है उसका सौवाँ हिस्सा भी उस काजलगृहमे रहने से नही होनेवाला है । वह कषायका निमित्त है, मोहके रहनेका अनादिकालीन पर्वत है । वह प्रत्येक अतर गुफामे जाज्वल्यमान है । सुधार करते हुए कदाचित् श्राद्धोत्पत्ति' होना संभव है, इसलिये वहाँ अल्पभाषी होना, अल्पहासी होना, अल्प परिचयी होना, अल्पसत्कारी होना, अल्पभावना बताना, अल्प सहचारी होना, अल्पगुरु होना, परिणामका विचार करना, यही श्रेयस्कर है ।
१०४
बबई, माघ वदी २, शुक्र, १९४६ आपका पत्र कल मिला । खम्भातवाले भाई मेरे पास आते है । मैं उनकी यथाशक्ति उपासना करता हूँ। वे किसी तरह मताग्रही हो ऐसा अभी तक उन्होने मुझे नही दिखलाया है । जीव धर्मजिज्ञासु मालूम होते हे । सत्य केवलीगम्य ।
?
आपका आरोग्य चाहता हूँ । आपकी जिज्ञासाके लिये मै निरुपाय हूँ । व्यवहारक्रमको तोडकर मैं कुछ भी नही लिख सकता यह आपको अनुभव है, तो अब क्यो पुछवाते हो आपकी आत्मचर्या शुद्ध रहे ऐसी प्रवृत्ति करें । जिनेन्द्रके कहे हुए पदार्थं यथार्थ ही है । अभी यही विज्ञापन ।
१०५
महावीरके बोधका पात्र कौन ?
१ सत्पुरुषके चरणोका इच्छुक, २ सदैव सूक्ष्म बोधका अभिलाषी,
1
३ गुणपर प्रशस्त भाव रखनेवाला,
४ ब्रह्मव्रतमे प्रीतिमान,
५ जब स्वदोष देखे तब उसे दूर करनेका उपयोग रखनेवाला,
६ एक पल भी उपयोग पूर्वक बितानेवाला,
७ एकातवासकी प्रशसा करनेवाला,
८ तीर्थादि प्रवासका उमगी,
बबई, फागुन सुदी ६, १९४६
९ आहार, विहार और निहारका नियम रखनेवाला,
१० अपनी गुरुताको छिपानेवाला,
ऐसा कोई भी पुरुष महावीरके बोधका पात्र है, सम्यग्दशाका पात्र है । पहले जैसा एक भी
नही है ।
? 'श्राद्ध' अर्थात् श्रावक धर्म और 'उत्पत्ति' अर्थात् प्रगटता ।
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२१३
सुज्ञ भाईश्री,
२३ वॉ वर्ष १०६
बंबई, फागुन सुदी ८, १९४६ आपके दोनो पत्र मिले थे। आपने पत्रके लिये तृषा प्रदर्शित की उसे समय निकालकर लिख सकूँगा। व्यवहारोपाधि चल रही है । रचनाकी विचित्रता सम्यग्ज्ञानका उपदेश करनेवाली है।
त्रिभोवन यहाँसे सोमवारको रवाना होनेवाले थे। आपको मिलने आ सके होगे । आप, वे और दूसरे आपके मडलके साथी धर्मकी इच्छा रखते हैं । यह यदि सबकी अतरात्माकी इच्छा होगी तो परम कल्याणरूप है। मुझे आपकी धर्म-अभिलाषाका औचित्य देखकर सतोष होता है।
जनसमूहकी अपेक्षासे यह बहुत ही निकृष्ट काल है। अधिक क्या कहना? एक अतरात्मा ज्ञानी साक्षी है।
_ वि. रायचदके प्रणाम-आपको और उन्हे । १०७
बबई, फागुन वदी १, १९४६ १. लोक पुरुषसस्थाने कह्यो, एनो भेद तमे कई लह्यो?
एनु कारण समज्या काई, के समजाव्यानी चतुराई ? ॥१॥ शरीर परथी ए उपदेश, ज्ञान दर्शने के उद्देश। जेम जणावो सुणीए तेम, का तो लईए दईए क्षेम ॥२॥
...
२. शु. करवाथी पोते सुखी ? शु करवाथी पोते दुःखी ?
पोते शु? क्याथी छे आप? एनो मागो शीघ्र जवाप ॥१॥ ३. ज्या शका त्या गण संताप, ज्ञान तहा शंका नहि स्थाप।
प्रभुभक्ति त्या उत्तम ज्ञान, प्रभु मेळववा गुरु भगवान ॥१॥
गुरु ओळखवा घट वैराग्य, ते ऊपजवा पूर्वित भाग्य। - तेम नही तो कई सत्संग, तेम नही तो कई दु खरंग ॥
.
१ भावार्थ-कमरपर दोनो हाथोको रखकर और पांवोको फैलाकर खड़े हुए पुरुषके आकारके समान लोकका स्वरूप बताया है । क्या आपने इसके रहस्यको समझा है ? इसके कारणको आपने समझा है ? अथवा तो उपमा द्वारा उसे समझानेकी चतुराई दिखाई हैं क्या? ॥१॥ "पिंडे सो ब्रह्माडे' की उक्ति यहां लागू होती है । 'पुरुष' अर्थात् मनुष्य शरीरपरसे लोक स्वरूपका बोध कराना है कि पुरुष अर्थात् आत्मा, जिसमें आत्माके ज्ञान-दर्शन गुण आत्माकार हैं, जिनमे लोकस्वरूप प्रतिभासित होता है; इसलिये अध्यात्मदृष्टिसे लोक्को पुरुषाकार कहा है ? इस तरह दोनो प्रकारसे जो प्रश्न होता है उसका समाधान आपको कुछ समझमें आता है ? इस विषयमें विचार करनेसे आपने जो समझा हो वह कहें तो सुनें और हमने जो कुछ समझा है उसे हम कहें । इस तरह परस्पर विचार-विनिमयसे आत्मकल्याण एव सुखशातिका आदानप्रदान करें ॥२॥
२ भावार्य-क्या करनेसे हम सुखी हैं ? क्या करनेसे हम दुखी है ? हम कौन है ? हम कहाँसे आये हैं ? इत्यादि प्रश्न अतरमें खड़े होते हैं । इनके यथार्थ उत्तर शोघ्र मागें ॥१॥
३ भावार्य-जहां शका है वहां सताप समझें, और जहाँ ज्ञान है वहां का नही रहती । जहाँ प्रभुभक्ति है वहीं उत्तम ज्ञान है । प्रभप्राप्तिके लिये गुरु भगवानकी शरण ले ॥१॥ गुरुको पहचाननेके लिये हृदयमें वैराग्यको आवश्यकता है, और इस वैराग्यको उत्पत्तिके लिये पूर्वके पुण्यरूप भाग्यको आवश्यक्ता है। गदि भाग्योदय नहीं है तो कुछ सत्सगकी अपेक्षा है। यदि सत्सग नही है तो कुछ दुखरग देखनेपर यह आता है ॥२॥
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२१४
श्रीमद राजचन्द्र
४.
खोई ।
जे गायो ते सघळे एक, सकळ दर्शने ए ज विवेक । समजाव्यानी शैली करो, स्याद्वाद समजण पण मूळ स्थिति जो पूछो मने, तो सोपी दउ योगी प्रथम अंत ने मध्ये एक, लोकरूप अलोके जीवाजीव स्थितिने जोई, टळ्यो ओरतो शका एम ज स्थिति त्या नहीं उपाय, “उपाय कां नही ?" शंका जाय ॥३॥ ए आश्चर्य जाणे ते जाण, जाणे ज्या रे प्रगटे समजे बधमुक्तियुत जीव, नीरखी टाळे शोक बंधयुक्त जीव कर्म सहित, पुद्गल रचना कर्म पुद्गलज्ञान प्रथम ले जाण, नरदेहे पछी पामे जो के पुद्गलनो ए देह, तो पण ओर स्थिति त्यां समजण बीजी पछी कहीश, ज्यारे चित्ते
स्थिर
५.
खरी ॥१॥
कने ।
देख ||२॥
भाण ।
सदीव ॥४॥
खचीत ।
ध्यान ॥५॥
छेह ।
थईश ॥ ६ ॥
क्लेश ।
जहां राग अने वळी द्वेष, तहा सर्वदा मानो उदासीनतानो ज्यां वास, सकळ दुःखनो छे त्यां नाश ॥१॥ सर्व कालनु छे त्या ज्ञान, देह छता त्यां छे निर्वाण । भव छेवटनो छे ए दशा, राम धाम आवोने वस्या ||२||
-
४ भावार्थ- सब धर्मोमें एक परम तत्त्वका ही गुणगान है, और सब दर्शनोने भिन्न-भिन्न शैलीसे उसी परम तत्त्वका विवेचन किया हैं । परन्तु स्याद्वाद शैली सम्पूर्ण एव यथार्थ है ||१|| यदि आप मुझे मूल स्थिति अर्थात् लोकस्वरूप अथवा आत्मस्वरूपके बारेमें पूछते हैं तो मैं आपसे कहता हूँ कि आत्मज्ञानी योगी अथवा सयोगी केवलीने जो लोकस्वरूप बताया है वही यथार्थ एव मान्य करने योग्य है । अलोकाकाशमें जीव, पुद्गल आदि छः द्रव्यसमूहरूप लोक पुरुषाकारसे स्थित है और जो आदि, मध्य और अन्तमे अर्थात् तीन कालमें इसी रूपसे रहनेवाला है ॥२॥ उसमें जीवाजीवकी स्थितिको देखकर तत्सवधी जिज्ञासा शात हुई, व्याकुलता मिट गई और शका दूर हो गई । लोककी यही स्थिति है, उसे किसी भी उपायसे अन्यथा करनेके लिये कोई भी समर्थ नही है । उसे अन्यथा करनेका उपाय क्यो नही? इत्यादि शकाओका समाधान हो गया || ३ || जो इस आश्चर्यकारी स्वरूपको जानता है वह ज्ञानी है । और जब केवलज्ञानरूपी भानु (सूर्य) का उदय हो तभी इस लोकका स्वरूप जाना जा सकता है । फिर वह समझ जाता है कि जीव वध और मुक्ति से युक्त है । ससारकी ऐसी स्थिति देखकर हर्ष-शोक सदाके लिये दूरकर वह वीतराग सदैव समता सुखमें निमग्न हो जाता है ||४|| ससारी जीव बधयुक्त है और वह बघ पुद्गल वर्गणारूप कर्मोस हुआ है । अनत शक्तिशाली जीवको पुद्गल परमाणुओकी कर्मरूप रचनासे वघनकी अवस्थाको प्राप्त होकर ससारमे अनत दुखद परिभ्रमण करना पडता है । इसलिये पहले वह पुद्गलस्वरूपको जाने और अनुक्रमसे धर्मध्यान एव शुक्लध्यानमें एकाग्र होकर परम पुरुषार्थं मोक्षमें प्रवृत्ति करे । नरदेहमें ही ऐसा पुरुषार्थ हो सकता है ॥५॥ देह यद्यपि पुद्गलका ही है, तो भी भेदज्ञानको प्राप्त होकर आत्मज्ञानी ध्यानमें एकाग्र होकर अपूर्व आनदको प्राप्त होता है । जब चित्त सकल्प-विकल्पसे रहित होकर स्थिर होगा तब फिर दूसरा बोध दूँगा ||६||
५ भावार्थ - जहाँ राग और द्वेष होते हैं वहाँ सदा क्लेश ही बना रहता है । जब जीव ससारसे उदासीन एव विरक्त हो जाता है तभी सर्व दु खोका अन्त आता है ॥ १।। उस दशामें जीव त्रिकालज्ञानी होता है और देह होते हुए भी देहातीत जीवन्मुक्तदशाका अनुभव होता है । चरमशरीरी जीव ही ऐसी दशाको प्राप्त करता है और वह आत्मस्वरूपमें रमण करता हुआ सदाके लिये परमपद मोक्षमे स्थित हो जाता है ॥२॥
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२३ वाँ वर्ष
१०८
हे जीव । तू भ्रम मत पड, तुझे हितकी बात कहता हूँ । अतरमे सुख है, बाहर खोजनेसे नही मिलेगा ।
अतरका सुख अतरकी समश्रेणीमे है, उसमे स्थिति होनेके लिये बाह्य पदार्थोंका विस्मरण कर, |
२१५
बबई, फागुन, १९४६
आश्चर्य भूल |
समश्रेणी रहना बहुत दुर्लभ है, निमित्ताधीन वृत्ति पुनः पुन चलित हो जायेगी, चलित न होने के लिये अचल गभीर उपयोग रख ।
यह क्रम यथायोग्यरूपसे चलता आया तो तू जीवनका त्याग करता रहेगा, हताश नही होगा, निर्भय होगा ।
भ्रम मत पड, तुझे हित की बात कहता हूँ ।
यह मेरा है, ऐसे भावकी व्याख्या प्रायः न कर ।
यह उसका है ऐसा न मान बैठ ।
इसके लिये ऐसा करना है यह भविष्य निर्णय न कर रख । इसके लिये ऐसा न हुआ होता तो सुख होता ऐसा स्मरण न कर ।
इतना इस प्रकारसे हो तो अच्छा, ऐसा आग्रह न कर रख ।
इसने मेरे प्रति अनुचित किया, ऐसा स्मरण करना न सीख । इसने मेरे प्रति उचित किया ऐसा स्मरण न रख ।
यह मुझे अशुभ निमित्त है ऐसा विकल्प न कर ।
यह मुझे शुभ निमित्त है ऐसी दृढता न मान बैठ ।
यह न होता तो मैं नही बंधता ऐसी अचल व्याख्या न कर ।
1
पूर्वकर्म बलवान है, इसलिये ये सब प्रसग मिल गये ऐसा एकातिक ग्रहण न कर ।
पुरुषार्थकी जय नही हुई ऐसी निराशाका स्मरण न कर ।
दूसरे के दोषसे तुझे बधन है ऐसा न मान ।
अपने निमित्तसे भी दूसरेको दोष करते हुए रोक |
तेरे दोषसे तुझे बंधन है यह सतकी पहली शिक्षा है ।
तेरा दोष इतना ही कि अन्यको अपना मानना, और अपने आपको भूल जाना ।
इन सबमे तेरा मनोभाव नही है इसलिये भिन्न भिन्न स्थलोमे तूने सुखकी कल्पना की है । है मूढ | ऐसा न कर
यह तूने अपनेको हितकी बात कही ।
अतरमे सुख है ।
जगत मे ऐसी कोई पुस्तक या लेख या कोई ऐसा अपरिचित साक्षी तुझे यो नही कह सकता कि यह सुखका मार्ग है, अथवा आप ऐसा वर्तन करें अथवा सबको एक ही क्रमसे विचार आये; इसीसे सूचित होता है कि यहाँ कुछ प्रबल विचारधारा रही है ।
एक भोगी होनेका उपदेश करता है ।
एक योगी होनेका उपदेश करता है । इन दोनोमेसे किसे मान्य करेंगे ? दोनो किसलिये उपदेश करते हैं ?
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२१६
श्रीमद् राजचन्द्र
दोनो किसको उपदेश करते है ? किसको प्रेरणासे करते है ? किसीको किसीका और किसीको किसीका उपदेश क्यो लगता है ? इसके कारण क्या हैं ? इसका साक्षी कौन है ? आप क्या चाहते हैं ? वह कहाँसे मिलेगा ? अथवा किसमे है ? उसे कौन प्राप्त करेगा? कहाँ होकर लायेंगे? लाना कौन सिखायेगा? अथवा सीखे हुए है ? सीखे हैं तो कहाँसे सीखे हैं ? अपुनर्वृत्तिरूपसे सीखे हे ? नही तो शिक्षण मिथ्या ठहरेगा। जीवन क्या है ? जीव क्या है ? आप क्या हैं ? आपकी इच्छानुसार क्यो नही होता ? उसे कैसे कर सकेंगे? वाधता प्रिय है या निरावाधता प्रिय है ? वह कहाँ कहाँ और किस किस प्रकारसे है ? इसका निर्णय करे। अतरमे सुख है। बाहरमे नही है। सत्य कहता हूँ। हे जीव । भूल मत, तुझे सत्य कहता हूँ। सुख अन्तरमे है, वह वाहर खोजनेसे नही मिलेगा। अतरका सुख अतरकी स्थितिमे है; स्थिति होनेके लिये बाह्य पदार्थोंका आश्चर्य भूल ।
स्थिति रहनी बहुत विकट है, निमित्ताधीन वृत्ति पुन पुन चलित हो जाती है । इसका दृढ उपयोग रखना चाहिये।
इस क्रमको यथायोग्य निभाता चलेगा तो तू हताश नही होगा, निर्भय होगा।
हे जीव । तू भूल मत । समय-समयपर उपयोग चककर किसीको रजित करनेमे, किसीसे रजित होनेमे अथवा मनकी निर्बलताके कारण तू दूसरेके पास मद हो जाता है, यह भूल होती है । इसे न कर।
१०९ आत्मा नाममात्र है या वस्तुस्वरूप है? यदि वस्तुस्वरूप है तो किसी भी लक्षणादिसे वह जाना जा सकने योग्य है या नहीं?
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२३ वॉ वर्ष
२१७ यदि वह लक्षणादिसे किसी भी प्रकारसे जाना जा सकने योग्य नहीं है ऐसा माने तो जगतमे उपदेशमार्गकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? अमुकके वचनसे अमुकको बोध होता है इसका हेतु क्या है ?
अमुकके वचनसे अमुकेको बोध होता है, यह सारी वात कल्पित है, ऐसा मानें तो प्रत्यक्ष वस्तुका बाध होता है क्योकि वह प्रवृत्ति प्रत्यक्ष दिखायी देती है। केवल वध्यापुत्रवत् नही है। किसी भी आत्मवेत्तासे किसी भी प्रकारसे आत्मस्वरूपका वचन द्वारा उपदेश
[ अपूर्ण ]
११०
आत्मा चक्षुगोचर हो सकता है या नही ? अर्थात् आत्मा किसी भी तरह. आँखसे देखा जा सकता है या नही ?
आत्मा सर्वव्यापक है या नही ? मैं या आप सर्वव्यापक हैं या नही?
आत्माका देहातरमे जाना होता है या नही ? अर्थात् आत्मा एक गतिमेसे दूसरी गतिमे जाता है या नही ? जा सकने योग्य है या नही ?
आत्माका लक्षण क्या है? किसी भी प्रकारसे आत्मा ध्यानमे आ सकता है या नही ? • सबसे अधिक प्रामाणिक शास्त्र कौनसे है ?
बबई, फागुन, १९४६ परम सत्य है।) परम सत्य है। त्रिकाल ऐसा ही है। . . परम सत्य है ।।. व्यवहारके प्रसगको सावधानीसे, मद उपयोगसे ओर समताभावसे निभाते आना। दूसरे तेरा क्यो नही मानते ऐसा प्रश्न तेरे अन्तरमे न उठे। . दूसरे तेरा मानते हैं यह बहुत योग्य है, ऐसा स्मरण तुझे न हो। तु सर्व प्रकारसे स्वतः प्रवृत्ति कर। जीवन-अजीवनपर समवृत्ति हो । जीवन हो तो इसी वृत्तिसे पूर्ण हो । जब तक गृहवास प्रारब्धमे हो तब तक व्यवहार प्रसगमे भी सत्य सो सत्य ही हो। गृहवासमे उसमे ही ध्यान हो। गृहवासमे प्रसगमे आनेवालोको उचित वृत्ति रखना सिखा, सबको समान ही मान । तब तकका तेरा समय बहुत हो उचित बीते । अमुक व्यवहार-प्रसगका काल । उसके सिवाय तत्सम्बन्धी कार्यकाल । पूर्वकृत कर्मोदयकाल। निद्राकाल ।
यदि तेरी स्वतत्रता और तेरे क्रमसे तेरा उपजीवन-व्यवहारसम्बन्धी सन्तोपयुक्त हो तो उचित प्रकारसे अपने व्यवहारको चलाना।
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श्रीमद राजचन्द्र
कारण से सन्तोषयुक्त वृत्ति न रहती हो तो तू उसके कहे अनुसार अर्थात् प्रसगकी पूर्णाहुति तक ऐसा करनेमे तू विषम नही होना । तेरे क्रमसे वे सन्तुष्ट रहे तो औदासीन्य वृत्ति द्वारा निराग्ग्रहभावसे उनका भला हो वैसा करनेकी
सावधानी तू रखना ।
२१८
उसकी इससे दूसरे चाहे जिस प्रवृत्ति करके उस प्रसगको पूरा करना,
११२
मोहाच्छादित दशासे विवेक न हो यह सत्य है, नही तो वस्तुत: यह विवेक यथार्थ है । बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन रखें ।
१ सत्यको तो सत्य ही रहने देना ।
२ कर सके उतना कहे, अशक्यता न छिपाएँ ।
३. एकनिष्ठ रहे।
चाहे जिस किसी प्रशस्त कार्यमे एकनिष्ठ रहे । वीतरागने सत्य कहा है ।
अरे आत्मन् । अन्त स्थित दशा ले ।
बबई, चैत्र, १९४६
यह दुख किसे कहना ? और कैसे दूर करना ? आप अपना वैरी, यह कैसी सच्ची बात है ।
११३
बबई, वैशाख वदी १२, १९४६
सुज्ञ भाईश्री,
आज आपका एक पत्र मिला । यहाँ समय अनुकूल है। वहाँकी समयकुशलता चाहता हूँ । आपको जो पत्र भेजनेकी मेरी इच्छा थी, उसे अधिक विस्तारसे लिखनेकी आवश्यकता होनेसे और वैसा करनेसे उसकी उपयोगिता भी अधिक सिद्ध होनेसे, वैसा करनेकी इच्छा थी, और अब भी है । तथापि कार्योपाधिकी ऐसी प्रबलता है कि इतना शान्त अवकाश मिल नही सकता, मिल नही सका और अभी कुछ समय तक मिलना भी सम्भव नही है । आपको इस समय यह पत्र मिला होता तो अधिक उपयोगी होता, तो भी इसके बाद भी इसकी उपयोगिता तो आप भी अधिक ही मान सकेगे । आपकी जिज्ञासाको कुछ शान्त करनेके लिये उस पत्रका सक्षिप्त वर्णन दिया है ।
मैं इस जन्ममे आपसे पहले लगभग दो वर्ष से कुछ अधिक समयसे गृहाश्रमी हुआ हूँ, यह आपको विदित है । जिसके कारण गृहाश्रमी कहा जा सकता है, उस वस्तुका और मेरा इस अरसेमे कुछ अधिक परिचय नही हुआ है, फिर भी इससे मै उसका कायिक, वाचिक और मानसिक झुकाव बहुत करके समझ सका हूँ, ओर इस कारण से उसका और मेरा सम्बन्ध असन्तोषपात्र नही हुआ है, ऐसा बतलानेका हेतु यह है कि गृहाश्रमका वर्णन अल्प मात्र भी देते हुए तत्सम्बन्धी अनुभव अधिक उपयोगी होता है, मुझे कुछ सास्कारिक अनुभव स्फुरित हो आनेसे ऐसा कह सकता हूँ कि मेरा गृहाश्रम अभी तक जैसे असन्तोषपात्र नही है, वैसे उचित सन्तोषपात्र भो नही है । वह मात्र मध्यम है, और उसके मध्यम होनेमे भी मेरी कितनी ही उदासीनवृत्तिको सहायता है ।
तत्त्वज्ञानकी गुप्त गुफाका दर्शन करने पर गृहाश्रमसे विरक्त होना अधिकतर सूझता है, और अवश्य ही उस तत्त्वज्ञानका विवेक भी इसे उदित हुआ था, कालकी वलवत्तर अनिष्टताके कारण, उसे यथायोग्य समाधिगकी अप्राप्ति के कारण उस विवेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा, और सचमुच । यदि वैसा न हो सका होता तो उसके (इस पत्रलेखकके) जीवनका अन्त अन्त आ जाता ।
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२३ वॉ वर्ष
२१९ जिस विवेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा है, उस-विवेकमे ही चित्तवृत्ति प्रसन्न रह जाती है, उसको बाह्य प्रधानता नही रखी जा सकती, इसके लिये अकथ्य खेद होता है । तथापि जहाँ निरुपायता है, वहाँ सहनशीलता सुखदायक है, ऐसी मान्यता होनेसे मौन रखा है।
कभी-कभी सगी और प्रसगी तुच्छ निमित्त हो पड़ते हैं, उस समय उम विवेकपर किसी तरहका आवरण आ जाता है, तब आत्मा बहुत ही दुविधामे पड़ जाता है । जोवनरहित होनेकी, देहत्याग करनेकी दुखस्थितिकी अपेक्षा उस समय भयकर स्थिति हो जाती है, परन्तु ऐसा अधिक समय तक नही रहता; और ऐसा जब रहेगा तब अवश्य ही देह त्याग करूँगा। परन्तु असमाधिसे प्रवृत्ति नही करूँगा ऐसी अब तककी प्रतिज्ञा स्थिर बनी हुई है।
११४ __ मोरवी, आषाढ़ सुदी ४, गुरु, १९४६ मोरबीका निवास व्यवहारनयसे भी अस्थिर होनेसे उत्तर भेजा नही जा सकता था। आपके प्रशस्त भावके लिये आनन्द होता है । उत्तरोत्तर यह भाव आपके लिये सत्फलदायक हो।
उत्तम नियमानुसार और धर्मध्यानप्रशस्त व्यवहार करे, यह मेरी वारवार मुख्य विज्ञप्ति है । शुद्धभावकी श्रेणोको विस्मृत नही करते, यह एक आनन्दकथा है।
बबई, आषाढ़ सुदी ५, रवि, १९४६ धर्मेच्छुक भाई श्री,
आपके दोनो पत्र मिले। पढ़कर सन्तोष हआ। ___ उपाधिकी प्रबलता विशेष रहती है । जीवन कालमे ऐसा कोई योग आना निर्मित हो, तो मौनभावउदासीनभावसे प्रवृत्ति कर लेना ही श्रेयस्कर है।
भगवतीजीके पाठके सम्बन्धमे सक्षिप्त स्पष्टीकरण नीचे दिया है :___ सुहजोगं पडुच्चं अणारंभी, असुहजोग पडुच्च आयारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी।
शुभ योगकी अपेक्षासे अनारंभी, अशुभयोगको अपेक्षासे आत्मारभी, परारभी, तदुभयारभी (आत्मारभी और परारभी)।
यहाँ शुभका अर्थ पारिणामिक शुभ लेना चाहिये, यह मेरी दृष्टि है। पारिणामिक अर्थात् जो परि___णाममें शुभ अथवा जैसा था वैसा रहना है।
यहाँ योगका अर्थ मन, वचन और काया है।
शास्त्रकारका यह व्याख्यान करनेका मुख्य हेतु यथार्थ दिखानेका और शुभयोगमे प्रवृत्ति करानेका है । पाठमे बोध बहुत सुदर है।
आप मेरा मिलाप चाहते हैं, परन्तु यह कोई अनुचित काल उदयमे आया है। इसलिये आपके लिये मिलापमे भी मैं श्रेयस्कर सिद्ध हो सकूँ ऐसी आशा थोड़ी ही है।
जिन्होने यथार्थ उपदेश किया है, ऐसे वीतरागके उपदेशमे परायण रहे, यह मेरा विनयपूर्वक आप दोनो भाइयोसे और दूसरोसे अनुरोध है ।
मोहाधोन ऐसा मेरा आत्मा वाह्योपाधिसे कितने प्रकारसे घिरा हुआ है, यह आप जानते है, इसलिये अधिक क्या लिखू?
अभी तो आप अपनेसे ही धर्मशिक्षा ले। योग्य पात्र वनें । मै भी योग्य पात्र बनें। अधिक फिर देखेंगे।
वि० रायचन्दके प्रणाम।
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श्रीमद राजचन्द्र
११६'
बबई, वैशाख सुदी ३, १९४६ इस उपाधिमे पडनेके बाद यदि मेरा लिंगदेहजन्यज्ञान दर्शन वैसा ही रहा हो, यथार्थ हो रहा हो तो जूठाभाई आषाढ सुदी ९ गुरुकी रातको समाधिपूर्वक इस क्षणिक जीवनका त्याग कर जायेंगे, ऐसा वह ज्ञान सूचित करता है ।
२२०
११७
बबई, आषाढ सुदी १०, १९४६ लिंगदेहजन्यज्ञानमे उपाधिके कारण यत्किचित् परिवर्तन मालूम हुआ । पवित्रात्मा जूठा भाई - उपर्युक्त तिथिको परन्तु दिनमे स्वर्गवासी होनेकी आज खबर मिली ।
इस पावन आत्माके गुणोका क्या स्मरण करें ? जहाँ विस्मृतिको अवकाश नही वहाँ स्मृति हुई मानी ही कैसे जाये ?
इसका लौकिक नाम ही देहधारीरूपसे सत्य था, यह आत्मदशा के रूपमे सच्चा वैराग्य था ।
जिसकी मिथ्यावासना बहुत क्षीण हो गई थी, जो वीतरागका परमरागी था, ससारसे परम जुगुप्सित था, जिसके अतरमे भक्तिका प्राधान्य सदैव प्रकाशित था, सम्यक्भावसे वेदनीय कर्म वेदन करनेकी जिसकी अद्भुत समता थी, मोहनोय कर्मका प्राबल्य जिसके अतरमे बहुत शून्य हो गया था, जिसमे मुमुक्षुता उत्तम प्रकारसे दीपित हो उठी थी, ऐसा यह जूठाभाईका पवित्रात्मा आज जगतके इस भागका त्याग करके चला गया । इन सहचारियोंसे मुक्त हो गया । धर्मके पूर्णाह्लादमे आयुष्य अचानक पूर्ण किया ।
अरेरे | इस कालमे ऐसे धर्मात्माका अल्प जीवन हो यह कुछ अधिक आश्चर्यकारक नही है । ऐसे पवित्रात्माकी इस कालमे कहाँसे स्थिति हो ? दूसरे साथियो के ऐसे भाग्य कहाँसे हो कि ऐसे पवित्रात्माके दर्शनका लाभ उन्हे अधिक काल तक मिले ? मोक्षमार्गको देनेवाला सम्यक्त्व जिसके अतरमे प्रकाशित हुआ था, ऐसे पवित्रात्मा जूठाभाईको नमस्कार हो । नमस्कार हो ।
११८
बबई, आषाढ सुदी १५, बुध, १९४६
धर्मेच्छुक भाइयो,
चि॰ सत्यपरायणके स्वर्गवाससूचक शब्द भयंकर हैं । परन्तु ऐसे रत्नोका दीर्घं जीवन कालको नही पुसाता । धर्मेच्छुकके ऐसे अनन्य सहायकको रहने देना मायादेवीको योग्य नही लगा ।
1
इस आत्माके इस जीवन के रहस्यमय विश्रामको कालकी प्रबल दृष्टिने खीच लिया | ज्ञानदृष्टि शोकका अवकाश नही माना जाता, तथापि उसके उत्तमोत्तम गुण वैसा करनेकी आज्ञा करते है, बहुत स्मरण होता है, ज्यादा नही लिख सकता ।
सत्यपरायणके स्मरणार्थं यदि हो सका तो एक शिक्षाग्रन्थ लिखनेका विचार करता हूँ ।
न छिज्जइ । यह पाठ पूरा लिखेंगे तो ठीक होगा । मेरी समझके अनुसार इस स्थलपर आत्माका शब्दवर्णन है "छेदा नही जाता, भेदा नही जाता", इत्यादि ।
"आहार, विहार और निहारका नियमित" इस वाक्यका सक्षेपार्थ इस प्रकार है
जिसमे योगदशा आती है, उसमे द्रव्य आहार, विहार और निहार (शरीर के मलकी त्याग क्रिया) यह नियमित अर्थात् जैसी चाहिये वैसी, आत्माको निर्वाधक क्रियासे यह प्रवृत्ति करनेवाला ।
१ यह लेख श्रीमद्को दैनिक नोघका है । २. श्री आचाराग, अध्य० ३, उद्देशक ३, देखें आक २९६
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२३ वॉ वर्ष
२२१ ___ धर्ममे प्रसक्त रहे यही वारवार अनुरोध है । सत्यपरायणके मार्गका सेवन करेंगे तो जरूर सुखी होगे : पार पायेंगे, ऐसा मै मानता हूँ। ___ इस भवकी और परभवकी निरुपाधिता जिस रास्तेसे की जा सके उस रास्तेसे कोजियेगा, ऐसी ती है।
उपाधिग्रस्त रायचदके यथायोग्य
११९
बंबई, आषाढ वदी ७, मंगल, १९४६ निरतर निर्भयतासे रहित इस भ्रातिरूप ससारमे वीतरागत्व ही अभ्यास करने योग्य है; निरंतर यतासे विचरना ही श्रेयस्कर है, तथापि कालकी और कर्मकी विचित्रतासे पराधीनतासे यह
दोनो पत्र मिले । सतोष हुआ । आचाराग सूत्रका पाठ देखा । यथाशक्ति विचारकर अन्य प्रसगपर लिखूगा।
धर्मेच्छुक विभोवनदासके प्रश्नका उत्तर भी प्रसगपर दे सकंगा। जिसका अपार माहात्म्य है, ऐसी तीर्थंकरदेवकी वाणीकी भक्ति करें।
वि० रायचद
१२०
बबई, आषाढ वदी ३०, १९४६ ___आपकी 'योगवासिष्ठ' पुस्तक इसके साथ भेजता हूँ। उपाधिका ताप शमन करनेके लिये यह |ल चदन है, इसके पढ़नेमे आधि-व्याधिका आगमन सम्भव नही है। इसके लिये आपका उपकार
ता हूँ। ___आपके पास कभी कभी आनेमे भी एक मात्र इसी विषयकी अभिलाषा है। बहुत वर्षोसे आपके 1.करणमे रही हुई ब्रह्मविद्याका आपके ही मुखसे श्रवण हो तो एक प्रकारकी शाति मिले । किसी भी तेसे कल्पित वासनाओका नाश होकर यथायोग्य स्थितिकी प्राप्तिके सिवाय अन्य इच्छा नही है. तु व्यवहारके सम्बन्धमे कितनी ही उपाधियाँ रहती है, इसलिये सत्समागमका यथेष्ट अवकाश नही ता, तथा आपको भी कुछ कारणोसे उतना समय देना अशक्य समझता हूँ, और इसी कारणसे अन्त:णकी अन्तिम वृत्ति पुन पुनः आपको बता नही सकता, तथा तत्सम्बन्धी अधिक बातचीत नही हो ती। यह एक पुण्यकी न्यूनता है, अधिक क्या? ___आपके सम्बन्धसे किसी तरह व्यावहारिक लाभ लेनेकी इच्छा स्वप्नमे भी नही की है, तथा आप 'दूसरोसे भी इसकी इच्छा नही रखी है । एक जन्म और वह भी थोडे ही कालका, प्रारब्धानुसार विता I, उसमे दीनता उचित नहीं है, यह निश्चय प्रिय है। सहज भावसे व्यवहार करनेकी अभ्यासप्रणालिका । (थोड़ेसे) वर्षोंसे आरभ की है; और इससे निवृत्तिकी वृद्धि है। यह बात यहां बतानेका हेतु इतना ही के आप अशकित होगे, तथापि पूर्वापरसे भी अशकित रहनेके लिये जिस हेतुसे आपकी ओर मेरा देखना उसे बताया है, और यह अशकितता ससारसे औदासीन्य भावको प्राप्त दशाके लिये सहायक होगी, Tमाना होनेसे (बताया है)।
'योगवासिष्ठ' के सम्बन्धमे आपको कुछ बताना चाहता हूँ (प्रसग मिलनेपर)।
जैनधर्मके आग्रहसे ही मोक्ष है, ऐसा मानना आत्मा बहुत समयसे भूल चुका है। मुक्तभावमे ।।) म है ऐसी धारणा है, इसलिये बातचीतके समय आप कुछ अधिक कहते हुए न रुके ऐसी विज्ञप्ति के
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श्रीमद राजचन्द्र
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बबई, आषाढ, १९४६ जिस पुस्तक के पढनेसे उदासीनता, वैराग्य या चित्तकी स्वस्थता होती हो ऐसी कोई भी पुस्तक पढ़ना । जिससे योग्यता प्राप्त हो ऐसी पुस्तक पढनेका विशेष परिचय रखना ।
धर्मकथा लिखनेके विपयमे लिखा, तो वह धार्मिक कथा मुख्यत तो सत्सगमे ही निहित है । दुषमकालरूप इस कालमे सत्सगका माहात्म्य भी जीवके ध्यानमे नही आता ।
कल्याणके मार्गके साधन कौनसे है उनका ज्ञान बहुत बहुत सी क्रियादि करनेवाले जीवको भी हो ऐसा मालूम नही होता |
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त्याग करने योग्य स्वच्छद आदि जो कारण है उनमे तो जीव रुचिपूर्वक प्रवृत्त हो रहे है । जिनका आराधन करना योग्य हे ऐसे आत्मस्वरूप सत्पुरुषोमे जीवको या तो विमुखता और या तो अविश्वास रहता है, और ऐसे असत्सगियो के सहवासमे किन्ही किन्ही मुमुक्षुओको भी रहना पड़ता है। उन दुखियोमे आप और मुनि आदि भी किसी न किसी अशमे गिनने योग्य है । असत्सग और स्वेच्छाचार न हो अथवा उनका अनुसरण न हो ऐसे प्रवर्तनसे अतवृत्ति रखनेका विचार बनाये ही रखना यह सुगम साधन है ।
१२२
बबई, आषाढ़, १९४६
पूर्व कर्म का उदय बहुत विचित्र है । अब 'जब जागे तभी सवेरा' । तोव्ररससे और मदरससे कर्मका वध होता है । उसमे मुख्य हेतु रागद्वेष है । इससे परिणाममे अधिक पछताना पड़ता है ।
शुद्धयोगमे रहा हुआ आत्मा अनारंभी है और अशुद्धयोगमे रहा हुआ आत्मा आरभी है । यह वाक्य वीरकी भगवतो का है । मनन कीजियेगा ।
परस्पर ऐसा होनेसे, धर्म-विस्मृत आत्माको स्मृतिमे योगपद याद आता है । बहुल कर्मके योगसे पचमकालमे उत्पन्न हुए, परतु कुछ शुभके उदयसे जो योग मिला है, वैसा बहुत ही थोड़े आत्माओको मर्मबोध मिलता है, और वह रुचिकर होना बहुत दुर्घट है। वह सत्पुरुषोकी कृपादृष्टिमे निहित है । अल्पकर्मका योग होगा तो बनेगा । नि सशय जिस पुरुषका योग मिला उस पुरुषको शुभोदय हो तो अवश्य बनेगा; फिर न बने तो बहुल कर्मका दोष !
१२३
बबई, आषाढ़, १९४६
धर्मध्यान लक्ष्यार्थसे हो यही आत्महितका रास्ता है । चित्तके सकल्प-विकल्पसे रहित होना यह महावोरका मार्ग है । अलिप्तभावमे रहना, यह विवेकीका कर्तव्य है ।
१२४
ववाणिया बदर, १९४६
जंण णं दिसं इच्छइ तं णं त णं दिसं अप्पडिबधे ।
जिस जिस दिशाकी ओर जाना चाहे वह वह दिशा जिसके लिये अप्रतिबद्ध अर्थात् खुली है । ( रोक नही सकती । )
जब तक ऐसी दशाका अभ्यास न हो तब तक यथार्थं त्यागकी उत्पत्ति होना कैसे सम्भव है ? पोद्गलिक रचना से आत्माको स्तम्भित करना उचित नही हैं ।
वि० रायचंदके यथायोग्य |
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२३ वो वर्ष
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१२५ ववाणिया, श्रावण वदी १३, बुध, १९४६ धर्मेच्छुक भाईश्री,
आज मतातरसे उत्पन्न हुआ पहला पर्युषण आरम्भ हुआ। अगले मासमे दूसरा पर्यंपण आरभ होगा । सम्यकदृष्टिसे मतातर दूर करके देखनेसे यही मतातर दुगुने लाभका कारण है, क्योकि दुगुना धर्म सम्पादन किया जा सकेगा। चित्त गुफाके योग्य हो गया है । कर्मरचना विचित्र है।
वि० रायचंदके यथायोग्य।
१२६ ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ३, सोम, १९४६ आपके दर्शनका लाभ लिये लगभग एक माससे कुछ अधिक समय हुआ। बबई छोड़े एक पक्ष हुआ। बबईका एक वर्षका निवास उपाधिग्रस्त रहा । समाधिरूप तो एक आपका समागम था, उसका यथेष्ट लाभ प्राप्त न हुआ।
ज्ञानियो द्वारा कल्पित सचमुच यह कलिकाल ही है। जनसमुदायकी वृत्तियाँ विषय-कषाय आदिसे विषमताको प्राप्त हुई हैं। इसकी बलवत्तरता प्रत्यक्ष है। राजसी वृत्तिका अनुकरण उसे प्रिय हुआ है। तात्पर्य यह कि विवेकियोकी और यथायोग्य उपशमपात्रोकी छाया भी नहीं मिलती। ऐसे विषमकालमे जन्मा हुआ यह देहधारी आत्मा अनादिकालके परिभ्रमणकी थकानसे विश्राति लेनेके लिये आया, प्रत्युत अविश्राति पाकर फंस गया है । मानसिक चिता कही भी कही नही जा सकती। कहने योग्य पात्रोकी भी कमी है। ऐसी स्थितिमे अब क्या करना ? यद्यपि यथायोग्य उपशमभावको प्राप्त आत्मा ससार और मोक्षमे समवृत्तिवाला होता है । इसलिये अप्रतिबद्धतासे विचर सकता है। परन्तु इस आत्माको तो अभी वह दशा प्राप्त नही हुई है । उसका अभ्यास है । तो फिर उसके पास यह प्रवृत्ति किसलिये खड़ी होगी?
जिसमे निरुपायता है उसमे सहनशीलता सुखदायक है और ऐसा ही प्रवर्तन है, परन्तु जीवन पूर्ण ___ होनेसे पहले यथायोग्यरूपसे नोचेकी दशा आनी चाहिये
१ मन, वचन और कायासे आत्माका मुक्तभाव । २ मनका उदासीनतासे प्रवर्तन । ३ वचनकी स्याद्वादता (निराग्रहता )।
४ कायाकी वृक्षदशा ( आहार-विहारकी नियमितता )। अथवा सर्व सदेहोकी निवृत्ति, सर्व भयमुक्ति और सर्व अज्ञानका नाश ।
सतोने शास्त्रो द्वारा अनेक प्रकारसे उसका मार्ग बताया है, साधन बताये है, योगादिकसे उत्पन्न हुआ अपना अनुभव कहा है, तथापि उसमे यथायोग्य उपशमभाव आना दुष्कर है । वह मार्ग है, परन्तु उपादानकी बलवान स्थिति चाहिये। उपादानकी बलवान स्थिति होनेके लिये निरन्तर सत्सग चाहिये, वह नही है।
शिशुवयसे ही इस वृत्तिका उदय होनेसे किसी प्रकारका परभाषाभ्यास न हो सका । अमुक सप्रदायसे शास्त्राभ्यास न हो सका। संसारके बधनसे ऊहापोहाभ्यास भी न हो सका, और वह न हो सका इसके लिये कोई दूसरा विचार नही है। उससे आत्मा अधिक विकल्पी होता (सबके लिये विकल्पिता नही, परन्तु मै केवल अपनी अपेक्षासे कहता हैं।) और विकल्पादिक क्लेशका तो नाश ही करना चाहा था. इस. लिये जो हुआ वह कल्याणकारक ही है। परन्तु अब जैसे महानुभाव वसिष्ठ भगवानने श्रीरामको इसी दोषका विस्मरण कराया था वैसे कौन कराये ? अर्थात् भाषाभ्यासके विना भी शास्त्रका वहत परिचय
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श्रीमद राजचन्द्र
हुआ है, धर्मके व्यावहारिक ज्ञाताओका भी परिचय हुआ है, तथापि इस आत्माका आनंदावरण इससे दूर नही हो सकता, मात्र सत्सगके सिवाय और योगसमाधिके सिवाय, तब क्या करना ? इतना भी बतलानेके लिये कोई सत्पात्र स्थल नही था । भाग्योदयसे आप मिले कि जिन्हे रोम-रोममे यही रुचिकर है।
१२७ ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ४, १९४६ पत्र मिला।
सारे वर्षमे आपके प्रति हुए अपने अपराधकी, नम्रतासे, विनयसे और मन, वचन, कायाके प्रशस्त योगसे पुन पुन. क्षमा चाहता हूँ। सब प्रकारसे मेरे अपराधका विस्मरण कर आत्मश्रेणीमे प्रवर्तन करते रहे, यह विनती है।
आजके पत्रमे, मतातरसे दुगुना लाभ होता है ऐसा इस पर्युषण पर्वको सम्यकदृष्टिसे देखते हुए मालूम हुआ, यह बात अच्छी लगी । तथापि कल्याणके लिये यह दृष्टि उपयोगी है । समुदायके कल्याणकी दृष्टि से देखते हुए दो पर्युपण दुखदायक है। प्रत्येक समुदायमे मतातर बढने नही चाहिये, कम होने चाहिये।
वि० रायचदके यथायोग्य
१२८
ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ६, १९४६ धर्मेच्छक भाइयो,
प्रथम सवत्सरीसे लेकर आजके दिन तक किसी भी प्रकारसे आपकी अविनय, आशातना, असमाधि मेरे मन, वचन, कायाके किसी भी योगाध्यवसायसे हुई हो उनके लिये पुनः पुन क्षमा चाहता हूँ।
अतर्ज्ञानसे स्मरण करते हुए ऐसा कोई काल ज्ञात नही होता अथवा याद नही आता क जिस कालमे, जिस समयमे इस जीवने परिभ्रमण न किया हो, सकल्प-विकल्पको रटन न की हो, और इससे 'समाधि'को न भला हो । निरंतर यह स्मरण रहा करता है, और यह महावैराग्यको देता है।
और स्मरण होता है कि यह परिभ्रमण केवल स्वच्छदसे करते हए जीवको उदासीनता क्यो न आई ? दूसरे जीवोके प्रति क्रोध करते हुए, मान करते हुए, माया करते हए, लोभ करते हुए या अन्यथा करते हुए, यह बुरा है, ऐसा यथायोग्य क्यो न जाना ? अर्थात् ऐसा जानना चाहिये था, फिर भी न जाना, यह भी पुन परिभ्रमण करनेसे विरक्त बनाता है।
और स्मरण होता है कि जिनके बिना एक पल भी मैं न जी सके, ऐसे कितने ही पदार्थ (स्त्री आदि), उनको अनत वार छोडते, उनका वियोग हुए अनत काल भी हो गया, तथापि उनके बिना जीवित रहा गया, यह कुछ कम आश्चर्यकारक नही है। अर्थात् जिस जिस समय वैसा प्रीतिभाव किया था उस उस समय वह कल्पित था। ऐसा प्रोतिभाव क्यो हुआ ? यह पुन पून वैराग्य देता है।
और जिसका मुख किसी कालमे भी न देखें, जिसे किसी कालमे मैं ग्रहण ही न करूँ, उसके घर पुत्रके रूपमे, स्त्रीके रूपमे, दासके रूपमे, दासीके रूपमे, नाना जतुके रूपमे क्यो जन्मा ? अर्थात् ऐसे द्वपसे ऐसे रूपमे जन्म लेना पडा । और वैसा करनेकी तो इच्छा न थी। कहिये, यह स्मरण होने पर इस क्लेशित आत्माके प्रति जुगुप्सा नही आती होगी ? अर्थात् आती है।
अधिक क्या कहना ? जो जो पूर्वके भवातरमे भ्रातिरूपसे भ्रमण किया, उसका स्मरण होने पर अव कैसे जीना यह चिंतना हो पडो है। फिर जन्म लेना ही नही और फिर ऐसा करना ही नहीं ऐसा दृढत्व आत्मामे प्रकाशित होता है। परतु कितनी ही निरुपायता है वहाँ क्या करना । जो दृढता है उसे पूर्ण करना, अवश्य पूर्ण करना यही रटन है, परन्तु जो कुछ आड़े आता है उसे एक ओर करना
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२३ व वर्ष
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पड़ता है, अर्थात् खिसकाना पडता है, और उसमे काल व्यतीत होता है, जीवन चला जाता है, उसे न जाने देना, जब तक यथायोग्य जय न हो तब तक, ऐसी दृढता है, उसका क्या करना ? कदापि किसी तरह उसमेसे कुछ करे तो वैसा स्थान कहाँ है कि जहाँ जाकर रहें ? अर्थात् वैसे सत कहाँ हैं कि जहाँ जाकर इस दशामे बैठकर उसका पोपण प्राप्त करें ? तो फिर अब क्या करना ?
"चाहे जो हो, चाहे जितने दुख सहो, चाहे जितने परिषह सहन करो, चाहे जितने उपसर्ग सहन करो, चाहे जितनी व्याधियाँ सहन करो, चाहे जितनी उपाधियाँ आ पड़ो, चाहे जितनी आधियाँ आ पड़ो, चाहे तो जीवनकाल एक समय मात्र हो, और दुनिमित्त हो, परतु ऐसा करना ही।
तब तक हे जीव । छुटकारा नही है।" इस प्रकार नेपथ्यमेसे उत्तर मिलता है और वह यथायोग्य लगता है।
क्षण-क्षणमे पलटनेवाली स्वभाववृत्ति नही चाहिये । अमुक काल तक शून्यके सिवाय कुछ नही चाहिये, वह न हो तो अमुक काल तक संतके सिवाय कुछ नही चाहिये, वह न हो तो अमुक काल तक सत्संगके सिवाय कुछ नही चाहिये, वह न हो तो आर्याचरण (आयपुरुषो द्वारा किये गये आचरण ) के सिवाय कुछ नही चाहिये, वह न हो तो जिनभक्तिमे अति शुद्ध भावसे लीनताके सिवाय कुछ नही चाहिये, वह न हो तो फिर मांगनेकी इच्छा भी नही है।
समझमे आये विना आगम अनर्थकारक हो जाते हैं । सत्सगके बिना ध्यान तरगख्य हो जाता है। सतके बिना अतकी बातका अत नही पाया जाता । लोकसज्ञासे लोकानमे नही पहुँचा जाता । लोकत्यागके बिना वैराग्य यथायोग्य पाना दुर्लभ है।
"यह कुछ झूठा है ?" क्या ? परिभ्रमण किया सो किया; अब उसका प्रत्याख्यान लें तो ? लिया जा सकता है। यह भी आश्चर्यकारक है। अभी इतना ही, फिर सुयोगसे मिलेंगे। यही विज्ञापन ।
वि० रायचन्दके यथायोग्य ।
१२९ ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ७, शुक्र, १९४६ बम्बई इत्यादि स्थलोमे सहन को हुई उपाधि, यहाँ आनेके बाद एकातादिका अभाव (नही होना) और वक्रताकी अप्रियताके कारण यथासम्भव त्वरासे उधर आऊँगा।
१३० ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ११, मंगल, १९४६ धर्मेच्छुक भाई खीमजी,
कितने वर्ष हुए एक महती इच्छा अन्त करणमे रहा करती है, जिसे किसी स्थलपर नही कहा, कहा नहीं जा सका, कहा नहीं जा सकता, नही कहना आवश्यक है। महान परिश्रमसे प्राय उसे पूरा किया जा सकता है, तथापि उसके लिये यथेष्ट परिश्रम नही हो पाता, यह एक आश्चर्य और प्रमत्तता है। यह इच्छा सहज उत्पन्न हुई थी। जब तक वह यथायोग्य रीतिसे पूरी न की जाये तब तक आत्मा समाधिस्थ होना नही चाहता, अथवा नहीं होगा। यदि कभी अवसर होगा तो उस इच्छाको झांकी करा देनेका प्रयत्न करूँगा । इस इच्छाके कारण जीव प्रायः विडम्बनदशामे हो जीवन व्यतीत करता रहता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र मानायाणकारी है, तथापि दुनरो के प्रति बेसी कल्याणकारक होनेमे कुछ
३.
को उदित नर ऊर्मियों आपको बहुत बार नमागममे बतायी है। सुनकर उन्हें कुछ ने की दा होती हुई देखनेमे आयो है । पुन अनुरोध है कि जिन जिन स्थलोमे
उन उग न्यलोम जानेपर पुन पुन उनका अधिक स्मरण अवश्य कीजियेगा। । आत्मा है। २ वह बचा हुआ है। ३ वह कर्मका कर्ता है। ४ वह कर्मका भोक्ता है। ५ मोक्षका उपाय है।
आत्मा नाच सकता है। नो छ महा प्रवचन ह उनका निरतर शोधन करे। दगरेको विडवनाका अनुग्रह न करके अपना अनुग्रह चाहनेवाला जय नही पाता ऐसा प्राय होता
निये चाहता है कि आपने स्वात्माके अनुगहमे दृष्टि रखी हे उसकी वृद्धि करते रहिये, और उससे -17 परका अनुगह भी कर सकेंगे।
नि हो जिसकी अस्थि और धर्म हो जिसको मज्जा है, धर्म ही जिसका रुधिर है, धर्म ही जिसका जामिप , धर्म ही जिनकी त्वचा हे, धर्म ही जिसकी इद्रियां हैं, धर्म ही जिमका कर्म हे, धर्म ही जिसका नटना ह, धर्म ही जिसका वैटना है, धर्म ही जिसका उठना है, धर्म ही जिसका खडा रहना है, धर्म ही जिगता यायन हे, धर्म ही जिसकी जागृति है, धर्म ही जिसका आहार है, धर्म ही जिमका विहार है, धर्म ही जिनका निहार [ 1 ] है, धर्म हो जिसका विकल्प है, धर्म ही जिसका सकल्प है, धर्म हो जिसका सर्वस्व
ने पुरपको पाप्ति दुर्लभ है, और वह मनुप्यदेहमे परमात्मा है । इन दशाको क्या हम नहीं चाहते ? पात, नवापि प्रमाद और जसत्संगके आटे आनेसे उसमे दृष्टि नहीं देते। आत्मभावको वृद्धि कौजिये, और देहभावको कम कीजिये ।
वि० रायचदके यथोचित ।
१३१ जेतपर (मोरबी), प्रथम भादो वदी ५, बुध, १९४६ र माया,
गानीय पाठ सम्बन्धी दोनोके अर्थ मझे तो ठीक ही लगते हैं। बालगीवोकी अपेक्षासे काम किया गया जथं हिलता है, मुमुक्षुके लिये आपका कल्पित अर्थ हितकारक है, सतोके
मार,मनुप्प ज्ञान दिये प्रगान करें उनके लिये उनम्बलपर प्रत्यास्यानको दु प्रत्या.
पता है। यदि पवायोग्य ज्ञान की प्राप्ति न हो तो जो प्रत्यारयान किये हो वे देव माम को अगनत ोते हैं। इसलिये उन्हें दु प्रत्याख्यान कहा है। परन्तु इस स्थलपर ..iii inान ने सोनी पलारलेला रेनु नायंकर देवन्त हो नहीं । प्रत्याख्यान आदि
मनुष्य मिला, 37नी और मायंदेश निम मिलता है, तो फिर ज्ञान की प्राप्ति होनी ' लिलामो मानमती मगनी चाहिये।
वि० गपदके वोनित।
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२३ वाँ वर्ष
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१३२ ववाणिया, प्रथम भादो वदी १३, शुक्र, १९४६ "क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका" सत्पुरुषका क्षणभरका भी समागम ससाररूपी समुद्र तरनेके लिये नौकारूप होता है। यह वाक्य महात्मा शकराचार्यजीका है, और यह यथार्थ ही लगता है।
आपने मेरे समागमसे हुआ आनद और वियोगसे हुआ अनानद प्रदर्शित किया है, वैसा ही आपके समागमके लिये मुझे भी हुआ है।
अत करणमे निरतर ऐसा ही आया करता है कि परमार्थरूप होना, और अनेकको परमार्थ सिद्ध करनेमे सहायक होना यही कर्तव्य है, तथापि कुछ वैसा योग अभी वियोगमे है।
भविष्यज्ञानको जिसमे आवश्यकता है, उस बातपर अभी ध्यान नहीं रहा ।
१३३ ववाणिया, द्वितीय भादो सुदी २, मगल, १९४६ आत्मविवेकसपन्न भाई श्री सोभागभाई, मोरबी।
__ आज आपका एक पत्र मिला । पढकर परम सतोप हुआ । निरतर ऐसा ही सतोष देते रहनेके लिये विज्ञप्ति है।
यहाँ जो उपाधि है, वह एक अमुक कामसे उत्पन्न हुई है, और उस उपाधिके लिये क्या होगा, ऐसी कुछ कल्पना भी नही होती, अर्थात् उस उपाधिसम्बन्धी कोई चिंता करनेकी वृत्ति नहीं रहती। यह उपाधि कलिकालके प्रसगसे एक पहलेकी सगतिसे उत्पन्न हुई है । और उसके लिये जैसा होना होगा वैसा थोडे समयमे हो रहेगा । इस स सारमे ऐसी उपाधियाँ आना यह कोई आश्चर्यकी बात नही है।
ईश्वरपर विश्वास रखना यह एक सुखदायक मार्ग है। जिसका दृढ विश्वास होता हे वह दुःखी नही होता, अथवा दुखी होता है तो दुखका वेदन नहीं करता। दुख उलटा सुखरूप हो जाता है।
आत्मेच्छा ऐसी ही रहती है कि ससारमे प्रारब्धानुसार चाहे जैसे शुभाशुभ उदयमे आयें, परन्तु उनमे प्रीति-अप्रीति करनेका हम सकल्प भी न करें।
रात-दिन एक परमार्थ विषयका ही मनन रहता है । आहार भी यही है, निद्रा भी यही है, शयन भी यही है, स्वप्न भी यही है, भय भी यही है, भोग भी यही है, परिग्रह भी यही है, चलना भी यही है, आसन भी यही है। अधिक क्या कहना ? हाड़, मास और उसकी मज्जा सभी इसी एक ही रगमे रगे हुए हैं। एक रोम भी मानो इसोका ही विचार करता है, और उसके कारण न कुछ देखना भाता है, न कुछ सूचना भाता है, न कुछ सुनना भाता है, न कुछ चखना भाता है कि न कुछ छूना भाता है, न बोलना भाता हे कि न मौन रहना भाता है, न बैठना भाता है कि न उठना भाता है, न सोना भाता है कि न जागना भाता है, न खाना भाता है कि न भूखे रहना भाता है, न असग भाता है कि न सग भाता है, न लक्ष्मी भाती है कि न अलक्ष्मी भाती है ऐसा है, तथापि उसके प्रति आशा निराशा कुछ भी उदित होती मालूम नही होती। वह हो तो भी ठोक और न हो तो भी ठोक, यह कुछ दुखका कारण नही है । दुखका कारण मात्र विषमात्मा है, और वह यदि सम हे तो सब सुख ही है। इस वृत्तिके कारण समाधि रहती है । तथापि वाहरसे गृहस्थोकी प्रवृत्ति नही हो सकती, देहभाव दिखाना नही पुसाता, आत्मभावसे प्रवृत्ति वाहरसे करनेमे कितना हो अतराय हे । तो अब क्या करना ? किस पर्वतकी गुफामे जाना और ओझल हो जाना, यहो रटन रहा करती है । तथापि बाहरसे अमुक सासारिक प्रवृत्ति करनी पड़ती है। उसके लिये शोक तो नही हे तथापि जीव सहन करना नही चाहता | परमानदको छोडकर इसे चाहे भी क्यो? और इसी कारणसे ज्योतिष आदिकी ओर अभी चित्त नहीं है। चाहे जैसे भविष्यज्ञान अथवा सिद्धियोकी
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श्रीमद राजचन्द्र
इच्छा नही है, तथा उनका उपयोग करनेमे उदासीनता रहती है । उसमे भी अभी तो अधिक ही रहती हैं | इसलिये इस ज्ञानके सम्बन्धमे चित्तकी स्वस्थता से विचार करके पूछे हुए प्रश्नो के विषयमे लिखूँगा अथवा समागममे बताऊँगा ।
जो प्राणी ऐसे प्रश्नोके उत्तर पाकर आनद मानते हैं वे मोहाधीन हैं, और वे परमार्थंके पात्र होने दुर्लभ है ऐसी मान्यता है। इसलिये वैसे प्रसगमे आना भी नही भाता, परन्तु परमार्थ हेतुसे प्रवृत्ति करनी पडेगी तो किसी प्रसगसे करूँगा । इच्छा तो नही होती ।
आपका समागम अधिकतासे चाहता हूँ । उपाधिमे यह एक अच्छी विश्राति है । कुशलता है, हूँ
वि० रायचदके प्रणाम
वाणिया, द्वितीय भादो सुदी ८, रवि, १९४६
दोनो भाइयो,
देहधारीको विडबनाका होना तो एक धर्म है । उसमे खेद करके आत्मविस्मरण क्यो करना ? धर्मभक्तियुक्त आपसे ऐसी प्रयाचना करनेका योग मात्र पूर्वकर्मने दिया है । इसमे आत्मेच्छा कपित है । निरुपायताके आगे सहनशीलता ही सुखदायक है ।
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1. इस क्षेत्रमे इस कालमे इस देहधारीका जन्म होना योग्य न था । यद्यपि सब क्षेत्रोमे जन्म लेने की इच्छा उसने रोक ही दी है, तथापि प्राप्त हुए जन्मके लिये शोक प्रदर्शित करनेके लिये ऐसा रुदनवाक्य लिखा है । किसी भी प्रकारसे विदेही दशाके बिनाका, यथायोग्य जीवन्मुक्तदशा रहित और यथायोग्य निग्रंथदशा रहित एक क्षणका जीवन भी देखना जीवको सुलभ नही लगता तो फिर बाकी रही हुई अधिक आयु कैसे बीतेगी यह विडंबना आत्मेच्छा की है |
यथायोग्य दशाका अभी मुमुक्षु हूँ । कितनी तो प्राप्त हुई है । तथापि सम्पूर्ण प्राप्त हुए बिना यह जीव शाति प्राप्त करे ऐसी दशा प्रतीत नही होती । एक पर राग और एक पर द्वेष ऐसी स्थिति एक रोम भी उसे प्रिय नही है । अधिक क्या कहे ? परके परमार्थके सिवाय की तो देह ही नही भाती । आत्मकल्याणमे प्रवृत्ति कीजियेगा ।
वि० रायचदके यथायोग्य
१३४
१३५ ववाणिया, द्वितीय भादो सुदी १४, रवि, १९४६
धर्मेच्छुक भाइयो,
मुमुक्षुताके अशोसे गृहीत हुआ आपका हृदय परम सन्तोष देता है । अनादिकालका परिभ्रमण अब समाप्तिको प्राप्त हो ऐसी अभिलाषा, यह भी एक कल्याण ही है । कोई ऐसा यथायोग्य समय आ जायेगा कि जब इच्छित वस्तुकी प्राप्ति हो जायेगी ।
निरन्तर वृत्तियाँ लिखते रहियेगा । अभिलाषाको उत्तेजन देते रहियेगा । और नीचेकी धर्मंकथाका श्रवण किया होगा तथापि पुन पुन उसका स्मरण कीजियेगा ।
सम्यकूदशाके पाँच लक्षण है :
शम
सवेग
निर्वेद
आस्था
अनुकपा
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२३ वो वर्ष
२२९ क्रोधादि कषायोका शात हो जाना, उदयमे आये हुए कषायोमे मदता होना, मोड़ी जा सके ऐसी आत्मदशा होना अथवा अनादिकालकी वृत्तियाँ शात हो जाना, यह 'शम' है।
___ मुक्त होनेके सिवाय दूसरी किसी भी प्रकारकी इच्छाका न होना, अभिलाषाका न होना, यह 'सवेग' है।
जबसे यह समझ मे आया कि भ्रातिमे ही परिभ्रमण किया, तबसे अब बहुत हो गया, अरे जीव । अब ठहर, यह 'निर्वेद' है।
जिनका परम माहात्म्य है ऐसे नि:स्पृह पुरुषोके वचनमे हो तल्लीनता, यह 'श्रद्धा' 'आस्था' है। इन सब द्वारा जीवोमे स्वात्मतुल्य बुद्धि होना, यह अनुकंपा है।
ये लक्षण अवश्य मनन करने योग्य है, स्मरण करने योग्य हैं, इच्छा करने योग्य है, और अनुभव ___ करने योग्य हैं। अधिक अन्य प्रसगपर ।
वि० रायचदके यथायोग्य ।
१३६ ववाणिया, द्वितीय भादो सुदी १४, रवि, १९४६ आपका सवेग-भरा पत्र मिला । पत्रोसे अधिक क्या बताऊँ ? जब तक आत्मा आत्मभावसे अन्यथा अर्थात् देहभावसे व्यवहार करेगा; मैं करता हूँ, ऐसी बुद्धि करेगा, मै ऋद्धि इत्यादिसे अधिक हूँ यो मानेगा, शास्त्रको जालरूप समझेगा, मर्मके लिये मिथ्या मोह करेगा, तब तक उसकी शाति होना दुर्लभ है, यही इस पत्रसे बताता हूँ । इसीमे बहुत समाया हुआ है। कई स्थलोमे पढा हो, सुना हो तो भी इसपर अधिक ध्यान रखियेगा। ,
रायचद
१३७ मोरबी, द्वितीय भादो वदी ४, गुरु, १९४६ पत्र मिला । 'शातिप्रकाश' नही मिला। मिलनेपर योग्य सूचित करूँगा। आत्मशातिमे प्रवृत्ति कीजियेगा।
वि० रायचदके यथायोग्य ।
१३८
मोरबी, द्वितीय भादो वदी ६, शनि, १९४६
योग्यता प्राप्त करें। इसी प्रकार मिलेगी।
१३९ मोरबी, द्वितीय भादो वदी ७, रवि, १९४६ मुमुक्षु भाइयो,
कल मिले हुए पत्रको पहुँच पत्रसे दी है। उस पत्रमे लिखे हुए प्रश्नोका सक्षिप्त उत्तर नोचे यथामति लिखता हूँ
आपका प्रथम प्रश्न आठ रुचकप्रदेश सम्बन्धी है।
उत्तराध्ययन शास्त्रमे सर्व प्रदेशोमे कर्मसम्बन्ध बताया है, उसका हेतु यह समझमे आया है कि यह कहना उपदेशार्थ है। 'सर्व प्रदेशमे' कहनेसे, आठ रुचकप्रदेश कमरहित नहीं हैं, ऐसा शास्त्रकर्ता निषेध करते हैं, यो समझमे नही आता। असख्यातप्रदेशी आत्मामे जव मान आठ ही प्रदेश कमरहित है, तब असख्यातप्रदेशोंके सामने वे किस गिनतीमे है ? असख्यातके आगे उनका इतना अधिक लघव कि शास्त्रकारने उपदेशकी अधिकताके लिये यह वात अत करणमे रखकर बाहरसे इस प्रकार अपने किया, और ऐसी ही शैली निरन्तर शास्त्रकारकी है।
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श्रीमद् राजचन्द्र ___ अन्तर्मुहूर्त अर्थात् दो घडीके भीतरका कोई भी समय ऐसा साधारणत अर्थ होता है। परन्तु शास्त्रकारकी शैलीके अनुसार इसका अर्थ ऐसा करना पड़ता है कि आठ समयसे अधिक और दो घडीके भीतरका समय अन्तर्मुहुर्त कहलाता है। परन्तु रूढिमे तो जैसा पहले बताया है वैसा ही समझमे आता है; तथापि शास्त्रकारकी शैली ही मान्य है। जैसे यहाँ आठ समयकी बात बहुत लघुत्ववाली होनेसे स्थल स्थलपर शास्त्रमे नही बतायी है, वैसे आठ रुचकप्रदेशकी बात भी है ऐसा मेरा समझना है, और भगवती, प्रज्ञापना, स्थानाग इत्यादि शास्त्र उसकी पुष्टि करते हैं।
फिर मेरी समझ तो ऐसी है कि शास्त्रकारने सभी शास्त्रोमे न होनेवाली भी कोई बात शास्त्रमे कही हो तो कुछ चिन्ताकी बात नही है। उसके साथ ऐसा समझें कि सब शास्त्रोकी रचना करते हुए उस एक शास्त्रमे कही हुई बात शास्त्रकारके ध्यानमे ही थी। और सभी शास्त्रोकी अपेक्षा कोई विचित्र बात किसी शास्त्रमे कही हो तो इसे अधिक मान्य करने योग्य समझें, कारण कि यह बात किसी विरले मनुष्यके लिये कही गयी होती है, बाकी तो साधारण मनुष्योके लिये ही कथन होता है। ऐसा होनेसे आठ रुचकप्रदेश निबंधन है, यह बात अनिषिद्ध है, ऐसी मेरी समझ है। बाकीके चार अस्तिकायके प्रदेशोके स्थलपर इन रुचकप्रदेशोको रखकर समुद्घात करनेका केवलीसम्बन्धी जो वर्णन है, वह कितनी ही अपेक्षाओसे जीवका मूल कर्मभाव नही है, ऐसा समझानेके लिये है। इस बातकी प्रसगवशात् समागममे चर्चा करें तो ठीक होगा।
दूसरा प्रश्न- 'ज्ञानमे कुछ न्यून चौदह पूर्वधारी अनन्त निगोदको प्राप्त होते हैं और जघन्यज्ञानवाले भी अधिकसे अधिक पन्द्रह भवोमे मोक्षमे जाते हैं, इस बातका समाधान क्या है ?'
इसका उत्तर जो मेरे हृदयमे है, वही बताये देता हूँ कि यह जघन्यज्ञान दूसरा है और यह प्रसग भी दूसरा है। जघन्यज्ञान अर्थात् सामान्यत किन्तु मूल वस्तुका ज्ञान, अतिशय सक्षिप्त होनेपर भी मोक्षके बीजरूप है, इसलिये ऐसा कहा है, और 'एक देश न्यून' चौदहपूर्वधारीका ज्ञान एक मूल वस्तुके ज्ञानके सिवाय दूसरा सब जाननेवाला हुआ, परन्तु देह देवालयमे रहे हुए शाश्वत पदार्थका ज्ञाता न हुआ, और यह न हुआ तो फिर जैसे लक्ष्यके बिना फेंका हुआ तीर लक्ष्यार्थका कारण नही होता वैसे यह भी हुआ। जिस वस्तुको प्राप्त करनेके लिये जिनेन्द्रने चौदह पूर्वके ज्ञानका उपदेश दिया है वह वस्तु न मिली तो फिर चौदह पूर्वका ज्ञान अज्ञानरूप ही हुआ। यहाँ 'देश न्यून' चौदह पूर्वका ज्ञान समझना । 'देश न्यून' कहनेसे अपनी साधारण मतिसे यो समझा जाये कि पढ पढकर चौदह पूर्वके अन्त तक आ पहुँचनेमे एकाध अध्ययन या वैसा कुछ रह गया और इससे भटके, परन्तु ऐसा तो नही है। इतने सारे ज्ञानका अभ्यासी एक अल्प भागके लिये अभ्यासमे पराभवको प्राप्त हो, यह मानने जैसा नही है। अर्थात् कुछ भाषा कठिन या कुछ अर्थ कठिन नही है कि स्मरणमे रखना उन्हे दुष्कर हो । मात्र मूल वस्तुका ज्ञान न मिला इतनी ही न्यूनता, उसने चौदह पूर्वके शेष ज्ञानको निष्फल कर दिया। एक नयसे यह विचार भी हो सकता है कि शास्त्र (लिखे हुए पन्ने) उठाने और पढने इसमे कोई अन्तर नही है, यदि तत्त्व न मिला तो, क्योकि दोनोने बोझ ही उठाया। जिसने पन्ने उठाये उसने कायासे बोझ उठाया, और जो पढ गया उसने मनसे बोझ उठाया। परन्तु वास्तविक लक्ष्यार्थके बिना उनकी निरुपयोगिता सिद्ध होती है ऐसा समझमे आता है। जिसके घरमे सारा लवण समुद्र है वह तृषातुरकी तृषा मिटानेमे समर्थ नहीं है, परन्तु जिसके घरमे एक मीठे पानीको 'वीरडी'' है, वह अपनी और दूसरे कितनोकी ही तृषा मिटानेमे समर्थ है,
और ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए महत्व उसीका है, तो भी दूसरे नयपर अब दृष्टि करनी पड़ती है, और वह यह कि किसी तरह भी शास्त्राभ्यास होगा तो कुछ पात्र होनेकी अभिलाषा होगी, और कालक्रमसे पात्रता भी १. नदी या तालाबके जलविहीन भागमें पानीके लिये बनाई हुई गढ़ी ।
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२३ वा वर्ष
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लेगी और दूसरोको भी पात्रता देगा। इसलिये यहाँ शास्त्राभ्यासके निषेध करनेका हेतु नही है, परन्तु ल वस्तुसे दूर जाया जाये ऐसे शास्त्राभ्यासका निषेध करे तो एकान्तवादी नही कहलायेंगे।
इस तरह सक्षेपमे दो प्रश्नोका उत्तर लिखा है। लिखनेको अपेक्षा वाचासे अधिक समझाना हो कता है। तो भी आशा है कि इससे समाधान होगा, और यह पात्रताके किन्ही भी अशोको बढायेगा, एकान्त दृष्टिको घटायेगा, ऐसी मान्यता है।
अहो । अनन्त भवोंके पर्यटनमे किसी सत्पुरुषके प्रतापसे इस दशाको प्राप्त इस देहधारीको आप चाहते हैं, उससे धर्म चाहते हैं, और वह तो अभी किसी आश्चर्यकारक उपाधिमे पड़ा है | निवृत्त होता तो हुत उपयोगी हो पड़ता । अच्छा | आपको उसके लिये जो इतनी अधिक श्रद्धा रहती है उसका कोई मूल कारण हाथ लगा है ? उसपर रखी हुई श्रद्धा, उसका कहा हुआ धर्म अनुभव करनेपर अनर्थकारक तो
ही लगेंगे? अर्थात् अभी उसकी पूर्ण कसौटी कोजिये, और ऐसा करनेमे वह प्रसन्न है, साथ ही आपको गोग्यताका कारण है, और कदाचित् पूर्वापर भी निशक श्रद्धा ही रहेगी, ऐसा हो तो वैसा ही रखनेमे कल्याण है, यो स्पष्ट कह देना आज उचित लगनेसे कह दिया है। आजके पत्रमे बहुत ही ग्रामीण भापाका पयोग किया है, तथापि उसका उद्देश एक परमार्थ ही है।
आपके समागमके इच्छुक रायचन्द (अनाम) के प्रणाम ।
रायचन्द (जाना
१४० मोरबी, द्वितीय भादो वदी ८, सोम, १९४६ प्रश्नवाला पत्र मिला । प्रसन्न हुआ । प्रत्युत्तर लिखूगा । पात्रता-प्राप्तिका प्रयास अधिक करें।
१४१ ववाणिया, द्वितीय भादो वदी १२, शुक्र, १९४६ सौभाग्यमूर्ति सौभाग्य, व्यास भगवान कहते हैं
'इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा।
भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः॥ इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समदृष्टिसे देखनेवाले पुरुष भगवानकी भक्तिसे युक्त होकर भागवती गतिको प्राप्त हुए अर्थात् निर्वाणको प्राप्त हुए।
____ आप देखें, इस वचनमे कितना अधिक परमार्थ उन्होने समा दिया है ? प्रसगवशात् इस वाक्यका स्मरण हो आनेसे लिखा है । निरंतर साथ रहने देनेमे भगवानको क्या हानि होती होगी?
आज्ञाकारी १४२ ववाणिया, द्वि० भादों वदी १३, शनि, १९४६
आत्माका विस्मरण क्यो हुआ होगा? धर्मजिज्ञासु भाई त्रिभुवन, बंबई।
आप और दूसरे जो जो भाई मेरे पाससे कुछ आत्मलाभ चाहते हैं, वे सब लाभ प्राप्त करें यह मेरे अत.करणकी ही इच्छा है । तथापि उस लाभको देनेकी मेरी यथायोग्य पात्रतापर अभी कुछ आवरण है, १ श्रीमद्भागवत, स्कन्व ३, अध्याय २४, श्लोक ४७
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श्रीमद् राजचन्द्र
और उम लाभको लेनेकी इच्छा करनेवालोकी योग्यताको भी मुझे अनेक प्रकारसे न्यूनता मालूम हुआ करती है। इसलिये ये दोनो योग जब तक परिपक्वताको प्राप्त न हो तब तक इच्छित सिद्धिमे विलब है, ऐसी मेरी मान्यता है । वारवार अनुकपा आ जाती है, परन्तु निरुपायताके आगे क्या करूं? अपनी किसी न्यूनताको पूर्णता कैसे कहूँ ? इसलिये ऐसी इच्छा रहा करती है कि अभी तो जैसे आप सव योग्यता प्राप्त कर सकें वैसा कुछ निवेदन करता रहूँ, और जो कुछ स्पष्टीकरण पूठे सो यथामति बताता रहँ, नही तो योग्यता प्राप्त करते रहे, ऐसा बार-बार सूचित करता रहूँ।
'सायमे खीमजोका पत्र है, यह उन्हे दे दें। यह पत्र आपको भी लिखा है, ऐसा समझे।
१४३ ववाणिया, द्वि० भादो वदी १३, शनि, १९४६ नीचेकी बातोका अभ्याम तो करते ही रहे - १. चाहे जिस प्रकारसे भी उदयमे आये हुए और उदयमे आनेवाले कपायोको शात करें। २ मभी प्रकारकी अभिलापाकी निवृत्ति करते रहे। ३ इतने काल तक जो किया उस सबसे निवृत्त हो, उसे करनेसे अब रुके । ४ आप परिपूर्ण मुखी हैं, ऐसा मानें, और वाकीके प्राणियोकी अनुकपा किया करें। ५ किसी एक सत्पुरुपको खोजे, और उसके चाहे जैसे वचनोमे भी श्रद्धा रखे।
ये पाँचो अभ्यास अवश्य योग्यता देते हैं। और पांचवेमे चारोका समावेश हो जाता है, ऐसा अवश्य मानें । अधिक क्या कहूँ ? चाहे जिस कालमे भी यह पाँचवाँ प्राप्त हुए विना इस पर्यटनका अन्त आनेवाला नही है । वाकीके चार इस पाँचवेंकी प्राप्तिमे सहायक है । पाँचवेंके अभ्यासके सिवाय, उसकी प्राप्तिके सिवाय दूसरा कोई निर्वाणमार्ग मुझे नहीं सूझता, और सभी महात्माओको भी ऐसा ही सूझा होगा-(सूझा है)।
अव जैसे आपको योग्य लगे वैसे करें। आप इन सबकी इच्छा रखते हैं, तो भी अधिक इच्छा करें; शीघ्रता न करें। जितनी शीघ्रता उतनी कचाई और जितनी कचाई उतनी खटाई, इस सापेक्ष कथनका स्मरण करें।
प्रारब्धजीवी रायचदके यथायोग्य |
१४४ ववाणिया, द्वि० भादो वदी ३०, सोम, १९४६ आपका पत्र मिला । परमानंद हुआ।
चेतन्यका निरन्तर अविच्छिन्न अनुभव प्रिय है, यही चाहिये है। दूसरी कोई स्पृहा नहीं रहती। रहती हो तो भी रखनेकी इच्छा नही है। एक "तू ही, तू ही" यही यथार्थ अस्खलित प्रवाह चाहिये । अधिक क्या कहना ? यह लिखनेसे लिखा नही जाता और कहनेसे कहा नहीं जाता, मात्र ज्ञानगम्य है। अथवा तो श्रेणिश. समझमे आने योग्य है। बाकी तो अव्यक्तता ही है । इसलिये जिस नि स्पृह दशाको ही रटन है, उसके मिलनेपर ओर इस कल्पितको भूल जानेपर छुटकारा है। कव आगमन होगा?
वि० आ० रा.
१४५ ववाणिया, आसोज सुदी २, गुरु, १९४६ मेरा विचार ऐसा होता है कि · · पास आप सदा जायें । हो सके तो जीभसे, नही तो लिखकर बता दें कि मेरा अन्त.करण आपके प्रति निर्विकल्प ही है, फिर भी मेरी प्रकृतिके दोपसे किसी भी तरह
१ देखें साथका आक १४३
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२३ वो वर्ष
२३३ आपको दुःखी करनेका कारण न हो इसलिये मैंने आगमनका परिचय कम रखा है, इसके लिये क्षमा कीजियेगा । इत्यादि जैसे योग्य लगे वैसे करके आत्मनिवृत्ति कीजियेगा । अभी इतना ही। .. ....
..वि० रायचदके यथायोग्य
१४६, .:: - ववाणिया, आसोज-सुदी ५, शनि, १९४६ 'ऊचनीचनो अंतर नथी। समज्या ते पाम्या सद्गति ॥ ___ तीर्थंकरदेवने राग करनेका निषेध किया है, अर्थात् जब तक राग है तब तक मोक्ष नही होता। तब फिर इसके प्रति राग आप सबके लिये हितकारक कैसे होगा? - लिखनेवाला अव्यक्तदशा
___- १४७ ववाणिया, आसोज सुदी ६, रवि, १९४६ सुज्ञ भाई खीमजी,
आज्ञाके प्रति अनुग्रहदशक सतोषप्रद पत्र मिला। • आज्ञामे हो एकतान हुए बिना परमार्थके मार्गकी प्राप्ति बहुत ही असुलभ है। एकतान होना भी बहुत ही असुलभ है।
इसके लिये आप क्या उपाय करेंगे? अथवा क्या सोचा है ? अधिक क्या ? अभी इतना भी बहुत है।
वि० रायचन्दके यथायोग्य ।
१४८ - ववाणिया, आसोज सुदी १०, गुरु, १९४६ पाँचेक दिन पहले पत्र मिला, जिस पत्रमे लक्ष्मी आदिकी विचित्र दशाका वर्णन किया है। ऐसे अनेक प्रकारके परित्यागयुक्त विचारोको, पलट पलटकर जब आत्मा एकत्व बुद्धिको पाकर महात्माके सगकी आराधना करेगा, अथवा स्वय किसी पूर्वके स्मरणको प्राप्त करेगा तो इच्छितः, सिद्धिको प्राप्त करेगा। यह नि सशय है । विस्तारपूर्वक पत्र लिख सकूँ ऐसी दशा नही रहती। ।, वि० रायचन्दके यथोचित ।
-
ववाणिया, आसोज सुदी १०, गुरु, १९४६
१४९- धर्मध्यान, विद्याभ्यास इत्यादिकी वृद्धि करें।
१५०
ववाणिया, आसोज, १९४६ यह मैं तुझे मौतका औषध देता हूँ । उपयोग करनेमे भूल मत करना।
तुझे कौन प्रिय है ? मुझे पहचाननेवाला। । ऐसा क्यो करते है ? अभी देर है । क्या होनेवाला है ? . . हे कर्म | तुझे निश्चित आज्ञा करता हूँ कि नीति और नेकोपर मेरा पैर मत रखवाना ।
आसोज, १९४६
तीन प्रकारके वीर्यका विधान किया है-... -
(१) महावीर्य (२) मध्यवीयं..... (३) अल्पवीर्य । -- महावीर्यका तीन प्रकारसे विधान किया है--
(१) सात्त्विक (२) राजसी (३) तामसी। १ भावार्थ-ऊँचनीचका कोई अतर नही है । जो समझे वे सद्गतिको प्राप्त हुए ।
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श्रीमद् राजचन्द्र सात्त्विक महावीर्यका तीन प्रकारसे विधान किया है
(१) सात्त्विक शुक्ल (२) सात्त्विक धर्म (३) सात्त्विक मिश्र । सात्त्विक शुक्ल महावीर्यका तीन प्रकारसे विधान किया है___ (१) शुक्ल ज्ञान (२) शुक्ल दर्शन - (३) शुक्ल चारित्र (शील)। सात्त्विक धर्मको दो प्रकारसे विधान किया है
(१) प्रशस्त (२) प्रसिद्ध प्रशस्त । इसका भी दो प्रकारसे विधान किया है-
. (१) पण्णत्ते (२) अपण्णत्ते ।
सामान्य केवली
तीर्थकर यह अर्थ समर्थ है।
१५२ ववाणिया, आसोज सुदी ११, शुक्र, १९४६ आज आपका कृपा पत्र मिला। साथमे पद मिला। - सर्वार्थसिद्धकी ही बात है। जैनमे ऐसा कहा है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमानको ध्वजासे बारह योजन दूर मुक्तिशिला है । कबीर भी ध्वजासे आनन्दविभोर हो गये हैं। उस पदको पढकर परमानन्द हुआ। प्रभातमे जल्दी उठा, तबसे कोई अपूर्व आनन्द रहा ही करता था। इतनेमे पद मिला, और मूलपदका अतिशय स्मरण हो आया, एकतान हो गया। एकाकार वृत्तिका वर्णन शब्दसे कैसे किया जा सकता है ? दिनके बारह बजे तक रहा। अपूर्व आनन्द तो वैसाका वैसा ही है। परन्तु दूसरो वार्ता (ज्ञानको) करनेमे उसके बादका कालक्षेप किया।'
..१ "केवलज्ञान हवे पामशु, पामशं, पामशं, पामशु रे के०" ऐसा एक पद बनाया। हृदय बहुत आनन्दमे है।
१५३ ववाणिया, आसोज सुदी १२, शनि, १९४६ धर्मेच्छुक भाइयो,
आज आपका एक पत्र मिला (अबालालका)। उदासीनता अध्यात्मकी जननी है। , . ससारमे रहना और मोक्ष होना कहना, यह होना असुलभ है।
वि० रायचन्दके यथायोग्य। 'मोरबी, आसोज, १९४६
*बीजां साधन बहु कयाँ, करी कल्पना आप। ., . अथवा असद्गुरु थकी, ऊलटो वध्यो उताप ।
.
१ अर्थात् केवलज्ञान अब पायेंगे, पायेंगे, पायेंगे रे के। . ' २. देखें आक ८६ । --- ..... * भावार्थ-अपनी कल्पनासे अथवा-असद्गुरुके योगसे सुखके लिये दूसरे बहुतसे साधन किये, परन्तु सुखके
बदले दुख ही वढा। . . . . . .
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२३ वॉ वर्ष
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'पूर्व पुण्यना उदयथी, मळयो सद्गुरु योग ।
वचन सुधा श्रवणे जतां, थयु हृदय गतशोग ॥ २निश्चय एथी आवियो, टळशे अहीं उताप। नित्य कर्यो सत्संग मे, एक लक्षथी आप ॥
१५५
। बबई, १९४६ । “कितनी ही बातें ऐसी है कि जो मात्र आत्मग्ग्राह्य हैं, और मन, वचन एव कायासे पर है । कितनी ही वातें ऐसी हैं कि जो वचन और कायासे पर हैं, परन्तु है । श्री भगवान। श्री मघशाप।
श्री वखला। १५६
बबई, १९४६ पहले तीन कालको मुट्ठीमे लिया, इसलिये महावीरदेवने जगतको इस प्रकार देखाउसमे अनन्त चैतन्यात्मा मुक्त देखे। अनन्त चैतन्यात्मा बद्ध देखे । अनन्त मोक्षपात्र देखे। अनन्त मोक्ष-अपात्र देखे। अनन्त अधोगतिमे देखे। ऊध्वंगतिमे देखे। उसे पुरुषाकारमे देखा। जड चैतन्यात्मक देखा। १५७ - - -
स० १९४६ दैनंदिनी
बबई, कार्तिक वदी १, शुक्र, १९४६ नाना-प्रकारका मोह क्षीण हो जानेसे आत्माको दृष्टि अपने गुणसे उत्पन्न होनेवाले सुखको ओर जाती है, और फिर उसे प्राप्त करनेका वह प्रयत्न करती है । यही दृष्टि उसे उसको सिद्धि देती है।
(२) , बबई, कार्तिक वदी ३, रवि. १९४६ हमने आयुका प्रमाण नही जाना है। बालावस्था नासमझोमे व्यतीत हुई। माने कि ४६ वर्षको आयु होगी, अथवा वृद्धता देख सकेंगे इतनी आयु होगी। परन्तु उसमे शिथिल दशाके सिवाय और कुछ नही देख सकेंगे । अब मात्र एक युवावस्था रही। उसमें यदि मोहनीयवलवत्तरता न घटी तो सुखसे निद्रा १ भावार्थ पर्वपण्यके उदयसे सद्गुरुका योग मिला, उनके वचनामृत कर्णगोचर होनेसे हृदय शोकरहित हो गया। २ भावार्थ-इससे मझे निश्चय हुआ कि अव यही दुःख दूर हो जायेगा । फिर मैने एकनिष्ठासे निरन्तर सत्सग किया। ३ वर्णमालाका पहला एक एक अक्षर पढनेसे 'भगवान' शब्द बनता है। ४ वर्णमालाका दूसरा एक एक अक्षर पढ़नेसे 'भगवान' शब्द बनता है। ५ सवत १९४६ की दैनदिनीमें श्रीमद्ने अमुक तिथियोमें अपनी विचारचर्या लिखो है। किसोने इस
दैनदिनीमैसे कुछ पन्ने फाड लिये मालूम होते हैं। उसमें जितने पन्ने विद्यमान है वे यहां दिये है।
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श्रीमद राजचन्द्र
नही आयेगी, नोरोग रहा नही जायेगा, अनिष्ट सकल्प-विकल्प दूर नही होगे और जगह-जगह भटकना पडेगा, और वह भी ऋद्धि होगी तो होगा, नही तो पहले उसके लिये प्रयत्न करना पडेगा । वह इच्छानुसार मिली या न मिली यह तो एक ओर रहा, परन्तु कदाचित् निर्वाह योग्य मिलनी भी दुर्लभ है । उसीकी चिन्तामे, उसीके विकल्पमे और उसे प्राप्तकर सुख भोगेगे इसी सकल्पमे मात्र दुखके सिवाय और कुछ नही देख सकेंगे । इस वयमे किसी कार्यमे प्रवृत्ति करनेसे सफल हो गये तो एकदम घमड आ जायेगा । सफल न हुए तो लोगोका भेद और अपना निष्फल खेद बहुत दुख देगा । प्रत्येक समय मृत्युके भयवाला, रोगके भयवाला, आजीविका के भयवाला, यश होगा तो उसकी रक्षाके भयवाला, अपयश होगा तो उसे दूर करनेके भयवाला, लेनदारी होगी तो उसे लेनेके भयवाला, ऋण होगा तो उसकी चिन्ताके भयवाला, स्त्री होगी तो उसकी के भयवाला, नही होगी तो उसे प्राप्त करनेके विचारवाला, पुत्रपौत्रादि होगे तो उनकी किचकिचके भयवाला, नही होगे तो उन्हे प्राप्त करनेके विचारवाला, कम ऋद्धि होगी तो अधिकके विचारवाला, अधिक होगी तो उसे सचित रखनेके विचारवाला, ऐसा ही सभी साधनो के लिये अनुभव होगा। क्रमसे या अक्रमसे सक्षेप में कहना यह है कि अब सुखका समय कौनसा कहना ? बालावस्था ? युवावस्था ? जरावस्था ? नीरोगावस्था ? रोगावस्था ? धनावस्था ? निर्धनावस्था ? अ गृहस्थावस्था ?
गृहस्थावस्था ?
इस सब प्रकारके बाह्य परिश्रमके बिना अनुपम अन्तरग विचारसे जो विवेक हुआ वही हमे दूसरी दृष्टि देकर सर्व कालके लिये सुखी करता है । इसका आशय क्या ? यही कि अधिक जिये तो भी सुखी, कम जिये तो भी सुखी, फिर जन्मना हो तो भो सुखी, न जन्मना हो तो भी सुखी ।
( ३ ) बंबई, मगसिर सुदी १-२, रवि, १९४६ हे गौतम ! उस काल और उस समय छद्मस्थ अवस्थामे, मे एकादश वर्षके पर्यायमे, षष्ठभक्तसे षष्ठभक्त ग्रहण करके, सावधानतासे, निरन्तर तपश्चर्या और सयमसे आत्मताकी भावना करते हुए, पूर्वानुपूर्वीसे चलते हुए, एक गाँवसे दूसरे गाँवमे जाते हुए, जहाँ सुषुमारपुर नगर, जहाँ अशोक वनखड उद्यान, जहाँ अशोकवर पादप, जहाँ पृथ्वीशिलापट्ट था, वहाँ आया, आकर अशोकवर पादपके नीचे, पृथ्वीशिलापट्टपर अष्टमभक्त ग्रहण करके, दोनो पैरोको संकुचित करके, करोको लम्बा करके, एक पुद्गलमे दृष्टिको स्थिर करके, अनिमेष नयनसे, शरीरको जरा नीचे आगे झुकाकर, योगको समाधिसे, सर्वं इन्द्रियोको गुप्त करके, एक रात्रिकी महा प्रतिमा धारण करके, विचरता था । ( चमर) '
-
( ४ )
बंबई, पौष सुदी ३, बुध, १९४६
2
नीचे नियमोपर बहुत ध्यान दे -
१ एक बात करते हुए उसके पूरी न होने तक आवश्यकताके बिना दूसरी बात नही करनी
चाहिये ।
२. कहनेवाले की बात पूरी सुननी चाहिये ।
}
। ३ स्वय धीरजसे उसका सदुत्तर देना चाहिये |
४ जिसमे आत्मश्लाघा या आत्महानि न हो वह बात कहनी चाहिये ।
५ धर्म सम्बन्धी अभी बहुत ही कम बात करना |
६ लोगोसे धर्मव्यवहारमे नही पड़ना ।-
-5
१. श्री भगवती सूत्र, शतक ३, उद्देशक २
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२३ वो वर्ष
बंबई, वैशाख वदी ४, गुरु, १९४६ *आज मने उछरग अनुपम, जन्मकृतार्थ जोग जणायो। वास्तव्य वस्तु, विवेक विवेचक-ते क्रम स्पष्ट सुमार्ग गणायो॥
--- (६) - बबई, वैशाख वदी ५, शुक्र, १९४६ इच्छारहित कोई प्राणी नही है । उसमे भी मनुष्य प्राणी विविध आशाओसे घिरा हुआ है। जब तक इच्छा-आशा अतृप्त है तब तक वह प्राणी अधोवृत्तिवत् है । इच्छाजयी प्राणी ऊर्ध्वगामीवत् है।
बबई, जेठ सुदी ४, गुरु, १९४६ हे परिचयो । आपसे मै अनुरोध करता हूँ कि आप अपनेमे योग्य होनेकी इच्छा उत्पन्न करें। मैं उस इच्छाको पूर्ण करनेमे सहायक होऊंगा।"
___ आप मेरी अनुयायी हुईं, और उसमे जन्मातरके योगसे मुझे प्रधानपद मिलनेसे आप मेरी आज्ञाका अवलंबन करके व्यवहार करें यह उचित माना है।
और मै भी आपके साथ उचितरूपसे व्यवहार करना चाहता हूँ, दूसरी तरह नही।
यदि आप पहले जीवनस्थिति पूर्ण करे, तो धर्मार्थ के लिये मुझे चाहे, ऐसा करना उचित मानता हूँ, और यदि मैं करूँ तो धर्मपात्रके तौरपर मेरा स्मरण हो, ऐसा होना चाहिये। ।
दोनो धर्ममूत्ति होनेका प्रयत्न करें, बडे हर्षसे प्रयत्न करें।
आपकी गतिसे मेरी गति श्रेष्ठ होगी, ऐसा अनुमान किया है-मतिमे । उसका लाभ आपको देना चाहता है, क्योकि आप बहुत ही निकटके सम्बन्धी हैं । वह लाभ आप लेना चाहती हो तो दूसरी धारामे कहे अनुसार जरूर करेंगी ऐसी आशा रखता हूँ।
आप स्वच्छताको बहुत ही चाहे । वीतराग भक्तिको बहुत ही चाहे । मेरी भक्तिको समभावसे चाहे । आप जिस समय मेरी सगतिमे हो उस समय ऐसे रहे कि मुझे सभी प्रकारसे आनंद हो।
विद्याभ्यासी होवें। मुझसे, विद्यायुक्त विनोदी सभाषण करें। मैं आपको युक्त बोध दूंगा। उससे आप रूपसपन्न, गुणसपन्न और ऋद्धि तथा बुद्धिसपन्न होगी। .
फिर यह दशा देखकर मैं परम प्रसन्न होऊँगा। ...
(८)
बवई, जेठ सुदी ११, शुक्र, १९४६ सबेरेका छ से आठ तकका समय समाधियुक्त बीता था । अखाजीके विचार बहुत स्वस्थ चित्तसे पढे थे, मनन किये थे।
(९)
___ बबई, जेठ सुदी १२, शनि, १९४६ कल रेवाशकरजी आनेवाले हैं, इसलिये तबसे नीचेके क्रमका पार्श्व प्रभु पालन कराये१. कार्यप्रवृत्ति। २ साधारण भाषण-सकारण | ३ दोनोके अतःकरणकी निर्मल प्रीति ।
*भावार्य-आज मुझे अनुपम आनन्द हुआ है, जन्मको कृतार्थताका योग प्रतीत हुज्ञा है। वस्तुकी ययार्यता. विवेक और विवेचनके क्रमका सुमार्ग स्पष्टतासे प्रतीत हुआ है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
४ धर्मानुष्ठान ।' ५ वैराग्यकी तीव्रता।
(१०) . बंबई, जेठ वदी ११, शुक्र, १९४६ तुझे अपना अस्तित्व माननेमे कहाँ शका है ? शंका हो तो वह ठीक भी नही है ।
. (११) ... बबई, जेठ वदी १२, शनि, १९४६ कल रात एक अद्भुत स्वप्न आया था। जिसमे दो एक पुरुषोके सामने इस जगतकी रचनाके स्वरूपका वर्णन किया था, पहले सब कुछ भुलाकर पीछे जगतका दर्शन कराया था। स्वप्नमे महावीरदेवकी शिक्षा सप्रमाण हुई थी। इस स्वप्नका वर्णन बहुत सुन्दर और चमत्कारिक होनेसे परमानन्द हुआ था । अब फिर तत्सम्बन्धी अधिक ।
(१२) । बबई आषाढ सुदी ४, शनि, १९४६ कलिकालने मनुष्यको स्वार्थपरायण और मोहवश किया। . । जिसका हृदय शुद्ध है और जो सतकी बतायी हुई राहसे चलता है, उसे धन्य है।
सत्सगके अभावसे चढी हुई आत्मश्रेणी प्राय पतित होती है।
(१३) - बबई, आषाढ सुदी ५, रवि, १९४६ - जब यह व्यवहारोपाधि ग्रहण की तब उसे ग्रहण करनेका हेतु यह था -
भविष्यकालमे जो उपाधि बहत समय लेगी, वह उपाधि अधिक दू खदायक हो तो भी थोडे समयमै भोग लेनी यह अधिक श्रेयस्कर है। ।
यह उपाधि निम्नलिखित हेतुओसे समाधिरूप होगी ऐसा माना था - .." धर्मसम्बन्धी अधिक बातचीत इस कालमे गृहस्थावस्थामे न हो तो अच्छा । ।
भले तुझे विषम लगे, परन्तु इसी क्रममे प्रवृत्ति कर । अवश्य ही इसी क्रममे प्रवृत्ति कर । दुखको सहन करके, क्रमकी रक्षाके परिषहको सहन करके, अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गको सहन करके तू अचल रह । अभी कदाचित् अधिकतर विषम लगेगा, परन्तु परिणाममे वह विषम सम हो जायेगा। घेरेमे तू मत फँसना । बार-बार कहता हूँ मत फँसना, दुखी होगा, पश्चात्ताप करेगा, इसकी अपेक्षा अभीसे इन वचनोको हृदयमे उतार-प्रीतिपूर्वक उतार।
१ किसीके भी दोष मत देख । जो कुछ होता है, वह तेरे अपने दोषसे होता है, ऐसा मान । २ तू अपनी (आत्म) प्रशसा मत करना, और करेगा तो तू ही हलका है ऐसा मैं मानता हूँ।
३ जैसा दूसरोको प्रिय लगे वैसा अपना बर्ताव रखनेका प्रयत्न करना । उसमे तुझे एकदम सिद्धि नही मिलेगी, अथवा विघ्न आयेंगे, तथापि दृढ आग्रहसे धीरे-धीरे उस क्रमपरं अपनी निष्ठा जमाये रखना।
४ तू व्यवहारमे जिसके साथ सम्बद्ध हुआ हो उसके साथ अमुक प्रकारसे बरताव करनेका निर्णय करके उसे बता दे। उसे अनुकूल आ जाये तो वैसे, नही तो जैसे वह कहे वैसे बरताव करना ।. साथ ही बता देना कि आपके कार्यमे (जो मुझे सौंपेगे उसमे) किसी प्रकारसे मैं अपनी निष्ठाके -कारण हानि नही पहुँचाऊँगा । आप मेरे सम्बन्धमे दूसरी कोई कल्पना न करें, मुझे व्यवहार सम्बन्धी अन्यथा भाव नही है, ओर में आपसे वैसा बरताव करना भी नहीं चाहता। इतना ही नहीं, परन्तु मनवचनकायासे मेरा कुछ
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(१४) बम्बई, आषाढ वदी ४, रवि, १९४६ विश्वाससे व्यवहार करके अन्यथा व्यवहार करनेवाले आज पछतावा करते हैं।'
बम्बई, आषाढ वदी ११, शनि, १९४६
(१५) . .. तुच्छ और वाचाहीन यह जगत तो देखें।
.... . .
(१६) । बम्बई, आषाढ वदी १२, रवि, १९४६ ___दृष्टि ऐसी स्वच्छ करे कि जिसमे सूक्ष्मसे सूक्ष्म दोष भी दिखायी दे सके, और दिखायी देनेसे उनका क्षय हो सके।
(१७) वाणिया, आसोज सुदी १०, गुरु, १९४६ बीजज्ञान। ...
। । । भगवान महावीरदेव, । शोधे तो केवलज्ञान कुछ कहा जा सके ऐसा यह स्वरूप नही है।
ज्ञानी रत्नाकर
ये सब नियतियाँ किसने कही ? हमने ज्ञानसे देखकर फिर जैसी योग्य प्रतीत हुई वैसी व्याख्या की। . .
भगवान महावीरदेव । - १०, ९, ८, ७, ६, ४, ३, २, १
पाठान्तर-१ कराते हैं।
२ अविद्यमान ।
३. अयाचित ।
माम
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श्रीमद् राजचन्द्र परमात्मसृष्टि किसीको विषम होने योग्य नही है।
पन्ना ३
पन्ना ४ जीवसृष्टि जीवको विषमताके लिये स्वीकृत है।
पन्ना ५-६ - परमात्मसृष्टि परम ज्ञानमय और परम । . .आनन्दसे परिपूर्ण व्याप्त है । .. पन्ना ७ जीवको स्वसृष्टिसे उदासीन होना योग्य है। . . . . . . पन्ना ८ . हरिकी प्राप्तिके विना जीवका क्लेश दूर नहीं होता। '' पन्ना ९ हरिके गुणग्रामका अनन्य चितन नहीं है,
- यह चिंतन भी विषम है। पंन्ना १० हरिमय हो हम होनेके योग्य हैं।
.... पन्ना ११ हरिको माया है, उससे वह प्रवृत्त होता है।
हरिको वह प्रवृत्त कर सकने योग्य है ही नहीं। ';:. .
.
.
.
"
पन्ना १२
वह माया भी होनेके योग्य ही है।
पन्ना १३ ' . माया न होती तो हरिका अकलत्व कौन कहता
पन्ना १४ पन्ना १५
माया ऐसी नियतिसे युक्त है कि उसका प्रेरक अबधन ही होने योग्य है। हरि हरि ऐसा ही सर्वत्र हो, .. . - - - वही प्रतीत हो, उसोका भान हो। - उसीकी सत्ता हमे भासित हो। " . . ..., उसमे ही हमारा अनन्य, अखण्ड . .
. . . अभेद होना योग्य ही था।
पन्ना १६ जीव अपनी सृष्टिपूर्वक अनादिकालसे परिभ्रमण करता है।
हरिको सृष्टिसे अपनी सृष्टिका अभिमान मिटता है। पन्ना १७ ऐसा समझानेके लिये, प्ताप्ति होनेके लिये हरिका अनुग्रह चाहिये। पन्ना १८ तपश्चर्यावान प्राणीको सतोष देना इत्यादि साधन उस परमात्माके अनुग्रहके कारणरूप
। होते हैं।
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पन्ना १९
उस परमात्माके अनुग्रहसे पुरुष वैराग्य विवेक आदि साधनसंपन्न होता है।
पन्ना २० इन साधनोसे युक्त ऐसा योग्य पुरुष सद्गुरुकी आज्ञाको समुत्थित करने योग्य है । पन्ना २१-२२ ये साधन जीवकी परमं योग्यता और यही परमात्माकी प्राप्तिका सर्वोत्तम उपाय हैं । पन्ना २३ सभी कुछ हरिरूप ही है । इसमे, फ़िर भेद कैसा? . ..
भेद है ही नहीं। सर्व आनन्दरूप ही है।
ब्राह्मी स्थिति । स्थापितो ब्रह्मवादो हि,
सर्व वेदातगोचरः। पन्ना २४ यह सब ब्रह्मरूप ही है, ब्रह्म ही है।
ऐसा हमारा दृढ निश्चय है। - -. . इसमे कोई भेद नही है, जो है वह सर्व ब्रह्म ही है। सर्वत्र ब्रह्म है, सर्वरूप ब्रह्म है । उसके सिवाय कुछ नही है। जीव ब्रह्म है, जड ब्रह्म है । हरि ब्रह्म है, हर ब्रह्म है। ब्रह्मा ब्रह्म है । ॐ ब्रह्म है । वाणी ब्रह्म है । गुण ब्रह्म है। 7 सत्त्व ब्रह्म है । रजो ब्रह्म है । तमो ब्रह्म है । पंचभूत ब्रह्म है। . 'आकांश ब्रह्म है। वायु ब्रह्म है । अग्निः ब्रह्म है। जल भी ब्रह्म है। ,
पृथ्वी भी ब्रह्म है । देव ब्रह्म है। मनुष्य ब्रह्म है। तिर्यच ब्रह्म है।
नरक ब्रह्म है। सर्व ब्रह्म है। अन्य नही है।. . . पन्ना २५ काल ब्रह्म है । कर्म ब्रह्म है । स्वभाव ब्रह्म है । नियति ब्रह्म है।
ज्ञान ब्रह्म है । ध्यान ब्रह्म है। जप ब्रह्म है । तप ब्रह्म है । सर्व ब्रह्म है। नाम ब्रह्म है । रूप ब्रह्म है । शब्द ब्रह्म है । स्पर्श ब्रह्म है। रस ब्रह्म है। गध ब्रह्म है । सर्व ब्रह्म है। - - ऊँचे नीचे तिरछे सर्व ब्रह्म है। एक ब्रह्म है । अनेक ब्रह्म हैं। ब्रह्म एक है, अनेक भासित होता है।
सर्व ब्रह्म है।
सर्व ब्रह्म है। सर्व ब्रह्म है।
ॐ शाति शातिः शातिः। सर्व ब्रह्म है, इसमे सशय नही । मै ब्रह्म, तू ब्रह्म, वह ब्रह्म इसमे सशय नही।
पन्ना २६
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श्रीमद राजचन्द्र हम ब्रह्म, आप ब्रह्म, वे ब्रह्म इसमे संशय नही। जो ऐसा जानता है वह ब्रह्म, इसमे सशय नही । जो ऐसा नही जानता वह भी ब्रह्म, इसमे संशय नही। जीव ब्रह्म है, इसमे सशय नही। जड ब्रह्म है, इसमे सशय नही। ब्रह्म जीवरूप हुआ है, इसमे सशय नही। ब्रह्म जडरूप हुआ है, इसमे सशय नही। '
।
सर्व ब्रह्म है, इसमे सशय नही ।
ॐ ब्रह्म। सर्व ब्रह्म, सर्व ब्रह्म। ॐ शातिः शातिः शाति ।
पन्ना २७
सर्व हरि है, इसमे सशय नही।
पन्ना २८
यह सब आनन्दरूप ही है, आनन्द ही है, इसमे सशय नही।
पन्ना २९
हरि ही सर्वरूप हुआ है।
-हरिका अंश हूँ। । १ उसका परमदासत्व करने योग्य हूँ, ऐसा दृढ निश्चय करना, इसे हम विवेक कहते हैं । २ ऐसे दृढ निश्चयको उस हरिकी माया आकुल करनेवाली लगती है, वहां धैर्य रखना। ३ वह सब रहनेके लिये उस परम रूप हरिका आश्रय अगोकार करना अर्थात् 'मैं' के
स्थानपर हरिको स्थापित करके मै को दासत्व देना । ४ ऐसे ईश्वराश्रयी होकर प्रवृत्ति करें, ऐसा हमारा निश्चय आपको रुचे।
.. केवल पद .. .
.. । कक्का केवळ पद उपदेश। कहीशं प्रणमी देव रमेश ॥ १ कोई भी वस्तु किसी भी भावसे परिणत होती है। २. जो किसी भी भावसे परिणत नही, वह अवस्तु है। ३ कोई भी वस्तु केवल परभावमे समवतरित नही होती। ४ जिससे, जो सर्वथा मुक्त हो सके वह वह न था, ऐसा जानते हैं।
पन्ना ३०
पन्ना ३१
१ भावार्थ -रमेशदेवको प्रणाम करके हम कहते हैं कि कक्का केवल पदका उपदेश देता है।
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१६१ हे सहजात्मस्वरूपी | आप कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह दुविधामे पडे है ? यह कहें। ऐसी विभ्रात और दिग्मूढ दशा क्यो ?
___ मै क्या कहूँ ? आपको क्या उत्तर दूँ ? मति दुविधामे पड गयी है, गति नही चलती । आत्मामे । 'खेद ही खेद और कष्ट ही कष्ट हो रहा है। कही भी दृष्टि नही ठहरती और हम निराधार, निराश्रय हो गये है। ऊँचे-नीचे परिणाम प्रवाहित होते रहते है। अथवा लोकादिके स्वरूपके विषयमे उलटे विचार आया करते हैं, किंवा भ्राति और मूढता रहा करती है। कही दृष्टि नही पहुँचती। भ्राति हो गयी है कि अब मुझमे कोई विशेष गुण दिखायी नही देता। मै अब दूसरे मुमुक्षुओको भी सच्चे स्नेहसे प्रिय नही हूँ। वे सच्चे भावसे मुझे नहीं चाहते । अथवा कुछ अनिच्छासे और मध्यम स्नेहसे प्रिय समझते है । अधिक 'परिचय नही करना चाहिये, वह मैंने किया, उसका भी खेद होता है।
सभी दर्शनोमे शका होती है । आस्था नही आती। यदि ऐसा है तो भी चिन्ता नही । आत्माकी आस्था है अथवा वह भी नही है ?
उसकी आस्था है। उसका अस्तित्व है, नित्यत्व है, और वह चैतन्यवान है। अज्ञानसे कर्ताभोक्तापन है । ज्ञानसे परयोगका कर्ताभोक्तापन नही है।
ज्ञानादि उसका उपाय है। इतनी आस्था है। परन्तु उस आस्थाके प्रति अभी आत्मवृत्ति विचारशून्यतावत् रहती है। इसका बडा खेद है।
यह जो आपको आस्था है यही सम्यग्दर्शन है । किसलिये दुविधामे पड़ते है ? विकल्पमे पड़ते हैं ?
इस आत्माकी व्यापकताके लिये, मुक्तिस्थानके लिये, जिनकथित केवलज्ञान और वेदान्तकथित केवलज्ञानके लिये तथा शुभाशुभ गति भोगनेके लोकके स्थान, तथा वैसे स्थानोके स्वभावतः शाश्वत अस्तित्वके लिये, तथा इसके मापके लिये वारवार शंका और शका ही हुआ करती है, और इससे आत्मा स्थिर नही हो पाता।
जो जिनेन्द्रने कहा है उसे माने न ।
जगह-जगह शका होती है। तीन कोसके आदमो-चक्रवर्ती आदिके स्वरूप इत्यादि मिथ्या लगते ... हैं । पृथिवी आदिके स्वरूप असभव लगते हैं।
उसका विचार छोड दे। छोडे छूटता नही है। किसलिये ?
यदि उसका स्वरूप उनके कहे अनुसार न हो तो उन्हें जैसा केवलज्ञान कहा है वैसा नही था, ऐसा सिद्ध होता है। तो क्या वैसा मानना? तो फिर लोकका स्वरूप कौन यथार्थ जानता है ऐसा मानना? कोई नही जानता ऐसा मानना ? और ऐसा जाने तो सबने अनुमान करके ही कहा है, ऐसा मानना पड़ता है। तो फिर बध मोक्ष आदि भावोकी प्रतीति क्या ?
योगसे वैसा दर्शन होता हो, तो किसलिये अन्तर पड़ेगा?
'समाधिमे छोटी वस्तु बड़ी दिखायी देती है और इससे मापमे विरोध आता है। समाधिमे चाहे जैसा दिखायी देता हो परन्तु मूलरूप इतना है और समाधिमे इस प्रकार दिखायी देता है, ऐसा कहनेमे क्या हानि थी?
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श्रीमद राजचन्द्र
वह कहा भी गया हो, परन्तु वर्तमान शास्त्रमे वह नही रहा ऐसा समझनेमे क्या हानि ? हानि कुछ नही, परन्तु इस तरह स्थिरता, यथार्थ नही आती ।
दूसरे भी बहुतसे भावोमे जगह-जगह विरोध दिखायी देता है ।
आप स्वय भूल हो
?
यह भी सत्य है, परन्तु हम सत्य समझने के अभिलापी है । कुछ लाज-शर्म, मान, पूजा आदिके अभिलापी नही है फिर भी सत्य समझमे क्यो नही आता ? '
J
सद्गुरुकी दृष्टिसे समझमे आता है । स्वत यथार्थ समझ मे नही आता ।
सद्गुरुका योग तो मिलता नही है । और हमको सद्गुरुके तौरपर माना जाता है । तो फिर क्या करना ? हम जिस विषयमे शकावाले हैं, उस विषयमे दूसरोको क्या समझायें ? कुछ समझाया नही जाला ओर समय बीतता जाता है। इस कारणसे तथा कुछ विशेष उदयसे त्याग भी नही होता । जिससे सारी स्थिति शकारूप हो गयी है । इसकी अपेक्षा तो हमारे लिये जहर पीकर मर जाना उत्तम है,
"
सर्वोत्तम है ।
१
दर्शनपरिवह इसी तरह भोगा जाता है क्या ?
यह योग्य है । परन्तु हमको लोगोका परिचय "हम ज्ञानी है" ऐसी उनकी मान्यता के साथ न हुआ होता तो क्या बुरा था ?
वही होनहार था ।
अरे ! हे दुष्टात्मन् । पूर्वमे उचित सन्मति नही रखी और कर्मबन्ध किये तो अब तू ही उनके फल भोगता है । तू या तो जहर पी और या तो उपाय तत्काल कर ।
1
योगसाधन करू ?
उसमे बहुत अतराय देखनेमे आते है । वर्तमानमे परिश्रम करते हुए भी वह उदयमे नही आता ।,
१६२
श्री । आप शकारूप भँवरमे वारवार फँसते हैं, इसका अर्थ क्या है ? नि सदेह होकर रहे, और यही आपका स्वभाव है ।
हे अन्तरात्मा । आपने जो वाक्य कहा वह यथार्थ है । नि. सदेहरूपसे स्थिति यह स्वभाव है, तथापि जब तक सदेहके आवरणंका सर्वथा क्षय त किया जा सका हो तब तक वह स्वभाव चलायमान अथवा अप्राप्त रहता है और इस कारण से हमे भी वर्तमान दशा प्राप्त है ।
श्री
। आपको जो कुछ सदेह रहता हो उस सदेहका स्वविचारसे. अथवा सत्समागमसे
क्षय करें ।
[1
13
हे अन्तरात्मां । वर्तमान, आत्मदशाको देखते हुए यदि परम सत्समागम प्राप्त हुआ हो और उसके श्रवृत्ति प्रतिवन्धको प्राप्त हुई हो तो वह सदेहकी निवृत्तिका हेतु होना संभव है । अन्यथा दूसरा कोई उपाय दिखायी नही देता, और परम सत्समागम अथवा सत्समागम भी प्राप्त होना अत्यत कठिन है । श्री । आप कहते हैं वैसे सत्समागमकी दुर्लभता है, इसमे सशय नही है, परन्तु वह दुर्लभता यदि सुलभ न हो और वैसा विशेष अनागत कालमे भी आपको दिखायी देता हो तो आप शिथिलताका त्याग करके स्वविचारका दृढ अवलवन ग्रहण करे, और परम पुरुषकी आज्ञामे भक्ति रखकर सामान्य सत्समागममे भी काल व्यतीत करे ।
"
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२३ वो वर्ष हे अतरात्मा । वे सामान्य सत्समागमी हमे पूछकर सदेहकी निवृत्ति करना चाहते है, और हमारी आज्ञासे प्रवृत्ति करना कल्याणरूप है ऐसा जानकर वशवर्ती होकर प्रवृत्ति करते है। जिससे हमे उनके समागममे तो निजविचार करनेमे भी उनको सभाल लेनेमे पडना पडे, और प्रतिबन्ध होकर स्वविचारदशा बहुत. आगे न बढे, इसलिये सर्दैह तो वैसे ही रहे। ऐसा सदेहसाहचर्य जब तक हो तब तक दूसरे जीवोके अर्थात् सामान्य सत्समागम आदिमे भी आना योग्य नही, इसलिये क्या करना यह नही सूझता।
१६३ हे हरि | इस कलिकालमे तेरे प्रति अखड प्रेमका एक क्षण भी बीतना दुर्लभ है, ऐमी निवृत्ति लोग भूल गये हैं । प्रवृत्तिमे प्रवृत्त होकर निवृत्तिका भान भी नही रहा | नाना प्रकारके सुखाभासके लिये प्रयत्न हो रहा है । चाव भी नष्ट प्राय हो गया है । वृद्धमर्यादा नही रही। धर्ममर्यादाका तिरस्कार हुआ । करता है । सत्सग क्या ? और यही एक कर्तव्यरूप है ऐसा समझना केवल दुष्कर हो पड़ा है। सत्सगकी प्राप्तिमे भी जीवको उसकी पहचान होनी महा विकट हो पड़ी है। जीव मायाकी प्रवृत्तिका प्रसग वारवार किया करते हैं । एक बार जिन वचनोकी प्राप्ति होनेसे जीव बधनमुक्त हो और तेरे स्वरूपको प्राप्त करे, वैसे वचन बहुत बार कह जानेका भी कुछ ही फल नहीं होता। ऐसी अयोग्यता जीवोमे आ गयी है। निष्कपटता हानिको प्राप्त हुई है। शास्त्रमे सदेह उत्पन्न करना इसे ' जीवने एक ज्ञान मान लिया है। परिग्रहकी प्राप्तिके लिये तेरे भक्तको भी ठगनेका कार्य उसे पापरूप नहीं लगता । परिग्रहका उपार्जन करनेवाले सगे सम्वन्धियोसे जीवने जैसा प्रेम किया है वैसा प्रेम तुझसे अथवा तेरे ,भक्तसे किया होता तो जीव तुझे प्राप्त कर लेता। सर्व भूतोमे दया रखनी और सबमे तू है ऐसा समझकर दासत्वभाव रखना, • यह परम धर्म स्खलित हो गया है। सर्व रूपोमे तेरा अस्तित्व समान ही है, इसलिये भेदभावका त्याग करना, यह महा पुरुषोका अन्तरग ज्ञान आज कही भी दृष्टिगोचर नही होता । हम कि जो तेरा मात्र निरतर दासत्व ही अनन्य प्रेमसे चाहते है, उसे भी तू कलियुगका प्रसगी सग दिया करता है।
• अब हे हरि । यह देखा नही जाता, सुना नही जाता, यह न कराना योग्य है। फिर भी हमारे प्रति 'तेरी ऐसी ही इच्छा हो तो प्रेरणा कर कि जिससे हम उसे केवल सुखरूप ही मान लेंगे। हमारे प्रसगमे आये हुए जीव किसी प्रकारसे दुखी न हो और हमारे द्वेषी न हों (हमारे कारणसे) ऐसा मुझ शरणागतपर अनुग्रह होना योग्य हो तो कर | मुझे बडेसे बडा दु ख मात्र इतना ही है कि जीव तेरेसे विमुख करनेवाली वृत्तियोंसे प्रवृत्ति करते हैं । उनका प्रसग होना और फिर किन्ही कारणोसे उन्हे तेरे सन्मुख होनेका कहनेपर भी उसका अगीकार न होना यह हमे परम दुःख है । और यदि वह योग्य होगा तो उसे दूर करनेके लिये हे नाथ | तू समर्थ है, समर्थ है । हे हरि | वारवार मेरा समाधान कर, समाधान कर ।
अद्भुत । अद्धत । अद्भत । परम अचिंत्य ऐसा तेरा स्वरूप, हे हरि । मै पामर प्राणी उसका कैसे पार पाऊँ ? मै जो तेरे अनत ब्रह्माडका एक अश वह तुझे कैसे जानूं ? सर्वसत्तात्मक ज्ञान जिसके मध्यमे हैं ऐसे हे हरि | तुझे चाहता हूँ, चाहता हूँ। तेरी कृपा चाहता हूँ। तुझे वारवार हे हरि । चाहता हूँ। हे श्रीमान पुरुषोत्तम ! तू अनुग्रह कर । अनुग्रह कर ॥
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. २४ वाँ वर्ष
___१६५ ... बबई, कार्तिक सुदी ५, सोम, १९४७ परम पूज्य-केवलबीज-सम्पन्न, सर्वोत्तम उपकारी श्री सौभाग्यभाई,
___ मोरबी। आपके प्रतापसे यहाँ आनन्दवृत्ति है । प्रभुके प्रतापसे उपाधिजन्य वृत्ति है।
भगवान परिपूर्ण सर्वगुणसम्पन्न कहलाते है। तथापि इनमे भी कुछ कम अपलक्षण नहीं है । विचित्र करना यही है इसकी लीला | तो अधिक क्या कहना
सर्व समर्थ पुरुष आपको प्राप्त हुए ज्ञानके ही गोत गा गये है। इस ज्ञानको दिन प्रतिदिन इस आत्माको भी विशेषता होती जाती है । मैं मानता हूँ कि केवलज्ञान तकका परिश्रम व्यर्थ तो नही जायेगा। हमे मोक्षकी कोई जरूरत नही है। निःशकताकी, निर्भयताकी, निराकुलताकी और नि.स्पृहताकी जरूरत थी, वह अधिकाशमे प्राप्त हुई मालूम होती है, और पूर्णाशमे प्राप्त करानेकी गुप्त रहे हुए करुणासागरकी कृपा होगी, ऐसी आशा रहती है। फिर भी इससे भी अधिक अलोकिक दशाकी इच्छा रहती है, तो विशेष क्या कहना?
अनहद ध्वनिमे कमी नहीं है । परन्तु गाड़ी-घोड़ेकी उपाधि श्रवणका सुख थोडा देती है। निवृत्तिके सिवाय यहाँ दूसरा सब कुछ है। । ।
जगतको, जगतकी लीलाको बैठे बैठे मुफ्तमे देख रहे हैं। आपकी कृपा चाहता हूँ।
___ वि० आज्ञाकारी रायचन्दका प्रणाम ।
बबई, कार्तिक सुदी ६, मगल, १९४७ सत्पुरुषके एक-एक वाक्यमे, एक-एक शब्दमे अनत आगम निहित हैं, यह बात कैसे होगी?
निम्नलिखित वाक्य मैंने असख्य सत्पुरुषोकी सम्मतिसे प्रत्येक मुमुक्षुके लिये मगलरूप माने हैं, मोक्षके सर्वोत्तम कारणरूप माने हैं :
१ मायिक सुखकी सर्व प्रकारकी वाछा चाहे जब भी छोड़े बिना छुटकारा होनेवाला नही है, तो जबसे इस वाक्यका श्रवण किया, तभीसे उस क्रमका अभ्यास करना योग्य हो है, ऐसा समझे।
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२४ वॉ वर्ष
२४
२. किसी भी प्रकारसे सद्गुरुकी शोध करे, शोध करके उसके प्रति तन, मन, वचन और आत्मा अर्पणबुद्धि करे; उसीकी आज्ञाका सर्वथा नि.शकतासे आराधन करे, और तभी सर्व मायिक वासनाव अभाव होगा, ऐसा समझें ।
३. अनादि कालके परिभ्रमणमे अनतवार शास्त्रश्रवण, अनतवार विद्याभ्यास, अनंतवार जिनदी ६ और अनंतवार आचार्यत्व प्राप्त हुआ है । मात्र 'सत्' मिला नही, 'सत्' सुना नही, और 'सत्' की श्रद्धा व नही, और इसके मिलने, सुनने और श्रद्धा करनेपर ही छुटकारेकी गूँज आत्मामे उठेगी।
४. मोक्षका मार्ग बाहर नही, परन्तु आत्मामे है | मार्गको प्राप्त पुरुष मार्गको प्राप्त करायेगा । ५ मार्ग दो अक्षरोमे निहित है और अनादि कालसे इतना सब करनेपर भी क्यो प्राप्त नही हुआ इसका विचार करें।
बबई, कार्तिक सुदी १२, रवि, १९४
१६७ ॐ सत्
हरीच्छा सुखदायक ही है ।
निर्विकल्प ज्ञान होनेके बाद जिस परमतत्त्वका दर्शन होता है, उस परम तत्त्वरूप सत्यका ध्यान करता हूँ ।
त्रिभोवनका पत्र और अंबालालका पत्र प्राप्त हुआ है ।
धर्मज जाकर सत्समागम करनेकी अनुमति है, परन्तु आप तीनके सिवाय और कोई न जाने ऐसा यदि हो सकता हो तो उस समागमके लिये प्रवृत्ति करें, नही तो नही । इस समागमको यदि प्रगटतामे आने देंगे तो हमारी इच्छानुसार नही हुआ, ऐसा समझें ।
धर्मज जानेका प्रसग लेकर यदि खम्भात से निकलेंगे तो सम्भव है कि यह बात प्रगट हो जायेगी और आप कबीर आदि सप्रदायमे मानते हैं, ऐसी लोकचर्चा होगी अर्थात् आप उस कबीर सप्रदायके न होनेपर भी वैसे माने जायेंगे । इसलिये कोई दूसरा प्रसंग लेकर निकलना और बीचमे धर्मजमे मिलाप करते आना । वहाँ भी अपने धर्मं, कुल इत्यादि सबधी अधिक परिचय नही देना । तथा उनसे पूर्ण प्रेमसे समागम करना, भेदभावसे नही, मायाभावसे नही, परन्तु सत्स्नेहभावसे करना । मलातज सम्बन्धी अभी समागम करनेका प्रयोजन नही है। खम्भातसे धर्मज की ओर जानेसे पहले धर्मंज एक पत्र लिखना, जिसमे विनयसहित जताना कि किसी ज्ञानावतार पुरुषकी अनुमति आपका सत्सग करनेके लिये हमे मिली है जिससे आपके दर्शन के लिये 'तिथिको आयेंगे । हम आपका समागम करते है यह बात अभी किसी भी तरहसे अप्रगट रखना ऐसी उस ज्ञानावतार पुरुषने आपको और हमे सूचना दी है। इसलिये आप इसका पालन कृपया अवश्य करेंगे ही।
उनका समागम होनेपर एक बार नमस्कार करके विनयसे बैठना । थोड़ा समय वीतनेके बाद उनकी प्रवृत्ति - प्रेमभावका अनुसरण करके वातचीत करना । ( एक साथ तीन व्यक्ति अथवा एकसे अधिक व्यक्ति न बोलें ।) पहले यो कहे कि आप हमारे सम्वन्धमे नि सन्देह दृष्टि रखें। आपके दर्शनार्थ हम आये है । सो किमी भी तरहके दूसरे कारणसे नही, परन्तु मात्र सत्सगकी इच्छासे । इतना कहने बाद उन्हें बोलने देना। उसके थोडे समय बाद आप बोलना । हमे किसी ज्ञानावतार पुरुपका समागम हुआ था । उनकी दशा अलौक्कि देखकर हमे आश्चर्य हुआ था । हमारे जैन होनेपर भी उन्होने निविसवादरूपसे प्रवृत्ति करनेका उपदेश दिया था । "सत्य एक है, दो प्रकारका नही है । और वह ज्ञानी के अनुग्रहके बिना प्राप्त नही होता । इसलिये मत मतातरका त्याग करके ज्ञानीकी आज्ञामे अथवा सत्सगमे
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श्रीमद राजचन्द्र
जो सुलभ है । और उसे प्राप्त करनेक़ा हेतु भो यही है कि किसी भी प्रकार से अमृतसागरका अवलोकन करते हुए अल्प भी मायाका आवरण बाध न करे, अवलोकन सुखका अल्प भी विस्मरण न हो, 'तू ही, तू हो' के सिवाय दूसरी रटन न रहे, मायिक भयका, मोहका सकल्पका या विकल्पका एक भी अश न रहे । यदि यह एक बार यथायोग्य प्राप्त हो जाये, तो फिर चाहे जैसा प्रवर्तन किया जाये, चाहे जैसा बोला जाये, चाहे जैसा आहार-विहार किया जाये, तथापि उसे किसी भी प्रकारकी बाधा नहीं है । परमात्मा भी उसे पूछ नही सकता । उसका किया हुआ सब कुछ सुलटा है । ऐसी दशा प्राप्त करनेसे परमार्थके लिये किया हुआ प्रयत्न सफल होता है । और ऐसी दशा हुए बिना प्रगट मार्ग प्रकाशित करनेकी परमात्माको आज्ञा नही है ऐसा मुझे लगता है । इसलिये दृढ़ निश्चय किया है कि इस दशा को प्राप्त करके फिर प्रगट मार्ग कहना -- परमार्थ कहना - तब तक नही, ओर इस दशाको पानेमे अब कुछ ज्यादा वक्त | भी नही है । पन्द्रह अशो तक तो पहुँचा जा चुका है। निर्विकल्पता तो है ही, परन्तु निवृत्ति नही है, निवृत्ति हो तो दूसरोके परमार्थके लिये क्या करना इसका विचार किया जा सकता है। उसके बाद त्याग चाहिये, और उसके बाद त्याग कराना चाहिये ।
महापुरुषाने कैसी दशा प्राप्त करके मार्ग प्रगट किया है, क्या क्या करके मार्ग प्रगट किया है, इस बातका आत्माको भलीभांति स्मरण रहता है, और यही प्रगट मार्ग कहने देनेकी ईश्वरी इच्छाका लक्षण मालूम होता है ।
इसलिये अभी तो केवल गुप्त हो जाना ही योग्य है । एक अक्षर भी इस विषय मे कहनेकी इच्छा नही होती। आपकी इच्छाकी रक्षाके लिये कभी कभी प्रवर्तन होता है, अथवा बहुत परिचयमे आये हुए योगपुरुषकी इच्छा के लिये कुछ अक्षरोका उच्चारण या लेखन किया जाता है। बाकी सर्व प्रकारसे गुप्तता रखी है। अज्ञानी होकर वास करनेकी इच्छा बना रखी है। वह ऐसी कि अपूर्व कालमे ज्ञान प्रगट करते हुए बाध न आये ।
इतने कारणोसे दीपचन्दजी महाराज या दूसरेके लिये कुछ नही लिखता । गुणस्थान इत्यादि का उत्तर नही लिखता । सूत्रका स्पर्श भी नही करता । व्यवहारकी रक्षा करनेके लिये थोडीसी पुस्तकोके पन्ने पलटता हूँ । बाकी सब कुछ पत्थर पर पानीके चित्र जैसा कर रखा है । तन्मय आत्मयोगमे प्रवेश है । वही उल्लास है, वही याचना है, और योग (मन, वचन और काया) बाहर पूर्वकर्म भोगता है । वेदोदयका नाश होने तक गृहवासमे रहना योग्य लगता है । परमेश्वर जान-बूझकर वेदोदय रसता है, क्योकि पचम कालमे परमार्थकी वर्षाऋतु होने देनेकी उसकी थोडी ही इच्छा लगती है ।
{
तीर्थंकरने जो समझा और पाया उसे इस कालमे न समझ सके अथवा न पा सके ऐसी कुछ भी बात नही है | यह निर्णय बहुत समयसे कर रखा है । यद्यपि तीर्थंकर होनेकी इच्छा नही है, परन्तु तीर्थंकर} के किये अनुसार करनेकी इच्छा है, इतनी अधिक उन्मत्तता आ गयी है । उसे शात करनेकी शक्ति भी आ गयी है, परन्तु जान-बूझकर शात करनेकी इच्छा नही रखी है ।
आपसे निवेदन है कि वृद्धमेसे युवान बने और इस अलख वार्ताके अग्रेसरके अग्रेसर बनें । थोड़ा लिखा बहुत समझे । '
गुणस्थान समझने के लिये कहे हैं । उपशम और क्षपक ये दो प्रकारकी श्रेणियाँ है । उपशममे प्रत्यक्ष दर्शनका सम्भव नही है, क्षपकमे है । प्रत्यक्ष दर्शनके सम्भवके अभाव मे ग्यारहवें गुणस्थानसे जीव पीछे लौटता है । उपशम श्रेणी दो प्रकारकी है । एक आज्ञारूप और दूसरी मार्गके जाने बिना स्वाभाविक उपशम होनेरूप । आज्ञारूप उपशम श्रेणीवाला भी आज्ञाके आराधन तक पतित नही होता । दूसरी श्रेणीवाला अन्त तक जानेके बाद मार्गकी अज्ञानताके कारण पतित होता है । यह आँखो देखी, आत्मासे अनुभव की
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हुई बात है। किसी शास्त्रमेसे मिल जायेगी, न मिले तो कोई बाध नही है। तीर्थंकरके हृदयमे यह बात थी, ऐसा हमने जाना है।
दशपूर्वधारी इत्यादिकी आज्ञाका आराधन करनेकी महावीरदेवकी शिक्षाके विषयमे आपने जो बताया है वह ठोक है। इसने तो बहुत कुछ कहा था, परन्तु रहा है थोड़ा और प्रकाशक पुरुष गृहस्थावस्थामे हैं । बाकीके गुफामे हैं। कोई कोई जानता है परन्तु उतना योगबल नही है।
तथाकथित आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ श्रवणके योग्य भी नही है। सूत्र लेकर उपदेश करनेकी आगे जरूरत नही पड़ेगी। सूत्र और उसके पहलू सब कुछ ज्ञात हो गये हैं। यही विनती।
वि० आ० रायचद।
..१७१ बबई, कार्तिक सुदी १४, बुध, १९४७ सुज्ञ भाईश्री अबालाल इत्यादि,
खंभात। श्री मुनिका पत्र' इसके साथ सलग्न है मो उन्हे पहुँचाइयेगा। निरन्तर एक ही श्रेणी रहती है । हरिकृपा पूर्ण है।
त्रिभोवन द्वारा वर्णित एक पत्रकी दशा स्मरणमे है। वारवार इसका उत्तर मुनिके पत्रमे बताया है वही आता है। पत्र लिखनेका उद्देश मेरे प्रति भाव करानेके लिये है, ऐसा जिस दिन मालूम हो उस दिनसे मार्गका क्रम भूल गये ऐसा समझ लीजिये । यह एक भविष्य कालमे स्मरण करने योग्य कथन है।
___ सत् श्रद्धा पाकर जो कोई आपको धर्म-निमित्तसे चाहे ' उसका संग रखें।
_ वि० रायचन्दके यथायोग्य।
१७२ मोहमयी, कार्तिक सुदी १४, बुध, १९४७ सजिज्ञासु-मार्गानुसारी मति, खभात ।
कल आपका परम भक्तिसूचक पत्र मिला । विशेष आह्लाद हुआ। • अनतकालसे स्वयंको स्वविषयक ही भ्राति रह गयी है, यह एक अवाच्य और अद्धत विचारका विषय है । जहाँ मतिको गति नही, वहां वचनकी गति कहाँसे हो?
'निरतर उदासीनताके क्रमका सेवन करना, सत्पुरुषकी भक्तिमे लीन होना; सत्पुरुषोके चरियोका स्मरण करना, सत्पुरुषोके लक्षणका चिंतन करना, सत्पुरुषाकी मुखाकृतिका हृदयसे अवलोकन करना, उनके मन, वचन और कायाकी प्रत्येक चेष्टाके अद्भुत रहस्योका वारवार निदिध्यासन करना, और उनका मान्य किया हुआ सभी मान्य करना।
यह जानियो द्वारा हृदयमें स्थापित, निर्वाणके लिये मान्य रखने योग्य, श्रद्धा करने योग्य, वारंवार चिंतन करने योग्य प्रति क्षण और प्रति समय उसमे लीन होने योग्य परम रहस्य है। और यही सर्व शास्त्रोका. सर्व सतोके हृदयका और ईश्वरके घरका मर्म पानेका महामार्ग है। और इन सबका कारण किसी विद्यमान सत्पुरुषकी प्राप्ति और उसके प्रति अविचल श्रद्धा है।
१. सापका पत्र न० १७२ ।
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श्रीमद राजचन्द्र
प्रवृत्ति करना । जैसे जीवका बंधन निवृत्त हो वैसे करना योग्य है । और इसके लिये हमारे ऊपर कहे हुए सावन है ।" इत्यादि प्रकारसे उन्होने हमे उपदेश दिया था । और जैन आदि मतोका आग्रह मिटाकर उनके आदेशानुसार प्रवृत्ति करनेकी हमारी अभिलाषा उत्पन्न हुई थी, और अब भी वैसी ही है कि मात्र सत्यका ही आग्रह रखना । मतमे मध्यस्थ रहना । वे अभी विद्यमान है । युवावस्था के पहले भाग मे हैं । अभी · उनकी इच्छा अप्रगट रूपसे प्रवृत्ति करनेकी है । नि सदेह स्वरूप ज्ञानावतार है और व्यवहारमे रहते हुए भी वीतराग है । उन कृपालुका समागम होनेके बाद हम विशेषत निराग्रही रहते है । मतमतातर सवधी विवाद खडा नही होता । निष्कपट भावसे सत्यका आराधन करनेकी ही दृढ अभिलाषा है। उन ज्ञानावतार पुरुपने हमे बताया था - "हम अभी प्रगटरूप से मार्ग बताये ऐसी ईश्वरेच्छा नही है' इसलिये हम आपसे अभी कुछ कहना नही चाहते । परन्तु योग्यता आये और जीव यथायोग्य मुमुक्षुता प्राप्त करे इसके लिये प्रयत्न करें ।” ओर इसके लिये उन्होने अनेक प्रकार से सक्षेपमे अपूर्वं उपायोका उपदेश दिया था। अभी उनकी इच्छा अप्रगट ही रहनेकी है, इसलिये परमार्थके सम्बन्धमे वे प्राय मौन ही रहते है । हम पर इतनी अनुपा हुई कि उन्होने इस मौनको विस्मृत किया था और उन्ही सत्पुरुपने आपका समागम करनेकी हमारी इच्छाको जन्म दिया था, नही तो हम आपके समागमका लाभ कहाँसे पा सकते ? आपके गुणको परीक्षा कहाँसे होती ? ऐसी आप अपनो अभिलापा बताना कि हमे आपसे किसी प्रकारसे वोध प्राप्त हो और हमे मार्गकी प्राप्ति हो तो इसमे वे ज्ञानावतार प्रसन्न ही है । हमने उनके शिष्य होनेकी इच्छा रखी थी । तथापि उन्होने बताया था - "अभी प्रगटरूपसे मार्ग कहने की हमे ईश्वराज्ञा नही है, तो फिर आप चाहे जिस सत्सगमे योग्यता या अनुभव प्राप्त करें इसमे हमे संतोष ही है ।" आपके लिये भी उनका ऐसा ही अभिप्राय समझें कि हम आपके शिष्यके तौर पर प्रवृत्ति करें तो भी आप मेरे ही शिष्य हैं ऐसा उन्होनें कहा है | आपके प्रति उन्होने परमार्थयुक्त प्रेमभाव हमे बताया था । यद्यपि उन्हे किसीसे भेदभाव नही है, तथापि आपके प्रति स्नेहभाव किसी पूर्वके कारणसे बताया मालूम होता है । मुक्तात्मा होनेसे वस्तुतः ' उनका नाम, धाम, ग्राम कुछ भी नही है, तथापि व्यवहारसे वैसा है। फिर भी उन्होने यह सब अप्रगट रखने की हमे आज्ञा की है । आपसे वे अप्रगटरूपसे व्यवहार करते है । तथापि आप उनके पास प्रगट है | अर्थात् आपको भी अभी तक उन्होने प्रगट समागम, नाम, धामके बारेमे कुछ भी कहने के लिये हमे प्रेरित नही किया है और ईश्वरेच्छा होगी तो थोडे समय मे आपको उनका समागम होगा ऐसा हम समझते है ।
इस प्रकार प्रसंगानुसार बातचीत करना । किसी भी प्रकारसे नाम, धाम और ग्राम प्रगट करना ही नही और उपर्युक्त वात आपको अपने हृदयमे समझने की है। इसपरसे उस प्रसग मे जो योग्य लगे वह बात करना। उसका भावार्थं न जाना चाहिये ।
'ज्ञानावतार' सम्बन्धी ज्यो ज्यों उनकी इच्छा जागृत हो त्यो त्यो बातचीत करना । ज्ञानावतारका ममागम चाहे इस प्रकारसे वातचीत करें। परन्तु 'ज्ञानावतार' की प्रशसा करते हुए उनका अविनय न हो जाये यह ध्यान रखे । तथा 'ज्ञानावतार' की अनन्य भक्ति भी ध्यान मे रखे ।
to मनमेलका योग लगे तब बताइये कि हम उनके शिष्य है वैसे आपके शिष्य ही है । हमे किसी तरहसे मार्ग की प्राप्ति हो ऐसा बनायें इत्यादि बातचीत कीजिये । और हम कौनसे शास्त्र पढ़ें ? क्या श्रद्धा रखें ? कैसे प्रवृत्ति करे ? योग्य लगे तो यह सब बताये । कृपया आपका हमारेसे भेदभाव न हो । उनका सिद्धात भाग पूछिये । इत्यादि जान लेनेका प्रसम बन जाये तो भी उन्हें बताइये कि हमने जिन ज्ञानावतार पुरुषको बताया है वे और आप हमारे लिये एक हो हैं। क्योकि ऐसी बुद्धि रखनेकी उन ज्ञानवताकी हमे आज्ञा है । मात्र अभी उनको अप्रगट रहने की इच्छा होनेसे हमने उनकी इच्छाका अनु सरण किया है।
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२४ वा वर्ष
२५१ विशेष क्या लिखें? हरीच्छा जो होगी वह सुखदायक ही होगी। एकाध दिन रुकिये । अधिक नही, फिरसे मिलिये । मिलनेकी हाँ बताइये। हरीच्छा सुखदायक है । ज्ञानावतार सम्बन्धी वे पहले बात कहे तो इस पत्रमे बतायी हुई बातको विशेषतः दृढ कीजिये।
भावार्थ ध्यानमे रखिये । इसके अनुसार चाहे जिस प्रसगमे इसमेसे कोई बात उनसे करनेकी आपको स्वतत्रता है। ' 'उममे ज्ञानावतारके लिये अधिक प्रेम पैदा हो ऐसा प्रयत्न कीजिये । हरीच्छा सुखदायक है।
१६८ बबई, कार्तिक सुदी १३, सोम, १९४७ "एनं स्वप्ने जो दर्शन पामे रे, तेनं मन न चढ़े बीजे भामे रे। थाय कृष्णनो लेश प्रसग रे, तेने न गमे संसारनो संग रे॥
हसतां रमतां प्रगट हरि देखें रे, मारु जीव्यं सफळ तव लेखं रे। मुक्तानन्दनो नाथ विहारी रे, ओधा जीवनदोरी अमारी रे॥
आपका कृपापत्र कल मिला । परमानन्द और परमोपकार हुआ। __ ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरा हुआ जीव कम-से-कम तीन और अधिक-से-अधिक पन्द्रह भव करे, ऐसा अनुभव होता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान ऐसा है कि वहाँ प्रकृतियाँ उपशम भावमे होनेसे मन, वचन और कायाके योग प्रबल शुभ भावमे रहते हैं, इससे साताका बध होता है, और यह साता बहुत करके पांच अनुत्तर विमानकी ही होती है। .
आज्ञाकारी
बबई, कार्तिक सुदी १३, सोम, १९४७ कल आपका एक पत्र मिला । प्रसगात् कोई प्रश्न आनेपर अधिक लिखना हो सकेगा।
चि त्रिभोवनदासकी अभिलापा प्रसगोपात्त समझी जा सकी तो है ही, तथापि अभिलाषाके लिये पुरुषार्थ करनेकी बात नही बतायी, जो इस समय बता रहा हूँ।
१६९
१७०
बबई, कार्तिक सुदी १४, १९४७ परम पूज्यश्री,३
आज आपका एक पत्र भूधर दे गया। इस पत्रका उत्तर लिखनेसे पहले कुछ प्रेमभक्ति सहित लिखना चाहता हूँ।
आत्माने ज्ञान पा लिया यह तो नि सशय है, ग्रन्थिभेद हुआ यह तीनो कालमे सत्य बात हे । सव . ज्ञानियोने भी इस बातका स्वीकार किया है। अब हमे अन्तिम निर्विकल्प समाधि प्राप्त करना बाकी है, .
१ भावार्थ-यदि कोई स्वप्नमे भी इसका दर्शन पाता है तो उसका मन दूसरे मोहमें नही पडता । जिसे कृष्णका लेश मात्र भी प्रसग हो जाता है, उसे फिर ससारका सग अच्छा नहीं लगता।
२ भावार्थ-मैं जब हँसते-खेलते हुए हरिको प्रत्यक्ष देवू तव अपने जीवनको सफल समझू । हे उद्धव । मुक्तानन्दके नाय और बिहारी श्रीकृष्ण हमारे जीवनके आधार है। ३ यह पत्र श्री सोभागभाईको लिखा है।
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श्रीमद् राजचन्द्र जो सुलभ है। और उसे प्राप्त करनेका हेतु भी यही है कि किसी भी प्रकारसे अमृतसागरका अवलोकन करते हुए अल्प भी मायाका आवरण बाध न करे, अवलोकन सुखका अल्प भी विस्मरण न हो, 'तू ही, तू हो' के सिवाय दूसरी रटन न रहे, मायिक भयका, मोहका, सकल्पका या विकल्पका एक भी अश न रहे । यदि यह एक बार यथायोग्य प्राप्त हो जाये,तो फिर चाहे जैसा प्रवर्तन किया जाये, चाहे जैसा बोला जाये, चाहे जैसा आहार-विहार किया जाये, तथापि उसे किसी भी प्रकारकी बाधा नही है । परमात्मा भी उसे पूछ नही सकता । उसका किया हुआ सब कुछ सुलटा है । ऐसी दशा प्राप्त करनेसे परमार्थके लिये किया हुआ प्रयत्न सफल होता है। और ऐसी दशा हुए बिना प्रगट मार्ग प्रकाशित करनेकी परमात्माकी आज्ञा नही है ऐसा मुझे लगता है । इसलिये दृढ़ निश्चय किया है कि इस दशाको प्राप्त करके फिर प्रगट मार्ग कहना-परमार्थ कहना-तब तक नही, ओर इस दशाको पानेमे अब कुछ ज्यादा वक्त
भी नही है। पन्द्रह अशो तक तो पहुँचा जा चुका है। निर्विकल्पता तो है ही, परन्तु निवृत्ति नहीं है, 'निवृत्ति हो तो दूसरोके परमार्थके लिये क्या करना इसका विचार किया जा सकता है। उसके बाद त्याग चाहिये, और उसके बाद त्याग कराना चाहिये ।
____ महापुरुषोने कैसी दशा प्राप्त करके मार्ग प्रगट किया है, क्या क्या करके मार्ग प्रगट किया है, इस बातका आत्माको भलीभाँति स्मरण रहता है, और यही प्रगट मार्ग कहने देनेकी ईश्वरी इच्छाका लक्षण मालूम होता है।
इसलिये अभी तो केवल गुप्त हो जाना ही योग्य है। एक अक्षर भी इस विषयमे कहनेकी इच्छा नहीं होती। आपकी इच्छाकी रक्षाके लिये कभी कभी प्रवर्तन होता है, अथवा बहुत परिचयमे आये हुए योगपुरुषकी इच्छाके लिये कुछ अक्षरोका उच्चारण या लेखन किया जाता है। बाकी सर्व प्रकारसे गुप्तता रखी है। अज्ञानी होकर वास करनेकी इच्छा बना रखी है। वह ऐसी कि अपूर्व कालमे ज्ञान प्रगट करते हुए बाध न आये।
इतने कारणोसे दीपचन्दजी महाराज या दूसरेके लिये कुछ नही लिखता । गुणस्थान इत्यादि का उत्तर नही लिखता । सूत्रका स्पर्श भी नहीं करता । व्यवहारकी रक्षा करनेके लिये थोडीसी पुस्तकोके पन्ने पलटता हूँ। बाकी सब कुछ पत्थर पर पानीके चित्र जैसा कर रखा है। तन्मय आत्मयोगमे प्रवेश है। वही उल्लास है, वहो याचना है, और योग (मन, वचन और काया) बाहर पूर्वकर्म भोगता है । वेदोदयका नाश होने तक गृहवासमे रहना योग्य लगता है। परमेश्वर जान-बूझकर वेदोदय रखता है, क्योकि पचम कालमे परमार्थकी वर्षाऋतु होने देनेकी उसकी थोड़ी ही इच्छा लगती है।
तीर्थकरने जो समझा और पाया उसे इस कालमे न समझ सके अथवा न पा सके ऐसो कुछ भी बात नही है । यह निर्णय बहुत समयसे कर रखा है। यद्यपि तीर्थकर होनेकी इच्छा नहीं है, परन्तु तीर्थंकरके किये अनुसार करनेकी इच्छा है, इतनी अधिक उन्मत्तता आ गयी है। उसे शात करनेकी शक्ति भी आ गयी है, परन्तु जान-बूझकर शात करनेको इच्छा नही रखी है।
आपसे निवेदन है कि वृद्धमेसे युवान बनें और इस अलख वार्ताके अग्रेसरके अग्रेसर बने । थोड़ा लिखा बहुत समझे । ।
गुणस्थान समझनेके लिये कहे हैं । उपशम और क्षपक ये दो प्रकारकी श्रेणियाँ है । उपशममे प्रत्यक्ष दर्शनका सम्भव नही है, क्षपकमे है। प्रत्यक्ष दर्शनके सम्भवके अभावमे ग्यारहवें गुणस्थानसे जीव पीछे लौटता है। उपशम श्रेणी दो प्रकारकी है । एक आज्ञारूप और दूसरी मार्गके जाने बिना स्वाभाविक उपशम होनेरूप । आज्ञारूप उपशम श्रेणीवाला भी आज्ञाके आराधन तक पतित नही होता। दूसरी श्रेणीवाला अन्त तक जानेके बाद मार्गकी अज्ञानताके कारण पतित होता है । यह आँखो देखी, आत्मासे अनुभव की
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ट
२४ वा वर्ष
२५३ हुई बात है। किसी शास्त्रमेसे मिल जायेगी, न मिले तो कोई बाध नहो है। तीर्थंकरके हृदयमे यह बात __थी, ऐसा हमने जाना है।
दशपूर्वधारी इत्यादिकी आज्ञाका आराधन करनेकी महावीरदेवकी शिक्षाके विषयमे आपने जो बताया है वह ठोक है। इसने तो बहुत कुछ कहा था, परन्तु रहा है थोड़ा और प्रकाशक पुरुष गृहस्थावस्थामे हैं । वाकीके गुफामे हैं। कोई कोई जानता है परन्तु उतना योगबल नही है।
तथाकथित आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ श्रवणके योग्य भी नही है। सूत्र लेकर उपदेश करनेकी । आगे जरूरत नही पड़ेगी । सूत्र और उसके पहलू सब कुछ ज्ञात हो गये हैं। यही विनती।
वि० आ० रायचद।
बबई, कार्तिक सुदी १४, बुध, १९४७ सुज्ञ भाईश्री अंबालाल इत्यादि,
___ खंभात। श्री मुनिका पत्र' इसके साथ सलग्न है मो उन्हें पहुंचाइयेगा। निरन्तर एक ही श्रेणी रहती है । हरिकृपा पूर्ण है।
त्रिभोवन द्वारा वर्णित एक पत्रकी दशा स्मरणमे है । वारवार इसका उत्तर मुनिके पत्रमे बताया है वही आता है। पत्र लिखनेका उद्देश मेरे प्रति भाव करानेके लिये है, ऐसा जिस दिन मालूम हो उस _ दिनसे मार्गका क्रम भूल गये ऐसा समझ लीजिये । यह एक भविष्य कालमे स्मरण करने योग्य कथन है।
सत् श्रद्धा पाकर - जो कोई आपको धर्म-निमित्तसे चाहे उसका सग रखें।
. वि० रायचन्दके यथायोग्य।
१७१
१७२ मोहमयी, कार्तिक सुदी १४, बुध, १९४७ सजिज्ञासु-मार्गानुसारी मति, खभात । - कल आपका परम भक्तिसूचक पत्र मिला । विशेष आह्लाद हुआ। -- अनतकालसे स्वयंको स्वविषयक ही भ्राति रह गयी है; यह एक अवाच्य और अद्भुत विचारका विषय है । जहाँ मतिको गति नही, वहां वचनकी गति कहाँसे हो?
निरतर उदासीनताके क्रमका सेवन करना, सत्पुरुषकी भक्तिमे लीन होना, सत्पुरुषोके चरित्रोका स्मरण करना, सत्पुरुषोके लक्षणका चिंतन करना, सत्पुरुषाकी मुखाकृतिका हृदयसे अवलोकन करना, उनके मन, वचन और कायाकी प्रत्येक चेष्टाके अद्भुत रहस्योका वारवार निदिध्यासन करना, और उनका मान्य किया हुआ सभी मान्य करना।
यह ज्ञानियो द्वारा हृदयमे स्थापित, निर्वाणके लिये मान्य रखने योग्य, श्रद्धा करने योग्य, वारवार चिंतन करने योग्य, प्रति क्षण और प्रति समय उसमे लीन होने योग्य परम रहस्य है। और यही 'सर्व शास्त्रोका, सर्व सतोके हृदयका और ईश्वरके घरका मर्म पानेका महामार्ग है। और इन सबका कारण किसी विद्यमान सत्पुरुषकी प्राप्ति और उसके प्रति अविचल श्रद्धा है।
१ सायका पत्र न. १७२ ।
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श्रीमद् राजचन्द्र अधिक क्या लिखना ? आज, चाहे तो कल, चाहे तो लाख वर्षमे और चाहे तो उसके बादमे या उससे पहले, यही सूझनेपर, यही प्राप्त होनेपर छुटकारा है। सर्व प्रदेशोमे मुझे तो यही मान्य है।
प्रसंगोपात्त पत्र लिखनेका ध्यान रखूगा। आप अपने प्रसगियोमे ज्ञानवार्ता करते रहियेगा, और उन्हे परिणाममे लाभ हो इस तरह मिलते रहियेगा। ___अबालालसे यह पत्र अधिक समझा जा सकेगा। आप उनकी विद्यमानतामे पत्रका अवलोकन कीजियेगा और उनके तथा त्रिभोवन आदिके उपयोगके लिये चाहिये तो पत्रको प्रतिलिपि करनेके लिये दीजियेगा। यही विज्ञापन।
सर्वकाल यही कहनेके लिये जीनेके इच्छुक
रायचन्दकी वंदना।
१७३ बंबई, कार्तिक वदी ३, शनि, १९४७ जिज्ञासु भाई,
आपका पहले एक पत्र मिला था, जिसका उत्तर अबालालके पत्रसे लिखा था। वह आपको मिला होगा । नही तो उनके पाससे वह पत्र मंगवाकर देख लीजियेगा।
समय निकालकर किसी न किसी अपूर्व साधनका कारणभूत प्रश्न यथासम्भव करते रहियेगा।
आप जो जो जिज्ञासु हैं, वे सब प्रतिदिन अमुक समय, अमुक घड़ी तक धर्मकथार्थ मिलते रहे तो परिणाममे वह लाभका कारण होगा।
इच्छा होगी तो किसी समय नित्य नियमके लिये बताऊँगा। अभी नित्य नियममे साथ मिलकर एकाध अच्छे ग्रन्थका अवलोकन करते हो तो अच्छा। इस विषयमे कुछ पूछेगे तो अनुकूलताके अनुसार उत्तर दूंगा।
अंबालालके पास लिखे हुए पत्रोकी पुस्तक है । उसमेसे कुछ भागका उल्लासयुक्त समयमे अवलोकन करनेमे मेरी ओरसे आपके लिये अब कोई इनकार नही है। इसलिये उनसे यथासमय पुस्तक मंगवाकर अवलोकन कीजियेगा।
दृढ़ विश्वाससे मानिये कि इसे व्यवहारका बंधन उदय कालमे न होता तो आपको और दूसरे कई मनुष्योको अपूर्व हितकारी सिद्ध होता। प्रवृत्ति है तो उसके लिये कुछ असमता नही है; परन्तु निवृत्ति होती तो अन्य आत्माओको मार्गप्राप्तिका कारण होता.। अभी उसे विलंब होगा । पंचमकालकी भी प्रवृत्ति है। इस भवमे मोक्षगामी मनुष्योकी सभावना भी कम है। इत्यादि कारणोसे ऐसा ही हुआ होगा। तो इसके लिये कुछ खेद नही है।
- आप सबको स्पष्ट बता देनेकी इच्छा हो आनेसे बताता हूँ कि अभी तक मैंने आपको मार्गके मर्मका (एक अंबालालके सिवाय) कोई अंश नहीं बताया है, और जिस मार्गको प्राप्त किये बिना किसी तरह किसी कालमे जीवका छुटकारा होना सम्भव नही है। यदि आपकी योग्यता होगी तो उस मार्गको देनेमे समर्थ कोई दूसरा पुरुष आपको ढूंढना नही पडेगा । इसमें किसी तरह मैंने अपनी स्तुति नही की है।'
, इस आत्माको ऐसा लिखना योग्य नही लगता, फिर भी लिखा है। अंबालालका अभी पत्र नहीं है, उनसे लिखनेके लिये कहें। ..
वि० रायचेन्दके यथायोग्य ।
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१७४ सतकी शरण जा ।
सुज्ञ भाई श्री अंबालाल,
आपका एक पत्र मिला । आपके पिताश्रीका धर्मेच्छुक पत्र मिला । प्रसगवश उन्हे योग्य उत्तर देना हो सकेगा । ऐसी इच्छा करूँगा |
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बबई, कार्तिक वदी ५, सोम, १९४७
सत्सग यह बड़े से बड़ा साधन है ।
सत्पुरुषकी श्रद्धा के बिना छुटकारा नही है ।
ये दो विषय शास्त्र इत्यादिसे उन्हे बताते रहियेगा । सत्सगकी वृद्धि कीजियेगा ।
१७५
वि० रायचन्दके यथायोग्य |
बबई, कार्तिक वदी ८, गुरु, १९४७
सुज्ञ भाई अबालाल,
यहाँ आनंदवृत्ति है | आप सब सत्सगकी वृद्धि करे । छोटालालका आज पत्र मिला । आप सबका जिज्ञासु भाव बढे यह निरन्तरकी इच्छा है ।
परम समाधि है ।
१७६
वि० रायचदके यथायोग्य |
बबई, कार्तिक वदी ९, शुक्र, १९४७
जीवन्मुक्त सौभाग्यमूर्ति सौभाग्यभाई, मोरबी ।
मुनि दीपचंदजीके सम्बन्धमे आपका लिखना यथार्थ है । भवस्थितिकी परिपक्वता हुए बिना, की कृपा बिना, सतचरणकी सेवा किये बिना त्रिकालमे मार्ग मिलना दुर्लभ है ।
जीवके ससार परिभ्रमणके जो जो कारण हैं, उनमे मुख्य स्वय जिस ज्ञानके लिये शकित है, उस ज्ञानका उपदेश करना, प्रगटमे उस मार्गकी रक्षा करना, हृदयमे उसके लिये चलविचलता होते हुए भी अपने श्रद्धालुओको उसी मार्गके यथायोग्य होनेका ही उपदेश देना, यह सबसे बड़ा कारण है । आप उस मुनि सम्बन्ध मे विचार करेंगे तो ऐसा ही प्रतीत हो सकेगा ।
स्वयं शकामे गोते खाता हो, ऐसा जीव निशक मार्गका उपदेश देनेका दभ रखकर सारा जीवन बिता दे यह उसके लिये परम शोचनीय है। मुनिके सम्बन्धमे यहाँ पर कुछ कठोर भाषामे लिखा है ऐसा लगे तो भी वैसा हेतु है हो नही । जैसा है वैसा करुणार्द्र चित्तसे लिखा हे । इसी प्रकार दूसरे अनत जीव पूर्वकालमे भटके हैं, वर्तमानकालमे भटक रहे हैं और भविष्य कालमे भटकेंगे ।
जो छूटनेके लिये ही जीता है वह बधनमे नही आता, यह वाक्य नि शक अनुभवका है। वधनका त्याग करनेसे छूटा जाता है, ऐसा समझनेपर भी उसी बधनको वृद्धि करते रहना, उसमे अपना महत्व स्थापित करना और पूज्यताका प्रतिपादन करना, यह जीवको बहुत भटकानेवाला है । यह समझ समीप - मुक्तिगामी जीवको होती है, और ऐसे जीव समर्थ चक्रवर्ती जैसी पदवीपर आरूढ होते हुए भी उसका त्याग करके, करपात्रमे भिक्षा माँगकर जीनेवाले सन्तके चरणोको अनतानत प्रेमसे पूजते है, और वे अवश्यमेव छूट हैं। दीनबधुकी दृष्टि ही ऐसी है कि छूटनेके कामोको बाँधना नही, और बँधने के कामीको छोडना नही । यहाँ विकल्पशील जीवको ऐसा विकल्प हो सकता है कि जीवको बँधना पसन्द नही है, सभीको छुटनेकी
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धीमद् राजचन्द्र
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इच्छा है तो फिर बंधता है क्यो ? इस विकल्पको निवृत्ति इतनी ही है कि ऐसा अनुभव हुआ है कि जिसे छूटनेकी दृढ इच्छा होती है उसे बन्धनका विकल्प मिट जाता है, और यह इस बातका सत्साक्षी है ।
एक ओर तो परमार्थमार्गको शीघ्रतासे प्रगट करनेकी इच्छा है, और एक ओर अलख 'लय' मे समा जानेकी इच्छा रहती है । अलख 'लय' मे आत्मासे समावेश हुआ है, योगसे करना यह एक रटन है। परमार्थके मार्गको बहुतसे मुमुक्षु प्राप्त करे, अलख समाधि प्राप्त करें तो अच्छा, और इसके लिये कितना हो मनन है । दीनबन्धुकी इच्छानुसार हो रहेगा। ।
अद्भुत दशा निरन्तर रहा करती है। अवधूत हुए हैं, अवधूत करनेके लिये कई जीवोके प्रति दृष्टि है। __ महावीरदेवने इस कालको पचमकाल कहकर दुषम कहा, व्यासने कलियुग कहा; यो बहुतसे महापुरुषोने इस कालको कठिन कहा है, यह बात नि.शक सत्य है । क्योकि भक्ति और सत्संग विदेश गये हैं अर्थात् सम्प्रदायोमे नही रहे और ये प्राप्त हुए बिना जीवका छुटकारा नही है। इस कालमे प्राप्त होने दुष्कर हो गये है, इसलिये काल भी दुषम है। यह बात यथायोग्य ही है। दुषमको कम करनेके लिये आशिष दीजियेगा। बहुत कुछ बतानेकी इच्छा होती है, परन्तु लिखने या बोलनेकी अधिक इच्छा नही रही । चेष्टासे समझमे आये ऐसा हुआ ही करे, यह इच्छा निश्चल है।
वि० आज्ञाकारी रायचदके दडवत् ।
बबई, कार्तिक वदी १४, गुरु, १९४७ सुज्ञ भाई श्री त्रिभोवन,
आपका एक पत्र मिला | मनन किया।
अतरकी परमार्थवृत्तियोको थोडे समय तक प्रगट करने की इच्छा नही होती। धर्मेच्छुक प्राणियोंके, पत्र, प्रश्न आदि तो अभी बधनरूप माने है क्योकि जिन इच्छाओको अभी प्रगट करनेकी इच्छा नही है उनके अश (निरुपायतासे) उस कारणसे प्रगट करने पड़ते हैं।
नित्य नियममे आपको और सभी भाइयोको अभी तो इतना ही बताता हूँ कि जिस जिस राहसे अनंतकालसे पकडे हुए आग्रहका, अहत्वका और असत्संगका नाश हो उस उस राहमे वृत्ति लानी, यही चिंतन रखनेसे, और परभवका दृढ विश्वास रखनेसे कुछ अंशोमे उसमे सफलता प्राप्त होगी। .. .
वि० रायचदके यथायोग्य ! ... . "7 १७८ - बंबई, कार्तिक वदी ३०, शुक्र, १९४७ सुज्ञ भाई श्री अंबालाल,
यहाँ आनदवृत्ति है । आपकी और दूसरे भाइयोंकी आनद्रवृत्ति चाहता हूँ। आपके पिताजीके धर्मविषयक दो पत्र मिले । इसका क्या उत्तर लिखना ? इसका बहुत विचार रहा करता है। '
. अभी तो मैं किसीको स्पष्टरूपसे धर्म बतानेके योग्य नही हूँ, अथवा, वैसा करनेकी मेरी इच्छा नही रहती । इच्छा, न रहनेका, कारण उदयमान कर्म है। उनकी वृत्ति मेरो, ओर झुकनेका कारण आप. इत्यादि हैं, ऐसी कल्पना है । और मैं भी इच्छा रखता हूँ कि कोई भी जिज्ञासु हो वहा धर्मप्राप्तोसे धर्म प्राप्त करे, तथापि मै वर्तमान कालमे रहता हूँ, वह कालं ऐसा नही है। प्रसगोपात्त मेरे कुछ पत्र उन्हे पढ़ाते, रहिये अथवा उनमे कही हुई बातोका उद्देश आपसे जितना समझाया जाये उतना समझाते रहिये । । । .
- पहले मनुष्यमे यथायोग्य जिज्ञासुता आनी चाहिये। पूर्वके आग्रह और असत्सग दूर होने चाहिये। इसके लिये प्रयत्न कीजिये । और उन्हे प्रेरणा करते रहेगे तो किसी प्रसंगपर अवश्य सम्भाल लेनेका स्मरण करूंगा। नही.तो नही। .. ... . , .
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दूसरे भाइयोको भी, जिसके पाससे धर्मं प्राप्त करना हो उस पुरुषके धर्मप्राप्त होनेकी पूर्ण परीक्ष करनी चाहिये, यह संतकी समझने जैसी बात है ।
-1
वि० रायचदके यथायोग्य
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बंबई, कार्तिक, १९४७
उपशम भाव
सोलह भावनाओसे भूषित होनेपर भी स्वयं जहाँ सर्वोत्कृष्ट माना गया है वहाँ दूसरे की उत्कृष्टताके कारण अपनी न्यूनता होती हो और कुछ मत्सरभाव आकर चला जाये तो उसे उपशम भाव था, क्षायिक न था, यह नियम है।
बबई, मगसिर सुदी ४, सोम, १९४७
परम पूज्यश्री,
कलके पत्र सहज व्यवहारचिता बतायी थी, उसके लिये सर्वथा निर्भय रहना । रोम रोममें भक्ति तो यही है कि ऐसी दशा आनेपर अधिक प्रसन्न रहना । मात्र दूसरे जीवोंके दिल दुखानेका कारण आत्म हो वहाँ चिता सहज करना । दृढज्ञानकी प्राप्तिका यही लक्षण है ।
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'मुनिको समझानेकी माथापच्चीमे आप न पड़ें तो अच्छा। जिसे परमेश्वर भटकने देना चाहता है। उसे निष्कारण भटकनेसे रोकना यह ईश्वरीय नियमका भंग करना किसलिये न माना जाये ?
रोम रोममे खुमारी आयेगी, अमरवरमय ही आत्मदृष्टि हो जायेगी, एक 'तू ही तू हो' का मनन करने का अवकाश भी नही रहेगा, तब आपको अमरवरके आनन्दका अनुभव होगा ।
यहाँ यही दशा है । राम हृदयमे बसे हैं, अनादिके (आवरण) दूर हुए हैं। सुरति इत्यादिक खिले हैं । यह भी एक वाक्यको बेगार की है। अभी तो भाग जानेकी वृत्ति है । इस शब्दका अर्थं भिन्न होता है
नीचे एक वाक्यको तनिक स्याद्वादमे घटाया है
"इस कालमे कोई मोक्ष जाता ही नही है ।"
"इस कालमे कोई इस क्षेत्रसे मोक्ष जाता ही नही है ।"
" इस कालमे कोई इस कालकाजन्मा हुआ इस क्षेत्रसे मोक्ष जाता ही नही है ।"
" इस कालमे कोई इस कालका जन्मा हुआ सर्वथा मुक्त नही होता ।"
" इस कालमे कोई इस कालका जन्मा हुआ सब कर्मोसे सर्वथा मुक्त नही होता ।"
?
अब इसपर तनिक विचार करें। पहले एक व्यक्ति बोला कि इस कालमे कोई मोक्ष जाता ही नही है । ज्यो ही यह वाक्य निकला कि शका हुई- इस कालमे क्या महाविदेहसे मोक्षमे जाता ही नही है वहाँसे तो जाता है, इसलिये फिर वाक्य बोलो । तब दूसरी बार कहा, इस कालमे कोई इस क्षेत्रसे मोक्षमे नही जाता । तब प्रश्न किया कि जब सुधर्मास्वामी इत्यादि कैसे गये ? वह भी तो यही काल था, इसलिये फिर वह व्यक्ति विचार करके बोला- इस कालमे कोई इस कालका जन्मा हुआ इस क्षेत्र से मोक्षमे नही जाता । तब प्रश्न किया कि किसीका मिथ्यात्व जाता होगा या नही ? उत्तर दिया, हाँ जाता है । तब फिर कहा कि यदि मिथ्यात्व जाता है तो मिथ्यात्वके जानेसे मोक्ष हुआ कहा जाये या नही ? तव उसने हाँ कहो कि ऐसा तो होता है । तब कहा - ऐसा नही परन्तु ऐसा होगा कि इस कालमे कोई इस कालका जन्मा हुआ सब कर्मोंसे मुक्त नही होता ।
१ मुनि दीपचन्दजी | २ परमात्ममय
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श्रीमद् राजचन्द्र ___ इसमे भी अनेक भेद है, परन्तु यहाँ तक कदाचित् साधारण स्याद्वाद मानें तो यह जैनके शास्त्रके लिये स्पष्टीकरण हुआ माना जाये । वेदात आदि तो इस कालमे सर्वथा सब कर्मोसे छुडानेके लिये कहते हैं । इसलिये अभी भी आगे जाना होगा । उसके बाद वाक्य सिद्धि होगी। इस तरह वाक्य बोलनेको अपेक्षा रखना उचित है । परन्तु ज्ञान उत्पन्न हुए बिना इस अपेक्षाकी स्मृति रहना सम्भव नहीं है। या तो सत्पुरुषकी कृपासे सिद्धि हो ।
__ अभी इतना ही । थोडा लिखा बहुत समझें। ऊपर लिखी हुई माथापच्ची भी लिखना पसन्द नही है। शक्करके श्रीफलकी सभीने प्रशंसा की है, परन्तु यहाँ तो अमृतका नारियलका पूरा वृक्ष है । तो यह कहाँसे पसन्द आये ? नापसन्द भी नही किया जाता।
अन्तमे आज, कल और सदाके लिये यही कहना है कि इसका सग होनेके बाद सर्वथा निर्भय रहना सीखें। आपको यह वाक्य कैसा लगता है ?
वि० रायचद।
१८१
बबई, मगसिर सुदी २, शनि, १९४७ सुज्ञ भाई छोटालाल,
भाई त्रिभोवनका और आपका पत्र मिला | ओर भाई अबालालका पत्र मिला |
अभी तो आपका लिखा हुआ पढनेकी इच्छा रखता हूँ। किसी प्रसगसे प्रवृत्ति (आत्माको) होगी तो मै भी लिखता रहूँगा।
आप जिस समय समतामे हो उस समय अपनी अतरकी उमियोके विषयमे लिखियेगा।
यहाँ तीनो काल समान है। प्राप्त व्यवहारके प्रति असमता नही है, और उसका त्याग करनेकी इच्छा रखी है, परन्तु पूर्व प्रकृतिको दूर किये बिना छुटकारा नही है।
कालको दुषमता • से यह प्रवृत्तिमार्ग बहुतसे जीवोको सत्के दर्शन करनेसे रोकता है। आप सबसे अनुरोध है कि इस आत्माके सबंधमे दूसरोंसे कोई बातचीत न करें।
वि० रायचंद ।
१८२ बबई, मगसिर सुदी १३, बुध, १९४७ आपका कृपापत्र कल मिला | पढकर परम सतोष प्राप्त हुआ।
आप हृदयके जो जो उद्गार लिखते हैं, उन सबको पढकर आपकी योग्यताके लिये प्रसन्न होता हूँ, परम प्रसन्नता होती है, और वारंवार सत्युगका स्मरण होता है। आप भी जानते हैं कि इस कालमे मनुष्योंके मन मायिक सपत्तिकी इच्छावाले हो गये हैं। कोई विरल मनुष्य निर्वाण-मार्गकी दृढ इच्छावाला रहना सम्भव है, अथवा वह इच्छा किसी एकको ही सत्पुरुषके चरणसेवनसे प्राप्त होती है ऐसा है।
महाधकारवाले इस कालमे हमारा जन्म किसी कारणसे ही हुआ होगा, यह नि.शक है, परन्तु क्या करे ? वह सपूर्णतासे तो वह सुझाये तब हो सकता है।
वि० रायचद। १८३
बबई, मगसिर सुदी १४, १९४७ आनन्दमूर्ति सत्स्वरूपको अभेदभावसे त्रिकाल नमस्कार करता हूँ। परमजिज्ञासासे भरपूर आपका धर्मपत्र परसो मिला । पढकर सतोष हुआ। .
उसमे जो जो इच्छायें बतायी हैं, वे सब कल्याणकारक ही है, परन्तु उन इच्छाओकी सब प्रकारको स्फुरणा तो सच्चे पुरुषके चरणकमलकी सेवामे निहित है। और अनेक प्रकारसे सत्सगमे निहित है । यह सब अनन्त ज्ञानियोका सम्मत किया हुआ निशंक वाक्य आपको लिखा है।
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परिभ्रमण करते हुए जीवने अनादिकालसे अब तक अपूर्वको नही पाया है । जो पाया है वह सब पूर्वानुपूर्व है । इन सबकी वासनाका त्याग करनेका अभ्यास कीजियेगा । दृढ प्रेमसे और परमोल्लाससे यह अभ्यास विजयी होगा, और वह कालक्रमसे महापुरुषके योगसे अपूर्व की प्राप्ति करायेगा ।
सर्व प्रकारकी क्रियाका, योगका, जपका, तपका और इसके सिवाय अन्य प्रकारका लक्ष्य ऐसा रखिये कि यह सब आत्माको छुडानेके लिये हैं, बन्धनके लिये नही हैं । जिनसे बन्धन हो वे सब (क्रियासे लेकर समस्त योगादि तक ) त्याज्य हैं ।
मिथ्यानामधारीके यथायोग्य |
१८४
सत्स्वरूपको अभेद भक्ति से नमस्कार ।
बंबई, मगसिर सुदी १५, १९४७
आपका पत्र कल मिला ।
आपके प्रश्न मिले । यथासमय उत्तर लिखूँगा । आधार निमित्त मात्र हूँ । आप निष्ठाको सबल करनेका प्रयत्न करें यह अनुरोध है ।
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बबई, मगसिर वदी ७, शुक्र, १९४७ आज हृदय भर आया है । जिससे विशेष प्राय कल लिखूंगा । हृदय भर आनेका कारण भी व्यावहारिक नही है ।
सर्वथा निश्चित रहनेकी विनती है ।
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वि० आ० रायचंद ।
बबई, मगसिर वदी १०, १९४७
सुज्ञ भाई श्री अबालाल,
यहाँ आनंदवृत्ति है । जैसे मार्गानुसारी हुआ जाये वैसे प्रयत्न करना यह अनुरोध है । विशेष क्या लिखना ? यह कुछ सूझता नही है ।
रायचदके यथायोग्य ।
बबई, मगसिर वदी ३०, १९४७
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प्राप्त हुए सत्स्वरूपको अभेदभाव से अपूर्वं समाधिमे स्मरण करता हूँ । महाभाग्य, शातमूर्ति, जीवन्मुक्त श्री सोभागभाई,
यहाँ आपकी कृपासे आनन्द है, आप निरन्तर आनन्दमे रहे यह आशिष है । अन्तिम स्वरूपके समझनेमे, अनुभव करनेमे अल्प भी न्यूनता नही रही है । जैसा है वैसा सर्वथा समझमे आया है। सब प्रकारोका एक देश छोड़कर बाकी सब अनुभवमे आया है । एक देश भी समझमे आनेसे नही रहा, परन्तु योग (मन, वचन, काया) से असंग होनेके लिये वनवासकी आवश्यकता है, और ऐसा होनेपर वह देश भी अनुभवमे आ जायेगा, अर्थात् उसीमे रहा जायेगा, परिपूर्ण लोकालोकज्ञान उत्पन्न होगा, और उसे उत्पन्न करनेकी (वैसे) आकाक्षा नही रही, फिर भी उत्पन्न कैसे होगा ? यह भी आश्चर्यकारक है | परिपूर्ण स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न हुआ ही है; और इस समाधिमेसे निकलकर लोकालोकदर्शनके प्रति जाना कैसे होगा ? यह भी एक मुझे नही परन्तु पत्र लिखनेवालेको विकल्प होता है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र कुनबी और कोली जैसी जातिमे भी थोडे ही वर्षोंमे मार्ग-प्राप्त बहुत पुरुष हो गये हैं। उन महात्माओकी जनसमुदायको पहचान न होनेके कारण कोई विरला ही उनसे सार्थकता सिद्ध कर सका है । जीवको महात्माके प्रति मोह ही नही हुआ, यह कैसी अद्भुत ईश्वरीय नियति है ?
वे सब कुछ अन्तिम ज्ञानको प्राप्त नही हुए थे, परन्तु उसकी प्राप्ति उनके बहुत समीप थी । ऐसे बहुतसे पुरुषोके पद इत्यादि यहाँ देखें। ऐसे पुरुषोके प्रति रोमाच बहुत उल्लसित होता है, और मानो निरन्तर उनकी चरणसेवा ही करते रहे, यह एकमात्र आकाक्षा रहती है । ज्ञानीकी अपेक्षा ऐसे मुमुक्षुओपर अतिशय उल्लास आता है, इसका कारण यही कि वे निरन्तर ज्ञानीको चरणसेवा करते हैं, और यही उनका दासत्व उनके प्रति हमारा दासत्व होनेका कारण है। भोजा भगत, निरात कोली इत्यादिक पुरुष योगी (परम योग्यतावाले) थे । निरजन पदको समझनेवालेको निरजन कैसी स्थितिमे रखते है, यह विचार करते हुए अकल गतिपर गम्भीर एव समाधियुक्त हास्य आता है | अब हम अपनी दशाको किसी भी प्रकारसे नही कह सकेंगे, तो फिर लिख कैसे सकेंगे? आपके दर्शन होनेपर जो कुछ वाणी कह सकेगी वह कहेगी, बाकी निरुपायता है। (कुछ) मुक्ति भी नही चाहिये, और जिस पुरुषको जैनका केवलज्ञान भी। नही चाहिये, उस पुरुषको अब परमेश्वर कौनसा पद देगा? यह कुछ आपके विचारमे आता है ? आये तो। आश्चर्य कीजिये, नही तो यहाँसे तो किसी तरह कुछ भी बाहर निकाला जा सके ऐसी सम्भावना मालूम नही होती।
आप जो कुछ व्यवहार-धर्मप्रश्न भेजते है, उनपर ध्यान नही दिया जाता। उनके अक्षर भी पूरे पढनेके लिये ध्यान नही जाता, तो फिर उनका उत्तर न लिखा जा सका हो तो आप किसलिये राह देखते हैं ? अर्थात् वह अब कब हो सकेगा, उसकी कुछ कल्पना नही की जा सकती।
आप वारवार लिखते हैं कि दर्शनके लिये बहुत आतुरता है, परन्तु महावीरदेवने पचमकाल कहा है और व्यास भगवानने कलियुग कहा है, वह कहाँसे साथ रहने दे ? और दे तो आपको उपाधियुक्त किसलिये न रखे?
यह भूमि उपाधिकी शोभाका सग्रहालय है। ___ खीमजी इत्यादिको एक बार आपका सत्सग हो तो जहाँ एक लक्षता करनी चाहिये वहाँ होगी, नही तो होनी दुर्लभ है, क्योकि हमारी अभी बाह्य वृत्ति कम है।
१८८
बबई, पौष सुदी २, सोम, १९४७
कहनेरूप जो मै उसे नमस्कार हो। सर्व प्रकारसे समाधि है।
१८९
बबई, पौष सुदी ५, गुरु, १९४७ *अलखनाम धुनि, लगी गगनमे, मगन भया मन मेरा जी। आसन मारी सुरत दृढ़ धारी, दिया अगम घर डेरा जी॥
दरश्या अलख देदारा जी।
भावार्थ-गगनमें अलख नामकी धुन लगी है, जिसमें मेरा मन मग्न हो गया है। आसन लगाकर सुरतको दृढतासे धारणकर अगमके घर डेरा जमाया है और अलखके स्वरूपका दर्शन किया है ।
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२४ वॉ वर्ष
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१९०
बबई, पौष सुदी ९, १९४७ चि०त्रिभोवनका लिखा पत्र कल मिला। आपको हमारे ऐसे व्यावहारिक कार्य - कथनसे भी विकल्प हुआ, इसके लिये सन्तोष हुआ है । आप भी सन्तोप ही रखिये ।
पूर्वापर असमाधिरूप हो उसे न करनेकी शिक्षा पहले भी दी है । और अव भी यही शिक्षा विशेष स्मरणमे रखने योग्य है । क्योकि ऐसा रहनेसे भविष्यमे धर्मप्राप्ति सुलभ होगी ।
जैसे आपको पूर्वापर असमाधि प्राप्त न हो वैसे आज्ञा होगी। चुनीलालका द्वेप क्षमा करने
योग्य है ।
समय समयपर कुवरजीको पत्र लिखते रहिये, क्योकि वे पत्र लिखनेके लिये लिखते है ।
१९१
आयुष्मान भाई,
वि० रायचन्दके यथायोग्य |
बबई, पौष सुदी १०, सोम, १९४७
महाभाग्य जीवन्मुक्त,
आपका कृपापत्र आज एक मिला। उसे पढकर परम सन्तोष हुआ । प्रश्नव्याकरणमे सत्यका माहात्म्य पढा है । मनन भी किया था। अभी हरिजनकी सगतिके अभावसे काल कठिनतासे बीतता है, हरिजनकी सगतिमे भी उसकी भक्ति करना बहुत प्रिय है ।
आप परमार्थके लिये जो परम आकाक्षा रखते हैं, वह ईश्वरेच्छा होगी तो किसी अपूर्वं रास्तेसे पूरी होगी । जिन्हे भ्रान्तिसे परमार्थका लक्ष मिलना दुर्लभ हो गया है, ऐसे भारतक्षेत्रवासी मनुष्योपर वह परमकृपालु परमकृपा करेगा, परन्तु अभी कुछ समय तक उसकी इच्छा हो, ऐसा मालूम नही होता ।
१९२
वंबई, पोष सुदी १४, शुक्र, १९४७
आज आपका एक पत्र मिला ।
1
आपको किसी भी प्रकारसे पूर्वापर धर्मप्राप्ति असुलभ हो इसलिये कुछ भी न करनेके लिये आज्ञा दी थी, तथा अन्तिम पत्र मे सूचित किया था कि अभी इस विषयमे कोई व्यवस्था न करें । यदि जरूरत पड़ेगी तो तत्सम्बन्धी कुछ करनेके लिये इस तरह लिखूंगा कि जिससे आपको पूर्वापर असमाधि न हो । यह वाक्य यथायोग्य समझमे आया होगा । तथापि कुछ भक्तिदशानुयोगसे ऐसा किया मालूम होता है । कदाचित् आपने इतना भी न किया होता तो यहाँ आनन्द ही था । प्रायः ऐसे प्रसगमे भी दूसरे प्राणीको दुखी करनेका न होता हो तो आनन्द हो रहता है । यह वृत्ति मोक्षाभिलापीके लिये तो वहुत उपयोगी है, आत्मसाधनरूप है ।
सत्को सत्रूपसे कहनेकी जिसकी निरन्तर परम अभिलाषा थी ऐसे महाभाग्य कबीरका एक पद इस विपयमे स्मरण करने योग्य है । यहाँ एक उसकी मूर्द्धन्य कडी लिखी है" करना फकीरी क्या दिलगीरी, सदा मगन मन रहेना जी ।"
मुमुक्षुओको इस वृत्तिको अधिकाधिक बढाना उचित है । परमार्थचिता होना यह एक अलग विषय है; व्यवहाराचताका वेदन अन्तरसे कम करना, यह मार्गप्राप्तिका एक साधन है ।
आपने इस बार मेरे प्रति जो कुछ किया है, वह एक अलग ही विषय है, तथापि विज्ञापन हे कि किसी भी प्रकारसे आपको असमाधिरूप जैसा मालूम हो तब इस विषय मे यहाँ लिख भेजना जिससे योग्य व्यवस्था करनेका यथासम्भव प्रयास होगा ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
अब इस विषयको इतनेसे यहाँ छोड देता हूँ।
हमारी वृत्ति जो करना चाहती है, वह निष्कारण परमार्थ है, तत्सम्बन्धी आप वारवार जान सके है, तथापि कुछ समवाय कारणकी न्यूनताके कारण अभी तो वैसा कुछ अधिक नही किया जा सकता । इसलिये अनुरोध है कि हम अभी कोई परमार्थज्ञानी हैं अथवा समर्थ हैं ऐसी बात प्रसिद्ध न करें, क्योकि यह हमे वर्तमानमे प्रतिकूल जैसा है।
__ आप जो समझे है वे मार्गको सिद्ध करनेके लिये निरन्तर सत्पुरुषके चरित्रका मनन करते रहे। प्रसगात् वह विषय हमे पूछे । सत्शास्त्र, सत्कथा और सद्वतका सेवन करें।
वि० निमित्तमात्र
१९३
बंबई, पौष वदी २, सोम, १९४७ सुज्ञ भाई,
हमे सभी मुमुक्षुओका दासत्व प्रिय है। जिससे उन्होने जो जो विज्ञापन किया है, वह सब हमने पढा है। यथायोग्य अवसर प्राप्त होनेपर इस विषयमे उत्तर लिखा जा सकता है, तथा अभी आश्रम (जो स्थिति है वह स्थिति) छोड़ देनेकी आवश्यकता नही है। हमारे समागमकी जो आवश्यकता बतायी वह अवश्य हितकारी है। तथापि अभी उस दशाका योग आना शक्य नही है। यहा निरन्तर आनन्द है। वहाँ धर्मयोगकी वृद्धि करनेके लिये सभीसे विनती है ।
वि० रा०
१९४
बबई, पौष, १९४७ जीवको मार्ग मिला नहीं है, इसका क्या कारण ? इसका वारवार विचार कर, योग्य लगे तब साथका पत्र पढें ।
अभी विशेष लिख सकनेकी या बतलानेकी दशा नहीं है, तो भी एक मात्र आपकी मनोवृत्ति कुछ दुखित होनेसे रुके इसलिये यथावसर जो कुछ योग्य लगा सो लिखा है। हमे लगता है कि मार्ग सरल है, परतु प्राप्तिका योग मिलना दुर्लभ है।
सत्स्वरूपको अभेदभावसे और अनन्य भक्तिसे नमोनमः जो निरतर भाव-अप्रतिबद्धतासे विचरते है ऐसे ज्ञानोपुरुषके चरणारविंदके प्रति अचल प्रेम हुए बिना और सम्यकप्रतीति आये बिना सत्स्वरूपकी प्राप्ति नही होती, और आने पर अवश्य वह मुमुक्षु, जिसके चरणारविदको उसने सेवा की है, उसकी दशाको पाता है। सर्व ज्ञानियोने इस मार्गका सेवन किया है, सेवन करते हैं और सेवन करेंगे। ज्ञानप्राप्ति इससे हमे हुई थी, वर्तमानमे इसी मार्गसे होती है और अनागतकालमे भी ज्ञानप्राप्तिका यही मार्ग है.। सर्व शास्त्रोका बोध-लक्ष्य देखा जाये तो यही है । और जो कोई भी प्राणी छूटना चाहता है उसे अखड वृत्तिसे इसी मार्गका आराधन करना चाहिये। इस मार्गका आराधन किये बिना जीवने अनादि कालसे परिभ्रमण किया है। जब तक जीवको स्वच्छंदरूपी अधत्व है, तव तक इस मार्गका दर्शन नहीं होता। (अधत्व दूर होनेके लिये) जीवको इस मार्गका विचार करना चाहिये, दृढ मोक्षेच्छा करनी चाहिये, इस विचारमे अप्रमत्त रहना चाहिये, तो मार्गकी प्राप्ति होकर अंधत्व दूर होता है, यह नि शक माने । अनादिकालसे जीव उलटे मार्गपर चला है। यद्यपि उसने जप, तप, शास्त्राध्ययन इत्यादि अनंत वार किया है, तथापि जो कुछ भी अवश्य करने योग्य था, वह उसने किया नही है, जो हमने पहले ही बताया है।
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२४ वॉ वर्ष
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*सूयगडांगसूत्रमे ऋषभदेवजी भगवानने जहां अट्ठानवें पुत्रोकी उपदेश दिया है, मोक्षमार्गपर चढाया है वहाँ यही उपदेश किया है
"हे आयुष्मानो । इस जीवने सब कुछ किया है एक इसके बिना, वह क्या ? तो कि निश्चयपूर्वक । कहते हैं कि सत्पुरुपका कहा हुआ वचन, उसका उपदेश सुना नही है, अथवा सम्यक्प्रकारसे उसका पालन नही किया है । और इसे ही हमने मुनियोको सामायिक ( आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ) कहा है । "
*सुधर्मास्वामी स्वामीको उपदेश देते हैं कि सारे जगतका जिन्होने दर्शन किया है, ऐसे महावीर भगवानने हमे इस प्रकार कहा है- "गुरुके अधीन होकर आचरण करनेवाले अनन्त पुरुषोने मार्ग पाकर । मोक्ष प्राप्त किया है ।"
एक इस स्थल नही, परन्तु सर्वं स्थलो और सर्वं शास्त्रोमे यही बात कहनेका लक्ष्य है । आणा धम्मो आणाए तवो ।
आज्ञाका आराधन ही धर्म और आज्ञाका आराधन ही तप है । ( आचाराग सूत्र )
सब जगह यही महापुरुषोके कहनेका लक्ष्य है । यह लक्ष्य जीवको समझमे नही आया। इसके कारणोमे सबसे प्रधान कारण स्वच्छद है और जिसने स्वच्छदको मद किया हैं, ऐसे पुरुषके लिये प्रतिवद्धता (लोकसम्बन्धी बधन, स्वजनकुटुम्ब बंधन, देहाभिमानरूप बंधन, सकल्प - विकल्परूप बन्धन) इत्यादि बन्धनको दूर करनेका सर्वोत्तम उपाय जो कोई हो उसका इसपरसे आप विचार कीजिये, और इसे विचारते हुए जो कुछ योग्य लगे वह हमे पूछिये, और इस मार्ग यदि कुछ योग्यता प्राप्त करेंगे तो चाहे जहाँसे भी उपशम मिल जायेगा । उपशम मिले और जिसकी आज्ञाका आराधन करें ऐसे पुरुषकी खोजमे रहिये ।
बाकी दूसरे सभी साधन बाद मे करने योग्य है । इसके सिवाय दूसरा कोई मोक्षमार्ग विचारने पर प्रतीत नही होगा । (विकल्पसे) प्रतीत हो तो बताइयेगा ताकि जो कुछ योग्य हो वह बताया जा सकें ।
बंबई, पोष १९४७
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सत्स्वरूपको अभेदरूपसे अनन्य भक्तिसे नमस्कार
जिसे मार्ग की इच्छा उत्पन्न हुई है, उसे सब विकल्पोको छोडकर इस एक विकल्पको वारवार स्मरण करना आवश्यक है
""अनन्तकालसे जीवका परिभ्रमण हो रहा है, फिर भी उसको निवृत्ति क्यो नही होती ? और वह क्या करनेसे हो ?"
इस वाक्यमे अनत अर्थ समाया हुआ है, और इस वाक्यमे कहो हुई चितना किये बिना, उसके लिये दृढ होकर तरसे बिना मार्गकी दिशाका भी अल्प भान नही होता, पूर्व मे हुआ नही, और भविष्यकाल में भी नही होगा । हमने तो ऐसा जाना है । इसलिये आप सबको यही खोजना है। उसके वाद दूसरा क्या जानना ? वह मालूम होता है ।
१९६
* प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय अध्ययन गाथा ३१-३२ २ मुनि - मुनिश्री लल्लुजी
वई, माघ सुदी ७,
रवि
१९४७
मु-नसे रहना पड़ता है ऐसे जिज्ञासु,
जीवके लिये दो बडे बधन हैं, एक स्वच्छद और दूसरा प्रतिवध जिसकी इच्छा स्वच्छद दूर करनेकी है, उसे ज्ञानी की आज्ञाका आराधन करना चाहिये, और जिसकी इच्छा प्रतिबंध दूर करनेकी है, उसे १ देखें आक ८६
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श्रीमद राजचन्द्र
सर्वसगका त्यागी होना चाहिये। ऐसा न हो तो वधनका नाश नही होता । जिसका स्वच्छंद नष्ट हुआ है, उसको जो प्रतिवध है, वह अवसर प्राप्त होनेपर नष्ट होता है, इतनो शिक्षा स्मरण करने योग्य है ।
यदि व्याख्यान करना पडे तो करे, परन्तु इस कार्यकी अभी मेरी योग्यता नही है और यह मुझे प्रतिवध है, ऐसा समझते हुए उदासीन भावसे करे । उसे न करनेके लिये श्रोताओको रुचिकर तथा योग्य लगें ऐसे प्रयत्न करे, और फिर भो जब करना पडे तो उपर्युक्त के अनुसार उदासीन भाव समझकर करे ।
१९७
बबई, माघ सुदी ९, मंगल, १९४७
आपका आनदरूप पत्र मिला । ऐसे पत्रके दर्शनको तृषा अधिक है । ज्ञानके परोक्ष-अपरोक्ष' होनेके विपयमे पत्रसे लिखा जा सकना सम्भव नही है, परन्तु सुधाकी धारा के पीछेके कितने ही दर्शन हुए है, और यदि असगता के साथ आपका सत्सग हो तो अतिम स्वरूप परिपूर्ण प्रकाशित हो ऐसा है, क्योकि उसे प्राय सर्व प्रकारसे जाना है, और वही राह उसके दर्शनकी है। इस उपावियोगमे भगवान इस दर्शनको नही होने देंगे, ऐसा वे मुझे प्रेरित करते है, इसलिये जब एकातवासी हुआ जायेगा तब जान-बूझकर भगवानका रखा हुआ परदा मात्र थोडे ही प्रयत्नसे दूर हो जायेगा । इसके अतिरिक्त दूसरे स्पष्टीकरण पत्र द्वारा नही किये जा सकते ।
अभी आपके समागमके बिना आनदका रोध है |
वि० आज्ञाकारी
१९८
बबई, माघ सुदी ११, गुरु, १९४७
सत्को अभेद भावसे नमोनम.
पत्र आज मिला । यहाँ आनन्द है ( वृत्तिरूप ) | आजकल किस प्रकारसे कालक्षेप होता है सो लिखियेगा |
दूसरी सभी प्रवृत्तियोकी अपेक्षा जीवको योग्यता प्राप्त हो ऐसा विचार करना योग्य है, और उसका मुख्य साधन सर्व प्रकारके कामभोगसे वैराग्यसहित सत्सग है ।
सत्सग (समवयस्क पुरुपोका, समगुणी पुरुपोका योग ) मे, जिसे सत्का साक्षात्कार है ऐसे पुरुषके वचनोका परिशीलन करना कि जिससे कालक्रमसे सत्की प्राप्ति होती है ।
जीव अपनी कल्पनासे किसी भी प्रकार से सत्को प्राप्त नही कर सकता । सजीवनमूर्तिके प्राप्त होनेपर ही सत् प्राप्त होता है, सत् समझमे आता है, सत्का मार्ग मिलता है और सत्पर ध्यान आता है । सजीवनमूर्तिके लक्षके बिना जो कुछ भी किया जाता है, वह सब जीवके लिये बन्धन है । यह मेरा हार्दिक अभिमत है ।
यह काल सुलभबोधिता प्राप्त होने मे विघ्नभूत है । फिर भी अभी उसकी विषमता कुछ ( दूसरे कालकी अपेक्षा बहुत) कम है, ऐसे समयमे जिससे वक्रता व जडता प्राप्त होती है ऐसे मायिक व्यवहारमे उदासीन होना श्रेयस्कर है सत्का मार्ग कही भी दिखायी नही देता । आप सबको आजकल जो कुछ जैनकी पुस्तकें पढनेका परिचय रहता हो, उसमे से जिस भागमे जगतका विशेष वर्णन किया हो उस भागको पढ़नेका व्यान कम रखें; और जीवने क्या नही किया ? और अब क्या करना ? इस भागको पढने और विचारनेका विशेष ध्यान रखें ।
कोई भी दूसरे धर्मक्रियाके नामसे जो आपके सहवासी (श्रावक आदि ) क्रिया करते हो, उसका निषेध न करें । अभी जिसने उपाधिरूप इच्छा अगीकार की है, उस पुरुषको किसी भी प्रकारसे प्रगट न करें ।
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२४ वो वर्ष
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मात्र कोई दृढ जिज्ञासु हो उसका ध्यान मार्गकी ओर जाये ऐसी थोडे शब्दोमे धर्मकथा करें (और वह भी यदि वह इच्छा रखता हो तो), बाकी अभी तो आप सब अपनी-अपनी सफलताके लिये मिथ्या धर्मवासनाओका, विषयादिककी प्रियताका, और प्रतिबधका त्याग करना सीखें। जो कुछ प्रिय करने योग्य है, उसे जीवने जाना नही, और बाकीका कुछ प्रिय करने योग्य नही है, यह हमारा निश्चय है।
आप जो यह बात पढे उसे सुज्ञ मगनलाल और छोटालालको किसी भी प्रकारसे सुना दीजिये, पढवा दीजिये। योग्यताके लिये ब्रह्मचर्य एक बडा साधन है । असत्सग एक बड़ा विघ्न है।
१९९
बबई, माघ सुदी ११, गुरु, १९४७ उपाधियोगके कारण यदि शास्त्रवाचन न हो सकता हो तो अभी उसे रहने दें । परन्तु उपाधिसे नित्य प्रति थोडा भी अवकाश लेकर जिससे चित्तवृत्ति स्थिर हो ऐसो निवृत्तिमे बैठनेकी बहुत आवश्यकता है। और उपाधिमे भी निवृत्तिका ध्यान रखनेका स्मरण रखिये।
____ आयुका जितना समय है उतना ही समय यदि जीव उपाधिका रखे तो मनुष्यत्वका सफल होना कब सम्भव है ? मनुष्यताकी सफलताके लिये जोना ही कल्याणकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । और सफलताके लिये जिन जिन साधनोकी प्राप्ति करना योग्य है उन्हे प्राप्त करनेके लिये नित्य प्रति निवृत्ति प्राप्त करनी चाहिये । निवृत्तिके अभ्यासके बिना जीवको प्रवृत्ति दूर नहीं होती यह प्रत्यक्ष समझमे आने जैसी बात है।
___ धर्मके रूपमे मिथ्या वासनाओसे जीवको बधन हुआ है, यह महान लक्ष रखकर वैसी मिथ्या वासनाये कैसे दूर हो इसके लिये विचार करनेका अभ्यास रखियेगा।
२००
बवई माघ, सुदी, १९४७
वचनावली १ जीव स्वयको भूल गया है, और इसलिये उसे सत्सुखका वियोग है, ऐसा सर्व धर्म सम्मत कथन है। २ स्वयको भूल जानेरूप अज्ञानका नाश ज्ञान मिलनेसे होता है, ऐसा नि शक मानना । ।
३ ज्ञानको प्राप्ति ज्ञानीके पाससे होनी चाहिये। यह स्वाभाविकरूपसे समझमे आता है, फिर भी जीव लोकलज्जा आदि कारणोसे अज्ञानीका आश्रय नही छोडता, यही अनतानुबधी कपायका मूल है।
४ जो ज्ञानको प्राप्तिकी इच्छा करता है, उसे ज्ञानीको इच्छानुसार चलना चाहिये, ऐसा जिनागम आदि सभी शास्त्र कहते है । अपनी इच्छानुसार चलता हुआ जीव अनादिकालसे भटक रहा है।
५ जब तक प्रत्यक्ष ज्ञानीकी इच्छानुसार, अर्थात् आज्ञानुसार न चला जाये, तव तक अज्ञानकी निवृत्ति होना सभव नही है ।
६ ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन वह कर सकता है कि जो एकनिष्ठासे, तन, मन और धनको आसक्तिका त्याग करके उसको भक्तिमे जुट जाये।
७ यद्यपि ज्ञानी भक्तिको इच्छा नहीं करते, परन्तु मोक्षाभिलापीको वह किये विना उपदेश परिणमित नहीं होता, और मनन तथा निदिध्यासन आदिका हेतु नहीं होता, इसलिये मुमुक्षुको ज्ञानीको भक्ति अवश्य करनी चाहिये ऐसा सत्पुरुषोने कहा है।
१ पाठातर-यद्यपि ज्ञानी भक्तिकी इच्छा नहीं करते, परन्तु मोक्षाभिलापीको वह किये बिना मोक्षको प्राप्ति नहीं होती, यह अनादि कालका गुप्त तत्त्व सतोके हृदयमें रहा है, जिसे यहां लिपिबद्ध किया है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
२०४ ___ बबई, माघ वदी ७, मंगल, १९४७ यहाँ परमानद वृत्ति है । आपका भक्तिपूर्ण पत्र आज प्राप्त हुआ।
आपको मेरे प्रति परमोल्लास आता है, और वारवार इस विषयमे आप प्रसन्नता प्रगट करते हैं, परन्तु अभी हमारी प्रसन्नता हमपर नही होती, क्योकि यथेष्ट असगदशासे रहा नहीं जाता, और मिथ्या प्रतिवधमे वास है। परमार्थके लिये परिपूर्ण इच्छा है, परन्तु ईश्वरेच्छाकी अभी तक उसमे सम्मति नही है, तब तक मेरे विषयमे अतरमे समझ रखियेगा, और चाहें जैसे मुमुक्षुओको भी नामपूर्वक मत वताइयेगा । अभी ऐसी दशामे रहना हमे प्रिय है।
आपने खभात पत्र लिखकर मेरा माहात्म्य प्रगट किया, परन्तु अभी वैसा नही होना चाहिये। वे सब मुमुक्षु है । सच्चेको कितनी ही तरहसे पहचानते है, तो भी उनके सामने अभी प्रगट होकर प्रतिवध करना मुझे योग्य नही लगता | आप प्रसगोपात्त उन्हे ज्ञानकथा लिखियेगा, तो मेरा एक प्रतिवध कम होगा। और ऐसा करनेका परिणाम अच्छा है। हम तो आपका समागम चाहते हैं। कई बाते अतरमे घूमती है, परन्तु लिखी नही जा सकती। ..
___ बंबई, माघ वदी ११, शुक्र, १९४७ तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः उसे मोह क्या ? शोक क्या ? कि जो सर्वत्र एकत्व (परमात्मस्वरूप) को ही देखता है ।
वास्तविक सुख यदि जगतको दृष्टिमे आया होता तो ज्ञानी पुरुपो द्वारा नियत किया हुआ मोक्ष स्थान ऊर्ध्व लोकमे नही होता, परन्तु यह जगत ही मोक्ष होता।
ज्ञानीको सर्वत्र मोक्ष है, यह बात यद्यपि यथार्थ है, तो भी जहाँ मायापूर्वक परमात्माका दर्शन है ऐसे जगतमे विचारकर पैर रखने जैसा उन्हे भी कुछ लगता है । इसलिये हम असगता चाहते है, या फिर आपका सग चाहते है, यह योग्य ही है।
२०६. वबई, माघ वदी १३, रवि, १९४७ घट परिचयके लिये आपने कुछ नही लिखा सो लिखियेगा ।, तथा महात्मा कबीरजीकी दूसरी पुस्तकें मिल सकें तो भेजनेकी कृपा कीजियेगा।
पारमार्थिक विपयमे अभी मौन रहनेका कारण परमात्माकी इच्छा है। जब तक असग नही होगे और उसके बाद उसकी इच्छा नही होगी तब तक प्रगटरूपसे मार्ग नही कहेगे, और ऐसा सभी महात्माओका रिवाज है । हम तो दीन मात्र है। ___ भागवतवाली बात आत्मज्ञानसे जानी हुई है।
ववई, माघ वदी ३०, १९४७ यद्यपि किसी प्रकारको क्रियाका उत्थापन नही किया जाता तो भी उन्हे जो लगता है उसका कुछ कारण होना चाहिये, जिस कारणको दूर करना कल्याणरूप है।
परिणाममे 'सत्' को प्राप्त करानेवाली और प्रारम्भमे 'सत्' की हेतुभूत ऐसी उनकी रुचिको प्रसन्नता देनेवाली वैराग्यकथाका प्रसगोपात्त उनसे परिचय करना, तो उनके समागमसे भी कल्याणकी ही वृद्धि होगी, और वह कारण भी दूर होगा।
जिनमे पृथ्वी आदिका विस्तारसे विचार किया गया है ऐसे वचनोको अपेक्षा 'वैतालीय' अध्ययन जैसे वचन वैराग्यकी वृद्धि करते हैं, और दूसरे मतभेदवाले प्राणियोको भी उनमे अरुचि नही होती।
२०७
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२४ वाँ वर्ष
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जो साधु आपका अनुसरण करते हैं, उन्हे समय समयपर बताते रहना : "धर्म उसीको कहा जा सकता है कि जो धर्म होकर परिणमे, ज्ञान उसोको कहा जा सकता है कि जो ज्ञान होकर परिणमे । हम ये सब क्रियाएँ, वाचन इत्यादि करते हैं, वे मिथ्या हैं ऐसा कहनेका मेरा हेतु आप न समझें तो मै आपको कुछ कहना चाहता हूँ," इस प्रकार कहकर उन्हे बताना कि यह जो कुछ हम करते है, उसमे कोई ऐसी... बात रह जाती है कि जिससे 'धर्म और ज्ञान' हममे अपने रूपसे परिणमित नही होते, और कपाय एव मिथ्यात्व (सदेह) का मदत्व नही होता, इसलिये हमे जीवके कल्याणका पुन पुनः विचार करना योग्य है और उसका विचार करनेपर हम कुछ न कुछ फल पाये बिना नही रहेगे । हम सब कुछ जाननेका प्रयत्न करते है, परन्तु अपना 'सन्देह' कैसे दूर हो, यह जाननेका प्रयत्न नही करते। यह जब तक नही करेंगे तब तक ‘सदेह' कैसे दूर होगा ? और जब तक सन्देह होगा तब तक ज्ञान भी नही होगा, इसलिये सदेहको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये । वह सन्देह यह है कि यह जीव भव्य है या अभव्य ? मिथ्यादृष्टि है या सम्यग्दृष्टि ? सुलभवोधी है या दुर्लभबोधी ? अल्पससारी है या अधिक ससारी ? यह सब हमे ज्ञात हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकारकी ज्ञानकथाका उनसे प्रसग रखना योग्य है ।
परमार्थपर प्रीति होनेमे सत्सग सर्वोत्कृष्ट और अनुपम साधन है, परन्तु इस कालमे वैसा योग होना बहुत विकट है, इसलिये जीवको इस विकटतामे रहकर सफलतापूर्वक पूरा करनेके लिये विकट पुरुषार्थ करना योग्य है, और वह यह कि "अनादि कालसे जितना जाना है उतना सभी अज्ञान ही है, उसका विस्मरण करना ।"
'सत्' सत् हो है, सरल है, सुगम है, सर्वत्र उसकी प्राप्ति होती है, परन्तु 'सत्' को बतानेवाला 'सत्' चाहिये ।
नय अनत हैं, प्रत्येक पदार्थमे अनत गुणधर्म हैं, उनमे अनत नय परिणमित होते हैं, तो फिर एक या दो चार नयपूर्वक बोला जा सके ऐसा कहाँ है ? इसलिये नयादिकमे समतावान रहना । ज्ञानियोकी वाणी 'नय’मे उदासीन रहती है, उस वाणीको नमस्कार हो । विशेष किसी प्रसगसे ।
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वबई, माघ वदी ३०, १९४७
अनत नय हैं, एक एक पदार्थ अनत गुणसे और अनत धर्मसे युक्त है, एक एक गुण और एक एक धर्ममे अनत नय परिणमित होते हैं, इसलिये इस रास्तेसे पदार्थका निर्णय करना चाहे तो नही हो सकता, इसका रास्ता कोई दूसरा होना चाहिये । प्राय. इस बातको ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं, और वे उस नयादिक मार्गके प्रति उदासीन रहते हैं, जिससे किसी नयका एकात खडन नही होता, अथवा किसी नयका एकात मडन नही होता । जितनी जिसकी योग्यता है, उतनी उस नयकी सत्ता ज्ञानी पुरुपोको मान्य होती है । जिन्हे मार्ग नही प्राप्त हुआ ऐसे मनुष्य 'नय' का आग्रह करते हैं, और उससे विषम फलकी प्राप्ति होती है । कोई न जहाँ बाधित नही है ऐसे ज्ञानीके वचनोको हम नमस्कार करते है । जिसने ज्ञानीके मार्गकी इच्छा की हो ऐसा प्राणी नयादिमे उदासीन रहनेका अभ्यास करे, किसी नयमे आग्रह न करे और किसी प्राणीको इस राहसे दुखी न करे, और यह आग्रह जिसका मिट गया है, वह किसी राह से भी प्राणीको दुखी करनेकी इच्छा नही करता ।
महात्माओने चाहे जिस नामसे और उसीका ज्ञान करना योग्य है । वही प्रतीत भजने योग्य है ।
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चाहे जिस आकारसे एक 'सत्' को ही प्रकाशित किया है । करने योग्य है, वही अनुभवरूप है और वही परम प्रेमसे
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श्रीमद् राजचन्द्र ८. इसमे कही हुई बात सव शास्त्रोको मान्य है। ९. ऋषभदेवजीने अट्टानवें पुत्रोको त्वरासे मोक्ष होनेका यही उपदेश किया था। १० परीक्षित राजाको शुकदेवजीने यही उपदेश किया है।
११. अनंत काल तक जीव स्वच्छदसे चलकर परिश्रम करे तो भी अपने आप ज्ञान प्राप्त नही करता, परन्तु ज्ञानीकी आज्ञाका आराधक अन्तर्मुहूर्तमे भी केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
१२ शास्त्रमे कही हुई आज्ञाएँ परोक्ष है और वे जीवको अधिकारी होनेके लिये कही हैं, मोक्षप्राप्तिके लिये ज्ञानीकी प्रत्यक्ष आज्ञाका आराधन करना चाहिये। ,
१३. यह ज्ञानमार्गकी श्रेणि कही, इसे प्राप्त किये बिना दुसरे मार्गसे मोक्ष नही है। १४ इस गुप्त तत्त्वका जो आराधन करता है, वह प्रत्यक्ष अमृतको पाकर अभय होता है।
॥ इति शिवम् ॥ २०१
बंबई, माघ वदी ३, गुरु, १९४७ सर्वथा निर्विकार होनेपर भी परब्रह्म प्रेममय पराभक्तिके वश है, इसका जिन्होंने
हृदयमे अनुभव किया है, ऐसे ज्ञानियोकी गुप्त शिक्षा है। यहाँ परमानद है। असगवृत्ति होनेसे समुदायमे रहना बहुत विकट है। जिसका यथार्थ आनद किसी भी प्रकारसे नहीं कहा जा सकता, ऐसा सत्स्वरूप जिनके हृदयमे प्रकाशित हुआ है, उन महाभाग्य ज्ञानियोकी और आपको हमपर कृपा रहे । हम तो आपको चरणरज है, और त्रिकाल इसी प्रेमको निरंजनदेवसे याचना है।
आजके प्रभातसे निरजनदेवका-कोई अद्भुत अनुग्रह प्रकाशित हुआ है, आज बहुत दिनोसे इच्छित पराभक्ति किसी अनुपम रूपमे उदित हुई है। गोपियाँ भगवान वासुदेव (कृष्णचद्र) को दहीकी मटकीमे रखकर बेचने निकली थी ऐसी श्रीमद् भागवत्मे एक 'कथा है, वह प्रसग आज बहुत याद आ रहा है । जहाँ अमृत बहता है वहाँ सहस्रदल कमल है, यह दहीकी मटकी है, और आदिपुरुष उसमे बिराजमान है वह भगवान वासुदेव है । उसको प्राप्ति सत्पुरुषकी चित्तवृत्तिरूप गोपीको होनेपर वह उल्लासमे आकर किसी दूसरे मुमुक्षु आत्माके प्रति ऐसा कहती है-"कोई माधव ले; हॉरे कोई माधव ले।" अर्थात् वह वृत्ति कहती है कि हमे आदिपुरुषकी प्राप्ति हुई है और यह एक ही प्राप्त करने योग्य है, और कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है, इसलिये आप प्राप्त करे । उल्लासमे वारवार कहती है कि आप उस पुराणपुरुषको प्राप्त करें, और यदि उस प्राप्तिको अचल प्रेमसे चाहे तो हम वह आदिपुरुष आपको दे दें। हम इस मटकीमे रखकर बेचने निकलो हैं, ग्राहक देखकर दे देती हैं, कोई ग्राहक बने, अचल प्रेमसे कोई ग्राहक बने, तो वासुदेवकी प्राप्ति करा दें।
म्टकीमे रखकर बेचने निकलनेका अर्थ यह है कि सहस्रदल कमलमे हमे वासुदेव भगवान मिले है, मक्खनका तो नाम मात्र है, यदि सारी सृष्टिको मथ कर मक्खन निकालें तो मात्र एक अमृतरूप वासुदेव भगवान ही मक्खन निकलता है। ऐसे सूक्ष्म स्वरूपको स्थूल बनाकर व्यासजीने अद्भुत भक्तिका गान किया है । यह कथा और समस्त भागवत इस एकको हो प्राप्त करानेके लिये अक्षरश भरपूर है । और वह मुझे (हमे बहुत समय पहले समझमे आ गया है, आज अति अति स्मरणमे है; क्योकि साक्षात् अनुभवप्राप्ति है, और इसी कारण आजको परम अद्भुत दशा है। ऐसी दशासे जीव उन्मत्त भी हुए बिना नही रहेगा, और वासुदेव हरि जान-बूझकर कुछ समयके लिये अदृश्य भी हो जायें, ऐसे लक्षणके धारक है । इसलिये हम असगता चाहते है, और आपका सहवास भी असगता ही है, इसलिये भी वह हमे विशेष प्रिय है।
१. ऐसी कोई कया श्रीमद् भागवतमे तो नही है । इस तरहको जनश्रुति अवश्य हैं। -अनुवादक
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२४ वा वर्ष
२६७ सत्सगकी यहाँ कमी है, और विकट वासमे निवास है। हरीच्छासे धूमने-फिरनेकी वृत्ति है। इसलिये कुछ खेद तो नही है, परन्तु भेदका प्रकाश नही किया जा सकता, यह चिंतना निरतर रहा करती है।
आज भूधर एक पत्र दे गये है। तथा आपका एक पत्र सीधा मिला है।
मणिको भेजी हुई 'वचनावलीमे आपकी प्रसन्नतासे हमारी प्रसन्नताको उत्तेजन मिला है। इसमे सतका अद्भुत मार्ग प्रगट किया है। यदि मणि एक ही वृत्तिसे इन वाक्योका आराधन करेगा, और उसी पुरुषकी आज्ञामे लीन रहेगा तो अनन्त कालसे प्राप्त हुआ परिभ्रमण मिट जायेगा । मणि मायाका मोह विशेष रखता है, कि जो मार्गप्राप्तिमे बडा प्रतिबध गिना गया है। इसलिये ऐसी वृत्तिको धीरे-धीरे कम करनेके लिये मणिसे मेरी विनती है।
आपको जो पूर्णपदोपदेशक अखरावट या पद भेजनेकी इच्छा है, वह किस ढालमे अथवा रागमे हो इसके लिये आपको जो योग्य लगे वह लिखें।
अनेकानेक प्रकारसे मनन करनेपर हमारा यह दृढ निश्चय है कि भक्ति सर्वोपरि मार्ग है, और वह सत्पुरुषके चरणोमे रहकर हो तो क्षणभरमे मोक्ष प्राप्त करा दे ऐसा साधन है।
विशेष कुछ नही लिखा जाता । परमानद है, परन्तु असत्सग है अर्थात् सत्सग नही है। विशेष आपकी कृपादृष्टि, बस यही ।
,, - वि० आज्ञाकारीके दडवत्
२०२
वबई, माघ वदी ३, १९४७ सुज्ञ मेहता चत्रभुज,
जिस मार्गसे जीवका कल्याण हो उसका आराधन करना 'श्रेयस्कर' है, ऐसा वारवार कहा है। फिर भी यहाँ इस बातका स्मरण कराता हूँ।
____ अभी मझसे कुछ भी लिखा नही गया है, उसका उद्देश इतना ही है कि ससारी सम्बन्ध अनन्त बार हुआ है, और जो मिथ्या है उस मार्गसे प्रीति बढानेकी इच्छा नहीं है। परमार्थ मार्गमे प्रेम उत्पन्न होना यही धर्म है। उसका आराधन करें।
वि० रायचदके यथायोग्य ।
२०३
वंबई, माघ वदी ४, १९४७
ॐ सत्स्व रूप सुज्ञ भाई,
आज आपका एक पत्र मिला। इससे पूर्व तीन दिन पहले एक सविस्तर पत्र मिला था। उसके लिये कुछ असतोष नही हुआ। विकल्प न कीजियेगा।
आपने मेरे पत्रके उत्तरमे जो सविस्तर पत्र लिखा है, वह पत्र आपने विकल्पपूर्वक नही लिखा। मेरा वह लिखा हुआ पत्र मुख्यत मुनिपर था । क्योकि उनकी मांग निरन्तर रहती थी।
यहाँ परमानद है। आप और दूसरे भाई सत्के आराधनका प्रयत्न करें। हमारा यथायोग्य मानें। और भाई त्रिभोवन आदिसे कहे।
वि० रायचदके यथायोग्य ।
१. देखें आक २००
२ मणिलाल, श्री सोभाग्यभाईके पुत्र
३. देखें आक १९८
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२६८
श्रीमद् राजचन्द्र २०४
बंबई, माघ वदी ७, मंगल, १९४७ यहाँ परमानद वृत्ति है । आपका भक्तिपूर्ण पत्र आज प्राप्त हुआ।"
आपको मेरे प्रति परमोल्लास आता है, और वारवार इस विषयमे आप प्रसन्नता प्रगट करते हैं, परन्तु अभी हमारी प्रसन्नता हमपर नही होती, क्योकि यथेष्ट असगदशासे रहा नहीं जाता, और मिथ्या प्रतिबधमे वास है। परमार्थके लिये परिपूर्ण इच्छा है, परन्तु ईश्वरेच्छाकी अभी तक उसमे सम्मति नही है, तब तक मेरे विपयमे अतरमे समझ रखियेगा, और चाहे जैसे मुमुक्षुओको भी नामपूर्वक मत बताइयेगा । अभी ऐसी दशामे रहना हमे प्रिय है।
____ आपने खभात पत्र लिखकर मेरा माहात्म्य प्रगट किया, परन्तु अभी वैसा नही होना चाहिये । वे सब मुमुक्ष है । सच्चेको कितनी ही तरहसे पहचानते है, तो भी उनके सामने अभी प्रगट होकर प्रतिवध करना मुझे योग्य नही लगता | आप प्रसगोपात्त उन्हे ज्ञानकथा लिखियेगा, तो मेरा एक प्रतिवध कम होगा। और ऐसा करनेका परिणाम अच्छा है। हम तो आपका समागम चाहते हैं। कई बाते अतरमे घूमती है, परन्तु लिखी नही जा सकती। .
२०५
वंबई, माघ वदी ११, शुक्र, १९४७ तत्र को मोहः क. शोकः एकत्वमनुपश्यत. उसे मोह क्या ? शोक क्या ? कि जो सर्वत्र एकत्व (परमात्मस्वरूप) को ही देखता है ।
वास्तविक सुख यदि जगतको दृष्टिमे आया होता तो ज्ञानी पुरुपो द्वारा नियत किया हुआ मोक्ष स्थान ऊर्ध्व लोकमे नही होता, परन्तु यह जगत ही मोक्ष होता।
ज्ञानीको सर्वत्र मोक्ष है, यह बात यद्यपि यथार्थ है, तो भी जहाँ मायापूर्वक परमात्माका दर्शन है ऐसे जगतमे विचारकर पैर रखने जैसा उन्हे भी कुछ लगता है। इसलिये हम असगता चाहते है, या फिर आपका सग चाहते हैं, यह योग्य ही है।
बबई, माघ वदी १३, रवि, १९४७ घट परिचयके लिये आपने कुछ नही लिखा सो लिखियेगा।, तथा महात्मा कबीरजीकी दूसरी पुस्तकें मिल सकें तो भेजनेकी कृपा कीजियेगा।
___ पारमार्थिक विपयमे अभी मौन रहनेका कारण परमात्माकी इच्छा है। जब तक असग नही होगे और उसके बाद उसकी इच्छा नही होगी तब तक प्रगटरूपसे मार्ग नही कहेगे, और ऐसा सभी महात्माओका रिवाज है । हम तो दीन मात्र है। भागवतवाली बात आत्मज्ञानसे जानी हुई है।
२०७
बबई, माघ वदी ३०, १९४७ यद्यपि किसी प्रकारको क्रियाका उत्थापन नही किया जाता तो भी उन्हे जो लगता है उसका कुछ कारण होना चाहिये, जिस कारणको दूर करना कल्याणरूप है।
परिणाममे 'सत्' को प्राप्त करानेवाली और प्रारम्भमे 'सत्' की हेतुभूत ऐसी उनकी रुचिको प्रसन्नता देनेवाली वैराग्यकथाका प्रसगोपात्त उनसे परिचय करना, तो उनके समागमसे भी कल्याणकी ही वृद्धि होगी, और वह कारण भी दूर होगा।
जिनमे पृथ्वी आदिका विस्तारसे विचार किया गया है ऐसे वचनोको अपेक्षा 'वैतालीय' अध्ययन जैसे वचन वैराग्यकी वृद्धि करते हैं, और दूसरे मतभेदवाले प्राणियोको भी उनमे अरुचि नही होती । -
२०६
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२४ वाँ वर्ष
२६० जो साधु आपका अनुसरण करते हैं, उन्हे समय समयपर बताते रहना : “धर्म उसीको कहा ज सकता है कि जो धर्म होकर परिणमे, ज्ञान उसोको कहा जा सकता है कि जो ज्ञान होकर परिणमे । हर ये सब क्रियाएँ, वाचन इत्यादि करते है, वे मिथ्या है ऐसा कहनेका मेरा हेतु आप न समझे तो मै आपक कुछ कहना चाहता हूँ," इस प्रकार कहकर उन्हे बताना कि यह जो कुछ हम करते है, उसमे कोई ऐसी बात रह जाती है कि जिससे 'धर्म और ज्ञान' हममे अपने रूपसे परिणमित नहीं होते, और कपाय एक मिथ्यात्व (सदेह) का मदत्व नहीं होता, इसलिये हमे जीवके कल्याणका पुन पुनः विचार करना योग्य
और उसका विचार करनेपर हम कुछ न कुछ फल पाये बिना नही रहेगे। हम सब कुछ जाननेका प्रयत्न करते है, परन्तु अपना 'सन्देह' कैसे दूर हो, यह जाननेका प्रयल नहीं करते। यह जब तक नही करें तब तक 'सदेह' केसे दूर होगा ? और जब तक सन्देह होगा तब तक ज्ञान भी नही होगा, इसलिये सदेहक दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये । वह सन्देह यह है कि यह जीव भव्य है या अभव्य ? मिथ्यादृष्टि है य सम्यग्दृष्टि ? सुलभवोधो है या दुर्लभबोधी? अल्पससारी है या अधिक ससारी ? यह सब हमे ज्ञात ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकारकी ज्ञानकथाका उनसे प्रसग रखना योग्य है।
परमार्थपर प्रीति होनेमे सत्सग सर्वोत्कृष्ट और अनुपम साधन है, परन्तु इस कालमे वैसा यो होना बहुत विकट है, इसलिये जीवको इस विकटतामे रहकर सफलतापूर्वक पूरा करनेके लिये विक पुरुषार्थ करना योग्य हे, और वह यह कि "अनादि कालसे जितना जाना है उतना सभी अज्ञान ही है उसका विस्मरण करना।"
'सत्' सत् ही है, सरल है, सुगम है, सर्वत्र उसकी प्राप्ति होती है, परन्तु 'सत्' को बतानेवाल 'सत्' चाहिये।
नय अनंत हैं, प्रत्येक पदार्थमे अनत गुणधर्म हैं, उनमे अनत नय परिणमित होते हैं, तो फिर एक या दो चार नयपूर्वक बोला जा सके ऐसा कहाँ है ? इसलिये नयादिकमे समतावान रहना । ज्ञानियो वाणी 'नय'मे उदासीन रहती है, उस वाणीको नमस्कार हो । विशेष किसी प्रसगसे।
२०८
बबई, माघ वदी ३०, १९४ अनत नय है, एक एक पदार्थ अनत गुणसे और अनत धर्मसे युक्त है, एक एक गुण और एक एक धर्ममे अनत नय परिणमित होते हैं, इसलिये इस रास्तेसे पदार्थका निर्णय करना चाहे तो नही हो सकता इसका रास्ता कोई दूसरा होना चाहिये । प्राय. इस वातको ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं, और वे उस नया दिक मार्गके प्रति उदासीन रहते हैं, जिससे किसी नयका एकात खडन नहीं होता, अथवा किसी नयन एकात मडन नहीं होता । जितनी जिसकी योग्यता है, उतनी उस नयको सत्ता ज्ञानी पुरुपोको मान्य होत है। जिन्हे मार्ग नही प्राप्त हुआ ऐसे मनुष्य 'नय' का आग्रह करते है, और उससे विषम फलकी प्रापि होती है । कोई नय जहाँ बाधित नही है ऐसे ज्ञानीके वचनोको हम नमस्कार करते है। जिसने ज्ञानी मार्गकी इच्छा की हो ऐसा प्राणी नयादिमे उदासीन रहनेका अभ्यास करे, किसी नयमे आग्रह न करे औ किसी प्राणीको इस राहसे दुखी न करे, और यह आग्रह जिसका मिट गया है, वह किसी राहसे में प्राणीको दुखी करनेको इच्छा नही करता।
२०९
महात्माओने चाहे जिस नामसे और चाहे जिस आकारसे एक 'सत्' को ही प्रकाशित किया है उसीका ज्ञान करना योग्य है। वही प्रतीत करने योग्य है, वही अनुभवरूप है और वही परम प्रेमर भजने योग्य है।
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२७०
श्रीमद राजचन्द्र
उस 'परमसत्' को ही हम अनन्य प्रेमसे अविच्छिन्न भक्ति चाहते है।
उस 'परमसत्' को 'परमज्ञान' कहे, चाहे तो 'परमप्रेम' कहे और चाहे तो 'सत्-चित्-आनदस्वरूप' कहे, चाहे तो 'आत्मा' कहे, चाहे तो 'सर्वात्मा' कहे चाहे तो एक कहे, चाहे तो अनेक कहे, चाहे तो एकरूप कहे, चाहे तो सर्वरूप कहे, परन्तु सत् सत् ही है। और वही इस सब प्रकारसे कहने योग्य है, कहा जाता है । सब यही है, अन्य नहीं।
ऐसा वह परमतत्त्व, पुरुषोत्तम, हरि, सिद्ध, ईश्वर, निरजन, अलख, परब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर और भगवत आदि अनत नामोसे कहा गया है ।।
हम जब परमतत्त्व कहना चाहते है तो उसे किन्ही भी शब्दोमे कहे तो वह यही है, दूसरा नही ।
२१०
बबई, माघ वदी ३०, १९४७ सत्स्वरूपको अभेदभावसे नमोनमः यहाँ आनद है । सर्वत्र परमानद दर्शित है।
क्या लिखना? यह तो कुछ सूझता नही है, क्योकि दशा भिन्न रहती है, तो भी प्रसगसे कोई सवृत्ति पैदा करनेवाली पुस्तक होगी तो भेजंगा। हमपर आपकी चाहे जैसी भक्ति हो, परन्तु सब जावाक और विशेषत धर्मजीवके तो हम त्रिकालके लिये दास ही है।
सबको इतना ही अभी तो करना है कि पुरानेको छोडे बिना तो छुटकारा ही नही हैं, और वह छोडने योग्य ही है ऐसा दृढ करना।
मार्ग सरल है, प्राप्ति दुर्लभ है।
*साथके पत्र पढकर उनमे जो योग्य लगे उसे लिखकर मुनिको दे दीजिये। उन्हें मेरी ओरसे स्मृति और वदन कीजिये । हम तो सबके दास है । त्रिभोवनसे अवश्य कुशल क्षेम पूछिये ।
२११
बबई, माघ नदी ३०, १९४७ 'सत्' कुछ दूर नहीं है, परन्तु दूर लगता है, और यही जीवका मोह है। 'सत्' जो कुछ है, वह 'सत्' ही है, सरल है, सुगम है, और सर्वत्र उसकी प्राप्ति होती है, परन्तु जिसपर भ्रातिरूप आवरणतम छाया रहता है उस प्राणीको उसकी प्राप्ति कैसे हो? अन्धकारके चाहे जितने प्रकार करें, परन्तु उनमे कोई ऐसा प्रकार नही निकलेगा कि जो प्रकाशरूप हो, इसी प्रकार जिसपर आवरणतिमिर छाया हुआ है उस प्राणीकी कल्पनाओमेंसे कोई भी कल्पना 'सत्' मालूम नही होती
और 'सत्'के निकट होना भी सम्भव नही है । 'सत्' है, वह भ्राति नही है, वह भ्रातिसे सर्वथा व्यतिरिक्त (भिन्न) है, कल्पनासे पर (दूर) है, इसलिये जिसकी उसे प्राप्त करनेकी दृढ मति हुई है वह पहले ऐसा दृढ निश्चयात्मक विचार करे कि स्वय कुछ भी नही जानता, और फिर 'सत्' की प्राप्तिके लिये ज्ञानीकी शरणमे जाये तो अवश्य मार्गकी प्राप्ति होगी।
ये जो वचन लिखे है वे सभी मुमुक्षुओके लिये परम बाधवरूप है, परम रक्षकरूप है, और इनका सम्यक् प्रकारसे विचार करनेपर ये परमपदको देनेवाले है। इनमे निग्रंथ-प्रवचनकी समस्त द्वादशागी, षड्दर्शनका सर्वोत्तम तत्त्व और ज्ञानीके बोधका बीज सक्षेपमे कहा है, इसलिये वारवार इनका स्मरण कीजिये, विचार कीजिये, समझिये, समझनेका प्रयत्न कीजिये, इनके बाधक अन्य प्रकारोमे उदासीन रहिये,
* देखें आक २११, २१२
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२४ वाँ वर्ष
२७१
इन्ही वृत्तिका लय कीजिये । यह आपको और किसी भी मुमुक्षुको गुप्त रीतसे कहनेका हमारा मंत्र है, इनमे 'सत्' ही कहा है, यह समझनेके लिये अत्यधिक समय लगाइये ।
२१२
वंबई, माघ वदी, १९४७
सत्को नमोनम
वाछा - इच्छाके अर्थमे 'काम' शब्द प्रयुक्त होता है, तथा पचेंद्रिय विषयके अर्थमे भी प्रयुक्त
होता है ।
'अनन्य' अर्थात् जिसके जैसा दूसरा नही, सर्वोत्कृष्ट । 'अनन्य भक्तिभाव' अर्थात् जिसके जैसा दूसरा नही ऐसा भक्तिपूर्वक उत्कृष्ट भाव ।
मुमुक्षु वै० योगमार्गके अच्छे परिचयवाले हैं ऐसा जानता हूँ । सद्वृत्तिवाले योग्य जीव है । जिस 'पद' का आपने साक्षात्कार पूछा, वह अभी उन्हे नहीं हुआ है ।
4
पूर्वकालमे उत्तर दिशामे विचरनेके बारेमे उनके मुखसे श्रवण किया है। तो उस बारेमे अभी तो कुछ लिखा नही जा सकता । परतु इतना बता सकता हूँ कि उन्होने आपसे मिथ्या नही कहा है ।
जिसके वचनबलसे जीव निर्वाणमार्गको पाता है, ऐसी सजीवनमृर्तिका योग पूर्वकालमे जीवको बहुत बार हो गया है, परन्तु उसकी पहचान नही हुई है । जीवने पहचान करनेका प्रयत्न क्वचित् किया भी होगा, तथापि जीवमे जड जमाई हुई सिद्धियोगादि, ऋद्धियोगादि और दूसरी वैसी कामनाओंसे जीवकी अपनी दृष्टि मलिन थी । यदि दृष्टि मलिन हो तो वैसी सत्मूर्तिके प्रति भी बाह्य लक्ष्य रहता है, जिससे पहचान नही हो पाती, और जब पहचान होती है, तब जीवको कोई ऐसा अपूर्व स्नेह आता है, कि उस मूर्तिके वियोगमे एक घडी भर भी जीना उसे विडबनारूप लगता है, अर्थात् उसके वियोगमे वह उदासीन भावसे उसीमे वृत्ति रखकर जीता है, अन्य पदार्थोंका सयोग और मृत्यु- ये दोनो उसे समान हो गये होते है । ऐसी दशा जब आती है, तब जीवको मार्ग बहुत निकट होता है ऐसा समझें ऐसी दशा आनेमे मायाकी सगति बहुत विडबनामय है, परन्तु यही दशा लानेका जिसका दृढ निश्चय है उसे प्रायः अल्प समयमे वह दशा प्राप्त होती है।
।
आप सब अभी तो हमे एक प्रकारका बधन करने लगे है, इसके लिये हम क्या करें यह कुछ सूझता नही है । 'सजीवनमूर्ति'से मार्ग मिलता है ऐसा उपदेश करते हुए हमने स्वयं अपनेआपको वधनमे डाल लिया है कि जिस उपदेशका लक्ष्य आप हमको ही बना बैठे है । हम तो उस सजीवनमूर्तिके दास है, चरणरज है । हमारी ऐसी अलौकिक दशा भी कहाँ है कि जिस दशामे केवल असंगता ही रहती है ? हमारा उपाधियोग तो, आप प्रत्यक्ष देख सकें, ऐसा है ।
अति दो बातें तो हमने आप सबके लिये लिखी है। हमे अब कम वधन हो ऐसा करनेके लिये आप सबसे विनती है । दूसरी एक बात यह बतानी है कि आप हमारे लिये अव किसीसे कुछ न कहे । आप उदयकाल जानते है ।
२१३
बबई, फागुन सुदी ४, शनि, १९४७
पुराणपुरुषको नमोनमः
यह लोक त्रिविध तापसे आकुलव्याकुल है । मृगतृष्णाके जलको लेनेके लिये दोडकर प्यास बुझाना चाहता है ऐसा दोन है । अज्ञानके कारण स्वरूपका विस्मरण हो जानेसे उसे भयकर परिभ्रमण प्राप्त हुआ
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"
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श्रीमद राजचन्द्र
है। वह समय समय पर अतुल खेद, ज्वरादि रोग, मरणादि भय और वियोग आदि दु.खोका अनुभव करता है, ऐसे अशरण जगतके लिये एक सत्पुरुष हो गरण है । सत्पुरुपकी वाणीके बिना इस ताप और तृपाको दूसरा कोई मिटा नही सकता, ऐसा निश्चय है । इसलिये वारंवार उस सत्पुरुपके चरणोका हम ध्यान करते हैं ।
ससार केवल असातामय है । किसी भी प्राणीको अल्प भी साता है, वह भी सत्पुरुषका ही अनुग्रह है । किसी भी प्रकार के पुण्यके विना साताकी प्राप्ति नही होती, और इस पुण्यको भी सत्पुरुषके उपदेशके बिना "किसीने नही जाना । बहुत काल पूर्व उपदिष्ट वह पुण्य रूढिके अधीन होकर प्रवर्तित रहा है, इसलिये मानो वह ग्रथादिसे प्राप्त हुआ लगता है, परन्तु उसका मूल एक सत्पुरुप ही है; इसलिये हम ऐसा ही जानते हैं कि एक अश मानासे लेकर पूर्णकामता तककी सर्व समाधिका कारण सत्पुरुप ही है। इतनी अधिक समर्थता होनेपर भी जिसे कुछ भी स्पृहा नही है, उन्मत्तता नही है, अहंता नही है, गर्व नहीं है, गौरव नहीं है, ऐसे आश्चर्यकी प्रतिमारूप सत्पुरुषको हम पुनः पुनः नामरूपसे स्मरण करते हैं ।
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त्रिलोकके नाथ जिसके वश हुए है, ऐसा होनेपर भी वह ऐसी अटपटी दशासे रहता है कि जिसकी सामान्य मनुष्य को पहचान होना दुर्लभ है, ऐसे सत्पुरुपको हम पुन पुनः स्तुति करते है ।
एक समय भी सर्वथा असगतासे रहना त्रिलोकको वग करनेकी अपेक्षा भी विकट कार्य है, ऐसी असगतासे जो त्रिकाल रहा है उस सत्पुरुपके अंत करणको देखकर हम परमाश्चर्य पाकर नमन करते है ।
हे परमात्मा | हम तो ऐसा ही मानते हैं कि इस कालमे भी जीवका मोक्ष हो सकता है । फिर भी जैन ग्रन्थोमे क्वचित् प्रतिपादन हुआ है, तदनुसार इस कालमे मोक्ष नही होता हो, तो इस क्षेत्रमे यह प्रतिपादन तू रख, और हमे मोक्ष देनेकी अपेक्षा ऐसा योग प्रदान कर कि हम सत्पुरुषके ही चरणोका ध्यान करें और उसके समीप ही रहे ।
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हे पुरुषपुराण | हम तेरेमे और सत्पुरुषमे कोई भेद ही नही समझते, तेरी अपेक्षा हमे तो सत्पुरुष हो विशेष लगता है कारण कि तू भी उसके अधीन ही रहा है और हम सत्पुरुपको पहचाने बिना तुझे पहचान नही सके, यही तेरी दुर्घटता हममे सत्पुरुपके प्रति प्रेम उत्पन्न करती है। क्योकि तू वगमे होनेपर भी वे उन्मत्त नही है, और तेरेसे भी सरल है, इसलिये अब तू जैसा कहे वैसा करें ।
हे नाथ | तू बुरा न मानना कि हम तेरी अपेक्षा भी सत्पुरुपकी विशेष स्तुति करते है, सारा जगत तेरी स्तुति करता है, तो फिर हम एक तुझसे विमुख बैठे रहेगे तो उससे कहाँ तुझे न्यूनता भी है और उनको (सत्पुरुपको ) कहाँ स्तुतिकी आकाक्षा है ?
ज्ञानी पुरुष त्रिकालकी बात जानते हुए भी प्रगट नही करते ऐसा आपने पूछा; इस सम्वन्धमे ऐसा लगता है कि ईश्वरीय इच्छा ही ऐसी है कि अमुक पारमार्थिक बात के सिवाय ज्ञानी दुसरी त्रिकालिक वात प्रसिद्ध न करे, और ज्ञानीकी भी अतरग इच्छा ऐसी ही मालूम होती है । जिनकी किसी भी प्रकारकी आकाक्षा नही ह ऐसे ज्ञानीपुरुपके लिये कुछ कर्तव्यरूप न होनेसे जो कुछ उदयमे आता है उतना ही करते है । और हमे ऐसे ज्ञानका असगता ही प्रिय है ।
हम तो कुछ वैसा ज्ञान नही रखते कि जिससे त्रिकाल सर्वथा मालूम हो, कुछ विशेष ध्यान भी नही है । हमे तो वास्तविक जो स्वरूप उसकी भक्ति और यही विज्ञापन ।
'वेदान्त ग्रथ प्रस्तावना' भेजी होगी, नही तो तुरन्त भेजियेगा ।
वि० आज्ञाकारी -
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२४ वाँ वर्ष
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बबई, फागुन सुदी ५, रवि, १९४७ अभेददशा आये बिना जो प्राणी इस जगतकी रचना देखना चाहते हैं वे वधे जाते है । ऐसी दशा आनेके लिये वे प्राणी उस रचनाके कारण के प्रति प्रीति करें और अपनी अहरूप भ्रातिका परित्याग करें । उस रचनाके उपभोगकी इच्छाका सर्वथा त्याग करना योग्य है, और ऐसा होनेके लिये सत्पुरुपकी शरण जैसा एक भी औषध नही है । इस निश्चयवार्ताको न जानकर त्रितापसे जलते हुए बेचारे मोहाध प्राणियोको देखकर परम करुणा आती है और यह उद्गार निकल पडता है - 'हे नाथ | तू अनुग्रह करके इन्हे अपनी गतिमे भक्ति दे ।'
आज कृपापूर्वक आपकी भेजी हुई वेदातकी 'प्रबोध शतक' नामकी पुस्तक प्राप्त हुई । उपाधिकी निवृत्तिके समयमे उसका अवलोकन करूँगा ।
उदयकालके अनुसार वर्तन करते है । क्वचित् मनोयोगके कारण इच्छा उत्पन्न हो तो बात अलग है परन्तु हमे तो ऐसा लगता है कि इस जगतके प्रति हमारा परम उदासीन भाव रहता है, वह बिलकुल सोनेका हो तो भी हमारे लिये तृणवत् है; और परमात्माकी विभूतिरूप हमारा भक्तिधाम है ।
आज्ञाकारी
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बबई, फागुन सुदी८, १९४७ आपका कृपापत्र प्राप्त हुआ । इसमे पूछे गये प्रश्नोका सविस्तर उत्तर यथासम्भव शीघ्र लिखूंगा । ये प्रश्न ऐसे पारमार्थिक हैं कि मुमुक्षु पुरुषको उनका परिचय करना चाहिये । हजारो पुस्तको पाठीको भी ऐसे प्रश्न नही उठते, ऐसा हम समझते है । उनमे भी प्रथम लिखा हुआ प्रश्न ( जगत के स्वरूपमे मतातर क्यो है ? ) तो ज्ञानी पुरुष अथवा उनकी आज्ञाका अनुसरण करनेवाला पुरुष ही खडा कर सकता है । यहाँ मनमानी निवृत्ति नही रहती, जिससे ऐसी ज्ञानवार्ता लिखनेमे जरा विलब करनेकी जरूरत होती है । अन्तिम प्रश्न हमारे वनवासका पूछा है, यह प्रश्न भी ऐसा है कि ज्ञानीकी ही अतर्वृत्तिके जानकार पुरुषके सिवाय किसी विरलेसे ही पूछा जा सकता है ।
1
आपको सर्वोत्तम प्रज्ञाको नमस्कार करते हैं । कलिकालमे परमात्माको किन्ही भक्तिमान पुरुषोपर प्रसन्न होना हो, तो उनमेसे आप एक है । हमे आपका बड़ा आश्रय इस कालमे मिला और इससे जीवित है ।
२१६
ॐ
'सत्'
यह जो कुछ देखते है, जो कुछ देखा जा सकता है, जो कुछ सुनते हैं, जो कुछ सुना जा सकता है, वह सब एक सत हो है ।
जो कुछ है वह सत् ही है, वह सत् एक ही प्रकारका हाने
वही सत् जगतरूपसे अनेक प्रकारका हुआ है, परन्तु इससे वह कही स्वरूपसे च्युत नही हुआ है । स्वरूपमे ही वह एकाकी होनेपर भी अनेकाको हो सकने मे समर्थ है। एक सुवर्णं, कुडल, कडा, सांकला, बाजूबन्द आदि अनेक प्रकारसे हो, इससे उसका कुछ सुवर्णत्व घट नही जाता । पर्यायातर भागता है । और वह उसकी सत्ता है । इसी प्रकार यह समस्त विश्व उस 'सत्' का पर्यायातर है, परन्तु 'सत्' रूप ही है ।
अन्य नही । योग्य है ।
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श्रीमद राजचन्द्र
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बबई, माघ सुदी, १९४७ परम पूज्य,
आपके सहज वाचनके उपयोगार्थ आपके प्रश्नोके उत्तरवाला पत्र इसके साथ भेज रहा हूँ।
परमात्मामे परम स्नेह चाहे जिस विकट मार्गसे होता हो तो भी करना योग्य ही है। सरल मार्ग मिलनेपर भी उपाधिके कारण तन्मय भक्ति नहीं रहती, और एकतार स्नेह उमडता नही है । इसलिये खेद रहा करता है और वनवासकी वारवार इच्छा हुआ करती है । यद्यपि वैराग्य तो ऐसा रहता है कि प्राय आत्माको घर और वनमे कोई भेद नही लगता, परन्तु उपाधिके प्रसगके कारण उसमे उपयोग रखनेकी वारवार जरूरत रहा करती है, कि जिससे परम स्नेहपर उस समय आवरण लाना पडता है, और ऐसा परम स्नेह और अनन्य प्रेमभक्ति आये बिना देहत्याग करनेकी इच्छा नही होती। कदाचित् सर्वात्माको ऐसी ही इच्छा होगी तो चाहे जैसी दोनतासे भी उस इच्छाको वदलेंगे। परन्तु प्रेमभक्तिका पूर्ण लय आये विना देहत्याग नहीं किया जा सकेगा ऐसा लगता है, और वारवार यही रटन रहनेसे 'वनमे जाये' 'वनमे जायें' ऐसा मनमे हो आता है । आपका निरन्तर सत्सग हो तो हमे घर भी वनवास ही है।
श्रीमद् भागवतमे गोपागनाकी जैसी प्रेमभक्तिका वर्णन है, ऐसी प्रेमभक्ति इस कलिकालमे प्राप्त होनी दुर्लभ है, ऐसा यद्यपि सामान्य लक्ष्य है, तथापि कलिकालमे निश्चल मतिसे यही लय लगे तो परमात्मा अनुग्रह करके शीघ्र यह भक्ति प्रदान करता है।
श्रीमद् भागवतमे जडभरतजीकी सुदर आख्यायिका दी है। यह दशा वारवार याद आती है और ऐसी उन्मत्तता परमात्मप्राप्तिका परम द्वार है। यह दशा विदेह थी। भरतजीको हरिणके सगसे जन्मकी वृद्धि हुई थी और इसो कारणसे वे जडभरतके जन्ममे असग रहे थे। ऐसे कारणोसे मुझे भी असगता बहुत ही याद आती है, और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असगताके बिना परम दुख होता है। यम अतकालमे प्राणीको दुखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमे सग दुखदायक लगता है । यो अतवृत्तियों बहुतसी हैं कि जो एक ही प्रवाहकी है। लिखी नही जाती, रहा नही जाता, और आपका वियोग रहा करता है। कोई सुगम उपाय नही मिलता । उदयकर्म भोगते हुए दीनता अनुकूल नही है । भविष्यके एक क्षणका भी प्राय विचार भी नही रहता।
'सत्-सत्' इसकी रटन है । और सत्का साधन 'आप' तो वहाँ है। अधिक क्या कहे ? ईश्वरकी इच्छा ऐसो है, और उसे प्रसन्न रखे बिना छुटकारा नही है | नही तो ऐसी उपाधियुक्त दशामे न रहे, और मनमाना करें, परमपीयूषमय और प्रेमभक्तिमय ही रहे । परन्तु प्रारब्ध कर्म बलवत्तर है ।
आज आपका एक पत्र मिला । पढकर हृदयाकित किया । इस विपयमे हम आपको उत्तर न लिखें इस हमारी सत्ताका उपयोग आपके लिये करना योग्य नही समझते, तथापि आपको, जो रहस्य मैने समझा है उसे जताता हूँ कि जो कुछ होता है सो होने देना, न उदासीन होना, न अनुद्यमी होना, न परमात्मासे भी इच्छा करना, और न दुविधामे पडना, कदाचित् आपके कहे अनुसार अहता आडे आती हो तो यथाशक्ति उसका रोध करना, और फिर भी वह दूर न होती हो तो उसे ईश्वरार्पण कर देना, तथापि दीनता न आने देना। क्या होगा? ऐसा विचार नही करना, और जो हो सो करते रहना । अधिक उधेड-वुन करनेका प्रयत्न नही करना । अल्प भी भय नही रखना, उपाधिके लिये भविष्यके एक पलकी भी चिन्ता नही करना, चिन्ता करनेका जो अभ्यास हो गया है, उसे विस्मरण करते रहना, तभी ईश्वर प्रसन्न होगा, और तभी परमभक्ति पानेका फल है, तभी हमारा-आपका संयोग हुआ योग्य है। और उपाधिमे क्या होता है उसे हम आगे चलकर देख लेंगे। 'देख लेंगे' इसका अर्थ बहुत गभीर है।
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२४ वाँ वर्ष - सर्वात्मा हरि समर्थ है। आप और महा पुरुपोकी कृपासे निर्बल मति कम रहती है। आपके उपाधियोगके सम्बन्धमे यद्यपि ध्यान रहा करता है, परन्तु जो कुछ सत्ता है वह उस सर्वात्माके हाथ है। और वह सत्ता निरपेक्ष, निराकाक्ष ज्ञानीको ही प्राप्त होती है। जब तक उस सर्वात्मा हरिकी इच्छा जैसी हो उसी प्रकार ज्ञानी भी चले यह आज्ञाकारी धर्म है, इत्यादि बहुतसी बातें है। शब्दोमे लिखी नही जा सकती, और समागमके सिवाय यह बात करनेका अन्य कोई उपाय हाथमे नही है, इसलिये जब ईश्वरेच्छा होगी तव यह बात करेंगे।
ऊपर जो उपाधिमेसे अहत्व दूर करनेके वचन लिखे हैं, उन पर आप कुछ समय विचार करेंगे त्यो ही वैसी दशा हो जायेगी ऐसी आपकी मनोवृत्ति है, और ऐसी पागल शिक्षा लिखनेकी सर्वात्मा हरिकी इच्छा होनेसे मैने आपको लिखी है, इसलिये यथासभव इसे अपनायें । पुनः पुनः आपसे अनुरोध है कि उपाधिमे आप यथासभव नि शकतासे रहकर उद्यम करें । क्या होगा ? यह विचार छोड दे।
इससे विशेष स्पष्ट वात लिखनेकी योग्यता अभी मुझे देनेका अनुग्रह ईश्वरने नहीं किया है, और उसका कारण मेरी वैसी अधीन भक्ति नहीं है । आप सर्वथा निर्भय रहे ऐसी मेरी पुनः पुन विनती है । इसके सिवाय मै और कुछ लिखने योग्य नही हूँ। इस विषयमे समागममे हम बातचीत करेंगे । आप किसी तरह खिन्न न हो। यह खाली धीरज देनेके लिये ही सम्मति नही दी है, परतु जैसी अन्तरमे स्फुरित हई वैसी सम्मति दी है। अधिक लिखा नही जा सकता, परतु आपको आकुल नही रहना चाहिये, इस विनतीको वारवार मानिये । बाकी हम तो निवल हैं। जरूर मानिये कि हम निर्बल हैं; परतु ऊपर निती ई - मति सवल है, जैसी-तैसी नही है, परतु सच्ची है। आपके लिये यही मार्ग योग्य है।
__ आप ज्ञानकथा लिखियेगा। 'प्रबोधशतक' अभी तो भाई रेवाशकर पढते है। रविवार तक वापिस भेजना सम्भव होगा तो वापिस भेजंगा, नही तो रखनेके बारेमे लिखूगा, और ऐसा होनेपर भी उसके मालिककी ओरसे कुछ जल्दी हो तो लिखियेगा, तो भेज दूंगा।
आपके सभी प्रश्नोके यथेच्छ उत्तर उपाधियोगके कारण अपनी पूर्ण इच्छासे नही लिख सका हूँ, परतु आप मेरे अतरको समझ लेंगे ऐसी मुझे नि शकता है।
लि० आज्ञाकारी रायचद।
२१८ ___ बबई, फागुन सुदी १३, सोम, १९४७
सर्वात्मा हरिको नमस्कार 'सत्' सत् है, सरल है, सुगम है, उसको प्राप्ति सर्वत्र होती है।
सत् है । कालसे उसे बाधा नहीं है । वह सवका अधिष्ठान है। वाणीसे अकथ्य है। उसकी प्राप्ति होती है, और उस प्राप्तिका उपाय है।
चाहे जिस सप्रदाय, दर्शनके महात्माओका लक्ष्य एक 'सत्' ही है। वाणीसे अकय्य होनेसे गॅगेकी भांति समझाया गया है, जिससे उनके कयनमे कुछ भेद लगता है, वस्तुत भेद नही है।
लोकका स्वरूप सर्व कालमे एक स्थितिका नही है, वह क्षण क्षणमे रूपातर पाता रहता है, अनेक रूप नये होते है, अनेक स्थिर रहते हैं और अनेक लय पाते हैं । एक क्षण पहले जो रूप बाह्य ज्ञानसे मालूम नही हुआ था, वह दिखायी देता है, और क्षणमे बहुत दीर्घ विस्तारवाले रूप लयको प्राप्त होते जाते हैं। । महात्माकी विद्यमानतामे भासमान लोकके स्वरूपको अज्ञानीके अनुग्रहके लिये कुछ रूपातरपूर्वक कहा । जाता है, परतु जिसकी सर्व कालमे एकसी स्थिति नही है, ऐसा यह रूप 'सत्' नही होनेसे चाहे जिस । रूपमे वर्णन करके उस समय भ्राति दूर की गयी है, ओर इसके कारण, सर्वत्र यह स्वरूप हो ही, ऐसा
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श्रीमद राजचन्द्र
नही है ऐसा समझमे आता है । वालजीव तो उम स्वरूपको शाश्वत मानकर भ्रातिमे पड जाते है, परन्तु कोई योग्य जीव ऐसी अनेकताकी कथनी से परेशान होकर 'सत्' की ओर झुकता है । प्राय सभी मुमुक्षु इसी प्रकार मार्गको प्राप्त हुए है । भ्राति' का ही रूप ऐसे इस जगतका वारवार वर्णन करनेका महा '! पुरुपोका यही उद्देश है कि उस स्वरूपका विचार करते हुए प्राणी भ्रातिको प्राप्त हो कि सच्चा क्या है ? 'यो अनेक प्रकार से कहा गया है, उसमे क्या मानूं ? और मेरे लिये क्या कल्याणकारक हे ? यो विचार करते करते इसे एक भ्रातिका विपय मानकर जहाँ से 'सत्' की प्राप्ति होती हैं ऐसे मतकी शरणके विना छुटकारा नही है, ऐसा समझकर, उसे खोजकर, शरणापन्न होकर, 'सत्' पाकर 'सत्' रूप हो जाता है । जेनकी वाह्य शैलीको देखते हुए तो, तीर्थंकरको सपूर्ण ज्ञान होता हे यो कहते हुए हम भ्राति पड जाते है । इसका अर्थ यह है कि जेनकी अतरौली दूसरी होनी चाहिये। क्योकि इस जगतको 'अधिष्ठान' से रहित वर्णित किया गया है, और वह वर्णन अनेक प्राणियो, विचक्षण आचार्यको भी भ्रातिका कारण हुआ है। तथापि हम अपने अभिप्राय से विचार करते है, तो ऐसा लगता है कि तीर्थंकरदेव तो ज्ञानी आत्मा होने चाहिये, परंतु उस कालकी अपेक्षासे जगतके रूपका वर्णन किया है। और लोक सर्वं कालके लिये॰ ऐसा मान बैठे है, जिससे भ्रातिमें पडे है। चाहे जो हो, परतु इस कालमे जैन तीर्थंकर मार्गको जानने की आकाक्षावाले जीवोका होना दुर्लभ सभवित है, क्योकि चट्टानपर चढा हुआ जहाज, और वह भी पुराना, यह भयकर है। उसी प्रकार जैनकी कथनी जीर्ण शीर्ण हो गयी है । 'अधिष्ठान' विषयको भ्रातिरूप चट्टानपर उसका जहाज चढा है, जिससे सुखरूप होना संभव नही है । यह हमारी बात प्रत्यक्षरूप मे दिखायी देगी ।
तीर्थङ्करदेव के सम्बन्धमे हमे वारवार विचार रहा करता है कि उन्होने 'अधिष्ठान' के बिना इस जगतका वर्णन किया है, उसका क्या कारण होगा ? क्या उन्हे 'अधिष्ठान' का ज्ञान नही हुआ होगा ? अथवा 'अधिष्ठान' ही नही होगा ? अथवा किसी उद्देशसे छुपाया होगा ? अथवा कथन भेदसे परम्परासे समझमे न आनेसे 'अविष्ठान' विषयक कथन लयको प्राप्त हुआ होगा ? ये विचार हुआ करते है । यद्यपि हम तीर्थको महापुरुष मानते है, उन्हे नमस्कार करते है, उनके अपूर्व गुणोपर हमारी परम भक्ति है, और इसलिये हम समझते है कि 'अधिष्ठान' तो उन्होने जाना था, परतु लोगोने परपरासे मार्ग की भूलसे
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उसका लय कर डाला ।
जगतका कोई 'अधिष्ठान' होना चाहिये ऐसा बहुतसे महात्माओका कथन है । और हम भी यही कहते है कि 'अधिष्ठान' है । और वह 'अधिष्ठान' ही हरि भगवान है, जिसे पुन: पुनः हृदयदेशमे
देखते हैं ।
'अधिष्ठान' एव उपर्युक्त कथनके विपयमे समागममे अधिक सत्कथा होगी । लेखनमे वैसी नही आ सकेगी। इसलिये इतनेसे ही रुक जाता हूँ ।
जनक विदेही ससारमे रहते हुए भी विदेही रह सके यह यद्यपि एक वडा आश्चर्य है, महा महा विकट है, तथापि जिसका आत्मा परमज्ञानमे तदाकार है, वह जैसे रहता है वैसे रहा जाता हे। और जैसे प्रारब्धकर्मका उदय वैसे रहते हुए उसे वाघ नही होता। जिनका सदेह होनेका अहभाव मिट गया है ऐसे उन महाभाग्य की देह भी मानो आत्मभावमे ही रहती थी, तो फिर उनकी दशा भेदवाली कहाँसे होगी ?
श्रीकृष्ण महात्मा थे और ज्ञानी होते हुए भी उदयभावसे ससारमे रहे थे, इतना जैन शास्त्रसे भी जाना जा सकता है और यह यथार्थ है, तथापि उनकी गतिके विपयमे जो भेद बताया है उसका भिन्न
कारण है । और भागवत आदिमे तो जिन श्रीकृष्णका वर्णन किया है वे तो परमात्मा ही हैं । परमात्माको लीलाको महात्मा कृष्णके नामसे गाया है। और इस भागवत और इस कृष्णको यदि महापुरुपसे समझ
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२४ वाँ वर्ष
२७७ ले तो जीव ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह बात हमे बहुत प्रिय है। और आपके समागममे अब इसकी विशेष चर्चा करेंगे। लिखा नही जाता।
___ स्वर्ग, नरक आदिकी प्रतीतिका उपाय योगमार्ग है। उसमे भी जिसे दूरदर्शिताकी सिद्धि प्राप्त होती है, वह उसकी प्रतीतिके लिये योग्य है। सर्वकाल यह प्रतीति प्राणीके लिये दुर्लभ हो पड़ी है। ज्ञानमार्गमे इस विशेष बातका वर्णन नही है, परन्तु यह सब हैं अवश्य ।
___ मोक्ष जितने स्थानमे बताया है वह सत्य है । कमसे, भ्रातिसे अथवा मायासे छूटना यह मोक्ष है ।। यह मोक्षकी शब्द व्याख्या है।
जीव एक भी है और अनेक भी है। अधिष्ठानसे एक है। जीवरूपसे अनेक है। इतना स्पष्टीकरण । लिखा है, तथापि इसे बहुत अधूरा रखा है। क्योकि लिखते हुए कोई वैसे शब्द नही मिले। परन्तु आप . समझ सकेगे ऐसी मुझे नि शकता है।
तीर्थंकरदेवके लिये सख्त शब्द लिखे गये हैं, इसलिये उन्हे नमस्कार ।
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बंबई, फागुन वदी १, १९४७ "एक देखिये, जानिये'' इस दोहेके विषयमे आपने लिखा, तो यह दोहा हमने आपकी नि.शकताकी दृढताके लिये नही लिखा था, परन्तु स्वभावतः यह दोहा प्रशस्त लगनेसे लिख भेजा था। ऐसा लय तो गोपागनाओमे था। श्रीमद्भागवतमे महात्मा व्यासने वासुदेव भगवानके प्रति गोपियोकी प्रेमभक्तिका वर्णन किया है वह परमालादक और आश्चर्यकारक है।
__ "नारद भक्तिसूत्र" नामका एक छोटा शिक्षाशास्त्र महर्षि नारदजीका रचा हुआ है, उसमे प्रेमभक्तिका सर्वोत्कृष्ट प्रतिपादन किया है।
उदासीनता कम होनेके लिये आपने दो तीन दिन यहाँ दर्शन देनेकी कृपा प्रदर्शित की, परन्तु वह उदासीनता दो तीन दिनके दर्शनलाभसे दूर होनेवाली नहीं है । परमार्थ उदासीनता है। ईश्वर निरन्तरका दर्शनलाभ दे ऐसा करें तो पधारना, नही तो अभी नही ।
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बबई, फागुन वदी ३, शनि, १९४७ आज आपका जन्मकुण्डलीसहित पत्र मिला। जन्मकुण्डली सम्बन्धी उत्तर अभी नहीं मिल सकता, भक्ति सम्बन्धी प्रश्नोके उत्तर यथाप्रसग लिखूगा । हमने आपको जिस सविस्तर पत्रमे 'अधिष्ठान'के विषयमे लिखा था वह समागममे समझा जा सकता है।
'अधिष्ठान'का अर्थ यह है कि जिसमेसे वस्तु उत्पन्न हुई, जिसमे वह स्थिर रही और जिसमे वह लयको प्राप्त हुई। इस व्याख्याके अनुसार "जगतका अविष्ठान"का अर्थ समझियेगा।
जैनदर्शनमे चैतन्यको सर्वव्यापक नही कहा है। इस विषयमे आपके ध्यानमे जो कुछ हो सो लिखियेगा।
२२१
ववई, फागुन वदी ८, वुध, १९४७ श्रीमद्भागवत परमभक्तिरूप ही है । इसमे जो जो वर्णन किया हे वह सब लक्ष्यरूपको सूचित करनेके लिये है।
१ एक देखिये जानिये, रमी रहिये इक ठोर ।
समल विमल न विचारिये, यह सिद्धि नहि और ॥ -समयमार नाटक, जीवद्वार ।
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ર૭૮
श्रीमद राजचन्द्र मुनिको सर्वव्यापक अधिष्ठान आत्माके विषयमे कुछ पूछनेसे लक्ष्यरूप उत्तर नही मिल सकेगा। कल्पित उत्तरसे कार्यसिद्धि नहीं है। आप अभो ज्योतिषादिकी भी इच्छा न करें, क्योकि वह कल्पित है, और कल्पितपर ध्यान नही है।
परस्पर समागम-लाभ परमात्माकी कृपासे हो ऐसा चाहता हूँ। वैसे उपाधियोग विशेष रहता है, तथापि समाधिमे योगकी अप्रियता कभी न हो ऐसा ईश्वरका अनुग्रह रहेगा, ऐसा लगता है। विशेष सविस्तर पत्र लिखूगा तब।
वि० रायचद।
२२२
बबई, फागुन वदी ११, १९४७ ज्योतिपको कल्पित कहनेका हेतु यह है कि यह विषय पारमार्थिक ज्ञानकी अपेक्षासे कल्पित हो है, और पारमार्थिक ही सत् है, और उसीकी रटन रहती है । अभी ईश्वरने मेरे सिरपर उपाधिका बोझ विशेष रख दिया है, ऐसा करनेमे उसकी इच्छाको सुखरूप ही मानता हूँ।
___ जैन ग्रथ इस कालको पचमकाल कहते है और पूराण ग्रन्थ इसे कलिकाल कहते हैं, यो इस कालको कठिन काल कहा है, इसका हेतु यह है कि जीवको इस कालमे 'सत्सग और सत्शास्त्र' का मिलना दुर्लभ है, और इसीलिये कालको ऐसा उपनाम दिया है।
हमे भी पचमकाल अथवा कलियुग अभी तो अनुभव देता है। हमारा चित्त निःस्पृह अतिशय है, और जगतमे सस्पृहके रूपमे रह रहे हैं, यह कलियुगकी कृपा है ।
२२३ बबई, फागुन वदी १४, बुध, १९४७ देहाभिमाने गलिते, विज्ञाते परमात्मनि ।
___ यत्र यत्र मनो याति, तत्र तत्र समाधयः॥ मै कर्ता, मैं मनुष्य, मै सुखी, मैं दुखी इत्यादि प्रकारसे रहा हुआ देहाभिमान जिसका क्षीण हो गया है, और सर्वोत्तम पदरूप परमात्माको जिसने जान लिया है, उसका मन जहाँ जहाँ जाता है वहाँ वहाँ उसे समाधि ही है।
आपके पत्र अनेक बार सविस्तर मिलते हैं, और उन पत्रोको पढकर पहले तो समागममे ही रहने की इच्छा होती है। तथापि कारणसे उस इच्छाका चाहे जिस प्रकारसे विस्मरण करना पडता है, और पत्रका सविस्तर उत्तर लिखनेकी इच्छा होती है, तो वह इच्छा भी प्राय. क्वचित् ही पूरी हो “पाती है । इसके दो कारण है । एक तो इस विषयमे अधिक लिखने जैसी दशा नही रही है, और दूसरा कारण है उपाधियोग | उपाधियोगकी अपेक्षा वर्तमान दशाका कारण अधिक बलवान है । - जो दशा बहुत नि स्पृह है, और उसके कारण मन अन्य विषयमे प्रवेश नही करता, और उसमे भी परमार्थके विषयमे लिखते हुए केवल शून्यता जैसा हुआ करता है, इस विषयमे लेखनशक्ति तो इतनी अधिक शून्यताको प्राप्त हो गयी है, वाणी प्रसगोपात्त अभी इस विषयमे कुछ कार्य कर सकती है, और इससे आशा रहती है कि समागममे ईश्वर अवश्य कृपा करेगा। वाणी भी जैसे पहले क्रमपूर्वक बात कर सकती थी, वैसी अब नही लगती । लेखनशक्ति शून्यताको प्राप्त हुई जैसी होनेका कारण एक यह भी है कि चित्तमे उद्भूत बात बहुत नयोसे युक्त होती है, और वह लेखनमे नही आ सकती, जिससे चित्त वैराग्यको प्राप्त हो जाता है ।
आपने एक बार भक्तिके सम्बन्धमे प्रश्न किया था, उसके सम्बन्धमे अधिक बात तो समागममे हो सकती है, और प्राय सभी बातोंके लिये समागम ठीक लगता है। तो भी बहुत ही सक्षिप्त उत्तर लिखता हूँ।
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२४ वा वर्ष
२७९ परमात्मा और आत्माका एकरूप हो जाना (1) यह पराभक्तिकी आखिरी हद है। एक यही लय रहना सो पराभक्ति है। परममहात्म्या गोपागनाएँ महात्मा वासुदेवकी भक्तिमे इसी प्रकारसे रही थी। परमात्माको निरजन और निर्देहरूपसे चिंतन करनेपर यह लय आना विकट है, इसलिये जिसे परमात्माका साक्षात्कार हुआ है, ऐसा देहधारी परमात्मा उस पराभक्तिका परम कारण है । उस ज्ञानी पुरुपके सर्व चरित्रमे ऐक्यभावका लक्ष्य होनेसे उसके हृदयमे विराजमान परमात्माका ऐक्यभाव होता है, और यही पराभक्ति है। ज्ञानीपुरुष और परमात्मामे अतर ही नहीं है, और जो कोई अतर मानता है, उसे मार्गको प्राप्ति परम विकट है । ज्ञानो तो परमात्मा ही है, और उसकी पहचानके बिना परमात्माकी प्राप्ति नही हुई है, इसलिये सर्वथा भक्ति करने योग्य ऐमी देहधारी दिव्य मूर्ति-ज्ञानीरूप परमात्माकी-का नमस्कार आदि भक्तिसे लेकर पराभक्तिके अत तक एक लयसे आराधन करना, ऐसा शास्त्रका आशय है । परमात्मा इस देहधारीरूपसे उत्पन्न हुआ है ऐसी ही ज्ञानी पुरुपके प्रति जीवको बुद्धि होनेपर भक्ति उदित होती है, और वह भक्ति क्रमश. पराभक्तिरूप हो जाती है। इस विपयमे श्रीमद्भागवतमे, भगवद्गीतामे बहुतसे भेद प्रकाशित करके इसी लक्ष्यकी प्रशसा की है, अधिक क्या कहना ? ज्ञानी तीर्थकरदेवमे लक्ष्य होनेके लिये जैनधर्ममे भी पचपरमेष्ठी मत्रमे "णमो अरिहताण" पदके बाद सिद्धको नमस्कार किया है, यही भक्तिके लिये यह सूचित करता है कि पहले ज्ञानी पुरुपकी भक्ति, और यही परमात्माकी प्राप्ति और भक्तिका निदान है।
दूसरा एक प्रश्न (एकसे अधिक बार) आपने ऐसा लिखा था कि व्यवहारमे व्यापार आदिके विषयमे यह वर्ष यथेष्ट लाभदायक नही लगता, और कठिनाई रहा करती है।
परमात्माकी भक्ति ही जिसे प्रिय है, ऐसे पुरुषको ऐसी कठिनाई न हो तो फिर ऐसा समझना कि उसे सच्चे परमात्माकी भक्ति ही नही है। अथवा तो जान-बूझकर परमात्माकी इच्छारूप मायाने वैसी कठिनाई भेजनेके कार्यका विस्मरण किया है । जनक विदेही और महात्मा कृष्णके विपयमे मायाका विस्मरण हुआ लगता है, तथापि ऐसा नहीं है। जनक विदेहीकी कठिनाईके विपयमे यहाँ कुछ कहना योग्य नही है, क्योकि वह अप्रगट कठिनाई है, और महात्मा कृष्णकी सकटरूप कठिनाई प्रगट ही है। इसी तरह अष्ट महासिद्धि और नवनिधि भी प्रसिद्ध ही है, तथापि कठिनाई तो योग्य ही थी, और होनी चाहिये । यह कठिनाई मायाकी है, और परमात्माके लक्ष्यकी तो यह सरलता ही है, और ऐसा ही हो । x x x राजाने विकट तप करके परमात्माका आराधन किया, और देहधारीरूपसे परमात्माने उसे दर्शन दिया और वर मांगनेको कहा तब xx x राजाने माँगा कि हे भगवन् । ऐसो जो राज्यलक्ष्मी मुझे दी है वह ठीक ही नही है, तेरा परम अनुग्रह मुझपर हो तो यह वर दे कि पचविषयकी साधनरूप इस राज्यलक्ष्मीका फिरसे मुझे स्वप्न भी न आये । परमात्मा दग रहकर 'तथास्तु' कहकर स्वधामको चले गये।
कहनेका आशय यह है कि ऐसा ही योग्य है । भगवद्भक्तको कठिनाई और सरलता तथा साता एव असाता यह सब समान ही है। और फिर कठिनाई और असाता तो विशेष अनुकूल है कि जहाँ मायाके प्रतिबधका दर्शन ही नहीं होता।
आप तो इस वातको जानते ही हैं, तथापि कुटुम्ब आदिके विपयमे कठिनाई होनी योग्य नहीं है ऐसा मनमे उठता हो तो उसका कारण यही है कि परमात्मा यो कहता है कि आप अपने कुटुम्बके प्रति नि स्नेह होवें, और उसके प्रति समभावी होकर प्रतिबन्ध रहित होवें, वह आपका है ऐसा न मानें, और प्रारब्धयोगके कारण ऐसा माना जाता है, उसे दूर करनेके लिये मैंने यह कठिनाई भेजी है । अधिक क्या कहना ? यह ऐसा ही है।
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श्रीमद राजचन्द्र
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बबई, फागुन वदी २, १९४७ 'योगवासिष्ठ' आदि वैराग्य उपशम आदिके उपदेशक शास्त्र हैं, उन्हे पढनेका जितना अधिक अभ्यास हो, उतना करना योग्य है । अमुक क्रियाके प्रवर्तनमे जो लक्ष्य रहता है उसका विशेषत समाधान बतलाने सवधी भूमिकामे अभी हमारी स्थिति नही है ।
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बंबई, फागुन वदी ३, शनि, १९४७
सुज्ञ भाई,
भाई त्रिभोवनका एक प्रश्न उत्तर देने योग्य है । तथापि अभी कोई इस प्रकारका उदयकाल रहता है कि ऐसा करनेमे निरुपायता हो रही है । इसके लिये क्षमा चाहता हूँ ।
भाई त्रिभोवनके पिताजीसे मेरे यथायोग्यपूर्वक कहना कि आपके समागममे प्रसन्नता है, परंतु कितनी ही ऐसी निरुपायता है कि उस निरुपायताको भोगे बिना दूसरे प्राणोको परमार्थके लिये स्पष्ट कह सकने जैसी दशा नही है । और इसके लिये दीनभावसे आपकी क्षमा चाही है ।
योगवासिष्ठसे वृत्ति उपशम रहती हो तो पढने-सुननेमे प्रतिबन्ध नही है । अधिक उदयकाल बीतनेपर । उदयकाल तक अधिक कुछ नही हो सकेगा ।
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सत्स्वरूपको अभेद भक्तिसे नमस्कार
बंबई, फागुन, १९४७
सुज्ञ भाई छोटालाल,
यहाँ आनदवृत्ति है । सुज्ञ अवालाल और त्रिभोवनके पत्र मिले ऐसा उन्हे कहे । अवसर प्राप्त होनेपर योग्य उत्तर दिया जा सके ऐसा भाई त्रिभोवनका पत्र है ।
वासनाके उपगमार्थ उनका विज्ञापन है, और उसका सर्वोत्तम उपाय तो ज्ञानी पुरुषका योग मिलना है । दृढ मुमुक्षुता हो और अमुक काल तक वैसा योग मिला हो तो जीवका कल्याण हो जाये इसे निशंक मानिये |
आप सब सत्सग, सत्शास्त्र आदि सम्वन्धी आजकल कैसे योगमे रहते है सो लिखें। इस योग के लिये प्रमादभाव करना योग्य ही नही है, मात्र पूर्वकी कोई गाढ प्रतिबद्धता हो, तो आत्मा तो इस विषयमे अप्रमत्त होना चाहिये ।
आपकी इच्छाकी खातिर कुछ भी लिखना चाहिये, इसलिये यथा प्रसग लिखता हूँ। बाकी अभी सत्कथा लिखी जा सकने जैसी दशा ( इच्छा ? ) नही है ।
दोनो के पत्र न लिखने पड़ें, इसलिये यह एक आपको लिखा है । और यह जिसे उपयोगी हो उसका है | आपके पिताजी से मेरा यथायोग्य कहिये, याद किया है ऐसा भी कहिये ।
वि० रायचद ।
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बई, फागुन, १९४७
तत्काल या नियमित समयपर पत्र लिखना नही बन पाता। इसलिये विशेष उपकारका हेतु होनेका यथायोग्य कारण उपेक्षित करना पडता है, जिसके लिये खेद हो तो भी प्रारब्धका समाधान होनेके लिये वे दोनो ही प्रकार उपशम करने योग्य है ।
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वंबई, फागुन, १९४७
सदुपदेशात्मक सहज वचन लिखने हो इसमे भी लिखते लिखते वृत्ति सकुचितताको प्राप्त हो जाती है, क्योकि उन वचनोके साथ समस्त परमार्थं मार्गकी सन्धि मिली होती है, उसको ग्रहण करना पाठकोंके
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२४ वां वर्ष
२८१ लिये दुष्कर होता है और विस्तारसे लिखनेपर भी पाठकोको अपने क्षयोपशमकी क्षमतासे अधिक ग्रहण करना कठिन होता है, और फिर लिखनेमे उपयोगको कुछ बहिर्मुख करना पड़ता है, वह भी नही हो सकता । यो अनेक कारणोसे पत्रोकी पहुँच भी कितनी ही बार लिखी नही जाती।
२२९
बबई, फागुन, १९४७ अनतकालसे जीवको असत् वासनाका अभ्यास है। इसमे एकदम सत्सवधी सस्कार स्थित नही होते । जैसे मलिन दर्पणमे यथायोग्य प्रतिबिंव-दर्शन नहीं हो सकता वैसे असद्वासनायुक्त चित्तमे भी सत्सम्बन्धी सस्कार यथायोग्य प्रतिबिंबित नही होते । क्वचित् अशत होते है, वहाँ जीव फिर अनतकालका जो मिथ्या अभ्यास है, उसके विकल्पमे पड जाता है। इसलिये क्वचित् उन सत्के अशोपर आवरण आ जाता है । सत्सवधी सस्कारोकी दृढता होनेके लिये सर्वथा लोकलज्जाकी उपेक्षा करके सत्सगका परिचय करना श्रेयस्कर है। लोकलज्जाको तो किसी बड़े कारणमे सर्वथा छोडना पड़ता है। सामान्यत. लोकसमुदायमे सत्संगका तिरस्कार नही है, जिससे लज्जा दुखदायक नहीं होती । मात्र चित्तमे सत्सगके लाभका विचार करके निरतर अभ्यास करे तो परमार्थमे दृढता होती है।
२३०
बबई, चैत्र सुदी ४, रवि, १९४७ एक पत्र मिला कि जिसमे 'कितने ही जीव योग्यता रखते है, परन्तु मार्ग बतानेवाला नही है' इत्यादि विवरण लिखा है। इस विषयमे पहले आपको प्रायः अति गूढ भी स्पष्टीकरण किया है । तथापि आप परमार्थकी उत्सुकतामे अत्यधिक तन्मय है कि जिससे उस स्पष्टीकरणका विस्मरण हो जाये, इसमे आश्चर्यकी बात नही है फिर भी आपको स्मरण रहनेके लिये लिखता हूँ कि जब तक ईश्वरेच्छा नहीं होगी तब तक || हमसे कुछ भी नही हो सकेगा। एक तिनकेके दो टुकडे करनेकी सत्ता भी हम नही रखते। अधिक क्या कहे ? आप तो करुणामय है। फिर भी आप हमारी करुणाके विषयमे क्यो ध्यान नही देते, और ईश्वरको क्यो नही समझाते?
२३१
बवई, चैत्र सुदी ७, वुध, १९४७ महात्मा कबीरजी तथा नरसिह मेहताकी भक्ति अनन्य, अलौकिक, अद्भुत और सर्वोत्कृष्ट थी, फिर भी वह निःस्पहा थी । ऐसी दुखी स्थिति होनेपर भी उन्होने स्वप्नमे भी आजीविकाके लिये और व्यवहारके लिये परमेश्वरके प्रति दीनता प्रगट नही की । यद्यपि ऐसा किये बिना ईश्वरेच्छासे उनका व्यवहार चलता रहा है, तथापि उनकी दरिद्रावस्था अभी तक जगतविदित है, और यही उनका प्रवल माहात्म्य है। परमात्माने उनका 'परचा' पूरा किया है और वह भी उन भक्तोकी इच्छाकी उपेक्षा करके, क्योकि भक्तोकी ऐसी इच्छा नही होती, और ऐसी इच्छा हो तो उन्हे रहस्यभक्तिकी भी प्राप्ति नही होती। आप हजारो बातें लिखें, परन्तु जब तक नि स्पृह न हो ( न बनें ) तव तक विडवना ही है।
२३२
ववई, चैत्र सुदी ९, शुक्र, १९४७ परेच्छानुचारीको शब्दभेद नहीं है सुज्ञ भाई त्रिभोवन,
___ कार्यके जालमे आ पड़नेके बाद प्राय प्रत्येक जीव पश्चात्तापयुक्त होता है। कार्यके जन्मसे पहले विचार हो और वह दृढ रहे, ऐसा होना बहुत विकट है, ऐसा जो सयाने मनुष्य कहते हैं वह सच है । तो आपको भी इस प्रसगमे दु खपूर्वक चिंतन रहता होगा, और ऐसा होना सम्भव हे। कार्यका जो परिणाम
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२८२
श्रीमद् राजचन्द्र
आया हो वह पश्चात्तापसे तो अन्यथा नही होता, तथापि दूसरे वैसे प्रसगमे उपदेशका कारण होता है। ऐसा ही होना योग्य था, ऐसा मानकर शोकका परित्याग करना और मात्र मायाकी प्रबलताका विचार करना यह उत्तम है । मायाका स्वरूप ऐसा है कि इसमे, जिसे 'सत्' सप्राप्त है ऐसे ज्ञानी पुरुपको भी रहना विकट है, तो फिर जिसमे अभी मुमुक्षुताके अशोकी भी मलिनता है उसे इस स्वरूपमे रहना विकट, भुलावेमे डालनेवाला और चलित करने वाला हो, इसमे कुछ आश्चर्य नही है ऐसा जरूर समझिये।
___ यद्यपि हमे उपाधियोग है, तथापि ऐसा कुछ नही है कि अवकाश नहीं मिलता, परन्तु दशा ऐसी है कि जिसमे परमार्थ सवधी कुछ न हो सके, और रुचि भी अभी तो वैसी ही रहती है।
मायाका प्रपच क्षण क्षणमे वाधकर्ता है, उस प्रपचके तापकी निवृत्ति किसी कल्पद्रुमकी छाया है, और या तो केवलदशा है, तथापि कल्पद्रुमको छाया प्रशस्त है, उसके बिना इस तापकी निवृत्ति नहीं है, और इस कल्पद्रुमकी वास्तविक पहचानके लिये जोवको योग्य होना प्रशस्त है। उस योग्य होनेमे बाधकर्ता ऐसा यह माया-प्रपच है, जिसका परिचय जैसे कम हो वैसे चले बिना योग्यताके आवरणका भग नही होता। कदम-कदमपर भययुक्त अज्ञान भूमिकामे जीव बिना विचारे करोड़ो योजन चलता रहता है, वहाँ योग्यताका अवकाश कहाँसे हो ? ऐसा न होनेके लिये किये हुए कार्योके उपद्रवको यथाशक्ति शान्त करके, (इस विषयकी) सर्वथा निवृत्ति करके योग्य व्यवहारमे आनेका प्रयत्न करना उचित है । 'लाचार होकर' करना चाहिये, और वह भी प्रारब्धवशात् नि स्पृह बुद्धिसे, ऐसे व्यवहारको योग्य व्यवहार मानिये । यहाँ ईश्वरानुग्रह है।
वि० रायचन्दके प्रणाम । २३३
बम्बई, चैत्र सुदी १०, १९४७ जबुस्वामीका दृष्टान्त प्रसगको प्रबल करनेवाला और बहत आनन्ददायक दिया गया है । लुटा देनेकी इच्छा होनेपर भी लोकप्रवाह ऐसा माने कि चोरो द्वारा ले जानेके कारण जबुस्वामीका त्याग है, तो यह परमार्थके लिये कलकरूप है, ऐसा जो महात्मा जबुका आशय था वह सत्य था।
इस वातको यहाँ सक्षिप्त करके अब आपको प्रश्न करना योग्य है कि चित्तकी मायाके प्रसगोमे आकुलता-व्याकुलता हो, और उसमे आत्मा चिन्तित रहा करता हो, यह ईश्वरकी प्रसन्नताका मार्ग है क्या ? तथा अपनी बुद्धिसे नही, परन्तु लोकप्रवाहके कारण भी कुटुम्ब आदिके कारणसे शोकातुर होना यह वास्तविक मार्ग है क्या? हम आकुल होकर कुछ कर सकते हैं क्या? और यदि कर सकते है तो फिर ईश्वरपर विश्वास क्या फलदायक है ?
ज्योतिप जैसे कल्पित विषयकी ओर सासारिक प्रसगमे निस्पृह पुरुष ध्यान देते होगे क्या? और हम ज्योतिष जानते हैं, अथवा कुछ कर सकते है, ऐसा न माने तो अच्छा, ऐसी अभी इच्छा है। यह आपको पसन्द है क्या ? सो लिखियेगा।
२३४
बम्बई, चैत्र सुदी १०, शनि, १९४७ सर्वात्मस्वरूपको नमस्कार जिसके लिये अपना या पराया कुछ नही रहा है, ऐसी किसी दशाकी प्राप्ति अव समीप ही है, (इस देहमे है); और इसी कारण परेच्छासे रहते है। पूर्वकालमे जिस जिस विद्या, वोध, ज्ञान और क्रियाकी प्राप्ति हो गयी है उन सबको इस जन्ममे ही विस्मरण करके निर्विकल्प हुए विना छुटकारा नहीं है, और इसी कारण इस तरह रहते हैं। तथापि आपकी अधिक आकुलता देखकर कुछ कुछ आपको उत्तर देना पड़ा है. वह भी स्वेच्छासे नही, ऐसा होनेसे आपसे विनती है कि इस सब मायिक विद्या अथवा मायिक
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२४ वॉ वर्ष
२८३
मार्गं सम्बन्धी आपकी ओरसे मेरी दूसरी दशा होनेतक स्मरण न दिलाया जाये, ऐसा योग्य है । यद्यपि मै आपसे भिन्न नही हूँ, तो आप सर्वथा निराकुल रहे । आपसे परमप्रेम है, परन्तु निरुपायता मेरी है ।
२३५
बम्बई, चैत्र सुदी १४, गुरु, १९४७ सविस्तर पत्रमेसे अमुक थोडा भाग छोडकर शेष भाग परमानन्दका निमित्त हुआ था । जो थोडा भाग बाधकर्तारूप है, वह ईश्वरानुग्रहसे आपके हृदयसे विस्मृत होगा ऐसी आशा रहा करती है ।
ज्ञानीकी परिपक्व अवस्था ( दशा ) होनेपर सर्वथा राग-द्वेषको निवृत्ति हो जाती है ऐसी हमारी मान्यता है, तथापि इसमे भी कुछ समझने जैसी बात है, यह सच है । प्रसगसे इस विषयमे लिखूँगा । ईश्वरेच्छाके अनुसार जो हो सो होने देना यह भक्तिमान के लिये सुखदायक है ।
२३६
बम्बई, चैत्र सुदी १५, गुरु, १९४७
सुज्ञ भाई श्री अबालाल,
यहाँ कुशलता है । आपका कुशलपत्र प्राप्त हुआ । रतलामसे लौटते हुए आप यहाँ आना चाहते है, उस इच्छामे मेरो सम्मति हैं । वहाँसे विदा होनेका दिन निश्चित होनेपर यहाँ दुकानपर पत्र लिखियेगा । आप जब यहाँ आयें तब, आपका हमारेमे जो परमार्थं प्रेम है वह यथासभव कम ही प्रगट हो ऐसा कीजियेगा । तथा निम्नलिखित बाते ध्यानमे रखेंगे तो श्रेयस्कर है ।
१ मेरी अविद्यमानतामे श्री रेवाशंकर अथवा खीमजी से किसी तरह की परमार्थ विषयक चर्चा नही करना (विद्यमानता अर्थात् मैं पास बैठा हूँ तब ) |
२ मेरी विद्यमानतामे उनसे गभीरतापूर्वक परमार्थ विषयकी चर्चा हो सके तो जरूर करे, कभी रेवाशकरसे और कभी खीमजीसे ।
३ परमार्थमे नीचे लिखी बाते विशेष उपयोगी है
(१) पार होनेके लिये जीवको पहले क्या जानना चाहिये ?
(२) जीवके परिभ्रमण होनेमे मुख्य कारण क्या ?
(३) वह कारण कैसे दूर हो ?
(४) उसके लिये सुगमसे-सुगम अर्थात् अल्पकालमे फलदायक हो ऐसा उपाय कौनसा है ? (५) क्या ऐसा कोई पुरुष होगा कि जिससे इस विपयका निर्णय प्राप्त हो सके ? इस कालमे ऐसा पुरुष हो सकता है ऐसा आप मानते है ? और यदि मानते है तो किन कारणोसे ? ऐसे पुरुपके कोई लक्षण होते हैं या नही ? अभी ऐसा पुरुष हमे किस उपाय से प्राप्त हो सकता है?
(६) यदि हमारे सबंधी कोई प्रसग आये तो पूछना कि 'मोक्षमार्ग' की इन्हे प्राप्ति है, ऐसी नि शकता आपको है ? और है तो किन कारणोसे ? ये प्रवृत्तिवाली दशामे रहते हो, तो पूछना कि इस विषय मे आपको विकल्प नही आता ? इन्हे सर्वथा नि स्पृहता होगी क्या ? किसी तरह सिद्धियोग होगे क्या ?
(७) सत्पुरुपकी प्राप्ति होनेपर जीवको मार्ग न मिले, ऐसा सभव हे क्या ? ऐसा हो तो इसका क्या कारण ? यदि जीवकी 'अयोग्यता' बतानेमे आये तो वह अयोग्यता किस विपयकी ? (८) खीमजीसे प्रश्न करना कि क्या आपको ऐसा लगता है कि इस पुरुषके सगसे योग्यता प्राप्त होनेपर इससे ज्ञानप्राप्ति हो सकती है ?
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श्रीमद राजचन्द्र
इत्यादि बातोकी चर्चा प्रसंगानुसार करें। एक एक बातका कोई निर्णायक उत्तर उनकी तरफसे मिलने पर दूसरे प्रसगपर दूसरी बातकी चर्चा करें ।
खीमजीमे कुछ समझने की शक्ति ठीक है, परन्तु योग्यता रेवाशकरकी विशेष है । योग्यता ज्ञानप्राप्ति के लिये अति बलवान कारण है ।
उपर्युक्त वातोमेसे आपको जो सुगम लगे वे पूछें । एककी भी सुगमता न हो तो एक भी न पूछें, तथा इन वातोका प्रेरक कौन है ? यह मत बताना ।
खभातसे श्री त्रिभोवनदासकी यहाँ आनेकी इच्छा रहती है, तो इस इच्छामे में सम्मत हूँ । आप उन्हे रतलामसे पत्र लिखे तो आपकी बबईमे जब स्थिति हो, तब उन्हे आने की अनुकूलता हो तो आनेमे मेरी सम्मति है, ऐसा लिखियेगा ।
आप कोई मुझसे मिलने आये हैं, यह बात खोमजी आदिसे भी न कहना । यहाँ आनेका कोई व्यावहारिक कारण हो तो उसे अवश्य खीमजी से कहना ।
यह सब लिखना पडता है इसका उद्देश मात्र यह एक प्रवृत्तियोग है । ईश्वरेच्छा बलवान है, और सुखदायक है ।
२८४
यह पत्र वारवार मनन करने योग्य है ।
दारवार मनमे यह उठता है कि क्या अवध वधनयुक्त हो सकता है? आप क्या मानते है ?
वि० रायचन्दके प्रणाम ।
बबई, चैत्र वदी २, शनि, १९४७
२३७
“परेच्छानुचारीको शव्दभेद नही है ।" इस वाक्यका अर्थं समागम मे पूछिये । परम समाधिरूप ज्ञानीको दशाको नमस्कार ।
सुज्ञ भाई त्रिभोवन,
वि० रायचदके प्रणाम ।
बबई, चैत्र वदी ३, रवि, १९४७
२३८
उस पूर्णपदकी ज्ञानी परम प्रेमसे उपासना करते हैं ।
चारेक दिन पहले आपका पत्र मिला । परम स्वरूपके अनुग्रहसे यहाँ समाधि है | आपकी इच्छा सद्वृत्तियोकी प्राप्तिके लिये रहती है, यह पढकर वारवार आनद होता है ।
चित्तकी सरलता, वैराग्य और 'सत्' प्राप्त होनेकी अभिलापा - ये प्राप्त होने परम दुर्लभ है, और उनकी प्राप्ति के लिये परम कारणरूप सत्सगका प्राप्त होना तो परम परम दुर्लभ है । महान पुरुपोने इस कालको कठिन काल कहा है, उसका मुख्य कारण तो यह है कि जीवको सत्सगका योग मिलना बहुत कठिन है, और ऐसा होनेसे कालको भी कठिन कहा है । मायामय अग्निसे चौदह राजूलोक प्रज्वलित है । उस मायामे जीवको वुद्धि अनुरक्त हो रही है, और इस कारणसे जीव भी उस त्रिविध ताप-अग्निसे जला करता है, उसके लिये परम कारुण्यमूर्तिका उपदेश ही परम शीतल जल है, तथापि जीवको चारो ओरसे अपूर्ण पुण्यके कारण उसकी प्राप्ति होना दुर्लभ हो गया है । परन्तु इसी वस्तुका चिंतन रखना । 'सत्' मे प्रीति, 'सत्' रूप सतमे परम भक्ति, उसके मार्गकी अभिलाषा, यही निरतर स्मरण करने योग्य हैं । उनका स्मरण रहनेमे वैराग्य आदि चरित्रवाली उपयोगी पुस्तकें, वैरागी एव सरल चित्तवाले मनुष्योकासग और अपनी चित्तशुद्धि, ये सुन्दर कारण है । इन्हीकी प्राप्तिकी रटन रखना कल्याणकारक है । यहा समाधि है ।
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२४ वा वर्ष
२३९
"आप्युं सौने ते अक्षरधाम रे !'
२८५
बबई, चैत्र वदी ७, गुरु, १९४७
कल एक कृपापत्र मिला था । यहाँ परमानन्द है ।
यद्यपि उपाधिसयुक्त बहुतसा काल जाता है, किन्तु ईश्वरेच्छाके अनुसार प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर है और योग्य है, इसलिये जैसे चल रहा है वैसे चाहे उपाधि हो तो ठीक, न हो तो भी ठीक, जो हो वह समान ही है ।
ज्ञानवार्ता सम्बन्धी अनेक मंत्र आपको बतानेकी इच्छा होती है, तथापि विरहकाल प्रत्यक्ष है, इसलिये निरुपायता है । मत्र अर्थात् गुप्तभेद । ऐसा तो समझमे आता है कि भेदका भेद दूर होनेपर वास्तविक तत्त्व समझमे आता है । परम अभेद ऐसा 'सत्' सर्वत्र है । वि० रायचद
२४०
बबई, चैत्र वदी ९, रवि, १९४७
कल पत्र और प० पूज्य श्री सोभागभाईका पत्र साथमे मिला ।
आप उन्हे विनयपूर्ण पत्र सहर्ष लिखिये । साथ ही विलब होनेका कारण बताइये । साथ ही लिखिये कि रायचदने इस विषय मे बहुत प्रसन्नता प्रदर्शित की है ।
अभी मुझे मुमुक्षुओका प्रतिबन्ध भी नही चाहिये था, क्योकि अभी आपको पोषण देनेकी मेरी अशक्यता रहती है। उदयकाल ऐसा ही है । इसलिये सोभागभाई जैसे सत्पुरुषके साथका पत्रव्यवहार आपको पोषणरूप होगा । यह मुझे बड़े सतोषका मार्ग मिला है । उन्हे पत्र लिखें । ज्ञानकथा लिखे, तो मै विशेष प्रसन्न हूँ |
२४१
बबई, चैत्र वदी १४, गुरु, १९४७
जिसे लगी है, उसीको लगी है और उसीने जानी है, वही " पी पी" पुकारता है । यह ब्राह्मी वेदना कैसे कही जाय ? कि जहाँ वाणीका प्रवेश नही है । अधिक क्या कहना ? जिसे लगी है उसीको लगी है | उसीके चरणसगसे लगती है, और जब लगती है तभी छुटकारा होता है । इसके बिना दूसरा सुगम मोक्षमार्ग है ही नही । तथापि कोई प्रयत्न नही करता । मोह बलवान है ।
२४२
ॐ
आपके पत्र प्राप्त हुए है । इस पत्रके आनेके विषय मे सर्वथा गभीरता रखिये । आप सब धीरज रखिये और निर्भय रहिये ।
बबई, चेत्र, १९४७
सुदृढ स्वभावसे आत्मार्थंका प्रयत्न करना । आत्मकल्याण प्राप्त होनेमे प्राय वारवार प्रबल परिषहोका आना स्वाभाविक है । परन्तु यदि उन परिपहोका वेदन गात चित्तसे करनेमे आता है, तो दीर्घ कालमे हो सकने योग्य आत्मकल्याण बहुत अल्प कालमे सिद्ध हो जाता है ।
आप सब ऐसे शुद्ध आचरणसे रहिये कि विपम दृष्टिसे देखनेवाले मनुष्योमेसे बहुतोको, समय बोतनेपर अपनी उस दृष्टिके लिये पश्चात्ताप करनेका वक्त आये ।
निराश न होना ।
उपाश्रयमे जानेसे शाति होती हो तो वैसा करें। साणन्द जानेसे अगानि कम होती हो तो वेसा करे । वदन, नमस्कार करनेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है । उपाश्रयमे जानेकी वृत्ति हो तो मनुष्योको भीडके समय १. दिया सबको वह अक्षरधाम रे ।
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२८६
श्रीमद राजचन्द्र
नही जाना, एव सर्वथा एकातमे भी नही जाना । मात्र जब थोडे योग्य मनुष्य हो तब जाना । और जाना तो क्रमशः जानेका रखना । क्वचित् कोई क्लेश करे तो सहन करना । जाते ही पहलेसे बलवान क्लेश करनेकी वृत्ति दिखायी दे तो कहना कि " ऐसा क्लेश मात्र विषमदृष्टिवाले मनुष्य उत्पन्न कराते हैं । और यदि आप धैर्यं रखेगे तो अनुक्रमसे वह कारण आपको मालूम हो जायेगा । अकारण नाना प्रकारकी कल्पनाओको फैलानेका जिसे भय न हो उसे ऐसी प्रवृत्ति योग्य है । आपको क्रोधातुर होना योग्य नही है । वैसा होनेसे बहुतसे जीवोको मात्र प्रसन्नता होगी । सघाडेकी, गच्छकी और मार्गकी अकारण अपकीर्ति होनेमे साथ नही देना चाहिये | और यदि शांत रहेगे तो अनुक्रमसे यह क्लेश सर्वथा शात हो जायेगा । लोग वही बात करते हो तो आपको उसका निवारण करना योग्य है, वहाँ उसे उत्पन्न करने जैसा अथवा बढाने जैसा कोई कथन नही करना चाहिये । फिर जैसी आपकी इच्छा ।"
मुनि लल्लुजीसे आपने मेरे लिये जो बात कही है उस बातको मै सिद्ध करना चाहता हूँ ऐसा कहे तो कहना कि " वे महात्मा पुरुष और आप जब पुन मिले तब उस बातका यथार्थ स्पष्टीकरण प्राप्त करके मेरे प्रति क्रोधातुर होना योग्य लगे तो वैसा कीजियेगा । अभी आपने उस विषयमे यथार्थ स्पष्टतासे श्रवण नही किया होगा ऐसा मालूम होता है ।
आपके प्रति द्वेषबुद्धि करनेका मुझे नही कहा है । और आपके लिये विसवाद फैलाने की बात भी किसीके मुँहपर मैने नही की है। आवेशमे कुछ वचन निकला हो तो वैसा भी नही है । मात्र द्वेषवान जीवोकी यह सारी खटपट है ।
1.
ऐसा होनेपर भी यदि आप कुछ आवेश करेंगे तो मै तो पामर हूँ, इसलिये शांत रहने के सिवाय दूसरा कोई मेरा उपाय नही है । परन्तु आपको लोगोके पक्षका बल है, ऐसा मानकर आवेश करने जायेंगे तो हो सकेगा । परन्तु उससे आपको, हमे और बहुतसे जोवोको कर्मका दीर्घबध होगा, इसके सिवाय कोई दूसरा फूल नही आयेगा | और अन्य लोग प्रसन्न होगे । इसलिये शात दृष्टि रखना योग्य है ।" कहना उचित लगे तो कहना, परन्तु वे कुछ प्रसन्नतामे दिखायी दें तब - प्रसन्नता बढ़ती जाती हो, अथवा अप्रसन्नता होती न दिखायी देती हो,..
यदि किसी प्रसगमे ऐसा कहना । और कहते हुए उनकी तब तक कहना ।
"
अपरिचित मनुष्यो द्वारा वे उलटी सीधी बात फैलाये अथवा दूसरे वैसी बात लाये तो कहना कि आप सबका कषाय करनेका हेतु मेरो समझमे है । किसी स्त्री या पुरुषपर कलक लगाते हुए इतनी अधिक प्रसन्नता रखते है तो इसमे कही अनिष्ट हो जायेगा । मेरे साथ आप अधिक बात नही करें। आप अपनी सँभाले । इस तरह योग्य भाषामे जब अवसर दिखायी दे तब कहना । बाकी शांत रहना । मनमे आकुल नही होना । उपाश्रयमे जाना, न जाना, साणद जाना, न जाना यह अवसरोचित जैसे आपको लगे वैसे करें । परन्तु मुख्यत ज्ञात रहे और सिद्ध कर देनेके सम्बन्धमे किसी भी स्पष्टीकरणपर ध्यान न दें। ऐसा धैर्यं रखकर, आत्मार्थमे निर्भय रहिये ।
बात कहनेवालेको कहना कि मनकी कल्पित बातें किसलिये चला रहे है ? कुछ परमेश्वरका डर रखें तो अच्छा, यो योग्य शब्दोमे कहना, आत्मार्थ में प्रयत्न करना ।
M
1
२४३
बबई, वैशाख सुदी २, १९४७
सर्वात्माके अनुग्रहसे यहाँ समाधि है । बाह्योपाधियोग रहता है । आपकी इच्छा स्मृतिमे हैं । और उसके लिये आपकी अनुकूलताके अनुसार करने को तैयार हैं, तथापि ऐसा तो रहता है कि अबका हमारा समागम एकात अज्ञात स्थानमे होना कल्याणक है । और वैसा प्रसगं ध्यानमे रखनेका प्रयत्न है । नही तो
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२४ वाँ वर्ष
२८७ फिर आपको अपनी अनुकूलताके अनुसार करना मान्य है । श्री त्रिभोवनको प्रणाम कहे । आप सब जिस स्थलमे (पुरुषमे) प्रीति करते हैं, वह क्या यथार्थ कारणोको लेकर है ? सच्चे पुरुषको हम कैसे पहचानें ?
बंबई, वैशाख सुदी ७, शुक्र, १९४७
२४४
परब्रह्म आनंदमूर्ति है, उसका त्रिकालमे अनुग्रह चाहते है ।
कुछ निवृत्तिका समय मिला करता है, परब्रह्मविचार तो ज्योका त्यो रहा हो करता है. कभी तो उसके लिये आनंदकिरणें बहुत स्फुरित हो उठती हैं, और कुछकी कुछ (अभेद) बात समझ मे आती है, परन्तु किसीसे कही नही जा सकती, हमारी यह वेदना अथाह है । वेदना के समय साता पूछनेवाला चाहिये, ऐसा व्यवहारमार्ग है, परन्तु हमे इस परमार्थमार्गमे साता पूछनेवाला नही मिलता, और जो है उससे वियोग रहता है । तो अब जिसका वियोग है ऐसे आप हमे किसी भी प्रकारसे साता पूछें ऐसी इच्छा करते है ।
२४५
बबई, वैशाख सुदी १३, १९४७
निर्मल प्रीतिसे हमारा यथायोग्य स्वीकार कीजिये ।
श्री त्रिभोवन और छोटालाल इत्यादिसे कहिये कि ईश्वरेच्छाके कारण उपाधियोग है, इसलिये आपके वाक्योके प्रति उपेक्षा रखनी पड़ती है, और वह क्षमा करने योग्य है ।
२४६
बंबई, वैशाख वदी ३, १९४७
विरह भी सुखदायक मानना ।
हरिकी विरहाग्नि अतिशय जलनेसे साक्षात् उसकी प्राप्ति होती है । उसी प्रकार सतके विरहानुभवका फल भी वही है । ईश्वरेच्छा से अपने सम्बन्धमे वैसा ही मानियेगा ।
पूर्णकाम हरिका स्वरूप है । उसमे जिनका निरतर लय लग रहा है ऐसे पुरुषोंसे भारतक्षेत्र प्राय शून्यवत् हुआ है । माया, मोह ही सर्वत्र दिखायी देता है । क्वचित् मुमुक्षु दिखाई देते हैं, तथापि मतांतर आदिके कारणोसे उन्हे भी योगका मिलना दुर्लभ होता है ।
आप जो हमे वारवार प्रेरित करते है, उसके लिये हमारी जेसी चाहिये वैसी योग्यता नही है, और हरि साक्षात् दर्शन देकर जब तक उस बात के लिये प्रेरित नही करते तब तक इच्छा नही होती और होगी भो नही ।
बम्बई, वैशाख वदी ८, रवि, १९४७
२४७
हरिके प्रतापसे हरिका स्वरूप मिलेंगे तब समझायेंगे (!)
उपाधियोग और चित्तके कारण कितना ही समय सविस्तर पत्रके विना व्यतीत किया है, उसमे भी चित्तकी दशा मुख्य कारणरूप है । आजकल आप किस प्रकारसे समय व्यतीत करते है सो लिखियेगा, और क्या इच्छा रहती है ? यह भी लिखियेगा । व्यवहारके कार्यमे क्या प्रवृत्ति है, और तत्सवधी क्या इच्छा रहती है ? यह भी विदित कीजियेगा, अर्थात् वह प्रवृत्ति सुखरूप लगती है क्या ? यह भी लिखियेगा ।
चित्तकी दशा चैतन्यमय रहा करती है, जिससे व्यवहारके सभी कार्य प्राय. अव्यवस्था से करते हे । हरीच्छाको सुखदायक मानते हैं । इसलिये जो उपाधियोग विद्यमान है, उसे भी समाधियोग मानते हैं । चित्तकी अव्यवस्थाके कारण मुहूर्त मात्रमे किये जा सकनेवाले कार्यका विचार करनेमे भी पखवारा विता दिया जाता है और कभी उसे किये विना ही जाने देना होता है। सभी प्रसगोमें ऐसा हो तो भी हानि
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२८८
श्रीमद् राजचन्द्र
नही मानी है, तथापि आपसे कुछ कुछ ज्ञानवार्ता की जाये तो विशेष आनन्द रहता है, और उस प्रसगमे चित्तको कुछ व्यवस्थित करनेकी इच्छा रहा करती है, फिर भी उस स्थितिमे भी अभी प्रवेश नही किया जा सकता। ऐसी चित्तकी दशा निरकुश हो रही है, और उस निरकुशता के प्राप्त होनेमे हरिका परम अनुग्रह कारण है ऐसा मानते है । इसी निरकुशताकी पूर्णता किये बिना चित्त यथोचित समाधियुक्त नही होगा ऐसा लगता है । अभी तो सब कुछ अच्छा लगता है, और सव कुछ अच्छा नही लगता, ऐसी स्थिति है । जब सब कुछ अच्छा लगेगा तव निरकुशताको पूर्णता होगी । यह पूर्णकामता भी कहलाती है, जहाँ हरि ही सर्वत्र स्पष्ट भासता है । अभी कुछ अस्पष्ट भासता है, परन्तु स्पष्ट हे ऐसा अनुभव है ।
जो रस जगतका जीवन है, उस रसका अनुभव होने के बाद हरिमे अतिशय लय हुआ है, और उसका परिणाम ऐसा आयेगा कि जहाँ जिस रूप मे चाहे उस रूपमे हरि आयेगे, ऐसा भविष्यकाल ईश्वरेच्छाके कारण लिखा है ।
हम अपने अतरग विचार लिख सकनेमे अतिशय अशक्त हो गये है, जिससे समागमकी इच्छा है, परन्तु ईश्वरेच्छा अभी वैसा करनेमे असम्मत लगती है, जिससे वियोगमे रहते है ।
उस पूर्णस्वरूप हरिमे जिसकी परम भक्ति है, ऐसा कोई भी पुरुष वर्तमानमे दिखायी नही देता, इसका क्या कारण होगा ? तथा ऐसी अति तीव्र अथवा तीव्र मुमुक्षुता किसीमे देखनेमे नही आयी इसका क्या कारण होगा ? क्वचित् तीव्र मुमुक्षुता देखनेमे आयी होगो तो वहाँ अनतगुण गंभीर ज्ञानावतार पुरुषका लक्ष्य क्यो देखनेमे नही आया होगा ? इस विषय मे आपको जो लगे सो लिखियेगा । दूसरी बड़ी आश्चर्यकारक बात तो यह है कि आप जैसोको सम्यग्ज्ञानके बीजकी, पराभक्तिके मूलकी प्राप्ति होनेपर भी उसके वादका भेद क्यो प्राप्त नही होता ? तथा हरिके प्रति अखण्ड लयरूप वेराग्य जितना चाहिये उतना क्यो वर्धमान नही होता ? इसका जो कुछ कारण समझमे आता हो सो लिखियेगा ।
हमारे चित्ती व्यवस्था ऐसी हो जानेके कारण किसो काममे जैसा चाहिये वैसा उपयोग नही रहता, स्मृति नही रहती, अथवा खबर भी नही रहती, इसके लिये क्या करना ? क्या करना अर्थात् व्यवहारमे रहते हुए भी ऐसी सर्वोत्तम दशा दूसरे किसीको दुखरूप नही होनी चाहिये, और हमारे आचार ऐसे हैं कि कभी वैसा हो जाता है। दूसरे किमीको भी आनदरूप लगनेमे हरिको चिंता रहती है, इसलिये वे रखेगे । हमारा काम तो उस दशाकी पूर्णता करनेका है, ऐसा मानते है, तथा दूसरे किसीको सतापरूप होका तो स्वप्नमे भी विचार नही है । सभीके दास है, तो फिर दुखरूप कौन मानेगा ? तथापि व्यवहारप्रसंग हरिको माया हमे नही तो दूसरे को भी कोई और ही आशय समझा दे तो निरुपायता है, और इतना भी शोक रहेगा । हम सर्व सत्ता हरिको अर्पण करते है, की है। अधिक क्या लिखना ? परमानदरूप हरिको क्षण भर भी न भूलना, यह हमारी सर्व कृति, वृत्ति और लिखनेका हेतु है ।
बम्बई, वैशाख वदो ८, रवि, १९४७
२४८
ॐ नमः
किसलिये कटाला आता है, आकुलता होती है ? सो लिखे । हमारा समागम नही है, इसलिये ऐसा होता है, यो कहना हो तो हमारा समागम अभी कहाँ किया जा सकता है ? यहाँ करने देनेकी हमारी इच्छा नही होती । अन्य किसी स्थानपर होनेका प्रसग भवितव्यता के योगपर निर्भर है । खभात आनेके लिये भी योग नही बन सकता
ह
पूज्य सोभागभाईका समागम करनेको इच्छा मे हमारी अनुमति है । तथापि अभी उनका समागम करनेका आपके लिये अभी कारण नही है, ऐसा जानते है |
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२४ वॉ वर्ष
२८९ हमारा समागम आप (सब) किसलिये चाहते है, इसका स्पष्ट कारण बताये तो उसे जाननेकी अधिक इच्छा रहती है।
'प्रबोधशतक' भेजा है, सो पहुँचा होगा। आप सबके लिये यह शतक श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने योग्य है। यह पुस्तक वेदातको श्रद्धा करनेके लिये नही भेजी है, ऐसा लक्ष्य सुननेवालेका पहले होना चाहिये। दूसरे किसी कारणसे भेजी है, जिसे प्राय विशेष विचार करनेसे आप जान सकेंगे। अभी आपके पास कोई वैसा बोधक साधन नही होनेसे यह शतक ठोक साधन है, ऐसा मानकर इसे भेजा है। इसमेसे आपको क्या जानना चाहिये, इसका आप स्वय विचार करे। इसे सुननेपर कोई हमारे विषयमे यह आशका न करे कि इसमे जो कुछ आशय वताया गया है, वह मत हमारा है, मात्र चित्तकी स्थिरताके लिये इस पुस्तकके बहुतसे विचार उपयोगी है, इसलिये भेजी है, ऐसा मानना। श्री दामोदर और मगनलालके हस्ताक्षरवाला पत्र चाहते है ताकि उसमे उनके विचार मालूम हो।
२४९
बम्बई, जेठ सुदी ७, शनि, १९४७
ॐ नमः कराल काल होनेसे जीवको जहाँ वृत्तिकी स्थिति करनी चाहिये, वहाँ वह कर नही सकता। सद्धर्मका प्राय लोप ही रहता है । इसलिये इस कालको कलियुग कहा गया है । सद्धमंका योग सत्पुरुषके बिना नहीं होता, क्योकि असत्मे सत् नही होता।
प्राय सत्पुरुषके दर्शन और योगकी इस कालमे अप्राप्ति दिखायी देती है। जब ऐसा है, तव सद्धर्मरूप समाधि मुमुक्षु पुरुषको कहाँसे प्राप्त हो ? और अमुक काल व्यतीत होनेपर भी जब ऐसी समाधि प्राप्त नही होती तब मुमुक्षुता भी कैसे रहे ?
प्राय जीव जिस परिचयमे रहता है, उस परिचयरूप अपनेको मानता है। जिसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है कि अनार्यकुलमे परिचय रखनेवाला जीव अपनेको अनार्यरूपमे दृढ़ मानता है और आर्यत्वमे मति नही करता।
इसलिये महा पुरुषोने और उनके आधारपर हमने ऐसा दृढ निश्चय किया है कि जीवके लिये सत्सग, यही मोक्षका परम साधन है ।
___ सन्मार्गके विषयमे अपनी जैसी योग्यता है, वैसी योग्यता रखनेवाले पुरुषोके सगको सत्सग कहा है। महान पुरुषके सगमे जो निवास है, उसे हम परम सत्सग कहते है, क्योकि इसके समान कोई हितकारी साधन इस जगतमे हमने न देखा है और न सुना है ।
पूर्वमे हो गये महा पुरुषोका चिन्तन कल्याणकारक है, तथापि वह स्वरूपस्थितिका कारण नही हो सकता, क्योकि जीवको क्या करना चाहिये यह बात उनके स्मरणसे समझमे नही आती । प्रत्यक्ष योग होनेपर विना समझाये भी स्वरूपस्थितिका होना हम सभवित मानते हैं, और इससे यह निश्चय होता हे कि उस योगका और उस प्रत्यक्ष चिंतनका फल मोक्ष होता है, क्योकि सत्पुरुप हो 'मूर्तिमान मोक्ष' है।
मोक्षगत (अर्हत आदि) पुरुषोका चितन बहुत समयमे भावानुसार मोक्षादि फलका दाता होता है। सम्यक्त्वप्राप्त पुरुषका निश्चय होनेपर और योग्यताके कारणसे जीव सम्यक्त्व पाता है।
२५० बम्बई, जेठ सुदी १५, रवि, १९४७ भक्ति पूर्णता पानेके योग्य तब होतो हे कि एक तृणमात्र भी हरिसे न माँगना,
सर्वदशामे भक्तिमय ही रहना।
३७
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२९२
श्रीमद् राजचन्द्र ये तीनो कारण प्राय. हमे मिले हुए अधिकाश मुमुक्षुओमे हमने देखे है। मात्र दूसरे कारणकी कुछ न्यूनता किसी-किसीमे देखी है, और यदि उनमे सर्व प्रकारसे ('परम दीनताकी कमीको) न्यूनता होनेका प्रयत्न हो तो योग्य हो ऐसा जानते है । परम दीनता इन तीनोमे बलवान साधन है, और इन तीनोका बीज महात्माके प्रति परम प्रेमार्पण है।
अधिक क्या कहे ? अनत कालमे यही मार्ग है।
पहले और तीसरे कारणको दूर करनेके लिये दूसरे कारणकी हानि करना और महात्माके योगसे उसके अलौकिक स्वरूपको पहचानना । पहचाननेकी परम तीव्रता रखना, तो पहचाना जायेगा। मुमुक्षुके नेत्र महात्माको पहचान लेते हैं।
महात्मामे जिसे दृढ निश्चय होता है, उसे मोहासक्ति दूर होकर पदार्थका निर्णय होता है। उससे व्याकुलता मिटती है । उससे नि शकता आती है जिससे जीव सर्व प्रकारके दु खोसे निर्भय हो जाता है और उसीसे नि.सगता उत्पन्न होती है, और ऐसा योग्य है।
मात्र आप सव मुमुक्षुओके लिये यह अति सक्षिप्त लिखा है, इसका परस्पर विचार करके विस्तार करना और इसे समझना ऐसा हम कहते है।
हमने इसमे बहुत गूढ शास्त्रार्थ भी प्रतिपादित किया है।
आप वारवार विचार कीजिये । योग्यता होगी तो हमारे समागममे इस बातका विस्तारसे विचार बतायेगे।
अभी हमारे समागमका सभव तो नही है, परन्तु शायद श्रावण वदीमे करें तो हो, परन्तु वह कहाँ होगा उसका अभी तक विचार नही किया है।
कलियुग है, इसलिये क्षण भर भी वस्तु विचारके बिना नही रहना यह महात्माओकी शिक्षा है । आप सबको यथायोग्य पहुँचे।
२५५
बबई, आषाढ सुदी १३, १९४७
सुखना सिंधु श्री सहजानदजी, जगजीवन के जगवदजी।
शरणागतना सदा सुखकदजी, परमस्नेही छो (!) परमानदजी ॥ अपूर्व स्नेहमूर्ति आपको हमारा प्रणाम पहुँचे । हरिकृपासे हम परम प्रसन्न पदमे है । आपका सत्संग निरतर चाहत है।
हमारी दशा आजकल कैसी रहती है, यह जाननेकी आपकी इच्छा रहती है, परतु यथेष्ट विवरणपूर्वक वह लिखी नही जा सकती, इसलिये वारवार नही लिखी है। यहाँ सक्षेपमे लिखते हैं। - एक पुराणपुरुप और पुराणपुरुषकी प्रेमसपत्तिके बिना हमे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, हमे किसी पदार्थमे रुचि मात्र नही रही है, कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नही होती, व्यवहार कैसे चलता है इसका भान नही हैं, जगत किस स्थितिमे है इसकी स्मृति नहीं रहती, शत्रु-मित्रमे कोई भेदभाव नही रहा, कौन शत्रु है और कोन मित्र है, इसका ख्याल रखा नही जाता, हम देहधारी हैं या नहीं इसे जब याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते हैं, हमे क्या करना है, यह किसीसे जाना नहीं जा सकता, हम सभी पदार्थोसे उदास
१ पाठान्तर-परम विनयकी । २ पाठान्तर-और परम विनयमें रहना योग्य है ।
३ भावार्थ सहजानदस्वरूप परमात्मा सुखके सागर, जगनके आधार, जगतवद्य, सदा शरणागतको सुखवे मूल कारण, परम स्नेही और परमानदरूप है।
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२४ वो वर्ष
२९३
हो जानेसे चाहे जैसे वर्तन करते है, व्रत नियमोका कोई नियम नही रखा, जात-पातका कोई प्रसग नही है, हमसे विमुख जगतमे किसीको नहीं माना, हमारे सन्मुख ऐसे सत्सगी नही मिलनेसे खेद रहा करता है, सपत्ति पूर्ण है इसलिये सपत्तिकी इच्छा नही है, अनुभूत शब्दादि विषय स्मृतिमे आनेसे-अथवा ईश्वरेच्छासे उनकी इच्छा नही रही है, अपनी इच्छासे थोडी ही प्रवृत्ति की जाती है, हरि इच्छित क्रम जैसे चलाता है वैसे चलते है, हृदय प्राय शून्य जैसा हो गया है, पाँचो इद्रियाँ शून्यरूपसे प्रवृत्त होती रहती हैं । नय, प्रमाण इत्यादि शास्त्रभेद याद नहीं आते, कुछ पढते हुए चित्त स्थिर नही रहता, खानेकी, पीनेकी, बैठनेको, सोनेकी, चलनेकी और बोलनेकी वृत्तियाँ अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करती रहती है, मन अपने अधीन है या नहीं, इसका यथायोग्य भान नहीं रहा। इस प्रकार सर्वथा विचित्र उदासीनता आनेसे चाहे जैसी प्रवृत्ति की जाती है । एक प्रकारसे पूरा पागलपन है। एक प्रकारसे उस पागलपनको कुछ छिपाकर रखते है, और जितना छिपाकर रखा जाता है उतनी हानि है । योग्य प्रवृत्ति करते हैं या अयोग्य इसका कुछ हिसाब नही रखा। आदिपुरुषमे अखड प्रेमके सिवाय दूसरे मोक्षादि पदार्थोकी आकाक्षाका भग हो गया है । इतना सब होते हुए भी मनमानी उदासीनता नही है, ऐसा मानते है । अखड प्रेमखुमारी जैसी प्रवाहित होनी चाहिये वैसी प्रवाहित नही होती, ऐसा समझते है। ऐसा करनेसे वह अखड प्रेमखुमारी प्रवाहित होगी ऐसा निश्चलतासे जानते हैं, परन्तु उसे करनेमे काल कारणभूत हो गया है, और इस सबका दोप हमे है या हरिको है, ऐसा दृढ निश्चय नही किया जा सकता। इतनी अधिक उदासीनता होनेपर भी व्यापार करते है, लेते है, देते है, लिखते हैं, पढ़ते है, सम्भालते है और खिन्न होते है, और फिर हँसते है-जिसका ठिकाना नही ऐसी हमारो दशा है। और इसका कारण मात्र यही है कि जब तक हरिकी सुखद इच्छा नही मानी तब तक खेद मिटनेवाला नहीं है।
(अ) समझमे आता है, समझते हैं, समझेंगे, परतु हरि ही सर्वत्र कारणरूप है। जिस मुनिको आप समझाना चाहते है, वह अभी योग्य है, ऐसा हम नही जानते ।
हमारी दशा अभी ऐसी नही है कि मद योग्यको लाभ करे, हम अभी ऐसा जजाल नही चाहते, उसे नही रखा, और उन सबका कारोबार कैसे चलता है, इसका स्मरण भी नहीं है । ऐसा होनेपर भी हमे उन सबकी अनुकपा आया करती है, उनसे अथवा प्राणीमात्रसे मनसे भेदभाव नही रखा, और रखा भी नही जा सकता। भक्तिवाली पुस्तकें कभी कभी पढते है, परन्तु जो कुछ करते है वह सब बिना ठिकानेकी दशासे करते हैं।
हम अभी प्राय. आपके पत्रोका समयसे उत्तर नही लिख सकते, तथा पूरी स्पष्टताके साथ भी नही लिखते । यह यद्यपि योग्य तो नही है, परन्तु हरिकी ऐसी इच्छा है, जिससे ऐसा करते हैं। अब जब समागम होगा, तब आपको हमारा यह दोप क्षमा करना पड़ेगा, ऐसा हमे भरोसा है।
और यह तब माना जायेगा कि जब आपका सग फिर होगा। उस सगकी इच्छा करते है, परन्तु जैसे योगसे होना चाहिये वैसे योगसे होना दुर्लभ है । आप जो भादोमे इच्छा रखते हैं, उससे हमारी कुछ प्रतिकूलता नही है, अनुकलता है। परन्तु उस समागममे जो योग चाहते है, उसे होने देनेकी यदि हरिकी इच्छा होगी और समागम होगा तभी हमारा खेद दूर होगा ऐसा मानते है।
दशाका सक्षिप्त वर्णन पढकर, आपको उत्तर न लिखा गया हो उसके लिये क्षमा देनेकी विज्ञापना करता हूँ।
___ प्रभुको परम कृपा है। हमे किसीसे भेदभाव नही रहा, किसीके सम्बन्धमे दोपद्धि नही आती. मुनिके विषयमे हमे कोई हलका विचार नही है, परन्तु हरिकी प्राप्ति न हो ऐसी प्रवृत्तिम वे पड़े हैं। अकेला वीजज्ञान ही उनका कल्याण करे ऐसी उनकी और दूसरे वहुतसे मुमुक्षुओकी दशा नहीं है । साथमे 'सिद्धात
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२९०
श्रीमद् राजचन्द्र कल एक पत्र और आज एक पत्र चि० केशवलालकी ओरसे मिला । पढ़कर कुछ तृषातुरता मिटी। और फिर वैसे पत्रकी आतुरता वर्धमान हुई।
__व्यवहारचिंतासे व्याकुलता होनेसे सत्सगके वियोगसे किसी प्रकारसे शाति नही होती ऐसा आपने लिखा वह योग्य ही है । तथापि व्यवहारचिंताकी व्याकुलता तो योग्य नही है। सर्वत्र हरीच्छा बलवान है, यह दृढ करानेके लिये हरिने ऐसा किया है, ऐसा आप नि शक समझे, इसलिये जो हो उसे देखा करे, और फिर यदि आपको व्याकुलता होगी, तो देख लेगे। अब समागम होगा तब इस विषयमे बातचीत करेंगे, व्याकुलता न रखे । हम तो इस मार्गसे तरे है ।
चि० केशवलाल और लालचन्द हमारे पास आते है। ईश्वरेच्छासे टकटकी लगाये हम देखते हैं। ईश्वर जब तक प्रेरित नही करता तब तक हमे कुछ नही करना है और वह प्रेरणा किये बिना कराना चाहता है । ऐसा होनेसे घडो घडोमे परमाश्चर्यरूप दशा हुआ करती है। केशवलाल और लालचन्द हमारी दशाके अशकी प्राप्तिकी इच्छा करें, इस विषयमे प्रेरणा रहती है। तथापि ऐसा होने देनेमे ईश्वरेच्छा विलबवाली होगी। जिससे उन्हे आजीविकाकी उपाधिमे फंसाया है। और इसलिये हमे भी मनमे यह खटका करता है, परन्तु निरुपायताका उपाय अभी तो नही किया जा सकता।
छोटम ज्ञानी पुरुष थे । पदकी रचना बहुत श्रेष्ठ है ।
'साकाररूपसे हरिकी प्रगट प्राप्ति' इस शब्दको मै प्राय प्रत्यक्षदर्शन मानता हूँ । आगे जाकर आपके ज्ञानमे वृद्धि होगी।
लि० आज्ञाकारी रायचन्द।
२५१
बम्बई, जेठ वदी ६, शनि, १९४७ हरीच्छासे जोना है, और परेच्छासे चलना है। अधिक क्या कहे ?
लि. आज्ञाकारी।
२५२
बम्बई, जेठ सुदी, १९४७ अभी छोटमकृत पदसग्रह इत्यादि पुस्तकें पढनेका परिचय रखिये। इत्यादि शब्दसे ऐसी पुस्तकें समझें कि जिनमे सत्सग, भक्ति और वीतरागताके माहात्म्यका वर्णन किया हो ।
जिनमे सत्सगके माहात्म्यका वर्णन किया हो ऐसो पुस्तकें, अथवा पद एव काव्य हो उन्हे वारवार मनन करने योग्य और स्मृतिमे रखने योग्य समझे ।
___ अभी यदि जैनसूत्रोके पढनेको इच्छा हो तो उसे निवृत्त करना योग्य है, क्योकि उन्हे (जनसूत्रोको) पढने, समझनेमे अधिक योग्यता होनी चाहिये, उसके बिना यथार्थ फलको प्राप्ति नही होती । तथापि यदि दूसरी पुस्तकें न हो, तो 'उत्तराध्ययन' अथवा 'सूयगडाग' का दूसरा अध्ययन पढ़ें, विचार ।
२५३ बम्बई, आषाढ सुदी १, सोम, १९४७ जव तक गुरुगमसे भक्तिका परम स्वरूप समझमे नही आया, और उसकी प्राप्ति नही हुई, तब तक भक्तिमे प्रवृत्ति करनेसे अकाल ओर अशुचि दोष होता है।
अकाल और अशुचिका विस्तार बडा है, तो भी सक्षेपमे लिखा है।
( एकात ) प्रभात, प्रथम प्रहर, यह सेव्य भक्तिके लिये योग्य काल है। स्वरूपचिंतनभक्ति सर्व कालमे सेव्य है।
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२४ वाँ वर्ष
२९१ , व्यवस्थित मन सर्व शुचिका कारण है। बाह्य मलादिरहित तन और शुद्ध एव स्पष्ट वाणो यह शुचि है।
वि० रायचद
२५४ वबई, आषाढ सुदी ८, मगल, १९४७ निःशंकतासे निर्भयता उत्पन्न होती है।
___ और उससे निःसंगता प्राप्त होती है प्रकृतिके विस्तारसे जीवके कर्म अनत प्रकारकी विचित्रतासे प्रवर्तन करते है, और इससे दोषके प्रकार भी अनत भासित होते है, परन्तु सबसे बडा दोष यह है कि जिससे 'तीव्र मुमुक्षुता' उत्पन्न ही न हो, अथवा 'मुमुक्षुता' ही उत्पन्न न हो।
प्राय मनुष्यात्मा किसी न किसी धर्ममतमे होता है, और उससे वह धर्ममतके अनुसार प्रवर्तन करता है ऐसा मानता है, परन्तु इसका नाम 'मुमुक्षुता' नही है ।
_ 'मुमुक्षुता' यह है कि सर्व प्रकारकी मोहामक्तिसे अकुलाकर एक मोक्षके लिये ही यत्न करना और _ 'तीव्र मुमुक्षुता' यह है कि अनन्य प्रेमसे मोक्षके मार्गमे प्रतिक्षण प्रवृत्ति करना ।
'तीन मुमुक्षुता' के विषयमे यहाँ कहना नही है परन्तु 'मुमुक्षुता' के विषयमे कहना है, कि वह उत्पन्न होनेका लक्षण अपने दोष देखनेमे अपक्षपातता है और उससे स्वच्छदका नाश होता है ।
स्वच्छदकी जहाँ थोडी अथवा बहुत हानि हुई है, वहाँ उतनी बोधबीज योग्य भूमिका होती है।
स्वच्छद जहां प्राय. दब गया है. वहाँ फिर 'मार्गप्राप्ति' को रोकनेवाले मुख्यत तीन कारण होते हैं, ऐसा हम जानते है।
इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा,' परम दीनताकी न्यूनता और पदार्थका अनिर्णय ।
इन सब कारणोको दूर करनेका बीज अब आगे कहेगे। इससे पहले इन्ही कारणोको अधिकतासे कहते हैं।
... 'इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा' यह प्रायः तीव्र मुमुक्षुताकी उत्पत्ति होनेसे पहले होती है। उसके हानक कारण ये है-नि शकतासे यह 'सत्' है ऐसा दृढ नहीं हुआ है, अथवा यह 'परमानन्दरूप' हो है ऐसा भी निश्चय नही है, अथवा तो मुमुक्षुतामे भी कितने ही आनदका अनुभव होता है, इससे वाह्यसाताके कारण भी कितनी ही बार प्रिय लगते हैं (I) और इससे इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा रहा करती है, जिससे जीवकी योग्यता रुक जाती है।
सत्पुरुषमे ही परमेश्वरबुद्धि, इसे ज्ञानियोने परम धर्म कहा है, और यह बुद्धि परम दीनताको सूचित करती है, जिससे सर्व प्राणियोके प्रति अपना दासत्व माना जाता है और परम योग्यताकी प्राप्ति होतो है । यह 'परम दीनता' जब तक आवरित रही है तब तक जीवकी योग्यता प्रतिवन्धयुक्त होती है।
कदाचित् ये दोनो प्राप्त हो गये हो तथापि वास्तविक तत्त्व पानेकी कुछ योग्यताकी न्यूनताके कारण पदार्थ-निर्णय न हआ हो तो चित्त व्याकुल रहता है, और मिथ्या समता आती है, कल्पित पदार्थम _ 'सत्' को मान्यता होती है, जिससे कालक्रमसे अपूर्व पदार्थमे परम प्रेम नही आता, और यही परम योग्यताकी हानि है।
१ पाठान्तर-परम विनयकी न्यूनता ।
२ पाठान्तर -तथारूप पहचान होनेपर सद्गुरुमें परमेश्वरवृद्धि रखकर उनकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना इसे ___ 'परम विनय' कहा है। इससे परम योग्यताकी प्राप्ति होती है । यह परम विनय जब तक नही आती तव तक जीवमे
योग्यता नहीं आती।
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२९२
श्रीमद राजचन्द्र ये तीनो कारण प्राय हमे मिले हुए अधिकाश मुमुक्षुओमे हमने देखे है। मात्र दूसरे कारणकी कुछ न्यूनता किसी-किसीमे देखी है, और यदि उनमे सर्व प्रकारसे ('परम दीनताकी कमीको) न्यूनता होनेका प्रयत्न हो तो योग्य हो ऐसा जानते है । परम दीनता इन तीनोमे बलवान साधन है, और इन तीनोका बीज महात्माके प्रति परम प्रेमार्पण है।
अधिक क्या कहे ? अनत कालमे यही मार्ग है।
पहले और तीसरे कारणको दूर करनेके लिये दूसरे कारणकी हानि करना और महात्माके योगसे उसके अलौकिक स्वरूपको पहचानना । पहचाननेकी परम तीव्रता रखना, तो पहचाना जायेगा। मुमुक्षुके नेत्र महात्माको पहचान लेते है।
महात्मामे जिसे दृढ निश्चय होता है, उसे मोहासक्ति दूर होकर पदार्थका निर्णय होता है। उससे व्याकुलता मिटती है। उससे नि शकता आती है जिससे जीव सर्व प्रकारके दु खोसे निर्भय हो जाता है और उसोसे नि.सगता उत्पन्न होती है, और ऐसा योग्य है।
__ मात्र आप सब मुमुक्षुओके लिये यह अति सक्षिप्त लिखा है, इसका परस्पर विचार करके विस्तार करना और इसे समझना ऐसा हम कहते हैं ।
हमने इसमे बहुत गूढ शास्त्रार्थ भी प्रतिपादित किया है ।
आप वारवार विचार कीजिये । योग्यता होगी तो हमारे समागममे इस बातका विस्तारसे विचार बतायेंगे।
अभी हमारे समागमका संभव तो नहीं है, परन्तु शायद श्रावण वदीमे करे तो हो, परन्तु वह कहाँ होगा उसका अभी तक विचार नही किया है ।
कलियुग है, इसलिये क्षण भर भी वस्तु विचारके बिना नही रहना यह महात्माओकी शिक्षा है । आप सबको यथायोग्य पहुँचे।
२५५
बबई, आषाढ सुदी १३, १९४७
'सुखना सिंधु श्री सहजानदजी, जगजीवन के जगवदजी।
शरणागतना सदा सुखकदजी, परमस्नेही छो (!) परमानदजी ॥ अपूर्व स्नेहमूर्ति आपको हमारा प्रणाम पहुँचे । हरिकृपासे हम परम प्रसन्न पदमे है । आपका सत्संग निरतर चाहते है।
हमारी दशा आजकल कैसी रहती है, यह जाननेकी आपकी इच्छा रहती है, परंतु यथेष्ट विवरणपूर्वक वह लिखी नही जा सकती, इसलिये वारवार नही लिखी है । यहाँ सक्षेपमे लिखते हैं।
एक पुराणपुरुप और पुराणपुरुषकी प्रेमसपत्तिके बिना हमे कुछ भी अच्छा नही लगता, हमे किसी पदार्थमे रुचि मात्र नही रही है, कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नही होती, व्यवहार कैसे चलता है इसका भान नही है, जगत किस स्थितिमे है इसकी स्मृति नही रहती, शत्रु-मित्रमे कोई भेदभाव नही रहा, कौन शत्रु है और कौन मित्र है, इसका ख्याल रखा नही जाता, हम देहधारी है या नही इसे जब याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते है, हमे क्या करना है, यह किसीसे जाना नही जा सकता, हम सभी पदार्थोसे उदास
१ पाठान्तर-परम विनयकी। २ पाठान्तर-और परम विनयमें रहना योग्य है ।
३ भावार्थ सहजानदस्वरूप परमात्मा सुखके सागर, जगतके आधार, जगतवद्य, सदा शरणागतको सुखने मूल कारण, परम स्नेही और परमानदरूप है।
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२४ वौं वर्ष
२९३ हो जानेसे चाहे जैसे वर्तन करते हैं, व्रत नियमोका कोई नियम नही रखा, जात-पातका कोई प्रसग नही है, हमसे विमुख जगतमे किसीको नही माना, हमारे सन्मुख ऐसे सत्सगी नहीं मिलनेसे खेद रहा करता है, सपत्ति पूर्ण है इसलिये सपत्तिकी इच्छा नहीं है, अनुभूत शब्दादि विषय स्मृतिमे आनेसे-अथवा ईश्वरेच्छासे उनकी इच्छा नही रही है, अपनी इच्छासे थोडी ही प्रवृत्ति की जाती है, हरि इच्छित क्रम जैसे चलाता है वैसे चलते है, हृदय प्राय शून्य जैसा हो गया है, पाँचो इद्रियाँ शून्यरूपसे प्रवृत्त होती रहती हैं । नय, प्रमाण इत्यादि शास्त्रभेद याद नहीं आते, कुछ पढते हुए चित्त स्थिर नही रहता, खानेकी, पीनेकी, बैठनेको, सोनेकी, चलनेकी और बोलनेकी वृत्तियाँ अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करती रहती है, मन अपने अधीन है या नहीं, इसका यथायोग्य भान नही रहा । इस प्रकार सर्वथा विचित्र उदासीनता आनेसे चाहे जैसी प्रवृत्ति की जाती है । एक प्रकारसे पूरा पागलपन है। एक प्रकारसे उस पागलपनको कुछ छिपाकर रखते हैं, और जितना छिपाकर रखा जाता है उतनी हानि है। योग्य प्रवृत्ति करते हैं या अयोग्य इसका कुछ हिसाब नही रखा । आदिपुरुषमे अखड प्रेमके सिवाय दूसरे मोक्षादि पदार्थोकी आकाक्षाका भग हो गया है । इतना सब होते हुए भी मनमानी उदासीनता नही है, ऐसा मानते है । अखड प्रेमखुमारी जैसी प्रवाहित होनी चाहिये वैसी प्रवाहित नही होती, ऐसा समझते है। ऐसा करनेसे वह अखड प्रेमखुमारी प्रवाहित होगी ऐसा निश्चलतासे जानते हैं, परन्तु उसे करनेमे काल कारणभूत हो गया है, और इस सबका दोष हमे है या हरिको है, ऐसा दृढ निश्चय नही किया जा सकता । इतनी अधिक उदासीनता होनेपर भी व्यापार करते हैं, लेते हैं, देते हैं, लिखते है, पढ़ते है, सम्भालते हैं और खिन्न होते हैं, और फिर हँसते है-जिसका ठिकाना नही ऐसी हमारो दशा है। और इसका कारण मात्र यही है कि जब तक हरिकी सुखद इच्छा नही मानी तब तक खेद मिटनेवाला नहीं है।
(अ) समझमे आता है, समझते हैं, समझेंगे, परतु हरि ही सर्वत्र कारणरूप है। जिस मुनिको आप समझाना चाहते है, वह अभी योग्य है, ऐसा हम नही जानते।
हमारी दशा अभी ऐसी नही है कि मद योग्यको लाभ करे, हम अभी ऐसा जजाल नही चाहते, उसे नही रखा, और उन सवका कारोबार कैसे चलता है, इसका स्मरण भी नही है। ऐसा होनेपर भी हमे उन सबकी अनुकपा आया करती है, उनसे अथवा प्राणीमात्रसे मनसे भेदभाव नही रखा, और रखा भी नही जा सकता। भक्तिवाली पुस्तकें कभी कभी पढते है, परन्तु जो कुछ करते है वह सब बिना ठिकानेकी दशासे करते हैं।
___ हम अभी प्राय आपके पत्रोका समयसे उत्तर नही लिख सकते, तथा पूरी स्पष्टताके साथ भी नही लिखते । यह यद्यपि योग्य तो नही है, परन्तु हरिकी ऐसी इच्छा है, जिससे ऐसा करते है। अब जब समागम होगा, तब आपको हमारा यह दोष क्षमा करना पडेगा, ऐसा हमे भरोसा है।
और यह तब माना जायेगा कि जब आपका सग फिर होगा। उस सगकी इच्छा करते है, परन्तु जैसे योगसे होना चाहिये वैसे योगसे होना दुर्लभ हे । आप जो भादोमे इच्छा रखते है, उससे हमारी कुछ प्रतिकूलता नही है, अनुकूलता है। परन्तु उस समागममे जो योग चाहते है, उसे होने देनेकी यदि हरिकी इच्छा होगी और समागम होगा तभी हमारा खेद दूर होगा ऐसा मानते हैं।
दशाका सक्षिप्त वर्णन पढकर, आपको उत्तर न लिखा गया हो उसके लिये क्षमा देनेकी विज्ञापना करता हूँ।
प्रभुकी परम कृपा है । हमे किसीसे भेदभाव नही रहा, किसीके सम्बन्धमे दोषवुद्धि नही आती, मुनिके विषयमे हमे कोई हलका विचार नहीं है, परन्तु हरिको प्राप्ति न हो ऐसी प्रवृत्तिमे वे पडे हैं। अकेला वीजज्ञान ही उनका कल्याण करे ऐसी उनको और दूसरे बहुतसे मुमुक्षुओकी दशा नही है। साथमे 'सिद्धात
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२९४
श्रीमद राजचन्द्र ज्ञान' होना चाहिये। यह सिद्धांतज्ञान' हमारे हृदयमे आवरितरूपसे पडा है। हरीच्छा यदि प्रगट होने देनेकी होगी तो होगा । हमारा देश हरि है, जाति हरि है, काल हरि है, देह हरि है, रूप हरि है, नाम हरि है, दिशा हरि है, सर्व हरि है, और फिर भी इस प्रकार कारोबारमे हैं, यह इसकी इच्छाका कारण है।
ॐ शाति शाति' शातिः।
२५६
___ बबई, आषाढ वदी २, १९४७ "अथाह प्रेमसे आपको नमस्कार" विस्तारसे लिखे हुए दो पत्र आपकी ओरसे मिले । आप इतना परिश्रम उठाते हैं यह हमपर आपकी कृपा है।
इनमे जिन जिन प्रश्नोका उत्तर पूछा है वे समागममे जरूर देंगे। जीवके बढने घटनेके विषयमे, एक आत्माके विषयमे, अनत आत्माके विषयमे, मोक्षके विषयमे और मोक्षके अनत सुखके विषयमे, आपको इस बार समागममे सभी प्रकारसे निर्णय बता देनेका सोच रखा है। क्योकि इसके लिये हमपर हरिकी कृपा हुई है, परन्तु वह मात्र आपको बतानेके लिये, दूसरोके लिये प्रेरणा नही की है।
२५७
बबई, आषाढ वदी ४, १९४७ यहाँ ईश्वरकृपासे आनन्द है । आपका पत्र चाहता हूँ।
बहुत कुछ लिखना सूझता है, परन्तु लिखा नही जा सकता। उनमे भी एक कारण समागम होनेके वाद लिखनेका है। और समागमके बाद लिखने जैसा तो मात्र प्रेम-स्नेह रहेगा, लिखना भी वारंवार आकुल होनेसे सूझता है । बहुतसी धाराएँ बहती देखकर, कोई कुछ पेट देने योग्य मिले तो बहुत अच्छा हो, ऐसा प्रतीत हो जानेसे, कोई न मिलनेसे आपको लिखनेकी इच्छा होती है। परन्तु उसमे उपर्युक्त कारणसे प्रवृत्ति नहीं होती।
जीव स्वभावसे (अपनी समझकी भूलसे) दूषित है, तो फिर उसके दोषकी ओर देखना, यह अनुकंपाका त्याग करने जैसी बात है, और बडे पुरुष ऐसा आचरण करना नही चाहते । कलियुगमे असत्सगसे और नासमझीसे भूलभरे रास्तेपर न जाया जाये, ऐसा होना बहुत मुश्किल है, इस बातका स्पष्टीकरण फिर होगा।
२५८
बबई, आषाढ, १९४७ ॐ सत् *बिना नयन पावे नही, बिना नयनकी बात।
सेवे सद्गुरुके चरन, सो पावे साक्षात् ॥१॥ बूझो चहत जो प्यासको, है बूझनकी रीत ।
पावे नहि गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित ॥२॥ १ देखें आक ८८३ ।
*भावार्य-अतर्दृष्टिके बिना इन्द्रियातीत शुद्ध आत्माकी प्राप्ति नही हो सकती अर्थात् उसका साक्षात्कार नही हो सकता । जो सद्गुरुके चरणोकी उपासना करता है उसे आत्मस्वरूपकी साक्षात् प्राप्ति होती है ॥१॥
___ यदि तू आत्मदर्शनकी प्यासको बुझाना चाहता है तो उसे वुझानेका उपाय है, जिसकी प्राप्ति गुरुसे होती है, यही अनादि कालकी स्थिति है ।।२।।
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२४ वां वर्ष
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एही नहि है कल्पना, एही नहीं विभंग। कई नर पंचमकाळमे, देखो वस्तु अभंग ॥३॥ नहि दे तु उपदेशक, प्रथम लेहि उपदेश। सबसे न्यारा अगम है, वो ज्ञानीका देश ॥४॥ जप, तप और व्रतादि सब, तहाँ लगी भ्रमरूप।. जहाँ लगी नहि सतको, पाई कृपा अनूप ॥५॥ पायाको ए बात है, निज छंदनको छोड़।
पिछे लाग सत्पुरुषके, तो सब बधन तोड ॥६॥ तृषातुरको पिलानेकी मेहनत कीजिये।
अतृषातुरमे तृषातुर होनेकी अभिलाषा उत्पन्न कीजिये । जिसमे वह उत्पन्न न हो सके उसके लिये उदासीन रहिये।
आपका कृपापत्र आज और कल मिला था। स्याद्वादकी पुस्तक खोजनेसे नही मिली। कुछ एक वाक्य अब फिर लिख भेजेंगा।
उपाधि ऐसी है कि यह काम नही होता । परमेश्वरको पुसाता न हो तो इसमे क्या करें? विशेष फिर कभी।
वि० आ० रायचदके प्रणाम
२५९ बबई, श्रावण सुदी ११, बुध, १९४७ परम पूज्यजी,
आपका एक पत्र कल केशवलालने दिया। जिसमे यह बात लिखी है कि निरतर समागम रहनेमे ईश्वरेच्छा क्यो न हो?
सर्वशक्तिमान हरिकी इच्छा सदैव सुखरूप ही होती है, और जिसे भक्तिके कुछ भी अश प्राप्त हुए हैं ऐसे पुरुषको तो जरूर यही निश्चय करना चाहिये कि "हरिकी इच्छा सदैव सुखरूप ही होती है।"
हमारा वियोग रहनेमे भी हरिकी ऐसी ही इच्छा है, और वह इच्छा क्या होगी, यह हमे किसी तरहसे भासित होता है, जिसे समागममे कहेगे।
___ श्रावण वदीमे आपको समय मिल सके तो पाँच-पद्रह दिनके लिये समागमकी व्यवस्था करनेकी इच्छा करूँ।
'ज्ञानधारा' सम्बन्धी मूलमार्ग हम आपसे इस बारके समागममे थोडा भी कहेगे, और वह मार्ग पूरी तरह इसी जन्ममे आपसे कहेगे यो हमे हरिकी प्रेरणा हो ऐसा लगता है।
___ यह उपायको वात न तो कल्पना है और न ही असत्य-मिथ्या है। इसी उपायसे इस पचम कालमें अनेक सत्पुरुषोने अभग वस्तु-अविनाशी आत्माके दर्शनसे अपने जीवनको कृतार्थ किया है ॥३॥
तू दूसरेको उपदेश न दे, तुझे तो पहले अपने आत्मवोधके लिये उपदेश लेनेकी जरूरत है। ज्ञानीका देश तो सबसे न्यारा और अगोचर है अर्थात् ज्ञानीका निवास तो आत्मामें है ।।४॥
__ जब तक सतकी अनुपम कृपा प्राप्त नहीं होती तव तक जप, तप, व्रत, नियम आदि सभी साधन भ्रमरूप है अर्थात् गुरु से जप, तप आदिका रहस्य समझकर उनकी आज्ञासे ही इनकी आराधना सफल होती है ॥५॥
सत (गुरु) कृपाकी प्राप्तिका यह मूल माघार है कि तू स्वच्छन्दको छोड दे, और सत्पुल्पका अनुयायी वन जा, तो सभी कर्मवधन तोडकर तु मोक्षको प्राप्त होगा ।।६।।
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श्रीमद राजचन्द्र आपने हमारे लिये जन्म धारण किया होगा, ऐसा लगता है। आप हमारे अथाह उपकारी हैं । आपने हमे अपनी इच्छाका सुख दिया है, इसके लिये हम नमस्कारके सिवाय दूसरा क्या वदला दें?
परन्तु हमे लगता है कि हरि हमारे हाथसे आपको पराभक्ति दिलायेंगे, हरिके स्वरूपका ज्ञान करायेंगे, और इसे ही हम अपना वडा भाग्योदय मानेगे।
हमारा चित्त तो बहुत हरिमय रहता है परन्तु सग सव कलियुगके रहे हैं। मायाके प्रसंगमे रात दिन रहना होता है, इसलिये पूर्ण हरिमय चित्त रह सकना दुर्लभ होता है, और तब तक हमारे चित्तका उद्वेग नही मिटेगा।
हम ऐसा समझते हैं कि खभातवासी योग्यतावाले जीव है, परतु हरिकी इच्छा अभी थोडा विलब करनेकी दिखायी देती है। आपने दोहे इत्यादि लिख भेजे यह अच्छा किया। हम तो अभी किसीकी सम्भाल नही ले सकते । अशक्ति बहुत आ गयी है, क्योकि चित्त अभी बाह्य विषयमे नही जाता ।
लि० ईश्वरार्पण।
२६०
ववई, श्रावण सुदी ९, गुरु, १९४७ आपने नथुरामजीको पुस्तकोके विपयमे तथा उनके बारेमे लिखा, वह मालूम हुआ। अभी कुछ ऐसा जाननेमे चित्त नही है । उनको एक दो पुस्तकें छपी हैं, उन्हे मैने पढा है ।
चमत्कार बताकर योगको सिद्ध करना, यह योगीका लक्षण नही है। सर्वोत्तम योगी तो वह है कि जो सर्व प्रकारको स्पृहासे रहित होकर सत्यमे केवल अनन्य निष्ठासे सर्वथा 'सत्' का ही आचरण करता है, और जिसे जगत विस्मृत हो गया है । हम यही चाहते है ।
२६१
बंबई, श्रावण सुदी ९, गुरु, १९४७ पत्र पहुंचा।
आपके गाँवसे (खभातसे) पाँच-सात कोसपर क्या कोई ऐसा गाँव है कि जहाँ अज्ञातरूपसे रहना हो तो अनुकूल आये? जहाँ जल, वनस्पति और सप्टिरचना ठीक हो, ऐसा कोई स्थल यदि ध्यानमे हो तो लिखें।
जैनके पर्यंपणसे पहले और श्रावण वदी १ के बाद यहाँसे कुछ समयके लिये निवृत्त होनेकी इच्छा है।
जहाँ हमे लोग धर्मके सम्बन्धसे भी पहचानते हो ऐसे गाँवमे अभी तो हमने प्रवृत्ति मानी है, जिससे अभी खभात आनेका विचार सम्भव नही है।
अभी कुछ समयके लिये यह निवृत्ति लेना चाहता हूँ। सर्व कालके लिये (आयुपर्यंत) जब तक निवृत्ति प्राप्त करनेका प्रसग न आया हो तब तक धर्मसंबधसे भी प्रगटमे आनेकी इच्छा नही रहती।
जहाँ मात्र निर्विकारतासे (प्रवृत्ति रहित) रहा जाये, और वहाँ जरूरत जितने (व्यवहारकी प्रवृत्ति देखे ।) दो एक मनुष्य हो इतना बहुत है। क्रमपूर्वक आपका जो कुछ समागम रखना उचित होगा, वह रखेंगे। अधिक जजाल नही चाहिये । उपर्युक्त बातके लिये साधारण व्यवस्था करना । ऐसा नही होना चाहिये कि यह बात अधिक फैल जाये।
___ भवितव्यताके योगसे अभी यदि मिलना हुआ तो भक्ति और विनयके विषयमे सुज्ञ त्रिभोवनने जो पत्रमे पूछा है उसका समाधान करूंगा।
आपके अपने भी जहाँ अधिक (हो सके तो एक भी नही) परिचित न हो ऐसे स्थानके लिये व्यवस्था हो तो कृपा मानेंगे।
लि. समाधि
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२४ वा वर्ष
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२६२
बबई, श्रावण सुदी, १९४७ उपाधिके उदयके कारण पहुँच देना नहीं हो सका, उसके लिये क्षमा करें। यहाँ हमारी उपाधिके उदयके कारण स्थिति है । इसलिये आपको समागम रहना दुर्लभ है।
इस जगतमे, चतुर्थकाल जैसे कालमे भी सत्सगकी प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है, तो इस दुषमकालमे उसकी प्राप्ति परम दुर्लभ होना सम्भव है, ऐसा समझकर जिस जिस प्रकारसे सत्संगके वियोगमे भी आत्मामे गुणोत्पत्ति हो उस उस प्रकारसे प्रवृत्ति करनेका पुरुषार्थ वारवार, समय समय पर और प्रसग प्रसंगपर करना चाहिये, और निरतर सत्सगकी इच्छा, असत्संगमे उदासीनता रहनेमे मुख्य कारण वैसा पुरुषार्थ है, ऐसा समझकर जो कुछ निवृत्तिके कारण हो उन सब कारणोका वारवार विचार करना योग्य है।
हमे यह लिखते हुए ऐसा स्मरण होता है कि "क्या करना ?" अथवा "किसी प्रकारसे नही हो पाता ?" ऐसा विचार आपके चित्तमे वारवार आता होगा, तथापि ऐसा योग्य है कि जो पुरुष दूसरे सब प्रकारके विचारोको अकर्तव्यरूप जानकर आत्मकल्याणमे उत्साही होता है, उसे, कुछ नही जाननेपर भी, उसी विचारके परिणाममे जो करना योग्य है, और किसी प्रकारसे नही हो पाता , ऐसा भासमान होनेपर उसके प्रकट होनेकी स्थिति जीवमे उत्पन्न होती है, अथवा कृतकृत्यताका साक्षात् स्वरूप उत्पन्न होता है।
_दोष करते हैं ऐसी स्थितिमे इस जगतके जीवोके तीन प्रकार ज्ञानी पुरुषने देखे हैं। (१) किसी भी प्रकारसे जीव दोष या कल्याणका विचार नहीं कर सका, अथवा करनेकी जो स्थिति है उसमे वेभान है, ऐसे जीवोका एक प्रकार है । (२) अज्ञानतासे, असत्सगके अभ्याससे भासमान बोधसे दोष करते है उस क्रियाको कल्याणस्वरूप माननेवाले जीवोका दूसरा प्रकार है। (३) उदयाधीनरूपसे मात्र जिमकी स्थिति है, सर्व परस्वरूपका साक्षी है ऐसा बोधस्वरूप जीव, मात्र उदासीनतासे कर्ता दिखायी देता है, ऐसे जीवोका तीसरा प्रकार है।
___ इस तरह ज्ञानी पुरुषने तीन प्रकारका जीव-समूह देखा है। प्रायः प्रथम प्रकारमे स्त्री, पुत्र, मित्र, धन आदिकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रकारमे तदाकार-परिणामी जैसे भासित होनेवाले जीवोका समावेश होता है । भिन्न-भिन्न धर्मोकी नामक्रिया करनेवाले जीव, अथवा स्वच्छद-परिणामी परमार्थमार्गपर चलते हैं ऐसी बुद्धि रखनेवाले जीवोका दूसरे प्रकारमे समावेश होता है। स्त्री, पुत्र, मित्र, धन आदिकी प्राप्तिअप्राप्ति इत्यादि भावमे जिन्हे वैराग्य उत्पन्न हुआ है अथवा हुआ करता है; जिनका स्वच्छद-परिणाम गलित हुआ है, और जो ऐसे भावके विचारमे निरन्तर रहते हैं, ऐसे जीवोका समावेश तीसरे प्रकारमे होता है। जिस प्रकारसे तीसरा प्रकार सिद्ध हो ऐसा विचार है। जो विचारवान है उसे यथावुद्धिसे, सद्ग्रन्थसे और सत्संगसे वह विचार प्राप्त होता है, और अनुक्रमसे दोषरहित स्वरूप उसमे उत्पन्न होता है। यह बात पुन. पुन सोते जागते और भिन्न-भिन्न प्रकारसे विचार करने, स्मरण करने योग्य है।
२६३
राळज, भादो सुदी ८, शुक्र, १९४७ वियोगसे हुए दु.खके सम्बन्धमे आपका एक पत्र चारेक दिन पहले प्राप्त हुआ था। उसमे प्रदर्शित इच्छाके विषयमे थोडे शब्दोमे बताने जितना समय है, वह यह है कि आपको जैसी ज्ञानकी अभिलापा है वैसी भक्तिकी नहीं है। प्रेमरूप भक्तिके विना ज्ञान शून्य ही है, तो फिर उसे प्राप्त करके क्या करना हे ? जो रुका है वह योग्यताको न्यूनताके कारण है, और आप ज्ञानीकी अपेक्षा ज्ञानमे अधिक प्रेम रखते हैं उसके कारण है। ज्ञानोसे ज्ञानकी इच्छा रखनेकी अपेक्षा वोधस्वरूप समझकर भक्ति चाहना परम फल है। अधिक क्या कहे ?
मन, वचन और कायासे आपके प्रति कोई भी दोष हुआ हो, तो दीनतापूर्वक क्षमा मांगता हूँ।
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२९८
श्रीमद् राजचन्द्र ईश्वर जिसपर कृपा करता है उसे कलियुगमे उस पदार्थकी प्राप्ति होती है। महा विकट है। कल यहाँसे रवाना होकर ववाणियाकी ओर जाना सोचा है।
२६४
राळज, भादो सुदी ८, १९४७ (दोहे) * हे प्रभु! हे प्रभु! शुं कहुं, दीनानाथ दयाळ । हुं तो दोष अनतर्नु, भाजन छु करुणाळ ॥१॥ शुद्ध भाव मुजमां नथी, नथी सर्व तुजरूप । नथी लघुता के दीनता, शुं कहुं परमस्वरूप ? ॥२॥ नथी आज्ञा गुरुदेवनी, अचळ करी उरमांहीं। आप तणो विश्वास दृढ, ने परमादर नाहीं ॥३॥ जोग - नथी सत्संगनो, नथी सत्सेवा जोग । केवळ अर्पणता नथी, नथी आश्रय अनुयोग ॥४॥ 'हुँ पामर शुं करी शकु ?' एवो नयी विवेक । चरण शरण धीरज नथी, मरण सुधीनी छेक ॥५॥ अचित्य तुज माहात्म्यनो, नथी प्रफुल्लित भाव। अंश न एके स्नेहनो, न मळे परम प्रभाव ॥६॥ अचळरूप आसक्ति नहि, नहीं विरहनो ताप। कथा अलभ तुज प्रेमनी, नहि तेनो परिताप ॥७॥ भक्तिमार्ग प्रवेश नहि, नहीं भजन- दृढ भान।,
समज नहीं निज धर्मनी, नहि शुभ देशे स्थान ॥८॥ *भावार्य हे प्रभु । हे दयालु दीनानाथ ! क्या कहूँ ? हे करुणानिधि | मैं तो अनत दोषोका भाजन हूँ॥१॥
मुझमें शुद्ध भाव नही है । मुझे सबमें तेरे रूपका दर्शन नही होता । न तो मुझमें लघुता है और न ही दीनता है । हे सहजात्मस्वरूप परमात्मा । मैं अपनी अपात्रताका क्या वर्णन करूं ? ॥२॥
मैंने गुरुदेवकी आज्ञाको अपने हृदयमें दृढ़ नही किया है। मुझमें न तो आपके प्रति दृढ़ विश्वास है और न ही परम आदर है ॥ ३॥
मुझे न तो सत्सगका योग प्राप्त है और न ही सत्सेवाका । फिर मुझमें सर्वथा समर्पणकी भावना भी नही है, ओर मुझे द्रव्यानुयोग आदि शास्त्रोका आश्रय भी प्राप्त नही है ॥ ४ ॥
__ 'मैं कर्मबद्ध पामर क्या कर सकता हूँ?" ऐसा विवेक मुझमें नही है। और मुझमें ठेठ मरणपर्यंत आपके चरणोकी शरणका धैर्य नही है ॥ ५॥ ।
आपका माहात्म्य अचिंत्य एव अद्भुत है, परन्तु उसके लिये मुझमें कोई उल्लास नही है । उसके प्रति अनन्य प्रेमका एक अश भी मुझमें नही है । इसीलिये उसके परम प्रभावसे वचित रहा हूँ ॥ ६ ॥
आपमें मेरी निश्चल आसक्ति नहीं है, और आपके विरहका सताप एव खेद नही है। आपके निष्कारण प्रेमकी गुणगाथाका श्रवण अत्यन्त दुर्लभ हो गया है, इसका सताप तथा खेद नही रहता ॥ ७॥
मेरा भक्तिमार्गमें प्रवेश नही है, और मुझे भजनकीर्तनका दृढ़ भान नही है। मैं निजधर्म अर्थात् आत्मस्वभावको नही समझता है, और शम देशमें मेरा स्थान नही है ॥८॥
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२४ वा वर्ष
२९९ काळदोष कळियो थयो, नहि मर्यादाधर्म। तोय नहीं व्याकुळता, जुओ प्रभु मुज कर्म ॥९॥ सेवाने प्रतिकूळ जे, ते बंधन नथी त्याग। देहेन्द्रिय माने नहीं, करे बाह्य पर राग ॥१०॥ तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयन यम नाहीं। नहि उदास अनभक्तथो, तेम गृहादिक मांहीं ॥११॥ अहंभावथो रहित नहि, स्वधर्म संचय नाहीं। नथी निवृत्ति निर्मळपणे, अन्य धर्मनी कांई ॥१२॥ एम अनन्त प्रकारथी, साधन रहित हुंय । नहीं एक सद्गुण पण, मुख बतावं शुंय ? ॥१३॥ केवळ करुणामूर्ति छो, दीनबन्धु दीननाथ । पापी परम अनाथ छु, ग्रहो प्रभुजी हाथ ॥१४॥ अनन्त काळथी आथड्यो, विना भान भगवान । सेव्या नहि गुरु सन्तने, मूक्यु नहि अभिमान ॥१५॥ सन्त चरण आश्रय विना, साधन कर्यां अनेक । पार न तेथी पामियो, ऊग्यो न अंश विवेक ॥१६॥ सहु साधन बन्धन थया, रह्यो न कोई उपाय ।
सत् साधन समज्यो नही, त्यां बधन शुं जाय ? ॥१७॥ कलिकालसे काल दूपित हो गया है, और मर्यादाधर्म अर्थात् आज्ञा-आराधनरूप धर्म नही रहा है। फिर भी मुझमें व्याकुलता नही है । हे प्रभु । मेरे कर्मको बहुलता तो देखें ॥९॥
सत्सेवाके प्रतिकूल जो बघन है उनका मैंने त्याग नहीं किया है। देह और इन्द्रियों मेरे वशमें नहीं है, और वे वाह्य वस्तुओमें राग करती रहती हैं ॥ १० ॥
तेरे वियोगका दु ख अखरता नहीं है, वाणी और नेत्रोका सयम नही है अर्थात् वे भौतिक विषयोमें अनुरक्त है । हे प्रभु! आपके जो भक्त नही है उनके प्रति और गृहादि सासारिक बन्धनोके प्रति में उदासीन नही हूँ ॥ ११ ॥
मैं अहभावसे मुक्त नही हुआ हूँ, इसलिये स्वभावरूप निजधर्मका सचय नही कर पाया हूँ, और मैं निर्मल भावसे परभावरूप अन्य धर्मसे निवृत्त नही हुआ हूँ ॥ १२ ॥
इस तरह मैं अनत प्रकारसे साधन रहित हूँ। मुझमें एक भी सद्गुण नहीं है। इसलिये हे प्रभु । मैं अपना मुँह आपको क्या बताऊँ ? ॥ १३ ॥
हे प्रभु ! आप तो दीनवधु और दोननाय हैं, तथा केवल करुणामूर्ति है, और मैं परम पापी एव अनाथ हूँ, जाप मेरा हाथ पकड़ें और उद्धार करें ॥ १४ ॥
हे भगवन् । मैं आत्मभानके विना अनतकालसे भटक रहा हूं। मैंने आत्मज्ञानी सतको सद्गुरु मानकर निष्ठापूर्वक उसकी उपासना नही की है और अभिमानका त्याग नही किया है ॥ १५ ॥
मने सतके चरणोके आश्रयके बिना साधन तो अनेक किये है, परन्तु सदसत् तया हेयोपादेयके विवेकके अश मामका भी उदय नही हुआ, जिससे विषम एव अनत ससार परिभ्रमणका अत नहीं हुआ है ॥ १६ ॥
हे प्रभु ! सभी साधन तो वधन हो गये है, और कोई उपाय शेष नहीं रहा है। जब मैं सत् साधनको हो न समस पाया तो फिर मेरा बधन कैसे दूर होगा? ॥ १७ ॥
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३००
श्रीमद् राजचन्द्र प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पज्यो न सवगुरु पाय । दौठा नहि निज दोष तो, तरीए कोण उपाय ?॥१८॥ अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हंय।। ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुय? ॥१९॥ पडी पडी तुज पदपंकजे, फरी फरी मागुं एज। सद्गुरु सन्त स्वरूप तुज, ए दृढ़ता करी दे ज ॥२०॥
२६५
राळज, भादो सुदी ८, १९४७ ॐ सत्
( तोटक छद) + यमनियम संजम आप कियो, पुनि त्याग बिराग अथाग लह्यो।
वनवास लियो मुख मौन रह्यो, दृढ आसन पद्म लगाय दियो ॥१॥ मन पौन निरोध स्वबोध कियो, हठजोग प्रयोग सु तार भयो। जप भेद जपे तप त्यौंहि तपे, उरसेंहि उदासी लही सबपें ॥२॥ सब शास्त्रनके नय धारि हिये, मत मंडन खंडन भेद लिये। वह साधन बार अनन्त कियो, तदपि कछु हाथ हजुन पर्यो ॥३॥ अब क्यों न विचारत है मनसें, कछु और रहा उन साधनसे ?। बिन सद्गुरु कोय न भेद लहे, मुख आगल हैं कह बात कहे ? ॥४॥ करुना हम पावत हे तुमको, वह बात रही सुगुरु गमकी। पलमे प्रगटे मुख आगलसें, जब सद्गुरुत्तर्न सुप्रेम बसें ॥५॥ तनसें, मनसें, धनसें, सबसें, गुरुदेवकी आन स्वमात्म बसें। तव कारज सिद्ध बने अपनो, रस अमृत पावहि प्रेम घनो ॥६॥ वह सत्य सुधा दरशावहिंगे, चतुरांगुल हे दृगसे मिलहे। रस देव निरंजन को पिवही, गहि जोग जुगोजुग सो जीवही ॥७॥ पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभुसे, सब आगमभेव सुउर बसें। वह केवलको बीज ग्यानि कहे, निजको अनुभौ बतलाई दिये ॥८॥
हे प्रभु । मुझे तेरी ही लगन नही लगी, मैंने सद्गुरुके चरणकी शरण नही ली, और अभिमान आदि अपने दोष मुझे दिखायी नही दिये, तो फिर मै किस उपायसे ससारसागरको पार कर सकूगा? ॥ १८॥
मैं ही समस्त जगतमें अघमाघम और महा पतित हूँ, यह निश्चय हुए विना साधन किस तरह सफल होगे ? ॥ १९ ॥
हे भगवन् ! तेरे चरणकमलमें वारवार गिर-गिरकर यही माँगता हूँ कि सद्गुरु एव सत तेरा ही स्वरूप है और परमार्थसे वही मेरा स्वरूप है, ऐसा दृढ़ विश्वास मुझमें उत्पन्न कर दे ॥ २० ॥
+ इसका विशेषार्थ 'नित्यनियमादि पाठ ( भावार्थ सहित )' में देखें।
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श्रीमद् राजचन्त । -मूळ द्रव्य उत्पन्न नहि, नहीं नाश पण तेम।
अनुभवथी ते सिद्ध छे, भाखे जिनवर एम ॥९॥
होय तेहनो नाश नहि, नहीं तेह नहि होय। } }" ? : एक.. समय-ते सौ ,समय, भेद अवस्था जोय ॥१०॥ (२) परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम ज्ञान सुखधाम।
'जेणे आप्यु भानं निर्ज, तेने सदा प्रणाम ॥१॥
राळज, भाद्रपद, १९४७
.... . .. २६७ .
". " ( हरिगीत )-": ।। * जिनवर कहे छे ज्ञान तेने सर्व भव्यो सांभळो।
, , जो होय पूर्व भणेल नव पण, जीवने जाण्यो नहीं,
तो सर्व ते अज्ञान भाख्यं, साक्षी छे आगम अहीं। ए पूर्व सर्व का विशेषे, जीव करवा .निर्मळो,
जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो॥१॥ , - नहि ग्रंथमाही ज्ञान भाख्यं, ज्ञान नहि कविचातुरी,
नहि मंत्र तंत्रो ज्ञान दाख्या, ज्ञान नहि भाषा ठरी।
नहि अन्य स्थाने ज्ञान भाख्यु, ज्ञान ज्ञानीमां कळो,
_ जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥२॥.. rari
आ जीव ने,आ, देह एवो,, भेद जो भास्यो नहीं, .. 11: (:)
पचखाण कोधां त्यां सुधी, मोक्षार्थ ते भाख्यां नहीं : नि: "इस विश्वमें जीव, पुद्गल आदि छ मूल द्रव्योको किसीने उत्पन्न नहीं किया है. अनादिसे स्वयसिद्ध हैं, और इनका कभी नाश भी नही होगा । यह सिद्धात अनुभवसिद्ध है ऐसा र्जिन भगवानने 'कहा है ।। ९ ।। " '५ । जिन द्रव्योंका अस्तित्व है उनका नाश कभी "सभव नहीं है और जो द्रव्य पदार्थ नहीं है, उसकी उत्पत्ति सभव नही है । जिस द्रव्यका अस्तित्व एक समयके लिये हैं उसका अस्तित्व सौ समय अर्थात् सदाके लिये है। परन्तु "मात्र द्रव्यफी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ 'वंदलती रहती हैं और मूलत' उसका नाश कदापि नही होता ॥ १० ॥
rsst-r. (२) परम पुरुष' सद्गुरु भगवान परम ज्ञान तथा' सुखके घाम हैं। जिन्होने इस- पामरको अपने स्वरूपका भान करानेका परम अनुग्रह किया, उन करुणामूर्ति सद्गुरुको 'परम 'भक्तिसे प्रणाम करता है ॥१॥ "''' TECH भावार्थ-जिनवर जिसे 'ज्ञान कहते हैं उसे 'हे सर्व भव्यजनी आप ध्यानपूर्वक सूनें। P F
___ यदि जीवने अपने आत्मस्वरूपको नही 'जाना, फिर चाहे उसने नव पूर्व जितना शास्त्राभ्यास किया हो तो उस सारे ज्ञानको आगममें अज्ञान ही कहा है अर्थात् आत्मतत्त्वके वोषके विना 'समस्त शास्त्राभ्यास' व्यर्थ ही है। भगवानने पूर्व आदिका ज्ञान विशेषतं इसलिये प्रकाशित किया है कि जीव अपने अज्ञान एव रागद्वेषादिको दूर कर अपने निर्मल आत्मतत्त्वको प्राप्तकर कृतकृत्य हो जायें । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे "सुनें ।। १ ।।
"किसी अन्यमे नही बताया है। काव्यरचनारूप कविको धतुराईमें भी 'ज्ञान नही है, अनेक प्रकारके मत्र 'सामना भान नही है। और भाषाशानी वाक्पटुता, वक्तृत्व आदि भी ज्ञान नहीं हैं और किसी अन्य
।मानकी प्राnि हो होती है ििजमार जिसे ज्ञान कहते है उसे सुने ॥२॥
T
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३०२
श्रीमद् राजचन्द्र मूळ द्रव्य उत्पन्न नहि, नहीं नाश पण तेम। अनुभवथी ते सिद्ध छे, , भाखे जिनवर एम ॥९॥
होय तेहनो नाश, नहि, नही तेह नहि होय। । 11. एक, समय ते सौ ,समय, भेदः अवस्था जोय ॥१०॥ (२) 'परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम ज्ञान सुखधाम ।
. जेणे आप्यु भान' निज, तेने "सदा प्रणाम ॥१॥
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राळज, भाद्रपद, १९४७
.. .( हरिगीत ) ", । * जिनवर कहे छे. ज्ञान तेने सर्व भव्यो सांभळो।
जो होय पूर्व भणेल नव पण, जीवने जाण्यो नहीं, तो सर्व ते अज्ञान भाड्यु, साक्षी, छे आगम अही। . ए पूर्व सर्व कह्या विशेष, जीव करवा निर्मळो, "जिनवर कहे 'छे जान तेने, सर्व, भव्यो सांभळो ॥१॥ नहि ग्रंथमाही ज्ञान भाख्यं, ज्ञान नहि कविचातुरी, नहि मंत्र तंत्रो ज्ञान दाख्या, ज्ञान नहि भाषा ठरी।
नहि अन्य स्थाने ज्ञानं भाख्यु, ज्ञान ज्ञानोमां कळो,
" *जिनवर 'कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो साभळो ॥२॥.. iif. . ;आ जीव ने,आ.; देह एवो, भेद जो भास्यो नहीं; - , --:.,) - पचखाण कीयां त्यां सुधी; मोक्षार्थ ते भाख्यां नहीं
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a ti -7 इस विश्वमें जीव, पुद्गल आदि छः मूल द्रव्योको किसीने उत्पन्न नहीं किया है। अनादिसे स्वयसिद्ध है, और इनका कभी नाश भी नही होगा। यह सिद्धात अनुभवसिद्ध है ऐसा जिन भगवानने कहा है॥९॥ 192 * * rais जिन द्रव्योंका अस्तित्व है उनको नाश'कभी संभव नहीं है, और जो द्रव्य पदार्थ नहीं है, उसकी उत्पत्ति सभव नही है । जिस द्रव्यका अस्तित्व एक समयके लिये है उसको अस्तित्व' सो समय अर्थात् सदाके लिये है। परन्तु मात्र द्रव्यफी भिन्न-भिन्न अवस्थाएं बदलती रहती है और म्लत उसका नाश कदापि नही होता ॥ १४ ॥
गन(२) परम पुरुष"सद्गुरु भगवान परम ज्ञान तथा सुखके घाम हैं । "जिन्होने 'इस- पामरको अपने स्वरूपका भान करानेका परम अनुग्रह किया, उन करुणामति सद्गुरुको परम 'भक्तिसे' प्रणाम करता है॥१॥ Pri" / i:55 * भावार्थ-जिनवरं जिसे 'ज्ञान कहते है। उसे हे सर्व भव्यजनो आप ध्यानपूर्वक सुनें।
यदि जीवने अपने आत्मस्वरूपको नही जाना, फिर चाहे उसने नव पूर्व जितना शास्त्राभ्यास किया हो तो उस सारे ज्ञानको आगममें अज्ञान ही कहा है अर्थात् आत्मतत्त्वके वोधके विना 'समस्त शास्त्राभ्यास' व्यर्थ ही है । भगवानने पूर्व आदिका ज्ञान विशेषतः इसलियों प्रकाशित किया है कि जीव" अपने अज्ञान एवं रागद्वेषादिको दूर कर अपने निर्मल आत्मतत्त्वको प्राप्तकर कृतकृत्य हो जाय। जिनवर जिसे ज्ञान कहते है उसे "सुनें ।। १|
ज्ञानको किसी अन्यमे नही बताया है। काव्यरचनारूप कविकी चतुराईमे भी ज्ञान नहीं है, अनेक प्रकारके मत्र, तत्र आदिकी साधना ज्ञान नही है, और भाषाज्ञान वाक्पटुता, वक्तृत्व आदि भी ज्ञान नही है और किसी अन्य स्थानमें ज्ञान नही है । ज्ञानकी प्राप्ति तो ज्ञानीसे ही होती है। जिनवर जिसे ज्ञान कहते है उसे सुर्ने॥२॥
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२४ वाँ वर्ष ए, पांचमे अंगे कहो, उपदेश केवळ निर्मळो. जिनवर कहे के ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥३॥ केवळ नहीं ब्रह्मचर्यथी, · · ... : केवळ नहीं संयम थकी, पण ज्ञान केवळथी कळो, जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥ ४॥ शास्त्रो विशेष सहित पण जो, जाणियु निजरूपने, का तेहवो आश्रय करजो, भावथी साचा मने ....:
तो ज्ञान तेने भाखियु, जो सम्मति आदि, स्थळो,, , , , , , T:- "जिनवर कहे. छ, ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥५॥
आठ समिति जाणीए जो, ज्ञानीना परमार्थयो, तो ज्ञान भाख्यु तेहने, “अनुसार ते मोक्षार्थथी;.. निज कल्पनाथी कोटि शास्त्रो, मात्र मननो आमळो, ' .
जिनवर कहे' छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥६॥", "
. चार वेद पुराण आदि शास्त्र सौ मिथ्यात्वनां, , Katri श्रीनन्दीसत्रे भाखिया छे, भेद ज्यां सिद्धान्तना; - : :. :
पण' ज्ञानीने ते ज्ञान भास्यां, ए ज ठेकाणे ठरो, .
.जिनवर कहें छे ज्ञान, तेने, सर्व भव्यो सांभळो॥७॥ । यह जीव है ओर यह देह है ऐसा भेदज्ञान यदि नही हुआ है"अर्थात जड देहसे भिन्न चैतन्यस्वरूप अपने आत्माका जब तक प्रत्यक्ष अनुभव नही हुआ है तब तक पच्चक्खाण' या व्रत आदिका अनुष्ठान मोक्षसाधकं नही होता । आत्मज्ञानके अनतर हो यथार्थ त्याग होता है और उससे मोक्षसिद्धि होती है। पांचवें अग श्री भगवतीसूत्रमें इस विषयका निर्मल बोध दिया है । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे सुनें ॥ ३ ॥ - '' पॉर्च महाव्रतोमें ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत है, परन्तु केवल उससे भी ज्ञान नहीं होता । उपलक्षणसे पांच महाव्रतोको घारणकर सर्व विरतिरूप सयम ग्रहण करनेसे भी ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती। देहादिसे भिन्न केवल शुद्ध आत्माके ज्ञानको ही भगवानने सम्यग्ज्ञान, कहा है, जिनवर जिसे ज्ञान कहते है उसे सुनें ।। ४ । ,
शास्त्रोंके विशिष्ट एव विस्तृत ज्ञानसहित जिसने अपने-स्वरूपको जान लिया है, अनुभव किया है वह साक्षात् ज्ञानी है और उसका ज्ञान यथार्थ सम्यग्ज्ञान है । और वैसा अनुभव जिसे नही हुआ है परन्तु जिसे उसको तीव्र इच्छा हे और तदनुसार जो सच्चे. मनसे मात्र आत्मार्थके लिये अनन्य प्रेमसे वैसे ज्ञानीकी आज्ञाका, आराधन करनेमें सलग्न रहता है वह भी शीघ्र ज्ञानप्राप्ति कर सकता है और उसका ज्ञान भी- यथार्थ माना गया है। सन्मतितर्कः आदि शास्त्रोमें इस वातका प्रतिपादन किया है। ज्ञानीसे ही ज्ञानप्राप्ति होती है इसीको भगवानने ज्ञान कहा है। जिनवर जिसें ज्ञान कहते हैं उसे सुनें ॥५॥ .., . ,
यदि आठ ममिति, (तीन गुप्ति और पांच समिति) का रहस्य ज्ञानीसे समझा जाये तो वह मोक्षसाधक होनेसे ज्ञान कहा जाता है। परन्तु अपनी कल्पनासे करोडो शास्त्रोका ज्ञान भी वीजज्ञान किंवा स्वस्वरूपज्ञानरहित होनेसे अज्ञान हो है । और वह ज्ञान मात्र अहका सूचक एव पोषक है । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे : सुनें ॥ ६ ॥
श्री नदीसूत्रमें जहां सिद्धातके भेद बताये हैं वहां चार वेद तया पुराण आदिको मिथ्यात्वके शास्त्र कहा है। किन्तु वे भी आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टि होनेसे ज्ञानरूप प्रतीत होते हैं। इसलिये आत्मज्ञानीकी उपासना ही श्रेयस्कर है । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे""सुनें ॥ ७॥
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श्रीमद राजचन्द्र
व्रत नहीं पचखाण नहि, नहि त्याग वस्तु कोईनो, * महापद्म तीर्थंकर यशे, श्रेणिक ठाणंग जोई. लो; छेद्यो अनन्ता
( प्रश्न ) 'फलदय झीश खादी इश्री' ? ओये झोश, झषे खा ? थेपे फयार खेय ?
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प्रथम जीव क्यांशी आव्यो
अन्ते जीव जशे क्यां तेने पमाय केम ?
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भागल
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तरह दूसरे शब्द भी बन जाते हैं।
२- पहले जीव कहाँसे आया ? अन्तमे जीव कहाँ जायेगा उसे कैसे पाया जाये ?
अन्तिम स्पष्टीकरण यह है कि अब इनमेसे जो जो प्रश्न खड़े हों उनका विचार करें तो उत्तर मिल जायेगा, अथवा हमे पूछ लें तो स्पष्टीकरण कर देंगे । (ईश्वरेच्छा होगी तो । )
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वाणिया, भाद्रपद वदी ३, सोम, १९४७ ईश्वरेच्छा होगी तो प्रवृत्ति होंगी, और उसे सुखदायक मान लेंगे, परन्तु मनमाने - सत्संगके बिना 'कालक्षेप होना दुष्कर' है'। मोक्षकी अपेक्षा हमें सतकी चरणसमीपता बहुत प्रिय है, परन्तु उस हरिकी इच्छाके आगे हम दीन हैं । पुनः पुन. आपकी स्मृति होती है ।
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राळज, भाद्रपद, १९४७
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( उत्तर )
"आत्रल' 'नायदी (ब्लीयथ् फुलुसोध्यययांदी ।)
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, हघुलुदी ।
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अक्षर धामी ( श्रीमत् पुरुषोत्तममांथी ।) जशे त्यां । सद्गुरुथी ।
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ॐ सत् ज्ञान वही कि अभिप्राय एक ही हो; थोडा अथवा बहुत प्रकाश, परन्तु प्रकाश एक ही है शास्त्रादिके ज्ञानसे निबटारा नहीं है परन्तु अनुभव ज्ञानसे निबटारा है ।
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} 1361ery wes is fm कला ं श्रेणिक महाराजने अनाथी मुनिसे समकित प्राप्त किया । " तथारूप पूर्व प्रारसे व थोडा भी व्रत पच्चक्खाण 7, PS They या त्याग न कर सके । फिर भी उस समकित के प्रतापसे वे आगामी चौबीसोर्मे महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होकर अनेक जीवोका उद्धार करके परमपद' मोक्षको प्राप्त करेंगे, ऐसा' स्थानागसूत्रमें उल्लेख हैं। छेदन किया अनत "॥८॥
१. यहाँ प्रश्न और उत्तर दोनो दिये हैं। पहला शब्द 'फ्लदय' है' जिसका मूल 'प्रथम' शब्द है । "इस प्रथम शब्दसे 'फ्लदय इस तरह बनता है - मूल व्यञ्जन अक्षरोके पीछेका एक-एक अक्षर लिया जाये । जैसे पु के पीछे फ्, र के पीछे ल्, थ् के पीछे द्, म के पीछे ये लें । इस तरह अक्षर लेनेसें 'प्रथम' से 'फ्लदय' बन जाता
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अनुवादक'
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वाणिया, भादो वदी ४, मंगल, १९४७
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15- अक्षर घामसे (श्रीमत् 'पुरुषोत्तममेसें ।)
वहीं जायेगा सद्गुरुसे
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२४ वॉ वर्ष
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ॐ सत्
श्रीमान् पुरुषोत्तमकी अनन्य भक्तिको अविच्छिन्न चाहता हूँ
'ऐसा एक हो पदार्थ परिचय करने योग्य है कि जिससे अनंत प्रकारका परिचय निवृत्त होता है; कौनसा है ? और किस प्रकारसे है ? इसका विचार मुमुक्षु करते हैं । लि सत्मे अभेद । Ca Mo Ba A 12 for 1
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२७२ । 'F'ववाणिया, भादो वदी ४, मंगल, १९४७ - जिस महापुरुषका चाहे जैसा आचरण भी वन्दनीय हो है; ऐसे महात्मा के प्राप्त होने पर यदि उसकी " वृत्ति ऐसी प्रतीत होती हो कि जो नि सदेहरूपसे की ही नही जा सकती, तो मुमुक्षु कैसी दृष्टि रखें, यह " त समझने योग्य है । लि० अप्रगट सत्
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ववाणिया, भादों वदी ४, मंगल, १९४७
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२७३ववाणिया, भादो वंदी ५, बुध, १९४७ आपने विवरण लिखा सो मालूम हुआ । धैर्य रखना और हरीच्छाको सुखदायक मानना, इतना ही मारे लिये तो कर्तव्य रूप है
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“कलियुगमे अपार कष्टसे सत्पुरुष की पहचान होती है। और फिर कंचन और कामिनीका मोह ऐसा कि उसमे परम प्रेम नही होने देता।' पहचान होनेपर निश्चलतासें न रह सके ऐसी 'जीवकी, वृत्ति है, और यह कलियुग है, इसमे जो दुविधामे नही पड़ता उसे नमस्कार है ।
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वाणिया, भादो वदी ५, बुध, १९४७ (योगादिक साधन, आत्माका
'सत्' अभी तो केवल अप्रगढ़, रहा दीखता है। भिन्न भिन्न चेष्टासे यान, अध्यात्मचिंतन, शुष्क वेदात इत्यादिसे) वह अभी प्रगट जैसा माना जाता है, परन्तु वह वैसा ही हैं।
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जिनेंद्र भगवानका सिद्धात है कि जड़ किसी समय जीव नही होता, और जीव किसी समय जड नही होता । इसी तरह 'सत्' कभी 'सत्' के ' सिवाय दूसरे किसी साधनसे उत्पन्न हो ही नही सकता । ऐसी प्रत्यक्ष समझमे आने जैसी बातमे उलझकर जीव अपनी कल्पनासे 'सत्' करनेको कहता है, 'सत्' का प्ररूपण करता है, सत् का उपदेश देता है, यह आश्चर्य है -
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जगतमे अच्छा दिखाने के लिये मुमुक्षु कोई आचरण न करे, परन्तु जो अच्छा हो उसीका आचरण
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'ववाणिया, भादो वदी ५, बुध, १९४७'''' आज आपका एक पत्र मिला । उसे पढकर सर्वात्माका चिन्तन अधिक याद आया है । हमारे लिये सत्संगका वारंवार वियोग रखनेकी हरिकी इच्छा सुखदायक कैसे मानी जाये ? तथापि, माननी पडती है ।
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'को दासत्वभावसे वंदन करता हूँ । यदि इनकी इच्छा 'सत्' प्राप्त करनेकी तीव्र रहती हो तो भी सत्सगके बिना उस तीव्रताका फलदायक होना दुष्कर है।' हमे तो कोई स्वार्थ नही है, इसलिये यह कहना योग्य है कि वे प्रायः 'सत्' से सर्वथा विमुख मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं ।
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श्रीमद् राजचन्द्र , जो वैसे प्रवृत्ति नही ,करते वे अभी तो अप्रगट रहना चाहते हैं। आश्चर्यकारक तो यह है कि कलिकालने थोडे समयमे परमार्थको घेरकर अनर्थको परमार्थ बना दिया है।
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.. .२७६ : .. inववाणिया, भादो वदी:9,:१९४७ - सविस्तर पत्र और धर्मजवाला पत्र प्राप्त हुआ .. .
275 अभी चित्त परम उदासीनतामे रहता है ।-लिखने-आदिमे प्रवृत्ति नहीं होती। जिससे आपको विशेप, विस्तारसे कुछ लिखा नही जा सकता है। धर्मज़ लिखना कि आपसे मिलनेके लिये मै (अर्थात् अबालाल) उत्कठित हूँ। आप जैसे पुरुषके सत्सगमे,आनेके लिये मुझे, किसी श्रेष्ठ पुरुषकी आज्ञा है । इसलिये यथासभव दर्शन करनेके लिये आऊँगा । ऐसा होनेमे कदाचित् किसी कारणसे विलम्ब हुआ तो भी आपकार सत्सग करनेकी मेरी इच्छा मद नही होगी। इस आशयसे लिखियेगा। अभी किसी भी प्रकारसे उदासीन, रहना योग्य नही है। ... हमारे विषयमे अभी कोई भी बात उन्हे नहीं लिखनी है।
- ववाणिया, भादो वदी,७, १९६७४) .: चित्त उदास रहता है, कुछ अच्छा नही लगता, और जो कुछ अच्छा नही लगता वही सब दिखायी देता है, वही सुनायी देता है। तो अब क्या करे। मन किसी कार्यमे प्रवृत्ति नही कर सकता । जिससे, प्रत्येक कार्य स्थगित करना पड़ता है। कुछ,पढ़ने, लिखने या जनपरिचयमे रुचि नही होती । -प्तचलित मतके, प्रकारकी बात सुनायी पडती है कि हृदयमे मृत्युसे अधिक वेदना होती हैं। इस स्थितिको या तो आप जानते हैं या स्थिति भोगनेवाला जानता है, और हरि जानता है।
२७८ 17. ववाणिया, भादो वदी १०, रवि, १९४७ , .. "जो आत्मामे रमण कर रहे हैं, ऐसे निग्रंथ मुनि भी निष्कारण भगवानकी भक्तिमें प्रवृत्ति करते हैं,
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क्योकि
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- श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १, अ० ७, श्लोक १०, . . . , . , , २७९ . . ववाणिया भादोः वदी ११, सोम, १९४७ ___ जीवको जब तक सतका योग न हो, तब तक मतमतातरमें मध्यस्थ रहना योग्य है । TWITL
3. - - २८ वाणिया, भादो वदी १२. मगले. १९४० बताने जैसा तो मन है, कि जो सत्स्वरूपमे अखड स्थिर हुआ है (नाग जैसे बासुरीपर), तथापि उस दशाका वर्णन करनेको सत्ता सर्वाधार हरिने वाणीमे पूर्णरूपसे नही दी हैं, और लेखमे तो उस वाणीका अनंतवा भाग मुश्किलसे आ सकता है, ऐसी वह दशा उस सबके कारणभूत पुरुषोत्तमस्वरूपमे हमारी, आपको अनन्य प्रेमभक्ति अखड़ रहे, वह प्रेमभक्ति परिपूर्ण प्राप्त हो, यही प्रयाचना चाहकर अभी अधिक नही लिखता| Fir
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।BairirikRTIST5. , ... आत्मारामाच मुनयो निग्रन्या अप्युरक्रम.।,, ..":: . info
कुर्वन्त्यहतुकी भक्तिमित्यभूतगुणो हरिः । स्कुषः १, ३० ७, लोक: १९ र
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३०७
२४.वाँ वर्ष'; ' , - 05 :: in २८१, ६ ववाणिया, भादो वंदी १३, बुध, १९४७ कलियुग है इसलिये अधिक समय उपजीविकाका वियोग रहनेसे यथायोग्य वृत्ति पूर्वापर नहीं रहती।
- वि० रायचदके यथायोग्य । 1 . , .... . , , , , ५ .
२८२... "ववाणिया, भादो वदी १४, गुरु, १९४७ परम विश्राम सभाग्य
- . - ,,,पत्र मिला । यहाँ भक्तिसम्बन्धी विह्वलता रहा करती है, और वैसा करनेमे हरीच्छा सुखदायक ही मानता हूँ । .. ... ... ....... महात्मा व्यासजीको जैसा हुआ था, वैसा हमे आजकल हो रहा है। आत्मदर्शन प्राप्त करनेपर भी व्यासजो आनन्दसपन्न नही हुए थे, क्योकि उन्होने हरिरस अखंडरूपसे नहीं गाया था। हमारी भी, ऐसी ही दशा है। अखड हरिरसका परम प्रेमसे अखण्ड अनुभव करना अभी कहाँसे, आये ? और जब तक ऐसा नही होगा तब तक हमे जगतकी वस्तुका एक अणु भी अच्छा नहीं लगेगा... .
भगवान व्यासजी जिस युगमे थे, वह युग दूसरा, थायह कलियुग है। इसमे हरिस्वरूप, हरिनामा और हरिजन दृष्टिमे नही आते, श्रवणमे भी नही आते,, और इन तीनोमेसे किसीकी स्मृति हो ऐसी कोई भी वस्तु भी दिखायी नही देतो सभी साधन कलियुगसे घिर गये हैं। प्राय सभी जीवः उन्मार्गमे प्रवृत्त हैं, अथवा सन्मार्गके सन्मुख प्रवर्तते हुए दिखायो नही देते। क्वचित् मुमुक्षु हैं, परन्तु वे अभी मार्गके निकट नहीं हैं। . . . . . . . . . . . , , . . . . ।।। .: निष्कपटता भी मनुष्योमेसे. -चलो, गयी लगती है।। सिन्मार्गका एका अश और उसका शतांश भी किसीमे.भी दृष्टिगोचर नही होता, केवलज्ञानके,मार्गका तो सर्वथा विसर्जन हो गया है। कौन जाने हरिकी इच्छा भी क्या है ?. ऐसा विकट काल तो अभी हो देखा। सर्वथा मन्द पुण्यवाले प्राणी देखकर परम अनुकम्पा आती है। हमे सत्सगको न्यूनताकै कारण कुछ भी अच्छा नही लंगता । अनेक बार थोड़ा थोडा कहा गया है, तथापि स्पष्ट शब्दोमे कहा जानेसे स्मृतिमे अधिक रहे. इसलिये कहते हैं कि किसीसे अर्थसम्बन्ध और कामसम्बन्ध तो बहुत समयसे अच्छे ही नही लगते । आजकल धर्मसंबंध और मोक्षसबध भी अच्छे नही लगते । धर्मसबध और मोक्षसबध तो प्राय योगियोको भी अच्छे लगते है, और हम तो उनसे भी विरक्त रहना चाहते हैं। अभी तो हमे कुछ अच्छा नही लगता, और जो कुछ अच्छा लगता है, उसका अतिशय वियोग है,। अधिक क्या लिखें? सहन करना ही सुगम है।।। Ei3" - ...
7. ' ' । २८३. '. ववाणिया, भादों वदी ३०, शुक्र, १९४७ परम पूज्य श्री सुभाग्य, "" , 11' - - - - - - }, .. ।
यहां हरीच्छानुसार प्रवृत्ति है।
भगवान मुक्ति देनेमे कृपण नही है, परन्तु भक्ति देनेमे कृपण है, ऐसा लगता है । भगवानको ऐसा लोभ किसलिये होगा?
... . . वि० रायचंदके प्रणाम ।
. .. २८४ ववाणिया, आसोज सुदी ६, गुरु, १९४७ १. परसमयको जाने बिना, स्वसमयको जाना है ऐसा नही.कहा जा सकता।। ... . २ परद्रव्यको जाने विना स्वद्रव्यको जाना है ऐसा, नही कहा जा सकता। . . , ,
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श्रीमद राजचन्द्र
जो, वैसे प्रवृत्ति नही करते वे अभी तो अप्रगट रहना चाहते हैं । आश्चर्यकारक तो यह है कि कलिकालने थोडे समयमे परमार्थको घेरकर अनर्थको परमार्थ बना दिया है।
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प्र २७६ सविस्तर पत्र और धर्मजवाला पत्र प्राप्त हुआ । :
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अभी चित्त परम उदासीनतामे रहता है । --लिखने आदिमे प्रवृत्ति नही होती । जिससे आपको विशेष, विस्तारसे कुछ लिखा नही जा सकता है। धर्मज लिखना कि आपसे मिलनेके लिये मे (अर्थात् अवालाल) उत्कुठित हूँ । आप जैसे पुरुष के सत्संग मे आनेके लिये मुझे, किसी श्रेष्ठ, पुरुषकी आज्ञा है । इसलिये यथासंभव दर्शन करनेके लिये आऊँगा । ऐसा होनेमे कदाचित् किसी कारण से विलम्ब हुआ तो भी आपका सत्संग करनेकी मेरी इच्छा मद नही होगी । इस आशय से लिखियेगा । अभी किसी भी प्रकारसे उदासीन ; रहना योग्य नही है ।
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ववाणिया, भादो, वदी, ७, १९४७ चित्त उदास रहता है, कुछ अच्छा नही लगता; और जो कुछ अच्छा नहीं लगता, वही सब दिखायी देता है, वही सुनायी देता है। तो अब क्या करे ? मन किसी कार्यमे प्रवृत्ति नही कर सकता । जिससे प्रत्येक कार्यं स्थगित करना पडता है। कुछ पढ़ने, लिखने या जनपरिचयमे रुचि नही होती । प्रचलित मतके, प्रकारकी बात सुनायी पड़ती है कि हृदयमे मृत्युसे अधिक वेदना होती है । इस स्थितिको या तो आप जानते हैं या स्थिति भोगनेवाला जानता है, और हरि जानता है ।
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ववाणिया, भादों वदी ३०, शुक्र, १९४७
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परमं पूज्य श्री सुभाग्य, यहाँ हरीच्छानुसार प्रवृत्ति है
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भगवान मुक्ति देनेमे कृपण नही है, परन्तु भक्ति देनेमे कृपण है, ऐसा लगता है । भगवानको ऐसा वि० रायचदके प्रणाम ।
लोभ किसलिये होगा ?
ववाणिया, आसोज सुदी ६, गुरु, १९४७
२८४
१ परसमयको जाने बिना स्वसमयको जाना है ऐसा नही कहा जा सकता ।
२. परद्रव्यको जाने विना स्वद्रव्यको जाना है, ऐसा नही कहा जा सकता. ।
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३०८
श्रीमद राजचन्द्र
, ३. सन्मतितर्कमे श्री सिद्धसेन दिवाकरने कहा है कि 'जितने वचनमार्ग हैं उतने नयवाद हैं, और
जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय है । -
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४. अक्षय भगत कविने कहा है
* कर्ता मटे तो छूटे कर्म, ए छे महा भजननो मर्म, जो तुं जीव तो कर्त्ता हरि, जो तुं शिव तो वस्तु खरी, तं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झटक्या हाथ ॥'
उही
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२८५
ॐ
वाणिया,
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अपने से अपनेको अपूर्व प्राप्त होना "दुष्कर है, जिससे प्राप्त होता है, उसका स्वरूप पहचाना ( 4157122 जाना दुष्कर है, और जीवका भुलावा भी यहीं है 250-1,
'इस पत्र लिखे हुए प्रश्नो के उत्तर संक्षेपमे निम्नलिखित है—
--
१, २, ३, ये तीनो प्रश्न स्मृतिमे होंगे। इनमे यो बताया गया है कि- " ( १ ) ठाणागमे जो आठ वाद़ियोके वाद कहें है उनमेंसे आपको और हमे किस वाद मे दाखिल होना ? ( २ ) इन आठ वांदोसे कोई भिन्नं मार्ग अपनाने योग्य हो तो उसे जानने की आकाक्षा है'। ( ३ ) अथवा आठों वादियोके मार्गको " एकीकरण करना ही मार्ग है या किस तरह ? अथवो उन आठ वादियो के एकीकरणमे कुछ न्यूनीधिकता - करके मार्ग ग्रहण करने योग्य है ? और है तो क्या ?",
I 27 ऐसा लिखा है, इस विषयमे कहना है कि इन आठ वादके अतिरिक्त अन्य दर्शनोमे, सम्प्रदायोमे मार्ग कुछ ( अन्वित ) - जुड़ा हुआ रहता है, नही तो प्राय भिन्न हो (व्यतिरिक्त) रहता है । वह वाद, दर्शन, सम्प्रदाय ये सब किसी तरह प्राप्ति कारणरूप होते है, परन्तु सम्यग्ज्ञानीके बिना दूसरे जीवोके" लिये तो बन्धून भी होते हैं । जिसे मार्ग की इच्छा उत्पन्न हुई है। उसे इन सबका साधारण ज्ञान करना, पढ़ना, और विचार करना, तथा बाकीमे मध्यस्थ रहना योग्य है । साधारण ज्ञानका अर्थ यहाँ यह समझें कि सभी शास्त्रोमे वर्णन करते हुए जिस ज्ञानमे, अधिक भिन्नता न आयी, हो वह
: तीर्थंकर, लाकर गर्भमे उत्पन्न हो अथवा जन्म ले तब, या उसके बाद देवता जानें कि यह तीर्थंकर है ? और जानें तो किस तरह ? इसका उत्तर यह है कि जिन्हे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है वे देवता 'अवधि-: ज्ञानसे' तीर्थंकरको जानते हैं, सभी नही जानते । जिन प्रकृतियोके नाशंसे 'जन्मत.' तीर्थंकर अवधिज्ञानसंयुक्त होते है वे प्रकृतियाँ उनमे दिखायी न देने से वे सम्यग्ज्ञानी देवता तीर्थंकरको पहचान सकते हैं । यही विज्ञापन है ।
-
१०
501112 सुदी ७, शुक्र, १९४७,
- मुमुक्षुताके सन्मुख होनेके इच्छुक आप दोनोको यथायोग्य प्रणाम करता हूँ ।
प्रायः परमार्थ मौनमे रहनेकी स्थिति अभी उदयमे है और इसी कारण तद्नुसार प्रवृत्ति करने काल व्यतीत होता है, और इसी कारणसे आपके प्रश्नो के उत्तर ऊपर संक्षेपमे दिये हैं । -
शतमूर्ति सौभाग्य अभी मोरबीमे है ।
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१. तृतीय काण्ड, गाथा ४७
*भावार्थ-केर्तृत्वभाव मिट जाये तो कर्म छूट जायें, यह महा भक्तिका मर्म है । यदि तू जीव है तो हरि कर्त्ता है, और यदि तू शिव है' तो वस्तु-तत्त्व- परमसत् सत्य है । तू जीव है और तू नाथ है' अर्थात् द्वैत न होकर अद्वैत हे । यो कहकर अक्षय भगतने अपने हाथ झाड दिये. 1157
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परम पूज्य श्री सुभाग्य,
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२४. वॉ वर्ष
२८६- ॐ सत्
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"हम परदेशी पंखी साधु, आरे देशके नाहीं रे ।”र्ण
एक प्रश्नके सिवाय बाकीके प्रश्नोका उत्तर जान बूझकर नही लिख सका । 'काल', क्या खाता है? इसका उत्तर तीन प्रकारसे लिखता हूँ
- सामान्य उपदेशमे काल, क्या खाती है इसका उत्तर यह है कि 'वह प्राणीमात्रकी आयु खाता है | 1 व्यवहारनयसे. काल पुराना' खाता है, 25
2161-17
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निश्चयनयसे काल मात्र पदार्थका रूपातर करता है, पर्यायातर करता है । ०८अन्तिम् दो,उत्तर-अधिक विचार करनेसे मेल खा सकेगे । “व्यवहारनयसे काल 'पुराना' खाता है" ऐसा जो लिखा है उसे फिर नीचे विशेष स्पष्ट किया है
५
"काल 'पुराना' खाता है" - 'पुराना', अर्थात् क्या ? जो वस्तु एक समयमे उत्पन्न होकर दूसरे समयमे रहती है वहु वस्तु पुरानी मानी जाती है। (ज्ञानीको अपेक्षासे) उस वस्तुको तीसरे समयमे, चौथे समयमे, यो सख्यात, असंख्यात समयमे, अनन्त समयमे काल बदलता ही रहता है । दूसरे समयसे वह जैसी होतो. है, वैसो तीसरे समयमे नही होती, अर्थात् यह कि दूसरे समय मे पदार्थ का जो स्वरूप था उसे खाकर तीसरे समयमे कालने पदार्थको दूसरा रूप दिया, अर्थात् पुराना वह खा गया । पहले, समयमे पदार्थ उत्पन्न हुआ, और उसी समय, काल उसे, खा जाये यो व्यवहारनयसे नही हो सकता । पहले समय मे प्रदार्थका नया - पन माना जाता है, परन्तु उस समय काल उसे खा नही जाता, दूसरे समयमे उसे बदलता हैं,,इसलिये, पुरानेपनको वह खाता है, ऐसा कहा है ! ---,
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निश्चयनयसे पदार्थ मात्र रूपातरको हो प्राप्त होता है, कोई भी 'पदार्थ' किसी भी कालमे सर्वथा नाशको प्राप्त ही, नही होता, ऐसा सिद्धात है, और यदि पदार्थ सर्वथा नाशको प्राप्त हो जाता, तो आज कुछ भी न होता । इसलिये काल खाता नही, परन्तु रूपातर करता है, ऐसा कहा है । तोन प्रकारके उत्तरोमे : पहला उत्तर समझना 'सभीको' सुलभ है कलने
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यहाँ भी दशाके प्रमाणमे बाह्य उपाधि विशेष है । आपने कितने ही व्यावहारिक (यद्यपि शास्त्रसम्बन्धी) प्रश्न इस बार लिखे थे, परन्तु चित्त वैसा पढनेमे भी अभी पूरा नही रहता, इसलिये उत्तर किस तरह लिखा जा सके ?
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वाणिया, आसोज सुदी, १९४७
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२८७ 'ववाणिया, आसोज वदी १, रवि, १९४७, “पूर्वापरं अविरुद्ध भगवत्सम्वन्धी ज्ञानको प्रगट करने के लिये जब तक उसकी इच्छा नही है,
तक किसीसे अधिक प्रसग करनेमे नहीं आता, इसे आप जानते हैं ।
'जब तक हम अपने अभिन्नरूप हरिपदको नही मानते तब तक प्रगट मार्ग नही कहेंगे । आप भी जो हमें जानते हैं, उनके सिवाय आप नाम, स्थान और गॉवसे हमे अधिक व्यक्तियोंसे परिचित न कीजियेगा । एक अनन्त है, और जो अनन्त है वह एक है ।
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२८८
ववाणिया, आसोज वदी ५, १९४७
आदिपुरुष लीला शुरू करके बैठा है'
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एक आत्मवृत्तिके सिवाय हमारे लिये 'नया पुराना ती' कहाँ है ? और उसे लिखने जितना मनको अवकाश भी कहाँ है ? नही तो सब कुछ नया ही है, और सब कुछ पुराना ही है ।
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३१०
श्रीमद् राजचन्द्र
२८९ । ववाणिया, आसोज वदी १०, सोम, १९४७ परमार्थक विषयमे मनुष्योका पत्रव्यवहार अधिक रहता है, और हमे वह अनुकूल नही आता। जिससे बहुतसे उत्तर तो लिखनेमे ही नही आते; ऐसी हरीच्छा है, और हमे यह बात प्रिय भी है।
.२९० .:. :: .. - एक दशासे प्रवृत्ति है, और यह दशा अभी बहुत समय तक रहेगी। तब तक उदयानुसार प्रवर्तन योग्य माना है । इसलिये किसी भी प्रसगपर पत्रादिकी पहुँच मिलनेमे, विलब हो जाये अथवा न भेजी जाये, अथवा कुछ न लिखा जा सके तो वह शोचनीय नही है, ऐसा निश्चय करके यहॉका पत्रप्रसग रखिये।
।
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२९१
ववाणिया, आसोज वदी १२, गुरु, १९४७
... पूर्णकाम चित्तको नमोनमः, -- . .. ' ' - आत्मा ब्रह्मसमाधिमे है । मन वनमे है । एक दूसरेके आभाससे अनुक्रमसे देह कुछ क्रिया करती है, इस स्थितिमे सविस्तर और संतोषरूप आप दोनोके पत्रोका उत्तर कैसे लिखना, इसे आप कहे।
धर्मजके सविस्तर पत्रकी किसी-किसी वातके विषयमे सविस्तर लिखता, परन्तु चित्त लिखनेमे नही रहता, इसलिये लिखा नही है।। M . , " ..
' __. त्रिभुवनादिककी इच्छाके अनुसार आणंदमे समागमका योग हों ऐसा करनेकी इच्छा है, और तब, उस पत्रसम्बन्धी कुछ पूछना हो तो पूछिये ।'
धर्मजमे जिनका निवास है उन मुमुक्षुओकी दशा और प्रथा आपको स्मरणमे रखने योग्य है, अनुसरण करने योग्य है। । - - मगनलाल और त्रिभुवनके पिताजी कैसी प्रवृत्तिमे है, सो लिखें। यह पत्र लिखते हुए सूझनेसे लिखा है। आप सब परमार्थ विषयक कैसी प्रवृत्तिमे रहते हैं, सो लिखियेगा।
---.. - आप हमारे वचनादिकी इच्छासे पत्रकी राह देखते होगे, परन्तु उपर्युक्त कारणोको पढकर ऐसा समझें कि आपने बहुतसे पत्र पढें हैं।
__ किसी एक न बताये हुए प्रसगके विषयमे सविस्तर पत्र लिखनेकी इच्छा थी, उसका भी निरोध करना पड़ा है। उस प्रसगको गाभीर्यवंशात् इतने वर्ष तक हृदयमे ही रखा है। अब चाहते हैं कि उसे कहे, तथापि आपकी सत्सगतिका अवसर आनेपर कहे तो कहै । लिखना सम्भव नही लगता। ..
एक समय भी विरह न हो, इस तरह सत्सगमे ही रहना चाहते है । परन्तु यह तो हरीच्छावश है।
कलियुगमे सत्संगकी परम हानि हो गयी है । अधकार व्याप्त है । और सत्सगकी अपूर्वताको जीवको यथार्थ भान नहीं होता।
-
ववाणिया, आसोज वदी १२, १९४७ - कुटुम्बादिक संगके विषयमे लिखा सो ठीक है, उसमे भी इस कालमे ऐसे सगमे जीवका समभावमे परिणमन होना महा विकट है, और जो इतना होते हुए भी, समभावमे परिणमित होते हैं उन्हे हम निकटभवी जीव मानते हैं।'
आजीविकाके प्रपचके विषयमे वारवार स्मृति न हो इसलिये नौकरी करनी पड़े, यह हितकारक
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२४ वाँ वर्ष
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है । जीवको अपनी इच्छासे किये हुए दोषको तीव्रतासे भोगना पड़ता है, इसलिये चाहे जिस सग - प्रसंगमे भी स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति न करनी पड़े ऐसा करें ।
२९३
वाणिया, आसोज वदी १३, शुक्र, १९४७
श्री सुभाग्य, स्त्रमूर्तिरूप श्री सुभाग्य, हमे
ही वेदना अधिक रहती है, क्योकि वीतरागता विशेष है, अन्य सगमे बहुत उदासीनता है, परन्तु हरीच्छा अनुसार प्रसंगोपात्त विरहमे रहना पडता है, जिस इच्छाको सुखदायक मानते हैं, ऐसा नही है । भक्ति और सत्सगमे विरह रखने की इच्छाको सुखदायक माननेमे हमारा विचार नही रहता । श्री हरिकी अपेक्षा इस विषय मे हम अधिक स्वतत्र हैं ।
२९४
बंबई, १९४७
आत्तंध्यान करनेकी अपेक्षा धर्मंध्यानमे वृत्तिको लाना ही श्रेयस्कर है । और जिसके लिये आध्यान करना पड़ता हो वहाँसे या तो मनको उठा लेना अथवा तो उस कृत्यको कर लेना, जिससे विरक्त ।। हुआ जा सकेगा।
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जीवके लिये स्वच्छंद बहुत बड़ा दोष हैं । यह, जिसका दूर हो गया है उसे मार्गके क्रमकी प्राप्ति, बहुत सुलभ है ।
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२९५
बबई, १९४७
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यदि चितकी स्थिरतों हुई हो तो ऐसे समय मे सत्पुरुषोके गुणोका चितन, उनके वचनोका मनन, उनके चारित्रका कथन, कीर्तन, और प्रत्येक चेष्टा की पुनः पुनः निदिध्यासन हो सकता हो 'तो' मनका निग्रह अवश्य हो सकता है, और' मनको जीतनेकी एकदम सच्ची कसौटी यह है।' ऐसा होनेसे ध्यान क्या है यह समझमे आयेगा । परन्तु उदासीनभावसे चित्तस्थिरताके समय उसकी विशेषता मालूम पड़ेगी ।
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बंबई, १९४७
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. . १, उदयको, अवध, परिणामसे, भोगा जाये तो ही उत्तम है।
२. दोके, अतमे) रही हुई, जो वस्तु, वह छेदने से छेदी नही जाती, भेदनेसे भेदी नही जाती | 2
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-श्री आचारांग
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१. देखें ांक ११८ ।
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२९७
बबई, १९४७
आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्ग आराधन करने योग्य हैं । परन्तु विचारमार्ग के योग्य जिसकी सामर्थ्य नही है, उसे उसे मार्गका उपदेश करना योग्य नही है, इत्यादि जो लिखा वह यथायोग्य है। तो भी उस विषयमे कुछ भी लिखना अभी चित्तमे नही आ सकता ।
श्री नागज़ स्वामी द्वारा केवलदर्शन सम्बन्धी प्रदर्शित जो आशका लिखी है उसे पढ़ा है । दूसरे अनेक प्रकार समझनेके "बाद उस प्रकारकी 'आशका शात होती है अथवा प्रायः वह प्रकार समझने योग्य होता है। ऐसी आशकाको अभी सक्षिप्त करके अथवा उपशात करके विशेष निकटवर्ती आत्मार्थंका विचार करना योग्य है ।
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२८९
वाणिया, आसोज वदी १०, सोम, १९४७ परमार्थके विषयमे मनुष्योका पत्रव्यवहार अधिक रहता है, और हमे वह अनुकूल नही आता । जिससे बहुतसे उत्तर तो लिखनेमे ही नही आते ऐसी हरीच्छा है, और हमे यह बात प्रिय भी है ।
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एक दशासे प्रवृत्ति है, और यह दशा अभी बहुत समय तक रहेगी। तब तक उदयानुसार प्रवर्तन योग्य माना है | इसलिये- किसी भी प्रसगपर पत्रादिकी पहुँच मिलनेमे, विलब हो जाये अथवा न भेजी जाये, अथवा कुछ न लिखा जा सके तो वह शोचनीय नही है, ऐसा निश्चय करके यहाँका पत्रप्रसग रखिये ।
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श्रीमद राजचन्द्र
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पूर्णकाम चित्तको नमोनमः
आत्मा ब्रह्मसमाधिमे है । मन वनमे हैं । 'एक दूसरे के आभास से अनुक्रमसे देह कुछ किया करती है, इस स्थिति सविस्तर और सतोषरूप आप दोनोके पत्रोका उत्तर कैसे लिखना, इसे आप कहे ।'
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वाणिया, आसोज वदी १२, १९४७ कुटुम्बादिक सगके विषयमे लिखा सो ठीक है, उसमे भी इस कालमे ऐसे संगमे जीवका समभाव मे परिणमन होना महा विकट है, और जो इतना होते हुए भी समभावमे परिणमित होते, हैं - उन्हे हम निकटभवी जीव मानते हैं । F
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है । जीवको अपनी इच्छासे किये हुए दोषको तीव्रतासे भोगना पड़ता है, इसलिये चाहे जिस सग - प्रसगमे भी स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति न करनी पडे ऐसा करें ।
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वाणिया, आसोज वदी १३, शुक्र, १९४७
श्री सुभाग्य, स्त्रमूर्तिरूप श्री सुभाग्य,
हमे रहकी वेदना अधिक रहती है, क्योकि वीतरागता विशेष है, अन्य सगमे बहुत उदासीनता है, परन्तु हरीच्छा अनुसार प्रसंगोपात्त विरहमे रहना पडता है, जिस इच्छाको सुखदायक मानते हैं, ऐसा नही है । भक्ति और सत्सगमे विरह रखनेकी इच्छाको सुखदायक माननेमे हमारा विचार नही रहता । श्री हरिकी अपेक्षा इस विषयमे हम अधिक स्वतंत्र हैं ।
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आत्तंध्यान करनेकी अपेक्षा धर्मध्यानमे वृत्तिको लाना ही श्रेयस्कर है । और जिसके लिये आर्त्तध्यान करना पड़ता हो वहाँसे या तो मनको उठा लेना अथवा तो उस कृत्यको कर लेना, जिससे विरक्त ।।
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बबई, १९४७ - यदि चित्तकी स्थिरता हुई हो तो ऐसे समयमे सत्पुरुषोके गुणोका चिंतन, उनके वचनोका मनन, उनके चारित्रका कथन, कीर्तन, और प्रत्येक चेष्टा की पुनः पुनः निदिध्यासन हो सकता हो तो 'मनका निग्रह अवश्य हो सकता है, और मनको जीतने की एकदम सच्ची कसोटी यह है। ऐसा होनेसे ध्यान क्या है यह समझमें आयेगा । परन्तु उदासीनभावसे चित्तस्थिरताके समय उसकी विशेषता मालूम पड़ेगी ।
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श्री नागज।स्वामी द्वारा केवलदर्शन सम्बन्धी प्रदर्शित ' जो आशंका लिखी है उसे पढ़ा है । दूसरे अनेक प्रकार समझने के बाद उस प्रकारकी आशंका शात होती है अथवा प्रायः वह प्रकार समझने योग्य होता है। ऐसी आशंकाको अभी सक्षिप्त करके अथवा उपशात करके विशेष निकटवर्ती आत्मार्थंका विचार करना योग्य है ।
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२९८. १. ववाणिया, कार्तिक सुदी ४, गुरु, १९४८, काल विपम आ" गया है । सत्सगका योग नही है, और " वीतरागता विशेष हैं, इसलिये कही भी चैन नहीं है, अर्थात् मन विश्राति नही पाता । अनेक प्रकारकी विडंबना तो हमे नही है, तथापि, निरंतर सत्सग नही है, यह बडी विडबना है | लोकसग नहीं रुचता ।
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वाणिया, कार्तिक सुदी ७ रवि, १९४८ चाहे जिस - क्रिया, जप, तप अथवा शास्त्राध्ययन करके भी एक ही कार्य सिद्ध करता है, वह यह कि जगतकी विस्मृति करना और सत्के चरण में रहना । -
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और इस एक ही लक्ष्य में प्रवृत्ति करनेसे, जीवको स्वय क्या करता योग्य है, और क्या... करताअयोग्य है यह समझमे आता है, समझमे आता रहता है । यह लक्ष्य सन्मुख हुए बिना जप, तप, ध्यान या दान किसीकी यथायोग्य सिद्धि नही है, और तब तक ध्यान आदि अनुपयोगी जैसे है ।
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इसलिये इनमेसे जो जो साधन हो सकते हों वे सब एक लक्ष्य सिद्ध होनेके लिये करें कि जिस, लक्ष्यको हमने ऊपर बताया है । जप, तप आदि कुछ निषेध करने योग्य नहीं है, तथापि वे सब एक लक्ष्य के लिये है, और, उस लक्ष्य के बिना जीवको सम्यक्त्वसिद्धि नही होती ।
अधिक क्या कहे ? जो ऊपर कहा है उतना ही समझने के लिये सभी शास्त्र प्रतिपादित हुए है ।
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दो दिन पहले पत्र प्राप्त हुआ है । साथके चारो पत्र पढ़े हैं मगनलाल, कीलाभाई, खुशालभाई इत्यादिकी आपद आने की इच्छा है, तो वैसा करनेमे, कोई बाधा नहीं है । "तथापि इस वातसे दूसरे मनुष्यो को हमारी प्रसिद्धिका - पता चलता है कि इनवे समागमके लिये - लोग जाते है, यह यथासंभव कम प्रसिद्धिमे आना चाहिये । वैसी प्रसिद्धि अभी हमे प्रतिबधरूप
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होती है । कीलाभाईको सूचित करें कि आपने पत्रेच्छा की परन्तु उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नही हो सकेगा । कुछ पूछने की इच्छा हो तो वे आणदमे हर्षपूर्वक पूछें ।
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.:२५,वाँ वर्ष, 1- r ", "- - - - -३०१ , ववाणिया, कार्तिक सुदी, सोम, १९४८ स्मरणीय मंति श्री सुभाग्य,... ...
-- . . . . जात आत्मरूप माननेमे आये, जो हो वह योग्य ही माननेमे आये, परके दोष देखनेमे न आये, 'अपने गुणोकी उत्कृष्टता सहन करनेमे आये तो ही इस संसारमे रहना योग्य है, दूसरी तरहसे नही।
वि० रायचदके यथायोग्य।
३०२ ववाणिया, कार्तिक सुदो १३, शनि, १९४८ * . . . . . . . . . "सत्यं परं धीमहि । । -.. " ... - ( ऐसा जो ) परम सत्य, उसका हम ध्यान करते हैं। .... " यहाँसे कार्तिक वदी ३, बुधके दिन विदा होनेकी इच्छा है। । पूज्य श्री दीपचदजी स्वामीको वदना करके विज्ञापन करें कि यदि उनके पास कोई दिगम्बर
संप्रदायका ग्रंथ मागधी, संस्कृत या हिन्दीमे हो और वह पढ़ने के लिये दिया जा सके तो लेकर अपने पास रखे, अथवा तो वैसा कोई अध्यात्म ज्ञानग्रन्थ हो तो उस विषयमे पूछ । उनसे यदि कोई वैसा ग्रथ प्राप्त
। उन्हें वह मोरबीसे पांच-सात दिनमें वापस मिल जाये, ऐसी योजना करेंगे। मोरबीमे दूसरी उपाधिको दूर करनेके लिये यह ग्रथंपच्छा की है। यहाँ कुशलता है
.. । ___ 7, firo 52 53 ३०३ वाणिया, कार्तिक सुदी १३, शनि, १९४८ - यहाँसे कार्तिक वदी ३ को निकलनेका विचार है। संभवतः मोरबीमे पाँच-सात दिन लग जायेंगे। तथापि व्यावहारिक प्रसग हैं इसलिये आपका आना योग्य नहीं है। आणदमे समागमकी इच्छा रखिये। मोरबीकी निवृत्त करें।. - और एक बात स्मरणमे रखनेके लिये लिखते हैं, कि परमार्थप्रसंगसे अभी हमने प्रगटरूपसे किसोका भी समागम करना नही रखा है। ईश्वरेच्छा ऐसो लगती है। सब भाइयोको यथायोग्य | दिगंबर ग्रंथ-मिले-तो ठीक, नही तो कोई बात नही।
अप्रगट सत् । . .३०४ . , ववाणिया, कार्तिक सुदी, १९४८
ART000517
यथायोग्य वदन स्वीकार करें। समागममे दो चार कारण आपको खुले दिलसे बात नही करले देते । अनन्तकालकी वृत्ति, समागमियोकी वृत्ति और लोकलज्जा प्राय. ये सब उन कारणोकी जड़ है। ऐसे कारणोसे कोई भी प्राणी कटाक्षका पात्र बने ऐसी मेरी दशा प्राय नहीं रहती। परन्तु अभी मेरी दशा कोई भी लोकोत्तर बात करते हुए झिझकती है अर्थात् मनका मेल नही बैठता।
'परमार्थ मौन' नामका एक कर्म अभी उदयमे भी रहता है, जिससे बहुत प्रकारका मौन भी अगीकार किया है, अर्थात् परमार्थसम्बन्धी वातचीत प्राय नही की जाती। ऐसा उदयकाल है । क्वचित् साधारण मार्गसम्बन्धा बातचीत की जाती है, नही तो-इस विषयमे वाणीसे और परिचयसे मौन और , शून्यता ग्रहण किये गये हैं। जवे तक योग्य समागम होकर चित्त ज्ञातो पुमुपके स्वरूपको नही जान सकता,
१ श्रीमद् भागवत, स्कंघ १२, अध्याय १३, श्लोक १९ .
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श्रीमद राजचन्द्र
तब तक उपर्युक्त तोन कारण सर्वथा दूर नही होते, और तब तक 'सत्' का यथार्थ कारण प्राप्त भी नही होता। ऐसा होनेसे आपको मेरा समागम होनेपर भी बहुत व्यावहारिक और लोकलज्जायुक्त बात करनेका प्रसग रहेगा, और उससे मुझे कटाला आता है । आप चाहे जिससे भी मेरा समागम होने के बाद इस प्रकारकी वातमे फँसें, इसे मैंने योग्य नही माना है ।
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ववाणिया कार्तिक वदी १, १९४८
जो धर्मजवासी हैं, उन्हे यद्यपि सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति नही है, तथापि मार्गानुसारी जीन होने से वे समागम करने योग्य हैं। उनके आश्रयमे रहनेवाले मुमुक्षुओ की भक्ति, विनयादिका व्यवहार, वासनाशून्यता ये देखकर अनुसरण करने योग्य है । आपका जो कुलधर्म है, उसके कुछ व्यवहारका विचार करने से उपर्युक्त मुमुक्षुओका व्यवहार आदि ' उनके मन, वचन और कायाकी प्रवृत्ति, सरलता? के लिये समागम करने योग्य है। किसी भी प्रकारका दर्शन हो उसे महा पुरुषोने सम्यग्ज्ञान माना है ऐसा नही समझना है । पदार्थका यथार्थ बोध प्राप्त हो उसे सम्यग्ज्ञान माना गया है ।
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धर्मज जिनका निवास है, वे अभी उस भूमिकामे नही आये हैं।' उन्हे अमुक तेजोमयादिका दर्शन है । तथापि वह यथार्थ बोधपूर्वक नहीं है। दर्शनादिकी अपेक्षा यथार्थ बोध श्रेष्ठ पदार्थ है । यह बात जतानेका हेतु यह है कि आप किसी भी प्रकारकी कल्पनासे निर्णय करने से निवृत्त हो जाये ।
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ऊपर जो कल्पना शब्दका प्रयोग किया गया है वह इस अर्थ मे है कि - "हमने आपको उस समागमकी सम्मति दी जिससे वे समागमी 'वस्तुज्ञान' के देते, हैं, वैसी ही हमारी मान्यता भी है, अर्थात् जिसे इसलिये उनके समागमसे आपको उस ज्ञानका, वो
सम्बन्धमे जो कुछ प्ररूपण, करते, है, अथवा उपदेश हम 'सत्' कहते हैं वह, परन्तु हम अभी मौन रहते है प्राप्त कराना चाहते हैं ।" ܺ -
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श्री सुभाग्य प्रेमसमाधिमे रहते हैं ।
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मोरवी, कार्तिक वदी ७, रवि, १९४८
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अप्रगत सत् ।
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आणंद, मगसिर सुदी २, गुरु, १९४८
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ॐ
ऐसा जो परमसत्य उसका हम ध्यान करते हैं ।
• भगवानको सर्व समर्पण किये विना इस कालमे जीवका देहाभिमान मिटना सम्भव नही है । इसलिये हम सनातन धर्मरूप परम सत्यका निरन्तर ध्यान करते हैं । जो सत्यका 'ध्यान करता है वह सत्य हो जाता है।
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do the ३०८ ~, बंबई, मगसिर सुदी १४, मंगल, १९४८ ॐ संत्
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श्री सहज समाधि
यहाँ समाधि है।' स्मृति रहती है, तथापि निरुपायता है। असगवृत्ति होनेसे अणुमात्र उपाधि सहन हो सके ऐसी दशा नहीं है, तो भी सहन करते हैं। सत्सगी' 'पर्वत' के नामसे जिनका नाम है उन्हें यथायोग्य ।
१. पत्र फटा हुआ होनेसे यहाँसे अक्षर उड़ गये हैं ।
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श्रीमद राजचन्द्र
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11 अनुक्रमे स्थम स्पर्शतो जी, पाम्यो क्षायकभाव सयम श्रेणी, फूलडे जी, पूजुंपक दिनिष्पाव "शुद्ध निरंजन अलख अगोचर, एहि ज साध्य सुहायो रे । ज्ञान क्रिया अवलंबी फरस्यो, अनुभव सिद्धि उपायो रे ॥
बंबई, पोष सुदी ३, रवि, १९४८
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राय सिद्धारय वंश विभूषण, त्रिशला राणी जायो रे ।
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अज अजरामर, सहजानंदी, ध्यानभुवनमां ध्यायो रे ।।
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नागर सुख पामर नव-जाणे, ” बल्लभसुख न कुमारी रे।S ) ए अनुभव यण 'तेम ध्यानतणु सुख कोण जाणे नरनारी रे happ 19
बंबई, पौष सुदी ५, मगल, १९४८
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क्षायिक चारित्रको याद करते हैं ।
जनक विदेहीकी बात ध्यानमे है । करसनदासका क्षेत्र ध्यानमे है ।
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बोधस्वरूपके यथायोग्य |
बबई, पौष सुदी ७, गुरु, १९४८
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1750000 ॐ - ज्ञानी आत्माको देखते है. और वैसे होते हैं, ) 3,
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आपकी स्थिति ध्यानमे है | आपकी इच्छा भी ध्यानमे है । आपने गुरुके अनुग्रहवाली जो बात / लिखी हैं वह भी सच है | कर्मका उदय भोगना पडता है यह भी सच है | आप समय-समय पर अतिशय खेदको प्राप्त हो जाते है, यह भी जानते हैं। आपको वियोगका असह्य सन्ताप रहता है यह भी जानते
-
। बहुत प्रकारसे सत्सगमे रहने योग्य है, ऐसा मानते है, तथापि अभी तो यो सहन करना योग्य माना है। चाहे जैसे देशकालमें यथायोग्य रहना, , और यथायोग्य रहनेकी इच्छा ही किये जाना यह उपदेश है । आप अपने मनको चिन्ता लिख भेजे तो भी हमे आपपर खेद नहीं होगा । ज्ञानी अन्यथा नही करते, ऐसा करना उन्हे नही सूझता, ऐसी स्थितिमे दूसरे उपायकी इच्छा भी न करें ऐसी विनती है ।
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कोई इस प्रकारका उदय है कि अपूर्व - वीतरागता के होनेपर भी हम व्यापार सम्बन्धी कुछ प्रवृत्ति कर सकते है, तथा खाने-पीने आदि की आदिको अन्य प्रवृत्तियाँ भी बड़ी मुश्किलसे कर पाते हैं। मन कही भी विराम नही पाता, प्राय. यहाँ किसीके समागमकी वह इच्छा नही करता । कुछ लिखा नहीं जा सकता । अधिक परमार्थवाक्य कहनेकी इच्छा नहीं होती । किसीके द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर जानते हुए भी "लिख नही सकते । चित्तका भी अधिक सग नहीं है, और आत्मा आत्मआवमें रहता है ।
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१ भावार्य - शुद्ध = निरावरण, निरजन = रागद्वेपरूपी मैलसे रहित अलख = अलक्ष्य और अगोचर इन्द्रियाततः परमात्मा स्वरूपानन्द विलासी एक परभाव उदासी है । यहीं हमे साव्यरूपसे सुहायां है । हे आत्मन् । सम्यग्ज्ञान एव सम्यक्तियाका अवलम्बन लेकरुं स्वरूपमें स्थिर होने के अपूर्व आनन्दका अनुभव करना ही मोक्षसिद्धिका उपाय है । २. भावार्थ–त्रिशला रानीसे उत्पन्न, राजा सिद्धार्थके वशविभूषण) जन्म जरा मरणरहित एव-सह
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,, स्वरूपानन्दो वीर परमात्माका घ्यानरूप भावभुवनेमे ध्यान किया
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- "३. भावायं --- पामर ग्रामीण व्यक्ति नगरके सुखको नही जानता है, और कुमारी पतिके, सुखको नही जानती ६ । इसी तरह अनुभवके बिना ध्यानके सुखको भला कौनसा स्त्री-पुरुष जानता है ?
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२५ वाँ वर्ष
३१७ समय-समयपर अनन्तगुणविशिष्ट आत्मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जिसे प्राय भॉपने नही दिया जाता, अथवा भॉप सकनेवालेका प्रसंग नही है।
__ आत्माके विषयमे सहज स्मरणसे प्राप्त हुआ ज्ञान श्री वर्धमानमे था ऐसा मालूम होता है । पूर्ण वीतराग जैसा बोध हमे सहज ही याद आ जाता है, इसीलिये आपको और गोसलियाको लिखा था कि आप पदार्थको समझें । वैसा लिखनेमे दूसरा कोई हेतु न था।
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बबई, पौष सुदी ११, सोम, १९४८ ।। 'जिन थई जिनवरने आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भुंगी इलीकाने चटकावे, ते मुंगी जग जोवे रे॥
आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इणमे नावे । वाक्य जाळ बोजु सौ जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे ॥
३१५
बबई, पौष सुदी ११, १९४८ हम कभी कोई वाक्य, पद या चरण लिख भेजे उसे आपने कही भी पढा या सुना हो तो भी अपूर्ववत् मानें।
हम स्वय तो अभी यथाशक्ति वैसा कुछ करनेकी इच्छावाली दशामे नही है ।
स्वरूप सहजमे है । ज्ञानीके चरणोकी सेवाके बिना अनन्त काल तक भी प्राप्त न हो ऐसा विकट भी है। आत्मसयमको याद करते हैं । यथारूप वीतरागताकी पूर्णता चाहते हैं । बस इतना ही।
श्री बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
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बबई, पौष वदी ३, रवि, १९४८ 'एक परिनामके न करता दरव दोई, दोई परिनाम एक दर्व न धरतु है। एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करै, दोई करतूति एक दवं न करतु है। जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ,
अपने अपने रूप, कोउ न टरतु है। १ भावार्य-जो प्राणी जिनेश्वरके स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर तदाकार वृतिसे जिनेश्वरकी आराधना करता है-ध्यान करता है वह निश्चयसे जिनवर-कैवलदर्शनी हो जाता है। जैसे भौंरी कीडेको मिट्टीके घरमें वन्द कर देती है, फिर उसे चटकाने--डक मारनेसे वह कीडा भौरी होकर वाहर आता है जिसे जगत देखता है । तात्पर्य यह है कि श्रद्धा, निष्ठा एव भावनासे जोव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । विशेपार्थके लिये देखें आक ३८७ ।
२ भावार्थ--जो कोई स्थिर आसनसे आत्मामें लीन होकर तदाकार वृत्तिसे शुद्ध वात्मस्वरूप का ध्यान करता है वह अनेक मतवादियोके विभ्रम- ममत्व रूप जालमै नही फंसता तया रागद्वेष, मोह और अज्ञानको छोडता है, आत्मस्वरूपके कथनके बिना अन्य जप, तप, पूजा, नियम आदिको वाग्जाल समझता है और आत्मस्वरूपके तत्त्वका ही अपने चित्तम चिन्तन करता है।
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... २५ वां, वर्ष
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आप दोनो विचार करके वस्तुको पुन. पुन. समझें। मनसे किये हुए निश्चयको साक्षात् निश्चय न मानियेगा । ज्ञानीसे हुए निश्चयको जानकर प्रवृत्ति करनेमे कल्याण है । फिर जैसा भावी। सुधाके विषयमे हमे सन्देह नहीं है, आप उसका स्वरूपं समझे, और तभी फल है।
. . . . . . . . . . . प्रणाम पहुँचे । . . , , . .३०९ " बंबई, मगसिर वदी ३०, गुरु, १९४८ "अनुक्रमे संयम स्पर्शतो जी, पाम्यो क्षायकभाव रे।"
संयम"श्रेणी फूलडे जी, पूर्जु पद निष्पाव रे॥"' ( आत्माकी अभेदचिंतनारूप ) संयमके एकके बाद एक क्रमका अनुभव करके क्षायिक भाव ( जड परिणतिका त्याग) को प्राप्त हुए सिद्धार्थके पुत्रके निर्मल चरणकमलकी सयमश्रेणिरूप फूलोसे पूजा करता हूँ।
उपर्युक्त वचन अतिशय गम्भीर है। ------- लि० यथार्थ बोधस्वरूपका यथार्थ ।
.. . ३१०..
बबई, पौष सुदी ३, १९४८ 'अनुक्रमे संयम स्पर्शतो जी, पाम्यो क्षायकभाव,रे। . . . संयम श्रेणी फूलडे जी, पूजं पद निष्पाव रे॥
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'दर्शन सकलना नय ग्रहे, आप रहे निज भावे रे। हितकरी जनने संजीवनी, चारो तेह चरावे रे॥
_off. .., वर्शन जे ,थयां, जूजवां, ते ओघ, नजरते फेरे रे। - , " :
.-- .भेद थिरादिक दृष्टिमां,' समकितदृष्टिने हेरे. रे ॥ - - - । । .... - }, '' बोज ईहां ग्रहे, जिनवर' शुद्ध प्रणामो रे। ... ... 'भावाचारज' सेवना, . भव - उद्वेग- -सुठामो रे॥ .. ।
1 . . . . . . . . .
। १ भावार्थ -"अनुक्रमसे उत्तरोत्तर सयमस्थानकको स्पर्श करते हुए मोहनीयकर्मका क्षय करके उत्कृष्ट सयम'स्थानरूप क्षीणमोहगुणस्थानको प्राप्त हुए श्री वीरस्वामीके पापरहित चरणकमलको सयमणिरूप भावपुष्पोसे पूजता हूँ।
'२भावार्य-आत्मज्ञानी सभी दर्शनोंके नय अर्थात् दृष्टिबिंदुको यथावत् समझता है, और स्वय किसी दर्शन अथवा मतमें रागद्वेष या आग्रह न करते हुए आत्मस्वभावमें रमण करता है.। वह अन्य जीवोको अनुरूप एव हितकारी सजीवनीरूप-वास्तविक धर्मका उपदेश देता है। । । । - --- ।। .. , । ३ भावार्थ-जगतमें जो भिन्न-भिन्न धर्ममत प्रचलित,हे उसका कारण ओघदृष्टि अर्थात् मिथ्या ज्ञान है, स्थिरादिक चार दृष्टिमें सम्यग्दर्शन अथवा आत्माका वास्तविक योग होता है जिससे वह योगदृष्टि है । फिर सम्यग्दृष्टिको वह भेद,प्रतीत नही होता अर्थात् भेद दूर हो जाता है। - - - -
४ भावार्थ-इस दृष्टिमें जीव योगके वीज अथवा समकित ,प्राप्त होनेके कारणोको प्राप्त करता रहता है । फिर वह शुद्ध एव निष्काम भावसे जिनवरको प्रणाम करता है, भावाचार्यकी सेवा करता है और भवोद्वेग अथवा वैराग्य धारण करता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
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. ३११ ...' 51 -- - बबई, पौष सुदी ३, रवि, १९४। , अनुक्रमे सयमा स्पर्शतो जी, पाम्यो,क्षायकभाव रे।'; in
- संयम श्रेणी .फूलडे :,जी, पूचं पद । निष्पाव, रे॥ .. , :: gr) शुद्ध निरंजन अलख अगोचर, एहि ज साध्य सुहायो रे।
. ..ज्ञानक्रिया अवलंबी फरस्यो, अनुभव सिद्धि उपायो रे ॥
रायसिद्धारथ वंश विभूषण, त्रिशला राणी जायो रे । अज अजरामर सहजानंदी, ध्यानभुवनमां ध्यायो रे॥
नागर सुख पामर नव जाणे, वल्लभसख न कुमारी ! 1 .
अनुभव 'वण तेमध्यानतणं सुख कोण जाणे नरनारी ॥7, की
--३१२. बंबई, पौष सुदी ५, मंगल, १९४ ...'.-... {
क्षायिक चारित्रको याद करते है। जनक विदेहीकी बात ध्यानमे है । करसनदासका पत्र ध्यानमें है। ...
९ बोधस्वरूपके यथायोग्य . . ३१३ . बबई, पौष सुदी ७, गुरु, १९४० , : ज्ञानीके आत्माको देखते है और वैसे होते हैं।। आपकी स्थिति ध्यानमे है। आपकी इच्छा भी ध्यानमे है। आपने गुरुके अनुग्रहवाली जो बार लिखी है वह भी सच है । कर्मका उदय भोगना पडता है यह भी सच है। आप समय-समयपर अतिशय खेदको प्राप्त हो जाते है, यह भी जानते है | आपको वियोगका असह्य सन्ताप रहता है यह भी जानते है । बहुत प्रकारसे सत्सगमे रहने योग्य है, ऐसा मानते है, तथापि अभी तो यो सहन करना योग्य माना है।
____ चाहे जैसे देशकालमें यथायोग्य रहना, और यथायोग्य रहनेकी इच्छा ही किये जाना यह उपदेश है। आप अपने मनको चिन्ता लिख भेजे तो भी हमे आपपर खेद नहीं होगा । ज्ञानी अन्यथा नहीं करते, ऐसा करना उन्हे नही सूझता, ऐसी स्थितिमे दूसरे उपायकी इच्छा भी न करें ऐसी विनती है।
____ कोई इस प्रकारका उदय है कि अपूर्व-वीतरागताके होनेपर भी हम व्यापार सम्बन्धी कुछ प्रवृत्ति कर सकते है, तथा खाने-पीने आदिकी अन्य प्रवृत्तियाँ, भी बड़ी मुश्किलसे कर पाते हैं। मन कही भी विराम नही पाता, प्राय यहाँ किसीके समागमकी वह इच्छा नहीं करता। कुछ लिखा नहीं जा सकता। 'अधिक परमार्थवाक्य कहनेकी इच्छा नहीं होती। किसीकें द्वारा पूछे गये प्रश्नोके उत्तर जानते हुए भी लिख नहीं सकते । चित्तका भी अधिक सग नही, है, और आत्मा आत्मभावमे रहता है | Arif IFF/2_
१ भावार्य-शुद्ध = निरावरण, निरजन = रागद्वेपरूपी मैलसे रहित; अलख = अलक्ष्य और अगोचर इन्द्रियातोत,परमात्मा स्वरूपानन्द विलासी एव परभाव उदासी है । यही हमें साध्यरूपसे सुहाया है । हे आत्मन् । सम्यग्ज्ञान एव • सम्यक्रियाका अवलम्वन लेकर स्वरूपमें स्थिर होनेके अपूर्व आनन्दका अनुभव करना ही मोक्षसिद्धिका उपाय है।
२ भावार्थ-त्रिशला रानीसे उत्पन्न, राजा सिद्धार्थके, वशविभूषण, जन्म-जरा मरणरहित एव सहज ।। स्वरूपानन्दी वीर परमात्माका ध्यानरूप भावभुवनमे ध्यान किया। 1 -31- ।। .. ३. भावार्थ-पामर-ग्रामीण। व्यक्ति नगरके सुखको नही जानता है। और कुमारी पतिके, सुर्खको नहीं
जानती है। इसी तरह अनुभवके विना ध्यानके सुखको भला कौनसा स्त्री-पुरुष जानता है 307 -
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समय-समय पर अनन्तगुणविशिष्ट आत्मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जिसे प्राय भॉपने नही दिया जाता, अथवा भाँप सकनेवालेका प्रसग नही है ।
आत्माके विषयमे सहज स्मरणसे प्राप्त हुआ ज्ञान श्री वर्धमानमे था ऐसा मालूम होता है । पूर्ण वीतराग जैसा बोध हमे सहज ही याद आ जाता है, इसीलिये आपको और गोसलियाको लिखा था कि आप पदार्थको समझें । वैसा लिखनेमे दूसरा कोई हेतु न था ।
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"जिन थई जिनवरने आराधे, ते सही भृंगी इलीकाने चटकावे, ते
बबई, पौष सुदी ११, सोम, १९४८
जिनवर होवे रे । भृगो जग जोवे रे ॥
आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इणमे नावे | वाक्य जाळ बीजुं सौ जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे ॥
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बबई, पौष सुदी ११, १९४८ हम कभी कोई वाक्य, पद या चरण लिख भेजे उसे आपने कही भी पढ़ा या सुना हो तो भी अपूर्ववत् मानें।
हम स्वय तो अभी यथाशक्ति वैसा कुछ करनेकी इच्छावाली दशामे नही है ।
स्वरूप सहज है । ज्ञानीके चरणोकी सेवाके बिना अनन्त काल तक भी प्राप्त न हो ऐसा विकट भी है ।
आत्मसयमको याद करते हैं । यथारूप वीतरागताकी पूर्णता चाहते हैं । बस इतना ही ।
३१६ 'एक परिनामके न करता दरव दोई, दोई परिनाम एक दवं न घरतु है । एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करें, दोई करतूति एक दवं न करतु है । जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ, अपने अपने रूप, कोउ न टरतु है ।
श्री बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
बबई, पौष वदी ३, रवि, १९४८
१ भावार्थ - जो प्राणी जिनेश्वर के स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर तदाकार वृत्तिसे जिनेश्वरकी आराधना करता है - ध्यान करता है वह निश्चय से जिनवर - केवलदर्शनी हो जाता है । जैसे भौंरी कीडेको मिट्टीके घरमें बन्द कर देती है, फिर उसे चटकाने -- डक मारनेसे वह कीडा भारी होकर बाहर आता है जिसे जगत देखता है । तात्पर्य यह है कि श्रद्धा, निष्ठा एव भावनासे जीव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । विशेषार्थंके लिये देखें आक ३८७ |
२. भावार्थ -- जो कोई स्थिर आसनसे आत्मामें लीन होकर तदाकार वृत्तिसे शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान करता है वह अनेक मतवादियोके विभ्रम- ममत्व रूप जालमे रागद्वेप, मोह और अज्ञानको छोड़ता है, आत्मस्वरूपके कथन के बिना अन्य जप, तप, पूजा, वाग्जाल समझता है और आत्मस्वरूपके तत्त्वका हो अपने चित्तमें चिन्तन करता है ।
नही फंसता तथा नियम आदिको
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श्रीमद् राजचन्द्र
जड परिनामनिको, करता है पुद्गल, चिदानंद चेतन सुभाव आचरतु है ।'
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'एक परिनामके न करता दरव दोई',
- समयसार नाटक
बबई, पौष वदी ९, रवि, १९४८
वस्तु अपने स्वरूप ही परिणत होती है ऐसा नियम है । जीव जीवरूपसे परिणत हुआ करता है, और जड जडरूपसे परिणत हुआ करता है । जीवका मुख्य परिणमन चेतन (ज्ञान) स्वरूप है, और asका मुख्य परिणमन जडत्वस्वरूप है । जोवका जो चेतनपरिणाम है वह किसी प्रकारसे जड होकर परिणत नही होता, और जडका जो जडत्वपरिणाम है वह किसी दिन चेतनपरिणामसे परिणत नही होता, ऐसी वस्तुकी मर्यादा है, और चेतन, अचेतन ये दो प्रकारके परिणाम तो अनुभवसिद्ध है । उनमेसे एक परिणामको दो द्रव्य मिलकर नही कर सकते, अर्थात् जीव और जड़ मिलकर केवल चेतनपरिणामसे परिणत नही हो सकते । अथवा केवल अचेतन परिणामसे परिणत नही हो सकते । जीव चेतनपरिणामसे परिणत होता है और जड़ अचेतनपरिणामसे परिणत होता है, ऐसी वस्तुस्थिति है । इसलिये जिनेन्द्र कहते है कि एक परिणामको दो द्रव्य नही कर सकते । जो-जो द्रव्य है वे वे अपनी स्थितिमे ही होते हैं और अपने स्वभावमे परिणत होते हैं ।
'दोई परिनाम एक दवं न घरतु है ।'
इसी प्रकार एक द्रव्य दो परिणामोमे भी परिणमित नही हो सकता, ऐसी वस्तुस्थिति है । एक जीवद्रव्यका चेतन एव अचेतन इन दोनो परिणामोसे परिणमन नही हो सकता, अथवा एक पुद्गल द्रव्य अचेतन तथा चेतन इन दो परिणामोसे परिणमित नही हो सकता । मात्र स्वय अपने ही परिणाममे परिणमित होता है | चेतनपरिणाम अचेतनपदार्थमे नही होता, और अचेतनपरिणाम चेतनपदार्थमे नही होता, इसलिये एक द्रव्य दो प्रकारके परिणामोसे परिणमित नही होता, दो परिणामोको धारण नही
कर सकता ।
'एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करें, '
इसलिये दो द्रव्य एक क्रियाको कभी भी नही करते। दो द्रव्योका एकाततः मिलन होना योग्य नही है । यदि दो द्रव्य मिलकर एक द्रव्यकी उत्पत्ति होती हो, तो वस्तु अपने स्वरूपका त्याग कर दें, और ऐसा तो कभी भी नही हो सकता कि वस्तु अपने स्वरूपका सर्वथा त्याग कर दे ।
जब ऐसा नही होता, तब दो द्रव्य सर्वथा एक परिणामको पाये बिना एक क्रिया भी कहाँसे करें ? अर्थात् बिलकुल न करें ।
'दोई करतूति एक दर्व न करतु है,'
इसी तरह एक द्रव्य दो क्रियाओको धारण भी नही करता; एक समयमे दो उपयोग नही हो सकते । इसलिये
'जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ,' जीव और पुद्गल कदाचित् एक क्षेत्रको रोककर रहे हो तो भी 'अपने अपने रूप, कोउ न टरतु है,
अपने अपने स्वरूपसे किसी अन्य परिणामको प्राप्त नही होते, और इसलिये ऐसा कहते है कि'जड परिनामनिको, करता है पुद्गल',
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२५ वा वर्ष
३१९ देहादिकसे जो परिणाम होता है उसका पुद्गल कर्ता है, क्योकि देहादि जड है, और जडपरिणाम तो पुद्गलमे होता है । जब ऐसा ही है तो फिर जीव भी जीवस्वरूपमे ही रहता है, इसमे अब किसी दूसरे प्रमाणकी जरूरत नही है, ऐसा मानकर कहते है कि
'चिदानद चेतन सुभाव आचरत है।' काव्यकर्ताके कहनेका हेतु यह है कि यदि आप इस तरह वस्तुस्थितिको समझें तो जडसबधी जो स्वस्वरूपभाव है वह मिटे और स्वस्वरूपका जो तिरोभाव हैं वह प्रगट हो । विचार करें तो स्थिति भी ऐसी ही है । अति गहन बातको यहाँ संक्षेपमे लिखा है । (यद्यपि) जिसे यथार्थ बोध है उसे तो सुगम है।
इस बातका अनेक बार मनन करनेसे कुछ बोध हो सकेगा।
आपका एक पत्र परसो मिला था। आपको पत्र लिखनेका मन तो होता है, परन्तु जो लिखनेका सूझता है वह ऐसा सूझता है कि आपको उस बातका बहुत समय तक परिशीलन होना चाहिये, और वह विशेष गहन होता है । इसके सिवाय लिखना नहीं सूझता। अथवा लिखनेमे मन नहीं लगता। वाकी तो नित्य समागमकी इच्छा करते है।
प्रसगोपात्त कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा | आजीविकाके दुःखके लिये आप जो लिखते हैं वह सत्य है।
चित्त प्राय. वनमे रहता है, आत्मा तो प्रायः मुक्तस्वरूप लगता है। वीतरागता विशेष है । बेगारकी भाँति प्रवृत्ति करते हैं, दूसरोका अनुसरण भी करते हैं। जगतसे बहुत उदास हो गये है । बस्तीसे तग आ गये हैं । किसीको दशा बता नही सकते । बताने जैसा सत्सग नही है, मनको जैसे चाहे वैसे मोड सकते हैं, इसलिये प्रवृत्तिमे रह सके हैं। किसी प्रकारसे रागपूर्वक प्रवृत्ति न होती हो ऐसी दशा है, ऐसा रहता है । लोकपरिचय अच्छा नही लगता । जगतमे चैन नही पडता ।
_अधिक क्या लिखें ? आप जानते हैं। यहाँ समागम हो ऐसी तो इच्छा करते है, तथापि किये हुए कर्मोको निर्जरा करनी है, इसलिये उपाय नही है।
लि० यथार्थ बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
३१८
बंबई, पौष वदी १३, गुरु, १९४८ दूसरे काममे प्रवृत्ति करते हुए भी अन्यत्वभावनासे प्रवृत्ति करनेका अभ्यास रखना योग्य है। वैराग्य भावनासे भूषित 'शातसुधारस' आदि ग्रन्थ निरतर चिंतन करने योग्य हैं। प्रमादमे वैराग्यकी तीव्रता, मुमुक्षुता मद करने योग्य नहीं है, ऐसा निश्चय रखना योग्य है।
श्री बोधस्वरूप ।
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बबई, माघ सुदी ५, वुध, १९४८ अनतकालसे स्वरूपका विस्मरण होनेसे जीवको अन्यभाव साधारण हो गया है। दीर्घकाल तक सत्सगमे रहकर वोधभूमिकाका सेवन होनेसे वह विस्मरण और अन्यभावकी साधारणता दूर होती है, अर्थात् अन्यभावसे उदासीनता प्राप्त होती हैं । यह काल विषम होनेसे स्वरूपमे तन्मयता रहना दुष्कर है, तथापि सत्सगका दीर्घकाल तक सेवन उस तन्मयताको देता है इसमे सदेह नहीं होता।
जीवन अल्प है और जजाल अनत है, धन सीमित है, और तृष्णा अनत है, इस स्थितिमे स्वरूपस्मृतिका सभव नही है । परन्तु जहाँ जजाल अल्प है, और जीवन अप्रमत्त है, तथा तृष्णा अल्प है अथवा नहीं है, और सर्व सिद्धि है, वहाँ पूर्ण स्वरूपस्मृति होना सभव है। अमूल्य ऐसा ज्ञानजीवन प्रपचसे आवत होकर चला जाता है। उदय बलवान है !
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श्रीमद राजचन्द्र
जड परिनामनिको, करता है पुद्गल, चिदानंद चेतन सुभाव आचरतु है ।'
-समयसार नाटक
बबई, पौष वदी ९, रवि, १९४८
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'एक परिनामके न करता दरव दोई,
वस्तु अपने स्वरूप ही परिणत होती है ऐसा नियम है । जीव जीवरूपसे परिणत हुआ करता है, और जड जडरूपसे परिणत हुआ करता है । जोवका मुख्य परिणमन चेतन (ज्ञान) स्वरूप है, और asका मुख्य परिणमन जडत्वस्वरूप हे । जीवका जो चेतनपरिणाम है वह किसी प्रकारसे जड होकर परिणत नही होता, और जडका जो जडत्वपरिणाम है वह किसी दिन चेतनपरिणामसे परिणत नही होता, ऐसी वस्तुकी मर्यादा है, और चेतन, अचेतन ये दो प्रकार के परिणाम तो अनुभवसिद्ध है । उनमेसे एक परिणामको दो द्रव्य मिलकर नही कर सकते, अर्थात् जीव और जड़ मिलकर केवल चेतनपरिणामसे परिणत नही हो सकते । अथवा केवल अचेतन परिणामसे परिणत नही हो सकते । जीव चेतनपरिणामसे परिणत होता है और जड़ अचेतनपरिणामसे परिणत होता है, ऐसी वस्तुस्थिति है । इसलिये जिनेन्द्र कहते हैं कि एक परिणामको दो द्रव्य नही कर सकते । जो-जो द्रव्य है वे वे अपनी स्थितिमे ही होते हैं और अपने स्वभाव परिणत होते है ।
'दोई परिनाम एक दवं न घरतु है ।'
इसी प्रकार एक द्रव्य दो परिणामोमे भी परिणमित नही हो सकता, ऐसी वस्तुस्थिति है । एक जीवद्रव्यका चेतन एव अचेतन इन दोनो परिणामोसे परिणमन नही हो सकता, अथवा एक पुद्गल द्रव्य अचेतन तथा चेतन इन दो परिणामोसे परिणमित नही हो सकता । मात्र स्वय अपने ही परिणाममे परिणमित होता है | चेतनपरिणाम अचेतनपदार्थमे नही होता, और अचेतनपरिणाम चेतनपदार्थमे नही होता, इसलिये एक द्रव्य दो प्रकारके परिणामोसे परिणमित नही होता, दो परिणामोको धारण नही
कर सकता ।
'एक करतूति दोई दर्द कबहूँ न करे,'
इसलिये दो द्रव्य एक क्रियाको कभी भी नही करते । दो द्रव्योका एकाततः मिलन होना योग्य नही है। यदि दो द्रव्य मिलकर एक द्रव्यकी उत्पत्ति होती हो, तो वस्तु अपने स्वरूपका त्याग कर दें, और ऐसा तो कभी भी नही हो सकता कि वस्तु अपने स्वरूपका सर्वथा त्याग कर दे ।
जब ऐसा नही होता, तब दो द्रव्य सर्वथा एक परिणामको पाये बिना एक क्रिया भी कहाँसे करें ? अर्थात् विलकुल न करें ।
'दोई करतूति एक दर्व न करतु है,'
इसी तरह एक द्रव्य दो क्रियाओको धारण भी नही करता, एक समयमे दो उपयोग नही हो सकते । इसलिये
'जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ,' जीव और पुद्गल कदाचित् एक क्षेत्रको रोककर रहे हो तो भी 'अपने अपने रूप, कोउ न टरतु है,
अपने अपने स्वरूपसे किसी अन्य परिणामको प्राप्त नही होते, और इसलिये ऐसा कहते हैं कि'जड परिनामनिको, करता है पुद्गल',
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२५ वॉ वर्ष
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देहादिकसे जो परिणाम होता है उसका पुद्गल कर्त्ता है, क्योकि देहादि जड है, और जडपरिणाम तो पुद्गलमे होता है । जब ऐसा ही है तो फिर जीव भी जीवस्वरूपमे ही रहता है, इसमे अब किसी दूसरे प्रमाणकी जरूरत नही है, ऐसा मानकर कहते हैं कि -
'चिदानंद चेतन सुभाव आचरतु है।'
काव्य कर्त्ता कहनेका हेतु यह है कि यदि आप इस तरह वस्तुस्थितिको समझें तो जडसबंधी जो स्वस्वरूपभाव है वह मिटे और स्वस्वरूपका जो तिरोभाव हैं वह प्रगट हो । विचार करें तो स्थिति भी ऐसी ही है । अति गन बातको यहां संक्षेपमे लिखा है । (यद्यपि ) जिसे यथार्थं बोध है उसे तो सुगम है ।
इस बातका अनेक बार मनन करनेसे कुछ बोध हो सकेगा ।
आपका एक पत्र परसो मिला था। आपको पत्र लिखनेका मन तो होता है, परन्तु जो लिखनेका सूझता है वह ऐसा सूझता है कि आपको उस बातका बहुत समय तक परिशीलन होना चाहिये, और वह विशेष गहन होता है । इसके सिवाय लिखना नही सूझता । अथवा लिखनेमे मन नही लगता । बाकी तो नित्य समागमकी इच्छा करते है ।
प्रसंगोपात्त कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा | आजीविकाके दु खके लिये आप जो लिखते हैं वह सत्य है । चित्त प्राय वनमें रहता है, आत्मा तो प्रायः मुक्तस्वरूप लगता है । वीतरागता विशेष है । बेगारभाँति प्रवृत्ति करते हैं, दूसरोका अनुसरण भी करते हैं । जगतसे बहुत उदास हो गये हैं । वस्तीसे तग आ गये हैं । किसीको दशा बता नही सकते । बताने जैसा सत्सग नही है, मनको जैसे चाहे वैसे मोड सकते हैं, इसलिये प्रवृत्तिमे रह सके हैं। किसी प्रकारसे रागपूर्वक प्रवृत्ति न होती हो ऐसी दशा है, ऐसा रहता है । लोकपरिचय अच्छा नही लगता । जगतमे चैन नही पडता ।
अधिक क्या लिखें ? आप जानते हैं । यहाँ समागम हो ऐसी तो इच्छा करते है, तथापि किये हुए कर्मोकी निर्जरा करनी है, इसलिये उपाय नही है ।
लि० यथार्थ बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
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बबई, पौष वदी १३, गुरु, १९४८
दूसरे काम प्रवृत्ति करते हुए भी अन्यत्वभावनासे प्रवृत्ति करनेका अभ्यास रखना योग्य है । वैराग्य भावनासे भूषित 'शातसुधारस' आदि ग्रन्थ निरतर चिंतन करने योग्य हैं । प्रमादमे वैराग्यकी तीव्रता, मुमुक्षुता मद करने योग्य नही है, ऐसा निश्चय रखना योग्य है ।
श्री बोधस्वरूप ।
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बबई, माघ सुदी ५, बुध, १९४८ साधारण हो गया है। दीर्घकाल तक अन्यभावकी साधारणता दूर होती है,
अनंतकालसे स्वरूपका विस्मरण होनेसे जीवको अन्यभाव सत्सगमे रहकर वोधभूमिकाका सेवन होनेसे वह विस्मरण और अर्थात् अन्यभावसे उदासीनता प्राप्त होती हैं । यह काल विषम होनेसे स्वरूपमे तन्मयता रहना दुष्कर है, तथापि सत्सगका दीर्घकाल तक सेवन उस तन्मयताको देता है इसमे सदेह नही होता ।
जीवन अल्प है और जजाल अनत है, धन सीमित है, और तृष्णा अनत है; इस स्थितिमे स्वरूपस्मृतिका सभव नही है | परन्तु जहाँ जजाल अल्प है, और जीवन अप्रमत्त है, तथा तृष्णा अल्प है अथवा नही है, और सर्व सिद्धि है, वहाँ पूर्ण स्वरूपस्मृति होना सभव है । अमुल्य ऐसा ज्ञानजीवन प्रपचसे आवृत होकर चला जाता है । उदय बलवान है !
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श्रीमद् राजचन्द्र
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वबई, माघ सुदी १३, बुध, १९४८ (राग प्रभाती) *जीव नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा, पुग्गलाधार नहीं तास रंगी। पर तणो ईश नही अपर ऐश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी॥
(श्री सुमतिनाथ स्तवन–देवचद्रजी)
प्रणाम पहुंचे।
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बबई, माघ वदी २, रवि, १९४८ अत्यत उदास परिणाममे रहे हुए चैतन्यको ज्ञानी प्रवृत्तिमे होनेपर भी वैसा ही रखते हैं; तो भी कहते है कि माया दुस्तर है, दुरत है, क्षणभर भो, एक समय भी इसे आत्मामे स्थापन करना योग्य नही है। ऐसी तीव्र दशा आनेपर अत्यत उदास परिणाम उत्पन्न होता है, और वैसे उदास परिणामकी जो प्रवृत्ति-(गार्हस्थ्य सहितकी)-वह अवधपरिणामी कहने योग्य है । जो बोधस्वरूपमे स्थित है वह इस तरह कठिनतासे प्रवृत्ति कर सकता है क्योकि उसकी विकटता परम है।
जनकराजाकी विदेहीरूपसे जो प्रवृत्ति थी वह अत्यत उदासीन परिणामके कारण रहती थी, प्राय उन्हे वह सहजस्वरूपमे थो, तथापि किसी मायाके दुरन्त प्रसगमे, समुद्रमे जैसे नाव थोडोसी डोला करती है वैसे उस परिणामको चलायमानताका सभव होनेसे प्रत्येक मायाके प्रसंगमे जिसकी सर्वथा उदासीन अवस्था है ऐसे निजगुरु अष्टावक्रकी शरण अपनानेसे मायाको आसानीसे तरा जा सकता था, क्योकि महात्माके आलवनकी ऐसी ही प्रवलता है।
रविवार, १९४८ लौकिकदृष्टिसे आप और हम प्रवर्तन करेंगे तो फिर अलौकिकदृष्टिसे कौन प्रवर्तन करेगा?
आत्मा एक है या अनेक है कर्ना है या अकर्ता है. जगतका कोई कर्ता है या जगत स्वत. है, इत्यादि विपय क्रमश. सत्सगमे समझने योग्य है, ऐसा मानकर इस विषयमे अभी पत्र द्वारा नही लिखा
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गया है।
सम्यकप्रकारसे ज्ञानीमे अखड विश्वास रखनेका फल निश्चय ही मुक्ति है।
आपको ससारसवधी जो जो चिंताएँ हैं उन्हे प्रायः हम जानते हैं, और इस विषयमे आपको अमुक अमुक विकल्प रहा करते हैं उन्हे भी जानते हैं । और आपको सत्सगके वियोगके कारण जो परमार्थाचता भी रहती हे उसे भी जानते हैं। दोनो प्रकारके विकल्प होनेसे आपको आकुल व्याकुलता प्राप्त होती हो, इसमे भी आश्चर्य नही लगता अथवा यह असभवरूप मालूम नही होता। अब इन दोनो प्रकारोके लिय हमारे मनमे जो कुछ हे उसे स्पष्ट शब्दोमे नीचे लिखनेका प्रयत्न किया है ।
ससार सम्बन्धी आपको जो चिता है उसे उदयके अनुसार वेदन करें, सहन करे । यह चिंता होनेका कारण ऐसा कोई कर्म नही है कि जिसे दूर करनेके लिये प्रवृत्ति करते हुए ज्ञानी पुरुषको बाधा न आये। जबसे यथार्थ बोधकी उत्पत्ति हुई है, तबसे किसो भो प्रकारके सिद्धियोगसे या विद्याके योगसे स्वसम्बन्धी या परसम्बन्धी सासारिक साधन न करनेको प्रतिज्ञा है, और इस प्रतिज्ञाके पालनमे एक पलको भी मदता
*भावार्थ-जीव पौद्गलिक पदार्थ नहीं है, पुद्गल नहीं है, पुद्गलका आधार नहीं है, और वह पुद्गलके रगवाल नहीं है, अपनो स्वल्पमत्ताके सिवायजो कुछ अन्य है उसका स्वामी नहीं है, क्योकि परका ऐश्वर्य स्वरूपम नहीं होता । वस्तुधर्मसे देखते हुए किमी कालमे भी वह परसगी भी नही ह ।।
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आज दिन तक आयी हो यह याद नही आता । आपकी चिता जानते हैं, और हम उस चिताके किसी भी भागको यथाशक्ति वेदन करना चाहते हैं । परन्तु ऐसा तो कभी भूतकालमे हुआ नही है, तो अब कैसे हो सकता है ? हमे भी उदयकाल ऐसा रहता है कि अभी ऋद्धियोग हाथमे नही है ।
प्राणीमात्र प्राय आहार, पानी पा लेते है। तो आप जैसे प्राणीके कुटुम्बके लिये उससे विपरीत परिणाम आये ऐसा मानना योग्य ही नही है। कुटुम्बकी लाज वारवार आड़े आकर जो आकुलता उत्पन्न करती है, उसे चाहे तो रखें और चाहे तो न रखें, दोनो समान हैं, क्योकि जिसमे अपनी निरुपायता है उसमे तो जो हो उसे योग्य ही मानना, यही दृष्टि सम्यक् है । जो लगा वह बताया है।
हमे जो निर्विकल्प नामकी समाधि है वह तो आत्माकी स्वरूपपरिणति रहनेके कारण है । आत्माके स्वरूपसबंधी तो हमे प्राय. निर्विकल्पता ही रहना सभव है, क्योकि अन्यभावमे मुख्यत. हमारी प्रवृत्ति ही नही है।
बध-मोक्षकी यथार्थ व्यवस्था जिस दर्शनमे यथार्थरूपसे कही गयी है, वह दर्शन निकट मुक्तिका । कारण है, और इस यथार्थ व्यवस्थाको कहने योग्य यदि किसीको हम विशेषरूपसे मानते हो तो वे श्री तीर्थंकरदेव हैं।
__ और आज इस क्षेत्रमे श्री तीर्थकरदेवका यह आतरिक आशय प्रायः मुख्यरूपसे यदि किसीमे हो । तो वे हम होगे ऐसा हमे दृढतापूर्वक भासित होता है।
____ क्योकि हमारे अनुभवज्ञानका फल वीतरागता है, और वीतरागका कहा हुआ श्रुतज्ञान भी उसी । परिणामका कारण लगता है, इसलिये हम उनके वास्तविक और सच्चे अनुयायी है।
वन और घर ये दोनो किसी प्रकारसे हमे समान हैं, तथापि पूर्ण वीतरागभावके लिये वनमे रहना । अधिक रुचिकर लगता है, सुखकी इच्छा नही है परन्तु वीतरागताकी इच्छा है।
जगतके कल्याणके लिये पुरुषार्थ करनेके बारेमे लिखा तो वह पुरुषार्थ करनेकी इच्छा किसी प्रकारसे : रहती भी है, तथापि उदयके अनुसार चलना यह आत्माकी सहज दशा हुई है, और वैसा उदयकाल अभी समीपमे दिखायी नही देता, और उसकी उदीरणा की जाये ऐसी दशा हमारी नही है।
'भीख मांगकर गुजरान चलायेंगे परन्तु खेद नही करेंगे, ज्ञानके अनत आनन्दके आगे वह दुख तृण मात्र है' इस भावार्थका जो वचन लिखा है उस वचनको हमारा नमस्कार हो । ऐसा वचन सच्ची योग्यताके बिना निकलना सभव नही है।
"जीव यह पौद्गलिक पदार्थ नही है, पुद्गल नही है, और पुद्गलका आधार नही है, उसके रगवाला नहीं है, अपनी स्वरूपसत्ताके सिवाय जा अन्य हे उसका स्वामी नही है, क्योकि परका ऐश्वर्य स्वरूपमे नही होता। वस्तुधर्मसे देखते हुए वह कभी भी परसगी भी नही है।" इस प्रकार सामान्य अर्थ 'जीव नवि पुग्गली' इत्यादि पदोका है।
"दुःखसुखरूप करम फळ जाणो, निश्चय एक आनंदो रे। चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचदो रे ॥"
(श्री वासुपूज्य स्तवन-आनन्दघनजी)
१ भावार्थ-हे भन्यो । दुख और सुख दोनोको कर्मका फल जाने। यह व्यवहारनयकी अपेक्षासे हे ओर निश्चयनयसे तो आत्मा आनदमय ही है। जिनेश्वर कहते हैं कि आत्मा कभी भी चेतन ताके परिणामको नहीं छोडता ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
३२३ - बबई, माघ वदो २, रवि, १९४८ यहाँ समाधि हे । पूर्णज्ञानसे युक्त ऐसी जो समाधि वह वारवार याद आती है। परमसत्का ध्यान करते हैं । उदासीनता रहती है ।
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बबई, माघ वदी ४, बुध, १९४८ चारो तरफ उपाधिकी ज्वाला प्रज्वलित हो उस प्रसगमे समाधि रहना परम दुष्कर है, और यह बात तो परम ज्ञानीके बिना होना विकट है। हमे भी आश्चर्य हो आता है, तथापि प्रायः ऐसा रहा ही करता है ऐसा अनुभव है। .
जिसे आत्मभाव यथार्थ समझमे आता है, निश्चल रहता है, उसे यह समाधि प्राप्त होती है। सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता जानते हैं, और वैसा अनुभव है।
३२५
बबई, माघ वदी ९, सोम, १९४८ "जबहीते चेतन विभावसो उलटि आपु, समै पाई अपनो सुभाव गहि लीनो है। तबहीतें जो जो लेनेजोग सो सो सब लोनो, जो जो त्यागजोग सो सो सब छांडी दीनो है। लेवेकों न रही ठोर, त्यागीवेको नाहीं ओर, बाकी कहा उबर्यो जु, कारज नवीनो है। संगत्यागी, अगत्यागी, वचनतरंगत्यागी,
मनत्यागी, बुद्धित्यागी, आपा शुद्ध कोनो है ॥" -कैसी अद्भत दशा? जैसा समझमे आये वैसा यदि योग्य लगे तो अर्थ लिखियेगा।
प्रणाम पहुंचे। ३२६ . बंबई, माघ वदी ११, बुध, १९४८ शुद्धता विचारे ध्यावे, शुद्धतामें केली करे। शुद्धतामे थिर व्हे अमृत धारा वरसे ॥ -समयसार नाटक
____३२७ बबई, माघ वदी १४, शनि, १९४८ अद्भुतदशाके काव्यका अर्थ लिख भेजा सो यथार्थ है। अनुभवका ज्यो-ज्यो विशेष सामर्थ्य उत्पन्न होता है त्यो त्यो ऐसे काव्य, शब्द, वाक्य यथातथ्यरूपसे परिणमित होते हैं, इसमे आश्चर्यकारक दशाका वर्णन है।
१ भावार्थ-अवसर मिलनेपर जबसे आत्माने विभाव परिणतिको छोडकर निज स्वभावको ग्रहण किया है, तबसे जो जो बातें उपादेय थी वे वे सब ग्रहण की, और जो जो वा हेय थी वे वे सब छोड दी। अव ग्रहण करने योग्य और त्यागने योग्य कुछ नही रह गया और न कुछ शेष रह गया जो नया काम करनेको बाकी हो । परिग्रह छोड दिया, शरीर छोड दिया, वचन-तर्ककी क्रियासे रहित हुआ, मनके विकल्प त्याग दिये, इन्द्रियजनित ज्ञान छोडा और आत्माको शुद्ध किया। [ समयसार नाटक हिंदी टीका सर्वविशुद्धिद्वार १०९, पृ० २७९-२८० ]
२. देखें आक ३२५
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३२३
जीवको सत्पुरुषको पहचान नही होती और उनके प्रति अपने समान व्यावहारिक कल्पना रहती है, यह जीवकी कल्पना किस उपायसे दूर हो, सो लिखियेगा ।
उपाधिका प्रसंग बहुत रहता है । सत्संगके बिना जी रहे है ।
बबई, माघ वदी ३०, रवि, १९४८
३२८
“लेवेको न रही ठोर, त्यागोवेको नाहीं ओर ।
arat कहा उबर्यो जु, कारज नवीनो है !"
स्वरूपका भान होनेसे पूर्णकामता प्राप्त हुई, इसलिये अब कुछ भी लेनेके लिये दूसरा कोई क्षेत्र नही रहा । स्वरूपका त्याग तो मूर्ख भी कभी करना नही चाहता, और जहाँ केवल स्वरूपस्थिति है, वहाँ तो फिर दूसरा कुछ रहा नही, इसलिये त्याग करना भी नही रहा। अब जब लेनादेना दोनो निवृत्त हो गये, तब दूसरा कोई नवीन कार्य करनेके लिये क्या बाकी रहा ? अर्थात् जैसे होना चाहिये वैसे हो गया । तो फिर दूसरा लेने-देनेका जजाल कहाँसे हो ? इसलिये कहते हैं कि यहाँ पूर्णकामता प्राप्त हुई ।
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बबई, माघ वदी, १९४८ कोई क्षणभरके लिये अरुचिकर करना नही चाहता । तथापि उसे करना पड़ता है, यह यो सूचित करता है कि पूर्व कर्म का निबंधन अवश्य है ।
अविकल्प समाधिका ध्यान क्षणभरके लिये भी नही मिटता । तथापि अनेक वर्षोंसे विकल्परूप उपाधिकी आराधना करते जाते हैं ।
जब तक ससार है तब तक किसी प्रकारको उपाधि होना तो सभव है, तथापि अविकल्प समाधिमे स्थित ज्ञानीको तो वह उपाधि भी अबाध है, अर्थात् समाधि ही है ।
इस देहको धारण करके यद्यपि कोई महान ऐश्वर्य नही भोगा, शब्दादि विषयोका पूरा वैभव प्राप्त नही हुआ, किसी विशेष राज्याधिकार सहित दिन नही बिताये, अपने माने जानेवाले किसी धाम व आरामका सेवन नही किया, और अभी युवावस्थाका पहला भाग चलता है, तथापि इनमेसे किसीकी आत्मभावसे हमे कोई इच्छा उत्पन्न नही होती, यह एक बडा आश्चर्य मानकर प्रवृत्ति करते हैं । और इन पदार्थों की प्राप्ति अप्राप्ति दोनो एकसी जानकर बहुत प्रकारसे अविकल्प समाधिका ही अनुभव करते हैं । ऐसा होनेपर भी वारवार वनवासकी याद आती है, किसी प्रकारका लोकपरिचय रुचिकर नही लगता, सत्सगमे सुरत बहा करती है, और अव्यवस्थित दशासे उपाधियोगमे रहते हैं । एक अविकल्प समाधिके सिवाय सचमुच कोई दूसरा स्मरण नही रहता, चिंतन नही रहता, रुचि नही रहती, अथवा कुछ काम नही किया जाता ।
ज्योतिष आदि विद्या या अणिमा आदि सिद्धिको मायिक पदार्थ समझकर आत्माको उसका स्मरण भी क्वचित ही होता है । उस द्वारा किसी वातको जानना अथवा सिद्ध करना कभी योग्य नही लगता, और इस बात किसी तरह अभी तो चित्तप्रवेश भी नही रहा ।
पूर्व निबन्धन जिस जिस प्रकारसे उदयमे आये उस उस प्रकार से ' ऐसा करना योग्य लगा है ।
अनुक्रमसे वेदन करते जाना,
आप भी ऐसे अनुक्रममे चाहे जितने थोडे अंशमे प्रवृत्ति की जाय तो भी वैसी प्रवृत्ति करनेका अभ्यास रखिये और किसी भी कामके प्रसगमे अधिक शोकमे पड़नेका अभ्यास कम कीजिये, ऐसा करना या होना यह ज्ञानीकी भवस्थामे प्रवेश करनेका द्वार हे ।
१ कागज फट जानेसे अक्षर उड गये हैं ।
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श्रीमद राजचन्द्र
आप किसी भी प्रकारका उपाधिप्रसंग लिखते हैं, वह यद्यपि पढनेमे आता है, तथापि तत्सबन्धी चित्तनें कुछ भी आभास न पडनेसे प्राय उत्तर लिखना भी नहीं बन पाता, इसे दोष कहे या गुण कहे,
परंतु क्षमा करने योग्य है ।
सासारिक उपाधि हमें भी कुछ कम नही है, तथापि उसमे निज भाव न रहनेसे उससे घबराहट उत्पन्न नहीं होती। उस उपाधिके उदयकालके कारण अभी तो समाधि गौणभावसे रहती है, और उसके
लिये शोक रहा करता है ।
.
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लि० वीतरागभावके यथायोग्य ।
बबई, माघ, १९४८
किसनदास आदि जिज्ञासु,
दीर्घकाल तक यथार्थ बोधका परिचय होनेसे बोधबीजकी प्राप्ति होती है, और यह बोधबीज प्रायनिश्चय सम्यक्त्व होता है ।
जिनेंद्र भगवानने बाईस प्रकार के परिषह कहे है, उनमे दर्शनपरिपह नामका एक परिषह कहा है, और एक दूसरा अज्ञानपरिषह नामका परिषह भी कहा है । इस दोनो परिषहोका विचार करना योग्य है, यह विचार करनेकी आपकी भूमिका है; अर्थात् उस भूमिका ( गुणस्थानक ) का विचार करनेसे किसी प्रकार आपको यथार्थ धैर्य प्राप्त होना सम्भव है ।
किसी भी प्रकारसे स्वय मनमे कुछ सकल्प किया हो कि ऐसी दशामे आयें अथवा इस प्रकारका ध्यान करें, तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, तो वह सकल्पित प्राय (ज्ञानीका स्वरूप समझमे आनेपर ) मिथ्या है, ऐसा मालूम होता है ।
यथार्थं बोधके अर्थका विचार करके, अनेक बार विचार करके अपनी कल्पनाको निवृत्तं करनेका ज्ञानियोने कहा है ।
'अध्यात्मसार' का अध्ययन, श्रवण चलता है सो अच्छा है । अनेक बार ग्रन्थ पढ़नेकी चिता नही, परन्तु किसी प्रकारसे उसका अनुप्रेक्षण दीर्घकाल तक रहा करे ऐसा करना योग्य है ।
परमार्थ प्राप्त होनेके विषयमे किसी भी प्रकारकी आकुलता व्याकुलता रखना - होना - उसे ‘दर्शनपरिषह' कहा है । यह परिषह उत्पन्न हो यह तो सुखकारक है; परन्तु यदि धैर्यसे वह वेदा जाये तो उसमेसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होना सभव होता है ।
आप 'दर्शनपरिषह' मे किसी भी प्रकारसे रहते हैं, ऐसा यदि आपको लगता हो तो वह धैर्यसे वेदने योग्य है, ऐसा उपदेश है । आप प्रायः 'दर्शनपरिषह' मे है, ऐसा हम जानते है ।
किसी भी प्रकारकी आकुलताके बिना वैराग्यभावनासे, वीतरागभावसे, ज्ञानीमे परमभक्तिभाव से सत्शास्त्र आदिका और सत्सगका परिचय करना अभी तो योग्य है ।
परमार्थंसंबंधी मनमे किये हुए सकल्पके अनुसार किसी भी प्रकारकी इच्छा न करें, अर्थात् किसी भी प्रकार दिव्यतेजयुक्त पदार्थ इत्यादि दिखायी देने आदिकी इच्छा, मन कल्पित ध्यान आदि इन सब सकल्पोको यथाशक्ति निवृत्ति करें ।
'शातसुधारस' मे कही हुई भावना और 'अध्यात्मसार मे कहा हुआ आत्मनिश्चयाधिकार ये वारवार मनन करने योग्य है, इन दोनोकी विशेषता मानें।
'आत्मा है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'आत्मा नित्य है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'आत्मा कर्ता है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'आत्मा भोक्ता है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'मोक्ष है' ऐसा जिस
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३२५ प्रमाणसे ज्ञात हो, और 'उसका उपाय है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, वह वारंवार विचारणीय है। 'अध्यात्मसार'मे अथवा चाहे किसी दूसरे ग्रन्थमे यह बात हो तो विचार करनेमे बाधा नही है । कल्पनाका त्याग करके विचारणीय है।
जनक विदेहीकी बात अभी जाननेसे आपको लाभ नही है । सबके लिये यह पत्र है।
३३१
बबई, माघ, १९४८
वीतरागतासे, अत्यन्त विनयसे प्रणाम ।
भ्रातिवश सुखस्वरूप भासमान होते हैं ऐसे इन ससारी प्रसगो एवं प्रकारोमे जब तक जीवको प्रीति रहती है, तब तक जीवको अपने स्वरूपका भास होना असम्भव है, और सत्सगका माहात्म्य भी तथारूपतासे भासमान होना असभव है। जब तक यह ससारगत प्रीति अससारगत प्रीतिको प्राप्त न हो तब तक अवश्य ही अप्रमत्तभावसे वारवार पुरुषार्थको स्वीकार करना योग्य है। यह बात त्रिकालमे विसवादरहित जानकर निष्कामभावसे लिखी है।
३३२ ___ बबई, फागुन सुदी ४, बुध, १९४८ आरभ और परिग्रहका मोह ज्योज्यो मिटता है, ज्यो-ज्यो तत्सम्बन्धी अपनेपनका अभिमान मदपरिणामको प्राप्त होता है, त्यो-त्यो मुमुक्षता वढती जाती है। अनत कालसे परिचित यह अभिमान प्रायः एकदम निवृत्त नही होता। इसलिये तन, मन, धन आदि जिनमे ममत्व रहता है उन्हे ज्ञानीको अर्पित किया जाता है, प्राय ज्ञानी कुछ उन्हे ग्रहण नही करते, परन्तु उनमेसे ममत्वको दूर करनेका हो उपदेश देते हैं, और करने योग्य भी यही है कि आरम्भ-परिग्रहको वारवारके प्रसगमे पुन पुन विचार करक उनमे ममत्व न होने दे, तब मुमुक्षुता निर्मल होती है।
३३३ __ बबई, फागुन सुदी ४, बुध, १९४८ "जीवको सत्पुरुपकी पहचान नही होती, और उनके प्रति अपने समान व्यावहारिक कल्पना रहती हैं, यह जीवकी कल्पना किस उपायसे दूर हो ?' इस प्रश्नका यथार्थ उत्तर लिखा है। ऐसा उत्तर ज्ञानी अथवा ज्ञानीका आश्रित मात्र जान सकता है, कह सकता है, अथवा लिख सकता है। मार्ग कैसा ही इसका जिन्हे ज्ञान नही है, ऐसे शास्त्राभ्यासी पुरुष उसका यथार्थ उत्तर नही दे सकते, यह भी यथार्थ ही है। 'शुद्धता विचारे ध्यावे', इस पदके विषयमे अब फिर लिखेंगे।
अबारामजीकी पुस्तकके विषयमे आपने विशेष अध्ययन करके जो अभिप्राय लिखा, उसके विषयमे अव फिर बातचीतके समय विशेष बताया जा सकता है। हमने उस पुस्तकका बहुतसा भाग देखा है, परतु सिद्धातज्ञानसे असगत बातें लगती है, और ऐसा ही है, तथापि उस पुरुषकी दशा अच्छी है, मार्गानुसारी जेसो है ऐसा तो हम कहते है । हमने जिसे सैद्धातिक अथवा यथार्थ ज्ञान माना है वह अति-अति सूक्ष्म है, परन्तु वह प्राप्त हो सकनेवाला ज्ञान है । विशेष अब फिर । चित्तने कहे अनुसार नहीं किया इसलिये आज विशेष नही लिखा गया, सो क्षमा कीजियेगा।
परम प्रेमभावसे नमस्कार प्राप्त हो।
१ श्री सौभाग्यभाई द्वारा दिया गया उत्तर-"निप्पक्ष होकर सत्सग करे तो सत् मालूम होता है, और फिर सत्पुरुषका योग मिले तो उसे पहचानता है और पहचाने तो व्यावहारिक कल्पना दूर होती है। इसलिये पक्षरहित होकर सत्सग करना चाहिये । इस उपायके सिवाय दुसरा कोई उपाय नहीं है । वाकी भगवत्कृपाकी वात और है।"
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३२६
श्रीमद राजचन्द्र
३३४
बबई, फागुन सुदी १०, बुध, १९४८
हृदयरूप श्री सुभाग्यके प्रति, भक्तिपूर्वक नमस्कार पहुँचे ।
'अब फिर लिखेंगे, अब फिर लिखेंगे' ऐसा लिखकर अनेक बार लिखना बन नही पाया, सो क्षमा करने योग्य है, क्योकि चित्तस्थिति प्राय विदेही जेसी रहती है, इसलिये कार्यमे अव्यवस्था हो जाती है । अभी जैसी चित्तस्थिति रहती है, वैसी अमुक समय तक चलाये बिना छुटकारा नही है ।
1
बहुत बहुत ज्ञानी पुरुष हो गये है, उनमे हमारे जैसे उपाधिप्रसंग और उदासीन, अति उदासीन चित्तस्थितिवाले प्राय अपेक्षाकृत थोडे हुए है । उपाधिप्रसग के कारण आत्मा सबधी विचार अखण्डरूपसे नही हो सकता, अथवा गौणरूपसे हुआ करता है, ऐसा होनेसे बहुत काल तक प्रपचमे रहना पड़ता हैं, और उसमे तो अत्यत उदास परिणाम हो जानेसे क्षणभरके लिये भी चित्त स्थिर नही रह सकता, जिससे ज्ञानी सर्वसंगपरित्याग करके अप्रतिबद्धरूप से विचरण करते है । 'सर्वसग' शब्दका लक्ष्यार्थ है ऐसा सग कि जो अखण्डरूपसे आत्मध्यान, या बोध मुख्यत न रखा सके । हमने यह सक्षेपमे लिखा है, और इस प्रकारकी बाह्य एव अतरसे उपासना करते रहते हैं ।
देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योकि हम भी निश्चयसे उसी स्थितिको प्राप्त करनेवाले हैं, यो हमारा आत्मा अखण्डरूपसे कहता है, और ऐसा ही है, अवश्य ऐसा ही है । पूर्ण वीतरागकी चरणरज निरतर मस्तकपर हो, ऐसा रहा करता है । अत्यंत विकट ऐसा वीतरागत्व अत्यंत आश्चर्यकारक है, तथापि यह स्थिति प्राप्त होती है, सदेह प्राप्त होती है, यह निश्चय है, प्राप्त करनेके लिये पूर्ण योग्य हैं, ऐसा निश्चय है । सदेह ऐसे हुए बिना हमारी उदासीनता दूर हो ऐसा मालूम नही होता और ऐसा होना सम्भव है, अवश्य ऐसा ही है ।
प्रश्नोंके उत्तर प्राय नही लिखे जा सकेंगे, क्योकि चित्तस्थिति जैसी बतायी वैसी रहा करती है । अभी वहाँ कुछ पढना और विचार करना चलता है क्या ? अथवा किस तरह चलता है ? इसे प्रसंगोपात्त लिखियेगा ।
त्याग चाहते है, परन्तु नही होता । वह त्याग कदाचित् आपकी इच्छानुसार करे, तथापि उतना भी अभी तो हो सकना सम्भव नही है ।
अभिन्न बोधमय प्रणाम प्राप्त हो ।
बबई, फागुन सुदी १०, बुध, १९४८
३३५
उदास-परिणाम आत्माको भजा करता है । निरुपायताका उपाय काल है । पूज्य श्री सौभाग्यभाई,
समझनेके लिये जो विवरण लिखा है, वह सत्य है । जव तक ये बाते जीवकी समझमे नही आती, तब तक यथार्थ उदासीन परिणतिका होना भी कठिन लगता है ।
'सत्पुरुष पहचाननेमे क्यो नही आते ?' इत्यादि प्रश्न उत्तरसहित लिख भेजनेका विचार तो होता है, परन्तु लिखनेमे चित्त जैसा चाहिये वैसा नही रहता, और वह भी अल्प काल रहता है, इसलिये निर्धारित लिखा नही जा सकता ।
उदास - परिणाम आत्माको अत्यन्त भजा करता है ।
किसी अर्धजिज्ञासु पुरुषको आठेक दिन पूर्व एक पत्र भेजनेके लिये लिख रखा था । पोछेसे अमुक कारणसे चित्त रुक जानेसे वह पत्र पडा रहने दिया था जिसे पढनेके लिये आपको भेज दिया है।
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३२७
२५ वो वर्ष जो वस्तुत ज्ञानीको पहचानता है वह ध्यान आदिकी इच्छा नहीं करता, ऐसा हमारा अंतरग अभिप्राय रहता है।
जो मात्र ज्ञानीको चाहता है, पहचानता है और भजता है, वही वैसा होता है, और वह उत्तम मुमुक्षु जानने योग्य है।
उदास परिणाम आत्माको भजा करता है। चित्तकी स्थितिमे यदि विशेषरूपसे लिखा जायेगा तो लिखूगा।
नमस्कार प्राप्त हो।
३३६ बंबई, फागुन सुदी ११, बुध, १९४८ यहाँ भावसमाधि है।
विशेषत: 'वैराग्य प्रकरण' मे श्रीरामने जो अपनेको वैराग्यके कारण प्रतीत हुए सो बताये हैं, वे पुन पुन विचारणीय हैं।
खम्भातसे पत्रप्रसग रखे। उनकी ओरसे पत्र आनेमे ढील होती हो तो आग्रहसे लिखे जिससे वे ढील कम करेंगे । परस्पर कुछ पृच्छा करना सूझे तो वह भी उन्हे लिखें।
३३७ बंबई, फागुन सुदी ११॥, गुरु, १९४८ चि० चदुके स्वर्गवासकी खबर पढकर खेद हुआ । जो जो प्राणी देह धारण करते हैं वे वे प्राणी उस देहका त्याग करते हैं। ऐसा हमे प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध दिखायी देता है, फिर भी अपना चित्त उस देहकी अनित्यताका विचार करके नित्य पदार्थक मार्गमे नही जाता, इस शोचनीय बातका वारंवार विचार करना योग्य है । मनको धैर्य देकर उदासीको निवृत्त किये बिना छुटकारा नही है । खेद न करके धैर्यसे उस दुखको सहन करना हो हमारा धर्म है।
इस देहका भी जब-तब ऐसे ही त्याग करना है, यह बात स्मरणमे आया करती है, और ससारके प्रति वैराग्य विशेष रहा करता है । पूर्वकर्मके अनुसार जो कुछ भी सुखदु.ख प्राप्त हो, उसे समानभावसे वेदन करना, यह ज्ञानीको सीख याद आनेसे लिखी है । मायाको रचना गहन है।।
३३८ बबई, फागुन सुदी १३, शुक्र, १९४८ परिणामोमे अत्यन्त उदासीनता परिणमित होती रहती है।
ज्यो-ज्यो ऐसा होता है, त्यो-त्यो प्रवृत्ति-प्रसग भी बढते रहते है। अनिर्धारित प्रवृत्तिके प्रसग भी प्राप्त हुआ करते हैं, और इससे ऐसा मानते है कि पूर्व निबद्ध कर्म निवृत्त होनेके लिये शीघ्र उदयमे आते हैं।
३३९
' ववई, फागुन सुदी १४, १९४८ किसीका दोष नहीं है, हमने कर्म बाँधे इसलिये हमारा दोष है। ज्योतिपको आम्नाय सम्बन्धी कुछ विवरण लिखा, सो पढ़ा है। उसका बहुतसा भाग ज्ञात है। तथापि चित्त उसमे जरा भी प्रवेश नही कर सकता, और तत्सम्बन्धी पढ़ना व सुनना कदाचित् चमत्कारिक हो, तो भी वोझरूप लगता है । उसमे किंचित् भी रुचि नहीं रही है।
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३२८
श्रीमद् राजचन्द्र
- हमे तो मात्र अपूर्व सत्के ज्ञानमे ही रुचि रहती है। दूसरा जो कुछ किया जाता है या जिसका अनुसरण किया जाता है, वह सव आसपासके वधनको लेकर किया जाता है।
। अभी जो कुछ व्यवहार करते है, उसमे देह और मनको बाह्य उपयोगमे प्रवृत्त करना पड़ता है। आत्मा उसमे प्रवृत्त नही होता । क्वचित् पूर्वकर्मानुसार प्रवृत्त करना पड़ता है, जिससे अत्यन्त आकुलता आ जाती है। जिन कर्मोका पूर्वमे निबधन किया गया है, उन कर्मोसे निवृत्त होनेके लिये, उन्हे भोग लेनेके लिये, अल्प कालमे भोग लेनेके लिये, यह व्यापार नामके व्यावहारिक कामका दूसरेके लिये सेवन करते हैं।
___ अभी जो व्यापार करते हैं उस व्यापारके विषयमे हमे विचार आया करता था, और उसके बाद अनुक्रमसे उस कार्यका आरभ हुआ, तवसे लेकर अब तक दिन प्रतिदिन कार्यकी कुछ वृद्धि होती रही है।
हमने इस कार्यको प्रेरित किया था, इसलिये तत्सम्बन्धी यथाशक्ति मजदूरी जैसा काम भी करनेका रखा है। अब कार्यकी सीमा वहुत बढ जानेसे निवृत्त होनेकी अत्यन्त बुद्धि हो जाती है । परन्तु को दोषवुद्धि आ जानेका सम्भव है, वह अनत ससारका कारण को हो ऐसा जानकर यथासम्भव चित्तका समाधान करके वह मजदूरी जैसा काम भी किये जाना ऐसा अभी तो सोचा है ।
इस कार्यकी प्रवृत्ति करते समय हमारी जितनी उदासीन दशा थी, उससे आज विशेष है । और इसलिये हम प्राय. उनकी वृत्तिका अनुसरण नही कर सकते, तथापि जितना हो सकता है उतना अनुसरण तो जैसे-तैसे चित्तका समाधान करके करते आये हैं।
___ कोई भी जीव परमार्थकी इच्छा करे और व्यावहारिक सगमे प्रीति रखे, और परमार्थ प्राप्त हो, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता। पूर्वकर्मको देखते हुए तो इस कार्यसे निवृत्ति अभी हो ऐसा दिखायी नही देता।
इस कार्यके पश्चात् 'त्याग' ऐसा हमने तो ज्ञानमे देखा था, और अभी ऐसा स्वरूप दीखता है, इतनी आश्चर्यकी बात है। हमारी वृत्तिको परमार्थके कारण अवकाश नही है ऐसा होनेपर भी बहुतसा समय इस काममे विताते हैं, और इसका कारण मात्र इतना हो है कि उन्हे दोषबुद्धि न आये। तथापि हमारा आचरण ही ऐसा है, कि यदि जीव उसका ख्याल न कर सके तो इतना काम करते हुए भी दोषबुद्धि ही रहा करे।
३४०
बबई, फागुन सुदी १५, रवि, १९४८ ... जिसमे चार प्रश्न लिखे गये है, तथा जिसमे स्वाभाविक भावके विषयमें जिनेंद्रका जो उपदेश है उस विषयमे लिखा है, वह पत्र कल प्राप्त हुआ है।
लिखे हुए प्रश्न बहुत उत्तम है, जो मुमुक्षु जीवको परम कल्याणके लिये उठने योग्य है। उन प्रश्नोंके उत्तर बादमे लिखनेका विचार है।
जिस ज्ञानसे भवात होता है उस ज्ञानकी प्राप्ति जीवके लिये बहुत दुर्लभ है । तथापि वह ज्ञान स्वरूपसे तो अत्यन्त सुगम है, ऐसा जानते हैं। उस ज्ञानके सुगमतासे प्राप्त होनेमे जिस दशाकी जरूरत है उस दशाको प्राप्ति अति अति कठिन है, और उसके प्राप्त होनेके जो दो कारण हैं उनकी प्राप्तिके विना जीवको अनतकालसे भटकना पड़ा है, जिन दो कारणोकी प्राप्तिसे मोक्ष होता है।
प्रणाम।
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२५ वा वर्ष
३२९
बबई, फागुन वदी ४, गुरु, १९४८ यहाँसे कल एक पत्र लिखा है, उसे पढकर चित्तमे अविक्षिप्त रहिये, समाधि रखिये। वह वार्ता चित्तमे निवृत्त करनेके लिये आपको लिखी है, जिसमे उस जीवकी अनुकपाके सिवाय दूसरा हेतु नही है।
हमे तो चाहे जैसे हो तो भी समाधि ही बनाये रखनेकी दृढ़ता रहती है। अपनेपर जो कुछ आपत्ति, विडवना, दुविधा या ऐसा कुछ आ पडे तो उसके लिये किसीपर दोषारोपण करनेकी इच्छा नही होती।
और परमार्थदृष्टिसे देखते हुए तो वह जीवका दोष है। व्यावहारिकदृष्टिसे देखते हुए नही जैसा है, और जीवकी जब तक व्यावहारिकदृष्टि होती है तब तक पारमार्थिक दोषका ख्याल आना बहुत दुष्कर है।
आपके आजके पत्रको विशेषत पढ़ा है। उससे पहलेके पत्रोकी भी बहुतसी प्रश्नचर्चा आदि ध्यानमे है । यदि हो सका तो रविवारको इस विषयमे संक्षेपमे कुछ लिखूगा।
मोक्षके दो मुख्य कारण जो आपने लिखे हैं वे वैसे ही हैं । इस विषयमे विशेप फिर लिखूगा।
३४२
बबई, फागुन वदी ६, शनि, १९४८ यहाँ भावसमाधि तो है । आप जो लिखते हैं वह सत्य है। परन्तु ऐसी द्रव्यसमाधि आनेके लिये पूर्वकर्मोको निवृत्त होने देना योग्य है।
दुषमकालका बड़ेसे बडा चिह्न क्या है ? अथवा दुषमकाल किसे कहा जाता है ? अथवा किन मख्य लक्षणोसे वह पहचाना जा सकता है ? यही विज्ञापन है।
लि० बोधवीज।
बबई, फागुन वदी ७, रवि, १९४८
यहाँ समाधि है। जो समाधि है वह कुछ अशोमे है। और जो हे वह भावसमाधि है।
बबई, फागुन वदी १०, बुध, १९४८
३४४ उपाधि उदयरूपसे रहती है। पत्र आज पहुँचा है । अभी नो परम प्रेमसे नमस्कार पहुँचे। ।
३४५
बंबई, फागुन वदी ११, १९४८ किसी भी प्रकारसे सत्सगका योग हो तो वह करते रहना, यह कर्तव्य है, और जिस प्रकारसे जीवको ममत्व विशेष हुआ करता हो अथवा बढा करता हो उस प्रकारसे यथासम्भव संकोच करते रहना, यह सत्सगमे भी फल देनेवाली भावना है।
बबई, फागुन वदी १४, रवि, १९४८
३४६ सभी प्रश्नोके उत्तर स्थगित रखनेको इच्छा है । पूर्वकर्म शीघ्र निवृत्त हो, ऐसा करते हैं। कृपाभाव रखिये और प्रणाम स्वीकार कीजिये ।
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३३०
श्रीमद् राजचन्द्र
३४७
बबई, फागुन वदी ३०, सोम, १९४८
बबरः
आत्मस्वरूपसे हृदयरूप विश्राममूर्ति श्री सौभाग्यके प्रति,
हमारा विनययुक्त प्रणाम पहुंचे। यहाँ प्रायः आत्मदशासे सहजसमाधि रहती है। बाह्य उपाधिका योग विशेषत: उदयको प्राप्त होनेसे तदनुसार प्रवृत्ति करनेमे भी स्वस्थ रहना पड़ता है।
जानते है कि जो परिणाम बहुत कालमे प्राप्त होनेवाला है वह उससे थोडे कालमे प्राप्त होनेके लिये वह उपाधियोग विशेषता रहता है।
आपके बहुतसे पत्र हमे मिले हैं। उनमे लिखो हुई ज्ञानसम्बन्धी वार्ता प्राय हमने पढी है । उन सब प्रश्नोंके उत्तर प्राय नही लिखे गये हैं, इसके लिए क्षमा करना योग्य है ।
उन पत्रोमे प्रसंगात् कोई कोई व्यावहारिक वार्ता भी लिखी है, जिसे हम चित्तपूर्वक पढ सके ऐसा होना विकट है । और उस वार्तासम्बन्धी प्रत्युत्तर लिखने जैसा नही सूझता है । इसलिये उसके लिये भी क्षमा करना योग्य है।
____ अभी यहाँ हम व्यावहारिक काम तो प्रमाणमे बहुत करते हैं, उसमे मन भी पूरी तरह लगाते है, तथापि वह मन व्यवहारमे नही जमता, अपनेमे ही लगा रहता है, इसलिये व्यवहार बहुत बोझरूप रहता है।
___ सारा लोक तीनो कालमे दु खसे पीडित माना गया है, और उसमे भी जो चल रहा है, वह तो महा दुषमकाल है, और सभी प्रकारसे विश्रातिका कारणभत जो 'कर्तव्यरूप श्री सत्सग' है, वह तो सभी कालमे प्राप्त होना दुर्लभ है । वह इस कालमे प्राप्त होना अति-अति दुर्लभ हो यह कुछ आश्चर्यकारक नही है।
हम कि जिनका मन प्राय क्रोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे, हास्यसे, रतिसे, अरतिसे, भयसे, शोकसे, जुगुप्सासे या शब्द आदि विषयोसे अप्रतिबद्ध जैसा है, कुटुम्बसे, धनसे, पुत्रसे, 'वैभवसे', स्त्रोसे या देहसे मुक्त जैसा है, ऐसे मनको भी सत्सगमे बाँध रखनेकी अत्यधिक इच्छा रहा करती है, ऐसा होनेपर भी हम और आप अभी प्रत्यक्षरूपसे तो वियोगमे रहा करते है यह भी पूर्व निबधनके किसी बड़े प्रबन्धके उदयमे होनेके कारण सम्भव है।
ज्ञानसम्बन्धी प्रश्नोके उत्तर लिखवानेकी आपकी अभिलाषाके अनुसार करनेमे प्रतिबन्ध करनेवाली एक चित्तस्थिति हुई है जिससे अभी तो उस विषयमे क्षमा प्रदान करना योग्य है।
आपको लिखी हुई कितनी ही व्यावहारिक बातें ऐसी थी कि जिन्हे हम जानते हैं । उनमे कुछ उत्तर लिखने जैसी भी थी । तथापि मन वैसी प्रवृत्ति न कर सका इसलिये क्षमा करना योग्य है।
३४८ - बबई, चैत्र सुदी २, बुध, १९४८ नमस्कार पहुंचे।
यह लोकस्थिति ही ऐसी है कि उसमे सत्यकी भावना करना परम विकट है। सभी रचना असत्यके आग्रहको भावना करानेवाली है।
३४९
वंबई, चैत्र सुदी ४, शुक्र, १९४८
नमस्कार पहुंचे। लोकस्थिति आश्चर्यकारक है।
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२५ वो वर्ष
३३१ ३५०
बबई, चैत्र सुदी ६, रवि, १९४८ ज्ञानोको 'सर्वसग परित्याग करनेका क्या हेतु होगा?
प्रणाम प्राप्त हो। ३५१
बबई, चैत्र सुदी ९, बुध, १९४८ वाह्योपाधि प्रसंग रहता है।
यथासम्भव सद्विचारका परिचय हो, ऐसा करनेके लिये उपाधिमे उलझे रहनेसे योग्यरूपसे प्रवृत्ति न हो सके, इस बातको ध्यानमे रखने योग्य ज्ञानियोने जाना है।
प्रणाम।
३५२
बबई, चैत्र सुदी ९, बुध, १९४८ शुभोपमायोग्य मेहता श्री ५ चत्रभुज बेचर,
आपने अभी सभीसे कटाला आनेके बारेमे जो लिखा है उसे पढकर खेद हुआ । मेरा विचार तो ऐसा रहता है कि यथासम्भव वैसे कटालेका शमन करे और उसे सहन करें।
किन्ही दुखके प्रसगोमे ऐसा हो जाता है और उसके कारण वैराग्य भी रहता है, परन्तु जीवका सच्चा कल्याण और सुख तो यो मालूम होता है कि उस सब कटालेका कारण अपना उपार्जित प्रारब्ध है, जो भोगे बिना निवृत्त नही होता, और उसे समतासे भोगना योग्य है। इसलिये मनके कटालेको यथाशक्ति शात करें और उपाजित न किये हए कम , भोगनेमे नही आते, ऐसा समझकर दूसरे किसीके प्रति दोषदृष्टि करनेकी वृत्तिको यथाशक्ति शात करके समतासे प्रवृत्ति करना योग्य लगता है, और यही जीवका कर्तव्य है।
लि० रायचदके प्रणाम।
३५३
' बबई, चैत्र सुदी १२, शुक्र, १९४८
ॐ
आप सबका मुमुक्षुतापूर्वक लिखा हुआ पत्र मिला है ।
समय मात्रके लिये भी अप्रमत्तधाराका विस्मरण न करनेवाला ऐसा आत्माकार मन वर्तमान समयमे उदयानुसार प्रवृत्ति करता है, और जिस किसी भी प्रकारसे प्रवृत्ति की जाती है, उसका कारण पूर्वमे निवन्धन करनेमे आया हुआ उदय ही है । इस उदयमे प्रीति भी नही है, और अप्रीति भी नही है। समता है, करने योग्य भी यही है । पत्र ध्यानमे है।
यथायोग्य ।
३५४
बवई, चैत्र सुदी १३, रवि, १९४८ समकितकी स्पर्शना कब हुई समझी जाये ? उस समय केसी दशा रहती है ? इस विषयका अनुभव करके लिखियेगा।
ससारी उपाधिका जैसे होता हो वैसे होने देना, कर्तव्य यही है, अभिप्राय यही रहा करता है। धीरजसे उदयका वेदन करना योग्य है।
१. देखें आफ ३३४ और ६६३
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३३२
श्रीमद राजचन्द्र
३५५
सम्यक्त्वकी स्पर्शनाके सम्बन्धमे विशेषरूपसे लिखा जा सके तो लिखियेगा ।
लिखा हुआ उत्तर सत्य है ।
प्रतिवधता दुखदायक है, यही विज्ञापन |
स्वरूपस्य यथायोग्य ।
३५६
बबई, चैत्र वदी १, वुध, १९४८ आत्मसमाधिपूर्वक योग-उपाधि रहा करती है, जिस प्रतिवधके कारण अभी तो कुछ इच्छित काम नही किया जा सकता ।
हृदयरूप
ऐसे ही हेतुके कारण श्री ऋषभ आदि ज्ञानियोने शरीर आदिकी प्रवर्तनाके भानका भी त्याग
किया था ।
समस्थितभाव ।
बबई, चैत्र वदी ५, रवि, १९४८
श्री सुभाग्य,
आपके एकके बाद एक बहुतसे सविस्तर पत्र मिला करते हैं, जिनमे प्रसगोपात्त शीतल ज्ञानवार्ता भी आया करती है । परंतु खेद होता है कि उस विपयमे प्राय हमसे अधिक लिखना नही हो सकता । सत्सग होनेके प्रसगकी इच्छा करते हैं, परतु उपाधियोगके उदयका भी वेदन किये विना उपाय नही है । चित्त बहुत बार आपमे रहा करता है । जगतमे दूसरे पदार्थं तो हमारे लिये कुछ भी रुचिकर नही रहे है । जो कुछ रुचि रही है वह मात्र एक सत्यका ध्यान करनेवाले सन्तमे, जिसमे आत्माका वर्णन हे ऐसे सत्शास्त्रमे, और परेच्छासे परमार्थके निमित्तकारण ऐसे दान आदिमे रही है । आत्मा तो कृतार्थ प्रतीत होता है ।
1
बबई, चैत्र, वदी १, वुध, १९४८
३५७
हृदयरूप सुभाग्य,
३५८
ववई, चैत्र वदी ५, रवि, १९४८
जगत अभिप्रायको ओर देखकर जोवने पदार्थका बोध पाया है । ज्ञानीके अभिप्रायकी ओर देखकर पाया नही है । जिस जीवने ज्ञानीके अभिप्रायसे बोध पाया है उस जीवको सम्यग्दर्शन होता है ।
'विचारसागर' अनुक्रमले ( प्रारंभसे अन्त तक) विचार करनेका अभ्यास अभी हो सके तो करना योग्य है ।
हम दो प्रकारका मार्ग जानते हैं। एक उपदेशप्राप्तिका मार्ग और दूसरा वास्तविक मार्ग | 'विचारसागर' उपदेशप्राप्तिर्के लिये विचारणीय है ।
जब हम जैनशास्त्र पढनेके लिये कहते हैं तव जैनी होनेके लिये नही कहते, जव वेदातशास्त्र पढ़नेके लिये कहते है, तब वॆदाती होनेके लिये नही कहते, इसी तरह अन्य शास्त्र पढ़नेके लिये कहते हैं तो अन्य हो लिये नही कहते, मात्र जो कहते हैं वह आप सबको उपदेश लेनेके लिये कहते है । जैनी और वेदात आदिके भेदका त्याग करें । आत्मा वैसा नही है ।
३५९
ववई, चैत्र वदी ८, १९४८
आज एक पत्र प्राप्त हुआ हे ।
पत्र पढनेसे और वृत्तिज्ञानसे, अभी आपको कुछ ठीक तरहसे धोरजवल रहता है यह जानकर सन्तोष हुआ है ।
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३६०
२५ वो वर्ष
३३३ किसी भी प्रकारसे पहले तो जीवका अहंत्व दूर करना योग्य है। जिसका देहाभिमान गलित हुआ है उसके लिये सब कुछ सुखरूप ही है। जिसे भेद नही है उसे खेदका सम्भव नही है। हरीच्छामे दृढ विश्वास रखकर आप प्रवृत्ति करते है, यह भी सापेक्ष सुखरूप है। आप जो कुछ विचार लिखना चाहते है उन्हे लिखनेमे भेद नही रखते, इसे हम भी जानते है।
बंबई, चैत्र वदी १२, रवि, १९४८ जहाँ पूर्णकामता है, वहाँ सर्वज्ञता है। जिसे बोधबीजकी उत्पत्ति होती है, उसे स्वरूपसुखसे परितृप्तता रहती है, और विषयके प्रति अप्रयत्न दशा रहती है।
जिस जीवनमे क्षणिकता है, उस जीवनमे ज्ञानियोने नित्यता प्राप्त की है, यह अचरजकी बात है। यदि जीवको परितृप्तता न रहा करती हो तो उसे अखण्ड आत्मबोध नहीं है ऐसा समझे।
३६१ बबई, वैशाख सुदी ३, शुक्र (अक्षयतृतीया), १९४८ भावसमाधि है । बाह्यउपाधि है, जो भावसमाधिको गौण कर सके ऐसी स्थितिवाली है, फिर भी समाधि रहती है।
३६२ बंबई, वैशाख सुदी ४, शनि, १९४८ हृदयरूप श्री सुभाग्य,
नमस्कार पहुंचे। यहाँ आत्मता होनेसे समाधि है ।।
हमने पूर्णकामताके बारेमे लिखा है, वह इस आशयसे लिखा है कि जितना ज्ञान प्रकाशित होता है उतनो शब्द आदि व्यावहारिक पदार्थोंमे नि स्पहता रहती है, आत्मसुखसे परितृप्तता रहती है। अन्य सुखको इच्छा न होना, यह पूर्णज्ञानका लक्षण है।
ज्ञानी अनित्य जीवनमे नित्यता प्राप्त करते हैं, ऐसा जो लिखा है वह इस आशयसे लिखा है कि उन्हे मृत्युसे निर्भयता रहती है। जिन्हे ऐसा हो उनके लिये फिर यो न कहे कि वे अनित्यतामे रहते हैं तो यह बात सत्य है।
__ जिसे सच्चा आत्मभान होता है उसे, मैं अन्य भावका अकर्ता हूँ, ऐसा बोध उत्पन्न होता हे और उसकी अहप्रत्ययीवुद्धि विलीन हो जाती है।
ऐसा आत्मभान उज्ज्वलरूपसे निरतर रहा करता है, तथापि जैसा चाहते हैं वैसा तो नही हे । यहाँ समाधि है।
समाधिरूप।
बबई, वैशाख सुदी ५, रवि, १९४८ अभी तो अनुक्रमसे उपाधियोग विशेष रहा करता है।
अधिक क्या लिखे ? व्यवहारके प्रसगमे धीरज रखना योग्य है। इस बातका विसर्जन नहीं होता हो, ऐसी धारणा रहा करती है।।
अनतकाल व्यवहार करनेमे व्यतीत किया है, तो फिर उसकी झझटमे परमार्थका विसर्जन न किया जाये, ऐसी प्रवृत्ति करनेका जिसका निश्चय है, उसे वैसा होता है, ऐसा हम जानते है।
वनमे उदासीनतासे स्थित जो योगी-तीर्थकर आदि-हे उनके आत्मत्वकी याद आती है।
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३३४
हृदयरूप श्री सुभाग्य,
श्रीमद राजचन्द्र
यहाँ समाधि है । बाह्योपाधि है ।
अभी कुछ ज्ञानवार्ता लिखनेका व्यवसाय कम रखा है, उसे प्रकाशित कीजियेगा ।
३६४
आपका पत्र प्राप्त हुआ । उपाधि
३६५
आज पत्र आया है ।
व्यवसाय विशेष रहता है ।
‘प्राणविनिमय' नामको मिस्मिरेजमकी पुस्तक पहले पढनेमे आ चुकी है, उसमे बतायी हुई बात कोई बडी आश्चर्यकारक नही है, तथापि उसमे कितनी हो बातें अनुभवकी अपेक्षा अनुमानसे लिखी हैं । उनमे कितनी ही असंभव हैं ।
हृदयरूप श्री सुभाग्य,
जिसे आत्मत्वका ध्येय नही है, उसके लिये यह बात उपयोगी है, हमे तो उसके प्रति कुछ ध्यान देकर समझाने की इच्छा नही होती, अर्थात् चित्त ऐसे विषयकी इच्छा नही करता ।
यहाँ समाधि है । बाह्य प्रतिबद्धता रहती है ।
सत्स्वरूपपूर्वक नमस्कार
बबई, वैशाख सुदी १२, रवि, १९४८
हृदयरूप श्री सुभाग्य,
मनमे वारवार विचार करनेसे निश्चय हो रहा है कि किसी भी प्रकारसे उपयोग फिर कर अन्यभावमे ममत्व नही होता, और अखण्ड आत्मध्यान रहा करता है, ऐसी दशामे विकट उपाधियोगका उदय आश्चर्यकारक है । अभी तो थोडे क्षणोकी निवृत्ति मुश्किलसे रहती है और प्रवृत्ति कर सकनेकी योग्यता - वाला तो चित्त नही है, और अभी वैसी प्रवृत्ति करना कर्तव्य है, तो उदासीनतासे ऐसा करते है, मन कही भी नही लगता, और कुछ भी अच्छा नही लगता, तथापि अभी हरीच्छा के अधीन है ।
निरुपम आत्मध्यान जो तीर्थंकर आदिने किया है, वह परम आश्चर्यकारक है । वह काल भी आश्चर्यकारक था । अधिक क्या कहे ? 'वनकी मारी कोयल' की कहावत के अनुसार इस कालमे और इस प्रवृत्ति हम हैं ।
१ मणिभाई सोभाग्यभाईके सवषमें ।
बबई, वैशाख सुदी ९, गुरु, १९४८
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बंबई, वैशाख वदी १, गुरु, १९४८
तो रहता है, तथापि आत्मसमाधि रहती है । अभी कुछ ज्ञानप्रसग लिखियेगा ।
नमस्कार पहुँचे ।
बबई, वैशाख वदी ६, मंगल, १९४८
बबई, वैशाख सुदी ११, शनि, १९४८
३६७
३६८
पत्र प्राप्त हुआ था । यहाँ समाधि है ।
सट्टे जीव' रहता है, यह खेदकी बात है, परन्तु यह तो जीवको स्वत' विचार किये बिना समझ
आ सकता
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२५ वॉ वर्ष
आदिकी इच्छा रखी जाती है, तो जीवको दर्शनावरणीय प्रायः ज्ञानी, किसीको अपनेसे वैसा प्रतिबन्ध न हो, इस तरह
ज्ञानीसे यदि किसी भी प्रकारसे धन कर्मका प्रतिबन्ध विशेष उत्पन्न होता है । प्रवृत्ति करते हैं ।
ज्ञानी अपना उपजीवन - आजीविका भी पूर्वकर्मानुसार करते है, ज्ञानमे प्रतिबद्धता हो, इस तरह आजीविका नही करते, अथवा इस तरह आजीविका करानेके प्रसगको नही चाहते, ऐसा हम जानते है ।
३३५
जिसे ज्ञानीमे केवल निस्पृह भक्ति है, उनसे अपनी इच्छा पूर्ण होती हुई न देखकर भी जिसमे दोष - बुद्धि नही आती ऐसे जीवकी आपत्तिका ज्ञानीके आश्रयसे धैर्यपूर्वक प्रवृत्ति करनेसे नाश होता है, अथवा उसकी बहुत मदता हो जाती है, ऐसा जानते है, तथापि इस कालमे ऐसी धीरज रहनी बहुत विकट है और इसलिये उपरोक्त परिणाम बहुत बार आता हुआ रूक जाता है ।
हमे तो ऐसी झझटमे उदासीनता रहती है । यह तो स्मरणमे आ जानेसे लिखा है ।
f
हममे विद्यमान परम वैराग्य व्यवहारमे कभी भी मनको लगने नही देता, और व्यवहारका प्रतिबध तो सारे दिनभर रखना ही पडता है । अभी तो उदयकी ऐसी स्थिति है, इससे सभव होता है कि वह भी सुखका हेतु है ।
हम तो पाँच माससे जगत, ईश्वर और अन्यभाव इन सबसे उदासीन भावसे रह रहे है तथापि यह बात गभीरता के कारण आपको नही लिखी। आप जिस प्रकारसे ईश्वर आदिमे श्रद्धाशील हैं, आपके लिये उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करना कल्याणकारक है, हमे तो किसी तरहका भेदभाव उत्पन्न न होनेसे सब कुछ झझटरूप है इसलिये ईश्वर आदि सहित सबमे उदासीनता रहती है । हमारे इस प्रकारके लिखने को पढकर आपको किसी प्रकारसे संदेहमें पडना योग्य नही है ।
अभी तो हम इस स्थितिमे रहते है, इसलिये किसी प्रकारकी ज्ञानवार्ता भी लिखी नही जा सकती परतु मोक्ष तो हमे सर्वथा निकट रूपसे रहता है, यह तो नि शंक बात है । हमारा चित्त आत्माके सिवाय किसी अन्य स्थल पर प्रतिवद्ध नही होता, क्षणभरके लिये भी अन्यभावमे स्थिर नही होता, स्वरूपमे स्थि रहता ऐसा जो हमारा आश्चर्यकारक स्वरूप है उसे अभी तो कही भी कहा नही जाता । बहुत मास बीत जानेसे आपको लिखकर सतोष मानते हैं ।
३६९
सव कुछ हरिके अधीन है । पत्रप्रसादी प्राप्त हुई है । यहां समाधि है ।
सविस्तर पत्र अब फिर,
निरुपायताके कारण लिखा नही जा सकता ।
३७०
हृदयरूप श्री सुभाग्यके प्रति,
नमस्कार पढियेगा । हम भेदरहित हैं। वंबई, वैशाख वदी ९, शुक्र, १९४०
बबई, वैशाख वदी ११, रवि, १९४
अविच्छिन्नरूपसे जिन्हे आत्मध्यान रहता है, ऐसे श्री "
प्रणाम पहुँचे ।
जिसमे अनेक प्रकारकी प्रवृत्ति रहती है ऐसे योगमे अभी तो रहते है । उसमे आत्मस्थिति उत्कृष्टरूप से विद्यमान देखकर श्री · के चित्तको अपने आपसे नमस्कार करते हैं ।
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३३६
श्रीमद राजचन्द्र __बहुत प्रकारसे समागमकी और बाह्य प्रवृत्तिके योगत्यागकी जिनकी चित्तवृत्ति किसी प्रकारसे भी रहती है ऐसे हम अभी तो इतना लिखकर रुक जाते है।
३७१ बंबई, वैशाख वदी १३, मगल, १९४८ श्री कलोलवासी जिज्ञासु श्री कुवरजीके प्रति,
जिन्हे निरतर अभेदध्यान रहता है ऐसे श्री बोधपुरुषके यथायोग्य विदित हो ।
यहाँ अन्तरमे तो समाधि रहती है, और बाह्य उपाधियोग रहता है, आपके लिखे हुए तोन पत्र प्राप्त हुए है, और उस कारणसे उत्तर नही लिखा।
इस कालकी विषमता ऐसी है कि जिसमे बहुत समय तक सत्सगका सेवन हुआ हो तो जीवमें लोकभावना कम होती है, अथवा लयको प्राप्त होती है । लोकभावनाके आवरणके कारण जीवको परमार्थभावनाके प्रति उल्लासपरिणति नही होती, और तब तक लोकसहवास भवरूप होता है। । जो सत्संगका सेवन निरन्तर चाहता है, ऐसे मुमुक्षु जीवको, जब तक उस योगका विरह रहे तब तक दृढभावसे उस भावनाकी इच्छा करके प्रत्येक कार्यको करते हुए विचारसे प्रवृत्ति करके, अपनेमे लघुता मान्य करके, अपने देखनेमे आनेवाले दोषकी निवृत्ति चाहकर सरलतासे प्रवृत्ति करते रहना, और जिस कार्यसे उस भावनाकी उन्नति हो ऐसी ज्ञानवार्ता या ज्ञानलेख या ग्रथका कुछ कुछ विचार करते रहना यह योग्य है।
___जो बात ऊपर कही है उसमे बाधा करनेवाले बहुतसे प्रसग आप लोगोंके सामने आया करते हैं ऐसा हम जानते हैं, तथापि उन सब बाधक प्रसगोमे यथासभव सदुपयोगसे विचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी इच्छा करें, यह अनुक्रमसे होने जैसी बात है। किसी भी प्रकारसे मनमे सतप्त होना योग्य नही है । जो कुछ पुरुषार्थ हो उसे करनेकी दृढ इच्छा रखना योग्य है, और जिसे परम बोधस्वरूपकी पहचान है, ऐसे पुरुषको तो निरन्तर वेसी प्रवृत्ति करनेके पुरुषार्थमे परेशान होना योग्य नही है।
अनतकालमे जो प्राप्त नही हुआ है, उसकी प्राप्तिमे अमुक काल व्यतीत हो तो हानि नही है। मात्र अनंतकालमे जो प्राप्त नही हआ है उसके विषयमे भ्राति हो जाये, भूल हो जाये वह हानि है । यदि ज्ञानीका परम स्वरूप भासमान हआ है, तो फिर उसके मार्गमे अनुक्रमसे जीवका प्रवेश होता है, यह सरलतासे समझमे आने जैसी बात है।
सम्यक् प्रकारसे इच्छानुसार प्रवृत्ति करे । वियोग है तो उसमे कल्याणका भी वियोग है, यह बात सत्य है, तथापि यदि ज्ञानीके वियोगमे भी उसीमे चित्त रहता है, तो कल्याण है। धीरजका त्याग करना योग्य नही है।
श्री स्वरूपके यथायोग्य
३७२ बबई, वैशाख वदी १४, बुध, १९४८ आपका एक पत्र आज प्राप्त हुआ।
आपने उपाधिके दूर होनेमे जो समागममे रहने रूप मुख्य कारण बताया है वह यथातथ्य है । आपने पहले भी अनेक प्रकारसे वह कारण बताया है, परन्तु वह ईश्वरेच्छाधीन है। जिस किसी भी प्रकारसे पुरुषार्थ हो उस प्रकारसे अभी तो करे और समागमकी परम इच्छामे ही अभेचतन रखें। आजीविकाके कारणमे प्रसगोपात्त विह्वलता आ जाती है यह सच है, तथापि धेर्य रखना योग्य है। जल्दी करनेकी जरूरत नही है, और वैसे वास्तविक भयका कोई कारण नही है।
श्री
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२५ वो वर्ष
३३७ । . ३७३ , बबई, वैशाख वदी १४, बुध, १९४८ मोहमयीसे जिनकी अमोहरूपसे स्थिति है, ऐसे श्री . के यथायोग्य । ।
"मनके कारण यह सब है" ऐसा जो अब तकका हुआ निर्णय लिखा, वह सामान्यत. तो यथातथ्य है। तथापि 'मन', 'उसके कारण', 'यह सब' और 'उसका निर्णय' ऐसे जो चार भाग इस वाक्यके होते हैं, वे बहुत समयके बोधसे यथातथ्य समझमे आते है, ऐसा मानते है। जिसे ये समझमे आते है, उसका मन वशमे रहता है, रहता है यह बात निश्चयरूप है, तथापि यदि न रहता हो, तो भी वह आत्मस्वरूपमे ही रहता है । मनके वश होनेका यह उत्तर ऊपर लिखा है, वह सबसे मुख्य लिखा है। जो वाक्य लिखे गये है वे बहुत प्रकारसे विचारणीय है।
महात्माकी देह दो कारणोंसे विद्यमान रहती है-प्रारब्ध कर्मको भोगनेके लिये और जीवोके कल्याणके लिये, तथापि वे इन दोनोमे उदासीनतासे उदयानुसार प्रवृत्ति करते हैं ऐसा हम जानते हैं।
ध्यान, जप, तप और क्रिया मात्र इन सबसे हमारे बताये हए किसी वाक्यको यदि परम फलका कारण समझते हो तो, निश्चयसे समझते हो तो, पीछेसे बुद्धि लोकसज्ञा, शास्त्रसज्ञापर न जाती हो तो, जाये तो वह भ्रातिसे गयी है। ऐसा समझते हो तो, और उस वाक्यका अनेक प्रकारके धैर्यसे विचार करना चाहते हो तो, लिखनेकी इच्छा होती है। अभी इससे विशेषरूपसे निश्चय-विषयक धारणा करनेके लिये लिखना आवश्यक जैसा लगता है, तथापि चित्तमे अवकाश नही है, इसलिये जो लिखा है उसे प्रबलतासे माने।
___ सब प्रकारसे उपाधियोग तो निवृत्त करने योग्य है; तथापि यदि वह उपाधियोग सत्संग आदिके लिये ही चाहा जाता हो तथा फिर चित्तस्थिति सभवरूपसे रहती हो तो उस उपाधियोगमे प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर है।
अप्रतिबद्ध प्रणाम । ३७४
बबई, वैशाख, १९४८ "चाहे जितनी विपत्तियों पडें, तथापि ज्ञानीसे सासारिक फलकी इच्छा करना योग्य नहीं है।"
उदयमे आया हुआ अंतराय समपरिणामसे वेदन करने योग्य है, विषमपरिणामसे वेदन करने योग्य नही है।
आपकी आजीविका सम्बन्धी स्थिति बहुत समयसे ज्ञात है, यह पूर्वकर्मका योग है।
जिसे यथार्थ ज्ञान है ऐसा पुरुष अन्यथा आचरण नहीं करता, इसलिये आपने जो आकुलताके कारण इच्छा अभिव्यक्त की, वह निवृत्त करने योग्य है।
___ ज्ञानीके पास सासारिक वैभव हो तो भी मुमुक्षुको किसी भी प्रकारसे उसकी इच्छा करना योग्य नही है । प्राय ज्ञानीके पास वैसा वैभव होता है, तो वह मुमुक्षुकी विपत्ति दूर करनेके लिये उपयोगी होता है। पारमार्थिक वैभवसे ज्ञानी मुमुक्षुको सासारिक फल देना नही चाहते, क्योकि यह अकर्तव्य है-ऐसा ज्ञानी नहीं करते।
धीरज न रहे ऐसी आपकी स्थिति हे ऐसा हम जानते है, फिर भी धीरजमे एक अंशकी भी न्यूनता न होने देना, यह आपका कर्तव्य है, और यह यथार्थ बोध पानेका मुख्य मार्ग है।
अभी तो हमारे पास ऐसा कोई सासारिक साधन नही है कि जिससे आपके लिये धोरजका कारण होवें, परन्तु वैसा प्रसग ध्यानमे रहता है, बाकी दूसरे प्रयत्न तो करने योग्य नहीं हैं।
किसी भी प्रकारसे भविष्यका सासारिक विचार छोडकर वर्तमानमे समतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ़ निश्चय करना यह आपके लिये योग्य है। भविष्यमे जो होना योग्य होगा, वह होगा, वह अनिवार्य है, ऐसा समझकर परमार्थ-पुरुषार्थकी ओर सन्मुख होना योग्य है ।
४३
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श्रीमद राजचन्द्र चाहे जिस प्रकारसे भी इस लोकलज्जारूप भयके स्थानभूत भविष्यका विस्मरण करना योग्य है। उसकी 'चिन्तासे' परमार्थका विस्मरण होता है। और ऐसा होना महान आपत्तिरूप है, इसलिये वह आपत्ति न आये इतना ही वारवार चिारणीय है। बहुत समयसे आजीविका और लोकलज्जाका खेद आपके अन्तरमे इकट्ठा हुआ है। इस विषयमे अब तो निर्भयता ही अगीकार करना योग्य है। फिर कहते है कि यही कर्तव्य है । यथार्थ बोधका यह मुख्य मार्ग है । इस स्थलमे भूल खाना योग्य नहीं है। लज्जा
और आजीविका मिथ्या हैं । कुटुब आदिका ममत्व रखेंगे तो भी जो होना होगा वही होगा । उसमे समता रखेंगे तो भी जो होना योग्य होगा वही होगा । इसलिये नि शकतासे निरभिमानी होना योग्य है ।
___ समपरिणाममे परिणमित होना योग्य है, और यही हमारा उपदेश है । यह जब तक परिणमित नही होगा तब तक यथार्थ बोध भी परिणमित नही होगा।
भूतकालमें हुई नही है, वर्तमानकालमे होती नही है, भविष्य
कालमे हो नहीं सकती।
३७५
बबई, वैशाख, १९४८ जिनागम उपशमस्वरूप है । उपशमस्वरूप पुरुषोने उपशमर्के लिये उसका प्ररूपण किया है, उपदेश किया है। यह उपशम आत्माके लिये है, अन्य किसी प्रयोजनके लिये नही है। आत्मार्थमे यदि उसका आराधन नही किया गया, तो उस जिनागमका श्रवण एव अध्ययन निष्फलरूप है, यह बात हमे तो निःसदेह यथार्थ लगती है।
दुःखकी निवृत्तिको सभी जीव चाहते है, और दुखकी निवृत्ति, जिनसे दु.ख उत्पन्न होता है ऐसे राग, द्वेष और अज्ञान आदि दोषोकी निवृत्ति हुए बिना, होना संभव नही है। इन राग आदिकी निवृत्ति एक आत्मज्ञानके सिवाय दूसरे किसी प्रकारसे भूतकालमे हुई नही है, वर्तमानकालमें होता नहीं कालमे हो नही सकती। ऐसा सर्व ज्ञानी पुरुषोको भासित हुआ है। इसलिये वह आत्मज्ञान जीवके लिये प्रयोजनरूप है। उसका सर्वश्रेष्ठ उपाय सद्गुरुवचनका श्रवण करना या सत्शास्त्रका विचार करना है। जो कोई जीव दुःखकी निवृत्ति चाहता हो, जिसे दु खसे सर्वथा मुक्ति पानी हो उसे इसी एक मार्गकी आराधना किये बिना अन्य दूसरा कोई उपाय नही है। इसलिये जीवको सर्व प्रकारके मतमतातरसे, कुलधर्मसे, लोकसज्ञारूप धर्मसे और ओघसज्ञारूप धर्मसे उदासीन होकर एक आत्मविचार कर्तव्यरूप धर्मकी उपासना करना योग्य है।
एक बडी निश्चयकी बात तो मुमुक्षु जीवको यही करना योग्य है कि सत्सग जैसा कल्याणका कोई बलवान कारण नहीं है, और उस सत्सगमे निरन्तर प्रति समय निवास चाहना, असत्सगका प्रतिक्षण विपरिणाम विचारना, यह श्रेयरूप है । बहुत बहुत करके यह बात अनुभवमे लाने जैसी है।
यथाप्रारब्ध स्थिति है इसलिये बलवान उपाधियोगमे विषमता नही आती । अत्यन्त ऊब जानेपर भी उपशमका, समाधिका यथारूप रहना होता है, तथापि चित्तमे निरन्तर सत्सगकी भावना रहा करती है। सत्सगका अत्यन्त माहात्म्य पूर्व भवमे वेदन किया है, वह पुनः पुन. स्मृतिमे आता है और निरन्तर अभगरूपसे वह भावना स्फुरित रहा करती है। :
जब तक इस उपाधियोगका उदय है तब तक समतासे उसका निर्वाह करना, ऐसा प्रारब्ध है, तथापि जो काल व्यतीत होता है वह उसके त्यागके भावमे प्रायः बीता करता है।
____ निवृत्तिके योग्य क्षेत्रमे चित्तस्थिरतासे अभी 'सूत्रकृतागसूत्र' के श्रवण करनेकी इच्छा हो तो करनेमे बाधा नही है । मात्र जीवको उपशमके लिये वह करना योग्य है। किस मतकी विशेषता है, किस मतकी न्यूनता है, ऐसे अन्यार्थमे पड़नेके लिये वैसा करना योग्य नही है। उस 'सूत्रकृताग' की रचना जिन पुरुषोने को है, वे आत्मस्वरूप पुरुष थे, ऐसा हमारा निश्चय है।
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२५ वॉ वर्ष
३३९
?
‘यह कर्मरूप क्लेश जो जीवको प्राप्त हुआ है, वह कैसे दूर हो ?" ऐसा प्रश्न मुमुक्षु शिष्यके मनमे उत्पन्न करके 'वोध प्राप्त करनेसे दूर हो' ऐसा उस 'सूत्रकृताग' का प्रथम वाक्य है । 'वह बन्धन क्या और क्या जाननेसे वह टूटे ?' ऐसा दूसरा प्रश्न वहाँ शिष्यको होना संभव है और उस बन्धनको वीरस्वामीने किस प्रकारसे कहा है ? ऐसे वाक्यसे उस प्रश्नको रखा है, अर्थात् शिष्यके प्रश्नमे उस वाक्यको रखकर ग्रन्थकार यो कहते हैं कि आत्मस्वरूप श्री वीरस्वामीका कहा हुआ तुम्हे कहेंगे क्योकि आत्मस्वरूप पुरुष आत्मस्वरूपके लिये अत्यन्त प्रतीति योग्य है । उसके बाद ग्रन्थकार उस बन्धनका स्वरूप कहते है वह पुन पुन विचार करने योग्य है । तत्पश्चात् इसका विशेष विचार करनेपर ग्रन्थकारको स्मृति हो आयी कि यह समाधिमार्ग आत्माके निश्चयके विना घटित नही होता, और जगतवासी जीवोने अज्ञानी उपदेशकोसे जीवका स्वरूप अन्यथा जानकर, कल्याणका स्वरूप अन्यथा जानकर, अन्यथाका यथार्थतासे निश्चय किया है, उस निश्चयका भग हुए बिना, उस निश्चयमे सदेह हुए बिना, जिस समाधिमार्गका हमने अनुभव किया है वह उन्हे किसी प्रकारसे सुनानेसे कैसे फलीभूत होगा ? ऐसा जानकर ग्रन्थकार कहते है कि 'ऐसे मार्गका त्याग करके कोई एक श्रमण ब्राह्मण अज्ञानतासे, बिना विचारे अन्यथा प्रकारसे मार्ग कहता है', ऐसा कहते थे । उस अन्यथा प्रकारके पश्चात् ग्रन्थकार निवेदन करते हैं कि कोई पचमहाभूतकाही अस्तित्व मानते हैं, और उससे आत्माका उत्पन्न होना मानते हैं, जो घटित नही होता । ऐसे बताकर आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं । यदि जीवने अपनी नित्यताको नही जाना, तो फिर निर्वाणका प्रयत्न किस लिये होगा ? ऐसा अभिप्राय बताकर नित्यता दिखलायी है । उसके बाद भिन्न-भिन्न प्रकार - कल्पित अभिप्राय प्रदर्शित करके यथार्थं अभिप्रायका बोध देकर यथार्थ मार्गके बिना छुटकारा नही है, गर्भस्थिति दूर नही होती, जन्म दूर नही होता, मरण दूर नही होता, दुख दूर नही होता, आधि, व्याधि और उपाधि कुछ भी दूर नही होते और हम ऊपर जो कह आये है ऐसे सभी मतवादी ऐसे ही विषयो सलग्न हैं कि जिससे जन्म, जरा, मरण आदिका नाश नही होता, ऐसा विशेष उपदेशरूप आग्रह करके प्रथम अध्ययन समाप्त किया है । तत्पश्चात् अनुक्रमसे इससे बढते हुए परिणामसे उपशम-कल्याण- आत्मार्थं का उपदेश दिया है । उसे ध्यानमे रखकर अध्ययन व श्रवण करना योग्य है । कुलधर्मके लिये 'सूत्रकृताग' का अध्ययन, श्रवण निष्फल है ।
बम्बई, वैशाख वदी, १९४८
श्री स्थंभतीर्थवासी जिज्ञासुके प्रति,
श्री मोहमयीसे अमोहस्वरूप ऐसे श्री रायचन्द्रके आत्मसमानभावको स्मृति से यथायोग्य पढियेगा । अभी यहाँ बाह्यप्रवृत्तिका योग विशेषरूपसे रहता है । ज्ञानोको देह उपार्जन किये हुए पूर्वं कर्मों को निवृत्त करने के लिये और अन्यकी अनुकपाके लिये होती है ।
जिस भावसे ससारकी उत्पत्ति होती है, वह भाव जिनका निवृत्त हो गया है, ऐसे ज्ञानी भी बाह्यप्रवृत्तिकी निवृत्ति और सत्समागममे रहना चाहते हैं । उस योगका जहाँ तक उदय प्राप्त न हो वहाँ तक अविषमतासे प्राप्त स्थितिमे रहते हैं, ऐसे ज्ञानीके चरणारविंदकी पुनः पुन स्मृति हो आने से परम विशिष्टभावसे नमस्कार करते है ।
३७६
अभी जिस प्रवृत्तियोगमे रहते हैं वह तो बहुत प्रकारको परेच्छा के कारण से रहते हे । आत्मदृष्टिकी अखण्डता उस प्रवृत्तियोग से बाधाको प्राप्त नही होती । इसलिये उदयमे आये हुए योगकी आराधना करते हैं | हमारा प्रवृत्तियोग जिज्ञासुको कल्याण प्राप्त होनेमे किसी प्रकारसे वाधक है ।
जो सत्स्वरूपमे स्थित है, ऐसे ज्ञानीके प्रति लोक स्पृहादिका त्याग करके जो भावसे भी उनका आश्रित होता है, वह शीघ्र कल्याणको प्राप्त होता है, ऐसा जानते है ।
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३४०
श्रीमद् राजचन्द्र निवृत्तिको, समागमको अनेक प्रकारसे चाहते है, क्योकि इस प्रकारका जो हमारा राग है उसे हमने सर्वथा निवृत्त नही किया है।
कालका कलिस्वरूप चल रहा है, उसमे जो अविषमतासे मार्गकी जिज्ञासाके साथ, वाकी दूसरे जो अन्य जाननेके उपाय हैं उनके प्रति उदासीनता रखता है वह ज्ञानीके समागममे अत्यन्त शीघ्रतासे कल्याण पाता है, ऐसा जानते है।
कृष्णदासने जगत, ईश्वरादि सम्बन्धी जो प्रश्न लिखे हैं वे हमारे अति विशेप समागममे समझने योग्य है। इस प्रकारका विचार ( कभी कभी ) करनेमे हानि नही है। उनके यथार्थ उत्तर कदाचित् अमुक काल तक प्राप्त न हो तो इससे धीरजका त्याग करनेके प्रति जाती हुई मतिको रोकना योग्य है।
अविषमतासे जहाँ आत्मध्यान रहता है ऐसे 'श्रीरायचन्द्र' के प्रति बार-बार नमस्कार करके यह पत्र अब पूरा करते है।
३७७
बम्बई, वैशाख, १९४८ योग असंख जे जिन कह्या, घटमांही रिद्धि दाखी रे।
नव पद तेमज जाणजो, आतमराम छे साखी रे॥ आत्मस्थ ज्ञानी पुरुष ही सहजप्राप्त प्रारब्धके अनुसार प्रवृत्ति करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिस कालमे ज्ञानसे अज्ञान निवृत्त हुआ उसी कालमे ज्ञानी मुक्त है। देहादिमे अप्रतिबद्ध है । सुख दुख हर्ष शोकादिमे अप्रतिवद्ध है। ऐसे ज्ञानीको कोई आश्रय या आलम्बन नही है। धीरज प्राप्त होनेके लिये उसे 'ईश्वरेच्छादि' भावना होना योग्य नही है। भक्तिमानको जो कुछ प्राप्त होता है, उसमे कोई क्लेशका प्रकार देखकर तटस्थ धीरज रहनेके लिये वह भावना किसी प्रकारसे योग्य है। ज्ञानीके लिये 'प्रारब्ध' 'ईश्वरेच्छादि' सभी प्रकार एक ही भावके-सरीखे भावके है। उसे साता-असातामे कुछ किसी प्रकारसे रागद्वेषादि कारण नही हैं। वह दोनोमे उदासीन है। जो उदासीन है वह मूल स्वरूपमें निरालम्बन है । उसकी निरालम्बन उदासीनताको ईश्वरेच्छासे भी बलवान समझते हैं ।
___'ईश्वरेच्छा' शब्द भी अर्थान्तरसे जानने योग्य है। ईश्वरेच्छारूप आलम्बन' आश्रयरूप भक्तिके लिये योग्य है। निराश्रय ज्ञानीको तो सभी समान है अथवा ज्ञानी सहज परिणामी है, सहजस्वरूपी है, सहजरूपसे स्थित है, सहजरूपसे प्राप्त उदयको भोगते है। सहजरूपसे जो कुछ होता है, वह होता है, जो नही होता वह नही होता है । वे कर्तव्यरहित है, उनका कर्तव्यभाव विलीन हो चुका है। इसलिये आपको यह जानना योग्य हे कि उन ज्ञानीके स्वरूपमे प्रारब्धके उदयकी सहज प्राप्ति अधिक योग्य है। ईश्वरमे किसी प्रकारसे इच्छा स्थापित कर उसे इच्छावान कहना योग्य है । ज्ञानी इच्छारहित या इच्छासहित यों कहना भी नही बनता, वे तो सहजस्वरूप है ।
३७८ ... बबई, जेठ सुदी १०, रवि, १९४८ ईश्वरादि सम्बन्धी जो निश्चय है, तत्सम्बन्धी विचारका अभी त्याग करके सामान्यतः 'समयसार का अध्ययन करना योग्य है, अर्थात् ईश्वरके आश्रयसे अभी धीरज रहती है, वह धीरज उसके विकल्पमे पड़नेसे रहनी विकट है।
१ भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानने मुक्तिके लिये असख्य योग-साधन बताये हैं। समस्त प्रकारकी सिद्धियोकी सपत्ति आत्मामें ही रही हुई है, ऐसा कहा है। उसी प्रकार नव पदकी सपत्ति भी आत्मामें ही रही हुई है, जिसका साक्षी आत्मा स्वयमेव है।
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२५ वाँ वर्ष
३४१ 'निश्चय' मे अकर्त्ता, 'व्यवहार' मे कर्त्ता, इत्यादि जो व्याख्यान 'समयसार मे है, वह विचारणीय है, तथापि जिसके वोधसम्बन्धी दोष निवृत्त हुए हैं, ऐसे ज्ञानीसे वह प्रकार समझना योग्य है ।
समझने योग्य तो जो है वह स्वरूप, जिसे निर्विकल्पता प्राप्त हुई है, ऐसे ज्ञानीसे - उनके आश्रयसे जीवके दोष गलित होकर, प्राप्त होता है, समझमे आता है ।
छ मास सपूर्ण हुए जिसे परमार्थके प्रति एक भी विकल्प उत्पन्न नही हुआ ऐसे श्री को नमस्कार है ।
बबई, जेठ वदी ३०, शुक्र, १९४८
हृदयरूप श्री सुभाग्य,
जिसकी प्राप्ति के बाद अनन्तकालकी याचकता मिटकर सर्व कालके लिये अयाचकता प्राप्त होती है, ऐसा जो कोई हो तो उसे तरनतारन जानते हैं, उसे भजें ।
मोक्ष तो इस कालमे भी प्राप्त हो सकता है, अथवा प्राप्त होता है । परन्तु मुक्तिका दान देनेवाले पुरुषकी प्राप्ति परम दुर्लभ है, अर्थात् मोक्ष दुर्लभ नही, दाता दुर्लभ है ।
उपाधियोगकी अधिकता रहती है । बलवान क्लेश जैसा उपाधियोग देनेकी 'हरीच्छा' होगी, अब इस स्थिति वह जैसे उदय मे आये वैसे वेदन करना योग्य समझते है
ससारसे कटाले हुए तो बहुत समय हो गया है, तथापि ससारका प्रसग अभी विरामको प्राप्त नही होता, यह एक प्रकारका बड़ा 'क्लेश' रहता है ।
आपके सत्सगकी अत्यन्त रुचि रहती है, तथापि उस प्रसगकी प्राप्ति अभी तो 'निर्बल' होकर श्री 'हरि'को सौंपते हैं ।
हमे तो कुछ करनेकी बुद्धि नही होती, और लिखनेकी बुद्धि नही होती । कुछ कुछ वाणीसे प्रवृत्ति करते हैं, उसकी भी बुद्धि नही होती, मात्र आत्मरूप मौनस्थिति और उस सम्बन्धी प्रसग, इस विषयमे बुद्धि रहती है ओर प्रसग तो उससे अन्य प्रकारके रहते है ।
ऐसी ही 'ईश्वरेच्छा' होगी । यह समझकर, जैसे स्थिति प्राप्त होती है, वैसे ही योग्य समझकहते हैं ।
'बुद्धि तो मोक्षके विषयमे भी स्पृहावाली नही है । परन्तु प्रसग यह रहता है । सत्सगमे रुचि रखनेवाले डुंगरको हमारा प्रणाम प्राप्त हो ।..
३७९
""वननी मारी कोयल" ऐसी एक गुर्जरादि देशकी कहावत इस प्रसगमे योग्य है । ॐ शांति. शातिः शाति
नमस्कार पहुँचे ।
३८०
बबई, जेठ, १९४८
प्रभुभक्ति जैसे हो वैसे तत्पर रहना यह मुझे मोक्षका घुरधर मार्ग लगा है । चाहे तो मनसे भी स्थिरतासे बैठकर प्रभुभक्ति अवश्य करना योग्य है ।
मनकी स्थिरता होने का मुख्य उपाय अभी तो प्रभुभक्ति समझें। आगे भी वह, और वैसा ही है, तथापि स्थूलरूप से इसे लिखकर जताना अधिक योग्य लगता है ।
'उत्तराध्ययनसूत्र' के दूसरे इच्छित अध्ययन पढियेगा, बत्तीसवें अध्ययनको शुरूकी चौबीस गाथाओका मनन करियेगा ।
१. वनकी मारी कोयल ।
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श्रीमद राजचन्द्र
शम, सवेग, निर्वेद, आस्था और अनुकम्पा इत्यादि सद्गुणोसे योग्यता प्राप्त करना, और किसी समय महात्माके योगसे, तो धर्म प्राप्त हो जायेगा ।
सत्सग, सत्शास्त्र और सद्व्रत ये उत्तम साधन है ।
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'सूयगडागसूत्र' का योग हो तो उसका दूसरा अध्ययन तथा उदकपेढालवाला अध्ययन पढनेका अभ्यास रखिये । तथा 'उत्तराध्ययन' के कुछ एक वैराग्यादिक चरित्रवाले अध्ययन पढते रहिये, और प्रभातमे जल्दी उठने की आदत रखिये, एकातमे स्थिर बैठनेका अभ्यास रखिये । माया अर्थात् जगत, लोकका जिनमे अधिक वर्णन किया है वैसी पुस्तकें पढने की अपेक्षा, जिनमे विशेषत. सत्पुरुषोके चरित्र अथवा वैराग्यकथाएँ है ऐसी पुस्तकें पढने का भाव रखिये |
३८२
और
जिससे वैराग्यको वृद्धि हो उसका अध्ययन विशेषरूपसे रखना, मतमतांतरका त्याग करना, जिससे मतमतातर की वृद्धि हो वैसा पठन नही करना । असत्सगादिमे उत्पन्न होतो हुई रुचि दूर होनेका विचार वारवार करना योग्य है ।
३८३
बबई, जेठ, १९४८
जो विचारवान पुरुषको सर्वथा क्लेशरूप भासता है, ऐसे इस ससारमे अब फिर आत्मभावसे जन्म न की निश्चल प्रतिज्ञा है । अब आगे तोनो कालमे इस ससारका स्वरूप अन्यरूपसे भासमान होने योग्य नही है, और भासित हो ऐसा तीनो कालमे सम्भव नही है ।
यहाँ आत्मभावसे समाधि है, उदयभावके प्रति उपाधि रहती है ।
श्री तीर्थंकरने तेरहवे गुणस्थानकमे रहनेवाले पुरुषका नीचे लिखा स्वरूप कहा है
जिसने आत्मभाव के लिये सर्व ससार संवृत किया है अर्थात् जिसके प्रति सर्व ससारकी इच्छा के आका निरोध हुआ है, ऐसे निग्रंथको —— सत्पुरुषको - तेरहवे गुणस्थानकमे कहना योग्य है । मनसमितिसे युक्त, वचनसमितिसे युक्त, कायसमिति से युक्त, किसी भी वस्तुका ग्रहण- त्याग करते हुए समितिसे युक्त, दीर्घशंकादिका त्याग करते हुए समितिसे युक्त, मनको सकोचनेवाला, वचनको सकोचनेवाला, कायाको सकोचनेवाला, सर्व इन्द्रियोके सयमसे ब्रह्मचारी, उपयोगपूर्वक चलनेवाला, उपयोगपूर्वक खडा रहनेवाला, उपयोगपूर्वक बैठनेवाला, उपयोगपूर्वक शयन करनेवाला, उपयोगपूर्वक बोलनेवाला, उपयोगपूर्वक आहार लेनेवाला और उपयोगपूर्वक श्वासोच्छ्वास लेनेवाला, आँखको एक निमिषमात्र भी उपयोगरहित न चलानेवाला अथवा उपयोगरहित जिसकी क्रिया नही है ऐसे इस निर्ग्रन्थकी एक समयमे क्रिया बाँधी जाती है, दूसरे समयमे भोगी जाती है, तीसरे समय मे वह कर्मरहित होता है, अर्थात् चौथे समयमे वह क्रियासम्बन्धी सर्व चेष्टासे निवृत्त होता है। श्री तीर्थंकर जैसेको कैसा अत्यन्त निश्चल, [ अपूर्ण ]
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बंबई, आषाढ सुदी ९, १९४८ शब्दादि पाँच विषयोकी प्राप्तिकी इच्छासे जिनके चित्तमे अत्यन्त व्याकुलता रहती है, ऐसे जीव जिस कालमे विशेषरूपसे दिखायी देते हैं, वह यह 'दुषम कलियुग' नामका काल है। उस कालमे जिसे परमार्थ के प्रति विह्वलता नही हुई, चित्त विक्षेपको प्राप्त नही हुआ, सगसे प्रवर्तनभेद प्राप्त नही हुआ,
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२५ वाँ वर्ष
३४३ दूसरी प्रीतिके प्रसगमे जिसका चित्त आवृत नही हुआ, और जो दूसरे कारण हैं उनमे जिसका विश्वास नही है, ऐसा यदि कोई हो तो वह इस कालमे 'दूसरा श्री राम' है। तथापि यह देखकर सखेद आश्चर्य होता है कि इन गुणोके किसी अशमे सम्पन्न भी अल्प जीव दृष्टिगोचर नही होते।
निद्राके सिवाय शेष समयमेसे एकाध घटेके सिवाय शेप समय मन, वचन, कायासे उपाधिके योगमे रहता है । उपाय नही है, इसलिये सम्यक्परिणतिसे सवेदन करना योग्य है।
महान आश्चर्यकारी जल, वायु, चद्र, सूर्य, अग्नि आदि पदार्थोंके गुण सामान्य प्रकारसे भी जैसे जीवोकी दृष्टिमे नही आते हैं, और अपने छोटेसे घरमे अथवा अन्य किन्ही वस्तुओमे किसी प्रकारका मानो आश्चर्यकारक स्वरूप देखकर अहत्व रहता है, यह देख ऐसा लगता है कि लोगोका अनादिकालका दृष्टिभ्रम दूर नहीं हुआ, जिससे यह दूर हो ऐसे उपायमे जीव अल्प भी ज्ञानका उपयोग नहीं करता, और उसकी पहचान होनेपर भी स्वेच्छासे व्यवहार करनेकी बुद्धि वारवार उदयमे आती है, इस प्रकार बहुत जीवोकी स्थिति देखकर ऐसा समझे कि यह लोक अनन्तकाल रहनेवाला है।
नमस्कार पहुंचे।
बबई, आषाढ, १९४८ सूर्य उदय अस्तरहित है, मात्र लोगोको जब चक्षुमर्यादासे बाहर हो तब अस्त और जब चक्षुमर्यादामे हो तब उदय ऐसा भासता है। परन्तु सूर्यमे तो उदयमस्त नही है। वैसे ही ज्ञानी है, वे सभी प्रसगमे जैसे है वैसे हैं, मात्र प्रसगकी मर्यादाके अतिरिक्त लोगोका ज्ञान नही है इसलिये उस प्रसगमे अपनी जैसी दशा हो सके वैसी दशाको ज्ञानीके सम्बन्धमे कल्पना करते है, और यह कल्पना जीवको ज्ञानीके परम आत्मत्व, परितोषत्व, मुक्तत्वको जानने नही देती ऐसा जानना योग्य है।
जिस प्रकारसे प्रारब्धका क्रम उदय होता है उस प्रकारसे अब तो वर्तन करते है, और ऐसा वर्तन करना किसी प्रकारसे तो सुगम भामता है। ठाकुर साहबको मिलनेकी बात आजके पत्रमे लिखी, पर प्रारब्ध क्रम वैसा नही रहता । उदोरणा कर सके ऐसी असुगम वृत्ति उत्पन्न नहीं होती।
यद्यपि हमारा चित्त नेत्र जैसा है, नेत्रमे दूसरे अवयवोकी भॉति एक रजकण भी सहन नही हो सकता। दूसरे अवयवोरूप अन्य चित्त है। हमारा जो चित्त है वह नेत्ररूप है, उसमे वाणीका उठना, समझाना, यह करना, अथवा यह न करना, ऐसा विचार करना बहुत मुश्किलसे होता है । वहुतसी क्रियाएँ तो शून्यताकी भाँति होती है, ऐसी स्थिति होनेपर भी उपाधियोगको तो बलपूर्वक आराधते है। यह वेदन करना कम विकट नही लगता, कारण कि आँखसे जमोनकी रेती उठाने जैसा यह कार्य है। वह जैसे दु खसे-अत्यन्त दु खसे-होना विकट है, वैसे चित्तको उपाधि उस परिणामरूप होनेके समान है। सुगमतासे स्थित चित्त होनेसे वेदनाको सम्यक्प्रकारसे भोगता है, अखड समाधिरूपसे भोगता है । यह बात लिखनेका आशय तो यह है कि ऐसे उत्कृष्ट वैराग्यमे ऐसा उपाधियोग भोगनेका जो प्रसग है, उसे कैसा समझना ? और यह सब किसलिये किया जाता है ? जानते हुए भी उसे छोडा क्यो नही जाता? यह सव विचारणीय है।
मणिके विषयमे लिखा सो सत्य है।
'ईश्वरेच्छा' जैसी होगी वैसे होगा। विकल्प करनेसे खेद होता है, और वह तो जब तक उसकी इच्छा होगी तब तक उसी प्रकार प्रवृत्ति करेगा । सम रहना योग्य है।
दूसरी तो कोई स्पृहा नही है, कोई प्रारब्धल्प स्पृहा भी नही है, सत्तारूप कोई पूर्वमे उपार्जित को हुई उपाधिरूप स्पृहाका तो अनुक्रमसे सवेदन करना है। एक सत्सग-आपके सत्सगकी स्पृहा रहत
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श्रीमद् राजचन्द्र है। रुचिमात्र समाधानको प्राप्त हुई है। यह आश्चर्यरूप बात कहाँ कहनी ? आश्चर्य होता है। यह जो देह मिली है वह पूर्व कालमे कभी न मिली हो तो भविष्यकालमे भी प्राप्त होनेवाली नही है । धन्यरूपकृतार्थरूप ऐसे हममे यह उपाधियोग देखकर सभी लोग भूलें, इसमे आश्चर्य नही है । और पूर्वमे यदि सत्पुरुषकी पहचान नही हुई है तो वह ऐसे योगके कारणसे है। अधिक लिखना नही सूझता । नमस्कार पहुंचे । गोशलियाको समपरिणामरूप यथायोग्य और नमस्कार पहुंचे।
समस्वरूप श्री रायचन्द्रके यथायोग्य |
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बम्बई, आषाढ वदी ३०, १९४८ पत्र प्राप्त हुए हैं । अत्र उपाधिनामसे प्रारब्ध उदयरूप है। उपाधिमे विक्षेपरहित होकर व्यवहार करना यह वात अत्यन्त विकट है, जो रहती है वह थोडे कालमे परिपक्व समाधिरूप हो जाती है।
समात्मप्रदेश-स्थितिसे यथायोग्य । शान्तिः
३८७
वम्बई, श्रावण सुदी, १९४८ जीवको स्वस्वरूप जाने बिना छुटकारा नही है, तब तक यथायोग्य समाधि नही है। यह जाननेके लिये मुमुक्षुता और ज्ञानीकी पहचान उत्पन्न होने योग्य है। ज्ञानीको जो यथायोग्यरूपसे पहचानता है वह ज्ञानी हो जाता है क्रमसे ज्ञानी हो जाता है । आनन्दघनजीने एक स्थानपर ऐसा कहा है कि__"जिन थई' 'जिनने' जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे।
भुंगी ईलिकाने चटकावे, ते भुंगी जग जोवे रे॥ जिनेन्द्र होकर अर्थात् सासारिक भाव सम्बन्धी आत्मभाव त्यागकर, जो कोई जिनेन्द्र अर्थात् केवलज्ञानीकी-वीतरागकी आराधना करता है, वह निश्चयसे जिनवर अर्थात् कैवल्यपदसे युक्त हो जाता है । उन्होने भृगी और ईलिकाका ऐसा दृष्टान्त दिया है जो प्रत्यक्ष-स्पष्ट समझमे आता है।
यहाँ हमे भी उपाधियोग रहता है, अन्य भावमे यद्यपि आत्मभाव उत्पन्न नही होता और यही मुख्य समाधि हैं।
३८८
बम्बई, श्रावण सुदी ४, बुध, १९४८ 'जगत जिसमे सोता है, उसमे ज्ञानो जागते हैं, जिसमे ज्ञानी जागते हैं उसमे जगत सोता है । जिसमे जगत जागता है, उसमे ज्ञानी सोते हैं', ऐसा श्रीकृष्ण कहते है।
आत्मप्रदेश समस्थितिसे नमस्कार ।
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बम्बई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८ असत्सगमे उदासीन रहनेके लिये जीवमे अप्रमादरूपसे निश्चय होता है, तब 'सत्ज्ञान' समझमे आता है, उससे पहले प्राप्त हुए वोधको बहुत प्रकारका अन्तराय होता है । -
जगत और मोक्षका मार्ग ये दोनो एक नही है। जिसे जगतकी इच्छा, रुचि, भावना है उसे मोक्षमे अनिच्छा, अरुचि, अभावना होती है, ऐसा मालूम होता है ।
१ पाठान्तर-जिनस्वरूप थई जिन आराधे
।
२. भगवद्गीता अ० २, श्लोक ६९
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२५ वॉ वर्ष
३४५ वम्बई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८
ॐ नमः आत्मरूप श्री सुभाग्यके प्रति,
निष्काम यथायोग्य ।
जिन उपार्जित कर्मोंको भोगते हुए भावीमे बहुत समय व्यतीत होगा, वे बलपूर्वक उदयमे आकर क्षीण होते हो तो वैसा होने देना योग्य है, ऐसा अनेक वर्षोंका सकल्प है।
व्यावहारिक प्रसग सम्बन्धी चारो तरफसे चिन्ता उत्पन्न हो, ऐसे कारण देखकर भी निर्भयता, आश्रय रखना योग्य है । मार्ग ऐसा है।
अभी हम विशेष कुछ लिख नही सकते, इसके लिये क्षमा मांगते है और निष्कामतासे स्मृतिपूर्वक नमस्कार करते हैं । यही विनती।
'नागर सुख पामर नव जाणे, वल्लभ सुख न कुमारी, अनुभव विण तेम ध्यान तणु सुख, कोण जाणे नर नारी रे, भविका०
मन महिला, रे वहाला उपरे, बीजां काम फरंत ।
बम्बई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८ केवल निष्काम यथायोग्य ।
यहाँ उपाधियोगमे है, ऐसा समझकर पत्रादि भेजनेका काम नहीं किया होगा, ऐसा समझते हैं । शास्त्रादि विचार और सत्कथा-प्रसगमे वहाँ कैसे योगसे रहना होता है ? सो लिखियेगा।
'सत्' एक प्रदेश भी दूर नहीं है, तथापि उसकी प्राप्तिमे अनत अतराय-लोकानुसार प्रत्येक ऐसे रहे हैं। जीवका कर्तव्य यह है कि अप्रमत्ततासे उस 'सत्' का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करनेका अखड निश्चय रखे।
आप सबको निष्कामतासे यथायोग्य ।
३९२ बबई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८ हे राम | जिस अवसरपर जो प्राप्त हो उसमे सन्तुष्ट रहना, यह सत्पुरुषोका कहा हुआ सनातन धर्म है, ऐसा वसिष्ठ कहते थे।
३९३ बबई, श्रावण सुदी १०, वुध, १९४८ मन महिलानु रे वहाला उपरे, वीजा काम करत ।
तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवत ॥ जिसमे मनकी व्याख्या विषयमे लिखा हे वह पत्र, जिसमे पीपल-पानका दृष्टात लिखा हे वह पत्र, जिसमे 'यमनियम संयम आप कियो' इत्यादि काव्यादिके विषयमे लिखा है वह पत्र, जिसमे मनादिका निरोध करते हुए शरीरादि व्यथा उत्पन्न होने सम्बन्धी सुचन है वह पत्र, और उसके बाद एक सामान्य, इस तरह सभी पत्र मिले है। उनमे मुख्य भक्तिसम्बन्धी इच्छा, मूर्तिका प्रत्यक्ष होना, इस बात सम्बन्धी प्रधान वाक्य पढा है, ध्यानमे है। २. भावार्थके लिये देखे आक ३११
२. विशेषार्थ के लिये देखें आफ ३९४
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श्रीमद् राजचन्द्र
इस प्रश्नके सिवाय बाकीके पत्रोका उत्तर अनुक्रमसे लिखनेका विचार होते हुए भी अभी उसे समागममे पूछने योग्य समझते है, अर्थात् यह जताना अभी योग्य लगता है |
दूसरे भी जो कोई परमार्थसम्बन्धी विचार-प्रश्न उत्पन्न हो उन्हे लिख रखना शक्य हो तो लिख रखनेका विचार योग्य हे ।
पूर्वकालमे आराधित, जिसका नाम मात्र उपाधि है ऐसी समाधि उदयरूपसे रहती है । अभी वहाँ पठन, श्रवण और मननका योग किस प्रकारका होता है ? आनन्दघनजीके दो पद्य स्मृतिमे आते हैं, उन्हें लिखकर अव यह पत्र समाप्त करता हूँ । 'इणविध परखी मन विसरामी जिनवर गुण जे गावे । दीनबन्धुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ॥
३४६
हो मल्लिजिन सेवक केम अवगणीए ।
मन महिलानुं रे वहाला उपरे, बीजां काम करत,
जिन थई जिनवर जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भृंगी ईलिकाने चटकावे, ते भृंगी जग जोवे रे ॥
-श्री आनन्दघन
बबई, श्रावण वदी १०, १९४८
३९४
मन महिलानु रे वहाला उपरे, बीजा काम करत । तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवंत ॥
०
घरसम्बन्धी दूसरे समस्त कार्य करते हुए भी जैसे पतिव्रता ( महिला शब्दका अर्थ ) स्त्रीका मन अपने प्रिय भरतारमे लीन रहता है, वैसे सम्यग्दृष्टि जीवका चित्त ससारमे रहकर समस्त कार्यं प्रसगोको करते हुए भी ज्ञानीसे श्रवण किये हुए उपदेशधर्म मे तल्लीन रहता है ।
समस्त ससारमे स्त्रीपुरुषके स्नेहको प्रधान माना गया है, उसमे भी पुरुषके प्रति स्त्रीके प्रेमको किसी प्रकारसे भी उससे विशेष प्रधान माना गया है, और उसमे भी पतिके प्रति पतिव्रता स्त्रीके स्नेहको प्रधानमे भी प्रधान माना गया है । वह स्नेह ऐसा प्रधान प्रधान किसलिये माना गया है ? तब जिसने सिद्धान्तको प्रबलतासे प्रदर्शित करनेके लिये उम दृष्टातको ग्रहण किया है, ऐसा सिद्धान्तकार कहता है कि हमने उस स्नेहको इसलिये प्रधानमे भी प्रधान समझा है कि दूसरे सभी घर सम्बन्धी (ओर दूसरे भी) काम करते हुए भी उस पतिव्रता महिलाका चित्त पतिमे ही लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे रहता है |
परन्तु सिद्धान्तकार कहता है कि इस स्नेहका कारण तो ससार प्रत्ययी है, और यहाँ तो उसे अससार-प्रत्ययी करनेके लिये कहना है, इसलिये वह स्नेह लोनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे जहाँ करने योग्य है, जहाँ वह स्नेह अससार परिणामको प्राप्त होता है उसे कहते है ।
वह स्नेह तो पतिव्रतारूप मुमुक्षुको ज्ञानी द्वारा श्रवण किये हुए उपदेशादि धर्मके प्रति उमी प्रकारसे करना योग्य है; और उसके प्रति उस प्रकार मे जो जीव रहता है, तब 'कान्ता' नामको समकित सम्बन्धी दृष्टिमे वह जीवस्थित है, ऐसा जानते है ।
१ भावार्थ - इस प्रकार परीक्षा करके अठारह दोपोसे रहित देख करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनव आनंदघनपद-मोक्ष पाता | हे मल्लिनाथ ! सेवककी उपेक्षा किसलिये ?
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ऐसे अर्थसे भरे हुए ये दो पद है, वे पद तो भक्ति प्रधान है, तथापि उस प्रकारसे गूढ आशयमे जीवका निदिध्यासन न हो तो क्वचित् अन्य ऐसा पद ज्ञानप्रधान जैसा भासित होता है, और आपको भासित होगा ऐसा जानकर उस दूसरे पदका वैसा भास बाधित करनेके लिये पत्र पूर्ण करते हुए फिर मात्र प्रथमका एक ही पद लिखकर प्रधानरूपसे भक्तिको बताया है |
भक्तिप्रधान दशामे रहनेसे जीवके स्वच्छंदादि दोष सुगमतासे विलय होते हैं, ऐसा ज्ञानी- पुरुषोका प्रधान आशय है ।
यदि जीवमे अल्प भी निष्काम भक्ति उत्पन्न हुई होती है तो वह अनेक दोषोंसे निवृत्त करनेके लिये योग्य होती है । अल्प ज्ञान अथवा ज्ञानप्रधानदशा असुगम मार्गके प्रति, स्वच्छदादि दोषके प्रति, अथवा पदार्थसम्बन्धी भ्रान्तिके प्रीत ले जाता है, बहुत करके ऐसा होता है, उसमे भी इस कालमे तो बहुत काल तक जीवनपर्यन्त भी जीवको भक्तिप्रधानदशाकी आराधना करना योग्य है, ऐसा निश्चय ज्ञानियोने किया ज्ञात होता है । (हमे ऐसा लगता है, और ऐसा ही है | )
हृदयमे जो मूर्तिसम्बन्धी दर्शन करनेकी आपकी इच्छा है, उसे प्रतिबन्ध करनेवाली प्रारब्ध स्थिति ( आपकी ) है, और उस स्थितिके परिपक्व होनेमे अभी देर है । और उस मूर्तिको प्रत्यक्षतामे तो अभी गृहाश्रम है, और चित्रपटमे सन्यस्ताश्रम है, यह एक ध्यानका दूसरा मुख्य प्रतिबन्ध है । उस मूर्तिसे उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा पुन पुन उसके वाक्यादिके अनुसधानमे विचारणीय है, ओर उसका उस हृदयदर्शनसे भी बडा फल है। इस बातको यहाँ सक्षिप्त करना पडता है ।
'भृगी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे ।'
यह पद्य परपरागत है । ऐसा होना किसी प्रकारसे सभव है, तथापि उसे प्रोफेसरके गवेषणके अनुसार मानें कि वैसा नही होता, तो भी इसमे कोई हानि नही है, क्योकि दृष्टात वैसा प्रभाव उत्पन्न करने योग्य है, तो फिर सिद्धातका ही अनुभव या विचार कर्तव्य है । प्रायः इस दृष्टातसवधी किसी को ही विकल्प होगा । इसलिये यह दृष्टात मान्य है, ऐसा लगता है । लोकदृष्टिसे अनुभवगम्य है, इसलिये सिद्धान्तमे उसकी प्रबलता समझकर महापुरुष यह दृष्टात देते आये हैं और हम किसी प्रकारसे वैसा होना सभव भी समझते है । एक समयके लिये भी कदाचित् वह दृष्टात सिद्ध न हो ऐसा प्रमाणित हो, तो भी तीनो कालमे निराबाध, अखण्ड- सिद्ध ऐसी बात उसके सिद्धान्तपदकी तो है ।
"जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे ।'
आनन्दघनजी और अन्य सभी ज्ञानी पुरुष ऐसे हो कहते है, और जिनेन्द्र कुछ अन्य ही प्रकार कहते है कि अनन्त बार जिनसबधी भक्ति करनेपर भी जोवका कल्याण नही हुआ, जिनमार्गमे अपनेको माननेवाले स्त्रीपुरुष ऐसा कहते है कि हम जिनेंद्रकी आराधना करते हैं, ओर उसकी आराधना करने जाते हैं, अथवा आराधनाके उपाय अपनाते हैं, वैसा होनेपर भी वे जिनवर हुए दिखायी नही देते। तीनो कालमे अखण्ड ऐसा यह सिद्धान्त यहाँ खडित हो जाता है, तब यह बात विकल्प करने योग्य क्यो नही ?
बम्बई, श्रावण वदी, १९४८
३९५ జ
'तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ घरे, ज्ञानाक्षेपकवंत'
जिसका विचारज्ञान विक्षेपरहित हुआ है, ऐसा 'ज्ञानाक्षेपकवत' आत्मकल्याणकी इच्छावाला पुरुष हो वह ज्ञानीमुख से श्रवण किये हुए आत्मकल्याणरूप धर्ममे निश्चल परिणामसे मनको धारण करता है, यह सामान्य भाव उपर्युक्त पदका है ।
१ देखे आक ३८७ अर्थके लिये ।
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श्रीमद् राजचन्द्र ___ इस प्रश्नके सिवाय बाकीके पत्रोका उत्तर अनुक्रमसे लिखनेका विचार होते हुए भी अभी उसे समागममे पूछने योग्य समझते हैं, अर्थात् यह जताना अभी योग्य लगता है।
दूसरे भी जो कोई परमार्थसम्बन्धी विचार-प्रश्न उत्पन्न हों उन्हे लिख रखना शक्य हो तो लिख । रखनेका विचार योग्य है।
पूर्वकालमे आराधित, जिसका नाम मात्र उपाधि हे ऐसी समाधि उदयरूपसे रहती है। अभी वहाँ पठन, श्रवण ओर मननका योग किस प्रकारका होता है ? आनन्दघनजीके दो पद्य स्मृतिमे आते हैं, उन्हे लिखकर अब यह पत्र समाप्त करता हूँ।
'इणविध परखी मन विसरामी जिनवर गुण जे गावे। दीनबन्धुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ॥
हो मल्लिजिन सेवक केम अवगणोए।
मन महिलानुं रे वहाला उपरे, वीजां काम करत,
जिन थई जिनवर जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भुंगी ईलिकाने चटकावे, ते भंगी जग जोवे रे॥
-श्री आनन्दघन
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__ बबई, श्रावण वदी १०, १९४८ मन महिला- रे वहाला उपरे, बीजा काम करत ।
तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ घरे, ज्ञानाक्षेपकवंत ॥-धन० घरसम्बन्धी दूसरे समस्त कार्य करते हुए भी जैसे पतिव्रता (महिला शब्दका अर्थ) स्त्रीका मन अपने प्रिय भरतारमे लीन रहता है, वैसे सम्यग्दृष्टि जीवका चित्त समारमे रहकर समस्त कार्य प्रसगोको करते हुए भी ज्ञानीसे श्रवण किये हुए उपदेशधर्ममे तल्लीन रहता है।
समस्त ससारमे स्त्रीपुरुषके स्नेहको प्रधान माना गया है, उसमे भी पुरुषके प्रति स्त्रीके प्रेमको किसी प्रकारसे भी उससे विशेष प्रधान माना गया है, और उसमे भी पतिके प्रति पतिव्रता स्त्रीके स्नेहको प्रधानमे भी प्रधान माना गया है। वह स्नेह ऐसा प्रधान-प्रधान किसलिये माना गया है ? तब जिसने सिद्धान्तको प्रबलतासे प्रदर्शित करनेके लिये उस दृष्टातको ग्रहण पिया है, ऐसा सिद्धान्तकार कहता है कि हमने उस स्नेहको इसलिये प्रधानमे भी प्रधान समझा हे कि दूसरे सभी घर सम्बन्धी (और दूसरे भी) काम करते हुए भी उस पतिव्रता महिलाका चित्त पतिमे ही लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे रहता है।
परन्तु सिद्धान्तकार कहता है कि इस स्नेहका कारण तो ससार प्रत्ययी है, और यहाँ तो उसे अससार-प्रत्ययी करनेके लिये कहना है, इसलिये वह स्नेह लोनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे जहाँ करने योग्य है, जहाँ वह स्नेह अससार परिणामको प्राप्त होता है उसे कहते है।
वह स्नेह तो पतिव्रतारूप मुमुक्षुको ज्ञानी द्वारा श्रवण किये हुए उपदेशादि धर्मके प्रति उसी प्रकारसे करना योग्य है, और उसके प्रति उस प्रकारसे जो जीव रहता है, तब 'कान्ता' नामको समकित सम्बन्धी दृष्टिमे वह जीव स्थित है, ऐसा जानते हैं ।
१ भावार्थ--इस प्रकार परीक्षा करके अठारह दोपोसे रहित देख करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनवन्बुकी कृपादृष्टिसे आनदघनपद-मोक्ष पाता है । हे मल्लिनाथ ! सेवककी उपेक्षा किसलिये।
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ऐसे अर्थसे भरे हुए ये दो पद है, वे पद तो भक्ति प्रधान है, तथापि उस प्रकारसे गूढ आशयमे जीवका निदिध्यासन न हो तो क्वचित् अन्य ऐसा पद ज्ञानप्रधान जैसा भासित होता है, और आपको भासित होगा ऐसा जानकर उस दूसरे पदका वैसा भास बाधित करनेके लिये पत्र पूर्ण करते हुए फिर मात्र प्रथमका एक ही पद लिखकर प्रधानरूपसे भक्तिको बताया है।
भक्तिप्रधान दशामे रहनेसे जीवके स्वच्छदादि दोष सुगमतासे विलय होते हैं, ऐसा ज्ञानी-पुरुषोका प्रधान आशय है।
यदि जीवमे अल्प भी निष्काम भक्ति उत्पन्न हुई होती है तो वह अनेक दोषोंसे निवृत्त करनेके लिये योग्य होती है । अल्प ज्ञान अथवा ज्ञानप्रधानदशा असुगम मार्गके प्रति, स्वच्छदादि दोषके प्रति, अथवा पदार्थसम्बन्धी भ्रान्तिके प्रीत ले जाता है, बहुत करके ऐसा होता है, उसमे भी इस कालमे तो बहुत काल तक जीवनपर्यन्त भी जीवको भक्तिप्रधानदशाकी आराधना करना योग्य है, ऐसा निश्चय ज्ञानियोने किया ज्ञात होता है । ( हमे ऐसा लगता है, और ऐसा ही है।)
हृदयमे जो मूर्तिसम्बन्धी दर्शन करनेकी आपकी इच्छा है, उसे प्रतिबन्ध करनेवाली प्रारब्ध स्थिति (आपकी ) है, और उस स्थितिके परिपक्व होनेमे अभी देर है। और उस मूर्तिको प्रत्यक्षतामे तो अभी गृहाश्रम है, और चित्रपटमे सन्यस्ताश्रम है, यह एक ध्यानका दूसरा मुख्य प्रतिबन्ध है । उस मूतिसे उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा पुन पुन उसके वाक्यादिके अनुसधानमे विचारणीय है, और उसका उस हृदयदर्शनसे भी बडा फल है । इस बातको यहाँ सक्षिप्त करना पडता है।
___ 'भृगी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे ।' यह पद्य परपरागत है। ऐसा होना किसी प्रकारसे सभव है, तथापि उसे प्रोफेसरके गवेषणके अनुसार मानें कि वैसा नही होता, तो भो इसमे कोई हानि नही है, क्योकि दृष्टात वैसा प्रभाव उत्पन्न करने योग्य है, तो फिर सिद्धातका ही अनुभव या विचार कर्तव्य है। प्रायः इस दृष्टातसंबधी किसीको ही विकल्प होगा। इसलिये यह दृष्टात मान्य है, ऐसा लगता है। लोकदृष्टिसे अनुभवगम्य है, इसलिये सिद्धान्तमे उसकी प्रबलता समझकर महापुरुष यह दृष्टात देते आये है और हम किसी प्रकारसे वैसा होना संभव भी समझते हैं । एक समयके लिये भी कदाचित् वह दृष्टात सिद्ध न हो ऐसा प्रमाणित हो, तो भी तीनो कालमे निरावाध, अखण्ड-सिद्ध ऐसी बात उसके सिद्धान्तपदकी तो है।
"जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे।' आनन्दघनजी और अन्य सभी ज्ञानी पुरुष ऐसे हो कहते है, और जिनेन्द्र कुछ अन्य ही प्रकार कहते है कि अनन्त बार जिनसवधी भक्ति करनेपर भी जीवका कल्याण नही हुआ, जिनमार्गमे अपनेको माननेवाले स्त्रीपुरुष ऐसा कहते है कि हम जिनेंद्रकी आराधना करते है, और उसकी आराधना करने जाते हैं, अथवा आराधनाके उपाय अपनाते हैं, वैसा होनेपर भी वे जिनवर हए दिखायो नही देते। तीनो कालमे अखण्ड ऐसा यह सिद्धान्त यहाँ खडित हो जाता है, तब यह बात विकल्प करने योग्य क्यो नही ?
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वम्बई, श्रावण वदी, १९४८ 'तम श्रुतधर्मे रे मन दृढ़ घरे, ज्ञानाक्षेपकवंत' जिसका विचारज्ञान विक्षेपरहित हुआ है, ऐसा 'ज्ञानाक्षेपकवत' आत्मकल्याणकी इच्छावाला पुरुष हो वह ज्ञानोमुखसे श्रवण किये हुए आत्मकल्याणरूप धर्ममे निश्चल परिणामसे मनको धारण करता है, यह सामान्य भाव उपर्युक्त पदका है।
१. देखे आफ ३८७ अयंके लिये।
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श्रीमद् राजचन्द्र इस प्रश्नके सिवाय बाकीके पत्रोका उत्तर अनुक्रमसे लिखनेका विचार होते हुए भी अभी उसे समागममे पूछने योग्य समझते है, अर्थात् यह जताना अभी योग्य लगता है।
दूसरे भी जो कोई परमार्थसम्बन्धी विचार-प्रश्न उत्पन्न हो उन्हे लिख रखना शक्य हो तो लिख रखनेका विचार योग्य है।
पूर्वकालमे आराधित, जिसका नाम मात्र उपाधि है ऐसी समाधि उदयरूपसे रहती है । अभी वहाँ पठन, श्रवण और मननका योग किस प्रकारका होता है ? आनन्दघनजीके दो पद्य स्मृतिमे आते है, उन्हे लिखकर अब यह पत्र समाप्त करता हूँ।
इणविध परखी मन विसरामी जिनवर गुण जे गावे। दीनबन्धुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ॥
हो मल्लिजिन सेवक केम अवगणीए।
मन महिलानु रे वहाला उपरे, बीजां काम करत,
जिन थई जिनवर जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भुंगी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे॥
-श्री आनन्दघन
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बबई, श्रावण वदी १०, १९४८ मन महिलानु रे वहाला उपरे, बीजां काम करत ।
तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवंत ॥-धन० घरसम्बन्धी दूसरे समस्त कार्य करते हुए भी जैसे पतिव्रता (महिला शब्दका अर्थ) स्त्रीका मन अपने प्रिय भरतारमे लीन रहता है, वैसे सम्यग्दृष्टि जीवका चित्त ससारमे रहकर समस्त कार्य प्रसंगोको करते हुए भी ज्ञानीसे श्रवण किये हुए उपदेशधर्ममे तल्लीन रहता है।
समस्त ससारमे स्त्रीपुरुषके स्नेहको प्रधान माना गया है, उसमे भी पुरुषके प्रति स्त्रीके प्रेमको किसी प्रकारसे भी उससे विशेष प्रधान माना गया है, और उसमे भी पतिके प्रति पतिव्रता स्त्रीके स्नेहको प्रधानमे, भी प्रधान माना गया है। वह स्नेह ऐसा प्रधान-प्रधान किसलिये माना गया है ? तब जिसने सिद्धान्तको प्रबलतासे प्रदर्शित करनेके लिये उस दृष्टातको ग्रहण किया है, ऐसा सिद्धान्तकार कहता है कि हमने उस स्नेहको इसलिये प्रधानमे भी प्रधान समझा है कि दूसरे सभी घर सम्बन्धी (और दूसरे भी) काम करते हुए भी उस पतिव्रता महिलाका चित्त पतिमे हो लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे रहता है।
परन्तु सिद्धान्तकार कहता है कि इस स्नेहका कारण तो ससार प्रत्ययी है, और यहाँ तो उसे अससार-प्रत्ययी करनेके लिये कहना है, इसलिये वह स्नेह लोनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे जहाँ करने योग्य है, जहाँ वह स्नेह अससार परिणामको प्राप्त होता है उसे कहते है।
वह स्नेह तो पतिव्रतारूप मुमुक्षुको ज्ञानी द्वारा श्रवण किये हुए उपदेशादि धर्मके प्रति उसी प्रकारसे करना योग्य है, और उसके प्रति उस प्रकारसे जो जीव रहता है, तब 'कान्ता' नामको समकित सम्बन्धी दृष्टिमे वह जीव स्थित है, ऐसा जानते हैं ।
१ भावार्थ-इस प्रकार परीक्षा करके अठारह दोषोंसे रहित देख करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनवन्वकी कृपादृष्टिसे आनदघनपद-मोक्ष पाता है । हे मल्लिनाथ । सेवककी उपेक्षा किसलिये।
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२५ वाँ वर्ष
३४७
ऐसे अर्थसे भरे हुए ये दो पद हैं, वे पद तो भक्ति प्रधान है, तथापि उस प्रकारसे गूढ आशयमे जीवका निदिध्यासन न हो तो क्वचित् अन्य ऐसा पद ज्ञानप्रधान जैसा भासित होता है, और आपको भासित होगा ऐसा जानकर उस दूसरे पदका वैसा भास बाधित करनेके लिये पत्र पूर्ण करते हुए फिर मात्र प्रथमका एक ही पद लिखकर प्रधानरूपसे भक्तिको बताया है ।
भक्तिप्रधान दशामे रहनेसे जीवके स्वच्छदादि दोष सुगमतासे विलय होते हैं, ऐसा ज्ञानी - पुरुषोका प्रधान आशय है ।
यदि जीवमे अल्प भी निष्काम भक्ति उत्पन्न हुई होती है तो वह अनेक दोषोंसे निवृत्त करनेके लिये योग्य होती है । अल्प ज्ञान अथवा ज्ञानप्रधानदशा असुगम मार्गके प्रति, स्वच्छदादि दोपके प्रति, अथवा पदार्थसम्बन्धी भ्रान्तिके प्रीत ले जाता है, बहुत करके ऐसा होता है, उसमे भी इस कालमे तो बहुत काल तक जीवनपर्यन्त भी जीवको भक्तिप्रधानदशाकी आराधना करना योग्य है, ऐसा निश्चय ज्ञानियोने किया ज्ञात होता है | ( हमे ऐसा लगता है, और ऐसा ही है | )
हृदयमे जो मूर्तिसम्बन्धी दर्शन करनेकी आपकी इच्छा है, उसे प्रतिबन्ध करनेवाली प्रारब्ध स्थिति ( आपकी ) है, और उस स्थितिके परिपक्व होनेमे अभी देर है । और उस मूर्तिकी प्रत्यक्षतामे तो अभी गृहाश्रम है, और चित्रपट मे सन्यस्ताश्रम है, यह एक ध्यानका दूसरा मुख्य प्रतिबन्ध है । उस मूर्तिसे उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा पुन पुन उसके वाक्यादिके अनुसधानमे विचारणीय है, ओर उसका उस हृदयदर्शनसे भी बडा फल है। इस बातको यहाँ सक्षिप्त करना पडता है ।
'भृगी ईलिकाने चटकावे, ते भृंगी जग जोवे रे ।'
यह पद्य परपरागत है । ऐसा होना किसी प्रकारसे सभव है, तथापि उसे प्रोफेसरके गवेषणके अनुसार मानें कि वैसा नही होता, तो भी इसमे कोई हानि नही है, क्योकि दृष्टात वैसा प्रभाव उत्पन्न करने योग्य है, तो फिर सिद्धातका ही अनुभव या विचार कर्तव्य है । प्रायः इस दृष्टातसबधी किसी को ही विकल्प होगा । इसलिये यह दृष्टात मान्य है, ऐसा लगता है । लोकदृष्टिसे अनुभवगम्य है, इसलिये सिद्धान्तमे उसकी प्रबलता समझकर महापुरुष यह दृष्टात देते आये हैं और हम किसी प्रकारसे वैसा होना सभव भी समझते हैं । एक समयके लिये भी कदाचित् वह दृष्टात सिद्ध न हो ऐसा प्रमाणित हो, तो भी तीनो कालमे निराबाध, अखण्ड - सिद्ध ऐसी बात उसके सिद्धान्तपदकी तो है ।
" जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे ।'
आनन्दघनजी और अन्य सभी ज्ञानी पुरुष ऐसे ही कहते है, और जिनेन्द्र कुछ अन्य ही प्रकार कहते है कि अनन्त बार जिनसवधी भक्ति करनेपर भी जीवका कल्याण नही हुआ, जिनमार्गमे अपनेको माननेवाले स्त्रीपुरुष ऐसा कहते है कि हम जिनेंद्रकी आराधना करते है, और उसकी आराधना करने जाते हैं, अथवा आराधनाके उपाय अपनाते हैं, वैसा होनेपर भी वे जिनवर हुए दिखायो नही देते । तीनो कालमे अखण्ड ऐसा यह सिद्धान्त यहाँ खडित हो जाता है, तब यह बात विकल्प करने योग्य क्यो नही ?
बम्बई, श्रावण वदी, १९४८
३९५
'तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ़ घरे, ज्ञानाक्षेपकवंत'
जिसका विचारज्ञान विक्षेपरहित हुआ है, ऐसा 'ज्ञानाक्षेपकवत' आत्मकल्याणकी इच्छावाला पुरुष हो वह ज्ञानीमुखसे श्रवण किये हुए आत्मकल्याणरूप धर्ममे निश्चल परिणामसे मनको धारण करता है, यह सामान्य भाव उपर्युक्त पदका हे ।
१ देखे भक ३८७ अपके लिये ।
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ओमद राजचन्द्र
इस प्रश्नके सिवाय बाकीके पत्रोका उत्तर अनुक्रमसे लिखनेका विचार होते हुए भी अभी उसे समागममे पूछने योग्य समझते है, अर्थात् यह जताना अभी योग्य लगता है ।
दूसरे भी जो कोई परमार्थसम्बन्धी विचार - प्रश्न उत्पन्न हो उन्हें लिख रखना शक्य हो तो लिख रखनेका विचार योग्य है ।
?
पूर्वकालमे आराधित, जिसका नाम मात्र उपाधि है ऐसी समाधि उदयरूपसे रहती है । अभी वहाँ पठन, श्रवण और मननका योग किस प्रकारका होता है आनन्दघनजीके दो पद्य स्मृतिमे आते है, उन्हें लिखकर अब यह पत्र समाप्त करता हूँ । 'इणविध परखी मन विसरामी जिनवर गुण जे गावे । दीनबन्धुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ॥
३४६
हो मल्लि जिन सेवक केम अवगणीए ।
मन महिलानुं रे वहाला उपरे, बीजां काम करत,
जिन थई जिनवर जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे | भृंगी ईलिकाने चटकावे, ते भृंगी जग जोवे रे ॥
-श्री आनन्दघन
३९४
बबई, श्रावण वदी १०, १९४८ मन महिलानुं रे वहाला उपरे, बीजा काम करंत । तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवंत ॥ - धन०
घरसम्बन्धी दूसरे समस्त कार्य करते हुए भी जैसे पतिव्रता (महिला शब्दका अर्थ ) स्त्रीका मन अपने प्रिय भरतारमे लीन रहता है, वैसे सम्यग्दृष्टि जीवका चित्त ससारमे रहकर समस्त कार्य प्रसगोको करते हुए भी ज्ञानीसे श्रवण किये हुए उपदेशधर्ममे तल्लीन रहता है ।
समस्त ससारमे स्त्रीपुरुषके स्नेहको प्रधान माना गया है, उसमे भी पुरुषके प्रति स्त्रीके प्रेमको किसी प्रकारसे भी उससे विशेष प्रधान माना गया है, और उसमे भी पतिके प्रति पतिव्रता स्त्रीके स्नेहको प्रधानमे भी प्रधान माना गया है । वह स्नेह ऐसा प्रधान- प्रधान किसलिये माना गया है ? तब जिसने सिद्धान्तको प्रबलतासे प्रदर्शित करनेके लिये उस दृष्टातको ग्रहण किया है, ऐसा सिद्धान्तकार कहता है कि हमने उस स्नेहको इसलिये प्रधानमे भी प्रधान समझा है कि दूसरे सभी घर सम्बन्धी (और दूसरे भी) काम करते हुए भी उस पतिव्रता महिलाका चित्त पतिमे ही लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे रहता है।
परन्तु सिद्धान्तकार कहता है कि इस स्नेहका कारण तो ससार प्रत्ययी है, और यहाँ तो उसे अससार-प्रत्ययी करनेके लिये कहना है, इसलिये वह स्नेह लोनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे जहाँ करने योग्य है, जहाँ वह स्नेह अससार परिणामको प्राप्त होता है उसे कहते है ।
वह स्नेह तो पतिव्रतारूप मुमुक्षुको ज्ञानी द्वारा श्रवण किये हुए उपदेशादि धर्मके प्रति उसी प्रकार से करना योग्य है, और उसके प्रति उस प्रकारसे जो जीव रहता है, तब 'कान्ता' नामको समकित सम्बन्धी दृष्टिमे वह जीव स्थित है, ऐसा जानते हैं ।
१ भावार्थ - इम प्रकार परीक्षा करके अठारह दोपोंसे रहित देख करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनवन्धुकी कृपादृष्टिसे आनदघनपद-मोक्ष पाता हैं । हे मल्लिनाथ । सेवककी उपेक्षा किसलिये ?
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२५ वा वर्ष
३४७
ऐसे अर्थसे भरे हुए ये दो पद है, वे पद तो भक्ति प्रधान हैं, तथापि उस प्रकारसे गूढ आशयमे जीवका निदिध्यासन न हो तो क्वचित् अन्य ऐसा पद ज्ञानप्रधान जैसा भासित होता है, और आपको भासित होगा ऐसा जानकर उस दूसरे पदका वैसा भास बाधित करनेके लिये पत्र पूर्ण करते हुए फिर मात्र प्रथमका एक ही पद लिखकर प्रधानरूपसे भक्तिको बताया है।
भक्तिप्रधान दशामे रहनेसे जीवके स्वच्छदादि दोष सुगमतासे विलय होते हैं, ऐसा ज्ञानी-पुरुषोका प्रधान आशय है।
यदि जीवमे अल्प भी निष्काम भक्ति उत्पन्न हुई होती है तो वह अनेक दोषोंसे निवृत्त करनेके लिये योग्य होती है । अल्प ज्ञान अथवा ज्ञानप्रधानदशा असुगम मार्गके प्रति, स्वच्छदादि दोषके प्रति, अथवा पदार्थसम्बन्धी भ्रान्तिके प्रीत ले जाता है, बहुत करके ऐसा होता है, उसमे भी इस कालमे तो बहुत काल तक जीवनपर्यन्त भी जीवको भक्तिप्रधानदशाकी आराधना करना योग्य है, ऐसा निश्चय ज्ञानियोने किया ज्ञात होता है । ( हमे ऐसा लगता है, और ऐसा ही है।)
हृदयमे जो मूर्तिसम्बन्धी दर्शन करनेकी आपकी इच्छा है, उसे प्रतिबन्ध करनेवाली प्रारब्ध स्थिति (आपकी ) है, और उस स्थितिके परिपक्व होनेमे अभी देर है। और उस मूत्तिकी प्रत्यक्षतामे तो अभी गृहाश्रम है, और चित्रपटमे सन्यस्ताश्रम है, यह एक ध्यानका दूसरा मुख्य प्रतिबन्ध है । उस मूर्तिसे उस आत्मस्वरूप पुरुषको दशा पुन पुन उसके वाक्यादिके अनुसधानमे विचारणीय है, ओर उसका उस हृदयदर्शनसे भी बड़ा फल है। इस बातको यहाँ सक्षिप्त करना पडता है।
भृगो ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे।' ___ यह पद्य परपरागत है। ऐसा होना किसी प्रकारसे सभव है, तथापि उसे प्रोफेसरके गवेषणके अनुसार मानें कि वैसा नही होता, तो भो इसमे कोई हानि नही है, क्योकि दृष्टात वैसा प्रभाव उत्पन्न करने योग्य है, तो फिर सिद्धातका ही अनुभव या विचार कर्तव्य है । प्रायः इस दृष्टातसंबंधी किसीको ही विकल्प होगा। इसलिये यह दृष्टात मान्य है, ऐसा लगता है। लोकदृष्टिसे अनुभवगम्य है, इसलिये सिद्धान्तमे उसकी प्रबलता समझकर महापुरुष यह दृष्टात देते आये है और हम किसी प्रकारसे वैसा होना सभव भी समझते हैं । एक समयके लिये भी कदाचित् वह दृष्टात सिद्ध न हो ऐसा प्रमाणित हो, तो भी तीनो कालमे निराबाध, अखण्ड-सिद्ध ऐसी बात उसके सिद्धान्तपदकी तो है।
"जिन स्वरूप यई जिन माराधे, ते सही जिनवर होवे रे।' आनन्दघनजी और अन्य सभी ज्ञानी पुरुप ऐसे हो कहते हैं, और जिनेन्द्र कुछ अन्य ही प्रकार कहते हैं कि अनन्त बार जिनसबधी भक्ति करनेपर भी जीवका कल्याण नहीं हुआ, जिनमार्गमे अपनेको माननेवाले स्त्रीपुरुष ऐसा कहते है कि हम जिनेंद्रकी आराधना करते है, और उसकी आराधना करने जाते हैं, अथवा आराधनाके उपाय अपनाते है, वैसा होनेपर भी वे जिनवर हुए दिखायो नही देते । तीनो कालमे अखण्ड ऐसा यह सिद्धान्त यहाँ खडित हो जाता है, तब यह वात विकल्प करने योग्य क्यो नही ?
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वम्बई, श्रावण वदी, १९४८ 'तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ़ घरे, ज्ञानाक्षेपकवत' जिसका विचारज्ञान विक्षेपरहित हुआ है, ऐसा 'ज्ञानाक्षेपकवत' आत्मकल्याणकी इच्छावाला पुरुष हो वह ज्ञानीमुखसे श्रवण किये हुए आत्मकल्याणरूप धर्ममे निश्चल परिणामसे मनको धारण करता है, यह सामान्य भाव उपर्युक्त पदका है।
१ देखे आक ३८७ अर्थके लिये।
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३४८
श्रीमद् राजचन्द्र
उस निश्चल परिणामका स्वरूप वहाँ कैसे घटित होता है ? यह पहले ही बता दिया है कि जैसे दूसरे घर काम करते हुए भी पतिव्रता स्त्रोका मन अपने प्रिय स्वामीमे रहता है वैसे। जिस पदका विशेष अर्थ आगे लिखा है, उसे स्मरणमे लाकर सिद्धातरूप उपर्युक्त पदमे सधीभूत करना योग्य है कारण कि 'मन महिलानु वहाला उपरे' यह पद दृष्टातरूप है।
__ अत्यन्त समर्थ सिद्धातका प्रतिपादन करते हुए जीवके परिणाममे वह सिद्धात स्थित होनेके लिये समर्थ दृष्टात देना ठीक है, ऐसा जानकर ग्रन्थकर्ता उस स्थानपर जगतमे, ससारमे प्राय. मुख्य पुरुषके प्रति स्त्रीका 'क्लेशादि भाव' रहित जो काम्यप्रेम है उसी प्रेमको सत्पुरुपसे श्रवण किये हुए धर्ममे परिणमित करनेको कहते हैं। उस सत्पुरुप द्वारा श्रवणप्राप्त धर्ममे, दूसरे सब पदार्थोमे रहे हुए प्रेमसे उदासीन होकर, एक लक्षसे, एक ध्यानसे, एक लयसे, एक स्मरणसे, एक श्रेणिसे, एक उपयोगसे, एक परिणामस सर्व वृत्तिमे रहे हुए काम्यप्रेमको मिटाकर, श्रुतधर्मरूप करनेका उपदेश किया है। इस काम्य प्रेमसे अनन्तगुणविशिष्ट श्रुतप्रेम करना उचित हे । तथापि दृष्टात परिसीमा नही कर सका, जिससे दृष्टातकी परिसीमा जहाँ हुई वहाँ तकका प्रेम कहा है । सिद्धात वहाँ परिसीमाको प्राप्त नही किया है।
___अनादिसे जीवको ससाररूप अनत परिणति प्राप्त होनेसे अससारत्वरूप किसी अंशका उसे बोध नही हे । अनेक कारणोका योग प्राप्त होनेपर उस अशदृष्टिको प्रगट करनेका योग प्राप्त हुआ तो उस विषम ससारपरिणतिके आड़े आनेसे उसे वह अवकाश प्राप्त नही होता, जब तक वह अवकाश प्राप्त नहा होता तब तक जीव स्वप्राप्तिभानके योग्य नही है। जब तक वह प्राप्ति नही होती तब तक जीवको किसी प्रकारसे सुखी कहना योग्य नहीं है, दुःखी कहना योग्य है, ऐसा देखकर जिन्हे अत्यन्त अनन्त करुणा प्राप्त हुई है, ऐसे आप्तपुरुषने दुख मिटनेका मार्ग जाना है जिसे वे कहते थे, कहते है, भविष्यकालमे कहेगे। वह मार्ग यह है कि जिनमे जीवकी स्वाभाविकता प्रगट हुई है, जिनमे जीवका स्वाभाविक सुख प्रगट हुआ है, ऐसे ज्ञानीपुरुष ही उस अज्ञानपरिणति और उससे प्राप्त होनेवाले दुःखपरिणामको दूरकर आत्माको स्वाभाविकरूपसे समझा सकने योग्य है, कह सकने योग्य है, और वह वचन स्वाभाविक आत्मज्ञानपूर्वक होनेसे दुःख मिटानेमे समर्थ है। इसलिये यदि किसी भी प्रकारसे जीवको उस वचनका श्रवण प्राप्त हो, उसे अपूर्वभावरूप जानकर उसमे परम प्रेम रहे, तो तत्काल अथवा अमुक अनुक्रमसे आत्माकी स्वाभाविकता प्रगट होती है।
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बम्बई, श्रावण वदी, १९४८
अन-अवकाश आत्मस्वरूप रहता है, जिसमे प्रारब्धोदयके सिवाय दूसरा कोई अवकाश योग नही है।
उस उदयमे क्वचित् परमार्थभाषा कहनेका योग उदयमे आता है, क्वचित् परमार्थभापा लिखनेका योग उदयमे आता है, और क्वचित परमार्थभापा समझानेका योग उदयमे आता है । अभी तो वैश्यदशाका योग विशेषरूपसे उदयमे रहता है, और जो कुछ उदयमे नही आता उसे कर सकनेकी अभी तो असमर्थता है।
___ जीवितव्यको मात्र उदयाधीन करनेसे, होनेसे विषमता मिटी है । आपके प्रति, अपने प्रति, अन्यके प्रति किसी प्रकारका वैभाविक भाव प्राय. उदयको प्राप्त नही होता, और इसी कारणसे पत्रादि कार्य करनेरूप परमार्थभाषा-योगसे अवकाश प्राप्त नही है ऐसा लिखा है, वह वैसा ही है।
पूर्वोपार्जित स्वाभाविक उदयके अनुसार देहस्थिति है; आत्मरूपसे उसका अवकाश अत्यन्ताभावरूप है।
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३४९
२५ वो वर्ष उस पुरुषके स्वरूपको जानकर उसको भक्तिके सत्सगका महान फल है, जो मात्र चित्रपटके योगसे, ध्यानसे नही है।
जो उस पुरुषके स्वरूपको जानता है, उसे स्वाभाविक अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप प्रगट होता है। उसके प्रगट होनेका कारण उस पुरुषको जानकर सर्व प्रकारकी ससारकामनाका परित्याग करके-अससार परित्यागरूप करके~-शुद्ध भक्तिसे वह पुरुषस्वरूप विचारने योग्य है। चित्रपटकी प्रतिमाके हृदय-दर्शनसे उपर्युक्त आत्मस्वरूपको प्रगटता' रूप महान फल है, यह वाक्य निर्विसवादी जानकर लिखा है।
_ 'मन महिलानु वहाला उपरे, वीजा काम करत' इस पदके विस्तारवाले अर्थको आत्मपरिणामरूप करके उस प्रेमभक्तिको सत्पुरुषमे अत्यन्तरूपसे करना योग्य है, ऐसा सब तीथंकरोने कहा है, वर्तमानमे कहते हैं और भविष्यमे भी ऐसा ही कहेगे ।
उस पुरुषसे प्राप्त हुई उसकी आत्मपद्धतिसूचक भाषामे जिसका विचारज्ञान अक्षेपक हुआ है, ऐसा पुरुष, वह उस पुरुषको आत्मकल्याणका कारण समझकर, वह श्रुत (श्रवण) धर्ममे मन (आत्मा) को धारण (उस रूपसे परिणाम) करता है। वह परिणाम कैसा करना योग्य है ? 'मन महिलानु रे वहाला उपरे, बोजा काम करत' यह दृष्टात देकर उसका समर्थन किया है।
घटित तो इस तरह होता है कि पुरुषके प्रति स्त्रीका काम्यप्रेम ससारके दूसरे भावोकी अपेक्षा शिरोमणि है, तथापि उस प्रेमसे अनत गुणविशिष्ट प्रेम, सत्पुरुषसे प्राप्त हुए आत्मरूप श्रुतधर्ममे करना योग्य है, परन्तु उस प्रेमका स्वरूप जहां अदृष्टातता-दृष्टान्ताभावको प्राप्त होता है, वहाँ बोधका अवकाश नही है ऐसा समझकर उस श्रुतधर्मके लिये भरतारके प्रति स्त्रीके काम्यप्रेमका परिसीमाभूत दृष्टात दिया है। सिद्धान्त वहाँ परिसीमाको प्राप्त नहीं होता। इसके आगे सिद्धान्त वाणीके पीछेके परिणामको पाता है अर्थात् वाणीसे अतीत-परे हो जाता है और आत्मव्यक्तिसे ज्ञात होता है, ऐसा है।
३९७
बबई, श्रावण वदी ११, गुरु, १९४८ शुभेच्छासम्पन्न भाई त्रिभोवन, स्थभतीर्थ ।
आत्मस्वरूपमे स्थिति है ऐसा जो उसके निष्काम स्मरणपूर्वक यथायोग्य पढियेगा। उस तरफका 'आज क्षायिकसमकित नहीं होता' इत्यादि सम्बन्धी व्याख्यानके प्रसगका आपका लिखा पत्र प्राप्त हुआ है। जो जीव उस उस प्रकारसे प्रतिपादन करते है, उपदेश करते हैं, और उस सबंधी विशेषरूपसे जीवोको प्रेरणा करते हैं, वे जीव यदि उतनी प्रेरणा, गवेषणा जीवके कल्याणके विषयमे करेंगे तो उस प्रश्नके समाधान होनेका कभी भी उन्हे प्रसग प्राप्त होगा। उन जीवोके प्रति दोषदृष्टि करना योग्य नहीं है, केवल निष्काम करुणासे उन जीवोको देखना योग्य है। तत्सम्बन्धी किसी प्रकारका खेद चित्तमे लाना योग्य नही है, उस उस प्रसगमे जीवको उनके प्रति क्रोधादि करना योग्य नहीं है। उन जीवोको उपदेश द्वारा समझानेका कदाचित् आपको विचार होता हो, तो भी उसके लिये नाप वर्तमानदशासे देखते हुए नो निरुपाय हैं. इसलिये अनुकपाबुद्धि और समतावुद्धिसे उन जीवोके प्रति सरल परिणामसे देखना और ऐसो ही इच्छा करना, और यही परमार्थमार्ग है, ऐसा निश्चय रखना योग्य है।
अभी उन्हे जो कर्मसवधी आवरण है, उसे भग करनेकी यदि उन्हे ही चिन्ता उत्पन्न हो तो फिर आपसे अथवा आप जैसे दूसरे सत्सगीके मुखसे कुछ भी श्रवण करनेकी वारवार उन्हे उल्लास वृत्ति उत्पन्न होगी, और किसी आत्मस्वरूप सत्पुरुपके योगसे मार्गकी प्राप्ति होगी, परन्तु ऐसी चिन्ता उत्पन्न होनेका यदि उन्हें समीप योग हो तो अभी वे ऐसी चेष्टामे न रहेगे । ओर जब तक जीवको उस उमप्रकारकी चेष्टा है तव तक तीर्थकर जैसे ज्ञानीपुरुषका वाक्य भी उसके लिये निष्फल होता है, तो आप आदिके वाक्य निष्फल
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३५०
श्रीमद् राजचन्द्र हो, और उन्हे क्लेशरूप भासित हो, इसमे कुछ आश्चर्य नही, ऐमा समझकर ऊपर प्रदर्शित अंतरंग भावनासे उनके प्रति बर्ताव करना, और किसी प्रकारसे भी उन्हे आपसम्बन्धी क्लेशका कम कारण प्राप्त हो, ऐसा विचार करना इस मार्गमे योग्य माना गया है।
फिर एक और सूचना स्पष्टरूपसे लिखना योग्य प्रतीत होता है, इसलिये लिखते हैं। वह यह है कि हमने पहिले आप इत्यादिको बताया था कि यथासंभव हमारे सबधी दूसरे जीवोंसे कम बात करना। इस अनुक्रममे बर्ताव करनेके ध्यानका विसर्जन हुआ हो तो अब फिरसे स्मरण रखना। हमारे सम्बन्धमे और हमारे कहे या लिखे हुए वाक्योके सम्बन्धमे ऐसा करना योग्य है, और अभी इसके कारणोको आपको स्पष्ट बताना योग्य नही है । तथापि यदि अनुक्रमसे अनुसरण करनेमे उसका विसर्जन होता हो तो दूसरे जीवोको क्लेशादिका कारण हो जाता है, यह भी अब 'क्षायिककी चर्चा' इत्यादि प्रसगसे आपके अनुभवमे आ गया है। जो कारण जीवको प्राप्त होनेसे कल्याणका कारण हो उन जीवोको इस भवमे उन कारणोकी प्राप्ति होती हुई रुक जाती है, क्योकि वे तो अपनी अज्ञानतासे न पहचाने हुए सत्पुरुषसम्बन्धी आप इत्यादिसे प्राप्त हुई बातसे वे सत्पुरुषके प्रति विमुखताको प्राप्त होते है, उसके विपयमे आग्रहपूर्वक अन्य अन्य चेष्टाएँ कल्पित करते है, और फिर वैसा योग होनेपर वैसी विमुखता प्रायः प्रबलताको प्राप्त होती है। ऐसा न होने देनेके लिये और इस भवमे यदि उन्हे वैसा योग अज्ञानतासे प्राप्त हो जाये तो कदाचित् श्रेयको प्राप्त करेगे, ऐसी धारणा रखकर, अतरगमे ऐसे सत्पुरुषको प्रगट रखकर बाह्यरूपसे गुप्तता रखना अधिक योग्य है । वह गुप्तता मायाकपट नही है, क्योकि वैसा बर्ताव करना मायाकपटका हेतु नही है, उनके भविष्यकल्याणका हेतु है, जो वैसा होता है वह मायाकपट नही होता, ऐसा समझते है ।
जिसे दर्शनमोहनीय उदयमे प्रबलतासे है, ऐसे जोवको अपनी ओरसे सत्पुरुषादिके विषयमे मात्र अवज्ञापूर्वक बोलनेका प्रसग प्राप्त न हो, इतना उपयोग रखकर बर्ताव करना, यह उसके और उपयोग रखनेवाले दोनोके कल्याणका कारण है ।
ज्ञानीपुरुषकी अवज्ञा बोलना तथा उस प्रकारके प्रसगमे उमगी होना, यह जीवके अनत ससार बढनेका कारण है, ऐसा तीर्थंकर कहते है । उस पुरुषके गुणगान करना, उस प्रसंगमे उमगी होना और उसकी आज्ञामे सरल परिणामसे परम उपयोग-दृष्टिसे वर्तन करना, इसे तीर्थकर अनत ससारका नाश करनेवाला कहते हैं, और ये वाक्य जिनागममे है। बहुतसे जीव इन वाक्योका श्रवण करते होगे, तथापि जिन्होने प्रथम वाक्यको अफल और दूसरे वाक्यको सफल किया हो ऐसे जीव तो क्वचित् ही देखनेमे आते हैं । प्रथम वाक्यको सफल और दूसरे वाक्यको अफल, ऐसा जीवने अनत बार किया है। वैसे परिणाममे आनेमे उसे देर नहीं लगती, क्योकि अनादिकालसे मोह नामकी मदिरा उसके 'आत्मा'मे परिणमित हुई है, इसलिये वारवार विचार कर वैसे वैसे प्रसगमे यथाशक्ति, यथाबलवीर्य ऊपर दर्शित किये हुए प्रकारसे वर्तन करना योग्य है।
'कदाचित् ऐसा मान ले कि 'क्षायिकसमकित इस कालमे नही होता', ऐसा जिनागममे स्पष्ट लिखा है। अब जीवको यह विचार करना योग्य है कि 'क्षायिकसमकितका अर्थ क्या समझना ?' जिसे एक नवकारमत्र जितना भी व्रत, प्रत्याख्यान नही होता, फिर भी वह जीव विशेष तो तीन भवमे और नही तो उसी भवमे परम पदको पाता है, ऐसी महान आश्चर्यकारक तो उस समकितकी व्याख्या है, फिर अब ऐसी वह कौनसी दशा समझना कि जिसे 'क्षायिकसमकित' कहा जाये ? 'भगवान तीर्थंकरमे दृढ श्रद्धा'का नाम यदि 'क्षायिकसमकित' मानें तो वह श्रद्धा कैसी समझना कि जो श्रद्धा हम जानते हैं कि निश्चितरूपसे इस कालमे होती ही नही। यदि ऐसा मालूम नहीं होता कि अमुक दशा या अमुक श्रद्धाको 'क्षायिकसमकित' कहा है, तो फिर वह नही है, ऐसा केवल जिनागमके शब्दोसे जानना हुआ यो कहते हैं। अब ऐसा माने
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२५ वो वर्ष
३५१ कि वे शब्द अन्य आशयसे कहे गये हैं, अथवा किसी पिछले कालके विसर्जन-दोपसे लिखे गये है तो जिस जीवने इस विषयमे आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया हो वह जीव कैसे दोपको प्राप्त होगा यह सखेद करुणासे विचार करने योग्य है।
अभी जिन्हे जिनसूत्रोके नामसे जाना जाता है, उनमे 'क्षायिकसमकित नहीं है, ऐसा स्पष्ट लिखा नही है, और परम्परागत तथा दूसरे कितने ही ग्रन्थोमे यह बात चली आती है ऐसा पढा है, और सुना है, और यह वाक्य मिथ्या है या मृषा है, ऐसा हमारा अभिप्राय नहीं है, और वह वाक्य जिस प्रकारसे लिखा है, वह एकान्त अभिप्रायसे ही लिखा है, ऐसा हमे नही लगता। कदाचित् ऐसा माने कि वह वाक्य एकान्त ही है तो भी किसी भी प्रकारसे व्याकुलता करना योग्य नही है। क्योकि यदि इन सभी व्याख्याओको सत्पुरुषके आशयसे नही जाना तो फिर सफल नहीं है। कदाचित् ऐसा माने कि इसके बदले जिनागममे लिखा हो कि चौथे कालको भॉति पांचवें कालमे भी बहुतसे जीव मोक्षमे जानेवाले है, तो इस बातका श्रवण आपके लिये और हमारे लिये कुछ कल्याणकारी नही हो सकता, अथवा मोक्षप्राप्तिका कारण नही हो सकता, क्योकि वह मोक्षप्राप्ति जिस दशामे कही है, उसी दशाकी प्राप्ति ही सिद्ध है, उपयोगी है, कल्याणकर्ता है। श्रवण तो मात्र बात है, उसी प्रकार उससे प्रतिकूल वाक्य भी मात्र बात है। वे दोनो लिखी हो, अथवा एक ही लिखी हो अथवा व्यवस्थाके बिना रखा हो, तो भी वह बध अथवा मोक्षका कारण नही है। मात्र बधदशा बंध है, मोक्षदशा मोक्ष है, क्षायिकदशा क्षायिक है, अन्यदशा अन्य है, श्रवण श्रवण हे, मनन मनन है, परिणाम परिणाम हे, प्राप्ति प्राप्ति है, ऐसा सत्पुरुषोका निश्चय है । बंध मोक्ष नही है, और मोक्ष वध नहीं है, जो जो है वह वह है, जो जिस स्थितिमे है, वह उस स्थितिमे है। वधवुद्धि टली नही है और मोक्ष-जीवनमुक्तता-माननेमे आये तो यह जैसे सफल नही है, वैसे ही अक्षायिकदशासे क्षायिक माननेमे आये, तो वह भी सफल नही है । माननेका फल नही हे परन्तु दशाका फल है।
जब यह स्थिति है तो फिर अब हमारा आत्मा अभी किस दशामे है, और वह क्षायिकसमकिती जीवकी दशाका विचार करनेके योग्य है या नहीं, अथवा उससे उतरती या उससे चढती दशाका विचार यह जीव यथार्थ कर सकता है या नही ? इसीका विचार करना जीवके लिये श्रेयस्कर है। परन्तु अनन्तकालसे जीवने वैसा विचार नहीं किया है, उसे वैसा विचार करना योग्य है ऐसा भासित भी नही हुआ, और निष्फलतापूर्वक सिद्धपद तकका उपदेश यह जीव अनन्त वार कर चुका है, वह उपर्युक्त प्रकारका विचार किये बिना कर चुका है, विचारकर यथार्थ विचार कर-नही कर चुका है। जैसे पूर्वकालमे जीवने यथार्थ विचारके बिना वैसा किया है, वैसे ही उस दशा (यथार्थ विचारदशा) के विना वर्तमानमे वैसा करता है। जब तक जीवको अपने बोधके वलका भान नही आयेगा तब तक वह भविष्यमे भी इसी तरह प्रवृत्ति करता रहेगा। किसी भी महा पुण्यके योगसे जीव पीछे हटकर, तथा वैसे मिथ्या-उपदेशके प्रवर्तनसे अपना बोधवल आवरणको प्राप्त हुआ है, ऐसा समझ कर उसके प्रति सावधान होकर निरावरण होनेका विचार करेगा, तव वैसा उपदेश करनेसे, दूसरेको प्रेरणा देनेसे और आग्रहपूर्वक कहनेसे रुकेगा। अधिक क्या कहे ? एक अक्षर बोलते हुए अतिशय-अतिशय प्रेरणा करते हुए भी वाणो मौनको प्राप्त होगी, और उस मौनको प्राप्त होनेसे पहले जीव एक अक्षर सत्य बोल पाये, ऐसा होना अशक्य है, यह बात किसी भी प्रकारसे तोनो कालोमे सदेहपात्र नहीं है।
तीर्थकरने भी ऐसा ही कहा है, और वह अभी उनके आगममे भी है, ऐसा ज्ञात है। कदाचित आगममे तथाकथित अर्थ न रहा हो, तो भी ऊपर बताये हुए शब्द आगम ही है, जिनागम ही है। राग, द्वेष और अज्ञान, इन तीनो कारणोसे रहित होकर ये शब्द प्रगट लिखे गये है, इसलिये सेवनीय हैं।
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श्रीमद राजचन्द्र
थोडे ही वाक्योमे लिखनेका सोचा था ऐसा यह पत्र विस्तृत हो गया है, और बहुत ही सक्षेपमे उसे लिखा है, फिर भी कितने ही प्रकारसे अपूर्ण स्थितिमे यह पत्र यहाँ परिसमाप्त करना पड़ता है ।
३५२
आपको तथा आप जैसे दूसरे जिन जिन भाइयोका प्रसग है उन्हे यह पत्र, विशेषत प्रथम भाग वैसे प्रसगमे स्मरणमे रखना योग्य है, और बाकीका दूसरा भाग आपको और दूसरे मुमुक्षु जोवोको वारवार विचारना योग्य है | यहाँ उदय-गर्भमे स्थित समाधि है ।
कृष्णदास सगमे 'विचारसागर' के थोडे भी तरंग पढनेका प्रसग मिले तो लाभरूप है । कृष्णद्वासको आत्मस्मरणपूर्वक यथायोग्य |
"प्रारब्ध देही "
बम्बई, श्रावण वदी १४, रवि, १९४८
स्वस्ति श्री सायला ग्राम शुभस्थानमे स्थित परमार्थके अखण्ड निश्चयी, निष्काम स्वरूप ( ं) के वारवार स्मरणरूप, मुमुक्षु पुरुषोके द्वारा अनन्य प्रेमसे सेवन करने योग्य, परम सरल और शातमूर्ति श्री 'सुभाग्य' के प्रति,
३९८
ॐ
श्री 'मोहमयी' स्थानसे निष्काम स्वरूप तथा स्मरणरूप सत्पुरूषके विनयपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । जिनमे प्रेमभक्ति प्रधान निष्कामरूपसे है, ऐसे आपसे लिखित बहुत से पत्र अनुक्रमसे प्राप्त हुए हैं । आत्माकारस्थिति और उपाधियोगरूप कारण से मात्र उन पत्रोको पहुँच लिखी जा सकी है ।
यहाँ श्री रेवाशकरकी शारीरिक स्थिति यथायोग्यरूप रहती न होनेसे, और व्यवहार सम्बन्धी कामकाजके बढ जानेसे उपाधियोग भी विशेष रहा है, और रहता है, जिससे इस चातुर्मासमे बाहर निकलना अशक्य हुआ है, और इसके कारण आपका निष्काम समागम प्राप्त नही हो सका। फिर दिवालीके पहले वैसा योग प्राप्त होना सम्भव नही है ।
आपके लिखे कितने ही पत्रोमे जीवादिके स्वभाव और परभावके बहुत से प्रश्न आते थे, इस कारण - से उनके उत्तर लिखे नही जा सके। दूसरे भी जिज्ञासुओंके पत्र इस दौरान बहुत मिले है । प्राय उनके लिये भी वैसा ही हुआ है ।
अभी जो उपाधियोग प्राप्त हो रहा है, यदि उस योगका प्रतिबन्ध त्यागनेका विचार करें तो वैसा हो सकता है, तथापि उस उपाधियोगको भोगनेसे जो प्रारब्ध निवृत्त होनेवाला है, उसे उसी प्रकारसे भोगने के सिवाय दूसरी इच्छा नही होती, इसलिये उसी योगसे उस प्रारब्धको निवृत्त होने देना योग्य है, ऐसा समझते है, और वैसी स्थिति है ।
शास्त्रोमे इस कालको अनुक्रमसे क्षीणता योग्य कहा है, और वैसे ही अनुक्रमसे हुआ करता है । यह क्षीणता मुख्यत परमार्थं सम्बन्धी कही है । जिस कालमे अत्यन्त दुर्लभतासे परमार्थको प्राप्ति हो वह काल दुम कहने योग्य है । यद्यपि सर्व कालमे जिनसे परमार्थप्राप्ति होती है. ऐसे पुरुषोका योग दुर्लभ ही है, तथापि ऐसे कालमे तो अत्यन्त दुर्लभ होता है । जीवोकी परमार्थवृत्ति क्षीण परिणामको प्राप्त होतो
रही है, जिससे उनके प्रति ज्ञानीपुरुषोके उपदेशका बल भी कम होता जाता है, और इससे परपरासे वह उपदेश भी क्षीणताको प्राप्त हो रहा है, इसलिये परमार्थमार्ग अनुक्रमसे व्यवच्छेद होने योग्य काल आ रहा है।
इस कालमे और उसमे भी लगभग वर्तमान सदीसे मनुष्यकी परमार्थवृत्ति बहुत क्षीणताको प्राप्त हुई है, और यह बात प्रत्यक्ष है । सहजानन्दस्वामोके समय तक मनुष्योमे जो सरलवृत्ति थी, उसमे और आजकी
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३५३
२५ वाँ वर्ष सरलवृत्तिमे वडा अन्तर हो गया है। तब तक मनुष्योकी वृत्तिमे कुछ कुछ आज्ञाकारित्व, परमार्थकी इच्छा और तत्सम्बन्धी निश्चयमे दृढता जैसे थे, वैसे आज नही हैं, उसकी अपेक्षा तो आज बहुत क्षीणता हो गयी है। यद्यपि अभी तक इस कालमे परमार्थवृत्ति सर्वथा व्यवच्छेदप्राप्त नही हुई है, तथा भूमि सत्पुरुषरहित नही हुई है, तो भी यह काल उस कालकी अपेक्षा अधिक विषम है, बहुत विषम है, ऐसा जानते है । कालका ऐसा स्वरूप देखकर हृदयमे बडी अनुकम्पा अखडरूपसे रहा करती है । अत्यन्त दुःखकी निवृत्तिका उपायभूत जो सर्वोत्तम परमार्थ है उस सम्बन्धी वृत्ति जीवोमे किसी भी प्रकारसे कुछ भी वर्धमानताको प्राप्त हो, तभी उन्हे सत्पुरुषकी पहचान होती है, नही तो नही होती। वह वृत्ति सजीवन हो और किन्ही भी जीवोको - बहुतसे जीवोको - परमार्थ सम्बन्धी मार्ग प्राप्त हो, ऐसी अनुकम्पा अखडरूपसे रहा करती है, तथापि वैसे होना बहुत दुष्कर समझते है और उसके कारण भी ऊपर बतलाये है ।
जिस पुरुपकी दुर्लभता चौथे कालमे थी वैसे पुरुषका योग इस कालमे होने जैसा हुआ है, तथापि जीवोकी परमार्थसम्बन्धी चिन्ता अत्यन्त क्षीण हो गयी है, इसलिये उस पुरुषकी पहचान होना अत्यन्त विकट है। उसमे भी जिस गृहवासादि प्रसगमे उस पुरुषकी स्थिति है, उसे देखकर जीवको प्रतीति आना दुर्लभ है, अत्यन्त दुर्लभ है, और कदाचित् प्रतीति आयी, तो उसका जो प्रारब्ध प्रकार अभी प्रवर्तमान है, उसे देखकर निश्चय रहना दुर्लभ है, और कदाचित् निश्चय हो जाये तो भी उसका सत्सग रहना दुर्लभ है, और जो परमार्थका मुख्य कारण है वह तो यही है । इसे ऐसी स्थितिमे देखकर ऊपर बताये हुए कारणोको अधिक बलवानरूपमे देखते है; और यह बात देखकर पुन पुन अनुकम्पा उत्पन्न होती है ।
'ईश्वरेच्छासे' जिन किन्ही भी जीवोका कल्याण वर्तमानमे भी होना सर्जित होगा, वह तो वैसे होगा, और वह दूसरेसे नही परन्तु हमसे, ऐसा भी यहाँ मानते है । तथापि जैसी हमारी अनुकम्पासंयुक्त इच्छा है, वैसो परमार्थ विचारणा और परमार्थप्राप्ति जीवोको हो वैसा योग किसी प्रकारसे कम हुआ है, ऐसा मानते है । गंगायमुनादिके प्रदेशमे अथवा गुजरात देशमे यदि यह देह उत्पन्न हुई होतो, वहाँ वर्धमानताको प्राप्त हुई होती, तो वह एक बलवान कारण था ऐसा जानते हैं । फिर प्रारब्धमे गृहवास बाकी न होता और ब्रह्मचर्य, वनवास होता तो वह दूसरा बलवान कारण था, ऐसा जानते हैं । कदाचित् गृहवास बाकी होता और उपाधियोगरूप प्रारब्ध न होता तो यह परमार्थ के लिये तीसरा बलवान कारण था ऐसा जानते हैं । पहले कहे हुए दो कारण तो हो चुके है, इसलिये अब उनका निवारण नही है । तीसरा उपाधियोगरूप प्रारब्ध शीघ्रतासे निवृत्त हो, और निष्काम करुणाके हेतुसे वह भोगा जाये, तो वैसा होना अभी बाकी है, तथापि वह भो अभी विचारयोग्य स्थितिमे है । अर्थात् उस प्रारब्धका सहजमे प्रतिकार हो जाये, ऐसी ही इच्छाकी स्थिति है, अथवा तो विशेष उदयमे आकर थोडे कालमे उस प्रकारका उदय परिसमाप्त हो जाये, तो वैसी निष्काम करुणाकी स्थिति है, और इन दो प्रकारोमे तो अभी उदासीनरूपसे अर्थात् सामान्यरूपसे रहना है, ऐसी आत्मसम्भावना है, और इस सम्बन्धी महान विचार दारवार रहा करता है । जब तक उपाधियोग परिसमाप्त न हो तब तक परमार्थ किस प्रकारके सम्प्रदायसे कहना, इसे मौनमे और अविचार अथवा निर्विचारमे रखा है, अर्थात् अभी वह विचार करनेके विपयमे उदासीनता रहती है।
करने योग्य नही है, इसलिये उसमे समाधि
आत्माकार स्थिति हो जानेसे चित्त प्राय एक अश भी उपाधियोगका वेदन तथापि वह तो जिस प्रकारसे वेदन करना प्राप्त हो उसी प्रकारसे वेदन करना है, है । परन्तु किन्ही जीवोसे परमार्थ सम्बन्धी प्रसग आता हे उन्हे उस उपाधियोगके कारणसे हमारी अनुकम्पाके अनुसार लाभ नही मिलता, और परमार्थं सम्वन्धी आपकी लिखी हुई कुछ बात आती है, वह भी मुश्किलसे चित्तमे प्रवेश पाती है, कारण कि उसका अभी उदय नही है । इससे पत्रादिके प्रसंग से आपके
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श्रीमद् राजचन्द्र लोमडीके ठाकुरसम्बन्धी प्रश्नोत्तर और विवरण जाना है । अभी 'ईश्वरेच्छा' वैसी नही है। प्रश्नोत्तरके लिये खीमचदभाई मिले होते तो हम योग्य वात करते । तथापि वह योग नही हुआ, और वह अभी न हो तो ठीक, ऐसा हमारे मनमे भी रहता था ।
आपके आजीविका-साधनसम्बन्धी वात ध्यानमे है, तथापि हम तो मात्र सकल्पधारी है । ईश्वरेच्छा होगी वैसा होगा । और अभी तो वैसा होने देनेकी हमारी इच्छा है।
परमप्रेमसे नमस्कार प्राप्त हो। ४०१
वंबई, भादो सुदी १, मगल, १९४८
ॐ सत् शुभवृत्ति मणिलाल, बोटाद ।
आपका वैराग्यादिके विचारवाला एक सविस्तर पत्र तीनेक दिन पहले मिला है । ___ जीवमे वैराग्य उत्पन्न होना इसे एक महान गुण मानते हैं, और उसके साथ गम, दम, विवेकादि साधन अनुक्रमसे उत्पन्न होनेरूप योग प्राप्त हो तो जीवको कल्याणकी प्राप्ति सुलभ होती है, ऐसा समझते हैं । (ऊपरकी पक्तिमे 'योग' शब्द लिखा है, उसका अर्थ प्रसग अथवा सत्सग समझना चाहिये ।)
____ अनत कालसे जीवका ससारमे परिभ्रमण हो रहा है, और इस परिभ्रमणमे इसने अनत जप, तप, वैराग्य आदि माधन किये प्रतीत होते हैं, तथापि जिससे यथार्थ कल्याण सिद्ध होता है, ऐसा एक भी साधन हो सका हो ऐसा प्रतीत नही होता । ऐसे तप, जप या वैराग्य अथवा दूसरे साधन मात्र ससाररूप हए है, वैसा किस कारणमे हुआ? यह बात अवश्य वारवार विचारणीय है। (यहाँ किसी भी प्रकारसे जप, तप, वैराग्य आदि साधन निष्फल हैं, ऐसा कहनेका हेतु नहीं है, परतु निष्फल हुए हैं, उसका हेतु क्या होगा? उसका विचार करनेके लिये लिखा गया है। कल्याणकी प्राप्ति जिसे होती है, ऐसे जीवमे वैराग्यादि साधन तो अवश्य होते हैं ।)
श्री सुभाग्यभाईके कहनेसे, यह पत्र जिसकी ओरसे लिखा गया है, उसके लिये आपने जो कुछ श्रवण किया है, वह उनका कहना यथातथ्य है या नही ? यह भी निर्धार करने जैसी बात है।
हमारे सत्सगमे निरन्तर रहने सम्वन्धी आपकी जो इच्छा है, उसके विषयमे अभी कुछ लिख सकना अशक्य है।
__ आपके जाननेमे आया होगा कि यहाँ हमारा जो रहना होता है वह उपाधिपूर्वक होता है, और वह उपाधि इस प्रकारसे है कि वैसे प्रसगमे श्री तीर्थंकर जैसे पुरुषके विपयमे निर्धार करना हो तो भी विकट हो जाये, कारण कि अनादिकालसे जीवको मात्र बाह्यप्रवृत्ति अथवा वाह्यनिवृत्तिकी पहचान है, और उमके आधारसे ही वह सत्पुरुष, असत्पुरुपकी कल्पना करता आया है। कदाचित् किसी सत्सगके योगसे 'सत्पुरुप ये है,' ऐसा जीवके जाननेमे आता है, तो भी फिर उनका बाह्यप्रवृत्तिरूप योग देखकर जेसा चाहिये वैसा निश्चय नही रहता, अथवा तो निरन्तर वढता हुआ भक्तिभाव नही रहता, और कभी तो सन्देहको प्राप्त होकर जीव वैसे सत्पुरुषके योगका त्याग कर जिसकी वाह्यनिवृत्ति दिखायी देती है, ऐसे असत्पुरुपका दृढाग्रहसे सेवन करता है। इसलिये जिस कालमे सत्पुरुपको निवृत्तिप्रसग रहता हो वैसे प्रसगमे उनके समीप रहना इसे जीवके लिये विशेष हितकर समझते है।
इस बातका इस समय इससे विशेप लिखा जाना अशक्य है। यदि किसी प्रसगसे हमारा समागम हो तो उस समय आप इस विषयमे पूछियेगा और कुछ विशेष कहने योग्य प्रसग होगा तो कह सकना सम्भव है।
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२५ वा वर्ष
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दीक्षा लेनेकी वारवार इच्छा होती हो तो भी अभी उस वृत्तिको शान्त करना, और कल्याण क्या तथा वह कैसे हो इसकी वारवार विचारणा और गवेषणा करना । इस प्रकारमे अनन्तकालसे भूल होती आयी है, इसलिये अत्यत विचारसे कदम उठाना योग्य है। अभी यही विनती।
रायचदके निष्काम यथायोग्य ।
४०२ , बबई, भादो सुदी ७, सोम, १९४८
उदय देखकर उदास न होवें। स्वस्ति श्री सायला शुभस्थानमे स्थित, मुमुक्षुजनके परम हितैषी, सर्व जीवोके प्रति परमार्थ करुणादृष्टि हे जिनकी, ऐसे निष्काम, भक्तिमान श्री सुभाग्यके प्रति,
श्री 'मोहमयी' स्थानसे के निष्काम विनयपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो ।
ससारका सेवन करनेके आरभकाल (?) से लेकर आज दिन पर्यंत आपके प्रति जो कुछ अविनय, अभक्ति, और अपराधादि दोष उपयोगपूर्वक अथवा अनुपयोगसे हुए हो, उन सबकी अत्यन्त नम्रतासे क्षमा चाहता हूं।
श्री तीर्थकरने जिसे मुख्य धर्मपर्व गिनने योग्य माना है, ऐसी इस वर्षकी सवत्सरी व्यतीत हुई । किसी भी जीवके प्रति किसी भी प्रकारसे किसो भी कालमे अत्यन्त अल्प मात्र दोष करना योग्य नहीं है, ऐसी बातका जिसमे परमोत्कृष्टरूपसे निर्धार हुआ है, ऐसे इस चित्तको नमस्कार करते है, और वही वाक्य मात्र स्मरणयोग्य ऐसे आपको लिखा है कि जिस वाक्यको आप नि.शकतासे जानते है।
____ 'रविवारको आपको पत्र लिखूगा', ऐसा लिखा था तथापि वैसा नही हो सका, यह क्षमा करने योग्य है। आपने व्यवहार प्रसगके विवरण सम्बन्धी पत्र लिखा था, उस विवरणको चित्तमे उतारने और विचारनेकी इच्छा थी, तथापि वह चित्तके आत्माकार होनेसे निष्फल हो गयो है, और अब कुछ लिखा जा सके ऐसा प्रतीत नही होता, जिसके लिये अत्यंत नम्रतासे क्षमा चाहकर यह पत्र परिसमाप्त करता हूँ।
सहजस्वरूप।
४०३
बंबई, भादो सुदो १०, गुरु, १९४८ जिस जिस प्रकारसे आत्मा आत्मभावको प्राप्त हो वह प्रकार धर्मका है। आत्मा जिस प्रकारसे अन्यभावको प्राप्त हो वह प्रकार अन्यरूप है, धर्मरूप नही है । आपने वचनके श्रवणके पश्चात् अभी जो निष्ठा अगीकृत की है वह निष्ठा श्रेययोग्य है । दृढ मुमुक्षुको सत्सगसे वह निष्ठादि अनुक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर आत्मस्थितिरूप होती है।
जीवको धर्म अपनी कल्पनासे अथवा कल्पनाप्राप्त अन्य पुरुषसे श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य या आराधने योग्य नही है । मात्र आत्मस्थिति है जिनकी ऐसे सत्पुरुषसे ही आत्मा अथवा आत्मधर्म श्रवण करने योग्य हे, यावत् आराधने योग्य है।
४०४ - बवई, भादो सुदी १०, गुरु, १९४८ स्वस्ति श्री स्थभतीर्थ शुभस्थानमे स्थित, शुभवृत्तिसम्पन्न मुमुक्षुभाई कृष्णदासादिके प्रति,
ससारकालसे इस क्षण तक आपके प्रति किमी भी प्रकारका अविनय, अभक्ति, असत्कार अथवा वैसा दूसरे अन्य प्रकार सम्बन्धी कोई भी अपराध मन, वचन, कायाके परिणामसे हुए हो, उन सबके लिये अत्यन्त नम्रतासे, उन सर्व अपराधोके अत्यन्त लय परिणामरूप आत्मस्थितिपूर्वक मैं सब प्रकारसे क्षमा
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३५४
श्रीमद राजचन्द्र
सिवाय दूसरे मुमुक्षु जीवोको इच्छित अनुकम्पासे परमार्थवृत्ति दी नही जा सकती, यह भी बहुत बार चित्तको खलता है ।
चित्त बन्धनवाला न हो सकनेसे जो जीव ससारके सम्बन्धसे स्त्री आदि रूपमे प्राप्त हुए हैं उन जोवोकी इच्छा को भी क्लेश पहुँचानेकी इच्छा नही होती, अर्थात् उसे भी अनुकपासे और माता-पिता आदिके उपकारादि कारणोसे उपाधियोगका प्रवलतासे वेदन करते हैं, और जिस जिसकी जो कामना है वह वह प्रारब्धके उदयमे जिस प्रकारसे प्राप्त होना सर्जित है उस प्रकारसे प्राप्त होने तक निवृत्ति ग्रहण करते हुए भी जीव 'उदासीन' रहता है, इसमे किसी प्रकारकी हमारी सकामता नही है, हम इन सबमे निष्काम ही हैं, ऐसा है । तथापि प्रारब्ध उस प्रकारका बन्धन रखनेके लिये उदयमे रहता है, इसे भी दूसरे मुमुक्षुकी परमार्थवृत्ति उत्पन्न करनेमे अवरोधरूप मानते है ।
जबसे आप हमे मिले है, तबसे यह बात कि जो ऊपर अनुक्रमसे लिखी है, वह बतानेको इच्छा थी, परन्तु उसका उदय उस प्रकारमे नही था, इसलिये वैसा नही हो सका, अब वह उदय बताने योग्य होनेसे सक्षेपसे बताया है, जिसे वारवार विचार करनेके लिये आपको लिखा है । बहुत विचार करके सूक्ष्मरूपसे हृदयमे निर्धार रखने योग्य प्रकार इसमे लिखा गया है । आप और गोशलिया के सिवाय इस पत्रका विवरण जाननेके योग्य अन्य जीव अभी आपके पास नही है, इतनी बात स्मरण रखनेके लिये लिखी है। किसी बातमे शब्दोके सक्षेपसे यह भासित होना सम्भव हो कि अभी हमे किसी प्रकारकी कुछ ससारसुखवृत्ति है, तो वह अर्थ फिर विचार करने योग्य है । निश्चय है कि तीनो कालमे हमारे सम्बन्धमे वह भासित होना आरोपित समझने योग्य है, अर्थात् ससारसुखवृत्तिसे निरन्तर उदासीनता ही है । ये वाक्य, आपका हमारे प्रति कुछ कम निश्चय है अथवा होगा तो निवृत्त हो जायेगा ऐसा समझकर नही लिखे है, अन्य हेतुसे लिखे हैं । इस प्रकारसे यह विचार करने योग्य, वारवार विचार करके हृदयमे निर्धार करने योग्य वार्ता सक्षेपसे यहाँ तो परिसमाप्त होती है ।
1
इस प्रसग सिवाय अन्य कुछ प्रसंग लिखना चाहे तो ऐसा हो सकता है, तथापि वे बाकी रखकर इस पत्रको परिसमाप्त करना योग्य भासित होता है ।
निष्काम
जगतमे किसी भी प्रकारसे जिसकी किसी भी जीवके प्रति भेददृष्टि नही है, ऐसे श्री आत्मस्वरूप के नमस्कार प्राप्त हो ।
'उदासीन' शब्दका अर्थ समता है ।
३९९
बबई, श्रावण, १९४८ मुमुक्षुजन सत्सगमे हो तो निरन्तर उल्लासित परिणाममे रहकर आत्मसाधन अल्पकालमे करें सकते हैं, यह वार्ता यथार्थ है, और सत्सग के अभावमे समपरिणति रहना विकट है । तथापि ऐसे करनेमे ही आत्मसाधन रहा होनेसे चाहे जैसे अशुभ निमित्तोमे भी जिस प्रकारसे समपरिणति आये उस प्रकारसे प्रवृत्ति करना यही योग्य है । ज्ञानीके आश्रयमे निरतर वास हो तो सहज साधनसे भी समपरिणाम प्राप्त होता है, इसमे तो निर्विवादता है, परन्तु जब पूर्वकर्मके निबन्धनसे प्रतिकूल निमित्तोमे निवास प्राप्त हुआ है, तब चाहे किसी तरह भी उनके प्रति अद्वेष परिणाम रहे ऐसी प्रवृत्ति करना यही हमारी वृत्ति है, ओर यही शिक्षा है ।
वे जिस प्रकार से सत्पुरुषके दोषका उच्चारण न कर सकें उस प्रकारसे यदि आप प्रवृत्ति कर सकते हो तो विकटता सहन करके भी वैसी प्रवृत्ति करना योग्य है । अभी हमारी आपको ऐसी कोई शिक्षा नही है कि आपको उनसे बहुत प्रकारसे प्रतिकूल वर्तन करना पड़े। किसी बावतमे वे आपको
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२५ वॉ वर्ष
३५५ बहुत प्रतिकूल समझते हो तो यह जीवका अनादि अभ्यास है, ऐसा जानकर सहनशीलता रखना अधिक योग्य है |
जिसके गुणगान करनेसे जीव भवमुक्त होता है, उसके गुणगान से प्रतिकूल होकर दोषभावसे प्रवृत्ति करना, यह जीवके लिये महा दु खदायक है, ऐसा मानते है, और जव वैसे प्रकारमे वे आ जाते है तब समझते हैं कि जीवको किसी वैसे पूर्वकर्मका निबंधन होगा | हमे तो तत्सम्बन्धी अद्वेष परिणाम ही है, और उनके प्रति करुणा आती है । आप भी इस गुणका अनुकरण करें और जिस तरह वे गुणगान करने योग्य पुरुषका अवर्णवाद बोलनेका प्रसग प्राप्त न करें, वैसा योग्य मार्ग ग्रहण करें, यह अनुरोध है ।
हम स्वयं उपाधि प्रसगमे रहे थे और रह रहे हैं, इससे स्पष्ट जानते हैं कि उस प्रसगमे सर्वथा आत्मभावसे प्रवृत्ति करना दुष्कर है। इसलिये निरुपाधिवाले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका सेवन करना आवश्यक है, ऐसा जानते हुए भी अभी तो यही कहते हैं कि उस उपाधिका वहन करते हुए निरुपाधिका विसर्जन न किया जाये, ऐसा करते रहे ।
हम जैसे सत्सगको निरन्तर भजते है, तो वह आपके लिये अभजनीय क्यों होगा ? यह जानते हैं, परतु अभी तो पूर्वकर्मको भजते है, इसलिये आपको दूसरा मार्ग कैसे बतायें ? यह आप विचारें ।
एक क्षणभर भी इस ससर्गमे रहना अच्छा नही लगता, ऐसा होनेपर भी बहुत समय से इसका सेवन करते आये हैं, सेवन कर रहे है, और अभी अमुक काल तक सेवन करना ठान रखना पडा है, और आपको यही सूचना करना योग्य माना है । यथासम्भव विनयादि साधनसम्पन्न होकर सत्सग, सत्शास्त्राभ्यास और आत्मविचारमे प्रवृत्ति करना, ऐसा करना ही श्रेयस्कर है ।
आप तथा दूसरे भाइयोको अभी सत्सग प्रसग कैसा रहता है ? सो लिखियेगा । समय मात्र भी प्रमाद करनेकी तीर्थंकरदेवकी आज्ञा नही है ।
४००
वह पुरुष नमन करने योग्य है, कीर्तन करने योग्य है,
परमप्रेमसे गुणगान करने योग्य है,
वारंवार विशिष्ट आत्मपरिणामसे ध्यान करने योग्य है,
बबई, श्रावण वदी, १९४८
कि
जिस पुरुषको द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे किसी भी प्रकारको प्रतिबद्धता नहीं रहती ।
आपके बहुतसे पत्र मिले है, उपाधियोग इस प्रकारसे रहता है कि उसकी विद्यमानतामे पत्र लिखने योग्य अवकाश नही रहता, अथवा उस उपाधिको उदयरूप समझकर मुख्यरूपसे आराधते हुए आप जेसे पुरुषको भी जानवूझकर पत्र नही लिखा, इसके लिये क्षमा करने योग्य है ।
जबसे इस उपाधियोगका आराधन करते हैं, तबसे चित्तमे जैसी मुक्तता रहती है वैसी मुक्तता अनुपाधिप्रसगमे भी नही रहती थी, ऐसी निश्चलदशा मगसिर सुदी ६ से एक धारासे चली आ रही है । आपके समागमको बहुत इच्छा रहती है, उस इच्छाका सकल्प दीवालीके बाद 'ईश्वर' पूर्ण करेगा, ऐसा मालूम होता है ।
बबई तो उपाधिस्थान है, उसमे आप इत्यादिका समागम हो तो भी उपाधिके आडे आनेसे यथायोग्य समाधि प्राप्त नही होती, जिससे किसी ऐसे स्थलका विचार करते हैं कि जहाँ निवृत्तियोग रहे ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
लोमडीके ठाकुरसम्बन्धी प्रश्नोत्तर और विवरण जाना है । अभी 'ईश्वरेच्छा' वैसी नही है | प्रश्नोत्तरके लिये खीमचदभाई मिले होते तो हम योग्य बात करते । तथापि वह योग नही हुआ, और वह अभो न हो तो ठीक, ऐसा हमारे मनमे भी रहता था ।
आपके आजीविका साधनसम्वन्धी बात ध्यानमे है, तथापि हम तो मात्र सकल्पधारी है । ईश्वरेच्छा होगी वैसा होगा । और अभी तो वैसा होने देनेकी हमारी इच्छा है ।
३५६
शुभवृत्ति मणिलाल, वोटाद ।
४०१ ॐ सत्
परमप्रेमसे नमस्कार प्राप्त हो ।
वंबई, भादो सुदी १, मंगल, १९४८
आपका वैराग्यादिके विचारवाला एक सविस्तर पत्र तीनेक दिन पहले मिला है ।
जीवमे वेराग्य उत्पन्न होना इसे एक महान गुण मानते हैं, और उसके साथ शम, दम, विवेकादि साधन अनुक्रमसे उत्पन्न होनेरूप योग प्राप्त हो तो जीवको कल्याणकी प्राप्ति सुलभ होती है, ऐसा समझते हैं । (ऊपरकी पक्तिमै 'योग' शब्द लिखा है, उसका अर्थ प्रसग अथवा सत्सग समझना चाहिये ।)
अनत कालसे जीवका मसारमे परिभ्रमण हो रहा है, और इस परिभ्रमणमे इसने अनत जप, तप, वैराग्य आदि साधन किये प्रतीत होते हैं, तथापि जिससे यथार्थ कल्याण सिद्ध होता है, ऐसा एक भी साधन हो सका हो ऐसा प्रतीत नही होता। ऐसे तप, जप या वैराग्य अथवा दूसरे साधन मात्र ससाररूप हुए है, वैसा किस कारणसे हुआ ? यह बात अवश्य वारवार विचारणीय है । (यहाँ किसी भी प्रकारसे जप, तप, वैराग्य आदि साधन निष्फल हैं, ऐसा कहनेका हेतु नही है, परंतु निष्फल हुए हैं, उसका हेतु क्या होगा ? उसका विचार करनेके लिये लिखा गया है। कल्याणकी प्राप्ति जिसे होती है, ऐसे जीवमे वैराग्यादि साधन तो अवश्य होते हैं ।)
श्री सुभाग्यभाईके कहनेसे, यह पत्र जिसकी ओरसे लिखा गया है, उसके लिये आपने जो कुछ श्रवण किया है, वह उनका कहना यथातथ्य है या नही ? यह भी निर्धार करने जैसी बात है ।
हमारे सत्सगमे निरन्तर रहने सम्वन्धी आपकी जो इच्छा है, उसके विपयमे अभी कुछ लिख सकना अशक्य है ।
आपके जाननेमे आया होगा कि यहाँ हमारा जो रहना होता है वह उपाधिपूर्वक होता है, और वह उपाधि इस प्रकारसे हे कि वैसे प्रसगमे श्री तीर्थंकर जैसे पुरुपके विपयमे निर्धार करना हो तो भी विकट हो जाये, कारण कि अनादिकालसे जीवको मात्र वाह्यप्रवृत्ति अथवा वाह्यनिवृत्तिकी पहचान है, और उसके आधारसे ही वह' सत्पुरुप, असत्पुरुपकी कल्पना करता आया है। कदाचित् किसो सत्सगके योगसे 'सत्पुरुष ये है, ऐसा जीवके जाननेमे आता है, तो भी फिर उनका बाह्यप्रवृत्तिरूप योग देखकर जेसा चाहिये वैसा निश्चय नही रहता, अथवा तो निरन्तर वढता हुआ भक्तिभाव नही रहता, और कभी तो सन्देहको प्राप्त होकर जीव वैसे सत्पुरुपके योगका त्याग कर जिसकी वाह्यनिवृत्ति दिखायी देती है, ऐसे असत्पुरुपका दृढाग्रहसे सेवन करता है। इसलिये जिस कालमे सत्पुरुपको निवृत्तिप्रसग रहता हो वैसे प्रसंगमे उनके समीप रहना इसे जीवके लिये विशेष हितकर समझते हैं ।
इस बातका इस समय इससे विशेष लिखा जाना अशक्य है। यदि किसी प्रसगसे हमारा समागम हो तो उस समय आप इस विषयमे पूछियेगा और कुछ विशेष कहने योग्य प्रसग होगा तो कह सकना सम्भव है ।
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२५ वॉ वर्ष
३५७ दीक्षा लेनेकी वारवार इच्छा होती हो तो भी अभी उस वृत्तिको शान्त करना, और कल्याण क्या तथा वह कैसे हो इसकी वारंवार विचारणा और गवेषणा करना। इस प्रकारमे अनन्तकालसे भूल होती आयी है, इसलिये अत्यत विचारसे कदम उठाना योग्य है । अभी यही विनती।
रायचदके निष्काम यथायोग्य ।
४०२ , बबई, भादो सुदी ७, सोम, १९४८
उदय देखकर उदास न होवें। स्वस्ति श्री सायला शुभस्थानमे स्थित, मुमुक्षुजनके परम हितैषी, सर्व जीवोके प्रति परमार्थ करुणादृष्टि हे जिनकी, ऐसे निष्काम, भक्तिमान श्री सुभाग्यके प्रति,
श्री 'मोहमयी' स्थानसे' के निष्काम विनयपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो ।
ससारका सेवन करनेके आरभकाल (?) से लेकर आज दिन पर्यत आपके प्रति जो कुछ अविनय, अभक्ति, और अपराधादि दोष उपयोगपूर्वक अथवा अनुपयोगसे हुए हो, उन सबकी अत्यन्त नम्रतासे क्षमा चाहता हूं।
___ श्री तीर्थकरने जिसे मुख्य धर्मपर्व गिनने योग्य माना है, ऐसी इस वर्षकी सवत्सरी व्यतीत हुई। किसी भी जीवके प्रति किसी भी प्रकारसे किसो भी कालमे अत्यन्त अल्प मात्र दोष करना योग्य नहीं है, ऐसी बातका जिसमे परमोत्कृष्टरूपसे निर्धार हुआ है, ऐसे इस चित्तको नमस्कार करते है, और वही वाक्य मात्र स्मरणयोग्य ऐसे आपको लिखा है कि जिस वाक्यको आप नि.शकतासे जानते है।
'रविवारको आपको पत्र लिखूगा', ऐसा लिखा था तथापि वैसा नही हो सका, यह क्षमा करने योग्य है। आपने व्यवहार प्रसगके विवरण सम्बन्धी पत्र लिखा था, उस विवरणको चित्तमे उतारने और विचारनेकी इच्छा थी, तथापि वह चित्तके आत्माकार होनेसे निष्फल हो गयो है, और अब कुछ लिखा जा सके ऐसा प्रतीत नही होता, जिसके लिये अत्यंत नम्रतासे क्षमा चाहकर यह पत्र परिसमाप्त करता हूँ।
सहजस्वरूप।
४०३
बंबई, भादो सुदो १०, गुरु, १९४८ जिस जिस प्रकारसे आत्मा आत्मभावको प्राप्त हो वह प्रकार धर्मका है। आत्मा जिस प्रकारसे अन्यभावको प्राप्त हो वह प्रकार अन्यरूप है, धर्मरूप नहीं है। आपने वचनके श्रवणके पश्चात् अभी जो निष्ठा अगीकृत की हे वह निष्ठा श्रेययोग्य है । दृढ मुमुक्षुको सत्सगसे वह निष्ठादि अनुक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर आत्मस्थितिरूप होती है।
जीवको धर्म अपनी कल्पनासे अथवा कल्पनाप्राप्त अन्य पुरुपसे श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य या आराधने योग्य नहीं है । मात्र आत्मस्थिति है जिनकी ऐसे सत्पुरुपसे ही आत्मा अथवा आत्मधर्म श्रवण करने योग्य है, यावत् आराधने योग्य है ।
४०४
बबई, भादो सुदी १०, गुरु, १९४८ स्वस्ति श्री स्थभतीर्य शुभस्थानमे स्थित, शुभवृत्तिसम्पन्न मुमुक्षुभाई कृष्णदासादिके प्रति,
समारकालसे इम क्षण तक आपके प्रति किसी भी प्रकारका अविनय, अभक्ति, असत्कार अथवा वैसा दूसरे अन्य प्रकार सम्बन्धी कोई भी अपराध मन, वचन, कायाके परिणामसे हुए हो, उन सबके लिये अत्यन्त नम्रतासे, उन सर्व अपराधोके अत्यन्त लय परिणामरूप आत्मस्थितिपूर्वक मैं सब प्रकारसे क्षमा
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श्रीमद् राजचन्द्र
माँगता हूँ, और उन्हे क्षमा करानेके योग्य हूँ । आपका, किसी भी प्रकारसे उन अपराधादिको ओर उपयोग न हो तो भी अत्यन्तरूपसे, हमारी वैसी पूर्वकालसम्बन्धी किसी प्रकारसे भी सम्भावना जानकर अत्यन्त रूपसे क्षमा देने योग्य आत्मस्थिति करनेके लिये इस क्षण लघुतासे विनती है । अभी यही ।
४०५ बबई, भादो सुदी १०, गुरु, १९४८ ___ इस क्षणपर्यंत आपके प्रति किसी भी प्रकारसे पूर्वादि कालमे मन, वचन, कायाके योगसे जो जं अपराधादि कुछ हुए हो उन सवको अत्यन्त आत्मभावसे विस्मरण करके क्षमा चाहता हूँ। भविष्यवे किसी भी कालमे आपके प्रति वैसा प्रकार होना असम्भव समझता हूँ, ऐसा होनेपर भी किसी अनुपयोग भावसे देहपर्यत वेसा प्रकार क्वचित् हो तो इस विषयमे भी इस समय अत्यन्त नम्र परिणामसे क्षम चाहता हूँ, और उस क्षमारूप भावका, इस पत्रको विचारते हुए, वारवार चिन्तन करके आप भी, हमारे प्रति पूर्वकालके उन सब प्रकारका विस्मरण करने योग्य हैं। कुछ भी सत्सगवार्ताका परिचय बढे, वैसा यत्न करना योग्य है । यही विनती ।
रायचद।
४०७
४०६
बबई भादो सुदी १२, रवि, १९४८ परमार्थके शीघ्र प्रगट होनेके विपयमे आप दोनोका आग्रह ज्ञात हुआ, तथा व्यवहार चिंताके विषयमे लिखा, और उसमे भी सकामताका निवेदन किया, वह भी आग्रहरूपसे प्राप्त हुआ है । अभी तो इन सबके विसर्जन करनेरूप उदासीनता रहती है, और उस सबको ईश्वरेच्छाधीन करना योग्य है । अभी ये दोनो वातें हम फिर न लिखे तब तक विस्मरण करने योग्य हैं।
___ यदि हो सके तो आप और गोशलिया कुछ अपूर्व विचार आया हो तो वह लिखियेगा। यही विनती।
बंबई, भादो वदी ३, शुक्र, १९४८ शुभवृत्तिसंपन्न मणिलाल, भावनगर ।
वि० यथायोग्यपूर्वक विज्ञापन ।
आपका एक पत्र आज पहुँचा है, और वह मैंने पढा है । यहाँसे लिखा हुआ पत्र. आपको मिलनेसे जो आनन्द हुआ उसका निवेदन करते हुए आपने अभी दीक्षासम्बन्धी वृत्ति क्षुभित होनेके विषयमे लिखा, वह क्षोभ अभी योग्य है।
___ क्रोधादि अनेक प्रकारके दोपोके परिक्षीण हो जानेसे, ससारत्यागरूप दीक्षा योग्य है, अथवा तो किसी महान पुरुषके योगसे यथाप्रसग वैसा करना योग्य है । उसके सिवाय अन्य प्रकारसे दीक्षाका धारण करना सफल नही होता । और जीव वैसी अन्य प्रकारकी दीक्षारूप भ्रातिसे ग्रस्त होकर अपूर्व कल्याणको चूकता है, अथवा तो उससे विशेष अतराय आये ऐसे योगका उपार्जन करता है। इसलिये अभी तो आपके उस क्षोभको योग्य समझते हैं।
आपकी इच्छा यहाँ समागममे आनेकी विशेष है, इसे हम जानते हैं, तथापि अभी उस योगकी इच्छाका निरोध करना योग्य है, अर्थात् वह योग होना अशक्य है, और इसकी स्पष्टता पहले पत्रमे लिखी है, उसे आप जान सके होगे। इस तरफ आनेकी इच्छामे आपके बुजुर्ग आदिका जो निरोध है उस निरोधका अतिक्रम करनेकी इच्छा करना अभी योग्य नहीं है। हमारा उस प्रदेशके पाससे कभी जानाआना होगा तव कदाचित् समागमयोग होने योग्य होगा, तो हो सकेगा ।
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२५ वो वर्ष
૨૧૨
मताग्रहमे बुद्धिको उदासीन करना योग्य है, और अभी तो गृहस्थधर्मका अनुसरण करना भी योग्य है । अपने हितरूप जानकर या समझकर आरम्भ-परिग्रहका सेवन करना योग्य नहीं है, और इस परमार्थका वारवार विचार करके सद्ग्रन्थका पठन, श्रवण, मननादि करना योग्य है। यही विनती।
निष्काम यथायोग्य।
४०८
बबई, भादो वदी ८, बुध, १९४८
ॐनमस्कार जिस जिस कालमे जो जो प्रारब्ध उदयमे आता है उसे भोगना, यही ज्ञानीपुरुषोका सनातन आचरण है, और यह आचरण हमे उदयरूपसे रहता है, अर्थात् जिस ससारमे स्नेह नही रहा, उस ससारके कार्यकी प्रवृत्तिका उदय है, और उदयका अनुक्रमसे वेदन हुआ करता है। इस उदयके क्रममे किसी भी प्रकारकी हानि-वृद्धि करनेकी इच्छा उत्पन्न नही होती, और ऐसा जानते है कि ज्ञानोपुरुषोका भी यह सनातन आचरण है, तथापि जिसमे स्नेह नही रहा, अथवा स्नेह रखनेकी इच्छा निवृत्त हुई है, अथवा निवृत्त होने आयी है, ऐसे इस ससारमे कार्यरूपसे कारणरूपसे प्रवर्तन करनेकी इच्छा नही रही, उससे निवृत्ति ही आत्मामे रहा करती है, ऐसा होनेपर भी उसके अनेक प्रकारके सग-प्रसगमे प्रवर्तन करना पड़ता हे ऐसा पूर्वमे किसी प्रारब्धका उपार्जन किया है, जिसे समपरिणामसे वेदन करते है तथापि अभी भी कुछ समय तक वह उदययोग है, ऐसा जानकर कभी खेद पाते हैं, कभी विशेष खेद पाते हैं; और विचारकर देखनेसे तो उस खेदका कारण परानुकपा ज्ञात होता है । अभी तो वह प्रारब्ध स्वाभाविक उदयके अनुसार भोगनेके सिवाय अन्य इच्छा उत्पन्न नहीं होती, तथापि उस उदयमे अन्य किसीको सुख, दुख, राग, द्वेष, लाभ, अलाभके कारणरूप दूसरेको भासित होते हैं। उस भासनेमे लोकप्रसगकी विचित्र भ्राति देखकर खेद होता है । जिस ससारमें साक्षी कर्तारूपसे माना जाता है, उस संसारमे उस साक्षीको साक्षीरूपसे रहना, और कर्ताकी तरह भासमान होना, यह दुधारी तलवारपर चलनेके बराबर है।
ऐसा होनेपर भी वह साक्षीपुरुष भ्रातिगत लोगोको किसीके खेद, दुःख, अलाभका कारण भासित न हो, तो उस प्रसगमे उस साक्षीपुरुषकी अत्यन्त विकटता नही है। हमे तो अत्यन्त अत्यन्त विकटताके प्रसंगका उदय है। इसमे भी उदासीनता यही ज्ञानीका सनातन धर्म है। ('धर्म' शब्द आचरणके अर्थमे है।)
एक बार एक तिनकेके दो भाग करनेको क्रिया कर सकनेकी शक्तिका भी उपशम हो, तव जो ईश्वरेच्छा होगी वह होगा।
४०९
ववई, आसोज सुदी १, बुध, १९४८ जीवके कर्तृत्व-अकर्तृत्वका समागममे श्रवण होकर निदिध्यासन करना योग्य है।
वनस्पति आदिके योगसे बंधकर पारेका चाँदी आदिरूप हो जाना, यह सभव नही है, ऐसा नहीं है। योगसिद्धिके प्रकारमे किसी तरह ऐसा होना योग्य है, और उस योगके आठ अगोमेसे जिसे पाँच अग प्राप्त हैं, उसे सिद्धियोग होता है । इसके सिवायकी कल्पना मात्र कालक्षेपरूप है। उसका विचार उदयमे आये, वह भी एक कोतुकभूत है। कोतुक आत्मपरिणामके लिये योग्य नही है । पारेका स्वाभाविक पारापन है।
४१०
ववई, आसोज सुदी ७, मगल, १९४८ प्रगट आत्मस्वरूप अविच्छिन्नरूपसे भजनीय है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
वास्तविक तो यह है
कि किये हुए कर्म भोगे बिना निवृत्त नही होते, और न किये हुए किसी कर्मका फल प्राप्त नही होता। किसी किसी समय अकस्मात् वर अथवा शापसे किसीका शुभ अथवा अशुभ हुआ देखनेमे आता है, वह कुछ न किये हुए कर्मका फल नही है । किसी भी प्रकारसे किये हुए कर्मका फल है |
केन्द्रियका एकावतारीपन अपेक्षासे जानने योग्य है । यही विनती ।
३६०
४११ बबई, आसोज सुदी १० (दशहरा), १९४८
'भगवती' इत्यादि शास्त्रोमे जो किन्ही जीवोके भवातरका वर्णन किया है, उसमे कुछ सशयात्मक होने जैसा नही है । तीर्थंकर तो पूर्ण आत्मस्वरूप है । परन्तु जो पुरुष मात्र योगध्यानादिकके अभ्यासबलसे स्थित हो, उन पुरुषोमेसे बहुतसे पुरुष भी उस भवातरको जान सकते हैं, और ऐसा होना यह कुछ कल्पित प्रकार नही है । जिस पुरुषको आत्माका निश्चयात्मक ज्ञान है, उसे भवातरका ज्ञान होना योग्य है, होता है | क्वचित् ज्ञानके तारतम्यक्षयोपशमके भेदसे वैसा नही भी होता, तथापि जिसे आत्माकी पूर्ण शुद्धता रहती है, वह पुरुष तो निश्चयसे उस ज्ञानको जानता है, भवातरको जानता है । आत्मा नित्य है, अनुभवरूप है; वस्तु है, इन सब प्रकारोके अत्यन्तरूपसे दृढ होनेके लिये शास्त्रमे वे प्रसग कहने आये है
यदि भवातरका स्पष्ट ज्ञान किसीको न होता हो तो आत्माका स्पष्ट ज्ञान भी किसीको नही होता, ऐसा कहने बराबर है, तथापि ऐसा तो नही है । आत्माका स्पष्ट ज्ञान होता है, और भवातर भी स्पष्ट प्रतीत होता है । अपने और दूसरेके भवको जाननेका ज्ञान किसी प्रकारसे विसवादिताको प्राप्त नही होता । तीर्थंकरके भिक्षार्थं जाते हुए प्रत्येक स्थानपर सुवर्णवृष्टि इत्यादि हो, यो शास्त्र के कथनका अर्थ समझना योग्य नही है, अथवा शास्त्रमे कहे हुए वाक्योका वैसा अर्थ होता हो तो वह सापेक्ष है, लोकभाषा
ये वाक्य समझने योग्य हैं । उत्तम पुरुषका आगमन किसीके वहाँ हो तो वह जैसे यह कहे कि 'आज अमृतका मेह बरसा', तो वह कहना सापेक्ष है, यथार्थ है, तथापि शब्दके भावार्थमे यथार्थ है, शब्दके सीधेमूल अर्थमे यथार्थ नही है । और तोथंकरादिकी भिक्षाके सम्बन्धमे भी वैसा ही है । तथापि ऐसा ही मानना योग्य है कि आत्मस्वरूपसे पूर्ण पुरुषके प्रभावयोगसे वह होना अत्यन्त सम्भव है । सर्वत्र ऐसा हुआ है ऐसा कहनेका अर्थ नही है, ऐसा होना सम्भव है, यो घटित होता है, यह कहनेका हेतु है । जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप है वहाँ सर्वं महत् प्रभावयोग अधीन है, यह निश्चयात्मक बात है, नि. सन्देह अगीकार करने योग्य बात है । जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप रहता है वहाँ यदि सर्वं महत् प्रभावयोग न हो तो फिर वह दूसरे किस स्थलमे रहे ? यह विचारणीय है । वैसा तो कोई दूसरा स्थान सम्भव नही है, तब सर्व महत् प्रभावयोगका अभाव होगा । पूर्ण आत्मस्वरूपका - प्राप्त होना अभावरूप नही है, तो फिर सर्व महत् प्रभावयोगका अभाव तो कहाँसे होगा ? और यदि कदाचित् ऐसा कहनेमे आये कि आत्मस्वरूपका पूर्ण प्राप्त होना तो संगत है, महत् प्रभावयोगका प्राप्त होना सगत नही है, तो यह कहना एक विसवादके सिवाय अन्य कुछ नही है, क्योंकि वह कहनेवाला शुद्ध आत्मस्वरूपकी महत्तासे अत्यन्त हीन ऐसे प्रभावयोगको महान समझता है, अगीकार करता है, और यह ऐसा सूचित करता है कि वह वक्ता आत्मस्वरूपका ज्ञाता नही है ।
उस आत्मस्वरूपसे महान ऐसा कुछ नही है । इस सृष्टिमे ऐसा कोई प्रभावयोग उत्पन्न नही हुआ है, नही है और होनेवाला भी नही है कि जो प्रभावयोग पूर्ण आत्मस्वरूपको भी प्राप्त न हो । तथापि उस प्रभावयोगके विषयमे प्रवृत्ति करनेमे आत्मस्वरूपका कुछ कर्तव्य नही है, ऐसा तो है, और यदि उसे उस प्रभावयोगमे कुछ कर्तव्य प्रतीत होता है, तो वह पुरुष आत्मस्वरूपसे अत्यन्त अज्ञात है, ऐसा समझते हैं ।
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२५ वॉ वर्ष
कहनेका हेतु यह है कि सर्व प्रकारका प्रभावयोग आत्मारूप महाभाग्य ऐसे तीर्थंकरमे होना योग्य है, होता है, तथापि उसे अभिव्यक्त करनेका एक अश भी उसमे सगत नही है, स्वाभाविक किसी पुण्यप्रकारवशात् सुवर्णवृष्टि इत्यादि हो, ऐसा कहना असम्भव नही है, और तीर्थकरपदके लिये वह वाधरूप नही है । जो तीर्थंकर हैं, वे आत्मस्वरूपके विना अन्य प्रभावादिको नही करते, और जो करते हैं वे आत्मारूप तीर्थंकर कहने योग्य नहीं है, ऐसा मानते है, ऐसा ही है।
जो जिनकथित शास्त्र माने जाते है, उनमे अमुक बोलोका विच्छेद हो जानेका कथन है, और उनमे केवलज्ञानादि दस बोल मुख्य है, और उन दस बोलोका विच्छेद दिखानेका आशय यह बताना है कि इस कालमे 'सर्वथा मोक्ष नही होता।' वे दस बोल जिसे प्राप्त हो अथवा उनमेसे एक बोल प्राप्त हो तो उसे चरमशरीरी जीव कहना योग्य है, ऐसा समझकर उस बातको विच्छेदरूप माना है, तथापि वैसा एकात ही कहना योग्य नही है ऐसा हमे प्रतीत होता है, ऐसा ही है। क्योकि क्षायिक समकितका इनमे निषेध है, वह चरमशरीरीको ही हो, ऐसा तो सगत नही होता, अथवा ऐसा एकात नही है । महाभाग्य श्रेणिक क्षायिकसमकिती होते हुए भी चरमशरीरी नही थे, ऐसा उन्ही जिनशास्त्रोमे कथन है । जिनकल्पीविहार व्यवच्छेद, ऐसा श्वेताम्बरका कथन है, दिगम्बरका कथन नहीं है। 'सर्वथा मोक्ष होना' ऐसा इस कालमे सम्भव नही है, ऐसा दोनोका अभिप्राय है, वह भी अत्यन्त एकातरूपसे नही कहा जा सकता। मान लें कि चरमशरीरोपन इस कालमे नही है, तथापि अशरीरीभावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नही, अपितु सिद्धत्व है, और यह अशरीरीभाव इस कालमें नही है ऐसा यहाँ कहे तो इस कालमे हम खुद नहीं हैं, ऐसा कहने तुल्य है । विशेष क्या कहे ? यह केवल एकात नहीं है। कदाचित् एकात हो तो भी जिसने आगम कहे है, उसी आशयवाले सत्पुरुषसे वे समझने योग्य हैं, और वही आत्मस्थितिका उपाय है । यही विनती । गोशलियाको यथायोग्य ।
४१२
बबई, आसोज वदी ६, १९४८ यहाँ आत्माकारता रहती है, आत्माका आत्मस्वरूपरूपसे परिणामका होना उसे आत्माकारता कहते है।
४१३
बबई, आसोज वदी ८, १९४८
लोकव्यापक अन्धकारमे स्वयप्रकाशित ज्ञानीपुरुष ही यथातथ्य देखते है । लोककी शब्दादि कामनाओंके प्रति देखते हुए भी उदासीन रहकर जो केवल अपनेको ही स्पष्टरूपसे देखते है, ऐसे ज्ञानीको नमस्कार करते है, और अभी इतना लिखकर ज्ञानसे स्फुरित आत्मभावको तटस्थ करते हैं । यही विनती।
४१४
बबई, आसोज, १९४८
जो कुछ उपाधि की जाती है, वह कुछ 'अस्मिता' के कारण करनेमे नही आती, तथा नही की जातो । जिस कारणसे की जाती है, वह कारण अनुक्रमसे वेदन करने योग्य ऐसा प्रारब्ध कर्म है । जो कुछ उदयमे आता है उसका अविसवाद परिणामसे वेदन करना, ऐसा जो ज्ञानीका बोधन है वह हममे निश्चल है, इसलिये उस प्रकारसे वेदन करते हैं। तथापि इच्छा तो ऐसी रहती है कि अल्पकालमे, एक समयमे यदि वह उदय असत्ताको प्राप्त होता हो, तो हम इन सबमेसे उठकर चले जायें, इतना आत्माको अवकाश रहता है। तथापि निद्राकाल', भोजनकाल तथा अमुक अतिरिक्त कालके सिवाय उपाधिका प्रसग रहा करता है, और कुछ भिन्नातर नहीं होता, तो भी आत्मोपयोग किसी प्रसगमे भी अप्रधानभाव
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३६२
श्रीमद् राजचन्द्र का सेवन करता हुआ देखनेमे आता है, और उस प्रसगपर मृत्युके शोकसे अत्यन्त अधिक शोक होता है यह नि सन्देह है।
ऐसा होनेसे और गृहस्थ प्रत्यया प्रारब्ध जब तक उदयमे रहे तव तक 'सर्वथा' अयाचकताका सेवन करनेवाला चित्त रहनेमे ज्ञानीपुरुषोका मार्ग निहित है, इस कारण इस उपाधियोगका सेवन करते हैं । यति उस मार्गकी उपेक्षा करें तो भी ज्ञानीका अपराध नहीं करते, ऐसा है, फिर भी उपेक्षा नही हो सकती यदि उपेक्षा करें तो गृहाश्रमका सेवन भी वनवासीरूपसे हो, ऐसा तीन वैराग्य रहता है।
सर्व प्रकारके कर्तव्यके प्रति उदासीन ऐसे हमसे कुछ हो सकता हो तो एक यही हो सकता है कि पूर्वोपाजितका समताभावसे वेदन करना, और जो कुछ किया जाता है वह उसके आधारसे किया जात है, ऐसी स्थिति है।
हमारे मनमे ऐसा आ जाता है कि हम ऐसे हैं कि जो अप्रतिबद्धरूपसे रह सकते है, फिर भी ससार के बाह्य प्रसगका, अतर प्रसगका, और कुटुम्बादि स्नेहका सेवन करना नही चाहते, तो आप जैसे मार्गेच्छा. वानको उसके अहोरात्र सेवन करनेका अत्यन्त उद्वेग क्यो नही होता कि जिसे प्रतिवद्धतारूप भयकर यमका साहचर्य रहता है ?
ज्ञानीपुरुषका योग होनेके बाद जो ससारका सेवन करता है, उसे तीर्थंकर अपने मार्गसे बाहर कहते हैं।
___ कदाचित् ज्ञानीपुरुषका योग होनेके बाद जो ससारका सेवन करते हैं, वे सब तीर्थंकरोंके मार्गसे वाहर कहने योग्य हो तो श्रेणिकादिमे मिथ्यात्वका सभव होता हे ओर विसवादिता प्राप्त होती है । उस विसवादितासे युक्त वचन यदि तीर्थकरका हो तो उसे तीर्थकर कहना योग्य नही है।।
ज्ञानीपुरुपका योग होनेके बाद जो आत्मभावसे, स्वच्छदतासे, कामनासे, रससे, ज्ञानीके वचनोकी उपेक्षा करके, 'अनुपयोगपरिणामी' होकर मसारका सेवन करता है, वह पुरुप तीर्थंकरके मार्गसे बाहर है, ऐसा कहनेका तीर्थकरका आशय है ।
४१५
ववई, आसोज, १९४८ किसी भी प्रकारके अपने आत्मिक वधनको लेकर हम ससारमे नही रह रहे हैं । जो स्त्री है उससे पूर्वमे वधे हुए भोगकर्मको निवृत्त करना है । कुटुम्ब हे उसके पूर्वमे लिये हुए ऋणको देकर निवृत्त होनेके लिये रह रहे हैं। रेवाशकर है उसका हमारेसे जो कुछ लेना है उसे देनेके लिये रह रहे हैं। उसके सिवायके जो जो प्रसग हैं वे उसके अन्दर समा जाते है। तनके लिये, धनके लिये, भोगके लिये, सुखके लिये स्वार्थके लिये अथवा किसी प्रकारके आत्मिक वधनसे हम ससारमे नही रह रहे हैं । ऐसा जो अतरगका भेद उसे, जिस जीवको मोक्ष निकटवर्ती न हो, वह जीव कैसे समझ सकता है ?
दुखके भयसे भी ससारमे रहना रखा है, ऐसा नही है। मान-अपमानका तो कुछ भेद है, वह निवृत्त हो गया है।
___ईश्वरेच्छा हो और हमारा जो कुछ स्वरूप है वह उनके हृदयमे थोडे समयमे आये तो भले और हमार विषयमे पूज्यबुद्धि हो तो भले, नहीं तो उपर्युक्त प्रकारसे रहना अव तो होना भयकर लगता है।
४१६
वबई, आसोज, १९४८ जिस प्रकारसे यहां कहनेमे आया था उम प्रकारसे भी सुगम ऐसा ध्यानका स्वरूप यहाँ लिखा है।
१. किसी निर्मल पदार्यमें दृप्टिको स्थापित करनेका अभ्यास करके प्रयम उसे अचपल स्थितिमे लाना।
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२५ वाँ वर्ष
३६३ २ ऐसी कुछ अचपलता प्राप्त होनेके पश्चात् दायें चक्षुमे सूर्य और बायें चक्षुमे चद्र स्थित है, ऐसी भावना करना।
३. यह भावना जब तक उस पदार्थके आकारादिका दर्शन न कराये तब तक सुदृढ करना। , ४. वैसी सुदृढता होनेके बाद चन्द्रको दक्षिण चक्षुमे और सूर्यको वाम चक्षुमे स्थापित करना ।
५. यह भावना जब तक उस पदार्थके आकारादिका दर्शन न कराये तब तक सुदृढ करना । यह जो दर्शन कहा है वह भासमान दर्शन समझना।
. ६. यह दो प्रकारकी उलट सुलट भावना सिद्ध होनेपर भ्रकुटिके मध्यभागमे उन दोनोका चितन करना।
७. प्रथम वह चिंतन आँख खुली रखकर करना।
८. अनेक प्रकारसे उस चितनके दृढ होनेके बाद आँख बन्द रखना। उस पदार्थके दर्शनकी भावना करना।
___९ उस भावनासे दर्शन सुदृढ होनेके बाद हृदयमे एक अष्टदलकमलका चिन्तन करके उन दोनो पदार्थोको अनुक्रमसे स्थापित करना। .
१० हृदयमे ऐसा एक अष्टदलकमल माननेमे आया है, तथापि वह विमुखरूपसे रहा है, ऐसा माननेमे आया है, इसलिये उसका सन्मुखरूपसे चिंतन करना, अर्थात् सुलटा चिन्तन करना।
११ उस अष्टदलकमलमे प्रथम चन्द्रके तेजको स्थापित करना फिर सूर्यके तेजको स्थापित करना, और फिर अखण्ड दिव्याकार अग्निको ज्योतिको स्थापित करना।
१२ उस भावके दृढ होनेपर जिसका ज्ञान, दर्शन और आत्मचारित्र पूर्ण है ऐसे श्री वीतरागदेवको प्रतिमाका महातेजोमय स्वरूपसे उसमे चिन्तन करना।
१३ उस परम दिव्य प्रतिमाका न बाल, न युवा और न वृद्ध, इस प्रकार दिव्यस्वरूपसे चिन्तन करना।
१४ सपूर्ण ज्ञान, दर्शन उत्पन्न होनेसे स्वरूपसमाधिमे श्री वीतरागदेव यहाँ हैं, ऐसी भावना करना। १५. स्वरूपसमाधिमे स्थित वीतराग आत्माके स्वरूपमे तदाकार ही है, ऐसी भावना करना। १६ उनके मूर्धस्थानसे उस समय ॐकारकी ध्वनि हो रही है, ऐसी भावना करना।
१७ उन भावनाओके दृढ होनेपर वह ॐकार सर्व प्रकारके वक्तव्य ज्ञानका उपदेश करता हैं, ऐसी भावना करना।
१८ जिस प्रकारके सम्यक्मार्गसे वीतरागदेव वीतराग निष्पन्नताको प्राप्त हुए ऐसा ज्ञान उस उपदेशका रहस्य है, ऐसा चिंतन करते हुए वह ज्ञान क्या है ? ऐसी भावना करना ।
१९ उस भावनाके दृढ होनेके बाद उन्होंने जो द्रव्यादि पदार्थ कहे हैं, उनको भावना करके आत्माका स्वस्वरूपमे चिन्तन करना, सर्वांग चिन्तन करना ।
ध्यानके अनेकानेक प्रकार हैं। उन सबमे श्रेष्ठ ध्यान तो वह कहा जाता है कि जिसमे आत्मा मुख्यरूपसे रहता है, और इसी आत्मध्यानकी प्राप्ति प्राय आत्मज्ञानको प्राप्तिके बिना नहीं होती । ऐसा जो आत्मज्ञान वह यथार्थ वोधको प्राप्तिके सिवाय उत्पन्न नहीं होता। इस यथार्थ बोधकी प्राप्ति प्राय. क्रमसे बहतसे जीवोको होती है, और उसका मुख्य मार्ग, उस बोधस्वरूप ज्ञानीपुरुपका आश्रय या सग और उसके प्रति बहुमान, प्रेम है । ज्ञानीपुरुपका वैसा वैसा सग जीवको अनतकालमै बहुत बार हो चुका है तथापि यह पुरुप ज्ञानो है, इसलिये अब उसका आश्रय ग्रहण करना, यही कर्तव्य है, ऐसा जोवको लगा नही है, और इसी कारण जीवका परिभ्रमण हुआ है ऐसा हमे तो दृढ़तासे लगता है।
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श्रीमद राजचन्द्र
ज्ञानीपुरुषकी पहचान न होनेमे मुख्यत जीवके तीन महान दोष जानते है । एक तो 'मै जानता हूँ,' 'मै समझता हूँ,' हूँ, इस प्रकारका जो मान जीवको रहा करता है, वह मान । दूसरा, ज्ञानीपुरुषके प्रति रागकी अपेक्षा परिग्रहादिकमे विशेष राग । तीसरा, लोकभयके कारण, अपकीर्तिभयके कारण और अपमानभयके कारण ज्ञानीसे विमुख रहना, उनके प्रति जैसा विनयान्वित होना चाहिये वैसा न होना । ये तीन कारण जीवको ज्ञानीसे अनजान रखते है, ज्ञानीके विषयमे अपने समान कल्पना रहा करती है, अपनी कल्पनाके अनुसार ज्ञानीके विचारका, शास्त्रका तोलन किया जाता है, थोडा भी ग्रन्थसम्बन्धी वाचनादि ज्ञान मिलनेसे अनेक प्रकारसे उसे प्रदर्शित करनेकी जीवको इच्छा रहा करती है । इत्यादि दोष उपर्युक्त तीन दोषोमे समा जाते हैं, और इन तीनो दोषोका उपादान कारण तो एक स्वच्छद' नामका महा दोष है, और उसका निमित्त कारण असत्संग है ।
जिसे आपके प्रति, आपको किसी प्रकारसे परमार्थकी कुछ भी प्राप्ति हो, इस हेतुके सिवाय दूसरी स्पृहा नही है, ऐसा मैं यहाँ स्पष्ट बताना चाहता हूँ, और वह यह कि उपर्युक्त दोषोमे अभी आपको प्रेम रहता है, 'मैं जानता हूँ', 'मैं समझता हूँ,' यह दोष बहुत बार वर्तनमे रहता हैं, असार परिग्रह आदिमे भी महत्ता की इच्छा रहती है, इत्यादि जो दोष हैं वे ध्यान, ज्ञान इन सबके कारणभूत ज्ञानीपुरुष और उसकी आज्ञाका अनुसरण करनेमे आडे आते हैं । इसलिये यथासम्भव आत्मवृत्ति करके उन्हे कम करनेका प्रयत्न करना, और लौकिक भावनाके प्रतिबन्धसे उदास होना, यही कल्याणकारक है, ऐसा समझते हैं ।
३६४
४१७
आसोज, १९४८
हे परमकृपालु देव । जन्म, जरा, मरणादि सर्व दु खोका अत्यन्त क्षय करनेवाला वीतराग पुरुषका मूलमार्ग आप श्रीमानने अनन्त कृपा करके मुझे दिया, उस अनत उपकारका प्रत्युपकार करनेमे मै सर्वथा असमर्थ हूँ, फिर आप श्रीमान कुछ भी लेनेमे सर्वथा निस्पृह हैं, जिससे मै मन, वचन, कायाकी एकाग्रतासे आपके चरणारविंदमे नमस्कार करता हूँ । आपकी परमभक्ति और वीतराग पुरुषके मूलधर्मंकी उपासना मेरे हृदयमे भवपर्यन्त अखण्ड जागृत रहे, इतना माँगता हूँ, वह सफल हो ।
ॐ शांति शाति शाति ।
सं० १९४८
४१८ *रविकै उदोत अस्त होत दिन दिन प्रति, अंजुलीकै जीवन ज्यों, जीवन घटतु है; कालकै प्रसत छिन छिन, होत छीन तन, आरेकै चलत मानो काठसौ कटतु है, एते परि मूरख न खोजे परमारथकों, स्वारथकै हेतु भ्रम भारत ठटतु है; लगो फिरै लोगनिसों, पग्यो परै जोगनिस, विषैरस भोगनिसौं, नेकु न
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हटतु है ॥१॥
*भावार्थ – जिस प्रकार अजलि - करसम्पुटका पानी क्रमश
घटता है, उसी प्रकार सूर्यका उदय अस्त होता है और प्रतिदिन जीवन घटता है । जिस प्रकार आरेके चलनेसे लकडी कटती है, उसी प्रकार काल शरीरको क्षण क्षण क्षीण करता हैं । इतनेपर भी अज्ञानी जीव परमार्थकी खोज नही करता और
लौकिक स्वार्थके लिये अज्ञानका
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२५ वाँ वर्ष
जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति मांही, तृषावत मृषाजल कारण अटतु है; तैसें भववासी मायाहीसौं हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम श्रम नाटक नटतु है । आगेको धुकत घाई पीछे बछरा चवाई, जैसे नैन होन नर जेवरी वटतु है; तैसे मूढ चेतन सुकृत करतूति करें, रोयत हसत फल खोवत खटतु है ॥२॥
४१९
संसारमे कौनसा सुख है कि जिसके प्रतिबन्धमे जीव रहनेकी इच्छा करता है ?
४२०
कि बहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहु विलिज्जति । तह तह पर्याट्ठि अव्व, एसा आणा जिणिदाण ॥
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(समयसार नाटक)
बबई, १९४८
बबई, १९४८
(उपदेशरहस्य - यशोविजयजी)
कितना कहे ? जिस जिस प्रकारसे इस रागद्वेषका विशेषरूपसे नाश हो उस उस प्रकार से प्रवृत्ति करना, यही जिनेश्वरदेवकी आज्ञा है ।
४२१
बबई, आसोज, १९४८
जिस पदार्थमेसे नित्य व्यय विशेष होता हो और आय कम हो, वह पदार्थ क्रमसे अपने स्वत्त्वका त्याग करता है, अर्थात् नष्ट होता है, ऐसा विचार रखकर इस व्यवसायका प्रसग रखने जैसा है ।
पूर्वमे उपार्जित किया हुआ जो कुछ प्रारब्ध है, उसे वेदन करनेके सिवाय दूसरा प्रकार नही है, और योग्य भी इस तरह है, ऐसा समझकर जिस जिस प्रकारसे जो कुछ प्रारब्ध उदयमे आता है उसे समपरिणामसे वेदन करना योग्य है, और इस कारणसे यह व्यवसाय प्रसग रहता है।
चित्तमे किसी प्रकारसे उस व्यवसायकी कर्तव्यता प्रतीत न होनेपर भी, वह व्यवसाय मात्र खेदका हेतु है, ऐसा परमार्थ निश्चय होनेपर भी प्रारम्भ रूप होने से, सत्सगादि योगका अप्रधानरूपसे वेदन करना पडता है । उसका वेदन करनेमे इच्छा-अनिच्छा नही है, परन्तु आत्माको अफल ऐसी इस प्रवृत्तिका सम्बन्ध रहते देखकर खेद होता है और इस विषयमे वारवार विचार रहा करता है ।
बोझ उठाता है, शरीर आदि पर वस्तुओंसे प्रीति करता है, मन, वचन और काया के योगोमें अहबुद्धि करता है, और विषयभोगों से किंचित् भी विरक्त नही होता ॥ १ ॥
जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु सूर्य की कडी धूप होनेपर तृपातुर मृग उन्मत्त होकर मृगतृष्णासे व्यर्थ ही दोडता है, उसी प्रकार ससारी जीव मायामें ही कल्याण मानकर मिथ्या कल्पना करके ससारमे नाचते है । जिस प्रकार अन्धा मनुष्य आगेको रस्सी बटता जाये और पीछेसे बछडा खाता जाये, तो मूर्ख जीव शुभाशुभ क्रिया करता है और शुभ क्रियाके फलमे हर्ष एव फल खो देता है ॥ २ ॥
उसका परिश्रम व्यर्थ जाता है, उसी प्रकार क्रियाके फलमे विषाद करके क्रियाका
अशुभ
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बबई, कार्तिक सुदी, १९४९ धर्मसम्बन्धी पत्रादि व्यवहार भी बहुत कम रहता है, जिससे आपके कुछ पत्रोकी पहुँच मात्र लिखी जा सकी है।
जिनागममे इस कालको जो 'दुषम' संज्ञा कही है, वह प्रत्यक्ष दिखायी देती है, क्योकि 'दुषम' शब्दका अर्थ 'दु खसे प्राप्त होने योग्य' ऐसा होता है । वह दु खसे प्राप्त होने योग्य तो मुख्यरूपसे एक परमार्थमार्ग ही कहा जा सकता है, और वैसी स्थिति प्रत्यक्ष देखनेमे आती है । यद्यपि परमार्थ मार्गंकी दुर्लभता तो सर्वकालमे है, परन्तु ऐसे कालमे तो विशेषत काल भी दुर्लभताका कारणरूप है ।
यहाँ कहनेका हेतु ऐसा है कि अधिकतर इस क्षेत्रमे वर्तमान कालमे जिसने पूर्वकालमे परमार्थमार्गका आराधन किया है, वह देह धारण न करे, ओर यह सत्य है, क्योकि यदि वैसे जीवोका समूह इस क्षेत्रमे देहधारीरूपसे रहता होता, तो उन्हे और उनके समागममे आनेवाले अनेक जीवोको परमार्थमार्गकी प्राप्ति सुखपूर्वक हो सकती होती, और इससे इस कालको 'दुषम' कहनेका कारण न रहता। इस प्रकार पूर्वाराधक जीवोको अल्पता इत्यादि होनेपर भी वर्तमान कालमे यदि कोई भी जीव परमार्थमार्गका आराधन करना चाहे तो अवश्य आराधन कर सकता है, क्योकि दु.खपूर्वक भी इस कालमे परमार्थमार्ग प्राप्त होता है, ऐसा पूर्वज्ञानियोका कथन है ।
वर्तमान कालमे सव जोवोको मार्ग दुखसे ही प्राप्त होता है, ऐसा एकात अभिप्राय विचारनही है, प्राय वैसा होता है ऐसा अभिप्राय समझना योग्य है। उसके बहुत से कारण प्रत्यक्ष दिखायो देते हैं ।
प्रथम कारण --- ऊपर यह बताया है कि प्रायः पूर्व की आराधकता नही है । दूसरा कारण - वैसी आराधकता न होनेके कारण वर्तमानदेहमे उस आराधकमार्गकी रीति भो प्रथम समझमे न हो, जिससे अनाराधकमार्गको आराधकमार्ग मानकर जीवने प्रवृत्ति की होती है । तीसरा कारण - प्राय कही ही सत्समागम अथवा सद्गुरुका योग हो, और वह भी क्वचित् हो । चौथा कारण-अमत्सगादि कारणोसे जीवको सद्गुरु आदिको पहचान होना भो दुष्कर है, और प्रायः असद्गुरु आदिमे सत्य प्रतीति मानकर जीव वही रुका रहता है ।
पांचवां कारण - क्वचित् मत्ममागमका योग हो तो भी बल, वीर्य आदिकी ऐसी शिथिलता कि जीव तथारूप मार्ग ग्रहण न कर मके अथवा समझ न सके, अथवा असत्समागमादिसे या अपनो कल्पनासे मय्यामे सत्यरूपसे प्रतीति की हो ।
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प्राय वर्तमानकालमे जीवने या तो शुष्कक्रियाप्रधानतामे मोक्षमार्गको कल्पना की है, अथवा बाह्यक्रिया ओर शुद्ध व्यवहारक्रियाका उत्यापन करनेमे मोक्षमार्गकी कल्पना की है, अथवा स्वमति कल्पनासे अध्यात्म ग्रन्थ पढकर कथन मात्र अध्यात्म पाकर मोक्षमार्गको कल्पना की है। ऐसी कल्पना कर लेनेसे जीवको सत्समागमादि हेतुमे उस उस मान्यताका आग्रह आडे आकर परमार्थ प्राप्त करनेमे स्तभभूत होता है।
जो जीव शुष्कक्रियाप्रधानतामे मोक्षमार्गकी कल्पना करते हैं, उन जीवोको तथारूप उपदेशका पोषण भी रहा करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ऐसे चार प्रकारसे मोक्षमार्ग कहे जानेपर भी प्रथमके दो पद तो उन्होने विस्मृत किये जैसे होते है, और चारित्र शब्दका अर्थ वेश तथा मात्र बाह्य विरतिमे समझे हुए जैसा होता है। तप शब्दका अर्थ मात्र उपवासादि व्रतका करना और वह भी बाह्य सज्ञासे उसमे समझे हुए जैसा होता है, और क्वचित् ज्ञान, दर्शन पद कहने पड़े तो वहाँ लौकिक कथन जैसे भावोके कथनको ज्ञान और उसकी प्रतीति अथवा उसे कहनेवालेकी प्रतीतिमे दर्शन शब्दका अर्थ समझने जैसा रहता है।
____ जो जीव बाह्यक्रिया (अर्थात् दानादि) और शुद्ध व्यवहार क्रियाका उत्थापन करनेमें मोक्षमार्ग समझते है, वे जोव शास्त्रोके किसी एक वचनको नासमझीसे ग्रहण करके समझते हैं। दानादि क्रिया यदि किसी अहकारादिसे, निदानबुद्धिसे, अथवा जहाँ वैसी क्रिया सभव न हो ऐसे छठे गुणस्थानादि स्थानमे करे, तो वह ससारहेतु है, ऐसा शास्त्रोका मूल आशय है । परन्तु दानादि क्रियाका समूल उत्थापन करनेका शास्त्रोका हेतु नही है, वे मात्र अपनी मति कल्पनासे निषेध करते है। तथा व्यवहार दो प्रकारका है, एक परमार्थमूलहेतु व्यवहार और दूसरा व्यवहाररूप व्यवहार । पूर्वकालमे इस जोवने अनतबार किया फिर भी आत्मार्थ नहीं हुआ, ऐसे शास्त्रोमे वाक्य हैं, उन वाक्योको ग्रहण करके सम्पूर्ण व्यवहारका उत्थापन करनेवाले अपनेको समझे हुए मानते हैं, परन्तु शास्त्रकारने तो वैसा कुछ नही कहा है। जो व्यवहार परमार्थहेतुमूल व्यवहार नहीं है, और मात्र व्यवहारहेतु व्यवहार है, उसके दुराग्रहका शास्त्रकारने निषेध किया है । जिस व्यवहारका फल चार गति हो वह व्यवहार व्यवहारहेतु कहा जा सकता है, अथवा जिस व्यवहारसे आत्माकी विभाव दशा जाने योग्य न हो उस व्यवहारको व्यवहारहेतु व्यवहार कहा जाता है। इसका शास्त्रकारने निषेध किया है, वह भी एकातसे नही, केवल दुराग्रहसे अथवा उसीमे मोक्षमार्ग माननेवालेको इस निषेधसे सच्चे व्यवहारपर लानेके लिये किया है। और परमार्थमूलहेतु व्यवहार शम, सवेग, निर्वेद, अनुकपा, आस्था अथवा सद्गुरु, सत्शास्त्र और मनवचनादि समिति तथा गुप्ति, उसका निषेध नहीं किया है, और यदि उसका निषेध करने योग्य हो तो फिर शास्त्रोका उपदेश करके वाकी क्या समझाने जैसा रहता था, अथवा क्या साधन करानेका बताना बाकी रहता था कि शास्त्रोका उपदेश किया ? अर्थात् वैसे व्यवहारसे परमार्थ प्राप्त किया जाता है, और जीवको वैसा व्यवहार अवश्य ग्रहण करना चाहिये कि जिससे परमार्थकी प्राप्ति होगी, ऐसा शास्त्रोका आशय है। शुष्कअध्यात्मी अथवा उसके प्रसगमे आनेवाले इस आशयको समझे विना उस व्यवहारका उत्थापन करके अपने और परके लिये दुर्लभवोधिता करते है।
शम, सवेगादि गुण उत्पन्न होनेपर अथवा वैराग्यविशेष एव निष्पक्षता होनेपर, कपायादि क्षीण होनेपर, अथवा कुछ भी प्रज्ञाविशेषसे समझनेको योग्यता होनेपर, जो सद्गुरुगमसे समझने योग्य अध्यात्म ग्रन्य, तब तक प्रायः शस्त्र जैसे है, उन्हे अपनी कल्पनासे जैसे-तैसे पढकर, निश्चय करके, वैसा अतभेद हए विना अथवा दशा वदले विना, विभाव दुर हुए विना अपनेमे ज्ञानको कल्पना करता है; और क्रिया तथा शुद्ध व्यवहाररहित होकर प्रवृत्ति करता है, ऐसा तीसरा प्रकार शुष्कजध्यात्मीका है। जगह जग
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श्रीमद् राजचन्द्र
जीवको ऐसा योग मिलता रहता है, अथवा तो ज्ञानरहित गुरु या परिग्रहादिके इच्छुक गुरु, मात्र अपने मानपूजादिकी कामनासे फिरनेवाले जीवोको अनेक प्रकारसे उलटे रास्तेपर चढा देते है, और प्राय क्वचित् ही ऐसा नही होता । जिससे ऐसा मालूम होता है कि कालकी दु षमता है । यह दुषमता जीवको पुरुषार्थरहित करनेके लिये नही लिखी है, परन्तु पुरुषार्थ जागृतिके लिये लिखी है । अनुकूल सयोगमे तो जीवमे कुछ कम जागृति हो तो भी कदाचित् हानि न हो, परन्तु जहाँ ऐसे प्रतिकूल योग रहते हो वहाँ मुमुक्षु जीवको अवश्य अधिक जाग्रत रहना चाहिये, कि जिससे तथारूप पराभव न हो, और वैसे किसो प्रवाहमे न बहा जाये | वर्तमानकाल दुःषम कहा है, फिर भी इसमे अनन्त भवको छेदकर मात्र एक भव बाकी रखे, ऐसी एकावतारिता प्राप्त हो, ऐसा भी है । इसलिये विचारवान जीव यह लक्ष रखकर, उपर्युक्त प्रवाहोमे न बहते हुए यथाशक्ति वैराग्यादिकी आराधना अवश्य करके, सद्गुरुका योग प्राप्त करके, कषायादि दोषका छेदक और अज्ञानसे रहित होनेका सत्यमार्ग प्राप्त करे । मुमुक्षु जीवमे कथित शमादिगुण अवश्य सम्भव है, अथवा उन गुणोके बिना मुमुक्षुता नही कही जा सकती । नित्य ऐसा परिचय रखते हुए, उस उस बातका श्रवण करते हुए, विचार करते हुए, पुन. पुन पुरुषार्थ करते हुए वह मुमुक्षुता उत्पन्न होती है । वह मुमुक्षुता उत्पन्न होनेपर जीवको परमार्थमार्ग अवश्य समझमे आता है ।
४२३
बबई, कार्तिक वदी ९, १९४९ कम प्रमाद होनेका उपयोग जीवकी मार्गके विचारमे स्थिति कराता है । और विचार मार्ग में स्थिति कराता है । इस बातका पुन पुन. विचार करके, यह प्रयत्न वहाँ वियोगमे भी किसी प्रकारसे करना योग्य है । यह बात विस्मरणीय नही है ।
४२४
बंबई, कार्तिक वदी १२, १९४९
समागम चाहने योग्य मुमुक्षुभाई कृष्णदासादिके प्रति,
"पुनर्जन्म है - जरूर है | इसके लिये 'में' अनुभवसे हॉ कहनेमे अचल हूँ ।" यह वाक्य पूर्वभवके किसी योगका स्मरण होते समय सिद्ध हुआ लिखा है । जिसने पुनर्जन्मादि भाव किये हैं, उस 'पदार्थ' को, किसी प्रकारसे जानकर यह वाक्य लिखा गया है ।
मुमुक्षुजीवके दर्शनकी तथा समागमकी निरंतर इच्छा रखते है । तापमे विश्रातिका स्थान उसे समझते है । तथापि अभी तो उदयाधीन योग रहता है। अभी इतना ही लिख सकते है । श्री सुभाग्य यहाँ
वृत्ति है ।
प्रणाम प्राप्त हो ।
४२५
बई, मगसिर वदी ९, सोम, १९४९
उपाधिका वेदन करनेके लिये अपेक्षित दृढता मुझमे नही है, इसलिये उपाधिसे अत्यंत निवृत्तिकी इच्छा रहा करती है, तथापि उदयरूप जानकर यथाशक्ति सहन होती है ।
परमार्थका दु.ख मिटनेपर भी ससारका प्रासंगिक दु ख रहा करता है, और वह दुख अपनी इच्छा आदिके कारणसे नही है, परन्तु दूसरेकी अनुकपा तथा उपकार आदिके कारणसे रहता है । और इस वि वनामे चित्त कभी कभी विशेष उद्वेगको प्राप्त हो जाता है ।
इतने लेखसे वह उद्वेग स्पष्ट समझमे नही आयेगा, कुछ अशमे आप समझ सकेंगे। इस उद्वेगके सिवाय दूसरा कोई दु.ख ससारप्रसगका भी मालूम नही होता । जितने प्रकारके ससारके पदार्थ हैं, उन
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२६ वा वर्ष सवमे यदि अस्पृहता हो और उद्वेग रहता हो तो वह अन्यकी अनुकम्पा या उपकार या वैसे कारणसे हो, ऐसा मुझे निश्चित लगता है। इस उद्वेगके कारण कभी आँखोमे आँसु आ जाते है, और उन सब कारणोके प्रति वर्तन करनेका मार्ग अमुक अशमे परतत्र दिखायी देता है । इसलिये समान उदासीनता आ जातो है ।
ज्ञानीके मार्गका विचार करते हुए ज्ञात होता है कि किसी भी प्रकारसे यह देह मूर्छापात्र नहीं है, उसके दु खसे इस आत्माको शोक करना योग्य नही है। आत्माको आत्म-अज्ञानसे शोक करनेके सिवाय दूसरा शोक करना उचित नहीं है। प्रगट यमको समीप देखते हुए भी जिसे देहमे मूर्छा नही रहती, उस पुरुपको नमस्कार है। इसी बातका चिंतन करते रहना हमे, आपको, प्रत्येकको योग्य है।
देह आत्मा नहीं है, आत्मा देह नहीं हैं । घटादिको देखनेवाला जैसे घटादिसे भिन्न है, वैसे देहको देखनेवाला, जाननेवाला आत्मा देहसे भिन्न है, अर्थात् देह नही है।
विचार करते हुए यह वात प्रगट अनुभवसिद्ध होती है, तो फिर इस भिन्न देहके स्वाभाविक क्षयवृद्धि-रूपादि परिणाम देखकर हर्ष-शोकवान होना किसी प्रकारसे सगत नही है, और हमे, आपको वह निर्धार करना, रखना योग्य है, और यह ज्ञानीके मार्गकी मुख्य ध्वनि है।
व्यापारमें कोई यात्रिक व्यापार सूझे तो वर्तमानमें कुछ लाभ होना संभव है।
___४२६ वबई, मगसिर वदी १३, शनि, १९४९ भावसार खुशाल रायजीने केवल पांच मिनटकी मांदगीमें देह छोडा है। ससारमें उदासीन रहनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय नही है।
बंबई, माघ सुदी ९, गुरु, १९४९
४२७
आप सब मुमुक्षुजनके प्रति नम्रतासे यथायोग्य प्राप्त हो । निरंतर ज्ञानोपुरुषकी सेवाके इच्छावान हम है, तथापि इस दुषमकालमें तो उसकी प्राप्ति परम दुषम देखते हैं, और इसलिये ज्ञानीपुरुषके आश्रयमे स्थिर बुद्धि है जिनकी, ऐसे मुमुक्षुजनमें सत्सगपूर्वक भक्तिभावसे रहनेको प्राप्तिको महा भाग्यरूप मानते है, तथापि अभी तो उससे विपरीत प्रारब्धोदय रहता है । सत्सगका लक्ष्य हमारे आत्मामे रहता है, तथापि उदयाधीन स्थिति है, और वह अभी ऐसे परिणाममे रहती है कि आप मुमुक्षुजनके पत्रकी पहुँच मात्र विलबसे दी जाती है। चाहे जैसी स्थितिमे भी अपराधयोग्य परिणाम नही है।
४२८ .
बवई, माघ वदी ४, १९४९ शुभेच्छासम्पन्न मुमुक्षुजन श्री अंबालाल इत्यादि,
दो पत्र पहुँचे हैं। यहां समाधि परिणाम है । तथापि उपाधिका प्रसग विशेप रहता है। और वैसा करनेमे उदासीनता होनेपर भी उदययोग होनेसे निष्क्लेश परिणामसे प्रवृत्ति करना योग्य है।
प्रमाद कम होनेके लिये किसी सद्ग्रथको पढते रहना योग्य है।
४२९ ____ ववई, माघ वदी ११, रवि, १९४९ कोई मनुष्य अपने विषयमे कुछ बताये तव उसे यथासम्भव गम्भीर मनसे सुनते रहना इतना मत्य काम है । वह वात ठोक है या नहीं यह जाननेसे पहिले कोई हर्ष-खेद जैसा नहीं होता।
मेरी चित्तवत्तिके विषयमे कभी कभी लिखा जाता है, उसका अर्थ परमार्थसम्बन्धी लेना योग्य है, और यह लिखनेका अर्थ व्यवहारमे कुछ अशुभ परिणामवाला दिखाना योग्य नहीं है।
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श्रीमद् राजचन्द्र ___ पडे हुए संस्कारोका मिटना दुष्कर होता है। कुछ कल्याणका कार्य हो या चिन्तन हो, यह साधनका मुख्य कारण है । बाकी ऐसा कोई विषय नही है कि जिसके पीछे उपाधितापसे, दीनतासे दुखी होना योग्य हो अथवा ऐसा कोई भय रसना योग्य नहीं है कि जो अपनेको केवल लोकसज्ञासे रहता हो।
४३० बबई, माघ व दी ३०, गुरु, १९४९ यहाँ प्रवृत्ति-उदयसे समाधि है। आपको लीमडीसम्बन्धी जो विचार रहता है, वह करुणा भावके कारणसे रहता है, ऐसा हम समझते हैं।
कोई भी जीव परमार्थको मात्र अशरूपसे भी प्राप्त होनेके कारणोको प्राप्त हो, ऐसा निष्कारण करुणाशील ऋपभादि तीर्थङ्करोने भी किया है, क्योकि सत्पुरुषोके सम्प्रदायकी ऐसी सनातन करुणावस्था होती है कि समयमात्रके अनवकाशसे समूचा लोक आत्मावस्थामे हो, आत्मस्वरूपमे हो, आत्मसमाधिमे हो, अन्य अवस्थामे न हो, अन्य स्वरूपमे न हो, अन्य आधिमे न हो, जिस ज्ञानसे स्वात्मस्थ परिणाम होता है, वह ज्ञान सर्व जीवोमे प्रगट हो, अनवकाशरूपसे सर्व जीव उस ज्ञानमे रुचियुक्त हो, ऐसा ही जिसका करुणाशील सहज स्वभाव है, वह सनातन सप्रदाय सत्पुरुषोका है।
आपके अन्त करणमे ऐसी करुणावृत्तिसे लीमडीके विषयमे वारवार विचार आया करता है, और आपके विचारका एक अंश भी फल प्राप्त हो अथवा वह फल प्राप्त होनेका एक अश भी कारण उत्पन्न हो तो इस पचमकालमे तीर्थंकरका मार्ग बहुत अशोसे प्रगट होनेके बराबर है, तथापि वैसा होना सम्भव नही है, और उस मार्गसे होने योग्य नही है, ऐसा हमे लगता है। जिससे सम्भव होना योग्य है अथवा इसका जो मार्ग है, वह अभी तो प्रवृत्तिके उदयमे है, और वह कारण जब तक उनको लक्ष्यगत न हो तब तक दूसरे उपाय प्रतिबंधरूप है, नि सशय प्रतिवन्धरूप हैं।
__ जीव यदि अज्ञान परिणामी हो तो जैसे उस अज्ञानका नियमितरूपसे आराधन करनेसे कल्याण नही है वैसे मोहरूप मार्ग अथवा ऐसा इस लोकसम्बन्धी जो मार्ग है वह मात्र ससार है, उसे फिर चाहे जिस आकारमे रखें तो भी ससार है। उस ससारपरिणामसे रहित करनेके लिये अससारगत वाणीका अस्वच्छन्दपरिणामसे जब आधार प्राप्त होता है, तब उस ससारका आकार निराकारताको प्राप्त होता जाता है। वे अपनी दृष्टिके अनुसार दूसरे प्रतिबध किया करते हैं, उसी प्रकार वे अपनी उस दृष्टिसे ज्ञानीके वचनोकी आराधना करें तो कल्याण होने योग्य नही लगता । इसलिये आप वहाँ ऐसा सूचित करें कि आप किसी कल्याणके कारणके नजदीक होनेके उपायकी इच्छा करते हो तो उसके प्रतिबध कम होनेके उपाय करें, और नही तो कल्याणकी तृष्णाका त्याग करें। आप ऐसा समझते हो कि हम जैसे वर्तन करते है वैसे कल्याण है, मात्र अव्यवस्था हो गयी है, वही मात्र अकल्याण है, ऐसा समझते हो तो यह यथार्थ नहीं है। वस्तुत आपका जो वर्तन है, उससे कल्याण भिन्न है, और वह तो जब जब जिस जिस जीवको वैसा वैसा भवस्थित्यादि समीप योग होता है तब तब उसे वह प्राप्त होने योग्य है । सारे समूहमे कल्याण मान लेना योग्य नही है, और यदि ऐसे कल्याण होता हो, तो उसका फल संसारार्थ है, क्योकि पूर्वकालमे ऐसा करके ही जीव ससारी रहता आया है। इसलिये वह विचार तो जब जिसे आना होगा, तब आयेगा । अभी आप अपनी रुचिके अनुसार अथवा आपको जो भासित होता है उसे कल्याण मानकर प्रवृत्ति करते हैं, इस विषयमे सहज, किसो प्रकारके मानकी इच्छाके बिना, स्वार्थकी इच्छाके बिना, आपमे क्लेश उत्पन्न करनेकी इच्छाके बिना मुझे जो कुछ चित्तमे लगता है, वह बताता हूँ।
कल्याण जिस मार्गसे होता है उस मार्गके दो मुख्य कारण देखनेमे आते है । एक तो जिस सप्रदायमे आत्मार्थके लिये सभी असगतावाली क्रियाएँ हो, अन्य किसी भी अर्थ-प्रयोजनकी इच्छासे न हो, और
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२६ वां वर्ष निरंतर ज्ञानदशापर जीवोका चित्त हो, उसमे अवश्य कल्याणके उत्पन्न होनेका योग मानते है। ऐसा न हो तो उस योगका सम्भव नही होता । यहाँ तो लोकसज्ञासे, ओघसज्ञासे, मानार्थ, पूजार्थ, पदके महत्वार्थ, श्रावकादिके अपनेपनके लिये अथवा ऐसे दूसरे कारणोसे जपतपादि, व्याख्यानादि करनेकी प्रवृत्ति हो गयी है, वह किसी तरह आत्मार्थके लिये नही है, आत्मार्थक प्रतिवधरूप है। इसलिये यदि आप कुछ इच्छा करते हो तो उसका उपाय करनेके लिये जो दूसरा कारण कहते है, उसके असगतासे सिद्ध होनेपर किसी दिन भी कल्याण होना सम्भव है।
असगता अर्थात् आत्मार्थके सिवायके संगप्रसगमे नही पडना, ससारके सगीके सगमे बातचीतादिका प्रसग शिष्यादि बनानेके कारणसे नही रखना, शिष्यादि बनानेके लिये गृहवासी वेषवालोको साथमे नही घुमाना । दीक्षा ले तो तेरा कल्याण होगा', ऐसे वाक्य तीर्थंकरदेव कहते नही थे। उसका एक हेतु यह भी था कि ऐसा कहना यह भी उसके अभिप्रायके उत्पन्न होनेसे पहले उसे दीक्षा देना है, वह कल्याण नही है। जिसमे तीर्थंकरदेवने ऐसे विचारसे प्रवृत्ति की है, उसमे हम छ. छः मास दीक्षा लेनेका उपदेश जारी रखकर उसे शिष्य बनाते हैं, वह मात्र शिष्यार्थ है, आत्मार्थ नही है । पुस्तक, यदि सब प्रकारके अपने ममत्वभावसे रहित होकर ज्ञानकी आराधना करनेके लिये रखी जाय तो ही आत्मार्थ है, नही तो महान प्रतिबन्ध है, यह भी विचारणीय है।
___ यह क्षेत्र अपना है, और उस क्षेत्रकी रक्षाके लिये वहाँ चातुर्मास करनेके लिये जो विचार किया जाता है, वह क्षेत्रप्रतिबन्ध है । तीर्थकरदेव तो ऐसा कहते हैं कि द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे-इन चारो प्रतिबधसे यदि आत्मार्थ होता हो अथवा निग्रंथ हुआ जाता हो तो वह तीर्थंकरदेवके मार्गमे नही हैं, परन्तु ससारके मार्गमे है । इत्यादि बात यथाशक्ति विचारकर आप बताइयेगा। लिखनेसे बहुत लिखा जा सके, ऐसा सूझता है, परन्तु अब यहाँ स्थिति-विराम करता है। लि० रायचन्दके प्रणाम ।
४३१
बबई, फागुन सुदी ७, गुरु, १९४९ आत्मारूपसे सर्वथा जाग्रत अवस्था रहे, अर्थात् आत्मा अपने स्वरूपमे सर्वथा जाग्रत हो तब उसे केवलज्ञान हुआ है, ऐसा कहना योग्य है, ऐसा श्री तीथंकरका आशय है।
जिस पदार्थको तीर्थकरने 'आत्मा' कहा है, उसी पदार्थको उसी स्वरूपमें प्रतीति हो, उसी परिणामसे आत्मा साक्षात् भासित हो, तब उसे परमार्थ-सम्यक्त्व है. ऐसा श्री तीर्थंकरका अभिप्राय है। जिसे ऐसा स्वरूप भासित हुआ है, ऐसे पुरुषमे जिसे निष्काम श्रद्धा है, उस पुरुषको वीजरुचि-सम्यक्त्व है । उस पुरुषकी निष्काम भक्ति अबाधासे प्राप्त हो, ऐसे गुण जिस जीवमे हो, वह जीव मार्गानुसारी होता है, ऐसा जिनेंद्र कहते हैं।
हमारा अभिप्राय कुछ भी देहके प्रति हो तो वह मात्र एक आत्मार्थके लिये ही है, अन्य अर्थके लिये नही । दूसरे किसी भी पदार्थके प्रति अभिप्राय हो तो वह पदार्थके लिये नही, परन्तु आत्मार्थके लिये है। वह आत्मार्थ उस पदार्थकी प्राप्ति-अप्राप्तिमे हो, ऐसा हमे नही लगता। 'आत्मत्व' इस ध्वनिके सिवाय दूसरी कोई ध्वनि किसी भी पदार्थके ग्रहण-त्यागमे स्मरण योग्य नही है। अनवकाश आत्मत्व जाने बिना, उस स्थितिके बिना अन्य सर्व क्लेशरूप है।।
४३२ वबई, फागुन सुदी ७, गुरु, १९४९ अवालालका लिखा हुआ पत्र पहुंचा था।
आत्माको विभावसे अवकाशित करनेके लिये ओर स्वभावमे अनवकाशरूपसे रहनेके लिये कोई भी मुख्य उपाय हो तो आत्माराम ऐसे ज्ञानीपुरुषका निष्काम वुद्धिसे भक्तियोगरूप सग है। उसकी सफलताके
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श्रीमद राजचन्द्र
लिये निवृत्ति क्षेत्र वैसा योग प्राप्त होना, यह किसी महान पुण्यका योग है, और वैसा पुण्ययोग प्राय इस जगतमे अनेक प्रकारके अन्तरायवाला दिखायो देता है । इसलिये हम समीपमे है, ऐसा वारवार याद करके जिसमे इस ससारकी उदासीनता कही हो उसे अभी पढ़ें, विचारें । आत्मारूपसे केवल आत्मा रहे, ऐसा जो चिन्तन रखना वह लक्ष्य है, शास्त्रके परमार्थरूप है ।
इस आत्माको पूर्वकालमे अनतकाल व्यतीत करनेपर भी नही जाना, इससे ऐसा लगता है कि उसे जाननेका कार्य सबसे विकट है, अथवा तो उसे जाननेके तथारूप योग परम दुर्लभ है। जीव अनतकालसे ऐसा समझा करता है कि मैं अमुकको जानता हूँ, अमुकको नही जानता, ऐसा नही है, ऐसा होनेपर भी जिस रूपसे स्वय है उस रूपका निरन्तर विस्मरण चला आता है, यह बात बहुत - बहुत प्रकारसे विचारणीय है, और उसका उपाय भी बहुत प्रकारसे विचार करने योग्य है ।
४३३
बबई, फागुन सुदी १४, १९४९
హ
श्री कृष्णादिके सम्यक्त्व सम्बन्धी प्रश्नके बारेमे आपका पत्र मिला है । तथा उसके अगले दिनके यहाँके पत्रोसे आपको स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, उस सम्बन्धो आपका पत्र मिला है । यथोचित अवलोकनसे उन पत्रो द्वारा श्री कृष्णादिके प्रश्नोका आपको स्पष्टीकरण होगा, ऐसा सम्भव है ।
-
जिस कालमे परमार्थधर्मंकी प्राप्ति के साधन प्राप्त होना अत्यन्त दुषम हो उस कालको तीर्थंकरदेवने दुषम कहा है, . और इस कालमे यह बात स्पष्ट दिखायी देतो है । सुगमसे सुगम जो कल्याणका उपाय है, वह जीवको इस कालमे प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है । मुमुक्षुता, सरलता, निवृत्ति, सत्सगादि साधनको इस कालमे परम दुर्लभ जानकर, पूर्व पुरुषोने इस कालको हुँडा-अवसर्पिणीकाल कहा है, और यह बात भी स्पष्ट है | प्रथमके तीन साधनोका सयोग तो क्वचित् भी प्राप्त होना दूसरे अमुक कालमे सुगम था, परन्तु सत्संग तो सर्वं कालमे दुर्लभ हो दीखता है, तो फिर इस कालमे सत्संग सुलभ कहाँसे हो ? प्रथमके तीन साधन किसी तरह इस कालमे जीव प्राप्त करे तो भी धन्य है ।
कालसम्बन्धी तीर्थंकरवाणीको सत्य करनेके लिये 'ऐसा' उदय हमे रहता है, और वह समाधिरूपसे वेदन करने योग्य है ।
आत्मस्वरूप |
बंबई, फागुन वदी, ९, शनि, १९४९
४३४ ॐ
भक्तिपूर्वक प्रणाम पहुँचे ।
यहाँ उपाधियोग है । बहुत करके कल कुछ लिखा जा सकेगा तो लिखूँगा । यही विनती ।
अत्यन्त भक्ति
४३५
बबई, फागुन वदो ३०, १९४९
'मणिरत्नमाला' तथा 'योगकल्पद्रुम' पढनेके लिये इसके साथ भेजे है। जो कुछ बाँधे हुए कर्म है, उन्हे भोगे विना निरुपायता है । चिन्तारहित परिणामसे जो कुछ उदयमे आये उसे वेदन करना, ऐसा श्री तीर्थंकरादि ज्ञानियोका उपदेश है ।
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२६ वाँ वर्ष
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बवई, चैत्र सुदी १, १९४९
'समता, रमता, ऊरधता, ज्ञायकता, सुखभास ।
वेदकता, चैतन्यता, ए सब जीव विलास ॥' जिन तीर्थंकरदेवने स्वरूपस्थ आत्मारूप होकर, वक्तव्यरूपसे जिस प्रकार वह आत्मा कहा जा सके तदनुसार अत्यन्त यथास्थित कहा है, उन तीर्थंकरको दूसरी सब प्रकारकी अपेक्षाका त्याग करके नमस्कार करते है।
पूर्वकालमे अनेक शास्त्रोका विचार करनेसे, उस विचारके फलस्वरूप सत्पुरुषमे जिनके वचनसे भक्ति उत्पन्न हुई है, उन तीर्थंकरके वचनोको नमस्कार करते हैं।
अनेक प्रकारसे जीवका विचार करनेसे, वह जीव आत्मारूप पुरुषके विना जाना जाये ऐसा नही है, ऐसी निश्चल श्रद्धा उत्पन्न हुई, उन तीर्थंकरके मार्गवोधको नमस्कार करते है।
भिन्न भिन्न प्रकारसे उस जीवका विचार होनेके लिये, वह जीव प्राप्त होनेके लिये योगादिक अनेक साधनोका बलवान परिश्रम करनेपर भी प्राप्ति न हुई, वह जीव जिसके द्वारा सहज प्राप्त होता है, वही कहनेका जिनका उद्देश्य है, उन तीर्थंकरके उद्देश्यवचनको नमस्कार करते है। [अपूर्ण ]
४३७
इस जगतमे जिसमे विचारशक्ति वाचासहित रहती है, ऐसा मनुष्य प्राणी कल्याणका विचार करनेके लिये सबसे अधिक योग्य है । तथापि प्रायः जीवको अनत बार मनुष्यभव मिलनेपर भी वह कल्याण सिद्ध नहीं हुआ, जिससे वर्तमान तक जन्ममरणके मार्गका आराधन करना पड़ा है। इस अनादि लोकमे जीवकी मनतकोटी सख्या है। उन जीवोकी समय-समयपर अनत प्रकारकी जन्म मरणादि स्थिति होती रहती है, ऐसा अनतकाल पूर्वकालमे व्यतीत हुआ है। अनतकोटी जीवोमे जिसने आत्मकल्याणकी आराधना की है, अथवा जिसे आत्मकल्याण प्राप्त हुआ है, ऐसे जीव अत्यन्त थोडे हुए है, वर्तमानमे ऐसा हे, और भविष्यकालमे भी ऐसी ही स्थिति सम्भव है, ऐसा ही है। अर्थात् जीवको कल्याणकी प्राप्ति तीनो कालोमे अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा जो श्री तीर्थंकरदेवादि ज्ञानीका उपदेश है वह सत्य है। जीवसमुदायकी ऐसी भ्राति अनादि सयोगसे है, यही योग्य है, ऐसा ही है। यह भ्राति जिस कारणसे होती है, उस कारणके मुख्य दो प्रकार प्रतीत होते है--एक पारमार्थिक और दूसरा व्यावहारिक, और उन दोनो प्रकारोका जो एकत्र अभिप्राय है वह यह है कि इस जीवमे सच्ची मुमुक्षुता नही आयी, इस जीवमे एक भी सत्य अक्षरका परिणमन नही हुआ, सत्पुरुषके दर्शनमे जीवको रुचि नही हुई, उस उम प्रकारके योगसे समर्थ अतरायसे जीवको वह प्रतिबंध होता रहा है, और उसका सबसे बडा कारण असत्सगको वासनासे उत्पन्न हुई स्वेच्छाचारिता और असत्दर्शनमे सत्दर्शनरूप भ्राति है। 'आत्मा नामका कोई पदार्य नही है ऐसा एक दर्शनका अभिप्राय है, 'आत्मा नामका पदार्थ सायोगिक है', ऐसा अभिप्राय कोई दूसरा दर्शन मानता है, 'आत्मा देहस्थितिरूप है, देहको स्थितिके पश्चात् नही है.' ऐमा अभिप्राय किसी दूसरे दर्शनका हे। 'आत्मा अणु है', 'आत्मा सर्वव्यापक है,' 'आत्मा शुन्य है,' 'आत्मा माकार है,' 'आत्मा प्रकाशरूप है,' 'आत्मा स्वतय नहीं है,' 'आत्मा कर्ता नहीं हैं,' आत्मा कर्ता है भोक्ता नही,' 'आत्मा का नही, भोक्ता है, 'आत्मा कर्ता नहा, भोक्ता नहो,' 'आत्मा जड हे,' 'आत्मा कृत्रिम है, इत्यादि अनत नय
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श्रीमद राजचन्द्र
जिसके हो सकते हैं, ऐसे अभिप्रायको भ्राति के कारणरूप असत्दर्शनकी आराधना करनेसे पूर्वकालमे इस जीवने अपना स्वरूप जैसा है वैसा नही जाना । उसे उपर्युक्त एकान्त - अयथार्थरूपसे जानकर आत्मामे अथवा आत्माके नामसे ईश्वरादिमे पूर्वकालमे जीवने आग्रह किया है, ऐसा जो असत्सग, स्वेच्छाचारिता और मिथ्यादर्शनका परिणाम है वह जब तक नही मिटता तब तक यह जीव क्लेशरहित शुद्ध असख्य प्रदेशात्मक मुक्त होनेके योग्य नही है, और उस असत्सगादिकी निवृत्ति के लिये सत्सग, ज्ञानीकी आज्ञाका अत्यन्त अगीकार करना और परमार्थस्वरूप आत्मत्वको जानना योग्य है ।
पूर्वकालमे हुए तीर्थंकरादि ज्ञानोपुरुषोने उपर्युक्त भ्रातिका अत्यन्त विचार करके, अत्यन्त एकाग्रतासे, तन्मयता से जीवस्वरूपका विचार करके जीवस्वरूपमे शुद्ध स्थिति की है । उस आत्मा और दूसरे सब पदार्थोको सर्व प्रकारसे भ्रातिरहित रूपसे जाननेके लिये श्री तीर्थंकरादिने अत्यन्त दुष्कर पुरुषार्थका आराधन किया है । आत्माको एक भी अणुके आहारपरिणाम से अनन्य भिन्न करके उन्होने इस देहमे स्पष्ट ऐसा अनाहारी आत्मा, मात्र स्वरूपसे जीनेवाला ऐसा देखा है । उसे देखनेवाले तीर्थंकरादि ज्ञानी स्वय ही शुद्धात्मा है, तो वहाँ भिन्नरूपसे देखनेका कहना यद्यपि सगत नही है, तथापि वाणीधर्म से ऐसा कहा है । ऐसे अनन्त प्रकारसे विचार करके भी जानने योग्य जो 'चैतन्यघन जीव' है उसे तीर्थकरने दो प्रकार से कहा है, कि जिसे सत्पुरुषसे जानकर, विचार कर, सत्कार करके जीव स्वय उस स्वरूपमे स्थिति करे । तीर्थं - करादि ज्ञानीने पदार्थमात्रको 'वक्तव्य' और 'अवक्तव्य' ऐसे दो व्यवहारधर्मवाला माना है । अवक्तव्यरूपसे जो है वह यहाँ 'अवक्तव्य' ही है । वक्तव्यरूपसे जो जीवका धर्म है उसे सब प्रकारसे कहनेके लिये तीर्थंकरादि समर्थ है, और वह मात्र जीवके विशुद्ध परिणामसे अथवा सत्पुरुष द्वारा जाना जाये, ऐसा जीवका धर्म है, और वही धर्म उस लक्षण द्वारा अमुक मुख्य प्रकारसे इस दोहेमे कहा है । परमार्थके अत्यन्त अभ्याससे वह व्याख्या अत्यन्त स्फुट समझमे आती है, और उसके समझमे आनेपर आत्मत्व भी अत्यन्त प्रगट होता है, तथापि यथावकाश यहाँ उसका अर्थ लिखा है ।
बबई, चैत्र सुदी १, १९४९
४३८ 'समता, रमता, ऊरधता, ज्ञायकता, सुखभास । वेदकता, चैतन्यता, ए सब जीव विलास ॥'
जिस लक्षणसे कहा है वह सब स्पष्ट अनुभव किया है, और
श्री तीर्थंकर ऐसा कहते है कि इस जगतमे इस जीव नामके पदार्थको चाहे जिस प्रकारसे कहा हो वह प्रकार उसकी स्थितिमे हो, इसमे हमारी उदासीनता है । जिस प्रकारसे निराबाधरूपसे उस जीव नाम पदार्थको हमने जाना है, उस प्रकारसे उसे हमने प्रगट कहा है । प्रकारसे बाधारहित कहा है । हमने उस आत्माको ऐसा जाना है, देखा है, हम वही आत्मा हैं । वह आत्मा 'समता' नामके लक्षणसे युक्त है वर्तमान समयमे जो असख्य प्रदेशात्मक चैतन्यस्थिति आत्माकी है, वह पहलेके एक, दो, तीन, चार, दस, संख्यात, असख्यात, अनन्त समयमे थी, वर्तमान मे है और भविष्यकालमे भी उसी प्रकारसे उसकी स्थिति है। किसी भी कालमे उसकी असख्यात प्रदेशात्मकता, चैतन्यता, अरूपित्व इत्यादि समस्त स्वभाव छूटने योग्य नही है, ऐसा जो समत्व, समता वह जिसका लक्षण है, वह जीव है ।
।
पशु, पक्षी, मनुष्यादिकी देहमे वृक्षादिमे जो कुछ रमणीयता दिखायी देती है, अथवा जिससे वे सव प्रगट स्फूर्तिवाले मालूम होते है, प्रगट सुन्दरता समेत लगते है, वह रमता, रमणीयता है लक्षण जिसका वह जीव नामका पदार्थ है। जिसकी विद्यमानता के विना सारा जगत शून्यवत् सम्भव है, ऐसी रमणीयता जिसमे है, वह लक्षण जिसमे घटित होता है, वह जीव है ।
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२६ या वर्ष
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कोई भी जाननेवाला कभी भी किसी भी पदार्थको अपनी अविद्यमानतासे जाने, ऐसा होने योग्य नहीं है । प्रथम अपनी विद्यमानता घटित होती है, और किसी भी पदार्थका ग्रहण, त्यागादि अथवा उदासीन ज्ञान होनेमे स्वय ही कारण है। दूसरे पदार्थके अगीकारमे, उसके अल्पमात्र भी ज्ञानमे प्रथम जो हो, तभी हो सकता है. ऐसा सवसे प्रथम रहनेवाला जो पदार्थ हे वह जीव है। उसे गौण करके अर्थात् उसके बिना कोई कुछ भी जानना चाहे तो वह सम्भव नहीं है, मात्र वही मुख्य हो तभी दूसरा कुछ जाना जा सकता है, ऐसा यह प्रगट 'ऊर्ध्वताधर्म', वह जिसमे है, उस पदार्थको श्री तीर्थंकरदेव जीव कहते है।
प्रगट जड पदार्थ और जीव, वे जिस कारणसे भिन्न होते है, वह लक्षण जीवका ज्ञायकता नामका गुण है । किसी भी समय यह जीव-पदार्थ ज्ञायकतारहित रूपसे किसीको भी अनुभवगम्य नही हो सकता। और इस जीव नामके पदार्थके सिवाय दूसरे किसी भी पदार्थमे ज्ञायकता नही हो सकती, ऐसा जो अत्यन्त अनुभवका कारण ज्ञायकता, वह लक्षण जिसमे है उस पदार्थको तीर्थकरने जीव कहा है।
शब्दादि पाँच विषयसम्बन्धी अथवा समाधि आदि योगसम्बन्धी जिस स्थितिमे सुख होना सम्भव है, उसे भिन्न भिन्नरूपसे देखनेसे अन्तमे केवल उन सबमे सुखका कारण एक यह जीव-पदार्थ ही सम्भव है । इसलिये श्री तीर्थकरने जीवका 'सुखभास' नामका लक्षण कहा है, और व्यवहार दृष्टातसे निद्रा द्वारा वह प्रगट मालम होता है । जिस निद्रामे अन्य सब पदार्थोंसे रहितपन है, वहाँ भी 'मै सुखी हूँ', ऐसा जो ज्ञान है, वह बाकी बचे हुए जीव पदार्थका ही है, अन्य कोई वहाँ विद्यमान नहीं है, और सुखका आभास होना तो अत्यन्त स्पष्ट है, वह जिससे भासित होता है उम जीव नामके पदार्थके सिवाय अन्य कही-भी वह लक्षण नही देखा ।
यह फीका है, यह मीठा है, यह खट्टा है, यह खारा है, मै इस स्थितिमे हूँ, ठण्डसे ठिठुरता हूँ, गरमी पडती हे, दुखी हूँ, दुखका अनुभव करता हूँ, ऐसा जो स्पष्ट ज्ञान, वेदनज्ञान, अनुभवज्ञान, अनुभवता, वह यदि किसीमे भी हो तो वह इस जीवपदमे है, अथवा यह जिसका लक्षण होता है, वह पदार्थ जीव होता है, यही तीर्थंकरादिका अनुभव है।
स्पष्ट प्रकाशता, अनन्त अनन्त कोटी तेजस्वी दीपक, मणि, चन्द्र, सूर्यादिको काति जिसके प्रकाशके बिना प्रगट होनेके लिये समर्थ नही है अर्थात् वे सब अपने आपको बताने अथवा जाननेके योग्य नही है। जिस पदार्थके प्रकाशमे चैतन्यतासे वे पदार्थ जाने जाते है, वे पदार्थ प्रकाश पाते है, स्पष्ट भासित होते है वह पदार्थ जो कोई है वह जीव है । अर्थात वह लक्षण प्रगटरूपसे स्पष्ट प्रकाशमान, अचल ऐसा निरावाध प्रकाशमान चैतन्य, उस जीवका उस जीवके प्रति उपयोग लगानेसे प्रगट दिखायी देता है।
ये जो लक्षण कहे हे उन्हे पुनः पुन विचारकर जीव निरावाधरूपसे जाना जाता है, जिन्हे जाननेसे जीवको जाना है, ये लक्षण इस प्रकारसे तीर्थकरादिने कहे है।
४३९
ववई, चैत्र सुदो ६, गुरु, १९४२
"ममता रमता ऊरधता" ये पद इत्यादि पद जो जीवके लक्षणके लिखे थे, उनका विशेष अर्थ लिखकर एक पत्र पाँच दिन हुए मोरवी गेजा है, जो मोरवी जानेपर प्राप्त होना सम्भव है।
___ उपाधिका योग विशेष रहता है। जैसे जैसे निवृत्तिके योगकी विशेष इच्छा हो आती है, वैसे वैने उपाधिकी प्राप्तिका योग विशेष दिखायी देता है। चारो तरफसे उपाधिको भीड़ है। कोई ऐसा मार्ग
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श्रीमद् राजचन्द्र अभी दिखायी नही देता कि अभी इसमेसे छूटकर चले जाना हो तो किसीका अपराध किया न समझा जाय । छूटनेका प्रयत्न करत हुए किसीके मुख्य अपराधमे आ जानेका स्पष्ट सम्भव दिखायी देता है, और यह वर्तमान अवस्या उपाधिरहित होनेके लिये अत्यत योग्य है, प्रारब्धकी व्यवस्था ऐसी बाँधी होगी।
लि. रायचन्दके प्रणाम ।
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बबई, चैत्र सुदो ९, १९४९ मुमुक्षुभाई सुखलाल छगनलाल, वीरमगाम ।
____ कल्याणकी अभिलापावाला एक पत्र गत वर्षमे मिला था, उसी अर्थका दूसरा पत्र थोडे दिन हुए मिला है।
केशवलालका आपको वहाँ समागम होता है यह श्रेयस्कर योग है। ___ आरभ, परिग्रह, असत्सग आदि कल्याणके प्रतिबधक कारणोका यथासम्भव कम परिचय हो तथा उनमे उदासीनता प्राप्त हो, यह विचार अभी मुख्यत रखने योग्य है।
बबई, चैत्र सुदी ९, १९४९ मुमुक्षुभाई श्री मनसुख देवशी, लीमडी।
___ अभी उस तरफ हुए श्रावको आदिके समागम सम्बन्धी विवरण पढा है। उस प्रसगमे जीवको रुचि या अरुचि उदयमे नही आयी, उसे श्रेयस्कर कारण जानकर, उसका अनुसरण करके निरन्तर प्रवर्तन करनेका परिचय करना योग्य है, और उस असत्सगका परिचय जैसे कम हो वैसे उसकी अनुकपाकी इच्छा करके रहना योग्य है। जैसे हो वैसे सत्सगके योगकी इच्छा करना और अपने दोष देखना योग्य है।
बबई, चैत्र वदी १, रवि, १९४९ *धार तरवारनी सोहली, दोहलो चौदमा जिनतणी चरणसेवा; धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवना धार पर रहे न देवा ।
-श्री आनदघन-अनतजिनस्तवन मार्गको ऐसी अत्यन्त दुष्करता किस कारणसे कही है ? यह विचार करने योग्य है।
आत्मप्रणाम
बबई, चैत्र वदी ८, रवि, १९४९ जिसे ससार सम्बन्धी कारणके पदार्थोंकी प्राप्ति सुलभतासे निरन्तर हुआ करे और बन्धन न हो, ऐसा कोई पुरुप हो, तो उसे तीर्थङ्कर या तीर्थङ्कर जैसा मानते हैं, परन्तु प्रायः ऐसी सुलभ प्राप्तिके योगसे जीवको अल्पकालमे संसारसे अत्यन्त वैराग्य नही होता, और स्पष्ट आत्मज्ञानका उदय नही होता, ऐसा जानकर जो कुछ उस सुलभ प्राप्तिको हानि करनेवाला योग होता है उसे उपकारकारक जानकर सुखसे रहना योग्य है।
*भावार्य-तलवारकी धारपर चलना तो आसान है, परन्तु चौदहवें तीर्थङ्कर श्री अनन्तनाथजीके चरणोकी सेवा करना मुश्किल है । वाजीगर तलवारकी धारपर नाचते हुए देखे जाते हैं, परन्तु प्रभुके चरणोकी सेवारूप धारपर तो देवगण भी नहीं चल सकते।
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२६ वो वर्ष
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बबई, चैत्र वदी ३०, रवि, १९४९ ससारीरूपसे रहते हुए किस स्थितिसे वर्तन करें तो अच्छा, ऐसा कदाचित् भासित हो, तो भी वह वर्तन प्रारब्धाधीन है। किसी प्रकारके कुछ राग, द्वेष या अज्ञानके कारणसे जो न होता हो, उसका कारण उदय मालूम होता है । और आपके लिखे हुए पत्रके सम्बन्धमे भी वैसा जानकर अन्य विचार या शोक करना ठीक नही है।
जलमे स्वाभाविक शीतलता है, परन्तु सूर्यादिके तापके योगसे वह उष्णतावाला दिखायी देता है, उस तापका योग दूर होनेपर वही जल शीतल लगता है । बीचमे वह जल शीतलतासे रहित लगता है, वह तापके योगसे है। इसी तरह यह प्रवृत्तियोग हमे है, परन्तु अभी तो उस प्रवृत्तिका वेदन करनेके सिवाय हमारा अन्य उपाय नही है।
नमस्कार प्राप्त हो।
___ ववई, चैत्र वदी ३०, रवि, १९४९ जो मु० यहाँ चातुर्मासके लिये आना चाहते है, यदि उनका आत्मा दुखित न होता हो तो उनसे कहना कि उन्हे इस क्षेत्रमे आना निवृत्तिरूप नही है। कदाचित् यहाँ सत्सगकी इच्छासे आनेका सोचा हो तो वह योग मिलना बहुत विकट है, क्योकि हमारा वहाँ जाना-आना सम्भव नही है। प्रवत्तिके बलवान कारणोकी उन्हे प्राप्ति हो, ऐसी यहां स्थिति है, ऐसा जानकर यदि उन्हे कोई दूसरा विचार करना सुगम हो तो करना योग्य है । इस प्रकारसे लिख सके तो लिखियेगा।
___ अभी आपकी वहाँ कैसो दशा रहती है ? वहाँ विशेषरूपसे सत्सगका समागम योग करना योग्य है । आपके प्रश्नके उत्तरके सिवाय विशेष लिखना अभी सूझता नही है।
आत्मस्थित ।
___ बंबई, वैशाख वदी ६, रवि, १९४९ प्रत्येक प्रदेशसे जीवके उपयोगके लिये आकर्षक इस ससारमे एक समय मात्र भी अवकाश लेनेकी ज्ञानीपुरुषोने हाँ नही कही, इस विषयमे केवल नकार कहा है।
उस आकर्षणसे यदि उपयोग अवकाशको प्राप्त हो तो उसी समय वह आत्मरूप हो जाता है। उसी समय आत्मामे वह उपयोग अनन्य हो जाता है।
इत्यादि अनुभववार्ता जीवको सत्सगके दृढ निश्चयके विना प्राप्त होना अत्यन्त विकट है।
उस सत्सगको जिसने निश्चयरूपसे जाना है, ऐसे पुरुषको उस सत्सगका योग रहना इम दुपमकालमे अत्यत विकट है।
जिस चिताके उपद्रवसे आप घबराते हैं, वह चिंता-उपद्रव कोई शत्रु नही है। कोई ज्ञानवार्ता जरूर लिखिये।
प्रेमभक्तिसे नमस्कार।
ववई, वैशाख वदी ८, मगल, १९४९ जहाँ उपाय नही वहाँ खेद करना योग्य नहीं है।
ईश्वरेच्छाके अनुसार जो हो उसमे समता रखना योग्य है, और उसके उपायका कोई विचार सूझे उसे करते रहना, इतना मात्र हमारा उपाय है।
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श्रीमद राजचन्द्र
जो प्रवृत्ति यहाँ उदय है, वह ऐसी है कि दूसरे द्वारसे चले जाते हुए भी छोडी नही जा सकती, वेदन करने योग्य है, इसलिये उसका अनुसरण करते है, तथापि अव्याबाध स्थितिमे जैसाका तैसा स्वास्थ्य है ।
३८०
आज यह आठवाँ पत्र लिखते हैं । वे सब आप सभी जिज्ञासुभाइयोके वारवार विचार करनेके लिये लिखे गये है । चित्त ऐसे उदयवाला कभी हो रहता है । आज अनुक्रमसे वैसा उदय होने से, उस उदयके अनुसार लिखा है । हम सत्सग और निवृत्तिकी कामना रखते हैं, तो फिर आप सबको यह रखनो योग्य हो, इसमे कोई आश्चर्य नही है । हम व्यवहारमे रहते हुए अल्पारभको, अल्पपरिग्रहको प्रारब्धनिवृत्तिरूपसे चाहते हे, महान आरभ और महान परिग्रहमे नही पडते । तो फिर आपको वैसा बर्ताव करना योग्य हो, इसमे कोई सशय करना योग्य नही है । समागम होनेके योगका नियमित समय लिखा जा सके ऐसा अभी नही सूझता । यही विनती ।
बबई, जेठ सुदी १५, मगल, १९४९ होय ते करे । होय ते करे ॥"
४५०
- दयाराम
" जीव तु शीद शोचना धरे ? कृष्णने करवु चित्त तुं शीद शोचना घरे ? कृष्णने करवु पूर्वकालमे जो ज्ञानीपुरुष हुए हैं, उन ज्ञानियोमे बहुतसे ज्ञानीपुरुष सिद्धियोगवाले हुए हैं, ऐसा जो लोककथन है वह सच्चा हे या झूठा ? ऐसा आपका प्रश्न है, और यह सच्चा होना सम्भव है ऐसा आपअभिप्राय है । साक्षात् देखनेमे नही आता, यह विचाररूप जिज्ञासा है ।
कितने ही मार्गानुसारी पुरुषो और अज्ञानयोगी पुरुषोमे भी सिद्धियोग होता है । प्राय. उनके चित्तकी अत्यन्त सरलतासे अथवा सिद्धियागादिको अज्ञानयोगसे स्फुरणा देनेसे वह प्रवृत्ति करता है ।
सम्यग्दृष्टिपुरुष कि जिनका चोथे गुणस्थानमे होना सम्भव है, वैसे ज्ञानीपुरुषोमे क्वचित् सिद्धि होती है, और क्वचित् सिद्धि नही होती । जिनमे होती है, उन्हे उसकी स्फुरणाकी प्राय' इच्छा नही होती, और बहुत करके यह इच्छा तब होती है कि जब जीव प्रमादवश होता है, और यदि वैसी इच्छा हुई तो उसका सम्यक्त्वसे पतन होना सम्भव है ।
प्राय. पाँचवें, छट्टे गुणस्थानमे भी उत्तरोत्तर सिद्धियोगका विशेष सम्भव होता जाता है, और वहाँ भी यदि जीव प्रमादादि योग से सिद्धिमे प्रवृत्ति करे तो प्रथम गुणस्थानमे स्थिति होना सम्भव है |
सातवें, आठवें, नवमे और दसवे गुणस्थानमे प्राय. प्रमादका अवकाश कम है । ग्यारहवें गुणस्थान मे सिद्धियोगका लोभ सभव होने के कारण वहांसे प्रथम गुणस्थानमे स्थिति होना सभव है । बाकी जितने सम्यक्त्वके स्थानक हैं, और जहाँ तक सम्यकपरिणामी आत्मा है वहाँ तक उस एक भी योगमे जीवकी प्रवृत्ति त्रिकालमे भी होना सभव नही है ।
सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंसे लोगोने सिद्धियोगके जो चमत्कार जाने हैं, वे सब ज्ञानीपुरुष द्वारा किये हुए नही हो सकते, वे सिद्धियोग स्वभावतः परिणामको प्राप्त हुए होते हैं। दूसरे किसी कारण से ज्ञानीपुरुषमे वह योग नही कहा जाता ।
मार्गानुसारी अथवा सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके अत्यन्त सरल परिणामसे उनके वचनानुसार कितनी ही होता है । जिसका योग अज्ञानपूर्वक है, उसके उस आवरणके उदय होनेपर अज्ञानका स्फुरण होकर
१ भावार्थ - जीव तू किसलिये शोक करता है ? कृष्णको जो करना होगा सो करेगा । चित्त तू किसलिये शोक करता है ? कृष्णको जो करना होगा सो करेगा ।
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२६ वाँ वर्ष
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वह सिद्धियोग अल्पकालमे फलित होता है। ज्ञानीपुरुषसे तो मात्र स्वाभाविक स्फुरित होकर ही फलित होता है, अन्य प्रकारसे नही । जिन ज्ञानीसे सिद्धियोग स्वाभाविक परिणामी होता है, वे ज्ञानीपुरुष, हम जो करते है वैसा और वह इत्यादि दूसरे अनेक प्रकारके चारित्रके प्रतिवधक कारणोंसे मुक्त होते है, कि जिस कारणसे आत्माका ऐश्वर्य विशेष स्फुरित होकर मनादि योगमे सिद्धिके स्वाभाविक परिणामको प्राप्त होता है। क्वचित् ऐसा भी जानते हैं कि किसी प्रसगमे ज्ञानीपुरुषने भी सिद्धियोग परिणमित किया होता है तथापि वह कारण अत्यन्त बलवान होता है, और वह भी सपूर्ण ज्ञानदशाका कार्य नही है। हमने जो यह लिखा है, वह बहुत विचार करनेसे समझमे आयेगा।
__ हममे मार्गानुसारिता कहना सगत नहीं है। अज्ञानयोगिता तो जबसे इस देहको धारण किया तभीसे नही होगी ऐसा लगता है । सम्यग्दृष्टिपन तो जरूर सभव है। किसी प्रकारका सिद्धियोग साधनेका हमने कभी भी सारी जिंदगीमे अल्प भी विचार किया हो ऐसा याद नही आता, अर्थात् साधनसे वैसा योग प्रगट हुआ हो, ऐसा नही लगता | आत्माकी विशुद्धताके कारण यदि कोई वैसा ऐश्वर्य हो तो उसकी असत्ता नही कही जा सकती। वह ऐश्वर्य कुछ अशमे सभव है, तथापि यह पत्र लिखते समय इस ऐश्वर्यकी स्मृति हुई है, नही तो बहुत कालसे वैसा होना स्मरणमे नही हे तो फिर उसे स्फुरित करनेकी इच्छा कभी हुई हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, यह स्पष्ट बात है। आप और हम कुछ दुःखी नही है । जो दुःख है वह रामके चौदह वर्पके दुःखका एक दिन भी नही है, पाडवोके तेरह वर्पके दुःखकी एक घडी नहीं है, और गजसुकुमारके ध्यानका एक पल नही है, तो फिर हमे यह अत्यन्त कारण कभी भी बताना योग्य नहीं है।
आपको शोक करना योग्य नही है, फिर भी करते है। जो बात आपसे न लिखी जाये वह लिखी जाती है। उसे न लिखनेके लिये हमारा इस पत्रसे उपदेश नही है। मात्र जो हो उसे देखते रहना, ऐसा निश्चय रखनेका विचार करें, उपयोग करें, और साक्षी रहे, यही उपदेश है।
नमस्कार प्राप्त हो।
४५१
बबई, प्रथम आषाढ सुदी ९, १९४९ कृष्णदासका प्रथम विनयभक्तिरूप पत्र मिला था। उसके बाद त्रिभोवनका पत्र और फिर आपका पन पहुँचा । बहुत करके रविवारको पत्र लिखा जा सकेगा।
सत्सगके इच्छावान जीवोके प्रति कुछ भी उपकारक देखभाल होती हो तो होने योग्य है । परन्त अव्यवस्थाके कारण हम उन कारणोमे अशक्त होकर प्रवृत्ति करते है, अत करणसे कहते है कि वह क्षमा योग्य है। यही विनती।
बवई, प्रथम आषाढ सुदी १२, १९४९
४५२ उपाधिके कारण अभी यहाँ स्थिति सभव है। यहाँ सुखवृत्ति है। दुख कल्पित है।
लि• रायचदके प्रणाम
४५३ ववई, प्रथम आपाढ वदो ३, रवि, १९४९ मुमुक्षुजनके परमवाधव, परमस्नेही श्री सुभाग्य, मोरखी।
यदी समाधिका यथायोग्य अवकाश नही है। अभी कोई पूर्वोपार्जित प्रारब्ध ऐसे उदयमे रहता है।
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श्रीमद राजचन्द्र
अनारके प्रयगोने क्वचित् जब तक हमे अनुकुलता हुआ करती है, तब तक उस मसारका स्वरूप निवारकर लागयोग्य है, ऐसा प्राय हृदयमे आना दुष्कर है। उम समारमे जब बहुत-बहुत प्रतिकूल की प्राप्ति होती है, उस समय भी जीवको प्रथम वह अरुचिकर होकर पीछे वैराग्य आता है, फिर मानको कुछ सूझ पडती है । और परमात्मा श्रीकृष्णके वचन के अनुसार मुमुक्षुजीवको उन-उन प्रसंगों को सुखदायक नानना योग्य है कि जिन प्रभगोके कारण आत्मसाधन सूझता है ।
३७८
अमुक समय तक अनुकूल प्रनगी संसार मे कदाचित् मत्सगका योग हुआ हो, तो भी इस कालमे उस द्वारा वैराग्यका यथास्थित वेदन होना दुष्कर है, परन्तु उसके बाद कोई कोई प्रसग प्रतिकूल ही प्रतिकूल शता जाया हो, तो उनके विचारमे, उसके पश्चात्तापसे सत्सग हितकारक हो जाता है, ऐसा समझकर जिन किमी प्रतिकूल प्रसगको प्राप्ति हो, उसे आत्मसाधनका कारणरूप मानकर ममाथि रखकर जाग्रत रहना | कल्पित भावमे किसी प्रकारसे भूलने जैसा नही है ।
४४८
बबई, वैशाख वदी ९, १९४९
श्री महावीरदेवको गतिमादि मुनिजन ऐसा पूछते थे कि हे पूज्य । 'माहण', 'श्रमण', 'भिक्षु' और 'निर्ग्रन्थ' इन चार शब्दोका अर्थ क्या है ? वह हमे कहे। फिर उसका अर्थ श्री तीर्थंकर विस्तारसे कहते ये । वे अनुक्रम इन चारोकी अनेक प्रकारको वीतराग अवस्थाओ को विशेपातिविशेपरूपसे कहते थे, और इस तरह उन शब्दोका अर्थ शिष्य धारण करते थे ।
निर्ग्रयकी बहुतसी दशाएं कहते हुए एक 'आत्मवादप्राप्त' ऐसा शब्द उस निर्गर्थका तीर्थकर कहते ये । टीकाकार शौलागाचार्य उम "आत्मवादप्राप्त' शब्दका अर्थ ऐसा कहते थे कि 'उपयोग है लक्षण जिसका, असत्य प्रदेशी कोच - विकासका भाजन, अपने किये हुए कर्मोका भोक्ता, व्यवस्था से द्रव्यपर्यायरूप, नित्यानित्यादि अनंत वर्मात्मक ऐसे आत्माका ज्ञाता ।'
४४९
वैराग्यादि नावनमपन्न भाई कृष्णदास, श्री सभात ।
शुद्ध चित्तसे विदित की हुई आपकी विज्ञप्ति पहुँची है ।
वई, जेठ सुदी ११, शुक्र, १९४९
भत्र परमार्थके साधनोमे परम नावन सत्सग है, सत्पुरुषके चरणके समोपका निवास है | नवकालमे उनको दुर्दमना है, और ऐसे विपम कालमे उसको अत्यत दुर्लभता ज्ञानीपुरुपोने जानी है।
ज्ञानीपुरपोकी प्रवृत्ति प्रवृत्ति जैसी नहीं होती।
जैसे गरम पानोने अग्निका मुख्य गुण नहीं कहा ज्ञानोको प्रवृत्ति है, तथापि ज्ञानीपुर भो किसी प्रकार भी निवृत्तिको चाहते हैं | नागपन किये हुए निवृत्ति के क्षेत्र, वन, उपवन, योग, समाधि और नत्मगादि ज्ञानीपुरुषको राते हुए बारवार याद आ जाते हैं । तथापि ज्ञानी उदयप्राप्त प्रारब्धका अनुसरण करते हैं। हमे नगरती है, उनका ख्य रहता है, परन्तु यहां नियमितरूपने वैना अवकाश नहीं है ।
+ श्री लाग ११२ गाया ५ '' या वनात तन प्रत्ये उतर जाना प्राप्त विवा
प्राप्न अमित उपव्यन्यिरम्य
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२६ वा वर्ष
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कल्याणमे प्रतिबधरूप जो-जो कारण है, उनका जीवको वारवार विचार करना योग्य है, उन-उन कारणोका वारवार विचार करके दूर करना योग्य है, और इस मार्गका अनुसरण किये विना कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती। मल, विक्षेप और अज्ञान ये जीवके अनादिके तीन दोप हैं। ज्ञानीपुरुपोके वचनोकी प्राप्ति होनेपर, उनका यथायोग्य विचार होनेसे अज्ञानकी निवृत्ति होती है । उस अज्ञानको सतति बलदान होनेसे उसका रोध होनेके लिये और ज्ञानीपुरुषोके वचनोका यथायोग्य विचार होनेके लिये मल और विक्षेपको दूर करना योग्य है । सरलता, क्षमा, अपने दोप देखना, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह इत्यादि मल मिटनेके साधन है । ज्ञानीपुरुषकी अत्यत भक्ति विक्षेप मिटनेका साधन है।
ज्ञानीपुरुषके समागमका अतराय रहता हो, उस-उस प्रसगमे वारवार उन ज्ञानीपुरुपकी दशा, चेष्टा और वचनोका निरीक्षण करना, स्मरण करना और विचार करना योग्य है। और उस समागमके अतरायमे, प्रवृत्तिके प्रसगोमे अत्यन्त सावधानी रखना योग्य है, क्योकि एक तो समागमका बल नहीं है और दूसरा अनादि अभ्यास है जिसका, ऐसो सहजाकार प्रवृत्ति है, जिससे जीव आवरणप्राप्त होता है । घरका, जातिका अथवा दूसरे वैसे कामोका कारण आनेपर उदासीन भावसे उन्हे प्रतिवधरूप जानकर प्रवृत्ति करना योग्य है। उन कारणोको मुख्य बनाकर कोई प्रवृति करना योग्य नहीं है, और ऐसा हुए बिना प्रवृत्तिका अवकाश प्राप्त नहीं होता।
आत्माको भिन्न-भिन्न प्रकारकी कल्पनामे विचार करनेमे लोकसज्ञा, ओघसज्ञा और असत्सग ये कारण हैं, जिन कारणोमे उदासीन हुए बिना, नि सत्त्व ऐसी लोकसबधी जपतपादि क्रियामे साक्षात् मोक्ष नहीं है, परपरा मोक्ष नहीं है, ऐसा माने बिना, नि सत्त्व असत्शास्त्र और असद्गुरु, जो आत्मस्वरूपके आवरणके मुख्य कारण हैं, उन्हे साक्षात् आत्मघाती जाने बिना जीवको जीवके स्वरूपका निश्चय होना बहुत दुष्कर है, अत्यन्त दुष्कर है । ज्ञानीपुरुषके प्रगट आत्मस्वरूपको कहनेवाले वचन भी उन कारणोंके कारण जीवको स्वरूपका विचार करनेके लिये बलवान नहीं होते।
__अब ऐसा निश्चय करना योग्य है कि जिसे आत्मस्वरूप प्राप्त है, प्रगट है, उस पुरुषके बिना अन्य कोई उस आत्मस्वरूपको यथार्थ कहनेके योग्य नहीं है, और उस पुरुषसे आत्मा जाने विना अन्य कोई कल्याणका उपाय नहीं है । उस पुरुपसे आत्मा जाने बिना, आत्मा जाना है. ऐसी कल्पनाका मुमुक्षु जीवको सर्वथा त्याग करना योग्य है । उस आत्मारूप पुरुषके सत्सगको निरतर कामना रखकर उदासीनतासे लोकधर्मसम्बन्धी और कर्मसम्बन्धी परिणामसे छूटा जा सके इस प्रकारसे व्यवहार करना। जिस व्यवहारके करनेमे जीवको अपनो महत्तादिकी इच्छा हो वह व्यवहार करना यथायोग्य नहीं है।
हमारे समागमका अभी अन्तराय जानकर निराशाको प्राप्त होना योग्य है, तथापि वैसा करनेमे 'ईश्वरेच्छा' जानकर समागमकी कामना रखकर जितना परस्पर मुमुक्षुभाइयोका समागम हो सके उतना करें, जितनी हो सके उतनी प्रवृत्तिमे विरक्तता रखें, सत्पुरुषोके चरित्र और मार्गानुसारी (सुन्दरदास, प्रीतम, अखा, कबीर आदि) जोवोके वचन और जिनका उद्देश मुख्यत. आत्माको कहनेका ह, ऐसे (विचारसागर, सुन्दरदासके ग्रन्थ, आनन्दधनजी, बनारसोदास, कबीर, अखा इत्यादिके पद) ग्रन्थोका परिचय रखें, और इन सब साधनोमे मुख्य साधन तो श्री सत्पुरुपका समागम मानें ।
हमारे समागमका अतराय जानकर चित्तमे प्रमादको अवकाश देना योग्य नहीं है, परस्पर मुमुक्षभाइयोके समागमको अव्यवस्थित होने देना योग्य नहीं हे, निवृत्तिके क्षेत्रका प्रसग न्यून होने देना योग्य नही है, कामनापूर्वक प्रवृत्ति योग्य नहीं है, ऐसा विचारकर यथासम्भव अप्रमत्तताका, परस्परके समागमका, निवृत्तिके क्षेत्रका और प्रवृत्तिकी उदासीनताका आराधन करें।
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श्रीमद राजचन्द्र
जो प्रवृत्ति यहाँ उदय है, वह ऐसी है कि दूसरे द्वारसे चले जाते हुए भी छोडी नही जा सकती, वेदन करने योग्य है, इसलिये उसका अनुसरण करते है, तथापि अव्याबाध स्थितिमे जैसाका तैसा स्वास्थ्य है ।
३८०
आज यह आठवाँ पत्र लिखते है । वे सब आप सभी जिज्ञासुभाइयोके वारवार विचार करने के लिये लिखे गये है । चित्त ऐसे उदयवाला कभी हो रहता है । आज अनुक्रमसे वैसा उदय होनेसे, उस उदयके अनुसार लिखा है । हम सत्सग और निवृत्तिकी कामना रखते है, तो फिर आप सबको यह रखनो योग्य हो, इसमे कोई आश्चर्य नही है । हम व्यवहारमे रहते हुए अल्पारभको, अल्पपरिग्रहको प्रारब्धनिवृत्तिरूपसे चाहते हैं, महान आरभ और महान परिग्रहमे नही पडते । तो फिर आपको वैसा बर्ताव करना योग्य हो, इसमे कोई सशय करना योग्य नही है । समागम होनेके योगका नियमित समय लिखा जा सके ऐसा अभी नही सूझता । यही विनती ।
४५०
बबई, जेठ सुदी १५, मगल, १९४९ होय ते करे ।
होय ते करे ॥"
-- दयाराम
" जीव तुं शीद शोचना धरे ? कृष्णने करवु चित्त तुं शीद शोचना घरे ? कृष्णने करवु पूर्वकालमे जो ज्ञानीपुरुष हुए है, उन ज्ञानियोमे बहुतसे ज्ञानीपुरुष सिद्धियोगवाले हुए है, ऐसा जो लोककथन है वह सच्चा है या झूठा ? ऐसा आपका प्रश्न है, और यह सच्चा होना सम्भव है ऐसा आपअभिप्राय है । साक्षात् देखनेमे नही आता, यह विचाररूप जिज्ञासा है ।
कितने ही मार्गानुसारी पुरुषो और अज्ञानयोगी पुरुषोमे भी सिद्धियोग होता है । प्रायः उनके चित्तकी अत्यन्त सरलतासे अथवा सिद्धियागादिको अज्ञानयोगसे स्फुरणा देनेसे वह प्रवृत्ति करता है
सम्यग्दृष्टि पुरुष कि जिनका चौथे गुणस्थानमे होना सम्भव है, वैसे ज्ञानीपुरुषोमे क्वचित् सिद्धि होती है, और क्वचित् सिद्धि नही होती । जिनमे होती है, उन्हे उसकी स्फुरणाकी प्राय इच्छा नही होती, और बहुत करके यह इच्छा तब होती है कि जब जीव प्रमादवश होता है, और यदि वैसी इच्छा हुई तो उसका सम्यक्त्वसे पतन होना सम्भव है ।
प्रायः पाँचवें, छट्टे गुणस्थानमे भी उत्तरोत्तर सिद्धियोगका विशेष सम्भव होता जाता है, और वहाँ भी यदि जीव प्रमादादि योगसे सिद्धिमे प्रवृत्ति करे तो प्रथम गुणस्थानमे स्थिति होना सम्भव है ।
सातवें, आठवे, नवमे और दसवे गुणस्थानमे प्राय प्रमादका अवकाश कम है । ग्यारहवें गुणस्थान मे सिद्धियोगका लोभ सभव होनेके कारण वहाँसे प्रथम गुणस्थानमे स्थिति होना संभव है । बाकी जितने सम्यक्त्वके स्थानक है, और जहाँ तक सम्यकपरिणामी आत्मा है वहाँ तक उस एक भी योगमे जीवकी प्रवृत्ति त्रिकालमे भी होना संभव नही है ।
सम्यग्ज्ञानी पुरुषोसे लोगोने सिद्धियोगके जो चमत्कार जाने हैं, वे सब ज्ञानी पुरुष द्वारा किये हुए नही हो सकते, वे सिद्धियोग स्वभावत परिणामको प्राप्त हुए होते है । दूसरे किसी कारणसे ज्ञानीपुरुषमे वह योग नही कहा जाता ।
मार्गानुसारी अथवा सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके अत्यन्त सरल परिणामसे उनके वचनानुसार कितनी ही बार होता है । जिसका योग अज्ञानपूर्वक है, उसके उस आवरणके उदय होनेपर अज्ञानका स्फुरण होकर
१ भावार्थ - जीव तू किसलिये शोक करता है ? कृष्णको जो करना होगा सो करेगा । चित्त तू किसलिये शोक करता है ? कृष्णको जो करना होगा सो करेगा ।
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वह सिद्धियोग अल्पकालमे फलित होता है। ज्ञानीपुरुषसे तो मात्र स्वाभाविक स्फुरित होकर ही फलित होता है, अन्य प्रकारसे नही । जिन ज्ञानीसे सिद्धियोग स्वाभाविक परिणामी होता है, वे ज्ञानीपुरुष, हम जो करते है वैसा और वह इत्यादि दूसरे अनेक प्रकारके चारित्रके प्रतिबंधक कारणोंसे मुक्त होते है, कि जिस कारणसे आत्माका ऐश्वर्य विशेष स्फुरित होकर मनादि योगमे सिद्धिके स्वाभाविक परिणामको प्राप्त होता है। क्वचित् ऐसा भी जानते हैं कि किसी प्रसगमे ज्ञानीपुरुपने भी सिद्धियोग परिणमित किया होता है तथापि वह कारण अत्यन्त बलवान होता है, और वह भी सपूर्ण ज्ञानदशाका कार्य नही है। हमने जो यह लिखा है, वह बहुत विचार करनेसे समझमे आयेगा।
____ हममे मार्गानुसारिता कहना सगत नही है। अज्ञानयोगिता तो जबसे इस देहको धारण किया तभीसे नही होगी ऐसा लगता है। सम्यग्दृष्टिपन तो जरूर सभव है। किसी प्रकारका सिद्धियोग साधनेका हमने कभी भी सारी जिदगीमे अल्प भी विचार किया हो ऐसा याद नही आता, अर्थात् साधनसे वैसा योग प्रगट हुआ हो, ऐसा नही लगता । आत्माकी विशुद्धताके कारण यदि कोई वैसा ऐश्वर्य हो तो उसकी असत्ता नही कही जा सकती। वह ऐश्वर्य कुछ अशमे सभव है, तथापि यह पत्र लिखते समय इस ऐश्वर्यकी स्मृति हुई है, नही तो बहुत कालसे वैसा होना स्मरणमे नही है तो फिर उसे स्फुरित करनेकी इच्छा कभी हुई हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, यह स्पष्ट बात है। आप और हम कुछ दु.खी नही है। जो दुःख है वह रामके चौदह वपके दु.खका एक दिन भी नहीं है, पाडवोके तेरह वर्षके दुखकी एक घडी नही है, और गजसुकुमारके ध्यानका एक पल नही है, तो फिर हमे यह अत्यन्त कारण कभी भी बताना योग्य नहीं है।
आपको शोक करना योग्य नही है, फिर भी करते है। जो वात आपसे न लिखी जाये वह लिखी जाती है। उसे न लिखनेके लिये हमारा इस पत्रसे उपदेश नहीं है। मात्र जो हो उसे देखते रहना, ऐसा निश्चय रखनेका विचार करें, उपयोग करें, और साक्षी रहे, यही उपदेश है।
नमस्कार प्राप्त हो।
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बबई, प्रथम आपाढ सुदी ९, १९४९ कृष्णदासका प्रथम विनयभक्तिरूप पत्र मिला था। उसके बाद त्रिभोवनका पत्र और फिर आपका पत्र पहुँचा । बहुत करके रविवारको पत्र लिखा जा सकेगा।
सत्सगके इच्छावान जीवोके प्रति कुछ भी उपकारक देखभाल होती हो तो होने योग्य है । परन्तु अव्यवस्थाके कारण हम उन कारणोमे अशक्त होकर प्रवृति करते हैं, अत करणसे कहते है कि वह क्षमा योग्य है । यही विनती।
ववई, प्रथम आपाढ सुदी १२, १९४९
४५२ उपाधिके कारण अभी यहाँ स्थिति सभव है। यहाँ सुखवृत्ति है । दुख कल्पित है।
लि. रायचदके प्रणाम
४५३ बवई, प्रथम आपाढ वदो ३, रवि १९४९ मुमुक्षुजनके परमवाधव, परमस्नेही श्री सुभाग्य, मोरवी।
यहाँ समाधिका यथायोग्य अवकाश नही है। अभी कोई पूर्वोपार्जित प्रारब्ध ऐसे उदयमे रहता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
गत सालके मार्गशीर्ष मासमे यहाँ आना हुआ, तभोसे उत्तरोत्तर उपाधियोग विशेषाकार होता, आया है, और बहुत करके उस उपाधियोगका विशेष प्रकारसे उपयोग द्वारा वेदन करना पडा है ।
इस कालको तीर्थकरादिने स्वभावत दुपम कहा है । उसमे विशेष करके प्रयोगसे अनार्यता के योग्यभूत ऐसे इन क्षेत्रोमे यह काल वलवानरूपसे रहता है । लोगो की आत्मप्रत्यय योग्यबुद्धि अत्यन्त नाश हो जाने योग्य हुई है, ऐसे सब प्रकारके दुषमयोगमे व्यवहार करते हुए परमार्थका विस्मरण अत्यन्त सुलभ है । ओर परमार्थका स्मरण अत्यन्त अत्यन्त दुर्लभ हे । आनदघनजीने चौदहवे जिनके स्तवनमे कहा है, उसमे इस क्षेत्रकी दुपमता इतनी विशेषता है, और आनदघनजीके कालकी अपेक्षा वर्तमानकाल विशेष दुपमपरिणामी है । उसमे यदि किसी आत्मप्रत्ययी पुरुपके लिये वचने योग्य कोई उपाय हो तो वह एक मात्र निरन्तर अविच्छिन्न धारासे सत्सगकी उपासना करना यही प्रतीत होता है ।
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प्राय सर्व कामनाओके प्रति उदासीनता है, ऐसे हमको भी यह सर्व व्यवहार और कालादि, गो खाते खाते ससारसमुद्रको मुश्किलसे तरने देता है । तथापि प्रति समय उस परिश्रमका अत्यन्त प्रस्वेद उत्पन्न हुआ करता है, और उत्ताप उत्पन्न होकर सत्सगरूप जलकी तृषा अत्यन्तरूपसे रहा करती है, और यही दुख लगा करता है ।
ऐसा होनेपर भी ऐसे व्यवहारका सेवन करते हुए उसके प्रति द्वेपपरिणाम करना योग्य नही है, ऐसा जो सर्व ज्ञानीपुरुपोका अभिप्राय है, वह उस व्यवहारको प्राय. समतासे कराता है | आत्मा उस विषयमे मानो कुछ करता नही है, ऐसा लगा करता है ।
विचार करनेसे ऐसा भी नही लगता कि यह जो उपाधि उदयवर्ती है, वह सर्व प्रकारसे कष्टरूप है । पूर्वोपार्जित प्रारब्ध जिससे शान्त होता है, वह उपाधि परिणामसे आत्मप्रत्ययो कहने योग्य है । मनमे ऐसा ही रहा करता है कि अल्पकालमे यह उपाधियोग मिटकर बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थता प्राप्त हो तो अधिक योग्य है । तथापि यह बात अल्पकालमे हो ऐसा नही सूझता, और जब तक ऐसा नही होता तब तक वह चिन्ता मिटनी सम्भव नही है ।
दूसरा सव व्यवहार वर्तमानमे ही छोड़ दिया हो, तो यह हो सकता है । दो तीन उदय व्यवहार ऐसे हैं कि जो भोगने से ही निवृत्त हो सकते हैं, और कष्टसे भी उस विशेष कालकी स्थितिमेसे अल्पकालमे उनका वेदन नही किया जा सकता ऐसे है, और इसी कारणसे मूर्खकी भाँति इस व्यवहारका सेवन किया करते हैं ।
किसी द्रव्यमे, किसी क्षेत्रमे, किसी कालमे, किसी भावमे स्थिति हो, ऐसा प्रसग मानो कही भी दिखायी नही देता ! केवल सर्व प्रकार की उसमेसे अप्रतिबद्धता ही योग्य है, तथापि निवृत्तिक्षेत्र और निवृत्तिकाल, सत्सग और आत्मविचारमे हमे प्रतिवद्ध रुचि रहती है । वह योग किसी प्रकारसे भी यथासम्भव थोडे कालमे हो, इसी चिन्तनमे अहोरात्र रहते हैं ।
आपके समागम की अभी विशेष इच्छा रहती है, तथापि उसके लिये किसी प्रसगके बिना योग न करना, ऐसा रखना पड़ा है ओर उसके लिये बहुत विक्षेप रहता है ।
आपको भी उपाधियोग रहता है। उसका विकटतासे वेदन किया जाये, ऐसा है, तथापि मौनरूपसे, समतासे उसका वेदन करना, ऐसा निश्चय रखें। उस कर्मका वेदन करनेसे अन्तरायका वल कम होगा । क्या लिखें ? और क्या कहे ? एक आत्मवार्ताने ही अविच्छिन्न काल रहे, ऐसे आप जैसे पुरुषके सत्संग के हम दास है | अत्यन्त नम्रतासे हमारा चरणके प्रति नमस्कार स्वीकार कीजिये । यही विनती ।
दासानुदास रायचदके प्रणाम पढ़ियेगा ।
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३८३
२६ वा वर्ष
४५४
बम्बई, प्रथम आपाढ वदी ४, सोम, १९४९
यदि स्पष्ट प्रीतिसे समार करनेकी इच्छा होती हो तो उस पुरुपने ज्ञानीके वचन सुने नही हैं; अथवा ज्ञानीपुरुषके दर्शन भी उसने किये नही है ऐसा तीर्थंकर कहते हैं ।
जिसकी कमर टूट गई है, उसका प्रायः सारा बल परिक्षीणताको प्राप्त होता है। जिसे ज्ञानीपुरुषके वचनरूप लकडीका प्रहार हुआ है उस पुरुषमे उस प्रकारसे ससार सम्बन्धी वल होता है, ऐसा तीर्थंकर कहते है। ____ ज्ञानीपुरुषको देखनेके बाद स्त्रीको देखकर यदि राग उत्पन्न होता हो तो उसने ज्ञानीपुरुषको नही देखा, ऐसा आप समझें।
ज्ञानीपुरुषके वचन सुननेके बाद स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूपसे भासे बिना नही रहेगा। धनादि सम्पत्ति वास्तवमे पृथ्वीका विकार भासित हुए बिना नही रहेगा। ज्ञानीपुरुषके सिवाय उसका आत्मा और कही भी क्षणभर स्थायो होना नही चाहेगा। इत्यादि वचनोका पूर्वकालमे ज्ञानीपुरुष मार्गानुसारो पुरुषोको बोध देते थे। जिन्हे जानकर, सुनकर वे सरल जीव आत्मामे अवधारण करते थे। प्राणत्याग जैसे प्रसंगमे भी वे उन वचनोको अप्रधान न करने योग्य जानते थे, वर्तन करते थे।
आप सर्व मुमुक्षुभाइयोको हमारा भक्तिभावसे नमस्कार पहुँचे। हमारा ऐसा उपाधियोग देखकर अन्तरमे क्लेशित हुए बिना जितना हो सके उतना आत्मा सम्बन्धी अभ्यास बढानेका विचार करे।
सर्वसे अधिक स्मरणयोग्य बातें तो बहुतसी है, तथापि ससारमे एकदम उदासीनता, परके अल्पगणोमे भी प्रीति, अपने अल्पदोषोमे भी अत्यन्त क्लेश, दोषके विलयमे अत्यन्त वीर्यका स्फुरना, ये वाते सत्सगमे केवल शरणागतरूपसे अखण्ड ध्यानमे रखने योग्य हैं। यथासम्भव निवृत्तिकाल, निवृत्तिक्षेत्र, निवत्तिद्रव्य और निवृत्तिभावका सेवन कीजिये। तीर्थंकर गौतम जैसे ज्ञानीपुरुषको भी सम्बोधन करते थे कि समयमात्र भी प्रमाद योग्य नही है।
प्रणाम।
४५५ बम्बई, प्रथम आषाढ वदी १३ मंगल, १९४९ अनुकूलता, प्रतिकूलताके कारणमे विपमता नही है। सत्सगके कामीजनको यह क्षेत्र विषम जैसा है। किसी किसी उपाधियोगका अनुक्रम हमे भी रहा करता है। इन दो कारणोकी विस्मृति करते हुए भी जिस घरमे रहना है उसकी कितनी ही प्रतिकूलता है, इसलिये अभी आप सब भाइयोका विचार कुछ स्थगित करने योग्य (जैसा) है।
४५६ वम्बई, प्रथम आषाढ वदी १४, बुध, १९४९ प्राय प्राणी आशासे जीते हैं। जैसे जैसे सज्ञा विशेप होती जाती है, वैसे वैसे विशेष आगाके वलसे जीना होता है। एक मात्र जहाँ आत्मविचार और आत्मज्ञानका उद्भव होता है, वहाँ सर्व प्रकारको आशाकी समाधि होकर जीवके स्वरूपसे जिया जाता है। जो कोई भी मनुष्य इच्छा करता है वह भविष्यमे उसकी प्राप्ति चाहता है, और उस प्राप्तिको इच्छारूप आशासे उसकी कल्पनाका जोना है, और वह
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श्रीमद् राजचन्द्र कल्पना प्राय कल्पना ही रहा करतो है । यदि जीवको वह कल्पना न हो और ज्ञान भी न हो तो उसकी दुखकारक भयकर स्थिति अकथनीय होना सम्भव है। सर्व प्रकारकी आशा, उसमे भी आत्माके सिवाय दूससे अन्य पदार्थोकी आशामे समावि किस प्रकारसे हो, यह कहे।
४५७ बम्बई, द्वि० आषाढ सुदी ६, बुध, १९४९ रखा कुछ रहता नही, और छोडा कुछ जाता नहीं, ऐसे परमार्थका विचारकर किसीके प्रति दीनता करना या विशेपता दिखाना योग्य नही है। समागममे दीनतासे नही आना चाहिये।
४५८ बम्बई, द्वि० आषाढ़ सुदो १२, मगल, १९४९ ___ अवालालके नामसे एक पत्र लिखा है, वह पहुँचा होगा। उसमे आज एक पत्र लिखनेका सूचन किया है। लगभग एक घटे तक विचार करते हुए कुछ सूझ न आनेसे पत्र नही लिखा जा सका सो क्षमा योग्य है।
उपाधिके कारणसे अभी यहां स्थिति सम्भव है। आप किन्ही भाइयोका प्रसग, इस तरफ अभी कुछ थोडे समयमे होना सम्भव हो तो सूचित कोजियेगा।
भक्तिपूर्वक प्रणाम।
४५९
बम्बई, द्वि० आषाढ वदी ६, १९४९ श्री कृष्णादिको क्रिया उदासीन जैसी थो। जिस जीवको सम्यक्त्व उत्पन्न हो, उसे सर्व प्रकारकी ससारी क्रियाएँ उसी समय न हो, ऐसा कोई नियम नही है । सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके बाद ससारी क्रियाओका रसरहितरूपसे होना सम्भव है। प्राय ऐसी कोई भी क्रिया उस जीवकी नही होती कि जिससे परमार्थके विपयमे भ्रान्ति हो, और जब तक परमार्थके विषयमे भ्रान्ति न हो तब तक दूसरी क्रियासे सम्यक्त्वको बाधा नही आती। इस जगतके लोग सर्पकी पूजा करते हैं, वे वस्तुतः पूज्यबुद्धिसे पूजा नहीं करते, परन्तु भयसे पूजा करते है, भावसे पूजा नही करते, और इष्टदेवकी पूजा लोग अत्यन्त भावसे करते हैं । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव इस ससारका सेवन करता हुआ दिखाई देता है, वह पूर्वकालमे निवधन किये हुए प्रारब्ध कर्मसे दिखाई देता है। वस्तुत भावसे इस ससारमे उसका प्रतिबन्ध संगत नही है, पूर्वकर्मके उदयरूप भयसे सगत होता है। जितने अशमे भावप्रतिबध न हो उतने अशमे ही सम्यग्दृष्टिपन उस जीवको होता है।
____ अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया और लोभका सम्यक्त्वके सिवाय जाना सम्भव नही है, ऐसा जो कहा जाता है, वह यथार्थ है। ससारी पदार्थोमे तीव्र स्नेहके बिना जीवको ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ नही होते कि जिस कारणसे उसे अनन्त ससारका अनुबध हो । जिस जीवको ससारी पदार्थाम तीन स्नेह रहता हो, उसे किसी प्रसगमे भी अनन्तानुवन्धी चतुष्कमेसे किसीका भी उदय होना सम्भव है, ओर जब तक उन पदार्थोंमे तोव स्नेह हो तब तक वह जीव अवश्य परमार्थमार्गी नही होता । परमार्थमार्गका लक्षण यह है कि अपरमार्थका सेवन करते हुए जीव सभी प्रकारसे सुख अथवा दुःखमे कायर हुआ करे । दु खमे कायरता कदाचित् दूसरे जीवोको भी हो सकती है, परन्तु ससारसुखकी प्राप्तिमे भी कायरता, उस सुखकी अरुचि, नीरसता परमार्यमार्गी पुरुषको होती है ।
वैमी नीरसता जीवको परमार्थज्ञानसे अथवा परमार्थज्ञानीपुरुषके निश्चयसे होना सभव है, दूसरे प्रकारसे होना सभव नही है । परमार्थज्ञानसे इस ससारको अपरमार्थरूप जानकर, फिर उसके प्रति तीव्र
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२६ वॉ वर्ष क्रोध, मान, माया या लोभ कौन करेगा ? अथवा कैसे होगा ? जिस वस्तुका माहात्म्य दृष्टिमेसे चला गया उस वस्तु के लिये अत्यत क्लेश नही होता । संसारमे भ्रातिसे जाना हुआ सुख परमार्थज्ञानसे भ्राति ही भासित होता है, ओर जिसे भ्राति भासित हुई है उसे फिर उसका माहात्म्य क्या लगेगा? ऐसी माहात्म्यदृष्टि परमार्थज्ञानी पुरुषके निश्चयवाले जीवको होती है, उसका कारण भी यही है । किसी ज्ञानके आवरण के कारण जीवको व्यवच्छेदक ज्ञान नही होता, तथापि उसे सामान्य ज्ञान ज्ञानीपुरुषकी श्रद्धारूप होता है । यही ज्ञान वडके बीजकी भाँति परमार्थ- बड़का वीज है ।
तीव्र परिणामसे, भवभयरहितरूपसे ज्ञानीपुरुष अथवा सम्यग्दृष्टि जीवको क्रोध, मान, माया या लोभ नही होता । जो ससारके लिये अनुबंध करता है, उसकी अपेक्षा परमार्थके नामसे, भ्रातिगत परिणामसे असद्गुरु, देव, धर्मका सेवन करता है, उस जीवको प्राय अनतानुवधी क्रोध, मान, माया, लोभ होते है, क्योकि ससारकी दूसरी क्रियाएँ प्राय अनत अनुबंध करनेवाली नही होती, मात्र अपरमार्थको परमार्थ मानकर जीव आग्रहसे उसका सेवन किया करे, यह परमार्थज्ञानी ऐसे पुरुषके प्रति, देवके प्रति, धर्मके प्रति निरादर है, ऐसा कहना प्राय यथार्थ है । वह सद्गुरु, देव, धर्मके प्रति असद्गुर्वादिकके आग्रहसे, मिथ्याबोधसे, आशातनासे, उपेक्षासे प्रवृत्ति करे, ऐसा संभव है । तथा उस कुसगसे उसकी ससारवासनाका परिच्छेद न होते हुए भी वह परिच्छेद मानकर परमार्थके प्रति उपेक्षक रहता है, यही अनतानुवधी क्रोध, मान, माया, लोभका आकार है ।
बबई, द्वि० आषाढ वदी १०, सोम, १९४९
भाई कुवरजी, श्री कलोल ।
शारीरिक वेदनाको देहका धर्म मानकर और बाँधे हुए कर्मोंका फल जानकर सम्यक् प्रकारसे सहन करना योग्य है । बहुत बार शारीरिक वेदना विशेष बलवती होती है, उस समय उत्तम जीवोको भी उपर्युक्त सम्यक्प्रकारसे स्थिर रहना कठिन होता है, तथापि हृदयमे वारवार उस वातका विचार करते हुए और आत्माको नित्य, अछेद्य, अभेद्य, जरा, मरणादि धर्मसे रहित भाते हुए, विचार करते हुए, कितने ही प्रकारसे उस सम्यक्प्रकारका निश्चय आता है । महान पुरुषो द्वारा सहन किये हुए उपसर्ग तथा परिपह के प्रसंगोकी जीवमे स्मृति करके, उसमे उनके रहे हुए अखड निश्चयको वारवार हृदयमे स्थिर करने योग्य जाननेसे जीवको वह सम्यक्परिणाम फलीभूत होता है, और वेदना, वेदनाके क्षयकालमे निवृत्त होनेपर, फिर वह वेदना किसी कर्मका कारण नही होती । व्याधिरहित शरीर हो, उस समयमे यदि जीवने उससे अपनी भिन्नता जानकर, उसका अनित्यादि स्वरूप जानकर, उसके प्रति मोह, ममत्वादिका त्याग किया हो, तो यह महान श्रेय है, तथापि ऐसा न हुआ हो तो किसी भी व्याधिके उत्पन्न होनेपर, वैसी भावना करते हुए जीवको प्राय- निश्चल कर्मवधन नही होता, और महाव्याधिके उत्पत्तिकालमे तो जीव देहके ममत्वका जरूर त्याग करके ज्ञानीपुरुषके मार्गकी विचारणाके अनुसार आचरण करे, यह सम्यक् उपाय हे । यद्यपि देहका वैसा ममत्व त्याग करना अथवा कम करना, यह महादुष्कर बात है, तथापि जिसका वैमा करनेका निश्चय है, वह कभी-न-कभी फलीभूत होता है ।
४६०
जब तक जीवको देहादिसे आत्मकल्याणका साधन करना रहा है, तब तक उम देहमे अपारिणामिक ममताका सेवन करना योग्य है, अर्थात् यदि इस देहका कोई उपचार करना पडे तो वह उपचार देहके ममतार्थ करनेकी इच्छासे नही, परन्तु उस देहसे ज्ञानीपुरुपके मार्गका आराधन हो सकता है, ऐसे किसी प्रकारसे उसमे रहे हुए लाभके लिये, और वैसी ही बुद्धिसे उस देहकी व्याधिके उपचार प्रवृत्ति करनेमे बाधा नही है । जो कुछ वह ममता है वह अपारिणामिक ममता है, इसलिये परिणाममे नमता
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श्रीमद् राजचन्द्र स्वरूप है, परन्तु उस देहके प्रियतार्थ, सासारिक साधनोमे प्रधान भोगका यह हेतु है, उसका त्याग करना पडता है, ऐसे आर्तध्यानसे किसी प्रकारसे भी उस देहमे बुद्धि न करना, ऐसी ज्ञानीपुरुषके मार्गकी शिक्षा जानकर वैसे प्रसगमे आत्मकल्याणका लक्ष्य रखना योग्य है।
सर्व प्रकारसे ज्ञानीकी शरणमे बुद्धि रखकर निर्भयताका, शोकरहितताका सेवन करनेकी शिक्षा श्री तीर्थंकर जैसोने दी है, और हम भी यही कहते है। किसी भी कारणसे इस ससारमे क्लेशित होना योग्य नही है । अविचार और अज्ञान ये सर्व क्लेशके, मोहके और अशुभ गतिके कारण है। सद्विचार और आत्मज्ञान आत्मगतिके कारण है। उसका प्रथम साक्षात् उपाय ज्ञानीपुरुषको आज्ञाका विचार करना यही प्रतीत होता है।
प्रणाम प्राप्त हो।
४६१ बबई, श्रावण सुदी ४, मगल, १९४९ परमस्नेही श्री सुभाग्य,
आपके प्रतापसे यहां कुशलता है । इस तरफ दगा उत्पन्न होने सम्बन्धी बात सच्ची है । हरीच्छासे और आपकी कृपासे यहाँ कुशलक्षेम है।
श्री गोसलियाको हमारा प्रणाम कहियेगा । ईश्वरेच्छा होगी तो श्रावण वदी १ के आसपास यहाँसे कुछ दिनोके लिये बाहर जानेका विचार आता है । कौनसे गाँव अथवा किस तरफ जाना, यह अभी कुछ सूझा नही है । काठियावाडमे आना सूझे, ऐसा भासित नहीं होता।
आपको एक बार उसके लिये अवकाशके बारेमे पूछवाया था। उसका यथायोग्य उत्तर नही आया। गोसलिया बाहर जानेका कम डर रखता हो और आपको निरुपाधि जैसा अवकाश हो, तो पांच-पद्रह दिन किसी क्षेत्रमे निवृत्तिवासका विचार होता है, वह ईश्वरेच्छासे करे ।
कोई जीव सामान्य मुमुक्षु होता है, उसका भी इस ससारके प्रसगमे प्रवृत्ति करनेका वोर्य मद पड जाता है, तो हमे उसके सम्बन्धमे अधिक मदता रहे, इसमे आश्चर्य नही लगता । तथापि किसी पूर्वकालमे प्रारब्ध उपार्जन होनेका एसा ही प्रकार होगा कि जिससे उस प्रसगमे प्रवृत्ति करना रहा करता है, परन्तु वह कैसा रहा करता है ? ऐसा रहा करता है कि जो खास ससार-सुखकी इच्छावाला हो, उसे भी वैसा करना न पुसाये । यद्यपि इस बातका खेद करना योग्य नही है, और उदासीनताका ही सेवन करते हैं, तथापि उस कारणसे एक दूसरा खेद उत्पन्न होता है, वह यह कि सत्संग और निवृत्तिकी अप्रधानता रहा करती है और जिसमे परम रुचि है, ऐसे आत्मज्ञान और आत्मवार्ताको किसी भी प्रकारको इच्छाके बिना क्वचित् त्याग जैसे रखने पड़ते है। आत्मज्ञान वेदक होनेसे उद्विग्न नही करता, परन्तु आत्मवार्ताका वियोग उद्विग्न करता है। आप भी चित्तमे इसी कारणसे उद्विग्न होते हैं। जिन्हे बहुतइच्छा है ऐसे कई मुमुक्षुभाई भी उस कारणसे विरहका अनुभव करते हैं। आप दोनो ईश्वरेच्छा क्या समझते है ? यह विचारियेगा । और यदि किसी प्रकारसे श्रावण वदीका योग हो तो वह भी कीजियेगा।
ससारकी ज्वाला देखकर चिंता न कीजियेगा। चिंतामे समता रहे तो वह आत्मचिंतन जैसा है। कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा । यही विनती।
प्रणाम ।
बम्बई, श्रावण सुदी ५, १९४९ जौहरी लोग ऐसा मानते है कि एक साधारण सुपारी जैसा सुन्दर रगका, पाणीदार और घाटदार माणिक (प्रत्यक्ष) दोषरहित हो तो उसकी करोडो रुपये कीमत गिनें तो भी वह कम है। यदि विचार कर
४६२
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२६ वॉ वर्ष
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तो इसमे मात्र आँखकी तृप्ति, और मनकी इच्छा तथा कल्पित मान्यताके सिवाय दूसरा कुछ नही है । तथापि इसमे केवल आँखकी तृप्तिरूप करामात के लिये और दुर्लभ प्राप्तिके कारण जीव उसका अद्भुत माहात्म्य बताते है, और जिसमे आत्मा स्थिर रहता है, ऐसा जो अनादि दुर्लभ सत्सगरूप साधन है, उसमे कुछ आग्रह - रुचि नही है, यह आश्चर्य विचारणीय है ।
बम्बई, श्रावण सुदी १५, रवि, १९४९
परमस्नेही श्री सोभाग,
यहाँ कुशलक्षेम है । यहाँसे अब थोडे दिनोमे मुक्त हुआ जाये तो ठीक, ऐसा मनमे रहता है । परन्तु कहाँ जाना यह अभी तक मनमे आ नही सका । आपका और गोसलिया आदिका आग्रह सायला की तरफ आनेमे रहता है, तो वैसा करनेमे कुछ दुख नही है, तथापि आत्माको यह बात अभी नही सूझती ।
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प्राय आत्मामे यही रहा करता है कि जब तक इस व्यापारप्रसगमे कामकाज करना रहा करे तब तक धर्म-कथादिके प्रसगमे और धर्मके जानकारके रूपमे किसी प्रकारसे प्रगटरूपमे न आया जाये, यह यथायोग्य प्रकार है । व्यापार - प्रसगमे रहते हुए भी जिसका भक्तिभाव रहा करता है, उसका प्रसग भी ऐसे प्रकारमे करना योग्य है कि जहाँ आत्मामे जो उपर्युक्त प्रकार रहा करता है, उस प्रकारको बाधा न हो ।
जिनेन्द्रके कहे हुए मेरु आदिके सम्बन्धमे तथा अग्रेजोकी कही हुई पृथिवी आदिके सम्बन्धमे समागम - प्रसगमे बातचीत करियेगा ।
हमारा मन बहुत उदास रहता है और प्रतिबन्ध इस प्रकारका रहता है कि उस उदासीको एकदम गुप्त जैसी करके असह्य ऐसे व्यापारादि प्रसगमे उपाधियोगका वेदन करना पड़ता है, यद्यपि वास्तविकरूपसे तो आत्मा समाधिप्रत्ययी है ।
लि०- प्रणाम ।
४६४
बम्बई, श्रावण वदी ४, बुध, १९४९
थोडे समयके लिये बम्बईमे प्रवृत्तिसे अवकाश लेनेका विचार सूझ आनेसे दो-एक जगह लिखने मे आया था, परन्तु यह विचार तो थोडे समयके लिये किसी निवृत्तिक्षेत्रमे स्थिति करनेका था । ववाणिया या काठियावाडकी तरफको स्थितिका नही था । अभी वह विचार निश्चित अवस्थामे नही आया है । प्राय इस पखवारेमे और गुजरातकी तरफके किसी एक निवृत्तिक्षेत्रके सम्बन्धमे विचार आना सम्भव है । विचारके व्यवस्थित हो जानेपर लिखकर सूचित करूँगा । यही विनती ।
सवको प्रणाम प्राप्त हो ।
बम्बई, श्रावण वदी ५, १९४९
४६५ జా
परमस्नेही श्री सोभाग,
यहाँ कुशलक्षेम समाधि है । थोडे दिनके लिये मुक्त होनेका जो विचार सूझा था, वह अभी उसी स्वरूपमे है । उससे विशेष परिणामको प्राप्त नही हुआ । अर्थात् कब यहाँसे छूटना और किस क्षेत्रमे जाकर स्थिति करना, यह विचार अभी तक सूझ नहीं सका । विचारके परिणामकी स्वाभाविक परिणति प्राय रहा करती है । उसे विशेषतासे पेरकता नही हो सकती ।
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श्रीमद् राजचन्द्र गत वर्ष मगसिर सुदी छठको यहाँ आना हुआ था, तबसे आज दिदसपर्यंत अनेक प्रकारके उपाधियोगका वेदन करना हुआ है और यदि भगवत्कृपा न हो तो इस कालमे वैसे उपाधियोगमे धडके ऊपर सिरका रहना कठिन हो जाये, ऐसा होते होते अनेक बार देखा है, और जिसने आत्मस्वरूप जाना है ऐसे पुरुषका और इस ससारका मेल न खाये, ऐसा अधिक निश्चय हुआ है । ज्ञानीपुरुष भी अत्यन्त निश्चयात्मक उपयोगसे वर्तन करते करते भी क्वचित् मद परिणामी हो जाये, ऐसी इस ससारकी रचना है । यद्यपि आत्मस्वरूप सम्बन्धी बोधका नाश तो नही होता, तथापि आत्मस्वरूपके बोधके विशेप परिणामके प्रति एक प्रकारका आवरण होनेरूप उपाधियोग होता है। हम तो उस उपाधियोगसे अभी त्रास पाते रहते है,
और उस उस योगमे हृदयमे और मुखमे मध्यमा वाचासे प्रभुका नाम रखकर मुश्किलसे कुछ प्रवृत्ति करके स्थिर रह सकते है। सम्यक्त्वमे अर्थात् वोधमे भ्राति प्राय नही होती, परन्तु वोधके विशेष परिणामका अनवकाश होता है, ऐसा तो स्पष्ट दिखायी देता है । और उससे आत्मा अनेक बार आकुलता-व्याकुलताको पाकर त्यागका सेवन करता था, तथापि उपार्जित कर्मको स्थितिका समपरिणामसे, अदीनतासे, अव्याकुलतासे वेदन करना, यही ज्ञानीपुरुषोका मार्ग है, और उसीका सेवन करना है, ऐसी स्मृति होकर स्थिरता रहती आयी है, अर्थात् आकुलादि भावकी होती हुई विशेष घबराहट समाप्त होती थी।
जब तक दिन भर निवृत्तिके योगमे समय न बीते तब तक सुख न रहे, ऐसी हमारी स्थिति है। "आत्मा आत्मा," उसका विचार, ज्ञानीपुरुषकी स्मृति, उनके माहात्म्यको कथावार्ता, उनके प्रति अत्यन्त भक्ति, उनके अनवकाश आत्मचारित्रके प्रति मोह, यह हमे अभी आकर्षित किया करता है, और उस कालकी हम रटन किया करते है।
पूर्वकालमे जो जो ज्ञानीपुरुपके प्रसग व्यतीत हुए है उस कालको धन्य है, उस क्षेत्रको अत्यन्त धन्य है, उस श्रवणको, श्रवणके कर्ताको, और उसमे भक्तिभाववाले जीवोको त्रिकाल दडवत् है । उस आत्मस्वरूपमे भक्ति, चिन्तन, आत्मव्याख्याता ज्ञानीपुरुषकी वाणी अथवा ज्ञानीके शास्त्र या मार्गानुसारी ज्ञानीपुरुपके सिद्धात, उसकी अपूर्वताको अतिभक्तिसे प्रणाम करते है। अखड आत्मधुनके एकतार प्रवाहपूर्वक वह बात हमे अद्यापि भजनेकी अत्यन्त आतुरता रहा करती है, और दूसरी ओरसे ऐसे क्षेत्र, ऐसा लाकप्रवाह, ऐसा उपाधियोग और दूसरे दूसरे वैसे वैसे प्रकार देखकर विचार मूर्छावत् होता है। ईश्वरेच्छा।
प्रणाम प्राप्त हो। पेटलाद, भादो सुदी ६, १९४९
१ जिससे धर्म मांगे, उसने धर्म प्राप्त किया है या नही उसकी पूर्ण चौकसी करे, इस वाक्यका स्थिर चित्तसे विचार करे।
२ जिससे धर्म माँगे, वैसे पूर्ण ज्ञानीको पहचान जीवको हुई हो, तो वैसे ज्ञानियोका सत्सग करे और सत्सग हो, उसे पूर्ण पुण्योदय समझे। उस सत्संगमे वैसे परमज्ञानीके द्वारा उपदिष्ट शिक्षाबोधको ग्रहण करे कि जिससे कदाग्रह, मतमतातर, विश्वासघात और असत् वचन इत्यादिका तिरस्कार हो, अर्थात् उन्हे ग्रहण नही करे। मतका आग्रह छोड़ दे। आत्माका धर्म आत्मामे है। आत्मत्वप्राप्तपुरुषके द्वारा उपदिष्ट धर्म आत्मतामार्गरूप होता है। बाकीके मार्गके मतमे नही पडे । .
३ इतना होनेपर भी यदि जीवसे सत्संग होनेके बाद कदाग्रह, मतमतातरादि दोष छोड़े न जा सकते हो तो फिर उसे छूटनेकी आशा नही करनी चाहिये ।
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२६ वा वर्ष
३८९ हम स्वय किसीको आदेशबात अर्थात् 'ऐसा करना' यो नही कहते । वारवार पूछे तो भी यह स्मृतिमे होता है । हमारे सगमे आये हुए कई जीवोको अभी तक हमने ऐसा बताया नहीं है कि ऐसे वर्तन करें या ऐसा करें। मात्र शिक्षाबोधके रूपमे बताया होगा।
४ हमारा उदय ऐसा है कि ऐसी उपदेशबात करते हुए वाणी पीछे खिंच जाती है। साधारण प्रश्न पूछे तो उसमे वाणी प्रकाश करती है, और ऐसी उपदेशवातमे तो वाणी पीछे खिंच जाती है, इससे हम ऐसा जानते हैं कि अभी वैसा उदय नही है ।
५ पूर्वकालमे हुए अनन्त ज्ञानी यद्यपि महाज्ञानी हो गये हैं, परन्तु उससे जीवका कुछ दोष नही जाता, अर्थात् इस समय जीवमे मान हो तो पूर्वकालमे हुए ज्ञानी कहने नही आयेंगे, परन्तु हाल जो प्रत्यक्ष ज्ञानी विराजमान हो वे हो दोषको बतलाकर निकलवा सकते है। जैसे दूरके क्षीरसमुद्रसे यहाँके तृषातुरकी तृषा शात नही होती, परन्तु एक मीठे पानीका कलश यहाँ हो तो उससे तृपा शात होती है।
६ जीव अपनी कल्पनासे मान लें कि ध्यानसे कल्याण होत है या समाधिसे या योगसे या ऐसे ऐसे प्रकारसे, परन्तु उससे जीवका कुछ कल्याण नही होता। जीवका कल्याण होना तो ज्ञानीपुरुपके लक्ष्यमे होता है, और उसे परम सत्सगसे समझा जा सकता है, इसलिये वैसे विकल्प करना छोड देना चाहिये ।।
७ जीवको मुख्यमे मुख्य इस बातपर विशेष ध्यान देना योग्य है कि सत्सग हुआ हो तो सत्सगमे सुना हुआ शिक्षाबोध परिणत होकर जीवमे उत्पन्न हुए कदाग्रहादि दोप तो सहजमे ही छूट जाने चाहिये, कि जिससे दूसरे जीवोको सत्सगका अवर्णवाद बोलनेका मौका न मिले ।
८ ज्ञानीपुरुषोने कहना बाकी नही रखा, परन्तु जोवने करना बाकी रखा है। ऐसा योगानुयोग किसी समय ही उदयमे आता है। वैसी वाछासे रहित महात्माकी भक्ति तो सर्वथा कल्याणकारक ही सिद्ध होती है, परन्तु किसी समय महात्माके प्रति वैसी वाछा हुई और वैसी प्रवृत्ति हो चुकी, तो भी वही वाछा यदि असत्पुरुषके प्रति की हो और जो फल होता है उसको अपेक्षा इसका फल भिन्न होना सभव है। सत्पुरुषके प्रति वैसे कालमे यदि नि शकता रही हो, तो समय आनेपर उनके पाससे सन्मार्गकी प्राप्ति हो सकती है। एक प्रकारसे हमे स्वय इसके लिये बहुत शोक रहता था, परन्तु उसके कल्याणका विचार करके शोकका विस्मरण किया है ।।
९ मन, वचन, कायाके योगमेसे जिसे केवलीस्वरूप भाव होनेसे अहभाव मिट गया है, ऐसे जो ज्ञानीपुरुष, उसके परम उपशमरूप चरणारविंदको नमस्कार करके, नारवार उसका चिन्तन करके आप उसी मार्गमे प्रवृत्तिकी इच्छा करते रहे, ऐसा उपदेश देकर यह पत्र पूरा करता हूँ।
विपरीत कालमे एकाकी होनेसे उदास ।।।
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खभात, भादो, १९४९
अनादिकालसे विपर्यय बुद्धि होनेसे, और ज्ञानीपुरुषकी कितनी ही चेष्टाएँ अज्ञानीपुरुष जैसी दिखायी देनेसे ज्ञानोपुरुषके विषयमे विभ्रम बुद्धि हो आतो है, अथवा जीवको ज्ञानीपुरुषके प्रति उस उस
चेष्टाका विकल्प आया करता है। यदि दूसरो दृष्टियोसे ज्ञानोपुरुषका यथार्य निश्चय हुआ हो तो किमी विकल्पको उत्पन्न करनेवालो ऐमो ज्ञानीको उन्मत्तादि भाववाली चेष्टा प्रत्यक्ष देखनेमे आये तो भी दूसरी दृष्टिके निश्चयके वलके कारण वह चेष्टा अविकल्परूप होती है, अथवा ज्ञानीपुष्पकी चेष्टाकी कोई
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श्रीमद् राजचन्द्र
अगम्यता ही ऐसी हे कि अधूरी अवस्थासे अथवा अधूरे निश्चयसे जीवके लिये विभ्रम और विकल्पका कारण होती है। परन्तु वास्तविक रूपमे तथा पूरा निश्चय होनेपर वह विभ्रम और विकल्प उत्पन्न होने योग्य नहीं है, इसलिये इस जीवको ज्ञानीपुरुपके प्रति अपूरा निश्चय है, यही इस जीवका दोष है।
ज्ञानीपुरुष सभी प्रकारसे चेप्टारूपसे अज्ञानीपुरुपके समान नही होते, और यदि हो तो फिर ज्ञानी नही हे ऐसा निश्चय करना वह यथार्थ कारण है; तथापि ज्ञानी और अज्ञानी पुरुपमे किन्ही ऐसे विलक्षण कारणोका भेद है, कि जिससे ज्ञानो और अज्ञानोका किसी प्रकारसे एक रूप नही होता । अज्ञानी होनेपर भी जो जोव अपनेको ज्ञानीस्वरूप मनवाता हो, वह उस विलक्षणताके द्वारा निश्चयमे आता है। इसलिये ज्ञानीपुरुपको जो विलक्षणता है, उसका निश्चय प्रथम विचारणीय हे, और यदि वैसे विलक्षण कारणका स्वरूप जानकर ज्ञानीका निश्चय होता है तो फिर अज्ञानी जैसी क्वचित जो जो चेष्टा ज्ञानीपुरुपकी देखनेमे आतो है, उसके विपयमे निर्विकल्पता प्राप्त होती है, अर्थात् विकल्प नहीं होता, प्रत्युत ज्ञानोपुरुपकी वह चेष्टा उसके लिये विशेष भक्ति और स्नेहका कारण होती है।
__ प्रत्येक जीव अर्थात् ज्ञानो, अज्ञानी यदि सभी अवस्थाओमे सरीखे ही हो तो फिर ज्ञानी और अज्ञानो यह नाम मात्र होता है, परन्तु वैसा होना योग्य नही हे । ज्ञानोपुरुप और अज्ञानोपुरुपमे अवश्य विलक्षणता होना योग्य है। जो विलक्षणता यथार्थ निश्चय हानेपर जीवको समझनेमे आती है, जिसका कुछ स्वरूप यहाँ बता देना योग्य है। मुमुक्षुजोवको ज्ञानीपुरुप और अज्ञानीपुरुषको विलक्षणता उनकी अर्थात् ज्ञानो और अज्ञानी पुरुषको दशा द्वारा समझमे आती है। उस दशाकी विलक्षणता जिस प्रकारसे होती है, वह बताने योग्य है। एक तो मलदशा और दूसरो उत्तरदशा, ऐसे दो भाग जोवको दशाक हा सकते हैं।
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बवई, भाद्रपद, १९४९ अज्ञानदशा रहती हो और जीवने भ्रमादि कारणसे उस दशाको ज्ञानदशा मान लिया हो, तव दहको उस उस प्रकारके दुख होनेके प्रसगोमे अथवा वैसे अन्य कारणोमे जीव देहकी साताका सेवन करनेकी इच्छा करता है, और वैसा वर्तन करता है। सच्ची ज्ञानदशा हो तो उसे देहकी दुखप्राप्तिके कारणोमे विपमता नही होती, और उस दुखको दूर करनेको इतनी अधिक परवा भी नही होती ।
बबई, भादो वदी ३०, १९४९ जैसी दृष्टि इस आत्माके प्रति है, वैसो दृष्टि जगतके सर्व आत्माओंके प्रति है। जैसा स्नेह इस आत्माके प्रति है, वैसा स्नेह सर्व आत्माओके प्रति है। जैसी इस आत्माकी सहजानन्द स्थिति चाहते हैं, वैसी ही सर्व आत्माओकी चाहते है। जो जो इस आत्माके लिये चाहते है, वह सब सर्व आत्माओके लिये चाहते हैं । जैसा इस देहके प्रति भाव रखते है, वैसा ही सर्व देहोके प्रति भाव रखते है। जैसा सर्व देहोके प्रति बर्ताव करनेका प्रकार रखते हैं, वैसा ही प्रकार इस देहके प्रति रहता है । इस देहमे विशेष बुद्धि और दूसरी देहोमे विषम बुद्धि प्राय कभी भी नही हो सकती। जिन स्त्री आदिका आत्मीयतासे सम्बन्ध गिना जाता है, उन स्त्री आदिके प्रति जो कुछ स्नेहादिक है, अथवा समता है, वैसा ही प्राय सर्वके प्रति रहता है । आत्मरूपताके कार्यमे मात्र प्रवृत्ति होनेसे जगतके सर्व पदार्थोके प्रति जैसी उदासीनता रहती है, वैसी आत्मीय गिने जानेवाले स्त्री आदि पदार्थोके प्रति रहती है।
प्रारब्धके प्रवधसे स्त्री आदिके प्रति जो कुछ उदय हो उससे विशेष वर्तना प्रायः आत्मासे नही होती। कदाचित् करुणांसे कुछ वेसो विशेष वर्तना होती हो तो वैसी उसी क्षणमे वैसे उदयप्रतिबद्ध
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२६ वॉ वर्ष ३९१ आत्माओके प्रति रहतो है, अथवा सर्व जगतके प्रति रहती है। किसीके प्रति कुछ विशेष नही करना अथवा न्यून नही करना, और यदि करना हो तो वैसा एकसा वर्तन सर्व जगत के प्रति करना, ऐसा ज्ञान आत्माको बहुत समय से दृढ है, निश्चयरूप है । किसी स्थलमे न्यूनता, विशेषता, अथवा कुछ वैसी सम-विषम चेष्टासे वर्तन दीखता हो तो जरूर वह आत्मस्थितिसे, आत्मबुद्धिसे नही होता, ऐसा लगता है । पूर्वप्रबन्धित प्रारब्धके योगसे कुछ वैसा उदयभावरूपसे होता हो तो उसमे भी समता है । किसीके प्रति न्यूनता या अधिकता कुछ भी आत्माको रुचिकर नही है, वहां फिर अन्य अवस्थाका विकल्प होना योग्य नही है, यह आपको क्या कहे ? संक्षेपमे लिखा है ।
सबसे अभिन्नभावना है, जिसकी जितनी योग्यता रहती है, उसके प्रति अभिन्नभावकी उतनी स्फूर्ति होती है, क्वचित् करुणावुद्धिसे विशेष स्फूर्ति होती है, परन्तु विषमता से अथवा विपय, परिग्रहादि कारणप्रत्ययसे उसके प्रति वर्तन करनेका आत्मामे कोई सकल्प प्रतीत नही होता । अविकल्परूप स्थिति है । विशेष क्या कहूँ ? हमे कुछ हमारा नही है, या दूसरेका नही है या दूसरा नही है, जैसे है वैसे है । आत्माकी जैसी स्थिति है, वैसी स्थिति है । सर्व प्रकारकी वर्तना निष्कपटतासे उदयकी है, सम-विषमता नही है । सहजानन्द स्थिति है । जहाँ वैसे हो वहाँ अन्य पदार्थमे आसक्त बुद्धि योग्य नही, नही होती । 1000
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बबई, आसोज सुदी १, मगल, १९४९ 'ज्ञानीपुरुषके प्रति अभिन्नवृद्धि हो, यह कल्याणका महान निश्चय है', ऐसा सर्व महात्मा पुरुषका अभिप्राय प्रतीत होता है । आप तथा वे, जिनकी देह अभी अन्य वेदसे रहती है, आप दोनो ही ज्ञानीपुरुपके प्रति जिस प्रकार विशेष निर्मलतासे अभिन्नता आये उस प्रकारकी बात प्रसंगोपात्त करें, यह योग्य है, और परस्परमे अर्थात् उनके और आपके बीच निर्मल प्रेम रहे वैसी प्रवृत्ति करनेमे बाधा नही है, परन्तु वह प्रेम जात्यन्तर होना योग्य है । जैसा स्त्री पुरुषका कामादि कारणसे प्रेम होता है, वैसा प्रेम नही, परन्तु ज्ञानीपुरुपके प्रति दोनोका भक्तिराग है, ऐसा दोनोका एक ही गुरुके प्रति शिष्यभाव देखकर, और निरन्तरका सत्सग रहा करता है यह जानकर, भाई जैसी बुद्धिसे, वैसे प्रेमसे रहा जाये, यह बात विशेष योग्य है | ज्ञानीपुरुपके प्रति भिन्नभावको सर्वथा दूर करना योग्य है ।
श्रीमद्भागवतके बदले अभी योगवासिष्ठादि पढना योग्य है ।
इस पत्रका जो अर्थ आपकी समझमे आये वह लिखिये ।
४७१
ववई, आसोज सुदी ५, शनि, १९४९ आत्माको समाधि होनेके लिये, आत्मस्वरूपमे स्थितिके लिये सुधारस कि जो मुखमे रहता है, वह एक अपूर्व आधार है, इसलिये उसे किसी प्रकारसे वीजज्ञान कहें तो कोई हानि नही है । मात्र इतना भेद है कि वह ज्ञान, ज्ञानीपुरुष कि जो उससे आगे है, आत्मा है, ऐसा जानकार होना चाहिये ।
द्रव्यसे द्रव्य नही मिलता, इसे जाननेवालेको कोई कर्तव्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु वह कव ? स्वद्रव्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे यथावस्थित समझमे आनेपर स्वद्रव्य स्वरूपपरिणाम से परिणमित होकर अन्य द्रव्यके प्रति सर्वथा उदास होकर, कृतकृत्य होनेपर कुछ कर्तव्य नही रहता, ऐसा योग्य है, और ऐसा ही है ।
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३९२
परमस्नेही श्री सुभाग्य तथा श्री डुगर,
श्रीमद् राजचन्द्र
४७२
श्री सायला ।
आज श्री सुभाग्यका लिखा हुआ एक पत्र मिला है ।
वम्बई, आसोज सुदी ९, बुध, १९४२
खुले पत्रमे' सुधारस सम्बन्धी प्रायः स्पष्ट लिखा था, सो जानबूझकर लिखा था। ऐसा लिखनेसे विपरिणाम आनेवाला नही है, यह समझकर लिखा था । यदि कुछ कुछ इस बातके चचंक जीवके पढनेमे यह बात आये तो केवल उससे निर्धार हो जाये, यह सभव नही है, परन्तु यह संभव है कि जिस पुरुपने ये वाक्य लिखे हैं, वह पुरुष किसी अपूर्व मार्गका ज्ञाता है, और उससे इस बातका निराकरण होना मुख्यतः सभव है, ऐसा जानकर उसकी उसके प्रति कुछ भी भावना उत्पन्न होती है । कदाचित् ऐसा मानें कि उसे इस विषयको कुछ कुछ सज्ञा हुई हो, और यह स्पष्ट लेख पढनेसे उसे विशेष सज्ञा होकर अपने आप वह निर्धारपर आ जाये, परन्तु यह निर्धार ऐसे नही होता । उससे उसका यथार्थं स्थल जानना नही हो सकता, और इस कारणसे जीवको विक्षेपकी उत्पत्ति होती है । कि यह बात किसी प्रकारसे जाननेमे आये तो अच्छा । तो उस प्रकारसे भी जिस पुरुषने लिखा है उसके प्रति उसे भावनाकी उत्पत्ति होना संभव है ।
तीसरा प्रकार इस तरह समझना योग्य है कि सत्पुरुपकी वाणी स्पष्टतासे लिखी गयी हो तो भी उसका परमार्थं, जिसे सत्पुरुपका सत्सग आज्ञाकारितासे नही हुआ उसे समझमे आना दुष्कर होता है, ऐसे उस पढनेवाले को कभी भी स्पष्ट जाननेका कारण होता है । यद्यपि हमने तो अति स्पष्ट नही लिखा था, तो भी उन्हे ऐसा कुछ सभव होता है । परन्तु हम तो ऐसा मानते हैं कि अति स्पष्ट लिखा हो तो भी प्राय समझमे नही आता, अथवा विपरीत समझमे आता है और परिणाममे फिर उसे विक्षेप उत्पन्न होकर सन्मार्गमे भावना होना सभव होता है । यह बात पत्रमे हमने इच्छापूर्वक स्पष्ट लिखी थी ।
सहज स्वभावसे भी न विचार किया हुआ प्राय. परमार्थके सम्बन्ध मे नही लिखा जाता, अथवा नही कहा जाता कि जो अपरमार्थरूप परिणामको प्राप्त करे ।
उस ज्ञानके विपयमे लिखनेका जो हमारा दूसरा आशय है, उसे विशेषतासे यहाँ लिखा है । (१) जिस ज्ञानी पुरुषने स्पष्ट आत्माका, किसी अपूर्व लक्षणसे, गुणसे और वेदनरूपसे अनुभव किया है, और जिसके आत्माका वही परिणाम हुआ है, उस ज्ञानीपुरुपने यदि उस सुधारस सम्बन्धी ज्ञान दिया हो तो उसका परिणाम परमार्थं-परमार्थस्वरूप है । ( २ ) और जो पुरुष उस सुधारसको ही आत्मा जानता है, उससे उस ज्ञानकी प्राप्ति हुई हो तो वह व्यवहार- परमार्थस्वरूप है । (३) वह ज्ञान कदाचित् परमार्थ- परमार्थस्वरूप ज्ञानीने न दिया हो, परन्तु उस ज्ञानीपुरुषने सन्मार्गके सन्मुख आकर्षित करे ऐसा जो जीवको उपदेश किया हो वह जीवको रुचिकर लगा हो, उसका ज्ञान परमार्थ-व्यवहारस्वरूप है । (४) और इसके सिवाय शास्त्रादिका ज्ञाता सामान्य प्रकारसे मार्गानुसारी जैसी उपदेशवात करे, उसकी श्रद्धा की जाय, वह व्यवहार व्यवहारस्वरूप है । सुगमता से समझने के लिये ये चार प्रकार होते हैं । परमार्थ- परमार्थस्वरूप मोक्षका निकट उपाय है। इसके अनतर परमार्थ-व्यवहारस्वरूप परपरासम्बन्धसे मोक्षका उपाय हे । व्यवहार परमार्थस्वरूप बहुत कालमे किसी प्रकारसे भी मोक्षके साधनका कारणभूत होनेका उपाय है। व्यवहार-व्यवहारस्वरूपका फल आत्मप्रत्ययी सभव नही होता । यह बात फिर किसी प्रसगसे विशेषरूपसे लिखेंगे, तत्र विशेषरूपसे समझमे आयेगी, परन्तु इतनी सक्षेपतासे विशेष समझमे न आये तो घबराइयेगा नही ।
१ देखें आक ४७१
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२६ याँ वर्ष
३९३
लक्षणसे, गुणसे और वेदनसे जिसे आत्मस्वरूप ज्ञात हुआ है, उसके लिये ध्यानका यह एक उपाय हे कि जिससे आत्मप्रदेशकी स्थिरता होती है, और परिणाम भी स्थिर होता है । लक्षणसे, गुणसे ओर वेदनसे जिसने आत्मस्वरूप नही जाना, ऐसे मुमुक्षुको यदि ज्ञानीपुरुषका बताया हुआ यह ज्ञान हो तो उसे अनुक्रमसे लक्षणादिका बोच सुगमतासे होता है। मुखरस और उसका उत्पत्तिक्षेत्र यह कोई अपूर्व कारणरूप है, यह आप निश्चयरूपसे समझिये। ज्ञानीपुरुषके उसके बादके मार्गका अनादर न हो, ऐसा आपको प्रसग मिला है । इसलिये आपको वैसा निश्चय रखनेका कहा है। यदि उसके बादके मार्गका अनादर होता हो
और तद्विषयक किसीको अपूर्व कारणरूपसे निश्चय हुआ हो तो, किसी प्रकारसे उस निश्चयको बदलना ही उपायरूप हाता है, एसा हमार आत्माम लक्ष्य रहता है।
., . , ... ........ कोई अज्ञानतासे पवनकी स्थिरता करता है. परन्तु श्वासोच्छ्वासके निरोधसे उसे कल्याणका हेतु नही होता, और कोई ज्ञानीकी आज्ञापूर्वक श्वासोच्छ्वासका निरोध करता है, तो उसे उस कारणसे जो स्थिरता आती हे वह आत्माको प्रगट करनेका हेतु होती है। श्वासोच्छ्वासकी स्थिरता होना, यह एक प्रकारसे बहुत कठिन बात है। उसका सुगम उपाय मुखरस एकतार करनेसे होता है, इसलिये वह विशेप स्थिरताका साधन है । परन्तु यह सुधारस-स्थिरता अज्ञानतासे फलीभूत नही होती अर्थात् कल्याणरूप नही होती, इसी तरह उस बीजज्ञानका ध्यान भी अज्ञानतासे कल्याणरूप नही होता, इतना विशेष निश्चय हमे भासित हुआ करता है। जिसने वेदनरूपसे आत्माको जाना है, उस ज्ञानीपुरुषकी आज्ञासे वह कल्याणरूप होता है, और आत्माके प्रगट होनेका अत्यन्त सुगम उपाय होता है।
एक दूसरी अपूर्व बात भी यहाँ लिखनी सूझती है । आत्मा है वह चन्दनवृक्ष है। उसके समीप जो-जो वस्तुएँ विशेषतासे रहती है वे वे वस्तुएँ उसकी सुगन्ध (1) का विशेष बोध करती हैं। जो वृक्ष चन्दनसे विशेष समीप होता है उस वृक्षमे चन्दनकी गध विशेषरूपसे स्फुरित होती है। जैसे जैसे दूरके वृक्ष होते हैं वैसे वैसे सुगव मद परिणामवाली होती जाती है, और अमुक मर्यादाके पश्चात् असुगवरूप वृक्षोका वन आता है, अर्थात् फिर चन्दन उस सुगव परिणामको नही करता। वेसे जब तक यह आत्मा विभाव परिणामका सेवन करता है, तब तक उसे हम चन्दनवृक्ष कहते हैं, और सबसे उसका अमुक अमुक सूक्ष्म वस्तुका सम्बन्ध है, उसमे उसकी छाया (1) रूप सुगन्ध विशेप पडती है, जिसका ध्यान ज्ञानीकी आज्ञासे होनेसे आत्मा प्रगट होता है। पवनकी अपेक्षा भी सुधारसमे आत्मा विशेष समीप रहता है, इसलिये उस आत्माकी विशेप छाया-सुगन्ध (I) का ध्यान करने योग्य उपाय है । यह भी विशेषरूपसे समझने योग्य है ।
प्रणाम पहुंचे।
४७३
बम्बई, आसोज वदी ३, १९४९
परमस्नेही श्री सुभाग्य,
श्री मोरवी। आज एक पत्र पहुंचा है।
इतना तो हम बराबर ध्यान है कि व्याकुलताके समयमे प्रायः चित्त कुछ व्यापारादिका एकके पोछे एक विचार किया करता है, और व्याकुलता दूर करनेकी जल्दीमे, योग्य होता है या नहीं, इसकी सहज सावधानी कदाचित् मुमुक्षुजीवको भी कम हो जाती है, परन्तु योग्य बात तो यह है कि वैसे प्रसगमे कुछ थोडा समय चाहे जैसे करके कामकाजमे मौन जैसा, निर्विकल्प जैसा कर डालना।
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३९२
श्रीमद् राजचन्द्र ४७२
बम्बई, आसोज सुदी ९, वुध, १९४९ परमस्नेही श्री सुभाग्य तथा श्री डुगर,
श्री सायला। आज श्री सुभाग्यका लिखा हुआ एक पत्र मिला है।
खले पत्रमे सुधारस सम्बन्धी प्राय स्पष्ट लिखा था, सो जानबूझकर लिखा था। ऐसा लिखनेसे विपरिणाम आनेवाला नही है, यह समझकर लिखा था। यदि कुछ कुछ इस बातके चर्चक जीवके पढनेमे यह बात आये तो केवल उससे निर्धार हो जाये, यह सभव नही है, परन्तु यह संभव है कि जिस पुरुषने ये वाक्य लिखे है, वह पुरुष किसी अपूर्व मार्गका ज्ञाता है, और उससे इस बातका निराकरण होना मुख्यत. सभव है, ऐसा जानकर उसकी उसके प्रति कुछ भी भावना उत्पन्न होती है। कदाचित् ऐसा मानें कि उसे इस विषयको कुछ कुछ सज्ञा हुई हो, और यह स्पष्ट लेख पढनेसे उसे विशेष सज्ञा होकर अपने आप वह निर्धारपर आ जाये, परन्तु यह निर्धार ऐसे नही होता। उससे उसका यथार्थ स्थल जानना नही हो सकता, और इस कारणसे जीवको विक्षेपकी उत्पत्ति होती है । कि यह बात किसी प्रकारसे जाननेमे आये तो अच्छा । तो उस प्रकारसे भी जिस पुरुषने लिखा है उसके प्रति उसे भावनाकी उत्पत्ति होना सभव है।
तीसरा प्रकार इस तरह समझना योग्य है कि सत्पुरुषकी वाणी स्पष्टतासे लिखी गयी हो तो भी उसका परमार्थ, जिसे सत्पुरुषका सत्सग आज्ञाकारितासे नही हुआ उसे समझमे आना दुष्कर होता है, ऐसे उस पढनेवालेको कभी भी स्पष्ट जाननेका कारण होता है। यद्यपि हमने तो अति स्पष्ट नही लिखा था, तो भी उन्हे ऐसा कुछ सभव होता है । परन्तु हम तो ऐसा मानते हैं कि अति स्पष्ट लिखा हो तो भी प्रायः समझमे नही आता, अथवा विपरीत समझमे आता है और परिणाममे फिर उसे विक्षेप उत्पन्न होकर सन्मार्गमे भावना होना सभव होता है। यह बात पत्रमे हमने इच्छापूर्वक स्पष्ट लिखी थी।
सहज स्वभावसे भी न विचार किया हुआ प्राय. परमार्थके सम्बन्धमे नही लिखा जाता, अथवा नही कहा जाता कि जो अपरमार्थरूप परिणामको प्राप्त करे ।
उस ज्ञानके विपयमे लिखनेका जो हमारा दूसरा आशय है, उसे विशेषतासे यहाँ लिखा है। (१) जिस ज्ञानीपुरुषने स्पष्ट आत्माका, किसी अपूर्व लक्षणसे, गुणसे और वेदनरूपसे अनुभव किया है, और जिसके आत्माका वही परिणाम हुआ है, उस ज्ञानीपुरुपने यदि उस सुधारस सम्बन्धी ज्ञान दिया हो तो उसका परिणाम परमार्थ-परमार्थस्वरूप है। (२) और जो पुरुष उस सुधारसको ही आत्मा जानता है, उससे उस ज्ञानकी प्राप्ति हुई हो तो वह व्यवहार-परमार्थस्वरूप है। (३) वह ज्ञान कदाचित् परमार्थ-परमार्थस्वरूप ज्ञानीने न दिया हो, परन्तु उस ज्ञानीपुरुषने सन्मार्गके सन्मुख आकर्षित करे ऐसा जो जीवको उपदेश किया हो वह जीवको रुचिकर लगा हो, उसका ज्ञान परमार्थ-व्यवहारस्वरूप है। (४) और इसके सिवाय शास्त्रादिका ज्ञाता सामान्य प्रकारसे मार्गानुसारी जैसी उपदेशबात करे, उसकी श्रद्धा की जाय, वह व्यवहार व्यवहारस्वरूप है। सुगमतासे समझनेके लिये ये चार प्रकार होते हैं। परमार्थ-परमार्थस्वरूप मोक्षका निकट उपाय है। इसके अनतर परमार्थ-व्यवहारस्वरूप परपरासम्बन्धसे मोक्षका उपाय हे । व्यवहार-परमार्थस्वरूप बहुत कालमे किसी प्रकारसे भी मोक्षके साधनका कारणभूत होनेका उपाय है । व्यवहार-व्यवहारस्वरूपका फल आत्मप्रत्ययी सभव नही होता। यह वात फिर किसी प्रसगसे विशेषरूपसे लिखेगे, तब विशेपल्पसे समझमे आयेगी, परन्तु इतनो सक्षेपतासे विशेष समझमे न आये तो घबराइयेगा नही। १ देखें आक ४७१
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२६ वाँ वर्ष
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लक्षणसे, गुणसे और वेदनसे जिसे आत्मस्वरूप ज्ञात हुआ है, उसके लिये ध्यानका यह एक उपाय हे कि जिससे आत्मप्रदेशकी स्थिरता होती है, और परिणाम भी स्थिर होता है । लक्षणसे, गुणसे और वेदनसे जिसने आत्मस्वरूप नही जाना, ऐसे मुमुक्षुको यदि ज्ञानीपुरुपका बताया हुआ यह ज्ञान हो तो उसे अनुक्रमसे लक्षणादिका बोध सुगमतासे होता है। मुखरस और उसका उत्पत्तिक्षेत्र यह कोई अपूर्व कारणरूप है, यह आप निश्चयरूपसे समझिये। ज्ञानीपुरुषके उसके बादके मार्गका अनादर न हो, ऐसा आपको प्रसग मिला है । इसलिये आपको वैसा निश्चय रखनेका कहा है। यदि उसके बादके मार्गका अनादर होता हो और तद्विपयक किसीको अपूर्व कारणरूपसे निश्चय हुआ हो, तो किसी प्रकारसे उस निश्चयुको बदलना ही उपायरूप होता है, ऐसा हमारे आत्मामे लक्ष्य रहता है।
कोई अज्ञानतासे पवनकी स्थिरता करता है, परन्तु श्वासोच्छ्वासके निरोधसे उसे कल्याणका हेतु नही होता, और कोई ज्ञानीकी आज्ञापूर्वक श्वासोच्छ्वासका निरोध करता है, तो उसे उस कारणसे जो स्थिरता आती है वह आत्माको प्रगट करनेका हेतु होती है। श्वासोच्छ्वासकी स्थिरता होना, यह एक प्रकारसे बहुत कठिन वात है। उसका सुगम उपाय मुखरस एकतार करनेसे होता है, इसलिये वह विशेप स्थिरताका साधन है । परन्तु यह सुधारस-स्थिरता अज्ञानतासे फलीभूत नही होती अर्थात् कल्याणरूप नही होती; इसी तरह उस बीजज्ञानका ध्यान भी अज्ञानतासे कल्याणरूप नही होता, इतना विशेप निश्चय हमे भासित हुआ करता है। जिसने वेदनरूपसे आत्माको जाना है, उस ज्ञानीपुरुषको आज्ञासे वह कल्याणरूप होता है, और आत्माके प्रगट होनेका अत्यन्त सुगम उपाय होता है।
एक दूसरी अपूर्व वात भी यहाँ लिखनी सूझती है । आत्मा है वह चन्दनवृक्ष है । उसके समीप जो-जो वस्तुएँ विशेषतासे रहती है वे वे वस्तुएँ उसकी सुगन्ध (1) का विशेष बोध करती हैं। जो वृक्ष चन्दनसे विशेष समीप होता है उस वृक्षमे चन्दनकी गंध विशेषरूपसे स्फुरित होती है। जैसे जैसे दूरके वृक्ष होते है वैसे वैसे सुगव मद परिणामवाली होती जाती है, और अमुक मर्यादाके पश्चात् असुगधरूप वृक्षोका वन आता है, अर्थात् फिर चन्दन उस सुगध परिणामको नही करता। वैसे जब तक यह आत्मा विभाव परि. णामका सेवन करता है, तब तक उसे हम चन्दनवृक्ष कहते हैं, और सबसे उसका अमुक अमुक सूक्ष्म वस्तुका सम्बन्ध है, उसमे उसकी छाया (1) रूप सुगन्ध विशेप पडती है, जिसका ध्यान ज्ञानीकी आज्ञासे होनेसे आत्मा प्रगट होता है । पवनकी अपेक्षा भी सुधारसमे आत्मा विशेप समीप रहता है, इसलिये उस आत्माकी विशेष छाया-सुगन्ध (1) का ध्यान करने योग्य उपाय है। यह भी विशेषरूपसे समझने योग्य हे ।
प्रणाम पहुंचे।
४७३
वम्बई, आसोज वदी ३, १९४९
3
परमस्नेही श्री सुभाग्य,
श्री मोरवी। आज एक पन पहुंचा है।
इतना तो हमे बरावर ध्यान है कि व्याकुलताके समयमे प्राय चित्त कुछ व्यापारादिका एकके पोछे एक विचार किया करता है, और व्याकुलता दूर करनेकी जल्दीमे, योग्य होता है या नहीं, इसकी सहज सावधानी कदाचित् मुमुक्षुजीवको भी कम हो जातो है, परन्तु योग्य वात तो यह है कि वैसे प्रसगमे कुछ थोड़ा समय चाहे जैसे करके कामकाजमे मौन जैसा, निर्विकल्प जैसा कर डालना।
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३९४
श्रीमद राजचन्द्र
__अभी आपको जो व्याकुलता रहती है वह ज्ञात है, परतु उसे सहन किये बिना उपाय नही है । ऐस लगता है कि उसे बहुत लम्बे कालको स्थितिको समझ लेना योग्य नहीं है, और यदि वह धीरजके बिना सहन करनेमे आती है, तो वह अल्प कालकी हो तो भी कभी विशेष कालकी भी हो जाती है । इसलिये अभी तो यथासभव 'ईश्वरेच्छा' और 'यथायोग्य' समझकर मौन रहना योग्य है । मौनका अर्थ ऐसा करना कि अतरमे अमुक अमुक व्यापार करनेके सम्बन्धमे विकल्प, उताप न किया करना।
अभी तो उदयके अनुसार प्रवृत्ति करना सुगम मार्ग है। दोहा ध्यानमे है। ससारी प्रसगमे एक हमारे सिवाय दूसरे सत्संगीके प्रसगमे कम आना हो, ऐसी इच्छा इस कालमे रखने जैसी है। विशेष आपका पत्र आनेसे । यह पत्र व्यावहारिक पद्धतिमे लिखा है, तथापि विचार करने योग्य है । बोधज्ञान ध्यानमे है।
प्रणाम प्राप्त हो।
४७४
बवई, आसोज वदी, १९४९
'आतमभावना भावतां, जीव लहे केवलज्ञान रे।
४७५ बंबई, आसोज वदी १२, रवि, १९४९ आपके दो पत्र 'समयसार'के कवित्तसहित मिले हैं। निराकार-साकार-चेतना विषयक कवित्तका 'मुखरस'से कुछ संबध किया जा सके, ऐसे अर्थवाला नहीं है, जिसे फिर बतायेंगे।
"शुद्धता विचारै ध्यावे, शुद्धतामे केलि करै।
शुद्धतामे स्थिर है, अमृतधारा बरसै ॥" इस कवित्तमे 'सुधारस' का जो माहात्म्य कहा है, वह केवल एक विस्रसा (सर्व प्रकारके अन्य परिणामसे रहित असंख्यातप्रदेशी आत्मद्रव्य) परिणामसे स्वरूपस्थ ऐसे अमृतरूप आत्माका वर्णन है। उसका यथार्थ परमार्थ हृदयगत रखा है, जो अनुक्रमसे समझमे आयेगा।
४७६
बबई, आश्विन, १९४९ जो ईश्वरेच्छा होगी वह होगा। मनुष्यके लिये तो मात्र प्रयत्ल करना सृष्ट है, और इसीसे जो अपने प्रारब्धमे होगा वह मिल जायेगा । इसलिये मनमे सकल्प-विकल्प नही करना ।
निष्काम यथायोग्य ।
१. अर्थात् आत्मभावना भाते भाते जीव केवलज्ञान पा लेता है ।।
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२७ वाँ वर्ष
४७७ बम्बई, कार्तिक सुदी ९, शुक्र, १९५० 'सिरपर राजा हे,' इतने वाक्यके ऊहापोह ( विचार ) से गर्भश्रीमत श्री शालिभद्रने उस समयसे स्त्री आदिके परिचयके त्याग करनेका श्रीगणेश कर दिया।
'प्रति दिन एक एक स्त्रीका त्याग करके अनुक्रमसे बत्तीस स्त्रियोका त्याग करना चाहते है. इस प्रकार श्री शालिभद्र बत्तीस दिन तक कालपारधीका विश्वास करते है, यह महान आश्चर्य है। ऐसे स्वाभाविक वैराग्यवचन श्री धनाभद्रके मुखसे उद्भवको प्राप्त हुए।
'आप जो ऐसा कहते है, यद्यपि वह मुझे मान्य है, तथापि आपके लिये भी उस प्रकारसे त्याग करना दुष्कर है, ऐसे सहज वचन शालिभद्रकी बहन और धनाभद्रकी पत्नीने धनाभद्रसे कहे । जिसे सुनकर चित्तमे किसी प्रकारका क्लेशपरिणाम लाये विना श्री धनाभद्रने उसी क्षण ससारका त्याग कर दिया और श्री शालिभद्रसे कहा कि 'आप किस विचारसे कालका विश्वास करते हैं ?" उसे सुनकर, जिसका चित्त आत्मरूप है ऐमा वह शालिभद्र और धनाभद्र 'मानो किसो दिन कुछ अपना किया ही नही', इस प्रकारसे गृहादिका त्याग करके चले गये।
ऐसे सत्पुरुषके वैराग्यको सुनकर भी यह जीव बहुत वर्षोंके अभ्याससे कालका विश्वास करता आया है, वह कौनसे बलमे करता होगा? यह विचारकर देखने योग्य है ।
४७८
बबई, कार्तिक सुदी १३, १९५० उपाधिके योगसे उदयाधोनरूपसे वाह्य चित्तकी क्वचित् अव्यवस्थाके कारण आप मुमुक्षुओके प्रति जैसा वर्तन करना चाहिये वैसा वर्तन हम नही कर सकते । यह क्षमा योग्य है, अवश्य क्षमा योग्य है।
यही नम्न विनती।
आ० स्व० प्रणाम।
४७९ बदई, मगसिर सुदी ३, सोम, १९५० वाणीका सयम श्रेयरूप है, तथापि व्यवहारका सम्बन्ध इस प्रकारका रहता है, कि सर्वथा वैसा सयम रखें तो प्रसगमे आनेवाले जीवोके लिये वह क्लेशका हेतु हो, इसलिये बहुत करके सप्रयोजन सिवायमे सयम रखा जाये, तो उसका परिणाम किसी प्रकारसे श्रेयरूप होना सम्भव है।
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३९६
श्रीमद् राजचन्द्र नीचेका वचन आपके पास लिखे हुए वचनोमे लिख दीजियेगा।
"जीवकी मूढताका पुन पुन , क्षण क्षणमे, प्रसग प्रसगपर विचार करनेमे यदि सावधानी न रख गई तो ऐसा योग जो हुआ ह भी वृथा ह।" ।
कृष्णदासादि मुमुक्षुओको नमस्कार ।
४८०
बबई, पौष सुदी ५, १९५० किसी भी जीवको कुछ भी परिश्रम देना, यह अपराध है। और उसमे मुमुक्षुजीवको उसके अर्थके सिवाय परिश्रम देना, यह अवश्य अपराध है, ऐसा हमारे चित्तका स्वभाव रहता है। तथापि परिश्रमका हेतु ऐसे कामका प्रसग क्वचित् आपको बतानेका होता है, जिस विषयके प्रसगमे हमारे प्रति आपकी नि शकता है, तथापि आपको वैसे प्रसगमे क्वचित् परिश्रमका कारण हो, यह हमारे चित्तमे सहन नही होता, तो भी प्रवृत्ति करते हैं । यह अपराध क्षमा योग्य है, और हमारी ऐसी किसी प्रवृत्तिके प्रति क्वचित् भी अस्नेह न हो, इतना ध्यान भी रखा गोग्य है।
____ साथका पत्र श्री रेवाशंकरका है, वह हमारी प्रेरणासे लिखा गया है। जिस प्रकारसे किसीका मन दुखी न हो उस प्रकारसे वह कार्य करनेकी जरूरत है, और तत्सम्बन्धी प्रसगमे कुछ भो चित्तव्याकुलता न हो, इतना ध्यान रखना योग्य है।
४८१
पौष वदी १, मगल, १९५०
आज यह पत्र लिखनेका हेतु यह है कि हमारे चित्तमे विशेष खेद रहता है। खेदका कारण यह व्यवहाररूप प्रारब्ध रहता है, वह किसी प्रकारसे है, कि जिसके कारण मुमुक्षुजीवको क्वचित् वैसा परिश्रम देनेका प्रसग आता है। और वैसा परिश्रम देते हुए हमारी चित्तवृत्ति सकोचवश होती-होती प्रारब्धक उदयसे रहती है । तथापि तद्विषयक सस्कारित खेद कई बार स्फुरित होता रहता है।
कभी कभी वैसे प्रसगसे हमने लिखा हो अथवा श्री रेवाशंकरने हमारी अनुमतिसे लिखा हो तो वह कोई व्यावहारिक दृष्टिका कार्य नही है, कि जो चित्तकी आकुलता करनेके प्रति प्रेरित किया गया हो, ऐसा निश्चय स्मरणयोग्य है।
४८२
बबई, पौष वदी १४, रवि, १९५० अभी विशेषरूपसे लिखनेका नही होता, इसमे उपाधिकी अपेक्षा चित्तका सक्षेपभाव विशेष कारणरूप है । (चित्तका इच्छारूपमें कुछ प्रवर्तन होना सक्षिप्त हो, न्यून हो वह सक्षेपभाव यहाँ लिखा है।) हमने ऐसा वेदन किया है, कि जहाँ कुछ भी प्रमत्तदशा होती है वहाँ आत्मामे जगतप्रत्ययो कामका अवकाश होना योग्य है। जहाँ केवल अप्रमत्तता रहती है वहाँ आत्माके सिवाय अन्य किसी भी भावका अवकाश नहीं रहता, यद्यपि तीर्थकरादिक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेनेके पश्चात् किसी प्रकारको देहक्रियासहित दिखायी देते हैं, तथापि आत्मा, इस क्रियाका अवकाश प्राप्त करे तभी कर सके, ऐसी कोई क्रिया उस ज्ञानक पश्चात् नही हो सकती, और तभी वहाँ सम्पूर्ण ज्ञान टिकता है, ऐसा ज्ञानीपुरुषोका असदिग्ध निधार है। ऐसा हमे लगता है। जैसे ज्वरादि रोगमे चित्तको कोई स्नेह नही होता वैसे इन भावोमे भी स्नेह नहा रहता, लगभग स्पष्टरूपसे नही रहता, और उस प्रतिबंधके अभावका विचार हुआ करता है।
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२७ वॉ वर्ष
३९७ ४८३ मोहमयी, माघ वदी ४, शुक्र, १९५० परमस्नेही श्री सोभाग, श्री अजार ।
आपके पत्र पहुँचे हैं। उसके साथ जो प्रश्नोकी सूची उतारकर भेजी है वह पहुँची है । उन प्रश्नोमे जो विचार प्रदर्शित किये हैं, वे प्रथम विचारभूमिकामे विचारणीय है। जिस पुरुषने वह ग्रन्थ बनाया है, उसने वेदातादि शास्त्रके अमुक ग्रथके अवलोकनके आधार पर वे प्रश्न लिखे है। अत्यन्त आश्चर्य योग्य वार्ता इसमे नही लिखी। इन प्रश्नोका तथा इस प्रकारके विचारोका बहुत समय पहले विचार किया था,
और ऐसे विचारोकी विचारणा करनेके सम्बन्धमे आपको तथा गोसलियाको सूचित किया था। तथा दूसरे वैसे मुमुक्षुको वैसे विचारोके अवलोकन करनेके विपयमे कहा था, अथवा कहनेकी इच्छा हो आती है कि जिन विचारोकी विचारणासे अनुक्रमसे सद्-असद्का पूरा विवेक हो सके।
अभी सात-आठ दिन हुए शारीरिक स्थिति ज्वरग्रस्त थी, अब दो दिनसे ठीक है।
कविता भेजी, सो मिली है। उसमे आलापिकाके भेदके रूपमे अपना नाम बताया है और कविता करनेमे जो कुछ विचक्षणता चाहिये उसे बतानेका विचार रखा है। कविता ठीक है। कविताका आराधन कविताके लिये करना योग्य नहीं है, ससारके लिये आराधन करना योग्य नहीं है, भगवद्भजनके लिये, आत्मकल्याणके लिये यदि उसका प्रयोजन हो तो जीवको उस गुणकी क्षयोपशमताका फल मिलता है। जिस विद्यासे उपशम गुण प्रगट नही हुआ, विवेक नही आया अथवा समाधि नही हुई उस विद्याके विषयमे श्रेष्ठ जीवको आग्रह करना योग्य नहीं है।
हालमे अब प्राय मोतीकी खरीद बन्द रखी है । जो विलायतमे हैं उनको अनुक्रमसे वेचनेका विचार रखा है । यदि यह प्रसग न होता तो उस प्रसगमे उत्पन्न होनेवाला जजाल और उसका उपशमन नही होता । अब वह स्वसवेद्यरूपसे अनुभवमे आया है। वह भी एक प्रकारके प्रारब्ध निवर्तनरूप है । सविस्तर ज्ञानवार्ताका अब पत्र लिखेंगे, तो बहुत करके उसका उत्तर लिखूगा।
लि० आत्मस्वरूप।
४८४
मोहमयी, माघ वदी ८ गुरु, १९५० परमस्नेही श्री सोभाग, श्री अजार ।
यहाँके उपाधिप्रसगमे कुछ विशेष सहनशीलतासे रहना पड़े, ऐसी ऋतु होनेसे आत्मामे गुणकी विशेष स्पष्टता रहती है। प्राय अवसे यदि हो सके तो नियमितरूपसे कुछ सत्सगको बात लिखियेगा।
आ० स्व० से पणाम।
४८५
ववई, फागुन सुदी ४, रवि, १९५०
परमस्नेही श्री सुभाग्य, श्री अजार |
अभी वहाँ उपाधिके अवकाशसे कुछ पढने आदिका प्रकार होता हो, वह लिखियेगा। ___ अभी डेढसे दो मास हुए उपाधिके प्रसगमे विशेष विशेपरूपसे ससारके स्वरूपका वेदन किया गया हे । यद्यपि पूर्वकालमे ऐसे अनेक प्रसगोका वेदन किया है, तथापि प्राय ज्ञानपूर्वक वेदन नही किया। इस देहमे और इससे पहलेकी बोधवीजहेतुपाली देहमे होनेवाला वेदन मोक्षकार्यमे उपयोगी है।
बड़ौदावाले माफुभाई यहां है । प्रवृत्तिमे उनका साथ रहने और कार्य करनेका हुआ करता है,
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३९८
ऐसे इस प्रसगके वेदन करनेका उन्हे भी प्रकाशन उन्हे हो तो सत्सग सफल हो ऐसे
श्रीमद राजचन्द्र
अवसर मिला है । वैराग्यवान जीव है । यदि प्रज्ञाका विशेष योग्य जीव हैं ।
"
वारवार तग आ जाते हैं, तथापि प्रारब्धयोगसे उपाधिसे दूर नही हो सकते । यही विज्ञापना । सविस्तर पत्र लिखियेगा |
४८६
तीर्थंकरदेव प्रमादको कर्म कहते हैं, और अप्रमादको उससे स्वरूप कहते है । ऐसे भेदके प्रकारसे अज्ञानी और ज्ञानीका स्वरूप है, (कहा है ।)
आत्मस्वरूपसे प्रणाम ।
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बंबई, फागुन सुदी ११, रवि, १९५० दूसरा अर्थात् अंकर्मरूप ऐसा आत्म
[सूयगडागसूत्र वीर्य अध्ययन] '
जिस कुलमे जन्म हुआ है, और जिसके सहवासमे जीव रहा है, उसमे यह अज्ञानी जीव ममता करता है, और उसीमे निमग्न रहा करता है ।
J
[सूयगडाग - प्रथमाध्ययन] २
जो ज्ञानीपुरुष भूतकालमे हो गये हैं, और जो ज्ञानीपुरुष भावीकालमे होगे, उन सब पुरुषोने ‘शाति’ (समस्त विभावपरिणामसे थकना, निवृत्त होना) को सर्व धर्मोका आधार कहा है । जैसे भूतमात्रको पृथ्वी आधारभूत है, अर्थात् प्राणीमात्र पृथ्वीके आधारसे स्थितिवाले है, उसका आधार उन्हे प्रथम होना योग्य है; वैसे सर्व प्रकारके कल्याणका आधार, पृथिवीकी भाँति 'शांति' को ज्ञानीपुरुषोने कहा है। [सूयगडाग]3
बबई, फागुन सुदी ११, रवि, १९५०
४८७ ॐ
बुधवारको एक पत्र लिखेंगे, नही तो रविवारको सविस्तर पत्र लिखेंगे, ऐसा लिखा था । उसे लिखते समय चित्तमे ऐसा था कि आप मुमुक्षुओको कुछ नियम जैसी स्वस्थता होना योग्य है, और उस विषय मे कुछ लिखना सूझे तो लिखूँ, ऐसा चित्तमे आया था । लिखते हुए ऐसा हुआ कि जो कुछ लिखनेमे आता है उसे सत्युग प्रसगमे विस्तारसे कहना योग्य है, और वह कुछ फलरूप होने योग्य है । जितना सविस्तर लिखनेसे आप समझ सकें उतना लिखना अभी हो सके, ऐसा यह व्यवसाय नही है, और जो व्यवसाय है वह प्रारव्वरूप होनेसे तदनुसार प्रवृत्ति होती है, अर्थात् उसमे विशेष बलपूर्वक लिख सकना मुश्किल है । इसलिये उसे क्रमसे लिखनेका चित्त रहता है ।
इतनी बातका निश्चय रखना योग्य है कि ज्ञानीपुरुपको भी प्रारब्धकर्म भोगे विना निवृत्त नही होते, और विना भोगे निवृत्त होनेकी ज्ञानी को कोई इच्छा नही होती । ज्ञानीके सिवाय दूसरे जीवोको भी
१ पाय कम्ममासु, अप्पमाय तहावर । तव्भावदेसभवावि, वाल पडियमेय वा ॥
सू० कृ० १ श्र० ८ अ० तीसरी गाथा । २ जेस्सि कुले समुप्पन्ने जेहि वा सवसे नरे । ममाइ लुप्पइ वाले, अण्णे अण्णेहि मुन्टिए । सू० कृ० १ श्रु० १ अ० चोथी गाथा ।
३. जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया । सति तेसि पइट्ठाण, भूयाण जगती जहा ॥
सू० कृ० १ श्रु० ११ अ० ३६वी गाथा |
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२७ वां वर्ष
कितने ही कर्म है कि जो भोगनेपर ही निवृत्त होते है, अर्थात् वे प्रारब्ध जैसे होते है। तथापि भेद इतना है कि ज्ञानीको प्रवृत्ति मात्र पूर्वोपार्जित कारणसे होती है, और दूसरोकी प्रवृत्तिमे भावी ससारका हेतु है, इसलिये ज्ञानीका प्रारब्ध भिन्न होता है। इस प्रारब्धका ऐसा निर्धार नही है कि वह निवृत्तिरूपसे ही उदयमे आये । जैसे श्री कृष्णादिक ज्ञानीपुरुष, कि जिन्हे प्रवृत्तिरूप प्रारब्ध होनेपर भी ज्ञानदशा थी, जैसे गृहस्थावस्थामे श्री तीर्थंकर । इस प्रारब्धका निवृत्त होना केवल भोगनेसे ही सभव है। कितनी हो प्रारब्धस्थिति ऐसी है कि जो ज्ञानीपुरुषके विषयमे उसके स्वरूपके लिये जीवोको सदेहका हेतु हो, और इसीलिये ज्ञानीपुरुप प्रायः जडमौनदशा रखकर अपने ज्ञानित्वको अस्पष्ट रखते हैं। तथापि प्रारब्धवशात् वह दशा किसीके - स्पष्ट जाननेमे आये, तो फिर उसे उस ज्ञानीपुरुषका विचित्र प्रारब्ध सदेहका कारण नही होता।
४८८
बबई, फागुन वदी १०, शनि, १९५० श्री 'शिक्षापत्र' ग्रन्थको पढ़ने ओर विचारनेमे अभी कोई बाधा नही है। जहाँ किसी सदेहका हेतु हो वहाँ विचार करना, अथवा समाधान पूछना योग्य हो तो पूछनेमे प्रतिबध नहीं है।
सुदर्शन सेठ, पुरुषधर्ममे थे, तथापि रानीके समागममे वे अविकल थे। अत्यन्त आत्मबलसे कामका उपशमन करनेसे कामेद्रियमे अजागृति हो सम्भव है, और उस समय रानीने कदाचित् उनकी देहका ससर्ग करनेकी इच्छा की होती, तो भी श्री सुदर्शनमे कामको जागृति देखनेमे न आती, ऐसा हमे लगता है।
४८९
वबई, फागुन वदी ११, रवि, १९५० 'शिक्षापत्र' ग्रन्थमे मुख्य भक्तिका प्रयोजन है। भक्तिके आधाररूप विवेक, धैर्य और आश्रय इन तीन गुणोकी उसमे विशेष पुष्टि की है। उस धैर्य और आश्रयका प्रतिपादन विशेष सम्यक् प्रकारसे किया है, जिन्हे विचारकर मुमुक्षुजीवको उन्हे स्वगुण करना योग्य है। इसमे श्री कृष्णादिके जो जो प्रसग आते है वे क्वचित् सन्देहके हेतु होने जैसे है, तथापि उनमे श्री कृष्णके स्वरूपकी समझफेर मानकर उपेक्षित रहना योग्य है । मुमुक्षुका प्रयोजन तो केवल हितबुद्धिसे पढने-विचारनेका होता है।
४९० बंबई, फागुन वदो ११, रवि, १९५० ___ उपाधि दूर करनेके लिये दो प्रकारसे पुरुषार्थ हो सकता है, एक तो किसी भी व्यापारादि कार्यसे, और दूसरे विद्या. मत्रादि साधनसे । यद्यपि इन दोनोमे पहिले जीवके अतरायके दूर होनेका सम्भव होना चाहिये । पहिला बताया हुआ प्रकार किसी तरह हो तो उसे करनेमे अभी हमे कोई प्रतिवन्ध नहीं है, परन्तु दूसरे प्रकारमे तो केवल उदासीनता ही है, और यह प्रकार स्मरणमे आनेसे भी चित्तमे खेद हो आता है, ऐसी उस प्रकारके प्रति अनिच्छा है । पहिले प्रकारके मम्बन्धमे अभी कुछ लिखना नही सूझता। भविष्यमे लिखना या नही वह, उस प्रसगमे जो होने योग्य होगा वह होगा।
जितनी आकुलता है उतना मार्गका विरोध है, ऐसा ज्ञानीपुरुष कह गये हैं, जो बात हमारे लिये अवश्य विचारणीय है।
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श्रीमद राजचन्द्र
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बबई, फागुन, १९५०
तीर्थंकर वारवार नीचे कहा हुआ उपदेश करते थे___"हे जीवो | आप समझें, सम्यक्प्रकारसे समझे। मनुष्यभव मिलना बहुत दुर्लभ है, और चारो गतियोमे भय है, ऐसा जानें । अज्ञानसे सद्विवेक पाना दुर्लभ है, ऐसा समझें। सारा लोक एकात दु खसे जल रहा है, ऐसा जाने, और 'सब जीव' अपने अपने कर्मोसे विपर्यासताका अनुभव करते है, इसका विचार करे ।"
[ सूयगडाग अध्ययन ७ वां, ११ ] जिसका सर्व दु खसे मुक्त होने होनेका अभिप्राय हुआ हो, वह पुरुष आत्माकी गवेषणा करे, और आत्माकी गवेषणा करनी हो, वह यम नियमादिक सर्व साधनोका आग्रह अप्रधान करके सत्सगकी गवेषणा करे, तथा उपासना करे । सत्सगको उपासना करनी हो वह ससारकी उपासना करनेके आत्मभावका सर्वथा त्याग करे । अपने सर्व अभिप्रायका त्याग करके, अपनी सर्व शक्तिसे उस सत्संगकी आज्ञाकी उपासना करे । तीर्थंकर ऐसा कहते है कि जो कोई उस आज्ञाको उपासना करता है, वह अवश्य सत्सगकी उपासना करता है। इस प्रकार जो सत्सगकी उपासना करता है, वह अवश्य आत्माकी उपासना करता है, और आत्माका उपासक सर्व दु खसे मुक्त होता है।
[ द्वादशागीका अखड सूत्र ] पहले जो अभिप्राय प्रदर्शित किया है वह गाथा सूयगडागमे निम्नलिखित है -
संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं दटुं, भयं बालिसेणं अलंभो।
एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सक्कम्मणा विप्परियासुवेई ॥ सर्व प्रकारकी उपाधि, आधि, व्याधिसे मुक्तरूपसे रहते हो तो भी सत्सगमे रही हुई भक्ति दूर होना हमे दुष्कर प्रतीत होता है। सत्सगकी सर्वोत्तम अपूर्वता हमे अहोरात्र रहा करती है, तथापि उदययोग प्रारब्धसे ऐसा अतराय रहता है। प्राय किसी बातका खेद "हमारे" आत्मामे उत्पन्न नही होता, तथापि मत्सगके अतरायका खेद प्राय. अहोरात्र रहा करता है। 'सर्व भूमि, सर्व मनुष्य, सर्व काम, सर्व बातचीतादि प्रसग अपरिचित जैसे, एक्दम पराये उदासीन जैसे, अरमणीय, अमोहकर और रसरहित स्वभावत भासित होते है ।' मात्र ज्ञानी पुरुष मुमुक्षु पुरुष, अथवा मार्गानुसारी पुरुषका सत्सग परिचित, अपना, प्रीतिकर, सुदर, आकर्षक और रसस्वरूप भासित होता है। ऐसा होनेसे हमारा मन प्राय अप्रतिबद्धताका सेवन करते करते आप जैसे मागेंच्छावान पुरुषोमे प्रतिबद्धताको प्राप्त होता है।
४९२
बबई, फागुन, १९५० मुमुक्षुजनके परम हितैषी मुमुक्षु पुरुष श्री सोभाग,
यहाँ समाधि है। उपाधियोगसे आप कुछ आत्मवार्ता नही लिख सकते हो, ऐसा मानते है ।
हमारे चित्तमे तो ऐसा आता है कि इस कालमे मुमुक्षुजीवको ससारकी प्रतिकूल दशाएँ प्राप्त होना, यह उसे ससारसे तरनेके समान है। अनतकालसे अभ्यस्त इस ससारका स्पष्ट विचार करनेका समय प्रतिकूल प्रसगमे विशेष होता है, यह बात निश्चय करने योग्य है।
अभी कुछ सत्सगयोग मिलता है क्या? यह अथवा कोई “अपूर्व प्रश्न उद्भव होता है क्या ? यह लिखनेमे नही आता, सो लिखियेगा। आपको ऐसा एक साधारण प्रतिकूल प्रसग हुआ है, उसमे घबराना योग्य नहीं है । यदि इस प्रसगका समतासे वेदन किया जाये तो जीवके लिये निर्वाणके समीपका साधन है ।
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पावहारिक प्रसगोकी नित्य चित्रविचित्रता है । मात्र कल्पनासे उनमे सुख और कल्पनासे दु ख ऐसी उनकी स्थति है । अनुकूल कल्पनासे वे अनुकूल भासित होते है, प्रतिकूल कल्पनासे वे प्रतिकूल भासित होते है, र ज्ञानी पुरुषोने उन दोनो कल्पनाओके करनेका निषेध किया है। और आपको वे करनी योग्य नही । विचारवानको शोक योग्य नहीं है ऐसा श्री तीर्थकर कहते थे।
४९३
बबई, फागुन, १९५० अनन्य शरणके दाता ऐसे श्री सद्गुरुदेवको अत्यत भक्तिसे नमस्कार जो शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए है, ऐसे ज्ञानीपुरुषोने नीचे कहे हुए छ पदोको सम्यग्दर्शनके नवासके सर्वोत्कृष्ट स्थानक कहे है
प्रथम पद-'आत्मा है।' जैसे घटपटादि पदार्थ हैं, वैसे आत्मा भी है। अमुक गुण होनेके कारण से घटपटादिके होनेका प्रमाण है, वैसे स्वपरप्रकाशक चैतन्यसत्ताका प्रत्यक्ष गुण जिसमे है, ऐसा आत्माके नेका प्रमाण है।
दूसरा पद-'आत्मा नित्य है।' घटपटादि पदार्थ अमुक कालवर्ती है। आत्मा त्रिकालवर्ती है । |टपटादि सयोगजन्य पदार्थ है। आत्मा स्वाभाविक पदार्थ है, क्योकि उसकी उत्पत्तिके लिये कोई भी योग अनुभव योग्य नही होते । किसी भी सयोगी द्रव्यसे चेतनसत्ता प्रगट होने याग्य नहीं है, इसलिये अनुत्पन्न है । असयोगी होनेसे अविनाशी है, क्योकि जिसकी उत्पत्ति किसी सयोगसे नही होती, उसका कसीमे लय भी नही होता।
तीसरा पद-'आत्मा कर्ता है।' सर्व पदार्थ अर्थक्रियासम्पन्न है। किसी न किसी परिणाम-क्रियासहित ही सर्व पदार्थ देखनेमे आते है। आत्मा भी क्रियासपन्न है। क्रियासस्पन्न है. इसलिये कर्ता है । वो जिनने उस कर्तृत्वका विविध विवेचन किया है-परमार्थसे स्वभावपरिणति द्वारा आत्मा निजस्वरूपका कर्ता है। अनुपचरित (अनुभवमे आने योग्य, विशेष सम्बन्धसहित) व्यवहारसे यह आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता है । उपचारसे घर, नगर आदिका कर्ता है।
चौथा पद-'आत्मा भोक्ता है। जो जो कुछ क्रियाएँ हैं वे सब सफल है, निरर्थक नही । जो कुछ भी किया जाता है उसका फल भोगनेमे आता है, ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव है। जैसे विप खानेसे विषका फल, मसरी खानेसे मिसरीका फल, अग्निस्पर्शसे अग्निस्पर्शका फल, हिमका स्पर्श करनेसे हिमस्पर्शका फल हए विना नही रहता, वैसे कषायादि अथवा अकषायादि जिस किसी भी परिणामसे आत्मा प्रवृत्ति करता है -उसका फल भी होने योग्य ही है, और वह होता है। उस क्रियाका कर्ता होनेसे आत्मा भोक्ता है।
पाँचवाँ पद-'मोक्ष पद है।' जिस अनुपचरित व्यवहारसे जीवके कर्मके कर्तृत्वका निरूपण किया, कर्तृत्व होनेसे भोक्तृत्वका निरूपण किया, उस कर्मकी निवृत्ति भी है, क्योकि प्रत्यक्ष कपायादिकी तीव्रता हो, परतु उसके अनभ्याससे, उसके अपरिचयसे, उसका उपशम करनेसे उसकी मदता दिखायी देती है, वह क्षीण होने योग्य दोखता है, क्षीण हो सकता है । वह बधभाव क्षीण हो सकने योग्य होनेसे, उससे रहित जो शुद्ध आत्मस्वभाव है, वही मोक्षपद है।
छठा पद-'उस मोक्षका उपाय है।' यदि कभी ऐसा हो हो कि कर्मवध मात्र हआ करे तो उसकी निवृत्ति किसी कालमे सम्भव नहीं है, परतु कर्मवधसे विपरीत स्वभाववाले ज्ञान, दर्शन, समाधि, वैराग्य, भक्ति आदि साधन प्रत्यक्ष है, जिन साधनोके बलसे कर्मवध शिथिल होता है, उपशान्त होता है, क्षीण होता है । इसलिये वे ज्ञान, दर्शन, सयम आदि मोक्षपदके उपाय है।
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श्रीमद् राजचन्द्र श्री ज्ञानीपुरुषो द्वारा सम्यकदर्शनके मुख्य निवासभूत कहे हुए इन छ पदोको यहाँ संक्षेपमे वताया हैं । समीपमुक्तिगामी जीवको सहज विचारमे ये सप्रमाण होने योग्य हैं, परम निश्चयरूप प्रतीत होने योग्य हैं, उसका सर्व विभागसे विस्तार होकर उसके आत्मामे विवेक होने योग्य है। ये छ पद अत्यंत सन्देहरहित है, ऐसा परमपुरुषने निरूपण किया है। इन छ पदोका विवेक जीवको स्वस्वरूप समझनेके लिये कहा है । अनादि स्वप्नदशाके कारण उत्पन्न हुए जीवके अहभाव, ममत्व भावके निवृत्त होनेके लिये ज्ञानीपुरुषोने इन छः पदोकी देशना प्रकाशित की है। उस स्वप्नदशासे रहित मात्र अपना स्वरूप है, ऐसा यदि जीव परिणाम करे, तो वह सहजमात्रमे जागृत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है; सम्यग्दर्शनको प्राप्त होकर स्वस्वभावरूप मोक्षको प्राप्त होता है। किसी विनाशी, अशुद्ध और अन्य ऐसे भावमे उसे हर्प, शोक, संयोग उत्पन्न नहीं होता। इस विचारसे स्वस्वरूपमे ही शुद्धता, सम्पूर्णता, अविनाशता अत्यत आनंदता अंतर रहित उसके अनुभवमे आते हैं। सर्व विभावपर्यायमे मात्र स्वयको अध्याससे एकता हुई है, उससे केवल अपनी भिन्नता ही है, ऐसा स्पष्ट-प्रत्यक्ष-अत्यंत प्रत्यक्ष-अपरोक्ष उसे अनुभव होता है। विनाशी अथवा अन्य पदार्थके संयोगमे उसे इष्ट-अनिष्टता प्राप्त नही होती। जन्म, जरा, मरण, रोगादि वाधारहित सपूर्ण माहात्म्यका स्थान, ऐसा-निजस्वरूप जानकर, वेदन कर वह कृतार्थ होता है। जिनजिन पुरुषोको इन छः पदोसे सप्रमाण ऐसे परम पुरुषोके वचनसे आत्माका निश्चय हुआ है, वे सब पुरुष स्वस्वरूपको प्राप्त हुए है, आधि, व्याधि, उपाधि और सर्व सगसे रहित हुए है, होते है, और भविष्य; कालमे भी वैसे ही होगे।
जिन सत्पुरुषोने जन्म, जरा और मरणका नाश करनेवाला, स्वस्वरूपमे सहज अवस्थान होनेका उपदेश दिया हैं, उन सत्पुरुषोको अत्यत भक्तिसे नमस्कार है। उनकी निष्कारण करुणाकी नित्य प्रति निरतर स्तुति करनेसे भी आत्मस्वभाव प्रगट होता है। ऐसे सर्व सत्पुरुषोके चरणारविंद सदा ही हृदयमे स्थापित रहे। . .
जिसके वचन अगीकार करनेपर छः पदोसे सिद्ध ऐसा आत्मस्वरूप सहजमे प्रगट होता है, जिस आत्मस्वरूपके प्रगट होनेसे सर्व काल जीव सम्पूर्ण आनंदको प्राप्त होकर निर्भय हो जाता है, उन वचनोंके कहनेवाले सत्पुरुषके गुणोकी व्याख्या करनेकी शक्ति नही है, क्योकि जिसका प्रत्युपकार नही हो सकता, ऐसा परमात्मभाव मानो कुछ भी इच्छा किये बिना मात्र निष्कारण, करुणाशीलतासे दिया, ऐसा होनेपर भी जिसने दूसरे जीवको यह मेरा शिष्य है अथवा मेरी भक्ति करनेवाला है, इसलिये मेरा है, इस प्रकार कभी नही देखा, ऐसे सत्पुरुषको अत्यत भक्तिसे वारंवार नमस्कार हो!
सत्पुरुषोने सद्गुरुकी जिस भक्तिका निरूपण किया है, वह भक्ति मात्र शिष्यके कल्याणके लिये कही है । जिस भक्तिको प्राप्त होनेसे सद्गुरुके आत्माको चेष्टामे वृत्ति रहे, अपूर्व गुण दृष्टिगोचर होकर अत्य स्वच्छन्द मिटे, और सहजमे आत्मबोध हो, ऐसा जानकर जिस भक्तिका निरूपण किया है, उस भक्तिको और उन सत्पुरुषोको पुनः पुन त्रिकाल नमस्कार हो ।
यद्यपि वर्तमानकालमे प्रगटरूपसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति नही हुई, परन्तु जिसके वचनके विचारयोगसे शक्तिरूपसे केवलज्ञान है, यह स्पष्ट जाना है, श्रद्धारूपसे केवलज्ञान हुआ है, विचारदशासे केवलज्ञान हुआ है, इच्छादशासे केवलज्ञान हुआ है, मुख्य नयके हेतुसे केवलज्ञान रहता है, जिसके योगसे - जीव सर्व अव्यावाध सुखके प्रगट करनेवाले उस केवलज्ञानको सहजमात्रमे प्राप्त करने योग्य हुआ, उस सत्पुरुषके उपकारको सर्वोत्कृष्ट भक्तिसे नमस्कार हो । नमस्कार हो ।
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مه
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बंबई, चैत्र सुदी, १९५०
1
यहाँ अभी बाह्य उपाधि कुछ कम रहती है । आपके पत्रमे जो प्रश्न है, उनका समाधान नीचे लिखे परसे विचारियेगा |
C
पूर्वकर्म दो प्रकारके है, अथवा जीवसे जो जो कर्म किये जाते है, वे दो प्रकारसे किये जाते है । एक प्रकारके कर्म ऐसे है कि उनको कालादिकी स्थिति जिस प्रकारसे हे उसी प्रकारसे, वह भोगी जा सकती है । दूसरे प्रकार के कर्म ऐसे है कि जो ज्ञानसे, विचारसे निवृत्त हो सकते है । ज्ञान होनेपर भी जिस प्रकार - के कर्म अवश्य भोगनेयोग्य है, वे प्रथम प्रकारके कर्म कहे गये हैं, और जो ज्ञानसे दूर हो सकते है वे दूसरे प्रकारके कर्म कहे गये है । केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी देह रहती है, उस देहका रहना केवलज्ञानी की इच्छासे नही परन्तु प्रारव्यसे है । इतना संपूर्ण ज्ञानवल होने पर भी उस देहस्थितिका वेदन किये बिना केवलज्ञानीसे भी नही छूटा जा सकता, ऐसी स्थिति है, यद्यपि उस प्रकारसे छूटने के लिये कोई ज्ञान इच्छा नही करते, तथापि यहाँ कहनेका आशय यह है कि ज्ञानीपुरुषको भी वह कर्म भोगने योग्य हैं, तथा अतरायादि अमुक कर्मकी व्यवस्था ऐसी है कि वह ज्ञानीपुरुषको भी भोगने योग्य है, अर्थात् ज्ञानीपुस्प भी भोगे बिना उस कर्मको निवृत्त नही कर सकते । सर्व प्रकारके कर्म ऐसे है कि वे अफल नही होते, मात्र उनकी निवृत्तिके प्रकार अंतर है ।
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"
एक कर्म, जिस प्रकार से स्थिति आदिका वध किया है, उसी प्रकारसे भोगनेयोग्य होते है । दूसरे कर्म ऐसे होते हैं, जो जीवके ज्ञानादि पुरुषार्थधमसे निवृत्त होते हैं । ज्ञानादि पुरुषार्थधर्मसे निवृत्त होनेवाले कर्मकी निवृत्ति ज्ञानीपुरुप भी करते है, परन्तु भोगनेयोग्य कर्मको ज्ञानीपुरुष सिद्धि आदिके प्रयत्नसे निवृत्त . करनेकी इच्छा नही करते यह सम्भव है । कर्मको यथायोग्यरूपसे भोगनेमे ज्ञानीपुरुषको संकोच नहीं होता । कोई अज्ञानदशा होनेपर भी अपनी ज्ञानदशा माननेवाला जीव कदाचित् भोगनेयोग्य कर्मको भोगना न चाहे, तो भी भोगनेपर ही छुटकारा होता है, ऐसी नीति है । जीवका किया हुआ कर्म यदि बिना भोगे अफल जाता हो, तो फिर बध मोक्षकी व्यवस्था कैसे हो सकेगी ?
जो वेदनीयादि कर्म हो उन्हे भोगने की हमे अनिच्छा नही होती । यदि अनिच्छा होती हो तो चित्त मे' खेद होता है कि जीवको देहाभिमान है, जिससे उपार्जित कर्म भोगते हुए खेद होता है, और इससे अनिच्छा होती है ।
मत्रादिसे, सिद्धिसे और दूसरे वैसे अमुक कारणोसे, अमुक चमत्कार हो सकना असंभव नही है, तथापि ऊपर जैसे हमने बताया है वैसे भोगनेयोग्य जो 'निकाचित कर्म' है, वे उनमेसे किसी भी प्रकारसे, मिट नही सकते । क्वचित् अमुक 'शिथिल कर्म' की निवृत्ति होती है; परन्तु वह कुछ उपार्जित करनेवाले के वेदन किये बिना निवृत्त होता है, ऐसा नही है, किन्तु आकारफेरसे उस कर्मका वेदन होता है ।
कोई एक ऐसा ‘शिथिल कर्म' है कि जिसमे अमुक समय चित्तकी स्थिरता रहे तो वह निवृत्त हो जाये । वैसा कर्म उस मत्रादिमे स्थिरता के योग से निवृत्त हो, यह संभव है । अथवा किसी के पास पूर्वलाभ का कोई ऐसा बध है कि जो मात्र उसकी थोडी कृपासे फलीभूत हो आये, यह भी एक सिद्धि जैसा है ।' उसी तरह अमुक मत्रादिके प्रयत्नमे हो और अमुक पूर्वांतराय नष्ट होनेका प्रसग समीपवर्त्ती हो, तो भी मत्रादिसे कार्यसिद्धि हुई मानी जाती है, परन्तु इस बातमे कुछ थोडा भी चित्त होनेका कारण नही है, निष्फल बात है । इसमे आत्माके कल्याण सम्बन्धी कोई मुख्य प्रसग नही है । ऐमो कथा मुख्य प्रमगकी विस्मृतिका हेतु होती है; इसलिये उस प्रकारके विचारका अथवा शोधका निर्धार करनेकी इच्छा करनेकी अपेक्षा उसका त्याग कर देना अच्छा है, और उसके त्यागसे सहजमे निर्धार होता है।
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श्रीमद राजचन्द्र
आत्मा विशेष आकुलता न हो वैसे रहे । जो होने योग्य होगा वह होकर रहेगा । और आकुलता करने पर भी जो होनहार होगा वही होगा, उसके साथ आत्मा भी अपराधी होगा ।
४०४
बंबई, चैत्र वदी ११, मंगल, १९५०
श्री त्रिभोवन,
जिस कारणके विषयमे लिखा था, उस कारणके विचारमे अभी चित्त है, और वह विचार अभी तक चित्तसमाधानरूप अर्थात् पूरा न हो सकनेसे आपको पत्र नही लिखा गया । तथा कोई 'प्रमाद-दोष' जैसा कोई प्रसंगदोष रहता है कि जिससे कुछ भी परमार्थबात लिखनेके सम्बन्धमे चित्त उद्विग्न होकर, लिखते हुए एकदम रुक जाना होता है । और जो कार्यप्रवृत्ति है, उस कार्य प्रवृत्तिमे और अपरमार्थ प्रसगमे मानो मेरेसे यथायोग्य उदासीनबल नही होता, ऐसा लगनेसे अपने दोषके विचारमे पड जानेसे पत्र लिखना रुक जाता है, और प्राय. ऊपर जो विचारका समाधान नही हुआ, ऐसा लिखा है, वही कारण है ।'
४९५
यदि किसी भी प्रकार से हो सके तो इस त्रासरूप ससारमे अधिक व्यवसाय न करना, सत्संग करना योग्य है ।
मुझे ऐसा लगता है कि जीवको मूलरूपसे देखते हुए यदि मुमुक्षुता आयी हो तो नित्य प्रति उसका ससारवल घटता रहता है । ससारमे धनादि संपत्तिका घटना या न घटना अनियत है, परन्तु ससारके प्रति जीवकी जो भावना है वह मंद होती रहे, अनुक्रमसे नाश होनेयोग्य हो, यह बात इस कालमे प्राय' देखनेमे नही आती । किसी भिन्न स्वरूपमे मुमुक्षुको और भिन्न स्वरूपमे मुनि आदिको देखकर विचार आता है कि ऐसे सगसे जीवकी ऊर्ध्वदशा होना योग्य नही परन्तु अधोदशा होना योग्य है । फिर जिसे सत्सगका कुछ प्रसग हुआ है ऐसे जीवकी व्यवस्था भी कालदोषसे पलटते देर नही लगती । ऐसा प्रगट देखकर चित्तमे खेद होता है और अपने चित्तको व्यवस्था देखते हुए मुझे भी ऐसा प्रतीत होता है मेरे लिये किसी भी प्रकारसे यह व्यवसाय योग्य नही है, अवश्य योग्य नही है । अवश्य - अत्यत अवश्यइस जीवका कोई प्रमाद है, नही तो जिसे प्रगट जाना है ऐसे जहरके पीनेमे जीवको प्रवृत्ति क्यो हो अथवा ऐसा नही तो उदासीन प्रवृत्ति हो, तो भी वह प्रवृत्ति भी अब तो किसी प्रकारसे भी परिसमाप्तिको प्राप्त हो ऐसा होना योग्य है, नही तो किसी भी प्रकारसे जीवका जरूर दोष है ।
?
अधिक लिखना नही हो सकता, इसलिये चित्तमे खेद होता है, नही तो प्रगटरूप से किसी मुमुक्षु इस जीवके दोष भी यथासम्भव प्रकारसे विदित करके, जीवका उतना तो खेद दूर करना । और उन विदित दोपोकी परिसमाप्तिके लिये उसके सगरूप उपकारकी इच्छा करना ।
मुझे अपने दोषके लिये वारवार ऐसा लगता है कि जिस दोषका बल परमार्थसे देखते हुए मैने कहा है, परन्तु अन्य आधुनिक जीवोके दोषके सामने मेरे दोषकी अत्यन्त अल्पता लगती है । यद्यपि ऐसा माननेकी कोई बुद्धि नही है, तथापि स्वभावसे कुछ ऐसा लगता है । फिर भी किसी विशेष अपराधी की भाँति जब तक हम यह व्यवहार करते हैं तब तक अपने आत्मामे सलग्न रहेगे । आपको और आपके सगमे रहनेवाले किसी भी मुमुक्षुको यह बात कुछ भी विचारणीय अवश्य है ।
'
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ववई, चैत्र वदी १४, शुक्र, १९५० जो मुमुक्षुजीव गृहस्थ व्यवहारमे प्रवृत्त हो, उसे तो अखड नीतिका मूल प्रथम आत्मामे स्थापित करना चाहिये, नही तो उपदेशादिकी निष्फलता होती है ।
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२७ वाँ वर्ष
४०५ द्रव्यादि उत्पन्न करने आदिमे सागोपाग न्यायसम्पन्न रहना, इसका नाम नीति है । यह नीति छोड़ते हुए प्राण जानेकी दशा आनेपर त्याग और वैराग्य सच्चे स्वरूपमे प्रगट होते है, और उसी जीवको सत्पुरुषके वचनोका तथा आज्ञाधर्मका अद्भुत सामर्थ्य, माहात्म्य और रहस्य समझमे आता है; और सभी वृत्तियोके निजरूपसे प्रवृत्ति करनेका मार्ग स्पष्ट सिद्ध होता है।
प्रायः आपको देश, काल, सग आदिका विपरीत योग रहता है। इसलिये वारवार, पल पलमे तथा काय कार्यमे सावधानीसे नीति आदि धर्मो मे प्रवृत्ति करना योग्य है। आपकी भॉति जो जीव कल्याणकी आकाक्षा रखता है, और प्रत्यक्ष सत्पुरुषका निश्चय है, उसे प्रथम भूमिकामे यह नीति मुख्य आधार है। जो जोव सत्पुरुषका निश्चय हुआ है ऐसा मानता है, उसमे यदि उपर्युक्त नीतिका प्रावल्य न हो और कल्याणकी याचना करे तथा वार्ता करे, तो यह निश्चय मात्र सत्पुरुपको ठगनेके समान है। यद्यपि सत्पुरुष तो निराकाक्षी है इसलिये उनके लिये तो ठगे जाने जैसा कुछ है नही, परन्तु इस प्रकारमे प्रवृत्ति करनेवाला जीव अपराधयोग्य होता है। इस बातपर वारवार आपको और आपके समागमकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षुओको ध्यान देना चाहिये। कठिन बात है, इसलिये नही हो सकती, यह कल्पना मुमुक्षुके लिये अहितकारी है ओर त्याज्य है।
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बबई, चैत्र वदी १४, शुक्र, १९५० - उपदेशकी आकाक्षा रहा करती है, ऐसी आकाक्षा मुमुक्षुजीवके लिये हितकारी है, जागृतिका विशेप हेतु है। ज्यो ज्यो जीवमे त्याग, वैराग्य और आश्रयभक्तिका बल बढता है त्यो त्यो सत्पुरुषके वचनका अपूर्व और अद्भुत स्वरूप भासित होता है, और वधनिवृत्तिके उपाय सहजमे सिद्ध होते है। प्रत्यक्ष सत्पुरुषके चरणारविंदका योग कुछ समय तक रहे तो फिर वियोगमे भी त्याग, वैराग्य और आश्रयभक्तिकी धारा बलवती रहती है, नही तो अशुभ देश, काल, सगादिके योगसे सामान्य वृत्तिके जीव त्याग-वैराग्यादिके बलमे नही बढ सकते, अथवा मद हो जाते है, अथवा उसका सर्वथा नाश कर देते हैं।
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' ववई, वैशाख सुदी १, रवि, १९५० श्री त्रिभोवनादि,
'योगवासिष्ठ' पढनेमे आपत्ति नही हे । आत्माको ससारका स्वरूप कारागृह जैसा वारवार क्षण क्षणमे भासित हुआ करे, यह मुमुक्षुताका मुख्य लक्षण हे । योगवासिष्ठादि जो जो ग्रन्थ उस कारणके पोपक है, उनका विचार करने मे आपत्ति नहीं है । मूल बात तो यह है कि जीवको वैराग्य आनेपर भी जो उसकी अत्यन्त शिथिलता है-ढोलापन हे-उसे दूर करते हुए उसे अत्यन्त कठिन लगता है, और चाहे जैसे भी प्रथम इसे ही दूर करना योग्य है ।
ववई, वैशाख सुदी ९, १९५० जिस व्यवसायसे जीवको भावनिद्रा न घटती हो वह व्यवसाय किसी प्रारब्धयोगमे करना पड़ता हो तो वह पून. पुन. पीछे हटकर, 'मे बडा भयकर हिसायुक्त यह दुष्ट काम हो किया करत . ऐसा प. पून. विचारकर और 'जीवमे ढोलेपनसे ही प्राय मुझे यह प्रतिवध है', ऐसा पुन. पून. निश्चय करके जितना बने उतना व्यवसायका सक्षेप करते हुए प्रवृत्ति हो, तो वोधका फलित होना सम्भव है।
चित्तका लिखने आदिमे अधिक प्रयास नहीं हो सकता, इसलिये चिट्ठी लिखी है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
. ५०० । बंबई, वैशाख सुदी ९, रवि, १९५० श्री सूर्यपुरस्थित, शुभेच्छाप्राप्त श्री लल्लुजी,
____ यहाँ उपाधिरूप व्यवहार रहता है । प्राय आत्मसमाधिकी स्थिति रहती है । तो भी उस व्यवहारके प्रतिबंधसे छूटनेका वारवार स्मृतिमे आया करता है। उस प्रारब्धको निवृत्ति होने तक तो व्यवहारका प्रतिबध रहना योग्य है, इसलिये समचित्तपूर्वक स्थिति रहती है। ,
आपका लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ है। 'योगवासिष्ठादि' गथका अध्ययन होता हो तो वह हितकारी है। जिनागममे भिन्न भिन्न आत्मा मानकर परिमाणमे अनत आत्मा कहे है और वेदान्तमे उसे-भिन्न भिन्न कहकर, सर्वत्र जो चेतनसत्ता दिखायी देती है, वह एक ही आत्माकी है, और आत्मा एक ही है, ऐसा प्रतिपादन किया है। ये दोनो ही बाते मुमुक्षुपुरुषके लिये अवश्य विचारणीय है, और यथाप्रयत्न इन्हे विचारकर निर्धार करना योग्य है, यह बात नि सन्देह है। तथापि जब तक प्रथम वैराग्य और उपशमका बल दृढतासे जीवमे न आया हो, तब तक उस विचारसे चित्तका समाधान होनेके बदले चचलता होती है, और उस विचारका निर्धार प्राप्त नहीं होता, तथा चित्त विक्षेप पाकर फिर वैराग्य-उपशमको यथार्थरूपसे, धारण नही कर सकता। इसलिये उस प्रश्नका समाधान ज्ञानीपुरुषोने किया है, उसे समझनेके लिये इस जीवमे वैराग्य-उपशम और सत्सगका बल अभी तो बढाने योग्य है, ऐसा विचार करके जीवमे वैराग्यादि बल बढनेके साधनोका आराधन करनेके लिये नित्यप्रति विशेष पुरुषार्थ योग्य है।
विचारकी उत्पत्ति होनेके बाद वर्धमानस्वामी जैसे महात्मापुरुषोने पुन पुन. विचार किया कि इस जीवका अनादिकालसे चारो गतियोमे अनतानतबार जन्म-मरण होनेपर भी, अभी वह जन्म-मरणादिकी स्थिति क्षीण नही होती, उसे अब किस प्रकारसे क्षीण करना ? और ऐसी कौन सी भूल इस जीवकी रहती आयी है कि जिस भूलका यहाँ तक परिणमन हुआ है ? इस प्रकारसे पुन पुनः अत्यत एकाग्रतासे सद्बोधके वर्धमान परिणामसे विचार करते करते जो भूल भगवानने देखी है, उसे जिनागममे जगह जगह कहा है, कि जिस भूलको समझकर मुमुक्षुजीव उससे रहित हो। जीवको भूल देखनेपर तो वह अनत विशेष लगती है, परंतु सबसे पहले जीवको सब भूलोकी बीजभूत भूलका विचार करना योग्य है, कि जिस भूलका विचार करनेसे सभी भूलोका विचार होता है, और जिस भूलके दूर होनेसे सब भूलें दूर होती है। कोई जीव कदाचित् नाना प्रकारकी भूलोका विचार करके उस भूलसे छूटना चाहे, तो भी वह कर्तव्य है, और वैसी अनेक भूलोसे छूटनेकी इच्छा मूल भूलसे छूटनेका सहज कारण होता है। , ...
शास्त्रमे जो ज्ञान बताया गया है, वह ज्ञान दो प्रकारसे विचारणीय है। एक प्रकार 'उपदेश'का ओर दूसरा प्रकार 'सिद्धान्त'का है। “जन्ममरणादि क्लेशयुक्त इस ससारका त्याग करना योग्य है, अनित्य पदार्थमे विवेकीको रुचि करना नही, होता, माता-पिता, स्वजनादि सबका स्वार्थरूप' सम्बन्ध होनेपर भी यह जीव उस जालका आश्रय किया करता है, यही उसका अविवेक है, प्रत्यक्षरूपसे त्रिविध तापरूप यह ससार ज्ञात होते हुए भी मूर्ख जीव उसीमे विश्राति चाहता है, परिग्रह, आरभ और संग, ये सब अनर्थके हेतु है," इत्यादि जो शिक्षा है, वह 'उपदेशज्ञान' है। "आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, एकत्व अथवा अनेकत्व; बधादिभाव, मोक्ष, आत्माकी सर्व प्रकारको अवस्था, पदार्थ और उसकी अवस्था इत्यादि विषयोको दृष्टातादिसे जिस प्रकारसे सिद्ध किया जाता है, वह 'सिद्धातज्ञान' है।"
- मुमुक्षुजीवको प्रथम तो वेदात और जिनागम इन सबका अवलोकन उपदेशज्ञानकी प्राप्तिके लिये ही करना योग्य है, क्योकि सिद्धातज्ञान जिनागम और वेदातमे परस्पर भिन्न देखनेमे आता है, और उस भिन्नताको देखकर मुमुक्षुजीव शकायुक्त हो जाता है, और यह शंका चित्तमे असमाधि उत्पन्न करती है, ऐमा प्राय होने योग्य ही है। क्योकि सिद्धातज्ञान तो जीवमे किसी अत्यंत उज्ज्वल क्षयोपशमसे और
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सद्गुरुके वचनको आराधनासे उद्भूत होता है । सिद्धातज्ञानका कारण उपदेशज्ञान है । सद्गुरु या सत्शास्त्रसे जीव पहले यह ज्ञान दृढ होना योग्य है कि जिस उपदेशज्ञानका फल वैराग्य और उपशम है । वैराग्य और उपशमका वल वढनेसे जीवमे सहज ही क्षयोपशमकी निर्मलता होती है, और सहज सहजमे सिद्धातज्ञान होनेका कारण होता है। यदि जीवमे असगदशा आ जाये तो आत्मस्वरूपका समझना एकदम सरल हो जाता है, और उस असगदशाका हेतु वैराग्य और उपशम है, जिसे जिनागममे तथा वेदातादि अनेक शास्त्रोमे वारंवार कहा है-विस्तारसे कहा है । अत नि सशयतासे वैराग्य - उपशमके हेतुभूत योगवासिष्ठादि जैसे सद्ग्रन्थ विचारणीय है ।
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हमारे पास आनेमे किसी किसी प्रकारसे आपके साथी श्री देवकरणजीका मन रुकता था, और यह रुकना स्वाभाविक है, क्योकि हमारे विषय मे सहज ही शका उत्पन्न हो ऐसे व्यवहारका प्रारब्धवशात् हमे उदय रहता है, और वैसे व्यवहारका उदय देखकर प्राय' हमने 'धर्मसम्बन्धी' सगमे लौकिक एवं लोकोत्तर प्रकारसे मेलजोल नही किया, कि जिससे लोगोको हमारे इस व्यवहारके प्रसगका विचार करनेका अवसर कम आये । आपसे या श्री देवकरणजीसे अथवा किसी अन्य मुमुक्षुसे किसी प्रकारकी कुछ भी परमार्थकी बात की हो, उसमे मात्र परमार्थके सिवाय कोई अन्य हेतु नही है । इस ससारके विषम एव भयकर स्वरूपको देखकर हमे उससे निवृत्त होनेका वोध हुआ, जिस वोधसे जीवमे शाति आकर समाधिदशा हुई, वह बोध इस जगतमे किसी अनंत पुण्यके योगसे जीवको प्राप्त होता है, ऐसा महात्मा पुरुष पुन पुनः कह गये है । इस दु.षमकालमे अधकार प्रगट होकर बोधका मार्ग आवरण-प्राप्त हुए जेसा हुआ है । इस कालमे हमे देहयोग मिला, यह किसी प्रकारसे खेद होता है, तथापि परमार्थसे उस खेदका भी समाधान होता रहा है, परन्तु उस देहयोगमे कभी-कभी किसी मुमुक्षुके प्रति कदाचित् लोकमार्गका प्रतिकार पुन पुन कहना होता है, ऐसा ही एक योग आपके और श्री देवकरणजीके सम्वन्धमे सहज ही हो गया है । परन्तु इससे आप हमारा कथन मान्य करें, ऐसे आग्रहके लिये कुछ भी कहना नही होता हितकारी जानकर उस बातका आग्रह किया रहता है या होता है, इतना ध्यान रहे तो किसी तरह सगका फल होना सम्भव है ।
यथासम्भव जीवके अपने दोषके प्रति ध्यान करके, दूसरे जीवोके प्रति निर्दोष दृष्टि रखकर प्रवृत्ति करना, और जैसे वैराग्य-उपशमका आराधन हो वैसे करना यह प्रथम
स्मरणयोग्य वात है ।
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आ० स्व० नमस्कार प्राप्त हो ।
वंबई, वैशाख वदी ७, रवि, १९५०
सूर्यपुरस्थित शुभेच्छासपन्न आर्य श्री लल्लुजी,
प्राय जिनागममे सर्वविरति साधुको पत्र, समाचारादि लिखनेकी आज्ञा नही है, और यदि वैसी सर्वंविरति भूमिकामे रहकर करना चाहे तो वह अतिचार योग्य समझा जाता है। इस प्रकार साधारणतया शास्त्रका उद्देश है, और वह मुख्य मागंसे तो यथायोग्य लगता है, तथापि जिनागमकी रचना पूर्वापर अविरोध प्रतीत होती है, और वैसा अविरोध रहने के लिये पत्र- समाचारादि लिखने की आज्ञा किसी प्रकारसे जिनागममे है, उसे आपके चित्तका समाधान होनेके लिये यहाँ सक्षेपमे लिखता हूँ ।
जिनेन्द्रकी जो जो आज्ञाएँ है वे सब आज्ञाएँ, सवं प्राणी अर्थात् जिनकी आत्म-कल्याणको कुछ इच्छा है उन सबको, वह कल्याण जिस प्रकार उत्पन्न हो और जिस प्रकार वह बुद्धिगत हो, तथा जिस प्रकार उस कल्याणकी रक्षा की जा सके, उस प्रकारसे वे आज्ञाएँ की है। यदि जिनागममे कोई ऐसी आज्ञा कही हो कि वह आज्ञा अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके सयोगमे न पल सक्नेके कारण आत्मा
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श्रीमद राजचन्द्र
को बाधकारी होती हो, तो वहाँ उस आज्ञाको गौण करके-उसका निषेध करके श्री तीर्थकरने दूसरी आज्ञा कही है।
जिसने मवविरति की है ऐसे मुनिको सर्वविरति करते समयके प्रसगमे "सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि, सव्वं अदिन्नादाणं पच्चक्खामि, सव्वं मेहण पच्चक्खामि, सव्वं परिगहं पच्चक्खामि," इस उद्देश्यके वचनोका उच्चारण करनेके लिये कहा है, अर्थात् 'सर्वप्राणातिपातसे मै निवृत्त होता है', 'सर्व प्रकारके मृपावादमे मै निवृत्त होता हूँ', 'सर्व प्रकारके अदत्तादानसे मै निवृत्त होता हूँ', 'सर्व प्रकारके मैथुनसे निवृत्त होता हूँ', और 'सर्व प्रकारके परिग्रहसे निवृत्त होता हूँ।' (सर्व प्रकारके रात्रिभोजनमे तथा दूसरे वैसे वैसे कारणोसे निवृत्त होता हूँ, इस प्रकार उसके साथ बहुतसे त्यागके कारण जानना ।) ऐसे जो वचन कहे है, वे सर्वविरतिकी भूमिकाके लक्षणसे कहे है । तथापि उन पाँच महाव्रतोमे मैथुनत्यागके सिवायके चार महानतोमे भगवानने फिर दूसरी आज्ञा की है कि जो आज्ञा प्रत्यक्षतः तो महाव्रतको बाधकारी लगती है, परन्तु ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए तो रक्षणकारी है ।
'मै सर्व प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता हूँ ऐसा पच्चक्खान (प्रत्याख्यान) होनेपर भी नदी उतरने जैसे प्राणातिपातरूप प्रसगकी आज्ञा करनी पड़ी है, जिस आज्ञाका, यदि लोकसमुदायके विशेष समागमपूर्वक साधु आराधन करेगा, तो पचमहाव्रतके निर्मूल होनेका समय आयेगा ऐसा जानकर भगवानने नदी पार करनेकी आज्ञा दी है। वह आज्ञा प्रत्यक्ष प्राणातिपातरूप होनेपर भी पॉच महाव्रतकी रक्षाका अमूल्य हेतुरूप होनेसे प्राणातिपातकी निवृत्तिरूप है, क्योकि पाँच महाव्रतोकी रक्षाका हेतु ऐसा जो कारण, वह प्राणातिपातकी निवृत्तिका भी हेतु ही है । प्राणातिपात होनेपर भी अप्राणातिपातरूप, ऐसी नदी पार करनेकी आज्ञा होती है, तथापि 'सर्व प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता है, इस वाक्यको उस कारणसे एक बार हानि पहुँचती है, जो हानि फिरसे विचार करते हुए तो उसकी विशेप दृढताके लिये प्रतीत होती है, वैसा ही दूसरे व्रतोंके लिये है । 'परिग्रहको सर्वथा निवृत्ति करता हूँ' ऐसा व्रत होनेपर भी वस्त्र, पात्र, पुस्तकका सम्बन्ध देखनेमे आता है, वे अगीकार किये जाते है, वे परिग्रहकी सर्वथा निवृत्तिके कारणको किसी प्रकारसे रक्षणरूप होनेसे कहे है, और इससे परिणामतः अपरिग्रहरूप होते है। मूर्छारहितरूपसे नित्य आत्मदशा बढनेके लिये पुस्तकका अगीकार करना कहा है। तथा इस कालमे शरीर संहननकी हीनता देखकर, चित्तस्थितिका प्रथम समाधान रहनेके लिये वस्त्र पात्रादिका ग्रहण करना कहा है, अर्थात् जब आत्महित देखा तो परिग्रह रखना कहा है। प्राणातिपात क्रिया-प्रवर्तन कहा है, परन्तु भावकी दृष्टिसे इसमे अन्तर है। परिग्रहबुद्धिसे अथवा प्राणातिपातबुद्धिसे इसमेसे कुछ भी करनेके लिये कभी भगवानने नही कहा है। भगवानने जहाँ सर्वथा निवृत्तिरूप पाँच महाव्रतोका उपदेश दिया है, वहाँ भी दूसरे जीवोंके हितके लिये कहा है, और उसमे उसके त्याग जैसे दिखाई देनेवाले अपवादको भी आत्महितके लिये कहा है, अर्थात् एक परिणाम होनेसे त्याग की हुई क्रिया ग्रहण करायी है। 'मैथुनत्याग' मे जो अपवाद नही हे उसका हेतु यह है कि रागद्वेषके बिना उसका भग नही हो सकता, और रागद्वेष आत्माके लिये अहितकारी है, जिससे भगवानने उसमे कोई अपवाद नही कहा है। नदी पार करना रागद्वेषके बिना भी हो सकता है, पुस्तक आदिका ग्रहण करना भी वैसे हो सकता है; परन्तु मैथुनसेवन वैसे नही हो सकता, इसलिये भगवानने यह व्रत अनपवाद कहा है, ओर दूसरे व्रतोमे आत्महितके लिये अपवाद कहे हैं, ऐसा होनेसे, जैसे जीवका, सयमका रक्षण हो, वैसा कहनेके लिये जिनागम है।
पत्र लिखने या समाचारादि कहनेका जो निपेध किया है, वह भी इसी हेतुसे है । लोकसमागम बढे, प्रीति-अप्रीतिकै कारण बडे, स्त्री आदिके परिचयमे आनेका हेतु हो, सयम ढीला हो, उस उस प्रकारका परिग्रह बिना कारण अगीकृत हो, ऐसे मान्निपातिक अनंत कारण देखकर पत्रादिका निषेध किया है, तथापि वह
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___ इस प्रकार विचार करनेसे जिनागममे ज्ञान, दर्शन और सयमके सरक्षणके लिये पत्र-समाचारादिके व्यवहारका भी स्वीकार करनेका समावेश होता है, तथापि वह किसी कालके लिये, किसी महान प्रयोजनके लिये, महात्मा पुरुषोकी आज्ञासे अथवा केवल जीवके कल्याणके कारणमे ही उसका उपयोग किसी पात्रके लिये है, ऐसा समझना योग्य है । नित्यप्रति और साधारण प्रसंगमे पत्र-समाचारादिका व्यवहार सगत नही है, ज्ञानीपुरुषके प्रति उनकी आज्ञासे नित्यप्रति पत्रादि व्यवहार सगत है, तथापि दूसरे लौकिक जीवके कारणमे तो सर्वथा निषेध प्रतीत होता है। फिर काल ऐसा आया है कि जिसमे ऐसा कहनेसे भी विषम परिणाम आये । लोकमार्गमे प्रवृत्ति करनेवाले साधु आदिके मनमे यह व्यवहारमार्गका नाश करनेवाला भासमान होना सभव है, तथा इस मार्गको समझानेसे भी अनुक्रमसे बिना कारण पत्र-समाचारादि चालू हो जाये कि जिससे विना कारण साधारण द्रव्यत्याग भी नष्ट हो जाये।
ऐसा समझकर यह व्यवहार प्रायः अबालाल आदिसे भी नही करें, क्योकि वैसा करनेसे भी व्यवसायका बढना सभव है। यदि आपको सर्व पच्चक्खान हो तो फिर पत्र न लिखनेका साधुने जो पच्चक्खान दिया है, वह नही दिया जा सकता। तथापि दिया हो तो भी इसमे आपत्ति न माने, वह पच्चक्खान भी ज्ञानीपुरुपकी वाणीसे रूपातर हुआ होता तो हानि न थी, परन्तु साधारणरूपसे रूपातर हुआ है, वह योग्य नही हुआ । यहाँ मूल स्वाभाविक पच्चक्खानकी व्याख्या करनेका अवसर नही है, लोकपच्चक्खानको वातका अवसर है, तथापि वह भी साधारणतया अपनी इच्छासे तोडना ठीक नही, अभी तो ऐसा दृढ विचार ही रखे। गुण प्रगट होनेके साधनमे जब रोध होता हो, तब उस पच्चक्खानको ज्ञानीपुरुपकी वाणीसे या मुमुक्षुजीवके सत्सगसे सहज आकारफेर होने देकर रास्तेपर लाये क्योकि बिना कारण लोगोमे शंका उत्पन्न होने देनेकी बात योग्य नही है। अन्य पामरजीवोको विना कारण वह जीव अहितकारी होता है । इत्यादि अनेक हेतु मानकर यथासभव पत्रादि व्यवहार कम करना ही योग्य है। हमारे प्रति कभी वैसा व्यवहार करना आपके लिये हितकारी है, इसलिये करना योग्य लगता हो तो वह पत्र श्री देवकरणजी जैसे किसी सत्सगीको पढवा कर भेजे, कि जिससे 'ज्ञानचर्चाके सिवाय इसमे कोई दूसरी बात नही हे', ऐसा उनका साक्षित्व आपके आत्माको दूसरे प्रकारके पत्र-व्यवहारको करते हुए रोकनेका कारण हो । मेरे विचारके अनुसार ऐसे प्रकारमे श्री देवकरणजी विरोध नहीं समझेंगे, कदाचित् उन्हे वैसा लगता हो तो किसी प्रसगमे उनकी वह आशका हम निवृत्त करेंगे, तथापि आपको प्राय विशेष पय-व्यवहार करना योग्य नहीं है इस लक्ष्यको न चूकियेगा । 'प्राय' शब्दका अर्थ यह है कि मात्र हितकारी प्रसगमे पत्रका कारण कहा है, उसमे बाधा न आये । विशेष पत्र-व्यवहार करनेसे यदि वह ज्ञानच रूप होगा तो भी लोकव्यवहारमे बहत आशकाका कारण होगा । इसलिये जिस प्रकार प्रसग प्रसगपर आत्महितार्थ हा उसका सोच-विचार करना योग्य है। आप हमारे प्रति किमी ज्ञानप्रश्नके लिये पत्र लिखना चाहे तो वह यी देवकरणजोको पूछकर लिखे कि जिससे आपको गुणप्राप्तिमे कम वाधा हो।
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श्रीमद् राजचन्द्र इतना ही परमार्थ है । जिससे ज्ञानीपुरुषकी अनुज्ञासे अथवा किसी सत्संगी जनकी अनुज्ञासे पत्र-समाचारका कारण उपस्थित हो तो वह संयमके विरुद्ध ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, तथापि आपको साधुने जो पच्चक्खान दिया था, उसके भग होनेका दोष आप पर आरोपित करना योग्य है। यहाँ पच्चक्खानके स्वरूपका विचार नही करना है, परन्तु आपने उन्हे जो प्रगट विश्वास दिलाया, उसे भग करनेका क्या हेतु है ? यदि वह पच्चक्खान लेनेमे आपका यथायोग्य चित्त नही था, तो आपको वह लेना योग्य न था, और यदि किसी लोक-दबावसे वैसा हुआ तो उसका भग करना योग्य नही है, और भग करनेका जो परिणाम हे वह भग न करनेकी अपेक्षा विशेप आत्महितकारी हो, तो भी उसे स्वेच्छासे भग करना योग्य नही है, क्योकि जीव रागद्वेष अथवा अज्ञानसे सहजमे अपराधी होता है, उसका विचारा हुआ हिताहित विचार कई बार विपर्यय होता है। इसलिये आपने जिस प्रकारसे पच्चक्खानका भग किया है, वह अपराधयोग्य है, और उसका प्रायश्चित्त लेना भी किसी तरह योग्य है । "परन्तु किसी प्रकारको ससारबुद्धिसे यह कार्य नही हुआ, और ससारकार्यके प्रसंगसे पत्र-समाचारका व्यवहार करनेकी मेरी इच्छा नही है, यह जो कुछ पत्रादिका लिखना हुआ है, वह मात्र किसी जीवके कल्याणकी बातके विषयमे हुआ है, और यदि वह न किया गया होता तो वह एक प्रकारसे कल्याणरूप था, परन्तु दूसरे प्रकारसे चित्तका व्यग्रता उत्पन्न होकर अन्तर क्लेशित होता था। इसलिये जिसमे कुछ ससारार्थ नहीं है, किसी प्रकारका अन्य वाछा नही है, मात्र जीवके हितका प्रसंग है, ऐसा समझकर लिखना हआ है। महाराज द्वारा दिया हुआ पच्चक्खान भी मेरे हितके लिये था कि जिससे मैं किसी संसारी प्रयोजनमे न पड़ जाऊँ, और उसक लिये उनका उपकार था। परन्तु मैंने ससारी प्रयोजनसे यह कार्य नही किया है, आपके संघाडेके प्रतिवधका तोड़नेके लिये यह कार्य नही किया है, तो भी यह एक प्रकारसे मेरी भूल है, तब उसे अल्प साधारण प्रायश्चित्त देकर क्षमा करना योग्य है। पर्युपणादि पर्वमे साधू श्रावकसे श्रावकके नामसे पत्र लिखवात हा उसके सिवाय किसी दूसरे प्रकारसे अब प्रवृत्ति न की जाये और ज्ञानचर्चा लिखी जाये तो भी बाधा नहा है," इत्यादि भाव लिखे हैं। आप भी उस तथा इस पत्रको विचारकर जैसे क्लेश उत्पन्न न हो वसा कीजियेगा। किसी भी प्रकारसे सहन करना अच्छा है। ऐसा न हो तो साधारण कारणमे महान विपरीत क्लेशरूप परिणाम आता है। यथासम्भव प्रायश्चित्तका कारण न हो तो न करना, नही तो फिर अल्प भा प्रायश्चित्त लेनेमे बाधा नही है। वे यदि प्रायश्चित्त दिये बिना कदाचित इस बातको जाने दें, तो भी आप अर्थात् साधु लल्लुजीको चित्तमे इस बातका इतना पश्चात्ताप करना तो योग्य है कि ऐसा करना भा योग्य न था। भविष्यमे देवकरणजी साधु जैसेकी समक्षतामे वहाँसे कोई श्रावक लिखनेवाला हो और पत्र लिखवाये तो बाधा नही है, इतनी व्यवस्था उस सम्प्रदायमे चली आती है, इससे प्राय लोग विरोध नहीं करेंगे। और उसमे भी यदि विरोध जैसा लगता हो तो अभी उस बातके लिये भी धैर्य रखना हितकारी है । लाकसमुदायमे क्लेश उत्पन्न न हो, इस लक्ष्यको चूकना अभी योग्य नहीं है, क्योकि वैसा कोई बलवान प्रयोजन नहीं है।
श्री कृष्णदासका पन पढ़कर सात्त्विक हर्प हुआ है। जिज्ञासाका बल जैसे बढे वैसे प्रयत्न करना, यह प्रथम भूमिका है। वैराग्य और उपशमके हेतुभूत 'योगवासिष्ठादि' ग्रन्थोके पठनमे बाधा नही है । अनाथदासजी रचित 'विचारमाला' ग्रन्थ सटीक अवलोकन करने योग्य है। हमारा चित्त नित्य सत्सगकी इच्छा करता है, तथापि प्रारब्धयोग स्थिति है। आपके समागमी भाइयो द्वारा यथासम्भव सद्ग्रन्थोका अवलोकन हो, उसे अप्रमादपूर्वक करना योग्य है । और एक दूसरेका नियमित परिचय किया जाये इतना ध्यान रखना योग्य है।
प्रमाद सब कर्मोंका हेतु है।
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बबई, वैशाख, १९५० मनका, वचनका तथा कारगका व्यवसाय जितना चाहते है, उसकी अपेक्षा इस समय विशेष रहा करता है। और इसी कारणसे आपको पत्रादि लिखना नही हो सकता । व्यवसायके विस्तारकी इच्छा नही की जाती है, फिर भी वह प्राप्त हुआ करता है । और ऐसा लगता है कि वह व्यवसाय अनेक प्रकारसे वेदन रने योग्य है, कि जिसके वेदनसे पुनः उसका उत्पत्तियोग दूर होगा, निवृत्त होगा। कदाचित् प्रबलरूपसे इसका निरोध किया जाये तो भी उस निरोधरूप क्लेशके कारण आत्मा आत्मरूपसे विस्रसापरिणामकी रह परिणमन नही कर सकता, ऐसा लगता है। इसलिये उस व्यवसायकी अनिच्छारूपसे जो प्राप्ति हो, उसे वेदन करना, यह किसी प्रकारसे विशेष सम्यक् लगता है।
___ किसी प्रगट कारणका अवलम्बन लेकर, विचारकर परोक्ष चले आते हुए सर्वज्ञपुरुषको मात्र सम्यग्ष्टिरूपसे भी पहिचान लिया जाये तो उसका महान फल है, और यदि वैसे न हो तो सर्वज्ञको सर्वज्ञ हनेका कोई आत्मा सम्बन्धी फल नही है, ऐसा अनुभवमे आता है।
प्रत्यक्ष सर्वज्ञपुरुषको भी यदि किसी कारणसे, विचारसे, अवलम्बनसे, सम्यग्दृष्टिरूपसे भी न जाना हो तो उसका आत्मप्रत्ययी फल नही है । परमार्थसे उसकी सेवा-असेवासे जीवको कोई जाति-( )-भेद नही होता । इसलिये उसे कुछ सफल कारणरूपसे ज्ञानीपुरुषने स्वीकार नहीं किया है, ऐसा मालूम होता है।
कई प्रत्यक्ष वर्तमानोंसे ऐसा प्रगट ज्ञात होता है कि यह काल विषम या दुषम या कलियुग है । कालचक्रके परावर्तनमे दुषमकाल पूर्वकालमे अनत बार आ चुका है, तथापि ऐसा दुषमकाल किसी समय ही आता है । श्वेताम्बर सप्रदायमे ऐसी परपरागत बात चली आती है कि 'असयतिपूजा' नामसे आश्चर्ययुक्त 'हुड'-ढीठ ऐसे इस पचमकालको तीर्थंकर आदिने अनत कालमे आश्चर्यस्वरूप माना है, यह वात हमे बहुत करके अनुभवमे आती है, मानो साक्षात् ऐसी प्रतीत होती है ।
काल ऐसा है । क्षेत्र प्राय अनार्य जैसा है, वहाँ स्थिति है, प्रसग, द्रव्य, काल आदि कारणोसे सरल होनेपर भी लोकसज्ञारूपसे गिनने योग्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावके आलबन बिना निराधाररूपसे जैसे आत्मभावका सेवन किया जाये वैसे सेवन करता है । अन्य क्या उपाय ?
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___ वीतरागका कहा हुआ परम शान्त रसमय धर्म पूर्ण सत्य है, ऐसा निश्चय रखना। जीवकी अनधिकारिताके कारण तथा सत्पुरुषके योगके विना समझमे नही आता, तो भी जीवके ससाररोगको मिटानेके लिये उस जैसा दूसरा कोई पूर्ण हितकारी औषध नही है, ऐसा वारवार चिंतन करना।
यह परम तत्त्व है, इसका मुझे सदैव निश्चय रहो, यह यथार्थ स्वरूप मेरे हृदयमे प्रकाश करो, और जन्ममरणादि बन्धनसे अत्यन्त निवृत्ति होओ । निवृत्ति होओ।।
हे जीव | इस क्लेशरूप ससारसे विरत हो, विरत हो, कुछ विचार कर, प्रमाद छोड़कर जागृत हो । जागृत हो || नही तो रत्नचिन्तामणि जैसी यह मनुष्यदेह निष्फल जायेगी।
हे जीव । अब तुझे सत्पुरुषकी आज्ञा निश्चयसे उपासने योग्य है। ॐ शाति शाति शातिः
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वम्बई, वैशाख, १९५० ___ श्री तीर्थंकर आदि महात्माओंने ऐसा कहा है कि विपर्यास दुर होकर जिसको देहादिमे हुई आत्मबुद्धि और आत्मभावमे हुई देहबुद्धि नष्ट हो गयो है, अर्थात् आत्मा आत्मपरिणामी हो गया है, ऐसे ज्ञानी
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श्रीमद् राजचन्द्र ____ आपके अंबालालको पत्र लिखनेके विषयमे चर्चा हुई, वह यद्यपि योग्य नही हुआ। आपको कुछ प्रायश्चित्त दें तो उसे स्वीकारे परन्तु किसी ज्ञानवार्ताको लिखनेके बदले लिखवानेमे आपको कोई रुकावट नही करनी चाहिये, ऐसा साथमे यथायोग्य निर्मल अन्त करणसे बताना योग्य है कि जो बात मात्र जीवका हित करनेके लिये है। पर्यषणादिमे साधु दूसरेसे लिखवाकर पत्र-व्यवहार करते है, जिसमे आत्महित जैसा थोडा ही होता है। तथापि वह रूढि हो जानेसे लोग उसका निषेध नहीं करते । आप उसी तरह रूढिके अनुसार व्यवहार रखेंगे, तो भी हानि नही है, अर्थात् आपको पत्र दूसरोंसे लिखवानेमे बाधा नही आयेगी और लोगोको आशंका नही होगी।
उपमा आदि लिखनेमे लोगोकी विपरीतता रहती हो तो हमारे लिये एक साधारण उपमा लिखें। उपमा नही लिखें तो भी आपत्ति नही है। मात्र चित्तसमाधिके लिये, आपको लिखनेका प्रतिवन्ध नही किया। हमारे लिये उपमाकी कुछ सार्थकता नही है ।
आत्मस्वरूपसे प्रणाम।
५०२ मुनि श्री लल्लुजी तथा देवकरणजी आदिके प्रति,
___ सहज समागम हो जाये अथवा वे लोग इच्छापूर्वक समागम करनेके लिये आते हो तो समागम करनेमे क्या हानि है ? कदाचित् वे लोग विरोधवृत्तिसे समागम करनेका प्रयत्न करते हो तो भी क्या हानि है ? हमे तो उनके प्रति केवल हितकारोवृत्तिसे, अविरोध दृष्टिसे समागममे भी बरताव करना है। इसमे कौनसा पराभव हे ? मात्र उदीरणा करके समागम करनेका अभी कारण नही है। आप सब मुमुक्षुओंके आचारके विषयमे उन्हे कुछ संशय हो, तो भी विकल्पका अवकाश नही है । वड़वामे सत्पुरुषक समागममे गये आदिका प्रश्न करें तो उसके उत्तरमे इतना ही कहना योग्य है कि "आप, हम सब आत्महितकी कामनासे निकले है, और करनेयोग्य भी यही है। जिन पुरुपके समागममे हम आये है, उनके समागममे कभी आप आकर निश्चय कर देखें कि उनके आत्माकी दशा कैसी है ? और वे हमारे लिये कस उपकारके कर्ता है ? अभी यह बान आप जाने दें तक सहजमे भी जाना हो सके, और यह तो ज्ञान । उपकाररूप प्रसगमे जाना हुआ है, इतना आचा विकल्प करना ठीक नहीं है। अधिक रागद्वेष परि उपदेशसे कुछ भी समझमे आये । प्रा टला यह वैसे पुरुपकी कैसा तथा शास्त्रादिसे विचारकर नही है, क्योकि उन्होने स्वय ऐसा कहा था कि, _ 'आपके मुनिपनका सामान्य व्यवहार ऐसा है कि बाह्य अविरति पुरुषके प्रति वन्दनादिका व्यवहार कर्तव्य नही है। उस व्यवहारकी आप भी रक्षा करे। आप वह व्यवहार करें इसमे आपकी स्वच्छन्दता नही है, इसलिये करने योग्य है। अनेक जीवोके लिये सशयका हेतु नही होगा। हमे कुछ वन्दनादिको अपेक्षा नहीं है।'
इस प्रकार जिन्होने सामान्य व्यवहारकी भी रक्षा करवायी थी, उनकी दृष्टि कैसी होनी चाहिये, इसका आप विचार करें। कदाचित अभी यह बात आपकी समझमे न आये तो आगे जाकर समझमें आयेगी, इस विपयमे आप नि सदेह हो जायें।
दूसरी बात,- सन्मार्गरूप आचारविचारमे हमारी कुछ शिथिलता हुई हो, तो आप कहे, क्योकि वैसी शिथिलता दूर किये विना तो हितकारी मार्ग प्राप्त नहीं होगा ऐसी हमारी दृष्टि है" इत्यादि प्रसगा१ यह पत्र फटा हुआ मिला है। जहाँ जहाँ अक्षर नही है वहाँ वहाँ (बिन्दु) रखे हैं। वादमें यह पत्र पूरा मिल
जानेसे पुन आक ७५० के रूपमें प्रकाशित किया है ।
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२७ वॉ वर्ष
४११ नुसार कहना योग्य हो तो कहना, और उनके प्रति अद्वेषभाव है, यह सब उनके ध्यानमे आये, ऐसी वृत्ति और रीतिसे बरताव करना, इसमे सशय करना योग्य नही है।
अन्य साधुके विपयमे आपको कुछ कहना योग्य नहीं है। समागममे आनेके बाद भी कुछ न्यूनाधिकता उनका क्षेप प्राप्त नही करना प्रति बलवान अद्वेष
५०३
बबई, वैशाख वदी ३०, १९५० श्री स्थभतीर्थक्षेत्रमे स्थित, शुभेच्छासम्पन्न भाई श्री अम्बालालके प्रति यथायोग्य विनती कि :
आपका लिखा हुआ एक पत्र पहुंचा हे । यहाँ कुशलता है।
सूरतसे मुनिश्री लल्लुजीका एक पत्र पहले आया था। उसके उत्तरमे एक पत्र यहाँसे लिखा था। उसके बाद पांच-छ. दिन पहले उनका एक पत्र था. जिसमे आपके प्रति जो पत्रादि लिखना हुआ, उसके सम्बन्धमे हुई लोकच के विपयमे बहुतसी बातें थी, उस पत्रका उत्तर भी यहाँसे लिखा है । यह सक्षेपमे इस प्रकार है।
प्राणातिपातादि पाँच महाव्रत है वे सब त्यागके है, अर्थात् सब प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होना सब प्रकारके मृषावादसे निवृत्त होना, इस प्रकार साधुके पाँच महावत होते है। और जब साधु इस आज्ञाके अनुसार चले तब वह मुनिके सम्प्रदायमे है, ऐसा भगवानने कहा है। इस प्रकार पाँच महानतोका उपदेश करनेपर भी जिसमे प्राणातिपातका कारण है ऐसी नदीको पार करने आदिको क्रियाकी आज्ञा भी जिनेद्रने दी है। वह इस अर्थमे कि नदीको पार करनेमे जीवको जो वध होगा उसकी अपेक्षा एक क्षेत्रमे निवास करनेसे बलवान वध होगा और परम्परासे पाँच , महाव्रतोकी हानिका प्रसग आयेगा, यह देखकर, जिसमे द्रव्य प्राणातिपात है, ऐसी नदीको पार करनेकी आज्ञा श्री जिनेंद्रने दी है। इसी प्रकार वस्त्र, पुस्तक रखनेसे सर्वपरिग्रहविरमणव्रत नही रह सकता, फिर भी देहके सातार्थका त्याग कराकर आत्मार्थ साधनेके लिये देहको साधनरूप समझकर उसमेसे सम्पूर्ण मूर्छा दूर होने तक वस्त्रके नि स्पृह सम्बन्धका और विचारवल बढने तक पुस्तकके सम्बन्धका उपदेश जिनेन्द्रने दिया है। अर्थात् सर्व त्यागमे प्राणातिपात तथा परिग्रहका सब प्रकारसे अगीकार करनेका निपेध होने पर भी, इस प्रकारसे अगीकार करनेकी आज्ञा जिनेन्द्रने दी है। वह सामान्य दृष्टिसे देखनेपर विपम प्रतीत होगा, तथापि जिनेन्द्रने तो सम ही कहा है । दोनो ही वाते जीवके कल्याणके लिये कही गयी है। जैसे सामान्य जीवका कल्याण हो वैसे विचारकर कहा है। इसी प्रकार मैथुनन्यागवत होनेपर भी उसमे अपवाद नहीं कहा है, क्योकि मैथुनकी आराधना रागद्वेपके बिना नही हो सकती, ऐसा जिनेद्रका अभिमत है। अर्थात् रागद्वेषको अपरमार्थरूप जानकर मैथुनत्यागकी अपवादरहिन आराधना कही है । इसी प्रकार वृहत्कल्पसूत्रमे जहाँ साधुके विचरनेकी भूमिका प्रमाण कहा है, वहाँ चारो दिशाओमे अमुक नगर तककी मर्यादा वतायी है. तथापि उसके अतिरिक्त जो अनार्य क्षेत्र है, उसमे भी ज्ञान, दर्शन और सयमकी वृद्धिके लिये विचरनेका अपवाद बताया है । क्योकि आर्यभूमिमे यदि किसी योगवश ज्ञानीपुरुपका समीपमे विचरना न हो और प्रारब्धयोगसे ज्ञानीपुरुपका अनार्यभूमिमे विचरना हो तो वहाँ जाना, इसमे भगवानकी बतायी हुई आज्ञाका भग नही होता।
इसी प्रकार यदि साधु पत्र-समाचार आदिका प्रसग रसे तो प्रतिवन्ध वढता है, इस कारणसे भगवानने इसका निषेध किया है, परन्तु वह निषेध ज्ञानीपुरुषके किसी वैसे पत्र-समाचारमे अपवादल्प लगता है. क्योकि ज्ञानीके प्रति निष्कामरूपसे ज्ञानाराधनके लिये पत्र-समाचारका व्यवहार होता है। इसमे अन्य कोई ससारार्थ हेतु-उद्देश्य नही है, प्रत्युत ससारार्थ दुर होनेका हेतु है, और ससारको दूर करना
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श्रीमद् राजचन्द्र इतना ही परमार्थ है । जिससे ज्ञानीपुरुषकी अनुज्ञासे अथवा किसी सत्संगी जनकी अनुज्ञासे पत्र-समाचारका कारण उपस्थित हो तो वह सयमके विरुद्ध ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता; तथापि आपको साधुने जो पच्चक्खान दिया था, उसके भग होनेका दोष आप पर आरोपित करना योग्य है। यहाँ पच्चक्खानके स्वरूपका विचार नही करना है, परन्तु आपने उन्हे जो प्रगट विश्वास दिलाया, उसे भग करनेका क्या हेतु है ? यदि वह पच्चक्खान लेनेमे आपका यथायोग्य चित्त नही था, तो आपको वह लेना योग्य न था, और यदि किसी लोक-दबावसे वैसा हुआ तो उसका भग करना योग्य नही है, और भग करनेका जो परिणाम है वह भग न करनेकी अपेक्षा विशेप आत्महितकारी हो, तो भी उसे स्वेच्छासे भग करना योग्य नहीं है, क्योकि जीव रागद्वेष अथवा अज्ञानसे सहजमे अपराधी होता है, उसका विचारा हुआ हिताहित विचार कई वार विपर्यय होता है। इसलिये आपने जिस प्रकारसे पच्चक्खानका भंग किया है, वह अपराधयोग्य है, और उसका प्रायश्चित्त लेना भी किसी तरह योग्य है । "परन्तु किसी प्रकारको संसारबुद्धिसे यह कार्य नही हुआ, और ससारकार्यके प्रसगसे पत्र-समाचारका व्यवहार करनेकी मेरी इच्छा नही है, यह जो कुछ पत्रादिका लिखना हुआ है, वह मात्र किसी जीवके कल्याणकी वातके विषयमे हुआ है, और यदि वह न किया गया होता तो वह एक प्रकारसे कल्याणरूप था, परन्तु दूसरे प्रकारसे चित्तका व्यग्रता उत्पन्न होकर अन्तर क्लेशित होता था। इसलिये जिसमे कुछ ससारार्थ नहीं है, किसी प्रकारका अन्य वाछा नही है, मात्र जीवके हितका प्रसंग है, ऐसा समझकर लिखना हआ है। महाराज द्वारा दिया हुआ पच्चक्खान भी मेरे हितके लिये था कि जिससे मैं किसी संसारी प्रयोजनमे न पड़ जाऊँ, और उसक लिये उनका उपकार था। परन्तु मैंने ससारी प्रयोजनसे यह कार्य नही किया है, आपके संघाड़ेके प्रतिवधका तोड़नेके लिये यह कार्य नही किया है, तो भी यह एक प्रकारसे मेरी भूल है, तब उसे अल्प साधारण प्रायश्चित्त देकर क्षमा करना योग्य है। पर्युपणादि पर्वमे साधु श्रावकसे श्रावकके नामसे पत्र लिखवात है। उसके सिवाय किसी दूसरे प्रकारसे अव प्रवृत्ति न की जाये और ज्ञानचर्चा लिखी जाये तो भी बाधा नही है," इत्यादि भाव लिखे है। आप भी उस तथा इस पत्रको विचारकर जैसे क्लेश उत्पन्न न हो वैसा कीजियेगा। किसी भी प्रकारसे सहन करना अच्छा है। ऐसा न हो तो साधारण कारणमे महान विपरीत क्लेशरूप परिणाम आता है। यथासम्भव प्रायश्चित्तका कारण न हो तो न करना, नही तो फिर अल्प भा प्रायश्चित्त लेनेमे बाधा नही है। वे यदि प्रायश्चित्त दिये बिना कदाचित् इस बातको जाने दें, तो भी आप अर्थात् साधु लल्लुजीको चित्तमे इस बातका इतना पश्चात्ताप करना तो योग्य है कि ऐसा करना भा योग्य न था। भविष्यमे देवकरणजी साधु जैसेकी समक्षतामे वहांसे कोई श्रावक लिखनेवाला हो और पत्र लिखवाये तो बाधा नही है, इतनी व्यवस्था उस सम्प्रदायमे चली आती है, इससे प्राय. लोग विरोध नही करेंगे। और उसमे भी यदि विरोध जैसा लगता हो तो अभी उस बातके लिये भी धैर्य रखना हितकारी है । लाकसमुदायमे क्लेश उत्पन्न न हो, इस लक्ष्यको चूकना अभी.योग्य नहीं है, क्योकि वैसा कोई बलवान प्रयोजन नहीं है।
श्री कृष्णदासका पत्र पढकर सात्त्विक हर्ष हुआ है। जिज्ञासाका बल जैसे बढ़े वैसे प्रयत्न करना, यह प्रथम भूमिका है। वैराग्य और उपशमके हेतुभूत 'योगवासिष्ठादि' ग्रन्थोके पठनमे बाधा नहीं है । अनाथदासजी रचित 'विचारमाला' ग्रन्थ सटीक अवलोकन करने योग्य है। हमारा चित्त नित्य सत्सगकी इच्छा करता है, तथापि प्रारब्धयोग स्थिति है। आपके समागमी भाइयो द्वारा यथासम्भव सद्ग्रन्थोका अवलोकन हो, उसे अप्रमादपूर्वक करना योग्य है । और एक दूसरेका नियमित परिचय किया जाये इतना ध्यान रखना योग्य है।
प्रमाद सब कर्मोका हेतु है।
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बबई, वैशाख, १९५० मनका, वचनका तथा कारणका व्यवसाय जितना चाहते है, उसकी अपेक्षा इस समय विशेप रहा करता है । और इसी कारणसे आपको पत्रादि लिखना नही हो सकता । व्यवसायके विस्तारकी इच्छा नही की जाती है, फिर भी वह प्राप्त हुआ करता है । और ऐसा लगता है कि वह व्यवसाय अनेक प्रकारसे वेदन करने योग्य है, कि जिसके वेदनसे पुनः उसका उत्पत्तियोग दूर होगा, निवृत्त होगा। कदाचित् प्रबलरूपसे उसका निरोध किया जाये तो भी उस निरोधरूप क्लेशके कारण आत्मा आत्मरूपसे विस्रसापरिणामकी तरह परिणमन नही कर सकता, ऐसा लगता है। इसलिये उस व्यवसायकी अनिच्छारूपसे जो प्राप्ति हो, उसे वेदन करना, यह किसी प्रकारसे विशेष सम्यक् लगता है।
किसी प्रगट कारणका अवलम्बन लेकर, विचारकर परोक्ष चले आते हुए सर्वज्ञपुरुषको मात्र सम्यग्दृष्टिरूपसे भी पहिचान लिया जाये तो उसका महान फल है, और यदि वैसे न हो तो सर्वज्ञको सर्वज्ञ कहनेका कोई आत्मा सम्बन्धी फल नही है, ऐसा अनुभवमे आता है।
प्रत्यक्ष सर्वज्ञपुरुषको भी यदि किसी कारणसे, विचारसे, अवलम्बनसे, सम्यग्दृष्टिरूपसे भी न जाना हो तो उसका आत्मप्रत्ययी फल नही है। परमार्थसे उसकी सेवा-असेवासे जीवको कोई जाति-( )-भेद नही होता । इसलिये उसे कुछ सफल कारणरूपसे ज्ञानीपुरुषने स्वीकार नही किया है, ऐसा मालूम होता है।
कई प्रत्यक्ष वर्तमानोसे ऐसा प्रगट ज्ञात होता है कि यह काल विषम या दुषम या कलियुग हे । कालचक्रके परावर्तनमे दुषमकाल पूर्वकालमे अनत बार आ चुका है, तथापि ऐसा दुषमकाल किसी समय ही आता है । श्वेताम्बर सप्रदायमे ऐसी परपरागत बात चली आती है कि 'असयतिपूजा' नामसे आश्चर्ययुक्त 'हुड'-ढीठ ऐसे इस पचमकालको तीर्थकर आदिने अनत कालमे आश्चर्यस्वरूप माना है, यह बात हमे बहुत करके अनुभवमे आती है, मानो साक्षात् ऐसी प्रतीत होती है ।
काल ऐसा है । क्षेत्र प्राय अनार्य जैसा है, वहाँ स्थिति है, प्रसग, द्रव्य, काल आदि कारणोसे सरल होनेपर भी लोकसज्ञारूपसे गिनने योग्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावके आलवन बिना निराधाररूपसे जैसे आत्मभावका सेवन किया जाये वैसे सेवन करता है । अन्य क्या उपाय ?
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वीतरागका कहा हुआ परम शान्त रसमय धर्म पूर्ण सत्य है, ऐसा निश्चय रखना । जीवकी अनधिकारिताके कारण तथा सत्पुरुषके योगके विना समझमे नही आता, तो भी जीवके ससाररोगको मिटानेके लिये उस जैसा दूसरा कोई पूर्ण हितकारी औषध नही है, ऐसा वारवार चिंतन करना ।
यह परम तत्त्व है, इसका मुझे सदैव निश्चय रहो, यह यथार्थ स्वरूप मेरे हृदयमे प्रकाश करो, और जन्ममरणादि बन्धनसे अत्यन्त निवृत्ति होओ। निवृत्ति होओ ।।
हे जीव । इस क्लेशरूप ससारसे विरत हो, विरत हो, कुछ विचार कर, प्रमाद छोड़कर जागृत हो । जागृत हो ॥ नही तो रत्नचिन्तामणि जैसी यह मनुष्यदेह निष्फल जायेगी।
हे जीव ! अब तुझे सत्पुरुषको आज्ञा निश्चयसे उपासने योग्य है। ॐ शाति शाति शातिः
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वम्बई, वैशाख, १९५० श्री तीर्थकर आदि महात्माओने ऐसा कहा है कि विपर्यास दूर होकर जिसको देहादिमे हुई आत्मबुद्धि और आत्मभावमे हुई देहबुद्धि नष्ट हो गयो है, अर्थात् आत्मा आत्मपरिणामी हो गया है, ऐसे ज्ञानी
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श्रीमद् राजचन्द्र पुरुषको भी जब तक प्रारब्ध व्यवसाय है, तव तक जागृतिमे रहना योग्य है। क्योकि अवकाश प्राप्त होनेपर वहाँ भी अनादि विपर्यास भयका हेतु हमे लगता है। जहाँ चार घनघाती कर्म छिन्न हो गये है, ऐसे सहजस्वरूप परमात्मामे तो सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण जागृतिरूप तुर्यावस्था है, इसलिये वहाँ अनादि विपर्यास निजिताको प्राप्त हो जानेसे किसी भी प्रकारसे उसका उद्भव हो ही नहीं सकता, तथापि उससे न्यून ऐसे विरति आदि गुणस्थानकमे स्थित ज्ञानीको तो प्रत्येक कार्यमे और प्रत्येक क्षणमे आत्मजागृति होना योग्य है । जिसने चोदह पूर्वको अशतः न्यून जाना है, ऐसे ज्ञानीपुरुपको भी प्रमादवशात् अनतकाल परिभ्रमण हुआ है। इसलिये जिसकी व्यवहारमे अनासक्त बुद्धि हुई है उस पुरुषको भी यदि वैसे उदयका प्रारब्ध हो तो उसकी निवृत्तिका क्षण क्षण चिन्तन करना और निजभावकी जागति रखना चाहिये। इस प्रकार महाज्ञानी श्री तीर्थंकर आदिने ज्ञानीपुरुपको सूचना की है, तो फिर जिसका मार्गानुसारी अवस्थामे भी अभी प्रवेश नही हुआ है, ऐसे जीवको तो इस सर्व व्यवसायसे विशेष विशेष निवृत्तभाव रखना, और विचार-जागृति रखना योग्य है, ऐसा बताने जैसा भी नहीं रहता, क्योकि वह तो सहजमे हो समझमे आ सकता है।
ज्ञानीपुरुषोने दो प्रकारसे बोध दिया है। एक तो 'सिद्धान्तबोध' और दूसरा उस सिद्धातबोधके होनेमे कारणभूत ऐसा 'उपदेशबोध' । यदि उपदेगबोध जीवके अन्त करणमे स्थितिमान हुआ न हो तो, उसे सिद्धातबोधका मात्र श्रवण भले ही हो, परन्तु उसका परिणमन नही हो सकता। सिद्धातबोध अर्थात् पदार्थका जो सिद्ध हुआ स्वरूप है, ज्ञानीपुरुपोने निष्कर्ष निकालकर जिस प्रकारसे अन्तमे पदार्थको जाना है, उसे जिस प्रकारसे वाणी द्वारा कहा जा सके उस प्रकार बताया है, ऐसा जो बोध है वह 'सिद्धातबोध' है । परन्तु पदार्थका निर्णय करनेमे जीवको अन्तरायरूप उसकी अनादि विपर्यासभावको प्राप्त हुई बुद्धि है, जो व्यक्तरूपसे या अव्यक्तरूपसे विपर्यासभावसे पदार्थस्वरूपका निर्धार कर लेती है, उस विपर्यासबुद्धिका बल घटनेके लिये, यथावत् वस्तुस्वरूपके ज्ञानमे प्रवेश होनेके लिये, जीवको वैराग्य और उपशम साधन कहे है, और ऐसे जो जो साधन जीवको संसारभय दृढ कराते हैं, उन उन साधनो सम्बन्धी जो उपदेश कहा है, वह 'उपदेशबोध' है।
यहाँ ऐसा भेद उत्पन्न होता है कि 'उपदेशबोध' की आधा तबोध' की मुख्यता प्रतीत होती है, क्योकि उपदेशबोध भी उसीके लिये है, तो फिर यदि सिद्धातबोधका ही पहलेसे अवगाहन किया हो तो वह जीवको पहलेसे ही उन्नतिका हेतु है। यदि ऐसा विचार उत्पन्न हो तो वह विपरीत है, क्योकि सिद्धातबोधका जन्म उपदेशबोधसे होता है। जिसे वेराग्य-उपशम सम्बन्धी उपदेशबोध नही हुआ उसे बुद्धिकी विपर्यासता रहा करती है, और जब तक बुद्धिकी विपर्यासता हो तब तक सिद्धातका विचार करना भी विपर्यासरूपसे होना ही सभव है। क्योकि चक्षुमे जितना धुंधलापन रहता है, वह उतना ही पदार्थको धुंधला देखता है, और यदि उसका पटल अत्यन्त बलवान हो तो उसे समूचा पदार्थ दिखायी नही देता, तथा जिसका चक्षु यथावत् सपूर्ण तेजस्वी है, वह पदार्थको भी यथायोग्य देखता है। इस प्रकार जिस जीवकी गाढ विपर्यासवुद्धि है, उसे तो किसी भी तरह सिद्धातबोध विचारमे नही आ सकता। जिसकी विपर्यासबुद्धि मद हुई है उसे तदनुसार सिद्धातका अवगाहन होता है, और जिसने उस विपर्यासबुद्धिको विशेषरूपसे क्षीण किया है, ऐसे जीवको विशेषरूपसे सिद्धातका अवगाहन होता है।
- गृहकुटुम्ब परिग्रहादि भावमे जो अहता ममता है और उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रसगमे जो रागद्वेष कषाय है, वही 'विपर्यासबुद्धि' है, और जहाँ वैराग्य उपशमका उद्भव होता है, वहाँ अहता-ममता तथा कषाय मद पड जाते हैं, अनुक्रमसे नष्ट होने योग्य हो जाते हैं। गृहकुटुम्बादि भावमे अनासक्तबुद्धि होना 'वैराग्य' है, ओर उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले कषायक्लेशका मंद होना 'उपशम' है।
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अर्थात् ये दो गुण विपर्यासबुद्धिको पर्यायातर करके सद्धि करते हैं, और वह सदबुद्धि, जीवाजीवा पदार्थकी व्यवस्था जिससे ज्ञात होती है ऐसे सिद्धातकी विचारणा करने योग्य होती है। क्योकि जै चक्षुको पटलादिका अन्तराय दूर होनेसे पदार्थ यथावत् दीखता है वैसे हो अहंतादि पटलकी मदता होने जीवको ज्ञानीपुरुपके कहे हुए सिद्धातभाव, आत्मभाव विचारचक्षुसे दिखायी देते है। जहाँ वैराग्य में उपशम बलवान हैं, वहाँ विवेक बलवानरूपमे होता है, जहाँ वैराग्य और उपशम वलवान नही होते व विवेक प्रबल नहीं होता, अथवा यथावत् विवेक नही होता । सहज आत्मस्वरूप ऐसा केवलज्ञान भी प्रथा मोहनीय कर्मके क्षयके बाद प्रगट होता है । और इस बातसे उपर्युक्त सिद्धात स्पष्ट समझा जा सकेगा।
फिर ज्ञानीपुरुषोकी विशेष शिक्षा वैराग्य-उपशमका प्रतिबोध करती हुई दिखायी देती है । जिनागम पर दृष्टि डालनेसे यह बात विशेष स्पष्ट जानी जा सकेगी। 'सिद्धातबोध' अर्थात् जीवाजीव पदार्थव विशेषरूपसे कथन उस आगममे जितना किया है, उसकी अपेक्षा विशेषरूपसे, अति विशेषरूपसे वैराग और उपशमका कथन किया हैं, क्योकि उसकी सिद्धि होनेके पश्चात् सहजमें ही विचारकी निर्मलता होग और विचारकी निर्मलता सिद्धातरूप कथनको सहजमे ही अथवा थोड़े हो परिश्रमसे अगीकार कर सकत है, अर्थात् उसको भी सहजमे ही सिद्धि होगी, और वैसा ही होते रहनेसे जगह जगह इसी अधिकारव व्याख्यान किया है। यदि जीवको आरभ-परिग्रहको विशेष प्रवृत्ति रहती हो तो, वैराग्य और उपशम ह तो उनका भी नष्ट हो जाना सभव है, क्योकि आरभ-परिग्रह अवैराग्य और अनुपशमके मूल हैं, वैराग. और उपशमके काल हैं।
श्री ठाणागसूत्रमे आरभ और परिग्रहके बलको बताकर, फिर उससे निवृत्त होना योग्य है, यः उपदेश करनेके लिये इस भावसे द्विभगी कही है -
१ जीवको मतिज्ञानावरणीय कब तक हो ? जव तक आरभ और परिग्रह हो तब तक । २ जीवको श्रतज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरंभ और परिग्रह हो तब तक । ३ जीवको अवधिज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरम्भ और परिग्रह हो तब तक । ४ जोवको मन.पर्यायज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरम्भ और परिग्रह हो तब तक । ५ जीवको केवलज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरम्भ और परिग्रह हो तब तक।
ऐसा कहकर दर्शनादिके भेद बताकर सत्रह बार वही की वही बात बतायी है कि वे आवर तब तक रहते है जब तक आरम्भ और परिग्रह हो। ऐसा परिग्रहका बल बताकर फिर अापत्तिरूप पुनः उसका वही कथन किया है।
१ जीवको मतिज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिग्रहसे निवृत्त होने पर । २ जीवको श्रुतज्ञान कव उपजे ? आरम्भ परिग्रहसे निवृत्त होने पर। ३ जोवको अवधिज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिग्रहसे निवृत्त होने पर। ४ जीवको मन.पर्यायज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिग्रहसे निवृत्त होने पर । ५ जीवको केवलज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिगहसे निवृत्त होने पर।
इस प्रकार सत्रह प्रकारोको फिरसे कहकर, आरम्भ-परिग्रहकी निवृत्तिका फल, जहाँ अंतमे केवल ज्ञान के वहाँ तक लिया है; और प्रवृत्तिके फलको केवलज्ञान तकके आवरणका हेतुरूप कहकर, उसको अत्यन्त प्रवलता बताकर, जीवको उससे निवृत्त होनेका ही उपदेश किया है। वार वार ज्ञानीपुरुषों वचन जीवको इस उपदेशका हो निश्चय करनेको प्रेरणा करना चाहते है, तथापि अनादि असत्संगसे उत्पन्न हुई ऐसी दुष्ट इच्छा आदि भावोमे मूढ बना हुआ यह जीव प्रतिवोध नही पाता, और उन भावो
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श्रीमद् राजनन्द्र
की निवृत्ति किये बिना अथवा निवृत्तिका प्रयत्न किये बिना श्रेय चाहता है, कि जिसका सम्भव कभी भी नहीं हो सका है, वर्तमानमे होता नही है, और भविष्यमे होगा नही।
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बबई, ज्येष्ठ सुदी ११, गुरु, १९५० यहाँ उपाधिका बल जैसेका तैसा रहता है। जैसे उसके प्रति उपेक्षा होती है वैसे बलवान उदय होता है, प्रारब्ध धर्म समझकर वेदन करना योग्य है, तथापि निवृत्तिकी इच्छा और आत्माकी शिथिलता है, ऐसा विचार खेद देता रहता है । कुछ भी निवृत्तिका स्मरण रहे इतना सत्सग तो करते रहना योग्य है ।
आ० स्व० प्रणाम। बबई, जेठ सुदी १४, रवि, १९५०
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परमस्नेहो श्री सोभाग,
___ आपका एक पत्र सविस्तर मिला है। उपाधिके प्रसगसे उत्तर लिखना नही हुआ, सो क्षमा कीजियेगा।
चित्तमे उपाधिके प्रसगके लिये वारंवार खेद होता है कि यदि ऐसा उदय इस देहमे बहुत समय तक रहा करे तो समाधिदशाका जो लक्ष्य है वह जैसेका तैसा अप्रधानरूपसे रखना पडे, और जिसमें अत्यन्त अप्रमादयोग जरूरी है, उसमे प्रमादयोग जैसा हो जाये।
कदाचित् वैसा न हो तो भी यह ससार किसी प्रकारसे रुचियोग्य प्रतीत नही होता, प्रत्यक्ष रसरहित स्वरूप ही दिखायी देता है, उसमे सद्विचारवान जीवको अल्प भी रुचि अवश्य नही होती, ऐसा निश्चय रहा करता है। वारवार ससार भयरूप लगता है। भयरूप लगनेका दूसरा कोई कारण प्रतीत नही होता, मात्र इसमे शुद्ध आत्मस्वरूपको अप्रधान रखकर प्रवृत्ति होती है, जिससे बड़ी परेशानी रहती है, और नित्य छूटनेका लक्ष्य रहता है। तथापि अभी तो अन्तरायका सम्भव है, और प्रतिबन्ध भी रहा करता है । तथा तदनुसारी दूसरे अनेक विकल्पोसे कटु लगनेवाले इस संसारमे बरबस स्थिति है।
.. आप कितने ही प्रश्न लिखते हैं वे उत्तरयोग्य होते है, फिर भी वह उत्तर न लिखनेका कारण उपाधि प्रसंगका बल है, तथा उपर्युक्त जो चित्तका खेद रहता है, वह है।
आ० स्व० प्रणाम।
५०९ मोहमयी, आषाढ सुदी ६, रवि, १९५० श्री सूर्यपुरस्थित, शुभवृत्तिसंपन्न, सत्सगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति,
यथायोग्यपूर्वक विनती कि
पत्र प्राप्त हुआ है। उसके साथ तीन प्रश्न अलग लिखे हैं, वे भी प्राप्त हुए हैं। जो तीन प्रश्न लिखे हे उन प्रश्नोका मुमुक्षु जीवको विचार करना हितकारी है।
जीव और काया पदार्थरूपसे भिन्न है, परन्तु सम्बन्धरूपसे सहचारी है, कि जब तक उस देहसे जोवको कर्मका भोग है। श्री जिनेन्द्रने जीव ओर कर्मका सम्बन्ध क्षीरनीरके सम्बन्धकी भॉति कहा है। उसका हेतु भी यही है कि क्षीर और नीर एकत्र हुए स्पष्ट दीखते हैं, फिर भी परमार्थसे वे अलग हैं, पदार्थरूपसे भिन्न है, अग्निप्रयोगसे वे फिर स्पष्ट अलग हो जाते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध है । कर्मका मुख्य आकार किसी प्रकारसे देह है, और जीवको इन्द्रियादि द्वारा क्रिया करता हुआ देखकर जीव है, ऐसा सामान्यत' कहा जाता है। परन्तु ज्ञानदशा आये विना जीव और कायाकी जो स्पष्ट
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भिन्नता है, वह जीवको भासित नही होती, तथापि क्षीरनीरवत् भिन्नता है। ज्ञानसस्कारसे वह भिन्नता एकदम स्पष्ट हो जाती है । अव यहाँ आपने ऐसा प्रश्न किया है कि यदि ज्ञानसे जीव और कायाको भिन्न भिन्न जाना है तो फिर वेदनाका वेदन करना और मानना क्यो होता है ? यह फिर न होना चाहिये, यह प्रश्न यद्यपि होता है, तथापि उसका समाधान इस प्रकार है
जैसे सूर्यसे तप्त हआ पत्थर सूर्यके अस्त होनेके बाद भी अमुक समय तक तप्त रहता है, और फिर अपने स्वरूपमे आता है, वैसे पूर्वके अज्ञान-सस्कारसे उपार्जित किये हुए वेदना आदि तापका इस जीवसे सम्बन्ध है। यदि ज्ञानयोगका कोई कारण हुआ तो फिर अज्ञानका नाश हो जाता है, और उससे उत्पन्न होनेवाला भावी कर्म नष्ट हो जाता है, परन्तु उस अज्ञानसे उत्पन्न हुए वेदनोय कर्मका-उस अज्ञानके सूर्यकी भाँति, उसके अस्त होनेके पश्चात्-पत्थररूपी जीवके साथ सम्बन्ध रहता है, जो आयुकर्मके नाशसे नष्ट होता है । भेद इतना है कि ज्ञानीपुरुषको कायामे आत्मबुद्धि नही होती, और आत्मामे कायाबुद्धि नही होती, उनके ज्ञानमे दोनो ही स्पष्ट भिन्न प्रतीत होते है। मात्र जैसे पत्थरको सूर्यके तापका सम्बन्ध रहता है, वैसे पूर्व सम्बन्ध होनेसे वेदनीय कर्मका, आयु-पूर्णता तक अविषमभावसे वेदन होता है, परन्तु वह वेदन करते हुए जीवके स्वरूपज्ञानका भग नही होता, अथवा यदि होता हे तो उस जीवको वैसा स्वरूपज्ञान होना सम्भव नही है। आत्मज्ञान होनेसे पूर्वोपार्जित वेदनीय कर्मका नाश ही हो जाये, ऐसा नियम नही है, वह अपनी स्थितिसे नष्ट होता है। फिर वह कर्म ज्ञानको आवरण करनेवाला नही है, अव्यावाधत्वको आवरणरूप है, अथवा तब तक सम्पूर्ण अव्यावाधत्व प्रगट नही होता, परन्तु सम्पूर्ण ज्ञानके साथ उसका विरोध नही है । सम्पूर्ण ज्ञानोको आत्मा अव्याबाध है, ऐसा निजरूपका अनुभव रहता है। तथापि सम्बन्धरूपसे देखते हुए उसका अव्यावाधत्व वेदनीय कर्मसे अमुकभावसे रुका हुआ है। यद्यपि उस कर्ममे ज्ञानीको आत्मबुद्धि नही होनेसे अव्यावाध गुणको भी मात्र सम्बन्धका आवरण है, साक्षात् आवरण नहीं है।
वेदनाका वेदन करते हुए जीवको कुछ भी विषमभाव होना, यह अज्ञानका लक्षण है, परन्तु वेदना है, यह अज्ञानका लक्षण नहीं है, पूर्वोपार्जित अज्ञानका फल है। वर्तमानमे वह मात्र प्रारब्धरूप है. उसका वेदन करते हुए ज्ञानीको अविषमता रहती है, अर्थात् जीव और काया अलग है, ऐसा जो ज्ञानीपुरुपका ज्ञानयोग वह अवाध ही रहता है। मात्र विपमभावरहितपन है, यह प्रकार ज्ञानको अव्यावाध है। जो विषमभाव हे वह ज्ञानको वाधाकारक है । देहमे देहबुद्धि और आत्मामे आत्मवुद्धि, देहसे उदासीनता और आत्मामे स्थिति है, ऐसे ज्ञानोपुरुपको वेदनाका उदय प्रारब्धके वेदनरूप है, नये कर्मका हेतु नही है।
दूसरा प्रश्न-परमात्मस्वरूप सब जगह एकसा है, सिद्ध ओर ससारी जीव एकसे हैं, तब सिद्धको स्तुति करनेमे कुछ बाधा हे या नहीं ? इस प्रकारका प्रश्न है। परमात्मस्वरूप प्रथम विचारणीय है। व्यापकरूपसे परमात्मस्वरूप सर्वत्र हे या नहीं ? यह बात विचार करने योग्य है ।
सिद्ध और ससारी जीव समसत्तावानस्वरूपसे है, यह निश्चय ज्ञानीपुरुषोने किया है, वह यथार्थ है। तथापि भेद इतना है कि सिद्वमे वह सत्ता प्रकटरूपसे है, ससारी जीवमे वह सत्ता सत्तारूपसे है, जैसे दीपकमे अग्नि प्रकट हे और चकमक पत्थरमे अग्नि सत्तारूपसे है, वैसे यहां समझें। दीपकमे और चकमकमे जो अग्नि हे वह अग्निरूपसे समान है। व्यक्ति (प्रगटता) रूपसे और शक्ति (सत्ता) रूपसे भेद है, परन्तु वस्तुकी जातिरूपसे भेद नही है । उसी तरह सिद्धके जीवमे जो चेतनसत्ता है वही सव ससारी जोवोमे हे । भेद मात्र प्रगटता-अप्रगटताका है । जिसे वह चेतनसत्ता प्रगट नहीं हुई, ऐसे ससारी जीवको, वह। सत्ता प्रगट होनेका हेतु, जिसमे प्रगट सत्ता है ऐसे सिद्ध भगवानका स्वरूप, वह विचार करने योग्य है, ध्यान करने योग्य है, स्तुति करने योग्य है, क्योकि उससे आत्माको निजस्वरूपका विचार, ध्यान तथा स्तुति
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श्रीमद् राजचन्द्र करनेका प्रकार मिलता है कि जो कर्तव्य है। सिद्धस्वरूप जैसा आत्मस्वरूप है ऐसा विचारकर और इस आत्मामे वर्तमानमे उसकी अप्रगटता है, उसका अभाव करनेके लिये उस सिद्धस्वरूपका विचार, ध्यान तथा स्तुति करना योग्य है । यह प्रकार समझकर सिद्धकी स्तुति करनेमे कोई वाधा प्रतीत नही होती।
'आत्मस्वरूपमे जगत नही है', यह बात वेदान्तमे कही है अथवा ऐसा योग्य है। परन्तु 'बाह्य जगत नही है', ऐसा अर्थ मात्र जीवको उपशम होनेके लिये मानने योग्य समझा जाये।
इस प्रकार इन तीन प्रश्नोका सक्षेपमे समाधान लिखा है, उसे विशेषरूपसे विचारियेगा। कुछ विशेष समाधान जाननेकी इच्छा हो, वह लिखियेगा । जिस तरह वैराग्य-उपशमकी वर्धमानता हो उस तरह करना अभी तो कर्तव्य है।
५१० बम्बई, आषाढ सुदी ६, रवि, १९५० श्री स्थम्भतीर्थस्थित शुभेच्छासम्पन्न श्री त्रिभुवनदासके प्रति यथायोग्यपूर्वक विनती कि
वधवृत्तियोका उपशम करनेके लिये और निवर्तन करनेके लिये जीवको अभ्यास, सतत अभ्यास ___ कर्त्तव्य है, क्योकि विचारके बिना और प्रयासके बिना उन वृत्तियोका उपशमन अथवा निवर्तन कैसे हो ?
कारणके बिना किसी कार्यका होना सम्भव नही है, तो फिर यदि इस जीवने उन वृत्तियोके उपशमन अथवा निवर्तनका कोई उपाय न किया हो तो उनका अभाव नही होता, यह स्पष्ट सम्भव है। कई बार पूर्वकालमे वृत्तियोके उपशमन तथा निवर्तनका जीवने अभिमान किया है, परन्तु वैसा कोई साधन नही किया, और अभी तक जीव उस प्रकारका कोई उपाय नही करता, अर्थात् अभी उसे उस अभ्यासमे कोई रस दिखायी नही देता, तथा कटुता लगनेपर भी उस कटुताकी अवगणना कर यह जीव उपशमन एव निवर्तनमे प्रवेश नहीं करता। यह बात इस दुष्टपरिणामी जीवके लिये वारवार विचारणीय है, किसी प्रकारसे विसर्जन करने योग्य नही है। ,
जिस प्रकारसे पुत्रादि सम्पत्तिमे इस जीवको मोह होता है, वह प्रकार सर्वथा नीरस और निन्दनीय है। जीव यदि जरा भी विचार करे तो यह बात स्पष्ट समझमे आने जैसी है कि इस जीवने किसीमे पुत्रत्वकी भावना करके अपना अहित करनेमे कोई कसर नही रखी, और किसीको पिता मानकर भी वैसा ही किया है, और कोई जीव अभी तक तो पिता पुत्र हो सका हो, ऐसा देखनेमे नही आया। सब कहते आये है कि इसका यह पुत्र अथवा इसका यह पिता है, परन्तु विचार करते हुए स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह वात किसी भी कालमे सम्भव नहीं है। अनुत्पन्न ऐसे इस जीवको पुत्ररूपसे मानना अथवा ऐसा मनवानेकी इच्छा रहना, यह सब जीवकी मूढता है, और यह मूढता किसी भी प्रकारसे सत्सगकी इच्छावाले जीवको करना योग्य नहीं है।
आपने जो मोहादि प्रकारके विपयमे लिखा है, वह दोनोके लिये भ्रमणका हेतु है, अत्यन्त विडम्बनाका हेतु है। ज्ञानीपुरुष भी यदि इस तरह आचरण करे तो ज्ञानको ठोकर मारने जैसा है, और सब प्रकारसे अज्ञाननिद्राका वह हेतु है । इस प्रकारके विचारसे दोनोको सीधा भाव कर्त्तव्य है। यह बात अल्पकालमे ध्यानमे लेने योग्य है। आप और आपके सत्सगी यथासम्भव निवृत्तिका अवकाश ले, यही जीवको हितकारी है।
__ ५११ मोहमयो, आपाढ सुदी ६, रवि, १९५० श्री अजारस्थित, परमस्नेही श्री सुभाग्य, . आपका सविस्तर एक पत्र तथा एक चिट्ठी प्राप्त हुए है। उनमे लिखे हुए प्रश्न मुमुक्षुजीवके लिये विचारणीय हैं।
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२७ वो वर्ष
४१९ इस जीवने पूर्वकालमे जो जो साधन किये है, वे वे साधन ज्ञानीपुरुपकी आज्ञासे हुए मालूम नही होते, यह बात सदेहरहित प्रतीत होती है। यदि ऐसा हुआ होता तो जीवको ससारपरिभ्रमण न होता। ज्ञानीपुरुषकी जो आज्ञा हे वह भवभ्रमणको रोकनेके लिये प्रतिवध जैसी है, क्योकि जिन्हे आत्मार्थके सिवाय दूसरा कोई प्रयोजन नही हे और आत्मार्थ साधकर भी जिनकी देह प्रारब्धवशात् है, ऐसे ज्ञानीपुरुषकी आज्ञा सन्मुख जीवको केवल आत्मार्थमे ही प्रेरित करती है, और इस जीवने तो पूर्वकालमे कोई आत्मार्थ जाना नही है, प्रत्युत आत्मार्थ विस्मरणरूपसे चला आया है। वह अपनी कल्पनासे सावन करे तो उससे आत्मार्थ नहीं होता, प्रत्युत आत्मार्थका साधन करता हूँ ऐसा दुष्ट अभिमान उत्पन्न होता है कि जो जीवके लिये ससारका मुख्य हेतु है। जो बात स्वप्नमे भी नही आती, उसे जीव यदि व्यर्थ कल्पनासे साक्षात्कार जैसी मान ले तो उससे कल्याण नहीं हो सकता । उसी प्रकार यह जीव पूर्वकालसे अधा चला आता हुआ भी यदि अपनी कल्पनासे आत्मार्थं मान ले तो उसमे सफलता नही होती, यह बात बिलकुल समझमे आने जैसी है । इसलिये यह तो प्रतीत होता है कि जीवके पूर्वकालीन सभी अशुभ साधन, कल्पित साधन दूर होनेके लिये अपूर्व ज्ञानके सिवाय दूसरा कोई उपाय नही है, और वह अपूर्व विचारके बिना उत्पन्न होना सभव नहीं है, और यह अपूर्व विचार, अपूर्व पुरुषके आराधनके बिना दूसरे किस प्रकारसे जीवको प्राप्त हो, यह विचार करते हुए यही सिद्धात फलित होता है कि ज्ञानीपुरुपकी आज्ञाका आराधन, यह सिद्धपदका सर्वश्रेष्ठ उपाय है, और यह बात जब जीवको मान्य होती है, तभीसे दूसरे दोषोका उपशमन और निवर्तन शुरू होता है।
श्री जिनेन्द्रने इस जीवके अज्ञानकी जो जो व्याख्या की है, उसमे समय समयपर उसे अनतकर्मका व्यवसायी कहा है, और अनादिकालसे अनतकर्मका वध करता आया है, ऐसा कहा है। यह बात तो यथार्थ है । परन्तु यहाँ आपको एक प्रश्न हुआ है कि 'तो फिर वैसे अनतकर्मोंको निवृत्त करनेका साधन चाहे जैसा बलवान हो, तो भी अनतकाल बीतनेपर भी वह पार न पाये।' यदि सर्वथा ऐसा हो तो आपको जैसा लगा वैसा संभव है । तथापि जिनेन्द्रने प्रवाहसे जीवको अनतकर्मका कर्ता कहा है, वह अनतकालसे कर्मका कर्ता चला आता है, ऐसा कहा है, परन्तु समय समय अनतकाल तक भोगने पड़े ऐसे कर्म वह आगामिक कालके लिये उपार्जन करता है, ऐसा नहीं कहा है। किसी जीव-आश्रयी इस बातको दूर रखकर विचार करते हुए ऐसा कहा है कि सब कर्मोंका मूल जो अज्ञान, मोह परिणाम है, वह अभी जीवमे जैसेका तैसा चला आता है, कि जिस परिणामसे उसे अनतकाल तक भ्रमण हुआ है, और यदि यह परिणाम बना रहा तो अभी भी ज्योका त्यो अनतकाल तक परिभ्रमण होता रहेगा। अग्निकी एक चिनगारीमे इतना ऐश्वर्य गुण है कि वह समस्त लोकको जला सके, परन्तु उसे जैसा जैसा योग मिलता है वैसा वैसा उसका गुण फलवान होता है। उसी प्रकार अज्ञानपरिणाममे अनादिकालसे जीवका भटकना हआ है, वैसे अभी अनतकाल तक भी चौदह राजलोकमे प्रत्येक प्रदेशमे उस परिणामसे अनत जन्ममरण होना अभी भी सभव है । तथापि जैसे चिनगारीकी अग्नि योगवश है, वैसे अज्ञानके कर्मपरिणामकी भी अमुक प्रकृति है। उत्कृष्टसे उत्कृष्ट यदि एक जीवको मोहनीयकर्मका व हो तो सत्तर कोडाकोडी सागरोपमका होता है. ऐसा जिनेन्द्रने कहा है । उसका हेतु स्पष्ट है कि यदि अनतकालका वध होता हो तो फिर जीवका मोक्ष नही हो सकता। यह वध अभी निवृत्त न हुआ हो परन्तु लगभग निवृत्त होने आया हो, तब कदाचित दुसरी वैसी स्थितिका सभव हो, परन्तु ऐसे मोहनीयकर्म कि जिनकी कालस्थिति ऊपर कही है वैसे एक समयमे अनेक कर्म वाथे, यह सम्भव नही है । अनुक्रमसे अभी उस कर्ममे निवृत्त होनेसे पहले दूसरा उसी स्थितिका बांधे, तथा दूसरा निवृत्त होनेसे पहले तीसरा वॉवे, परन्तु दुसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा, छठा इस तरह सबके सब कर्म एक मोहनीयकर्मके सम्बन्धमे उसी स्थितिके वाँधा करे, ऐसा नहीं हो सकता,
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श्रीमद् राजचन्द्र क्योकि जीवको इतना अवकाश नही है। मोहनीयकर्मकी इस प्रकारसे स्थिति है । और आयुकर्मकी स्थिति श्री जिनेन्द्रने ऐसी कही है कि एक जीव एक हमे रहते हुए उस देहकी जितनी आयु है उसके तीन भागमेसे दो भाग व्यतीत होनेपर जीव आगामी भवकी आयु बाँधता है उससे पहले नही बॉधता, और एक भवमे आगामी कालके दो भवोकी आयु नही बॉधता, ऐसी स्थिति है। अर्थात् जीवको अज्ञानभावसे कर्मवध चला आता है, तथापि उन उन कर्माकी स्थिति चाहे जितनी विडवनारूप होनेपर भी, अनतदु ख
और भवका हेतु होनेपर भी जिसमे जीव उससे निवृत्त हो इतना अमुक प्रकार निकाल देनेपर सम्पूर्ण अवकाश है। यह बात जिनेद्रने बहुत सूक्ष्मरूपसे कही है, वह विचार करने योग्य है | जिसमे जीवको मोक्षका अवकाश कहकर कर्मवध कहा है।
आपको यह बात सक्षेपमे लिखी है । उसका पुन पुन विचार करनेसे कुछ समाधान होगा, और क्रमसे अथवा समागमसे उसका सम्पूर्ण समाधान हो जायेगा।
जो सत्सग हे वह कामको जलानेका वलवान उपाय है । सब ज्ञानीपुरुषोने कामके जीतनेको अत्यत दुष्कर कहा है, यह एकदम सिद्ध है, और ज्यो ज्यो ज्ञानीके वचनका अवगाहन होता है, त्यो त्यो कुछ कुछ करके पीछे हटनेसे अनुक्रमसे जीवका वीर्य बलवान होकर जीवसे कामकी सामर्थ्यका नाश होता है । जीवने ज्ञानीपुरुपके वचन सुनकर कामका स्वरूप ही नही जाना, और यदि जाना होता तो उसमे निपट नीरसता हो गयी होती, यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम।
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मोहमयी, आपाढ सुदी १५, मगल, १९५०
श्री सूर्यपुरस्थित, शुभेच्छाप्राप्त, सत्सगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति,
यथायोग्यपूर्वक विनती कि,-एक पत्र प्राप्त हुआ है।
"भगवानने ऐसा कहा है कि चौदह राजलोकमे काजलके कुप्पेको तरह सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भरे हुए है, कि जो जीव जलानेसे जलते नही, छेदनेसे छिदते नही, मारनेसे मरते नहीं, ऐसे कहे हैं। उन जीवोंके
औदारिक शरीर नही होता, क्या इसलिये उनका अग्नि आदिसे व्याघात नही होता ? अथवा औदारिक शरीर होनेपर भी उनका अग्नि आदिसे व्याघात नही होता हो? यदि औदारिक शरीर हो तो वह शरीर अग्नि आदिसे व्याघातको क्यो प्राप्त न हो ?" इस प्रकारका प्रश्न उस पत्रमे लिखा है, उसे पढा है ।
विचारके लिये यहाँ उसका सक्षेपमे समाधान लिखा है कि एक देहको त्यागकर दूसरी देह धारण करते समय कोई जीव जब रास्तेमे होता है तब अथवा अपर्याप्तरूपसे उसे मात्र तैजस और कार्मण ये दो शरीर होते हैं, बाकी सब स्थितिमे अर्थात् सकर्म स्थितिमे सब जीवोको तीन शरीरोकी सभावना श्री जिनेन्द्रने बतायी है : कार्मण, तैजस और औदारिक या वैक्रिय इन दोनोमेसे कोई एक । केवल रास्तेमे गमन करते हुए जीवको कार्मण, तैजस ये दो शरीर होते है, अथवा जब तक जीवकी अपर्याप्त स्थिति है, तव तक उसका कार्मण और तैजस शरीरसे निर्वाह हो सकता है, परन्तु पर्याप्त स्थितिमे उसको तीसरे शरीरका नियमसे सभव है। पर्याप्त स्थितिका लक्षण यह है कि आहार आदिके ग्रहण करनेरूप यथोचित सामर्थ्यका होना और यह आहार आदिका जो कुछ भी ग्रहण हे वह तीसरे शरीरका प्रारभ है, अर्थात् वही तीसरा शरीर शुरू हुआ ऐसा समझना चाहिये। भगवानने जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय कहे हैं वे अग्नि आदिसे व्याघातको प्राप्त नहीं होते। वे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय होनेसे उनके तीन शरीर है, परन्तु उनका जो तीसरा औदारिक शरीर है वह इतने सूक्ष्म अवगाहनका है कि उसे शस्त्र आदिका स्पर्श नही हो सकता। अग्नि आदिका जो महत्त्व हे और एकेन्द्रिय शरीरका जो सूक्ष्मत्व है, वे इस प्रकारके है कि जिन्हे एक दूसरेका सम्बन्ध
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२७ वा वर्ष . नही हो सकता, अर्थात् साधारण सम्बन्ध होता है ऐसा कहे, तो भी अग्नि, शस्त्र आदिमे जो अवकाश है, उस अवकाशमेसे उन एकेन्द्रिय जीवोका सुगमतासे गमनागमन हो सके, ऐसा होनेसे उन जीवोका नाश हो सके अथवा उनका व्याघात हो, ऐसा अग्नि, शस्त्र आदिका सम्वन्ध उन्हे नही होता। यदि उन जीवोकी अवगाहना महत्त्ववाली हो अथवा अग्नि आदिकी अत्यन्त सूक्ष्मता हो कि जो उस एकेन्द्रिय जीव जैसी सूक्ष्मता गिनी जाये तो, वह एकेन्द्रिय जीवका व्याघात करनेमे सम्भवित मानी जाये, परन्तु ऐसा नही है । यहाँ तो जीवोका अत्यन्त सूक्ष्मत्व है, और अग्नि, शस्त्र आदिका महत्त्व है, जिससे व्याघातयोग्य सम्बन्ध नही होता, ऐसा भगवानने कहा है। अर्थात् औदारिक शरीर अविनाशी कहा है ऐसा नही है, स्वभावसे वह विपरिणामको प्राप्त होकर अथवा उपार्जित किये हुए ऐसे उन जीवोके पूर्वकर्म परिणमित होकर औदारिक शरीरका नाश करते है। वह शरीर कुछ दूसरेसे ही नाशको प्राप्त किया जाये तो ही नाश हो, ऐसा भी नियम नही है ।
यहाँ अभी व्यापारसम्बन्धी प्रयोजन रहता है । इसलिये तुरत थोडे समयके लिये भी निकल संकना दुष्कर है । क्योकि प्रसग ऐसा है कि जिसमे मेरी विद्यमानताको प्रसगमे आनेवाले लोग आवश्यक समझते हैं। उनका मन दुखी न हो सके, अथवा उनके कामको ''यहाँसे मेरे दूर हो जानेसे कोई प्रबल हानि न हो सके, ऐसा व्यवसाय हो तो वैसा करके थोडे समयके लिये - इस प्रवृत्तिसे अवकाश लेनेका चित्त है, तथापि आपकी तरफ आनेसे लोगोके परिचयमे अवश्य आनेका सम्भव होनेसे उस तरफ आनेका चित्त होना मुश्किल है। इस प्रकारके प्रसग रहनेपर भी लोगोके परिचयमे धर्मप्रसगसे आना हो, उसे विशेष आशका योग्य समझकर यथासम्भव उस परिचयसे धर्मप्रसगके नामसे विशेषरूपसे दूर रहनेका चित्त रहा करता है।
वैराग्य-उपशमका बल बढे उस प्रकारके सत्सग एव सत्शास्त्रका परिचय करना, यह जीवके लिये परम हितकारी हे । दूसरा परिचय यथासभव निवर्तन करने योग्य है।
आ० स्व० प्रणाम । ५१३ मोहमयी, श्रावणं सुदी ११, रवि, १९५०
श्री सूर्यपुरस्थित, सत्सगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति विनती कि ---
दो पत्र प्राप्त हुए हैं । यहाँ भावसमाधि है।
'योगवासिष्ठ' आदि ग्रन्थ पढने-विचारनेमे कोई दूसरी बाधा नहीं है। हमने पहिले लिखा था कि उपदेशग्रन्थ समझकर ऐसे ग्रन्थ विचारनेसे जीवको गुण प्रगट होता है। प्राय वैसे गन्थ वैराग्य और उपशमके लिये है। सिद्धातज्ञान सत्पुरुषसे जाननेयोग्य समझकर जीवमे सरलता, निरहता आदि गणोका उद्भव होनेके लिये 'योगवासिष्ठ', 'उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृताग' आदिके विचारनेमे वाधा नही हे इतना स्मरण रखिये।
वेदात और जिन सिद्धात इन दोनोमे अनेक प्रकारसे भेद है । वेदान्त एक ब्रह्मस्वरूपसे सर्व स्थिति कहता है । जिनागममे उससे दूसरा प्रकार कहा है । 'समयसार' पढते हुए भी बहुतसे जीवोका एक ब्रह्मकी मान्यतारूप सिद्धात हो जाता है। सिद्धातका विचार, बहुत सत्संगसे तथा वैराग्य और उपशमका वल विशेषरूपसे वढनेके बाद कर्तव्य है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो जीव दूसरे मार्गमे आरूढ होकर वैराग्य ओर उपशमसे हीन हो जाता है। ‘एक ब्रह्मस्वरूप' विचारनेमे बाधा नहीं है, अथवा 'अनेक आत्मा' विचारनेमे बाधा नही है । आपको अथवा किसो मुमुक्षुको मात्र अपना स्वल्प जानना ही मुख्य कर्तव्य है, और उसे जाननेके साधन शम, सन्तोप, विचार और सत्सग है। उन साधनोके सिद्ध होनेपर,
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श्रीमद् राजचन्द्र वैराग्य एव उपशमके वर्धमान परिणामी होनेपर, 'आत्मा एक है' या 'आत्मा अनेक है' इत्यादि भेदका विचार करना योग्य है। यही विनती।
. आ० स्व० प्रणाम ।
५१४ बम्बई, श्रावण सुदी १४, बुध, १९५० __नि सारताको अत्यन्तरूपसे जाननेपर भी व्यवसायका प्रसग आत्मवीर्यको कुछ भी मन्दताका हेतु होता है, फिर भी वह व्यवसाय करते है। आत्मासे जो सहन करने योग्य नही है उसे सहन करते है। यही विनती।
आ० प्र०
५१५ बम्बई, श्रावण सुदी १४, बुध, १९५० यहाँसे थोडे दिनके लिये छूटा जा सके, ऐसा विचार रहता है, तथापि इस प्रसगमे वैसा होना कठिन है।
___ जैसे आत्मबल अप्रमादी हो, वैसे मत्सग, सद्वाचनका प्रसग नित्यप्रति करना योग्य है | उसमे प्रमाद करना योग्य नही है, अवश्य ऐसा करना योग्य नहीं है, यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम।
। । ५१६
बबई, श्रावण वदी १, १९५० पानी स्वभावसे शीतल होनेपर भी, उसे किसी वरतनमे रखकर नीचे अग्नि जलती रखी जाये तो उसकी अनिच्छा होनेपर भी वह पानी उष्णता प्राप्त करता है, ऐसा यह व्यवसाय, समाधिसे शीतल ऐसे पुरुषके प्रति उष्णताका हेतु होता है, यह बात हमे तो स्पष्ट लगती है ।
वर्धमानस्वामीने गृहवासमे भी यह सर्व व्यवसाय असार है, कर्तव्यरूप नही है, ऐसा जाना था। तथापि उन्होने उस गृहवासको त्यागकर मुनिचर्या ग्रहण की थी। उस मुनित्वमे भी आत्मबलसे समथ होनेपर भी, उस बलकी अपेक्षा भी अत्यन्त अधिक बलकी जरूरत है, ऐसा जानकर उन्होने मौन और अनिद्राका लगभग साढे बारह वर्पतक सेवन किया है, कि जिससे व्यवसायरूप अग्नि तो प्रायः न हो सके।
जो वर्धमानस्वामी ग्रहवासमे होनेपर भी अभोगी जैसे थे, अव्यवसायी जैसे थे, नि स्पृह थे, और सहज स्वभावसे मुनि जैसे थे, आत्माकार परिणामी थे, वे वर्धमानस्वामी भी सर्व व्यवसायमे असारता समझकर, नीरसता समझकर दूर रहे, उस व्यवसायको करते हुए दूसरे जीवने किस प्रकारसे समाधि रखनेका विचार किया है, यह विचारणीय है। इसका विचार करके पुनः पुन वह चर्या प्रत्येक कायम, प्रत्येक प्रवर्तनमे, स्मृतिमे लाकर व्यवसायके प्रसगमे रहती हुई रुचिका विलय करना योग्य है। यदि ऐसा न किया जाय तो प्राय ऐसा लगता है कि अभी इस जीवकी मुमुक्षु पदमे यथायोग्य अभिलाषा नहीं हुई है, अथवा तो यह जीव मात्र लोकसज्ञामे कल्याण हो, ऐसी भावना करना चाहता है, परन्तु कल्याण करनेकी अभिलाषा उसे है हो नही, क्योकि दोनो जीवोके समान परिणाम हो, और एकको बन्ध हो, दूसरेको बन्ध न हो, ऐसा त्रिकालमे होना योग्य नही है। .
५१७
बबई, श्रावण वदो ७, गुरु, १९५० - आपकी और अन्य मुमुक्षुजनोकी चित्तसम्बन्धी दशा जानी हे। ज्ञानीपुरुषोने अप्रतिबद्धताको प्रधानमार्ग कहा है, और सबसे अप्रतिबद्धदशामे लक्ष्य रखकर प्रवृत्ति है, तो भी सत्सगादिमे अभी हमें भी प्रतिबद्धवुद्धि रखनेका चित्त रहता है। अभी हमारे समागमका अप्रसंग है, ऐसा जाननेपर भी आप
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सब भाइयोको, जिस प्रकारसे जीवको शात, दात भावका उद्भव हो उस प्रकारसे पढने आदिका समागम करना योग्य है। यह बात बलवान करने योग्य है।
।। ५१८ . . . ववई, श्रावण वदो ९, १९५० . 'योगवासिष्ठ'-जीवमे जिस प्रकार त्याग, वैराग्य और उपशम गुण प्रगट हो, उदयमे आये, वह प्रकार ध्यानमे रखनेका समाचार जिस पत्रमे लिखा, वह पत्र प्राप्त हुआ है।
ये गुण जब तक जीवमे स्थिर नही होते तब तक जीवसे आत्मस्वरूपका यथार्थरूपसे विशेष विचार होना कठिन है। आत्मा रूपी है, अरूपी है, इत्यादि विकल्पोका जो उसके पहले विचार किया जाता है, वह कल्पना जैसा है । जीव कुछ भी गुण प्राप्तकर यदि शीतल हो जाये तो फिर उसे विशेप विचार कर्तव्य है। आत्मदर्शनादि प्रसग, तीव्र मुमुक्षुता उत्पन्न होनेसे पहले प्रायः कल्पितरूपसे समझमे आते है, जिससे अभी तत्सम्बन्धी प्रश्न शात करने योग्य है । यही विनती ।
५१९ बवई, श्रावण वदी , गनि, १९५० प्रारब्धवशात् चारो दिशाओसे प्रसगके दवावसे कितने ही व्यवसायी कार्य खड़े हो जाते हैं, परन्तु चित्तपरिणाम साधारण प्रसगमे प्रवृत्ति करते हुए विशेष सकुचित रहा करते होनेसे इस प्रकारके पत्र आदि लिखना आदि नही हो सकता, जिससे अधिक नहीं लिखा गया, उसके लिये आप दोनो क्षमा करे।
. ५२० बवई, श्रावण वदी ३०, गुरु, १९५० श्री सायला.ग्राममे स्थित, परमस्नेही श्री सोभागको,
श्री मोहमयी क्षेत्रसे-के भक्तिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती है कि आपका लिखा पत्र आया है । उसका नीचे लिखा उत्तर विचारियेगा। - ज्ञानवा के प्रसगमे उपकारी कितने ही प्रश्न आपको उठते है, वे आप हमे लिखते हैं, और उनके समाधानको आपको विशेष इच्छा रहती है, इसलिये यदि किसी भी प्रकारसे आपको उनका समाधान लिखा जाये तो ठीक, ऐसा चित्तमे रहते हुए भी उदययोगसे वैसा नही हो पाता। पत्र लिखनेमे चित्तकी स्थिरता बहुत ही कम रहती है । अथवा चित्त उस कार्यमे अल्प मात्र छाया जैसा प्रवेश कर सकता है। जिससे आपको विशेष विस्तारसे पत्र नही लिखा जाता। चित्तकी स्थितिके कारण एक एक पत्र लिखते हए दस-दस, पाँच-पांच बार, दो-दो चार-चार पक्तियाँ लिखकर उस पत्रको अधूरा छोड़ देना पड़ता है। क्रियामे रुचि नहीं है, और अभी प्रारब्ध वल भी उस क्रियामे विशेष उदयमान नही होनेसे आपको तथा अन्य मुमुक्षुओको विशेषरूपसे कुछ ज्ञानचर्चा नही लिखी जा सकती। इस विषयमे चित्तम खेद रहता है, तथापि अभी तो उसका उपशम करनेका ही चित्त रहता है। अभी कोई ऐसी ही आत्मदशाको स्थिति रहती है। प्रायः जान-बूझकर कुछ करनेमे नही आता, अर्थात् प्रमाद आदि दोपके कारण वह क्रिया नही होती, ऐसा प्रतीत नही होता।
समयसार' ग्रन्थके कवित्त आदिका आप जो मुखरस सम्बन्धी ज्ञानविषयक अर्थ समझते हैं, वह वैसा ही है, ऐसा सर्वत्र है, ऐसा कहना योग्य नहीं है। बनारसीदासने 'समयसार' ग्रन्यको हिन्दी भाषामे करते हुए बहुतसे कवित्त, सवैया इत्यादिमे वैसी ही बात कही है, और वह किसी तरह 'वीजज्ञान' से मिलती हुई प्रतीत होती है । तथापि कही कही वैसे शब्द उपमारूपसे भी आते हैं । बनारसीदासने 'समयसार' रचा है, उसमे वे शब्द जहाँ जहाँ आये हैं, वहाँ वहाँ सर्वत्र उपमारूप हैं, ऐसा नहीं लगता, परन्तु
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श्रीमद राजचन्द्र
कई स्थलोमे वस्तुरूपसे कहे है, ऐसा लगता है। यद्यपि यह बात कुछ आगे बढनेपर मिलती झुलती हो सकती है । अर्थात् आप जिसे 'बोजज्ञान' मे कारण मानते हैं उससे कुछ आगे बढ़ती हुई बात, अथवा वह बात उसमे विशेषज्ञानसे अगीकृत की हुई मालूम होती है।
बनारसीदासको कोई वैसा योग हुआ हो, ऐसा 'समयसार' ग्रथकी उनकी रचनासे प्रतीत होता है। 'मूल समयसार' मे 'वोजज्ञान' सम्वन्धी इतनी अधिक स्पष्ट बात कही हुई मालूम नही होती, और वनारसीदासने तो कई जगह वस्तुरूपसे और उपमारूपसे वह बात कही है। जिससे ऐसा ज्ञात होता है कि बनारसीदासने साथमे अपने आत्मामे जो कुछ अनुभव हुआ है, उसका भी कुछ उस प्रकारसे प्रकाश किया है कि किसी विचक्षण जीवके अनुभवके लिये वह वात आधारभूत हो, उसे विशेष स्थिर करनेवाली हो ।
ऐसा भी लगता है कि वनारसीदासने लक्षणादिके भेदसे जीवका विशेष निर्धार किया था, और उन उन लक्षण आदिका सतत मनन होते रहनेसे, आत्मस्वरूप कुछ तीक्ष्णरूपसे उनके अनुभवमे आया है,
और उन्हे अव्यक्तरूपसे आत्मद्रव्यका भी लक्ष्य हुआ है, और उस अव्यक्त लक्ष्यसे उन्होने उस बीजज्ञानको गाया है। अव्यक्त लक्ष्यका अर्थ यहाँ यह है कि चित्तवृत्ति आत्मविचारमे विशेषरूपसे लगी रहनेसे, वनारसीदासको जिस अशमे परिणामकी निर्मल धारा प्रगट हुई है, उस निर्मल धाराके कारण स्वयंको 'द्रव्य यही है, ऐसा यद्यपि स्पष्ट जाननेमे नही आया, तथापि अस्पष्टरूपसे अर्थात् स्वाभाविकरूपसे भी उनके आत्मामे वह छाया भासमान हुई है, और जिसके कारण यह बात उनके मुखसे निकल सकी है; और सहज आगे बढनेसे वह बात उन्हे एकदम स्पष्ट हो जाये ऐसी दशा उस ग्रन्थको रचते हुए उनकी प्रायः रही है।
श्री डुगरके अतरमे जो खेद रहता है वह किसी तरह योग्य है, और वह खेद प्राय आपको भी रहता है, ऐसा जानते हैं। तथा अन्य भी कई मुमुक्षुजीवोको उसी प्रकारका खेद रहता है, ऐसा जाननेपर भी,
और आप सबका यह खेद दूर किया जाये तो ठीक, यह मनमे रहते हुए भी प्रारब्धका वेदन करते हैं । फिर हमारे चित्तमे इस विषयमे अत्यन्त बलवान खेद है। जो खेद दिनमे प्राय अनेक-अनेक प्रसगोमे स्फुरित हुआ करता है, और उसका उपशमन करना पडता है, और प्रायः आप लोगोको भी हमने विशेषरूपसे उस खेदके विषयमे नही लिखा है, अथवा नही बताया है। हमे यह बताना भी योग्य नही लगता था, परन्तु अभी श्री डुगरके कहनेसे, प्रसगवश बताना हुआ है । आपको और डुगरको जो खेद रहता है, उसकी अपेक्षा हमे असख्यातगुण-विशिष्ट खेद तत्सम्बन्धी रहता होगा ऐसा लगता है। क्योकि जिस जिस प्रसंगपर आत्मप्रदेशमे उस वातका स्मरण होता हे उस उस प्रसगपर सभी प्रदेश शिथिल जैसे हो जाते हैं, और जीवका नित्य स्वभाव होनेसे जीव ऐसा खेद रखते हुए भी जीता है, उस हद तक खेदको प्राप्त होता है। फिर परिणामातर होकर थोडे अवकाशमे भी वह की वह वात प्रदेश-प्रदेशमे स्फुरित हो उठती है, और वैसी की वैसी दशा हो जाती है, तथापि आत्मापर अत्यन्त दृष्टि करके अभी तो उस प्रकारका उपशमन करना ही योग्य है, ऐसा समझकर उपशमन किया जाता है ।
श्री डुगरके अथवा आपके चित्तमे ऐसा आता हो कि साधारण कारणोके बहाने हम इस प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं करते, यह योग्य नहीं है। इस प्रकारसे यदि रहता हो तो प्राय. वैसा नहीं है, ऐसा हमें लगता है। नित्य प्रति उस वातका विचार करनेपर भी अभी वलवान कारणोका उसके प्रति सम्बन्ध है, ऐसा जानकर जिस प्रकारको आपकी इच्छा प्रभावना हेतुमे है उस हेतुको ढोला करना पडता है, और उसके अवरोधक कारणोको क्षीण होने देनेमे कुछ भी आत्मवीर्य परिणमित होकर स्थितिमे रहता है। आपकी इच्छानुसार अभी जो प्रवृत्ति नहीं की जाती उस विषयमे जो बलवान कारण अवरोधक है, उन्हे आपको विशेषरूपमे बतानेका चित्त नहीं होता, क्योकि अभी उन्हे विशेषरूपसे बतानेमे अवकाश जाने देना योग्य है।
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२७ वॉ वर्ष
४२५ जो बलवान कारण प्रभावना हेतुके अवरोधक हैं, उनमे हमारा बुद्धिपूर्वक कुछ भी प्रमाद हो, ऐसा किसी तरह सम्भव नही है। तथा अव्यक्तरूपसे अर्थात् न जाननेपर भी 'जो सहजमे जीवसे हुआ करता हो, ऐसा प्रमाद हो, यह भी प्रतीत नही होता । तथापि किसी अशमे उस प्रमादका सम्भव समझते हुए भी उससे अवरोधकता हो, ऐसा लग नही सकता, क्योकि आत्माको निश्चयवृत्ति उससे असन्मुख है।
लोगोमे वह प्रवृत्ति करते हुए मानभग होनेका प्रसग आये तो वह मानभग भी सहन न हो सके, ऐसा होनेसे प्रभावना हेतुकी उपेक्षा की जाती हो, ऐसा भी नही लगता। क्योकि उस मानामानमे चित्त प्राय' उदासीन जैसा है, अथवा उस प्रकारमे चित्तको विशेष उदासीन किया हो तो हो सके ऐसा है।
। शब्दादि विषयोका कोई बलवान कारण भी अवरोधक हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। केवल उन विषयोका क्षायिकभाव हैं, ऐसा यद्यपि कहनेका प्रसग नहीं है, तथापि उनमे अनेकरूपसे विरसता भास रही है। उदयसे भी कभी मद रुचिका जन्म होता हो तो वह भी विशेष अवस्था पानेसे पहले नाशको प्राप्त होतो है. और उस मद रुचिका वेदन करते हुए भी आत्मा खेदमे ही रहता है, अर्थात् वह रुचि ' अनाधार होतो जाती होनेसे बलवान कारणरूप नही है । ।
अन्य कई प्रभावक हुए हैं, उनको अपेक्षा किसी तरह विचारदशादिकी प्रबलता भी होगी, 'ऐमा लगता है कि वैसे प्रभावक पुरुष आज दिखायी नहीं देते, और मात्र उपदेशकरूपसे नाम जैसी प्रभावनासे प्रवर्तन करते हुए कई देखनेमे, सुननेमे आते हैं, उनकी विद्यमानताके कारण हमे कुछ अवरोधकता हो ऐसा भी प्रतीत नही होता। ___. अभी तो इतना लिखा जा सका है। विशेष समागमके प्रसगपर अथवा अन्य प्रसगपर बतायेंगे। इस विषयमे आप और श्री डुगर यदि कुछ भी विशेष लिखना चाहते हो, तो खुशीसे लिखियेगा। और हमारे लिखे हुए कारण मात्र बहानारूप हैं ऐसा विचार करना योग्य नहीं है, इतना ध्यान रखियेगा।'
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___वंबई, श्रावण, १९५० जिस पत्रमे प्रत्यक्ष आश्रयका स्वरूप लिखा है वह पत्र यहाँ प्राप्त हुआ है। मुमुक्षुजीवको परम भक्तिसहित उस स्वरूपकी उपासना करना योग्य है।
__ योगबलसहित, अर्थात् जिनका उपदेश बहुतसे जीवोको थोडे ही प्रयाससे मोक्षसाधनरूप हो सके ऐसे अतिशयसहित जो सत्पुरुष हो, वे जब यथाप्रारब्ध उपदेश व्यवहारका उदय प्राप्त होता है तब मुख्यरूपसे प्राय उस भक्तिरूप प्रत्यक्ष आश्रयमार्गको प्रगट करते हैं, परन्तु वैसे उदययोगके विना प्राय प्रगट नहीं करते।
___सत्पुरुष प्राय. दूसरे व्यवहारके योगमे मुख्यत उस मार्गको प्रगट नही करते, यह उनकी करुणा स्वभावता है। जगतके जीवोका उपकार पूर्वापर विरोधको प्राप्त न हो अथवा बहुतसे जीवोका उपकार हो इत्यादि अनेक कारण देखकर अन्य व्यवहारमे रहते हुए सत्पुरुष वैसे प्रत्यक्ष आश्रयरूप मार्गको प्रगट नही करते । प्राय. अन्य व्यवहारके उदयमे तो वे अप्रसिद्ध रहते हैं; अथवा कुछ प्रारब्ध विशेषसे सत्पुरुषरूपसे किसीके जाननेमें आये, तो भी पूर्वापर उसके श्रेयका विचार करके यथासम्भव विशेष प्रसगमे नही आते, अथवा प्राय अन्य व्यवहारके उदयमे सामान्य मनुष्यको तरह विचरते हैं।
वैसी प्रवत्ति की जाये ऐसा प्रारब्ध न हो तो जहाँ कोई वैस उपदेशका अवसर प्राप्त होता है वहाँ भी 'प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग' का प्रायः उपदेश नहीं करते। क्वचित् 'प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग' के स्थानपर 'आश्रयमार्ग' ऐसे सामान्य शब्दसे, बहुत उपकारका हेतु देखकर कुछ कहते है। अर्थात् उपदेशव्यवहारका प्रवर्तन करनेके लिये उपदेश नही करते।
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श्रीमद राजचन्द्र
निहित है । और उस भावके आनेके लिये सत्सग, सद्गुरु और सत्शास्त्र आदि साधन कहे है, जो अनन्य निमित्त हैं ।
+
जीवको उन साधनोकी आराधना निजस्वरूपके प्राप्त करनेके हेतुरूप हो है, तथापि जीव यदि वहाँ भी वंचनाबुद्धिसे प्रवृत्ति करे तो कभी कल्याण नही हो सकता । वचनाबुद्धि अर्थात् सत्सग, सद्गुरु आदिमे सच्चे आत्मभावसे जो माहात्म्यबुद्धि होना योग्य है, वह माहात्म्यबुद्धि नही और अपने आत्मामे अज्ञानता ही रहतो चली आयी है, इसलिये उसकी अल्पज्ञता, लघुता विचारकर अमाहात्म्यबुद्धि करनी चाहिये सो नही करना, तथा सत्सग, सद्गुरु आदिके योगमे अपनी अल्पज्ञता, लघुताको मान्य नही करना यह भो वचना बुद्धि है । वहाँ भी यदि जीव लघुता धारण न करे तो प्रत्यक्षरूपसे जीव भवपरिभ्रमणसे भयको प्राप्त नही होता, यही विचार करना योग्य है । जीवको यदि प्रथम यह लक्ष्य अधिक हो, तो सब शास्त्रार्थ और आत्मार्थका सहजतासे सिद्ध होना संभव है । यही विज्ञापन ।
आ० स्व० प्रणाम ।
बबई, भादो वदी १२, बुध, १९५०
५२७
पूज्य श्री सोभागभाई, श्री सायला ।
यहाँ कुशलता है । आपका एक पत्र आज आया है । प्रश्नो के उत्तर अब तुरत लिखेंगे ।. आपने आजके पत्रमे जो समाचार लिखा है, तत्सम्बन्धी, श्री रेवाशकरभाईको जो राजकोट हैं, उन्हें लिखा है वे सीधे आपको उत्तर लिखेंगे ।
गोसलियाके दोहे मिले हैं । उनका उत्तर लिखने जैसा विशेषरूपसे नही है । एक अध्यात्म दशाके अकुरसे~~-स्फुरणसे ये दोहे उत्पन्न होना सम्भव है । परन्तु ये एकात सिद्धातरूप नही है ।
श्री महावीरस्वामीसे वर्तमान जैन शासनका प्रवर्तन हुआ है, वे अधिक उपकारी ? या प्रत्यक्ष हितमे प्रेरक और अहितके निवारक ऐसे अध्यात्ममूर्ति सद्गुरु अधिक उपकारी ? यह प्रश्न मांकुभाईकी तरफ से है । इस विषय मे इतना विचार रहता है कि महावीर स्वामी सर्वज्ञ हैं और प्रत्यक्ष पुरुष आत्मज्ञ - सम्यग्दृष्टि है, अर्थात् महावीरस्वामी विशेष गुणस्थानकमे स्थित थे । महावीरस्वामीको प्रतिमाकी वर्तमानमे भक्ति करे, उतने ही भावसे प्रत्यक्ष सद्गुरुकी भक्ति करे, इन दोनोमे विशेष हितयोग्य किसे कहना योग्य है इसका उत्तर आप दोनो विचारकर सविस्तर लिखियेगा |
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पहले सगाईके सम्बन्धमे सूचना की थी, अर्थात् हमने रेवाशकरभाईको सहज ही लिखा था, क्योकि उस समय विशेष लिखा जाना अनवसर आर्तध्यान कहने योग्य है। आज आपके स्पष्ट लिखने से रेवाशकरभाईको मैंने स्पष्ट लिख दिया है । व्यावहारिक जंजालमे हम उत्तर देने योग्य न होनेसे रेवाशकरभाईको इस प्रसगमे लिखा है, जो लोटती डाकसे ́ आपको उत्तर लिखेंगे । यही विनती । गोसलियाको प्रणाम ।
लि० आ० स्व० प्रणाम ।
1
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बबई, आसोज सुदी ११, बुध, १९५०
जिन्हे स्वप्नमे भी ससारसुखकी इच्छा नही रही, और जिन्हे ससारका स्वरूप सम्पूर्ण निःसारभूत भासित हुआ है, ऐसे ज्ञानीपुरुष भी आत्मावस्थाको वारवार सम्भाल सम्भालकर उदय प्राप्त प्रारब्धका वेदन करते हैं, परन्तु आत्मावस्थामे प्रमाद नही होने देते । प्रमादके अवकाश योगमे ज्ञानीको भी जिस ससारसे अशतः व्यामोह होनेका सम्भव कहा है, उस संसारमे साधारण जीव रहकर, उसका व्यवसाय
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२७ वॉ वर्ष लौकिकभावसे करके आत्महितकी इच्छा करे, यह न होने जैसा ही कार्य है, क्योकि लौकिकभावके कारण जहाँ आत्माको निवृत्ति नही होती, वहाँ अन्य प्रकारसे हितविचारणा होना सम्भव नही है। यदि एककी निवृत्ति हो तो दूसरेका परिणाम होना सम्भव है।। अहितहेतु ऐसे ससारसम्बन्धी प्रसा, लौकिकभाव, लोकचेष्टा इन सबकी सम्भाल यथासम्भव छोड़ करके, उसे कम करके आत्महितको अवकाश देना योग्य है।
आत्महितके लिये सत्सग जैसा बलवान अन्य कोई निमित्त प्रतीत नही होता, फिर भी वह सत्सग भी जो जीव लौकिकभावसे अवकाश नही लेता, उसके लिये प्राय. निष्फल होता है, और सत्सग कुछ सफल हुआ हो, तो भी यदि लोकावेश विशेष-विशेष रहता हो तो उस फलके निर्मूल हो जानेमे देर नहीं लगती, और स्त्री, पुत्र, आरम्भ तथा परिग्रहके प्रसगमेसे यदि निजबुद्धि छोडनेका प्रयास न किया जाये तो सत्सगके सफल होनेका सम्भव कैसे हो? जिस प्रसगमे महा ज्ञानीपुरुष संभल संभलकर चलते है, उसमे इस जीवको तो अत्यन्त अत्यन्त सावधानतासे, सकोचपूर्वक चलना चाहिये, यह बात भूलने जैसी ही नही है, ऐसा निश्चय करके प्रसग-प्रसगमे, कार्य-कार्यमे और परिणाम-परिणाममें उसका ध्यान रखकर उससे छूटा जाये, वैसे ही करते रहना, यह हमने श्री वर्धमानस्वामीकी छद्मस्थ मुनिचर्याके दृष्टातसे कहा था।
. . .' ५२९ । बबई, आसोज वदी ३, बुध, १९५०
'भगवान भगवानका सँभालेगा, परन्तु जब जीव अपना अह छोडेगा तब', ऐसा जो भद्रजनोका वचन है, वह भी विचार करनेसे हितकारो है । आप कुछ ज्ञानकथा लिखियेगा।
५३० , बबई, आसोज वदी ६, शनि, १९५०
सत्पुरुषको नमस्कार आत्मार्थी, गुणग्राही, सत्सगयोग्य भाई श्री 'मोहनलालके प्रति, डरबन ।।।
श्री ववईसे लिखित जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक रायचदका आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो ।
यहाँ कुशलता है। आपका लिखा हुआ एक पत्र मुझे मिला है। कई कारणोंसे उसका उत्त लिखनेमे ढील हुई थी । वादमे, आप इस तरफ तुरन्त आनेवाले हैं, ऐसा जाननेमे आनेसे पत्र नही लिा था, परन्तु अभी ऐमा जाननेमे आया है कि स्थानीय कारणसे अभी वहां लगभग एक वर्ष तक ठहरने है, जिससे मैने यह पत्र लिखा है। आपके लिखे हुए पत्रमे जो आत्मा आदिके विषयमे प्रश्न हैं और प्रश्नोके उत्तर जाननेकी आपके चित्तमे विशेष आतुरता है, उन दोनोके प्रति मेरा सहज सहज अनुम है । परन्तु जिस समय आपका वह पत्र मुझे मिला उस समय उसका उत्तर लिखा जा सके ऐसे चित्तको स्थिति नही थी, और प्रायः वैसा होनेका कारण भी यह था कि उस प्रसगमे बाह्योपाधि स वैराग्य विशेष परिणामको प्राप्त हुआ था, और वैसा होनेसे उस पत्रका उत्तर लिखने जैसे का प्रवृत्ति हो सकना सम्भव न था। थोडा समय जाने देकर, कुछ वैसे वैराग्यमेसे भी अवकाश लेकर पत्रका उत्तर लिखेंगा, ऐसा सोचा था, परन्तु बादमे वैसा होना भी अशक्य हो गया। आपके पत्र भो मैंने लिखो न थी और इस प्रकार उत्तर लिख भेजनेमे ढोल हुई, इससे मेरे मनमे भी खेद और जिसका अमुक भाव तो अभी तक रहा करता है । जिस प्रसगमे विशेष करके खेद हुआ, र १. महात्मा गाघोजीने उरवन-अफ्रीकासे जो प्रश्न पूछे थे उनके उत्तर यहाँ दिये है।
की पढ़
हआ था स प्रसंगमें
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श्रीमद राजचन्द्र सोना औपचारिक द्रव्य है, ऐसा जिनेन्द्रका अभिप्राय है, और जब अनंत परमाणुओके समुदायरूपसे वह रहता है तव चक्षुगोचर होता है। उसकी जो भिन्न भिन्न आकृतियाँ बन सकती हैं वे सभी सयोगभावी हैं, और फिरसे वे एकत्र की जा सकती है, वह उसी कारणसे है। परन्तु सोनेका मूल स्वरूप देखें तो अनंत परमाणु-समुदाय है। जो भिन्न भिन्न परमाणु है वे सब अपने अपने स्वरूपमे ही रहे हए हैं। कोई भी परमाणु अपने स्वरूपको छोडकर दूसरे परमाणुरूपसे किसी भी तरह परिणमन करने योग्य नही है, मात्र वे सजातीय होनेसे और उनमे स्पर्शगुण होनेसे उस स्पर्शके समविषमयोगसे उनका मिलना हो सकता है, परन्तु वह मिलना कुछ ऐसा नहीं हैं, कि जिसमे किसी भी परमाणुने अपने स्वरूपका त्याग कर दिया हो । करोडो प्रकारसे उस अनत परमाणुरूप सोनेकी आकृतियोको यदि एक रसरूप करें, तो भी सबके सब परमाणु अपने हो स्वरूपमे रहते हैं, अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका त्याग नही करते, क्योकि वैसा होनेका किसी भी तरहसे अनुभव नही हो सकता। उस सोनेके अनत परमाणुओके अनुसार अनत सिद्धकी अवगाहना माने तो बाधा नही है, परन्तु इससे कुछ कोई भी जीव किसी भी दूसरे जीवके साथ सर्वथा एकत्वरूपसे मिल गया है, ऐसा है ही नही । सब निजभावमे स्थिति करके ही रह सकते हैं । प्रत्येक जीवकी जाति एक हो, इससे जो एक जीव है वह अपनापन त्याग करके दूसरे जीवोके समुदायमे मिलकर स्वरूपका त्याग कर देता है, ऐसा होनेका क्या हेतु है ? उसके अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, कमबध और मुक्तावस्था, ये अनादिसे भिन्न हैं, और मुक्तावस्थामे फिर वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका त्याग करे, तो फिर उसका अपना स्वरूप क्या रहा? उसका क्या अनुभव रहा ?' और अपने स्वरूपके जानेसे उसकी कर्मसे मुक्ति हुई अथवा अपने स्वरूपसे मुक्ति हुई ? यह प्रकार विचार करने योग्य है । इत्यादि प्रकारसे जिनेन्द्रने सर्वथा एकत्वका निषेध किया है। - अभी समय नहीं होनेसे इतना लिखकर पत्र पूरा करना पड़ता है । यही विनती । । ।
. आ० स्व० प्रणाम ।
बबई, भादो सुदी ८, शुक्र, १९५० श्री स्थभतीर्थक्षेत्रमे स्थित श्री अबालाल, कृष्णदास आदि सर्व मुमुक्षुजनके प्रति,
श्री मोहमयी क्षेत्रसे आत्मस्वरूपकी स्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो ।
विशेष विनती कि आप, सब भाइयोके प्रति आज दिन तक हमसे मन, वचन, कायाके योगसे जानते या अजानते कुछ भी अपराध हुआ हो उसकी विनयपूर्वक शुद्ध अत करणसे क्षमा मांगता हूँ। यही विनती।
. .आ० स्व० प्रणाम ।
५२५
वबई, भादो सुदी १०, रवि, १९५० ___ यह आत्मभाव है और यह अन्यभाव है, ऐसा बोधवीज आत्मामे परिणमित होनेसे अन्यभावमे सहजमे उदासीनता उत्पन्न होती है, और वह उदासीनता अनुक्रमसे उन अन्यभावसे सर्वथा मुक्त करती है। जिसने निजपरभावको जाना है, ऐसे ज्ञानीपुरुषको, उसके पश्चात् परभावके कार्यका जो कुछ प्रसग रहता है उस प्रसगमे प्रवृत्ति करते-करते भी उससे उस ज्ञानीका सम्बन्ध छूटा करता है, परतु उसमें हितबुद्धि होकर प्रतिवध नही होता। ,
प्रतिबध नही होता यह बात एकान्त नहीं है, क्योकि जहाँ ज्ञानकी विशेष प्रबलता नही होती वहां परभावके विशेष परिचयका प्रतिवधरूप हो जाना भी सम्भव है, और इसलिये भी श्री जिनेन्द्रन ज्ञानी पुरुषके लिये भो निजज्ञानके परिचय-पुरुषार्थको सराहा है; उसे भी प्रमाद कर्तव्य नहीं है, अथवा
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२७ वॉ वर्ष परभावका परिचय करना योग्य नही है, क्योकि वह किसी अशमे भी आत्मधाराके लिये प्रतिबधरूप कहने योग्य है। . ज्ञानीको प्रमादबुद्धि सम्भव नही है, ऐसा यद्यपि सामान्य पदमे श्री जिनेन्द्र आदि महात्माओने कहा है, तो भी वह पद चौथे गुणस्थानसे सम्भवित नही माना, आगे जाकर सभवित माना है, जिससे विचारवान जीवका तो अवश्य कर्तव्य है कि यथासम्भव परभावके परिचित कार्यसे दूर रहना, निवृत्त होना। प्राय विचारवान जीवको तो यही बुद्धि रहतो है, तथापि किसी प्रारब्धवशात् परभावका परिचय प्रबलतासे उदयमे हो वहाँ निजपदबुद्धिमे स्थिर रहना विकट है, ऐसा मानकर नित्य निवृत्तवुद्धिकी विशेष भावना करनी, ऐसा महापुरुषोने कहा है।
___ अल्पकालमे अव्याबाध स्थिति होनेके लिये तो अत्यत पुरुषार्थ करके जीवको परपरिचयसे निवृत्त होना ही योग्य है । धीरे धीरे निवृत्त होनेके कारणो पर भार देनेकी अपेक्षा जिस प्रकार त्वरासे निवृत्ति हो वह विचार कर्तव्य है, और ऐसा करते हुए यदि असाता आदि आपत्तियोगका वेदन करना पड़ता हो तो उसका वेदन करके भी परपरिचयसे शीघ्रत दूर होनेका उपाय करना योग्य है । इस बातका विस्मरण होने देना योग्य नहीं है।
ज्ञानकी बलवती तारतम्यता होनेपर तो जीवको परपरिचयमे स्वात्मवुद्धि होना कदापि सम्भव नही है, और उसकी निवृत्ति होनेपर भी ज्ञानबलसे वह एकान्तरूपसे विहार करने योग्य है। परंतु उससे जिसकी नीची दशा है, ऐसे जीवको तो अवश्य परपरिचयका छेदन करके सत्संग कर्तव्य है, कि जिस सत्सगसे सहजमे अव्यावाध स्थितिका अनुभव होता है। ज्ञानीपुरुष कि जिन्हे एकातमे विचरते हुए भी प्रतिबधका सम्भव नही है, वे भी सत्सगकी निरन्तर इच्छा रखते हैं, क्योकि जीवको यदि अव्यावाध समाधिकी इच्छा हो तो सत्सग जैसा कोई सरल उपाय नही है।
ऐसा होनेसे दिन प्रतिदिन, प्रसग प्रसगमे, अनेक बार क्षण क्षण मे सत्सगका आराधन करनेकी ही इच्छा वर्धमान हुआ करती है । यही विनती।
, आ० स्व० प्रणाम ।
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बबई, भादो वदी ५, गुरु, १९५०
श्री सूर्यपुरस्थित, सत्सगयोग्य, आत्मगुण इच्छुक श्री लल्लुजीके प्रति,
श्री मोहमयीक्षेत्रसे जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक का आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष आपके लिखे हुए दो पत्र मिले हैं। अभी कुछ अधिक विस्तारसे लिखना नही हो सका । उस कार्यमे चित्तस्थितिका विशेष प्रवेश नही हो सकता।
'योगवासिष्ठादि' जो जो उत्तम पुरुषोंके वचन हैं वे सब अहवृत्तिका प्रतिकार करनेके लिये ही है। जिस जिस प्रकारसे अपनी भ्राति कल्पित की गयी है, उस उस प्रकारसे उस भ्रातिको समझकर तत्सबंधी अभिमानको निवृत्त करना, यही सर्व तीर्थंकर आदि महात्माओका कहना है, और उसी वाक्यपर जीवको विशेषत स्थिर होना है, उसीका विशेष विचार करना है, और वही वाक्य मुख्यतः अनुप्रेक्षायोग्य है । उस कार्यको सिद्धिके लिये सब साधन कहे हैं। अहतादि बढनेके लिये, वाह्य क्रिया अथवा मतके आग्रहके लिये, सम्प्रदाय चलानेके लिये, अथवा पूजाश्लाघादि प्राप्त करनेके लिये किसी महापुरुपका कोई उपदेश नही है और वही कार्य करनेकी ज्ञानीपुरुपको सर्वथा आज्ञा है । अपनेमे उत्पन्न हुआ हो ऐसे महिमायोग्य गुणसे उत्कर्ष प्राप्त करना योग्य नहीं है, परतु अल्प भी निजदोष देखकर पुन पुन. पश्चात्ताप करना योग्य है, और प्रमाद किये बिना उससे पीछे मुडना योग्य है, यह सूचना ज्ञानीपुरुषके वचनमे सर्वत्र
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श्रीमद राजचन्द्र
निहित है । और उस भावके आनेके लिये सत्सग, सद्गुरु और सत्शास्त्र आदि साधन कहे है, जो अनन्य निमित्त हैं ।
जीवको उन साधनोकी आराधना निजस्वरूपके प्राप्त करनेके हेतुरूप ही है, तथापि जीव यदि वहाँ भी वंचनावुद्धिसे प्रवृत्ति करे तो कभी कल्याण नही हो सकता । वंचनाबुद्धि अर्थात् सत्सग, सद्गुरु आदि सच्चे आत्मभावसे जो माहात्म्यबुद्धि होना योग्य है, वह माहात्म्यबुद्धि नही और अपने आत्मामे अज्ञानता ही रहतो चली आयी है, इसलिये उसकी अल्पज्ञता, लघुता विचारकर अमाहात्म्यबुद्धि करनी चाहिये सो नही करना, तथा सत्सग, सद्गुरु आदिके योगमे अपनी अल्पज्ञता, लघुताको मान्य नही करना यह भो वचना बुद्धि है । वहाँ भी यदि जीव लघुता धारण न करे तो प्रत्यक्षरूपसे जीव भवपरिभ्रमणसे भयको प्राप्त नही होता, यही विचार करना योग्य है । जीवको यदि प्रथम यह लक्ष्य अधिक हो तो सब शास्त्रार्थ और आत्मार्थका सहजतासे सिद्ध होना संभव है । यही विज्ञापन ।
आ० स्व० प्रणाम ।
बवई, भादो वदी १२, बुध, १९५०
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पूज्य श्री सोभागभाई, श्री सायला ।
यहाँ कुशलता है । आपका एक पत्र आज आया है । प्रश्नो के उत्तर अबे तुरत लिखेंगे । आपने आजके पत्रमे जो समाचार लिखा है, तत्सम्बन्धी श्री रेवाशंकरभाईको जो राजकोट हैं, उन्हे लिखा है वे सीधे आपको उत्तर लिखेंगे ।
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गोसलियाके दोहे मिले हैं। उनका उत्तर लिखने जैसा विशेषरूपसे नही है । एक अध्यात्म दशाके अकुरसे—–स्फुरणसे ये दोहे उत्पन्न होना सम्भव है । परन्तु ये एकात सिद्धांतरूप नही है ।
श्री महावीरस्वामीसे वर्तमान जैन शासनका प्रवर्तन हुआ है, वे अधिक उपकारी ? या प्रत्यक्ष हित में प्रेरक और अहितके निवारक ऐसे अध्यात्ममूर्ति सद्गुरु अधिक उपकारों ? यह प्रश्न मांकुभाईकी तरफ से हे । इस विषयमे इतना विचार रहता है कि महावीर स्वामी सर्वज्ञ हैं और प्रत्यक्ष पुरुष आत्मज्ञ-सम्यग्दृष्टि हैं, अर्थात् महावीरस्वामी विशेष गुणस्थानकमे स्थित थे । महावीरस्वामीकी प्रतिमाकी वर्तमानमे भक्ति करे, उतने ही भावसे प्रत्यक्ष सद्गुरुकी भक्ति करे, इन दोनोमे विशेष हितयोग्य किसे कहना योग्य है ? इसका उत्तर आप दोनो विचारकर सविस्तर लिखियेगा ।
पहले सगाईके सम्वन्धमे सूचना की थी, अर्थात् हमने रेवाशकरभाईको सहज ही लिखा था, क्योकि उस समय विशेष लिखा जाना अनवसर आर्तध्यान कहने योग्य है। आज आपके स्पष्ट लिखनेसे रेवाशंकरभाईको मैंने स्पष्ट लिख दिया है । व्यावहारिक जजालमे हम उत्तर देने योग्य न होनेसे रेवाशकरभाईको इस प्रसगमे लिखा है, जो लोटती डाकसे आपको उत्तर लिखेंगे । यही विनती । गोसलियाको प्रणाम ।
लि० आ० स्व० प्रणाम ।
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बबई, आसोज सुदी ११, बुध, १९५०
जिन्हे स्वप्नमे भी ससारसुखकी इच्छा नही रही, और जिन्हे ससारका स्वरूप सम्पूर्ण निःसारभूत भासित हुआ है, ऐसे ज्ञानीपुरुष भी आत्मावस्थाको वारवार सम्भाल सम्भालकर उदय प्राप्त प्रारब्धका वेदन करते हैं, परन्तु आत्मावस्थामे प्रमाद नही होने देते । प्रमादके अवकाश योगमे ज्ञानीको भी जिस ससारसे अशत. व्यामोह होनेका सम्भव कहा है, उस संसारमे साधारण जीव रहकर, उसका व्यवसाय
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लौकिकभावसे करके आत्महितकी इच्छा करे, यह न होने जैसा ही कार्य है,, क्योकि लौकिकभावके कारण जहाँ आत्माको निवृत्ति नही होती, वहाँ अन्य प्रकारसे हितविचारणा होना सम्भव नही है। यदि एकको निवृत्ति हो तो दूसरेका परिणाम होना सम्भव है। अहितहेतु ऐसे संसारसम्बन्धी प्रसग, लौकिकभाव, लोकचेष्टा इन सबकी सम्भाल यथासम्भव छोड़ , करके, उभे कम करके आत्महितको अवकाश देना योग्य है।
___आत्महितके लिये सत्सग जैसा बलवान अन्य कोई निमित्त प्रतीत नही होता, फिर भी वह सत्सग भी जो जीव लौकिकभावसे अवकाश नही लेता, उसके लिये प्रायः निष्फल होता है, और सत्सग कुछ सफल हुआ हो, तो भी यदि लोकावेश विशेष-विशेष रहता हो तो उस फलके निर्मूल हो जानेमे देर नहीं लगती,
और स्त्री, पुत्र, आरम्भ तथा परिग्रहके प्रसगमेसे यदि निजबुद्धि छोड़नेका प्रयास न किया जाये तो सत्सगके सफल होनेका सम्भव कैसे हो? जिस प्रसगमे महा ज्ञानीपुरुष संभल संभलकर चलते हैं, उसमे इस जीवको तो अत्यन्त अत्यन्त सावधानतासे, सकोचपूर्वक चलना चाहिये, यह बात भूलने जैसी ही नही है,, ऐसा निश्चय करके प्रसग-प्रसगमे, कार्य-कार्यमे और परिणाम-परिणाममे उसका ध्यान रखकर उससे छूटा जाये, वैसे ही करते रहना, यह हमने श्री वर्धमानस्वामीकी छमस्थ मुनिचर्याके दृष्टातसे कहा था।
--, ५२९ बबई, आसोज वदी ३, बुध, १९५०
'भगवान भगवानका संभालेगा, परन्तु जब जीव अपना अह छोडेगा तव', ऐसा जो भद्रजनोका वचन है, वह भी विचार करनेसें हितकारी है । आप कुछ ज्ञानकथा लिखियेगा।
५३० । बंबई, आसोज वदी ६, शनि, १९५०
सत्पुरुषको नमस्कार आत्मार्थी. गुणग्राही, सत्सगयोग्य भाई श्री मोहनलालके प्रति, डरबन ।, .
श्री बबईसे लिखित जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक रायचदका आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो।
यहाँ कुशलता है। आपका लिखा हुआ एक पत्र मुझे मिला है। कई कारणोसे उसका उत्त' लिखनेमे ढील हुई थी । बादमे, आप इस तरफ तुरन्त आनेवाले हैं, ऐसा जाननेमे आनेसे पत्र नही लिए था, परन्तु अभी ऐमा जाननेमे आया है कि स्थानीय कारणसे अभी वहाँ लगभग एक वर्ष तक ठहरने है, जिससे मैने यह पत्र लिखा है। आपके लिखे हुए पत्रमे जो आत्मा आदिके विषयमे प्रश्न हैं और प्रश्नोंके उत्तर जाननेको आपके चित्तमे विशेष आतुरता है, उन दोनोके प्रति मेरा सहज सहज अनुम है। परन्तु जिस समय आपका वह पत्र मुझे मिला उस समय उसका उत्तर लिखा जा सके ऐसे चित्तकी स्थिति नहीं थी, और प्रायः वैसा होनेका कारण भी यह था कि उस प्रसगमे बाह्योपाधि स वैराग्य विशेष परिणामको प्राप्त हुआ था, और वैसा होनेसे उस पत्रका उत्तर लिखने जैसे का प्रवृत्ति हो सकना सम्भव न था। थोडा समय जाने देकर, कुछ वैसे वैराग्यमेसे भी अवकाश लेकर पत्रका उत्तर लिखेंगा, ऐसा सोचा था, परन्तु बादमे वैसा होना भी अशक्य हो गया। आपके पत्र भी मैंने लिखी न थी ओर इस प्रकार उत्तर लिख भेजनेमे ढोल हुई, इससे मेरे मनमे भी खेद और जिसका अमुक भाव तो अभी तक रहा करता है । जिस प्रसगमे विशेष करके खेद हआ, उ १. महात्मा गाधीजीने उरवन-ममीकासे जो प्रश्न पूछे थे उनके उत्तर यहाँ दिये हैं ।
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श्रीमद राजचन्द्र
ऐसा सुनने आया कि आप तुरन्त ही इस देशमे आनेका विचार रखते है, जिससे चित्तमे कुछ ऐसा आया कि आपको उत्तर लिखनेमे देर हुई है, परन्तु आपका समागम होनेसे वह उलटी लाभकारक होगी । क्योकि लेख द्वारा बहुतसे उत्तर समझाना विकट था, और आपको तुरन्त पत्र न मिल सकनेसे आपके चित्तमे जो आतुरता वर्धमान हुई वह समागममे उत्तर तुरत ही समझ सकनेके लिये एक सुन्दर कारण मानने योग्य था । अब प्रारब्धोदयसे जब समागम हो तब कुछ भी वेसी ज्ञानवार्ता होनेका प्रसंग आये ऐसी आकाक्षा रखकर संक्षेपमे आपके प्रश्नोके उत्तर लिखता हूँ, जिन प्रश्नोके उत्तरोका विचार करनेके लिये निरन्तर तत्सम्बन्धी विचाररूप अभ्यासकी आवश्यकता है । वे उत्तर सक्षेपमे लिखे गये है, जिससे कुछ एक सन्देहोकी निवृत्ति होना शायद मुश्किल होगा, तो भी मेरे चित्तमे ऐसा रहता है कि मेरे वंचनके प्रति कुछ भी विशेष विश्वास है, और इससे आपको धैर्य रह सकेगा, और प्रश्नोका यथायोग्य समाधान होनेके लिये अनुक्रमसे 'कारणभूत होगा ऐसा मुझे लगता है। आपके पत्रमे २७ प्रश्न है, उनके उत्तर संक्षेपमे नीचे लिखता हूँ
१- प्रश्न- (१) आत्मा क्या है ? (२) वह कुछ करता है ? (३) और उसे कर्म दुःख देते है या नही ? ।
उ०—(१) जैसे घटपटादि जड़ वस्तुएँ है वैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु है । घटपटादि अनित्य हैं, 'एकस्वरूपसे स्थिति करके त्रिकाल नही रह सकते । 'आत्मा एकस्वरूपसे स्थिति करके त्रिकाल रह सकता है ऐसा नित्य पदार्थ है । जिस पदार्थको उत्पत्ति किसी भी सयोगसे नही हो सकती, वह पदार्थ नित्य होता है । आत्मा किसी भी सयोगसे बन सके, ऐसा प्रतीत नही होता । क्योकि जड़के चाहे हजारो सयोग करें तो भी उससे चेतनकी उत्पत्ति हो सकने योग्य नही है । जो धर्म जिस पदार्थमे, नही होता, वैसे बहुतसे पदार्थोंको इकट्ठा करनेसे भी, उनमें जो धर्म नही है, वह उत्पन्न नही हो सकता, ऐसा अनुभव, सबको हो सकता है । जो घटपटादि पदार्थ हैं उनमे ज्ञानस्वरूपता देखनेमे नही आती। वैसे पदार्थो परिणामातर करके सयोग किया हो अथवा हुआ हो तो भी वह उसी जातिका होता है अर्थात् जडस्वरूप होता है, परन्तु ज्ञानस्वरूप नही होता। तो फिर वैसे पदार्थका सयोग होनेपर आत्मा कि जिसे ज्ञानीपुरुष मुख्य ज्ञानस्वरूप लक्षणवाला कहते हैं वह वैसे (घटपटादि, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश) पदार्थोंसे किसी तरह उत्पन्न हो सकने योग्य नही है । ज्ञानस्वरूपता यह आत्माका मुख्य लक्षण है, और उसके अभाववाला मुख्य लक्षण जड़का है । उन दोनोके ये अनादि, सहज स्वभाव है । यह तथा वैसे दूसरे हजारो प्रमाण आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन कर सकते है । तथा उसका विशेष विचार करनेपर, नित्यरूपसे सहजस्वरूप आत्मा अनुभवमे भी आता है। जिससे सुख दुख आदि भोगना, उससे निवृत्त होना, विचार करना, प्रेरणा करना इत्यादि भाव जिसकी विद्यमानतासे अनुभवमे आते है, वह आत्मा मुख्य चेतन (ज्ञान) लक्षणवाला है, और उस भावसे ( स्थितिसे) वह सर्व काल रह सकनेवाला नित्य पदार्थ है, ऐसा माननेमे कोई भी दोष या बाधा प्रतीत नही होती, परन्तु सत्यका स्वीकार होनेरूप गुण होता है ।
यह प्रश्न तथा आपके दूसरे कितने ही प्रश्न ऐसे है कि जिनमे विशेष लिखने तथा कहने और समझानेकी आवश्यकता है, उन प्रश्नो के उत्तर वैसे स्वरूपमें लिख पाना अभी कठिन है । इसलिये पहले ' 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ आपको भेजा था कि जिसे पढ़ने और विचारनेसे आपको किसी भी अशमे समाधान हो, और इस पत्र से भी कुछ विशेष अशमे समाधान हो सकना सम्भव है । क्योकि तत्सम्बन्धी अनेक प्रश्न उठने योग्य है, जिनका पुन पुन समाधान होनेसे, विचार करनेसे वे शान्त हो जाये, ऐसी' प्राय स्थिति है ।
(२) ज्ञानदशामे, अपने स्वरूपके यथार्थबोध से उत्पन्न हुई दशामे वह आत्मा निजभावका अर्थात् ज्ञान, दर्शन ( यथास्थित निर्धार) और सहजसमाधिपरिणामका कर्त्ता है । अज्ञानदशामे क्रोध, मान, माया,
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२७ वो वर्ष
४३३ लोभ इत्यादि प्रकृतिका कर्ता है, और उस भावके फलक भोक्ता होनेसे प्रसंगवशात् घटपटादि पदार्थका निमित्तरूपसे कर्ता है, अर्थात् घटपटादि पदार्थके मूल व्यका कर्ता नहीं है, परन्तु उसे किसी आकारमे लानेरूप क्रियाका कर्ता है। यह जो पीछे उसकी दशा ही है, उसे जैन 'कम' कहता है, वेदात 'भ्राति' कहता है, तथा दूसरे भी तदनुसारी ऐसे शब्द कहते हैं। वास्तविक विचार करनेसे आत्मा घटपटादिका तथा क्रोधादिका कर्ता नहीं हो सकता, मात्र निजस्रूप ज्ञानपरिणामका ही कर्ता, है, ऐसा स्पष्ट समझमे आता है।
(३) अज्ञानभावसे किये हुए कर्म प्रारम्भकात्म वीजरूप होकर समयका योग पाकर फलरूप वक्षपरिणामसे परिणमते हैं, अर्थात् वे कर्म आत्माको गोगने पड़ते हैं । जैसे अग्निके स्पर्शसे उष्णताका सम्बन्ध होता है, और उसका सहज वेदनारूप परिणाम तता है, वैसे आत्माको क्रोधादि भावके कर्तारूपसे जन्म, जरा, मरणादि वेदनारूप परिणाम होता है,. स दिवारका आप विशेषरूपसे विचार कीजियेगा, और तत्सम्बन्धी जो कोई प्रश्न हो उसे लिखियेग । कोकि जिस प्रकारको समझ है उससे निवृत्त होनेरूप कार्य करनेपर जीवको मोक्षदशा प्राप्त होती ।।
२. प्र०-(१)-ईश्वर क्या है ? (२) वा वह स्वमुच जगतकर्ता है ? __ . उ०-(१) हम आप कर्मवधमे से हुए जी हैं। उस जीवका सहजस्वरुप अर्थात् कर्मरहितरूपसे मात्र एक आत्मत्वरूपसे जो स्वरूप है ह ईश्वरत्व है। जिसमे ज्ञानादि ऐश्वर्य है से ईश्वर कहना योग्य है, और वह ईश्वरता आत्माका सलस्वरूप है । जो स्वरूप कमप्रसगसे प्रतीत नी होता, परंत उस प्रसगको अन्यस्वरूप जानकर, जब नात्माकी ओरदृष्टि होती है, तभी अनुक्रमसे सर्वज्ञतदि. ऐश्वर्य उसी आत्मामे प्रतीत होता है, और उस विशेष ऐश्वयंवाला कोई पदार्थ समस्त पदार्थोको देखा हए भी अनुभवमे नही आ सकता । इसलियेजो ईश्वर है वह वात्माका दूसरा पर्यायवाची नाम है, इससे कोई विशेष सत्तावाला पदार्थ ईश्वर है, ऐसा नही है । ऐसे निश्वयमे मेरा अभिप्राय है।
(२) वह जगतकर्ता ही है, अर्थात् परमापु, आकाश आदि पदार्थ नित्य होने योग्य है, वे किसी भी वस्तमेसे बनने योग्य नहीं है। कदाचित् ऐसा मानें कि वे श्विरमेसे बने हैं, तो यह पत भी योग्य नही लगती; क्योकि ईशरको यदि चेतनरूपसे मान, तो उससे प'माणु, आकाश इत्यादि कैसे पन्न हो सकते हैं ? क्योकि चेत्नसे ज़डकी उत्पत्ति होना ही सम्भव नही है । यदि ईश्वरको जडरूप स्वीकार किया जाय तो वह सहज त अनैश्वर्यवान ठहरता है, तथा उससे जोवरूप तन पदार्थकी उत्पत्ति भी नही है सकती। जडचेतन उभयरूप ईश्वर मानें तो फिर जडचेतनरूप जगत है उसका ईश्वर ऐसा दूसरा नाम कहकर सतोष नानने जैसा होता है, और जगतका नाम ईश्वर रखकर सतोष मानना, इसकी अपेक्षा जगतको जगत कहना, यह विशेष योग्य है। कदाचित् परमाणु, आकाश आदिको नित्य माने और ईश्वर को कर्मादिका फल देनेवाला मानें तो भी यह वात सिद्ध प्रतीत नही होती। इस विचारपर 'षडदर्शनसमुच्चय' मे अच्छे प्रमाण दिये हैं। ३ प्र०-मोक्ष क्या है ?
उ.-जिस क्रोधादि अज्ञानभावमे, देहादिमे आत्माको प्रतिवध है, उससे सर्वथ निवत्ति होना, भक्ति होना, उसे ज्ञानियोंने मोक्षपद कहा है । उसका महज विचार करनेपर वह प्रमाणभूत लता है। ४ प्र०-मोक्ष मिलेगा या नहीं? यह निश्चितरूपसे इस देहमे ही जाना जा सका है?
उ.-एक रस्सीके बहुतसे वधोसे हाथ बांध दिया गया हो, उनमेसे अनुक्रमसे यो ज्यो वध छोड़नेमे आते है, त्यो त्यो उस बंधके सम्बन्धकी निवृत्ति अनुभवमे आती है, और वह रस्सी बत
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श्रीमद् राजचन्द्र छोडकर छूट जानेके परिणाममे रहती है, ऐसा भी मालूम होता है, अनुभवमे आता है । 'उसी प्रकार अज्ञानभावके अनेक परिणामरूप वधका प्रसंग आत्माको है, वह ज्यो ज्यो छूटता है त्यो त्यो मोक्षका अनुभव होता है, और जब उसकी अतीव अल्पता हो जाती है तब सहज ही आत्मामे निजभाव प्रकाशित होकर अज्ञानभावरूप बधसे छूट सकनेका प्रसग है, ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है । तथा समस्त अज्ञानादिभावसे निवृत्ति होकर सम्पूर्ण आत्मभाव इसी देहमें स्थितिमान होते हुए भी आत्माको प्रगट होता है, और सर्व सम्बन्धसे सर्वथा अपनी भिन्नना अनुभवामे आती है, अर्थात् मोक्षपद इस देहमे भी अनुभवमे आने योग्य है।
५ प्र०-ऐसा पढनेमे आया है कि मनुष्य देह छोड़कर कर्मके अनुसार जानवरोमे जन्म लेता है, पत्यर भी होता है, वृक्ष भी होता है, क्या यह ठीक है ? |
उ०-देह छोडनेके बाद उपाजित कर्मके अनुसार जीवकी गति होती है, इससे वह तिर्यंच (जानवर) भी होता है और पृथ्वीकाय अर्थात् पृथ्वीरूप शारीर धारणकर बाकीकी दूसरी चार इन्द्रियोके बिना कर्म भोगनेका जीवको प्रसग भी आता है, तथापि वह सर्वथा पत्थर अथवा पृथ्वी हो जाता है, ऐसा कुछ नही है । पत्थररूप काया धारण करे और उसमे भी अव्यक्तरूपसे जीव जीवरूप ही होता है। दूसरी चार इन्द्रियोकी वहाँ अव्यक्तता (अप्रगटता) होनेसे पृथ्वीकायरूप जी कहने योग्य है। अनुक्रमसे उस कर्मको भोगकर जीव निवृत्त होता है, तब केवल पत्थरका दल परमाणु रूपसे रहता है, परन्तु जीवके उसके सम्बन्धको छोड़कर चले जानेसे उसे आहारादि सज्ञा नही होती, अर्थात् केवल जड'ऐसा पत्थर जीव होता है, ऐसा नहीं है । कमकी विषमतासे चार इद्रियोका प्रसग अव्यत्त होकर केवल एक स्पर्शन्द्रियरूपसे देहका प्रसग जीचको जिस कमसे होता है, उस कर्मको 'भोगते हए वह पृथ्वी आदिमें जन्म लेता है, परंतु वह सर्वथा पृथ्वीरूप अथवा पत्थररूप नही हो जाता। जानवर होते हुए भी सर्वथा' जानवर नहीं हा जाता । जो देह है, वह जोवकी वेशधारिता है, स्वरूपता नही है। -
६-७ प्र०-५वें प्रश्नके उत्तरमे छठे प्रश्नका भी समाधान आ गया है, और सातवे प्रश्नका भी समाधान आ गया है कि केवल पत्थर या केवल पृथ्वी कुछ कर्मका कर्ता नही है। उसमे आकर उत्पन्न हुआ जीव कर्मका कर्ता है, और वह भी दूध और पानीकी तरह है। जैसे दूध पानीका सयोग होनेपर भी दूध दूध है और पानी पानी है, वैसे एकेन्द्रिय आदि कर्मबन्धसे जीवमे पत्थरपन, जड़ता मालूम होती है, तो भी वह जीव अन्तरमे तो जीवल्पसे ही है, और वहाँ भी वह आहार, भय आदि सज्ञापूर्वक है, जो अव्यक्त जैसी है। ८. प्र०-(१) आर्यधर्म क्या है ? (२) सबकी उत्पत्ति वेदमेसे ही है क्या ?
उ०-(१) आर्यधर्मकी व्याख्या करनेमे सभी अपने पक्षको आर्यधर्म कहना चाहते हैं। जैन जैनको, बौद्ध बौद्धको, वेदाती वेदातको आर्यधर्म कहते हैं, ऐसा साधारण है। तथापि ज्ञानीपुरुष तो जिससे आत्माको निजस्वरूपकी प्राप्ति हो, ऐसा जो आर्य (उत्तम) मार्ग, उसे आर्यधर्म कहते हैं, और ऐसा ही होने योग्य है।
(२) सबकी उत्पत्ति वेदमेसे होना सम्भव नही है । वेदमे जितना ज्ञान कहा है उससे हज़ारगुना आशयवाला ज्ञान श्री तीर्थंकरादि महात्माओने कहा है, ऐसा मेरे अनुभवमे आता है, और इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि अल्प वस्तुमेसे सम्पूर्ण 'वस्तु नही हो सकती, ऐसा होनेसे वेदमेसे सबकी उत्पत्ति कहना योग्य नही है। वैष्णवादि सम्प्रदायोकी उत्पत्ति उसके आश्रयसे माननेमें कोई आपत्ति नही है। जैन, बौद्धके अन्तिम महावीरादि' महात्मा होनेसे पहले वेद थे; ऐसा मालूम होता है, और वे बहुत प्राचीन
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२७ या वर्ष
ग्रन्थ हैं, ऐसा भी मालूम होता है। तथापि जो कुछ प्राचीन हो वही सम्पूर्ण हो या सत्य हो, ऐसा नही कहा जा सकता, और जो बादमे उत्पन्न हुए हो वे अपूर्ण तथा असत्य हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। बाकी वेद जैसा अभिप्राय और जैन जैसा अभिप्राय अनादिसे चला आता है। सर्व भाव अनादि हैं, मात्र रूपातर होता है। केवल उत्पत्ति अथवा केवल नाश नही होता। वेद, जैन और अन्य सबके अभिप्राय अनादि हैं, ऐसा माननेमे आपत्ति नही है; वहाँ फिर विवाद किसका रहे? तथापि इन सबमे विशेष वलवान, सत्य अभिप्राय किसका कहने योग्य है, उसका-विचार करना, यह हमे, आपको, सबको योग्य है। ९ प्र-(१) वेद किसने बनाये ? वे अनादि हैं ? (२) यदि अनादि हो तो अनादिका अर्थ क्या ?
उ०-(१) बहुत काल पहले वेदोका होना सम्भव है।
(२) पुस्तकरूपसे कोई भी शास्त्र अनादि नहीं है, उसमे कहे हुए अर्थके अनुसार तो सव शास्त्र अनादि है, क्योकि उस उस प्रकारका अभिप्राय भिन्न-भिन्न जोव भिन्न भिन्नरूपसे कहते आये हैं, और ऐसी ही स्थिति सम्भव है, क्रोधादि भाव भी अनादि है, और क्षमादि भाव भी अनादि हैं, हिंसादि धर्म भी अनादि है; और अहिंसादि धर्म भी अनादि हैं। मात्र जीवके लिये हितकारी क्या है ? इतना विचार करना कार्यरूप है । अनादि तो दोनो हैं । फिर कभी कम परिमाणमे ओर कभी विशेष परिमाणमे किसोका बल होता है। १० प्र०-गीता किसने बनायी ? ईश्वरकृत तो नही है ? यदि वैसा हो तो उसका कोई प्रमाण है ?
उ०-उपर्युक्त उत्तरोसे कुछ, समाधान हो सकने योग्य है कि 'ईश्वर'का अर्थ ज्ञानी. (सम्पूर्णज्ञानी) ऐसा करनेसे वह ईश्वरकृत हो सकती है, परतु नित्य अक्रिय ऐसे आकाशकी तरह व्यापक ईश्वरको स्वीकार करनेपर वैसी पुस्तक आदिकी उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है, क्योकि यह तो साधारण कार्य है कि जिसका कर्तृत्व आरभपूर्वक होता है, अनादि नही होता। गीता वेदव्यासजीकी बनायी हुई पुस्तक मानी जाती है और महात्मा श्रीकृष्णने अर्जुनको वैसा बोध किया था, इसलिये मुख्यरूपसे कर्ता श्रीकृष्ण कहे जाते है, जो बात सम्भव है। ग्रन्थ श्रेष्ठ है, ऐसा भावार्थ अनादिसे चला आता है, परतु वे ही श्लोक अनादिसे चले आते हो, ऐसा होना योग्य नहीं है, तथा निष्क्रिय ईश्वरसे भी उसकी उत्पत्ति हो, यह सम्भव नही है। सक्रिय अर्थात् किसी देहधारीसे वह क्रिया होने योग्य है। इसलिये सम्पूर्णतानी वही ईश्वर है, और उसके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र ईश्वरीय शास्त्र है, ऐसा माननेमे कोई वाधा नहीं है। ११ प्र०-पशु आदिके यज्ञसे जरा भी पुण्य है क्या?
उ.-पशके वधसे, होमसे या जरा भी उसे दुख देनेसे पाप ही है, वह फिर यज्ञमे करे या चाहे तो ईश्वरके धाममे बैठकर करें, परन्तु यज्ञमे जो दानादि क्रिया होती है, वह कुछ पुण्य हेतु है, तथापि हिंसामिश्रित होनेसे वह भी अनुमोदन योग्य नहीं है। १२ प्र०-जो धर्म उत्तम है, ऐसा आप कहे तो उसका प्रमाण मांगा जा सकता है क्या ?
उ०-प्रमाण मांगनेमे न आये और उत्तम हे ऐसा प्रमाणके विना प्रतिपादन किया जाये तो फिर अर्थ, अनर्थ, धर्म, अधर्म सब उत्तम हो ठहरें। प्रमाणसे ही उत्तम अनुत्तम मालूम होता है। जो धर्म ससारको परिक्षीण करनेमे सवसे उत्तम हो, और निजस्वभावमे स्थिति करानेमे बलवान हो वही उत्तम और वही बलवान है।
१३ प्र-क्या आप ईसाईधर्मके विषयमे कुछ जानते हैं ? यदि जानते हो तो अपने विचार बतलाइयेगा।
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PLANETYSTI
श्रीमद राजचन्द्र
उ०- ईसाईधर्मके विपयमे मै साधारणरूपसे जानता हूँ । भरतखडमे महात्माओने जैसा धर्म शोधा , विचारा है, वैसा धर्म किसी दूसरे देशसे विचारा नही गया है, यह तो अल्प अभ्याससे भी ममझा जा कता है । उसमे (ईसाई धर्ममे ) जीव की सदा परवशता कही गयी है, और मोक्षमे भी वह दशा वैसी ही रखी है। जिसमे जीवके अनादि स्वरूपका विवेचन यथायोग्य नही है, कर्मसम्बन्धी व्यवस्था और उसकी नवृत्ति भी यथायोग्य नही कही है, उस धर्मके विपयमे मेरा ऐसा अभिप्राय होना सम्भव नही है कि वह सर्वोत्तम धर्म है । ईसाईधर्म में जो मैने ऊपर कहा उस प्रकारका यथायोग्य समाधान दिखायी नही देता । वाक्य मतभेदवशात् नही कहा है। अधिक पूछने योग्य लगे तो पूछियेगा, तो विशेष समाधान किया जा सकेगा ।
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१४. प्र० – वे ऐसा कहते है कि वाईविल ईश्वरप्रेरित है, ईसा ईश्वरका अवतार है, उसका पुत्र है, और था ।
उ०~~यह बात तो श्रद्धासे मानी जा सकती है, परन्तु प्रमाणसे सिद्ध नही है । जैसा गीता और वेद के ईश्वरप्रेरित होनेके बारेमे ऊपर लिखा है, वैसा ही बाईविलके सम्बन्धमे भी मानना । जो जन्ममरणसे मुक्त हुआ वह ईश्वर अवतार ले, यह सभव नही है, क्योकि रागद्वेषादि परिणाम ही जन्मका हेतु है, वह जिसे नही है ऐसा ईश्वर अवतार धारण करे, यह बात विचार करनेसे यथार्थं प्रतीत नही होती । 'ईश्वरका पुत्र है, और था,' इस बातका भी किसी रूपकके तौरपर विचार करे तो कदाचित् मेल बैठे, नही तो प्रत्यक्ष प्रमाणसे वाधित है। मुक्त ऐसे ईश्वरको पुत्र हो, यह किस तरह कहा जाये ? और कहे तो उसकी उत्पत्ति किस तरह कह सकते हैं ? दोनोको अनादि मानें तो पिता-पुत्र सम्बन्ध किस तरह मेल खाये ? इत्यादि बातें विचारणीय हैं। जिनका विचार करनेसे मुझे ऐसा लगता है, कि यह बात यथायोग्य नही है । १५. प्र०
- पुराने करारमे जो भविष्य कहा गया है वह सव ईसाके विपयमे सच सिद्ध हुआ है । उ०- ऐसा हो तो भी उससे उन दोनो शास्त्रोके विषयमे विचार करना योग्य है। तथा ऐसा भविष्य भी ईसाको ईश्वरावतार कहनेमे वलवान प्रमाण नही है, क्योकि ज्योतिषादिकसे भी महात्माकी उत्पत्ति बतायी हो ऐसा सम्भव है । अथवा भले किसी ज्ञानसे वैसी वात बतायी हो, परतु वैसे भविष्यवेत्ता सम्पूर्ण मोक्षमार्ग के ज्ञाता थे, यह बात जब तक यथास्थित प्रमाणरूप न हो, तब तक वह भविष्य इत्यादि एक श्रद्धाग्ग्राह्य प्रमाण है, और वह अन्य प्रमाणोसे वाधित न हो, ऐसा धारणामे नही
आ सकता ।
१६ प्र० - इसमे 'ईसामसीह के चमत्कार' के विषयमे लिखा है ।
उ०--जो जीव कायामेसे सर्वथा चला गया हो, उसी जीवको यदि उसी कायामे दाखिल किया हो, अथवा किसी दूसरे जीवको उसमे दाखिल किया हो, तो यह हो सकना संभव नही हैं; और यदि ऐसा हो तो फिर कर्मादिकी व्यवस्था भी निष्फल हो जाये । बाकी योगादिकी सिद्धिसे कितने ही चमत्कार उत्पन्न होते हैं, और वैसे कुछ चमत्कार ईसाके हो, तो यह एकदम मिथ्या है या असम्भव है, ऐसा नही कहा जा सकता, वैसी सिद्धियाँ आत्माके ऐश्वर्यके आगे अल्प हैं, आत्माका ऐश्वर्य उससे अनंतगुना महान सभव है । इस विषय समागममे पूछना योग्य है ।
१७ प्र०- ० - भविष्य मे कौनसा जन्म होगा उसका इस भवमे पता चलता है ? अथवा पहले क्या थे इसका पता चल सकता है ?
उ०- यह हो सकता है । जिसका ज्ञान निर्मल इत्यादि चिह्नोसे वरसातका अनुमान होता है, वैसे इस
हुआ हो उसे वैसा होना संभव है । जैसे बादल जीवकी इस भवकी चेष्टासे उसके पूर्वकारण कैसे
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२७ वॉ वर्ष
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होने चाहिये, यह भी समझा जा सकता है, कदाचित् थोड़े अंशमे समझा जाये । तथा वह चेष्टा भविष्यमे कैसे परिणामको प्राप्त होगी, यह भी उसके स्वरूपसे जाना जा सकता है । और उसका विशेष विचार करनेपर कैसा भव होना सम्भव है, तथा कैसा भव था, यह भी विचारमे भलीभाँति आ सकता है । १८ प्र० - पुनर्जन्म तथा पूर्वजन्मका पता किसे चल सकता है ?
उ०—इसका उत्तर ऊपर आ चुका है।
१९ प्र० - जिन मोक्षप्राप्त पुरुषोंके नाम आप बताते है, वह किस आधारसे ?
उ०- इस प्रश्नको यदि मुझे खास तौर से लक्ष्य करके पूछते हैं तो उसके उत्तरमे यह कहा जा सकता है कि जिनकी संसारदशा अत्यंत परिक्षीण हुई है, उनके वचन ऐसे हो, ऐसी उनकी चेष्टा हो, इत्यादि अशसे भी अपने आत्मामे अनुभव होता है और उसके आश्रयसे उनके मोक्षके विषयमे कहा जा सकता है; और प्राय वह यथार्थ होता है, ऐसा माननेके प्रमाण भी शास्त्रादिसे जाने जा सकते हैं ।
२० प्र० - बुद्धदेव भी मोक्षको प्राप्त नही हुए, यह आप किस आधारसे कहते है
उ०~~उनके शास्त्रसिद्धातोके आधारसे । जिस प्रकारसे उनके शास्त्रसिद्धात है उसीके अनुसार यदि उनका अभिप्राय हो तो वह अभिप्राय पूर्वापर विरुद्ध भी दिखायी देता है, और वह सम्पूर्ण ज्ञानका लक्षण नही है ।
यदि सपूर्ण ज्ञान न हो तो सपूर्ण रागद्वेषका नाश होना संभव नही है । जहाँ वैसा हो वहाँ संसारका सभव है । इसलिये, उन्हे सपूर्ण मोक्ष प्राप्त हुआ है, ऐसा नही कहा जा सकता | और उनके कहे हुए शास्त्रोमे जो अभिप्राय है उसके सिवाय उनका अभिप्राय दूसरा था, उसे दूसरी तरह जानना आपके लिये और हमारे लिये कठित है, और वैसा होने पर भी यदि कहे कि बुद्धदेवका अभिप्राय दूसरा था तो उसे कारणपूर्वक कहनेसे प्रमाणभूत न हो, ऐसा कुछ नही है ।
२१ प्र०- दुनिया की अतिम स्थिति क्या होगी ?
उ०—सब जीवोकी स्थिति सर्वथा मोक्षरूपसे हो जाये अथवा इस दुनियाका सर्वथा नाश हो जाये, वैसा होना मुझे प्रमाणभूत नही लगता । ऐसेके ऐसे प्रवाहमे उसकी स्थिति सम्भव है । कोई भावरूपात पाकर क्षीण हो, तो कोई वर्धमान हो, परन्तु वह एक क्षेत्रमे बढ़े तो दूसरे क्षेत्रमे घटे इत्यादि इस सृष्टिकी स्थिति है | इससे और बहुत ही गहरे विचारमे जानेके अनतर ऐसा संभवित लगता है, कि इस सृष्टिका सर्वथा नाश हो या प्रलय हो, यह न होने योग्य है । सृष्टि अर्थात् एक यही पृथ्वी ऐसा अर्थ नही है ।
२२. प्र० - इस अनीतिमेसे सुनीति होगी क्या ? उ०- इस प्रश्नका उत्तर सुनकर जो जीव अनीतिकी इच्छा करता है, उसे यह उत्तर उपयोगी हो, ऐसा होने देना योग्य नही है । सर्व भाव अनादि हैं, नीति, अनीति, तथापि आप हम अनीति छोड़कर नीति स्वीकार करें, तो इसे स्वीकार किया जा सकता है और यही आत्माको कर्तव्य है । और सर्व जीवआश्रयी अनीति मिटकर नीति स्थापित हो, ऐसा वचन नही कहा जा सकता; क्योकि एकातसे वैसी स्थिति हो सकना योग्य नही है |
२३. प्र० - दुनियाका प्रलय है ?
उ०—प्रलय अर्थात् सर्वथा नाश, यदि ऐसा अर्थ किया जाये तो यह बात योग्य नही है, क्योकि पदार्थका सर्वथा नाश होना सम्भव ही नही है । प्रलय अर्थात् सर्व पदार्थोंका ईश्वरादिमे लीन होना, तो किसीके अभिप्रायमे इस बातका स्वीकार है, परन्तु मुझे यह सम्भवित नही लगता, क्योकि सर्वं पदार्थ, सर्वं जीव ऐसे समपरिणामको किस तरह पायें कि ऐसा योग हो, और यदि वैसे समपरिणामका प्रसग आये
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श्रीमद् राजचन्द्र
तो फिर पुन. विषमता होना सम्भव नही हैं। यदि अव्यक्तरूपसे जीवमे विषमता हो और व्यक्तरूपसे समता हो इस तरह प्रलयको स्वीकार करें तो भी देहादि सम्बन्धके विना विषमता किस आश्रयसे रहे ? देहादि सम्बन्ध मानें तो सबकी एकेन्द्रियता माननेका प्रसंग आये, और वैमा माननेसे तो बिना कारण दूसरी गतियोका अस्वीकार समझा जाये अर्थात् ऊँची गतिके जीवको यदि वैसे परिणामका प्रसंग मिटने आया हो, वह प्राप्त होनेका प्रसग आये इत्यादि बहुतसे विचार उठते है। सर्व जीवआश्रयी प्रलयका सम्भव नही है। २४ प्र०-अनपढको भक्तिसे ही मोक्ष मिल सकता है क्या ?
उ०-भक्ति ज्ञानका हेतु है । ज्ञान मोक्षका हेतु है। जिसे अक्षरज्ञान न हो उसे अनपढ कहा हो, तो उसे भक्ति प्राप्त होना असंभवित है, ऐसा कुछ है नही | जीव मात्र ज्ञानस्वभावी है । भक्तिके बलसे ज्ञान निर्मल होता है। निर्मल ज्ञान मोक्षका हेतु होता है । सम्पूर्ण ज्ञानकी अभिव्यक्ति हुए बिना सर्वथा मोक्ष हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, और जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान हो वहाँ सर्व भाषाज्ञान समा जाय, ऐसा कहनेकी भी आवश्यकता नही है । भाषाज्ञान मोक्षका हेतु है तथा वह जिसे न हो उसे आत्मज्ञान न हो. ऐसा कुछ नियम सम्भव नही है।
२५ प्र०-(१) कृष्णावतार और रामावतार होनेकी बात क्या सच्ची है ? यदि ऐसा हो तो वे क्या थे ? वे साक्षात् ईश्वर थे या उसके अश थे ? (२) उन्हे माननेसे मोक्ष मिलता है क्या ?
उ०-(१) दोनो महात्मा पुरुष थे, ऐसा तो मुझे भी निश्चय है। आत्मा होनेसे वे ईश्वर थे। उनके सब आवरण दूर हो गये हो तो उनका सर्वथा मोक्ष भी माननेमे विवाद नही है। कोई जीव ईश्वर का अश है, ऐसा मुझे नहीं लगता, क्योकि उसके विरोधी हजारो प्रमाण देखनेमे आते हैं । जीवको ईश्वर का अश माननेसे बध-मोक्ष सब व्यर्थ हो जाते है क्योकि ईश्वर ही अज्ञानादिका कर्ता हुआ, और अज्ञान आदिका जो कर्त्ता हो उसे फिर सहज ही अनैश्वर्यता प्राप्त होती है और ऐश्वर्य खो बैठता है, अर्थात् जीवका स्वामी होने जाते हुए ईश्वरको उलटे हानि सहन करनेका प्रसग आये वैसा है। तथा जीवको ईश्वरका अश माननेके बाद पुरुषार्थ करना किस तरह योग्य लगे ? क्योकि वह स्वय तो कोई कर्ता-हर्ता सिद्ध नही हो सकता । इत्यादि विरोधसे किसी जीवको ईश्वरके अशरूपसे स्वीकार करनेकी भी मेरी बुद्धि नहीं होती। तो फिर श्रीकृष्ण या राम जैसे महात्माओको वैसे योगमे माननेकी बुद्धि कैसे हो ? वे दोनो अव्यक्त ईश्वर थे, ऐसा माननेमे बाधा नही है । तथापि उनमे सम्पूर्ण ऐश्वयं प्रगट हुआ था या नहीं, यह बात विचारणीय है।
(२) उन्हे माननेसे मोक्ष मिलता है क्या? इसका उत्तर सहज है । जीवके सर्व रागद्वेष और अज्ञान का अभाव अर्थात् उनसे छूटना ही मोक्ष है। वह जिनके उपदेशसे हो सके उन्हे मानकर और उनका परमार्थस्वरूप विचारकर, स्वात्मामे भी वैसी ही निष्ठा होकर उसी महात्माके आत्माके आकारसे (स्वरूपसे) प्रतिष्ठान हो, तब मोक्ष होना सम्भव है। बाकी अन्य उपासना सर्वथा मोक्षका हेतु नही है, उसके साधनका हेतु होती है, वह भी निश्चयसे हो ही ऐसा कहना योग्य नही है ।
२६ प्र०-ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कौन थे ? । उ०-सृष्टिके हेतुरूप तीन गुणोको मानकर, उनके आश्रयसे उन्हे यह रूप दिया हो तो यह बात मेल खा सकती है तथा वैसे अन्य कारणोसे उन ब्रह्मादिका स्वरूप समझमे आता है। परन्तु पुराणोमे जिस प्रकारका उनका स्वरूप कहा है, उस प्रकारका स्वरूप है, ऐसा माननेमे मेरा विशेष झुकाव नहीं है। क्योकि उनमे बहुतसे रूपक उपदेशके लिये कहे हो, ऐसा भी लगता है । तथापि हमे भी उनका
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२७ वो वर्ष
४३९ उपदेशके रूपमे लाभ लेना चाहिये और ब्रह्मादिके स्वरूपका सिद्धात करनेकी जजालमे न पड़ना चाहिये यह मुझे ठीक लगता है।
२७. प्र०-जब मुझे सर्प काटने आये तब मुझे उसे काटने देना या मार डालना ? उसे दूसरी तरह से दूर करनेकी शक्ति मुझमे न हो, ऐसा मानते हैं।
उ.-आप सर्पको काटने दें, ऐसा काम बताते हुए विचारमे पड़ने जैसा है। तथापि आपने यदि ऐसा जाना हो कि 'देह अनित्य है', तो फिर इस असारभूत देहके रक्षणके लिये, जिसे देहमे प्रीति है, ऐसे सर्पको मारना आपके लिये कैसे योग्य हो? जिसे आत्महितकी इच्छा हो, उसे तो वहाँ अपनी देह छोड़ देना ही योग्य है। कदाचित् आत्महितकी इच्छा न हो, वह क्या करे ? तो इसका उत्तर यही दिया जाये कि वह नरकादिमे परिभ्रमण करे, अर्थात् सर्पको मारे ऐसा उपदेश कहाँसे कर सकते हैं ? अनार्यवृत्ति हो तो मारनेका उपदेश किया जा सकता है । वह तो हमे तुम्हे स्वप्नमे भी न हो, यही इच्छा करने योग्य है।
अब सक्षेपमे इन उत्तरोको लिखकर पत्र पूरा करता हूँ। 'षड्दर्शनसमुच्चय'को विशेष समझनेका प्रयत्न कीजियेगा । इन प्रश्नोके उत्तर संक्षेपमे लिखनेसे आपको समझनेमे कहीं भी कुछ दविधा हो तो भी विशेषतासे विचारियेगा, और कुछ भी पत्र द्वारा पूछने योग्य लगे तो पूछियेगा, तो प्राय. उसका उत्तर लिखूगा । समागममे विशेष,ममाधान होना अधिक योग्य लगता है। . लि० आत्मस्वरूपमे नित्य निष्ठाके हेतुभूत विचारकी चिंतामे रहनेवाले
रायचंदके प्रणाम।
५३१
बबई, आसोज वदी ३०, १९५० आपके लिखे हुए तीनो पत्र मिले हैं। जिसका परमार्थ हेतुसे प्रसग हो वह यदि आजीविकादिके प्रसंगके विषयमे थोडीसी बात लिखे या सूचित करे, तो उससे परेशानी हो आती है। परतु यह कलिकाल महात्माके चित्तको भी ठिकाने रहने दे, ऐसा नहीं है, यह सोचकर मैंने आपके पत्र पढे है। उनमे व्यापार की व्यवस्थाके विषयमे आपने जो लिखा, वह अभी करने योग्य नहीं है। बाकी उस प्रसगमे आपने जो कुछ सूचित किया है उसे या उससे अधिक आपके वास्ते कुछ करना हो तो इसमे आपत्ति नही है। क्योकि आपके प्रति अन्यभाव नही है।
५३२
बबई, आसोज वदी ३०, १९५० आपके लिखे हुए तीन पत्रोके उत्तरमे एक चिट्ठी' आज लिखी है। जिसे बहुत सक्षेपमे लिखा होने से उनका उत्तर कदाचित न समझा जा सके, इसलिये फिर यह चिट्ठी लिखी है। आपका निर्दिष्ट कार्य आत्मभावका त्याग किये बिना चाहे जो करनेका हो तो उसे करनेमे हमे विषमता नही है। चित्त, अभी- आप जो काम लिखते हैं उसे करनेमे फल नही है, ऐसा समझकर आप उस विचारका उपशमन करे, ऐसा कहता है। आगे क्या होता हे उसे धीरतासे साक्षीवत् देखना श्रेयरूप है। तथा अभी कोई दूसरा भय रखना योग्य नहीं है । और ऐसी ही स्थिति बहुत काल तक रहनेवाली है, ऐसा है ही नही।
प्रणाम।
१ देखें आक ५३१
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२८ वाँ वर्ष
C
५३३
बंबई, कार्तिक सुदी १, १९५१ मतिज्ञानादिके प्रश्नोंके विषयमे पत्र द्वारा समाधान होना कठिन है । क्योकि उन्हे विशेष पढनेकी या उत्तर लिखने की प्रवृत्ति अभी नही हो सकती ।
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महात्मा चित्तकी स्थिरता भी जिसमे रहनी कठिन है, ऐसे दुषमकालमे आप सबके प्रति अनुकंपा करना योग्य है, यह विचारकर लोकके आवेशमे प्रवृत्ति करते हुए आपने प्रश्नादि लिखनेरूप चित्तमे अवकाश दिया, इससे मेरे मनको सन्तोष हुआ है ।
1
निष्कपट दासानुदासभावसे०
बबई, कार्तिक सुदी ३, वुध, १९५१
५३४
श्री सत्पुरुषको नमस्कार
श्री सूर्यपुरस्थित, वैराग्यचित्त, सत्संगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति,
श्री मोहमयी भूमि से जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक श्री का आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती कि आपके लिखे हुए तीन पत्र थोडे थोडे दिनोके अन्तरसे मिले हैं ।
यह जीव अत्यन्त मायाके आवरणसे दिशामूढ़ हुआ है, और उस योगसे उसकी परमार्थदृष्टिका उदय नही होता । अपरमार्थमे परमार्थका दृढाग्रह हुआ है, और उससे बोध प्राप्त होनेका योग होने पर भी उसमे बोधका प्रवेश हो, ऐसा भाव स्फुरित नही होता, इत्यादि जीवकी विषम दशा कहकर प्रभुके 'प्रति दीनता प्रदर्शित की है कि 'हे नाथ । अब मेरी कोई गति (मार्ग) मुझे दिखायी नही देती । क्योकि मैंने सर्वस्व लुटा देने जैसा योग किया है, और सहज ऐश्वर्य होते हुए भी, प्रयत्न करनेपर भी, उस ऐश्वर्यसे विपरीत मार्गका ही मैंने आचरण किया है। उस उस योगसे मेरी निवृत्ति कर, और उस निवृत्तिका सर्वोत्तम सदुपाय जो सद्गुरुके प्रति शरणभाव है वह उत्पन्न हो, ऐसी कृपा कर,' ऐसे भावके बीस दोहे हैं, जिनमे प्रथम वाक्य 'हे प्रभु । हे प्रभु । शु कहु ? दीनानाथ दयाल' है । वे दोहे आपके स्मरणमे होगे । उन दोहोकी विशेष अनुप्रेक्षा हो, वैसा करेंगे तो वह विशेष गुणाभिव्यक्तिका हेतु होगा ।
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उनके साथ दूसरे आठ तोटक छंद अनुप्रेक्षा करने योग्य है, जिनमे इस जीवको क्या आचरण करना बाकी है, और जो जो परमार्थके नामसे आचरण किये हैं वे अब तक वृथा हुए, और उन आचरणमे जो मिथ्याग्रह है उसे निवृत्त करनेका बोध दिया है, वे भी अनुप्रेक्षा करनेसे जीवको पुरुषार्थविशेषके हेतु हैं ।
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२८ वो वर्ष
'योगवासिष्ठ' का पठन पूरा हुआ हो तो कुछ समय उसका अवकाश रखकर अर्थात् अभी फिरसे पढना बन्द रखकर 'उत्तराध्ययनसूत्र' को विचारियेगा, परन्तु उसे कुलसंप्रदायके आग्रहार्थको निवृत्त करनेके लिये विचारियेगा । क्योकि जीवको कुलयोगसे जो सप्रदाय प्राप्त हुआ होता है, वह परमार्थरूप है या नही? ऐसा विचार करते हुए दृष्टि आगे नही चलती और सहजमे उसे ही परमार्थ मानकर जीव परमार्थ चूक जाता है । इसलिये मुमुक्षुजीवका तो यही कर्तव्य है कि जीवको सद्गुरुके योगसे कल्याणकी प्राप्ति अल्पकालमे हो, उसके साधन, वैराग्य और उपशमके लिये 'योगवासिष्ठ', 'उत्तराध्ययनादि' विचा. रणीय है, तथा प्रत्यक्ष पुरुषके वचनकी निराबाधता, पूर्वापर अविरोधिता जाननेके लिये विचारणीय है।
आ० स्व० प्रणाम । __५३५ बंबई, कार्तिक सुदी ३, बुध, १९५१ आपको दो चिट्ठियाँ लिखी थी, वे मिली होगी । हमने संक्षेपमे लिखा है। अभिन्नभावसे लिखा है। इसलिये कदाचित् उसमे कुछ आशकायोग्य नहीं है। तो, भी सक्षेपके कारण समझमे न आये, ऐसा कुछ हो तो पूछनेमे आपत्ति नही है।
श्रीकृष्ण चाहे जिस गतिको प्राप्त हुए हो, परन्तु विचार करनेसे वे आत्मभाव-उपयोगी थे, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। जिन श्रीकृष्णने काचनकी द्वारिकाका, छप्पन करोड यादवो द्वारा सगहीतका. पंचविषयके आकर्षक कारणोके योगमे स्वामित्व भोगा, उन श्रीकृष्णने जब देहको छोडा है तब क्या स्थिति थी, वह विचार करने योग्य है, और उसे विचारकर इस जीवको अवश्य आकुलतासे मुक्त करना योग्य है। कुलका सहार हुआ है, द्वारिकाका दाह हुआ है, उसके शोकसे शोकवान अकेले वनमे भमिपर आधार करके सो : रहे हैं, वहाँ जराकुमारने .जब बाण मारा, उस समय भी जिन्होने धेर्यको अपनाया है उन श्रीकृष्णकी दशा विचारणीय है।
५३६
__बम्बई, कार्तिक सुदी ४, गुरु, १९५१ आज एक पत्र प्राप्त हुआ है, और उस सम्बन्धमे यथाउदय समाधान लिखनेका, विचार करता हूँ, और वह पत्र तुरत लिखूगा।
समक्षजीवको दो प्रकारकी दशा रहती है, एक 'विचारदशा' और दूसरी 'स्थितप्रज्ञदशा'। स्थितप्रज्ञदशा विचारदशाके लगभग पूरी हो जानेपर अथवा सम्पूर्ण होनेपर प्रगट होती है। उस स्थितप्रज्ञदशाकी प्राप्ति इस कालमे कठिन है, क्योकि इस कालमें आत्मपरिणामके लिये व्याघातरूप योग प्रधानरूपसे रहता है, और इससे विचारदशाका योग भी सद्गुरु और सत्सगके अभावसे प्राप्त नही होता; वैसे कालमे कृष्णदास विचारदशाको इच्छा करते हैं, यह विचारदशा प्राप्त होनेका मुख्य कारण है, और ऐसे जीवको भय, चिता, पराभव आदि भाव निजबुद्धि करना योग्य नहीं है, तो भी धैर्यसे उन्हे समाधान होने और निर्भय चित्त रखवाना योग्य है।
५३७
बम्बई, कार्तिक सुदी ७, शनि, १९५१
श्री सत्पुरुषोको नमस्कार श्री स्यभतीर्थवासी मुमुक्षुजनोंके प्रति,
श्री मोहमयी भूमिसे · का आत्मस्मृतिपूर्वक ययायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती कि ममक्ष अंबालालका लिखा हुआ एक पत्र आज प्राप्त हुआ है।
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४४२
श्रीमद् राजचन्द्र ___ कृष्णदासके चित्तकी व्यग्रता देखकर आप सबके मनमे खेद रहता है, वैसा होना स्वाभाविक है। यदि हो सके तो 'योगवासिष्ठ' ग्रथ तीसरे प्रकरणसे उन्हे पढावे अथवा श्रवण करावे, और प्रवृत्तिक्षेत्रसे जैसे अवकाश मिले तथा सत्संग हो वैसे करें। दिनभरमे वैसा अधिक समय अवकाश लिया जा सके, उतना ध्यान रखना योग्य है।
. सव मुमुक्षुभाइयोकी समागमको इच्छा है ऐसा लिखा, उसका विचार करूँगा । मार्गशीर्ष मासके पिछले भागमे या पौष मासके आरभमे बहुत करके वैसा योग होना सम्भव है।
कृष्णदासको चित्तके विक्षेपकी निवृत्ति करना योग्य है। क्योकि मुमुक्षुजीवको अर्थात् विचारवान जीवको इस ससारमे अज्ञानके सिवाय और कोई भय नही होता। एक अज्ञानकी निवृत्ति करनेकी जो इच्छा है, उसके सिवाय विचारवान जीवको दूसरी इच्छा नही होती, और पूर्वकर्मके योगसे वैसा कोई उदय हो, तो भी विचारवानके चित्तमे ससार कारागृह है, समस्त लोक दु खसे आर्त है, भयाकुल है, रागद्वेषके प्राप्त फलसे जलता है, ऐसा विचार निश्चयरूप ही रहता है, और ज्ञानप्राप्तिमे कुछ अन्तराय है, इसलिये यह कारागृहरूप ससार मुझे भयका हेतु है और लोकका प्रसग करना योग्य नहीं है, यही एक भय विचारवानको होना योग्य है।
___ महात्मा श्री तीर्थकरने निग्रंथको प्राप्तपरिषह सहन करनेकी वारवार सूचना दी है । उस परिषहके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए अज्ञानपरिषह और दर्शनपरिषह ऐसे दो परिषहोका प्रतिपादन किया है, कि किसी उदययोगकी प्रबलता हो और सत्सग एव सत्पुरुषका योग होनेपर भी जीवकी अज्ञानके कारणाको दूर करनेकी हिम्मत न चल सकती हो, आकुलता आ जाती हो, तो भी धैर्य रखना, सत्सग एवं सत्पुरुषके योगका विशेष विशेष आराधन करना, तो अनुक्रमसे अज्ञानकी निवृत्ति होगी, क्योकि निश्चय जो उपाय है, और जीवको निवृत्त होनेकी बुद्धि है, तो फिर वह अज्ञान निराधार हो जानेपर किस तरह टिक सकता है ? एक मात्र पूर्वकर्मके योगके सिवाय वहाँ उसे कोई आधार नही है। वह तो जिस जीवको सत्सग एव सत्पुरुपका योग हुआ हे ओर पूर्वकर्मनिवृत्तिका प्रयोजन है, उसका अज्ञान क्रमशः दूर होना ही योग्य है, ऐसा विचारकर वह मुमुक्षुजीव उस अज्ञानजन्य आकुलता-व्याकुलताको धैर्यसे सहन करे, इस तरह परमार्थ कहकर परिपह कहा है। यहाँ हमने उन दोनो परिषहोका स्वरूप संक्षेपमे लिखा है। ऐसा परिषहका स्वरूप जानकर, सत्संग एव सत्पुरुषके योगसे, जो अज्ञानसे आकुलता होती है वह निवृत्त होगी, ऐसा निश्चय रखकर, यथाउदय जानकर, धैर्य रखनेका भगवान तीर्थकरने कहा है; परन्तु वह धैर्य ऐसे अर्थमे नही कहा है, कि सत्सग,एवं सत्पुरुपका योग होनेपर प्रमाद हेतुसे विलंब करना, वह धैर्य है और,उदय है, यह बात भी विचारवान जीवको स्मृतिमे रखना योग्य है।
श्री तीर्थंकरादिने वार-बार जीवोंको उपदेश दिया है, परन्तु जीव दिङ्मूढ रहना चाहता है, वहां उपाय नही चल सकता । पुनः पुन. ठोक-ठोककर कहा है कि एक यह जीव समझ ले.तो सहज मोक्ष है, नही तो अनत उपायोंसे भी नही है। और यह समझना भी कुछ विकट नही है, क्योकि जीवका, जो सहज स्वरूप है वही मात्र समझना है, और वह कुछ दूसरेके स्वरूपकी बात नही है कि कदाचित् वह छिपा ले या न बताये कि जिससे समझमे न आवें। अपनेसे आप गुप्त रहना किस तरह हो सकता है ? परन्तु स्वप्नदशामे जैसे न होने योग्य ऐसी अपनी मृत्युको भी जीव देखता है, वैसे ही अज्ञानदशारूप स्वप्नरूप योगसे यह जीव अपनेको, जो अपने नही हैं ऐसे दूसरे द्रव्योमे निजरूपसे मानता है, और यही मान्यता ससार हैं, यही अज्ञान है, नरकादि गतिका हेतु यही है, यही जन्म है, मरण है, और यही देह है, देहका विकार है, यही पुत्र है, यही पिता, यही शत्रु, यही मित्रादि भावकल्पनाका हेतु है; और जहाँ उसकी निवृत्ति हुई वहाँ सहज मोक्ष है; और इसी निवृत्तिके लिये सत्सग, सत्पुरुष आदि- साधन कहे हैं, और वे
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२८ वो वर्ष साधन भी, यदि जीव अपने पुरुषार्थको छिपाये विना उनमे लगाये, तभी सिद्ध होते है। अधिक क्या कहे ? इतनी सक्षिप्त बात यदि जीवमे परिणमित हो जाये तो वह सर्व व्रत, यम, नियम, जप, यात्रा, भक्ति, शास्त्रज्ञान आदि कर चुका, इसमे कुछ सशय नही है । यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम।
५३८ बंबई, कार्तिक सुदी ९, बुध, १९५१ दो पत्र प्राप्त हुए हैं।
मुक्त मनसे स्पष्टीकरण किया जाये ऐसी आपकी इच्छा रहती है, उस इच्छाके कारण ही मुक्त मनसे स्पष्टीकरण नही किया जा सका, और अब भी उस-इच्छाका निरोध करनेके सिवाय आपके लिये दूसरा कोई विशेष कर्तव्य नही है। हम मुक्त मनसे स्पष्टीकरण करेंगे ऐसा जानकर इच्छाका निरोध करना योग्य नही है, परन्तु सत्पुरुषके सगके माहात्म्यको रक्षाके लिये उस इच्छाको शान्त करना योग्य है, ऐसा विचारकर शात करना योग्य है । सत्सगकी इच्छासे ही यदि ससारके प्रतिबन्धके दूर होनेकी स्थितिके सुधारको इच्छा रहती हो तो भी अभी उसे छोड़ देना योग्य है; क्योकि हमे ऐसा लगता है कि वारवार आप जो लिखते है, वह कुटुम्बमोह है, सक्लेशपरिणाम है, और असाता न सहन करनेकी किसी भी अशमे बुद्धि है, और जिस पुरुषको वह बात किसी भक्तजनने लिखी हो, तो उससे उसका रास्ता निकालनेके बदले ऐसा होता है, कि ऐसी निदानबुद्धि जब तक रहे तब तक सम्यक्त्वका रोध अवश्य रहता है, ऐसा विचारकर बहुत बार खेद हो आता है, वह लिखना आपके लिये योग्य नही है।
५३९ बबई, कार्तिक सुदी १४, सोम, १९५१ सर्व जीव आत्मरूपसे समस्वभावी है । अन्य पदार्थमे जीव यदि निजवुद्धि करे तो परिभ्रमणदशा प्राप्त करता है, और निजमे निजबुद्धि हो तो परिभ्रमणदशा दूर होती है। जिसके चित्तमे ऐसे मार्गका विचार करना आवश्यक है उसको, जिसके आत्मामे वह ज्ञान प्रकाशित हुआ है, उसकी दासानुदासरूपसे अनन्य भक्ति करना ही परम श्रेय है; और उस दासानुदास भक्तिमानकी भक्ति प्राप्त होनेपर जिसमे कोई विषमता नही आती, उस ज्ञानीको धन्य है, उतनी सर्वांशदशा जब तक प्रगट न हुई हो तब तक आत्माकी कोई गुरुरूपसे आराधना करे, वहाँ पहले उस गुरुपनेको छोड़कर उस शिष्यमे अपनी दासानुदासता करना योग्य है। ।
५४० बबई, कार्तिक सुदी १४, सोम, १९५१
विषम संसाररूप बधनका छेदन करके जो पुरुष चल पड़े
उन पुरुषोको अनंत प्रणाम है। आज आपका एक पत्र प्राप्त हुआ है।
सदी पचमी या छठ के बाद यहाँसे विदाय होकर मेरा वहां आना होगा, ऐसा लगता है। आपने लिखा कि विवाहके काममे पहलेसे आप पधारे हो, तो कितने ही विचार हो सकें। उस सम्बन्धमे ऐसा हे कि ऐसे कार्यों मेरा चित अप्रवेशक होनेसे, और वैसे कार्योंका माहात्म्य कुछ है नही ऐसा निश्चय होनेसे मेरा पहलेसे आना कुछ वैसा उपयोगी नही है। जिससे रेवाशंकरभाईका आना ठीक समझकर वैसा किया है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
रूईके व्यापारके विषयमे कभी कभी करनेरूप कारण आप पत्र द्वारा लिखते है । उस विषयमे एक बारके सिवाय स्पष्टीकरण नही लिखा, इसलिये आज इकट्ठा लिखा है । आढ़तका व्यवसाय उत्पन्न हुआ उसमे कुछ इच्छाबल और उदयवल था । परन्तु मोतीका व्यवसाय उत्पन्न होनेमे तो मुख्य उदयवल था । बाको व्यवसायका अभी उदय मालूम नही होता । और व्यवसायकी इच्छा होना यह तो असंभव जैसी है । श्री रेवाशकरभाईसे आपने रुपयोकी मॉग की थी, वह पत्र भी मणि तथा केशवलालके पढनेमे आये उस तरह उनके पत्रमे रखा था । यद्यपि वे जानें इसमे कोई दूसरी वाधा नही है, परन्तु जीवको लौकिक भावनाका अभ्यास विशेप बलवान है, इससे उसका क्या परिणाम आया और हमने उस विपयमे क्या अभिप्राय दिया ? उसे जाननेकी उनकी आतुरता विशेष हो तो नही है । अभी रुपयेकी व्यवस्था करनी पडे उस लिये आपके व्यवसाय के सम्बन्धमे हमने कही हो, ऐसा अकारण उनके चित्तमे विचार आये । और अनुक्रमसे हमारे प्रति व्यावहारिक बुद्धि विशेष हो जाये, वह भी यथार्थ ही है
वह भी योग्य कदाचित् ना
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जीजीवाका लग्न माघ मासमे होगा या नही ? इस सम्बन्धमे ववाणियासे हमारे जाननेमे कुछ नही आया, तथा मैने इस विषय मे कोई विशेष विचार नही किया है । ववाणिया से खबर मिलेगी तो आपको यहाँसे रेवाशकरभाई या केशवलाल सूचित करेंगे । अथवा रेवाशकरभाईका विचार माघ मासका होगा तो वे ववाणिया लिखेंगे, और आपको भी सूचित करेगे । उस प्रसगपर आना या न आना, इसका पक्का फैसला अभी चित्त नही कर सकेगा, क्योकि उसे बहुत समय है और अभीसे उसके लिये कुछ निश्चित करना कठिन है। तीन वर्षसे उधर जाना नही हुआ, जिससे श्री रवजीभाईके चित्तमे तथा माताजीके चित्तमे, हमारा जाना न हो तो अधिक खेद रहे, यह मुख्य कारण उस तरफ आनेमे है । तथा हमारा आना न हो तो भाई-बहनोको भी खेद रहे, यह दूसरा कारण भी उधर आनेके विचारको बलवान करता है । और बहुत करके आना होगा, ऐसा चित्तमे लगता है । हमारा चित्त पौष मासके आरम्भमें यहाँसे निकलनेका रहता है, और वीचमें रुकना हो तो प्रवृत्तिके कारण लगी हुई थकावटमे कुछ विश्राति क्वचित् मिले । परन्तु कितना ही कामकाज ऐसा है कि निर्धारित दिनोसे कुछ अधिक दिन जानेके बाद यहाँसे छूटा जा सकेगा ।
आप अभी किसीको व्यापार - रोजगारकी प्रेरणा करते हुए इतना ध्यान रखें कि जो उपाधि आपको स्वय करनी पडे उस उपाधिकी आप उदीरणा करना चाहते हैं । और फिर उससे निवृत्ति चाहते हैं । यद्यपि चारो तरफके आजीविकादि कारणोसे उस कार्यकी प्रेरणा करनेकी आपके चित्तमे उदयसे स्फुरणा होती होगी तो भी उस सम्बन्धी चाहे जैसी घबराहट होने पर भी धीरतासे विचार कर कुछ भी व्यापार- रोजगारकी दूसरोको प्रेरणा करना या लड़कोको व्यापार करानेके विषय मे भी सूचना लिखना । क्योकि अशुभ उदयको इस तरह दूर करनेका प्रयत्न करते हुए वल प्राप्त करने जैसा हो जाता है ।
आप हमे यथासंभव व्यावहारिक बात कम लिखे ऐसा जो हमने लिखा था उसका हेतु मात्र इतना ही हे कि हम इतना व्यवहार करते हैं, उस विचारके साथ दूसरे व्यवहारको सुनते-पढते आकुलता हो जाती है | आपके पत्र कुछ निवृत्तिवार्ता आये तो अच्छा, ऐसा रहता है । और फिर आपको हमे व्यावहारिक वात लिखने का कोई हेतु नही है, क्योकि वह हमारी स्मृतिमे है और कदाचित् आप घबराहटको शात करनेके लिये लिखते हो उस प्रकारसे वह लिखी नही जाती है । बात आर्त्तध्यानके रूप जैसी लिखी जाती है, जिससे हमे बहुत संताप होता है । यही विनती ।
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प्रणाम ।
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२८ वो वर्ष
स० १९५१ ज्ञानीपुरुषोको समय-समयमे अनत सयमपरिणाम वर्धमान होते है ऐसा सर्वज्ञने कहा है, यह सत्य है। वह सयम, विचारकी तीक्ष्ण परिणतिसे ब्रह्मरसके प्रति स्थिरता होनेसे उत्पन्न होता है।
५४२ , बंबई, कार्तिक सुदी १५, मगल १९५१ श्री सोभागभाईको मेरा यथायोग्य कहियेगा।
उन्होने श्री ठाणागसूत्रकी एक चौभगीका उत्तर विशेष समझनेके लिये मांगा था, उसे संक्षेपर यहाँ लिखा है
१ एक, आत्माका भवात करे, परन्तु दूसरेका न करे, वे प्रत्येकबुद्ध या असोच्या केवली हैं। क्योकि वे उपदेशमार्गका प्रवर्तन नही करते है, ऐसा व्यवहार है। २ एक, आत्माका भवात न कर सके, और दूसरेका भवात करे, 'वे अचरमशरीरी आचार्य, अर्थात् जिन्हे अभी अमुक भव वाकी हैं, परन्तु उपदेशमार्गका आत्मा द्वारा ज्ञान है, इससे उनसे उपदेश सुनकर सुननेवाला जीव उसी भवमे भवका अंत भी कर सकता है, और आचार्य उस भवमे भवात करनेवाले न होनेसे उन्हे दूसरे भगमे रखा है, अथवा कोई जीव पूर्वकालमे ज्ञानाराधन कर प्रारब्धोदयसे मद क्षयोपशमसे वर्तमानमे मनुष्यदेह पाकर, जिसने मार्ग नही जाना है ऐसे किसी उपदेशकके पाससे उपदेश सुनते हुए पूर्वसस्कारसे, पूर्वके आराधनसे ऐसा विचार प्राप्त करे कि यह प्ररूपणा अवश्य मोक्षका हेतु नही होगी, क्योकि वह अज्ञानतासे मार्ग कहता है, अथवा यह उपदेश देनेवाला ‘जीव स्वयं अपरिणामी रहकर उपदेश करता है, यह महा अनर्थ है, ऐसा विचार करते हुए पूर्वाराधन जागृत हो और उदयका छेदनकर भवात करे, जिससे निमित्तिरूप ग्रहण करके वैसे उपदेशकका भी इस भगमे समावेश किया हो, ऐसा लगता है । ३ जो स्वय तरें और दूसरोको तारें, वे श्री तीर्थकरादि है। ४ जो स्वय भी न तरे और दूसरोको भी न तार सके वह 'अभव्य या दुर्भव्य' जीव है। इस प्रकार समाधान किया हो तो जिनागम विरोधको प्राप्त नहीं होता । इस विषयमे विशेष पूछनेकी इच्छा हो तो पूछियेगा, ऐसा सोभागभाईको कहियेगा।
लि० रायचदका प्रणाम।
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बंबई, कार्तिक, १९५१ अन्यसम्बन्धी जो तादात्म्य भासित हुआ है, वह तादात्म्य निवृत्त हो तो सहजस्वभावसे आत्मा मुक्त ही है। ऐसा श्री ऋषभादि अनत ज्ञानीपुरुष कह गये हैं, यावत् तथारूपमे समा गये हैं।
वबई, कार्तिक वदी १३, रवि, १९५१ ___ आपका पत्र, मिला है । यहाँ सुखवृत्ति है । जब प्रारब्धोदय द्रव्यादि कारणमे निर्वल हो तब विचारवान जीवको विशेष प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है, अथवा धीरता रखकर आसपासको वहुत सभालसे प्रवृत्ति करना योग्य है, एक लाभका ही प्रकार देखते रहकर करना योग्य नहीं है । इस वातको समझानेका हमारा प्रयल होनेपर भी आपको उस बात पर यथायोग्य संलग्नचित्त हो जानेका योग नहीं हुआ, इतना चित्तमे विक्षेप रहा, तथापि आपके आत्मामे वेसी बुद्धि किसी भी दिन नही हो सकती कि आपसे हमारे वचनके प्रति कुछ गौणभाव रखा जाये, ऐसा जानकर हमने आपको उपालभ नही दिया। तथापि अव यह बात ध्यानमे लेनेमे बाधा नही है। आकुल होने से कुछ कर्मको निवृत्ति चाहते हैं, वह नहीं होती; और आत
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श्रीमद राजचन्द्र
ध्यान होकर ज्ञानीके मार्गकी अवहेलना होती है । इस बातका स्मरण रखकर ज्ञानकथा लिखियेगा । विशेष आपका पत्र आनेपर । यह हमारा आपको लिखना सहज कारणसे है । यही विनती ।
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बबई, मार्गशीर्ष वदी १, गुरु, १९५१
कुछ ज्ञान वार्ता लिखियेगा ।
अभी व्यवसाय विशेष है | कम करनेका अभिप्राय चित्तसे खिसकता नही है । और अधिक होता आ० स्व० प्रणाम ।
रहता है ।
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बंबई, मार्गशीर्ष वदी ३, शुक्र, १९५१ प्र०— "जिसका मध्य नही, अर्ध नही, अछेद्य, अभेद्य इत्यादि परमाणुकी व्याख्या श्री जिनेंद्रने कही है, तो इसमे अनत पर्याय किस तरह हो सकते हैं ? अथवा पर्याय यह एक परमाणुका दूसरा नाम होगा ? या किस तरह ?" इस प्रश्नवाला पत्र आया था । उसका समाधान - प्रत्येक पदार्थके अनत पर्याय ( अवस्थाएं ) हैं । अनत पर्याय के बिना कोई पदार्थ नही हो सकता, ऐसा श्री जिनेद्रका अभिमत है, और वह यथार्थ लगता है, क्योकि प्रत्येक पदार्थ समय समयमे अवस्थातरता पाता हुआ होना चाहिये, ऐसा प्रत्यक्ष दिखायी देता है । क्षण-क्षणमे जैसे आत्मामे सकल्प-विकल्प परिणति होकर अवस्थातर हुआ करता है, वैसे परमाणुमे वर्ण, गंध, रस, रूप अवस्थातरता पाते है, वैसी अवस्थातरता पानेसे उस परमाणुके अनंत भाग हुए, यह कहना योग्य नही है, क्योकि वह परमाणु अपनी एकप्रदेशक्षेत्रावगाहिताका त्याग किये बिना उस अवस्थातरको प्राप्त होता है । एकप्रदेशक्षेत्रावगाहिताके वे अनंत भाग नही हो सकते । समुद्र एक होनेपर भी जैसे उसमे तरंगें उठती है, और वे तरगे उसीमे समाती हैं, तरगरूपसे उस समुद्रकी अवस्थाएँ भिन्न भिन्न होती रहनेसे भी समुद्र अपने अवगाहक क्षेत्रका त्याग नही करता, और कुछ समुद्रके अनंत भिन्न भिन्न टुकडे नही होते, मात्र अपने स्वरूपमे वह रमण करता है, तरगता यह समुद्रकी परिणति है, यदि जल शात हो तो शातता यह उसकी परिणति है, कुछ भी परिणति उसमे होनी ही चाहिये । उसी तरह वर्णगंधादि परिणाम परमाणुमे बदलते रहते हैं, परन्तु उस परमाणुके कुछ टुकडे होनेका प्रसंग नही होता, अवस्थातरताको प्राप्त होता रहता है । जैसे सोना कुडलाकारको छोड़कर मुकुटाकार होता है वैसे परमाणु, इस समयकी अवस्था से दूसरे समयकी कुछ अंतरवाली अवस्थाको प्राप्त होता है। जैसे सोना दोनो पर्यायोको धारण करते हुए भी सोना ही है, वैसे परमाणु भी परमाणु ही रहता है । एक पुरुष (जीव ) बालकपन छोड़कर युवा होता है, युवत्व छोड़कर वृद्ध होता है, परन्तु पुरुष वहीका वही रहता है, वैसे परमाणु पर्यायोको प्राप्त होता है । आकाश भी अनंत पर्यायी है और सिद्ध भी अनत पर्यायी है, ऐसा जिनेद्रका अभिप्राय है, वह विरोधी नही लगता, प्राय मेरी समझ मे आता है परन्तु विशेषरूपसे लिखनेका न हो सकनेसे आपको यह बात विचार करनेमे कारण हो, इसलिये ऊपर ऊपरसे लिखा है ।
चक्षुमे जो निमेषोन्मेषकी अवस्थाएँ हैं, वे पर्याय हैं । दीपककी जो चलनस्थिति वह पर्याय है । आत्माकी सकल्प-विकल्प दशा या ज्ञानपरिणति, वह पर्याय है । उसी तरह वणं, गध आदि परिणामोको प्राप्त होना ये परमाणु के पर्याय हैं । यदि वैसा परिणमन न होता हो तो यह जगत ऐसी विचित्रताको प्राप्त नही कर सकता, क्योकि एक परमाणुमे पर्यायता न हो तो सर्वं परमाणुओमे भी नही होती । सयोगवियोग, एकत्व-पृथक्त्व इत्यादि परमाणुके पर्याय हैं और वे सब परमाणुमे हैं। यदि वे भाव समय समय पर उसमे परिणमन पाते रहे तो भी परमाणुका व्यय ( नाश) नही होता, जैसे कि निमेषोन्मेषसे चक्षुका नाश नही होता ।
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२८ वाँ वर्ष
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मोहमयी क्षेत्र, मार्गशीर्ष वदी ८, बुध, १९५१ यहाँसे निवृत्त होनेके बाद प्राय दत्राणिया अर्थात् इस भवके जन्म-ग्राममे साधारण व्यावहारिक प्रतगसे जानेका कारण है । चित्तमे अनेक प्रकारसे उस प्रसगसे छूट सकनेका विचार करते हुए छूटा जा सके यह भी सम्भव है, तथापि बहुतसे जीवोको अल्प कारणमे कदाचित् विशेष असमाधान होनेका सम्भव रहे, जिससे अप्रतिबंधभावको विशेष दृढ करके जानेका विचार रहता है । वहाँ जानेपर, कदाचित् एक माससे विशेष समय लग जानेका सभव है, शायद दो मास भी लग जायें । उसके वाद फिर वहाँसे लौट - कर इस क्षेत्रकी तरफ आना पड़े, ऐसा है, फिर भी यथासम्भव बीचमे दो-एक मास एकान्त जैसा निवृत्तियोग हो सके तो वैसा करनेको इच्छा रहती है, और वह योग अप्रतिबधरूपसे हो सके, इसका विचार करता हूँ ।
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सर्व व्यवहारसे निवृत्त हुए विना चित्त एकाग्र (स्थिर) नही होता, ऐसे अप्रतिबंध - असगभावका चित्तमे बहुत विचार किया होनेसे उसी प्रवाहने रहना होता है । परतु उपार्जित प्रारब्ध निवृत्त होनेपर वैसा हो सके, इतना प्रतिवध पूर्वकृत है, आत्माकी इच्छाका प्रतिबध नही है । सर्व सामान्य लोकव्यवहारको निवृत्ति सम्बन्धी प्रसगके विचारको दूसरे प्रसगपर बताना रखकर, इस क्षेत्र से निवृत्त होनेका विशेष अभिप्राय रहता है, वह भी उदयके कारण नहीं हो सकता । तो भी अहर्निश यही चिन्तन रहता है, तो वह कदाचित् थोड़े समयमे होगा ऐना लगता है। इस क्षेत्रके प्रति कुछ द्वेष परिणाम नही है, तथापि सगका विशेष कारण है । प्रवृत्तिके प्रयोजनके बिना यहाँ रहना कुछ आत्माके लिये वैसे लाभका कारण नही है, 'ऐसा जानकर, इस क्षेत्रसे निवृत्त होनेका विचार रहता है । प्रवृत्ति भी निजबुद्धिसे किसी भी प्रकारसे प्रयोजनभूत नही लगती, तथापि उदयके अनुसार प्रवृत्ति करनेके ज्ञानीके उपदेशको अगीकार करके उदय भोगनेका प्रवृत्तियोग सहन करते है । -
आत्मामे ज्ञानद्वारा उत्पन्न हुआ. यह निश्चय बदलता नही है कि सर्वसंग बड़ा आस्रव है; चलते, देखते और प्रसग करते हुए समय मात्रमे यह निजभावका विस्मरण करा देता है, और यह बात सर्वथा प्रत्यक्ष देखने आयी है, आती है, और आ सकने जैसी है; इसलिए अहर्निश उस बड़े आस्रवरूप सर्वसगमे उदासीनता रहती है, और वह दिन प्रतिदिन बहते हुए परिणामको प्राप्त करती रहती है, वह उससे विशेष परिणामको प्राप्त करके सर्वंसगले निवृत्ति हो, ऐसी अनन्य कारणयोगसे इच्छा रहती है ।
यह पत्र प्रथमसे व्यावहारिक आकृतिमे लिखा गया हो ऐसा कदाचित् लगे, परतु इसमे यह सहज मात्र नही है । असगताका, आत्मभावनाका मात्र अल्प विचार लिखा है ।
आ० स्व० प्रणाम ।
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बबई, मार्गशीर्ष वदी ९, शुक्र, १९५१
परन स्नेही श्री सोभाग,
आपके तीन पत्र आये हैं । एक पत्रमे दो प्रश्न लिखे थे, जिनमेसे एकका समाधान नोचे लिखा है ।
ज्ञानीपुरुषका सत्सग होनेसे, निश्चय होनेसे और उसके मार्गका आराधन करनेसे जीवके दर्शनमोहनोय कर्मका उपशम या क्षय होता है, और अनुक्रमसे सर्व ज्ञानको प्राप्ति होकर जीव कृतकृत्य होता है, यह वात प्रगट सत्य है; परन्तु उससे उपार्जित प्रारब्ध भी भोगना नहीं पड़ता, ऐसा सिद्धात नही हो सकता । केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसे वीतराग को भी उपार्जित प्रारख्वरूप ऐसे चार कर्म भोगने पडते है, तो उससे नीची भूमिकामे स्थित जीवोको प्रारब्ध भोगना पड़े, इसमे कुछ आश्चयं नही है । जैसे सर्वज्ञ वीत
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४४८
श्रीमद राजवन्द्र रागको, घनघाती चार कर्मोंका नाश हो जानेसे वे भोगने नही पड़ते है, और उन कर्मोके पुन उत्पन्न होनेके कारणोकी स्थिति उस सर्वज्ञ वीतरागमे नही है; वैसे ज्ञानीका निश्चय होनेसे जीवको अज्ञानभावसे उदासीनता होती है, और उस उदासीनताके कारण भविष्यकालमे उस प्रकारका कर्म उपार्जन करनेका मुख्य कारण उस जीवको नही होता। क्वचित् पूर्वानुसार किसी जीवको विपर्यय-उदय हो, तो भी वह उदय अनुक्रमसे उपशात एव क्षीण होकर, जीव ज्ञानीके मार्गको पुनः प्राप्त करता है, और अर्धपुद्गलपरावर्तनमे अवश्य ससारमुक्त हो जाता है । परतु समकिती जीवको, या सर्वज्ञ वीतरागको या किसी अन्य योगी या ज्ञानीको ज्ञानकी प्राप्तिके कारण उपार्जित प्रारब्ध भोगना न पड़े या दु ख न हो, ऐसा सिद्धात नही हो सकता। तो फिर हमको-आपको सत्संगका मात्र अल्प लाभ हो तो सर्व ससारी दु ख निवृत्त होने चाहिये, ऐसा मानें तो फिर केवलज्ञानादि निरर्थक होते है, क्योकि यदि उपार्जित प्रारब्ध बिना भोगे नष्ट हो जाये तो फिर सब मार्ग मिथ्या ही ठहरे। ज्ञानीके सत्सगसे अज्ञानीके प्रसंगकी रुचि मंद हो जाये, सत्यासत्यका विवेक हो, अनतानुबधी क्रोधादिका नाश हो, अनुक्रमसे सब रागद्वेषका क्षय हो जाय, यह सम्भव है, और ज्ञानोके निश्चय द्वारा यह अल्पकालमे अथवा सुगमतासे हो, यह सिद्धात है । तथापि जो दुःख इस प्रकारसे उपार्जित किया है कि अवश्य भोगे बिना नष्ट न हो, वह तो भोगना ही पड़ेगा, इसमे कुछ सशय नही होता । इस विषयमे अधिक समाधानकी इच्छा हो तो समागममे हो सकता है।
मेरी आतरवृत्ति ऐसी है कि परमार्थ-प्रसगसे किसी ममक्षजीवको मेरा प्रसग हो तो वह अवश्य मुझसे परमार्थके हेतुकी ही इच्छा करे तभी उसका श्रेय हो, परंतु द्रव्यादि कारणकी कुछ भी इच्छा रखे अथवा वैसे व्यवसायके लिये वह मुझे सूचित करे, तो फिर अनुक्रमसे वह जीव मलिन वासनाको प्राप्त होकर मुमुक्षुताका नाश करे, ऐसा मुझे निश्चय रहता है। और इसी कारणसे जब कई बार आपको तरफसे कोई व्यावहारिक प्रसग लिखनेमे आया है तब आपको उपालभ देकर सूचित भी किया था कि आप अवश्य यही प्रयत्न करें कि मुझे वैसे व्यवसायके लिये न लिखें, और मेरी स्मृतिके अनुसार आपने उस बातको स्वीकार भी किया था; परतु तदनुसार थोड़े समय तक ही हुआ। अब फिर व्यवसायक सम्बन्धमे लिखना होता है। इसलिये आजके मेरे पत्रको विचार कर आप उस बातका अवश्य विसर्जन कर दे, और नित्य वैसी वृत्ति रखें तो अवश्य हितकारी होगी । और आपने मेरी आतरवृत्तिको उल्लासका कारण अवश्य दिया है, ऐसा मुझे प्रतीत होगा।
___ दूसरा कोई भी सत्सगके प्रसगमे ऐसा करता है तो मेरा चित्त बहुत विचारमे पड़ जाता है या घबरा जाता है, क्योकि परमार्थका नाश करनेवाली यह भावना इस जीवके उदयमें आयी। आपने जब जब व्यवसायके विषयमे लिखा होगा, तब तब मुझे प्राय ऐसा ही हुआ होगा। तथापि आपकी वृत्तिमे विशेष अंतर होनेके कारण चित्तमे कुछ घबराहट कम हुई होगी। परंतु अभी तत्कालके प्रसगसे आपने भी लगभग उस घबराहट जैसी घबराहटका कारण प्रस्तुत किया है ऐसा चित्तमे रहता है।
जैसे रवजीभाई कुटुम्बके लिये मुझे व्यवसाय करना पड़ता है वैसे आपके लिये मुझे करना हो तो भी मेरे चित्तमे अन्यभाव न आये। परंतु आप दुःख सहन न कर सके तथा मुझे व्यवसाय बतायें, यह वात किसी तरह श्रेयरूप नही लगती; क्योकि रवजीभाईको वैसी परमार्थ इच्छा नही है और आपको है, जिससे आपको इस बातमे अवश्य स्थिर होना चाहिये । इस बातका विशेष निश्चय रखिये।
'यह पत्र कुछ अधूरा है, जो प्राय. कल पूरा होगा।
१. आक ५५०
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२५ वॉ वर्ष
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माकुभाई इत्यादिको जो उपाधि कार्य करनेमे अधीरतासे, आर्त्त जैसे परिणामसे, दूसरेको आजीविकाका भग होता है, यह जानते हुए भी, राजकाजमे अल्प कारणमे विशेष सम्बन्ध करना योग्य नही, ऐसा होनेका कारण होनेपर भी, जिसमे तुच्छ द्रव्यादिका भी विशेष लाभ नही है, फिर भी उसके लिये आप बारबार लिखते है, यह क्या योग्य है ? आप जैसे पुरुष वैसे विकल्पको शिथिल न कर सकेंगे, तो इस दुषमकालमे कौन समझकर शान्त रहेगा ?
कितने ही प्रकार से निवृत्तिके लिये और सत्समागम के लिये वह इच्छा रखते हैं, यह बात ध्यानमे है, तथापि वह इच्छा यदि अकेलो ही हो तो इस प्रकारको अधीरता आदि होने योग्य नही है ।
माकुभाई इत्यादिको भी अभी उपाधिके सम्बन्धमे लिखना योग्य नही है । जैसे हो वैसे देखते रहना, यही योग्य है । इस विषय मे जितना उपालम्भ लिखना चाहिये उतना लिखा नही है, तथापि विशेषतासे इस उपालम्भको विचारियेगा ।
परम स्नेही श्री सोभाग,
५५०
}
कल आपका लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ है । यहाँसे परसो
एक पत्र लिखा है वह आपको प्राप्त हुआ होगा । तथा उस पत्रका पुन: पुन विचार किया होगा, अथवा विशेष विचार कर सके तो अच्छा । वह पत्र हमने संक्षेपमे लिखा था, इससे शायद आपके चित्तके समाधानका पर्याप्त कारण न हो, इसलिये उसमे अन्तमे लिखा था कि यह पत्र अधूरा है, जिससे बाकी लिखना अगले दिन होगा । " अगले दिन अर्थात् पिछले दिन यह पत्र लिखनेकी कुछ इच्छा होनेपर भी अगले दिन अर्थात् आज लिखना ठीक है, ऐसा लगनेसे पिछले दिन पत्र नही लिखा था ।
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परसो लिखे हुए पत्र जो गम्भीर आशय लिखे है, वे विचारवान जीवके आत्माको परम हितेषी हो, ऐसे आशय है । हमने आपको यह उपदेश कई बार सहज सहज किया है, फिर भी आजीविकाके कष्टक्लेशसे आपने उस उपदेशका कई बार विसर्जन किया है, अथवा हो जाता है । हमारे प्रति माँ-बाप जितना आपका भक्तिभाव है, इसलिये लिखने मे बाधा नही है, ऐसा मानकर तथा दुख सहन करनेकी असमर्थताके कारण हमसे वैसे व्यवहार की याचना आप द्वारा दो प्रकारसे हुई है- एक तो किसी सिद्धियोगसे दु.ख मिटाया जा सके ऐसे आशयकी, और दूसरी याचना किसी व्यापार रोजगार आदिकी । आपकी दोनो याचनाओमे से एक भी हमारे पास की जाय, यह आपके आत्माके हितके कारणको रोकनेवाला, और अनुक्रमसे मलिन वासनाका हेतु हो, क्योकि जिस भूमिकामे जो उचित नही है, उसे वह जीव करे तो उस भूमिकाका उसके द्वारा सहजमे त्याग हो जाये, इसमे कुछ सन्देह नही है । आपकी हमारे प्रति निष्काम भक्ति होनी चाहिये, और आपको चाहे जितना दुःख हो, फिर भी उसे घोरतासे भोगना चाहिये। वैसा न हो सके तो भी हमे तो उसकी सूचनाका एक अक्षर भी नही लिखना चाहिये, यह आपके लिये सर्वांग योग्य है, और आपको वैसी ही स्थितिमे देखनेकी जितनी मेरी इच्छा है, और उस स्थितिमे जितना आपका हित है, वह पत्रसे या वचनसे हमसे बताया नही जा सकता । परन्तु पूर्वके किसी वैसे ही उदयके कारण आपको वह बात विस्मृत हो गयी है, जिससे हमे फिर सूचित करने की इच्छा रहा करती है ।
उन दो प्रकारकी याचनाओमे प्रथम विदित की हुई याचना तो किसी भी निकटभवीको करनी योग्य ही नही है, और अल्पमात्र हो तो भी उसका मूलसे छेदन करना उचित है, क्योकि लोकोत्तर
१ आक ५४८
बबई, मार्गशीर्ष वदी ११, रवि, १९५१
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श्रीमद् राजचन्द्र मिथ्यात्वका वह सवल वोज है, ऐसा तीर्थंकरादिका निश्चय है, वह हमे तो सप्रमाण लगता है। दूसरी याचना भी कर्तव्य नही है, क्योकि वह भी हमे परिश्रमका हेतु है। हमे व्यवहारका परिश्रम देकर व्यवहार निभाना, यह इस जोवकी सद्वत्तिका बहुत ही अल्पत्व बताता है, क्योकि हमारे लिये परिश्रम उठाकर आपको व्यवहार चला लेना पडता हो तो वह आपके लिये हितकारी है, और हमारे लिये वैसे दुष्ट निमित्तका कारण नही है, ऐसी स्थिति होनेपर भी हमारे चित्तमे ऐमा विचार रहता है कि जब तक हमे परिग्रहादिका लेना-देना हो, ऐसा व्यवहार उदयमे हो तब तक स्वय उस कार्यको करना, अथवा व्यावहारिक सम्बन्धी आदि द्वारा करना, परन्तु मुमुक्षु पुरुषको तत्सम्बन्धी परिश्रम देकर तो नही करना, क्योकि वेले कारणसे जीवको मलिन वासनाका उद्भव होना सम्भव है। कदाचित् हमारा चित्त शुद्ध ही रहे ऐसा है, तथापि काल ऐसा है कि यदि हम उस शुद्धिको द्रव्यसे भी रखें तो सन्मुख जीवमे विषमता उत्पन्न न हो, और अशुद्ध वृत्तिवान जीव भी तदनुसार व्यवहार कर परम पुरुषोके मार्गका नाश न करे। इत्यादि विचारमे मेरा चित्त रहता है। तो फिर जिसका परमार्थ-बल या चित्तशुद्धि हमारेसे कम हो उसे तो अवश्य ही वह मार्गणा प्रबलतासे रखनी चाहिये, यही उसके लिये बलवान श्रेय है, और आप जैसे मुमुक्षुपुरुषको तो अवश्य वैसा वर्तन करना योग्य है । क्योकि आपका अनुकरण सहज ही दूसरे मुमुक्षुओंके हिताहितका कारण हो सके। प्राण जाने जैसी विषम अवस्थामे भी आपको निष्कामता ही रखनी योग्य है, ऐसा हमारा विचार, आपको आजीविकासे चाहे जैसे दु खोकी, अनुकपाके प्रति जाते हुए भी मिटता नही है, प्रत्युत अधिक बलवान होता है। इस विषयमे विशेष कारण बताकर आपको निश्चय करानेकी इच्छा है, और वह होगा ऐसा हमे निश्चय रहता है।
— इस प्रकार आपके या दूसरे मुमुक्षुजीवोंके हितके लिये मुझे जो योग्य लगा वह लिखा है। इतना लिखनेके बाद अपने आत्माके लिये उस सम्बन्धमे मेरा अपना कुछ दूसरा भी विचार रहता है, जिसे लिखना योग्य नही था, परन्तु आपके आत्माको कुछ दुख देने जैसा हमने लिखा है तब उस लिखनेको योग्य समझकर लिखा है । वह इस प्रकार है कि जब तक परिग्रहादिका लेना-देना हो, ऐसा व्यवहार मुझे उदयमे हो तब तक जिस किसी भी निष्काम मुमुक्षु या सत्पात्र जीवकी तथा अनुकंपायोग्य जीवकी, उसे बताये बिना, हमसे जो कुछ भी सेवाचाकरी हो सके, उसे द्रव्यादि पदार्थसे भी करना, क्योकि ऐसा मार्ग ऋषभ आदि महापुरुषोने भी कही कही जीवको गुण निष्पन्नताके लिये माना है, यह हमारा निजी (आतरिक) विचार है, और ऐसे आचरणका सत्पुरुषके लिये निषेध नहीं है, किन्तु किसी तरह कर्तव्य है। यदि वह विषय या वह सेवाचाकरी'मात्र सन्मुख जीवके परमार्थको रोधक होते हो तो सत्पुरुषको भी उनका उपशमन करना चाहिये।
असगता होने या सत्सगके योगका लाभ प्राप्त होनेके लिये आपके चित्तमे ऐसा रहता है कि केशवलाल, अबक इत्यादिसे गृहव्यवहार चलाया जा सके तो मुझसे छूटा जा सकता है। अन्यथा, आप उस व्यवहारको छोड सकें, वैसा कुछ कारणोसे नही हो सकता, यह बात हम जानते हैं, फिर भी आपके लिये उसे बारबार लिखना योग्य नही है, ऐसा जानकर उसका भी निषेध किया है । यही विनती।।
प्रणाम प्राप्त हो।
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बबई, मार्गशीर्ष, १९५१ श्री सोभाग, __ . श्री जिनेंद्र आत्मपरिणामकी स्वस्थताको समाधि और आत्मपरिणामकी अस्वस्थताको असमाधि कहते है, यह अनुभवज्ञानसे देखते हुए परम सत्य है।
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२८ वॉ वर्ष
४५१ अस्वस्थ कार्यकी प्रवृत्ति करना और आत्मपरिणामको स्वस्थ रखना, ऐसी विपम प्रवृत्ति श्री तीर्थकर जैसे ज्ञानीसे होनी कठिन कही है, तो फिर दूसरे जीवमे यह बात सभवित करना कठिन हो, इसमे आश्चर्य नही है।
किसी भी परपदार्थमे इच्छाकी प्रवृत्ति है, और किसी भी परपदार्थके वियोगकी चिता है, इसे श्री जिनेन्द्र आर्तध्यान कहते हैं, इसमे सन्देह करना योग्य नहीं है।
तीन वर्षके उपाधियोगसे उत्पन्न हुआ जो विक्षेपभाव उसे दूर करनेका विचार रहता है। जो प्रवृत्ति दृढ वैराग्यवानके चित्तको बाधा कर सके ऐसी है, वह प्रवृत्ति यदि अदृढ वैराग्यवान जीवको कल्याणके सन्मुख न होने दे तो इसमे आश्चर्य नही है।
ससारमे जितनी सारपरिणति मानी जाय उतनी आत्मज्ञानकी न्यूनता श्री तीर्थकरने कही है।
परिणाम जड़ होता है ऐसा सिद्धात नही है। चेतनको चेतनपरिणाम होता है और अचेतनको अचेतनपरिणाम होता है, ऐसा जिनेंद्रने अनुभव किया है। कोई भी पदार्थ परिणाम या पर्यायके बिना नही होता, ऐसा श्री जिनेंद्रने कहा है और वह सत्य है।
श्री जिनेंद्रने जो आत्मानुभव किया है, और पदार्थके स्वरूपका साक्षात्कार करके जो निरूपण किया है, वह सर्व मुमुक्षुजीवोको परम कल्याणके लिये निश्चय करके विचार करने योग्य है। जिनकथित सर्व पदार्थों के भाव केवल आत्माको प्रगट करनेके लिये है, और मोक्षमार्गमे प्रवृत्ति दोकी होती है-एक आत्मज्ञानीकी और एक आत्मज्ञानीके आश्रयवानकी, ऐसा श्री जिनेन्द्रने कहा है। .
___ आत्माको सुनना, उसका विचार करना, उसका निदिध्यासन करना और उसका अनुभव करना ऐसी एक वेदकी श्रुति है, अर्थात् यदि एक यही प्रवृत्ति करनेमे आये तो जीव ससारसागर तरकर पार पाये ऐसा लगता है। बाकी तो मात्र किसी श्री तीर्थंकर जैसे ज्ञानीके बिना सबको यह प्रवृत्ति करते हुए कल्याणका विचार करना, उसका निश्चय होना और आत्मस्वस्थता होना दुष्कर है । यही विनती।
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बबई, मार्गशीर्प, १९५१ उपकारशील श्री सोभागके प्रति, श्री सायला।
ईश्वरेच्छा बलवान है, और कालकी भी दुषमता है। पूर्वकालमे जाना था और स्पष्ट प्रतीतिस्वरूप था कि ज्ञानीपुरुषको सकामतासे भजते हुए आत्माको प्रतिबन्ध होता है, और कई बार परमार्थदष्टि मिटकर ससारार्थदृष्टि हो जाती है। ज्ञानीके प्रति ऐसी दृष्टि होनेसे पुन सुलभबोधिता पाना कठिन पडता है. ऐसा जानकर कोई भी जोव सकामतासे समागम न करे, इस प्रकारसे आचरण होता था। आपको तथा श्री डंगर आदिको इस मार्गके सम्वन्धमे हमने कहा था, परन्तु हमारे दूसरे उपदेशको भांति किसी प्रारब्धयोगसे उसका तत्काल ग्रहण नही होता था। हम जब उस विषयमे कुछ कहते थे, तब पूर्वकालके ज्ञानियोने आचरण किया है, ऐसे प्रकारादिसे प्रत्युत्तर कहने जैसा होता था। हमे उसमे चित्तमे बडा खेद होता था कि यह सकामवृत्ति दुपमकालके कारण ऐसे मुमुक्षुपुरुपमे विद्यमान है, नही तो उसका स्वप्नमे भी सम्भव न हो । यद्यपि उस सकामवृत्तिके कारण आप परमार्थदृष्टि भूल जायें, ऐसा संशय नही होता था। परन्तु प्रसगोपात्त परमार्थदृष्टिके लिये शिथिलताका हेतु होनेका सम्भव दिखायी देता था। परन्तु उसकी अपेक्षा बडा खेद यह होता था कि इस मुमुक्षुके कुटुबमे मकामवुद्धि विशेप होगी, और परमार्थदष्टि मिट जायेगी, अथवा उत्पन्न होनेकी सम्भावना दूर हो जायेगी, और इस कारणसे दूसरे भी वहतसे जीवोके लिये वह स्थिति परमार्थकी अप्राप्तिमे हेतुभूत होगी, फिर सकामतासे भजनेवालेकी वृत्तिको हमारे द्वारा कुछ शान्त किया जाना कठिन है इसलिये सकामी जीवोको पूर्वापर विरोधवुद्धि हो अथवा
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श्रीमद् राजचन्द्र परमार्थपूज्यभावना दूर हो जाये, ऐसा जो देखा था, वह वर्तमानमे न हो, ऐसा विशेष उपयोग होनेके लिये सहज लिखा है। पूर्वापर इस बातका माहात्म्य समझमे आये और अन्य जीवोका उपकार हो, वैसा विशेष ध्यान रखियेगा।
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बम्बई, पौष सुदी १, शुक्र, १९५१ एक पत्र प्राप्त हुआ है। यहाँसे निकलनेमे लगभग एक महीना होगा, ऐसा लगता है। यहाँसे निकलनेके बाद समागमसम्बन्धी विचार रहता है और श्री कठोरमे इस वातकी अनुकूलता आनेका अधिक सम्भव रहता है, क्योकि उसमे विशेष प्रतिबन्ध होनेका कारण मालूम नही होता।
सभवत. श्री अवालाल उस समय कठोर आ सकें, इसके लिये उन्हे सूचित करूंगा।
हमारे आनेके बारेमे अभी किसीको कुछ बतानेको जरूरत नही है, तथा हमारे लिये कोई दूसरी विशेष व्यवस्था करनेकी भी जरूरत नहीं है । सायण स्टेशनपर उतर कर कठोर आया जाता है, और वह लबा रास्ता नहीं है, जिससे वाहन आदिकी हमे कुछ जरूरत नही है। और कदाचित् वाहनकी अथवा और कुछ जरूरत होगी तो श्री अवालाल उसकी व्यवस्था कर सकेंगे। ..
कठोरमे भी वहाँके श्रावको आदिको हमारे आनेके बारेमे कहनेको जरूरत नही है, तथा ठहरनेके स्थानकी कुछ व्यवस्था करनेके लिये उन्हे सूचित करनेकी जरूरत नहीं है। इसके लिये जो सहजमे उस प्रसगमे हो जायेगा उससे हमे वाधा नही होगी। श्री अबालालके सिवाय कदाचित् दूसरे कोई मुमुक्षु श्री अंबालालके साथ आयेगे, परन्तु उनके आनेका भी कठोर या सूरत या सायणमे पता न चले, यह हमें ठीक लगता है, क्योकि इस कारण कदाचित् हमे भी प्रतिबंध हो जाये । . हमारी यहाँ स्थिरता है, तब तक हो सके तो पत्र, प्रश्न आदि लिखियेगा। साधु श्री देवकरणजीको, आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो।
जिस प्रकार असगतासे आत्मभाव साध्य हो उस प्रकार प्रवृत्ति करना यही जिनेद्रकी आज्ञा है । इस उपाधिरूप व्यापारादि प्रसगसे निवृत्त होनेका वारवार विचार रहा करता है, तथापि उसका अपरिपक्व काल जानकर उदयवश व्यवहार करना पड़ता है। परन्तु उपर्युक्त जिनेद्रकी आज्ञाका प्राय विस्मरण नही होता। और आपको भी अभी तो उसी भावनाका विचार करनेके लिये कहते हैं ।
आ० स्व० प्रणाम।
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बबई, पौष सुदी १०, १९५१ श्री अजारग्राममे स्थित परम स्नेही श्री सोभागके प्रति, _ श्री मोहमयी भूमिसे लि• आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो।
विशेष आपका पत्र मिला है। ___चत्रभुजके प्रसगमे लिखते हुए आपने ऐसा लिखा है कि 'काल जायेगा और कहनी रहेगी', यह __ आपको लिखना योग्य न था । जो कुछ शक्य है उसे करनेमे मेरी विषमता नहीं है, परन्तु वह परमार्थसे
अविरोधी हो तो हो सकता है, नही तो हो सकना बहुत कठिन पड़ता है, अथवा नहीं हो सकता, जिससे 'काल जायेगा और कहनी रहेगी', ऐसा यह चत्रभुज सबधी प्रसग नही है, परन्तु वैसा प्रसग हो तो भी बाह्य कारणपर जानेको अपेक्षा अन्तर्धर्मपर प्रथम जाना श्रेयरूप है, इसका विसर्जन होने देना योग्य नही है।
रेवाशकरभाईके आनेसे लग्नप्रसगमे जैसे आपके और उनके ध्यानमे आये वैसे करनेमे आपत्ति नही है। परन्तु इतना ध्यान रखनेका है कि बाह्य आडवर जैसा कुछ चाहना ही नही कि जिससे शुद्ध व्यवहार
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या परमार्थको वाधा हो। रेवाशकरभाईको यह सूचना देते हैं, और आपको भी यह सूचना देते है। इस प्रसगके लिये नही, परन्तु सर्व प्रसगमे यह बात ध्यानमे रखने योग्य है, द्रव्यव्ययके लिये नही, परन्तु परमार्थके लिये।
हमारा कल्पित माहात्म्य कही भी दिखाई दे ऐसा करना, कराना या अनुमोदन करना हमे अत्यन्त अप्रिय है। बाकी ऐसा भी है कि परमार्थकी रक्षा करके किसी जीवको संतोष दिया जाये तो वैसा करनेमे हमारी इच्छा है । यही विनती।
प्रणाम ।
बबई, पौष सुदी १०, रवि, १९५१ प्रत्यक्ष कारागृह होनेपर भी उसका त्याग करना जीव न चाहे, अथवा अत्यागरूप शिथिलताका त्याग न कर सके, अथवा त्यागबुद्धि होनेपर भी त्याग करते करते कालव्यय किया जाये, इन सब विचारोको जीव किस तरह दुर करे ? अल्पकालमे वैसा किस तरह हो ? इस विषयमे उस पत्रमे लिखनेका हो तो लिखियेगा । यही विनती।
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बबई, पौष वदी, २, रवि, १९५१
परम पुरुषको नमस्कार परम स्नेही श्री सोभागभाई, श्री मोरवी ।।
कल एक पत्र प्राप्त हुआ था, तथा एक पत्र आज प्राप्त हुआ है। - ब्रह्मरससम्बन्धी नडियादवासीके विषयमे लिखी हुई वात जानी है, तथा समकितकी सुगमता शास्त्रमे अत्यन्त कही है, वह वैसी ही होनी चाहिये, इस सम्बन्धमे जो लिखा उसे पढा है । तथा त्याग अवसर है, ऐसा लिखा उसे भी पढा है । प्रायः माघ सुदी दूजके बाद समागम होगा, और तब उसके लिये जो कुछ पूछने योग्य हो सो पूछियेगा।
अभी जो महान पुरुषके मार्गके विषयमे आपके एक पत्रमे लिखा गया है, उसे पढकर बहुत सतोष होता है।
___ आ० स्व० प्रणाम ।
५५७ ___ववई, पौष वदी ९, शनि, १९५१ वेदात जगतको मिथ्या कहता है, इसमे असत्य क्या है ?
५५८
वंबई, पौष वदी १०, रवि, १९५१ विषम संसारबंधनका छेदनकर जो चल पड़े, उन पुरुषोको अनंत प्रणाम । माघ सुदी एकम दूजको शायद निकला जाये तो भी रास्तेमे तीन दिन लग सकते है, परतु माघ सुदी दूजको निकलना सम्भव नही है । सुदी पचमीको निकलना सम्भव है। वीचमे तीन दिन होगे, वह विवशतासे रुकनेका कारण है । प्राय. सुदी पंचमीको निवृत्त होकर सुदी अष्टमीको ववाणिया पहुँचा जा सके ऐसा है, इसलिये बाह्य कारण देखते हुए लीमडी आना सम्भव नहीं है, तो भी कदाचित् लौटते समय एक दिनका अवकाश मिल सकता है । परतु आतरिक कारण भिन्न होनेसे वैसा करनेका अभी किसी प्रकारसे चित्तमे नही आता हे। वढवाण स्टेशनपर केशवलालकी या आपकी मुझे मिलनेकी इच्छा हो तो उसे रोकनेमे मन असतोपको प्राप्त होता है, तो भी अभी रोकनेका मेरा चित्त रहता है, क्योकि चित्तको व्यवस्था यथायोग्य नहीं होनेसे उदय प्रारब्धके विना दूसरे सब प्रकारोमे असगता रखना योग्य लगता है, वह यहां तक कि जो परिचित है वे भी अभी भूल जायें तो अच्छा, क्योकि सगसे उपाधि निष्कारण बढ़ती
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४५४
श्रीमद् राजचन्द्र रहती है, और वैसी उपाधि सहन करने योग्य अभी मेरा चित्त नही है। निरुपायताके सिवाय कुछ भी व्यवहार करनेका चित्त अभी मालूम नही होता, और जो व्यापार-व्यवहारकी निरुपायता है, उससे भी निवृत्त होनेकी चिंतना रहा करती है । तथा चित्तमे दूसरेको बोध देने योग्य जितनी योग्यता अभी मुझे नही लगती है, क्योकि जब तक सर्व प्रकारके विषम स्थानकोमे समवृत्ति न हो तब तक यथार्थ आत्मज्ञान कहा नही जाता, और जब तक वैसा हो तब तक तो निज अभ्यासकी रक्षा करना उचित है, और अभी उस प्रकारकी मेरी स्थिति होनेसे मैं ऐसे करता हूँ, वह क्षमायोग्य है, क्योकि मेरे चित्तमे अन्य कोई हेतु नही है। ___लौटते समय श्री वढवाणमे समागम करनेका मुझसे हो सकेगा तो पहिलेसे आपको लिखूगा, परतु मेरे समागममे आपके आनेसे मेरा वढवाण आना हुआ था, ऐसा उस प्रसंगके कारण दूसरोके जाननेमे आये तो वह मुझे योग्य नहीं लगता, तथा आपने व्यावहारिक कारणसे समागम किया है ऐसा कहना अयथार्थ है, जिससे यदि समागम होनेका मुझसे लिखा जाये तो जैसे बात अप्रसिद्ध रहे वैसे कीजियेगा, ऐसी विनती है। र तीनोके पत्र अलग लिख सकनेकी अशक्तिके कारण एक पत्र लिखा है। यही विनती ।
आ० स्व० प्रणाम।
५५९ . . . बबई, पौष वदी ३०, शनि, १९५१ शुभेच्छासम्पन्न भाई सुखलाल छगनलालके प्रति, श्री वीरमगाम। . । , समागमकी आपको इच्छा है और तदनुसार करनेमे सामान्यतः बाधा नही है, तथापि चित्तके कारण अभी अधिक समागममे आनेकी इच्छा नही होती। यहाँसे माघ सुदी पूर्णिमाको निवृत्त होनेका सम्भव दिखाई देता है. तथापि उस समय रुकने जितना अवकाश नही है, और उसका मुख्य कारण लिखा सो है, तो भी यदि कोई बाधा जैसा नही होगा तो स्टेशनपर मिलनेके लिये आगेसे आपका लिखूगा। मेरे आनेकी खबर विशेष किसीको अभी नही दीजियेगा, क्योकि अधिक समागममे आनेका उदासीनता रहती है।
आत्मस्वरूपसे प्रणाम ।
बंबई, पौष, १९५१
- यदि ज्ञानीपुरुषके दढाश्रयसे सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद सलभ है, तो फिर क्षण क्षणमे आत्मोपयोगको स्थिर करना योग्य है, ऐसा जो कठिन मार्ग है वह ज्ञानीपूरुषके दढ आश्रयसे प्राप्त होना क्यो सुलभ न हो । क्योकि उस-उपयोगकी एकाग्रताके बिना तो मोक्षपदकी उत्पत्ति है नही । ज्ञानीपुरुषके वचनका दृढ आश्रय जिसे हो उसे सर्व साधन सुलभ हो जायें, ऐसा अखड़ निश्चय सत्पुरुषोने किया है । तो फिर हम कहते हैं कि इन, वृत्तियोका जय करना योग्य है, उन वत्तियोका जय क्यो न हो सके ? इतना सत्य है कि इस दुपमकालमे सत्सगकी समीपता या दृढ आश्रय विशेष चाहिये और असत्सगसे अत्यन्त निवृत्ति चाहिये, तो भी मुमुक्षुके लिये तो यही योग्य है कि वह कठिनसे कठिन आत्मसाधनकी प्रथम इच्छा करे , कि जिससे सर्व,साधन अल्पकालमे फलीभूत हो।
। श्री तीर्थंकरने तो यहाँ तक कहा है कि जिन ज्ञानीपुरुषकी दशा ससारपरिक्षीण हुई है उन ज्ञानीपुरुषको परपरा कर्मबंध सम्भवित नही है, तो भी पुरुषार्थको मुख्य रखना चाहिये कि जो दूसरे जीवके लिये भी आत्मसाधन परिणामका हेतु हो। .
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२८ वा वर्ष
'समयसार'मेसे जो काव्य लिखा है, उसके लिये तथा दूसरे सिद्धातोंके लिये समागममे समाधान करना सुगम होगा। . ज्ञानीपुरुपको आत्मप्रतिवधरूपसे ससारसेवा नही होती परतु प्रारब्धप्रतिवधरूपसे होती है। ऐसा होने पर भी उससे निवृत्तिरूप परिणामको प्राप्त करे, ऐसो ज्ञानीको रीति होती है, जिस रीतिका आश्रय करते हुए आज तीन वर्षोसे विशेषत वैसा किया है और उसमे अवश्य आत्मदशाको भुलाने जैसा सम्भव रहे, वैसे उदयको भी यथाशक्ति समपरिणामसे सहन किया है। यद्यपि उस सहन करनेके कालमे सर्वसगनिवृत्ति किसी तरह हो तो अच्छा, ऐमा सूझता रहा है; तो भी सर्वसगनिवृत्तिमे जो दशा रहनी चाहिये वह दशा उदयमे रहे तो अल्पकालमे विशेष कर्मकी निवृत्ति हो, ऐसा समझकर यथाशक्य उस प्रकारसे किया है। परतु अब मनमे ऐसा रहा करता है कि इस प्रसंगसे अर्थात् सकल गृहवाससे दूर न हुआ जा सके तो भी व्यापारादि प्रसगसे निवृत्त, दूर हुआ जाये तो अच्छा । क्योकि आत्मभावमे परिणत होनेके लिये जो दशा ज्ञानीकी होनी चाहिये वह दशा इस व्यापार-व्यवहारसे मुमुक्षुजीवको दिखायी नही देती। यह प्रकार जो लिखा है उस विषयमे अब कभी कभी विशेष विचारका उदय होता है। उसका जो परिणाम आये सो ठीक | यह प्रसग लिखा है, उसे अभी लोगोमे प्रगट होने देना योग्य नही है । माघ सुदी दूजको उस तरफ आनेकी सम्भावना रहती है। यही विनती ।
आ० स्वा० प्रणाम ।
।। .
५६१ बंबई, माघ सुदी २, रवि, १९५१ शुभेच्छासम्पन्न भाई कुंवरजी आणंदजोके प्रति, श्री भावनगर ।
चित्तमे कुछ भी विचारवृत्ति परिणत हुई है, यह जानकर हृदयमे आनद हुआ है।
असार और क्लेशरूप आरंभ-परिग्रहके कार्यमे रहते हुए यदि यह जीव कुछ भी निर्भय या अजागृत रहे तो बहुत वर्षोंका उपासित वैराग्य भी निष्फल जाये ऐसी दशा हो जाती है, ऐसे निश्चयको नित्यप्रति यादकर निरुपाय प्रसगमे काँपते हुए चित्तसे विवशतासे ही प्रवृत्ति करना योग्य है, इस बातका, मुमुक्षुजीव द्वारा कार्य-कार्यमे, क्षण-क्षणमे और प्रसग-प्रसगमें ध्यान रखे विना मुमुक्षुता रहनी दुष्कर है, और ऐसी दशाका वेदन किये विना मुमुक्षुता भी सम्भव नहीं है । मेरे चित्तमे आजकल यह मुख्य विचार रहता है । यही विनती।
रायचदके प्रणाम ।
५६२
बवई, माघ सुदी ३, सोम, १९५१ जिस प्रारब्धको भोगे बिना दूसरा कोई उपाय नही है, वह प्रारब्ध ज्ञानीको भी भोगना पडता है। ज्ञानी अत तक, आत्मार्थका त्याग करना नही चाहते, इतनी भिन्नता ज्ञानीमे होती है, ऐसा जो महापुरुषोंने कहा है वह सत्य है। .
५६३
बबई, माघ सुदी ८, रवि, १९५१ पत्र प्राप्त हुआ है। विस्तारसे पत्र लिखना अभी शक्य नही है, जिसके लिये चित्तमे कुछ खेद होता है, तथापि प्रारब्धोदय समझकर समता रखता हूँ।
आपने पनमे जो कुछ लिखा है, उस पर वारवार विचार करनेसे, जागृति रखनेसे, जिनमे पचविषयादिके अशुचिस्वरूपका वर्णन किया हो ऐसे शास्त्रो तथा सत्पुरुषोके चरित्रोका विचार करनेसे ओर कार्य कार्यमे ध्यान रखकर प्रवृत्ति करनेसे जो कोई उदासभावना होनी योग्य है वह होगी। '
लि० रायचदके प्रणाम।
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श्रीमद् राजचन्द्र
५६४
बबई, माघ सुदी ८, रवि, १९५१ __यहाँ इस वार तीन वर्षोंसे अधिक प्रवृत्तिके उदयको भोगा है। और वहाँ आनेके बाद भी थोडे दिन कुछ प्रवृत्तिका सम्बन्ध रहे, इससे अब उपरामता प्राप्त हो तो अच्छा, ऐसा चित्तमे रहता है। दूसरी उपरामता अभी होना कठिन है, कम सम्भव है। परतु आपका तथा श्री डुगर आदिका समागम हो तो अच्छा, ऐसा चित्तमे रहता है । इसलिये आप श्री डुगरको सूचित कीजियेगा और वे ववाणिया आ सकें ऐसा कीजियेगा।
किसी भी प्रकारसे ववाणिया आनेमे उन्हे कल्पना करना योग्य नही है। अवश्य आ सके ऐसा कीजियेगा।
लि. रायचदके प्रणाम।
५६५
बबई, फागुन सुदी १२, शुक्र, १९५१ जिस प्रकार बधनसे छूटा जाये, उस प्रकार प्रवृत्ति करना, यह हितकारी कार्य है। बाह्य परिचयको सोच-सोचकर निवृत्त करना, यह छूटनेका एक प्रकार है। जीव इस बातका जितना विचार करेगा उतना ज्ञानीपुरुपके मार्गको समझनेका समय समीप आयेगा।
__ आ० स्व० प्रणाम।
बबई, फागुन सुदी १३, १९५१ अशरण ऐसे ससारमे निश्चित बुद्धिसे व्यवहार करना जिसे योग्य प्रतीत न होता हो और उस व्यवहारके सम्बधको निवृत्त करते हुए तथा कम करते हुए विशेषकाल व्यतीत हुआ करता हो, तो उस कामको अल्पकालमे करनेके लिये जीवको क्या करना योग्य है ? समस्त ससार मृत्यु आदिके भयसे अशरण है, वह शरणका हेतु हो ऐसी कल्पना करना मगमरीचिका जैसा है। सोच-सोच कर श्री तीर्थंकर, जैसोने भी उससे निवृत्त होना, छूटना यही उपाय खोजा है। उस ससारका मुख्य कारण प्रेमबन्धन तथा द्वेषबन्धन सब ज्ञानियोने स्वीकार किया है। उसकी आकूलतासे जीवको निजविचार करनेका अवकाश प्राप्त नहीं होता, अथवा होता हो तो ऐसे योगसे उस बन्धनके कारणसे आत्मवीय प्रवृत्ति नही कर सकता, और यह सब प्रमादका हेतु है, और वैसे प्रमादसे लेशमात्र समय काल भी निर्भय रहना या अजागृत रहना, यह इस जीवकी अतिशय निर्बलता है, अविवेकता है, भ्राति है, ओर अत्यंत दुर्निवार्य ऐसा मोह हे ।
समस्त ससार दो प्रवाहोसे बह रहा है, प्रेमसे और द्वेषसे । प्रेमसे विरक्त हुए बिना द्वेषसे छूटा नही जाता और जो प्रेमसे विरक्त हो उसे सर्वसगसे विरक्त हुए विना व्यवहारमे रहकर अप्रेम (उदास) दशा रखनी यह भयकर व्रत है। यदि केवल प्रेमका त्याग करके व्यवहारमे प्रवृत्ति की जाये तो कितने ही जीवोकी दयाका, उपकारका ओर स्वार्थका भग करने जैसा होता है, और वेसा विचार कर यदि दया उपकारादिके कारण कुछ प्रेमदशा रखते हुए चित्तमे विवेकीको क्लेश भी हुए बिना रहना नही चाहिये, तव उसका विशेष विचार किस प्रकारसे करे?
५६७
बंबई, फागुन सुदी १५, १९५१ श्री वीतरागको परम भक्तिसे नमस्कार ___ दो तार, दो पन तथा दो चिट्ठियां मिली है। श्री जिनेन्द्र जैसे पुरुषने गृहवासमे जो प्रतिवध नही किया है, वह प्रतिवध न होनेके लिये आना या पन लिखना नही हआ, उसके लिये अत्यंत दीनतासे क्षमा चाहता हूँ। संपूण वीतरागता न होनेसे इस प्रकार बरताव करते हुए अतरमे विक्षेप हुआ है, जिस विक्षेपको भी शान्त करना योग्य है, ऐसा मार्ग ज्ञानीने देखा है।
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२८ वाँ वर्ष
४५७ आत्माका जो अतापार (अंतरपरिणामकी धारा) है वह, बंध तथा मोक्षको (कमसे आत्माका बंधना और उससे आत्माका छूटना) व्यवस्थाका हेतु है, मात्र शरीरचेष्टा बध-मोक्षकी व्यवस्थाका हेतु नही है। विशेष रोगादिके योगसे ज्ञानीपुरुषकी देहमे भी निर्बलता, मदता, म्लानता; कप, स्वेद, मूर्छा, बाह्य विभ्रमादि दिखायी देते हैं, तथापि जितनो ज्ञान द्वारा, बोध द्वारा, वैराग्य द्वारा आत्माकी निर्मलता हुई है, उतनी निर्मलता द्वारा ज्ञानी उस रोगका अतरपरिणामसे वेदन करते हैं और वेदन करते हुए कदाचित् बाह्य स्थिति उन्मत्त देखनेमे आये तो भी अतरपरिणामके अनुसार कर्मबंध अथवा निवृत्ति होती है । आत्मा जहाँ अत्यन्त शुद्ध निजपर्यायका सहज स्वभावसे सेवन करे वहाँ- (अपूर्ण )
५६८
बबई, फागुन, १९५१ आत्मस्वरूपका निर्णय होनेमे अनादिसे जीवकी भूल होती आयी है, जिससे अब हो, इसमे आश्चर्य नही लगता। - सर्व'क्लेशसे और सर्व दुःखसे मुक्त होनेका, आत्मज्ञानके सिवाय दूसरा कोई उपाय नही है । सद्विचारके बिना आत्मज्ञान नही होता, और असत्सग-प्रसगसे जीवका विचारबल नही चलता, इसमे किचित्मात्र सशय नहीं है। । आत्मपरिणामकी स्वस्थताको श्री तीर्थकर 'समाधि' कहते हैं।
आत्मपरिणामकी अस्वस्थताको श्री तीर्थकर 'असमाधि' कहते हैं। `आत्मपरिणामकी सहज स्वरूपसे परिणति होना उसे श्री तीर्थकर 'धर्म' कहते हैं । आत्मपरिणामकी कुछ भी चपल परिणति होना उसे श्री तीर्थंकर 'कर्म' कहते हैं।
श्री जिन तीर्थकरने जैसा बध एव मोक्षका निर्णय कहा है, वैसा निर्णय वेदातादि दर्शनमे दृष्टि गोचर नही होता, और श्री जिनमे जैसा यथार्थवक्तृत्व देखनेमे आता है वैसा यथार्थवक्तृत्व दूसरेमे देखनेमे नही आता।
आत्माके अतर्व्यापार (शुभाशुभ परिणामधारा) के अनुसार बध-मोक्षकी व्यवस्था है, वह शारीरिक चेष्टाके अनुसार नही है । पूर्वकालमे उत्पन्न किये हुए वेदनीय कर्मके उदयके अनुसार रोगादि उत्पन्न होते हैं, और तदनुसार निबल, मद, म्लान, उष्ण, शीत आदि शरीरचेष्टा होती है।
विशेष रोगके उदयसे अथवा शारीरिक मद बलसे ज्ञानीका शरीर कपित हो, निर्बल हो, म्लान हो, मद हो, रौद्र लगे, उसे भ्रमादिका उदय भी रहे; तथापि जिस प्रकारसे जीवमे बोध एव वैराग्यकी वासना हुई होती है उस प्रकारसे उस रोगका, जीव उस उस प्रसगमे प्रायः वेदन करता है।
किसी भी जीवको अविनाशी देहकी प्राप्ति हुई हो, ऐसा देखा नही, जाना नही तथा सम्भव नही, और मृत्युका आना निश्चित है, ऐसा प्रत्यक्ष निःसशय अनुभव है । ऐसा होनेपर भी यह जीव उस बातको वारवार भूल जाता है, यह बड़ा आश्चर्य है।
जिस सर्वज्ञ वीतरागमे अनन्त सिद्धियां प्रगट हुई थी उस वीतरागने भी इस देहको अनित्यभावी देखा है, तो फिर अन्य जीव किस प्रयोगसे देहको नित्य बना सकेंगे?
श्री जिनेंद्रका ऐसा अभिप्राय है कि प्रत्येक द्रव्य अनत पर्यायी है। जीवके अनत पर्याय हैं और परमाणुके भी अनंत पर्याय है। जीव चेतन होनेसे उसके पर्याय भी चेतन हैं, और परमाणु अचेतन होनेसे उसके पर्याय भी अचेतन है। जीवके पर्याय अचेतन नही है और परमाणुके पर्याय सचेतन नही है, ऐसा श्री जिनेंद्रने निश्चय किया है तथा वही योग्य है, क्योकि प्रत्यक्ष पदार्थक स्वरूपका भी विचार करते हुए वैसा प्रतीत होता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
जीवके विषयमे, प्रदेशके विषयमे, पर्यायके विषयमे, तथा सख्यात, असख्यात, अनंत आदिके विषयमें यथाशक्ति विचार करना । जो कुछ अन्य पदार्थका विचार करना है वह जीवके मोक्षके लिये करना है, अन्य पदार्थके ज्ञानके लिये नही करना है ।
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बंबई, फागुन वदी ३, १९५१
श्री सत्पुरुषोंको नमस्कार
सर्वं क्लेशसे और सर्वं दु खसे मुक्त होनेका उपाय एक आत्मज्ञान है । विचारके बिना आत्मज्ञान नही होता, और असत्सग तथा असत्प्रसगसे जीवका विचारबल प्रवृत्त नही होता, इसमे किंचित् मात्र सराय नही है ।
आरंभ-परिग्रहकी अल्पता करनेसे असत्प्रसगंका बल घटता है, सत्सगके आश्रयसे असत्संगका बल घटता है । असत्संगका बल घटनेसे आत्मविचार होनेका अवकाश प्राप्त होता है। आत्मविचार होनेसे आत्मज्ञान होता है, और आत्मज्ञानसे निजस्वभावस्वरूप, सर्वं क्लेश एव सर्व दुःखसे रहित मोक्ष प्राप्त होता है, यह बात सर्वथा सत्य है ।
जो जीव मोहनिद्रामे सोये हुए हैं वे अमुनि हैं। निरन्तर आमविचारपूर्वक मुनि तो जाग्रत रहते हैं । प्रमादीको सर्वथा भय है, अप्रमादीको किसी तरहसे भय नही है, ऐसा श्री जिनेंद्रने कहा है ।
सर्व पदार्थके स्वरूपको जाननेका हेतु मात्र एक आत्मज्ञान करना ही है। यदि आत्मज्ञान न हो तो सर्व पदार्थोंके ज्ञानकी निष्फलता है ।
जितना आत्मज्ञान होता है उतनी आत्मसमाधि प्रगट होती है ।
किसी भी तथारूप योगको प्राप्त करके जीवको एक क्षण भी अतर्भेदजागृति हो जाये तो उसमे मोक्ष विशेष दूर नही है ।
- अन्य परिणाममे जितनी तादात्म्यवृत्ति हैं, उतना जीवसे मोक्ष दूर है ।
यदि कोई.-आत्मयोग बने तो इस मनुष्य भवका मूल्य किसी तरहसे नही हो सकता । प्राय 'मनुष्यदेहके बिना आत्मयोग नही बनता ऐसा जानकर, अत्यन्त निश्चय करके इसी देहमे आत्मयोग उत्पन्न करना योग्य है ।
fararat निर्मलता यदि यह जीव अन्यपरिचयसे पीछे हटे तो सहजमे अभी हो- उसे आत्मयोग प्रगट हो जाये । असत्सग-प्रसगका घिराव विशेष है, और यह जीव उससे अनादिकालका हीनसत्त्व हुआ होनेसे उससे अवकाश प्राप्त करनेके लिये अथवा उसकी निवृत्ति करनेके लिये यथासभव सत्सगका आश्रय करे तो किसी तरह पुरुषार्थयोग्य होकर विचारदशाको प्राप्त करे ।
जिस प्रकारसे इस ससारकी अनित्यता, असारता अत्यतरूपसे भासित हो उस प्रकारसे आत्मविचार उत्पन्न होता है । -
1
'अब इस उपाधिकार्यसे छूटनेकी विशेष - विशेष आत्ति हुआ करती है, और छूटे बिना जो कुछ भी काल बीतता है, वह इस जीवको शिथिलता ही है, ऐसा लगता है, अथवा ऐसा निश्चय रहता है ।
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- जनकादि उपाधिमे रहते हुए भी आत्मस्वभावमे रहते थे, ऐसे आलवनके प्रति कभी भी बुद्धि नही
- जाती। श्री जिनेंद्र जैसे जन्मत्यागी भी छोड़कर चल निकले, ऐसे भयके हेतुरूप उपाधियोगको निवृत्ति यह पामर जीव, करते-करते काल व्यतीत करेगा तो अश्रेय होगा, ऐसा भय जीवके उपयोगमे रहता है, क्योकि यही कर्तव्य है ।
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जो रागद्वेषादि परिणाम अज्ञानके बिना सम्भवित नही है, उन रागद्वेषादि परिणामों के होते हुए भी, सर्वथा जीवन्मुक्तता मानकर जीवन्मुक्तदशाकी जीव आसातना करता है, ऐसे प्रवृत्ति करता है । सर्वथा रागद्वेषपरिणामको परिक्षीणता ही कर्तव्य है ।
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' २८ वाँ वर्ष
जहाँ अत्यन्त ज्ञान हो वहाँ अत्यन्त त्यागका सम्भव है । अत्यन्त त्याग प्रगट हुए बिना अत्यन्त ज्ञान नही होता, ऐसा श्री तीर्थंकरने स्वीकार किया है ।
आत्मपरिणामसे जितना अन्य पदार्थका तादात्म्य - अध्यास निवृत्त होना, उसे श्री जिनेद्र त्याग
कहते हैं ।
वह तादात्म्य अध्यास-निवृत्तिरूप त्याग होने के लिये यह बाह्य प्रसगका त्याग भी उपकारी है, कार्यकारी है । बाह्य प्रसगके त्यागके लिये अतरत्याग कहा नही है, ऐसा है, तो भी इस जीवको अतर्त्यागके लिये बाह्य प्रसगकी निवृत्तिको कुछ भी उपकारी मानना योग्य है ।
नित्य छूटने का विचार करते है और जैसे वह कार्य तुरत पूरा हो वैसे जाप जपते हैं । यद्यपि ऐसा लगता है कि वह विचार और जाप अभी तक तथारूप नही है, शिथिल है, अत अत्यन्त विचार और उस जापका उग्रतासे आराधन करनेका अल्पकालमे योग करना योग्य है, ऐसा रहा करता है । '
प्रसगसे कुछ परस्परके सम्बन्ध जैसे वचन इस पत्रमे लिखे है, ' वे विचारमे स्फुरित हो आने से स्वविचार बल बढने के लिये और आपके पढने-विचारनेके लिये लिखे हैं ।
जीव, प्रदेश, पर्याय तथा संख्यात, असख्यात, अनत आदिके विषयमे तथा रेसको व्यापकताके विषय क्रमपूर्वक समझना योग्य होगा।
"
आपका यहाँ आनेका विचार है, तथा श्री डुंगरका आना संम्भव हैं, यह लिखा सो जाना है । सत्सगयोगको इच्छा रहा करती हैं ।
"""
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५७०
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बबई, फागुन वदी ५, शनि, १९५१
सुज्ञ भाई श्री मोहनलालके प्रति, श्री डरबन ।
। पत्र एक मिला है । ज्यो ज्यो उपाधिका त्याग होता है, त्यो त्यो समाधिसुख प्रगट होता है । ज्यो यो उपाधिका ग्रहण होता है त्यों त्यो समाधिसुखकी हानि होती है । विचार करें तो यह वात प्रत्यक्ष अनुभवमे आती हैं । यदि इस संसारके पदार्थोंका कुछ भी विचार किया जाये, तो उसके प्रति वैराग्य आये बिना नही रहेगा, क्योकि मात्र अविचारके कारण उसमे मोहबुद्धि रहती है ।
'आत्मा है', 'आत्मा नित्य है', 'आत्मा कर्मका कर्ता है', 'आत्मा कर्मका भोक्ता है', 'उससे वह निवृत्त हो सकता है', और 'निवृत्त हो सकनेके साधन है', ये छ. कारण जिसे विचारपूर्वक सिद्ध हो उसे विवेकज्ञान अथवा सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति मानना, ऐसा श्री जिनेन्द्रने निरूपण किया है, उस निरूपणका मुमुक्षुrtant विशेष करके अभ्यास करना योग्य है ।
पूर्वके किसी विशेष अभ्यासवलसे इन छ कारणोका विचार उत्पन्न होता है, अथवा सत्संगके आश्रयसे उस विचारके उत्पन्न होनेका योग बनता है।
अनित्य पदार्थ प्रति मोहवुद्धि होनेके कारण आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व और अव्यावाध समाधिसुख भानमे नही आता । उसकी मोहबुद्धिमे जीवको अनादिसे ऐसी एकाग्रता चली आती है, कि उसका विवेक करते करते जीवको अकुलाकर पीछे लौटना पड़ता है, ओर उम मोहग्रथिको छेदनेका समय आने से पहले वह विवेक छोड़ देनेका योग पूर्व कालमे बहुत बार हुआ है, क्योकि जिसका अनादिकालसे अभ्यास
१ महात्मा गाधीजी ।
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श्रीमद राजचन्द्र है वह, अत्यन्त पुरुषार्थके बिना, अल्पकालमे छोड़ा नही जा सकता। इसलिये पुनः पुन. सत्सग, सत्शास्त्र और अपनेमे सरल विचारदशा करके उस विषयमे विशेष श्रम करना योग्य है, कि जिसके परिणाममे नित्य शाश्वत सुखस्वरूप ऐसा आत्मज्ञान होकर स्वरूपका आविर्भाव होता है। इसमे प्रथमसे उत्पन्न होनेवाले सशय धैर्यसे और विचारसे शात होते है। अधीरतासे अथवा टेढी कल्पना करनेसे मात्र जीवको अपने हितका त्याग करनेका समय आता है, और अनित्य पदार्थका राग रहनेके कारणसे पुन पुन. संसारपरिभ्रमणका योग रहा करता है।
__ कुछ भी आत्मविचार करनेकी इच्छा आपको रहती है, ऐसा जानकर बहुत सतोष हुआ है । उस सतोषमे मेरा कोई स्वार्थ नहीं है। मात्र आप समाधिके रास्तेपर चढना चाहते है, जिससे आपको संसारक्लेशसे निवृत्त होनेका अवसर प्राप्त होगा। इस प्रकारको सम्भावना देखकर स्वभावत सन्तोष होता है। यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम ।
५७१
बंबई, फागुन वदी ५, शनि, १९५१ अधिकसे अधिक एक समयमे १०८ जीव मुक्त हो, इससे अधिक न हो, ऐसी लोकस्थिति जिनागममे स्वीकृत है, और प्रत्येक समयमे एक सौ आठ एक सौ आठ जीव मुक्त होते ही रहते हैं, ऐसा मानें तो इस परिमाणसे तीनो कालमे जितने जीव मोक्ष प्राप्त करें, उतने जीवोकी जो अनत सख्या हो, उसकी अपेक्षा संसारनिवासी जीवोकी सख्या - जिनागममे अनत गुनी निरूपित की है। अर्थात् तीनो कालमे मुक्तजीव जितने हो उनकी अपेक्षा ससारमे अनत गुने जीव रहते है, क्योकि उनका परिमाण इतना अधिक है, और इसलिये मोक्षमार्गका प्रवाह बहते रहते हुए भी ससारमार्गका उच्छेद हो जाना सभव नही है, और इससे बध-मोक्षको व्यवस्थामे विपर्यय नहीं होता। इस विषयमे अधिक चर्चा समागममे करेंगे तो बाधा नही है।
जीवके बन्ध-मोक्षकी व्यवस्थाके विषयमे सक्षेपमे पत्र लिखा है। इस प्रकारके जो जो प्रश्न हो वे सव समाधान हो सकने जैसे हैं, कोई फिर अल्पकालमे और कोई फिर विशेष कालमे समझे अथवा समझमे आये, परन्तु इन सबकी व्यवस्थाका समाधान हो सकने जैसा है। . .
· सबको अपेक्षा अभी विचारणीय बात तो यह है कि उपाधि तो की जाये और सर्वथा असगदशा रहे, ऐसा होना अत्यन्त कठिन है, और उपाधि. करते हुए आत्मपरिणाम चचल न हो, ऐसा होना असम्भवित जैसा है । उत्कृष्ट ज्ञानीको छोड़कर हम सबको तो यह बात अधिक ध्यानमे रखने योग्य है कि, आत्मामे जितनी असम्पूर्णता-असमाधि रहती है अथवा रह सकने जैसी हो, उसका उच्छेद करना ।, -
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बंबई, फागुन वदी ७, रवि, १९५१ सर्व विभावसे उदासीन और अत्यन्त शुद्ध निज पर्यायका सहजरूपसे आत्मा सेवन करे, उसे श्री जिनेंद्रने तीव्रज्ञानदशा कही है । जिस दशाके आये बिना कोई भी जीव बन्धनमुक्त नही होता, ऐसा सिद्धात श्री जिनेंद्रने प्रतिपादित किया है, जो अखड सत्य है।
__किसी ही जीवसे इस गहन दशाका विचार हो सकना योग्य है, क्योकि अनादिसे अत्यन्त अज्ञानदशासे इस जीवने जो प्रवृत्ति की है, उस प्रवृत्तिको एकदम असत्य, असार समझकर उसकी निवृत्ति सूझे ऐसा होना बहुत कठिन है, इसलिये जिनेंद्रने ज्ञानीपुरुषका आश्रय करनेरूप भक्तिमार्गका निरूपण किया है, कि जिस मार्गके आराधनसे सुलभतासे ज्ञानदशा उत्पन्न होती है। . .
ज्ञानीपुरुषके चरणमे मनको स्थापित किये बिना यह. भक्तिमार्ग सिद्ध नही होता, जिससे जिनागममे पुन पुन ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करनेका स्थान स्थानपर कथन किया है। ज्ञानीपुरुषकै चरणमे मनका
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२८ वो वर्ष स्थापित होना पहिले तो कठिन पड़ता है, परन्तु वचनको अपूर्वतासे, उस वचनका विचार करनेसे तथा ज्ञानीको अपूर्व दृष्टिसे देखनेसे मनका स्थापित होना सुलभ होता है।
___ ज्ञानीपुरुषके आश्रयमे विरोध करनेवाले. पच विषयादि दोष है। उन दोषोंके होनेके साधनोंसे यथाशक्ति दूर रहना, और प्राप्तसाधनमे भी उदासीनता रखना, अथवा उन उन साधनोमेसे अहबुद्धिको दूरकर, उन्हे रोगरूप समझकर प्रवृत्ति करना योग्य है । अनादि दोषका ऐसे प्रसगमे विशेष उदय होता है । क्योकि आत्मा उस दोषको नष्ट - करनेक लिये अपने सन्मुख लाता है कि वह स्वरूपान्तर करके उसे आकर्षित करता है, और जागतिमे शिथिल करके अपनेमे एकाग्र बुद्धि करा देता है। वह एकाग्र बुद्धि इस प्रकारकी होती है कि, 'मुझे इस प्रवृत्तिसे वैसी विशेष बाधा नही होगी, मै अनुक्रमसे उसे छोडूंगा, और करते हुए जागृत रहूँगा'; इत्यादि भ्रातदशा उन दोषोंसे होती है, जिससे जीव उन दोषोका सम्बन्ध नहीं छोड़ता, अथवा वे दोष बढते हैं, उसका ध्यान उसे नही आ सकता।
___ इस विरोधी साधनका दो प्रकारसे त्याग हो सकता है-एक, उस साधनके प्रसगकी निवृत्ति, दूसरा, विचारपूर्वक उसको तुच्छता समझना।
विचारपूर्वक तुच्छता समझनेके लिये प्रथम उस पचविषयादिके साधनकी निवृत्ति करना अधिक योग्य है, क्योकि उससे विचारका अवकाश प्राप्त होता है। -
, उस पचविषयादिके साधनकी सर्वथा निवृत्ति करनेके लिये जीवका बल न चलता हो, तब क्रमक्रमसे, अश-अशसे उसका त्याग करना योग्य है, परिग्रह तथा भोगोपभोगके पदार्थोका अल्प परिचय करना योग्य है । ऐसा करनेसे अनुक्रमसे वह दोष मद पड़ता है और आश्रयभक्ति दृढ होती है तथा ज्ञानीके वचन आत्मामे परिणमित होकर, तीव्रज्ञानदशा प्रगट होकर जीवन्मुक्त हो जाता है।
जीव क्वचित् ऐसी बातका विचार करे, इससे अनादि अभ्यासका बल घटना कठिन है परन्तु दिनप्रतिदिन, प्रसग-प्रसंगमे और प्रवृत्ति प्रवृत्तिमे पुन पुनः विचार करे, तो अनादि अभ्यासका बल घटकर अपूर्व अभ्यासकी सिद्धि होकर सुलभ ऐसा आश्रयभक्तिमार्ग सिद्ध होता है। यही विनती।।
आ० स्व० प्रणाम।
बबई, फागुन वदी ११, शुक्र, १९५१ जन्म, जरा, मरण आदि दु खोसे समस्त ससार अशरण है। जिसने सर्वथा उस ससारकी आस्था छोड़ दी है, वही आत्मस्वभावको प्राप्त हुआ है, और निर्भय हुआ है। विचारके बिना वह स्थिति जीवको प्राप्त नही हो सकती, और सगके मोहसे पराधीन इस जीवको विचार प्राप्त होना दुर्लभ है।
आ० स्व० प्रणाम। ५७४
ववई, फागुन, १९५१ यथासम्भव तुष्णा कम करनी चाहिये। जन्म, जरा, मरण किसके हैं ? कि जो तुष्णा रखता है, उसके जन्म, जरा, मरण हैं । इसलिये तृष्णाको यथाशक्ति कम करते जाना।
५७३
५७५
बबई, फागुन, १९५१ जब तक यथार्थ निज स्वरूप सम्पूर्ण प्रकाशित हो तब तक निज स्वरूपके निदिध्यासनमै स्थिर रहनेके लिये ज्ञानीपुरुषके वचन आधारभूत हैं, ऐसा परम पुरुष श्री तीर्थंकरने कहा है, वह सत्य है। वारहवें गुणस्थानमे रहनेवाले आत्माको निदिध्यासनरूप ध्यानमे श्रुतज्ञान अर्थात् ज्ञानीके मुख्य वचनोका
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श्रीमद् राजचन्द्र
आशय वहाँ आधारभूत है, ऐसा प्रमाण जिनमार्गमे वारवार कहा है । बोधबीजकी प्राप्ति होनेपर, निर्वाणमार्गी यथार्थ प्रतीति होनेपर भी उस मार्ग मे यथास्थित स्थिति होनेके लिये ज्ञानीपुरुषका आश्रय मुख्य साधन है, और वह ठेठ पूर्ण दशा होने तक है, नही तो जीवको पतित होनेका भय है, ऐसा माना है । तो फिर अपने आप अनादिसे भ्रात जीवको सद्गुरुके योगके बिना निजस्वरूपका भान होना अशक्य है, इसमे सशय क्यो हो ? जिसे निज स्वरूपका दृढ निश्चय रहता है, ऐसे पुरुषको प्रत्यक्ष जगतव्यवहार वारवार मार्गच्युत करा देने वाले प्रसग प्राप्त कराता है, तो फिर उससे न्यूनदशामे जीव मार्ग भूल जाय, इसमे आश्चर्य क्या है ? अपने विचारके बलसे, सत्सग-सत्शास्त्र के आधार से रहित प्रसगमे यह जगतव्यवहार विशेष बल करता है, और तब वारवार श्री सद्गुरुका माहात्म्य और आश्रयका स्वरूप तथा सार्थकता अत्यन्त अपरोक्ष सत्य दिखायी देते है ।
५७६
बबई, चैत्र सुदी ६, सोम, १९५१
आज एक पत्र आया है । यहाँ कुशलता है । पत्र लिखते लिखते अथवा कुछ कहते कहते वारवार चित्ती अप्रवृत्ति होती है, और कल्पितका इतना अधिक माहात्म्य क्या ? कहना क्या ? जानना क्या सुनना क्या ? प्रवृत्ति क्या ? इत्यादि विक्षेपसे चित्तकी उसमे अप्रवृत्ति होती है, और परमार्थसम्बन्धी कहते हुए, लिखते हुए उससे दूसरे प्रकार के विक्षेपकी उत्पत्ति होती है, जिस विक्षेपमे मुख्य इस तीव्र प्रवृत्तिके निरोधके बिना उसमे परमार्थकथनमे भी अप्रवृत्ति अभी श्रेयभूत लगती है । इस कारण विषयमे पहिले एक सविस्तर पत्र लिखा है, इसलिये यहाँ विशेष लिखने जैसा नही है विशेष स्फूर्ति होनेसे यहाँ लिखा है ।
।
केवल चित्तमे
व्यापार आदी प्रवृत्ति अधिक न करनेका हो सके तो ठीक है, ऐसा, जो लिखा वह यथायोग्य है, और चित्तको इच्छा नित्य ऐसी रहा करती है । लोभहेतुसे वह प्रवृत्ति होती है या नही ? ऐसा विचार करते हुए लोभका निदान प्रतीत नही होता । विषयादिकी इच्छासे प्रवृत्ति होती है, ऐसा भी प्रतीत नही होता, तथापि प्रवृत्ति होती है, इसमे सन्देह नही । जगत कुछ लेने के लिये प्रवृत्ति करता है, यह प्रवृत्ति देने के लिये होती होगी ऐसा लगता है । यहाँ जो यह लगता है वह यथार्थ होगा या नही ? उसके लिये विचारवान पुरुष जो कहे वह प्रमाण है । यही विनती । लि० रायचदके प्रणाम ।
५७७
बबई, चैत्र सुदी १३, १९५१
अभी यदि किन्ही वेदातसम्बन्धी ग्रन्थोका अध्ययन तथा श्रवण करनेका रहता हो तो उस विचारका विशेष विचार होनेके लिये कुछ समय श्री 'आचाराग', 'सूयगडाग' तथा 'उत्तराध्ययन' को पढ़ने एव विचार करनेका हो सके तो कीजियेगा ।
वेदात के सिद्धातमे तथा जिनागमके सिद्धातमे भिन्नता है, तो भी जिनागमको विशेष विचारका स्थान मानकर वेदातका पृथक्करण होनेके लिये वे आगम पढने विचारने योग्य है । यही विनती ।
५७८
बबई, चैत्र सुदी १४, शनि, १९५१ बम्बईमे आर्थिक तगी विशेष है । सट्टेवालोको बहुत नुकसान हुआ है । आप सबको सूचना है कि सट्टे जैसे रास्तेको न अपनाया जाये, इसका पूरा ध्यान रखियेगा । माताजी तथा पिताजीको पादप्रणाम ।
रायचदके यथायोग्य ।
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२८ वॉ वर्ष
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बंबई, चैत्र सुदी १५, १९५१
परम स्नेही श्री सोभागके प्रति, श्री सायला ।
मोरबीसे लिखा हुआ एक पत्र मिला है । यहाँसे रविवारको एक चिट्ठी मोरबी लिखी है । वह आपको सालामे मिली होगी ।.
श्री डुगरके साथ इस तरफ आनेका विचार रखा है, उस विचारके अनुसार आनेमे श्री डुंगरको भी कोई विक्षेप न करना योग्य है, क्योकि यहाँ मुझे विशेष उपाधि अभी तुरत नही रहेगी ऐसा सम्भव है । दिन तथा रातका बहुतसा भाग निवृत्तिमे बिताना हो तो मुझसे अभी वैसा हो सकता है ।
परम पुरुपकी आज्ञाके निर्वाहके लिये तथा बहुतसे जीवोके हितके लिये आजीविकादि सम्बन्धी आप कुछ लिखते हैं, अथवा पूछते हैं, उनमे मौन जैसा बरताव होता है, उसमे अन्य कोई हेतु नही है, जिससे मेरे वैसे मौन के लिये चित्तमे अविक्षेपता रखियेगा, और अत्यन्त प्रयोजनके बिना अथवा मेरी इच्छा जाने बिना उस विषयमे मुझे लिखने या पूछनेका न हो तो अच्छा । क्योकि आपको और मुझे ऐसी दशामे रहना विशेष आवश्यक है, और उस आजीविकादिके कारणसे आपको विशेष भयाकुल होना भी योग्य नही है । मुझपर कृपा करके इतनी बात तो आप चित्तमे दृढ करें तो हो सकती है । बाकी किसी तरह कभी भी भेदभावकी बुद्धिसे मौन धारण करना मुझे सुझे, ऐसा सम्भवित नही है, ऐसा निश्चय रखिये | इतनी सूचना देनी भी योग्य नही है, तथापि स्मृतिमे विशेषता आनेके लिये लिखा है ।
आनेका विचार करके तिथि लिखियेगा । जो कुछ पूछना - करना हो वह समागममे पूछा जाय तो बहुतसे उत्तर दिये जा सकते है । अभी पत्र द्वारा अधिक लिखना नही हो सकता ।
डाकका समय हो जानेसे यह पत्र पूरा करता हूँ । श्री डुगरको प्रणाम कहियेगा । और हमारे प्रति लौकिक दृष्टि रखकर आनेके विचारमे कुछ शिथिलता न करें, इतनी विनती करियेगा ।
आत्मा सबसे अत्यत प्रत्यक्ष है, ऐसा परम पुरुष द्वारा किया हुआ निश्चय भी अत्यन्त प्रत्यक्ष है । यही विनती । आज्ञाकारी रायचदके प्रणाम विदित हो ।
५८०
बबई, चैत्र वदी ५, रवि, १९५१
कितने ही विचार विदित करनेकी इच्छा रहा करती होनेपर भी किसी उदयके प्रतिवधसे वैसा हो सकने मे बहुतसा समय व्यतीत हुआ करता है । इसलिये विनती है कि आप जो कुछ भी प्रसंगोपात्त पूछने अथवा लिखनेकी इच्छा करते हो तो वैसा करनेमे मेरी ओरसे प्रतिबंध नही है, ऐसा समझकर लिखने अथवा पूछनेमे न रुकियेगा । यही विनती । आ० स्व० प्रणाम ।
५८१
बंबई, चैत्र वदी ८, वुध, १९५१
चेतनका चेतन पर्याय होता है, और जडका जड पर्याय होता है, यही पदार्थको स्थिति है । प्रत्येक समयमे जो जो परिणाम होते है वे वे पर्याय हैं । विचार करनेसे यह बात यथार्थ लगेगी ।
अभी कम लिखना बन पाता है, इसलिये बहुतसे विचार कहे नही जा सकते, तथा वहुतसे ' विचारोका उपशम करनेरूप प्रकृतिका उदय होनेसे किसीको स्पष्टतासे कहना नही हो सकता । अभी यहाँ इतनी अधिक उपाधि नही रहती, तो भी प्रवत्तिरूप सग होनेसे तथा क्षेत्र उत्तापरूप होनेसे थोडे दिनके लिये यहाँसे निवृत्त होनेका विचार होता है। अब इस विषय मे जो होना होगा सो होगा। यही विनती ।
प्रणाम ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
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बबई, चैत्र वदी ८, १९ आत्मवीर्य के प्रवर्तन और संकोच करनेमे बहुत विचारपूर्वक प्रवृत्ति करना योग्य है। शुभेच्छासम्पन्न भाई कुंवरजी आणदजीके प्रति, श्री भावनगर ।
विशेष विनती है कि आपका लिखा हुआ एक पत्र प्राप्त हुआ है। उस तरफ आनेके सम्बन्धमे निम् लिखित स्थिति है। लोगोको सन्देह हो इस प्रकारके बाह्य व्यवहारका उदय है । और वैसे व्यवहारके सा बलवान निग्रंथ पुरुष जैसा उपदेश करना, वह मार्गका विरोध करने जैसा है, और ऐसा जानकर तथा उ जैसे दूसरे कारणोका स्वरूप विचारकर प्रायः जिससे लोगोको सन्देहका हेतु हो वैसे प्रसगमे मेरा आना ना होता। कदाचित् कभी कोई समागममे आता है, और कुछ स्वाभाविक कहना-करना होता है, इसमे * चित्तकी इच्छित प्रवृत्ति नही है । पूर्वकालमे यथास्थित विचार किये बिना जोवने प्रवृत्ति की, उससे ऐं व्यवहारका उदय प्राप्त हुआ है, जिससे कई बार चित्तमे शोक रहता है। परंतु यथास्थित समपरिणाम वेदन करना योग्य है, ऐसा समझकर प्रायः वैसी प्रवृत्ति रहती है। फिर आत्मदशाके विशेष स्थिर होने लिये असगतामे ध्यान रहा करता है । इस व्यापारादिके उदय-व्यवहारसे जो जो सग होते है, उनमे प्राय असग परिणामवत् प्रवृत्ति होती है, क्योकि उनमे सारभूत कुछ नही लगता। परंतु जिस धर्मव्यवहारखे प्रसगमे आना होता है, वहाँ उस प्रवृत्तिके अनुसार व्यवहार करना योग्य नही है। तथा दूसरे आशयक विचारकर प्रवृत्ति की जाये तो उतनी सामर्थ्य अभी नही है, इसलिये वैसे प्रसंगमे प्रायः मेरा आना कम होता है, और इस क्रमको वदलना अभी चित्तको जचता नही है। फिर भी उस तरफ आनेके प्रसगमे वैसा करनेका कुछ भी विचार मैंने किया था, तथापि उस क्रमको बदलते हुए दूसरे विषम कारणोका आगे जाकर सभव होगा ऐसा प्रत्यक्ष दीखनेसे क्रम बदलने सबधी वृत्तिका उपशम करना योग्य लगनेसे वेसा किया है। इस आशयके सिवाय चित्तमे दूसरा आशय भी उस तरफ अभी नही आनेके सबधमे है, परतु किसी लोकव्यवहाररूप कारणसे आनेके विचारका विसर्जन नही किया है।
चित्तपर अधिक दबाव डालकर यह स्थिति लिखी है, उसपर विचारकर यदि कुछ आवश्यक जैसा लगे तो प्रसगोपात्त रतनजीभाईसे स्पष्टता करें। मेरे आने न आनेके विषयमे यदि कुछ बात न कह सकें तो वैसा करनेकी विनती है।
वि० रायचदके प्रणाम।
बबई, चैत्र वदी ११, शुक्र, १९५१ ___एक आत्मपरिणतिके सिवाय दूसरे जो विषय हैं उनमे चित्त अव्यवस्थिततासे रहता है, और वैसी अव्यवस्थितता लोकव्यवहारसे प्रतिकूल होनेसे लोकव्यवहार करना रुचता नही है, और छोडना नही बन पाता, यह वेदना प्राय दिनभर वेदनमे आती रहती है।
खानेमे, पीनेमे, बोलनेमे, शयनमे, लिखनेमे या अन्य व्यावहारिक कार्योमे यथोचित भानसे प्रवृत्ति नही की जाती और वैसे प्रसग रहा करनेसे आत्मपरिणतिका स्वतंत्र प्रगटरूपसे अनुसरण करनेमे विपत्ति आया करती है, और इस विषयका प्रतिक्षण दु.ख रहा करता है।
___अचलित आत्मरूपसे रहनेकी स्थितिमे हो चित्तेच्छा रहती है, और उपर्युक्त प्रसगोकी आपत्तिके कारण कितना ही उस स्थितिका वियोग रहा करता है, और वह वियोग मात्र परेच्छासे रहा है, स्वेच्छाके कारणसे नही रहा, यह एक गम्भीर वेदना प्रतिक्षण हुआ करती है।
___ इसी भवमे और थोड़े ही समय पहले व्यवहारके विषयमे भी स्मृति तीव्र थी। वह स्मृति अव व्यवहारके विषयमे क्वचित् ही रहती है और वह भी मंदरूपसे । थोड़े ही समय पहले अर्थात् थोड़े वर्षों पहले वाणी बहुत बोल सकती थी, वकारूपसे कुशलतासे प्रवृत्ति कर सकती थी, वह अब मदरूपसे
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२८ वॉ वर्ष
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स्थासे प्रवृत्ति करती है। थोडे वर्ष पहले, थोडे समय पहले लेखनशक्ति अति उग्न थी, अब क्या ना यह सूझते सूझते दिनपर दिन व्यतीत हो जाते हैं, और फिर भी जो कुछ लिखा जाता है, वह त या योग्य व्यवस्थापूर्वक लिखा नही जाता, अर्थात् एक आत्मपरिणामके सिवाय दूसरे सर्व परिमे उदासीनता रहती है। और जो कुछ किया जाता है वह यथोचित भानके सौवें अशसे भी नही । ज्यो-त्यो और जो-सो किया जाता है। लिखनेकी प्रवृत्तिको अपेक्षा वाणीकी प्रवृत्ति कुछ ठीक है,
आप कुछ पूछना चाहे, जानना चाहे तो उसके विषयमे समागममे कहा जा सकेगा। ___ कुन्दकुन्दाचार्य और आनदधनजीको सिद्धात सम्बन्धी तीन ज्ञान था। कुन्दकुन्दाचार्यजी तो
स्थितिमे बहुत स्थित थे। ____ जिन्हे कहने मात्र दर्शन हो, वे सब सम्यग्ज्ञानी नही कहे जा सकते । विशेष अब फिर।'
५८४ । बबई, चैत्र वदी ११, शुक्र, १९५१ "जेम निर्मळता रे रल स्फटिक तणी, तेम ज जीवस्वभाव रे।
ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे॥" विचारवानको सगसे व्यतिरिक्तता परम श्रेयरूप है।
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बंबई, चैत्र वदी ११, शुक्र, १९५१ "जेम निर्मळता रे रत्न स्फटिक तणी, तेम ज जीवस्वभाव रे।
' ते जिन वोरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे ॥" सग नैष्ठिक श्री सोभाग तथा श्री डुगरके प्रति नमस्कारपूर्वक,
सहज द्रव्यके अत्यन्त प्रकाशित होनेपर अर्थात् सर्व कर्मोंका क्षय होनेपर ही असगता कही है र सुखस्वरूपता कही है । ज्ञानीपुरुषोके वे वचन अत्यन्त सत्य हैं, क्योकि सत्सगसे उन वचनोका प्रत्यक्ष, त्यन्त प्रगट अनुभव होता है।
निर्विकल्प उपयोगका लक्ष्य स्थिरताका परिचय करनेसे होता है । सुधारस, सत्समागम, सत्शास्त्र, द्वचार और वैराग्य-उपशम ये सब उस स्थिरताके हेतु हैं ।
५८६
बवई, चैत्र वदी १२, रवि, १९५१
अधिक विचारका साधन होनेके लिये यह पत्र लिखा है। . • पूर्णज्ञानी श्री ऋषभदेवादि पुरुषोको भी प्रारब्धोदय भोगनेपर क्षय हुआ है, तो हम जैसोको वह रब्धोदय भोगना ही पडे इसमे कुछ सशय नही है। मात्र खेद इतना होता है कि हमे ऐसे प्रारब्धोदयमे
ऋषभदेवादि जैसी अविषमता रहे इतना बल नही है; और इस लिये प्रारब्धोदयके होनेपर वारवार -ससे अपरिपक्वकालमे छूटनेको कामना हो आती है, कि यदि इस विषम प्रारब्धोदयमे कुछ भी उपयोगको थातथ्यता न रही तो फिर आत्मस्थिरता प्राप्त करनेके लिये पुन अवसर खोजना होगा, और पश्चात्तापर्वक देह छूटेगी, ऐसी चिन्ता अनेक बार हो आती है।
१ भावार्य-जिस तरह स्फटिक रत्नकी निर्मलता होती हैं, उसी तरह जीवका स्वभाव है। जिन वोरने वल कपायके अभावरूप धर्मका निरूपण किया है।
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श्रीमद राजचन्द्र
यह प्रारब्धोदय मिटकर निवृत्तिकर्मका वेदन करनेरूप प्रारब्धका उदय होनेका आशय र करता है, परन्तु वह तुरत अर्थात् एकसे डेढ वर्षमे हो ऐसा तो दिखायी नही देता, और पल पल बीत कठिन पडता है। एकसे डेढ़ वर्षके बाद प्रवृत्तिकर्मका वेदन करनेरूप उदय सर्वथा परिक्षीण होगा, ऐ भी नही लगता, कुछ उदय विशेष मद पड़ेगा, ऐसा लगता है।
आत्माकी कुछ अस्थिरता रहती है। गत वर्षका मोती सम्बन्धी व्यापार लगभग पूरा होने आ है। इस वर्षका मोती सम्बन्धी व्यापार गत वर्षकी अपेक्षा लगभग दुगुना हुआ है। गत वर्ष जैसा उस परिणाम आना कठिन है। थोडे दिनोकी अपेक्षा अभी ठीक है; और इस वर्ष भी उसका गत वर्ष जै नही तो भी कुछ ठीक परिणाम आयेगा, ऐसा सम्भव रहता है। परन्तु बहुतसा वक्त उसके विचार व्यतीत होने जैसा होता है, और उसके लिये शोक होता है, कि यह एक परिग्रहकी कामनाके बलव प्रवर्तन जैसा होता है, उसे शात करना योग्य है, और कुछ करना पड़े ऐसे कारण रहते है । अब जैसे तै करके उस प्रारब्धोदयका तुरत क्षय हो तो अच्छा है, ऐसा मनमे बहुत बार रहा करता है।
जहाँ जो आढत और मोती सम्बन्धी व्यापार है, उससे मेरा छूटना हो सके अथवा उसका बहु प्रसग कम हो जाये, वैसा कोई रास्ता ध्यानमे आये तो लिखियेगा; चाहे तो इस विषयमे समागम विशेषतासे कहा जा सके तो कहियेगा । यह बात ध्यानमे रखियेगा।
___ लगभग तीन वर्षसे ऐसा रहा करता है कि परमार्थ सम्बन्धी अथवा व्यवहार सम्बन्धी कुछ . लिखते हुए उद्वेग आ जाता है, और लिखते लिखते कल्पित जैसा लगनेसे वारवार अपूर्ण छोड़ देना पडर है। जिस समय चित्त परमार्थमे एकाग्रवत् होता है तब यदि परमार्थ सम्बन्धी लिखना अथवा कहना है तो वह यथार्थ कहा जाये, परन्तु चित्त अस्थिरवत् हो और परमार्थ सम्बन्धी लिखना या कहना किय जाये तो वह उदीरणा जैसा होता है, तथा उसमे अन्तर्वृत्तिका यथातथ्य उपयोग न होनेसे, वह आत्म बुद्धिसे लिखा या कहा न होनेसे कल्पितरूप कहा जाता है। उससे तथा वैसे दूसरे कारणोंसे परमार्थ सम्बन्धी लिखना तथा कहना बहुत कम हो गया है। इस स्थलपर, सहज प्रश्न होगा कि चित्त अस्थिरवा हो जानेका हेतु क्या है ? परमार्थमे जो चित्त विशेष एकाग्रवत् रहता, था, उस चित्तके परमार्थ अस्थिरवत् हो जानेका कुछ भी कारण होना चाहिये। यदि परमार्थ संशयका हेतु लगा हो तो वैस हो सकता है, अथवा कोई तथाविध आत्मवीर्य मन्द होनेरूप तीव्र प्रारब्धोदयके.बलसे वैसा होता है इन दो हेतुओसे परमार्थका विचार करते हुए, लिखते हुए या कहते हुए चित्त अस्थिरवत् रहता है उसमे प्रथम कहे हुए हेतुका होना सम्भव नही है। मात्र दूसरा कहा हुआ हेतु सम्भवित है। आत्मवीर मद होनेरूप तीव्र प्रारब्धोदय होनेसे उस हेतुको दूर करनेका पुरुषार्थ होनेपर भी कालक्षेप हुआ करता है
और वैसे उदय तक वह अस्थिरता दूर होना कठिन है; और इसलिये परमार्थस्वरूप चित्तके बिना तत्सबर्ध लिखना, कहना कल्पित जैसा लगता है, तो भी कितने ही प्रसगोमे विशेष स्थिरता रहती है। व्यवहा सम्बधी कुछ भी लिखतो हुए. वह असारभूत और साक्षात् भ्रातिरूप लगनेसे तत्सम्बधी जो कुछ लिखन या कहना है वह तुच्छं है, आत्माको विकलताका हेतु है, और जो कुछ लिखना, कहना है वह न कहा है तो भी चल सकता है। अतः जब तक वैसा रहे तब तक तो अवश्य वैसा करना योग्य है, ऐस समझकर बहुतसी,व्यावहारिक बातें लिखने, करने और कहनेकी आदत चली गयी है।,,मात्र जो व्यापा रादि व्यवहारमे तीव्र प्रारब्धोदयसे प्रवृत्ति है, वहाँ कुछ, प्रवृत्ति होती है. यद्यपि उसकी भी- यथार्थत प्रतीत नहीं होती। . ....... .
श्री जिन वीतरागने द्रव्य-भाव सयोगसे वारवार छूटनेकी प्रेरणा दी है, और उस संयोगका विश्वास
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२८ वां वर्ष परम ज्ञानीके लिये भी कर्तव्य नही है, ऐसा निश्चल मार्ग कहा है, उन श्री जिन वीतरागके चरणकमलमे अत्यत नन परिणामसे नमस्कार है।
'जो प्रश्न आजके पत्रमे लिखे है उनका उत्तर समागममे पूछियेगा | दर्पण, जल, दीपक, सूर्य और चक्षुके स्वरूपपर विचार करेंगे, तो केवलज्ञानसे पदार्थ प्रकाशित होते है, ऐसा जिनेन्द्रने कहा है, उसे समझनेमे कुछ साधन होगा।
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बबई, चैत्र वदी १२, रवि, १९५१ • 'केवलज्ञानसे पदार्थ किस प्रकार दिखायी देते हैं ?' इस प्रश्नका उत्तर विशेषत. समागममे समझनेसे स्पष्ट समझा जा सकता है, तो भी सक्षेपमे नीचे लिखा है
जैसे दीपक जहाँ जहाँ होता है, वहाँ वहाँ प्रकाशकरूपसे होता है, वैसे ज्ञान जहाँ जहाँ होता है वहाँ वहाँ प्रकाशकरूपसे होता है। जैसे दीपकका सहज स्वभाव ही पदार्थप्रकाशक होता है वैसे ज्ञानका सहज स्वभाव भी पदार्थप्रकाशक है। दीपक द्रव्यप्रकाशक है, और ज्ञान द्रव्य, भाव दोनोका प्रकाशक है। दीपकके प्रकाशित होनेसे उसके प्रकाशकी सीमामे जो कोई पदार्थ होता है वह सहज ही दिखायी देता है, वैसे ज्ञानकी विद्यमानतासे पदार्थ सहज ही दिखायी देता है । जिसमे यथातथ्य और सम्पूर्ण पदार्थ सहज देखे जाते हैं, उसे 'देवलज्ञान' कहा है। यद्यपि परमार्थसे ऐसा कहा है कि केवलज्ञान भी अनुभवमे तो मात्र आत्मानुभवकर्ता है, व्यवहारनयसे लोकालोक प्रकाशक है । जैसे दर्पण, दीपक, सूर्य और चक्षु पदार्थप्रकाशक है, वैसे ज्ञान भी पदार्थप्रकाशक है।
। ' ५८८ वबई, चैत्र वदी १२, रवि, १९५१
श्री जिन वीतरागने द्रव्य-भाव संयोगसे वारंवार छूटनेकी प्रेरणा की है, और उस सयोगका विश्वास परमजानीको भी कर्तव्य नहीं है, ऐसा अखंडमार्ग कहा है; उन श्री जिन वीतरागके चरणकमलमे अत्यत भक्तिपूर्वक नमस्कार। , आत्मस्वरूपका निश्चय होनेमे जीवकी अनादिकालसे भूल होती आयी है। समस्त श्रुतज्ञानस्वरूप द्वादशागमे सर्व-प्रथम- उपदेश योग्य 'आचारागसूत्र' है; उसके प्रथम श्रुतस्कधमे, प्रथम अध्ययनके प्रथम उद्देशमे प्रथम वाक्यमे श्री जिनने जो उपदेश किया है, वह सर्व अगोका, सर्व श्रुतज्ञानका सारस्वरूप है, मोक्षका बीजभूत है, सम्यक्त्वस्वरूप है। उस वाक्यमे उपयोग स्थिर होनेसे जीवको निश्चय होगा कि ज्ञानीपुरुषके समागमकी उपासनाके बिना जीव स्वच्छदसे निश्चय करे, यह छूटनेका मार्ग नही है।
सभी जीवमे परमात्मस्वरूप है, इसमे सशय नही है, तो फिर श्री देवकरणजी स्वयंको परमात्मस्वरूप मान लें तो यह बात असत्य नही है, परतु जब तक वह स्वरूप यथातथ्य प्रगद न हो, तब तक मुमुक्षु, जिज्ञासु रहना अधिक अच्छा है, और उस मागसे यथार्थ परमात्मस्वरूप प्रगट होता है। उस मार्ग
को छोड़कर प्रवर्तन करनेसे उस पदका भान नही होता, तथा श्री जिन वीतराग सर्वज्ञ पुरुषोकी आसातना 'करनेरूप प्रवृत्ति होती है । दूसरा कोई मतभेद नही है । मृत्यु अवश्य आनेवाली है।
आ० स्व. प्रणाम।
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श्रीमद् राजचन्द्र ५८९
बबई, चैत्र वदी १३, १९५१ आपको वेदात ग्रथ पढ़नेका अथवा उस प्रसगकी बातचीत सुननेका प्रसग रहता हो तो उसे पढनेसे तथा सुननेसे जीवमे वैराग्य और उपशम वर्धमान हो वैसा करना योग्य है। उसमे प्रतिपादन किये हुए सिद्धातका यदि निश्चय होता हो तो करनेमे बाधा नही है, तथापि ज्ञानीपुरुषके समागम और उपासनासे सिद्धातका निश्चय किये बिना आत्मविरोध होना सम्भव है।
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___ बबई, चैत्र वदी १४, १९५१ चारित्र (श्री जिनेन्द्रके अभिप्रायमे क्या है ? उसे विचारकर समवस्थित होना) दशा सम्बधी अनुप्रेक्षा करनेसे जीवमे स्वस्थता उत्पन्न होती है । उस विचार द्वारा उत्पन्न हुई चारित्रपरिणाम स्वभावरूप स्वस्थताके बिना ज्ञान निष्फल है, ऐसा जिनेन्द्रका अभिमत अव्याबाध सत्य है ।।
तत्सम्बधी अनुप्रेक्षा बहुत बार रहनेपर भी चचल परिणनिका हेतु ऐसा उपाधियोग तीन उदयरूप होनेसे चित्तमे प्रायः खेद जैसा रहता है, और उस खेदसे शिथिलता उत्पन्न होकर विशेष नही कहा जा सकता । बाकी कुछ बतानेके विषयमे तो चित्तमें बहुत बार रहता है। प्रसगोपात्त कुछ विचार लिखें, उसमे आपत्ति नहीं है । यही विनतो।
५९१
बबई, चैत्र, १९५१ विषयादि इच्छित पदार्थ भोगकर उनसे निवृत्त होनेकी इच्छा रखना और उस क्रमसे प्रवृत्ति करनेसे आगे जाकर उस विषयमाका उत्पन्न होना सम्भव न हो, ऐसा होना कठिन है, क्योकि ज्ञानदशाक बिना विषयकी निर्मलता होना सम्भव नही है । विषय भोगनेसे मात्र उदय नष्ट होता है, परतु यदि ज्ञानदशा न हो तो उत्सुक परिणाम, विषयका आराधन करते हुए, उत्पन्न हुए बिना नही रहते, और उससे विषय पराजित होनेके बदले विशेष वर्धमान होता है। जिन्हे ज्ञानदशा है वैसे पुरुष विषयाकाक्षासे अथवा विषयका अनुभव करके उससे विरक्त होनेकी इच्छासे उसमे प्रवृत्ति नही करते, और यदि ऐसे प्रवृत्ति करने लग तो ज्ञानपर भी आवरण आना योग्य है। मात्र प्रारब्ध सम्बन्धी उदय हो अर्थात् छूटा न जा सके, इसीलिये ज्ञानीपुरुषकी भोगप्रवृत्ति है। वह भी पूर्वपश्चात् पश्चात्तापवाली और मंदमे मद परिणामसयुक्त होती है। सामान्य मुमुक्षुजीव वैराग्यके उद्भवके लिये विषयका आराधन करने जाय तो प्राय उसका बंधा जाना सम्भव है, क्योकि ज्ञानीपुरुष भी उन प्रसंगोको बड़ी मुश्किलसे जीत सके हैं, तो फिर जिसकी मात्र विचारदशा है ऐसे पुरुषको सामथ्यं नही कि वह विषयको इस प्रकारसे जीत सके।
05
वंबई, वैशाख सुदी, १९५१ आर्य-श्री सोभागके प्रति, सायला। , ___पत्र मिला है।
श्री अंबालालसे सुधारस सम्बन्धी बातचीत करनेका अवसर आपको प्राप्त हो तो कीजियेगा। ' जो देह पूर्ण युवावस्थामे और सम्पूर्ण आरोग्यमे दिखायी देती हुई भी क्षणभगुर है, उस देहमे प्रीति करके क्या करें?
जगतके सर्व पदार्थोंकी अपेक्षा जिसके प्रति सर्वोत्कृष्ट प्रीति है, ऐसी यह देह वह भी दुःखका हेतु है, तो दूसरे पदार्थोमे सुखके हेतुकी क्या कल्पना करना?
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२८ वॉ वर्ष जिन पुरुषोने वस्त्र जैसे शरीरसे भिन्न है, वैसे आत्मासे शरीर भिन्न है, ऐसा देखा है, वे पुरुष धन्य हैं।
दूसरेकी वस्तुका अपनेसे ग्रहण हुआ हो, जब यह मालूम हो कि वह दूसरेकी है, तब उसे दे देनेका ही कार्य महात्मा पुरुष करते हैं।
दुषमकाल है इसमे सशय नही है । राथारूप परमज्ञानी आप्तपुरुषका प्राय विरह है।
विरले जीव सम्यग्दृष्टि प्राप्त करें, ऐसी कालस्थिति हो गयी है। जहाँ सहजसिद्ध आत्मचारित्रदशा रहती है ऐसा केवलज्ञान प्राप्त करना कठिन है, इसमे सशय नही है।
प्रवृत्ति विराम पाती नही, विरक्ति बहुत रहती है।
वनमे अथवा एकातमे सहजस्वरूपका अनुभव करता हुआ आत्मा सर्वथा निविषय रहे ऐसा करनेमे सारी इच्छाएँ लगी है।
५९३ ___ बबई, वैशाख सुदी १५, वुध, १९५१ आत्मा अत्यन्त सहज स्वस्थता प्राप्त करे यही श्री सर्वज्ञने सर्व ज्ञानका सार कहा है।
अनादिकालसे जीवने निरन्तर अस्वस्थताकी आराधना की है, जिससे स्वस्थताकी ओर आना उसे दुर्गम लगता है। श्री जिनेंद्रने ऐसा कहा है कि यथाप्रवृत्तिकरण तक जीव अनत बार आया है, परतु जिस समय ग्रथिभेद होने तक आना होता है तब क्षोभयुक्त होकर फिरसे ससारपरिणामी होता रहा है। ग्रथिभेद होनेमे जो वीर्यगति चाहिये, उसके होनेके लिये जीवको नित्यप्रति सत्समागम, सद्विचार और सद्ग्रथका परिचय निरतररूपसे करना श्रेयभूत है।
इस देहकी आयु प्रत्यक्ष उपाधियोगमे व्यतीत होती जा रही है। इसके लिये अत्यत शोक होता है. और उसका यदि अल्पकालमे उपाय न किया तो हम जैसे अविचारी भी थोडे समझना । जिस ज्ञानसे कामका नाश होता है उस ज्ञानको अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो।
आ० स्व० यथा०
५९४
बवई, वैशाख सुदो १५, बुध, १९५१ सर्वकी अपेक्षा जिसमे अधिक स्नेह रहा करता है, ऐसी यह काया रोग, जरा आदिसे स्वात्माको ही दुखरूप हो जाती है, तो फिर उससे दूर ऐसे धनादिसे जीवको तथारूप (यथायोग्य) सुखवत्ति हो ऐसा मानते हुए विचारवानकी बुद्धि अवश्य क्षोभको प्राप्त होनी चाहिये, और किसी अन्य विचारमे लगनी चाहिये, ऐसा ज्ञानीपुरुषोने निर्णय किया है, वह यथातथ्य है।
५९५
ववई, वैशाख वदो ७, गुरु, १९५१ वेदात आदिमे जो आत्मस्वरूपकी विचारणा कही है, उस विचारणाकी अपेक्षा श्री जिनागममे जो आत्मस्वरूपकी विचारणा कही है, उसमे भेद आता है। सर्व विचारणाका फल आत्माका सहजस्वभावमे परिणमित होना ही है। सम्पूर्ण रागद्वेषके क्षयके विना सम्पूर्ण आत्मज्ञान प्रगट नही होता ऐसा निश्चय जिनेद्रने कहा है, वह वेदात आदिकी अपेक्षा बलवान प्रमाणभूत है।
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४७०
श्रीमद् राजचन्द्र
५९६ बंबई, वैशाख वदी ७, गुरु, १९५१ सर्वकी अपेक्षा वीतरागके वचनको सम्पूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है, क्योकि जहाँ रागादि दोषका सम्पूर्ण क्षय हो वहाँ सम्पूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होने योग्य नियम घटित होता है।
श्री जिनेंद्रको सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता सम्भव है, क्योकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिस किसी पुरुषको जितने अशमे वीतरागता सम्भव है, उतने अशमे उस पुरुषका वाक्य मान्यता योग्य है। साख्यादि दर्शनमे बध-मोक्षकी जो जो व्याख्या उपदिष्ट है, उससे बलवान प्रमाणसिद्ध व्याख्या श्री जिन वीतरागने कही है, ऐसा जानता हूँ।
५९७
बंबई, वैशाख वदी ७, गुरु, १९५१ हमारे चित्तमे वारवार ऐसा आता है और ऐसा परिणाम स्थिर रहा करता है कि जैसा आत्मकल्याणका निर्धार श्रीवर्धमानस्वामीने या श्रीऋषभादिने किया है, वैसा निर्धार दूसरे सम्प्रदायमे नही है ।
वेदान्त आदि दर्शनका लक्ष्य आत्मज्ञानके प्रति और सम्पूर्ण मोक्षके प्रति जाता हुआ देखनेमे आता है, परन्तु उसका सम्पूर्णरूपसे यथायोग्य निर्धार-उसमे मालूम नहीं होता, अंशत. मालूम होता है और कुछ कुछ उसका भी पर्यायातर दिखायी देता है। यद्यपि वेदांतमे जगह जगह आत्मचर्याका ही विवेचन किया है, तथापि वह चर्या स्पष्टत अविरुद्ध है, ऐसा अभी तक प्रतीत नही हो पाता। ऐसा भी सम्भव है कि कदाचित् विचारके किसी उदयभेदसे वेदातका आशय अन्य स्वरूपसे समझमे आता हो और उससे विरोधका भास होता हो, ऐसी आशका भी पुन पुनः चित्तमे करनेमे आयी है, विशेष विशेष आत्मवीर्यका परिणमन करके उसे अविरोधी देखनेके लिये विचार किया गया है, तथापि ऐसा मालूम होता है कि वेदात जिस प्रकारसे आत्मस्वरूप कहता है उस प्रकारसे वेदात सर्वथा अविरोधिताको प्राप्त नही कर सकता । क्योकि वह जो कहता है उसीके अनुसार आत्मस्वरूप नही है, उसमे कोई बड़ा भेद देखनेमे आता है, और उसी प्रकारसे साख्य आदि दर्शनोमे भी भेद देखनेमे आता है | श्री जिनेंद्रने जो आत्मस्वरूप कहा है, एक मात्र वही विशेष विशेष अविरोधी देखनेमे आता है और उस प्रकारसे वेदन करनेमे आता है। श्री जिनेंद्र का कहा हुआ आत्मस्वरूप सम्पूर्णतः अविरोधो होने योग्य है, ऐसा प्रतीत होता है। सम्पूर्णतः अविरोधी ही है, ऐसा जो नही कहा जाता उसका हेतु मात्र इतना ही है कि सम्पूर्णतः आत्मावस्था प्रगट नही हुई है। जिससे जो अवस्था अप्रगट है, उस अवस्थाका अनुमान वर्तमानमे करते हैं, जिससे उस अनुमानपर अत्यंत भार न देना योग्य समझकर विशेष विशेष अविरोधी है, ऐसा कहा है, सम्पूर्ण अविरोधी होने योग्य है, ऐसा लगता है। . .. - सम्पूर्ण आत्मस्वरूप किसी भी, पुरुषमे प्रगट. होना चाहिये, ऐसा आत्मामे निश्चित प्रतीतिभाव आता है, और वह कैसे पुरुषमें प्रगट होना चाहिये, ऐसा विचार करते हुए, जिनेद्र जैसे पुरुषमे प्रगट होना चाहिये ऐसा स्पष्ट लगता है। इस सृष्टिमंडलमे यदि किसीमे भी सम्पूर्ण आत्मस्वरूप प्रगट होने योग्य हो तो श्री वर्धमानस्वामीमे प्रथम प्रगट होने योग्य लगता है, अथवा उस दशाके पुरुषोमे सबसे प्रथम सम्पूर्ण आत्मस्वरूप
. . . [ अपूर्ण ]
५९८ . बम्बई, वैशाख वदी १०, रवि,-१९५१ परमस्नेही श्री सोभागके प्रति नमस्कारपूर्वक-श्री सायला ।, , ,
आज एक पत्र मिला है।
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२८ वा वर्ष - 'अल्पकालमे उपाधिरहित होनेकी इच्छा करनेवालेके लिये आत्मपरिणतिको किस विचारमे योग्य है कि जिससे वह उपाधिरहित हो सके ?' यह प्रश्न हमने लिखा था। उसके उत्तरमे आपने कि 'जब तक रागबन्धन है तब तक उपाधिरहित नही हुआ जाता, और वह बधन आत्मपरिणति हो जाये, वैसी परिणति रहे तो अल्पकालमे उपाधिरहित हुआ जाता है, इस प्रकार जो उत्तर लिए यथार्थ है । यहाँ प्रश्नमे विशेषता इतनी है कि 'बलात् उपाधियोग प्राप्त होता हो, उसके प्रति राग परिणति कम हो, उपाधि करनेके लिये चित्तमे वारवार खेद रहता हो, और उस उपाधिका त्याग क परिणाम रहा करता हो, वैसा होनेपर भी उदयबलसे उपाधि प्रसग रहता हो तो वह किस उपायसे किया जा सके ?' इस प्रश्नके विषयमे जो ध्यानमे आये सो लिखियेगा।
, - 'भावार्थप्रकाश' ग्रन्थ हमने पढा है, उसमे सम्प्रदायके विवादका कुछ समाधान हो सके रचना की है, परन्तु तारतम्यसे वस्तुतः वह ज्ञानवानकी रचना नही है, ऐसा मुझे लगता है।
- 'श्री डगरने "अखे पुरुष एक वरख हे', यह सवैया लिखाया है, उसे पढा हे । श्री डुगर सवैयोका विशेष अनुभव है। तथापि ऐसे सवैयोमे भी प्राय छाया जैसा उपदेश देखनेमे आता है उससे अमुक निर्णय किया जा सकता है, और कभो निर्णय किया जा सके तो वह पूर्वापर अविरोध है, ऐसा प्राय ध्यानमे नही आता । जीवके पुरुषार्थधर्मको कितने ही प्रकारसे ऐसी वाणी बलवान है, इतना उस वाणीका उपकार कितने ही जीवोकी प्रति होना सम्भव है।
श्री नवलचदकी अभी दो चिट्टियाँ आयी थी, कुछ धर्म-प्रकारको जाननेकी अभी उन्हे हुई है, तथापि उसे अभ्यासवत् और द्रव्याकार जैसी अभी समझना योग्य है। यदि किसो कारणयोगसे इस प्रकारके प्रति उनका ध्यान बढेगा तो भावपरिणामसे धर्मविचार-हो सके ऐसा क्षयोपशम है।
___ आपके आजके पत्रमे श्री डुगरने जो साखी लिखवायी है, "व्यवहारनी झाळ पादडे परजळी' यह पद जिसमे पहला है वह यथार्थ है। उपाधिसे उदासीन चित्तको धीरताका हेतु है साखी है।
आपका और श्री डुगरका यहाँ आनेका विशेष चित्त है ऐसा लिखा उसे विशेषतः जाना डुगरका चित्त ऐसे प्रकारमे कई बार शिथिल होता है, वैसा इस प्रसगमे करनेका कारण दिखायं देता | श्री डुगरको द्रव्य (बाहर) से मानदशा ऐसे प्रसगमे कुछ आड़े आती होनी चाहिये, ऐसा हमे है, परन्तु वह ऐसे विचारवानको रहे यह योग्य नही है, फिर दूसरे साधारण जीवोके विषयमे वैसे : निवृत्ति सत्सगसे भी कैसे होगी?
, हमारे चित्तमे एक इतना रहता है कि यह क्षेत्र सामान्यत अनार्य चित्त कर डाले ऐसा है क्षेत्रमे सत्समागमका यथास्थित लाभ लेना बहुत कठिन पडता है, क्योकि आसपासके समागम व्यवहार सब प्राय विपरीत ठहरे, और इस कारणसे प्राय कोई मुमुक्षुजीव यहाँ चाहकर समागम आनेकी इच्छा करता हो उसे भी उत्तरमे 'ना' लिखने जेसा होता है, क्योकि उसके श्रेयको बाधा: देना योग्य है । आपके और श्री डुंगरके आनेके सम्बन्धमे इतना. सब विचार तो चित्तमे नही होता. कुछ सहज होता है । यह सहज विचार जो होता है वह ऐसे कारणसे नहीं होता कि यहाँका उर उपाधियोग देखकर हमारे प्रति आपके चित्तमे कुछ विक्षेप हो, परन्तु ऐसा रहता है कि आपके तर डगर जैसेके सत्समागमका लाभ क्षेत्रादिकी विपरीततासे यथायोग्य न लिया जाये, इससे चित्तम
१. अक्षय पुरुष एक वृक्ष है। २. व्यवहारकी ज्वाला पत्ते-पत्तेपर प्रज्वलित हुई।
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श्रीमद् राजचन्द्र जाता है। यद्यपि आपके आनेके प्रसगमे उपाधि बहुत कम की जा सकेगी, तथापि आसपासके साधन सत्समागमको और निवृत्तिको वर्धमान करनेवाले नही है, इससे चित्तमे सहज खेद होता है । इतना लिखनेसे चित्तमे आया हुआ एक विचार लिखा है ऐसा समझना। परन्तु आपको अथवा श्री डुगरको रोकने सवधी किसी भी आशयसे नही लिखा है, परन्तु इतना आशय चित्तमे है कि यदि श्री डुगरका चित्त आनेके प्रति कुछ शिथिल दिखायी दे तो आप उनपर विशेष दबाव न डालें, तो भी आपत्ति नही है, क्योकि श्री डुगर आदिके समागमकी विशेष इच्छा रहती है, और यहाँसे कुछ समयके लिये निवृत्त हुआ जा सके तो वैसा करनेकी इच्छा है, तो श्री डुगरका समागम किसी दूसरे निवृत्तिक्षेत्रमे होगा ऐसा लगता है।
आपके लिये भी इसी प्रकारका विचार रहता है, तथापि उसमे भेद इतना होता है कि आपके आनेसे यहॉकी कई उपाधियाँ अल्प कैसे की जा सके ? उसे प्रत्यक्ष दिखाकर, तत्सम्बन्धी विचार लेनेका हो सकता है। जितने अशमे श्री सोभागके प्रति भक्ति है, उतने ही अंशमे श्री डुगरके प्रति भक्ति है, इसलिये उन्हे इस उपाधिसबधी विचार बतानेसे भी हम पर तो उपकार है । तथापि श्री डुगरके चित्तमे कुछ भी विक्षेप होता हो और यहाँ अनिच्छासे आना पड़ता हो तो सत्समागम यथायोग्य नही हो सकता। वैसा न होता हो तो श्री डुगर और श्री सोभागको यहाँ आनेमे कोई प्रतिबन्ध नही है । यही विनती।।
आ० स्व० प्रणाम।
५९९ - बबई, वैशाख वदी १४, गुरु, १९५१ शरण (आश्रय) और निश्चय कर्तव्य है। अधीरतासे खेद कर्तव्य नही है। चित्तको देहादिके भयका विक्षेप भी करना योग्य नही है । अस्थिर परिणामका उपशम करना योग्य है।
आ० स्व०प्र०
६००
बबई, जेठ सुदी २, रवि, १९५१ अपारवत् संसारसमुद्रसे तारनेवाले सद्धर्मका निष्कारण करुणासे जिसने उपदेश किया है, उस ज्ञानीपुरुषके उपकारको नमस्कार हो ! नमस्कार हो! . परम स्नेही श्री सोभागके प्रति, श्री सायला । .
यथायोग्यपूर्वक विनती कि-आपका लिखा एक पत्र कल मिला है । आपके तथा श्री डुगरके यहाँ आनेके विचार सम्बन्धी यहाँसे एक पत्र हमने लिखा था उसका अर्थ कुछ और समझा गया मालूम होता है । उस पत्रमे इस प्रसगमे जो कुछ लिखा है उसका संक्षेपमे भावार्थ इस प्रकार है
मुझे प्राय निवृत्ति मिल सकती है, परन्तु यह क्षेत्र स्वभावसे प्रवृत्तिविशेषवाला है, जिससे निवृत्तिक्षेत्रमे सत्समागमसे जैसा आत्मपरिणामका उत्कर्ष हो, वैसा प्राय प्रवृत्तिविशेष क्षेत्रमे होना कठिन पड़ता है। बाकी आप अथवा श्री डुगर अथवा दोनो आये उसमे हमे कोई आपत्ति नही है। प्रवृत्ति बहुत कम की जा सकती है; परन्तु श्री डुगरका चित्त आनेमे कुछ विशेष शिथिल हो तो आग्रहसे न लायें तो भी आपत्ति नहीं है, क्योकि उस तरफ थोड़े समयमे समागम होनेका कदाचित् योग हो सकेगा।
इस प्रकार लिखनेका आशय था। आप अकेले ही आयें और श्री डुगर न आयें अथवा हमे अभी निवृत्ति नहीं है, ऐसा लिखनेका आशय नही था। मात्र निवृत्तिक्षेत्रमे किसी तरह समागम होनेके विषयमे विशेषता लिखी है। कभी विचारवानको तो प्रवृत्तिक्षेत्रमे सत्समागम विशेष लाभकारक हो पड़ता है। ज्ञानीपुरुषकी भीड़मे निर्मलदशा देखना बनता है । इत्यादि निमित्तसे विशेष लाभकारक भी होता है।
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२८ यो वर्ष आप दोनो अथवा आप कब आये, इस विषयमे मनमे कुछ विचार आता है, जिससे अभी यहाँ कुछ विचार सूचित करने तक आनेमे विलम्ब करेगे तो आपत्ति नही है।
परपरिणतिके कार्य करनेका प्रसग रहे और स्वपरिणतिमे स्थिति रखे रहना, यह श्री आनदघनजी जो चौदहवें जिनेंद्रकी सेवा कही है उससे भी विशेष दुष्कर है।
ज्ञानीपुरुषको जबसे नौ बाडसे विशुद्ध ब्रह्मचर्यकी दशा रहती है तबसे जो सयमसुख प्रगट होत है वह अवर्णनीय है। उपदेशमार्ग भी उस सुखके प्रगट होनेपर प्ररूपण करने योग्य है। श्री डुगरक अत्यन्त भवितसे प्रणाम।
आ० स्व० प्रणाम
६०१
बबई, जेठ सुदी १०, रवि, १९५
परम स्नेही श्री सोभागके प्रति, श्री सायला।।
तीन दिन पहिले आपका लिखा पत्र मिला है। यहाँ आनेके विचारका उत्तर मिलने तक उपशा किया है ऐसा लिखा, उसे पढा है । उत्तर मिलने तक आनेका विचार बंद रखनेके बारेमे यहाँसे लिखा थ उसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं
यहाँ आपका आनेका विचार रहता है, उसमे एक हेतु समागम-लाभका है और दूसरा अनिच्छ नीय हेतु कुछ उपाधिके सयोगके कारण व्यापारके प्रसगसे किसीको मिलनेका है। जिस पर विचार करते हुए अभी आनेका विचार रोका जाये तो भी आपत्ति नही है ऐसा लगा, इसलिये इस प्रकारसे लिख था । समागमयोग प्रायः यहाँसे एक या डेढ महीने बाद कुछ निवृत्ति मिलना सम्भव है तब उस तरफ होना सम्भव है। और उपाधिके लिये अभी त्रबक आदि प्रयासमे हैं। तो आपका उस प्रसगसे आनेका विशेष कारण जैसा तुरतमे नही है। हमारा उस तरफ आनेका योग होनेमे अधिक समय जाने जैसा दिखायी देगा तो फिर आपको एक चक्कर लगा जानेका कहनेका चित्त है। इस विषयमे जो आपके ध्यानमे आये सो लिखियेगा।
कई बड़े पुरुषोके सिद्धियोग सम्बन्धी शास्त्रमे बात आती है, तथा लोककथामे वैसी बाते सुनी जाती है । उसके लिये आपको सशय रहता है, उसका सक्षेपमे उत्तर इस प्रकार हे -
अष्ट महासिद्धि आदि जो जो सिद्धियाँ कही हैं, ॐ आदि मंत्रयोग कहे है, वे सब सच्चे हैं। आत्मैश्वर्यकी तुलनामे ये सब तुच्छ है। जहाँ आत्मस्थिरता है, वहाँ सर्व प्रकारके सिद्धियोग रहते हैं। इस कालमे वैसे पुरुष दिखायी नही देते, इससे उनकी अप्रतोति होनेका कारण है, परन्तु वर्तमानमे किसी जीवमे ही वैसी स्थिरता देखनेमे आती है । बहुतसे जीवोमे सत्त्वकी न्यूनता रहती है, और उस कारणसे वैसे चमत्कारादि दिखायी नहीं देते, परन्तु उनका अस्तित्त्व नही है, ऐसा नहीं है। आपको शका रहती है, यह आश्चर्य लगता है। जिसे आत्मप्रतीति उत्पन्न हो उसे सहज हो इस वातकी नि शकता होती है, क्योकि आत्मामे जो सामर्थ्य है, उस सामर्थ्यके सामने इस सिद्धिलब्धिकी कुछ भी विशेषता नहीं है।
ऐसे प्रश्न आप कभी कभी लिखते हैं, उसका क्या कारण है, वह लिखियेगा। इस प्रकारके प्रश्न विचारवानको क्यो हो ? श्री डुगरको नमस्कार । कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा।
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६०२
श्रीमद् राजबन्द्र
बबई, जेठ सुदी १०, रवि, १९५१ मनमे जो रागद्वेषादिके परिणाम हुआ करते हैं उन्हे समयादि पर्याय नही कहा जा सकता, क्योकि समयको अत्यन्त सूक्ष्मता है, और मनपरिणामकी वैसी सूक्ष्मता नही है। पदार्थका अत्यन्तसे अत्यन्त सूक्ष्मपरिणतिका जो प्रकार है, वह समय है।
रागद्वेपादि विचारोका उद्भव होना, यह जीवके पूर्वोपार्जित कर्मोके योगसे होता है, वर्तमानकालमें आत्माका पुरुपार्थ उसमे कुछ भी हानिवद्धिमे कारणरूप है, तथापि वह विचार विशेष गहन है।
श्री जिनेन्द्रने जो स्वाध्याय-काल कहा है, वह यथार्थ है। उस उस (अकालके) प्रसंगमे प्राणादिका कुछ सधिभेद होता है। चित्तको विक्षेपनिमित्त सामान्य प्रकारसे होता है, हिंसादि योगका प्रसंग होता है, अथवा कोमल परिणाममे विघ्नभूत कारण होता है, इत्यादिके आश्रयसे स्वाध्यायका निरूपण किया है।
अमुक स्थिरता होने तक विशेष लिखना नही हो सकता, तो भी जितना हो सका उतना प्रयास करके ये तीन चिट्ठियाँ लिखी है।
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वंवई, जेठ सुदी १०, रवि, १९५१ ज्ञानीपुरुपको जो सुख रहता है, वह निजस्वभावमे स्थितिका रहता है । बाह्यपदार्थमे उन्हे सुख बुद्धि नही होती, इसलिये उस उस पदार्थसे ज्ञानीको सुखद् खादिकी विशेषता या न्यूनता नही कही जा सकती। यद्यपि सामान्यरूपसे गरीरके स्वास्थ्यादिसे साता और ज्वरादिसे असाता ज्ञानी और अज्ञानी दोनोको होती है, तथापि ज्ञानीके लिये वह-वह प्रसग हर्पविषादका हेतु नही होता, अथवा ज्ञानके तारतम्यमे यदि न्यूनता हो तो उससे कुछ हर्षविषाद होता है, तथापि सर्वथा अजागृतताको पाने योग्य ऐसा हर्पविपाद नहीं होता । उदयबलसे कुछ वैसा परिणाम होता है, तो भी विचारजागृतिके कारण उस उदयको क्षीण करनेके प्रति ज्ञानीपुरुपका परिणाम रहता है।
वायुकी दिशा बदल जानेसे जहाज दूसरी तरफ चलने लगता है, तथापि जहाज चलानेवाला जैसे उस जहाजको अभीष्ट मार्गको ओर रखनेके प्रयत्नमे ही रहता है, वैसे ज्ञानीपुरुष मन, वचन आदिके योगको निजभावमे स्थिति होनेकी ओर ही लगाते है, तथापि उदयवायुयोगसे यत्किचित् दशाफेर हो जाता है, तो भी परिणाम, प्रयत्न स्वधर्ममे रहता है।
ज्ञानी निर्धन हो अथवा धनवान हो, अज्ञानी निधन हो अथवा धनवान हो, ऐसा कुछ नियम नही है। पूर्वनिप्पन्न शुभाशुभ कर्मके अनुसार दोनोको उदय रहता है । ज्ञानी उदयमे सम रहते है, अज्ञानी हर्षविपादको प्राप्त होता है।
. जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान है वहाँ तो स्त्री आदि परिग्रहका भी अप्रसंग है। उससे न्यून भूमिकाकी ज्ञानदशामे (चौथे, पाँचवे गुणस्थानमे जहाँ उस योगका प्रसग सम्भव है, उस दशामे) रहनेवाले ज्ञानीसम्यग्दृष्टिको स्त्री आदि परिग्रहकी प्राप्ति होती है।
६०४
बबई, जेठ सुदी १२, बुध, १९५१
ॐ मुनिको वचनोकी पुस्तक (आपने जो पनादिका संग्रह लिखा है वह) पढनेकी इच्छा रहती है। भेजनेमे आपत्ति नही है । यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम ।
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२८ वाँ वर्ष
४७५ ६०५
बंबई, जेठ वदी २, १९५१ सविस्तर पत्र लिखनेका विचार था, तदनुसार प्रवृत्ति नहीं हो सकी। अभी उस तरफ कितनी स्थिरता होना सम्भव है ? चौमासा कहाँ होना सम्भव है ? उसे सूचित कर सकें तो सूचित कीजियेगा।
पत्रमे तीन प्रश्न लिखे थे, उनका उत्तर समागममे दिया जा सकने योग्य है। कदाचित् थोड़े समयके बाद समागमयोग होगा। ,
विचारवानको देह छूटने सम्बन्धी हर्षविषाद योग्य नही है। आत्मपरिणामकी विभावता ही हानि और वही मुख्य मरण है। स्वभावसन्मुखता तथा उसकी दृढ इच्छा भी उस हर्पविषादको दूर करती है।
६०६
बंबई, जेठ वदी ५, बुध, १९५१ सर्वमे समभावको इच्छा रहती है। 'ए श्रीपाळनो रास करता, जान अमृत रस वूठयो रे, मुज०
___-श्री यशोविजयजी। परम स्नेही श्री सोभाग, श्री सायला ।
जो उदयके प्रसग तीव्र वैराग्यवानको शिथिल करनेमे बहुत बार फलोभूत होते है, वैसे उदयके प्रसग देखकर चित्तमे अत्यन्त उदासीनता आती है। यह संसार किस कारणसे परिचय करने योग्य है ? तथा उसकी निवृत्ति चाहनेवाले विचारवानको प्रारब्धवशात् उसका प्रसंग रहा करता हो तो उस प्रारब्धका किसी दूसरे प्रकारसे शीघ्रतासे वेदन किया जा सकता है या नही ? उसे आप तथा श्री डुगर विचारकर लिखियेगा।
जिन तीर्थंकरने ज्ञानका फल विरति कहा है उन तीर्थंकरको अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो ।
इच्छा न करते हुए भी जीवको भोगना पड़ता है, यह पूर्वकर्मके सम्बन्धको यथार्थ सिद्ध करता है । यही विनती।
आ० स्व० दोनोको प्रणाम ।
बबई, जेठ वदी ७, १९५१ श्री मुनि,
"जंगमनी जुक्ति तो सर्वे जाणीए, समीप रहे पण शरीरनो नहीं संग जो;' 'एकाते वसवु रे एक ज आसने, भूल पडे तो पडे भजनमा भंग जो;
-ओधवजी अबळा ते साधन शुं करे ?
६०७
६०८
वबई, जेठ वदी १०, सोम, १९५१ तथारूप गभीर वाक्य नहीं है, तो भी आशय गभीर होनेसे एक लौकिक वचनका आत्मामे अभी बहुत बार स्मरण हो आता है, वह वाक्य इस प्रकार है-"राडी रुए, माडी रुए, पण सात भरतारवाळी
१ भावार्थ-इस श्रीपालके रासको लिखते हुए ज्ञानामृत रस बरसा है।
२ भावार्थ-जगम अर्थात् आत्माकी सभी युक्तियां हम जानती है। शरीरमे रहते हुए भी उसका सग नही है, उससे भिन्न है । मुमुक्षु किंवा साधक एकातमें असग होकर एक ही आसनपर स्थिर होकर रहे । यदि उस समय अन्य विचार-सकल्प-विकल्प उठ खडे हो तो भक्तिसाधनमें भग पड जाये। ओघवजी । अवला वह साधन कैसे करे?
३ रोड रोए, सुहागन रोए, परन्तु सात भरिवाली तो मुंह ही न खोले।
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श्रीमद राजचन्द्र
तो मोढुं ज न उघाडे ।' वाक्य गंभीर न होनेसे लिखनेकी प्रवृत्ति न होती, परन्तु आशय गंभीर होनेसे और अपने विषय मे विशेष विचारणीय दीखनेसे, आपको पत्र लिखनेका स्मरण हो आनेसे यह वाक्य लिखा है, इसपर यथाशक्ति विचार कीजियेगा । यही विनती । लि० रायचंदके प्रणाम विदित हो ।
बबई, जेठ, १९५१
६०९
१ सहजस्वरूपसे जीवकी स्थिति होना, इसे श्री वीतराग 'मोक्ष' कहते है |
२ जीव सहजस्वरूपसे रहित नही है, परन्तु उस सहजस्वरूपका जीवको मात्र भान नही है, जो भान होना, वही सहजस्वरूपसे स्थिति है ।
३ सगके योगसे यह जीव सहजस्थितिको भूल गया है, सगकी निवृत्तिसे सहजस्वरूपका अपरोक्ष भान प्रगट होता है ।
४ इसीलिये सर्वं तीर्थंकरादि ज्ञानियोने असगता ही सर्वोत्कृष्ट कही है, कि जिसमे सर्व आत्मसाधन रहे हैं ।
५ सर्व जिनागममे कहे हुए वचन एक मात्र असगतामे ही समा जाते हैं, क्योकि वह होनेके लिये ही वे सर्व वचन कहे है । एक परमाणुसे लेकर चौदह राजलोककी और निमेषोन्मेषसे लेकर शैलेशीअवस्था पर्यतकी सर्वं क्रियाओका जो वर्णन किया गया है, वह इसी असगताको समझाने के लिये किया है ।
६. सर्व भावसे असंगता होना, यह सबसे दुष्करसे दुष्कर साधन है, और वह निराश्रयतासे सिद्ध होना अत्यन्त दुष्कर है । ऐसा विचारकर श्री तीर्थंकरने सत्सगको उसका आधार कहा है, कि जिस सत्संगके योगसे जीवको सहजस्वरूपभूत असंगता उत्पन्न होती है ।
७ वह सत्संग भी जीवको कई बार प्राप्त होनेपर भी फलवान नही हुआ, ऐसा श्री वीतरागने कहा है, क्योकि उस सत्सगको पहचानकर इस जीवने उसे परम हितकारी नही समझा, परमस्नेहमें उसकी उपासना नही को, और प्राप्तका भी अप्राप्त फलवान होनेयोग्य सज्ञासे विसर्जन किया है, ऐसा कहा है । यह जो हमने कहा है उसी बातकी विचारणासे हमारे आत्मामे आत्मगुणका आविर्भाव होकर सहज समाधिपर्यंत प्राप्त हुए, ऐसे सत्सगको मै अत्यत अत्यत भक्तिसे नमस्कार करता हूँ ।
८ अवश्य इस जीवको प्रथम सर्वं साधनोको गौण मानकर निर्वाणके मुख्य हेतुभूत सत्सगकी ही सर्वापंणतासे उपासना करना योग्य है, कि जिससे सर्व साधन सुलभ होते है, ऐसा हमारा आत्मसाक्षात्कार है ।
९ उस सत्सगके प्राप्त होनेपर यदि इस जीवको कल्याण प्राप्त न हो तो अवश्य इस जीवका ही दोष है, क्योकि उस सत्संगके अपूर्व, अलभ्य और अत्यत दुर्लभ योगमे भी उसने उस सत्सगके योगके बाधक अनिष्ट कारणोका त्याग नही किया ।
१०. मिथ्याग्रह, स्वच्छन्दता, प्रमाद और इन्द्रियविषयकी उपेक्षा न की हो तभी सत्संग फलवान नही होता, अथवा सत्सगमे एकनिष्ठा, अपूर्वभक्ति न की हो तो फलवान नही होता । यदि एक ऐसी अपूर्वभक्तिसे सत्सगकी उपासना की हो तो अल्पकालमे मिथ्याग्रहादिका नाश हो और अनुक्रमसे जीव सर्व
दो
मुक्त हो जाये ।
११ सत्सगकी पहचान होना जीवको दुर्लभ है। किसी महान पुण्ययोगसे उसकी पहचान होनेपर निश्चयसे यही सत्संग, सत्पुरुष है, ऐसा साक्षीभाव उत्पन्न हुआ हो, वह जीव तो अवश्य ही प्रवृत्तिका संकोच करे, अपने दोपोको क्षण क्षणमे, कार्यं कार्यमे ओर प्रसग प्रसंगमे तीक्ष्ण उपयोगसे देखे, देखकर उन्हे
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परिक्षीण करे, और उस सत्सगके लिये देहत्याग करनेका योग होता हो तो उसे स्वीकार करे; परन्तु उससे किसी पदार्थमे विशेष भक्तिस्नेह होने देना योग्य नही है । तथा प्रमादवश रसगारव आदि दोषोसे उस सत्सगके प्राप्त होनेपर पुरुषार्थधर्म मद रहता है, और सत्सग फलवान नही होता, ऐसा जानकर पुरुषार्थंवीर्यका गोपन करना योग्य नही है ।
१२ सत्सगकी अर्थात् सत्पुरुषकी पहचान होनेपर भी यदि वह योग निरतर न रहता हो तो सत्सगसे प्राप्त हुए उपदेशका ही प्रत्यक्ष सत्पुरुष के तुल्य समझकर विचार करना तथा आराधन करना कि जिस आराधनसे जीवको अपूर्वं सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।
१३ जीवको मुख्यसे मुख्य और अवश्यसे अवश्य यह निश्चय रखना चाहिये कि मुझे जो कुछ करना है वह आत्मा के लिये कल्याणरूप हो, उसे ही करना है, और उसीके लिये इन तीन योगोकी उदयबलसे प्रवृत्ति होती हो तो होने देना, परन्तु अन्तमे उस त्रियोगसे रहित स्थिति करने के लिये उस प्रवृत्तिका संकोच करते करते क्षय हो जाये, यही उपाय कर्तव्य है । वह उपाय मिथ्याग्रहका त्याग, स्वच्छंदताका त्याग, प्रमाद और इन्द्रियविषयका त्याग, यह मुख्य है । उसे सत्संग के योगमे अवश्य आराधन करते ही रहना, और सत्सगकी परोक्षतामे तो अवश्य अवश्य आराधन किये ही जाना, क्योकि सत्सगके प्रसगमे तो यदि जीवकी कुछ न्यूनता हो तो उसके निवारण होनेका साधन सत्संग है, परन्तु सत्सगकी परोक्षतामे तो एक अपना आत्मंबल ही साधन है । यदि वह आत्मबल सत्सगसे प्राप्त हुए बोधका अनुसरण न करे, उसका आचरण न करे, आचरण मे होनेवाले प्रमादको न छोडे, तो किसी दिन भी जीवका कल्याण न हो
सङ्क्षेपमे लिखे हुए ज्ञानीके मार्गके आश्रयके उपदेशक इन वाक्योका मुमुक्षुजीवको अपने आत्मामे निरंतर परिणमन करना योग्य हैं, जिन्हे हमने अपने आत्मगुणका विशेष विचार करनेके लिये शब्दोमे लिखा है ।
६१०
१९५१
बबई, आषाढ सुदी १, रवि, लगभग पंद्रह दिन पहले एक और आज एक ऐसे दो पत्र मिले है। आजके पत्रसे दो प्रश्न जाने है । संक्षेपमे उनका समाधान इस प्रकार है—
(१) सत्यका ज्ञान होनेके बाद मिथ्याप्रवृत्ति दूर न हो, ऐसा नही होता । क्योकि जितने अश सत्यका ज्ञान हो उतने अशमे मिथ्याभावप्रवृत्ति दूर हो, ऐसा जिनेंद्रका निश्चय है। कभी पूर्व प्रारब्धसे बाह्य प्रवृत्तिका उदय रहता हो तो भी मिथ्या प्रवृत्तिमे तादात्म्य न हो, यह ज्ञानका लक्षण है और नित्यप्रति मिथ्या प्रवृत्ति परिक्षीण हो, यही सत्य ज्ञानकी प्रतीतिका फल है । मिथ्या प्रवृत्ति कुछ भी दूर न हो, तो सत्यका ज्ञान भी सम्भव नही है ।
(२) देवलोकमेसे जो मनुष्यलोकमे आये, उसे अधिक लोभ होता है, इत्यादि कहा सामान्यत है, एकात नही है । यही विनती ।
बम्बई, आपाद सुदी १, रवि, १९५१ अमुक ऋतुमे विपरिणाम भी होता है । आर्द्रा नक्षत्र के बाद जो आम उत्पन्न
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जैसे अमुक वनस्पतिकी अमुक ऋतुमे उत्पत्ति होती है, वैसे सामान्यत आमके रम-स्पर्शका विपरिणाम आर्द्रा नक्षत्रमे होता है। होता है उसका विपरिणामकाल आर्द्रा नक्षत्र है, ऐसा नही है । परन्तु सामान्यत चैत्र, वैशाख आदि मासमे उत्पन्न होनेवाले आमकी आर्द्रा नक्षत्रमे विपरिणामिता सम्भव है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
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बम्बई, आषाढ सुदी १, रवि, १९५१
परम स्नेही श्री सोभाग, श्री सायला ।
___ आपके दो पत्र मिले है। हमसे अभी कुछ विशेष लिखना नही होता, पहले जो विस्तारसे एक प्रश्नके समाधानमे अनेक प्रकारके दृष्टात देकर सिद्धातसे लिखना हो सकता था उतना अभी नही हो सकता है। इतना ही नही परन्तु चार पक्तियाँ जितना लिखना हो तो भी कठिन पड़ता है, क्योकि अभी चित्तकी प्रवृत्ति अंतर्विचारमे विशेष रहती है; और लिखने आदिकी प्रवृत्तिसे चित्त संकुचित रहता है ।, फिर उदय भी तथारूप रहता है। पहलेकी अपेक्षा बोलनेके सम्बन्धमे भी प्राय ऐसा ही उदय रहता है । तो भी कई बार लिखनेकी अपेक्षा बोलनेका कुछ विशेष बन पाता है। जिससे समागममे कुछ जानने योग्य पूछना हो तो स्मरण रखियेगा।
अहोरात्र प्राय विचारदशा रहा करती है, जिसे संक्षेपमे भी लिखना नही हो सकता। समागममे कुछ प्रसगोपात्त कहा जा सकेगा तो वैसा करनेकी इच्छा रहती है, क्योकि उससे हमे भी हितकारक स्थिरता होगी।
कबीरपथी वहां आये है, उनका समागम करनेमे बाधाका सभव नही है। और यदि उनकी कोई प्रवृत्ति यथायोग्य न लगती हो तो उस बातपर अधिक ध्यान न देते हुए उनके विचारका कुछ अनुकरण करना योग्य लगे तो विचार करना।
जो वैराग्यवान होता है उसका समागम कई प्रकारसे आत्मभावकी उन्नति करता है। .. सायलामे अमुक समय स्थिरता करनेके सम्बन्धमे आपने लिखा, इस बातका अभी उपशम करनेका प्राय चित्त रहता है। क्योकि लोकसम्बन्धी समागमसे उदासभाव विशेष रहता है। तथा एकात जैसे योगके बिना कितनी ही प्रवृत्तियोका निरोध करना नही हो सकता, जिससे आपकी लिखी हुई इच्छाके लिये प्रवृत्ति हो सकना अशक्य है।
यहाँसे जिस तिथिको निवृत्ति हो सकेगी, उस तिथि तथा बादकी व्यवस्थाके विषयमे यथायोग्य विचार हो जानेपर उस विषयमे आपको पत्र लिखूगा।
श्री डुगर और आप कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा। यहाँसे पत्र आये या न आये, इसकी राह न देखियेगा।
श्री सोभागका विचार अभी इस तरफ आनेका रहता हो तो अभी विलब करना योग्य है। " कुछ ज्ञानवार्ता लिख सके तो लिखियेगा। यही विनती। '' 'आ० स्व० प्रणाम ।
६१३ बम्बई, आषाढ-सुदी ११, बुध, १९५१ जिस कषाय-परिणामसे अनत ससारका बन्ध हो उस कषाय-परिणामको जिनप्रवचनमे 'अनतानुवधी' सज्ञा दी है। जिस कपायमे तन्मयतासे अप्रशस्त ( अशुभ ) भावसे तीव्र उपयोगसे आत्माकी प्रवृत्ति है, वहाँ 'अनंतानुबधी' का सभव है । मुख्यतः यहाँ कहे हुए स्थानकमे उस कषायका विशेष सभव है। सद्देव, सद्गुरु और सद्धर्मका जिस प्रकारसे द्रोह हो, अवज्ञा हो, तथा विमुखभाव हो, इत्यादि प्रवृत्तिसे, तथा असदेव, असद्गुरु तथा असद्धर्मका जिस प्रकारसे आग्रह हो,, तत्सम्बन्धी कृतकृत्यता मान्य हो, इत्यादि प्रवृत्ति करते हुए अनतानुबधी कपाय' का सभव है, अथवा ज्ञानीके वचनमे स्त्रीपुत्रादि भावोको, जिस मर्यादाके पश्चात् इच्छा करते हुए निर्वस परिणाम कहा है, उस परिणामसे प्रवृत्ति करते हुए. भी 'अनतानुवधी' होने योग्य है । सक्षेपमे अनतानुबंधी कषायकी व्याख्या इस प्रकार प्रतीत होती है।
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जो पुत्रादि वस्तु लोकसंज्ञासे इच्छनीय मानी जाती है, उस वस्तुको दुःखदायक एवं असारभूत जानकर प्राप्त होनेके बाद नष्ट हो जानेपर भी इच्छनीय नही लगती थी, वैसी वस्तुकी अभी इच्छ उत्पन्न होती है, और उससे अनित्यभाव जैसे बलवान हो वैसा करनेकी अभिलाषा उद्भव होती है, इत्यादि जो उदाहरणसहित लिखा उसे पढा है ।
जिस पुरुषकी ज्ञानदशा स्थिर रहने योग्य है, ऐसे ज्ञानी पुरुषको भी ससारप्रसगका उदय हो त जागृतरूपसे प्रवृत्ति करना योग्य है, ऐसा वीतरागने कहा है, वह अन्यथा नही है । और हम सब जागृत रूपसे प्रवृत्ति करनेमे कुछ शिथिलता रखें तो उस ससारप्रसगसे बाधा होनेमे देर नही लगती, ऐसा उपदेश इन वचनोंसे आत्मामे परिणमन करना योग्य है, इसमे सशय करना उचित नही है । प्रसगकी यदि सर्वथ निवृत्ति अशक्य होती हो तो प्रसगको कम करना योग्य है, और क्रमश सर्वथा निवृत्तिरूप परिणाम लान योग्य है, यह मुमुक्षुपुरुषका भूमिकाधर्म है । सत्सग और सत्शास्त्र के योगसे उस धर्मका विशेषरूपसे आराधन सम्भव है ।
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पुत्रादि पदार्थकी प्राप्ति अनासक्ति होने जैसा हुआ था, परन्तु अभी उससे विपरीत भावना रहती है । उस पदार्थको देखकर प्राप्तिसम्बन्धी इच्छा हो आती है, इससे यह समझमे आता है कि किसी विशेष सामर्थ्यवान महापुरुषके सिवाय सामान्य मुमुक्षुने उस पदार्थका समागम करके उस पदार्थ की तथारूप अनित्यता समझकर त्याग किया हो तो उस त्यागका निर्वाह हो सकता है। नही तो अभी जैसे विपरीत भावना उत्पन्न हुई है वैसे प्राय होनेका समय वैसे मुमुक्षुको आनेका संभव है। और ऐसा क्रम कितने ही प्रसंगोंसे महापुरुषो को भी मान्य होता है, ऐसा समझमे आता है । इसपर सिद्धातसिंधुका 'कथासक्षेप तथा अन्य दृष्टात लिखे हैं उसका सक्षेपमे यह लिखनेसे समाधान विचा रियेगा ।
बबई, आषाढ सुदी १३, गुरु, १९५१
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श्रीमद् वीतरागाय नमः
शाश्वत मार्गनैष्ठिक श्री सोभागके प्रति यथायोग्यपूर्वक, श्री सायला ।
आपके लिखे पत्र मिले है । तथारूप उदय विशेषसे उत्तर लिखनेकी प्रवृत्ति अभी बहुत कम रहती है । इसलिये यहाँसे पत्र लिखनेमे विलम्ब होता है । परन्तु आप कुछ ज्ञानवार्ता लिखनी सूझे तो उस विलम्बके कारण उसे, लिखनेसे न रुकियेगा । अभी आप तथा श्री डुगरको ओरसे ज्ञानवार्ता लिखी नही जाती, सो लिखियेगा । अभी श्री कबीरसम्प्रदायी साधुका कुछ समागम होता है या नही ? सो लिखियेगा । यहाँसे थोडे समयके लिये निवृत्ति योग्य समयके बारेमे पूछा, उसका उत्तर लिखते हुए मनमे सकोच होता है । यदि हो सका तो एक-दो दिन के बाद लिखूँगा ।
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नीचेके बोलोके प्रति आपको तथा श्री डुगरको विशेष विचारपरिणति करना योग्य है
(१) केवलज्ञानका स्वरूप किस प्रकार घटता है ?
(२) इस भरतक्षेत्रमे इस कालमे उसका सम्भव है या नही ?
(३) केवलज्ञानीमे किस प्रकारको आत्मस्थिति होती है ?
?
(४) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और केवलज्ञानके स्वरूपमे किस प्रकारसे भेद होना योग्य है (५) सम्यग्दृष्टि पुरुषकी आत्मस्थिति कैसी होती है ?
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श्रीमद राजचन्द्र
आपको तथा श्री डुगरको उपर्युक्त बोलोपर यथाशक्ति विशेष विचार करना योग्य है । तत्सम्बन्धी पत्रद्वारा आपसे लिखाने योग्य लिखियेगा । अभी यहाँ उपाधिकी कुछ न्यूनता है । यही विनती ।
आ० स्व० यथायोग्य ।
बंबई, आषाढ वदी, रवि, १९५१
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श्रीमद् वीतरागको नमस्कार
शुभेच्छासम्पन्न भाई अबालाल तथा भाई त्रिभोवनके प्रति, श्री स्तम्भतीर्थं ।
भाई अबाला के लिखे चिट्ठी-पत्र तथा भाई त्रिभोवनका लिखा पत्र मिला है। कारण विशेषत लिखना, सूचित करना नही हो पाता । जिससे किसी मुमुक्षुको होने तरफसे जो विलम्ब होता है, उस विलम्बको निवृत्त करनेकी वृत्ति होती है, परन्तु उदयके अभी तक वैसा ही व्यवहार होता है ।
आषाढ वदी २ को इस क्षेत्रसे थोडे समय के लिये निवृत्त हो सकनेकी सम्भावना थी, उस समय के आसपास दूसरे कार्यंका उदय प्राप्त होनेसे लगभग आषाढ वदी ३० तक स्थिरता होना सम्भव है । यहाँसे निकलकर ववाणिया जाने तक बीचमे एकाध दो दिनकी स्थिति करना चित्तमे यथायोग्य नही लगता । ववाणियामे कितने दिनकी स्थिति सम्भव है, यह अभी विचारमे नही आ सका है, परन्तु भादो सुदी दशमीके आसपास यहाँ आनेका कुछ कारण सम्भव है और इससे ऐसा लगता है कि ववाणिया श्रावण सुदी १५ तक अथवा श्रावण वदी १० तक रहना होगा । लौटते समय श्रावण वदी दशमीको वाणियासे निकलना हो तो भादो सुदी दशमी तक बीचमे किसी निवृत्तिक्षेत्रमे रुकना बन सकता है । अभी इस सम्बन्धमे अधिक विचार करना अशक्य है ।
|
अमुक आत्मदशा योग्य लाभमे मेरी
किसी योग से
U
अभी इतना विचार आता है कि यदि किसी निवृत्तिक्षेत्रमे रुकना हो तो भी मुमुक्षु भाइयोसे अधिक प्रसग करनेका मुझसे होना अशक्य है, यद्यपि इस बातपर अभी विशेष विचार होना सम्भव है ।
सत्समागम और सत्शास्त्रका लाभ चाहनेवाले मुमुक्षुओको आरम्भ परिग्रह और रसस्वादादिका प्रतिबन्ध कम करना योग्य है, ऐसा श्री जिनादि महापुरुषोने कहा है । जब तक अपने दोष विचारकर उन्हे कम करनेके लिये प्रवृत्तिशील न हुआ जाये तब तक सत्पुरुषका कहा हुआ मार्ग परिणाम पा है । इस बातपर मुमुक्षु जीवको विशेष विचार करना योग्य है ।
सत्सगनैष्ठिक श्री सोभाग, श्री सायला ।
निवृत्तिक्षेत्रमे रुकने सम्बन्धी विचारको अधिक स्पष्टतासे सूचित करना सम्भव होगा तो करूँगा । अभी यह बात मात्र प्रसंगसे आपको सूचित करनेके लिये लिखी है, जो विचार अस्पष्ट होनेसे दूसरे मुमुक्षु भाइयोको भी बताना योग्य नही है । आपको सूचित करने मे भी कोई राग हेतु नही है । यही विनती । आ० स्व० यथायोग्य ।
बबई, आषाढ़ वदी ७, रवि, १९५१
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ॐ नमो वीतरागाय
आपका और श्री लहेराभाईका लिखा पत्र मिला है ।
इस भरतक्षेत्रमे इस कालमे केवलज्ञान सम्भव है या नही ? इत्यादि प्रश्न लिखे थे, उसके उत्तरमे आपके तथा श्री लहेराभाईके विचार, प्राप्त पत्रसे विशेषत जाने हैं। इन प्रश्नोपर आपको, लहेराभाईको
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तथा श्री डुगरको विशेष विचार कर्तव्य है। अन्य दर्शनमे जिस प्रकारसे केवलज्ञानादिका स्वरूप कहा है, उसमे और जैनदर्शनमे उस विषयका जो स्वरूप कहा है, उनमे कितना ही मुख्य भेद देखनेमे आता है, उन सबका विचार होकर समाधान हो तो आत्माको कल्याणके अगभूत है, इसलिये इस विषयपर अधिक विचार हो तो अच्छा है।
'अस्ति' इस पदसे लेकर सर्व भाव आत्माके लिये विचारणीय हैं। उसमे जो स्वस्वरूपकी प्राप्तिका हेतु है, वह मुख्यतः विचारणीय है, और उस विचारके लिये अन्य पदार्थके विचारकी भी अपेक्षा रहती है, उसके लिये वह भी विचारणीय है।
परस्पर दर्शनोमे बडा भेद देखनेमे आता है। उन सबकी तुलना करके अमुक दर्शन सच्चा है ऐसा निर्धार सभी मुमुक्षुओंसे होना दुष्कर है, क्योकि वह तुलना करनेकी क्षयोपशमशक्ति किसी ही जीवमे होती है। फिर एक दर्शन सर्वांशमे सत्य है और दूसरे दर्शन सर्वांशमे असत्य है ऐसा विचारमे सिद्ध हो, तो दूसरे दर्शनकी प्रवृत्ति करनेवालेकी दशा आदि विचारणीय है, क्योकि जिसके वैराग्य-उपशम बलवान हैं, उसने सर्वथा असत्यका निरूपण क्यो किया होगा ? इत्यादि विचारणीय है। परन्तु सब जीवोसे यह विचार होना दुष्कर है। और यह विचार कार्यकारी भी है, करने योग्य है। परन्तु वह किसी माहात्म्यवानको होना योग्य है। तब बाकी जो मुमुक्षुजीव हैं, उन्हे इस सम्बन्धमे क्या करना योग्य है ? यह भी विचारणीय है।
सर्व प्रकारके सर्वांग समाधानके, बिना सर्व कर्मसे मुक्त होना अशक्य हे, यह विचार हमारे चित्तमे रहा करता है, और सर्व प्रकारका समाधान होनेके लिये अनंतकाल पुरुषार्थ करना पडता हो तो प्राय कोई जीव मुक्त नही हो सकता। इसलिये यह मालूम होता है कि अल्पकालमे उस सर्व प्रकारके समाधानका उपाय होना योग्य है, जिससे मुमुक्षुजीवको निराशाका कारण-भी नही है।
श्रावण सुदी ५-६ के बाद यहाँसे निवृत्ति हो सके ऐसा मालूम होता है, परन्तु यहाँसे जाते समय बीचमे रुकना योग्य है या नही? यह अभी तक विचारमे नही आ सका है। कदाचित् जाते या लौटते समय बीचमे रुकना हो सके, तो वह किस क्षेत्रमे हो सके, यह अभी स्पष्ट विचारमे नही आता । जहाँ क्षेत्रस्पर्शना होगो वहाँ स्थिति होगी।
आ० स्व० प्रणाम।
बबई, आषाढ वदी ११, गुरु, १९५१ परमार्थनैष्ठिकादि गुणसम्पन्न श्री सोभागके प्रति,
पत्र मिला है। केवलज्ञानादिके प्रश्नोत्तरका आपको तथा श्री डुंगर एवं लहेराभाईको यथाशक्ति विचार कर्तव्य है।
जिस विचारवान पुरुषकी दृष्टिमे ससारका स्वरूप नित्य प्रति क्लेशस्वरूप भासमान होता हो, सासारिक भोगोपभोगमे जिसे विरसता जैसा रहता हो, उस विचारवानको दूसरी तरफ लोकव्यवहारादि, व्यापारादिका उदय रहता हो, तो वह उदय प्रतिवध इन्द्रियसुखके लिये नही परन्तु आत्महितके लिये दूर करना हो, तो दूर कर सकनेके क्या उपाय होने चाहिये? इस सम्बन्धमे कुछ सूचित करना हो तो कीजियेगा। यही विनती।
आ० स्व० यथा०
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श्रीमद् राजन्द्र
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परमार्थनैष्ठिक श्री सोभागके प्रति, श्री सायला ।
बंबई, आषाढ वदी १४, रवि, १९५१
नमो वीतरागाय
सर्वं प्रतिबंध से मुक्त हुए बिना सर्व दुःखसे मुक्त होना संभव नहीं है ।
यहाँसे वाणिया जाते हुए सायला ठहरनेके सबंध मे आपकी विशेष इच्छा मालूम हुई है, और इस विषयमे कोई भी रास्ता निकले तो ठीक, ऐसा कुछ चित्तमे रहता था, तथापि एक कारणका विचार करते हुए दूसरा कारण बाधित होता हो वहाँ क्या करना योग्य है ? उसका विचार करते हुए जब कोई वैसा मार्ग देखनेमे नही आता तब जो सहजमे बन आये उसे करनेकी परिणति रहती है, अथवा आखिर कोई उपाय न चले तो बलवान कारण बाधित न हो वैसा प्रवर्तन होता है । बहुत समयके व्यावहारिक प्रसगके कटाले से थोडा समय भी किसी तथारूप क्षेत्रमे निवृत्तिसे रहा जाये तो अच्छा, ऐसा चित्तमे रहा करता था । तथा यहाँ अधिक समय स्थिति होनेसे जो देहके जन्मके निमित्त कारण हैं, ऐसे मातापितादिके वचनके लिये, चित्तकीं प्रियताके अक्षोभके लिये, तथा कुछ दूसरोके चित्तकी अनुपेक्षाके लिये भी थोडे दिन लिये ववाणिया जानेका विचार उत्पन्न हुआ था । उन दोनो प्रकारके लिये कब योग हो तो अच्छा, ऐसा विचार करनेसे कोई यथायोग्य समाधान नही होता था । तत्सवधी विचारकी सहज हुई विशेषतासे अभी जो कुछ विचारकी अल्पता स्थिर हुई, उसे आपको सूचित किया था । सर्व प्रकारके असंगलक्ष्य के विचारको यहाँसे अप्रसग समझकर, दूर रखकर, अल्पकालकी अल्प असगताका अभी कुछ विचार रखा है, वह भी सहज स्वभावसे उदयानुसार हुआ है ।
उसमे किन्ही कारणोका परस्पर विरोध न होनेके लिये इस प्रकार विचार आता है - यहाँसे श्रावण सुदीमे निवृत्ति हो तो इस बार बीचमे कही भी न ठहरकर सोधा ववाणिया जाना । वहाँसे शक्य हो तो श्रावण वदी ११ को वापिस लौटना और भादो सुदी १० के आसपास किसी निवृत्तिक्षेत्रमें स्थिति हो वैसे यथाशक्ति उदयको उपराम जैसा रखकर प्रवृत्ति करना । यद्यपि विशेष निवृत्ति, उदयका स्वरूप देखते हुए, प्राप्त होनी कठिन मालूम होती है, तो भी सामान्यतः जाना जा सके उतनी प्रवृत्तिमे न आया जाये तो अच्छा ऐसा लगता है । और इस बातपर विचार करते हुए यहाँसे जाते समय रुकनेका विचार छोड देनेसे सुलभ होगा ऐसा लगता है । एक भी प्रसगमे प्रवृत्ति करते हुए तथा लिखते हुए प्रायः जो अक्रियपरिणति रहती है, उस परिणतिके कारण अभी ठीक तरहसे सूचित नही किया जा सकता, तो भी आपकी जानकारीके लिये मुझसे यहाँ जो कुछ सूचित किया जा सका उसे सूचित किया है। यही विनती । श्री डुगर तथा लहेराभाईको यथायोग्य । सहजात्मस्वरूप यथायोग्य ।
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बबई, आषाढ वदी ३०, सोम, १९५१
जन्म से जिन्हे मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान थे और आत्मोपयोगी वैराग्यदशा थी, अल्पकालमे भोगकर्म क्षीण करके सयमको ग्रहण करते हुए मन पर्याय नामके ज्ञानको जो प्राप्त हुए थे, ऐसे श्रीमद् महावोरस्वामी भी वारह वर्ष और साढ़े छ मास तक मौन रहकर विचरते रहे। इस प्रकारका उनका प्रवर्तन, उस उपदेशमार्गका प्रवर्तन करते हुए किसी भी जीवको अत्यंतरूपसे विचार करके प्रवृत्ति करना योग्य हे, ऐसी अखड शिक्षाका प्रतिबोध करता है । तथा जिनेंद्र जैसोने जिस प्रतिबन्धकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न किया, उस प्रतिवन्धमे अजागृत रहने योग्य कोई भी जीव नही है ऐसा बताया है, तथा अनंत
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२८ वॉ वर्ष ४८३ आत्मार्थका उस प्रवर्तनसे बोध किया है । जिस प्रकारके प्रति विचारकी विशेष स्थिरता रहती है, रखना योग्य है ।
जिस प्रकारका पूर्व प्रारब्ध भोगनेसे निवृत्त होना योग्य है, उस प्रकारका प्रारब्ध उदासीनतासे वेदन करना योग्य है, जिससे उस प्रकारके प्रति प्रवृत्ति करते हुए जो कोई प्रसग प्राप्त होता है, उस उस प्रसगमे जागृत उपयोग न हो, तो जीवको समाधिविराधना होनेमे देर नही लगती। इसलिये सर्व संगभावको मूलरूपसे परिणामी करके भोगे विना न छूट सके वैसे प्रसंग के प्रति प्रवृत्ति होने देना योग्य है, तो भी उस प्रकारकी अपेक्षा जिससे सर्वांश असगता उत्पन्न हो उस प्रकारका सेवन करना योग्य है ।
कुछ समय से सहजप्रवृत्ति और उदीरणप्रवृत्ति, इस भेदसे प्रवृत्ति रहती है । मुख्यतः सहजप्रवृत्ति रहती है । सहजप्रवृत्ति अर्थात् जो प्रारब्धोदयसे उत्पन्न होती हो, परन्तु जिसमे कर्तव्य परिणाम नही है । दूसरी उदीरणप्रवृत्ति वह है जो परार्थ आदिके योगसे करनी पडती है। अभी दूसरी प्रवृत्ति होनेमे आत्मा सकुचित होता है, क्योकि अपूर्व समाधियोगको उस कारणसे भी प्रतिवध होता है, ऐसा सुना था तथा जाना था, और अभी वैसा स्पष्टरूपसे वेदन किया है। उन उन कारणोसे अधिक समागममे आनेका, पत्रादिसे कुछ भी प्रश्नोत्तरादि लिखनेका तथा दूसरे प्रकारसे परमार्थ आदिके लिखने-करने का भी मद होनेके पर्यायका आत्मा सेवन करता है । ऐसे पर्यायका सेवन किये बिना अपूर्व ममाधिकी हानिका सम्भव था । ऐसा होने पर भी यथायोग्य मंद प्रवृत्ति नही हुई ।
यहाँसे श्रावण सुदी ५-६ को निकलना संभव है, परन्तु यहांसे जाते समय समागमका योग हो सकने योग्य नही है । और हमारे जानेके प्रसगके विषयमे अभी आपके लिये किसी दूसरेको भी बतानेका विशेष कारण नही है, क्योकि जाते समय समागम नही करनेके सम्बन्धमे उन्हे कुछ सशय प्राप्त होनेका सम्भव हो, जो न हो तो अच्छा । यही विनती ।
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बम्बई, आषाढ वदी ३०, सोम, १९५१ आपके तथा दूसरे किन्ही सत्समागमकी निष्ठावाले भाइयोको हमारे समागमकी अभिलाषा रहती है, यह बात ध्यानमे है, परन्तु अमुक कारणो से इस विषयका विचार करते हुए प्रवृत्ति नही होती, जिन कारणोको बताते हुए भी चित्तको क्षोभ होता है । यद्यपि उस विपयमे कुछ भी स्पष्टतासे लिखना बन पाया हो तो पत्र तथा समागमादिकी प्रतीक्षा करानेकी और उसमे अनिश्चितता होती रहने से हमारी आरसे जो कुछ क्लेश प्राप्त होने देनेका होता है उसके होनेका सम्भव कम हो, परन्तु उस सम्बन्धमे स्पष्टतासे लिखते हुए भी चित्त उपशात हुआ करता है, इसलिये जो कुछ सहजमे हो उसे होने देना योग्य भासित होता है ।
ववाणियासे लौटते समय प्राय समागमका योग होगा । प्रायः चित्तमे ऐसा रहा करता है कि अभी अधिक समागम भी कर सकने योग्य दशा नही है । प्रथमसे इस प्रकारका विचार रहा करता था, और वह विचार अधिक श्रेयस्कर लगता था, परन्तु उदयवशात् कितने हो भाइयोका समागम होनेका प्रसग हुआ, जिसे एक प्रकारसे प्रतिवन्ध होने जैसा समझा था, और अभी कुछ भी वैसा हुआ है, ऐसा लगता है । वर्तमान आत्मदशा देखते हुए उतना प्रतिबन्ध होने देने योग्य अधिकार मुझे सम्भव नही है । यहाँ कुछ प्रसग स्पष्टार्थं वताना योग्य है ।
इस आत्मामे गुणकी विशेष अभिव्यक्ति जानकर आप इत्यादि किन्ही मुमुक्षुभाइयो को भक्ति रहती हो तो भी उससे उस भक्तिकी योग्यता मुझमे सम्भव है ऐसा समझने की मेरी योग्यता नही है, क्योंकि वहुत विचार करते हुए वर्तमानमे तो वैसा सम्भव रहता है, और उस कारणसे समागमसे कुछ समय दूर रहनेका चित्त रहा करता है, तथा पत्रादि द्वारा प्रतिबन्धकी भी अनिच्छा रहा करती है। इस बातपर यथा
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श्रीमद् राजचन्द्र
शक्ति विचार करना योग्य है । प्रश्न-समाधानादि लिखनेका उदय भी अल्प रहनेसे प्रवृत्ति नही हो सकती। तथा व्यापाररूप उदयका वेदन करनेमे विशेष ध्यान रखनेसे भी उसका इस कालमे बहुत भार कम हो सके, ऐसे विचारसे भी दूसरे प्रकार उसके साथ आते जानकर भी मद प्रवृत्ति होती है। पूर्वकथितके अनुसार लौटते समय प्राय समागम होनेका ध्यान रखूगा ।
एक विनती यहाँ करने योग्य है कि इस आत्मामे आपको गुणाभिव्यक्ति भासमान होती हो, और उससे अतरमे भक्ति रहती हो तो उस भक्तिका यथायोग्य विचारकर जैसे आपको योग्य लगे वैसे करने योग्य है, परन्तु इस आत्माके सम्बन्धमे अभी वाहर किसी प्रसगकी चर्चा होने देना योग्य नहीं है, क्योकि अविरतिरूप उदय होनेसे गुणाभिव्यक्ति हो तो भी लोगोको भासमान होना कठिन पड़े, और उससे विराधना होनेका कुछ भी हेतु हो जाय, तथा पूर्व महापुरुषके अनुक्रमका खण्डन करने जैसा प्रवर्तन इस आत्मासे कुछ भी हुआ समझा जाय ।
इस पत्रपर यथाशक्ति विचार कीजियेगा और आपके समागमवासो जो कोई मुमुक्षुभाई हो, उनका अभी नही, प्रसग प्रसगसे अर्थात् जिस समय उन्हे उपकारक हो सके वैसा सम्भव हो तब इस बातका ओर ध्यान खीचियेगा । यही विनती।
६२२ . बम्बई, आषाढ वदी ३०, १९५१ 'अनतानुबधी' का जो 'दूसरा प्रकार लिखा है, तत्सम्बन्धी विशेषार्थ निम्नलिखितसे जानियेगा :
· उदयसे अथवा उदासभावसयुक्त मदपरिणतबुद्धिसे भोगादिमें प्रवृत्ति हो, तब तक ज्ञानीकी आज्ञाका ठुकराकर प्रवृत्ति हुई ऐसा नही कहा जा सकता, परन्तु जहाँ भोगादिमे तीन तन्मयतासे प्रवृत्ति हो वहाँ ज्ञानोको आज्ञाकी कोई अंकुशताका सम्भव नही है, निर्भयतासे भोगप्रवृत्ति सम्भवित है, जो निर्वस परिणाम कहे हैं। वैसे परिणाम रहे, वहाँ भी 'अनतानुवधी' सम्भवित है। तथा 'मैं समझता हूँ', 'मुझे बाधा नहीं है', ऐसीकी ऐसी भ्रातिमे रहे और 'भोगसे निवृत्ति करना योग्य है' और फिर कुछ भी पुरुषार्थ करे तो वैसा हो सकने योग्य होनेपर भी मिथ्याज्ञानसे ज्ञानदशा मानकर भोगादिमे प्रवृत्ति करे, वहाँ भी 'अनतानुवधी' सम्भवित है।
जाग्रत अवस्थामे ज्यो ज्यो उपयोगकी शुद्धता हो त्यो त्यो स्वप्नदशाकी परिक्षीणता सम्भव है।
६२३
बम्बई, श्रावण सुदी २, बुध, १९५१ आज चिट्ठी मिली है। ववाणिया जाते हुए तथा वहाँसे लौटते हुए सायला होकर जानेके बारेमें विशेषतासे लिखा है, इस विषयमे क्या लिखना ? उसका विचार एकदम स्पष्ट निश्चयमे नही आ सका है। तो भी स्पष्टास्पष्ट जो कुछ यह पत्र लिखते समय ध्यानमे आया वह लिखा है।
, आपकी आजकी चिट्ठीमे हमारे लिखे हुए जिस पत्रकी आपने पहुँच लिखी है, उस पत्रपर अधिक. विचार करना योग्य था, और ऐसा लगता था कि आप उसपर विचार करेंगे तो सायला आनेके सम्बन्ध अभी हमारी इच्छानुसार रखेंगे। परन्तु आपके चित्तमे यह विचार विशेषत' आनेसे पहले यह चिट्ठी लिखी गयी है। फिर आपके चित्तमे जाते समय समागमकी विशेष इच्छा रहती है, तो उस इच्छाका उपेक्षा करनेकी मेरी योग्यता नही है । ऐसे किसी प्रकारमे आपकी आसातना जैसा हो जाय, यह डर रहता है। अभी आपकी इच्छानुसार समागमके लिये आप, श्री डुगर तथा श्री लहेराभाईका आनेका विचार हा १. देखें आक ६१३
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तो एक दिन मूळी रुङगा । और दूसरे दिन कहेगे तो मूळोसे जानेका विचार करूँगा । लौटते समय सायला रुकना या नहीं ? इसका उस समागममे आपको इच्छानुसार विचार करूँगा। __मूळी एक दिन रुकनेका विचार यदि रखते है तो सायला एक दिन रुकनेमे आपत्ति नही है, ऐसा आप न कहियेगा क्योकि ऐसा करनेसे अनेक प्रकारके अनुक्रमोका भग होना सम्भव है । यही विनती ।
६२४
बबई, श्रावण सुदी ३, गुरु, १९५१ किसी दशाभेदसे अमुक प्रतिबन्ध करनेकी मेरी योग्यता नही है। दो पत्र प्राप्त हुए हैं । इस प्रसगमे समागम सम्बन्धी प्रवृत्ति हो सकना योग्य नही है।
६२५
ववाणिया, श्रावण सुदी १०, १९५१
ॐ
__ जो पर्याय है वह पदार्थका विशेष स्वरूप है, इसलिये मन पर्यायज्ञानको भी पर्यायाथिक ज्ञान समझकर उसे विशेष ज्ञानोपयोगमे गिना है, उसका सामान्य ग्रहणरूप विपय भासित न होनेसे दर्शनोपयोगमे नही गिना है, ऐसा सोमवारको दोपहरके समय कहा था, तदनुसार जैनदर्शनका अभिप्राय भी आज देखा है। यह बात अधिक स्पष्ट लिखनेसे समझमे आ सकने जैसी है, क्योकि उसे बहुतसे दृष्टातोकी सहचारिता आवश्यक है, तथापि यहाँ तो वैसा होना अशक्य है।
मनःपर्याय सम्बन्धी लिखा है वह प्रसग, चर्चा करनेकी निष्ठासे नही लिखा है।
सोमवारकी रातको लगभग ग्यारह बजेके बाद जो मुझसे वचनयोगकी अभिव्यक्ति हुई थी उसकी स्मृति रही हो तो यथाशक्ति लिखा जा सके तो लिखियेगा।
६२६ ववाणिया, श्रावण सुदी १२, शुक्र, १९५१ 'निमित्तवासी यह जीव है', ऐसा एक सामान्य वचन है। वह सगप्रसगसे होती हुई जीवको परिणतिको देखते हुए प्राय सिद्धान्तरूप लग सकता है।।
सहजात्मस्वरूपसे यथा०
६२७ ववाणिया, श्रावण सुदी १५, सोम, १९५१ ___ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्गका आराधन करना योग्य है, परन्तु जिसकी सामर्थ्य विचारमार्गके योग्य नही है उसे उस मार्गका उपदेश देना योग्य नहीं है, इत्यादि जो लिखा है वह योग्य है, तो भी इस विषयमे किञ्चित् मात्र लिखना अभी चित्तमे नही आ सकता।
श्री डगरने केवलदर्शनके सम्बन्धमे कही हुई आशका लिखी है, उसे पढा है। दूसरे अनेक प्रकार समझमे आनेके पश्चात् उस प्रकारकी आशका निवृत्त होती है, अथवा वह प्रकार प्राय. समझने योग्य होता है। ऐसी आशका अभी मन्द अथवा उपशान्त करके विशेष निकट ऐसे आत्मार्थका विचार करना योग्य है।
६२८ ववाणिया, श्रावण वदी ६, रवि, १९५१
यहाँ पर्युषण पूरे होने तक स्थिति होना सम्भव है।
केवलज्ञानादि इस कालमे हो इत्यादि प्रश्न पहले लिखे थे, उन प्रश्नोपर यथाशक्ति अनुप्रेक्षा तया परस्पर प्रश्नोत्तर श्री डुगर आदिको करना योग्य है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
गुण समुदायसे भिन्न ऐसा कुछ गुणीका स्वरूप होना योग्य है क्या ? इस प्रश्नका आप सब यदि विचार कर सकें तो कीजियेगा । श्री डुंगरको तो जरूर विचार करना योग्य है ।
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कुछ उपाधियोगके व्यवसायसे तथा प्रश्नादि लिखने इत्यादिकी वृत्ति मन्द होनेसे अभी सविस्तर पत्र लिखनेमे कम प्रवृत्ति होती होगी, तो भी हो सके तो यहाँ स्थिति है तब तकमे कुछ विशेष प्रश्नोत्तर इत्यादिसे युक्त पत्र लिखनेका हो तो लिखियेगा ।
सहजात्मभावनासे यथा०
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ववाणिया, श्रावण वदी ११, शुक्र, १९५१
आत्मार्थी श्री सोभाग तथा श्री डुगर, श्री सायला ।
यहाँसे प्रसंगोपात्त लिखे हुए जो चार प्रश्नोके उत्तर लिखे उसे पढा है | प्रथमके दो प्रश्नोका उत्तर सक्षेपमे है, तथापि यथायोग्य है । तीसरे प्रश्नका उत्तर सामान्यत. ठीक है, तथापि विशेष सूक्ष्म आलोचनसे उस प्रश्नका उत्तर लिखने योग्य है । वह तीसरा प्रश्न इस प्रकार है- 'गुणके समुदायसे भिन्न गुणीका स्वरूप होना योग्य है क्या ? अर्थात् सभी गुणोका समुदाय वही गुणो अर्थात् द्रव्य ? अथवा उस गुणके समुदायके आधारभूत ऐसे भी किसी दूसरे द्रव्यका अस्तित्व है ?" उसके उत्तरमे ऐसा लिखा कि-- आत्मा गुणी है। उसके गुण ज्ञानदर्शन आदि भिन्न हैं । यो गुणी और गुणकी विवक्षा की है, तथापि वहाँ विशेष विवक्षा करना योग्य है । ज्ञानदर्शन आदि गुणसे भिन्न ऐसा बाकीका आत्मत्व क्या है ?" यह प्रश्न है । इसलिये यथाशक्ति इस प्रश्नका परिशीलन करना योग्य है ।
चौथा प्रश्न 'केवलज्ञान इस कालमे होने योग्य है क्या ?" उसका उत्तर ऐसा लिखा कि- 'प्रमाणसे देखते हुए वह होने योग्य है ।' यह उत्तर भी सक्षेपमे है, जिसका बहुत विचार करना योग्य है । इस चौथे प्रश्नका विशेष विचार करनेके लिये उसमे इतना विशेष ग्रहण कीजियेगा कि - ' जिस प्रकारसे जैनागममे केवलज्ञान माना है, अथवा कहा है, वह केवलज्ञानका स्वरूप यथातथ्य कहा है ऐसा भासमान होता है या नही ? और वैसा केवलज्ञानका स्वरूप हो ऐसा भासमान होता हो तो वह स्वरूप इस कालमे भी प्रगट होने योग्य है या नही ? किंवा जो जैनागम कहता है उसके कहनेका हेतु कुछ भिन्न है, और केवलज्ञानका स्वरूप किसी दूसरे प्रकारसे कहने योग्य है तथा समझने योग्य है ?' इस बातपर यथाशक्ति अनुप्रेक्षा करना योग्य है। तथा तीसरा प्रश्न है वह भी अनेक प्रकारसे विचारणीय है । विशेष अनुप्रेक्षा करके, इन दोनो प्रश्नोका उत्तर लिख सकें तो लिखियेगा । प्रथमके दो प्रश्न हैं, उनके उत्तर सक्षेपमे लिखे हैं, वे विशेषतासे लिखे जा सके तो वे भी लिखियेगा । आपने पाँच प्रश्न लिखे है ।' उनमेसे तीन प्रश्नोंके उत्तर यहाँ संक्षेपमे लिखे हैं—
प्रथम प्रश्न - 'जातिस्मरणज्ञानवाला पिछला भव किस तरह देखता है ?" उसके उत्तरका विचार इस प्रकार कीजियेगा -
बचपनमे कोई गॉव, वस्तु आदि देखे हो, और बड़े होनेपर किसी प्रसंगपर उस गाँव आदिका आत्मामे स्मरण होता है, उस वक्त उस गॉव आदिका आत्मामे जिस प्रकार भान होता है, उस प्रकार जातिस्मरणज्ञानवालेको पूर्वभवका भान होता है । कदाचित् यहाँ यह प्रश्न होगा कि, 'पूर्वभवमे अनुभव किये हुए देहादिका इस भवमे ऊपर कहे अनुसार भान हो, इस बातको यथातथ्य मानें तो भी पूर्वभवमे अनुभव किये हुए देहादि अथवा कोई देवलोकादि निवासस्थानके जो अनुभव किये हो, उन अनुभवोकी स्मृति हुई है, और वे अनुभव यथातथ्य हुए है, ऐसा किस आधारसे समझा जाय ?" तो इस प्रश्नका समा
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धान इस प्रकार है - अमृक अमुक चेष्टा और लिंग तथा परिणाम आदिसे अपनेको उसका स्पष्ट भान होता हे, परन्तु किसी दूसरे जीवको उसकी प्रतीति हो ऐसा तो कोई नियम नही है । क्वचित् अमुक देशमे, अमुक गाँव, अमुक घरमे, पूर्वकालमे देह धारण किया हो, और उसके चिह्न दूसरे जीवको बतानेसे उस देशादिकी अथवा उसके निशानादिकी कुछ भी विद्यमानता हो तो दूसरे जीवको भी प्रतीतिका हेतु होना सम्भव है; अथवा जातिस्मरेणज्ञानवालेकी अपेक्षा जिसका विशेष ज्ञान है, वह जाने । तथा जिसे 'जाति - स्मरणज्ञान' है, उसकी प्रकृति आदिको जाननेवाला कोई विचारवान पुरुष भी जाने कि इस पुरुषको वैसे किसी ज्ञानका सम्भव है, अथवा 'जातिस्मृति' होना सम्भव है, अथवा जिसे 'जातिस्मृतिज्ञान' है, उस पुरुषके सम्बन्धमे कोई जीव पूर्वभवमे आया है, विशेषत आया उसे उस सम्बन्धके बतानेसे कुछ भी स्मृति हो तो वैसे जीवको भी प्रतीति आये ।
है
दूसरा प्रश्न - 'जीव प्रति समय मरता है, इसे किस तरह समझना ?? इसका उत्तर इस प्रकार विचारियेगा -
जिस प्रकार आत्माको स्थूल देहका वियोग होता है, उसे मरण कहा जाता है, उस प्रकार स्थूल देह आयु आदि सूक्ष्मपर्यायका भी प्रति समय हानिपरिणाम होनेसे वियोग हो रहा है, इसलिये उसे प्रति समय मरण कहना योग्य है । यह मरण व्यवहारनयसे कहा जाता है, निश्चयनयसे तो आत्माके स्वाभाविक ज्ञानदर्शनादि गुणपर्यायकी, विभावपरिणामके योगके कारण हानि हुआ करती है, और वह हानि आत्मा नित्यतादि स्वरूपको भी आवरण करती रहती है, यह प्रति समय मरण है ।
तीसरा प्रश्न - 'केवलज्ञानदर्शनमे भूत और भविष्यकालके पदार्थ वर्तमानकालमे वर्तमानरूपसे दिखायी देते हैं, वैसे ही दिखायी देते हैं या दूसरी तरह " इसका उत्तर इस प्रकार विचारियेगा
'
वर्तमान मे वर्तमान पदार्थ जिस प्रकार दिखायी देते हैं, जिस स्वरूपसे थे उस स्वरूपसे वर्तमानकालमे दिखायी देते हैं, को प्राप्त करेंगे उस स्वरूपसे वर्तमानकालमे दिखायी देते हैं । अपनाया है, वे कारणरूपसे वर्तमानमे पदार्थमे निहित है और भविष्यकालमे जिन जिन पर्यायोको अपनायेगा उनकी योग्यता वर्तमानमे पदार्थमे विद्यमान है । उस कारण और योग्यताका ज्ञान वर्तमानकालमे भी केवलज्ञानीको यथार्थ स्वरूपसे हो सकता है । यद्यपि इस प्रश्नके विषयमे बहुतसे विचार बताना योग्य है ।
भूतकालमे पदार्थने जिन जिन पर्यायोको
उसी प्रकार भूतकालके पदार्थ भूतकालमे और भविष्यकालमे वे पदार्थ जिस स्वरूप
ववाणिया, श्रावण वदी १२, शनि, १९५१ मुख्यत तीन प्रश्न लिखे हैं । उनके उत्तर
६३० गत शनिवारको लिखा हुआ पत्र मिला है। उस पत्रमे निम्नलिखित है, जिन्हे विचारियेगा :
प्रथम प्रश्न ऐसा बताया है कि 'एक मनुष्यप्राणी दिनके समय आत्माके गुण द्वारा अमुक हद तक देख सकता है, और रात्रिके समय अधेरेमे कुछ नही देखता, फिर दूसरे दिन पुनः देखता है और फिर रात्रिको अधेरेमे कुछ नही देखता । इससे एक अहोरात्रमे चालू इस प्रकारसे आत्माके गुणपर, अध्यवसायके बदले विना, क्या न देखनेका आवरण आ जाता होगा ? अथवा देखना यह आत्माका गुण नही परन्तु सूरज द्वारा दिखायी देता है, इसलिये सूरजका गुण होनेसे उसकी अनुपस्थितिमे दिखायी नही देता ? और फिर इसी तरह सुननेके दृष्टातमे कान आडा रखनेसे सुनायी नही देता, तब आत्माका गुण क्यो भुला दिया जाता है ?" इसका संक्षेपमे उत्तर
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श्रीमद राजचन्द्र ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मका अमुक क्षयोपशम होनेसे इद्रियलब्धि उत्पन्न होती है। वह इद्रियलब्धि सामान्यतः पाँच प्रकारको कही जा सकती है। स्पर्शेद्रियसे श्रवणेद्रिय पर्यन्त सामान्यतः मनुष्यप्राणीको पाँच इद्रियोको लब्धिका क्षयोपशम होता है। उस क्षयोपशमकी शक्तिकी अमुक व्याहति होने तक जान-देख सकती है। देखना यह चक्षुरिंद्रियका गुण है, तथापि अधकारसे अथवा वस्तु अमुक दूर होनेसे उसे पदार्थ देखनेमे नही आ सकता; क्योकि चक्षुरिंद्रियकी क्षयोपशमलब्धि उस हद तक रुक जाती है, अर्थात् क्षयोपशमकी सामान्यत. इतनी शक्ति है । दिनमे भी विशेष अधकार हो अथवा कोई वस्तु बहुत अधेरेमे पड़ी हो अथवा अमुक हदसे दूर हो तो चक्षुसे दिखायी नही दे सकती । इसी तरह दूसरी इद्रियोकी लब्धिसम्बन्धी क्षयोपशमशक्ति तक उसके विषयमे ज्ञानदर्शनको प्रवृत्ति है। अमुक व्याघात तक वह स्पर्श कर सकती है, अथवा सूंघ सकती है, स्वाद पहचान सकती है, अथवा सुन सकती है।
दूसरे प्रश्नमे ऐसा बताया है कि 'आत्माके असंख्यात प्रदेश सारे शरीरमे व्यापक होनेपर भी, आँखके बीचके भागकी पुतलीसे ही देखा जा सकता है, इसी तरह सारे शरीरमे असंख्यात प्रदेश व्यापक होनेपर भी एक छोटेसे कानसे सुना जा सकता है, दूसरे स्थानसे सुना नही जा सकता । अमुक स्थानसे गन्धकी परीक्षा होती है, अमुक स्थानसे रसकी परीक्षा होती है, जैसे कि शक्करका स्वाद हाथ-पैर नही जानते, परन्तु जिह्वा जानली है । आत्मा सारे शरीरमे समानरूपसे व्यापक होनेपर भी अमुक भागसे ही ज्ञान होता है, इसका कारण क्या होगा? इसका संक्षेपमे उत्तर :
जीवको ज्ञान, दर्शन क्षायिकभावसे प्रगट हए हों तो सर्व प्रदेशसे तथाप्रकारकी उसे निरावरणता होनेसे एक समयमे सर्व प्रकारसे सर्व भावकी ज्ञायकता होती है, परन्तु जहाँ क्षयोपशम भावसे ज्ञानदर्शन रहते हैं, वहाँ भिन्न भिन्न प्रकारसे अमुक मर्यादामे ज्ञायकता होती है। जिस जीवको अत्यन्त अल्प ज्ञानदर्शनकी क्षयोपशमशक्ति रहती है, उस जीवको अक्षरके अनंतवें भाग जितनी ज्ञायकता होती है। उससे विशेष क्षयोपशमसे स्पर्शेद्रियकी लब्धि कुछ विशेष व्यक्त (प्रगट) होती है, उससे विशेष क्षयोपशमसे स्पर्श और रसेंद्रियकी लब्धि उत्पन्न होती है, इस तरह विशेपतासे उत्तरोत्तर स्पर्श, रस, गध और वर्ण तथा शब्दको ग्रहण करने योग्य पंचेन्द्रिय सम्बन्धी क्षयोपशम होता है । तथापि क्षयोपशमदशामे गुणकी समविषमता होनेसे सर्वाङ्गसे पचेन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान और दर्शन नही होते, क्योकि शक्तिका वैसा तारतम्य ( सत्त्व ) नही है कि वह पांचो विषय सर्वाङ्गसे ग्रहण करे। यद्यपि अवधि आदि ज्ञानमे वैसा होता है, परन्तु यहाँ तो सामान्य क्षयोपशम, और वह भी इन्द्रिय सापेक्ष क्षयोपशमका प्रसग है। अमुक नियत प्रदेशमे ही उस इन्द्रियलब्धिका परिणाम होता है, इसका हेतु क्षयोपशम तथा प्राप्त हुई योनिका सम्बन्ध है कि नियत प्रदेशमे ( अमुक मर्यादा-भागमे ) अमुक अमुक विषयका जीवको ग्रहण हो।
तीसरे प्रश्नमे ऐसा बताया है कि, 'शरीरके अमुक भागमे पीडा होती है, तब जीव वही संलग्न हो जाता है, इससे जिस भागमे पीडा है उस भागको पीडाका वेदन करनेके लिये समस्त प्रदेश उस तरफ खिंच आते होगे ? जगतमे कहावत है कि जहां पीड़ा हो, वही जीव सलग्न रहता है।' इसका सक्षेपमे उत्तर -
- उस वेदनाके वेदन करनेमे बहुतसे प्रसगोमे विशेष उपयोग रुकता है और दूसरे प्रदेशोका उस ओर बहुतसे प्रसगोमे सहज आकर्पण भी होता है। किसी प्रसंगमे वेदनाका बाहुल्य हो तो सर्व प्रदेश मूर्छागत स्थिति भी प्राप्त करते है, और किसी प्रसगमे वेदना या भयके वाहुल्यके कारण सर्व प्रदेश अर्थात् आत्माकी दशमद्वार आदि' एक स्थानमे स्थिति होती है। ऐसा होनेका हेतु भी अव्यावाध नामके जीवस्वभावके तथाप्रकारसे परिणामी न होनेसे, उस वीर्यान्तरायके क्षयोपशमकी समविषमता होती है।
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- . ६३१ , ववाणिया, श्रावण वदी १४, सोम,१९५१ प्रथम पदमे ऐसा कहा है कि 'हे मुमुक्षु | एक आत्माको जाननेसे तू समस्त लोकालोकको जानेगा, और सब जाननेका फल भी एक आत्मप्राप्ति ही है, इसलिये आत्मासे भिन्न अन्य भावोको जाननेको वारवारकी इच्छासे तू निवृत्त हो और एक निजस्वरूपमे दृष्टि दे, कि जिस दृष्टिसे समस्त सृष्टि ज्ञेयरूपसे तुझमे दिखायी देगी । तत्त्वस्वरूप सत्शास्त्री कहे हुए मार्गका भी यह तत्त्व है, ऐसा तत्त्वज्ञानियोने कहा है, तथापि उपयोगपूर्वक उसे समझना दुष्कर है। यह मार्ग भिन्न है, और उसका स्वरूप भी भिन्न है, जैसा मात्र कथनज्ञानी कहते हैं, वैसा नहीं है, इसलिये जगह जगह जाकर क्यो पूछता है ? क्योकि उस अपूर्वभावका अर्थ जगह जगहसे प्राप्त होने योग्य नहीं है।'
दूसरे पदका सक्षेप अर्थ -'हे मुमुक्षु । यमनियमादि जो साधन सब शास्त्रोमे कहे हैं वे उपर्युक्त अर्थसे निष्फल ठहरेंगे, ऐसा भी नही है, क्योकि वे भी कारणके लिये है, वह कारण इस प्रकार हैआत्मज्ञान रह सके ऐसी पात्रता प्राप्त हो नेके लिये तथा उसमे स्थिति हो वैसी योग्यता आनेके लिये इन कारणोका उपदेश किया है। इसलिये तत्त्वज्ञानियोने ऐसे हेतुसे ये सावन कहे हैं, परन्तु जोवकी समझमे नितान्त फेर होनेसे उन साधनोमे ही अटका रहा अथवा वे साधन भी अभिनिवेश परिणामसे अपनाये । जिस प्रकार उँगलीसे बालकको चाँद दिखाया जाता है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञानियोने यह तत्त्वका तत्त्व कहा है।' .
६३२ । 'वाणिया, श्रावण वदी १४, सोम, १९५१ 'बाल्यावस्थाको अपेक्षा युवावस्थामे इन्द्रियविकार विशेषरूपसे उत्पन्न होता है, उसका क्या कारण होना चाहिये " ऐसा जो लिखा उसके लिये सक्षेपमे इस प्रकार विचारणीय है.--,
ज्यो ज्यो क्रमसे अवस्था बढती हे त्यो त्यो इन्द्रियबल बढता है, तथा उस वलको विकारके हेतुभूत निमित्त मिलते है, और पूर्वभवके वैसे विकारके सस्कार रहते आये हैं, इसलिये वह निमित्त आदि योग पाकर विशेष परिणामको प्राप्त होता है। जैसे बीज है वह तथापि कारण पांकर क्रमसे वृक्षाकारमे परिणमित होता है वैसे पूर्वके वीजभूत सस्कार क्रमसे विशेपाकारमे परिणमित होते है।
६३३ ववाणिया, श्रावण वदी १४, सोम, १९५१ आत्मार्थ-इच्छायोग्य श्री लल्लुजीके प्रति, श्री सूर्यपुर ।
आपके लिखे हुए दो पत्र तथा श्री देवकरणजीका लिखा हुआ एक पत्र, ये तीन पत्र मिले है। आत्मसाधनके लिये क्या कर्तव्य है, इस विषयमे श्री देवकरणजोंको यथाशक्ति विचार करना योग्य है । इस प्रश्नका समाधान हमारेसे जाननेके लिये उनके चित्तमे विशेष अभिलापा रहती हो तो किसी समागमके प्रसंगपर यह प्रश्न करना योग्य है, ऐसा उन्हे कहियेगा।'
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श्रीमद राजचन्द्र ___ इस प्रश्नका समाधान पत्र द्वारा बताना क्वचित् हो सके । तथापि लिखनेमे अभी विशेष उपयोगकी प्रवृत्ति नही हो सकती । तथा श्री देवकरणजीको भी अभी इस विषयमे यथाशक्ति विचार करना चाहिये।
सहजस्वरूपसे यथायोग्य ।
ववाणिया, भादों सुदी ७, मंगल, १९५१ आज दिन तक अर्थात् संवत्सरी तक आपके प्रति मन, वचन और कायाके योगसे मुझसे जानेअनजाने कुछ अपराध हुआ हो उसके लिये शुद्ध अत करणपूर्वक लघुताभावसे क्षमा मांगता हूँ । इसी प्रकार अपनी बहनको भी खमाता हूँ। यहाँसे इस रविवारको विदाय होनेका विचार है।
लि० रायचंदके यथा०
६३५ ववाणिया, भादो सुदी ७, मगल, १९५१ सवत्सरी तक तथा आज दिन तक आपके प्रति मन, वचन और कायाके योगसे जो कुछ जाने अनजाने अपराध हुआ हो उसके लिये सर्व भावसे क्षमा मांगता हूँ। तथा आपके सत्समागमवासी सब भाइयो तथा बहनोसे क्षमा मांगता हूँ।
__यहाँसे प्रायः रविवारको जाना होगा ऐसा लगता है। मोरबीमे सुदी १५ तक स्थिति होना सम्भव हे । उसके बाद किसी निवृत्तिक्षेत्रमे लगभग पन्द्रह दिनकी स्थिति हो तो करनेके लिये चित्तकी सहजवृत्ति रहती है। कोई निवृत्तिक्षेत्र ध्यानमे हो तो लिखियेगा।
आ० सहजात्मस्वरूप।
ववाणिया, भादो सुदी ९, गुरु, १९५१ निमित्तसे जिसे हर्ष होता है, निमित्तसे जिसे शोक होता है, निमित्तसे जिसे इद्रियजन्य विषयके प्रति आकर्षण होता है, निमित्तसे जिसे इन्द्रियके प्रतिकूल प्रकारोमे द्वेष होता है, निमित्तसे जिसे उत्कर्ष आता है, निमित्तसे जिसे कषाय उत्पन्न होता है, ऐसे जीवको यथाशक्ति उन निमित्तवासी जीवोका सग छोड़ना योग्य है, और नित्य प्रति सत्सग करना योग्य है। - सत्सगके अयोगमे तथाप्रकारके निमित्तसे दूर रहना योग्य है। क्षण क्षणमे, प्रसंग प्रसंगपर और निमित्त निमित्तमे स्वदशाके प्रति उपयोम देना योग्य है।
आपका पत्र मिला है । आज तक सर्व भावसे क्षमा मांगता हूँ। '
__ववाणिया, भादो सुदी ९. गुरु, १९५१ आज दिन तक सर्व भावसे क्षमा मांगता हूँ। नोचे लिखे वाक्य तथारूप प्रसगपर विस्तारसे समझने योग्य हैं।
'अनुभवप्रकाश' ग्रन्थमेसे श्री प्रह्लादजीके प्रति सद्गुरुदेवका कहा हुआ जो उपदेशप्रसग लिखा, वह वास्तविक है। तथारूपसे निर्विकल्प और अखंड स्वरूपमे अभिन्नज्ञानके सिवाय अन्य कोई सर्व दुख मिटानेका उपाय ज्ञानीपुरुषोने नहीं जाना है। यही विनती।।
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६३८ राणपुर (हमतिया), भादो वदी १३, १९५१ दो पत्र मिले थे । कल यहाँ अर्थात् राणपुरके समीपके गाँवमे आना हुआ है । अति पत्र प्रश्न लिखे थे, वह पत्र कही गुम हुआ मालूम होता है । सक्षेपमे निम्नलिखित उत्तरका विचार कीजियेगा
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(१) धर्म, अधर्मं द्रव्य स्वभावपरिणामी होनेसे निष्क्रिय कहे है । परमार्थनय से ये द्रव्य भी सक्रिय है । व्यवहारसे परमाणु, पुद्गल और ससारी जीव सक्रिय हैं, क्योंकि वे अन्योन्य ग्रहण, त्याग आदिसे. एक परिणामवत् सम्बन्ध पाते है | सड़ना यावत् विध्वस पाना यह पुद्गलपरमाणुका धर्म कहा है । परमार्थसे शुभ वर्णादिका पलटना और स्कधका मिलकर बिखर जाना कहा है
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[ पत्र खंडित ]
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राणपुर, आसोज सुदी २, शुक्र, १९५१ हो सके तो जहाँ आत्मार्थकी कुछ भी चर्चा होती हो वहाँ जाने-आनेका और श्रवण आदिका प्रसग करना योग्य है | चाहे तो जैनके सिवाय दूसरे दर्शनको व्याख्या होती हो तो उसे भो विचारार्थ श्रवण करना योग्य है ।
बम्बई, आसोज सुदी ११, १९५१
आज सुबह यहाँ कुशलतासे आना हुआ है ।
वेदान्त कहता है कि आत्मा असंग है, जिनेन्द्र भी कहते हैं कि परमार्थनयसे आत्मा वैसा ही है । इसी असंगताका सिद्ध होना, परिणत होना—यह मोक्ष है । स्वत. वैसी असगता सिद्ध होना प्राय. असभवित है, और इसीलिये ज्ञानपुरुषोने, जिसे सर्व दुख क्षय करनेकी इच्छा है उस मुमुक्षुको सत्सगकी नित्य उपासना करनी चाहिये, ऐसा जो कहा है वह अत्यन्त सत्य है ।
हमारे प्रति अनुकंपा रखियेगा । कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा । श्री डुंगरको प्रणाम ।
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बम्बई, आसोज सुदी १२, सोम, १९५१ " देखतभूली टळे तो सर्व दु खनो क्षय थाय' ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है, फिर भी उसो देखतभूलीके प्रवाहमे ही जीव बहा चला जाता है, ऐसे जीवोके लिये इस जगतमे कोई ऐसा आधार है कि जिस आधारसे, आश्रयसे वे प्रवाहमे न बहे ?
प्राप्त हो
६४०
६४२
बबई, आसोज सुदी १३, १९५१
समस्त विश्व प्राय परकथा तथा परवृत्तिमे वहा चला जा रहा है, उसमे रहकर स्थिरता कहाँ से
?
ऐसे अमूल्य मनुष्य जन्मका एक सम्य भी परवृत्तिसे जाने देना योग्य नही है, और कुछ भी वैसा हुआ करता है, इसका उपाय कुछ विशेषतः खोजने योग्य है ।
ज्ञानीपुरुषका निश्चय होकर अतर्भेद न रहे तो आत्मप्राप्ति एकदम सुलभ है, ऐसा ज्ञानी पुकारकर कह गये हैं, फिर भी लोग क्यो भूलते हैं ? श्री डुगरको प्रणाम ।
१. भावार्थ - देखते ही भूलनेकी आदत दूर हो जाये तो सर्व दुःखका क्षय हो जाये ।
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बबई, आसोज सुदी १३, १९५१ सी तथा निंबपुरीवासी मुमुक्षुजनके प्रति, श्री स्तभतीर्थ । छने योग्य लगता हो तो पूछियेगा । । करने योग्य कहा हो, वह विस्मरण योग्य न हो इतना उपयोग करके क्रमसे भी उसमे
करना योग्य है। त्याग, वैराग्य, उपशम और भक्तिको सहज स्वभावरूप कर डाले बिना त्मिदशा कैसे आये ? परन्तु शिथिलतासे, प्रमादसे यह बात विस्मृत हो जाती है।
६४४ बबई, आसोज वदी ३, रवि, १९५१ ला है। से विपरोत अभ्यास है, इससे वैराग्य, उपशमादि भावोकी परिणति एकदम नही हो सकती, ठन पड़तो है, तथापि निरतर उन भावोके प्रति ध्यान रखनेसे अवश्य सिद्धि होती है । गोग न हो तब वे भाव जिस प्रकारसे वर्धमान हो उस प्रकारके द्रव्यक्षेत्रादिकी उपासना
का परिचय करना योग है। सब कार्यकी प्रथम भूमिका विकट होती है, तो अनतकालस मुमुक्षुताके लिये वैसा हो इसमे कुछ आश्चर्य नही है ।
सहजात्मस्वरूपसे प्रणाम । ६४५
बबई, आसोज वदी ११, १९५१ समागम योग्य, आर्य श्री सोभाग तथा श्री डुगरके प्रति, श्री सायला ।। यपूर्वक-श्री सोभागका लिखा हुआ पत्र मिला है। या ते शमाई रह्या', तथा 'समज्या ते शमाई गया', इन वाक्योमे कुछ अर्थान्तर होता है नोमेसे कौनसा वाक्य विशेषार्थ वाचक मालूम होता है ? तथा समझने योग्य क्या है ? नथा ' तथा समुच्चय वाक्यका एक परमार्थ क्या है ? यह विचारणीय है, विशेषरूपसे विचारणीय वचारमे आया हो उसे तथा विचार कहते हुए उन वाक्योका जो विशेष परमार्थ ध्यानमे लेख सकें तो लिखियेगा । यही विनती।
सहजात्मस्वरूपसे यथा०
__ बबई, आसोज, १९५१ वोको अप्रिय होनेपर भी जिस दुःखका अनुभव करना पड़ता है, वह दुःख सकारण होना भूमिकासे मुख्यतः विचारवानकी विचारश्रेणि उदित होती है, और उस परसे अनुक्रमसे परलोक, मोक्ष आदि भावोका स्वरूप सिद्ध हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। नमे यदि अपनी विद्यमानता है, तो भूतकालमे भी उसकी विद्यमानता होनी चाहिये और वैसा ही होना चाहिये। इस प्रकारके विचारका आश्रय मुमुक्षुजीवको कर्तव्य है। किसी पूर्वपश्चात् अस्तित्व न हो तो मध्यमे उसका अस्तित्व नही होता, ऐसा अनुभव विचार
ने सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वथा नाश नही है, सर्व काल उसका अस्तित्व है, रूपान्तर परिणाम वस्तुता बदलती नही है, ऐसा श्री जिनेन्द्रका अभिमत है, वह विचारणीय है।
५१।
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२८ वॉ वर्ष
४९३
'षड्दर्शनसमुच्चय' कुछ गहन है, तो भी पुन पुनः विचार करनेसे उसका बहुत कुछ बोध होगा । ज्योज्यो चित्ती शुद्धि ओर स्थिरता होती है त्यो त्यो ज्ञानीके वचनका विचार यथायोग्य हो सकता है । सर्वं ज्ञानका फल भी आत्मस्थिरता होना यही है, ऐसा वीतराग पुरुषोने जो कहा है वह अत्यन्त सत्य है । मेरे योग्य कामकाज लिखियेगा । यही विनती ।
लि० रायचन्दके प्रणाम विदित हो ।
६४७
बबई, आसोज, १९५१
निर्वाणमार्ग अगम अगोचर है, इसमे सशय नही है । अपनी शक्तिसे, सद्गुरुके आश्रयके बिना उस मार्गको खोजना अशक्य है, ऐसा वारवार दिखायी देता है । इतना ही नही, किन्तु श्री सद्गुरुचरणके आश्रयसे जिसे बोधबीजकी प्राप्ति हुई हो ऐसे पुरुषको भी सद्गुरुके समागमका आराधन नित्य कर्तव्य है । जगतके प्रसग देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि वैसे समागम और आश्रयके बिना निरालम्ब बोध स्थिर रहना विकट है ।
बबई, आसोज, १९५१
दृश्यको अदृश्य किया, और अदृश्यको दृश्य किया ऐसा ज्ञानीपुरुषोका आश्चर्यकारक अनन्त ऐश्वर्यवीर्य वाणीसे कहा जा सकने योग्य नही है ।
६४८
६४९
बबई, आसोज, १९५१
- बीता हुआ एक पल भी फिर नही आता, और वह अमूल्य है, तो फिर सारी आयुस्थिति । एक पलका हीन उपयोग एक अमूल्य कौस्तुभ खो देनेसे भी विशेष हानिकारक है, तो वैसे साठ पलकी एक घडीका हीन उपयोग करनेसे कितनी हानि होनी चाहिये ? इसी तरह एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक वर्ष और अनुक्रमसे सारी आयुस्थितिका होन उपयोग, यह कितनी हानि और कितने अश्रेयका कारण होगा, यह विचार शुक्ल हृदयसे तुरत आ सकेगा । सुख और आनन्द यह सर्व प्राणियो, सर्व जीवो, सर्व सत्त्वो और सर्व जन्तुओको निरन्तर प्रिय हैं, फिर भी दुःख और आनन्द भोगते है, इसका क्या कारण होना चाहिये ? अज्ञान और उसके द्वारा जिन्दगीका हीन उपयोग । हीन उपयोग होने से रोकनेके लिये प्रत्येक प्राणीकी इच्छा होनी चाहिये, परन्तु किस साधनसे ?
६५०
बवई, आसोज, १९५१
जिन पुरुषोकी अन्तर्मुखदृष्टि हुई है उन पुरुषोको भी सतत जागृतिरूप शिक्षा श्री वीतरागने दी है, क्योकि अनन्तकालके अध्यासवाले पदार्थोंका सग है वह कुछ भी दृष्टिको आकर्षित करे ऐसा भय रखना योग्य है। ऐसी भूमिकामे इस प्रकारकी शिक्षा योग्य है, ऐसा है तो फिर जिसकी विचारदशा है ऐसे मुमुक्षुजीवको सतत जागृति रखना योग्य है, ऐसा कहनेमे न आया हो, तो भी स्पष्ट समझा जा सकता है कि मुमुक्षुजीवको जिस जिस प्रकारसे पर अभ्यास होने योग्य पदार्थ आदिका त्याग हो, उस उस प्रकारसे अवश्य करना योग्य है। यद्यपि आरम्भ- परिगहका त्याग स्थूल दिखायी देता है तथापि अन्तर्मुखवृत्तिका हेतु होनेसे वारवार उसके त्यागका उपदेश दिया है ।
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२९ वाँ वर्ष ६५१
ववई, कात्तिक, १९५२ 'जैसा है वैसा आत्मस्वरूप जाना, इसका नाम समझना है। इससे उपयोग अन्य विकल्पसे रहित हुआ, इसका नाम शात होना है। वस्तुतः दोनो एक ही है।
जैसा है वैसा समझनेसे उपयोग स्वरूपमे शात हो गया, और आत्मा स्वभावमय हो गया, यह प्रथम वाक्य-'समजीने शमाई रह्या' का अर्थ है।
अन्य पदार्थके संयोगमे जो अध्यास था, और उस अध्यासमे जो आत्मत्व माना था वह अध्यासरूप आत्मत्व शात हो गया, यह दूसरे वाक्य-'समजीने शमाई गया' का अर्थ है ।
पर्यायातरसे अर्थातर हो सकता है। वास्तवमे दोनो वाक्योका परमार्थ एक ही विचारणीय है।
जिस जिसने समझा उस उसने मेरा तेरा इत्यादि महत्व, ममत्व शात कर दिया; क्योकि कोई भी निज स्वभाव वसा देखा नही, और निज स्वभाव तो अचित्य, अव्यावाधस्वरूप सर्वथा भिन्न देखा, इसलिये उसीमे समाविष्ट हो गया।
आत्माके सिवाय अन्यमे स्वमान्यता थी, उसे दूर कर परमार्थसे मौन हुआ, वाणीसे 'यह इसका है' इत्यादि कथन करनेख्प व्यवहार वचनादि योग तक क्वचित् रहा, तथापि आत्मासे 'यह मेरा है', यह विकल्प सर्वथा शात हो गया, यथातथ्य अचिंत्य स्वानुभवगोचरपदमे लीनता हो गयी।
ये दोनो वाक्य लोकभाषामे प्रचलित हुए है, वे 'आत्मभाषा'मेसे आये है। जो उपर्यक्त प्रकारसे शात नही हुए वे समझे नही है ऐसा इस वाक्यका सारभूत अर्थ हुआ, अथवा जितने अंशमे शात हुए उतने अशमे समझे, और जिस प्रकारसे शात हुए उस प्रकारसे समझे इतना विभागार्थ हो सकने योग्य है, तथापि मुख्य अर्थमे उपयोग लगाना योग्य है।
अनतकालसे यम, नियम, शास्त्रावलोकन आदि कार्य करनेपर भी समझना और शात होना यह प्रकार आत्मामे नही आया, और इससे परिभ्रमणनिवृत्ति नही हुई।
जो कोई समझने और शात होनेका ऐक्य करे, वह स्वानुभवपदमे रहे, उसका परिभ्रमण निवृत्त हो जाये । सद्गुरुकी आज्ञाका विचार किये बिना जीवने उस परमार्थको जाना नही, और जाननेमे प्रतिवरूप असत्सग, स्वच्छद और अविचारका निरोध नहीं किया, जिससे समझना और शात होना तथा दोनोका ऐक्य नही हुआ, ऐसा निश्चय प्रसिद्ध है।
१. देखें आक ६४५ ।
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२९ वो वर्ष
४९५
यहाँसे आरंभ करके ऊपर ऊपरकी भूमिकाकी उपासना करे तो जीव समझकर शात हो जाये, यह निसदेह है।
अनंत ज्ञानी पुरुषोंका अनुभव किया हुआ यह शाश्वत सुगम मोक्षमार्ग जीवके ध्यानमे नही आता, इससे उत्पन्न हुए खेदसहित आश्चर्यको भी यहाँ शात करते हैं। सत्संग, सद्विचारसे शात होने तकके सर्व पद अत्यत सच्चे हैं, सुगम हैं, सुगोचर हैं, सहज हैं और निःसंदेह हैं।
____ॐ ॐ ॐ ॐ
६५२ बबई, कार्तिक सुदी ३, सोम, १९५२ श्री वेदातमे, निरूपित मुमुक्षुजीवके लक्षण तथा श्री जिनेंद्र द्वारा निरूपित सम्यग्दृष्टि जीवके लक्षण सुनने योग्य हैं, (तथारूप योग न हो तो पढने योग्य हैं;) विशेषरूपसे मनन करने योग्य हैं, आत्मामे परिणत करने योग्य हैं । अपने क्षयोपशमबलको कम जानकर अहंताममतादिका पराभव होनेके लिये नित्य अपनी न्यूनता देखना; विशेष सग प्रसंग कम करना योग्य है । यही विनती।
६५३ ठंबई, कात्तिक सुदी १३, गुरु, १९५२ दो पत्र मिले है। , आत्महेतुभूत सगके सिवाय मुमुक्षुजीवको सर्व सग कम करना योग्य है। क्योकि उसके बिना परमार्थका आविर्भूत होना कठिन है, और इस कारण श्री जिनेंद्रने यह व्यवहार द्रव्यसयमरूप साधुत्वका उपदेश किया है। यही विनती।
सहजात्मत्वरूप। ६५४
बबई, कार्तिक सुदी १३, गुरु, १९५२ पहले एक पत्र मिला था। जिस पत्रका उत्तर लिखनेका विचार किया था। तथापि विस्तारसे लिख सकना अभी कठिन मालूम हुआ, जिससे आज सक्षेपमे पहुँचके रूपमे चिट्ठी लिखनेका विचार हुआ था । आज आपका लिखा हुआ दूसरा पत्र मिला है।
अतर्लक्ष्यवत् अभी जो वृत्ति रहती हुई दीखती है वह उपकारी है, और वह वृत्ति क्रमसे परमार्थकी यथार्थतामे विशेष उपकारभूत होती है । यहाँ आपने दोनो पत्र लिखे, इससे कोई हानि नही है। अभी सुदरदासजीका ग्रथ अथवा श्री योगवासिष्ठ पढियेगा । श्री सोभाग यहाँ है ।
६५५ बबई, कार्तिक वदी ८, रवि, १९५२ , निशदिन नैनमें नोंद न आवे, __ नर तबहि नारायन पावे।
-श्री सुन्दरदासजी
६५६ ववई, मार्गशीर्ष सुदी १०, मगल, १९५२ श्री त्रिभोवनके साथ इतना सूचित किया था कि आपके पहले पत्र मिले थे, उन पत्रो आदिसे वर्तमान दशाको जानकर उस दशाको विशेषताके लिये संक्षेपमे कहा था।
जिस जिस प्रकारसे परद्रव्य (वस्तु) के कार्यकी अल्पता हो, निज दोष देखनेका दृढ ध्यान रहे, और सत्समागम, सत्शास्त्रमे वर्धमान परिणतिसे परम भक्कि रहा करे उस प्रकारको आत्मता करते हुए, तथा ज्ञानीके वचनोका विचार करनेसे दशा विशेषता प्राप्त करते हुए यथार्थ समाधिके योग्य हो, ऐसा लक्ष्य रखियेगा, ऐसा कहा था। यही विनती।
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४९६
श्रीमद राजचन्द्र
६५७
बबई, मार्गशीर्ष सुदी १०, मंगल, १९५२ शुभेच्छा, विचार, ज्ञान इत्यादि सब भूमिकाओ मे सर्वसंगपरित्याग बलवान उपकारी है, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुषोने 'अनगारत्व' का निरूपण किया है । यद्यपि परमार्थसे सर्वसंगपरित्याग यथार्थ बोध होने पर प्राप्त होना योग्य है, यह जानते हुए भी यदि सत्संगमे नित्य निवास हो, तो वैसा समय प्राप्त होना योग्य है ऐसा जानकर, ज्ञानीपुरुषोने सामान्यतः बाह्य सर्वसंगपरित्यागका उपदेश दिया है, कि जिस निवृत्तिके योगसे शुभेच्छावान जीव सद्गुरु, सत्पुरुष और सत्शास्त्रकी यथायोग्य उपासना करके यथार्थं बोध प्राप्त करे । यही विनती ।
६५८
बंबई, पौष सुदी ६, रवि, १९५२
तीनो पत्र मिले है । स्थभतीर्थ कव जाना सम्भव है ? वह लिख सकें तो लिखियेगा । दो अभिनिवेशोंके बाधक रहते होनेसे जीव 'मिथ्यात्व' का त्याग नही कर सकता । वे इस प्रकार है - 'लौकिक' और 'शास्त्रीय' । क्रमश. सत्समागमके योगसे जीव यदि उन अभिनिवेशोको छोड दे तो 'मिथ्यात्व' का त्याग होता है, ऐसा वारवार ज्ञानी पुरुषोने शास्त्रादि द्वारा उपदेश दिया है फिर भी जीव उन्हें छोडनेके प्रति उपेक्षित किसलिये होता है ? यह बात विचारणीय है ।
६५९
बबई, पौष सुदी ६, रवि, १९५२ सर्वग्दु खका मूल सयोग (सबध) है, ऐसा ज्ञानी तीर्थंकरोने कहा है । समस्त ज्ञानीपुरुषोने ऐसा देखा है । वह सयोग मुख्यरूपसे दो प्रकारका कहा है- 'अंतरसम्बन्धी' और 'बाह्यसम्बन्धी' । अतर सयोग का विचार होनेके लिये आत्माको बाह्यसयोगका अपरिचय कर्तव्य है, जिस अपरिचयकी सपरमार्थ इच्छा ज्ञानी पुरुष भी की है ।
६६०
बबई, पौष सुदी ६, रवि, १९५२ "श्रद्धा ज्ञान लह्यां छे तोपण, जो नवि जाय पमायो (प्रमाद) रे, वंध्य तरु उपम ते पामे, संयम ठाण जो नायो रे;
- गायो रे, गायो, भले वीर जगत्गुरु गायो ।'
बबई, पौष सुदी ८, मगल, १९५२
६६१
आज एक पत्र मिला है ।
आत्मार्थके सिवाय जिस जिस प्रकारसे जीवने शास्त्रकी मान्यता करके कृतार्थता मानी है, वह सर्व ‘शास्त्रीय अभिनिवेश' है। स्वच्छदता दूर नही हुई, और सत्समागमका योग प्राप्त हुआ है, उस योग भी स्वच्छदताके निर्वाहके लिये शास्त्र के किसी एक वचनको बहुवचन जैसा बताकर, मुख्य साधन जो सत्समागम है, उसके समान शास्त्रको कहता है अथवा उससे विशेष भार शास्त्रपर देता है, उस जीवको भी 'अप्रशस्त शास्त्रीय अभिनिवेश' है । आत्माको समझनेके लिये शास्त्र उपकारी है, ओर वह भी स्वच्छदरहित पुरुषको इतना ध्यान रखकर सत्शास्त्रका विचार किया जाये तो वह 'शास्त्रीय अभिनिवेश' गिनने योग्य नही है । सक्षेप लिखा है ।
१ भावार्थ-द्धा ओर ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर भी यदि सयमस्थान नही आया ओर प्रमादका नाश नही हुआ तो जीव वाझ वृक्षको उपमाको पाता है । जगतगुरु वीर प्रभुने केसा सुन्दर उपदेश दिया है।
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२९ वॉ वर्ष
૪૨૭ ६६२
बबई, पौष वदी, १९५२, सर्व प्रकारके भयके रहनेके-स्थानरूप इस संसारमे मात्र एक वैराग्य ही अभय है। इस निश्चयमे तीनो कालमे शका होना योग्य नही है।
___ "योग असंख जे जिन कह्या, घटमांही रिद्धि दाखो रे; . नवपद तेम ज जाणजो, आतमराम छे. साखी रे।' -श्री श्रीपाळरास
बबई, पौष, १९५२
गृहादि प्रवृत्तिके योगसे उपयोग विशेष चलायमान रहना सभव है, ऐसा जानकर परम पुरुष सर्वसगपरित्यागका उपदेश करते थे ।
... बंबई, पौष वदी २, १९५२ सर्व प्रकारके भयके रहनेके स्थानरूप इस ससारमे मात्र एक वैराग्य ही अभय है।
जो वैराग्यदशा महान मुनियोको प्राप्त होना दुर्लभ है, वह वैराग्यदशा तो प्राय जिन्हे गहवासमे रहती थी, ऐसे श्री महावीर, ऋषभ आदि पुरुष भी त्यागको ग्रहण करके घरसे चल निकले, यही त्यागकी
reता बताई है। - जब तक गहस्थादि व्यवहार रहे तब तक आत्मज्ञान न हो, अथवा जिसे आत्मज्ञान हो, उसे गृहस्थादि व्यवहार न हो, ऐसा नियम नही है । वैसा होनेपर भी परमपुरुषोने ज्ञानीको 'भी त्याग व्यवहारका उपदेश किया है, क्योकि त्याग ऐश्वर्यको स्पष्ट व्यक्त करता है, इससे और लोकको उपकारभूत होनेसे त्याग अकर्तव्यलक्ष्यसे कर्तव्य है, इसमे सन्देह नहीं है।
जो स्वस्वरूपमे स्थिति है, उसे 'परमार्थसयम' कहा है। उस सयमके कारणभूत अन्य निमित्तोंके ग्रहणको 'व्यवहारसयम' कहा है। किसी ज्ञानीपुरुषने उस सयमका भी निषेध नही किया है। परमार्थकी उपेक्षा (लक्षके बिना) से जो व्यवहारसयममे ही परमार्थसयमकी मान्यता रखे, उसके व्यवहारसयमका उसका अभिनिवेश दूर करनेके लिये, निषेध किया है। परंतु व्यवहारसयममे कुछ भी परमार्थको निमित्तता नही है, ऐसा ज्ञानीपुरुषोने कहा नही है।
परमार्थके कारणभूत 'व्यवहाररायम' को भी परमार्थसंयम कहा है। श्री डुगरको इच्छा विशेषतासे लिखना हो सके तो लिखियेगा।
प्रारब्ध है, ऐसा मानकर ज्ञानी उपाधि करते है, ऐसा मालूम नही होता, परतु परिणतिसे छट जानेपर भी त्याग करते हुए बाह्य कारण रोकते हैं, इसलिये ज्ञानी उपाधिसहित दिखायी देते है, तथापि वे उसको निवृत्तिके लक्ष्यका नित्य सेवन करते है।
प्रणाम। बबई, पौष वदी ९, गुरु, १९५२
देहाभिमानर हित सत्पुरुषोको अत्यंत भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार ज्ञानीपुरुषोने वारवार आरम्भ-परिगहके त्यागको उत्कृष्टता कही है, और पुन पुन उस त्यागका उपदेश किया है, और प्राय. स्वय भी ऐसा आचरण किया है, इसलिये मुमुक्षुपुरुषको अवश्य उसे कम करना चाहिये, इसमे सन्देह नहीं है।
१ भावार्थके लिये देखें आफ ३७७ ।
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४९८
श्रीमद राजचन्द्र
आरभ-परिग्रहका त्याग किस किस प्रतिवधसे जीव नही कर सकता, और वह प्रतिवध किस प्रकारसे दूर किया जा सकता है, इस प्रकारसे मुमुक्षुजीवको अपने चित्तमे विशेष विचार-अकुर उत्पन्न करके कुछ भी तथारूप फल लाना योग्य है। यदि वैसा न किया जाये तो उस जीवको मुमुक्षुता नही है, ऐसा प्राय कहा जा सकता है।
__आरभ और परिग्रहका त्याग किस प्रकारसे हुआ हो तो यथार्थ कहा जाये इसे पहले विचारकर वादमे उपर्युक्त विचार-अकुर मुमुक्षुजीवको अपने अतःकरणमे अवश्य उत्पन्न करना योग्य है। तथारूप उदयसे विशेष लिखना अभी नही हो सकता।
वंबई, पौष वदी १२, रवि, १९५२
उत्कृष्ट सम्पत्तिके स्थान जो चक्रवर्ती आदि पद है उन सबको अनित्य जानकर विचारवान पुरुष उन्हे छोडकर चल दिये है, अथवा प्रारब्धोदयसे वास हुआ तो भी अमूच्छितरूपसे और उदासीनतासे उसे प्रारब्धोदय समझकर आचरण किया है, और त्यागका लक्ष्य रखा है।
६६७
बबई, पौष वदी १२, रवि, १९५२ ___ महात्मा बुद्ध ( गौतम ) जरा, दारिद्रय, रोग और मृत्यु इन चारोको एक आत्मज्ञानके बिना अन्य सर्व उपायोंसे अजेय समझकर, जिसमे उनकी उत्पत्तिका हेतु हैं, ऐसे ससारको छोड़कर चल दिये थे । श्री ऋषभ आदि अनत ज्ञानीपुरुषोने इसी उपायकी उपासना की है, और सर्व जीवोको इस उपायका उपदेश दिया है। उस आत्मज्ञानको प्राय. दुर्गम देखकर निष्कारण करुणाशील उन सत्पुरुषोने भक्तिमार्ग कहा है, जो सर्व अशरणको निश्चल शरणरूप है, और सुगम है।
बबई, माघ सुदी ४, रवि, १९५२ पत्र मिला है।
असग आत्मस्वरूप सत्संगके योगसे नितात सरलतासे जानना योग्य है, इसमें सशय नही है। सत्सगके माहात्म्यको सब ज्ञानीपुरुषोने अतिशयरूपसे कहा है, यह यथार्थ है। इसमें विचारवानको किसी तरह विकल्प होना योग्य नही है।
अभी तत्काल समागम सम्बंधी विशेषरूपसे लिखना नहीं हो सकता।
६६८
बबई, माघ वदी ११, रवि, १९५२ यहाँसे सविस्तर पत्र मिलनेमे अभी विलंब होता है, इसलिये प्रश्नादि लिखना नही हो पाता, ऐसा आपने लिखा तो वह योग्य है । प्राप्त प्रारब्धोदयके कारण यहाँसे पत्र लिखनेमे विलंब होना सम्भव है। तथापि तीन-तीन चार-चार दिनके अतरसे आप अथवा श्री डंगर कुछ ज्ञानवार्ता नियमितरूपसे लिखते रहियेगा, जिससे प्रायः यहाँसे पत्र लिखनेमे कुछ नियमितता हो सकेगी। त्रिविध त्रिविध नमस्कार ।
६७०
वंवई, फागुन सुदी १, १९५२
ॐ सद्गुरुप्रसाद ज्ञानीका सर्व व्यवहार परमार्थमूल होता है, तो भी जिस दिन उदय भी आत्माकार रहेगा, वह दिन धन्य होगा।
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२९ वाँ वर्ष
४९९
सर्व दु खसे मुक्त होनेका सर्वोत्कृष्ट उपाय आत्मज्ञानको कहा है, यह ज्ञानीपुरुषोका वचन सत्य है, अत्यन्त सत्य है।
जब तक जीवको तथारूप आत्मज्ञान न हो तब तक बन्धनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नही होती, इसमे सशय नही है।
उस आत्मज्ञानके होने तक जीवको मूर्तिमान आत्मज्ञानस्वरूप सद्गुरुदेवका निरतर आश्रय अवश्य करना योग्य है, इसमे सशय नहीं है । उस आश्रयका वियोग हो तब आश्रयभावना नित्य कर्तव्य है।
उदयके योगसे तथारूप आत्मज्ञान होनेसे पूर्व उपदेशकार्य करना पड़ता हो तो विचारवान मुमुक्षु परमार्थमार्गके अनुसरण करनेके हेतुभूत ऐसे सत्पुरुषकी भक्ति, सत्पुरुषका गुणगान, सत्पुरुषके प्रति प्रमोदभावना और सत्पुरुषके प्रति अविरोधभावनाका लोगोको उपदेश देता है, जिस तरह मतमतातरका अभिनिवेश दूर हो, और सत्पुरुषके वचन ग्रहण करनेकी आत्मवृत्ति हो, वैसा करता है। वर्तमानकालमे उस प्रकारकी विशेष हानि होगी, ऐसा जानकर ज्ञानीपुरुषोने इस कालको दुषमकाल कहा है, और वैसा प्रत्यक्ष दिखायी देता है। - सर्व कार्यमे कर्तव्य मात्र आत्मार्थ है, यह सम्यग्भावना मुमुक्षुजीवको नित्य करना योग्य है।
६७१
बबई, फागुन सुदी ३, रवि, १९५२ आपका एक पत्र आज मिला है। उस पत्रमे श्री डुगरने जो प्रश्न लिखवाये हैं उनके विशेष समाधानके लिये प्रत्यक्ष समागमपर ध्यान रखना योग्य है।।
प्रश्नोसे बहुत सतोप हुआ है। जिस प्रारब्धके उदयसे यहाँ स्थिति है, उस प्रारब्धका जिस प्रकारसे विशेषत वेदन किया जाय उस प्रकारसे रहा जाता है। और इससे विस्तारपूर्वक पत्रादि लिखना प्राय नही होता।
श्री सुदरदासजीके ग्रन्थोका अथसे इति तक अनुक्रमसे विचार हो सके, वैसा अभी कीजियेगा, तो कितने ही विचारोका स्पष्टीकरण होगा। प्रत्यक्ष समागममे उत्तर समझमे आने योग्य होनेसे पत्र द्वारा मात्र पहुँच लिखी है । यही।
भक्तिभावसे नमस्कार। ६७२
बबई, फागुन सुदी १०, १९५२
ॐ सद्गुरुप्रसाद आत्मार्थी श्री सोभाग तथा श्री डुगरके प्रति, श्री सायला ।
विस्तारपूर्वक पत्र लिखना अभी नही होता, इससे चित्तमे वैराग्य, उपशम आदि विशेष प्रदीप्त रहनेमे सत्शास्त्रको एक विशेष आधारभूत निमित्त जानकर, श्री सुदरदास आदिके ग्रन्थोका हो सके तो दो से चार घड़ी तक नियमित वाचना-पृच्छता हो, वैसा करनेके लिये लिखा था। श्री सुन्दरदासके ग्रन्थोका आदिसे लेकर अत तक अभी विशेष अनुप्रेक्षापूर्वक विचार करनेके लिये आपसे और श्री डुगरसे विनती है।
काया तक माया (अर्थात् कषायादि) का सम्भव रहा करता है, ऐसा श्री डुगरको लगता है, यह अभिनाय प्राय तो यथार्थ है, तो भी किसी पुरुषविशेषमें सर्वथा सब प्रकारके संज्वलन आदि कपायका अभाव हो सकना सम्भव लगता है, और हो सकनेमे सन्देह नहीं होता, इसलिये कायाके होनेपर भी कषायका अभाव सम्भव है, अर्थात् सर्वथा रागद्वेषरहित पुरुष हो सकता है। रागद्वेपरहित यह पुरुष है, ऐसा वाद्य चेष्टासे सामान्य जीव जान सकें, यह सम्भव नही । इससे वह पुरुष कपायरहित, सम्पूर्ण वीत. राग न हो, ऐसा अभिप्राय विचारवान स्थापित नही करते, क्योकि वाह्य चेष्टासे आत्मदशाको स्थिति सर्वथा समझमे आ सके, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
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५००
श्रीमद् राजचन्द्र
श्री सुन्दरदासने आत्मजागृतदशामे 'शूरातनअग' कहा है, उसमे विशेष उल्लास परिणतिसे शूरवीरताका निरूपण किया है
*मारे काम क्रोध सब, लोभ मोह पोसि डारे, इन्द्रिहु कतल करी, कियो रजपूतो है। मार्यो महा मत्त मन, मारे अहंकार मीर, मारे मद मछर हू, ऐसो रन रूतो है ।। मारी आशा तृष्णा पुनि, पापिनी सापिनी दोउ, सबको सहार करि, निज पद पहूतो है । सुन्दर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वैरि सब मारिके, निचित होई सूतो है।
-श्री सुदरदास शूरातनअग, २१-११
६७३ बंबई, फागुन सुदी १०, रवि, १९५२
ॐ श्री सद्गुरुप्रसाद श्री सायलाक्षेत्रमे क्रमसे विचरते हुए प्रतिबन्ध नही है।
यथार्थज्ञान उत्पन्न होनेसे पहले जिन जीवोको, उपदेश देनेका रहता हो उन जीवोको, जिस तरह वैराग्य, उपशम और भक्तिका लक्ष्य हो, उस तरह प्रसगप्राप्त जीवोको उपदेश देना योग्य है, और जिस तरह उनका नाना प्रकारके असआग्रहका तथा सर्वथा वेषव्यवहारादिका अभिनिवेश कम हो, उस तरह उपदेश परिणमित हो वैसे आत्मार्थ विचारकर कहना योग्य है। क्रमश वे जीव यथार्थ मागके सन्मुख हो ऐसा यथाशक्ति उपदेश कर्तव्य है।
६७४ बंबई, फागुन वदी ३, सोम, १९५२
ॐ सद्गुरुप्रसाद देहधारी होनेपर भी निरावरणज्ञानसहित रहते हैं ऐसे महापुरुषोको त्रिकाल नमस्कार आत्मार्थी श्री सोभागके प्रति, श्री सायला ।
देहधारी होनेपर भी परम ज्ञानीपुरुषमे सर्व कषायका अभाव हो सके, ऐसा हमने लिखा है, उस प्रसगमे 'अभाव' शब्दका अर्थ 'क्षय' समझकर लिखा है।
जगतवासी जीवको रागद्वेप दूर होनेका पता नही चलता, परन्तु जो महान पुरुष हैं वे जानते है कि इस महात्मा पुरुषमे रागद्वेपका अभाव या उपशम है, ऐसा लिखकर आपने शका की है कि जैसे महात्मा पुरुपको ज्ञानीपुरुप अथवा दृढ मुमुक्षुजीव जानते हैं वैसे जगतके जीव क्यो न जाने ? मनुष्य आदि प्राणीको देखकर जैसे जगतवासी जीव जानते है कि ये मनुष्य आदि हैं, और महात्मा पुरुष भी जानते हैं कि ये मनुष्य आदि है, इन पदार्थोंको देखनेसे दोनो समानरूपसे जानते है, और इसमे भेद रहता है, वसा भेद होनेके क्या कारण मुख्यत विचारणीय हे ? ऐसा लिखा उसका समाधान
मनुष्य आदिको जो जगतवासी जीव जानते हैं, वह दैहिक स्वरूपसे तथा दैहिक चेष्टासे जानते है। एक दूसरेको मुद्रामे, आकारमे और इन्द्रियोमे जो भेद है, उसे चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जगतवासी जीव
__ *भावार्य-जिसने काम व क्रोधको मार डाला है, लोभ व मोहको पीस डाला है और इन्द्रियोको कल करके शूरवीरता दिखाई है, जिसने मदोन्मत्त मन और अहकाररूप सेनापतिका नाश कर दिया है, तथा मद एव मत्सरको निर्मूल कर दिया है ऐसा रणवँका है, जिसने आशा तृष्णारूपी पापिष्ठ सांपिनोको भी मार दिया है वह सव परियोका सहार करके निजपद अर्यात् अपने स्वभावमें स्थिर हुआ है । सुदरदास कहते हैं कि कोई विरल शूरवीर साधु हा सभी परियोका नाशकर निश्चित होकर सो रहा है अर्थात् स्वभावमें मग्न होकर आत्मानदका उपभोग करता है।
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५०१
२९ वाँ वर्ष जान सकते हैं, और उन जीवोंके कितने ही अभिप्रायोको भी जगतवासी जीव अनुमानसे जान सकते है, क्योकि वह उनके अनुभवका विषय है । परन्तु जो ज्ञानदशा अथवा वीतरागदशा है वह मुख्यत दैहिक स्वरूप तथा दैहिक चेष्टाका विषय नही है, अतरात्मगुण है, और अन्तरात्मता बाह्य जीवोके अनुभवका विषय न होनेसे, तथा जगतवासी जीवोमे तथारूप अनुमान करने के भी प्राय सस्कार न होनेसे वे ज्ञानी या वीतरागको पहचान नही सकते । कोई जीव सत्समागमके योगसे, सहज शुभकर्मके उदयसे, तथारूप कुछ संस्कार प्राप्त कर ज्ञानी या वीतरागको यथाशक्ति पहचान सकता है । तथापि सच्ची पहचान तो दृढ मुमुक्षुताके प्रगट होनेपर, तथारूप सत्समागमसे प्राप्त हुए उपदेशका अवधारण करनेपर और अन्तरात्मवृत्ति परिणमित होनेपर जीव ज्ञानी या वीतरागको पहचान सकता है । जगतवासी अर्थात् जो जगतदृष्टि जीव है, उनकी दृष्टिसे ज्ञानी या वीतरागकी सच्ची पहचान कहाँसे हो ? जिस तरह अन्धकार में पडे हुए पदार्थको मनुष्यचक्षु देख नही सकते, उसी तरह देहमे रहे हुए ज्ञानी या वीतरागको जगतदृष्टि जीव पहचान नही सकता । जैसे अन्धकारमे पडे हुए पदार्थको मनुष्यचक्षुसे देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशको अपेक्षा रहती है, वैसे जगतदृष्टि जीवोको ज्ञानी या वीतरागकी पहचान के लिये विशेष शुभ सस्कार और सत्समागमकी अपेक्षा होना योग्य है | यदि वह योग प्राप्त न हो तो जैसे अधकारमे रहा हुआ पदार्थ और अधकार ये दोनो एकाकार भासित होते हैं, भेद भासित नही होता, वैसे तथारूप योगके बिना ज्ञानी या वीतराग और अन्य ससारी जीवोकी एकाकारता भासित होती है, देहादि चेष्टासे प्राय भेद भासित नही होता ।
जो देहधारी सर्व अज्ञान और सर्व कषायोसे रहित हुए है, उन देहधारी महात्माको त्रिकाल पर भक्तिसे नमस्कार हो । नमस्कार हो । । वे महात्मा जहाँ रहते हैं, उस देहको भूमिको, घरको, मार्गको, आसन आदि सबको नमस्कार हो । नमस्कार हो ! ।
श्री डुंगर आदि सर्वं मुमुक्षुजनको यथायोग्य |
६७५
बम्बई, फागुन वदी ५, बुध, १९५२
ॐ
दो पत्र मिले हैं । मिथ्यात्वके पच्चीस प्रकारमेसे प्रथमके आठ प्रकारका सम्यक्स्वरूप समझने के लिये पूछा वह तथारूप प्रारब्धोदयसे अभी थोडे समयमे लिख सकनेका सम्भव कम है । 'सुन्दर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वैरि सब मारिके निचित होई सूतो है ।'
जीवको विशेषत अनुप्रेक्षा जीवोके विशेष उपकारके लिये उस समाधान लिखूँगा ।
६७६
बम्बई, फागुन वदी ९, रवि, १९५२ करने योग्य आशका सहज निर्णयके लिये तथा दूसरे किन्ही मुमुक्षु पत्रमे लिखी उसे पढा है । थोडे दिनोमे हो सकेगा तो कुछ प्रश्नोका
श्री डुंगर आदि मुमुक्षुजीवोको यथायोग्य ।
६७७
बम्बई, चैत्र सुदी १, रवि, १९५२
पत्र मिला है | सहज उदयमान चित्तवृत्तियाँ लिखी वे पढी हैं। विस्तार से हितवचन लिखनेकी अभिलाषा बतायी, इस विषयमे सक्षेपमे नीचेके लेखसे विचारियेगा
प्रारब्धोदयसे जिस प्रकारका व्यवहार प्रसगमे रहता है, उसको नजरमे रखते हुए जैसे पत्र आदि लिखनेमे सक्षेप से प्रवृत्ति होती है, वैसा अधिक योग्य है, ऐसा अभिप्राय प्राय रहता है ।
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५०२
श्रीमद् राजचन्द्र
___ आत्माके लिये वस्तुत उपकारभूत उपदेश करनेमे ज्ञानीपुरुष सक्षेपसे प्रवृत्ति नही करते, ऐसा होना प्राय सम्भव है, तथापि दो कारणोसे ज्ञानीपुरुष उस प्रकारसे भी प्रवृत्ति करते है-(१) वह उपदेश जिज्ञासु जीवमे परिणमित हो ऐसे सयोगोमे वह जिज्ञासु जीव न रहता हो, अथवा उस उपदेशके विस्तारसे करनेपर भी उसमे उसे ग्रहण करनेकी तथारूप योग्यता न हो, तो ज्ञानीपुरुष उन जीवोको उपदेश करनेमे सक्षेपसे भी प्रवृत्ति करते है। (२) अथवा अपनेको बाह्य व्यवहारका ऐसा उदय हो कि वह उपदेश जिज्ञासु जीवमे परिणमित होनेमे प्रतिवधरूप हो, अथवा तथारूप कारणके बिना वैसा वर्तन कर मुख्यमार्गके विरोधरूप या सशयके हेतुरूप होनेका कारण होता हो तो भी ज्ञानीपुरुष उपदेशमे सक्षेपसे प्रवृत्ति करते है अथवा मौन रहते है।
सर्वसंगपरित्याग कर चले जानेसे भी जोव उपाधिरहित नही होता। क्योकि जब तक अतरपरिणतिपर दृष्टि न हो और तथारूप मार्गमे प्रवृत्ति न की जाये तब तक सर्वसगपरित्याग भी नाम मात्र होता है । और वैसे अवसरमे भी अतरपरिणतिपर दृष्टि देनेका भान जीवको आना कठिन है, तो फिर ऐसे गृह व्यवहारमे लौकिक अभिनिवेशपूर्वक रहकर अतरपरिणतिपर दृष्टि दे सकना कितना दुःसाध्य होना चाहिये, यह विचारणीय है, और वैसे व्यवहारमे रहकर जीवको अतरपरिणतिपर कितना बल रखना चाहिये, यह भी विचारणीय है, और अवश्य वैसा करना योग्य है।
___ अधिक क्या लिखें? जितनी अपनी शक्ति हो उस सारी शक्तिसे एक लक्ष्य रखकर, लौकिक अभिनिवेशको कम करके, कुछ भी अपूर्व निरावरणता दीखती नही है, इसलिये 'समझका केवल अभिमान है', इस तरह जीवको समझाकर जिस प्रकार जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्रमे सतत जाग्रत हो, वही करनेमे वृत्ति लगाना, और रात-दिन उसी चितनमे प्रवृत्ति करना यही विचारवान जीवका कर्तव्य है, और उसके लिये सत्सग, सत्शास्त्र और सरलता आदि निजगुण उपकारभूत है, ऐसा विचारकर उसका आश्रय करना योग्य है।
जब तक लौकिक अभिनिवेश अर्थात् द्रव्यादि लोभ, तृष्णा, दैहिक मान, कुल, जाति आदि सम्बन्धी मोह या विशेषत्व मानना हो, वह बात न छोडनी हो, अपनी बुद्धिसे स्वेच्छासे अमुक गच्छादिका आग्रह रखना हो, तब तक जोवमे अपूर्व गुण कैसे उत्पन्न हो ? इसका विचार सुगम है ।
अधिक लिखा जा सके ऐसा उदय अभी यहाँ नही है, तथा अधिक लिखना या कहना भी किसी प्रसंगमे होने देना योग्य है, ऐसा है। आपकी विशेष जिज्ञासाके कारण प्रारब्धोदयका वेदन करते हुए जो कुछ लिखा जा सकता था, उसकी अपेक्षा कुछ उदीरणा करके विशेष लिखा है । यही विनती।
६७८
बबई, चैत्र सुदी २, सोम, १९५२
क्षणमे हर्प और क्षणमे शोक हो आये ऐसे इस व्यवहारमे जो ज्ञानोपुरुष समदशासे रहते हैं, उन्हे अत्यन्त भक्तिसे धन्य कहते हैं, और सर्व मुमुक्षुजीवोको इसी दशाकी उपासना करना योग्य है, ऐसा निश्चय देखकर परिणति करना योग्य है । यही विनती । श्री डुगर आदि मुमुक्षुओको नमस्कार।
६७९
बवई, चैत्र सुदी ११, शुक्र, १९५२
सद्गुरुचरणाय नमः आत्मनिष्ठ श्री सोभागके प्रति, श्री सायला ।
फागुन वदी ६ के परमे लिखे हुए प्रश्नोका समाधान इस पत्रमे सक्षेपसे लिखा है, उसे विचारियेगा।
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२१ वॉ वर्ष
५०३
१ जिस ज्ञानमे देह आदिका अध्यास मिट गया है, और अन्य पदार्थमे अहता-ममताका अभाव है, तथा उपयोग स्वभावमे परिणमता है, अर्थात् ज्ञान स्वरूपताका सेवन करता है, उस ज्ञानको 'निरावरणज्ञान' कहना योग्य है |
२ सर्वं जीवोको अर्थात् सामान्य मनुष्योको ज्ञानी अज्ञानीकी वाणीमे जो अन्तर हैं सो समझना कठिन है, यह बात यथार्थ है, क्योकि शुष्कज्ञानी कुछ सीख कर ज्ञानी जैसा उपदेश करे, जिससे उसमे वचनकी समानता दीखनेसे शुष्कज्ञानीको भी सामान्य मनुष्य ज्ञानी मानें, मददशावान मुमुक्षुजीव भी वैसे वचनोंसे भ्रातिमे पड जाये, परन्तु उत्कृष्टदशावान मुमुक्षुपुरुष शुष्कज्ञानोकी वाणी शब्दसे ज्ञानीकी वाणी जैसी देखकर प्राय भ्राति पाने योग्य नही है, क्योकि आगयसे शुष्कज्ञानीकी वाणीसे ज्ञानीकी वाणीकी तुलना नही होती ।
ज्ञानीकी वाणी पूर्वापर अविरोधी, आत्मार्थ-उपदेशक और अपूर्व अर्थका निरूपण करनेवाली होती है, और अनुभवसहित होनेसे आत्माको सतत जाग्रत करनेवाली होती है । शुष्कज्ञानीकी वाणीमे तथारूप गुण नही होते । सर्वसे उत्कृष्ट गुण जो पूर्वापर अविरोधिता है, वह शुष्कज्ञानीकी वाणीमे नही हो सकता, क्योकि उसे यथास्थित पदार्थदर्शन नही होता, और इस कारणसे जगह जगह उसकी वाणी कल्पना से युक्त होती है ।
इत्यादि नाना प्रकारके भेदसे ज्ञानी और शुष्कज्ञानीकी वाणीकी पहचान उत्कृष्ट मुमुक्षुको होने योग्य है । ज्ञानीपुरुषको तो उसकी पहचान सहजस्वभावसे होती है, क्योकि स्वय भानसहित है, और भानसहित पुरुष के बिना इस प्रकार के आशयका उपदेश नही दिया जा सकता, ऐसा सहज हो वे जानते हैं । जिसे अज्ञान और ज्ञानका भेद समझमे आया है, उसे अज्ञानी और ज्ञानीका भेद सहजमे समझमें आ सकता है । जिसका अज्ञानके प्रति मोह समाप्त हो गया है, ऐसे ज्ञानोपुरुपको शुष्कज्ञानीके वचन कैसे भ्राति कर सकते है ? किन्तु सामान्य जीवोको अथवा मददशा और मध्यमदशाके मुमुक्षुको शुष्कज्ञानीके वचनं समानरूप दिखायी देनेसे, दोनो ज्ञानीके वचन हैं, ऐसी भ्राति होना संभव है । उत्कृष्ट मुमुक्षुको प्राय' वैसी भ्राति सभव नही है, क्योकि ज्ञानीके वचनोकी परीक्षाका बल उसे विशेषरूपसे स्थिर हो गया है ।
पूर्वकालमे ज्ञानी हो गये हो, और मात्र उनकी मुखवाणी रही हो तो भी वर्तमानकालमे ज्ञानी पुरुष यह जान सकते हैं कि यह वाणी ज्ञानीपुरुषकी है, क्योकि रात्रि-दिनके भेदकी तरह अज्ञानी-ज्ञानीकी वाणी आशय-भेद होता है, और आत्मदशाके तारतम्यके अनुसार आशयवाली वाणी निकलती है । वह आशय, वाणीपरसे 'वर्तमान ज्ञानीपुरुष' को स्वाभाविक दृष्टिगत होता है । और कहनेवाले पुरुषकी दशाका तारतम्य ध्यानगत होता है । यहाँ जो 'वर्तमान ज्ञानी' शब्द लिखा है, वह किसी विशेष प्रज्ञावान, प्रगट बोधबीजसहित पुरुषके अर्थमे लिखा है । ज्ञानी के वचनोकी परीक्षा यदि सर्व जीवोको सुलभ होती तो निर्वाण भी सुलभ ही होता ।
३ जिनागममे मति, श्रुत आदि ज्ञानके पाँच प्रकार कहे है । वे ज्ञानके प्रकार सच्चे हैं, उपमावाचक नही हैं । अवधि, मन पर्यंय आदि ज्ञान वर्तमानकालमे व्यवच्छेद जैसे लगते है, इससे ये ज्ञान उपमावाचक समझना योग्य नही है । ये ज्ञान मनुष्य जीवोको चारित्रपर्यायकी विशुद्ध तरतमतासे उत्पन्न होते हैं। वर्तमानकालमे वह विशुद्ध तरतमता प्राप्त होना दुष्कर है, क्योकि कालका प्रत्यक्ष स्वरूप चारित्रमोहनीय आदि प्रकृतियोके विशेष वलसहित प्रवर्तमान दिखायी देता है ।
1
सामान्य आत्मचरित्र भी किसी हो जीवमे होना सभव है । ऐसे कालमे उस ज्ञानकी लब्धि व्यवच्छेद जैसी हो, इसमे कुछ आश्चर्य नही है, इसलिये उस ज्ञानको उपमावाचक समझना योग्य नही है ।
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५०४
श्रीमद् राजचन्द्र आत्मस्वरूपका विचार करते हुए तो उस ज्ञानकी कुछ भी असम्भावना दीखती नही है। सर्व ज्ञानकी स्थितिका क्षेत्र आत्मा है, तो फिर अवधि, मन पर्यय आदि ज्ञानका क्षेत्र आत्मा हो, इसमे सशय करना कैसे योग्य हो ? यद्यपि शास्त्रके यथास्थित परमार्थसे अज्ञ जीव उसको व्याख्या जिस प्रकारसे करते हैं, वह व्याख्या विरोधवाली हो, परन्तु परमार्थसे उस ज्ञानका होना सम्भव है।
जिनागममे उसकी जिस प्रकारके आशयसे व्याख्या की हो, वह व्याख्या और अज्ञानी जीव आशय जाने विना जो व्याख्या करें उन दोनोमे महान भेद हो इसमे आश्चर्य नही है, और उस भेदके कारण उस ज्ञानके विषयके लिये सन्देह होना योग्य है, परन्तु आत्मदृष्टि से देखते हुए उस सन्देहका अवकाश नही है।
४ कालका सूक्ष्मसे सूक्ष्म विभाग 'समय' है, रूपी पदार्थका सूक्ष्मसे सूक्ष्म विभाग ‘परमाणु' है, और अरूपी पदार्थका सूक्ष्मसे सूक्ष्म विभाग 'प्रदेश' है । ये तीनो ऐसे सूक्ष्म हैं कि अत्यन्त निर्मल ज्ञानकी स्थिति उनके स्वरूपको ग्रहण कर सकती है। सामान्यत ससारी जीवोका उपयोग असख्यात समयवर्ती है, उस उपयोगमे साक्षात्रूपसे एक समयका ज्ञान सम्भव नही है। यदि वह उपयोग एक समयवर्ती और शुद्ध हो तो उसमे साक्षात्रूपसे समयका ज्ञान होता है। उस उपयोगका एक समयवर्तित्व कषायादिके अभावसे होता है, क्योकि कपायादिके योगसे उपयोग मूढतादि धारण करता है, तथा असख्यात समयवर्तित्वको प्राप्त होता है। वह कपायादिके अभावसे एक समयवर्ती होता है, अर्थात् कपायादिके योगसे असख्यात समयमेसे एक समयको अलग करनेकी सामर्थ्य उसमे नही थी, वह कपायादिके अभावसे एक समयको अलग करके अवगाहन करता है । उपयोगका एक समयवर्तित्व, कषायरहितता होनेके वाद होता है । इसलिये जिसे एक समयका, एक परमाणुका, और एक प्रदेशका ज्ञान हो उसे 'केवलज्ञान' प्रगट होता है, ऐसा जो कहा है, वह सत्य है। कपायरहितताके विना केवलज्ञानका सम्भव नहीं है और कषायरहितताके विना उपयोग एक समयको साक्षात्रूपसे ग्रहण नही कर सकता। इसलिये जिस समयमे एक समयको ग्रहण करे उस समय अत्यन्त कपायरहितता होनी चाहिये । और जहाँ अत्यन्त कपायका अभाव हो वहाँ केवलज्ञान' होता है। इसलिये इस प्रकार कहा है कि जिसे एक समय, एक परमाणु और एक प्रदेशका अनुभव हो उसे 'केवलज्ञान' प्रगट होता है। जीवको विशेष पुरुषार्थके लिये इस एक सुगम साधनका ज्ञानीपुरुषने उपदेश किया है। समयकी तरह परमाणु और प्रदेशका सूक्ष्मत्व होनेसे तीनोको एक साथ ग्रहण किया है । अतर्विचारमे रहनेके लिये ज्ञानी पुरुषोने असख्यात योग कहे हैं। उनमेसे एक यह विचारयोग' कहा हे, ऐसा समझना योग्य है।
५ शुभेच्छासे लेकर सर्व कमरहितरूपसे स्वस्वरूपस्थिति तकमे अनेक भूमिकाएँ हैं । जो जो आत्मार्थी जीव हुए, और उनमे जिस जिस अशमे जाग्रतदशा उत्पन्न हुई, उस उस दशाके भेदसे उन्होने अनेक भूमिकाओका आराधन किया है। श्री कबीर, सुन्दरदास आदि साधुजन आत्मार्थी गिने जाने योग्य हैं, और शुभेच्छासे ऊपरको भूमिकाओमे उनकी स्थिति होना सम्भव है । अत्यन्त स्वस्वरूपस्थितिके लिये उनकी जागृति और अनुभव भी ध्यानगत होता है। इससे विशेष स्पष्ट अभिप्राय अभी देनेकी इच्छा नही होती।
६ 'केवलज्ञान' के स्वरूपका विचार दुर्गम है, और श्री डुगर केवल-कोटीसे उसका निर्धार करते है, उसमे यद्यपि उनका अभिनिवेश नही है, परन्तु वैसा उन्हे भासित होता है, इसलिये कहते हैं। मात्र 'केवल-कोटी' हे, और भूत-भविष्यका कुछ भी ज्ञान किसीको न हो, ऐसी मान्यता करना योग्य नही है। भूत-भविष्यका यथार्थज्ञान होने योग्य है, परन्तु वह किन्ही विरल पुरुषोको, और वह भी विशुद्ध चारित्रतारतम्यसे, इसलिये वह सन्देहरूप लगता है, क्योकि वैसी विशुद्ध चारित्रतरतमताका वर्तमानमे अभाव-सा
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५०
२९ वाँ वर्ष
रहता है । वर्तमानमे शास्त्रवेत्ता मात्र शब्दबोधसे 'केवलज्ञान' का जो अर्थ कहते है, वह यथार्थं नही ऐसा श्री डुगरको लगता हो तो वह सम्भावित है । फिर भूत-भविष्य जानना, इसका नाम 'केवलज्ञान' ऐसी व्याख्या मुख्यत शास्त्रकारने भी नही की है। ज्ञानका अत्यन्त शुद्ध होना उसे ज्ञानीपुरुषोने 'केव ज्ञान' कहा है, और उस ज्ञानमे मुख्य तो आत्मस्थिति और आत्मसमाधि कही है । जगतका ज्ञान हो इत्यादि जो कहा है, वह सामान्य जीवोसे अपूर्व विपयका ग्रहण होना अशक्य जानकर कहा है, क्यो जगतके ज्ञानपर विचार करते-करते आत्मसामर्थ्य समझमे आता है। श्री डुगर, महात्मा श्री ऋप आदिमे केवल-कोटी न कहते हो तो और उनके आज्ञावर्ती अर्थात् जैसे महावीर स्वामीके दर्शनसे पाँच मुमुक्षुओने केवलज्ञान प्राप्त किया, उन आज्ञावर्तियोको केवलज्ञान कहा है, उस 'केवलज्ञान' को 'केव कोटी' कहते हो, तो यह बात किसी भी तरह योग्य है । केवलज्ञानका श्री डुगर एकात निषेध करें, तो आत्माका निपेध करने जैसा है । लोग अभी 'केवलज्ञान' की जो व्याख्या करते है, वह 'केवलज्ञान' व्याख्या विरोधवाली मालूम होती है, ऐसा उन्हे लगता हो तो यह भी सम्भवित है, क्योकि वर्तम प्ररूपणामे मात्र जगतज्ञान' 'केवलज्ञान' का विषय कहा जाता है । इस प्रकारका समाधान लिखते बहुतसे प्रकारके विरोध दृष्टिगोचर होते हैं, और उन विरोधोको बताकर उसका समाधान लिखना अ तत्काल होना अशक्य है, इसलिये सक्षेपमें समाधान लिखा है । समाधानका समुच्चयार्थ इस प्रकार है "आत्मा जब अत्यन्त शुद्ध ज्ञानस्थितिका सेवन करे, उसका नाम मुख्यतः 'केवलज्ञान' है । र प्रकारके रागद्वेषका अभाव होनेपर अत्यन्त शुद्ध ज्ञानस्थिति प्रगट होने योग्य है । उस स्थितिमे जो व जाना जा सके वह 'केवलज्ञान' है, और वह सदेहयोग्य नही है । श्री डुगर 'केवल कोटी' कहते है, भी महावीरस्वामी के समीपवर्ती आज्ञावर्ती पाँच सौ केवली जैसे प्रसगमे सम्भवित है । जगतके ज्ञान लक्ष्य छोडकर जो शुद्ध आत्मज्ञान है वह 'केवलज्ञान' है, ऐसा विचारते हुए आत्मदशा विशेषत्वका से करती है ।" ऐसा इस प्रश्नके समाधानका सक्षिप्त आशय है । यथासम्भव जगतके ज्ञानका विच छोडकर स्वरूपज्ञान हो उस प्रकारसे केवलज्ञानका विचार होनेके लिये पुरुषार्थं कर्तव्य है । जगत ज्ञान होना उसे मुख्यत 'केवलज्ञान' मानना योग्य नही है । जगतके जीवोको विशेष लक्ष्य होनेके ि वारवार जगतका ज्ञान साथमे लिया है, और वह कुछ कल्पित है, ऐसा नही है, परन्तु उसका अभिनि करना योग्य नही है | इस स्थानपर विशेष लिखनेकी इच्छा होती है, और उसे रोकना पड़ता है, भी सक्षेपसे पुन लिखते है । " आत्मामेसे सर्व प्रकारका अन्य अध्यास दूर होकर स्फटिकको भाँति आ अत्यन्त शुद्धताका सेवन करे, वह 'केवलज्ञान' है, और जगतज्ञानरूपसे उसे वारवार जिनागममे कहा उस माहात्म्यसे बाह्यदृष्टि जीव पुरुषार्थं मे प्रवृत्ति करें, यह हेतु है ।"
यहाँ श्री डुगरको, ‘केवल-कोटी' सर्वथा हमने कही है, ऐसा कहना योग्य नही है । हमने अतरा रूपसे भी वैसा माना नहीं है । आपने यह प्रश्न लिखा, इसलिये कुछ विशेष हेतु विचारकर समाव लिखा है, परन्तु अभी उस प्रश्नका समाधान करनेमे जितना मौन रहा जाये उतना उपकारी है, चित्तमे रहता है । बाकीके प्रश्नोका समाधान समागममे कीजियेगा ।
बबई, चैत्र सुदी १३, १९
६८० ॐ
जिसकी मोक्षके सिवाय किसी भी वस्तुको इच्छा या स्पृहा नही थी ओर अखड स्वरूपमे रमप होनेसे मोक्षकी इच्छा भी निवृत्त हो गयी है, उसे हे नाथ । तू तुष्टमान होकर भी और क्या
वाला था ?
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श्रीमद राजचन्द्र
हे कृपालु | तेरे अभेद स्वरूपमे ही मेरा निवास है वहाँ अब तो लेने-देने की भी झझटसे छूट गये हैं और यही हमारा परमानद है ।
कल्याणके मार्गको और परमार्थस्वरूपको यथार्थत नही समझनेवाले अज्ञानी जीव, अपनी मतिकल्पनासे मोक्षमार्गकी कल्पना करके विविध उपायोमे प्रवृत्ति करते है फिर भो मोक्ष पानेके बदले ससारमे भटकते है, यह जानकर हमारा निष्कारण करुणाशील हृदय रोता है ।
वर्तमानमे विद्यमान वीरको भूलकर, भूतकालकी भ्रातिमे वीरको खोजनेके लिये भटकते जीवोको श्री महावीरका दर्शन कहाँसे हो ?
हे दुषमकालके दुर्भागी जीवो । भूतकालकी भ्रातिको छोडकर वर्तमानमे विद्यमान महावीरकी शरणमे आओ तो तुम्हारा श्रेय ही है ।
ससारतापसे सतप्त और कर्मबधनसे मुक्त होने के इच्छुक परमार्थप्रेमी जिज्ञासु जीवोकी त्रिविध तापाग्निकोशात करनेके लिये हम अमृतसागर है ।
मुमुक्षुजीवोका कल्याण करनेके लिये हम कल्पवृक्ष ही है ।
अधिक क्या कहे ? इस विषमकालमे परमशातिके धामरूप हम दूसरे श्री राम अथवा श्री महावीर ही है, क्योकि हम परमात्मस्वरूप हुए है ।
यह अंतर अनुभव परमात्मस्वरूपकी मान्यता के अभिमान से उद्भूत हुआ नही लिखा है, परतु कर्म - बधनसे दुःखी होते जगतके जीवोपर परम करुणाभाव आनेसे उनका कल्याण करनेकी तथा उनका उद्धार करनेकी निष्कारण करुणा ही यह हृदयचित्र प्रदर्शित करनेकी प्रेरणा करती है ।
ॐ श्री महावीर [ निजी ]
५०६
६८१
बबई, चैत्र वदी १, १९५२
पत्र मिला है। कुछ समय से ऐसा होता रहता है कि विस्तारसे पत्र लिखना नही हो सकता, और पत्रकी पहुँच भी क्वचित् अनियमित लिखी जाती है । जिस कारणयोगसे ऐसी स्थिति रहती है, उस कारण - योग प्रति दृष्टि करते हुए अभी भी कुछ समय ऐसी स्थिति वेदन करने योग्य लगती है । वचन पढनेकी विशेष अभिलाषा रहती है, उन वचनोको भेजनेके लिये आप स्तम्भतीर्थवासीको लिखियेगा । वे यहाँ पुछवायेगे तो प्रसंगोचित लिखूँगा ।
यदि उन वचनोको पढने-विचारनेका आपको प्रसग प्राप्त हो तो जितनी हो सके उतनी चित्तस्थिरतासे पढ़ियेगा और उन वचनोको अभी तो स्व उपकारके लिये उपयोगमे लीजियेगा, प्रचलित न कीजियेगा । यही विनती ।
६८२
बबई, चैत्र वदो १, सोम, १९५२
दोनो मुमुक्षुओ (श्री लल्लुजी आदि) को अभी कुछ लिखना नही हुआ । अभी कुछ समय से ऐसी स्थिति रहती है कि कभी ही पत्रादि लिखना हो पाता है, और वह भी अनियमितरूपसे लिखा जाता है । जिस कारण-विशेषसे तथारूप स्थिति रहती है उस कारणविशेषकी ओर दृष्टि करते हुए कुछ समय तक वैसी स्थिति रहनेकी सम्भावना दिखायी देती है । मुमुक्षुजीवकी वृत्तिको पत्रादिसे कुछ उपदेशरूप विचार करनेका साधन प्राप्त हो तो उससे वृत्तिका उत्कर्ष हो और सद्विचारका बल वर्धमान हो, इत्यादि उपकार इस प्रकारमे समाविष्ट है. फिर भी जिस कारण विशेषसे वर्तमान स्थिति रहती है, वह स्थिति वेदन करने योग्य लगती है ।
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२९ वो वर्ष
५०७
बंबई, चैत्र वदी ७, रवि, १९५२ दो पत्र मिले हैं। अभी विस्तारपूर्वक पत्र लिखना प्राय कभी ही होता है, और कभी तो पत्रकी पहुंच भी कितने दिन बीतने के बाद लिखी जाती है।
सत्समागमके अभावके प्रसगमे तो विशेषत आरभ-परिग्रहकी वृत्तिको कम करनेका अभ्यास रखकर, जिन ग्रथोमे त्याग, वैराग्य आदि परमार्थ साधनोका उपदेश दिया है, उन ग्रथोको पढनेका अभ्यास कर्तव्य है, और अप्रमत्तरूपसे अपने दोषोको वारवार देखना योग्य है।
बबई, चैत्र वदी १४, रवि, १९५२ 'अन्य पुरुषको दृष्टिमे, जग व्यवहार लखाय, वृन्दावन, जब जग नहीं कौन व्यवहार बताय?' -विहार वृन्दावन
६८५
बबई, चैत्र वदी १४, रवि, १९५२ एक पत्र मिला है। आपके पास जो उपदेशवचनोका संग्रह हैं, वे पढनेके लिये प्राप्त हो इसलिये श्री कुवरजीने विनती की थी। उन वचनोको पठनार्थ भेजनेके लिये स्तभतीर्थ लिखियेगा, और यहाँ वे लिखेंगे तो प्रसगोचित लिखंगा, ऐसा हमने कलोल लिखा था । यदि हो सके तो उन्हे वर्तमानमे विशेष उपकारभूत हो ऐसे कितने ही वचन उनमेसे लिख भेजियेगा । सम्यग्दर्शनके लक्षणादिवाले पत्र उन्हे विशेष उपकारभूत हो सकने योग्य हैं।
वीरमगामसे श्री सुखलाल यदि श्री कुवरजीकी भाँति पत्रोकी मॉग करें तो उनके लिये भी ऊपर लिखे अनुसार करना योग्य है।
६८६
बबई, चैत्र वदी १४, रवि, १९५२ आप आदिके समागमके बाद यहाँ आना हुआ था। इतनेमे आपका एक पत्र मिला था। अभी तीन-चार दिन पहले एक दूसरा पत्र मिला है । कुछ समयसे सविस्तर पत्र लिखना कभी ही बन पाता है।
और कभी पत्रकी पहँच लिखनेमे भी ऐसा हो जाता है। पहले कुछ मुमुक्षुओके प्रति उपदेश पत्र लिखे गये हैं, उनकी प्रतियाँ श्री अंबालालके पास हैं। उन पत्रोको पढने-विचारने का अभ्यास करनेसे क्षयोपशमकी विशेष शुद्धि हो सकने योग्य है। श्री अवालालको वे पत्र पठनार्थ भेजनेके लिये विनती कीजियेगा । यही विनती।
६८७
बबई, वैशाख सुदी १, मगल, १९५२ बहुत दिनोंसे पत्र नही है, सो लिखियेगा।
यहाँसे जैसे पहले विस्तारपूर्वक पत्र लिखना होता था, वैसे प्राय. बहुत समयसे तथारूप प्रारब्धके कारण नहीं होता।
करनेके प्रति वृत्ति नही हे, अथवा एक क्षण भी जिसे करना भासित नहीं होता, करनेसे उत्पन्न होनेवाले फलके प्रति जिसकी उदासीनता है, वैसा कोई आप्तपुरुप तथारूप प्रारब्ध योगसे परिग्रह, सयोग आदिमे प्रवत्ति करता हआ दिखायी देता हो, और जैसे इच्छुक पुरुप प्रवृत्ति करे, उद्यम करे, वैसे कार्यसहित प्रवर्तमान देखनेमे आता हो, तो वैसे पुरुषमे ज्ञानदशा है, यह किस तरह जाना जा सकता है ?
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५०८
श्रीमद राजचन्द्र
अर्थात् वह पुरुष आप्त (परमार्थके लिये प्रतीति करने योग्य) है, अथवा ज्ञानी है, यह किस लक्षणसे पहचाना जा सकता है ? कदाचित् किसी मुमुक्षुको दूसरे किसी पुरुषके सत्सगयोगसे ऐसा जाननेमे आया तो उस पहचानमे भ्राति हो वैसा व्यवहार उस सत्पुरुषमे प्रत्यक्ष दिखायी देता है, उस भ्रातिके निवृत्त होनेके लिये मुमुक्षुजीवको वैसे पुरुषको किस प्रकार से पहचानना योग्य है कि जिससे वैसे व्यवहारमे प्रवृत्ति करते हुए भी ज्ञानलक्षणता उसके ध्यानमे रहे ?
सर्व प्रकारसे जिसे परिग्रह आदि सयोगके प्रति उदासीनता रहती है, अर्थात् अहता-ममता तथारूप सयोगमे जिसे नही होती, अथवा परिक्षण हो गयी है, 'अनतानुबधी' प्रकृतिसे रहित मात्र प्रारब्धोदयसे व्यवहार रहता हो, वह व्यवहार सामान्य दशाके मुमुक्षुको सदेहका हेतु होकर, उसे उपकारभूत होने निरोधरूप होता हो, ऐसा वह ज्ञानीपुरुष देखता है, और उसके लिये भी परिग्रह सयोग आदि प्रारब्धोदय रूप व्यवहारकी परिक्षीणताकी इच्छा करता है, वैसा होने तक किस प्रकारसे उस पुरुषने प्रवृत्ति की हो, तो उस सामान्य मुमुक्षुको उपकार होनेमे हानि न हो ? पत्र विशेष सक्षेप से लिखा गया है, परन्तु आप तथा श्री अचल उसका विशेष मनन कीजियेगा ।
६८८
बबई, वैशाख सुदी ६, रवि, १९५२
पत्र मिला है । तथा वचनोकी प्रति मिली है । उस प्रतिमे किसी किसी स्थलमे अक्षरातर तथा शब्दातर हुआ है, परतु प्रायः अर्थातर नही हुआ । इसलिये वैसी प्रतियाँ श्री सुखलाल तथा श्री कु वरजीको भेजनेमे आपत्ति जैसा नही है । बादमे भी उस अक्षर तथा शब्दकी शुद्धि हो सकने योग्य है ।
ववाणिया, वैशाख वदी ६, रवि, १९५२
६८९
आर्य श्री माणेकचद आदिके प्रति, श्री स्तभतीर्थ ।
सुदरलालके वैशाख वदी एकमको देह छोडनेकी जो खबर लिखी, सो जानी । विशेष कालकी बीमारीके बिना, युवावस्थामे अकस्मात् देह छोडनेसे सामान्यरूपसे परिचित मनुष्योको भी उस बातसे खेद हुए बिना नही रहता, तो फिर जिसने कुटुम्ब आदि सम्बन्ध के स्नेहसे उसमे मूर्च्छा की हो, उसके सहवासमे रहा हो, उसके प्रति कुछ आश्रय भावना रखी हो उसे खेद हुए बिना कैसे रहेगा ? इस ससारमे मनुष्य प्राणीको जो खेदके अकथ्य प्रसग प्राप्त होते हे, उन अकथ्य प्रसगोमेसे यह एक महान ' खेदकारक प्रसंग है । ऐसे प्रसगमे यथार्थ विचारवान पुरुषोंके सिवाय सर्व प्राणी खेदविशेषको प्राप्त होते है, और यथार्थं विचारवान पुरुपोको वैराग्य विशेष होता है, ससारकी अशरणता अनित्यता और असारता विशेष दृढ होती है ।
विचारवान पुरुषोको उस खेदकारक प्रसंगका मूर्च्छाभावसे खेद करना, यह मात्र कर्मबधका हेतु भासित होता है, और वैराग्यरूप खेदसे कर्मसगकी निवृत्ति भासित होती है, और यह सत्य है । मूर्च्छाभावसे खेद करनेसे भी जिस सम्बन्धीका वियोग हुआ है, उसकी प्राप्ति नही होती, और जो मूर्च्छा होती है वह भी अविचारदशाका फल है, ऐसा विचारकर विचारवान पुरुष उस मूर्च्छाभाव-प्रत्ययी खेदको शात करते हैं, अथवा प्राय, वैसा खेद उन्हे नही होता । किसी तरह वैसे खेदकी हितकारिता दिखायी नही देती, और यह प्रसग खेदका निमित्त है, इसलिये वैसे अवसर पर विचारवान पुरुषोको, जीवके लिये हितकारी ऐसा खेद उत्पन्न होता है । सर्व सगको अशरणता, अबंधुता, अनित्यता और तुच्छता तथा अन्यत्वभाव देखकर अपने आपको विशेष प्रतिबोध होता है कि हे जीव । तुझे कुछ भी इस ससारमे उदयादिभाव से भी मूर्च्छा रहती हो तो उसका त्याग कर, त्याग कर, उस मूर्च्छाका कुछ फल नही है, ससारमे कभी भी शरणत्व आदि प्राप्त होना नही है, और अविचारिताके बिना इस ससारमे मोह होना योग्य नही है, जो मोह
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२९ व वर्ष
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अनंत जन्ममरणका और प्रत्यक्ष खेदका हेतु है, दुःख और क्लेशका बीज है, उसे शात कर, उसका क्षय कर । हे जीव ! इसके बिना अन्य कोई हितकारी उपाय नही है, इत्यादि भावितात्मतासे वैराग्यको शुद्ध और निश्चल करता है । जो कोई जीव यथार्थ विचारसे देखता है, उसे इसी प्रकारसे भासित होता है ।
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इस जीवको देहसबध होकर मृत्यु न होती तो इस ससारके सिवाय अन्यत्र अपनी वृत्ति लगानेका अभिप्राय न होता । मुख्यतः मृत्युके भयने परमार्थरूप दूसरे स्थानमे वृत्तिको प्रेरित किया है, वह भो किसी विरले जीवको प्रेरित हुई है। बहुतसे जीवोको तो बाह्य निमित्तसे मृत्युभयके कारण बाह्य क्षणिक वैराग्य. प्राप्त होकर विशेष कार्यकारी हुए बिना नाश पाता है । मात्र किसी एक विचारवान अथवा सुलभबोधी या लघुकर्मी जीवको उस भयसे अविनाशी नि श्रेयस पदके प्रति वृत्ति होती है ।
मृत्युभय होता तो भी यदि वह मृत्यु वृद्धावस्थामे नियमित प्राप्त होती तो भी जितने पूर्वकालमे विचारवान हुए है, 'उतने न होते, अर्थात् वृद्धावस्था तक तो मृत्युका भय नही है ऐसा देखकर, प्रमादसहित प्रवृत्ति करते । मृत्युका अवश्य आना देखकर तथा अनियमितरूपसे उसका आना देखकर, उस प्रसगके प्राप्त होनेपर स्वजनादि सबसे अरक्षणता देखकर, परमार्थका विचार करनेमे अप्रमत्तता ही हितकारी प्रतीत हुई, और सर्वसगकी अहितकारिता प्रतीत हुई। विचारवान पुरुषोका यह निश्चय नि सदेह सत्य है, त्रिकाल सत्य है । मूर्च्छाभावका खेद छोडकर असगभावप्रत्ययी खेद करना विचारवानको कर्तव्य है ।
यदि इस ससारमे ऐसे प्रसगोका सम्भव न होता, अपनेको या दूसरोको वैसे प्रसगको अप्राप्ति दिखायी देती होती, अशरणता आदि न होते तो पचविषयके सुख-साधनको जिन्हे प्राय कुछ भी न्यूनता न थी, ऐसे श्री ऋषभदेव आदि परमपुरुष, और भरतादि चक्रवर्ती आदि उसका क्यो त्याग करते ? एकात असगताका सेवन वे क्यो करते ?
हे आर्य माणेकचंद आदि । यथार्थ विचारकी न्यूनताके कारण पुत्र आदि भावकी कल्पना और मूर्च्छा के कारण आपको कुछ भी खेद विशेष प्राप्त होना सम्भव है, तो भी उस खेदका दोनोंके लिये कुछ भी हितकारी फल न होनेसे, मात्र असंग विचारके बिना किसी दूसरे उपायसे हितकारिता नही है, ऐसा विचारकर, वर्तमान खेदको यथाशक्ति विचारसे, ज्ञानी पुरुपोके वचनामृतसे तथा साधु पुरुषके आश्रय, समागम आदिसे और विरतिसे उपशात करना ही कर्तव्य है ।
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ॐ
बंबई, द्वितीय जेठ सुदी २, शनि, १९५२
मुमुक्षु श्री छोटालालके प्रति, श्री स्तभंतीर्थं ।
पत्र मिला है ।
जिस हेतुसे अर्थात् शारीरिक रोग विशेषसे आपके नियममे आगार था, वह रोग विशेष उदयमे है, इसलिये उस आगारका ग्रहण करते हुए आज्ञाका भग अथवा अतिक्रम नही होता, क्योकि आपके नियमका प्रारम्भ तथाप्रकारसे हुआ था । यही कारणविशेष होनेपर भी यदि अपनी इच्छासे उस आगारका ग्रहण करना हो तो आज्ञाका भग या अतिक्रम होता है।
सर्वं प्रकारके आरम्भ तथा परिग्रहके सम्बन्धके मूलका छेदन करनेके लिये समर्थ ऐसा ब्रह्मचर्य परम साधन है । यावत् जीवनपर्यन्त उस व्रतको ग्रहण करने का आपका निश्चय रहता है, ऐसा जानकर प्रसन्न होना योग्य है। अगले समागमके आश्रयमे उस प्रकारके विचारको निवेदित करना रखकर मवत् १९५२
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श्रीमद राजचन्द्र
आसोज मासी पूर्णता तक या सवत् १९५३ की कार्तिक सुदी पूर्णिमा पर्यन्त श्री लल्लुजीके पास उस व्रतको ग्रहण करते हुए आज्ञाका अतिक्रम नही है ।
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श्री माणेकचदका लिखा हुआ पत्र मिला है । सुन्दरलालके देहत्याग सम्बन्धी खुद बताकर उसके आधारपर ससारकी अशरणतादि लिखी है, वह यथार्थ है; वैसी परिणति अखड रहे तभी जीव उत्कृष्ट वैराग्यको पाकर स्वस्वरूपज्ञानको प्राप्त करता है, कभी कभी किसी निमित्तसे वैसे परिणाम होते है परन्तु उनमे विघ्नरूप सग तथा प्रसगमे जीवका वास होने से वे परिणाम अखड नही रहते, और संसाराभिरुचि हो जाती है, वैसी अखड परिणतिके इच्छुक मुमुक्षुको उसके लिये नित्य सत्समागमका आश्रय करनेकी परम पुरुष शिक्षा दी है ।
जब तक जीवको वह योग प्राप्त न हो तब तक कुछ भी उस वैराग्यके आधारका हेतु तथा अप्रतिकूल निमित्तरूप मुमुक्षुजनका समागम तथा सत्शास्त्रका परिचय कर्तव्य हे । अन्य सग तथा प्रसगसे दूर रहनेकी वारवार स्मृति रखनी चाहिये, और वह स्मृति प्रवर्तनरूप करनी चाहिये । वारवार जीव इस वातको भूल जाता है, और इस कारण से इच्छित साधन तथा परिणतिको प्राप्त नही होता ।
श्री सुन्दरलालकी गतिविषयक प्रश्न पढा है । इस प्रश्नको अभी शात करना योग्य है, तथा तद्विषयक विकल्प करना योग्य भी नही है ।
बबई, द्वितीय जेठ वदी ६, गुरु, १९५२
'वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे निर्वाणको प्राप्ति नही होती' ऐसा जिनागममे कहा है, और वेदात आदि ऐसा कहते हैं कि ( इस कालमे इस क्षेत्रसे) निर्वाणकी प्राप्ति होती है। इसके लिये श्री डुगरको जो परमार्थ भासित होता हो, सो लिखियेगा । आप और लहेराभाई भी इस विषयमे यदि कुछ लिखना चाहे तो लिखियेगा |
६९१
مع
वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे निर्वाणप्राप्ति नही होती, इसके सिवाय अन्य कितने ही भावोका भी जिनागममे तथा तदाश्रित आचार्यरचित शास्त्रमे विच्छेद कहा है । केवलज्ञान, मन पर्यायज्ञान, अवधिज्ञान, पूर्वज्ञान, यथाख्यात चारित्र, सूक्ष्मसपराय चारित्र, परिहारविशुद्धि चारित्र, क्षायिक समकित और पुलाकfor इन भावोका मुख्यतः विच्छेद कहा है। श्री डुगरको उस उसका जो परमार्थ भासित होता हो सो लिखियेगा । आपको और लहेराभाईको इस विषयमे यदि कुछ लिखनेकी इच्छा हो सो लिखियेगा |
वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे आत्मार्थकी कौन कौनसी मुख्य भूमिका उत्कृष्ट अधिकारीको प्राप्त हो सकती है, और उसकी प्राप्तिका मार्ग क्या है ? वह भी श्री डुगरसे लिखवाया जाये तो लिखियेगा । तथा इस विषय मे यदि आपको तथा लहेराभाईको कुछ लिखनेकी इच्छा हो जाये तो लिखियेगा । उपर्युक्त प्रश्नोका उत्तर अभी न लिखा जा सके तो उन प्रश्नोके परमार्थका विचार करनेका ध्यान रखियेगा ।
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ववई, द्वितीय जेठ वदी, १९५२
दुर्लभ मनुष्यदेह भी पूर्वकालमे अनतवार प्राप्त होनेपर भी कुछ भी सफलता नही हुई, परन्तु इस मनुष्यदेहकी कृतार्थता है कि जिस मनुष्यदेहमे इस जीवने ज्ञानी पुरुपको पहचाना, तथा उस महाभाग्यका आश्रय किया । जिस पुरुषके आश्रयसे अनेक प्रकारके मिथ्या आग्रह आदिकी मंदता हुई, उस पुरुषके आश्रयपूर्वक यह देह छूटे, यही सार्थकता है । जन्मजरामरणादिका नाश करनेवाला आत्मज्ञान जिसमे
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२९ वा वर्ष विद्यमान है, उस पुरुषका आश्रय ही जीवके जन्मजरामरणादिका नाश कर सकता है, 'क्योकि वह यथासम्भव उपाय है । संयोग-सम्बन्धसे इस देहके प्रति इस जीवका जो प्रारब्ध होगा उसके व्यतीत हो जानेपर इस देहका प्रसग निवृत्त होगा। इसका चाहे जब वियोग निश्चित है, परन्तु आश्रयपूर्वक देह छूटे, यही जन्म सार्थक है, कि जिस आश्रयको पाकर जीव इस भवमे अथवा भविष्यमे थोडे कालमे भी स्वस्वरूपमे स्थिति करे।
आप तथा श्री मुनि प्रसगोपात्त खुशालदासके यहाँ जानेका रखियेगा । ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिको यथाशक्ति धारण करनेकी उनमे सम्भावना दिखायी दे तो मुनिको वैसा करनेमे प्रतिबध नही है।
श्री सद्गुरुने कहा है ऐसे निग्रंथमार्गका सदैव आश्रय रहे।
मैं देहादिस्वरूप नही हूँ, और देह, स्त्री, पुत्र आदि कोई भी मेरे नही हैं, शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी ऐसा मै आत्मा हूँ, इस प्रकार आत्मभावना करते हुए रागद्वेषका क्षय होता है।
६९३ . बंबई, आषाढ सुदी २, रवि, १९५२ जिसकी मृत्युके साथ मित्रता हो, अथवा जो मृत्युसे भागकर छुट सकता हो, अथवा मैं नही ही मरूँ ऐसा जिसे निश्चय हो, वह भले सुखसे सोये।
-श्री तीर्थंकर-छ जीवनिकाय अध्ययन । ज्ञानमार्ग दुराराध्य है। परमावगाढदशा पानेसे पहले उस मार्गमे पतनके बहत स्थान है। सन्देश विकल्प, स्वच्छदता, अतिपरिणामिता इत्यादि कारण वारवार जीवके लिये उस मार्गसे पतनके हेत होते हैं, अथवा ऊर्श्वभूमिका प्राप्त होने नही देते।
क्रियामार्गमे असअभिमान, व्यवहार-आग्रह, सिद्धिमोह, पूजासत्कारादि योग और दैहिक क्रियामे आत्मनिष्ठा आदि दोषोका सम्भव रहा है।
किसी एक महात्माको छोडकर बहुतमे विचारवान जीवोने इन्ही कारणोंसे भक्तिमार्गका आश्रय लिया है, और आज्ञाश्रितता अथवा परमपुरुष सद्गुरुमे सर्वार्पण-स्वाधीनताको शिरसावध माना है, और वैसी ही प्रवृत्ति की है। तथापि वैसा योग प्राप्त होना चाहिये, नही तो चिंतामणि जैसा जिसका एक समय है ऐसी मनुष्यदेह उलटे परिभ्रमणवृद्धिका हेतु होती है।
बबई, आषाढ सुदी २, रवि, १९५२
आत्मार्थी श्री सोभागके प्रति, श्री सायला।
श्री डगरके अभिप्रायपूर्वक आपका लिखा हुआ पन तथा श्री लहेराभाईका लिखा हुआ पत्र मिला है। श्री डगरके अभिप्रायपूर्वक श्री सोभागने लिखा है कि निश्चय और व्यवहारको अपेक्षासे जिनागम तथा वेदात आदि दर्शनमे वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे मोक्षकी ना और हाँ कही होनेका सम्भव है, यह विचार विशेष अपेक्षासे यथार्थ दिखायी देता है; और लहेराभाईने लिखा है कि वर्तमानकालमे सघयणादिके हीन होनेके कारणसे केवलज्ञानका जो निषेध किया है, वह भी सापेक्ष है।
आगे चलकर विशेषार्थ ध्यानगत होनेके लिये पिछले पत्रके प्रश्नको कुछ स्पष्टतासे लिखते हैं .वर्तमानमे जिनागमसे जैसा केवलज्ञानका अर्थ वर्तमान जनसमुदायमे चलता है, वैसा ही उसका अर्थ आपको
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श्रीमद् राजचन्द्र भी आलबन है, उसे खीच लेनेसे वह आर्तता प्राप्त करेगा, ऐसा जानकर उस दयाके प्रतिबधसे यह पत्र लिखा है।
सूक्ष्मसगरूप और बाह्यसंगरूप दुस्तर स्वयभूरमणसमुद्रको भुजा द्वारा जो वर्धमान आदि पुरुष तर गये हैं, उन्हे परमभक्तिसे नमस्कार हो । पतनके भयकर स्थानकमे सावधान रहकर तथारूप सामर्थ्यको विस्तृत करके जिसने सिद्धि सिद्ध की है, उस पुरुषार्थको याद करके रोमाचित, अनंत और मौन ऐसा आश्चर्य उत्पन्न होता है।
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बंबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५२ भुजा द्वारा जो स्वयंभूरमणसमुद्रको तर गये, तरते हैं, और तरेंगे,
__उन सत्पुरुषोको निष्काम भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार श्री अंबालालका लिखा हुआ तथा श्री त्रिभोवनका लिखा हुआ तथा श्री देवकरणजी आदिके लिखे हुए पत्र प्राप्त हुए है।
प्रारब्धरूप दुस्तर प्रतिवध रहता है, उसमे कुछ लिखना या कहना कृत्रिम जैसा लगता है और इसलिये अभी पत्रादिकी मात्र पहुंच भी नही लिखी गयी । बहुतसे पत्रोके लिये वैसा हुआ है, जिससे चित्तको विशेप व्याकुलता होगी, उस विचाररूप दयाके प्रतिवधसे यह पत्र लिखा है । आत्माको मूलज्ञानसे चलायमान कर डाले ऐसे प्रारब्धका वेदन करते हुए ऐसा प्रतिवध उस प्रारब्धके उपकारका हेतु होता है, और किसी विकट अवसरमे एक वार आत्माको मूलज्ञानके वमन करा देने तककी स्थितिको प्राप्त करा देता है, ऐसा जानकर, उससे डरकर आचरण करना योग्य है, ऐसा विचारकर पत्रादिकी पहुँच नही लिखी, सो क्षमा करें ऐसी नम्रतासहित प्रार्थना है।
अहो । ज्ञानीपुरुषकी आशय-गभीरता, धीरता और उपशम | अहो । अहो | वारवार अहो ।
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बंबई, श्रावण सुदी ५, शुक्र, १९५२
"जिनागममे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्य कहे हैं, उनमे कालको भी द्रव्य कहा है ओर अस्तिकाय पाँच कहे है । कालको अस्तिकाय नही कहा है; इसका क्या हेतु होना चाहिये ? कदाचित् कालको अस्तिकाय न कहनेमे यह हेतु हो कि धर्मास्तिकायादि प्रदेशके समूहरूप है, और पुद्गल-परमाणु वैसी योग्यतावाला द्रव्य है, काल वैसा नही है, मात्र एक समयरूप है, इसलिये कालको अस्तिकाय नही कहा। यहाँ ऐसी आशका होती है कि एक समयके बाद दूसरा फिर तीसरा इस तरह समयको धारा वहा ही करती है, और उस धारामे वीचमे अवकाश नही है, इससे एक-दूसरे समयका अनुसधानत्व अथवा समूहात्मकत्व सम्भव है, जिससे काल भी अस्तिकाय कहा जा सकता है। तथा सर्वज्ञको तीन कालका ज्ञान होता है, ऐसा कहा है, इससे भी ऐसा समझमे आता है कि सर्व कालका समूह ज्ञानगोचर होता है, और सर्व समूह ज्ञानगोचर होता हो तो कालका अस्तिकाय होना सम्भव हैं, और जिनागममे उसे अस्तिकाय नहीं माना, यह आशका लिखी थी, उसका समाधान निम्नलिखितसे विचारणीय है
जिनागमको ऐसी प्ररूपणा है कि काल औपचारिक द्रव्य है, स्वाभाविक द्रव्य नही है।
जो पाँच अस्तिकाय कहे है, उनको वर्तनाका नाम मुख्यत काल है । उस वर्तनाका दूसरा नाम पर्याय भी है। जैसे धर्मास्तिकाय एक समयमे असख्यात प्रदेशके समूहरूपसे मालूम होता है, वैसे काल
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२९ वो वर्ष समूहरूपसे मालूम नही होता । एक समय रहकर लयको प्राप्त होता है, उसके बाद दूसरा समय उत्पन्न होता है । वह समय द्रव्यकी वर्तनाका सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग है।
__ सर्वज्ञको सर्व कालका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहा है, उसका मुख्य अर्थ तो यह है कि पचास्तिकाय द्रव्यपर्यायात्मकरूपसे उन्हे ज्ञानगोचर होता है, और सर्व पर्यायका जो ज्ञान है वही सर्व कालका ज्ञान कहा गया है। एक समयमे सर्वज्ञ भी एक समयको ही वर्तमान देखते है, और भूतकाल या भाविकालको विद्यमान नही देखते, यदि उसे भी विद्यमान देखें तो वह भी वर्तमानकाल ही कहा जायेगा । सर्वज्ञ भूतकालको बीत चुका है इस रूपसे और भाविकालको आगे ऐसा होगा, ऐसा देखते है ।
भूतकाल द्रव्यमे समा गया है, और भाविकाल सत्तारूपसे रहा है, दोनोमेसे एक भी वर्तमानरूपसे नही है, मात्र एक समयरूप ऐसा वर्तमानकाल ही विद्यमान है, इसलिये सर्वज्ञको ज्ञानमे भी उसी प्रकारसे भासमान होता है।
एक घडा अभी देखा हो, वह उसके बाद दूसरे समयमे नाशको प्राप्त हो गया, तन घडारूपरो विद्यमान नही है, परन्तु देखनेवालेको वह घडा जैसा था वैसा ज्ञानमे भासमान होता है, इसी तरह अभी एक मिट्टीका पिड पडा है, उसमेसे थोड़ा समय बीतनेपर एक घड़ा उत्पन्न होगा, ऐसा भी ज्ञानमे भासित हो सकता है, तथापि मिट्टीका पिंड वर्तमानमे कुछ घडारूपसे तो नहीं रहता। इसी तरह एक समयमे सर्वज्ञको त्रिकालज्ञान होनेपर भी वर्तमान समय तो एक ही है।
सूर्यके कारण जो दिन-रातरूप काल समझमे आता है वह व्यवहारकाल है; क्योकि सूर्य स्वाभाविक द्रव्य नही है । दिगम्बर, कालके असख्यात अणु मानते है, परन्तु उनका एक दूसरेके साथ सधान है, ऐसा उनका अभिप्राय नही है, और इसलिये कालको अस्तिकायरूपसे नही माना।
प्रत्यक्ष सत्समागममे भक्ति, वैराग्य आदि दृढ साधनसहित मुमुक्षुको सद्गुरुकी आज्ञासे द्रव्यानुयोग विचारणीय है।
अभिनदनजिनकी श्री देवचदजीकृत स्तुतिका पद लिखकर अर्थ पुछवाया है, उसमे 'पुद्गळअनुभवत्यागथी, करवी ज शु परतीत हो,' ऐसा लिखा है, वैसा मूलमे नही है। 'पुद्गळअनुभवत्यागथी, करवी जसु परतीत हो, ऐसा मूल पद है। अर्थात् वर्ण, गन्ध आदि पुद्गल-गुणके अनुभवका अर्थात् रसका त्याग करनेसे, उसके प्रति उदासीन होनेसे, 'जसु' अर्थात् जिसकी (आत्माकी) प्रतीति होती है, ऐसा अर्थ है ।
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बबई, श्रावण, १९५२ पचास्तिकायका स्वरूप सक्षेपमे कहा है -
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते है। अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशसमूहात्मक वस्तु । एक परमाणुके प्रमाणवाली अमूर्त वस्तुके भागकी 'प्रदेश' ऐसी सज्ञा है । जो वस्तु अनेक प्रदेशात्मक हो वह 'अस्तिकाय' कहलाती है। एक जीव असख्यातप्रदेशप्रमाण है। पुद्गल परमाणु यद्यपि एकप्रदेशात्मक है, परन्तु दो परमाणुसे लेकर असख्यात, अनत परमाणु एकत्र हो सकते हैं । इस तरह उसमे परस्पर मिलनेकी शक्ति रहनेसे वह अनेक प्रदेशात्मकता प्राप्त कर सकता है, जिससे वह भी अस्तिकाय कहने योग्य है । 'धर्मद्रव्य' असख्यातप्रदेशप्रमाण, 'अधर्मद्रव्य' असख्यातप्रदेशप्रमाण, 'आकाशद्रव्य' अनतप्रदेशप्रमाण होनेसे वे भी 'अस्तिकाय' हैं । इस तरह पॉच अस्तिकाय है। जिन पांच अस्तिकाय की एकरूपतासे इस 'लोक' की उत्पत्ति है, अर्थात् 'लोक' पचास्तिकायमय है।
प्रत्येक प्रत्येक जीव असख्यातप्रदेशप्रमाण है। वे जीव अनत हैं । एक परमाणु जैसे अनत परमाण हैं। दो परमाणुओके एकत्र मिलनेसे द्वयणुकस्कध होता है, जो अनंत है। इसी तरह तीन परमाणओके
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श्री मद् राजचन्द्र यथार्थ प्रतीत होता है या कुछ दूसरा अर्थ प्रतीत होता है ? सर्व देशकालादिका ज्ञान केवलज्ञानीको होता है, ऐसा जिनागमका अभी रूढि-अर्थ है, अन्य दर्शनोमे ऐसा मुख्यार्थ नहीं है, और जिनागमसे वैसा मुख्यार्थ लोगोमे अभी प्रचलित है। वही केवलज्ञानका अर्थ हो तो उसमे बहुतसे विरोध दिखायी देते हैं। जो सब यहाँ नही लिखे जा सकें है। तथा जो विरोध लिखे हैं वे भी विशेष विस्तारसे नही लिखे जा सके हैं, क्योकि वे यथावसर लिखने योग्य लगते है। जो लिखा है वह उपकारदृष्टिसे लिखा है, यह ध्यान रखें।
योगधारिता अर्थात् मन, वचन और कायासहित स्थिति होनेसे आहारादिके लिये प्रवृत्ति होते हुए उपयोगातर हो जानेसे उसमे कुछ भी वृत्तिका अर्थात् उपयोगका निरोध होता है । एक समयमे किसीको दो उपयोग नही रहते ऐसा सिद्धात है, तब आहारादिकी प्रवृत्तिके उपयोगमे रहते हुए केवलज्ञानीका उपयोग केवलज्ञानके ज्ञेयके प्रति नही रहता, और यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानको जो अप्रतिहत कहा है, वह प्रतिहत हुआ माना जाये । यहाँ कदाचित् ऐसा समाधान करें कि जैसे दर्पणमे पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं वैसे केवलज्ञानमे सर्व देशकाल प्रतिबिंबित होते है। केवलज्ञानी उनमे उपयोग देकर जानते है यह बात नही है, सहजस्वभावसे ही उसमे पदार्थ प्रतिभासित हुआ करते हैं, इसलिये आहारादिमे उपयोग रहते हुए भी सहजस्वभावसे प्रतिभासित केवलज्ञानका अस्तित्व यथार्थ है, तो यहाँ प्रश्न होना सम्भव है कि 'दर्पणमे प्रतिभासित पदार्थका ज्ञान दर्पणको नही होता, और यहाँ तो केवलज्ञानीको उनका ज्ञान होता है, ऐसा कहा है, तथा उपयोगके सिवाय आत्माका दूसरा ऐसा कौनसा स्वरूप है कि आहारादिमे उपयोगकी प्रवृत्ति हो तब केवलज्ञानमे प्रतिभासित होने योग्य ज्ञेयको आत्मा उससे जाने ?'
सर्व देशकाल आदिका ज्ञान जिस केवलीको हो वह केवली 'सिद्ध' को कहे तो सम्भवित होने योग्य माना जाये, क्योकि उसे योगधारिता नही कही है। इसमे भी प्रश्न हो सकता है, तथापि योगधारीकी अपेक्षासे सिद्धमे वैसे केवलज्ञानकी मान्यता हो तो योगरहितत्व होनेसे उसमे सम्भवित हो सकता है, इतना प्रतिपादन करनेके लिये लिखा है, सिद्धको वैसा ज्ञान होता ही है ऐसे अर्थका प्रतिपादन करनेके लिये नही लिखा। यद्यपि जिनागमके रूढि-अर्थके अनुसार देखनेसे तो 'देहधारी केवली' और 'सिद्ध' मे केवलज्ञानका भेद नही होता, दोनोको सर्व देशकाल आदिका सम्पूर्ण ज्ञान होता है यह रूढि-अर्थ है। दूसरी अपेक्षासे जिनागम देखनेसे भिन्नरूपसे दिखायो देता है । जिनागममे इस प्रकार पाठार्थ देखनेमे आते है -
"केवलज्ञान दो प्रकारसे कहा है। वह इस तरह-'सयोगी भवस्थ केवलज्ञान', 'अयोगी भवस्थ केवलज्ञान' । सयोगी केवलज्ञान दो प्रकारसे कहा है, वह इस तरह-प्रथम समय अर्थात् उत्पन्न होनेके समयका सयोगी केवलज्ञान, अप्रथम समय अर्थात् अयोगो होनेके प्रवेश समयसे पहलेका केवलज्ञान । इसी तरह अयोगी भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकारसे कहा है, वह इस तरह-प्रथम समय केवलज्ञान और अप्रथम अर्थात् सिद्ध होनेसे पहलेके अतिम समयका केवलज्ञान ।"
इत्यादि प्रकारसे केवलज्ञानके भेद जिनागममे कहे हैं, उसका परमार्थ क्या होना चाहिये ? कदाचित ऐसा समाधान करें कि बाह्य कारणकी अपेक्षासे केवलज्ञानके भेद बताये हैं, तो वहाँ यो शका करना सभव है कि 'कुछ भी पुरुषार्थ सिद्ध न होता हो और जिसमे विकल्पका अवकाश न हो उसमे भेद करनेकी प्रवृत्ति ज्ञानीके वचनमे सम्भव नही है। प्रथम समय केवलज्ञान और अप्रथम समय केवलज्ञान ऐसे,भेद करते हुए केवलज्ञानका तारतम्य बढता घटता हो तो वह भेद सम्भव है, परन्तु तारतम्यमे,वैसा नहीं है, तब भेद करनेका क्या कारण ?' इत्यादि प्रश्न यहाँ सम्भव हैं, उनपर और पहलेके पत्रपर यथाशक्ति विचार कर्तव्य है।
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२९ वाँ वर्ष
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५१३ बबई, आषाढ सुदी ५, बुध, १९५२
श्री सहजानन्दके वचनामृतमे आत्मस्वरूपके साथ अहर्निश प्रत्यक्ष भगवानकी भक्ति करना, और वह भक्ति 'स्वधर्म'मे रहकर करना, इस तरह जगह जगह मुख्यरूपसे बात आती है। अब यदि 'स्वधर्म' शब्दका अर्थ 'आत्मस्वभाव' अथवा 'आत्मस्वरूप' होता हो तो फिर 'स्वधर्मसहित भक्ति करना' यह कहनेका क्या कारण ? ऐसा आपने लिखा उसका उत्तर यहाँ लिखा है -
स्वधर्ममे रहकर भक्ति करना ऐसा बताया है, वहाँ 'स्वधर्म' शब्दका अर्थ 'वर्णाश्रम धर्म' है । जिस ब्राह्मण आदि वर्णमे देह धारण हुआ हो, उस वर्णका श्रुति-स्मृतिमे कहे हुए धर्मका आचरण करना, यह 'वर्णधर्म' है, और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमके क्रमसे आचरण करनेकी जो मर्यादा श्रुति-स्मृतिमे कही है, उस मर्यादासहित उस उस आश्रममे प्रवृत्ति करना, यह 'आश्रमधर्म' है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण है, तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यस्त ये चार आश्रम हैं। ब्राह्मणवर्णमे इस प्रकारसे वर्णधर्मका आचरण करना, ऐसा श्रुति-स्मृतिमे कहा हा उसके अनुसार ब्राह्मण आचरण करे तो 'स्वधर्म' कहा जाता है। और यदि वैसा आचरण न करते हुए क्षत्रिय आदिके आचरण करने योग्य धर्मका आचरण करे तो 'परधर्म' कहा जाता है । इस प्रकार जिस जिस वर्णमे देह धारण हुआ हो, उस उस वर्णके श्रुति-स्मृतिमे कहे हुए धर्मके अनुसार प्रवृत्ति करना, इसे 'स्वधर्म कहा जाता है, और दूसरे वर्णके धर्मका आचरण करे तो 'परधर्म' कहा जाता है।
उसी तरह आश्रमधर्म सम्बन्धी भी स्थिति है । जिन वर्णों को श्रुति-स्मृतिमे ब्रह्मचर्य आदि आश्रमसहित प्रवृत्ति करनेके लिये कहा है, उस वर्णमे प्रथम चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्याश्रममे रहना, फिर चौबीस वर्ष तक गृहस्थाश्रममे रहना, क्रमसे वानप्रस्थ और सन्यस्त आश्रममे आचरण करना, इस प्रकार आश्रमका सामान्य क्रम है। उस उस आश्रममे आचरण करनेकी मर्यादाके समयमे दूसरे आश्रमके आचरणको ग्रहण करे तो वह 'परधर्म' कहा जाता है, और उस उस आश्रममे उस उस आश्रमके धर्मोका आचरण करे तो वह 'स्वधर्म' कहा जाता है। इस प्रकार वेदाश्रित मार्गमे वर्णाश्रम धर्मको 'स्वधर्म' कहा है, उस वर्णाश्रम धर्मको यहाँ 'स्वधर्म' शब्दसे समझना योग्य है, अर्थात् सहजानदस्वामीने वर्णाश्रम धर्मको यहाँ 'स्वधर्म' शब्दसे कहा है। भक्तिप्रधान सम्प्रदायोमे प्राय भगवद्भक्ति करना, यही जीवका 'स्वधर्म' है. ऐसा प्रतिपादन किया है, परतु उस अर्थमे यहाँ 'स्ववर्म' शब्द नही कहा है, क्योकि भक्ति 'स्वधर्म' मे रहकर करना, ऐसा कहा है, इसलिये स्वधर्मका भिन्नरूपसे ग्रहण किया है, और वह वर्णाश्रम धर्मके अर्थमे ग्रहण किया है । जीवका 'स्वधर्म' भक्ति है, यह बतानेके लिये तो भक्ति शब्दके बदले क्वचित् ही इन सम्प्रदायोमे स्वधर्म शब्दका ग्रहण किया है, और श्री सहजानदके वचनामृतमे भक्तिके बदले स्वधर्म शब्द सज्ञावाचकरूपसे भी प्रयुक्त नहीं किया है, श्री वल्लभाचार्यने तो क्वचित् प्रयुक्त किया है।
६९६ ववई, आषाढ वदो ८, रवि, १९५२
भुजा द्वारा जो स्वयंभूरमणसमुद्रको तर गये, तरते हे और तरेंगे,
उन सत्पुरुषोको निष्काम भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार आपने सहज विचारके लिये जो प्रश्न लिखे थे, वह पत्र प्राप्त हुआ था।
एक धारासे वेदन करने योग्य प्रारब्धका वेदन करते हुए कुछ एक परमार्थ व्यवहाररूप प्रवृत्ति कृत्रिम जैसी लगती है, इत्यादि कारणोसे मात्र पहुंच लिखना भी नहीं हुआ। चित्तको जो सहज
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श्रीमद राजचन्द्र
भी आलबन है, उसे खीच लेनेसे वह आर्त्तता प्राप्त करेगा, ऐसा जानकर उस दयाके प्रतिबधसे यह पत्र लिखा है ।
सूक्ष्मसगरूप और बाह्यसंगरूप दुस्तर स्वयंभूरमणसमुद्रको भुजा द्वारा जो वर्धमान आदि पुरुष तर गये हैं, उन्हे परमभक्तिसे नमस्कार हो । पतन के भयंकर स्थानकमे सावधान रहकर तथारूप सामर्थ्यको विस्तृत करके जिसने सिद्धि सिद्ध की है, उस पुरुषार्थको याद करके रोमाचित, अनत और मौन ऐसा आश्चर्य उत्पन्न होता है ।
६९७
बंबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५२ भुजा द्वारा जो स्वयंभूरमणसमुद्रको तर गये, तरते हैं, और तरेंगे, उन सत्पुरुषोको निष्काम भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार
श्री बालालका लिखा हुआ तथा श्री त्रिभोवनका लिखा हुआ तथा श्री देवकरणजी आदिके लिखे हुए पत्र प्राप्त हुए है ।
1
प्रारब्धरूप दुस्तर प्रतिबंध रहता है, उसमे कुछ लिखना या कहना कृत्रिम जैसा लगता है और इसलिये अभी पत्रादिकी मात्र पहुँच भी नही लिखी गयी । बहुतसे पत्रो के लिये वैसा हुआ है, जिससे चित्तको विशेष व्याकुलता होगी, उस विचाररूप दयाके प्रतिबधसे यह पत्र लिखा है । आत्माको मूलज्ञानसे चलायमान कर डाले ऐसे प्रारब्धका वेदन करते हुए ऐसा प्रतिबंध उस प्रारब्धके उपकारका हेतु होता है, और किसी विकट अवसरमे एक बार आत्माको मूलज्ञानके वमन करा देने तककी स्थितिको प्राप्त करा देता है, ऐसा जानकर, उससे डरकर आचरण करना योग्य है, ऐसा विचारकर पत्रादिकी पहुँच नही लिखी, सो क्षमा करें ऐसी नम्रतासहित प्रार्थना है ।
अहो । ज्ञानीपुरुषकी आशय-गंभीरता, धीरता और उपशम । अहो ! अहो ! वारवार अहो !
I
ॐ
बंबई, श्रावण सुदी ५, शुक्र, १९५२
६९८
ॐ
'जिनागममे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्य कहे हैं, उनमे कालको भी द्रव्य कहा है और अस्तिकाय पाँच कहे है । कालको अस्तिकाय नही कहा है, इसका क्या हेतु होना चाहिये ? कदाचित् कालको अस्तिकाय न कहनेमे यह हेतु हो कि धर्मास्तिकायादि प्रदेशके समूहरूप हैं, और पुद्गल - परमाणु वैसी योग्यतावाला द्रव्य है, काल वैसा नही है, मात्र एक समयरूप है, इसलिये कालको अस्तिकाय नही कहा । यहाँ ऐसी आशका होती है कि एक समयके बाद दूसरा फिर तीसरा इस तरह समयकी धारा बहा ही करती है, और उस धारामे बीचमे अवकाश नही है, इससे एक-दूसरे समयका अनुसंधानत्व अथवा समूहात्मकत्व सम्भव है, जिससे काल भी अस्तिकाय कहा जा सकता है । तथा सर्वज्ञको तीन कालका ज्ञान होता है, ऐसा कहा है, इससे भी ऐसा समझमे आता है कि सर्व कालका समूह ज्ञानगोचर होता है, और सर्व समूह ज्ञानगोचर होता हो तो कालका अस्तिकाय होना सम्भव हैं, और जिनागममे उसे अस्तिकाय नही माना' यह आशका लिखी थी, उसका समाधान निम्नलिखितसे विचारणीय है
जिनागमकी ऐसी प्ररूपणा है कि काल औपचारिक द्रव्य है, स्वाभाविक द्रव्यं नही है ।
जो पाँच अस्तिकाय कहे है, उनकी वर्तनाका नाम मुख्यत. काल है । उस वर्तनाका दूसरा नाम पर्याय भी है । जैसे धर्मास्तिकाय एक समयमे असख्यात प्रदेशके समूहरूपसे मालूम होता है, वैसे काल
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समूहरूपसे मालूम नही होता । एक समय रहकर लयको प्राप्त होता है, उसके बाद दूसरा समय उत्पन्न होता है । वह समय द्रव्यकी वर्तनाका सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग है।
सर्वज्ञको सर्व कालका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहा है, उसका मुख्य अर्थ तो यह है कि पचास्तिकाय द्रव्यपर्यायात्मकरूपसे उन्हे ज्ञानगोचर होता है, और सर्व पर्यायका जो ज्ञान है वही सर्व कालका ज्ञान कहा गया है । एक समयमे सर्वज्ञ भी एक समयको ही वर्तमान देखते है, और भूतकाल या भाविकालको विद्यमान नही देखते, यदि उसे भी विद्यमान देखें तो वह भी वर्तमानकाल ही कहा जायेगा । सर्वज्ञ भूतकालको बीत चुका है इस रूपसे और भाविकालको आगे ऐसा होगा, ऐसा देखते है।
भूतकाल द्रव्यमे समा गया है, और भाविकाल सत्तारूपसे रहा है, दोनोमेसे एक भी वर्तमानरूपसे नही है, मात्र एक समयरूप ऐसा वर्तमानकाल ही विद्यमान है, इसलिये सर्वज्ञको ज्ञानमे भी उसी प्रकारसे भासमान होता है।
एक घडा अभी देखा हो, वह उसके बाद दूसरे समयमे नाशको प्राप्त हो गया, तन घडारूपसे विद्यमान नही है, परन्तु देखनेवालेको वह घड़ा जैसा था वैसा ज्ञानमे भासमान होता है, इसी तरह अभी एक मिट्टीका पिंड पड़ा है, उसमेसे थोडा समय बीतनेपर एक घडा उत्पन्न होगा, ऐसा भी ज्ञानमे भासित हो सकता है, तथापि मिट्टीका पिंड वर्तमानमे कुछ घडारूपसे तो नही रहता। इसी तरह एक समयमे सर्वज्ञको त्रिकालज्ञान होनेपर भी वर्तमान समय तो एक ही है।
सूर्यके कारण जो दिन-रातरूप काल समझमे आता है वह व्यवहारकाल है, क्योकि सूर्य स्वाभाविक द्रव्य नही है । दिगम्बर, कालके असख्यात अणु मानते हैं, परन्तु उनका एक दूसरेके साथ सधान है, ऐसा उनका अभिप्राय नही है, और इसलिये कालको अस्तिकायरूपसे नही माना।
प्रत्यक्ष सत्समागममे भक्ति, वैराग्य आदि दृढ साधनसहित मुमुक्षुको सद्गुरुकी आज्ञासे द्रव्यानुयोग विचारणीय है।
____ अभिनदनजिनकी श्री देवचदजीकृत स्तुतिका पद लिखकर अर्थ पुछवाया है, उसमे 'पुद्गळअनुभवत्यागथी, करवी ज शु परतीत हो,' ऐसा लिखा है, वैसा मूलमे नही है। 'पुद्गळअनुभवत्यागथी, करवी जसु परतीत हो,' ऐसा मूल पद है। अर्थात् वर्ण, गन्ध आदि पुद्गल-गुणके अनुभवका अर्थात् रसका त्याग करनेसे, उसके प्रति उदासीन होनेसे, 'जसु' अर्थात् जिसकी (आत्माको) प्रतीति होती है, ऐसा अर्थ है ।
बवई, श्रावण, १९५२ पचास्तिकायका स्वरूप सक्षेपमे कहा है - ____ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच अस्तिकाय कहे जाते है। अस्तिकाय अर्थात प्रदेशसमूहात्मक वस्तु । एक परमाणुके प्रमाणवाली अमूर्त वस्तुके भागकी 'प्रदेश' ऐसी सज्ञा है। जो वस्तु अनेक प्रदेशात्मक हो वह 'अस्तिकाय' कहलाती है। एक जीव असख्यातप्रदेशप्रमाण है। पुद्गल परमाण यद्यपि एकप्रदेशात्मक है, परन्तु दो परमाणुसे लेकर असख्यात, अनंत परमाणु एकत्र हो सकते हैं । इस तरह उसमे परस्पर मिलनेकी शक्ति रहनेसे वह अनेक प्रदेशात्मकता प्राप्त कर सकता है, जिससे वह भी अस्तिकाय कहने योग्य है । 'धर्मद्रव्य' असख्यातप्रदेशप्रमाण, 'अधर्मद्रव्य' असल्यातप्रदेशप्रमाण, 'आकाशद्रव्य' अनतप्रदेशप्रमाण होनेसे वे भी 'अस्तिकाय' है । इस तरह पाँच अस्तिकाय है । जिन पाँच अस्तिकाय की एकरूपतासे इस 'लोक' की उत्पत्ति है, अर्थात् 'लोक' पचास्तिकायमय है।
प्रत्येक प्रत्येक जीव असख्यातप्रदेशप्रमाण है। वे जीव अनत है । एक परमाणु जैसे अनत परमाण हैं। दो परमाणुओके एकत्र मिलनेसे द्वयणुकस्कध होता है, जो अनंत है। इसी तरह तीन परमाणुओके
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श्रीमद राजचन्द्र मिलनेसे त्रयणुकस्कध होता है, जो अनत है। चार परमाणुओके एकत्र मिलनेसे चतुरणुकस्कंध होता है, जो अनत है । पाँच परमाणुओके मिलनेसे पचाणुकस्कध होता है, जो अनत है । इस तरह छ परमाणु, सात परमाणु, आठ परमाणु, नौ परमाणु, दस परमाणु एकत्र मिलनेसे तथारूप अनंत स्कंध हैं। इसी तरह ग्यारह परमाणु, यावत् सो परमाणु, सख्यात परमाणु, असख्यात परमाणु तथा अनत परमाणु मिलनेसे अनंत स्कध हैं।
'धर्म द्रव्य' एक है। वह असख्यातप्रदेशप्रमाण लोकव्यापक है। 'अधर्मद्रव्य' एक है। वह भी असख्यातप्रदेशप्रमाण लोकव्यापक है । 'आकाशद्रव्य' एक है । वह अनतप्रदेशप्रमाण है, लोकालोकव्यापक है। लोकप्रमाण आकाश असख्यातप्रदेशात्मक है।
'कालद्रव्य' यह पाँच अस्तिकायोका वर्तनारूप पर्याय है, अर्थात् औपचारिक द्रव्य है, वस्तुत तो पर्याय हो है, और पल विपलसे लेकर वर्षादि पर्यंत जो काल सूर्यकी गतिसे समझा जाता है, वह 'व्यावहारिक काल' है, ऐसा श्वेताबर आचार्य कहते है। दिगम्बर आचार्य भी ऐसा कहते हैं, परन्तु विशेषमे इतना कहते है कि लोकाकाशके एक एक प्रदेशमे एक एक कालाणु रहा हुआ है, जो अवर्ण, अगध, अरस
और अस्पर्श है, अगुरुलघु स्वभाववान है। वे कालाणु वर्तनापर्याय और व्यावहारिक कालके लिये निमित्तोपकारी हैं। उन कालाणुओको 'द्रव्य' कहना योग्य है, परन्तु 'अस्तिकाय' कहना योग्य नहीं है, क्योकि एक दूसरेसे मिलकर वे अणु क्रियाकी प्रवृत्ति नही करते, जिससे बहुप्रदेशात्मक न होनेसे 'कालद्रव्य' अस्तिकाय कहने योग्य नहीं है, और पचास्तिकायके विवेचनमे भी उसका गौणरूपसे स्वरूप कहते है।।
__ 'आकाश' अनतप्रदेशप्रमाण है। उसमे असख्यातप्रदेशप्रमाणमे धर्म, अधर्म द्रव्य व्यापक है। धर्म, अधर्म द्रव्यका ऐसा स्वभाव है कि जीव और पुद्गल उनकी सहायताके निमित्तसे गति और स्थिति कर सकते है, जिससे धर्म, अधर्मकी व्यापकतापर्यंत ही जीव और पुद्गलकी गति स्थिति है; और इससे लोकमर्यादा उत्पन्न होती है।
जीव, पुद्गल और धर्म, अधर्म, द्रव्यप्रमाण आकाश ये पाँच जहाँ व्यापक हैं, वह 'लोक' कहा जाता है।
७००
- काविठा, श्रावण वदी, १९५२ शरीर किसका है ? मोहका है । इसलिये असगभावना रखना योग्य है।
७०१ राळज, श्रावण वदी १३, शनि, १९५२ (१) 'अमुक पदार्थके जाने-आने आदिके प्रसगमे धर्मास्तिकाय आदिके अमुक प्रदेशमे क्रिया होती है, और यदि इस प्रकार हो तो उनमे विभाग हो जाये, जिससे वे भी कालके समयको भॉति अस्तिकाय न कहे जा सके' इस प्रश्नका समाधान -
- जैसे धर्मास्तिकाय आदिके सर्व प्रदेश एक समयमे वर्तमान है अर्थात् विद्यमान है, वैसे कालके सर्व समय कुछ एक समयमे विद्यमान नही होते, और फिर द्रव्यके वर्तनापर्यायके सिवाय कालका कोई भिन्न द्रव्यत्व नही है, कि उसके अस्तिकायत्वका सभव हो। अमुक प्रदेशमे धर्मास्तिकाय आदिमे क्रिया हो और अमुक प्रदेशमे न हो इससे कुछ उसके अस्तिकायत्वका भग नहीं होता, मात्र एकप्रदेशात्मक वह द्रव्य हो और समूहात्मक होनेकी उसमे योग्यता न हो तो उसके अस्तिकायत्वका भग होता है, अर्थात् कि, तो वह 'अस्तिकाय' नहीं कहा जाता। परमाणु एकप्रदेशात्मक है, तो भी वैसे दूसरे परमाणु मिलकर वह समूहात्मकत्वको प्राप्त होता है। इसलिये वह 'अस्तिकाय' (पुद्गलास्तिकाय) कहा जाता है। और एक
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रमाणु भी अनतपर्यायात्मकत्व है, और कालके एक समयमे कुछ अनतपर्यायात्मकत्व नही है, क्योकि वह स्वयं ही वर्तमान एक पर्यायरूप है । एक पर्यायरूप होनेसे वह द्रव्यरूप नही ठहरता, तो फिर अस्तिकायरूप माननेका विकल्प भी सभवित नही है ।
(२) मूल अप्कायिक जीवोका स्वरूप बहुत सूक्ष्म होनेसे सामान्य ज्ञानसे उसका विशेषरूपसे ज्ञान होना कठिन है, तो भी 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ अभी प्रसिद्ध हुआ है, उसमे १४१ से १४३ पृष्ठ तक उसका कुछ स्वरूप समझाया है। उसका विचार कर सकें तो विचार कीजियेगा ।
(३) अग्नि अथवा दूसरे बलवान शस्त्रसे अप्कायिक मूल जीवोका नाश होता है, ऐसा समझमे आता है । यहाँसे बाष्प आदिरूप होकर जो पानी ऊँचे आकाशमे बादलरूपमे इकट्ठा होता है वह बाष्प आदिरूप होनेसे अचित् होने योग्य लगता है, परंतु बादलरूप होनेसे फिर सचित् हो जाने योग्य है । वह वर्षारूपसे जमीनपर गिरनेपर भी सचित् होता है। मिट्टी आदिके साथ मिलनेसे भी वह सचित् रह सकने योग्य है । सामान्यत' मिट्टी अग्नि जैसा बलवान शस्त्र नही है, अर्थात् वैसा हो तब भी सचित होना सम्भव है ।
(४) बीज जब तक बोनेसे उगनेकी योग्यतावाला है तब तक निर्जीव नही होता, सजीव ही कहा जाता है | अमुक अवधिके बाद अर्थात् सामान्यत बीज ( अन्न आदिका) तीन वर्ष तक सजीव रह सकता है, इससे बीचमे उसमेसे जीव चला भी जाये, परतु उस अवधिके बीत जानेके बाद उसे निर्जीव अर्थात् निर्बीज हो जाने योग्य कहा है । कदाचित् उसका आकार बीज जैसा हो, परतु वह बोनेसे उगनेकी योग्यतासे रहित हो जाता है । सर्व बीजोकी अवधि तीन वर्षको सम्भवित नही है, कुछ बीजोकी सम्भव है । (५) फ्रेंच विद्वान द्वारा खोजे गये यत्रके व्योरेका समाचारपत्र भेजा उसे पढा है । उसमे उसका नाम जो ‘आत्मा देखनेका यंत्र' रखा है, वह यथार्थ नही है । ऐसे किसी भी प्रकारके दर्शनकी व्याख्या आत्माका समावेश होना योग्य नही है आपने भी उसे आत्मा देखनेका यत्र नही समझा है, ऐसा जानते हैं, तथापि कार्मण या तैजस शरीर दिखायी देने योग्य है या कुछ दूसरा भास होना योग्य है, उसे जानने
।
की आपकी इच्छा मालूम होती है । कार्मण या तैजस शरीर भी उस तरह दिखायी देने योग्य नही है । परतु चक्षु, प्रकाश, वह यत्र, मरनेवालेकी देह और उसकी छाया अथवा किसी आभासविशेषसे वैसा दिखायी देना सम्भव है । उस यत्रके विषयमे अधिक विवरण प्रसिद्ध होनेपर यह बात प्राय पूर्वापर जाननेमे आयेगी। हवाके परमाणुओंके दिखायी देनेके विषयमे भी उनके लिखनेकी या देखे हुए स्वरूपकी व्याख्या करनेमे कुछ पर्यायातर लगता है । हवासे गतिमान कोई परमाणुस्कध ( व्यावहारिक परमाणु, कुछ विशेष प्रयोगसे दृष्टिगोचर हो सकने योग्य हो वह) दृष्टिगोचर होना सभव है । अभी उनकी कृति अधिक प्रसिद्ध होने पर विशेषरूपसे समाधान करना योग्य लगता है ।
७०२
राळज, श्रावण वदी १४, रवि, १९५२ विचारवान पुरुष तो कैवल्यदशा होने तक मृत्युको नित्य समीप हो समझकर प्रवृत्ति करते हैं ।
भाई श्री अनुपचद मलुकचदके प्रति, श्री भृगुकच्छ ।
प्राय. किये हुए कर्मोकी रहस्यभूत मति मृत्युके समय रहती है । एक तो क्वचित् मुश्किलसे परिचित परमार्थभाव, और दूसरा नित्य परिचित निजकल्पना आदि भावसे रूढिधर्मके ग्रहण करनेका भाव ऐसे दो प्रकारके भाव हो सकते है । सद्विचारसे यथार्थ आत्मदृष्टि या वास्तविक उदासीनता तो सवं जीवसमूहको देखते हुए किसी विरल जीवको क्वचित् हो होती है, और दूसरा भाव अनादिसे परिचित है,
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श्रीमद राजचन्द्र
वही प्राय सब जीवोमे देखनेमे आता है, और देहात होनेके प्रसंगपर भी उसका प्रावल्य देखनेमे आता है, ऐसा जानकर मृत्युके समीप आनेपर तथारूप परिणति करनेका विचार विचारवान पुरुष छोडकर, पहलेसे ही उस प्रकारसे रहता है । आप स्वयं बाह्य क्रियाके विधि-निषेधके आग्रहको विसर्जनवत् करके अथवा उसमे अन्तर परिणामसे उदासीन होकर, देह और तत्सबधी सबधका वारंवारका विक्षेप छोडकर, यथार्थ आत्मभावका विचार करना ध्यानगत करे तो वही सार्थक है । अतिम अवसरपर अनशनादि या संस्तरादिक या सलेखनादिक क्रियाएँ क्वचित् हो, या न हो तो भी जिस जीवको उपर्युक्त भाव ध्यानगत है, उसका जन्म सफल है, और वह क्रमसे नि श्रेयसको प्राप्त होता है ।
आपका, कितने ही कारणो से बाह्य क्रियादिके विधि-निषेधका विशेष ध्यान देखकर हमे खेद होता था कि इसमे काल व्यतीत होनेसे आत्मावस्था कितनी स्वस्थताका सेवन करती है, और क्या यथार्थ स्वरूपका विचार कर सकती है कि जिससे आपको उसका इतना अधिक परिचय खेदका हेतु नही लगता ? जिसमे सहजमात्र उपयोग दिया हो तो चल सकता है, उसमे 'जागृति' कालका लगभग बहुतसा भाग व्यतीत होने जैसा होता है, वह किसलिये और उसका क्या परिणाम ? वह क्यो आपके ध्यानमे नही आता ? इस विषयमे क्वचित् कुछ प्रेरणा करनेकी सम्भवत इच्छा हुई थी; परंतु आपकी तथारूप रुचि और स्थिति दिखायी न देनेसे प्रेरणा करते करते वृत्तिको संकुचित कर लिया था। आज भी आपके चित्तमे इस बातको अवकाश देने योग्य अवसर है । लोग मात्र विचारवान या सम्यग्दृष्टि समझें, इससे कल्याण नही है अथवा वाह्य-व्यवहारके अनेक विधि-निषेध के कर्तृत्व के माहात्म्य में कुछ कल्याण नही है, ऐसा हमे तो लगता है । यह कुछ एकान्तिक दृष्टिसे लिखा है अथवा अन्य कोई हेतु है, ऐसा विचार छोड़कर, जो कुछ उन वचनोसे अतर्मुखवृत्ति होनेकी प्रेरणा हो उसे करनेका विचार रखना, यही सुविचारदृष्टि है ।
लोकसमुदाय कुछ भला होनेवाला नही है, अथवा स्तुतिनिदाके प्रयत्नार्थ इस देहकी प्रवृत्ति विचारवान के लिये कर्तव्य नही है । अतर्मुखवृत्ति रहित बाह्यक्रिया के विधि - निषेधमे कुछ भी वास्तविक कल्याण नही है । गच्छादि भेदका निर्वाह करनेमे, नाना प्रकारके विकल्प सिद्ध करनेमे आत्माको आवृत करनेके बराबर है । अनेकान्तिक मार्ग भी सम्यग्, एकान्त निजपदकी प्राप्ति करानेके सिवाय दूसरे किसी अन्य हेतुसे उपकारी नही है, ऐसा जानकर लिखा है । वह मात्र अनुकम्पा बुद्धिसे, निराग्रहसे, निष्कपटतासे, निर्दभतासे और हितार्थ लिखा है, ऐसा यदि आप यथार्थ विचार करेंगे तो दृष्टिगोचर होगा, और वचनके ग्रहण अथवा प्रेरणा होनेका हेतु होगा ।
राळज, भादो सुदी८, १९५२
७०३
कितने ही प्रश्नोका समाधान जाननेकी अभिलाषा रहती है यह स्वाभाविक है ।
"प्राय सभी मार्गोमे मनुष्यभवको मोक्षका एक साधन मानकर उसकी बहुत प्रशसा की है, और जीवको जिस तरह वह प्राप्त हो अर्थात् उसकी वृद्धि हो उस तरह बहुतसे मार्गोमे उपदेश किया मालूम होता है । जिनोक्त मागंमे वैसा उपदेश किया मालूम नही होता । वेदोक्त मार्गमे 'अपुत्रकी गति नही होती', इत्यादि कारणोसे तथा चार आश्रमोका क्रमादिसे विचार करनेसे मनुष्यकी वृद्धि हो ऐसा उपदेश किया हुआ दृष्टिगोचर होता है । जिनोक्त मार्गमे उससे विपरीत देखनेमे आता है, अर्थात् वैसा न करते हुए, जब भी जीव वैराग्य प्राप्त करे तो ससारका त्याग कर देना, ऐसा उपदेश देखनेमे आता है, इसलिये बहुतसे गृहस्थाश्रमको प्राप्त किये बिना त्यागी हो, और मनुष्यकी वृद्धि रुक जाये, क्योकि उनके अत्यागसे, जो कुछ उन्हे सतानोत्पत्तिका सभव रहता वह न हो और उससे वगके नाश होने जैसा हो, जिससे दुर्लभ मनुष्यभव, जिसे मोक्षसाधनरूप माना है, उसकी वृद्धि रुक जाती है, इसलिये जिनेंद्रका वैसा
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२९ वो वर्ष
५१९ अभिप्राय क्यो हो?" उसे जानने आदि विचारका प्रश्न लिखा है, उसके समाधानका विचार करनेके लिये यहाँ लिखा है।
___ लौकिक दृष्टि और अलौकिक (लोकोत्तर) दृष्टिसे बडा भेद है, अथवा ये दोनो दृष्टियां परस्पर विरुद्ध स्वभाववाली है । लौकिक दृष्टिमे व्यवहार (सासारिक कारणो) की मुख्यता है और अलौकिक दधिमे परमार्थकी मुख्यता है । इसलिये अलौकिक दृष्टिको लौकिक दृष्टिके फलके साथ प्रायः (बहुत करके) मिलाना योग्य नही है।
जैन और अन्य सभी मार्गोंमे प्राय मनुष्यदेहका विशेष माहात्म्य कहा है, अर्थात् मोक्षसाधनका कारणरूप होनेसे उसे चितामणि जैसा कहा है, वह सत्य है। परतु यदि उससे मोक्षसाधन किया तो ही उसका यह माहात्म्य है, नही तो वास्तविक दृष्टिसे पशुकी देह जितनी भी उसकी कीमत मालूम नही होती।
मनुष्यादि वशकी वृद्धि करना यह विचार मुख्यतः लौकिक दृष्टिका है, परतु उस देहको पाकर अवश्य मोक्षसाधन करना, अथवा उस साधनका निश्चय करना, यह विचार मुख्यतः अलोकिक दृष्टिका है। अलौकिकदष्टिमे मनुष्यादि वशकी वृद्धि करना, ऐसा नहीं कहा है इससे मनुष्यादिका नाश करना ऐसा उसमे आशय रहता है, यह नही समझना चाहिये । लौकिक दृष्टिमे तो युद्धादि अनेक प्रसगोमे हजारो मनुष्योके नाश हो जानेका समय आता है, और उसमे बहुतसे वशरहित हो जाते है, परतु परमार्थ अर्थात अलौकिक दृष्टिमे वैसे कार्य नहीं होते कि जिससे प्राय. वैसा होनेका समय आवे, अर्थात यहाँ अलौकिक दष्टिसे निर्वैरता, अविरोध, मनुष्य आदि प्राणियोकी रक्षा और उनके वशका रहना, यह सहज ही बन जाता है, और मनुष्य आदि वशकी वृद्धि करनेका जिसका हेतु है, ऐसी लौकिक दृष्टि इसके विपरीत वैर, विरोध, मनुष्य आदि प्राणियोका नाश और वशहीनता करनेवाली होती है।
अलौकिक दृष्टिको पाकर अथवा अलौकिक दृष्टिके प्रभावसे कोई भी मनुष्य छोटी उमरमे त्यागी हो जाये तो उससे जिसने गृहस्थाश्रम ग्रहण न किया हो उसके वशका, अथवा जिसने गृहस्थाश्रम ग्रहण किया हो और पत्रोत्पत्ति न हई हो, उसके वशका नाश होनेका समय आये, और उतने मनुष्योका जन्म कम हो. जिससे मोक्षसाधनकी हेतुभूत मनुष्यदेहकी प्राप्तिके रोकने जैसा हो जाये, ऐसा लौकिक दृष्टिसे योग्य लगता है, परन्तु परमार्थदृष्टिसे वह प्राय कल्पना मात्र लगता है।
किसीने भो पूर्वकालमें परमार्थमार्गका आराधन करके यहाँ मनुष्यभव प्राप्त किया हो, उसे छोटी उमरसे ही त्याग-वैराग्य तीव्रतासे उदयमे आते है, वैसे मनुष्यको सतानको उत्पत्ति होनेके पश्चात् त्याग करनेका उपदेश करना, अथवा आश्रमके अनुक्रममे रखना, यह यथार्थ प्रतीत नहीं होता, क्योकि मनुष्यदेह तो बाह्य दष्टिसे अथवा अपेक्षासे मोक्षसाधनरूप है, और यथार्थ त्याग-वैराग्य तो मूलत मोक्षसाधनरूप है. और वैसे कारण प्राप्त करनेसे मनुष्यदेहकी मोक्षसाधनता सिद्ध होती थी, वे कारण प्राप्त होनेपर उस देहसे भोग आदिमे पडनेका कहना, इसे मनुष्यदेहको मोक्षसाधनरूप करनेके समान कहा जाय या ससार साधनरूप करनेके समान कहा जाय यह विचारणीय है।
वेदोक्त मार्गमे जो चार आश्रमोकी व्यवस्था है वह एकान्तरूपसे नही है। वामदेव, शुकदेव, जडभरतजी इत्यादि आश्रमके क्रमके विना त्यागवृत्तिसे विचरे है। जिनसे वैसा होना अशक्य हो, वे परिणाममे यथार्थ त्याग करनेका लक्ष्य रखकर आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करें तो यह सामान्यत ठोक है, ऐसा कहा जा सकता है। आयुकी ऐसी क्षणभगुरता है कि वैसा क्रम भी किसी विरलेको हो प्राप्त होनेका अवसर आये । कदाचित् वैसी आयु प्राप्त हुई हो तो भी वैसी वृत्तिसे अर्थात् वैसे परिणामसे यथार्थ त्याग हो ऐसा लक्ष्य रखकर प्रवृत्ति करना तो किसीसे हो बन सकता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
जिनोक्त मार्गका भी ऐसा एकान्त सिद्धात नही है कि चाहे जिस उमरमे चाहे जिस मनुष्यको त्याग करना चाहिये । तथारूप सत्सग और सद्गुरुका योग होनेपर, उस आश्रयसे कोई पूर्वके संस्कारवाला अर्थात् विशेष वैराग्यवान पुरुष गृहस्थाश्रमको ग्रहण करनेसे पहले त्याग करे तो उसने योग्य किया है, ऐसा जिनसिद्धात प्राय कहता है; क्योकि अपूर्व साधनोके प्राप्त होने पर भोगादि भोगनेके विचारमे पड़ना,
और उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करके अपने प्राप्त आत्मसाधनको गँवाने जैसा करना, और अपनेसे जो संतति होगी वह मनुष्यदेह प्राप्त करेगी, वह देह मोक्षके साधनरूप होगी, ऐसी मनोरथ मात्र कल्पनामे पड़ना, यह मनुष्यभवकी उत्तमता दूर करके उसे पशुवत् करने जैसा है।
इद्रियाँ आदि जिसकी शान्त नही हुई है, ज्ञानीपुरुषकी दृष्टिमे अभी जो त्याग करनेके योग्य नही है, ऐसे किसी मद अथवा मोहवैराग्यवान जीवको त्याग अपनाना प्रशस्त ही है, ऐसा जिनसिद्धात कुछ एकान्तरूपसे नही है।
प्रथमसे ही जिसे उत्तम सस्कारयुक्त वैराग्य न हो, वह पुरुष कदाचित् परिणाममे त्यागका लक्ष्य रखकर आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करे, तो उसने एकात भूल ही की है, और त्याग ही किया होता तो उत्तम था, ऐसा भी जिनसिद्धात नही है । मात्र मोक्षसाधनका प्रसग प्राप्त होनेपर उस प्रसगको जाने नही देना चाहिये, ऐसा जिनेंद्रका उपदेश है।
उत्तम सस्कारवाले पुरुप गृहस्थाश्रम अपनाये बिना त्याग करें, तो उससे मनुष्यकी वृद्धि रुक जाये, और उससे मोक्षसाधनके कारण रुक जायें, यह विचार करना अल्प दृष्टिसे योग्य दिखायी दे, परतु तथारूप त्याग-वैराग्यका योग प्राप्त होनेपर, मनुष्यदेहकी सफलता होनेके लिये, उस योगका अप्रमत्ततासे विलम्बके बिना लाभ प्राप्त करना, वह विचार तो पूर्वापर अविरुद्ध और परमार्थदृष्टिसे सिद्ध कहा जा सकता है। आयु सम्पूर्ण है और अपनेको सतति होगी तो वे मोक्षसाधन करेगी ऐसा निश्चय करके, संतति होगी ही ऐसा मानकर, पुनः ऐसा ही त्याग प्रकाशित होगा, ऐसे भविष्यको कल्पना करके आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करनेको कौनसा विचारवान एकान्तसे योग्य समझे ? अपने वैराग्यमे मंदता न हा, और ज्ञानीपुरुष जिसे त्याग करने योग्य समझते हो, उसे अन्य मनोरथ मात्र कारणोंके अथवा अनिश्चित कारणो के विचारको छोडकर निश्चित और प्राप्त उत्तम कारणोका आश्रय करना, यही उत्तम है, और यही मनुष्यभवकी सार्थकता है, बाकी वृद्धि आदिकी तो कल्पना है। सच्चे मोक्षमार्गका नाश कर मात्र मनुष्यकी वृद्धि करनेकी कल्पना करने जैसा करें तो हो सके।
इत्यादि अनेक कारणोसे परमार्थदृष्टिसे जो उपदेश दिया है, वही योग्य दिखायी देता है। ऐसे प्रश्नोत्तरमे विशेषत. उपयोगको प्रेरित करना कठिन पडता है। तो भी सक्षेपमे जो कुछ लिखना बन पाया, उसे उदोरणावत् करके लिखा है।
जहाँ तक हो सके वहाँ तक ज्ञानीपुरुषके वचनोको लौकिक आशयमे न लेना, अथवा अलौकिक दृष्टिसे विचारना योग्य है, और जहाँ तक हो सके वहाँ तक लौकिक प्रश्नोत्तरमे भी विशेष उपकारके विना पडना योग्य नही है । वैसे प्रसगोसे कई बार परमार्थदृष्टिको क्षुब्ध करने जैसा परिणाम आता है।
बडके बड़वट्ट या पीपलके गोदेका रक्षण भी कुछ उनके वशकी वृद्धि करनेके हेतुसे उन्हे अभक्ष्य कहा है, ऐसा समझना योग्य नही है । उनमे कोमलता होती है, जिससे उनमे अनतकायका सभव है, तथा उनके बदले दूसरी अनेक वस्तुओसे निष्पापतासे रहा जा सकता है, फिर भी उन्हीको अगीकार करनेकी इच्छा रखना यह वृत्तिकी अति तुच्छता है; इसलिये उन्हे अभक्ष्य कहा है, यह यथार्थ लगने योग्य है।
पानीकी बूंदमे असंख्यात जीव हैं, यह वात सच्ची है। परन्तु उपर्युक्त बडके वड़बट्टे आदिके जो
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२९ वा वर्ष कारण हैं, वैसे कारण इसमें नहीं हैं, इसलिये इसे अभक्ष्य नही कहा है। यद्यपि वैसे पानीको काममे लेनेकी भी आज्ञा है, ऐसा नही कहा, और उससे भी अमुक पाप होता है, ऐसा उपदेश है।
पहलेके पत्रमे बीजके सचित्-अचित् सम्बन्धी समाधान लिखा है, वह किसी विशेष हेतुसे संक्षिप्त किया है । परम्परा रूढिके अनुसार लिखा है, तथापि उसमें कुछ विशेष भेद समझमे आता है, उसे नही लिखा है । लिखने योग्य न लगनेसे नही लिखा है । क्योकि वह भेद विचार मात्र है, और उसमे कुछ वैसा उपकार गर्भित हो ऐसा नहीं दीखता । '
नाना प्रकारके प्रश्नोत्तरोका लक्ष्य एक मात्र आत्मार्थके लिये हो तो आत्माका बहुत उपकार होना सम्भव है।
७०४
राळज, भादो सुदी ८,१९५२ लौकिक दृष्टि और अलौकिक दृष्टिमे बडा भेद है। लौकिक दृष्टिमे व्यवहारको मुख्यता है, और अलौकिक दृष्टिमे परमार्थकी मुख्यता है।
जैन और दूसरे सब मार्गोमे मनुष्यदेहकी विशेषता एव अमूल्यता कही है, यह सत्य है; परन्तु यदि उसे मोक्षसाधन बनाया जा सके तो ही उसकी विशेषता एवं अमूल्यता है।
मनुष्य आदि वंशको वृद्धि करना यह विचार लौकिक दृष्टिका है, परन्तु मनुष्यको यथातथ्य योग होनेपर कल्याणका अवश्य निश्चय करना तथा प्राप्ति करना यह विचार अलौकिक दृष्टिका है।
यदि ऐसा ही निश्चय किया गया हो कि क्रमसे ही सर्वसगपरित्याग करना, तो वह यथास्थित विचार नहीं कहा जा सकता । क्योकि पूर्वकालमे कल्याणका आराधन किया है ऐसे कई उत्तम जोव लघु वयसे ही उत्कृष्ट त्यागको प्राप्त हुए हैं। इसके दृष्टातरूप शुकदेवजी, जडभरत आदिके प्रसग अन्य दर्शनमे हैं। यदि ऐसा ही नियम बनाया हो कि गृहस्थाश्रमका आराधन किये बिना त्याग होता ही नही है तो फिर वैसे परम उदासीन पुरुषको, त्यागका नाश कराकर, कामभोगमे प्रेरित करने जैसा उपदेश कहा जाये, और मोक्षसाधन करनेरूप जो मनुष्यभवको उत्तमता थी, उसे दूर कर, साधन प्राप्त होनेपर, ससारसाधनका हेतु किया ऐसा कहा जाये।
और एकातसे ऐसा नियम बनाया हो कि ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम आदिका क्रमसे इतने इतने वर्ष तक सेवन करनेके पश्चात् त्यागी होना तो वह भी स्वतत्र बात नही है । तथारूप आयु न हो तो त्यागका अवसर ही न आये। ___और यदि अपुत्ररूपसे त्याग न किया जाये, ऐसा मानें तो तो किसीको वृद्धावस्था तक भी पुत्र नही होता, उसके लिये क्या समझना ? '
जैनमार्गका भी ऐसा एकात सिद्धात नही है कि चाहे जिस अवस्थामे चाहे जैसा मनुष्य त्याग करे, तथारूप सत्सग और सद्गुरुका योग होने पर विशेष वैराग्यवान पुरुष सत्पुरुपके आश्रयसे लघु वयमे त्याग करे तो इससे उसे वैसा करना योग्य नही था ऐसा जिनसिद्धात नही है, वैसा करना योग्य है ऐसा जिनसिद्धात है, क्योकि अपूर्व साधनोंके प्राप्त होनेपर भोगादि साधन भोगनेके विचारमे पडना और उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करके उसे अमुक वर्ष तक भोगना ही, यह तो जिस मोक्षसाधनसे मनुष्यभवको उत्तमता थी, उसे दूर कर पशुवत् करने जैसा होता है।
१ देखें आक ७०१-४।
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श्रीमद् राजचन्द्र जिसकी इद्रियाँ आदि शांत नही हुई, ज्ञानीपुरुषकी दृष्टिमे अभी जो त्याग करनेके योग्य नही है, ऐसे मद वैराग्यवान अथवा मोहवैराग्यवानके लिये त्यागको अपनाना प्रशस्त ही है, ऐसा कुछ जिनसिद्धात नही है।
पहलेसे ही जिसे सत्सगादिक योग न हो, तथा पूर्वकालके उत्तम संस्कारयुक्त वैराग्य न हो वह पुरुष कदाचित् आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करे तो इससे उसने एकात भूल की है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, यद्यपि उसे भी रातदिन उत्कृष्ट त्यागकी जागृति रखते हुए गृहस्थाश्रम आदिका सेवन करना प्रशस्त है।
उत्तम संस्कारवाले पुरुष गृहस्थाश्रमको अपनाये बिना त्याग करें, उससे मनुष्यप्राणीकी वृद्धि रुक जाये, और उससे मोक्षसाधनके कारण रुक जाये, यह विचार करना अल्पदृष्टिसे योग्य दिखायी दे, क्योकि प्रत्यक्ष मनुष्यदेह जो मोक्षसाधनका हेतु होती थी उसे रोककर पुत्रादिकी कल्पनामे पडकर, फिर वे मोक्षसाधनका आराधन करेंगे ही ऐसा निश्चय करके उनकी उत्पत्तिके लिये गृहस्थाश्रममे पडना, और फिर उनकी उत्पत्ति होगी यह भी मान लेना और कदाचित् वे सयोग हुए तो जैसे अभी पुत्रोत्पत्तिके लिये इस पुरुषको रुकना पड़ा था वैसे उसे भी रुकना पडे, इससे तो किसीको उत्कृष्ट त्यागरूप मोक्षसाधन प्राप्त होनेके योगको न आने देने जैसा हो ।
और किसी किसी उत्तम संस्कारवान पुरुषके गृहस्थाश्रम प्राप्तिके पूर्वके त्यागसे वंशवृद्धि न हो ऐसा विचार करें तो वैसे उत्तम पुरुषके उपदेशसे अनेक जीव जो मनुष्य आदि प्राणियोका नाश करनेसे नही डरते, वे उपदेश पाकर वर्तमानमे उस प्रकार मनुष्य आदि प्राणियोका नाश करनेसे क्यो न रुकें ? तथा शुभवृत्ति होनेसे फिर मनुष्यभव क्यो न प्राप्त करें? और इस तरह मनुष्यका रक्षण तथा वृद्धि भी सभव है।
अलोकिक दृष्टिमे तो मनुष्यकी हानि-वृद्धि आदिका मुख्य विचार नही है, कल्याण-अकल्याणका मुख्य विचार है । एक राजा यदि अलौकिक दृष्टि प्राप्त करे तो अपने मोहसे हजारो मनुष्य प्राणियोका युद्धमे नाश होनेका हेतु देखकर बहुत बार बिना कारण वैसे युद्ध उत्पन्न न करे, जिससे बहुतसे मनुष्योका बचाव हो और उससे वशवृद्धि होकर बहुतसे मनुष्य बढे ऐसा विचार भी क्यो न किया जाये ?
इंद्रियाँ अतृप्त हो, विशेष मोहप्रधान हो, मोहवैराग्यसे मात्र क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हुआ हो और यथातथ्य सत्सगका योग न हो तो उसे दीक्षा देना प्राय प्रशस्त नही कहा जा सकता, ऐसा कहे तो विरोध नही। परन्तु उत्तम संस्कारयुक्त और मोहाध, ये सब गृहस्थाश्रम भोगकर ही त्याग करें ऐसा प्रतिबन्ध करनेसे तो आयु आदिको अनियमितता, योग प्राप्त होनेपर उसे दूर करना इत्यादि अनेक विरोधोसे मोक्षसाधनका नाश करने जैसा होता है, और जिससे उत्तमता मानी जाती थी वह न हुआ, तो फिर मनुष्यभवकी उत्तमता भी क्या है ? इत्यादि अनेक प्रकारसे विचार करनेसे लौकिक दृष्टि दूर होकर अलौकिक दृष्टिसे विचार-जागृति होगी।
__ वडके बडवट्टे या पीपलके गोदेको वशवृद्धि के लिये उनका रक्षण करनेके हेतुसे कुछ उन्हें अभक्ष्य नही कहा है। उनमे कोमलता होती है, तब अनन्तकायका सम्भव है। इससे तथा उनके बदले दूसरी अनेक वस्तुओसे चल सकता है, फिर भी उसीका ग्रहण करना, यह वृत्तिकी अति क्षुद्रता है, इसलिये अभक्ष्य कहा है, यह यथातथ्य लगने योग्य है।
पानीकी बूंदमे असख्यात जोव हैं, यह बात सच्चो है, परन्तु वैसा पानी पीनेसे पाप नही है ऐसा नहीं कहा। फिर उसके बदले गृहस्थ आदिको दूसरी वस्तुसे चल नही सकता, इसलिये अगीकार किया जाता है, परन्तु साधुको तो वह भी लेनेकी आज्ञा प्राय नही दी है।
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२९ वो वर्ष
५२३ जब तक हो सके तब तक ज्ञानीपुरुषके वचनोको लौकिक दृष्टिके आशयमे न लेना योग्य है, और अलौकिक दृष्टि से विचारणीय है । उस अलौकिक दृष्टिके कारण यदि सन्मुख जीवके हृदयमे अकित करनेको शक्ति हो तो अकित करना, नही तो इस विषयने अपना विशेष ज्ञान नही है ऐसा बताना तथा मोक्षमार्गमे केवल लौकिक विचार नही होता इत्यादि कारण यथाशक्ति बताकर सम्भवित समाधान करना, नही तो यथासम्भव से प्रसगसे दूर रहना, यह ठीक है।
७०५
वडवा, भादो सुदी ११, गुरु, १९५२ आज दिन पर्यंत इस आत्मासे मन, वचन और कायाके योगसे आप सम्बन्धी जो कुछ अविनय, आसातना या अपराध हुआ हो उसकी शुद्ध अतःकरणसे नम्रताभावसे मस्तक झुकाकर दोनो हाथ जोडकर क्षमा माँगता हूँ। आपके समीपवासी भाइयोसे भी उसी प्रकारसे क्षमा मांगता हूँ।
७०६
वडवा (स्तभतीर्थके समीप),
भादो सुदी ११, गुरु, १९५२ शुभेच्छासम्पन्न आर्य केशवलालके प्रति, लीबडी ।
सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य प्राप्त हो।
तीन पत्र प्राप्त हुए है। 'कुछ भी वृत्ति रोकते हुए, उसकी अपेक्षा विशेष अभिमान रहता है', तथा 'तृष्णाके प्रवाहमे चलते हुए बह जाते हैं, और उसकी गतिको रोकनेकी सामर्थ्य नही रहती।' इत्यादि विवरण तथा 'क्षमापना और कर्कटो राक्षसीके 'योगवासिष्ठ' सम्बन्धी प्रसगकी, जगतका भ्रम दूर करनेके लिये विशेषता' लिखी यह सब विवरण पढा है। अभी लिखनेमे विशेष उपयोग नहीं रह सकता जिससे पत्रकी पहुँच भी लिखनेसे रह जाती है। संक्षेपमे उन पत्रोका उत्तर निम्नलिखितसे विचारणीय है।
(१) वृत्ति आदिका सयम अभिमानपूर्वक होता हो तो भी करना योग्य है। विशेषता इतनी है कि उस अभिमानके लिये निरतर खेद रखना। वैसा हो तो क्रमशः वृत्ति आदिका सयम हो और तत्सम्बन्धी अभिमान भी न्यून होता जाय ।
(२) अनेक स्थलोपर विचारवान पुरुषोने ऐसा कहा है कि ज्ञान होनेपर काम, क्रोध, तृष्णा आदि। भाव निर्मूल हो जाते हैं, यह सत्य है । तथापि उन वचनोका ऐसा परमार्थ नही है कि ज्ञान होनेसे पहले वे । मद न पड़ें या कम न हो । यद्यपि उनका समूल छेदन तो ज्ञानसे होता है, परन्तु जब तक कषाय आदिकी मदता या न्यूनता न हो तब तक ज्ञान प्रायः उत्पन्न ही नही होता। ज्ञान प्राप्त होनेमें विचार मुख्य साधन है, और उस विचारके वैराग्य (भोगके प्रति अनासक्ति) तथा उपशम (कषाय आदिकी बहुत ही मदता, उनके प्रति विशेष खेद) ये दो मुख्य आधार हैं। ऐसा जानकर उसका निरतर लक्ष्य रखकर वैसी परिणति करना योग्य है।
___ सत्पुरुषके वचनके यथार्थ ग्रहणके बिना प्रायः विचारका उद्भव नही होता, और सत्पुरुषके वचनका यथार्थ ग्रहण तभी होता है जब सत्पुरुषको 'अनन्य आश्रय भक्ति' परिणत होती है, क्योकि सत्पुरुषकी प्रतीति ही कल्याण होनेमे सर्वोत्तम निमित्त है । प्राय ये कारण परस्पर अन्योन्याश्रय जैसे हैं । कही किसीको मुख्यता है, और कही किसीकी मुख्यता है, तथापि ऐसा तो अनुभवमे आता है कि जो सच्चा मुमुक्षु हो, उसे सत्पुरुषकी 'आश्रयभक्ति', अहभाव आदिके छेदनके लिये ओर अल्पकालमे विचारदशा परिणमित होनेके लिये उत्कृष्ट कारणरूप होती है।
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श्रीमद राजचन्द्र
भोग अनासक्ति हो, तथा लौकिक विशेषता दिखानेको बुद्धि कम की जाये तो तृष्णा निर्बल होती जाती है । लौकिक मान आदिकी तुच्छता समझमे आ जाये तो उसकी विशेषता नही लगती, और इससे उसकी इच्छा सहजमे मद हो जाती है, ऐसा यथार्थ भासित होता है । बहुत ही मुश्किलसे आजीविका चलती हो तो भी मुमुक्षुके लिये वह पर्याप्त है, क्योकि विशेष की कुछ आवश्यकता या उपयोग (कारण) नही है, ऐसा जब तक निश्चय न किया जाये तब तक तृष्णा नाना प्रकारसे आवरण किया करती है । लौकिक विशेषतामे कुछ सारभूतता नही है, ऐसा निश्चय किया जाये तो मुश्किलसे आजीविका जितना मिलता हो तभी तृप्ति रहती है । मुश्किलसे आजीविका जितना न मिलता हो तो भी मुमुक्षुजीव प्राय आर्त्तध्यान न होने दे, अथवा होनेपर विशेष खेद करे, और आजीविकामे कमीको यथाधर्म पूर्ण करनेकी मद कल्पना करे, इत्यादि प्रकारसे बर्ताव करते हुए तृष्णाका पराभव (क्षय) होना योग्य दीखता है ।
(३) बहुधा सत्पुरुषके वचनसे आध्यात्मिक शास्त्र भी आत्मज्ञानका हेतु होता है, क्योकि परमार्थ आत्मा शास्त्रमे नही रहता, सत्पुरुषमे रहता है । मुमुक्षुको यदि किसी सत्पुरुषका आश्रय प्राप्त हुआ हो तो प्राय ज्ञानकी याचना करना योग्य नही है, मात्र तथारूप वैराग्य उपशम आदि प्राप्त करनेका उपाय करना योग्य है । वह योग्य प्रकारसे सिद्ध होनेपर ज्ञानीका उपदेश सुलभतासे परिणमित होता है, और यथार्थं विचार और ज्ञानका हेतु होता है ।
(४) जब तक कम उपाधिवाले क्षेत्रमे आजीविका चलतो हो तब तक विशेष प्राप्त करनेकी कल्पनासे मुमुक्षुको, किसी एक विशेष अलौकिक हेतुके बिना अधिक उपाधिवाले क्षेत्रमे जाना योग्य नही है, क्योकि उससे बहुतसी सद्वृत्तियाँ मद पड़ जाती है, अथवा वर्धमान नही होती ।
(५) 'योगवासिष्ठ' के पहले दो प्रकरण और वैसे ग्रंथोका मुमुक्षुको विशेष ध्यान करना योग्य है ।
५२४
७०७
वडवा, भादो सुदी ११, गुरु, १९५२ ब्रह्मरंध्र आदिमे होनेवाले भासके विषयमे पहले बबई पत्र मिला था। अभी उस विपयके विवरणका दूसरा पत्र मिला है । वह वह भास होना सम्भव है, ऐसा कहनेमे कुछ समझके भेदसे व्याख्याभेद होता है । श्री वैजनाथजीका आपको समागम है, तो उनके द्वारा उस मार्गका यथाशक्ति विशेष पुरुषार्थ होता हो तो करना योग्य है। वर्तमानमे उम मार्गके प्रति हमारा विशेष उपयोग नही रहता है । और पत्र द्वारा प्राय उस मार्गका विशेष ध्यान कराया नही जा सकता, जिससे आपको श्री वैजनाथजीका समागम है तो यथाशक्ति उस समागमका लाभ लेनेकी वृत्ति रखें तो आपत्ति नही है ।
आत्माकी कुछ उज्ज्वलताके लिये उसके अस्तित्व तथा माहात्म्य आदि की प्रतीति के लिये तथा आत्मज्ञानकी अधिकारिता के लिये वह साधन उपकारी है। इसके सिवाय प्राय अन्य प्रकारसे उपकारी नही है, इतना ध्यान अवश्य रखना योग्य है । यही विनती ।
सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य प्रणाम विदित हो ।
७०८
राळज,
१
भादो, १९५२ द्वितीय जेठ सुदी १, शनिको आपको लिखा पत्र ध्यानमे आये तो यहाँ भेज xxx जैसे चलता आया है, वैसे चलता आये, और मुझे किसी प्रतिवधसे प्रवृत्ति करनेका कारण नही है, ऐसा भावार्थं आपने लिखा, उस विषयमे जाननेके लिये सक्षेपसे नीचे लिखता हूँ
जैनदर्शनकी पद्धति से देखते हुए सम्यग्दर्शन और वेदातकी पद्धतिसे देखते हुए केवलज्ञान हमे सम्भव है । जैनमे केवलज्ञानका जो स्वरूप लिखा है, मात्र उसीको समझना मुश्किल हो जाता है । फिर
१. यहाँ मक्षर खडित हो गये हैं ।
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२९ वॉ वर्ष ५२५ वर्तमानमे उस ज्ञानका उसीने निषेध किया है, जिससे तत्सम्बंधी प्रयत्न करना भी सफल दिखायी नही देता 1.
जैनप्रसगमे हमारा अधिक निवास हुआ है, तो किसी भी प्रकारसे उस मार्गका उद्धार हम जैसों द्वारा विशेषत हो सकता है, क्योकि उसका स्वरूप विशेषतः समझमे आया हो, इत्यादि । वर्तमानमे जैनदर्शन इतना अधिक अव्यवस्थित अथवा विपरीत स्थितिमे देखनेमे आता है, कि उसमेसे मानो जिनेंद्रको × × × × ' गया है, और लोग मार्ग प्ररूपित करते हैं । बाह्य झझट बहुत बढा दी है, और अतर्मार्गका | ज्ञान प्राय विच्छेद जैसा हुआ है । वेदोक्त मार्गमे दो सौ चार सौ बरसमे कोई कोई महान आचार्य हुए दिखायी देते हैं कि जिससे लाखो मनुष्योको वेदोक्त पद्धति सचेत होकर प्राप्त हुई हो । फिर साधारणतः, कोई कोई आचार्यं अथवा उस मार्ग के जाननेवाले सत्पुरुष इसी तरह हुआ करते हैं, और जैनमार्गमे बहुत वर्षो से वैसा हुआ मालूम नही होता । जैनमार्गमे प्रजा भी बहुत थोडी रह गयी है और उसमे सैंकड़ो भेद" है । इतना ही नही, किन्तु 'मूलमार्ग' के सन्मुख होनेकी बात भी उनके कानमे नही पडती, और उपदेशक के ध्यान मे नही है, ऐसी स्थिति है । इसलिये चित्तमे ऐसा आया करता है कि यदि उस मार्गका अधिक प्रचार हो तो वैसे करना, नही तो उसमे रहनेवाली प्रजाको मूललक्ष्यरूपसे प्रेरित करना । यह काम बहुत विकट है । तथा जैनमार्गको स्वयमेव समझना और समझाना कठिन है । उसे समझाते हुए अनेक प्रतिबधक कारण आ खड़े हो, ऐसी स्थिति है । इसलिये वैसी प्रवृत्ति करते हुए डर लगता है । उसके साथ-साथ ऐसा भी रहता है कि यदि यह कार्य इस कालमे हमारेसे कुछ भी बने तो वन सकता है, नही तो अभी तो मूलमार्गके सन्मुख होनेके लिये दूसरेका प्रयत्न काम आये वैसा दिखायी नही देता । प्राय. मूलमार्ग दूसरेके ध्यानमे नही है, तथा उसका हेतु दृष्टातपूर्वक उपदेश करनेमे परमश्रुत आदि गुण अपेक्षित हैं, एवं बहुत अतर गुण अपेक्षित हैं, वे यहाँ हैं, ऐसा दृढ भास होता है ।
इस तरह यदि मूलमार्गको प्रकाशमे लाना हो तो प्रकाशमे लानेवालेको सर्वसंगपरित्याग करना योग्य है, क्योकि उससे यथार्थ समर्थ उपकार होने का समय आता है। वर्तमान दशाको देखते हुए, सत्तागत कर्मोंपर दृष्टि डालते हुए कुछ समयके बाद उसका उदयमे आना सम्भव है | हमे सहजस्वरूपज्ञान है, जिससे योगसाधनकी इतनी अपेक्षा न होनेसे उसमे प्रवृत्ति नही की, तथा वह सर्वसंगपरित्यागमे अथवा विशुद्ध देशपरित्यागमे साधने योग्य है। इससे लोगोका बहुत उपकार होता है, यद्यपि वास्तविक उपकारका कारण तो आत्मज्ञानके बिना दूसरा कोई नही है ।
अभी दो वर्ष तक तो वह योगसाधन विशेषतः उदयमे आये वैसा दिखायी नही देता, इसलिये इसके बाद की कल्पना की जाती है, और तीनसे चार वर्ष उस मार्गमे व्यतीत किये जायें तो ३६ वर्षमे सर्वसंगपरित्यागो उपदेशकका समय आये, और लोगोका श्रेय होना हो तो हो ।
छोटी उमरमे मार्गका उद्धार करनेकी अभिलाषा रहा करती थी, उसके बाद ज्ञानदशा आनेपर क्रमशः वह उपशान्त जैसी हो गयी, परतु कोई कोई लोग परिचयमे आये थे, उन्हे कुछ विशेषता भासित होनेसे किंचित् मूलमार्गपर लक्ष्य आया था, ओर इस तरफ तो सैकडो या हजारो मनुष्य समागममे आये थे जिनमे से लगभग सौ मनुष्य कुछ समझदार और उपदेशकके प्रति आस्थावाले निकलेंगे । इस परसे ऐसा देखनेमे आया कि लोग तरनेके इच्छुक विशेष हैं, परंतु उन्हे वैसा योग मिलता नही है । यदि सचमुच उपदेशक पुरुषका योग बने तो बहुतसे जीव मूलमार्ग प्राप्त कर सकते हैं, और दया आदिका विशेष उद्योत हो सकता है | ऐसा दिखायी देनेसे कुछ चित्तमे आता है कि यह कार्य कोई करे तो बहुत अच्छा, परतु
१ यहाँ अक्षर खडित हो गये है ।
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श्रीमद राजचन्द्र नजर दौडानेसे वैसा पुरुष ध्यानमे नही आता, इसलिये लिखनेवालेकी ओर ही कुछ नजर जाती है, परतु लिखनेवालेका जन्मसे लक्ष्य ऐसा है कि इसके जैसा एक भी जोखिमवाला पद नही है, और जब तक अपनी
उस कार्यकी यथायोग्यता न हो तब तक उसकी इच्छा मात्र भी नही करनी चाहिये, और बहुत करके । अभी तक वैसा ही वर्तन किया गया है। मार्गका यत्किंचित् स्वरूप किसी-किसीको समझाया है, तथापि किसीको एक भी व्रतपच्चक्खान दिया नही है, अथवा तुम मेरे शिष्य हो और हम गुरु हैं, ऐसा प्रकार प्रायः प्रदर्शित हुआ नही है। कहनेका हेतु यह है कि सर्वसंगपरित्याग होनेपर उस कार्यकी प्रवृत्ति सहजस्वभावसे उदयमे आये तो करना, ऐसी मात्र कल्पना है। उसका वास्तवमे आग्रह नही है, मात्र अनुकंपा आदि तथा ज्ञानप्रभाव है, इससे कभी-कभी वह वृत्ति उद्भवित होती है, अथवा अल्पाशमे वह वृत्ति अतरमे है, तथापि वह स्ववश है । हमारी धारणाके अनुसार सर्वसगपरित्यागादि हो तो हजारो मनुष्य मूलमार्गको प्राप्त करें, और हजारो मनुष्य उस सन्मार्गका आराधन करके सद्गतिको प्राप्त करें, ऐसा हमारे द्वारा होना सम्भव है। हमारे सगमे अनेक जीव त्यागवृत्तिवाले हो जाये ऐसा हमारे अतरमे त्याग है। धर्म स्थापित करनेका मान बड़ा है, उसकी स्पृहासे भी कदाचित् ऐसी वृत्ति रहे, परन्तु आत्माको बहुत बार कसकर देखनेसे उसको सम्भावना वर्तमान दशामे कम ही दीखती है, और किंचित् सत्तामे रही होगी तो वह क्षीण हो जायेगी, ऐसा अवश्य भासित होता है, क्योकि यथायोग्यताके बिना, देह छूट जाये वैसी दृढ कल्पना हो तो भी, मार्गका उपदेश नही करना, ऐसा आत्मनिश्चय नित्य रहता है। एक इस बलवान कारणसे परिग्रह आदिका त्याग करनेका विचार रहा करता है। मेरे मनमे ऐसा रहता है कि वेदोक्त धर्म 'प्रकाशित या स्थापित करना हो तो मेरी दशा यथायोग्य है। परतु जिनोक्त धर्म स्थापित करना हो तो अभी तक उतनी योग्यता नही है, फिर भी विशेष योग्यता है ऐसा लगता है। .
७०९
राळज, भादो, १९५२ १ हे नाथ | या तो धर्मोन्नति करनेकी इच्छा सहजतासे शात हो जाओ; या फिर वह इच्छा अवश्य कार्यरूप हो जाओ। अवश्य कार्यरूप होना बहुत दुष्कर दिखाई देता है, क्योकि छोटी छोटी बातोमे मतभेद बहुत हैं, और उनकी जडें बहुत गहरी हैं। मूलमार्गसे लोग लाखो कोस दूर हैं, इतना ही नही परन्तु मूलमार्गकी जिज्ञासा उनमे जगानी हो, तो भी दीर्घकालका परिचय होनेपर भी उसका जगना कठिन हो ऐसी उनकी दुराग्रह आदिसे जडप्रधानदशा हो गई है।
२. उन्नतिके साधनोकी स्मृति करता हूँ:बोधबीजके स्वरूपका निरूपण मूलमार्गके अनुसार जगह-जगह हो । जगह जगह मतभेदसे कुछ भी कल्याण नही है, यह बात फैले । प्रत्यक्ष सद्गुरुकी आज्ञासे धर्म है, यह बात ध्यानमे आये। द्रव्यानुयोग-आत्मविद्याका प्रकाश हो । त्याग वैराग्यकी विशेषतापूर्वक साधु विचरें। नवतत्त्वप्रकाश । साधुधर्मप्रकाश । श्रावकधर्मप्रकाश। विचार । अनेक जीवोको प्राप्ति ।
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२९ वॉ वर्ष
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वडवा, भादों सुदी १५, सोम, १९५२ आत्मा
आत्मा सच्चिदानद
सच्चिदानंद ज्ञानापेक्षासे सर्वव्यापक, सच्चिदानद ऐसा मैं आत्मा एक हूँ, ऐसा विचार करना, ध्यान करना । निर्मल, अत्यन्त निर्मल, परमशुद्ध, चैतन्यधन, प्रगट आत्मस्वरूप है। सबको कम करते करते जो अबाध्यं अनुभव रहता है वह आत्मा है। जो सबको जानता है वह आत्मा है। जो सब भावोको प्रकाशित करता है वह आत्मा है। उपयोगमय आत्मा है। अव्याबाध समाधिस्वरूप आत्मा है। आत्मा है, आत्मा अत्यन्त प्रगट है, क्योकि स्वसवेदन प्रगट अनुभवमे है। वह आत्मा नित्य है, अनुत्पन्न और अमिलनस्वरूप होनेसे । भ्रातिरूपसे परभावका कर्ता है। उसके फलका भोका है। भान होनेपर स्वभावपरिणामी है। सर्वथा स्वभावपरिणाम वह मोक्ष है। सद्गुरु, सत्सग, सत्शास्त्र, सद्विचार और सयम आदि उसके साधन हैं। आत्माके अस्तित्वसे लेकर निर्वाण तकके पद सच्चे हैं, अत्यत सच्चे हैं, क्योकि प्रगट अनुभवमे
आते हैं। भ्रातिरूपसे आत्मा परभावका कर्ता होनेसे शुभाशुभ कर्मको उत्पत्ति होती है। कर्म सफल होनेसे उस शुभाशुभ कर्मको आत्मा भोगता है। उत्कृष्ट शुभसे उत्कृष्ट अशुभ तकके सर्व न्यूनाधिक पर्याय भोगनेरूप क्षेत्र अवश्य है। निजस्वभावज्ञानमे केवल उपयोगसे, तन्मयाकार, सहजस्वभावसे, निर्विकल्परूपसे आत्मा जो
परिणमन करता है, वह केवलज्ञान है। तथारूप प्रतीतिरूपसे जो परिणमन करता है वह सम्यक्त्व है। निरतर वह प्रतीति रहा करे, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्वचित् मद, क्वचित् तीव्र, क्वचित् विसर्जन, क्वचित् स्मरणरूप, ऐसी प्रतीति रहे उसे क्षयोपशम
सम्यक्त्व कहते है। उस प्रतीतिको जब तक सत्तागत आवरण उदयमे नहो आया तब तक उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। आत्माको जब आवरण उदयमे आये तव वह उस प्रतीतिसे गिर पड़े उसे सास्वादन सम्यक्त्व
। कहते हैं। अत्यत प्रतीति होनेके योगमे सत्तागत अल्प पुद्गलका वेदन जहाँ रहा है, उसे वेदक सम्यक्त्व
कहते हैं। तथारूप प्रतीति होनेपर अन्यभाव सम्बन्धी अहत्व-ममत्व आदिका, हर्ष-शोकका क्रमशः क्षय
होता है। मनरूपी योगमे तारतम्यसहित जो कोई चारित्रकी आराधना करता है वह सिद्धि पाता है। और
जो स्वरूपस्थिरताका सेवन करता है वह स्वभावस्थिति प्राप्त करता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
निरतर स्वरूपलाभ, स्वरूपाकार उपयोगका परिणमन इत्यादि स्वभाव अन्तराय कर्मके क्षयसे प्रगट
होते हैं। जो केवल स्वभावपरिणामी ज्ञान है वह केवलज्ञान है केवलज्ञान है।
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राळज, भादो, १९५२ वोद्ध, नैयायिक, साख्य, जैन और मीमासा ये पाँच आस्तिक दर्शन अर्थात् बंध-मोक्ष आदि भावको स्वीकार करनेवाले दर्शन हैं। नैयायिकके अभिप्राय जैसा ही वैशेषिकका अभिप्राय है, साख्य जैसा ही योगका अभिप्राय है-इनमे सहज भेद है, इसलिये उन दर्शनोका अलग विचार नही किया है । पूर्व और उत्तर, ये मीमासादर्शनके दो भेद हैं। पूर्वमीमासा और उत्तरमीमासामे विचारभेद विशेष है, तथापि मीमासा शब्दसे दोनोका बोध होता है, इसलिये यहाँ उस शब्दसे दोनो समझें। पूर्वमीमासाका 'जैमिनी' और उत्तरमीमासाका 'वेदात' ये नाम भी प्रसिद्ध है।
बोद्ध और जैनके सिवाय बाकीके दर्शन वेदको मुख्य मानकर चलते है, इसलिये वेदाश्रित दर्शन हैं; और वेदार्थको प्रकाशित कर अपने दर्शनको स्थापित करनेका प्रयत्न करते हैं। बौद्ध और जैन वेदाश्रित नही हैं, स्वतत्र दर्शन हैं।
आत्मा आदि पदार्थको न स्वीकार करनेवाला ऐसा चार्वाक नामका छठा दर्शन है।
बौद्धदर्शनके मुख्य चार भेद हैं-१ सौत्रातिक, २ माध्यमिक, ३ शून्यवादी और ४ विज्ञानवादी। वे भिन्न-भिन्न प्रकारसे भावोकी व्यवस्था मानते हैं।
जेनदर्शनके सहज प्रकारातरसे दो भेद हैं-दिगबर और श्वेताबर । पाँचो आस्तिक दर्शनोको जगत अनादि अभिमत है। बौद्ध, साख्य, जैन और पूर्वमीमासाके अभिप्रायसे सृष्टिकर्ता ऐसा कोई ईश्वर नही है।
नैयायिकके अभिप्रायसे तटस्थरूपसे ईश्वर कर्ता है । वेदातके अभिप्रायसे आत्मामे जगत विवर्तरूप अर्थात् कल्पितरूपसे भासित होता है, और इस तरहसे ईश्वरको कल्पितरूपसे कर्ता माना है।
योगके अभिप्रायसे नियतारूपसे ईश्वर पुरुषविशेष है।
वौद्धके अभिप्रायसे निकाल और वस्तुस्वरूप आत्मा नही है, क्षणिक है। शून्यवादी बौद्धके अभिप्रायसे विज्ञान मात्र है, और विज्ञानवादी बौद्धके अभिप्रायसे दु.ख आदि तत्त्व हैं। उनमे विज्ञानस्कन्ध क्षणिकरूपसे आत्मा है।
नैयायिकके अभिप्रायसे सर्वव्यापक ऐसे असख्य जीव है। ईश्वर भी सर्वव्यापक हे । आत्मा आदिको मनके सान्निध्यसे ज्ञान उत्पन्न होता है।
___साख्यके अभिप्रायसे सर्वव्यापक ऐसे असख्य आत्मा हैं। वे नित्य, अपरिणामी और चिन्मात्रस्वरूप है।
जैनके अभिप्रायसे अनत द्रव्य आत्मा हैं, प्रत्येक भिन्न है। ज्ञान, दर्शन आदि चेतना स्वरूप, नित्य और परिणामी प्रत्येक आत्मा असख्यातप्रदेशी स्वशरीरावगाहवत्तीं माना है।
पूर्वमोमासाके अभिप्रायसे जीव असख्य हैं, चेतन है। उत्तरमोमासाके अभिप्रायसे एक ही आत्मा सर्वव्यापक ओर सच्चिदानदमय निकालावाध्य है।
___ आणद, भादो वदी १२, रवि, १९५२ पत्र मिला है। 'मनुष्य आदि प्राणीकी वृद्धि' के सम्बन्धमे आपने जो प्रश्न लिखा था, वह प्रश्न जिस फारणसे लिसा गया था, उस कारणको प्रश्न मिलनेके समय सुना था। ऐसे प्रश्नसे आत्मार्थ सिद्ध
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२९ वो वर्ष
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आणद, आसोज, १९५२ आस्तिक ऐसे मूल पाँच दर्शन आत्माका निरूपण करते हैं, उनमे भेद देखनेमे आता है, उसका समाधान :
दिन प्रतिदिन जैनदर्शन क्षीण होता हुआ देखनेमे आता है, और वर्धमानस्वामीके बाद थोड़े ही वर्षोंमे उसमे नाना प्रकारके भेद हुए दिखायी देते हैं, इत्यादिके क्या कारण हैं ?
हरिभद्र आदि आचार्योंने नवीन योजनाकी भाँति श्रुतज्ञानकी उन्नति की है ऐसा दिखायी देता है, परत लोकसमुदायमे जैनमार्गका अविक प्रचार हुआ दिखायी नही देता, अथवा तथारूप अतिशय सम्पन्न धर्मप्रवर्तक पुरुषका उस मार्गमे उत्पन्न होना कम दिखायी देता है, उसके क्या कारण हैं ?
अब वर्तमानमे उस मार्गकी उन्नति होना सम्भव है या नही ? और हो तो किस किस तरह होनी सम्भव दीखती है, अर्थात् उस बातका, कहाँसे उत्पन्न होकर, किस तरह, किस द्वारसे और किस स्थितिमे प्रचार होना सम्भवित दीखता है ? और फिर वर्धमानस्वामीके समयकी तरह वर्तमानकालके योग आदिके अनुसार उस धर्मका उदय हो ऐसा क्या दीर्घदृष्टिसे सम्भव है ? और यदि सम्भव हो तो वह किस किस कारणसे सम्भव है?
जो जैनसूत्र अभी वर्तमानमे हैं, उनमे उस दर्शनका स्वरूप बहुत अधूरा रहा हुआ देखनेमे आता है, वह विरोध किस तरह दूर हो ?
उस दर्शनकी परपरामे ऐसा कहा गया है कि वर्तमानकालमे केवलज्ञान नही होता, और केवलज्ञानका विषय सर्व कालमे लोकालोकको द्रव्यगुणपर्यायसहित जानना माना है, क्या वह यथार्थ मालूम होता है ? अथवा उसके लिये विचार करनेपर कुछ निर्णय हो सकता है या नही ? उसकी व्याख्यामे कुछ अतर दिखायी देता है या नही ? और मूल व्याख्याके अनुसार कुछ दूसरा अर्थ होता हो तो उस अर्थके अनुसार वर्तमानमे केवलज्ञान उत्पन्न हो या नही ? और उसका उपदेश किया जा सके या नही? तथा दसरे ज्ञानोकी जो व्याख्या कही गयी हे वह भी कुछ अतरवाली लगती है या नही ? और वह किन कारणोसे ?
द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आत्मा मध्यम अवगाही, संकोच-विकासका भाजन, महाविदेह आदि क्षेत्रकी व्याख्या-वे कुछ अपूर्व रीतिसे या कही हुई रीतिसे अत्यन्त प्रबल प्रमाणसहित सिद्ध होने योग्य मालूम होते हैं या नही?
___गच्छके मतमतातर बहुत ही तुच्छ तुच्छ विषयोमे बलवान आग्रही होकर भिन्न भिन्नरूपसे दर्शनमोहनीयके हेतु हो गये हैं, उसका समाधान करना बहुत विकट है । क्योकि उन लोगोकी मति विशेष आवरणको प्राप्त हुए विना इतने अल्प कारणोमे वलवान आग्रह नहीं होता।
___ अविरति, देशविरति, सर्वविरति इनमेसे किस आश्रमवाले पुरुषसे विशेप उन्नति हो सकना सम्भव है ? सर्वविरति बहुतसे कारणोमे प्रतिबधके कारण प्रवृत्ति नही कर सकता, देशविरति और अविरतिकी तथारूप प्रतीति होना मुश्किल है, और फिर जैनमार्गमे भी उस रीतिका समावेश कम है। ये विकल्प हमे किसलिये उठते हे ? और उन्हे शात कर देनेका चित्त है तो क्या उसे शांत कर दें? [अपूर्ण]
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श्रीमद राजचन्द्र ७१४
सं० १९५२ ॐ जिनाय नमः भगवान जिनेंद्रके कहे हुए लोकसस्थान आदि भाव आध्यात्मिक दृष्टिसे सिद्ध होने योग्य है। चक्रवर्ती आदिका स्वरूप भी आध्यात्मिक दृष्टिसे समझमे आने जैसा है। मनुष्यकी ऊँचाईके प्रमाण आदिमे भी वैसा सभव है। काल प्रमाण आदि भी उसी तरह घटित होते है। निगोद आदि भी उसी तरह घटित होने योग्य हैं। सिद्धस्वरूप भी इसी भावसे निदिध्यासनके योग्य है।
-संप्राप्त होने योग्य मालूम होता है।
लोक शब्दका अर्थ
आध्यात्मिक है ।
अनेकांत, शब्दका अर्थ सर्वज्ञ शब्दको समझना बहुत गूढ है । धर्मकथारूप चरित्र आध्यात्मिक परिभाषासे अलंकृत लगते है । जबुद्वीप आदिका वर्णन भी अध्यात्म परिभाषासे निरूपित किया हुआ लगता है । अतीद्रिय ज्ञानके भगवान जिनेंद्रने दो भेद किये हैं।
। देश प्रत्यक्ष, वह दो भेदसे
अवधि,
मन.पर्याय। इच्छितरूपसे अवलोकन करता हुआ आत्मा इन्द्रियके अवलबनके बिना अमुक मर्यादाको जाने, वह अवधि है। , ,
अनिच्छित होनेपर भी मानसिक विशद्धिके बल द्वारा जाने, वह मन.पर्याय है। सामान्य विशेष चैतन्यात्मदृष्टिमे परिनिष्ठित शुद्ध केवलज्ञान है।
श्री जिनेंद्रके कहे हुए भाव अध्यात्म परिभाषामय होनेसे समझमे आने कठिन है। परम पुरुषका योग सप्राप्त होना चाहिये। जिनपरिभाषा-विचारका यथावकाश विशेष निदिध्यास करना योग्य है ।
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आणद, आसोज सुदी १, १९५२, *मूळ मारग सांभळो जिननो रे, करी वृत्ति अखंड सन्मुख मूळ० नो'य पूजादिनी जो कामना रे, नोय व्हालं अतर भवदुःख मूळ० १ करी जोजो वचननी तुलना रे, जोजो शोघीने जिनसिद्धांत मूळ०
मात्र कहेवू परमारथ हेतुथी रे, कोई पामे मुमुक्षु वात मूळ० २ *भावार्थ-हे भव्यो । जिनेंद्र भगवान कथित मूल मार्ग (मोक्षमार्ग) को अखड चित्तवृत्तिसे सुनें । इसमें हमें मान-पूजाकी कोई कामना नही है या नया पथ चलानेका कोई स्वार्थ नही है, और न ही उत्सूत्र प्ररूपणा करके भववृद्धि करने रूप दु ख हमें अतरमें प्रिय है । इसलिये हम सत्यमार्ग कहते हैं ।।१।। इन वचनोको आप न्यायके तराजू पर तोलकर देखें और जिनसिद्धातको भी खोजकर देख लें, तो यह हमारा कहना केवल सत्य प्रतीत होगा । हम यह केवल परमार्थ हेतुसे कहते है कि जिससे कोई मुमुक्षु मोक्षमार्गफे रहस्यको प्राप्त करें ॥२॥
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२९ वा वर्ष *ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी शुद्धता रे, एकपणे अने अविरुद्ध मूळ० जिनमारग ते परमार्थथी रे, एम कयं सिद्धांते बुध मूळ० ३ लिंग अने भेदो जे व्रतना रे, द्रव्य देश काळादि भेद मूळ० पण ज्ञानादिनी जे शुद्धता रे, ते तो त्रणे काळे अभेद मूळ० ४ हवे ज्ञान दर्शनादि शब्दनो रे, संक्षेपे सुणो परमार्थ मूळ० । तेने जोतां विचारी विशेषथी रे, समजाशे उत्तम आत्मार्थ मूळ० ५ छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश मूळ० एम जाणे सद्गुरु उपदेशथी रे, का ज्ञान तेनु नाम खास मूळ०६ जे ज्ञाने करीने जाणियं रे, तेनी वर्ते छे शुद्ध प्रतीत मूळ० का, भगवते दर्शन तेहने रे, जेनुं बोजु नाम समकित मूळ० ७ जेम आवी प्रतीति जीवनी रे, जाण्यो सर्वेथी भिन्न असंग मूळ० तेवो स्थिर स्वभाव ते ऊपजे रे, नाम चारित्र ते अलिंग मूळ० ८ ते त्रणे अभेद परिणामथी रे, ज्यारे वर्ते ते आत्मारूप मूळ० तेह मारग जिननो पामियो रे, किंवा पाम्यो ते निजस्वरूप मूळ० ९ एवां मूळ ज्ञानादि पामवा रे, अने जवा अनादि बंध मूळ० उपदेश सद्गुरुनो पामवो रे, टाळी स्वच्छद ने प्रतिबंध मूळ० १० एम देव जिनंदे भाखियु रे, मोक्षमारगनं शुद्ध स्वरूप मूळ० भव्य जनोना हितने कारणे रे, संक्षेपे का स्वरूप मूळ० ११
___ ७१६ श्री आणद, आसोज सुदी २, गुरु, १९५२
ॐ सद्गुरुप्रसाद श्री रामदासस्वामी द्वारा सयोजित 'दासबोध' नामकी पुस्तक मराठी भाषामे हैं। उसका गुजराती भाषातर प्रगट हुआ है, जिसे पढने और विचारनेके लिये भेजा है।
*भावार्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी जो एकरूप तथा अविरुद्ध शुद्धता है, वही परमार्थसे जिनगर्ग है, ऐसा शानियोने सिद्धातमें कहा है ॥३॥ लिंग और व्रतके जो भेद है, वे द्रव्य, देश, काल आदिको अपेक्षासे भेद हैं। परतु ज्ञान मादिकी जो शुद्धता है वह तो तीनो कालोमे भेदरहित है ॥४॥ अव ज्ञान, दर्शन आदि शब्दोका सक्षेपसे परमार्थ सुनें । उसे समझकर विशेषरूपसे विचारतेसे उत्तम आत्मार्थ समझमें आयेगा ॥५॥ आत्मा देह आदिसे भिन्न, सदा उपयोगयुक्त और अविनाशी है, ऐसा सद्गुरुके उपदेशमे जो जानना है, उसका विशेष नाम ज्ञान है, अर्थात् यथार्थ ज्ञान वही है ।।६।। जो ज्ञान द्वारा जाना है, उसकी जो शुद्ध प्रतीति रहती है, उसे भगवानने दर्शन कहा है, जिसका दूसरा नाम समकित है ।।७।। जैसे जीवको प्रतीति हुई अर्थात् उसने अपने आपको सर्वसे भिन्न और असग समझा, वैसे स्थिर स्वभावकी उत्पत्ति-आत्मस्थिरता उत्पन्न होती है उसीका नाम चारित्र है और वह अलिंग अर्यात् भावचारित्र हे ॥८। जब ये तीनो गुण अभेद-परिणामसे रहते हैं, तब एक आत्मरूप रहता है। उसने जिनेंद्रका मार्ग पा लिया है अथवा निजस्वरूपको पा लिया है ।।९॥ ऐसे मूलज्ञान आदिके पाने के लिये, अनादि वध दूर होनेके लिये, स्वच्छद और प्रतिवधको दूरकर सद्गुरुका उपदेश प्राप्त करें ॥१०॥ इस प्रकार जिनेंद्र देवने मोक्षमार्गका शुद्ध स्वरूप कहा है । भव्य जनोंके हितके लिये यहां सोपसे उसका स्वरूप कहा है ॥११॥
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श्रीमद राजचन्द्र पहले गणपति आदिकी स्तुति की है, तथा बादमे जगतके पदार्थोंका आत्मरूपसे वर्णन करके उपदेश दिया है, तथा उसमे वेदातकी मुख्यता वर्णित है, इत्यादिसे कुछ भी भय न पाते हुए अथवा विकल्प न करते हुए, ग्रन्थकर्ताके आत्मार्थसबधी विचारोका अवगाहन करना योग्य है । आत्मार्थके विचारनेमे उससे क्रमश सुगमता होती है।
श्री देवकरणजीको व्याख्यान करना पड़ता है, उससे जो अभाव आदिका भय रहता है, वह सभव है।
जिस जिसने सद्गुरुमे तथा उनकी दशामे विशेषता देखी है, उस उसको प्रायः तथारूप प्रसंग जैसे प्रसगोमे अहभावका उदय नही होता, अथवा तुरत शात हो जाता है। उस अहभावको यदि पहलेसे जहरके समान प्रतीत किया हो, तो पूर्वापर उसका सम्भव कम होता है। कुछ अन्तरमे चातुर्य आदि भावसे, सूक्ष्म परिणतिसे भी कुछ मिठास रखी हो, तो वह पूर्वापर विशेषता प्राप्त करती है; परन्तु वह जहर ही है, निश्चयसे जहर ही है, स्पष्ट कालकूट जहर है, उसमे किसी तरहसे सशय नही है, और सशय हो तो उस सशयको मानना नही है, उस सशयको अज्ञान ही जानना है, ऐसा तीव्र खारापन कर डाला हो, तो वह अहभाव प्राय जोर नही कर सकता । उस अहभावको रोकनेसे क्वचित् निरहभाव हुआ, उसका फिरसे अहंभाव हो जाना सम्भव है, उसे भी पहलेसे जहर, जहर ओर जहर मानकर प्रवृत्ति की गई हो तो आत्मार्थको बाधा नहीं होती।
आप सर्व मुमुक्षुओको यथाविधि नमस्कार ।
७१७ आणद, आसोज सुदी ३, शुक्र, १९५२ आत्मार्थी भाई श्री 'मोहनलालके प्रति, डरबन ।
आपका लिखा हुआ पत्र मिला था। इस पत्रसे संक्षेपमे उत्तर लिखा है ।
नातालमे रहनेसे आपको बहुतसी सवत्तियोने विशेषता प्राप्त की है, ऐसो प्रतीति होती है । परन्तु आपकी उस तरह प्रवृत्ति करनेकी उत्कृष्ट इच्छा उसमे हेतुभूत है। राजकोटकी अपेक्षा नाताल ऐसा क्षेत्र अवश्य है कि जो कई तरहसे आपको वृत्तिको उपकारक हो सकता है, ऐसा माननेमे हानि नही है । क्योकि आपकी सरलताकी रक्षा करनेमे जिससे निजी विघ्नोका भय रह सके ऐसे प्रपंचमे अनुसरण करनेका दबाव नातालमे प्रायः नही है। परन्तु जिसकी सद्वृत्तियाँ विशेष बलवान न हो अथवा निर्बल हो, और उसे इग्लैंड आदि देशमे स्वतत्ररूपसे रहनेका हो तो वह अभक्ष्य आदिमे दूपित हो जाये ऐसा लगता है। जैसे आपको नाताल क्षेत्रमे प्रपचका विशेष योग न होनेसे आपकी सद्वत्तियोने विशेषता प्राप्त की है, वैसे राजकोट जैसे स्थानमे होना कठिन है, यह यथार्थ है, परन्तु किसी अच्छे आर्यक्षेत्रमे सत्सग आदिके योगमे आपकी वृत्तियाँ नातालकी अपेक्षा भी अधिक विशेषता प्राप्त करती, यह सम्भव है। आपकी वृत्तियाँ देखते हुए आपको नाताल अनार्यक्षेत्ररूपसे असर करे, ऐसी मेरी मान्यता प्राय नही है । परन्तु वहाँ प्राय. सत्संग आदि योगकी प्राप्ति न होनेसे कुछ आत्मनिराकरण न हो पाये, तद्रूप हानि मानना कुछ विशेष योग्य लगता है।
यहाँसे 'आर्य आचार-विचार'के सुरक्षित रखनेके सम्बन्धमे लिखा था वह ऐसे भावार्थमे लिखा था:-'आर्य आचार' अर्थात् मुख्यत दया, सत्य, क्षमा आदि गुणोका आचरण करना, और 'आर्य विचार' अर्थात् मुख्यत आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, वर्तमान काल तक उस स्वरूपका अज्ञान, तथा उस अज्ञान
१. महात्मा गांधीजी।
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२९ वॉ वर्ष
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और अभानके कारण, उन कारणोंकी निवृत्ति और वैसा होनेसे अव्याबाध आनदस्वरूप अभान ऐसे निजपद स्वाभाविक स्थिति होना । इस तरह सक्षेपमे मुख्य अर्थसे वे शब्द लिखे हैं ।
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वर्णाश्रमादि, वर्णाश्रमादिपूर्वक आचार यह सदाचारके अगभूत जैसा है। विशेष पारमार्थिक हेतुके बिना तो वर्णाश्रमादिपूर्वक व्यवहार करना योग्य है, यह विचारसिद्ध है । यद्यपि वर्तमान कालमे वर्णाश्रमधर्म बहुत निर्बल स्थितिको प्राप्त हुआ है, तो भी हमे तो, जब तक हम उत्कृष्ट त्यागदशा प्राप्त न करें, और जब तक गृहस्थाश्रममे वास हो, तब तक तो वैश्यरूप वर्णधर्मका अनुसरण करना योग्य है; क्योकि अभक्ष्यादि ग्रहण करनेका उसमे व्यवहार नही है । तब यह आशका होने योग्य है कि 'लुहाणा भी उसी तरह आचरण करते है तो उनका अन्न, आहार आदि ग्रहण करनेमे क्या हानि है ?' तो उसके उत्तरमे इतना कहना योग्य हो सकता है कि बिना कारण उस रिवाजको भी बदलना योग्य नही है, क्योकि उससे फिर दूसरे समागमवासी या प्रसगादिमे अपने रीतिरिवाजको देखनेवाले ऐसे उपदेशका निमित्त प्राप्त करे कि चाहे जिस वर्णवालेके यहाँ भोजन करनेमे बाधा नही है। लुहाणाके यहाँ अन्नाहार लेनेसे वर्णधर्मकी हानि नही होती, परन्तु मुसलमानके यहाँ अन्नाहार लेनेसे तो वर्णधर्मकी हानिका विशेष सभव है, और वर्णधर्मके लोप करनेरूप दोष जैसा होता है। हम कुछ लोकके उपकार आदिके हेतुसे वैसी प्रवृत्ति करते हो और रसलुब्धतासे वैसी प्रवृत्ति न होती हो, तो भी दूसरे लोग उस हेतुको समझे बिना प्राय. उसका अनुकरण करें और अन्तमे अभक्ष्यादिके ग्रहण करनेमे प्रवृत्ति करें ऐसे निमित्तका हेतु अपना यह आचरण है इसलिये वैसा आचरण नही करना अर्थात् मुसलमान आदिके अन्नाहार आदिका ग्रहण नही करना, यह उत्तम है । आपकी वृत्तिकी कुछ प्रतीति होती है, परन्तु यदि किसीकी उससे निम्नकोटिको वृत्ति हो तो वह स्वत ही उस रास्तेसे प्रायः अभक्ष्यादि आहारके योगको प्राप्त करे । इसलिये उस प्रसगसे दूर रहा ये वैसा विचार करना कर्तव्य है ।
दयाकी भावना विशेष रहने देनी हो तो जहाँ हिंसाके स्थानक हैं, तथा वेसे पदार्थोंका जहां लेनदेन होता है, वहाँ रहनेके तथा जाने-आनेके प्रसगको न आने देना चाहिये, नही तो जैसी चाहिये वैसी प्राय दयाकी भावना नही रहती । तथा अभक्ष्यपर वृत्ति न जाने देनेके लिये, और उस मागंको उन्नतिका अनुमोदन न करनेके लिये अभक्ष्यादि ग्रहण करनेवालेका, आहारादिके लिये परिचय नही रखना चाहिये । ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए ज्ञाति आदि भेदकी विशेषता आदि मालूम नही होती, परन्तु भक्ष्याभक्ष्यभेदका तो वहाँ भी विचार कर्तव्य है, और उसके लिये मुख्यतः यह वृत्ति रखना उत्तम है । कितने ही कार्य ऐसे होते हैं कि उनमे प्रत्यक्ष दोष नही होता, अथवा उनसे अन्य दोष नही लगता, परन्तु उसके सम्बन्धसे दूसरे दोषोका आश्रय होता है, उसका भी विचारवानको लक्ष्य रखना उचित है । नातालके लोगोंके उपकारके लिये कदाचित् आपकी ऐसी प्रवृत्ति होती है, ऐसा भी निश्चय नही माना जा सकता । यदि दूसरे किसी भी स्थलपर वैसा आचरण करते हुए बाधा मालूम हो, और आचरण न हो तो मात्र वह हेतु माना जा सकता है । फिर उन लोगोंके उपकारके लिये वैसा आचरण करना चाहिये, ऐसा विचार करने में भी कुछ आपकी गलत-फहमी होती होगी, ऐसा लगा करता है । आपकी सद्वृत्तिकी कुछ प्रतीति है, इसलिये इस विषय मे अधिक लिखना योग्य नही लगता । जैसे सदाचार और सद्विचारका आराधन हो वैसा आचरण करना योग्य है ।
दूसरी नीच जातियो अथवा मुसलमान आदिके किन्ही वैसे निमत्रणोमे अन्नाहारादिके बदले अपक्व आहार यानि फलाहार आदि लेनेसे उन लोगोके उपकारकी रक्षाका सम्भव रहता हो, तो वैसा करें तो अच्छा है । यही विनती ।
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नडियाद, आसोज वदी १, गुरु, १९५२
७१८ ॐ
आत्म-सिद्धि *
जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनत ।
समजाव्यु ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवत ॥ १ ॥
जिस आत्मस्वरूपको समझे बिना भूतकालमे मैने अनत दुख पाया, उस पदको (स्वरूपको ) जिसने समझाया --अर्थात् भविष्यकालमे उत्पन्न होने योग्य जिन अनत दु खोको मैं प्राप्त करता, उनका जिसने मूलोच्छेद किया ऐसे श्री सद्गुरु भगवानको मे नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
वर्तमान आ काळमां, मोक्षमागं बहु लोप | "विचारवा आत्मार्थीने, भाख्यो अत्र अगोप्य ॥२॥
इस वर्तमान कालमे मोक्षमार्गका बहुत लोप हो गया है, उस मोक्षमार्गको आत्मार्थीके विचार करनेके लिये (गुरु-शिष्य के सवादके रूपमे) यहाँ स्पष्ट कहते है ||२||
कोई क्रिया थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई | माने मारग मोक्षनो, करुणा ऊपजे जोई ॥३॥
कोई क्रियासे ही चिपके हुए है, और कोई शुष्कज्ञानसे ही चिपके हुए है; इस तरह वे मोक्षमार्ग मानते हैं, जिसे देखकर दया आती हे ||३||
बाह्य क्रियामा राचता, अन्तर्भेद न कांई ।
ज्ञानमार्ग निषेधता, तेह क्रियाजड आंई ॥४॥
जो मात्र क्रिया अनुरक्त हो रहे हैं, जिनका अंतर कुछ भिदा नही है, और जो ज्ञानमार्गका निषेध किया करते है, उन्हे यहाँ क्रियाजड कहा है ||४||
*श्रीमद्जी स० १९५२ के आसोज वदो २ गुरुवारको नडियादमें ठहरे हुए थे, तब उन्होने इस 'आत्मसिद्धिशास्त्र' की १४२ गाथाएँ 'आत्मसिद्धि' के रूपमें रची थी । इन गाथाओका सक्षिप्त अर्थ खभातके एक परम मुमुक्षु श्री अवालाल लालचदने किया था, जिसे श्रीमद्जीने देख लिया था, (देखें पत्राक ७३० ) । इसके अतिरिक्त 'श्रीमद् राजचद्र' के पहले और दूसरे सस्करणोके आक ४४२, ४४४, ४४५, ४४६, ४४७, ४४८, ४४९, ४५० और ४५१ के पत्र आत्मसिद्धिके विवेचनके रूपमें श्रीमद्ने स्वय लिखे हैं, जो आत्मसिद्धिकी रचनाके दूसरे दिन आसोज वदी २, १९५२ को लिखे गये हैं । यह विवेचन जिस जिस गाथाका है उस उस गाथाके नीचे दिया है ।
१. पाठावर • गुरु शिष्य सवादयी, कहीए ते अगोप्य ।
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२९ वा वर्ष
बंध मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणी माही।
वर्ते मोहादेशमा, शुष्कज्ञानी ते आंही ॥५॥ बध और मोक्ष मात्र कल्पना है, ऐसा निश्चयवाक्य जो मात्र वाणीसे बोलते हैं, और जिसकी तथारूप दशा नहीं हुई है, और जो मोहके प्रभावमे रहते है, उन्हे यहाँ शुष्कज्ञानी कहा है ।।५।।
वैराग्यादि सफळ तो, जो सह आतमज्ञान ।
तेम ज आतमज्ञाननी, प्राप्तितणां निदान ॥६॥ वैराग्य,'त्याग आदि यदि आत्मज्ञानके साथ हो तो वे सफल है, अर्थात् मोक्षकी प्राप्तिके हेतु हैं; और जहाँ आत्मज्ञान न हो वहाँ भी यदि आत्मज्ञानके लिये वे किये जायें, तो वे आत्मज्ञानकी प्राप्तिके हेतु हैं ॥६॥
वैराग्य, त्याग, दया आदि अतरगवृत्तिवाली क्रियाएँ है, यदि उनके साथ आत्मज्ञान हो तो वे सफल हैं, अर्थात् भवके मूलका नाश करती हैं, अथवा वैराग्य, त्याग, दया आदि आत्मज्ञानकी प्राप्तिके कारण है। अर्थात् जीवमे प्रथम इन गुणोके आनेसे सद्गुरुका उपदेश उसमे परिणमित होता है। उज्ज्वल अंत.करणके बिना सद्गुरुका उपदेश परिणमित नही होता। इसलिये वैराग्य आदि आत्मज्ञानकी प्राप्तिके साधन हैं ऐसा कहा है।
यहाँ जो जीव क्रियाजड हैं, उन्हे ऐसा उपदेश किया है कि मात्र कायाका ही रोकना कुछ आत्मज्ञानकी प्राप्तिका हेतु नही है, वैराग्य आदि गुण आत्मज्ञानकी प्राप्तिके हेतु है, इसलिये आप उन क्रियाओका अवगाहन करें, और उन क्रियाओमे भी रुके रहना योग्य नहीं हैं, क्योकि आत्मज्ञानके बिना वे भी भवके मूलका छेदन नही कर सकती। इसलिये आत्मज्ञानको प्राप्तिके लिये उन वैराग्य आदि गुणोका आचरण करे, और कायक्लेशरूप क्रियामे-जिसमे कषाय आदिकी तथारूप कुछ भी क्षीणता नही होती-. उसमे आप मोक्षमार्गका दुराग्रह न रखें, ऐसा क्रियाजडोको कहा है। और जो शुष्कज्ञानी त्याग, वैराग्य आदिसे रहित है, मात्र वाचाज्ञानी हैं, उन्हे ऐसा कहा है कि वैराग्य आदि जो साधन हैं, वे आत्मज्ञानकी प्राप्तिके कारण है, कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होती, आपने वैराग्य आदि भी प्राप्त नही किये, तो आत्मज्ञान कहाँसे प्राप्त किया हो ? इसका कुछ आत्मामे विचार करे। ससारके प्रति बहुत उदासीनता, देहकी म को अल्पता, भोगमे अनासक्ति तथा मान आदिकी कृशता इत्यादि गुणोके विना तो आत्मज्ञान परिणमित नही होता, और आत्मज्ञानकी प्राप्ति होनेपर तो वे गुण अत्यन्त दृढ हो जाते हैं, क्योकि आत्मज्ञानरूप मूल उन्हे प्राप्त हुआ है। इसके बदले आप स्वयंको आत्मज्ञानी मानते हैं, और आत्मामे तो भोग आदिकी कामनाकी अग्नि जला करती है, पूजा, सत्कार आदिको कामना वारंवार स्फुरित होती रहती है, सहज असातासे बहत आकुलता-व्याकुलता हो जाती है । यह क्यो ध्यानमे नही आता कि ये आत्मज्ञानके लक्षण नहीं है ? 'मैं मात्र मान आदिको कामनासे आत्मज्ञानी कहलवाता हूँ', यह जो समझमे नही आता उसे समझें, और वैराग्य आदि साधन प्रथम तो आत्मामे उत्पन्न करें कि जिससे आत्मज्ञानकी सन्मुखता हो । (६)
त्याग विराग न चित्तमा, थाय न तेने ज्ञान ।
अटके त्याग विरागमां, तो भूले निजभान ॥७॥ जिसके चित्तमे त्याग और वैराग्य आदि साधन उत्पन्न न हुए हो उसे ज्ञान नहीं होता, और जो त्याग-वैराग्यमे ही अटककर आत्मज्ञानकी आकाक्षा न रखे वह अपना भान भूल जाता है; अर्थात् अज्ञानपूर्वक त्याग-वैराग्य आदि होनेसे वह पूजा-सत्कार आदिसे पराभवको प्राप्त होता है और आत्मार्थ चूक जाता है ॥७॥
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धीमद् राजचन्द्र जिसके अंतःकरणमे त्याग-वैराग्य आदि गुण उत्पन्न नही हुए ऐसे जीवको आत्मज्ञान नही होता; क्योकि मलिन अंत करणरूप दर्पणमे आत्मोपदेशका प्रतिबिंब पड़ना योग्य नहीं है। तथा मात्र त्यागवैराग्यमे अनुरक्त होकर जो कृतार्थता मानता है वह भी अपने आत्माका भान भूलता है । अर्थात् आत्मज्ञान न होनेसे अज्ञानकी सहचारिता रहती है, जिससे वह त्यागवैराग्य आदिका मान उत्पन्न करनेके लिये और मानके लिये उसकी सर्व संयम आदिकी प्रवृत्ति हो जाती है, जिससे संसारका उच्छेद नहीं होता, मात्र वही उलझ जाना होता है । अर्थात् वह आत्मज्ञानको प्राप्त नहीं करता। इस तरह क्रियाजडको साधनक्रियाका ओर उस साधनकी जिससे सफलता होती है ऐसे आत्मज्ञानका उपदेश किया है और शुष्कज्ञानीको त्याग वैराग्य आदि साधनका उपदेश करके वाचाज्ञानमे कल्याण नही है, ऐसी प्रेरणा की है । (७)
ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहां समजवु तेह।
त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ॥८॥ जहाँ जहाँ जो जो योग्य है वहां वहाँ उस उसको समझे और वहाँ वहाँ उस उसका आचरण करे, ये आत्मार्थी पुरुपके लक्षण हैं ||८||
जिस जिस स्थानमे जो जो योग्य है अर्थात् त्याग-वैराग्य आदि योग्य हो वहाँ त्याग-वैराग्य आदि समझे; जहाँ आत्मज्ञान योग्य हो वहाँ आत्मज्ञान समझे; इस तरह जो जहाँ चाहिये उसे वहाँ समझना और वहाँ वहाँ तदनुसार प्रवृत्ति करना, यह आत्मार्थी जीवका लक्षण है। अर्थात् जो मतार्थी या मानार्थी हो वह योग्य मार्गको ग्रहण नहीं करता। अथवा जिसे क्रियामे ही दुराग्रह हो गया है, अथवा शुष्कज्ञानके हो अभिमानमे जिसने ज्ञानित्व मान लिया है, वह त्याग-वैराग्य आदि साधनको अथवा आत्मज्ञानको ग्रहण नहीं कर सकता।
जो आत्मार्थी होता है वह जहाँ जहाँ जो जो करना योग्य है उस उसको करता है और जहां जहाँ जो जो समझना योग्य है उस उसको समझता है, अथवा जहाँ जहाँ जो जो समझना योग्य है उस उसको समझता है और जहाँ जो जो आचरण करना योग्य है वहाँ उस उसका आचरण करता है, वह आत्मार्थी कहा जाता है।
यहाँ 'समझना' और 'आचरण करना' ये दो सामान्य अर्थमे हैं। परतु दोनोको अलग-अलग कहनेका यह भी आशय है कि जो जो जहाँ समझना योग्य है वह वह वहाँ समझनेकी कामना जिसे है और जो जो जहाँ आचरण करना योग्य है वह वह वहाँ आचरण करनेको जिसे कामना है वह भी आत्मार्थी कहा जाता है । (८)
___ सेवे सद्गुरुचरणने, त्यागी दई निजपक्ष ।
पामे ते परमार्थने, निजपदनो ले लक्ष ॥९॥ अपने पक्षको छोडकर जो सद्गुरुके चरणकी सेवा करता है वह परमार्थको पाता है, और उसे आत्मस्वरूपका लक्ष्य होता है |९||
बहुतोको क्रियाजडता रहती है और बहुतोको शुष्कज्ञानिता रहती है, उसका क्या कारण होना चाहिये ? ऐसी आशका की उसका समाधान :-जो अपने पक्ष अर्थात् मतको छोडकर सद्गुरुके चरणको सेवा करता है, वह परमार्थको पाता है, और निज पद अर्थात् आत्मस्वभावका लक्ष्य अपनाता है, अर्थात् बहुतोको क्रिन्याजड़ता रहती है उसका हेतु यह है कि असद्गुरु कि जो आत्मज्ञान और आत्मज्ञानके साधनको नहीं जानता, उसका उन्होने आश्रय लिया है, जिससे वह असद्गुरु जो मात्र क्रियाजडताका अर्थात् कायक्लेगका मार्ग जानता है, उसमे उन्हे लगाता है, और कुलधर्मको दृढ कराता है, जिससे उन्हे सद्गुरुका योग प्राप्त करनेकी आकाक्षा नही होती, अथवा वैसा योग मिलनेपर भी पक्षकी दृढ वासना उन्हे सदुपदेशके सन्मुख नहीं होने देती, इसलिये क्रियाजड़ता दूर नहीं होती, और परमार्थको प्राप्ति नहीं होती।
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२९ वौं वर्ष
५३७ और जो शुष्कज्ञानी है उसने भी सद्गुरुके चरणका सेवन नहीं किया, मात्र अपनी मति-कल्पनासे स्वच्छन्दरूपसे अध्यात्मग्रन्थ पढे हैं, अथवा शुष्कज्ञानीके पाससे वैसे ग्रन्थ या वचन सुनकर अपनेमे ज्ञानित्व मान लिया है, और ज्ञानी मनवानेके पदका जो एक प्रकारका मान है वह उसे मोठा लगता है, और वह उसका पक्ष हो गया है। अथवा किसी एक विशेष कारणसे शास्त्रोमे दया, दान और हिंसा, पूजाकी समानता कही है, वैसे वचनोको, उनका परमार्थ समझे बिना पकड़कर, मात्र अपनेको ज्ञानी मनवानेके लिये, और पामर जीवके तिरस्कारके लिये वह उन वचनोका उपयोग करता है । परतु वैसे वचनोको किस लक्ष्यसे समझनेसे परमार्थ होता है. यह नही जानता। फिर जैसे दया, दान आदिको शास्त्रोमे निष्फलता कही है, वैसे नवपूर्व तक पढ़ लेनेपर भी वह भो निष्फल गया, इस तरह ज्ञानको भी निष्फलता कही है, तो वह शुष्कज्ञानका हो निषेध है। ऐसा होनेपर भो उसे उसका लक्ष्य नही होता, क्योकि ज्ञानी बननेके मानसे उसका आत्मा मूढताको प्राप्त हो गया है, इसलिये उसे विचारका अवकाश नही रहा । इस तरह क्रियाजड अथवा शुष्कज्ञानी दोनो भूले हुए है, और वे परमार्थ पानेकी इच्छा रखते है, अथवा परमार्थ पा लिया है, ऐसा कहते हैं । यह मान उनका दुराग्रह है, यह प्रत्यक्ष दिखायी देता है । यदि सद्गुरुके चरणका सेवन किया होता तो ऐसे दुराग्रहमे पड़ जानेका समय न आता, और जीव आत्मसाधनमे प्रेरित होता, और तथारूप साधनसे परमार्थको पाता, और निजपदका लक्ष्य ग्रहण करता, अर्थात् उसकी वृत्ति आत्मसन्मुख हो जाती।
तथा स्थान स्थानपर एकाकीरूपसे विचरनेका निषेध किया है, और सद्गुरुकी सेवामे विचरनेका ही उपदेश किया है, उससे भी यह समझमे आता है कि जीवके लिये हितकारी और मुख्य मार्ग वही है । तथा असद्गुरुसे भी कल्याण होता है ऐसा कहना तो तीर्थंकर आदिकी, ज्ञानोकी आसातना करनेके समान है, क्योकि उनमे और असद्गुरुमे कुछ भेद न हुआ, जन्माध और अत्यन्त शुद्ध निर्मल चक्षुवालेमे कुछ न्यूनाधिकता ही न ठहरो । तथा कोई 'श्री ठाणागसूत्र' की चौभगी' ग्रहण करके ऐसा कहे कि 'अभव्यका तारा हआ भी तरता है', तो यह वचन भी वदतोव्याघात जैसा है। एक तो मलमे 'ठाणाग' मे तदनुसार पाठ ही नही है, जो पाठ है वह इस प्रकार है। उसका शब्दार्थ इस प्रकार हे२ 'उसका विशेषार्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है । जिसमे किसी स्थलपर ऐसा नही कहा है कि 'अभव्यका तारा हआ तरता है। और किसी एक टबेमे किसीने यह वचन लिखा है वह उसकी समझको अयथार्थता समझ आती है।
कदाचित् कोई ऐसा कहे कि अभव्य जो कहता है वह यथार्थ नहीं है, ऐसा भासित होनेसे यथार्थ क्या है, उसका लक्ष्य होनेसे जीव स्वविचारको पाकर तरा, ऐसा अर्थ करें तो एक प्रकारसे सभवित है, परतु इससे ऐसा नही कहा जा सकता कि अभव्यका तारा हुआ तरा। ऐसा विचार कर जिस मार्गसे अनत जीव तरे हैं और तरेगे, उस मार्गका अवगाहन करना और मान आदिकी अपेक्षाका त्यागकर स्वकल्पित अर्थका त्याग करना यही श्रेयस्कर है। यदि आप ऐसा कहे कि अभव्यसे तरा जाता है, तो तो अवश्य निश्चय होता है कि असद्गुरुसे तरा जायेगा, इसमे कोई सन्देह नही है।
और असोच्या केवलो, जिसने पूर्वकालमे किसीसे धर्म नही सुना, उसे किसी तथारूप आवरणके क्षयसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसा शास्त्रमे निरूपण किया है, वह आत्माका माहात्म्य बतानेके लिये और जिसे सद्गुरुका योग न हो उसे जाग्रत करनेके लिये, उस उस अनेकात मार्गका निरूपण करने के लिये बताया हे, परतु सद्गुरुको आज्ञासे प्रवृत्ति करनेके मार्गकी उपेक्षा करनेके लिये नहीं कहा है। और फिर इस स्थलपर तो उलटे उस मार्गपर दृष्टि आनेके लिये उसे अधिक सबल किया है, और कहा है कि
१ देखे आफ ५४२ २ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता ।
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श्रीमद राजचन्द्र
वह असोच्या केवली' । अर्थात् असोच्या केवलीका यह प्रसंग सुनकर कोई, जो शाश्वत मार्ग चला आया है, उसका निषेध करे, यह आशय नही, ऐसा निवेदन किया है।
__किसी तीन आत्मार्थीको कदाचित् सद्गुरुका ऐसा योग न मिला हो, और उसे अपनी तीव्र कामना और कामनामे ही निजविचारमे सलग्न होनेसे, अथवा तीव्र आत्मार्थके कारण निजविचारमे लीन होनेसे आत्मज्ञान हुआ हो तो वह सद्गुरुके मार्गका निषेधक जीव न हो तभी हुआ हो और 'मुझे सद्गुरुसे ज्ञान नही मिला, इसलिये मैं बडा हूँ' ऐसा भाव न रखनेसे हुआ हो, ऐसा विचार कर विचारवान जीवको जिससे शाश्वत मार्गका लोप न हो ऐसे वचन प्रकाशित करने चाहिये।
एक गाँवसे दूसरे गाँव जाना हो और जिसने उस गॉवका मार्ग न देखा हो, ऐसा कोई पचास वर्षका पुरुप हो और लाखो गॉव देख आया हो, उसे भी उस मार्गका पता नही चलता, और किसीको पूछनेपर ही मालूम होता है, नही तो वह भूल खा जाता है, और उस मार्गका जानकार दस वर्षका बालक भी उसे मार्ग दिखाता है, जिससे वह पहुंच सकता है, ऐसा लोकमे अथवा व्यवहारमे भी प्रत्यक्ष है, इसलिये जो आत्मार्थी हो, अथवा जिसे आत्मार्थकी इच्छा हो उसे सद्गुरुके योगसे तरनेके अभिलाषी जीवका जिससे कल्याण हो उस मार्गका लोप करना योग्य नहीं है, क्योकि उससे सर्व ज्ञानीपुरुषोकी आज्ञाका लोप करने जैसा होता है।
पूर्वकालमे सद्गुरुका योग तो अनेक बार हुआ है, फिर भी जीवका कल्याण नही हुआ, जिससे सद्गुरुके उपदेशकी ऐसी कुछ विशेषता दिखायी नही देती, ऐसी आशका हो तो उसका उत्तर दूसरे ही पदमे कहा है कि
जो अपने पक्षको छोडकर सद्गुरुके चरणका सेवन करे, वह परमार्थको पाता है। अर्थात् पूर्वकालमे सद्गुरुका योग होनेकी वात सत्य है, परन्तु वहाँ जीवने उसे सद्गुरु नही जाना, अथवा उसे नही पहचाना, उसकी प्रतीति नही की, और उसके पास अपने मान और मत नही छोडे, और इसलिये सद्गुरुका उपदेश परिणमित नही हुआ, और परमार्थकी प्राप्ति नहीं हुई। इस तरह यदि जीव अपने मत अर्थात् स्वच्छद और कुलधर्मका आग्रह दूर करके सदुपदेशको ग्रहण करनेका अभिलाषी हुआ होता तो अवश्य परमार्थको पाता।
यहाँ असद्गुरु द्वारा दृढ कराये हुए दुर्बोधसे अथवा मानादिकी तीव्र कामनासे ऐसी आशंका भी हो सकती है कि कई जीवोका पूर्वकालमे कल्याण हुआ है, और उन्हे सद्गुरुके चरणका सेवन किये बिना कल्याणकी प्राप्ति हुई है, अथवा असद्गुरुसे भी कल्याणकी प्राप्ति होती है, असद्गुरुको स्वय भले मार्गकी प्रतीति नही है, परन्तु दूसरेको वह प्राप्त करा सकता है अर्थात् दूसरा कोई उसका उपदेश सुनकर उस मार्गकी प्रतीति करे, तो वह परमार्थको पाता है। इसलिये सद्गुरुके चरणका सेवन किये बिना भी परमार्थकी प्राप्ति होती है, ऐसी आशंकाका समाधान करते है :
यद्यपि कई जीव स्वय विचार करते हुए उद्बुद्ध हुए है, ऐसा शास्त्रमे वर्णन है, परन्तु किसी स्थलपर ऐसा दृष्टात नही कहा है कि अमुक जीव असद्गुरु द्वारा उद्बुद्ध हुए है। अव कई जीव स्वय विचार करते हुए उद्बुद्ध हुए है, ऐसा कहा है, उसमे शास्त्रोके कहनेका ऐसा हेतु नही है कि सद्गुरुकी आज्ञासे चलनेसे जीवका कल्याण होता है ऐसा हमने कहा है, परन्तु यह बात यथार्थ नहीं है, अथवा सद्गुरुकी आज्ञाकी जीवको कोई जरूरत नहीं है ऐसा कहनेके लिये भी वैसा नही कहा । तथा जो जीव अपने विचारसे स्वय वोधको प्राप्त हुए हैं, ऐसा कहा है, वह भी वर्तमान देहमे अपने विचारसे अथवा बोधसे उबुद्ध हुए ऐसा कहा है, परन्तु पूर्वकालमे वह विचार अथवा वोध सद्गुरुने उनके सन्मुख किया है, जिससे
१ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता ।
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५३९ वर्तमानमे उसका स्फुरित होना सम्भव है। तीर्थकर आदिको 'स्वयबुद्ध' कहा है वे भी पूर्वकालमे तीसरे भवमे सद्गुरुसे निश्चय समकितको प्राप्त हुए है, ऐसा कहा है। अर्थात् जो स्वयबुद्धता कही है वह वर्तमान देहकी अपेक्षासे कही है, और उसे सद्गुरुपदके निपेधके लिये कहा नही है।
और यदि सद्गुरुपदका निषेध करे तो तो 'सदेव, सद्गुरु और सद्धर्मकी प्रतीतिके बिना समकित नही होता,' यह कथन मात्र ही हुआ।
अथवा जिस शास्त्रका आप प्रमाण लेते है वह शास्त्र सद्गुरु ऐसे जिनेन्द्रका कहा हुआ है, इसलिये उसे प्रामाणिक मानना योग्य है ? अथवा किसी असद्गुरुका कहा हुआ है इसलिये प्रामाणिक मानना योग्य है ? यदि असद्गुरुके शास्त्रोको भी प्रामाणिक माननेमे बाधा न हो तो फिर अज्ञान और रागद्वेषका आराधन करनेसे भी मोक्ष होता है, ऐसा कहनेमे बाधा नहीं है, यह विचारणीय है।
_ 'आचाराग सूत्र' (प्रथम श्रुत स्कध, प्रथम अध्ययनके प्रथम उद्देशमे, प्रथम वाक्य) मे कहा है :क्या यह जीव पूर्वसे आया है ? पश्चिमसे आया है ? उत्तरसे आया है ? दक्षिणसे आया है ? अथवा ऊपरसे आया है ? नीचेसे या किसी दूसरी दिशासे आया है ? ऐसा जो नही जानता वह मिथ्यादृष्टि है, जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है। उसे जाननेके तीन कारण है-(१) तीर्थकरका उपदेश (२) सद्गुरुका उपदेश और (३) जातिस्मरणज्ञान ।
यहाँ जो जातिस्मरणज्ञान कहा है वह भी पूर्वकालके उपदेशकी सधि है। अर्थात् पूर्वकालमे उसे बोध होनेमे सद्गुरुका असम्भव मानना योग्य नही है । तथा जगह जगह जिनागममे ऐसा कहा है कि -
"गुरुणो छदाणुवत्तगा' अर्थात् गुरुकी आज्ञानुसार चलना ।
गुरुकी आज्ञाके अनुसार चलनेसे अनत जोव सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते है और सिद्ध होगे । तथा कोई जीव अपने विचारसे बोधको प्राप्त हुआ, उसमे प्राय पूर्वकालका सद्गुरुका उपदेश कारण होता है। परंतु कदाचित् जहाँ वैसा न हो वहाँ भी वह सद्गुरुका नित्य अभिलाषी रहते हुए, सद्विचारमे प्रेरित होते होते स्वविचारसे आत्मज्ञानको प्राप्त हुआ, ऐसा कहना योग्य है, अथवा उसे कुछ सद्गुरुकी उपेक्षा नही हे और जहाँ सद्गुरुकी उपेक्षा रहती है वहाँ मानका सम्भव है, और जहाँ सद्गुरुके प्रति मान हो वहाँ कल्याण होना कहा है अथवा उसे सद्विचारके प्रेरित करनेका आत्मगुण कहा है।
तथारूप मान आत्मगुणका अवश्य घातक है । बाहुबलोजीमे अनेक गुणसमूह विद्यमान होते हुए भी छोटे अट्ठानवे भाइयोको वदन करनेमे अपनी लघुता होगी, इसलिये यही ध्यानमे स्थित हो जाना योग्य है, ऐसा सोचकर एक वर्ष तक निराहाररूपसे अनेक गुणसमुदायसे आत्मध्यानमे रहे, तो भी आत्मज्ञान नही हुआ । बाकी दूसरी सब प्रकारको योग्यता होनेपर भी एक इस मानके कारणसे वह ज्ञान रुका हुआ था। जब श्री ऋषभदेव द्वारा प्रेरित ब्राह्मी और सुन्दरी सतियोने उनसे उस दोषका निवेदन किया और उस दोषका उन्हे भान हुआ, तथा उस दोपकी उपेक्षा कर उसकी असारता उन्हे समझमे आयी तब केवलज्ञान हुआ। वह मान ही यहाँ चार घनघाती कर्मोंका मूल होकर रहा था। और बारह बारह महीने तक निराहाररूपसे, एक लक्ष्यमे, एक आसनसे आत्मविचारमे रहनेवाले ऐसे पुरुषको इतनेसे मानने वैसी बारह महीनेकी दशाको सफल न होने दिया, अर्थात् उस दशासे मान समझमे न आया और जब सद्गुरु ऐसे श्री ऋषभदेवने 'वह मान हैं' ऐमा प्रेरित किया तब एक मुहूतमे वह मान जाता रहा, यह भी सद्गुरुका ही माहात्म्य प्रदर्शित किया है।
फिर सारा मार्ग ज्ञानीकी आज्ञामे निहित है, ऐसा वारवार कहा है। 'आचारागसूत्र' मे कहा है कि-सधर्मास्वामी जवस्वामीको उपदेश करते है कि जिसने सारे जगतका दर्शन किया है, ऐसे महावीर
१. सूरकताग, प्रथम श्रुतस्कघ, द्वितीय अध्ययन उद्देश २, गा० ३२ ।
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वह असोच्या केवली' अर्थात् असोच्या केवलीका यह प्रसंग सुनकर कोई, जो शाश्वत मार्ग चला आया है, उसका निषेध करे, यह आशय नही, ऐसा निवेदन किया है।
___ किसी तीव्र आत्मा को कदाचित् सद्गुरुका ऐसा योग न मिला हो, और उसे अपनी तीव्र कामना और कामनामे ही निजविचारमे सलग्न होनेसे, अथवा तीव्र आत्मार्थके कारण निजविचारमे लीन होनेसे आत्मज्ञान हुआ हो तो वह सद्गुरुके मार्गका निषेधक जीव न हो तभी हुआ हो और 'मुझे सद्गुरुसे ज्ञान नही मिला, इसलिये मैं बडा हूँ' ऐसा भाव न रखनेसे हुआ हो, ऐसा विचार कर विचारवान जीवको जिससे शाश्वत मार्गका लोप न हो ऐसे वचन प्रकाशित करने चाहिये।
एक गाँवसे दूसरे गाँव जाना हो और जिसने उस गॉवका मार्ग न देखा हो, ऐसा कोई पचास वर्षका पुरुष हो और लाखो गाँव देख आया हो, उसे भी उस मार्गका पता नही चलता, और किसीको पूछनेपर ही मालूम होता है, नही तो वह भूल खा जाता है, और उस मार्गका जानकार दस वर्षका बालक भी उसे मार्ग दिखाता है, जिससे वह पहुंच सकता है, ऐसा लोकमे अथवा व्यवहारमे भी प्रत्यक्ष है, इसलिये जो आत्मार्थी हो, अथवा जिसे आत्मार्थकी इच्छा हो उसे सद्गुरुके योगसे तरनेके अभिलाषी जीवका जिससे कल्याण हो उस मार्गका लोप करना योग्य नही है, क्योकि उससे सर्व ज्ञानीपुरुषोकी आज्ञाका लोप करने जैसा होता है।
पूर्वकालमे सद्गुरुका योग तो अनेक बार हुआ है, फिर भी जीवका कल्याण नही हुआ, जिससे सद्गुरुके उपदेशकी ऐसी कुछ विशेषता दिखायी नही देती, ऐसी आशका हो तो उसका उत्तर दूसरे ही पदमे कहा है कि
जो अपने पक्षको छोडकर सद्गुरुके चरणका सेवन करे, वह परमार्थको पाता है। अर्थात् पूर्वकालमे सद्गुरुका योग होनेकी बात सत्य है, परन्तु वहाँ जीवने उसे सद्गुरु नही जाना, अथवा उसे नही पहचाना, उसकी प्रतीति नही की, और उसके पास अपने मान और मत नही छोडे, और इसलिये सद्गुरुका उपदेश परिणमित नहीं हुआ, और परमार्थको प्राप्ति नहीं हुई । इस तरह यदि जीव अपने मत अर्थात् स्वच्छद और कुलधर्मका आग्रह दूर करके सदुपदेशको ग्रहण करनेका अभिलाषी हुआ होता तो अवश्य परमार्थको पाता ।
__ यहाँ असद्गुरु द्वारा दृढ कराये हुए दुर्बोधसे अथवा मानादिकी तीन कामनासे ऐसी आशंका भी हो सकती है कि कई जीवोका पूर्वकालमे कल्याण हुआ है, और उन्हे सद्गुरुके चरणका सेवन किये बिना कल्याणकी प्राप्ति हुई है, अथवा असद्गुरुसे भी कल्याणकी प्राप्ति होती है, असद्गुरुको स्वय भले मार्गकी प्रतीति नही है, परन्तु दूसरेको वह प्राप्त करा सकता है अर्थात् दूसरा कोई उसका उपदेश सुनकर उस मार्गकी प्रतीति करे, तो वह परमार्थको पाता है। इसलिये सद्गुरुके चरणका सेवन किये बिना भी परमार्थकी प्राप्ति होती है, ऐसी आशकाका समाधान करते है :
यद्यपि कई जीव स्वय विचार करते हुए उद्बुद्ध हुए है, ऐसा शास्त्रमे वर्णन है, परन्तु किसी स्थलपर ऐसा दृष्टात नही कहा है कि अमुक जीव असद्गुरु द्वारा उद्बुद्ध हुए है। अब कई जीव स्वय विचार करते हुए उवुद्ध हुए है, ऐसा कहा है, उसमे शास्त्रोके कहनेका ऐसा हेतु नही है कि सद्गुरुकी आज्ञासे चलनेसे जीवका कल्याण होता है ऐसा हमने कहा है, परन्तु यह बात यथार्थ नहीं है, अथवा सद्गुरुकी आज्ञाकी जीवको कोई जरूरत नही है ऐसा कहनेके लिये भी वैसा नही कहा। तथा जो जीव अपने विचारसे स्वय बोधको प्राप्त हुए हैं, ऐसा कहा है, वह भी वर्तमान देहमे अपने विचारसे अथवा बोधसे उबुद्ध हुए ऐसा कहा है, परन्तु पूर्वकालमे वह विचार अथवा बोध सद्गुरुने उनके सन्मुख किया है, जिससे
१ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता।
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वर्तमानमे उसका स्फुरित होना सम्भव है। तीर्थंकर आदिको 'स्वयंवुद्ध' कहा है वे भी पूर्वकालमे तीसरे भवमे सद्गुरुसे निश्चय समकितको प्राप्त हुए है, ऐसा कहा है। अर्थात् जो स्वयबुद्धता कही है वह वर्तमान देहकी अपेक्षासे कही है, और उसे सद्गुरुपदके निपेधके लिये कहा नही है।
और यदि सद्गुरुपदका निषेध करे तो तो 'सदेव, सद्गुरु और सद्धर्मकी प्रतीतिके विना समकित नही होता,' यह कथन मात्र ही हुआ।
अथवा जिस शास्त्रका आप प्रमाण लेते है वह शास्त्र सद्गुरु ऐसे जिनेन्द्रका कहा हुआ है, इसलिये उसे प्रामाणिक मानना योग्य है ? अथवा किसी असद्गुरुका कहा हुआ है इसलिये प्रामाणिक मानना योग्य है ? यदि असद्गुरुके शास्त्रोको भी प्रामाणिक माननेमे बाधा न हो तो फिर अज्ञान और रागद्वेषका आराधन करनेसे भी मोक्ष होता है, ऐसा कहनेमे बाधा नही है, यह विचारणीय है।
'आचाराग सूत्र' (प्रथम श्रुत स्कध, प्रथम अध्ययनके प्रथम उद्देशमे, प्रथम वाक्य) मे कहा है :क्या यह जीव पूर्वसे आया है ? पश्चिमसे आया है ? उत्तरसे आया है ? दक्षिणसे आया है ? अथवा ऊपरसे आया है ? नीचेसे या किसी दूसरी दिशासे आया है ? ऐसा जो नही जानता वह मिथ्यादृष्टि है, जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है। उसे जाननेके तीन कारण है-(१) तीर्थंकरका उपदेश (२) सद्गुरुका उपदेश और (३) जातिस्मरणज्ञान ।
यहाँ जो जातिस्मरणज्ञान कहा है वह भी पूर्वकालके उपदेशकी सधि है। अर्थात् पूर्वकालमे उसे बोध होनेमे सद्गुरुका असम्भव मानना योग्य नही है । तथा जगह जगह जिनागममे ऐसा कहा है कि -
"गुरुणो छदाणुवत्तगा' अर्थात् गुरुकी आज्ञानुसार चलना ।
गुरुकी आज्ञाके अनुसार चलनेसे अनत जोव सिद्ध हुए है, सिद्ध होते हैं और सिद्ध होगे । तथा कोई जीव अपने विचारसे बोधको प्राप्त हुआ, उसमे प्राय पूर्वकालका सद्गुरुका उपदेश कारण होता है। परतु कदाचित् जहाँ वैसा न हो वहाँ भी वह सद्गुरुका नित्य अभिलाषी रहते हुए, सद्विचारमे प्रेरित होते होते स्वविचारसे आत्मज्ञानको प्राप्त हुआ, ऐसा कहना योग्य है, अथवा उसे कुछ सद्गुरुकी उपेक्षा नही हे और जहाँ सदगुरुकी उपेक्षा रहती है वहाँ मानका सम्भव है, और जहाँ सद्गुरुके प्रति मान हो वहाँ कल्याण होना कहा है अथवा उसे सद्विचारके प्रेरित करनेका आत्मगुण कहा है।
तथारूप मान आत्मगुणका अवश्य घातक है । वाहुवलीजीमे अनेक गुणसमूह विद्यमान होते हुए भी छोटे अट्टानवे भाइयोको वदन करनेमे अपनी लघुता होगी, इसलिये यही ध्यानमे स्थित हो जाना योग्य है, ऐसा सोचकर एक वर्ष तक निराहाररूपसे अनेक गुणसमुदायसे आत्मध्यानमे रहे, तो भी आत्मज्ञान नही हुआ । बाकी दूसरी सब प्रकारको योग्यता होनेपर भी एक इस मानके कारणसे वह ज्ञान रुका हुआ था। जव श्री ऋषभदेव द्वारा प्रेरित ब्राह्मी और सुन्दरी सतियोने उनसे उस दोपका निवेदन किया और उस दोषका उन्हे भान हुआ, तथा उस दोपकी उपेक्षा कर उसकी असारता उन्हे समझमे आयी तब केवलज्ञान हुआ। वह मान ही यहाँ चार घनघाती कर्मोंका मूल होकर रहा था । और बारह बारह महीने तक निराहाररूपसे, एक लक्ष्यमे, एक आसनसे आत्मविचारमे रहनेवाले ऐसे पुरुषको इतनेसे मानने वैसी वारह महीनेकी दशाको सफल न होने दिया, अर्थात् उस दशासे मान समझमे न आया और जब सद्गुरु ऐसे श्री ऋषभदेवने 'वह मान हैं' ऐगा प्रेरित किया तव एक मुहूतमे वह मान जाता रहा; यह भी सद्गुरुका ही माहात्म्य प्रदर्शित किया है।
फिर सारा मार्ग ज्ञानीकी आज्ञामे निहित है, ऐसा वारवार कहा है । 'आचागगसूत्र' मे कहा है कि -(सुधर्मास्वामी जवुस्वामीको उपदेश करते हैं कि जिसने सारे जगतका दर्शन किया है, ऐसे महावीर
१. सूत्रकृताग, प्रपम श्रुतस्कघ, द्वितीय अध्ययन उद्देश २, गा० ३२ ।
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भीमद राजचन्द्र
भगवानने हमे इस तरह कहा है ।) गुस्के अधीन होकर चलनेवाले ऐसे अनत पुरुष मार्ग पाकर मोक्षको प्राप्त हुए। 'उत्तराध्ययन', 'सूयगडाग' आदिमे जगह जगह यही कहा है । (९)
'आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग।
अपूर्व वाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य ॥१०॥ आत्मज्ञानमे जिसकी स्थिति है, अर्थात् जो परभावकी इच्छासे रहित हुआ है, तथा शत्रु, मित्र, हर्ष, शोक, नमस्कार, तिरस्कार आदि भावोके प्रति जिसे समता रहती है, मात्र पूर्वकृत कर्मोके उदयके कारण जिसकी विचरना आदि क्रियाएँ है, अज्ञानीकी अपेक्षा जिसकी वाणी प्रत्यक्ष भिन्न है, और जो षड्दर्शनके तात्पर्यको जानता है, ये सद्गुरुके उत्तम लक्षण है ॥१०॥
स्वरूपस्थित इच्छारहित, विचरे पूर्वप्रयोग ।
अपूर्व वाणी, परमश्रुत,, सद्गुरु लक्षण योग्य ॥ आत्मस्वरूपमे जिसकी स्थिति है, विषय एव मान, पूजा आदिकी इच्छासे जो रहित है, और मात्र पूर्वकृत कर्मोंके उदयसे जो विचरता है, जिसकी वाणी अपूर्व है, अर्थात् निज अनुभव सहित जिसका उपदेश होनेसे अज्ञानीकी वाणीकी अपेक्षा प्रत्यक्ष भिन्न है, और परमश्रुत अर्थात् षड्दर्शनका जिसे यथास्थित ज्ञान होता है, ये सद्गुरुके योग्य लक्षण हैं।
यहाँ 'स्वरूपस्थित' ऐसा प्रथम पद कहा, इससे ज्ञानदशा कही है, इच्छारहित होना कहा, इससे चारित्रदशा कही है। जो इच्छारहित हो वह किस तरह विचर सकता है ? ऐसी आशका, 'विचरे पूर्वप्रयोग' अर्थात् पूर्वोपार्जित प्रारब्धसे विचरता है, विचरने आदिकी कोई कामना जिसे नही है, ऐसा कहकर निवृत्त की है । 'अपूर्व वाणी' ऐसा कहनेसे वचनातिशयता कही है, क्योकि उसके बिना मुमुक्षुका उपकार नही होता.।, 'परमश्रुत' कहनेसे षड्दर्शनके अविरुद्ध दशासे ज्ञाता है ऐसा कहा है, इससे श्रुतज्ञानकी विशेषता दिखायी है।
आशका-वर्तमानकालमे स्वरूपस्थित पुरुष नही होता, इसलिये जो स्वरूपस्थित विशेषणवाला सद्गुरु कहा है, वह वर्तमानमे होना सभव नही। ___समाधान–वर्तमानकालमे कदाचित् ऐसा कहा हो तो यह कहा जा सकता है कि 'केवलभूमिका' के विषयमे ऐसी स्थिति असभव है, परतु आत्मज्ञान ही नही होता ऐसा नही कहा जा सकता, और जो आत्मज्ञान है वही स्वरूपस्थिति है।
आशका-आत्मज्ञान हो तो वर्तमानकालमे मुक्ति होनी चाहिये, और जिनागममे तो इसका निषेध किया है।
समाधान-इस वचनको कदाचित् एकातसे ऐसा ही मान लें, तो भी इससे एकावतारिताका निषेध नही होता, और एकावतारिता आत्मज्ञानके बिना प्राप्त नहीं होती।
आशका-त्याग, वैराग्य आदिकी उत्कृष्टतासे उसे एकावतारिता कही होगी।
समाधान-परमार्थसे उत्कृष्ट त्यागवैराग्यके बिना एकावतारिता होती ही नही, ऐसा सिद्धात है, और वर्तमानमे भी चौथे, पाँचवें और छ? गुणस्थानका कुछ निषेध है नही, और चौथे गुणस्थानसे ही आत्मज्ञानका सम्भव होता है, पाँचवेंमे विशेष स्वरूपस्थिति होती है, छ8मे बहुत अशसे स्वरूपस्थिति होती है, पूर्व प्रेरित प्रमादके उदयसे मात्र कुछ प्रमाद-दशा आ जाती है, परतु वह आत्मज्ञानकी रोधक नही, चारित्रकी रोधक है।
१.देखें आक८३७
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आशका - यहाँ तो 'स्वरूपस्थित' ऐसे पदका प्रयोग किया है, और स्वरूपस्थित पद तो तेरह गुणस्थानमे ही सम्भव है ।
समाधान - स्वरूपस्थितिकी पराकाष्ठा तो चौदहवें गुणस्थानके अतमे होती है, क्योकि नाम गो आदि चार कर्मका नाश वहाँ होता है, उससे पहले केवलीको चार कर्मोंका सग रहता है, इसलिये सपू स्वरूपस्थिति तो तेरहवें गुणस्थानमे भी कही नही जा सकती ।
आशका - वहाँ नाम आदि कर्मोंके कारण अव्याबाध स्वरूपस्थितिका निषेध करें तो वह ठीक परतु स्वरूपस्थिति तो केवलज्ञानरूप है, इसलिये स्वरूपस्थिति कहनेमे दोष नही है, और यहाँ तो वैर नही है, इसलिये स्वरूपस्थिति कैसे कही जाये ?
समाधान-केवलज्ञानमें स्वरूपस्थितिका तारतम्य विशेष है, और चौथे, पाँचवें, छट्टु गुणस्थान उससे अल्प है, ऐसा कहा जाये, परतु स्वरूपस्थिति नही है ऐसा नही कहा जा सकता । चौथे गुणस्थान मिथ्यात्वमुक्तदशा होनेसे आत्मस्वभावका आविर्भाव है, और स्वरूपस्थिति है । पाँचवें गुणस्थानमे देश चारित्रघातक कषायोका निरोध हो जानेसे चौथेकी अपेक्षा आत्मस्वभावका विशेष आविर्भाव है, अ छट्ठेमे कषायोका विशेष निरोध होनेसे सवं चारित्रका उदय है, इसलिये वहाँ आत्मस्वभावका विशे आविर्भाव है । मात्र छट्टे गुणस्थानमे पूर्वनिबधित कर्मके उदयसे क्वचित् प्रमत्तदशा रहती है, इसलि 'प्रमत्त' सर्वं चारित्र कहा जाता है, परन्तु इससे स्वरूपस्थितिमे विरोध नही है; क्योकि आत्मस्वभाव बाहुल्यसे आविर्भाव है। और आगम भी ऐसा कहते हैं कि चौथे गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान त आत्मप्रतीति समान है, ज्ञानका तारतम्य भेद है ।
यदि चौथे गुणस्थानमे अशत भी स्वरूपस्थिति न हो, तो मिथ्यात्व जानेका फल क्या हुआ ? कु भी नही हुआ । जो मिथ्यात्व चला गया वही आत्मस्वभावका आविर्भाव है, और वही स्वरूपस्थिति है यदि सम्यक्त्वसे तथारूप स्वरूपस्थिति न होती, तो श्रेणिक आदिको एकावतारिता कैसे प्राप्त होती ? व एक भी व्रत, पच्चक्खान नही था और मात्र एक ही भव वाकी रहा ऐसी अल्पससारिता हुई वही स्वरू स्थितिरूप समकितका बल है । पाँचवे और छट्ठे गुणस्थानमे चारित्रका बल विशेष है, और मुख्यत उ देशक गुणस्थान तो छठा और तेरहवां है । वाकीके गुणस्थान उपदेशककी प्रवृत्ति कर सकने योग्य नही इसलिये तेरहवें और छट्ठे गुणस्थानमे वह पद होता है । (१०)
प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार ।
एवो लक्ष थया विना, ऊगे न आत्मविचार ॥११॥
जब तक जीवको पूर्वकालीन जिनेश्वरोको वातपर ही लक्ष्य रहा करे, और वह उनके उपकार गाया करे, और जिससे प्रत्यक्ष आत्मभ्रातिका समाधान होता है ऐसे सद्गुरुका समागम प्राप्त हुआ है उसमे परोक्ष जिनेश्वरोके वचनोकी अपेक्षा महान उपकार समाया हुआ है, ऐसा जो न जाने उसे आत विचार उत्पन्न नही होता ॥११॥
सद्गुरुना उपवेश वण, समजाय न जिनरूप ।
समज्या वर्ण उपकार शो ? समज्ये जिनस्वरूप ॥१२॥
सद्गुरुके उपदेशके बिना जिनेश्वरका स्वरूप समझमे नही आता, और स्वरूपको समझे बिना उ कार क्या हो ? यदि सद्गुरुके उपदेश से जिनेश्वरका स्वरूप समझ ले तो समझनेवालेका आत्मा परिणाम जिनेश्वरकी दशाको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥
१ देखें आफ ५२७ /
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श्रामद् राजचन्द्र सद्गुरुना उपदेशथी, समजे जिननुं रूप । तो ते पामे निजवशा, जिन छे आत्मस्वरूप । पाम्या शुद्ध स्वभावने, छे जिन तेथी पूज्य ।
समजो निनस्वभाव तो, आत्मभाननो गुज्य ॥ सद्गुरुके उपदेशसे जो जिनेश्वरका म्वरूप समझे, वह अपने स्वरूपकी दशाको प्राप्त करे, क्योंकि शुद्ध आत्मत्व ही ज़िनेश्वरका स्वरूप है, अथवा राग, द्वेष और अज्ञान जिनेश्वरमे नही हैं, वही शुद्ध आत्मपद है, और वह पद तो सत्तासे सब जीवोका है । वह सद्गुरु-जिनेश्वरके अवलबनसे और जिनेश्वरका स्वरूप कहनेसे मुमुक्षुजीवको समझमे आता है । (१२)
आत्मादि अस्तित्वनां, जेह निरूपक शास्त्र ।
प्रत्यक्ष सद्गुरु योग नहि, त्यां आधार सुपात्र ॥१३॥ जो जिनागम आदि आत्माके अस्तित्वका तथा परलोक आदिके अस्तित्वका उपदेश करनेवाले शास्त्र हैं, वे भी, जहाँ प्रत्यक्ष सद्गुरुका योग न हो वहाँ सुपात्र जीवको आधाररूप हैं, परतु उन्हे सद्गुरुके समान भ्रातिका छेदक नही कहा जा सकता ॥१३॥
'अथवा सद्गुरुए कह्या, जे अवगाहन काज।
ते ते नित्य विचारवा, करी मतांतर त्याज ॥१४॥ अथवा यदि सद्गुरुने उन शास्त्रोका विचार करनेकी आज्ञा दी हो, तो मतातर अर्थात् कुलधर्मको सार्थक करनेका हेतु आदि भ्रातियाँ छोड़कर मात्र आत्मार्थके लिये उन शास्त्रोका नित्य विचार करना चाहिये ॥१४॥
रोके जीव स्वच्छद तो, पामे अवश्य मोक्ष।
पाम्या एम अनंत छे, भाख्यु जिन निर्दोष ॥१५॥ जीव अनादि कालसे अपनी चतुराई और अपनी इच्छाके अनुसार चला है, इसका नाम 'स्वच्छद' है। यदि वह इस स्वच्छदको रोके तो वह अवश्य मोक्ष प्राप्त करे, और इस तरह भूतकालमे अनत जीवोने मोक्ष प्राप्त किया है। राग, द्वेष और अज्ञान, इनमेसे एक भी दोष जिनमे नही है ऐसे दोषरहित वीतरागने ऐसा कहा है 1॥१५॥
प्रत्यक्ष सद्गुरु योगथी, स्वच्छंद ते रोकाय ।
अन्य उपाय कर्या थकी, प्राये बमणो थाय ॥१६॥ प्रत्यक्ष सद्गुरुके योगसे वह स्वच्छद रुक जाता है, नही तो अपनी इच्छासे अन्य अनेक उपाय करनेपर भी प्राय. वह दुगुना होता है ।।१६।। ।
स्वच्छद, मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरुलक्ष ।
समकित तेने भाखियं, कारण गणी प्रत्यक्ष ॥१७॥ स्वच्छन्दको तथा अपने मतके आग्रहको छोड़कर जो सद्गुरुके लक्ष्यसे चलता है, उसे प्रत्यक्ष कारण मानकर वीतरागने 'समकित' कहा है ॥१७॥
__ मानाविक शत्रु महा, निज छदे न मराय ।
जाता सद्गुरु शरणमां, अल्प प्रयासे जाय ॥१८॥ ___मान और पूजा-सत्कार आदिका लोभ इत्यादि महा शत्रु हैं, वे अपनी चतुराईसे चलते हुए नष्ट नही होते, और सद्गुरुको शरणमे जानेपर सहज प्रयत्नसे दूर हो जाते है ||१८||
१ पाठातर-अथवा सद्गुरुए कह्या, जो अवगाहन काज ।
तो ते नित्य विचारवा, करी मतावर त्याज ॥
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२९ वाँ वर्ष
जे सद्गुरु उपवेशयी, पाम्यो केवळज्ञान | गुरु रह्या छद्मस्य पण, विनय करे भगवान ॥ १९ ॥
जिस सद्गुरुके उपदेशसे कोई केवलज्ञानको प्राप्त हुआ, वह सद्गुरु अभी छद्मस्य रहा हो तो भी जिसने केवलज्ञानको प्राप्त किया है, ऐसा वह केवली भगवान अपने छद्मस्थ सद्गुरुका वैयावृत्य करता है ॥ १९ ॥ एवो मार्ग विनय तणो, भाख्यो श्री वीतराग ।
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मूळ हेतु ए मागंनो, समजे कोई सुभाग्य ॥२०॥
श्री जिनेन्द्र ने ऐसे विनयमार्गका उपदेश दिया है। इस मार्गका मूल हेतु अर्थात् उससे आत्माका क्या उपकार होता है, उसे कोई सुभाग्य अर्थात् सुलभबोधी अथवा आराधक जीव हो, वह समझता है ॥२०॥ असद्गुरु ए विनयनो, लाभ लहे जो महामोहनीय कर्मयी, बुडे भवजळ
काई ।
मांही ॥२१॥
यह जो विनयमार्ग कहा है, उसका लाभ अर्थात् उसे शिष्य आदिसे करानेकी इच्छा करके यदि कोई भी असद्गुरु अपने सद्गुरुताकी स्थापना करता है, तो वह महामोहनीय कर्मका उपार्जन करके भवसमुद्रमे डूबता है ॥२१॥ होय मुमुक्षु जीव ते, समजे एह विचार ।
होय मतार्थी जीव ते, अवळो ले निर्धार ॥ २२ ॥
जो मोक्षार्थी जीव होता है, वह इस विनयमार्ग आदिके विचारको समझता है, और जो मतार्थी होता है, वह उसका उलटा निर्धार करता है, अर्थात् या तो स्वय शिष्य आदिसे वैसी विनय करवाता है, अथवा असद्गुरुमे सद्गुरुकी भ्राति रखकर स्वयं इस विनयमार्गका उपयोग करता है ॥२२॥
होय मतार्थी तेहने, थाय न आतम लक्ष ।
तेह मतार्थी लक्षणो, अहीं कह्यां निर्पक्ष ॥२३॥
जो मतार्थी जीव होता है, उसे आत्मज्ञानका लक्ष्य नही होता, ऐसे मतार्थी जीवके लक्षण यहाँ निष्पक्षतासे कहे है ||२३||
मतार्थीके लक्षण
बाह्यत्याग पण ज्ञान नहि, ते माने गुरु सत्य ।
अथवा निजकुळघमंना, ते गुरुमां ज ममत्व ॥२४॥
जिसमे मात्र बाह्यसे त्याग दिखायी देता है, परन्तु जिसे आत्मज्ञान नही है, और उपलक्षणसे अतरग त्याग नही है, ऐसे गुरुको जो सच्चा गुरु मानता है, अथवा तो अपने कुलधर्मका चाहे जैसा गुरु हो तो भी उसमे ममत्व रखता है ||२४||
जे जिनदेह प्रमाण ने, समवसरणादि सिद्धि ।
वर्णन समजे जिननं, रोकी रहे निज बुद्धि ॥२५॥
जो जिनेन्द्रकी देह आदिका वर्णन है, उसे जिनेंद्रका वर्णन समझता है, और मात्र अपने कुलधर्मके देव हैं, इसलिये ममत्वके कल्पित रागसे जो उनको समवसरण आदिका माहात्म्य कहा करता है, और उसमे अपनी बुद्धिको रोक रखता है, अर्थात् परमार्थहेतुस्वरूप ऐसा जिनेंद्रका जो जानने योग्य अतरग स्वरूप है, उसे नही जानता, तथा उसे जाननेका प्रयत्न नही करता, और मात्र समवसरण आदिमे हो जिनेंद्रका स्वरूप बताकर मतार्थमे ग्रस्त रहता है ||२५||
प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगमा, वर्ते दृष्टि विमुख । असद्गुरुने दृढ करे, निज मानार्थे मुख्य ॥२६॥
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श्रीमद राजचन्द्र
प्रत्यक्ष सद्गुरुका क्वचित् योग मिले, तो दुराग्रह आदिको छेदक उसकी वाणी सुनकर उससे उलटा ही चलता है, अर्थात् उस हितकारी वाणीको ग्रहण नही करता, और 'स्वय सच्चा दृढ मुमुक्षु है, ' ऐसे मानको मुख्यत प्राप्त करनेके लिये असद्गुरु के पास जाकर स्वयं उसके प्रति अपनी विशेष दृढता बताता है ॥२६॥
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देवादि गति भंगमां, जे समजे श्रुतज्ञान ।
माने निज मत वेषनो, आग्रह मुक्तिनिदान ॥२७॥
देव, नरक आदि गतिके 'भंग' आदिके स्वरूप किसी विशेष परमार्थहेतुसे कहे है, उस हेतुको नही जाना, और उस भगजालको जो श्रुतज्ञान समझता है, तथा अपने मतका, वेषका आग्रह रखनेमे ही मुक्तिका हेतु मानता है ||२७||
लघु स्वरूप न वृत्तिनुं, ग्रह्यु ं व्रत अभिमान ।
ग्रहे नही परमार्थने, लेवा लौकिक मान ॥२८॥
वृत्तिका स्वरूप क्या है ? उसे भी वह नही जानता, और 'मै व्रतधारी हूँ', ऐसा अभिमान धारण किया है | क्वचित् परमार्थके उपदेशका योग बने, तो भी लोगोमे जो अपने मान, पूजा, सत्कार आदि है, वे चले जायेगे, अथवा वे मान आदि फिर प्राप्त नही होगे, ऐसा समझकर वह परमार्थको ग्रहण नही करता ||२८||
शब्दनी मांय । रहित थाय ॥ २९ ॥
अथवा समयसार' या 'योगवासिष्ठ' जैसे ग्रन्थ पढकर वह मात्र निश्चयनयको ग्रहण करता है । किस तरह ग्रहण करता है ? मात्र कहनेमे, अतरगमे तथारूप गुणकी कुछ भी स्पर्शना नही, और सद्गुरु, सत्शास्त्र तथा वैराग्य, विवेक आदि सद्व्यवहारका लोप करता है, तथा अपनेको ज्ञानी मानकर साधनरहित होकर आचरण करता है ||२९||
अथवा निश्चय नय ग्रहे, मात्र लोपे सद्व्यवहारने, साधन
ज्ञानदशा पामे नहीं, साधनदशा न पामे तेनो संग जे, ते बूडे भव वह ज्ञानदशाको नही पाता, और वैराग्य आदि साधनदशा भी संग दूसरे जिस जीवको होता है वह भी भवसागरमे डूबता है ||३०||
कांई । मांही ॥३०॥
उसे नही है, जिससे वैसे जीवका
ए पण जीव मतार्थमां, निजमानादि काज;
पामे नहि परमार्थने, अन्-अधिकारीमां ज ॥३१॥
यह जीव भी मतार्थमे ही प्रवृत्त है, क्योकि उपर्युक्त जीवको जिस तरह कुलधर्म आदिके कारण मतार्थता है, उसी तरह इसे अपनेको ज्ञानी मनवानेके मानको इच्छासे अपने शुष्कमतका आग्रह है, इसलिये वह भी परमार्थंको नही पाता, और अनधिकारी अर्थात् जिसमे ज्ञानका परिणमन होना योग्य नही है, ऐसे जीवोमे वह भी गिना जाता है || ३१ ॥
नहि कषाय उपशातता, नहि अंतर
वैराग्य । सरळपणु न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥३२॥
जिसके क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय पतले नही पड़े है, तथा जिसे अतर वैराग्य उत्पन्न नही हुआ है, जिसके आत्मामे गुण ग्रहण करनेरूप सरलता नही रही है, तथा सत्यासत्यकी तुलना करने की जिसमे अपक्षपातदृष्टि नही है, वह मतार्थी जीव दुर्भाग्य है अर्थात् जन्म, जरा, मरणका छेदन करनेवाले मोक्षमार्गको प्राप्त करने योग्य उसका भाग्य नही है, ऐसा समझें ||३२||
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२९ वॉ वर्ष
लक्षण कहां मतार्थीना, मतार्थ जावा काज ।
हवे कहुं आत्मार्थीनां, आत्म-अर्थ सुखसाज ॥३३॥ ___ इस तरह मतार्थी जीवके लक्षण कहे। उसके कहनेका हेतु यह है कि उन्हे जानकर किसी भी जीवका भतार्थं दूर हो । अब आत्मार्थी जीवके लक्षण कहते हैं । वे लक्षण कैसे है ? आत्माके लिये अव्यावाध तुखको सामग्रीके हेतु है ।।३३।।
आत्मार्थी-लक्षण आत्मज्ञान त्या मुनिपणु, ते साचा गुरु होय ।
बाकी कुळगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहि जोय ॥३४॥ जहाँ आत्मज्ञान होता है, वहाँ मुनित्व होता है, अर्थात् जहाँ आत्मज्ञान नही होता वहाँ मुनित्व सभव हो नहीं है। जं सम्मं ति पासहा त मोति पासहा-जहाँ समकित अर्थात् आत्मज्ञान है वहाँ मुनित्व समझे, ऐसा आचारागसूत्रमे कहा है । अर्थात् जिसमे आत्मज्ञान हो वह सच्चा गुरु है, ऐना जो जानता है, और जो यह भी जानता है कि आत्मज्ञानसे रहित अपने कुलगुरुको सद्गुरु मानना कल्पना मात्र है, उससे कुछ भवच्छेद नही होता, वह आत्मार्थी है ॥३४॥
प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिनो, गणे परम उपकार ।
त्रणे योग एकत्वथी, वत आज्ञाधार ॥३५॥ वह प्रत्यक्ष सद्गुरुकी प्राप्तिका महान उपकार समझता है, अर्थात् शास्त्र आदिसे जो समाधान हो सकने योग्य नही है, और जो दोष सद्गुरुकी आज्ञा धारण किये विना दूर नही होते, वह सद्गुरुके योगसे समाधान हो जाता है, और वे दोष दूर हो जाते हैं, इसलिये वह प्रत्यक्ष सद्गुरुका महान उपकार समझता है, और उन सद्गुरुके प्रति मन, वचन और कायाकी एकतासे आज्ञापूर्वक आचरण करता है ॥३५॥
एक होय त्रण काळमां, परमारथनो पंथ ।
प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत ॥३६॥ तीनो कालमे परमार्थका पथ अर्थात् मोक्षका मार्ग एक होना चाहिये, और जिससे वह परमार्थ सिद्ध हो वह व्यवहार जीवको मान्य रखना चाहिये, अन्य नहीं ॥३६॥
एम विचारो अन्तरे, शोधे सद्गुरु योग ।
काम एक आत्मार्थनु, बीजो नहि मनरोग ॥३७॥ इस तरह अतरमे विचारकर जो सद्गुरुके योगको खोजता है, मात्र एक आत्मार्थकी इच्छा रखता है, परतु मान, पूजा आदि ऋद्धि-सिद्धिकी तनिक भी इच्छा नही रखता, यह रोग जिसके मनमे नही हे. वह आत्मार्थी है ॥३७॥
कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष।
भवे खेद, प्राणीदया, त्या आत्मार्थ निवास ॥३८॥ जिसके कषाय पतले पड गये हैं, जिसे मात्र एक मोक्षपदके सिवाय अन्य किसी पदकी अभिलापा नही है, ससारके प्रति जिसे वैराग्य रहता है, और प्राणीमात्रपर जिसे दया है, ऐसे जीवमे आत्मार्थका निवास होता है ॥३८॥
दशा न एवी ज्या सुधी, जीव लहे नहि जोग।
मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटेन अन्तर रोग ॥३९॥ ___ जब तक ऐसी योग्य दशाको जीव नहीं पाता, तब तक उसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति नहीं होती, और आत्मभ्रातिरूप अनत दुखका हेतु ऐसा अतर रोग नही मिटता ॥३९||
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श्रीमद् राजवन्द्र
आवे ज्यां एवी दशा, सद्गुरुबोध सुहाय । ते बोधे सुविचारणा, त्यां प्रगटे सुखदाय ॥४०॥
जहाँ ऐसी दशा आती है वहाँ सद्गुरुका बोध शोभित होता है अर्थात् परिणमित होता है, और उस बोधके परिणामसे सुखदायक सुविचारदशा प्रगट होती है ||४०||
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ज्यां प्रगटे सुविचारणा, त्यां प्रगटे निज ज्ञान ।
जे ज्ञाने क्षय मोह थई, पामे पद निर्वाण ॥ ४१ ॥
जहाँ सुविचारदशा प्रगट होती है वहाँ आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, और उस ज्ञान से मोहका क्षय करके जीव निर्वाणपद पाता है ॥४१॥
ऊपजे ते सुविचारणा, मोक्षमार्ग समजाय । गुरु-शिष्य सवादथी, भाखु षट्पद आंही ॥४२॥
जिससे वह सुविचारदशा उत्पन्न होती है और मोक्षमार्ग समझमे आता है वह षट्पदरूपमे गुरुशिष्यके सवाद द्वारा यहाँ कहता हूँ ॥४२॥
षट्पदनामकथन
'आत्मा छे,' 'ते नित्य छे', 'छे कर्ता निजकर्म' ।
'छे भोक्ता' वळी 'मोक्ष छे', 'मोक्ष उपाय सुधर्म' ॥४३॥
'आत्मा है', 'वह आत्मा नित्य है', 'वह आत्मा अपने कर्मका कर्ता है', 'वह कर्मका भोक्ता है', 'उस कर्म से मोक्ष होता है', और 'उस मोक्षका उपाय सद्धर्म है' ||४३||
षट्स्थानक संक्षेपमां, षट्दर्शन पण तेह |
समजावा परमार्थने, कह्यां ज्ञानीए एह ॥४४॥
ये छ. स्थानक अथवा छ. पद यहाँ सक्षेपमे कहे हैं । और विचार करनेसे षड्दर्शन भी यही हैं । परमार्थ समझनेके लिये ज्ञानीपुरुषने ये छ पद कहे हैं ||४४ ॥
शका - शिष्य उवाच
[ शिष्य आत्मा के अस्तित्वरूप प्रथम स्थानककी शका करता है नयी दृष्टिमां आवतो, नथी जणातुं रूप ।
बीजो पण अनुभव नहीं, तेथी न जीवस्वरूप ॥४५॥
वह दृष्टिमे नही आता, तथा उसका कोई रूप जान नही पड़ता, तथा स्पर्श आदि अन्य अनुभवसे भी वह जाना नही जाता, इसलिये जीवका स्वरूप नही है, अर्थात् जीव नही है ॥४५॥
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अथवा देह ज आतमा, अथवा इन्द्रिय प्राण ।
मिथ्या जुदो मानवो नहीं जुदु एंधाण ॥४६॥
अथवा जो देह है वही आत्मा है, अथवा जो इन्द्रियाँ है, वही आत्मा है, अथवा श्वासोच्छ्वास है, वह आत्मा है, अर्थात् ये सब किसी न किसी रूपमे देहरूप है, इसलिये आत्माको भिन्न मानना मिथ्या है क्योकि उसका कोई भी भिन्न चिह्न नही है ॥ ४६ ॥
वळी जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहि केम ? |
जणाय जो ते होय तो, घट, पट आदि जेम ॥४७॥
और यदि आत्मा हो तो वह मालूम क्यो नही होता ? जैसे घट, पट आदि पदार्थ हैं तो वे जान पडते हैं, वैसे आत्मा हो तो किसलिये मालूम न हो ? ||४||
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२९ वॉ वर्ष
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माटे छे नहि आतमा, मिथ्या मोक्ष उपाय ।
ए अन्तर शंका तणो, समजावो सदुपाय ॥४८॥ इसलिये आत्मा नही है, और जब आत्मा ही नही है तब उसके माक्षके लिये उपाय करना व्यर्थ है, इस मेरी अतरकी शकाका कुछ भी सदुपाय समझाइये अर्थात् समाधान हो तो कहिये ॥४८॥
___ समाधान-सद्गुरु उवाच [ आत्माका अस्तित्व है ऐसा सद्गुरु समाधान करते हैं .-]
भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान ।
पण ते बन्ने भिन्न छ, प्रगट लक्षणे भान ॥४९॥ देहाध्याससे अर्थात् अनादिकालसे अज्ञानके कारण देहका परिचय है, इससे आत्मा देह जैसा अर्थात् देहरूप हो तुझे भासित हुआ है, परतु आत्मा और देह दोनो भिन्न हैं, क्योकि दोनो भिन्न भिन्न लक्षणोसे प्रगट ज्ञानमे आते हैं ॥४९॥ |
भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान ।
पण ते बन्ने भिन्न छे, जेम असि ने म्यान ॥५०॥ ___ अनादिकालसे अज्ञानके कारण देहके परिचयसे देह ही आत्मा भासित हुआ है, अथवा देह जैसा आत्मा भासित हुआ है, परतु जैसे तलवार और म्यान, म्यानरूप लगते हुए भी दोनो भिन्न भिन्न है, वैसे आत्मा ओर देह दोनो भिन्न-भिन्न है ॥५०॥
जे द्रष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप ।
अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवस्वरूप ॥५१॥ वह आत्मा दृष्टि अर्थात् आँखसे कैसे दिखायी दे सकता है ? क्योकि वह तो उलटा उसको देखनेवाला है (अर्थात् आँखको देखनेवाला तो आत्मा ही है) । और जो स्थूल, सूक्ष्म आदि रूपको जानता है, और सबको बाधित करता हुआ जो किसीसे भी बाधित नही हो सकता, ऐसा जो शेष अनुभव है वह जीवका स्वरूप है ॥५१॥
छ इन्द्रिय प्रत्येकने, निज निज विषयनु ज्ञान ।
पाँच इंद्रीना विषयनु, पण आत्माने भान ॥५२॥ 'कर्णेन्द्रियसे जो सुना उसे वह कर्णेन्द्रिय जानती है, परतु चक्षुरिन्द्रिय उसे नही जानती, और चक्षरिन्द्रियने जो देखा उसे कर्णेन्द्रिय नही जानती। अर्थात् सभी इन्द्रियोको अपने अपने विषयका ज्ञान है, परन्तु दूसरी इन्द्रियोके विषयका ज्ञान नही है, और आत्माको तो पांचो इन्द्रियोके विषयका ज्ञान है। अर्थात जो उन पांचो इन्द्रियोके द्वारा ग्रहण किये हुए विषयको जानता है वह 'आत्मा' है, और आत्माके बिना एक एक इन्द्रिय एक एक विषयको ग्रहण करती है ऐसा जो कहा है, वह भी उपचारसे कहा है ॥५२॥
देह न जाणे तेहने, जाणे न इन्द्री, प्राण।
___ आत्मानी सत्ता वडे, तेह प्रवर्ते जाण ॥५३॥ देह उसे नही जानती, इन्द्रियां उसे नही जानती, और श्वासोच्छ्वासरूप प्राण भी उसे नहीं जानता, वे सब एक आत्माकी सत्ता पाकर प्रवृत्ति करते हैं, नही तो वे जडरूप पड़े रहते हैं, ऐसा तू समझ ॥५३॥
सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय ।
प्रगटरूप चैतन्यमय, ए एंघाण सवाय ॥५४॥ १ पाठावर-कान न जाणे आँखने, नांख न जाणे कान,
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श्रीमद् राजचन्द्र
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तथा किसी भी वस्तुका किसी भी कालमे सर्वथा नाश तो होता ही नही है, मात्र अवस्थांतर होता है, इसलिये चेतनका भी सर्वथा नाश नही होता । और यदि अवस्थातररूप नाश होता हो तो वह किसमे 'मिल' जाता है ? अथवा किस प्रकार के अवस्थातरको प्राप्त करता है, उसकी खोज कर । अर्थात् घट आदि पदार्थ फूट जाते हैं, तब लोग ऐसा कहते है कि घटका नाश हुआ है, परंतु कुछ मिट्टोपनका तो नाश नही हुआ । वह छिन्न-भिन्न होकर सूक्ष्मसे सूक्ष्म चूरा हो जाये, तो भी परमाणु समूहरूपसे रहता है परंतु उसका सर्वथा नाश नही होता, और उसमेसे एक परमाणु भी कम नही होता । क्योकि अनुभवसे देखते हुए अवस्थातर हो सकता है । परतु पदार्थका समूल नाश हो जाये, ऐसा भासित होने योग्य ही नही है । इसलिये यदि तू चेतनका नाश कहता है, तो भी सर्वथा नाश तो कहा ही नही जा सकता, अवस्थातररूप नाश कहा जा सकता है । जैसे घट फूटकर क्रमश परमाणु समूहरूपसे स्थितिमे रहता है, वैसे चेतनका अवस्थांतररूप नाश तुझे कहना हो, तो वह किस स्थितिमे रहता है ? अथवा घटके परमाणु जैसे परमाणुसमूहमें मिल जाते हैं वैसे चेतन किस वस्तुमे मिलने योग्य है ? उसे खोज । अर्थात् इस तरह यदि तू अनुभव करके देखेगा तो किसीमे नही मिल सकने योग्य, अथवा परस्वरूपमे अवस्थातर नही पाने योग्य ऐसा चेतन अर्थात् आत्मा तुझे भासमान होगा || ७० ||
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शका - शिष्य उवाच
[आत्मा कर्मका कर्ता नही है ऐसा शिष्य कहता है - ] कर्ता जीव न कर्मनो कर्म ज कर्ता कर्म ।
reat सहज स्वभाव कां, कर्म जीवनो धर्मं ॥७१॥
जीव कर्मका कर्ता नही, कर्म ही कर्मका कर्ता है, अथवा कर्म अनायास होते रहते हैं । यदि ऐसा न हो, और जीव ही उनका कर्ता है, ऐसा कहे तो फिर वह जीवका धर्म ही है, अर्थात् धर्म होनेसे कभी निवृत्त नही हो सकता ॥ ७१ ॥
आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बंध |
अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबंध ॥७२॥
'अथवा ऐसा न हो, तो आत्मा सदा असग है, और सत्त्व आदि गुणवाली प्रकृति कर्मका वध करती है । यदि ऐसा भी न हो तो जीवको कम करनेकी प्रेरणा ईश्वर करता है, इसलिये ईश्वरेच्छारूप होनेसे जीव
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उस कर्मसे ‘अबंध' हे ॥७२॥
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माटे मोक्ष उपायनो कोई न हेतु जणाय ।
कर्म
कर्ता, कां नहि, कां नहि जाय ॥७३॥
इसलिये जीव किसी तरह
कर्मका कर्ता नही हो सकता, और मोक्षका उपाय करनेका कोई हेतु नही जान पडता । इसलिये या तो जीवको कर्मका कर्तृत्व नही है, और यदि कर्तृत्व है तो किसी तरह उसका वह स्वभाव मिटने योग्य नही है || ७३ ॥
समाधान - सद्गुरु उवाच
[ सद्गुरु समाधान करते हैं कि कर्मका कर्तृत्व आत्माको किस तरह ह होय न चेतन प्रेरणा, कोण ग्रहे तो कर्म ? जडस्वभाव, नहि प्रेरणा, 'जुओ विचारी धर्म ॥७४॥
१ पाठान्तर—जुओ विचारी मर्म ।
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२९ वा वर्ष .
५५३ चेतन अर्थात् आत्माकी प्रेरणारूप प्रवृत्ति न हो, तो कर्मको कौन ग्रहण करे ? जडका स्वभाव प्रेरणा नही है । जड और चेतन दोनोके धर्मोका विचारकर देखें ॥७४॥
यदि चेतनकी प्रेरणा न हो, तो कर्मको कौन ग्रहण करे ? 'प्रेरणारूपसे ग्रहण करानेरूप स्वभाव जडका है ही नही, और ऐसा हो तो घट, पट आदिका भी। क्रोध आदि भावमे परिणमन होना चाहिये और वे कर्मके ग्रहणकर्ता होने चाहिये, परतु वैसा अनुभव तो किसीको कभी भी होता नही, जिससे चेतन अर्थात् जीव कर्मको ग्रहण करता है, ऐसा सिद्ध होता है, और इसलिये उसे कर्मका कर्ता कहते है । अर्थात् इस तरह जीव कर्मका कर्ता है।
'कर्मका कर्ता कर्म कहा जाये या नही ?' उसका भी समाधान इससे हो जायेगा कि जडकर्ममे प्रेरणारूप धर्म न होनेसे वह उस तरह कर्मका ग्रहण करनेमे असमर्थ है, और कर्मका कर्तृत्व जीवको है, क्योकि उसमे प्रेरणाशक्ति है । (७४) ।
जो चेतन करतु नथी, नथी थतां तो कर्म।
तेथी सहज स्वभाव नहि, तेम ज नहि जीवधर्म ॥७५॥ यदि आत्मा कर्मोको करता नहीं है तो वे होते नही है; इसलिये सहज, स्वभावसे अर्थात् अनायास वे होते हैं, ऐसा कहना योग्य नही है। और वह जीवका धर्म (स्वभाव) भी नही है, क्योकि स्वभावका नाश नही होता, और आत्मा न करे तो कर्म नही होते, अर्थात् यह भाव दूर हो सकता है, इसलिये यह आत्माका स्वाभाविक धर्म नही है ।।७।।
. केवळ होत असग जो, भासत तने न केम ?
असग छे परमार्थथी, पण निजभाने तेम ॥७६॥ ' यदि आत्मा सर्वथा असग होता अर्थात् कभी भी उसे कर्मका कर्तृत्व न होता, तो स्वयं तुझे वह आत्मा पहलेसे क्यो भासित न होता ? परमार्थसे वह आत्मा असग है, परतु यह तो जब स्वरूपका भान हो तब होता है ॥६॥
'कर्ता ईश्वर कोई नहि, ईश्वर शुद्ध स्वभाव।
अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोषप्रभाव ॥७७॥ जगतका अथवा जीवोके कर्मोंका कर्ता कोई ईश्वर नही है, जिसका शुद्ध आत्मस्वभाव प्रगट हुआ है वह ईश्वर है, और यदि उसे प्रेरक अर्थात् कर्मका कर्ता मानें तो उसे दोषका प्रभाव हुआ मानना चाहिये । अत जीवके कर्म करनेमे भी ईश्वरकी प्रेरणा नही कही जा सकती ॥७७॥
अव आपने 'वे कर्म अनायास होते हैं, ऐसा जो कहा उसका विचार करें। अनायासका अर्थ क्या है ? आत्मा द्वारा नही विचारा हुआ ? अथवा आत्माका कुछ भी कर्तृत्व होनेपर भी प्रवृत्त नहीं हुआ हुआ ? अथवा ईश्वरादि कोई कर्म लगा दे उससे हुआ हुआ ? अथवा प्रकृतिके बलात् लगनेसे हुआ हुआ? इन चार मुख्य विकल्पोसे अनायासकतृत्व विचारणीय है । प्रथम विकल्प आत्मा द्वारा नही विचारा हुआ, ऐसा है । यदि वैसे होता हो तो फिर कर्मका ग्रहण करना ही नहीं रहता, और जहाँ कर्मका ग्रहण करना न रहे वहाँ कर्मका अस्तित्व सम्भव नही है और जीव तो प्रत्यक्ष विचार करता है, और ग्रहणाग्रहण करता है, ऐसा अनुभव होता है।
जिसमे वह किसी तरह प्रवृत्ति ही नहीं करता वैसे क्रोध आदि भाव उसे सप्राप्त होते ही नही, इससे ऐसा मालूम होता है कि न विचारे हुए अथवा आत्मासे न किये हुए ऐसे कर्मोका ग्रहण उसे होने योग्य नहीं है, अर्थात् इन दोनो प्रकारसे अनायास कर्मका गहण सिद्ध नहीं होता।
तीसरा प्रकार यह है कि ईश्वरादि कोई कम लगा दे, इससे अनायास कर्मका ग्रहण होता है, ऐसा कहे तो यह योग्य नहीं है। प्रथम तो ईश्वरके स्वरूपका निर्धारण करना योग्य है, और यह प्रसग भी
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श्रीमद राजचन्द्र देहकी उत्पत्ति और देहके लयका ज्ञान जिसके अनुभवमे रहता है, वह उस देहसे भिन्न न हो तो किसी भी प्रकारसे देहकी उत्पत्ति और लयका ज्ञान नही होता। अथवा-जिसकी उत्पत्ति और लयको जो जानता है वह उससे भिन्न ही है, क्योकि वह उत्पत्तिलयरूप नही ठहरा, परंतु उसका जाननेवाला ठहरा । इसलिये उन दोनोकी एकता कैसे हो ? (६३)
. जे सयोगो. देखिये, ते ते अनुभव दृश्य । - ' 'ऊपजे नहि सयोगथी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥६४॥ ............ " जो जो सयोग हम देखते हैं वे सब अनुभवस्वरूप ऐसे आत्माके दृश्य है अर्थात् उन्हे आत्मा जानता है, और उन संयोगोंके स्वरूपका विचार करने पर ऐसा कोई भी सयोग समझमे नही आता कि जिससे आत्मा उत्पन्न होता है, इसलिये आत्मा सयोगसे उत्पन्न नही हुआ है, अर्थात् असयोगी है, स्वाभाविक पदार्थ है, इसलिये यह प्रत्यक्ष नित्य' समझमे आता है ।।६४|| । जो जो देह आदि सयोग दिखायी देते है वे सव अनुभवस्वरूप ऐसे आत्माके दृश्य है, अर्थात् आत्मा उन्हें देखता है, और जानता है, ऐसे पदार्थ है। उन सब सयोगोका विचारकर देखे, तो आपको किसी भी सयोगसे अनुभवस्वरूप आत्मा उत्पन्न हो सकने योग्य मालूम नहीं होगा। कोई भी सयोग आपको नही 'जानतें और आप उन सब सयोगोको जानते है, यही आपकी उनसे भिन्नता है, और असयोगिता अर्थात् उन संयोगोसे उत्पन्न न होना सहज ही सिद्ध होता है, और अनुभवमे आता है। इससे अर्थात् किसी भी संयोगसे जिसकी उत्पत्ति नही हो सकतो, कोई भी सयोग जिसकी उत्पत्तिके लिये अनुभवमे नही आ सकते, जिन जिन सयोगोकी कल्पना करे उनसे वह अनुभव भिन्न और भिन्न ही है, मात्र उनके ज्ञातारूपसे ही रहता है, उस अनुभवस्वरूप आत्माको आप नित्य अस्पृश्य अर्थात् जिसने उन संयोगोंके भावरूप स्पर्शको प्राप्त नहीं किया, ऐसा समझें । (६४) ,
जडथी चेतन ऊपजे, चेतनथी जड थाय। - '
एवो अनुभव कोईने, क्यारे कदीन थाय ॥६५॥ जडसे चेतन उत्पन्न हो, और चेतनसे ज़ड उत्पन्न हो ऐसा किसीको कही कभी भी अनुभव नहीं होताना६५।।,'' .....
कोई संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय। " 17 - नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय ॥६६॥ .
जिसकी उत्पत्ति किसी भी सयोगसे नही होती, उसका नाश भी किसीमे नही होता, इसलिये आत्मा त्रिकाल नित्य है ॥६६॥ . . .
जा किसी भी सयोगसे उत्पन्न न हआ हो अर्थात अपने स्वभावसे जो पदार्थ सिद्ध हो, उसका लय दूसरे किसी भी , पदार्थमे नही होता, और यदि दूसरे पदार्थमे उसका लय होता हो, तो उसमेसे उसकी पहले उत्पत्ति होनी चाहिये थी, नही तो उसमे उसकी लयरूप एकता नही होती'। इसलिये आत्माको अनुत्पन्त और अविनाशी जानकर नित्य है ऐसी प्रतीति करना योग्य होगा । (६६)
.., . क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी माय। ' __
पूर्वजन्म संस्कार ते, जीव-नित्यता त्याय ॥६७॥ ____ क्रोध आदि प्रकृतियोकी विशेषता सर्प आदि प्राणियोमे जन्मसे ही देखनेमे आती है, वर्तमान देहमे तो उन्होने वह अभ्यास नहीं किया, जन्मके साथ ही वह है, अर्थात् यह पूर्वजन्मका ही सस्कार है, जो पूर्वजन्म जीवकी-नित्यता सिद्ध करता है ॥६॥ - सर्पमे जन्मसे क्रोधकी विशेषता देखनेमे आती है, कबूतरमे जन्मसे ही अहिंसकता देखनेमे आती है, खटमल आदि जन्तुओको पकड़ते हुए उन्हे पकड़नेसे दुःख होता है ऐसी भयसज्ञा पहलेसे ही उनके
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२९ वो वर्ष अनुभवमे रही है, जिससे वे भाग जानेका प्रयत्न करते है। किसी प्राणीमे जन्मसे ही प्रीतिकी, किसीमे समताकी, किसीमे विशेष निर्भयताकी, किसीमे गभीरताकी, किसीमे विशेष भय सज्ञाकी, किसीमे काम आदिके प्रति असगताकी, और किसीमे आहार आदिमे अधिकाधिक लुब्धताकी विशेषता देखनेमे आती है। इत्यादि भेद अर्थात् क्रोध आदि सज्ञाकी न्यूनाधिकता आदिसे, तथा वे वे प्रकृतियाँ जन्मसे सहचारीरूपसे विद्यमान देखनेमे आती है, उससे उसका कारण पूर्वके सस्कार ही सभव है।
कदाचित् ऐसा कहे कि गर्भमे वीय-रेतके गुणके योगसे उस उस प्रकारके गुण उत्पन्न होते है, परतु उसमे पूर्वजन्म कुछ कारणभूत नहीं है, यह कहना भी यथार्थ नहीं है। जो माता-पिता काममे विशेष प्रीतिवाले देखनेमे आते है, उनके पुत्र परम वीतराग जसे बाल्यकालसे ही देखनेमे आते है । तथा जिन माता-पिताओमे क्रोधकी विशेषता देखनेमे आती है, उनकी सततिमे समताकी विशेषता दृष्टिगोचर होती है, यह कैसे हो सकता है ? तथा उस वीर्य-रेतके वैसे गुण सभव नहीं है, क्योकि वह वीर्य-रेत स्वय चेतन नही है, उसमे चेतन सचार करता है, अर्थात् देह धारण करता है, इसलिये वीर्य-रेतके आश्रित क्रोध आदि भाव नही माने जा सकते, चेतनके विना किसी भी स्थानमे वैसे भाव अनुभवमे नही आते। मात्र वे चेतनाश्रित है, अर्थात् वीर्य-रेतके गुण नही है, जिससे उसकी न्यूनाधिकतासे क्रोध आदिकी न्यूनाधिकता मुख्यत हो सकने योग्य नहीं है। चेतनके न्यूनाधिक प्रयोगसे क्रोध आदिकी न्यूनाधिकता होती है, जिससे वह गर्भके वीर्य-रेतका गुण नही है , परतु चेतनका उन गुणोको जाश्रय है, और वह न्यूनाधिकता उस चेतनके पूर्वके अभ्याससे ही सभव है, क्योकि कारण विना कार्यकी उत्पत्ति नही होती। चेतनका पूर्वप्रयोग तथाप्रकारसे हो, तो वह सस्कार रहते हैं, जिससे इस देह आदिके पूर्वके सस्कारोका अनुभव होता है, और वे सस्कार पूर्वजन्मको सिद्ध करते है, और पूर्वजन्मकी सिद्धिसे आत्माको नित्यता सहज ही सिद्ध होती है । (६७)
आत्मा द्रव्ये नित्य छ, पर्याये पलटाय।
बाळादि वय अण्यनु, ज्ञान एफने थाय ॥६८॥ आत्मा वस्तुरूपसे नित्य है। समय-समयपर ज्ञान आदि परिणामके परिवर्तनसे उसके पर्यायमे परिवर्तन होता है। (कुछ समुद्र बदलता नही, मात्र लहरें बदलती है, उसो तरह ।) जैसे बाल, युवा और वृद्ध ये तीन अवस्थाएँ है, वे विभावसे आत्माके पर्याय हैं, और बाल अवस्थाके रहते हुए आत्मा वालक जान पडता था। उस बाल अवस्थाको छोडकर जव आत्माने युवावस्था धारण की, तब युवा जान पडा, और जब यवावस्थाको छोडकर वृद्धावस्था अगीकार की तब वृद्ध दीखने लगा। यह तीन अवस्थाओका भेद हुआ, वह पर्यायभेद है, परतु उन तीनो अवस्थाओमे आत्म-द्रव्यका भेद नहीं हुआ, अर्थात् अवस्थाएँ बदली परत आत्मा नही बदला | आत्मा इन तीनो अवस्थाओको जानता है और उन तीनो अवस्थाओकी उसे ही स्मति है। तीनो अवस्थाओमे आत्मा एक हो ता ऐसा हो सकता है परन्तु यदि आत्मा क्षण क्षण बदलता हो तो वैसा अनुभव सभत ही नहीं है ॥६८॥
अथवा ज्ञान क्षणिकन, जे जाणी वदनार ।
वदनारो ते क्षणिक नहि, कर अनुभव निर्धार ॥६९॥ तथा अमक पदार्थ क्षणिक है, ऐसा जो जानता है और क्षणिकता कहता है, वह कहनेवाला अर्थात जाननेवाला क्षणिक नही हो सकता, क्योंकि प्रथम क्षणमे जो अनुभव हुआ उसे दूसरे क्षणमे कहा जा सकता है। उस दूसरे क्षणमे वह स्वय न हो तो कैस कह सकता है ? इसलिये अनुभवसे भी आत्माकी अक्षणिकताका निश्चय कर ॥६९।।
क्यारे कोई वस्तुनो, केवळ होय न नाश । चेतन पामे नाश तो, केमा भळे तपास ॥७॥
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श्रीमद् राजचन्द्र तथा किसी भी वस्तुका किसी भी कालमे सर्वथा नाश तो होता ही नही है, मात्र अवस्थातर होता है, इसलिये चेतनका भी सर्वथा नाश नही होता । और यदि अवस्थातररूप नाश होता हो तो वह किसमे मिल जाता है ? अथवा किस प्रकारके अवस्थातरको प्राप्त करता है, उसकी खोज कर । अर्थात् घट आदि पदार्थ फूट जाते हैं, तब लोग ऐसा कहते है कि घटका नाश हुआ है, परतु कुछ मिट्टोपनका तो नाश नही हुआ। वह छिन्न-भिन्न होकर सूक्ष्मसे सूक्ष्म चूरा हो जाये, तो भी परमाणु समूहरूपसे रहता है परंतु उसका सर्वथा नाश नही होता, और उसमेसे एक परमाणु भी कम नही होता। क्योकि अनुभवसे देखते हुए अवस्थातर हो सकता है । परतु पदार्थका समूल नाश हो जाये, ऐसा भासित होने योग्य ही नही है । इसलिये यदि तू चेतनका नाश कहता है, तो भी सर्वथा नाश तो कहा ही नही जा सकता, अवस्थातररूप नाश कहा जा सकता है। जैसे घट फूटकर क्रमश. परमाणु-समूहरूपसे स्थितिमे रहता है, वैसे चेतनका अवस्थातररूप नाश तुझे कहना हो, तो वह किस स्थितिमे रहता है ? अथवा घटके परमाणु जैसे परमाणुसमूहमे मिल जाते है वैसे चेतन किस वस्तुमे मिलने योग्य है ? उसे खोज । अर्थात् इस तरह यदि तू अनुभव करके देखेगा तो किसीमे नही मिल सकने योग्य, अथवा परस्वरूपमे अवस्थातर नही पाने योग्य ऐ सा चेतन अर्थात् आत्मा तुझे भासमान होगा ||७०||
शका-शिष्य उवाच [आत्मा कर्मका कर्ता नही है ऐसा शिष्य कहता है -] ___कर्ता जीव न कर्मनो, कर्म ज कर्ता कर्म।
अथवा सहज स्वभाव कां, कर्म जीवनो धर्म ॥७॥ ___जीव कर्मका कर्ता नही, कर्म ही कर्मका कर्ता है, अथवा कर्म अनायास होते रहते है। यदि ऐसा न हो, और जीव ही उनका कर्ता है, ऐसा कहे तो फिर वह जीवका धर्म ही है, अर्थात् धर्म होनेसे कभी निवृत्त नही हो सकता ॥७॥
आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बंध।
- अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबंध ॥७२॥ अथवा ऐसा न हो, तो आत्मा सदा असंग है, और सत्त्व आदि गुणवाली प्रकृति कर्मका बध करती है । यदि ऐसा भी न हो तो जीवको कर्म करनेकी प्रेरणा ईश्वर करता है, इसलिये ईश्वरेच्छारूप होनेसे जीव उस कमसे 'अबंध' है ॥७२॥
माटे मोक्ष उपायनो, कोई न हेतु जणाय। .
___कर्मतणु कापणु, कां नहि, कां नहि जाय ॥७३॥ इसलिये जीव किसी तरह कमका कर्ता नही हो सकता, और मोक्षका उपाय करनेका कोई हेतु नही जान पडता। इसलिये या तो जीवको कर्मका कर्तृत्व नही है, और यदि कर्तृत्व है तो किसी तरह उसका वह स्वभाव मिटने योग्य नही है ॥७३॥
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समाधान-सद्गुरु उवाच . : [ सद्गुरु समाधान करते हैं कि कर्मका कर्तृत्व आत्माको किरा तरह ह -]
होय न चेतन प्रेरणा, कोण ग्रहे तो कर्म ?'
जडस्वभाव, नहि प्रेरणा, 'जओ विचारी धर्म ॥७४॥ १. पाठान्तर-जुओ विचारी मर्म ।
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चेतन अर्थात् आत्माकी प्रेरणारूप प्रवृत्ति न हो, तो कर्मको कौन ग्रहण करे ? जडका स्वभाव प्रेरणा नही है । जड़ और चेतन दोनोके धर्मोका विचारकर देखें ॥७४॥
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यदि चेतनकी प्रेरणा न हो, तो कर्मको कौन ग्रहण करे ? प्रेरणारूपसे ग्रहण करानेरूप स्वभाव asht हे ही नही, और ऐसा हो तो घट, पट आदिका भी क्रोध आदि भावमे परिणमन होना चाहिये और वे कर्मके ग्रहणकर्ता होने चाहिये, परतु वैसा अनुभव तो किसीको कभी भी होता नही, जिससे चेतन अर्थात् जीव कर्मको ग्रहण करता है, ऐसा सिद्ध होता है, और इसलिये उसे कर्मका कर्ता कहते है । अर्थात् इस तरह जीव कर्मका कर्ता है ।
'कर्मका कर्ता कर्म कहा जाये या नही ?' उसका भी समाधान इससे हो जायेगा कि जडकर्ममे प्रेरणारूप धर्म न होनेसे वह उस तरह कर्मका ग्रहण करनेमे असमर्थ है, और कर्मका कर्तृत्व जीवको है, क्योकि उसमे प्रेरणाशक्ति है । (७४)
जो चेतन करतु नथी, नथी थतां तो कर्म ।
तेथी सहज स्वभाव नहि, तेम ज नहि जीवधर्म ॥७५॥
वे होते है, ऐसा कहना योग्य नही है । और वह जीवका नाश नही होता, और आत्मा न करे तो कर्म नही होते, आत्माका स्वाभाविक धर्म नही है || ७५ ॥
यदि आत्मा कर्मोंको करता नही है तो वे होते नही है, इसलिये सहज स्वभावसे अर्थात् अनायास धर्म (स्वभाव) भी नही है, क्योकि स्वभावका अर्थात् यह भाव दूर हो सकता है, इसलिये यह
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केवळ होत असग जो, भासत तने न केम ? असग छे परमार्थयी, पण निजभाने तेम ॥७६॥
यदि आत्मा सर्वथा असग होता अर्थात् कभी भी आत्मा पहलेसे क्यो भासित न होता ? परमार्थसे वह हो तब होता है ॥ ७६ ॥
उसे कर्मका कर्तृत्व न होता, तो स्वयं तुझे वह आत्मा असग है, परंतु यह तो जब स्वरूपका भान
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कर्ता ईश्वर कोई नहि, ईश्वर शुद्ध स्वभाव | अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोषप्रभाव ॥७७॥
जगतका अथवा जीवोके कर्मोंका कर्ता कोई ईश्वर नही है, जिसका शुद्ध आत्मस्वभाव प्रगट हुआ है वह ईश्वर है, और यदि उसे प्रेरक अर्थात् कर्मका कर्ता मानें तो उसे दोषका प्रभाव हुआ मानना चाहिये । अत. जीवके कर्म करनेमे भी ईश्वरकी प्रेरणा नही कही जा सकती ॥७७॥
अव आपने 'वे कर्म अनायास होते हैं', ऐसा जो कहा उसका विचार करें। अनायासका अर्थ क्या है ? आत्मा द्वारा नही विचारा हुआ ? अथवा आत्माका कुछ भी कर्तृत्व होनेपर भी प्रवृत्त नही हुआ हुआ ? अथवा ईश्वरादि कोई कर्म लगा दे उससे हुआ हुआ ? अथवा प्रकृतिके बलात् लगने से हुआ हुआ 2 इन चार मुख्य विकल्पोसे अनायास कतृत्व विचारणीय है। प्रथम विकल्प आत्मा द्वारा नही विचारा हुआ, ऐसा है । यदि वैसे होता हो तो फिर कर्मका ग्रहण करना ही नही रहता, और जहाँ कर्मका ग्रहण करना न रहे वहाँ कर्मका अस्तित्व सम्भव नही है और जीव तो प्रत्यक्ष विचार करता है, और ग्रहणाग्रहण करता है, ऐसा अनुभव होता है ।
जिसमे वह किसी तरह प्रवृत्ति ही नही करता वैसे क्रोध आदि भाव उसे सप्राप्त होते ही नहीं, इससे ऐसा मालूम होता है कि न विचारे हुए अथवा आत्मासे न किये हुए ऐसे कर्मोंका ग्रहण उसे होने योग्य नही है, अर्थात् इन दोनो प्रकारसे अनायास कर्मका गहण सिद्ध नहीं होता ।
तीसरा प्रकार यह है कि ईश्वरादि कोई कर्म लगा दे, इससे अनायास कर्मका ग्रहण होता है, ऐसा कहे तो यह योग्य नही है । प्रथम तो ईश्वरके स्वरूपका निर्धारण करना योग्य है; और यह प्रसग भी
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श्रीमद् राजचन्द्र विशेष समझने योग्य है । तथापि यहाँ ईश्वर या विष्णु आदि कर्ताका किसी तरह स्वीकार कर लेते है, और उसपर विचार करते है :
यदि ईश्वर आदि कर्मोको लगा देनेवाले हो तब तो जीव नामका कोई भी पदार्थ बीचमे रहा नही, क्योकि प्रेरणा आदि धर्मके कारण उसका अस्तित्व समझमे आता था, वे प्रेरणा आदि तो ईश्वरकृत ठहरे, अथवा ईश्वरके गुण ठहरे, तो फिर वाकी जीवका स्वरूप क्या रहा कि उसे जीव अर्थात् आत्मा कहे ? इसलिये कर्म ईश्वरप्रेरित नहीं, अपितु आत्माके अपने ही किये हुए होने योग्य है।
तथा चौथा विकल्प यह है कि प्रकृति आदिके बलात् लगनेसे कम होते हो? यह विकल्प भी यथार्थ नही है । क्योकि प्रकृति आदि जड है, उन्हे आत्मा ग्रहण न करे तो वे किस तरह लगने योग्य हों ? अथवा द्रव्यकर्मका दूसरा नाम प्रकृति है, अर्थात् कर्मका कर्तृत्व कर्मको ही कहनेके समान हुआ, इसे तो पहले निषिद्ध कर दिखाया है। प्रकृति नही, तो अत करण आदि कर्म ग्रहण करते है, इससे आत्मामे कर्तृत्व आता है, ऐसा कहे, तो यह भी एकातसे सिद्ध नहीं होता। अतःकरण आदि भी चेतनकी प्रेरणाके बिना अत करण आदि रूपसे पहले ठहरे ही कहाँसे? चेतन कर्म-संलग्नताका मनन करनेके लिये जो आलबन लेता है, उसे अतःकरण कहते हैं। यदि चेतन उसका मनन न करे तो कुछ उस सलग्नतामे मनन करनेका धर्म नहीं है, वह तो मात्र जड है। चेतन चेतनकी प्रेरणासे उसका आलवन लेकर कुछ ग्रहण करता है; जिससे उसमे कर्तृत्वका आरोप होता है। परंतु मख्यत वह चेतन कर्मका कर्ता है।
यहाँ यदि आप वेदात आदि दृष्टिसे विचार करेगे तो हमारे ये वाक्य आपको भ्रातिगत पुरुषके कहे हुए लगेंगे । परंतु अब जो प्रकार कहा है, उसे समझनेसे आपको उन वाक्योकी यथार्थता मालूम होगी और भ्रातिगतता भासित नहीं होगी।
यदि किसी भी प्रकारसे आत्माका कर्मकर्तृत्व न हो तो किसी भी प्रकारसे उसका भोक्तृत्व भी सिद्ध नही होता, और जब ऐसा ही हो तो फिर उसको किसी भी प्रकारके दुखोका सम्भव ही नही होता । जब आत्माको किसी भी प्रकारके दु खोका सम्भव ही न होता हो तो फिर वेदात आदि शास्त्र सर्व दु खोके क्षयके जिस मार्गका उपदेश करते है वे किसलिये उपदेश करते है ? 'जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक दुखकी आत्यतिक निवृत्ति नही होती' ऐसा वेदात आदि कहते है, वह यदि दुख ही न हो तो उसकी निवृत्तिका उपाय किसलिये कहना चाहिये ? और कर्तृत्व न हो, तो दुखका भोक्तृत्व कहाँसे हो ? ऐसा विचार करनेसे कर्मका कर्तृत्व सिद्ध होता है।'
____ अब यहाँ एक प्रश्न होने योग्य है. और आपने भी वह प्रश्न किया है कि 'यदि आत्माको कर्मका कर्तृत्व मानें तब तो आत्माका वह धर्म सिद्ध होता है, और जो जिसका धर्म हो उसका कभी भी उच्छेद होना योग्य नहीं है, अर्थात् उससे सर्वथा भिन्न हो सकने योग्य नही है, जैसे अग्निकी उष्णता अथवा प्रकाश वैसे।' इस तरह यदि कर्मका कर्तृत्व आत्माका धर्म सिद्ध हो तो उसका नाश नही हो सकता।
उत्तर- सर्व प्रमाणाशका स्वीकार किये विना ऐसा सिद्ध होता है, परतु जो विचारवान हो वह किसी एक प्रमाणाशका स्वीकार कर दूसरे प्रमाणाशका नाश नही करता। 'उस जीवको कर्मका क़र्तृत्व. न हो', अथवा 'हो तो वह प्रतीत होने योग्य नही है।' इत्यादि किये गये प्रश्नोके उत्तरमे जीवका कर्मकर्तृत्वबताया है । कर्मका कर्तृत्व हो तो वह दूर ही नही होता, ऐसा कुछ सिद्धात समझना योग्य नहीं है, क्योकि जिस किसी भी वस्तुका ग्रहण किया हो वह छोड़ी जा सकतो है अर्थात् उसका त्याग हो सकता है, क्योकि ग्रहण की हुई वस्तुसे ग्रहण करनेवाली -वस्तुका, सर्वथा एकत्व-कैसे हो सकता है ? इसलिये जीवसे ग्रहण किये हुए ऐसे जो द्रव्य-कर्म, उनका जीव त्याग करे तो हो सकने योग्य है, क्योकि वे उसे सहकारी स्वभावसे हैं, सहज स्वभावसे नही। और उस कर्मको मैंने आपको अनादि-भ्रम कहा है, अर्थात् उस
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२९ वा वर्ष
कर्मका कर्तृत्व अज्ञानसे प्रतिपादित किया है, इससे भी वह निवृत्त होने योग्य है, ऐसा साथमे समझना योग्य है । जो जो भ्रम होता है वह वह वस्तुको विपरीत स्थितिकी मान्यतारूप होता है, और इससे वह दूर होने योग्य है, जैसे मृगजलमेसे जलवुद्धि । कहनेका हेतु यह है कि यदि अज्ञानसे भी आत्माको कर्तृत्व न हो तव तो कुछ उपदेश आदिका श्रवण, विचार, ज्ञान आदि समझनेका कोई हेतु नही रहता । अब यहाँ जीवका परमार्थसे जो कर्तृत्व है उसे कहते है । (७७)
चेतन जो निज भानमा, कर्ता आप स्वभाव। ।
___ वर्ते नहि. निज भानमा, · कर्ता कर्म-प्रभाव ॥७॥ ___' आत्मा यदि अपने शुद्ध चैतन्य आदि स्वभावमे रहे तो वह अपने उसी स्वभावका कर्ता है, अर्थात् उसी स्वरूपमे परिणमित है, और जब वह शुद्ध चैतन्य आदि स्वभावके भानमे न रहता हो तब कर्मभावका कर्ता है ॥७८॥ _ अपने स्वरूपके भानमे आत्मा अपने स्वभावका अर्थात् चैतन्य आदि स्वभावका ही कर्ता है, अन्य किसी भी कर्म आदिका कर्ता नही है, और जब आत्मा अपने स्वरूपके भानमे नही रहता तब कर्मके प्रभावका कर्ता कहा है।
. परमार्थसे तो जीव निष्क्रिय है, ऐसा वेदात आदिका निरूपण है; और जिन-प्रवचनमे भी सिद्ध अर्थात् शुद्ध आत्माको निष्क्रियता है, ऐसा निरूपण किया है। फिर भी हमने आत्माको, शुद्ध अवस्थामे कर्ता होनेसे सक्रिय कहा, ऐसा सदेह यहाँ होने योग्य है, उस सदेहको इस प्रकार शात करना योग्य हैशुद्धात्मा परयोगका, परभावका और विभावका वहाँ कर्ता नही है, इसलिये निष्क्रिय कहना योग्य है, परन्तु चेतन्य आदि स्वभावका भी आत्मा कर्ता नही है, ऐसा यदि कहे तव तो फिर उसका कुछ भी, स्वरूप नही रहता। शुद्धात्माको योगक्रिया न होनेसे वह निष्क्रिय है, परन्तु स्वाभाविक' चैतन्य आदि स्वभावरूप क्रिया होनेसे वह सक्रिय हे । चैतन्यात्मता आत्माको स्वाभाविक होनेसे उसमे आत्माका परिणमन होना एकात्मरूपसे ही है, और इसलिये परमार्थनयसे सक्रिय ऐसा विशेषण वहाँ भी आत्माको नही दिया जा सकता। निजस्वभावमे परिणमनरूप सक्रियतासे निजस्वभावका कर्तृत्व शुद्धात्माको है, इसलिये सर्वथा शुद्ध स्वधर्म होनेसे एकात्मरूपसे परिणमित होता है, इससे निष्क्रिय कहते हुए भी दोष नही है । जिस विचारसे सक्रियता, निष्क्रियता निरूपित की है, उस विचारके परमार्थको ग्रहण करके सक्रियता, निष्क्रियता कहते हुए कोई दोप नही है । (७८)
शका-शिष्य उवाच [ जोव कर्मका भोक्ता नही है ऐसा शिष्य कहता है .-] जीव कर्म कर्ता कहो, पण भोक्ता नहि सोय ।
शं समजे जड कर्म के, फळ परिणामी होय ? ॥७९॥ जीवको कर्मका कर्ता कहे तो भी उस कर्मका भोक्ता जीव नही ठहरता; क्योकि जडकर्म क्या समझे कि वह फल देनेमे परिणामी हो ? अर्थात् फलदाता हो सके ? ॥७९॥
___ फळदाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणुं सघाय।
एम को ईश्वरतणुं, ईश्वरपणं ज जाय ॥८॥ फलदाता ईश्वरको माने तो जीवका भोक्तृत्व सिद्ध किया जा सकता है, अर्थात् जीवको ईश्वर कर्म भोगवाये, इससे जीव कर्मका भोक्ता सिद्ध होता है परन्तु दूसरेको फल देने आदिको प्रवृत्तिवाला ईश्वर मानें तो उसकी ईश्वरता ही नहीं रहती, ऐसा भी फिर विरोध आता हे ||८०॥
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श्रीमद राजचन्द्र
'ईश्वर सिद्ध हुए बिना अर्थात् कर्मफलदातृत्व आदि किसी भी ईश्वर के सिद्ध हुए बिना जगतकी व्यवस्था रहना सम्भव नही है', ऐसे अभिप्राय के विषयमे निम्नलिखित विचारणीय है।
7
यदि कर्मके फलको ईश्वर देता है, ऐसा मानें तो इसमे ईश्वरकी ईश्वरता ही नही रहती, क्योकि दूसरेको फल देने आदिके प्रपचमे प्रवृत्ति करते हुए ईश्वरको देह आदि अनेक प्रकारका सग होना संभव है: और इससे यथार्थ शुद्धताका भग होता है । मुक्त जीव जैसे निष्क्रिय है अर्थात् परभाव आदिका कर्ता नहीहै, यदि परभाव आदिका कर्ता हो तब तो ससारकी प्राप्ति होती है, वैसे ही ईश्वर भी दूसरेको फल देनेरूप आदि क्रियामे प्रवृत्ति करे तो उसे भी परभाव आदिके कर्तृत्वका प्रसंग आता है, और मुक्त जीवकी अपेक्षा उसका न्यूनत्व ठहरता है, इससे तो उसकी ईश्वरताका ही उच्छेद करने जैसी स्थिति होती है।
५५६.
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फिर'जोव और ईश्वरका स्वभावभेद मानते हुए भी अनेक दोषोका सभव है । दोनोको द चैतन्यस्वभाव मानें तो दोनो समान धर्म के कर्ता हुए, उसमे ईश्वर जगत आदिकी रचना करे अथवा कर्मका फल देनेरूप कार्य करे और मुक्त गिना जाये, और जीव एक मात्र देह आदि सृष्टिकी रचना करे, और अपने कर्मोंका फल पानेके लिये ईश्वराश्रय ग्रहण करे, तथा बधनमे माना जाये, यह बात यथार्थ मालूम नही होती । ऐसी विषमता कैसे सभवित हो ?
फिर जीवको अपेक्षा ईश्वरकी सामर्थ्य विशेष मानें तो भी विरोध आता है । ईश्वरको शुद्ध चैतन्यस्वरूप मानें तो शुद्ध चैतन्य ऐसे मुक्तजीवमे और उसमे भेद नही आना चाहिये, और ईश्वरसे कर्मका फल देने आदि कार्य नही होने चाहिये, अथवा मुक्त जीवसे भी वे कार्य होने चाहिये । और यदि ईश्वरको अशुद्ध चैतन्यस्वरूप मानें तो तो ससारी जीवो जैसी उसकी स्थिति ठहरे, वहाँ फिर सर्वज्ञ आदि गुणोका सभव कहाँसे हो ? अथवा देहधारी सर्वज्ञकी भाँति उसे 'देहधारी सर्वज्ञ ईश्वर' मानें तो भी सर्व कर्मफलदातृत्वरूप 'विशेष स्वभाव' ईश्वरमे किस गुणके कारण और देह तो नष्ट होने योग्य है, इससे ईश्वरकी भी देह नष्ट हो जाये, और वह मुक्त होनेपर कर्म फलदातृत्व न रहे, इत्यादि अनेक प्रकारसे ईश्वरको कर्मफलदातृत्व कहते हुए दोष आते हैं, और ईश्वरको वैसे स्वरूपसे मानते हुए उसकी ईश्वरताका उत्थापन करनेके समान होता है । (८०)
मानना योग्य हो ?
ईश्वर सिद्ध यया विना, जगत नियम नहि होय ।
पछी शुभाशुभ कर्मनां भोग्यस्थान नहि कोय ॥८१॥
वैसा फलदाता ईश्वर सिद्ध नही होता इससे जगतका कोई नियम भी नही रहता, और शुभाशुभ '
कर्म भोगनेका कोई स्थान भी नही ठहरता, अत. जीवको कर्मका भोक्तृत्व कहाँ रहा ? ॥ ८१ ॥
समाधान — सद्गुरु उवाच
[जीवको अपने किये हुए कर्मोका भोक्तृत्व है इस प्रकार सद्गुरु समाधान करते है :] भावकर्म निज कल्पना, माटे जीववीर्यंनी स्फुरणा, ग्रहण करे
चेतनरूप |
जडधूप ॥८२॥
जीवको अपने स्वरूपकी भ्राति है वह भावकर्म है, इसलिये चेतनरूप है, और उस भ्रातिका अनुयायी होकर जीव-वीर्य स्फुरित होता है, इससे जड द्रव्य - कर्मकी वर्गणाको, वह, ग्रहण करता है ॥ ८२ ॥ .. कर्म है तो वह क्या समझे कि इस जीवको इस तरह मुझे फल देना है, अथवा उस स्वरूपसे परिणमन करना है ? इसलिये जीव कर्मका भोक्ता होना सम्भव नही हे, इस आशकाका समाधान निम्नलिखित से होगा 1
"
1
जीव अपने स्वरूप अज्ञानसे कर्मका कर्ता है । वह अज्ञान चेतनरूप है, अर्थात् जीवकी अपनी कल्पना है, और उस कल्पनाका अनुसरण करके उसके वीर्यस्वभावकी स्फूर्ति होती है, अथवा उसकी
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२९ वा वर्ष सामर्थ्य तदनुयायीरूपसे परिणमित होती है, और इससे जडकी धूप अर्थात् द्रव्य-कर्मरूप पुद्गलकी वर्गणाको वह ग्रहण करता है। (८२) ।
झेर सुधा समजे नही, जीव खाय फळ थाय।
एम शुभाशुभ कर्मनु, भोक्तापणु जणाय ॥८३॥ विष और अमृत स्वय नही जानते कि हमे इस जीवको फल देना है, तो भी जो जीव उन्हे खाता है उसे वह फल होता है, इसी प्रकार शुभाशुभ कर्म ऐसा नही जानते कि इस जीवको यह फल देना है, तो भी उन्हे ग्रहण करनेवाला जीव विष-अमृतके परिणामकी तरह फल पाता है ।।८३।।
विष और अमृत स्वय ऐसा नहीं समझते कि हमे खानेवालेको मृत्यु और दीर्घायु होती है, परन्तु जैसे उन्हे ग्रहण करनेवालेके प्रति स्वभावत उनका परिणमन होता है, वैसे जीवमे शुभाशुभ कर्म भी परिणमित होते है, और उसका फल प्राप्त होता है; इस तरह जीवका कर्मभोक्तृत्व समझमे आता है । (८३)
एक रांक ने एक नृप, ए आदि जे भेद ।
कारण विना न कार्य ते, ते ज शुभाशुभ वेद्य ॥८४॥ एक रक है और एक राजा हे, ‘ए आदि' (इत्यादि) शब्दसे नीचता, उच्चता, कुरूपता, सुरूपता ऐसी बहुतसी विचित्रताएं है, और ऐसा जो भेद रहता है अर्थात् सवमे समानता नही है, यही शुभाशुभ कर्मका भोक्तृत्व है, ऐसा सिद्ध करता है, क्योकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होती ||८४||
उस शुभाशुभ कर्मका फल न होता हो, तो एक रक और एक राजा, इत्यादि जो भेद हैं वे न होने चाहिये, क्योकि जीवत्व समान है, तथा मनुष्यत्व समान है, तो सवको सुख अथवा दुःख भी समान होना चाहिये, जिसके बदले ऐसी विचित्रता मालूम होती है, यही शुभाशुभ कर्मसे उत्पन्न हुआ भेद है; क्योकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इस तरह शुभ और अशुभ कर्म भोगे जाते है । (८४)
फळदाता ईश्वरतणी, एमां नथी जरूर ।
कर्म स्वभावे परिणमे, थाय भोगयी दूर ॥८५॥ इसमे फलदाता ईश्वरकी कुछ जरूरत नहीं है । विष और अमृतकी भाँति शुभाशुभ कर्म स्वभावसे परिणमित होते हैं, और नि सत्त्व होने पर विष और अमृत फल देनेसे जैसे निवृत्त होते है, वैसे शुभाशुभ कर्मको भोगनेसे वे नि सत्त्व होनेपर निवृत्त हो जाते है ।।८५॥
विप विषरूपसे परिणमित होता है और अमृत अमृतरूपसे परिणमित होता है, उसी तरह अशुभ कर्म अशुभरूपसे परिणमित होता है और शुभ कर्म शुभरूपसे परिणमित होता है। इसलिये जीव जिस जिस प्रकारके अध्यवसायसे कर्मको ग्रहण करता है, उस उस प्रकारके विपाकरूपसे कर्म परिणमित होता है, और जैसे विष तथा अमृत परिणामी हो जानेपर नि:सत्त्व हो जाते है, वैसे भोगसे वे कर्म दूर होते हैं । (८५)
ते ते भोग्य विशेषना, स्थानक द्रव्य स्वभाव।
गहन वात छे शिष्य आ, कही संक्षेपे साव ॥८६॥ उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय उत्कृष्ट शुभगति है, और उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय उत्कृष्ट अशभगति है, शुभाशुभ अध्यवसाय मिश्र गति है, और वह जीवपरिणाम ही मुख्यतः तो गति है। तथापि उत्कृष्ट शुभ द्रव्यका ऊर्ध्वगमन, उत्कृष्ट अशुभ द्रव्यका अधोगमन, शुभाशुभकी मध्यस्थिति, ऐसा द्रव्यका विशेष स्वभाव है। और इत्यादि हेतुओसे वे वे भोगस्थान होने योग्य हैं। हे शिष्य । जड-चेतनके स्वभाव, सयोग आदि सूक्ष्म स्वरूपका यहाँ बहुतसा विचार समा जाता है, इसलिये यह वात गहन है, तो भी उसे एकदम सक्षेपमे कहा है ॥८६॥
तथा, यदि ईश्वर कर्मफलदाता न हो अथवा उसे जगतकर्ता न मानें तो कर्म भोगनेके विशेष स्थान अर्थात नरक आदि गति-स्थान कहाँसे हो, क्योकि उसमे तो ईश्वरके कर्तृत्वको आवश्यकता है, ऐसी
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श्रीमद राजचन्द्र आशका भी करने योग्य नही है, क्योकि मुख्यत तो उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय वही उत्कृष्ट देवलोक है, और उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय वही उत्कृष्ट नरक है, शुभाशुभ अध्यवसाय मनुष्यतिर्यंच आदि गतियाँ हैं, और स्थानविशेष अर्थात् ऊर्ध्वलोकमे देवगति इत्यादि भेद है। जीवसमूहके कर्मद्रव्यके भी वे परिणामविशेष है अर्थात् वे सब गतियाँ जीवके कर्मके विशेष परिणामादिरूप है।
___यह बात अति गहन है । क्योकि अचिंत्य जीव-वीर्य, अचिंत्य पुद्गल-सामर्थ्य, इनके संयोगविशेषसे लोकका परिणमन होता है। उसका विचार करनेके लिये उसे अधिक विस्तारसे कहना चाहिये । परंतु यहाँ तो मुख्यत आत्मा कर्मका भोक्ता है इतना लक्ष्य करानेका आशय होनेसे अत्यत सक्षेपसे यह प्रसग कहा है । (८६)
शका-शिष्य उवाच [जीवका उस कर्मसे मोक्ष नही है ऐसा शिष्य कहता है -] कर्ता भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहि मोक्ष।
वोत्यो काळ अनंत पण, वर्तमान छे दोष ॥८७॥ जीव कर्ता और भोक्ता हो, परतु इससे उसका मोक्ष होना सभव नही है, क्योकि अनत काल बीत जानेपर भी कर्म करनेरूप दोष आज भी उसमे वर्तमान ही है ।।८७॥
शुभ करे फळ भोगवे, देवादि गति माय।
अशुभ करे नरकादि फळ, कर्म रहित न क्यांय ॥८॥ शुभ कर्म करे तो उससे देवादि गतिमे उसका शुभ फल भोगता है और अशुभ कर्म करे तो नरकादि गतिमे उसका अशुभ फल भोगता है, परतु जीव कर्मरहित कही भी नही हो सकता ॥८८॥ .
समाधान-सद्गुरु उवाच [उस कर्मसे जीवका मोक्षा हो सकता है ऐसा सद्गुरु समाधान करते है --]
जेम शुभाशुभ कर्मपद, जाण्यां सफळ प्रमाण।।
तेम निवृत्ति सफलता, माटे मोक्ष सुजाण ॥८९॥ जिस तरह तूने शुभाशुभ कर्म उस जीवके करनेसे होते हुए जाने, और उससे उसका भोक्तृत्व जाना, उसी तरह कर्म नही करनेसे अथवा उस कर्मकी निवृत्ति करनेसे वह निवृत्ति भी होना योग्य है, इसलिये उस निवृत्तिकी भी सफलता है, अर्थात् जिस तरह वे शुभाशुभ कर्म निष्फल नही जाते उसी तरह उनकी निवृत्ति भी निष्फल जाना योग्य नही है, इसलिये वह निवृत्तिरूप मोक्ष है ऐसा हे विचक्षण | तू विचार कर ||८||
वोत्यो काळ अनंत ते, कर्म शुभाशुभ भाव ।
तेह शुभाशुभ छेदतां, ऊपजे मोक्ष स्वभाव ॥१०॥ कर्मसहित अनतकाल बीता, वह तो उस शुभाशुभ कर्मके प्रति जीवकी आसक्तिके कारण बीता, परतु उसके प्रति उदासीन होनेसे उस कर्मफलका छेदन होता है, और उससे मोक्षस्वभाव प्रगट होता है ॥१०॥
देहादिक संयोगनो, - आत्यतिक वियोग।
सिद्ध मोक्ष शाश्वत पदे, निज अनंत सुखभोग ॥११॥ देहादि सयोगका अनुक्रमसे वियोग तो हुआ करता है, परतु उनका फिरसे ग्रहण न हो इस तरह वियोग किया जाय, तो सिद्धस्वरूप मोक्षस्वभाव प्रगट होता है, और शाश्वतपदमे अनत आत्मानद भोगा जाता है ॥२१॥
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२९ यो वर्ष
शका - शिष्य उवाच
[ मोक्षका उपाय नही है ऐसा शिष्य कहता है - ]
होय कदापि मोक्षपद, नहि अविरोध उपाय । - कर्मो काळ अनतनां, शायी छेद्यां जाय ? ॥९२॥
मोक्षपद कदाचित्' हो तो भी वह प्राप्त होने का कोई अविरोधी अर्थात् यथातथ्य प्रतीत हो ऐसा उपाय मालूम नही होता, क्योकि अनतकाल के कर्म हैं, उनका ऐसी अल्पायुवाली मनुष्यदेहसे छेदन कैसे किया जाये ? ||९२ ॥
अथवा मत दर्शन घणां, कहे उपाय अनेक ।
तेमां मत साचो कयो, बने न एह विवेक ॥९३॥
अथवा कदाचित् मनुष्यदेहकी अल्पायु आदिकी शका छोड़ दे, तो भी मत और दर्शन बहुत से है, और वे मोक्षके अनेक उपाय कहते है, अर्थात् कोई कुछ कहता है और कोई कुछ कहता है उनमे कौनसा मत सच्चा है, यह विवेक नही हो सकता ||९३||
कई जातिमां मोक्ष छे, कया वेषमा मोक्ष । एनो निश्चय ना बने, घणा भेद ए दोष ॥ ९४ ॥
ब्राह्मण आदि किस जातिमे मोक्ष है, अथवा किस वेषमे मोक्ष है, इसका निश्चय भी नही हो सकने जैसा है, क्योकि वैसे अनेक भेद है, और इस दोषसे भी मोक्षका उपाय प्राप्त होने योग्य दिखायी नहीं देता ॥९४॥
इससे ऐसा लगता है जान से भी क्या उपकार हो अशक्य दिखायी देता है ॥९५॥
तेथी एम जणाय छे, मळे न मोक्ष उपाय | जीवादि जाण्या तणो शो उपकार ज थाय ? ॥९५॥
५५९
कि मोक्षका उपाय प्राप्त नही हो सकता, इसलिये जीव आदिका स्वरूप ? अर्थात् जिस पदके लिये जानना चाहिये उस पदका उपाय प्राप्त होना
पांचे उत्तरथी थयु, समाधान सर्वांग |
समजुं मोक्ष उपाय तो, उदय उदय सद्भाग्य ॥९६॥
आपने जो पाँचो उत्तर कहे हैं, उनसे मेरी शकाओका सर्वांग अर्थात् सर्वथा समाधान हुआ है, परतु यदि मै मोक्षका उपाय समझू तो सद्भाग्यका उदय उदय हो । यहाँ 'उदय' 'उदय' शब्द दो बार कहा है, वह पाँच उत्तरोके समाधानसे हुई मोक्षपदकी जिज्ञासाकी तीव्रता प्रदर्शित करता है || ९६ ॥
समाधान-सद्गुरु उवाच
[मोक्षका उपाय हैं ऐसा सद्गुरु समाधान करते हैं --] पाचे उत्तरनी थई, आत्मा विषे प्रतीत ।
थाशे मोक्षोपायनी, सहज प्रतीत ए रीत ॥९७॥ ॥
जिस तरह तेरे आत्मामे पाँचो उत्तरोकी प्रतीति हुई है, उसी तरह तुझे मोक्षके उपायको भी सहज प्रतीति होगी । यहाँ 'होगी' और 'सहज' ये दो शब्द सद्गुरुने कहे हैं, वे यह बतानेके लिये कहे हैं कि जिसे पाँच पदोकी शंका निवृत्त हो गयी है उसके लिये मोक्षोपाय समझना कुछ कठिन ही नही है, तथा शिष्यकी विशेष जिज्ञासावृत्ति जानकर उसे अवश्य मोक्षोपाय परिणमित होगा, ऐसा भासित होनेसे ( वे शब्द ) कहे हैं, ऐसा सद्गुरुके वचनका आशय है ||१८||
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५६०
श्रीमद राजचन्द्र
कर्मभाव अज्ञान छे, मोक्षभाव निजवास।
अंधकार अज्ञान सम, नाशे ज्ञानप्रकाश ॥९८॥ जो कर्मभाव है वह जीवका अज्ञान है और जो मोक्षभाव है वह जीवकी अपने स्वरूपमे स्थिति होना है । अज्ञानका स्वभाव अधकार जैसा है । इसलिये जैसे प्रकाश होते ही बहुतसे कालका अधकार होनेपर भी वह नष्ट हो जाता है, वैसे ज्ञानका प्रकाश होते ही अज्ञान भी नष्ट हो जाता है ||९८॥
जे जे कारण बंधनां, -तेह बंधनो पंथ ।
ते कारण छेदक दशा, मोक्षपंथ भवअंत ॥१९॥ जो जो कर्मबंधके कारण हैं, वे वे कर्मबधके मार्ग है, और उन कारणोका छेदन करनेवाली जो दशा है वह मोक्षका मार्ग है, भवका अत है ॥९५||
राग, द्वेष, अज्ञान ए, मुख्य कर्मनी ग्रंथ ।
थाय निवृत्ति जेहथी, तेज मोक्षनो पंथ ॥१०॥ राग, द्वेष और अज्ञान इनका एकत्व कर्मकी मुख्य गाँठ है, अर्थात् इनके बिना कमंका बध नहीं होता; जिससे उनकी निवृत्ति हो, वही मोक्षका मार्ग है ॥१०॥
आत्मा सत् चैतन्यमय, सर्वाभास रहित ।
जेथी केवळ पामिये, मोक्षपंथ ते रीत ॥१०१॥ 'सत्' अर्थात् 'अविनाशी', और 'चैतन्यमय' अर्थात् 'सर्वभावको प्रकाशित करनेरूप स्वभावमय', 'अन्य सर्व विभाव और देहादि संयोगके आभाससे रहित ऐसा', 'केवल' अर्थात् 'शुद्ध आत्मा' प्राप्त करें इस प्रकार प्रवृत्ति की जाये वह मोक्षमार्ग है ॥१०१॥
कर्म अनंत प्रकारनां, तेमां मुख्ये आठ।
तेमां मुख्ये मोहनीय, हणाय ते कहुं पाठ ॥१०२॥ कर्म अनत प्रकारके है, परन्तु उनके ज्ञानावरण आदि मुख्य आठ भेद होते हैं। उनमे भी मुख्य मोहनीय कर्म है । उस मोहनीय कर्मका नाश जिस प्रकार किया जाये, उसका पाठ कहता हूँ॥१०२॥
कर्म मोहनीय भेद बे, दर्शन चारित्र नाम ।
हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥१०॥ उस मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-एक 'दर्शनमोहनीय' अर्थात् 'परमार्थमे अपरमार्थबुद्धि और अपरमार्थमे परमार्थबुद्धिरूप', दूसरा 'चारित्रमोहनीय', 'तथारूप परमार्थको परमार्थ जानकर आत्मस्वभावमे जो स्थिरता हो, उस स्थिरताके रोधक पूर्वसस्काररूप कषाय और नोकषाय', यह चारित्रमोहनीय है।
आत्मबोध दर्शनमोहनीयका और वीतरागता चारित्रमोहनीयका नाश करते है । इस तरह वे उसके अचूक उपाय हैं, क्योकि मिथ्याबोध दर्शनमोहनीय है, उसका प्रतिपक्ष सत्यात्मबोध है । और चारित्रमोहनीय रागादिक परिणामरूप है, उसका प्रतिपक्ष वीतरागभाव है । अर्थात् जिस तरह प्रकाश होनेसे अधकारका नाश होता है, वह उसका अचूक उपाय है, उसी तरह बोध और वीतरागता दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप अंधकारको दूर करनेमे प्रकाशस्वरूप हैं, इसलिये वे उसके अचूक उपाय हैं ।।१०३।। . कर्मबंध क्रोधादिथी, हणे क्षमादिक तेह।
प्रत्यक्ष अनुभव सर्वने, एमा शो संदेह ? ॥१०४॥ क्रोधादि भावसे कर्मबर होता है, और क्षमादि भावसे उसका नाश होता है, अर्थात् क्षमा रखनेसे क्रोध रोका जा सकता है, सरलतासे माया रोकी जा सकती है, सतोषसे लोभ रोका जा सकता है, इसी तरह रति, अरति आदिके प्रतिपक्षसे वे वे दोष रोके जा सकते है, यही कर्मबधका निरोध है, और यही
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२९वों वर्षे
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उसकी निवृत्ति है। तथा इस बातका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है अथवा सभी इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी कर सकते हैं । क्रोधादि रोकनेसे रुकते है, और जो कर्मवधको रोकता है, वह अकर्मदशाका मार्ग है। यह मार्ग परलोकमे नही, परंतु यही अनुभवमे आता है, तो फिर इसमे सदेह क्या करना ? ॥१०४॥
छोडी मत दर्शन तणो, आग्रह तेम विकल्प।
कह्यो मार्ग आ साधशे, जन्म तेहना अल्प ॥१०५॥ यह मेरा मत है, इसलिये मुझे इससे चिपटा ही रहना चाहिये, अथवा यह मेरा दर्शन है, इसलिये चाहे जैसे मुझे उसे सिद्ध करना चाहिये, ऐसे आग्रह अथवा ऐसे विकल्पको छोड़कर, यह जो मार्ग कहा है, इसका जो साधन करेगा, उसके अल्प जन्म समझना।
यहाँ 'जन्म' शब्दका बहुवचनमे प्रयोग किया है, वह इतना ही बतानेके लिये कि क्वचित् वे साधन अधूरे रहे हो उससे, अथवा जघन्य या मध्यम परिणामकी धारासे आराधित हुए हो, उससे सर्व कर्मोका क्षय न हो सकनेसे दूसरा जन्म होना सभव है; परतु वे बहुत नही, बहुत ही अल्प । 'समकित आनेके पश्चात् यदि जीव उसका वमन न करे तो अधिकसे अधिक पद्रह भव होते है', ऐसा जिनेश्वरने कहा है, और 'जो उत्कृष्टतासे उसका आराधन करे उसका उसी भवमें भी मोक्ष होता है', यहाँ इस बातका विरोध नहीं है ।।१०५||
षट्पदनां षट्प्रश्न तें, पूछयां करी विचार।
ते पदनी सर्वांगता, मोक्षमार्ग निर्धार ॥१०६॥ हे शिष्य | तूने छ पदोके छ प्रश्न विचार कर पूछे है, और उन पदोकी सर्वांगतामे मोक्षमार्ग है, ऐसा निश्चय कर । अर्थात् उसमेसे किसी भी पदका एकान्तसे या अविचारसे उत्थापन करनेसे मोक्षमार्ग सिद्ध नही होता ॥१०॥
जाति, वेषनो भेद नहि, कह्यो मार्ग जो होय ।
साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय ॥१०७॥ जो मोक्षका मार्ग कहा है, वह हो तो चाहे जिस जाति या वेपसे मोक्ष होता है, इसमे कोई भेद नहीं है । जो साधन करे वह मुक्तिपद पाता है, और उस मोक्षमे भी अन्य किसी प्रकारके ऊँच, नीच आदि भेद नहीं है, अथवा ये जो वचन कहे है उनमे कोई दूसरा भेद या अतर नही है ॥१०७॥
कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष ।
भवे खेद अंतर दया, ते कहोए जिज्ञास ॥१०॥ क्रोध आदि कषाय जिसके पतले पड गये हैं, जिसके आत्मामे मात्र मोक्ष पानेके सिवाय अन्य कोई इच्छा नही है, और ससारके भोगके प्रति उदासीनता रहती है, तथा अंतरमे प्राणियो पर दया रहती है, उस जीवको मोक्षमार्गका जिज्ञासु कहते है, अर्थात् उसे मार्ग प्राप्त करनेके योग्य कहते हैं ॥१०८||
ते जिज्ञासु जीवने, थाय सद्गुरुबोध ।
तो पामे समकितने, वर्ते अतरशोध ॥१०९।। उस जिज्ञासु जीवको यदि सद्गुरुका उपदेश प्राप्त हो जाये तो वह समकितको प्राप्त होता है, और अतरको शोधमे रहता है ॥१०९।।
__ मत दर्शन आग्रह तजो, वर्ते सद्गुरुलक्ष ।
लहे शुद्ध समकित ते, जेमां भेद न पक्ष ॥११॥ मत और दर्शनका आगह छोड़कर जो सद्गुरुके लक्ष्यमे प्रवृत्त होता है, वह शुद्ध समकित पाता है कि जिसमे भेद तथा पक्ष नहीं है ॥११०॥
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५६२
श्रीमद् राजचन्द्र वर्ते निज स्वभावनो, अनुभव लक्ष प्रतीत।
वृत्ति बहे निजभावमां, परमार्थे समकित ॥१११॥ जहाँ आत्मस्वभावका अनुभव, लक्ष्य, और प्रतीति रहती है, तथा वृत्ति आत्माके स्वभावमे बहती है, वहाँ परमार्थसे समकित है ॥१११॥
वर्धमान समकित थई, टाळे मिथ्याभास ।
उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास ॥११२॥ वह समकित, बढती हुई धारासे हास्य, शोक आदिसे जो कुछ आत्मामे मिथ्याभास भासित हुआ है, उसे दूर करता है, और स्वभाव समाधिरूप चारित्रका उदय होता है, जिससे सर्व रागद्वेषके क्षयरूप वीतरागपदमे स्थिति होती है ॥११२।।
केवळ निजस्वभावर्नु, अखंड वर्ते ज्ञान ।
___ कहीए केवळज्ञान ते, देह छतां निर्वाण ॥११३॥ जहाँ सर्व आभाससे रहित आत्मस्वभावका अखड अर्थात् कभी भी खड़ित न हो, मंद न हो, नष्ट न हो ऐसा ज्ञान रहे, उसे केवलज्ञान कहते हैं, जिस केवलज्ञानको पानेसे उत्कृष्ट जीवन्मुक्तदशारूप निर्वाण, देहके रहते हुए भी यही अनुभवमे आता है ॥११३।।
___ कोटि वर्षतुं स्वप्न पण, जाग्रत थतां शमाय।
तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय ॥११४॥ करोड़ों वर्षका स्वप्न हो तो भी जाग्रत होनेपर तुरत शात हो जाता है, उसी तरह अनादिका जो विभाव है, वह आत्मज्ञान होनेपर दूर हो जाता है ॥११४।।।
छूट देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म।
नहि भोक्ता तु तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म ॥११५॥ हे शिष्य | देहमे जो आत्मभाव मान लिया है, और उसके कारण स्त्री, पुत्र आदि सर्वमे अहताममता रहती है, वह आत्मभाव यदि आत्मामे हो माना जाये, और वह देहाध्यास अर्थात् देहमे आत्मबुद्धि तथा आत्मामे देहबुद्धि है, वह छूट जाये, तो तु कर्मका कर्ता भी नही है और भोक्ता भी नही है, और यही धर्मका मर्म है ॥११५॥
ए ज धर्मयो मोक्ष छ, तुंछो मोक्ष स्वरूप ।
अनंत दर्शन ज्ञान तु, अव्याबाध स्वरूप ॥११६॥ इसी धर्मसे मोक्ष है, और तू ही मोक्षस्वरूप है, अर्थात् शुद्ध आत्मपद ही मोक्ष है । तु अनत ज्ञान दर्शन तथा अव्यावाध सुखस्वरूप है ।।११६।।
शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन, स्वयंज्योति सुखधाम।
बोजुं कहोए केटलु? कर विचार तो पाम ॥११७॥ तू देह आदि सब पदार्थोंसे भिन्न है। किसीमे आत्मद्रव्य मिलता नही है, कोई द्रव्य उसमे मिलता नही है। परमार्थसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे सदा ही भिन्न है, इसलिये तू शुद्ध है, बोधस्वरूप है, चैतन्यप्रदेशात्मक है, स्वयज्योति अर्थात् कोई भी तुझे प्रकाशित नही करता है, स्वभावसे ही तू प्रकाशस्वरूप है, और अव्यावाध सुखका धाम है। और कितना कहे ? अथवा अधिक क्या कहे ? सक्षेपमे इतना ही कहते हैं कि यदि तू विचार करेगा तो उस पदको पायेगा ||११७||
निश्चय सर्वे ज्ञानीनो, आवी अत्र समाय । घरी मौनता एम कही, सहजसमाधि माय ॥११॥
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२९ वा वर्ष
५६३
सर्व ज्ञानियोका निश्चय यहाँ आकर समा जाता है, ऐसा कहकर सद्गुरु मौन धारण कर सहज समाधिमे स्थित हुए, अर्थात् उन्होने वाणी योगकी प्रवृत्ति बद कर दी ॥११८|| ..
शिष्यबोधबीजप्राप्तिकथन सद्गुरुना उपदेशथी, आव्यु अपूर्व भान ।
निजपद निजमांही ला , दूर थयु अज्ञान ॥११९॥ __शिष्यको सद्गुरुके उपदेशसे अपूर्व अर्थात् पहले कभी प्राप्त नही हुआ था ऐसा भान आया, और उसे अपना स्वरूप अपनेमे यथातथ्य भासित हुआ; और देहात्मबुद्धिरूप अज्ञान दूर हुआ ॥११९॥
भास्यु निजस्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप ।
अजर, अमर, अविनाशी ने, देहातीत स्वरूप ॥१२०॥ अपना स्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वरूप, अजर, अमर, अविनाशी और देहसे स्पष्ट भिन्न भासित हुआ ॥१२०॥
कर्ता भोक्ता कर्मनो, विभाव वर्ते ज्यांय ।
वृत्ति वही निजभावमा, थयो अकर्ता त्यांय ॥१२१॥, जहाँ विभाव अर्थात् मिथ्यात्व है, वहाँ मुख्य नयसे कर्मका कर्तृत्व और भोक्तृत्व है, आत्मस्वभाव मे वृत्ति बही, उससे अकर्ता हुआ ।।१२१।।
अथवा निजपरिणाम जे, शुद्ध चेतनारूप।
कर्ता भोक्ता तेहनो, निर्विकल्प स्वरूप ॥१२२॥ अथवा आत्मपरिणाम जो शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, उसका निर्विकल्परूपसे कर्ता-भोक्ता हुआ ॥१२२॥
मोक्ष को निजशुद्धता, ते पामे ते पथ।
समजाव्यो सक्षेपमां, सकळ मार्ग निग्रंथ ॥१२३॥ आत्माका जो शुद्ध पद है वह मोक्ष है और जिससे वह प्राप्त किया जाये, वह उसका मार्ग है, श्री सद्गुरुने कृपा करके निग्रंथका सारा मार्ग समझाया ॥१२३।।
अहो ! अहो! श्री सद्गुरु, करुणा सिंधु अपार ।
आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो ! अहो! उपकार ॥१२४॥ अहो | अहो । करुणाके अपार समुद्रस्वरूप, आत्मलक्ष्मीसे युक्त सद्गुरु, आप प्रभुने इस पामर जीवपर आश्चर्यकारक उपकार किया है ॥१२४॥
शं प्रभु चरण कने धरु, आत्माथी सौ हीन।
ते तो प्रभुए आपियो, वतुं चरणाधीन ॥१२५॥ मै प्रभके चरणोमे क्या रखें ? (सद्गुरु तो परम निष्काम है, केवल निष्काम करुणासे मात्र उपदेशके दाता है, परतु शिष्यने शिष्यधर्मानुसार यह वचन कहा है। ) जगतमे जो जो पदार्थ हैं वे सव आत्माकी अपेक्षासे मल्यहीन जैसे हैं, वह आत्मा तो जिसने दिया उसके चरणोमे मैं अन्य क्या रखू ? मैं केवल उपचारसे इतना करनेको समर्थ हूँ कि मै एक प्रभुके चरणोंके ही अधीन रहे ॥१२५॥
आ देहादि आजथी, वर्तो प्रभु आधीन।
दास, दास हु दात छु, तेह प्रभुनो दोन ॥१२६॥ यह देड, 'आदि' शब्दसे जो कुछ मेरा माना जाता है, वह आजसे सद्गुरु प्रभुके अधीन रहे । मैं उस प्रभुका दास हूँ, दास हूँ दीनदास हूं ||१२६।।
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श्रीमद राजचन्द्र
षट् स्थानक समजावीने, भिन्न बताव्यो आप । म्यान थकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप ॥ १२७॥
छहो स्थानक समझाकर हे सद्गुरुदेव । आपने देहादिसे आत्माको, जैसे म्यानसे तलवार अलग कालकर दिखाते है वैसे स्पष्ट भिन्न बताया । आपने ऐसा उपकार किया जिसका माप नही हो
कता ॥१२७॥
૪
उपसहार
दर्शन पटे समाय छे, आ षट् स्थानक मांही ।
विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न कांई ॥१२८॥
छहो दर्शन इन छ स्थानकोमे समा जाते है । इनका विशेषतासे विचार करनेसे किसी भी कारका सशय नही रहता ॥ १२८||
आत्मभ्राति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण ।
गुरुआज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान ॥ १२९ ॥
आत्माको अपने स्वरूपका भान न होने के समान दूसरा कोई रोग नही है, सद्गुरुके समान उसका ोई सच्चा अथवा निपुण वैद्य नही है, सद्गुरुकी आज्ञामे चलने के समान और कोई पथ्य नही है, और चार तथा निदिध्यासनके समान उस रोगका कोई औपध नही हे || १२९||
जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थं ।
भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो नहि आत्मार्थं ॥१३०॥
यदि परमार्थकी इच्छा करते हो तो सच्चा पुरुषायं करो, और भवस्थिति आदिका नाम लेकर मार्थका छेदन न करो ॥१३०॥
निश्चयवाणी साभळी, साधन तजवां नो'य |
निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवा सोय ॥ १३१ ॥
आमा अवध है, असग है, सिद्ध है, ऐसी निश्चय प्रधान वाणीको सुनकर साधनोका त्याग करना ग्य नही है । परन्तु तथारूप निश्चयको लक्ष्यमे रखकर साधन अपनाकर उस निश्चय स्वरूपको प्राप्त करना चाहिये ||१३१||
नय निश्चय एकांतथी, आमा नयी कहेल ।
एकाते व्यवहार नहि, बन्ने साथ रहेल ॥१३२॥
यहाँ एकातसे निश्चयनय नही कहा है, अथवा एकातसे व्यवहारनय नही कहा है, दोनो जहाँ जहाँ जिस तरह घटित होते हैं उस तरह साथ साथ रहे हुए हैं ॥१३२॥
गच्छमती जे कल्पना, ते नहि सद्व्यवहार ।
भान नहीं निजरूपनं, ते निश्चय नहि सार ॥१३३॥
१ इस 'आत्म सिद्धिशास्त्र' की रचना श्री सोभागभाई आदिके लिये हुई थी, यह इस अतिरिक्त गाथासे आलम होगा ।
श्री
सुभाग्य ने श्री अचळ, आदि मुमुक्षु काज ।
तथा भव्यहित कारणे, कह्यो बोध सुखसाज ॥
भावार्थ - श्री सुभाग्य तथा श्री अचल (डुगरसी भाई) आदि मुमुक्षुओके लिये तथा भव्यजीवोके हितके लिये वह सुखदायक उपदेश दिया है ।
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२९ वो वर्ष
५६५ गच्छ-मतकी जो कल्पना है वह सद्व्यवहार नहीं है, परन्तु आत्मार्थीके लक्षणोमे जो दशा कही है __ और मोक्षोपायमे जिज्ञासुके जो लक्षण आदि कहे हैं, वे सद्व्यवहार है, जिसे यहाँ तो सक्षेपमे कहा है।
अपने स्वरूपका भान नही है, अर्थात् जिस तरह देह अनुभवमे आती है उस तरह आत्माका अनुभव नही हुआ है, देहाध्यास रहता है, और जो वैराग्य आदि साधन प्राप्त किये बिना निश्चय निश्चय चिल्लाया करता है, वह निश्चय सारभूत नही है ।।१३३।।
आगळ ज्ञानी थई गया, वर्तमानमा होय।
थाशे काळ भविष्यमां, मार्गभेद नहि कोय ॥१३४॥ भूतकालमे जो ज्ञानीपुरुष हो गये है, वर्तमानकालमे जो हैं, और भविष्यकालमे जो होगे, उनके मार्गमे कोई भेद नही है, अर्थात् परमार्थसे उन सबका एक मार्ग है, और उसे प्राप्त करने योग्य व्यवहार भी, उसी परमार्थके साधकरूपसे देश, काल आदिके कारण भेद कहा हो, फिर भी एक फलका उत्पादक होनेसे उसमे भी परमार्थसे भेद नही है ।।१३४॥
. सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय।
सद्गुरुआज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण मांय ॥१३५॥ सब जीवोमे सिद्धके समान सत्ता है, परन्तु वह तो जो समझता हे उसे प्रगट होती है। उसके प्रगट होनेमे ये दो निमित्त कारण हैं-सद्गुरुको आज्ञासे प्रवृत्ति करना और सद्गुरु द्वारा उपदिष्ट जिनदशाका विचार करना ॥१३५॥
उपादानतुं नाम लई, ए जे तजे निमित्त।
पामे नहि सिद्धत्वने, रहे भ्रांतिमा स्थित ॥१३६॥ सद्गुरुकी आज्ञा आदि उस आत्मसाधनमे निमित्त कारण है, और आत्माके ज्ञान-दर्शन आदि उपादान कारण है, ऐसा शास्त्रमे कहा है, इससे उपादानका नाम लेकर जो कोई उस निमित्तका त्याग करेगा वह सिद्धत्वको प्राप्त नही करेगा, और भ्रातिमे रहा करेगा, क्योकि सच्चे निमित्तके निषेधके लिये शास्त्रमे उस उपादानकी व्याख्या नही कही है, परन्तु उपादानको अजाग्रत रखनेसे सच्चा निमित्त मिलनेपर भी काम नही होगा, इसलिये सच्चा निमित्त मिलनेपर उस निमित्तका अवलम्बन लेकर उपादानको सन्मुख करना और पुरुषार्थरहित नही होना ऐसा शास्त्रकारकी कही हुई व्याख्याका परमार्थ है ।।१३६||
मुखथी ज्ञान कथे अने, अंतर् छूट्यो न मोह।
ते पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीनो द्रोह ॥१३७॥ मुखसे निश्चय-प्रधान वचन कहता है, परतु अतरसे अपना ही मोह नही छूटा, ऐसा पामर प्राणी मात्र ज्ञानी कहलवानेकी कामनासे सच्चे ज्ञानीपुरुषका द्रोह करता है ॥१३७॥
दया, शाति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य।
होय मुमुक्षु घट विषे, एह सदाय सुजाग्य ॥१३८॥ दया, शाति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग और वैराग्य ये गुण मुमुक्षुके घटमे सदा ही जाग्रत रहते हैं, अर्थात् इन गुणोके बिना मुमुक्षुता भी नही होती ।।१३८॥
मोहभाव क्षय होय ज्या, अथवा होय प्रशात।
ते कहोए ज्ञानोदशा, वाकी कहीए भ्रांत ॥१३९॥ जहाँ मोहभावका क्षय हुआ हो, अथवा जहाँ मोहदशा अति क्षीण हुई हो, वहाँ ज्ञानीकी दशा कहो जाती है और बाकी तो जिसने अपनेमे ज्ञान मान लिया है उसे भ्राति कहते हैं ॥१३९|
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श्रीमद राजचन्द्र
सकळ जगत ते एठवत्, अथवा स्वप्न समान।
ते कहीए ज्ञानीदशा, बाकी वाचाज्ञान ॥१४०॥ जिसने समस्त जगतको जूठनके समान जाना है, अथवा जिसे ज्ञानमे जगत स्वप्नके समान लगता है, वह ज्ञानीकी दशा है, बाकी मात्र वाचाज्ञान अर्थात् कथनमात्र ज्ञान है ॥१४०।।
स्थानक पांच विचारीने, छठे वर्ते जेह।
पामे स्थानक पांचमुं, एमां नहि संदेह ॥१४॥ पाँचो स्थानकोका विचारकर जो छटे स्थानकमे प्रवृत्ति करता है, अर्थात् उस मोक्षके जो उपाय कहे है, उनमे प्रवृत्ति करता है, वह पाँचवें स्थानक अर्थात् मोक्षपदको पाता है ॥१४१||
देह छता जेनी दशा, वर्ते देहातीत।
ते ज्ञानीना चरणमा, हो वंदन अगणित ॥१४२॥ पूर्वप्रारब्धयोगसे जिसे देह रहती है, परतु उस देहसे अतीत अर्थात् देहादिकी कल्पनासे रहित आत्मामय जिसकी दशा रहती है, उस ज्ञानीपुरुपके चरणकमलमे अगणित बार वदन हो ॥१४२||
*साधन सिद्ध दशा अहीं, कही सर्व सक्षेप । षट्दर्शन संक्षेपमा, भाख्यां निविक्षेप ॥
श्रीसद्गुरुचरणार्पणमस्तु ।
७१९ नडियाद, आसोज वदी १०, शनि, १९५२ आत्मार्थी, मुनिपथाभ्यासी श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी आदिके प्रति, श्री स्तंभतीर्थ ।
पत्र प्राप्त हुआ था। श्री सद्गुरुदेवके अनुग्रहसे यहाँ समाधि है ।
इसके साथ एकातमे अवगाहन करनेके लिये 'आत्मसिद्धिशास्त्र' भेजा है। वह अभी श्री लल्लुजीको अवगाहन करना योग्य है।
श्री लल्लुजी अथवा श्री देवकरणजीको यदि जिनागमका विचार करनेकी इच्छा हो तो 'आचाराग' 'सूयगडाग', 'दशवकालिक', 'उत्तराध्ययन' और 'प्रश्नव्याकरण' विचारणीय हैं।
'आत्मसिद्धिशास्त्र' का अवगाहन श्री देवकरणजीके लिये भविष्यमे अधिक हितकारी समझकर, अभी मात्र श्री लल्लजीको उसका अवगाहन करनेके लिये लिखा है, फिर भी यदि श्री देवकरणजीकी अभी विशेप आकाक्षा रहती हो तो उन्हे भी, प्रत्यक्ष सत्पुरुष जैसा मुझपर किसीने परमोपकार नही किया है, ऐसा अखड निश्चय आत्मामे लाकर, और इस देहके भविष्य जीवनमे भी उस अखड निश्चयको छोड दूं तो मैंने आत्मार्थका ही त्याग कर दिया और सच्चे उपकारीका कृतघ्न बननेका दोष किया, ऐसा ही समझूगा, और सत्पुरुपका नित्य आज्ञाकारी रहनेमे ही आत्माका कल्याण है, ऐसा, भिन्नभावरहित, लोकसवधी दूसरे प्रकारकी सर्व कल्पना छोडकर, निश्चय लाकर, श्री लल्लुजी मुनिके सान्निध्यमे यह ग्रथ अवगाहन करनेमे अभी भी आपत्ति नही है। बहुत-सी शकाओका समाधान होने योग्य है।
___ सत्पुरुपकी आज्ञामे चलनेका जिसका दृढ निश्चय है और जो उस निश्चयका आराधन करता है, उसे ही ज्ञान सम्यक् परिणामी होता है, यह बात आत्मार्थी जीवको अवश्य ध्यानमे रखना योग्य है । हमने जो ये वचन लिखे हैं, उसके सर्व ज्ञानीपुरुष साक्षी है।
भावार्थ-यहाँ सब साधन ओर सिद्ध दशा सक्षेपमें कहे हैं, और सक्षेपमें विशेपरहित पड्दर्शन बताये हैं।
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२९ वॉ वर्ष
५६
दूसरे मुनियोको भी जिस जिस प्रकारसे वैराग्य, उपशम और विवेककी वृद्धि हो, उस उस प्रकार श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजीको उन्हे यथाशक्ति सुनाना और प्रवृत्ति कराना योग्य है । तथा अन्य जी भी आत्मार्थके सन्मुख हो, और ज्ञानीपुरुपकी आज्ञाके निश्चयको प्राप्त करें तथा विरक्त परिणामको प्रा करें, रसादिकी लुब्धता मद करें इत्यादि प्रकारसे एक आत्मार्थके लिये उपदेश कर्तव्य है ।
अनंतबार देहके लिये आत्माका उपयोग किया है। जिस देहका आत्माके लिये उपयोग होगा उ देहमे आत्मविचारका आविर्भाव होने योग्य जानकर, सर्व देहार्थकी कल्पना छोडकर, एक मात्र आत्मार्थ ही उसका उपयोग करना, ऐसा निश्चय मुमुक्षुजीवको अवश्य करना चाहिये । यही विनती ।
सर्व मुमुक्षुओको नमस्कार प्राप्त हो ।
शिरछत्र श्री पिताजी,
७२०
श्री सहजात्मस्वरूप
नडियाद, आसोज वदी १२, सोम, १९५
आपकी चिट्ठी आज मिली है। आपके प्रतापसे यहाँ सुखवृत्ति है ।
बंबईसे इस ओर आनेमे केवल निवृत्तिका हेतु है, शरीरकी बाधासे इस तरफ आना हुआ हो ऐस नही है । आपकी कृपासे शरीर ठीक रहता है। बवईमे रोगके उपद्रवके कारण आपकी तथा रेवाशकरभाई की आज्ञा होनेसे इस ओर विशेष स्थिरता की है, और इस स्थिरतामे आत्माको विशेषत निवृत्ति रहे है । अभी बबईमे रोगकी शाति बहुत कुछ हो गयी है, संपूर्ण शाति हो जानेपर उस ओर जानेका विचार रखा है, और वहाँ जाने के बाद प्राय भाई मनसुखको आपकी ओर कुछ समयके लिये भेजनेका चित्त है. जिससे मेरी माताजीके मनको भी अच्छा लगेगा। आपके प्रतापसे पैसा कमानेका प्रायः लोभ नही है. परतु आत्माका परम कल्याण करनेकी इच्छा है । मेरी माताजीको पादवदन प्राप्त हो । बहिन झवक तथा भाई पोपट आदिको यथायोग्य ।
बालक रायचदके दडवत् प्राप्त हो
७२१
नदियाद, आसोज वदी ३०, १९५२
श्री डुगरको 'आत्मसिद्धि' कठस्थ करनेकी इच्छा है । उसके लिये वह प्रति उन्हे देनेके बारेमे पूछा है, तो वैसा करनेमे आपत्ति नही है । श्री डुगरको यह शास्त्र कण्ठस्थ करनेकी आज्ञा है, परतु अभी उसकी दूसरी प्रति न लिखते हुए इस प्रतिसे ही कण्ठस्थ करना योग्य है, और अभी यह प्रति आप श्री डुगरको दोजियेगा । उन्हे कहियेगा कि कंठस्थ करनेके बाद वापस लौटायें, परन्तु दूसरी
नकल न करे ।
जो ज्ञान महा निर्जराका हेतु होता है वह ज्ञान अनधिकारी जीवके हाथमे जानेसे उसे प्राय अहितकारी होकर परिणत होता है ।
श्री सोभागके पाससे पहले कितने ही पत्रोकी नकल किसी किसी अनधिकारोके हाथमे गयी है । पहले उनके पाससे किसी योग्य व्यक्तिके पास जाती है और बादमे उस व्यक्तिके पाससे अयोग्य व्यक्ति के पास जाती है ऐसा होनेकी सभावना हमारे जाननेमे हैं । "आत्मसिद्धि" के सवधमे आप दोनोमेसे किसीको आज्ञाका उल्लघन कर बरताव करना योग्य नही है । यही विनती ।
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५७२
श्रीमद् राजचन्द्र
उत्कृष्टसे उत्कृष्ट व्रत, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट तप, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट नियम, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट लब्धि, और उत्कृष्टसे उत्कृष्ट ऐश्वर्य ये जिसमे सहज ही समाविष्ट हो जाते हैं ऐसे निरपेक्ष अविषम उपयोगको नमस्कार । यही ध्यान है।
७३६ ववाणिया, पौष सुदी ११, बुध, १९५३ रागद्वेषके प्रत्यक्ष बलवान निमित्त प्राप्त होनेपर भी जिनका आत्मभाव किंचित् मात्र भी क्षोभको प्राप्त नही होता, उन ज्ञानीके ज्ञानका विचार करते हुए भी महती निर्जरा होती है, इसमे सशय नही है।
७३७ ववाणिया, पौष वदी ४, शुक्र, १९५३ आरम्भ और परिग्रहका इच्छापूर्वक प्रसग हो तो आत्मलाभको विशेष घातक है, और वारवार अस्थिर एवं अप्रशस्त परिणामका हेतु है, इसमे तो सशय नही है, परन्तु जहाँ अनिच्छासे उदयके किसी एक योगसे वह प्रसग रहता हो वहाँ भी आत्मभावकी उत्कृष्टताको बाधक तथा आत्मस्थिरताको अतराय करनेवाला, वह आरम्भ-परिग्रहका प्रसग प्राय होता है, इसलिये परम कृपालु ज्ञानीपुरुषोने त्यागमार्गका उपदेश दिया है, वह मुमुक्षुजीवको देशसे और सर्वथा अनुसरण करने योग्य है।
७३८
ववाणिया, सं० १९५३*
+ अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
क्यारे थईशं बाह्यांतर निग्रंथ जो ? सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरशुकव महत्पुरुषने पंथ जो ? ॥ अपूर्व० १॥ सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते सयमहेतु होय जो; अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो ॥ अपूर्व० २॥ दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोध जे, देह भिन्न केवल चैतन्यनु ज्ञान जो; तेथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकिये, ।
वत एवु शुद्धस्वरूपy ध्यान जो॥ अपूर्व० ३॥ - * इस काव्यका निर्णीत समय नही मिलता।
भावार्थ-ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा कि जब मैं वाह्य तथा अभ्यतरसे निग्रंथ बनूँगा ? सर्व सवधोके वधनका तीक्ष्णतासे छेदनकर महापुरुषोके मार्गपर कब चलूगा ॥१॥ ,
मन सभी परभावोके प्रति सर्वथा उदासीन हो जाये, देह भी केवल सयमसाधनाके लिये ही रहे, किसी सासारिक प्रयोजनके लिये किसी भी वस्तुको इच्छा न करें, और फिर देहमें भी किंचित्मात्र मूर्छा न रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥२॥
दर्शनमोह व्यतीत होकर देहसे भिन्न केवल चैतन्यस्वरूपका बोधरूप ज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे चारित्रमोह प्रक्षीण हुआ दिखाई देता है, ऐसा शुद्ध स्वरूपका ध्यान जहाँ रहता है ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥३॥
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५७१
३० वो वर्ष आत्मस्थिरता प्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते, देहपर्यन्त जो घोर परीषह के उपसर्ग भये करी, आवो शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जो॥ अपूर्व० ४ ॥ संयमना हेतुथी योगप्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिनआज्ञा आधीन जो; ते पण क्षण क्षणघटती जाती स्थितिमां, अंते थाये निजस्वरूपमा लोन जो ॥ अपूर्व०५॥ पंच विषयमा रागद्वेष विरहितता, पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ, भाव प्रतिबध वण, विचरवु उदयाधीन पण वीतलोभ जो ॥ अपूर्व० ६॥ क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोधस्वभावता, मान प्रत्ये तो दोनपणानु मान जो; माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभ प्रत्ये नहीं लोभ समान जो॥ अपूर्व०७॥ बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण-क्रोध नहीं, वदे चक्री तथापि न मळे मान जो; देह जाल पण माया थाय न रोममां, लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो ॥ अपूर्व०८॥
मन, वचन और कायाके तीन योगोकी प्रवृत्तिको निरुद्ध करके ध्यानमग्न होनेसे वह आत्मस्थिरता मुख्यत देहपर्यंत अखड बनी रहती है तथा घोर परिपहसे अथवा उपसर्गके भयसे उस स्थिरताका अन्त नही आ सकताऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥४॥
सयमके हेतुसे ही तोन योगोकी प्रवृत्ति होती है और वह भी जिनाज्ञाके अनुसार आत्मस्वरूपमें अखड स्थिर रहनेके लक्ष्यसे होती है तथा वह प्रवृत्ति भी प्रति क्षण' घटती हुई स्थितिमें होती है ताकि अन्तमें निजस्वरूपमे लीन हो जाये । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥५॥
पाँच इन्द्रियोके विषयोमे रागद्वेष नही रहता, (१) इन्द्रिय (२) विकया, (३) कषाय, (४) स्नेह ओर (निदा इन पाँच प्रमादोसे मनमें किसी प्रकारका क्षोभ नही होता तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके प्रतिवन्धके बिना ही लोभरहित होकर उदयवशात् विचरण होता है ऐसा अपूर्व अवसर क, आयेगा?॥६॥
. क्रोधके प्रति क्रोध स्वभावता अर्थात् क्रोधके प्रति क्रोध करनेको वृत्ति रहती है, मानके प्रति अपनी दोनताका मान होता है. मायाके प्रति साक्षीभावकी माया रहती है अर्थात् माया पनी हो तो साक्षीभावकी माया को जाये, लोभके प्रति उसके समान लोभ नहीं रहता अर्थात् लोभ करना हो तो लोभ जैसा न हुआ जाये-लोभका लोभ न किया जाये । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥७॥
व उपसर्ग करनेवालेके प्रति भी क्रोध नहीं आता, यदि चक्रवर्ती वदन करे तो भी लेश मात्र मान उत्पन्न नहीं होता, देहका नाश होता हो तो भी एक रोममें भी माया उत्पन्न नहीं होती, चाहे जैसी प्रवल प्रादिसिद्धि प्रगट हो तो भी उसका लेशमाय लोभ नही होता-ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा?|||
mmenouhi
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५७०
श्रीमद् राजचन्द्र हो, उसका भरण-पोषण मात्र मिलता हो तो उसमे सतोष करके मुमुक्षुजीव आत्महितका ही विचार करता है, तथा पुरुषार्थ करता है। देह और देहसम्बन्धी कुटुम्बके माहात्म्यादिके लिये परिग्रह आदिकी परिणामपूर्वक स्मृति भी नहीं होने देता, क्योकि उस परिग्रह आदिकी प्राप्ति आदि कार्य ऐसे हैं कि वे प्राय. आत्महितके अवसरको ही प्राप्त नही होने देते।
७२७ ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १, शनि, १९५३
ॐ सर्वज्ञाय नमः ___ अल्प आयु और अनियत प्रवृत्ति, असीम बलवान असत्सग, पूर्वकी प्राय अनाराधकता, बलवीर्यकी हीनता ऐसे कारणोसे रहित कोई ही जीव होगा, ऐसे इस कालमे, पूर्वकालमे कभी भी न जाना हुआ, प्रतीत न किया हुआ, आराधित न किया हुआ और स्वभावसिद्ध न हुआ हुआ ऐसा "मार्ग" प्राप्त करना दुष्कर हो इसमे आश्चर्य नही है । तथापि जिसने उसे प्राप्त करनेक सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य रखा ही नही वह इस कालमे भी अवश्य उस मार्गको प्राप्त करता है ।
मुमुक्षुजीव लौकिक कारणोमे अधिक हर्ष-विषाद नहीं करता ।
७२८ . ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी ६, गुरु, १९५३ श्री माणेकचदकी देहके छूट जानेके समाचार जानें ।
सभी देहधारी जीव मरणके समीप शरणरहित है । मात्र उस देहके यथार्थ स्वरूपको पहलेसे जानकर, उसके ममत्वका छेदन कर निजस्थिरताको अथवा ज्ञानीके मार्गको यथार्थ प्रतीतिको प्राप्त हुए हैं वे ही जीव उस मरणकालमे शरणसहित होकर प्राय फिरसे देह धारण नहीं करते, अथवा मरणकालमे देहके ममत्वभावकी अल्पता होनेसे भी निर्भय रहते हैं। देह छूटनेका काल अनियत होनेसे विचारवान पुरुष अप्रमादभावसे पहलेसे ही उसके ममत्वको निवृत्त करनेके अविरुद्ध उपायका साधन करते हैं, और यही आपको, हमे और सवको ध्यान रखना योग्य है । प्रीतिबधनसे खेद होना योग्य है, तथापि इसमे दूसरा कोई उपाय न होनेसे, उस खेदको वैराग्यस्वरूपमे परिणमन करना ही विचारवानका कर्तव्य है।
७२९ ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १०, सोम, १९५३
सर्वज्ञाय नमः __ 'योगवासिष्ठ' के पहले दो प्रकरण, 'पचीकरण', 'दासबोध' तथा 'विचारसागर' ये ग्रन्थ आपको विचार करने योग्य हैं। इनमेसे किसी ग्रन्थको आपने पहले पढा हो तो भी पूनः पढने योग्य है और विचार करने योग्य है । ये ग्रथ जैनपद्धतिके नही हैं, यह जानकर उन ग्रन्थोका विचार करते हुए क्षोभ प्राप्त करना योग्य नही है।
लोकदृष्टिमे जो जो वाते या वस्तुएँ-जैसे शोभायमान गृहादि आरम्भ, अलकारादि परिग्रह, लोकदृष्टिको विचक्षणता, लोकमान्य धर्मकी श्रद्धा-बडप्पनवाली मानी जाती है उन सब बातो और वस्तुओंका ग्रहण करना प्रत्यक्ष जहरका ही ग्रहण करना है यो यथार्थ समझे बिना आप जिस वृत्तिका लक्ष्य करना चाहते हैं वह नही होता। पहले इन बातो और वस्तुओंके प्रति जहरदृष्टि आना कठिन देखकर कायर न होते हुए पुरुषार्थ करना योग्य है ।
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३० वो वर्ष
५७१
७३० - ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १२, १९५३
सर्वज्ञाय नमः 'आत्मसिद्धि' की टीकाके पन्ने मिले है।
यदि सफलताका मार्ग समझमे आ जाये तो इस मनुष्यदेहका एक समय भी सर्वोत्कृष्ट चिंतामणि है, इसमे सशय नही है।
७३१ ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १२, १९५३
सर्वज्ञाय नमः वृत्तिका लक्ष्य तथारूप सर्वसगपरित्यागके प्रति रहनेपर भी जिस मुमुक्षुको प्रारब्धविशेषसे उस योगका अनुदय रहा करता है, और कुटु व आदिके प्रसग तथा आजीविका आदिके कारण प्रवृत्ति रहती है, जो यथान्याय करनी पड़ती है, परन्तु उसे त्यागके उदयको प्रतिबधक जानकर खिन्नताके साथ करता है, उस मुमुक्षुको, पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मानुसार आजीविकादि प्राप्त होगी, ऐसा विचारकर मात्र निमित्तरूप प्रयत्न करना योग्य है, परन्तु भयाकुल होकर चिंता या न्यायत्याग करना योग्य नहीं है, क्योकि वह तो मात्र व्यामोह है, इसे शात करना योग्य है। प्राप्ति शुभाशुभ प्रारब्धानुसार हे । प्रयत्न व्यावहारिक निमित्त है, इसलिये करना योग्य है, परन्तु चिंता तो मात्र आत्मगुणरोधक है।
७३२ ववाणिया, मार्गशीर्ष वदी ११, बुध, १९५३ श्री लल्लुजी आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो।
आरम्भ तथा परिग्रहकी प्रवृत्ति आत्महितको बहुत प्रकारसे रोचक है, अथवा सत्समागमके योगमे एक विशेष अतरायका कारण समझकर ज्ञानीपुरुषोने उसके त्यागरूप बाह्यसयमका उपदेश दिया है, जो प्रायः आपको प्राप्त है। फिर आप यथार्थ भावसयमको अभिलाषासे प्रवृत्ति करते है, इसलिये अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ समझकर सत्शास्त्र, अप्रतिबधता, चित्तको एकाग्रता और सत्पुरुषोके वचनोको अनुप्रेक्षा द्वारा उसे सफल करना योग्य है।
७३३ ववाणिया, मार्गशीर्ष वदी ११, बुध, १९५३ वैराग्य और उपशमकी वृद्धिके लिये 'भावनाबोध', 'योगवासिष्ठ' के पहले दो प्रकरण, 'पचीकरण' इत्यादि ग्रन्थ विचार करने योग्य है।
जीवमे प्रमाद विशेष है, इसलिये आत्मार्थके कार्यमे जीवको नियमित होकर भी उस प्रभादको दूर करना चाहिये, अवश्य दूर करना चाहिये ।
७३४ वाणिया, मार्गशीर्ष वदी ११, बुध, १९५३ श्री सभाग्य आदिके प्रति लिखे गये पत्रोमेसे जो परमार्थ सम्बन्धी पत्र हो उनको अभी हो सके तो एक अलग प्रति लिखियेगा।
सोराष्ट्रमे अभी कब तक स्थिति होगी, यह लिखना अशक्य है। यहाँ अभी थोडे दिन स्थिति होगी ऐसा सम्भव है।
७३५ ववाणिया, पौष सुदी १०, मगल, १९५३ विषमभावके निमित्त प्रबलतासे प्राप्त होनेपर भी जो ज्ञानीपुरुष अविषम उपयोगमे रहे है रहते है, ओर भविष्यकालमे रहेगे उन सबको वारवार नमस्कार ।
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श्रीमद राजचन्द्र
उत्कृष्टसे उत्कृष्ट व्रत, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट तप, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट नियम, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट लब्धि, और उत्कृष्टसे उत्कृष्ट ऐश्वर्य ये जिसमे सहज ही समाविष्ट हो जाते है ऐसे निरपेक्ष अविषम उपयोगको नमस्कार । यही ध्यान है ।
५७२
७३६
वाणिया, पौष सुदी ११, बुध, १९५३ रागद्वेषके प्रत्यक्ष बलवान निमित्त प्राप्त होनेपर भी जिनका आत्मभाव किंचित् मात्र भी क्षोभको प्राप्त नही होता, उन ज्ञानीके ज्ञानका विचार करते हुए भी महती निर्जरा होती है, इसमे सराय नही है ।
७३७
वाणिया, पौष वदी ४, शुक्र, १९५३ विशेष घातक है, और वारवार जहाँ अनिच्छासे उदयके किसी
आरम्भ और परिग्रहका इच्छापूर्वक प्रसग हो तो आत्मलाभको अस्थिर एवं अप्रशस्त परिणामका हेतु है, इसमे तो सशय नहीं है, परन्तु एक योगसे वह प्रसग रहता हो वहाँ भी आत्मभावकी उत्कृष्टताको बाधक तथा आत्मस्थिरताको अ करनेवाला, वह आरम्भ-परिग्रहका प्रसंग प्राय होता है, इसलिये परम कृपालु ज्ञानीपुरुषोने त्यागमार्गका उपदेश दिया है, वह मुमुक्षुजीवको देशसे और सर्वथा अनुसरण करने योग्य है ।
ववाणिया, स० १९५३*
७३८ ॐ
+ अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?
क्यारे थईशु बाह्यातर निर्ग्रथ जो ? सर्व संबंधनं बंधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरशु कव महत्पुरुषने पथ जो ? ॥ अपूर्व ० १ ॥ सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो; अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो ॥ अपूर्व० २ ॥
दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोध जे,
देह भिन्न केवल चैतन्यनु ज्ञान जो;
तेथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकिये, वतें एव शुद्धस्वरूपनुं ध्यान जो ॥ अपूर्व० ३ ॥
* इस काव्यका निर्णीत समय नही मिलता ।
+ भावार्थ - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा कि जब मैं बाह्य तथा अम्यतरसे निग्रंथ बनूँगा ? सर्व सबधोके वघनका तीक्ष्णतासे छेदनकर महापुरुपोके मार्गपर कब चलूगा ? ॥१॥
मन सभी परभावोके प्रति सर्वथा उदासीन हो जाये, देह भी केवल सयंमसाधनाके लिये ही रहे, किसी सासारिक प्रयोजनके लिये किसी भी वस्तुकी इच्छा न करें, और फिर देहमे भी किंचित्मात्र मूर्च्छा न रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥२॥
दर्शनमोह व्यतीत होकर देहसे भिन्न केवल चैतन्यस्वरूपका बोधरूप ज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे चारित्रमोह प्रक्षीण हुआ दिखाई देता है, ऐसा शुद्ध स्वरूपका व्यान जहाँ रहता है ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥ ३ ॥
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५७
३० वो वर्ष आत्मस्थिरता अण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते, देहपर्यन्त जो घोर परीषह के उपसर्ग भये करी, आवो शके नही ते स्थिरतानो अंत जो॥ अपूर्व० ४॥ संयमना हेतुथी योगप्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिनआज्ञा आधीन जो; ते पण क्षण क्षणघटती जातो स्थितिमां, अंते थाये निजस्वरूपमां लीन जो ॥ अपूर्व० ५॥ पंच विषयमां रागद्वेष विरहितता, पच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ, भाव प्रतिबघ वण, विचर उदयाधीन पण वीतलोभ जो ॥ अपूर्व० ६॥ क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोधस्वभावता, मान प्रत्ये तो दोनपणानु मान जो; माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभ प्रत्ये नहीं लोभ समान जो॥ अपूर्व०७॥ बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं, वदे चक्री तथापि न मळे मान जो;
वेह जा पण माया थाय न रोममां, . लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो ॥ अपूर्व०८॥
मन, वचन और कायाके तीन योगोकी प्रवृत्तिको निरुद्ध करके ध्यानमग्न होनेसे वह आत्मस्थिरता मुख्यत देहपर्यंत अखड बनी रहती है तथा घोर परिपहसे अथवा उपसर्गके भयसे उस स्थिरताका अन्त नही आ सकताऐसा अपूर्व अवसर कव आयेगा ? ॥४॥
सयमके हेतुसे ही तीन योगोकी प्रवृत्ति होती है और वह भी जिनाज्ञाके अनुसार आत्मस्वरूपमें अखड स्थिर रहने के लक्ष्यसे होती है तथा वह प्रवृत्ति भी प्रति क्षण घटती हुई स्थितिमें होती है ताकि अन्तमे निजस्वरूपमें लीन हो जाये । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥५॥
पाँच इन्द्रियो के विषयोमें रागद्वेष नही रहता, (१) इन्द्रिय (२) विकया, (३) कपाय, (४) स्नेह और (५) निद्रा इन पांच प्रमादोसे मनमें किसी प्रकारका क्षोभ नही होता तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके प्रतिवन्धक बिना ही लोभरहित होकर उदयवशात् विचरण होता है ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥६॥
क्रोधके प्रति क्रोध स्वभावता अर्थात् क्रोधके प्रति क्रोध करनेकी वृत्ति रहती है, मानके प्रति अपनी दीनताका मान होता है, मायाके प्रति साक्षीभावकी माया रहती है अर्थात् माया पनी हो तो साक्षीभावकी माया की जाये, लोभले पनि उसके समान लोभ नही रहता अर्थात् लोभ करना हो तो लोभ जैसा न हुआ जाये-लोभका लोभ न किया जाये । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा? ॥७॥
बत उपसर्ग करनेवालेके प्रति भी क्रोध नहीं आता, यदि चक्रवर्ती वदन करे तो भी लेश मात्र मान उत्पन्न नही होता, देहका नाश होता हो तो भी एक रोममें भी माया उत्पन्न नही होती, चाहे जैसी प्रवल आदिसिदि प्रगट हो तो भी उसका लेशमात्र लोन नहीं होता-ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥८॥
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१७६
श्रीमद् राजचन्द्र सादि अनत अनंत समाधिसूखमां. अनंत , दर्शन, ज्ञान अनंत सहित जो॥ अपूर्व० १९॥ जे पद श्री सर्वज्ञे दीठं ज्ञानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शु कहे ? अनुभवगोचर मात्र रह्य ते ज्ञान जो ॥ अपूर्व० २०॥ एह परमपद प्राप्तिनु कर्यु ध्यान मे, गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो; तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभुआज्ञा थाशुं ते ज स्वरूप जो ॥ अपूर्व० २१॥ ७३९
मोरबी, माघ सुदी ९, बुध, १९५३ मुनिजीके प्रति,
ववाणिया पत्र मिला था । यहाँ शुक्रवारको आना हुआ है । यहाँ कुछ दिन स्थिति संभव है।
नडियादसे अनुक्रमसे किस क्षेत्रकी ओर विहार होना सभव है, तथा श्री देवकीर्ण आदि मुनियोका कहाँ एकत्र होना संभव है, यह सूचित कर सकें तो सूचित करनेकी कृपा कीजियेगा।
द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे यो चारो प्रकारसे अप्रतिवधता, आत्मतासे रहनेवाले निग्रंथके लिये कही है, यह विशेष अनुप्रेक्षा करने योग्य है। '
अभी किन शास्त्रोका विचार करनेका योग रहता है, यह सूचित कर सके तो सूचित करनेकी कृपा कीजियेगा। - श्री देवकीर्ण-आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो ।
७४०
मोरवी, माघ सुदी ९, बुध, १९५३ 'आत्मसिद्धि' का विचार करते हुए आत्मा संबंधी कुछ भी अनुप्रेक्षा रहती है या नही ? यह लिख सकें तो लिखियेगा।
कोई पुरुष स्वय विशेष सदाचारमे तथा सयममे प्रवृत्ति करता है, उसके समागममे आनेके इच्छुक जीवोको, उस पद्धतिके अवलोकनसे जैसा सदाचार तथा संयमका. लाभ होता है, वैसा लाभ प्राय विस्तृत उपदेशसे भी नही होता, यह ध्यानमे रखने योग्य है।
__७४१ . मोरबी, माघ सुदी, १०, शुक्र, १९५३
सर्वज्ञाय नमः यहाँ कुछ दिन तक स्थिति होना संभव है।
श्री सर्वज्ञ भगवानने इस पदको अपने ज्ञानमें देखा, परतु वे भी इसे नही कह सके । तो फिर अन्य अल्पज्ञकी वाणीसे उस स्वरूपको कैसे कहा जा सके ? यह ज्ञान तो मात्र अनुभवगोचर ही है ॥२०॥
मैंने इस परमपदकी प्राप्तिका ध्यान किया है। उसे प्राप्त करनेकी शक्ति प्रतीत नही होता, इसलिये अभी तो यह मनोरथरूप है । तो भी राजचद्र कहते हैं कि हृदयमें यह निश्चय रहता है कि प्रभुको आज्ञाका आराधन करनेसे उसी परमात्मस्वरूपको प्राप्त करेंगे ॥२१॥ ।
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३० वो वर्ष
५७७
अभी ईडर जानेका विचार रखते हैं। तैयार रहे। श्री डुगरको आनेके लिये विनती करें। उन्हे भी तैयार रखें। उनके चित्तमे यो आये कि वारवार जाना होनेसे लोकापेक्षामे योग्य नही दिखायी देता। क्योकि उम्रमे अतर | परतु ऐसा विचार करना योग्य नही है।
परमार्थदृष्टि पुरुषको अवश्य करने योग्य ऐसे समागमके लाभमे यह विकल्परूप अंतराय कर्तव्य नही है। इस बार समागमका विशेष लाभ होना योग्य है । इसलिये श्री डुगरको अन्य सभी विकल्प छोड़कर आनेका विचार रखना चाहिये।
श्री डुगर तथा लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य । आनेके बारेमे श्री डुगरको कुछ भी सशय न रखना योग्य है।
७४२
मोरबी, माघ वदी ४, रवि, १९५३ संस्कृतका परिचय न हो तो कीजियेगा।
जिस तरह अन्य मुमुक्षुजीवोके चित्तमे और जगमे निर्मल भावकी वृद्धि हो उस तरह प्रवृत्ति कर्तव्य है। नियमित श्रवण कराया जाये तथा आरभ-परिग्रहके स्वरूपको सम्यक् प्रकारसे देखते हुए, वे निवृत्ति और निर्मलताको कितने प्रतिबधक है यह बात चित्तमे दृढ हो ऐसी परस्परमे ज्ञानकथा हो यह कर्तव्य है।
___७४३ ' मोरबी, माघ वदी ४, रवि, १९५३ "सकळ संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे।
मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निष्कामी रे॥'-मुनि श्री आनदघनजी तीनो पत्र मिले थे। अभी लगभग पद्रह दिनसे यहाँ स्थिति है। अभी यहाँ कुछ दिन और रहना संभव है।
पत्राकाक्षा और दर्शनाकाक्षा मालूम हुई है। अभी पन आदि लिखनेमे बहुत ही कम प्रवृत्ति हो सकती है। समागमके बारेमे अभी कुछ भी उत्तर लिखना अशक्य है।
श्री लल्लुजी और श्री देवकरणजी 'आत्मसिद्धिशास्त्र' का विशेपत मनन करें। दूसरे मनियोको भी प्रश्नव्याकरण आदि सूत्र सत्पुरुषके लक्ष्यसे सुनाये जायें तो सुनायें।
श्री सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य । ७४४ ववाणिया, माघ वदी १२, शनि, १९५३ ते माट ऊभा करजोडी, जिनवर आगळ कहीए रे।
समयचरण सेवा शुद्ध देजो, जेम मानदधन लहीए रे ॥-मुनि श्री आनदघनजी 'कर्मग्रथ' नामका शास्त्र है, उसे अभी आदिसे अंत तक पढनेका, सुननेका और अनुप्रेक्षा करनेका परिचय रख सकें तो रखियेगा। अभी उसे पढने और सुननेमे नित्य प्रति दो से चार घडा नियमपूर्वक व्यतीत करना योग्य है।
१ भावार्थ-सव ससारी जीव इन्द्रियसुखमें ही रमण करनेवाले हैं, और केवल मुनिजन ही आत्मरामी है। जो मुल्यतासे आत्मरामी होते है वे निष्कामी कहे जाते हैं।
२ भावार्य-इस कारण में हाथ जोड खडा रहकर जिनेंद्र भगवानसे प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे शास्त्रानसार चारित्रको शुद्ध सेवा प्रदान करें, जिससे मैं जानदघन-मोक्ष प्राप्त करूं ।
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५७४
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श्रीमद् राजचन्द्र
नग्नभाव, मुण्डभाव सह अस्नानता, अदतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो; केश, रोम, नख के अगे शृंगार नही,
द्रव्यभाव सयममय, निग्रंथ सिद्ध जो ॥ अपूर्व० ९ ॥
ان
समदर्शिता,
शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते मान अमाने वर्ते ते ज जीवित के मरणे नही न्यूनाधिकता,
स्वभाव जो;
भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो ॥ अपूर्व० १० ॥
एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां, वळी पर्वतमां वाघ सिंह संयोग जो;
अडोल आसन, ने मनमां नही क्षोभता, परम मित्रानो जाणे पाम्या योग जो ॥ अपूर्व ० ११ ॥
घोर तपश्चर्यामां पण मनने ताप नहीं,
सरस अन्ने नही मनने प्रसन्नभाव जो; रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी,
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो ॥ अपूर्व० १२ ॥ एम पराजय करीने चारित्रमोहनो,
आ त्या ज्या करण अपूर्व भाव जो; श्रेणी क्षपकतणी करीने आरूढता, अनन्य चितन अतिशय शुद्धस्वभाव जो ॥ अपूर्व० १३ ॥ मोह स्वयंभूरमण समुद्र तरी करी,
स्थिति त्यां ज्यां क्षीण मोह गुणस्थान जो; -
दिगवरता, केशलुचन, स्नान तथा दत-धावनका त्याग, केश, रोम, नख ओर शरीरका श्रृंगार न करना इत्यादि अत्यधिक प्रसिद्ध मुनिचर्यासे वाह्य त्यागरूप द्रव्यसयम और कषायादिकी निवृत्तिरूप भावसयमसे पूर्ण निग्रंथ अवस्था प्राप्त हो - ऐसा - अपूर्व अवसर कव आयेगा ? ॥९॥
जहाँ शत्रुमित्रके प्रति समदर्शिता है, मान-अपमान में समभाव है, जीवन और मरणमें न्यूनाधिकताका भाव नही है तथा जहाँ ससार और मोक्षमे भी शुद्ध समभाव है--ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१०॥
और स्मशान आदि निर्जन स्थानमे अकेले विचरते हुए, पर्वत, वन आदिमें बाघ, सिंह आदि क्रूर एव हिंसक प्राणियोका सयोग होनेपर भी मनमें जरा भी क्षोभ न हो; प्रत्युत ऐसा समझें कि मानो परम मित्र मिले हैं, ऐसी आत्मदृष्टिसे उनके समीपमें भी निर्भय एव स्थिर आसनसे ध्यानमग्न रहूँ - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥११॥ घोर तपश्चर्यामें भी मनुको सताप न हो, स्वादिष्ट भोजनसे मनमें प्रसन्नता न हो, रजकण और वै देवकी ऋद्धिमे अन्तर न मानूँ —— दोनोको समान समझू । तत्त्वदृष्टिसे खाद्य पदार्थ, धूल और वैमानिक देवकी घन - सपत्ति सभी पुद्गलरूप ही हैं । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१२॥
इस प्रकार आत्मस्थिरता विघ्नभूत कषाय -- नोकषायरूप · चारित्रमोहका पराजय करके आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानकी प्राप्ति हो, जिससे मोहनीयकर्मका क्षय करनेमें सुमर्थ क्षपकश्रेणीपर आरूढ होकर आत्माके अतिशय शुद्ध
स्वभाव के अनन्य चिन्तनमें तल्लीन हो जाऊँ । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१३॥
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३० वॉ वर्ष
अंत समय त्यां पूर्णस्वरूप वीतराग थई, प्रगटा निज केवळ ज्ञान निधान जो ॥ अपूर्व० १४ ॥ चार कर्म घनधाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवना वीजतणो आत्यंतिक नाश जो; सर्व भाव ज्ञाता द्रष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो ॥ अपूर्व० १५ ॥ वेदनीयादि चार कर्म वर्ते जहां, बळी सोदरीवत् आकृति मात्र जो; ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छे, आयुष पूर्णे, मटिये दैहिक पात्र जो ॥ अपूर्व० १६ ॥ मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा,
छूटे जहां सकळ पुद्गल संबंध जो; एवं अयोगी गुणस्थानक त्या वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो ॥ अपूर्व० १७ ॥ एक परमाणु मात्रनी मळे न स्पर्शता, पूर्ण कलंक रहित अडोल स्वरूप जो; शुद्ध निरजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहजपदरूप जो ॥ अपूर्व ० १८ ॥ योगयी,
पूर्वप्रयोगादि कारणना ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो;
1
५७५
मोहरूपी स्वयंभूरमण समुद्रको पार करके क्षीणमोह नामके बारहवें गुणस्थानमें आकर रहें, और वहां अतर्मुहूर्तमें पूर्ण वीतरागस्वरूप होकर अपने केवलज्ञानकी निधिको प्रगट करूँ । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ||१४|| जहाँ चार घनघाती कर्मों - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय का नाश हो जाता है, वहाँ ससारके वीजका आत्यतिक नाश हो जाता है ऐसे अनत चतुष्टयरूप परमात्मपदकी प्राप्ति हो, और सर्व भावोका शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा होकर कृतकृत्यदशा प्रगटे और अनत वीर्यका प्रकाश हो - ऐसा अपूर्व अवसर कव आयेगा ? ॥ ९५ ॥
जहाँपर-तेरहवें गुणस्थानमें जली हुई रस्सीकी आकृतिके समान वेदनीय आदि चार अघाती कर्म ही शेष रह जाते है, उनकी स्थिति देहायुके अधीन है, और आयु-कर्मके नाश होनेपर उनका भी नाश हो जाता है, जिससे शरीर धारण करना ही नही रहता - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥ १६ ॥
जहा मन, वचन, काया ओर कर्मकी वर्गणारूप समस्त पुद्गलोका सवध छूट जाता है, ऐसे अयोगी गुणस्थानमें अल्प समय रहकर महाभाग्य स्वरूप अनत सुखदायक पूर्णं अवघपद - मुक्तपद प्राप्त हो । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१७॥
अयोगी गुणस्थान में एक परमाणु मात्रका भी स्पर्श-वध नही होता । यह स्वरूप कर्मरूप कलक रहित ओर प्रदेशोके निष्कपनसे अचल शुद्ध सहज आत्मस्वरूप है। ऐसी शुद्ध, निरजन, चेतन्यमूर्ति एक आत्मामय, अगुरु
लघु और अमूर्त सहजात्मस्वरूपदशा प्रगट हो - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१८॥
पूर्वप्रयोगादि कारणोके योगसे ऊर्ध्वगमन कर सादि-अनत समाविसुलसे पूर्ण और अनत ज्ञान-दर्शनसहित सिद्धपदमें सुस्थित हो—ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥ १९ ॥
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५७६
श्रीमद राजचन्द्र सादि अनत अनंत समाघिसुखमां, अनंत दर्शन, ज्ञान अनंत सहित जो॥ अपूर्व० १९॥ जे पद श्री सर्वज्ञे दीर्छ ज्ञानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शु कहे ? अनुभवगोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो ॥ अपूर्व० २०॥ एह परमपद प्राप्तिनु कयुं ध्यान मे, गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो; तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभुमाज्ञामे थाशुं ते ज स्वरूप जो ॥ अपूर्व० २१॥
मोरबी, माघ सुदी ९, बुध, १९५३ मुनिजीके प्रति,
ववाणिया पत्र मिला था । यहाँ शुक्रवारको आना हुआ है। यहाँ कुछ दिन स्थिति सभव है।
नडियादसे अनुक्रमसे किस क्षेत्रकी ओर विहार होना सभव है, तथा श्री देवकीर्ण आदि मुनियोका कहाँ एकत्र होना सभव है, यह सूचित कर सके तो सूचित करनेकी कृपा कीजियेगा।
द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे यो चारो प्रकारसे अप्रतिबंधता, आत्मतासे रहनेवाले निग्रंथके लिये कही है, यह विशेष अनुप्रेक्षा करने योग्य है।
___अभी किन शास्त्रोका विचार करनेका योग रहता है, यह सूचित कर सकें तो सूचित करनेकी कृपा कीजियेगा। - श्री देवकीर्ण-आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो ।
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मोरबी, माघ सुदी ९, बुध, १९५३ ' 'आत्मसिद्धि' का विचार करते हुए आत्मा सबधी कुछ भी अनुप्रेक्षा रहती है या नहीं ? यह लिख सकें तो लिखियेगा।
___ कोई पुरुष स्वय विशेष सदाचारमे तथा सयममे प्रवृत्ति करता है, उसके समागममे आनेके इच्छुक जीवोको, उस पद्धतिके अवलोकनसे जैसा सदाचार तथा सयमका लाभ होता है, वैसा लाभ प्राय विस्तृत उपदेशसे भी नही होता, यह ध्यानमे रखने योग्य है।
७४१ मोरबी, माघ सुदी, १०, शुक्र, १९५३
- सर्वज्ञाय नमः यहाँ कुछ दिन तक स्थिति होना सभव है।
श्री सर्वज्ञ भगवानने इस पदको अपने ज्ञानमें देखा, परतु वे भी इसे नहीं कह सके । तो फिर अन्य अल्पज्ञकी वाणीसे उस स्वरूपको कैसे कहा जा सके ? यह ज्ञान तो मात्र अनुभवगोचर ही है ॥२०॥ ।
मैने इस परमपदको प्राप्तिका ध्यान किया है। उसे प्राप्त करनेकी शक्ति प्रतीत नही होतो, इसलिये अभी तो यह मनोरथरूप है । तो भो राजचंद्र कहते हैं कि हृदयमें यह निश्चय रहता है कि प्रभुको आज्ञाका आराधन करनेसे उसी परमात्मस्वरूपको प्राप्त करेंगे ॥२१॥
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३० वॉ वर्ष
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अभी डर जानेका विचार रखते हे। तैयार रहे। श्री डुगरको आनेके लिये विनती करें। उन्हे भी तैयार रखे । उनके चित्तमे यो आये कि वारवार जाना होनेसे लोकापेक्षामे योग्य नही दिखायी देता । क्योकि उम्र मे अंतर | परतु ऐसा विचार करना योग्य नही है ।
परमार्थदृष्टि पुरुषको अवश्य करने योग्य ऐसे समागमके लाभमे यह विकल्परूप अंतराय कर्तव्य नही है । इस वार समागमका विशेष लाभ होना योग्य है । इसलिये श्री डुगरको अन्य सभी विकल्प छोड़कर आनेका विचार रखना चाहिये ।
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श्री डुंगर तथा लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य |
'आनेके बारेमे श्री डुगरको कुछ भी सशय न रखना योग्य है ।
मोरबी, माघ वदी ४, रवि, १९५३
संस्कृतका परिचय न हो तो कीजियेगा ।
जिस तरह अन्य मुमुक्षुजीवोके चित्तमे और जगमे निर्मल भावकी वृद्धि हो उस तरह प्रवृत्ति कर्तव्य है । नियमित श्रवण कराया जाये तथा आरभ - परिग्रह के स्वरूपको सम्यक् प्रकार से देखते हुए, वे निवृत्ति और निर्मलताको कितने प्रतिबंधक है यह बात चित्तमे दृढ हो ऐसी परस्परमे ज्ञानकथा हो यह कर्तव्य है ।
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मोरवी, माघ वदी ४, रवि, १९५३ " सकळ संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे ।
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मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निष्कामी रे ॥ ' - मुनि श्री आनदघनजी तीनो पत्र मिले थे। अभी लगभग पन्द्रह दिनसे यहाँ स्थिति है। अभी यहाँ कुछ दिन और रहना
संभव है । पत्राकांक्षा और दर्शनाकाक्षा मालूम हुई है । अभी पत्र आदि लिखनेमे बहुत ही कम प्रवृत्ति हो सकती है | समागमके बारेमे अभी कुछ भी उत्तर लिखना अशक्य है । श्री लल्लुजी और श्री देवकरणजी 'आत्मसिद्धिशास्त्र' का विशेषत भी प्रश्नव्याकरण आदि सूत्र सत्पुरुष के लक्ष्यसे सुनाये जायें तो सुनायें ।
मनन करें। दूसरे मुनियोको
श्री सहजात्मस्वरूप से यथायोग्य |
७४४
ववाणिया, माघ वदी १२, शनि, १९५३
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ते माट ऊभा करजोडी, जिनवर आगळ कहीए रे । समयचरण सेवा शुद्ध देजो, जेम आनदघन लहीए रे ॥ - मुनि श्री आनदघनजी 'कर्मग्रथ' नामका शास्त्र है, उसे अभी आदिसे अत तक पढनेका, सुननेका और अनुप्रेक्षा करनेका परिचय रख सकें तो रखियेगा । अभी उसे पढने और सुननेमे नित्य प्रति दो से चार घडा नियमपूर्वक व्यतीत करना योग्य है ।
१ भावार्थ-सथ ससारी जीव इन्द्रियतुसमें ही रमण करनेवाले है, और केवल मुनिजन ही आत्मरामी हैं । जो मुख्यतासे आत्मरामी होते हैं वे निष्कामी कहे जाते हैं ।
२ भावार्थ - इस कारण मे हाथ जोड खडा रहकर जितेंद्र भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे शास्त्रानुसार चारित्रको शुद्ध सेवा प्रदान करें, जिससे में आनदघन - मोक्ष प्राप्त करू
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श्रीमद् राजचन्द्र
७४५ ___ववाणिया, फागुन सुदी २, १९५३ एकांत निश्चयनयसे मति आदि चार ज्ञान, संपूर्ण शुद्ध ज्ञानको अपेक्षासे विकल्प ज्ञान कहे जा सकते है, परतु सपूर्ण शुद्ध ज्ञान अर्थात् सम्पूर्ण निर्विकल्प ज्ञान उत्पन्न होनेके ये ज्ञान साधन है। उसमे भो श्रुतज्ञान मुख्य साधन है। केवलज्ञान उत्पन्न होने में अत तक उस ज्ञानका अवलबन है ।, यदि कोई जीव पहलेसे इसका त्याग कर दे तो केवलज्ञानको प्राप्त नहीं होता । केवलज्ञान तककी दशा प्राप्त करने का हेतु श्रुतज्ञानसे होता है।
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ववाणिया, फागुन सुदी २, १९५३ त्याग विराग न चित्तमा, थाय न तेने ज्ञान। अटके त्याग विरागमां, तो भूले निज भान ॥ जहां कल्पना जल्पना, तहां मानु दुःख छांई। मिटे कल्पना जल्पना, तब वस्तु तिन पाई ॥ 'पढी पार कहाँ. पावनो, मिटे न मनको चार।
ज्यो कोलुके बैलकु', घर हो कोश हजार ॥' 'मोहनीय'का स्वरूप इस जीवको वारवार अत्यत विचार करने योग्य है। मोहिनीने महान मुनोश्वरोको भी पलभरमे अपने पाशमे फंसाकर ऋद्धि-सिद्धिसे अत्यत विमुक्त कर दिया है, शाश्वत सुखको छीनकर उन्हे क्षणभंगुरतामे ललचाकर भटकाया है।
निर्विकल्प स्थिति लाना, आत्मस्वभावमे रमण करना और मात्र द्रष्टाभावसे रहना ऐसा ज्ञानियोका जगह जगह वोध है, इस बोधके यथार्थ प्राप्त होनेपर इस जीवका कल्याण होता है।' ' जिज्ञासामे रहे यह योग्य है।
कर्म मोहनीय भेद बे, दर्शन चारित्र नाम । । । हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥
ॐ शातिः . ७४७ ववाणिया, फागुन सुदी २, शुक्र, १९५३ सर्व मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो ।
मुनि श्री देवकरणजी 'दीनता' के वीस दोहे कण्ठस्थ करना चाहते है, इसमे आज्ञाका अतिक्रम नही है। अर्थात् वे दोहे कण्ठस्थ करने योग्य है।
कर्म अनत प्रकारना, तेमां मुख्ये आठ। तेमा मुस्ये मोहनीय, हणाय ते कहुं पाठ॥ कर्म मोहनीय भेद वे, दर्शन चारित्र नाम। हणे बोध वीतरागता, उपाय अचूक आम ॥
-श्री 'आत्मसिद्धिशास्त्र' - ७४८ ववाणिया, फागुन सुदी ४, रवि, १९५३ जहाँ उपाय नही वहाँ खेद करना योग्य नही है । उन्हे शिक्षा अर्थात् उपदेश देकर सुधार करनेका वद रखकर, मिलते रहकर काम निवाहना ही योग्य है।
१ अर्थ के लिये देखें 'आत्मसिद्धि' का पद्य । - २ अर्थके लिये देखे 'आत्मसिद्धि' का पद्य १०३ ।
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३० वो वर्ष
५७९ जाननेसे पहले उपालभ लिखना ठीक नही । तथा उपालभसे अक्ल ला देना मुश्किल है। अक्लकी वर्षा की जाती है तो भी इन लोगोकी रीति अभा रास्तेपर नही आती । वहाँ क्या उपाय ?
. . उनके प्रति कोई दूसरा खेद करना व्यर्थ है। कर्मवधकी विचित्रता है इससे सभीको सच्ची बात समझमे नही आ सकती । इसलिये उनके दोषका क्या विचार करना?' '
७४९ - ववाणिया, फागुन वदी ११, १९५३ त्रिभोवनको लिखी हुई चिट्ठी तथा सुणाव और पेटलादके पत्र मिले हैं। ' . 'कर्मग्रथ' का विचार करनेसे कषाय आदिका बहुतसा स्वरूप यथार्थ समझमे नही आता, वह विशेषत अनुप्रेक्षासे, त्यागवृत्तिके बलसे और समागमसे समझमे आने योग्य है।
'ज्ञानका फल विरति है' । वीतरागका यह वचन सभी मुमुक्षुओको नित्य स्मरणमे रखने योग्य है। जिसे पढनेसे, समझनेसे और विचारनेसे आत्मा विभावसे, विभावके कार्योसे और विभावके परिणामसे उदास न हुआ, विभावका त्यागी न हुआ, विभावके कार्योका और विभावके फलका त्यागी न हुआ, वह पढना, वह विचारना और वह समझना अज्ञान है। विचारवृत्तिके साथ त्यागवृत्तिको उत्पन्न करना यही विचार सफल है, यह ज्ञानीके कहनेका परमार्थ है।
___ समयका अवकाश प्राप्त करके नियमितरूपसे दो-से चार घडी तक मुनियोको अभी 'सूर्यगडाग' का विचार करना योग्य है-शात और विरक्त चित्तसे।
। ७५०+ । ववाणिया, फागुन सुदी ६, सोम, १९५३ मुनि श्री लल्लुजो तथा देवकरणजी आदिके प्रति
सहज समागम हो जाये अथवा ये लोग इच्छापूर्वक समागम करनेके लिये आते हो तो समागम करनेमे क्या हानि है ? कदाचित विरोधवृत्तिसे ये लोग समागम करते हो तो भी क्या हानि है ? हमे तो उनके प्रति केवल हितकारी वृत्तिसे, अविरोध दृष्टिसे समागममे भी , बर्ताव करना है। इसमे क्या पराभव है ? .मात्र उदीरणा करके समागम करनेका अभी कारण नहीं है। आप.सब मुमुक्षुओंके आचार सवधी उन्हे कोई सशय हो तो भी विकल्पका अवकाश नहीं है । वडवामे सत्पुरुपके समागममे गये आदि सवधी प्रश्न करें तो उसके उत्तरमे तो इतना ही कहना योग्य है कि "आप, हम और सब आत्महितकी कामनासे निकले है, और करने योग्य भी यही है । जिस पुरुषके समागममे हम आये है उसके समागममे आप कभी आकर प्रतीति कर देखें कि उनके आत्माकी दशा कैसी है ? और वे हमे कैसे उपकारी हे ? अभी आप इस बातको जाने दें। वडवा तक सहजमे भी जाना हो सकता है, और यह तो ज्ञान, दर्शन आदिके उपकाररूप प्रसगमे जाना हुआ है, इसलिये आचारकी' मर्यादाके भंगका विकल्प करना योग्य नहीं है। रागदेष परिक्षीण होनेका मार्ग जिस पुरुषके उपदेशसे कुछ भी समझमे आये, प्राप्त हो, उस पुरुपका उपकार कितना ? और वैसे पुरुषको कैसे भक्ति करनी, उसे आप ही शास्त्र आदिसे विचार कर देखे। हम तो वैसा कुछ नही कर सके क्योकि उन्होने स्वय यो कहा था कि - ' 'आपके मनिपनका सामान्य व्यवहार ऐसा है कि इस अविरति पुरुषके प्रति वाह्य वन्दनादि व्यवद्वार कर्तव्य नही है। उस व्यवहारको आप भी निभायें । उस व्यवहारको आप रखें इसमे आपका स्वच्छद नही है, इसलिये रखना योग्य है । बहुतसे जीवोको मशयका हेतु नही होगा । हमे कुछ वंदनादिकी अपेक्षा नहीं है।' इस प्रकारसे जिन्होने सामान्य व्यवहारको भी निभाया था, उनको दृष्टि कैसी होनी चाहिये, + देखें आक ५०२ । आफ ५०२ के उपनेके बाद यह पन मितिसहित सारा मिला है, इसलिये यहा फिरसे दिया है ।
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श्रीमद राजचन्द्र इसका आप विचार करें। कदाचित् अभी आपको यह बात समझमे न आये तो आगे जाकर समझमे आयेगी, इस वातमे आप निःसदेह रहे ।
दूसरे कुछ सन्मार्गरूप आचार-विचारमे हमारी शिथिलता हुई हो तो आप कहे क्योकि वैसी शिथिलता तो दूर किये विना हितकारी मार्ग प्राप्त नही हो सकता, ऐसी हमारी दृष्टि है।" इत्यादि प्रसगसे कहना योग्य लगे तो कहे, और उनके प्रति अद्वेषभाव है ऐसा स्पष्ट उनके ध्यानमे आये वैसी वृत्ति एव रीतिसे वर्तन करें, इसमे सशय कर्तव्य नही है।
दूसरे साधुओके बारेमे आपको कुछ कहना कर्तव्य नहीं है। समागममे आनेके बाद भी उनके चित्तमे कुछ न्यूनाधिकता रहे तो भी विक्षिप्त न होवें। उनके प्रति प्रबल अद्वेष भावनासे बर्ताव करना ही स्वधर्म है।
___७५१ ववाणिया, फागुन वदी ११, रवि, १९५३
ॐ सर्यज्ञाय नम 'आत्मसिद्धि' मे कहे हुए समकितके प्रकारोका विशेषार्थ जाननेकी इच्छा सबधी पत्र मिला है। आत्मसिद्धिमे तीन प्रकारके समकित उपदिष्ट है(१) आप्तपुरुषके वचनको प्रतीतिरूप, आज्ञाकी अपूर्व रुचिरूप, स्वच्छदनिरोधतासे आप्तपुरुषको
भक्तिरूप, यह समकितका पहला प्रकार हैं। (२) परमार्थकी स्पष्ट अनुभवाशसे प्रतीति यह समकितका दूसरा प्रकार है। (३) निर्विकल्प परमार्थअनुभव यह समकितका तीसरा प्रकार है।
पहला समकित दूसरे समकितका कारण है। दूसरा समकित तीसरे समकितका कारण है । वीतरागने तीनो समकित मान्य किये हैं। तीनो समकित उपासना करने योग्य है, सत्कार करने योग्य हैं; और भक्ति करने योग्य हैं।
केवलज्ञान उत्पन्न होनेके अन्तिम समय तक वीतरागने सत्पुरुषके वचनोके आलंबनका विधान किया है; अर्थात् बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानकपर्यंत श्रुतज्ञानसे आत्माके अनुभवको निर्मल करते करते उस निर्मलताकी सपूर्णता प्राप्त होनेपर केवलज्ञान' उत्पन्न होता है। उसके उत्पन्न होनेके पहले समय तक सत्पुरुषका उपदिष्ट मार्ग आधारभूत है, यह जो कहा है वह निःसदेह सत्य है। ।
७५२, ववाणिया, फागुन वदी ११, रवि, १९५३ लेश्या-जीवके कृष्ण आदि द्रव्यकी तरह भासमान परिणाम ।, . अध्यवसाय-लेश्या-परिणामकी कुछ स्पष्टरूपसे प्रवृत्ति । संकल्प-कुछ भी प्रवृत्ति करनेका निर्धारित अध्यवसाय । विकल्प-कुछ भी प्रवृत्ति करनेका अपूर्ण अनिर्धारित, सदेहात्मक अध्यवसाय । . . सजा-कुछ भी आगे पोछे को चिंतनशक्तिविशेष, अथवा स्मृति । ।
परिणाम-जलके द्रवणस्वभावकी तरह द्रव्यकी कथचित् अवस्थातर पानेकी शक्ति है, उस अवस्थातरकी विशेप धारा, वह परिणति है। . .
अज्ञान-मिथ्यात्वसहित मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान हो तो वह 'अज्ञान' है।" विभगज्ञान-मिथ्यात्वसहित अतीद्रिय ज्ञान हो वह 'विभगज्ञान' है। , . विज्ञान-कुछ भी विशेषरूपसे जानना यह 'विज्ञान' है।
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३० वॉ वर्ष
७५३ ( १ )
ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाह रे कंत । रोक्यो साहेब संग न परिहरे रे, भागे सादि अनत ॥ ऋषभ० १
नाभिराजाके पुत्र श्री ऋषभदेवजी तीर्थंकर मेरे परम प्रिय है, जिससे में दूसरे स्वामीको न चाहूँ । ये स्वामी ऐसे है कि प्रसन्न होने पर फिर कभी सग नही छोड़ते । जबसे संग हुआ तबसे उसकी आदि है, परंतु वह सग अटल होनेसे अनत है ॥१॥
विशेषार्थ : - जो स्वरूपजिज्ञासु पुरुष हैं वे, जो पूर्ण शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हुए हैं ऐसे भगवानके स्वरूपमे अपनी वृत्तिको तन्मय करते हैं, जिससे अपनी स्वरूपदशा जागृत होती जाती है और सर्वोत्कृष्ट यथाख्यातचारित्रको प्राप्त होती है। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा ही शुद्धनयको दृष्टिसे आत्माका स्वरूप है । इस आत्मा और सिद्ध भगवानके स्वरूपमे औपाधिक भेद है। स्वाभाविकरूपसे देखें तो आत्मा सिद्ध भगवानके तुल्य ही है । सिद्ध भगवानका स्वरूप निरावरण है, और वर्तमानमे इस आत्माका स्वरूप आवरणसहित है, और यही भेद है, वस्तुतः भेद नही है । उस आवरणके क्षीण हो जानेसे आत्माका स्वाभाविक सिद्धस्वरूप प्रगट होता है ।
५८१
ववाणिया, १९५३
और जब तक वह स्वाभाविक सिद्ध स्वरूप प्रगट नही हुआ, तब तक स्वाभाविक शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हुए हैं ऐसे सिद्ध भगवानकी उपासना कर्तव्य है, इसी तरह अहंत भगवानकी उपासना भी कर्तव्य है, क्योकि वे भगवान सयोगी सिद्ध है । सयोगरूप प्रारब्धके कारण वे देहधारी हैं, परतु वे भगवान स्वरूपसमवस्थित हैं । सिद्ध भगवान और उनके ज्ञानमे, दर्शनमे, चारित्रमे या वीर्यमे कुछ भी भेद नही है; इसलिये अर्हत भगवानकी उपासनासे भी यह आत्मा स्वरूपलयको पा सकता है ।
पूर्व महात्माओने कहा है
-
'जे जाणइ अरिहंते, दस्व गुण पज्जयेहि य ।
सो जाणइ निय अप्प, मोहो खलु जाइ तस्स लयं ॥'
जो अर्हत भगवानका स्वरूप द्रव्य, गुण और पर्यायसे जानता है, वह अपने आत्माके स्वरूपको जानता है और निश्चयसे उसके मोहका नाश हो जाता है । उस भगवानकी उपासना किस अनुक्रमसे जीवोको कर्तव्य है, उसे श्री आनदघनजी नौवें स्तवनमे कहनेवाले हैं, जिससे उस प्रसगपर विस्तारसे कहेगे ।
भगवान सिद्धको नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु इन कर्मोंका भी अभाव है, वे भगवान सर्वथा कर्मरहित है | भगवान अर्हतको आत्मस्वरूपको आवरण करनेवाले कर्मोंका क्षय रहता है, परंतु उपर्युक्त चारकर्मीका पूर्वबध, वेदन करके क्षीण करने तक उन्हें रहता है, जिससे वे परमात्मा साकार भगवान कहने योग्य हैं ।
उन अर्हत भगवानमे जिन्होने पूर्वकालमे 'तीर्थंकरनामकर्म का शुभयोग उत्पन्न किया होता है, वे ‘तीर्थकर भगवान' कहे जाते हैं। जिनके प्रताप, उपदेशबल आदिकी शोभा महापुण्ययोगके उदयसे आश्चर्यकारी होती है। भरतक्षेत्रमे वर्तमान अवसर्पिणीकालमे ऐसे चौबीस तीर्थंकर हुए हैं- श्री देव श्री वर्धमान तक ।
वर्तमानकालमे वे भगवान सिद्धालयमे स्वरूपस्थितरूपसे विराजमान है। परतु 'भूतप्रज्ञापनीयनय' से उनमे 'तीर्थकरपद' का उपचार किया जाता है। उस औपचारिक नयदृष्टिसे उन चोवीस भगवानको स्तुतिरूपसे इन चौबीस स्तवनोकी रचना की है ।
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५८२
श्रीमद् राजचन्द्र सिद्ध भगवान सर्वथा अमूर्तपदमे स्थित होनेसे उनके स्वरूपका सामान्यतः चितन करना दुष्कर है । अर्हत भगवानके स्वरूपका मूलदृष्टिसे चिंतन करना तो वैसा ही दुष्कर है, परंतु सयोगी पदके अवलंबनपूर्वक चिंतन करनेसे वह सामान्य जीवोके लिये भी वृत्ति स्थिर होनेका कुछ सुगम उपाय है । इस कारण अहंत भगवानके स्तवनसे सिद्धपदका स्तवन हो जानेपर भी इतना विशेष उपकार समझकर श्री आनदधनजीने चौबीस तीर्थंकरोके स्तवनरूप इस चौबीसीकी रचना की है । नमस्कारमन्त्रमे भी अहंतपद प्रथम रखनेका हेतु इतना ही है कि उनकी विशेष उपकारिता है।
भगवानके स्वरूपका चिंतन करना यह परमार्थदृष्टिवान पुरुषोके लिये गौणतासे स्वस्वरूपका ही चितन है । 'सिद्धप्राभृत' मे कहा है
'जारिस सिद्ध सहावो, तारिस सहावो सव्वजीवाणं ।
तम्हा सिद्धंतरई, कायव्वा भव्वजोहि ॥' जैसा सिद्ध भगवानका आत्मस्वरूप है वैसा सब जीवोका आत्मस्वरूप है, इसलिये भव्य जीवोको सिद्धत्वमे रुचि कर्तव्य है।।
इसी तरह श्री देवचद्रस्वामीने श्री वासुपूज्यके स्तवनमे कहा है कि 'जिनपूजा रे ते निजपूजना' । यदि यथार्थ मूलदृष्टिसे देखें तो जिनकी पूजा वह आत्मस्वरूपका ही पूजन है ।
स्वरूपाकाक्षी महात्माओने यो जिन भगवान तथा सिद्ध भगवानकी उपासनाको स्वरूपकी प्राप्तिका हेतु माना है । क्षीणमोह गुणस्थानपर्यंत यह स्वरूपचिंतन जीवके लिये प्रबल अवलबन है। और फिर मात्र अकेला अध्यात्मस्वरूपचिन्तन जीवको व्यामोह उत्पन्न करता है, बहुतसे जीवोको शुष्कता प्राप्त कराता है, अथवा स्वेच्छाचारिता उत्पन्न करता है, अथवा उन्मत्त प्रलापदशा उत्पन्न करता है। भगवानके स्वरूपके ध्यानावलवनसे भक्तिप्रधानदृष्टि होती है, और अध्यात्मदृष्टि गौण होती है। जिससे शुष्कता, स्वेच्छाचारिता और उन्मत्त प्रलापता नही होती, आत्मदशा बलवान हो जानेसे स्वाभाविक अध्यात्मप्रधानता होती है । आत्मा स्वाभाविक उच्च गुणोको भजता है। इसलिये शुष्कता आदि दोष उत्पन्न नही होते, और भक्तिमार्गके प्रति भी जुगुप्सित नही होता । स्वाभाविक आत्मदशा स्वरूपलीनताको प्राप्त करती जाती है। जहाँ अहंत आदिके स्वरूपध्यानके आलंबनके बिना वृत्ति आत्माकारता भजती है,
[अपूर्ण (२)
वीतराग स्तवन वीतरागोमे ईश्वर ऐसे ऋषभदेव भगवान मेरे स्वामी है। इसलिये अब मैं दूसरे पतिकी इच्छा नही करती, क्योकि ये प्रभु रीझनेके बाद साथ नही छोडते । इन प्रभुका योग प्राप्त होना उसको आदि है; परतु वह योग कभी भी निवृत्त नही होता, इसलिये अनन्त है।
१ आनन्दघन तीर्थकर स्तवनावलीका यह विवेचन लिखते हुए इस जगह अपुर्ण छोड दिया गया है। सशोधक २ श्री ऋषभजिनस्तवन
ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाहु रे कन्त । रीझ्यो साहेव सग न परिहरे रे, भागे सादि अनन्त ||ऋषभ० १ कोई कत कारण काष्ठभक्षण करे रे, मिलशं कतने धाय । ए मेळो नवि कहिये सभवे रे मेळो ठाम न ठाय |ऋषभ० ३ कोई पविरजन अति घणु तप करे रे, पतिरजन तनताप । ए पतिरजन मे नवि चित्त धर्य रे, रंजन धातु मेळाप ॥ऋषभ० ४
वहाँ..."
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३० वाँ वर्ष
५८३ जगतके भावोसे उदासीन होकर चैतन्यवृत्ति शुद्ध चैतन्यस्वभावमे समवस्थित भगवानमे प्रीतिमान हुई, उसका आनन्दधनजो हर्ष प्रदर्शित करते हैं।
अपनी श्रद्धा नामकी सखीको आनन्दघनजीकी चेतन्यवृत्ति कहती है- "हे सखी | मैंने ऋषभदेव भगवानसे लग्न किया है, और ये भगवान मुझे सबसे प्यारे हैं। ये भगवान मेरे पति हुए है, इसलिये अव मैं दूसरे किसी भी पतिको इच्छा करूँ ही नही । क्योकि अन्य सब जन्म, जरा, मरण आदि दुखोंसे आकुल-व्याकुल हैं, क्षणभरके लिये भी सुखी नही है; ऐसे जीवको पति बनानेसे मुझे सुख कहाँसे हो सकता है ? भगवान ऋषभदेव तो अनन्त अव्याबाध सुखसमाधिको प्राप्त हुए हैं, इसलिये उनका आश्रय लूं तो मुझे उसी वस्तुकी प्राप्ति हो । यह योग वर्तमानमे प्राप्त होनेसे हे सखी । मुझे परमशीतलता हुई। दूसरे पतिका तो किसी समय वियोग भी हो जाये, परन्तु मेरे इन स्वामीका तो किसी भी समय वियोग होता ही नही। जबसे ये स्वामी प्रसन्न हुए है तबसे किसी भी दिन संग नही छोड़ते। इन स्वामीके योगके स्वभावको सिद्धान्तमे 'सादि-अनन्त' अर्थात् इस योगके होनेकी आदि है, परन्तु किसी दिन इनका वियोग होनेवाला नही है. इसलिये अनन्त है, ऐसा कहा है, इसलिये अब मुझे कभी भी इन पतिका वियोग होगा ही नही ॥१॥
हे सखी | इस जगतमे पतिका वियोग न होनेके लिये स्त्रियाँ जो नाना प्रकारके उपाय करती हैं वे उपाय सच्चे नही हैं, और इस तरह मेरे पतिकी प्राप्ति नहीं होती। उन उपायोके मिथ्यापनको बतलानेके लिये उनमेसे थोडेसे उपाय तुझे बतातो हूँ'-कोई एक स्त्री तो पतिके साथ काष्ठमे जल जानेकी इच्छा करती है, कि जिससे पतिके साथ मिलाप ही बना रहे, परतु उस मिलापका कुछ संभव नहीं है, क्योकि वह पति तो अपने कर्मानुसार उसे जहाँ जाना था वहां चला गया। और जो स्त्री सती होकर मिलापकी इच्छा करती है वह स्त्री भी मिलापके लिये एक चितामे जलकर मरनेकी इच्छा करती है तो भी वह अपने फर्मानुसार देहको प्राप्त होनेवाली है, दोनो एक ही जगह देह धारण करे, और पति-पत्नीरूपसे योग प्राप्तकर निरतर सुख भोगें ऐसा कोई नियम नही है। इसलिये उस पतिका वियोग हुआ, और उसका योग भी असभव रहा, ऐसे पतिके मिलापको मैंने झूठा माना है, क्योकि उसका ठौर-ठिकाना कुछ नही है।
अथवा प्रथम पदका यह अर्थ भी होता है कि परमेश्वररूप पतिकी प्राप्तिके लिये कोई काष्ठका भक्षण करता है, अर्थात् पंचाग्निको धूनी जलाकर उसमे काष्ठ होमकर उस अग्निका परिषह सहन करता है, और इससे ऐसा समझता है कि परमेश्वररूप पतिको पा लेंगे, परतु यह समझना मिथ्या है, क्योकि पचाग्नि तापनेमे उसकी प्रवृत्ति है, उस पतिका स्वरूप जानकर, उस पतिके प्रसन्न होनेके कारणोको जानकर उन कारणोकी उपासना वह नहीं करता, इसलिये वह परमेश्वररूप पतिको कहाँसे पायेगा ? उसकी मतिका जिस स्वभावमे परिणमन हुआ है उसी प्रकारकी गतिको वह पायेगा, जिससे उस मिलापका कोई ठौर-ठिकाना नहीं है ॥३॥
हे सखी | कोई पतिको रिझानेके लिये अनेक प्रकारके तप करती है, परतु वह मात्र शरीरको कष्ट है। इसे पतिको राजी करनेका मार्ग मेंने समझा नहीं है। पतिको रजन करनेके लिये तो दोनोकी धातुओका मिलाप होना चाहिये। कोई स्त्रो चाहे जितने कष्टसे तपश्चर्या करके अपने पतिको रिझानेकी इच्छा करे तो भी जब तक वह स्त्री अपनी प्रकृतिको पतिको प्रकृतिके स्वभावानुसार न कर सके तव तक प्रकृति
कोई कहे लीला रे अलख अलख तणी रे, लख पूरे मन आश। दोषरहितने लोला नवि घटे रे, लोला दोष विलान पन० ५ चित्तप्रसन्ने रे पूजन फळ कप रे, पूजा अखटित एह । फपटरहित पई आवन अरपणा रे, आनदघन पदरेह ।।रुपम० ६
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श्रीमद राजचन्द्र
की प्रतिकूलताके कारण वह पति प्रसन्न होता ही नही है, और उस स्त्रीको मात्र अपने शरीरमे क्षुधा आदि कष्टोकी प्राप्ति होती है । इसी तरह किसी मुमुक्षुकी वृत्ति भगवानको पतिरूपसे प्राप्त करनेकी हो तो वह भगवान के स्वरूपानुसार वृत्ति न करे और अन्य स्वरूपमे रुचिमान होते हुए अनेक प्रकारका तप करके कष्टका सेवन करे, तो भी वह भगवानको नही पाता, क्योकि जैसे पति-पत्नीका सच्चा मिलाप, और सच्ची प्रसन्नता धातुके एकत्वमे है वैसे हे सखी । भगवान मे पतिभावको इस वृत्तिको स्थापन करके उसे यदि अचल रखना हो तो उस भगवानके साथ धातुमिलाप करना ही योग्य है, अर्थात् वे भगवान जिस शुद्धचैतन्यधातुरूपसे परिणमित हुए हैं वैसी शुद्धचेतन्यवृत्ति करनेसे ही उस धातुमेसे प्रतिकूल स्वभाव निवृत्त होनेसे ऐक्य होना संभव है, और उसी धातुमिलापसे उस भगवानरूप पतिकी प्राप्तिका किसी भी समय वियोग नही होगा ||४||
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हे सखी । कोई फिर ऐसा कहता है कि यह जगत ऐसे भगवानकी लीला है कि जिसके स्वरूपको पहचाननेका लक्ष्य नही हो सकता, और वह अलक्ष्य भगवान सबकी इच्छा पूर्ण करता है, इसलिये वह यो समझकर इस जगतको भगवानकी लीला मानकर, उस भगवानको उस स्वरूपसे महिमा गानेमे ही अपनी इच्छा पूर्ण होगी, (अर्थात् भगवान प्रसन्न होकर उसमे लग्नता करेगा) ऐसा मानता है, परंतु यह मिथ्या है, क्योकि वह भगवानके स्वरूपके अज्ञानसे ऐसा कहता है ।
जो भगवान अनंत ज्ञानदर्शनमय सर्वोत्कृष्ट सुखसमाधिमय है, वह भगवान इस जगतका कर्त्ता कैसे हो सकता है ? और लीलाके लिये प्रवृत्ति केसे हो सकती है ? लीलाकी प्रवृत्ति तो सदोषमे ही सभव है । जो पूर्ण होता है वह कुछ इच्छा ही नही करता । भगवान तो अनत अव्याबाध सुखसे पूर्ण है, उसमे अन्य कल्पनाका अवकाश कहाँसे हो ? लीलाको उत्पत्ति कुतूहलवृत्तिसे होती है । वैसी कुतूहलवृत्ति तो ज्ञान-सुखकी अपरिपूर्णतासे ही होती है । भगवानमे तो वे दोनो (ज्ञान और सुख) परिपूर्ण है, इसलिये उसकी प्रवृत्ति जगतको रचनेरूप लीलामे हो ही नही सकती । यह लीला तो दोषका विलास है और सरागीको हो उसका सभव है। जो सरागी होता है वह द्वेषसहित होता है, और जिसे ये दोनो होते है, उसे क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सभी दोषोका होना सभव है । इसलिये यथार्थ दृष्टिसे देखते हुए तो लीला दोषका ही विलास है, और ऐसे दोषविलासकी इच्छा तो अज्ञानीको ही होती है । विचारवान मुमुक्षु भी ऐसे दोषविलासकी इच्छा नही करते, तो अनत ज्ञानमय भगवान उसकी इच्छा क्यो करेगे ? इसलिये जो उस भगवानके स्वरूपको लीलाके कर्तृत्वभावसे समझता है, वह भ्राति है, और उस भ्रातिका अनुसरण करके भगवानको प्रसन्न करनेका जो मार्ग वह अपनाता है वह भी भ्रातिमय ही है, जिससे भगवानरूप पतिको उसे प्राप्ति नही होती ||५||
हे सखी । पतिको प्रसन्न करनेके तो कई प्रकार हैं । अनेक प्रकारके शब्द, स्पर्श आदिके भोगसे पतिकी सेवा की जाती है । ऐसे अनेक प्रकार हैं, परतु इन सबमे चित्तप्रसन्नता ही सबसे उत्तम सेवा है, और वह ऐसी सेवा है जो कभी खडित नही होती । कपटरहित होकर आत्मार्पण करके पतिकी सेवा करने से अत्यंत आनदके समूहकी प्राप्तिका भाग्योदय होता है ।
भगवानरूप पतिकी सेवाके अनेक प्रकार है । द्रव्यपूजा, भावपूजा और आज्ञापूजा । द्रव्यपूजाके भी अनेक भेद हैं, परंतु उनमे सर्वोत्कृष्ट पूजा तो चित्त प्रसन्नता अर्थात् उस भगवानमे चैतन्यवृत्तिका परम हर्षसे एकत्वको प्राप्त करना ही है, इसीमे सब साधन समा जाते है । यहो अखंडित पूजा है, क्योकि यदि चित्त भगवानमे लीन हो तो दूसरे योग भी चित्ताधीन होनेसे भगवानके अधीन ही हैं, और चित्तकी लीनता भगवानमेसे दूर न हो तो ही जगतके भावोमे उदासीनता रहती है और उनमे ग्रहण-त्यागरूप विकल्पकी प्रवृत्ति नही होती, जिससे वह सेवा अखंड ही रहती है ।
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३० वाँ वर्ष
जब तक चित्तमे दूसरा भाव हो तब तक यदि यह प्रदर्शित करें कि आपके सिवाय दूसरे में मेरा कोई भी भाव नही है तो यह वृथा ही है और कपट है । और जब तक कपट है तब तक भगवानके चरणो मे आत्मार्पण कहाँसे हो ? इसलिये जगतके सभी भावोसे विराम प्राप्त करके, वृत्तिको शुद्ध चैतन्य भावयुक्त करनेसे ही उस वृत्तिमे अन्यभाव न रहनेसे शुद्ध कही जाती है और वह निष्कपट कही जाती है। ऐसी चैतन्यवृत्ति भगवानमे लीन की जाये वही आत्मार्पणता कही जाती है।
धन-धान्य आदि सभी भगवानको अर्पित किये हो, परन्तु यदि आत्मा अर्पण न किया हो अर्थात् उस आत्माकी वृत्तिको भगवानमे लीन न किया हो तो उस धन-धान्य आदिका अर्पण करना सकपट ही है, क्योकि अर्पण करनेवाला आत्मा अथवा उसकी वृत्ति तो अन्यत्र लीन है। जो स्वय अन्यत्र लीन है उसके अर्पण किये हुए दूसरे जड पदार्थ भगवानमे कहाँसे अर्पित हो सकेंगे? इसलिये भगवानमे चित्तवृत्तिको लीनता ही आत्म-अर्पणता है, और यही आनदघनपदकी रेखा अर्थात् परम अव्याबाध सुखमय मोक्षपदकी निशानो है। अर्थात् जिसे ऐसी दशाको प्राप्ति हो जाये वह परम आनदघनस्वरूप मोक्षको प्राप्त होगा। ऐसे लक्षण ही लक्षण है ॥६॥
ऋषभजिनस्तवन सपूर्ण। प्रथम स्तवनमे भगवानमे वृत्तिके लीन होनेरूप हर्प बताया, परन्तु वह वृत्ति अखड और पूर्णरूपसे लीन हो तो ही आनंदघनपदकी प्राप्ति होती है, जिससे उस वृत्तिकी पूर्णताको इच्छा करते हुए आनदघनजी दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथका स्तवन करते है। जो पूर्णताकी इच्छा है, उसे प्राप्त होनेमे जो जो विघ्न देखे उन्हे आनदघनजी सक्षेपमे इस दूसरे स्तवनमे भगवानसे निवेदन करते है, और अपने पुरुषत्वको मद देखकर खेदखिन्न होते है, ऐसा बताकर, पुरुषत्व जाग्रत रहे ऐसी भावनाका चिंतन करते है।
हे सखी | दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भगवानने पूर्ण लीनताका जो मार्ग प्रदर्शित किया है अर्थात् जो सम्यक् चारित्ररूप मार्ग प्रकाशित किया है वह, देखता हूँ, तो अजित अर्थात् जो मेरे जैसे निर्बल वत्तिके मुमुक्षुसे जीता न जा सके ऐसा है, भगवानका नाम अजित है वह तो सत्य है, क्योकि जो बडे बडे पराक्रमी पुरुष कहे जाते है. उनसे भी जिस गुणोके धामरूप पथका जय नही हुआ, उसका भगवानसे जय किया है, इसलिये भगवानका अजित नाम तो सार्थक ही है। और अनत गुणोके धामरूप उस मार्गको जीतनेसे भगवानका गुणधामत्व सिद्ध है। हे सखी । परन्तु मेरा नाम पुरुष कहा जाता है, वह सत्य नही है। भगवानका नाम अजित है। जैसे वह तद्रूप गुणके कारण है वसे मेरा नाम पुरुप तद्रूप गुणके कारण नही है। क्योकि पुरुष तो उसे कहा जाता है कि जो पुरुषार्थसहित हो-स्वपराक्रमसहित हो, परन्तु मैं तो वैसा नही है। इसलिये भगवानसे कहता हूँ कि हे भगवान | आपका नाम जो अजित हे वह तो सच्चा है. परन्तु मेरा नाम जो पुरुष है वह तो झूठा है। क्योकि आपने राग, द्वेप, अज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषोका जय किया है, इसलिये आप अजित कहे जाने योग्य हैं, परन्तु उन्ही दोपोने मुझे जीत लिया है, इसलिये मेरा नाम पुरुष कैसे कहा जाये ? ॥१॥
हे सखी । उस मार्गको पानेके लिये दिव्य नेत्र चाहिये । चर्मनेत्रोंसे देखते हुए तो समस्त ससार १ दूसरा श्री अजितजिनस्तवन
पथडो निहाळु रे वीजा जिन तणो रे, अजित अजित गणधाम । जे तें जीत्या रे तेणे हु जोतियो रे, पुरुष किश्यं मुज नाम ? ॥ पवडो० १ चरम नयण करी मारग जोवता रे, भल्यो सयल ससार । जेणे नयणे करी मारग जोविये रे, नयण ते दिव्य विचार ।। पयडो० २
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श्रीमद् राजचन्द्र भूला हुआ है। उस परमतत्त्वका विचार होनेके लिये जो दिव्य नेत्र चाहिये, उम दिव्य नेत्रका निश्चयसे वर्तमानकालमे वियोग हो गया है।
हे सखी | उस अजित भगवानने अजित होनेके लिये अपनाया हुआ मार्ग कुछ इन चर्मचक्षुओंसे दिखायी नहीं देता। क्योकि वह मार्ग दिव्य है, और अतरात्मदृष्टिसे ही उसका अवलोकन किया जा सकता है । जिस तरह एक गाँवसे दूसरे गॉवमे जानेके लिये पृथ्वीतलपर सडक वगैरह मार्ग होते हैं, उसी तरह यह कुछ एक गॉवसे दूसरे गाँव जानेके मार्गकी तरह बाह्य मार्ग नहीं है, अथवा चमचक्षुसे देखनेपर वह दीखने योग्य नही है, चर्मचक्षुसे वह अतीद्रिय मार्ग कुछ दिखायी नही देता ॥२॥ [अपूर्ण]
७५४
सवत् १९५३ हे ज्ञातपुत्र भगवन् । कालकी बलिहारी है। इस भारतके हीनपुण्य मनुष्योको तेरा सत्य, अखड और पूर्वापर अविरुद्ध शासन कहाँसे प्राप्त हो ? उसके प्राप्त होनेमे इस प्रकारके विघ्न उत्पन्न हुए है-तुझसे उपदिष्ट शास्त्रोकी कल्पित अर्थसे विराधना की, कितनोका तो समूल ही खडन कर दिया, ध्यानका कार्य और स्वरूपका कारणरूप जो तेरी प्रतिमा है, उससे कटाक्षदृष्टिसे लाखो लोग फिर गये, तेरे बादमे परपरासे जो आचार्य पुरुष हुए उनके वचनोमे और तेरे वचनोमे भी शका डाल दी। एकातका उपयोग करके तेरे शासनकी निंदा की।
हे शासन देवी | कुछ ऐसी सहायता दे कि जिससे मैं दूसरोको कल्याणके मार्गका बोध कर सकूँउसे प्रदर्शित कर सकूँ,-सच्चे पुरुष प्रदर्शित कर सकते हैं। सर्वोत्तम निग्रंथ-प्रवचनके बोधकी ओर मोड़कर उन्हे इन आत्मविराधक पथोंसे पीछे खीचनेमे सहायता दे ।। तेरा धर्म है कि समाधि और बोधिमे सहायता देना।
[निजी ७५५
सवत् १९५३ ॐ नमः अनत प्रकारके शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे आकुल-व्याकुल जीवोकी उन दुःखोसे छूटनेकी अनेक प्रकारसे इच्छा होते हुए भी उनसे वे मुक्त नही हो सकते, इसका क्या कारण है ? ऐसा प्रश्न अनेक जीवोको हुआ करता है, परन्तु उसका यथार्थ समाधान किसी विरल जीवको ही प्राप्त होता है । जब तक दुखका मूल कारण यथार्थरूपसे जाननेमे न आया हो, तब तक उसे दूर करनेके लिये चाहे जैसा प्रयत्न किया जाये, तो भी दुखका क्षय नही हो सकता, ओर उस दुखके प्रति चाहे जितनी अरुचि, अप्रियता
आर अनिच्छा हो, तो भी उसका अनुभव करना ही पड़ता है। अवास्तविक उपायसे उस दुखको मिटानेका प्रयत्न किया जाये, और वह प्रयत्न असह्य परिश्रमपूर्वक किया गया हो, फिर भी वह दुख न मिटनेसे दुख मिटानेके इच्छुक मुमुक्षुको अत्यन्त व्यामोह हो जाता है, अथवा हुआ करता है कि इसका क्या कारण ? यह दुख दूर क्यो नही होता ? किसी भी तरह मुझे उस दुखकी प्राप्ति इच्छित नही होनेपर भी, स्वप्नमे भी उसके प्रति कुछ भी वृत्ति न होनेपर भी, उसकी प्राप्ति हुआ करती है, और मैं जो जो प्रयत्न करता हूँ वे सब निष्फल जाकर दुःखका अनुभव किया ही करता हूँ, इसका क्या कारण ?
क्या यह दु ख किसीका मिटता ही नही होगा ? दुखी होना ही जीवका स्वभाव होगा ? क्या कोई एक जगतकर्ता ईश्वर होगा, जिसने इसी तरह करना योग्य समझा होगा? क्या यह बात भवितव्यताके अधीन होगी? अथवा किन्ही मेरे पूर्वकृत अपरायोका फल होगा ? इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्प जो जीव मनसहित देहधारी हैं वे किया करते हैं, और जो जीव मनरहित हैं वे अव्यक्तरूपसे दुःखका अनुभव करते हैं और वे अव्यक्तरूपसे उस दु खके मिटनेकी इच्छा रखा करते है।
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३० वो वर्ष इस जगतमे प्राणी मात्रकी व्यक्त अथवा अव्यक्त इच्छा भी यही है, कि किसी भी प्रकारसे मुझे दुख न हो, और सर्वथा सुख हो। इसीके लिये प्रयत्न होनेपर भी यह दुख क्यो नही मिटता ? ऐसा प्रश्न अनेकानेक विचारवानोको भी भूतकालमे हुआ था, वर्तमानकालमे भी होता है, और भविष्यकालमे भी होगा । उन अनतानत विचारवानोमेसे अनत विचारवानोने उसका यथार्थ समाधान पाया, और दु खसे मुक्त हुए। वर्तमानकालमे भी जो जो विचारवान यथार्थ समाधान प्राप्त करते हैं, वे भी तथारूप फलको पाते है और भविष्यकालमे भी जो जो विचारवान यथार्थ समाधान प्राप्त करेंगे वे सब तथारूप फल प्राप्त करेगे इसमे सशय नही है।
शरीरका दु ख मात्र औषध करनेसे मिट जाता होता, मनका दु ख धन आदिके मिलनेसे दूर हो जाता होता, और बाह्य ससर्ग सम्बन्धी दु ख मनपर कुछ असर न डाल सकता होता तो दु ख मिटनेके लिये जो जो प्रयत्न किये जाते है वे सभी जीवोके प्रयत्न सफल हो जाते। परन्तु जब ऐसा होता दिखायी न दिया तभी विचारखानोको प्रश्न उत्पन्न हुआ कि दुःख मिटनेका कोई दूसरा ही उपाय होना चाहिये, यह जो उपाय किया जा रहा है वह अयथार्थ है, और सारा श्रम वृथा है । इसलिये उस दु खका मूल कारण यदि यथार्थरूपसे जाननेमे आ जाये और तदनुसार ही उपाय किया जाये, तो दुःख मिटता है, नही तो मिटता ही नही ।
जो विचारवान दु खके यथार्थ मूल कारणका विचार करनेके लिये कटिबद्ध हुए, उनमे भी किसीको ही उसका यथार्थ समाधान हाथ लगा और बहुतसे यथार्थ समाधान न पानेपर भी मतिव्यामोह आदि कारणोसे, वे यथार्थ समाधान पा गये है ऐसा मानने लगे और तदनुसार उपदेश करने लगे और बहुतसे लोग उनका अनुसरण भी करने लगे। जगतमे भिन्न भिन्न धर्ममत देखनेमे आते हैं उनकी उत्पत्तिका मुख्य कारण यही है।
'धर्मसे दु ख मिटता है', ऐसी बहुतसे विचारवानोकी मान्यता हुई । परन्तु धर्मका स्वरूप समझनेमें एक दूसरेमे बहत अन्तर पड गया । बहुतसे तो अपने मूल विषयको चूक गये, ओर बहुतसे तो उस विषयमे मतिके थक जानेसे अनेक प्रकारसे नास्तिक आदि परिणामोको प्राप्त हो गये।
द खके मूल कारण और उनकी किस तरह प्रवृत्ति हुई, इसके सम्बन्धमे यहाँ थोडेसे मुख्य अभिप्राय सक्षेपमे बताते हैं।
द ख क्या है ? उसके मूल कारण क्या हैं ? और वे किस तरह मिट सकते है ? तत्सबधी जिनो अर्थात् वीतरागोने अपना जो मत प्रदर्शित किया है उसे यहाँ सक्षेपमे कहते हे -
अब, वह यथार्थ है या नही ? उसका अवलोकन करते है -
जो उपाय बताये है वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं, अथवा तीनोका एक नाम 'सम्यक्मोक्ष' है।
उन वीतरागोने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमे सम्यग्दर्शनकी मुख्यता अनेक स्थलोमें कमी के ययपि सम्यग्ज्ञानसे ही सम्यग्दर्शनकी भी पहचान होती है, तो भी सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान ससार अर्थात् दुःखका हेतुरूप होनेसे सम्यग्दर्शनकी मुख्यताको ग्रहण किया है।
जोजो सम्यग्दर्शन शुद्ध होता जाता है. त्यो त्यो सम्यक्चारित्रके प्रति वीर्य उल्लसित होता जाता है और क्रमसे सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होनेका समय आ जाता है, जिससे आत्मामे स्थिर स्वभाव सिद्ध होता जाता है, और क्रमसे पूर्ण स्थिर स्वभाव प्रगट होता है, और आत्मा निजपदमे लीन होकर
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श्रीमद् राजचन्द्र सर्व कर्मकलकसे रहित होनेसे एक शुद्ध आत्मस्वभावरूप मोक्षमे परम अव्याबाध सुखके अनुभवसमुद्रमे स्थित हा जाता है।
सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे जैसे ज्ञान सम्यकस्वभावको प्राप्त होता है, यह सम्यग्दर्शनका परम उपकार है, वैसे ही सम्यग्दर्शन क्रमसे शुद्ध होता हुआ पूर्ण स्थिर स्वभाव सम्यकचारित्रको प्राप्त हो इसके लिये सम्यग्ज्ञानके वलकी उसे सच्ची आवश्यकता है। उस सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय वीतरागश्रुत और उस श्रुततत्त्वोपदेष्टा महात्मा है।
वीतरागश्रुतके परम रहस्यको प्राप्त हुए असग तथा परम करुणाशील महात्माका योग प्राप्त होना अतिशय कठिन है। महद्भाग्योदयके योगसे ही वह योग प्राप्त होता है इसमे सशय नही है । कहा है कि -
तहा रुवाणं समणाणंउन श्रमण महात्माओके प्रवृत्तिलक्षण परमपुरुषने इस प्रकार कहे हैं :
उन महात्मामोके प्रवृत्तिलक्षणोसे अभ्यतरदशाके चिह्न निर्णीत किये जा सकते हैं, यद्यपि प्रवृत्तिलक्षणोकी अपेक्षा अभ्यतरदशा सवधी निश्चय अन्य भी निकलता है। किसी एक शुद्ध वृत्तिमान मुमुक्षुको वैसी अभ्यतरदशाकी परीक्षा आती है।
ऐसे महात्माओंके समागम और विनयकी क्या जरूरत है ? चाहे जैसा भी पुरुष हो, परन्तु जो अच्छी तरह शास्त्र पढकर सुना दे ऐसे पूरुषसे जीव कल्याणका यथार्थ मार्ग क्यो प्राप्त न कर सके ? ऐसी आशकाका समाधान किया जाता है -
ऐसे महात्मा पुरुषोका योग अतीव दुर्लभ है। अच्छे देशकालमे भी ऐसे महात्माओका योग दुर्लभ है, तो ऐसे दुःखमुख्य कालमे वैसा हो इसमे कुछ कहना ही नही रहता । कहा है कि -
यद्यपि वैसे महात्मा पुरुषोका क्वचित् योग मिलता है, तो भी शुद्ध वृत्तिमान मुमुक्षु हो तो वह उनके मुहर्त्तमात्रके समागममे अपूर्व गुणको प्राप्त कर सकता है। जिन महापुरुषोके वचन-प्रतापसे चक्रवती मुहूर्त्तमात्रमे अपना राजपाट छोडकर भयकर वनमे तपश्चर्या करनेके लिये चल निकलते थे, उन महात्मा पुरुषोके योगसे अपूर्व गुण क्यो प्राप्त न हो ?
__ अच्छे देशकालमे भी क्वचित् वैसे महात्माओका योग हो जाता है, क्योकि वे अप्रतिबद्ध विहारी होते हैं । तब ऐसे पुरुषोका नित्य सग रहना किस तरह हो सकता है कि जिससे ममुक्षुजीव सब दुखोका क्षय करनेके अनन्य कारणोकी पूर्णरूपसे उपासना कर सके ? भगवान जिनने उसके मार्गका अवलोकन इस तरह किया है -
नित्य उनके समागममे आज्ञाधीन रहकर प्रवृत्ति करनी चाहिये, और इसके लिये बाह्याभ्यतर परिग्रह आदिका त्याग करना ही योग्य है।
जो सर्वथा वेसा त्याग करनेके लिये समर्थ नही है, उन्हे इस प्रकार देशत्यागपूर्वक प्रवृत्ति करना योग्य है । उसके स्वरूपका इस तरह उपदेश किया है :
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... ३० वॉ वर्ष
५८९ उस महात्मा पुरुषके गुणोकी अतिशयतासे, सम्यक्आचरणसे, परमज्ञानसे, परमशातिसे, परमनिवृत्तिसे मुमुक्षुजीवकी अशुभ वृत्तियाँ परावर्तित होकर शुभस्वभावको पाकर स्वरूपके प्रति मुडती जाती है।
उस पुरुषके वचन आगमस्वरूप है, तो भी वारवार अपनेसे वचनयोगकी प्रवृत्ति न होनेसे तथा निरतर समागमका योग न बननेसे, तथा उस वचनका श्रवण स्मरणमे तादृश न रह सकनेसे; तथा बहुतसे भावोका स्वरूप जाननेमे परावर्तनकी जरूरत- होनेसे, और अनुप्रेक्षाके बलकी, वृद्धिके लिये वीतरागश्रुतवीतरागशास्त्र एक बलवान उपकारी साधन है, । यद्यपि-प्रथम तो वैसे महात्मापुरुषोके द्वारा ही उसका रहस्य जानना चाहिये, फिर विशुद्धदृष्टि हो जानेपर वह श्रुत महात्माके समागमके अंतरायमे भी बलवान, उपकार करता है, अथवा जहाँ केवल वैसे महात्माओका योग हो ही नहीं सकता, वहाँ भी विशुद्ध दृष्टिमानको वीतरागश्रुत' परमापकारी है, और इसीलिये महापुरुषोने एक लोंकसे लेकर द्वादशांग पर्यंत रचना की है। "... उस द्वादशागके मल उपदेष्टा सर्वज्ञ वीतराग है, कि जिनके स्वरूपका महात्मा पुरुष निरन्तर ध्यान करते हैं, और उस पदको प्राप्तिमे ही सर्वस्वं समाया-हुआ-है, ऐसा प्रतीतिसे अनुभव करते है। सर्वज्ञ वीतरागके वचनोको धारण करके महान आचार्योने द्वादशागीकी रचना की थी, और तदाश्रित आज्ञाकारी महात्माओने दूसरे अनेक निर्दोष शास्त्रोकी रचना की है । द्वादशागके नाम इस प्रकार है। . २(१). आचाराग,, (२) सूत्रकृताग; (३) स्थानाग, (४) समवायाग, (५) भगवती, (६) ज्ञाताधर्मकथाग, (७) उपासकदशाग, (८) अतकृतदशाग, (९) अनुत्तरौपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११)-विपाक और-(१२) दृष्टिवाद | 7 : 5 7 ..,' : :: . उनमे इस प्रकारसे निरूपण है :- . .. ...
कालदोषसे उनमेसे बहुतसे स्थलोका विसर्जन हो गया और मात्र अल्प स्थल रहे हैं।' १. जो अल्प स्थल रहे है उन्हे एकादशागके नामसे ‘श्वेताम्बर आचार्य कहते हैं। दिगम्बर इससे अनुमत न होते हुए यो कहते है कि :- . . . . .: ।:, : .
। विसवाद या मताग्रहकी दृष्टिसे उसमे दोनो सम्प्रदाय भिन्न भिन्न मार्गकी भाँति देखनेमे आते है। दीर्घदृष्टिसे देखनेपर उसके भिन्न हो कारण देखनेमे आते है। '
चाहे जैसा हो, परतु इस प्रकारसे दोनो बहुत पासमे आ जाते हैं :विवादके अनेक स्थल तो अप्रयोजन जैसे हैं, प्रयोजन जैसे है वे भी परोक्ष हैं।
श्रोताको व्यानयोग आदि भावोका उपदेश करनेसे नास्तिक आदि भाव उत्पन्न होनेका अवसर आता है, अथवा शुष्कज्ञानी होनेका अवसर आता है। . अब यह प्रस्तावना यहाँ सक्षिप्त करते है, ओर जिस महापुरुषनेयदि इस तरह सुप्रतीत हो तो
- . . . "हिंसारहिए धम्भे अट्ठारस दोस विवज्जिए देवे।
निग्गंथे पवयणे सद्दहणं होई सम्मत्तं ॥१॥ भावार्थ-हिंसारहित धर्म, अठारह दोपसि रहित देव और नियप्रवचनमें श्रद्धा करना सम्यक्त्व है।
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५९०
11
J
"जीवके लिये मोक्षमार्ग है, नही तो उन्मार्ग है।
16.
wine 8
सर्वं जीवोंको हितकारी, सर्वं दु खोके क्षयका एक आत्यंतिक उपाय, परम सदुपायरूप वीतरागदर्शन है । उसकी प्रतीतिमे, उसके अनुसरणसे, उसकी आज्ञाके परम अवलबनसे जीव' भवसागर तर जाता है। 'समवायाग सूत्र' में कहा है 449
क
सर्वं दु खोका क्षय करनेवाला एक परम सदुपाय,
201507 है
श्रीमद राजचन्द्र
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तथा 2 लो
आत्मा क्या है ? कर्म क्या है ? उसका कत्र्ता कौन है ? उसका उपादान कौन है ?- निमित्त कौन है ? ' उसकी स्थिति कितनी है ? कर्त्ता कैसे है ? किस परिमाणमे वह बाँध सकता है ?" इत्यादि भावोका स्वरूप जैसा निर्ग्रथसिद्धातमे स्पष्ट, सूक्ष्म और संकलनापूर्वक है वैसा किसी भी दर्शनमें नही है ।" [अपूर्ण ]
* 1
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कसंवत् १९५३
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अपने समाधान के लिये यथाशक्ति जैनमार्गको जाना है, उसका सक्षेपमे कुछ भी विवेक (विचार) करता है "# 2, 1,, *
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वह जैनमार्ग जिस पदार्थका अस्तित्व है उसका अस्तित्व और जिसका अस्तित्व नही है ' उसका नास्तित्व मानता है
जिसका अस्तित्व है, वह दो प्रकारसे है, ऐसा कहते है जीव और अजीव । ये पदार्थ स्पष्ट भन्न हैं । कोई अपने स्वभावका त्याग नही कर सकता ।
19 15
अजीव रूपो और अरूपी दो प्रकारसे है।
'जीव अनत हैं । - प्रत्येक जीव तीनो कालोमे भिन्न भिन्न है । ज्ञान, दर्शन आदि लक्षणो से जीव पहचाना जाता है । प्रत्येक जीव असख्यात प्रदेशकी अवगाहनासे रहता है । संकोच विकासका भांजन है । अनादिसे कर्मग्राहक है । तथारूप स्वरूप जाननेसे, प्रतीतिमे लानेसे, स्थिर परिणाम होनेपर उस कर्म की निवृत्ति होती है । स्वरूपसे जीव वर्ण, गध, रस और स्पशंसे रहित है । अजर, अमर और शाश्वत वस्तु
1
है ।
' ७५६ S 3 जैनमार्गविवेक
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७५७ ॐ
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नमः सिद्धेभ्यः " मोक्षसिद्धांत
अनत अव्याबाध सुखमय परमपदकी प्राप्ति के लिये भगवान सर्वज्ञद्वारा निरूपित' 'मोक्षसिद्धात' उस भगवानको परम भक्तिसे नमस्कार करके कहता हूँ ।
555
द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और धर्मकथानुयोगले, महानिधि वीतराग प्रवचनको नमस्कार करता हूँ | 1747
नी
- कर्मरूप-वैरीका पराजय करनेवाले अर्हत भगवान, शुद्ध चेतन्यपद्मे सिद्धालयमे विराजमान सिद्ध भगवान, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन मोक्षके पाँच आचारोंका आचरण करनेवाले और अन्य
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.३० वा वष. '
भव्य जीवोंको उस आचारमें प्रवृत्त करनेवाले आचार्य भगवान, द्वादशागके अभ्यासी " और "उस श्रुतका शब्द, अर्थ और रहस्यसे अन्य भव्य जीवोको, अध्ययन करानेवाले' उपाध्याय' भगवान, ' और 'मोक्षमार्गका आत्मजागृतिपूर्वक साधन करनेवाले साधु भगवानको मे परम भक्तिसे नमस्कार करता हूँ।
॥ श्री ऋषभदेव श्री महावीरपर्यंत भरतक्षेत्रके "वर्तमान 'चौबीस तीर्थंकरोके 'परम उपकारका मै
"
575 फलकले
वारंवार स्मरण करता हूँ । [g] वर्तमानकालके चरम तीर्थंकरदेव श्रीमान वर्धमान जिनकी शिक्षा से अभी मोक्षमार्ग अस्तित्वमे है, उनके इस उपकारको सुविहित पुरुष वारवार आश्चर्यमय देखते हैं ।
कालदोषसे अपार श्रुतसागरके बहुतसे भागका विसर्जन होता गया और विन्दुमात्र अथवा अल्पमात्र वर्तमानमे विद्यमान हैं !
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7 1
अनेक स्थलोके विसर्जन होनेसे, अनेक स्थलोमे स्थूल निरूपण रहा होनेसे निग्रंथ भगवानके उस श्रुतका पूर्णं लाभ, वर्तमान मनुष्योको इस क्षेत्रमे प्राप्त नही होता |--
ॐ
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- अनेक मतमतातर आदिके उत्पन्न होनेका हेतु भी यही है, और इसीलिये निर्मल - आत्मतत्त्वके अभ्यासी मँहात्माओकी अल्पता हो गई ।
5
104
6
श्रुतके अल्प रह जानेपर भी, मतमतांतर अनेक होनेपर भी, समाधानके कितने ही साधन परोक्ष होनेपर भी, महात्मा पुरुषोके क्वचित् क्वचित् ही रहनेपर भी, हे आर्यजनो । सम्यग्दर्शन, श्रुतका रहस्यभूत परमपदका पथ, आत्मानुभव के हेतु, सम्यक्चारित्र और विशुद्ध आत्मध्यान आज भी विद्यमान है, यह परम हर्षका कारण है।
151
वर्तमानकालको नाम दु. षमकाल है ! इसलिये अनेक अतरायोंसे, प्रतिकूलतासे, साधनकी दुर्लभता होनेसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति दु खसे होती है, परंतु वर्तमानमे मोक्षमार्गका विच्छेद है, ऐसा' सोचनेकी 'जरूरत नही है । ७११ : पंचमकालमे हुए महर्षियोने भी ऐसा ही कहां है । तदनुसार भी यहाँ कहता हूँ ।
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सूत्र और दूसरे प्राचीन आचार्यों द्वारा तदनुसार रचे हुए अनेक शास्त्र विद्यमान है । सुविहित पुरुषोने तो, हितकारी बुद्धिसे ही रचे है । किन्ही मतवादी, हठवादी और शिथिलताके पोपर्क पुरुषोकी रची हुई कुछ पुस्तकें सूत्रसे अथवा जिनाचारसे, सेल, नः खाती हो और प्रयोजनकी मर्यादासे । बाह्य हों, उन पुस्तकोके उदाहरणसे-प्राचीन सुविहितः आचार्योक वचनोका उत्थापन करनेका प्रयत्न भवभीरू महात्मा नही करते; परन्तु उससे,उपकार होता है, ऐसा समझकर उनका बहुतः 'मान करते हुए, यथायोग्य सदुपयोग करते हैं।
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जिनदर्शन मे - दिगबर, और श्वेताबर ये दो भेद मुख्य हैं । मतदृष्टिसे उनमे बड़ा अंतर देखनेमे आता है। तत्त्वदृष्टिसे जिनदर्शनमे वैसा विशेष भेद मुख्यतः परोक्ष है, जो प्रत्यक्ष कार्यभूत हो सके उनमें वैसा भेद नही है । इसलिये दोनो सम्प्रदायोमे उत्पन्न होनेवाले गुणवान पुरुष सम्यग्दृष्टिसे देखते है; और जेसे तत्त्वप्रतीतिका अन्तराय कम हो वैसे प्रवृत्ति करते है ।
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जैनाभाससे प्रवर्तित दुसरे अनेक मतमतातर हैं, उनके स्वरूपका निरूपण करते हुए भी वृत्ति सकुचित होती है। जिनमे मूल प्रयोजनका भान नही है, इतना ही नही परन्तु मूल प्रयोजनसे विरुद्ध पद्धतिका अवलंबन रहा है 'उन्हें 'मुनित्वका स्वप्न भी कहासे हो ' 'क्योकि 'मूल प्रयोजनको भूल कर क्लेशमे पड़े हैं, और अपनी पूज्यता' आदिके लिये जोवोको परमार्थमार्गमे अतराय करते हैं।
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वेमुनिका लिंग भी धारण किये हुए नही है, क्योकि स्वकपोलरचनासे उनकी सारी प्रवृत्ति है ।जिनागम अथवा आचार्यकी परपराका नाम मात्र उनके पास है, वस्तुत. तो वे उससे पराङ्मुख ही हैं ।
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श्रीमद् राजचन्द्र . एक तुवे जैसी और डोरे जैसी अत्यत अल्प वस्तुके ग्रहण-त्यागके, आग्रहसे भिन्न मार्ग खड़ा करके प्रवृत्ति करते हैं, और तीर्थका भेद करते है. ऐसे महामोहमूढ जीव, लिंगाभासतासे.- भी आज वीतरागके दर्शनको घेर बैठे हैं, यही असंयतिपूजा नामका आश्चर्य लगता है।, : -- , , ... महात्मा पुरुषोकी अल्प भी प्रवृत्ति स्व-परको मोक्षमार्गसन्मुख करनेकी होती है। लिगाभासी जीव मोक्षमार्गसे पराड्मुख करनेमे अपने बलका प्रवर्तन देखकर हर्षित होते है, और यह सब कर्मप्रकृतिमे बढते हुए अनुभाग और स्थिति-वधके स्थानक है, ऐसा मैं मानता हूँ!' .. . ' - [अपूर्ण]
, - 1. , . .
. . . द्रव्य अर्थात् वस्तु, तत्त्व, पदार्थ । इसमे मुख्य तीन अधिकार हैं.। प्रथम अधिकारमे 'जीव और अजीव द्रव्यके मुख्य प्रकार कहे है।
दूसरे अधिकारमे जीव और अजीवका पारस्परिक संबंध और उससे जीवका हिताहित क्या है, उसे समझानेके लिये उसके विशेष पर्यायरूपसे पाप पुण्य आदि दूसरे सात तत्त्वोंका निरूपण किया है, जो सात तत्त्व जीव और अजीव इन दो तत्त्वोमे समा जाते है।
। । - - तीसरे अधिकारमे यथास्थित मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया है, कि जिसके लिये ही समस्त ज्ञानीपुरुपोका उपदेश है ।। ।। " .. . ..
.. ..
., 7 : पदार्थके, विवेचन और सिद्धातपर जिनकी नीव रखी गयी है, और उसके द्वारा जो मोक्षमार्गका प्रतिवोध करते हैं ऐसे छ दर्शन है-(५) बौद्ध, (२) न्याय, (३) साख्य, (४) जैन, (५) मीमासा और (६) वैशेपिक । वैशेषिकको यदि न्यायमे अंतर्भूत किया जाये तो, नास्तिक विचारका प्रतिपादक चार्वाक दर्शन छट्ठा माना जाता है। 5 । -
। - - 15T IFit) न्याय, वैशेषिक, साख्य, योग, उत्तरमीमासा और पूर्वमीमासा ये छ दर्शन वेद परिभाषामें माने गये है, उसकी अपेक्षा उपर्युक्त दर्शन भिन्न पद्धतिसे माने है इसका क्या कारण है.? ऐसा प्रश्न हो तो उसका समाधान यह है -,, -
71,
2017 । वेद परिभापासे बताये हुए दर्शन वेदको मानते हैं। इसलिये उन्हे इस दृष्टिसे-माना है, और उपर्युक्त क्रममें तो विचारकी परिपाटीके भेदसे माने है। जिससे यही क्रम योग्य हैं ..." । द्रव्य और गुणका अनन्यत्व-अविभक्तत्व अर्थात् प्रदेशभेद रहितत्व है, क्षेत्रांतर' नहीं है। द्रव्यके नाशसे गुणका नाश और गुणके नाशसे द्रव्यका नाश होता है ऐसा, ऐक्यभाव है। द्रव्य और गुणका भेद कहते हैं, सो कथनसे है, वस्तुसे नही है । सस्थान, सख्याविशेष आदिसे ज्ञान और ज्ञानीमे सर्वथा भेद हो तादाना: अचेतन हो जायें ऐसा सर्वज्ञ. वीतरागका सिद्धात है। ज्ञानक साथ समवाय सवधसे आत्मा ज्ञानी नहीं है। समवृतित्व ससवाय है।
-,
: 15:07 | ) : .. 5, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श परमाणु-द्रव्यके विशेष हे। , . . . . . . . . [अपूर्ण]
१० n is . Dai -~r . १९" .-.
.सवत् १९५३ यह अत्यंत सुप्रसिद्ध हे कि प्राणीमात्रको दु ख प्रतिकूल ओर अप्रिय हे और सुख अनुकूल तथा प्रिय है । उस दु खसे रहित होनेके लिये और सुखकी प्राप्तिके लिये प्राणीमात्रका प्रयत्न है। , ! ,
"प्राणीमात्रका ऐसा प्रयत्न होनेपर भी वे दुखका अनुभव करते हुए ही दृष्टिगोचर-होते, हे। क्वचित् कुछ सुखका अश किमी प्राणीको प्राप्त हुआ दीखता है, तो भी वह दुखकी बहुलतासे देखनेमे आता है।
१. देखें आक १६६ ‘पचास्तिकाय ४६, ४८, ४९ आर ५० । । । ।
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५९३
३० वा. वर्ष । • प्राणीमात्रको दु ख अप्रिय होनेपर-भी, और फिर उसे मिटानेके लिये, उसका प्रयत्न रहने पर भी वह दुख नही मिटता, तो फिर उस दुःखके दूर होनेका कोई उपाय ही नही है, ऐसा समझमे आता है, क्योकि जिसमे सभीका प्रयत्न निष्फल हो वह वात, निरुपाय ही होनी चाहिये, ऐसी यहाँ आशका होती है।
इसका समाधान इस प्रकारसे हे-दुखका स्वरूप यथार्थना समझनेसे, उसके होनेके मल कारण क्या है और वे किसमे मिट सके, इसे यथार्थ न समझनेसे, दु.ख मिटानेके सबधमे उनका प्रयतीस्वरूपसे अयथार्थ होनेसे दु ख मिट नही सकता। । ... दु ख अनुभवमे आता है, तो भी वह स्पष्ट ध्यानमे आनेके लिये थोडीसी उसकी व्याख्या करते है -
प्राणी, दो प्रकारके हैं-एक-वस स्वय भय आदिका कारण देखकर भाग जाते है, और चलनेफिरने इत्यादिकी शक्तिवाले है । दूसरे स्थावर-जिस स्थलमे देह धारण की है, उसी-स्थलमे स्थितिमान, अथवा भय आदिके कारणको जानकर भाग-जाने आदिको समझशुक्ति जिनमे नही है।
___अथवा एकेंद्रियसे लेकर पांच इद्रिय तकके प्राणी है। एकेद्रिय प्राणी स्थावर कहे जाते है, और दो इद्रियवाले प्राणियोसे लेकर पाँच, इद्रियवाले प्राणी, तकके, बस. कहे, जाते है। किसी भी प्राणीको पाँच इद्रियोसे अधिक इद्रियाँ नही होती। । FTER :
HTifi. एकेद्रिय प्राणीके पांच भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति । ..
वनस्पतिका जीवत्व साधारण मनुष्योको भी कुछ अनुमानगोचर होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका जीवत्व आगम-प्रमाणसे और विशेष विचारवलसे कुछ भी समझा जा सकता है। सर्वथा तो प्रकृष्ट ज्ञानगोचर है।
अग्नि और वायुके जीव कुछ गतिमान देखनेमे आते हैं, परतु उनको गति अपनी समझशक्तिपूर्वक नही होती, इस कारण उन्हे स्थावर कहा जाता है।. .. FOSTFTE:
एकेंद्रिय जीनोमे वनस्पति जीवत्व सुप्रसिद्ध है, फिर भी उसके प्रमाण इस ग्रंथमे अनुक्रमसे आयेंगे । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका जीवत्व इस प्रकारसे सिद्ध किया है. .. . ... ... . अपूर्ण
FGPlus TE-UP-
OF- सवत्,१९५३ : ' चैतन्य जिसका मुख्य लक्षण है, .:----
, -7 देह प्रमाण है, 1. असख्यात प्रदेशप्रमाण है। वह असख्याता प्रदेशता लोकपरिमित है, . . . . .
परिणामी है, अमूर्त है,. .
... .. . -1- . अनत अगुरुलघु परिणत द्रव्य है, वाभारि कर्ता है, ,:- i..
. भोक्ता है ,
. .
. अनादि ससारी है,
भव्यत्व लब्धि परिपाक आदिसे मोक्षसाधनमे प्रवृत्ति करता है. . . . | मोक्षाहोता है, . . . . . . . ( मोक्षमे स्वपरिणामो हे।
जीवलक्षण
' -
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सिद्धात्मा
५९४
श्रीमद् राजचन्द्र -,
: ससार अवस्थामे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग उत्तरोत्तर बधके """ स्थानक हैं। . , . , . . . . . . . .,
सिद्धावस्थामे योगका भी अभाव है। . . . . . . .. ::: , - ... मात्र चैतन्यस्वरूप आत्मद्रव्य सिद्धपद है-1 - F. --- --विभाव परिणाम 'भावकर्म' है। . . . पुद्गलसबध 'द्रव्यकर्म' है।
. , , . . । अपूर्ण]
--- - ." संवत् १९५३ । ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके योग्य जो पुद्गल ग्रहण होता है उसे 'द्रव्यास्रव' जानें। जिनेद्र भगवानने उसके अनेक भेद कहे हैं ।
जीव जिस परिणामसे कर्मका बध करता है वह 'भावबंध' है। कर्मप्रदेश, परमाणु और जीवका अन्योन्य प्रवेशरूपसे सबंध होना 'द्रव्यबध' है। - । .... .. - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इस तरह चार प्रकारका बध है। प्रकृति और प्रदेशबंध योगसे होता है, स्थिति और अनुभागबध कषायसे होता है।
' जो आस्रवको रोक सके वह.चैतन्यस्वभाव , 'भावसवर' है, और उससे जो द्रव्यास्रवको-रोके वह 'द्रव्यसवर' है । . ,
, ,
- ', .'व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहजय तथा चारित्रके जो, अनेक प्रकार है। उन्हे 'भावसवर' के विशेष जाने ।
जिस भावसे, तपश्चर्या द्वारा-या यथासमय कमके पुद्गल रस भोगा जानेपर गिर जाते हैं, वह 'भावनिर्जरा' है। उन पुद्गल परमाणुओका आत्मप्रदेशसे अलग हो जाना 'द्रव्यनिर्जरा है। ... सर्व कर्मोका क्षय होनेरूप आत्मस्वभाव ‘भावमोक्ष' है । कर्मवर्गणासे आत्मद्रव्यका अलग हो जाना द्रव्यमोक्ष है।
Er hirdy7- ' ' शुभ और अशुभ भावके कारण जीवको पुण्य और पाप होते हैं। सांता, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्रका हेतु 'पुण्य' है, 'पाप' से उससे विपरीत होता है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षके कारण है । व्यवहारनयसे वे तीनो है । निश्चयसे आत्मा इन तीनोरूप है।
आत्माको छोडकर ये तीनो रत्न-दूसरे किसी.भी-द्रव्यमे नही रहते, इसलिये आत्मा इन तीनोरूप है, और इसलिये मोक्षका कारण भी आत्मा ही है।
जीव आदि तत्त्वोके प्रति आस्थारूप आत्मस्वभाव 'सम्यग्दर्शन' है; जिससे मिथ्या आग्रहसे रहित 'सम्यग्ज्ञान' होता है।
सशय, विपर्यय और भ्रातिसे रहित आत्मस्वरूप और परस्वरूपको यथार्थरूपसे ग्रहण कर सके वह 'सम्यग्ज्ञान' है, जो साकारोपयोगरूप है । उसके अनेक भेद हैं।
भावोके सामान्य स्वरूपको जो उपयोग ग्रहण कर सके वह 'दर्शन' है, ऐसा आगममे कहा है । 'दर्शन' शब्द श्रद्धाके अर्थमे भी प्रयुक्त होता है।
छद्मस्थको पहले दर्शन और पीछे ज्ञान होता है । केवलो. भगवानको दोनो एक साथ होते हैं। ____ अशुभ भावसे निवृत्ति और शुभ भावमे प्रवृत्ति होना सो 'चारित्र' है। व्यवहारनयसे उस चारित्रको श्री वीतरागोने व्रत, समिति और गुप्तिरूपसे कहा है।
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३० वॉ वर्ष
५९५ । ससारके मूल हेतुओको 'विशेष नाश करनेके लिये ज्ञानीपुरुपकी बाह्य और अतरग क्रियाका जो निरोध होता है, उसे वीतरागोने परमसम्यक्चारित्र' कहा है।
मुनि ध्यानद्वारा मोक्षके हेतुरूप इन दोनो चारित्रोको अवश्य प्राप्त करते हैं, इसलिये प्रयत्नवान चित्तसे ध्यानका उत्तम अभ्यास करें ।
यदि आप अनेक प्रकारके ध्यानकी प्राप्तिके लिये चित्तकी स्थिरता चाहते हैं तो प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुमे मोह न करे, राग न करें और द्वेष न करें।'
पैतीस, सोलह, छ , पाँच, चार, दो और एक अक्षरके परमेष्ठोपदके वाचक जो मत्र है, उनका जपपूर्वक ध्यान करें। विशेष स्वरूपको श्री गुरुके उपदेशसे जानना योग्य है। - - - ।' [अपूर्ण ]
७६२
संवत् १९५३ । । ॐ नमः . . . . . सर्व द खका आत्यतिक अभाव और परम अव्याबाध सुखकी प्राप्ति हो मोक्ष है और वही परमहित है। ', - - . . .
. . . वीतराग सन्मार्ग उसका सदुपाय है। वह सन्मार्ग सक्षेपमे इस प्रकार है :सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको एकत्रता 'मोक्षमार्ग' है। सर्वज्ञके ज्ञानमे भासमान तत्त्वोकी सम्यकप्रतीति होना- सम्यग्दर्शन' है। उन तत्त्वोका बोध होना ‘सम्यग्ज्ञान' है। . . . . . . . . . . उपादेय तत्त्वका अभ्यास होना 'सम्यक्चारित्र' है। ..... . . शुद्ध आत्मपद स्वरूप वीतरागपदमे स्थिति होना, यह.तीनोकी एकत्रता हे। ..
सर्वज्ञदेव, निग्रंथगुरु और सर्वज्ञोपदिष्ट धर्मको प्रतीतिसे तत्त्वप्रतीति प्राप्त होती है। ... सर्व ज्ञानावरण, दर्शनावरण, सर्व मोह और सर्व वीर्य आदि अतरायका क्षय होनेसे आत्माका सर्वज्ञवीतराग स्वभाव प्रगट होता है।' । निग्रंथपदके अभ्यासका उत्तरोत्तर क्रम उसका मार्ग है। उसका रहस्य सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म है । ७६३
सं० १९५३ गरुके उपदेशसे सर्वज्ञकथित आत्माका स्वरूप जानकर, सुप्रतीत करके उसका ध्यान करें।
ज्यो ज्यो ध्यानविशुद्धि होगी त्यो त्यो ज्ञानावरणीयका क्षय होगा। । अपनी कल्पनासे वह ध्यान सिद्ध नहीं होता।
जिन्हे ज्ञानमय आत्मा परमोत्कृष्ट भावसे प्राप्त हुआ है, और जिन्होने परद्रव्यमात्रका त्याग किया है, उन देवको नमन हो । नमन हो !
वारह प्रकारके, निदानरहित तपसे, वैराग्यभावनासे भावित और अहभावसे रहित ज्ञानीको कर्मोकी निर्जरा होती है।
वह निर्जरा भी दो प्रकारको जाननी चाहिये-स्वकालप्राप्त और तपसे । एक चारो गतियोमे होती है, दूसरी व्रतधारीको ही होती है।
ज्यो ज्यो उपशमको वृद्धि होती हे त्यो त्यो तप करनेसे कर्मको बहुत निर्जरा होती है।
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५९६
श्रीमद् राजचन्द्र उस निर्जराका क्रम कहते हैं ।, मिथ्यादर्शनमे रहता हुआ भी थोडे - समयमे उपशम सम्यग्दर्शन पानेवाला है, ऐसे जीवकी अपेक्षा असयत सम्यग्दृष्टिको असख्यातगुण निर्जरा होती है, उससे असख्यातगुण निर्जरा देशविरतिको होती है, उससे असख्यातगुण निर्जरा सर्वविरति ज्ञानीको होती है, उससे
. . . . . . . अपूर्ण,
।'
.
'
श
___७६४ . . .
. . . ,
स० १९५३
.
___ हे जीव | इतना अधिक प्रमाद क्या ?:- . ..
... ., 775 शुद्ध आत्मपदकी प्राप्तिके लिये वीतराग सन्मार्गकी उपासना कर्तव्य है। सर्वज्ञदेव
निर्ग्रन्थ गुरु . शुद्ध आत्मदृष्टि होनेके अवलवन हैं। . . दया मुख्यधम , ,
, , . ।। श्री गुरुसे सर्वज्ञके अनुभूत शुद्धात्मप्राप्तिका उपाय जानकर, उसका रहस्य ध्यानमे लेकर आत्मप्राप्ति करे।
यथाजातलिंग सर्वविरतिधर्म । द्वादशविध देशविरतिधर्म । '.... .
. द्रव्यानयोग ससिद्ध-स्वरूपदष्टि होनेसे, . . . . . . . . . . करणानुयोग सुसिद्ध-सुप्रतीतदष्टि होनेसे. .. .:;... , -: चरणानुयोग सुसिद्ध-पद्धति विवाद शात करनेसे; -
न रसी - . . . - धर्मकथानुयोग सुसिद्ध-बालबोधहेतु समझानेसे। ..... . . ७६५ . . . . . . . -स० १९५३
गरु
' मोक्षमार्गका अस्तित्व -प्रमाण । - निर्जरा . ' -:- , - आगम आप्त नया वध
संयम अनेकात ।
मोक्ष . , , वर्तमानकाल धर्म
लोक जीन -
गणस्थानक धर्मकी योग्यता 1. अलोक ' .
' , कर्म
अहिंसा चारित्र
करणानयोग ।' जीव न सत्य 1107१, } , '
" चरणानुयोग
कर अजीव
असत्य
द्रव्य
5 धर्मकथानुयोग पुण्य ।।। - ...' - 7 ब्रह्मचर्य 7-11 . गुण ।'
मुनित्व पाप अपरिग्रह । पर्याय
गृहधर्म की आस्रव ; . आज्ञा : ..|| - , ससार, 7, 1. -", परिषह सवर
व्यवहार । एकेन्द्रियका अस्तित्व ; - उपसर्ग: FI. ---. . . .' T
IS
MES
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..३० वो वर्ष
२३
.. .... सवत् १ -ॐ सर्वज्ञाय नमः । नमः सद्गुरवे।, -5-7 ... ...
पंचास्तिकाय . . . . . . . . . १. सौ इन्द्रोंसे वन्दनीय, तीनलोकके कल्याणकारी, मधुर और निर्मल जिनके वाक्य है, जिनके गुण हैं, जिन्होने ससारका पराजय किया है ऐसे भगवान सर्वज्ञ वीतरागको नमस्कार । . ---- २ सर्वज्ञ महामुनिके मुखसे उत्पन्न ,अमृत, चार गतिसे जीवको मुक्तकर निर्वाण प्राप्त करा आगमको नमन करके यह शास्त्र कहता हूँ उसे श्रवण करें। - .. ३.. पाँच अस्तिकायके समूहरूप अर्थसमयको सर्वज्ञ वीतरागदेवने 'लोक', कहा है, उसके अ मात्र आकाशरूप अनन्त 'अलोक' है। ६, १. ४-५ , 'जीव', 'पुद्गलसमूह', 'धर्म', 'अधर्म' तथा 'आकाश' ये पदार्थ, अपने अस्तित्वमे नि रहते हैं, अपनी सत्तासे अभिन्न है, और अनेक प्रदेशात्मक है। - अनेक गुण, और पर्यायसहित अस्तित्वस्वभाव है,वे अस्तिकाय' हैं। उनसे त्रैलोक्य उत्पन्न होता है।। - ... ,
६ ये अस्तिकाय तीनो कालमे भावरूपसे परिणामी हैं, और परावर्तन लक्षणवाले काल छहो 'द्रव्यसंज्ञा' को प्राप्त होते हैं। ' . . . . . .
. ७. ये द्रव्य एक दूसरेमे प्रवेश करते है, एक दूसरेको अवकाश देते हैं, परस्पर मिल जाते है अलग हो जाते है। परन्तु अपने स्वभावका त्याग नहीं करते।
' ८ सत्तास्वरूपसे सब पदार्थ एकत्ववाले हैं, वह सत्ता अनन्त प्रकारके स्वभाववाली है। गुण और पर्यायात्मक है, उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप एवं सामान्य विशेषात्मक है। . - -
९ जो उन उन अपने सद्भावपर्यायो गुणपर्याय स्वभावोको प्राप्त होता हे उसे द्रव्या कहते अपनी सत्तासे अनन्य है। 1 -१० द्रव्य सत् लक्षणवाला है, जो उत्पादव्ययध्रौव्यसहित है, जो गुणपर्यायका आश्रय है. . . .११ द्रव्यकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, उसका 'अस्ति' स्वभाव ही है। उत्पाद, व्य ध्रुवत्व ये पर्यायके कारण होते है।
. १२ पर्यायरहित द्रव्य नही है और द्रव्यरहित पर्याय नहीं है, दोनो अनन्यभावसे है, ऐसा = कहते हैं। ' १३ द्रव्यके बिना गुण नही होते और गुणोके बिना द्रव्य नहीं होता, इसलिये द्रव्य अ दोनोका अभिन्न भाव है। .. .१४ 'स्यात् 'अस्ति', 'स्यात् नास्ति', 'स्यात् अस्ति नास्ति', 'स्यात् अवक्तव्य', 'स्यात अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' 'स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य', यो, विवक्षासे द्रव्य भग होते हैं! - .
' भाव-दत्यका नाश नहीं होता, और अभाव-अद्रव्यकी -उत्पत्ति नहीं होती। गण स्वभावसे उत्पाद और व्यय होते हैं।
१६ जीव आदि पदार्थ है । जीवके गुण चेतना और उपयोग हैं। देव, मनुष्य, नारक आदि, जीवके अनेक पर्याय हैं ।।१६।।
१. देखें आक ८६६। . . . . .
सर्वज्ञदेव कहते हैं।
पाल
उनक
941
व्यापा
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श्रीमद राजचन्द्र
१७ मनुष्यपर्यायसे नष्ट हुआ जीव देव या अन्य पर्यायसे उत्पन्न होता है । दोनोमे जीवभाव ध्रुव है । वह नष्ट होकर कुछ अन्य नही होता ।
7
१८. जो जीव उत्पन्न हुआ था वही जीव नष्ट हुआ है । वस्तुत तो वह जीव उत्पन्न नही हुआ और नष्ट भी नही हुआ । उत्पत्ति और नाश देवत्व और मनुष्यत्वका होता है ।
'१९ इस तरह सत्का विनाश, और असत् जीवका उत्पाद नही होता । जीवके देव, मनुष्य आदि पर्याय गतिनामकर्म से होते हैं ।
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५९८
२० - ज्ञानावरणीय आदि कर्मभाव जीवने सुदृढ (अवगाढ) रूपसे बाँधे हैं, उनका अभाव करनेसे वह अभूतपूर्व 'सिद्ध भगवान' होता है ।
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२१ इस तरह गुणपर्यायसहित जीव भाव, अभाव, भावाभाव:- और अभावभावसे ससारमे परिभ्रमण करता है ।
२२ जीव, पुद्गलसमूह, ' आकाश तथा दूसरे अस्तिकाय किसीके बनाये हुए नही हैं, 'स्वरूपसे ही अस्तित्ववाले है, और लोकके कारणभूत हैं ।.
२३ सद्भाव स्वभाववाले जीवो और पुद्गलके परावर्तन से उत्पन्न जो काल है उसे निश्चयकाल कहा है ।
२४. वह काल पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शसे रहित है, अगुरुलघु है, अमूर्त है और वर्तना लक्षणवाला है ।
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१.
२५ समय, निमेष, काष्ठा, कला, नाली, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, मास, ऋतु और सवत्सर आदि यह व्यवहारकाल है । T
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२६ कालके किसी भी परिमाण (माप) के बिना बहुत काल, अल्प काल यो नही कही जा सकता । उसकी मर्यादा पुद्गलद्रव्यके विना नही होती । इस कारण कालका पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न होना कहा जाता है ।
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25
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- २७`जीवत्ववाला,' ज्ञाता, उपयोगवाला, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, वस्तुतः अमूर्त और कर्मावस्थामे मूर्त्त ऐसा जीव है ।
२८. कर्ममलसे सर्वथा मुक्त हो जाने से सर्वज्ञ और 'सर्वदर्शी आत्मा ऊर्ध्वं लोकातको प्राप्त होकर अतीद्रिय अनन्त सुखको प्राप्त होता है ।
1
- २९ अपने स्वाभाविक भावसे आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है और अपने कमसे मुक्त होनेसे वह अत सुखको प्राप्त होता है ।
३० वल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास इन चार प्राणोसे जो भूतकालमे जीता था, वर्तमानकालमे जीता है, और भविष्यकालमे जीयेगा वह 'जीव' है ।
5.
:
३१ अनंत अगुरुलघु- गुणोसे निरतर परिणत 'अनत जीव हैं ।" वे असंख्यात प्रदेशप्रमाण हैं । कुछ जीव लोकप्रमाण अवगाहनाको प्राप्त हुए हैं ।' 1- 150 133
7
३२ कुछ जीव उस अवगाहनाको प्राप्त नही हुए है । मिथ्यादर्शन, कषाय और योगसहित अनंत ससारी जीव है । उनसे रहित अनंत सिद्ध हैं। और 356
३३. जिस प्रकार पद्मराग नामका रत्न दूधमे डालनेसे दूधके परिमाणके अनुसार प्रकाशित होता है, उसी प्रकार देहमे स्थित आत्मा मात्र देहप्रमाण प्रकाशक व्यापक है ।
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३४ जैसे एक कायामे सर्वं अवस्थाओमे वहीका वही जीव रहता है, वैसे सर्वत्र ससारावस्थामे भी वहीका वही जीव रहता है । अध्यवसाय विशेषसे कर्मरूपी रजोमलसे वह जीव मलिन होता है।
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TETS
-
I
.३० वां वर्ष
५९९ .: ३५ जिनको प्राणधारिता नही है, जिनको प्राणधारिताका सर्वथा अभाव हो गया है, वे-देहसे भिन्न और वचनसे अगोचर जिनको स्वरूप हैं ऐसे सिद्ध" जीव हैं।।' IF , . .
" ३६ वस्तूदष्टिंसे देखें तो "सिद्ध पदं उत्पन्न नही होती, क्योकि वह किसी दूसरे पदार्थसे उत्पन्न होनेवाला कार्य नहीं है, इसी तरह वह किसीके प्रति कारणरूप भी नहीं है, क्योकि किसी अन्य सम्बन्धसे उसको प्रवृत्ति नही है।" in shirdi -
३७. यदि मोक्षमे जीवका अस्तित्व ही न हो तो शाश्वत, अशाश्वत, भव्य, अभव्य, शून्य, अशून्य, विज्ञान और अविज्ञान ये भाव किसको हो ?"'"
३८. कोई जीव कर्मके फलका वेदन करते है, कोई जीव कर्मवधकर्तृत्वका वेदन करते हैं, और कोई जीव.मात्र शुद्ध ज्ञानस्वभावका वेदन करते है, इस तरह वेदकभावसे जोवराशिके तीन भेद हैं।
३९स्थावर कायके जीव' अपने अपने किये हुए कर्मोके फलंका वेदन करते हैं, बस जीव'कर्मबंध चेतनाका वेदन करते है, और प्राणरहित अतीद्रिय जीव शुद्धज्ञानचेतनाका वेदन करते हैं। .
४० ज्ञान और दर्शनके भेदसे उपयोग दो प्रकारका है, उसे जीवसे सर्वदा अनन्यभूत समझें। "."
४१ मति, श्रुत, अवधि, मन पर्याय और केवल ये ज्ञानके पाँच भेद है। कुमति, कुश्रुत और विभग ये अज्ञानके तीन भेद है । ये सब ज्ञानोपयोगके भेद है।
४२ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और अविनाशी अनंत केवलदर्शन ये दर्शनोपयोगके चार भेद है। ज्ञानी
... ४३. आत्मासे ज्ञानगुणका सम्बन्ध है, और इसीसे आत्मा ज्ञानी है ऐसा नही है, परमार्थसे दोनोमे अभिन्नता हो, है,
!.,... .... ४४ यदि ,व्य भिन्न-हो और गुण भी भिन्त हो तो एक द्रव्यके अनुत द्रव्य हो जायें, अथवा द्रव्यका अभाव हो जाये |- --
7 ४५ द्रव्य और गुण अनन्यरूपसे हैं, दोनोमे प्रदेशभेद नही है।। द्रव्यके नाशसे., गुणका नाश हो जाता है और गुणके नाशसे,गव्यका नाश हो जाता है ऐसा उनमे एकत्व है,m .
४६ व्यपदेश (कथन), सस्थान, सख्या और विषय इन चार प्रकारको विवक्षाओसे द्रव्यगुणके, अनेक भेद हो सकते है, परन्तु परमार्थनयसे ये चारो अभेद है। . . . .
४७ जिस तरह यदि पुरुषके पास धन हो तो वह धनवान कहा जाता है, उसी तरह आत्माके पास ज्ञान है, जिससे वह ज्ञानवान कहा जाता है। इस तरह भेद-अभेदका स्वरूप है, इसे तत्त्वज्ञ-दोनो प्रकारसे जानते है। १ ४८ यदि आत्मा और ज्ञानका सर्वथा भेद हो तो दोनो-ही-अचेतन, हो जायें ऐसा वीतराग सर्वका सिद्धात है।
...४९: ज्ञानका सम्बन्ध होनेसे आत्मा ज्ञानी होता है , ऐसा,माननेसे . आत्मा और, अज्ञान-जडत्वका ऐक्य होनेका प्रसग आता है। " .
. . ५० समवर्तित्व समवाय है । वह अपृथक्भूत और अपृथक् सिद्ध है, इसलिये वीतरागोंने द्रव्य और गुणके सम्बन्धको अपृथक् सिद्ध कहा-है। - --
-.. ५१. वर्ण, रस: गध और स्पर्श ये चार विशेष (गुण) परमाणु द्रव्यसे अभिन्न है। व्यवहारसे वे पुद्गलद्रव्यसे भिन्न कहे जाते है।
: ।।, ५२. इसी तरह दर्शन.,और ज्ञान भी जीवसे अनन्यभूत हैं । व्यवहारसे. उनका आत्मामे भेद कहा जाता है।
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श्रीमद राजचन्द्र
१७ मनुष्यपर्यायसे नष्ट हुआ जीव देव या अन्य पर्यायसे उत्पन्न होता है । दोनोमे जीवभाव ध्रुव है । वह नष्ट होकर कुछ अन्य नही होता ।
१८ जो जीव उत्पन्न हुआ था वही जीव नष्ट हुआ है। वस्तुत तो वह जीव उत्पन्न नही हुआ और नष्ट भी नही हुआ । उत्पत्ति और नाश देवत्व और मनुष्यत्वका होता है ।
१९ इस तरह सत्का विनाश, और असत् जीवको उत्पाद नहीं होता । जीवके देव, मनुष्य आदि पर्याय गतिनामकर्म से होते हैं ।
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५९८
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२० ज्ञानावरणीय आदि कर्मभाव जीवने सुदृढ (अवगाढ) रूपसे बाँधे हैं, उनका अभाव करनेसे वह अभूतपूर्व 'सिद्ध भगवान' होता है ।
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२१ 'इस तरह गुणपर्यायसहित जीव भाव, अभाव, भावाभाव:- और अभावभावसे ससारमे परिभ्रमण करता है ।
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२२ जीव, पुद्गलसमूह, आकाश तथा दूसरे अस्तिकाय' किसीके बनाये हुए नही हैं, 'स्वरूपसे ही अस्तित्ववाले है, और लोकके कारणभूत हैं ।
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२३ सद्भाव स्वभाववाले जीवो और पुद्गलके परावर्तन से उत्पन्न जो काल है उसे निश्चयकाल
कहा है।
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२४ वह काल पाँच वर्ण, पॉच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शसे रहित है, अगुरुलघु है, अमूर्त है और वर्तन लक्षणवाला है. ।
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२५ समय, निमेप, काष्ठा, कला, नाली, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, मास, ऋतु और सवसर आदि यह व्यवहारकाल हे |
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२६ कालके किसी भी परिमाण (माप) के बिना बहुत काल, अल्प काल यो नही कही जा सकताः । उसकी मर्यादा- पुद्गलद्रव्यके बिना नही होती । इस कारण 'कालका पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न होना कहा जाता है ।
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-२७ जीवत्ववाला, ' ज्ञाता, उपयोगवाला, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, 'देहप्रमाण, वस्तुतः अमूत्तं और कर्मावस्थामे मूर्त्त ऐसा जीव है ।
२८. कर्ममलसे सर्वथा मुक्त हो जाने से सर्वज्ञ और 'सर्वदर्शी आत्मा ऊर्ध्वं लोकातको प्राप्त होकर अतीद्रिय अनन्त सुखको प्राप्त होता है ।
२९. अपने स्वाभाविक भावसे आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है और अपने कर्मसे मुक्त होने से वह अनत सुखको प्राप्त होता है ।
३०. बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास इन चार प्राणोसे जो भूतकालमें जीता था, वर्तमानकालमे जीता है, और भविष्यकालमे जीयेगा वह 'जीव' है ।
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20
दु
३१ अनत अगुरुलघु- गुणो से निरतर परिणत अनंत जीव है । 'वे असंख्यात प्रदेशप्रमाण हैं । कुछ जीव लोकप्रमाण अवगाहनाको प्राप्त हुए हैं।
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CIF
३२ कुछ जीव उस अवगाहनाको प्राप्त नही हुए है । मिथ्यादर्शन, कषाय और योगसहित अन ससारी जीव है । उनसे रहित अनंत सिद्ध हैं ।
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३३ जिस प्रकार पद्मराग नामका रत्न दूधमे डालनेसे दूध के परिमाणके अनुसार प्रकाशित होता है, उसी प्रकार हमें स्थित आत्मा मात्र देहप्रमाण प्रकाशक व्यापक है |
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३४. जैसे एक कायामे सर्व अवस्थाओमे वहीका वही जीव रहता है, वैसे सर्वत्र ससारावस्थामें भी वहीका वही जीव रहता है । अध्यवसाय विशेषसे कर्मरूपी रजोमलसे वह जीव मलिन होता है ।
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३० वां वर्ष.
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३५ जिनको प्राणधारिता नही है, जिनको प्राणधारिताका सर्वथा अभाव' हो गया है, वे – देहसे
भिन्न और वचनसे अगोचर जिनका स्वरूप हैं ऐसे- सिंद्ध जीव हैं ।
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३६ "वस्तुदृष्टिसे देखें तो "सिद्ध पद उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह किसी दूसरे पदार्थ से उत्पन्न होनेवाला कार्य नही है, इसी तरह वह किसीके प्रति 'कारणरूप भी नहीं है, क्योकि किसी अन्य सम्बन्धसे उसकी प्रवृत्ति नही है ।
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३७ यदि मोक्षमे जीवका .अस्तित्व ही न हो तो शाश्वत, अशाश्वत, भव्य, अभव्य, शून्य, अशून्य, विज्ञान और अविज्ञान ये भाव किसको हो ?
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178-1-2 ३८, कोई जीव कर्मके फलका वेदन करते है, कोई जीव कर्मबधकर्तृत्वका वेदन करते हैं, और कोई जीव मात्र शुद्ध ज्ञानस्वभावका वेदन करते हैं, इस तरह वैर्दकभावसे जीवराशिके तीन भेद हैं। ३९. स्थावर कायके जीव' 'अपने अपने किये हुए कर्मोके फलका वेदन करते हैं, त्रस जीव कर्मबधे चेतनार्का वेदन करते हैं, और प्राणरहित अतीद्रिय जीव शुद्धज्ञानचेतनाका वेदन करते हैं । **,, * ४०, ज्ञान और दर्शनके भेदसे उपयोग दो प्रकारका है, उसे जीवसे सर्वदा अनन्यभूत समझें । ४१ मत, श्रुत, अवधि, मन पर्याय और केवल ये ज्ञानके पांच भेद है। कुमति, कुश्रुत और विभग ये अज्ञानके तीन भेद हैं । ये सब ज्ञानोपयोगके भेद हैं।
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४२ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और अविनाशी अनत केवलदर्शन, ये दर्शनोपयोगके चार
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भेद हैं
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४३ आत्मासे ज्ञानगुणका सम्बन्ध है, और इसीसे आत्मा ज्ञानी है ऐसा नहीं है, परमार्थसे दोनोमे अभिन्नता हो है,
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४४, यदि द्रव्य भिन्न हो और गुण भी भिन्न हो तो एक द्रव्यके अद्भुत द्रव्य हो जायें, अथवा द्रव्यका अभाव हो जाये। --
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४५ द्रव्य और गुण अनन्यरूपसे है, दोनोमे प्रदेशभेद नही है । द्रव्यके नारासे- गुणका नाश हो जाता है और गुणके नाशसे द्रव्यका नाश हो जाता है ऐसा उनमें एकत्व है।
४६ व्यपदेश (कथन), संस्थान, सख्या और विषय इन चार प्रकारको विवक्षाओसे द्रव्यगुणके, अनेक FRX0 भेद, हो, सकते है, परन्तु परमार्थनयसे ये चारो अभेद है ! -
४७. जिस तरह यदि पुरुषके पास धन हो तो वह धनवान कहा जाता है, उसी तरह आत्माके पास ज्ञान है, जिससे वह ज्ञानवान कहा जाता है । इस तरह भेद- अभेदका स्वरूप है, इसे तत्त्वज्ञ दोनो प्रकारसे जानते है ।
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३-४८ यदि आत्मा और ज्ञानका सर्वथा भेद हो तो दोनो ही अचेतन हो जायें ऐसा वीतराग, सर्वज्ञका सिद्धांत है ।
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-- ४, ४९ · ज्ञानका सम्बन्ध होनेसे आत्मा ज्ञानी होता है, ऐसा मानने से, आत्मा और अज्ञान - जडत्वका ऐक्य, होनेका प्रसग आता है
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५० समवर्तित्व समवाय है । वह अपृथक्भूत और अपृथक् सिद्ध है, इसलिये वीतरागोने द्रव्य और गुणके सम्बन्धको अपृथक सिद्ध कहा है। । : ५१. वर्ण, रस, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गलद्रव्यसे भिन्न कहे जाते हैं। ।। ५२. इसी तरह दर्शन और ज्ञान भी जीवसे अनन्यभूत हैं । व्यवहारसे उनका आत्मासे भेद कहा
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जाता है ।
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विशेष (गुणं) परमाणु द्रव्यसे अभिन्न हैं । व्यवहारसे वे
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श्रीमद् राजचन्द्र
५३ आत्मा (वस्तुत ) अनादि अनंत है और सतानकी अपेक्षासे सादि-सात भी है और सादिअनंत भी है । पाँच भावोकी प्रधानतासे वे सब भग होते हैं । सद्भावसे जीव द्रव्य अनत है । -
५४ इस तरह सत् (जीव-पर्याय) का विनाश और असत् जीवका उत्पाद परस्पर विरुद्ध होनेपर भी जैसा अविरोधरूपसे सिद्ध है वैसा सर्वज्ञ वीतरागने कहा है ।
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५५ नारक, तियंच, मनुष्य और देव-ये नामकर्मको प्रकृतियाँ सत्का विनाश और असत् भावका उत्पाद करती है । ~25,
५६. उदय, उपशम, क्षायिक, क्षयोपशम और पारिणामिक भावोसे 'जीवके गुणोंका बहुत विस्तार है। ५७, ५८, ५९
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६० द्रव्यकर्मका निमित्त पाकर जीव उदय आदि भावोमे परिणमन करता है, भावकर्मको निमित्त पाकर द्रव्यकर्मका परिणमन होता है। कोई किसीके भावका कर्ता नही है, और कर्ता के बिना होते नही हैं । ६१. सब अपने अपने स्वभाव के कत्र्ता है, इसी तरह आत्मा भी अपने ही भावका कर्त्ता हैं, आत्मा पुद्गलकर्मका कर्त्ता नहीं है, ये वीतराग-वचन समझने योग्य हैं ।
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६२ कर्म अपने स्वभावके अनुसार यथार्थ परिणमन करता है, उसी प्रकार जीद अपने स्वभाव के अनुसार 'भावकर्मको करता है ।
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६३ यदि कर्म ही कर्मका कर्ता हो, और आत्मा हो' आत्माका कर्त्ता हो, तो फिर उसे कर्म का फल कौन भोगेगा ?" और कर्म' अपने' फलको 'किसे देगा ?
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६४ सपूर्ण लोक पुद्गल - समूहोसे भरपूर भरा हुआ है सूक्ष्म और वादर ऐसे विविध प्रकार से अन
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कधोंसे ।
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६५ आत्मा जब भावकर्मरूप अपने स्वभावको करता है, तब वहाँ रहे हुए पुद्गलप॑रमाणु अपने स्वभावके कारण कर्मभावको प्राप्त होते है, और परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूपसे अवगाढता पाते हैं ।" ६६ कोई कर्ता नही होने पर भी जैसे पुद्गलद्रव्यसे अनेक स्कधोकी उत्पत्ति होती है वैसे ही कर्म - रूपसे स्वभावतं पुद्गलद्रव्य परिणमितं होते है ऐसा जान 55 ६७ जीव और पुद्गलसमूह परस्पर अवगाढ ग्रहण से जीव सुखदुखरूप फलका वेदन करता है। AM 150 157 2.26 (5-1
प्रतिबद्ध हैं । इसलिये यथाकाल उदय होनेपर
६८ इसलिये कर्मभावका कर्ता जीव है और भोक्ता भी जीव है । वेदक भावके कारण वह कर्म - फलंका अनुभव करता है ।
20
', ६९ इस तरह आत्मा" अपने भावसे कर्त्ता और भोक्ता होता है । मोहसे भलीभांति, आच्छादित जीव ससारमे परिभ्रमण करता है ।
७० • ( मिथ्यात्व) मोहका उपशम होनेसे अथवा ' क्षय होनेसे वीतरागकथित मार्गको प्राप्त हुआ धीर, शुद्ध ज्ञानाचारवान जीव निर्वाणपुरको जाता है ।
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७१-७२. एक प्रकारसे, दो प्रकारसे, तीन प्रकार से, चार गतियोंके भेदसे- पाँच गुणोकी मुख्यता, छ कायके भेदसे, सात भगोके उपयोगसे, आठ गुणो अथवा आठ कर्मोंके भेदसे, नव तत्त्वसे, और दर्शस्थानक से जीवका निरूपण किया गया है।
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७३. प्रकृतिवध, स्थितिबंध, अनुभागवध और प्रदेशबध से सर्वथा मुक्त होने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है । ससार अथवा कर्मावस्थामे - जीव विदिशाको' छोडकर दूसरी दिशाओमे गमना करता है. 2 ७४ स्कध, स्कधदेश, स्कध प्रदेश और परमाणु इस तरह पुद्गलास्तिकायके चार भेद समझे । ७५' सकल' समस्तकोस्कध', उसके आधेको 'देश', 'उसके आधेको प्रदेश और अविभागीको 'परमाणु' कहते हे । 1 Tow
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... ३० वाँ वर्ष
६०१ ७६ बादर और सूक्ष्म परिणमन पाने योग्य स्कंधोसे पूरण (बढना) और गलना (घटना, विभक्त होना) स्वभाव जिनका हैं वे पुद्गल कहे जाते है । उनके छ भेद है। जिनसेऽवलोक्य उत्पन्न होता है। FF७७सवं स्कंधोका जो अतिम भेद है वह परमाणु है। वह शाश्वत, शब्दरहित, एक, अविभागी
और मूर्त होता है। Verse: जो विवक्षासे मूर्त और चार धातुओका कारण है उसे परमाणु जानना चाहिये। वह परिणामी है, स्वयं अशब्द अर्थात् शब्दरहित है, परंतु शब्दका कारण हैं| FTime
: ७९" स्कधस शब्द उत्पन्न होता है। अनत परमाणुओके मिलापके सात-समूहको स्कध' कहा हैं। इन स्कधो' को परस्पर स्पर्श होनेसे, संघर्ष होनेसे निश्चय ही 'शब्द' उत्पन्न होता है.
८०, वह परमाणु नित्य है,, अपने रूप आदि गुणो को अवकाश-आश्रय देता है, स्वय एकप्रदेशी होनेसे एक प्रदेशके बाद अवकाशको प्राप्त नहीं होता, दूसरे द्रव्यको अवकाश (आकाशको तरह) नही देता, स्कूधके भेदका कारण है स्कधुके खडका, कारण है, स्कका कर्ता है, और कालके परिमाण (माप) और सख्या, गिनती)का-हेतु है।
काम ! - ८१. जो द्रव्य एक रस, एक वर्ण, एक गध और दो स्पर्शसे युक्त है, शब्दकी उत्पत्तिका कारण है, एकप्रदेशात्मकतासे, शब्दरहित है, स्कंधपरिणमित होनेपर भी उससे भिन्न हैं उसे परमाणु समझे।
. ८२ जो इद्रियोसे उपभोग्य है, तथा काया, मन और कर्म आदि'जो जो मूर्त पदार्थ हैं उन सबको पुदेगलद्रव्य समझ , ' ',
70 1 - पी , - ८३ धर्मास्तिकाय अरस, अवर्ण, अगध, अशब्द और अस्पर्श है, सकले लोकंप्रमाण है, अखंडित, विस्तीर्णे और 'असंख्यातेप्रेदेशात्मक द्रव्य है।
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. ".' ४४ वह अनत अगुरुलघुगुणोसे निरंतर परिणमित है,"गतिनित्यायुक्त जीव आदिके लिये कारणभूत है, और स्वय अकाय है, अथात् वह द्रव्य किसास उत्पन्न नहीं हुआ है।
..... . ८५ जिस तरह मत्स्यकी गतिमे- जला उपकारक है, उसी तरह जो.जीव और पुद्गलको गतिमे उपकारक है, उसे धर्मास्तिकाय जाने । ...... .. .! . , F re६ जैसे-धर्मास्तिकाय द्रव्य है।वैसे अधर्मास्तिकीय भी द्रव्य है ऐसा' जानें ।' ३ स्थितिक्रियायुक्त जीव और पुद्गलको पृथ्वीको भॉति कारणभूत है। ... , .in ,
८७ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके कारण लोक-अलोकका विभाग होता है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य दोनो अपने अपने प्रदेशोसे भिन्न भिन्न है। स्वय हलन चलन क्यिासे रहित हैं, और लोकप्रमाण हैं। -..... ८८..धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलको चलाता हे,लऐसी बात नहीं है. जोवं.और पुद्गल गति करते है, उन्हे सहायक है।
- ९. जो सब जीवोको तथा शेष पुद्गल आदि द्रव्योको सम्पूर्ण अवकाश देता है, उसे 'लोकाकाश' कहते है। ......... - 'FF' !... ...... ...... .
जीत पटगलसमह, धर्म और अधर्म, ये द्रव्य लोकसे अनन्य है; अर्थात लोकमे हैं. लोक्से वाहर नही है,। आकाश लोकसे भी बाहर है, और वह अनंत है, जिसे 'अलोक' कहते हैं। .
२२. यदि गति और स्थितिका कारण आकाश होता, तो धर्म और भवन द्रव्यके अभावकै कारण सिद्ध भगवानका अलोकमे भी गमन होता। । .
. . . . .
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श्रीमद राजचन्द्र
९३. इसीलिये सर्वज्ञ वीतरागदेवने सिद्ध भगवानका स्थान ऊर्ध्वलोकात मे बताया है। इससे आकाश गति और स्थितिका कारण नही है ऐसा, जाते ।
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९४. यदि गतिका कारण आकाश होता अथवा स्थितिका कारण आकाश होता, तो अलोककी हानि होती और लोकके अतकी वृद्धि भी हो जाती ।
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९५. इसलिये धर्म और अधर्म द्रव्य - गति तथा स्थिति के कारण है, परन्तु आकाश नही है । इस प्रकार सर्वज्ञ वीतरागदेवने श्रोता जीवोको लोकका स्वभाव बताया है ।
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९६. धर्म, अधर्म और (लोक) आकाश अपृथग्भूत (एकक्षेत्रावगाही) और समान परिमाणवाले हैं । निश्चयसे तीनो द्रव्योकी पृथक उपलब्धि है, और वे अपनी अपनी सत्तासे रहे हुए हैं। इस तरह इनमे एकता और अनेकता, दोनो है ।
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९७. आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्मं द्रव्य अमूर्त है, और पुद्गलद्रव्य मूर्त्त है। उनमे जीवद्रव्य चेतन है ।
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९८ जीव और पुद्गल एक दूसरेकी क्रियामे सहायक हैं।' दूसरे द्रव्य (उसे प्रकारसे) सहायक नहीं हैं । जीव पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे क्रियावान होता है । कालंके कारणसे पुद्गल अनेक स्कधरूपसे परिणमन करता है ।
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९९. जीवद्वारा जो इद्रियग्राह्य विषय है वे पुंद्गल द्रव्य मूर्त हैं, शेष अमूर्त हैं। मन मूर्त एवं अमूर्त दोनो प्रकारके पदार्थोंको जानता है, अपने विचारसे निश्चित पदार्थोंको जानता है ।
१०० काल परिणामसे उत्पन्न होता है, परिणाम कालसे उत्पन्न होता है। दोनोका यह स्वभाव है । 'निश्चयकाल' से 'क्षणभंगुरकाल' होता है । -
१०१ काल शब्द अपने सद्भाव - अस्तित्वका बोधक है, उनमेसे - एक ( निश्चयकाल) नित्य है । दूसरा (समयरूप व्यवहारकाल) उत्पत्ति विनाशवाला है, और दीर्घाांतर स्थायी है ।
१०२ काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव, इन सबकी द्रव्य संज्ञा है । कालकी अस्तिकाय संज्ञा नही है ।
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१०३ इस तरह निग्रंथके प्रवचनके रहस्यभूत इस पंचास्तिकाय के स्वरूप विवेचन के सक्षेपको जो थार्थ रूपसे जानकर राग और द्वेपसे मुक्त हो जाता है वह सब दुखोसे परिमुक्त हो जाता है ।
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१०४ इस परमार्थको जानकर जो जीव मोहका नाशक़ हुआ है और जिसने रागद्वेषको ज्ञात किया हे वह जीव ससारकी दोघं परम्पराका नाश करके शुद्धात्मपदमे लीन हो जाता है ।
इति पचास्तिकाय प्रथम अध्याय ।
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ॐ जिनाय नमः । नमः श्री सद्गुरवे ।
१०५ मोक्षके कारणभूत श्री भगवान महावीरको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उन भगवान कहे हुए पदार्थप्रभेदरूप मोक्षमार्गको कहता हूँ ।
१०६ सम्यक्त्व, आत्मज्ञान ओर रागद्वेषसे रहित ऐसा चारित्र तथा सम्यक् बुद्धि जिन्हें प्राप्त हुई हे ऐसे भव्यजीवको मोक्षमार्ग प्राप्त होता है ।
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१०७ तत्त्वार्थ की प्रतीति 'सम्यक्त्व' है, तत्त्वार्थका ज्ञान 'ज्ञान' हे ओर विपयके विमूढ मागंके प्रति शातभाव' ' चारित्र' है ।
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१०८ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसवं, सवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नव तत्त्व हैं । १०२ जीव दो प्रकारके हैं-समारी बोर अससारी । दोनो चेतन्यस्वरूप और उपयोगलक्षणवाले हैं । ससारी देहमहित और अससारी देहरहित होते हैं ।
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११०, पृथ्वी, पाजी, अग्नि, वायु और वनस्पति - ये जीवसश्रित काय है । "इन जीवोकों मोहकी 1366 57 प्रवलता है और स्पर्श - इद्रिय विषयका उन्हे ज्ञान है । ऍ. ' १११ इनमेसे तीन स्थावर हैं और अल्पयोगवाले अग्नि और वायुकार्य त्रस हैं । ये सभी मनश्री परिणामसे रहित 'एकेंद्रिय जीव' हैं ऐसा जानें।
- ११२ ये पाँचो प्रकार के जीवसमूह मनपरिणामसे रहित और एकेद्रिय हैं ऐसा सर्वज्ञने कहा है । . ११३ जिस तरह अडे पक्षीका गर्भ बढता है, जिस तरह मनुष्यगर्भमे मूर्च्छागत अवस्था होने पैरै' भी जीवत्व है, उसी तरह 'एकेंद्रिय जीव' को जानना चाहिये सशकों जानते है, उन्हें "द इन्द्रिय ११४ शबूक, शख, सीप, कृमि इत्यादि
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जीव' जानना चाहिये |
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११५ जू, खटमल, चीटी, बिच्छू इत्यादि अनेक प्रकारके दूसरे भो कीडे, रस, स्पर्श और गन्धको, जानते है, उन्हे ‘तीन इन्द्रिय जीव' जानना चाहिये ।
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११६ डास, मच्छर, मक्खी, भ्रमरी, भ्रमर, पतग आदि रूप, रस, गन्ध और स्पर्शको जानते हैं; उन्हें 'चार इंद्रिय जीव' 'जानना चाहिये ।'
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११७ देव, मनुष्य, नारक,” तियच, "जलचर, स्थलचर और खेचरे "वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और HERE 1. 15 शब्दको जानते है, ये बलवान 'पाच इंद्रियवाले जीव' हैं ।
११८ देवताके चार निकाय है । मनुष्य कर्म और अकर्म भूमिके भेद से दो प्रकारके है ।" तियंचके अनेक प्रकार है; और नारकी जितने नरक- पृथ्वी के भेद है उतने ही है ।
११९ पूर्वकालमे बाँधी हुई आयुके क्षीण हो जानेपर जीव गतिनामकर्मके कारण आयु और लेश्या के प्रभावसे 'अन्य देहको प्राप्त होता हैं।
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१२० देहाश्रित जीवोंके स्वरूपका यह विचार निरूपित किया । ये भव्य और अभव्यके भेदसे दे प्रकारके है । । ' देहरहित जीव 'सिद्ध भगवान है ।
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१२१, इन्द्रियाँ जीव नही है, तथा काया भी जीव नही हैं, परन्तु जीवके ग्रहण किये हुए साध मात्र हैं । वस्तुत तो जिन्हे ज्ञान है उनको ही जीव कहते हैं।
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- - - १२२. जो सब, जानता है, देखता है, दुखको दूर कर सुख चाहता है, शुभ-अशुभ क्रियाको करत है और उनका फल भोगता है, वह 'जीव' है ।
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'१२४. आकाश, काल, पुद्गल, धर्मं और अधर्म द्रव्यमे जीवत्वगुण नही है, उन्हें अचेतन कहते और जीवको सचेतन कहते हैं ।
१२५ सुख-दुःखका वेदन, हितमे प्रवृत्ति, अहित से भीति- ये तीनो कालमे जिसको नही है सर्वज्ञ महामुनि 'अजीव' कहते है ।
१.२६ संस्थान, सघात, वर्णं, रस, स्पर्श, गृध और शब्द, इस तरह पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न होनेव अनेक गुणपर्याय है ।
१२७. अरम, अरूप, अगध, अशब्द, अनिर्दिष्ट संस्थान और वचन अगोचर ऐसा जिनका चैन गुण है वह 'जीव' है ।
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१२८ जो निश्चयसे संसारस्थित जीव है, उसका अशुद्ध, परिणाम होता है । उस परिणामसे उत्पन्न होता है, उससे शुभ और अशुभ गति होती है ।,
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श्रीमद राजचन्द्र
१२९ गतिकी प्राप्तिसे देह होती है, देहसे इन्द्रियाँ और इन्द्रियोसे विपय ग्रहण होता है, और उससे राग-द्वेष उत्पन्न होते है ।
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१३०. ससारचक्रमे अशुद्ध भावसे परिभ्रमण करते हुए जीवोमेसे, कुछ जीवोका, ससार, अनादि सात है और किसीका अनादि अनन्त है ऐसा भगवान सर्वज्ञने कहा है । ग
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१३. जिसके भावो अज्ञान, रागद्वेष और चित्तप्रसन्नता रहती है, उसके शुभ-अशुभ परिणाम
होते है ।
'१३२ जीवको शुभ परिणामसे पुण्य होता है, और अशुभ परिणामसे पाप होता है । उससे शुभा शुभ पुद्गलके ग्रहणरूप कर्मत्व प्राप्त होता है । -
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१३३, १३४, १३५, १३६
१३७ तृपातुर, क्षुधातुर, रोगी अथवा अन्य दुखी मनके जीवको देखकर उसका दुख मिटाने की प्रवृत्ति की जाये उसे 'अनुकपा' कहते हैं ।
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१३८ क्रोध, मान, माया और लोभकी मीठाश जीवको क्षुभित करती है, और पाप भावको उत्पन्न
करती है ।
१३९ बहुत प्रमादवाली क्रिया, चित्तकी मलिनता, इन्द्रिय-विषयमे लोलुपता; दूसरे जीवोको देना और उनको निदा करना इत्यादि आचरणोसे जीव 'पापास्रव' करता है ।.
'दुख १४० चार सज्ञा, कृष्णादि तीन लेश्या, इन्द्रियवशता, आर्त्त और रौद्र, ध्यान, दुष्ट भाववाली धर्म क्रिया मोह-ये भाव पापास्रव' है ।
१४१ इन्द्रियो कपाय और सज्ञाको जय करनेवाले कल्याणकारी मार्ग मे जीव जिस समय रहता है, उस समय उसके पापासवरूप छिद्रका निरोध हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये ।
१४२ जिनको सब द्रव्योमे राग, द्वेष और अज्ञान नही रहते, ऐसे सुख-दुखमे समदृष्टिके स्वामी निग्रंथ महात्माको शुभाशुभ आस्रव नही होता ।
१४३ जिस सयमीको योगोमे जब पुण्य-पापकी प्रवृत्ति नहीं होती तब उसको शुभाशुभ कर्मके कर्तृत्वका 'सवर' हो जाता है, 'निरोध' हो जाता है ।
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१४४ जो योगका निरोध करके तप करता है, वह निश्चयसे अनेक प्रकारके कर्मों की निर्जरा, करता है !
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१४५ जो आत्मार्थका साधक सवर्रयुक्त होकर, आत्मस्वरूपको जानकर तद्रूप ध्यान करता है वह महात्मा साधु कर्मरजको झाड डालता है ।
" APP 2015
१४६ जिसको राग, द्वेष, मोह और योगपरिणमन नही है उसको शुभाशुभ कर्मोंको जलाकर भस्म करें देनेवाली व्यानरूपी अग्नि प्रगट होती है । "
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१४७, १४८, १४९, १५०, १५१
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'१५२ दर्शनज्ञानसे परिपूर्णं, अन्य द्रव्य के ससर्गसे रहित ऐसा ध्यान जो निर्जराहेतुसे करता है वह 13. """" महात्मा 'स्वभावसहित' है ।
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१५३ जो सवरयुक्त' सव कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ वेदनीय और आयुकर्म से रहित होता है, वह महात्मा उसी भवमे 'मोक्ष' जाता है ।
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१५४ जी का स्वभाव अप्रतिहत ज्ञान दर्शन है । "उसके अनन्यमय आचरण ( शुद्ध निश्चयमय स्थिर स्वभाव ) को सर्वज्ञ वीतरागने 'निर्मल चारित्र' कहा है ।
१५५ वस्तुत आत्माका स्वभाव निर्मल ही है । गुण और पर्याय अनदिसे परसमयपरिणामीरूपसे परिणत हे उम दृष्टिसे अनिर्मल है । यदि वह आत्मा स्वसमय को प्राप्त हो'तो' कर्म व धसे रहित होता है।
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_१५६ जो परद्रव्यमे शुभ अथवा अशुभ राग करता है वह जीव 'स्वचारित्र' से भ्रष्ट है और 'परचारित्र' का आचरण करता है, ऐसा समझें ।
१५७ जिस भावसे आत्माको पुण्य अथवा पाप-आस्रवकी प्राप्ति होती है, उसमे प्रवृत्ति करनेवाला आत्मा परचारिका आचरण करता है, इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञने कहा है ।
१५८ जो सर्वं सगसे मुक्त होकर अनन्यमयतासे आत्मस्वभावमे स्थित है, निर्मल ज्ञाता द्रष्टा है, वह 'स्वचारित्र' का आचरण करनेवाला जीव है ।
१५९ परद्रव्यमे अहभावरहित, निर्विकल्प ज्ञानदर्शनमय परिणामी आत्मा है वह स्वचारित्राचरण है।
१६०. धर्मास्तिकायादिके स्वरूपकी प्रतीति 'सम्यक्त्व' है, बारह अग और चौदह पूर्वका जानना 'ज्ञान' है, और तपश्चर्यादिमे प्रवृत्ति करना 'व्यवहार- मोक्षमार्ग' है ।
१६१. उन तीनसे समाहित आत्मा, जहाँ आत्माके सिवाय अन्य किचित् मात्र नही करता, मात्र अन्य आत्मामय है वहाँ सर्वज्ञ वीतरागने 'निश्चय - मोक्षमार्ग' कहा है ।
१६२ जो आत्मा आत्मस्वभावमय ज्ञानदशनका अनन्यमयतासे आचरण करता है, उसे वह निश्चय ज्ञान, दर्शन और चारित्र है ।
१६३ जो यह सब जानेगा और देखेगा वह अव्याबाध सुखका अनुभव करेगा । इन भावोकी प्रतीति भव्यको होती है, अभव्यको नही होती ।
१६४ दर्शन, ज्ञान और चारित्र यह 'मोक्षमार्ग' है, इसके सेवनसे 'मोक्ष' प्राप्त होता है और ( अमुक हेतुसे ) 'बंध' होता है ऐसा मुनियोने कहा है ।
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१६६ अर्हत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, मुनिगण और ज्ञानकी भक्तिसे परिपूर्ण आत्मा बहुत पुण्यका उपार्जन करता है, किन्तु वह कर्मक्षय नही करता ।
१६७ जिसके हृदयमे अणुमात्र भी परद्रव्यके प्रति राग है, वह सभी आगमोका ज्ञाता हो तो भी 'स्वसमय' को नही जानता, ऐसा समझें ।
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१६९. इसलिये जो सर्व इच्छासे निवृत्त होकर नि.सग और निर्ममत्व होकर सिद्धस्वरूपकी भक्ति करता है वह निर्वाणको प्राप्त होता है ।
१७० जिसे परमेष्ठीपदमे तत्त्वार्थप्रतीति पूर्वक भक्ति है, और निग्रंथ प्रवचनमे रुचिपूर्वक जिसकी बुद्धि परिणत हुई है और जो सयमतपसहित है, उसके लिये मोक्ष बिलकुल दूर नही है ।
१७१ अर्हत, सिद्ध, चैत्य और प्रवचनकी भक्तिपूर्वक यदि जीव तपश्चर्या करता है, तो वह अवश्य ही देवलोकको अगीकार करता है ।
१७२ इसलिये इच्छामात्रकी निवृत्ति करे, सर्वत्र किंचित्मात्र भी राग न करे, क्योकि वीतराग ही भवसागरको तर जाता है ।
१७३ मैने प्रवचनकी भक्तिसे प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिये प्रवचन के रहस्यभूत 'पचास्तिकाय' के सग्रहरूप इस शास्त्रको कहा है ।
इति पचास्तिकायसमाप्तम् ।
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श्रीमद राजचन्द्र
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ववाणिया, चैत्र सुदी ३, रवि, १९५३ परमभक्तिसे स्तुति करनेवालेके प्रति भी जिसे राग नही है और परमद्वेपसे उपसर्गं करनेवालेके प्रति भी जिसे द्वेष नही है, उस पुरुषरूप भगवानको वारवार नमस्कार ।
अपवृत्तिसे वर्तन करना योग्य है, धीरज कर्तव्य है ।
मुनि देवकीजीको 'आचाराग' पढते हुए दीर्घशका आदि कारणोके विषय मे भी साधुका मार्ग अत्यत संकुचित देखनेमे आया, जिससे यह आशका हुई कि ऐसी साधारण क्रियामे भी इतनी अधिक संकुचितता रखने का क्या कारण होगा ? उस आशकाका समाधान :
I
सतत अंतर्मुख उपयोगमे स्थिति रखना ही निर्ग्रथका परम धर्म है । एक समय के लिये भी वहिर्मुख उपयोग न करना यह निर्ग्रथका मुख्य मार्ग है, परन्तु उस सयमके लिये देह आदि साधन है, उनके निर्वाहके लिये सहज भो प्रवृत्ति होना योग्य है । कुछ भी वैसी प्रवृत्ति करते हुए उपयोग बहिर्मुख होनेका निमित्त हो जाता है, इसलिये उस प्रवृत्तिको इस ढगसे करनेका विधान है कि उपयोगकी अतर्मुखता बनी रहे । केवल और सहज अंतर्मुख उपयोग तो मुख्यतया केवलभूमिका नामके तेरहवें गुणस्थानक होता है । और निर्मल विचारधाराकी प्रबलतासहित अन्तर्मुख उपयोग सातवें गुणस्थानकमे होता है । प्रमादसे वह उपयोग स्खलित होता है, और कुछ विशेष अशमे स्खलित हो जाये तो विशेष वहिर्मुख उपयोग हो जाता है, जिससे भाव-असयमरूपसे उपयोगको प्रवृत्ति होती है । वैसा न होने देनेके लिये और देह आदि साधनोंके निर्वाहको प्रवृत्ति भी छोडी न जा सके ऐसी होनेसे, वह प्रवृत्ति अतर्मुख उपयोगसे हो सके, ऐसी अद्भुत सकलनासे उसका उपदेश किया है, जिसे पाँच समिति कहा जाता है ।
चलना पडे तो आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक चलना, बोलना पडे तो आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक बोलना; आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक आहार आदिका ग्रहण करना, आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक वस्त्र आदिका लेना और रखना, और आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक दीर्घशका आदि शरीर-मलका त्याग करने योग्य त्याग करना, इस प्रकार प्रवृत्ति रूप पाँच समिति कही है । सयममे प्रवृत्ति करनेके लिये जिन जिन दूसरे प्रकारोका उपदेश किया है, उन सबका इन पाँच समितियोमे समावेश हो जाता है, अर्थात् जो कुछ निर्ग्रथको प्रवृत्ति करनेकी आज्ञा दी है, उनमे से जिस प्रवृत्तिका त्याग करना अशक्य है, उसी प्रवृत्तिकी आज्ञा दी है, और वह इस प्रकारसे दो है कि मुख्य हेतुभूतं अतर्मुख उपयोग अस्खलित बना रहे । तदनुसार प्रवृत्ति की जाये तो उपयोग सतत जाग्रत बना रहे, और जिस जिस समय जीवकी जितनी जितनी ज्ञानशक्ति तथा वीर्यशक्ति है वह सब अप्रमत्त बनी रहे ।
दीर्घशका आदि क्रियाओको करते हुए भी अप्रमत्त संयमदृष्टिका विस्मरण न हो जाये इस हेतुसे वेसी वैसी कठोर क्रियाओका उपदेश दिया है, परन्तु सत्पुरुपकी दृष्टिके विना वे समझमे नही आती । यह रहस्यदृष्टि सक्षेप मे लिखी है, इस पर अधिकाधिक विचार कर्तव्य है । सभी क्रियाओमे प्रवृत्ति करते हुए इस दृष्टिको स्मरणमे रखनेका ध्यान रखना योग्य है ।
श्री देवकीर्णजी आदि सभी मुनियो को इस पत्र की वारवार अनुप्रेक्षा करना योग्य है । श्री लल्लुजी आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो । कर्मग्रंथको वाचना पूरी होनेपर पुन आवर्तन करके अनुप्रेक्षा कर्तव्य है ।
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३० वा वर्षे
६०७
७६८ ववाणिया, चैत्र सुदी ४, सोम, १९५३ शुभेच्छायुक्त श्री केशवलालके प्रति, श्री भावनगर ।
पत्र प्राप्त हुआ है । आशकाका समाधान इस प्रकार है :एकेंद्रिय जीवको अव्यक्तरूपसे अनुकूल स्पर्श आदिकी प्रियता है, वह 'मैथुनसंज्ञा' है। एकेंद्रिय जीवको देह और देहके निर्वाह आदिके साधनोमे अव्यक्त मूर्छारूप 'परिग्रहसज्ञा' है। वनस्पति एकेंद्रिय जीवमे यह सज्ञा कुछ विशेष व्यक्त है।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन-पर्यायज्ञान, केवलज्ञान, नतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभगज्ञान-ये आठो जीवके उपयोगरूप होनेसे अरूपी कहे है । ज्ञान और अज्ञान इन दोनोमे मुख्य अतर इतना हो है कि जो ज्ञान समकितसहित है उसे 'ज्ञान' कहा है और जो ज्ञान मिथ्यात्वसहित है उसे 'अज्ञान' कहा है। परन्तु वस्तुत दोनो ज्ञान हैं।
'ज्ञानावरणीयकर्म' और 'अज्ञान' दोनो एक नही हैं। 'ज्ञानावरणीयकर्म' ज्ञानको आवरणरूप है, और 'अज्ञान' ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमरूप अर्थात् आवरण दूर होनेरूप है।
साधारण भाषामे 'अज्ञान' शब्दका अर्थ 'ज्ञानरहित' होता है, जैसे कि जड ज्ञानसे रहित है। परतु निग्रंथ-परिभाषामे तो मिथ्यात्वसहित ज्ञानका नाम अज्ञान है, इसलिये उस दृष्टिसे अज्ञानको अरूपी कहा है।
___ यह आशका हो सकती है कि यदि अज्ञान अरूपी हो तो सिद्धमे भी होना चाहिये । इसका समाधान यह है -मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही 'अजान' कहा है, उसमेसे मिथ्यात्व निकल जानेसे शेप ज्ञान रहता है, वह ज्ञान सपूर्ण शुद्धतासहित सिद्ध भगवानमे रहता है। सिद्ध, केवलज्ञानी और सम्यग्दृष्टिका ज्ञान मिथ्यात्वरहित है। मिथ्यात्व जीवको भ्रातिरूप है। वह भ्राति यथार्थ समझमे आ जानेपर निवृत्त हो सकने योग्य है । मिथ्यात्व दिशाभ्रमरूप है।
श्री कुवरजीकी अभिलाषा विशेष थी, परन्तु किसी एक हेतुविशेषके बिना पत्र लिखना अभी वन नही पाता । यह पत्र उन्हे पढवानेकी विनती है ।
७६९
ववाणिया, चैत्र सुदी ४, १९५३ तीनो प्रकारके समकितमेसे चाहे जिस प्रकारका समकित प्रगट हो तो भी अधिकसे अधिक पद्रह भवोमे मोक्ष होता है, और यदि उस समकितके होनेके बाद जीव उसका वमन कर दे तो अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरावर्तनकाल तक ससार परिभ्रमण होकर मोक्ष होता है।
तीर्थकरके निग्रंथ, निग्रंथिनियो, श्रावक और श्राविकाओ सभीको जीव-अजीवका ज्ञान या इसलिये उन्हे समकित कहा है, यह बात नही है। उनमेसे अनेक जीवोको मात्र सच्चे अतरग भावसे तीर्थकरकी और उनके उपदिष्ट मार्गकी प्रतीतिसे भी समकित कहा है। इस समकितको प्राप्तिके वाद यदि उसका वमन न किया हो तो अधिकसे अधिक पद्रह भव होते हैं | सच्चे मोक्षमार्गको प्राप्त ऐसे सत्पुरुपको तथारूप प्रतीतिसे सिद्धातमे अनेक स्थलोमे समकित कहा है । इस समकितके आये बिना जीवको प्राय जीव और अजीवका यथार्थ ज्ञान भी नही होता । जीव-अजीवका ज्ञान प्राप्त करनेका मुख्य मार्ग यही है।
७७०
ववाणिया, चैत्र सुदी ४, १९५३ जान जीवका रूप है, इसलिये वह अरूपी है, और जब तक ज्ञान विपरोतरूपसे जाननेका कार्य करता है, तब तक उसे अज्ञान कहना ऐसो निग्रंथ-परिभाषा है, परन्तु यहां ज्ञानका दूसरा नाम हो अज्ञान है यो समझना चाहिये।
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६०८
श्रीमद् राजचन्द्र ज्ञानका दूसरा नाम अज्ञान हो तो जिस तरह ज्ञानसे मोक्ष होना कहा है, उसी तरह अज्ञानसे भी मोक्ष होना चाहिये । इसी तरह जैसे मुक्त जीवमे भी ज्ञान कहा है वैसे अज्ञान भी कहना चाहिये, ऐसी आशंका को है, जिसका समाधान यह है :
गाँठ पड़नेसे उलझा हुआ सूत्र और गाँठ निकल जानेसे सुलझा हुआ सूत्र ये दोनो सूत्र ही हैं, फिर भी गॉठकी अपेक्षासे उलझा हुआ सूत्र और सुलझा हुआ सूत्र कहा जाता है। उसी तरह मिथ्यात्वज्ञान 'अज्ञान' और सम्यग्ज्ञान 'ज्ञान' ऐसी परिभाषा की है, परन्तु मिथ्यात्वज्ञान जड है और सम्यग्ज्ञान चेतन है यह बात नही है । जिस तरह गाँठवाला सूत्र और गाँठ रहित सूत्र दोनो सूत्र ही हैं, उसी तरह मिथ्यात्वज्ञानसे ससार-परिभ्रमण और सम्यग्ज्ञानसे मोक्ष होता है । जैसे कि यहाँसे पूर्व दिशामे दस कोस दूर एक गाँव है, वहाँ जानेके लिये निकला हुआ मनुष्य दिशाभ्रमसे पूर्व के बदले पश्चिममे चला जाये, तो वह पूर्व दिशावाला गॉव प्राप्त नही होता, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसने चलनेकी क्रिया नही की; उसी तरह देह और आत्मा भिन्न होनेपर भी जिसने देह और आत्माको एक समझा है वह जीव देहबुद्धिसे ससारपरिभ्रमण करता है; परन्तु इससे यह नही कहा जा सकता कि उसने जाननेका कार्य नही किया है। पूर्वसे पश्चिमकी ओर चला है, यह जिस तरह पूर्वको पश्चिम माननेरूप भ्रम है, उसी तरह देह और आत्मा भिन्न होनेपर भी दोनोको एक माननेल्प भ्रम है, परंतु पश्चिममे जाते हुए चलते हुए जिस तरह चलनेरूप स्वभाव है, उसी तरह देह और आत्माको एक माननेमे भी जाननेरूप स्वभाव है । जिस तरह पूर्वके बदले पश्चिमको पूर्व मान लेना भ्रम है, वह भ्रम तथारूप हेतु-सामग्रीके मिलनेपर समझमे आनेसे पूर्व पूर्व ही समझमे आता है, और पश्चिम पश्चिम हो समझमे आता है, तब वह भ्रम दूर हो जाता है, और पूर्वकी तरफ चलने लगता है; उसी तरह देह और आत्माको एक मान लिया है वह सद्गुरुउपदेशादि सामग्री मिलनेपर दोनो भिन्न हैं यो यथार्थ समझमे आ जाता है, तब भ्रम दूर होकर आत्माके प्रति ज्ञानोपयोग परिणमित होता है। भ्रममे पूर्वको पश्चिम और पश्चिमको पूर्व मान लेनेपर भी पूर्व पूर्व ही और पश्चिम पश्चिम दिशा ही थो, मात्र भ्रमसे विपरीत भासित होता था। उसी तरह अज्ञानमे भी देह देह हो और आत्मा आत्मा ही होनेपर भी वे उस तरह भासित नही होते, यह विपरोत भासना है। वह यथार्थ समझमे आनेपर, भ्रम निवृत्त हो जानेसे देह देह ही भासित होती है और आत्मा आत्मा ही भासित होता है, और जाननेरूप स्वभाव जो विपरीत भावको भजता था वह सम्यग्भावको भजता है। वस्तुत: दिशाभ्रम कुछ भी नहीं है, और चलनेरूप क्रियासे इष्ट गांव प्राप्त नही होता, उसी तरह मिथ्यात्व भी वस्तुतः कुछ भी नहीं है, और उसके साथ जाननेरुप स्वभाव भी है, परन्तु साथमे मिथ्यात्वरूप भ्रम होनेसे स्वस्वरूपतामे परमस्थिति नही होती। दिशाभ्रम दूर हो जानेसे इष्ट गाँवकी ओर मुडनेके बाद मिथ्यात्वका भो नाश हो जाता है, और स्वस्वरूप शुद्ध ज्ञानात्मपदमे स्थिति हो सकती है इसमे किसी सदेहको स्थान नही है।
७७१
ववाणिया, चैत्र सुदी ५, १९५३ यहाँसे पिछले पत्रमे तीन प्रकारके समकित बताये थे। उन तीनो समकितमेसे चाहे जो समकित प्राप्त करनेसे जीव अधिकसे अधिक पद्रह भवमे मोक्ष प्राप्त करता है, और कमसे कम उसी भवमे भी मोक्ष होता है, और यदि वह समकितका वमन कर दे, तो अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरावर्तनकाल तक ससारपरिभ्रमण करके भी मोक्षको प्राप्त करता है। समकित प्राप्त करनेके बाद अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरावर्तन ससार होता है।
१ देखें आक ७५१।
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३० वा वर्ष
६०९
क्षयोपशम समकित हो अथवा उपशम समकित हो, तो जीव उसका वमन कर सकता है, परन्तु क्षायिक समकित हो तो उसका वमन नही किया जा सकता। क्षायिक समकिती जीव उसी भवमे मोक्ष प्राप्त करता है, अधिक भव करे तो तीन भव करता है, और किसी एक जीवकी अपेक्षा क्वचित् चार भव होते हैं । युगलियाकी आयुका बध होनेके वाद क्षायिक समकित उत्पन्न हुआ हो, तो चार भव होना सभव है, प्रायः किसी ही जीवको ऐसा होता है।
भगवान तीर्थंकरके निग्रंथ, निग्रंथिनियो, श्रावक तथा श्राविकाओको कुछ सभीको जीवाजीवका ज्ञान था, इसलिये उन्हे समकित कहा है ऐसा सिद्धातका अभिप्राय नही है। उनमेसे कितने ही जीवोको, तीर्थंकर सच्चे पुरुष है, सच्चे मोक्षमार्गके उपदेष्टा है, जिस तरह वे कहते है उसी तरह मोक्षमार्ग हे, ऐसी प्रतीतिसे, ऐसी रुचिसे, श्री तीर्थंकरके आश्रयसे और निश्चयसे समकित कहा है। ऐसी प्रतीति, ऐसी रुचि, और ऐसे आश्रयका तथा आज्ञाका जो निश्चय है, वह भी एक तरहसे जीवाजोवके ज्ञानस्वरूप है। पुरुष सच्चे है और उनकी प्रतीति भी सच्ची हुई है कि जिस तरह ये परमकृपालु कहते है उसी तरह मोक्षमार्ग है वैसा ही मोक्षमार्ग होता है, उस पुरुषके लक्षण आदि भी वीतरागताकी सिद्धि करते हैं। जो वीतराग होता है वह पुरुष यथार्थ वक्ता होता है, और उसी पुरुषकी प्रतीतिसे मोक्षमार्ग स्वीकार करने योग्य होता है ऐसी सुविचारणा भी एक प्रकारका गौणतासे जीवाजोवका ही ज्ञान है । उस प्रतीतिसे, उस रुचिसे और उस आश्रयसे फिर अनुक्रमसे स्पष्ट विस्तारसहित जीवाजीवका ज्ञान होता है। तथारूप पुरुषकी आज्ञाकी उपासनासे रागद्वेषका क्षय होकर वीतरागदशा उत्पन्न होती है। तथारूप सत्पुरुषके प्रत्यक्ष योगके बिना यह समकित होना कठिन है। वैसे पुरुषके वचनरूप शास्त्रोंसे पूर्वकालके किसी आराधक जीवको समकित होना सम्भव है, अथवा कोई एक आचार्य प्रत्यक्षरूपसे उस वचनके हेतुसे किसी जीवको समकित प्राप्त कराता है।
७७२ ववाणिया, चैत्र सुदी १०, सोम, १९५३
ॐ सर्वज्ञाय नमः औषधादि सप्राप्त होनेपर कितने ही रोगादिपर असर करते है, क्योकि उस रोगादिके हेतुका कर्मबध कुछ उसी प्रकारका होता है । औषधादिके निमित्तसे वह पुद्गल विस्तारमे फैलकर अथवा दूर होकर वेदनीयके उदयके निमित्तपनको छोड़ देता है। यदि उस तरह निवृत्त होने योग्य उस रोगादि सबधी कर्मबंध न हो तो उस पर औषधादिका असर नही होता, अथवा औषधादि प्राप्त नही होते या सम्यक् औषधादि प्राप्त नहीं होते।
अमक कर्मबंध किस प्रकारका है उसे तथारूप ज्ञानदृष्टिके बिना जानना कठिन है। इससे औषधादि व्यवदारकी प्रवत्तिका एकातसे निषेध नही किया जा सकता । अपनी देहके सवधमे कोई एक परम आत्मदष्टिवाला पुरुष उस तरह आचरण करे तो, अर्थात् वह औपधादिका ग्रहण न करे, तो वह योग्य है, परतू दूसरे सामान्य जीव उस तरह आचरण करने लगे तो वह एकातिक दृष्टिसे कितनी ही हानि कर डालते है। फिर उसमे भी अपने आश्रित जीवोके प्रति अथवा किसी दूसरे जोवके प्रति रोगादि कारणोमे वसा पचार करनेके व्यवहारमे प्रवृत्ति को जा सकती है, फिर भी उपचार आदि करनेमे उपेक्षा करे तो अनुकपा-मार्गको छोड़ देने जैसा हो जाता है। कोई जीव चाहे जैसा पीड़ित हो तो भी उसे दिलासा देने तथा औषधादि देनेके व्यवहारको छोड दिया जाये तो उसे आतंध्यानका हेतु होने जैसा हो जाता है। गृहस्थव्यवहारमे ऐसी एकातिक दृष्टि करनेसे बहुत विरोध उत्पन्न होते हैं।
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६१४
श्रीमद् राजचन्द्र
EEEEEE
अनुभवउत्साहदशा . जैसौ निरभेदरूप, निहचै अतीत हुतौ । तैसी निरभेद अब, भेदको न गहेगी। दोसै कर्मरहित सहित सुख समाधान । पायौ निजथान फिर बाहरि न बहेगी । कबहूँ कदापि अपनौ सुभाव त्यागि करि । राग रस राचिकैं न परवस्तु गहेगौ ॥ अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो। याहि भाति आगम अनत काल रहेगौ ॥
स्थितिदशा एक परिनामके न करता दरव दोई। दोई परिनाम एक दर्व न धरतु है। एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करै। दोई करतूति एक दर्व न करतु है। जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोऊ। अपने अपने रूप कोऊ न टरतु है ॥ जड़ परिनामनिको करता है - पुद्गल । चिदानन्द - चेतन सुभाव आचरतु है ॥
श्री सोभागको विचार करनेके लिये यह पत्र लिखा है, इसे अभी श्री अवालाल अथवा किसी दूसरे योग्य मुमुक्षु द्वारा उन्हें ही सुनाना योग्य है। __ आत्मा सर्व अन्यभावसे रहित है, जिसे सर्वथा ऐसा अनुभव रहता है वह 'मुक्त' है।
जिसे अन्य सर्व द्रव्यसे असगता, क्षेत्रसे असंगता, कालसे असंगता और भावसे असगता सर्वथा रहती है, वह 'मुक्त' है।
अटल अनुभवस्वरूप आत्मा सव द्रव्योसे प्रत्यक्ष भिन्न भासित हो तबसे मुक्तदशा रहती है। वह पुरुष मान हो जाता है. वह पुरुष अप्रतिबद्ध हो जाता है, वह पुरुष असग हो जाता है, वह पुरुष निर्विकल्प हो जाता है और वह पुरुष मुक्त हो जाता है।
जिन्होने तीनो कालमे देहादिसे अपना कुछ भी संबध न था, ऐसी असगदशा उत्पन्न की है उन भगवानरूप सत्पुरुषोको नमस्कार हो। तिथि आदिका विकल्प छोडकर निज विचारमे रहना यही कर्तव्य है।
शुद्ध सहज आत्मस्वरूप ।
... १ भावार्थ-ससारी दशामें निश्चयनयसे आत्मा जिस प्रकार अभेदरूप था उसी प्रकार प्रगट हो गया। उस परमात्माको अब भेदरूप कोई नहीं कहेगा। जो कम रहित और सुख-शातिसहित दिखायी देता है, तथा जिसने अपने स्थान-मोक्षको पा लिया है, वह अब जन्म-मरणरूप ससारमं नहीं आयेगा। वह कभी भी अपना स्वभाव छोडफर रागद्वपमें पडकर परवस्तुको ग्रहण नहीं करेगा, क्योकि वर्तमानकालमे जो निर्मल पूर्ण ज्ञान प्रगट हुआ है, वह तो आगामी अनतकाल तक ऐसा ही रहेगा।
२ भावार्यके लिये देखें आक ३१७ ।
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३० वा वर्ष
६१५ ७८०
बबई, जेठ सुदी ८, मगल, १९५३ जिसे किसीके भी प्रति राग, द्वेष नहीं रहा,
उस महात्माको वारंवार नमस्कार । परम उपकारो, आत्मार्थी, सरलतादि गुणसपन्न श्री सोभाग,
त्रबकभाईका लिखा एक पत्र आज मिला है ।
"आत्मसिद्धि" ग्रन्थके सक्षिप्त अर्थकी पुस्तक तथा कितने ही उपदेश-पत्रोकी प्रति यहाँ थी, उन्हे आज डाकसे भेजा है। दोनोमे मुमुक्षु जीवके लिये विचार करने योग्य अनेक प्रसग है।
परमयोगी ऐसे श्री ऋषभदेव आदि पुरुष भी जिस देहको नहीं रख सके, उस देहमे एक विशेषता रही हुई है, वह यह है कि जब तक उसका सम्बन्ध रहे, तब तकमे जीवको असगता, निर्मोहता प्राप्त करके अबाध्य अनुभवस्वरूप ऐसे निजस्वरूपको जानकर, दूसरे सभी भावोंसे व्यावृत्त (मुक्त) हो जाना कि जिससे फिर जन्म-मरणका फेरा न रहे । उस देहको छोडते समय जितने अशमे असगता, निर्मोहता, यथार्थ समरसता रहती है, उतना ही मोक्षपद समीप हे ऐसा परम ज्ञानीपुरुषोका निश्चय है।
____ मन, वचन और कायाके योगसे जाने-अनजाने कुछ भी अपराध हुआ हो, उस सबकी विनयपूर्वक क्षमा मांगता हूँ, अति नम्रभावसे क्षमा माँगता हूँ।
इस देहसे करने योग्य कार्य तो एक ही है कि किसीके प्रति राग अथवा किसीके प्रति किंचित्मात्र द्वेष न रहे । सर्वत्र समदशा रहे । यही कल्याणका मुख्य निश्चय है । यही विनती।
श्री रायचदके नमस्कार प्राप्त हो । ७८१
बबई, जेठ वदी ६, रवि, १९५३ परमपुरुषदशावर्णन 'कोचसौ कनक जाकै, नोच सौ नरेसपद, मीचसी मिताई, गरुवाई जाकै गारसी। जहरसी जोग जाति, कहरसी करामाति, हहरसी हौस, पुद्गलछवि छारसी ॥ जालसौ जगबिलास, भालसौं भुवनवास, कालसी कुटुम्बकाज, लोकलाज लारसी। सीठसौ सुजसु जाने, बीठसौ वखत मान,
ऐसी जाकी रीति ताही, वंदत बनारसी ॥' जो कचनको कीचडके समान जानता है, राजगद्दीको नीचपदके समान समझता है, किसीसे स्नेह करनेको मत्यके समान मानता है, वडप्पनको लीपनेके गारे जैसा समझता है, कीमिया आदि योगको जहरके समान गिनता है, सिद्धि आदि ऐश्वर्यको असाताके समान समझता है, जगतमे पूज्यता होने आदिकी लालसाको अनर्थक समान मानता है, पुद्गलकी मूर्तिरूप औदारिकादि कायाको राखके समान मानता है, जगतके भोगविलासको दुविधारूप जालके समान समझता है, गृहवासको भालेके समान मानता हे, कुटुम्बके कार्यको काल अर्थात् मृत्युके समान गिनता है, लोकमे लाज बढानेको इच्छाको मुसकी लारके समान समझता है कीतिकी इच्छाको नाक्के मेलके समान मानता है, और पुण्यके उदयको जो विष्टाके समान समझता है ऐसी जिसकी रीति हो उसे बनारसीदास वदन करते है।
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६१२
श्रीमद् राजचन्द्र परिवर्तन होनेमे वाह्य पुद्गलरूप ओषध आदि निमित्त कारण देखनेमे आते हैं, परतु वास्तवमे तो वह वंध पूर्वसे ही ऐसा बाँधा हुआ है कि उस प्रकारके औषध आदिसे दूर हो सकता है। औषध आदि मिलनेका कारण यह है कि अशुभ बध मंद बाँधा था, और बध भी ऐसा था कि उसे ऐसे निमित्त कारण मिले तो दूर हो सके। परन्तु इससे यो कहना ठीक नहीं है कि पाप करनेसे उस रोगका नाश हो सका, अर्थात् पाप करनेसे पुण्यका फल प्राप्त किया जा सका। पापवाले औषधको इच्छा और उसे प्राप्त करनेकी प्रवृत्तिसे अशुभ कर्म बधने योग्य है और उस पापवाली क्रियासे कुछ शुभ फल नही होता। ऐसा लगे कि अशभ कर्मके उदयरूप असाताको उसने दूर किया जिससे वह शुभरूप हुआ, तो यह समझकी भूल है, असाता ही इस प्रकारकी थी कि उस तरह मिट सके और इतनी आर्तध्यान आदिको प्रवृत्ति कराकर दूसरा बंध कराये।
'पुद्गलविपाकी' अर्थात् जो किसी बाह्य पुद्गलके सयोगसे पुद्गलविपाकरूपसे उदयमे आये और किसी बाह्य पुद्गलके सयोगसे निवृत्त भी हो जाये; जैसे ऋतुके परिवर्तनके कारणसे सरदीकी उत्पत्ति होती है और ऋतु-परिवर्तनसे उसका नाश हो जाता है, अथवा किसी गरम औषध आदिसे वह निवृत्त हो जाती है।
निश्चयमुख्यदृष्टिसे तो औषध आदि कथनमात्र है। बाकी तो जो होना होता है वही होता है।
७७५
ववाणिया, चैत्र वदी ५, १९५३ दो पत्र प्राप्त हुए हैं।
ज्ञानीकी आज्ञारूप जो जो क्रिया है उस उस क्रियामे तथारूपसे प्रवृत्ति की जाये तो वह अप्रमत्त उपयोग होनेका मुख्य साधन है, ऐसे 'भावार्थमे यहाँसे पहले पत्र लिखा था। उसका ज्यो ज्यो विशेष विचार किया जायेगा त्यो त्यो अपूर्व अर्थका उपदेश मिलेगा। नित्य अमुक शास्त्रस्वाध्याय करनेके बाद उस पत्रका विचार करनेसे अधिक स्पष्ट बोध होना योग्य है।
छकायका स्वरूप भी सत्पुरुषकी दृष्टिसे प्रतीत करनेसे तथा उसका विचार करनेसे ज्ञान ही है। यह जीव किस दिशासे आया है, इस वाक्यसे शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनका आरभ हुआ है। सद्गुरुके मुखसे इस प्रारम्भवाक्यका आशय समझनेसे समस्त द्वादशागीका रहस्य समझमे आना योग्य है। अभी तो जो आचाराग आदि पढ़ें उसका अधिक अनुप्रेक्षण कीजियेगा। कितने ही उपदेश परोसे वह सहजमे समझमे आ सकेगा। सभी मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो । सभी मुमुक्षुओको प्रणाम प्राप्त हो।
७७६
सायला, वैशाख सुदी १५, १९५३
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये कर्मबंधके पाँच कारण हैं। किसी जगह प्रमादके सिवाय चार कारण बताये होते हैं। वहाँ मिथ्यात्व, अविरति और कषायमे प्रमादका अतर्भाव किया होता है।
शास्त्रपरिभाषासे 'प्रदेशवध' शब्दका अर्थ - परमाणु सामान्य. एक प्रदेशावगाही है। ऐसे एक परमाणुका ग्रहण एक प्रदेश कहा जाता है। जीव कर्मबंधमे अनत परमाणुओको ग्रहण करता है। वे परमाणु यदि फैल जाये तो अनतप्रदेशी हो सकें, जिससे अनन्त प्रदेशका बंध कहा जाये। उसमे बंध
१ देखें आक ७६७
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३० वो वर्ष
६१३ अनन्त आदिसे भेद पडता है, अर्थात् जहाँ अल्प प्रदेशबध कहा हो वहाँ परमाणु अनन्त समझें, परन्तु उस अनन्तको सघनता अल्प समझे । यदि उससे विशेष-विशेप लिखा हो तो अनन्तताकी सघनता समझे ।
जरा भी व्याकुल न होते हुए कर्मग्रन्थको आद्यत पढें और विचारें।
| ওওও
ईडर, वैशाख वदी १२, शुक्र, १९५३ तथारूप (यथार्थ) आप्त (जिसके विश्वाससे मोक्षमार्गमे प्रवृत्ति की जा सके ऐसे) पुरुषका जीवको समागम होनेमे किसी एक पुण्यहेतुकी जरूरत है, उसकी पहचान होनेमे महान पुण्यकी जरूरत है, और उसकी आज्ञाभक्तिसे प्रवृत्ति करनेमे महान महान पुण्यकी जरूरत है, ऐसे जो ज्ञानीके वचन हैं, वे सत्य है। यह प्रत्यक्ष अनुभवमे आने जैसी बात है ।
___ तथारूप आप्तपुरुषके अभाव जैसा यह काल चल रहा है । तो भी ऐसे समागमके इच्छुक आत्मार्थी जीवको उसके अभावमे भी विशुद्धिस्थानकके अभ्यासका लक्ष्य अवश्य ही कर्तव्य है।
७७८
ईडर, वैशाख वदी १२, शुक्र, १९५३ दो पत्र मिले हैं। यहाँ प्राय मगलवार तक स्थिति होगी। बुधवार शामको अहमदाबादसे डाकगाडीमे बंबई जानेके लिये बैठना होगा । प्रायः गुरुवार सवेरे बम्बई उतरना होगा।
सर्वथा निराश हो जानेसे जीवको सत्समागनका प्राप्त हुआ लाभ भी शिथिल हो जाता है । सत्समागमके अभावका खेद रखते हुए भी सत्समागम हुआ है, यह परमपुण्यका योग है। इसलिये सर्वसगत्यागका योग बनने तक जब तक गृहस्थावासमे स्थिति हो तब तक उस प्रवृत्तिकी नीतिसहित कुछ भी रक्षा करके परमार्थमे उत्साहसहित प्रवृत्ति करके विशुद्धिस्थानकका नित्य अभ्यास करते रहना यही कर्तव्य है।
७७९
बंबई, ज्येष्ठ सुदी, १९५३ ॐ सर्वज्ञ
स्वभावजागृतदशा । 'चित्रसारी न्यारी, परजंक न्यारी, सेज न्यारी।
चादर भी न्यारी; इहाँ झूठी मेरी थपना ।। अतीत अवस्था सैन, निद्रावाहि कोऊ पै न । विद्यमान पलक न, यामै अब छपना ॥ स्वास औ सुपन दोऊ, निद्राको अलग बूझै । सूझै सब अंग लखि, आतम दरपना ॥ त्यागी भयौ चेतन, अचेतनता भाव त्यागि ।
भालै दृष्टि खोलिक, सभाले रूप अपना । १. भावार्थ-जव सम्यग्ज्ञान प्रगट हुआ तब जीव विचारता है-शरीरल्प महल जुदा है, कर्मरूप पलग जुदा है, मायारूप सेज जुदी है, कल्पनारूप चादर भी जुदी है, यह निद्रावस्या मेरी नही है '-पूर्वकालमें सोनेवाला मेरा दूसरा ही पर्याय था। अब वर्तमानका एक पल भी निद्रामे नही विताऊंगा। उदयका निश्वास और विषयका स्वप्न ये दोनो निद्राके सयोगसे दीखते थे। अब आत्मरूप दर्पणमें मेरे समस्त गुण दीखने लगे। इस प्रकार आत्मा अचेतन भावोका त्यागी होकर ज्ञानदृष्टिसे देवकर अपने स्वरूपको सम्भालता है ।
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श्रीमद राजचन्द्र
अनुभव उत्साहदशा 'जैसौ निरभेदरूप, निहचे अतीत हुतो ।' तैसौ निरभेद अब, भेदकौ न गगौ ॥ दोसै कर्मरहित सहित सुख समाधान । पायौ निजथान फिर बाहरि न बहगौ ॥ कबहूँ कदापि अपनी सुभाव त्यागि करि । राग रस राचिकेँ न परवस्तु गहैगौ ॥ अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयौ । याहि भाति आगम अनत काल रहैगौ ॥ स्थितिदशा
करतु है ॥
एक परिनामके न करता दोई परिनाम एक दर्व न एक करतूति दोई दर्द कबहूँ दोई करतूति एक दर्व न जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोऊ । अपने अपने रूप कोऊ न टरतु है ॥ जड परिनामुनिको करता है पुद्गल । चिदानन्द चेतन सुभाव आचरतु है ॥
दरव दोई ।
धरतु है ॥ न करै ।
श्री सोभागको विचार करने के लिये यह पत्र लिखा है, इसे अभी श्री अबालाल अथवा किसी दूसरे योग्य मुमुक्षु द्वारा उन्हे ही सुनाना योग्य है ।
आत्मा सर्व अन्यभावसे रहित है, जिसे सर्वथा ऐसा अनुभव रहता है वह 'मुक्त' है ।
जिसे अन्य सर्व द्रव्यसे असगता, क्षेत्रसे असगता, कालसे असगता और भावसे असगता सर्वथा रहती है, वह 'मुक्त' है ।
_अटल अनुभवस्वरूप आत्मा सब द्रव्योसे प्रत्यक्ष भिन्न भासित हो तबसे मुक्तदशा रहती है । वह पुरुष मौन हो जाता है, वह पुरुष अप्रतिबद्ध हो जाता है, वह पुरुष असग हो जाता है, वह पुरुष निर्विकल्प हो जाता है और वह पुरुष मुक्त हो जाता है ।
जिन्होने तीनो कालमे देहादिसे अपना कुछ भी संबध न था, ऐसी असगदशा उत्पन्न की है उन भगवानरूप सत्पुरुषोको नमस्कार हो ।
तिथि आदिका विकल्प छोडकर निज विचारमे रहना यही कर्तव्य है ।
शुद्ध सहज आत्मस्वरूप ।
१ भावार्थ - ससारी दशामें निश्चयनयसे आत्मा जिस प्रकार अभेदरूप था उसी प्रकार प्रगट हो गया । उस परमात्माको अव भेदरूप कोई नही कहेगा । जो कर्म रहित और सुख-शातिसहित दिखायी देता है, तथा जिसने अपने स्थान - मोक्ष को पा लिया है, वह अव जन्म-मरणरूप ससारमे नही आयेगा । वह कभी भी अपना स्वभाव छोडकर रागद्वेपमें पड़कर परवस्तुको ग्रहण नही करेगा, क्योकि वर्तमानकालमे जो प्रगट हुआ है, वह तो आगामी अनतकाल तक ऐसा ही रहेगा । लिये देखें आक ३१७ ।
निर्मल पूर्ण ज्ञान - २ भावायंके
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३० वाँ वर्ष
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बबई, जेठ सुदी ८, मगल, १९५३
७८०
जिसे किसी के भी प्रति राग, द्वेष नही रहा, उस महात्माको वारंवार नमस्कार ।
परम उपकारी, आत्मार्थी, सरलतादि गुणसपन्न श्री सोभाग, कभाईका लिखा एक पत्र आज मिला है |
“आत्मसिद्धि” ग्रन्थके सक्षिप्त अर्थकी पुस्तक तथा कितने ही उपदेश-पत्रोकी प्रति यहाँ थी, उन्हे आज डाकसे भेजा है । दोनोमे मुमुक्षु जीवके लिये विचार करने योग्य अनेक प्रसंग हैं ।
परमयोगी ऐसे श्री ऋषभदेव आदि पुरुष भी जिस देहको नही रख सके, उस देहमे एक विशेषता रही हुई है, वह यह है कि जब तक उसका सम्बन्ध रहे, तब तकमे जीवको असगता, निर्मोहता प्राप्त करके अबाध्य अनुभवस्वरूप ऐसे । नजस्वरूपको जानकर, दूसरे सभी भावोसे व्यावृत्त (मुक्त) हो जाना कि जिससे फिर जन्म-मरणका फेरा न रहे । उस देहको छोडते समय जितने अशमे असगता, निर्मोहता, यथार्थ समरसता रहती है, उतना ही मोक्षपद समीप है ऐसा परम ज्ञानी पुरुषोका निश्चय है ।
मन, वचन और कायाके योगसे जाने-अनजाने कुछ भी अपराध हुआ हो, उस सबकी विनयपूर्वक क्षमा माँगता हूँ, अति नम्र भावसे क्षमा माँगता हूँ ।
इस देहसे करने योग्य कार्यं तो एक ही है कि किसी के प्रति राग अथवा किसीके प्रति किंचित् मात्र द्वेष न रहे । सर्वत्र समदशा रहे । यही कल्याणका मुख्य निश्चय है । यही विनती ।
श्री रायचदके नमस्कार प्राप्त हो ।
बबई, जेठ वदी ६, रवि, १९५३
७८१
परमपुरुषदशावर्णन
'कीचसौ कनक जाकै, नीच सौ नरेसपद, मोचसी मिताई, गरुवाई जाकै गारसी । जहरसी जोग जाति, कहरसी करामाति, हहरसी हौस, पुद्गलछबि छारसी ॥ जालसौ जगविलास, भालसौं भुवनवास, कालसौ कुटुम्बकाज, लोकलाज लारसी । सोठसौ सुजसु जानें, वीठसौ बखत मार्ने, ऐसी जाकी रीति ताही, वंदत बनारसी ॥'
जो कचनको कीचडके समान जानता है, राजगद्दीको नीचपदके समान समझता है, किसीसे स्नेह करनेको मृत्युके समान मानता है, बड़प्पनको लीपने के गारे जैसा समझता है, कीमिया आदि योगको जहर - के समान गिनता है, सिद्धि आदि ऐश्वर्यको असाताके समान समझता है, जगतमे पूज्यता होने आदिकी लालसाको अनर्थके समान मानता है, पुद्गलकी मूर्तिरूप औदारिकादि कायाको राखके समान मानता है, जगतके भोगविलासको दुविधारूप जालके समान समझता है, गृहवासको भालेके समान मानता है, कुटुम्ब - के कार्यको काल अर्थात् मृत्युके समान गिनता है, लोकमे लाज बढानेको इच्छाको मुखको लारके समान समझता है, कीर्निकी इच्छाको नाक्के मैलके समान मानता है, और पुष्यके उदयको जो विष्टाके समान ममझता है ऐसी जिसको रीति हो उसे बनारसीदास वदन करते हैं ।
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श्रीमद राजचन्द्र
किसीके लिये विकल्प न करते हुए असंगता ही रखियेगा । ज्यो ज्यो सत्पुरुषके वचन उन्हे प्रतीतिमे आयेंगे, ज्यो ज्यो आज्ञासे अस्थिमज्जा रगो जायेगी, त्यो त्यो वे सब जीव आत्मकल्याणको सुगमतासे प्राप्त करेंगे, यह नि सदेह है ।
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त्रक, मणि आदि मुमुक्षुओको तो इस वारके समागममे कुछ आतरिक इच्छासे सत्समागममे रुचि हुई है, इसलिये एकदम दशा विशेष न हो तो भी आश्चर्य नही है ।
सच्चे अत'करणसे विशेष सत्समागमके आश्रयसे जीवको उत्कृष्ट दशा भी बहुत थोडे समयमे प्राप्त होती है ।
व्यवहार अथवा परमार्थसवधी किसी भी जीवके बारेमे इच्छा रहती हो, तो उसे उपशांत करके सर्वथा असग उपयोगसे अथवा परमपुरुपकी उपर्युक्त दशाके अवलंवनसे आत्मस्थिति करें, यह विज्ञापना है, क्योकि दूसरा कोई भी विकल्प रखने जैसा नही है । जो कोई सच्चे अत करणसे सत्पुरुषके वचनोको ग्रहण करेगा वह सत्यको पायेगा, इसमे कोई सशय नहीं है, और शरीर निर्वाह आदि व्यवहार सबके अपने अपने प्रारब्धके अनुसार प्राप्त होने योग्य है, इसलिये तत्सवधी भी कोई विकल्प रखना योग्य नही है | जिस विकल्पको आपने प्राय शांत कर दिया है, तो भी निश्चयकी प्रबलताके लिये लिखा है ।
सब जीवोके प्रति, सभी भावोके प्रति अखंड एक रस वीतरागदशा रखना यही सर्व ज्ञानका फल है । आत्मा शुद्ध चैतन्य, जन्मजरामरणरहित असग स्वरूप है, इसमे सवं ज्ञान समा जाता है; उसकी प्रतीतिमे सर्व सम्यक्दर्शन समा जाता है, आत्माकी असगस्वरूपसे स्वभावदशा रहे वही सम्यक्चारित्र, उत्कृष्ट सयम और वीतरागदशा है। जिसकी सपूर्णताका फल सर्व दुखका क्षय है, यह सर्वथा नि सदेह है, सर्वथा नि सदेह है । यही विनती ।
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बबई, जेठ वदी १२, शनि, १९५३ आर्यं श्री सोभागने जेठ वदी १० गुरुवार सवेरे १० बजकर ५० मिनिटपर देह त्याग किया, यह समाचार पढ़कर बहुत खेद हुआ है। ज्यो ज्यो उनके अद्भुत गुणोके प्रति दृष्टि जाती है, त्यो त्यो अधिकाधिक खेद होता है ।
जीवके साथ देहका संवध इसी तरहका है । ऐसा होनेपर भी अनादिसे उस देहका त्याग करते हुए जीव खेद प्राप्त किया करता है, और उसमे दृढमोहसे एकमेककी तरह प्रवर्तन करता है, यही जन्ममरणादि ससारका मुख्य बीज है । श्री सोभागने ऐसी देहका त्याग करते हुए महामुनियोको भी दुर्लभ ऐसी निश्चल असगतासे निज उपयोगमय दशा रखकर अपूर्व हित किया है, इसमे सराय नही है ।
गुरुजन होनेसे, आपके प्रति उनके बहुत उपकार होनेसे तथा उनके गुणोकी अद्भुतासे उनका वियोग आपके लिये अधिक खेदकारक हुआ है, और होने योग्य है । उनकी सासारिक गुरुजनताके खेदको विस्मरणकर, उन्होने आप सब पर जो परम उपकार किया हो तथा उनके गुणोकी जो जो अद्भुतता आपको प्रतीत हुई हो, उसे वारवार याद करके, वैसे पुरुपके वियोगका अतरमे खेद रखकर, उन्होंने आराधन करने योग्य जो जो वचन और गुण बताये हो उनका स्मरण कर उनमे आत्माको प्रेरित करें, यह आप सबसे विनती है । समागममे आये हुए मुमुक्षुओको श्री सोभागका स्मरण सहज ही बहुत समय तक रहने योग्य है ।
मोहसे जिम समय खेद उत्पन्न हो उस ममय भी उनके गुणोकी अद्भुतताका स्मरण करके मोहजन्य खेदको शात करके, उनके गुणोकी अद्भुतना के विरहमे उस खेदको लगाना योग्य है।
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इस क्षेत्र, इस कालमे श्री सोभाग जैसे विरल पुरुष मिलते है, ऐसा हमे वारवार भासित होता है । धीरजसे सभी खेदकोशात करें, और उनके अद्भुत गुणो तथा उपकारी वचनोका आश्रय लें, यह योग्य है । मुमुक्षुको श्री सोभागका स्मरण करना योग्य नही है ।
7
जिसने ससारका स्वरूप स्पष्ट जाना है उसे उस ससारके पदार्थकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिसे हर्ष-शोक होना योग्य नही है, तो भी ऐसा लगता है कि सत्पुरुष के समागमकी प्राप्तिसे कुछ भी हर्पं और उनके वियोगसे कुछ भी खेद अमुक गुणस्थानक तक उसे भी होना योग्य है ।
'आत्मसिद्धि' ग्रन्थ आप अपने पास रखें । त्रबक और मणि विचार करना चाहे तो विचार करें, परन्तु उससे पहले कितने ही वचन तथा सद्ग्रन्थोका विचारना बनेगा तो आत्मसिद्धि बलवान उपकारका हेतु होगा, ऐसा लगता है ।
श्री सोभागको सरलता, परमार्थ संबंधी निश्चय, मुमुक्षुके प्रति उपकारशीलता आदि गुण वारवार विचारणीय हैं । शांतिः शांति. शाति
७८३
बबई, आषाढ़ सुदी ४, रवि, १९५३
श्री सोभागको नमस्कार
श्री सोभागकी मुमुक्षुदशा तथा ज्ञानीके मार्गके प्रति उनका अद्भुत निश्चय वारंवार स्मृतिमे आया करता है ।
सर्व जीव सुखकी इच्छा करते है, परन्तु कोई विरले पुरुष उस सुखके यथार्थ स्वरूपको जानते है ।
जन्म, मरण आदि अनत दु खोके आत्यंतिक (सर्वथा) क्षय होनेके उपायको जीव अनादिकालसे नही जानता, उस उपायको जानने और करनेकी सच्ची इच्छा उत्पन्न होनेपर जीव यदि सत्पुरुषके समागमका लाभ प्राप्त करे तो वह उस उपायको जान सकता है, और उस उपायकी उपासना करके सर्व दु खसे मुक्त हो जाता है ।
ऐसी सच्ची इच्छा भी प्राय. जीवको सत्पुरुषके समागमसे ही प्राप्त होती है । ऐसा समागम, उस समागमको पहचान, प्रदर्शित मार्गकी प्रतीति और उसी तरह चलनेकी प्रवृत्ति जीवको परम दुर्लभ है ।
मनुष्यता, ज्ञानीके वचनोका श्रवण प्राप्त होना, उसकी प्रतीति होना, और उनके कहे हुए मार्गमे प्रवृत्ति होना परम दुर्लभ है, ऐसा श्री वर्धमानस्वामीने उत्तराध्ययनके तीसरे अध्ययनमे उपदेश किया है ।
प्रत्यक्ष सत्पुरुषका समागम और उनके आश्रयमे विचरनेवाले मुमुक्षुओको मोक्षसबधी सभी साधन प्रायः अल्प प्रयाससे और अल्पकालमे सिद्ध हो जाते है, परन्तु उस समागमका योग मिलना दुर्लभ है । उसी समागमके योग मुमुक्षुजीवका चित्त निरन्तर रहता है ।
जीवको सत्पुरुषका योग मिलना तो सर्व कालमे दुर्लभ है । उसमे भी ऐसे दु पमकालमे तो वह योग क्वचित् ही मिलता है। विरले ही सत्पुरुष विचरते हैं । उस समागमका लाभ अपूर्व है, यो समझकर जीवको मोक्षमार्गकी प्रतीति कर, उस मार्गका निरन्तर आराधन करना योग्य है ।
जब उस समागमका योग न हो तब आरम्भ-परिग्रहकी ओरसे वृत्तिको हटाकर सत्शास्त्रका परिचय विशेषत कर्तव्य है । व्यावहारिक कार्योकी प्रवृत्ति करनी पडती हो तो भो जो जीव उसमे वृत्तिको मद करनेकी इच्छा करता है वह जीव उसे मंद कर सकता है, और सत्शास्त्रके परिचय के लिये बहुत अवकाश प्राप्त कर सकता है।
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आरंभ-परिग्रहसे जिनकी वृत्ति खिन्न हो गई है, अर्थात् उसे असार समझकर जो जोव उससे पीछे हट गये है, उन जीवोको सत्पुरुषोका समागम और सत्शास्त्रका श्रवण विशेषतः हितकारी होता है । जिस जीवकी आरम्भ-परिग्रहमे विशेष वृत्ति रहती हो, उस जीवमे सत्पुरुषके वचनोका अथवा सत्शास्त्रका परिणमन होना कठिन है ।
आरम्भ परिग्रहमे वृत्तिको मद करना और पडता है, क्योकि जीवका अनादि प्रकृतिभाव उससे लिया है वह वैसा कर सका है, इसलिये विशेष उत्साह रखकर वह प्रवृत्ति कर्तव्य है ।
सब मुमुक्षुओको इस बातका निश्चय और नित्य नियम करना योग्य है, प्रमाद और अनियमितता दूर करना योग्य है ।
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सत्शास्त्रके परिचयमे रुचि करना प्रथम तो कठिन भिन्न है, तो भी जिसने वैसा करनेका निश्चय कर
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बबई, आषाढ सुदी ४, रवि, १९५३ सच्चे ज्ञानके बिना और सच्चे चारित्रके बिना जीवका कल्याण नही होता, यह नि:संदेह है । सत्पुरुषके वचनोका श्रवण, उसकी प्रतीति, और उसकी आज्ञासे प्रवृत्ति करते हुए जीव सच्चे चारित्रको प्राप्त करते है, ऐसा नि सन्देह अनुभव होता है ।
यहाँसे 'योगवासिष्ठ' की पुस्तक भेजी है, उसे पाँच-दस बार पुनः पुनः पढना और वारंवार विचारना योग्य है |
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बबई, आषाढ वदी १, गुरु, १९५३ श्री धुरीभाईने 'अगुरुलघु' के विषयमे प्रश्न लिखवाया, उसे प्रत्यक्ष समागममे समझना विशेष
सुगम है ।
शुभेच्छासे लेकर शैलेशीकरण तककी सभी क्रियाएं जिस ज्ञानीको मान्य है, उस ज्ञानीके वचन त्यागवैराग्यका निषेध नही करते । त्याग - वैराग्यके साधनरूपमे प्रथम जो त्याग - वैराग्य आता है, उसका भी ज्ञानी निषेध नही करते ।
किसी एक जड-क्रिया प्रवृत्ति करके जो ज्ञानीके मार्गसे विमुख रहता हो, अथवा मतिकी मूढता के कारण ऊँची दशाको पानेसे रुक जाता हो, अथवा असत्समागमसे मतिव्यामोहको प्राप्त होकर जिसने अन्यथा त्याग - वैराग्यको सच्चा त्याग वैराग्य मान लिया हो, उसका निषेध करनेके लिये करुणाबुद्धिसे ज्ञानी योग्य वचनसे क्वचित् उसका निषेध करते हो, तो व्यामोह प्राप्त न कर उसका सद्हेतु समझकर यथार्थ त्याग - वैराग्यकी अतर तथा बाह्य क्रियामे प्रवृत्ति करना योग्य है ।
·
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बंबई, आषाढ़ वदी १, गुरु, १९५३ " सकळ संसारी इद्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे । मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निःकामी रे ॥'
हे मुनियो । आपको आर्यं सोभागकी अंतरग दशा और देहमुक्त समयकी दशाकी वारवार अनुप्रेक्षा ना योग्य है ।
मुनियो । आपको द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे ओर भावसे असंगतापूर्वक विचरनेका सतत उपयोग सिद्ध करना योग्य है । जिन्होंने जगतसुखस्पृहाको छोड़कर ज्ञानीके मार्गका आश्रय ग्रहण किया है, वे
१ भावार्थके लिये देखें आक ७४३ ।
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अवश्य उस असग उपयोगको प्राप्त करते हैं । जिस श्रुतसे असंगता उल्लसित हो उस श्रुतका परिचय कर्तव्य है ।
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बबई, आषाढ वदी १, गुरु, १९५३
1
श्री सोभागकी देहमुक्त समयकी दशाके बारेमे जो पत्र लिखा है वह भी यहां मिला है । कर्मग्रन्थका क्षिप्त स्वरूप लिखा वह भी यहाँ मिला है ।
आर्य सोभागकी बाह्याभ्यंतर दशाकी वारंवार अनुप्रेक्षा कर्तव्य है ।
श्री नवलचदद्वारा प्रदर्शित प्रश्नका विचार आगे कर्तव्य है ।
जगतसुखस्पृहामे ज्यो ज्यो खेद उत्पन्न होता है त्यो त्यो ज्ञानीका मागं स्पष्ट सिद्ध होता है ।
बबई, आषाढ वदी ११, रवि, १९५३
७८८
परम संयमी पुरुषोको नमस्कार
असारभूत व्यवहारको सारभूत प्रयोजनकी भाँति करनेका उदय रहनेपर भी जो पुरुष उस उदयसे क्षोभ न पाकर सहजभाव स्वधर्ममे निश्चलतासे रहे है, उन पुरुषोके भीष्मव्रतका वारवार स्मरण करते हैं ।
सब मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो ।
७८९
ॐ नमः
प्रथम पत्र मिला था | अभी एक चिट्ठी मिली है ।
मणिरत्नमालाकी पुस्तक फिरसे पढनेसे अधिक मनन हो सकेगा ।
श्री डुगर तथा लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको धर्मस्मरण प्राप्त हो । श्री डुगरसे कहियेगा कि प्रसंगोपात्त कुछ ज्ञानवार्ता प्रश्नादि लिखे अथवा लिखवायें ।
1
बंबई, आषाढ वदी १४, बुध, १९५३
सत्शास्त्रका परिचय नियमपूर्वक निरतर करना योग्य है । एक दूसरेके समागममे आनेपर आत्मार्थ वार्ता कर्तव्य है ।
७९०
परन उत्कृष्ट संयम जिनके लक्ष्यमें निरंतर रहा करता है, उन सत्पुरुषोंके समागमका ध्यान निरंतर रहता है ।
बबई, श्रावण सुदी ३, रवि, १९५३
प्रतिष्ठित व्यवहारकी श्री देवकीर्णजीकी अभिलाषासे अनतगुणविशिष्ट अभिलाषा रहती है। बलवान और वेदन किये बिना अटल उदय होनेसे अंतरग खेदका समतासहित वेदन करते हैं । दीर्घकालको अति अल्पकालमे लानेके ध्यानमे रहते हैं ।
यथार्थ उपकारी प्रत्यक्ष पुरुषमे एकत्वभावना आत्मशुद्धिको उत्कृष्टता करती है । सव मुनियोको नमस्कार ।
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श्रीमद राजचन्द्र
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बंबई, श्रावण सुदी १५, गुरु, १९५३ जिसको दीर्घकालकी स्थिति है, उसे अल्पकालकी स्थितिमे लाकर, जिन्होने कर्मक्षय किया हैं, उन महात्माओको नमस्कार । सद्वर्तन, सद्ग्रन्थ और सत्समागममे प्रमाद कर्तव्य नही है ।
७९२
बबई, श्रावण सुदी १५, गुरु, १९५३ दो पत्र मिले हैं । 'मोक्षमार्गप्रकाश' नामक ग्रन्थ आज डाकसे भिजवाया है, वह मुमुक्षुजीवको विचार करने योग्य है । अवकाश निकालकर प्रथम श्री लल्लुजी और देवकीर्णजी उसे सपूर्ण पढे और मनन करे, बादमे बहुतसे प्रसग दूसरे मुनियोको श्रवण कराने योग्य है ।
श्री देवकीर्ण मुनिने दो प्रश्न लिखे हैं । उनका उत्तर प्राय: अबके पत्रमे लिखूँगा ।
‘मोक्षमार्गप्रकाश' का अवलोकन करते हुए किसी विचारमे मतातर जैसा लगे, तो उद्विग्न न होकर उस स्थलका अधिक मनन करना, अथवा सत्समागमके योगमे उस स्थलको समझना योग्य है । परमोत्कृष्ट सयममे स्थितिकी बात तो दूर रही, परन्तु उसके स्वरूपका विचार होना भी विकट है ।
७९३
बंबई, श्रावण सुदी १५, गुरु, १९५३
'सम्यग्दृष्टि अभक्ष्य आहार करता है ?" इत्यादि प्रश्न लिखे । उन प्रश्नोंके हेतुका विचार करनेसे पता चलेगा कि प्रथम प्रश्नमे किसी एक दृष्टान्तको लेकर जीवको शुद्ध परिणामकी हानि करने जैसा है । मतिकी अस्थिरतासे जीव परिणामका विचार नही कर सकता । श्रेणिक आदिके सबध मे किसी एक स्थलपर ऐसी बात किसी एक ग्रन्थमे कही है, परंतु वह किसीके प्रवृत्ति करनेके लिये नही कही है, तथा यह बात यथार्थ इसी तरह है यह भी नही है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि पुरुषको अल्पमात्र व्रत नही होता तो भी सम्यग्दर्शन होनेके बाद जीव उसका वमन न करे तो अधिकसे अधिक पद्रह भवमे मोक्ष प्राप्त करता है, ऐसा सम्यग्दर्शनका बल है, इस हेतुसे कही हुई बातको दूसरे रूपमे न ले जायें । सत्पुरुषकी वाणी विषय और कषायके अनुमोदनसे अथवा रागद्वेषके पोषणसे रहित होती है, यह निश्चय रखें, और चाहे जैसे प्रसगमे उसी दृष्टिसे अर्थ करना योग्य है ।
-
श्री डुगर आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य । अभी डुगर कुछ पढते है ? सो लिखियेगा ।
७९४
बबई, श्रावण वदी १, शुक्र, १९५३
पहले एक पत्र मिला था। दूसरा पत्र अभी मिला है ।
आर्य सोभागका समागम आपको अधिक समय रहा होता तो बहुत उपकार होता । परतु भावी प्रबल है। उसके लिये उपाय यह है कि उनके गुणोका वारवार स्मरण करके जीवमे वैसे गुण उत्पन्न हो, ऐसा वर्तन करें ।
1
"
नियमितरूपसे नित्य सद्ग्रंथका पठन तथा मनन रखना योग्य है । पुस्तक आदि कुछ चाहिये तो यहाँ मनसुखको लिखें। वे आपको भेज देंगे । ॐ
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३० वो वर्ष
६२१ - ७९५ " बबई, श्रावण वदी ८, शुक्र, १९५३ शुभेच्छासपन्न श्री मनसुख पुरुपोत्तम आदि, श्री खेडा।
पत्र मिला है।
आपकी तरफ विचरनेवाले मुनि श्रीमान लल्लुजी आदिको नमस्कार प्राप्त हो । मुनि श्री देवकीर्णजीके प्रश्न मिले थे। उन्हे विनयसहित विदित कीजियेगा कि 'मोक्षमार्गप्रकाश' पढनेसे उन प्रश्नोंका बहुतसा समाधान हो जायेगा और विशेष स्पष्टता समागमके अवसरपर होना योग्य है।
पारमार्थिक करुणाबुद्धिसे निष्पक्षतासे कल्याणके साधनके उपदेष्टा पुरुषका समागम, उसकी उपासना और आज्ञाका आराधन कर्तव्य है। ऐसे समागमके वियोगमे सत्शास्त्रका यथामति परिचय रखकर सदाचारसे प्रवृत्ति करना योग्य है । यही विनती । ॐ
___७९६ .
, बंबई, श्रावण वदी ८, शुक्र, १९५३ 'मोहमुद्गर' और 'मणिरत्नमाला' ये दो पुस्तकें पढनेका अभी अभ्यास रखें। इन दो पुस्तकोमे मोहके स्वरूपके तथा आत्मसाधनके कितने ही उत्तम प्रकार बताये है।
बबई, श्रावण वदी ८, शुक्र, १९५३
७९७
पत्र मिला है। . श्री डुंगरकी दशा लिखी सो जानी है। श्री सोभागके वियोगसे उन्हे सबसे ज्यादा खेद होना योग्य हैं। एक बलवान सत्समागमका योग चला जानेसे आत्मा के अतःकरणमे बलवान खेद होना योग्य है।
आप, लहेराभाई, मगन आदि सभी मुमुक्षु निरतर सत्शास्त्रका परिचय रखना न चूकें। आप कोई कोई प्रश्न यहाँ लिखते है, उसका उत्तर लिखना अभी प्राय नही बन पाता, इसलिये किसी भी विकल्पमे न पडते हुए, अनुक्रमसे वह उत्तर मिल जायेगा यह विचार करना योग्य है।
थोडे दिनोके बाद प्राय. श्री डुगरको पढनेके लिये एक पुस्तक भेजी जायेगी ताकि उन्हे निवृत्तिकी प्रधानता रहे । यहाँसे मणिलालको राधनपुर एक चिट्ठी लिखी थी।
७९८,
ववई, श्रावण वदी १०, रवि, १९५३ जिन जिज्ञासुओको 'मोक्षमार्गप्रकाश' का श्रवण करनेकी अभिलाषा है, उन्हे श्रवण करायें। अधिक स्पष्टीकरणसे और धीरजसे श्रवण करायें। श्रोताको किसी एक स्थानपर विशेष संशय हो तो उसका समाधान करना योग्य है। किसी एक स्थानपर समाधान अशक्य जैसा मालूम हो तो किसी महात्माके योगसे समझनेके लिये कहकर श्रवणको न रोकें, तथा उस सशयको किसी महात्माके सिवाय अन्य किसी स्थानमे पूछनेसे वह विशेष भ्रमका हेतु होगा, और नि-सशयतासे श्रवण किये हुए श्रवणका लाभ वृथासा होगा, ऐसी दृष्टि श्रोताकी हो तो अधिक हितकारी होगा।
७९९
ववई, श्रावण वदी १२, १९५३
सर्वोत्कृष्ट भूमिकामे स्थिति होने तक, श्रुतज्ञानका अवलवन लेकर सत्पुरुप भी स्वदशामे स्थिर रह सकते है, ऐसा जिनेद्रका अभिमत है, वह प्रत्यक्ष सत्य दिखायी देता है।
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श्रीमद् राजचन्द्र - सर्वोत्कृष्ट भूमिकापर्यत श्रुतज्ञान (ज्ञानी पुरुषोके वचनो) का अवलबन जब जब मंद पडता है तब तब सत्पुरुष भी कुछ न कुछ चपलता पा जाते हैं, तो फिर सामान्य मुमुक्षु जीव कि जिन्हे विपरीत समागम, विपरीत श्रुत आदि अवलंबन रहे है उन्हे वारवार विशेष विशेष चपलता होना सभव है।
__ ऐसा है तो भी जो मुमुक्षु सत्समागम, सदाचार और सत्शास्त्रविचाररूप अवलबनमे दृढ निवास करते हैं, उन्हे सर्वोत्कृष्ट भूमिकापर्यंत पहुंचना कठिन नही है, कठिन होनेपर भी कठिन नहीं है।
८००
बबई, श्रावण वदी १२, १९५३
पत्र मिला है । दीवाली तक प्रायः इस क्षेत्रमे स्थिति होगी। द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे जिन सत्पुरुषोको प्रतिबध नही है उन सत्पुरुषोको नमस्कार |
सत्समागम, सत्शास्त्र और सदाचारमे दृढ निवास, ये आत्मदशा होनेके प्रबल अवलंबन है । सत्समागमका योग दुर्लभ है, तो भी मुमुक्षुको उस योगकी तीव्र अभिलाषा रखना और प्राप्ति करना योग्य है । उस योगके अभावमे तो जीवको अवश्य ही सत्शास्त्ररूप विचारके अवलबनसे सदाचारकी जाग्रति रखना योग्य है।
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बबई, भादो सुदी ६, गुरु, १९५३ परमकृपालु पूज्य पिताजी, ववाणियाबंदर।
। आज दिन तक मैंने आपकी कुछ भी अविनय, अभक्ति या अपराध किया हो, तो दो हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर शुद्ध अतःकरणसे क्षमा माँगता हूँ। कृपा करके आप क्षमा प्रदान करे । अपनी माताजीसे भी इसी तरह क्षमा मांगता हूँ। इसी प्रकार अन्य सब साथियोके प्रति मैने जाने-अनजाने किसी भी प्रकारका अपराध या अविनय किया हो उसके लिये शुद्ध अत करणसे क्षमा माँगता हूँ। कृपया सब क्षमा प्रदान करे।
८०२
बबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ बाह्य क्रिया और गुणस्थानकादिमे की जानेवाली क्रियाके स्वरूपकी चर्चा करना, अभी प्रायः स्व-पर उपकारी नही होगा । इतना कर्तव्य है कि तुच्छ मतमतातरपर दृष्टि न डालते हुए असवृत्तिके निरोधके लिये सत्शास्त्रके परिचय और विचारमे जीवकी स्थिति करना।
८०३ । बंबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ शुभेच्छा योग्य,
__आपका पत्र मिला है। इस क्षण तक आपका तथा आपके समागमवासी भाइयोका कोई भी अपराध या अविनय मुझसे हुआ हो उसके लिये नम्रभावसे क्षमा माँगता हूँ। ॐ
८०४ __बबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ मुनिपथानुगामी श्री लल्लुजी आदि मुमुक्षु तथा शुभेच्छायोग्य भावसार मनसुखलाल आदि मुमुक्षु, श्री खेडा।
आज तक आपका कोई भी अपराध या अविनय इस जीवसे हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमा मांगता हूँ। ॐ
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८०५
३० वो वर्ष
६२३
बंबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ आज तक आपका तथा अबालाल आदि सभी - मुमुक्षुओका मुझसे कोई अपराध या अविनय हुआ हो उसके लिये आप सबसे क्षमा चाहता हूँ।
फेणायसे पोपटभाईका पत्र मिला था। अभी किसी सद्ग्रथको पढनेके लिये उन्हे लिखे । यही विनती।
८०६
बबई, भादो वदो ८, रवि, १९५३ श्री डुंगर आदि मुमुक्षु,
__ मगनलालने मन आदिकी पहचानके प्रश्न लिखे हैं, उन्हे समागममे पूछनेसे समझना बहुत सुलभ होगा । पत्रद्वारा समझमे आने कठिन है।
श्री लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको आत्मस्मरणपूर्वक यथाविनय प्राप्त हो ।
जीवको परमार्थप्राप्तिमे अपार अतराय है; उसमे भी इस कालमे तो उन अंतरायोका अवर्णनीय बल होता है । शुभेच्छासे लेकर कैवल्यपर्यंतकी भूमिकामे पहुँचते हुए जगह जगह वे अतराय देखनेमे आते हैं, और वे अतराय जीवको वारवार परमार्थसे गिराते है। जीवको महापुण्यके उदयसे यदि सत्समागमका अपूर्व लाभ मिलता रहे तो वह निर्विघ्नतासे कैवल्यपर्यंतकी भूमिकामे पहुँच जाता है। सत्समागमके वियोगमे जीवको आत्मबल विशेष जाग्रत रखकर सत्शास्त्र और शुभेच्छासंपन्न पुरुषोंके समागममे रहना योग्य है।
८०७ बबई, भादो वदी ३०, रवि, १९५३ शरीर आदि बलके घटनेसे सब मनुष्योंसे मात्र दिगबर-वृत्तिसे रहकर चारित्रका निर्वाह नही हो सकता. इसलिये वर्तमानकाल जैसे कालमे मर्यादापूर्वक श्वेताम्बर-वृत्तिसे चारित्रका निर्वाह करनेके लिये ज्ञानीने जिस प्रवृत्तिका उपदेश किया है, उसका निषेध करना योग्य नही है। इसी तरह वस्त्रका आग्रह रखकर दिगवर-वृत्तिका एकात निषेध करके वस्त्रमूर्छा आदि कारणोंसे चारित्रमे शिथिलता भी कर्तव्य
नही है।
दिगबरत्व और श्वेताबरत्व, देश, काल और अधिकारीके योगसे उपकारके हेतु हैं । अर्थात् जहा ज्ञानोने जिस प्रकार उपदेश किया है उस तरह प्रवृत्ति करनेसे आत्मार्थ ही है।
'मोक्षमार्गप्रकाश' मे, वर्तमान जिनागम जो श्वेताबर सप्रदायको मान्य है, उनका निपेध किया है. वह निषेध करना योग्य नही है। वर्तमान आगममे अमुक स्थल अधिक संदेहास्पद हैं, परतु सत्पुरुषकी दृष्टिसे देखनेपर उसका निराकरण हो जाता है, इसलिये उपशमदृष्टिसे उन आगमोका अवलोकन करनेमे सशय करना योग्य नही है।
८०८
बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ सत्पुरुषोंके गगाघ गंभीर संयमको नमस्कार विषम परिणामसे जिन्होने कालकूट विष पिया ऐसे श्री ऋषभ आदि परम पुरुषोको नमस्कार ।
परिणाममे तो जो अमृत ही है, परन्तु प्रथम दशामे कालकूट विषकी भांति उद्विग्न करता है, ऐसे श्री सयमको नमस्कार।
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६२४
श्रीमद राजचन्द्र
उस ज्ञानको, उस दर्शनको और उस चारित्रको वारवार नमस्कार ।
बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ आप सबके लिखे पत्र अनेक बार हमे मिलते है, और उनकी पहुँच भी लिखना अशक्य हो जाता है; अथवा तो वैसा करना योग्य लगता है । इतनी बात स्मरणमे रखनेके लिये लिखी है । वैसा प्रसग होनेपर, कुछ आपके पत्रादिके लेखन-दोषसे ऐसा हुआ होगा या नही इत्यादि विकल्प आपके मनमे न होनेके लिये यह स्मरण रखनेके लिये लिखा है।
जिनकी भक्ति निष्काम है ऐसे पुरुषोका सत्सग या दर्शन महापुण्यरूप समझना योग्य है। आपके निकटवर्ती सत्सगियोको समस्थितिसे यथायोग्य ।
८१०
बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३
__ पारमार्थिक हेतुविशेषसे पत्रादि लिखना नही बन पाता ।
- जो अनित्य है, जो असार है और जो अशरणरूप है वह इस जीवको प्रीतिका कारण क्यो होता है यह बात रात दिन विचार करने योग्य है।'
लोकदृष्टि ओर ज्ञानीकी दृष्टिमे पश्चिम पूर्व जितना अन्तर है। ज्ञानीकी दृष्टि प्रथम तो निरालम्बन है, रुचि उत्पन्न नही करती, जीवकी प्रकृतिसे मेल नही खाती, जिससे जीव उस दृष्टिमे रुचिमान नही होता । परन्तु जिन जीवोने परिषह सहन करके कुछ समय तक उस दृष्टिका आराधन किया है, वे सर्व दु.खके क्षयरूप निर्वाणको प्राप्त हुए है, उसके उपायको प्राप्त हुए है। .
जीवको प्रमादमे अनादिसे रति है, परन्तु उसमे रति करने योग्य कुछ दिखायी नही देता । ॐ
८११
___ बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३
सब जीवोके प्रति हमारी तो क्षमादृष्टि है। ...
सत्पुरुषका योग और सत्समागम मिलना बहुत कठिन है, इसमे सशय नही है। ग्रीष्म ऋतुके तापसे संतप्त प्राणीको शीतल वृक्षको छायाको तरह मुमुक्षुजीवको सत्पुरुषका योग तथा सत्समागम उपकारी है । सर्व शास्त्रोमे वैसा योग मिलना दुर्लभ कहा है।
'शातसुधारस' और 'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रथोका अभी विचार करना रखें । ये दोनो ग्रन्थ प्रकरणरत्नाकर पुस्तकमे छपे हैं । ॐ
८१२
बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३
- किसी एक पारमार्थिक हेतुविशेषसे पत्रादि लिखना नही हो सकता।
विशेष ऊँची भूमिकाको प्राप्त मुमुक्षुओको भी सत्पुरुषोका योग अथवा सत्समागम आधारभूत है, इसमे सशय नही है । निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका योग होनेसे जीव उत्तरोत्तर ऊँची भूमिका
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३० वॉ वर्ष
६२५ को प्राप्त करता है । निवृत्तिमान भाव परिणाम होनेके लिये जीवको निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र और काल प्राप्त करना योग्य है । शुद्ध समझसे रहित इस जीवको किसी भी योगसे शुभेच्छा, कल्याण करनेकी इच्छा प्राप्त हो और निस्पृह परम पुरुषका योग मिले तो ही इस जीवको भान आना सम्भव है । उसके वियोगमे सत्शास्त्र और सदाचारका परिचय कर्तव्य है, अवश्य कर्तव्य है । श्री डुंगर आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य |
८१३
बंबई, आसोज वदी ७, १९५३
ऊपरकी भूमिकाओमे भी अवकाश मिलनेपर अनादि वासनाका सक्रमण हो आता है, और आत्माको वारवार आकुल-व्याकुल कर देता है। वारवार यो हुआ करता है कि अब ऊपरकी भूमिकाकी प्राप्ति होना दुर्लभ ही है, और वर्तमान भूमिकामे स्थिति भी पुन होना दुर्लभ है। ऐसे असंख्य अतराय - परिणाम ऊपरकी भूमिकामे भी होते है, तो फिर शुभेच्छादि भूमिकामे वैसा हो, यह कुछ आश्चर्यकारक नही है । वैसे अतरायसे खिन्न न होते हुए आत्मार्थी जीव पुरुषार्थदृष्टि रखे, श्रवीरता रखे, हितकारी द्रव्य, क्षेत्र आदि योगका अनुसधान करे, सत्शास्त्रका विशेष परिचय रखकर, वारंवार हठ करके भी मनको सद्विचारमे लगाये और मनके दौरात्म्यसे आकुल-व्याकुल न होते हुए धैर्यसे सद्विचारपथपर जानेका उद्यम करते हुए जय पाकर ऊपरकी भूमिकाको प्राप्त करता है और अविक्षिप्तता प्राप्त करता है । 'योगदृष्टिसमुच्चय' वारवार अनुप्रेक्षा करने योग्य है ।
1
८१४
- बबई, आसोज वदी १४, रवि, १९५३
ॐ
श्री हरिभद्राचार्यने 'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रन्थ संस्कृतमे रचा है । 'योगबिंदु' नामक योगका दूसरा ग्रन्थ भी उन्होने रचा है। हेमचद्राचार्यने 'योगशास्त्र' नामक ग्रन्थ रचा है । श्री हरिभद्रकृत ‘योगदृष्टिसमुच्चय' की पद्धतिसे गुर्जर भाषामे श्री यशोविजयजीने स्वाध्यायको रचना की है। शुभेच्छासे लेकर निर्वाणपर्यंतकी भूमिकाओमे मुमुक्षुजीवको वारवार श्रवण करने योग्य, विचार करने योग्य और स्थिति करने योग्य आशयसे बोध- तारतम्य तथा चारित्र स्वभावका तारतम्य उस ग्रन्थमे प्रकाशित किया है । यमसे लेकर समाधिपर्यंत अष्टागयोग दो प्रकारके है-एक प्राणादि निरोधरूप और दूसरा आत्मस्वभावपरिणामरूप । 'योगदृष्टिसमुच्चय' मे आत्मस्वभावपरिणामरूपं योगका मुख्य विषय है । वारवार वह विचार करने योग्य है ।
श्री घुरीभाई आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य प्राप्त हो ।
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३१ वाँ वर्ष
८१५
ववई, कात्तिक वदी १, बुध, १९५४ आत्मार्थी श्री मनसुख द्वारा लिखे हुए प्रश्नका समाधान विशेष करके सत्समागममे मिलनेसे यथायोग्य समझमे आयेगा।
जो आर्य अब अन्य क्षेत्रमे विहार करनेके आश्रममे हैं, उन्हे जिस क्षेत्रमे शातरसप्रधान वृत्ति रहे, निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका लाभ हो, उस क्षेत्रमे विचरना योग्य है । समागमकी आकाक्षा है, तो अभी अधिक दूर क्षेत्रमे विचरना न हो सकेगा, चरोतर आदि प्रदेशमे विचरना योग्य है। यही विनती। ॐ
बबई, कार्तिक वदी ५, १९५४ आपके लिखे पत्र मिले हैं। अमुक सद्ग्रन्थोका लोकहितार्थ प्रचार हो ऐसा करनेकी वृत्ति बतायो सो ध्यानमे हैं। . . मगनलाल आदिने दर्शन तथा समागमकी आकाक्षा प्रदर्शित की है वे पत्र भी मिले है। .
केवल अतर्मुख होनेका सत्पुरुषोका मार्ग सर्व दुखक्षयका उपाय है, परतु वह किसी ही जीवको समझमे आता है । महत्पुण्यके योगसे, विशुद्ध मतिसे, तीव्र वैराग्यसे-और सत्पुरुषके समागमसे वह उपाय समझमे आने योग्य है । उसे समझनेका अवसर एक मात्र यह मनुष्य देह है। वह भी अनियमित कालके भयसे गृहीत है, वहाँ प्रमाद होता है, यह खेद और आश्चर्य है । ॐ
८१७
___ बंबई, कात्तिक वदी १२, १९५४ पहले आपके दो पत्र और अभी एक पत्र मिला है । अभी यहाँ स्थिति होना सम्भव है।
आत्मदशाको पाकर जो निर्द्वन्द्वतासे यथाप्रारब्ध विचरते हैं, ऐसे महात्माओका योग जीवको दुर्लभ है । वैसा योग मिलनेपर जीवको उस पुरुषकी पहचान नही होती, और तथारूप पहचान हुए विना उस महात्माका दृढाश्रय नही होता। जब तक आश्रय दृढ न हो तब तक रपदेश फलित नही होता। उपदेशके फलित हुए बिना सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शनको प्राप्तिके विना
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३१ यो वर्ष
६२७ जन्मादि दुखकी आत्यन्तिक निवृत्ति नही बन पाती। वैसे महात्मा पुरुषोका योग तो दुर्लभ है, इसमे सशय नही है। परतु आत्मार्थी जीवोका योग मिलना भी कठिन है। तो भी क्वचित् क्वचित् वह योग वर्तमानमे होना सम्भव है । सत्समागम और सत्शास्त्रका परिचय कर्तव्य है । ॐ
बबई, मार्गशीर्ष सुदी ५, रवि, १९५४
८१८
क्षयोपशम, उपशम, क्षायिक, पारिणामिक, औदयिक और सान्निपातिक, इन छ भावोको ध्यानमे रखकर आत्माको उन भावोसे अनुप्रेक्षित करके देखनेसे सद्विचारमे विशेष स्थिति होगी। -
ज्ञान, दर्शन और चारित्र जो आत्मभावरूप हैं, उन्हे समझनेके लिये उपर्युक्त भाव-विशेष अवलबनभूत है।
८१९,
बबई, मार्गशीर्ष सुदी ५, रवि, १९५४
- खेद न करते हुए शूरवीरता ग्रहण करके ज्ञानीके मार्गपर चलनेसे मोक्षपट्टन सुलभ ही है। विषयकषाय आदि विशेप विकार कर डालें, उस समय विचारवानको अपनी निर्वीर्यता देखकर बहुत ही खेद होता है, और वह आत्माकी वारवार निंदा करता है, पुनः पुन तिरस्कार-वृत्तिसे देखकर, पुन महापुरुषके चरित्र और वाक्यवा अवलंबन ग्रहण कर, आत्मामे शौर्य उत्पन्न कर, उन विषयादिके विरुद्ध अति हठ करके उन्हे हटाता है, तब तक हिम्मत हारकर बैठ नही जाता, और केवल खेद करके रुक नही जाता। इसो वृत्तिका अवलबन आत्मार्थी जीवोने लिया है, और इसीसे अतमे विजय पाई है। यह बात सभी मुमुक्षुओको मुखाग्र करके हृदयमे स्थिर करना योग्य है।
बबई, मार्गशीर्ष सुदी ५, रवि, १९५४ त्रबकलालका लिखा एक पत्र तथा मगनलालका लिखा एक पत्र तथा मणिलालका लिखा एक पत्र यो तीन पत्र मिले है । मणिलालका लिखा पत्र अभी तक चित्तपूर्वक पढा नही जा सका है।
श्री डुंगरकी अभिलाषा 'आत्मसिद्धि' पढनेकी है। इसलिये उनके पढनेके लिये उस पुस्तककी व्यवस्था करे । 'मोक्षमार्गप्रकाश' नामक ग्रन्थ श्री रेवाशकरके पास है वह श्री डुगरके लिये पढने योग्य है. प्राय' थोडे दिनोमे उन्हे वह ग्रन्थ वे भेजेंगे।
'कौनसे गुण अगमे आनेसे यथार्थ मार्गानुसारिता कही जाये ?' 'कौनसे गुण अगमे आनेसे यथार्थ सम्यग्दृष्टिता कही जाये ?' 'कौनसे गुण अगमे आनेसे श्रुतकेवलज्ञान हो ?' 'तथा कौनसी दशा होनेसे यथार्थ केवलज्ञान हो, अथवा कहा जाये ?' इन प्रश्नोंके उत्तर लिखवानेके लिये श्री डुगरसे कहे।
आठ दिन रुककर उत्तर लिखनेमे बाधा नहीं है, परतु सागोपाग, यथार्थ और विस्तारसे लिखवायें । सद्विचारवानके लिये ये प्रश्न हितकारी हैं । सभी मुमुक्षुओको यथायोग्य ।
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ववई, पोष सुदी ३, रवि, १९५४ अबकलालने क्षमा मांगकर लिखा है कि सहजभावसे व्यावहारिक वात लिखी गयी है, उस संवधर्म आप खेद न करें। यहाँ वह खेद नहीं है, परन्तु जब तक आपको दृष्टिमे वह वात रहेगी अर्थात् व्यावहारिक वृत्ति रहेगी तब तक आत्महितके लिये बलवान प्रतिवध है, यो समझियेगा। और स्वप्नमे भी उस प्रतिवधमे न रहा जाये इसका ध्यान रखियेगा।
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श्रीमद राजचन्द्र
हमने जो यह अनुरोध किया है, उस पर आप यथाशक्ति पूर्ण विचार कर देखें, ओर उस वृत्तिका मूल अतरसे सर्वथा निवृत्त कर डालिये । नही तो समागमका लाभ प्राप्त होना असंभव है । यह बात शिथिलवृत्तिसे नही परतु उत्साहवृत्तिसे सिरपर चढानी योग्य है ।
मगनलालने मार्गानुसारीसे लेकर केवलपर्यंत दशासवधी प्रश्नोंके उत्तर लिखे थे, वे उत्तर हमने पढे हैं । वे उत्तर शक्तिके अनुसार हैं, परंतु सद्बुद्धिसे लिखे गये हैं ।
मणिलालने लिखा कि गोशळियाको 'आत्मसिद्धि' ग्रथ घर ले जानेके लिये न देनेसे बुरा लगा इत्यादि लिखा, उसे लिखनेका कारण न था । हम इस ग्रंथके लिये कुछ रागदृष्टि या मोहदृष्टिमे पडकर डुगरको अथवा दूसरेको देनेमे प्रतिवध करते हैं, यह होना संभव नही है । इस ग्रन्थकी अभी दूसरी नकल करनेकी प्रवृत्ति न करे ।
६२८
८२२
आणंद, पौष वदी ११, मंगल, १९५४ आज सवेरे यहाँ आना हुआ है । लीमड़ीवाले भाई केशवलालका भी आज यहाँ आना हुआ है । भाई केशवलालने आप सबको आनेके लिये तार किया था सो सहजभावसे था । आप सब कोई न आ सके यो विचार कर इस प्रसगपर चित्तमे खिन्न न होवें । आपके लिखें पत्र और चिट्ठी मिले हैं। किसी एक हेतुविशेषसे समागमके प्रति अभी विशेष उदासीनता रहा करती थी, और वह अभी योग्य है, ऐसा लगने से अभी मुमुक्षुओका समागम कम हो ऐसी वृत्ति थी । मुनियोंसे कहे कि विहार करनेमे अभी अप्रवृत्ति न करें, क्योकि अभी तुरत प्रायः समागम नही होगा । पचास्तिकाय ग्रन्थका विचार ध्यानपूर्वक करें ।
८२३
आणंद, पौष वदी १३, गुरु, १९५४ मगलवारको सुवह यहाँ आना हुआ था । प्राय कल सवेरे यहाँसे जाना होगा । मोरवी जाना
सभव है ।
مع
सर्व मुमुक्षु बहनो और भाइयोंको स्वरूपस्मरण कहियेगा ।
श्री सोभागकी विद्यमानतामे कुछ पहलेसे सूचित किया जाता था, और अभी वैसा नही हुआ, ऐसी किसी भी लोकदृष्टिमे पड़ना योग्य नही है ।
अविपमभावके बिना हमे भी अवधताके लिये दूसरा कोई अधिकार नही है । मौन रहना योग्य मार्ग है।
लि० रायचंद्र
मोरवी, माघ सुदी ४, बुध, १९५४
૮૨૪
ॐ
मुनियोको विज्ञप्ति कि—
शुभेच्छासे लेकर क्षीणमोहपयंन्त सत्श्रुत ओर सत्समागमका सेवन करना योग्य है । सर्वकालमे जीवके लिये इस साधनको दुर्लभता है । उसमे फिर ऐसे कालमे दुर्लभता रहे यह यथासंभव है ।
दु पमकाल और 'हुडावसर्पिणी' नामका आश्चर्यभाव अनुभवसे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने जैसा है । आत्मश्रेयके इच्छुक पुरुषको उससे क्षुब्ध न होकर वारंवार उस योगपर पैर रखकर सत्श्रुत, सत्समागम और सद्वृत्तिको बलवान करना योग्य है ।
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६२९
३१ वॉ वर्ष ८२५
मोरबी, माघ सुदी ४, बुध, १९५४ ।। आत्मस्वभावकी निर्मलता होनेके लिये मुमुक्षुजीवको दो साधन अवश्य ही सेवन करने योग्य हैंसत्श्रुत और सत्समागम । प्रत्यक्ष सत्पुरुषोका समागम जीवको कभी कभी हो प्राप्त होता है, परन्तु यदि जीव सदृष्टिमान हो तो सत्श्रुतके बहुत कालके सेवनसे होनेवाला लाभ प्रत्यक्ष सत्पुरुषके समागमसे बहुत अल्पकालमे प्राप्त कर सकता है, क्योकि प्रत्यक्ष गुणातिशयवान निर्मल चेतनके प्रभाववाले वचन और वृत्ति क्रिया-चेष्टित्व है। जीवको वैसा समागमयोग प्राप्त हो ऐसा विशेष प्रयत्न कर्तव्य है। वैसे योगके अभावमे सत्श्रुतका परिचय अवश्य ही करना योग्य है। जिसमे शातरसकी मुख्यता है, शातरसके हेतुसे जिसका समस्त उपदेश है, और जिसमे सभी रसोका शातरसभित वर्णन किया गया है, ऐसे शास्त्रका परिचय सत्श्रुतका परिचय है।
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मोरबी, माघ सुदी ४, बुध, १९५४
..' यदि हो सके तो बनारसीदासके जो ग्रन्थ आपके पास हो (समयसार--भाषाके सिवाय), दिगम्बर 'नयचक्र', 'पचास्तिकाय' (दूसरी प्रति हो तो), 'प्रवचनसार' (श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत हो तो) और 'परमात्मप्रकाश' यहाँ भेजियेगा।
. जीवको सत्श्रुतका परिचय अवश्य ही कर्तव्य है । मल, विक्षेप और प्रमाद उसमे वारवार अंतराय करते हैं, क्योकि दीर्घकालसे परिचित है, परन्तु यदि निश्चय करके उन्हे अपरिचित करनेकी प्रवृत्ति की जाये तो ऐसे हो सकता है । यदि मुख्य अतराय हो तो वह जीवका अनिश्चय है।
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ववाणिया, माघ वदो ४, गुरु, १९५४ , इस जीवको उत्तापके मूल हेतु क्या है तथा उनकी निवृत्ति क्यो नही होती, और वह कैसे हो? ये प्रश्न विशेषतः विचार करने योग्य हैं, अन्तरमे उतारकर विचार करने योग्य हैं। जब तक इस क्षेत्रमे स्थिति रहे तब तक चित्तको अधिक दृढ रखकर प्रवृत्ति करें। यही विनती।
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बबई, माघ वदी ३०, १९५४ श्री भाणजीस्वामीको पत्र लिखवाते हुए सूचित करे–'विहार करके अहमदावाद स्थिति करनेमे मनको भय, उद्वेग या क्षोभ नही है, परतु हितबुद्धिसे विचार करते हुए हमारी दृष्टिमे यह आता है कि अभी उस क्षेत्रमे स्थिति करना योग्य नही है। यदि आप कहेगे तो उसमे आत्महितको क्या वाधा आती है. उसे विदित करेंगे, और उसके लिये आप सूचित करेंगे तो उस क्षेत्रमे समागममे आयेंगे । अहमदावादका पत्र पढकर आप सबको कुछ भी उद्वेग या क्षोभ कर्तव्य नही है, समभाव कर्तव्य है । लिखनेमे यदि कुछ भी अनम्रभाव हुआ हो तो क्षमा करें।
यदि तरत ही उनका समागम होनेवाला हो तो ऐसा कहे-'आपने विहार करनेके बारेमे सूचित किया, उस बारेमे आपका समागम होनेपर जैसा कहेगे वैसा करेगे।' और समागम होनेपर कहे"पहलेको अपेक्षा सयममे शिथिलता की हो ऐसा आपको मालूम होता हो तो वह बतायें, जिससे उसकी निवत्ति की जा सके, और यदि आपको वैसा न मालूम होता हो तो फिर यदि कोई जीव विपमभावके अधीन होकर वैसा कहे तो उस वातपर ध्यान न देकर आत्मभावका ध्यान रखकर प्रवृत्ति करना योग्य है।
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श्रीमद राजचन्द्र
ऐसा जानकर अभी अहमदाबाद- क्षेत्रमे जानेकी वृत्ति योग्य नही लगती, क्योकि रागदृष्टिवाले जीवके पत्रकी प्रेरणासे, और मानके रक्षण के लिये उस क्षेत्रमे जाने जैसा होता है, जो बात आत्माके अहितका हेतु है । कदाचित् आप ऐसा समझते हो कि जो लोग असभव वात कहते हैं उन लोगोके मनमे अपनी भूल मालूम होगी और धर्मकी हानि होनेसे रुक जायेगी तो यह एक हेतु ठीक है, परन्तु वैसा रक्षण करनेके लिये उपर्युक्त दो दोप न आते हो तो किसी अपेक्षासे लोगोकी भूल दूर होनेके लिये विहार कर्तव्य है । परन्तु एक बार तो अविषमभावसे उस बातको सहन करके अनुक्रमसे स्वाभाविक विहार होते होते उस क्षेत्रमे जाना हो और किन्ही लोगोको वहम हो वह निवृत्त हो ऐसा करना उचित है, परन्तु रागदृष्टिवालेके वचनोको प्रेरणासे, तथा मानके रक्षणके लिये अथवा अविषमता न रहनेसे लोगोकी भूल मिटानेका निमित्त मानना, वह आत्महितकारी नही है, इसलिये अभी इस बातको उपशात कर अहमदा वाद आप बताये कि क्वचित् लल्लुजी आदि मुनियोके लिये किसीने कुछ कहा हो तो इससे वे मुनि दोषपात्र नही होते, उनके समागममे आनेसे जिन लोगोको वैसा सन्देह होगा वह सहज ही निवृत्त हो जायेगा, अथवा किसी समझने की भूलसे सन्देह हो या दूसरा कोई स्वपक्षके मानके लिये सन्देह प्रेरित करे तो वह विषम मार्ग है, इसलिये विचारवान मुनियोको वहाँ समदर्शी होना योग्य है, आपको चित्तमे कोई क्षोभ करना योग्य नही है, ऐसा बतायें। आप ऐसा करेगे तो हमारे आत्माका, आपके आत्माका, और धर्मका रक्षण होगा ।” इस प्रकार जैसे उनकी वृत्तिमे जचे, वैसे योगमे बातचीत करके समाधान करें, और अभी अहमदाबाद क्षेत्रमे स्थिति करना न वने ऐसा करेंगे तो आगे जाकर विशेष उपकारका हेतु है । ऐसा करते हुए भी यदि किसी भी प्रकार से भाणजीस्वामी न मानें तो अहमदाबाद क्षेत्रकी ओर भी विहार कीजिये, और सयमके उपयोगमे सावधान रहकर आचरण करिये। आप अविषम रहिये ।
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मुमुक्षुता जैसे दृढ हो वैसे करें, हारने अथवा निराश होने का कोई हेतु नही है । जीवको दुर्लभ योग प्राप्त हुआ तो फिर थोडासा प्रमाद छोड देनेमे जीवको उद्विग्न अथवा निराश होने जैसा कुछ भी नही है ।
मोरबी, चैत्र वदी १२, रवि, १९५४
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'पंचास्तिकाय ' ग्रन्थ रजिस्टर्ड बुक पोस्टसे भेजनेकी व्यवस्था करें | आप, छोटालाल, त्रिभोवन, कीलाभाई, धुरीभाई और आदिसे अन्त तक पढ़ना अथवा सुनना योग्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल कर्तव्य है ।
झवेरभाई आदिको 'मोक्षमार्गप्रकाश' और भावसे नियमित शास्त्रावलोकन
मोरबी, चैत्र वदी १२, रवि, १९५४
८३१
श्री देवकीर्ण आदि मुमुक्षुओको यथाविनय नमस्कार प्राप्त हो । 'कर्मग्रन्थ', 'गोम्मटसारशास्त्र' आदिसे अन्त तक विचार करने योग्य हैं ।
दु.पमकालका प्रबल राज्य चल रहा है, तो भी अडिग निश्चयसे, सत्पुरुषकी आज्ञामे वृत्तिका अनुसन्धान करके जो पुरुष अगुप्तवीर्यसे सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी उपासना करना चाहता है, उसे परम शान्तिका मार्ग अभी भी प्राप्त होना योग्य है ।
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३१ वाँ वर्ष
६३१
८३२
ववाणियां, ज्येष्ठ, १९५४ देहसे भिन्न स्वपरप्रकाशक परम ज्योतिस्वरूप यह आत्मा है, इसमे निमग्न होवें । हे आर्य जनो । न्तर्मुख होकर, स्थिर होकर उस आत्मामे ही रहे तो अनन्त अपार आनन्दका अनुभव करेंगे । - सर्व,जगतके जीव कुछ न कुछ प्राप्त करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं, ढ़ते हुए वैभव, परिग्रहके संकल्पमे प्रयत्नवान है, और प्राप्त करनेमे सुख नियोने तो उससे विपरीत ही सुखका मार्ग निर्णीत किया कि किंचित्मात्र भी ग्रहण करना यही खका नाश है ।
1
महान चक्रवर्ती राजा भी मानता है, परन्तु अहो !
विषयसे जिसकी इन्द्रियाँ आर्त्त है उसे शीतल आत्मसुख, आत्मतत्त्व कहाँसे प्रतीतिमे आयेगा ? परम धर्मरूप चन्द्रके प्रति राहु जैसे परिग्रहसे अब में विराम पाना ही चाहता हूँ । हमे परिग्रहको या करना है ?.
14
कुछ प्रयोजन नही है ।
'जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि ।'
हे आर्यजनो । इस परम वाक्यका आत्मभावसे आप अनुभव करें।
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ववाणिया, ज्येष्ठ सुदी १, शनि, १९५४ सर्वं द्रव्यसे, सर्व क्षेत्रसे, सर्वं कालसे और सर्व भावसे जो सर्वथा अप्रतिबद्ध होकर निजस्वरूपमे स्थित हुए उन परम पुरुषोको नमस्कार ।
' जिन्हे कुछ प्रिय नही है; जिन्हे कुछ अप्रिय नही है, जिनका कोई शत्रु नही है, जिनका कोई मित्र नही है, जिन्हे मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्प- शोक, जन्म-मृत्यु आदि द्वन्द्वोका अभाव होकर जो शुद्ध चैतन्यस्वरूपमे स्थित हुए हैं, स्थित होते है और स्थित होगे उनका अति उत्कृष्ट पराक्रम सानदाश्चयं उत्पन्न करता है |
देहसे जैसा वस्त्रका सबध है, वैसा आत्मासे देहका सबध जिन्होने यथातथ्य देखा है, म्यानसे तलवारका जैसा सबध है वैसा देहसे आत्माका सबध जिन्होने देखा है, अबद्ध - स्पष्ट आत्माका जिन्होने अनुभव किया है, उन महत्पुरुषोको जीवन और मरण दोनो समान है ।
जिस अचित्य द्रव्यकी शुद्धचितिस्वरूप काति परम प्रगट होकर अचित्य करती है, वह अचित्य द्रव्य सहज स्वाभाविक निजस्वरूप है, ऐसा निश्चय जिस परमकृपालु सत्पुरुषने प्रकाशित किया उसका अपार उपकार है ।
चद्र भूमिको प्रकाशित करता है, उसकी किरणोकी कातिके प्रभाव से समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, परतु चन्द्र कुछ भूमिरूप किसी कालमे नही होता, इसी प्रकार समस्त विश्वका प्रकाशक ऐसा यह आत्मा कभी भी विश्वरूप नही होता, सदा-सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है । विश्वमे जीव अभेदता माता है यही भ्राति है ।
जैसे आकाशमे विश्वका प्रवेश नही है, सर्व भावकी वासनासे आकाश रहित ही है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि पुरुषोने प्रत्यक्ष सर्व द्रव्यसे भिन्न, सर्वं अन्य पर्यायसे रहित ही आत्मा देखा है।
जिसकी उत्पत्ति किसी भी अन्य द्रव्यसे नही होती, ऐसे आत्माका नाश भी कहाँसे हो ?
अज्ञानसे और स्वस्वरूपके प्रमादसे आत्माको मात्र मृत्युकी भ्राति है । उसी भ्रातिको निवृत्त करके शुद्ध चेतन्य निजअनुभवप्रमाणस्वरूपमे परम जागत हाकर ज्ञानो सदैव निर्भय है । इसी स्वरूपकै लक्ष्यसे
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श्रीमद राजचन्द्र सर्व जीवोके प्रति साम्यभाव उत्पन्न होता है। सर्व परद्रव्य से वृत्तिको व्यावृत्त करके आत्मा अक्लेश समाधिको पाता है।
जिन्होंने परमसुखस्वरूप, परमोत्कृष्ट शात, शुद्ध चैतन्यस्वरूप समाधिको सदाके लिये प्राप्त किया उन भगवतको नमस्कार, और जिनका उस पदमे निरंतर ध्यानरूप प्रवाह है उन सत्पुरुषोको नमस्कार ।
सर्वसे सर्वथा मैं भिन्न हूँ, एक केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप, परमोत्कृष्ट, अचित्य सुखस्वरूप मात्र एकात शुद्ध अनुभवरूप मैं हूँ, वहां विक्षेप क्या ? विकल्प क्या ? भय क्या ? खेद क्या? दूसरी अवस्था क्या ? मै मात्र निर्विकल्प शुद्ध, शुद्ध, प्रकृष्ट शुद्ध परमशात चैतन्य हूँ। मैं मात्र निर्विकल्प हूँ ।' मै निजस्वरूपमय उपयोग करता हूँ। तन्मय होता हूँ।
ॐ शाति शाति शातिः
८३४ ववाणिया, ज्येष्ठ सुदी ६, गुरु, १९५४ महद्गुणनिष्ठ स्थविर आर्य श्री डुगर ज्येष्ठ सुदी ३ सोमवारकी रातको नौ बजे समाधिसहित देहमुक्त हुए।
मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो । ..
बंबई, ज्येष्ठ वदी ४, बुध, १९५४
ॐनमः
जिससे मनकी वृत्ति शुद्ध और स्थिर हो ऐसा सत्समागम प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। और उसमे यह दुषमकाल होनेसे जीवको उसका विशेष अंतराय है। जिस जीवको प्रत्यक्ष सत्समागमका विशेष लाभ प्राप्त हो वह महापुण्यवान है । सत्समागमके वियोगमे सत्शास्त्रका सदाचारपूर्वक परिचय अवश्य करने योग्य है।
उत्पाद । ये भाव एक वस्तुमे
एक समयमे हैं।
व्यय
। जीव और परमाणुओका
जीव
जीव
वर्त
मान
परमाणु
भाव परमाणु
संयोग
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३१ वॉ वर्ष
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कोई एक जीव
एकेंद्रिय रूपसे-पर्याय, दो इन्द्रिय रूपसे-" तीन इन्द्रिय रूपसे- वर्तमान भाव 'चार इन्द्रिय रूपसे-, पाँच इन्द्रिय रूपसे-,
सज्ञी असंज्ञी ।
पर्याप्त
पतमान भाव
अपर्याप्त )
ज्ञानी । वर्तमान भाव
सिद्ध भाव
अज्ञानी
वतमान भाव
मिथ्यादृष्टि । वर्तमान भाव
सम्यग्दृष्टि । वर्तमान भाव
एक अंश क्रोध । यावत् अनंत अश क्रोध । वतमान भाव
८३७
स० १९५४ आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग।
अपूर्ववाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य ॥ --आत्मसिद्धिशास्त्र, १०वा पद , प्रश्न-(१) सद्गुरु योग्य ये लक्षण मुख्यत किस गुणस्थानकमे सभव है ?
___ (२) समर्शिता किसे कहते है ?
उत्तर-(१) सद्गुरु योग्य जो ये लक्षण बताये है वे मुख्यत , विशेषत उपदेशक अर्थात् मार्गप्रकाशक सदगरुके लक्षण कहे है । उपदेशक गुणस्थान छट्ठा और तेरहवाँ हैं, बीचके सातवेंसे वारहवें तक के गुणस्थान अल्पकालवर्ती है, इसलिये उनमे उपदेशक-प्रवृत्तिका सभव नही है। मार्गोपदेशक-प्रवृत्ति छट्टेसे शुरू होती है।
___ छट्टे गुणस्थानमे सपूर्ण वीतरागदशा और केवलज्ञान नही हैं । वे तो तेरहवेंमे है, और यथावत् मार्गोपदेशकत्व तेरहवे गुणस्थानमे स्थित सपूर्ण वीतराग और कैवल्यसपन्न परम सद्गुरु श्री जिन तीर्थकर आदिमे होना योग्य है। तथापि छठे गुणस्थानमे स्थित मुनि, जो सपूर्ण वीतरागता और कैवल्यदशाका उपासक है, उस दशाके लिये जिसका प्रवर्तन-पुरुषार्थ है, जो उस दशाको सपूर्णरूपसे प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि उस सपूर्ण दशाके प्राप्त करनेके मार्ग-साधनको स्वय परम सद्गुरु श्री तीर्थकर आदि आप्तपुरुपके आश्रय-वचनसे जिसने जाना है, प्रतीत किया है, अनुभव किया है. और उस मार्ग-साधनकी उपासनासे जिसकी वह दशा उत्तरोत्तर विशेष विशेष प्रकट होती जाती है, तथा श्री जिन तीर्थंकर आदि परम सदगुरुकी, उनके स्वरूपकी पहचान जिसके निमित्तसे होती है, उस सद्गुरुमे भी मार्गका उपदेशकत्व अविरुद्ध है।
___उससे नीचेके पांचवे और चौथे गुणस्थानमे मार्गोपदेशकत्व प्राय घटित नही होता, क्योकि वहां बाह्य (गृहस्थ) व्यवहारका प्रतिबंध है, और बाह्य अविरतिरूप गृहस्थ व्यवहार होते हुए विरतिरूप मार्गका प्रकाश करना यह मार्गके लिये विरोधरूप है ।
चौथेसे नीचेके गुणस्थानकमे तो मार्गका उपदेशकत्व योग्य ही नहीं है, क्योकि वहाँ मार्गको, आत्माको, तत्त्वको, ज्ञानीकी पहचान-प्रतीति नहीं है, और सम्यविरति नही है, और यह पहचान-प्रतीति
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श्रीमद राजचन्द्र
ओर सम्यग्विरति न होनेपर भी उसकी प्ररूपणा करना, उपदेशक होना, यह प्रगट मिथ्यात्व, कुगुरुपन और मार्गका विरोध है ।
चौये पाँचवें गुणस्थानमे यह पहचान प्रतीति है, और आत्मज्ञान आदि गुण अशत मोजूद हैं, और पाँचवे मे देशविरति भावको लेकर चौथेसे विशेषता है, तथापि सर्वविरति जितनी वहाँ विशुद्धि नही है । आत्मज्ञान, समदर्शिता आदि जो लक्षण बताये है, वे सयतिधर्ममे स्थित वीतरागदशा साधक उपदेशक-गुणस्थानमे स्थित सद्गुरुको ध्यानमे रखकर मुख्यत बताये है और उनमे वे गुण बहुत अशोमे रहते है । तथापि वे लक्षण सर्वांशमे सपूर्णरूपसे तो तेरहवें गुणस्थानमे स्थित सपूर्ण वीतराग और कैवल्य सपन्न जीवन्मुक्त सयोगी केवली परम सद्गुरु श्री जिन अरिहत तीर्थंकरमे विद्यमान है । उनमे आत्मज्ञान अर्थात् स्वरूपस्थिति संपूर्णरूपसे है, यह उनकी ज्ञानदशा अर्थात् 'ज्ञानातिशय' सूचित किया। उनमे समदर्शिता अर्थात् इच्छारहितता सपूर्णरूपसे है, यह उनकी वीतराग चारित्रदशा अर्थात् 'अपायापगमातिशय' सूचित किया । सपूर्णरूपसे इच्छारहित होनेसे उनकी विचरने आदिकी दैहिक आदि योगक्रिया पूर्वप्रारब्धोदयका मात्र वेदन कर लेनेके लिये ही है, इसलिये 'विचरे उदयप्रयोग' कहा । सपूर्ण निज अनुभवरूप उनकी वाणी अज्ञानीकी वाणीसे विलक्षण और एकात आत्मार्थबोधक होनेसे उनमे वाणीकी अपूर्वता कही है, यह उनका 'वचनातिशय' सूचित किया । वाणीधर्ममे रहनेवाला श्रुत भी उनमे ऐसी सापेक्षतासे रहता है कि जिससे कोई भी नय बाधित नही होता, यह उनका 'परमश्रुत' गुण सूचित किया और जिनमे परमश्रुत गुण रहता है वे पूजने योग्य होते है यह उनका 'पूजातिशय' सूचित किया ।
श्री जिन अहित तीर्थंकर परम सद्गुरुकी भी पहचान करानेवाले विद्यमान सर्वविरति सद्गुरु हैं, इसलिये इन सद्गुरुको ध्यान मे रखकर ये लक्षण मुख्यत: बताये है ।
(२) समदर्शिता अर्थात् पदार्थमे इष्टानिष्टवुद्धिरहितता, इच्छारहितता और ममत्वरहितता । समदर्शिता चारित्रदशा सूचित करती है । रागद्वेषरहित होना यह चारित्रदशा है । इष्टानिष्टबुद्धि, ममत्व और भावाभावका उत्पन्न होना रागद्वेष है । यह मुझे ' प्रिय है, यह अच्छा लगता है, यह मुझे अप्रिय हैं, यह अच्छा नही लगता ऐसा भाव समदर्शीमे नही होता । समदर्शी बाह्य पदार्थको, उसके पर्यायको, वह पदार्थ तथा पर्याय जिस भावसे रहते है उन्हें उसी भावसे देखता है, जानता है और कहता है, परंतु उस पदार्थ अथवा उसके पर्यायमे ममत्व या इष्टानिष्ट बुद्धि नही करता ।
आत्माका स्वाभाविक गुण देखने-जानने का होनेसे वह ज्ञेय पदार्थको ज्ञेयाकारसे देखता जानता है; परतु जिस आत्मामे समदर्शिता प्रगट हुई है, वह आत्मा उस पदार्थको देखते हुए, जानते हुए भी उसमे ' ममत्वबुद्धि, तादात्म्यभाव और इष्टानिष्टबुद्धि नही करता । विषमदृष्टि आत्माको पदार्थमे तादात्म्यवृत्ति होती है; समदृष्टि आत्माको नही होती ।
कोई पदार्थ काला हो तो समदर्शी उसे काला देखता है, जानता है और कहता है । कोई श्वेत हो
।
तो उसे वैसा देखता है, जानता है और कहता है कोई पदार्थ सुरभि (सुगधी) हो तो उसे वह वैसा देखता है, जानता है और कहता है । कोई दुरभि (दुर्गंधी) हो तो उसे वैसा देखता है, जानता है और कहता है । कोई ऊँचा हो, कोई नोचा हो तो उसे वैसा देखता है, जानता है और कहता है । सर्पको सर्पकी प्रकृतिरूप से वह देखता है, जानता है और कहता है । बाघको बाघकी प्रकृतिरूपसे देखता है, जाता है और कहता है । इत्यादि प्रकारसे वस्तु मात्र जिम रूपसे जिस भावसे होती है, उस रूपसे उस भावसे समदर्शी उसे देखता है, जानता है और कहता है। हेय ( छोड़ने योग्य) को हेयरूपसे देखता है, जानता है और कहता है । उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) को उपादेयरूपसे देखता है, जानता है और कहता है । परंतु समदर्शी आत्मा उन सबमे ममत्व, इष्टानिष्टबुद्धि ओर रागद्वेष नही करता, सुगंध देखकर
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प्रियता नहीं करता, दुर्गंध देखकर अप्रियता, दुगछा नही करता। (व्यवहारसे) अच्छी मानी गयो वस्तुको देखकर यह वस्तु मुझे मिल जाये तो ठीक ऐसी इच्छाबुद्धि (राग, रति) नही करता। (व्यवहारसे) बुरी मानी गयी वस्तुको देखकर यह वस्तु मुझे न मिले तो ठीक ऐसी अनिच्छावुद्धि (द्वेष, अरति) नही करता। प्राप्त स्थिति सयोगमे अच्छा-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल, इष्टानिष्टबुद्धि, आकुलता-व्याकुलता न करते हुए उसमे समवृत्तिसे, अर्थात् अपने स्वभावसे रागद्वेषरहित भावसे रहना यह समदर्शिता है। ___साता असाता, जीवन मरण, सुगध-दुर्गध, सुस्वर-दुस्वर, सुरूप-कुरूप, शीत-उष्ण आदिमे हर्प-शोक, रति-अरति, इष्टानिष्टभाव और आर्तध्यान न रहे यह समदर्शिता है।
हिसा; असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रहका परिहार समदर्शीमे अवश्य होता है। अहिंसा आदि व्रत न हो तो समदर्शिता सभव नही । समदर्शिता और अहिंसादि व्रतोका कार्यकारण, अविनाभावी और अन्योन्याश्रय सबध है । एक न हो तो दूसरा न हो, और दूसरा न हो तो पहला न हो ।
समदर्शिता हो तो अहिंसादि व्रत हो। समदर्शिता न हो तो अहिंसादि व्रत न हो। . अहिंसादि व्रत न हो तो समदर्शिता न हो।
अहिंसादि व्रत हो तो समर्शिता हो । 'जितने अशमे समदर्शिता उतने अशमे अहिंसादि व्रत और
जितने अशमे अहिंसादि व्रत उतने अशमे समदर्शिता । सद्गुरुयोग्य लक्षणरूप समदर्शिता मुख्यतया सर्वविरति गुणस्थानमे होती है, वादके गुणस्थानोम वह उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होती जाती है, विशेष प्रगट होती जाती है, क्षीणमोहगुणस्थानमे उसकी पराकाष्ठा और फिर सम्पूर्ण वीतरागता होती है ।- -
समदर्शिता अर्थात् लौकिकभावमे समान-भाव, अभेद-भाव, एक समान-बुद्धि और निविशेषता नही, अर्थात् काच और हीरा दोनोको समान समझना, अथवा सत्श्रुत और असत्श्रुतमे समत्व समझना, अथवा सद्धर्म और असद्धर्ममे अभेद मानना, अथवा सद्गुरु और असद्गुरुमे एकसी बुद्धि रखना, अथवा सद्देव और असदेवमे निविशेषता दिखाना अर्थात् दोनोको एकसा समझना, इत्यादि समान वृत्ति, यह समदर्शिता नही, यह तो आत्माकी मढ़ता, विवेक-शून्यता, विवेक-विकलता है । समदर्शी सत्को सत् जानता है, सत्का बोध करता है, असतको असत् जानता हे, असत्का निषेध करता है, सत्श्रुतको सत्श्रुत जानता है, उसका बोध करता है, कुश्रुतको कुश्रुत जानता है, उसका निषेध करता है, सद्धर्मको सद्धर्म जानता है, उसका बोव करता है, असद्धर्मको असद्धर्म जानता है, उसका निषेध करता है, सद्गुरुको सद्गुरु जानता है, उसका बोध करता है, असदगुरुको असदगुरु जानता है, उसका निषेध करता है. सद्देवको सद्देव जानता है, उसका बोध करता है, असहेवको असद्देव जानता है, उसका निषेध करता है, इत्यादि जो जैसा होता है, उसे वैसा देखता है, जानता है और उसका प्ररूपण करता है, उसमे रागद्वेप, इष्टानिष्टवुद्धि नहीं करता, इस प्रकारसे समदर्शिता समझे।
८३८ बंबई, ज्येष्ठ वदी १४, शनि, १९५४
नमो वीतरागाय मुनियोंके समागममे ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करनेके सवधमे यथासुख प्रवृत्ति करे, प्रतिवध नहीं है।
श्री लल्लजी मनि तथा देवकोणं आदि मुनियोको जिनस्मरण प्राप्त हो । मुनियोकी ओरसे पन मिला था। यही विज्ञापन ।
श्री राजचन्द्र देव ।
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श्रीमद् राजचन्द्र ८३९
बबई, आषाढ सुदी ११, गुरु, १९५४ __ अनत अतराय होनेपर भी धीर रहकर जो पुरुष अपार महामोहजलको तर गये उन श्री पुरुष भगवानको नमस्कार।
अनतकालसे जो ज्ञान भवहेतु होता था, उस ज्ञानको एक समयमात्रमे जात्यतर करके जिसने भवनिवृत्तिरूप किया उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनको नमस्कार ।
'आत्मसिद्धि'की प्रति तथा पत्र प्राप्त हुए। निवृत्तियोगमे सत्समागमकी वृत्ति रखना योग्य है।
'आत्मसिद्धि'की प्रतिके विषयमे आपने इस पत्रमे विवरण लिखा, तत्सबधो अभी विकल्प कर्तव्य नही है । उसके बारेमे निर्विक्षेप रहे। लिखनेमे अधिक उपयोगका प्रवर्तन अभी शक्य नही है।
८४० मोहमयी क्षेत्र, श्रावण सुदी १५, सोम, १९५४ 'मोक्षमार्गप्रकाश' ग्रन्थका विचार करनेके पश्चात् 'कर्मग्रन्थ'का विचारना अनुकूल होगा।
दिगबर संप्रदायमे द्रव्य-मन आठ पखडीका कहा है। श्वेताबर सप्रदायमे इस बातकी विशेष चर्चा नही है । 'योगशास्त्र'मे उसके बहुत प्रसग है । समागममे उसका स्वरूप सुगम हो सकता है।
८४१ मोहमयी क्षेत्र, श्रावण वदी ४, शुक्र, १९५४
समाधिके विषयमे यथाप्रारब्ध विशेष अवसरपर ।
८४२ काविठा, श्रावण वदी १२, शनि, १९५४
-ॐनमः शुभेच्छासपन्न, श्री ववाणिया।
वहुत करके मगलवारके दिन आपका लिखा एक पत्र बबईमे मिला था। बुधवारको रातको बबईसे निवृत्त होकर गुरुवार सबेरे आणद आना हुआ था। और उसी दिन रातके लगभग ग्यारह बजे यहाँ आना हुआ।
यहाँ दससे पद्रह दिन तक स्थिति होना संभव है।
आपने अभी समागममे आनेकी वृत्ति प्रदर्शित की, उसमे आपको अतराय जैसा हुआ | क्योकि इस पत्रके पहुँचनेसे पहले ही लोगोमे पर्यषणका प्रारभ हआ समझा जायेगा। जिससे आप इस तरफ आये तो गुण-अवगुणका विचार किये विना मताग्रही मनुष्य निंदा करेंगे, और वैसे निमित्तको ग्रहण कर वे निंदा द्वारा बहुतसे जीवोको परमार्थप्राप्ति होनेमे अंतराय उत्पन्न करेंगे। इसलिये वैसा न होनेके लिये आपको अभी तो पर्युषणमे वाहर न जाने सबंधी लोक-पद्धतिको निभाना योग्य है ।
आप और महेताजी 'वैराग्यशतक', 'आनदघन चौबीसी', 'भावनाबोध' आदि पुस्तकें पढ-विचारकर जितना हो सके उतना निवृत्तिका लाभ प्राप्त करें।
प्रमाद और लोक-पद्धतिमे काल सर्वथा वृथा गंवा देना, यह मुमुक्षुजीवका लक्षण नही है । दूसरे शास्त्रोका योग बनना कठिन है, ऐसा समझकर उपर्युक्त पुस्तके लिखी हैं। ये पुस्तकें भी विशेष विचार करने योग्य हैं । माताजी तथा पिताजीसे पादवदनपूर्वक सुखवृत्तिके समाचार विदित करे ।
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अमुक समय जब निवृत्तिके लिये किसी क्षेत्रमे रहना होता है, तब प्राय पत्र लिखनेकी वृत्ति कम रहती है, इस बार विशेष कम हैं, परंतु आपका पत्र इस प्रकारका था कि जिसका उत्तर न मिलनेसे आपको पता न चले कि किस कारणसे ऐसा हुआ ।
अमुक स्थलमे स्थिति होना अनिश्चित होनेसे ववईसे पत्र नही लिखा जा सका था ।
८४३ वसो, प्रथम आसोज सुदी ६, बुध, १९५४ श्रीमान वीतराग भगवानोने जिसका अर्थ निश्चित किया है ऐसा, अचित्य चिंतामणिस्वरूप, परम हितकारी,
परम अद्भुत, सर्व दुःखोका निःसंशय आत्यंतिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवंत रहे, त्रिकाल जयवत रहे ।
उन श्रीमान अनत चतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवत धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है । जिन्हे दूसरी कोई सामर्थ्य नही, ऐसे अबुध एव अशक्त मनुष्योने भी उस आश्रयके बलसे परम सुखहेतु अद्भुत फलको प्राप्त किया है, प्राप्त करते हैं और प्राप्त करेंगे । इसलिये निश्चय और आश्रय ही कर्तव्य है, अधीरतासे खेद कर्तव्य नही है ।
चित्तमे देहादि भयका विक्षेप भी करना योग्य नही है ।
जो पुरुष देहादि सम्बन्धी हर्षविषाद नही करते, वे पुरुष पूर्ण द्वादशागको सक्षेपमे समझे हैं, ऐसा समझें । यही दृष्टि कर्तव्य है ।
'मैंने धर्मं नही पाया', 'मैं धर्म कैसे पाऊँगा ?" इत्यादि खेद न करते हुए वीतराग पुरुषोका धर्म, जो देहादिसम्बन्धी हर्षविषादवृत्ति दूर करके 'आत्मा असग - शुद्ध - चैतन्य स्वरूप है' ऐसी वृत्तिका निश्चय और आश्रय ग्रहण करके उसी वृत्तिका बल रखना, और जहाँ वृत्ति मद हो जाय वहाँ वीतराग पुरुषोकी दशाका स्मरण करना, उस अद्भुत चरित्रपर दृष्टि प्रेरित कर वृत्तिको अप्रमत्त करना, यह सुगम और निर्विकल्प सर्वोत्कृष्ट उपकारक तथा कल्याणस्वरूप है ।
८४४
आसोज, १९५४
कराल काल । इस अवसर्पिणीकालमे चौबीस तीर्थंकर हुए। उनमे अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान श्री महावीर दीक्षित हुए भी अकेले । सिद्धि प्राप्त को भी अकेले । उनका भी प्रथम उपदेश निष्फल गया ।
आसोज, १९५४
८४५
'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तार कर्मभूभृता । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वदे तद्गुणलव्धये ॥ अज्ञान तिमिराधानां ज्ञानाजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम ॥
यथाविधि अध्ययन और मनन कर्तव्य है ।
१. भावाचंके लिये देखें उपदेश नोघ ३७
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श्रीमद राजचन्द्र
८४६
ॐ नमः
अहो जिर्णोह असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया | मुक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥
अध्ययन ५ - ९२
भगवान जिनने आश्चर्यकारक निष्पापवृत्ति (आहारग्रहण) का मुनियोको उपदेश दिया । ( वह भी किस लिये ? ) मात्र मोक्ष-साधनके लिये । मुनिको देहकी जरूरत है, उसको टिकानेके लिये । (किसी भी दूसरे हेतुसे नही) ।
वनक्षेत्र उत्तरसंडा, प्रथम आसोज वदी ९, रवि, १९५४
अहो णिच्चं तवो कम्मं सव्व बुद्धेहि वण्णिअ । जाव लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं ॥
- दशवैकालिक अध्ययन ६-२२
सर्व जिन भगवानोने आश्चर्यकारक (अद्भुत उपकारभूत) तपःकर्मको नित्य करनेके लिये उपदेश किया है । ( वह इस प्रकार - ) सयमके रक्षणके लिये सम्यग्वृत्तिसे एक बार आहारग्रहण । (दशवैकालिक सूत्र ) ।
तथारूप असग निग्रंथपदका अभ्यास सतत वर्धमान कीजिये । 'प्रश्नव्याकरण', 'दशवैकालिक' और 'आत्मानुशासन' का अभी सपूर्ण ध्यान देकर विचार कीजियेगा । एक शास्त्रको पूरा पढनेके बाद दूसरा विचारियेगा |
८४७
ॐ
खेडा, द्वि० आसोज सुदी ६, १९५४
विक्षेपरहित रहे । यथावसर अवश्य समाधान होगा । यहाँ समागम के लिये आनेके बारेमे यथासुख प्रवृत्ति करें ।
८४८
खेडा, द्वि० आसोज सुदी ९, शनि, १९५४ लगभग अव तीन मास पूर्ण होने आये है । इस क्षेत्रमे अब स्थिति करनेकी इस समयके लिये वृत्ति नहीं रही । परिचय बढनेका वक्त आ जाये ।
८४९
हे जीव | इस क्लेशरूप ससारसे निवृत्त हो, निवृत्त हो ।
खेडा, द्वि० आश्विन वदी, १९५४
वीतराग प्रवचन आसोज १९५४
८५०
मेरा चित्त - मेरी चित्तवृत्तियाँ इतनी शात हो जायें कि कोई मृग भी इस शरीरको देखता ही रहे, भय पाकर भाग न जाये ।
मेरी चित्तवृत्ति इतनी शात हो जाये कि कोई वृद्ध मृग, जिसके सिरमे खुजली आती हो वह इस शरीरको जड पदार्थ समझ कर खुजली मिटानेके लिये अपना सिर इस शरीरसे घिसे ।
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३२ वाँ वर्ष
८५१ मोहमयी क्षेत्र, कात्तिक सुदी १४, गुरु, १९५५ अभी मैं अमुक मासपर्यन्त यहाँ रहनेका विचार रखता हूँ | मैं यथाशक्ति ध्यान दूंगा। आप मनमे निश्चित रहे।
मात्र अन्न-वस्त्र हो तो भी बहुत है । परन्तु व्यवहारप्रतिबद्ध मनुष्यको कितने ही सयोगोंके कारण थोडा-बहुत तो चाहिये, इसलिये यह प्रयत्न करना पड़ा है । तो वह सयोग जब तक उदयमान हो तब तक धर्मकीर्तिपूर्वक बन पाये तो बहुत है।
अभी मानसिक वृत्तिकी अपेक्षा बहुत ही प्रतिकूल मार्गमे प्रवास करना पड़ता है । तप्तहृदयसे और शात आत्मासे सहन करनेमे ही हर्ष मानता हूँ।
ॐ शाति
८५२ बम्बई, मार्गशीर्ष सुदी ३, शुक्र, १९५५
ॐनम प्राय कल रातकी डाकगाडीसे यहाँसे उपरामता (निवृत्ति) होगी। थोडे दिन तक बहुत करके ईडर क्षेत्रमे स्थिति होगी।
मुनियोको यथाविधि नमस्कार कहियेगा। वीतरागोके मार्गकी उपासना कर्तव्य है।
८५३ ईडर, मार्गशीर्ष सुदी १४, सोम, १९५५
ॐ नमः 'पचास्तिकाय' यहां भेज सकें तो भेजियेगा । भेजनेमे विलम्ब होता हो तो न भेजियेगा।
'समयसार' मल प्राकृत (मागधी) भाषामे हे। तथा 'स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा' ग्रन्थ भी प्राकृत भाषामे है। वह यदि प्राप्त हो सके तो 'पचास्तिकाय के साथ भेजियेगा। थोड़े दिन यहाँ स्थिति सभव है।
जैसे बने वैसे वीतराग श्रुतका अनुप्रेक्षण (चिन्तन) विशेष कर्तव्य है। प्रमाद परम रिपु है, यह वचन जिन्हे सम्यक निश्चित हुआ है वे पुरुष कृतकृत्य होने तक निर्भयतासे वर्तन करनेके स्वप्नकी भी इच्छा नहीं करते।
राज्यचंद्र।
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६४०
८५५
श्रीमद् राजचन्द्र
८५४ ईडर, मार्गशीर्ष सुदी १५, सोम, १९५
ॐ नमः आपने तथा वनमाळोदासने बम्बई एक पत्र लिखा था वह वहाँ प्राप्त हुआ था।
अभी एक सप्ताहसे यहाँ स्थिति हे । 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ पढ़नेके लिये प्रवृत्ति करते हुए आज्ञाव अतिक्रम (उल्लघन) नही है । अभी आपको और उन्हे वह ग्रन्थ वारम्वार पढने तथा विचारने योग्य है 'उपदेश-पत्रो'के वारेमे बहुत करके तुरत उत्तर प्राप्त होगा । विशेष यथावसर ।
राजचन्द्र
ईडर, मार्गशीर्ष सुदी १५, सोम, १९५ वीतरागश्रुतका अभ्यास रखिये।
८५६ ईडर, मार्गशीर्ष वदी ४, शनि, १९५५
ॐनमः आपका लिखा पत्र तथा सुखलालके लिखे पत्र मिले है। अभी यहाँ समागम होना अशक्य है । अब विशेष स्थितिका भी सम्भव मालूम नही होता। आपको जो समाधानविशेषकी जिज्ञासा है, वह किसी निवृत्तियोगके समागममे प्राप्त होने योग्य है
जिज्ञामावल, विचारवल, वैराग्यवल, ध्यानवल और ज्ञानबल वर्धमान होनेके लिये आत्मार्थ जीवको तथारूप ज्ञानीपुरुपके समागमकी उपासना विशेषत करनी योग्य है । उसमे भी वर्तमानकाला जीवोको उस बलकी दृढ छाप पड जानेके लिये बहुत अन्तराय देखनेमे आते हैं, जिससे तथारूप शुद्ध जिज्ञासुवृत्तिसे दोर्घकालपर्यन्त सत्समागमकी उपासना करनेकी आवश्यकता रहती है । सत्समागम अभावमे वीतरागश्रुत-परमशातरसप्रतिपादक वीतरागवचनोकी अनुप्रेक्षा वारवार कर्तव्य हैं चित्तस्थैर्य के लिये वह परम औषध है।
८५७ ईडर, मार्गशीर्ष वदी ३०, गुरु, सवेरे, १९५५
ॐ नमः आत्मार्थी भाई अंबालाल तथा मुनदासके प्रति, स्तभतीर्थ ।
मुनदासका लिखा हुआ पत्र मिला। वनस्पतिसवधी त्यागमे अमुक दससे पाँच वनस्पतिका अर्भ आगार र वकर दूसरी वनस्पतियोसे विरत होनेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है।
आप सवका अभी अभ्यासादि कैसा चलता है ? मद्देवगुरुशास्त्रभक्ति अप्रमत्ततासे उपासनीय है।
श्री ॐ
८५८
ईडर, पोप, १९५६ मा मुन्शह मा रज्जह मा दुस्सह इट्ठणि?अत्येसु । यिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥४९॥ पणतीस सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह ।
परमेट्ठियाचयाण अण्ण च गुरुवएसेण ॥५०॥ यदि तुम स्थिरताको इच्छा करते हो तो प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुमे मोह न करो, राग न करो द्वेष न करो। अनेक प्रकारके ध्यानको प्राप्तिके लिये पॅतीस, सोलह, छ, पांच, चार, दो और एक
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३२ वो वर्ष इस तरह परमेष्ठीपदके वाचक है उनका जपपूर्वक ध्यान करो। विशेष स्वरूप श्री गुरुके उपदेशसे जानना योग्य है।
जं किंचि विचितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लभृणय एयत्तं तदा हु तं तस्स णिच्चय झाणं ॥५६॥
-द्रव्य सग्रह ध्यानमे एकाग्र वृत्ति रखकर साधु नि स्पृहवृत्तिवान अर्थात् सब प्रकारको इच्छाओसे रहित होता है उसे परम पुरुष निश्चय ध्यान कहते हैं। '
८५९
' ईडर, पौष सुदी १५, गुरु, १९५५
३
आपका लिखा एक पत्र तथा मुनदासके लिखे तीन पत्र मिले हैं। _ वसोमे ग्रहण किये हुए नियमके अनुसार मुनदास वनस्पतिके बारेमे विरतिरूपसे वर्तन करें। दो श्लोकोंके स्मरणके नियमको शारीरिक ' उपद्रवविशेषके बिना सदा निबाहे । गेहूँ और घीको शारीरिक हेतुसे ग्रहण करनेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है।
किंचित् दोषका सम्भव हुआ हो तो उसका प्रायश्चित्त श्री देवकीर्ण मुनि आदिके समीप लेना योग्य है।
आपको अथवा किन्ही दूसरे मुमुक्षुओको नियमादिका ग्रहण उन मुनियोके समीप कर्तव्य है। प्रवल कारणके बिना उस सम्बन्धी पत्रादि द्वारा हमे सूचित न करके मुनियोसे तत्सम्बन्धी समाधान समझना योग्य है।
८६० मोरबी, फाल्गुन सुदी १, रवि, १९५५
-ॐनमः पत्र प्राप्त हुआ।
'नाके रूप निहाळता' इस चरणका अर्थ वीतरागमुद्रासूचक है। रूपावलोकनदृष्टिसे स्थिरता प्राप्त होनेपर स्वरूपावलोकनदृष्टिमे भी सुगमता प्राप्त होती है। दर्शनमोहका अनुभाग घटनेसे स्वरूपावलोकनदृष्टि परिणमित होती है।
महापुरुषका निरतर अथवा विशेष समागम, वीतरागश्रुतका चिंतन और गुणजिज्ञासा दर्शनमोहके अनुभागके घटनेके मुख्य हेतु है । इससे स्वरूपदृष्टि सहजमे परिणमित होती है।
८६१
मोरबी, फागुन सुदी १, रवि, १९५५
ॐ नमः पत्र प्राप्त हुआ। 'पुरुषार्थ सिद्धि उपाय' का भाषातर गुर्जरभाषामे करनेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है। 'आत्मसिद्धि' के स्मरणार्थ यथावसर आज्ञा प्राप्त होना योग्य है। वनमाळोदासको 'तत्त्वार्थसूत्र' विशेषत विचारना योग्य है।
हिन्दी भाषा समझमे न आती हो तो ऊगरी बहनको कुवरजीके पाससे उस ग्रंथको श्रवण कर समझना योग्य है।
शिथिलता घटनेका उपाय यदि जीव करे तो सुगम है।
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६४२
श्रीमद् राजचन्द्र
८६२
मोरबी, फागुन सुदी १, रवि, १९५५
वीतरागवृत्तिका अभ्यास रखियेगा।
८६३ ववाणिया, फागुन वदी १०, बुध, १९५५ आत्मार्थीको, बोध कब परिणमित हो सकता है, यह भाव स्थिरचित्तसे विचारणीय है, जो मूलभूत है।
अमुक असवृत्तियोका प्रथम अवश्य ही निरोध करना योग्य है। इस निरोधके हेतुका दृढतासे अनुसरण करना ही चाहिये, इसमे प्रमात करना योग्य नही है । ॐ
८६४
ववाणिया, फागुन वदी ३०, १९५५ *चरमावर्त हो चरमकरण तथा रे, भवपरिणति परिपाक । दोष टळे वळी दृष्टि खूले भली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥१॥ परिचय पातिक घातिक साधुशं रे, अकुशल अपचय चेत।। ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नयहेत ॥२॥ मुगध सुगम करी सेवन लेखवे रे, सेवन अगम अनुप। देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनंदघन रसरूप ॥३॥
-आनदघन, सभवजिनस्तवन किसी निवृत्तिमुख्य क्षेत्रमे विशेष स्थितिके अवसरपर सत्श्रुत विशेष प्राप्त होना योग्य है । गुर्जर देशकी ओर आपका आगमन हो यो खेराळ क्षेत्रमे मुनिश्री चाहते है । वेणासर और टीकरके रास्तेसे होकर धागध्राकी तरफसे अभी गुर्जर देशमे जा सकना सम्भव है। उस मार्गमे पिपासा परिषहका कुछ सम्भव रहता है।
८६५
ववाणिया, चैत्र सुदी १, १९५५ उवसंतखीणमोहो, मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वज्जदि धीरो॥
-पचास्तिकाय, ७० जिसका दर्शनमोह उपशात अथवा क्षीण हुआ है ऐसा धीर पुरुष वीतरागो द्वारा प्रदर्शित मार्गको अगीकार करके शुद्धचैतन्यस्वभाव परिणामी होकर मोक्षपुरको जाता है ।
*भावार्थ-जब अतिम पुद्गल परावर्त आ पहुँचे और तीन करणोमेंसे तीसरा करण-अनिवृत्तिकरण हो । तथा ससारमें भटकनेकी आदतका अत आ पहुंचे, तव तीन दोप--भय, द्वेप और खेद-दूर हो जाते हैं, भली दृष्टि । खुल जाती है और प्रवचन, सिद्धातके वचनका लाभ होता है ।।१।।
फिर पापके नाशक साधुके साथ परिचय बढता चले, मनसबधी अकल्याणकारिताको कमी होतो जाये और आत्मिक सेवनके लिये तथा दृष्टिविंदु धारण करनेके लिये आध्यात्मिक ग्रथोका श्रवण एव मनन बन पाये ॥२॥
भोले भाले मनुष्य सरल एव सहज मानकर सेवाका कार्य शुरू कर देते हैं, परन्तु उन्हें समझना चाहिये कि सेवाका कार्य तो अगम्य एव अनुपम है। यह तो कठिन और वेजोड है । हे आनदघनके रसमय प्रभु ' इस सेवककी मांगको कभी सफल कीजिये अथवा आनदसमुच्चयके रसरूप सेवाकी मांगको कभी सफल कीजिये ॥३॥
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३२ वा वर्ष
६४३
मुनि महात्मा श्री देवकीर्णस्वामी अजारकी ओर है। यदि खेराळसे मुनिश्री आज्ञा करेंगे तो वे हुत करके गुजरातकी तरफ आयेंगे | वेणासर या टीकरके रास्तेसे धागध्रा आना हो तो रेगिस्तान पार रनेके कष्टको उठानेका सम्भव कम है । मुनिश्रीको अजार लिखें।
किसी स्थलमे विशेष स्थिरताका योग होनेपर अमुक सत्श्रुत प्राप्त होना योग्य है।
८६६
श्री ववाणिया, चैत्र सुदी ५, १९५५
द्रव्यानुयोग परम गम्भीर और सूक्ष्म है, निग्रंथ-प्रवचनका रहस्य है, शुक्ल ध्यानका अनन्य कारण है। शुक्ल ध्यानसे केवलज्ञान समुत्पन्न होता है। महाभाग्यसे इस द्रव्यानुयोगकी प्राप्ति होती है ।
दर्शनमोहका अनुभाग घटनेसे अथवा नष्ट होनेसे, विषयके प्रति उदासीनतासे, और महत् पुरुषके चरणकमलकी उपासनाके बलसे द्रव्यानुयोग परिणत होता है।
ज्यो-ज्यो सयम वर्धमान होता है, त्यो-त्यो द्रव्यानुयोग यथार्थ परिणत होता है। सयमको वृद्धिका कारण सम्यग्दर्शनकी निर्मलता है, उसका कारण भी 'द्रव्यानुयोग' होता है।
सामान्यत. द्रव्यानुयोगकी योग्यता प्राप्त करना दुर्लभ है । आत्मारामपरिणामी, परमवीतराग दृष्टिवान्, परम असग ऐसे महात्मापुरुष उसके मुख्य पात्र हैं।
किसी महत्पुरुषके मननके लिये 'पचास्तिकायका सक्षिप्त स्वरूप लिया था, उसे मननके लिये इसके साथ भेजा है।
हे आर्य | द्रव्यानुयोगका फल सर्व भावसे विराम पानेरूप सयम है। इस पुरुषके ये वचन अत - करणमे तू कभी भी शिथिल मत करना । अधिक क्या ? समाधिका रहस्य यही है । सर्व दु.खसे मुक्त होनेका अनन्य उपाय यही है।
८६७ ववाणिया, चैत्र वदी २, गुरु, १९५५ हे आर्य । जैसे रेगिस्तान पार कर पारको सप्राप्त हुए, वैसे भवस्वयभरमण तर कर पारको सप्राप्त होवे ।
महात्मा मनिश्रीकी स्थिति अभी प्रातीज-क्षेत्रमे है। कुछ विज्ञप्ति-पत्र लिखना हो तो परी० घेलाभाई केशवलाल, प्रातीज, इस पतेपर लिखनेकी विनती है।
आपकी स्थिति धागध्राकी तरफ होनेका समाचार यहाँसे आज उन्हे लिखा गया है।
अधिक निवत्तिवाले क्षेत्रमे चातुर्मासका योग बननेसे आत्मोपकार विशेष सभव है। मुनिश्रीको भी वैसे सूचित किया है।
८६८
ववाणिया, चैत्र वदी २, गुरु, १९५५ पत्र प्राप्त हुआ। किसी विशेष निवृत्तिवाले क्षेत्रमे चातुर्मास हो तो आत्मोपकार विशेष हो सकता है। इस तरफ निवृत्तिवाले क्षेत्रका सभव है ।
मन कच्छका रेगिस्तान समाधिपूर्वक पार कर धागध्राकी तरफ उनके विचरनेके समाचार प्राप्त
१. देखें आक ७६६ ।
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६४४
श्रीमद राजचन्द्र
वे आपका समागम त्वरासे चाहते है ।
उनका चातुर्मास भी निवृत्तिवाले क्षेत्रमे हो ऐसा करनेका विज्ञापन है ।
८६९
मोरबी, चैत्र वदी ९, गुरु, १९५५
ॐ नम
पत्र और समाचारपत्र मिले । 'आचारागसूत्र' के एक वाक्य सबधी चर्चा-पत्रादि देखा है | बहुत करके थोडे दिनोमे किसी सुज्ञ पुरुषके द्वारा उसका समाधान प्रगट होगा । तीनेक दिनसे यहाँ स्थिति है । आत्महित अति दुर्लभ है ऐसा समझकर विचारवान पुरुष अप्रमत्त भावसे उसकी उपासना करते हैं। आपके समीपवासी सभी आत्मार्थी जनोको यथाविनय प्राप्त हो ।
a
मोरबी, वैशाख सुदी ६, सोम, १९५५
0617
आत्मार्थी मुनिवर अभी वहाँ स्थित होगे । उनसे सविनय निम्नलिखित निवेदन करे । ध्यान, श्रुतके अनुकूल क्षेत्रमे चातुर्माम करनेसे भगवानकी आज्ञाका सरक्षण होगा । स्तभितीर्थमे यदि वह अनुकूलता रह सकती हो तो उस क्षेत्र मे चातुर्मास करनेसे आज्ञाका सरक्षण है ।
जिस सत्श्रुतकी मुनि श्री देवकीर्ण आदिने जिज्ञासा प्रदर्शित की वह सत्श्रुत लगभग एक मासमे प्राप्त होना योग्य है ।
यदि स्तभतीर्थमे स्थिति न हो तो किसी अन्य निवृत्तिक्षेत्रमे समागमका योग हो सकता है । स्तभतीर्थंके चातुर्माससे वह होना अभी अशक्य है । जहाँ तक बने वहाँ तक किसी अन्य निवृत्तिक्षेत्रकी वृत्ति रखें । कदाचित् मुनियोको दो विभागोमे बट जाना पड़े तो वैसा करनेमे भी आत्मार्थदृष्टिसे अनुकूल रहेगा । हमने सहज मात्र लिखा है । आप सबको द्रव्यक्षेत्रादि देखकर जैसे अनुकूल श्रेयस्कर लगे वैसे प्रवृत्ति करनेका अधिकार है ।
-
1
इस प्रकार सुविनय नमस्कारपूर्वक निवेदन करें। वैशाख सुदी पूर्णिमा तक बहुत करके इन क्षेत्रोकी तरफ स्थिति होगी ।
ॐ
८७१
ॐ
मोरबी, वैशाख सुदी ७, १९५५
यदि किसी निवृत्तिवाले अन्य क्षेत्रमे वर्षा चातुर्मासका योग बने तो वैसे करना योग्य है । अथवा स्तंभतीर्थमे चातुर्माससे अनुकूलता रहे ऐसा मालूम हो तो वैसा करना योग्य है
।
1
ध्यान और श्रुतके उपकारक साधनवाले चाहे जिस क्षेत्रमे चातुर्मास की स्थिति होने से आज्ञाका अतिक्रम नही है, ऐसा मुनि श्री देवकीर्ण आदिको सविनय विदित करें ।
इस तरफ एक सप्ताहपर्यंत स्थितिका सम्भव है । आज बहुत करके श्री ववाणिया जाना होगा । एक सप्ताह तक स्थिति संभव है ।
जिस सत्श्रुतकी जिज्ञासा है, वह सत्श्रुत थोडे दिनोमे प्राप्त होना संभव है, ऐसा मुनिश्री से निवेदन करें ।
वीतराग सन्मार्ग की उपासनामे वीर्यको उत्साहयुक्त करें ।
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३२ वाँ वर्ष
ववाणिया, वैशाख सुदी ७,
८७३
జ
८७२
ॐ
जिसे गृहवासका उदय रहता है, वह यदि कुछ भी शुभ ध्यानकी प्राप्ति चाहता हो तो उसके मूल भूत ऐसे अमुक सद्वर्तनपूर्वक रहना योग्य है । उन अमुक नियमोमे 'न्यायसपन्न आजीविकादि व्यवहार' पहला नियम सिद्ध करना योग्य है । यह नियम सिद्ध होनेसे अनेक आत्मगुण प्राप्त करनेका अधिकार नन्न होता है । इस प्रथम नियमपर यदि ध्यान दिया जाये, और इस नियमको सिद्ध ही कर लिया जाये कषायादि स्वभावसे मन्द पडने योग्य हो जाते है, अथवा ज्ञानीका मार्ग आत्मपरिणामी होता है, जिस ध्यान देना योग्य है ।
६४५
१९५५
ईडर, वैशाख वदी ६, मगल, १९५५
शनिवार तक यहाँ स्थिरता सभव है। रविवारको उस क्षेत्रमे आगमन होना सम्भव है । इस कारण मुनिश्रीको चातुर्मास करने योग्य क्षेत्रमे विचरनेकी त्वरा हो, उसमे कुछ संकोच प्राप्त ता हो, तो इस पत्रके प्राप्त होनेपर कहेगे तो यहाँ एक दिन कम स्थिरता की जायेगी ।
निवृत्तिका योग उस क्षेत्रमे विशेष है, तो 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' का वारंवार निदिध्यासन कर्त्तव्य है, सा मुनिश्रीको यथाविनय विदित करना योग्य है |
जिन्होने बाह्याभ्यतर असगता प्राप्त की है ऐसे महात्माओके ससारका अन्त समीप है, ऐसा न. सदेह ज्ञानीका निश्चय है ।
८७५
ॐ
परम कृपालु मुनिवर्य के चरणकमलमे परम भक्तिसे सविनय नमस्कार प्राप्त हो ।
८७४
ईडर, वैशाख वदी १०, शनि, १९५५
ॐ
अब स्तभतीर्थंसे किसनदासजीकृत 'क्रियाकोष' की पुस्तक प्राप्त हुई होगी । उसका आद्यत अध्ययन करनेके बाद सुगम भाषामे उस विषयमे एक निबन्ध लिखनेसे विशेष अनुप्रेक्षा होगो, और वैसी क्रियाका वर्तन भी सुगम है ऐसी स्पष्टता होगी, ऐसा सम्भव है । सोमवार तक यहाँ स्थिति सम्भव है । राजनगर मे परम तत्त्वदृष्टिका प्रसगोपात्त उपदेश हुआ था, उसे अप्रमत्त चित्तसे एकातयोगमे वारवार स्मरण करना योग्य है । यही विनती ।
बम्बई, जेठ,
१९५५
अहो सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम । सुपुप्त चेतनको जागृत करनेवाले, गिरती वृत्तिको स्थिर रखने वाले, दर्शनमात्रसे भी निर्दोष अपूर्व स्वभावके प्रेरक, स्वरूपप्रतीति, अप्रमत्त सयम और पूर्ण वीतराग निर्विकल्प स्वभाव के कारणभूत, अन्तमे अयोगी स्वभाव प्रगट करके अनत अव्यावाध ॐ शांति. शातिः शाति स्वरूपमे स्थिति करानेवाले । त्रिकाल जयवन्त रहे ।
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६४८
श्रीमद् राजचन्द्र
वृत्ति जिससे विक्षिप्त न हो ऐसा वर्तन योग्य है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' अथवा दूसरा सत्शास्त्र थोड़े वक्त बहुत करके प्राप्त होगा ।
दुमकाल है, आयु अल्प है, सत्समागम दुर्लभ है, महात्माओके प्रत्यक्ष वाक्य, चरण और आज्ञाक योग कठिन है | इसलिये बलवान अप्रमत्त प्रयत्न कर्तव्य है ।
आपके समीप रहनेवाले मुमुक्षुओको यथा विनय प्राप्त हो ।
शाति
८८४
इस दुषमकालमे सत्समागम और सत्संगता अति दुर्लभ है। इसमे परम सत्सग और पर असगताका योग कहाँसे छाजे ?
बंबई, श्रावण सुदी ३, १९५
परम पुरुषको मुख्य भक्ति ऐसे सद्वर्तनसे प्राप्त होती है कि जिससे उत्तरोत्तर गुणोकी वृद्धि हो चरणप्रतिपत्ति (शुद्ध आचरणकी उपासना ) रूप सद्वर्तन ज्ञानीकी मुख्य आज्ञा है, जो आज्ञा परम पुरुष की मुख्य भक्ति है ।
८८५
उत्तरोत्तर गुणकी वृद्धि होनेमे गृहवासी जनोको सदुद्यमरूप आजीविका व्यवहारसहित प्रवर्तन करना योग्य है ।
अनेक शास्त्रो और वाक्योका अभ्यास करनेकी अपेक्षा जीव यदि ज्ञानीपुरुषोकी एक एक आज्ञार्की उपासना करे, तो अनेक शास्त्रोसे होनेवाला फल सहजमे प्राप्त होता है ।
मोहमयी क्षेत्र, श्रावण सुदी ७, १९५५
८८६
ॐ
श्री 'पद्मनदी शास्त्र'की एक प्रति किसी अच्छे व्यक्तिके साथ वसो क्षेत्रमे मुनिश्री को भेजने की व्यवस्था करें |
बलवान निवृत्तिवाले द्रव्य-क्षेत्रादिके योगमे आप उस सत्शास्त्रका वारवार मनन और निदिध्यासन करें । प्रवृत्तिवाले द्रव्यक्षेत्रादिमे वह शास्त्र पढ़ना योग्य नही है ।
1
जब तीन योगकी अल्प प्रवृत्ति हो, वह भी सम्यक् प्रवृत्ति हो तब महापुरुषके वचनामृतका मनन परम श्रेयके मूलको दृढीभूत करता है, क्रमसे परमपदको प्राप्त करता है ।
चित्तको विक्षेपरहित रखकर परमशात श्रुतका अनुप्रेक्षण कर्तव्य है
८८७
मोहमयी, श्रावण वदी ३०, १९५५ अगम्य होनेपर भी सरल ऐसे महापुरुषोंके मार्गको नमस्कार
सत्समागम निरतर कर्तव्य है । महान भाग्यके उदयसे अथवा पूर्वकालके अभ्यस्त योगसे जीवको सच्ची मुमुक्षुता उत्पन्न होती है, जो अति दुर्लभ है । वह सच्ची मुमुक्षुता बहुत करके महापुरुषके चरण__ कमलकी उपासनासे प्राप्त होती है, अथवा वैसी मुमुक्षुतावाले आत्माको महापुरुषके योगसे आत्मनिष्ठत्व प्राप्त होता है; सनातन अनत ज्ञानीपुरुषो द्वारा उपासित सन्मार्ग प्राप्त होता है । जिसे सच्ची मुमुक्षुता
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३२ वाँ वर्ष
प्राप्त हुई हो उसे भी ज्ञानीका समागम और आज्ञा अप्रमत्त योग सप्राप्त कराते हैं। मुख्य मोक्षमार्गका क्रम इस प्रकार मालूम होता है ।
वर्तमानकालमे वैसे महापुरुषोका योग अति दुर्लभ है। क्योकि उत्तम कालमे भी उस योगकी दुर्लभता होती है, ऐमा होनेपर भी जिसे सच्ची मुमुक्षुता उत्पन्न हुई हो, रात-दिन आत्मकल्याण होनेका तथारूप चिंतन रहा करता हो, वैसे पुरुषको वैसा योग प्राप्त होना सुलभ है। 'आत्मानुशासन' अभी मनन करने योग्य है।
शातिः
८८८
वंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
जिन वचनोंकी आकाक्षा है वे बहुत करके थोड़े समयमे प्राप्त होगे। इद्रियनिग्रहके अभ्यासपूर्वक सत्श्रुत और सत्समागम निरंतर उपासनीय है । क्षीणमोहपर्यंत ज्ञानीकी आज्ञाका अवलबन परम हितकारी है।
आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभाव द्वारा जो कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमाको याचना है।
शमम् ८८९ बंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
जो वनवासो शास्त्र' भेजा है, वह प्रबल निवृत्तिके योगमे इद्रियसयमपूर्वक मनन करनेसे अमृत है ।
अभी 'आत्मानुशासन'का मनन करें। ___ आज दिन तक आपके तथा समीपवासी बहनो और भाइयोंके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे कुछ भी अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते हैं ।
ॐ शातिः बंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
८९०
श्री अबालाल आदि मुमुक्षुजन,
आज-दिन तक आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोंके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते हैं। ॐ शाति'
८९१
बवई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
आपके तथा भाई वणारसीदास आदिके लिखे पत्र मिले थे।
आपके पत्रोमे कुछ न्यूनाधिक लिखा गया हो, ऐसा विकल्प प्रदर्शित किया हो, वैसा कुछ भासमान नही हुआ है। निर्विक्षिप्त रहे । बहुत करके यहाँ वैसा विकल्प सभव नही है। ।
इद्रियोके निग्रहपूर्वक सत्समागम और सत्शास्त्रका परिचय करें। आपके समीपवासी मुमुक्षुओका उचित विनय चाहते हैं।
१.श्री पद्मनदी पचविंशति ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
८७६
बंबई, जेठ सुदी ११, १९५५ महात्मा मुनिवरोको परमभक्तिसे नमस्कार हो ।
•जेनो काळ ते किंकर थई रह्यो, मृगतृष्णाजळ त्रैलोक । जीव्यु धन्य तेहर्नु । वासी आशा पिशाची थई रही, काम क्रोध ते केदी लोक । जीव्यू० खाता पीता बोलतां नित्ये, छे निरंजन निराकार । जीव्युं० जाणे संत सलूणा तेहने, जेने होय छेल्लो अवतार । जीव्युं० जगपावनकर ते अवतर्या, अन्य मात उदरनो भार । जीव्यं० तेने चौद लोकमां विचरतां, अतराय कोईये नव थाय । जीव्यु०
ऋद्धि सिद्धि ते दासीओ थई रही, ब्रह्म आनंद हृदे न समाय । जीव्युं० यदि मुनि अध्ययन करते हो तो 'योगप्रदीप' श्रवण करें। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' का योग आपको बहुत करके प्राप्त होगा।
८७७
बंबई, जेठ वदी २, रवि, १९५५
'जिस विषयको चर्चा हो रही है वह ज्ञात है । उस विषयमे यथावसरोदय ।
८७८
बंबई, जेठ वदी ७, शुक्र, १९५५ 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' की पुस्तक चार दिन पूर्व प्राप्त हुई तथा एक पत्र प्राप्त हुआ। ..
व्यवहार प्रतिबधसे विक्षिप्त न होते हुए धैर्य रखकर उत्साहयुक्त वीर्यसे स्वरूपनिष्ठ वृत्ति करनी योग्य है।
८७९ मोहमयी, आषाढ़ सुदी ८, रवि, १९५५
'क्रियाकोष' इससे सरल और कोई नही है। विशेष अवलोकन करनेसे स्पष्टार्थ होगा।
शुद्धात्मस्थितिके पारमार्थिक श्रुत और इद्रियजय दो मुख्य अवलबन हैं। सुदृढ़तासे उपासना करनेसे वे सिद्ध होते है । हे आर्य | निराशाके समय महात्मा पुरुषोका अद्भुत आचरण याद करना योग्य है । उल्लसित वीर्यवान परमतत्त्वकी उपासना करनेका मुख्य अधिकारी है।
शातिः
*भावार्थ-जिसका काल किंकर हो गया है, और जिसे त्रिलोक मृगतृष्णाके जलके समान मालूम होता है, उसका जीना धन्य है। जिसकी आशारूपी पिशाचिनो दासी है, और काम क्रोध जिसके कैदी हैं, जो यद्यपि खाता, पीता और वोलता हुआ दीखता है, परन्तु वह नित्य निरजन और निराकार है । उसे सलोना सत जाने और उसका यह अन्तिम भव है, उसने जगतको पावन करनेके लिये अवतार लिया है, वाकी तो सब माताके उदरमें भारभूत ही है, उसे चौदह राजलोकमें विचरते हुए किसीसे भी अन्तराय नही होता, उसकी ऋद्धि-सिद्धि सब दासियां हो गयी है, और उसके हृदयमें ब्रह्मानन्द नहीं समाता।
१. श्री आचारागसूत्रके एक वाफ्यसम्बन्धी । देखें आक ८६९ ।
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३२ वॉ वर्ष
८८०
ॐ
दोनो क्षेत्रोमे सुस्थित मुनिवरोको यथाविनय वदन प्राप्त हो ।
पत्र प्राप्त हुआ । सस्कृतके अभ्यासके लिये अमुक समयका नित्य नियम रखकर प्रवृत्ति करना
योग्य है ।
अप्रमत्त स्वभावका वारवार स्मरण करते हैं ।
पारमार्थिक श्रुत और वृत्तिजयका अभ्यास बढाना योग्य है ।
८८१
६४७
बम्बई, आषाढ सुदी ८, रवि, १९५५
ॐ
८८२
ॐ
बंबई, आषाढ वदी ६, शुक्र, १९५५
परमकृपालु मुनिवर्य के चरणकमलमे परम भक्तिसे सविनय नमस्कार प्राप्त हो ।
कल रातकी डाकगाडीसे यहाँसे भाई त्रिभोवन वीरचदके साथ 'पद्मनदी पचविंशति' नामक सत्शास्त्र मुनिवर्य के मननार्थं भेजनेकी वृत्ति है । इसलिये डाकगाडीके समय आप स्टेशनपर आ जायें । महात्मा श्री उस ग्रन्थका मनन कर लेनेके बाद परमकृपालु मुनिश्री श्रीमान देवकीर्णस्वामीको वह ग्रन्थ भेज दें ।
अन्य मुनियोको सविनय नमस्कार प्राप्त हो ।
बबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५५
मुमुक्षु तथा दूसरे जीवोंके उपकारके निमित्त जो उपकारशील बाह्य प्रतापकी सूचना -- विज्ञापन किया है, वह अथवा दूसरे कोई कारण किसी अपेक्षासे उपकारशील होते है । अभी वैसे प्रवृत्तिस्वभाव के प्रति उपशातवृत्ति है ।
प्रारब्ध योगसे जो बने वह भो शुद्ध स्वभावके अनुसधानपूर्वक होना योग्य है । महात्माओने निष्कारण करुणासे परमपदका उपदेश किया है, इससे ऐसा मालूम होता है कि उस उपदेशका कार्य परम महान ही है । सब जीवोके प्रति बाह्य दयामे भी अप्रमत्त रहनेका जिसके योगका स्वभाव है, उसका आत्मस्वभाव सब जीवोको परमपदके उपदेशका आकर्षक हो, ऐसी निष्कारण करुणावाला हो, यह यथार्थ है ।
८८३ ॐ नमः
'बिना नयन पावे नहीं बिना नयनकी बात ।
इस वाक्यका मुख्य हेतु आत्मदृष्टि सम्बन्धी है । स्वाभाविक उत्कर्षके लिये यह वाक्य है । समागमके योगमे इसका स्पष्टार्थं समझमे आना सम्भव है । तथा दूसरे प्रश्नोंके समाधानके लिये अभी बहुत अल्प प्रवृत्ति रहती है । सत्समागमके योगमे सहजमे समाधान हो सकता है ।
'विना नयन' आदि वाक्यका स्वकल्पनासे कुछ भी विचार न करते हुए, अथवा शुद्ध चैतन्य दृष्टिकी १. देखें आक २५८ ।
वंबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५५
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}
६४८
श्रीमद् राजचन्द्र
वृत्ति जिससे विक्षिप्त न हो ऐसा वर्तन योग्य है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' अथवा दूसरा सत्शास्त्र थोड़े वक्त मे बहुत करके प्राप्त होगा ।
दुमकाल है, आयु अल्प है, सत्समागम दुर्लभ है, महात्माओके प्रत्यक्ष वाक्य, चरण और आज्ञाका योग कठिन है । इसलिये बलवान अप्रमत्त प्रयत्न कर्तव्य है ।
आपके समीप रहनेवाले मुमुक्षुओको यथा विनय प्राप्त हो ।
शाति
८८४
इस दुषमकालमे सत्समागम और सत्सगता अति दुर्लभ हैं । इसमे परम सत्सग और परम असगताका योग कहाँसे छाजे ?
८८५
बंबई, श्रावण सुदी ३, १९५५
జ
परम पुरुषकी मुख्य भक्ति ऐसे सद्वर्तनसे प्राप्त होती है कि जिससे उत्तरोत्तर गुणोकी वृद्धि हो । चरणप्रतिपत्ति (शुद्ध आचरणकी उपासना ) रूप सद्वर्तन ज्ञानीकी मुख्य आज्ञा है, जो आज्ञा परम पुरुषकी मुख्य भक्ति है ।
उत्तरोत्तर गुणकी वृद्धि होनेमे गृहवासी जनोको सदुद्यमरूप आजीविका व्यवहारसहित प्रवर्तन करना योग्य है ।
अनेक शास्त्रो और वाक्योका अभ्यास करनेकी अपेक्षा जीव यदि ज्ञानीपुरुषोकी एक एक आज्ञाकी उपासना करे, तो अनेक शास्त्रोसे होनेवाला फल सहजमे प्राप्त होता है ।
८८६
मोहमयी क्षेत्र, श्रावण सुदी ७, १९५५
श्री पद्मनदी शास्त्र' की एक प्रति किसी अच्छे व्यक्तिके साथ वसो क्षेत्रमे मुनिश्री को भेजने की व्यवस्था करें ।
वलवान निवृत्तिवाले द्रव्य-क्षेत्रादिके योगमे आप उस सत्शास्त्रका वारवार मनन और निदिध्यासन करें | प्रवृत्तिवाले द्रव्यक्षेत्रादिमे वह शास्त्र पढना योग्य नही है ।
जब तीन योगकी अल्प प्रवृत्ति हो, वह भी सम्यक् प्रवृत्ति हो तव महापुरुषके वचनामृतका मनन परम श्रेय मूलको दृढीभूत करता है, क्रमसे परमपदको प्राप्त करता है ।
चित्तको विक्षेपरहित रखकर परमशात श्रुतका अनुप्रेक्षण कर्तव्य है ।
८८७
मोहमयी, श्रावण वदी ३०, १९५५ अगम्य होनेपर भी सरल ऐसे महापुरुषोंके मार्गको नमस्कार
सत्समागम निरतर कर्तव्य है । महान भाग्यके उदयसे अथवा पूर्वकालके अभ्यस्त योगसे जीवको सच्ची मुमुक्षुता उत्पन्न होती है, जो अति दुर्लभ है । वह सच्ची मुमुक्षुता बहुत करके महापुरुषके चरणकमलको उपासनासे प्राप्त होती है, अथवा वैसी मुमुक्षुतावाले आत्माको महापुरुपके योगसे आत्मनिष्ठत्व प्राप्त होता है, सनातन अनत ज्ञानीपुरुषो द्वारा उपासित सन्मार्ग प्राप्त होता है। जिसे मच्ची मुमुक्षुता
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३२ वा वर्ष
६४९ प्राप्त हुई हो उसे भी ज्ञानीका समागम और आज्ञा अप्रमत्त योग सप्राप्त कराते हैं। मुख्य मोक्षमार्गका क्रम इस प्रकार मालूम होता है।
वर्तमानकालमे वैसे महापुरुषोका योग अति दुर्लभ है। क्योकि उत्तम कालमे भी उस योगकी दुर्लभता होती है, ऐमा होनेपर भी जिसे सच्चो मुमुक्षुता उत्पन्न हुई हो, रात-दिन आत्मकल्याण होनेका तथारूप चिंतन रहा करता हो, वैसे पुरुषको वैसा योग प्राप्त होना सुलभ है। 'आत्मानुशासन' अभी मनन करने योग्य है।
शातिः
बबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५ जिन वचनोकी आकाक्षा है वे बहुत करके थोड़े समयमे प्राप्त होगे। इद्रियनिग्रहके अभ्यासपूर्वक सत्श्रुत और सत्समागम निरंतर उपासनीय है। क्षीणमोहपर्यत ज्ञानीकी आज्ञाका अवलबन परम हितकारी है।
आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभाव द्वारा जो कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमाको याचना है।
शमम् ८८९ बंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
८८८
जो वनवासो शास्त्र' भेजा है, वह प्रबल निवृत्तिके योगमे इद्रियसयमपूर्वक मनन करनेसे अमृत है। अभी 'आत्मानुशासन'का मनन करें ।
आज दिन तक आपके तथा समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे कुछ भी अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते हैं।
ॐ शातिः
८९०
वंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
श्री अबालाल आदि मुमुक्षुजन,
आज-दिन तक आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोंके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते है। ॐ शातिः
८९१ वंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
आपके तथा भाई वणारसीदास आदिके लिखे पत्र मिले थे।
आपके पत्रोमे कुछ न्यूनाधिक लिखा गया हो, ऐसा विकल्प प्रदर्शित किया हो, वैसा कुछ भासमान नहीं हुआ है । निर्विक्षिप्त रहे । बहुत करके यहाँ वैसा विकल्प सभव नहीं है।
___ इद्रियोके निग्रहपूर्वक सत्समागम और सत्शास्त्रका परिचय करें। आपके समीपवासी मुमुक्षुमोका उचित विनय चाहते हैं।
१ श्री पचनदी पचविंशति ।
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६५०
श्रीमद् राजचन्द्र क्षीणमोहपर्यंत ज्ञानीकी आज्ञाका अवलंबन परम हितकारी है । आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमा चाहते हैं।
शमम्
८९२ बबई, भाद्रपद सुदी ५, रविवार, १९५५
ॐ शान्तिः श्री झवेरचद और रतनचद आदि मुमुक्षु, काविठा-बोरसद ।
आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ, किंचित् भी अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमा चाहते हैं।
ॐ शान्ति
८९३
बबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५
पत्र मिला है। किसी मनुष्यके बताये हुए स्वप्न आदि प्रसगके संबंधमे निविक्षिप्त रहे, तथा अपरिचित रहे । उस विषयमे कुछ उत्तर प्रत्युत्तर आदिका भी हेतु नही है।
इद्रियोंके निग्रहपूर्वक सत्समागम और सत्श्रुत उपासनीय हैं ।
आज दिन पर्यन्त आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोंके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ अन्यथा हुआ हो उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते है।
शमम्
' ८९४
।
बंबई, भादो सुदी ५, रवि, १९५५
परम कृपालु मुनिवरोको नमस्कार |
आज दिन पर्यन्त योगके प्रमत्त स्वभावके कारण आपके प्रति यत्किचित् अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते हैं। भाई वल्लभ आदि मुमुक्षुओको क्षमापना आदि. कण्ठस्थ करनेके विषयमे आप योग्य आज्ञा करें।
ॐ शातिः
८९५
बबई, आसोज, १९५५
२४
जिन ज्ञानीपुरुषोका देहाभिमान दूर हुआ है उन्हे कुछ करना वाकी नही रहा, ऐसा है, तो भी उन्हे सर्वसंगपरित्यागादि सत्पुरुषार्थता परमपुरुपने उपकारभूत कही है ।
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३३ वाँ वर्ष
बबई, कात्तिक, १९५६
परम वीतरागोद्वारा आत्मस्थ किये हुए, यथाख्यात चारित्रसे प्रगट किये हुए परम असंगत्वको निरंतर
व्यक्ताव्यक्तरूपसे याद करता हूँ। इस दुःषमकालमे सत्समागमका योग भी अति दुर्लभ है, उसमे परम सत्सग और परम असगत्वका योग कहांसे हो?
सत्समागमका प्रतिबध करनेके लिये कहे तो वैसा प्रतिबध न करनेकी वृत्ति बतायी तो वह योग्य है, यथार्थ है। तदनुसार वर्तन कीजियेगा। सत्समागमका प्रतिबंध करना योग्य नहीं है, तथा सामान्यतः उनके साथ समाधान रहे ऐसा बर्ताव रखना हितकारी है।
फिर जिस प्रकार विशेष उस संगमे आना न हो ऐसे क्षेत्रमे विचरना योग्य है, कि जिस क्षेत्रमे आत्मसाधन सुलभतासे हो। ___ परम शात श्रुतके विचारमे इन्द्रियनिग्रहपूर्वक आत्मप्रवृत्ति रखनेमे स्वरूपस्थिरता अपूर्वतासे प्रगट होती है।
सतोष आर्या आदिके लिये यथाशक्ति ऊपर दर्शित किया हुआ प्रयत्न योग्य है। ॐ शातिः
८९७ मोहमयीक्षेत्र, कार्तिक सुदी ५(ज्ञानपचमी), १९५६ परम शात श्रुतका मनन नित्य नियमपूर्वक कर्तव्य है।
शातिः
८९८
वम्बई, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६
यह प्रवृत्ति व्यवहार ऐसा है कि जिसमे वृत्तिको यथाशातता रखना यह असभव जैसा है। कोई विरले ज्ञानी इसमे शात स्वरूपनैष्ठिक रह सकते हो, इतना बहुत दुर्घटतासे बनना सम्भव है। उसमे अल्प अथवा सामान्य मुमुक्षुवृत्तिके जोव शात रह सके, स्वरूपनष्ठिक रह सक, ऐसा यथारूप नही परन्तु
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६५२
श्रीमद् राजचन्द्र अमक अशमे होनेके लिये जिस कल्याणरूप अवलबनको आवश्यकता है, वह समझमे आना, प्रतीत होना, और अमुक स्वभावसे आत्मामे स्थित होना कठिन है ! यदि वैसा कोई योग बने तो और जीव शुद्धनैष्ठिक हो तो, शातिका मार्ग प्राप्त होता है, ऐसा निश्चय है । प्रमत्त स्वभावकी जय करनेके लिये प्रयत्ल करना योग्य है। ___इस संसाररणभूमिमे दुषमकालरूप ग्रीष्मके उदयके योगका वेदन न करे, ऐसी स्थितिका विरल जीव अभ्यास करते हैं।
८९९ मोहमयी, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६
सर्व सावध आरभकी निवृत्तिपूर्वक दो घडीसे अर्ध प्रहरपर्यंत 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि ग्रथकी नकल करनेका नित्यनियम योग्य है । (चार मासपर्यत)।
९००
बम्बई, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६
अविरोध और एकता रहे ऐसा करना योग्य है, और यह सबके उपकारका मार्ग होना सम्भव है ।
भिन्नता मानकर प्रवृत्ति करनेसे जीव उलटा चलता है। अभिन्नता है, एकता है, इसमे कुछ गैरसमझसे भिन्नता मानते हैं, ऐसी उन जीवोको सीख मिले तो सन्मुखवृत्ति होने योग्य है ।
जहाँ तक अन्योन्य एकताका व्यवहार रहे वहाँ तक वह सर्वथा कर्तव्य है ।
___९०१
बंबई, कार्तिक सुदी १५, १९५६
"गुरु गणघर गुणधर अधिक, प्रचुर परंपर और ।
प्रततपधर, तनु नगनघर, वंदौ वृषसिरमोर ॥' जगत विषयके विक्षेपमे स्वरूपभ्रातिसे विश्राति नही पाता।
अनत अव्याबाध सुखका एक अनन्य उपाय स्वरूपस्थ होना यही है। यही हितकारी उपाय ज्ञानियोने देखा है।
भगवान जिनने द्वादशागीका इसीलिये निरूपण किया है, और इसी उत्कृष्टतासे वह शोभित है, जयवत है।
ज्ञानीके वाक्यके श्रवणसे उल्लासित होता हुआ जीव चेतन-जडको यथार्थरूपसे भिन्नस्वरूप प्रतीत करता है, अनुभव करता है, और अनुक्रमसे स्वरूपस्थ होता है।
यथास्थित अनुभव होनेसे स्वरूपस्थ हो सकता है।
दर्शनमोह नष्ट हो जानेसे ज्ञानोके मार्गमे परम भक्ति समुत्पन्न होती है, तत्त्वप्रतीति सम्यकपसे उत्पन्न होती है।
१ भावार्थ-गुरु गणघर तथा परम्परागत बहुतसे गुणधारी, व्रत-तपघारी, दिगम्बर धर्मशिरोमणि, आचार्योंको वन्दन करता हूँ।
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वर्ष ३३
श्रीमद्
राजचद्र
मन् १९५६
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श्रीमद् राजचन्द्र
अमुक अशमे होनेके लिये जिस कल्याणरूप अवलंबनको आवश्यकता है, वह समझमे आना, प्रतीत होना, और अमुक स्वभावसे आत्मामे स्थित होना कठिन है ! यदि वैसा कोई योग बने तो और जीव शुद्धनैष्ठिक हो तो, शातिका मार्ग प्राप्त होता है, ऐसा निश्चय है । प्रमत्त स्वभावकी जय करनेके लिये प्रयत्न करना योग्य है। ___इस ससाररणभूमिमे दुःषमकालरूप ग्रीष्मके उदयके योगका वेदन न करे, ऐसी स्थितिका विरल जीव अभ्यास करते है।
८९९ मोहमयी, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६
सर्व सावद्य आरभकी निवृत्तिपूर्वक दो घडीसे अर्ध प्रहरपर्यंत 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि ग्रथकी नकल करनेका नित्यनियम योग्य है । (चार मासपर्यंत)।
९००
बम्बई, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६
अविरोध और एकता रहे ऐसा करना योग्य है, और यह सबके उपकारका मार्ग होना सम्भव है ।
भिन्नता मानकर प्रवृत्ति करनेसे जीव उलटा चलता है। अभिन्नता है, एकता है, इसमे कुछ गैरसमझसे भिन्नता मानते हैं, ऐसी उन जीवोको सीख मिले तो सन्मुखवृत्ति होने योग्य है।
जहाँ तक अन्योन्य एकताका व्यवहार रहे वहाँ तक वह सर्वथा कर्तव्य है ।
९०१
बंबई, कार्तिक सुदी १५, १९५६
"गुरु गणघर गुणधर अधिक, प्रचुर परंपर और।
प्रततपधर, तनु नगनघर, वदो वृषसिरमोर ॥' जगत विषयके विक्षेपमे स्वरूपभ्रातिसे विश्राति नही पाता।
अनत अव्याबाध सुखका एक अनन्य उपाय स्वरूपस्थ होना यही है। यही हितकारी उपाय ज्ञानियोने देखा है।
भगवान जिनने द्वादशागीका इसीलिये निरूपण किया है, और इसी उत्कृष्टतासे वह शोभित है, जयवत है।
ज्ञानीके वाक्यके श्रवणसे उल्लासित होता हुआ जीव चेतन-जडको यथार्थरूपसे भिन्नस्वरूप प्रतीत करता है, अनुभव करता है, और अनुक्रमसे स्त्ररूपस्थ होता है ।
यथास्थित अनुभव होनेसे स्वरूपस्थ हो सकता है ।
दर्शनमोह नष्ट हो जानेसे ज्ञानीके मार्गमे परम भक्ति समुत्पन्न होती है, तत्त्वप्रतीति सम्यकपसे उत्पन्न होती है।
१ भावार्थ-गुरु गणघर तथा परम्परागत बहुतसे गुणधारी, व्रत-तपघारी, दिगम्बर धर्मशिरोमणि, आचार्योंको वन्दन करता हूँ।
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वर्ष ३३
श्रीमद् राजचद्र
T
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सन् १९५६
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६५४
श्रीमद् राजचन्द्र
एवो जे अनादि एकरूपनो मिथ्यात्वभाव,
ज्ञानीनां वचन वडे दूर थई जाय छे; . भासे जड चैतन्यनो प्रगट स्वभाव भिन्न,
बन्ने द्रव्य निज निज रूपे स्थित थाय छे ॥२॥ , . , ..
___९०३ बबई, कार्तिक वदी ११, मंगल, १९५६ प्राणीमात्रका रक्षक, बाधव और हितकारी, यदि ऐसा कोई उपाय हो तो वह वीतरागका धर्म 'ही है। ''
९०४ बबई, कार्तिक वदी ११, मंगल, १९५६ सतजनो जितवरेंद्रोने लोक आदिका जो स्वरूप निरूपण किया है, वह आलंकारिक भाषामे निरूपण है, जो पूर्ण योगाभ्यासके बिना ज्ञानगोचर होने योग्य नही है। इसलिये आप अपने अपूर्ण ज्ञानके आधारसे वीतरागके वाक्योका विरोध न करें; परतु' योगका अभ्यास करके पूर्णतासे उस स्वरूपके ज्ञाता होवें।
९०५ मोहमयी क्षेत्र, पौष वदी १२, रवि, १९५६ महात्मा मुनिवरोके चरणकी, सगकी उपासना और सत्शास्त्रका अध्ययन मुमुक्षुओके लिये आत्मबलकी वृद्धिके सदुपाय हैं ।
ज्यो ज्यो इद्रियनिग्रह, ज्यो ज्यो निवृत्तियोग होता है त्यो त्यो वह सत्समागम और सत्शास्त्र अधिकाधिक उपकारी होते हैं।
ॐ शाति. शाति. शातिः ___ ।
९०६ - बंबई, माघ वदी १०, शनि, १९५६ आज आपका पत्र मिला । बहन इच्छाके वरकी अकाल मृत्युके खेदकारक समाचार जानकर बहुत -शोक होता है। संसारकी ऐसी अनित्यताके कारण ही ज्ञानियोने वैराग्यका उपदेश दिया है |- - -
घटना अत्यत दुखकारक है । परतु निरपाय होनेसे धीरज रखनी चाहिये। तो आप मेरी ओरसे बहन इच्छाको और घरके लोगोको दिलासा और धीरज दिलायें । और बहनका मन शात हो वैसे उसकी संभाल लें।'
-
९०७ ।।"
'मोहमयी, माघ वदी ११, १९५६
___शुद्ध गुर्जर भाषामे 'समयसार'को प्रति की जा सके तो वैसा करनेसे अधिक उपकार हो सकता है। यदि वैसा न हो सके तो वर्तमान प्रतिके अनुसार दूसरी प्रति लिखनेमे अप्रतिबध है।
.। । - . . ९०८ । बबई, माघ वदी १४, मंगल, १९५६ - बताते हुए अतिशय खेद होता है कि सुज्ञ भाई श्री कल्याणजीभाई (केशवजी) ने आज दोपहरमे लंगभग पद्रह दिनकी मरोड़की तकलीफसे नामधारी देहपर्यायको छोडा है।
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३३ वॉ वर्ष
६५५ ___धर्मपुर, चैत्र सुदी ८, शनि. १९५६
९०९
यदि 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा' और 'समयसार' की नकलें लिखी गयी हो तो यहाँ मूल प्रतियोंके साथ भिजवाये। अथवा मूल प्रतियाँ बबई भिजवाये और नकल की हुई प्रतियां यहां भिजवायें। नकलें अभी अधूरी हो तो कब पूर्ण होना सभव है यह लिखें।
शातिः
९१०
धर्मपुर, चैत्र सुदी ११, मंगल, १९५६
श्री 'समयसार' और 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' भेजनेके बारेमे पत्र मिला होगा। . इस पत्रके मिलनेसे यहाँ आनेकी वृत्ति और अनुकूलता हो तो आज्ञाका अतिक्रम नही है। आपके साथ एक मुमुक्षुभाईके आनेसे भी आज्ञाका अतिक्रम नही होगा।
यदि 'गोम्मटसार' आदि कोई ग्रथ प्राप्त हो तो वह और 'कर्मग्रंथ', 'पद्मनदी पचविंशति', 'समयसार' तथा श्री 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि ग्रथ अनुकूलतानुसार साथ रखें।
. ९११ धर्मपुर, चैत्र सुदो १३, १९५६ 'अष्टप्राभृत' के ११५ पन्ने प्राप्त हुए। स्वामी वर्धमान जन्मतिथि।
शाति
९१२
धर्मपुर, चैत्र वदी १, रवि, १९५६
धन्य ते मुनिवरा जे चाले समभावे रे, ज्ञानवंत ज्ञानीशु मळतां तनमनवचने साचा, द्रव्यभाव सुधा जे भाले, साची जिननी वाचा रे;
धन्य ते मुनिवरा, जे चाले समभावे रे।" पत्र प्राप्त हुए थे। एक पखवाड़ेसे यहाँ स्थिति है।
श्री देवकीर्ण आदि आर्योको नमस्कार प्राप्त हो । साणद और अहमदावादके चातुर्मासकी वत्ति उपशात करना योग्य है। यही श्रेयस्कर है।
खेडाकी अनुकूलता न हो तो दूसरे अनेक योग्य क्षेत्र मिल सकते हैं। अभी उनसे अनुकूलता रहे यही कर्तव्य है। • बाह्य और अन्तर समाधियोग रहता है।
परम शाति
१ भावार्थ-वे मनिवर धन्य है जो समभावपूर्वक आचरण करते हैं। जो स्वय ज्ञानवान है. और शानियों से मिलते है। जिनके मन, वचन और काया सुच्चे हैं, तथा जो द्रव्यभावसे अमृत वाणी बोलते हैं. वह जिन नगवानको सच्ची वाणी ही है । वे मुनिवर धन्य हैं जो समभावपूर्वक आचरण करते हैं।
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३३ वॉ वर्ष
६५३
तत्त्वप्रतीतिसे शुद्ध-चैतन्यके प्रति वृत्तिका प्रवाह मुड़ता है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव के लिये चारित्रमोह नष्ट करना योग्य है ।
चैतन्यके – ज्ञानीपुरुषके सन्मार्गकी नैष्ठिकतासे चारित्रमोहका प्रलय होता है |
असंगतासे परमावगाढ अनुभव हो सकता है ।
हे आर्य मुनिवरी । इसी असग शुद्ध चैतन्यके लिये असगयोगकी हम अहर्निश इच्छा करते है । हे मुनिवरी । असंगताका अभ्यास करें ।
दो वर्ष कदापि समागम न करना ऐसा होनेसे अविरोधता होती हो तो अंतमे दूसरा कोई सदुपाय न हो तो वैसा करे |
जो महात्मा असंग चैतन्यमे लीन हुए, होते हैं, और होगे, उन्हें नमस्कार ।
ॐ शांति
बम्बई, कार्तिक वदी ११, मगल, १९५६
९०२ *जड ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न, सुप्रतीतपणे बन्ने जेने समजाय छे; स्वरूप चेतन निज, जड छे संबंध मात्र, अथवा ते ज्ञेय पण परद्रव्यमांय छे; एवो अनुभवनो प्रकाश उल्लासित थयो,
जयी उदासी ने आत्मवृत्ति थाय छे, कायानी विसारी माया, स्वरूपे समाया एवा,
निर्ग्रथनो पंथ भवअंतनो उपाय छे ॥ १ ॥
4
देह जीव एकरूपे भासे छे अज्ञान वडे, क्रियानी प्रवृत्ति पण तेथी तेम थाय छे, जीवनी उत्पत्ति अने रोग, शोक, दुःख, मृत्यु, देहनो स्वभाव जीव पदमां जणाय छे;
* भावार्थ - जड और चैतन्य दोनो द्रव्योका स्वभाव भिन्न है, ऐसा यथार्थ प्रतीतिपूर्वक जिसे समझमें आता है, उसे भान होता है कि निजस्वरूप तो चेतन है और जड तो सम्बन्ध मात्र हैं, अथवा जड़ तो ज्ञेयरूप परद्रव्य है
और स्वय तो उसका ज्ञाता द्रष्टा है । चैतन्यस्वरूप आत्मा उससे सर्वथा भिन्न है । यो स्वरूपका अनुभव अर्थात् आत्म-साक्षात्कार हो जानेसे जड पदार्थके प्रति उदासीनता आ जाती है, जिससे वहिर्मुखता दूर होकर अतमुखता हो जाती है अर्थात् आत्मा स्वरूपमें स्थित हो जाता है अथवा आत्म-लीनता आ जाती है। आत्म जागृति एव आत्मभान हो जानेपर कायाकी ममता, आसक्ति नही रहती अथवा देहाण्यास दूर हो जाता है और आत्मा स्वरूपस्य हो जाता है । इसलिये निग्रंथका पथ भवात - मोक्षका सच्चा उपाय है ॥ १ ॥
अज्ञानते शरीर और आत्मा एकरूप - अभिन्न लगते हैं । यह भ्राति अनादि कालसे चली आ रही है । इसलिये क्रियाकी प्रवृत्ति भी उसी भ्रातिपूर्वक होती रहती है । जन्म, रोग, शोक, दु ल, मृत्यु आदि देहका स्वभाव है, परंतु अज्ञानवश आत्माका स्वभाव माना जाता है । देह और आत्माको एकरूप माननेका जो अनादि मिव्यात्व भाव ह वह शानीपुरुषके बोधसे दूर हो जाता है । जीव जव ज्ञानीके बोघको आत्मसात् कर लेता है तव जड और चेतनका भिन्न स्वभाव स्पष्ट प्रतीत होता है । फिर दोनो द्रव्य अपने-अपने रूपमें स्थित हो जाते हैं अर्थात् आत्मा आत्मरूपमें ओर कर्मरूप पुद्गल पुद्गलरूपमें स्थित हो जाते हैं ॥२॥
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श्रीमद् राजचन्द्र
एवो जे अनादि एकरूपनो मिथ्यात्वभाव,
ज्ञानीनां वचन वडे दूर थई जाय छे; भासे जड चैतन्यनो प्रगट स्वभाव भिन्न,
बन्ने द्रव्य निज निज रूपे स्थित थाय छे ॥२॥
९०३ बबई, कार्तिक वदी ११, मगल, १९५६ प्राणीमात्रका रक्षक, बाधव और हितकारी, यदि ऐसा कोई उपाय हो तो वह वीतरागका धर्म
९०४ बबई, कार्तिक वदी ११, मगल, १९५६ सतजनो | जिनवरेंद्रोने लोक आदिका जो स्वरूप निरूपण किया है, वह आलकारिक भाषामे निरूपण है, जो पूर्ण योगाभ्यासके विना ज्ञानगोचर होने योग्य नहीं है। इसलिये आप अपने अपूर्ण ज्ञानके आधारसे वीतरागके वाक्योका विरोध न करें, परतु योगका अभ्यास करके पूर्णतासे उस स्वरूपके ज्ञाता होवें।
९०५ मोहमयी क्षेत्र, पौष वदी १२, रवि, १९५६ महात्मा मुनिवरोके चरणकी, सगकी उपासना और सत्शास्त्रका अध्ययन मुमुक्षुओके लिये आत्मबलकी वृद्धिके सदुपाय है।
ज्यो ज्यो इद्रियनिग्रह, ज्यो ज्यो निवृत्तियोग होता है त्यो त्यो वह सत्समागम और सत्शास्त्र अधिकाधिक उपकारी होते हैं।
____ॐ शाति शाति. शातिः
९०६ बवई, माघ वदी १०, शनि, १९५६ __ आज आपका पत्र मिला | बहन इच्छाके वरकी अकाल मृत्युके खेदकारक समाचार जानकर बहुत शोक होता है । संसारको ऐसी अनित्यताके कारण ही ज्ञानियोने वैराग्यका उपदेश दिया है।
घटना अत्यत दुखकारक है । परतु निरपाय होनेसे धीरज रखनी चाहिये। तो आप मेरी ओरसे बहन इच्छाको और घरके लोगोको दिलासा और धीरज दिलायें । और बहनका मन शात हो वैसे उसकी सभाल लें।
९०७
मोहमयी, माघ वदी ११, १९५६
शुद्ध गुर्जर भाषामे 'समयसार'को प्रति की जा सके तो वैसा करनेसे अधिक उपकार हो सकता है। यदि वैसा न हो सके तो वर्तमान प्रतिके अनुसार दूसरी प्रति लिखनेमे अप्रतिबध है ।
९०८
बबई, माघ वदी १४, मंगल, १९५६ बताते हुए अतिशय खेद होता है कि सुज्ञ भाई श्री कल्याणजीभाई (केशवजी) ने आज दोपहरमे लगभग पद्रह दिनकी मरोड़की तकलीफसे नामधारी देहपर्यायको छोडा है।
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३३ वॉ वर्ष
६५५ धर्मपुर, चैत्र सुदी ८, शनि, १९५६
९०९
यदि 'स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा' और 'समयसार' की नकलें लिखी गयी हो तो यहाँ मूल प्रतियोंके साथ भिजवाये। अथवा मूल प्रतियाँ बबई भिजवायें और नकल की हुई प्रतियां यहां भिजवायें। नकलें अभी अधूरी हो तो कब पूर्ण होना संभव है यह लिखें।
शातिः
९१०
धर्मपुर, चैत्र सुदी ११, मंगल, १९५६ श्री 'समयसार' और 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' भेजनेके बारेमे पत्र मिला होगा। , इस पत्रके मिलनेसे यहाँ आनेकी वृत्ति और अनुकूलता हो तो आज्ञाका अतिक्रम नही है। आपके साथ एक मुमुक्षुभाईके आनेसे भी आज्ञाका अतिक्रम नही होगा ।
यदि 'गोम्मटसार' आदि कोई ग्रथ प्राप्त हो तो वह और 'कर्मग्रथ', 'पद्मनदी पचविंशति', 'समयसार' तथा श्री 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि ग्रथ अनुकूलतानुसार साथ रखें।
९११
. धर्मपुर, चैत्र सुदो १३, १९५६
.
' 'अष्टप्राभृत' के ११५ पन्ने प्राप्त हुए। स्वामी वर्धमान जन्मतिथि ।
शाति
धर्मपुर, चैत्र वदी १, रवि, १९५६
"धन्य ते मुनिवरा जे चाले समभावे रे, ज्ञानवत ज्ञानीशु मळता तनमनवचने साचा, . द्रव्यभाव सुधा जे भाखे, साची जिननी वाचा रे;
धन्य ते मुनिवरा, जे चाले समभावे रे।" पत्र प्राप्त हुए थे। एक पखवाड़ेसे यहाँ स्थिति है। - श्री देवकीर्ण आदि आर्योंको नमस्कार प्राप्त हो । साणद और अहमदाबादके चातुर्मासकी वत्ति उपशात करना योग्य है। यही श्रेयस्कर है ।
खेडाकी अनुकूलता न हो तो दूसरे अनेक योग्य क्षेत्र मिल सकते हैं । अभी उनसे अनुकूलता रहे यही कर्तव्य है। बाह्य और अन्तर समाधियोग रहता है।
परम शाति
१ भावार्थ-वे मुनिवर धन्य है जो समभावपूर्वक आचरण करते हैं। जो स्वय ज्ञानवान है, और ज्ञानियोंसे मिलते हैं। जिनके मन, वचन और काया सच्चे हैं, तथा जो द्रव्यभावसे अमृत वाणी वोलते हैं. वह जिन भगवानको सच्ची वाणी ही है । वे मुनिवर धन्य है जो समभावपूर्वक आचरण करते हैं।
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"
६५६
श्रीमद राजचन्द्र
९१३
धर्मपुर, चैत्र वदी ४, बुध, १९५६
पत्र प्राप्त हुआ । यहाँ समाधि है ।
अकस्मात् शारीरिक असाताका उदय हुआ है और शात स्वभावसे उसका वेदन किया जाता है, ऐसा जानते थे, और इससे सतोष प्राप्त हुआ था ।
समस्त ससारी जीव कर्मवशात् साता असाताके उदयका अनुभव किया ही करते है । जिसमे मुख्यत तो असाताके ही उदयका अनुभव किया जाता है । क्वचित् अथवा किसी देह संयोगमे साताका उदय अधिक अनुभवमे आता हुआ दिखाई देता है, परन्तु वस्तुत वहाँ भी अन्तर्दाह जला ही करता है । पूर्ण ज्ञानी भी जिस असाताका वर्णन कर सकने योग्य वचनयोग नही रखते, वैसी अनतानत असाता इस जीवने भोगी है, और यदि अब भी उनके कारणोका नाश न किया जाये तो भोगनी पड़े, यह सुनिश्चित है, ऐसा समझकर विचारवान उत्तम पुरुष उस अन्तर्दाहरूप साता और बाह्याभ्यंतर सक्लेशाग्निरूपसे प्रज्वलित असाताका आत्यतिक वियोग करनेके मार्गकी गवेषणा करनेके लिये तत्पर हुए और उस सन्मार्गकी गवेषणा कर, प्रतीति कर उसका यथायोग्य आराधन कर अव्याबाध सुखस्वरूप आत्माके सहज शुद्ध
'स्वभावरूप परमपदमे लीन हुए ।
साता-असाताका उदय अथवा अनुभव प्राप्त होनेके मूल कारणोकी गवेषणा करनेवाले उन महान पुरुषोको ऐसी विलक्षण सानदाश्चर्यकारी वृत्ति उद्भूत होती थी कि साताकी अपेक्षा असाताका उदय प्राप्त होनेपर और उसमे भी तीव्रतासे उस उदयके प्राप्त होनेपर उनका वीर्यं विशेषरूपसे जानत होता था, उल्लसित होता था, और वह समय अधिकतासे कल्याणकारी माना जाता था ।
कितने ही कारणविशेषके योगसे व्यवहारदृष्टिसे ग्रहण करने योग्य औषध आदि आत्म-मर्यादा रहकर ग्रहण करते थे, परन्तु मुख्यतः वे परम उपशमकी हो सर्वोत्कृष्ट औषधरूपसे उपासना करते थे ।
उपयोग-लक्षणसे सनातन - स्फुरित ऐसे आत्माको देहसे, तेजस और कार्मण शरीरसे भी भिन्न अवलोकन करनेकी दृष्टि सिद्ध करके, वह चैतन्यात्मकस्वभाव आत्मा निरतर वेदक स्वभाववाला होनेसे अबंधदशाको जब तक सप्राप्त न हो तब तक साता - असातारूप अनुभवका वेदन किये बिना रहनेवाला नही है यह निश्चय करके, जिस शुभाशुभ परिणामधाराकी परिणतिसे वह साता असाताका सम्बन्ध करता है उस धाराके प्रति उदासीन होकर, देह आदिसे भिन्न और स्वरूपमर्यादामे रहे हुए उस आत्मामे जो चल स्वभावरूप परिणामधारा है उसका आत्यतिक वियोग करनेका सन्मार्ग ग्रहण करके, परम शुद्धचैतन्यस्वभावरूप प्रकाशमय वह आत्मा कर्मयोगसे सकलक परिणाम प्रदर्शित करता है उससे उपरत होकर, जिस प्रकार • उपशमित हुआ जाये उस उपयोगमे और उस स्वरूपमे स्थिर हुआ जाये, अंचल हुआ जाये, वही लक्ष्य, भा, ही चिंतन और वही सहज परिणामरूप स्वभाव करना योग्य है । महात्माओकी वारंवार यही शिक्षा है ।
उस सन्मार्गंकी गवेषणा करते हुए, प्रतीति करनेकी इच्छा करते हुए, उसे सप्राप्त करने की इच्छा करते हुए ऐसे आत्मार्थी जनको परमवीतरागस्वरूप देव, स्वरूपनैष्ठिक निःस्पृह निग्रंथ रूप गुरु, परमदयामूल धर्मव्यवहार और परमशातरस रहस्य वाक्यमय सत्शास्त्र, सन्मार्गकी संपूर्णता होने तक परमभक्तिसे उपासनीय है, जो आत्माके कल्याण के परम कारण है
यहाँ एक स्मरण प्राप्त गाथा लिखकर यहाँ इस पत्रको सक्षिप्त करते है । भीसण नरयगईए, तिरियगईए कुदेव मणुयगईए । पत्तोसि तिव्व दुःखं, भावहि जिणभावणा जीव ॥
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३३ वॉ वर्ष
६५७
भयंकर नरकगतिमे, तिर्यंचगतिमे और बुरी देव तथा मनुष्यगतिमे हे जीव | तू तीव्र दुःखको प्राप्त हुआ, इसलिये अब तो जिन-भावना (जिन भगवान जिस परमशातरसमे परिणमन कर स्वरूपस्थ हुए, उस परमशातस्वरूप चिन्तन) का भावन-चिंतन कर (कि जिससे वैसे अनत दु.खोका आत्यतिक वियोग होकर परम अव्याबाध सुखसपत्ति सप्राप्त हो)।
ॐ शातिः शातिः शातिः
९१४
धर्मपुर, चैत्र वदी ५, गुरु, १९५६ ___ जहाँ सकुचित जनवृत्तिका सभव न हो और जहाँ निवृत्तिके योग्य विशेष कारण हो, ऐसे क्षेत्रमे महान पुरुषोको विहार, चातुर्मासरूप स्थिति कर्त्तव्य है।
शाति. ९१५ . .धर्मपुर, चैत्र वदी ६, शुक्र, १९५६
मुमुक्षुजनो,
___ आपका लिखा पत्र बबईमे मिला था। यहां बीस दिनसे 'स्थिति है। पत्रमे आपने दो' प्रश्नोका समाधान जाननेकी अभिलाषा प्रदर्शित को थी। उन दो प्रश्नोका समाधान यहाँ सक्षेपमे लिखा है। (१) उपशमश्रेणिमे मुख्यत उपशमसम्यक्त्वका सभव है।'
' (२) चार घनघाती कर्मोंका क्षय होनेसे अन्तराय कर्मकी प्रकृतिका भी क्षय होता है और इससे दानातराय, लाभातराय, वोयांतराय, भोगातराय और उपभोगातराय इन पांच प्रकारके अतरायोका क्षय होकर अनत दानलब्धि, अनत लाभलब्धि, अनत वीर्यलब्धि और अनत भोग-उपभोगलब्धि सप्राप्त होती है। जिससे जिनके अन्तराय कर्मका क्षय हो गया है ऐसे परमपुरुष अनत दानादि देनेको सपूर्ण समर्थ है, तथापि परमपुरुष पदगल-द्रव्यरूपसे इन दान आदि लब्धियोका प्रवृत्ति नहीं करते । मुख्यत तो उस लब्धि की सप्राप्ति भो आत्माको स्वरूपभूत है, क्योकि क्षायिकभावसे वह सप्राप्ति है, औदयिकभावसे नहीं, इसलिये आत्मस्वभाव स्वरूपभूत है, और जो अनत सामर्थ्य आत्मामे अनादिसे शक्तिरूपसे था वह व्यक्त होकर आत्मा निजस्वरूपमें आ सकता है, तद्रूप शुद्ध स्वच्छ भावसे एक स्वभावसे परिणमन करा सकता है, उसे अनत दानलब्धि कहना योग्य है। उसी प्रकार अनत आत्मसामर्थ्यकी सप्राप्तिमे किचित्मात्र वियोगका कारण नही रहा, इसलिये उसे अनन्त लाभलब्धि कहना योग्य है । और अनन्त आत्मसामर्थ्यकी सम्प्राप्ति सम्पूर्णरूपसे परमानन्दस्वरूपसे अनुभवमे आती है, उसमे भी किंचित्मात्र भी वियोगका कारण नही रहा, इसलिये अनन्त भोगोपभोगलब्धि कहना योग्य है, तथा अनन्त आत्मसामर्थ्यकी सम्प्राप्ति सम्पूर्णरूपसे होनेपर भी उस सामर्थ्यके अनुभवसे आत्मशक्ति थक जाये या उसका सामर्थ्य झेल न सके, वहन न कर सके अथवा उस सामथ्र्यको किसी प्रकारके देश-कालका असर होकर किचित्माय भी न्यूनाधिकता करा दे,' ऐसा कुछ भी नही रहा; उस स्वभावमे रहनेका सम्पूर्ण सामर्थ्य त्रिकाल सम्पूर्ण वलसहित रहनेवाला है, उसे अनन्त वीर्यलब्धि कहना योग्य है ।
क्षायिकभावकी दृष्टिसे देखते हुए उपर्युक्त अनुसार उस लब्धिका परम पुरुषको उपयोग है। फिर ये पांच लब्धियाँ देतविशेषसे समझानेके लिये भिन्न बतायी है, नही तो अनन्त वीर्यलब्धिमे भी उन पांचोका समावेश हो सकता है। आत्मा सम्पूर्ण वीर्यको सम्प्राप्त होनेसे इन पांचो लब्धियोका उपयोग पुद्गलद्रव्यरूपसे करे तो वैसा सामर्थ्य उसमे है, तथापि कृतकृत्य ऐसे परम पुरुषमे सम्पूर्ण वीतराग स्वभाव होनेसे उस उपयोगका इस कारणसे सभव नहीं है, और उपदेश आदिके दानरूपसे जो उस कृतकृत्य
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श्रीमद् राजचन्द्र परम पुरुषकी प्रवृत्ति है, वह योगाश्रित पूर्व-बंधकी उदयमानतासे है, आत्माके स्वभावके किंचित् भी विकृतभावसे नही है।
इस प्रकार सक्षेपमे उत्तर समझें। निवृत्तिवाला अवसर सम्प्राप्त करके अधिकाधिक मनन करनेसे विशेष समाधान और निर्जरा सम्प्राप्त होगे । सोल्लास चित्तसे ज्ञानकी अनुप्रेक्षा करनेसे अनत कर्मका क्षय होता है।
ॐ शातिः शाति' शातिः
धर्मपुर, चैत्र वदी १३, शुक्र, १९५६ कृपालु मुनिवरोकी यथाविधि विनय चाहते है ।
बलवान निवृत्तिके हेतुभूत क्षेत्रमे चातुर्मास कर्तव्य है। नडियाद, वसो आदि जो सानुकूल हो वह, एक स्थलके बदले दो स्थलमे हो उसमे विक्षिप्तताके हेतुका सम्भव नही है । असत्समागमका योग प्राप्त कर यदि बटवारा करे तो उस सम्बन्धी समयानुसार जैसा योग्य लगे वैसा, उन्हे बताकर उस कारणकी निवृत्ति करके सत्समागमरूप स्थिति करना योग्य है।
यहाँ स्थितिका सभव वैशाख सुदी २ से ५ तक है। समागम सम्बन्धी अनिश्चित है।
परमशांति ९१७ अहमदाबाद, भीमनाथ, वैशाख सुदी ६, १९५६ आज दशा आदि सम्बन्धी जो बताया है और बीज बोया है उसे न खोदे । वह सफल होगा। 'चतुरागुल है दृगस मिल है, यह आगे जाकर समझमे आयेगा ।
एक श्लोक पढते हुए हमे हजारो शास्त्रोका भान होकर उसमे उपयोग धूम आता है (अर्थात् रहस्य समझमे आ जाता है)।
. ९१८
ववाणिया, वैशाख, १९५६ आपने कितने ही प्रश्न लिखे उन प्रश्नोका समाधान समागममे समझना विशेष उपकाररूप जानता. हैं। तो भी किंचित् समाधानके लिये यथामति सक्षेपमे उनके उत्तर यहाँ लिखता हूँ। . . .
. सत्पुरुषको यथार्थ ज्ञानदशा, सम्यक्त्वदशा, और उपशमदशाको तो, जो यथार्थ, मुमुक्षु जीव सत्पुरुषके समागममे आता है वह जानता है, क्योकि प्रत्यक्ष उन तीन दशाओका लाभ श्री सत्पुरुषके उप-. देशसे कुछ अशोमे होता है। जिनके उपदेशसे वैसी दशाके अंग प्रगट होते हैं उनकी अपनी दशामे वे गण कैसे उत्कृष्ट रहे होने चाहिये, उसका विचार करना सुगम है, और जिनका उपदेश एकान्त नयात्मक हो उनसे वैसी एक भी दशा प्राप्त होनी सम्भव नही है यह भी प्रत्यक्ष समझमे आयेगा । सत्पुरुषकी वाणी सर्व नयात्मक होती है।
अन्य प्रश्नोंके उत्तर-- __. , प्र०—जिनाज्ञाराधक, स्वाध्याय-ध्यानसे मोक्ष है या और किसी तरह?
____उ०-तथारूप प्रत्यक्ष सद्गुरुके योगमे अथवा किसी पूर्व-कालके दृढ आराधनसे जिनाज्ञा यथार्थ समझमे आये, यथार्थ प्रतीत हो, और उसकी यथार्थ आराधना की जाये तो मोक्ष होता है इसमे संदेह नहीं है। १ देखें आक २६५ का ७ वा पद। ..। "
.
आपनाम
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३३ वा वर्ष
प्र-ज्ञानप्रज्ञासे जानी हुई सर्व वस्तुका प्रत्याख्यानप्रज्ञासे जो प्रत्याख्यान करता है उसे पडित कहा है। ,
. , । । उ०-वह यथार्थ है। जिस ज्ञानसे परभावके मोहका उपशम अथवा क्षय न हुआ हो, वह ज्ञान 'अज्ञान' कहने योग्य है अर्थात् ज्ञानका लक्षण परभावके प्रति उदासीन होना है। ,
प्र०--जो एकात ज्ञान मानता है उसे मिथ्यात्वी कहा है। . .. उ०-वह यथार्थ है।
प्र.-जो एकात क्रिया मानता है उसे मिथ्यात्वी कहा है। उ०-वह यथार्थ है।
प्र०-मोक्ष जानेके चार कारण कहे है। तो क्या उन चारमेसे किसी एक कारणको छोड़कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है या सयुक्त चार कारणसे ?
उ०-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये मोक्षके चार कारण कहे है, वे परस्पर अविरोधरूपसे प्राप्त होनेपर मोक्ष होता है। २. प्र०-समकित अध्यात्मकी शैली किस तरह है ?
उ०-यथार्थ समझमे आनेपर परभावसे आत्यतिक निवृत्ति करना यह अध्यात्ममार्ग है। जितनी जितनी निवृत्ति होती है उतने उतने सम्यक् अंश होते हैं । । ''प्र०-'पुद्गलसें रातो रहे', इत्यादिका क्या अर्थ है ? .. .
उ०-पुद्गलमे आसक्ति होना मिथ्यात्वभाव है। ' प्र.--'अतरात्मा परमात्माने घ्यावे', इत्यादिका क्या अर्थ है ?
उ०-अतरात्मरूपसे यदि परमात्मस्वरूपका ध्यान करे तो परमात्मा हो जाते हैं। ' 'प्र०-और अभी कौनसा ध्यान रहता है ? इत्यादि ।'.'' उ6-सद्गुरुके वचनका वारंवार विचार कर, अनुप्रेक्षण कर परभावसे आत्माको असंग करना।
प्र०-मिथ्यात्व (?) अध्यात्मकी प्ररूपणा आदि लिखकर आपने पूछा कि वह यथार्थ कहता है या नही ? अर्थात् समकिती नाम धारणकर विषय आदिकी आकाक्षा और पुद्गलभावका सेवन करनेमे कोई बाधा नही समझता, और 'हमे बध नही है'-ऐसा जो कहता है, क्या वह यथार्थ कहता है ?
''उ०-ज्ञानीके मार्गकी दृष्टि से देखते हुए वह मात्र' मिथ्यात्व ही कहता है। पुद्गलभावसे भोगे और ऐसा कहे कि आत्माको कर्म नही लगते तो वह ज्ञानीको दृष्टिका वचन नही, वाचाज्ञानीका वचन है।
प्र०-जैनदर्शन कहता है कि पुद्गलभावके कम होनेपर आत्मध्यान फलित होगा, यह कैसे ? । उ०—वह यथार्थ कहता है । प्र०-स्वभावदशा क्या फल देती है ? उ०-तथारूप सपूर्ण हो तो मोक्ष होता है। प्र०-विभावदशा क्या फल देती है ? उ०-जन्म, जरा, मरण आदि ससार ।। प्र०-वीतरागकी आज्ञासे पोरसीका स्वाध्याय करे तो क्या फल होता है ? उ.-तथारूप हो तो यावत् मोक्ष होता है । प्र०-वीतरागकी आज्ञासे पोरसीका ध्यान करे तो क्या फल होता है ? उ०-तथारूप हो तो यावत् मोक्ष होता है।
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६६०
श्रीमद् राजचन्द्र इस प्रकार आपके प्रश्नोका सक्षेपमे उत्तर लिखता हूँ। लौकिकभावको छोडकर, वाचाज्ञान छोड़कर, कल्पित विधि-निषेध छोड़कर जो जीव प्रत्यक्ष ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन कर, तथारूप उपदेश पाकर, तथारूप आत्मार्थमे प्रवृत्ति करे तो उसका अवश्य कल्याण होता है।
__निज कल्पनासे ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदिका स्वरूप चाहे जैसा समझकर अथवा निश्चयनयात्मक बोल सीखकर जो सद्व्यवहारका लोप करनेमे प्रवृत्ति करे, उससे आत्माका कल्याण होना सभव नही है, अथवा कल्पित व्यवहारके दुराग्नहमे रुके रहकर प्रवृत्ति करते हुए भी जीवका कल्याण होना संभव नही है।
ज्यां ज्यां जे जे योग्य छ, तहां समजव तेह।। त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ॥
-'आत्मसिद्धिशास्त्र', एकात क्रियाजडतामे अथवा एकात शुष्कज्ञानसे जीवका कल्याण नही होता ।
९१९
ववाणिया, वैशाख वदी ८, मगल, १९५६
ॐ
प्रमत्त-प्रमत्त ऐसे वर्तमान जीव हैं, और परम पुरुषोने अप्रमत्तमे सहज आत्मशुद्धि कही है, इसलिये उस विरोधके शात होनेके लिये परम पुरुपका समागम, चरणका योग ही परम हितकारी है। ॐ शातिः
९२० -
ववाणिया, वैशाख वदी ८, मगल, १९५६
भाई छगनलालका और आपका लिखा हुआ यो दो पत्र मिले। वीरभगामकी अपेक्षा यहाँ पहले स्वास्थ्य कुछ ढीला रहा था । अब कुछ भी ठीक हुआ होगा ऐसा मालूम होता है। 1, ॐ परमशातिः
९२१
'
ववाणिया, वैशाख वदी १, बुध, १९५६ ,
'मोक्षमाला' मे शब्दांतर अथवा प्रसंगविशेषमे कोई वाक्यातर करनेकी वृत्ति हो तो करें। उपोद्घात आदि लिखनेकी वृत्ति हो तो लिखें । जीवनचरित्रकी वृत्ति उपशात करें। .
उपोद्घातसे वाचकको, श्रोताको अल्प अल्प मतातरकी वृत्ति विस्मृत होकर ज्ञानी पुरुषोके आत्मस्वभावरूप परम धर्मका विचार करनेकी स्फुरणा हो, ऐसा लक्ष्य सामान्यत रखे। यह सहज सूचना है।
शातिः
९२२ व वाणिया, वैशाख वदी ९, बुध, १९५६ साणदसे मुनिश्रीने श्री अम्बालालके प्रति लिखवाया हुआ पत्र स्तंभतीर्थसे आज यहाँ मिला।
ॐ परमशांतिः नडियाद और वसो-क्षेत्रके चातुर्मासमे तीन तीन मुनियोकी स्थिति हो तो भी श्रेयस्कर ही है। . . . . . .
. . . . ॐ परमशातिः
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३३ वॉ वर्ष
६६१
९२३
ववाणिया, वैशाख वदी ९, वुध, १९५६
आज पत्र प्राप्त हुआ। • साथके पत्र का उत्तर-पत्रानुसार क्षेत्रमे आज गया है। शरीरप्रकृति उदयानुसार सहज स्वस्थ
शांतिः
. ९२४
ववाणिया, वैशाख वदी १३, शनि, १९५६
- आर्य मुनिवरोके चरणकमलमे यथाविधि नमस्कार प्राप्त हो। वैशाख वदी ७ सोमवारका लिखा पत्र प्राप्त हुआ।
___ नडियाद, नरोडा और वसो तथा उनके सिवाय अन्य कोई क्षेत्र जो निवृत्तिके अनुकूल तथा आहारादि सम्बन्धी विशेष सकोचवाला न हो वैसे क्षेत्रमे तीन तीन मुनियोके चातुर्मास करनेमे श्रेय ही है।
१. इस वर्ष जहाँ उन वेषधारियोकी स्थिति हो उस क्षेत्रमे चातुर्मास करना योग्य नहीं है । नरोडामे आर्याओका चातुर्मास उन लोगोके पक्षका हो तो वह होनेपर भी आपको वहां चातुर्मास करना अनुकूल लगता हो तो भी बाधा नही है; परन्तु वेषधारीके समीपके क्षेत्रमे भी अभी यथासभव चातुर्मास न हो तो अच्छा।
- ऐसा कोई योग्य क्षेत्र दीखता हो कि जहाँ छहो मुनियोका चातुर्मास रहते हुए आहार आदिका सकोच विशेष न हो सके तो उस क्षेत्रमे छहो मुनियोको चातुर्मास करनेमे बाधा नही है, परंतु जहाँ तक बने वहाँ तक तीन तीन मुनियोका चातुर्मास करता. योग्य है।
। जहाँ अनेक विरोधी गृहवासी जन या उन लोगोको रागदृष्टिवाले हो अथवा जहाँ आहारादिका, जनसमूहका सकोचभाव रहता हो वहाँ चातुर्मास योग्य नहीं है । वाकी सर्व क्षेत्रोमे श्रेयस्कर ही है। । ।
• , आत्मार्थीको विक्षेपका हेतु क्या हो ? उसे सब समान ही हैं । आत्मतासे विचरनेवाले आर्य पुरुषोको धन्य है।
ॐ शाति ९२५ ववाणिया, वैशाख वदी ३०, सोम, १९५६
आर्य मुनिवरोके लिये अविक्षेपता सभव है । विनयभक्ति यह मुमुक्षुओका धर्म है।
अनादिसे चपल ऐसे मनको स्थिर करें। प्रथम अत्यततासे विरोध करे इसमे कुछ आश्चर्य नही है । क्रमश उस मनको महात्माओने स्थिर किया है, शात किया है, क्षीण किया है, यह सचमुच आश्चर्यकारक है।
____९२६ ।ववाणिया, वैशाख वदी ३०, सोम, १९५६
मुनियोंके लिये अविक्षेपता ही सभव हे । मुमुक्षुओंके लिये विनय कर्तव्य है। 'क्षायोपशमिक असख्य, क्षायिक एक अनन्य ।'
(अध्यात्म गीता) • मनन और निदिध्यासन करनेसे, इस वाक्यसे जो परमार्थ अतरात्मवृत्तिमे प्रतिभासित हो उसे यथाशक्कि लिखना योग्य है।
शातिः
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६६२
भीमद राजचन्द्र
९२७ ववाणिया, वैशाख वदी ३०, १९५६ पत्र प्राप्त हुआ।
यथार्थ देखे तो शरीर ही वेदनाकी मूर्ति है। समय समयपर जीव उस द्वारा वेदनाका ही अनुभव करता है । क्वचित् साता और प्रायः असाताका ही वेदन करता है। मानसिक असाताकी मुख्यता होनेपर भी वह सूक्ष्म सम्यग्दृष्टिमानको मालूम होती है। शारीरिक असाताकी मुख्यता स्थूल दृष्टिमानको भी - मालूम होती है। जो वेदना पूर्वकालमे सुदृढ बधसे जीवने वाँधी है, वह वेदना उदय संप्राप्त होनेपर इद्र, चंद्र, नागेन्द्र या जिनेन्द्र भी उसे रोकनेको समर्थ नही है। उसके उदयका जीवको वेदन करना ही चाहिये । अज्ञानदृष्टि जोव खेदसे वेदन करें तो भी कुछ वह वेदना कम नही होतो या चली नही जाती । सत्यदृष्टिमान जीव शातभावसे वेदन करें तो उससे वह वेदना बढ नही जाती, परतु नवीन बधका हेतु नहीं होती। पूर्वकी बलवान निर्जरा होती है । आत्मार्थीको यही कर्तव्य है।
"मै शरीर नही हूँ, परतु उससे भिन्न ऐसा ज्ञायक आत्मा हूँ, और नित्य शाश्वत हूँ। यह वेदना , मात्र पूर्व कर्मकी है, परतु मेरे स्वरूपका नाश करनेको वह समर्थ नहीं है, इसलिये मुझे खेद कर्तव्य ही नही है" इस तरह आत्मा का अनुप्रेक्षण होता है। , ,
९२८ ___ ववाणिया, ज्येष्ठ सुदी ११, १९५६ . आर्य त्रिभोवनके अल्प समयमे शातवृत्तिसे देहोत्सर्ग करनेकी खबर सुनी। सुशील मुमुक्षुने अन्य स्थान ग्रहण किया।
जीवके विविध प्रकारके मुख्य स्थान है। देवलोकमे इद्र तथा सामान्य त्रायस्त्रिशदादिकके स्थान है। मनुष्यलोकमे चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव तथा माडलिक आदिके स्थान हैं । तियंचमे भी कही इष्ट भोगभूमि, आदि स्थान है। उन सब स्थानोको जीव छोड़ेगा, यह निःसदेह है। जाति, गोत्री और बघु आदि इन सबका अशाश्वत अनित्य ऐसा यह वास हैं। -:
., शांतिः
९२९ - - ववाणिया, ज्येष्ठ सुदी १३, सोम, १९५६
परम कृपालु मुनिवरोको रोमाचित भक्तिसे नमस्कार हो । पत्र प्राप्त हुआ। चातुर्मास सबंधी मुनियोको कहाँसे विकल्प हो ? निग्रंथ क्षेत्रको किस सिरेसे बाँधे ? इस सिरेका सबध नही है। निग्रंथ महात्माओंके दर्शन और समागम मुक्तिको सम्यक् प्रतीति कराते हैं।
तथारूप महात्माके एक आर्य वचनका सम्यक् प्रकारसे अवधारण होनेसे यावत् मोक्ष होता है ऐसा श्रीमान् तीर्थकरने कहा है, वह यथार्थ है । इस जीवमे तथारूप योग्यता चाहिये।
परम कृपालु मुनिवरोको फिर नमस्कार करते हैं।
शाति
.
:
।
. , ) ९३० .
, ववाणिया, ज्येष्ठ सुदी १३, सोम, १९५६
पत्र ओर 'समयसार' की प्रति संप्राप्त हुई। - - -
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३३ वो वर्ष
६६३
कुदकुदाचार्यकृत 'समयसार' ग्रन्थ भिन्न है । यह ग्रन्थकर्ता अलग है, और ग्रन्थका विषय भी अलग है । ग्रन्थ उत्तम है। ___आर्य त्रिभोवनके देहोत्सर्ग करनेकी खबर आपको मिली जिससे खेद हुआ, यह यथार्थ है। ऐसे कालमे आर्य त्रिभोवन जैसे मुमुक्षु विरल है। दिन प्रति दिन शातावस्थासे उसका आत्मा स्वरूपलक्षित होता जाता था। कर्मतत्त्वका सूक्ष्मतासे विचार कर, निदिध्यासन कर आत्माको तदनुयायी परिणतिका निरोध हो यह उसका मुख्य लक्ष्य था । विशेष आयु होती तो वह मुमुक्षु चारित्रमोहको क्षीण करनेके लिये अवश्य प्रवृत्ति करता।
'। , शाति शातिः शाति.
___९३१ , ववाणिया, जेठ वदी.९, गुरु, १९५६ शुभोपमालायक मेहता चत्रभुज बेचर,
मोरबी। आज आपका एक पत्र डाकमे मिला |
पूज्यश्रीको यहाँ आनेके लिये कहे। उन्हे अपना वजन बढ़ाना अपने हाथमे है। अन्न, वस्त्र या मनकी कुछ तगी नही है। केवल उनके समझनेमे अतर हुआ है इसलिये यूँ ही रोष करते है, इससे उलटा उनका वजन घटता है परतु बढता नही है। उनका वजन बढे और वे अपने आत्माको शात रखकर कुछ भी उपाधिमे न पडते हुए इस देह-प्राप्तिको सार्थक करें इतनी ही हमारी विनती है। उन्हें दोनो व्यसन वशमे रखने चाहिये । व्यसन बढानेसे बढते हैं और नियममे रखनेसे नियममे रहते हैं। उन्होने थोड़े समयमे व्यसनको तीन गुना कर डाला है, तो उसके लिये उन्हे उलाहना देनेका हेतु इतना ही है कि इससे उनकी कायाको बहुत नुकसान होता है, तथा मन परवश होता जाता है, जिससे इस लोक और परलोकका कल्याण चूक जाता है। उमरके अनुसार मनुष्यकी प्रकृति न हो तो मनुष्यका वजन नही पडता और वजन रहित मनुष्य इस जगतमे निकम्मा है। इसलिये उनका वजन रहें इस तरह वर्तन करनेके लिये हमारा अनुरोध है । सहज बातमे बीचमे आनेसे वजन नही रहता पर घटता है । यह ध्यान रखना चाहिये । अव तो थोड़ा समय रहा है तो जैसे वजन बढे वैसे वर्तन करना चाहिये।
हमे सप्राप्त हुई मनुष्यदेह भगवानको भक्ति और अच्छे काममे गुजारनी चाहिये। पूज्यश्रीको आज रातकी ट्रेनमे भेजें।
९३२ ववाणिया, ज्येष्ठ वदी १०, १९५६
पत्र प्राप्त हुए । शरीर-प्रकृति स्वस्थास्वस्थ रहती है, विक्षेप कर्तव्य नही है। हे आर्य ! अतर्मुख होनेका अभ्यास करें।
•
शाति
९३३
ॐ नमः । अपूर्व शाति और समाधि अचलतासे रहती है । कुभक, रेचक, पांचो वायु सर्वोत्तम गतिको आरोग्य. वलसहित देती हैं ! ..
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६६४
श्रीमद राजचन्द्र
वाणिया, ज्येष्ठ वदी ३०, बुध, १९५६
९३४
ॐ
परम पुरुषको अभिमत ऐसे अभ्यंतर और बाह्य दोनो संयमको उल्लासित भक्तिसे नमस्कार
'मोक्षमाला' के विषयमे आप यथासुख प्रवृत्ति करें ।
मनुष्यदेह, आर्यता, ज्ञानीके वचनोका श्रवण, उनमे आस्तिकता, सयम, उसके प्रति वीर्य प्रवृत्ति, प्रतिकूल योगोमे भी स्थिति, अंतपर्यत सपूर्ण मार्गरूप समुद्रको तर जाना —ये उत्तरोत्तर दुर्लभ और अत्यत कठिन हैं, यह नि सदेह है ।
शरीर-स्थिति क्वचित् ठीक देखनेमे आती है, क्वचित् उससे विपरीत देखनेमे आती है। अभी कुछ असाताकी मुख्यता देखनेमे आती है । ॐ शांतिः
९३५
ववाणिया, ज्येष्ठ वदी ३०, बुध, १९५६
ॐ
चक्रवर्तीको समस्त सपत्तिकी अपेक्षा भी जिसका एक समय मात्र भी विशेष मूल्यवान है ऐसी यह मनुष्यदेह और परमार्थके अनुकूल योग प्राप्त होनेपर भी, यदि जन्म-मरणसे रहित परमपदका ध्यान न रहा तो इस मनुष्य देह अधिष्ठित आत्माको अनतबार धिक्कार हो ।
जिन्होने प्रमादको जीता उन्होने परमपदको जीत लिया ।
पत्र प्राप्त हुआ ।
शरीर स्थिति अमुक दिन स्वस्थ रहती है और अमुक दिन अस्वस्थ रहती है। योग्य स्वस्थताकी - ओर अभी वह गमन नही करती, तथापि अविक्षेपता कर्तव्य है ।
शरीर स्थितिकी अनुकूलता - प्रतिकूलताके अधीन उपयोग कर्तव्य नही है ।
शांतिः
९३६
वाणिया, ज्येष्ठ वर्दी ३०, १९५६ ' जिससे चिंतित प्राप्त हो उस मणिको चितामणि कहा है, यही यह मनुष्यदेह है कि जिस देह, योगमे सर्व दु खका आत्यतिक क्षय करनेका निश्चय किया तो अवश्य सफल होता है ।
T
जिसका माहात्म्य अचित्य है, ऐसा सत्सगरूपी कल्पवृक्ष प्राप्त होनेपर जीव दरिद्र रहे, ऐसा हो तो इस जगतमे वह ग्यारहवाँ आश्चर्य ही है ।
वाणिया, आषाढ सुदी १, गुरु, १९५६
९३७ హొ
परम कृपालु मुनिवरोको नमस्कार प्राप्त हो । नडियाद से लिखवाया पत्र आज यहां प्राप्त हुआ ।
जहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिको अनुकूलता दिखायी देती हो वहाँ चातुर्मास करनेमे आय पुरुषोको विक्षेप नही होता । दूसरे क्षेत्रकी अपेक्षा बोरसद- अनुकूल प्रतीत हो तो वहाँ चातुर्मासकी स्थिति कर्तव्य है ।
दो बार उपदेश और एक बार आहार ग्रहण तथा निद्रा समयके सिवाय बाकीका अवकाश मुख्यतः आत्मविचारमे, ‘पद्मनंदी' आदि शास्त्रावलोकनमे और आत्मध्यानमे व्यतीत करना योग्य है । कोई बहन
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1
३३ वाँ वर्ष
६६५
या भाई कभी कुछ प्रश्न आदि करे, तो उसका योग्य समाधान करना, कि जिससे उसका आत्मा शात हो । अशुद्ध क्रियाके निषेधक वचन उपदेशरूपसे न कहते हुए, शुद्ध क्रियामे जैसे लोगोकी रुचि बढे वैसे क्रिया कराते जायें।
1
उदाहरण के लिये, जैसे कोई एक मनुष्य अपनी रूढिके अनुसार सामायिक व्रत करता है, तो उसका निषेध न करते हुए, जिस तरह उसका वह समय उपदेशके श्रवणमे या सत्शास्त्रके अध्ययनमे अथवा कायोत्सर्गमे बीते, उस तरह उसे उपदेश करे । उसके हृदयमे भी सामायिक व्रत आदिके निषेधका किंचित्मात्र आभास भी न हो ऐसी गभीरतासे शुद्ध क्रियाकी प्रेरणा दे । स्पष्ट प्रेरणा करते हुए भी वह क्रियासे रहित होकर उन्मत्त हो जाता है, अथवा 'आपकी यह क्रिया ठीक नही है' इतना कहनेसे भी, आपको दोष देकर वह क्रिया छोड़ देता है ऐसा प्रमत्त जोवोका स्वभाव है, और लोगोको दृष्टिमे ऐसा आयेगा कि आपने ही क्रियाका निषेध किया है । इसलिये मतभेदसे दूर रहकर, मध्यस्थवत् रहकर, स्वात्माका हित करते हुए, ज्योज्यो परात्माका हित हो त्यो त्यो प्रवृत्ति करना, और ज्ञानीके मार्गका; ज्ञान-क्रियाका समन्वय स्थापित करना, यही निर्जराका सुदर मार्ग है ।
स्वात्महित प्रमाद न हो और दूसरेको अविक्षेपतासे आस्तिक्यवृत्ति हो, वैसा उन्हे श्रवण हो, क्रियाकी वृद्धि हो, फिर भी कल्पित भेद न बढे और स्व-पर आत्माको शाति हो ऐसी प्रवृत्ति करनेमे उल्लसित वृत्ति रखिये । जैसे सत्शास्त्र के प्रति रुचि बढे वैसे कीजिये ।
यह पत्र परम कृपालु श्री लल्लुजी मुनिको सेवामे प्राप्त हो ।
ॐ शांतिः
९३८
वाणिया, आषाढ सुदी १, १९५६, " ते माटे ऊभा कर जोडी, जिनवर आगळ कहीए रे । समयचरण सेवा शुद्ध वेजो, जेम आनदधन लहीए रे ॥'
—श्रीमान आनदघन्जी
:
पत्र प्राप्त हुए । शरीरस्थिति स्वस्थास्वस्थ रहती है, अर्थात् क्वचित् ठीक, क्वचित् असातामुख्य रहती है । मुमुक्षुभाइयोको, वह भी लोक विरुद्ध न हो इस ढगसे तीर्थयात्राके लिये जानेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है । ॐ शांति.
मोरबी, आषाढ वदी ९, शुक्र, १९५६
९३९ ॐ नमः
सम्यक् प्रकारसे वेदना सहन करनेरूप परम धर्म परम पुरुपोने कहा है । तीक्ष्ण वेदनाका अनुभव करते हुए स्वरूपभ्रंशवृत्ति न हो यही शुद्ध चारित्रका मार्ग है । उपशम ही जिस ज्ञानका मूल है, उस ज्ञानमे तोक्ष्ण वेदना परम निर्जरा रूप भातने योग्य है ।
ॐ शांति.
मोरवी, आषाढ वदी ९, शुक्र, १९५६
९४० ॐ
परमकृपानिधि मुनिवरोंके चरणकमलमे विनय भक्तिसे नमस्कार प्राप्त हो ।
पत्र प्राप्त हुए ।
१ भावार्थ के लिये देखें आक ७४४ ।
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६६६
श्रीमद् राजचन्द्र - शरीरमे असाता मुख्यतः उदयमान है । तो भी अभी स्थिति सुधारपर मालूम होती है ।
आषाढ पूर्णिमापर्यतके चातुर्मास सबंधी आपश्रीके प्रति जो कुछ अपराध हुआ हो उसके लिये नम्रतासे क्षमा मांगता हूँ।
गच्छवासीको भी इस वर्ष क्षमापत्र लिखनेमे प्रतिकूलता नही लगती। पद्मनदी, गोम्मटसार, आत्मानुशासन, समयसारमूल इत्यादि परम शात श्रुतका अध्ययन होता होगा। आत्माका शुद्ध स्वरूप याद करते हैं।
ॐ शातिः ९४१ मोरबी, श्रावण वदी ४, मंगल, १९५६
20
सस्कृत-अभ्यासके योगके विषयमे लिखा, परंतु जब तक आत्मा सुदृढ प्रतिज्ञासे वर्तन न करे तव तक आज्ञा करना भयंकर है।
जिन नियमोमे अतिचार आदि प्राप्त हुए हो, उनका यथाविधि कृपालु मुनियोंसे प्रायश्चित्त ग्रहण करके आत्मशुद्धता करना योग्य है, नही तो भयकर तीव्र बंधका हेतु है। नियममे स्वेच्छाचारसे प्रवर्तन • करनेकी अपेक्षा मरण श्रेयस्कर है, ऐसी महापुरुषोकी आज्ञाका कुछ विचार नही रखा, ऐसा प्रमाद आत्माके लिये भयकर क्यो न हो ?
मुमुक्षु उमेद आदिको यथायोग्य ।
९४२
मोरबी, श्रावण वदी ५, बुध, १९५६
यदि कदाचित् निवृत्तिमुख्य स्थलकी स्थितिके उदयका अंतराय प्राप्त हुआ हो तो हे आर्य | आप श्रावण वदी ११ से भाद्रपद सुदी पूर्णिमापर्यंत सदा सविनय ऐसी परम निवृत्तिका इस तरह सेवन कीजिये कि समागमवासी मुमुक्षुओंके लिये आप विशेष उपकारक हो जायें और वे सब निवृत्तिभूत सनियमोका सेवन करते हुए सत्शास्त्रके अध्ययन आदिमे एकाग्र हो, यथाशक्ति व्रत, नियम और गुणको ग्रहण करें।
शरीरस्थितिमे सबल असाताके उदयमे यदि निवृत्तिमुख्य स्थलका अतराय मालूम होगा तो यहाँसे आपके अध्ययन, मनन आदिके लिये प्रायः 'योगशास्त्र' पुस्तक भेजेंगे, जिसके चार प्रकाश दूसरे मुमुक्षुभाइयोको भी श्रवण करानेसे परम लाभका सभव है।
हे आर्य ! अल्पायुषी दुषमकालमे प्रमाद कर्तव्य नही है; तथापि आराधक जीवोका तद्वत् सुदृढ उपयोग रहता है। , . . . आत्मबलाधीनतासे पत्र लिखा गया है।।
ॐ शाति -~-९४३ मोरबी, श्रावण वदी ७, शुक्र, १९५६
जिनाय नम परम निवृत्तिका निरतर सेवन करना यही ज्ञानीकी प्रधान आज्ञा है, तथारूप योगमे असमर्थता हो तो निवृत्तिका सदा सेवन करना, अथवा स्वात्मवीर्यका गोपन किये बिना हो सके उतना निवृत्तिका सेवन करने योग्य अवसर प्राप्त कर आत्माको अप्रमत्त करना, ऐसी आज्ञा है।
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३३ वो वर्ष
६६७
अष्टमी, चतुर्दशो आदि पर्वतिथियोमे ऐसे आशयसे सुनियमित वर्तनसे प्रवृत्ति करनेके लिये आज्ञा की है।
काविठा आदि जिस स्थलमे उस स्थितिसे आपको और समागमवासी भाइयो और बहनोको धर्मसुदृढता सप्राप्त हो, वहाँ श्रावण वदी ११ से भाद्रपद पूर्णिमा पर्यंत स्थिति करना योग्य है। आपको और दूसरे समागमवासियोको ज्ञानीके मार्गकी प्रतीतिमे नि सशयता प्राप्त हो, उत्तम गुण, व्रत, नियम, शील और देवगुरुधर्मकी भक्तिमे वीर्य परम उल्लासपूर्वक प्रवृत्ति करे, ऐसी सुदृढता करना योग्य है, और यही परम मगलकारी है।
जहाँ स्थिति करें वहाँ, उन सब समागमवासियोको ज्ञानोके मार्गको प्रतीति सुदृढ हो और वे अप्रमत्ततासे सुशीलकी वृद्धि करें, ऐसा आप अपना वर्तन रखें।
ॐ शाति
९४४
मोरवी, श्रावण वदी १०, १९५६
भाई कीलाभाई तथा त्रिभोवन आदि मुमुक्षु, स्तभतीर्थ ।
आज 'योगशास्त्र' ग्रन्थ डाकमे भेजा गया है।
श्री अबालालको स्थिति स्तभतीर्थमे ही होनेका योग बने तो वैसे, नही तो आप और कीलाभाई आदि मुमुक्षुओके अध्ययन और श्रवण-मननके लिये श्रावण वदी ११ से भाद्रपद पूर्णिमा पर्यंत सुव्रत, नियम, और निवृत्तिपरायणताके हेतुसे इस ग्रन्थका उपयोग कर्तव्य है।
प्रमत्तभावने इस जीवका बुरा करनेमे कोई न्यूनता नही रखी, तथापि इस जीवको निज हितका ध्यान नहीं है, यही अतिशय खेदकारक है।
हे आर्य | अभी उस प्रमत्तभावको उल्लासित वीर्यसे शिथिल करके, सुशीलसहित सत्श्रुतका अध्ययन 'करके निवृत्तिपूर्वक आत्मभावका पोषण करें।
अभी नित्यप्रति पत्रसे निवृत्ति-परायणता लिखनी योग्य है । अवालालको पत्र प्राप्त हुआ होगा।
यहां स्थितिमे परिवर्तन होगा और अबालालको विदित करना योग्य होगा तो कल तक हो सकता है । यथासभव तारसे खबर दी जायेगी।
मोरवी, श्रावण वदी १०, १९५६
श्री पर्युषण-आराधना ___ एकात योग्य स्थलमे, प्रभातमे-(१) देवगुरुको उत्कृष्ट भक्तिवृत्तिसे अतरात्मध्यानपूर्वक दो घड़ीसे चार घड़ो तक उपशात व्रत । (२) श्रुत 'पद्मनदी' आदिका अध्ययन श्रवण ।
मध्याह्नमे-(१) चार घड़ी उपशात व्रत । (२) श्रुत 'कर्मग्रन्थ' का अध्ययन, श्रवण, 'सुप्टितरगिणी' आदिका थोडा अध्ययन ।
सायकालमे-(१) क्षमापनाका पाठ । (२) दो घडी उपशांत व्रत । (३) कर्मविषयकी ज्ञानचर्चा ।
सर्व प्रकारके रात्रिभोजनका सर्वथा त्याग । हो सके तो भाद्रपद पूर्णिमा तक एक वार आहारग्रहण। पचमीक दिन घी, दूध, तेल और दहीका भी त्याग । उपशात व्रतमे विशेष कालनिर्गमन | हो सके तो उपवास करना। हरी वनस्पतिका सर्वथा त्याग । आठो दिन ब्रह्मचर्यका पालन । हो सके ता भाद्रपद पूनम तक।
शमम्
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श्रीमद राजचन्द्र
, ६६८
९४६
श्री 'मोक्षमाला' के 'प्रज्ञावबोध' भागको संकलना १. वाचकको प्रेरणा २. जिनदेव
३. निग्रंथ ४ दयाकी परम धर्मता ५ सच्चा ब्राह्मणत्व
६. मैत्री आदि चार भावना । ७. सत्शास्त्रका उपकार , ८. प्रमादके स्वरूपका
९ तीन मनोरथ
विशेष विचार १० चार सुख शय्या ११ व्यावहारिक जीवोके भेद १२ तीन आत्मा १३ सम्यग्दर्शन
१४. महात्माओकी असगता १५ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि १६. अनेकातकी प्रमाणता १७. मन-भ्राति
१८. तप १९ ज्ञान २०. क्रिया
२१. आरभ-परिग्रहकी निवृत्तिपर
ज्ञानी द्वारा दिया हुआ बहुत
बल। २२ दान २३ नियमितता
२४. जिनागमस्तुति २५ नवतत्त्वका सामान्य २६ सार्वत्रिक श्रेय
२७ सद्गुण सक्षिप्त स्वरूप २८ देशधर्म सम्बन्धी विचार २९ मौन
३० शरीर ३१ पुनर्जन्म
३२ पचमहावत सम्बन्धी विचार ३३ देशबोध ३४ प्रशस्त योग '३५ सरलता
३६ निरभिमानता ३७ ब्रह्मचर्यकी सर्वोत्कृष्टता ३८ आज्ञा
। ३९ समाधिमरण ४० वैतालीय अध्ययन । ४१ सयोगकी अनित्यता ४२ महात्माओकी अनत समता ४३ सिरपर न चाहिये ४४ (चार) उदय आदि भग ४५ जिनमतनिराकरण ४६ महामोहनीय स्थानक ४७ तीर्थकर पद सप्राप्ति स्थानक ४८ माया ४९ परिषहजय ५०. वीरत्व
५१ सद्गुरस्तुति ५२ पाँच परमपद सम्बन्धी विशेष ५३ अविरति
५४ अध्यात्म विचार ५५. मत्र ५६ छ पद निश्चय
५७ मोक्षमार्गको अविरोधता ५८ सनातन धर्म
५९ सूक्ष्म तत्त्वप्रतीति ६० समिति गुप्ति ६१. कर्मके नियम
६२. महापुरुषोकी अनत दया ६३. निर्जराक्रम ६४ आकाक्षाके स्थानमे किस ६५ मुनिधर्मयोग्यता
६६ प्रत्यक्ष और परोक्ष तरह वर्तन करना? ६७ उन्मत्तता
६८ एक अंतर्मुहूर्त ... ... ६९ दर्शनस्तुति ७० विभाव ७१ रसास्वाद
____७२ अहिंसा और स्वच्छंदता ७३ अल्प शिथिलतासे महा- ७४ पारमार्थिक सत्य ___७५ आत्मभावना
दोषका जन्म ७६ जिनभावना ७७-९० महापुरुष चरित्र
९१-१०० (किसी भागमे वृद्धि) १०१-१०६ हितार्थी प्रश्न १०७-१०८. समाप्ति अवसर
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वर्ष ३३
श्रीमद् राजचद्र
सन् १९५६
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३४ वाँ वर्ष
९४७
वढवाण केम्प, कार्तिक सुदी ५, रवि, १९५७
वर्तमान दुषमकाल है। मनुष्योके मन भी दुषम ही देखनेमे आते है। बहुत करके परमार्थसे शुष्क अतःकरणवाले परमार्थका दिखाव करके स्वेच्छासे चलते हैं ।
ऐसे समयमे किसका सग करना, किसके साथ कितना सम्बन्ध रखना, किसके साथ कितना बोलना, और किसके साथ अपने कितने कार्य-व्यवहारका स्वरूप विदित किया जा सके, ये सब ध्यानमे रखनेका समय है । नही तो सद्वृत्तिमान जीवको ये सब कारण हानिकर्ता होते हैं। इसका आभास तो आपको भी अब ध्यानमे आता होगा ।
शातिः
९४८ बम्बई, शिव, मगसिर वदी ८, १९५७ मदनरेखाका अधिकार, 'उत्तराध्ययन'के नौवें अध्ययनमे नमिराज ऋषिका चरित्र दिया है, उसकी टीकामे है। ऋषिभद्र पुत्रका अधिकार 'भगवतोसूत्र'के " 'शतकके उद्देशमे आया है। ये दोनो अधिकार अथवा दूसरे वैसे बहुतसे अधिकार आत्मोपकारी पुरुषके प्रति वन्दन आदि भक्तिका निरूपण करते हैं । परन्तु जनमडलके कल्याणका विचार करते हुए वैसे विषयकी चर्चा करनेसे आपको दूर रहना योग्य है । अवसर भी वैसा ही है । इसलिये आप इन अधिकार आदिकी चर्चा करनेमे एकदम शात रहे। परन्तु दूसरी तरहसे उन लोगोकी आपके प्रति उत्तम मनोभाववृत्ति किंवा भावना हो ऐसा आप वर्तन करे, कि जिससे पूर्वापर बहुतसे जीवोंके हितका ही हेतु हो।
___जहाँ परमार्थके जिज्ञासु पुरुषोंका मंडल हो वहाँ शास्त्रप्रमाण आदिकी चर्चा करना योग्य है, नही तो बहुत करके उससे श्रेय नही होता। यह मात्र छोटा परिषह है। योग्य उपायसे प्रवृत्ति करें, परन्तु उद्वेगवाला चित्त न रखे।
९४९ तिथ्थल वलसाड, पौष वदी १०, मगल, १९५७
33
भाई मनसुखकी पत्नीके स्वर्गवास होनेका समाचार जानकर आपने दिलासाभरित पत्र लिखा. वह मिला।
१. शतक ११, उद्देश १२ ।
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६७०
श्रीमद् राजचन्द्र परिचर्याका प्रसंग लिखते हुए आपने जो वचन लिखे हैं वे यथार्थ है। शुद्ध अंत करणपर असर होनेसे निकले हुए वचन है।
लोकसज्ञा जिसकी जिन्दगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे जैसी श्रीमतता, सत्ता या कुटुब परिवार आदिके योगवाली हो तो भी वह दुःखका हो हेतु है । आत्मशाति जिस जिंदगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे तो एकाकी, निर्धन और निर्वस्त्र हो तो भी परम समाधिका स्थान है।
९५० वढवाण केम्प, फागुन सुदी ६, शनि, १९५७ कृपालु मुनिवरोको सविनय नमस्कार हो। पत्र प्राप्त हुआ।
जो अधिकारी ससारसे विराम पाकर मुनिश्रीके चरणकमलके योगमे विचरना चाहता है, उस अधिकारीको दीक्षा देनेमे मुनिश्रीको दूसरा प्रतिवधका कोई हेतु नही है । उस अधिकारीको अपने बुजुर्गोंका सतोष सम्पादन कर आज्ञा लेना योग्य है, जिससे मुनिश्रीके चरणकमलमे दीक्षित होनेमे दूसरा विक्षेप न रहे।
इसे अथवा किसी दूसरे अधिकारीको ससारसे उपरामवृत्ति हुई हो और वह आत्मार्थ-साधक है ऐसा प्रतीत होता हो तो उसे दीक्षा देनेमे मुनिवर अधिकारी है। मात्र त्याग लेनेवाले और त्याग देनेवालेके श्रेयका मार्ग वृद्धिमान रहे, ऐसी दृष्टिसे वह प्रवृत्ति होनी चाहिये ।
शरीर-स्थिति उदयानुसार है। बहुत करके आज राजकोट की ओर प्रस्थान होगा। प्रवचनसार ग्रन्थ लिखा जा रहा है, वह यथावसर मुनिवरोको प्राप्त होना सम्भव है। राजकोटमे कुछ दिन स्थितिका सम्भव है।
__ ॐ शातिः
९५१ राजकोट, फागुन वदी ३, शुक्र, १९५७ अति त्वरासे प्रवास पूरा करना था । वहाँ बीचमे सहराका रेगिस्तान सम्प्राप्त हुआ।
सिरपर बहुत बोझ रहा था उसे आत्मवीर्यसे जिस तरह अल्पकालमे वेदन कर लिया जाये उस तरह योजना करते हुए पैरोने निकाचित उदयमान थकान ग्रहण की।
जो स्वरूप है वह अन्यथा नही होता, यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है। शरीर-स्थिति उदयानुसार मुख्यतः कुछ असाताका वेदन कर साताके प्रति। ॐ शातिः
९५२ राजकोट, फागुन वदी १३, सोम, १९५७ ॐ शरीरसम्बन्धी दूसरी बार आज अप्राकृत क्रम शुरू हुआ। ज्ञानियोका सनातन सन्मार्ग जयवन्त रहे।
९५३
राजकोट, चैत्र सुदी २, शुक्र, १९५७
अनत शातमूर्ति चन्द्रप्रभस्वामीको नमो नमः । वेदनीयको तथारूप उदयमानतासे वेदन करनेमे हर्ष-शोक क्या ?
ॐ शातिः
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३४ बों वर्ष
६७१
९५४
राजकोट, चैत्र सुदी ९, १९५७
श्री जिन परमात्मने नमः *(१) इच्छे छे जे जोगी जन, अनत सुखस्वरूप ।
मूळ शुद्ध ते आत्मपद, सयोगी जिनस्वरूप ॥१॥ आत्मस्वभाव अगम्य ते, अवलंबन आधार । जिनपदथी दर्शावियो, तेह स्वरूप प्रकार ॥२॥ जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि काई। लक्ष थदाने तेहनो, कह्यां शास्त्र सुखदाई ॥३॥ जिन प्रवचन दुर्गम्यता, थाके अति मतिमान । अवलंबन श्री सद्गुरु, सुगम अने सुखखाण ॥४॥ उपासना जिनचरणनी, अतिशय भक्तिसहित । मुनिजन संगति रति अति, संयम योग घटित ॥५॥ गुणप्रमोद अतिशय रहे, रहे अन्तर्मुख योग। प्राप्ति श्री सद्गुरु वडे, जिन दर्शन अनुयोग ॥६॥ प्रवचन समुद्र बिंदुमां, ऊलटी' आवे एम। पूर्व चौदनी लब्धिमुं, उदाहरण पण तेम ॥७॥ विषय विकार सहित जे, रह्या मतिना योग। परिणामनी विषमता, तेने योग अयोग ॥८॥ मंद विषय ने सरळता, सह आज्ञा सुविचार । करुणा कोमळतादि गुण, प्रथम भूमिका धार ॥९॥
*(१) भावार्थ-योगीजन जिस अनंत सुखकी इच्छा करते हैं वह मूल शुद्ध आत्मस्वरूप सयोगी जिनस्वरूप है ।।१।। वह आत्मस्वभाव अरूपी होनेसे समझना मश्किल है इसलिये देहधारी जिनभगवानके अवलवनके आधारसे उसे समझाया है ॥२॥ मूल स्वरूपकी दृष्टिसे जिनस्वरूप और निजस्वरूप एक है-इनमें कोई भेदभाव नही है। इसका लक्ष्य होनेके लिये सुखदायी शास्त्र रचे गये है ॥३॥ जिनप्रवचन दुर्गम्य है, अति मतिमान पडित भी उसका मर्म पानेमें थक जाते हैं । वह श्री सद्गुरुके अवलबनसे सुगम एव सुखनिधि सिद्ध होता है ॥४॥ यदि जिनचरणको अतिशय भक्तिसहित उपासना हो, मुनिजनोकी सगतिमे अति रति हो, मन वचनकायाकी शक्तिके अनुसार सयम हो, गुणोके प्रति अतिशय प्रमोदभावना रहे, और मन, वचन एव कायाका योग अन्तर्मुख रहे, तो श्री सद्गुरुकी कृपासे चार अनुयोग गर्भित जिनसिद्धातका रहस्य प्राप्त होता है ॥५-६।। समुद्र के एक बिंदुमें समुद्रके क्षार आदि समस्त गुण आ जाते है उसी प्रकार प्रवचनसमुद्रके एक वचनरूप बिंदुमें चौदह पूर्व आ जाय ऐसी लव्यि जीवको सद्गुरुके योगसे प्राप्त होती है ॥७॥ जिसकी मति विषयविकार सहित है और इससे जिसके परिणाममें विषमता है, उसे सद्गुरुका योग भी अयोग होता है अर्थात् निष्फल जाता है ||८| विषयासक्तिकी मदता, सरलता, सद्गुरु आशापूर्वक सुविचार, करुणा, कोमलता आदि गुण रखनेवाले जीव आत्मप्राप्तिकी प्रथम भूमिकाके योग्य है ।।९।। जिन्होने शब्दादि विषयोका निरोध किया है, जिन्हें सयमके साधनोमे प्रीति है, जिन्हें आत्माके सिवाय जगतका कोई जीव इष्ट (प्रिय) नही है, वे महाभाग्य जोव मध्यम पात्र है अर्थात् आत्मप्राप्तिकी मध्यम भूमिकाके योग्य है ॥१०॥ जिन्हें जीनेको तृष्णा नही है और मरणका क्षोभ (भय) नहीं है, जिन्होंने लोभ आदि कषायोको जीत लिया है और जिनपा मोक्ष उपायमें प्रवर्तन है, वे आत्मप्राप्तिके मार्गक महा (उत्कृष्ट) पार है ।।११।। १. पाठान्तर 'उल्लखी'
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६७२
(२)
( ३ )
श्रीमद राजचन्द्र
रोक्या शब्दादिक विषय, सयम साधन राग । जगत इष्ट नहि आत्मयी, मध्य पात्र महाभाग्य ॥१०॥ नहि तृष्णा जीव्यातणी, मरण योग नहि क्षोभ । महापात्र ते मार्गना, परम योग जितलोभ ॥११॥ आव्ये बहु समदेशमां, छाया जाय समाई | आव्ये ते स्वभावमां, मन स्वरूप पण जाई ॥ १ ॥ ऊपजे मोह विकल्पथी, समस्त आ संसार । अन्तर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार ॥ २ ॥
X
X
X
सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिन रात्र रहे तद्ध्यानमहीं । परशाति अनत सुधामय जे, प्रणम् पद ते वर ते जय ते ॥१॥
९५५
ॐ
मोरबी, चैत्र सुदी ११॥, सोम, १९५७
यद्यपि बहुत ही धीमा सुधार होता हो ऐसा लगता है, तथापि अब शरीर स्थिति ठीक है । कोई रोग हो ऐसा नही लगता। सभी डाक्टरोका भी यही अभिप्राय है। निर्बलता बहुत है। वह कम हो ऐसे उपायो या कारणोकी अनुकूलता की आवश्यकता है। अभी वैसी कुछ भी अनुकूलता मालूम होती है । कल या परसोंसे यहाँ एक सप्ताह के लिये धारशीभाई रहनेवाले हैं । इसलिये अभी तो सहजतासे आपका आगमन न हो तो भी अनुकूलता है । मनसुख प्रसगोपात्त घबरा जाता है और दूसरोको घबरा देता है । वैसी कभी शरीर स्थिति भी होती है । जरूर जैसा होगा तो मैं आपको बुला लूँगा । अभी आप आना स्थगित रखे । शात मनसे काम करते जायें । यही विनती । शांतिः
_*४४२-१
बंबई, चैत्र वदो ७, १९४९ चित्तमे आप परमार्थकी इच्छा रखते हैं ऐसा है, तथापि उस परमार्थप्राप्तिको अत्यन्तरूपसे बाधा करनेवाले जो दोष हैं उनमे, अज्ञान, क्रोध, मान आदिके कारणसे उदास नही हो सकते अथवा उनके अमुक सम्बन्धमे रुचि रहती है और उन्हे परमार्थप्राप्तिमे बाधक कारण जानकर अवश्य सर्पके विषकी भांति छोडना योग्य है । किसीका दोष देखना उचित नही है, सभी प्रकारसे जीवको अपने ही दोषका विचार करना योग्य है, ऐसी भावना अत्यन्तरूपसे दृढ करने योग्य है । जगतदृष्टिसे कल्याण असभवित जानकर यह कही हुई बात ध्यानमे लेने योग्य है यह विचार रखें ।
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(२) जिस तरह जब सूर्य मध्याह्नमें मध्यमें - बहुत समप्रदेशमें आता है तब पदार्थोंको छाया उन्होनें समा जाती है, उसी तरह आत्मस्वभावमें आने पर मनका लय हो जाता है ॥१॥ यह समस्त ससार मोहविकल्पसे उत्पन्न होता है । अन्तर्मुख वृत्ति से देखने से इसका नाश होनेमें देर नही लगती ॥२॥
(३) जो अनन्त सुखका धाम है, जिसे सन्तजन चाहते हैं, जिसके ध्यानमें वे दिनरात लीन रहते हैं, जो परम शाति और अनन्त सुधासे परिपूर्ण है उस पदको मैं प्रणाम करता हूँ, वह श्रेष्ठ है, उसकी जय हो ॥१॥
* यह पत्र पुरानी आवृत्तियोमें नही है । फिर भी 'तत्त्वज्ञान' की आवृत्तियोंमें प्रकाशित हुआ है, अत मितीके अनुसार यह आक ४४२ के बाद रखने योग्य है । परन्तु वहाँ छूट जानेसे यहाँ आक ४४२-१ के रूपमें रखा है ।
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९५६
उपदेश नोंध
( प्रासंगिक)
१ *
बंबई, कार्तिक सुदी, १९५०
श्री 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रंथका भाषातर श्री मणिभाई नभुभाईने अभिप्रायार्थ भेजा है । अभिप्रायार्थ भेजनेवालेकी कुछ अतर इच्छा ऐसी होती है कि उससे रजित होकर उसकी प्रशसा लिख भेजना । श्री मणिभाईने भाषातर अच्छा किया है, परन्तु वह दोषरहित नही है ।
२
ववाणिया, चैत्र सुदी ६, बुध, १९५३ वेशभूषा चटकीली न होनेपर भी साफ-सुथरी हो ऐसी सादगी अच्छी है । चटकीलेपनसे कोई पांचसौके वेतनके पाँच-सो-एक नही कर देता, और योग्य सादगीसे कोई पाँच-सौके चार सौ निन्यानवे नही कर देता।
धर्ममे लौकिक बड़प्पन, मान, महत्त्वकी इच्छा, ये धर्मके द्रोहरूप हैं ।
धर्म के बहानेसे अनायं देशमे जाने अथवा सूत्रादि भेजनेका निषेध करनेवाले, नगारा बजाकर निषेध करनेवाले, अपने मान, महत्व और बड़प्पनका प्रश्न आये वहाँ इसी धर्मको ठुकराकर, इसी धर्मपर पैर रखकर, इसी निषेधका निषेध करें, यह धर्मद्रोह ही है । धर्मका महत्त्व तो बहानारूप है, और स्वार्थं सम्बन्धी मान आदिका प्रश्न मुख्य है, यह धर्मद्रोह ही है ।
श्री वीरचद गाधीको विलायत आदि भेजने आदिमे ऐसा हुआ है । जब धर्म ही मुख्य रंग हो तब अहोभाग्य है ।
प्रयोगके बहानेसे पशुवध करनेवाले रोग-दुख दूर करेंगे तबकी बात तब, निरपराधी प्राणियोको खूब दुख देकर मारकर अज्ञानवश कर्मका उपार्जन विवेक-विचारके बिना इस कार्यकी पुष्टि करनेके लिये लिख मारते हैं ।
परन्तु अभी तो बेचारे करते है । पत्रकार भी
मोरवी, चैत्र वदी ७, १९५५
३
विशेष हो सके तो अच्छा । ज्ञानियोको भी सदाचरण प्रिय है । विकल्प कर्तव्य नही है । 'जातिस्मृति' हो सकती है । पूर्वभव जाना जा सकता है ।
अवधिज्ञान है ।
* मोरवीके मुमुक्षु साक्षर श्री मनसुखभाई फिरतचदने अपनी स्मृतिले श्रीमद्जोके प्रसंगांकी जो नोप की थी, उसमेंसे १ से २६ तकके आक लिये गये है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र तिथिका पालन करना। रातको नही खाना, न चले तो उबाला हुआ दूध लेना। वैसा वैसेको मिले; वैसा वैसेको रुचे ।
"चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती भोगी रे। तेम भवि सहज गुणे होवे, उत्तम निमित्त संजोगी रे॥' "चरमावतं वळी चरणकरण तथा रे, भवपरिणति परिपाक ।
दोष टळे ने दृष्टि खूले अति भली रे, प्राप्ति प्रवचन वाक ॥' अव्यवहार-राशिमेसे व्यवहार-राशिमे सूक्ष्म निगोदमेसे मारा-पोटा जाता हुआ कर्मकी अकामनिर्जरा करता हुआ, दुख भोगकर उस अकाम-निर्जराके योगसे जीव पचेंद्रिय मनुष्यभव पाता है। और इस कारणसे प्राय उस मनुष्यभवमे मुख्यत छल-कपट, माया, मूर्छा, ममत्व, कलह, वचना, कषायपरिणति आदि रहे हुए हैं। सकाम-निर्जरापूर्वक प्राप्त मनुष्यदेह विशेष सकाम-निर्जरा कराकर, आत्मतत्त्वको प्राप्त कराती है।
मोरबी, चैत्र वदी ८, १९५५ 'षड्दर्शनसमुच्चय' अवलोकन करने योग्य है। 'तत्त्वार्थसूत्र' पढने योग्य और वारवार विचारने योग्य है।
'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रन्थ श्री हरिभद्राचार्यने सस्कृतमे रचा है। श्री यशोविजयजोने गुजरातीमे उसकी ढालबद्ध सज्झाय रची है। उसे कठाग्र कर विचारने योग्य है। ये दृष्टियाँ आत्मदशामापी (थर्मामीटर) यत्र हैं।
शास्त्रको जाल समझनेवाले भूल करते हैं। शास्त्र अर्थात् शास्तापुरुषके वचन । इन वचनोको समझनेके लिये दृष्टि सम्यक् चाहिये।
सदुपदेष्टाकी बहुत जरूरत है । सदुपदेष्टाकी बहुत जरूरत है।
पांच-सौ हजार श्लोक मुखाग्न करनेसे पडित नही वना जाता। फिर भी थोड़ा जानकर ज्यादाका ढोग करनेवाले पडितोकी कमी नही है।
ऋतुको सन्निपात हुआ है।
एक पाईकी चार बीड़ी आती है। हजार रुपये रोज कमानेवाले बैरिस्टरको बीडीका व्यसन हो और उसकी तलब होनेपर बीडी न हो तो एक चतुर्थांश पाईकी कीमतकी तुच्छ वस्तुके लिये व्यर्थ दौड़धूप करता है। हजार रुपये रोज कमानेवाला अनंत शक्तिवान आत्मा है जिसका ऐसा बैरिस्टर मूर्छावश तुच्छ वस्तुके लिये व्यर्थ दोड-धूप करता है । जीवको विभावके कारण आत्मा और उसकी शक्तिका पता नहीं है।
हम अग्रेजी नही पढे यह अच्छा हुआ। पढे होते तो कल्पना बढती। कल्पनाको तो छोडना है। पढा हुआ भुलने पर ही छुटकारा है। भूले बिना विकल्प दूर नहीं होते । ज्ञानकी जरूरत है।
१ भावार्थ-जैसे चकोर पक्षी चद्रको चाहता है, मधुकर-भ्रमर मालतीके पुष्पमें आसक्त होता है वैसे मित्रा दृष्टिमें रहता हुआ भव्य जीव सद्गुरुयोगसे वदन-क्रिया मादि उत्तम निमित्तको स्वाभाविकरूपसे चाहता है ।
२ देखे आक ८६४ ।
३ दोपहरके चार बजे पूर्व दिशामे आकाशमें काला वादल देखते हुए, उसे दुष्कालका एक निमित्त जानकर उपयुक्त शब्द वोले थे । इस वर्ष १९५५ का चोमासा खालो गया और १९५६ का भयकर दुष्काल पड़ा।
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उपदेश नोध
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मोरबी, चैत्र वदी ९, गुरु, १९५५ यदि परम सत् पोडित होता हो तो वैसे विशिष्ट प्रसगपर सम्यग्दृष्टि देवता सार-सभाल करते हैं, प्रत्यक्ष भी आते हैं, परतु बहुत ही थोड़े प्रसगोपर ।
योगी या वैसी विशिष्ट शक्तिवाला वैसे प्रसगपर सहायता करता है।
जीवको मति-कल्पनासे ऐसा भासित होता है कि मुझे देवताके दर्शन होते है, मेरे पास देवता आते हैं, मुझे दर्शन होता है । देवता यो दिखायी नही देते।।
प्रश्न-श्री नवपद पूजामे आता है कि "ज्ञान एहि ज आत्मा, आत्मा स्वय ज्ञान हे तो फिर पढने-गुननेको अथवा शास्त्राभ्यासकी क्या जरूरत ? पढे हुए सबको कल्पित समझकर अन्तमे भूल जानेपर ही छुटकारा है तो फिर पढनेको, उपदेशश्रवणकी या शास्त्रपठनकी क्या जरूरत ?
__उत्तर-'ज्ञान एहि ज आत्मा' यह एकात निश्चयनयसे है । व्यवहारसे तो यह ज्ञान आवृत है । उसे प्रगट करना है। इस प्रकटताके लिये पढना, गुनना, उपदेशश्रवण, शास्त्रपठन आदि साधनरूप हैं । परंतु यह पढना, गुनना, उपदेशश्रवण और शास्त्रपठन आदि सम्यग्दृष्टिपूर्वक होना चाहिये । यह श्रुतज्ञान कहलाता है । संपूर्ण निरावरण ज्ञान होने तक इस श्रुतज्ञानके अवलबनको आवश्यकता है। मैं ज्ञान हूँ', 'मै ब्रह्म हूँ, यो पुकारनेसे ज्ञान या ब्रह्म नही हुआ जाता। तद्रूप होनेके लिये सत्शास्त्र आदिका सेवन करना चाहिये।
मोरबी, चैत्र वदी १०, १९५५ प्रश्न-दूसरेके मनके पर्याय जाने जा सकते है ?
उत्तर-हाँ, जाने जा सकते हैं। स्व-मनके पर्याय जाने जा सकते हैं, तो पर-मनके पर्याय जानना सुलभ है। स्व-मनके पर्याय जानना भी मुश्किल है । स्व-मन समझमे आ जाये तो वह वशमे हो जाये । उसे समझनेके लिये सद्विचार और सतत एकाग्र उपयोगकी जरूरत है।
आसनजयसे उत्थानवृत्ति उपशात होती है, उपयोग अचपल हो सकता है, निद्रा कम हो सकती है।
सूर्यके प्रकाशमे सूक्ष्म रज जैसा जो दिखायी देता है, वह अणु नही है, परन्तु अनेक परमाणुओका बना हुआ स्कध है। परमाणु चक्षुसे देखे नही जा सकते । चक्षुरिद्रियलब्धिके प्रवल क्षयोपशमवाले जीव, दूरदर्शीलब्धिसपन्न योगी अथवा केवलीसे वे देखे जा सकते है।
७
मोरबी, चैत्र वदी ११, १९५५ 'मोक्षमाला' हमने सोलह वर्ष और पाँच मासकी उम्रमे तीन दिनमे लिखी थी। ६७ वें पाठपर स्याही ढुल जानेसे वह पाठ पुन. लिखना पड़ा था और उस स्थानपर 'बहु पुण्य केरा पुजथी' का अमूल्य तात्त्विक विचारका काव्य रखा था।
जैनमार्गको यथार्थ समझानेका उसमे प्रयास किया है। जिनोक्तमार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक उसमे नही कहा है। वीतरागमार्गमे आवालवृद्धकी रुचि हो, उसका स्वरूप समझमे आये, उसके बीजका हृदयमे रोपण हो, इस हेतुसे उसकी बालावबोधरूप योजना की है। परन्तु लोगोको विवेक, विचार और कदर कहाँ है ? आत्मकल्याणकी इच्छा ही कम है । उस शैली और उस वोधका अनुसरण करनेके लिये भी यह नमूना दिया गया है। इसका 'प्रज्ञावबोध' भाग भिन्न है, उसे कोई रचेगा।
१ 'जानावरणी जे कर्म छे, क्षय उपशम तस पाय रे।
तो हुए एहि ज आवमा, ज्ञान अवोपता जाय रे ।'
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श्रीमद् राजचन्द्र इसके छपनेमे विलम्ब होनेसे ग्राहकोकी आकुलता दूर करनेके लिये तत्पश्चात् 'भावनाबोध रचकर उपहाररूपमे ग्राहकोको दिया था।
"हुं कोण छ ? क्यांथो थयो ? शं स्वरूप छे मारुखरु ?
कोना सबंधे वळगणा छ ? राखं के ए परिहरु ? इसपर जीव विचार करे तो उसे नवों तत्त्वका, तत्त्वज्ञानका सम्पूर्ण बोध हो जाय ऐसा है । इसमे तत्त्वज्ञानका सम्पूर्ण समावेश हो जाता है । इसका शातिपूर्वक और विवेकसे विचार करना चाहिये ।
अधिक और लम्बे लेखोंसे कुछ ज्ञानकी, विद्वत्ताकी तुलना नही होती. परन्तु सामान्यत. जीवोको इस तुलनाकी समझ नही हैं।
प्र०-किरतचंदभाई जिनालयमे पूजा करने जाते हैं ? उ०-ना साहिब, समय नहीं मिलता।
समय क्यों नही मिलता ? चाहे तो समय मिल सकता है, प्रमाद बाधक है। हो सके तो पूजा करने जाना।
___ काव्य, साहित्य या सगीत आदि कला यदि आत्मार्थके लिये न हो तो वे कल्पित हैं । कल्पित अर्थात् निरर्थक, सार्थक नहीं-जीवकी कल्पना मात्र है। जो भक्तिप्रयोजनरूप या आत्मार्थके लिये न हो वह सब कल्पित ही है।
मोरवी, चैत्र वदी १२, १९५५ श्रीमद् आनदघनजी श्री अजितनाथके स्तवनमे स्तुति करते है :
'तरतम योगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार-पथडो०' इसका क्या अर्थ है ? ज्यो ज्यो योगको-मन, वचन और कायाकी तरतमता अर्थात् अधिकता त्यो त्यो वासनाकी भी अधिक्ता, ऐसा 'तरतम योगे रे तरतम वासना रे' का अर्थ होता है। अर्थात् यदि कोई वलवान योगवाला पुरुष हो, उसके मनोवल, वचनवल आदि बलवान हो, और वह पथका प्रवर्तन करता हो, परतु जैसा उसका बलवान मन, वचन आदि योग है, वैसी ही फिर मनवानेकी, पूजा करानेकी, मान, सत्कार, अर्थ, वैभव आदिकी वलवान वासना हो तो वैसी वासनावालेका बोध वासनासहित बोध हुआ, कषाययुक्त बोध हुआ, विषयादिकी लालसावाला बोध हुआ, मानार्थ बोध हुआ, आत्मार्थ बोध न हुआ | श्री आनदघनजी श्री अजित प्रभुका स्तवन करते हैं-'हे प्रभो । ऐसा वासनासहित बोध आधाररूप है, वह मुझे नही चाहिये । मुझे तो कषायरहित, आत्मार्थसपन्न, मान आदि वासनारहित बोध चाहिये ऐसे पंथकी गवेषणा मैं कर रहा हूँ। मनवचनादि बलवान योगवाले भिन्न भिन्न पुरुष बोधका प्ररूपण करते आये हैं, प्ररूपण करते हैं, परतु हे प्रभो । वासनाके कारण वह बोध वासित है, मुझे तो वासनारहित वोधकी जरूरत है। वह तो, हे वासना, विषय, कषाय आदि जीतनेवाले जिन वीतराग अजित देव । तेरा है । उस तेरे पथको मैं खोज रहा हूँ-देख रहा हूँ। वह आधार मुझे चाहिये। क्योकि प्रगट सत्यसे धर्मप्राप्ति होती है।'
___ आनदघनजीकी चोवीसी मुखाग्र करने योग्य है। उसका अर्थ विवेचनपूर्वक लिखने योग्य है। वैसा करें।
मोरवी, चैत्र वदी १४, १९५५ प्र०-आप जेसे समर्थ पुरुषसे लोकोपकार हो ऐसी इच्छा रहे यह स्वाभाविक है। उ०-लोकानुग्रह अच्छा और आवश्यक अथवा आत्महित ? १ देखें मोक्षमाला पाठ ६७। २. श्रीमद्जीने पूछा। ३ श्री मनसुखभाईका प्रत्युत्तर।
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उपदेश नोंघ
६७७ म०-साहब, दोनोकी जरूरत है। श्रीमद्
श्री हेमचन्द्राचार्यको हुए आठ सौ बरस हो गये । श्री आनदघनजीको हुए दो सौ बरस हो गये । श्री हेमचद्राचार्यने लोकानुग्रहमे आत्मार्पण किया। श्री आनदघनजीने आत्महित साधनप्रवृत्तिको मुख्य बनाया । श्री हेमचद्राचार्य महा प्रभावक बलवान क्षयोपशमवाले पुरुष थे। वे इतने सामर्थ्यवान थे कि वे चाहते तो अलग पथका प्रवर्तन कर सकते थे । उन्होने तीस हजार घरोको श्रावक बनाया । तीस हजार घर अर्थात् सवा लाखसे डेढ लाख मनुष्योकी सख्या हुई। श्री सहजानदजीके सम्प्रदायमे एक लाख मनुष्य होगे । एक लाखके समूहसे सहजानदजीने अपना सप्रदाय चलाया, तो डेढ लाख अनुयायियोका एक अलग सप्रदाय श्री हेमचन्द्राचार्य चाहते तो चला सकते थे।
परन्तु श्री हेमचन्द्राचार्यको लगा कि सम्पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर ही धर्मप्रवर्तक हो सकते हैं। हम तो तीर्थकरोकी आज्ञासे चलकर उनके परमार्थ मार्गका प्रकाश करनेके लिये प्रयत्न करनेवाले हैं। श्री हेमचन्द्राचार्यने वीतरागमार्गके परमार्थका प्रकाशनरूप लोकानुग्रह किया। वैसा करनेकी जरूरत थी। वीतरागमार्गके प्रति विमुखता और अन्य मार्गकी तरफसे विषमता, ईर्ष्या आदि शुरू हो चुके थे। ऐसी विषमतामे लोगोको वीतराग मार्गकी ओर मोडनेकी, लोकोपकारकी तथा उस मार्गके रक्षणकी उन्हे जरूरत मालूम हुई। हमारा चाहे कुछ भी हो, इस मार्गका रक्षण होना चाहिये। इस प्रकार उन्होने स्वार्पण किया । परन्तु इस तरह उन जैसे ही कर सकते है । वैसे भाग्यवान, माहात्म्यवान, क्षयोपशमवान ही कर सकते है। भिन्न भिन्न दर्शनोको यथावत् तोलकर अमुक दर्शन सम्पूर्ण सत्य स्वरूप है, ऐसा जो निश्चय कर सकते है वैसे पुरुष ही लोकानुग्रह, परमार्थप्रकाश ओर आत्मार्पण कर सकते है।
श्री हेमचन्द्राचार्यने बहुत किया। श्री आनदघनजी उनके छ. सौ बरस बाद हुए। इन छ. सौ बरसके अतरालमे वैसे दूसरे हेमचन्द्राचार्यकी जरूरत थी। विषमता व्याप्त होती जाती थी। काल उग्रस्वरूप लेता जाता था। श्री वल्लभाचार्यने शृगारयुक्त धर्मका प्ररूपण किया। शृगार युक्त धर्मकी ओर लोक मुडे-आकर्षित हुए । वीतरागधर्म-विमुखता बढती चलो । अनादिसे जीव शृगार आदि विभावमे तो मूर्छा प्राप्त कर रहा है, उसे वैराग्यके सन्मुख होना मुश्किल है। वहाँ यदि उसके पास शृगारको ही धर्मरूपसे रखा जाये तो वह वैराग्यकी ओर कैसे मुइ सकता है ? यो वीतरागमार्ग-विमुखता वढी।
वहाँ फिर प्रतिमाप्रतिपक्ष-सप्रदाय जैनमे ही खडा हो गया। ध्यानका कार्य और स्वरूपका कारण ऐसी जिन-प्रतिमाके प्रति लाखो लोग दृष्टिविमुख हो गये, वीतरागशास्त्र कल्पित अर्थसे विराधित हुए, कितने तो समूल ही खडित किये गये। इस तरह इन छ सौ बरसके अतरालमे वीतरागमार्गरक्षक दूसरे हेमचन्द्राचार्यकी जरूरत थी। अन्य अनेक आचार्य हुए, परन्तु वे श्री हेमचन्द्राचार्य जैसे प्रभावशाली नही थे। इसलिये विषमताके सामने टिका न जा सका । विषमता बढती चली। वहां दो सौ वरस पूर्व श्री आनदघनजी हुए।
श्री आनदधनजीने स्वपरहित-बुद्धिसे लोकोपकार-प्रवृत्ति शुरू की । इस मुख्य प्रवृत्तिमे आत्महितको गौण किया, परन्तु वीतरागधर्मविमुखता, विषमता इतनी अधिक व्याप्त हो गयी थी कि लोग धर्मको अथवा आनदघनजीको पहचान नहीं सके, पहचान कर कदर न कर सके । परिणामत श्री आनदघनजोको लगा कि प्रबल व्याप्त विषमताके योगमे लोकोपकार, परमार्थप्रकाश कारगर नहीं होता और आत्महित गौण होकर उसमे बाधा आती है, इसलिये आत्महितको मुत्य करके उसमें प्रवृत्ति करना योग्य है। ऐमी विचारणासे अतमे वे लोकसंगको छोडकर वनमे चल दिये। वनमे विचरते हुए भी अप्रगटत्पसे रहकर चौबीसो, पद आदिसे लोकोपकार तो कर ही गये । निष्कारण लोकोपकार यह महापुरुपोका धर्म है।
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श्रीमद् राजचन्द्र प्रगटरूपसे लोग आनदघनजीको पहचान नही सके । परन्तु आनंदघनजी तो अप्रगट रहकर उनका हित करते गये। अब तो श्री आनदधनजोके समयसे भी अधिक विषमता, वीतरागमार्ग-विमुखता व्याप्त है।
श्री आनदघनजीको सिद्धातबोध तीन था। वे श्वताबर सप्रदायमे थे। चूर्णि, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति परपर अनुभव रे' इत्यादि पचागीका नाम उनके श्री नमिनाथजीके स्तवनमे न आया होता तो यह पता भी न चलता कि वे श्वेताबर सप्रदायके थे या दिगंबर सप्रदायके ? ।
मोरबी, चैत्र वदी ३०, १९५५ 'इस भारतवर्षको अधोगति जैनधर्मसे हुई है' ऐसा महीपतराम रूपराम कहते थे, लिखते थे । दसेक वर्ष पहले उनका मिलाप अहमदाबादमे हुआ था, तब उन्हे पूछा -
प्र.-भाई । जैनधर्म अहिंसा, सत्य, मेल, दया, सर्व प्राणीहित, परमार्थ, परोपकार, न्याय, नीति, आरोग्यप्रद आहारपान, निर्व्यसनता, उद्यम आदिका उपदेश करता है ?
उ०-हाँ । ( महीपतरामने उत्तर दिया।)
प्र०-भाई । जैनधर्म हिंसा, असत्य, चोरी, फूट, क्रूरता, स्वार्थपरायणता, अन्याय, अनीति, छल-कपट, विरुद्ध आहार-विहार, मौज-शौक, विषय-लालसा, आलस्य, प्रमाद आदिका निषेध करता है ?
म० उ० हाँ।
प्र०-देशकी अधोगति किससे होती है ? अहिंसा, सत्य, मेल, दया, परोपकार, परमार्थ, सर्व प्राणीहित, न्याय, नीति, आरोग्यप्रद एवं आरोग्यरक्षक ऐसा शुद्ध सादा आहार-पान, निर्व्यसनता, उद्यम आदिसे अथवा उससे विपरीत हिंसा, असत्य, फूट, क्रता, स्वार्थपटुता, छल-कपट, अन्याय, अनीति, आरोग्यको बिगाड़े और शरीर-मनको अशक्त करे ऐसा विरुद्ध आहार-विहार, व्यसन, मौज-शोक, आलस्य, प्रमाद आदिसे ?
म० उ०-दूसरेसे अर्थात् विपरीत हिंसा, असत्य, फूट, प्रमाद आदिसे ।
प्र०-तब देशकी उन्नति इन दूसरोंसे विपरीत ऐसे अहिंसा, सत्य, मेल, निर्व्यसनता, उद्यम आदिसे होती है ?
म० उ०-हाँ! प्र०-तब 'जैनधर्म' देशकी अधोगति हो ऐसा उपदेश करता है या देशकी उन्नति हो ऐसा ?
म० उ०-भाई | मै कबूल करता हूँ कि जैनधर्म ऐसे साधनोका उपदेश करता है कि जिनसे देशकी उन्नति हो । ऐसी सूक्ष्मतासे विवेकपूर्वक मैने विचार नही किया था । हमने तो बचपनमे पादरीकी शालामे पढते समय पड़े हुए सस्कारोसे, बिना विचार किये ऐसा कह दिया था, लिख मारा था। महीपतराभने सरलतासे कबूल किया। सत्य शोधनमे सरलताको जरूरत है। सत्यका मर्म लेनेके लिये विवेकपूर्वक मर्ममे उतरना चाहिये।
___ मोरबी, वैशाख सुदी २, १९५५ श्रो आत्मारामजी सरल थे । कुछ धर्मप्रेम था । खण्डन-मडनमे न पडे होते तो अच्छा उपकार कर सकते थे। उनके शिष्यसमुदायमे कुछ सरलता रही है। कोई कोई सन्यासी अधिक सरल देखनेमे आते, है । श्रावकता या साधुता कुल सम्प्रदायमे नही, आत्मामे है।
। 'ज्योतिष'को कल्पित समझ कर हमने उसे छोड़ दिया है। लोगोमे आत्मार्थता बहुत कम हो गयी है, नही जैसी रही है। इस सबधमे स्वार्थहेतुसे लोगोने हमे सताना शुरू कर दिया। जिससे आत्मार्थ सिद्ध न हो ऐसे इस ज्योतिपके विषयको कल्पित (असार्थक) समझ कर हमने गौण कर दिया, उसका गोपन कर दिया।
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उपदेश नोध...
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गत रात्रिमे श्री आनन्दघनजीके, सद्देवतत्त्वका निरूपण करनेवाले श्री मल्लिनाथके स्तवनको चर्चा हो रही थी, उस समय बीचमे आपने प्रश्न किया था इस बारेमे हम सकारण मौन रहे थें । आपका प्रश्न संगत और अनुसंधिवाला था । परन्तु वह सभी श्रोताओको ग्राह्य हो सके ऐसा न था, और किसी के. समझमे न आनेसे विकल्प उत्पन्न करनेवाला था। चलते हुए विषयमे श्रोताओका श्रवणसूत्र टूट जाये, ऐसा था । और आपको स्वयमेव स्पष्टता हो गयी है । अब पूछना है ? -
+} 2,3
।
लोग एक कार्यकी तथा उसके कर्ताको प्रशसा करते है यह ठीक है यह उस कार्यका पोषक तथा उसके कर्त्ताके उत्साहको बढानेवाला है । परन्तु साथ ही उस कार्यमे जो कमी हो उसे भी, विवेक और निरभिमानतासे सभ्यतापूर्वक बताना चाहिये, कि जिससे फिर त्रुटिका अवकाश न रहे और वह कार्य, त्रुटिरहित होकर पूर्ण हो जाये । अकेली प्रशसा गुणगान से सिद्धि नही होती। इससे तो उलटा मिथ्याभिमान बढता है। आजके मानपत्र आदिमे यह प्रथा विशेष है। विवेक चाहिये ! 1
5
म०—साहब | चन्द्रसूरि आपको याद करके पूछा करते थे । आप, यहाँ हैं, यह उन्हे मालूम नही था । आपसे मिलनेके लिये आये है ।
1
RE
201 श्रीमंद - परिग्रहधारी यतियोका सन्मान करने से मिथ्यात्वको पोषण मिलता है, मार्गका विरोध होता है । दाक्षिण्य सभ्यताको भी निभाना चाहिये । चन्द्रसूरि हमारे लिये आये है । परन्तु जीवको छोडना अच्छा नही लगता, मिथ्या चतुराईकी बातें करती है, मान छोड़ना रुचता नही । उससे आत्मार्थ सिद्ध नही होता ! हमारे लिये आये, इसलिये सभ्यता, धर्म को निभानेके लिये हम उनके पास गये । प्रतिपक्षी स्थानक - सम्प्रदायवाले कहेंगे कि इन्हे इनपर राग है, इसलिये वहाँ गये, हमारे पास नही आते । परन्तु जीव हेतु एव कारणका विचार नही करता । मिथ्या दूषण, खाली आरोप लगानेके लिये तैयार है । ऐसे वर्तनके जानेपर छुटकारा है । भवपरिपाकसे सद्विचार स्फुरित होता है और हेतु एव परमार्थका विचार उदित होता है ।
बडे जसे कहे वैसे करना, जैसे करें वैसे नही करना चाहिये । -
श्री कबीरका अन्तर, समझे, बिना भोलेपनसे- लोग, उन्हे परेशान करने लगे । - इस विक्षेपको दूर करनेके लिये कबीरजी वेश्याके यहाँ जाकर बैठ गये । लोकसमूह वापिस लौटा -1 कबीरजी भ्रष्ट हो गये ऐसा लोग कहने लगे। सच्चे भक्त थोडे थे कवीरको चिपके रहे । कबीरजीका विक्षेप तो दूर हुआ, परन्तु दूसरोको उनका अनुकरण नही करना चाहिये ।
- }
नरसिंह मेहता गा गये है-,
31
*मारुगायुगाशे ते झझा गोदा खाशे । समझीने गाशे ते वहेलो वैकुण्ठ जाशे ॥
तात्पर्य यह कि समझकर विवेकपूर्वक करना है । अपनी दशाके बिना, जीव अनुकरण करने लगे तो मार खाकर ही रहेगा । इसलिये बड़े कहे वैसे चाहिये। यह वचन सापेक्ष हे ।
*
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विवेकके बिना, समझे बिना करना, करे वैसा नही करना
१२ --
(दूसरे भोईवाडे श्री शातिनाथजीके दिगवरी-मदिरमे दर्शन-प्रसगका वर्णन ) प्रतिमाको देखकर दूरसे वन्दन किया ।
बम्बई, कार्तिक वदी ९, १९५६
तीन बार पचाग प्रणाम किया ।
श्री आनदघनजीका श्री पद्मप्रभुका स्तवन सुमधुर, गभीर और सुस्पष्ट ध्वनिसे गाया ।
* भावार्थ - विना समझे मेरा कहा करंगा वह मार ही खायेगा । नमझकर जो मेरा अनुकरण करेगा वह जल्दी वैकुण्ठमे जायेगा ।
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६८०
श्रीमद् राजचन्द्र
। 'जिन-प्रतिमाके चरण धीरे धीरे दबाए।' .' कायोत्सर्ग-मुद्रावाली एक छोटी पंचधातुकी जिनप्रतिमा अन्दरसे कोरकर निकाली थी । वह सिद्धकी अवस्थामे होनेवाले घनको सूचक थीं । उस' अवगाहनाको बताकर कहा कि जिस देहसे आत्मा संपूर्ण सिद्ध होता है उस देहप्रमाणसे किंचित् न्यून जो क्षेत्रप्रमाण धन हो वह अवगाहना है । जीव अलग अलग सिद्ध हुए। वे एक क्षेत्रमे स्थित होनेपर भी प्रत्येक पृथक् पृथक् है । निज क्षेत्र धनप्रमाण अवगाहनासे हैं।'
प्रत्येक सिद्धात्माकी ज्ञायक सत्ता लोकालोकप्रमाण, लोकके ज्ञाता होनेपर भी लोकसे भिन्न है। 1 भिन्न भिन्न प्रत्येक दीपकका प्रकाश एक हो जानेपर भी दीपक जैसे भिन्न भिन्न हैं, इस न्यायसे प्रत्येक सिद्धात्मा भिन्न भिन्न है। -
ये मुक्तागिरि आदि तीर्थोके चित्र हैं। ।। .
यह गोमटेश्वर नामसे प्रसिद्ध श्री' बाहुबलस्वामीकी प्रतिमाका चित्र है। बेंगलोरके पास एकात जंगलमे पर्वतमेसे कोरकर निकाली हुई सत्तर फुट ऊँची यह भव्य प्रतिमा है। आठवी सदीमे श्री चामुंडरायने इसकी प्रतिष्ठा की है। अडोल ध्यानमे कायोत्सर्ग मुद्रामे श्री बाहुबलजी अनिमेष नेत्रसे खडे है । हाथ-पैरमे वृक्षकी लतायें लिपटी होनेपर भी देहभानरहित ध्यानस्थ श्री बाहुबलजीको उसका पता नही है । कैवल्य प्रगट होने योग्य दशा होनेपर भी जरा मानका अकुर बाधक हुआ है । "वीरा मारा गज थकी ऊतरो" इस मानरूपी गजसे उतरनेके अपनी बहनें ब्राह्मी और सुन्दरीके शब्द कृर्णगोचर होनेसे सुविचारमे सज्ज होकर, मान दूर करनेके लिये तैयार होने पर कैवल्य प्रगट हुआ। वह इन श्री बाहुबलजीको ध्यानस्थ मुद्रा है। । । ..
- ( दर्शन करके श्री मदिरकी ज्ञानशालामे) । श्री गोम्मटसार' लेकर उसका स्वाध्याय किया।
श्री 'पाडवपुराण' मेंसे प्रद्युम्न अधिकारका वर्णन किया । प्रद्यम्नका वैराग्य गाया। ", वसुदेवने पूर्वभवमे सुरूपसंपन्न होनेके निदानपूर्वक उग्न तपश्चर्या की।
भावनारूप तपश्चर्या फलित हुई । सुरूपसपन्न देह प्राप्त की। वह सुरूप अनेक विक्षेपोका कारण हुआ। स्त्रियाँ व्यामुग्ध होकर पीछे घूमने लगी। निदानका दोष वसुदेवको प्रत्यक्ष हुआ। विक्षेपसे छूटनेके लिये भाग जाना पड़ा।
'मुझे इस तपश्चर्यासे ऋद्धि मिले या वैभव मिले या अमुक इच्छित होवे, ऐसी इच्छाको निदान दोष कहते है । वैसा निदान बाँधना योग्य नही है ।.. .. १.! . . . . . . । १३ - - - बबई, कात्तिक वदी ९, १९५६ TF- 'अवगाहना अर्थात् अवगाहना । अवगाहना अर्थात् कद-आकार ऐसा नही। कितने ही तत्त्वके पारिभाषिक शब्द ऐसे होते है कि जिनका अर्थ दूसरे-शब्दोसे व्यक्त नही किया जा सकता, जिनके अनुरूप दूसरे शब्द नही मिलते, जो समझे जा सकते हैं, परन्तु व्यक्त नही किये जा सकते ।
___ अवगाहना ऐसा शब्द है । बहुत बोधसे, विशेष विचारसे यह समझा जा सकता है । अवगाहना क्षेत्राश्रयी है । भिन्न होते हुए भी परस्पर मिल जाना, फिर भी अलग रहना। इस तरह सिद्ध आत्माकी जितने क्षेत्रप्रमाण व्यापकता वह उसको अवगाहना कही है। ' 73
बबई कार्तिक वदी १. १९५६ ' ' जो बहुत भोगा जाता है वह बहुत क्षीण होता है । समतासे कर्म भोगनेसे उनकी निर्जरा होती है , ___ वे क्षीण होते हैं। शारीरिक विषय भोगनेसे शारीरिक शक्ति क्षीण होती है।
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१ उपदेश नोध
६८१ ज्ञानीका मार्ग सुलभ है परन्तु उसे प्राप्त करना दुष्कर है, यह मार्ग विकट नही है, 'सोधा है, परन्तु उसे पाना विकट है। प्रथम सच्चा ज्ञानी चाहिये । उसे पहचानना चाहिये । उसकी प्रतीति आनी चाहिये। बादमे उसके वचनपर श्रद्धा रखकर नि शकतासे चलतेसे मार्ग सुलभ है, परतु ज्ञानीका मिलना और पहचानना. विकट है, दुष्कर है। . . : - 'TPS:/--...,
: घनी झाडीमे भूले पडे हुए मनुष्यको वनोपकठमे जानेका मार्गः कोई दिखाये, कि, 'जा, नीचे-नीचे चला जा । रास्ता सुलभ है, यह रास्ता सुलभ है । परन्तु उस भूले पडे हुए, मनुष्यके लिये जानाविकट है; इस मार्गमे जानेसे पहुँचंगा या नहीं, यह, शका, आडे आती है। शका किये बिना ज्ञानियोके मार्गका आराधन करे तो उसे पाना सुलभ है. .... . . . . . . . . . . . ,
१५ . . - बंबई, कात्तिक वदी ११, १९५६ 1 श्री सत्श्रुत
,
. . , , E-517 12, १... श्री पाडव पुराणमे प्रद्युम्न चरित्र - ११. श्री क्षपणासार. TETS , २ श्री पुरुषार्थसिद्धि उपाय . . . .१२ - श्री लब्धिसार
..... । ३ श्री पद्मनदिपंचविशति
१३ श्री त्रिलोकसार ... ... . ४. श्री गोम्मटसार' .१४. श्री तत्त्वसार
।. . ५ श्री रत्नकरंड श्रावकाचार १५ श्री प्रवचनसार ६ श्री आत्मानुशासन । । १६ श्री समयसार ज
. ७ श्री मोक्षमार्गप्रकाश
। १७ , श्री पचास्तिकाय, , , . "श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा - १८. श्री अष्टप्राभत ।' - ' : ९ श्री योगदृष्टि समुच्चय । । . १९ ' श्री परमात्मप्रकाश .. .. - १०. श्री क्रियाकोष - २० श्री रयणसार
" आदि अनेक है। इद्रियनिग्रहके अभ्यासपूर्वक इस सत्श्रुतका सेवन करना योग्य है। यह फल अलौकिक है, अमृत है।
१६ । 'बवई, कात्तिक वदी ११, १९५६ ज्ञानीको पहचाने, पहचान कर उनकी आज्ञाका आराधन करें। ज्ञानीकी एक आज्ञाका आराधन करनेसे अनेकविध कल्याण है। ... ज्ञानी जगतको तृणवत् समझते है, यह उनके ज्ञानकी महिमा समझे । . . .
कोई मिथ्याभिनिवेशी ज्ञानका ढोग करके जगतका भार व्यर्थ सिरपर वहन करता हो तो वह हास्यपात्र है।
' बबई, कात्तिक वदी ११, १९५६ वस्तुत दो वस्तुएँ है-जीव और अजीव । लोगोने सुवर्ण नाम कल्पित रखा। उसकी भस्म होकर पेटमे गया। विष्टामे परिणत होकर खाद हुआ, क्षेत्रमे उगा, धान्य हुआ, लोगोने खाया, कालातरसे लोहा हुआ । वस्तुत एक द्रव्यके भिन्न भिन्न पर्यायोको कल्पनारूपसे भिन्न भिन्न नाम दिये गये। एक द्रव्यक भिन्न भिन्न पर्यायो द्वारा लोग भ्रातिमे पड गये । इस भ्रातिने ममताको जन्म दिया । ... ,
। रुपये वस्तुत हैं, फिर भी लेनेवाले और देनेवालेका मिथ्या झगडा होता है। लेनेवालेको अघोरतासे उसका मन रुपये गये ऐसा समझता है । वस्तुत- रुपये हैं। इसी तरह भिन्न भिन्न कल्पनाओने भ्रमजाल
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श्रीमद् राजचन्द्र
'मोक्षमाला' के "प्रज्ञावबोध' भागके १०८ मनके यहाँ लिखायेंगे । परम सत्श्रुतके प्रचाररूप एक योजना सोची है । उसका प्रकाशित होगा ।
६८४
प्रचार होकर परमार्थमाग
बबई, माटुंगा, मार्गशीर्ष, १९५७
२५
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श्री 'शातसुधारस' का भी पुनः विवेचनरूप भाषातर करने योग्य है, सो कीजियेगा ।
२६ 'देवागमनभोयानचामराविविभूतयः ।
मायाविष्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ॥'
स्तुतिकार श्री समतभद्रसूरिको वीतरागदेव मानो कहते हो - 'हे समतभद्र । यह हमारी अष्टप्रातिहार्य आदि विभूति तू देख, हमारा महत्त्व देख ।' तब सिंह गुफामेसे गम्भीर चालसे बाहर निकलकर जिस तरह गर्जना करता है उसी तरह श्री समतभद्रसूरि गर्जना करते हुए कहते है-'देवताओका आना, आकाशमे विचरना, चामरादि विभूतियो का भोग करना, चामर आदिके वैभवसे पूजनीय दिखाना यह तो मायावी इन्द्रजालिक भी बता सकता है। तेरे पास देवोका आना होता है, अथवा तू आकाशमे विचरता है, अथवा तू चामर छत्र आदि विभूतिका उपभोग करता है इसलिये तू हमारे मनको महान है । नहीं, नही, इसलिये तू हमारे मनको महान नही, उतनेसे तेरा महत्त्व नही। ऐसा महत्त्व तो मायावी इन्द्रजालिक भी 'दिखा सकता है ।' तव फिर सदेवका वास्तविक महत्त्व क्या है ? तो कहते है कि वीतरागता । इस तरह आगे बताते है ।
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ये श्री समतभद्रसूरि विक्रमकी दूसरी शताब्दी मे हुए थे । वे श्वेतावर -दिगवर दोनोमे एक सरीखे सन्मानित हैं । उन्होने देवागमस्तोत्र ( उपर्युक्त स्तुति इस स्तोत्रका प्रथम पद है) अथवा आप्तमीमासा रची है | तत्त्वार्थसूत्रके मगलाचरणकी टीका करते हुए यह देवागमस्तोत्र लिखा गया है और उसपर अष्टसहस्री टीका तथा चौरानी हजार श्लोकप्रमाण 'गंधहस्ती महाभाष्य' टीका रची गयी हैं ।
ववई, शिव, मार्गशीर्ष, १९५७
मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
यह इसका प्रथम मंगल स्तोत्र है ।
मोक्षमार्गके नेता, कर्मरूपी पर्वतके भेत्ता-भेदन करनेवाले, विश्व अर्थात् समग्र तत्त्वके ज्ञाता, जाननेवाले - - उन्हें गुणोकी प्राप्तिके लिये मे वदन करता हूँ ।
'आप्तमीमासा', 'योगबिन्दु' और 'उपमितिभवप्रपचकथा' का गुजराती भाषातर कीजियेगा । 'योगविन्दु' का भापातर हुआ है, 'उपमितिभवप्रपच' का हो रहा है, परन्तु वे दोनो फिरसे करने योग्य है, उसे कीजियेगा, धीरे-धीरे होगा ।
लोककल्याण हितरूप है और वह कर्तव्य है । अपनी योग्यताको न्यूनतासे और जोखिमंदारी न समझी जा सकनेसे अपकार न हो, यह भी ख्याल रखनेका है।
२२७
मन पर्यायज्ञान किस तरह प्रगट होता है ? साधारणत. प्रत्येक जीवको मतिज्ञान होता है । उसके आश्रित श्रुतज्ञानमे वृद्धि होनेसे वह मतिज्ञानका बल बढाता है, इस तरह अनुक्रमसे मतिज्ञान निर्मल
१ देखें आक ९४६ २. आक २७ से आक ३१ तक सभातके श्री त्रिभुवनभाईकी नोघमेसे लिये हैं ।,
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उपदेश नोंध
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1
होनेसे आत्माको असयमता दूर होकर सयमता होती है, और उससे मन पर्यायज्ञान प्रगट होता है । उसके योगसे आत्मा मरेका अभिप्राय जान सकता है ।'
1
1
लिग–चिह्न देखनेसे दूसरेके क्रोध, हर्प आदि भाव 'जाने जा सकते हैं, यह मतिज्ञानका विषय है । वैसे चिह्न न देखनेसे जो भाव जाने जा सकते है वह मन पर्यायज्ञानका विषय है ।
2
२८
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पाँच इन्द्रियोके विषय सबन्धो
जिस जीवको मोहनीयकर्मरूपी कपायका त्याग करना हो, करना चाहेगा तब कर सकेगा' ऐसे विश्वासपर रहकर, जो क्रमश वह एकदम त्याग करनेका प्रसग आनेपर मोहनीय कर्मके बलके आगे 'शत्रुको धीरे-धीरे निर्बल किये बिना निकाल देनेमे वह एकदम असमर्थ कारण उसपर मोहका प्राबल्य रहता है । उसका जोर कम करनेके ही बार उसपर जय पाने की धारणमे वह ठगा जाता है। जब तक मोहवृत्ति लडनेके लिये सामने नही आती तभी तक " मोहवश "आत्मा अपनी बलवत्ता' समझता है, परन्तु इम प्रकारकी कसौटीका प्रस आनेपर आत्माको अपनी कायरता समझ में आती है । इसलिये जैसे बने वैसे पाँच इन्द्रियोके विषयोको शिथिल करना, उसमे भी मुख्यत उपस्थ इन्द्रियको वशमे लाना, इस तरह अनुक्रमसे दूसरी इन्द्रियो के विषयोपर काबू पाना ।
7
1
इंद्रियकै त्रिषयरूपी क्षेत्रकी दो तस जमीन जीतने के लिये आत्मा 'पृथ्वीको जीतनेमे समर्थता मानता है, यह कैसा आश्चर्यरूप है ?
प्रवृत्ति के कारण आत्मा निवृत्तिका विचार नही कर सकता, यो कहना मात्र एक बहाना है । यदि थोडे समय के लिये भी आत्मा प्रवृत्ति छोडकर प्रमादरहित होकर सदा निवृत्तिका विचार करे, तो उसका बल प्रवृत्तिमे भी अपना कार्यं कर सकता है । क्योकि प्रत्येक वस्तुका अपनो न्यूनाधिक वलवत्ता के अनुसार हो अपना कार्य करनेका स्वभाव है । जिस तरह मादक वस्तु दूसरी खुराक के साथ अपने असली स्वभाव
और 'जब वह उसका एकदम त्याग त्याग करनेका अभ्यास नही करता, टिक नही सकता; क्योकि कर्मरूप हो जाता है । आत्माकी निर्वलताके लिये यदि 'आत्मा प्रयत्न करे तो एक
असमर्थता बताता है और सारी
"
अनुसार परिणमन करनेको नही भूल जाती उसी तरह ज्ञान भी अपने स्वभावको नही भूलता । इसलिये प्रत्येक जीवको प्रमादरहित होकर योग, काल, निवृत्ति और मार्गका विचार निरतर करना चाहिये ।
२९
----
व्रत संबंधी
यदि प्रत्येक जीवको व्रत लेना हो तो स्पष्टताके साथ दूसरेकी साक्षीसे लेना चाहिये | उसमे स्वेच्छासे वर्तन नही करना चाहिये । व्रतमे रह सकनेवाला आगार रखा हो और कारण विशेषको लेकर वस्तुका उपयोग करना पडे तो वैसा करनेमे स्वयं अधिकारी नही बनना चाहिये । ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार वर्तन करना चाहिये । नही तो उसमे शिथिल हुआ जाता है, और व्रतका भग हो
जाता है ।
३०
मोह - कषाय धी
प्रत्येक जीवकी अपेक्षासे ज्ञानीने क्रोध, मान, माया और लोभ, यो अनुक्रम रखा है, वह क्षय होनेकी अपेक्षा है ।
पहले कषायके क्षयसे अनुक्रमसे दूसरे कपायोका क्षय होता है, और अमुक अमुक जीवोकी अपेक्षा से मान, माया, लोभ और क्रोध, ऐसा क्रम रखा है, वह देश, काल और क्षेत्र देखकर। पहले जीवको
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श्रीमद् राजचन्द्र
'
फैला दिया है । उसमे से जीव-अजीवका, जड- चैतन्यका भेद करना यह विकट हो- पडा है ।, भ्रमजाल यथार्थरूपसे ध्यानमे आये, तो जड- चैतन्य क्षीर नीरवत् भिन्न स्पष्ट भासित होता है ।
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१८
बबई, कार्तिक वदी १२, १९५६
'इनॉक्युलेशन' – महामारीका टीका | टीकेके नामसे डाक्टरोने यह पाखण्ड खडा किया है । बेचारे निरपराध अश्व आदिको टीकेके बहाने दारुण, दुख देकर मार डालते है, हिंसा करके पापका पोषण करते है, पाप कमाते है। पहले पापानुवधी पुण्य उपार्जन किया है, उसके प्रभावसे वर्तमानमे वे पुण्य भोगते हैं, परन्तु परिणाममे पाप मोल लेते हैं, यह उन बेचारे डाक्टरोकों पता नही है ।" टीकेसे रोग दूर हो तबकी बात तब, परन्तु अभी तो हिंसा प्रत्यक्ष है । टीकेसे एक रोगको निकालते दूसरा रोग भो खडा हो जाये ।'
१९
aas, कार्तिक वदी १२, १९५६
2
. .. प्रारब्ध और पुरुषार्थं ये शब्द समझने योग्य हैं । पुरुषार्थ किये बिना प्रारब्धकी खबर नही पड़ सकतो । प्रारब्धमे होगा सो होगा यो कहकर बैठे रहने से काम नही चलता । निष्काम पुरुषार्थ करना चाहिये । प्रारब्धका समपरिणामसे वेदन करना - भोग लेना, यह महान पुरुषार्थ है । सामान्य जीव समपरिणामसे विकल्परहित होकर प्रारब्धका वेदन नही कर सकता, विषम परिणाम होता ही है । इसलिये उसे न होने देनेके लिये, कम होनेके लिये उद्यम करना चाहिये । समता और निर्विकल्पता सत्सगसे आती है और बढती है ।
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२०
, मोरबी, वैशाख सुदी ८, १९५६ 'भगवद्गीता' मे पूर्वापर विरोध हैं, उसे देखनेके लिये उसे दे रखा है । पूर्वापर विरोध क्या है यह अवलोकन करनेसे मालूम हो जायेगा । पूर्वापर अविरोधी दर्शन एवं वचन तो वीतराग के है ।
भगवद्गीतापर बहुतसे भाष्य और टीकाएँ रचे गये हैं- विद्यारण्यस्वामीकी 'ज्ञानेश्वरी' आदि । प्रत्येकने अपनी मान्यताके अनुसार टीका बनायी है। थियॉसॉफीवालो टीका जो आपको दी है वह अधिकाश स्पष्ट है | मणिलाल नभुभाईने गीतापर विवेचनरूप टीका करते हुए बहुत मिश्रता ला दी है, मिश्रित खिचड़ी बना दी है ।
*
विद्वत्ता और ज्ञान इन दोनोको एक न समझें, दोनो एक नही हैं । विद्वत्ता हो, फिर भी ज्ञान न हो । सच्ची विद्वत्ता तो यह है कि जो आत्मार्थके लिये हो, जिससे आत्मार्थ सिद्ध हो, आत्मत्व समझ J,
- आये, प्राप्त किया जाये ।, जहाँ आत्मार्थ होता है वहाँ ज्ञान होता है, विद्वत्ता हो या न भी हो ।
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मणिभाई कहते हैं (षड्दर्शनसमुच्चयकी प्रस्तावनामे ) कि हरिभद्रसूरिको वेदातका ज्ञान न था, वेदातका ज्ञान होता तो ऐसी कुशाग्र बुद्धिवाले हरिभद्रसूरि जैनदर्शनकी ओरसे अपनी वृत्तिको फिराकर वेदात हो जाते । मणिभाई के ये वचन गाढ मताभिनिवेशसे निकले हैं । हरिभद्रसूरिको वेदातका ज्ञान था या नही, इस बातको, मणिभाईने यदि हरिभद्रसूरिकी 'धर्मसग्रहणी' देखी होती, तो उन्हे खबर पड जाती। हरिभद्रसूरिको वात आदि सभी दर्शनोका ज्ञान था । उन सब दर्शनोकी पर्यालोचनापूर्वक उन्होने जैनदर्शनको पूर्वापर अविरुद्ध प्रतीत किया था । यह अवलोकनसे मालूम होगा । ' षड्दर्शनसमुच्चय' के भाषांतरमे दोष होनेपर भी मणिभाईने भाषातर ठीक किया है। अन्य ऐसा भी नही कर सकते । यह सुधारा जा सकेगा ।
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२१
श्री मोरबी, वैशाख सुदी ९, १९५६ वर्तमानकालमे क्षयरोगको विशेष वृद्धि हुई है और हो रही है । इसका मुख्य कारण ब्रह्मचर्यकी कमो, आलस्य और विषय आदिकी आसक्ति है । क्षयरोगका मुख्य उपाय ब्रह्मचर्य सेवन, शुद्ध सात्त्विक आहार -पान और नियमित वर्तन है ।
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उपदेश नोंध
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__ मोरबी, आषाढ सुदी, १९५६ 'प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्न वदनकमलमंकः कामिनीसगशून्यः। ___ करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबंधवंध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥' 'तेरे दो चक्षु प्रशमरसमे डूबे हुए है, परमशात रसका अनुभव कर रहे है । तेरा मुखकमल प्रसन्न है; उसमे प्रसन्नता व्याप्त हो रही है। तेरी गोद स्त्रीके सगसे रहित है। तेरे दो हाथ शस्त्रसबधरहित हैं-तेरे हाथोमे शस्त्र नही हैं । इस तरह तू ही जगतमे वीतरागदेव है।'
देव कौन ? वीतराग । दर्शनयोग्य मुद्रा कौनसो ? जो वीतरागता सूचित करे वह ।
'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा' वैराग्यका उत्तम ग्रन्थ है। द्रव्यको, वस्तुको यथावत् दृष्टिमे रखकर इसमे वैराग्यका निरूपण किया है। द्रव्यका स्वरूप बतलानेवाले चार श्लोक अद्भुत है। इसके लिये इस ग्रथकी राह देखते थे। गत वर्ष ज्येष्ठ मासमे मद्रासकी ओर जाना हुआ था। कार्तिकस्वामी इस भूमिमे बहुत विचरे हैं । इस तरफके नग्न, भव्य, ऊँचे, अडोल वृत्तिसे खडे पहाड देखकर स्वामी कार्तिकेय आदिकी अडोल, वैराग्यमय दिगबरवृत्ति याद आती थी। नमस्कार उन स्वामी कार्तिकेय आदिको। -
मोरबी, श्रावण वदी ८, १९५६ 'षड्दर्शनसमुच्चय' और 'योगदृष्टिसमुच्चय' का भाषांतर गुजरातीमे करने योग्य है । 'षड्दर्शनसमुच्चय' का भाषातर हुआ है परन्तु उसे सुधारकर फिरसे करना योग्य है। धीरे धीरे होगा, करे। आनंदघनजीकी चौबीसीका अर्थ भी विवेचनके साथ लिखे ।
नमो दुर्वाररागादिवैरिवार निवारिणे ।
अर्हते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥ श्री हेमचन्द्राचार्य 'योगशास्त्र' की रचना करते हुए मगलाचरणमे वीतराग सर्वज्ञ अरिहत योगीनाथ महावीरको स्तुतिरूपसे नमस्कार करते है।
'जो रोके रुक नही सकते, जिनको रोकना बहुत बहुत मुश्किल है, ऐसे राग, द्वेष, अज्ञानरूपी शत्रुके समूहको जिन्होने रोका, जीता, जो वीतराग सर्वज्ञ हुए, वीतराग सर्वज्ञ होनेसे जो अर्हन्त पूजनीय हुए, और वीतराग अर्हन्त होनेसे, जिनका मोक्षके लिये प्रवर्तन है ऐसे भिन्न भिन्न योगियोंके जो नाथ हुए, नेता हुए, और इस तरह नाथ होनेसे जो जगतके नाथ, तात, और त्राता हुए, ऐसे जो महावीर हैं उन्ह नमस्कार हो । यहाँ सद्देवके अपायापगमातिशय, ज्ञानातिशय, वचनातिशय और पूजातिशय सूचित किया है। इस मगल स्ततिमे समग्र 'योगशास्त्र' का सार समा दिया है। सद्देवका निरूपण किया है। समग्र पस्तुस्वरूप, तत्त्वज्ञानका समावेश कर दिया है। खोलनेवाला खोजी चाहिये। ... लौकिक-मेलेमे वृत्तिको चचल करनेवाले प्रसग विशेष होते हैं। सच्चा मेला सत्सगका है। ऐसे नवृत्तिकी चचलता कम होती है, दूर होती है। इसलिये ज्ञानियोने सत्सग-मेलेका बखान किया है.
वढवाणकेम्प, भाद्रपद वदी, १९५६ ___'मोक्षमाला' के पाठ हमने माप माप कर लिखे हैं। पुनरावृत्तिके बारेमे आप यथासुख प्रवत्ति कर। कतिपय वाक्योके नीचे लकीर खीची है, वैसा करनेकी जरूरत नहीं है । श्रोता-वाचकको यथासंभव अपने अभिप्रायसे प्रेरित न करनेका लक्ष्य रखें। श्रोता-वाचकमे स्वत अभिप्राय उत्पन्न होने दें। सारासारके तोलनका कार्य स्वय वाचक-श्रोतापर छोड दें। हम उन्हें प्रेरित कर, उनमे स्वय उत्पन्न हो सकनेवाले अभिप्रायको रोक न दें।
उपदेश किया है।
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श्रीमद् राजचन्द्र 'मोक्षमाला' के "प्रज्ञावबोध' भागके १०८ मनके यहाँ लिखायेंगे।
परम सत्श्रुतके प्रचाररूप एक योजना सोची है। उसका प्रचार होकर परमार्थमाग प्रकाशित होगा।
बबई, माटुंगा, मार्गशीर्ष, १९५७ श्री 'शातसुधारस' का भी पुनः विवेचनरूप भाषातर करने योग्य है, सो कीजियेगा।
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बबई, शिव, मार्गशीर्ष, १९५७ 'देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यंते नातस्त्वमसि नो महान् ॥' - स्तुतिकार श्री समतभद्रसूरिको वीतरागदेव मानो कहते हो-'हे समतभद्र | यह हमारी अष्टप्रातिहार्य आदि विभूति तू देख, हमारा महत्त्व देख ।' तब सिंह गुफामेसे गम्भीर चालसे बाहर निकलकर जिस तरह गर्जना करता है उसी तरह श्री समतभद्रसूरि गर्जना करते हुए कहते है-'देवताओका आना, आकाशमे विचरना, चामरादि विभूतियोका भोग करना, चामर आदिके वैभवसे पूजनीय दिखाना यह तो मायावी इन्द्रजालिक भी बता सकता है। तेरे पास देवोका आना होता है, अथवा तू आकाशमे विचरता है, अथवा तू चामर छत्र आदि विभूतिका उपभोग करता है इसलिये तू हमारे मनको महान है | नही, नही, इसलिये तू हमारे मनको महान नही, उतनेसे तेरा महत्त्व नहीं। ऐसा महत्त्व तो मायावी इन्द्रजालिक भी दिखा सकता है।' तब फिर सद्देवका वास्तविक महत्त्व क्या है ? तो कहते है कि वीतरागता । इस तरह आगे बताते है।
___ ये श्री समतभद्रसूरि विक्रमकी दूसरी शताब्दीमे हुए थे। वे श्वेताबर-दिगबर दोनोमे एक सरीखे सन्मानित है । उन्होने देवागमस्तोत्र (उपयुक्त स्तुति इस स्तोत्रका प्रथम पद है) अथवा आप्तमीमासा रची है । तत्त्वार्थसूत्रके मगलाचरणकी टीका करते हुए यह देवागमस्तोत्र लिखा गया है और उसपर अष्टसहस्री टीका तथा चौरासी हजार श्लोकप्रमाण 'गधहस्ती महाभाष्य' टीका रची गयी हैं।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ .. यह इसका प्रथम मगल स्तोत्र है।
मोक्षमार्गके नेता, कर्मरूपी पर्वतके भेत्ता-भेदन करनेवाले, विश्व अर्थात् समग्र तत्त्वके ज्ञाता, जाननेवाले-उन्हे गुणोकी प्राप्तिके लिये मै वदन करता हूँ।
'आप्तमीमासा', 'योगबिन्दु' और 'उपमितिभवप्रपचकथा' का गजराती भाषातर कीजियेगा । 'योगविन्दु' का भाषातर हुआ है, 'उपमितिभवप्रपंच' का हो रहा है, परन्तु वे दोनो फिरसे करने योग्य है, उसे कीजियेगा, धीरे धीरे होगा।
लोककल्याण हितरूप है और वह कर्तव्य है। अपनी योग्यताको न्यूनतासे और जोखिमदारी न समझी जा सकनेसे अपकार न हो, यह भी ख्याल रखनेका है।
२२७ ___ मन पर्यायज्ञान किस तरह प्रगट होता है ? साधारणत. प्रत्येक जोवको मतिज्ञान होता है । उसके आश्रित श्रुतज्ञानमे वृद्धि होनेसे वह मतिज्ञानका बल बढाता है, इस तरह अनुक्रमसे मतिज्ञान निमल
१ देखें आक ९४६ । २ आक २७ से आक ३१ तक खभातके श्री त्रिभुवनभाईकी नोधमेसे लिये हैं।
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होनेसे आत्माको असयमता दूर होकर संयमता होती है, और उससे मन पर्यायज्ञान प्रगट होता हैं। उसके योगसे आत्मा दूसरेका अभिप्राय जान सकता है
लिंग-चिह्न देखने से दूसरेके क्रोध, हर्ष' आदि भाव जाने जा सकते हैं, यह मतिज्ञानका विषय है । वैसे चिह्न न देखनेसें जो भाव जाने जा सकते है वह मन पर्यायज्ञानका विषय है।
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पाँच इन्द्रियोके विषय संबन्ध
जिस जीवको मोहनीय कर्मरूपी कषायका त्याग करना हो, और 'जब वह उसका एकदम त्याग करना चाहेगा तब कर सकेगा' ऐसे विश्वासपर रहकर, जो क्रमश त्याग करनेका अभ्यास नही करता, वह एकदम त्याग करनेका प्रसग आनेपर मोहनीय कर्मके बलके आगे टिक नही सकता, क्योकि कर्मरूप शत्रु धीरे-धीरे निर्बल किये बिना निकाल देनेमे वह एकदम असमर्थ हो जाता है । आत्माकी निर्बलताके कारण उसपर मोहका प्राबल्य रहता है। उसका जोर कम करनेके लिये यदि आत्मा प्रयत्न करे तो एक ही बारमे उसपर जय पानेकी धारणमे वह ठगा जाता है। जब तक मोहवृत्ति लंडने के लिये सामने नहीं आती तभी तक मोहवश 'आत्मा अपनी बलवत्ता समझता है, परन्तु इमं प्रकारकी कसोटीका 'प्रसंग 'आनेपर आत्माको अपनी कायरता समझमे आती है । इसलिये जैसे बने वैसे पाँच इन्द्रियोंके विषयोको 'शिथिल करना, उसमें भी मुख्यत उपस्थ इन्द्रियको वशमे लाना, इस तरह अनुक्रमसे दूसरी इन्द्रियो के विषयोपर काबू पाना ।
}
इंद्रिय विषयरूपी क्षेत्रकी दो तसू जमीन' जीतने के लिये आत्मा असमर्थता बताता है और सारी "पृथ्वीको जीतनेमे समर्थता मानता है, यह कैसा आश्चर्यरूप है ?
~151",
प्रवृत्तिके कारण आत्मा निवृत्तिका विचार नही कर सकता, यो कहना मात्र एक बहाना है | यदि थोडे समय के लिये भी आत्मा प्रवृत्ति छोडकर प्रमादरहित होकर सदा निवृत्तिका विचार करे, तो उसका बल प्रवृत्तिमे भी अपना कार्य कर सकता है । क्योकि प्रत्येक वस्तुका अपनी न्यूनाधिक बलवत्ता के अनुसार हो अपना कार्य करनेका स्वभाव है । 'जिस तरह मादक वस्तु दूसरी खुराक के साथ अपने असली स्वभावके अनुसार परिणमन करनेको नही भूल जाती उसी तरह ज्ञान भी अपने स्वभावको नही भूलता । इसलिये प्रत्येक जीवको प्रमादरहित होकर योग, काल, निवृत्ति और मार्गका विचार निरतर करना चाहिये ।
२९
व्रत सबधी -
1
यदि प्रत्येक जोवको व्रत लेना हो तो स्पष्टताके साथ दूसरेकी साक्षीसे लेना चाहिये । उसमें स्वेच्छासे वर्तन नही करना चाहिये । व्रतमे रह सकनेवाला आगार रखा हो और कारण विशेषको लेकर वस्तुका उपयोग करना पड़े तो वैसा करनेमे स्वय अधिकारी नहीं बनना चाहिये। ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार वर्तन करना चाहिये । नही तो उसमे शिथिल हुआ जाता है, और व्रतका भंग हो जाता है ।
३०
मोह - कषाय सवधी :
प्रत्येक जीवकी अपेक्षा से ज्ञानीने क्रोध, मान, माया और लोभ, यो अनुक्रम रखा है, वह क्षय होनेकी अपेक्षा है ।
पहले कपायके क्षयसे अनुक्रमसे दूसरे कपायोका क्षय होता है, और अमुक अमुक जीवोकी अपेक्षा से मान, माया, , लोभ और क्रोध, ऐसा क्रम रखा है, वह देश, काल और क्षेत्र देखकर। पहले जीवकां
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श्रीमद राजचन्द्र
दूसरेसे ऊँचा माना जानेके लिये मान उत्पन्न होता है, उसके लिये वह छल-कपट करता है, और उससे पैसा पंदा करता है, और वैसे करनेमें विघ्न करनेवाले पर क्रोध करता है । इस प्रकार कपायकी प्रकृतियाँ अनुक्रममे बँधती है; जिसमे लोभको इतनी बलवत्तर मिठास है, कि उसमे जीव मान भी भूल जाता है, और उसकी परवाह नहीं करता, इसलिये मानरूपी कपायको कम करनेसे अनुक्रमसे दूसरे कषाय अपने आप कम हो जाते है ।
३१
आस्था तथा श्रद्धा
प्रत्येक जीवको जीवके अस्तित्वसे लेकर मोक्ष तककी पूर्णरूपसे श्रद्धा रखनी चाहिये । इसमे जरा भी शक नही रखनी चाहिये । इस जगह अश्रद्धा रखना, यह जीवके पतित होनेका कारण है, और यह ऐसा स्थानक है कि वहाँसे गिरनेसे कोई स्थिति नही रहती ।
अंतर्मुहूर्त्तमे मत्तर कोटाकोटि सागरोपमकी स्थिति बँधती है, जिसके कारण जीवको असख्यात भवोमे भ्रमण करना पड़ता है ।
चारित्रमोहसे पतित हुआ जीव तो ठिकाने आ जाता है, परन्तु दर्शनमोहसे पतित हुआ जीव ठिकाने नही आता, क्योकि समझने में फेर होनेसे करनेमे फेर हो जाता है । वीतरागरूप ज्ञानीके वचनोमे अन्यथा भाव होना सम्भव ही नही है । उसका अजलवन लेकर ध्रुवतारेकी भाँति श्रद्धा इतनी दृढ करना कि कभी विचलित न हो । जव जव शका होनेका प्रसंग आये तव तव जीवको विचार करना चाहिये कि उसमे अपनी भूल ही होती है। वीतराग पुरुपोने जिस मतिसे ज्ञान कहा है, वह मति इस जीवमे है नही; और इस जीवको मति तो शाकमे नमक कम पडा हो तो उतनेमे ही रुक जाती है। तो फिर वीतरागके ज्ञानकी मतिका मुकाबला कहाँसे कर सके ? इसलिये वारहवे गुणस्थानके अन्त तक भी जीवको ज्ञानीका अवलवन लेना चाहिये, ऐसा कहा है ।
अधिकारी न होनेपर भी जो ऊँचे ज्ञानका उपदेश किया जाता है वह मात्र इसलिये कि जीवने अपनेको ज्ञानी तथा चतुर मान लिया है, उसका मान नष्ट हो और जो नीचेके स्थानकोसे वातें कही जाती है, वे मात्र इसलिये कि वैमा प्रसंग प्राप्त होनेपर जीव नोचेका नीचे ही रहे ।
बबई, आश्विन १९४९
३२
जे सबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदसिणो । असुद्ध तेसि परक्कतं सफलं होइ सव्वसो ॥ २२ ॥ जे य बुद्धा महाभागा वोरा सम्मत्तदसिणो । सुद्धं तेसि परक्कतं अफलं होइ सन्वसो ॥२३॥
- श्री सूयगडाग सूत्र, वीर्याध्ययन टवाँ, गाथा २२-२३
ऊपरकी गाथाओमे जहाँ 'सफल' शब्द है वहाँ 'अफल' ठीक लगता है, और जहाँ 'अफल' शब्द है वहाँ 'मफल' शब्द ठीक लगता है, इसलिये उसमे लेखन-दोप है या वरावर है ? इसका समाधान - यहाँ लेखन-दोप नहीं हैं । जहाँ 'सफल' शब्द है वहाँ सफल ठीक है और जहाँ 'अफल' शब्द है वहां अफल ठीक है ।
मिथ्यादृष्टिकी क्रिया सफल है-फलमहित है, अर्थात् उसे पुण्य पापका फल भोगना है । सम्यग्दृष्टिकी क्रिया अफल है-फलरहित है, उसे फल नही भोगना है, अर्थात् निर्जरा है। एककी, मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको मसारहेतुक सफलता है, ओर दूसरेकी, मम्यग्दृष्टिकी क्रियाकी ससारहेतुक अफलता है, यो परमार्थ समझना योग्य है ।
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उपदेश नोध
६८७ . .. ...
. ३३ - '" वैशाख, १९५० . नित्यनियम, .....
। ॐ श्रीमत्परमगुरुभ्यो नमः
।. सवेरे उठकर ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करके रात-दिनमे जो कुछ अठारह पापस्थानकमे प्रवृत्ति हई हो, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र, सबंधी तथा पचपरमपद सवधी जो कुछ अपराधु हुआ हो, किसी भी जीवके प्रति किचित् मात्र भी अपराव किया हो, वह जाने अनजाने, हुआ हो, उस सबको क्षमाना, उसकी निंदा करना, विशेष निंदा करना, आत्मामेसे उस अपराधका - विसर्जन करके नि शल्य. होना। रात्रिको सोते समय भी इसी तरह करता।.... ... ..... . . . ... ... . ... श्री सत्पुरुषके दर्शन करके चार,घडोके लिये सर्व सावध व्यापारसे निवृत्त होकर एक आसनपर स्थिति करना। उस समयमे 'परमगुरु' शब्दकी पांच मालाएं गिनकर दो घडी तक सत्शास्त्रका अध्ययन करना । उसके बाद एक घड़ी कायोत्सर्ग करके श्री सत्पुरुषोंके वचनोका, उस कायोत्सर्गमे जप-रटन करके सवृत्तिका अनुसधान करना। उसके बाद आधी घडीमे भक्तिको वृत्तिको उत्साहित करनेवाले पद (आज्ञानुसार) बोलना, । आधी घड़ीमे 'परमगुरु' शब्दका कायोत्सर्गके रूपमे जप, करना, और 'सर्वज्ञदेव' इस नामको पाँच मालाएं गिनना।
अभी अध्ययन करने योग्य शास्त्र-वैराग्यशतक, इद्रियपराजयशतक, शातसुधारस, अध्यात्मकल्पद्रुम, योगदृष्टिसमुच्चय, नवतत्त्व,, मूलपद्धति,कर्मग्रथ, धर्मबिंदु, आत्मानुशासन, भावनाबोध, मोक्षमार्गप्रकाश, मोक्षमाला, उपमितिभवप्रपच, अध्यात्मसार, श्री आनदघनजी कृत चौबीसी मेसे ये स्तवन-१, ३, ५, ७, ८, ९, १०, १३, १५, १६, १७, १९, २२ । । । सात व्यसन-(जूआ, मास, मदिरा, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्री) का त्याग। ,
(अथ सप्तव्यसन नाम चौपाई) । .. "जवा', मामिष, मदिरा, दारी, आहेटक', चोरी', परनारी । '
.. . एहि सप्तव्यसन ''दुःखदाई,' - दुरितमूळ दुर्गतिके जाई॥"... . ५,' दस सप्तव्यसनका त्याग । रात्रिभोजनका त्याग । अमुकको छोड़कर सभी, वनस्पतिका त्याग । अमुक तिथियोमे अत्यक्त वनस्पतिका' भी प्रतिबंध । अमुक रेसका त्याग । अब्रह्मचर्यका त्याग ! परिग्रह परिमाण । - शरीरमे विशेष रोग आदिके उपद्रवसे, बेभानपनसे, राजा अथवा देव आदिके बलात्कारसे यहाँ बताये हए नियमोमे प्रवृत्ति करनेके लिये अशक्त हुआ जाये तो उसके लिये पश्चात्तापका स्थानक समझना । स्वेच्छासे उस नियममे कुछ भी न्यूनाधिकता करनेकी प्रतिज्ञा । सत्पुरुषकी आज्ञासे उस नियममे फेरफार करनेसे नियम भग नही!
३४ . श्री खभात, आसोज सुदो, १९५१
सत्य वस्तके यथार्थ स्वरूपको जैसा जानना, अनुभव करना वैसा ही कहना यह सत्य है। यह दो प्रकारका है-'परमार्थसत्य' और 'व्यवहारसत्य'। ..
'परमार्थसत्य' अर्थात् आत्माके सिवाय दूसरा कोई पदार्थ आत्माका नही हो सकता, ऐसा निश्चय जानकर, भाषा बोलनेमे व्यवहारसे देह, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, गृह आदि वस्तुओके प्रमगमे वोलनेसे १ यह जो नित्यनियम बताया हे वह 'धीमद् के उपदेशामृतमेसे लेकर श्री खभातके 0 मुमुक्षभाईने योजित किया है। २ खभातके एक मुमुक्षु भाईने यथाशक्ति स्मृतिमे रखकर की हुई नोप ।
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श्रीमद राजचन्द्र
पहले एक आत्माके सिवाय दूसरा कोई मेरा नही है, यह उपयोग रहना चाहिये । अन्य आत्माके सम्बन्धमे बोलते समय आत्मामे जाति, लिंग और वैसे औपचारिक भेदवाला वह आत्मा न होनेपर भी मात्र व्यवहारनयसे कार्य के लिये सवोधित किया जाता है, इस प्रकार उपयोगपूर्वक बोला जाये तो वह पारमार्थिक सत्य भाषा है ऐसा समझें ।
१ दृष्टात - एक मनुष्य अपनी आरोपित देहकी, घरकी, स्त्रीकी, पुत्रकी या अन्य पदार्थको बात करता हो, उस समय स्पष्टरूपसे उन सब पदार्थोंसे वक्ता में भिन्न हूँ, और वे मेरे नहीं है' इस प्रकार स्पष्टरूपसे बोलनेवालेको भान हो तो वह सत्य कहा जाता है ।
२ दृष्टात - जिस प्रकार कोई ग्रन्थकार श्रेणिक राजा और चेलना रानीका वर्णन करता हो, तो वे दोनो आत्मा थे और मात्र श्रेणिकके भवकी अपेक्षासे उनका सम्बन्ध, "अथवा स्त्री, पुत्र, धन, राज्य, आदिका सम्बन्ध था, यह बात ध्यानमे रखनेके बाद बोलनेकी प्रवृत्ति करे, यही परमार्थ सत्य है ।
व्यवहार सत्यके आये बिना परमार्थसत्य वचनका बोलना नही हो सकता । इसलिये व्यवहारसत्य नीचे अनुसार जानें
जिस प्रकारसे वस्तुका स्वरूप देखनेसे, अनुभव करनेसे, श्रवणसे अथवा पढ़ने से हमे अनुभवमे आया हो उसी प्रकारसे यथातथ्यरूपसे वस्तुका स्वरूप कहना ओर उस प्रसगपर वचन बोलना उसका नाम व्यवहारसत्य है ।
दृष्टात - जैसे कि अमुक मनुष्यका लाल घोडा जगलमे दिनके बारह बजे देखा हो, और किसीके पूछने से उसी प्रकार से यथातथ्य वचन बोलना यह व्यवहारसत्य है । इसमे भी किसी प्राणीके प्राणका नाश होता हो, अथवा उन्मत्ततासे वचन बोला गया हो, वह यद्यपि सच्चा हो तो भी असत्य तुल्य ही है, ऐसा जानकर प्रवृत्ति करें । सत्य से विपरीत उसे असत्य कहा जाता है ।
क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगंछा, अज्ञान आदिसे बोला जाता है । आदि मोहनी अगभूत हैं । उसकी स्थिति दूसरे सभी कर्मोसे अधिक अर्थात् (७०) सत्तर कोडाकोडी सागरोपमकी है । इस कर्मका क्षय हुए बिना ज्ञानावरण आदि कर्मोका सम्पूर्णतासे क्षय नही हो सकता । यद्यपि गणितमे प्रथम ज्ञानावरण आदि कर्म कहे है, परन्तु इस कर्मको बहुत महत्ता है, क्योकि ससारके मूलभूत रागद्वेषका यह मूलस्थान है, इसलिये भवभ्रमण करनेमे इस कर्मकी मुख्यता है, ऐसी मोहनीयकर्मकी बलवत्ता है, फिर भी उसका क्षय करना सरल है । अर्थात् जैसे वेदनीयकर्म भोगे बिना निष्फल नही होता परन्तु इस कर्मके लिये वैसा नही हे । मोहनीय कर्मकी प्रकृतिरूप क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कपाय तथा नोकपायका अनुक्रमसे क्षमा, नम्रता, निरभिमानता, सरलता, निर्दभता और सतोष आदिको विपक्षभावनासे अर्थात् मात्र विचार करनेसे उपर्युक्त कषाय निष्फल किये जा सकते है, नोकषाय भी विचारसे क्षीण किये जा सकते है, अर्थात् उसके लिये बाह्य कुछ नही करना पड़ता ।
'मुनि' यह नाम भी इस पूर्वोक्त रीतिसे विचार कर वचन बोलने से सत्य हे । बहुत करके प्रयोजनके विना वोलना ही नही, उसका नाम मुनित्व है। रागद्वेप और अज्ञानके बिना यथास्थित वस्तुका स्वरूप कहते बोलते हुए भी मुनित्व - मौन समझें । पूर्व तीर्थंकर आदि महात्माओने ऐसा ही विचार कर मौन धारण किया था, और लगभग साढे बारह वर्ष मौन धारण करनेवाले भगवान वीर प्रभुने ऐसे उत्कृष्ट विचारसे आत्मामेसे फिरा-फिराकर मोहनीयकर्म के सम्बन्धको बाहर निकाल करके केवलज्ञानदर्शन प्रगट किया था।
आत्मा चाहे तो सत्य बोलना कुछ कठिन नही है । व्यवहारसत्यभापा वहुत बार बोली जाती है, परन्तु परमार्थसत्य बोलने में नही आया, इसीलिये इस जीवका भवभ्रमण नही मिटता । सम्यक्त्व होने के
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उपदेश नोंष
६८९ बाद अभ्याससे परमार्थसत्य बोला जा सकता है, और फिर विशेष अभ्याससे सहज उपयोग रहा करता है । असत्य बोले बिना माया नही हो सकती । विश्वासघात करना इसका भी असत्यमे समावेश होता है । झूठे दस्तावेज करना, इसे भी असत्य जाने । अनुभव करने योग्य पदार्थके स्वरूपका अनुभव किये बिना और इन्द्रिय द्वारा जानने योग्य पदार्थके स्वरूपको जाने बिना उपदेश करना, इसे भी असत्य समझें । - तो फिर तप इत्यादि मान आदिको भावनासे करके, आत्महितार्थ करने जैसा देखाव करना असत्य ही है, ऐसा समझें । अखड सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तभी सम्पूर्णरूप से परमार्थसत्य वचन बोला जा सकता है; अर्थात् तभी आत्मामेसे अन्य पदार्थको भिन्नरूपसे उपयोगमे लेकर वचनकी प्रवृत्ति हो सकती है ।
कोई पूछे कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत तो उपयोगपूर्वक न बोलते हुए 'लोक शाश्वत' है ऐसा' यदि कहे तो असत्य वचन बोला गया ऐसा होता है। उस वचनको बोलते हुए, लोक शाश्वत क्यो कहा गया, उसका कारण ध्यान मे रखकर वह बोले तो वह सत्य समझा जाता है ।
'इस' र्व्यवहार सत्यके भी दो प्रकार हो सकते हैं - एक सर्वथा व्यवहारसत्य और दूसरा देश व्यवहारसत्य ।
निश्चय सत्यपर उपयोग रखकर, प्रिय अर्थात् जो वचन अन्यको अथवा जिसके सवधमे बोला गया हो उसे प्रीतिकर हो, और पथ्य एव गुणकर हो, ऐसा ही सत्य वचन बोलनेवाले प्राय सर्वविरति मुनिराज हो सकते हैं ।'
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ससारपर अभाव रखनेवाला होनेपर भी पूर्वकर्मसे, अथवा दूसरे कारणसे ससारमे रहनेवाले गृहस्थको देशसे सत्यवचन बोलनेका नियम रखना योग्य है । वह मुख्यतः इस प्रकार है .
'कुन्यालीक, मनुष्यसंबधी असत्य, गवालीक, पशुसबधी असत्य, भौमालीक, भूमिसबधी असत्य, झूठी साक्षी, और याती असत्य अर्थात् विश्वाससे रखनेके लिये दिये हुए द्रव्यादि पदार्थ वापस मांगनेपर, उस सबंधी इनकार कर देना, 'ये पाँच स्थूल भेद है । इस सम्बन्ध॑मे॒ वचन बोलते हुए परमार्थं सत्य पर ध्यान रखकर, यथास्थित अर्थात् जिस प्रकारसे वस्तुओका सम्यक् स्वरूप हो उसी प्रकारसे ही कहनेका जो नियम है उसे देश से व्रत धारण करनेवालेको अवश्य करना योग्य है । इस कहे हुए सत्य सम्बन्धी उपदेशका विचार कर उस क्रममे अवश्य आना ही फलदायक है ।
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सेत्पुरुष अन्याय नही करते । सत्पुरुष अन्याय करेंगे तो इस जगतमे वर्षा किसके लिये बरसेगी ? सूर्य किसके लिये प्रकाशित होगा ? वायु किसके लिये चलेगी ?
आत्मा कैसा अपूर्व पदार्थ है । जब तक शरीरमे होता है--भले ही हजारों बरस रहे, शरीर नही सडता । आत्मा पारे जैसा है । चेतन चला जाये तो शरीर शब हो जाये और सडने लगे ! - जीवमे जागृति और पुरुषार्थ चाहिये । कर्मबन्ध हो जानेके बाद भी उसमेसे (सत्तामेसे उदय- आनेसे . पहले) छूटना हो तो अबाधाकाल पूर्ण होने तकमे छूटा जा सकता है ।
पुण्य, पाप और आयु, ये किसी दूसरेको नही दिये जा सकते। उन्हे प्रत्येक स्वय ही भोगता है । स्वच्छदसे, स्वमतिकल्पनासे और सदगुरुकी आज्ञा के बिना ध्यान करना यह तरगरूप है और उपदेश, व्याख्यान करना यह अभिमानरूप है ।
"
हा आत्मा पथिक है और देह वृक्ष है । इस देहरूपी वृक्षमे (वृक्षके नीचे) जीवरूपी पथिकबटोही विश्राति लेने बैठा है । वह पथिक वृक्षको ही अपना मानने लगे यह कैसे चलेगा ?
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'सुन्दरविलास' सुन्दर, अच्छा ग्रन्थ है। उसमे कहां कमी, भूल हे उसे हम जानते हैं। वह कमी दूसरेकी समझमे आना मुश्किल है। उपदेशके लिये यह ग्रन्थ उपकारी है।
छः दर्शनोपर, दृष्टात-छ भिन्न भिन्न वैद्योकी दुकान है। उनमे एक वैद्य सम्पूर्ण सच्चा है। वह सब रोगोको, उनके कारणोको और उनके दूर करनेके उपायोको जानता है। उसका निदान एवं चिकित्सा सच्चे होनेसे रोगीका रोग निर्मल हो जाता है। वैद्य कमाई भी अच्छी करता है । यह देखकर दूसरे पाँच कूटवैद्य भी अपनी-अपनी दुकान खोलते हैं। उसमे जितनी सच्चे वैद्यके घरकी दवा अपने पास होती है उतना तो रोगीका रोग वे दूर करते हैं, और दूसरी अपनी कल्पनासे अपने घरकी दवा देते हैं, उससे उलटा रोग वढ जाता है, परन्तु दवा सस्ती देते है इसलिये लोभके मारे लोग लेनेके लिये बहुत ललचाते हैं, और उलटा नुकसान उठाते हैं।
इसका उपनय यह है कि सच्चा वैद्य वीतरागदर्शन है, जो सम्पूर्ण सत्य, स्वरूप है। वह मोह, विपय आदिको, रागद्वेपको, हिंसा आदिको सम्पूर्ण दूर करनेको कहता है जो विषयविवश रोगीको महँगा पड़ता है, अच्छा नही लगता। और दूसरे पाँच कूटवैद्य है वे कुदर्शन हैं, वे जितनी वीतरागके घरकी - बातें करते हैं उस हद तक तो रोग दूर करनेकी बात है, परन्तु साथ साथ मोहकी, ससारवृद्धिकी, मिथ्यात्वकी, हिंसा आदिकी धर्मके बहानेमे बात करते है, वह अपनी कल्पनाकी है, और वह ससाररूप, रोग दूर करनेके बदले वृद्धिका कारण होती है। विषयमे आसक्त पामर ससारीको मोहकी बाते तो मीठो लगती है, अर्थात् सस्ती पडती हैं, इसलिये कूट वैद्यकी तरफ आकर्षित होता है, परन्तु परिणाममे अधिक रोगी हो जाता है।
वीतरागदर्शन त्रिवेद्य जैसा है, अर्थात् (१) रोगीका रोग दूर करता है (२) नोरोगीको. रोग होने नही देता, और (३) आरोग्यकी पुष्टि करता है। अर्थात् (१) सम्यग्दर्शनसे जीवका मिथ्यात्व रोग दूर करता है, (२) सम्यग्ज्ञानसे जीवको रोगका भोग होनेसे बचाता है और (३) सम्यक चारित्रसे सम्पूर्ण . शुद्ध' चेतनारूप आरोग्यकी पुष्टि करता है।'
स० १९५४ - जो सर्व वासनाका क्षय करता है वह सन्यासी है । जो इन्द्रियोको काबूमे रखता है वह गोसाई है। जो ससारका पार पाता है वह यति (जति) है।
समकितीको आठ मदोमेसे एक भी मद नही होता।
(१) अविनय, (२) अहकार, (३) अर्धदग्धता-अपनेको ज्ञान न होते हुए भी अपनेको ज्ञानी मान बैठना, और (४) रसलुब्धता--इन चारमेसे एक भी दोष हो तो जीवको समकित नहीं होता, ऐसा श्री 'ठाणागसूत्र'मे कहा है ।-:.-... ,
मुनिको व्याख्यान करना,पडता हो तो स्वय स्वाध्याय करता है ऐसा भाव रखकर व्याख्यान करे । मुनिको मवेरे स्वाध्यायकी आज्ञा है, उसे मनमे ही क्यिा जाता है, उसके बदले व्याख्यानरूप स्वाध्याय ऊंचे स्वरसे, मान, पूजा, सत्कार, आहार आदिको अपेक्षाके बिना केवल निष्काम बुद्धिसे, आत्मार्थके, . लिये करे। .. .. ., :..
.:., . ... क्रोध आदि कषायका उदय हो, तव उसके विरुद्ध होकर उसे बताना ;कि तूने मुझे अनादि कालसे हैरान किया है। अब मैं इस तरह तेरा बल नहीं चलने दूंगा । देख, अब मैं तेरे विरुद्ध युद्ध करने बैठा हूँ।
निद्रा आदि प्रकृति, -(क्रोध आदि-अनादि वैरी ), उनके प्रति, क्षत्रियभावसे वर्तन करें, उन्हे अपमानित करें, फिर भी न मानें तो उन्हे क्रूर बनकर शात करें, फिर भी न, मानें तो ख्यालमे रखकर,
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उपदेश नौंध वक्त आनेपर उन्हे मार डालें । यो शूर क्षत्रियस्वभावसे वर्तन करें, जिससे वैरीका पराभव होकर समाधि सुख मिले।
' 'प्रभुपूजामे पुष्प चढाये जाते हैं, उसमे जिसं गृहस्थको हरी वनस्पतिका नियम नही हे वह अपने हेतुसे उसका उपयोग कम करके प्रभुको फूल चढाये। त्यागी मुनिको तो पुष्प चढानेका अथवा उसके उपदेशका सर्वथा निषेध है ऐसा पूर्वाचार्योंका प्रवचन है। -
कोई सामान्य मुमुक्षु भाई-बहन साधनके बारेमे पूछे तो ये साधन बतायें--,,
( १) सात व्यसनका त्याग। (६ ) 'सर्वज्ञदेव' और 'परमगुरु' की पांच पांच मालाओ" . ( २) हरी वनस्पतिका त्याग। , का जप । . . . (३) कदमूलका त्याग। (७) भक्तिरहस्य- दोहाका' पठन मनन।
(४) अभक्ष्यका त्याग । (८) क्षमापनाका पाठ । '.
(५) रात्रिभोजनका त्याग। (९) सत्समागम और सत्शास्त्रका सेवन ।., _ 'सिज्झति', फिर 'बुज्झति', फिर 'मुच्चति', फिर 'परिणिक्वायति', फिर 'सव्वदुक्खाणमतकरति', इन शब्दोका रहस्यार्थ विचारने योग्य है । 'सिज्झति' अर्थात् सिद्ध होते हैं, उसके बाद 'बुज्झति' अर्थात् बोधसहित-ज्ञानसहित होते हैं ऐसा चित किया है। सिद्ध होने के बाद कोई आत्माकी शून्य (ज्ञानरहित) दशा मानते है उसका निषेध बुज्झति से किया गया। इस तरह सिद्ध और बुद्ध होनेके बाद 'मुच्चति' अर्थात् सर्व कर्मसे रहित होते हैं और उसके बाद परिणिव्वायति' अर्थात् निर्वाण पाते हैं, कर्मरहित होनेसे फिर जन्म-अवतार धारण नहीं करते । मुक्त जीव कारणविशेषसे अवतार धारण करते हैं, इस मतका 'परिणिवायति से निषेध सूचित किया है। भवका कारण कर्म, उससे सर्वथा जो मुक्त हुए हैं वे फिरसे भव धारण नहीं करते । कारणके बिना कार्य नहीं होता। इस तरह निर्वाणप्राप्त 'सव्वदुक्खाणमतकरति' अर्थात् सर्व दु खोका अत करते हैं, उनको दुःखका, सर्वथा अभाव हो जाता है, वे सहज स्वाभाविक सुख आनन्दका अनुभव करते हैं । ऐसा कहकर मुक्त आत्माओको शून्यता है, आनन्द नही है इस मतका निषेध सूचित किया है।
-
३७ 'अज्ञानतिमिराधानां ज्ञानाजनशलाकया।
नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ अज्ञानरूपी तिमिर-अधकारसे जो अघ हैं, उनके नेत्रोको लिसने ज्ञानरूपी अजनको शलाका-. अंजनकी सलाईसे खोला, उस श्री सद्गुरुको नमस्कार ।।
'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। .
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥' मोक्षमार्गके नेता-मोक्षमार्गमे ले जानेवाले, कर्मरूप पर्वतके भेता-भेदन करनेवाले, और समग्र तत्त्वोंके ज्ञाता-जाननेवाले, उन्हे मैं उन गुणोकी प्राप्ति के लिये वन्दन करता हूँ।
यहाँ 'मोक्षमार्गके नेता' कहकर आत्माके अस्तित्वसे लेकर उसके मोक्ष और मोक्षके उपायसहित सभी पदो तथा मोक्षप्राप्तोका स्वीकार किया है तथा जोव, अजीव आदि सभी तत्त्वोका स्वीकार किया है । मोक्ष बन्धकी अपेक्षा रखता है, वध, बधके कारणो-आस्रव, पुण्य-पाप कर्म और बंधनेवाले नित्य अविनाशी आत्माकी अपेक्षा रखता है। इसी तरह मोक्ष, मोक्षमार्गको, सवरकी, निर्जराकी, वधके कारणो१ आक २६४ के बीस दोहे ।
२. मोक्षमाला शिलापाठ ५६ ।
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धोमद राजचन्द्र को दूर करनेल्प उपायकी अपेक्षा रखता है। जिसने मार्ग देखा, जाना, और अनुभव किया है वह नेता हो सकता है। अर्थात् मोक्षमार्गके नेता ऐसा कहकर उसे प्राप्त सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतरागका स्वीकार किया
है। इस तरह मोक्षमार्गके नेता इस विशेषणसे जोव, अजीव आदि नवो तत्त्व, छहो द्रव्य, आत्माके अस्तित्व __ आदि छहो पद और मुक्त आत्माका स्वीकार किया है।
मोक्षमार्गका उपदेश करनेका, उस मार्गमे ले जानेका कार्य देहधारी साकार मुक्त पुरुप कर सकता है, देहरहित निराकार नही कर सकता ऐसा कहकर आत्मा स्वय परमात्मा हो सकता है, मुक्त हो सकता है, ऐसा देहधारी मुक्त पुरुप ही उपदेश कर सकता है ऐसा सूचित किया है, इससे देहरहित अपौरुषेय वोधका निषेध किया है।
'कर्मरूप पर्वतके भेदन करनेवाले' ऐसा कहकर यह सूचित किया है कि कर्मरूप पर्वतोको तोड़नेसे मोक्ष होता है; अर्थात् कर्मरूप पर्वतोको स्ववीर्य द्वारा देहधारीरूपसे तोड़ा, और इससे जीवन्मुक्त होकर मोक्षमार्गके नेता, मोक्षमार्गके बतानेवाले हुए। पुन. पुन. देह धारण करनेका, जन्म-मरणरूप ससारका कारण कर्म है, उसका समूल छेदन-नाश करनेसे पुन. उन्हे देह धारण करना नही रहता यह सूचित किया है । मुक्त आत्मा फिरसे अवतार नही लेते ऐसा सूचित किया है।
विश्वतत्त्वके ज्ञाता'--समस्त द्रव्यपर्यायात्मक लोकालोकके--विश्वके जाननेवाले यह कहकर मुक्त आत्माकी अखड स्वपर-ज्ञायकता सूचित की है । मुक्त आत्मा सदा ज्ञानरूप ही है यह सूचित किया है।
'जो इन गुणोंसे सहित है उन्हे उन गुणोकी प्राप्तिके लिये मैं वदन करता हूँ', यह कहकर परम आप्त, मोक्षमार्गके लिये विश्वास करने योग्य, वन्दन करने योग्य, भक्ति करने योग्य जिसकी आज्ञाम चलनेसे नि सशय मोक्ष प्राप्त होता है, उन्हे प्रगट हुए गुणोंकी प्राप्ति होती है, वे गुण प्रगट होते हैं, ऐसा कौन होता हे यह सूचित किया है। उपर्युक्त गुणोवाले मुक्त परम आप्त वन्दन योग्य होते हैं, उन्होने जो बताया वह मोक्षमार्ग है, और उनको भक्तिसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, उन्हे प्रगट हुए गुण, उनकी आज्ञामे चलनेवाले भक्तिमानको प्रगट होते हैं यह सूचित किया है।
श्री खेडा, द्वि० आसोज वदो, १९५४ प्र०-आत्मा है ? श्रीमदने उत्तर दिया-हॉ, आत्मा है। प्र०-अनुभवसे कहते है कि आत्मा है ?
उ०-हाँ, अनुभवसे कहते है कि आत्मा है । शक्करके स्वादका वर्णन नही हो सकता । वह तो अनुभवगोचर है, इसी तरह आत्माका वर्णन नही हो सकता, वह भी अनुभवगोचर है, परन्तु वह है हो ।
प्र०-जीव एक है या अनेक है ? आपके अनुभवका उत्तर चाहता हूँ। उ०-जीव अनेक हैं। प्र-जड, कर्म यह वस्तुत है या मायिक है ? उ.-जड, कर्म यह वस्तुतः है, मायिक नहीं है ' प्र०-पुनर्जन्म है ? उ०-हाँ, पुनर्जन्म है। प्र.-वेदातको मान्य मायिक ईश्वरका अस्तित्व आप मानते हैं ? उ०-नही। * श्री मेटाके एक वेदातविद् विद्वान वकील पचदीके लेखक भट्ट पूजाभाई सोमेश्वरका यह प्रसग है।
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उपदेश नोध
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प्र०-दर्पणमे पडनेवाला प्रतिबिंब मात्र खाली देखाव है या किसी, तत्त्वका बना हुना हे ? ,
उ०-दर्पणमे पड़नेवाला प्रतिबिम्ब मात्र खाली देखाव नही है, वह अमुक तत्त्वका बना हुआ है। । ..., , .. .
३९ । मोरबी; माघ वदी ९, सोम (रातमे), १९५५ F, कर्मकी मूल प्रकृतियाँ आठ है, उनमे चार घातिनी और चार अघातिनी कही जाती हैं। । ।' ..' चार घातिनीका धर्म आत्माके गुणका घात करना है. 'अर्थात् (१) उस गुणको आवरण करना, अथवा.(२) उस गुणके बल-वीर्यका निरोध करना, अथवा (३) उसे विकल करना है, और इसीलिये उसः' प्रकृतिको 'घातिनी' सज्ञा दी है। । _जो आत्माके गुण ज्ञान और दर्शनका आवरण करता है उसे अनुक्रमसे (१) ज्ञानावरणीय और (१) दर्शनावरणीय नाम दिया है । अन्तराय प्रकृति इस गुणको आवरण नही करती, परन्तु उसके भोग, उपभोग आदिको, उसके बलवीर्यको रोकती है। यहाँ पर आत्मा भोग आदिको, समझता है, जानता-देखता है, इसलिये आवरण नहीं है, परन्तु समझते हुए भी भोग आदिमे विघ्न अन्तराय करती है, इसलिये उसे आवरण नही परतु अतराय प्रकृति कहा है।
, ; इस तरह तीन आत्मघातिनी प्रकृतियाँ हुई। ,चौथी, घातिनी प्रकृति, मोहनीय है। यह प्रकृति आवरण नही करतो, परन्तु आत्माको मूच्छित करके, मोहित करके, विकल करती है । ज्ञान-दर्शन होते हुए भी, अंतराय न होते हुए भी आत्माको कभी विकल,करती है, उलटा पट्टा बँधा देतो है, व्याकुल कर देती है, इसलिये इसे मोहनीय कहा है। इस तरह ये चार सर्व घातिनी प्रकृतियाँ कही। दूसरी चार प्रकृतियाँ यद्यपि आत्माके प्रदेशोके साथ लगी हुई है तथा अपना कार्य किया करती है, और उदयके अनुसार वेदी जाती हैं, तथापि वे 'आत्माके गुणको आवरण करनेरूपसे 'या अतराय करनेरूपसे या उसे विकल करनेरूपसे घातक नहीं है, इसलिये उन्हे आघातिनी कहा है।
४० -- - स्त्री, परिग्रह आदिमे जितना, मूर्छाभाव रहता है उतना ज्ञानका तारतम्य न्यून है, ऐसा श्री तीर्थकरने निरूपण किया है। सपूर्ण ज्ञानमे वह मूर्छा नही होती। .
1. श्री ज्ञानीपुरुष ससारमे किस प्रकारसे, रहते हैं ? आँखमे जैसे रज खटकती रहती हे वैसे ज्ञानीको किसी कारणसे या उपाधि प्रसगसे कुछ हुआ हो तो वह मगजमे पाँच दस सेर जितना बोझा हो पडता है । और उसका क्षय होता है-तभी शान्ति होती है। स्त्री आदिके, प्रसगमे आत्माको अतिशय अतिशय समीपता एकदम प्रगटरूपसे भासित होती है।
सामान्यरूपसे स्त्री, चदन, आरोग्य आदिसे साता और ज्वर आदिसे असाता रहती है, वह ज्ञानी और अज्ञानी दोनोको समान है । ज्ञानीको उस उस प्रसंगमे हर्प-विषादका हेतु नही होता ।
४१. । चार गोलोंके दृष्टातसे जीवके चार प्रकारसे भेद हो सकते है।
१ मोमका गोला। २. लाखका गोला। ३. लकडीका गोला। ४. मिट्टीका गोला । *खभातके श्री अवालालभाईकी लिखी नोटमेसे ।
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भोमद् राजचन्द्र
१ प्रथम प्रकारके जीव मोमके गोले जैसे कहे हैं।
मोमका गोला जिस तरह ताप लगनेसे पिघल जाता है, और फिर ठण्डी लगनेसे वैसाका वैसा हो जाता है, उसी तरह ससारी जीवको सत्पुरुषका बोध सुनकर संसारसे वैराग्य हुआ, वह असार ससारकी निवृत्तिका चिंतन करने लगा, कुटुम्बके पास आकर कहता है कि इस असार ससारसे मैं निवृत्त होना चाहता हूँ | इस बातको सुनकर कुटुम्बी कोपयुक्त हुए । अबसे तू इस तरफ मत जाना। अब जायेगा तो तेरेपर सख्ती करेंगे, इत्यादि कहकर सन्तका अवर्णवाद बोलकर वहाँ जाना रोक दे। इस प्रकार कुटुम्बके भयसे, लज्जासे जीव सत्पुरुषके पास जानेसे रुक जाये, और फिर ससार कार्यमे प्रवृत्ति करने लगे । ये प्रथम प्रकारके जीव कहे हैं ।
.२ दूसरे प्रकारके जीव लाखके गोले जैसे कहे है।
लाखका गोला तापसे नही पिघल जाता परन्तु अग्निसे. पिघल जाता है। इस तरहका जीव सतका बोध सुनकर ससारसे उदासीन होकर यह चिन्तन करे कि इस दुखरूप संसारसे निवृत्त होना है, ऐसा चिन्तन करके कुटुम्बके पास जाकर कहे कि 'मै ससारसे निवृत्त होना चाहता हूँ। मुझे यह झूठ बोलकर व्यापार करना अनुकूल नही आयेगा,' इत्यादि कहनेके वाद कुटुम्बोजन उसे सख्ती और स्नेहके वचन कहे तथा स्त्रीके वचन उसे एकातके समयमे भोगमे तदाकार कर डालें। स्त्रीका अग्निरूप शरीर देखकर दूसरे प्रकारके जीव तदाकार हो जायें । सन्तके चरणसे दूर हो जायें। '', '.. .
३ तीसरे प्रकारके जीव काष्ठके गोले जैसे कहे है। . ", ___ वह जीव सतका बोध सुनकर ससारसे उदास हो गया। यह ससार असार है, ऐसा विचार करता हुआ कुटुम्ब आदिके पास आकर कहता है कि 'इस असार ससारसे मै खिन्न हुआ हूँ। मुझे ये कार्य करने ठीक नही लगते ।' ये वचन सुनकर कुटुम्बी उसे नरमीसे कहते है, 'भाई, अपने लिये तो निवृत्ति जैसा है।' उसके बाद स्त्री आकर कहती है-'प्राणपति | मैं तो आपके बिना पल भी नही रह सकती। आप मेरे जीवनके आधार हैं।' 'इस तरह अनेक प्रकारसे भोगमे आसक्त' करनेके लिये अनेक पदार्थोंकी वृद्धि करते हैं, उसमे तदाकार होकर सतके वचन भूल जाता है। अर्थात् जैसे 'काष्ठका गोला 'अग्निमे डालनेके वाद ' भस्म हो जाता है, वैसे स्त्रीरूप अग्निमे पड़ा हुआ जीव उसमे भस्म हो जाता है। इससे संतके बोधका विचार भूल जाता है । स्त्री आदिके भयसे सत्समागम नही कर सकता, जिससे वह जीव दावानलरूप स्त्री आदि अग्निमे फंस कर, विशेप विशेष विडम्बना भोगता है । ये तीसरे प्रकारके जीव कहे हैं। . ४. चौथे प्रकारके जीव मिट्टीके गोले जैसे कहे हैं। .
वह पुरुष सत्पुरुषका बोध सुनकर इद्रियके विषयकी उपेक्षा करता है। संसारसे महा भय पाकर उससे निवृत्त होता है। उस प्रकारका जीव कुटुम्ब आदिके परिषहसे चलायमान नही होता । स्त्री आकर कहे-'प्यारे प्राणनाथ | इस भोगमे जैसा स्वाद है वैसा स्वाद उसके त्यागमे नही है।' इत्यादि वचन सुनकर महा उदास होता हैं, विचारता है कि इस अनुकूल भोगसे यह जीव बहुत बार भूला है। ज्यो ज्यो उसके वचन सुनता है त्यो त्यो महा वैराग्य उत्पन्न होता है। और इसलिये सर्वथा संसारसे निवृत्त होता है। मिट्टीका गोला अग्निमे पडनेसे विशेष विशेष कठिन होता है, उसी तरह वैसे पुरुष सतका बोध सुनकर ससारमे नही पडते । वे चौथे प्रकारके जीव कहे हैं।
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__, . . ... उपदश छाया
'काविठा, श्रावण वदी २, १९५२ .. स्त्री, पुत्र, परिग्रह आदि भावोके प्रति मूल ज्ञान होनेके बाद यदि ऐसी भावना रहे कि ''जब मैं चाहूँगा तब इन स्त्री आदिके प्रसगका त्याग कर सकूँगा' तो यह मूल ज्ञानसे वचित कर देनेकी बात समझें अर्थात् मूल ज्ञानमे यद्यपि भेद नही पडता परतु आवरणरूपं हो जाता है। तथा शिष्य आदि अथवा भक्ति करनेवाले मार्गसे च्युत हो जायेंगे अथवा रुक जायेंगे, ऐसी भावनासे यदि ज्ञानी पुरुष भी वर्तन करे तो ज्ञानीपुरुषको भी निरावरणज्ञान आवरणरूप हो जाता है, और इसीलिये वर्धमान आदि ज्ञानीपुरुष साढे बारह वर्ष तक अनिद्रित ही रहे, सर्वथा असगताको,ही उन्होने श्रेयस्कर समझा, एक शब्दके उच्चार करनेको भी यथार्थ नही माना, एकदम निरावरण, निर्योग, निर्भोग और निर्भय ज्ञान होनेके वाद उपदेशकार्य किया । इसलिये 'इसे इस तरह कहेगे तो ठोक है अथवा इसे इस तरह न कहा जाये तो मिथ्या है' इत्यादि विकल्प साधु-मुनि न करें। , . ___-निक्सपरिणाम अर्थात् आक्रोश परिणामपूर्वक घातकता करते हुए जिसमे चिंता अथवा भय और भवभीरता न हो वैसा परिणाम । ।
___ आधुनिक समयमे मनुष्योकी कुछ आयु बचपनमे जाती है, कुछ स्त्रीके पास जाती है, कुछ निद्रामे जाती है, कुछ धधेमे जाती है, और जो थोडी रहती है उसे कुगुरु लूट लेता है। तात्पर्य कि मनुष्यभव निरर्थक. चला जाता है।
- लोगोको कुछ झूठ बोलकर सद्गुरुके पास सत्सगमे आनेकी जरूरत नही है। लोग यो पूछे, 'कौन पधारे है ?' तो स्पष्ट कहे, 'मेरे परम कृपालु सद्गुरु पधारे है। उनके दर्शनके लिये जानेवाला हूँ।' तव कोई कहे, 'मै आपके साथ आऊँ ?' तब कहे, 'भाई, वे कुछ अभी उपदेश देनेका कार्य करते नहीं हैं। और
। १ स० १९५२ के श्रावण-भाद्रपद मासमें आणदके आसपास काविठा, राळज, वडवा आदि स्थलोमें श्रीमद का निवृत्तिके लिये रहना हुआ था। उस समय उनके समीपवासी भाई श्री अवालाल लालचदने प्रास्ताविक उपदेश अथवा विचारोका श्रवण किया था, जिसकी छाया मात्र उनको स्मृतिमें रह गयी थी उसके आनारसे उन्होने भिन्न भिन्न स्थलोमें उस छायाका सार सक्षेपमे लिख लिया था उसे यहां देते है।
एक मुमुक्षुभाईका यह कहना है कि श्री अवालालभाईने लिखे हुए इस उपदेशके भागको भी धीमी पवाया था और श्रीमद्ने उसमें कही कही सुधार किया था। . .
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श्रीमद् राजचन्द्र
आपका हेतु ऐसा है कि वहाँ जायेंगे तो कुछ उपदेश सुनेंगे । परतु वहाँ कुछ उपदेश देनेका नियम नही है।' तब वह भाई पूछे, 'आपको उपदेश क्यो दिया ?" तो कहे 'मेरा प्रथम उनके समागममे जाना हुआ था और उस समय धर्मसवधी वचन सुने थे कि जिससे मुझे ऐसा विश्वास हुआ कि ये महात्मा हैं । यो पहचान होनेसे मैने उन्हे ही अपना सद्गुरु मान लिया है ।' तब वह यो कहे, 'उपदेश दें या न दें परंतु मुझे तो उनके दर्शन करने है ।' तब कहे, 'कदाचित्, उपदेश न दे तो आप विकल्प न करें।' ऐसा करते हुए भी जब वह आये तव तो हरीच्छा | परतु आप स्वय कुछ वैसी प्रेरणा न करें कि चलो, वहाँ तो बोध मिलेगा, उपदेश मिलेगा । ऐसी भावना न स्वय करे और न दूसरेको प्रेरणा करे।
काविठा, श्रावण वदी ३, १९५२ प्र०-केवलज्ञानीने जो सिद्धातोका निरूपण किया है वह 'पर-उपयोग' है या 'स्व-उपयोग' ? शास्त्र मे कहा है कि केवलज्ञानी स्व-उपयोगमे ही रहते हैं। ___उ०-तीर्थकर किसीको उपदेश दे तो इससे कुछ 'पर-उपयोग' नही कहा जाता । 'पर-उपयोग' उसे कहा जाता है कि जिस उपदेशको देते हुए रति, अरति, हर्ष और अहकार होते हो । ज्ञानीपुरुषको तो तादात्म्यसबध नही होता जिससे उपदेश देते हुए रति-अरति नही होते । रति-अरति हो तो 'पर-उपयोग' कहा जाता है । यदि ऐसा हो तो केवली लोकालोक जानते हैं, देखते है वह भी 'पर-उपयोग' कहा जायेगा। परतु ऐसा नहीं है, क्योकि उनमे रति-अरति भाव नही है।
सिद्धातकी रचनाके विषयमे यो समझें कि अपनी बद्धि न पहँचे तो इससे वे वचन असत् हैं, ऐसा न कहे, क्योकि जिसे आप असत् कहते हैं, उसी शास्त्रसे ही पहले तो आपने जीव, 'अजीव ऐसा कहना सीखा है, अर्थात् उन्ही शास्त्रोंके आधारसे ही आप जो कुछ जानते है उसे जाना है, तो फिर उसे असत् कहना, यह उपकारके बदले दोष करनेके बराबर है। फिर शास्त्रके लिखनेवाले भी विचारवान थे; इसलिये वे सिद्धातके बारेमे जानते थे । महावीरस्वामीके बहुत वर्षों के बाद सिद्धात लिखे गये हैं। इसलिये उन्हे असत कहना दोप गिना जायेगा।
1 । '. . । ___ अभी सिद्धातोकी जो रचना देखनेमे आती है, उन्ही अक्षरोमे अनुक्रमसे तीर्थकरने कहा हो यह वात नहीं है । परतु जैसे किसी समय किसीने वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा सबधी पूछा तो उस समय तत्सवधी बात कही। फिर किसीने पूछा कि धर्मकथा कितने प्रकारकी है तो कहा कि चार प्रकारकी-आक्षेपणी, विक्षेपणी, निर्वेदणी, सवेगणी । इस इस प्रकारकी बातें होती है उसे उनके पास जो गणधर होते हैं वे ध्यानमे रख लेते है, और अनुक्रमसे उसकी रचना करते है। जैसे यहाँ कोई बात करनेसे कोई ध्यानमे रखकर अनुक्रमसे उसकी रचना करता है वैसे । बाकी तीर्थकर जितना कहे उतना' कही उनके ध्यानमे नही रहता, अभिप्राय ध्यानमे रहता है। फिर गणधर भी बुद्धिमान थे, इसलिये उन तीर्थंकर द्वारा कहे हुए वाक्य कुछ उनमे नही आये, यह वात भी नहीं है।
सिद्धातोके नियम इतने अधिक सख्त हैं, फिर भी यति लोगोको उनसे विरुद्ध आचरण करते हुए देखते हैं । उदाहरणके लिये, कहा है कि साधको तेल नही डालना चाहिये, फिर भी वे डालते हैं। इससे कुछ ज्ञानीको वाणीका दोष नही है, परतु जीवको समझशक्तिका दोष है। जीवमे सद्बुद्धि न हो तो प्रत्यक्ष योगमे भी उसे उलटा हो प्रतीत होता है, आर जीवमे सद्बुद्धि हो तो सुलटा मालूम होता है।
ज्ञानोकी आज्ञासे चलनेवाले भद्रिक मुमुक्षुजीवको, यदि गुरुने ब्रह्मचर्यके पालने अर्थात् स्त्री आदिके प्रसगमे न जाने की आज्ञा की हो, तो उस वचनपर दृढ विश्वास कर वह उस उस स्थानमे नही जाता, तब जिसे मात्र आध्यात्मिक शास्त्र आदि पढकर मुमुक्षुता हुई हो, उसे ऐसा अहंकार रहा करता है, कि 'इसमे
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उपदेश छाया भला क्या जीतना है ?', ऐसे पागलपनके कारण वह वैसे स्त्री आदिके प्रसगमे जाता है। कदाचित् उस प्रसगसे एक-दो बार बच भी जाये परन्तु बादमें उस पदार्थकी ओर दृष्टि करते हुए 'यह'ठीक है', ऐसे करते करते उसे उसमे आनद आने लगता है, और इससे स्त्रियोका सेवन करने लग जाता है। भोलाभाला जीव तो ज्ञानोकी आज्ञानुसार वर्तन करता है, अर्थात् वह दूसरे विकल्प न करते हुए वैसे प्रसगमे जाता हो नही । इस प्रकार, जिस जीवको, 'इस स्थानमे जाना योग्य नही' ऐसे ज्ञानीके वचनोका दृढ विश्वास है वह ब्रह्मचर्य व्रतमे रह सकता है;' अर्थात् वह इस अकार्यमें प्रवृत्त नही होता.। तो फिर जो ज्ञानीके आज्ञाकारी नही है ऐसे मात्र आध्यात्मिक शास्त्र पढकर होनेवाले मुमुक्षु अहकारमे फिरा करते है और माना करते हैं कि 'इसमे भला क्या जीतना है?' ऐसी मान्यताके कारण ये जीव पतित हो जाते है, और आगे नहीं बढ सकते । यह क्षेत्र है वह निवृत्तिवाला है, परन्तु जिसे निवृत्ति हुई हो उसे वैसा है। उसी तरह जो सच्चा ज्ञानी है, उसके सिवाय अन्य कोई अब्रह्मचर्यवश न हो,,यह तो कथन मात्र है.| और जिसे निवृत्ति नही हुई उसे प्रथम तो यो होता है कि यह क्षेत्र अच्छा है, यहाँ रहने जैसा है, परन्तु फिर यो करते करते विशेष प्रेरणा होनेसे क्षेत्राकारवृत्ति हो जाती है। ज्ञानीकी वृत्ति क्षेत्राकार नही होती, क्योकि क्षेत्र निवृत्तिवाला है, और स्वय भी निवृत्ति भावको प्राप्त हुए हैं, इसलिये दोनो योग अनुकूल है। शुष्कज्ञानियोको प्रथम तो यो अभिमान रहा करता है, कि 'इसमे भला क्या जीतना है?' परन्तु फिर धीरे धीरे वे स्त्री आदि पदार्थोमे फँस जाते है, जब कि सच्चे ज्ञानीको वैसा नही होता।
प्राप्त - ज्ञानप्राप्त पुरुषः । आप्त = विश्वास करने योग्य पुरुष । । मुमुक्षुमात्रको सम्यग्दृष्टि जीव नही समझना चाहिये। - - जीवको भुलावेके स्थान बहुत हैं, इसलिये विशेष-विशेष जागृति रखें, व्याकुल न हो, मदता न करे, और पुरुषार्थधर्मको वर्धमान करे। '
जीवको सत्पुरुषका योग मिलना दुर्लभ है। अपारमार्थिक गुरुको,, यदि अपना शिष्य दूसरे धर्ममे चला जाये तो बुखार चढ जाता है। पारमार्थिक गुरुको 'यह मेरा शिष्य है', ऐसा भाव नहीं होता। कोई कुगुरु-आश्रित जीव बोधश्रवणके लिये सद्गुरुके पास एक बार गया हो, और फिर वह अपने उस कुगरके पास जाये, तो वह कुगुरु उस जीवके मनपर अनेक विचित्र विकल्प अकित कर देता है कि जिससे वह जीव फिर सद्गुरुके पास न जायें। उस वेचारे जीवको तो सत्-असत् वाणीकी परीक्षा नहीं है, इसलिये वह धोखा खा जाता है, और सच्चे मार्गसे पतित हो जाता है।
र ३ काविठा (महुडी), श्रावण वदी ४, १९५२ - तीन प्रकारके ज्ञानीपुरुप हैं-प्रथम, मध्यम, और उत्कृष्ट । इस कालमे ज्ञानीपुरुषको परम दुर्लभता है, तथा आराधक जीव भी बहुत कम हैं।
पूर्वकालमे जीव आराधक और सस्कारी थे, तथारूप सत्सगका योग था, और सत्सगके माहात्म्यका विसर्जन नही हुआ था, अनुक्रमसे चला आता था, इसलिये उस कालमे उन सस्कारी जीवोको मत्युत्पकी पहचान हो जाती थी।
इस कालमे सत्पुरुपकी दुर्लभता है, बहुत कालसे सत्पुरुषका मार्ग, माहात्म्य और विनय क्षीणते हो गये हैं और पूर्वके आराधक जीव कम हो गये हैं, इसलिये जीवको सत्पुरुपको पहचान तत्काल नहीं होती । वहुतसे जीव तो सत्पुरुषका स्वरूप भी नही समझते । या तो छकायके रक्षक साधुको, या तो शास्त्र पढ़े हुएको, या तो किसी त्यागीको और या तो चतुरको तत्पुरुष मानते हैं, परन्तु यह यथार्य नही है।
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श्रीमद राजचन्द्र सत्पुरुषके सच्चे स्वरूपको जानना आवश्यक है। मध्यम सत्पुरुष हो तो शायद थोड़े समयमे उसकी पहचान होना सम्भव है, क्योकि वह जीवकी इच्छाके अनुकूल वर्तन करता है, सहज बातचीत करता है ओर आदरभाव रखता है, इसलिये जीवको प्रीतिका कारण हो जाता है। परन्तु उत्कृष्ट सत्पुरुषको तो वैसी भावना नही होती अर्थात् निस्पृहता होनेसे वे वैसा भाव नही रखते, इसलिये या तो जीव रुक जाता है या दुविधामे पड जाता है अथवा उसका जो होना हो सो होता है।।
___जैसे बने वैसे सद्वृत्ति और सदाचारका सेवन करें। ज्ञानीपुरुष कोई व्रत नही देते अर्थात् जब प्रगट मार्ग कहे और व्रत देनेकी बात करे तब व्रत अगीकार करे । परन्तु तब तक यथाशक्ति सव्रत और सदाचारका सेवन करनेमे तो ज्ञानीपुरुपकी सदैव आज्ञा है। दभ, अहकार, आग्रह, कोई भी कामना, फलकी इच्छा और लोक दिखावेकी बुद्धि ये सब दोष हैं उनसे रहित होकर व्रत आदिका सेवन करें, उनकी किसी भी सप्रदाय या मतके व्रत, प्रत्याख्यान आदिके साथ तुलना न करें, क्योकि लोग जो व्रत पच्चक्खान आदि करते है उनमे उपर्युक्त दोष होते है । हमे तो उन दोषोसे रहित और आत्मविचारके लिये करने हैं, इसलिये उनके साथ कभी भी तुलना न करें। . . .
उपर्युक्त दोषोको छोडकर सभी सवृत्ति और सदाचारका उत्तम प्रकारसे सेवन करें। ' जो निदंभतासे, निरहकारतासे और निष्कामतासे सव्रत करता है उसे देखकर अडोसी-पडोसी और दूसरे लोगोको भी उसे अगीकार करनेका भान होता है । जो कुछ भी सव्रत करें वह लोकदिखावेके लिये नही अपितु मात्र अपने हितके लिये करें। निर्दभतासे होनेसे लोगोपर उसका असर तुरन्त होता है ।
कोई भी दभसे दालमे ऊपरसे नमक न लेता हो और कहे कि 'मै ऊपरसे कुछ नही लेता, क्या नही चलता? इससे क्या ?" इससे कुछ लोगोपर असर नहीं होता। और जो किया हो वह भी उलटा कर्मबंधके लिये हो जाता है। इसलिये यों न करते हुए निर्दभतासे और उपर्युक्त दूषण छोडकर व्रत आदि करें।
प्रतिदिन नियमपूर्वक आचाराग आदि पढा करें । आज एक शास्त्र पढा और कल दूसरा पढा यो न करते हुए क्रमपूर्वक एक शास्त्रको पूरा करें। आचारागसूत्रमे कितने ही आशय गम्भीर है, सूत्रकृतागमे भी गम्भीर है, उत्तराध्ययनमे भी किसी किसी स्थलमे ' गम्भीर है। दशवैकालिक सुगम है। आचारागमे कोई स्थल, सुगम है, परन्तु गम्भीर है। सूत्रकृताग किसी स्थलमे सुगम है, उत्तराध्ययन किसी जगह सुगम है, इसलिये नियमपूर्वक पढ़ें । यथाशक्ति उपयोगपूर्वक गहराईमे जाकर हो सके उतना विचार करे।
देव अरिहत, गुरु निग्रंथ और केवलीका प्ररूपित धर्म, इन तीनोको श्रद्धाको जैनमे सम्यक्त्व कहा है । मात्र गुरु असत् होनेसे देव और धर्मका भान न था । सद्गुरु मिलनेसे उस देव और धर्मका भान हुआ। इसलिये सद्गुरुके प्रति आस्था यही सम्यक्त्व है। जितनी जितनी आस्था और अपूर्वता उतनी उतनी सम्यक्त्वकी निर्मलता समझें। ऐसा सच्चा सम्यक्त्व प्राप्त करनेकी इच्छा, कामना सदैव रखें। -
कभी भी दंभसे या अहकारसे आचरण करनेका जरा भी मनमे न लायें। जहां कहना योग्य हो वहाँ कहे, परन्तु सहज स्वभावसे कहे । मदतासे न कहे और आक्रोशसे भी न कहे । मात्र सहज स्वभावसे शातिपूर्वक कहे । .
सद्वतका आचरण शूरतापूर्वक करे, मद परिणामपूर्वक नहीं । जो जो आगार बताये हो, उग सबको ध्यानमे रखें, परन्तु भोगतेको बुद्धिसे उनका भोग न करें।
सत्पुरुपकी तेंतीस आशातनाएँ आदि टालनेका कहा है, उनका विचार कीजिये । आशातना करनेकी बुद्धिसे आशातना करें । सत्सग हुआ है उस सत्सगका फल होना चाहिये । कोई भी अयोग्य आचरण हो जाये अथवा अयोग्य व्रत सेवित हो जाये वह सत्सगका फल नहीं है। सत्सग करनेवाले जीवसे वैसा
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उपदेश छाया वर्तन नहीं होता, वैसा वर्तन करे तो लोकनिंदाका कारण होता है, और इससे सत्पुरुपकी निंदा होती है। और सत्पुरुषकी निंदा अपने निमित्तसे हो यह आशातनाका कारण अर्थात् अधोगतिका कारण होता है, इसलिये वैसा न करें।
...सत्सग हुआ है उसका क्या परमार्थ ? सत्सग हुआ हो उस जीवको कैसी दशा होनी चाहिये ? इसे ध्यानमे लें । पाँच वर्षका सत्सग हुआ है, तो उस सत्सगका फल जरूर होना चाहिये और जीवको तदनुसार चलना चाहिये । यह वर्तन जीवको अपने कल्याणके लिये ही करना चाहिये परन्तु -लोक-दिखावेके लिये नही । जीवके वर्तनसे लोगोमे ऐसी प्रतीति हो कि इसे जो मिले हैं वह अवश्य ही कोई सत्पुरुष हैं। और उन सत्पुरुपके समागमका, सत्सगका यह फल है, इसलिये अवश्य ही वह सत्सग हे इसमे सदेह नही। '_' वारवार बोध'सुननेकी इच्छा रखनेकी अपेक्षा सत्पुरुपके चरणोके समीप रहनेकी इच्छा और चिंतना विशेष'रखे । जो बोध हुआ है उसे स्मरणमें रखकर विचारा जाये तो अत्यन्त कल्याणकारक है। .! ! .. ' '४
राळज, श्रावण वदी ६, १९५२ ' ।। - भक्ति यह सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । भक्तिसे अहंकार मिटता है, स्वच्छद दूर होता है, और सीधे मार्गमे चला जाता है, अन्य विकल्प दूर होते है । ऐसा यह भक्तिमार्ग श्रेष्ठ है। .' .... प्र-आत्माका अनुभव किसे हुआ कहा जाता है ? ' ' " उ०—जिस तरह तलवार म्यानमेसे निकालनेपर भिन्न मालूम होती है उसी तरह जिसे आत्मा देहसे स्पष्ट भिन्न मालूम होता है उसे आत्माका अनुभव हुआ कहा जाता है। जिस तरह दूध और पानी मिले हुए है उसी तरह आत्मा और देह मिले हुए रहते है। जिस तरह दूध और पानी क्रिया करनेसे जब अलग हो जाते है तब भिन्न कहे जाते हैं, उसी तरह आत्मा और देह जब क्रियासे अलग, हो जाते है तब भिन्न कहे जाते है । जब तक दूध दूधके और पानी पानीके परिणामको प्राप्त नहीं करता तब तक क्रिया करते रहना चाहिये। यदि आत्माको जान लिया हो तो फिर एक पर्यायसे लेकर सारे स्वरूप तकको भ्राति नही होती। - , -, अपने दोप कम हो जायें, आवरण दूर हो जाये तभी समझें कि ज्ञानोके वचन सच्चे है। ..आराधकता नही है, इसलिये प्रश्न उल ही. करता है। हमे भव्य-अभव्यकी चिंता नहीं रखनी चाहिये । अहो | अहो !। अपने घरको वात छोडकर बाहरकी बात करता है । परन्तु वर्तमानमे जो उपकारक हो वही करें । इसलिये अभी तो जिससे लाभ हो वैसा धर्म व्यापार करें। -
ज्ञान उसे कहते है जो हर्ष-शोकके समय उपस्थित रहे, अर्थात् हर्प-शोक न हो । - सम्यग्दृष्टि हर्प-शोक आदिके प्रसगमे एकदम तदाकार नहीं होते। उनके निध्वंस परिणाम नही होते; अज्ञान खड़ा हो कि जाननेमे आनेपर तुरत ही दवा देते है, उनमे बहुत ही जागृति होती है। जैसे कोरा कागज पढता हो वैसे उन्हे हर्ष-शोक नही होते । भय अज्ञानका है। जैसे सिंह चला आता हो तो सिंहनीको भय नही लगता, परन्तु मनुष्य भयभीत होकर भाग जाता है। मानो वह कुत्ता चला आता हो ऐसे सिंहनीको लगता है। इसी तरह ज्ञानी पौद्गलिक सयोगको समझते है। राज्य मिलनेपर आनद हो तो वह अज्ञान । ज्ञानीकी दशा बहुत ही अद्भुत है। -
यथातथ्य कल्याण समझमे नही आया उसका कारण वचनको आवरण करनेवाला दुराग्रह भाव. कपाय है । दुराग्रह भावके कारण मिथ्यात्व क्या हे यह समझमे नही आता; दुराग्रहको छोड़े कि मिथ्यात्व दूर भागने लगता है। कल्याणको अकल्याण और अकल्याणको कल्याण समाना मिथ्यात्व है। दुराग्रह आदि भावके कारण जीवको कल्याणका स्वरूप बतानेपर भी समझ नहीं आता। पाय, दराग आदि
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श्रीमद राजचन्द्र
छोडे न जायें तो फिर वे विशेष प्रकार पोडित करते है । कपाय सत्तारूपसे है, निमित्त आनेपर खडे होते हैं, तब तक खड़े नहीं होते ।
प्र० - क्या विचार करनेसे समभाव आता है ?
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उ०—विचारवानको पुद्गलमे तन्मयता, तादात्म्य नही होता । अज्ञानी पौद्गलिक सयोगके हर्षका पत्र पढे तो उसका चेहरा प्रसन्न दिखायी देता है, और भयका पत्र आता है तो उदास हो जाता है । सर्प देखकर आत्मवृत्तिमे भयका हेतु हो तव तादात्म्य कहा जाता है । जिसे तन्मयता होती है उसे ही हर्प-शोक होता है । जो निमित्त है वह अपना कार्य किये बिना नही रहता ।
मिथ्यादृष्टिको बीचमे साक्षी ( ज्ञानरूपी) नही है । देह और आत्मा दोनो भिन्न है ऐमा ज्ञानीको भेद हुआ है। ज्ञानोको बीचमे साक्षी है । ज्ञानजागृति हो तो ज्ञानके वेगसे, जो जो निमित्त - मिले उन सबको पीछे मोड सकते है ।
इसलिये
जीव जब विभाव-परिणाममे रहता है उस समय कर्म बाँधता है, और स्वभाव-परिणाममे रहता है उस समय कर्म नहीं बांधता । इस तरह सक्षेपमे परमार्थ कहा है । परन्तु जोव नही समझता, विस्तार करना पडा है, जिससे बड़े शास्त्रोकी रचना हुई है । स्वच्छद दूर हो तभी मोक्ष होता है ।
सद्गुरु की आज्ञा के बिना आत्मार्थी जीवके श्वासोच्छ्वास के सिवाय अन्य कुछ भी नही चलता ऐसो जिनेन्द्रकी आज्ञा है ।
प्र० - पांच इन्द्रियाँ किस तरह वश होती है ?
- वस्तुओपर तुच्छभाव लानेसे । जैसे फूल सूख जानेसे उसकी सुगध थोडी देर रहकर नष्ट हो जाती है, और फूल मुरझा जाता है, उससे कुछ सन्तोष नही होता, वैसे तुच्छभाव आनेसे इन्द्रियोके विपयमे लुब्धता नही होती। पाँच इद्रियोमे जिह्वा इन्द्रियको वश करनेसे वाकीकी चार इन्द्रियाँ सहज ही वश हो जाती है ।
उ०
ज्ञानीपुरुपको शिष्यने प्रश्न पूछा, "बारह उपाग तो बहुत गहन है, और इसलिये वे मुझसे समझे नही जा सकते, अतः वारह उपागका सार ही बताये कि जिसके अनुसार चलूं तो मेरा कल्याण हो जाये।” सद्गुरुने उत्तर दिया : बारह उपागका सार आपसे कहते है- "वृत्तियोका क्षय करना ।" ये वृत्तियाँ दो प्रकारकी कही हैं -- एक बाह्य और दूसरी अतर । बाह्यवृत्ति अर्थात् आत्मासे बाहर वर्तन करना । आत्माके अन्दर परिणमन करना, उसमे समा जाना, यह अतवृत्ति । पदार्थको तुच्छता भासमान हुई हो तो अतवृत्ति रहती है । जिस तरह थोडीसी कोमतके मिट्टी के घडेके फूट जानेके बाद उसका त्याग करते हुए आत्मवृत्ति क्षोभको प्राप्त नही होती, क्योकि उसमे तुच्छता समझी गयो है । इसी तरह ज्ञानीको जगतके सभी पदार्थ तुच्छ भासमान होते हैं । ज्ञानीको एक रुपयेसे लेकर सुवर्ण इत्यादि तक सब पदार्थमे एकदम मिट्टीपन ही भासित होता है ।
स्त्री हड्डी मां का पुतला है ऐसा स्पष्ट जाना है, इसलिये विचारवानकी वृत्ति उसमे क्षुब्ध नही होती, फिर भी माधुको ऐमी आज्ञा की है कि जो हजारों देवागनाओसे चलित न हो सके ऐसा मुनि भी, कटे हुए नाक-कानवाली जो सौ बरसकी वृद्ध स्त्री है उसके समीप भी न रहे, क्योंकि वह वृत्तिको क्षुब्ध करती ही है, ऐगा ज्ञानोने जाना है । साधुको इतना ज्ञान नहीं है कि वह उससे चलित हो न हो सके, ऐसा मानकर उसके समीप रहनेको आज्ञा नही की। इस वचनपर ज्ञानीने स्वय ही विशेष भार दिया है । इसीलिये यदि वृत्तियाँ पदार्थोंमे क्षोभ प्राप्त करें तो उन्हें तुरत ही खीच लेकर उन वाह्यवृत्तियोका क्षय करें ।
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चौदह गुणस्थान है वे अश-अशसे आत्मा के गुण - बताये हैं, और अतमे वे कैसे है यह बताया है । जैसे एक हीरा है, उसके एक एक करके चौदह पहले बनाये तो अनुक्रमसे विशेष विशेष काति प्रगट होती प्रगट है, और चौदहो पहल बनानेसे अतमे हीरेकी सपूर्ण स्पष्ट काति प्रगट होती है । इसी तरह सपूर्ण गुण होनेसे आत्मा सपूर्णरूपसे प्रगट होता है ।"
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चौदह पूर्वधारी ग्यारहवे गुणस्थानंसे पतित होता है, उसका कारण प्रमाद है । 'प्रमादके कारणसे वह ऐसा मानता है कि 'अब मुझमे गुण प्रकट हुआ।' ऐसे अभिमान से पहले गुणस्थानमे जा गिरता है; और अनत कालका भ्रमण करना पडता है । इसलिये जीव अवश्य जाग्रत रहे, क्योकि वृत्तियोका प्राबल्य आ F $117751 ऐसा है कि वह हर तरहसें ठगता है ।
ग्यारहवे गुणस्थानसे जीव गिरता है 'उसका कारण यह है कि वृत्तियाँ प्रथम तो जानती हैं कि 'अभी यह शूरता में है इसलिये अपना बल चलनेवाला नही है'; और इससे चुप होकर सब दबी रहती है। 'क्रोध कडवा है इसमें ठगा नहीं जायेगा, मानसे भी ठेगा नही जायेगा, और मायाका बल चलने जैसा नही है,' ऐसा वृत्तियोने समझा 'कि' तुरत वहाँ लोभका उदय हो जाता है । 'मुझमे कैसे ऋद्धि सिद्धि और ऐश्वर्य प्रगट हुए है', ऐसी वृत्ति वहाँ आगे आनेसे उसका लोभ होनेसे जीव वहाँसे गिरता है और पहले गुणस्थान आता है।
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'इस कारणसे वृत्तियोका उपशम करने की अपेक्षा क्षय करना चाहिये ताकि ये फिरसे उद्भूत न हो । जब ज्ञानीपुरुष त्याग करानेके लिये कहे कि यह पदार्थ छोड दे तब वृत्ति भुलाती है कि ठीक है, मैं दो दिन के बाद त्याग करूँगा ।’ ऐसे भुलावेमे पड़ता है कि वृत्ति जानती है कि ठीक हुआ, अडीका चुका सौ वर्षं जीता है। इतनेमें शिथिलताके कारण मिल जाते है कि " इसके त्याग से रोग के कारण खडे होगे, इस - लिये अभी नही परंतु बादमे त्याग करूंगा।' इस तरह वृत्तियाँ ठगती हैं ।
इस प्रकार अनादिकालसे जीव ठगा जाता है । किसीका बीस बरसका पुत्र मर गया हो, उस समय उस जीवको ऐसी कडवाहट लगती है कि यह ससार मिथ्या है । परतु दूसरे ही दिन बाह्यवृत्ति यह कहकर इस विचारको विस्मरण करा देती है कि 'इसका लडका 'कल वडा हो जायेगा, ऐसा तो होता ही रहता है, क्या करे ?' ऐसा लगता है, परंतु ऐसा नही लगता कि जिस तरह वह पुत्र मर गया, उसी तरह मैं भी मर जाऊँगा । इसलिये सपझकर वैराग्य पाकर चला जाऊँ तो अच्छा है । ऐसी वृत्ति नही होती । यो वृत्ति ठग लेती है ।
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कोई अभिमानी जीव यों मान बैठता है कि 'मैं पंडित हूँ, शास्त्रवेत्ता हूँ, चतुर हूँ, गुणवान हूँ, लोग मुझे गुणवान कहते हैं', परंतु उसे जेब तुच्छ पदार्थका सयोग होता है तब तुरत ही उसकी वृत्ति उस ओर आकर्षित होती है। ऐसे जीवको ज्ञानी कहते है कि तू जरा विचार तो सही कि उस तुच्छ पदार्थंकी कीमतकी अपेक्षा तेरी कीमत तुच्छ है । जैसे एक पाईकी चार वोडो मिलती है, अर्थात् पाव पाई की एक वोड़ी है। उस वीड़ीका यदि तुझे व्यसन हो तो तू अपूर्व ज्ञानीके वचन सुनता हो तो भी यदि वहाँ कहीसे बीडीका धुआँ आ गया कि तेरे आत्मामेसे वृत्तिका धुआं निकलने लगता है, और ज्ञानीके वचनोपरसे प्रेम जाता रहता है । बीड़ी जैसे पदार्थमे, उसकी क्रियामे वृत्ति आकृष्ट होनेसे वृत्तिक्षोभ निवृत्त नही होता 'पाव पाईकी बीड़ोसे यदि ऐसा हो जाता है, तो व्यसनीकी कीमत उससे भी तुच्छ हुई, एक पाईके चार आत्मा हुए । इसलिये प्रत्येक पदार्थमे तुच्छताका विचार कर बाहर जाती हुई वृत्तिको रोकें, और उसका क्षय करें। ·
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अनाथदासजीने कहा है कि 'एक अज्ञानीके करोड़ अभिप्राय हैं और करोड ज्ञानियों का एक अभिप्राय है ।'
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श्रीमद् राजचन्द्र आत्माके लिये जो मोक्षका हेतु है वह 'सुपच्चक्खान'। आत्माके लिये जो समारका हेतु है वह 'दुपच्चक्खान' | ढूंढिया और तपा कल्पना करके जो मोक्ष जानेका मार्ग कहते है तदनुसार तो तीनो कालमें मोक्ष नही है।
उत्तम जाति, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल और सत्सग इत्यादि प्रकारसे आत्मगुण प्रकट होता है। .
आपने माना है वैसा आत्माका मूल स्वभाव नहीं है, और आत्माको कर्मने कुछ एकदम आवृत नही कर डाला है । आत्माके पुरुषार्थधर्मका मार्ग बिलकुल खुला है।
वाजरे अथवा गेहूँके एक- दानेको लाख वर्ष तक रख छोड़ा हो (सड जाये यह बात हमारे ध्यानमे है) परतु यदि उसे पानी, मिट्टी आदिका सयोग न मिले तो उसका उगना सम्भव नही है, उसी तरह सत्सग और विचारका योग न मिले तो आत्मगुण-प्रगट नही होता। .
श्रेणिक राजा जरकमे है, परतु समभावमे है, समकिती है, इसलिये उन्हे दु ख नहो है।
चार लकडहारोके दृष्टातसे चार प्रकारके जीव है :-चार लकडहारे जगलमे गये। पहले मबने लकडियाँ ली। वहाँसे आगे चले कि चदन आया.। वहाँ तीनने चदन ले लिया । एकने कहा 'ना मालूम इस तरहकी लकडियाँ विकें या नहीं, इसलिये मुझे तो नही लेनी हैं। हम जो रोज लेते है वही मुझे तो अच्छी है ।' आगे चलनेपर सोना-चाँदी आया। तीनमेसे दोने चदन फेंककर सोना-चांदी लिया, एकने नही लिया । वहाँसे आगे चले कि रत्नचितामणि आया। दोमेसे एकने सोना फेंककर रत्नचिंतामणि लिया, एकने सोना रहने दिया। . -(१) यहाँ इस तरह दृष्टातका उपनय ग्रहण करे कि जिसने लकडियाँ ही ली और दूसरा कुछ भी नही लिया उस प्रकारका एक जीव है कि जिसने लौकिक काम करते हुए ज्ञानीपुरुपको नही पहचाना, दर्शन भी नही किया, इससे उसके जन्म-जरा-मरण भी दूर नही हुए, गति भी नहीं सुधरी। -
(२) जिसने चदन लिया और लकड़ियां फेंक दी, वहाँ दृष्टात यो घटित करे कि जिसने थोडा सा ज्ञानीको पहचाना, दर्शन किये, जिससे उसकी गति अच्छी हुई। ..
(३) सोना आदि लिया, इस दृष्टातको यो घटित करे कि जिसने ज्ञानीको उस प्रकारसे पहचाना इसलिये उसे देवगति प्राप्त हुई।
- (४) जिसने रत्नचितामणि लिया, इस दृष्टातको यो घटित करें कि जिस जीवको ज्ञानीकी यथार्थ पहचान हुई वह जीव भवमुक्त हुआ।
एक वन है । उसमे माहात्म्यवाले पदार्थ हैं। उनकी जितनी पहचान होती है उतना माहात्म्य लगता है, और उसो प्रमाणमे वह उसे ग्रहण करता है। इस तरह ज्ञानीपुरुषरूपी वन है। ज्ञानी पुरुपका अगम्य, अगोचर माहात्म्य है। उसकी जितनी पहचान होती है उतना उसका माहात्म्य लगता है, और उस उस प्रमाणमे उसका कल्याण होता है।
'सासारिक खेदके कारणोको देखकर जीवको कडवाहट मालूम होते हुए भी वह वैराग्यपर पैर रखकर चला जाता है परतु वैराग्यमे प्रवृत्ति नहीं करती। ... लोग ज्ञानोको लोकदृष्टिसे देखे तो पहचान नही सकते।
आहार आदिमे भी ज्ञानीपुरुषकी प्रवृत्ति वाह्य रहती है। किस तरह ? जो घडा ऊपर (आकाशमें) है, और पानीमे खडे रहकर, पानीमे दृष्टि रखकर, बाण साधकर उस ( ऊपरके घडे ) को वीवना है। लोग समझते है कि बीधनेवालेकी दृष्टि पानीमे है, परन्तु वास्तवमे देखें तो जिस घडेको वीधना है उसका लक्ष्य करनेके लिये वीवनेवालेकी दृष्टि आकाशमे है । इस तरह ज्ञानीकी पहचान किसी विचारवानको होती है।
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उपदेश छाया
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दृढ निश्चय करे कि बाहर जाती हुई वृत्तियोका क्षय करके अंतवृत्ति करना, अवश्य यही ज्ञानीकी
आज्ञा है ।
स्पष्ट प्रीति से ससारका व्यवहार करने की इच्छा होती हो तो समझना कि ज्ञानीपुरुषको देखा नही है । जिस प्रकार प्रथम ससार मे रससहित वर्तन करता हो उस प्रकार, ज्ञानीका योग होनेके बाद वर्तन न करे, यही ज्ञानीका स्वरूप है ।
ज्ञानीको ज्ञानदृष्टि, अतर्दृष्टि से देखनेके बाद स्त्रीको देखकर राग उत्पन्न नही होता, क्योकि ज्ञानीका स्वरूप विषयसुखकल्पनासे भिन्न है। जिसने अनत सुखको जाना हो उसे राग नही होता, और जिसे J राग नही होता उसीने ज्ञानीको देखा है और उसीने ज्ञानीपुरुषके दर्शन किये है, फिर स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूपसे भासित हुए बिना नही रहता, क्योकि ज्ञानीके वचनोको यथार्थ रूपसे सत्य जाना हैं । ज्ञानीके समोप देह और आत्माको भिन्न -- पृथक् पृथक् जाना है, उसे देह और आत्मा भिन्न-भिन्न भासित होते है, और इससे स्त्रीका शरीर और आत्मा भिन्न भासित होते हे । उसने स्त्रीके शरीरको मास, मिट्टी, हड्डी आदिका पुतला समझा है इसलिये उसमे राग उत्पन्न नही होता ।
सारे शरीरका बल, ऊपर-नीचेका दोनो कमरके ऊपर है । जिसकी कमर टूट गई है उसका सारा बल चला गया । विषयादि जीवकी तृष्णा है । ससाररूपी शरीरका बल इस विषयादि रूप कमरके ऊपर हैं । ज्ञानी पुरुषका बोध लगने से विषयादि रूप कमर टूट जाती है । अर्थात् विषयादिकी 'तुच्छता' लगती है; और इस प्रकार ससारका बल घटता है, अर्थात् ज्ञानीपुरुपके बोधमे ऐसा सामर्थ्य है।
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श्री महावीरस्वामीको सगम नामके देवताने बहुत ही, प्राणत्याग होनेमे देर न लगे ऐसे परिपह दिये । उस समय कैसी अद्भुत समता । उस समय उन्होने विचार किया कि जिनके दर्शन करनेसे कल्याण होता है, नामस्मरण करनेसे कल्याण होता है, उनके सगमे आकर इस जीवको अनन्त संसार बढनेका कारण होता है । ऐसी अनुकम्पा आनेसे आँखमे आसू आ गये । कैसी अद्भुत समता । परकी दया किस तरह फूट निकली थी ! उस समय मोहराजाने यदि जरा धक्का लगाया होता तो तो तुरत ही तोर्थंकरत्वका सभव, न रहता, यद्यपि देवना तो भाग जाता । परन्तु जिसने मोहनीय मलका मूलसे नाश किया है, अर्थात् मोहको जीता है, वह मोह कैसे करे ?
श्री महावीरस्वामीके समीप गोशालेने आकर दो साधुओको जला डाला, तव यदि थोडा ऐश्वयं बताकर साधुओकी रक्षा को होती तो तीर्थंकरत्वको फिरसे करना पडता, परन्तु जिसे 'मै गुरु हूँ, ये मेरे शिष्य हैं, ऐसी भावना नही है उसे वैसा कोई प्रकार नही करना पडता । 'मै शरीर-रक्षणका दातार नही हूँ, केवल भाव-उपदेशका दातार हूँ, यदि मैं रक्षा करूँ तो मुझे गोशालेकी रक्षा करनी चाहिये अथवा सारे जगतकी रक्षा करनी उचित है', ऐसा सोचा । अर्थात् तीर्थंकर यो ममत्व करते ही नहीं ।
वेदात इस कालमे चरमशरीरी कहा है । जिनेन्द्र के अभिप्रायके अनुसार भी इस कालमे एकावतारी जीव होता है । यह कुछ मामूली बात नही है क्योकि इसके बाद कुछ मोक्ष होनेमे अधिक देर नही है । जरा कुछ बाकी रहा हो, रहा है वह फिर सहजमे चला जाता है। ऐसे पुरुष की दशा, वृत्तियाँ कैसी होती है ? अनादिको बहुतसो वृत्तियाँ शात हो गयी होती है; और इतनी अधिक शात हो गयी होती हैं कि रागद्वेष सब नष्ट होने योग्य हो जाते हैं, उपशात हो जाते हैं ।
सद्वृत्तियाँ होनेके लिये जो जो कारण, साधन बताये हुए होते है उन्हें न करने को ज्ञानी कभी नही कहते । जैसे रातमे खानेसे हिंसाका कारण होता है, इसलिये ज्ञानी आज्ञा करते हो नही कि त रातमे खा । परन्तु जो जो अभावसे आचरण किया हो, और रात्रिभोजनसे हो अथवा अमुनेही गोक्ष हो, अथवा इसमे ही मोक्ष है, ऐसा दुराग्रहसे माना हो तो वैसे दुराग्रहोको छुडानेके लिये ज्ञानीपुरुष कहते हैं कि
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श्रीमद राजचन्द्र
'छोड दे, तूने अहवृत्तिसे जो किया था उसे छोड दे और ज्ञानी पुरुपोको आज्ञासे वैसा कर ।' और वैसा करे तो कल्याण होता है । अनादिकालसे दिनमे और रातमे खाया है परन्तु जोवका मोक्ष नही हुआ। ।
इस कालमे आराधकताके कारण घटते जाते हैं, और विराधकताके लक्षण बढते जाते हैं।
केशीस्वामी वडे थे, और पार्श्वनाथस्वामीके शिष्य थे, तो भी पाच महाव्रत अगीकार किये थे। केशीस्वामी और गौतमस्वामी महा विचारवान थे, परन्तु केशीस्वामीने यो नही कहा 'मैं दीक्षामे बडा हूँ, इसलिये आप मेरे पास चारित्र ग्रहण करें।' विचारवान और सरल जीव, जिसे तुरत कल्याणयुक्त हो जाना है उसे ऐसी बातका आग्रह नही होता ।।
__ कोई साधु जिसने प्रथम आचार्यरूपसे अज्ञानावस्थासे उपदेश किया हो, और पीछेसे उसे ज्ञानीपुरुषका समागम होनेपर वे ज्ञानीपुरुष यदि आज्ञा करे कि जिस स्थलमे आचार्यरूपसे उपदेश किया हो वहाँ जाकर एक कोनेमे सबसे पीछे बैठकर सभी लोगोसे ऐसा कहे कि 'मैंने अज्ञानतासे उपदेश दिया है, इसलिये आप भूल न खायें', तो साधुको उस तरह किये बिना छुटकारा नहीं है । यदि वह साधु'यो कहे कि 'मुझसे ऐसा नहीं होगा, इसके बदले आप कहे तो पहाडपरसे कूद पडूं अथवा दूसरा चाहे जो कहे वह करूं, परन्तु वहाँ तो मुझसे नही जाया जा सकेगा।' ज्ञानी कहते है कि तब इस बातको जाने दे। हमारे संगमे भी मत आना। कदाचित् तू लाख बार पर्वतसे गिरे तो भी वह किसी कामका नही है। यहाँ तो वैसे करेगा तो ही मोक्ष मिलेगा। वैसा किये बिना मोक्ष नही है; इसलिये जाकर क्षमापना मांगे तो ही कल्याण होगा।' . गौतमस्वामी चार ज्ञानके धारक थे और आनन्द श्रावकके पास गये थे। आनन्द श्रावकने कहा, "मुझे ज्ञान उत्पन्न हुआ है।', तब गौतमस्वामीने कहा 'नही, नही, इतना सारा हो नही सकता, इसलिये आप क्षमापना ले।' तब आनन्द श्रावकने विचार किया कि ये मेरे गुरु हैं, कदाचित् इस समय भूल करते हो तो भी भूल करते हैं, यह कहना योग्य नहीं; गुरु हैं इसलिये शातिसे कहना योग्य है, यह सोचकर आनन्द श्रावकने कहा कि 'महाराज । सद्भूत वचनका मिच्छा, मि दुक्कड या असद्भूत वचनका मिच्छा मि दुक्कडं?' तब गोतमस्वामीने कहा 'असद्भूत वचनका मिच्छा मि दुक्कडं ।' तब आनन्द श्रावकने कहा, 'महाराज | मै मिच्छा मि दुक्कड लेने योग्य नही हूँ।' फिर गौतमस्वामी चले गये, और जाकर महावीरस्वामीसे पूछा.। (गौतमस्वामी उसका समाधान कर सकते थे, परन्तु-गुरुके होते हुए वैसा न करे जिससे महावीरस्वामीके पास जाकर यह सब, वात कही ।) महावीरस्वामीने कहा, 'हे गौतम , हाँ, आनद देखता है ऐसा ही है और आपकी भूल है, इसलिये आप आनदके पास जाकर क्षमा मांगें।' 'तहत्' कहकर गौतमस्वामी क्षमा मांगनेके लिये चल दिये। यदि गौतमस्वामीने मोहनामके महा सुभटका पराभव न किया होता तो वे वहाँ न जाते, और कदाचित गौतमस्वामी यो कहते, कि 'महाराज | आपके इतने सब शिष्य हैं, उनकी मै चाकरी करूँ, परतु वहाँ तो नही जाऊँ', तो वह बात मान्य न होती । गौतमस्वामी स्वय वहाँ जाकर क्षमा मॉग आये।
'सास्वादन-समकित' अर्थात् वमन किया हुआ समकित, अर्थात् जो परीक्षा हुई थी, उसपर आवरण आ जाये तो भी मिथ्यात्व और समकितकी कीमत उसे भिन्न भिन्न लगती है । जैसे विलोकर छाछमेसे मक्खन निकाल लिया, और फिर वापस छाछमे डाला । मक्खन और छाछ पहले जैसे परस्पर मिले हुए थे वैसे फिरसे नही मिलते, उसी तरह समकित मिथ्यात्वके साथ नहीं मिलता । हीरामणिकी कीमत हुई है, परतु काचकी मणि आये तब हीरामणि साक्षात् अनुभवमे आता है, यह दृष्टात भी यहाँ घटता हैं।
____निग्रंथगुरु अर्थात् पैसारहित गुरु नही, परन्तु जिसका ग्रन्थिभेद हो गया है, ऐसे गुरु । सद्गुरुकी पहचान होना व्यवहारसे ग्रन्थिभेद होनेका उपाय है। जैसे किसी मनुष्यने , काचकी मणि लेकर सोचा कि
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७०५ 'मेरे पास असली मणि है, ऐसी कही भी नही मिलती।' फिर उसने एक विचारवानके पास जाकर कहा, 'मेरो मणि असली है।' फिर उस विचारवानने उससे बढिया बढिया और अधिकाधिक मूल्यकी मणियाँ बताकर कहा कि 'देखें, इनमे कुछ फरक लगता है ? ठीक तरहसे देखें ।' तब उसने कहा, 'हाँ फरक लगता है। फिर उस विचारवानने झाड-फानूस बताकर कहा, देखें आपकी मणि जैसी तो हजारो मिलती है। सारा झाड़-फानूस दिखानेके बाद उसे जब मणि दिखायी तब उसे उसकी ठीक ठोक कीमत मालूम हुई, फिर उसने नकलीको नकली जानकर छोड दिया । बादमे कोई प्रसग मिलनेसे उसने कहा कि 'तूने जिस मणिको असली समझा है ऐसी मणियाँ तो बहुत मिलती हैं। ऐसे आवरणोसे वहम आ जानेसे जीव भूल जाता है, परन्तु बादमे उसे नकली समझता है। जिस प्रकार असलीकी कीमत हुई हो उस प्रकारसे वह तुरत जागृतिमें आता है कि असली अधिक नही होती, अर्थात् आवरण तो होता है परन्तु पहलेकी पहचान भूली नहीं जाती। इस प्रकार विचारवानको सद्गुरुका योग मिलनेसे तत्त्वप्रेतोति होती है, परन्तु फिर मिथ्यात्वके संगसे आवरण आ जानेसे शका हो जाती है । यद्यपि तत्त्वप्रतीति नष्ट नही होती परन्तु उसंपर आवरण आ जाता है। इसका नाम 'सास्वादनसम्यक्त्व' है।
सद्गुरु, सद्देव, केवली द्वारा प्ररूपित धर्मको सम्यक्त्व कहा है, परन्तु सद्देव और केवली ये दोनो सद्गुरुमे समाये हुए हैं।
सद्गुरु और असद्गुरुमे रात-दिनका अन्तर है ।
एक जौहरी था । व्यापार करते हुए बहुत नुकसान हो जानेसे उसके पास कुछ भी द्रव्य नही रहा । मरनेका समय आ पहुंचा, तब स्त्री-बच्चोका विचार करता है कि मेरे पास कुछ भी द्रव्य नही है, परन्तु यदि अभी यह बात करूंगा तो लड़का छोटो उमरका है, इससे उसकी देह छूट जायेगी।' उसने स्त्रोको ओर देखा तो स्त्रीने पूछा, 'आप कुछ कहते हैं " पुरुषने कहा, 'क्या कहूँ ? स्त्रीने कहा कि 'जिससे मेरा और बच्चेका उदर-पोषण हो ऐसा कोई उपाय बताइये और कुछ कहिये।' तब उसने विचार कर कहा कि घरमे जवाहरातकी पेटीमे कीमती नगको डिबिया है उसे, जब तुझे बहुत जरूरत पडे तब निकाल कर मेरे मित्रके पास जाकर बिकवा देना, उससे तुझे बहुतसा द्रव्य मिल जायेगा। इतना कहकर वह पुरुष कालधर्मको प्राप्त हुआ। कुछ दिनोके बाद विना पैसे उदरपोषणके लिये पीडित होते देखकर, वह लडका, अपने पिताके पूर्वोक्त जवाहरातके नग लेकर अपने चाचा (पिताके मित्र जौहरी) के पास गया और कहा कि 'मुझे ये नग बेचने हैं, उनका जो द्रव्य आये वह मुझे दें।" तव उम जौहरी भाईने पूछा, 'ये नग वेचकर क्या करना है ?" "उदर भरनेके लिये पैसोकी जरूरत है', यो उस लडकेने कहा। तब उस जौहरीने कहा, 'सौ-पचास रुपये चाहिये तो ले जा, और रोज मेरी दुकानपर आते रहना, और खर्च ले जाना । ये नग अभी रहने दे।' उस लडकेने उस भाईकी वातको मान ली, और उस जवाहरातको वापस ले गया। फिर रोज वह लडका जौहरीकी दुकानपर जाने लगा और जौहरोके समागमसे हीरा, पन्ना, माणिक, नीलम सबको पहचानना सीख गया और उसे उन सवकी कीमत मालूम हो गयी। फिर उस जौहरीने कहा, 'तू अपना जो जवाहरात पहले वेचने लाया था उसे ले आ, अव वेच देंगे।' फिर घरसे लडकेने अपने जवाहरातकी डिविया लाकर देखा तो नग नकली लगे इसलिये तुरत फेंक दिये । तब उस जौहरीने पूछा कि 'तूने फेक क्यो दिये " तब उसने कहा कि 'एकदम नकली हैं इसलिये फेंक दिये है।' यदि उस जौहरीने पहलेसे ही नकली कहे होते तो वह मानता नही, परन्तु जब स्वयको वस्तुको कीमत मालूम हो गयी और नकलीको नकलीरूपसे जान लिया तब जौहरोको कहना नहीं पड़ा कि नकली हैं। इसी तरह स्वयको सद्गुरुकी परीक्षा हो जानेपर असद्गुरुको असत् जान लिया तो फिर जीव तुरत ही असद्गुरुको छोडकर सद्गुरुके चरणमे आ पडता है, अर्थात् अपनेमे कीमत करनेको शक्ति आनी चाहिये।
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गुरुके पास रोज जाकर एकेंद्रिय आदि जीवोके संबंधमे अनेक प्रकारकी शकाएँ तथा कल्पनाएँ करके पूछा करता है, रोज जाता है और वहीकी वही बात पूछता है । परन्तु उसने क्या सोच रखा है. ?.. एकेद्रियमे जाना सोचा है क्या ? परन्तु किसी दिन यह नही पूछता, कि एकेंद्रियसे लेकर पचेंद्रियको जानेका परमार्थ क्या है ? एकेंद्रिय आदि जीवो सबधी कल्पनाओसे कुछ मिथ्यात्व ग्रथिका छेदन नही होता । एकेंद्रिय आदि जीवोका स्वरूप जाननेका कोई फल नही है । वास्तवमे तो समकित प्राप्त करना, है । इसलिये गुरुक़े पास जाकर निकम्मे प्रश्न करनेकी अपेक्षा गुरुसे कहना कि एकेद्रिय आदिको बात आज जान ली है, अब उस बातको आप कल न करें, परन्तु समकितकी व्यवस्था करे। ऐसा कहे तो इसका किसी दिन अन्त आवे । परन्तु रोज एकेंद्रिय आदिकी माथापच्ची करें तो इसका कल्याण कब हो ?, समुद्र खारा है | एकदम तो उसका खारापन दूर नही होता । उसके लिये इस प्रकार उपाय हैकि समुद्रमेसे एक एक प्रवाह लेना, और उस प्रवाहमे, जिससे उस पानीका खारापन दूर हो और मिठास - आ जाये ऐसा क्षार डालना । परन्तु उस पानी के सुखानेके दो प्रकार है- एक तो सूर्यका ताप और दूसराजमीन, इसलिये पहले जमीन तैयार करना और फिर नालियो द्वारा पानी ले जाना और फिर क्षार डालना कि जिससे खारापन मिट जायेगा । इसी तरह मिथ्यात्वरूपी समुद्र है, उसमे कदाग्रहरूपी खारापन है, इसलिये कुल धर्मरूपी प्रवाहको योग्यतारूप जमीनमे ले जाकर सद्बोधरूपी क्षार डालना जिससे सत्पुरुषरूपी तापसे खारापन मिट जायेगा ।
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" दुर्बळ देह ने मास उपवासी, जो छे मायारग रे । तोपण गर्भ अनता लेशे, बोले बीजु अंग रे ॥'
जितनी भ्राति अधिक उतना मिथ्यात्व अधिक ।
सबसे बड़ा रोग मिथ्यात्व |
जब जब तपश्चर्या करना तब तब उसे स्वच्छदसे न करना अहकारसे न करना, लोगोंके लिये न करना। जीवको जो कुछ करना है उसे स्वच्छदसे न करे । 'मै सयाना हूँ', ऐसा मान रखना वह क्सि भवके लिये ? ' मै सयाना नही हूँ' यो जिसने संमझा वह मोक्षमे गया है। मुख्यसे मुख्य विघ्न स्वच्छन्द् है । जिसके दुराग्रहका छेदन हो गया है वह लोगोको भी प्रिय होता है, दुराग्रह छोड दिया हो तो दूसरोको भी प्रिय होता है; इसलिये दुराग्रह छोडनेसे सब फल मिलने सभव है ।
गौतमस्वामीने महावीरस्वामीसे वेदके प्रश्न पूछे, उनका, जिन्होने सभी दोषोका क्षय किया है ऐसे उन महावीरस्वामीने वेदके दृष्टात देकर समाधान सिद्ध कर दिया ।
दूसरेको ऊँचे गुणपर चढाना, परन्तु किसीकी निंदा नही करना । किसीको स्वच्छदसे कुछ नही कहना । कहने योग्य हो तो अहकाररहित भावसे कहना । परमार्थदृष्टिसे रागद्वेष कम हुए हो तो फलीभूत होते है । व्यवहारसे तो भोले जीवोके भो रागद्वेष कम हुए होते है, परन्तु परमार्थसे रागद्वेष मद हो जायें तो कल्याणका हेतु है ।
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महान पुरुषोकी दृष्टिसे देखनेसे सभी दर्शन समान हैं । जेनमे बीस लाख जीव मतमतातरमे पडे हैं । ज्ञानोको दृष्टिसे भेदाभेद नही होता ।
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जिस जीवको अनन्तानुबन्धीका उदय है उसको सच्चे पुरुषकी बात सुनना भी नही भाता । मिथ्यात्वकी ग्रन्थि है उसकी सात प्रकृतियाँ हैं। मान आये तो सातो आती है, उनमे अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियाँ चक्रवर्तीके समान हैं। वे किसी तरह ग्रन्थिमेसे निकलने नही देती । मिथ्यात्व
१ नावार्थ – दुर्वल देह है और एक-एक मासका उपवास करता है, परन्तु यदि अतरमे माया है तो भी, जीव अनन्त गर्भ धारण करेगा, ऐसा दूसरे अगमें कहा है ।
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उपदेश छाया
रखवाला है। सारा जगत उसकी सेवा-चाकरी करता है ! प्र०—- उदय कर्म किसे कहते है ?
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- ऐश्वर्यपद प्राप्त होने पर उसे धक्का मारकर वापस बाहर निकाल दे कि 'इसकी मुझे जरूरत नही है, मुझे इसे क्या करना है " कोई राजा प्रधानपद दे तो भी स्वय उसे लेनेकी इच्छा न करे । 'मुझे इसको क्या करना है ? यह घर सबंधी इतनी उपाधि भी बहुत हैं ।" इस तरह मना करे । ऐश्वर्यपदकी अनिच्छा होनेपर भी राजा पुन पुन देना चाहे और इस कारण वह सिरपर आ पड़े, तो वह विचार करे कि 'यदि' तू प्रधान होगा तो बहुतसे जीवोकी दया पलेगी, हिसा कम होगी, पुस्तकशालाएँ होगी, पुस्तकें छपायी जायँगी ।' ऐसे धर्मके बहुतसे हेतुओको समझकरं वैराग्य भावनासे वेदन करें, उसे उदय कहा जाता है । इच्छासहित भोगे और उदयं कहे, वह तो शिथिलताका और ससारमें भटकने का कारण होता है । कितने हो जीव मोहगर्भित वैराग्यसे और कितने दुःखगर्भित वैराग्यसे दीक्षा लेते है । 'दीक्षा लेनेसे अच्छे अच्छे नगरो और गाँवोमे फिरनेको मिलेगा । दीक्षा लेनेके बाद अच्छे अच्छे पदार्थ खानेको मिलेंगे, नगे पैर धूपमे चलना पडेगा इतनी तकलीफ है, परन्तु वैसे तो साधारण किसान या जमीनदार भी धूपमे अथवा नगे पैर चलते है, तो उनकी तरह सहज हो जायेगा, परन्तु और किसी तरह से दुख नही है और कल्याण होगा ।' ऐसी भावनासे दीक्षा लेनेका जो वैराग्य हो वह 'मोहगर्भित वैराग्य' है ।
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पूनमके दिन बहुतसे लोग डाकोर जाते हैं, परन्तु कोई यह विचार नही करता कि इससे अपना क्या कल्याण होता है ? पूनमंके दिन रणछोडजीके दर्शन करनेके लिये बाप-दादा जाते थे यह देखकर लडके जाते हैं, परन्तु उसके हेतुका विचार नही करते । यह प्रकार भी मोहगर्भित वैराग्यका है । """" जो सासारिक दु खसे ससारत्याग करता है उसे ' दु खर्गर्भित वैराग्य समझे '।
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जहाँ जाये वहाँ कल्याणकी वृद्धि हो ऐसी दृढ मति करना, कुलगच्छका आग्रह छूटना यही सत्संगके माहात्म्यके सुननेका प्रमाण है । धर्मके मतमतातर आदि बडे बडे अनतानुवन्धी पर्वतकी दरारोकी तरह. कभी मिलते ही नही । कदाग्रह नही करना और जो कदाग्रह करता हो उसे धीरजसे समझाकर छुडा देना तभी समझनेका फल हे । अनतानुबधी मान कल्याण होनेमे बीच मे स्तम्भरूप कहा गया है । जहाँ जहाँ गुणी मनुष्य हो वहाँ वहाँ उसका सग करनेके लिये विचारवान जीव कहता है । अज्ञानी के लक्षण लौकिकभावके होते' है । जहाँ जहाँ दुराग्रह हो वहाँ वहाँसे छूटना । 'इसकी मुझे जरूरत नही है' यही समझना है ।
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राळ, भादो सुदी ६, शनि, १९५२ प्रमादसे योग उत्पन्न होता है । अज्ञानीको प्रमाद है । योगसे अज्ञान उत्पन्न होता हो तो वह ज्ञानीमे भी सम्भव है, इसलिये ज्ञानीको योग होता है परन्तु प्रमाद नही होता ।
"स्वभावमे रहना और विभावसे छूटना" यही मुख्य बात तो समझनी है । बाल जीवोके समझने के लिये ज्ञानीपुरुषोने सिद्धातोंके अधिकाश भागका वर्णन किया है ।
किसीपर रोष नही करना, तथा किसीपर प्रसन्न नही होना, यो करनेसे एक शिष्यको दो घड़ीमे केवलज्ञान प्रगट हुआ ऐसा शास्त्रमे वर्णन है ।
जितना रोग होता है उतनी ही उसकी दवा करनी पड़ती है । जीवको समझना हो तो महज हो विचार प्रगट हो जाये । परन्तु मिथ्यात्वरूपी वडा रोग है, इसलिये समझनेके लिये बहुत काल बीतना चाहिये । शास्त्रमे जो सोलह रोग कहे हैं, वे मभी इस जीवको हैं, ऐसा समझें ।
जो साधन बताये है वे एकदम सुलभ हैं। स्वच्छन्दसे, अहकारसे, लोकलाजसे, कुलधर्मके रक्षणके लिये तपश्चर्या न करें, आत्मार्थके लिये करें । तपश्चर्या वारह प्रकारकी कही है। आहार न लेना इत्यादि बारह प्रकार है । सत्साधन करनेके लिये जो कुछ बताया हो उसे सत्पुरुषके आश्रयसे उस प्रकारले करे ।
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श्रीमद राजचन्द्र
अपने आपसे वर्तन करना वही स्वच्छन्द है ऐसा कहा है । सद्गुरु की आज्ञा के बिना श्वासोच्छ्वास क्रियाके सिवाय अन्य कुछ न करे !
साघु लघुशका भी गुरुसे पूछकर करे ऐसी ज्ञानी पुरुषोंकी आज्ञा है ।
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स्वच्छन्दाचारसे शिष्य बनाना हो तो साधु आज्ञा नही माँगता अथवा उसकी कल्पना करें लेता, है | परोपकार करनेमे अंशुभ कल्पना रहती हो, और वैसे ही अनेक विकल्प करके स्वच्छन्द न छोड़े वह अज्ञानी आत्माको विघ्न करता है, तथा ऐसे सब प्रकारोका सेवन करता है, और परमार्थका मार्ग छोड़कर वाणी कहता है यही अपनी चतुराई और इसीको स्वच्छन्द कहा है ।
ज्ञानीकी प्रत्येक आज्ञा कल्याणकारी है । इसलिये उसमे न्यूनाधिक या छोटे-बडेकी कल्पना न
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करे । तथा ́ उस वातका आग्रह करके झगड़ा न करें । ज्ञानी जो कहते हैं वही कल्याणका हेतु है यो समझमे आये तो स्वच्छन्द मिटता है। ये हो यथार्थ ज्ञानी है इसलिये ये जो कहते हैं तदनुसार ही करें ।
दूसरा कोई विकल्प न करें
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जगतमे भ्राति न रखें, इसमें कुछ भी नही है । यह बात ज्ञानीपुरुष बहुत ही अनुभवसे वाणी द्वारा कहते है । जीव विचार करे कि मेरी बुद्धि स्थूल है, मुझे समझ मे नही आता । ज्ञानी जो कहते है वे वाक्य सच्चे है, यथार्थ है,' यो समझे तो सहजमे ही दोष कम होते हैं ।
जैसे एक वर्षासे बहुतसी वनस्पति फूट निकलती है, वैसे ज्ञानोको एक भी आज्ञाका आराधन करते, हुए बहुतसे गुण प्रगट हो जाते है !.
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यदि ज्ञानीको यथार्थ प्रतीति हो गयी है, और ठीक तरहसे जाँच की है कि 'ये सत्पुरुष है, इनकी दशा सच्ची आत्मदशा है, और इनसे कल्याण होगा ही,' और ऐसे ज्ञानीके वचनोके अनुसार प्रवृत्ति करे, तो बहुत ही दोष, विक्षेप मिट जाते हैं । जहाँ जहाँ देखे वहाँ वहाँ अहकाररहित वर्तन करता है और उसका सभी प्रवर्तन सीधा ही होता है । यो सत्सग, सत्पुरुपका योग अनत गुणोका भण्डार है । जो जगतको बतानेके लिये कुछ नही करता उसीको - सत्सग फलीभूत होता है ।, सत्सग और, सत्पुरुषके बिना त्रिकालमे कल्याण होता ही नही | - - 7:
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बाह्य त्यागसे जीव बहुत ही भूल जाता है । वेश, वस्त्र आदिमे भ्राति भूल जायें । आत्मांकी विभावदशा और स्वभावदशाको पहचानें ।
कई कर्मोंको भोगे बिना छुटकारा नही है । ज्ञानीको भी उदयकर्मका सम्भव है । परन्तु गृहस्थपना साधुप की अपेक्षा अधिक है यो बाहर से कल्पना करे तो किसी शास्त्रका योगफल नही मिलता ।
तुच्छ पदार्थ मे भी वृत्ति चलायमान होती है। चौदह पूर्वधारी भी वृत्तिकी चपलतासे और अहता स्फुरित हो जाने से निगोद आदिमे परिभ्रमण करते हैं । ग्यारहवें गुणस्थानसे भी जीव क्षणिक लोभसे, गिरकर पहले गुणस्थानमे आता है । 'वृत्ति शांत की है,' ऐसी अहंता जीवको स्फुरित होनेसे, ऐसे भुलावे भटक पड़ता है ।
अज्ञानीको धन आदि पदार्थोंमे अतीव आसक्ति होनेसे कोई भी चीज खो जाये तो उससे अनेक प्रकारकी आर्त्तध्यान आदिकी वृत्तिको बहुत प्रकारसे फैलाकर, प्रसारित कर कर क्षोभको प्राप्त होता है, क्योकि उसने उस पदार्थ की तुच्छता नही समझी, परन्तु उसमे महत्त्व माना है |
मिट्टी के घड़ेमे तुच्छता, समझी है इसलिये उसके फूट जानेसे क्षोभ प्राप्त नही होता । चॉदी, सुवर्ण आदिमे महत्त्व माना है इसलिये उनका वियोग होनेसे अनेक प्रकारसे आर्त्तध्यानकी वृत्तिको स्फुरित करता है ।
जो जो वृत्तिमे स्फुरित होता है और इच्छा करता है, वह 'आस्रव' है ।
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उपदेश छाया
उस उस वृत्तिका निरोध करता है वह 'संवर' है।
अनत वृत्तियाँ अनत प्रकारसे स्फुरित होती हैं, और अनत प्रकारसे जीवको बाँधती हैं । बालजी को यह समझमे नही आता, इसलिये ज्ञानियोने उनके स्थूल भेद इस तरह कहे है कि समझमे आ जायें।
वृत्तियोका मूलसे क्षय नही किया इसलिये पुन पुन. स्फुरित होती हैं। प्रत्येक पदार्थके विष स्फुरायमान बाह्य वृत्तियोको रोके और उन वृत्तियो-परिणामोको अन्तर्मुख करे।।
अनतकालके कर्म अनतकाल बितानेपर नहीं जाते, परन्तु पुरुषार्थसे जाते है । इसलिये कर्ममे नही है परन्तु पुरुषार्थमे बल है । इसलिये पुरुषार्थ करके आत्माको ऊँचे लानेका लक्ष्य रखें।
परमार्थकी एककी एक बात सौ बार पूछे तो भी ज्ञानीको कटाला नही आता, परन्तु उन्हे अनुव आती है कि इस बेचारे जीवके आत्मामे यह बात विचारपूर्वक स्थिर हो जाये तो अच्छा है।
'क्षयोपशमके अनुसार श्रवण होता है। ' सम्यक्त्व ऐसी वस्तु है कि वह आता है तब गुप्त नही रहता। वैराग्य पाना हो तो कर्मकी हि करें । कर्मको प्रधान न करें परन्तु आत्माको मूर्धन्य रखें-प्रधान करें।
ससारी काममे कर्मको याद न करें, परन्तु पुरुषार्थको आगे लायें । कर्मका विचार करते रहनेसे वह दूर होनेवाला नही है, परन्तु धक्का लगायेंगे तो जायेगा, इसलिये पुरुषार्थ करें।
बाह्य क्रिया करनेसे अनादि दोष कम नही होता । बाह्य क्रियामे जीव कल्याण मानकर अभिन करता है।
वाह्य व्रत अधिक लेनेसे मिथ्यात्वका नाश कर देगे, ऐसा जीव सोचे तो यह सम्भव नही, क्य जैसे एक भैंसा जो ज्वार बाजरेके हजारो पूले खा गया है वह एक तिनकेसे नही डरता वैसे मिथ्यात्वरु भंसा जो अनतानुबधी कषायसे पूलारूपी अनत चारित्र खा गया है वह तिनके रूपी वाह्य व्रतसे । डरेगा ? परन्तु जैसे भैसेको किसी बधनसे बाँध दें तो वह अधीन हो जाता है, वैसे मिथ्यात्वरूपी भैसे आत्माके वलरूपी बधनसे बाँध दे तो अधीन होता है, अर्थात् आत्माका बल बढता- है तव मिथ्य घटता है।
अनादिकालके अज्ञानके कारण जितना काल बीता, उतना काल मोक्ष होनेके लिये नही चाहि क्योकि पुरुषार्थका बल कर्मोको अपेक्षा अधिक है। कई जीव दी धड़ामे कल्याण कर गये है । सम्यग्द जीव चाहे जहाँसे आत्माको ऊँचा उठाता है, अर्थात् सम्यक्त्व आनेपर जीवकी दृष्टि वदल जाती है।
मिथ्यादृष्टि समकितोके अनुसार जप, तप आदि करता है, ऐसा होनेपर भी मिथ्यादृष्टिके तप आदि मोक्षके हेतुभत नही होते, ससारके हेतुभूत होते हैं। समकितोके जप, तप आदि मोक्षके हेतु होते है । समकिती दभरहित करता है, आत्माकी ही निंदा करता है, कर्म करनेके कारणोंसे पीछे हर है । ऐसा करनेसे उसके अहकार आदि सहज ही घट जाते हैं। अज्ञानीके सभी जप, तप आदि अहकार बढाते है, और ससारके हेतु होते है।
जैन शास्त्रोमे कहा है कि लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं । जैन और वेद जन्मसे ही लड़ते आये हैं, प इस बातको तो दोनो ही मान्य करते हैं, इसलिये यह सम्भव है। आत्मा साक्षी देता है तब आत्म उल्लास परिणाम आता है।
होम, हवन आदि लौकिक रिवाज बहुत प्रचलित देखकर तीर्थकर भगवानने अपने कालमे दया वर्णन बहुत ही सूक्ष्म रीतिसे किया है । जैनधर्मके जैसे दया सबधी विचार कोई दर्शन अथवा सप्रदायव नही कर सके है, क्योकि जैन पचेंद्रियका घात तो नहीं करते, परन्तु उन्होंने एकेंद्रिय आदिने जो अस्तित्वको विशेष-विशेष दढ करके दयाके मार्गका वर्णन किया है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
इस कारण चार वेद, अठारह पुराण आदिका जिसने वर्णन किया है, उसने अज्ञानसे, स्वच्छंदसे, मिथ्यात्वसे और सशयसे किया है, ऐसा कहा है । ये वचन बहुत ही कठोर कहे हैं, वहाँ बहुत अधिक विचार करके फिर वर्णन किया है कि अन्य दर्शन, वेद आदिके जो ग्रन्थ है उन्हे यदि सम्यग्दृष्टि जीव पढे तो वे सम्यक् प्रकारसे परिणमित होते हैं, और जिनेन्द्रके अथवा चाहे जैसे ग्रन्थोको यदि मिथ्यादृष्टि पढे तो मिथ्यात्वरूपसे परिणमित होते हैं।
जीवको ज्ञानीपुरुपके समीप उनके अपूर्व वचन सुननेसे अपूर्व उल्लास परिणाम आता है, परन्तु फिर प्रमादी हो जानेसे अपूर्व उल्लास नही आता । जिस तरह अग्निकी अगीठीके पास बैठे हो तब ठंडी नही लगती, और अगीठीसे दूर चले जानेसे ठडी लगती है, उसी तरह ज्ञानी पुरुषके समीप उनके अपूर्व वचन सुननेसे प्रमाद आदि चले जाते है, और उल्लास परिणाम आता है, परन्तु फिर प्रमाद आदि उत्पन्न हो जाते है । यदि पूर्वके सस्कारसे वे वचन अंतरमे परिणत हो जाये तो दिन प्रतिदिन उल्लास परिणाम बढ़ता ही जाता है और यथार्थरूपसे भान होता है । अज्ञान मिटनेपर सारो भूल मिटती है, स्वरूप जागृतिमान होता है। बाहरसे वचन सुननेसे अतर्परिणाम नही होता, तो फिर जिस तरह अगीठीसे दूर चले जानेपर ठडी लगती है उसी तरह दोष कम नहीं होते।
केशीस्वामीने परदेशी राजाको बोध देते समय 'जड जैसा', 'मूढ जैसा' कहा था, उसका कारण परदेशी राजामे पुरुषार्थ जगाना था । जडता-मूढता मिटानेके लिये उपदेश दिया था। ज्ञानीके वचन अपूर्व परमार्थके सिवाय दूसरे किसी हेतुसे नही होते । वालजीव ऐसी बातें करते है कि छद्मस्थतासे केशीस्वामी परदेशी राजाके प्रति इस प्रकार बोले थे, परन्तु यह वात नही है । उनकी वाणी परमार्थके लिये ही निकली थी ।
जड पदार्थके लेने-रखनेमे उन्मादसे वर्तन करे तो उसे असयम कहा है। उसका कारण यह है कि जल्दीसे लेने-रखनेमे आत्माका उपयोग चूककर तादात्म्यभाव हो जाता है । इस हेतुसे उपयोग चूक जानेको असयम कहा है।
मुहपत्ती बांध कर झूठ बोले, अहकारसे आचार्यपद धारण कर दभ रखे और उपदेश दे, तो पाप लगता है, मुहपत्तीको जयणासे पाप रोका नहीं जा सकता । इसलिये आत्मवृत्ति रखनेके लिये उपयोग रखे। ज्ञानीके उपकरणको छनेसे या शरीरका स्पर्श होनेसे आशातना लगती है ऐसा मानता है, किन्तु वचनको अप्रधान करनेसे तो विशेष दोष लगता है, उसका तो भान नही है। इसलिये ज्ञानीकी किसी भी प्रकारसे आशातना न हो ऐसा उपयोग जागृत-जागृत रखकर भक्ति प्रगट हो तो वह कल्याणका मुख्य मार्ग है।
श्री आचाराग सूत्रमे कहा है कि 'जो आस्रव है वे परिस्रव हैं', 'जो परिस्रव हैं वे आस्रव हैं'। जो आस्रव है वह ज्ञानोको मोक्षका हेतु होता है, और जो सवर है फिर भी वह अज्ञानीको वधका हेतु होता है, ऐसा स्पष्ट कहा है । उसका कारण ज्ञानोमे उपयोगको जागृति है, और अज्ञानीमे नही है।
उपयोग दो प्रकारके कहे है-१ द्रव्य-उपयोग, २ भाव-उपयोग। द्रव्यजीव, भावजीव । द्रव्यजीव वह द्रव्य मूल पदार्थ है । भावजीव, वह आत्माका उपयोग-भाव है।
भावजीव अर्थात् आत्माका उपयोग जिस पदार्थमे तादात्म्यरूपसे परिणमे तद्रूप आत्मा कहे । जैसे टोपी देखकर, उसमे भावजीवकी बुद्धि तादात्म्यरूपसे परिणमे तो टोपी-आत्मा कहे। जैसे नदीका पानी द्रव्य आत्मा है। उसमे क्षार, गधक डालें तो गधकका पानी कहा जाता है। नमक डाले तो नमकका पानी कहा जाता है। जिस पदार्थका सयोग हो उस पदार्थरूप पानी कहा जाता है। उसी तरह आत्माको
जो सयोग मिले उसमे तादात्म्यभाव होनेसे वही आत्मा उस पदार्थरूप हो जाता है। उसे कर्मवधकी अनत वर्गणा बँधती हैं, और वह अनत ससारमे भटक्ता है। अपने उपयोगमे, स्वभावमे आत्मा रहे तो कर्मवध नहीं होता।
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उपदेश छाया 'पाँच इद्रियोंका अपना अपना स्वभाव है। 'चक्षका देखनेका स्वभाव है वह देखता है। कानका सुननेका स्वभाव है वह सुनता है । जोभका स्वाद, रस लेनेका स्वभाव है, वह खट्टा, खारा स्वाद लेती है। शरीर, स्पर्शेन्द्रियका स्वभाव स्पर्श करनेका है, वह स्पर्श करता है। इस तरह प्रत्येक इद्रिय अपना अपना स्वभाव किया करती है, परन्तु आत्माका उपयोग तद्रूप होकर, तादात्म्यरूप होकर उसमे हर्षविपाद न करे तो कर्मबंध नही होता । इद्रियरूप आत्मा हो तो कर्मवधका हेतु है।
‘भादो सुदी ९, १९५२ जैसा सिद्धका सामर्थ्य हे वैसा सब जीवोका है। मात्र अज्ञानसे ध्यानमे नही आता । विचारवान जीव हो उसे तो तत्सबधी नित्य विचार करना चाहिये ।
___ जीव यों समझता है कि मै जो क्रिया करता हूँ उससे मोक्ष है। क्रिया करना यह अच्छी बात है, परन्तु लोकसज्ञासे करे तो उसे उसका फल नही मिलता । ' .
। एक मनुष्यके हाथमे चितामणि आया हो, परतु यदि उसे उसका पता न चले तो निष्फल है, यदि पता चले तो सफल है । उसी तरह जीवको सच्चे ज्ञानोकी पहचान हो तो सफल है ।
जीवकी अनादिकालसे भूल चली आती है। उसे समझनेके लिये जीवकी जो भूल मिथ्यात्व है उसका मूलसे छेदन करना चाहिये । यदि मूलसे छेदन किया जाये तो वह फिर अकुरित नही होती । नही तो वह फिर अकुरित हो जाती है । जिस तरह पृथ्वीमे वृक्षका मूल रह गया हो तो वृक्ष फिर उग आता है उसी तरह । इसलिये जीवकी मूल भूल क्या है उसका पुन. पुन विचार करके उससे मुक्त होना चाहिये । 'मुझे किससे बधन होता है ?' 'वह कैसे दूर हो ?' यह विचार प्रथम कर्तव्य है।
रात्रिभोजन करनेसे आलस्य, प्रमाद आता है, जागृति नही होती, विचार नहीं आता, इत्यादि अनेक प्रकारके दोष रात्रिभोजनसे उत्पन्न होते हैं, मैथुनके अतिरिक्त भी दूसरे बहुतसे दोष उत्पन्न होते है।
___ कोई हरी वनस्पति छीलता हो तो हमसे तो वह देखा नहीं जा सकता । इसी तरह कोई भी आत्मा उज्ज्वलता प्राप्त करे तो उसे अतीव अनुकंपा बुद्धि रहती है।
ज्ञानमे सीधा भासता है, उलटा नही भासता। ज्ञानी मोहको पैठने नही देते। उनका जागृत उपयोग होता है। ज्ञानीके जैसे परिणाम रहते है वैसा कार्य ज्ञानोका होता है तथा अज्ञानीका जैसा परिणाम होता है, वैसा अज्ञानीका कार्य होता है। ज्ञानीका चलना सीधा, वोलना सीधा और सब कुछ ही सीधा ही होता है । अज्ञानीका सब कुछ उलटा ही होता है, वर्तनके विकल्प होते है।
मोक्षका उपाय है । ओघभावसे खबर होगी, विचारभावसे प्रतीति आयेगो।
अज्ञानी स्वय दरिद्री है। ज्ञानीकी आज्ञासे काम, क्रोध आदि घटते है। ज्ञानी उनके वैच है। ज्ञानीके हाथसे चारित्र प्राप्त हो तो मोक्ष हो जाता है। ज्ञानी जो जो व्रत देते हे वे सब ठेठ अत तक ले जाकर पार उतारनेवाले है । समकित आनेके बाद आत्मा समाधिको प्राप्त होगा, क्योकि वह सच्चा हो गया है।
प्र०-ज्ञानमे कर्मकी निर्जरा होती है क्या ?
उ०-सार जानना ज्ञान है। मार न जानना अज्ञान है। हम किसी भी पापसे निवृत्त हो अथवा कल्याणमे प्रवृत्ति करे, वह ज्ञान हे । परमार्थ समझ कर करे । अहकाररहित, कदाग्रहरहित, लोकसंज्ञारहित आत्मामे प्रवृत्ति करना 'निर्जरा' हे ।
इस जीवके साथ रागद्वेप लगे हुए है, जीव अनत ज्ञान-दर्शनसहित है, परतु राग-द्वेपमे वह जीवके ध्यानमे नहीं आता। सिद्धको रागद्वेप नही है । जैसा सिद्धका स्वल्प हे वैसा ही सब जीवोका स्वरूप है।
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श्रीमद राजचन्द्र मात्र अज्ञानके कारण जीवके ध्यानमे नही आता, इसलिये विचारवान सिद्धके स्वरूपका विचार करे, जिससे अपना स्वरूप समझमे आये।
__ एक आदमीके हाथमे चिंतामणि आया हो, और उसे उसकी खबर (पहचान) है तो उसके प्रति उसे अतीव प्रेम हो जाता है, परंतु जिसे खबर नही है उसे कुछ भी प्रेम नही होता।
इस जीवको अनादिकालकी जो भूल है उसे दूर करना है। दूर करनेके लिये जीवको बडीसे बडी भूल क्या है ? उसका विचार करे, और उसके मूलका छेदन करनेकी ओर लक्ष्य रखे । जब तक मूल रहता है तब तक बढता है।
'मुझे किससे बधत्त होता है ?' और वह किससे दूर हो" यह जाननेके लिये शास्त्र रचे गये है। लोगोमे पूजे जानेके लिये शास्त्र नही रचे गये है।
जीवका स्वरूप क्या है ? जीवका स्वरूप जब तक जाननेमे न आये.तब तक अनत जन्म मरण करने पडते है । जीवकी क्या भूल है ? वह अभी तक ध्यानमे नही आती । जोवका क्लेश नष्ट होगा तो भूल दूर होगी। जिस दिन भूल दूर होगी उसी दिनसे साधुता कही जायेगी। इसी तरह श्रावकपनके लिये समझें।
कर्मकी वर्गणा जोवको दूध और पानीके सयोगकी भॉति है। अग्निके प्रयोगसे पानी जल जानेसे दूध बाकी रह जाता है, इसी तरह ज्ञानरूपो अग्निसे कर्मवर्गणा नष्ट हो जाती है। - देहमे अहभाव माना हुआ है, इसलिये जीवकी भूल दूर नही होती। जीव देहके साथ मिल जानेसे ऐसा मानता है कि 'मैं वणिक हूँ', 'ब्राह्मण हूँ', परतु शुद्ध विचारसे तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि 'मैं शुद्ध स्वरूपमय हूँ।' आत्माका नाम-ठाम या कुछ भी नही है, इस तरह सोचे तो उसे कोई गाली आदि दे तो उससे उसे कुछ भी नहीं लगता।
जीव जहाँ जहाँ ममत्व करता है वहाँ वहाँ उसको भूल है। उसे दूर करनेके लिये शास्त्र कहे हैं।
चाहे कोई भी मर गया हो उसका यदि विचार करे तो वह वैराग्य है। जहाँ जहाँ 'ये मेरे भाईबधु' इत्यादि भावना है वहाँ वहाँ कर्मबधका हेतु है । इसी तरहकी भावना यदि साधु भी चेलेके प्रति रखे तो उसका आचार्यपन नष्ट हो जाता है। निर्दभता, निरहकारता करे तो आत्माका कल्याण ही होता है ।
, पाँच इन्द्रियाँ किस तरह वश होती है ? वस्तुओपर तुच्छभाव लानेसे । जैसे फूलमे सुगन्ध होती है उससे मन सन्तुष्ट होता है, परन्तु सुगन्ध थोडी देर रहकर नष्ट हो जाती है, और फूल मुरझा जाता है, फिर मनको कुछ भी सतोष नही होता। उसी तरह सभी पदार्थोंमे तुच्छभाव लानेसे इन्द्रियोको प्रियता नही होती, और इससे क्रमश. इद्रियाँ वश होती है। और पाँच इन्द्रियोमे भी जिह्वा इन्द्रिय वश करनेसे शेष चार इन्द्रियाँ अनायास वश हो जाती है। तुच्छ आहार करें, किसी रसवाले पदार्थमें न ललचाय, बलिष्ठ आहार न करें।
एक बर्तनमें रक्त, मास, हड्डियां, चमडा, वीर्य, मल, मूत्र ये सात धातुएँ पडी हो, और उसकी ओर कोई देखनेको कहे तो उसपर अरुचि होती है, और यूँकनेके लिये भी नहीं जाता। उसी तरह स्त्रीपुरुषके शरीरको रचना है, परन्तु ऊपरकी रमणीयता देखकर जीव मोहको प्राप्त होता है और उसमे तृष्णापूर्वक प्रवृत्ति करता है । अज्ञानसे जीव भूलता है, ऐसा विचार कर, तुच्छ समझकर पदार्थपर अरुचिभाव लायें। इस तरह प्रत्येक वस्तुकी तुच्छता समझें। इस तरह समझ कर मनका तिरोध करें।
. तीर्थकरने उपवास करनेकी आज्ञा दी है, वह मात्र इन्द्रियोको वश करनेके लिये । अकेला उपवास करनेसे इन्द्रियाँ वश नही होती, परन्तु उपयोग हो तो, विचारसहित हो तो वश होती हैं। जैसे बिना लक्ष्यका बाण निकम्मा जाता है, वैसे बिना उपयोगका उपवास. आत्मार्थके लिये नही होता।
. अपनेमे कोई गुण प्रगट हुआ हो, और उसके लिये, यदि कोई मनुष्य अपनी स्तुति करे और उससे यदि अपना आत्मा अहकार करे तो, वह पीछे हटता है। अपने आत्माकी निंदा न करे, अभ्यतर दोषका
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नही होता।
उपदेश छाया
७१३ विचार न करे, तो जीव लौकिकभावमे चला जाता है, परन्तु यदि अपने दोष देखे, अपने आत्माकी निंदा करे, अहभावसे रहित होकर विचार करे, तो सत्पुरुषके आश्रयसे आत्मलक्ष्य होता है।
मार्गप्राप्तिमे अनत अन्तराय हैं। उनमे फिर 'मैने यह किया', 'मैने यह कैसा सुदर किया ?' इस प्रकारका अभिमान है। 'मैने कुछ भी किया ही नही', ऐसी दृष्टि रखनेसे वह अभिमान दूर होता है।
लौकिक और अलौकिक ऐसे दो भाव है । लौकिकसे ससार, और अलौकिकसे मोक्ष होता है।
बाह्य इन्द्रियाँ वशमे की हो, तो सत्पुरुषके आश्रयसे अन्तर्लक्ष्य हो सकता है। इस कारणसे बाह्य इद्रियोंको वशमे करना श्रेष्ठ है । बाह्य इद्रियाँ वशमे हो, और सत्पुरुषका आश्रय न हो तो लौकिकभावमे चले जानेका सभव रहता है। _उपाय किये बिना कुछ रोग नही मिटता। इसी तरह जीवको जो लोभरूपी रोग है, उसका उपाय किये बिना वह दूर नहीं होता। ऐसे दोषको दूर करनेके लिये जीव जरा भी उपाय नहीं करता । यदि उपाय करे तो वह दोष अभी भाग जाये। कारणको खडा करें तो कार्य होता है। कारण के बिना कार्य । सच्चे उपायको जीव नही खोजता | ज्ञानीपुरुषके वचन सुनता है परन्तु प्रतीति नहीं है। 'मझे लोभ छोडना है', 'क्रोध, भान आदि छोडने है', ऐमो नोजभूत भावना हो और छोडे, तो दोष दूर होकर अनुक्रमसे 'वोजज्ञान' प्रगट होता है।
प्र०-आत्मा एक है या अनेक ?
उ०-यदि आत्मा एक ही हो तो पूर्वकालमे रामचन्द्रजो मुक्त हुए है, और उससे सर्वकी मुक्ति होनी चाहिये, अर्थात् एकको मुक्ति हुई हो तो सबको मुक्ति हो जाये, और फिर दूसरोको सत्शास्त्र, सद्गुरु आदि साधनोकी जरूरत नही है।
प्र०-मुक्ति होनेके बाद क्या जीव एकाकार हो जाता है ?
उ०-यदि मुक्त होनेके बाद जीव एकाकार हो जाता हो तो स्वानुभव आनदका अनुभव नहीं कर सकता। एक पुरुष यहाँ आकर बैठा, और वह विदेह मुक्त हो गया। उसके बाद दूसरा यहाँ आकर बैठा । वह भी मुक्त हो गया। इससे कुछ तीसरा मुक्त नही हुआ। एक आत्मा है उसका आशय ऐसा हे कि सर्व आत्मा वस्तुत' समान है, परतु स्वतत्र है, स्वानुभव करते हैं इस कारणसे आत्मा भिन्न भिन्न हैं । 'आत्मा एक है. इसलिये तुझे दूसरो कोई भ्राति रखनेकी जरूरत नहीं है, जगत कुछ है ही नहीं; ऐसे भ्रातिरहित भावसे वर्तन करनेसे मुक्ति है', ऐसा जो कहता है उसे विचार करना चाहिये कि, तो एककी मुक्तिसे सर्वको मुक्ति होनी ही चाहिये । परन्तु ऐसा नही होता, इसलिये आत्मा भिन्न भिन्न है । जगतकी भ्राति दूर हो गयी, इसका आशय यो नही समझना है कि चद्र-सूर्य आदि ऊपरसे नीचे गिर पडते हैं। आत्मविषयक भ्राति दूर हो गयी ऐसा आशय समझना है।
रूढिसे कुछ कल्याण नही है । आत्मा शुद्ध विचारको प्राप्त हुए विना कल्याण नहीं होता। ____ मायाकपटसे झूठ बोलनेमे बहुत पाप है । वह पाप दो प्रकारका है। मान और धन प्राप्त करने के लिये झूठ बोले तो उसमे बहत पाप है। आजीविकाके लिये झूठ बोलना पडा हो, और पश्चात्ताप करे, तो पहलेको अपेक्षा कुछ कम पाप लगता है।
सत् और लोभ इन दोनोको इकट्ठा किसलिये जोव समझता है ?
वाप स्वय पचास वर्पका हो और उसका वीस वर्षका लडका मर जाये तो वह वाप उसके पास जो आभूषण होते हैं उन्हें निकाल लेता है ! पुत्रके देहातके समय जो वैराग्य था वह स्मशानवैराग्य था।
भगवानने कोई भी पदार्थ दूसरेको देनेको मुनिको आज्ञा नहीं दी। देहको धर्मसावन मानकर उसे निभानेके लिये जो कुछ आज्ञा दी है वह दी है, वाको दूसरेको कुछ भी देनेकी भगवानने आज्ञा नहीं दो ।
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श्रीमद् रामचन्द्र
आज्ञा दी होती तो परिग्रह बढता, और उससे अनुक्रमसे अन्न, पानी आदि लाकर कुटुम्वका अथवा दूसरेका पोषण करके दानवीर होता। इसलिये मुनिको सोचना चाहिये कि तीर्थकरने जो कुछ रखनेकी आज्ञा दी है वह मात्र तेरे अपने लिये, और वह भी लौकिकदृष्टि छुडाकर सयममे लगानेके लिये दी है। ____ मुनि गृहस्थके यहाँसे एक सूई लाया हो, और वह खो जानेसे भी वापस न दे तो वह तीन उपवास करे ऐसी ज्ञानीपुरुषोने आज्ञा दी है, उसका कारण यह है कि वह उपयोगशून्य रहा । यदि इतना अधिक भार न रखा होता तो दूसरी वस्तुएँ लानेका मन होता, और कालक्रमसे परिग्रह बढाकर मुनित्वको खो बैठता। ज्ञानीने ऐसा कठिन मार्ग प्ररूपित किया है उसका कारण यह है कि वे जानते है कि यह जीव विश्वास करने योग्य नही है, क्योकि वह भ्रातिवाला है। यदि छूट दी होगी तो कालक्रमसे उस उस प्रकारमे विशेष प्रवृत्ति करेगा, ऐसा जानकर ज्ञानीने सूई जैसी निर्जीव वस्तुके सवधमे इस प्रकार वर्तन करनेको आज्ञा की है। लोकको दृष्टिमे तो यह बात साधारण है, परन्तु ज्ञानोकी दृष्टिमे उतनी छूट भी मूलसे गिरा दे इतनी बडी लगती है।
ऋषभदेवजीके पास अट्ठानवे पुत्र हमें राज्य में ऐसा कहनेके अभिप्रायसे आये थे, वहाँ तो ऋषभदेवने उपदेश देकर अट्टानवोको ही मुंड दिया | देखिये महान पुरुषको करुणा।
केशीस्वामी और गौतमस्वामी कैसे सरल थे ! दोनोका मार्ग एक प्रतीत होनेसे पॉच महाव्रत ग्रहण किये । आधुनिक कालमे दो पक्षोका एक होना सम्भव नही है । आजके दृढिया और तपा, तथा भिन्न भिन्न सघाडोका एकत्र होना नही हो सकता । उसमे कितना ही काल बीत जाता है। उसमे कुछ है नही, परन्तु असरलताके कारण सम्भव हो नही है।
सत्पुरुष कुछ सदनुष्ठानका त्याग नहीं कराते, परन्तु यदि उसका आग्रह हुआ होता है तो आग्रह दूर करानेके लिये उसका एक बार त्याग कराते हैं, आग्रह मिटनेके बाद फिर उसे ही ग्रहण करनेको कहते है।
___ चक्रवर्ती राजा जैसे भी नग्न होकर चले गये है ! चक्रवर्ती राजा हो, उसने राज्यका त्याग कर दीक्षा ली हो, और उसकी कुछ भूल हो, और उस चक्रवर्तीके राज्यकालकी दासीका लडका उस भूलको सुधार सकता हो, तो उसके पास जाकर, उसके कथनको ग्रहण करनेकी आज्ञा की है। यदि उसे दासीके लडकेके पास जाते हुए यो लगे कि 'मै दासीके लड़केके पास कैसे जाऊँ ?' तो उसे भटक मरना है । ऐसे कारणोमे लोकलाजको छोडनेका कहा है, अर्थात् जहाँ आत्माको ऊँचा उठानेका कारण हो वहाँ लोकलाज नही मानी गयी है । परन्तु कोई मुनि विषयकी इच्छासे वेश्याशालामे गया, वहाँ जाकर उसे ऐसा लगा, 'मुझे लोग देख लेंगे तो मेरी निंदा होगी । इसलिये यहाँसे लौट जाऊँ ।' तात्पर्य कि मुनिने परभवके भयको नही गिना, आज्ञाभगके भयको भी नही गिना, तो ऐसो स्थितिम लोकलाजसे भी ब्रह्मचर्य रह सकता है, इसलिये वहाँ लोकलाज मानकर वापस आया, तो वहाँ लोकलाज रखनेका विधान है, क्योकि इस स्थलमे लोकलाजका भय खानेसे ब्रह्मचर्य रहता है, जो उपकारक है।
हितकारी क्या है उसे समझना चाहिये। अष्टमोका झगड़ा तिथिके लिये न करे, परन्तु हरी वनस्पतिके रक्षणके लिये तिथिका पालन करें। हरी वनस्पतिके रक्षणके लिये अष्टमी आदि तिथियाँ कही गयी हैं, कुछ तिथिके लिये अष्टमी आदि नही कही। इसलिये अष्टमी आदि तिथिका कदाग्रह दूर करें। जो कुछ कहा है वह कदाग्रह करने के लिये नही कहा । आत्माकी शुद्धिसे जितना करेंगे उतना हितकारी है। अशुद्धिसे करेंगे उतना अहितकारी है, इसलिये शुद्धतापूर्वक सद्बतका सेवन करें। . हमे तो ब्राह्मण, वैष्णव चाहे जो हो सब समान हैं। जैन कहलाते हो और मतवाले हो तो वे अहितकारी हैं, मतरहित हितकारी है।
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उपदेश छाया
७१५ सामायिक-शास्त्रकारने विचार किया कि यदि कायाको स्थिर रखना होगा तो फिर विचार करेगा; नियम नही बनाया होगा तो दूसरे काममे लग जायेगा, ऐसा समझकर उस प्रकारका नियम बनाया । जैसे मनपरिणाम रहे वैसी सामायिक होती है। मनका घोडा दौडता हो तो कर्मबंध होता है। मनका घोड़ा दौडता हो, और सामायिक की हो तो उसका फल कैसा होगा?
कर्मबधको थोड़ा थोडा छोडना चाहे तो छूटता है। जैसे कोठो भरी हो, परन्तु छेद करके निकाले तो अन्तमे खाली हो जाती है । परन्तु दृढ इच्छासे कर्मोको छोड़ना ही सार्थक है।
आवश्यकके छ प्रकार-सामायिक, चतुर्विशतिस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान | सामायिक अर्थात् सावद्ययोगकी निवृत्ति ।
वाचना ( पढना ), पृच्छना ( पूछना ), परावर्तना (पुन पुन विचार करना), धर्मकथा (धर्मविषयक कथा करनी ), ये चार द्रव्य है, और अनुप्रेक्षा ये भाव हैं। यदि अनुप्रेक्षा न आये तो पहले चार द्रव्य है।
अज्ञानी आज 'केवलज्ञान नही है', 'मोक्ष नही है' ऐसी हीन-पुरुषार्थकी बातें करते है। ज्ञानीका वचन पुरुषार्थको प्रेरित करनेवाला होता है। अज्ञानी शिथिल है इसलिये ऐसे हीन पुरुषार्थके वचन कहता है । पचमकालकी, भवस्थितिकी, देहदुर्बलताकी या आयुकी बात कभी भी मनमे नही लानी चाहिये, और कैसे हो ऐसी वाणो भी नही सुननी चाहिये।
___ कोई होन-पुरुषार्थी बातें करे कि उपादानकारण-पुरुषार्थका क्या काम है ? पूर्वकालमे असोच्याकेवली हुए है । तो ऐसी बातोसे पुरुषार्थहीन न होना चाहिये।
सत्संग और सत्यसाधनके बिना किसी कालमे भी कल्याण नहीं होता। यदि अपने आप कल्याण होता हो तो मिट्टीमेसे घड़ा होना सम्भव है । लाख वर्ष हो जाये तो भी मिट्टीमेसे घडा स्वय नही होता, इसी तरह कल्याण नहीं होता।
तीर्थंकरका योग हुआ होगा ऐसा शास्त्रवचन है, फिर भी कल्याण नही हुआ, उसका कारण पुरुषार्थहीनता है। पूर्वकालमे ज्ञानी मिले थे फिर भी पुरुषार्थके बिना जैसे वह योग निष्फल गया, वैसे इस बार ज्ञानीका योग मिला है और पुरुषार्थ नही करेंगे तो यह योग भी निष्फल जायेगा। इसलिये पुरुषार्थ करें, और तो ही कल्याण होगा । उपादानकारण-पुरुषार्थ श्रेष्ठ है।
यो निश्चय करें कि सत्पुरुषके कारण-निमित्त-से अनंत जीव तर गये हैं। कारणके बिना कोई जीव नही तरता । असोज्याकेवलीको भी आगे पीछे वैसा योग प्राप्त हुआ होगा। सत्सगके विना सारा जगत डूब गया है।
___ मीराबाई महा भक्तिमान थी। वृदावनमे जीवा गोसाईके दर्शन करनेके लिये वे गयी, और पुछवाया, 'दर्शन करनेके लिये आऊँ ?' तव जोवा गोसाईने कहलवाया, 'मै स्त्रीका मुंह नहीं देखता।' तव मीराबाईने कहलाया, 'वृदावनमे रहते हुए भी आप पुरुष रहे है यह बहुत आश्चर्यकारक है । वृदावनमे रहकर मुझे भगवानके सिवाय अन्य पुरुषके दर्शन नहीं करने हैं। भगवानका भक्त है वह तो स्त्रीरूप है, गोपीरूप है। कामको मारनेके लिये उपाय करें, क्योकि लेते हुए भगवान, देते हुए भगवान, चलते हुए भगवान, सर्वत्र भगवान है।'
नाभा भगत था। किसीने चोरी करके चोरीका माल भगतके घरके आगे दवा दिया। इससे भगतपर चोरी का आरोप लगाकर कोतवाल पकडकर ले गया । कैदमे डालकर, चोरो मनाने के लिये रोज बहुत मार मारने लगा। परन्तु भला जीव, भगवानका भगत, इसलिये शातिसे सहन किया। गोसाईजीने आकर कहा 'मै विष्णु भक्त हूँ, चोरी किसी दूसरेने को है, ऐसा कह ।' तब भगतने कहा 'ऐसा कहकर छूटनेको अपेक्षा इस देहको मार पड़े यह क्या बुरा है ? मारता है तब मै तो भक्ति करता हूँ। भगवानके
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श्रीमद राजचन्द्र
नामसे देहको दड हो यह अच्छा है । इसके नामसे सब कुछ सीधा । देह रखनेके लिये भगवानका नाम नही लेना है | भले देहको मार पडे यह अच्छा - क्या करना है देहको ।'
अच्छा समागम, अच्छी रहन-सहन हो वहाँ समता आती है । समताकी विचारणा के लिये दो घड़ीकी सामायिक करना कहा है । सामायिक मे उलटे-सुलटे मनोरथोका चिंतन करे तो कुछ भी फल नही होता । मनके दौड़ते हुए घोडोको रोकनेके लिये सामायिकका विधान है।
सवत्सरीके दिनसंबंधी एक पक्ष चतुर्थीकी तिथिका आग्रह करता है, और दूसरा पक्ष पचमीकी तिथिका आग्रह करता है । आग्रह करनेवाले दोनो मिथ्यात्वी है । ज्ञानीपुरुपोने जो दिन निश्चित किया होता है वह आज्ञाका पालन होनेके लिये होता है । ज्ञानी पुरुष अष्टमी न पालनेकी आज्ञा करें और दोनोको सप्तमी पालने को कहे अथवा सप्तमी अष्टमी इकट्ठी करेगे यो मोचकर षष्ठी कहे अथवा उसमे भी पचमी इकट्ठी करेंगे यो सोचकर दूसरी तिथि कहे तो वह आज्ञा पालनेके लिये कहते है । बाकी तिथियोका भेद' छोड़ देना चाहिये । ऐसी कल्पना नही करनी चाहिये, ऐसे भगजालमे नही पड़ना चाहिये । ज्ञानीपुरुषोने तिथियोकी मर्यादा आत्मार्थ के लिये की है ।
यदि अमुक दिन निश्चित न किया होता, तो आवश्यक विधियोका नियम न रहता । आत्मार्थके लिये तिथिकी मर्यादाका लाभ ले ।
आनदघनजीने श्री अनतनाथस्वामीके स्तवनमे कहा है
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'एक कहे सेवीए विविध किरिया करी, फळ अनेकात लोचन न देखे ।
फळ अनेकात किरिया करी बापड़ा, रडवडे चार गतिमाही लेखे ॥'
अर्थात् जिस क्रिया करनेसे अनेक फल हो वह क्रिया मोक्षके लिये नही है । अनेक क्रियाओका फल एक मोक्ष ही होना चाहिये । आत्मा के अश प्रगट होनेके लिये क्रियाओका वर्णन है । यदि क्रियाओका वह फल न हुआ तो वे सब क्रियाएँ ससारके हेतु हैं ।
'निदामि, गरिहामि, अप्पाण वोसिरामि' ऐसा जो कहा है उसका हेतु कषायके त्याग करनेका है, परन्तु बेचारे लोग तो एकदम आत्माका ही त्याग कर देते है ।
जोव देवगतिकी, मोक्षके सुखको अथवा दूसरी वैसी कामनाकी इच्छा न रखे ।
पचमकालके गुरु कैसे है उसके बारेमे एक संन्यासीका दृष्टात - एक सन्यासी था । वह अपने शिष्यके घर गया । ठडी बहुत थी । जीमने बैठते समय शिष्यने नहानेको कहा । तब गुरुने मनमे विचार किया 'ठडी बहुत है, और नहाना पडेगा ।' यो सोचकर सन्यासीने कहा 'मै तो ज्ञानगगाजलमे स्नान कर रहा हूँ ।' शिष्य विचक्षण होनेसे समझ गया, और उसने, गुरुको कुछ शिक्षा मिले ऐसा रास्ता लिया । शिष्यने 'भोजनके लिये पधारे' ऐसे मानसहित बुलाकर भोजन कराया। प्रसादके बाद गुरु महाराज एक कोठडीमे सो गये । गुरुको तृपा लगी इसलिये शिष्यसे जल माँगा । तब तुरत शिष्यने कहा 'महाराज, जल ज्ञानगगामेसे पी लें ।' जब शिष्यने ऐसा कठिन रास्ता लिया तब गुरुने कबूल किया 'मेरे पास ज्ञान नही है । देहकी साताके लिये ठडीमे मैने स्नान नही करनेका कहा था ।'
मिथ्यादृष्टिके पूर्व के जप-तप अभी तक मात्र आत्महितार्थं नही हुए I
आत्मा मुख्यत आत्मस्वभावसे वर्तन करे वह 'अध्यात्मज्ञान' | मुख्यत' जिसमे आत्माका वर्णन किया हो वह 'अध्यात्मशास्त्र' । भाव- अध्यात्मके बिना अक्षर ( शब्द ) अध्यात्मीका मोक्ष नही होता । जो गुण अक्षरो कहे गये है वें गुण यदि आत्मामे रहे तो मोक्ष होता है । सत्पुरुषमे भाव -अध्यात्म प्रगट है । भावार्थ: कु - कुछ लोग कहते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकारकी सेवा-भवित अथवा क्रिया करके भगवानकी सेवा करते हैं, परतु उन्हे क्रियाका फल दिखायी नही देता । वे बेचारे एकसा फल न देनेवाली क्रिया करके चारो गतियो में भटकते रहते हैं, और उनकी मुक्ति नही हो पाती ।
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उपदेश छाया
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सत्पुरुषको वाणी जो सुनता है वह द्रव्य - अध्यात्मी, शब्द- अध्यात्मी कहा जाता है । शब्द - अध्यात्मी अध्यात्मकी बातें कहते है, और महा अनर्थकारक प्रवर्तन करते है, 'इस कारणसे उन्हे ज्ञानदग्ध कहे । “ऐसे अध्यात्मियोको शुष्क और अज्ञानी समझे ।
'ज्ञानीपुरुषरूपी सूर्यके' प्रगट' होने के बाद सच्चे' अध्यात्मी शुष्क रीतिसे प्रवृत्ति नही करते, भावअध्यात्ममे प्रगटरूपसे रहते है । आत्मामे सच्चे गुण उत्पन्न होनेके बाद मोक्ष होता है । इस कालमे द्रव्यअध्यात्मी, ज्ञानदग्ध बहुत हैं । द्रव्य -अध्यात्मी मदिरके कलश के दृष्टात से मूल परमार्थको नही समझते ।
मोह आदि विकार ऐसे' है' कि सम्यग्दृष्टिकों भी चलायमान कर देते हैं, इसलिये आप तो समझे कि मोक्षमार्ग प्राप्त करनेमे वैसे अनेक विघ्न हैं । आयु थोड़ी है, और कार्य महाभारत करना है । जिस तरह नाव छोटी हो और बड़ा महासागर पार करना हो, उसी तरह आयु तो थोड़ी है, और संसाररूपी महासागर पार करना है । जो पुरुष प्रभुके नामसे पार हुए है उन पुरुषोको धन्य है । अज्ञानी जीवको पता नही है कि अमुक गिरने की जगह है, परंतु ज्ञानियोने उसे देखा हुआ है । अज्ञानी, द्रव्यं-अध्यात्मी कहते हैं कि मुझमे कषाय- नही है । सम्यग्दृष्टि चैतन्यसयुक्त है ।
!
एक मुनि गुफामे ध्यान करनेके लिये जा रहे थे । वहाँ सिंह मिल गया । उनके हाथमै लकडी थी । सिंहके सामने लकडी उठाई जाये तो सिंह चला जाये यो मनमे होनेपर मुनिको विचार आया- 'मै आत्मा अजर अमर हूँ, देहप्रेम रखना योग्य नही है, इसलिये हे जोव । यही खड़ा रह । सिंहका भय है वही अज्ञान है । देहमे सूच्छके कारण भय है ।' ऐसी भावना करते करते वे दो घड़ी तक वही खड़े रहे कि इतनेमे केवलज्ञान प्रगट हो गया । इसलिये विचारदशा, विचारदशामे बहुत ही अंतर है । '
उपयोग जीवके बिना नही होता । जड और चेतन इन दोनोमे परिणाम होता है । देहधारी जीवमे अध्यवसायकी प्रवृत्ति होती है, सकल्प-विकल्प खडे होते है, परन्तु ज्ञानसे निर्विकल्पता होती है । अध्यवसायका क्षय ज्ञानसे होता है । ध्यानका हेतु यही है । उपयोग रहना चाहिये ।,
धर्मंध्यान, शुक्लध्यान उत्तम कहे जाते है । आतं और रौद्रध्यान अशुभ कहे जाते है । वाह्य उपाधि हीं अध्यवसाय है | उत्तम लेश्या हो तो ध्यान कहा जाता है; और आत्मा मम्यक् परिणाम प्राप्त करता है ।
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माणेकदासजी एक वेदाती थे । उन्होने एक ग्रथमे मोक्षकी अपेक्षा सत्संगको अधिक यथार्थ माना है । कहा है
"निज छंदनसे, ना मिले, हेरो वैकुठ धाम । संतकृपासे पाईए, सो हरि सबसे ठाम ॥”
जैनमार्गमे अनेक शाखाएँ हो गयी है । लोकाशाको हुए लगभग चार सौ वर्ष हुए है। परंतु उस ढूँढिया सम्प्रदायमे पाँच ग्रंथ भी नही रचे गये है और वेदातमे दस हजार जितने गथ हुए है। चार सो वर्ष, बुद्धि होती तो वह छिपी न रहती ।
कुगुरु और अज्ञानी पाखडियोका इस कालमे पार नहीं है । बडे बडे जुलूस निकालता है, और धन खर्च करता है, यो जानकर कि मेरा कल्याण होगा, ऐसी बडी बात समझकर हजारो रुपये खर्च कर डालता है। एक एक पैसा तो झूठ बोल बोलकर इकट्टा करता है, और एक साथ हजारो रुपये खर्च कर डालता है। देखिये, जीवका कितना अधिक ज्ञान । कुछ विचार ही नही आता ।
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आत्माका जैसा स्वरूप है, वैसे ही स्वरूपको 'यथाख्यातचारित्र' कहा है ।
भय अज्ञान से है । सिंहका भय सिनोको नही होता । नागिनीको नागका भय नहीं होता। इसका कारण यह है कि इस प्रकारका उनका अज्ञान दूर हो गया है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र - जब तक सम्यक्त्व प्रकट नही होता तब तक मिथ्यात्व है, और मिश्रगुणस्थानकका नाश हो जाये तब सम्यक्त्व कहा जाता है । सभी अज्ञानी पहले गुणस्थानकमे है।
सत्शास्त्र, सद्गुरुके आश्रयसे जो सयम होता है उसे 'सरागसंयम' कहा जाता है । निवृत्ति, अनिवृत्ति स्थानकका अतर पडे तो सरागसयममेसे वीतरागसयम' होता है । उसे निवृत्ति-अनिवृत्ति दोनो बराबर है। ., स्वच्छंदसे कल्पना वह भाति है। : - ___-'यह तो इस तरह नही, इस तरह होगा' ऐसा जो भाव वह ‘शका' है । - समझनेके लिये विचार करके पूछना, यह 'आशका' कही जाती है।
। अपने आपसे जो समझमे न.आये वह 'आशकामोहनोय' है। सच्चा जान लिया हो फिर भी सच्चा भाव न आये, वह भी ‘आशकामोहनीय' है । अपने आप जो समझमे न आये, उसे पूछना । मूल जाननेके बाद उत्तर विषयके लिये इसका किस तरह होगा ऐसा जाननेकी आकाक्षा हो, उसका सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता, अर्थात् वह पतित नही होता । मिथ्या भ्रातिका होना सो शका है। मिथ्या प्रतीतिका अनंतानुबंधीमे समावेश होता है । नासमझीसे दोष देखे तो यह समझका दोष है, परंतु उससे समकित नही जाता, परतु अप्रतीतिसे दोष देखे तो यह मिथ्यात्व है । क्षयोपशम अर्थात् क्षय और शात हो जाना।
- राळजके सीमातमे बडके नीचे यह जीव क्या करे ? सत्समागममे आकर साधनके बिना रह गया, ऐसी कल्पना मनमे होती हो और सत्समागममे आनेका प्रसग बने और वहाँ आज्ञा, ज्ञानमार्गका आराधन करे. तो और उस रास्तेसे चले तो ज्ञान होता है। समझमे आ जाये तो आत्मा सहजमे प्रगट होता है, नही तो जिंदगी चली जाये तो भी प्रगट नही होता । माहात्म्य समझमे आना चाहिये । निष्कामवृद्धि और भक्ति चाहिये। अत करणकी शुद्धि हो तो ज्ञान अपनेआप होता है। ज्ञानीको पहचाना जाये तो ज्ञानको प्राप्ति होती है। किसी योग्य जीवको देखे तो ज्ञानी उसे कहते हैं कि सभी कल्पनाएं छोड़ने जैसी है। ज्ञान ले । ज्ञानीको ओघसज्ञासे पहचाने तो यथार्थ ज्ञान नही होता । भक्तिकी रीति नही जानी । आज्ञाभक्ति नही हुई, तब तक आज्ञा हो तो माया भुलाती है । इसलिये जागृत रहे । मायाको दूर करते रहे । ज्ञानी सभी रीति जानते हैं।
जब ज्ञानोका त्याग ( दृढ त्याग ) आये अर्थात् जैसा चाहिये वैसा यथार्थ त्याग करनेको ज्ञानी कहे तब माया भुला देती है, इसलिये वहाँ भलीभाँति जागृत रहे। ज्ञानी मिले कि तभीसे तैयार होकर रहे, कमर कस कर तैयार रहे।
सत्सग होता है तब माया दूर रहती है, और सत्संगका योग दूर हुआ कि फिर वह तैयारकी तैयार खड़ी है । इसलिये बाह्य उपाधिको कम करें। इससे सत्संग विशेष होता है। इस कारणसे बाह्य त्याग श्रेष्ठ है । बाह्य त्यागमे ज्ञानीको दुख नही है, अज्ञानीको दु ख है। समाधि करनेके लिये सदाचारका सेवन करना है । नकली रग सो नकली रग है । असली रग सदा रहता है। ज्ञानी मिलनेके बाद देह छुट गयी, ( देह धारण करना नही रहता) ऐसा समझें। ज्ञानीके वचन पहले कडवे लगते हैं परतु बादमे मालूम होता है कि ज्ञानीपुरुष ससारके अनत दुःखोको मिटाते है। जैसे औषध कडवा होता है, परतु वह दीर्घकालके रोगको मिटाता है उसी तरह। . त्यागपर सदा ध्यान रखें । त्यागको शिथिल न करें। श्रावक तीन, मनोरथोका चिंतन करे। सत्यमार्गका आराधन करनेके लिये मायासे दूर रहे । त्याग करता ही रहे । माया किस तरह भुलाती है उसका एक दृष्टात -
कोई एक सन्यासी था वह यो कहा करता कि 'मै मायाको धुसने ही नही दूंगा। नग्न होकर विचरूंगा।' तव मायाने कहा कि 'मै तेरे आगे हो आगे चलेंगी।' 'जंगलमे अकेला विचरूँगा', ऐसा
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उपदेश छाया
७१९ सन्यासीने कहा तब मायाने कहा कि 'मै सामने आ जाऊँगी।' सन्यासी फिर जंगलमे रहता, और 'मुझे ककड और रेत दोनो समान है,', यो कहकर रेतीपर सोया करता । फिर मायाको कहा कि 'तू कहाँ है ?' मायाने समझ लिया कि इसे बहुत गर्व चढा है, इसलिये कहा कि 'मेरे आनेकी क्या जरूरत है ? मेरा बडा पुत्र अहंकार तेरी सेवामे छोडा हुआ था।' . . . . . . . . . . . . . __ . माया इस तरह ठगती है। इसलिये ज्ञानी कहते है कि 'मैं सबसे न्यारा हूँ, सर्वथा त्यागी हुआ है, अवधूत हूँ, नग्न हूँ, तपश्चर्या करता हूँ। मेरी बात अगम्य है । मेरी दशा बहुत ही अच्छी है । माया मुझे वाधित नही करेगी, ऐसी मात्र कल्पनासे मायासे ठगे न जाना।' .
जरा समता आती है कि अहकार आकर भुला देता है कि 'मै समतावाला हूँ', इसलिये उपयोगको जागृत रखे । मायाको खोज खोजकर ज्ञानीने सचमुच जीता है। भक्तिरूपी स्त्री है। उसे मायाके सामने रखा जाये, तो मायाको जीता-जा सकता है। भक्तिमे अहकार नहीं है, इसलिये मायाको जीतती है। आज्ञामे अहकार नहीं हैं। स्वच्छदमे अहकार है । जव तक रागद्वेप नही जाते तब तक तपश्चर्या करनेका फल ही क्या ? 'जनकविदेहीमे, विदेहिता नही हो सकती, यह केवल कल्पना है, ससारमे विदेहिता नही रहती', ऐसी चितन न करें। जिसका अपनापन दूर हो जाये उससे वैसे रहा जा सकता है । मेरा तो कुछ नही है। मेरी तो काया भी नहीं है, इसलिये मेरा कुछ नही है, ऐसा हो तो अहंकार मिटता है यह यथार्थ है । जनक विदेहीकी दशा उचित है। वसिष्ठजीने रामको उपदेश दिया, तब राम गुरुको राज्य अर्पण करने लगे, परन्तु गुरुने राज्य लिया ही नही.। परन्तु अज्ञान दूर करना है, ऐसा उपदेश देकर अपनापन मिटाया। जिसका अज्ञान गया उसका दुख चला गया। शिष्य और गुरु ऐसे होने चाहिये।
.' ज्ञानी गृहस्थावासमे बाह्य उपदेश, व्रत देते है,या नही ? गृहस्थावासमे हो ऐसे परमज्ञानी मार्ग नही चलाते-मार्ग चलानेकी रीतसे मार्ग नही चलाते, स्वय अविरत रहकर व्रत नही दिलाते, परन्तु अज्ञानी ऐसा करता है। इससे राजमार्गका उल्लघन होता है। क्योकि, वैसा करनेसे, बहुतसे कारणोम विरोध आता है ऐसा है परन्तु इससे यह विचार न करे कि ज्ञानी निवृत्तिरूपसे -नही है, परन्तु विचार करें तो विरतिरूपसे ही हैं । इसलिये बहुत ही विचार करना है।
सकाम भक्तिसे ज्ञान नही होता । निष्काम भक्तिसे ज्ञान होता है। ज्ञानीके उपदेशमे अद्भुतता है। वे अनिच्छा भावसे उपदेश देते है, स्पृहारहित होते है । उपदेश यह ज्ञानका माहात्म्य है; इसलिये माहात्म्य के कारण अनेक जीव सरलतासे प्रतिबद्ध होते हैं। . . . . .
___ अज्ञानीका सकाम उपदेश होता है, जो ससार फलका कारण है। वह रुचिकर, रागपोषक और ससारफल देनेवाला होनेसे लोगोको प्रिय लगता है, और इसलिये जगतमे अज्ञानीका मार्ग अधिक चलता है । ज्ञानीके मिथ्या भावका क्षय हुआ है, अहभाव मिट गया है, इसलिये अमूल्य वचन निकलते है । बालजोवोको ज्ञानी-अज्ञानीको पहचान नहीं होती।
विचार करे, 'मै वणिक हूँ', इत्यादि आत्मामे रोम-रोममे व्याप्त है, उसे दूर करना है।
आचार्यजीने जीवोका स्वभाव प्रमादी जानकर दो दो तीन तीन दिनोके अन्तरसे नियम पालनेको आज्ञा की है।
सवत्सरीका दिन कुछ साठ घडीसे ज्यादा-कम नहीं होता, तिथिमे कुछ अन्तर नहीं है। अपनी कल्पनासे कुछ अन्तर नहीं हो जाता । क्वचित् बीमारी यादि कारणसे पचमीका दिन न पाला गया और छठ पाले और आत्मामे कोमलता हो तो वह सफल होता है। अभी वहुत वर्षोंसे पर्यपणमे तिथियोकी भ्राति चलती है। दूसरे आठ दिन धर्म करे तो कुछ फल कम होता है, ऐसी बात नहीं है। इसलिये तिथियोंका मिथ्या कदागह न रखें, उसे छोड़ दें। कदाग्रह छुडाने के लिये तिथिया बनायी है, उसके बदले उसी दिन जीव कदाग्रह वढाता है।
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भीमद राजचन्द्र .', ढढिया और तपा तिथियोका विरोध खडा करके-अलग होकर-'मै अलग है', ऐसा सिद्ध करनेके लिये झगडा करते है यह मोक्ष जानेका रास्ता नही है। वृक्षको भानके बिना कर्म भोगने पडते है तो मनुष्यको शुभाशुभ क्रियाका फल क्यो नही भोगना पड़े ?
जिससे सचमुच पाप लगता है उसे रोकना अपने हाथमे है, वह अपनेसे हो सकता है, उसे तो जीव नही रोकता, और दूसरी तिथि आदिकी और पापकी व्यर्थ चिंता किया करता है । अनादिसे शब्द, रूप रस, गध और स्पर्शका मोह रहा है। उस मोहका निरोध करना है । वडा पाप अज्ञानका है। . जिसे अविरतिके पापको चिंता होती हो उससे वैसे स्थानमे कैसे रहा जा सकता है? '
- स्वयं त्याग नही कर सकता और बहाना करता है कि मुझे अतराय बहुत है । धर्मका प्रसंग आता हैं तो कहता है, 'उदय है ।' 'उदय उदय' कहा करता है, परन्तु कुछ कुएँमे नही गिर जाता, छकडेमे बैठा हो और गड्ढा आ जाये तो ध्यानसे सँभलकर चलता है। उस समय उदयको भूल जाता है । अर्थात् अपनी शिथिलता हो तो उसके बदले उदयका दोष निकालता है, ऐसा अज्ञानीका वर्तन है।
लौकिक और अलौकिक स्पष्टीकरण भिन्न भिन्न होते हैं। उदयका दोष निकालना यह लौकिक स्पष्टीकरण है। अनादिकालके कर्म दो घड़ीमे नष्ट होते हैं, 'इसलिये कर्मका दोपन निकालें । आत्माको निंदा करें। धर्म करनेकी बात आती है तब जीव पूर्वकृत कर्मकी बात आगे कर देता है । जो धर्मको आगे करता है उसे धर्मका लाभ होता है, और जो कर्मको आगे करता है उसे कर्म आडे आता है, इसलिये पुरुषार्थ करना श्रेष्ठ हे ! पुरुषार्थ पहले करना चाहिये । मिथ्यात्व, प्रमाद और अशुभ योगको छोडना चाहिये।
। पहले तप नहीं करना, परन्तु मिथ्यात्व और प्रमादका पहले त्याग करना चाहिये । सबके परिणामोके अनुसार शुद्धता एव अशुद्धता होती है। कर्म दूर किये बिना दूर होनेवाले नही है । इसीलिये ज्ञानियोने शास्त्र प्ररूपित किये है। शिथिल होनेके लिये साधन नही बताये । परिणाम ऊँचे आने चाहिये । कर्म उदयमे आयेगा, ऐसा मनमे रहे तो कर्म उदयमें आता है । बाकी पुरुषार्थ करे तो कर्म दूर हो जाते हैं। उपकार हो यही ध्यान रखना चाहिये। " - : । ...
वडवा, भाद्रपद सुदी १०, गुरु, १९५२ - कर्म-गिन गिनकर नष्ट ,नही किये जाते;। ज्ञानीपुरुष तो एकदम समूहरूपसे जला देते हैं। --
विचारवान दूसरे आलवन छोडकर, आत्माके पुरुषार्थके जयका, आलबन-ले । कर्मबंधनका आल. बन न लें। आत्मामे परिणमित, होना अनुप्रेक्षा, है | . . , -.. मिट्टीमे घड़ा होनेकी सत्ता है, परन्तु यदि दड, चक्र, कुम्हार, आदि मिले तो होता है। इसी तरह आत्मा मिट्टीरूप है, उसे सद्गुरु आदि साधन मिले तो आत्मज्ञान होता है। जो ज्ञान हुआ हो वह पूर्वकालमे हुए ज्ञानियोका सपादन किया हुआ है उसके साथ पूर्वापर मिलता आना चाहिये, और वर्तमानमे भी जिन ज्ञानीपुरुषोने ज्ञानका सपादन किया है, उनके वचनोके साथ मेल खाता हुआ होना चाहिये, नही तो अज्ञानको ज्ञान मान लिया है ऐसा कहा जायेगा।, ..
. । ज्ञान दो प्रकारके है-एक बीजभूत ज्ञान, और दूसरा वृक्षभूत ज्ञान । प्रतीतिसे दोनो सरीखे हैं, उनमे भेद नहीं है । वृक्षभूत ज्ञान सर्वथा निरावरण हो तो उसो भवमे 'मोक्ष होता है, और बीजभूत ज्ञान हो तो अतमे पंद्रह भवमे मोक्ष होता है। " आत्मा अरूपी है; अर्थात् वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरहित वस्तु है, अवस्तु नही है।
जिसने षड्दर्शन रचे हैं उसने बहुत ही चतुराईका उपयोग किया है।
बंध अनेक अपेक्षामोसे होता है, परन्तु मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, वे कर्मकी ऑटी खोलनेके लिये आठ प्रकारसे कही हैं।
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उपदेश छाया
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आयुकर्म एक ही भवका बँधता है। अधिक भवकी आयु नही बँधती । यदि बँधती हो तो किसीको केवलज्ञान उत्पन्न न हो ।
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ज्ञानीपुरुष समतासे कल्याणका जो स्वरूप बताते हैं वह उपकारके लिये बताते हैं । ज्ञानीपुरुष मार्गभूले भटके जीवको सीधा रास्ता बताते है । जो ज्ञानीके मार्गपर चलता है उसका कल्याण होता है । ज्ञानी वियोगके बाद बहुतसा काल बीत जाये तब अधकार हो जानेसे अज्ञानकी प्रवृत्ति होती है । और ज्ञानीपुरुषोके वचन समझमे नही आते, जिससे लोगोको उलटा भासता है । समझमे न आने से लोग गच्छके भेद बना डालते है । गच्छके भेद ज्ञानियोने नही डाले । अज्ञानी मार्गका लोप करता है । जब ज्ञानी होते हैं तब मार्गका उद्योत करते हैं । अज्ञानी ज्ञानीका विरोध करते है ।, मार्गसन्मुख होना चाहिये, क्योकि विरोध करनेसे तो मार्गका भान हो नही होता ।
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बाल और अज्ञानी जीव छोटी-छोटी बातोमे भेद खड़ा कर देते हैं । तिलक और मुँहपत्ती इत्यादिके आग्रह कल्याण नही है । अज्ञानीको मतभेद करते हुए देर नही लगती । ज्ञानीपुरुष रूढ़िमार्गके बदले शुद्धमार्गका प्ररूपण करते हो तो भी जीवको भिन्न- भासता है,, और वह मानता है कि यह अपना धर्म नही है जीव कदाग्रहरहित होता है वह शुद्धमार्गको स्वीकार करता है ! जैसे व्यापार अनेक प्रकारके होते हैं परन्तु लाभ एक ही प्रकारका होता है । विचारवानोंका तो कल्याणका मार्ग एक ही होता है | अज्ञानमार्ग अनन्त प्रकार हैं ।
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जैसे अपना लड़का कुबडा हो और दूसरेका लडका बहुत रूपवान हो, परन्तु राग अपने लडकेपर होता है, और वह अच्छा लगता है, उसी तरह जिस कुलधर्मको स्वयने माना है, वह चाहे जैसा हो तो भी सच्चा लगता है । वैष्णव, बौद्ध, श्वेताबर, ढूं दिया, दिगम्बर जैन आदि चाहे जो हो परन्तु जो कदाग्रहरहित होकर शुद्ध समतासे अपने आवरणोको घटायेगा उसीका कल्याण होगा |
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सामायिक कायाके योगको रोकती है, - आत्माको निर्मल करनेके लिये कायाके योगको रोकें । रोकनेसे परिणाममे कल्याण होता है । कायाकी सामायिक करनेकी अपेक्षा आत्माको समायिक एक बार करे । ज्ञानीपुरुपके वचन सुन सुनकर गाँठ बाँधे तो आत्माकी सामायिक होगी। इस कालसे, आत्माकी सामायिक होती है । ' मोक्षका उपाय अनुभवगोचर है । जैसे अभ्यास करते-करते आगे वढते हैं वैसे ही मोक्षके लिये भी है ।
जब आत्मा कुछ भी क्रिया न करे तब अवध कहा जाता है।
पुरुषार्थ करे तो कर्मसे मुक्त होता है ।" अनतकाल के कर्म हो, और यदि यथार्थ पुरुषार्थं करे तो कर्म यो नही कहते कि मै नही जाऊँगा । दो घडीमे अनन्त कर्मोंका नाश होता हे । आत्माकी पहचान हो तो कर्मका नाश होता है ।
प्र०—–सम्यक्त्वं किससे प्रगट होता है ?
उ०- आत्माका यथार्थं लक्ष्य होनेसे । सम्यक्त्वके दो प्रकार हैं- (१) व्यवहार और (२) परमार्थं । सद्गुरुके वचनोका सुनना, उन वचनोका विचार करना, उनकी प्रतीति करना, यह 'व्यवहार-सम्यक्त्व' है । आत्माकी पहचान हो, यह 'परमार्थ सम्यक्त्व' है ।
अन्तकरणको शुद्धिके बिना वोध असर नही करता, इसलिये पहले अन्त करणमे कोमलता लाये, व्यवहार और निश्चय इत्यादिकी मिथ्या चर्चामे निराग्रही रहे, मध्यस्थभावसे रहें । आत्मा के स्वभावको जो आवरण है उसे ज्ञानो 'कर्म' कहते हैं ।
जब सात प्रकृतियो का क्षय हो तव सम्यक्त्व प्रगट होता है । अनंतानुवधी चार कपाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, समकितमोहनीय, इन सात प्रकृतियोका क्षय हो जाये तब सम्यक्त्व प्रगट होता है ।
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७.२२
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श्रीमद राजचन्द्र
प्र० - कषाय क्या है
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उ०—सत्पुरुष मिलनेपर, जीवको वे बताये कि तू जो विचार किये बिना करता जाता है उसमे कल्याण नही है, फिर भी उसे करने के लिये दुराग्रह रखना वह 'कषाय' है ।
उन्मार्गको मोक्षमार्ग माने और मोक्षमार्गको उन्मार्ग माने, वह 'मिथ्यात्वमोहनीय' है । .
उन्मार्गसे मोक्ष नही होता, इसलिये मार्ग दूसरा होना चाहिये, ऐसा जो भाव वह 'मिश्रमोहनीय' है । 'आत्मा यह होगा ?" ऐसा ज्ञान होना 'सम्यक्त्व मोहनीय' है ।
'आत्मा यह है', ऐसा निश्चयभाव 'सम्यक्त्व' है ।
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ज्ञानीके प्रति यथार्थ प्रतीति हो और रात-दिन उस अपूर्व योग की याद आती रहे तो सच्ची भक्ति प्राप्त होती है ।
नियमसे जीव कोमल होता है, दया आती है । मनके परिणाम यदि उपयोगसहित हो तो कर्म कम लगते है उपयोगरहित हो तो कर्म अधिक लगते है । अन्त करणको कोमल करनेके लिये, शुद्ध करनेके लिये व्रत आदि करनेका विधान किया है । स्वादबुद्धिको कम करनेके लिये नियम करे। कुलधर्मं जहाँ 'जहाँ देखते हैं वहाँ वहाँ आडे आता है ।"
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वडवा, भाद्रपद सुदी १३, शनि, १९५२ श्री वल्लभाचार्य कहते हैं कि श्रीकृष्ण गोपियोके साथ रहते थे, उसे जानकर भक्ति करें। योगी समझकर तो सारा जंगत भक्ति करता है परन्तु गृहस्थाश्रममे योगदशा है, उसे समझकर 'भक्ति करना 'वैराग्यका कारण है। गृहस्थाश्रममे सत्पुरुष रहते हैं उनका चित्र देखकर विशेष वैराग्यकी प्रतीति होती है। योगदशाका चित्र देखकर सारे जगतको वैराग्यकी प्रतीति होती है, परन्तु गृहस्थाश्रममे रहते हुए भी 'त्याग और वैराग्य ` योगदशा जैसे रहते हैं, यह कैसी अद्भुत दशा है। योगमे जो वैराग्य रहता है वैसा अखड वैराग्य सत्पुरुष · गृहस्थाश्रममे रखते हैं । उस अद्भुत वैराग्यको देखकर मुमुक्षुको वैराग्य, भक्ति होनेका निमित्त बनता है। लौकिकदृष्टिमे वैराग्य, भक्ति नही है |
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17 पुरुषार्थं करना और सत्य रीतिसे वर्तन करना ध्यानमे ही नही आता । वह तो लोग भूल ही गये है । लोग जब वर्षा आती है तब पानी टकीमे भर रखते हैं, वैसे मुमुक्षुजीव इतना सारा उपदेश सुनकर जरा भी ग्रहण नही करते, यह एक आश्चर्यं है । उनका उपकार किस तरह हो ? सत्पुरुषकी वर्तमान स्थितिकी विशेष अद्भुतदशा है । सत्पुरुष के गृहस्थाश्रमकी सारी स्थिति प्रशस्त है । सभी योग पूजनीय है । एक एसी ज्ञानी दोष कम करनेके लिये अनुभवके वचन कहते है,' इसलिये वैसे वचनोका स्मरण करके यदि उन्हे समझा जाये, उनका श्रवण मनन हो तो सहजमे ही आत्मा उज्ज्वल होता है । वैसा करनेमे कुछ बहुत मेहनत नही है । वैसे वचनोका विचार न करे, तो कभी भी दोष कम नही होते ।
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सदाचारका सेवन करना चाहिये । ज्ञानीपुरुषोने दया, सत्य, अदत्तादान, ब्रह्मचर्य, परिग्रह-परिमाण आदि सदाचार कहे हैं । ज्ञानियोने, जिन सदाचारोका सेवन करना कहा है वह यथार्थ है, सेवन करने योग्य है। बिना साक्षी जीव व्रत, नियम न करे ।
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विषय - कषाय आदि दोष दूर हुए बिना सामान्य आशयवाले दया आदि भी नही आते, तो फिर गूठ आशयवाले दया आदि कहाँसे आयेगे ? विषय कषाय सहित मोक्षमे जाया नही जाता । अत करणकी शुद्धिके विना आत्मज्ञान नहीं होता । भक्ति सब दोषोका क्षय करनेवाली है, इसलिये वह सर्वोत्कृष्ट है ।
" जीव, विकल्पका व्यापार न करे । विचारवान, अविचार और अकार्य करते हुए क्षोभ पाता है । अकार्य करते हुए जो क्षोभ नही पाता वह अविचारवान है । अकार्य करते हुए पहले जितना त्रास रहता
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उपदेश छाया
७२३ है उतना दूसरी,बार करते हुए नही रहता। इसलिये पहलेसे ही अकार्य करते हुए रुक जायें, दृढ निश्चय करके अकार्य न करे। . सत्पुरुष उपकारके-लिये जो उपदेश करते है, उसे सुने और विचारे तो जीवके दोष अवश्य कम होते है। पारसमणिका सग हुआ, और लोहेका सुवर्ण न हुआ तो, या तो पारसमणि नही और या तो असली लोहा नही । उसी तरह जिसके उपदेशसे आत्मा सुवर्णमय न हो वह उपदेष्टा, या तो सत्पुरुष नही,
और या तो उपदेश,सुननेवाला योग्य जीव नही। योग्य जीव और सच्चे सत्पुरुष हो तो गुण प्रकट हुए बिना नही रहते।
लौकिक आलबन करना ही नहीं। जीव स्वय जागृत हो तो सभी विपरीत कारण दूर हो जाते हैं। जिस तरह कोई पुरुष घरमे निद्रावश है, उसके घरमे कुत्ते, विल्ले आदि घुस जानेसे नुकसान करते है, और फिर वह पुरुष जागनेके बाद नुकसान करनेवाले कुत्ते आदि प्राणियोका दोप निकालता है - अपना दोष नही निकालता कि मैं सो गया तो ऐसा हुआ, उसी तरह जीव अपने दोप नही देखता जागृत रहता हो तो सभी विपरीत कारण दूर हो जाते है, इसलिये स्वय जागृत रहे। ,,, जीव यो कहता है कि तृष्णा, अहंकार, लोभ आदि मेरे दोष दूर नहीं होते, अर्थात् जीव: अपना दोष नही निकालता, और दोषोका ही दोष निकालता है। जैसे सूर्यका ताप बहुत पडता है, इससे जीव बाहर नही निकल सकता, इसलिये सूर्यका दोष निकालता है, परन्तु छतरी और जूते सूर्यके तापसे जो लिये बताये है, उनका उपयोग नही करता। ज्ञानीपुरुषोने लोकिकभावको छोड़कर जिन विचारोसे अपने दोष कम किये, नष्ट किये, वे विचार और वे उपाय ज्ञानी उपकारके लिये बताते है । उन्हे सुनकर वे आत्मामे परिणमित हो ऐसा पुरुषार्थ करे। ..
- . किस तरह दोप कम हो ? जीव लौकिक भाव, क्रिया किया करता है, और दोष क्यो कम नहीं होते यो कहा करता है, . , , , -- जो जीव योग्य नही होता उसे सत्पुरुष उपदेश नही देते।
. . सत्पुरुपकी, अपेक्षा मुमुक्षुका त्याग-वैराग्य बढ जाना चाहिये । मुमुक्षुओको जागत-जागत होकर वैराग्य बढाना चाहिये । सत्पुरुषका एक भी वचन सुनकर अपनेमे दोषोके अस्तित्वका बहुत ही खेद करेगा और दोष कम करेगा तभी गुण प्रकट होगे । सत्सग समागमको आवश्यकता है। बाकी सत्पुरुष तो जैसे एक बटोही दुसरे बटोहीको रास्ता बताकर चला जाता है, उसी तरह रास्ता बताकर चले जाते हैं। गरुपद धारण करनेके लिये अथवा शिष्य बनानेके लिये सत्पुरुपकी इच्छा नही है। सत्पुरुषके बिना एक भी आग्रह, कदाग्रह दूर नहीं होता। जिसका-दुराग्रह दूर हुआ. उसे-आत्माका भान होता है । सत्पुरुषके प्रतापसे ही दोष कम होते है । भ्राति दूर हो जाये तो तुरत सम्यक्त्व होता है। ...
बाहबलोजीको जैसे केवलज्ञान पासमे-अतरमे-या, कुछ बाहर न था, वैसे ही सम्यक्त्व अपने पास ही है। । ।
शिष्य ऐसा हो कि सिर काट कर दे दे, तव ज्ञानी सम्यक्त्व प्राप्त कराते है । ज्ञानोपुरुपको नमस्कार आदि करना शिष्यके अहकारको दूर करनेके लिये है । परन्तु मनमे उथल पुथल हुआ करे तो किनारा कब आयेगा? । जीव अहकार रखता है, असत् वचन बोलता है, भ्राति रखता है, उसका उसे तनिक भी भान नही है। यह भान हुए विना निवेडा आनेवाला नहीं है। , शूरवीर वचनोके समान दुसरा एक भी वचन नही है । जीवको सत्पुरुषका एक शब्द भी समझम नही आया । वड़प्पन बाधा डालता हो तो उसे छोड़ दे। इंडियाने मुंपत्ती और तपाने मूर्ति आदिका
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श्रीमद् राजचन्द्र
कदाग्रह पकड़ रखा है, परन्तु वैसे कदाग्रहमे कुछ भी हित नही है। शौर्य करके आग्रह, कदाग्रहसे दूर रहे, परन्तु विरोध न करे।
जब ज्ञानीपुरुष होते है तव मतभेद एव कदाग्रह कम कर देते हैं। ज्ञानी अनुकपाके लिये मार्गका वोध देते हैं । अज्ञानी कुगुरु जगह जगह मतभेद बढ़ाकर कदाग्रहको दृढ करते है।
सच्चे पुरुप मिलें, और वे जो कल्याणका मार्ग बतायें, उसीके अनुसार जीव वर्तन करे तो अवश्य कल्याण होता है। सत्पुरुपको आज्ञाका पालन करना ही कल्याण है । मार्ग विचारवानको पूछे । सत्पुरुषके आश्रयसे सदाचरण करें। खोटी बुद्धि सभीको हैरान करनेवाली है, पापकारी है। जहाँ ममत्व हो वही मिथ्यात्व है। श्रावक सव दयालु होते है । कल्याणका मार्ग एक ही होता है, सौ दो सौ नही होते । अंदरके दोपोका नाश होगा, और समपरिणाम आयेगा तो ही कल्याण होगा।
- जो मतभेदका छेदन करे वही सच्चा पुरुप है । जो समपरिणामके रास्तेपर चढाये वह सच्चा सग है। विचारवानको मार्गका भेद नही है।
हिंदु और मुसलमान सरीखे नही है । हिंदुओके धर्मगुरु जो धर्मबोध कह गये थे उसे बहुत उपकार के लिये कह गये थे। वैसा बोध पीराना मुसलमानोके शास्त्रोमे नही है। आत्मापेक्षासे कुनबी, बनिया, मुसलमान कोई नही है। वह भेद जिसका दूर हो गया है। वही शुद्ध है, भेद भासना ही अनादि भूल है। कुलाचारके अनुसार जिसे सच्चा माना वही कषाय है । .
प्र.-मोक्ष क्या है ? . . ,' . उ०-आत्माकी अत्यंत शुद्धता, अज्ञानसे छूट जाना, सब कर्मोंसे मुक्त होना 'मोक्ष' है । यथातथ्य ज्ञानके प्रगट होनेपर मोक्ष होता है। जब तक भ्राति है तब तक आत्मा जगतमे ही है। अनादिकालका 'जो चेतन है उसका स्वभाव जानना अर्थात् ज्ञान है, फिर भी जीव भूल जाता है वह क्या है ? ' जाननेमे न्यूनता है, यथातथ्य ज्ञान नही है। वह न्यूनता किस तरह दूर हो ? उस ज्ञानरूपी स्वभावको भूल न जाये, उसे वारवार दृढ करे तो न्यूनता दूर होती है । ज्ञानीपुरुषके वचनोंका आलबन लेनेसे ज्ञान होता है। जो साधन है वे उपकारके हेतु है। जैसा जैसा अधिकारी वैसा वैसा उनका फल होता है । सत्पुरुषके आश्रयसे ले तो साधन उपकारके हेतु है। सत्पुरुषकी दृष्टिसे 'चलनेसे ज्ञान होता है। सत्पुरुषके वचन आत्मा परिणत होनेपर मिथ्यात्व, अन्नत, प्रमाद, अशुभयोग इत्यादि सभी दोष अनुक्रमसे शिथिल पड़ जाते है । आत्मज्ञानका विचार करनेसे दोषोका नाश होता है। सत्पुरुष पुकार पुकार कर कह गये हैं, परतु जीवको लोकमार्गमे पडे रहना हैं, और लोकोत्तर कहलवाना है, और दोष दूर क्यो नही होते यों मात्र कहते रहना है। लोकका भय छोड़कर सत्पुरुषके वचनोको आत्मामे परिणत करे, तो सब दोष दूर हो जाते है। जीव ममत्व न रखे; वडप्पन और महत्ता छोडे विना आत्मामे सम्यक्त्वका मार्ग परिणमित होना कठिन है।
वर्तमानमे स्वच्छन्दसे वेदांतशास्त्र पढे जाते हैं, और इससे शुष्कता जैसा हो जाता है। पड्दर्शनमे झगडा नहीं है, परन्तु आत्माको केवल मुक्कदृष्टिसे देखते हुए तीर्थंकरने लम्बा विचार किया है। मूल लक्ष्यगत होनेसे जो जो वक्ताओ (सत्पुरुषो) ने कहा है, वह यथार्थ है, ऐसा मालूम होगा।
आत्मामे कभी भी विकार उत्पन्न न हो, तथा रागद्वेपपरिणाम न हो, तभी केवलज्ञान कहा जाता है। पड्दर्शनवालोने जो विचार किये हैं उससे आत्माका उन्हे भान होता है, परन्तु तारतम्यमे भेद पडता है। मूलमे भूल नही है। परन्तु पड्दर्शनको अपनी समझसे लगाये तो कभी नही लगते अर्थात् समझमे नही आते । सत्पुरुषके आश्रयसे वे समझमे आते हैं। जिसने आत्माको असग, निष्क्रिय विचारा हो उसे भ्राति नहीं होती, सशय भी नहीं होता । फिर आत्माके अस्तित्वका भी प्रश्न नही रहता।
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प्र० - सम्यक्त्व कैसे ज्ञात हो ?
उ०- अन्दरसे दशा बदले तब सम्यक्त्वका ज्ञान अपने आप स्वयको हो जाता है । सदेव अर्थात् रागद्वेष और अज्ञान जिसके क्षीण हुए है वह । सद्गुरु किसे कहा जाता हैं ? मिथ्यात्व की ग्रथि जिसकी छिन्न हो गयी है उसे । सद्गुरु अर्थात् निर्ग्रथ । सद्धर्म अर्थात् ज्ञानीपुरुषो द्वारा बोधित धर्म । इन तीन तत्त्वोको यथार्थरूपसे जाने तब सम्यक्त्व हुआ समझा जाता है ।
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• अज्ञान दूर करनेके लिये कारण, साधन बताये है। ज्ञानका स्वरूप जब जाने तव मोक्ष होता है । परम वैद्यरूपी सद्गुरु मिले और उपदेशरूपी दवा आत्मामे- परिणमित हो तब रोग दूर होता है । परन्तु उस दवाको अन्तरमे ग्रहण न करे, तो उसका रोग कभी दूर नही होता । जीव वास्तविक, साधन नही करता । जिस तरह सारे कुटुम्बको पहचानना हो तो पहले एक व्यक्तिको पहचाने तो सबकी पहचान हो जाती है, उसी तरह पहले सम्यक्त्वकी पहचान हो तब आत्माके समस्त गुणरूपी परिवारकी पहचान हो जाती है । सम्यक्त्वको सर्वोत्कृष्ट साधन कहा है । बाह्य वृत्तियोको कम करके अन्तर्परिणाम करे तो सम्यक्त्वका मार्ग मिलता है । चलते चलते गाँव आता है, परन्तु बिना चले यथार्थ सत्पुरुषकी प्राप्ति और प्रतीति नही हुई है। 1
गाँव नही आता । जीवको
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बहिरात्मामेसे अन्तरात्मा होनेके बाद परमात्मत्व प्राप्त होना चाहिये। जैसे दूध और पानी अलग हैं वैसे सत्पुरुष आश्रयसे, प्रतीतिसे देह और आत्मा अलग है. ऐसा भान होता है । अन्तरमे अपने आत्मानुभवरूपसे, जैसे, दूध और पानी भिन्न भिन्न होते है, वैसे ही देह और आत्मा भिन्न भिन्न लगते है तब परमात्मत्व प्रगट होता है। जिसे आत्माका विचाररूपी ध्यान है, सतत निरन्तर ध्यान है, आत्मा, जिसे स्वप्नमे भी अलग ही भासता है, कभी जिसे आत्मा की भ्राति होती ही नही उसीको परमात्मत्व होता है ।
अन्तरात्मा, कषाय आदि दूर करनेके लिये निरन्तर पुरुषार्थ करता है । चौदहवे गुणस्थान तक यह विचाररूपी क्रिया है । जिसे वैराग्य उपशम रहता हो उसीको विचारवान कहते है । आत्मा मुक्क होनेके बाद ससारमे नही आता । आत्मा स्वानुभवगोचर है, 'वह चक्षुसे दीखता नही है, इन्द्रियसे रहित ज्ञान उसे जानता है । आत्माका उपयोग मनन करे वह मन है । लगाव है इसलिये मन भिन्न कहा जाता है । सकल्प-विकल्प छोड़ देना 'उपयोग' है । ज्ञानको आवरण करनेवाला निकाचित कर्म जिसने न वांधा हो उसे सत्पुरुषका बोध लगता है । आयुका बन्ध हो, उसे रोका नही जाता ।
जीवने अज्ञानको ग्रहण किया है इसलिये उपदेश नही लगता । क्योकि आवरणके कारण उपदेश लगने का कोई रास्ता नही हैं। जब तक लोकके अभिनिवेशकी कल्पना करते रहे तब तक आत्मा ऊँचा नही उठता, और तब तक कल्याण भी नही होता । बहुतसे जीव सत्पुरुषका बोध सुनते हैं, परन्तु उसे विचारनेका योग नहीं बनता ।
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इंद्रियोके निग्रहका न होना, कुलधर्मका आग्रह, मानश्लाघा की कामना, और अमध्यस्थता, यह कदाग्रह है । इस कदाग्रहको जीव जब तक नही छोड़ता तब तक कल्याण नही होता । नव पूर्व पढे तो भी जीव भटका । चौदह राजलोक जाने परन्तु देहमे रहे हुए आत्माको नही पहचाना, इसलिये भटका । ज्ञानी पुरुष सभी शकाएँ दूर कर सकते हैं, परन्तु तरनेका कारण है सत्पुरुषको दृष्टिसे चलना और तभी दु.ख मिटता है । आज भी पुरुपार्थ करे तो आत्मज्ञान होता है । जिसे आत्मज्ञान नही है उससे कल्याण नही होता ।
व्यवहार जिसका परमार्थ है ऐसे आत्मज्ञानीकी आज्ञासे वर्तन करनेपर आत्मा लक्ष्यगत होता है, कल्याण होता है ।
जीवको बघ कैसे पड़ता है ? निकाचित सवधी - उपयोगसे, अनुपयोगसे ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
आत्माका मुख्य लक्षण उपयोग है। आत्मा तिलमात्र दूर नहीं है, बाहर देखनेसे दूर भासता है, परतु वह अनुभवगोचर है । यह नही, यह नही, यह नही, इससे भिन्न जो रहा सो वह है।
जो आकाश दीखता है वह आकाश नहीं है। आकाश चक्षुसे नही दीखता । आकाशको अरूपी कहा है।
आत्माका भान स्वानुभवसे होता है । आत्मा अनुभवगोचर है। अनुमान जो है वह माप है। अनुभव जो है वह अस्तित्व है। ___आत्मज्ञान सहज नही है । 'पचीकरण', 'विचारसागर' को पढकर कथन मात्र माननेसे ज्ञान नही होता । जिसे अनुभव हुआ है ऐसे अनुभवीके आश्रयसे उसे समझकर उसकी आज्ञाके अनुसार वर्तन करे तो ज्ञान होता है। समझे विना रास्ता अति विकट है। हीरा निकालनेके लिये खान खोदनेमे तो मेहनत है, परतु हीरा लेनेमे मेहनत नही है। इसी तरह आत्मा सबधी समझ आना दुष्कर है, नही तो आत्मा कुछ दूर नहीं है । भान न होनेसे दूर लगता है । जीवको कल्याण करने, न करनेका भान नही है, परन्तु अपनापन रखना है।
___ चौथे गुणस्थानमे ग्रथिभेद होता है। ग्यारहवेसे पडता है उसे 'उपशम सम्यक्त्व' कहा जाता है । लोभ चारित्रको गिरानेवाला है । चौथे गुणस्थानमे उपशम और क्षायिक दोनो होते है । उपशम अर्थात् सत्तामे आवरणका रहना । कल्याणके सच्चे कारण जीवके ख्यालमे नही है। जो शास्त्र वृत्तिको सक्षिप्त न करें, वृत्तिको संकुचित न करे अपितु उसे बढायें, ऐसे शास्त्रोमे न्याय कहाँसे होगा?
व्रत देनेवाले और व्रत लेनेवाले दोनों विचार तथा उपयोग रखे | उपयोग न रखें और भार रखें तो निकाचित कर्म वाँधे । 'कम करना', परिग्रह मर्यादा करना ऐसा जिसके मनमे हो वह शिथिल कर्म बाँधे । पाप करनेपर कुछ मुक्ति नही होती। एक व्रत मात्र लेकर जो अज्ञानको निकालना चाहता है ऐसे जीवको अज्ञान कहता है कि तेरे कितने ही चारित्र मैं खा गया हूँ, तो इसमे क्या बड़ी बात है ?
जो साधन बताये वे तरनेके साधन हो तो ही सच्चे साधन हैं। बाकी निष्फल , साधन है । व्यवहारमे अनत भग उठते है, तो कैसे पार आयेगा? कोई आदमी जोरसे बोले उसे कषाय कहा जाता है। कोई धोरजसे बोले तो उसे,शान्ति है ऐसा लगता है, परतु अंतर्परिणाम हो तो ही शाति कही जाती है।
जिसे सोनेके लिये एक बिस्तर चाहिये वह दस घर खुले रखे तो ऐसे मनुष्यकी वृत्ति कब सकुचित होगी ? जो वृत्तिको रोके उसे पाप नहीं होता। कितने ही जीव ऐसे हैं कि जिनसे वृत्ति न रुके ऐसे कारण इकट्ठे करते हैं; इससे पाप नहीं रुकता। ।
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। भाद्रपद सुदी १५, १९५२ चौदह राजूलोकको जो कामना है वह पाप है। इसलिये परिणाम देखें। चौदह राजूलोकका पता नही ऐसा कदाचित् कहे, तो भी जितना सोचा उतना तो अवश्य पाप हुआ। मुनिको तिनका भी लेनेकी छूट नहीं है। गृहस्थ इतना ले तो उतना उसे पाप है।
____ जड और आत्मा तन्मय नहीं होते। सूतकी ऑटी सूतसे कुछ भिन्न नही है, परन्तु ऑटी खोलनेमे विकटता है, यद्यपि सूत्र न घटता है और न बढता है । उसी तरह आत्मामे ऑटी पड गयी है। ।
___ सत्पुरुष और सत्शास्त्र यह व्यवहार कुछ कल्पित नही है। सद्गुरु, सत्शास्त्ररूपी व्यवहारसे स्वरूप शुद्ध हो, केवल रहे, अपना स्वरूप समझे वह समकित है। सत्पुरुपका वचन सुनना दुर्लभ है, श्रद्धा करना दुर्लभ है, विचारना दुर्लभ है, तो फिर अनुभव करना दुर्लभ हो इसमे क्या नवीनता ?
उपदेशज्ञान अनादिसे चला आता है, अकेली पुस्तकसे ज्ञान नही होता । पुस्तकसे ज्ञान होता हो तो पुस्तकका मोक्ष हो जाये । सद्गुरुकी आज्ञानुसार चलनेमे भूल हो जाये तो पुस्तक अवलवनभूत है।
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उपदेश छाया ।
७२७ चैतन्यकी रटन रहे तो चैतन्य प्राप्त होता है, चैतन्य अनुभवगोचर होता है। सद्गुरुके वैचनका श्रवण करे, मनन करे, और आत्मामे परिणत करे तो कल्याण होता है।
ज्ञान और अनुभव हो तो मोक्ष होता है। व्यवहारका निषेध न करे, अकेले व्यवहारको पकड़न रखें।
आत्मज्ञानकी बात इस तरह करना योग्य नही कि वह सामान्य हो जाये । आत्मज्ञानकी बात एकांत मे कहे । आत्माके अस्तित्वका विचार किया जाये, तो अनुभवमे आता है, नही तो उसमे शंका होती है। जैसे किसी मनुष्यको अधिक पटल होनेसे नही दीखता, उसी तरह आवरणकी सलग्नताके कारण आत्माको नही दीखता। नीदमे भी आत्माको सामान्यत जागृति रहती है। आत्मा सर्वथा नही सोता, उसपर आवरण आ जाता है । आत्मा हो तो ज्ञान होता है । जड़ हो तो ज्ञान किसे हो ?
अपनेको अपना भान होना, स्वय अपना ज्ञान पाना, जीवन्मुक्त होना। " 'चैतन्य एक हो तो भ्राति किसे हुई ? मोक्ष किसका हुआ? सभी चैतन्यकी 'जाति एक है, परन्तु प्रत्येक चैतन्यकी स्वतंत्रता है, भिन्न भिन्न है। चैतन्यका'' स्वभाव एक है । मोक्ष स्वानुभवगोचर है। निरावरणमे भेद नही है। परमाणु एकत्रित न हो अर्थात् आत्माका जब परमाणुसे 'सबध न हो तब मुक्ति है, परस्वरूपमे नही मिलना वह मुक्ति है। " । ' कल्याण करने, न करनेका तो भान नही है, परन्तु जीवको अपनापन रखना है। बंध कब तक होता है ? जीव चैतन्य न हो तब तक । एकेंद्रिय आदि योनि हो तो भी जीवका ज्ञानस्वभाव सर्वथा लुप्त नही हो जाता, अशसे खुला रहता है । अनादि कालसे जीव बँधा हुआ है । निरावरण होनेके बाद नही बंधता। 'मै जानता हूँ', ऐसा जो अभिमान है वह चैतन्यकी अशुद्धता है।' इस जगतमे बंध और मोक्ष न होते तो फिर श्रुतिका उपदेश किसके लिये ? आत्मा स्वभावसे सर्वथा निष्क्रिय है, प्रयोगसे सक्रिय है। जब निर्विकल्प समाधि होती है तभी निष्क्रियता कही है। निर्विवादरूपसे वेदातका विचार करनेमे बाधा नही है। आत्म अर्हतपदका विचार करे तो अहंत होता है। सिद्धपदका विचार करें तो सिद्ध होता है। आचार्यपदका विचार करे तो आचार्य होता है । उपाध्यायका विचार करे तो उपाध्याय होता है । स्त्रीरूपका विचार करे तो स्त्री हो जाता है, अर्थात् आत्मा जिस स्वरूपका विचार करे तद्रूप भावात्मा हो जाता है । आत्मा एक है या अनेक है इसकी चिन्ता न करे । हमें तो यह विचार करनेकी जरूरत है कि 'मैं एक हूँ' । जगतको मिलानेकी क्या जरूरत है ? एक-अनेकका विचार बहुत आगेकी दशामे पहुँचनेके बाद करना है। जगत
और आत्माको स्वप्नमें भी एक न समझें। आत्मा अचल है, निरांवरण है । वेदात सुनकर भी आत्माको पहचानें । आत्मा सर्वव्यापर्क है या आत्मा देहमे है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है। '
. सभी धर्मोका तात्पर्य यह है कि आत्माको पहचाने । दूसरे सब जो साधन हैं, वे जिस जगह चाहिये (योग्य हैं) वहाँ ज्ञानीकी आज्ञासे उपयोग करते हुए अधिकारी जीवको फल होता है । दया आदि आत्माके निमल होनेके साधन है।
मिथ्यात्व, प्रमाद, अव्रत, अशुभयोग, ये अनुक्रमसे जाये तो सत्पुरुषका वचन आत्मामे परिणाम पाता है, उससे सभी दोषोंका अनुक्रमसे नाश होता है । आत्मज्ञान विचारसे होता है। सत्पुरुप तो पुकारपुकार कर कह गये हैं, परन्तु जीव लोकमार्गमे पडा है, और उसे लोकोत्तरमार्ग मानता है। इसलिये किसी तरह भी दोष नही जाते । लोकका भय छोड़कर सत्पुरुपोंके वचन, आत्मामे परिणमित करे तो सब दोष चले जाते हैं । जीव ममत्व न लाये, बड़प्पन और महत्ता छोड़े बिना सम्यक् मार्ग आत्मामे परिणाम नही पाता।
वाचक विषयमें .-परमार्थहेतु नदो उतरनेके लिये ठडे पानीको मुनिको आज्ञा दो है, परन्तु अब्रह्मचर्यको आज्ञा नही दी है. और उसके लिये कहा है कि अल्प आहार करना, उपवास करना, एकातर करना, अन्तमे जहर खाकर मर जाना; परन्तु ब्रह्मचर्यका भग मत ।
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श्रीमद् राजचन्द्र जिसे देहकी मूर्छा हो उसे कल्याण किस तरह भासे ? साँप काटे और भय न हो तब समझना कि आत्मज्ञान प्रगट हुआ है । आत्मा अजर अमर है । 'मैं' मरनेवाला नही, तो मरनेका भय क्या ? जिसकी देहकी मूर्छा चली गयी है उसे आत्मज्ञान हुआ कहा जाता है।
प्रश्न-जीव कैसे वर्तन करे?
उत्तर-ऐसे वर्तन करे कि सत्सगके योगसे आत्माकी शुद्धता प्राप्त, हो। परन्तु सत्संगका योग सदा नहीं मिलता। जीव योग्य होनेके लिये हिंसा न करे, सत्य बोले, अदत्त न ले, ब्रह्मचर्य पाले, परिग्रहकी मर्यादा करे, रात्रिभोजन न करे इत्यादि सदाचरण शुद्ध अत करणसे करनेका ज्ञानियोने कहा है, वह भी यदि आत्माके लिये ध्यान रखकर किया जाता हो तो उपकारी है, नही तो पुण्ययोग प्राप्त होता है। उससे मनुष्यभव मिलता है, देवगति मिलती है, राज्य मिलता है, एक भवका सुख मिलता है, और फिर चार गतिमे भटकना होता है; इसलिये ज्ञानियोने तप आदि जो क्रियाएँ आत्माके उपकारके लिये अहकाररहित भावसे करनेके लिये कही है, उनका परमज्ञानी स्वय भी जगतके उपकारके लिये निश्चयसे सेवन करते हैं।
, महावीरस्वामीने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद उपवास नही किये, उसी तरह किसी ज्ञानीने भी नही किये, तथापि लोगोके मनमे ऐसा न आये कि ज्ञान होनेके बाद खाना पीना सब एकसा है इसलिये अंतिम समयमे तपकी आवश्यकता बतानेके लिये उपवास किये, दानको सिद्ध करनेके लिये दीक्षा लेनेसे पहले स्वय वर्षीदान दिया, इससे जगतको दान सिद्ध कर दिखाया। मातापिताको सेवा सिद्ध कर दिखायो। छोटी उमरमे दीक्षा नही ली वह उपकारके लियें । नही तो अपनेको करना, न करना कुछ नहीं है, क्योकि जो साधन कहे हैं वे आत्मलक्ष्य करनेके लिये है, जो स्वयंको तो सपूर्ण प्राप्त हुआ है । परन्तु परोपकारक लिये ज्ञानी सदाचरणका सेवन करते है। , , .
अभी जैनधर्ममे बहुत समयसे अव्यवहृत कुएँकी भॉति आवरण आ गया है, कोई ज्ञानीपुरुष है नही । कितने ही समयसे ज्ञानी हए नही, क्योकि, नहीं तो उसमे इतने अधिक कदाग्रह न होते । इस पचम कालमे सत्पुरुषका योग मिलना दुर्लभ है; उसमे अभी तो विशेष दुर्लभ देखनेमे आता है, प्राय. पूर्वके संस्कारी जीव देखनेमे नही आते। बहुतसे जीवोमे कोई ही सच्चा मुमुक्षु, जिज्ञासु देखनेमे आता है, बाकी तो तीन प्रकारके जीव देखनेमे आते हैं, जो बाह्यदृष्टिवाले है
(१) "क्रिया नही करना, क्रियासे देवगति प्राप्त होती है, दूसरा कुछ प्राप्त नहीं होता। जिससे चार गतियोका भटकना मिटे, यह यथार्थ है।' ऐसा कहकर सदाचरणको पुण्यका हेतु मानकर नही करते, और पापके कारणोका सेवन करते हुए नही रुकते। इस प्रकारके जीवोको कुछ करना हो नही है, और केवल बडी बडी बाते ही करनी है । इन जीवोको 'अज्ञानवादी' के तौरपर रखा जा सकता है। ..
'' (२) 'एकात किया करनी, उसीसे कल्याण होगा', ऐसा माननेवाले एकदम व्यवहारमे कल्याण मानकर कदाग्रह नही छोडते । ऐसे जीवोको ‘क्रियावादी' अथवा 'क्रियाजड समझे। क्रियाजडको आत्माका लक्ष्य नही होता। ' (३) 'हमे आत्मज्ञान है । आत्माको भ्राति होती ही नही,'आत्मा कर्ता भी नही है और भोक्ता भी नही है, इसलिये कुछ नही है ।' ऐसा बोलनेवाले 'शुष्क-अध्यात्मी पोले ज्ञानी होकर अनाचारका सेवन करते हुए नही रुकते।.
___ ऐसे तीन प्रकारके जीव अभी देखनेमे आते हैं। जीवको जो कुछ करना है वह आत्माके उपकारके लिये करना है, इस बातको वे भूल गये हैं। आजकलं जैनमे चौरासीसे सौ गच्छ हो गये हैं। उन सबमे कदाग्रह हो गये हैं, फिर भी वे सब कहते है कि 'जैनधर्ममे हम ही हैं, जैनधर्म हमारा है।'
_ 'पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि' आदि पाठका लोकमे अभी ऐसा अर्थ प्रचलित हुआ मालूम होता है कि 'आत्माका व्युत्सर्जन करता हूँ,' अर्थात् जिसका अर्थ आत्माका उपकार करना है,
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उपदेश छाया
७२९ उसीको, आत्माको ही भूल गये है । जैसे बारात चढी हो और विविध वैभव आदि हो, परन्तु यदि एक वर न हो तो बारात शोभित नहीं होती और वर हो तो शोभित होती है, उसी तरह क्रिया, वैराग्य आदि यदि आत्माका ज्ञान हो तो शोभा. देते है, नहीं तो शोभा नही देते । - जैनोमे, अभी, आत्मा भूला दिया गया है। - . : ., .
सूत्र, चौदहपूर्वका ज्ञान, मुनिपन, श्रावकपन, हजारो तरहके सदाचरण, तपश्चर्या आदि जो जो साधन, जो जो परिश्रम, जो जो पुरुषार्थ कहे हैं वे सब एक आत्माको पहचानने के लिये, खोज निकालनेके लिये कहे हैं। वे प्रयत्न यदि आत्माको पहचाननेके लिये, खोज निकालनेके लिये, आत्माके लिये हो तो सफल हैं; नही तो निष्फल हैं। यद्यपि उनसे बाह्य- फल होता है, परन्तु चार गतिका नाश नही होता। जीवको सत्पुरुषका योग मिले, और लक्ष्य हो तो वह सहजमे ही योग्य जीव होता है, और फिर सद्गुरुकी आस्था हो तो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।।।
(१),शम = क्रोध आदिको कृश करना। .. - । (२) सवेग = मोक्षमार्गके सिवाय और किसी इच्छाका न होना। . । (३) निर्वेद-ससारसे थक जाना, संसारसे रुक जाना । ..... ... .
(४) आस्था - सच्चे गुरुकी, सद्गुरुकी आस्था होना । . ' : , (५) अनुकंपा = सब प्राणियोपर समभाव रखना, निर्वैर बुद्धि रखना।
ये गुण समकिती जीवसे- सहज होते है। पहले सच्चे पुरुषको पहचान हो तो फिर ये चार गुण आते हैं।
वेदातमे विचार करनेके लिये षट्सपत्ति बतायी है । विवेक, वैराग्य आदि सद्गुण प्राप्त होने के बाद जीव योग्य मुमुक्षु कहा जाता है। ,' नय आत्माको, समझनेके लिये कहे हैं, परन्तु जीव तो नयवादमे उलझ जाते है । आत्माको समझाने जाते हुए नयमे उलझ-जानेसे यह प्रयोग उलटा पडा। समकितदृष्टि जीवको केवलज्ञान' कहा जाता है। वर्तमानमे भान हुआ है, इसलिये 'देश केवलज्ञान': हुआ कहा जाता है, बाकी तो आत्माका भान होना ही केवलज्ञान है । यह इस तरह कहा जाता है-समकितदृष्टिको आत्माका भान हुआ, तव उसे केवलज्ञानका भान प्रगट हुआ, और उसका भान प्रगट हुआ तो केवलज्ञान अवश्य होनेवाला है। इसलिये इस अपेक्षासे समकितदृष्टिको केवलज्ञान कहा है। सम्यक्त्व, हुआ अर्थात् जमीन जोत कर वीजको बो दिया, वृक्ष हुआ, फल थोडे खाये, खाते खाते आयु पूरी हुई, तो फिर दूसरे भवमे फल खाये जायेंगे | इसलिये 'केवलज्ञान' इस कालमे नही है, नही है ऐसा उलटा न मानना और न कहना । सम्यक्त्व प्राप्त होनेसे अनत भव दूर होकर एक भव बाकी रहा, इसलिये सम्यक्त्व उत्कृष्ट हे।, आत्मामे केवलज्ञान है, परन्तु आवरण दूर होनेपर केवलज्ञान प्रगट होता है। इस कालमे सम्पूर्ण आवरण दूर नहीं होता, एक भव वाकी रह जाता है, अर्थात् जितना केवलज्ञानावरणीय दूर होता है उतना केवलज्ञान होता है। समकित आनेपर भीतरमेअतरमे-दशा बदलती है, केवलज्ञानका बीज प्रगट होता है। मद्गुरुके विना मार्ग नहीं है ऐसा महापुरुषोने कहा है । यह उपदेश बिना कारण नहीं किया।
. समकिती अर्थात् मिथ्यात्वमुक्त, केवलज्ञानी अर्थात् चारिमावरणसे संपूर्णतया मुक्त, और सिद्ध अर्थात् देह आदिसे सपूर्णतया मुक्त ।
प्रश्न-कर्म कैसे कम होते हैं ? उत्तर-क्रोध न करे, मान न करे, माया न करे, लोभ न करे, उससे कर्म कम होते हैं । वाद्य क्रिया करूँगा तो मनुष्यजन्म मिलेगा, और किसी दिन सच्चे पुरुषका योग मिलेगा।
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श्रीमद राजचन्द्र प्रश्न-व्रत नियम करना या नही ?
उत्तर-व्रतनियम करना है। उसके साथ झगडा, क्लेश, बाल-बच्चे और घरमे ममत्व नही करना। ऊँची दशामे जानेके लिये व्रत-नियम करना।
सच्चे'झूठेकी परीक्षा करनेके बारेमे एक सच्चे भक्तका दृष्टात-एक राजा बहुत भक्तिवाला था; और इसलिये वह भक्तोकी सेवा बहुत करता, बहुतसे भक्तोका अन्न, वस्त्र आदिसे पोषण करनेसे बहुत भक्त इकट्ठे हो गये। प्रधानने सोचा कि राजा भोला है, भक्त ठग है; इसलिये इस बातकी राजाको परीक्षा कराई जाये । परन्तु अभी राजाको प्रेम बहुत है, इसलिये मानेगा नही, इसलिये किसी अवसरपर बात करेंगे, ऐसा विचार कर कुछ समय ठहर कर कोई अवसर मिलनेसे उसने राजासे कहा-'आप बहुत समयसे सभी भक्तोकी सरीखी सेवा-चाकरी करते हैं, परन्तु उनमे कोई बडे होगे, कोई छोटे होगे । इसलिये सवको पहचानकर भक्ति करें। तव राजाने हाँ कहकर पूछा-'तब कैसे करना?' राजाकी अनुमति लेकर प्रधानने जो दो हजार भक्त थे उन सबको इकट्ठा करके कहलवाया-'आप सब दरवाजेके बाहर आइये, क्योकि राजाको जरूरत होनेसे आज भक्त-तेल निकालना है । आप सब बहुत दिनोसे राजाका मालमलीदा खाते हैं, तो आज राजाका इतना काम आपको करना ही चाहिये।' घानीमे डालकर तेल निकालने का सुना कि सभी भक्त तो भागने लगे, और पलायन कर गये। एक सच्चा भक्त था उसने विचार किया'राजाका नमक खाया है तो उसका नमकहराम क्यो हुआ जाये ?.राजाने परमार्थ समझकर अन्न दिया है, इसलिये राजा जैसे चाहे वैसे करने देना चाहिये।' ऐसा विचार कर घानीके पास जाकर कहा-"आपको भक्त-तेल निकालना हो तो निकालें ।" फिर प्रधानने राजासे कहा-"देखिये, आप सब भक्तोकी सेवा करते थे, परन्तु सच्चे-झूठेकी परीक्षा नही थी।" देखिये, इस तरह सच्चे जीव तो विरले ही होते है, और ऐसे विरल सच्चे सद्गुरुको भक्ति श्रेयस्कर है । सच्चे सद्गुरुको भक्ति मन, वचन और कायासे करे ।
एक बात समझमे न आये तब तक दूसरी बात सुननी किस कामकी ? एक बार सुना वह समझमे न आये तब तक दूसरी बार न सुनें । सुने हुएको न भूलें, जैसे एक वार खाया, उसके पचे बिना और न खाये । तप इत्यादि करना यह कोई महाभारत काम नहीं है, इसलिये तप करनेवाला अहकार न करे । तप यह छोटेसे छोटा भाग है । भूखा रहना और उपवास करना उसका नाम तप नही है । भीतरसे शुद्ध अंत करण हो तव तप कहा जाता है, और तब मोक्षगति होती है । बाह्य तप शरीरसे होता है । तपके छः प्रकार है(१) अतर्वृत्ति होना, (२) एक आसनसे कायाको विठाना, (३) कम आहार करना, -(४) नोरस आहार करना, और वृत्तियोको कम करना, (५) सलीनता, (६) आहारका त्याग ।। ..
तिथिके लिये उपवास नही करना है, परन्तु आत्माके लिये उपवास करना है। बारह प्रकारका तप कहा है। उसमे आहार न करना, इस तपको जिह्वाइन्द्रियको वश करनेका उपाय समझकर कहा है। जिह्वाइन्द्रिय वश की तो यह सभी इन्द्रियोके वश होनेका निमित्त है। उपवास करें तो इसकी बात वाहर न करे, दूसरेकी निंदा न करें, क्रोध न करें। यदि ऐसे दोष कम हो तो बडा लाभ होता है। तप आदि आत्माके लिये करना है, लोगोको दिखानेके लिये नही करना है। कषाय कम हो उसे 'तप' कहा है। लौकिक दृष्टिको भूल जायें। लोग तो जिस 'कुलमे जन्म लेते है उस कुलके धर्मको मानते हैं और वहाँ जाते हैं। परन्तु वह तो नाममात्र धर्म कहा जाता है, परन्तु मुमुक्षु वैसा न करे।
सब सामायिक करते हैं, और कहते हैं कि जो ज्ञानी स्वीकार करे वह सच है। समकित होगा या नही, उसे भी ज्ञानी स्वीकार करे तो सच्चा है। परन्तु ज्ञानी क्या स्वीकार करे ? अज्ञानी स्वीकार करे ऐसा तो आपका सामायिक, व्रत और समकित है । अर्थात् आपके सामायिक, व्रत और समकित वास्तविक नही है, मन, वचन और काया व्यवहारसमतामे स्थिर रहे यह समकित नहीं है | जैसे नीदमे स्थिर योग मालूम पडता है, फिर भी वह वस्तुत स्थिर नहीं है, और इसलिये वह समता भी नही है। मन, वचन,
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उपदेश, छाया या चौदहवें गुणस्थान तक होते हैं, मन तो कार्य किये विना वैठता ही नही है । केवलीका मन-योग चपल ता है, परन्तु आत्मा चपल नही होता । आत्मा चौथे गुणस्थानकमे 'अचपल होता है, परन्तु सर्वथा नही।
'ज्ञान' अर्थात् आत्माको यथातथ्य जानना ।' 'दर्शन' अर्थात् आत्माको यथातथ्य प्रतीति । 'चारित्र' - र्थात् आत्माका स्थिर होना। ___आत्मा और सद्गुरु एक ही समझें। यह बात विचारसे ग्रहण होती है । वह विचार' यह कि देह ही अथवा देहसम्बन्धी दूसरे भाव नही, परन्तु सद्गुरुका आत्मा ही सद्गुरु है । जिसने आत्मस्वरूपका क्षणसे, गुणसे और वेदनसे प्रगट अनुभव किया है और वही परिणाम जिसके आत्माका हुआ है वह आत्मा और सद्गुरु एक ही है, ऐसा समझें । पूर्वकालमे जो अज्ञान इकट्ठा किया है वह दूर हो तो ज्ञानीकी अपूर्व गणी समझमे आती है।
मिथ्यावासना ='धर्मके मिथ्या स्वरूपको सच्चा समझना । . ..
तप आदि भी ज्ञानीकी कसौटी है। साताशील वर्तन रखा हो; और असाता आये तो वह अदुखबावित ज्ञान मंद होता है । विचारके बिना इद्रियाँ वश होनेवाली नही है । अविचारसे इद्रियाँ दौडती है। नवृत्तिके लिये उपवास बताया है । आजकल' कितने ही अज्ञानी जीव उपवास करके दुकान पर बैठते है, और उसे पौषध ठहराते है। ऐसे कल्पित पौषध जीवने अनादिकालसे किये है। उन सबको ज्ञानियोने निष्फल हराया है। स्त्री, घर, बाल-बच्चे भूल जायें तब सामायिक की ऐसा कहा जाता है।। सामान्य विचारको रेकर, इन्द्रियां वश करनेके लिये छ कायका आरंभ कायासे न करते हुए वृत्ति निर्मल हो तब सामायिक हो सकती है। व्यवहार सामायिक बहुत निषिद्ध करने जैसी नही है, यद्यपि जीवने व्यवहाररूप सामायिकको एकदम जड बना डाला है। उसे करनेवाले जीवोको पता भी नहीं होता। कि इससे क्या कल्याण होगा? सम्यक्त्व पहले चाहिये। जिसके वचन सुननेसे आत्मा स्थिर हो, वृत्ति निर्मल हो, उस सत्पुरुपके वचनोका यवण हो तो फिर सम्यक्त्व होता है। , ' '.. Fire
: __. भवस्थिति, पचमकालमे मोक्षका अभाव आदि शकाओसे जीवने बाह्य वृत्ति कर डाली है, परन्तु यदि ऐसे जीव पुरुषार्थ करें, और पचमकाल मोक्ष होते हुए हाथ पकड़ने आये तव, उसका उपाय हम कर लेंगे। वह उपाय कोई हाथी नही है, झलझलाती अग्नि नही है। व्यर्थ ही जीवको भडका दिया है। ज्ञानीके वचन सुनकर याद रखने नही, जीवको पुरुषार्थ करना नही, और उसे लेकर बहाने बनाने हैं । इसे अपना दोष समझें। समताकी, वैराग्यकी बातें सुने और विचार करें। वाह्य बातें यथासंभव छोड दें। जीव तरनेका अभिलाषी हो, और सद्गुरुकी आज्ञासे वर्तन करे तो सभी वासनाएँ चली जाती है।
सद्गरुकी आज्ञामे सभी साधन समा गये हैं। जो जीव तरनेका कामी होता है उसकी सभी वासनाओका नाश हो जाता है। जैसे कोई सौ पचास. कोस दूर हो, तो दो चार दिनमे भी घर पहुंच जाये, परतु लाखों कोस दूर हो तो एकदम घर कहाँसे पहुँचे? वैसे ही यह जीव कल्याण मागसे थोडा दूर हो तो तो किसो दिन कल्याण प्राप्त करे, परतु यदि एकदम उलटे रास्तेपर हो तो कहांसे पार पाये?
दे आदिका अभाव होना, मूछ का नाश होना यही मुक्ति है। जिसका एक भव वाकी रहा हो उसे देहकी इतनो अधिक चिंता नही करनी चाहिये । अज्ञान जाने के बाद एक भवका कुछ महत्त्व नहीं । लाखो भव चले गये तो फिर एक भव किस हिसाबमे ?
. हो तो मिथ्यात्व, और माने छठा या सातवाँ गुणस्थान तो उनका क्या करना ? चौथे गुणस्थानकी स्थिति कैसी होती है ? गणधर जैसी, मोक्षमार्गकी परम प्रतीति आये ऐसी।
जो तरनेका कामी हो वह सिर काटकर देते हुए पीछे नही हटता । जो शिथिल हो वह तनिक पेर धोने जैसा कलक्षण हो उसे भी छोड़ नहीं सकता, और वीतरागकी बात गण करने जाता है। वीतराग जिस वचनको कहते हुए डरे हैं उसे अज्ञानी स्वच्छदसे कहता है, तो वह कैसे छूटेगा?
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श्रीमद राजचन्द्र ' महावीरस्वामीकी दीक्षाके जुलूसकी बातके स्वरूपका यदि विचार करे तो वैराग्य हो जाये । यह वात अद्भुत है । वे भगवान अप्रमादी थे। उनमें चारित्र. विद्यमान था, परंतु जब बाह्य चारित्र लिया तब मोक्ष गये। ..... अविरति शिष्य हो तो उसकी आवभगत कैसे की जाये ? रागद्वेषको मारनेके लिये निकला, और उसे तो काममें लिया, तब रागद्वेप कहाँसे जाये ? जिनेन्द्रके आगमका जो समागम हुआ हो, वह तो अपने क्षयोपशमके अनुसार हुआ. हो परन्तु सद्गुरुके योगके अनुसार.न हुआ. हो। सद्गुरुका योग मिलनेपर उनकी आज्ञाके अनुसार जो चला उसका सचमुच रागद्वेष गया। .
गंभीर रोग मिटानेके लिये असली दवा तुरत फल देती है ! बुखार तो एक दो दिनमें भी मिट जायें।
मार्ग और उन्मार्गकी पहचान होनी चाहिये । 'तरनेका कामी' इस शब्दका प्रयोग करें तो इसमें अभव्यका प्रश्न नहीं उठता । कामी कामी में भी भेद है..........................
प्रश्न-सत्पुरुषकी पहचान कैसे हो?:::.:......: - उत्तर-सत्पुरुष अपने लक्षणोंसे पहचाने.जाते हैं। सत्पुरुषोंके लक्षण :-उनकी वाणीमें पूर्वापर अविरोध होता है, वे क्रोधका जो उपाय बताते हैं उससे क्रोध चला. जाता है। मानका जो उपाय बताते हैं उससे मान दूर हो जाता है। ज्ञानीकी वाणी परमार्थरूप ही होती है; वह अपूर्व है । ज्ञानीकी वाणी दूसरे अज्ञानीकी वाणीसे ऊँची और ऊंची ही होती हैं । जब तक:ज्ञानीको वाणी सुनी नहीं, तब तक सूत्र ना नीरस लगते हैं। सद्गुरु और असद्गुरुकी पहचान, सोने और पीतलकी कंठीकी पहचानकी भाँति होनी. चाहिये । तरनेका कामी हो, और सद्गुरु मिल जाये, तो कर्म:दूर हो जाते हैं। सद्गुरु कर्म दूर करनेका कारण है। कर्म बाँधनेके कारण मिले तो कर्म बंधे जाते हैं और कर्म दूर करनेके कारण मिले तो कर्म दूर होते हैं । तरनेका कामी हो वह भवस्थिति आदिके आलंबनोंको मिथ्या कहता है । तरनेका कामी किसे कहा जाये ? जिस पदार्थको ज्ञानी जहर कहते हैं उसे. जहर समझकर छोड़ दे, और ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करे उसे तरनेका कामी कहा जाये।. .. .. ... ...... ..... ... . . .. . : उपदेश सुननेके लिये सुननेके कामीने कर्मरूपी गुदड़ी ओढ़ी है, इसलिये उपदेशरूपो लकड़ी नहीं. लगती। जो तरनेका कामी हो उसने धोतीरूप कर्म ओढ़े हैं इसलिये उपदेशरूप लकड़ी पहले लगती है। शास्त्रमें अभव्यके तारनेसे तरे ऐसा नहीं कहा है । चौभंगीमें ऐसा अर्थ नहीं है । ढूंढियाके धरमशी नामके मुनिने इसकी टीका की है। स्वयं तरा नहीं और दूसरोंको तारता है, इसका अर्थ अंधा मार्ग बतावे ऐसा है। असद्गुरु ऐसे मिथ्या आलंबन देते हैं। : ., . . : ..... .. .. .. ,
'ज्ञानापेक्षासे सर्वव्यापक, सच्चिदानंद ऐसा मैं आत्मा एक हूँ', ऐसा विचार करना, ध्यान करना । निर्मल, अत्यंत निर्मल, परमशुद्ध, चैतन्यधन, प्रगट आत्मस्वरूप है। सबको कम करते-करते जो अबाध्य अनुभव रहता है वह 'आत्मा' है । जो सबको जानता है वह 'आत्मा' है। जो सब भावोंको प्रकाशित करता है वह 'आत्मा' है । उपयोगमय 'आत्मा' है.। अव्यावाध समाधिस्वरूप. 'आत्मा' है.। .. ,
'आत्मा है।' आत्मा अत्यंत प्रगट है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रगट अनुभवमें है । अनुत्पन्न और अमिलन स्वरूप होनेसे 'आत्मा नित्य है। भ्रांतिरूपसे 'परभावका कर्ता है । उसके 'फलका भोक्ता है'। भान होनेपर 'स्वभाव परिणामी है' । सर्वथा स्वभाव परिणाम 'मोक्ष है । सद्गुरु, सत्संग, सत्शास्त्र, सद्विचार और संयम आदि उसके साधन हैं। आत्माके अस्तित्वसे लेकर निवणि तंकके पद सच्चे है, अत्यंत सच्चे हैं। क्योंकि प्रगट अनुभवमें आते हैं। भ्रांतिरूपसे आत्मा परभावका कर्ता होनेसे शुभाशुभ कर्मको उत्पत्ति होती है। कर्म सफल होनेसे उस शुभाशुभ कर्मको आत्मा भोगता है । इसलिये उत्कृष्ट शुभसे उत्कृष्ट अशुभ तकके न्यूनाधिक पर्याय भोगनेरूप क्षेत्र अवश्य है। .........
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७३३ . निजस्वभाव ज्ञानमें केवल उपयोगसे, तन्मयाकार, सहज स्वभावसे, निर्विकल्परूपसे आत्मा जो परिणमन करता है वह केवलज्ञान' है । तथारूप प्रतीतिरूपसे जो परिणमन करता है वह 'सम्यक्त्व है। निरंतर वह प्रतीति रहा करे उसे 'क्षायिक सम्यक्त्व' कहते हैं । क्वचित् मंद, क्वचित् तीन, क्वचित् विसर्जन, क्वचित् स्मरणरूप ऐसी प्रतीति रहे, उसे 'क्षयोपशम सम्यक्त्व' कहते हैं। उस प्रतीतिको जब तक सत्तागत आवरण उदय नहीं आयें, तब तक 'उपशम सम्यक्त्व' कहते हैं। आत्माको आवरण उदयमें आये तब वह प्रतीतिसे गिर जाता है उसे 'सास्वादन सम्यक्त्व' कहते हैं। अत्यन्त प्रतीति होनेके योगमें सत्तागत अल्प पुद्गलका वेदन करना जहाँ रहा है, उसे 'वेदक सम्यक्त्व' कहते हैं। तथारूप प्रतीति होनेपर अन्यभाव संबंधी अहत्व, ममत्व आदि, हर्ष-शोकका क्रमसे क्षय होता है। मनरूप योगमें तारतम्यसहित जो कोई चारित्रकी आराधना करता है वह सिद्धि प्राप्त करता है; और जो स्वरूपस्थितिका सेवन करता है वह 'स्वभावस्थिति' पाता है। निरंतर स्वरूपलाभ, स्वरूपाकार उपयोगका परिणमन इत्यादि स्वभाव अंतराय कर्मके क्षयसे प्रगट होते हैं । जो केवल स्वभावपरिणामी ज्ञान है वह 'केवलज्ञान' है। .
११ . आणंद, भादों वदो १, मंगल, १९५२ ' 'जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति' नामके जैनसूत्र में ऐसा कहा है कि इस कालमें मोक्ष नहीं है। इससे यह न समझें कि मिथ्यात्वका दूर होना, और उस मिथ्यात्वके दूर होनेरूप मोक्ष नहीं है । मिथ्यात्वके दूर होनेरूप मोक्ष हैं; परन्तु सर्वथा अर्थात् आत्यंतिक देहरहित मोक्ष नहीं है । इससे यह कहा जा सकता है कि सर्व प्रकारका केवलज्ञान नहीं होता; बाकी सम्यक्त्व नहीं होता, ऐसा नहीं है। इस कालमें मोक्षके अभावकी ऐसी बातें कोई कहे उसे न सुनें । सत्पुरुषकी बात पुरुषार्थको मंद करनेवाली नहीं होती, अपितु पुरुषार्थको उत्तेजन देनेवाली होती है।
. विष और अमृत समान हैं, ऐसा ज्ञानियोंने कहा हो तो वह अपेक्षित है। विष और अमृत समान कहनेसे विष लेनेका कहा है यह बात नहीं है । इसी तरह शुभ और अशुभ दोनों क्रियाओंके संबंधमें समझें। शुभ और अशुभ क्रियाका निषेध कहा हो तो मोक्षकी अपेक्षासे है। इसलिये शुभ और अशुभ क्रिया समान है, यह समझकर अशुभ किया करनी, ऐसा ज्ञानीपुरुषका कथन कभी भी नहीं होता। सत्पुरुषका वचन अधर्ममें धर्मका स्थापन करनेका कभी भी नहीं होता।
___ जो क्रिया करें उसे निर्दभतासे, निरहंकारतासे करें। क्रियाके फलको आकांक्षा न रखे। शुभ क्रियाका कोई निषेध हैं ही नहीं; परंतु जहाँ जहाँ शुभ क्रियासे मोक्ष माना है वहाँ वहाँ निषेध है। . शरीर ठीक रहे, यह भी एक तरहको समाधि है । मन ठीक रहे यह भी एक तरहकी समाधि है। सहजसमाधि अर्थात् बाह्य कारणोंके बिनाकी समाधि । उससे प्रमाद आदिका नाश होता है। जिसे यह समाधि रहती है, उसे पुत्रमरण आदिसे भी असमाधि नहीं होती, और उसे कोई लाख रुपये दे तो आनंद नहीं होता, अथवा कोई छीन ले तो खेद नहीं होता। जिसे साता-असाता दोनों समान है उसे सहजसमाधि कहा है। समकितदृष्टिको अल्प हपं, अल्प शोक कभी हो जाये परंतु फिर वह शांत हो जाता है, अंगका हर्ष नहीं रहता; ज्यों हो उसे खेद हो त्यों ही वह उसे पोछे खींच लेता है । वह सोचता है कि ऐसा होना योग्य नहीं, और आत्माको निंदा करता है। हर्प शोक हो तो भी उसका (समकितका) मूल नष्ट नहीं होता । समकितदृष्टिको अंशसे सहज प्रतीतिके अनुसार सदा ही समाधि रहती है। पतंगकी डोरी जैसे हाथमें रहती है वैसे समकितदृष्टिके हाथमें उसकी वृत्तिरूपी डोरी रहती है । समकितदृष्टि जीवको सहजसमाधि है। सत्तामें कर्म रहे हों, परंतु स्वयंको सहजसमाधि है। बाहरके कारणोंसे उसे समाधि नहीं है। आत्मामेंसे जो मोह चला गया वही समाधि है। अपने हाथमें डोरी न होनेसे मिथ्यादृष्टि बाह्य कारणोंमें
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श्रीमद् राजचन्द्र तदाकार होकर तद्रूप हो जाता है । समकितदृष्टिको बाह्य दुःख आनेपर खेद नहीं होता, यद्यपि वह ऐसी इच्छा नहीं करता कि रोग न आये; परंतु रोग आनेपर उसे रागद्वेष परिणाम नहीं होते।
शरीरके धर्म रोग आदि केवलीको भी होते हैं; क्योंकि वेदनीयकर्मको तो सभीको भोगना ही चाहिये । समकित आये बिना किसीको सहजसमाधि नहीं होती। समकित हो जानेसे सहजमें ही समाधि होती है। समकित हो जानेसे सहजमें ही आसक्ति मिट जाती है। बाकी आसक्तिको यों. ही ना कहनेसे वह दूर नहीं होती। सत्पुरुषके वचनके अनुसार, उनकी आज्ञाके अनुसार जो वर्तन करे उसे अंशसे समकित हुआ है।
दूसरी सब प्रकारकी कल्पनाएँ छोड़कर, प्रत्यक्ष सत्पुरुषकी आज्ञासे उनके वचन सुनना, उनमें सच्ची श्रद्धा करना और उन्हें आत्मामें परिणमित करना, तो समकित होता है । शास्त्रमें कही हुई महावीरस्वामीको आज्ञासे वर्तन करनेवाले जीव अभी नहीं है, क्योंकि उन्हें हुए २५०० वर्ष हो गये हैं, इसलिये प्रत्यक्ष ज्ञानी चाहिये । काल विकराल है। कुगुरुओंने लोगोंको उलटा मार्ग बताकर बहका दिया है; मनुष्यत्व लूट लिया है; इसलिये जीव मार्गमें कैसे आये ? यद्यपि कुगुरुओंने लूट लिया है परंतु इसमें उन बेचारोंका दोष नहीं है, क्योंकि कुगुरुको भी उस मार्गका पता नहीं है। कुगुरुको किसी प्रश्नका उत्तर न आता हो परन्तु यों नहीं कहता कि 'मुझे नहीं आता'। यदि वैसा कहे तो कर्म थोड़े बाँधे । मिथ्यात्वरूपी तिल्लीकी गाँठ बड़ी है, इसलिये सारा रोग कहाँसे मिटे ? जिसकी ग्रंथि छिन्न हो गई है उसे सहजसमाधि होती है, क्योंकि जिसका मिथ्यात्व छिन्न हुआ, उसकी मूल गाँठ छिन्न हो गयी, और इससे दूसरे गुण प्रगट होते ही हैं।
समकित देश चारित्र है; देशसे केवलज्ञान है।
शास्त्रमें इस कालमें मोक्षका बिलकुल निषेध नहीं है। जैसे रेलगाड़ीके रास्तेसे जल्दी पहुँचा जाता है, और पगरास्तेसे देर में पहुंचा जाता है; वैसे इस कालमें मोक्षका रास्ता पगरास्ते जैसा हो तो उससे न पहुँचा जाये, ऐसी कुछ बात नहीं है। जल्दी चले तो जल्दी पहुँचे, किन्तु कुछ रास्ता बन्द नहीं है । इस तरह मोक्षमार्ग है, उसका नाश नहीं है। अज्ञानी अकल्याणके मार्गमें कल्याण मानकर, स्वच्छन्दसे कल्पना करके, जीवोंका तरना बन्द करा देता है । अज्ञानीके रागी भोले-भाले जीव अज्ञानीके कहनेके अनुसार चलते हैं, और इस प्रकार कर्मके बाँधे हुए वे दोनों दुर्गतिको प्राप्त होते हैं। ऐसा बखेड़ा जैनमतोंमें विशेष हुआ है।
सच्चे पुरुषका बोध प्राप्त होना अमृत प्राप्त होनेके समान है। अज्ञानी गुरुओंने बेचारे मनुष्योंको लूट लिया है । किसी जीवको गच्छका आग्रही बनाकर, किसीको मतका आग्रही बनाकर, जिनसे तरा न जाये ऐसे आलंबन देकर, बिलकुल लूटकर दुविधामें डाल दिया है। मनुष्यत्व लूट लिया है।
समवसरणसे भगवानकी पहचान होती है, इस सारी माथापच्चीको छोड़ दे। लाख समवसरण हों, परन्तु ज्ञान न हो तो कल्याण नहीं होता। ज्ञान हो तो कल्याण होता है । भगवान मनुष्य जैसे मनुष्य थे। वे खाते, पीते, बैठते और उठते थे; ऐसा कुछ अंतर नहीं है, अंतर दूसरा ही है। समवसरण आदिके प्रसंग लौकिक भावके हैं। भगवानका स्वरूप ऐसा नहीं है। संपूर्ण ज्ञान प्रगट होनेपर आत्मा नितांत निर्मल होता है, ऐसा भगवानका स्वरूप है। संपूर्ण ज्ञानका प्रगट होना, वही भगवानका स्वरूप है। वर्तमानमें भगवान होते तो आप न मानते। भगवानका माहात्म्य ज्ञान है। भगवानके स्वरूपका चिंतन करनेसे आत्मा भानमें आता है, परन्तु भगवानकी देहसे भान प्रगट नहीं होता। जिसे संपूर्ण ऐश्वर्य प्रगट हो उसे भगवान कहा जाता है। जैसे यदि भगवान वर्तमानमें होते, और आपको बताते तो आप न मानते; इसी तरह वर्तमानमें ज्ञानी हो तो वह माना नहीं जाता। स्वधाम पहुंचनेके बाद लोग कहते हैं कि ऐसा ज्ञानो होनेवाला नहीं है । पीछेसे जीव उसकी प्रतिमाकी पूजा करते हैं; परन्तु वर्तमानमें प्रतीति नहीं करते। जीवको ज्ञानीकी पहचान प्रत्यक्षमें, वर्तमानमें नहीं होती।
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...: समकितका सचमुच विचार करे तो नौवें समयमें केवलज्ञान होता है, नहीं तो एक भवमें केवलज्ञान होता है; और अंतमें पंद्रहवें भवमें तो केवलज्ञान होता ही है । इसलिये समकित सर्वोत्कृष्ट है । भिन्न भिन्न विचार-भेद आत्मामें लाभ होनेके लिये कहे गये है, परन्तु भेदोंमें ही आत्माको फंसानेके लिये नहीं कहे हैं। प्रत्येकमें परमार्थ होना चाहिये । समकितीको केवलज्ञानको इच्छा नहीं है !
. : अज्ञानी गुरुओंने लोगोंको उलटे मार्गपर चढ़ा दिया है। उलटा मार्ग पकड़ा दिया है, इसलिये लोग गच्छ; कुल आदि लौकिक भावोंमें तदाकार हो गये हैं। अंज्ञानियोंने लोगोंको बिलकुल उलटा ही मार्ग समझा दिया है। उनके संगसे इस कालमें अंधकार हो गया है। हमारी कही हुई एक एक बातको याद कर करके विशेषरूपसे पुरुषार्थ करें। गच्छ आदिके कदाग्रह छोड़ देने चाहिये । जीव अनादिकालसे भटका है। समकित हो तो सहज में ही समाधि हो जाये, और परिणाममें कल्याण हो । जीव सत्पुरुषके आश्रयसे यदि आज्ञा आदिका सचमुच आराधन करे, उसपर प्रतीति लाये, तो उपकार होगा ही।
एक तरफ तो चौदह राजूलोकका सुख हो, और दूसरी तरफ सिद्धके एक प्रदेशका सुख हो तो भी सिद्धके एक प्रदेशका सुख अनंतगुना हो जाता है।
वृत्तिको चाहे जिस तरहसे रोकें; ज्ञानविचारसे रोकें; लोकलाजसे रोकें, उपयोगसे रोकें; चाहे जिस तरह भी वृत्तिको रोकें । किसी पदार्थके बिना चले नहीं ऐसा मुमुक्षुको नहीं होना चाहिये।
: जीव ममत्व मानता है, वही दुःख है, क्योंकि ममत्व माना कि चिंता हुई कि कैसे होगा ? कैसे करें? चितामें जो स्वरूप होता है, तद्रूप हो जाता है, वही अज्ञान है। विचारसे, ज्ञानसे. देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि कोई मेरा नहीं है । यदि एककी चिंता करे तो सारे जगतकी चिंता करनी चाहिये । इसलिये प्रत्येक प्रसंगमें ममत्व न होने दें, तो चिंता, कल्पना कम होगी। तृष्णाको यथासंभव कम करें। विचार कर करके सृष्णाको कम करें। इस देहको पचास रुपयेका खर्च चाहिये, उसके बदले हजारों लाखोंकी चितारूप अग्निसे दिनभर जला करता है। बाह्य उपयोग तृष्णाकी वृद्धि होनेका निमित्त है । जीव बड़ाईके लिये तृष्णाको बढ़ाता है। उस बड़ाईको रखकर मुक्ति नहीं होती। जैसे बने वैसे बड़ाई, तुष्णा कम करें। निर्धन कौन ? जो धन माँगे, धन चाहे, वह निर्धन; जो न माँगे वह धनवान है। जिसे विशेष लक्ष्मीको तृष्णा, संताप और जलन है, उसे जरा भी सुख नहीं है.। लोग समझते हैं कि श्रीमंत सुखी है, परन्तु वस्तुतः उसे रोम-रोममें पीड़ा है । इसलिये तृष्णा कम करें। - आहारकी बात अर्थात् खानेके पदार्थोंकी वात तुच्छ है, वह न करें। विहारकी अर्थात् स्त्री, क्रीडा आदिकी बातःबहुत तुच्छ है। निहारकी बात भी बहुत तुच्छ है । शरीरको साता या दोनता यह सब तुच्छताकी बातें न करें।.आहार विष्टा है। विचार करे कि खानेके बाद विष्टा हो जाती है। विष्टा गाय खाती है तो दूध हो जाता है, और खेतमें खाद डालनेसे अनाज होता है । इस प्रकार उत्पन्न हुए अनाजके आहारको विष्टा तुल्य जानकर उसकी चर्चा न करे । यह तुच्छ वात है।
: सामान्य जीवोंसे बिलकुल मौन नहीं रहा जाता, और रहें तो अन्तरकी कल्पना नहीं मिटती; और जब तक कल्पना हो तब तक उसके लिये रास्ता निकालना ही चाहिये। इसलिये फिर लिखकर कल्पना बाहर निकालते हैं। परमार्थकाममें बोलना, व्यवहारकाममें विना प्रयोजन बकवास नहीं करना । जहाँ माथापच्ची होती है वहाँसे दूर रहना; वृत्ति कम करनी । .: क्रोध, मान, माया और लोभको मुझे कृश करना है। ऐसा जव लक्ष्य होगा, जब इस लक्ष्य में थोडा थोड़ा भी वर्तन होगा तब फिर सहजरूप हो जायेगा । बाह्य प्रतिबन्ध, अन्तर प्रतिबन्ध आदि आत्माको आवरण करनेवाला प्रत्येक दूषण जानने में आये कि उसे दूर भगानेका अभ्यास करें। क्रोध आदि थोडे थोड़े दुर्वल पड़नेके बाद सहजरूप हो जायेंगे। फिर उन्हें वशमें लेनेके लिये यथाशक्ति अभ्यास रखें और
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श्रीमद राजचन्द्र
उस विचारमें समय वितायें । किसीके प्रसंगसे क्रोध आदि उत्पन्न होनेका निमित्त मानते हैं; उसे न मानें । उसे महत्त्व न दें; क्योंकि क्रोध स्वयं करें तो होता है । जब अपनेपर कोई क्रोध करे तब विचार करें कि : उस बेचारेको अभी उस प्रकृतिका उदय है, अपने आप घड़ी दो घड़ी में शांत हो जायेगा । इसलिये यथासम्भव अंतविचार करके स्वयं स्थिर रहें । क्रोधादि कषाय आदि दोषका सदा विचार कर करके उन्हें दुर्बल करें । तृष्णा कम करें क्योंकि वह एकांत दुःखदायी है । जैसे उदय होगा वैसे होगा, इसलिये तृष्णाको अवश्य कम करें । बाह्य प्रसंग अंतर्वृत्तिके लिये आवरणरूप हैं इसलिये उन्हें यथासंभव कम करते रहें
चेलातीपुत्र किसीका सिर काट लाया था। उसके बाद वह ज्ञानीसे मिला और कहा – 'मोक्ष दो; नहीं तो सिर काट डालूंगा ।' फिर ज्ञानीने कहा -- क्या बिलकुल ठीक कहता है ? विवेक ( सच्चेको सच्चा समझना), शम (सबपर समभाव रखना) और उपशम (वृत्तियोंको बाहर नहीं जाने देना और अंतवृत्ति रखना), उन्हें अधिकाधिक आत्मामें परिणमानेसे आत्माका मोक्ष होता है ।
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कोई एक सम्प्रदायवाले ऐसा कहते हैं कि वेदांतीकी मुक्तिकी अपेक्षा - इस भ्रमदशाकी अपेक्षा. चार गतियाँ अच्छी; इनमें अपने सुखदुःखका अनुभव तो रहता है ।
वेदांती ब्रह्ममें समा जानेरूप मुक्ति मानते हैं, इसलिये वहाँ अपनेको अपना अनुभव नहीं रहता । पूर्व मीमांसक देवलोक मानते हैं, फिर जन्म अवतार हो ऐसा मोक्ष मानते हैं । सर्वथा मोक्ष नहीं होता, होता हो तो बंधता नहीं, बंधे तो छूटता नहीं । शुभ क्रिया करे उसका शुभ फल होता है, फिरसे संसारमें आना-जाना होता है, यों सर्वथा मोक्ष नहीं होता- ऐसा पूर्वमीमांसक मानते हैं । .
सिद्धमें संवर नहीं कहा जाता, क्योंकि वहाँ कर्म नहीं आते, इसलिये फिर रोकना भी नहीं होता । मुक्तमें स्वभाव संभव है, एक गुणसे, अंशसे लेकर सम्पूर्णं तक । सिद्धदशामें स्वभावसुख प्रगट हुआ, कर्मके आवरण दूर हुए, इसलिये अब संवर और निर्जरा किसे होंगे ? तीन योग भी नहीं होते । मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय, योग इन सबसे जो मुक्त हुआ उसे कर्म नहीं आते । इसलिये उसे कर्मोंका निरोध करना नहीं होता । एक हजारकी रकम हो और उसे थोड़ा थोड़ा करके पूरा कर दिया तो फिर खाता बंद हो गया, इसी तरह कर्मों के पाँच कारण थे, उन्हें संवर- निर्जरासे समाप्त कर दिया, इसलिये पांच कारणरूप खाता बंद हो गया, अर्थात् बादमें फिर वे प्राप्त होते ही नहीं । .
धर्मसंन्यास = क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषों का नाश करना । .
जीव तो सदा जीवित हो है । वह किसी समय सोता नहीं या मरता नहीं; उसका मरना संभव नहीं । स्वभावसे सर्व जोव जीवित ही हैं। जैसे श्वासोच्छ्वास के बिना कोई जीव देखनेमें नहीं आता वैसे ही ज्ञानस्वरूप चैतन्य के बिना कोई जीव नहीं है ।
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आत्माकी निंदा करें, और ऐसा खेद करें कि जिससे वैराग्य आये, संसार झूठा लगे । चाहे जो . कोई मरे, परन्तु जिसकी आँखोंमें आँसू आयें, संसारको असार जानकर जन्म, जरा और मरणको महा भयंकर जानकर वैराग्य पाकर आँसू आयें वह उत्तम है । अपना लड़का मर जाये, और रोये, इसमें कोई विशेषता नहीं है, यह तो मोहका कारण है ।
आत्मा पुरुषार्थं करे तो क्या नहीं होता ? बड़े बड़े पर्वतके पर्वत काट डाले हैं, और कैसे कैसे विचार करके उन्हें रेल्वेके काम में लिया है ! ये तो बाहरके काम हैं, फिर भी विजय पायी है । आत्माका विचार करना, यह कोई बाहरकी बात नहीं है । जो अज्ञान है वह मिटे तो ज्ञान हो ।.
अनुभवी वैद्य तो दवा देता है, गुरु अनुभव करके ज्ञानरूप दवा देते
हैं,
परन्तु रोगी यदि उसे खाये तो रोग दूर होता है । इसी तरह सद्परन्तु मुमुक्षु उसे ग्रहण करे तो मिथ्यात्वरूप रोग दूर होता है।
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..उपदेश छाया..
७३७ .... दो घड़ी पुरुषार्थ करे तो केवलज्ञान हो जाता है, ऐसा कहा है। चाहे जैसा. पुरुषार्थ करे तो भी रेल्वे आदि दो घड़ीमें तैयार नहीं होतो; तो फिर केवलज्ञान कितना सुलभ है इसका विचार करें। .
जो बातें जीवको मंद कर डालें, प्रमादो कर डाले वैसी बातें न सुनें। इसीसे जीव अनादिसे भटका हैं। भवस्थिति, काल आदिके अवलंबन न लें, ये सब बहाने हैं। ... :
जीवको संसारी आलंबन और विडम्बनाएँ छोड़नी नहीं है, और मिथ्या,आलंबन लेकर कहता है कि कर्मके दल हैं, इसलिये मुझसे कुछ हो नहीं सकता। ऐसे आलंबन लेकर पुरुषार्थ नहीं करता । यदि पुरुषार्थ करे और भवस्थिति या काल बाधा डाले तब उसका उपाय करेंगे । परन्तु प्रथम पुरुषार्थ करना चाहिये । .
। सच्चे पुरुषको आज्ञाका आराधन करना परमार्थरूप ही है। उसमें लाभ ही होता है । यह व्यापार लाभका हो है।
जिस मनुष्यने लाखों रुपयोंकी ओर मुड़कर पीछे नहीं देखा, वह अब हजारके व्यापारमें बहाना निकालता है. उसका कारण यह है कि अंतरसे आत्मार्थके लिये कुछ करनेकी इच्छा नहीं है । जो आत्मार्थी हो गया वह मुड़कर पीछे नहीं देखता, वह तो पुरुषार्थ करके सामने आ जाता है। शास्त्रमें कहा है कि आवरण, स्वभाव, भवस्थिति कव पके ? तो कहते हैं कि जब पुरुषार्थ करे तब । ....... पाँच कारण मिले तब मुक्त होता है। वे पाँचों कारण पुरुषार्थमें निहित हैं। अनंत चौथे कालचक्र मिलें. परन्तु यदि स्वयं पुरुषार्थ करे तो ही मुक्ति प्राप्त होती है। जीवने अनंत कालसे पुरुषार्थ नहीं किया है। सभी मिथ्या आलंबन लेकर मार्गमें विघ्न डाले हैं। कल्याणवृत्ति उदित हो तब भवस्थितिको परिपक्व हुई समझें । शौर्य हो तो वर्षका कार्य दो घड़ीमें किया जा सकता है। ...... प्रश्न-व्यवहारमें चौथे गुणस्थानमें कौन कौनसे व्यवहार लागू होते हैं ? शुद्ध व्यवहार या और कोई ?
: : उत्तर-दूसरे सभी व्यवहार लागू होते हैं। उदयसे शुभाशुभ व्यवहार होता है; और परिणतिसे शुद्ध. व्यवहार होता है।. . .
परमार्थसे शुद्ध कर्ता कहा जाता है। प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी क्षय किये हैं, इसलिये शुद्ध व्यवहारका कर्ता है । समकितीको अशुद्ध व्यवहार दूर करना है । समकिती परमार्थसे शुद्ध कर्ता है । ... नयके प्रकार अनेक हैं, परन्तु जिस प्रकारसे आत्मा ऊँचा उठे, पुरुषार्थ वर्धमान हो, उसी प्रकारका विचार करें। प्रत्येक कार्य करते हुए अपनी भूलपर ध्यान रखें। एक सम्यक् उपयोग हो तो स्वयंको अनुभव हो जाता है कि कैसी अनुभवदशा प्रगट होती है !
. .सत्संग हो तो सभी गुण अनायास ही प्राप्त होते हैं। दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहमर्यादा आदिका आचरण अहंकार रहित करें। लोगोंको दिखानेके लिये कुछ भी न करें। मनुष्यका अवतार मिला है, और सदाचारका सेवन नहीं करेगा तो पछताना पड़ेगा। मनुष्यके अवतारमें सत्पुरुपके वचन सुनने और विचार करनेका योग मिला है।
- सत्य बोलना, यह कुछ मुश्किल नहीं है, विलकुल सहज है। जो व्यापार आदि सत्यसे होते हों, उन्हें हो करें। यदि छः महीने तक इस तरह आचरण किया जाये तो फिर सत्य बोलना सहज हो जाता है। सत्य बोलनेसे कदाचित् प्रथम थोड़े समय तक थोड़ा नुकसान भी हो जाये; परन्तु फिर अनंत गुणका स्वामी आत्मा जो सारा लूटा जा रहा है वह लुटता हुआ बंद हो जाता है । सत्य बोलनेसे धीरे धीरे सहज हो जाता है और यह होनेके वाद व्रत ले; अभ्यास रखे; क्योंकि उत्कृष्ट परिणामवाले.आत्मा विरल हो होते हैं।
जोव यदि लौकिक भयसे भयभीत हुआ, तो उससे कुछ भी नहीं होता। लोग चाहे जो कहे उसकी परवा न करते हुए जिससे आत्महित हो ऐसे सदाचरणका सेवन करें।
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श्रीमद राजचन्द्र
ज्ञान जो काम करता है वह अद्भुत है। सत्पुरुषके वचनों के बिना विचार नहीं आता; विचारके बिना वैराग्य नहीं आता, वैराग्य एवं विचारके बिना ज्ञान नहीं आता । इस कारणसे सत्पुरुषके वचनोंका वारंवार विचार करें ।
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सम्पूर्ण आशंका दूर हो तो बहुत निर्जरा होती है । जीव यदि सत्पुरुषका मार्ग जानता हो, उसका उसे वारम्वार बोध होता हो, तो बहुत फल होता है ।
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सात नय अथवा अनंत नय हैं, वे सब एक आत्मार्थके लिये ही हैं, और आत्मार्थ यही एक सच्चा नय है । नयका परमार्थ जीवसे निकले तो फल होता है; अंत में उपशमभाव आये तो फल होता है; नहीं तो नयका ज्ञान जीवके लिये जालरूप हो जाता है; और वह फिर अहंकार बढ़नेका स्थान होता है । सत्पुरुष के आश्रयसे जाल दूर हो जाता है ।
व्याख्यानमें कोई भंगजाल, राग (स्वर) निकालकर सुनाता है, परन्तु उसमें आत्मार्थ नहीं है । यदि सत्पुरुषके आश्रयसे कषाय आदि मंद करें, और सदाचारका सेवन कर अहंकाररहित हो जायें, तो आपका और दूसरेका हित होगा । दंभरहित, आत्मार्थके लिये सदाचारका सेवन करें कि जिससे उपकार हो ।
खारी जमीन हो और उसमें वर्षा हो तो वह किस कामकी ? इसी तरह जब तक ऐसी स्थिति हो कि आत्मामें उपदेश-वार्ता परिणमन न करे तब तक वह किस कामकी ? जब तक उपदेशवार्ता आत्मामें परिणमन न करे तब तक उसे पुनः पुनः सुने, विचार करें, उसका पीछा न छोड़े, कायर न बनें; कायर हो तो आत्मा ऊँचा नहीं उठता । ज्ञानका अभ्यास जैसे बने वैसे बढ़ायें; अभ्यास रखें; उसमें कुटिलता या अहंकार न रखें ।
मन
आत्मा अनंत ज्ञानमय है। जितना अभ्यास बढ़े उतना कम है । 'सुन्दरविलास' आदि पढ़नेका अभ्यास रखें। गच्छ या मतमतांतरकों पुस्तकें हाथमें न लें। परम्परासे भी कदाग्रह आ गया, तो जीव फिर मारा जाता है । इसलिये मतोंके कदाग्रहकी बातोंमें न पड़े। मतोंसे अलग रहें, दूर रहें। जिन पुस्तकोंसे वैराग्य-उपशम हो वे समकित दृष्टिकी पुस्तकें हैं । वैराग्यवाली पुस्तकें पढ़ें- 'मोहमुद्गर', 'मणिरत्नमाला' आदि ।
दया, सत्य आदि जो साधन हैं वे विभावका त्याग करनेके साधन हैं। अंतःस्पर्शसे तो विचारको बड़ा सहारा मिलता है। अब तकके साधन विभावके आधार थे; उन्हें सच्चे साधनोंसे ज्ञानी पुरुष हिला देते हैं । जिसे कल्याण करना हो उसे सत्साधन अवश्य करने होते हैं ।
सत्समागममें जीव आया, और इन्द्रियोंकी लुब्धता न गयी तो समझें कि सत्समागम में नहीं आया । जब तक सत्य नहीं बोलता तब तक गुण प्रगट नहीं होता । सत्पुरुष हाथसे पकड़कर व्रत दे तो लें । ज्ञानीपुरुष परमार्थका ही उपदेश देते हैं । मुमुक्षुओंको सच्चे साधनोंका सेवन करना योग्य है ।
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समकितके मूल बारह व्रत हैं— स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद आदि । सभी स्थूल कहकर ज्ञानीने आत्माका और ही मार्ग समझाया है । व्रत दो प्रकार के हैं - ( १ ) समकित के बिना बाह्य व्रत हैं, और (२) समकितसहित अंतर्व्रत हैं । समकितसहित बारह व्रतोंका परमार्थ समझमें आये तो फल होता है ।
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बाह्यव्रत अन्तर्व्रतके लिये है, जैसे कि एकका अंक सीखनेके लिये लकीरें होती है वैसे । पहले तो लकोरें खींचते हुए एकका अंक टेढ़ा-मेढ़ा होता है, और यों करते करते फिर एकका अंक ठीक बन जाता है । जीव जो जो सुना है वह सब उलटा ही ग्रहण किया है । ज्ञानी बिचारे क्या करे ? कितना समझाये ? समझानेकी रोतिसे समझाते हैं । मारकूट कर समझानेसे आत्मज्ञान नहीं होता। पहले जो जो व्रत आदि किये थे वे सब निष्फल गये; इसलिये अब सत्पुरुषको दृष्टिसे उसका परमार्थ और ही समझमें
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उपदेश छाया
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आयेगा। समझकर करें। एकका एक ही व्रत हो परन्तु वह मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे बंध है और सम्यगदृष्टिकी अपेक्षासे निर्जरा है। पूर्वकालमें जो व्रत आदि निष्फल गये हैं उन्हें अब सफल करने योग्य सत्पुरुषका योग मिला है; इसलिये पुरुषार्थ करें, टेकसहित सदाचरणका सेवन करें, मरण आनेपर भी पीछे न हटें। आरम्भ, परिग्रहके कारण ज्ञानीके वचनोंका श्रवण नहीं होता, मनन नहीं होता; नहीं तो दशा बदले बिना कैसे रह सके ?
आरम्भ-परिग्रहको कम करें। पढ़ने में चित्त न लगनेका कारण नीरसता है। जैसे कि मनुष्य नीरस आहार कर ले तो फिर उत्तम भोजन अच्छा नहीं लगता वैसे। . ...
ज्ञानियोंने जो कहा है, उससे जीव उलटा चलता है; इसलिये सत्पुरुषको वाणी कहाँसे परिणत हो ? लोकलाज, परिग्रह आदि शल्य है। इस शल्यके कारण जीवका पुरुषार्थ जागृत नहीं होता। वह शल्य सत्पुरुषके वचनकी टाँकीसे छिदे तो पुरुषार्थ जाग्रत हो । जीवके शल्य, दोष, हजारों दिनोंके प्रयत्नसे भी स्वतः दूर नहीं होते; परन्तु सत्संगका योग एक मास तक हो तो दूर होते है; और जीव मार्गपर चला जाता है। .
. कितने ही लघुकर्मी संसारी जीवोंको पुत्रपर मोह करते हुए जितना दुःख होता है उतना भी दुःख कई आधुनिक साधुओंको शिष्योंपर मोह करते हुए नहीं होता! ... तृष्णावाला जीव सदा भिखारी, संतोषवाला जीव सदा सुखी । . सच्चे देवकी, सच्चे गुरुकी और सच्चे धर्मकी पहचान होना बहुत मुश्किल है। सच्चे गुरुकी पहचान हो, उनका उपदेश हो; तो देव, सिद्ध, धर्म इन सबकी पहचान हो जाती है। सबका स्वरूप सद्गुरुमें समा जाता है।
सच्चे देव अहंत, सच्चे गुरु निम्रन्थ, और सच्चे हरि, जिसके रागद्वेष और अज्ञान दूर हो गये हैं वे | ग्रन्थिरहित अर्थात् गाँठरहित.। मिथ्यात्व अन्तर्ग्रन्थि है, परिग्रह बाह्यग्रन्थि है। मूलमें अभ्यन्तर ग्रन्थिका छेदन न हो तब तक धर्मका स्वरूप समझमें नहीं आता। जिसकी ग्रन्थि दूर हो गयी है वैसा पुरुष मिले तो सचमुच काम हो जाये और फिर उसके समागममें रहे तो विशेष कल्याण हो। जिस मूल ग्रन्थिका छेदन करनेका शास्त्रमें कहा है, उसे सब भूल गये हैं; और बाहरसे तपश्चर्या करते हैं। दुःख सहन करते हुए भी मुक्ति नहीं होती, क्योंकि दुःख वेदन करनेका कारण जो वैराग्य है उसे भूल गये। दुःख अज्ञानका है।
... अन्दरसे छूटे तभी बाहरसे छूटता है; अन्दरसे छूटे विना बाहरसे नहीं छूटता। केवल बाहरसे छोड़नेसे काम नहीं होता । आत्मसाधनके बिना कल्याण नहीं होता।
- जिसे बाह्य और अन्तर दोनों साधन हैं वह उत्कृष्ट पुरुप है, वह श्रेष्ठ है । जिस साधके संगसे अंतर्गुण प्रगट हो उसका संग करे । कलई और चाँदीके रुपये समान नहीं कहे जाते । कलईपर सिक्का लगा दें तो भी उसकी रुपयेकी कीमत नहीं हो जाती। जब कि चाँदीपर सिक्का न लगायें तो भी उसकी कीमत कम नहीं हो जाती । उसी तरह यदि गृहस्थावस्थामें ज्ञान प्राप्त हो, गुण प्रगट हो, समकित हो तो उसका मूल्य कम नहीं हो जाता । सब कहते हैं कि हमारे धर्मसे मोक्ष है।
आत्मामें, रागद्वप दूर हो जानेपर ज्ञान प्रगट होता है। चाहे जहाँ बैठे हों और चाहे जिस स्थितिमें हों, मोक्ष हो सकता है, परन्तु रागद्वेष नष्ट हो तो। मिथ्यात्व और अहंकारका नाश हुए बिना कोई राजपाट छोड़ दे, वृक्षकी तरह सुख जाये परन्तु मोक्ष नहीं होता। मिथ्यात्व नष्ट होनेके बाद सब साधन सफल होते हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है।
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श्रीमद राजचन्द्र
१२ :
आणंद, भादों वदी १३, रवि, १९५२ संसार में जिसे मोह है, स्त्री- पुत्रमें ममत्व हो गया है; और जो कषायसे भरा हुआ है वह रात्रिभोजन न करे तो भी क्या हुआ ? जब मिथ्यात्व चला जाये तभी उसका सच्चा फल होता है ।
अभी जैन के जितने साधु विचरते हैं, उन सभीको समकिती न समझें । उन्हें दान देनेमें हानि नहीं हैं; परन्तु वे हमारा कल्याण नहीं कर सकते । वेश कल्याण नहीं करता । जो साधु मात्र बाह्य क्रियाएँ किया करता है उसमें ज्ञान नहीं है ।
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ज्ञान तो वह है कि जिससे बाह्य वृत्तियाँ रुक जाती हैं, संसारपरसे सचमुच प्रीति घट जाती है, सच्चे को सच्चा जानता है । जिससे आत्मामें गुण प्रगट हो वह ज्ञान है ।
मनुष्यभव पाकर कमानेमें और स्त्री पुत्रमें तदाकार होकर यदि आत्मविचार नहीं किया, अपने दोष नहीं देखे, आत्माकी निन्दा नहीं की; तो वह मनुष्यभव, रत्नचिन्तामणिरूप देह व्यर्थ जाता है ।
जीव कुसंगसे और असद्गुरुसे अनादिकाल से भटका है; इसलिये सत्पुरुपको पहचाने । सत्पुरुष कैसे हैं ? सत्पुरुष तो वे है कि जिनका देहममत्व चला गया है, जिन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ है । ऐसे ज्ञानोपुरुषकी आज्ञा से आचरण करे तो अपने दोष घटते हैं, और कषाय आदि मन्द पड़ते हैं तथा परिणाम में सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
क्रोध, मान, माया, लोभ ये सचमुच पाप हैं। उनसे बहुत कर्मोंका उपार्जन होता है । हजार वर्ष तप किया हो परन्तु एक दो घड़ी क्रोध करे तो सारा तप निष्फल हो जाता है ।
'छः खंडके भोक्ता राज छोड़कर चले गये और मैं ऐसे अल्प व्यवहार में बड़प्पन और अहङ्कार कर बैठा हूँ,' यों जीव क्यों विचार नहीं करता ?
आयुके इतने वर्ष बीत गये तो भी लोभ कुछ कम न हुआ, और न ही कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ । चाहे जितनी तृष्णा हो परन्तु आयु पूरी हो जानेपर जरा भी काम नहीं आती, और तृष्णा की हो उससे कर्म ही बँधते हैं । अमुक परिग्रहकी मर्यादा की हो, जैसे कि दस हजार रुपयेकी, तो समता आती है । इतना मिलने के बाद धर्मध्यान करेंगे ऐसा विचार भी रखें तो नियममें आया जा सकता है ।
किसी पर क्रोध न करे। जैसे रात्रिभोजनका त्याग किया है वैसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य आदि छोड़नेका प्रयत्न करके उन्हें मन्द करे; और उन्हें मन्द करनेसे परिणाममें सम्यक्त्व प्राप्त होता है | विचार करे तो अनंत कर्म मंद होते हैं और विचार न करे तो अनंत कर्मोंका उपार्जन होता है । जब रोग उत्पन्न होता है तब स्त्री, बाल-बच्चे, भाई या दूसरा कोई भी उस रोगको नहीं ले
सकता !
सन्तोष करके धर्मंध्यान करें; बाल-बच्चे आदि किसीकी अनावश्यक चिन्ता न करें। एक स्थानमें बैठकर, विचार कर, सत्पुरुषके संगसे, ज्ञानीके वचन सुनकर विचार कर धन आदिको मर्यादा करें । ब्रह्मचर्यको यथातथ्य रीतिसे तो कोई विरला जीव ही पाल सकता है; तो भी लोकलाजसे ब्रह्मचयंका पालन किया जाय तो वह उत्तम है ।
मिथ्यात्व दूर हुआ हो तो चार गति दूर हो जाती है । समकित न आया हो और ब्रह्मचर्यका पालन करे तो देवलोक मिलता है ।
वणिक, ब्राह्मण, पशु, पुरुष, स्त्री आदिकी कल्पनासे 'मैं वणिक, ब्राह्मण, पुरुष, स्त्री, पशु हूँ', ऐसा मानता है; परन्तु विचार करे तो वह स्वयं उनमें से कोई भी नहीं है । 'मेरा' स्वरूप तो उससे भिन्न
ही है।
सूर्यके उद्योतको तरह दिन बीत जाता है, उसी तरह अंजलिजल की भाँति आयु चली जाती है ।
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उपदेश छाया .
७४१ ....... जिस तरह लकड़ी करवतसे चोरी जातो है उसी तरह आयुः चली जाती है तो भी मूर्ख परमार्थका साधन नहीं करता, और मोहके पुंज इकट्ठे करता है।
'सबकी अपेक्षा मैं जगतमें बड़ा हो जाऊँ', ऐसा बड़प्पत प्राप्त करनेको तृष्णामें पाँच इन्द्रियोंमें लवलीन, मद्यपायोको भाँति, मृगजलकी तरह संसारमें जीव भ्रमण किया.करता है; और कुल, :गांव तथा गतियोंमें मोहके नचानेसे नाचा करता है ! .....:.::.:..:.... ..
जिस तरह कोई अंधा रस्सी वटता जाता है और बछड़ा उसे चबाता जाता है, उसी तरह अज्ञानी को क्रिया निष्फल जाती है। ...... : : ... ... .......... .
मैं कर्ता' मैं करता हैं', 'मैं कैसा करता है, इत्यादिःजो विभांव हैं वहीं मिथ्यात्व है। अहंकारसे संसारमें अनंत दुःख प्राप्त होता है; चारों गतियोंमें भटकता है। . . . . .:
किसीका दिया हुआ नहीं दिया जाता, किसीका लिया हुआ नहीं लिया जाता; "जोव व्यर्थकी कल्पना करके भटकता है। जिस तरह कर्मोंका उपार्जन किया हो उसीके अनुसार लाभ,...अलाभ, आयु, साता, असाती मिलते हैं। अपनेसे कुछ दिया लिया नहीं जाता। अहंकारसे "मैंने उसे सुख दिया', 'मैंने दुःख दिया, 'मैंने अन्नं दिया; ऐसी मिथ्या भावना करता है और उसके कारण कर्मका उपार्जन करता है । मिथ्यात्वसे कुधर्मका उपार्जन करता है।. ' . . ., : ... ................
- जगतमें इसका यह पिता, इसका यह पुत्र ऐसा कहा जाता है; परंतु कोई किसीक़ा नहीं है। पूर्वकर्मके उदयसे सब कुछ हुआ है। ... . . . . . . .:
... " अहंकारसे जो ऐसी मिथ्याबुद्धि करता है वह भूला है; चार गतिमें, भटकता है, और दुःख भोगता है। .
अधमाधमा पुरुषके लक्षण :-सत्पुरुषको देखकर उसे रोष आता है, उनके सच्चे वचन सुनकर निन्दा करता है; दुर्बुद्धि सद्बुद्धिको देखकर रोष करता है। सरलको मूर्ख कहता है, विनयीको खुशामदी कहता है; पाँच इन्द्रियाँ वश करनेवालेको भाग्यहीन कहता है; सद्गुणीको देखकर रोष करता है; स्त्रीपुरुषके सुखमें लवलीन, ऐसे जीव दुर्गत्तिको प्राप्त होते हैं। जीव कमकै कारण अपने स्वल्पज्ञानसे अंध है, उसे ज्ञानका पता नहीं है। .. .
.... . ..... : ... . . : i. : एक नाकके लिये-मेरी नाक रहे तो अच्छा-ऐसी कल्पनाकेः कारण. जीव अपनी शूरवीरता दिखानेके लिये लड़ाईमें उतरता है; नाककी तो राख होनेवाली है ! : ................ ...: । देह कैसी है ? रेतके घर जैसी, स्मशानकी मढ़ी जैसों। पर्वतकी गुफाकी तरह देहमें अंधेरा है। चमड़ीके कारण देह ऊपरसे रूपवती लगती है। देह अवगुणकी कोठरी, माया और मैलके रहनेका स्थान है। देहमें प्रेम रखनेसे जीव भटका है । यह देह अनित्य है। मलमूत्रकी खान है। इसमें मोह रखने से जीव चार गतिमें भटकता है। कैसा भटकता है ? कोल्हू के बैल की तरह । आँखोंपर पट्टी बांध लेता है, उसे चलनेके मार्गमें तंगीसे रहना पड़ता है; लकड़ोको मार खाता है; चारों तरफ फिरते रहना पड़ता है; छूटनेका मन होनेपर भी छूट नहीं सकता; भूखे प्यासे होनेकी बात कह नहीं सकता; सुखसे श्वासोच्छ्वास ले नहीं सकता। उसकी तरह जीव पराधीन है । जो संसारमें प्रीति करता है वह इस प्रकारके दुःख सहन करता है।
. धुएँ जैसे कपड़े पहन कर वह आडंबर करता है, परंतु वह धुएंकी तरह नष्ट होने योग्य है। आत्माका ज्ञान मायासे दबा रहता है। ... . . जो जीव आत्मेच्छा रखता है वह पैसेको नाको मैल की तरह छोड़ देता है। मक्खी मिठाईमें फेंसी है उसको तरह यह अभागा जोव कुटुम्बके सुखमें फंसा है। ..
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७४२.
श्रीमद् राजचन्द्र ... वृद्ध, युवान, बालक-ये सव संसारमें डूबे हैं, कालके मुखमें हैं, ऐसा भय रखना। यह भय रखकर संसारमें उदासीनतापूर्वक रहना।।
... सौ उपवास करे, परन्तु जब तक भीतरसे सचमुच दोष दूर न हों तब तक फल नहीं मिलता। .. , श्रावक किसे कहना ? जिसे. सन्तोष आया हो, जिसके कषाय मंद हो गये हों, भीतरसे गुण प्रगट हुए हों, सच्चा संग मिला हो; उसे श्रावक कहना। ऐसे जीवको बोध लगे तो सारी वृत्ति बदल जाती है, दशा बदल जाती है। सच्चा संग: मिलना यह.पुण्यका योग है। .
जीव अविचारसे भूला है। उसे कोई जरा कुछ कहे तो तुरत बुरा लग जाता है। परन्तु विचार नहीं करता कि 'मुझे क्या ? वह कहेगा तो उसे कर्मबन्ध होगा। क्या तुझे अपनी गति बिगाड़नी है ?' क्रोध करके सामने बोलता है तो तू स्वयं ही भूल करता है। जो क्रोध करता है वही बुरा है। इस बारेमें संन्यासी और चांडालका दृष्टांत है।'
. .ससुर-बहूके दृष्टांतसे सामायिक समताको कहा जाता है। जीव अहंकारसे बाह्य क्रिया करता है; अहंकारसे माया खर्च करता है। ये दुर्गतिके कारण है । सत्संगके बिना, यह दोष कम नहीं होता। , ..... जीवको अपने आपको चतुर कहलाना बहुत भाता है। बिना बुलाये चतुराई कर बड़ाई लेता है । जिस जीवको विचार नहीं, उसके छूटनेका मार्ग नहीं। यदि जोवः विचारं करेः और सन्मार्गपर चले तो छूटनेका मार्ग मिलता है ... ....... .. ... . . . . . . .
बाहुबलजीके दृष्टांतसे, अहंकारसे और मानसे कैवल्य प्रगट नहीं होता । वह बड़ा दोष है । अज्ञान में बड़े-छोटेकी कल्पना है। ..... ... ... ... ... ....."
... . ....... .१३. . . . . “आणंद, भादों वदी १४, सोम
पंद्रह भेदोंसे सिद्ध होनेका वर्णन किया है उसका. कारण यह है कि जिसके राग; द्वेष और अज्ञान दूर हो गये हैं, उसका चाहे जिस वेषसे, चाहे जिस स्थानसे और चाहे जिस लिंगसे कल्याण होता है।
सच्चा मार्ग एक ही है; इसलिये आग्रह नहीं रखना। मैं ढूंढिया हूँ', 'मैं तपा हूँ', ऐसी कल्पना नहीं रखना । दया, सत्य आदि सदाचरण मुक्तिका रास्ता है; इसलिये सदाचरणका सेवन करें। ... . .. लोच करना किसलिये कहा है ? वह शरीरकी ममताकी परीक्षा है इसलिये । (सिरपर बाल होना) यह मोह बढ़नेका कारण है। नहानेका मन होता है, दर्पण लेनेका मन होता है; उसमें मुँह देखनेका मन होता है, और इसके अतिरिक्त उनके साधनोंके लिये उपाधि करनी पड़ती है। इस कारणसे ज्ञानियोंने लोच करनेका कहा है। ... :.., ..... :.:...:. : ..यात्रा करनेका हेतु एक तो यह है कि गृहवासकी उपाधिसे निवृत्ति ली जाये, सौ दो सौ रुपयोंको मूर्छाः कम की जाये; परदेशमें देशाटन करते हुए कोई सत्पुरुष खोजनेसे मिल जाये तो कल्याण हो जाये। इन कारणोंसे यात्रा करना बताया है.!::...::: " ... ... ... .:. जो सत्पुरुष दूसरे जीवोंको उपदेश देकर कल्याण बताते हैं, उन सत्पुरुषोंको तो अनंत लाभ प्राप्त हुआ है। सत्पुरुष परजीवकी निष्काम करुणाके सागर हैं। वाणीके. उदयके अनुसार उनकी वाणी निकलती है । वे किसी जीवको ऐसा नहीं कहते कि तू दीक्षा ले । तीर्थंकरने पूर्वकालमें कर्म वाँधा है उसका वेदन करनेके लिये दूसरे. जीवोंका कल्याण करते हैं; बाकी तो उदयानुसार दया रहती है। वह दया
१. क्रोध चांडाल है। एक संन्यासी स्नान करनेके लिये जा रहा था । रास्तेमें सामनेसे चांडाल आ रहा था। संन्यासीने उसे एक और होनेको कहा। परंतु उसने सुना नहीं। इससे संन्यासी क्रोघमें आ गया। चांडाल उसके गले लग गया और बोला कि, 'मेरा भाग आपमें है ।' २. ससुर कहां गये हैं ? भंगीवस्तीमें । ३. देखें पृष्ठ ७१ ।
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उपदेश छाया
७४३.
निष्कारण है. तथा उन्हें परायी निर्जरासे अपना कल्याण नहीं करना है। उनका कल्याण तो हो चुका हो है। वे तीन लोकके नाथ तो तरकर ही बैठे हैं । सत्पुरुष या समकितीको भी ऐसी (सकाम) उपदेश देनेकी इच्छा नहीं होती । वे भी निष्कारण दयाके लिये उपदेश देते हैं।
महावीरस्वामी गृहवासमें रहते हुए भी त्यागी जैसे थे। : .. हजारों वर्षके संयमी भी जैसा वैराग्य नहीं रख सकते. वैसा वैराग्य भगवानका था। जहाँ जहाँ भगवान रहते हैं, वहाँ वहाँ सभी प्रकारके अर्थ भी रहते हैं। उनकी वाणी उदयानुसार शांति पूर्वक परमार्थहेतुसे निकलती है अर्थात् उनव वाणी कल्याणके लिये ही हैं । उन्हें जन्मसे मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान थे । उस पुरुषके गुणगान करनेसे अनंत निर्जरा होती है। ज्ञानीकी बात अगम्य है । उनका अभिप्राय मालूम नहीं होता। ज्ञानीपुरुषकी सच्ची खूबी यह है कि उन्होंने अनादिसे अटल ऐसे रागद्वेष तथा अज्ञानको छिन्न भिन्न कर डाला है। यह भगवानको अनंत कृपा है। उन्हें पच्चीस सौ वर्ष हो गये फिर भी उनकी दया आदि आज भी विद्यमान है । यह उनका अनंत उपकार है । ज्ञानी आडंबर दिखानेके लिये व्यवहार नहीं करते । वे सहज स्वभावसे उदासीन भावसे रहते हैं। ....... ..
" ज्ञानी रेलगाड़ीमें सेकन्ड क्लासमें बैठे तो वह देहकी साताके लिये नहीं । साता लगे तो थर्ड क्लाससे भी नीचेके क्लासमें बैठे, उस दिन आहार न ले; परन्तु ज्ञानीको देहका ममत्व नहीं है । ज्ञानी व्यवहारमें संगमें रहकर, दोषके पास जाकर दोषका छेदन कर डालते हैं, जब कि अज्ञानी जीव संगका त्याग करके भी उस स्त्री आदिके दोष छोड़ नहीं सकता । ज्ञानी तो दोष, ममत्व और कषायको उस संगमें रहकर भी नष्ट करते हैं। इसलिये ज्ञानीकी बात अद्भत है।
संप्रदायमें कल्याण नहीं है, अज्ञानीके संप्रदाय होते हैं । ढूंढिया क्या ? तपा क्या ? जो मूत्तिको नहीं मानता और मुँहपत्ती बाँधता हैं वह दूँढिया, जो मूर्तिको मानता है और मुंहपत्ती नहीं बाँधता वह तपा। यों कहीं धर्म होता है ! यह तो ऐसी बात है कि लोहा स्वयं तरता नहीं और दूसरेको तारता नहीं। वीतरागका मार्ग तो अनादिका है। जिसके राग, द्वेष और अज्ञान दूर हो गये उसका कल्याण; वाकी अज्ञानी कहे कि मेरे धर्मसे कल्याण है तो उसे नहीं मानना; यों कल्याण नहीं होता। ढूंढियापन या तपापन माना तो कषाय आता है । तपा ढूंढियाके साथ बैठा हो तो कषाय आता है, और ढूंढिया तपाके साथ बैठा हो तो कषाय आता है। इन्हें अज्ञानी समझें। दोनों नासमझसे संप्रदाय बनाकर कर्म उपार्जन करके भटकते हैं । बोहरेके नाड़े की तरह मताग्रह पकड़ बैठे हैं । मुंहपत्ती आदिका आग्रह छोड़ दें।
.. जैनमार्ग क्या है ? राग, द्वेष और अज्ञानका नाश हो जाना। अज्ञानी साधुओंने भोले जीवोंको समझाकर उन्हें मार डालने जैसा कर दिया है। यदि प्रथम स्वयं विचार करे, कि क्या मेरे दोप कम हुए हैं ? तो फिर मालूम होगा कि जैनधर्म तो मेरेसे दूर ही रहा है । जीव विपरोत समझसे अपना कल्याण भल कर दूसरेका अकल्याण करता है । तपा हूँढियाके साधुको और ढूंढिया तपाके साधुको अन्नपानी न देनेके लिये अपने शिष्योंको उपदेश देता है । कुगुरु एक दूसरेको मिलने नहीं देते; एक दूसरेको मिलने दें तव तो कषाय कम हो और निन्दा घटे ।
जीव निष्पक्ष नहीं रहते । अनादिसे पक्षमें पड़े हुए है, और उसमें रहकर कल्याण भूल जाते हैं। . १. माल भरकर रस्सीसे वांधे हुए छकडेपर एक बोहराजी बैठे हुए थे, उन्हें उकडेवालेने कहा, "रास्ता खराव है इसलिये, बोहराजी, नाड़ा पकड़िये, नहीं तो गिर जायेंगे।" रास्ते में गड्ढा मानेसे धक्का लगा कि वोहराजो नीचे गिर पड़े। छाडेवालेने कहा, "चिताया या ओर नाड़ा क्यों नहीं पकड़ा ?" बोहरात्री बोले, "यह नाड़ा पफड़े रखा है, अभी छोड़ा नहीं" यो फहफर पाजामेका नाड़ा बताया।
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श्रीमद् राजचन्द्र वारह कुलकी गोचरी कही है, वैसी कितने ही मुनि नहीं करते। उन्हें वस्त्र आदि परिग्रहका मोह दूर नहीं हुआ है । एक बार आहार लेनेका कहा है, फिर भी दो बार लेते हैं । जिस ज्ञानी पुरुषके वचनसे आत्मा ऊँचा उठे वह सच्चा मार्ग है, वह अपना मार्ग है । हमारा धर्म सच्चा है पर पुस्तकमें है। आत्मामें जब तक गुण प्रगट न हो तब तक कुछ फल नहीं होता । 'हमारा धर्म' ऐसो कल्पना है। हमारा धर्म क्या ? जैसे महासागर किसीका नहीं है, वैसे ही धर्म किसीके बापका नहीं है। जिसमें दया, सत्य आदि हो उसका पालन करें । वे किसीके बापके नहीं हैं । अनादिकालके हैं; शाश्वत हैं । जीवने गाँठ पकड़ी है कि हमारा धर्म है, परंतु शाश्वत धर्म है, उसमें हमारा क्या ? शाश्वत मार्गसे सब मोक्ष गये हैं। रजोहरण, डोरा, मुंहपत्ती, कपड़े इनमेंसे कोई आत्मा नहीं हैं।
कोई एक वोहरा था। वह छकडेमें माल भरकर दूसरे गाँवमें ले जा रहा था। छकडेवालेने कहा, 'चोर आयेंगे इसलिये सावधान होकर रहना, नहीं तो लूट लेंगे।' परन्तु उस बोहरेने स्वच्छंदसे माना नहीं और कहा, 'कुछ फिक्र नहीं !'. फिर मार्गमें चोर मिले। छकडेवालेने माल बचानेके लिये मेहनत करनी शुरू की परन्तु उस बोहरेने कुछ भी न करते हुए माल ले जाने दिया; और चोर माल लट गये। परन्तु उसने माल वापस प्राप्त करनेके लिये कोई उपाय नहीं किया। घर गया तब सेठने पूछा, 'माल कहाँ है ?', तब उसने कहा कि 'माल तो. चोर लूट गये हैं।' तब सेठने पूछा 'माल पकड़नेके लिये कुछ उपाय किया है ?' तब उस बोहरेने कहा, 'मेरे पास बीजक है, इससे चोर माल ले जाकर किस तरह बेचेंगे ? इसलिये वे मेरे पास बीजक लेने आयेंगे तब पकड़ लगा।' ऐसी जीवको मूढ़ता है। हमारे जैन धर्मके शास्त्रोंमें सब कुछ है, शास्त्र हमारे पास हैं।' ऐसा मिथ्याभिमान जीव कर बैठा है । क्रोध, मान, माया, लोभरूपी चोर दिनरात माल चुरा रहे हैं, उसका भान नहीं है । . ... . .
.: तीर्थंकरका मार्ग सच्चा है। द्रव्यमें कोड़ी तक भी रखनेकी आज्ञा नहीं है। वैष्णवके कुलधर्मके कुगुरु आरम्भ-परिग्रह छोड़े बिना ही लोगोंके.पाससे लक्ष्मी ग्रहण करते हैं, और यह एक व्यापार हो गया है। वे स्वयं अग्निमें जलते हैं, तो उनसे दूसरोंकी अग्नि किस तरह शांत हो ! जैनमार्गका परमार्थ सच्चे गुल्से समझना है । जिस गुरुको स्वार्थ होता है वह अपना अकल्याण करता है, और शिष्योंका भी अकल्याण होता है। • जैन लिंगधारी होकर जीव अनंत बार भटका है । बाह्यवर्ती लिंग धारण करके लौकिक व्यवहारमें अनंत वार भटका है। यहाँ हम जैनमार्गका निषेध नहीं करते। जो अन्तरंगसे सच्चा मार्ग वताये वह 'जैन' है। बाकी तो अनादिकालसे जीवने झूठेको सच्चा माना हैं; और यही अज्ञान है। मनुष्यदेहकी सार्थकता तभी है कि जब जीव मिथ्या आग्रह, दुराग्रह छोड़कर कल्याणको प्राप्त करें। ज्ञानी सीधा मार्ग ही बताते हैं। आत्मज्ञान जब प्रगट हो तभी आत्मज्ञानीपन मानना, गुण प्रगट हुए बिना उसे मानना भूल है। जवाहरातकी कीमत जाननेकी शक्तिके. बिना जौहरीपन न मानें । अज्ञानी झूठेको सच्चा नाम देकर संप्रदाय बनाता है । सत्की पहचान हो तो कभी भी सत्य ग्रहण होगा।
• आणंद, भादों वदी ३०, मंगल, १९५२ - जो जोव अपनेको . मुमुक्षु मानता हो, तरनेका कामी मानता हो, समझदार हूँ ऐसा मानता हो, उसे देहमें रोग होते समय आकुल-व्याकुलता होती हो, तो उस समय विचार करे-'तेरी मुमुक्षुता, चतुरता कहाँ चली गयीं ?' उस समय विचार क्यों नहीं करता होगा ? यदि तरनेका कामी है तो तो वह देहको असार समझता है, देहको आत्मासे भिन्न मानता है, उसे आकुलता नहीं आनी चाहिये । देह
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उपवेश छाया
सँभालनेसे सँभाली नहीं जाती, क्योंकि वह क्षणमें नष्ट हो जाती है, क्षणमें रोग, क्षणमें वेदना हो जाती 1. है । देहके संगसे देह दुःख देती है; इसलिये आकुल व्याकुलता होती है यही अज्ञान है । शास्त्रका श्रवण कर रोज सुना है कि देह आत्मासे भिन्न है, क्षणभंगुर है; परन्तु देहमें वेदना होनेपर तो रागद्वेष परिणाम करके हाय-हाय करता है । देह क्षणभंगुर है, ऐसी बात आप शास्त्रमें क्यों सुनने जाते हैं ? देह तो आपके पास है. तो अनुभव करें । देह स्पष्ट मिट्टी जैसी है, सँभालनेसे सँभाली नहीं जाती, रखनेसे रखी नहीं जाती । वेदनाका वेदन करते हुए उपाय नहीं चलता । तब क्या सँभालें ? कुछ भी नहीं हो सकता । ऐसा देहका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, तो फिर उसकी ममता करके क्या करना ? देहका प्रत्यक्ष अनुभव करके शास्त्रमें कहा है कि वह अनित्य है, असार है, इसलिये देहमें मूर्च्छा करना योग्य नहीं हैं ।
जब तक देहात्मबुद्धि दूर नहीं होती तब तक सम्यक्त्व नहीं होता। जीवको सत्य कभी मिला ही नहीं मिला होता तो मोक्ष हो जाता । भले ही साधुपन, श्रावकपन अथवा तो चाहे जो स्वीकार कर लें परन्तु सत्यके बिना साधन व्यर्थ है । देहात्मबुद्धि मिटानेके लिये जो साधन बताये हैं वे, देहात्मबुद्धि मिटे तभी सच्चे समझे जाते हैं । देहात्मबुद्धि हुई है उसे मिटानेके लिये, ममत्व छुड़ाने के लिये साधन करने . हैं 1. वह न मिटे तो साधुपन, श्रावकपन, शास्त्र श्रवण या उपदेश सब कुछ अरण्यरुदनके समान हैं । जिसका यह भ्रम नष्ट हो गया है, वही साधु, वही आचार्य, वही ज्ञानी है । जिस तरह कोई अमृतभोजन करे वह कुछ छिपा नहीं रहता, उसी तरह भ्रांति, भ्रमबुद्धि दूर हो जाये वह कुछ छिपा नहीं रहता ।
लोग कहते हैं कि समकित है या नहीं, वह केवलज्ञानी जाने; परन्तु स्वयं आत्मा है वह क्यों न जाने ? कहीं आत्मा गॉंव नहीं चला गया; अर्थात् समकित हुआ है. उसे आत्मा स्वयं जानता है । जिस तरह कोई पदार्थ खानेपर उसका फल होता है, उसी तरह समकित होनेपर भ्रान्ति दूर होनेपर, उसका फल स्वयं जानता है | ज्ञानका फल ज्ञान देता ही है । पदार्थका फल पदार्थ लक्षणके अनुसार देता ही है । आत्मामेंसे, अन्तरमेंसे कर्म जानेको तैयार हुए हों उसकी खबर अपनेको क्यों न पड़े ? अर्थात् खवर पड़ती ही है । समकित की दशा छिपी नहीं रहती । कल्पित समकितको' समकित मानना वह पीतलकी कंठीको सोनेकी कंठी मानने जैसा है ।
तो
समकित हुआ हो तो देहात्मबुद्धि नष्ट होती है; यद्यपि अल्प बोध, मध्यम बोध, विशेष बोध- जैसा भी बोध हो तदनुसार पीछेसे देहात्मबुद्धि नष्ट होती है । देहमें रोग होनेपर जिसमें आकुल व्याकुलता • दिखाई दे उसे मिथ्यादृष्टि समझें ।
. जिस ज्ञानीको आकुल व्याकुलता मिट गयी है, क्खान आ जाते हैं । जिसके रागद्वेष नष्ट हो गये हैं
उसे अन्तरंग पच्चक्खान ही है, उसमें सभी पच्चउसे यदि बीस वरसका पुत्र मर जाये तो भी खेद
. नहीं होता । शरीरमें व्याधि होनेसे जिसे व्याकुलता होती है, और जिसका ज्ञान कल्पना मात्र है उसे
• खोखला अध्यात्मज्ञान मानें। ऐसे कल्पित ज्ञानी उस खोखले ज्ञानको अध्यात्मज्ञान मानकर अनाचारका सेवन करके बहुत ही भटकते हैं । देखिये शास्त्रका फल !
आत्माको पुत्र भी नहीं होता और पिता भी नहीं होता ! जो ऐसी (पिता-पुत्रकी ) कल्पनाको सच्चा मान बैठे हैं वे मिथ्यात्वी हैं । कुसंगके कारण समझमें नहीं आता; इसलिये समकित नहीं आता । योग्य जीव हो तो सत्पुरुषके संगसे सम्यक्त्व होता है ।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका तुरत पता चल जाता है । समकिती ओर मिथ्यात्वीकी वाणी घड़ीघड़ीमें भिन्न दिखाई देती है। ज्ञानीकी वाणी एकतार पूर्वापर मिलती चली आती है । अन्तग्रन्थिभेद होनेपर ही सम्यक्त्व होता है। रोगको जाने, रोगकी दवा जाने, परहेज जाने. पय्य जाने और तदनुसार उपाय
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भीमद् राजचन्द्र
करे तो रोग दूर होता है। रोग जाने बिना अज्ञानी जो उपाय करता है उससे रोग बढ़ता है । पथ्यका पालन करे और दवा करे नहीं, तो रोग कैसे मिटेगा ? अर्थात् नहीं मिटेगा। तो फिर यह तो रोग और, और दवा कुछ और हो! कुछ शास्त्रको तो ज्ञान नहीं कहा जाता। ज्ञान तो तभी कहा जाये कि जब अन्तरकी गाँठ दूर हो । तप, संयम आदिके लिये सत्पुरुषके वचनोंका श्रवण करनेका कहा है। - . ज्ञानी भगवानने कहा है कि साधुओंको अचित् और नीरस आहार लेना चाहिये । इस कथनको तो कितने ही साधु भूल गये हैं। दूध आदि सचित् भारी-भारी विगय पदार्थ लेकर ज्ञानीकी आज्ञाको ठुकराकर चलना यह कल्याणका मार्ग नहीं है। लोग कहते हैं कि ये साधु है; परन्तु जो आत्मदशा साधता है वहीं साधु है। ...... - नरसिंह मेहता कहते हैं कि अनादिकालसे यों ही चलते चलते काल बीत गया परन्तु अन्त नहीं
आया। यह मार्ग नहीं है; क्योंकि अनादिकालसे चलते चलते भी मार्ग हाथ लगा नहीं। यदि मार्ग यही होता तो ऐसा न होता कि अभी तक कुछ भी हाथमें नहीं आया । इसलिये मार्ग और ही होना चाहिये।
तष्णा कैसे कम हो ? यदि लौकिक भावमें बड़प्पन छोड़ दे तो। 'घर-कुटुम्ब आदिको मुझे क्या करना है ? लौकिकमें चाहे जैसा हो, परन्तु मुझे तो मान-बड़ाई छोड़कर चाहे जिस प्रकारसे तृष्णाको कम करना है', इस तरह विचार करे तो तृष्णा कम होती है, मंद हो जाती है।
तपका अभिमान कैसे कम हो ? त्याग करनेका उपयोग रखनेसे । 'मुझे यह अभिमान क्यों होता है ?' यों रोज़ विचार करते करते अभिमान मंद पड़ेगा। ........ .....
- ज्ञानी कहते हैं उस कुंजीरूपी ज्ञानका यदि जीव विचार करे तो अज्ञानरूपी ताला खुल जाता है; कितने ही ताले खुल जाते हैं। कुंजी हो तो ताला खुलता है; नहीं तो पत्थर मारनेसे तो ताला टूट
जाता है। ....... 'कल्याण क्या होगा ?' ऐसा जीवको झूठा भ्रम है। वह कुछ हाथी-घोड़ा नहीं है। जीवको ऐसी
भ्रांतिके कारण कल्याणकी कुंजियाँ समझमें नहीं आतीं। समझमें आ जायें तो तो सुगम हैं। जीवकी . भ्रांतियोंको दूर करनेके लिये जगतका वर्णन किया है। यदि जीव सदाके अंध मार्गसे थक जाये तो मार्गमें आता.है। - ज्ञानी परमार्थ, सम्यक्त्वको ही बताते हैं। 'कषायका कम होना वही कल्याण हैं, जीवके राग, द्वेष और अज्ञानका दूर होना कल्याण कहा जाता है।' तब लोग कहते हैं, कि 'ऐसा तो हमारे गुरु भी कहते हैं, तो फिर आप भिन्न क्या बताते हैं ? ऐसी उलटी-सीधी कल्पनाएँ करके जीव अपने दोषोंको दूर करना नहीं चाहता।
आत्मा अज्ञानरूपी पत्थरसे दब गया है। ज्ञानो ही आत्माको ऊँचा उठायेंगे । आत्मा दब गया है 'इसलिये कल्याण सूझता नहीं है । ज्ञानी सद्विचाररूपी सरल कुंजियां बताते हैं, वे कुंजियाँ हज़ारों तालोंको लगती हैं।
जीवका आंतरिक अजीर्ण दूर हो तव अमृत अच्छा लगता है, उसी तरह भ्रांतिरूप अजीर्ण दूर होनेपर कल्याण होता है, परन्तु जीवको अज्ञानी गुरुओंने भड़का रखा है, इसलिये भ्रांतिरूप अजीर्ण कैसे दूर हो ? अज्ञानी गुरु ज्ञानके बदले तप बताते हैं, तपमें ज्ञान बताते हैं, यों उलटा-उलटा बताते हैं इसलिये जीवके लिये तरना बहुत कठिन है । अहंकार आदिसे रहित होकर तप आदि करें।
कदाग्रह छोड़कर जीव विचार करे तो मार्ग तो अलग है। समकित सुलभ है, प्रत्यक्ष है, सरल है । जीव गाँव छोड़कर आगे निकल गया है वह पीछे लौटे तो गाँव आता है । सत्पुरुषके वचनोंका आस्थासहित
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उपदेश छायां
श्रवण-मनन करे तो सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उसके प्राप्तः होनेके बाद व्रत- पच्चक्खान आते हैं, उसके बाद पाँचवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है ।
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सत्य समझमें आकर उसको आस्था होना यही सम्यक्त्व है । जिसे सच्चे झूठे की कीमत मालूम हो गयी है, वह भेद जिसका दूर हो गया है, उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
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असद्गुरुसे सत् समझमें नहीं आता, समकित नहीं होता । दया, सत्य, अदत्त न लेना इत्यादि सदाचार सत्पुरुषके समीप आनेके सत्साधन हैं । सत्पुरुष जो कहते हैं वह सूत्रका, सिद्धांतका परमार्थ है । सूत्रसिद्धांत तो कागज़ है । हम अनुभवसे कहते हैं, अनुभवसे शंका दूर करनेको कह सकते हैं । अनुभव प्रगट दीपक है, और सूत्र कागज़ में लिखा हुआ दीपक है ।
ढूँढियापन या नपापनकी दुहाई देते रहें, उससे समकित होनेवाला नहीं हैं । यथार्थ सच्चा स्वरूप समझमें आये, भीतरसे दशा बदले तो समकित होता है । परमार्थमें प्रमाद अर्थात् आत्मासे बाह्य वृत्ति । जो घात करे उसे घाती कर्म कहा जाता है । परमाणुको पक्षपात नहीं है, जिस रूपसे आत्मा उसे परिणमाये उस रूपसे परिणमता है ।
निकाचित कर्म में स्थिति -बंध हो तो यथोचित बंध होता है । स्थितिकालं न हो तो वह विचारसे, पश्चात्तापसे, ज्ञानविचारसे नष्ट होता है । स्थितिकाल हो तो भोगनेपर ही छुटकारा होता है ।
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क्रोध आदि करके जिन कर्मोंका उपार्जन किया हो उन्हें भोगनेपर हो छुटकारा होता है । उदय • आनेपर भोगना ही चाहिये । जो समता रखे उसे समताका फल मिलता है। सबको अपने-अपने परिणामके . अनुसार कर्म भोगने पड़ते हैं ।
ज्ञान स्त्रीत्वमें, पुरुषत्वमें समान ही है। ज्ञान आत्माका है । वेदसे रहित होनेपर ही यथार्थ ज्ञान
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होता है
'स्त्री हो या पुरुष हो परन्तु देहमेंसे आत्मा निकल जाये तब शरीर तो मुर्दा हैं और इंद्रियाँ झरोखे जैसी हैं ।
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भगवान महावीरके गर्भका हरण हुआ होगा या नहीं ? ऐसे विकल्पका क्या काम है ? भगवान चाहे जहाँसे आये; परन्तु सम्यग्ज्ञान, दर्शन, और चारित्र थे या नहीं ? हमें तो इससे मतलब है । इनके " आश्रयसे पार होने का उपाय करना यही श्रेयस्कर है। कल्पना कर करके क्या करना है ? चाहे जैसे साधन प्राप्त कर भूख मिटानी है । शास्त्रोक्त बातोंको इस तरह ग्रहण करें कि आत्माका उपकार हो, दूसरी तरह नहीं ।
जीव डूब रहा हो तब वहाँ अज्ञानी जीव पूछे कि 'कैसे गिरा ?' इत्यादि माथापच्ची करे तो इतने में यह जीव डूब ही जायेगा, मर जायेगा। परन्तु ज्ञानी तो तारक होनेसे वे दूसरी माथापच्ची छोड़कर डूबते हुएको तुरत तारते हैं ।
'जगतकी झंझट करते करते जीव अनादिकालसे भटका है। एक घरमें ममत्व माना इसमें तो इतना • सारा दुःख है तो फिर जगतकी, चक्रवर्तीकी रिद्धिकी कल्पना, ममता करनेसे दुःखमें क्या खामी रहेगी ? अनादिकालसे इससे हारकर मर रहा है।
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ज्ञान क्या ? जो परमार्थ काममें आये वह ज्ञान है । सम्यग्दर्शनसहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है नवपूर्व तो अभव्य भो जानता है । परन्तु सम्यग्दर्शनके बिना उसे सूत्र अज्ञान कहा है । सम्यक्त्व हो और शास्त्र के मात्र दो शब्द जाने तो भी मोक्षके काम आते है । जो ज्ञान मोक्षके काममें नहीं आता वह अज्ञान है ।
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श्रीमद राजचन्द्र
मेरु आदिका वर्णन जानकर उसकी कल्पना, चिंता करता है, मानो मेरुका ठेका न लेना हो ? जानना तो ममता छोड़नेके लिये है ।
जो विषको जानता है वह उसे नहीं पीता । विषको जानकर पीता है तो वह अज्ञान है । इसलिये जानकर छोड़नेके लिये ज्ञान कहा है ।
....... जो दृढ़ निश्चय करता है कि चाहे जो करूँ, विष पीऊँ, पर्वतसे गिरू, कुएँमें पड़ें परन्तु जिससे कल्याण हो वही करूँ । उसका ज्ञान सच्चा है । वही तरनेका कामी कहा जाता है
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देवताको हीरामाणिक आदि परिग्रह अधिक है । उसमें अतिशय ममता-मूर्छा होनेसे वहाँसे च्यवनकर वह हीरा आदिमें एकेंद्रियरूपसे जन्म लेता है ।
जगतका वर्णन करते हुए, जीव अज्ञानसे अनंतबार उसमें जन्म ले चुका है, उस अज्ञानको छोड़नेके लिये ज्ञानियोंने यह वाणी कही है। परन्तु जगतके वर्णनमें ही जीव फँस जाये तो उसका कल्याण ि तरह होगा ! वह तो अज्ञान ही कहा जाता है । जिसे जानकर जीव अज्ञानको छोड़नेका उपाय करता है वह ज्ञान हैं ।
अपने दोष दूर हों ऐसे प्रश्न करे तो दोष दूर होनेका कारण होता है । जीवके दोष कम हों, दूर 'हों तो मुक्ति होती है ।
3
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जगतकी बात जानना इसे शास्त्रमें मुक्ति नहीं कहा है । परन्तु निरावरण होना ही मोक्ष है ।...... पाँच वर्षोंसे एक बीड़ी जैसा व्यसन भी प्रेरणा किये बिना छोड़ा नहीं जा सका । हमारा उपदेश तो उसीके लिये है जो तुरन्त ही करनेका विचार रखता हो । इस कालमें बहुतसे जीव विराधक होते हैं और उनपर नहीं जैसा ही संस्कार पड़ता है ।
P *. 2
ऐसी बात तो सहज ही समझने जैसी है, और तनिक विचार करें तो समझमें आ सकती है कि जीव मन, वचन और कायाके तीन योगसे रहित है, सहजस्वरूप है । जब ये तीन योग तो छोड़ने हैं. ब “इन बाह्य पदार्थोंमें जीव क्यों आग्रह करता होगा ? यह आश्चर्य होता है ! जीव जिस जिस कुल में उत्पन्न होता है उस उसका आग्रह करता है, जोर करता है। वैष्णवके यहाँ जन्म लिया होता तो उसका आग्रह :- हो जाता; यदि तपा में हो तो तपाका आग्रह हो जाता है। जीवका स्वरूप ढूंढिया नहीं, तपा नहीं, कुल नहीं, जाति नहीं, वर्ण नहीं । ऐसी ऐसी कुकल्पना कर करके आग्रहपूर्वक आचरण करवाना यह है ! जीवको लोगोको अच्छा दिखाना ही बहुत भाता है और इससे जीव वैराग्य-उपशमके जाता है। अब आगेसे और पहले कहा है, 'कि दुराग्रहके लिये जैनशास्त्र मत पढ़ना ।" जिससे वैराग्यउपशम बढ़े वही करना। इनमें ( मागधी गाथाओं में ) कहाँ ऐसी बात है कि इसे ढूँढिया या पा मानना ? उनमें ऐसी बात होती ही नहीं है । ..
अज्ञान
2.
(त्रिभोवनको) जीवको उपाधि बहुत है । ऐसा योग– मनुष्यभव आदि साधन मिले हैं और जीव विचार नहीं करेगा तो क्या यह पशुके देहमें विचार करेगा ? कहाँ करेगा ?
जीव ही परमाधामी (यम) जैसा है, और यम है, क्योंकि नरकगतिमें जीव जाता है. उसका कारण जीव यहीं खड़ा करता है-1
जीव पशुको जातिके शरीरोंके दुःख प्रत्यक्ष देखता है, जरा विचार आता है और फिर भूल जाता है । लोग प्रत्यक्ष देखते हैं कि यह मर गया, मुझह एसी प्रत्यक्षता है; तथापि शास्त्रमें उस व्याख्याको दृढ़ करनेके लिये वारंवार वही बात कही है। शास्त्र तो परोक्ष है और यह तो प्रत्यक्ष है, परन्तु जीव फिर भूल जाता है, इसलिये वहोको वही बात कही है ।
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*९५८
__. मोरबी, संवत् १९५४-५५
श्री
व्याख्यानसार-१
१. प्रथम गुणस्थानकमें ग्रंथि हैं उसका भेदन किये बिना आत्मा आगेके गुणस्थानकमें नहीं जा सकता । योगानुयोग मिलनेसे अकामनिर्जरा करता हुआ जीव आगे बढ़ता है, और ग्रंथिभेद करनेके समीप आता है । यहाँ ग्रन्थिको इतनी अधिक प्रबलता है कि वह ग्रंथिभेद करनेमें शिथिल होकर, असमर्थ होकर, वापस लौट आता है । वह हिम्मत करके आगे बढ़ना चाहता है, परन्तु मोहनीयके कारण रूपान्तर समझमें आनेसे वह ऐसा समझता है कि स्वयं ग्रन्थिभेद कर रहा है; बल्कि विपरीत समझनेरूप मोहके कारण ग्रन्थिकी निबिड़ता ही करता है। उसमेंसे कोई जीव ही योगानुयोग प्राप्त होनेपर अकामनिर्जरा करता हुआ अति बलवान होकर उस ग्रंथिको शिथिल करके अथवा दुर्वल करके आगे बढ़ जाता है। यह अविरतिसम्यग्दृष्टि नामक चौथा गुणस्थानक है, जहाँ मोक्षमार्गकी सुप्रतीति होती है; इसका दूसरा नाम 'बोधबीज' है। यहाँ आत्माके अनुभवका श्रीगणेश होता है, अर्थात् मोक्ष होनेका बीज यहाँ वोया जाता है।
२. इस 'बोधबीज गणस्थानक' रूप चौथे गुणस्थानसे तेरहवें गुणस्थानक तक आत्मानुभव एक-सा है, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्मकी निरावरणताके अनुसार ज्ञानकी विशुद्धता न्यूनाधिक होती है, उसके प्रमाणमें अनुभवका वर्णन कर सकता है।
३. ज्ञानावरणका सर्वथा निरावरण होना 'केवलज्ञान' अर्थात् 'मोक्ष' है; जो बुद्धिवलसे कहा नहीं जा सकता, परन्तु अनुभवगम्य है।
* वि० सं० १९५४ और १९५५ में माघ माससे चैत्रमास तक धोमद्जी मारवीमें ठहरे थे। उस अत में उन्होंने जो व्याख्यान दिये थे, उनका सार एक मुमुक्षु श्रोताने अपनी स्मृतिके अनुसार लिख लिया था जिसे यहां
दिया गया है।
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श्रीमद् राजचन्द्र ४. बुद्धिबलसे निश्चित किया हुआ सिद्धांत उससे विशेष बुद्धिवल अथवा तकसे कदाचित् बदल सकता है; परन्तु जो वस्तु अनुभवगम्य (अनुभवसिद्ध) हुई है वह त्रिकालमें बदल नहीं सकती।
५. वर्तमान समयमें जैनदर्शनमें अविरतिसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानसे अप्रमत्त नामक सातवें . गुणस्थान तक आत्मानुभव स्पष्ट स्वीकृत है।
६. सातवेंसे सयोगीकेवली नामक तेरहवे गुणस्थान तकका काल अंतर्महर्तका है। तेरहवेंका काल क्वचित् लंबा भी होता है । वहाँ तक आत्मानुभव प्रतीतिरूप है।
७. इस कालमें मोक्ष नहीं है ऐसा मानकर जीव मोक्षहेतुभूत क्रिया नहीं कर सकता; और वैसी मान्यताकै कारण जीवकी प्रवृत्ति दूसरे ही प्रकारकी होती है।
८. पिंजरेमें बन्द किया हुआ सिंह पिंजरेसे प्रत्यक्ष भिन्न है, तो भी बाहर निकलनेके सामथ्यसे रहित है। इसी तरह अल्प आयुके कारण अथवा संघयण आदि अन्य साधनोंके अभावसे आत्मारूपी सिंह कर्मरूपी पिंजरेसे बाहर नहीं आ सकता ऐसा माना जाये तो यह मानना सकारण है।
९. इस असार संसारमें मुख्य चार गतियाँ हैं, जो कर्मबन्धसे प्राप्त होती है। बंधके बिना वे गतियाँ प्राप्त नहीं होती। बंधरहित मोक्षस्थान बंधसे होनेवाली चारगतिरूप संसारमें नहीं है। सम्यक्त्व अथवा चारित्रसे बंध नहीं होता यह तो निश्चित है; तो फिर चाहे जिस कालमें सम्यक्त्व अथवा चारित्र प्राप्त करे वहाँ उस समय बन्ध नहीं है; और जहाँ बन्ध नहीं है वहाँ संसार भी नहीं है। ... १०. सम्यक्त्व और चारित्रमें आत्माकी शुद्ध परिणति है, तथापि उसके साथ मन, वचन और शरीरके शुभ योगकी प्रवृत्ति होती है। उस शुभ योगसे शुभ बन्ध होता है। उस बन्धके कारण देव आदि गतिरूप संसार करना पड़ता है। परन्तु उससे विपरीत जो सम्यक्त्व और चारित्र हैं वे जितने अंशमें प्राप्त होते हैं उतने अंशमें मोक्ष प्रगट होता है; उसका फल देव आदि गतिका प्राप्त होना नहीं है। देव आदि गति जो प्राप्त हुई वह उपर्युक्त मन, वचन और शरीरके शुभ योंगसे हुई है; और जो बन्धरहित सम्यक्त्व तथा चारित्र प्रगट हुए हैं वे स्थिर रहकर फिर मनुष्यभव प्राप्त कराकर, फिर उस भागसे संयुक्त होकर मोक्ष होता है।
.. ११. चाहे जिस कालमें कर्म है, उसका बन्ध है, और उस बन्धकी निर्जरा है, और सम्पूर्ण निर्जराका नाम 'मोक्ष' है।
१२. निर्जराके दो भेद हैं-एक सकाम अर्थात् सहेतु (मोक्षकी हेतुभूत) निर्जरा और दूसरी अकाम अर्थात् विपाकनिर्जरा.:. . .: १३. अकामनिर्जरा औदयिक भावसे होती है । यह निर्जरा जीवने अनंत बार की है और यह कर्मबन्धका कारण है।
१४. सकामनिर्जरा क्षायोपशमिक भावसे होती है, जो कर्मके बन्धका कारण है। जितने अंशमें सकामनिर्जरा (क्षायोपशमिक भावसे) होती है उतने अंशमें आत्मा प्रगट होता है। यदि अकाम (विपाक) निर्जरा हो तो वह औदयिक भावसे होती है, और वह कर्मबन्धका कारण है। यहाँ भी कर्मकी निर्जरा होती है, परन्तु आत्मा प्रगट नहीं होता। :: .. १५. अनंत बार चारित्र प्राप्त करनेसे जो निर्जरा हुई है वह औदयिक भावसे (जो भाव अबन्धक नहीं है) हुई है; क्षायोपशमिक भावसे नहीं हुई । यदि वैसे हुई होती तो इस तरह भटकना नहीं पड़ता।
१६. मार्ग दो प्रकारके हैं-एक लौकिक मार्ग और दूसरा लोकोत्तर मार्ग; जो एक दूसरेसे विरुद्ध हैं ।
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व्याख्यानसार-१
७५१ १७. लौकिक मार्गसे विरुद्ध जो लोकोत्तर मार्ग है उसका पालन करनेसे उसका फल उससे विरुद्ध अर्थात् लौकिक नहीं होता। जैसा कृत्य वैसा फल । ...
१८. इस संसारमें जीवोंकी संख्या अनंत कोटि है। व्यवहार आदि प्रसंगमें अनंत जीव क्रोध आदिसे बर्ताव करते हैं । चक्रवर्ती राजा आदि क्रोध आदि भावसे संग्राम करते हैं, और लाखों मनुष्योंका घात करते हैं, तो भी उनसे किसी किसीका उसी कालमें मोक्ष हुआ है । ...
...... . १९. क्रोध, मान, माया और लोभकी चौकड़ी 'कषाय'के नामसे पहचानी जाती है। यह कषाय __ अत्यन्त क्रोधादिवाला है। यदि वह अनंत संसारका हेतु होकर अनंतानुबन्धी कषाय होता हो तो फिर
चक्रवर्ती आदिको अनंत. संसारकी वृद्धि होनी चाहिये, और इस हिंसाबसे अनंत संसार बीतनेसे पहले उनका मोक्ष कैसे हो सकता है ? यह बात विचारणीय हैं।
... २०. जिस क्रोध आदिसे अनंत संसारको वृद्धि हो वह अनंतानुबन्धी कषाय है, यह भी निःशंक है। इस हिसाबसे उपयुक्त क्रोध आदि अन्तानुबंन्धी नहीं हो सकते । तो फिर अनन्तानुबन्धी चौकड़ी दूसरी तरहसे होना संभव है। .. :..:.:२१: सम्यक् ज्ञान; दर्शन और चारित्र इन तीनोंकी एकता 'मोक्ष' है। वह सम्यक् ज्ञान, दर्शन
और चारित्र अर्थात् वीतराग ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। उसीसे अनंत संसारसे मुक्ति प्राप्त होती है। यह वीतरागज्ञान कर्मके अबन्धका हेतु है । वीतरागके मार्गमें चलना अथवा उनकी आज्ञाके अनुसार चलना भी अबंधक है ।, उनके प्रति जो क्रोध आदि कषाय हों उनसे विमुक्त होना, यही अनंत संसारसे अत्यन्तरूपसे मुक्त होना है; अर्थात् मोक्ष है। जिससे मोक्षसे विपरीत ऐसे अनंत संसारकी वृद्धि होती है उसे अनंतानुबंधी कहा जाता है और है भी इसी तरह । वोतरागके मार्गमें और उनको आज्ञानुसार चलनेवालोंका कल्याण होता है । ऐसा जो बहुतसे जीवोंके लिये कल्याणकारी मार्ग है उसके प्रति क्रोध आदि भाव (जो महा विपरीत करनेवाले हैं) ही अनंतानुवंधी कषाय है।
२२. यद्यपि क्रोध आदि भाव लौकिक व्यवहार में भी निष्फल नहीं होते; परन्तु वीतराग द्वारा प्ररूपित वीतरागज्ञान अथवा मोक्षधर्म अथवा तो सद्धर्म उसका खंडन करना या उसके प्रति तीव्र, मंद आदि जैसे भावसे क्रोध आदि भाव होते हों वैसे भावसे अनंतानुबंधी कषायसे बंध होकर अनंतः संसारको वृद्धि होती है।
२३. किसी भी कालमें अनुभवका अभाव नहीं है । बुद्धिवलसे निश्चित की हुई जो अप्रत्यक्ष बात है उसका क्वचित् अभाव भी हो सकता है। ' २४. केवलज्ञान अर्थात् जिससे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता वह, अथवा जो आत्मप्रदेशका स्वभाव-भाव है वह ? :
__(अ) आत्मासे उत्पन्न किया हुआ विभाव-भाव, और उसमें होनेवाले जड पदार्थके संयोगल्प आवरणसे जो कुछ देखना, जानना आदि होता है वह इंद्रियको सहायतासे हो सकता है; परन्तु उस संबंधी यह विवेचन नहीं है। यह विवेचन 'केवलज्ञान' संबंधी है।
(आ) विभाव-भावसे हुआ जो पुद्गलास्तिकायका संबंध है वह आत्मासे पर है। उसका तथा जितना पुद्गलका संयोग हआ उसका यथान्यायसे ज्ञान अर्थात् अनुभव होता है वह अनुभवगम्यमें समाता है, और उसके कारण लोकसमस्तके पुद्गलोका भी ऐसा ही निर्णय होता है उसका समावेश वद्धिवलमें
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श्रीमद् राजचन्द्र होता है। जिस तरह, जिस आकाशप्रदेशमें अथवा तो उसके पास विभावी आत्मा स्थित है उस आकाशप्रदेशके उतने भागको लेकर जो अछेद्य अभेद्य अनुभव होता है वह अनुभवगम्यमें समाता है; और उसके अतिरिक्त शेष आकाश जिसे केवलज्ञानीने स्वयं भी अनंत (जिसका अंत नहीं) कहा है, उस अनंत आकाशका भी तदनुसार गुण होना चाहिये ऐसा बुद्धिबलसे निर्णीत किया हुआ होना चाहिये।
(इ) आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ अथवा तो आत्मज्ञान हुआ, यह बात अनुभवगम्य है । उस आत्मज्ञानके उत्पन्न होनेसे आत्मानुभव होनेके उपरांत क्या क्या होना चाहिये ऐसा जो कहां गया है वह बुद्धिबलसे कहा है, ऐसा माना जा सकता है। .
(ई) इंद्रियके संयोगमें जो कुछ भी देखना जानना होता है वह यद्यपि अनुभवगम्यमें समाता जरूर है; परन्तु यहाँ तो अनुभवगम्य आत्मतत्त्वके विषयमें कहना है, जिसमें इंद्रियोंकी सहायता अथवा तो संबंधकी आवश्यकता नहीं है, उसके सिवायकी बात है। केवलज्ञानी सहज देख-जान रहे हैं; अर्थात् लोकके सर्व पदार्थोंका उन्होंने अनुभव किया है यह जो कहा जाता है उसमें उपयोगका संबंध रहता है; क्योंकि केवलज्ञानीके तेरहवाँ गुणस्थानक और चौदहवाँ गुणस्थानक ऐसे दो विभाग किये गये हैं, उसमें तेरहवें गुणस्थानकवाले केवलज्ञानीके योग है, यह स्पष्ट है; और जहाँ इस तरह है वहाँ उपयोगकी विशेषरूपसे आवश्यकता है, और जहाँ विशेषरूपसे जरूरत है वहाँ बुद्धिवल है, यह कहे बिना चल नहीं सकता; और जहाँ यह बात सिद्ध होती है वहाँ अनुभवके साथ बुद्धिबल भी सिद्ध होता है।
(उ) इस प्रकार उपयोगके सिद्ध होनेसे आत्माको समीपवर्ती जड पदार्थका तो अनुभव होता है परन्तु दूरवर्ती पदार्थका योग न होनेसे उसका अनुभव होनेकी बात कहना कठिन है; और उसके साथ, दूरवर्ती पदार्थ अनुभवगम्य नहीं है, ऐसा कहनेसे तथाकथित केवलज्ञानके अर्थसे विरोध आता है। इसलिये वहाँ वुद्धिवलसे सर्व पदार्थका सर्वथा एवं सर्वदा ज्ञान होता है यह सिद्ध होता है।
२५. एक कालमें कल्पित जो अनंत समय हैं, उसके कारण अनंत काल कहा जाता है। उसमेंसे, वर्तमान कालसे पहलेके जो समय व्यतीत हो गये हैं वे फिरसे आनेवाले नहीं हैं यह बात न्यायसंपन्न है । वे समय अनुभवगम्य किस तरह हो सकते हैं यह विचारणीय है।
... २६. अनुभवगम्य जो समय हुए हैं, उनका जो स्वरूप है वह, तथा उस स्वरूपके सिवाय उनका दूसरा स्वरूप नहीं होता, और इसी तरह अनादि-अनंत कालके दूसरे जो समय उनका भी वैसा हो स्वरूप है; ऐसा वुद्धिवलसे निर्णीत हुआ मालूम होता है । ..
२७. इस कालमें ज्ञान क्षीण हुआ है, और ज्ञानके क्षीण हो जानेसे अनेक मतभेद हो गये हैं। जैसे ज्ञान कम वैसे मतभेद अधिक, और जैसे ज्ञान अधिक वैसे मतभेद कम । जैसे कि जहाँ पैसा घटता है वहाँ क्लेश बढ़ता है, और जहाँ पैसा बढ़ता है वहाँ क्लेश कम होता है।
२८. ज्ञानके बिना सम्यक्त्वका विचार नहीं सूझता। जिसके मनमें यह है कि मतभेद उत्पन्न नहीं करना, वह जो जो पढ़ता है, या सुनता है वह वह उसके लिये फलित होता है। मतभेद आदिके कारणसे श्रुत-श्रवण आदि फलीभूत नहीं होते ।
२९. जैसे रास्तेमें चलते हुए किसीका मुंडासा काँटोंमें फंस गया और सफर अभी बाकी है, तो पहले यथासंभव काँटोंको दूर करना; परंतु काँटोंको दूर करना संभव न हो तो उसके लिये वहाँ रातभर रुक न जाना; परन्तु मुंडासेको छोड़कर चल देना । उसी तरह जिनमार्गका स्वरूप तथा उसका रहस्य क्या
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व्याख्यानसार-१
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है उसे समझे बिना, अथवा उसका विचार किये बिना छोटी छोटी शंकाओं के लिये बैठे रहकर आगे न बढ़ना यह उचित नहीं है । जिनमार्ग वस्तुतः देखनेसे तो जीवके लिये कर्मक्षय करनेका उपाय है, परन्तु जीव अपने मतमें फँस गया है।
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३०. जीव पहले गुणस्थानसे निकलकर ग्रंथिभेद तक अनंत बार आया और वहाँसे वापस लौट गया है ।
३१. जीवको ऐसा भाव रहता है कि सम्यक्त्व अनायास आता होगा, परंतु वह तो प्रयास (पुरुषार्थ ) किये बिना प्राप्त नहीं होता ।
३२. कर्मप्रकृति १५८ है । सम्यक्त्वके आये बिना उनमेंसे किसी भी प्रकृतिका समूल क्षय नहीं होता । अनादिसे जीव निर्जरा करता है, परन्तु मूलमेंसे एक भी प्रकृतिका क्षय नहीं होता । सम्यक्त्वमें ऐसा सामर्थ्य है कि वह मूलसे प्रकृतिका क्षय करता है । वह इस तरह कि :- अमुक प्रकृतिका क्षय होनेके बाद वह आता है; और जीव बलवान हो तो धीरे धीरे सब प्रकृतियोंका क्षय कर देता है ।
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३३. सम्यक्त्व सभीको मालूम हो ऐसो बात भी नहीं है; और किसीको भी मालूम न हो ऐसा भी नहीं है । विचारवानको वह मालूम हो जाता है।
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३४. जीवकी समझमें आ जाये तो समझनेके बाद सम्यक्त्व बहुत सुगम है, परन्तु समझने के लिये जीवने आज तक सचमुच ध्यान ही नहीं दिया । जीवको सम्यक्त्व प्राप्त होनेका जब जव योग मिला है तब तब यथोचित ध्यान नहीं दिया, क्योंकि जीवको अनेक अंतराय हैं । कितने ही अंतराय तो प्रत्यक्ष हैं, फिर भी वे जाननेमें नहीं आते । यदि बतानेवाला मिल जाये तो भी अंतरायके योगसे ध्यानमें लेना नहीं बन पाता । कितने ही अंतराय तो अव्यक्तं हैं कि जो ध्यानमें आने ही मुश्किल हैं ।
३५, सम्यक्त्वका स्वरूप केवल वाणीयोगसे कहा जा सकता है । यदि एकदम कहा जाये तो उससे जीवको उलटा भाव भासित होता है, तथा सम्यक्त्व पर उलटी अरुचि होने लगती है; परन्तु वही स्वरूप यदि अनुक्रमसे ज्यों ज्यों दशा बढ़ती जाये त्यों त्यों कहा अथवा समझाया जाये तो वह समझमें आ सकता है ।
३६. इस कालमें मोक्ष है यों दूसरे मार्गोंमें भी कहा गया है । यद्यपि जैनमार्गमें इस कालमें अमुक क्षेत्रमें मोक्ष होना कहा नहीं जाता; फिर भी उसी क्षेत्रमें इस कालमें सम्यक्त्व हो सकता है, ऐसा कहा गया है ।
३७. ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों इस कालमें होते हैं । प्रयोजनभूत पदार्थोंका जानना 'ज्ञान', उसके कारण उनकी सुप्रतीति होना 'दर्शन' और उससे होनेवाली क्रिया 'चारित्र' है । यह चारित्र, इस कालमें जैनमार्गमें सम्यक्त्व होनेके बाद सातवें गुणस्थानक तक प्राप्त किया जा सकता है ऐसा माना गया है ।
• ३८. कोई सातवें तक पहुँच जाये तो भी बड़ी बात है ।
३९. सातवें तक पहुँच जाये तो उसमें सम्यक्त्वका समावेश हो जाता है; और यदि वहाँ तक पहुँच जाये तो उसे विश्वास हो जाता है कि अगली दशा किस तरहकी है ? परन्तु सातवें तक पहुँचे बिना आगेको बात ध्यानमें नहीं आ सकती ।
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গীল ভাব
४०. यदि बढ़ती हुई दशा होती हो तो उसका निषेध करनेकी जरूरत नहीं है; और न हो तो माननेकी जरूरत नहीं है। निषेध किये बिना आगे बढ़ते जाना । . .
... ४१. सामायिक, छः आठ कोटिका विवाद छोड़ देनेके बाद नव कोटिके विना नहीं होता; और अन्तमें नव कोटि वृत्तिको भी छोड़े विना मोक्ष नहीं है।
४२. ग्यारह प्रकृतियोंका क्षय किये बिना सामायिक नहीं आता। जिसे सामायिक होता है उसकी दशा तो अद्भत होती है। वहाँसे जीव छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानकमें जाता है, और वहाँसे दो घड़ीमें मोक्ष हो सकता है।
४३. मोक्षमार्ग तलवारकी धार जैसा है, अर्थात् वह एक धारा (एक प्रवाहरूप) है। तीनों कालमें एक धारासे अर्थात् एकसा रहे वही मोक्षमार्ग है,-बहनेमें जो खंडित नहीं वही मोक्षमार्ग है।
४४. पहले दो बार कहा गया है, फिर भी यह तीसरी बार कहा जाता है कि कभी भी बादर और बाह्यक्रियाका निषेध नहीं किया गया है; क्योंकि हमारे आत्मामें वैसा भाव कभी स्वप्नमें भी उत्पन्न नहीं हो सकता।
४५. रूढिवाली गाँठ, मिथ्यात्व अथवा कषायका सूचन करनेवाली क्रियाके संबंधमें कदाचित् किसी प्रसंगपर कुछ कहा गया हो, तो वहाँ क्रियाके निषेधके लिये तो कहा ही नहीं गया हो। फिर भी कहनेसे दूसरी तरह समझमें आया हो, तो उसमें समझनेवालेकी अपनी भूल हुई है, ऐसा समझना है । .
४६. जिसने कषाय भावका छेदन किया है वह ऐसा कभी भी नहीं करता कि जिससे कषायका सेवन हो ।
४७. जब तक हमारी ओरसे ऐसा नहीं कहा जाता कि अमुक क्रिया करना तब तक ऐसा समझना कि वह सकारण है; और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि क्रिया न करना। .......
४८. यदि अभी यह कहा जाये कि अमुक क्रिया करना और बादमें देशकालके अनुसार उस क्रियाको दूसरे प्रकारसे कहा जाये तो श्रोताके मनमें शंका लानेका कारण होता है कि एक बार इस तरह कहा जाता था, और दूसरी वारं इस तरह कहा जाता है; ऐसी शंकासे उसका श्रेय होनेके बदले अश्रेय होता है।
. ४९. बारहवें गुणस्थानकके अन्तिम समय तक भी ज्ञानीकी.आज्ञाके अनुसार चलना होता है। उसमें . स्वच्छंदताका विलय होता है। . . ... ... . . . . . . . . . . . . : ..
५०. स्वच्छंदसे निवृत्ति करनेसे वृत्तियाँ शांत नहीं होती, परन्तु उन्मत्त होती हैं, और इससे पतनका समय आ जाता है; और ज्यों ज्यों आगे जानेके बाद यदि पतन होता है तो त्यों त्यों उसे मार अधिक लगती है, अतः वह अधिक नीचे जाता है; अर्थात् पहलेमें जाकर पड़ता है। इतना ही नहीं परन्तु उसे जोरकी मारके कारण वहाँ अधिक समय तक पड़े रहना पड़ता है। . ___५१. अव भी शंका करना हो तो करे; परन्तु इतनी तो निश्चयसे श्रद्धा करे कि जीवसे लेकर मोक्ष तकके पांच पद (जीव है, वह नित्य है, वह कर्मका कर्ता है, वह कर्मका भोका है; मोक्ष है ) अवश्य हैं, और मोक्षका उपाय भी है, उसमें कुछ भी असत्य नहीं है। ऐसा निर्णय करनेके बाद उसमें तो कभी भी
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व्याख्यानसार-१
७५५ : शंका न करे; और इस प्रकार निर्णय हो जानेके बाद प्रायः शंका नहीं होती। यदि कदाचित् शंका हो तो वह देशशंका होती है, और उसका समाधान हो सकता है । परन्तु मूलमें अर्थात् जीवसे लेकर मोक्ष तक अथवा उसके उपायमें शंका हो तो वह देशशंका नहीं अपितु सर्वशंका है; और उस शंकासे प्रायः पतन होता है; और वह पतन इतने अधिक जोरसे होता है कि उसकी मार अत्यंत लगती है ।
५२. यह श्रद्धा दो प्रकारसे है - एक 'ओघसे' और दूसरी 'विचारपूर्वक' ।
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५३. मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे जो कुछ जाना जा सकता है उसमें अनुमान साथमें रहता है; परंतु उससे आगे, और अनुमानके बिना शुद्धरूपसे जानना यह मनः पर्यायज्ञानका विषय है। अर्थात् मूलमें तो मति, श्रुत और मनःपर्यायज्ञान एक है, परन्तु मनःपर्याय में अनुमान के बिना मतिकी निर्मलतांसे शुद्ध जाना जा सकता है ।
५४. मतिकी निर्मलता संयम के बिना नहीं हो सकती । वृत्तिके निरोधसे संयम होता है, और उस संयमसे मतिकी शुद्धता होकर अनुमान के बिना शुद्ध पर्यायको जो जानना हो वह मनः पर्याय ज्ञान है । ५५. मतिज्ञान लिंग अर्थात् चिह्नसे जाना जा सकता है; और मनःपर्याय ज्ञानमें लिंग अथवा चिह्नकी जरूरत नहीं रहती ।
५६. मतिज्ञानसे जाननेमें अनुमानकी आवश्यकता रहती है, और उस अनुमानसे जाने हुए में परिवर्तन भी होता है । जब कि मनःपर्यायज्ञानमें वैसा परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि उसमें अनुमानकी सहायता की आवश्यकता नहीं है । शरीर की चेष्टासे क्रोध आदि परखे जा सकते हैं, परन्तु उनके ( क्रोध आदिके ) मूलस्वरूपको न दिखानेके लिये शरोरको विपरीत चेष्टा की गयी हो तो उस परसे परख सकनापरीक्षा करना दुष्कर है। तथा शरीरकी चेष्टा किसी भी आकारमें न की गयी हो फिर भी चेष्टाको विलकुल देखे बिना उनका ( क्रोध आदिका ) जानना अति दुष्कर है, फिर भी उन्हें साक्षात् जान सकना मनःपर्यायज्ञान है ।
५७. लोगोंमें ओघसंज्ञासे यह माना जाता था कि 'हमें सम्यक्त्व है या नहीं इसे केवली ही जानते है, निश्चय सम्यक्त्व है यह बात तो केवलीगम्य है ।' प्रचलितः रूढिके अनुसार यह माना जाता था; परन्तु बनारसीदास और उस दशाके अन्य पुरुष ऐसा कहते हैं कि हमें सम्यक्त्व हुआ है यह निश्चयसे कहते हैं ।
५८. शास्त्रमें ऐसा कहा गया है कि 'निश्चय सम्यक्त्व है या नहीं इसे केवली ही जानते है'. यह बात अमुक नयसे सत्य है; तथा केवलज्ञानीके सिवाय भी बनारसीदास आदिने सामान्यतः ऐसा कहा है कि 'हमें सम्यक्त्व है अथवा प्राप्त हुआ है', यह बात भी सत्य है, क्योंकि 'निश्चयसम्यक्त्व' है उसे प्रत्येक रहस्यके पर्यायसहित केवलो जान सकते हैं, अथवा प्रत्येक प्रयोजनभूत पदार्थ के हेतुअहेतुको सम्पूर्णतया केवलीके सिवाय दूसरा कोई नहीं जान सकता, वहाँ 'निश्चयसम्यक्त्व' को केवलीगम्य कहा है । उस प्रयोजनभूत पदार्थके सामान्यरूपसे अथवा स्थूलरूपसे हेतु अहेतुको समझ सकना सम्भव है और इस कारण से महान वनारसीदास आदिने अपनेको सम्यक्त्व है ऐसा कहा है ।
५९. ‘समयसार' में महान बनारसीदासको बनायी हुई कविता में 'हमारे हृदयमें बोध चीज हुआ है', ऐसा कहा है; अर्थात् 'हमें सम्यक्त्व है' यह कहा है ।
६०. सम्यक्त्व प्राप्त होनेके बाद अधिक से अधिक पंद्रह भवमें मुक्ति होती है, और यदि वहांसे वह पतित होता है तो अर्धपुद्गलपरावर्तन काल माना जाता है । अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल माना जाये तो भी वह सादि-सांत भंगमें आ जाता है, यह वात निःशंक है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र
६१. सम्यक्त्वके लक्षण
(१) कषायकी मंदता अथवा उसके रसकी मंदता । (२) मोक्षमार्गकी ओर वृत्ति । (३) संसारका बंधनरूप लगना अथवा संसार विषतुल्य लगना । (४) सब प्राणियोंपर दयाभाव; उसमें विशेषतः अपने आत्माके प्रति दयाभाव । . (५) सदेव, सद्धर्म और सद्गुरुपर आस्था।
६२. आत्मज्ञान अथवा आत्मासे भिन्न कर्मस्वरूप, अथवा पुद्गलास्तिकाय आदिका, भिन्न भिन्न प्रकारसे भिन्न भिन्न प्रसंगमें, अति सूक्ष्मसे सूक्ष्म और अति विस्तृत जो स्वरूप ज्ञानी द्वारा कहा हुआ है, उसमें कोई हेतु समाता है या नहीं ? और यदि समाता है तो क्या ? इस विषयमें विचार करनेसे उसमें सात कारण समाये हुए मालूम होते हैं-सद्भूतार्थप्रकाश, उसका विचार, उसकी प्रतीति, जीवसंरक्षण इत्यादि । इन सातों हेतुओंका फल मोक्षकी प्राप्ति होना है। तथा मोक्षकी प्राप्तिका जो मार्ग है वह इन हेतुओंसे सुप्रतीत होता है।
६३. कर्म अनंत प्रकारके हैं। उनमें मुख्य १५८ हैं। उनमें मुख्य आठ कर्म प्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। इन सब कर्मोमें मुख्य, प्रधान मोहनीय है जिसका सामर्थ्य दूसरोंकी अपेक्षा अत्यन्त है, और उसकी स्थिति भी सबकी अपेक्षा अधिक है।
६४. आठ कर्मोंमें चार कर्म घनघाती हैं । उन चारमें भी मोहनीय अत्यन्त प्रबलतासे घनघाती है । मोहनीयकर्मके सिवाय सात कर्म हैं, वे मोहनीयकर्मके प्रतापसे प्रबल होते हैं। यदि मोहनीय दूर हो जाये तो दूसरे कर्म निर्वल हो जाते हैं । मोहनोय दूर होनेसे दूसरोंका पैर टिक नहीं सकता।
६५. कर्मबंधके चार प्रकार हैं-प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और रसबंध। उनमें प्रदेश, स्थिति और रस इन तीन बंधोंके जोड़का नाम प्रकृति रखा गया है। आत्माके प्रदेशोंके साथ पुद्गलका जमाव अर्थात् जोड़ प्रदेशबंध होता है । वहाँ उसकी प्रबलता नहीं होती; उसे जीव हटाना चाहे तो हट सकता है । मोहके कारण स्थिति और रसका बंध होता है, और उस स्थिति तथा रसका जो बंध है, उसे जीव बदलना चाहे तो उसका बदल सकना अशक्य ही है। मोहके कारण इस स्थिति और रसकी ऐसी प्रबलता है।
६६. सम्यक्त्व अन्योक्तिसे अपना दूषण बताता है :-'मुझे ग्रहण करनेसे यदि ग्रहण करनेवालेकी इच्छा न हो तो भी मुझे उसे बरबस मोक्ष ले जाना पड़ता है। इसलिये मुझे ग्रहण करनेसे पहले यह विचार करे कि मोक्ष जानेकी इच्छा बदलनी होगी तो भी वह कुछ काम आनेवाली नहीं है। क्योंकि मुझे ग्रहण करनेके बाद नौवें समयमें तो मुझे उसे मोक्षमें पहुंचाना ही चाहिये। ग्रहण करनेवाला कदाचित् शिथिल हो जाये तो भी हो सके तो उसी मनमें और नहीं तो अधिकसे अधिक पंद्रह भवोंसे मुझे उसे मोक्षमें पहुँचाना चाहिये। कदाचित् वह मुझे छोड़कर मुझसे विरुद्ध आचरण करे, अथवा प्रबलसे प्रवल मोहको धारण करे, तो भी अर्धपुद्गलपरावर्तनके भीतर मुझे उसे मोक्षमें पहुँचान हो है यह मेरी प्रतिज्ञा है !' अर्थात् यहाँ सम्यक्त्वकी महत्ता बतायी है।
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६७. सम्यक्त्व केवलज्ञानसे कहता है :-' -'मैं इतना कार्य कर सकता हूँ कि जीवको मोक्षमें पहुँचा दूँ, और तू भी यही कार्य करता है, तू उससे कुछ विशेष कार्य नहीं कर सकता; तो फिर तेरी अपेक्षा मुझमें न्यूनता किस बातको ? इतना ही नहीं अपितु तुझे प्राप्त करनेमें मेरी जरूरत रहती है ।'
६८. ग्रंथ आदिका पढ़ना शुरू करनेसे पहले प्रथम मंगलाचरण करें, और उस ग्रंथको फिरसे पढ़ते हुए अथवा चाहे जिस भागसे उसका पढ़ना शुरू करनेसे पहले मंगलाचरण करें, ऐसी शास्त्रपद्धति है । इसका मुख्य कारण यह है कि बाह्यवृत्तिसे आत्मवृत्तिको ओर अभिमुख होना है, अतः वैसा करनेके लिये पहले शांति लानेकी जरूरत है, और तदनुसार प्रथम मंगलाचरण करनेसे शांति आती है । पढ़नेका जो अनुक्रम हो उसे यथासंभव कभी नहीं तोड़ना चाहिये । इसमें ज्ञानीका दृष्टांत लेनेकी जरूरत नहीं है ।
६९. आत्मानुभवगम्य अथवा आत्मजनित सुख और मोक्षसुख दोनों एक ही हैं । मात्र शब्द भिन्न हैं । ७०. केवलज्ञानी शरीर के कारण केवलज्ञानी नहीं कहे जाते कि दूसरोंके शरीर की अपेक्षा उनका शरीर विशेषतावाला देखने में आये । और फिर वह केवलज्ञान शरीरसे उत्पन्न हुआ है ऐसा भी नहीं है; वह तो आत्मा द्वारा प्रगट किया गया है; इस कारण उसकी शरीरसे विशेषता समझने का कोई हेतु नहीं है, और विशेषतावाला शरीर लोगोंके देखनेमें नहीं आता इसलिये लोग उसका माहात्म्य बहुत नहीं जान सकते।
७१. जो जीव मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानको अंशसे भी नहीं जानता वह केवलज्ञानके स्वरूपको जानना चाहे तो यह किस तरह हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।
७२. मति स्फुरायमान होकर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'मतिज्ञान' है; और श्रवण होनेसे जो ज्ञान उत्पन्न होता हैं वह 'श्रुतज्ञान' है, और उस श्रुतज्ञानका मनन होकर परिणमित होता है तो फिर वह मतिज्ञान हो जाता है, अथवा उस श्रुतज्ञानके परिणमित होनेके बाद दूसरेको कहा जाये तब वही कहनेवालेमें मतिज्ञान और सुननेवालेके लिये श्रुतज्ञान होता है; तथा श्रुतज्ञान मति के बिना नहीं हो सकता और वही मतिज्ञान पूर्वमें श्रुतज्ञान होना चाहिये । इस तरह एक दूसरेका कार्यकारण संबंध है । उनके अनेक भेद हैं, उन सब भेदोंको जैसे चाहिये वैसे हेतुसहित नहीं जाना है । हेतुसहित जानना, समझना दुष्कर है । और उसके बाद आगे बढ़नेसे अवधिज्ञान आता है, जिसके भी अनेक भेद हैं, और सभी रूपी पदार्थोंको जानना जिसका विषय है । उसे, और तदनुसार ही मनःपर्यायका विषय है, उन सबको किसी अंशमें भी जानने-समझने की जिन्हें शक्ति नहीं है वे मनुष्य, पर और अरूपी पदार्थों के समस्त भावों को जाननेवाले ‘केवलज्ञान’के विषय में जानने-समझने के लिये प्रश्न करें तो वे किस तरह समझ सकते हैं ? अर्थात् नहीं समझ सकते ।
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७३. ज्ञानीके मार्गमें चलनेवालेको कर्मबंध नहीं है, तथा उस ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार चलनेवालेको भी कर्मबंध नहीं हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदिका वहाँ अभाव है; और उस अभाव के कारण कर्मबंध नहीं होता । तो भी 'ईरियापथ' में चलते हुए 'ईरियापथ' की क्रिया ज्ञानीको लगती है, और ज्ञानी आज्ञा अनुसार चलनेवालेको भो वह क्रिया लगती है ।
७४. जिस विद्यासे जोव कर्म बाँधता है उसी विद्यासे जीव कर्म छोड़ता है ।
७५. उसी विद्यासे सांसारिक हेतुके प्रयोजनसे विचार करनेसे जीव कर्मबंध करता है, और उसी विद्यासे द्रव्यका स्वरूप समझने के प्रयोजनसे विचार करता है तो कर्म छोड़ता है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र ७६ क्षेत्रसमास'में क्षेत्रसंबंध आदिकी जो जो बातें हैं, उन्हें अनुमानसे मानना है। उनमें अनुभव नहीं होता; परन्तु उन सबका वर्णन कुछ कारणोंसे किया जाता है । उनकी श्रद्धा विश्वासपूर्वक रखना है। मूल श्रद्धामें अंतर हो जानेसे आगे समझनेमें अन्त तक भूल चली आती है। जैसे गणितमें पहले भूल हो गयी तो फिर वह भूल अंत तक चलो आती है वैसे। .
७७. ज्ञान पाँच प्रकारका है । वह ज्ञान यदि सम्यक्त्वके बिना मिथ्यात्वसहित हो तो 'मति अज्ञान', 'श्रुत अज्ञान' और 'अवधि अज्ञान' कहा जाता है। उन्हें मिलाकर ज्ञानके कुल आठ प्रकार है।
. ७८. मति, श्रुत और अवधि मिथ्यात्वसहित हों तो वे 'अज्ञान' हैं, और सम्यक्त्वसहित हों तो 'ज्ञान' हैं । इसके सिवाय और अन्तर नहीं है।
७९. जीव रागादि सहित कुछ भी प्रवृत्ति करे तो उसका नाम 'कर्म' है, शुभ अथवा अशुभ अध्यवसायवाला परिणमन 'कर्म' कहा जाता है; और शुद्ध अध्यवसायवाला परिणमन कर्म नहीं परन्तु निर्जरा' हैं।
८०. अमुक आचार्य यों कहते हैं कि दिगम्बर आचार्यने ऐसा माना है कि "जीवका मोक्ष नहीं होता, परन्तु मोक्ष समझमें आता है। वह इस तरह कि जीव शुद्ध स्वरूपवाला है, उसे बंध ही नहीं हुआ तो फिर मोक्ष होनेका प्रश्न ही कहाँ है ? परन्तु उसने यह मान रखा है, कि 'मैं बँधा हुआ हूँ', यह मान्यता विचार द्वारा समझमें आती है कि मुझे बंधन नहीं है, मात्र मान लिया था; वह मान्यता शुद्ध स्वरूप समझमें आनेसे नहीं रहती; अर्थात् मोक्ष समझमें आ जाता है।" यह बात 'शुद्धनय' अथवा. 'निश्चयनय'की है। पर्यायार्थिक नयवाले इस नयको पकड़ कर आचरण करें तो उन्हें भटक भटक कर मरना है।
८१. ठाणांगसूत्रमें कहा गया है कि जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये पदार्थ सद्भाव है, अर्थात् इनका अस्तित्व विद्यमान हैं; कल्पित किये गये हैं ऐसा नहीं है।
- ८२. वेदान्त शुद्धनयाभासी है। शुद्धनयाभासमतवाले 'निश्चयनय' के सिवाय दूसरे नयको अर्थात् 'व्यवहारनय' को ग्रहण नहीं करते । जिनदर्शन अनेकांतिक हैं, अर्थात् वह स्याद्वादी है। ।
..८३. कोई नव तत्त्वकी, कोई सात तत्त्वकी, कोई षड्द्रव्यकी, कोई षट् पदकी, कोई दो राशिकी बात करते हैं; परन्तु यह सब जीव, अजीव ऐसी दो राशि अथवा ये दो तत्त्व अर्थात् द्रव्यमें समा जाते हैं ।
. ८४. निगोदमें अनंत जीव रहे हुए हैं, इस बातमें और कंदमूलमें सूईकी नोक जितने. सूक्ष्म भागमें अनंत जीव रहे हैं, इस बातमें आशंका करने जैसा नहीं है | ज्ञानीने जैसा स्वरूप देखा है वैसा ही कहा है। यह जीव जो स्थूल देहप्रमाण हो रहा है और जिसे अपने स्वरूपका.: अभी, ज्ञान नहीं हुआ उसे ऐसी सूक्ष्म बात समझमें नहीं आती यह बात सच्ची है; परन्तु उसके लिये आशंका करनेका कारण नहीं है। वह इस तरह :
चौमासेके समय किसी गाँवके सीमांतकी जाँच करें तो बहुतसी हरी वनस्पति दिखाई देती है, और उस थोड़ी हरी वनस्पतिमें अनंत जीव हैं, तो फिर ऐसे अनेक गाँवोंका विचार करें, तो जीवोंको संख्याके परिमाणका अनुभव न होनेपर भी, उसका बुद्धिबलसे विचार करनेसे अनंतताकी सम्भावना हो सकती है। कंदमूल आदिमें अनंतताका सम्भव है । दूसरो हरी वनस्पतिमें अनंतताका सम्भव नहीं है; परन्तु कंदमूल
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में अनंतता घटित होती है। कंदमूलके अमुक थोड़े भागको यदि बोया जाये तो वह उगता है; इस कारणसे भी उसमें जीवोंकी अधिकता घटित होती है; तथापि यदि प्रतीति न होती हो तो आत्मानुभव करें; आत्मानुभव होनेसे प्रतीति होती है। जब तक आत्मानुभव नहीं होता, तब तक उस प्रतीतिका होना मुश्किल है, इसलिये यदि उसकी प्रतीति करनी हो तो पहले आत्माके अनुभवी बनें।
८५. जब तक ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम नहीं हुआ, तब तक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेकी इच्छा रखनेवाला उसकी प्रतीति रखकर आज्ञानुसार वर्तन करे ।
... ८६. जीवमें संकोच-विस्तारकी शक्तिरूप गुण रहता है, इस कारणसे वह छोटे-बड़े शरीरमें देहप्रमाण स्थिति करके रहता है। इसी कारणसे जहाँ थोड़े अवकाशमें भी वह विशेषरूपसे संकोच कर सकता है वहाँ जीव वैसा करके रहे हुए हैं।
८७. ज्यों ज्यों जीव कर्मपुद्गल अधिक ग्रहण करता है, त्यों त्यों वह अधिक निविड़ होकर छोटे देहमें रहता है। . ८८. पदार्थमें अचिंत्य शक्ति है। प्रत्येक पदार्थ अपने अपने धर्मका त्याग नहीं करता । एक जीवके द्वारा परमाणुरूपसे ग्रहण किये हुए कर्म अनंत हैं। ऐसे अनंत जीव, जिनके पास कर्मरूपी परमाणु अनंतानंत है, वे सब निगोदाश्रयी थोड़े अवकाशमें रहे हुए हैं, यह बात भी शंका करने योग्य नहीं है। साधारण गिनतीके अनुसार एक परमाणु एक आकाशप्रदेशका अवगाहन करता है, परंतु उसमें अचित्य सामर्थ्य है, उस सामर्थ्यधर्मसे थोड़े आकाशमें अनंत परमाणु रहते हैं। जैसे किसी दर्पणके सन्मुख उससे बहुत बड़ी वस्तु रखी जाये तो भी उतना आकार उसमें समा जाता है। पाँख एक छोटी वस्तु है, फिर भी उस छोटीसी वस्तुमें सूर्य, चन्द्र आदि बड़े पदार्थोंका स्वरूप दिखाई देता है। उसी तरह आकाश जो बहत बड़ा क्षेत्र है वह भी आँखमें दृश्यरूपसे समा जाता है। तथा आँख जैसी छोटीसी वस्तु बड़े बड़े बहतसे घरोंको भी देख सकती है। यदि थोड़े आकाशमें अनंत परमाणु अचित्य सामथ्र्यके कारण न समा सकते हों तो फिर आँखसे अपने आकार जितनी वस्तु ही देखी जा सकती है, परन्तु अधिक बड़ा भाग देखा नहीं जा सकता; अथवा दर्पणमें अनेक घर आदि बड़ी वस्तुओंका प्रतिक्वि नहीं पड़ सकता। इसी कारणसे परमाणुका भी अचिंत्य सामर्थ्य है और उसके कारण थोड़े आकाशमें अनंत परमाणु समा कर रह सकते हैं। . .. ८९. इस तरह परमाणु आदि द्रव्योंका सूक्ष्मभावसे निरूपण किया गया है, वह यद्यपि परभावका विवेचन है, तो भी वह सकारण हैं, और सहेतु किया गया है। '
९०. चित्त स्थिर करनेके लिये, अथवा वृत्तिको बाहर न जाने देकर अंतरंगमें ले जानेके लिये परदव्यके स्वरूपका समझना काम आता है। ' ९१. परद्रव्यके स्वरूपका विचार करनेसे वृत्ति वाहर न जाकर अंतरंगमें रहती है, और स्वरूप समझनेके वाद उससे प्राप्त हुए' ज्ञानसे वह उसका विषय हो जानेसे, अथवा अमुक अंशमें समझनेसे उतना उसका विषय हो रहनेसे, वृत्ति सीधी बाहर निकलकर परपदा में रमण करनेके लिये दौड़ती है; तव परद्रव्य कि जिसका ज्ञान हुआ है उसे सूक्ष्मभावसे फिरसे समझने लगनेसे वृत्तिको फिर अंतरंगमें लाना पड़ता है। और इस तरह उसे अंतरंगमें लानेके बाद विशेपरूपसे स्वरूप समझमें आनेसे ज्ञानसे उतना उसका विषय हो रहनेसे फिर वृत्ति बाहर दौड़ने लगती है; तब जितना समझा हो उससे विशेष सुक्ष्मभावसे पुनः विचार करते. लगनेसे वत्ति फिर अंतरंगमें प्रेरित होती है। यों करते करते वृत्तिको वारंवार अंत
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श्रीमद् राजघन्त.
रंगमें लाकर शान्त किया जाता है, और इस तरह वृत्तिको अंतरंगमें लाते लाते कदाचित् आत्माका अनुभव भी हो जाता है, और जब इस तरह हो जाता है तब वृत्ति बाहर नहीं जाती, परन्तु आत्मामें शुद्ध परिणतिरूप होकर परिणमन करती है। और तदनुसार परिणमन करनेसे बाह्य पदार्थका दर्शन सहज हो जाता है । इन कारणोंसे पर द्रव्यका विवेचन उपयोगी अथवा हेतुरूप होता है।
९२. जीव, स्वयंको जो अल्प ज्ञान होता है उससे बड़े ज्ञेयपदार्थके स्वरूपको जानना चाहता है, यह कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। जब जीव ज्ञेयपदार्थके स्वरूपको नहीं जान सकता, तब वह अपनी अल्पज्ञतासे समझमें न आनेका कारण तो मानता नहीं, प्रत्युत बड़े ज्ञेयपदार्थमें दोष निकालता है, परन्तु सीधी तरह अपनी अल्पज्ञतासे समझमें नहीं आनेके कारणको नहीं मानता।
९३. जीव जब अपने ही स्वरूपको नहीं जान सकता, तो फिर परके स्वरूपको जानना चाहे तो उसे वह किस तरह जान-समझ सकता है ? और जब तक वह समझ में नहीं आता तब तक उसीमें उलझा रहकर उधेड़-बुन किया करता है। श्रेयस्कर निजस्वरूपका ज्ञान जब तक प्रगट नहीं किया, तब तक परद्रव्यका चाहे जितना ज्ञान प्राप्त करे तो भी वह किसी कामका नहीं है; इसलिये उत्तम मार्ग यह है कि दूसरी सब बातें छोड़कर अपने आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करे। जो सारभूत है उसे देखनेके लिये 'यह आत्मा सद्भाववाला है', 'वह कर्मका कर्ता है', और उससे (कर्मसे) उसे बंध होता है, 'वह बंध किस तरह होता है ?' 'वह बंध किस तरह निवृत्त होता है ?' और 'उस बंधसे निवृत्त होना मोक्ष है', इत्यादि सम्बन्धी वारंवार और प्रत्येक क्षणमें विचार करना योग्य है; और इस तरह वारंवार विचार करनेसे विचार वृद्धिको प्राप्त होता है, और उसके कारण निजस्वरूपका अंश-अंशसे अनुभव होने लगता है। ज्यों ज्यों निज स्वरूपका अनुभव होता है, त्यों त्यों द्रव्यका अचिंत्य सामर्थ्य जीवके अनुभवमें आता जाता है। जिससे उपर्युक्त शंकाएँ (जैसे कि थोड़े आकाशमें अनंत जीवका समा जाना अथवा अनंत पुद्गल-परमाणुओं का समा जाना) करनेका अवकाश नहीं रहता, और उनकी यथार्थता समझमें आ जाती है। यह होनेपर भो यदि वह मानने में न आता हो तो अथवा शंका करनेका कारण रहता हो, तो ज्ञानी कहते हैं कि उपयुक्त पुरुषार्थ करनेसे अनुभवसिद्ध होगा।
९४. जीव जो कर्मबंध करता है वह देहस्थित आकाशमें रहनेवाले सूक्ष्म पुद्गलोंमेंसे ग्रहण करता है । वह बाहरसे लेकर कर्म नहीं बाँधता। . . ९५. आकाशमें चौदह राजलोकमें पुद्गल-परमाणु सदा भरपूर हैं, उसी तरह शरीरमें रहनेवाले आकाशमें भी सूक्ष्म पुद्गल-परमाणुओंका समूह भरपूर है। जीव वहाँसे सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण करके कर्मबंध करता है।
___ ९६. ऐसी आशंका की जाये कि शरीरसे दूर-बहुत दूर रहनेवाले किसी किसी पदार्थके प्रति जीव रागद्वेष करे तो वह वहाँके पुद्गल ग्रहण करके कर्मबंध करता है या नहीं ? इसका समाधान यह है कि वह रागद्वेषरूप परिणति तो आत्माकी विभावरूप परिणति है, और उस परिणतिका कर्ता आत्मा है और वह शरीरमें रहकर करता है, इसलिये शरीरमें रहनेवाला जो आत्मा है, वह जिस क्षेत्रमें है. उस क्षेत्रमें रहे हुए. पुद्गल परमाणुओंको ग्रहण करके बाँधता है । वह उन्हें ग्रहण करनेके लिये बाहर नहीं जाता।
९७. यश, अपयश, कीति जो नामकर्म है वह नामकर्मसंबंध जिस शरीरके कारण है, वह शरीर जहाँ तक रहता है वहाँ तक चलता है, वहाँसे आगे नहीं चलता। जीव जब सिद्धावस्थाको प्राप्त होता है,
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व्याख्यानसार--१
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अथवा विरति प्राप्त करता है तब वह संबंध नहीं रहता । सिद्धावस्थामें एक आत्माके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है, और नामकर्म तो एक प्रकारका कर्म है, तो फिर वहाँ यश-अपयश आदिका संबंध किस तरह घटित हो सकता है ? अविरतिपनसे जो कुछ पाप क्रिया होती है वह पाप चला आता है ।
९८. 'विरति' अर्थात् 'छूटना', अथवा रतिसे विरुद्ध, अर्थात् रति न होना । अविरतिमें तीन शब्द है - अ + वि + रति = अ = नहीं + वि = विरुद्ध + रति = प्रीति, अर्थात् जो प्रोतिसे विरुद्ध नहीं है वह 'अविरत' है । वह अविरति बारह प्रकारकी है
९९. पाँच इन्द्रिय, छठा मन तथा पाँच स्थावर जीव, और एक त्रस जीव ये सब मिलाकर उसके कुल बारह प्रकार हैं ।
१००. ऐसा सिद्धांत है कि कृतिके बिना जीवको पाप नहीं लगता । उस कृतिकी जब तक विरति नहीं की तब तक अविरतिपनेका पाप लगता है । समस्त चौदह राजूलोक मेंसे उसकी पाप-क्रिया चली आती है ।
१०१. कोई जीव किसी पदार्थकी योजना कर मर जाये, और उस पदार्थ की योजना इस प्रकारकों हो कि वह योजित पदार्थ जब तक रहे, तब तक उससे पापक्रिया हुआ करे; तो तब तक उस जीवको अविरतिपनेकी पापक्रिया चलो आती है । यद्यपि जीवने दूसरे पर्यायको धारण किया होनेसे पहलेके पर्याय समय जिस जिस पदार्थ की योजना की है उसका उसे पता नहीं है तो भी, तथा वर्तमान पर्यायके समय वह जीव उस योजित पदार्थकी क्रिया नहीं करता तो भी, जब तक उसका मोहभाव विरतिपनेको प्राप्त नहीं हुआ तब तक, अव्यक्तरूपसे उसकी क्रिया चली आती है ।
१०२. वर्तमान पर्यायके समय उसके अनजानपनेका लाभ उसे नहीं मिल सकता । उस जीवको समझना चाहिये था कि इस पदार्थसे होनेवाला प्रयोग जब तक कायम रहेगा तब तक उसकी पापक्रिया चालू रहेगी । उस योजित पदार्थसे अव्यक्तरूपसे भी होनेवाली (लगनेवाली) क्रियासे मुक्त होना हो तो मोहभावको छोड़ना चाहिये । मोह छोड़नेसे अर्थात् विरतिपन करनेसे पापक्रिया बंध होती है । उस विरतिपनेको उसी पर्याय में अपनाया जाये, अर्थात् योजित पदार्थके ही भवमें अपनाया जाये तो वह पापक्रिया, जबसे विरतिपना ग्रहण करे तवसे आनी बंद होती है । यहाँ जो पापक्रिया लगती है वह चारित्रमोहनोयके कारण आती है । वह मोहभावका क्षय हो जानेसे आनी बंद होती है।
१०३. क्रिया दो प्रकारसे होती है - एक व्यक्त अर्थात् प्रगटरूपसे और दूसरी अव्यक्त अर्थात् अप्रगटरूपसे । यद्यपि अव्यक्तरूपसे होनेवाली क्रिया सबसे जानी नहीं जा सकती, इसलिये नहीं होती ऐसी बात तो नहीं है ।
१०४. पानीमें लहरे अथवा हिलोरें स्पष्टता से मालूम होती हैं; परन्तु उस पानीमें गंधक या कस्तूरी डाल दी हो, और वह पानी शांत स्थितिमें हो तो भी उसमें गंधक या कस्तूरीकी जो क्रिया है वह यद्यपि दोखती नहीं है, तथापि उसमें अव्यक्तरूपसे रही हुई है । इस तरह अव्यक्तरूपसे होनेवाली क्रियामें श्रद्धा न की जाये और मात्र व्यक्तरूप क्रियामें श्रद्धा की जाये, तो एक ज्ञानी जिसमें अविरतिरूप क्रिया नहीं होती वह भाव और दूसरा निद्राधीन मनुष्य जो व्यक्तरूपसे कुछ भी क्रिया नहीं करता वह भाव, दोनों एकसे लगते हैं, परन्तु वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। निद्राधीन मनुष्यको अव्यक्तरूपसे क्रिया लगती है । इसी तरह जो मनुष्य (जीव ) चारित्रमोहनीय नामकी निद्रामें सोया हुआ है उसे अव्यक्त क्रिया नहीं लगती ऐसा नहीं है। यदि मोहभावका क्षय हो जाये तो ही अविरतिरूप चारित्रमोहनीय क्रिया बंद होती है, उससे पहले बंद नहीं होती ।
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श्रीमद राजचन्द्र क्रियासे होनेवाला बंध मुख्यतः पाँच प्रकारका है
१ मिथ्यात्व २ अविरति ३ कषाय .
४ प्रमाद
५ योग
: ..
१०५. जब तक मिथ्यात्वका अस्तित्व हो तब तक अविरतिपना निर्मूल नहीं होता अर्थात् नष्ट नहीं होता, परन्तु यदि मिथ्यात्व दूर हो जाये तो अविरतिपना दूर होना चाहिये, यह निःसंदेह है; क्योंकि मिथ्यात्वसहित विरतिपनेको अपनानेसे मोहभाव नहीं जाता। जब तक मोहभाव विद्यमान है तब तक अभ्यन्तर विरतिपना नहीं होता, और मुख्यतासे रहे हुए मोहभावका नाश हो जानेसे अभ्यन्तर अविरतिपन नहीं रहता, और यदि वाह्य विरतिपना अपनाया न गया हो तो भी यदि अभ्यंतर हो तो सहज ही वाहर आ जाता है।
१०६. अभ्यंतर विरतिपना प्राप्त होनेके पश्चात् और उदयाधीन बाह्य विरतिपना न अपना सके तो भी, जब उदयकाल सम्पूर्ण हो जाये तब सहज ही विरतिपना रहता है, क्योंकि अभ्यंतर विरतिपन पहलेसे ही प्राप्त है; जिससे अब अविरतिपन है नहीं, कि वह अविरतिपनेकी क्रिया कर सके।
१०७. मोहभावके कारण ही मिथ्यात्व है। मोहभावका क्षय हो जानेसे मिथ्यात्वका प्रतिपक्षी सम्यक्त्व भाव प्रगट होता है । इसलिये वहाँ मोहभाव कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं होता।
१०८. यदि ऐसी आशंका की जाये कि पाँच इंद्रियाँ और छठा मन, तथा पाँच स्थावरकाय और छठी त्रसकाय, यों वारह प्रकारसे विरति अपनायी जाये तो लोकमें रहे हुए जीव और अजीव नामकी राशिके जो दो समूह हैं उनमेंसे पाँच स्थावरकाय और छठी त्रसकाय मिलकर जीवराशिकी विरति हुई; परन्तु लोकमें भटकानेवाली अजीवराशि जो जीवसे भिन्न है, उसकी प्रीतिकी निवृत्ति इसमें नहीं आती, तब तक विरति किस तरह मानी जा सकती है ? इसका समाधान यह है कि पाँच इंद्रियाँ और छठे मनसे जो विरति करना है, उसके विरतिपनमें अजीवराशिकी विरति आ जाती है। . .
१०९. पूर्वकालमें इस जीवने ज्ञानीकी वाणी कभी निश्चयरूपसे नहीं सुनी अथवा वह वाणी सम्यक् प्रकारसे शिरोधार्य नहीं की, ऐसा सर्वदर्शीने कहा है।
११०. सद्गुरु द्वारा उपदिष्ट यथोक्त संयमको पालते हुए अर्थात् सद्गुरुको आज्ञासे चलते हुए पापसे विरति होती है और अभेद्य संसारसमुद्र तरा जाता है।
१११. वस्तुस्वरूप कितने ही स्थानकोंमें आज्ञासे प्रतिष्ठित है, और कितने ही स्थानकोंमें सद्विचारपूर्वक प्रतिष्ठित है, परन्तु इस दुःषमकालकी इतनी अधिक प्रबलता है कि इसके बादके क्षणमें भी विचारपूर्वक प्रतिष्ठितके लिये जीव किस तरह प्रवृत्ति करेगा यह जाननेकी इस कालमें शक्ति दिखाई नहीं देती, इसलिये वहाँ आज्ञापूर्वक प्रतिष्ठित रहना ही योग्य है।
११२. ज्ञानीने कहा है कि 'समझें! क्यों नहीं समझते ? फिर ऐसा अवसर आना दुर्लभ है !'
११३. लोकमें जो पदार्थ है उनके धर्मोंका, देवाधिदेवने अपने ज्ञानमें भासनेसे यथावत् वर्णन किया है। पदार्थ रन धर्मोंसे बाहर जाकर प्रवृत्ति नहीं करते; अर्थात् ज्ञानो महाराजने उन्हें जिस तरह प्रकाशित किया है उनसे भिन्न प्रकारसे वे प्रवर्तन नहीं करते । इसलिये ऐसा कहा है कि वे ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार प्रवर्तन करते हैं । क्योंकि ज्ञानीने पदार्थों के धर्म यथावत् हो कहे हैं।
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११४. काल मूल द्रव्य नहीं है, औपचारिक द्रव्य है; और वह जीव तथा अजीव (अजीवमें-मुख्यतः पुद्गलास्तिकायमें-विशेषरूपसे समझमें आता है) मेंसे उत्पन्न हुआ है; अथवा जीवाजोवकी पर्यायावस्था काल है। प्रत्येक द्रव्यके अनंत धर्म हैं। उनमें ऊर्ध्वप्रचय और तिर्यक्प्रचय ऐसे दो धर्म हैं; और कालमें तिर्यप्रचय धर्म नहीं है, मात्र ऊर्ध्वप्रचय धर्म है।
११५. ऊर्ध्वप्रचयसे पदार्थमें जिस धर्मका उद्भव होता है उस धर्मका तिर्यक्प्रचयसे फिर उसमें समावेश हो जाता है । कालके समयका तिर्यक्प्रचय नहीं है, इसलिये जो समय चला गया वह फिर पीछे नहीं आता।
११६. दिगम्बर मतके अनुसार लोकमें 'कालद्रव्य' के असंख्यात अणु हैं।
११७. प्रत्येक द्रव्यके अनंत धर्म हैं। उनमें कितने ही व्यक्त हैं, कितने ही अव्यक्त हैं, कितने ही मुख्य हैं, कितने ही सामान्य हैं, कितने ही विशेष हैं।
११८. असंख्यातको असंख्यातसे गुना करनेसे भी असंख्यात होता है, अर्थात् असंख्यातके असंख्यात भेद हैं। ....... ...... ... . .
११९. एक अंगुलके असंख्यात भाग-अंश-प्रदेश, वे एक अंगुलमें असंख्यात हैं । "लोकके भी असंख्यात प्रदेश हैं। चाहे जिस दिशाकी समश्रेणिसे असंख्यात होते हैं। इस तरह एकके.बाद एक, दूसरी तीसरी समश्रेणिका योग करनेसे जो योगफल आता है वह एक गुना, दो गुना, तीन गुना, चार गुना होता है परन्तु असंख्यात गुना नहीं होता। परन्तु एक समणि जो असंख्यात प्रदेशवाली है उस समश्रेणिकी दिशावाली सभी समश्रेणियाँ जो असंख्यात गुनी है, उस प्रत्येकको असंख्यातसे गुना करनेसे, इसी तरह दूसरी दिशाको समश्रेणिका भी गुणा करनेसे, और इसी तरह तोसरो दिशाको समश्रेणिका भी गुना करनेसे असंख्यात होते हैं । इस असंख्यातके.भंगोंको जहाँ तक एक दूसरेका गुनाकार किया जा सकता है वहाँ तक असंख्यात होते हैं और जब उस गुणाकारसे कोई गुनाकार करना बाकी नहीं रहता तब असंख्यात पूरा होनेपर उसमें एक मिला देनेसे जघन्यसे जघन्य अनंत होता है।
१२०. जो नय है वह प्रमाणका एक अंश है । जिस नयसे जो धर्म कहा गया है, वहाँ उतना प्रमाण है। इस नयसे जो धर्म कहा गया है, उसके सिवाय वस्तुमें दूसरे जो धर्म हैं उनका निषेध नहीं किया गया है । एक ही समयमें वाणीसे समस्त धर्म नहीं कहे जा सकते। तथा जो जो प्रसंग होता है उस उस प्रसंगपर वहाँ मुख्यतः वही धर्म कहा जाता है। वहाँ वहाँ उस उस नयसे प्रमाण है।
१२१. नयके स्वरूपसे दूर जाकर जो कुछ कहा जाता है वह नय नहीं है, परन्तु नयाभास है, और जहाँ नयाभास है वहाँ मिथ्यात्व सिद्ध होता है।
१२२. नय सात माने हैं। उनके उपनय सात सौ हैं, और विशेष स्वरूपसे अनंत हैं, अर्थात् जितने वचन हैं उतने नय हैं।
१२३. एकान्तिकता ग्रहण करनेका स्वच्छंद जीवको विशेषरूपसे होता है, और एकान्तिकता ग्रहण करनेसे नास्तिकता होती है। उसे न होने देनेके लिये यह नयका स्वरूप कहा गया है। जिसे समझनेसे जीव एकान्तिकता ग्रहण करनेसे रुककर मध्यस्थ रहता है, और मध्यस्थ रहनेसे नास्तिकता अवकाश नहीं पा सकती।
१२४. जो नय कहनेमें आता है वह नय स्वयं कोई वस्तु नहीं है, परन्तु वस्तुका स्वरूप समझने और उसकी सुप्रतीति होनेके लिये प्रमाणका एक अंश हे ।
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श्रीमद राजचन्द्र
१२५. यदि अमुक नयसे कहा गया तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि दूसरे नयसे प्रतीत होनेवाले धर्मका अस्तित्व नहीं है । '
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१२६. केवलज्ञान अर्थात् मात्र ज्ञान ही, उसके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं, और जब ऐसा है तब उसमें दूसरा कुछ नहीं समाता । जब सर्वथा सर्व प्रकारसे रागद्वेषका क्षय हो जाये तभी केवलज्ञान कहा जाता है। यदि किसी अंशमें रागद्वेष हों तो वह चारित्रमोहनीयके कारणसे हैं । जहाँ जितने अंशमें रागद्वेष हैं, वहाँ उतने ही अंशमें अज्ञान है, जिससे वे केवलज्ञानमें समा नहीं सकते, अर्थात् केवलज्ञानमें वे नहीं होते । वे एक दूसरेके प्रतिपक्षी हैं । जहाँ केवलज्ञान है वहाँ रागद्वेष नहीं है अथवा जहाँ रागद्वेष हैं वहाँ केवलज्ञान नहीं है |
१२७. गुण और गुणी एक ही हैं; परन्तु किसी कारण से वे भिन्न भी हैं । सामान्यतः तो गुणोंका समुदाय 'गुणी' है, अर्थात् गुण और गुणी एक ही है, भिन्न-भिन्न वस्तु नहीं हैं । गुणीसे गुण अलग नहीं हो सकता। जैसे मिस्रीका टुकड़ा गुणी है और मिठास गुण है । गुणी मिस्री और गुण मिठास वे दोनों साथ ही रहते हैं, मिठास कुछ भिन्न नहीं होतो; तथापि गुण और गुणी किसी अंशसे भेदवाले हैं ।
१२८. केवलज्ञानीका आत्मा भी देहव्यापक क्षेत्रावगाहित है; फिर भी लोकालोकके समस्त पदार्थ, जो देहसे दूर है, उन्हें भी एकदम जान सकता है ।
१२९. स्व-परको अलग करनेवाला जो ज्ञान है वही ज्ञान है । इस ज्ञानको प्रयोजनभूत कहा गया है । इसके सिवाय जो ज्ञान है वह अज्ञान है। शुद्ध आत्मदशारूप शांत जिन है । उसकी प्रतीति जिनप्रतिबिंब सूचित करता है । उस शांत दशाको पाने के लिये जो परिणति, अथवा अनुकरण अथवा मार्ग है उसका नाम 'जैन' – जिस मार्गपर चलनेसे जैनत्व प्राप्त होता है ।
१३०. यह मार्ग आत्मगुणरोधक नहीं है परन्तु बोधक है, अर्थात् आत्मगुणको प्रगट करता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । यह बात परोक्ष नहीं परन्तु प्रत्यक्ष है । प्रतीति करनेके अभिलाषीको पुरुषार्थं करने से सुप्रतीत होकर प्रत्यक्ष अनुभवगम्य हो जाता है ।
. १३१. सूत्र और सिद्धांत ये दोनों भिन्न हैं । रक्षण करनेके लिये सिद्धांत सूत्ररूपी पेटीमें रखे गये हैं । देश-कालके अनुसार सूत्र रचे अर्थात् गूंथे जाते हैं; और उनमें सिद्धांत गूंथे जाते हैं । वे सिद्धांत चाहे जिस कालमें, चाहे जिस क्षेत्रमें बदलते नहीं हैं, अथवा खंडित नहीं होते; और यदि वे खंडित हो जायें तो वे सिद्धांत नहीं हैं ।
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१३२. सिद्धांत गणितकी तरह प्रत्यक्ष हैं, इसलिये उनमें किसी तरहकी भूल या अधूरापन नहीं रहता । अक्षर विकल अर्थात् मात्रा, शिरोरेखा आदिके बिना हों तो उन्हें सुधारकर मनुष्य पढ़ लेते हैं; परन्तु यदि अंकों की भूल हो तो हिसाब झूठा ठहरता है, इसलिये अंक विकल नहीं होते। इस दृष्टांतको उपदेशमार्ग और सिद्धान्तमार्गपर घटायें ।
.
१३३. सिद्धांत चाहे जिस देशमें, चाहे जिस भाषामें और चाहे जिस कालमें लिखे गये हों तो भी वे असिद्धांत नहीं हो जाते । उदाहरणरूपमें दो और दो चार होते हैं । फिर चाहे वे गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, चीनी, अरबी, फारसी या अंगरेजी भाषामें क्यों न लिखे गये हों । उन अंकोंको चाहे जिस संज्ञासे पहचाना जाये तो भी दो और दोका योगफल चार ही होता है यह बात प्रत्यक्ष है । जैसे नौ नवाँ इक्यासी उसे चाहे जिस देशमें, चाहे जिस भाषामें, और दिन-दहाड़े या काली रात में गिना जाये तो भी अस्सी या वियासी नहीं होते, परन्तु इक्यासी ही होते हैं । यही बात सिद्धांतकी भी है ।
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७६५ - १३४. सिद्धांत प्रत्यक्ष है, ज्ञानीका अनुभवसिद्ध विषय है। उनमें अनुमान काम नहीं आता । अनुमान तो तर्कका विषय है, और तर्क आगे बढ़नेपर कितनी ही बार झूठा भी हो जाता है; परन्तु प्रत्यक्ष जो अनुभवसिद्ध है उसमें कुछ भी असत्यता नहीं रहती। .. .
१३५. जिसे गुणन या जोड़का ज्ञान हुआ है वह यह कहता है कि नौ नवाँ इक्यासी, परन्तु जिसे जोड़ अथवा गुणनका ज्ञान नहीं हुआ, अर्थात् क्षयोपशम नहीं हुआ वह अनुमानसे या तकसे यों कहे कि 'अट्टानवे होते हों तो क्यों न कहा जा सके ?'. तो इसमें कुछ आश्चर्य करने जैसी बात नहीं है, क्योंकि उसे ज्ञान न होनेसे वैसा कहता है यह स्वाभाविक है। परन्तु यदि उसे गुणनको रीतिको अलग अलग करके, एकसे नौ तक अंक बताकर नौ बार गिनाया जाये तो इक्यासी होनेसे अनुभवगम्य हो जानेसे उसे सिद्ध होते हैं। कदाचित् उसके मंद क्षयोपशमसे, गुणन अथवा जोड़ करनेसे इक्यासी समझमें न आयें. तो भी इक्यासी होते हैं इसमें फर्क नहीं है। इसी तरह आवरणके कारण सिद्धांत समझमें न आयें तो भी वे असिद्धांत नहीं हो जाते इस बातकी अवश्य प्रतीति रखें। फिर भी प्रतीति करनेकी ज़रूरत हो तो उसमें बताये अनुसार करनेसे. प्रतीति हो जानेसे प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध होता है। : १३६. जब तक अनुभवसिद्ध न हो तब तक सुप्रतीति रखनेकी जरूरत है, और सुप्रतीतिसे क्रमशः अनुभवसिद्ध होता है।
..१३७. सिद्धांतके दृष्टांत-(१) 'रागद्वेषसे बंध होता है।' (२) 'बंधका क्षय होनेसे मुक्ति होती है।' इस सिद्धांतंकी प्रतीति करनी हो तो रागद्वेष छोड़ें। यदि सर्व प्रकारसे रागद्वेष छूट जायें तो आत्माका सर्व प्रकारसे मोक्ष हो जाता है। आत्मा बंधनके कारण मुक्त नहीं हो सकता। बंधन छूटा कि मुक्त है। बंधन होनेके कारण रागद्वेष हैं। जहाँ रागद्वेष सर्वथा छूटे कि बंधसे छूट ही गया है। इसमें कोई प्रश्न या शंका नहीं रहती। .. . १३८. जिस समय रागद्वेषका सर्वथा क्षय होता है, उसे दूसरे ही समयमें 'केवलज्ञान' होता है ।
१३९. जीवं पहले गुणस्थानकमेंसे आगे नहीं जाता.। आगे जानेका विचार नहीं करता । पहलेसे आगे किस तरह बढ़ा जा सकता है ? उसके क्या उपाय हैं ? किस तरह पुरुषार्थ करे ? उसका विचार भी नहीं करता; और जब बातें करने बैठता है तब ऐसी करता है. कि इस क्षेत्रमें इस कालमें तेरहवाँ गुणस्थानक प्राप्त नहीं होता। ऐसी ऐसी गहन बातें, जो अपनी शक्तिके वाहरकी है, उन्हें वह कैसे समझ सकता है ? अर्थात् अपनेको जितना क्षयोपशम हो उसके अतिरिक्तकी वातें करने बैठे तो वे समझी ही नहीं जा सकती...., . . ... ... ...
. १४०. ग्रन्थि पहले गुणस्थानकमें है, उसका भेदन करके आगे बढकर संसारो जीव चौथे गुणस्थानक तक नहीं पहुंचे। कोई जीव निर्जरा करनेसे ऊँचे भावोंमें आनेसे, पहले से निकलनेका विचार करके, ग्रन्थिभेदके समीप आता है, परन्तु वहाँ उसपर ग्रन्थिका इतना अधिक जोर होता है कि ग्रन्थिभेद करने में शिथिल होकर जीव रुक, जाता है, और इस प्रकार मंद होकर वापस लौटता है। इस तरह जीव अनंत . बार ग्रंथिभेदके समीप आकर वापस लौट गया है। कोई जीव प्रवल पुरुषार्थ करके, निमित्त कारणका
योग पाकर पूर्ण शक्ति लगाकर ग्रंथिभेद करके आगे बढ़ जाता है, और जब ग्रन्थिभेद करके आगे बढा कि चौथेमें आ जाता है, और चौथेमें आया कि जल्दी या देरसे मोक्ष होगा, ऐसी उस जीवको मुहर लग जाती है।
१४१. इस गणस्थानकका नाम 'अविरतिसम्यग्दृष्टि' है, जहा विरतिपनेके बिना सम्यक ज्ञानदर्शन है।
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श्रीमद् राजचन्द्र
. १४२. यह कहा जाता है कि तेरहवाँ गुणस्थानक इस कालमें और इस क्षेत्रसे प्राप्त नहीं होता; परन्तु ऐसा कहनेवाले पहले गुणस्थानकमेंसे भी नहीं निकलते । यदि वे पहले से निकलकर चौथे तक आये, और वहाँ पुरुषार्थ करके सातवें अप्रमत्त गुणस्थानक तक पहुँच जायें, तो भी यह एक बड़ोसे बड़ी बात है। सातवें तक पहुंचे बिना उसके बादकी दशाकी सुप्रतीति हो सकना मुश्किल है। .
१४३. आत्मामें जो प्रमादरहित जागृतदशा है वही सातवाँ गुणस्थानक है । वहाँ तक पहुँच जानेसे उसमें सम्यक्त्व समा जाता है। जीव चौथे गुणस्थानकमें आकर वहाँसे पाँचवें 'देशविरति', छठे 'सर्वविरति' और सातवें 'प्रमादरहित विरति' में पहुँचता है। वहाँ पहुँचनेसे आगेकी दशाका अंशतः अनुभव अथवा सुप्रतीति होती है । चौथे गुणस्थानकवाला जीव सातवें गुणस्थानकमें पहुँचनेवालेकी दशाका यदि विचार करे तो किसी अंशसे प्रतीति हो सकती है। परन्तु पहले गुणस्थानकवाला जीव उसका विचार करे तो वह किस तरह प्रतीतिमें आ सकता है ? क्योंकि उसे जाननेका साधन जो आवरणरहित होना है वह पहले गुणस्थानकवालेके पास नहीं होता। . १४४. सम्यक्त्वप्राप्त जीवकी दशाका स्वरूप ही भिन्न होता है। पहले गुणस्थानकवाले जीवकी दशाकी जो स्थिति अथवा भाव है उसकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानकको प्राप्त करनेवालेकी दशाकी स्थिति अथवा भाव भिन्न देखनेमें आते हैं अर्थात् भिन्न हो दशाका वर्तन देखनेमें आता है। .. ....... १४५. पहलेको शिथिल करें तो चौथेमें आये यह कथन मात्र है। चौथेमें आनेके लिये जो वर्तन है वह विषय विचारणीय है।
.१४६. पहले, चौथे, पाँचवें, छटे और सातवें गुणस्थानककी जो बात कही गयी है वह कुछ कथन मात्र अथवा श्रवण मात्र ही है, यह बात नहीं है; परन्तु समझकर वारंवार विचारणीय है। .. __. १४७. हो सके उतना पुरुषार्थ करके आगे बढ़नेकी ज़रूरत है।
१४८. न प्राप्त हो सके ऐसे धैर्य, संहनन, आयुकी पूर्णता इत्यादिके अभावसे कदाचित् सातवें 'गुणस्थानकसे आगेका विचार अनुभवमें नहीं आ सकता, परन्तु सुप्रतीत हो सकता है । ; : .....
१४९. सिंहके दृष्टांतकी तरह :--सिंहको लोहेके मजबूत पिंजरेमें बन्द किया गया हो तो वह अंदर रहा हुआ अपनेको सिंह समझता है, पिंजरेमें बन्द किया हुआ मानता है; और पिंजरेसे बाहरकी भूमि भी देखता है; मात्र लोहेकी मजबूत छड़ोंकी आड़के कारण बाहर नहीं निकल सकता । इसी तरह सातवें गुणस्थानकसे आगेका विचार सुप्रतीत हो सकता है । ... . १५०. इस प्रकार होनेपर भी जीव मतभेद आदि कारणोंसे अवरुद्ध होकर आगे नहीं बढ़ सकता।
१५१. मतभेद अथवा रूढि आदि तुच्छ बातें हैं, अर्थात् उसमें मोक्ष नहीं है । इसलिये वस्तुतः 'सत्यकी प्रतीति करनेकी जरूरत है।
१५२. शुभाशुभ और शुद्धाशुद्ध परिणामपर सारा आधार है। छोटी छोटी बातोंमें भी दोष माना जायें तो उस स्थितिमें मोक्ष नहीं होता। लोकरूढि अथवा. लोकव्यवहार में पड़ा हुआ जोव मोक्षतत्त्वका . रहस्य नहीं जान सकता, उसका कारण यह है कि उसके मनमें रूढि अथवा लोकसंज्ञाको माहात्म्य है। इसलिये बादर क्रियाका निषेध नहीं किया जाता । जो कुछ भी न करता हुआ एकदम अनर्थ करता है उसकी अपेक्षा बादरक्रिया उपयोगी है। तो भी इसका आशय यह भी नहीं है. कि बादरक्रियासे आगे न बढ़े।
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. १५३. जोवको अपनों चतुराई और इच्छानुसार चलना अच्छा लगता है, परन्तु यह जीवका बुरा करनेवाली वस्तु है । इस दोषको दूर करनेके लिये ज्ञानीका यह उपदेश है कि पहले तो किसीको उपदेश नहीं देना है परन्तु पहले स्वयं उपदेश लेना है। जिसमें रागद्वेष न हो उसका संग हुए विना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकता । सम्यक्त्व आनेसे (प्राप्त होनेसे) जीव. बदलता है, (जीवकी दशा बदलती है); अर्थात् प्रतिकूल. हो तो अनुकूल हो जाती है । जिनेन्द्रकी प्रतिमाका (शांतिके लिये) दर्शन करनेसे सातवें गुणस्थानकमें स्थित ज्ञानीकी जो शांतदशा है उसकी प्रतीति होती है ! :. : . .
१५४. जैनमार्गमें आजकल अनेक गच्छ प्रचलित हैं, जैसे कि तपगच्छ, अंचलगच्छ, लुंकागच्छ, खरतरगच्छ इत्यादि । यह प्रत्येक अपनेसे अन्य पक्षवालेको मिथ्यात्वी मानता है । इसी तरह दूसरा विभाग छ कोटि, आठ कोटि इत्यादिका है। यह प्रत्येक अपनेसे अन्य कोटिवालेको मिथ्यात्वी मानता है । वस्तुतः नौ कोटि चाहिये। उनमेंसे जितनी कम उतना कम; और उसकी अपेक्षा भी आगे जायें तो समझमें आता है कि अंतमें नौ कोटि भी छोड़े बिना रास्ता नहीं है। . . ... ... ... ...
१५५. तीर्थंकर आदिने जिस मार्गसे मोक्ष प्राप्त किया वह मार्ग तुच्छ नहीं है। जैनरूढिका अंश भी छोड़ना अत्यंत कठिन लगता है, तो फिर महान तथा महाभारत जैसे मोक्षमार्गको किस तरह ग्रहण किया जा सकेगा? यह विचारणीय है।
१५६. मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय किये बिना सम्यक्त्व नहीं आता। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसकी दशा अद्भुत होती है। वहाँसे पाँचवें, छठे, सातवें और आठवेंमें जाकर दो घड़ीमें मोक्ष हो सकता है। एक सम्यक्त्व प्राप्तकर लेनेसे कैसा अद्भुत कार्य हो जाता है ! इससे सम्यक्त्वकी चमत्कृति अथवा उसका माहात्म्य किसी अंशमें समझा जा सकता है। ::
१५७. दुर्धर पुरुषार्थसे प्राप्त होने योग्य मोक्षमार्ग अनायास प्राप्त नहीं होता। आत्मज्ञान अथवा मोक्षमार्ग किसीके शापसे अप्राप्त नहीं होता, या किसीके आशीर्वादसे प्राप्त नहीं होता । पुरुषार्थके अनुसार होता है, इसलिये पुरुषार्थकी जरूरत है।
.... १५८: सूत्र, सिद्धांत, शास्त्र सत्पुरुषके उपदेशके बिना फल नहीं देते। जो भिन्नता है वह व्यवहार मार्गमें है। मोक्षमार्गमें तो कोई भेद नहीं है, एक ही है। उसे प्राप्त करनेमें जो शिथिलता है उसका निषेध किया गया है । इसमें शूरवीरता ग्रहण करने योग्य है । जीवको अमूच्छित करना ही जरूरी है। ... १५९. विचारवान पुरुषको व्यवहारके भेदसे नहीं घबराना चाहिये। ... १६०. ऊपरकी भूमिकावाला नीचेको भूमिकावालेके बरावर नहीं है, परन्तु नीचेकी भूमिकावालेसे ठीक है। स्वयं जिस व्यवहारमें हो उससे दूसरेका ऊँचा व्यवहार देखनेमें आये, तो उस ऊंचे व्यवहारका निषेध न करे, क्योंकि मोक्षमार्गमें कुछ भी अन्तर नहीं है। तीनों कालमें चाहे जिस क्षेत्रमें जो एक ही सरीखा रहे वही मोक्षमार्ग है। . . . . .. .. .... . ... .
. १६१. अल्पसे अल्प निवृत्ति करनेमें भी जीवको कैंपकंपी होती है तो फिर वैसी अनन्त प्रवत्तियोसे जो मिथ्यात्व होता है, उसकी निवृत्ति करना यह कितना दुर्धर हो जाना चाहिये ? मिथ्यात्वको निवृत्ति हो 'सम्यक्त्व' है।.. . ...
१६२. जीवाजीवकी विचाररूपसे प्रतीति न की गयी हो और कथन माम ही जीवाजीव हे, यों कहे
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श्रीमद राजचन्द्र
तो यह सम्यक्त्व नहीं है। तीर्थंकर आदिने भी पूर्वकालमें इसका आराधन किया है, इसलिये पहलेसे ही उनमें सम्यक्त्व होता है, परन्तु दूसरोंको कुछ अमुक कुलमें, अमुक जातिमें या अमुक वर्गमें अथवा अमुक देशमें उत्पन्न होनेसे जन्मसे ही सम्यक्त्व हो, यह बात नहीं है ।
१६३. विचारके बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञानके बिना सुप्रतीति अर्थात् सम्यक्त्व नहीं होता । सम्यक्त्वके बिना चारित्र नहीं आता, और जब तक चारित्र नहीं आता तब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता, और जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक मोक्ष नहीं है ; ऐसा देखने में आता है ।
१६४. देवका वर्णन । तत्त्व । जीवका स्वरूप !
१६५. कर्मरूपसे रहे हुए परमाणु केवलज्ञानीको दृश्य होते हैं, उनके सिवाय दूसरोंके लिये कोई निश्चित नियम नहीं होता । परमावधिवालेको उनका दृश्य होना सम्भव है, और मनःपर्यायज्ञानीको अमुक देशसे दृश्य होना सम्भव है |
१६६. पदार्थमें अनन्त धर्म (गुण आदि) निहित हैं । उनका अनंतवाँ भाग वाणी से कहा जा सकता है । उसका अनंतवाँ भाग सूत्रमें गूंथा जा सकता है।-
१६७. यथाप्रवृत्तिकरण, अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरणके बाद युंजनकरण और गुणकरण है । युंजनकरणको गुणकरणसे क्षय किया जा सकता है ।
१६८. युंजनकरण अर्थात् प्रकृतिको योजित करना । आत्मगुण जो ज्ञान, और उससे दर्शन, और उससे चारित्र, ऐसे गुणकरणसे युंजनकरणका क्षय किया जा सकता है । अमुक अमुक प्रकृति जो आत्मगुणरोधक है उसका गुणकरणसे क्षय किया जा सकता है । ...
१६९. कर्मप्रकृति, उसके सूक्ष्मसे सूक्ष्मभाव, उसके बंध, उदय, उदीरणा, संक्रमण, सत्ता और क्षयभाव जो बताये गये हैं (वर्णित किये गये हैं ), वे परम सामर्थ्यके जिना वर्णित नहीं किये जा सकते । ...इनका वर्णन करनेवाला जीवकोटिका पुरुष नहीं, परन्तु ईश्वरकोटिका पुरुष होना चाहिये, ऐसी सुप्रतीति होती है । क
1.
१७०. किस किस प्रकृतिका कैसे रससे क्षय हुआ होना चाहिये ? कौनसी प्रकृति सत्ता में हैं ? कौनसो उदयमें है किसने संक्रमण किया है ? इत्यादिका विधान करनेवालेने, उपर्युक्त के अनुसार प्रकृतिके स्वरूपको माप-तोल कर कहा है. उनके इस परमज्ञानकी बात एक ओर रहने दें तो भी यह कहनेवाला ईश्वरकोटिका का पुरुष होना चाहिये, यह निश्चित होता है ।
१७१. जातिस्मरणज्ञान मतिज्ञानके 'धारणा' नामके भेदके अंतर्गत है । वह पिछले भव जान सकता है । जहाँ तक पिछले भवमें असंज्ञीपना न आया हो वहाँ तक वह आगे चल सकता है ।
. १७२. (१) तीर्थंकरने आज्ञा न दी हो और जीव अपनी वस्तुके सिवाय परवस्तुका जो कुछ ग्रहण करता है वह पराया लिया हुआ और अदत्त' गिना जाता है । उस अदत्तमेंसे तीर्थंकरने परवस्तु जितनी ग्रहण करनेकी छूट दी है उतनेको अदत्त नहीं गिना जाता । (२) गुरुकी आज्ञाके अनुसार किये हुए वर्तनके सम्बन्धमें अदत्त नहीं गिना जाता
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व्याख्यानसार-१
. ७६९. १७३. उपदेशके मुख्य चार प्रकार हैं-(१) द्रव्यानुयोग, (२.) चरणानुयोग; (३ ) गणितानुयोग, (४) धर्मकथानुयोग। .. .. .. .. .. ... .. . ....(१) लोकमें रहनेवाले द्रव्य, उनका स्वरूप, उनका गुण, धर्म, हेतु, अहेतु, पर्याय आदि अनंतानंत प्रकारके है, उनका जिसमें वर्णन है वह द्रव्यानुयोग' है। ...
.. ..... . (२) इस द्रव्यानुयोगका स्वरूप समझमें आनेके बाद, आचरण संबंधी वर्णन जिसमें है वहः 'चरणानुयोग' है।...
(३) द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोगकी गिनतीके प्रमाण, तथा लोकमें रहनेवाले पदार्थ, भाव, क्षेत्र, काल आदिकी गिनतीके प्रमाणका जो वर्णन है वह 'गणितानुयोग' है।
(४) सत्पुरुषोंके धर्मचरित्रोंकी कथाएं, जिनका बोध लेनेसे वें गिरनेवाले जीवको अवलंबनभत सिद्ध होती हैं, वह 'धर्मकथानुयोग' है। ', ' . . ::
- १७४. परमाणुमें रहनेवाले गुण, स्वभाव आदि स्थिर रहते हैं, और पर्याय बदलते हैं। दृष्टांतरूपमें :--पानीमें रहनेवाला शीत-गुण नहीं बदलता, परन्तु पानीमें जो तरंगें उठती हैं वे बदलती हैं अर्थात् वे एकके बाद एक उठकर उसमें समा जाती हैं । इस प्रकार पर्याय, अवस्था अवस्थांतर हुआ करते हैं। इससे पानी में रहनेवाली शीतलता अथवा पानीपन नहीं बदलते, परन्तु स्थिर रहते हैं; और पर्यायरूप तरंगें बदलती रहती हैं। इसी तरह उस गुणकी हानिवृद्धिरूप परिवर्तन भी पर्याय है। उसके विचारसे प्रतीति, प्रतीतिसे त्याग और त्यागसे ज्ञान होता है।
१७५. तेजस और कार्मण शरीर स्थूलदेहप्रमाण हैं। तेजस शरीर गरमी करता है, तथा आहारको पचानेका काम करता है। शरीरके अमुक अमुक अंग घिसनेसे गरम मालूम होते हैं, वे तेजसके कारणसे मालूम होते हैं। सिरपर घृत आदि रखकर उस (तेजस) शरीरकी परीक्षा करनेकी जो रूढि है, उसका अर्थ यह है कि वह शरीर स्थूल शरीरमें है या नहीं? अर्थात् स्थूल शरीरमें जीवकी भांति वह सारे शरीरमें रहता है। ..... -.. १७६. इसी तरह कार्मण शरीरं भी है, जो तेजसकी अपेक्षा सूक्ष्म है । वह भी तेजसकी तरह रहता है। स्थूल शरीरमें पीड़ा होती है, अथवा क्रोध आदि होते हैं, वही कार्मण शरीर है। कार्मणसे क्रोध आदि होकर तेजोलेश्या आदि उत्पन्न होते हैं। वेदनाका अनुभव जीव करता है, परन्तु वेदना कार्मण शरीरके कारण होती है। कार्मण शरीर जीवका अवलंबन है। .......... ....... १७७: उपर्युक्त चार अनुयोगों तथा उनके सूक्ष्म भावोंका. स्वरूप जीवके लिये वारंवार विचारणीय है, ज्ञेय है। वह परिणाममें निर्जराका हेतु होता है, अथवा उससे निर्जरा होती है। चित्तको स्थिरता करनेके लिये. यह सब कहा गया है; क्योंकि इस सूक्ष्मसे सूक्ष्म स्वरूपको यदि जीवने कुछ जाना हो तो उसके लिये वारंवार विचार करना होता है, और वैसे विषारसे जीवकी वाह्यवृत्ति न होकर, वह विचार करने तक अन्दरकी अन्दर ही समायी रहती है। ... ..... . .. ... ..
१७८. अंतरविचारका साधन न हो तो :जीवकी वृत्ति बाह्य वस्तुपर जाकर अनेक प्रकारकी योजनाएं की जाती हैं। जीवको आलंबनकी जरूरत है। उसे खाली बैठे रहना ठीक नहीं लगता । उसे ऐसी ही आदत पड़ गयी है; इसलिये यदि उक्त पदार्थोंका ज्ञान हुआ हो तो उसके विचारके कारण सत. चित्वृत्ति बाहर जानेके बदले भीतर समायो रहती है, और ऐसा होनेसे निर्जरा होती है।
१७९. पुद्गल, परमाणु और उसके पर्याय आदिको सुक्ष्मता है, वह जितनी वाणीगोचर हो सकती है उतनी कही गयी है। वह इसलिये कि ये पदार्थ मूर्त हैं, अमूर्त नहीं है। मूर्त होनेपर भी इतने सूक्ष्म
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७७०.
श्रीमत् राजचन्द्र - हैं कि उनका वारंवार विचार करनेसे उनका स्वरूप समझमें आता है, और उस तरह समझमें आनेसे उनसे सूक्ष्म अरूपी ऐसे आत्मा संबंधी जाननेका काम सरल हो जाता है। '... १८०. मान और मताग्रह ये मार्गप्राप्तिमें अवरोधक स्तम्भरूप हैं। उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता, और इसलिये मार्ग समझमें नहीं आता। समझनेमें विनय-भक्तिकी प्रथम जरूरत है। वह भक्ति मान, मताग्रहके कारण अपनायी नहीं जा सकती। ......
१८१. ( १ ) वाचना, ( २ ) पृच्छना, ( ३ ) परावर्तना, ( ४ ) चित्तको निश्चयमें लाना, ( ५ ) धर्मकथा । वेदान्तमें भी श्रवण, मनन और निदिध्यासन । ये भेद बताएँ हैं। ___ १८२. उत्तराध्ययनमें धर्मके मुख्य चार अंग कहें हैं :-( १ ) मनुष्यता, ( २.) सत्पुरुषके वचनोंका श्रवण, ( ३ ) उनकी प्रतीति, (४) धर्म में प्रवर्तनं करना । ये चार वस्तुएँ दुर्लभ हैं। . १८३. मिथ्यात्वके दो भेद हैं-( १ ) व्यक्त, ( २ ) अव्यक्त । उसके तीन भेद भी किये हैं- (१) उत्कृष्ट, ( २ ) मध्यम, (३) जघन्य | जब तक मिथ्यात्व होता है तब तक जीव पहले गुणस्थानकसे बाहर नहीं निकलता। तथा जब तक उत्कृष्ट मिथ्यात्व होता है तब तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानक नहीं माना जाता । गुणस्थानक जीवाश्रयी है।
. .. १८४. मिथ्यात्व द्वारा मिथ्यात्व मंद पड़ता हैं, और इसलिये वह जरा आगे चला कि तुरत वह मिथ्यात्व गुणस्थानकमें आता है। ... १८५. गुणस्थानक यह आत्माके गुणको लेकर होता है । . .. ...
१८६. मिथ्यात्वमें से जीव सम्पूर्ण न निकला हो परन्तु थोड़ा निकला हो तो भी उससे मिथ्यात्व मंद पड़ता है। यह मिथ्यात्व भी मिथ्यात्वसे मंद होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानकमें भी मिथ्यात्वका अंश कषाय हो, उस अंशसे भी मिथ्यात्वमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानक कहा जाता है। ..............
१८७. प्रयोजनभूत ज्ञानके मूलमें, पूर्ण प्रतीतिमें, वैसे ही आकारमें मिलते-जुलते अन्य मार्गको समानताके अंशसे समानतारूप प्रतीति होना मिश्रगुणस्थानक है। परंतु अमुक दर्शन सत्य है, और अमुक दर्शन भी सत्य है, ऐसी दोनोंपर एकसी प्रतीति होना मिश्र नहीं. परंतु मिथ्यात्वगुणस्थानक है.। अमुक दर्शनसे अमुक दर्शन अमुक अंशमें मिलता जुलता है, ऐसा कहनेमें सम्यक्त्वको बाधा नहीं आती; क्योंकि वहाँ तो अमुक दर्शनकी दूसरे दर्शनके साथ समानता करने में पहला दर्शन सम्पूर्णरूपसे प्रतीतिरूप होता है.। .. . .. १८८. पहले गुणस्थानकसे दूसरेमें नहीं जाया जाता, परन्तु चौथेसे वापस लौटते हुए पहलेमें आनेके बीचका अमुक काल दूसरा गुणस्थानक है.। उसे यदि चौथेके बाद. पांचवा.माना जाये तो चौथेसे पाँचवाँ ऊँचा ठहरता है और यहाँ तो. सास्वादन चौथेसे पतित हुआ . माना गया है, अर्थात् वह नीचा है इसलिये पाँचवाँ नहीं कहा जा सकता परन्तु दूसरा कहना ठीक है.।. , ..:..: ...
१८९. आवरण है यह बात निःसंदेह है, जिसे श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों कहते हैं; परन्तु आवरणको साथ लेकर कहने में एक दूसरेसे थोड़ा भेदवाला है।
१९०. दिगम्बर कहते हैं कि केवलज्ञान सत्तारूपसे नहीं परन्तु शक्तिरूपसे है। . १९१. यद्यपि सत्ता और शक्तिका सामान्य अर्थ एक है, परन्तु विशेषार्थकी दृष्टि से कुछ फ़र्क है।
"... .१९२. दृढतापूर्वक ओघ आस्थासे, विचारपूर्वक अभ्याससे 'विचारसंहित आस्था' होती है।
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व्याख्यानसार-१
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१९३, तीर्थंकर जैसे भी संसारपक्षमें विशेष - विशेष समृद्धि के स्वामी थे, फिर भी उन्हें भी त्याग" करनेकी, जरूरत पड़ी थी, तो फिर अन्य जीवोंको वैसा किये बिना छुटकारा नहीं है ।
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• १९४. त्यागके दो प्रकार हैं :- एक बाह्य और दूसरा अभ्यंतर । इसमेंसे बाह्य त्याग अभ्यंतर त्यागका सहकारी है | त्यागके साथ वैराग्य जोड़ा जाता है, क्योंकि वैराग्य होनेपर ही त्याग होता है ।
१९५. जीव ऐसा मानता है कि 'मैं कुछ समझता हूँ, और जब मैं त्याग करना चाहूँगा तब एकदम त्याग कर सकूँगा', परन्तु यह मानना भूलभरा होता है । जव तक ऐसा प्रसंग नहीं आया तब तक अपना जोर रहता है । जब ऐसा समय आता है तब शिथिल - परिणामी होकर मंद पड़ जाता है । इसलिये धीरे धीरे जीव जाँच करें और त्यागका परिचय करने लगे, जिससे मालूम हो कि त्याग करते समय परिणाम कैसे शिथिल हो जाते हैं ?
१९६. आँख, जीभ आदि इंद्रियोंकी एक एक अंगुल जितनी जगहको जीतना भी जिसके लिये मुश्किल हो जाता है, अथवा जीतना असंभव हो जाता है; उसे बड़ा पराक्रम करनेका अथवा बड़ा क्षेत्र जीतनेका काम सौंपा हो तो वह किस तरह बन सकता है ? 'एकदम त्याग करनेका समय आये, तबकी बात तब ', इस विचारकी ओर ध्यान रखकर अभी तो धीरे धीरे त्यागकी कसरत करनेकी जरूरत है । उसमें भी शरीर और शरीरके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सगे-सम्बन्धियोंके बारेमें पहले आजमाइश करनी है; और शरीरमें भी पहले आँख, जीभ और उपस्थ इन तीन इंद्रियोंके विषयको देश-देशसे त्याग करनेकी तरफ लगाना है, और इसके अभ्याससे एकदम त्याग सुगम हो जाता है ।
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१९७. अभी जाँच के तौरपर अंश अंशसे, जितना जितना त्याग करना है उसमें भी शिथिलता नहीं रखना, तथा रूढिका अनुसरण करके त्याग करनेकी बात भी नहीं है । जो कुछ त्याग करना वह शिथिलतारहित तथा छूट - छाटरहित करना, अथवा छूट छाट रखने की जरूरत हो तो वह भी निश्चितरूपसे खुले तौरसे रखना, परन्तु ऐसी न रखना कि उसका अर्थ जिस समय जैसा करना हो वैसा हो सके। जब जिसकी जरूरत पड़े तब उसका इच्छानुसार अर्थ हो सके ऐसी व्यवस्था ही त्यागमें नहीं रखना । यदि ऐसी व्यवस्था की जाय कि अनिश्चितरूपसे अर्थात् जब जरूरत पड़े तब मनमाना अर्थ हो सके, तो जीव शिथिल- परिणामी होकर त्याग किया हुआ सब कुछ बिगाड़ डालता है ।
१९८. यदि अंशसे भी त्याग करें तो पहलेसे ही उसकी मर्यादा निश्चित करके और साक्षी रखकर त्याग करें, तथा त्याग करनेके बाद अपना मनमाना अर्थ न करें ।
१९९. संसारमें परिभ्रमण करानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभकी चौकड़ीरूप कपाय है, उसका स्वरूप भी समझने योग्य है । उसमें भी जो अनंतानुबंधी कषाय है वह अनंत संसार में भटकानेवाला है । उस कषायं के क्षय होने का क्रम सामान्यतः इस तरह है कि पहले क्रोधका और फिर क्रमसे मान, माया और लोभका क्षय होता है, और उसके उदय होनेका क्रम सामान्यतः इस तरह है कि पहले मान और फिर क्रमसे, लोभ, माया और क्रोधका उदय होता है ।
२००. इस कपायके असंख्यात भेद हैं। जिस रूपमें कपाय होता है उस रूपमें जीव संसार-परिभ्रमणके लिये कर्मबंध करता है । कषायमें बड़ेसे बड़ा बंध अनंतानुबंधी कपायका है। जो अंतर्मुहूर्त में चालीस कोड़ाकोडी सागरोपमका बंध करता है, उस अनंतानुबंधोका स्वरूप भी जबरदस्त है । वह इस तरहकी मिथ्यात्वमोहरूपी एक राजाको भलीभांति हिफाजत से सैन्यके मध्यभागमें रखकर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार उसकी रक्षा करते हैं, और जिस समय जिसकी जरूरत होती है उस समय वह
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श्रीमद् राजचन्द्र विना बुलाये मिथ्यात्वमोहकी सेवामें लग जाता है। इसके अतिरिक्त नोकवायरूप दूसरा परिवार है वह कपायके अग्रभागमें रहकर मिथ्यात्वमोहकी रखवाली करता है, परन्तु ये दूसरे सब चौकीदार नहीं-जैसे कपायका काम करते हैं। भटकानेवाला तो कषाय है । और उस कषायमें भी अनंतानुवंधी कषायके चार योद्धा बहुत ही मार डालते हैं। इन चार योद्धाओंमेंसे क्रोधका स्वभाव दूसरे तीनकी अपेक्षा कुछ भोला मालूम, पड़ता है; क्योंकि उसका स्वरूप सबकी अपेक्षा जल्दी मालूम हो सकता है। इस तरह जब जिसका स्वरूप जल्दो मालूम हो जाये तब उसके साथ लड़ाई करने में क्रोधीकी प्रतीति हो जानेसे लड़नेकी हिम्मत आती है।
२०१. घनघाती चार कर्म-मोहनीय; ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय; जो आत्माके गुणोंको आवरण करनेवाले हैं । उनका एक प्रकारसे क्षय करना सरल भी है । वेदनीय आदि कर्म जो घन: घाती नहीं हैं तो भी उनका एक प्रकारसे क्षय करना कठिन है। वह इस तरह कि.वेदनीय आदि कर्मका उदय प्राप्त हो तो उनका क्षय करनेके लिये उन्हें भोगना चाहिये; उन्हें न भोगनेकी इच्छा हो तो भी. वहाँ वह काम नहीं आती, भोगने ही चाहिये; और ज्ञानावरणीयका उदय हो तो यत्न करनेसे उसका क्षय हो जाता है। उदाहरणरूपमें, कोई श्लोक ज्ञानावरणीयके उदयसे याद न रहता हो तो उसे दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौसठ, सौ अर्थात् अधिक बार रटनेसे ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम अथवा क्षय होकर याद रहता है; अर्थात् बलवान हो जानेसे उसका उसी भवमें अमुक अंशमें क्षय किया जा सकता है। इसी तरह दर्शनावरणीय कर्मके सम्बन्धमें समझें। मोहनीयकर्म जो महा बलशाली एवं भोला भी है, वह तुरत क्षय किया जा सकता है। जैसे उसका आना, आनेका वेग प्रबल है, वैसे वह जल्दीसे दूर भी हो सकता है। मोहनीयकर्मका तीन बंध होता है, तो भी वह प्रदेशबंध न होनेसे तुरत. क्षय किया जा सकता है। नाम, आयु आदि कर्म जिनका प्रदेशबंध होता है वे केवलज्ञानं उत्पन्न होनेके बाद भी अंत तक भोगने पड़ते हैं; जब कि मोहनीय आदि चार कर्म उससे पहले ही क्षीण हो जाते हैं।
___२०२. 'उन्माद' यह चारित्रमोहनीयका विशेष पर्याय हैं। वह क्वचित् हास्य, क्वचित् शोक, क्वचित् रति, क्वचित् अरति, क्वचित् भय, और क्वचित् जुगुप्सारूपसे दिखायी देता है। कुछ अंशसे उसका ज्ञानावरणीयमें भी समावेश होता है । स्वप्नमें विशेषरूपसे ज्ञानावरणीयके पर्याय मालूम होते हैं। ......
२०३. 'संज्ञा' यह ज्ञानका भाग है। परन्तु 'परिग्रहसंज्ञा'का 'लोभप्रकृति' में समावेश होता है; 'मैथुनसंज्ञा'का वेदप्रकृतिमें समावेश होता है; 'आहारसंज्ञा'का वेदनीयमें समावेश होता है; और 'भयसंज्ञा'का भयप्रकृतिमें समावेश होता है। :: . . . . . . . . . . . . .
२०४. अनंत प्रकारके कर्म मुख्य आठ प्रकारसे और उत्तर एक सौ अट्ठावन प्रकारसे 'प्रकृति'के नामसे पहचाने जाते हैं। वह इस तरह कि अमुक अमुक प्रकृति अमुक अमुक गुणस्थानक तक होती है। इस तरह मापतोल कर ज्ञानीदेवने दूसरोंको समझानेके लिये स्थूल स्वरूपसे उसका विवेचन किया है। उसमें दूसरे कितने ही तरहके कर्म अर्थात् 'कर्मप्रकृति' का समावेश होता है। अर्थात् जिस जिस प्रकृतिके नाम कर्मग्रंथमें नहीं आते वे सब प्रकृतियाँ उपर्युक्त प्रकृतिके विशेष पर्याय है अथवा वे उपर्युक्त प्रकृतिमें समा जाते हैं। .. . . .
.. . ..... २०५. 'विभाव' अर्थात् 'विरुद्धभाव' नहीं, परन्तु 'विशेषभाव' | - आत्मा आत्मारूपसे परिणमित हो वह 'भाव' है अथवा 'स्वभाव' है। जव आत्मा और जड़का संयोग होनेसे आत्मा स्वभावसे आगे जाकर 'विशेषभाव' से परिणमित हो, वह 'विभाव' है। इसी तरह जड़के वारेमें भी समझें। ..
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व्याख्यानसार-१
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२०६. 'काल' के 'अणु' लोकप्रमाण असंख्यात हैं । उस अणुमें रुक्ष अथवा स्निग्ध गुण नहीं हैं । इसलिये एक अणु दूसरे में नहीं मिलता, और प्रत्येक पृथक पृथक रहता है । परमाणु- पुद्गलमें वह गुण होनेसे मूल सत्ता कायम रहकर उसका ( परमाणु-पुद्गलका) स्कंध होता है ।
२०७. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, (लोक) आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय उसके भी असंख्यात प्रदेश हैं । और उसके प्रदेश में रुक्ष अथवा स्निग्ध गुण नहीं है, फिर भी वे कालकी तरह प्रत्येक अणु अलग अलग रहनेके बदले एक समूह होकर रहते हैं । इसका कारण यह है कि काल प्रदेशात्मक नहीं हैं, परन्तु अणु होकर पृथक् पृथक् है, और धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य प्रदेशात्मक है ।
२०८. वस्तुको समझानेके लिये अमुक नयसे भेदरूपसे वर्णन किया गया है । वस्तुतः वस्तु, उसके गुण और पर्याय यों तोन पृथक् पृथक् नहीं हैं, एक ही है । गुण और पर्यायके कारण वस्तुका स्वरूप समझमें आता है । जैसे मिस्री यह वस्तु, मिठास यह गुण और खुरदरा आकार यह पर्याय है । इन तीनोंको लेकर मिस्त्री है | मिठासवाले गुणके बिना मिस्री पहचानी नहीं जा सकती। वैसा ही कोई खुरदरे आकारवाला टुकड़ा हो, परन्तु उसमें खारेपनका गुण हो तो वह मिस्री नहीं परन्तु नमक है । इस जगह पदार्थकी प्रतीति अथवा ज्ञान, गुणके कारण होता है, इस तरह गुणी और गुण भिन्न नहीं है । फिर भी अमुक कारणको लेकर पदार्थका स्वरूप समझानेके लिये भिन्न कहे गये हैं ।
२०९. गुण और पर्यायके कारण पदार्थ है । यदि वे दोनों न हों तो फिर पदार्थका होना न होनेके बराबर है, क्योंकि वह किस कामका है ?
२१०. एक दूसरेसे विरुद्ध पदवाली ऐसी त्रिपदी पदार्थमात्रमें रही हुई है । ध्रुव अर्थात् सत्ता-अस्तित्व पदार्थका सदा है। उसके होनेपर भी पदार्थ में उत्पाद और व्यय ये दो पद रहते हैं । पूर्व पर्यायका व्यय और उत्तर पर्यायका उत्पाद हुआ करता है ।
२११. इस पर्यायके परिवर्तनसे काल मालूम होता है । अथवा उस पर्यायका परिवर्तन होने में काल सहकारी है ।
२१२. प्रत्येक पदार्थमें समय-समयपर षटचक्र उठता है । वह यह कि संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनंतगुणहानि; जिसका स्वरूप श्री वीतरागदेव अवाक्गोचर कहते हैं ।
२१३. आकाशके प्रदेशकी श्रेणि सम है । विषम मात्र एक प्रदेशकी विदिशाको श्रेणि है । समश्रेणि छः हैं और वे दो प्रदेशी हैं। पदार्थमात्रका गमन समश्रेणिसे होता है, विपमश्रेणिसे नहीं होता । क्योंकि आकाशके प्रदेशकी समश्रेण है । इसी तरह पदार्थमात्र में अगुरुलघु धर्म है । उस धर्मके कारण पदार्थ विषमश्रेणिसे गमन नहीं कर सकता ।
२१४. चक्षुरिद्रिके सिवाय दूसरी इंद्रियोंसे जो जाना जा सकता है उसका समावेश जाननेमें होता है ।
२१५. चक्षुरंद्रियसे जो देखा जाता है वह भी जानना है । जव तक संपूर्ण जानने-देखने में नहीं आता तब तक जानना अधूरा माना जाता है, केवलज्ञान नहीं माना जाता ।
२१६. जहाँ त्रिकाल भववोध है वहाँ सम्पूर्ण जानना होता है ।
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श्रीमद् राजचन्द्र २१७. भासन शब्दमें जानना और देखना दोनोंका समावेश होता है।
२१८. जो केवलज्ञान है वह आत्मप्रत्यक्ष है अथवा अतींद्रिय है। जो अंधता है वह इन्द्रिय द्वारा देखनेका व्याघात है । वह व्याघात अतींद्रियको बाधक होना संभव नहीं है ।
जब चार घनघाती कर्मोंका नाश होता है तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उन चार घनघातियोंमें एक दर्शनावरणीय है। उसकी उत्तर प्रकृतिमें एक चक्षुदर्शनावरणीय है उसका क्षय हो नेके बाद केवलज्ञान उत्पन्न होता है । अथवा जन्मांधता या अंधताका आवरण क्षय होनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
अचक्षुदर्शन आँखके सिवाय दूसरी इंद्रियों और मनसे होता है। उसका भी जब तक आवरण होता है तब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसलिये जैसे चक्षुके लिये है वैसे दूसरी इंद्रियोंके लिये भी मालूम होता है।
२१९. ज्ञान दो प्रकारसे बताया गया है। आत्मा इंद्रियोंकी सहायताके बिना स्वतंत्ररूपसे जानेदेखे वह आत्मप्रत्यक्ष है । आत्मा इंद्रियोंकी सहायतासे अर्थात् आँख, कान, जिह्वा आदिसे जाने-देखे वह इंद्रियप्रत्यक्ष है । व्याघात और आवरणके कारणसे इंद्रियप्रत्यक्ष न हो तो इससे आत्मप्रत्यक्षको बाध नहीं है। जब आत्माको प्रत्यक्ष होता है, तब इंद्रियप्रत्यक्ष स्वयमेव होता है अर्थात् इंद्रियप्रत्यक्षके आवरणके दूर होनेपर ही आत्मप्रत्यक्ष होता है।
२२०, आज तक आत्माका अस्तित्व भासित नहीं हुआ। आत्माके अस्तित्वका भास होनेसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है । अस्तित्व सम्यक्त्वका अंग है। अस्तित्व यदि एक बार भी भासित हो तो वह दृष्टिके सामने रहा करता है, और सामने रहनेसे आत्मा वहाँसे हट नहीं सकता। यदि आगे बढ़े तो भी पैर पीछे पड़ते हैं, अर्थात् प्रकृति जोर नहीं मारती । एक बार सम्यक्त्व आनेके बाद वह पड़े तो फिर ठिकानेपर आ जाता है। ऐसा होनेका मूल कारण अस्तित्वका भासना है।
यदि कदाचित् अस्तित्वकी बात कही जाती हो तो भी वह कथन मात्र है, क्योंकि सच्चा अस्तित्व भासित नहीं हुआ।
२२१. जिसने बड़का वृक्ष न देखा हो उसे यह कहा जाये कि इस राईके दाने जितने बड़के बीजमेंसे, लगभग एक मीलके विस्तारमें समाये इतना बड़ा वृक्ष हो सकता है तो यह बात उसके माननेमें नहीं आती और कहनेवालेको अन्यथा समझ लेता है। परन्तु जिसने बड़का वृक्ष देखा है और जिसे इस बातका अनुभव है उसे बड़के वीजमें शाखा, मूल, पत्ते, फल, फूल आदि वाला बड़ा. वृक्ष समाया हुआ है यह बात मानने में आती है, प्रतीत होती है। पुद्गल रूपी पदार्थ है, मूर्तिमान है. उसके एक स्कंधके एक भागमें अनंत भाग हैं यह बात प्रत्यक्ष होनेसे मानी जाती है; परन्तु उतने ही भागमें जीव अरूपी एवं अमूर्त होनेसे अधिक समा सकते हैं । परंतु वहाँ अनंतके बदले असंख्यात कहा जाये तो भी माननेमें नहीं आता, यह आश्चर्यकारक बात है।
इस प्रकार प्रतीत होनेके लिये अनेक नय-रास्ते बताये गये हैं, जिससे किसी तरह यदि प्रतीति हो गयी तो बड़के बीजकी प्रतीतिको भांति मोक्षके बीजकी सम्यक्त्वरूपसे प्रतीति होती है; मोक्ष है यह निश्चय हो जाता है, इसमें कुछ भी शक नहीं है। . .
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व्यख्यानसार-१
२२२. धर्मसंबंधी (श्री रत्नकरंड श्रावकाचार )
आत्माको स्वभावमें धारण करे वह धर्म है ।
आत्माका स्वभाव धर्म है ।
जो स्वभावमेंसे परभावमें नहीं जाने देता वह धर्म है ।
परभाव द्वारा आत्माको दुर्गतिमें जाना पड़ता है । जो आत्माको दुर्गतिमें न जाने देकर स्वभावमें रखता है वह धर्म है ।
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सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूपाचरण धर्मं है । वहाँ बंधका अभाव है ।
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र इस रत्नत्रयीको श्री तीर्थंकरदेव धर्मं कहते हैं ।
षड्द्रव्यका श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूपाचरण धर्म है ।
जो संसारपरिभ्रमणसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धारण करता है वह धर्म है ।
आप्त अर्थात् सब पदार्थोंको जानकर उनके स्वरूपका सत्यार्थ प्रगट करनेवाला ।
आगम अर्थात् आप्तकथित पदार्थ की शब्दद्वारा रचनारूप शास्त्र । -
आप्तप्ररूपित शास्त्रानुसार आचरण करनेवाला, आप्तप्रदर्शित मार्ग में चलता है वह 'सद्गुरु है।
सम्यग्दर्शन अर्थात् सत्य आप्त, शास्त्र और गुरुका श्रद्धान ।
सम्यग्दर्शन तीन मूढ़ता से रहित, निःशंक आदि आठ अंगसहित आठ मद और छः अनायसे रहित है ।
सात तत्त्व अथवा नव पदार्थके श्रद्धानको शास्त्रमें सम्यग्दर्शन कहा है । परन्तु दोषरहित शास्त्रके उपदेशके बिना सात तत्त्वका श्रद्धान किस तरह होगा ? निर्दोष आप्तके बिना सत्यार्थं आगम किस तरह प्रगट होगा ? इसलिये सम्यग्दर्शनका मूल कारण सत्यार्थ आप्त ही है ।
पुरुष क्षुधातृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित होता हैं ।
धर्मका मूल आप्त भगवान है !
आप्त भगवान निर्दोष सर्वज्ञ और हितोपदेशक है ।
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व्याख्यानसार-२
... . .... मोरबी, आषाढ़ सुदी ४, १९५६ १. ज्ञानके साथ वैराग्य और वैराग्यके साथ ज्ञान होता है । वे अकेले नहीं होते। . .. २. वैराग्यके साथ शृङ्गार नहीं होता, और शृंगारके साथ वैराग्य नहीं होता।
___३. वीतराग वचनके असरसे जिसे इन्द्रियसुख नीरस न लगे तो उसने ज्ञानीके वचन सुने ही नहीं, ऐसा समझें। . . ४. ज्ञानीके वचन विषयका वमन, विरेचन करानेवाले हैं।
:: : ___५. छद्मस्थ अर्थात् आवरणयुक्त ।
६. शैलेशीकरण = शैल = पर्वत + ईश = महान, अर्थात् पर्वतोंमें महान मेरुके समान अकंपगुणवाला। '... ७. अकंपगुणवाला = मन, वचन और कायांके योगकी स्थिरतावाला। . ८. मोक्षमें आत्माके अनुभवका यदि नाश होता हो तो वह मोक्ष किस कामका ? ....
९. आत्माका ऊर्ध्वस्वभाव है, तदनुसार आत्मा पहले ऊँचे जाता है और कदाचित् सिद्ध शिलासे टकराये; परन्तु कर्मरूपी बोझ होनेसे नीचे आता है। जैसे कि डूबा हुआ मनुष्य उछालसे एक बार ऊपर आ जाता है वैसे।
१०. भरतेश्वरकी कथा । (भरत चेत, काल झटका दे रहा है।) ११. सगर चक्रवर्तीको कथा । ( ६०००० पुत्रोंकी मृत्युके श्रवणसे वैराग्य । ) १२. नमिराजर्षिको कथा । ( मिथिला जलती हुई दिखायी इत्यादि।)
२ मोरबी, आषाढ़ सुदी ५, सोम, १९५६ १. जैन आत्माका स्वरूप है। उस स्वरूप (धर्म) के प्रवर्तक भी मनुष्य थे। जैसे कि वर्तमान अवसर्पिणीकालमें ऋषभ आदि पुरुष उस धर्मके प्रवर्तक थे। बुद्ध आदि पुरुषोंको भी उस उस धर्मके प्रवर्तक जानें । इससे कुछ अनादि आत्मधर्मका विचार न था ऐसा नहीं था।
*. वि० सं० १९५६ के आषाढ़ और श्रावणमें श्रीमद्जी मोरवीमें ठहरे थे। उस अरसेमें उन्होंने समयसमयपर जो व्याख्यान दिये थे और मुमुक्षुओंके प्रश्नोंका समाधान किया था, उस सवका सार एक मुमुक्ष श्रोताने संक्षेपमें लिख लिया था। वही संक्षिप्त सार यहाँ दिया गया है ।
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व्याख्यानसार-२
ওওও ..::२. लगभग दो हजार वर्ष पहले जैन यति, शेखरसूरि आचार्यने वैश्योंको क्षत्रियोंके साथ मिलाया। .. १३. 'ओसवाल' 'ओरपाक' जातिके राजपूत हैं। .............. ....... .:: ४: उत्कर्ष, अपकर्ष और संक्रमण ये सत्तामें रही हुई कर्म-प्रकृतिके हो सकते हैं; उदय में आई हुई प्रकृतिके नहीं हो सकते ।.. ... .. ... ... . . . . . . . . : : . . .:.:, ५. आयुकर्मका जिस प्रकारसे बंध होता है उस प्रकारसे देहस्थिति पूर्ण होती है।
६. अंधेरेमें नहीं देखना, यह एकांत. दर्शनावरणीय कर्म नहीं कहा जाता, परन्तु:मंद.दर्शनावरणीय कहा जाता है। तमके निमित्तसे और तेजके अभावके कारण वैसा होता है। . ..
७ दर्शन रुकनेपर ज्ञान रुक जाता है। ८ ज्ञेय जाननेके लिये ज्ञानको बढ़ाना चाहिये । जैसा वजन वैसे बाट। .:, ..
९. जैसे परमाणुकी शक्ति पर्यायको प्राप्त करनेसे बढ़ती जाती है, वैसे ही चैतन्यद्रव्यकी शक्ति विशुद्धताको प्राप्त करनेसे बढती जाती है। काँच, चश्मा, दूरबीन आदि पहले (परमाणु) के प्रमाण हैं, और अवधि, मनःपर्याय, केवलज्ञान, लब्धि, ऋद्धि आदि दूसरे (चैतन्यद्रव्य) के प्रमाण हैं। .. :
... ....... .... ३.... ... ... मोरबी, आषाढ़ सुदी ६, मंगल, १९५६
१. क्षयोपशमसम्यक्त्वको वेदकसम्यक्त्व भी कहा जाता है। परन्तु क्षयोपशममेंसे क्षायिक होनेकी संधिके समयका जो सम्यक्त्व है वह वस्तुतः वेदकसम्यक्त्व है। . ..
२. पाँच स्थावर एकेन्द्रिय बादर हैं, तथा सूक्ष्म भी हैं। निगोद वादर और सूक्ष्म है । वनस्पतिके सिवाय बाकीके चारमें असंख्यात सूक्ष्म कहे जाते हैं । निगोद सूक्ष्म अनंत हैं, और वनस्पतिके सूक्ष्म अनंत है; वहाँ निगोदमें सूक्ष्म वनस्पति होती है। ......:: :. :: ....
३. श्री तीर्थंकर ग्यारहवें गुणस्थानकका स्पर्श नहीं करते; इसी तरह वे पहले, दूसरे तथा तीसरेका भी. स्पर्श नहीं करते ।... .. ... ... .. ..: :.
४. वर्धमान, हीयमान और स्थित ऐसी जो परिणामकी तीन धाराएँ हैं, उनमें हीयमान परिणामको धारा सम्यक्त्व-आश्रयी (दर्शन-आश्रयो) श्री तीर्थंकरदेवको नहीं होती, और चारित्रआश्रयी भजना।
५. जहाँ क्षायिकचारित्र है वहाँ मोहनीयका अभाव है; और जहाँ मोहनीयका अभाव है वहाँ पहला, दूसरा, तीसरा और ग्यारहवाँ इन चार गुणस्थानकोंको स्पर्शनाका अभाव है।
६. उदय दो प्रकारका है--एक प्रदेशोदय और दूसरा विपाकोदय । विपाकोदय वाह्य (दीखती हुई) रीतिसे वेदन किया जाता है, और प्रदेशोदय भीतरसे वेदन किया जाता है। . ... . ७. आयुकर्मका बंध प्रकृतिके बिना नहीं होता, परन्तु वेदनीयका होता है। . .... ____८. आयुप्रकृतिका वेदन एक ही भवमें किया जाता है। दूसरी प्रकृतियोंका वेदन उस भव और अन्य भवमें भी किया जाता है। ...: : ९. जीव जिस भवकी आयुप्रकृति भोगता है, वह सारे भवको एक ही बंधप्रकृति है । उस बंधप्रकृतिका उदय आयुके आरंभसे गिना जाता है। इसलिये उस भवकी जो आयुप्रकृति उदय में है उसमें संक्रमण, उत्कर्ष, अपकर्ष आदि नहीं हो सकते। ..
१०. आयुकर्मकी प्रकृति दूसरे भवमें नहीं भोगी जाती।
११. गति, जाति, स्थिति, संबंध, अवगाह (शरीरप्रमाण) और रस. इन्हें अमुक जीव अमुक प्रमाणमें भोगे इसका आधार आयुकर्मपर है । जैसे कि एक मनुष्यको नौ वर्षको आयुकर्म प्रकृतिका उदय
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श्रीमद राजचन्द्र
हों, उसमेंसें वह अस्सीवे वर्ष में अधूरी आयुमें मर जाये तो वाकीके बीस वर्ष कहाँ और किस तरह भोगे जायें ? दूसरे भवमें गति, जाति, स्थिति, संबंध आदि नये सिरेसे होते हैं, इक्यासीवें वर्षसे नहीं होते । इसलिये आयुकी उदयप्रकृति बीचमें नहीं टूट सकती । जिस जिस प्रकारसे बंध पड़ा हो उस उस प्रकार से उदयमें आनेसे किसीको दृष्टिमें कदाचित् आयुका टूटना आये, परंतु ऐसा नहीं हो सकता ।
१२. जब तक आयुकर्म वर्गणा सत्तामें होती है तब तक संक्रमण, अपकर्ष, उत्कर्ष आदिकरणका नियम लागू हो सकता है; परन्तु उदयका आरंभ होनेके बाद लागू नहीं हो सकता
१३. आयुकर्म पृथ्वीके समान है और दूसरे कर्म वृक्षके समान हैं । (यदि पृथ्वी हो तो वृक्ष होता है ।)
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१४. आयुके दो प्रकार हैं-- (१) सोपक्रम और (२) निरुपक्रम । इनमेंसे जिस प्रकारकी आयु बाँधी हो उसी प्रकारकी आयु भोगी जाती है ।
``'.१५. उपशमसम्यवत्व क्षयोपशम होकर क्षायिक होता है; क्योंकि उपशममें जो प्रकृतियाँ सत्तामें हैं वे उदयमें आकर क्षोण होती हैं ।
१६. चक्षुके दो प्रकार हैं- (४) ज्ञानचक्षु और "(२) चर्मचक्षु | जैसे चर्मचक्षुसे एक वस्तु जिस स्वरूप से दिखायी देती हैं वह वस्तु दूरबीन तथा सूक्ष्मदर्शक आदि यन्त्रोंसे भिन्न स्वरूप से ही दिखायी देती है; वैसे चर्मचक्षुसे वह जिस स्वरूप से दिखायी देती है, वह ज्ञानचक्षुसे किसी भिन्न स्वरूपसे ही दिखायी देती है और उसी तरह कही जाती है; उसे हम अपनी चतुराई, अहंत्वसे न मानें यह योग्य नहीं है ।
४
- मोरबी, आषाढ सुदी ७, बुध, १९५६ १. श्रीमान कुन्दकुन्दाचार्यने अष्टपाहुड (अष्टप्राभृत) रचा है । प्राभृतभेद - दर्शनप्राभृत, ज्ञानप्राभृत, चारित्रप्राभृत, भावप्राभृत इत्यादि । दर्शनप्राभृत में जिनभावका स्वरूप बताया है ।
शास्त्रकर्ता कहते हैं कि अन्य भावोंका हमने, आपने और देवाधिदेव तकने पूर्वकालमें भावेन किया है, और उससे कार्य सिद्ध नहीं हुआ; इसलिये जिनभावका भावन करनेकी जरूरत है । जो जिनभाव शांत है, आत्माका धर्म है और उसका भावन करनेसे ही मुक्ति होती है ।
2
२. चारित्रप्राभृत ।
३. द्रव्य और उसके पर्याय माननेमें नहीं आते; वहाँ विकल्प होनेसे उलझ जाना होता है । पर्यायों को न माननेका कारण, उतने अंश तक नहीं पहुँचना है ।
४. द्रव्य पर्याय हैं ऐसा माना जाता है, वहाँ द्रव्यका स्वरूप समझने में विकल्प रहनेसे उलझ जाना होता है, और इसीसे भटकना होता है ।
५. सिद्धपद द्रव्य नहीं है, परन्तु आत्माका एक शुद्ध पर्याय है। उससे पहले मनुष्य अथवा देव था, तब वह पर्याय था, यों द्रव्य शाश्वत रहकर पर्यायांतर होता है ।
६. शांतता प्राप्त होनेसे ज्ञान बढ़ता है ।
७. आत्मसिद्धिके लिये द्वादशांगीका ज्ञान प्राप्त करते हुए बहुत समय चला जाता है; जब कि एक मात्र शांतता का सेवन करने से तुरत प्राप्त होता है ।
८. पर्यायका स्वरूप समझानेके लिये श्री तीर्थंकरदेवने त्रिपद ( उत्पाद, व्यय और धीव्य) समझाया है ।
९. द्रव्य ध्रुव सनातन है ।
१०. पर्याय उत्पादव्यययुक्त हैं
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व्याख्यानसार-२ ११. छहों दर्शन एक जैनदर्शनमें समाते हैं । उनमें भी जैन एक दर्शन है। बौद्ध-क्षणिकवादीपर्यायरूपसे 'सत्' है। वेदांत--सनातन = द्रव्यरूपसे 'सत्' है । चार्वाक निरीश्वरवादी जब तक आत्माकी प्रतीति नहीं हुई तब तक उसे पहचाननेरूपसे 'सत्' है।
- -१२. जीवपर्यायके दो भेद हैं--संसारपर्याय और सिद्धपर्याय । सिद्धपर्याय शत प्रतिशत शुद्ध सुवर्णके समान है और संसारपर्याय खोटसहित सुवर्णके समान है।
१३. व्यंजनपर्याय । १४. अर्थपर्याय ।
१५. विषयका नाश (वेदका अभाव) क्षायिकचारित्रसे होता है । चौथे गुणस्थानकमें विषयकी मंदता होती है, और नौवें गुणस्थानक तक वेदका उदय होता है। .
१६. जो गुण अपनेमें नहीं है वह गुण अपने में है, ऐसा जो कहता है अथवा मनवाता है, उसे मिथ्यादृष्टि समझें। : १७. जिन और जैन शब्दका अर्थ
"घट घट अन्तर् जिन बसै, घट घट अन्तर जैन।
मत मदिराके पानसे, मतवारा समजै न॥" . --समयसार १८. सनातन आत्मधर्म है शांत होना, विराम पाना; सारी द्वादशांगीका सार भी यही है । वह षड्दर्शनमें समा जाता है, और वह षड्दर्शन जैनदर्शनमें समा जाता है। . १९. वीतरागके वचन विषयका विरेचन करानेवाले हैं ।
२०. जैनधर्मका आशय, दिगम्बर तथा श्वेतांबर आचार्योंका आशय, और द्वादशांगीका आशय मात्र आत्माका सनातन धर्म प्राप्त कराना है, और यही साररूप है । इस बातमें किसी प्रकारसे ज्ञानियोंका विकल्प नहीं है । यही तीनों कालके ज्ञानियों का कथन है, था और होगा; परन्तु वह समझमें नहीं आता यही बड़ी समस्या है। - २१. बाह्य विषयोंसे मुक्त होकर ज्यों ज्यों उसका विचार किया जाये त्यों त्यों आत्मा अविरोधी होता जाता है; निर्मल होता है।
२२. भंगजालमें न पड़ें। मात्र आत्माकी शांतिका विचार करना योग्य है।
२३. ज्ञानी यद्यपि वणिककी तरह हिसावी (सूक्ष्मरूपसे शोधन कर तत्त्वोंको स्वीकार करनेवाले) होते हैं, तो भी आखिर लोग जैसे लोग (एक सारभूत बातको पकड़ रखनेवाले) होते हैं । अर्थात् अंतमें चाहे जो हो परन्तु एक शांततासे नहीं चूकते; और सारी द्वादशांगीका सार भी यही है।
२४. ज्ञानी उदयको जानते हैं, परन्तु वे साता-असातामें परिणमित नहीं होते।
२५. इंद्रियोंके भोगसहित मुक्ति नहीं है । जहाँ इंद्रियोंका भोग है वहाँ संसार है; और जहाँ संसार है वहाँ मोक्ष नहीं है।
२६. वारहवें गुणस्थानक तक ज्ञानीका आश्रय लेना है, ज्ञानीकी आज्ञासे वर्तन करना है।
२७. महान आचार्यों और ज्ञानियोंमें दोष तथा भूलें नहीं होती। अपनी समझमें न आनेसे हम भूल मानते हैं। हमारेमें ऐसा ज्ञान नहीं है कि जिससे अपनी समझमें आ जाये । इसलिये वैसा ज्ञान प्राप्त होनेपर जो ज्ञानीका आशय भूलवाला लगता है, वह समझ में आ जायेगा, ऐसी भावना रखें। परसार
१. भावार्य-प्रत्येक हृदयमें जिनराज और जैनधर्मका निवास है, परंतु सम्प्रदाय-मदिराके पानसे मतवाले लोग नहीं समझते।
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श्रीमद् राजचन्द्र आचायोंके विचारमें यदि किसी जगह कुछ भेद देखनेमें आये तो वह क्षयोपशमके कारण संभव है, परन्तु वस्तुतः उसमें विकल्प करना योग्य नहीं है।
२८. ज्ञानी बहुत चतुर थे। वे विषयसुख भोगना जानते थे, उनको पांचों इन्द्रियाँ पूर्ण थी, (जिसकी पाँचों इंद्रियाँ पूर्ण होती है वही आचार्यपदवीके योग्य होता है ।) फिर भी यह संसार (इंद्रियसुख) निःसार लगनेसे तथा आत्माके सनातन धर्ममें श्रेय मालूम होनेसे वे विषयसुखसे विरत होकर आत्माके सनातन धर्ममें संलग्न हुए हैं।
२९. अनंतकालसे जीव भटकता है, फिर भी उसका मोक्ष नहीं हुआ। जव कि ज्ञानीने एक अंत. महुर्तमें मोक्ष बताया है !
३०. जीव ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार शांतिमें रहे तो अंतर्महूर्तमें मुक्त होता है। ... • ३१. अमुक वस्तुओंका व्यवच्छेद हो गया है, ऐसा कहा जाता है; परन्तु उनके लिये पुरुषार्थ नहीं किया जाता, इसलिये उनके व्यवच्छेदकी वात कही जाती है। यदि उनके लिये सच्चा-जैसा चाहिये वैसापुरुषार्थ हो तो वे गुण प्रगट होते हैं इसमें संशय नहीं है । अंग्रेजोंने उद्यम किया तो हुनर और राज्य प्राप्त किये; और हिन्दुस्तानियोंने उद्यम नहीं किया तो प्राप्त नहीं कर सके, इसलिये विद्या (ज्ञान) का व्यवच्छेद हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता। :
३२. विषय क्षीण नहीं हुए, फिर भी जो जीव अपने में वर्तमानमें गुण मान बैठे हैं, उन जीवों जैसी भ्रांति न करते हुए उन विषयोंका क्षय करनेकी ओर ध्यान दें।
५.. ... मोरवी, आषाढ़ सुदी ८, गुरु, १९५६ ... १. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष प्रथम तीनसे बढ़कर है, मोक्षके लिये वाकी तीन हैं।
२. सुखरूप आत्माका धर्म है, ऐसा प्रतीत होता है । वह सोनेकी तरह शुद्ध है।
३. कर्मसे सुखदु:ख सहन करते हुए भी परिग्रहके उपार्जन तथा उसके रक्षणके लिये सब प्रयत्न करते हैं । सब सुखको चाहते हैं, परन्तु वे परतंत्र है। परतंत्रता प्रशंसापात्र नहीं है, वह दुर्गतिका हेतु है । अतः सच्चे सुखके इच्छुकके लिये मोक्षमार्गका वर्णन किया गया है।
४. वह मार्ग (मोक्ष) रत्नत्रयको आराधनासे सब कर्मोंका क्षय होनेसे प्राप्त होता है । ५. ज्ञानी द्वारा निरूपित तत्त्वोंका यथार्थ बोध होना 'सम्यग्ज्ञान' है। . .
६. जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये तत्त्व हैं। यहाँ पुण्य-पाप आस्रवमें गिने हैं।
७. जीवके दो भेद-सिद्ध और संसारी। .. सिद्ध : अनंत ज्ञान, दर्शन, वोर्य, सुख, ये सिद्धके स्वभाव समान हैं फिर भी अनंतर परंपरा होनेरूप पन्द्रह भेद इस प्रकार कहे हैं-(१) तीर्थ, (२) अतीर्थ, (३) तीर्थंकर, (४) अतीर्थंकर, (५) स्वयंबुद्ध; (६) प्रत्येक वुद्ध, (७) बुद्धबोधित, (८) स्त्रीलिंग, (९ पुरुपलिंग, (१०) नपुंसकलिंग, (११) अन्यलिंग (१२) जैनलिंग, (१३) गृहस्थलिंग, (१४) एक, (१५) अनेक ।
संसारी :-संसारी जीव एक प्रकारसे, दो प्रकारसे इत्यादि अनेक प्रकारसे कहे हैं। एक प्रकार :-सामान्यरूपसे 'उपयोग' लक्षणवाले सर्व संसारी जोव हैं।
दो प्रकार :-वस, स्थावर अथवा व्यवहारराशि, अव्यवहारराशि । सूक्ष्म निगोदमेंसे निकलकर एक बार सपर्यायको प्राप्त किया है, वह 'व्यवहारराशि' ।
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व्याख्यानसार-२
७८१. : फिर वह सूक्ष्म निगोदमें, जाये तो भी वह 'व्यवहारराशि' । अनादिकालसे सूक्ष्म निगोदमें से निकल कर कभी सपर्यायको प्राप्त नहीं किया है वह 'अव्यवहारराशि'! . ... . . . . . . . . . . . . . . . . . तीन प्रकार -संयत; असंयत और संयतासंयत अथवा स्त्री पुरुष और नपुंसक :::::::
चार प्रकार :-गतिकी अपेक्षासे । .... पाँच प्रकार :-इंद्रियकी अपेक्षासे । ........ ..... . . : ... ... ... ... छः प्रकार :-पृथ्वी, अप्, तेजस, वायु, वनस्पति और वसः। ............. ....... ... ..
सात प्रकार :-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल और अलेशी। (चौदहवें गुणस्थानकवाले जीव लेना परन्तु सिद्ध न लेना, क्योंकि संसारी जीवकी व्याख्या है.।)......
... आठ प्रकार :-अंडज, पोतज, जरायुज, स्वेदज, रसज, संमूर्छन, उद्भिज़ और उपपाद । .. नौ प्रकार :-पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
दस प्रकार :-पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय।.. ....ग्यारह प्रकार :-सूक्ष्म, बादर, तीन विकलेन्द्रिय, और पंचेन्द्रियमें जलचर, स्थलचर, नभश्चर, मनुष्य, देवता और नारक ।। . : ... : बारह प्रकार :-छकायके पर्याप्त और अपर्याप्त । ..
तेरह प्रकार :-उपर्युक्त बारह भेद संव्यवहारिक तथा एक असंव्यवहारिक (सूक्ष्म निगोदका)।
चौदह प्रकार :-गुणस्थानक-आश्रयी, अथवा सूक्ष्म, वादर, तीन विकलेन्द्रिय, तथा संज्ञी, असंज्ञी इन सातके पर्याप्त और अपर्याप्त ।
. इस तरह वुद्धिमान पुरुषोंने सिद्धांतके अनुसार जीवके अनेक भेद (विद्यमान भावोंके भेद) कहे हैं। .: .. ... ... ... . . ... ..६. . . . . मोरबी, आषाढ़ सुदी.९, शुक्र, १९५६ .. . 'जातिस्मरणज्ञान के विषयमें जो शंका रहती है, उसका समाधान इस प्रकारसे होगा :-जैसे : बाल्यावस्था में जो कुछ देखा हो अथवा अनुभव किया हो उसका स्मरण वृद्धावस्थामें किसी-किसीको होता है और किसी-किसीको नहीं होता, वैसे ही पूर्वभवका भान किसी-किसीको रहता है और किसी-किसीको नहीं रहता। न रहनेका कारण यह है कि पूर्वदेहको छोड़ते समय बाह्य पदार्थोंमें जीव आसक्त रह कर मरण करता है और नयी देह प्राप्त कर उसीमें आसक्त रहता है, उसे पूर्वपर्यायका भान नहीं रहता। इससे उलटी रीतसे प्रवृत्ति करनेवालेको अर्थात् जिसने अवकाश रखा हो उसे पूर्वभव अनुभवमें आता है।
२. एक सुन्दर वनमें आपके आत्मामें क्या निर्मलता है, जिसे जांचते हुए आपको अधिकसे अधिक स्मृति होती है या नहीं ? आपकी शक्ति भी हमारी शक्तिकी तरह स्फुरायमान क्यों नहीं होती ? उसके कारण विद्यमान हैं । प्रकृतिवंधमें उसके कारण बताये हैं । 'जातिस्मरणज्ञान' मतिज्ञानका भेद है।
एक मनुष्य वीस वर्षका और दूसरा मनुष्य सौ वर्षका होकर मर जाये, उन दोनोंने पाँच वर्षको उमरमें जो देखा या अनुभव किया हो वह यदि अमुक वर्ष तक स्मृतिमें रह सकता हो तो बीस वपमें मर जाये उसे इक्कीसवें वर्ष में फिरसे जन्म लेनेके बाद स्मृति होनी चाहिये परन्तु वैसा होता नहीं है। कारण कि पूर्वपर्यायमें उसके स्मतिके साधन पर्याप्त न होनेसे, पूर्वपर्यायको छोड़ते समय मृत्यु आदि वेदनाके कारण, नयी देह धारण करते समय गर्भावासके कारण, बचपन में मूढ़ताके कारण और वर्तमान देहमें अति लीनताके कारण पूर्वपर्यायकी स्मृति करनेका अवकाश ही नहीं मिलता; तथापि जिन तरह गर्भावास तथा बचपन स्मृतिमें न रहे, इससे वे नहीं थे ऐसा नहीं कह सकते; उसी तरह उपर्युक्त कारणोंसे पूर्वपर्याय
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श्रीमद राजचन्द्र स्मृतिमें न रहे, इससे वे नहीं थे ऐसा नहीं कहा जा सकता। जिस तरह आम आदि वृक्षोंकी कलम की जाती है, उसमें सानुकूलता हो तो होती है, उसी तरह यदि पूर्वपर्यायकी स्मृति करनेके लिये क्षयोपशमादि सानुकूलता (योग्यता) हो तो 'जातिस्मरणज्ञान' होता है। पूर्वसंज्ञा कायम होनी चाहिये। असंज्ञीका भव आनेसे 'जातिस्मरणज्ञान' नहीं होता।
कदाचित् स्मृतिका काल थोड़ा कहें तो सौ वर्षका होकर मर जानेवाले व्यक्तिने पाँच वर्षकी उमरमें जो देखा अथवा अनुभव किया हो वह पंचानवें वर्षमें स्मृतिमें नहीं रहना चाहिये, परन्तु यदि पूर्वसंज्ञा कायम हो तो स्मृतिमें रहता है। ... ... ....
३. आत्मा है । आत्मा नित्य है। उसके प्रमाण :
(१) बालकको स्तनपान करते हुए चुक-चुक करना क्या कोई सिखाता है ? वह तो पूर्वाभ्यास है । (२) सर्प और मोरका, हाथी और सिंहका, चूहे और बिल्लीका स्वाभाविक वैर है। उसे कोई नहीं सिखाता । पूर्वभवके वैरकी स्वाभाविक संज्ञा है, पूर्वज्ञान है।
४. निःसंगता वनवासीका विषय है ऐसा ज्ञानियोंने कहा है, वह सत्य है। जिसमें दो व्यवहारसांसारिक और असांसारिक होते हैं, उससे निःसंगता नहीं होती।
५. संसार छोड़े बिना अप्रमत्तगुणस्थानक नहीं है । अप्रमत्त गुणस्थानककी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी है।
६. 'हम समझ गये हैं', 'हम शांत हैं', ऐसा जो कहते हैं वे तो ठगे गये हैं। '७. संसारमें रहकर सातवें गुणस्थानकसे आगे नहीं बढ़ सकते, इससे संसारीको निराश नहीं होना है, परन्तु उसे ध्यानमें रखना है। ............. ..
८. पूर्वकालमें स्मृतिमें आयी हुई वस्तुको फिर शांतिसे याद करे तो यथास्थित याद आ जाती है। अपना दृष्टांत देते हुए बताया कि उन्हें ईडर और वसोके शांत स्थान याद करनेसे तद्रूप याद आ जाते हैं । तथा खंभातके पास वडवा गाँवमें ठहरे थे, वहाँ बावडीके पीछे थोड़े ऊँचे टीलेके पास बाड़के आगे जाकर रास्ता, फिर शांत और शीतल अवकाशका स्थान था:। उन स्थानोंमें स्वयं शांतः समाधिस्थ दशामें बैठे थे, वह स्थिति आज उन्हें पाँच सौ बार स्मृतिमें आयी है। दूसरे भी. उस समय वहाँ थे। परन्तु सभीको उस प्रकारसे याद नहीं आता । क्योंकि वह क्षयोपशमके अधीन है । स्थल भी निमित्त कारण है। .. . . ९. *ग्रंथिके दो भेद हैं :-एक द्रव्य, बाह्य ग्रंथि (चतुष्पद, द्विपद, अपद इत्यादि); दूसरी भावअभ्यंतर ग्रंथिः (आठ कर्म इत्यादि) । सम्यक् प्रकारसे जो दोनों ग्रंथियोंसे निवृत्त हो वह निग्रंथ' है। - १० मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति आदि भाव जिसे छोड़ने ही नहीं है उसे वस्त्रका त्याग हो, तो भी वह पारलौकिक कल्याण क्या कर सकता है ?
११. सक्रिय जीवको अवंधका अनुष्ठान हो ऐसा कभी नहीं होता । क्रिया होनेपर भी अवंध गुणस्थानक नहीं होता।
..... . १२. राग आदि दोषोंका क्षय हो जानेसे उनके सहायक कारणोंका क्षय होता है। जब तक संपूर्णरूपसे उनका क्षय नहीं होता तब तक मुमुक्षुजीव संतोप मानकर नहीं बैठते ।
... १३. राग आदि दोष और उनके सहायक कारणोंके अभावमें बंध नहीं होता । राग आदिके प्रयोगसे कर्म होता है । उनके अभाव में सब जगह कर्मका अभाव समझें। . * धर्मसंग्रहणी ग्रंथ गाथा १०७०, १०७१, १०७४, १०७५ ।
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व्याख्यानसार - २
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१४. आयुकर्म संबंधी - ( कर्मग्रंथ )
(अ) अपवर्तन = जो विशेष कालका हो वह कर्म थोड़े काल में वेदा जा सकता है। उसका कारण पूर्वका वैसा बंध है, जिससे वह इस प्रकारसे उदयमें आता है और भोगा जाता है ।
(आ) 'टूट गया' शब्दका अर्थ बहुत से लोग 'दो भाग हुए' ऐसा करते हैं; परन्तु वैसा अर्थ नहीं है । जिस तरह 'कर्जा टूट गया' शब्दका अर्थ 'कर्जा उतर गया, कर्जा दे दिया ऐसा होता है, उसी तरह 'आयु टूट गयी' शब्दका आशय समझें ।
(इ) सोपक्रम = शिथिल, जिसे एकदम भोग लिया जाये ।
(ई) निरुपक्रम = निकाचित । देव, नारक, युगलिया, त्रिषष्ठी शलाकापुरुष और चरमशरीरीको वह
होता है ।
(उ) प्रदेशोदय = प्रदेशको आगे लाकर वेदन करना वह 'प्रदेशोदय' । प्रदेशोदयसे ज्ञानी कर्मका क्षय अंतर्मुहूर्तमें करते हैं।
(ऊ) 'अनपवर्तन' और 'अनुदीरणा' इन दोनोंका अर्थ मिलता-जुलता है, तथापि अंतर यह है कि 'उदीरणा' में आत्माको शक्ति है, और 'अनपवर्तन' में कर्म की शक्ति है ।
(ए) आयु घटती है, अर्थात् थोड़े कालमें भोगी जाती है । १५. असाताके उदयमें ज्ञानकी कसौटी होती है । १६. परिणामकी धारा थरमामीटरके समान है ।
::
८
मोरवी, आषाढ़ सुदी १०, शनि, १९५६
१. मोक्षमालामेंसे :
असमंजसता = अमिलनता, अस्पष्टता । विषम = जैसे तैसे |
आर्यं = उत्तम । 'आर्य' शब्द श्री जिनेश्वर, मुमुक्षु, तथा आर्यदेशके रहनेवालेके लिये प्रयुक्त होता है। निक्षेप = प्रकार, भेद, भाग ।
'भयत्राण = भयसे तारनेवाला, शरण देनेवाला ।
२. हेमचंद्राचार्य धंधुका मोढ वणिक थे । उन महात्माने कुमारपाल राजासे अपने कुटुंबके लिये एक क्षेत्र भी नहीं माँगा था, तथा स्वयं भी राजाके अन्नका एक ग्रास भी नहीं लिया था ऐसा श्री कुमारपालने उन महात्माके अग्निदाहके समय कहा था । उनके गुरु देवचंद्रसूरि थे ।
मोरवी, आषाढ़ सुदी ११, रवि, १९५६
१. सरस्वती = जिनवाणीको धारा ।
२. (१) बाँधनेवाला, (२) बाँधनेके हेतु, (३) बंधन और (४) बंधनके फलसे सारे संसारका प्रपंच रहता है ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है ।
९
मोरवी, आपाढ़ सुदी १२. सोम, १९५६
१. श्री यशोविजयजीने 'योगदृष्टि' ग्रन्थ में छठी 'कांतादृष्टि' में बताया है कि वीतरागस्वरूपके सिवाय अन्यत्र कहीं भी स्थिरता नहीं हो सकती, वीतरागसुखके सिवाय अन्य सुख निःसत्व लगता है, आडंबररूप • लगता है । पाँचवीं 'स्थिरादृष्टि' में बताया है कि वीतरागसुख प्रियकारो लगता है । आटवों 'परादृष्टि' में बताया है कि 'परमावगाढ सम्यवत्व' का संभव है, जहाँ केवलज्ञान होता है।
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श्रीमद राजचन्द्र
२. ‘पातंजलयोग' के कर्ताको सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ था; परन्तु हरिभद्रसूरिने उन्हें मार्गानुसारी
माना है ।
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३. हरिभद्रसूरिने उन दृष्टियों का अध्यात्मरूप से संस्कृतमें वर्णन किया है, और उसपर से यशोविजयजी महाराजने पद्यरूप से गुजरातीमें लिखा है ।
४. 'योगदृष्टि' में छहों भाव - औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक, और सान्निपातिक – का समावेश होता है । ये छः भाव जीवके स्वतत्त्वभूत हैं ।
५. जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं होता तब तक मौन रहना ठीक है । नहीं तो अनाचार दोष लगता है । इस विषय में 'उत्तराध्ययनसूत्र' में 'अनाचार' नामक अधिकार है । ( अध्ययन- छठा):
६. ज्ञानी के सिद्धांत में अंतर नहीं हो सकता ।
७. सूत्र आत्माका स्वधर्मं प्राप्त करनेके लिये बनाये गये हैं; परन्तु उनका रहस्य, यथार्थ समझ में नहीं आता, इससे अंतर लगता है ।
८. दिगम्बरके तीव्र वचनोंके कारण कुछ रहस्य समझा जा सकता है । श्वेताम्बरकी शिथिलता के कारण रस ठंडा होता गया ।
९. ‘शाल्मलि वृक्ष' नरकमें नित्य असातारूपसे है । वह वृक्ष शमी वृक्षसे मिलता-जुलता होता है भावसे संसारो आत्मा उस वृक्षरूप है । आत्मा परमार्थसे, उस अध्यवसाय को छोड़नेसे, नंदनवनके समान होता है ।
:.
१०. जिनमुद्रा दो प्रकारको है: - कायोत्सर्ग और पद्मासन । प्रमाद दूर करनेके लिये दूसरे अनेक - आसन किये हैं । परन्तु मुख्यतः ये दो आसन हैं ।
११.
'प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमलसंकः कामिनी संगशून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबंधवंध्यं तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥
१२. चैतन्यका लक्ष्य करनेवालेकी बलिहारी है !
१३. तीर्थ = तरनेका मार्ग ।
१४. अरनाथ प्रभुकी स्तुति महात्मा आनंदघनजीने की है। श्री आनंदघनजीका दूसरा नाम 'लाभानंदजी' था । वे तपगच्छमें हुए हैं ।
१५. वर्तमानमें लोगोंका ज्ञान और शांति के साथ सम्बन्ध नहीं रहा; मताचार्यने मार डाला है । आशय आनंदघन तणो, अति गंभीर उदार ।
१६.
बालक बांय पसारीने, कहे उदधि विस्तार ॥"
१७. ईश्वरत्व तीन प्रकारसे जाना जाता है : - ( १ ) जड़ जड़ात्मकता से रहता है । (२) चैतन्य - संसारी जीव विभावात्मकता से रहते हैं । (३) सिद्ध - शुद्ध चैतन्यात्मकता से रहते हैं ।
१०
मोरवी, आषाढ़ सुदी १३, मंगल, १९५६ १. 'भगवती आराधना' जैसी पुस्तकें मध्यम एवं उत्कृष्ट भावके महात्माओंके तथा मुनियोंके ही योग्य हैं । ऐसे ग्रन्थ उससे कम पदवी, योग्यतावाले साधु तथा श्रावकको देनेसे वे कृतघ्नी होते हैं; उन्हें उनसे उलटी हानि होती है। सच्चे मुमुक्षुओंको ही ये लाभकारी हैं ।
१. अर्थके लिये देखें उपदेश नोंध २२ ।
१२. भावार्थ - योगीवर श्री आनंदघनजीका आशय अति गम्भीर और उदार है, उसे पूरी तरहसे समझना असंभवसा है; जैसे कि बालक बाहु फैलाकर सागर के विस्तारका मात्र संकेत करता है ।
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७८५ २. मोक्षमार्ग अगम्य तथा सरल है।
. . . . . . . . ___ अगम्य-मात्र विभावदशाके कारण मतभेद पड़ जानेसे किसी भी जगह मोक्षमार्ग समझमें आ सके ऐसा नहीं रहा, और इस कारण वर्तमानमें वह अगम्य है। मनुष्यके मर जानेके बाद अज्ञानसें नाड़ी पकड़कर इलाज करनेके फलके समान मतभेद पड़नेका फल हुआ है, और इससे मोक्षमार्ग. समझमें नहीं आता.।
..सरल-मतभेदकी माथापच्ची दूर कर, आत्मा और पुद्गलका भेद करके शांतिसे आत्माका अनुभव किया जाये तो मोक्षमार्ग सरल है; और दूर नहीं है। जैसे कि एक ग्रन्थको पढ़ने में कितना ही समय जाता है और उसे समझनेमें अधिक समय जाना चाहिये; वैसे अनेक. शास्त्र हैं, उन्हें एक एक करके पढ़नेके बाद उनका निर्णय करनेके लिये बैठा जाये, तो उस हिसाबसे पूर्व आदिका ज्ञान और केवलज्ञान किसी भी उपायसे प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् इस तरह पढ़नेमें आते हों तो कभी पार नहीं आ सकता; परन्तु उसकी संकलना है, और उसे श्री गुरुदेव बताते हैं कि महात्मा उसे अंतर्मुहूर्तमें प्राप्त करते हैं ।
३. इस जीवने नवपूर्व तक ज्ञान प्राप्त किया तो भी कुछ सिद्धि नहीं हुई, उसका कारण विमुखदशासे परिणमन होना है। यदि सन्मुखदशासे परिणमन हो तो तत्क्षण मुक्त हो जाता है।
४. परमशांत रसमय 'भगवती आराधना' जैसे एक ही शास्त्रका अच्छी तरह परिणमन हुआ हो तो बस है। क्योंकि इस आरे-कालमें वह सहज है, सरल है।
: ५. इस आरे-कालमें संहनन अच्छे नहीं है, आयु कम है, दुर्भिक्ष और महामारी जैसे संयोग वारंवार आते हैं, इसलिये आयुकी कोई निश्चयपूर्वक स्थिति नहीं है, इसलिये यथासंभव आत्महितकी बात तुरत ही करे। उसे स्थगित कर देनेसे जीव धोखा खा वैठता है। ऐसे अल्प समयमें तो नितांत सम्यकमार्ग जो परमशांत होनेरूप है, उसे ग्रहण करे । उसीसे उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव होते हैं।
६. काम आदि कभी ही हमसे हार मानते हैं, नहीं तो कई बार हमें थप्पड़ मार देते हैं । इसलिये भरसक यथासंभव जल्दी ही उन्हें छोड़नेके लिये अप्रमादी बनें। जैसे शीघ्र हुआ जाये वैसे होना । शूरवीरतासें वैसा तुरत हुआ जा सकता है।
७. वर्तमानमें दृष्टिरागानुसारी मनुष्य विशेषरूपसे हैं ।
८. यदि सच्चे वैद्यकी प्राप्ति हो जाये तो देहका विधर्म सहज ही औषधि द्वारा विधर्ममेंसे निकलकर स्वधर्म पकड़ लेता है। इसी तरह यदि सच्चे गुरुकी प्राप्ति हो जाये तो आत्माकी शांति बहुत ही सुगमतासे और सहजमें हो जाती है। इसलिये वैसी क्रिया करनेमें स्वयं तत्पर अर्थात् अप्रमादी होवें। प्रमादसे उलटे कायर न होवें। .. ... ९. सामायिक = संयम ।
१०. प्रतिक्रमण = आत्माको क्षमापना, आराधना । ११. पूजा- भक्ति । .. - १२. जिनपूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि किस अनुक्रमसे करना, यह कहते हुए एकके बाद एक प्रश्न उठता है, और उसका किसी तरह अंत आनेवाला नहीं है। परंतु यदि ज्ञानीको आज्ञासे यह जीव चाहे जैसे (ज्ञानीके कहे अनुसार) चले तो भी वह मोक्षमार्ग में है। .. १३. हमारी आज्ञासे चलनेपर यदि पाप लगे तो उसे हम अपने सिरपर ले लेते हैं। क्योंकि जैसे कि रास्तेमें काँटे पड़े हों तो, वे किसीको लगेंगे, ऐसा जानकर मार्गमें चलता हुआ कोई व्यक्ति उन्हें वहांसे उठाकर, किसी ऐसी एकांत जगहमें रख दे कि जहां वे किसीको न लगे, तो उसने कुछ राज्यका अपराध
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श्रीमद राजचन्द्र:
किया है ऐसा नहीं कहा जायेगा और राजा उसे दंड नहीं देगा; उसी तरह मोक्षका शांतमार्ग बतानेसे पाप किस तरह लग सकता है ? :
१४. ज्ञानीकी आज्ञासे चलने पर ज्ञानी गुरुने योग्यतानुसार क्रियासंबंधी किसीको कुछ बताया हो' और किसीको कुछ बताया हो, तो इससे मोक्ष (शांति) का मार्ग रुकता नहीं है ।
१५. यथार्थं स्वरूप समझे विना अथवा जो स्वयं कहता है वह परमार्थसे यथार्थ है या नहीं, यह जाने बिना, समझे बिना जो वक्ता होता है वह अनंत संसार बढ़ाता है । इसलिये जब तक यह समझनेकी शक्ति न हो तब तक मौन रहना अच्छा है ।
१६. वक्ता होकर एक भी जीवको यथार्थ-मार्ग प्राप्त करानेसे तीर्थंकरगोत्र बँधता है और उससे उलटा करनेसे महामोहनीय कर्म बँधता है ।
१७. यद्यपि हम आप सबको अभी ही मार्गपर चढ़ा दें, परन्तु वरतनके अनुसार वस्तु रखी जाती है । नहीं तो जिस तरह हलके बरतन में भारी वस्तु रख देनेसे बरतनका नाश हो जाता है; उसी तरह यहाँ . भी हो जाता है । क्षयोपशमके अनुसार समझा जा सकता है ।
१८. आपको किसी तरह डरने जैसा नहीं है, क्योंकि आपके सिरपर हमारे जैसे हैं, तो अब मोक्ष आपके पुरुषार्थंके अधीन है। यदि आप पुरुषार्थ करेंगे तो मोक्ष होना दूर नहीं । 'जिन्होंने मोक्ष प्राप्त किया वे सब महात्मा पहले हम जैसे मनुष्य थे; और केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद भी ( सिद्ध होनेसे पहले) देह तो वही की वही रहती है; तो फिर अब उस देहमेंसे उन महात्माओंने क्या निकाल डाला, यह समझ-. कर हमें भी उसे निकाल डालना है । इसमें डर किसका ? वादविवाद या मतभेद किसका ? मात्र शांतिसे ही उपासनीय है ।
.११.
मोरबी, आषाढ़ सुदी १४, बुध, १९५६
१. पहलेसे आयुधको बाँधना और उसका उपयोग करना सीखा हों तो लड़ाईके समय वह काम आता है; उसी तरह पहलेसे वैराग्यदशा प्राप्त की हो तो अवसर आनेपर काम आती है; आराधना हो सकती है ।
२. यशोविजयजीने ग्रन्थ रचते हुए इतना उपयोग रखा था कि वे प्रायः किसी जगह भी चूके न थे। तो भी छद्मस्थ अवस्थाके कारण डेढ सौ गाथांके स्तवनमें सातवें. ठाणांगसूत्रकी साख दी है वह मिलती नहीं है । वह श्री भगवतीसूत्रके पाँचवें शतकके उद्देशमें मालूम होती है । इस जगह अर्थकर्ताने 'रासभवृत्ति' का अर्थ पशुतुल्य किया है; परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है । 'रासभवृत्ति' अर्थात् गधेको अच्छी शिक्षा दी हो तो भी जातिस्वभावके कारण धूल देखकर उसका मन लोटनेका हो जाता है; उसी तरह वर्तमानto बोलते हुए भविष्यकालमें कहनेकी बात बोल दी जाती है । .
३. ‘भगवती आराधना’में लेश्याके अधिकार में प्रत्येककी स्थिति आदि अच्छी तरह बतायी है । ४. परिणाम तीन प्रकारके हैं - होयमान, वर्धमान और समवस्थितः। पहले दो छद्मस्थको होते हैं, और अंतिम समवस्थित (अचल अकंप शैलेशीकरण) केवलज्ञानीको होता है
५. तेरहवें गुणस्थानकमें लेश्या तथा योगकी चलाचलता है, तो फिर वहाँ समवस्थित परिणाम किस तरह हो सकते हैं ? उसका आशय यह है कि सक्रिय जीवको अबंध अनुष्ठान नहीं होता । तेरहवें गुणस्थानकमें केवलोको भी योगके कारण सक्रियता है, और उससे बंध है; परन्तु वह बंध अबंधबंध गिना जाता है। चौदहवें गुणस्थानकमें आत्माके प्रदेश अचल होते हैं । उदाहरणरूपमें, जिस तरह पिंजरेका सिंह
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व्याख्यानसार-२
७८७. जालोको नहीं छूता, और स्थिर होकर बैठा रहता है, तथा कोई क्रिया नहीं करता, उसी तरह यहाँ आत्माके प्रदेश अक्रिय रहते हैं। जहाँ प्रदेशकी अचलता है वहाँ अक्रियता मानी जाती है। . .:.: ..
६. 'चलई सो बंधे', योगका चलायमान होना बंध है; योगका स्थिर होना अबंध है।'' :::" ७. जव अवंध होता है तब मुक्त हुआ कहा जाता है।' .. . .. ८. उत्सर्ग अर्थात् ऐसे होना चाहिये अथवा सामान्य ।। __.. अपवाद अर्थात् ऐसा होना चाहिये परन्तु वैसे न हो सके तो ऐसे । अपवादके लिये गली शब्दका. प्रयोग करना बहुत ही हलका है । इसलिये उसका प्रयोग न करें। . . . . . . . ..
९. उत्सर्गमार्ग अर्थात् यथाख्यातचारित्र, जो निरतिचार है । उत्सर्गमें तीन गुप्ति समाती है; अप-:. वादमें पाँच समिति'समांती है। उत्सर्ग अक्रिय है। अपवाद सक्रिय है। उत्सर्गमार्ग उत्तम है; और उससे निकृष्ट अपवाद है | चौदहवाँ गुणस्थानक उत्सर्ग है, उससे नीचेके गुणस्थानक एक दूसरेकी अपेक्षासे अपवाद हैं। . . . . . . .. . .. ... ... ..
१०. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगसे एकके बाद एक अनुक्रमसे बंध पड़ता है।
११. मिथ्यात्व अर्थात् यथार्थ समझमें न आना। मिथ्यात्वके कारण विरति नहीं होती, विरतिके अभावसे कषाय होता है, कषायसे योगकी चलायमानता होती है, योगको चलायमानता 'आस्रव' है, और उससे उलटा 'संवर' है।
.. १२. दर्शनमें भूल होनेसे ज्ञानमें भूल होती है। जिस प्रकारके रससे ज्ञानमें भूल होती है उसी प्रकारसे आत्माका वीर्य स्फुरित होता है, और तदनुसार वह परमाणु ग्रहण करता है और वैसा ही बंध पड़ता है; और तदनुसार विपाक उदयमें आता है। दो उँगलियोंको परस्पर फंसानेसे अंकुड़ी पड़ती है, उस अंकुड़ीरूप उदय है और उनको मरोड़नेरूप भूल है; उस भूलसे दुःख होता है अर्थात् वंध बंधता है। परंतु मरोड़नेरूप भूल दूर हो जानेसे अंकुड़ी सहजमें ही छूट जाती है। उसी तरह दर्शनकी भूल दूर हो जानेसे कर्मोदय सहजमें ही विपाक देकर झड़ जाता है और नया बंध नहीं होता। :
.. १३. दर्शनमें भूल होती है, उसका उदाहरण-जैसे लड़का बापके ज्ञानमें और दूसरेके ज्ञानमें देहकी अपेक्षासे एक ही है, अन्य नहीं है, परन्तु बाप उसे अपना लड़का करके मानता है वही भूल है। वही दर्शनमें भूल है और इससे यद्यपि ज्ञानमें भेद नहीं है फिर भी वह भूल करता है, और उससे उपर्युक्तके अनुसार बंध होता है।
१४. यदि उदयमें आनेसे पहले रसमें मंदता कर दी जाये तो आत्मप्रदेशसे कर्म झड़कर निर्जरा हो जाती है, अथवा मंद रससे कर्म उदयमें आते हैं।
१५. ज्ञानी नयी भूल नहीं करते, इसलिये वे अबंध हो सकते हैं।
१६. ज्ञानियोंने माना है कि यह देह अपनी नहीं है, यह रहनेवाली भी नहीं है, कभी न कभी उसका वियोग होनेवाला ही है। इस भेदविज्ञानके कारण ज्ञानी नगारेकी आवाजकी तरह उक्त तथ्यको सदा सुनते रहते हैं और अज्ञानीके कान बहरे होते हैं इसलिये वह उसे नहीं सुनता।
१७. ज्ञानी देहको नश्वर समझकर, उसका वियोग होनेपर खेद नहीं करते । परन्तु जैसे किसीसे कोई चीज ली हो और उसे वापिस देनी पड़ती है उसी तरह ज्ञानी देहको उल्लासपूर्वक वापस दे देते हैं। अर्थात् देह-परिणामी नहीं होते।
१८. देह और आत्माका भेद करना 'भेदज्ञान' है । ज्ञानीका वह जाप है । उस जापसे वे देह और
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श्रीमद राजचन्द्र
आत्माको अलग कर सकते हैं । वह भेदविज्ञान होनेके लिये महात्माओंने सब शास्त्र रचे हैं । जैसे तेजाबसे. सोना और रांगा अलग हो जाते हैं, वैसे ज्ञानीके भेदविज्ञानके जापरूप तेजाबसे स्वाभाविक आत्मद्रव्य :अगुरुलघु स्वभाववाला होकर प्रयोगी द्रव्यसे पृथक् होकर स्वधर्म में आ जाता है । :
..
१९. दूसरे उदयमें आये हुए कर्मोंका आत्मा चाहे जिस तरहसे समाधान कर सकता है, परन्तु वेदनीयकर्म में वैसा नहीं हो सकता; और उसका आत्मप्रदेशोंसे वेदन करना ही चाहिये; और उसका वेदन करते हुए कठिनाईका पूर्ण अनुभव होता है । वहाँ यदि भेदज्ञान संपूर्ण प्रगट न हुआ हो तो आत्मा देहाकारसे परिणमन करता है, अर्थात् देहको अपनी मानकर वेदन करता है, जिससे आत्माकी शांतिका भंग होता है। ऐसे प्रसंगमें जिन्हें संपूर्ण भेदज्ञान हुआ है ऐसे ज्ञानियोंको असातावेदनीयका वेदन करते हुए निर्जरा होती है, और वहाँ ज्ञानोकी कसौटी होती है । अर्थात् अन्य दर्शनवाले वहाँ उस तरह नहीं टिक सकते, और ज्ञानो इस तरह मानकर टिक सकते हैं ।
२०. पुद्गलद्रव्यकी सँभाल रखी जाये तो भी वह कभी न कभी नष्ट हो जानेवाला है; और जो अपना नहीं है, वह अपना होनेवाला नहीं है; इसलिये लाचार होकर दीन बनना किस कामका ? २१. 'जोगा पयडिपदेसा' = योगसे प्रकृति और प्रदेश बंध होता है ।
२२. स्थिति तथा अनुभाग कषायसे बँधते हैं ।
२३. आठविध, सातविध, छविध और एकविध इस प्रकार बंध बँधा जाता है !
१२
मोरबी, आषाढ़ सुदी १५, गुरु, - १९५६
१. ज्ञानदर्शनका फल यथाख्यातचारित्र, और उसका फल निर्वाण; उसका फल अन्याबाध सुख है ।
१३
मोरबी, आषाढ वदी १, शुक्र, १९५६
१. 'देवागमस्तोत्र' महात्मा समंतभद्राचार्यंने ( जिसके नामका शब्दार्थ यह होता है कि 'जिसे कल्याण मान्य है' ) बनाया है, और उसपर दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्योंने टीका लिखी है । ये महात्मा दिगम्बराचार्य थे, फिर भी उनका बनाया हुआ उक्त स्तोत्र श्वेताम्बर आचार्योंको भी मान्य है । उस स्तोत्रमें प्रथम श्लोक निम्नलिखित है
"
'देवागमन भोयानचामरादिविभूतयः
मायाविष्वपि दृश्यंते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥'
- इस श्लोक का भावार्थ यह है कि देवागम (देवताओंका आना होता हो); आकाशगमन (आकाश में गमन हो सकता हो), चामरादि विभूति (चामर आदि विभूति हो - समवसरण होता हो इत्यादि) ये सब... तो मायावियोंमें भी देखे जाते हैं (मायासे अर्थात युक्तिसे भी हो सकते है), इसलिये उतनेसे ही आप हमारे महत्तम नहीं हैं । (उतने मात्रसे कुछ तीर्थंकर अथवा जिनेंद्रदेवका अस्तित्व माना नहीं जा सकता । ऐसी विभूति आदिसे हमें कुछ मतलब नहीं है । हमने तो उसका त्याग किया है ।)
इन आचार्यने न जाने गुफामेंसे निकलते हुए तीर्थंकरको कलाई पकड़कर उपर्युक्त निरपेक्षतासे वचन कहे हों, ऐसा आशय यहाँ बताया गया हैं ।
२. आप्त अथवा परमेश्वरके लक्षण कैसे होने चाहिये, उसके संबंधमें ‘तत्त्वार्थसूत्र' की टीका में (सर्वार्थसिद्धि में) पहली गाथा निम्नलिखित हैं
'मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । · ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥
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व्याख्यानसार-२
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सारभूत अर्थ :-'मोक्षमार्गस्य नेतारं' (मोक्षमार्गमें ले जानेवाला नेता)—यह कहनेसे मोक्षका 'अस्तित्व', 'मार्ग', और 'ले जानेवाला', ये तीन बातें स्वीकृत की हैं । यदि मोक्ष है तो उसका मार्ग भी होना चाहिये और यदि मार्ग है तो उसका द्रष्टा भी होना चाहिये, और जो द्रष्टा होता है वही मार्गमें ले जा सकता है । मार्गमें ले जानेका काम निराकार नहीं कर सकता, परन्तु साकार कर सकता है, अर्थात् मोक्षमार्गका उपदेश साकार उपदेष्टा अर्थात् जिसने देहस्थितिसे मोक्षमार्गका अनुभव किया है वही कर सकता है । 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्-(कर्मरूप पर्वतोंका भेदन करनेवाला) अर्थात् कर्मरूपी पर्वतोंको तोड़नेसे मोक्ष हो सकता है। इसलिये जिसने देहस्थितिसे कर्मरूपो पर्वत तोड़े हैं वह साकार उपदेष्टा है। वैसा कौन है ? वर्तमान देहमें जो जीवन्मुक्त है वह। जो कर्मरूपी पर्वत तोड़कर मुक्त हुआ है, उसके लिये फिर कर्मका अस्तित्व नहीं रहता । इसलिये जैसा कि बहुतसे मानते हैं कि मुक्त होनेके बाद जो देह धारण करता है वह जोवन्मुक्त है, सो हमें ऐसा जीवन्मुक्त नहीं चाहिये । 'ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां'-(विश्वके तत्त्वोंको जाननेवाला) यों कहनेसे यह बताया कि आप्त ऐसा होना चाहिये कि जो समस्त विश्वका ज्ञाता हो । 'वंदे तद्गुणलब्धये-(उसके गुणोंकी प्राप्तिके लिये उसे वंदन करता हूँ), अर्थात् जो इन गुणोंसे युक्त पुरुष हो वही आप्त है और वही वंदनीय है।
:: ३. मोक्षपद सभी चैतन्योंके लिये सामान्य होना चाहिये, एक जीवाश्रयी नहीं; अर्थात् यह चैतन्यका सामान्य धर्म है। एक जीवको हो और दूसरे जीवको न हो, ऐसा नहीं हो सकता। . .
.... ४. 'भगवती आराधना' पर श्वेताम्बर आचार्योंने जो टीका की है वह भी उसी नामसे प्रसिद्ध है। :: : ५. करणानुयोग या द्रव्यानुयोगमें दिगम्बर और श्वेताम्वरके बीचमें अन्तर नहीं है। मात्र बाह्य व्यवहारमें अन्तर है। :: .........: ........
६. करणानुयोगमें गणितरूपसे सिद्धांत एकत्रित किये हैं। उनमें अन्तर होना सम्भव नहीं है। ७. कर्मग्रन्थ मुख्यतः करणानुयोगके अन्तर्गत है।
८. 'परमात्मप्रकाश' दिगम्बर आचार्यका बनाया हुआ है । उसपर टीका हुई है। - - ९. निराकुलता सुख हैं। संकल्प दुःख है। ..
. १०. कायक्लेश तप करते हुए भी महामुनिमें निराकुलता अर्थात् स्वस्थता देखनेमें आती है। तात्पर्य कि जिसे तप आदिकी आवश्यकता है, और इसलिये जो तप आदि कायक्लेश करता है, फिर भी वह स्वास्थ्यदशाका अनुभव करता है; तो फिर जिन्हें कायक्लेश करना नहीं रहा ऐसे सिद्ध भगवानको निराकूलता क्यों नहीं हो सकती?...
... ११. देहकी अपेक्षा चैतन्य बिलकुल स्पष्ट है । जैसे देहगुणधर्म देखनेमें आते हैं वैसे आत्मगुणधर्म देखनेमें आयें तो देहका राग नष्ट हो जाता है । आत्मवृत्ति विशुद्ध हो जानेसे दूसरे द्रव्यके संयोगसे आत्मा देहरूपसे, विभावसे परिणमित हुआ दिखाई देता है।
१२. चैतन्यका अत्यन्त स्थिर होना 'मुक्ति' है।
१३. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इनके अभावमें अनुक्रमसे योग स्थिर होता है। - १४. पूर्वके अभ्यासके कारण जो झोंका आ जाता है वह 'प्रमाद' है।
१५. योगको आकर्षण करनेवाला न होनेसे वह स्वयं ही स्थिर हो जाता है। १६. राग और द्वेष आकर्षण हैं।।
१७. संक्षेपमें ज्ञानीका यों कहना है कि पुद्गलसे चैतन्यका वियोग कराना है; अर्थात् रागद्वेषसे आकर्षण दूर करना है।
१८. जहाँ तक अप्रमत्त हुआ जाये वहाँ तक जागृत ही रहना है।।
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श्रीमद राजचन्द्र
१९. जिनपूजा आदि अपवाद मार्ग है ।
२०. मोहनीयकर्म मनसे जीता जाता है परन्तु वेदनीयकर्म मनसे नहीं जीता जाता; तीर्थंकर आदिको भी उसका वेदन करना पड़ता है, और दूसरोंके समान कठिन भी लगता है । परन्तु उसमें (आत्मधर्ममें) उनके उपयोगकी स्थिरता होनेसे, निर्जरा होती है, और दूसरेको (अज्ञानीको) बंध होता है । क्षुधा, तृषा यह मोहनीय नहीं परन्तु वेदनीय कर्म है ।
२१.
" जो पुमान परधन हरै, सो अपराधी अज्ञ । जे अपनो धन विवहरै, सो धनपति धर्मज्ञ ॥'
श्री. बनारसीदास आगराके दशाश्रीमाली वणिक थे ।
- श्री बनारसीदास
२२. ‘प्रवचनसारोद्धार’ ग्रन्थके तीसरे भाग में जिनकल्पका वर्णन किया है। यह ग्रन्थ श्वेताम्बरीय है । उसमें कहा है कि इस कल्पका साधक निम्नलिखित गुणवाला महात्मा होना चाहिये१. संहनन, २. धीरता, ३: श्रुत, ४. वोर्य और ५. असंगता ।
२३. दिगम्बरदृष्टिमें यह दशा सातवें गुणस्थानकवर्तीकी है । दिगम्बर- दृष्टिके अनुसार स्थविरकल्पी और जिनकल्पी नग्न होते हैं; और श्वेताम्बर - दृष्टि के अनुसार प्रथम अर्थात् स्थविर नग्न नहीं होते । इस कल्पके साधकका श्रुतज्ञान इतना अधिक बलवान होना चाहिये कि वृत्ति श्रुतज्ञानाकार हो जानी चाहिये, विषयाकार वृत्ति नहीं होनी चाहिये । दिगम्बर कहते हैं कि नग्न स्थितिवालेका मोक्षमार्ग है, वाकीका तो उन्मत्त मार्ग है । 'णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसाय उम्मग्गया सव्वे ।' तथा 'नागो ए. बादशाहथी आघो' अर्थात् नंगा वादशाहसे भी बढ़कर है, इस कहावतके अनुसार यह स्थिति बादशाहको भी पूज्य है ।
२४. चेतना तीन प्रकारकी है :- १. कर्मफलचेतना - एकेंद्रिय जीव अनुभव करते हैं । २. कर्मचेतना—विकलेंद्रिय तथा पंचेंद्रिय अनुभव करते हैं । ३. ज्ञानचेतना - सिद्धपर्यायवाले अनुभव करते हैं । २५. मुनियोंकी वृत्ति अलौकिक होनी चाहिये, उसके बदले अभी लौकिक देखने में आती है ।
.
१४
- १. पर्यायालोचन = एक वस्तुका दूसरी तरहसे विचार करना ।
२. आत्माकी प्रतीतिके लिये संकलनाका दृष्टांतः -- छः इंद्रियोंमें मन अधिष्ठाता है, और बाकी पाँच इन्द्रियाँ उसकी आज्ञानुसार चलनेवाली हैं, और उनकी संकलना करनेवाला भी एक मन ही है । यदि मन न होता तो कोई कार्य नहीं हो सकता । वस्तुतः किसी इन्द्रियका कुछ भी वस नहीं चलता । मनका ही समाधान होता है; वह इस तरह कि कोई चीज आँखसे देखी, उसे लेनेके लिये पैरोंसे चलने लगे, वहाँ जाकर उसे हाथ में लिया और खाया इत्यादि । उन सब क्रियाओंका समाधान मनने किया, फिर भी उन सबका आधार आत्मापर है ।
मोरबी, आषाढ वदी २, शनि, १९५६
३. जिस प्रदेशमें वेदना अधिक हो वह उसका मुख्यतः वेदन करता है और वाकी प्रदेश गौणतासे उसका वेदन करते हैं ।
४. जगतमें अभव्य जीव अनंत हैं। उससे अनंत गुने परमाणु एक समयमें एक जीव ग्रहण करता है और छोड़ता है ।
५. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे बाह्य और अभ्यंतर परिणमन करते हुए परमाणु जिस क्षेत्रमें वेदनारूपसे उदयमें आते हैं, वहाँ इकट्ठे होकर वे वहाँ उस रूपसे परिणमन करते हैं; और वहाँ जिस प्रकार - १. परघन = जड, परसमय । अपनो घन = अपना धन, चेतन, स्वसमय । विवहरै = व्यवहार करे, विभाग करे, विवेक करे ।
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व्याख्यानसार-२
७९१ का बंध होता है, वह उदयमें आता है। परमाणु यदि सिरमें इकट्ठे हों तो वहाँ वे सिरदर्दके आकारसे परिणमन करते हैं, आँखमें आँखकी वेदनाके आकारसे परिणमन करते हैं।
६. वहीका वही चैतन्य स्त्रीमें स्त्रीरूपसे और पुरुषमें पुरुषरूपसे परिणमन करता है; और भोजन भी तथाप्रकारके ही आकारसे परिणमन कर पुष्टि देता है।''
७. शरीरमें परमाणुसे परमाणुको लड़ते हुए. किसीने नहीं देखा; परंतु उसका परिणामविशेष जाननेमें आता है । बुखारकी दवा बुखारको रोकती है, इसे हम जान सकते हैं; परंतु भीतर क्या क्रिया हुई, उसे नहीं जान सकते। इस दृष्टांतसे. कर्मबंध होता हुआ देखनेमें नहीं आता, परंतु उसका विपाक देखनेमें आता है।
८. अनागार = जिसे व्रतमें अपवाद नहीं। .. ९. अणगार = घर रहित। ...
१०. समिति = सम्यक् प्रकारसे जिसकी मर्यादा है उस मर्यादासहित, यथास्थितरूपसे प्रवृत्ति करनेका ज्ञानियोंने जो मार्ग कहा है उस मार्गके अनुसार मापसहित प्रवृत्ति करना । :...
११. सत्तागत = उपशम । १२. श्रमण भगवान = साधु भगवान अथवा मुनि भगवान । १३. अपेक्षा = जरूरत, इच्छा ।। १४. सापेक्ष - दूसरे कारणको, हेतुकी जरूरतको इच्छा करना। .... १५. सापेक्षत्व अथवा अपेक्षासे = एक दूसरेको लेकर ।
मोरवी, आषाढ वदी ३, रवि, १९५६ १. अनुपपन्न = असंभवित; सिद्ध होने योग्य नहीं।
रातमें श्रावकाश्रयी, परस्त्रीत्याग तथा अन्य अणुव्रतोंके विषयमें।।
१. जब तक मृषा और परस्त्रीका त्याग न किया जाये, तब तक सब क्रियाएँ निष्फल हैं; तब तक आत्मामें छलकपट होनेसे धर्म परिणमित नहीं होता। ... २..धर्म पानेकी यह प्रथम भूमिका है। ..
३. जब तक मृषात्याग और परस्त्रीत्यागरूप गुण न हों तब तक वका और श्रोता नहीं हो सकते।
४. मृषा दूर हो जानेसे बहुतसी असत्य प्रवृत्ति कम होकर निवृत्तिका प्रसंग आता है। सहज बातचीत करते हुए भी विचार करना पड़ता है।
५. मृषा बोलनेसे ही लाभ होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । यदि ऐसा होता हो तो सच बोलनेवालोंकी अपेक्षा जगतमें जो असत्य बोलनेवाले बहुत होते हैं, उन्हें अधिक लाभ होना चाहिये, परंतु वैसा कुछ देखने में नहीं आता; तथा असत्य बोलनेसे लाभ होता हो तो कर्म एकदम रद्द हो जायेंगे और शास्त्र भी झूठे सिद्ध होंगे।
६. सत्यकी ही जय है । पहले मुश्किली महसूस होती है, परंतु पीछेसे सत्यका प्रभाव होता है और उसका असर दूसरे मनुष्य तथा संबंध आनेवालोंपर होता है।
७. सत्यसे मनुष्यका आत्मा स्फटिक जैसा मालूम होता है।
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श्रीमद राजचन्द्र
मोरबी, आषाढ वदी ४, सोम, १९५६
.१७
१. दिगम्वरसंप्रदाय यह कहता है कि आत्मामें 'केवलज्ञान' शक्तिरूपसे रहता है ।
२. श्वेताम्बरसंप्रदाय आत्मामें केवलज्ञानको सत्तारूपसे मानता है ।
३. 'शक्ति' शब्दका अर्थ 'सत्ता' से अधिक गौण होता है ।
४. शक्तिरूपसे है अर्थात् आवरणसे रुका हुआ नहीं है, ज्यों ज्यों शक्ति बढ़ती जाती है अर्थात् उस पर ज्यों ज्यों प्रयोग होता जाता है, त्यों त्यों ज्ञान विशुद्ध होकर केवलज्ञान प्रगट होता है ।
५. सत्तामें अर्थात् आवरणमें रहा हुआ है, ऐसा कहा जाता है ।
६. सत्तामें कर्म प्रकृति हो वह उदय में आये वह शक्तिरूपसे नहीं कहा जाता ।
७. सत्तामें केवलज्ञान हो और आवरणमें न हो, यह नहीं हो सकता । 'भगवती आराधना' देखियेगा ।
जाणीव
८. कांति, दीप्ति, शरीरका मुड़ना, भोजनका पचना, रक्तका फिरना, ऊपरके प्रदेशोंका नीचे आना, नीचेके प्रदेशोंका ऊपर जाना (विशेष कारणसे समुद्घात आदि), ललाई, बुखार आना, ये सब तैजस् परमाणुकी क्रियाएँ हैं । तथा सामान्यतः आत्माके प्रदेश ऊँचे नीचे हुआ करते हैं अर्थात् कंपायमान रहते हैं, यह भी तैजस परमाणुसे होता है ।
९. कार्मणशरीर उसी स्थलमें आत्मप्रदेशोंको अपना आवरणका स्वभाव बताता है ।
१०. आत्माके आठ रुचक प्रदेश अपना स्थान नहीं बदलते । सामान्यतः स्थूल नयसे ये आठ प्रदेश नाभिके कहे जाते हैं, सूक्ष्मरूपसे वहाँ असंख्यात प्रदेश कहे जाते हैं ।
११. एक परमाणु एकप्रदेशी होते हुए भी छ: दिशाओं को स्पर्श करता है । चार दिशाएँ तथा एक ऊर्ध्व और एक अधः यह सब मिलाकर छः दिशाएँ होती हैं ।
१२. नियाणं अर्थात् निदान ।
१३. आठ कर्म सभी वेदनीय हैं, क्योंकि सबका वेदन किया जाता है; परंतु उनका वेदन लोकप्रसिद्ध नहीं होने से लोकप्रसिद्ध वेदनीयकर्म अलग माना है ।
१४. कार्मण, तैजस, आहारक, वैक्रिय और औदारिक इन पाँच शरीरोंके परमाणु एकसे अर्थात् समान हैं; परंतु वे आत्माके प्रयोग के अनुसार परिणमन करते हैं ।,
१५. मस्तिष्ककी अमुक अमुक नसें दबानेसे क्रोध, हास्य, उन्मत्तता उत्पन्न होते हैं। शरीर में मुख्य... मुख्य स्थल जीभ, नासिका इत्यादि प्रगट दिखायी देते हैं इसलिये मानते हैं; परंतु ऐसे सूक्ष्म स्थान प्रगट दिखायी नहीं देते; अतः नहीं मानते; परंतु वे हैं जरूर ।
१६. वेदनीयकर्म निर्जरारूप है, परंतु दवा इत्यादि उसमेंसे हिस्सा ले लेती है । .
१७. ज्ञानीने ऐसा कहा है कि आहार लेते हुए भी दुःख होता हो और छोड़ते हुए भी दुःख होता .. हो, तो वहाँ संलेखना करें । उसमें भी अपवाद होता है । ज्ञानीने कुछ आत्मघात करनेका नहीं कहा है । १८. ज्ञानीने अनंत औषधियाँ अनंत गुणोंसे संयुक्त देखी हैं, परंतु कोई ऐसी औषधि देखनेमें नहीं आयी कि जो मौत को दूर कर सके ! वैद्य और औषधि ये निमित्तरूप हैं ।
१९. बुद्धदेवको रोग, दरिद्रता, वृद्धावस्था और मौत, इन चार बातोंसे वैराग्य उत्पन्न हुआ था ।
१८
मोरवी, आषाढ वदी ५, मंगल, १९५६ १. चक्रवर्तीको उपदेश किया जाये तो वह घड़ी भरमें राज्यका त्याग कर देता है परंतु भिक्षुको अनंत तृष्णा होनेसे उस प्रकारका उपदेश उसे असर नहीं करता ।
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व्याख्यानसार-२
७९३ . . . . २. यदि एक बार आत्मामें अंतर्वृत्तिका स्पर्श हो जाये, तो उसे अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार ही रहता है यों तीर्थकर आदिने कहा है। अंतवृत्ति ज्ञानसे होती है । अंतर्वृत्ति होनेका आभास स्वतः (स्वभावसे हो) आत्मामें होता है; और वैसा होनेकी प्रतीति भी स्वाभाविक होती है। अर्थात् आत्मा 'थरमामीटर' के समान है। बुखार होनेकी और उतरनेको प्रतीति 'थरमामीटर' कराता है । यद्यपि 'थरमामीटर बुखारको आकृति नहीं बताता, फिर भी उससे प्रतीति होती है। उसी तरह अंतवृत्ति होनेकी आकृति मालूम नहीं होती फिर भी अंतवृत्ति हुई है ऐसी आत्माको प्रतीति होती है। औषध बुखारको किस तरह दूर करता है वह कुछ नहीं बताता, फिर भी औषधसे बुखार चला जाता है, ऐसो प्रतीति होती है इसी तरह अंतर्वृत्ति होनेकी प्रतीति अपनेआप ही हो जाती है। यह प्रतीति 'परिणामप्रतीति' है।
३. वेदनीयकर्म ।
४. निर्जराका असंख्यातगुना उत्तरोत्तर क्रम है । जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुनी निर्जरा करता है.।२ ।
५. तीर्थंकर आदिको गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी गाढ अथवा अवगाढ सम्यक्त्व होता है।
६. 'गाढ' अथवा 'अवगाढ' एक ही कहा जाता है । . . . . . ........ . . : ७. केवलीको 'परमावगाढ सम्यक्त्व' होता है। .. ........ ... . .
८. चौथे गुणस्थानकमें 'गाढ' अथवा 'अवगाढ' सम्यक्त्व होता है । .. . . . : .. ..९. क्षायिक सम्यक्त्व अथवा गाढ-अवगाढ सम्यक्त्व एकसा है। ... ... ..
१०. देव, गुरु, तत्त्व अथवा धर्म अथवा परमार्थकी परीक्षा करनेके तीन प्रकार हैं--(१) कष, (२) छेद और (३) तापं । इस तरह तीन प्रकारसे कसौटी होती है। इसे सोनेकी कसौटीके दृष्टान्तसे समझें। (धर्मबिंदु ग्रन्थमें है ।) पहले और दूसरे प्रकारसे किसीमें मिलनता आ सके, परन्तु तापकी विशुद्ध कसौटोसे शुद्ध मालूम हो तो वह देव, गुरु और धर्म सच्चे माने जायें।
११. शिष्यको जो कमियाँ होती हैं, वे जिस उपदेशकके ध्यानमें नहीं आती उसे उपदेश-कर्ता न समझें । आचार्य ऐसे होने चाहिये कि शिष्यका अल्प दोष भी जान सकें और उसका यथासमय बोध भी दे सकें।
। १२. सम्यग्दष्टि गृहस्थ ऐसे होने चाहिये कि जिनकी प्रतीति शत्रु भी करें, ऐसा ज्ञानियोंने कहा है। तात्पर्य कि ऐसे निष्कलंक धर्म पालनेवाले होने चाहिये । .... .
.. १९. .
. . ...
रातम १. अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें अंतर ।३. . . :२. परमावधिज्ञान मनःपर्यायज्ञानसे भी बढ़ जाता है, और वह एक अपवादरूप है।
१. श्रोताको नोंघ-वेदनीयकर्मकी उदयमान प्रकृतिमें आत्मा हर्प धारण करता है, तो कैसे भावमें आत्माके भावित रहनेसे वैसा होता है इस विषयमें श्रीमद्ने स्वात्माश्रयी विचार करना कहा है।
२. इस तरह असंख्यातगुनी निर्जराका वर्धमान क्रम चौदहवें गुणस्थानक तक श्रीमद्ने वताया है, और स्वामीकार्तिककी साख दी है।
३. श्रीमदने बताया कि अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानके संबंधमें जो कयन नंदीसूममें है उससे मिल आशयवाला कथन भगवती आराधनामें है । अवधिज्ञानके टुकड़े हो सकते हैं; हीयमान इत्यादि चधि गुणस्थानकमें भी हो सकते हैं। स्यूल है, अर्थात् मनके स्थूल पर्याय जान सकता है; और दूसरा मनःपर्यायवान स्वतंत्र है; सास मनके पर्यायसंबंधी शक्तिविशेषको लेकर एक अलग तहसीलको तरह है, वह अखंड है; वप्रमत्तको ही हो सकता है, इत्यादि मुख्य मुल्य अंतर कह बताये ।
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७९४
श्रीमद राजचन्द्र
. . . . . . . . . २० . . मोरबी, आषाढ वदी ७, बुध, १९५६ . १. आराधना होनेके लिये सारा श्रुतज्ञान है, और उस आराधनाका वर्णन करनेके लिये श्रुतकेवली भी अशक्त है। . ..
.. .... .. .. . . २. ज्ञान, लब्धि, ध्यान और समस्त आराधनाका प्रकार भी ऐसा ही है । - ३. गुणकी अतिशयता ही पूज्य है, और उसके अधीन लब्धि, सिद्धि इत्यादि हैं, और चारित्र स्वच्छ करना यह उसकी विधि है। ४. दशवैकालिककी पहली गाथा
'धम्मो मंगल मुक्किद्वं, अहिंसा संजमो तवो। ... देवा. वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ इसमें सारी विधि समा जाती है। परंतु अमुक विधि ऐसे कहनेमें नहीं आयी, इससे यों समझमें आता है कि स्पष्टतासे विधि नहीं बतायी।
५. (आत्माके) गुणातिशयमें ही चमत्कार है।
६. सर्वोत्कृष्ट शांत स्वभाव करनेसे परस्पर वैरवाले प्राणी अपना वैरभाव छोड़कर शांत हो जाते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरका अतिशय है।
७. जो कुछ सिद्धि, लब्धि इत्यादि हैं वे आत्माके जागृतभावमें अर्थात् आत्माके अप्रमत्त स्वभावमें हैं । वे सब शक्तियाँ आत्माके अधीन हैं। आत्माके विना कुछ नहीं है । इन सबका मूल सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।
८. अत्यन्त लेश्याशुद्धि होनेके कारण परमाणु भी शुद्ध होते हैं, इसे सात्त्विक वृक्षके नीचे बैठनेसे प्रतीत होनेवाले असरके दृष्टान्तसे समझे। ..
९. लब्धि, सिद्धि सच्ची हैं, और वे निरपेक्ष महात्माको प्राप्त होती है; जोगी, वैरागी ऐसे मिथ्यात्वीको प्राप्त नहीं होती। उसमें भी अनंत प्रकार होनेसे सहज अपवाद है। ऐसी शक्तिवाले महात्मा प्रकाशमें नहीं आते, और शक्ति बताते भी नहीं । जो कहता है उसके पास वैसा नहीं होता।
१०. लब्धि क्षोभकारी और चारित्रको शिथिल करनेवाली है। लब्धि आदि मार्गसे पतित होनेके कारण हैं। इसलिये ज्ञानो उनका तिरस्कार करते हैं। ज्ञानीको जहाँ लब्धि, सिद्धि आदिसे पतित होनेका सम्भव होता है वहाँ वे अपनेसे विशेष ज्ञानीका आश्रय खोजते हैं।
११. आत्माकी योग्यताके बिना यह शक्ति नहीं आती । आत्मा अपना अधिकार बढ़ाये तो वह आती है।
१२. देहका छूटना पर्यायका छूटना है; परन्तु आत्मा आत्माकारसे अखंड अवस्थित रहता है, उसका अपना कुछ नहीं जाता। जो जाता है वह अपना नहीं, ऐसा प्रत्यक्षज्ञान जब तक नहीं होता तब तक मृत्युका भय लगता है। ... . १३. . २"गुरु गणधर. गुणधर अधिक (सकल) प्रचुर परंपर और। ___ व्रततपधर, तनु नगनतर, वंदौ वृष सिरमौर ॥"
-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, दोहा ३ १. भावार्थ-धर्म, अहिंसा, संयम और तप ही उत्कृष्ट मंगल है। जिसका धर्ममें निरंतर मन है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं।
२. अर्थके लिये देखें आंक ९०१ ।
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व्याख्यानसार - २
=
3
गणधर = गण-समुदायका धारक; गुणधर गुणका धारक; प्रचुर = बहुत; वृष धर्म; सिरमौर :
सिरका मुकुट |
-
७९५
१४. अवगाढ = मजबूत । परमावगाढ़ = उत्कृष्टरूप से मजबूत । अवगाह = एक परमाणु प्रदेश . रोकना, व्याप्त होना । श्रावक = ज्ञानीके वचनका श्रोता, ज्ञानीका वचन सुननेवाला । दर्शनं ज्ञानके बिना, क्रिया करते हुए भी, श्रुतज्ञान पढ़ते हुए भी श्रावक या साधु नहीं हो सकता । औदयिक भावसे वह श्रावक, साधु कहा जाता है; पारिणामिक भावसे नहीं कहा जाता । स्थविर = स्थिर, दृढ |
१५. स्थविरकल्प = जो साधु वृद्ध हो गये हैं उनके लिये, शास्त्रमर्यादासे वर्तन करनेका, चलनेका ' ज्ञानियों द्वारा मुकर्रर किया हुआ, बाँधा हुआ, निश्चित किया हुआ मार्ग या नियम |
१६. जिनकल्प = एकाकी विचरनेवाले साधुओंके लिये निश्चित किया हुआ अर्थात् बाँधा हुआ, • मुकर्रर किया हुआ जिनमार्ग या नियम ।
२१
मोरवी, आषाढ़ वदी ८, गुरु, १९५६
१. सब धर्मोकी अपेक्षा जैनधर्म उत्कृष्ट दयाप्रणीत है । दयाका स्थापन जैसा उसमें किया गया है. वैसा दूसरे किसीमें नहीं है । 'मार' इस शब्दको ही मार डालनेकी दृढ़ छाप तीर्थंकरोंने आत्मामें मारी है | इस जगहमें उपदेशके वचन भी आत्मामें सर्वोत्कृष्ट असर करते हैं । श्री जिनेन्द्रकी छाती में जीवहसाके परमाणु ही नहीं होंगे ऐसा अहिंसाधर्म श्री जिनेन्द्रका है । जिसमें दया नहीं होती वह जिनेंद्र नहीं होता । जैनके हाथसे खून होनेकी घटनाएँ प्रमाणमें अल्प होगी । जो जैन होता है वह असत्य नहीं बोलता |
२. जैनधर्मके सिवाय दूसरे धर्मोकी तुलना में अहिंसा में बौद्धधर्म भी बढ़ जाता है । ब्राह्मणोंकी यज्ञ आदि हिंसक क्रियाओं का नाश भी श्री जिनेन्द्र और बुद्धने किया है, जो अभी तक कायम है ।
३. श्री जिनेन्द्र तथा बुद्धने, यज्ञ आदि हिंसक धर्मवाले होनेसे ब्राह्मणों को सख्त शब्दों का प्रयोग करके धिक्कारा है, वह यथार्थ है ।
४. ब्राह्मणोंने स्वार्थबुद्धिसे ये हिंसक क्रियाएँ दाखिल की हैं । श्री जिनेन्द्र तथा बुद्धने स्वयं वैभवका त्याग किया था, इसलिये उन्होंने निःस्वार्थवुद्धिसे दयाधर्मका उपदेश करके हिंसक क्रियाओंका विच्छेद किया । जगतके सुखमें उनकी स्पृहा न थी ।
५. हिन्दुस्तानके लोग एक बार एक विद्याका अभ्यास इस तरह छोड़ देते हैं कि उसे फिरसे ग्रहण करते हुए उन्हें कंटाला आता है । युरोपियन प्रजामें इससे उलटा है, वे एकदम उसे छोड़ नहीं देते, परन्तु चालू ही रखते हैं । प्रवृत्तिके कारण कम-ज्यादा अभ्यास हो सके, यह बात अलग है ।
२२
रात में
१. वेदनीयकर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्तकी है; उससे कम स्थितिका बंध भी कपाय के विना एक समयका होता है, दूसरे समयमें वेदन होता है और तीसरे समयमें निर्जरा होती है ।
२. ईर्यापथिकी क्रिया = चलनेकी क्रिया ।
३. एक समय में सात अथवा आठ प्रकृतियोंका बंध होता है । प्रत्येक प्रकृति उसका बटवारा किस तरह करती है इस सम्बन्धमें भोजन तथा विपका दृष्टांत :-- जैसे भोजन एक जगह लिया जाता है परंतु उसका रस प्रत्येक इन्द्रियको पहुँचता है, और प्रत्येक इन्द्रिय ही अपनी अपनी शक्तिके अनुसार ग्रहण कर
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७९६
श्रीमद् राजचन्द्र
उस रूपसे परिणमन करती है, उसमें अंतर नहीं आता। उसी तरह विष लिया जाये; अथवा सर्प काट ले तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है; परन्तु उसका असर विषरूपसे प्रत्येक इंद्रियको भिन्न भिन्न प्रकारसे सारे शरीरमें होता है । इसी तरह कर्म बाँधते समय मुख्य उपयोग एक प्रकृतिका होता है, परन्तु उसका असर अर्थात् बटवारा दूसरी सब प्रकृतियोंके पारस्परिक सम्बन्धको लेकर मिलता है। जैसा रस वैसा ही उसका ग्रहण होता है । जिस भागमें सर्पदंश होता है उस भागको यदि काट दिया जाये तो विष नहीं चढ़ता; उसी तरह यदि प्रकृतिका क्षय किया जाये तो बंध होनेसे रुक जाता है, और उसं कारण दूसरी प्रकृतियोंमें बटवारा होनेसे रुक आता है । जैसे. दूसरे प्रयोगसे चढ़ा हुआ विष वापस उतर जाता है, वैसे प्रकृतिका रस मंद कर डाला जाये तो उसका बल कम होता है। एक प्रकृति बंध करती है तो दूसरी प्रकृतियाँ उसमेंसे भाग लेती है, ऐसा उनका स्वभाव है। .
४. मूल कर्मप्रकृतिका क्षय न हुआ हो तब तक उत्तर कर्मप्रकृतिका बंध विच्छेद हो गया हो तो भी उसका बंध मूल प्रकृतिमें रहे हुए रसके कारण हो सकता है, यह आश्चर्य जैसा है। जैसे दर्शनावरणीयमें निद्रा-निद्रा आदि ।
५ अनंतानुबंधी कर्मप्रकृतिकी स्थिति चालीस कोडाकोड़ीकी, और मोहनीय (दर्शन मोहनीय) की सत्तर कोडाकोड़ीकी है।
२३
- मोरवी, आषाढ वदी ९, शुक्र, १९५६ ____१. आयुका बंध एक आनेवाले. भवका आत्मा कर सकता है, उससे अधिक भवोंका बंध नहीं कर सकता।
२. कर्मग्रन्थके बंधचक्रमें जो आठ कर्मप्रकृतियाँ बतायी हैं, उनको उत्तरप्रकृतियाँ एक जीवआश्रयी अपवादके साथ बंध उदय आदिमें हैं; परन्तु उसमें आयु अपवादरूप है। वह इस तरह कि मिथ्यात्वगुणस्थानकवर्ती जीवको बंधमें चार आयुकी प्रकृतिका (अपवाद) बताया है। उसमें ऐसा नहीं समझना कि जीव चालू पर्यायमें चारों गतियोंकी आयुका बंध करता है; परंतु आयुका बंध करनेके लिये वर्तमान पर्यायमें इस गुणस्थानकवर्ती जीवके लिये चारों गतियाँ खुली हैं। उन चारोंमेंसे एक एक गतिका बंध कर सकता है। उसी तरह जिस पर्यायमें जीव हो उसे उस आयुका उदय होता है। तात्पर्य कि चार गतियोंमेंसे वर्तमान एक गतिका उदय हो सकता है; और उदोरणा भी उसीकी हो सकती है।
३. बड़ेसे बड़ा स्थितिबंध सत्तर कोड़ाकोड़ीका है । उसमें असंख्यात भव होते हैं । फिर वैसेका वैसा क्रम क्रमसे बंध होता जाता है। ऐसे अनंत बंधकी अपेक्षासे अनंत भव कहे जाते हैं; परंतु पूर्वोक्तके अनुसार ही भवका बंध होता है।
___ मोरबी, आषाढ़ वदी १०, शनि, १९५६ . १. विशिष्ट-मुख्यतः-मुख्यतावाचक शब्द है।
। . २..ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय ये तीन प्रकृतियाँ उपशमभावमें हो ही नहीं सकती, क्षयोपशमभावमें ही होती हैं। ये प्रकृतियाँ यदि उपशमभावमें हों तो आत्मा जडवत् हो जाता है और क्रिया भी नहीं कर सकता; अथवा तो उससे प्रवर्तन भी नही हो सकता । ज्ञानका काम जानना है, दर्शनका काम देखना है, और वीर्यका काम प्रवर्तन करना है । वीर्य दो प्रकारसे प्रवर्तन कर सकता है-(१) अभिसंधि, (२) अनभिसंधि । अभिसंधि = आत्माकी प्रेरणासे वीर्यका प्रवर्तन होना। अनभिसंधि = कषायसे वीर्यका प्रवर्तन होना। ज्ञानदर्शनमें भल नहीं होती। परन्तु उदयभावमें रहे हुए दर्शनमोहके कारण भूल
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व्याख्यानसार - २
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होनेसे अर्थात् कुछका कुछ जानने से वीर्यकी प्रवृत्ति विपरीतरूपसे होती है, यदि सम्यक्रूपसे हो तो सिद्धपर्याय प्राप्त हो जाता है । आत्मा कभी भी क्रियाके बिना नहीं हो सकता । जब तक योग है तब तक जो क्रिया करता है, वह अपनी वीर्यशक्तिसे करता है । वह क्रिया देखनेमें नहीं आती; परन्तु परिणामसे जाननेमें आती है। खाई हुई खुराक निद्रामें पच जाती है, यों सबेरे उठनेपर मालूम होता है। निद्रा अच्छी आयी थी इत्यादि कहते हैं, यह भी हुई क्रिया के समझ में आनेसे कहा जाता है । यदि चालीस बरस की उमर में अंक गिनना आये तो इससे क्या यह कहा जा सकेगा कि अक पहले नहीं थे ? बिलकुल नहीं। स्वयंको उसका ज्ञान नहीं था इसलिये ऐसा कहता है । इसी तरह ज्ञान-दर्शनके बारेमें समझना है । आत्माके ज्ञान, दर्शन और वीर्य थोडेबहुत भी खुले रहने से आत्मा क्रियामें प्रवृत्ति कर सकता है। वीर्यं सदा चलाचल रहा करता है । कर्मग्रन्थ पढ़नेसे विशेष स्पष्ट होगा । इतने स्पष्टीकरण से बहुत लाभ होगा |
३. पारिणामिक भावसे सदा जीवत्व है, अर्थात् जीव जीवरूपसे परिणमन करता है, और सिद्धत्व क्षायिक-भावसे होता है, क्योंकि प्रकृतियोंका क्षय करनेसे सिद्धपर्याय मिलता है
४. मोहनीयकर्म औदयिक भावसे होता है ।
५. वणिक विकल अर्थात् मात्रा, शिरोरेखा आदिके बिना अक्षर लिखते हैं, परन्तु अंक विकल नहीं लिखते, उन्हें तो बहुत स्पष्टतासे लिखते हैं । उसी तरह कथानुयोगमें ज्ञानियोंने शायद विकल लिखा हो तो भले; परन्तु कर्मप्रकृतिमें तो निश्चित अंक लिखे हैं । उसमें जरा भी फर्क नहीं आने दिया ।
b
२५
मोरबी, आषाढ़, वदी ११, रवि, १९५६ १. ज्ञान धागा पिरोयी हुई सूईके समान है, ऐसा उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है । धागेवाली सूई खोयी नहीं जाती । उसी तरह ज्ञान होनेसे संसार में गुमराह नहीं हुआ जाता । .
२६
मोरवी, आषाढ वदी १२, सोम, १९५६ १. प्रतिहार = तीर्थंकरका धर्मराज्यत्व बतानेवाला । प्रतिहार = दरवान ।
२. स्थूल, अल्पस्थूल, उससे भी स्थूल; दूर, दूरसे दूर, उससे भी दूर; ऐसा मालूम होता है; और इस आधारसे सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्म आदिका ज्ञान किसीको भी होना सिद्ध हो सकता है ।
३. नग्न - आत्ममग्न ।
1
४. उपहत = मारा गया । अनुपहत = नहीं मारा गया । उपष्टंभजन्य = आधारभूत । अभिधेय = जो वस्तुधर्मं कहा जा सके । पाठांतर = एक पाठकी जगह दूसरा पाठ । अर्थातर = कहनेका हेतु बदल जाना । विषम = जो यथायोग्य न हो, अंतरवाला, कम-ज्यादा । आत्मद्रव्य सामान्य विशेष उभयात्मक सत्तावाला है । सामान्य चेतनसत्ता दर्शन है । सविशेष चेतनसत्ता ज्ञान है ।
५. सत्ता समुद्भूत= सम्यक् प्रकारसे सत्ताका उदयभूत होना, प्रकाशित होना, स्फुरित होना, ज्ञात होना ।
६. दर्शन = जगतके किसी भी पदार्थका भेदरूप रसगंधरहित निराकार प्रतिविवित होना, उसका अस्तित्व भास्यमान होना; निर्विकल्परूपसे कुछ हैं, इस तरह आरसीकी झलककी भांति सामनेके पदार्थका भास होना, यह दर्शन है। विकल्प हो वहाँ 'ज्ञान' होता है ।
७. दर्शनावरणीय कर्मके आवरणके कारण दर्शन अवगाढतासे आवृत होनेसे चेतनमें मूढता हो गयी और वहांसे शून्यवाद शुरू हुआ ।
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श्रीमद राजचन्द्र
८. जहाँ दर्शन रुक जाता है वहाँ ज्ञान भी रुक जाता हैं ।
९. दर्शन और ज्ञानका बटवारा किया गया है । ज्ञान-दर्शन के कुछ टुकड़े होकर वे अलग अलग नहीं हो सकते । ये आत्म के गुण हैं । जिस तरह रुपये में दो अठन्नी होती हैं उसी तरह आठ आना दर्शन और आठ आना ज्ञान है ।
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१०. तीर्थंकरको एक ही समय में दर्शन और ज्ञान दोनों साथ होते हैं, इस तरह दो उपयोग दिगम्बरमतके अनुसार हैं, श्वेताम्बर - मत के अनुसार नहीं । बारहवें गुणस्थानकमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय इन तीन प्रकृतियोंका क्षय एक साथ होता है, और उत्पन्न होनेवाली लब्धि भी एक साथ होती है । यदि एक समय में न होते हों तो एक दूसरी प्रकृतिको रुकना चाहिये । श्वेताम्बर कहते हैं कि ज्ञान सत्तामें रहना चाहिये, क्योंकि एक समयमें दो उपयोग नहीं होते; परन्तु दिगम्बरोंकी उससे भिन्न मान्यता है ।
११. शून्यवाद = कुछ भी नहीं ऐसा माननेवाला; यह बौद्धधर्मका एक भेद है । आयतन = किसी भी पदार्थका स्थल, पात्र । कूटस्थ = अचल, जो दूर न हो सके । तटस्थ = किनारे पर; उस स्थलमे । मध्यस्थ = बीच में |
२७
मोरबी, आषाढ वदी १३, मंगल, १९५६ १. चयोपचय = जाना-जाना, परन्तु प्रसंगवशात् आना-जाना, गमनागमन । मनुष्यके जाने आनेको लागू नहीं होता । श्वासोच्छ्वास इत्यादि सूक्ष्म क्रियाको लागू होता है । चयविचय = जाना आना । २. आत्माका ज्ञान जब चिता में रुक जाता है तब नये परमाणु ग्रहण नहीं हो सकते; और जो होते हैं, वे चले जाते हैं, इससे शरीरका वज़न घट जाता है ।
ताजा
३. श्री आचारांगसूत्रके पहले शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमें और श्री षड्दर्शनसमुच्चय में मनुष्य और वनस्पतिके धर्मकी तुलना कर वनस्पतिमें आत्माका अस्तित्व सिद्ध कर बताया है, वह इस तरह कि दोनों उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, आहार लेते हैं, परमाणु लेते हैं, छोड़ते हैं, मरते हैं इत्यादि ।
२८
मोरबी, श्रावण सुदी ३, रवि, १९५६ १. साधु = सामान्यतः गृहवासका त्यागी, मूलगुणों का धारक । यति = व्यानमें स्थिर होकर श्रेणि शुरू करनेवाला | मुनि = जिसे अवधि, मनःपर्यायज्ञान हो तथा केवलज्ञान हो । ऋषि = बहुत ऋद्धिधारी । ऋषिके चार भेद – (१) राज०, (२) ब्रह्म०, (३) देव० (४) परम० राजर्षि = ऋद्धिवाला, ब्रह्मर्षि = अक्षीण महान ऋद्धिवाला, देवर्षि = आकाशगामी मुनिदेव, परमर्षि = केवलज्ञानी ।
२९
श्रावण सुदी १०, सोम, १९५६ १. अभव्य जीव अर्थात् जो जीव उत्कट रससे परिणमन करे और उससे कर्म बाँधा करे, और इस कारण उसका मोक्षं न हों । भव्य अर्थात् जिस जीवका वीर्यं शांतरससे परिणमन करे और उससे नया कर्मबंध न होनेसे मोक्ष हो । जिस जीवकी वृत्ति उत्कट रससे परिणमन करती हो उसका वीर्यं उसके अनुसार परिणमन करता है; इसलिये ज्ञानीके ज्ञानमें अभव्य प्रतीत हुए । आत्माकी परमशांत दशासे 'मोक्ष' और उत्कट दशासे 'अमोक्ष' । ज्ञानीने द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे भव्य, अभव्य कहे हैं । जीवका वीर्य उत्कट रससे परिणमन करनेसे सिद्धपर्याय प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसा ज्ञानीने कहा है । भजना = = अंशसे; हो या न हो | वंचक = ( मन, वचन और कायासे) ठगनेवाला ।
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व्याख्यानसार - २.
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मोरवी, श्रावण वदी ८, शनि, १९५६
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कम्मदव्वे हि संमं संजोगो होई जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो तस्स विओगो भवे मुक्खो ॥
अर्थ-कर्मद्रव्य अर्थात पुद्गलद्रव्यके साथ जीवका जो संबंध होना है वह बंध है, उसका वियोग होना मोक्ष है । संमं अच्छी तरहसे संबंध होना, यथार्थतासे संबंध होना; जैसे-तैसे कल्पना करके संबंध होने का मान लेना सो नहीं ।
२. प्रदेश और प्रकृतिबंध मन-वचन-कायाके योगसे होता है । स्थिति और अनुभागबंध कषायसे होता है ।
३. विपाक अर्थात् अनुभाग द्वारा फलपरिपक्वता होना । सब कर्मो का मूल अनुभाग है, उसमें जैसा तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर रस पड़ा है वैसा उदय में आता है । उसमें अंतर या भूल नहीं होती । कुल्हिया - में पैसा, रुपया, मुहर आदि रखनेका दृष्टांत - जैसे किसी कुल्हिया में बहुत समय पहले पैसा, रुपया, और मुहर डाल रखे हों; उन्हें जिस समय निकालें तो वे उसी जगह उसी धातुरूपसे निकलते हैं, उसमें जगहमें और उनकी स्थितिमें परिवर्तन नहीं होता अर्थात् पैसा रुपया नहीं हो जाता, और रुपया पैसा नहीं हो जाता; उसी तरह बाँधा हुआ कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार उदयमें आता है ।
४. आत्माके अस्तित्वमें जिसे शंका होती है उसे ' चार्वाक' कहा जाता है ।
५. तेरहवें गुणस्थानकमें तीर्थंकर आदिको एक समयका बंध होता है । मुख्यतः कदाचित् ग्यारहवें गुणस्थानकमें अकषायीको भी एक समयका बंध हो सकता है ।
:
६. पवन पानीकी निर्मलताका: भंग नहीं कर सकता; परन्तु उसे चलायमान कर सकता है । उसी तरह आत्माके ज्ञानमें कुछ निर्मलता कम नहीं होती, परन्तु योगको चलायमानता है, इसलिये रसके बिना एक समयका बंध कहा है ।
७..
. यद्यपि कषायका रस पुण्य तथा पापरूप है तो भी उसका स्वभाव कड़वा है ।
८. पुण्य भी खारापनमेंसे होता है । पुण्यका चौठाणिया रस नहीं है, क्योंकि एकांत साताका उदय नहीं है । कषायके दो भेद - ( १ ) प्रशस्तराग और (२) अप्रशस्तराग । कषायके बिना बंध नहीं होता । ९. आर्तध्यानका समावेश मुख्यतः कषायमें हो सकता है, प्रमादका चारित्रमोहमें और योगका नामकर्ममें समावेश हो सकता है ।
१०. श्रवण पवनकी लहरके समान है । वह आता है और चला जाता है ।
११. मनन करनेसे छाप पड़ती है, और निदिध्यासन करने से ग्रहण होता है ।
१२. अधिक श्रवण करने से मननशक्ति मंद होती हुई देखनेमें आती है ।
१३. प्राकृतजन्य अर्थात् लौकिक वाक्य, ज्ञानीका वाक्य नहीं ।
१४. आत्मा प्रत्येक समय उपयोगसहित होनेपर भो अवकाशकी कमी अथवा कामके वोझके कारण उसे आत्मासंबंधी विचार करनेका समय नहीं मिल सकता यों कहना प्राकृतजन्य 'लौकिक' वचन हैं। यदि खाने, पीने, सोने इत्यादिका समय मिला और काम किया वह भी आत्मा के उपयोगके बिना नहीं हुआ; तो फिर खास जिस सुखकी आवश्यकता है, और जो मनुष्य जन्मका कर्तव्य है उसके लिये समय नहीं मिला, इस वचनको ज्ञानी कभी भी सच्चा नहीं मान सकते। इसका अर्थ इतना ही है कि दूसरे इंद्रिय आदि सुखके काम तो जरूरी लगे हैं. और उसके बिना दुःखी होनेके उरको कल्पना है ।
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८००
श्रीमद राजचन्द्र .
आत्मिक सुखके विचारका काम किये बिना अनंतकाल दुःख भोगना पड़ेगा और अनंत संसारभ्रमण करना पड़ेगा, यह बात जरूरी नहीं लगती। मतलब यह कि इस चैतन्यने कृत्रिम मान रखा है, सच्चा नहीं माना।
. १५. सम्यग्दृष्टि पुरुष, अनिवार्य उदयके कारण लोकव्यवहार निर्दोषता एवं लज्जाशीलतासे करते हैं। प्रवृत्ति करनी चाहिये, उससे शुभाशुभ जैसा होना होगा, वैसा होगा ऐसी दृढ़ मान्यताके साथ वे ऊपर-ऊपरसे प्रवृत्ति करते हैं।
. १६. दूसरे पदार्थोंपर उपयोग दें तो आत्माकी शक्तिका आविर्भाव होता है, तो सिद्धि, लब्धि आदि शंकास्पद नहीं हैं । वे प्राप्त नहीं होती इसका कारण यह है कि आत्मा निरावरण नहीं किया जा सकता। ये सब शक्तियाँ सच्ची हैं। चैतन्यमें चमत्कार चाहिये, उसका शद्ध रस प्रगट होना चाहिये । ऐसी सिद्धिवाले पुरुष अंसाताकी साता कर सकते हैं, फिर भी वे उसकी अपेक्षा नहीं करते। वे वेदन करने में ही निर्जरा समझते हैं।
१७. आप जीवोंमें उल्लासमान वीर्य या पुरुषार्थ नहीं है । जहाँ वीर्य मंद पड़ा वहाँ उपाय नहीं है।
१८. जब असाताका उदय न हो तब काम कर लेना, ऐसा ज्ञानीपुरुषोंने जीवका असामर्थ्य देखकर कहा है, कि जिससे उसका उदय आनेपर चलित न हो ।
१९. सम्यग्दृष्टि पुरुषको जहाजके कप्तानकी तरह पवन विरुद्ध होनेसे जहाजको मोड़कर रास्ता बदलना पड़ता है। उससे वे ऐसा समझते हैं कि स्वयं ग्रहण किया हुआ रास्ता सच्चा नहीं है, उसी तरह ज्ञानीपुरुष उदय-विशेषके कारण व्यवहारमें भी अन्तरात्मदृष्टि नहीं चकते। . . . .'
२०. उपाधिमें उपाधि रखनी । समाधिमें समाधि रखनी । अंग्रेजोंकी तरह कामके वक्त काम और आरामके वक्त आराम । एक दूसरेका मिश्रण नहीं कर देना चाहिये। ..
२१. व्यवहारमें आत्मकर्तव्य करते रहें। सुखदुःख, धनकी प्राप्ति-अप्राप्ति, यह शुभाशुभ तथा लाभांतरायके उदयपर आधार रखता है । शुभके उदयके साथ पहलेसे अशुभके उदयकी पुस्तक पढ़ी हो तो शोक नहीं होता । शुभके उदयके समय शत्रु मित्र हो जाता है, और अशुभके उदयके.समय मित्र शत्रु हो जाता है । सुखदुःखका असली कारण कर्म ही है। कार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है कि कोई मनुष्य कर्ज लेने आये तो उसे कर्ज चुका देनेसे सिरका बोझ कम हो. जानेसे कैसा हर्ष होता है ? उसी तरह पुद्गल-द्रव्यरूप शुभाशुभ कर्ज जिस कालमें उदयमें आये उस कालमें उसका सम्यक प्रकारमें वेदन कर चुका देनेसे निर्जरा होती है और नया कर्ज नहीं होता। इसलिये ज्ञानीपुरुषको कर्मरूपी कर्ज से मुक्त होनेके लिये हर्षविह्वलतासे तैयार रहना चाहिये; क्योंकि उसे दिये बिना छुटकारा होनेवाला नहीं है ।
२२. सुखदुःख जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे उदयमें आनेवाला हो उसमें इंद्र आदि भी परिवर्तन करनेके लिये शक्तिमान नहीं हैं।..
२३. चरणानुयोगमें ज्ञानीने अंतर्मुहर्त आत्माका अप्रमत्त उपयोग माना है। .
२४. करणानुयोगमें सिद्धांतका समावेश होता है। ... २५. चरणानुयोगमें जो व्यवहारमें आचरणीय है उसका समावेश किया है।
२६. सर्वविरति मुनिको ब्रह्मचर्यनतकी प्रतिज्ञा ज्ञानी देते हैं, वह चरणानुयोगकी अपेक्षासे, परन्तु करणानुयोगकी अपेक्षासे नहीं; क्योंकि करणानुयोगके अनुसार नौवें गुणस्थानकमें वेदोदयका क्षय हो सकता है, तब तक नहीं हो सकता।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन
Scoregacasa
................. -संस्मरण-पोथी- ...: . ... ... ... ... ... सस्मरण पाया
. ............ २२वेंसे ३४वें वर्ष पर्यन्त
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ता1
श्रीमद्जीके कितने ही निजी अभिप्राय वयक्रममें आ जाते हैं। उसके अतिरिक्त उनके आभ्यंतर परिणामावलोकन (Introspection) सम्बन्धी तीन संस्मरण-पोथियाँ (Memo-Books) प्राप्त हुई हैं, जिन्हें यहाँ देते हैं । संस्मरणपोयियोंमें स्व-निरीक्षणसे उद्भूत पृथक् पृथक् उद्गार स्व-उपयोगार्थ क्रमरहित लिखे गये हैं । इनमेंसे दो विदेशी गठनकी है और एक देशी गठनकी है । पहली दोमेंसे एककी जिल्दपर अंग्रेजी वर्प १८९० का और दूसरीमें १८९६ का कैलेण्डर' है, देशीमें नहीं है । विदेशी दोनोंका कद ७४४३ इञ्च है, और देशीका कद ६१४ ४ इञ्च है । १८९० वालीमें १००, १८९६ वालीमें ११६, और देशीमें ६० पन्ने (Leavcs) हैं । इन तीनोंमें प्रायः एक लेख भी क्रमवार नहीं है। जैसे कि १८९० वाली संस्मरण-पोथीमें लिखनेका आरम्भ, दूसरे पन्ने (तीसरे पृष्ठ)से 'सहज' इस शीर्षकके नीचेका लेख देखते हुए हुआ लगता है। इस प्रारम्भलेखकी शैली देखते हुए वह अंग्रेजी वर्ष १८९० अथवा विक्रम संवत् १९४६ में लिखा हो ऐसा संभव है । यह प्रारंभ लेख दूसरे पन्ने-तीसरे पृष्ठपर है, जब कि प्रारम्भ लेख लिखते समय पहला पृष्ठ छोड़ दिया है जो बादमें लिखा है । इसी तरह ५१ वें पृष्ठपर संवत् १९५१ के पौष मासकी मितीका लेख है । उसके बाद ६२वे पृष्ठपर संवत् १९५३ के फागुन वदी १२ का लेख है और ९७ वें पृष्ठपर संवत् १९५१ के माघ सुदी ७ का लेख है, जब कि १३० वें पृष्ठपर जो लेख है वह संवत् १९४७ का संभव है; क्योंकि उस लेखका विषय दर्शन-आलोचनारूप है, जो दर्शन-आलोचना संवत् १९४७ में सम्यग्दर्शन (देखें संस्मरण-पोथी पहलीका आंक ३१-'ओगणीससें ने सुडताळीसे समकित शुद्ध प्रकाश्युरे-') होनेसे पूर्व होना योग्य है। फिर १८९६ अर्थात् संवत् १९५२ वाली संस्मरण-पोथी लिखना शुरू करनेके बाद उसीमें लिखा हो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि संवत् १९५२ वाली नयी संस्मरण-पोथी होते हुए भी १८९० (१९४६) वाली संस्मरण-पोथीमें संवत् १९५३ के लेख है । संवत् १९५२ (१८९६) वाली संस्मरण-पोथी पूरी हो जानेके वाद तीसरी-देशी गठनवालीका उपयोग किया है, ऐसा भी नहीं है; क्योंकि १८९६ वालीमें २७ पन्ने काममें लिये हैं, और उसके बाद सारे कोरे पड़े हैं। और तीसरी देशी गठनवालीमें बहुतसे लेख हैं। जैसे संवत् १८९६ वाली संस्मरणपोथीमें संवत् १९५४ के ही लेख हैं, वैसे देशी गठनवाली में भी है। इसी तरह १८९० वालीमें संवत् १९५३ के ही लेख होंगे और उसके बादके नहीं होंगे यह भी कह सकना शक्य नहीं है । और तीनों संस्मरण पोथियोंमें बीच-बीचमें बहुत पन्ने केवल कोरे पड़े हैं; अर्थात् यह अनुमान होता है कि जब जो संस्मरण-पोथी हाथ लगी, और खोलते ही जो पन्ना निकला उसमें कहीं-कहीं स्वनिरीक्षण अपने ही जाननेके लिये लिख डाला है। जो निजी लेख वयक्रममें हैं वे, और इन तीनों संस्मरण-पोथियोंके लेख स्वनिरीक्षणके लिये हैं; इसलिये हमने इन संस्मरणपोथियोंको 'आभ्यंतर-परिणाम-अवलोकन' इस शीर्षकसे यहाँ प्रस्तुत किया है । इस निरीक्षणमें उनकी दशा, आत्मजागृति और आत्ममंदता, अनुभव, स्वविचारके लिये लिखे हुए प्रश्नोत्तर, अन्य जीवोंके निर्णय करनेके उद्देश्यसे लिखे हुए प्रश्नोत्तर, दर्शनोद्वार-योजनाएँ इत्यादि संबंधी अनेक उद्गार हैं, जिनमें कितने ही निजी सांकेतिक भाषामें हैं।
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९६०
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन
संस्मरण-पोथी
२२ वैसे ३४वें वर्ष पर्यन्त
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संस्मरण-पोथी १
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १]
• प्रत्येक प्रत्येक पदार्थका अत्यंत विवेक करके इस जीवको उससे व्यावृत्त करें, ऐसा निग्रंथ कहते हैं । जैसे शुद्ध स्फटिकमें अन्य रंगका प्रतिभास होनेसे उसका मूल स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता, वैसे ही शुद्ध निर्मल यह चेतन अन्य संयोगके तादात्म्यवत् अध्याससे अपने स्वरूपके लक्ष्यको नहीं पाता । यत्किचित् पर्यायांतरसे इसी प्रकारसे जैन, वेदांत, सांख्य, योग आदि कहते हैं ।
* संवत् १९७७ में अहमदाबाद से प्रकाशित " श्रीमद् राजचन्द्र प्रणीत तत्त्वज्ञान" के सातवें संस्करण से प्राप्त यहाँ प्रस्तुत है । यह मूल हस्ताक्षरवाली संस्मरण-पोथीमें न होनेसे पाद-टिप्पण में दिया है ।.
हुआ
१. प्रत्येक प्रत्येक पदार्थका अत्यन्त विवेक करके इस जीवको उससे व्यावृत्त करें ।
२. जगतके जितने पदार्थ हैं, उनमेंसे चक्षुरिद्रियसे जो देखे जाते हैं उनका विचार करनेसे इस जीवसे वे पर हैं अथवा तो वे इस जीवके नहीं हैं, इतना ही नहीं अपितु उनपर राग आदि भाव हों तो उससे वे ही दुःखरूप सिद्ध होते हैं । इसलिये उनसे व्यावृत्त करनेके लिये निर्ग्रन्थ कहते हैं ।
३. जो पदार्थ चक्षुरिद्रियसे देखे नहीं जाते अथवा चक्षु रिद्रियसे जाने नहीं जा सकते, परन्तु प्राणेन्द्रियसे जाने जा सकते हैं, वे भी इस जीवके नहीं हैं, इत्यादि ।
४. इन दो इन्द्रियोंसे नहीं परन्तु जिनका बोध रसेंद्रियसे हो सकता है वे पदार्थ भी इस जीवके नहीं हैं, इत्यादि । ५. इन तीन इंद्रियोंसे नहीं परंतु जिनका ज्ञान स्पर्शेद्रियसे हो सकता है वे भी इस जीवके नहीं है, इत्यादि । ६. इन चार इंद्रियोंसे नहीं परंतु जिनका ज्ञान कर्णेन्द्रियसे हो सकता है, वे भी इस जीव के नहीं हैं, इत्यादि । - ७. इन पांच इंद्रियोंसहित मनसे अथवा तो किसी एक इंद्रियसहित मनसे या इन इंद्रियोंके बिना अकेले मनसे जिनका बोध हो सकता है ऐसे रूपी पदार्थ भी इस जीवके नहीं हैं, परंतु उससे पर हैं, इत्यादि ।
८, उन रूपी पदार्थोके अतिरिक्त अरूपी पदार्थ आकाश आदि हैं, जो मनसे मानें जाते हैं, वे भी आत्मा के नहीं है परन्तु उससे पर हैं, इत्यादि ।
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८०४
श्रीमद् राजचन्द्र
२ जोवके अस्तित्वका तो किसी कालमें भी संशय प्राप्त नहीं होता। जोवको नित्यताका, त्रिकाल-अस्तित्वका किसी कालमें भी संशय प्राप्त नहीं होता। जीवकी चेतना एवं त्रिकाल-अस्तित्वमें कभी भी संशय प्राप्त नहीं होता। उसे किसी भी प्रकारसे वन्धदशा है, इस वातमें भी कभी भी संशय प्राप्त नहीं होता।
उस बंधकी निवृत्ति किसी भी प्रकारसे निःसंशय घटित होती है, इस विषयमें कभी भी संशय प्राप्त नहीं होता।
मोक्षपद है इस वातका कभी भी संशय नहीं होता। . . .
२. इस जगतके पदार्थोंका विचार करनेसे वे सब नहीं परन्तु उनमेंसे जिन्हें इस जीवने अपना माना है वे भी इस जीवके नहीं हैं अथवा उससे पर है, इत्यादि । जैसे कि१. कुटुम्ब और सगे-संबंधी, मित्र, शत्रु आदि मनुष्य-वर्ग । २. नौकर, चाकर, गुलाम आदि मनुष्य-वर्ग । ३. पशु-पक्षी आदि तिर्यंच । ४. नारकी, देवता आदि। ५. पाँचों प्रकारके एकेंद्रिय । ..... ६. घर, जमीन, क्षेत्र आदि, गाँव, जागीर आदि, तथा पर्वत आदि। .. ७. नदी, तालाब, कुआँ, वावड़ी, समुद्र आदि। .
८. हरेक प्रकारका कारखाना आदि । १० अव कुटुम्ब और सगेके सिवाय स्त्री, पुत्र आदि जो अति समीपके हैं अथवा जो अपनेसे उत्पन्न हुए हैं वे भी। ११. इस तरह सबको वरतरफ करनेसे अंतमें जो अपना शरीर कहा जाता है उसके लिये विचार किया जाता है
१. काया, वचन और मन ये तीन योग और इनकी क्रिया । । २. पाँच इंद्रिय आदि। .. ३. सिरके वालोंसे लेकर पैरके नख तकका प्रत्येक अवयव जैसे कि४. सभी स्थानोंके बाल, चर्म (चमड़ी), खोपड़ी, भेजा, मांस, लहू, नाड़ी, हड्डी, सिर, कपाल, कान, आँख,
नाक, मुख, जिह्वा, दांत, गला, होंठ, ठोड़ी, गरदन, छाती, पीठ, पेट, रीढ़, कमर, गुदा, चूतड़, लिंग, जाँघ, घुटना, हाय, वाहु, कलाई, कुहनी, टखना, चपनी, एड़ीके नीचेका भाग, नख इत्यादि अनेक
अवयव अर्थात् विभाग ।
उपर्युक्तमें से एक भी इस जीवका नहीं है, फिर भी अपना मान बैठा है, वह सुधरनेके लिये अथवा उससे जीवको व्यावृत्त करनेके लिये मात्र मान्यताको भूल है, वह सुधारनेसे ठीक हो सकती है । वह भूल कैसे हुई है ? उसका विचार करनेसे पता चलता है कि वह भूल राग, द्वेष और अज्ञानसे हुई है। तो उन राग आदिको दूर करें । वे कैसे दूर हों ? ज्ञानसे । वह ज्ञान किस तरह प्राप्त हो ?
प्रत्यक्ष सद्गुरुको अनन्य भक्तिकी उपासना करनेसे तया तीन योग और आत्माका अर्पण करनेसे वह ज्ञान प्राप्त होता है। यदि वे प्रत्यक्ष सद्गुरु विद्यमान हो तो क्या करें ? तो उनकी आज्ञानुसार वर्तन करें। . .
परम करुणाशील, जिनके प्रत्येक परमाणुसे दयाका झरना बह रहा है, ऐसे निष्कारण दयालुको अत्यन्त भक्तिसहित नमस्कार करके आत्माक साथ संयुक्त हुए पदार्थोका विचार करते हुए भी अनादिकालके देहात्मबुद्धिके
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३
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरण पोथी १
८०५
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २] जीवकी व्यापकता, परिणामिता, कर्मसम्बद्धता, मोक्षक्षेत्र ये किस किस प्रकारसे घटित हो सकते है, इसका विचार किये बिना तथारूप समाधि नहीं होती । गुणं और गुणीका भेद किस तरह समझमें आना योग्य है ?
जीवकी व्यापकता, सामान्यविशेषात्मकता, परिणामिता, लोकालोकज्ञायकता, कर्मसम्बद्धता मोक्षक्षेत्र, ये पूर्वापर अविरोधसे किस तरह सिद्ध होते हैं ? ' . .
एक ही जीव नामके पदार्थको भिन्न भिन्न दर्शन, सम्प्रदाय और मत भिन्न भिन्न स्वरूपसे कहते हैं, उसका कर्मसंबंध और मोक्ष भी भिन्न भिन्न स्वरूपसे कहते है, 'इसलिये निर्णय करना दुष्कर क्यों
नहीं है ?
..........: [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३]
: सहज जो पुरुष इस ग्रन्थमें सहज नोंध करता है, उस पुरुषके लिये प्रथम सहज वही पुरुष लिखता है।
उसको अभी अन्तरंगमें ऐसी दशा रहती है कि कुछके सिवाय उसने सभी संसारी इच्छाओंकी भी विस्मृति कर डाली है।
वह कुछ पा भी चुका है, और पूर्णका परम मुमुक्षु है, अन्तिम मार्गका निःशंक जिज्ञासु है ।
अभी जो आवरण उसके उदयमें आये हैं, उन आवरणोंसें उसे खेद नहीं है; परन्तु वस्तुभावमें होनेवाली मन्दताका खेद है।
. . वह धर्मकी विधि, अर्थकी विधि, कामकी विधि और उसके आधारसे. मोक्षको विधिको प्रकाशित कर सकता है । इस कालमें बहुत ही थोड़े पुरुषोंको प्राप्त हुआ होगा, ऐसे क्षयोपशमवाला पुरुष है।
उसे अपनी स्मृतिके लिये गर्व नहीं है, तर्कके लिये गर्व नहीं है, तथा उसके लिये पक्षपात भी नहीं है; ऐसा होनेपर भी उसे कुछ बाह्याचार रखना पड़ता है, उसके लिये खेद है।
उसका अब एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयमें ठिकाना नहीं हैं। वह पुरुष यद्यपि तीक्ष्ण उपयोगवाला है, तथापि उस तीक्ष्ण उपयोगको दूसरे किसी भी विषयमें लगानेके लिये वह प्रीति नहीं रखता।
. .. [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ:४]
अभ्याससे जैसा चाहिये वैसा समझमें नहीं आता, तथापि किसी भी अंशमें देहसे आत्मा भिन्न है ऐसे अनिर्धारित निर्णय पर आया जा सकता है। और उसके लिये वारंवार गवेषणा को जाये तो अब तक जो प्रतीति होती है उससे विशेषरूपसे हो सकना सम्भव है; क्योंकि ज्यों ज्यों विचारश्रेणिकी दृढता होती जाती है त्यों त्यों विशेष प्रीति होती जाती है।
सभी संयोगों और सम्बन्धोंका यथाशक्ति विचार करनेसे यह तो प्रतीति होती है कि देहसे भिन्न ऐसा कोई पदार्थ है।
. ऐसे विचार करनेके लिये एकांत आदि जो साधन चाहिये वे प्राप्त न करनेसे विचार-श्रेणीको किसी न किसी प्रकारसे वारंवार व्याघात होता है और उससे चलती हुई विचारथेणी टूट जाती है । ऐसी टूटी-फूटी विचारणी होते हए भी क्षयोपशमके अनसार विचार करते हुए जड-पदार्थ (शरीर आदि) के सिवाय उसके संबंध कोई भी वस्तु है, अवश्य है ऐसी प्रताति हो जाती है। आवरणके बलते अथवा तो अनादिकालके देहात्मबुद्धि अध्यासले यह निर्णय भुला दिया जाता है, और भूलवाले रास्तेपर गमन हो जाता है। .
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८०६
श्रीमद राजचन्द्र
५
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९ ]
एक बार वह स्वभुवन में बैठा था । जगतमें कोन सुखी है, उसे जरा देखूं तो सही, फिर में अपने लिये विचार करूँगा । उसकी इस अभिलापाको पूर्ण करनेके लिये अथवा स्वयं उस संग्रहालयको देखनेके लिये बहुत से पुरुष (आत्मा) और बहुतसे पदार्थ उसके पास आये ।
'इसमें कोई जड़ पदार्थ न था । '
'कोई अकेला आत्मा देखने में नहीं आया ।'
मात्र कितने ही देहधारी थे, जो मेरी निवृत्तिके लिये आये हों ऐसी उस पुरुषको शंका हुई ।
वायु, अग्नि, पानी और भूमि इनमें से कोई क्यों नहीं आया ?
(नेपथ्य) वे सुखका विचार भी नहीं कर सकते । वे विचारे दुःखसे पराधीन हैं ।
दो इंद्रिय जीव क्यों नहीं आये ?
(नेपथ्य) उनके लिये भी यही कारण है । इस चक्षुसे देखिये। उन विचारोंको कितना अधिक दुःख है ?
उनका कम्प, उनकी थरथराहट, पराधीनता इत्यादि देखे नहीं जा सकते । वे बहुत दुःखी थे । [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०]
(नेपथ्य ) इसी चक्षुसे अव आप सारा जगत देख लें । फिर दूसरी बात करें । अच्छी बात है। दर्शन हुआ, आनन्द पाया; परन्तु फिर खेद उत्पन्न हुआ । (नेपथ्य) अव खेद क्यों करते हैं
मुझे दर्शन हुआ क्या वह सम्यक् था ?
"हाँ"
सम्यक हो तो फिर चक्रवर्ती आदि दुःखी क्यों दिखायी देते हैं ?
'जो दुःखी हो वे दुःखी, और जो सुखी हो वे सुखी दिखायी देंगे ।'
चक्रवर्ती तो दुःखी नहीं होगा ?
'जैसा दर्शन हुआ वैसी श्रद्धा करें । विशेष देखना हो तो चलें मेरे साथ । '
चक्रवर्तीके अंतःकरण में प्रवेश किया ।
अंतःकरण देखकर मैंने यह माना कि वह दर्शन सम्यक् था । उसका अंत करण बहुत दुःखी था । अनंत भय के पर्यायों से वह थरथराता था । काल आयुकी रस्सीको निगल रहा था । हड्डी-मांस में उसकी वृत्ति थी । कंकरोंमें उसकी प्रीति थी । क्रोध, मानका वह उपासक था । बहुत दुःख
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११]
'अच्छा, क्या यह देवोंका दर्शन भी सम्यक् समझना ? 'निश्चय करनेके लिये इन्द्रके अंतःकरण में प्रवेश करें ।' चले अव
( उस इन्द्रको भव्यतासे मैं धोखा खा गया) वह भी परम दुःखी था । विचारा च्युत होकर किसी बीभत्स स्थलमें जन्म लेनेवाला था, इसलिये खेद कर रहा था । उसमें सम्यग्दृष्टि नामको देवी वसी थी । वह उसके लिये खेदमें विश्रांति थी । इस महादुःखके सिवाय उसके और अनेक अव्यक्त दुःख थे । परंतु, (नेपथ्य)—ये जड़ अकेले या आत्मा अकेले जगतमें नहीं हैं क्या ? उन्होंने मेरे आमंत्रणका सन्मान नहीं किया ।
'जड़ोंको ज्ञान न होनेसे आपका आमंत्रण वे विचारे कहाँसे स्वीकार करते ? सिद्ध (एकात्मभावी) आपका आमंत्रण स्वीकार नहीं कर सकते। उन्हें इसकी कुछ परवाह नहीं है ।'
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरण पोथी १
इतनी अधिक बेपरवाही ? आमंत्रण तो मान्य करना ही चाहिये; आप क्या कहते हैं ? इन्हें आमंत्रण-अनामंत्रणसे कोई संबंध नहीं है ।
1000
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२]
वे परिपूर्ण स्वरूप सुखमें विराजमान हैं ।'
यह मुझे बतायें । एकदम —- बहुत जल्दीसे ।
'उनका दर्शन तो बहुत दुर्लभ है | लीजिये, यह अंजन ऑजकर दर्शन प्रवेश साथमें कर देखें । अहो ! ये बहुत सुखी हैं। इन्हें भय भी नहीं है । शोक भी नहीं है । हास्य भी नहीं है । वृद्धता नहीं है। रोग नहीं है। आधि भी नहीं है, व्याधि भी नहीं है, उपाधि भी नहीं है, यह सब कुछ नहीं है । परंतु अनंत अनंत सच्चिदानंदसिद्धिसे वे पूर्ण हैं । हमें ऐसा होना है । .. 'क्रमसे हुआ जा सकेगा ।"-.
यह क्रम-ब्रम यहाँ नहीं चलेगा । यहाँ तो तुरन्त वही पद चाहिये'
'जरा शांत हो, समता रखें, और क्रमको अंगीकार करें। नहीं तो उस पदसे युक्त होना सम्भव नहीं ।'
८०७
...
"होना संभव नहीं" इस अपने वचनको आप वापस लें । क्रम त्वरासे बतायें, और उस पदमें तुरन्त भेजें।
!... बहुतसे मनुष्य आये हैं । उन्हें यहाँ बुलायें । उनमेंसे आपको क्रम मिल सकेगा ।'
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३]
चाहा कि वे आये;
..आप मेरा आमंत्रण स्वीकार कर चले आये इसके लिये आपका उपकार मानता हूँ । आप सुखी हैं, यह बात सच है क्या ? आपका पद क्या सुखवाला माना जाता है ऐसा ?
एक वृद्ध पुरुषने कहा – 'आपका आमंत्रण स्वीकार करना या न करना ऐसा हमें कुछ बंधन नहीं है। हम सुखी हैं या दुःखी, यह बताने के लिये भी हमारा यहाँ आगमन नहीं है । अपने पदकी व्याख्या करनेके लिये भी आगमन नहीं है । आपके कल्याणके लिये हमारा आगमन है ।'
कृपा करके शीघ्र कहिये कि आप मेरा क्या कल्याण करेंगे ? और आये हुए पुरुषोंकी पहचान
कराइये ।
उन्होंने पहले परिचय कराया
इस वर्गमें ४-५-६-७-८-९-१०-१२ नंबरवाले मुख्यतः मनुष्य हैं । ये सब उसी पदके आराधक योगी हैं कि जिस पदको आपने प्रिय माना है
नं० ४ से वह पद हो सुखरूप है, और बाकीकी जगत व्यवस्था जैसे हम हैं । उस पदके लिये उनकी हार्दिक अभिलाषा है परंतु वे प्रयत्न नहीं कर सकते, उन्हें अंतराय है ।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १४] मानते हैं, वैसे वे मानते क्योंकि कुछ समय तक
अंतराय क्या ? करनेके लिये तत्पर हुए कि बस वह हो गया ।
वृद्ध - आप जल्दी न करें । इसका समाधान अभी आपको मिल सकेगा, मिल जायेगा ।
ठोक, आपकी इस वातसे मैं सम्मत होता है ।
वृद्ध -- यह '५' नंबरवाला कुछ प्रयत्न भी करता है। वाकी सब बातोंमें नंबर '४' की तरह है । नंबर '६' सब प्रकारसे प्रयत्न करता है । परंतु प्रमत्तदशासे प्रयत्न में मंदता आ जाती है । नंबर '७' सर्वथा अप्रमत्त- प्रयत्नवान है ।
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८०८
. .. श्रीमद् राजचन्द्र. ... ... . ___ नंबर '८-९-१०' उसकी अपेक्षा क्रमसे उज्ज्वल हैं, किंतु उसी, जातिके हैं। ११' नंबरवाला पतित हो जाता है इसलिये उसका यहाँ आना नहीं हुआ | दर्शन होनेके लिये मैं बारहवेंमें ही हूँ--अभी मैं उस पदको संपूर्ण देखनेवाला हूँ, परिपूर्णता पानेवाला हूँ। आयुस्थिति पूरी होनेपर आपके देखे हुए पदमें एक मुझे भी देखेंगे।
-: . . ... ... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५] पिताजी, आप महाभाग्य है। .. • ऐसे नंबर कितने हैं ? . .
वृक्ष-पहले तीन नंबर आपको अनुकूल नहीं आयेंगे । ग्यारहवाँ भी वैसा ही है । '१३-१४' आपके पास आयें ऐसा उनको निमित्त नहीं रहा। '१३' यत्किंचित् आ जाये; परंतु पू: क० हो तो उनका आगमन हो, नहीं तो नहीं । चौदहवेंका आगमन-कारण मत पूछना, कारण नहीं है। . .. :
(नेपथ्य) "आप इन सबके अंतरमें प्रवेश करें । मैं सहायक होता हूँ।" . चलें। ४ से ११ + १२ तक क्रम-क्रमसे सुखको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई लहरें उमड़ रही थीं। अधिक क्या कहें ? मुझे वह बहुत प्रिय लगा; और यही मुझे अपना लगा। ... वृद्धने मेरे मनोगत भावको जानकर कहा-यही है आपका कल्याणमार्ग। जायें तो भले और आयें तो यह समुदाय रहा। ............ ... .
मैं उठकर उनमें मिल गया। . .
[स्वविचार भुवन, द्वार प्रथम] ........... ........: संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७] कायाकी
नियमितता। . . ... ... वचनको ... स्याद्वादिता।
मनकी उदासीनता।
आत्माकी मुक्तता। .. .... . . . .
.. . . . (यह अंतिम समझ) . .. . . ...
७
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८] ..... ... ... . . . . . . . . : . आत्मसाधन
द्रव्य-मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्व परभावसे मुक्त हूँ। क्षेत्र-असंख्यात निज-अवगाहना प्रमाण हूँ। काल-अजर, अमर, शाश्वत हूँ। स्वपर्याय-परिणामी समयात्मक हूँ। ... भाव-शुद्ध चैतन्य मात्र निर्विकल्प द्रष्टा हूँ।
वचनसंयम-.
.
वचनसंयममनःसंयमकायसंयम१. पूर्वकर्म ।
मनःसंयमकायसंयम
[संस्मरण पोथी १, पृष्ठ १९]
वचनसंयम। ...... मनःसंयम । . . . .. कायसंयम।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरण पोथी १
८०९
... .
. . .. .. __ आसनस्थिरता । : सोपयोग- यथासूत्र प्रवृत्ति ।
. ... ... :
.. : . .
कायसंयम...... .
इंद्रियसंक्षेपता,
इंद्रियस्थिरता, वचनसंयम. .., S: मौन, ....::.
वचनसंक्षेप, मनःसंयम
:.:. . . सोपयोग यथासूत्र प्रवृत्तिः ।
वचनगुणातिशयता.
..
.
मनःसंक्षेपता,
__मनःस्थिरता।
आत्मचिंतन
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव .............. ........ संयमकारण निमित्तरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ..
द्रव्य-संयमित देह। क्षेत्र-निवृत्तिवाले क्षेत्रमें स्थिति-विहार। ... काल-यथासूत्र काल। .... ...... भाव-यथासूत्र निवृत्तिसाधनविचार ! -. .......:
..... ९ . . . . . : . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २१] जो सुखको न चाहता हो वह नास्तिक, या सिद्ध या जड़ है। ....
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २५] ....यही स्थिति यही भाव और यही स्वरूप। .. .. .... चाहे तो कल्पना करके दूसरी राह ले । यथार्थको इच्छा हो तो यह लें। ... विभंग ज्ञान-दर्शन अन्य दर्शनमें माना गया है। इसमें मुख्य प्रवर्तकोंने जिस धर्ममार्गका बोध दिया है, उसके सम्यक् होनेके लिये स्थात् मुद्रा चाहिये । .: .
स्यात् मुद्रा स्वरूपस्थित आत्मा है। श्रुतज्ञानको अपेक्षासे स्वरूपस्थित आत्मा द्वारा कही हुई शिक्षा है।
• नाना प्रकारके नय, नाना प्रकारके प्रमाण, नाना प्रकारके भंगजाल, नाना प्रकारके अनुयोग, ये सब लक्षणरूप हैं । लक्ष्य एक सच्चिदानंद है। .
दष्टिविष दूर हो जानेके बाद कोई भी शास्त्र, कोई भी अक्षर, कोई भी कथन, कोई भी वचन और कोई भी स्थल प्रायः अहितका कारण नहीं होता।
पुनर्जन्म है, जरूर है, इसके लिये मैं अनुभवसे हाँ कहनेमें अचल हैं। इस काल में मेरा जन्म मानें तो दुःखदायक है, और मानूं तो सुखदायक भी है।
- संस्मरण-पोयी १, पृष्ठ २६] अब ऐसा कोई पढ़ना नहीं रहा कि जिसे पढ़ देखें। हम जो हैं उसे प्राप्त करे, यह जिसके संगमें रहा है उस संगकी इस काल में न्यूनता हो गयी है।
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८१०
• श्रीमद् राजचन्द्र
विकराल काल ! .... विकराल कर्म ! विकराल आत्मा ! अव ध्यान रखें । यही कल्याण है ।
क
390
११
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २७]
इतना ही खोजा जाये तो सब मिल जायेगा; अवश्य इसमें ही है । मुझे निश्चित अनुभव है । सत्य कहता हूँ । यथार्थ कहता हूँ । निःशंक मानें
X=
इस स्वरूपके लिये सहज सहज किसी स्थलपर लिख मारा है ।
'परंतु ऐसे
१२
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २९]
|
* मारग साचा मिल गया, छूट गये संदेह होता सो तो जल गया, 'भिन्न किया निज देह ॥ समज, पिछे सब सरल है, बिन समज मुशकील | ये शकीली क्या कहूँ ? "
खोज पिंड ब्रह्मांडका, पत्ता तो लग: लाय येहि ब्रह्मांड वासना, जब जावे तब ॥ आप आपके भूल गया, इनसे क्या अंधेर १ समर समर अब हसत हैं, 'नहि भूलेंगे फेर ॥ जहाँ कलपना जलपना, तहाँ मानुं दुःख छांई । मिटे कलपना - जलपना, तब वस्तू तिन पाई ॥
""
हे जीव ! क्या इच्छत हवे ? है इच्छा दुःखमूल । जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल ॥
स
15
* भावार्थ - मोक्षका सच्चा मार्ग प्राप्त हुआ, जिससे सभी सन्देह दूर हो गये । मिथ्यात्वसे जो कर्मबंध हुआ करता था वह जलकर नष्ट हो गया और चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्मसे भिन्न प्रतीत हुआ 1
i
TE.
आत्मस्वरूपका बोध हो जाने के बाद सब कुछ सरल हो जाता है अर्थात् आत्मसिद्धिका मार्ग और आत्मसिद्धि दोनों एकदम स्पष्ट एवं सरल हो जाते हैं । जब तक यथार्थबोध नहीं होता तब तक मार्गप्राप्ति कठिन है । इस कठिनताकी बात क्या कहूँ ?
14
'
अपने शरीर परमात्माकी खोज कर अर्थात् आन्तरिक खोजसे आत्मस्वरूपका अनुभव होगा और उस अनुभव के बढ़नेसे केवल ज्ञानमय दशा प्राप्त होगी जिससे ब्रह्मांड समस्त विश्वका पता चल जायेगा । यह सब तभी हो सकता है कि जब ब्रह्मांडी - वासना -- जगतकी माया दूर हो जाये ।
अहो ! यह जीव अपने आपको भूल गया है, इससे बढ़कर और क्या अंधेर होगा ? इस आत्मभ्रांति किवा आत्मविस्मृतिकी समझ आनेसे उसे हँसी आती है और वैसी भूल फिर न करनेका निश्चय करता है ।
जब तक कल्पना और जल्पना है अर्थात् मन और वचनकी दौड़ चलती है तब तक दुःख मानता हूँ। जिसकी कल्पना- जल्पना मिट जाती हैं उसे वस्तुकी प्राप्ति होती है । तात्पर्य कि आत्म-प्राप्ति के लिये मनकी स्थिरता और वाणीका संयम अनिवार्य है ।
हे जीव ! अब तू किसकी इच्छा करता है ? इच्छा मात्र दुःखका मूल है । जव इच्छाका नाश होगा तब आत्मभ्रांतिरूप अनादिकी भूल दूर होकर स्वरूपप्राप्ति होगी ।
१. मूल संस्मरण-पोथीमें ये चरण नहीं हैं, परन्तु श्रीमदूने स्वयं ही बादमें पूर्ति की है । 12२. पाठान्तर - 'दया इच्छत ? खोवत सवे ।'
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन--संस्मरण पोथी १
८११ . ऐसी कहाँसे मति भई, आप आप है नाहि ।
आपनकुं जब भूल गये, अवर' कहांसे लाई ॥ आप आप ए शोधसें, आप आप मिल जाय। [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३०] आप मिलन नय बापको,
"
"
॥
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३३] एक बार वह स्वभुवनमें बैठा था। "प्रकाश था;-मंदता थी। "" मंत्रीने आंकर उसे कहा, आप किस विचारके लिये परिश्रम उठा रहे हैं ? वह योग्य हो तो इस दीनको बताकर उपकृत करें। . . आसवा परिसवा ननिमें मदद।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३५] मात्र दृष्टिको भूल है, भूल गये गत एहि ॥ रचना जिन उपदेशकी,- परमोत्तम तिनु काल । इनमें सब मत रहत हैं, करते निज संभाल ॥ जिन सो ही है आतमा, अन्य होई सो कर्म। कर्म कटे सो जिन वचन, तत्त्वज्ञानीको मम ॥...
जब जान्यो निजरूपको, तब जान्यो सब लोक। .... ...'नहि जान्यो .निजरूपको, सब जान्यो सो फोक ॥ . .
एहि दिशाको मूढ़ता, है नहि जिन भाव। . ... ... ...
जिनसें भाव बिनु कबू, नहि छूटत दुःखदाव ॥ ... ... .. . हे जीव ! तुझे अपने आपको भूल जानेकी बुद्धि कहाँसे आयी ? अपने आपको तो भूल गया परन्तु देह आदि अन्यको अपना मानना कहाँसे ले आया ? ..
... तुझे आत्मभान एवं आत्मप्राप्ति तव होगी जब तू आत्मनिष्ठा तथा आत्मश्रद्धासे अपने आपकी खोज करेगा। अर्थात् जब बहिर्मुखतांकी माया छोड़कर अंतर्मुखता अपनायेगा तब आत्म-मिलनसे कृतकृत्य हो जायेगा। .
भावार्थ-अंतर्मुखी ज्ञानीके लिये आस्रव भी संवररूप तथा निर्जरारूप होते हैं यह निःसन्देह सत्य है । आत्मा वहिर्मुख-दृष्टिसे देह गेह आदिको अपना मान रहा है, यही भूल है । अंतर्मुख होनेसे यह भूलं दूर होती है, फिर कोका आस्रव और बंध दूर होकर संवर तथा निर्जरा करके मुक्त ज्ञानमयदशा प्राप्त कर जीव कृतार्थ हो जाता है।
जिनेश्वरके उपदेशकी रचना तीनों कालमें परमोत्तम है। छहों दर्शन अथवा सभी धर्म-मत अपनी अपनी संभाल करते हुए वीतरागदर्शनमें समा जाते हैं, क्योंकि वह एकांतवादी न होकर अनेकान्तवादी है। ..
.. जिन ही आत्मा है, कर्म आत्मासे भिन्न है और जिनवचन कर्मका नाशफ है. यह ममं तत्त्वज्ञानियोंने बताया है। .. यदि निजस्वरूपको जान लिया तो सब लोकको जान लिया, और यदि आत्मस्वल्पको नहीं जाना तो सब जाना हुआ व्यर्थ है, अर्थात् आत्मज्ञानके विना दूसरा सब ज्ञान निरर्थक है। . : दिशामढ़ जीवकी यही मूर्खता है कि उसे संसारफे पदार्थोसे प्रीति है, परन्तु जिनेंद्र भगवान से प्रेम नही है। पोतरागसे प्रेम किये विना संसारका दुःख कभी दूर नहीं होता। ६. पाठांतर-होत न्यूनसे न्यूनना,
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८१२
::
2-02
20
श्रीमद राजचन्द्र
व्यवहारसे देव जिन, निहचेसें है आप | एहि बचनसें समजले, जिनप्रवचनकी छाप ॥ एहि नहीं है कल्पना, एही नहीं विभंग । ...जागेंगे. आतमा, तब लागेंगे रंग ॥
जब
१५
अनुभव
पृष्ठ ३७]
.१६
[संस्मरण: पोथी १, पृष्ठ ३९]
यह त्यागी भी नहीं है, अत्यागी भी नहीं हैं । यह रागी भी नहीं हैं, वीतरागी भी नहीं है । अपना क्रम निश्चल करें। उसके चारों ओर निवृत्त भूमिका रखें ।
f
यह दर्शन होता है वह क्यों वृथा जाता है ? इसका विचार पुनः पुन करते हुए मूर्च्छा आती है । सन्त जनोंने अपना क्रम नहीं छोड़ा है । जिन्होंने छोड़ा है वे परम असमाधिको प्राप्त हुए हैं । संतपना अति अति दुर्लभ है । आनेके बाद संत मिलने दुर्लभ है । सन्तपनेके अभिलाषी अनेक हैं । परंतु संतपना दुर्लभ सो दुर्लभ ही है !.
[संस्मरण-पोथी
१७.
प्रकाशभुवन
अवश्य वह सत्य है । ऐसी ही स्थिति है । आप इस ओर मुड़ें
उन्होंने रूपकसे कहा है । भिन्न भिन्न प्रकार से उससे बोध हुआ है, और होता हैं; परन्तु वह
विभंगरूप है ।
(संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४३]
यह समझकर अब योग्य मार्ग ग्रहण करें ।
कारण न खोजें, निषेध न करें, कल्पना न करें। ऐसा ही है ।,
यह पुरुष यथार्थवक्ता था । अयथार्थं कहनेका उन्हें कोई निमित्त न था ।
यह वोध सम्यक् है । तथापि बहुत ही सूक्ष्म और मोह दूर होनेपर ग्राह्य हो सकता है । सम्यक् बोध भी पूर्ण स्थिति में नहीं रहा है । तो भी जो है वह योग्य है ।
१८.
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४६]
बड़ा आश्चर्य है कि निर्विकार मनवाले मुमुक्षु जिसके चरणोंकी भक्ति, सेवा चाहते हैं वैसे पुरुषको 1. एक मृगतृष्णाके पानी जैसी,
1.
उ
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४७ ]
वह दशा- किससे आवृत हुई ? और वह दशा वर्धमान क्यों न हुई ?.. लोकप्रसंगसे, मानेच्छासे, अजागृति सें, स्त्री आदि परिषहोंको न जीतनेसे । -
.. जिस क्रिया में जीवको रंग लगता है, उसकी वहीं स्थिति होती है, ऐसा जो जिनेन्द्रका अभिप्राय है वह सत्य है ।
'व्यवहारनयसे जिनेश्वर 'देव है, और निश्चयनयसे तो अपना आत्मा ही देव है । इस वचनसे जिनेश्वर के प्रवचनके प्रभाव महत्त्वको जीव समझ ले ।
}
यह कथन मात्र कल्पना अर्थात् असत्य नहीं है, और यह विभंग-मिथ्याज्ञान भी नहीं है, अपितु नग्न सत्य है । जब आत्मा जागृत होगा अर्थात् अपने स्वरूपको पाने के लिये पुरुषार्थयुक्त होगा, तभी परमपदके, रंग में रंगेगा !....
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरण पोथी १
८१३ ..श्री तीर्थकरने महामोहनीयके जो तोस स्थानक कहे हैं वे सच्चे हैं।
.. अनंत ज्ञानीपुरुषोंने जिसका प्रायश्चित नहीं बताया है, जिसके त्यागका एकांत अभिप्राय दिया है, ऐसे कामसे जो व्याकुल नहीं हुआ, वही परमात्मा है।
. . . .२० . . . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४९] कोई ब्रह्मरसना . भोगी, .. . . . . कोई ब्रह्मरसना भोगी; जाणे कोई विरला योगी, कोई ब्रह्मरसना भोगी।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ५१] +२-२-३मा-१९५१
एक लक्ष,. .
• मोहमयो,. काल,
. मा० ००... .
२१
द्रव्य,
क्षेत्र,
भाव,
उदयभाव एक लक्ष मोहमयी
द्रव्यक्षेत्रकाल-
| उदासीन
इच्छा
.
.. .
..
.
भाव- '.
उदयभाव
प्रारब्ध
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ५२]
सामान्य चेतन
सामान्य चैतन्य विशेष चेतन
विशेष चैतन्य _ निर्विशेष चेतन
(चैतन्य) स्वाभाविक अनेक आत्मा (जीव) निग्रंथ । सोपाधिक अनेक आत्मा (जीव) वेदान्त ।
[संस्मरण-पोधी १, पृष्ठ ५३]
. २३ चक्षु अप्राप्यकारी। मन अप्राप्यकारी। चेतनका वाह्य अगमन (गमन न होना)।
+ स्पष्टीकरण-२-२-३ मा-१९५१ = [२ == द्वितीया, २ = कृष्णपक्ष, ३ = पोप, मा = मास, १९५१ = संवत् १९५१] = पौष वदी २, १९५१ द्रव्य =धन
एक लक्ष = एक लाख क्षेत्र स्थान
मोहमयी = बम्बई काल = समय
मा० २०८-१ = एक वर्ष आठ महीने -यह विचारणा पौष वदो २, १९५१ के दिन लिखी गयी है कि द्रव्य-मर्यादा एक लक्ष रुपयेकी करनी. वम्बईमें एक वर्ष आठ महीने निवास करना, और ऐसी वृत्ति होनेपर भी उदय भावके अनुसार प्रवृत्ति करना।
[श्री परमधवप्रभावक मण्डल, वम्बई द्वारा प्रकाशित श्रीमद्, राजचन्द्र (हिन्दी) पृ० ४३१ के फुटनोटसे उधत]
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८१४
श्रीमद् राजचन्द्र
स्मरण-पोथी ?, पृष्ठ १५] - ज्ञानीपुरुषोंको समय समयमें अनंत संयमपरिणाग वर्धमान होते है ऐसा जो सर्वज्ञने कहा है वह सत्य है। . वह संयम, विचारकी तीक्ष्ण परिणतिले तथा ब्रह्मरम के प्रति स्थिरतासे उत्पन्न होता है।
श्री तीर्थकर आत्माको संकोच-विकासका भाजन योगदशामें मानते हैं, यह सिद्धांत विशेषतः विचारणीय है।
[संस्मरण-गोगी ?, पृष्ठ ५६]
२५ ध्यान ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान व्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान
गंस्मरण-पोपी १, पाठ ५७]
२६ चिधातुमय, परमशांत, अडिग
एकाग्र, एकस्वभावमय असंख्यात प्रदेशात्मक पुरुषाकार चिदानंदघन उसका ध्यान करें।
ज्ञा. व. ढ० व.
मो०
अं
--का आत्यंतिक अभाव । प्रदेश संबंधको प्राप्त हुए
पूर्वनिष्पन्न, · सत्ताप्राप्त,
. उदयप्राप्त, उदीरणाप्राप्त ... .. .. .. चार ऐसे .''
......
....
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरण पोथी १
१५.
....
.. .. ....
. .. . . . .
... , . : ना. गो. आ. वेदनीयका
वेदन करनेसे इनका अभाव...
जिसे हो गया है ऐसे शुद्ध स्वरूप जिन ..... चिन्मत्ति, सर्व लोकालोकभासक
चमत्कारका धाम। ..
विश्व अनादि है।
:
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ५८]
:: जीव अनादि है। .......... .. परमाणु-पुद्गल अनादि हैं। जीव और कर्मका संबंध अनादि है। ....... सं योगी भावमें तादात्म्य अध्यास होनेसे जीव जन्म, मरण आदि दुःखोंका अनुभव करता है।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ५९] पांच अस्तिकायरूप लोक अर्थात् विश्व है। ... ... ... चैतन्य लक्षण जीव है। .. .... ...: :: वर्ण-गंध-रस-स्पर्शवान परमाणु हैं। ... . वह संबंध स्वरूपसे नहीं है । विभावरूप है।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६०] शरीरमें आत्मभावना प्रथम होती हो तो होने देना, क्रमसे प्राणमें आत्मभावना करना, फिर इन्द्रियोंमें आत्मभावना करना, फिर संकल्प-विकल्परूप परिणाममें आत्मभावना करना; फिर स्थिर ज्ञानमें आत्मभावना करना । वहाँ सर्व प्रकारकी अन्यालंबनरहित स्थिति करना।
३०
[संस्मरण-पोयो १, पृष्ठ ६१] .. प्राण ) सोहं
वाणी . अनहद उसका ध्यान करना ।
...
संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६२]
.
: .
.
.
..........; ३१ · · संवत् १९५३ फागुन वदी १२, मंगलवार ...... जिन
मुख्य . . सिद्धांत .
पद्धति . . . .. शांत रस
अहिंसा लिंगादि
व्यवहार . मतांतर
समावेश शांत रस
प्रवहन ..... जिन
अन्यको लोकादि स्वरूप--
संशयकी . जिन
प्रतिमा
आचार्य धर्म - मुख्य जिनमुद्रा सूचक
.
धर्म प्राप्ति निवृत्ति समाधान फारण
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८१६
. श्रीमद् राजचन्द्र कुछ गृहव्यवहार शांत करके, परिग्रह आदि कार्यसे निवृत्त होना । अप्रमत्त गुणस्थानकपर्यंत पहुँचना । केवल भूमिका का सहजपरिणामी ध्यान- .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६३] *धन्य रे दिवस आ अहो, जागी रे शांति अपूर्व रे; दश वर्षे रे धारा उलसी, मटयो उदय कर्मनो गर्व रे ॥ धन्य०॥ ओगणीससें ने एकत्रीसे, आव्यो अपूर्व अनुसार रे;
ओगणीससें ने बेतालीसे, अद्भुत वैराग्य धार रे ॥ धन्य० ॥
ओगणीससें ने सुडतालीसे, समकित शुद्ध प्रकाश्युं रे; श्रुत अनुभव वधती दशा, निज स्वरूप अवभास्युं रे॥ धन्य० ॥ त्यां आव्यो रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य · प्रपंच रे, . जेम जेम ते हडसेलीए, तेम वधे न घटे एक रंच रे ॥ धन्य०॥
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६४] वधतुं एम ज चालियु, हवे दोसे क्षीण काई रे; क्रमे करीने रे ते जशे,
एम भासे मनमांहीं रे॥ धन्य० ॥ भावार्थ-अहो ! आजका दिन धन्य है, क्योंकि अपूर्व शांति प्रगट हुई है, और दस वर्षके बाद ज्ञान एवं वैराग्यकी धारा उल्लसित हुई है; और उपाधिरूप कर्मोदयका गर्व-वल नष्ट हो गया है
वि० सं १९३१ में सात वर्षकी उम्रमें जातिस्मरणज्ञान हुआ। वि० सं० १९४२ में अद्भुत वैराग्यधारा प्रगट हुई।
वि० सं० १९४७ में शुद्ध सम्यक्त्व प्रकाशित हुआ; श्रुतज्ञान और अनुभवदशा दोनोंमें वृद्धि होती गई और निजस्वरूप अवभासित हुआ।
वहाँ तो प्रवल कर्मका उदय हुआ और व्यापार घंधेकी उपाधि सिर आ पड़ी। उसे ज्यों ज्यों दूर करनेका प्रयत्न करते हैं त्यों-त्यों वह बढ़ती जाती है, मगर लेशमात्र भी कम नहीं होती।
यह उपाधि बढ़ती ही चली । अब किंचित् क्षीण हुई दीखती है; और क्रमशः यह उपाधि दूर हो जायेगी ऐसा हमें भास होता हैं।
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८१७
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी १
यथा हेतु . जे चित्तनो, सत्य धर्मनो उद्धार रे : थशे अवश्य आ देहथी, एम थयो निरधार रे॥ धन्य० ॥ आवी अपूर्व वृत्ति अहो, थशे अप्रमत्त योग रे; केवळ लगभग भूमिका, स्पर्शीने देह वियोग रे॥धन्य०॥ अवश्य कर्मनो भोग छ, भोगववो . अवशेष , रे; तेथी देह एक ज धारीने,.. जाशं स्वरूप स्वदेश रे॥ धन्य० ॥ ३३
. संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६७] 'कम्मदव्वेहि सम्म, संजोगो होई जो उ जीवस्स। सो बंधो नायव्वो, तस्स विओगो भवे 'मुक्खो॥
३४ . . . . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ७३] श्री जिनेंद्रने निम्नलिखित सम्यग्दर्शनस्वरूप जिन छः पदोंका उपदेश दिया है, उनका आत्मार्थी जोवको अतिशय विचार करना योग्य है।
आत्मा है यह अस्तिपद ।
क्योंकि प्रमाणसे उसकी सिद्धि है। '.. आत्मा नित्य है यह नित्यपद ।
आत्माका जो स्वरूप है उसका किसी भी प्रकारसे उत्पन्न होना संभव नहीं है, तथा उसका विनाश भी संभव नहीं है।
आत्मा कर्मका कर्ता है, यह कपिद । आत्मा कर्मका भोक्ता है। .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ७४] उस आत्माको मुक्ति हो सकती है। जिनसे मोक्ष हो सके ऐसे.उपाय प्रसिद्ध हैं।
हमारे हृदयके उद्देशके अनुसार सत्य धर्मका उद्धार इस देहके द्वारा अवश्य होगा ऐसा निश्चय हआ है।
हमारी ऐसी अपूर्ववृत्ति चलती है कि हमें इस देहमें अप्रमत्त योगकी प्राप्ति होगी और केवलज्ञानको लगभगकी भूमिकाको स्पर्श करके इस देहका वियोग होगा।
(दशा तो इतनी ऊंची है, परन्तु) अभी हमें फर्मका भोगना अवश्य अवशेष रहा है, इसलिये एक वह पारण फर कमसे मुक्त होकर स्वघामरूप मोक्षनगरीमें पहुँच जायेंगे।
१. अर्थके लिये देखें व्याख्यानसार २, आंक ३० ।
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८१८
आत्मा
नित्य
अनित्य
परिणामी
अपरिणामी
साक्षी
साक्षी - कर्ता
वेदांत
21
11
+
श्रीमद राजचन्द्र
३५
जैन : सांख्य योग
11.
+
वेदांत कहता है कि आत्मा एक ही हैं ।
जिन कहता है कि आत्मा अनंत है । जाति एक है । सांख्य भी ऐसा ही कहता है । पतंजलि भी ऐसा ही कहता है !
वेदांत कहता है कि यह समस्त विश्व-वंध्यापुत्रवत् है जिन कहता है कि यह समस्त विश्व शाश्वत है ।
पतंजलि कहता है कि नित्यमुक्त ऐसा एक ईश्वर होना चाहिये । सांख्य उसका निषेध करता है। जिन उसका निषेध करता है ।
नैयायिक
"
+
+
11
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ८० ]
वौद्ध
+
३६
सांख्य कहता है कि बुद्धि जड़ है। पतंजलि और वेदांत ऐसा ही कहते हैं ।
जिन कहता है कि बुद्धि चेतन है ।
11
13
+
+
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ८१]
३७
[संस्मरण-पोथी, १, पृष्ठ ८७]
श्रीमान महावीरस्वामी जैसोंने अप्रसिद्ध पद रखकर गृहवासका वेदन किया, गृहवाससे निवृत्त होनेपर भी साढ़े बारह वर्ष जितने दीर्घकाल तक मौन रखा । निद्रा छोड़कर विषम परिवह सहन किये, इसका क्या हेतु है ?
और यह जीव इस तरह वर्तन करता है तथा इस तरह कहता है, इसका हेतु क्या है ?
• जो पुरुष सद्गुरुकी उपासनाके विना अपनी कल्पनासे आत्मस्वरूपका निर्धार करे वह मात्र अपने स्वच्छंद के उदयका वेदन करता है ऐसा विचार करना योग्य है ।
जो जीव सत्पुरुष गुणका विचार न करे, और अपनी कल्पनाके आश्रयसे वर्तन करें, वह जीव सहजमात्रमें भववृद्धि उत्पन्न करता है, क्योंकि अमर होने के लिये जहर पीता है ।
३८
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ८९ ]
श्री तीर्थंकरने सर्वसंगको महास्रवरूप कहा है, सो सत्य है ।
ऐसी मिश्र गुणस्थानक जैसी स्थिति कब तक रखना ? जो वात चित्त में नहीं, उसे करना, और जो चित्तमें है उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस तरह हो सकता हैं ?...
वैश्यवेपसे और निर्ग्रथभाव से रहते हुए कोटि-कोटि विचार हुआ करते हैं ।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरणपोथी १
-
Q
८१९
वेष और उस वेषसंबंधी व्यवहार देखकर लोकदृष्टि वैसा माने यह सच है, और निग्रंथभावमें
ता हुआ चित्त उस व्यवहारमें यथार्थं प्रवृत्ति न कर सके यह भी सत्य है, जिसके लिये इन दो प्रकारकी - स्थिति से प्रवृत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रथम प्रकारसे प्रवृत्ति करते हुए निग्रंथभावसे उदास ना पड़े तो ही यथार्थ व्यवहारको रक्षा हो सकती है, और निर्ग्रथभावसे रहें तो फिर वह व्यवहार चाहे ना हो उसकी उपेक्षा करना योग्य है । यदि उपेक्षा न की जाये तो निर्ग्रन्थभावकी हानि हुए बिना 2 रहेगी [संस्मरण-पोथी, १, पृष्ठ ९० ]
Plese
उस व्यवहारका त्याग किये बिना अथवा अत्यन्त अल्प किये बिना -निर्ग्रन्थता यथार्थ नहीं रहती, र उदयरूप होनेसे व्यवहारका त्याग नहीं किया जाता ...ये सर्व विभाव-योग दूर हुए बिना हमारा चित्तं दूसरे किसी उपाय से संतोष प्राप्त करे, ऐसा हीं लगता: । .
i
E
वह विभावयोग दो प्रकारका है - एक पूर्वमें निष्पन्न किया हुआ उदयस्वरूप, और दूसरा आत्मद्धिसे रागसहित किया जानेवाला भावस्वरूप |
आत्मभावसे, विभावसम्बन्धी योगकी उपेक्षा हो श्रेयभूत लगती है । नित्य उसका विचार किया नाता है, उस विभावरूपसे रहनेवाले आत्मभावको बहुत परिक्षण किया है, और अभी भी वही परिणति दहती है।
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उस संपूर्ण विभावयोगको निवृत्त किये बिना चित्त विश्रांतिको प्राप्त हो ऐसा नहीं लगता, और अभी तो उस कारणसे विशेष क्लेशका वेदन करना पड़ता है, क्योंकि उदय विभावक्रियाका है और इच्छा आत्मभावमें स्थिति करनेकी है ।
"
यज्ञ १
1 [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९१] ....... फिर भी ऐसा रहता है कि यदि उदय की विशेषकाल तक प्रवृत्ति रहे तो आत्मभाव विशेष चंचल परिणामको प्राप्त होगा; क्योंकि आत्मभावके विशेष संधान करनेका अवकाश उदयकी प्रवृत्तिके कारण प्राप्त नहीं हो सकेगा, और इसलिये वह आत्मभाव कुछ भी अजागृतावस्थाको प्राप्त हो जायेगा ।
जो आत्मभाव उत्पन्न हुआ है, उस आत्मभावपर यदि विशेष ध्यान दिया जाये तो अल्प कालमें उसकी विशेष वृद्धि हो, और विशेष जागृतावस्था उत्पन्न हो, और थोड़े समयमें हितकारी उग्र आत्मदशा प्रगट हो, और यदि उदयकी स्थिति के अनुसार उदयका काल रहने देनेका विचार किया जाये तो अब आत्मशिथिलता होनेका प्रसंग आयेगा, ऐसा लगता है; क्योंकि दीर्घकालका आत्मभाव होनेसे अब तक · चाहे जैसा उदयबल होनेपर भी वह आत्मभाव नष्ट नहीं हुआ, तो भी कुछ कुछ उसकी अजागृतावस्था होने देनेका वक्त आया है; ऐसा होनेपर भी अब केवल उदयपर ध्यान दिया जायेगा तो शिथिलभाव उत्पन्न [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९२ ] होगा ।
ज्ञानीपुरुष उदयवंश देहादि धर्मकी निवृत्ति करते हैं । इस तरह प्रवृत्ति की हो तो आत्मभाव नष्ट नहीं होना चाहिये; इसलिये इस बात को ध्यान में रखकर उदयका वेदन करना योग्य है. ऐसा विचार भी अभी योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञानके तारतम्यको अपेक्षा उदयबल बढ़ता हुआ देखने में आये तो जरूर वहाँ ज्ञानीको भी जागृतदशा करना योग्य है, ऐसा श्री सर्वज्ञने कहा है ।
अत्यंत दुषमकाल है इस कारण और हतपुण्य लोगोंने भरतक्षेत्रको घेरा है इस कारण, परम सत्संग, सत्संग या सरलपरिणामी जीवोंका समागम भी दुर्लभ है, ऐसा समझकर जैसे अल्प कालमें सावधान हुआ जाये, वैसे करना योग्य है ।
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८२०
. ....: : श्रीमद राजचन्द्र ..
. . ३९ . . . . . [संस्मरण-पोथी १; पृष्ठ ९३] मौनदशा धारण करनी? ... व्यवहारका उदय ऐसा है कि वह धारण की हुई. दशा लोगोंके लिये कषायका निमित्त हो, और व्यवहारको प्रवृत्ति न हो सके। ....... ..... . . . . . . . . . . . . . ...: तब क्या उस व्यवहारको निवृत्त करना ? :: : ... ....... .. ... ... ..
यह भी विचार करनेसे होना कठिन लगता है, क्योंकि वैसी कुछ स्थितिका वेदन करनेका चित्त रहा करता है । फिर चाहे वह शिथिलतासे, उदयसे या परेच्छासे या सर्वज्ञदृष्ट होनेसे हो । ऐसा होनेपर भी अल्पकालमें इस व्यवहारको संक्षेप करनेका. चित्त है।
इस व्यवहारका संक्षेप किस प्रकारसे किया जा सकेगा? .
क्योंकि उसका विस्तार विशेषरूपसे देखनेमें आता है। व्यापाररूपसे, कुटुंबप्रतिबंधसे, युवावस्थाप्रतिबंधसे, दयास्वरूपसे, विकारस्वरूपसे, उदयस्वरूपसे, इत्यादि कारणोंसे वह व्यवहार विस्ताररूपसे दिखाई देता है।
-: संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९४] .: मैं ऐसा जानता हूँ कि अनन्तकालसे अप्राप्तवत् : ऐसा आत्मस्वरूप केवलज्ञान-केवलदर्शनस्वरूपसे अंतमुहर्तमें उत्पन्न किया है, तो फिर वर्ष-छ: मासके ..कालंमें इतना यह व्यवहार क्यों निवृत्त न हो सके ? मात्र जागृतिके उपयोगांतरसे उसकी स्थिति है, और उस उपयोगके बलका नित्य विचार करनेसे अल्प कालमें यह व्यवहार निवृत्त हो सकने योग्य है। तो भी इसकी किस तरहसे निवृत्ति करनी, यह अभी विशेषरूपसे मुझे विचार करना योग्य है ऐसा मानता हूँ, क्योंकि वीर्यमें कुछ भी मंद दशा रहती है। उस मंद दशाका हेतु क्या है ?
उदयबलसे प्राप्त हुआ परिचय मात्र परिचय है, यह कहने में कोई बाधा है ? उस परिचयमें विशेष अरुचि रहती है। यह होनेपर भी वह परिचय करना पड़ा है। यह परिचयका दोष नहीं कहा जा सकता, . परन्तु निज दोष कहा जा सकता है । अरुचि होनेसे इच्छारूप दोष नं कहकर उदयरूप दोष कहा है।
- .. . .४० . ... ... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९६] वहुत विचार करनेसे नीचेका समाधान होता है। ... . एकांत द्रव्य, एकांत क्षेत्र, एकांत काल और एकांत भावरूप संयमका आराधन, किये बिना चित्तको शांति नहीं होगी ऐसा लगता है। ऐसा निश्चय रहता है। . ..वह योग अभी कुछ दूर होना संभव है, क्योंकि उदयबल देखते हुए उसके निवृत्त होनेमें कुछ विशेष समय लगेगा।
. . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९७] ' 'माघ सुदी ७ शनिवार, विक्रम संवत् १९५१ के बाद डेढ़ वर्षसे अधिक स्थिति नहीं। .. ओर उतने काल में उसके बाद जीवनकाल किस तरह भोगना इसका विचार किया जायेगा।
... ..४२ . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९८] ' 'अवि अप्पणो वि देहमि नायरंति ममाइयं ॥
४१
१. भावार्थ-(तत्त्वज्ञानी) अपनी देहमें भी ममत्व नहीं करते।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी १
८२१ ४३
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १००] ___काम, मान और उतावल इन तीनका विशेष संयम करना योग्य है ।
.: [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०१] हे जीव ! असारभूत लगनेवाले इस व्यवसायसे अब निवृत्त हो, निवृत्त ! .
वह व्यवसाय करनेमें चाहे जितना बलवान प्रारब्धोदय दिखायी देता हो तो भी उससे निवृत्त हो, वृत्त!
यद्यपि श्री सर्वज्ञने ऐसा कहा है कि चौदहवें गुणस्थानकमें रहनेवाला जीव भी प्रारब्धका वेदन व्ये बिना मुक्त नहीं हो सकता, तो भी तू उस उदयका आश्रयरूप होनेसे निज दोष जानकर उसका त्यंत तीव्रतासे विचार करके उससे निवृत्त हो, निवृत्त! ::. :: ..
केवल मात्र प्रारब्ध हो और अन्य कर्मदशा न रहती हो तो वह प्रारब्ध सहज ही निवृत्त हो जाता - ऐसा परम पुरुषने स्वीकार किया है, परंतु वह केवल प्रारब्ध तब कहा जा सकता है कि जब प्राणांतयंत निष्ठाभेददृष्टि न हो, और तुझे सभी प्रसंगोंमें ऐसा होता है, ऐसा जब तक सम्पूर्ण निश्चय न हो। ब तक श्रेयस्कर यह है कि उसमें त्यागबुद्धि रखनी, इस बातका विचार करके हे जीव ! अब तु अल्प- . जालमें निवृत्त हो, निवृत्त !
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०२] हे जीव ! अब तू संगनिवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा कर, प्रतिज्ञा कर ! :
सर्व-संगनिवत्तिरूप प्रतिज्ञाका विशेष अवकाश देखनेमें न आये तो अंश-संगनिवृत्तिरूप इस व्यवनायका त्याग कर !
जिस ज्ञानदशामें त्यागात्याग कुछ संभव नहीं है उस ज्ञानदशाकी जिसमें सिद्धि है ऐसा तू सर्वसंगच्यागदशाका अल्पकालमें वेदन करेगा तो संपूर्ण जगतके प्रसंगमें रहे तो भी तुझे बाधरूप नहीं होगा। इस प्रकार वर्तन करनेपर भी निवृत्तिको ही सर्वज्ञने प्रशस्त कहा है, क्योंकि ऋषभ आदि सर्व परम पुरुषोंने अन्तमें ऐसा ही किया है।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०३] सं० १९५१ के वैशाख सुदी ५ सोमके सायंकालसे प्रत्याख्यान । सं० १९५१ के वैशाख सुदी १४ मंगलसे ।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०५] क्षायोपशमिक ज्ञानके विकल होनेमें क्या देर ?
४८
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०६] "जेम निर्मळता रे रत्न स्फटिक तणी,
तेम ज जीव स्वभाव । ते जिन वोरे रे धर्म प्रकाशियो,
प्रबळ कषाय अभाव रे॥".
४६
४७
१. अर्थके लिये देखें मांक ५८४
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८२२
श्रीमद राजचन्द्र :: .. ४९
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०८] . :::... वीतरागदर्शन.....:.:... ..
उद्देशप्रकरण . ... ... ... : सर्वज्ञमीमांसा
षड्दर्शन-अवलोकन ::::.:::. : .... .. . : : .. :: .. वीतराग-अभिप्राय-विचार .........
व्यवहारप्रकरण
.
. . .. . . . आगारधर्मः ...... ..... . :
: . . : मतमतांतर-निराकरण .. ............ ... ...: .:. उपसंहार' :: ... ........... ... ... ... ... ...
.
.....
:::
, . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११०] : :: ::. :: ..
नवतत्त्वविवेचन . . ... ... ....... । गणस्थानकविवेचन
:: कर्मप्रकृतिविवेचन विचारपद्धति... श्रवणादिविवेचन : :: .. . ..... .
वोधबीजसंपत्ति . : . ......... __ जीवाजीवविभक्ति ... - शुद्धात्मपदभावना ...:..:.::
..
......
... . ..
:.
..
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १११]
.
:. अंग ....
उपांग
..
मल
-
छेद -
. .
. . .
. .
...
.
.
आशयप्रकाशिता टीका . .
व्यवहार हेतु . ... परमार्थ हेतु
परमार्थ गौणताको प्रसिद्धि . व्यवहारविस्तारका पर्यवसान ... अनेकांतदृष्टि हेतु....... . स्वगतमतांतरनिवृत्तिप्रयत्न उपक्रम उपसंहार अविसंधि -
च - .: लोकवर्णन स्थूलत्व हेतु वर्तमानकालमें आत्मसाधनभूमिका ... वीतरागदर्शन-व्याख्याका अनुक्रम
. . . "
:
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८२३
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी ?
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११३]
...
लोकसंस्थानः?...: : :...... ......... ... धर्म-अधर्म अस्तिकायरूप द्रव्य ? ...... स्वाभाविक अभव्यत्व ? ....... . . . .
.:: :
.....
: :... अनादि-अनंतका ज्ञान किस तरह ?
'आत्मा संकोच-विकाससे?
सिद्ध ऊर्ध्वगमन-चेतन; खंडवत् क्यों नहीं ? ... केवलज्ञानमें लोकालोकका ज्ञातत्व किस तरह ?
लोकस्थितिमर्यादा हेतु ?' . . शाश्वतवस्तुलक्षण ?
.:
.....
..... उस उस स्थानवर्ती सूर्य चंद्र आदि वस्तु,
अथवा नियमित गतिहेतु ? ...
दुषम सुषमादि काल ?,' - मनुष्य उच्चत्वादि प्रमाण ? ... अग्निकायादिका निमित्तयोगसे एकदम उत्पन्न होना? . . . . . . . .
एक सिद्ध वहाँ अनंत सिद्ध अवगाहना? ....... .. . . '५३ -
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११४] ., हेतु अवक्तव्य ? . . एकमें पर्यवसान किस तरह हो सकता है ?
. . . . . . . एकम पयवसान किस तरह हो सकता है? ....... अथवा नहीं होता ? - ..
. व्यवहार रचना की है, ऐसा किसी हेतुसे सिद्ध होता है ? .. .
...
. .
स्वस्थिति-आत्मदशाके संबंधमें विचार। .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११५] __ तथा उसका पर्यवसान ?
......... उसके बाद लोकोपकार प्रवृत्ति ? . . . ... ........लोकोपकारप्रवृत्तिका नियम । .
वर्तमानमें (अभी) किस तरह प्रवृत्ति करना उचित है ? ...
५५
संस्मरण-पोवो १, पृष्ठ ११७] . आत्मपरिणामकी विशेष स्थिरता होनेके लिये वाणी और कायाका संयम उपयोगपूर्वक करना योग्य है। . . . . . ..
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८२४
श्रीमद राजचन्द्र '...
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११८) तीनों कालोंमें जो वस्तु जात्यंतर न हो उसे श्री जिनेंद्र द्रव्य कहते हैं। कोई भी द्रव्य पर-परिणामसे परिणमन नहीं करता । स्वत्वका त्याग नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्य (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे) स्वपरिणामी है. :: ... : नियत अनादि मर्यादारूपसे रहता है। जो चेतन है वह कभी अचेतन नहीं होता; जो अचेतन है वह कभी चेतन नहीं होता।
५७ .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२०] हे योग !
... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२१] एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटित होता है ?
. . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२२] यदि इस जीवने वे विभावपरिणाम क्षीण न किये तो इसी भवमें वह प्रत्यक्ष दुःखका वेदन करेगा।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२४] जिस जिस प्रकारसे आत्माका चिंतन किया हो उस उस प्रकारसे वह प्रतिभासित होता है।
विषयाततासे जिस जीवकी विचारशक्ति मूढ हो गयी है उसे आत्माकी नित्यता भासित नहीं होती, ऐसा प्रायः दिखायी देता है, वैसा होता है, यह यथार्थ है; क्योंकि अनित्य विषयमें आत्मबुद्धि होनेसे अपनी भी अनित्यता भासित होती है।
विचारवानको आत्मा विचारवान लगता है। शून्यरूपसे चिन्तन करनेवालेको आत्मा शुन्य लगता है, अनित्यरूपसे चिंतन करनेवालेको आत्मा अनित्य लगता है, नित्यरूपसे चिन्तन करनेवालेको आत्मा नित्य लगता है।
चेतनकी उत्पत्तिके कुछ भी संयोग दिखायो नहीं देते, इसलिये चेतन अनुत्पन्न है। उस चेतनके विनष्ट होनेका कोई अनुभव नहीं होता, इसलिये अविनाशी है-नित्य अनुभवस्वरूप होनेसे नित्य है।
समय समयमें परिणामांतरको प्राप्त होनेसे अनित्य है। ... .... . स्वस्वरूपका त्याग करनेके अयोग्य होनेसे मूल द्रव्य है। "
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२६] सबको अपेक्षा वीतरागके वचनको संपूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है, क्योंकि जहाँ राग आदि दोषोंका संपूर्ण क्षय होता है वहाँ संपूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होना योग्य है ऐसा नियम है।
श्री जिनेन्द्रमें सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता होना संभव है, क्योंकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जिस किसी पुरुषमें जितने अंशमें वीतरागताका संभव है उतने अंशमें उस पुरुषका वाक्य मानने योग्य है।
___ सांख्य आदि दर्शनोंमें बंध एवं मोक्षको जो जो व्याख्याएं बतायी हैं उन सवसे बलवान प्रमाणसिद्ध व्याख्या श्री जिनेंद्र वीतरागने कही है, ऐसा जानता हूँ।
शंका-जिन जिनेंद्रने द्वैतका निरूपण किया है, आत्माको खंड द्रव्यवत् कहा है, कर्ताभोक्ता कहा है, और निर्विकल्प समाधिके अंतरायमें मुख्य कारण हो ऐसो पदार्थकी व्याख्या की है, उन जिनेंद्रकी शिक्षा प्रबल प्रमाण सिद्ध है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? केवल अद्वैत-और
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२५]
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरणपोयी १
८२५
सहज में निर्विकल्प समाधिके कारणभूत वेदांत आदि मार्गकी, उसकी अपेक्षा अवश्य विशेष प्रमाणद्धता संभव है।
उत्तर - एक बार जैसे आप कहते हैं वैसे यदि मान भी लें, परंतु सर्वं दर्शनकी शिक्षाको अपेक्षा ननेंद्रकथित बंध-मोक्षके. स्वरूपकी शिक्षा जितनी अविकल प्रतिभासित होती है उतनी दूसरे दर्शनोंकी प्रतिभासित नहीं होती । और जो अविकल शिक्षा है वही प्रमाणसिद्ध है ।
शंका- यदि आप ऐसा मानते हैं तो किसी तरह निर्णयका समय नहीं आ सकता; क्योंकि सब दर्शनोंमें, जिस जिस दर्शनमें जिसकी स्थिति है उस उस दर्शनके लिये वह अविकलता मानता है ।
उत्तर- यदि ऐसा हो तो उससे अविकलता सिद्ध नहीं होती, जिसकी प्रमाणसे अविकलता हो वही विकल सिद्ध होता है ।
1.
प्रश्न- जिस प्रमाण से आप जिनेंद्रकी शिक्षाको अविकल मानते हैं उसे आप कहें, और जिस तरह दांत आदिको विकलता आपको संभावित लगती है, उसे भी कहें ।
६२
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३०] अनेक प्रकारके दुःख तथा दुःखी प्राणी प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं, तथा जगतकी विचित्र रचना देखनेमें आती है, यह सब होने का क्या हेतु है ? तथा उस दुःखका मूल स्वरूप क्या है ? और उसकी निवृत्ति किस प्रकारसे हो सकती है ? तथा जगतकी विचित्र रचनाका आंतरिक स्वरूप क्या है ? इत्यादि प्रकारमें जिसे विचारशा उत्पन्न हुई है ऐसे मुमुक्षु पुरुषने, पूर्व पुरुषोंने उपर्युक्त विचारों संबंधी जो कुछ समाधान किया था, अथवा माना था, उस विचारके समाधानके प्रति भी यथाशक्ति आलोचना की । वह आलोचना करते हुए विविध प्रकारके मतमतांतर तथा अभिप्राय संबंधी यथाशक्ति विशेष विचार किया, तथा नाना प्रकारके रामानुज आदि सम्प्रदायोंका विचार किया; तथा वेदांत आदि दर्शनका विचार किया । उस -आलोचनामें अनेक प्रकारसे उस दर्शनके स्वरूपका मंथन किया, और प्रसंग प्रसंगपर मंथनकी योग्यताको प्राप्त हुए जैनदर्शनके संबंध में अनेक प्रकारसे जो मंथन हुआ, उस मंथनसे उस दर्शन के सिद्ध होनेके लिये, जो पूर्वापर विरोध जैसे मालूम होते हैं ऐसे निम्नलिखित कारण दिखायी दिये ।
६३.
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३२] धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय अरूपी होनेपर भी रूपी पदार्थको सामर्थ्य देते हैं, और ये तीन द्रव्य स्वभावपरिणामी कहे हैं, तो ये अरूपी होनेपर रूपीको कैसे सहायक हो सकते हैं ? धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एकक्षेत्रावगाही हैं, और उनका स्वभाव परस्पर विरुद्ध है, फिर भी उनमें, गतिप्राप्त वस्तुके प्रति स्थिति सहायक तारूपसे और स्थितिप्राप्त वस्तुके प्रति गतिसहायकतारूपसे विरोध किसलिये न आये ?
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक आत्मा ये तीन समान असंख्यातप्रदेशी हैं, इसका कोई दूसरा रहस्यार्थ है ?
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायकी अवगाहना अमुक अमूर्ताकारसे है, ऐसा होने में कोई रहस्यार्थ है ? लोकसंस्थानके सदैव एक स्वरूप से रहने में कोई रहस्यार्थ है ?
एक तारा भी घट-बढ़ नहीं होता, ऐसी अनादि- स्थिति किस हेतुसे मानना ?
शाश्वतताकी व्याख्या क्या ? आत्मा या परमाणुको शाश्वत माननेमें कदाचित् मूल द्रव्यत्व कारण है; परन्तु तारा, चंद्र, विमान आदिमें वैसा क्या कारण है ?
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८२६
..... श्रीमद् राजवना ... :::: ..............: - :...... ६४ . . . . . . . . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३३]
'सिद्ध आत्मा लोकालोकप्रकाशक है, परन्तु लोकालोकव्यापक नहीं है, व्यापक तो स्वावगाहनाप्रमाण है । जिस मनुष्य-देहसे सिद्धिको प्राप्त की उसका तीसरा भाग कम वह प्रदेश घन है। अर्थात् आत्मद्रव्य लोकालोकव्यापक नहीं परन्तु लोकालोकप्रकाशक अर्थात् लोकालोकज्ञायक है। आत्मा. लोकालोकमें नहीं जाता, और लोकालोक कुछ : आत्मामें नहीं आता, सब अपनी-अपनी अवगाहनामें स्वसत्ताम स्थित हैं, फिर भी आत्माको उसका ज्ञातदर्शन किस तरह होता है ? . ... .. .....
यहाँ यदि यह दृष्टांत दिया जाये कि जैसे दर्पणमें, वस्तु प्रतिबिंबित होती है वैसे ही आत्मामें भी लोकालोक प्रकाशित होता है, प्रतिनिवित होता है, तो यह समाधान भी. अविरोधी' दिखायी नहीं देता, क्योंकि दर्पणमें तो विस्रसापरिणामी पुद्गलरश्मिसे वस्तु प्रतिबिंबित होती है। ......"
". आत्माका अगुरुलघु धर्म है, उस धर्मको देखते हुए आत्मा सब पदार्थोंको जानता है; क्योंकि सब द्रव्योंमें अगुरुलघु गुण समान है, ऐसा कहा जाता है, वहाँ अगुरुलघुधर्मका अर्थ क्या समझना ? ....."
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३६] आहारकी जय, . . . .
. - आसनकी जय," . . . . . . . निद्राकी.जय, .
..
.. . वाक्सयम, ..... ....... .. ..... जिनोपदिष्ट आत्मध्यान। .. जिनोपदिष्ट आत्मध्यान किस तरह? .. ........ .............." ज्ञानप्रमाण ध्यान हो सकता है, इसलिये ज्ञान-तारतम्यता चाहिये। .... ...... ...
क्या विचार करनेसे, क्या माननेसे, क्या दशा होनेसे चौथा गुणस्थानक कहा जाये ? .... ... किससे चौथे. गुणस्थानकसे तेरहवें गुणस्थानकमें आये ?. ..... . .. .
......[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १४८] वर्तमानकालकी तरह यह जगत सर्वकाल है।
वह पूर्वकालमें न हो तो वर्तमानकालमें उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। .. :: वह वर्तमानकालमें है. तो भविष्यकालमें वह अत्यंत विनष्ट नहीं हो सकता। :: :: :: ... ... पदार्थ मात्र परिणामी होनेसे यह जगत पर्यायांतर दिखायी देता है; : परन्तु मूलरूपसे इसकी सदा .:.... . ...... . . . . . . . .
.. ६७
... [ संस्मरण-पोयी १, पृष्ठ १५०] .. जो वस्तु समयमात्रके लिये है, वह सर्वकालके लिये है।
" जो भाव है वह है, जो नहीं है वह नहीं है । - दो प्रकारका पदार्थस्वभाव विभागपूर्वक स्पष्ट दिखायी देता है-जडस्वभाव और चेतन-स्वभाव ।
... ६८ :: [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५२ ] गुणातिशयता क्या है ? : : ... ............ .. . ..... .
विव
उसका आज
केवलज्ञानमें अतिशयता क्या है ?
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Bedar
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन- संस्मरणपोथो १
तोर्थंकर में अतिशयता क्या है ? विशेष हेतुः क्या है ?
यदि जिनसम्मतः केवलज्ञानको लोकालोकज्ञायक' मानें तो उस केवलज्ञानमें आहार, निहार, विहार आदि क्रियाएँ किस तरह हो सकती हैं ?
2
• वर्तमान में उसकी इस क्षेत्र में अप्राप्तिका हेतु क्या है?
अन
एक वाई
६९
Lafage pay no to bed a plavoy i j pa na mimi
51... श्रुत
कुछ भी है ? क्या है ?
अवधि,
मनःपर्याय
परमावधि, -
केवल,
८२७
C#
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५४ ]
....
७०.
...[. संस्मरण- पोथी १, पृष्ठ १५५ ] परमावधिज्ञान उत्पन्न होनेके बाद केवलज्ञान उत्पन्न होता है, यह रहस्य अनुप्रेक्षा करने
*****
योग्य है ।
अनादि अनंत कालका, अनंत ऐसे अलोकका ? गणितसे अतीत अथवा असंख्यातसे पर ऐसे जीवसमूह, परमाणु समूह अनंत होनेपर भी अनंतताका साक्षात्कार हो वह गणितातीतता होनेपर भी किस तरह साक्षात् अनंतता मालूम हो ? इस विरोधका परिहार उपर्युक्त रहस्यसे होने योग्य समझमें आता है । ... और केवलज्ञान निर्विकल्प है, उसमें उपयोगका प्रयोग नहीं करना पड़ता । सहज उपयोग वह ज्ञान है; यह रहस्य भी अनुप्रेक्षा करने योग्य है ।
3
क्योंकि प्रथम सिद्ध कौन है ? - प्रथम जीवपर्याय कौनसा है ? प्रथम परमाणु-पर्याय क्या है ? यह केवलज्ञानगोचर है परन्तु अनादि ही मालूम होता है; अर्थात् केवलज्ञान उसके आदिको नहीं पाता, और केवलज्ञानसे कुछ छिपा हुआ नहीं है, ये दो बातें परस्पर विरोधी हैं, इसके समाधानका रास्ता परमावधिकी अनुप्रेक्षासे तथा सहज उपयोगकी अनुप्रेक्षा से समझ में आने योग्य दिखायी देता है ! -
७१
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५६ ]
किस प्रकारसे है ?
जानने योग्य है ?
जाननेका फल क्या है ?
बंधा हेतु क्या है ?
पुद्गलनिमित्त बंध या जीवके दोषसे वंध ?
जिस प्रकारसे माने उस प्रकारसे बंध दूर नहीं किया जा सकता ऐसा सिद्ध होता है । इसलिये मोक्षपदको हानि होती है । उसका नास्तित्व सिद्ध होता है ।
अमूर्तता यह कुछ वस्तुता है या अवस्तुता ?
अता यदि वस्तुता है तो वह कुछ महत्त्ववान है या नहीं ?
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५७ ]
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५८ ]
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८२८
, श्रीमद् राजचन्द्रः . . मूर्त पुद्गल और अमूर्त जीवका संयोग कैसे घटित हो? ..... .. .. .::. .. धर्म, अधर्म और जीव द्रव्यकी क्षेत्रव्यापिता,जिस..प्रकारसे जिनेन्द्र कहते हैं, तदनुसार माननेसे वे द्रव्य उत्पन्न-स्वभावीकी तरह सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि मध्यम-परिणामिता है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये वस्तुएँ द्रव्यरूपसे एक जाति और गुणरूपसे भिन्न जाति ऐसा मानना योग्य है, अथवा द्रव्यता भी भिन्न भिन्न मानने योग्य है ? .
संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५९] द्रव्यका क्या अर्थ है ? गुणपर्यायके बिना उसका दूसरा क्या स्वरूप है ?
केवलज्ञान सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका ज्ञायक सिद्ध हो तो सर्व वस्तु नियत मर्यादामें आ जाये, अनंतता सिद्ध न हो, क्योंकि अनंतता-अनादिता समझी नहीं जाती, अर्थात् केवलज्ञानमें वे किस तरह प्रतिभासित हों ? उसका विचार बराबर संगत नहीं होता।
७२ . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६२. जिसे जैनदर्शन सर्वप्रकाशकता कहता है, उसे वेदांत सर्वव्यापकता कहता है । दृष्ट वस्तुसे अदृष्ट वस्तुका विचार अनुसंधान करने योग्य है। जिनेन्द्रके अभिप्रायसे आत्माको माननेसे यहाँ लिखे हुए प्रसंगोंके बारेमें अधिक विचार करें१. असंख्यात प्रदेशका मुल परिमाण । २. संकोच-विकास हो सके ऐसा आत्मा माना है; वह संकोच-विकास क्या अरूपीमें होने योग्य
है ? तथा किस प्रकारसे होने योग्य है ? . ...... ३. निगोद अवस्थाका क्या कछ विशेष कारण है ?... . ..... ४. सर्व द्रव्य,क्षेत्र आदिकी प्रकाशकतारूप केवलज्ञानस्वभावी आत्मा है, ' अथवा स्वस्वरूपमें अव
स्थित निजज्ञानमय केवलज्ञान है? ५. आत्मामें योगसे विपरिणाम है ? स्वभावसे विपरिणाम है ? विपरिणाम आत्माकी मूल सत्ता है ? संयोगी सत्ता है ? उस सत्ताका कौनसा द्रव्य मूल कारण है ?
... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६३] ६. चेतन होनाधिक अवस्था प्राप्त करे, इसमें कुछ विशेष कारण है ? स्वस्वभावका ? पुद्गल
संयोगका या उससे व्यतिरिक्त ? ७. जिस तरह मोक्षपदमें आत्मता प्रगट हो उस तरह मूल द्रव्य मानें तो लोकव्यापकप्रमाण
आत्मा न होनेका क्या कारण ? ८. ज्ञान गुण और आत्मा गुणी इस तथ्यको घटाते हुए आत्माको कथंचित् ज्ञानव्यतिरिक्त मानना
सो किस अपेक्षासे ? जडत्व भावसे या अन्य गुणको अपेक्षासे ? । ९. मध्यम परिणामवाली वस्तुकी नित्यता किस तरह सम्भव है ? १०. शद्ध चेतनमें अनेककी संख्याका भेद किस कारणसे घटित होता है ? ..... :..
• ७३ .. .... ...: : [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ. १६५] जिनसे मार्गका प्रवर्तन हुआ है, ऐसे महापुरुषके विचार, बल, निर्भयता आदि गुण भी महान थे।
एक राज्यके प्राप्त करने में जो. पराक्रम अपेक्षित है उसको अपेक्षा अपूर्व अभिप्रायसहित धर्मसंततिका प्रवर्तन करने में विशेष पराक्रम अपेक्षित है।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन संस्मरणपोथी १
८२९...
थोड़े समय पहले "तथारूप शक्ति मुझमें मालूम होती थी, उसमें अभी विकलता देखने में आती है, का हेतु क्या होना चाहिये यह विचार करने योग्य है ।
दर्शन की रीतिसे इस कालमें धर्मका प्रवर्तन हो, इससे जीवोंका कल्याण है अथवा संप्रदायकी तसे धर्मका प्रवर्तन हो तो जीवों का कल्याण है, यह बात विचारणीय है ! - संप्रदायकी रीतिसे वह मार्ग बहुतसे जीवोंको ग्राह्य होगा, ह्य होगा ।
दर्शनकी रीति से वह विरले जीवों को...
पी
यदि जिनाभिमत मार्ग निरूपण करने योग्य गिना जाये, तो वह संप्रदाय के प्रकारसे निरूपित : ना विशेष असंभव है । क्योंकि उसकी रचनाका सांप्रदायिक स्वरूप होना कठिन है। दर्शनको अपेक्षासे किसी ही जीवके लिये उपकारी होगा इतना विरोध आता है ।
टी
७४
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६६ ]
8.2 ad
जो कोई महान पुरुष हुए हैं वे पहलेसे स्वस्वरूप (निजशक्ति) समझ सकते थे, और भावी महत्कार्यके बीज को पहले से अव्यक्तरूपमें, बोते रहते थे अथवा स्वाचरण अविरोधी, जैसा रखते थे ।
यहाँ वह प्रकार विशेष विरोधमें पड़ा हो ऐसा दिखाई देता है । उस विरोधके कारण भी यहाँ लिखे हैं१. अनिर्णयसे
२. संसारीकी रीति जैसा विशेष व्यवहार रहनेसे |
ब्रह्मचर्यको धारण ।
३.
7125
७५
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६७ ]..
सोहं (महापुरुषोंने आश्चर्यकारक गवेषणा की है) ।
कल्पित परिणतिसे विरत होना जीवके लिये इतना अधिक कठिन हो पड़ा है, इसका हेतु क्या होना चाहियें ?
आत्माके ध्यानका मुख्य प्रकार कौनसा कहा जा सकता है ? उस ध्यानका स्वरूप किस तरह है ?
नमक
आत्माका स्वरूप किस तरह है ?
'केवलज्ञान जिनागम में प्ररूपित है, वह यथायोग्य है अथवा वेदांतमें प्ररूपित है, वह यथायोग्य है ?'
1952
1.
७६
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६८ ].
प्रेरणापूर्वक स्पष्ट गमनागमन क्रिया आत्माके असंख्यातप्रदेशप्रमाणत्व के लिये विशेष विचारणीय है। प्रश्न- परमाणु एकप्रदेशात्मक, आकाश अनंतप्रदेशात्मक माननेमें जो हेतु है, वह हेतु आत्मा के असंख्यातप्रदेशत्व के लिये यथातथ्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि मध्यम परिणामी वस्तु अनुत्पन्न देखनेमें नहीं आती।
उत्तर-
७७
ܘܐܐ ܐ ܐ
• अमूर्तत्व की व्याख्या क्या ? अनंतत्वकी व्याख्या क्या ?
आकाशका अवगाहक-धर्मत्व किस प्रकारसे है ?
[स्मरण] १, पृष्ठ १६९ ]
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श्रीमद राजचन्द्र
मूर्तामूर्तका बंध आज नहीं होता तो अनादिसे कैसे हो सकता है ? वस्तु स्वभाव इस प्रकार अन्यथा कैसे माना जा सकता है ?
ध आदि भाव जीव में परिणामीरूपसे हैं या विवर्तरूपसे हैं ?
यदि परिणामीरूपसे कहें तो स्वाभाविक धर्म हो जाते हैं, स्वाभाविक धर्मका दूर होना कहीं भी अनुभव में नहीं आता ।.
'.
यदि विवर्तरूपसे समझें तो जिस प्रकारसे जिनेन्द्र साक्षात् बंध कहते हैं, उस तरह मानने से विरोध आना सम्भव है ।
८३०:
७८
जिनेन्द्रका अभिमत केवलदर्शन और वेदांतका अभिमत ब्रह्म इन दोनोंमें क्या भेद हैं ?
७९
. [संस्मरण] - पोथी १, पृष्ठ १७० ]
८०
जिनेन्द्र अभिमतसे ।
आत्मा असंख्यातं प्रदेशी (?), संकोच - विकासका भाजन, अरूपी, लोकप्रमाण प्रदेशात्मक । :.
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७१]
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७१]
जिन
मध्यम परिमाणका नित्यत्व, क्रोध आदिका पारिणामिकत्व (?) आत्मामें कैसे घटित हो ? कर्मबंधका हेतु आत्मा है या पुद्गल है ? या दोनों हैं ? अथवा इससे भी कोई अन्य प्रकार है ? मुक्तिमें आत्मघन ? द्रव्यका गुणसे अतिरिक्तत्व क्या है ? सब गुण मिलकर एक द्रव्य, या उसके बिना द्रव्यका कुछ दूसरा विशेष स्वरूप है ? सर्व द्रव्यके वस्तुत्व, गुणको निकाल कर विचार करें तो वह एक है या नहीं ? आत्मा- गुणी है और ज्ञान गुण है यों कहनेसे आत्माका: कथंचित् ज्ञानरहित होना ठीक है या नहीं ? यदि ज्ञानरहित आत्मत्वका स्वीकार करें तो वह क्या जड हो जाता है ? चारित्र, वीर्य आदि गुण कहें तो उनकी ज्ञानसे भिन्नता होनेसे वे जड सिद्ध हो, इसका समाधान किस प्रकारसे घटित होता है ? अभव्यत्व पारिणामिकभाव से किसलिये घटित हो ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और जीवको द्रव्य-दृष्टिसे देखें तो एक वस्तु है या नहीं ? द्रव्यत्व क्या है ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशके स्वरूपका विशेष प्रतिपादन किस तरह हो सकता है ? लोक असंख्यातप्रदेशी और द्वीप समुद्र असंख्यात है, इत्यादि विरोधका समाधान किस तरह है ? आत्मामें पारिणामिकता ? मुक्तिमें भी सब पदार्थोंका प्रतिभासित होना ? अनादिअनंतका ज्ञान किस तरह हो सकता है ?
८१
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७३]
वेदांत
एक आत्मा, अनादि माया ओर बंध मोक्षका प्रतिपादन, यह आप कहते हैं, परन्तु यह घटित नहीं हो सकता।
आनंद और चैतन्यमें श्री कपिलदेवजीने विरोध कहा है, इसका समाधान क्या है ? यथायोग्य समाधान वेदांत में देखने में नहीं आता ।
आत्माको नाना माने बिना बंध एवं मोक्ष हो ही नहीं सकते । वे तो हैं, 'ऐसा होनेपर भी उन्हें कल्पित कहने से उपदेश आदि कार्य करनेयोग्य नहीं ठहरते ।
विधान
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी १
८३१ .. ८२ . . . . .[संस्मरण-पोथी १; पृष्ठ १७४]
...जैनमार्गः: .... ...... ........ १: लोकसंस्थान ! : : ..
..... .. : .. २. धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य । ..... .................. ३. अरूपित्व। ४. सुषम-दुषम आदि काल । ५. उस उस कालमें भारत आदिकी स्थिति, मनुष्यकी ऊँचाई आदिका प्रमाण । ६. निगोद सूक्ष्म । ७. दो प्रकारके जीव-भव्य और अभव्य । ८. विभावदशा, पारिणामिक भावसे । ९. प्रदेश और समय उनका व्यावहारिक और पारमाथिक कुछ स्वरूप। ............ १०. गुण-समुदायसे भिन्न कुछ द्रव्यत्व ।। ११. प्रदेश समुदायका वस्तुत्व । १२. रूप, रस, गंध, स्पर्शसे भिन्न ऐसा कुछ भी परमाणुत्व । १३. प्रदेशका संकोच-विकास।::: :: .:
..... १४. उससे घनत्व या कृशत्व ।
3
/
१६. एक समयमें यहाँ और सिद्धक्षेत्रमें अस्तित्व, अथवा उसी समयमें लोकांतरगमन 1.:.
: १७: सिद्धसंबंधी अवगाहः। ..: ::
.......... १८. अवधि, मनःपर्याय और केवलको ..व्यावहारिक पारमार्थिक कुछ व्याख्या;-जीवकी अपेक्षा
तथा दृश्य पदार्थकी अपेक्षासे । ... .. .:. : -..[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७५] ...
'मतिश्रतकी व्याख्या-उस प्रकारसे ।' . . .--... १९. केवलज्ञानकी दूसरी कोई व्याख्या। २०. क्षेत्र प्रमाणकी दूसरी कोई व्याख्या। २१. समस्त विश्वका एक अद्वैत तत्त्वपर विचार । २२. केवलज्ञानके बिना दूसरे किसी ज्ञानसे जीवस्वरूपका प्रत्यक्षरूपसे ग्रहण । .. २३. विभावका उपादान कारण । २४. और तथाप्रकारके समाधानके योग्य कोई प्रकार ।.. २५. इस कालमें दस बोलोंकी व्यवच्छेदता, उसका अन्य कुछ भी परमार्थ । २६. बीजभूत और संपूर्ण यों केवलज्ञान दो प्रकारसे। २७. वीर्य आदि आत्मगुण माने हैं, उनमें चेतनता। २८. ज्ञानसे भिन्न ऐसा आत्मत्व। २९. वर्तमानकालमें जीवका स्पष्ट अनुभव होनेके ध्यानके मुख्य प्रकार । ३०. उनमें भी सर्वोत्कृष्ट मुख्य प्रकार । ३१. अतिशयका स्वरूप। . ३२. लब्धि (कितनी ही) अद्वैततत्त्व माननेसे सिद्ध हो ऐसी मान्य है।
संस्मरण-पोयी १, पष्ठ १७९] ३३. लोकदर्शनका सुगम मार्ग-वर्तमानकालमें कुछ भी।
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८३
८३२
श्रीमद् राजचन्द्र ... ... ३४. देहांतदर्शनका सुगम मार्ग-वर्तमानकालमें । ३५. सिद्धत्वपर्याय सादि-अनंत, और मोक्ष अनादि-अनंत । ३६. परिणामी पदार्थ, निरंतर स्वाकारपरिणामी हो तो भी अव्यवस्थित परिणामित्व अनादिसे हो, वह केवलज्ञानमें भासमान पदार्थमें किस तरह घटमान ?
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८० १. कर्मव्यवस्था। २. सर्वज्ञता। ३. पारिणामिकता। ४. नाना प्रकारके विचार और समाधान । ५. अन्यसे न्यून पराभवता। ६. जहाँ जहाँ अन्य विकल है वहाँ वहाँ अविकल यह, जहाँ विकल दिखायो दे वहाँ.अन्यकी क्वचित् अविकलता-नहीं तो नहीं ।
- ८४ .
. : [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८१] मोहमयी-क्षेत्रसंबंधी उपाधिका परित्याग करनेमें आठ महीने और दस दिन बाकी है, और यह परित्याग हो सकने योग्य है।
दूसरे क्षेत्रमें उपाधि (व्यापार) करनेके अभिप्रायसे मोहमयी क्षेत्रको उपाधिका त्याग करनेका विचार रहता है, ऐसा नहीं है। . . .. .. .. ... ... ... ... ........ ....
परन्तु जब तक सर्वसंगपरित्यागरूप योग निरावरण न हो तब तक जो गृहाश्रम रहे उस गृहाश्रममें काल व्यतीत करनेका विचार कर्तव्य है । क्षेत्रका विचार कर्तव्य है । जिस व्यवहारमें रहना उस व्यवहारका विचार कर्तव्य है; क्योंकि पूर्वापर अविरोधता नहीं तो रहना कठिन है। . . .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८२] भू :
ब्रह्म स्थापना :- - ध्यान मुख :योगबल
, . ब्रह्मग्रहण
निग्रंथ आदि संप्रदाय ध्यान।
निरूपण। योगवल।
::... भू, स्थापना. मख ...: .....
.... .....: . - . .; स्वायु-स्थिति। आत्मवल।
... ... ८६ : ... .. [संस्मरण-पोथी. १, पृष्ठ १८३]. सो धम्मो जत्थ दया दसट्ठ दोसा न जस्स सो देवो। . . सो हु गुरू जो नाणी आरंभपरिग्गहा विरओ॥ ... ... ... ..
१. भावार्थ-जहां दया है वहाँ धर्म है, जिसके अठारह दोष नहीं वह देव है, तथा जो ज्ञानी और आरंभपरिग्रहसे विरत है वह गुरु है ।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी २
८३३ ८७ .... :: . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८७] अकिंचनतासे विचरते हुए एकांत मौनसे जिनसदृश ध्यानसे तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊँगा?
..: :., . ८८.... ..... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १९५] एक बार विक्षेप शांत हुए बिना अति समीप आ सकने योग्य अपूर्व संयम प्रगट नहीं होगा। . कैसे, कहाँ स्थिति करें?
......... संस्मरणपोथी-२...........
....... ... ... .. ... . .. संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३] . राग, द्वेष और अज्ञानका आत्यंतिक अभाव करके जिस सहज शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थित हुए वह स्वरूप हमारे स्मरण, ध्यान और पाने योग्य स्थान है।
२. ... ... ... [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ५ ] ज्ञिपदका ध्यान करें।
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ७] शुद्ध चैतन्य अनंत आत्मद्रव्य केवलज्ञान स्वरूप शक्तिरूपसे : ... .
वह जिसे संपूर्ण व्यक्त हुआ है, तथा व्यक्त होनेका । जिन पुरुषोंने मार्ग पाया है उन पुरुषोंको
- अत्यन्त भकिसे नमस्कार
.: [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ९] ... . , .
. . . .
.
.
४ . . नमो जिणाणं जिदभवाणं
जिनतत्त्वसंक्षेप अनंत अवकाश है। उसमें जड-चेतनात्मक विश्व रहा है। विश्वमर्यादा दो अमूर्त द्रव्योंसे है, जिनकी संज्ञा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय है। जीव और परमाणु पुद्गल ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। सर्व द्रव्य द्रव्यत्वसे शाश्वत हैं।
अनंत जीव हैं। . अनंत अनंत परमाणु पुद्गल हैं।
धर्मास्तिकाय एक है।
.
.
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. . .. श्रीमद् राजचन्द्र . . . . . , अधर्मास्तिकाय एक है। .
आकाशास्तिकाय एक है। काल द्रव्य है। विश्वप्रमाण क्षेत्रावगाह कर सके ऐसा एक-एक जीव है।
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ १३] नमो जिणाणं जिदभवाणं जिसकी प्रत्यक्ष दशा ही बोधरूप है, उस महापुरुषको धन्य है। जिस मतभेदसे यह जीव ग्रस्त है, वही मतभेद ही उसके स्वरूपका मुख्य आवरण है।
वीतराग पुरुषके समागमके बिना, उपासनाके विना, इस जीवको मुमुक्षता कैसे उत्पन्न हो ? सम्यग्ज्ञान कहाँसे हो ? सम्यग्दर्शन कहाँसे हो ? सम्यक्चारित्र कहाँसे हो? क्योंकि ये तीनों वस्तुएँ अन्य स्थानमें नहीं होती।
वीतरागपुरुषके अभाव जैसा वर्तमानकाल है।
हे मुमुक्षु ! वीतरागपद वारंवार विचार करने योग्य है, उपासना करने योग्य है, ध्यान करने योग्य है।
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ १५ ] जीवके बंधनके मुख्य हेतु दो
राग और द्वेष रागके अभावसे द्वेषका अभाव होता है।
रागकी मुख्यता है। रागके कारण ही संयोगमें आत्मा तन्मयवृत्तिमान है। .
वही कर्म मुख्यरूपसे है।
ज्यों ज्यों रागद्वेष मंद, त्यों त्यों मंबंध मंद और ज्यों ज्यों रागद्वेष तीव्र, त्यों त्यों कर्मबंध तीव्र। जहाँ रागद्वेषका अभाव वहाँ कर्मबंधका सांपरायिक अभाव ।
.. रागद्वेष होनेके मुख्य कारणमिथ्यात्व अर्थात् । असम्यग्दर्शन है।
सम्यग्ज्ञानसे सम्यग्दर्शन होता है। उससे असम्यग्दर्शनकी निवृत्ति होती है।
उस जीवको सम्यक्चारित्र प्रगट होता है, .......... ....
जो वीतरागदशा है। .. . . संपूर्ण वीतरागदशा जिसे रहती है उसे चरमशरीरी जानते हैं । ......
. [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ १७] हे जीव ! स्थिर दृष्टिसे तू अंतरंगमें देख, तो सर्व परद्रव्यसे मुक्त ऐसा तेरा स्वरूप तुझे परम प्रसिद्ध अनुभवमें आयेगा।
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गाभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी २
८३५ ., हे जीव ! असम्यग्दर्शनके कारण वह स्वरूप तुझे भासित नहीं होता। उस स्वरूपमें तुझे शंका है, व्यामोह और भय है।
सम्यग्दर्शनका योग प्राप्त करनेसे उस अभासन आदिकी निवृत्ति होगी। हे सम्यग्दर्शनी ! सम्यक्चारित्र ही सम्यग्दर्शनका फल घटित होता है, इसलिये उसमें अप्रमत्त हो। जो प्रमत्तभाव उत्पन्न करता है वह तुझे कर्मबंधकी सुप्रतीतिका हेतु है।' ......
हे सम्यक्चारित्री ! अब शिथिलता योग्य नहीं। बहुत अंतराय था, वह निवृत्त हुआ तो अब निरंतराय पदमें शिथिलता किसलिये करता है ?
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २१ ] दुःखका अभाव करना सब जीव चाहते हैं।
दुःखका आत्यंतिक अभाव कैसे हो ? वह ज्ञात न होनेसे जिससे दुःख उत्पन्न हो उस मार्गको दुःखसे छूटनेका उपाय जीव समझता है ।
जन्म, जरा, मरण मुख्यरूपसे दुःख हैं । उसका बीज कर्म है । कर्मका बीज रागद्वेष है, अथवा इस प्रकार पाँच कारण हैं
मिथ्यात्व . . . - अविरति
प्रमाद
कषाय
योग :
:: पहले कारणका अभाव होनेपर दूसरेका अभाव, फिर तीसरेका, फिर चौथेका, और अंतमें पाँचवें कारणका यों अभाव होनेका क्रम है। .: . . . मिथ्यात्व मुख्य मोह है। . .:: . . . . . .. .
अविरति गौण मोह है। .. . प्रमाद और कषायका अविरतिमें अंतर्भाव हो सकता है। योग सहचारीरूपसे उत्पन्न होता है। ___ चारों नष्ट हो जानेके बाद भी पूर्व-हेतुसे योग हो सकता है। ...
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २५] हे मुनियो ! जब तक केवल समवस्थानरूप सहज स्थिति स्वाभाविक न हो तब तक आप ध्यान और स्वाध्यायमें लीन रहें।
जीव केवल स्वाभाविक स्थितिमें स्थित हो वहाँ कुछ करना बाकी नहीं रहा। . ..
जहाँ जीवके परिणाम वर्धमान, हीयमान हुआ करते हैं वहां ध्यान कर्तव्य है। अर्थात् ध्यानलीनतासे सर्व बाह्य द्रव्यके परिचयसे विराम पाकर निजस्वरूपके लक्ष्य में रहना उचित है।
उदयके धक्केसे वह ध्यान जब जब छूट जाये तब तब उसका अनुसंधान बहुत त्वरासे करना।।
बीचके अवकाशमें स्वाध्यायमें लीनता करना। सर्व पर-द्रव्यमें एक समय भी उपयोग संग प्राप्त न करे ऐसी दशाका जीव सेवन करे तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
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८३८ ..... श्रीमद राजचन्द्र, ...
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३२] स्वपर परमोपकारक परमार्थमय सत्यधर्म जयवंत रहे । आश्चर्यकारक भेद पड़ गये हैं। खंडित है। . . संपूर्ण करनेका साधन दुर्गम दिखायी देता है । उस प्रभावमें महान अन्तराय है। देश, काल आदि बहुत प्रतिकूल हैं। वीतरागोंका मत लोकप्रतिकूल हो गया है।
रूढिसे जो लोग उसे मानते हैं उनके ध्यानमें भी वह सुप्रतीत मालूम नहीं होता । अथवा अन्यमतको वीतरागोंका मत समझ कर प्रवृत्ति करते रहते हैं।
वीतरागोंके मतको यथार्थ समझनेकी उनमें योग्यताको बहुत कमी है। दृष्टिरागका प्रवल राज्य चलता है। वेषादि व्यवहारमें बड़ी विडंबना कर मोक्षमार्गको अंतराय कर बैठे है। विराधकवृत्तिवाले तुच्छ पामर पुरुष अग्रभागमें रहते हैं ।। किंचित् सत्य बाहर आते हुए भी उन्हें प्राणघाततुल्य दुःख लगता हो ऐसा दिखायी देता है।
१५ । ...... . [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३४] तव आप किसलिये उस धर्मका उद्धार चाहते हैं ?....... परम कारुण्य-स्वभावसे । - उस सद्धर्मके प्रति परमभक्तिसे।
संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३५] . एवंभूत-दृष्टिसे ऋजुसूत्र स्थिति कर।
ऋजुसूत्र-दृष्टिसे एवंभूत स्थिति कर। . ......
नैगम-दृष्टिसे एवंभूत प्राप्ति कर। _... एवंभूत-दष्टिसे नैगम विशुद्ध कर। संग्रह दृष्टिसे एवंभूत हो। ..
... . .. एवंभूत-दृष्टिसे संग्रह विशुद्ध कर।....
. .. ... ... ... ........ व्यवहार-दृष्टिसे: एवंभूतके प्रति जा.!' ...
... .. एवंभूत-दृष्टिसे व्यवहारः विनिवृत्त कर
....... . शब्द-दृष्टिसे एवंभूतके प्रति जा।::. ........... ...
. ..... एवंभत-दष्टिसे शब्द निर्विकल्प कर
, . . .
: -- समाभरूढ-दृष्टिस एवभूत अवलोकन कर . ... ... .............
एवंभूत-दृष्टिसे समभिरूढ स्थिति कर: -". .. ... .. .... .... एवंभूत-दृष्टिसे एवंभूत हो। . ........ ............
एवंभूत-स्थितिसे एवंभूत-दृष्टि शांत कर।। ......
...... . ॐ शांतिः शांतिः शांतिः : ... ...
............ -------------
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी २ ....... - :: :.:..: : १७ .. ..... [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३७]
मैं असंग शुद्धचेतन हूँ। ... वचनातीत निर्विकल्प... :: ..... ... ... .. ... ... ......
एकांत शुद्ध ..:: अनुभवस्वरूप हूँ। ................. "..."
मैं परम शुद्ध, अखंड चिद्धातु हूँ। अचिद्धातुके संयोगरसका यह आभास तो देखें ! आश्चर्यवत्, आश्चर्यरूप, घटना है। ....
कछ भा अन्य विकल्पका अवकाश नहा हा .... .. ... ... .......... .....स्थिति भी ऐसी ही है।
१८ . . [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३९] परानुग्रह परम कारुण्यवृत्तिकी अपेक्षा भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो ।
....... . चैतन्य जिनप्रतिमा. हो । .... । वैसा काल है ? . ... ... ... ... .. . उस विषयमें निर्विकल्प हो। ... ... ... ... ...... : वैसा क्षेत्रयोग है? . .... .. .....
खोज। :::: वैसा पराक्रम है ?
अप्रमत्त शूरवीर हो। उतना आयुबल है ? क्या लिखना ? क्या कहना? अंतर्मुख उपयोग करके देख । . . ........ ........ ........
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
....... [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४१]
हे काम ! हे मान ! हे संग-उदय ! हे वचनवर्गणा! हे मोह ! हे मोहदया ! ....... ... ... ..... हे शिथिलता ! आप किसलिये अंतराय करते हैं ? . परम अनुग्रह करके अब अनुकूल हो जायें ! अनुकूल हो जायें।.
...... ... ... ... .... २० . . . . . . . . [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४ -५१ हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो!
इस अनादि-अनन्त संसारमें अनंत-अनंत जीव तेरे आश्रयके विना अनंत-अनंत दुःखका : करते हैं।
LIGuमें रुचि हई, परम वीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय हुआ होनेका मार्ग ग्रहण हुआ]|
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.८३६
एकांत आत्मवृत्त ।
एकांत आत्मा । -
केवल एक आत्मा.
केवल एक आत्मा हो ।
श्रीमद् राजचन्द्र ..
१०
2
. केवल मात्र आत्मा ।
केवल मात्र आत्मा ही ।
आत्मा ही ।
शुद्धात्मा ही ।
सहजात्मा हो ।
निर्विकल्प, शब्दातीत सहज स्वरूप आत्मा ही ।
११.
७-१२-५४*
३१-११-२२
निद्राकी जय । योगकी जय । आरंभ-परिग्रह विरति ।
ब्रह्मचर्य में प्रतिनिवास ।
यों काल बीतने देना योग्य नहीं । प्रत्येक समयको आत्मोपयोगसे उपकारी बनाकर निवृत्त होने देना योग्य है ।
अहो इस देहकी रचना ! अहो चेतन ! अहो उसका सामर्थ्य ! अहो ज्ञानी ! अहो उनकी गवेषणा ! अहो उनका ध्यान ! अहो उनकी समाधि ! अहो उनका संयम ! अहो उनका अप्रमत्त भाव ! अहो उनको परम जागृति ! अहो उनका वीतराग स्वभाव ! अहो उनका निरावरण ज्ञान ! अहो उनके योगकी शांति ! अहो उनके वचन आदि योगका उदय !
मत हो, अप्रमत्त हो ।
परम जागृत स्वभावका सेवन कर, परम जागृत स्वभावका सेवन कर ।
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २७]
हे आत्मन् ! यह सब तुझे सुप्रतीत होनेपर भी प्रमत्तभाव क्यों ? मंद प्रयत्न क्यों ? जघन्य मंद जागृति क्यों ? शिथिलता क्यों ? आकुलता क्यों ? अंतरायका हेतु क्या ?
१२
तीव्र वैराग्य, परम आर्जव, बाह्याभ्यंतर त्याग ।
आहारकी जय ।
आसनकी जय !
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २९]
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३० ]
*संवत १९५४, १२वां मास आसोज सुदी ७; ३१वाँ वर्ष ११वाँ मास, २ वाँ दिन । [ जन्म तिथि सं० १९२४, कार्तिक सुदी १५ होनेसे सं० १९५४ आसोज सुदी ७ को ३१वाँ वर्ष, ११वां मास और २२वाँ दिन आता है। ]
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Cam
" एकांतवास ।
HENRINT I सर्वज्ञध्यान
आत्मा ।
आत्मोपयोग ।
arriतर परिणाम अवलोकन संस्मरणपोयी २
मूल आत्मोपयोग ।
अप्रमत्त उपयोग |
केवल उपयोग |
केवल आत्मा ।
अचित्य सिद्धस्वरूप |
धर्मसुगमता । लोकानुग्रह |
15 smas
जिनचैतन्यप्रतिमा । सर्वांगसंयम ।
एकांत स्थिर संयम् ।
एकांत शुद्ध संयम । केवल बाह्यभाव निरपेक्षता ।
आत्मतत्त्वविचार | जगततत्त्वविचार | जिनदर्शनतत्त्वविचार । अन्य दर्शनतत्त्वविचार ।
18 क स क
यथास्थित शुद्ध सनातन सर्वोत्कृष्ट जयवंत धर्मका उदय
}
1 एकर की 56
- समाधान
पद्धति
वृत्ति
1 d e gula app to a whe जीत
*१३
15000
मी ि
ܐ ܕ ܐ97
की
12
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३१]
कफ हमने
८३७
NE
* इस योजनाका उद्देश्य यह मालूम होता है कि 'एकांत स्थिर संयमः', 'एकांत शुद्ध संयम' और 'केवल बाह्यभाव निरपेक्षता' पूर्वक 'सर्वाङ्गसंयम' प्राप्तकर, उसके द्वारा 'जिनचैतन्यप्रतिमारूप' होकर, अर्थात् अडोल आत्मावस्था पाकर जगतके जीवोंके कल्याणके लिये अर्थात् मार्ग के पुनरुद्धार के लिये प्रवृत्ति करनी चाहिये । यहाँ जो 'वृत्ति, ' ' पद्धति' और 'समाधान' शब्द आये हैं, सो उनमें 'वृत्ति क्या है ?" इसके उत्तरमें कहा गया है कि 'यथास्थित शुद्ध सनातन सर्वोत्कृष्ट जयवंत धर्मका उदय करना? यह वृत्ति हैं । उसे 'किस पद्धतिसे करना चाहिये ?" इसके उत्तरमें कहा गया है कि जिससे लोगोंको 'धर्मसुगमता हो और लोकानुग्रह भी हो।' इसके बाद 'इस वृत्ति और पद्धतिका परिणाम क्या होगा ?" इसके समाधानमें कहा गया है कि 'आत्मतत्त्व-विचार, जगततत्त्व-विचार, जिनदर्शन तत्त्व-विचार और अन्य दर्शनतत्त्व-विचारके संबंमें संसारके जीवोंका समाधान करना ।'
इसी संस्मरण-पोथीके आंक १८ में कहा गया है कि "परानुग्रह परम कारुण्यवृत्तिकी अपेक्षा भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो । चैतन्य जिनप्रतिमा हो ।" : - इस वाक्यसे भी यह बात अधिक स्पष्ट होती है ।
यहाँ यह स्पष्टीकरण श्रीमद् राजचंद्रकी गुजराती आवृत्तिके संशोधक श्री मनसुखभाई रवजीभाई मेहता नोट के आधार से लिखा गया है ।
[श्री परमश्रुतप्रभावक मंडल, बम्बई द्वारा प्रकाशित 'श्रीमद् राजचन्द्र' ( हिन्दी ) के पृष्ठ ७२९ के फुटनोट
से उद्घृत ।]
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८३८
.. श्रीमदः राजचन्द्र. :. ... .. १४
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३२] स्वपर परमोपकारक परमार्थमय सत्यधर्म जयवंत रहे । आश्चर्यकारक भेद पड़ गये हैं। खंडित है। संपूर्ण करनेका साधन दुर्गम दिखायी देता है। उस प्रभावमें महान अन्तराय है। देश, काल आदि बहुत प्रतिकूल हैं। वीतरागोंका मत लोकप्रतिकूल हो गया है ।
रूढिसे जो लोग उसे मानते हैं उनके ध्यानमें भी वह सुप्रतीत मालूम नहीं होता । अथवा अन्यमतको वीतरागोंका मत समझ कर प्रवृत्ति करते रहते हैं।
वीतरागोंके मतको यथार्थ समझनेकी उनमें योग्यताको बहुत कमी है। दृष्टिरागका प्रबल राज्य चलता है। वेषादि व्यवहार में बड़ी विडंबना कर मोक्षमार्गको अंतराय कर बैठे है। विराधकवृत्तिवाले तुच्छ पामर पुरुष अग्रभागमें रहते हैं। किंचित् सत्य बाहर आते हुए भी उन्हें प्राणघाततुल्य दुःख लगता हो ऐसा दिखायी देता है।
१५ :...: [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३४] तव आप किसलिये उस धर्मका उद्धार चाहते हैं ?...... परम कारुण्य-स्वभावसे। उस सद्धर्मके प्रति परमभक्तिसे।
१६ - [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३५] एवभूत-दष्टिसे ऋजुसूत्र स्थिति कर।
........... ऋजुसूत्र-दृष्टिसे एवंभूत स्थिति कर। .. .... . ...... नैगम-दृष्टिसे एवंभूत प्राप्ति कर। एवंभूत-दृष्टिसे नैगम विशुद्ध कर।.. .
संग्रह दृष्टिसे एवंभूत हो । ' प
क्ष :: . .
.:': .... .... .... ... :व्यवहार-दृष्टिसे एवभूतके प्रति जा.
... ... ............. " एवंभूत-दृष्टिसे व्यवहार विनिवृत्त कर
.. . :: ... .. ... शब्द-दष्टिसें एवंभतके प्रति जा ... .". . . :
"एवंभत-दष्टिसे शब्द निर्विकल्प कर। . ....................... . समभिरूढ-दृष्टिस एवंभूत अवलोकन कर। ..
एवंभूत-दृष्टि से समभिरुढ स्थिति कर । - एवंभूत-दृष्टिसे एवंभूत हो।..... . ... ... ..
.। एवंभूत-स्थितिसे एवंभूत-दष्टि शांत कर। .....
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः . . . . . . . . .
Page #974
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________________
मैं असंग शुद्धचेतन हूँ । . वचनातीत निर्विकल्प
एकांत शुद्ध
... अनुभवस्वरूप हूँ ।
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन संस्मरणपोथी २
१७
मैं परम शुद्ध, अखंड चिद्धातु हूँ ।
• अचिधातुके संयोगरसका यह आभास तो देखें !
आश्चर्यवत्, आश्चर्यरूप, घटना है ।
कुछ भी अन्य विकल्पका अवकाश नहीं है । स्थिति भी ऐसी ही है ।
वैसा काल है ? उस विषय में निर्विकल्प हो ।
वैसा क्षेत्रयोग है ?
खोज ।
1. वैसा पराक्रम है ? अप्रमत्त शूरवीर हो । उतना आयुबल है ? क्या लिखना ? क्या कहना ? अंतर्मुख उपयोग करके देख |
१८
परानुग्रहः परमः कारुण्यवृत्तिकी अपेक्षा भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो । चैतन्य जनप्रतिमा हो ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
हे काम ! हे मान ! हे संग उदय !
हे वचनवर्गणा ! हे मोह ! हे मोहदया !
८३९
- [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३७ ]
१९
उपय
विशाल
हे शिथिलता ! आप किसलिये अंतराय करते हैं ?
परम अनुग्रह करके अब अनुकूल हो जायें ! अनुकूल हो जायें ।
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३९]
a
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४१ ]
२०
[संस्मरण-पोयी २, पृष्ठ ४
हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो ! इस अनादि-अनन्त संसारमें अनंत अनंत जीव तेरे आश्रयके विना अनंत अनंत दुःखका
ननुभव
करते हैं ।
तेरे परमानुग्रहसे स्त्रस्वरूपमें रुचि हुई, परम वीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय हुआ, कृतकृत्य होनेका मार्ग ग्रहण हुआ ] |
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________________
श्रीमद् राजचन्द्र
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ११]
ॐ नमः
प्रदेश )
समय
... ...
परमाण द्रव्य गुण
पर्याय
जड
।
चेतन
..
..
......
...
..
श्री.पष्ठ १३]
ॐ नमः मल द्रव्य शाश्वत । :.... मूल द्रव्य :--जीव, अजीवं।
: . ..
.
.
पर्याय :-अशाश्वत। अनादि नित्य पर्याय :-मेरु आदि ।
संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ १
ॐ नमः ...... सब जीव सुखको चाहते हैं। दुःख सबको अप्रिय है। दुःखसे मुक्त होना सब जीव चाहते हैं। ..." उसका वास्तविक स्वरूप समझमें न आनेसे वह दुःख नष्ट नहीं होता। उस दुःखके आत्यंतिक अभावका नाम मोक्ष कहते हैं । अत्यन्त वीतराग हुए बिना आत्यंतिक मोक्ष नहीं होता। सम्यग्ज्ञानके बिना वीतराग नहीं हुआ जा सकता। सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान असम्यक् कहा जाता है ।
वस्तुको जिस स्वभावसे स्थिति है, उस स्वभावसे उस वस्तुकी स्थिति समझमें आना उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
[संस्मरण-पोयो ३, पृष्ठ १६] सम्यग्ज्ञानदर्शनसे प्रतीत हुए आत्मभावसे आचरण करना चारित्र है। इन तीनोंको एकतासे मोक्ष होता है। जीव स्वाभाविक है। परमाणु स्वाभाविक है। जोव अनंत हैं।
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भाभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोयी ३.
८४9
संस्मरण-पोथी ३
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ३]
सर्वज्ञ
ॐ नमः जिन
वीतराग
.
सर्वज्ञ है। रागद्वेषका आत्यंतिक क्षय हो सकता है। ज्ञानका प्रतिबंधक रागद्वेष है।
ज्ञान, जीवका स्वत्वभूत धर्म है। .... जीव, एक अखण्ड संपूर्ण न होनस उसका ज्ञानसामर्थ्य संपूर्ण है।
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ७] सर्वज्ञपद वारंवार श्रवण करने योग्य, पठन करने योग्य, विचार करने योग्य, ध्यान करने योग्य __ और स्वानुभवसे सिद्ध करने योग्य है।
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ९]
सर्वज्ञदेव
सर्वज्ञदेव निग्रंथ गुरु . उपशममूल धर्म ...
निग्रंथ गुरु
दयामूल धर्म
सर्वज्ञ देव
निग्रंथ गुरु . . ... ... . . . . . . . .. .. : सिद्धातमूल धम.. .. ............
.
.
सर्वज्ञदेव ... . . . . निग्रंथ गरु
.... जिनाज्ञामूल धर्म . .
.
. ...
सर्वज्ञका स्वरूप निग्रंथका स्वरूप धर्मका स्वरूप
.
..
.
.
.
सम्यक् क्रियावाद
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________________
श्रीमद् राजचन्द्र
हे जिन वीतराग ! आपको अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार करता हूँ । आपने इस पामरपर अनंत अनंत उपकार किया है।
हे कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधान में इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं । इसके लिये मैं आपको अतिशय भक्तिसे नमस्कार करता हूँ ।
हे श्री सोभाग ! तेरे सत्समागमके अनुग्रहसे आत्मदशाका स्मरण हुआ, उसके लिये तुझे नमस्कार करता हूँ ।
८४०
२१
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४७]
जैसे भगवान जिनेन्द्र निरूपण किया है वैसे ही सर्व पदार्थका स्वरूप है । भगवान जिनेन्द्रका उपदिष्ट आत्माका समाधिमार्ग श्री गुरुके अनुग्रहसे जानकर, परम प्रयत्नसे उसकी उपासना करें ।
केवल समवस्थित शुद्ध चेतन
उस स्वभावका अनुसंधान वह
मोक्षमार्ग
प्रतीतिरूपमें वह मार्ग जहाँसे शुरू होता है वहाँ सम्यग्दर्शन ।.
२२ 'घविहाण विमुक्कं वंदिन सिरिषद्धमाणजिणचंदं । - सिरिवीर जिणं वंदिन, कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कोरई जिएण हेऊह, जेणं तो भण्णए कम्मं ॥ कम्मदववाह सम्मं, संजोगो होई जो उ जीवस्स । सो बंघो नायव्वो, तस्स वियोगो भवे मुक्खो ॥
२३
मोक्ष
देश आचरणरूप
सर्व आचरणरूप
अप्रमत्तरूपसे उस आचरणमें स्थिति
अपूर्व आत्मजागृति
सत्तागत स्यूल कपाय बलपूर्वक स्वरूपस्थिति
सत्तागत सूक्ष्म
उपशांत क्षोण
11
21
13
13
हेतु द्वारा किया जाता है, उस कर्म कहते हैं ।
13.
वह
वह
३. अपके लिये देखें व्याख्यानसार - २ का आंक ३० ।
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४९]
वह
वह
वह
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ५१]
पंचम गुणस्थानक ।
षष्ठ गुणस्थानक ।
सप्तम
अष्टम
नवमः
दशम
:
एकादशम द्वादशम
11
〃
"1
17
१. यह सम्पूर्ण गाया इस प्रकार है- बंघविहाण विमुक्कं वंदिअ सिरिवद्धमाणजिणचंदं । गई आईसुं वुच्छं, समासत्र बंधसामित्तं । अर्थात् कर्मबंधकी रचनासे रहित श्री वर्धमान जिनको नमस्कार करके गति और चौदह मागंणाओं द्वारा संक्षेपसे बंधस्वामित्वको कहूंगा ।
२. भावार्य — श्री वीर जिनको नमस्कार करके संक्षेपसे कर्मविपाक नामक ग्रन्थको कहूँगा । जो जीवसे किसी
"1
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५४१
माम्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी ३. संस्मरण-पोथी ३
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ३] ॐ नमः सर्वज्ञ जिन
वीतराग
..१
सर्वज्ञ है। रागद्वेषका आत्यंतिक क्षय हो सकता है। ज्ञानका प्रतिबंधक रागद्वेष है। ज्ञान, जीवका स्वत्वभूत धर्म है। जीव, एक अखण्ड संपूर्ण न होनस उसका ज्ञानसामर्थ्य संपूर्ण है।
4 [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ७] सर्वज्ञपद वारंवार श्रवण करने योग्य, पठन करने योग्य, विचार करने योग्य, ध्यान करने योग्य ___ और स्वानुभवसे सिद्ध करने योग्य है।
सर्वज्ञदेव निग्रंथ गुरु उपशममूल धर्म ...
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ९] सर्वज्ञदेव निग्रंथ गुरु दयामूल धर्म
सर्वज्ञ देव
निग्रंथ गुरु . . . . . . . ::. : . . . सिद्धांतमूल धर्म ... .
:: . .....
.
.
.
सर्वज्ञदेव .. . . . निग्रंथ गुरु जिनाज्ञामूल धर्म
सर्वज्ञका स्वरूप निग्रंथका स्वरूप धर्मका स्वरूप
.
...
.
सम्यक् क्रियावाद
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८४२
प्रदेश समय
परमाणु
द्रव्य
गुण पर्याय
जड
चेतन
सव जीव सुखको चाहते हैं । दुःख सबको अप्रिय है |
श्रीमद् राजचन्द्र
४
ॐ नमः
ॐ नमः मूल द्रव्य शाश्वत । मूल द्रव्य :-- जीव, अजीव
पर्याय : – अशाश्वत । अनादि नित्य पर्याय : मेरु आदि ।
ॐ नमः
दुःखसे मुक्त होना सब जीव चाहते हैं ।
उसका वास्तविक स्वरूप समझमें न आनेसे वह दु:ख नष्ट नहीं होता ।
उस दुःख के आत्यंतिक अभावका नाम मोक्ष कहते हैं । अत्यन्त वीतराग हुए बिना आत्यंतिक मोक्ष नहीं होता । सम्यग्ज्ञानके बिना वीतराग नहीं हुआ जा सकता । सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान असम्यक् कहा जाता है ।
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ११]
सम्यग्ज्ञानदर्शनसे प्रतीत हुए आत्मभावसे आचरण करना चारित्र है ।
इन तीनोंको एकतासे मोक्ष होता है।
जीव स्वाभाविक है । परमाणु स्वाभाविक है । जीव अनंत है ।
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ १३ ]
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ १५ ]
वस्तुकी जिस स्वभावसे स्थिति है, उस स्वभावसे उस वस्तुकी स्थिति समझमें आना उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं ।
[ संस्मरण-पोयी ३, पृष्ठ १६]
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माभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी ३ . : परमाणु अनंत हैं।
जीव और पुद्गलका संयोग अनादि है। जब तक जीवको पुद्गल-सम्बन्ध है, तब तक सकर्म जीव कहा जाता है । भावकर्मका कर्ता जीव है। भावकर्मका दसरा नाम विभाव कहा जाता है।
भावकर्मके हेतुसे जीव पुद्गलको ग्रहण करता है। ..... उससे तैजस आदि शरीर और औदारिक आदि शरीरका योग होता है।
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ १७ ] ‘भावकर्मसे विमुख हो तो निजभाव परिणामी हो। .
सम्यग्दर्शनके बिना वस्तुतः जीव भावकमसे विमुख नहीं हो सकता। .... सम्यग्दर्शन होनेका मुख्य हेतु जिनवचनसे तत्त्वार्थ प्रतीति होना है।
.७:::: संस्मरण-पोथी ३, १ष्ठ १९] मैं केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहज निज अनुभवस्वरूप' हूँ। व्यवहार दृष्टिसे मात्र इस वचनका वक्ता हूँ। परमार्थसे तो मात्र उस वचनसे व्यंजित मूल अर्थरूप हूँ। .. आपसे जगत भिन्न है, अभिन्न है, भिन्नाभिन्न है ? भिन्न, अभिन्न, भिन्नाभिन्नं, ऐसा अवकाश स्वरूपमें नहीं है। व्यवहारदृष्टिसे उसका निरूपण करते हैं.। .
-जगत मेरेमें भासमान होनेसें अभिन्न है, परन्तु जगत जगतस्वरूपसे है, मैं स्वस्वरूपसे हूँ, इसलिये जगत मुझसे सर्वथा भिन्न है। इन दोनों दृष्टियोंसे जगत. मुझसे भिन्नाभिन्न है।
१. ॐ शुद्ध निर्विकल्प-चैतन्य | .:
[ संस्मरण-पोथो ३, पृष्ठ २३ ]
.
.. ॐ नमः . केवलज्ञान।
एक ज्ञान। सर्व अन्य भावोंके संसर्गसे रहित एकांत शुद्धज्ञान।
सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सर्व प्रकारसे एक समयमें ज्ञान । उस केवलज्ञानका हम ध्यान करते हैं। .. . .... .
निजस्वभावरूप है। स्वतत्त्वभूत है। निरावरण है। अभेद है। निर्विकल्प है। सर्व भावोंका उत्कृष्ट प्रकाशक है। :...::
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.८४४
... श्रीमद राजबन्द :: ...
[संस्मरण-पोथी. ३, पृष्ठ २४ ] मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ। ऐसा सम्यक् प्रतीत होता है.। . .: : वैसा होनेके हेतु सुप्रतीत हैं।
सर्व इंद्रियोंका संयम कर, सर्व परद्रव्यसे निजस्वरूपको व्यावृत्त कर, योगको अचलकर, उपयोगसे ___ उपयोगकी एकता करनेसे केवलज्ञान होता है ।
१
संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ २७ ] . ..
आकाशवाणी
तप करें, तप करें; शुद्ध चैतन्यका ध्यान करें; शुद्ध चैतन्यका ध्यान करें।
____ो संस्मरण पोथी ३.० २९१ मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्व परभावसे मुक्त हूँ। -- ... असंख्यात. प्रदेशात्मक निजावगाहना प्रमाण हूँ।
अजन्म, अजर, अमर, शाश्वत हूँ। स्वपर्याय-परिणामी समयात्मक हूँ। शुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र निर्विकल्प द्रष्टा हूँ। ... : ::
1:/
:
/स्वरूपसे चैतन्य
उद चन
FREE:
पर्व परमार
वेतन्यले
अतीतिसे
KPlace
१२
. [ संस्मरण-पोयी ३, पृष्ठ ३१] शुद्ध चैतन्य। शुद्ध चैतन्य । शुद्ध चैतन्य । सद्भावकी प्रतीति-सम्यग्दर्शन।
शुद्धात्मपद। ....
-
-
-
-
-
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरणपोयो ३
ज्ञानकी सोमा कौनसी ? निरावरण ज्ञानकी स्थिति क्या ? अद्वैत एकांतसे घटित होता है ? ध्यान और अध्ययन |
उ०
अप०
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ३५ ]
'ठाणांगसूत्र' में निम्नलिखित सूत्र क्या उपकार होनेके लिये लिखा है, इसका विचार करें । 'एगे समणे भगवं महावीरे इमीसेणं ऊसप्पिणीए चउवोसं तित्थयराणं चरिमे तित्थयरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्वुडे सच्चदुःखप्पहोणे ।
स्वरूपबोध |
योग निरोध ।
सर्वधर्म स्वाधीनता ।
. १३
ॐ
मूर्तिता ।
सर्व प्रदेश संपूर्ण गुणात्मकता !
१४
आभ्यंतर भान अवधूत, विदेहीवत् जिनकल्पीवत्
सर्व परभाव और विभावसे व्यावृत्त, निज स्वभावके भानसहित अवधूतवत्, विदेहीवत्, जिनकल्पीवत् विचरते हुए पुरुषरूप भगवानके स्वरूपका ध्यान करते हैं ।
'सर्वाग संयम ।
लोकपर निष्कारण अनुग्रह ।
: [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ३९ ]
प्रवृत्ति के कार्योंसे विरति ।
7
संग और स्नेहपाशको तोड़ना (अतिशय विषम होते हुए भी तोड़ना, क्योंकि दूसरा कोई उपाय
नहीं है ।)
आशंका —— जो स्नेह रखता है, उसके प्रति ऐसी क्रूर दृष्टिसे वर्तन करना, क्या यह कृतघ्नता अथवा निर्दयता नहीं है ?
समाधान
८४५
१५
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ३७]
१६
[संस्मरण-पोचो ३, पृष्ठ ४०]
१. भावार्थ- - श्रमण भगवान महावीर एक है। वे इस अवसर्पिणी कालमें चौबीस तोयंकरोंमें अंतिम तीर्थकर हैं, वे सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, मुफ्त हैं, परिनिर्वृत है, और उनके सब दुःख क्षीण हो गये हैं।.
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श्रीमद राजचन्द्र १७
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४३] ॐ नमः
सर्वज्ञ-वीतरागदेव (सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सर्व प्रकारसे ज्ञाता, रागद्वेषादि सर्व विभावोंको जिसने क्षीण किया है वह ईश्वर है।)
वह पद मनुष्यदेहमें संप्राप्त होने योग्य है। जो संपूर्ण वीतराग हो वह संपूर्ण सर्वज्ञ होता है। संपूर्ण वीतराग हुआ जा सकता है, ऐसे हेतु सुप्रतीत है।
१८
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४५] प्रत्यक्ष निज अनुभवस्वरूप हूँ, इसमें संशय क्या ?
उस अनुभवमें जो विशेष संबंधी न्यूनाधिकता होती है, वह यदि दूर हो जाये तो केवल अखंडाकार स्वानुभव स्थिति रहे।
अप्रमत्त उपयोगसे वैसा हो सकता है।
अप्रमत्त उपयोग होनेके हेतु सुप्रतीत हैं। उस तरह वर्तन किया जा सकता है, वह प्रत्यक्ष सुप्रतीत है।
अविच्छिन्न वैसी धारा रहे तो अद्भत अनंत ज्ञानस्वरूप अनुभव सुस्पष्ट समवस्थित रहे
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४७] सर्व चारित्र वशीभूत करनेके लिये, सर्व प्रमाद दूर करनेके लिये, आत्मामें अखंड वृत्ति रहनेके लिये, मोक्षसंबंधी सर्व प्रकारके साधनोंकी जय करनेके लिये 'ब्रह्मचर्य' अद्भुत अनुपम सहायकारी है, अथवा मूलभूत है।
- [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४९]
ॐ नमः
संयम
२१
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५०]
जागृत सत्ता। ज्ञायक सत्ता। आत्मस्वरूप ।
२२
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५२] सर्वज्ञोपदिष्ट आत्माको सद्गुरुकी कृपासे जानकर निरंतर उसके ध्यानके लिये विचरना, संयम और तपपूर्वक
२३
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५२] अहो ! सर्वोत्कृष्ट शांत रसमय सन्मार्गअहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांत रसप्रधान मार्गके मूल सर्वज्ञदेव
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४७
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी ३ अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांत रसको जिन्होंने सुप्रतीत कराया ऐसे परमकृपालु सद्गुरुदेवइस विश्वमें सर्वकाल आप जयवंत रहें, जयवंत रहें।
. .२४ . . [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५४]
ॐनमः विश्व अनादि है। आकाश सर्वव्यापक है। उसमें लोक स्थित है। जड-चेतनात्मक लोक संपूर्ण भरपूर हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये जड द्रव्य हैं। . जीव द्रव्य चेतन है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार अमूर्त द्रव्य हैं। वस्तुतः काल औपचारिक द्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश एक एक द्रव्य हैं। काल, पुद्गल और जीव अनंत द्रव्य हैं।
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५५ ] द्रव्य गुणपर्यायात्मक है।
२५
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५७] परम गुणमय चारित्र (बलवान असंगादि स्वभाव) चाहिये। परम निर्दोष श्रुत। परम प्रतीति । परम पराक्रम । परम इंद्रियजय।
१. मूलका विशेषत्व। २. मार्गके आरंभसे अंतपयंतकी अद्भुत संकलना। ३. निर्विवाद४. मुनिधर्मप्रकाश। ५. गृहस्थधर्मप्रकाश। ६. निग्रंथ परिभाषानिधि७. श्रुतसमुद्र प्रवेशमार्ग।
२६
[संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५८ ]
स्वपर-उपकारका महान कार्य अब कर ले ! त्वरासे कर ले ! अप्रमत्त हो- अप्रमत्त हो। क्या कालका क्षणवारका भी भरोसा आयं पुरुषोंने किया है ? हे प्रमाद ! अब तू जा, जा। हे ब्रह्मचर्य ! अब तू प्रसन्न हो, प्रसन्न हो।
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८४८
श्रीमद राजचन्द्र
हे व्यवहारोदय ! अव प्रबलतासे उदयं आकर भी तू शांत हो, शांत ।
दीर्घसूत्रता ! सुविचारका, धैर्यका, गंभीरता का परिणाम तू क्यों होना चाहती है ?
हे बोधबीज ! तू अत्यंत हस्तामलकवत् वर्तन कर, वर्तन कर । ज्ञान ! तू दुर्गमको भी अब सुगम स्वभावमें ला दे ।
हे चारित्र ! परम अनुग्रह कर, परम अनुग्रह कर । हे योग ! आप स्थिर होवें; स्थिर होवें ।
ध्यान ! तू निजस्वभावाकार हो, निजस्वभावाकार हो । व्यग्रता ! तू चली जा, चली जा ।
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५९ ]
हे अल्प या मध्य अल्प कषाय ! अब आप उपशांत होवें, क्षीण होवें । हमें आपके प्रति कोई रुचि
नहीं रही ।
हे सर्वज्ञपद ! यथार्थं सुप्रतीतरूपसे तू हृदयावेश कर, हृदयावेश कर ।
हे असंग निर्ग्रथपद ! तू स्वाभाविक व्यवहाररूप हो ।
हे परम करुणामय सर्व परमहितके मूल वीतरागधर्म ! प्रसन्न हो, प्रसन्न हो ।
हे आत्मन् ! तू निजस्वभावाकार वृत्तिमें ही अभिमुख हो ! अभिमुख हो । ॐ
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ६१ ] हे वचनसमिति ! हे काय - अचपलता ! हे एकांतवास और असंगता ! आप भी प्रसन्न होवें, प्रसन्न हो ।
खलबली करती हुई जो आभ्यंतर वर्गणा है उसका या तो आभ्यंतर ही वेदन कर लेना, या तो उसे स्वच्छपुट देकर उपशांत कर देना ।
जैसे निःस्पृहता बलवान, वैसे ध्यान बलवान हो सकता है, कार्यं बलवान हो सकता हैं ।
२७
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ६३ ]
'इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिवुर्णसंसुद्धं णेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं विज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिट्ठ सम्वदुक्खप्प होणसग्गं एत्थं ठिया जीवा सिज्यंति बुज्झति मुच्चति परिणिन्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करंति । तहा तंमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा सुट्ठामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उडाए उट्टे मोति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति ।
२८
शरीरसंबंधी दूसरी बार आज अप्राकृत क्रम शुरू हुआ । ज्ञानियोंका सनातन सन्मार्ग जयवंत रहे !
फागुन वदी १३, सोम, सं० १९५७
१. भावार्थ - यह ही निर्ग्रथ-प्रवचन सत्य अनुत्तर - श्रेष्ठ, सर्वज्ञका, प्रतिपूर्ण संशुद्ध - सर्वथा संशुद्ध, न्याययुक्त, शल्यको काटनेवाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, विज्ञानमार्ग, निर्वाणमार्ग, अवितथ - सत्य, असंदिग्ध और सर्व दुःख नाशक है । इस मार्ग में स्थित हुए जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं और सर्व दुःखोंका अन्त करते हैं। उसकी आज्ञासे उस प्रकारसे चलें, रहें, बैठें, करवट बदलें, खायें, वोलें, गुरु यादिके सामने खड़े होवें और उहें कि प्राणभूत जीवसत्त्वोंकी हिसा न हो। ऐसे संयमका आचरण हो ।
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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोयी ३
२९
द्वि० आ० अ० १, १९५४
ॐ नमः सर्व विकल्पका, तर्कका त्याग करके
मनका वचनका कायाका
जय करके इन्द्रियका आहारका
निद्राका निर्विकल्परूपसे अंतर्मखवृत्ति करके आत्मध्यान करना । मात्र निर्बाध अनुभवस्वरूपमें लीनता होने देना, दूसरो चिन्तना न करना । जो जो तर्क आदि उठे उन्हें विस्तृत न करते हुए उपशमन करना।
३०
वीतरागदर्शन संक्षेप मंगलाचरण-शुद्ध पदको नमस्कार । भूमिका-मोक्ष प्रयोजन ।
उस दुःखके मिटनेके लिये भिन्न भिन्न मतोंका पृथक्करण कर देखते हुए उनमें वीतराग दर्शन पूर्ण और अविरुद्ध है, ऐसा सामान्य कथन ।
उस दर्शनका विशेष स्वरूप । उसकी जीवको अप्राप्ति तथा प्राप्तिमें अनास्था होनेके कारण । मोक्षाभिलाषी जीव उस दर्शनकी कैसे उपासना करे ।
आस्था-उस आस्थाके प्रकार और हेतु । विचार-उस विचारके प्रकार और हेतु । विशुद्धि-उस विशुद्धिके प्रकार और हेतु । मध्यस्थ रहनेके स्थान-उसके कारण । धीरजके स्थान-उसके कारण । शंकाके स्थान-उसके कारण । पतित होनेके स्थान-उसके कारण ।
उपसंहार।
आस्था
पदार्थका अचिंत्यत्व, बुद्धिमें व्यामोह, कालदोष ।
धीमद राजचंद्र ग्रंथ
समाप्त
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परिशिष्ट १
.
अवतरणोंकी वर्णानुक्रम-सूची
स्थल
.
.
३५-३०
___. ३१६-४
___५०७-९
अवतरण
पृष्ठ-पंक्ति अखे (खै) पुरुष (ख) अक वरख हे (है)
[एक सवैया
४७१-११ अजैर्यष्टव्यम्
[उत्तरपुराण प० ६७, ३२९]
'७६-११ अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए । किं नाम हुज्ज़ कम्म जेणाहं दुग्गईं न गच्छिज्जा ॥ (उत्तराध्ययन ८-१) अनुक्रमे संयम स्पर्शतोजी, पाम्यो क्षायिकभाव रे । संयम श्रेणी फूलडेजी, पूM पद निष्पाव रे ॥
३१५-७,१४; ३१६-२ शुद्ध निरंजन अलख अगोचर, एहि ज साध्य सुहायो रे । ज्ञानक्रिया अवलंबी फरस्यो, अनुभव सिद्धि उपायो रे ॥ राय सिद्धारथ वंश विभूषण, त्रिशला राणी जायो रे । अंज अजरामर सहजानंदी, ध्यानभुवनमां घ्यायो रे ॥ [संयमश्रेणी स्तवन १-२ पंडित उत्तमविजयजी, प्रकरणरत्नाकर भाग २ पृ० ६९९]
३१६-४ अन्य पुरुषकी दृष्टिमें, जग व्यवहार लखाय । वृन्दावन जब जग नहीं, कौन (को) व्यवहार बताय ॥ [विहारवृन्दावन]
५०७-९ अलखनाम धुनि लगी गगनमें, मगन भया मन मेराजी। आसन मारी सुरत दृढ धारी, दिया अगम घर डेराजी, दरश्या अलख देदाराजी ।। [छोटम, अध्यात्म भजनमाला पद १३३ पृ० ४९, प्र० कहानजी धर्मसिंह मुंबई १८९७]
२६०-३१ अल्पाहार निद्रा वश करे, हेत स्नेह जगथी परिहरे । लोकलाज नवि धरे लगार, एक चित्त प्रभुथी प्रीत धार ॥ [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी]
१६३-२७ [सव्वत्युवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे ।] अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं ॥ [दशवकालिक अ. ६-२२]
८२०-३६ अहर्निश अधिको प्रेम लगावे, जोगानल घटमांहि जगावे । अल्पाहार आसन दृढ घरे, नयन थकी निद्रा परिहरे ॥ [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी]
१६४-१३ अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिआ । मुक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ।।। [दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ५-९२] ६३८-४ अहो निच्चं तवो कम्मं सव्वबुद्धेहिं वण्णि। जाव लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं ।। [दशवकालिकसूत्र अध्ययन ६-२३] ६३८-९ अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
[गुरुगीता, ४५] ६३७.३२; ६९१-२५ आणाए धम्मो आणाए तवो।
[उपदेशपद-हरिभद्रमूरि]
२६३-१०
Page #989
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राजचन्द्र
पृष्ठ-पंक्ति
३१७-११
२८५-२
७८४-२६
१६३-३४
२३१-२४
१६३-२२
अवतरण आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इण में नावे । वाक्यजाळ बी सी जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे ॥
आनंदघन चोवीशी-मुनिसुव्रतनाजिनस्तवन [जुजवां जुओ धाम आप्यां जनने, जोई निप्काम सकाम रे; आज तो अटळक ढळया हरि,] आप्युं सौने ते अक्षरधाम रे,
[धीरजाख्यान कडवू ६५-निष्कुलानंद] आशय आनंदघन तणो, अति गंभीर उदार । वालक वाह्य पसारीने, कहे उदधि विस्तार ।।
[आनंदधन-चोवीशीके अंतमें ज्ञानविमलसूरिको गाथा] .. आशा एक मोक्षकी होय, वीजी दुविधा नवि चित्त कोय । ध्यान जोग जाणो ते जीव, जे भवदुःखथी डरत सदीव ॥ स्वरोदयज्ञान-चिदानंदणी] इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा । भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः ।
[श्रीमद् भागवत्, स्कंध ३, अध्याय २४, श्लोक ४७] इंगला पिंगला सुखमना, ये तिर्नुके नाम । भिन्न भिन्न अब कहत हूँ ताके गुण अरु धाम || स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं : . . : संसुद्धं णेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धि मग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं । एत्थंठिया जीवा सिज्झंति वुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं .... करेंति । तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसीयामो तहा तुयट्ठामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अन्भुटामो तहा उठाए उठेमो त्ति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति। [सूत्रकृतांग श्रु० २-७-१५] इणविध परखी मन विसरामी, जिनवर गुणवर गुण जे गावे । दीनबंधुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ।।
हो मल्लिजिन सेवक केम अवगणीए ।
आनंदघन चोवीसी-मल्लिनाथजिन स्तवन] कैचनीचनो अंतर नथी, समज्या ते पाम्या सद्गति । [प्रीतमस्वामी-कवकामां वन्वा] उपन्ने वा विगमे वा धुवेइ वा
. [मागम] उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी निव्वाणपुरं वज्जदि धीरो ॥ [पंचास्तिकाय.७०]
पभजिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाहुं रे कंत ।। रोक्ष्यो साहिब संग न परिहरे रे, मांगे सादि अनंत ॥ ऋषम०
आनंदघन चोवीशी-पनजिन-स्तवन १]
८४८-२४
.३४६.८
२३३-६ १२३-३५
६४२-२४
५८१-३
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परिशिष्ट १
अवतरण
स्थल
एक अज्ञानीके कोटि अभिप्राय है, और कोटि ज्ञानियोंका एक अभिप्राय है । एक कहे सेवीए विविध किरिया करी, फल अनेकांत लोचन न देखे | फल अनेकांत किरिया करी वापडा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे ॥
एक परिनामके न करता दरव दोई, दोई परिनाम एक दर्व न धरतु है ।
एक करतूति दोई दर्द कबहूँ न करें, दोई करतूति एक दर्व न करतु है । जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ, अपनें अपने रूप, कोउ न टरतु है । जड़ परिनामनिको, करता है पुद्गल, चिदानंद चेतन सुभाव आचरतु है ॥
[आनंदघन चोवीशी अनंतजिन स्तवन ]
एक देखिये जानिये, [रमि रहिये एकठौर । समल विमल न विचारिये, यह सिद्धि नहि और ॥]
[समयसार नाटक जीवद्वार २० पृ० ५० पं० वनारसीदास; जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बंबई ]
[समयसार - नाटक - कर्ताकर्म- क्रियाद्वार १० पृ० ९४]
एगे समणे भगवं महावीरे इमीए ओसप्पिणीए चउव्वीसाए तित्थयराणं चरिमतिथ्यरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्वुडे (जाव) सव्वदुक्खप्पहीणे ।
. [ अनाथदास ]
[मिगचारियं चरिस्सामि] एवं पुत्ता जहासुखं, [अम्मापिऊर्ह अणुण्णाओ जहाइ उवहिं तओ] (तुठो तूठो रे मुज साहिब जगनो तूठो)
ए श्रीपाळनो रास करंतां ज्ञान अमृतरस वठ्यो (वुठो ) रे ॥ मुज०
[ठाणांगसूत्र ५३ पृ० १५, आगमोदय समिति ] एनुं स्वप्ने जो दर्शन पामे रे तेनुं मन न चढे बीजे भामे रे । थाय कृष्णनो लेश प्रसंग रे, तेने न गमे संसारनो संग रे ॥१॥ हसतां रमतां प्रगट हरि देखु रे, मारुं जीन्दु सफळ तव लेखूं रे, मुक्तानंदनो नाथ विहारी रे, ओघा जीवनदोरी अमारी रे ॥२॥
[उद्धवगीता क. ८८-७, ८७-७ मुक्तानंदस्वामी ]
ऐसा भाव निहार नित, कीजे ज्ञान विचार | मिटे न ज्ञान विचार विन, अंतर-भाव-विकार ॥ कम्मदव्वेहि सम्मं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो तस्स विभोगो भवे मुक्खो ॥
[उत्तराध्ययन-१९-८५]
[धीपालरास खंड ४ पृ० १८५ विनयविजय यशोविजयजी ]
[स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी ]
[आचारांग अ० ७. १. नियुक्ति गा० २६० ]
८५३
पृष्ठ - पंक्ति
७०१-३६
३१७-२४; ३१८-५; ६१४-११
७१६-१६
२७७-१४
८४५-१०
२५१-१०
५४-३०
४७५-१२
१६४-२७
७९९-२; ८१७-१५ ८४०-१
Page #991
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८५४
अवतरण
श्रीमद राजचन्द्र
करना फकीरी क्या दिलगीरी सदा मगन मन रहेनाजी । कर्ता मटे तो छूटे कर्म, ए छे महा भजननो मर्म, जोतुं जीव तो कर्ता हरि, जो तुं शिव तो वस्तु खरी,
तुं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झटक्या हाथ ॥ [ अखाजी, अक्षय भगत कवि ]
[स्वरोदयज्ञान- चिदानंदजी ]
काल ज्ञानादिक थकी, लही आगम अनुमान । गुरु करुना करी कहत हूँ, शुचि स्वरोदयज्ञान ॥ किं बहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहुं विलिज्जंति । तह तह पर्याट्ठअव्वं, एसा आणा जिणिदाणम् ॥
कोचसो कनक जाकै, नीचसौ नरेसपद, मोचसी मिताई, गरुवाई जाकै गारसी । जहरसी जोग जाति, कहरसी करामाति; हहरसी हौस, पुद्गल छवि छारसी । जालसी जगविलास, भालसो भुवनवास; कालसी कुटुम्बकाज, लोकलाज लारसी । सीठसौ सुजसु जाने, वीठसौ वखत मानै; ऐसी जाकी रीति ताहि, वंदत बनारसी ॥ गुरुण छंदाणुवत्ता
गुरु गणवर गुणवर अधिक प्रचुर परंपर ओर । व्रत तपवर तनु नगनंतर बंदी वृप सिरमौर ॥
स्थल
[कवीरजी ]
घट घट अंतर जिन वसे, घट घट अंतर जैन मत मदिराके पानसें मतवारा समजै न ।
[समयसार - नाटक वंधद्वार १९ पृ० २३४ - ५ ] [ सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंध द्वितीय अध्ययन उद्देश २, गाथा ३२ ]
[उपदेश रहस्य, यशोविजयजी ]
[ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा पं० जयचंद्रकृत अनुवादका मंगलाचरण ]
चलई सो बंधे
चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती भोगी रे |
तिम नवि महन गुणे होवे, उत्तम निमित्त संजोगी रे ॥
[समयसार - नाटक, ग्रंथ समाप्ति और अंतिम प्रशस्ति ] चरमावतं हो चरम करण तथा रे, भव परिणति परिपाक । दोप टळे वळी दृष्टि खुले भली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥१॥ परिचय पातिक धातिक साधुशुं रे, अकुशल अपचय चेत । ग्रंथ अध्यातम श्रवण, मनन करी रे, परिशीलन नयहेत ॥ २ ॥ मुगध सुगम करो सेवन लेखवे रे, सेवन अगम अनुप । देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनंदधन रसरूप ॥३॥
[आनंदघन चोवीशी संभवजिन स्तवन ]
[?]
[आठ योगदृष्टिकी सज्झाय, प्रथमदृष्टि -गा. १३ यशोविजयजी ]
पृष्ठ - पंक्ति
२६१-३२
३०८-४
१६२-३४
३६५-१४
६१५-२१
५३९-१७
६५२-२२; ७९४-३१
७७९-१३
६४२-११; ६७४-६
७८७-३
६७४-४
Page #992
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परिशिष्ट १
८५५
अवतरण
स्यल
पृष्ठ-पंक्ति चित्रसारी न्यारी, परजंक न्यारौं, सेज न्यारी, चादरि भी न्यारी, ईहाँ जूठो मेरी थपना । अतीत अवस्था सैन, निद्रावाहि कोऊ पै न, विद्यमान पलक न, यामै अब छपना । स्वास औ सुपन दोउ, निद्राकी अलंग बुझे, सूझै सब अंग लखि, आतम दरपना । .. त्यागो भयौ चेतन, अचेतनता भाव त्यागि, भाले दृष्टि खोलिकै, संभाल रूप अपना ॥ [समयसार-नाटक निर्जराद्वार १५ पृ. १७६-७]
६१३-२५ चूणि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभव रे। [आनन्दघन चोवीशी-नमिनाथजिन स्तवन] ६७८-३ जंणं जंणं दिसं इच्छइ तं णं तं णं दिसं अप्पडिबद्ध [आचारांग?
२२२-३१ जबहीते चेतन विभावसों उलटि आपु; समै पाई अपनो सुभाव गहि लीनो है । तबहीं तें जो जो लेने जोग सो सो सव लीनो जो जो त्याग जोग सो सो सब छांडि दीनो है। लेवेकों न रही ठोर, त्यागीवेकों नाही और, बाकी कहा उवर्योजु, कारज नवीनो है। संगत्यागी, अंगत्यागी, वचनतरंगत्यागी, मनत्यागी, वुद्धित्यागी, आपा शुद्ध कोनो है ।। [समयसार-नाटक सर्वविशुद्धिद्वार १०९ पृ० ३७७-८]
३२२-१३ जारिस सिद्धसहावो तारिस सहावो सव्वजीवाणं । तम्हा सिद्धतरुई.कायव्वा भव्वजीवेहिं ।
[सिद्धप्राभृत]
५८२-९ जिन थई जिनने जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे । भुंगी इलिकाने चटकावे, ते भंगी जग जोवे रे ॥ [आनन्दघन चोवीशी नमिनाथजिन स्तवन]
३१७-८; ३४४-१८; ३४६-१४, ३४७-२५ जिनपूजा रे ते निजपूजना (रे प्रगटे अन्वय शक्ति । परमानन्द विलासी अनुभवे रे, देवचन्द्र पद व्यक्ति ॥) [वासुपूज्यजिन-स्तवन-देवचन्द्रजी] ५८२-१३ जीव तुं शीद शोचना घरे ? कृष्णने करवू होय ते करे । चित्त तु शीद शोचना घरे ? कृष्णने करवू होय ते करे ।
३८०-१३ [दयाराम, पद-३४ पृ० १२८ भक्तिनीति काव्यसंग्रह]
३८०-१३ जीव नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा, पुरंगलाघार नहीं तास रंगी। परतणो ईश नहीं अपर अश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी।
[सुमतिजिन-स्तवन-देवचन्द्रजी]
३२०-३ जूवा आमिष मदिरा दारी, आहे(खे)टक चोरी परनारी। अई सप्त व्यसन दुःखदाई दुरितमूल दुरगतिके जाई [भाई] । [समयसार नाटक साध्यसाधकद्वार २७, पृष्ठ ४४४]
६८७-२१
Page #993
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८५६.
श्रीमान राजघन्द्र
स्थल
पवरण
पृष्ठ-पंक्ति जे अबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदंसिणो। असुद्धं तेसिं परवकंतं सफल होइ सव्वसो॥ जे य बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसि परक्कंतं अफलं होइ सव्वसो॥ [सूत्रकृतांग १-८-२२,२३. पृ० ४२] ६८६-२६ जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ॥
[आचारांग १-३-४-१२२]
१९१-२९ जे (ये) जाणइ अरिहंते दव्वगुणपज्जवेहि य । सो जाणइ नियअप्पं मोहो खलु जाइ तस्स लयं ॥ प्रवचनसार १-८०, पृ० १०१ कुन्दकुन्दाचार्य]
५८१-२१ जेनो काळ ते किंकर थई रह्यो, मृगतृष्णाजळ त्रैलोक; जीव्यु धन्य तेहनु । दासी आशा पिशाची थई रही, काम क्रोध ते केदी लोक; जीव्यु दोसे खातां पीतां बोलतां, नित्ये छे निरंजन निराकार; जीव्यु जाणे संत सलूणा तेहने, जेने होय छेल्लो अवतार; जीव्यु जगपावनकर ते अवतर्या, अन्य मात उदरनो भार; जीव्यु तेने चौद लोकमां विचरतां अंतराय कोईए नव थाय; जीव्यु रिद्धि सिद्धि ते दासीओ थई रही, ब्रह्मानन्द हृदे न समाय जीव्यु
[मनहरपद-मनोहरदासकृत]
६४६-३ . जे पुमान परधन हरै, सो अपराधी अज्ञ । जो अपनो धन विवहरै, सो धनपति धर्मज्ञ ॥ समयसार नाटक, मोक्षद्वार १८ पृ० २८६] ७९०-६ जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेमज जीवस्वभाव रे । , . . . . . ते जिनवीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे ॥ ... , . .. .
[नयरहस्य श्री सीमंधरजिन-स्तवन २-१७ यशोविजय] ४६५-१२, १७; ८२१-३४ जैसें कंचुकत्यागसें, विनसत नहीं भुजंग।। देहत्यागसें, जीव पुनि, तैसें रहत अभंग ।। [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजा] . . . . . १६५-१ जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति माही; तृपावन्त मृषाजल कारण अटतु है। तैसें भववासी मायाहीसौं हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम श्रम नाटक नटतु है । आगेको धुकत घाई, पोछे बछरा चवाई जैसें नैन हीन नर जेवरी वटतु है । तैसें मूढ चेतन सुकृत करतूति करै। रोवत हसत फल खोवत खटतु है ।।
[समयसार नाटक बंधद्वार २, पृ० २४२] ३६५-१ जैसी निरभेद रूप निहचे अतीत हुती, तसौ निरभेद अब, भेदको न गहेगी ! दीस कर्मरहित सहित सुख समाधान, पायौ निज थान फिर बाहरि न बहेगी।
Page #994
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अवतरण
कवहूं कदापि अपनौ सुभाव त्यागि करि राग रस. राचिकै न परवस्तु गहँगो अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयौ याहि भांति आगम अनंत काल रहँगो ||
परिशिष्ट १
[समयसारनाटक सर्वविशुद्धिद्वार १०८ पृ. ३७६-७]
[द्रव्यसंग्रह-३४]
[द्रव्यसंग्रह ५६ ]
(यो) जोगा पयडिपदेसा [ठिदि अणुभागा कसायदो होंति] कवि चितो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू | लद्धूणय एयत्तं तदा हु तं तस्स निच्चयं झाणं ॥ जंगमनी जुक्ति तो सर्वे जाणीए, समीप रहे पण शरीरनो नहि संग जो, एकांते वसवुं रे एक ज आसने, भूल पड़े तो पड़े भजनमा भंग जो, ओघवजी अबला ते साघन शुं करे ?
[ओधवजीनो संदेशो गरबी ३ - ३ रघुनाथदास ]
जं मं ति पासा तं मोणं ति पासहा (जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा )
(वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणो जइ वि होइ तित्थयरो |) णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥
महद्वियवत्वाणं । तरतम योगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार,
[पट्प्राभृतादि संग्रह - सूत्रप्राभृत २३ - कुंदकुंदाचार्य ] [?]
तहारुवाणं समणाणं ( यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।) तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः । ते माटे ऊभा कर जोडी, जिनवर आगळ कहीए रे । समयचरण सेवा शुद्ध देजो, जेम आनंदघन लहीए रे ॥
स्थल
दर्शन सकळना नय ग्रहे, आप रहे निज भावे रे | हितकरी जनने संजीवनी, चारो तेह चरावे रे ॥
पंथडो० [आनन्दघन चोवीशी अजितनाथ स्ववन ] [भगवती ]
दर्शन जे थयां जुजवां, ते ओघ नजरने फेरे रे, भेद थिरादिक दृष्टिमां समकितदृष्टिने हेरे रे ॥
[आचारांग १-५-३]
[आनंदघन चोवीशीन मिनाथजिन स्तवन ]
[आठ योगदृष्टिकी सज्झाय-यशोविजयजी ]
दुःखसुखरूप करमफळ जाणो, निश्चय एक आनंदो रे । चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे ॥
[ईशावास्य उपनिषद ७ ]
[आठ यंग दृष्टिकी सज्ज्ञाय-यशोविजयजी ]
देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ||
[आनंदघन चोवोशी-वासुपूज्य जिन स्तवन ]
८५७
पृष्ठ - पंक्ति
६१४-२
७८८-१३
६४१-३
४७५-२६
५४५-११
७९०-१६
१६२-१४
६७६-१९
५८८-१०
२६८-१५
५७७-२८; ६६५-१९
३१५-१७
३१५-२०
३२१-३०
[आप्तमीमांसा १ समंतभद्र ] ६८४-८९ ७८८-२५
Page #995
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८५८
श्रीमद् राजचन्द्र
अवतरण
स्थल
पृष्ठ-पंक्ति देहाभिमाने गलिते, विज्ञाते परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति तत्र-तत्र समाधयः ।। [दगदृश्यविवेक, गा० ३० पृ० ४३ शंकराचार्य]
२७८-१९ दुर्बळ दह ने मारा उपवासी जो छे मायारंग रे । तोपण गर्भ अनंता लेशे, बोले बी अंग रे ॥ तवन ढाल ८ गाथा ११-यशोविजयजी
७०६-१६ धन्य ने मुनिवरा रे जे चाले समभावे, ज्ञानवंत ज्ञानी मळतां, तन मन वचने साचा, द्रव्यभाव सुधा जे भाखे, साची जिननी वाचा रे । घन्य० सिद्धांतरहस्य, सीमंघरजिन-स्तवन-यशोविजयजी]
६५५-२१ धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो || दशकालिक सूत्र १-१]
७९४-८ धार तरवारनी सोहली, दोहली-चोदमा जिन तणी चरणसेवा । धार पर नाचता, देख बाजी गरा सेवना धार पर रहे न देवा ॥ [आनंदघन चोवीशी, अनंतनाथजिन-स्तवन]
३७६-२२ (इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । अंतानीदगुणाणं) णमो जिणाणं जिदभवाणं ॥ पंचास्तिकाय ?, कुंदकुन्दस्वामी] ८३३-२७; ८३४-७ नमो दुर्वाररागादि वैरिवारनिवारिणे । अर्हते योगिनाथाय महावीराय तायिने ।।
[योगशास्त्र १-१ हेमचंद्र आचार्य] ६८३-१९ नाके रूप निहाळता
[?]
६४१-२४ नागरमुख पामर नव जाणे, वल्लभसुख न कुमारी रे । अनुभव विण तेम व्यानतणु सुख, कोण जाणे नरनारी रे ?
[आठ योगदृष्टिकी तज्झाय ७-१ यशोविजयजी] ३१६-९; ३४५-११ नाही तो तनमें वी, पण चौबीस प्रधान । वामें नव पुनि ताहुमें, तीन अधिक कर जान ॥ [स्वरोदयज्ञान-चिदानन्दजी] १६३-१७ निजलंदन, ना मिले, हेरो वैकुंठ धाम । संतकृपाले पाइये, मो हरि सबसे ठाम ।।
मिाणेकदास
७१७-२६ (ठिग सेट्टा लवनत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा)। निव्याणसेट्टा नह मन्वनम्मा (ण णायपुत्ता परमत्यो नाणा) | मूत्रकृतांग १.६-२४] ३६-२० निमदिन नेनमें नीद न आये, नर तयहि नारायन पावे।
[सुन्दरदास] ४९५-२८ पडितमामि, निंदामि, गरिहानि, अप्पाणं बोसिरामि ।
[प्रतिक्रमण
७२८-३७ पनी पार कहा जावनी, मिटे न मन को चार । कोयन पर हो रोग हमार ॥
निमाविकातक ७१ यशोविजयजी] ५७८-२३ पनामा नविकी, निज-निदा गुणी नमता परे । का परिहार, रोग का आगमन द्वार ॥ स्वरोदयज्ञान-निदानंदजी
१६४-५
Page #996
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अवतरण
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यं परिग्रहः ॥
परिशिष्ट १
(क्यु' जाणु क्युं बनी आवशे, अभिनंदन रस रीति हो मित्त ।) पुद्गल अनुभव त्यागथी करवी जसु परतीत हो । पुद्गलसें रातो रहे
वाण विमुक्कं वंदिअ सिरिवद्धमाणजिणचंदं । ( गईआई वुच्छं समासओ बंधसामित्तं ||) भीनरयगईए तिरियगईए कुदेवमनुयाईए | पत्तोस तिव्वदुःखं भार्वाहि जिणभावणा जीव | भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयं । शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ||
स्थल
[लोकतत्त्वनिर्णय ३८ हरिभद्रसूरि ]
[ अभिनंदन जिन स्तुति - देवचंद्रजी ] [?]
प्रशमरस निमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमलमंकः कामिनी संग शून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबंधवंध्यं तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥
तेम
मन महिलानुं रे वहाला उपरे, बीजां काम करंत । श्रुत रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवंत ॥ [आठ योगदृष्टिकी सज्झाय ६ / ६ - यशोविजयजी ] मा मुज्झहमा रज्जह मा दुस्सह इट्ठणिअत्थेसु । थिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥ पणतीस सोल छप्पण चटु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेण ॥
मारुं गायुगाशे, ते झाझा गोदा खाशे । समजीने गाशे ते वहेलो वैकुंठ जाशे ||
[ धनपाल कवि ]
[कर्मग्रंथ तीसरा १ देवेन्द्रसूरि
[ षट् प्राभृतादि संग्रह भावप्राभृत ८ ]
[वैराग्यशतक - ३४ भर्तृहरि ]
८५९
पृष्ठ - पंक्ति
[द्रव्यसंग्रह ४९-५०]
[नरसिंह मेहता ]
मारे काम क्रोध सब, लोभ मोह पीसि डारे, इन्द्रिहु कतल करी, कियो रजपूतो है, मार्यो महा मत्त मन, मारे अहंकार मीर, मारे मद मछर हु, ऐसो रन ब्तो है । मारी आशा तृष्णा पुन, पापिनी, सापिनी दोउ, सबको संहार करि, निज पद पहूतो है, सुंदर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वैरि सब मारिके निचित होई तो है ॥
१९१-१५
५१५-२१
६५९-१६
६८३-२; ७८४-१९ ७८४-१९
८४०-१४
६५६-३५
६४-२१
३४५-१४, ३०, ३४६ १२, १८, ३४७-३४; ३४९-७
६४०-३२
६७९-२६
[सुन्दरविलास शूरातन अंग २१-११ सुन्दरदासजी । ५००-३; ५०१-२५
मेरा मेरा मत करे, तेरा नहिं है कोय । चिदानंद परिवार का मेला है दिन दोय || मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां ।
[स्वरोदयज्ञान- चिदानन्दजी ]
१६४-२३
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ [ तत्त्वार्थसूत्र टीका ] ६३७-३०, ६८४-२३; ६९१-२९ ७८८-३७
Page #997
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमद् राजचन्द्र
अवतरण
स्थल
..: पृष्ठ-पंक्ति योग असंख जे जिन कह्या, घटमांही रिद्धि दाखी रे । नवपद तेम ज जाणजो, आतमराम छ साखी रे ॥
श्रीपालरास चतुर्थखंड विनयविजय-यशोविजयजी ... ... .३४०-१३; ४९७-४ योगनां वीज इहां ग्रहे, जिनवर शुद्ध प्रणामो रे । भावाचारज सेवना, भव उद्वेग सुठामो रे ।। [आठ योगदृष्टिकी सज्झाय १-८ यशोविजयजी] ३१५-२३ रविकै उद्योत अस्त होत दिन दिन प्रति, अंजुलीकै जीवन ज्यौं जीवन घटतु है; । कालकै ग्रसत छिन-छिन, होत छीन तन, आरेकै चलत मानो काठसौ कटतु है। एते परि मूरख न खोज परमारथको, स्वारथकै हेतु भ्रम भारत ठगतु है; लगौ फिरै लोगनिसौं, पग्यौ परै जोगनिसौं, विषैरस भोगनिसौं, नेकु न हटतु है ।।
[समयसार-नाटक, बंधद्वार २६] . ३६४-२७ रूपातीत व्यतीतमल, पूर्णानंदी ईश, चिदानंद ताकुं नमत, विनय सहित निज शीस। [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी]
१६२-१६ रांडी रुए, मांडी रुए, पण सात भरतारवाली तो मोढुज न उघाडे । [लोकोक्ति] ..
४७५-३२ लेवेकों न रही ठोर, त्यागिवेको नाहि और । बाकी कहा उबर्योजु, कारज नवीनो है ।। [समयसार नाटक सर्वविशुद्धिद्वार] ३२३-६ [पुरिमा उज्जुजडा उ] वंक (वक्क) जडा य पच्छिमा । [मज्झिमा उजुषन्नाओ तेण धम्मो दुहाकओ] ___ [उत्तराध्ययनसूत्र-२३-२६] ९९-१९ व्यवहारनी शाळ पांदडे पांदडे परजळी ।
[ ? ] .
४७१-२० [जोई द्रिग ग्यान चरनातममें बैठी ठौर, भयौ निरदौर पर वस्तुकौं न परसै,] शुद्धता विचारे घ्यावै शुद्धतामें केली करे, शुद्धतामें थिर व्हे अमृतधारा बरस, .. [त्यागि तन कष्ट है सपष्ट अष्ट करमको, करि थान भ्रष्ट नष्ट करै और करसै, : . . . . सोतौ विकलय विजई अलपकाल मांहि, त्यागी भौ विधान निरवान पद परसै]
[समयसार नाटक. पृ० ३८२] ३२२-२६; ३९४-१९ श्रद्धा ज्ञान लह्यां छे तो पण, जो नवि जाय पुमायो रे, वंध्य तर उपम ते पामे, संयम ठाण जो नायो रे । गायो रे गायो, भले वीर जगतगुरु गायो॥
.. [संयमश्रेणी स्तवन ४-३ पं० उत्तमविजयजी] ४९६-२३ सकल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे, मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निष्कामी रे,
.., [आनंदघनचोवीशी, श्रेयांसनाथजिन स्तवन] ५७७-१७; ६१८-३१ सत्यं परं धीमहि
. [श्रीमद् भागवत स्कंघ १२, अ० १३, श्लो० १९] ३१३-८ समता, रमता, ऊरघता, ज्ञायकता सुखभास, वेदकता चैतन्यता, ए सब जीवविलास । . . [समयसार नाटक उत्थानिका २६] .. .३७३-३; ३७४-२३ [कुसगो जह ओसविंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं] समयं गोयम मा:पमायए ॥ .. .... [उत्तराध्ययनसूत्र १०-२] . . ९७-५
Page #998
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवतरण
संसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे । काव्यामृतरसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ॥
सिरिवीर जिणं वंदिअ कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कीरई जिएण हेउहि जेणं तो भण्णए कम्मं
"
परिशिष्ट १.
Sa
27 सुखना सिंधु श्री सहजानंदजी, जगजीवन के जगवंदजी, - शरणागतना सदा सुखकंदजी, परम स्नेही छो (!) परमानंदजी
"
[हांसीमैं विषाद बसै विद्यामैं विवाद बसै, कायामैं मरन गुरु वर्तनमै हीनता, - सुचि मैं गिलानी बसैं प्रापतिमैं हानि बसे, जैमैं हारि सुंदर दसा मैं छवि छीनता, रोग बसे भोग मैं, संजोगमै वियोग बसै, गुनगँ गरब बस सेवामांहि दीनता, और जगरीति जेतीं गर्भित असाता सेती, ] सुखकी सहेली है अकेली. उदासीनता
छ
तास निकट हो क्यों रहे, मिथ्यातम दुःख जान 1
[पंचतंत्र ]
[प्रथम कर्मग्रन्थ-देवेन्द्रसूरि ]
स्थल
"J"
[ समयसार नाटक ]
'सुहजोगं पडुच्चं अणारंभी, असुहजोगं पडुच्चं आय़ारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी
11.621
[भगवतीजी ] -
-सो धम्मो जथ्य दया दट्ठ दोसा न जस्स सो देवो । सोहु-गुरुजा नाणी आरंभपरिग्गहा थिरओ | संबुझ्झहा जंतवो माणुसत्तं दट्टं भयं बालिसेणं, अलंभो । एतदुक्खे जरिए लोए, सक्कम्मणा विप्परियासुवेई ॥ निप 'चरका उदय पिछानिये, अति थिरता चित्तधार, तथी शुभाशुभ कीजिये, भावि वस्तु विचार ॥ 'हम परदेशी पंखी साधु, आ रे देशके नाहीं रे । हिंसे रहिए धम्मे अट्ठारस दोस विवज्जिए देवें । निग्ग्ये पवयणं सदृहणं होइ सम्मत्तं ॥ [नलिरीदलगतजलवत्तरलं तद्वज्जीवनमतिशयचपलं । ] क्षणम सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ क्षायोपशमक असंख्य क्षायक एक अनन्य
"ज्ञान रवि वैराग्य जस, हिरदे चंद समान .
[
?
]
[ सूत्रकृतांग १-७-११]
. [ धीरजाख्यान १ - निष्कुलानंद ] २९२-२४
pato.
[स्वरोदयज्ञान- चिदानंदजी ] 7 [ ? 1
[षट् प्राभृतादि संग्रह मोक्षप्राभृत- ९०]
[मोहमुद्गर-शंकराचार्य]'
[ अध्यात्मगीता १- ६ देवचन्द्रजी ]
[स्वरोदयज्ञान- चिदानंदजी ]
८६१
पृष्ठ - पंक्ति
३१-१४
3
८४०-१५
1.
...
अमर
१९७-६
२१९,२२
२०. ८३२-३६ *: W...
४००-१७
- १६३-९
३०९-३
-५८९-२९
२२७-२
६६१-३५
१६४-३१
Page #999
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________________
दोहा अथवा देह ज आतमा अथवा निज परिणाम जे अथवा निश्चय नय ग्रहे अथवा मत-दर्शन घणा अथवा वस्तु क्षणिक छे अथवा सद्गुरुए कह्या अथवा ज्ञान क्षणिकनु असद्गुरु ए विनयनो अहो | अहो | श्री सद्गुरु आगळ ज्ञानी थई गया आत्मज्ञान त्या मुनिपण आत्मज्ञान समदर्शिता आत्मभ्राति सम रोग नहि आत्मा छे ते नित्य छे आत्मादि अस्तित्वना आत्म द्रव्ये नित्य छे आत्माना अस्तित्वना आत्मानी शका करे आत्मा सत् चैतन्यमय आत्मा सदा असग ने आ देहादि आजथी आवे ज्या एवी दशा ईश्वर सिद्ध थया विना ऊपजे ते सुविचारणा उपादाननु नाम लई एक राक ने एक नृप । एक होय पण काळमा ए ज धर्मयी मोक्ष छे ए पण जीव मतार्यमा एम विचारी अतरे एवो मार्ग विनयतणो फई जातिमा मोक्ष छे मर्ता देवर कोई नहि रा जीव न कमनो पता भोक्ता कर्मनी
परिशिष्ट २ आत्मसिद्धिशास्त्रके दोहोंकी वर्णानुक्रमणिका
क्रमाक पृष्ठ | वोहा
४६-५४६ । कर्ता भोक्ता जीव हो १२२-५६३ कर्मभाव अज्ञान छे २९-५४४ कर्म अनत प्रकारना ९३-५५९ कर्मवध क्रोधादिथी ६१-५४८ कर्म मोहनीय भेद वे १४-५४२ कपायनी उपशातता ६९-५५१ कषायनी उपशातता २१-५४३ केवळ निज स्वभावनु १२४-५६३ केवळ होत असग जो १३४-५६५ कोई क्रिया जड थई रह्या 1 - ३४-५४५ कोई सयोगोथी नही
१०-५४० कोटि वर्षनु स्वप्न पण १२९-५६४ क्यारे कोई वस्तुनो ४३-५४६ क्रोधादि तरतम्यता १३-५४२ गच्छ-मतनी जे कल्पना ६८-५५१ घटपट आदि जाण तु ५९-५४८ चेतन जो निजभानमा ५८-५४८ छूटे देहाघ्यास तो १०१-५६० छे इन्द्रिय प्रत्येकने
७२-५५२ छोडी मत दर्शन तणो १२६-५६३ जड चेतननो भिन्न छे ४०-५४६ जडथी चेतन ऊपजे ८१-५५६ जाति वेपनो भेद नहि . . ४२-५४६ । जीव कर्म कर्ता कहो .. १३६-५६५ । जे जिनदेह प्रमाण ने , ८४-५५७ जे जे कारण बघना
जे द्रष्टा छे दृष्टिनो ११६-५६२ जेना अनुभव वश्य ए ३१-५४४ जेम शुभाशुभ कर्मपद ३७-५४५ जे सद्गुरु उपदेशथी २०-५४३ जे सयोगो देखिये ९४-५५९ जे स्वरूप समज्या विना ७७-५५३ जो चेतन करतु नयी ७१-५५२ | जो इच्छो परमार्थ तो १२१-५६३ । ज्ञान दशा पामे नहीं
क्रमांक पृष्ठ
८७-५५८ ९८-५६० १०२-५६० १०४-५६० १०३-५६०
३८-५४५ १०८-५६१ ११३-५६२ ७६-५५३ ' ३-५३४
६६-५५० ११४-५६२ ७०-५५१ ६७-५५० १३३-५६४ ५५-५४८ ७८-५५५
११५-५६१ । ५२-५७
-१०५-५.१ .: ५७-४८
६५-१५० . १०७-५६१ , ७-५५५
५-५४३ १९-५६० ५१-५४७ ६३-५४९ ८९-५५८ १९-५४३ ६४-५५०
१-५३४ ७५-५५३ १३०-५६४ ३०-५४४
Page #1000
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोहा
ज्या ज्या जे जे योग्य छे
ज्या प्रगटे सुविचारणा
झेर सुधा समजे नही
ते जिज्ञासु जीवने
ते ते भोग्य विशेषना
तेथी एम जणाय छे
त्याग विराग न चित्तमा
दया शाति समता क्षमा
दर्शन षटे समाय छे
दशा न एवी ज्या सुधी
देवादि गति - भगमा
देह छता जेनी दशा देह न जाणे तेहने देह मात्र सयोग छे
'देहादिक सयोगनो
नयी दृष्टिमा आवतो
नय निश्चय एकातथी
नहि कषाय उपशातता
निश्चय वाणी साभळी
निश्चय सर्वे ज्ञानीनो
परम बुद्धि कृष देहमा
पाचे उत्तरथी थयु
पाचे उत्तरनी थई
प्रत्यक्ष सद्गुरुप्राप्तिनो
प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगयी
प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगमा 'प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नही
. फळदाता ईश्वर गण्ये
•. फळदाता ईश्वरतणो
बाह्य क्रियामा राचता बाह्य त्याग पण ज्ञान नहि
वीजी शका थाय त्या
वध मोक्ष छे कल्पना
भावकर्म निज कल्पना
भास्यो देहाध्यासथी भोस्यो देहाध्यायी
, परिशिष्ट २
·
क्रमांक पृष्ठ
८-५३६
४१-५४६
८३-५५७
१०९-५६१
८६-५५७
९५-५५९
७-५३५,
१३८-५६५
१२८-५६४
३९-५४५
२७-५४४
१४२-५६६
५३-५४७
६२-५४९
९१-५५८
४५-५४६
१३२-५६४
३२-५४४
१३१-५६४
११८-५६२
1
वोहा
भास्यु निजस्वरूप ते
मतदर्शन आग्रह तजी
+
छे नहि आमा
माटे मोक्ष उपायनो
मानादिक शत्रु महा
मुखी ज्ञान कथे अने
मोहभाव क्षय होय ज्या
मोक्षको निज शुद्धता
राग द्वेष अज्ञान ए
रोके जीव स्वच्छद तो
लह्य स्वरूप न वृत्तिनु
लक्षण कह्या मतार्थीना
वर्तमान आ काळमा
वर्ते निज स्वभावनो
वर्धमान समकित थई
वळी जो आत्मा होय तो
वीत्यो काळ अनत ते
वैराग्यादि सफळ तो
शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन शुभ करे फळ भोगवे
शुप्रभुचरण कने व
पट्पदना पट् प्रश्न तें
पट् स्थानक समजावीने
षट् स्थानक सक्षेपमा
सकळ जगत ते एठवत्
सद्गुरुना उपदेश वण
सर्व अवस्थाने दि
सद्गुरुना उपदेशथी
सर्व जीव छे सिद्ध सम
सेवे
चरणने
५६-५४८
९६-५५९
९७-५५९
३५-५४५
१६-५४२
२६-५४३
११-५४१
८०-५५५
८५-५५७
४-५३४
सद्गुरु
२४-५४३
स्थानक पाच विचारीने
६०-५४८.
स्वच्छद मत आग्रह तजी
५-५३५
होय कदापि मोक्षपद
८२-५५६
होय न चेतन प्रेरणा
४९-५४७
होय मतार्थी तेहने
५०-५४७ हो मुमुक्षु जीव
35
८६३
क्रमांक पृष्ठ
१२०-५६३
११०-५६१
४८-५४७
७३-५५२
१८-५४२
१३७-५६५
१३९-५६५
१२३-५६३
१००-५६०
१५-५४२
२८-५४४
३३-५४५
२-५३४
१११-५६२
११२-५६२
४७-५४६
९०-५५८
६-५३५
११७-५६२
८८-५५८
१२५-५६३
१०६-५६१
१२७-५६४
४४-५४६
१४०-५६६
१२-५४१
५४-५४७
११९-५६३
१३५-५६५
९-५३६
१४१-५६६
२७-५४२
९२-५५९
७४-५५२
२३-५८३
२२-५४३
Page #1001
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३ पत्रोके सम्बन्धमें विशेष जानकारी
किस स्थानसे
भाज
फिनके प्रति
कहाँ
मिती
मोरवो ववई
'
जेतपुर
का० सु० १५,
१९४१
१९४२
रवजीभाई देवराज
ववाणिया
बबई
---
कातिक
१९४३
चरगुज येचर
ववाणिया बबई
१९४३ १९४३ १९४३
सोम
१९४४
जेवपुर
ववाणिया
का० सु० ५,
पो० व० १०, प्र० चै० सु० ११॥ रवि
आ० ० ३, बुध आ० व०४, शुक्र या०व०१३ सोम
Page #1002
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओक
३५
३६ ३७
३८
३९
४०
४१
४२
४३
४४
४५
४६
४७
४८
४९
५०
५१
५२
५३
५४
५५
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14
1
1
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५६
५७
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५९
६०.
६१
६२
६३
६४.
६५.
६६
६७
६८
६९
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किनके प्रति
ठाभाई जमी
जूठाभाई ऊजमसी
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1
21
27
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( खीमजी देवजी )
जूठाभाई जमसी
(खीमजी देवजी )
भाई
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7
जूठाभाई ऊजमसी
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किस स्थानसे
ववाणिया बंबई
खीमजी देवजी (दयालजी) जूठाभाई ऊजमसी
मनसुखराम सूर्यराम जूठाभाई ऊजमसी
मनसुखराम सूर्यराम
खीमजी देवचद
मनसुखराम सूर्यराम
ठाभाई ऊजमसी
मनसुखराम सूर्यराम खीमजी देवजी (दयालजी)
"
बबई
भरुच
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बबई
1791901
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11
17
ववाणिया
वाणिया
11
"
11
11
31
11
در
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मोरबी
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""
"
"
ववाणिया
ववाणिया
17
परिशिष्ट ३
ت دا
"
मोरवी
अहमदाबाद
वढवाणकॅम्प
वजाणा
ववाणिया
भरुच
"
कहाँ'
कलोल
अहमदाबाद
अहमदावाद
11
13
"
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"
21
बबई
अहमदावाद
"
बबई
अहमदावाद
7
अहमदाबाद.
बबई
ववई
बबई
अहमदाबाद
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मिती
श्रा० ० ३०,
भा० १० १ शनि
आसोज ० २ रविं
10
20
भग० सु० ३, गुरु
मग० सु० १२,
मग० व०
भौम
मग० व० १२ शनि
मग० व० ३०
मग ०
माघ सु० १४ बुध
मा०
माघ व० ७, शुक्र
माघ व० ७, शुक्र
माघ १०.७, शुक्र
माघ ० १०,
सोम
फा० सु० ६, गुरु
फा० सु० ९,
फा०सु० ९, रवि च०सु० ११, बुध चं० व० ९, चैत्र व०-१०,
० सु० १,
वैशाख
वै० सु० ६, सोम वै० सु० १२,
वै० ० १३,
ज्ये०सु० ४, रवि ज्ये०सु० १०,
सोम
ज्ये० व० १२, मंगल
आ० सु० ८, शनि
आ० सु० १५, शुक्र
आ० ० १२, बुध श्रा०सु० १, रवि
८६५
१९४४
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21
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19
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:::
"
Page #1003
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६६
श्रीमद् राजचन्द्र
आप्त
किस स्थानसे
कहाँ
भत्च
फिनके प्रति मननुगराम सूर्यराम बीनजी देवजी जठामा ऊजमसी (जूठाभाई ऊजमसी) जूठाभाई ऊजममी
१९४५ ,
ववई ववाणिया बबई ववई
ववई अहमदावाद (अहमदावाद) अहमदावाद
मिती श्रा० सु. ३, वुध
श्रा० सु० १०, श्रा० व० ७, शनि ।
भा० सु० २, भा० व० ४, शुक्र आसोज व० १०, शनि
६
NG GGC
Page #1004
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८६७.
आंक
कहाँ
१०५ १०६
किनके प्रति किस स्थानसे
। बबई । चीमनलाल महासुख (जूठाभाई)
अहमदावाद । अहमदावाद
मिती फा० सु० ६, - फा० सु० ८,
१९४६; , ,
१०७ १०८
फा०व०१,
फागुन
।
११० १११ ११२ ११३ ११४
जूठाभाई ऊजमसीभाई मोरवी अबालाल, त्रिभोवन आदि वबई
अहमदाबाद खभात
११५
फागुन
चैत्र वै० व० १२, आ० सु० ४, आ० सु० ५,
वै० सु० ३, - मा० सु० १०, . आ० सु०१५
आ० व० ७, आ० व० ३०,
आषाढ
,
११७ ११८
खभात
अवालाल लालचद ' त्रिभोवनदास माणेकचद मनसुखराम सूर्यराम अबालाल लालचद
खभात
१२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५, १२६ १२७ १२८
खीमजी देवजी
ववाणिया
१२९
१३०
मनसुखराम सूर्यराम ववाणिया खीमजी देवजी अबालाल लालचद चत्रभुज वेचर खीमजी देवजो अबालाल लालचद जेतपर सोभाग्यभाई लल्लुभाई ववाणिया , सोभाग्यभाई लल्लुभाई ववाणिया विभोवन, अवालाल
बबई खभात जेतपर बबई खभात मोरवी मोरवी
१३१
श्रा० ३०५, श्रा० ५० १३, प्र० भा० सु० ३, प्र० भा० सु०४, प्र० भा० सु० ६, प्र० भा० सु० ७, प्र० भा० सु० ११, प्र० भा० ५० ५, प्र० भा० २० १३, द्वि० भा० सु० २, द्वि० भा० सु० ८, द्वि० भा० द्वि० भा० द्वि० भा० व० ४, द्वि० भा० व. द्वि० भा० ० ७.
१३२ १३३
खभात
१३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९
खीमजी देवजी विभोवन माणेकचद अबालाल लालचद
" ववई सभात
मोरवी
Page #1005
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६८
श्रीमद् राजचन्द्र
आर
कहाँ
स्सि स्यानते मोरवी ववाणिया
वमात
१९४६
अजार
१४१ १४२
फिनके प्रति विभोवन माणेचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई मिभोयन माणेकचद सीमजी देवजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई तीमजी देवजी अवालाल लालचद सीमजी देवजी अवालाल लालचद
खभात ववई अंजार बबई
१७४
१४६
खभात बवई खभात
मिती द्वि० भा० व० ८, द्वि० भा० व० १२, द्वि० भा० व० १३, द्वि० भा० व० १३, द्वि० भा० व० ३०, आसो० सु० २, आसो० आसो० आसो० आसो० सु० १०, आसोज, आसोज, आसो० सु० ११, आसो० सु० १२, आसोज,
१४८
१४९
१५०
१५१
मोरवी
सोभाग्यभाई लल्लुभाई विभोवन माणकचद
खभात
१५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८
ववाणिया ववाणिया मोरवी बवई
ववई
१५९
१६२ १६३ १६४
१६५
१९४७
मोरवी खभात
१६८ १६९ १७०
मोरवी खमात
सोभाग्यभाई लल्लुमाई बवई (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ) , मिनोवन तथा अवालाल मोनाग्यमाई लल्लुनाई जवालाल लालचद सोनाग्यनाई उल्लुभाई मागल लालचर निश्री जो बिनोवन आदि
दामाद लाद नवाराला
का० सु० ५, का० सु० ६, का० सु० फा० मु० १३, फा० सु. १३, का० मु०१४, का रु० १४, का० सु० २४, का० ५० ३, का० ३०५, फा००८,
चभान
१७३
Page #1006
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६९
आंक
परिशिष्ट ३ फिस स्थानसे
कहाँ बबई
मोरवी खंभात
मिती
१९४७
किनके प्रति सोभाग्यभाई लल्लुभाई त्रिभोवन माणेकचद अबालाल लालचंद
१७६ १७७ । १७८
१७९
१८० १८१
सोभाग्यभाई लल्लुभाई छोटालाल माणेकचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
का० व० ९, का० व०१४, का० व० ३०, कार्तिक मगसिर सु० ४, मगसिर सु० ९, मग सु० १३, मग० सु० १४, मग० सु० १५, मग० व० ७,
वई
खभात मोरवी
१८२ १८३ । १८४ १८५
खभात मोरबी
१८६
खभात
१८७ १८८
मग० व० ३०,
अबालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई अबालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई अबालाल लालचंद सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई अबालाल लालचंद
पोष सु० २, पोष सु० ५
१८९ १९० १९१
खभात मोरवी खभात सायला खभात
पौष सु. ९, पोष सु० १०,
पोष
मुनिश्री लल्लुजी
पौष, पौष,
१९२ १९३ १९४ १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ २००
माघ सुम
खभात
मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी (अबालाल लालचद) मणिलाल सोभाग्यभाई सोभाग्यभाई लल्लुभाई चत्रभुज वेचर अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
माघ सु० ९, माघ सु० ११, माघ सु० ११, माघ सु० माघ व० ३, माघ व. ३,
सायला
२०१
२०२
२०३
माघ व०
मोरवी
माघ व०
२०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९
मुनिधी लल्लुजी
माघ ० १३, माघ व० ३०, माघ ० ३०,
मोरवी
२१०
ववई
माघ ० ३०
मुनिश्री लल्लुजी (अबालाल लालचद)
२१
सभात
माप क.
Page #1007
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७०
आंक
किनके प्रति
श्रीमद राजचन्द्र किस स्थानसे कहाँ बवई
खभात
मिती
१९४७
विभोवन माणेकचद (सोभाग्यभाई लल्लुभाई) सोभाग्यभाई लल्लुलाई
मोरवी
माघ व० फा० सु० ४, फा० सु० ५, फा० सु० ८,
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी
२१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७
मोरवी
माघ सुदी, फा० सु० १३, फा० व० १, फा० ० ३, फा० व० ८, फा० व० ११, फा० व० ..१४, फा० व० - २, फा० ० फागुन, । फागुन, फागुन, फागुन, चैत्र सु. ४, चैत्र सु० ७,
खभात
अवालाल लालचद छोटालाल माणेकचद
२२८
२२९
२३०
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरखी
२३१
ه م م
२३२ २३३ २३४
विभोवन माणेकचद सोभाग्यमाई लल्लुभाई
खंभात मोरवी
चैत्र सु० १०,
वन
२३५
खभात
चैत्र
अवालाल लालचद विभोवन माणेकचद
२३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६
ه ه ه م م س م مي ه
मोभाग्यमाई लल्लुभाई अवालाल लालचंद सोभाग्यमाई लल्लुभाई (अवालाल लालचंद)
चैत्र २० चैत्र ३० चैत्र ३० चैत्र ० चैत्र व०
मोरवी खभात मोरवी
चैत्र,
वै० सु०
सोभाग्यभाई लल्लुभाई अबालाल लालचद सोभाग्यमाई लल्लभाई
मोरवी खभात मोरवी
वै० सु० वै० सु० १३, वै०० ३, वै०व०
ي م ش س م
२४७
Page #1008
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८७१
आटु
किनके प्रति
कहाँ
किस स्थानसे बबई
अंबालाल लालचद
२४८ २४९
खभात
सोभाग्यभाई लल्लभाई
-
मोरबी
मिती वै० व० , ८, जे० सु० . ७, जे० सु० १५, 'जे० व० ६, जे० सु०, आ० सु० '१, आ० सु० ८, आ० सु० १३, आ० व० २,
॥
२५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७
खभात
अबालाल लालचद (खभातके मुमुक्षुओपर) सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरबी
आ०व०
"
૨૧૮
२५९ २६०
आषाढ, श्रा० सु० ११, श्रा० सु० ९,
मोरबी
श्रा० सु० ."
अबालाल लालचद ऊगरीबहेन खीमजी देवजी
खभात कलोल बबई
राळज
२६१ २६२ । २६३ २६४ २६५ २६६ ,
vism
२६७ .
राळज
२६८ २६९
सोभाग्यभाई लल्लुभाई ___ ववाणिया
मोरवी
२७०
२७१ २७२
अबालाल लालचद कुवरजी मगनलाल खीमजी देवजी
ववाणिया
खभात कलोल बबई
श्रा० सु० भा० सु०८, भा० सु० ८, भा० सु० भा० सु० भाद्रपद, भाद्रपद, भा०व० भा०व० भा० व० भा०व० भा०व० भा० ० भा०व० भा०व० भा०व० ७, भा०व०१०, भा०व०११, भा०व०१२, भा० ५० १३, भा० २० १४, भा० २०३०
» »
२७३ २७४ २७५
२७६ ।
(सोभाग्यभाई लल्लुभाई) अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
खभात मोरवी
२७७
२७८
लीवडी
२७९ २८० २८१ २८२ २८३
मगनलाल खीमचद सोभाग्यभाई लल्लभाई खीमजी देवजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई
ववर्ड
Page #1009
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७२
श्रीमद राजचन्द्र
आक
किनके प्रति
किस स्थानसे ववाणिया
कहाँ
(अवालाल लालचद ?) सोभाग्यभाई लल्लु भाई
२८४ २८५ २८६ २८७ २८८ २८९
मोरबी अजार
मिती आसो० सु० ६, १९४७ आसो० सु० ७, ,
आसो० सु०, आसो० व० १, , आसो० व० ५, मासो० व० १०,
"
अबालाल लालचद
खभात
२९१ २९२ २९३ २९४ २९५
आसो० व० १२, आसो० व० १२, आसो० व० १३,
सोभाग्यमाई लल्लभाई
अजार
२९६
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
ववाणिया
अजार
का० सु० ४,
१९४८
अवालाल लालचद सोभाग्यमाई लल्लुभाई
ववाणिया
"
२९७ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ ३०९
खंभात अजार मोरबी खभात मोरबी
अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई त्रिभोवन माणेकचन्द अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरबी आणद बबई
खभात मोरवी
सायला
का० सु० ८, का० सु० ८, का० सु० १३, का० सु० १३, ___का० सु०, का० व० १, का०व० ७, मगसिर सु० २, मग सु० १४, मग० व० ३०, पौष सु० ३, पौष सु० ३, पौष सु० ५, पौष सु० ७, पौष सु० ११, पोप सु० ११ पोप व० ३ पोप व० ९, पौष व० (३, माघ सु० ५,
त्रिभोवन माणेकचद
खभात
३११ ३१२ ३१३ ३१४
अबालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
३१५
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी
३१६ ३१७ ३१८
॥
कलोल
कुवरजी मगनलाल सोभाग्यमाई लल्लुभाई
मोरवी
,
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८७३
आङ्क
किनके प्रति
किस स्थानसे
कहाँ
मिती
३२०
बबई
१९४८
३२१ ३२२
सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुमाई
खभात मोरवी
३२३
३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३०
किसनदास आदि
खभात
माघ सु० १३ माघ व. २, - रविवार, माघ व० २, माघ व०, ४, माघ व० ९, माघ १० ११, माघ १० १४, माघ व० ३०, माघ वदी,
माघ,
माघ, फा० सु० ४, फा० सु. ४, फा० सु० १०, फा० सु. १०, फा० सु० ११, फा० सु० ११॥ फा० सु० १३, फा० सु० १४, फा० सु. १५,
३३१
३३२ ३३३ ३३४ ३३५
अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
खभात मोरबी
३३६
कुवरजी मगनलाल
कलोल
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी
३३७ ३३८ ३३९ ३४० ३४१ ३४२ ३४३
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरबी
फा०व० फा० १० १०, फा०व०११, फा०व०१४, फा०व०३०,
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी
३४६ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३५२ ३५३ ३५१ ३५५
कुवरजी मगनलाल चत्रभुज वेचर अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लभाई
कलोल जेतपर खभात मोरवी
चैत्र सु० ४, चंय सु० ६, चैत्र मु० ९, चैत्र मु. ९, चत्र सु० १२, चैत्र सु. १३,
० १,
Page #1011
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७४
श्रीमद् राजचन्द्र
आइ
किनके प्रति
किस स्थानसे
कहाँ
३५६
१९४९
बबई ,
अंबालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
३५७
खभात मोरवी खभात मोरबी
मिती चैत्र व० १, चैत्र व० ५, चैत्र व० ५,
चैत्र व०
३५८ ३५९ ३६० ३६१
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी
चैत्र व० १२, वै० सु० ३, वै० सु० ४,
३६३ ३६४ ३६५
३६७ ३६८ ३६९ ३७० ३७१ ३७२ ३७३
कलोल मोरवी
वै० सु० ९, वै० सु० ११, वै० सु० १२, वै० व० १, वै० व० ६, वै० व० ,९, . वै० व० ११,
वै० व० १३, वै० व० १४, वै० व० १४,
वैशाख,
वैशाख, - वैशाख व०,
वैशाख, जेठ सु० १०,
कुवरजी मगनलाल सोभाग्यभाई लल्लुभाई घारसीभाई तथा नवलचदभाई ,, सोभाग्यभाई लल्लुभाई , मुनिश्री लल्लुजी , अवालाल लालचद
बबई सोभाग्यभाई लल् लुभाई
३७४
खभात
३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ ३८०
मोरवी .
जेठ व० ३०,
(मुनिश्री लल्लुजी )
जेठ,
३८१
३८२ ३८३
जेठ,
३८४
बवई (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ?) , सोभाग्यभाई लल्लुभाई
३८५ ३८६ ३८७ ३८८ ३८९ ३९० ३९१
आ० सु. ९,
आषाढ, आ० व० ३०,
श्रा० सु० श्रा० सु० ४, श्रा० सु० १०, था. सु० १०, श्रा० सु० १०,
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सोभाग्यभाई लल्लुभाई जबालाल लालचद
खभात
Page #1012
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८७५
आक
किनके प्रति
किस स्थानसे
कहाँ .
मिती
१९४८
३९२ ३९३ ३९४ ३९५
वबई (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ?) , सोभाग्यभाई लल्लुभाई ,
खभात
३९७ ३९८
सायला
खभात
त्रिभोवन माणेकचद आदि सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई मणिलाल रायचद गाधी सोभाग्यभाई लल्लभाई
बोटाद सायला
४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ ४०५
खभात लीबडी
कृष्णदास आदि मनसुख देवसी सोभाग्यभाई लल्लुभाई मणिलाल रायचद गाघी
श्रा० सु० १०, श्रा० सु० १०, श्रा० व० १०,
श्रा० ०
श्रा०व० श्रा०व० ११, श्रा० व० १४,
श्रावण श्रा०व० भा० सु० १,
भा० सु० ७, ., भा० सु० १०, भा० सु० १०, भा० सु० १०, भा० सु० १२, भा० व० ३, भा० ० ८, आसोज सु० ११, आसो० सु. ७, आसो० सु० १०, आसो० व० ६, आसो००८,
आसोज, आसोज, आसोज, यासोज,
सायला भावनगर
४०७ ४०८ ४०९
४१०
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरबी
४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४१९ ४२० ४२१
४२२
१९४९
४२३
कलोल
कुवरजी मगनलाल कृष्णदास सोभाग्यभाई लल्लुभाई
खभात
आसोज, का० सु० का० २०९, का०व० १२,
मग० २०९, मग० ५० १३, माघ ९० ९,
४२५ ४२६ ४२७
अबालाल लालचद
खंभात
Page #1013
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७६
श्रीमद राजचन्द्र
आङ्क
किनके प्रति
किस स्थानसे
कहाँ
मिती
४२८
अबालाल लालचन्द
ववई
खभात
१९४९
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
खभात
अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
४२९ ४३० ४३१ ४३२ ४३३ ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९
माघ ०४, माग व० ११, माघ व० ३०, फा० सु० ७, फा० सु० ७, फा० सु० १४,
फा० ० ९, फा० व० ३०,
चै० सु० १,
मोरबी
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरबी सायला वीरमगाम लीबडी मोरवी
dha
_____woodoor
सुखलाल छगनलाल मनसुख देवसी सोभाग्यभाई लल्लुभाई
४४१ ४४२
४४५ ४४६ ४४७ ४४८
अवालाल लालचंद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
खभात मोरवी
खभात
४५०
सोभाग्यभाई लल्लुभाई कृष्णदास (आठ पत्रोका पत्र) सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचन्द सोभाग्यभाई लल्लुभाई
४५१ ४५२ ४५३
खभात मोरवी
चै० सु० ९, चै० सु० ९, चैत्र १०१, चैत्र व०८, चै०व० ३०, चै० व० ३०, वै० व०६, वै० व०८, वै० व० ९, जेठ सु० ११,
जेठ सु० १५, प्र० आ० सु० ९, प्र० आ० सु० १२,
प्र० आ० व० ३, प्र० आ० व०४, प्र० आ० व० १३, प्र० आ० व० १४,
द्वि० आ० सु० ६, द्वि० आ० सु० १२,
द्वि० आ० व० ६, द्वि० आ० व० १०,
श्रा० सु० ४, श्रा० सु० ५, श्रा० सु. १५
खभात
४५४ ४५५ ४५६
अबालाल आदि मुमुक्ष अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरबी
४५७
४५८
खभात
४५९
४६०
त्रिभोवन माणेकचद सोभाग्यभाई लल्लभाई कुवरजीभाई तथा ऊगरीवहेन , सोभाग्यभाई लल्लुभाई
कलोल
सायला
४६१ ४६२ ४६३
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला
Page #1014
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
भात
कहाँ
किनके प्रति किस स्यानसे सोभाग्यभाई लल्लुभाई ववई ,
सायला
१९४९
पेटलाद (त्रिभोवन माणेकचद) खभात
४६७ ४६८
बबई
खभात
४७० ४७१
सायला
त्रिभोवन माणेकचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई सोभाग्यभाई तथा डुगरसीभाई , सोभाग्यमाई लल्लुभाई
४७२ ४७३
४७४
सायला मोरवी
१९५०
४७५. ४७६. ৮৩৩ ४७८. ४७९ ४८०
खभात
अंबालाल लालचद अयालाल लालचंद
खभात
"
मिती श्रा० व० ४, श्रा० व० ५, भा० सु० ६,
भाद्रपद,
भाद्रपद, भा० ० ३०, आसोज सु० १, आसो० सु. ५, आसो० सु० ९, आसो० व० ३,
आसो० २०, आसो० १० १२,
. आसोज, का० सु० ९, का० सु० १३, मगसिर सु. ३, पौष सु० ५, पौष १० १, पौष व० १४, माघ १० ४, माघ व० ८, फा० सु० फा० सु० फा० सु० ११, फा० २० १०, फा० व० ११, फा० ५० ११,
फागुन, फागुन, फागुन,
चैत्र सु० चैत्र २० ११, चैत्र २० १४, चत्रक० १४, २० सु० १, ३० सु० २,
"
४८१ ४८२०
अजार
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
; ,
अबालाल लालचद
खभात
४८३ ४८४ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ ४८९ ४९० ४९१ ४९२
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला
४९३
सोभाग्यभाई लल्लुमाई मुनिश्री लल्लुजी (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ) , त्रिभोवन माणेकचद
४९४ ४९५ ४९६ ४९७ ४९८
भिभोवन मामेकवद
खभात
Page #1015
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७८
श्रीमद राजचन्द्र
कहां
मिती
आङ्क
किनके प्रति मुनिश्री लल्लुजी
किस स्थानसे
वबई
५००
सूरत
वै० सु० ९, वै० सु० ७, फा० सु० ६, वै० व० ३०,
वैशाख,
१९५०
, १९५३ १९५०
मुनिश्री लल्लुजी तथा देवकरणजी , अबालाल लालचद
खभात
वैशाख,
५०१ ५०२ ५०३ ५०४ ५०५ ५०६ ५०७ ५०८ ५०९ ५१० ५११ ५१२
खभात
जेठ सु० ११, जेठ सु० १४,
सूरत
आ० सु०
who
अवालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजो त्रिभोवन माणेकचद सोभाग्यमाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी मुनिश्री लल्लुजी
खभात
अजार
,
५१३
, ,
५१४ ५१५ ५१६ ५१७
खभात लीबडी खभात
आ० सु० आ० सु० ६, आ० सु० १५, श्रा० सु० ११, श्रा० सु० १४, श्रा० सु० १४,. श्रा०व० १, श्रा० व० ७, श्रा० व० ९, श्रा० व० ९, श्रा० व० ३०,
अवालाल लालचद केशवलाल नथु अबालाल लालचद मुनिश्री लल्लुजी (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ) सोभाग्यभाई लल्लुभाई
५१८
सूरत .
सायला
५२० ५२१ ५२२
।
श्रावण,
खभात,
५२३
अवालाल लालचद सोभाग्यभाई तथा डुगरसीभाई अवालाल लालचद आदि मुमुक्षु
सायला, खभात
५२४ ५२५ ५२६
मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यमाई लल्लुभाई
सूरत। सायला
५२७,
५२८. ५२९
भा० सु० ३, भा० सु० ४, भा० सु० ८, भा० सु०.१०, भा० व.
भा० व० १२, ', आसोज सु० ११,
आसो० व० ३, आसो० व० ६, आसो० ३० ३० आसो० व० ३०, का० सु० १, का० सु० ३, का० सु. ३,
५३०
सोभाग्यभाई लल्लुभाई मोहनलाल करमचद गांधी (महात्मा गाँधीजी) सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला डरबन अजार
।। .
५३१ ५३२ ५३३ ५३४ ५३५
१९५१
सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यमाई लल्लुभाई
अजार सूरत अजार
Page #1016
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३.
८७९
किस स्थानसे
बबई
___कहां
खभात
१९५१
आङ्क ५३६ ५३७ ५३८ ५३९ ५४०
"किनके प्रति अबालाल लालचद अवालाल आदि मुमुक्षु सोभाग्यभाई लल्लुभाई
"
- मिती का० सु० ४, - का० सु० ७, का० सु० ९, का० सु० १४, का० सु० १४,
अजार
॥
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
अजार
५४२
अजार
' का० सु० १५,
कार्तिक
५४३ ५४४
सोभाग्यमाई लल्लुभाई कुवरजी आणदजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई सोभाग्यमाई लल्लुभाई
'अजार
अजार
का० व० १३, मगसिर १०१, मग व०६, मग० व०८, मग० व० ९,
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला
५५१ ५५२ ५५३ ५५४ ५५५
मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सूरत अजार मोरवी
मग० व ११,
— मगसिर,
मगमिर, - पौष सु० १, ' पौष सु० १०, पौष० सु० १०,
पौष २० २, ___ पौष व० ९,
पौष व० १०, पौष व० ३०,
"
५५७
५५८
लीवडी वीरमगाम
(खीमजी देवजी ?) सुखलाल छगनलाल (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ?) कुवरजी आणदजी
५५९ ५६० ५६१ ५६२
पोष,
भावनगर
५६३
५६४ ५६५ ५६६ ५६७ ५६८
कुंवरजी आणदजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी सूरत सायला
माघ सु० २, माघ सु० ३, माघ सु० ८, माघ सु ०८, फा० सु० १२, फा० सु० १३, फा० सु० १५,
फागुन, फा०व० ३, फा० ५० ५,
५६९
५७०
उरवन
मोहनलाल करमचदगाधी (महात्मा गाधीजी)
Page #1017
--------------------------------------------------------------------------
________________
आव
मिती फा०व० ५, फा० व० ७, फा० २० ११,
फागुन,
८८०
श्रीमद राजचन्द्र फिनफे प्रति किस स्थानसे
कहाँ ५७१ सोभाग्यभाई लल्लुभाई ववई सायला ५७२ अवालाल लालचद
खभात ५७३ मुनिश्री लल्लुजी ५७४ ५७५ ५७६ सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला ५७७ मुनिश्री लल्लुजी
सूरत ५७८ ५७९ सोभाग्यभाई लल्लुभाई
मोरवी ५८० अवालाल लालचद
खभात ५८१ सोभाग्यभाई लल्लुभाई ५८२ कुवरजी आणदजी
भावनगर ५८३ ५८४ ५८५
सोभाग्यभाई तथा डुगरसीमाई ५८६ सोभाग्यभाई लल्लुभाई ५८७ ५८८
मुनिश्री लल्लुजी ५८९ ५९० ५९१ सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सायला ५९३ ५९४ ५९५' मुनिश्री लल्लुजी
सूरत
फागुन, चैत्र सु० ६, चै० सु० १३, चै० सु० १४, चै० सु० १५, चै०व० ५, चै० व०८, चै० व०८, चै० व० ११, चै० व० ११, चै० व० ११, चै० व० १२,
व० १२, चै० व० १२, चै० व०१३, चै० व१
-
५९७ ५९८ ५९९
सायला
सोभाग्यमाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यमाई लल्लुभाई
वै० सु०, वै० सु० १५, वै० सु० १५,
वै०व० ७,
वै० व० ७, । वै० व० ७,
वै० व० १०, वै. व. १४,
जेठ सु० २, जेठ सु० १०, जेठ सु० १०, जेठ सु० १०, जेठ तु० १२,
जेठ व० २, जेठ २० ५, जेठ ३० ७,
सायला
६०१
६०३ ६०४ ६०५ ६०६
अवालाल लालचन्द मुनिश्री लल्लुजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी
खभात सूरत सायला
६०७
खभात
Page #1018
--------------------------------------------------------------------------
________________
, ८८१
आत
किनके प्रति कुवरजी आणदजी
परिशिष्ट ३ किस स्थानसे , कहाँ
- भावनगर
१९५१
६०८ ६०९ ६१०
मगनलाल खीमचन्द
लीबडी
. मिती
जेठ,व० १०, ' जेठ, आ० सु० १, आ० सु० १, आ० सु० १, आ० सु० ११,
सायला
६१२ ६१३
सोभाग्यभाई लल्लुभाई (त्रिभोवनभाई ?)
सायला खभात
६१५ सोभाग्यभाई लल्लुभाई ६१६ , अवालाल तथा त्रिभोवनभाई । ६१७
, सोभाग्यभाई लल्लुभाई ६१८ . . "
सायला
सुरत
खभात
सायला
सुरत
1
सुरत
सायला
६२० मुनिश्री लल्लुजी ६२१ । अबालाल लालचद ६२२ (त्रिभोवनभाई आदि ?)
सोभाग्यभाई लल्लुभाई ६२४ मुनिश्री. लल्लुजी
, ६२५
- . ववाणिया ६२६ मुनिश्री लल्लुजी ६२७ सोभाग्यभाई लल्लुभाई ६२८
__ सोभाग्यभाई तथा डुङ्गरसी ६३० ६३१ (सोभाग्यभाई लल्लुभाई ?) - ६३२ अवालाल लालचद
ववाणिया ६३३ मुनिश्री लल्लुजी ६३४
चत्रभुज बेचर अबालाल लालवन्द
कुवरजी आणदजी ६३७ खीमचन्द लखमीचद ६३८ । घारसीभाई कुशलचद राणपुर ६३९ ६४० सोभाग्यभाई लल्लुभाई
बबई ६४१ सोभाग्यभाई लल्लुभाई ६४२ 'सोभाग्यमाई लल्लुभाई
अबालाल लालचद
आ० सु० १३,
आ० व०, आ० व० ७, आ० व० ११, आ० व० १४, आ० व० ३०, आ० व० ३०, आ० व० ३० श्रा० सु० २,
ना. सु० ३, श्रा०. सु०.१०, श्रा० सु० १२, श्रा० सु० १५,
धा० व०६, श्रा० व० ११, धा० १०.१२, -श्रा०व० १४,
श्रा० व १४, श्राव. १४, भा० सु० ७, भा० सु० ७, भा० सु० ९, भा० सु० ९, भा० ५० १३, आसोज सु० २, आतो० सु० ११, आसो. तु ० १२, आसो सु. १३, आसो० सु० १३,
"
खभात
सुरत जेतपर खभात भावनगर लीवडी मोरवी
६३६
सनात
Page #1019
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८२
आङ्क
६४४
६४५
६४६
६४७
६४८
६४९
६५०
६५१
६५२
६५३
६५४
६५५
६५६
६५७
६५८
६५९
६६०
६६१
६६२
६६३
६६४
६६५
६६६
६६७
६६८
६६९
६७०
६७१
६७२
६७३
६७४
६७५
६७६
६७७
६७८
६७९
T
फ़िनके प्रति
अवालाल लालचन्द
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी
11
33
अवालाल लालचन्द
-
13
"
मुनिश्री लल्लुजी
"
!
"
अबालाल लालचन्द
सोभाग्यभाई लल्लुभाई मुनिश्री लल्लुजी
"
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
'खीमचन्द लखमीचन्द
अवालाल लालचन्द
. सोभाग्यभाई लल्लुभाई
सोभाग्य भाई लल्लुभाई
13
मुनिश्री, लल्लुजी
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
अवालाल लालचन्द
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
117
"
कुवरजी आदी सोभाग्यभाई- लल्लुभाई
""
ז'
श्रीमद राजचन्द्र
किस स्थानसे
ववई
65
"}
"1
"
13
73
33
ܙܙ ܐܕ
"3
"
"1
22
"
27
"
27
33
10
27
17
"
"
"
"
"
"
7.
t
L
1
कहाँ
खभात
सायला
सुरत
खभात
13
"
27
कठोर
11
खभात
सायला
“कठोर
सायला
लीवडी खभात "
11
सायला
सायला
32
सायला
खभात
..सायला
भावनगर
सायला
11
आसो० व० ३,
आसो० व० ११,
मिती
आसोज,
आसोज,
आसोज,
आसोज,
आसोज,
कार्तिक,
का० सु० ३,
का०सु० १३, का०सु० १३,
का० व० ८,
मगसिर सु० १०,
मग० सु० १०,
पौष सु०६, पौष सु
पौष सु० ६,
पौष
सु० ८, पौष ०
पौष
पौष व० २,
C
पौष ०९,
पौष व० १२,
पोष व० १२,
माघ ०४,
माघ व० ११,
फा० सु० १,
फा० सु० ३,
[फा०सु० १०, फा०सु० १०,
फा० व० ३,
फा०व० ५,
फा० २९,
चैत्र सु० -१,
चैत्र सु. २,
चैत्र सु० ११,
१९५१
23
१९५२
"
ܐ
"
"""
51
11
Gir
27
"
11
"
31
"
1
1
"
?
Page #1020
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८८३
किनके प्रति
आङ्क ६८०
किस स्थानसे , कहाँ बबई
Tकलोल । खभात
मिती चैत्र सु० १३, चैत्र व० १,
१९५२
६८१
६८२
कुवरजी मगनलाल अबालाल लालचन्द
- चैत्र ३० १,
६८४
सायला
"
:
1
----- चैत्र २०
६८५
"खभात
सोभाग्यभाई लाई.." "
; . "
६८७ ६८८ ६८९
सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचद सुखलाल छगनलाल सोभाग्यभाई लल्लभाई अबालाल लालचद माणेकचद आदि छोटालाल माणेकचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई अबालाल लालचद
वीरमगाम सायला खभात
ववाणिया .
"
०
६९०
बबई
६९२
सायला खभात
६९३
सायला
६९४ ६९५
सोभाग्यभाई लल्लुभाई सोभाग्यभाई लल्लुभाई अवालाल लालचद
:-चैत्र व० १४,
वै० सु० १, , -वै० सु०-६,
वै० व० ६, द्वि० जे० सु ० २, द्वि० जे० व० ६, द्वि० जे० व० ९, आषाढ सु० २,
आ० सु० २, - - मा० सु० ५, । आ० व?, ८,
आ०व० ८,
श्रा० सु० ५, ना - श्रावण, - श्रा० ०
श्रा०व०,१३, श्रा० २० १४,
६९७
खभात
६९८
६९९
७००
७०१ ७०२ ७०३
सोभाग्यभाई लल्लुभाई(?) . काविठा
राळज अनुपचद मलुकचद
"
भरुच
भा० सु०
७०४
भा० सु० भा० सु०
७०५
'खोमचद लक्ष्मीचद
वडवा (स्तभतीर्थ) वडवा
केशवलाल नथुभाई
लीवडी
७०७
७०८
अवालाल, त्रिभोवन आदि
, राळज
खभात
मा० सु० ११, भा० सु० ११,
भाद्रपद,
भाद्रपद, भा० सु० १५,
७०९
. वडवा (स्तभतीर्थ) राज आणद
७११ ७१२
भाद्रपद, मा०व० १२,
आसोज,
७१३
।
-
Page #1021
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमद् राजचन्द्र
किनके प्रति
फिस स्थानसे
कहाँ
आङ्क ७१४ ७१५ ७१६ ७१७
- आणद
मिती
___ सं०, आसो० सु. १, आसो० सु० २, आसो० सु. ३,
१९५२ , ,
खभात
डरबन
नडियाद
आसो० व० १,
७१८ ७१९
मुनिश्री लल्लुजी मोहनलाल करमचद गाँधी (महात्मा गांधीजी) सोभाग्यभाई लल्लुभाई आदि मुनिश्री लल्लुजी तथा मुनि देवकरणजी आदि रवजीभाई पचाणजी सोभाग्यभाई लल्लुभाई
७२०
खंभात । बवाणिया । सायला
७२१
.
ववाणिया '
१९५३
७२२ ७२३ ७२४ ७२५ ७२६ ७२७ ७२८ ७२९ ७३०
आसो० व० १०, ' आसो० व० १२, आसो० व० ३०, का० सु० १०, का० सु० ११,
_ कार्तिक, का०व० २, का० ० ३०, - मगसिर सु० १, मग० सु० ६,
त्रिभोवन माणकचद कुवरजी आणदजी अबालाल लालचद
ववाणिया
18 खंभात । भावनगर
खभात
। मग० सु० १०,
मग सु० १२,
७३१
७३२
वसो
७३३
मुनिश्री लल्लुजी आदि सुखलाख छगनलाल अबालाल लालचद
वीरमगाम 'खभात
मग० सु० १२,
मग० - मग० व० ११ मग० व० ११ पौष सु०१ पौष सु
७३४
७३५
सोभाग्यभाई लल्लुभाई झवेरभाई भगवानभाई
सायला काविठा
पौष व०
"
मोरबी
७३६ ७३७ ७३८ ७३९ ७४० ७४१ ७४२ ७४३ ७४४ ७४५ ७४६ ७४७
मुनिश्री लल्लुजी अवालाल लालचद सोभाग्यमाई लल्लभाई अबालाल लालचद मुनिश्री लल्लुजी त्रिभोवन माणकचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
नडियाद . स्वभात । सायला
खभात । नडियाद । खभात । सायला
माघ सु० ९, माघ सु० ९, माघ सु०१ । माघ ० ४,
माघ १०, ४ माघ व० १२, फा० सु. २, फा० सु० २, फा० सु० २, फा० सु० ४,
ववाणिया
मुनिश्री लल्लुजी
--- नडियाद
७४८
Page #1022
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८८५
कहाँ
,मितो
किस स्थानसे ववाणिया
खंभात
- फा०व० ११,
१९५३
ओक , किनके प्रति ७४९ अबालाल लालचंद ७५०-५०२ मुनिश्री लल्लुजी तथा
मुनि देवकरणजी आदि ७५१ ७५२ पारसीभाई कुशलचद
तथा नवलचद डोसा ७५३
फा० सु०, ६, फा० व० ११,
मोरबी
'फा० १० ११,
७५४
७५५
७५६
७५७
७५८
७५९
७६०
७६२
७६४ ७६५
ववाणिया
७६७ ७६८
मुनिश्री लल्लुजी केशवलाल नथुभाई
खभात भावनगर
७६९
७७०
। चैत्र ,सु० ३, चैत्र सु० ४, चैत्र सु० ४, चैत्र सु० ४, चन सु० ५, चैत्र सु ० १०, चैत्र सु० १५,
७७१
७७२ ७७३ ওও ७७५
मुनिश्री लल्लुजी तथा मुनि देवकरणजी
खभात
७७६ ওওও ७७८ ७७९
ववाणिया सायला ईडर ईडर ववई
सुखलाल छगतलाल अबालाल लालचद सोभाग्यभाई लल्लुभाई
(काव्य-पत्र) सोभाग्यभाई-लल्लुभाई
वीरमगाम खंभात
चैत्र व० ५, वै० सु० १५, वै०व० १२, 4० ५० १२, जे० सु०
सायला
७८०
० ०
८,
,
Page #1023
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८६
श्रीमद् राजचन्द्र
आंक
किनके प्रति
फिस स्थानसे
'कहाँ
मिती
वंबई
सायला
७८१ ७८२
सोभाग्यभाई लल्लुभाई प्रवकलाल सोभाग्यभाई
७८३
७८४ ७८५
खभात खेडा
७८६
खेडा
अवालाल लालचद मुनिश्री लल्लुजी (मुनिश्री लल्लुजी ?) मुनिश्री लल्लुजी त्रबकलाल सोभाग्यभाई मुनिश्री लल्लुजी अवालाल लालचद मुनिश्री लल्लुजी त्रवकलाल सोभाग्यभाई मणोलाल सोभाग्यभाई मुनिश्री लल्लुजी
सायला खेडा खभात
७८७ ७८८ ७८९ ७९० ७९१ ७९२ ७९३ ७९४ ७९५ ७९६ ७९७ ७९८ ७९९ ८००
खेडा
सायला
खेडा
5
त्रबकलाल सोभाग्यभाई मुनिश्री लल्लुजी सुखलाल छगनलाल मगनलाल खीमचद रवजीभाई पचाणभाई
सायला खेडा वीरमगाम लीबडी ववाणिया
- जे० व० ६, १९५३
जे०व० १२ ', .. आषाढ सु० ४, , आ० सु० ४, " आ० व० १, आ० व० आ० व० १, आ०व० ११, आ० व०१४, श्रा० सु० ३, श्रा० सु० १५, श्रा० सु० १५, श्रा० सु० १५, श्रा० व० १, श्रा०व० श्रा०व० श्रा० व० श्रा० ५० १२, श्रा० ५० १२, श्रा० व० १२, भा० सु० ६, भा० सु० ९, भा० सु० ९, भा० सु० ९, भा० सु० ९, भा० व० ८, भा० व० ३०, आसोज सु० ८, आसोज सु० ८, आसोज सु० ८, आसोज सु० ८,
मासोज सु०८, १९५३ - आसोज व० ७, , - आसोज व० १४, , .
__ का० ५० १, १९५४ 11 का व०५,
८०१
०
८०३ ८०४
वीरमगामः खेडा ।
८०५
सुखलाल छगनलाल मुनिश्री लल्लुजी त्रिभोवन माणेकचद डुगर आदि मुमुक्ष मुनिश्री लल्लुजी
खभात
८०६
सायला
खेडा
८०८ ८०९ ८१० ८११ ८१२ ८१३ ८१४ ८१५
अवालाल लालचन्द मुनिश्री लल्लुजो
वकलाल सोभाग्यभाई अबालाल लालचद
खभात । नडियाद । सायला - खभात ..
मुनिश्री लल्लुजी अंबालाल लालचंद
खेडा खभात ।
Page #1024
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
८८७
, कहाँ
- !
मिती
१९५४
आङ्क ... किनके प्रति किस स्थानसे ८१७ मुनदास प्रभुदास । वबई ८१८ मुनिश्री लल्लुजी ८१९ । अवालाल लालचद ८२० । अबकलाल सोभाग्यभाई , ८२१ । , , , , ८२२ । अबालाल लालचद
आणद ८२३ अबकलाल सोभाग्यभाई । ८२४ । मुनिश्री लल्लुजी
, मोरबी ८२५ । 'झवेरचदभाई तथा रतनचदभाई , ८२६ । सुखलाल छगनलाल ८२७ खीमजी देवजी
ववाणिया । ८२८ मुनिश्री लल्लुजी . वबई ८२९ । अबालाल लालचद
मोरवी ८३०
, ८३१ : मुनिश्री लल्लुजी आदि . ८३२
ववाणिया ८३३ ८३४ । अंबालाल लालचद । ८३५ रायचद मनजी देसाई ववई
सुणाव ___ का० व० १२, वसो।
.. मगसिर सु० ५, खभात मग० सु० ५, सायला , , मग सु० ५,
- । पौष सु०.३, खभात
पौष १० ११, सायला :- पौष व० १३,
।। माघ सु० ४, काविठा - माघ सु० ४, वीरमगाम माघ सु० ४,
माघ व?, ,४, वसो ,- । माघ व ३०, खभात . माघ व०.३०.
, । चैत्र ०,१२, सोजीत्रा .. चैत्र ०१२,
ज्येष्ठ, . ज्ये० सु०, १, खभात
ज्ये० सु. ६, ववाणिया . ज्ये० व०.४,
वबई
.
.
८३७ ८३८ । मुनिश्री लल्लुजी ८३९ । (अवालाल लालचद ?)
बबई
८४१ ८४२ ८४३
। रायचंद मनजी देसाई ।
काविठा
वसो
खेडा ज्ये० व० १४, . मा० सु० ११,
श्रा० सु० १५,
. था० व० ४, ववाणिया । श्रा० व० १२, प्र. 'आसो० सु० ६,
आमोज,
। आसोज,
प्र० आसो० व० ९, काविठा द्वि० आमो० सु०-६, ववई वि० जासो० सु०.९,
द्वि आ० व०,
आसोज, का.सु. १०,
मग सु. ३,
। झवेरभाई भगवानदास रेवाशकर जगजीवन ।।
वनक्षेत्र उत्तरसहा
खेडा
८४७
८४८
८४९ ८५० ८५१ ८५२
ववई
-
- -
Page #1025
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८८
श्रीमद राजचन्द्र
आ
- मिती
, किनके प्रति , फिस स्यानसे सुखलाल छगनलाल (पोपटलाल मोहकमचद ?)
कहाँ वीरमगाम
८५३
१९५५
८५४
मग सु० १४, मग सु० १५, मग सु० १५,
मग० ५० ४, मग० व० ३०,
८५६
* :: :: :
सुखलाल छगनलाल अबालाल लालचद
वीरमगाम
८५७
खभात
८५८
८६०
मोरबी
खभात लीवडी अहमदावाद
ववाणिया
अहमदाबाद अजार
पौष सु० १५, फा० सु० १, फा० सु० १, फा० सु० १, फा०व०१०, फा०व० ३०, चंत्र सु० १, चैत्र सु. ५, चैत्र व० २,
८६४
८६५
खेरालु
..
मोरवी ध्रागध्रा
,
८५९ अवालाल लालचद
छगनलाल नानजी ८६१ पोपटलाल मोहकमचद ८६२ ८६३ नगीनदास धरमचन्द
मुनिश्री लल्लुजी (देवकरणजी)
मुनिश्री लल्लुजी ८६६ । घारसीभाई कुशलचन्द , ८६७ मुनिश्री देवकरणजी ८६८ घेलाभाई केशवलाल
(मुनिश्री लल्लुजी) ८६९ वाडीलाल मोतीलाल ८७० मुनिश्री लल्लुजी ८७१ मुनिश्री लल्लुजी ८७२ मनसुख देवसी ८७३ मुनिश्री लल्लुजी ८७४ सुखलाल छगनलाल ८७५
मुनिश्री लल्लुजी
:: :
मोरबी
मोरवो पवाणिया
ईडर
ववई
प्रातिज
चैत्र २०, २, अहमदाबाद
वै० सु० ६, खभात
वै० सु०७, लोवडी ___ वै० सु० ७,
वै०व० ६, वीरमगाम
वै०व०१०,
जेठ, खेडा
जेठ सु० ११, मोरवी
जेठ २० २, अहमदाबाद
जे. व० ७, वीरमगाम आषाढ़ सु०८, नडियाद
आषाढ सु०८,
आषाढ़ व० ६, अहमदाबाद आषाढ़ व०८, वीरमगाम .. आषाढ १०८,
८७६
८७७ मनसुखलाल कोरतचन्द, :..८७८ पोपटलाल मोहकमचन्द ८७९ ।। सुखलाल छगनलाल ८८० मुनिश्री लल्लुजी ८८१ . . ८८२ मनसुखलाल कीरतेचद ८८३ मगनलाल यानलाल ८८४ । ८८५ । मनसुख देवसी '८८६ अवालाल लालचद ८८७ । ,
= = = = = = = = y : :
.
खभात
श्रा० सु० ३, ०. श्रा० सु० ७, ॥ श्रा०व० ३०, ।।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रङ्क
८८८
८८९
८९०
८९१
८९२
८९३
८९४
८९५
८९६
८९७
८९८
८९९
९००
९०१
९०२
7
किनके प्रति
मनसुखलाल कीरतचद
सुखलाल छगनलाल
अबालाल लालचद
वणारसीदास तलसीभाई
झवेरचदभाई तथा रतनचदभाई
पोपटलाल मोहकमचद मुनिश्री लल्लुजी
मनसुखलाल कीरतचद
मुनिश्री लल्लुजी
मनसुखलाल कीरतचद
झवेरचदभाई तथा रतनचदभाई
अबालाल लालचद
मुनिश्री लल्लुजी
77
९०३
९०४
९०५
९०६
९०७
९०८
९०९
९१०
९११
९१२
९१३
९१४
९१५
९१६
९१७
९१८
९१९ अवालाल लालचद
९२०
९२१
९२२
९२३
"1
हेमचंद कुशलचद अवालाल लालचद
37
ܙܙ
ܚ ܚ
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17
मुनिश्री लल्लुजी
11
11
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वनमालीभाई उमेदराम
मुनिश्री लल्लुजी
11
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17
17
सुखलाल छगनलाल मनसुखलाल कीरतचद
मुनिश्री लल्लुजी
अवालाल लालचद
किस स्थानसे
बबई
33
37
11
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17
·
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33
11
11
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17
33
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11
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31
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धर्मपुर
17
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11
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17
"
अहमदाबाद ववाणिया
31
37
परिशिष्ट ३
13
33
11
I
कहाँ
अहमदावाद
वीरमगाम
खभात
काविठा
अहमदावाद
वसो
वाकानेर
काविठा
खभात
खभात
""
11
"
"1
नडियाद
"
गोघावी
वीरमगाम
मोरवी
साणद
सभात
मिती
भा०सु०५, १९५५ भा० सु० ५, भा० सु० ५,
भा० सु०
भा० सु०
५
५,
भा०सु० ५,
भा०सु० ५,
का० सु० ५,
का० सु० ५, क०सु०५,
का०सु० ५,
क०सु० १५,
का० ० ११,
का० ० ११,
का० ० ११, पौष व० १२,
माघ ० १०,
माघ ० ११, माघ व० १४, चैत्र सु० ८,
चैत्र सु० ११,
चैत्र सु० १३, चैत्र व० १,
चैत्र ०४, चैत्र व० ५,
चैत्र व० ६,
चैत्र व० १३,
वै०
सु०६,
वैशाल,
व० ० ८,
व० ० ८, चै० व० ९,
व० ० १,
बं० ०
13
11
"
आसोज, कार्तिक, १९५६
11
ܐ
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27
11
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13
33
11
11
32
11
12
13
"
12
८८९
14
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________________
८९०
श्रीमद् राजचन्द्र
कहाँ
मिती
अङ्क ९२४
फिनके प्रति मुनिश्री लल्लुजी
किस स्थानसे ववाणिया
वसो
९२५
सुखलाल छगनलाल कुवरजी मगनलाल
वीरमगाम कलोल
वै० व० १३, १९५६ . वै० व० ३०, " वै० व० ३०, " वै० व० ३०, , जेठ सु० ११, ॥ जेठ सु० १३, ॥ जेठ सु० १३, ,
जेठ व० ९, , जेठ व० १०, ,
वसो
मुनिश्री लल्लुजी सुखलाल छगनलाल चत्रभुज वेचर सुखलाल छगनलाल
वीरमगाम मोरवी वीरमगाम
९२६ ९२७ ९२८ ९२९ ९३० ९३१ ९३२ ९३३ ९३४ ९३५ ९३६ ९३७ ९३८ ९३९ ९४०
मनसुखलाल कीरतचद अवालाल लालचद
मोरवी खभात
नडियाद
सभात वीरमगाम
मोरवी
मुनिश्री लल्लुजी अवालाल लालचद सुखलाल छगनलाल मुनिश्री लल्लुजी मुनदास प्रभुदास अवालाल लालचद
..........
जेठ व० ३०, , जेठ व० ३०, , जेठ व० ३०, , आपाढ़ सु० १, ॥ आपाढ़ सु० १, , आपाढ़ व० ९, , आपाढ व० ९, , श्रा० व० ४, , श्रा० व० ५, ॥ श्रा० व० ७, , . श्रा० व० १०, , . श्रा० १० १०, ,
सुणाव खभात
९४२
९४३
त्रिमोवन माणेकचद
९४४ ९४५ ९४६ ९४७ ९४८
वढवाण कम्प बवई शिव तिथ्यल-वलसाड वढवाण केम्प राजकोट
९५० । मुनिश्री लल्लुजी ९५१ : ९५२ सुखलाल छगनलाल
का० सु० ५, १९५७ मगसिर व० ८, ". पोप व० १०, , फा० सु० ६, , फा० व० ३, , फा० ५० १३, ,
चैत्र सु० २, , चैत्र सु. ९, " चैत्र सु० ११॥,
९५३
भरुच
९५४ ९५५
रेवाशकर जगजीवन
मोरवी
ववई
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________________
परिशिष्ट ४. किसके ऊपर कौन-कौनसे पत्र हैं उसकी सूची . नाम
पत्रांक अनुपचद मलुकचद ७०२ अवालाल लालचद ११५-११८-१२२-१२२-१२८-१३१-१३८-१३९-१४६-१४८-१६९-१७१-१७४
१७५-१७८-१८४-१८६-१८८-१९०-१९२-१९३-१९९-२०३-२११-२२५-२३६२४०-२४२-२४५-२४८-२५३-२५४-२६१-२७१-२७६-२८५-२९१-३००-३०३३०६-३१२-३२१-३३२-३५३-३५६-३५८-३७६-३९१-३९९-४२७-४२८-४३२४४५-४५१-४५४-४५५-४७८-४७९-४८०-४८१-४८२-४८७-४८८-४८९-५०३५०७-५१५-५१७-५२२-५२४-५३६-५३७-५७२-५८०-६०४-६१६-६२१-६३२६३५-६४३-६४४-६५४-६५५-६५६-६५९-६६७-६६८-६७५-६८२-६८५-६८८६९२-६९७-७०८-७३०-७३४-७४०-७४२-७४९-७७८-७८५-७९१-८१०-८१३८१४-८१६-८१९-८२२-८२९-८३०-८३४-८३९-८५७-८५९-८८६-८९०-८९९
९०७-९०८-९०९-९१०-९१९-९२३-९३५-९३८-९४२-९४३ ऊगरी,बहेन , - २६२ । कुवरजी आणदजी ५६१-५६३-५८२-६०८-६३६-६७७-७२९ . कुवरजी मगनलाल । ३१८-३३६-३५१-३७१-४६०-९२७ - - - - कृष्णदास . ३३०-४०४-४२,४-४४९. केशवलाल नथुभाई '- ५१६-७०६-७६८ -
- . खीमजी देवजी ४७-५२-५८-६२-६७-७२-१२४-१२५ - १२७-१३०-१३६-१४३-१४५ -१४७
२६३-२८१-५५८-८२७. खीमजी लक्ष्मीचद ६३७-६६६ घेलामाई केशवलाल ८६८ चत्रभुज बेचर -। २६-२७-२८-२९-३०-१२९-२०२-३५२-६३४-९३१ । चीमनलाल महासुख (जूठाभाई) ९८-१०४-१०६ .. छगनलाल नानजी ८६० , छोटालाल माणेकचंद १८१-२२६-६९० - -
. . . . . . . जूठाभाई ऊजमसी ३६-३७-४१-४२-४३-४४-४५-४६-४९-५३-५६-५७-५९-६५-६९-७३-७४ -
1 - ७५-९४-११४. झवेरभाई भगवानदास ७३७-८२५-८४७-८९२-८९८.
. . डुगरसी कलाभाई (गोसलिया) · ८०६ अवकलाल सोभागभाई ७८२-७८३-७८९-७९३-७९७-८१२-८२०-८२३.. . त्रिभोवन तथा अबालाल १३४-१३५-१६७ निभोवन माणकचद ११९-१३७-१४०-१४२-१५३-१७३-१७७-२१२-२३२-२३७-२३८-३०५- ३१०
३९७-४५८-४६७-४७०-४९५-४९८-५१०-६१३-६२२-७२८-७४४-८०५-९:४४ पारसीभाई कुशलचद ३७३-६३८-७५२-८६६ नगीनदास घरमचन्द ८६३. पोपटलाल मोहकमचन्द ८५४-८६१-८७८-८९३. मनसुखलाल देवसी ४४१-८७२-८८५ मनसुखलाल कोरतचन्द ८७७-८८२-८८८-८९५-८९७-९२२.
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________________
८९२
मगनलाल खीमचन्द
मगनलाल छगनलाल
८८३
मणिलाल रायचन्द गाधी ४०१-४०७
मनसुखराम सूर्यराम
माणेकलाल आदि
मणिलाल सोभाग्यभाई
ور
13
मुनदास प्रभुदास
८१७-९४१
मोहनलाल करमचंद गाघी ५३० -५७०-७१७
वजीभाई देवराज
१८
वजीभाई पचाणभाई रायचद मनजी देसाई
रेवाशकर जगजीवन
मुनिश्री लल्लुजी
"
"1
37
33
13
"
सोभाग्यभाई लल्लुभाई
13
17
33
वनमालीभाई उमेदराम ९१३ वणारसीदास तलसीभाई ८९१ वाडीलाल मोतीलाल
८६९
सुखलाल छगनलाल
"1
21
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"
11
"
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"}
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"
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२७९-६१०-८००
"
हेमचन्द कुशलचन्द
६१–६४-६६-६८-७१-८३-८७-१२०-१२६
६८९
७९४
७२०-८०१ः
८३५-८४२
८४८-९५५
१७२-१९४-१९६-१९८- २०७-२१०-३७५-३८०-३८१-३८२- ४९३ - ५०० - ५०१५०२-५०९-५१२-५१३ - ५१८- ५२६-५३४-५५३-५६५-५७३-५७७-५८८-५८९५९५-५९९-६०५–६०७-६२० - ६२४-६२६-६३३-६५२-६५३-६५७ ६५८-६६१६७३-७१६-७१८-७१९-७३२-७३९-७४३-७४७-७५०-७६७-७७५- ७८६-७८७७८८-७९०-७९२- ७९५- ७९८-८०४-८०७-८०८-८११-८१५-८१८- ८२४-८२८८३१-८३८-८६४-८६५-८६७-८७०-८७१-८७३-८७५-८७६ - ८८० - ८८१-८९४८९६-९००-९०१-९११-९१२ - ९१४ - ९१५ - ९१६ - ९१७ - ९२२ - ९२४ - ९२५ - ९२९
९३७-९४०-९५०
श्रीमद राजचन्द्र
1
४४०-५५९-६८६–७३३-७७७-७९९-८०३-८२६ - ८५३- ८५६-८७४-८७९-८८९९२० - ९२६ - ९३० - ९३२ - ९३९- ९५२ - ९५३ २३९-२४१-२४४-२४६ - २४७ - २५० - २५१-२५५ - २५६- २५७ २५८-२५९-२६०२६९-२७५-२७७-२७८- २८० - २८२ - २८३ - २८६ - २८७ - २८८- २८९ - २९३ - २९८३०१-३०२-३०४-३०७ - ३०८ - ३०९ - ३१३-३१५ - ३१६-३१७-३१९-३२०-३२२३२३-३२४-३२५-३२६-३२७-३२८-३२९-३३३-३३४-३३५-३३८-३४०-३४१३४२-३४३-३४४-३४६-३४७-३४८-३४९ - ३५० - ३५४ - ३५५ - ३५७ - ३५९-३६०३६१-३६२-३६३–३६४-३६५-३६६-३६७-३६८ - ३६९-३७० - ३७२ - ३७४-३७८३७९-३८४-३८५-३८८-३९०-३९३-३९४-३९८-४०० -४०२-४०६-४१०-४११
४१३-४२५-४३०-४३१-४३३-४३४-४३८-४३९-४४२-४४३-४४४-४४६-४४८४५०-४५२-४५३-४५६-४५९ - ४६१-४६३ - ४६४-४६५-४७१-४७२-४७३-४७४४७५-४८३-४८४-४८५-४९०-४९२-४९४-५०८-५११-५१९-५२०-५२३-५२७
-}
५२९-५३१-५३२-५३५-५३८-५४२-५४४- ५४५-५४८-५४९-५५०-५५१-५५२५५४-५५५-५५६-५५७-५६०-५६४- ५६६-५६९-५७१-५७६-५७९-५८१-५८५५८६-५९२-५९८-६००-६०१-६०६-६१२-६१५- ६१७- ६१८-६१९-६२३-६२७६२८-६२९-६३०-६३१-६४०-६४१-६४२-६४५- ६५१-६६०-६६४-६६९-६७१
६७२-६७४–६७६-६७८-६७९-६८४-६८७-६९१-६९४-६९६-७००-७२१-७२२
७३६-७४१-७४५-७७९
९०६.
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________________
परिशिष्ट ५ विशिष्ट शब्दार्थ
अधर्म द्रव्य-जीव और पुद्गलोकी स्थितिम उदासीन कर्मभूमि-भोगभूमि । असि, मसि, कृषि आदि पट्- सहायक कारण, छह द्रव्योमेसे एक द्रव्य । . ___ कर्मरहित भोगभूमि, मोक्षके अयोग्य क्षेत्र । अधिकरण क्रिया-तलवार आदि हिंसक साधनोके काल-असमय ।
आरभ-समारभके निमित्तसे होनेवाला कर्मवन्धन नगुरुलघु-गुरुता और लघुतारहित ऐसा पदार्थका (आक ५२२) । स्वभाव ।
अधिष्ठान हरि भगवान, जिसमेसे वस्तु उत्पन्न हुई, गोप्य-प्रगट ।
जिसमे वह स्थिर रही और जिसमे वह लयको प्राप्त मघ-पाप।
हुई । (आक २२०) प्रचित-जीव रहित ।
अधोदशा-नीची अवस्था । प्रचेतन-जड पदार्थ ।
अध्यात्म-आत्मा सम्बन्धी । प्रज्ञान-मिथ्यात्व सहित ज्ञान । देखे आक ७६८ ।।
अध्यात्ममार्ग-यथार्थ समझमे आनेपर परभावसे प्रज्ञान परिषह- सत्पुरुषका योग मिलने पर भी जीव
____ आत्यतिक निवृत्ति करना यह अध्यात्ममार्ग है । को अज्ञानकी निवृत्ति करनेका साहस न होता हो,
(आक ९१८) उलझन आ पडती हो कि इतना सारा पुरुषार्थ करते हुए भी ज्ञान प्रगट क्यो नही होता इस प्रकारका
अध्यात्मशास्त्र- जिन शास्त्रोमें आत्माका कथन है ।
"निज स्वरूप जे किरिया साधे, तेह अध्यातम लहीए भाव । देखे आक ५३७ ।।
रे।'-श्री आनन्दघनजी। अठारह दोष-पाँच प्रकारके अतराय (दान, लाभ,
अध्यास-मिथ्या आरोपण, भ्रान्ति । भोग, उपभोग, वीर्य), हास्य, रति, अरति, भय,
अनगार-मुनि, साधु, घर रहित । जुगुप्सा, शोक, मिथ्यात्व, अज्ञान, अप्रत्याख्यान, राग, द्वेष, निद्रा और काम । (मोक्षमाला)
अनधिकारी-अधिकार रहित, अपात्र । (आत्मसिद्धि अणलिङ्ग-जिसका कोई विशिष्ट वाह्य चिह्न नही है,
गाथा ३१) किसी प्रकारके वेपसे भिन्न ।
अनन्यभाव-उत्कृष्ट भाव, शुद्ध भाव । अणु-सूक्ष्म, अल्प, पुद्गलका छोटेसे छाटा भाग।
अनन्य शरण-जिसके समान अन्य शरण नहीं है। अणुव्रत-अल्पव्रत, जिन व्रतोको श्रावक धारण करते है। अनभिसधि-कपायसे वीर्यकी प्रवर्तना। अतिक्रम-मर्यादाका उल्लघन ।
अनतकाय-जिममे अनन्त जीव हो ऐसे शरीरवाले, अतिचार-दोष (व्रतको मलिन करे ऐसा व्रतभगकी कदमूलादि । इच्छा बिना लगनेवाला दोष)।
अनत चारित्र-मोहनीयकर्मके अभावमे आत्मस्थिरताअतिपरिचय-गाढ सम्बन्ध, हदसे ज्यादा परिचय ।
रूप दशा। अतीत काल-भूतकाल ।
अनत ज्ञान-केवलज्ञान । अथसे इति-प्रारम्भसे अत तक ।
अनत दर्शन-फेवलदर्शन । अनत्तादान-विना दिये हुए वस्तुका ग्रहण करना । चोरी। अनतराशि-अपार राशि । अद्धासमय-कालका छोटेसे छोटा अश, वस्तुके परि- अनाकार-आकारका अभाव । वर्तनमें निमित्तरूप एक द्रव्य ।
अनाचार-पाप, दुराचार, तमग । अद्वैत-एक ही वस्तु । एक आत्मा या ब्रह्मके विना अनाथता-निराधारता; असरणता । ___ जगतमे दुसरा कुछ नहीं है ऐसी मान्यता । अनादि-जिसकी आदि न हो।
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________________
८९४
अनारंभ - सावद्य व्यापार रहित, जीवको उपद्रव न करना, निष्पाप |
अनारंभी - पाप न करनेवाला ।
श्रीमद राजचन्द्र
अनिमेष - स्थिर दृष्टि निमेषरहित टकटकीके साथ देखना |
अनुकम्पा - दुखी जीवोपर करुणा । (आक ५८, १३५) अनुग्रह - दया, उपकार, कृपा । अनुचर — सेवक ।
अनुपचरित -- अनुभवमें आने योग्य विशेष सम्बघसहित (व्यवहार) | ( आक ४९३) अनुप्रेक्षा — भावना, विचारणा, स्वाध्यायका एक प्रकार । अनुभव -- प्रत्यक्षज्ञान, वेदन । "वस्तुविचारत घ्यावते
मन पावे विश्राम, रस स्वादत सुख ऊपजे, अनुभव याको नाम । " - श्री बनारसीदास । अनुष्ठान - धार्मिक आचार, क्रिया । अनेकांत - अनवधर्मात्मक वस्तुकी स्वीकृति, जो केवल एक दृष्टिरूप न हो ।
अनेकांतवाद - सापेक्षरूपसे एक पदार्थके अनेक धर्मोसे अमुक धर्मको कहनेवाली वचन पद्धति । अन्योक्ति -- वह अलकार जिसमे अर्थसाधर्म्यके अनुसार वर्णित वस्तुओके अलावा दूसरी वस्तुओपर घटाया
जाय । कटाक्षरूप वचन ।
अन्योन्य – परस्पर |
अन्वय — एकके सद्भावमें दूसरेका अवश्य होना, परस्पर
सम्बन्ध |
अपकर्ष - पतन, कम होना ।
अप्काय - पानी ही जिसका शरीर है ऐसे जीव । अपरिग्रहव्रत — परिग्रहत्यागकी प्रतिज्ञा । अपवर्ग-मोक्ष |
अपवाद - नियमोमें छूट, निन्दा |
अपरिच्छेद - यथार्थ, सम्पूर्ण | अपरिणामी - जो परिणमनको प्राप्त न हो । अपलक्षण —दोष ।
अपेक्षा - इच्छा, अभिलापा ।
अप्रतिबद्ध - आसक्तिरहित ।
अप्रमत्त गुणस्थान - सातवाँ गुणस्थान । अप्रमत्तरूपसे आचरणमें स्थिति । ( पृ० ८४० )
"
अप्रभावी - आत्मदशा में जागृति रखनेवाला । अप्रशस्त बुरा, अशुभ |
अबध परिणाम — जिन परिणामोंसे बध न हो । रागद्वेषरहित परिणाम |
अबोधता - अज्ञानता ।
अभक्ष्य - न खाने योग्य |
अभयदान ---रक्षण देना, जीवोको बचाना ।
अभव्य - जिसे आत्मस्वरूपकी प्राप्ति न हो सके ऐसा जीव । अभाव - क्षय, जिसका अस्तित्व न I (आक६७४) अभिधेय - प्रतिपादन करने योग्य ।
अभिनिवेश -आसक्ति, आग्रह, हठ । ( आक ६७७ लौकिक अभिनिवेश)
अभिमत - सम्मत । अभिवंदन - नमस्कार । अभिसंधिवीर्य-बुद्धि या आशयपूर्वक की गई क्रियाके रूपमें परिणमनेवाला वीर्य, आत्माकी प्रेरणासे वीर्यका प्रवर्तन, वीर्यका एक प्रकार ।
अभ्यंतर - भीतरका ।
अभ्यतरमोहनी - वासना, राग-द्वेष । (पुष्पमाला - ६६) अभ्यास - मुहावरा, टेव, अध्ययन । अमर - देव, आत्मा ।
अमाप - असीम, अपरिमित ।
अमूर्तिक – जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श नही हैं । निराकार |
अयोग - योगका अभाव, मन, वचन, कायारूप योगका अभाव, सत्पुरुष के साथ सयोगका नही होना । अराग-रागरहित दशा ।
अरिहत — केवली भगवान ।
अरूपी - जिसमें रूप, रस, गघ और स्पर्शं ये पुद्गल के गुण हो ।
अर्थ पर्याय- प्रदेशत्व गुणके सिवाय अन्य समस्त गुणोकी अवस्था । (देखें जैन सिद्धात प्रवेशिका ) अर्थातर - दूसरा आशय या तात्पर्यं ।
अर्धदग्ध - अधूरे ज्ञानवाला । ज्ञानी जैसा समझदार भी नही और अज्ञानी जैसा जिज्ञासु भी नही । अहंत—देखें अरिहत ।
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________________
परिशिष्ट ५
अलौकिक -- लोकोत्तर, अद्भुत, अपूर्व, असाधारण,
दिव्य |
अल्पज्ञ - कम समझा, तुच्छ बुद्धिका, थोडा ज्ञान रखनेवाला । अल्पभाषी- -कम बोलनेवाला ।
अवगत - ज्ञात, जाना हुआ । अवगाह - व्याप्त होनेका भाव । अवगाहन - अध्ययन; पढना-विचारना, गहन अभ्यास
करना ।
अवग्रह - आरभका मतिज्ञान । मतिज्ञानका एक भेद । (देखें जैन सिद्धातप्रवेशिका )
अवधान - एक समयमें अनेक कार्यों में उपयोग देकर स्मरणशक्ति तथा एकाग्रताकी अद्भुतता बताना । ( आक १८ ) अवधिज्ञान - जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादासहित रूपी पदार्थको जाने ।
1
अवनी - पृथ्वी, जगत |
अवबोध - ज्ञान ।
अवर्णवाद - निन्दा |
अवशेष - बाकी |
अवसर्पिणीकाल5- उतरता हुआ काल, जिसमें जीवोकी
शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जाय । दस कोडाकोडी सागरका यह काल होता है ।
अवाच्य - न कहने योग्य; जो न कहा जा सके । अविवेक -- विचारशून्यता; सत्यासत्यको न समना । अव्याबाधवाचा, पीडारहित ।
अशातना - अविनय ।
अशुभ- - खराव । अशौच - मलिनता ।
अश्रद्धा - अविश्वास ।
अष्टमभक्त - तीन उपवास ।
अष्टावक्र - एक ऋषिका नाम । जनक राजाको ज्ञान देनेवाले ।
अष्टागयोग - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योगके आठ अग ।
असाता - दुख ।
असग - मूर्च्छाका अभाव, पर द्रव्यसे मुक्त; परिग्रहरहित ।
असंगता - आत्मार्थके सिवाय सगप्रमगमे नही पडना ( आक ४३०, ६०९) । असयतिपूजा -- जिसे ज्ञानपूर्वक सयम न हो उसकी
पूजा ।
असयम - उपयोग चूक जाना ( उपदेशछाया) असिपत्रवन - नरकका एक वन, जिसके पत्ते शरीर पर गिरनेसे तलवारकी भाँति अगोको छेद देते हैं । असोच्याकेवली - केवली आदिके निकट धर्मको सुने विना ( असोच्चा = अश्रुत्वा ) जो केवलज्ञान पावे ।
( आक ५४२) अस्त - छिपा हुआ, तिरोहित, अदृश्य, नष्ट, डूबा हुआ ।
अस्ति - सत्ता, विद्यमानता, होनेका भाव । अस्तिकाय - बहुत प्रदेशोवाला द्रव्य । अस्तित्व - मौजूदगी, सत्ताका भाव । अहता -- अहकार, गवं । अहंभाव -- मैं - पनेका भाव, अभिमान । अंतरग -- अन्दरका ।
1
अंतरात्मा - सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी आत्मा । अंतराय - विघ्न, बाधा |
अंतर्ज्ञान - स्वाभाविक ज्ञान, आत्मिक ज्ञान । अंतर्दशा - आत्माकी दशा ।
अशरीरी - जिसे शरीरभावका अभाव हो गया है, अतर्धान- लोप, छिपाव ।
आत्ममग्न, सिद्ध भगवान ।
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अंतर्दृष्टि - आत्म दृष्टि, ज्ञानचक्षु |
अतर्मुख - आत्मचिंतन, जिसका लक्ष्य अदरकी ओर हो । अंतर्मुहूर्त - एक मुहूर्तके भीतरका काल (एक मुहूर्त : दो घडी, ४८ मिनिट), एक मुहूर्तमें कम समय । अंतर्लापिका ---ऐसी काव्यरचना कि जिसके अक्षरोको अमुक प्रकारसे लगानेपर किसीका नाम या दूसरा अर्थ निक्ले ।
अतवृत्ति - अन्दरका वर्तन, आत्मामें वृत्ति । अंत. करण - मन, चित्त, अन्दरको इन्द्रिय | अंत. पुर - महलके भीतर स्त्रियोंके रहने की जगह, रानिवात ।
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श्रीमद राजचन्द्र
आ
आनंदघन-आनदसे परिपूर्ण, श्री लाभानन्दजी मुनिआकाशद्रव्य-जीवादि समस्त द्रव्योको अवकाश देने- का दूसरा नाम। वाला द्रव्य ।
आप्त-जिसके विश्वासपर मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति की जा आकाक्षा मोहनीय-मिथ्यात्वमोहनीयका एक प्रकार, सके । (आक ७७७) सर्व पदार्थोंको जानकर उनके मासारिक सुखकी इच्छा करना ।
स्वरूपका सत्यार्थ प्रगट करनेवाला । (पृष्ठ ७७५) आक्रोश-क्रोध करना, गाली देना, निन्दा । आम्नाय-सम्प्रदाय, परम्परा, परिपाटी ।। आगम-धर्मशास्त्र, ज्ञानीपुरुपोंके वचन ।
आरंभ-किसी भी क्रियाकी तैयारी, हिंसाका काम । आगमन-आना।
आरा-काल चक्र, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीका विभाग। आगार-घर, व्रतोमें छूटछाट ।
देखें मोक्ष माला पाठ ८१ । आग्रह-इच्छानुसार करने करानेकी वृत्ति, हठ, दृढ आराधना-पूजा; उपासना, साधना।। मान्यता।
आराध्य-आराधना करने योग्य । आचरण-व्यवहार, वर्ताव ।
आत-पीडित । आचार्य-जो साधुओको दोक्षा, शिक्षा देकर चारित्रका
आर्तव्यान-किसी भी पर पदार्थमें इच्छाकी प्रवृत्ति है
___ ओर किसी भी पर पदार्थक वियोगकी चिन्ता है, __पालन कराते है।
उसे श्री जिन आतघ्यान कहते है । आक ५५१ आज्ञा-आदेश, अनुमति, हुक्म ।
आर्य-उत्तम। (आर्य शब्दसे जिनेश्वर, मुमुक्षु और आज्ञा-आराधक-आज्ञानुसार चलनेवाला ।
___ आर्यदेशमें रहनेवालेको सम्बोधित किया जाता है) आज्ञाधार-आज्ञापूर्वक । (आत्मसिद्धिः दोहा-३५)
आर्य आचार-मुख्यत दया, सत्य, क्षमा आदि गुणोआठ समिति-तीन गुप्ति और पाँच समिति ।
का आचरण करना । (आक ७१७) आतापनयोग-धूपमे बैठकर या खडे रहकर ध्यान
आर्य देश-उत्तम देश । जहाँ आत्मा आदि तत्त्वोकी करना।
विचारणा हो सके, आत्मोन्नति हो सके ऐसी अनुआत्मवाद-आत्माको बतानेवाला, आत्मस्वरूपको
कूलतावाला देश। कहनेवाला।
आर्य विचार-मुख्यत आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, आत्मवीर्य-आत्माकी शक्ति ।
वर्तमानकाल तक उस स्वरूपका अज्ञान तथा उस आत्मसयम-आत्माको वश में करना ।
अज्ञान और अभानके कारणोका विचार । (आक आत्मश्लाघा-अपनी प्रशसा ।
७१७) आत्मा-ज्ञानदर्शनमय अविनाशी पदार्थ ।
आलेखन-लिपिवद्ध करना, चित्र बनाना । आत्मार्थो-आत्माकी इच्छावाला । “कपायनी उप- आवरण-परदा, विघ्न । -
शातता, मात्र मोक्ष अभिलाप, भवे खेद, प्राणी दया, आवश्यक-अवश्य करने योग्य कार्य या नियम ।
त्या आत्मार्थ निवास।" (आत्मसिद्धि दोहा-३८) सयमीके योग्य क्रिया। आत्मानुभव-आत्माका साक्षात्कार ।
आविर्भाव-प्रगट होना, उत्पत्ति । आत्यतिक-पूर्णरूपसे, अत्यतरूपसे, सम्पूर्ण । आशका मोहनीय-जो स्वयको समझमें न आवे, सत्य आदि अंत-प्रारभ और अत ।
जानते हुए भी उसके प्रति यथार्थ भाव (रुचि) न आदिपुरुष-परमात्मा ।
प्रगटे । (उपदेशछाया) आदेश-आज्ञा ।
आशुप्रज्ञ-जिसकी बुद्धि तत्काल काम करे । विचक्षण, आधार-सहारा, आश्रय ।
हाजिरजवाव । आधि-मानसिक व्यथा, चिंता।
आश्रम-विश्रामका स्थान, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आधुनिक-वर्तमान समयका, नवीन, अर्वाचीन ।
और सन्यस्त इन जीवन-विभागोमेंसे कोई भी एक।
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परिशिष्ट ५
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आसक्त-अनुरक्त, लोन, लिप्त, मोहित, मुग्ध। उत्सूत्रप्ररूपणा-आगमविरुद्ध कथन । आसक्ति-गाढ मोह, लीनता ।
उदक पेढाल-सूत्रकृताङ्ग नामक दूसरे अगमें इस आस्तिक्य-जिनका परम माहात्म्य है ऐसे निस्पृही नामका एक अध्ययन है।
पुरुपोके वचनमें ही तल्लीनता। (आक १३५) उदय-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको लेकर कर्म जो आस्रव-ज्ञानावरणादि कर्मोका आना।
अपनी शक्ति दिखाते है उसे कर्मका उदय कहते आस्रवभावना-राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि है। स्थिति पूर्ण होनेपर कर्मफलका प्रगट होना।
सर्व आस्रव है, वे रोकने या टालने योग्य है ऐसा उदासीनता-समभाव, वैराग्य, शान्तता, मध्यस्थता। चिंतन करना । (भावनाबोध)
उदीरणा--स्थिति पूरी किये बिना ही कर्मोका फल
तपादिके कारणसे उदयमें आवे उसे उदीरणा इतिहास-भूतकालका वृत्तान्त ।
कहते हैं। इन्द्र-स्वर्गका अधिपति, देवोका स्वामी।
उपजीवन-आजीविका (आक ६४) इन्द्राणी- इन्द्रको पली।
उपयोग-चैतन्य परिणति, जिससे पदार्थका वोघ हो। इद्रिय-ज्ञानका बाह्य साधन । , ,, उपशमभाव-कर्मोके शात होनेसे उत्पन्न हुआ भाव । इन्द्रियगम्य-जो इन्द्रियसे जाना जाय ।
उपशमश्रेणी-जिसमें चारित्र-मोहनीय कर्मकी २१ इद्रियनिग्रह-इन्द्रियोको वश करना ।
प्रकृतियोका उपशम किया जाय । (जैनसिद्धान्तइष्टदेव-जिस पर श्रद्धा जम गई हो ऐसे आराध्यदेव । प्रवेशिका) इष्टसिद्धि-इच्छित कार्यकी सिद्धि । . उपाधि-जजाल।
उपाध्याय-जो साधु शास्त्रोका अध्ययन करावे । ईर्यापथिको क्रिया-कषायरहित पुरुषकी क्रिया, चलने- उपाश्रय-साधु साध्वियोका आश्रयस्थान । की क्रिया।
उपासक-पूजाभक्ति करनेवाला, साधुओकी उपासना ईर्यासमिति-दूसरे जीवोकी रक्षाके लिये चार हाथ करनेवाला श्रावक । जमीन आगे देखकर ज्ञानीकी आज्ञानुसार चलना।
उपेक्षा-अनादर, तिरस्कार, विरक्ति, उदासीनता । ईश्वर-जिसमें ज्ञानादि ऐश्वर्य है। "ईश्वर शुद्ध __ स्वभाव" (आत्मसिद्धि दोहा ७७)
ऊर्ध्वगति-ऊँची गति । ईश्वरेच्छा-प्रारब, कर्मोदय, उपचारसे ईश्वरकी ऊर्ध्वप्रचय-पदार्यमे धर्मका उद्भव होना, क्षण-क्षणमे __इच्छा, आज्ञा ।
होनेवाली अवस्था। ईषत्प्रारभारा-आठवी पृथ्वी, सिद्धशिला। ऊर्ध्वलोक-स्वर्ग, मोक्ष ।
ऊहापोह-तर्क-नितर्क, सोच-विचार । उच्चगोत्र-लोकमान्य कुल । उजागर-आत्मजागृतिरूप दशा ।
ऋषभदेव-जैनोके आदि तीर्थकर । उत्कट-प्रवल, तीन ।
ऋषि-जो बहुत ऋद्धियोंके धारी हो । मृपिये चार उत्कर्ष-समृद्धि, श्रेष्ठता, उत्तमता । हर्ष, अहकार ।
भेद है -१ राज०, २ ब्रह्म०, ३ देव०, ४ उत्तरोत्तर-आगे-आगे, क्रमश , अधिक-अधिक ।
परम० । राजपि-द्धिवाले, ब्रह्मर्षिअसीण महान उत्पाद-उत्पत्ति ।
ऋद्धिवाले, देवर्षि-आकारागामी मुनिदेव, परमपि उत्सर्पिणीकाल-चढते हुए छह कालचक्र पूरे हो,
केवलज्ञानी। उतना समय । दस कोडाफोडी सागरका चढता हुआ काल । जिसमें आयु, वैभव, बल आदि बढ़ते एकत्वभावना- यह मेरा आत्मा अपना ह वह बोला जावे ऐसा कालप्रवाह ।
आया है, अकेला जायेगा, अपने रिपे हुए कर्म
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श्रीमद राजचन्द्र
अकेला भोगेगा, ऐमा अन्त करणसे चिन्तन करना कल्याण-मगल, सत्पुरुषकी आज्ञानुसार चलना। , , सो एकत्वभावना (भावनावोध)
कषाय-जो सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र तथा एफनिष्ठा-एक ही वस्तुके प्रति पूर्ण श्रद्धा ।
यथाख्यात-चारियरूप परिणामोका घात करे अर्थात् एकभक्त-दिनमें एक ही वार खाना ।
न होने दे। (गो० जीवकाड) जो आत्माको कषे एकाको-अकेला।
अर्थात् दु ख दे उसे कषाय कहते हैं । कषायके चार एकान्तवाद-वस्तुको एक धर्मस्वरूप मानना ।
भेद है - अनतानुवधी, अप्रत्याख्यानावरण, ओ
प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । जिन परिणामोसे ओघसंज्ञा-जिस क्रियाको करते हुए जीव लोककी,
ससारकी वृद्धि हो वह कषाय है । (उपदेशछाया) सूत्रकी या गुरुके वचनको अपेक्षा नही रखता,
कषायाध्यवसायस्थान-कषायके अश, कि जो कर्मोंआत्माके अध्यवसाय रहित कुछ क्रियादि किया
की स्थितिमें कारण हैं।' करे । (अध्यात्मसार)
. काकतालीयन्याय-कौएका ताड पर बैठना और औ
अचानक ताडफलका गिर जाना इसी प्रकार
सयोगवश किसी कार्यका अचानक सिद्ध हो जाना। औदयिकभाव-कर्मके उदयसे होनेवाला भाव, कर्म व ऐसा भाव । कर्मके उदयके साथ सम्बन्ध
कामना-इच्छा, अभिलाषा ।
कामिनी-स्त्री। रखनेवाला जीवका विकारी भाव । औदारिक शरीर-स्थूल शरीर । मनुष्य और तिर्यचो
कायोत्सर्ग-शरीरका ममत्व छोडकर आत्माके सन्मुख को यह शरीर होता है।
होना, आत्मध्यान करना । छह आवश्यकोमेंसे एक
आवश्यक।
कार्मणशरीर-ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप शरीर । कदाग्रह-दुराग्रह, खोटी मान्यताकी दृढता । इन्द्रियोंके
फार्मणवर्गणा-अनत परमाणुओका स्कन्ध, जो कार्मणनिग्रहका न होना, कुलधर्मका आग्रह, मान-श्लाघा
शरीररूप परिणमता है। (जैनसिद्धान्तप्रवेशिका) ___ की कामना और अमध्यस्थता, यह कदाग्रह है।
"मन वचन काया ने, कर्मनी वर्गणा” (अपूर्व अवसर (उपदेशछाया-९)
गा० १७) फपिल-साख्यमतके प्रवर्तक ।
कालक्षेप-समय गवाना, समय खोना । करुणा-दया, दूसरेके दुख या पीडा-निवारणकी इच्छा। कालधर्म-समयके योग्य धर्म, मौत; मरण। . कर्म-जिससे आत्माको आवरण हो या वैसी क्रिया।।
कालाणु-निश्चय कालद्रव्य । कर्मादानी धंधा-पन्द्रह प्रकारके कर्मादानी व्यापार। गुरु-मिथ्या वेषधारी आत्मज्ञानरहित ऐसे जो गुरु
थावक (सद्गृहस्थ) को न करने कराने योग्य बन बैठे हैं। कार्य, कर्मोके आनेका मार्ग ।
कुपात्र-अयोग्य, किसी विषयका अनधिकारी, वह फर्मप्रकृति-कोंके भेद ।
जिसे दान देना शास्त्रमें निषिद्ध है। फर्मभूमि-जहाँ मनुष्य व्यापारादिके द्वारा आजीविका कूर्म-कछुआ। __चलाते हैं, मोक्षके योग्य क्षेत्र ।
कूटस्य-अटल, अचल।। फलुष-पाप, मल।
कृत्रिम-नकली, बनावटी, बनाया हुआ । फल्पकाल-बीस कोडाकोडी सागरका काल, जिसमें केवलज्ञान-मात्र ज्ञान, केवल स्वभाव परिणामी ज्ञान।
एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणीका काल (सस्मरण-पोथी तथा देखें आत्मसिद्धि-दोहा ११३) होता है।
कैवल्य कमला-केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी । कल्पना-जिससे किसी कार्यकी सिद्धि न हो ऐसे कौतुक-आश्चर्य, कुतुहल । विचार, मनकी तरग।
फंखा-इच्छा, आकाक्षा।
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परिशिष्ट ५ कंखामोहनीय-तप आदि करके परलोकके सुखको गजसुकुमार-श्रीकृष्ण वासुदेवके छोटे भाई। देखें
अभिलाषा करना । कर्म तथा कर्मके फलमें तन्मय 'मोक्षमाला' शिक्षापाठ ४३ ।।
होना या अन्य धर्मोकी इच्छा करना (पचाध्यायी) गणधर-तीर्थकरके मुख्य शिष्य । आचार्यकी आज्ञानुकचन-स्वर्ण; सोना।
सार साधुसमुदायको लेकर पृथ्वीमडलपर विचरनेक्रम-अनुक्रम, एकके बाद एक आये ऐसी सकलना। वाले समयं साधु । क्रियाजड-जो मात्र बाह्यक्रियामें ही अनुरक्त हो रहे गणितानुयोग-जिन शास्त्रोमे लोकका माप तथा स्वर्ग, - 1 है, जिनका अन्तर कुछ भिदा नही है ओर जो नरक आदिकी लबाई आदिका एव कर्मके वध 'ज्ञानमार्गका निषेध किया करते हैं। (आत्मसिद्धि, आदिका वर्णन हो । (व्याख्यानसार १-१७३) दोहा ४)
गतभव-पूर्वभव, पूर्वजन्म । क्रीडा-विलास-भोगविलास ।
गतशोक-शोकरहित । क्षण-समय या कालका छोटा भाग।
गति आगति-गमनागमन, जाना आना। क्षपककर्मक्षय करनेवाला साधु, जैन तपस्वी । गुमान- अहकार, अभिमान । क्षपकश्रेणी--जिसमे चारित्रनोहनीयकर्मकी २१ प्रकृ- गुणनिष्पन्न-जिसे गुण प्राप्त हुए हैं।
तियोका क्षय किया जाय ऐसी क्षण-क्षणमे चढ़ती गुणस्थान-मोह और योगके निमित्तसे सम्यग्दर्शन, हुई दशा।
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारियरूप आत्माके गुणोकी क्षमा--चित्तकी एक प्रकारको वृत्ति जिससे मनुष्य
तारतम्यरूप अवस्थाविशेषको गुणस्थान कहते है । दूसरे द्वारा पहुँचाया हुआ कष्ट सह लेता है और
(गोम्मटसार), गुणोकी प्रगटता वह गुणस्थान । उसके प्रतिकार या दडको अभिलाषा नही करता। गुल्ता-बडप्पन, महत्त्व, गुरुपन । क्रोध न करना । माफी देना।
गोकुलचरित्र-श्रीमनसुखराम सूर्यरामका लिखा हुआ क्षमापना-भूलकी माफी मांगना ।
श्री गोकुलजी झालाका जीवनचरित्र । क्षायिकचारित्र-मोहनीयकर्मके क्षयसे जो चारित्र गौतम-भगवान महावीरके प्रधान शिष्य, गणधर । - (आत्मस्थिरता) उत्पन्न हो ।
इनका दूसरा नाम इन्द्रभूति था। क्षायिकभाव-कर्मके नाशसे जो भाव उत्पन्न हो जैसे ग्रथ-पुस्तक, शास्त्र, वाह्य, अभ्यतर परिग्रह, गांठ । कि केवलदर्शन, केवलज्ञान ।
(आत्मसिद्धि, दोहा १००) क्षायिक सम्यग्दर्शन-मोहनीयकर्मकी सात प्रकृतियोंके ग्रथि-रागद्वेषकी निविड गांठ । मिथ्यात्वकी गांठ । ___ अभावमे जो आत्मप्रतीति, अनुभव उत्पन्न हो। ग्रंथि-भेद-जड ओर चेतनका भेद करना । मिथ्यात्वको क्षायोपशामिक सम्यक्त्व-जो दर्शन मोहनीयकर्मके
गाठका टूटना। क्षय और उपशमसे हो ऐसी आत्मश्रद्धा ।
गृहस्थी-थावक; गृहवासी, घरमें रहनेवाला । क्षोणकषाय-(क्षीणमोह) वारहवां गुणस्थान, जो ग्यारहवाँ गुणस्यान-उपशान्तमोह । मोहनीयकर्मके सर्वथा क्षय होनेसे यथाख्यातचारित्रके
घ धारक मुनिको होता है।
घटपरिचय-हृदयको पहिचान ।
घटाटोप-वादलोफै समान चारो ओरसे घेर लेनेवाला खल-दुष्ट ।
दल या समूह । चारो ओरसे आच्छादित सुद्ध । खंती दती प्रवज्या-जिस दीक्षामे क्षमा तथा इन्द्रिय- घनघातीफर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय निग्रह है।
तथा अतराय, ये चार फर्म । आ-माको मूल गुणोपों
आवरण करनेवाले होनेसे इन्हें पनपातीशम कहते है। गच्छ-समुदाय, गण, सघ, साधुसमुदाय, एक आचार्य- घनरज्जु-जिसको दाई, चौडाई चार नोटाई नमान का परिवार।
हो, उस प्रकार रन्जुरा परिमान करना यह ।
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मध्यलोक पूर्वसे पश्चिम एक रज्जुप्रमाण है, उतना चित्-ज्ञानस्वरूप आत्मा ।
ही लम्बा, चौडा और ऊँचा लोकका विभाग। चूर्णि-महात्माकृत भिन्न-भिन्न पदकी व्याख्या (सर्व घनवात-घनोदधि अथवा विमान आदिको आधारभूत विद्वानोके मदको चूरे वह चूणि ।) एक प्रकारकी कठिन वायु ।
चूवा-सुगधित पदार्थ, एक प्रकारका चदन । बनवातवलय-वलयाकारसे रही हुई घनवायु। चैतन्य-ज्ञानदर्शनमय जीव ।
चैतन्यघन-ज्ञानादि गुणोसे भरपूर । चक्ररल- चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमेंसे एक। चौठाणिया रस-चतुर्थस्थानरूप रम । पुण्य पापरूप चक्रवर्ती सम्राट, भरत आदि क्षेत्रके छह खडोका प्रकृतियोमे तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अति तीव्रअधिपति ।
तमरूप रस, पापमें कटु, कटुतर, कटुतम और 'अत्यत चक्षुर्दशन-आँखसे दीखनेवाली वस्तुका-प्रथम जो कटुतम तथा पुण्यमे मधुर, मधुरतर, मधुरतम और सामान्य बोध हो।'
अत्यत मधुरतम, इस प्रकार चार रसोमे चतुर्थस्थानचक्षुर्दर्शनावरण-दर्शनावरणीय कर्मकी एक ऐसी रूप रस । नीम और इक्षुरसके दृष्टातसे । (देखें
प्रकृति कि जिसके उदयमें जीवको चक्ष दर्शन शतकनामा पचम कर्मग्रन्थ गाथा ६३ प्रकरणरत्ना(आँखसे होनेवाला सामान्य बोध) न हो ।
करके भाग ४ मे पृ० ६५२) प्रस्तुत ग्रन्थके पृ० चतुर्गति-चार गति । देतगति, मनुष्यगति, तियंचगति ७९९ पर व्याख्यानसार २-३० मे 'पुण्यका चौठा___ तथा नरकगति ।
णिया रस नही है' अर्थात् चतुर्थस्थानरूप श्रेष्ठ चतुष्पाद-पशु, चार पैरोवाला प्राणी।
पुण्य (अत्यन्त तीव्रतम-एकान्त साता) का उदय चयविचय-जाना आना ।
नही है। चयोपचय-जाना जाना, परन्तु प्रसगवशात् आना जाना, चौदह पूर्व-उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुवादपूर्व,
गमनागमन । आदमीके जाने आनेमें यह लागू नही अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्म
होता, श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्मक्रियामें लागू होता है। प्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, चरणानुयोग-जिन शास्त्रोमें मुनि तथा श्रावकके कल्याणवादपूर्व, प्राणवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व,
माचारका कथन हो । (व्याख्यानसार १-१७३) । त्रिलोकबिन्दुसारपूर्व, ये चौदह पूर्व कहे जाते है । चरमशरीर-अतिम शरीर, कि जिस शरीरसे उसी (गोम्मटसार जीवकाड) भवमें मोक्षप्राप्ति हो ।
चौदहपूर्वधारी-चौदह पूर्वके ज्ञाता । श्रुतकेवली । चर्मरत्न-चक्रवर्तीका एक रत्न, कि जिसे पानीमे श्रीभद्रबाहस्वामी चौदह पूर्वके ज्ञाता थे।
बिछानेसे जमीनकी भांति उस पर गमन किया चौभगी-चार भेदरूप कथन ।
जाता है, घरकी तरह उस पर रहा जा सकता है। चौविहार-रात्रिमें चार प्रकारके आहारका त्याग । चार आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यस्त। (१) खाद्य-जिससे पेट भरे, जैसे-रोटी आदि, चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।
(२) स्वाद्य-स्वाद लेनेयोग्य जैसे कि इलायची, चार वर्ग-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।
(३) लेह्य-चाटने योग्य पदार्थ, जैसे-रवडी, चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । (४) पेय-पीने योग्य, जैसे पानी, दूध इत्यादि । चारित्र-अशुभ कार्योका त्याग करके शुभमें प्रवृत्ति चौवीसदंडक-१ नरक, १० असुरकुमार, १ पृथ्वी
करना वह व्यवहार चारित्र है, आत्मस्वरूपमे काय, १ जलकाय, १ अग्निकाय, १ वायुकाय, १ , रमणता और उसीमे स्थिरता यह निश्चयचारित्र है। वनस्पतिकाय, १ तियंच, १ द्वीन्द्रिय, १ तेइन्द्रिय, चार्वाक-नास्तिक मत, जो जीव, पुण्य, पाप, नरक, १ चतुरिन्द्रिय, १ मनुष्य, १ व्यतर, १ ज्योतिषी
स्वर्ग, मोक्ष नही हैं ऐसा मानते हैं, दिखाई दे उतना देव, और १ वैमानिकदेव, इस प्रकार २४ दडक है। ही माननेवाले।
च्यवन-एक देहको छोडकर अन्य देहमें जाना।
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परिशिष्ट ५
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'ज्ञात-विदित, अवगत, जाना हुआ। छट्टछटू-दो उपवास करके पारणा करे, और फिर दो ज्ञातपुत्र-भ० महावीर, ज्ञात नामक क्षत्रिय वशके । __उपवास करे, इस प्रकारके क्रमसे चलना। ज्ञाता-जाननेवाला, आत्मा, प्रथमानुयोगके सूत्रका छद्मस्थ-आवरणसहित जीव, जिसे केवलज्ञान प्रगट नाम ।
। ____ नही हुआ है।
ज्ञान-जिसके द्वारा पदार्थ जाने जायें। आत्माका छह काय-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय गुण । ज्ञान आत्माका धर्म है। - और वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय ।
ज्ञानधारा-ज्ञानका प्रवाह । छह खंड-इस भरतक्षेत्रके छह खड हैं, जिनमें १ ज्ञानवृद्ध-जो ज्ञानमें विशेप हैं। आर्यखड और ५ म्लेच्छखड है।
ज्ञानाक्षेपकवंत-सम्यग्दृष्टि आत्मा, ज्ञानप्रिय; छह पर्याप्ति-आहार, शरीर, इद्रिय, भाषा, श्वासो- विक्षेपरहित विचार-ज्ञानवाला । देखें आक ३९५
च्छ्वास और मन । (विशेष स्पष्टीकरणके लिये देखें ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ।
गोम्मटसार जीवकाड) छंद-अभिप्राय, इच्छा, मनमाना आचरण ।
तत्त्व- रहस्य, सार, सत्पदार्थ, वस्तु, परमार्थ, यथा
वस्थित वस्तु। जघन्यकर्मस्थिति-कर्मकी कमसे कम स्थिति ।
तत्त्वज्ञान-तत्त्वसम्बन्धी ज्ञान । जड़ता-अज्ञानता, मूर्खता, जडपन ।
तत्त्वनिष्ठा-तत्त्वोकी श्रद्धा । - जंजालमोहिनी-ससारकी उपाधि ।
तत्पर-तैयार, उद्यत, सज्ज, एकध्यानरूप । जातिवृद्धता-जातिकी अपेक्षासे श्रेष्ठता , उत्तमता। तदाकार-उसीके आकारका, तन्मय, लीन । जिज्ञासा-तत्त्वको जाननेकी इच्छा । "कषायनी उप- तद्रूप-किसी भी पदार्थमें लीनता।
शातता, मात्र मोक्ष अभिलाष भवे खेद अन्तरदया तनय-पुत्र ।
ते कहिये जिज्ञास" (आत्मसिद्धि दोहा १०८) तप–इन्द्रियदमन, तपस्या, इच्छाका निरोध, तपके जिन-रागद्वेषको जीतनेवाले ।।
____ अनशन आदि बारह भेद है। जिनकल्प-उत्कृष्ट आचार पालनेवाले साधु जिन- तम-अधकार । कल्पीकी व्यवहारविधि, एकाकी विचरनेवाले तमतमप्रभा-सातवां नरक ।
तमतमा-गाढ अन्धकार वाला सातवा नरक । साधुओंके लिये निश्चित किया हुआ जिनमार्ग या
तस्कर-चोर । नियम । (पृष्ठ ७९५ व्याख्यानसार) जिनकल्पी-उत्तम आचार पालनेवाला साधु ।
ततहारक-वादविवादको नाश करनेवाले । जिनधर्म-जिनभगवानका कहा हुआ धर्म । वीतराग
तादात्म्य-एकता, लीनता ।
तारतम्य-न्यूनाधिकता, एक दूसरेकी तुलनामे कमीद्वारा उपदिष्ट मोक्षका मार्ग ।
वेशीका विचार । जिनमुद्रा-वीतरागताकी आकृति । जिनमुद्रा दो
तिरोभाव-छिपाव, ढंकाव । प्रकारकी है-कायोत्सर्ग और पद्मासन । (देखें पृष्ठ
तिर्यकप्रचय-पदार्थके प्रदेशोका सचय; बहुप्रदेशीपन । ७८४ व्याख्यानसार) जिनेन्द्र-तीर्थंकर भगवान ।
तीर्थ-धर्म, तिरनेका स्थान, शासन, माधु, साध्वी, जीव-आत्मा, जीवपदार्थ ।
श्रावक, प्राविकारूप मघसमुदाय, गगा, जमुना जीवराशि-जीवोका समुदाय ।
आदि लोकिक तीर्थ है। जीवास्तिकाय-ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्मा । वह आत्मा तीर्थङ्कर-धर्मके उपदेष्टा, गिनरे चार पनपातीकर्म ____ असल्यातप्रदेशी होनेसे अस्तिकाय कहा जाता है। नष्ट हुए है, तथा तीर्थकर नामकमंत्री प्रकृतिका जोगानल-ध्यानरूपी अग्नि ।
जिन्हे उदय है । पम तीयके स्थापक ।
दशा
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९०२
श्रीमद राजचन्द्र तीन मनोरथ-(१) आरभ-परिग्रहका त्याग (२) समयमें १०८ सिद्ध, (१०) असयतिपूजा, ये दश __ पांच महाव्रतोका धारण, (३) मरणकालमे आलो- अपवाद हैं । (ठाणागसूत्र) चनापूर्वक समाविमरणकी प्राप्ति ।
दश बोल विच्छेद-श्री जम्बूस्वामीके निर्वाणके बाद तीन समकित-(१) उपशम समकित, (२) क्षायोप- इन दश वस्तुओका विच्छेद हुआ-(१) मन पर्यवशमिक समकित, (३) क्षायिक समकित; अथवा (१)
ज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाकलब्धि, आप्तपुरुषके वचनकी प्रतीतिरूप, आज्ञाकी अपूर्व
(४) आहारक शरीर, (५) क्षपकश्रेणी, (६) रुचिरूप, स्वच्छदनिरोधपूर्वक आप्तपुरुपकी भक्ति- उपशमश्रेणी, (७) जिनकल्प, (८) तीन मयमरूप, यह समकितका पहला प्रकार है। (२)
परिहारविशुद्धि सयम, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यातपरमार्थकी स्पष्ट अनुभवाशरूप प्रतीति यह सम
चारित्र, (९) केवलज्ञान, (१०) मोक्षगमन कितका दूसरा प्रकार है । (३) निर्विकल्प परमार्थ
(प्रवचनसारोद्धार)। अनुभव यह समकितका तीसरा प्रकार है। (आक दशविधि यतिधर्म-उत्तम क्षमादि दशलक्षणरूप धर्म । ७५१)
दशविधि वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी तीव्रज्ञानदशा-सर्व विभावसे उदासीन और अत्यत
आदि दस प्रकारके मुनियोकी सेवा करना यह दस शुद्ध निजपर्यायका सहजरूपसे आश्रय । आक ५७२
__ प्रकारका वैयावृत्य तप है । (देखे मोक्षशास्त्र अ०
९, सूत्र २४) तोत्रमुमुक्षुता-प्रतिक्षण ससारसे छूटनेकी भावना, अनन्य प्रेमसे मोक्षके मार्गमे प्रतिक्षण प्रवृत्ति
दर्शन-जगतके किसी भी पदार्थका रसगघादि भेदरहित करना । (देखें आक २५४)
निराकार प्रतिविम्वित होना, उसका अस्तित्व ज्ञात
होना, निर्विकल्परूपसे 'कुछ है' ऐसा दर्पणकी तुच्छसंसारी-अल्पससारी।
झलककी भाँति पदार्थका भास होना, यह दर्शन है, तुष्टमान–प्रसन्न, राजी, खुश ।
विकल्प होनेपर 'ज्ञान' होता है । त्रस-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और दर्शनपरिषह-परमार्थ प्राप्त होनेके विषयमे किसी भी पचेन्द्रिय जीवोको अस कहते हैं।
प्रकारकी आकुलता-ज्याकुलता । (आक ३३०) त्रिदंड-मनदड, वचनदड, कायदड ।
दर्शनमोहनीय-जिसके उदयसे जीवको निजस्वरूपका त्रिपद-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, या ज्ञान, दर्शन, चारित्र। भान न हो, तत्त्वरुचि न हो। त्रिराशि-मुक्तजीव, सजीव और स्थावरजीव, या दीर्घशंका-शौचादि क्रिया। ___ जीव, अजीव और दोनोके सयोगरूप अवस्था । दुरंत--जिसका पार पाना कठिन है, तथा, जिसका त्रेसठशलाकापुरुष-२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, परिणाम खराब है।
९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव, ९ बलभद्र, इस प्रकार दुरिच्छा-खोटी इच्छा । ६३ उत्तम पुरुष माने गये है ।
दुर्धर-कठिनतासे धारण करनेयोग्य, प्रबल, प्रचड ।
दुर्लभ-कठिनतासे प्राप्त होने योग्य । दम-इन्द्रियोको वश करना ।
दुर्लभबोधि-सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्तिकी दुर्लभता । दश अपवाद-इन दश अपवादोको आश्चर्य भी कहते दुषमकाल (कलियुग)-पचमकाल । वर्तमानमें पचम
है । (१) तीर्थंकर पर उपसर्ग, (२) तीर्थंकरका काल चल रहा है, अन्य दर्शनकारोने इसे ही कलिगर्भहरण, (३) स्त्री-तीर्थंकर, (४) अभावित युग कहा है। जिनागममें इम कालकी 'दुषम' परिपद्, (५) कृष्णका जपरकका नगरीमे जाना, सज्ञा कही है । (आक ४२२) (६) चद्र तथा सूर्यका विमानसहित भ० महा- दृष्टिराग-धर्मका ध्येय भूलकर व्यक्तिगत राग करना। वोरकी परिपद्मे आना, (७) हरिवपके मनुष्यसे देखतभूली-दर्शनमोह, देहाच्यास, पदार्थको देखते ही हरिवशकी उत्पत्ति, (८) चमरोत्पात, (९) एक उस पर रागादि भाव करना । (आक ६४१)
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परिशिष्ट ५
९०३
देह-अवगाहना-देह जितने क्षेत्रको घेरे, देहप्रमाण क्षेत्र। नरकगति-जिस गतिमे जीवोको अत्यत दुख है । दोगुंदकदेव-अत्यधिक क्रीडा करनेवाले देव, तीव्र नरक सात है . रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, विषयाभिलाषी देव ।
पकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा दोरंगो-दो रगवाला, चचल ।
, (तमतमप्रभा)। (देखें-तत्त्वार्थसूत्र) द्रव्य-गुण-पर्यायके समूहको द्रव्य कहते हैं। नरगति-मनुष्यगति । | द्रव्यकर्म-ज्ञानावरणादिरूप कर्मपरमाणुओको द्रव्यकर्म नव अनुदिश-दिगम्बर जैनशास्त्रोमें अवलोकमें नव ___ कहते है । वे मुख्यरूपसे साठ है।
ग्रैवेयकके ऊपर नौ विमान और माने है जिन्हें नव द्रव्यमोक्ष-आठ कर्मोंसे सर्वथा छूट जाना ।
अनुदिश कहते है। इनमे सम्यग्दृष्टि जीव ही जन्म लिंग-सम्यग्दर्शनरहित मात्र वाह्य साधुवेश। लेते है, तथा वहाँसे निकलकर जीव उत्कृष्ट दो द्रव्यानुयोग-जिन शास्त्रोमे मुख्यरूपसे जीवादि छह भव धारण करके मोक्ष जाते हैं।
द्रव्य और सात तत्त्वोका कथन हो। (देखें व्याख्या- नवकारमंत्र-जैनोका अत्यत मान्य महामत्र-"नमो । नसार १-१७३)
अरिहताण, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाण, नमो द्रव्याथिकनय-जो वचन वस्तुकी मूलस्थितिको कहे, उवज्झायाण, नमो लोए सव्वसाहूण।" (मोक्षमाला शुद्ध स्वरूपको कहनेवाला, द्रव्य ही जिसका प्रयो- शिक्षापाठ ३५) पाथिकनय ।
नवकेवललब्धि-चार घनघाती कर्मोके क्षय होनेसे घ
केवली भगवानको नौ विशेष गुण प्रगट होते हैं .धर्म-जो प्राणियोको ससारके दु खोंसे छुड़ाकर उत्तम अनतज्ञान, अनतदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकआत्मसुख दे । (रत्नकरण्डश्रावकाचार)
चारित्र, अनतदान, अनतलाभ, अनंतभोग, अनंतधर्मकथानुयोग-जिन शास्त्रोमे तीर्थकरादि महापुरुषो. उपभोग, अनतवीर्य । (देखे सर्वार्थसिद्धि अ० २)
के जीवनचरित्र हो । (व्याख्यानसार १-१७३) नवग्रैवेयक-स्वर्गोके ऊपर नवग्रंवेयकोकी रचना है, धर्मद-धर्म देनेवाला ।
वहाँ सभी अहमिन्द्र होते हैं। उन विमानोंके नाम धर्मध्यान-धर्ममें चित्तको लीनता। यह धर्मध्यान इस प्रकार है -सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशो
चार प्रकारसे है आज्ञाविचय, अपायविचय, धर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस, प्रीतिविपाकविचय और सस्थानविचय । (विशेषके लिये कर । (त्रिलोकसार) देखे मोक्षमाला पाठ ७४, ७५, ७६)
नवतत्त्व-जीव, अजीव, आत्रय, वध, सवर, निर्जरा, धर्मास्तिकाय-एक द्रव्य, जो गतिपरिणत जीव तथा मोक्ष, पुण्य और पाप । (मोक्षमाला पाठ ९३)
पुद्गलोको गमन करनेमें सहायभूत हो, जैसे पानी नवनिधि-चक्रवर्ती नवनिधिके स्वामी होते हैं। उन
मछलियोको चलने में सहायक है । (द्रव्यसग्रह) नवनिधियोके नाम इस प्रकार है :-कालनिधि, धुवेइ वा-(ध्रौव्य) वस्तुमें किसी प्रकारसे परिणमन महाकालनिधि, पाडुनिधि, माणवकनिधि, शबनिधि, होते हुए भी वस्तुका कायम रहना। (मोक्षमाला) नैपनिधि, पद्य निधि, पिंगलनिधि और रत्ननिधि ।
नव नोकषाय-अल्प कपायको नोकपाय रहते हैं। नपुंसफवेद-जिस कपायके उदयसे स्त्री तथा पुरुष उसके नौ भेद इस प्रकार है -हास्य, रति, अरवि, दोनोमे रमण करनेकी इच्छा हो।
शोक, भय, जुगुप्सा, स्योवेद, पुरुपवेद, नपुसकर्वेद । नमस्कारमत्र-नवकार मय ।
नवपद-अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, नय-वस्तुके एक देश (अश) को ग्रहण करनेवाले ज्ञानको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, नभ्यचारिय तथा तप ।
नय कहते है । जैन शास्त्रोमें मुल्यल्पसे दो नयोका नाभिनंदन-नाभिराजाफे पुत्र, भगवान लाभदेव । वर्णन है . द्रव्याथिक्नय और पर्यायापिकनय । इन नारायण-परमात्मा, भोजष्ण ।
नास्ति--अभाव। नयोगे सब नयोका समावेश हो जाता है।
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९०४
श्रीमद् राजचन्द्र
नास्तिक-आत्मा आदि पदार्थोको नहीं माननेवाला। पद्मवन-कमलवन । निकाचित कर्म-जिन कर्मोंमे मक्रमण, उदीरणा, पद्मासन-एक प्रकारका आसन ।
उत्कर्षण, अपकर्षण आदि द्वारा परिवर्तन न हो, परधर्म- अन्य मत । पुद्गलादि द्रव्योका धर्म आत्माके
किन्तु निश्चित समयपर ही उदयमे आकर फल दें। लिये परधर्म है। निगोद-एक शरीरमें अनत जीव हो ऐसी अनतकाय। परभाव-परद्रव्यका भाव । निज छंद-अपनी इच्छानुसार चलना।
परमधाम-उत्तम स्थान, अतिशय तेज । निदान-धर्मकार्यके फलमें आगामी भवमें सासारिक परमपद-मोक्ष; शुद्ध आत्मस्वभाव । सुखकी अभिलाषा करना, कारण ।
परम सत्-आत्मा, परमज्ञान, सर्वात्मा । आक २०९ निदिध्यासन-अखड चिन्तन ।
परम सत्सग-अपनेसे ऊंची दशावाले महात्माओका निबधन-वधन, बाँधा हुआ।
समागम । नियति-नियम, भाग्य, होनी, जो अवश्य होकर रहे। परमाणु-पुद्गलका छोटेसे छोटा भाग । निरंजन-कर्म-कालिमारहित ।
परमार्थ सम्यक्त्व-जिस पदार्थको तीर्थकरने 'आत्मा' निरुपक्रम आयुष्य-जो आयु वीचमें टूटे नही, निका- कहा है, उसी पदार्थकी उसी स्वरूपसे प्रतीति हो __चित आयु ।
उसी परिणामसे आत्मा साक्षात् भासित हो। निर्गन्य-साधु, जिसकी मोहकी गांठ टूटी है।
(आक ४३१) निग्रंन्थिनीसाध्वी।
परमार्थ सयम-निश्चयसयम, स्वस्वरूपमें स्थिति । निर्जरा-आत्मासे कर्मोका आशिकरूपमे क्षय होना।
(आक ६६४) नियुक्ति-शब्दके साथ अर्थको जोडनेवाली, टीका ।
परमावगाढ सम्यक्त्व-केवलज्ञानीका सम्यक्त्व परनिर्वाण-आत्माकी शुद्ध अवस्था, मोक्ष ।
मावगाढ सम्यक्त्व है। निर्विकल्प-निराकार दर्शनोपयोग, उपयोगकी स्थिरता, परसमय-अन्य दर्शन, समय अर्थात् आत्मा, उसे भूलविकल्पोका अभाव ।
कर दूसरे पदार्थोंमें वृत्तिका जाना या लीन होना । निविचिकित्सा सम्यग्दर्शनका तीसरा अग, महात्मा- पराभक्ति-उत्तम भक्ति, ज्ञानीपुरुषके सर्व चरित्रम ___ ओके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि न करना। ऐक्यभावका लक्ष होनेसे उसके हृदयमे विराजमान निर्वेद-ससारसे वैराग्य होना ।
परमात्माका ऐक्यभाव । (आक २२३) निर्वेदनी कथा-जिस कथामे वैराग्यरसकी प्रधानता हो परिग्रह- वस्तुपर ममता, मूर्छाभाव । निश्चयनय-शुद्ध वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला ज्ञान । परिवर्तन-घुमाव, फेरा, हेरफेर, रूपान्तर । निहार-मल-त्याग, शौचक्रिया ।
पर्यटन-परिभ्रमण । निःश्रेयस-मोक्ष, दु खका अभाव ।
पर्याय-पदार्थकी बदलती हुई अवस्था । प्रत्येक वस्तु नेफी-भलाई, उपकार, ईमानदारी ।
पर्यायवाली है, उसमे परिणमन होता ही रहता है। नेपथ्य-पर्देके पीछेका स्थान, अतर ।
पर्यायवद्धता-उमरमे वडाई, दीक्षामें बडा । नैष्ठिक-निष्ठावान, श्रद्धावान, दृढ ।
पर्यायालोचन-एक वस्तुको दूसरी तरहसे विचारना । नौतम-नवीन (नवतम)
पर्युषण-जैनोका एक महान पर्व ।
पल-२४ सैकड प्रमाण समय, ६० विपल । पतग--एक प्रकारका वृक्ष, जिसकी लकडीमेंसे लाल पंथ-सम्प्रदाय, मत, मार्ग । ___ कच्चा रग निकलता है, कागजकी पतग। पंद्रह भेदसे सिद्ध-तीर्थ, अतीर्थ, तीर्थंकर, अतीर्थकर, पतित-पापी, अवोदशावाला।
स्वयवुद्ध, प्रत्येकवुद्ध, बुद्धबोधित, स्त्रीलिंग, पुरुषपवस्थ-ध्यानका एक भेद, जिसमे अरिहतादि पर- लिंग, नपुसकलिंग, अन्यलिंग, जैनलिंग, गृहस्थलिंग, मेष्ठियोका चिन्तन किया जाता है।
एक, अनेक । (व्याख्यानसार २-५)
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zoनदेनका मामय
नशान।
परिशिष्ट ५
९०५ पादप-वृक्ष ।
प्रदेश-आकाशके जितने भागको एक अविभागी पुद्पादाम्बुज-चरणकमल ।
गलपरमाणु रोकता है उसमे अनेक परमाणुओको पापी जल-अयोग्य जल, जिस पानीको पीनेसे पाप हो। पार्थिवपाक-सत्तासे उत्पन्न ।
प्रदेशबंध-वधनेवाले कर्मोकी सख्याके निर्णयको प्रदेशपार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थकर ।
बघ कहते हैं, अर्थात् आत्माके साथ कितने कर्मपिशुन-चुगलखोर, इधरकी उघर लगानेवाला । परमाणु बँधे हैं इसका निर्णय । पुण्यानुबंधी पुण्य-जो पुण्योदय आगे-आगे पुण्यका प्रदेशसंहारविसर्प-शरीरके कारण आत्माके प्रदेशा___कारण होता जाय।
का सकुचित होना और फैलना । पुद्गल-वह अचेतन पदार्थ, जिसमें रूप, रस, गध प्रदेशोदय-कर्मोका प्रदेशोमें उदय होना, रस दिये __ और स्पर्श हो।
बिना ही खिर जाना। पुरंदर-इन्द्र ।
प्रमाण-सम्यग्ज्ञान, वस्तुको सम्पूर्णरूपसे ग्रहण करनेपुरदरी चाप- इन्द्रधनुष ।
वाला ज्ञान । पुराणपुरुष-परमात्मा, सनातन पुरुष। आत्मा ही प्रमाणाबाधित-प्रमाणसे विचारते हुए जिसमें विरोध सनातन है।
न आये। पुरुषवेद-जिस कपायके उदयमें जीवको स्त्रीसभोगको प्रमाद-धर्मका अनादर, उन्माद, आलस्य और कपाय इच्छा हो।
ये सब प्रमादके लक्षण है । (मोक्षमाला-५०) पुलाकलब्धि-जिस लब्धिके बलसे जीव चक्रवर्तीके प्रमोद-अशमात्र भी किसीका गुण देखकर उल्लाससैन्यका भी नाश कर सके।
पूर्वक रोमाचित होना । (आक ६२) पूर्णकामता-कृतकृत्यता।
बारह अंग-आचाराग, सूत्रकृताग, स्थानाग, समपूर्व पश्चात्-आगे-पीछे।
वायाग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), ज्ञाताधर्मकथा, पूर्वानुपूर्व-पूर्व-क्रमानुसार, पहले प्राप्त हुई वस्तु । उपासकदशाग, अन्तकृत्दशाग, अनुत्तरीपपातिकपूर्वापर अविरोध-आगे-पीछे जिसमे विरोध न हो। दशाग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र ओर दृप्टिवाद । प्रकृतिबंध-मोहादिजनक तथा ज्ञानादि घातक स्व. बारह गुण-अरिहत भगवानके वारह गुण हैं -
भाववाले कार्मण पुद्गलस्कघोका आत्मासे सवध (१) वचनातिशय, (२) ज्ञानातिशय, (३) अपाया
होनेको प्रकृतिवध कहते हैं । (जैनसिद्धात प्रवेशिका) पगमातिशय, (४) पूजातिशय, (५) अशोकवृक्ष, प्रज्ञा-बुद्धि ।
(६) कुसुमवृष्टि, (७) दिव्यध्वनि, (८) चामर, प्रज्ञापना-प्ररूपणा, निरूपण ।
(९) आसन, (१०) भामडल, (११) भेरी, (१२) प्रज्ञापनीयता-जतानेयोग्य वर्णन ।
छत्र । इनमें चार अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रतिक्रमण-हुए दोपोका पश्चात्तापकर पीछे हटना। ___ कहे जाते हैं। प्रतिपल-प्रतिक्षण, हर समय ।
वारह तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिसक्षेप, रसपरिप्रतिबंध-परवस्तुओमें मोह, रुकावट, विघ्न, बाघा । त्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, प्रतिश्रोती-स्वीकारनेवाला ।
विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । प्रत्याख्यान-वस्तुका त्याग करना । (विशेष देखें बारह व्रत-श्रावकके बारह व्रत हैं -अहिंमाणुव्रत, ___ मोक्षमाला शिक्षापाठ ३१)
सत्याणुव्रत, मचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत ओर परिप्रत्येक बुद्ध-किसी वस्तुका निमित्त पाकर जिसे बोध ग्रहपरिमाणाणुव्रत ये पाच अणुव्रत कहे जाते है। हुआ हो, जैसे-करकडु आदि पुरुष ।
दिखत, देशवत और जनयंदवत तीन गुणवत प्रत्येकशरीर-हरेक जीवका अलग-अलग शरीर । है । सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिप्रभुत्व-स्वामोपन, बड़ाई, महत्व ।
माण और अतिपिसदिमाग, ये चार शिक्षाप्रत।
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९०६
श्रीमद राजचन्द्र
म
वालजीव-अज्ञानी आत्मा ।
भावशून्य-भावरहित, बिना भावके । बाह्यपरिग्रह-वाहरके वे पदार्थ जिनमे जीव मोह भावश्रुत-श्रवणके द्वारा जिस ज्ञानको उत्पत्ति हो ।
करता है, इसके दस भेद है -क्षेत्र, घर, चाँदी, भावसमाधि-आत्माको स्वस्थता । सोना, धन (गाय भैंस आदि पशु), धान्य, दासी, भाष्य-विस्तारवाली टीका, किसी गूढ विषयका विस्तृत दास, कपडे ओर वर्तन।
विवेचन । बाह्यभाव-लोकिकभाव, ससारभाव ।
भिन्नभाव-भिन्नता, अलगाव; भेद । बोजज्ञान-सम्यग्दर्शन ।
भेवज्ञान-जड चेतनका ज्ञान, स्वपर-विवेक । वीजचि सम्यक्त्व-परमार्थसम्यक्त्ववान पुरुषमें भूरसी दक्षिणा-रिश्वत; निश्चित राशिकी दक्षिणा । निष्काम श्रद्धा । (आक ४३१)
भ्रांति-मिथ्याज्ञान, असदारोप, भ्रम, सशय । बोधवीज-सम्यग्दर्शन। ब्रह्मचर्य-आत्मामे रमणता, स्त्रीमात्रका त्याग । मतार्थी-"नहि कषाय उपशातता, नहि अतर वैराग्य । ब्रह्मरस-आत्म-अनुभव ।
सरळपणु न म यस्थता ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥" देखें ब्रह्मविद्या-आत्मज्ञान।
आत्मसिद्धि दोहा ३२। ब्रह्मांड-सम्पूर्ण विश्व ।
मतिज्ञान-इन्द्रिय तथा मनके निमित्तसे जो ज्ञान हो । व्राह्मीवेदना-आत्मासम्बधी वेदना, आतरिक पीडा। मध्यमा वाचा-मध्यम वाणी, बहुत जोरसे भी
नही और बहुत धोरेसे भी नही ऐसी वाणी। भक्ति-वीतरागी पुरुषोंके गुणोमें लीनता । उनके गुण मध्यस्थता-उदासीनता, तटस्थता, रागद्वेषरहितता।
गाना, स्तुति करना आदि क्रिया रूप भक्ति है। मनन-विचार । भद्रभरण-सज्जन पुरुषोंको पोषण देनेवाले। मनःपर्यायज्ञान-जो द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादाअनिकता-सरलता, उत्तमता ।
सहित दूसरेके मनमें स्थित विकारी भावको स्पष्ट भय-एक मनोविकार जो आपत्ति या अनिष्टकी जाने।
आशकासे मनमे उत्पन्न होता है, डर। __ महा आरम्भ-अतिशय आरभ, अर्थात् अत्यत हिंसक भयभंजन-भयको टालनेवाले ।
व्यापारादि कार्य। भयसंज्ञा-जिम प्रकृतिसे जीवको भय लगा करता है। महाप्रतिमा-अभिग्रहविशेष । भरत-भगवान ऋषभदेवके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती। महामिथ्यात्व-गाढ विपरीतता, अत्यत अज्ञान कि भर्तृहरि-एक महान योगी हो गये हैं।
जिसके उदयमें सदुपदेश भी जीवको न रुचे । भवनपति-एक प्रकारके देव । भवनोमे रहते है इस- महाविदेह-क्षेत्रविशेष, जहाँसे जीव सदैव मोक्षको ___लिये भवनवासी भी कहे जाते हैं ।
पा सकें। भवभ्रमण-ससारमें परिभ्रमण ।
महाव्रत-जिन व्रतोको साघु स्वीकारते हैं। भवस्थिति-ससारमें रहनेकी मर्यादा ।
मंत्र-गुप्त रहस्यपूर्ण वात, वे अक्षर, शब्द या वाक्य, भवितव्यता-प्रारब्ध, भाग्य, होनहार ।
जिनका इष्टसिद्धिके लिये जाप किया जाता है, भन्य-मोक्ष पानेकी योग्यतावाला ।
देवता अधिष्ठित अक्षरविशेष । भामिनी-स्त्री।
माया-भ्राति, कपट। । भाव-परिणाम, गुण, पदार्थ, अभिप्राय ।
मायिकसुख-संसारका कल्पित सुख । भाप मानव-आत्माके जिन भावोंसे कर्मोका आगमन मार्गानुसारी-'आत्मज्ञानी पुरुषकी निष्काम भक्ति हो ऐसे रागद्वेषादि परिणाम |
निराबाघरूपसे प्राप्त हो ऐसे गुण जिस जीवमें हो भावनय-जो नय भावको ग्रहण करे ।
वह जीव मार्गानुसारी है ऐसा श्री जिन कहते हैं।' भावनिद्रा-मिथ्यात्व, रागद्वेपादि परिणाम ।
(आफ ४३१)
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परिशिष्ट ५
९०७
मिताहारी-थोडा-परिमित भोजन करनेवाला। यतना-किसी भी जीवकी हिंसा न हो वैसे प्रवृत्ति मिथ्यादृष्टि-आत्मभानसे रहित ।
__करना । (देखे मोक्षमाला शिक्षापाठ २७) मिथ्यावासना-खोटे धर्मको सच्चा मानना, धर्मके यथार्थ-वास्तविक । नामपर सासारिक इच्छाओका पोषण (आक यशनामकर्म-जिस कर्मके' उदयसे यश फैले ।
याचकता-मांगनेका भाव । मिश्रगुणस्थान-सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीव- यावज्जीवन-जब तक जीवन रहे, आजीवन ।
के न तो केवल सम्यक्त्व-परिणाम होते है और न युगलिया-भोगभूमिके जीव । केवल मिथ्यात्वरूप परिणाम होते है ऐसी भूमिका- योग-मन वचन कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंका का नाम मिश्रगुणस्थान है।
चचल होना, मोक्ष के साथ आत्माका जुडना, मोक्षमुक्तिशिला-सिद्धस्थानके नीचे रही हुई ४५ लाख के कारणोको प्राप्ति, ध्यान । योजनप्रमाण सिद्धशिला ।
योगक्षेम-जो वस्तु न हो उसकी प्राप्ति और जो हो मुनि-जिसे अवधि, मन पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान हो।
___ उसका रक्षण, कुशलमगल । मुमुक्षु-मोक्षकी इच्छावाला, ससारसे छूटनेकी अभि
योगदशा-ध्यानदशा। लाषावाला।
योगदृष्टिसमुच्चय-योगका एक ग्रथ । मुमुक्षुता-सर्व प्रकारको मोहासक्तिसे अकुलाकर एक
योगबिन्दु-श्रीहरिभद्राचार्यका योगसवधी ग्रंथ । मोक्षका ही यत्ल करना । (आक २५४)
योगवासिष्ठ-वैराग्यपोषक एक ग्रथका नाम । मुंहपत्ती-मुंहके आगे रखनेका कपडेका टुकहा ।।
योगस्फुरित-ध्यानदशासे प्रगटित । -परपदार्थके प्रति आसक्ति ।
योगानुयोग-योग आ मिलने से, सयोगवशात् । मूढदृष्टि-अज्ञानभाव, सझसद्के विवेकरहित मान्यता ।
योगीन्द्र-योगियोमें उत्तम । मृषा-असत्य, झूठ।
योनि-उत्पत्तिस्थान । मेधावी-बुद्धिमान, तीव्र प्रज्ञावत । मेषोन्मेष-आँखका खुलना-मिचना । मैत्री-सर्व जगतसे निर्वैरबुद्धि (आक ५७)
रहनेमि-भगवान नेमिनाथका भाई । मोक्ष-सर्वकमरहित आत्माकी शुद्ध अवस्था । आत्मासे राजसोवृत्ति-रजोगुणवाली वृत्ति, खाना-पीना और ___ कौका सर्वथा छूट जाना।
मज़ा करना, पुद्गलानदी भाव । मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र- राजमती-भगवान नेमिनाथकी मुख्य शिष्या ।
की एकता यह मोक्षमार्ग है । 'सम्यग्दर्शनज्ञान- रुचकप्रदेश-मेरुके मध्यभागमें आठ रुचकप्रदेश माने चारित्राणि मोक्षमार्ग.।' (तत्त्वार्थसूत्र)
गये है कि जहाँसे दिशाओका प्रारम्भ होता है। मोक्षसुख-अलौकिक सुख, अनुपमेय अकथ्य आत्मानद। आत्माके भी आठ रुचकप्रदेश है, जिन्हें अवध कहा
(देखे मोक्षमाला, शिक्षापाठ ७३) गया है। (विशेषके लिये देखें आक १३९) मोह-जो आत्माको पागल बना दे, स्व व परका भान रूपी-जिसमे रूप, रस, गध और स्पर्श हो उसे रूपी भुला दे, परपदार्थमे एकत्वबुद्धि करा दे।
पदार्थ कहते हैं। मोहनीयकर्म-आठ कर्मों मेसे एक कर्म, जिसे कोका रौद्र-विकराल, भयानक ।
राजा कहते हैं। इसके प्रभावसे जीव स्वरूपको रौद्रध्यान-दुष्ट अभिप्रायवाला ध्यान । इसके चार भूलता है।
भेद है --हिमानदी, मृपानदी, चोयांनदी और मोहमयी-बबई।
विपयतरक्षणानदी, जर्यान् हिता, अमत्य, चोरी
और परिग्रहमें जानद मानना। यह ज्यान नरा. यति-ध्यानमें स्थिर होकर श्रेणी चढ़नेवाला ।
गतिका कारण है।
र
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९०८
श्रीमद् राजचन्द्र
वाचाज्ञान-कहनेमात्र ज्ञान, परतु आत्मामे जिसका लब्धि-वीयांतराय कर्मके क्षय या क्षयोपशमसे प्राप्त परिणमन नही हुआ है। "सकल जगत ते ऐठवत्
होनेवाली शक्ति, आत्माके चैतन्यगुणकी क्षयोपशम- अथवा स्वप्न समान, ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी हेतुक प्रगटता । श्रुतज्ञानके आवरणका क्षयोपशम वाचाज्ञान" (देखें आत्मसिद्धि दोहा १४०) प्राप्त होना।
वारांगना-वेश्या । लब्धिवाक्य-अक्षर कम होते हुए भी जिस वाक्यमें वाल्मीकि-आदि कवि और रामायणके रचयिता ।
वहुत अर्थ समाया हुआ है, चमत्कारी वाक्य । वासना-मिथ्या विचार या इच्छा, सस्कार । ' लावण्य-अत्यन्त सुन्दरता।
विकथा-खोटी कथा, ससारकी कथा। इसके चार लिंगदेहजन्यज्ञान-दश इन्द्रिय, पाँच विषय और भेद हैं - स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा।
मनरूप जीवके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न हुआ ज्ञान, विगमे वा–व्यय नाश होना । (मोक्षमाला, शिक्षापाठ
अमुक चिह्न या साधनके निमित्तमे उत्पन्न ज्ञान। ८७, ८८, ८९) लेश्या-कपायसे अनुरजित योगोकी प्रवृत्ति । जीवके विचारदशा-'विचारवानके चित्तमें ससार कारागृह है,
कृष्ण आदि द्रव्यकी तरह भासमान परिणाम समस्त लोक दु खसे आर्त है, भयाकुल है, रागद्वेषके (आक ७५२)
प्राप्त फलसे जलता है।' ऐसे विचार जिस दशामें लोक-सब द्रव्योको आधार देनेवाला ।
उत्पन्न हो वह विचारदशा । (आक ५३७) लोकभावना-चौदहराजूप्रमाण लोकस्वरूपका चिन्तन। विच्छेद-वीचसे क्रम टूटना, नाश, वियोग। लोकसंज्ञा-शुद्धका अन्वेषण करनेसे तीर्थका उच्छेद वितिगिच्छा-जुगुप्सा, ग्लानि, सदेह ।।
होना सभव है, ऐसा कहकर लोक प्रवृत्तिमें आदर विदेही दशा-देहके होते हुए भी जो अपने शुद्ध तथा श्रद्धा रखते हुए वैसा प्रवर्तन किये जाना, यह __आत्मस्वरूपमे रहता है ऐसे पुरुषकी दशा वह लोकसज्ञा है । (अध्यात्मसार)
विदेहीदशा । जैसे श्रीमद् राजचन्द्र स्वय विदेहीदशालोकस्थिति-लोकरचना ।
वाले थे। लोकान-सिद्धालय ।
विपरिणाम-परिवर्तन, रूपातर, विपरीत परिणाम । लौकिक अभिनिवेश-द्रव्यादि लोभ, तृष्णा, दैहिक विपर्यास-विपरीत, मिथ्या । ___मान, कुल, जाति आदि सबधी मोह (आक ६७७) विभंगज्ञान-मिथ्यात्वसहित अवधिज्ञान, कुअवधिज्ञान । लौकिकदृष्टि-ससारवासी जीवो जैसी दृष्टि । इस लोक विभाव-रागद्वेपादि भाव, विशेष भाव, आत्मा स्वअथवा ससारसे सम्बन्धित दृष्टि ।
भावकी अपेक्षा आगे जाकर 'विशेषभाव' से परिणमे
वह विभाव । (व्याख्यानसार १-२०५) वक्रता-टेढापन, असरलता ।
विमति-विशेष बुद्धि, मिथ्या बुद्धि । वनिता-स्त्री।
विरोधाभास-दो बातोमे दीख पडनेवाला विरोध, वर्गणा-समान अविभाग प्रतिच्छेदोंके धारक कर्म ___मात्र विरोधका आभास ।।
परमाणुके समूहको वर्ग कहते है और ऐसे वर्गोंके विवेक-सत्यासत्यको उनके स्वरूपसे समझनेका नाम
समूहको वर्गणा कहते है । (जैनसिद्धातप्रवेशिका) विवेक है । (मोक्षमाला, शिक्षापाठ ५१) वंचनावुद्धि-सत्सग, सद्गुरु आदिमें मच्चे आत्मभावसे विषयमूर्छा-पाँच इन्द्रियोके विषयोमें आसक्ति ।
माहात्म्यबुद्धि होनी चाहिये सो नही होना, और विसर्जन-परित्याग, छोडना ।। अपने आत्मामे अज्ञानता ही निरतर चली आई है विस्रसापरिणाम-सहज परिणाम । इसलिये उसकी अल्पज्ञता,, लघुता विचारकर अमा- वीतराग-जिसने सासारिक वस्तुओ तथा सुखोके प्रति हात्म्यवृद्धि करनी चाहिये सो नही करना । ठगनेकी राग अथवा आसक्ति बिलकुल छोड दी है। सर्वज्ञ, वुद्धि । विशेपके लिये देखे आक ५२६ ।
केवली भगवान ।
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001
परिशिष्ट,५...
९०९, वीर-भ० महावीर, बलवान ।। ...
Lsr_T. वीर्य-शक्ति, बल, पराक्रम, सामर्थ्य Trm शतक--सौका समुदाय - vis imire वीर्यातरायकर्म-आत्मशक्तिमें वाधक कमका प्रकार, शतावधान-एक साथ सौ बातोपर ध्यान देना (शताव: वृंद-समूह । ।
:- i धानके प्रकार के लिये देखें पृ९, १३६)-325 वृत्ति-परिणति, परिणाम, स्वभाव, प्रकृति-- , शवरी-रात्रि । वेद-नोकषायके उदयसे. उत्पन्न हुई, जीवकी मैथुन शंकर महादेव, सुख देनेवाला ! . ...करनेकी अभिलाषाको भाववेद कहते हैं और नाम- शाल्मलोवृक्ष-नरकके एक वृक्षका नाम । . कर्मके उदयसे आविर्भूत देहके चिह्नविशेषको, द्रव्य- शास्त्र-वीतरागी पुरुषोंके वचन । धर्मग्रन्थ ।'
वेद कहते हैं। इस वेदके तीन भेद हैं, स्त्रीवेद, शास्त्रकार शास्त्र रचनार । S iriy. पुरुषवेद, नपुसकवेद । (जनसिद्धातप्रवेशिका) :
शास्त्रावधान-शास्त्रमें चित्तकी एकाग्रता । वेदनीयकर्म-जिस कर्मक उदयसे जीव साता या, शिक्षाबोध-न्यायनीतिका उपदेश, अच्छी शिक्षा । ____ असाठा भोगे, सुखदु खकी सामग्री प्राप्त करें। शिथिलकर्म-जो कम विचार आदिसे 'दूर किया जा वेदान्त-वेदोके अतिम भाग (उपनिपद् तथा आरण्यक सके।
आदि) जिसमें आत्मा, ईश्वर, जगत आदिका विवे- शुक्लध्यान-जीवीके शुद्ध परिणामोंसे जो ध्यान चन है, छह दर्शनामसे एक, जिसका उत्तरमीमासा:
होता है। (मे समावेश है । (विशेष देखें आक ७११). शुद्धोपयोग-रागद्वेपरहित आत्माकी परिणति ।।.. वैराग्य-गृहकुटुवादि भावमें अनासक्तवृद्धि होना, शुभ उपयोग-मैदकषायरूप भाव। वीतरागपुरुषोको ...(आक ५०६).
भक्ति, जीवदया, दान, संयम आदि रूप भाव । व्यतिरेक साम्यक अभावमें "साधनको अभाव, जैसे शुभद्रव्य जिस पदाथके निमित्त आत्मामे 'अच्छे
' अग्निके अभाव धमकी अभाव, भद; भिन्नता। प्रशस्तभाव हो । . 13 F INTE 55 व्यवनाशयकता विभाग खण्ड PM शुष्कज्ञानी--जिसे भेदज्ञान न हो, कथनमात्र अव्यात्मव्यवहार-सामान्य वरताव।1073 Ph
वादी । (विशेषके लिये देखें आत्मसिद्धि'दोहा ५,६) व्यवहार आग्रह-बाह्य वस्तु, बाह्य क्रियाका आग्रह। शैलेशीकरण-पर्वतोमें बडा 'जो मेरु उसके समान ___जैसे कि इतना तो अवश्य करना चाहिये। . . निश्चल, अचलं । (व्याख्यानसार) - व्यवहारनय जो अभेद वस्तुको भेदरूपसे ग्रहण करे। श्रमण-सांध, मनि। ' ir) व्यवहारशुद्धि-आचारशुद्धि, शुद्ध आचरण; जो संसार श्रमणोपासक-श्रावक, ' वीतरागमार्गका' उपासक
प्रवृत्ति इस लोक और परलोकमे सुखका कारण हो गृहस्थ । • उसका नाम व्यवहारशुद्धि है (आक ४८) - , श्रावक-ज्ञानीके वचनोको सुननेवाला। (विदोप देखें व्यवहारसयम-परमार्थसयमके कारणभूत : अन्य पृष्ठ ७४२ उपदेशछाया) 1 निमित्तोके ग्रहण करनेको- 'व्यवहारसयम'-कहा है। श्रुतज्ञान-मतिज्ञानसे सम्बन्ध लिये हुए-किसी दूसरे (आक ६६४)
. in
पदार्थके ज्ञानको भ्रुतज्ञान कहते है । जैसे-'घट' व्यसन-वरी लत; खराब, आदत । सामान्यरूपसे , व्यः शब्द सुननेके अनन्तर उत्पन्न हुआ कंबुग्रीवादिस्प
सनके सात प्रकार हैं . जुआ, मास, मदिरा, वैश्या- (घटका ज्ञान । (जैनसिद्धान्तप्रवेशिका) .. गमन, शिकार, चोरी और परस्त्रीका सेवन । ये श्रेणिक-० " महावीरके समयमें मगवदेशका एक
सातो व्यसन अवश्य त्यागने, योग्य है। , , प्रतापशाली राजा, भ० महावीरका परम भक्तः । व्यजनपर्याय-वस्तुके प्रदेशत्व गुणकी अवस्था (जन- श्रेणी-लोक मध्यभागसे ऊपर, नीचे तवा तिपदिशासिद्धान्तप्रवेशिका)
- -
मे क्रममे रेखावत रचनावाले प्रदेशोपी पति, जहाँ चारिशमोहनीयको इक्कीस प्रतियोगामसे
व्यास-महाभारत और पराणोके रचयिता।
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7
.
.
श्रीमद् राजचन्द्र उपशम तथा क्षय किया जाय ऐसी आत्माकी समवायसम्बंध-अभेद सम्बन्ध । ... ' " .....
उत्तरोत्तर वर्द्धमान होती हुई दशा ।। . समश्रेणी-समभावकी चालू रहनेवाली परिणति । श्रेयिक सुख-मोक्ष सुख - - -- - '' : समस्वभावी समान स्वभावाले । -- ,' श्वासोच्छवास सार्स लेना और छोडना । समाधिमरण-समतापूर्वक देहत्याग ।
समिति--सावधानीपूर्वक गमनादि क्रियाओमें प्रवर्तन'। षट्पद-आत्मा है, वह नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, (आक ७६७ तथा व्याख्यानसार) -
मोक्ष है और मोक्षका उपाय है । (आक ४९३)" समुद्घीत-मूल शरीरको छोडे' विना आत्माके षट् सम्पत्ति-शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान, प्रदेशोका बाहर निकलना । समुद्घातके सात भेद
और श्रद्धा, ये वेदान्तमें पट् सम्पत्ति मानी गई हैं। हैं -वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणातिक, तेजस, षड्दर्शन-(१) बौद्ध, (२) नैयायिक, (३) साख्य, आहारक और केवलीसमुद्घात ।" . . 1- (४) जैन, (५) मीमासक, और (६) चार्वाक । सरिता नदी'। '
' (आक ७११) सलिल पानी। , , . षड्द्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल। सज्वलनकाय यथाख्यातंचारित्रको " रोकनेवाला
- अधिकसे अधिक पन्द्रह दिनकी स्थितिवाला कपाय । सकाम, इच्छासहित ।। :
संज्ञा-ज्ञानविशेष, कुछ भी आगे-पीछेको चिन्तनशक्तिसकामनिर्जरा-उदयुकाल प्राप्त होनेमे पहले आत्माके
विशेष अथवा 'स्मृति । (आक ७५२) , पुरुषार्थ द्वारा जो कर्म आत्मासे अलग हो जायें वह संयति-मयममें प्रयत्न करनेवाला ।-31 ---- सकामनिर्जरा, है; इसेअविपाक निर्जरा भी कहते हैं। सयम-इन्द्रियो तथा मनको वश रखकर पृथ्वी आदि सजीवनमूर्ति-देहधारी महात्मा 75
छहकायके जीवोकी रक्षा करना, आत्माकी अभेद सत्पुरुषार्थ- आत्माको कर्मवधनसे मुक्त कर सके ऐसा । 'चिंतना, सर्वभावसे विराम पानेरूप.। (विशेष देखें { प्रयत्न । 6 (
आक ६६४, ७६७, ८६६) . , . सतमूति-ज्ञानीपुरुप । - .......:. संयमश्रेणी-सयमके गुणकी श्रेणी ।-, .. सत्सग-जो सत्यका. रग चढाये वह सत्सग है। संवत्सरी-वर्षसम्बन्धी, वार्षिक उत्सव । - -
(मोक्षमाला शिक्षापाठ २४), सन्मार्गमें अपनी संवर-आते हुए कर्मोको रोकना, कर्मोके आनेके द्वार ५., .. जैसी योग्यता है, वैसी योग्यता रखनेवाले पुरुषोका
ना पायता रखनाल पुषा ,बघ कर देना । । । । सग।
(आर.२४९) संवत-सवरसहित; आस्रवका निरोध करनेवाला । सनातनलाशाश्वत, अत्यन्त प्राचीन, अनादिकालसे,चला संवेग-वैराग्यभाव, “मोक्षकी अभिलापा, धर्म और आया हुआ।
..
धर्मके फलमे प्रोति । ---- . , , सप्तदशविधि.सयम सग्रह प्रकारका सयम- हिंसादि संसार-जीवोके परिभ्रमणका "स्थान, वह चार 5, पाँच पाप, स्पर्शनावि, पांच ‘इन्द्रिय, चार कपाय गतिरूप है।
तथा मन-वचन-कायरूप तीन दण्डका-निग्रह । ससारानप्रेक्षा“ससार अपार दुखरूप है. उसमें यह समकित-सम्यग्दर्शन (आक.७१५ मूलमार्ग:७) , जीव अनादिकालसे भटक रहा है, ऐमा विचार समदशिता-पदाथम इप्टानिष्ट-वद्धि रहितता, इच्छा- 'करना ।। ' रहितता और ममत्वरहितता। विशेप देखें पत्रांक ससाराभिरुचि-समारके प्रति तीव्र आसक्ति' “.८३० । शत्रु, मित्र, हर्प, शोक, नमस्कार तिरस्कार सस्थान-आकार। 5-1, ... , । मादि' भावोके प्रति समता । (आत्मसिद्धि दोहा १०) सहनन-शरीरमे हाड आदिका वनविशेष—गठन । समय 'कालफा.सूक्ष्मतम विभाग ।' : साखी-ज्ञानसम्बधी दोहे या पद्य ।।'', ''
TA
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परिशिष्ट ५
सातावेदनीय - जिस कर्मके उदयसे जीवको सुखकी सामग्री मिले ।
साधु -- जो आत्मदशाको साधे, सज्जन, सामान्यत गृहवासका त्यागी, मूलगुणोका धारक सामायिक - समभावका लाभ, मन, वचन, कार्य और कृत, कारित, अनुमोदना हिंसादि पाच पापोका त्याग करना, दो घडी तक समताभाव में रहना । सिद्ध- -आठ कर्मोंसे मुक्त शुद्धात्मा, सिद्ध परमेष्ठी सिद्धांतबोध - पदार्थका जो सिद्ध हुआ / स्वरूप हो ज्ञानीपुरुषाने निष्कर्पसे जिस प्रकार से अन्तमें पदार्थ -, को जाना है, वह जिस प्रकारसे वाणी द्वारा कहाँ ? "जा सके " उस प्रकार बेताया है, 'ऐसा जो बोध है
वह 'सिद्धान्तवोघ' है । ( आक ५०६ ) .. सिद्धि - कार्य पूर्ण होना, सफलता, निश्चय, निर्णय, ' प्रमाणित होना, मुक्ति, योगकी अष्ट सिद्धियों मानी गई हैं-- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ।
सिद्धिमोह - सिद्धियाँ प्राप्त करने और चमत्कार दिखानेका लालच
सुखद - सुख देनेवाला ।
सुखाभास - कल्पित सुख, सुख नही" होनेपर भी सुख जैसा लगना । 277 हम
"
९११
. निश्चित किया हुआ मार्ग या नियम । ( पृ० ७९५ व्याख्यानसार)
}
स्थितंप्रज्ञदशा - मनमें रही हुई सर्व वासनाओको 'जीव छोड दे और अन्तरात्मामे ही संतुष्ट रहकर आत्मस्थिरता पाये ऐसी दशा । ( गीता अ० : २ ) स्थितिबध - कर्मकी काल मर्यादा । * स्थितिस्थापकदशा - वीतरागदशा 'मूलस्थितिमें फिरसे JMYPEW
ات
IN
आ जाना ।
स्यात्पद—- कथचित्, किसी एक प्रकारसे । उभयनय स्यात्पदा के ० (देखें समयसार
विरोधध्वसिनि कलश-४)
1.7
स्याद्वाद - प्रत्येक वस्तु अनेकात' अर्थात् अनेक धर्मसंहित होती है, वस्तुके उन धर्मो को लक्षमें रखते हुए वर्त-" मान पदार्थके किसी एक धर्मको कहना स्याद्वाद या अनेकातवाद है ।
1519
स्व उपयोग - आत्माका उपयोग ।
सुधर्मास्वामी - भ० महावीरके एक गणधर इनके रचे स्वधर्म - आत्माका धर्म, वस्तु को अपना स्वभाव
स्वसमय - अपना दर्शन, मत, अपना शुद्ध आत्मा, अपने स्वभाव में परिणमनरूप अवस्था ।
031(
3
स्वात्मानुभव - स्वसवेदन, 'अपने' 'आत्माका' अनुभव; 'एक सम्यक उपयोग हो तो स्वयक अनुभव हो जाता है कि कैंसो अनुभवदशा प्रगट होती है । (१० ७३७ उपदेशछाया)
प्रय
स्वच्छंद - अपनी इच्छानुसार चलना । "परमार्थका मार्ग - छोडकर वाणी कहता है यही अपनी चतुराई, और इसीको स्वच्छद कहा है । ( पृ० ७०८ उपदेशछाया) - स्वद्रव्य - अनतगुणपर्यायरूप अपना आत्मा ही स्वद्रव्य "है । (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके ंलिये देखें "पृष्ठ ८०९,’आभ्यतेरॅपरिणामावलोकन क्रम ७)
हुए आगम वर्तमानमे विद्यमान हैं ।
सुधारस - मुखमै ' झरनेवाला एक प्रकारका रस, जिसे’ आत्मस्थिरताको साधन माना है, अनुभवरस' सुलभबोधि - जिसे सहजमें सम्यग्दर्शन हो सकें । सूर्यपुर - सूरतका पुरानो नाम
>,
ह
स्पष्ट ।
सोपक्रम' आयुष्य - शिथिल, जिसे एकदम भोग लिया जाये । (व्याख्यानसारे)' ह स्कध —-दो अथवा दोसे अधिक परमाणुओं के समूहको हस्तामलकवत् -- हाथमे लिये हुए आँवलेकी तरह, स्वयं कहते हैं । 201 स्तभतीर्थ - खभात का ऐतिहासिक नाम । स्त्रोवेद कर्म-जिस कर्मके उदयसे पुरुषसयोगकी इच्छा हो । स्थविरकल्प - जो साधु वृद्ध हो गये है उनके लिये शास्त्रमर्यादासे वर्तन करनेका
43 2
हावभाव - शृगारयुक्त चेष्टा । हुडावसर्पिणीकाल --- अनेक 'कल्पोके बाद 'आनेवाला भयकरकाल, जिसमें धर्मकी विशेष हानि होकर मिथ्या धमका प्रचार होता है ।
5-7 N
बांधा हुआ -
हेय - वजने योग्य पदार्थं ।
3
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परिशिष्ट ६
सूची - १ विशेष नाम
( यहाँ पृष्ठाक दिये गये हैं । कोष्ठक - ( ) में दिये हुए पृष्ठाक फुटनोटके सूचक है । )
अकबर ६
F
अखा २३७, ३०८, ३७९
अचल (डुगरशीभाई गोसलिया) ५०८, ५६४, ५६८
अवारामजी ३२५
अजितनाथ भगवान ५८५, ६७६,
अनतना स्वामी ३७६. ७१६
AFC 12
अनाथदासजी ४१२, ७०१ अनाथीमुनि ३१, ४०, ४१, ६३ अनुपचद मलुकचंद ५१७
अभयकुमार ८१, ८३
अभया ८३
अभिनदनस्वामी ५१७
1
--
-
7"
17
1557
अयमतकुमार ६२
अरनाथ प्रभु ७८४
अर्जुन ४३५
अष्टावक्र ३२०
अवालालभाई लालचद (लभात) २४९, २५४, २५५, २५६, २५८, २५९, २८०, २८३, ३०६, ३१३, ३६९, ३७१, ३८४, ४०९, ४१०, ४११, ४२८, ४४१, ४५२, ४६८, ४८०, ५०७, ५१४ (५३४) ६२३, ६४०, ६४९, ६६०, ६६७, (६९३), (६९५) आत्मारामजी महाराज, ६७८ आनदघ्नजी ३२१,-३४४, ३४६, ३४७, ३७६, ३७९, ३८३, ४६५, ४७३, ५७७, ५८२-५, ६४१, ६६४, ६७६-९, ७१६, ७८४
आनद श्रावक ७०४
ܐ
12.
,३७०, ४४५, ४६५, ४९७, ५०५, ५०९, ५३९ ५८१-५, ५९१, ६१५, ६२३, ७१४, --
- ऋषिभद्रपुत्र ६६९
ओघव २५१, ४७५
- कपिल ३५, १९१
1
-5
कपिल केवली ३५, ९३
कपिला, (दासी) ८४
कबीर २३४, २६१, २६८, २८१, ३७९, ४२७,
५०४, ६७९
करसनदास ३१६
कल्याणजीभाई केशवजी - ६५४ कामदेव (श्रावक) ७५
काश्यप ९३
f
इच्छावहन ६५४
इंद्रदत्त ९३
ईशु ख्रिस्त (इसा ) ६८, ४३६. चज्रमसीमाई (जूठाभाईके_-पिता) १७१ उमेदभाई ६६६
केशवलाल (चिरम), २९०, २९५, ४४४, ४५०, ४५३ केशवलाल (लीवडी ) ३७६, ५२३, ६०७-६२८ केशीस्वामी ७०४, ७१०, ७१४खीमचन्दभाई ३५६, खीमजी २२५, २३२, २३३, २६०, २८३ उगरीबहन ६४१ खुशालभाई ३१२, ३६९, ५११ 57ऋजुवालिका ९९ खेतशी ७९ ऋषभदेवजी १, २८, ३६, ७१, २१०, २६३, २६६, गजसुकुमार १२ ६२, ११, १६०, १६१, ३८१
---
1.
कार्तिकस्वामी ६८३ :---
किरतचन्दभाई ( मनसुखलालके पिता) - ६७६ किसनदास (खभात) ३२४
किसनदास (क्रियाकोषके रचयिता ) ६४५ - कोलाभाई ३१२, ६३०, ६६७ कुमारपाल ७८३ कुडरिक ५५
कुदकुदाचार्य ४६५, ६९९, ६६३,,७८८, ८४१ कुवरजी- (कलोल) २६१, ३३६, ३८५, ५०७, ५०८,
६४१
कुवरजी आणदजी ४५५, ४६४, ६०७
कृष्णदास ३४०, ३५२, ३५७, ३६८, ३७८, ३८१, ३९६, ४१२, ४२८, ४४१, ४४२,
तथा
21/01
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परिशिष्ट ६-विशेष नाम
.९१३
गगा (नदी) ३५३ '118. , डुगरशीभाई (श्री अचल, श्री गोसलिया) ३१७, ३४१, गोमटेश्वर (बाहुबलीजी) ६८० : :
३४४, ३५४, ३५८, ३८६, ३८७,,-३९२, ३९७, गोशाला ७०३ , , ..... । ४२४, ४२५, ४२७, ४३०, ४५१,,४५६, ४५९, गोसलिया (देखें डुगरशी भाई, श्री-अचल), ' . ४६३, ४६५, ४७१, ४७३, ४७५, ४७८,,४७९, गौतम गणघर (गौतमस्वामी) ९२, ९७, ११४, १५९, ४८०, ४८१, ४८२, ४८४, ४८५,४८६, ४९१,
२३६, ३७८,.७०४६ ७०६, ७१४-- -- - ४९२, ४९७, ४९८, ४९९, ५०१,-५०२, ५०४, गौतम मुनि ३५
FEE
५०५, ५१०, ५११, ५६७, ५६८, ५७७.६१९,
. ६२०, ६२१, ६२३, ६२५, ६२७, ६२८, ६३२ घेलामाई केशवलाल ६४३ - .. 15
अवकलाल ४५०, ४७३, ६१५, ६१६, ६२७, चत्रभुज वेचर मेहता १६७, १६९, २६७, ३३१,४५२, त्रिदडी २८
त्रिभोवनदास २१३, २२१, २३१, २४९, २५१,२५३, चमर २३६ . , चमर २३६ . . . . । .
२५६, २५८, २६१, २६७, २७, २८०, २८१, चदु ३२७ , , , . .
o" २८४, २८७, २९६,.३१०,३४९, ३८१, ४०४, चद्रप्रभस्वामी ६७० ।। .... ।
४०५, ४१८, ४५६, ४८०, ४९५, ५१४, ५७९, चद्रसिंह २५
६३०, ६६२-३,१६६७ ) चद्रसूरि ६७९
-- ! - - -
त्रिशलादेवी ९९, ३१६ चामुडराय ६८०
दयानद सन्यासी १२९ चिदानदजी १६१. . . . . ' '
दयालभाई १८३, १९१ चुनीलाल २६१, " . . . . . . . . . .
दामोदर २८९ चेलना राणी ६८८
,
दीपचदजी (मुनि), २५२, २५५, २५७, ३१३ , चेलाती पुत्र ७३६
दृढप्रहारी ५७ छगनलाल (खभात) ६६०
देवकरणजी (देवकीणं) ४०७, ४०९, ४१०, ४१२, छोटम कवि २९०
___ ४५२, ४६७, ४८१, ५१४, ५३,२, ५६६, ५७६-९, छोटालाल (खभात) २५५, २५८, २६५, २८०; २८७, ६०६, ६१९-२१, ६३०, ६३५, ६४१, ६५५ ५०९, ६३०
8 , देवचन्द्रजी ३२०, ५१५, ५८२ । , - 'जडभरत १५९, २७४, ५१९, ५२१' ..".". '
देवचद्रसूरि ७८३ जनक विदेही १५९, २७६, २७९, ३१५, ३२०, ३२५, देवशी ७९ ४५८
, , - धनाभद्र ३९५ जराकुमार ४४१. .. . .. ... ..
धनावा सेठ ५६ जवुस्वामी १२०, २५७, २६३, २८२, ५३९, ... घरमशी मुनि ७३२ . जीजीवा ४४४
पारशीभाई ६७२ जीवा गोसाई ७१५ , .. धुरीभाई ६१८, ६२५, ६३० जूठाभाई. १७१, १७८, १७९, २२० । नथ्थुरामजी २९६ ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर) ५९ .
नमिराजपि ४२, ११०, ६६९, ७७६ सबकबहन ५६७
नरसिंह मेहता २८१, ७४६ . सवेरभाई (काविठा).६५० ।।
नवलचद ४७१, ६१९ शवेरभाई ६३०
नदिवर्घन ९९ ठाकोरसाहेब (लोबडो) ३४३
नागजी स्वामी ३११
.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
.९१४
... श्रीमद-राजचंन्द्र,
( नाभिपुत्र (देखें ऋषभदेवजी)
7.
मणिलाल (बोटाद) ३५६, ३५८ :: र नाभिराजा-५८१....... ..
मदनरेखा ६६९ ० (Tege नाभा भगत ७१५- :. : . .
मनसुखभाई रवजीभाई ६२०, ६६९, ६७२नारद ७६; २७७ 5 .
मनसुखभाई किरतचद (६७३), (६७६), :, -7; निरात कोली.२६० ८. . ....
मनसुखभाई देवशी ३७६ (1 ) TE नेपोलियन बोनापार्ट ५ १
मनसुखभाई पुरुषोत्तम (खेडा) ६२१,६२२, . नेमिनाथ ९१, ६६१,' , , ,
महापद्म तीर्थकर ३०४
। पतजलि ३५, ८१८ : ..
।
महावीर स्वामी (वर्धमान स्वामी) ११,१४, २८, ३५, पद्मप्रभु ६७९ ३ .76 1
३६, ६१, ६९,७५, ८१, ९२, ९९, १३३, १५६, परदेशी राजा ७१०
।
१५२, १७१, १८४, १८८, १९१, १९९, २१.२, परीक्षित २६६
-65,
२२२, २३५, २३८, २३९, २५३, २५६:२६०,
२६३, ३१७, ३२१, ३२८, ३३९, ३७८, ४०६, पडित लालाजी १३६. . . ... .
४२२, ४३०, ४३१, ४३४, ४७०, ४८२, ४९७, । पाश्वनाथस्वामी १६०, १८६, २३७७ . .
५०५, ५०६, ५२९, ५३९, ५८१, ५८६,५९१,
६०२.६३७, ६५५.७०३, ७०६,७२८,७३२, पुंडरिक ५५ ।। ... पूजाभाई सोमेश्वर भट्ट (खेडा) (६९२) ३ . '
७४३, ७४७, ८१८, ८४५
महीपतराम रूपराम ६७८
।' पोपटभाई ५६७, ६२३
.
महेश्वर (महेश) ४३८ प्रद्युम्न ६८०
. I n प्रह्लादजी ४९०
माकुभाई (बडौदा) ३९७, ४३०, ४४९371
माणेकचद (खभात) ५०८, ५०१, ५१०, ५७०. , प्रीतम ३७९
माणेकदासजी ७१७ बनारसीदास ३७९, ४२३, ६२९, ७५५, ७९०° 15
मीराबाई ७१५ बलभद्र (राजा) ५१
मुक्तानद २५१ बाहुवलजी ७१; ५३९, ६८० ,४२३, ७४२० .
मुनदास ६४०, ६४१ 'बुद्ध (शुद्धोदन) ३५, १०२, १९३, ४३७, ४२८, ७७६, * ७९२ ।। .. .. ..
मृगा-५१....... (FIFE ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ७१ ।' ,
मृगापुत्र (बलश्री) ५१ न
मोहनलाल करमचंद गांधी. (महात्मा गाधी) ४३१, ब्रह्मा ६८, ४३८
...४५९, ५३२. ब्राह्मी ७२, ५३९, ६८०
'यमुना (नदी) ३५३ " भद्रिक भील ११४-५
'
यशोदा ३५, ९९ भर्तृहरि ३४, ३५, १६०
यशोविजयजी ३६५, ४७५, ६२५, ६७४; ७८३, ७८६ भरतेश्वर २८, ४६, ७१, २१०, २७४, ५०९७६ रतनचद ६६४ .75737 EFFir, , भाणजी स्वामी ६२९
- 110, 5 रतनजीभाई ४६४ भघर २६७
'' रवजीभाई देवराज १३६ ' - 13 भोजा भगत २६०
रवजीभाई पचाण (श्रीमद्के पिताजी) ४४४/४४८६ । मगनलाल
रहनेमि १६०
(PUJASTRI ६२६, ६२७, ६२८२
राजेमती १६०, १६१ मणिभाई नभुभाई ६७३, ६८२ : 7 7
राम (रामचन्द्र, श्रीराम) २२३, २५७, ३४३,३४५, मणिभाई सोभाग्यभाई (मणिलाल, मणि). २६७, - ३४३ ३८१, ४३८, ५०६
firyFT ४४४, ६१६, ६१७, ६२१,६२७२८. . रामदासजी सावु २०६ (RTI)... "
१०.
72००१. २०.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ६-विशेष नाम
सिस्वामी ५३१
{ 'शकदेवजी २६६, ५१९, ५२१ ती ७९
शेखरसूरि आचार्य ७७७ मणी ५६
श्रीकृष्ण ९१, १८४, २०६, २५१, २६६, २७६, २७७, कर जगजीवनदास २३७, २७५, २८३, ३५२, २७९, ३४४, ३७२, ३८०,३८४, ३९९, ४३५,
४३८,४४१, ७२२ ३६२, ३९६, ४३०, ४४० ,४५२, ६२७- -..
, जी मुनि २८६, ४०.६,, ४०८, ४१०, ४११, श्रीदेवी ९३८ : . १२,४१६, ४२०, ४२१, ४२९, ४४९,४८९, श्रीपाल ४९७ः ।
।.. , . ५१०, ५६६, ५७१, ५७७, ५७९,६०६, ६२०,
श्रीमद्, देखें विषयसूचीमें - " : ६२१, ६२२, ६३५, ६६५
श्रेणिकराजा ३९, ४०, ४१, ६३, ८१, ८३, ३०४, राभाई ४८०, ४८१, ४८२,४४४, ५१०, १११.
- ५४१, ६८८,७०२
, . . ५७७,६१९, ६२१६२३
- । लचन्द २९०''
-
सगर चक्रवर्ती ७७६ -
, Nyr... भानन्दजी ७८४ (देखें आनदघनजी) ,
सत्यपरायण, सत्याभिलाषी-देखे जूठाभाई ... .. .15
सनत्कुमार ४९, ११२ . . iii काशा ७१७
समतभद्राचार्य ६८४,७८८ वस्वामी ५६
,1,EME .. 17
सहजानदस्वामी २९२, ३५२,५१३
सहजानदस्वामी गारसीदास ६४९ नमालीदास ६४०, ६४१ .
सगम देवता ७०३ र्धमानस्वामी, देखें महावीरस्वामी "
सिद्धसेन दिवाकर ३०८' ' . , .
सिद्धार्थ राजा ३६, ८१, ९९, ३१५ ल्लभभाई ६५०
नाम सखलाल छगनलाल ३७६, ४५४, ५०७, ५०८, ६४० ल्लिभाचार्य ५१३, ६७७, ७२२ ,
सदर्शन सेठ ८३, ३९९ .... वसिष्ठ २२३, २६६, ३४५ . - -
। । -
।
सुधर्मास्वामी २५७, २६३, ५३९ . , . वसुदेव ६८०
सुभूम चक्रवर्ती ७८
. : . वसुराजा ७६
1. सन्दरदासजी (सुन्दरविलासके रचयिता) ३७९, ४९५, वामदेव ५१९
. ४९९,५००, ५०४, वाल्मीकि ३५
सुन्दरलाल (खंभात) ५०८, ५१० ... - विक्टोरिया १७०
सुन्दरी ७२, ६८० विदूर
सोभाग्यभाई लल्लुभाई (सुभाग्य): २२७, २३१, २४८, विद्यारण्य स्वामी ६८२
२५५, २५९, २८६, २८८, ३०७.९, ३११, विष्णु ६८, ४३८, ५५४ . . . . . . . ३१३, ३१४, ३२६, ३३०,' ३३२-५, ३४१, वीरचद गाधी ६७३ -. -:
३४५, ३५२, ३५६,३५७, ३६८,३८१, ३८६, वैजनाथजी ५२४ ।...
. ,
३८७, ३९२, ३९३, ३९७, ४००, ४१६, ४१९, व्यास ३५,, २३१,-२५६, २६०, २७७, ३०७, ४३५ ४२३, ४२७, ४३०, ४४५, ४४७, ४४९-५३, शक्रेन्द्र ४२, ११० ... ..
४६३, ४६५, ४६८, ४७०, ४७२, ४७६, ४७८, शकर ३५, ६८
४७९-८२, ४८६, ४९२, ४९९, ५००, ५०२, शकराचार्य ३१, १२९, २२७
५११, ५६७, ५७१ ६१४-२१, ६२८, ८५० शालिभद्र ३९५
सोमल ९१ शातिनाथ ३१, ६७९
हरिभद्राचार्य १९१, ५२९, ६२५, ६७४, ६८२, ७४४ शीलागाचार्य
हेमचन्द्राचाय ६७७, ६८३, ७८३,
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--------------------------------------------------------------------------
________________
९१६
अजितजिनस्तवन ५८५-६ अध्यात्मकल्पद्रुम ६८७ ·
T
अध्यात्म गीता ६६१
5
अध्यात्मसार ३२४, ३२५, ६८७
अनंत जिनस्तवन (श्री आनदघनजी) ३७६२ अनुत्तरोपपातिक १७५, ५८९
अनुभवप्रकाश ४९०३३०४
अष्टक २०६
अष्टप्राभृत ६५५, ६८१, ७७८
अष्टसहस्री ६८४ ।
अस्त्र हो
:
প
अतकृतदशाग १७५, ५८९ 5. आचारागसूत्र १७५, १९१, २०७, ४६२, ४६७, ५३९, ५४५, ५६६, -५८९, ६०६, ६१२, ६१७, ६४४, ७९८
आप्तमीमासा, देखें देवागमस्तोत्रं " 2
इंद्रियपराजयशतक ६८७
उत्तरार्ध्ययन सूत्र ३५, ९७, ९९, ११०, २२९, २९०, ३४१, ३४२, ४२१,
-१७
आत्मसिद्धिशास्त्र ५३४-६८, ५७१, ५७६, ५७७, ५७८, ५८०, ६१५, ६२७, ६२८, ६३३, ६३६, ६४१, ६६०
30
109,55150
३१
आत्मानुशासनं ६३८, ६४०, ६४९, ६६६, ६८१, ६८७
आनदघन चौबीसी ६३६, ६७६
अपणासार,६८१
?
" क्षेत्र समास ७५८ गहस्ती महाभाष्य ६८४ गीता २७९, ४३६, ६८२ गीता ज्ञानेश्वरी ६८२ गीता थियोसोफी ६८२
कालज्ञान १६२.
८०
क्रियाकोफ् ६४५, ६४६, ६८१०
72
t
- श्रीमद राजचन्द्र
सूची २ ग्रंथनाम
3,0
View
५४०, ५६६, ६६९, ७७० ७८४ ल
ゴング 2
उपदेशरहस्य ३६५ उपमितिभर्वप्रपच’६८४ ६८७ण
उपासकदशाग १७५, ५८९
72
ऋषभजिनस्तवन ५८१-५
t
कर्मग्रथ/ ५७७, ५७९, ६०६०, ६१३, ६१९,६३०,
,,,६३६, ६५५४
- 201
I'
FA
repor 1207
१५९, १६६,
४४१, ४६२,
く
- "
न
SA
गोकुलचरित्र १९३ गोम्मटसार- ६३०, ६५५, ६६६, ६०, ६१ चारित्रसागर ४२७`
2066
द्रव्यसंग्रह ६४१
द्वादशागी १७, ४००, ६५२ धर्मविन्दु ६८७, (७९३ )
धर्मसग्रहणी ६८२, (७८२)
नयचक्र ६२९
नवतत्त्व ६८७
नदीसूत्र ३०३, (७९३) नारद भक्तिसूत्र २७७
छजीवनिकाय अध्ययन ५११
छोटकृत पदसंग्रह २९००. 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ७३२
ज्ञाताधर्मकथाग १७५, ५८९ ठाणागसूत्र (स्थानाग) १७५, ३०४, ३०८, ४१५,
६
7
४४५, ५३७, ५ ९, ७५८, ८४५.., तत्त्वज्ञान (८०३)
तत्त्वसार ६८१
21 A111-75
फि,
तत्त्वार्थसूत्र ६४१, ६७४, ६८४ त्रिलोकसार ६८१ दशवैकालिकसूत्र १२०, १५६, १८७, १८९, २०७ ५६६, ६३८, ७९४ दासबोध ५३१, ५७०
त्रिक
दृष्टिवाद १७५, ५८९देवागमस्तोत्र (आप्तमीमासो) ६८४, ७८८
Exp
3.
पचीकरण ५७०, ५७२, ७२६
पातजल योग ७८४
पाडवपुराण ६८०
21
पुराना करार ४३६
पुरुषार्थसिद्धि उपाय ६४१, ६८१ प्रज्ञापनासिद्धात २३०
प्रज्ञावबोध ६६८, ६७५, ६८४
-
Rss
!!
1
परमात्म प्रकाश ६२९, ६८१, ७८९
पंचास्तिकाय ५१७, ६.२८-३१, ६४२-३, ६८१
२५,
5W
---
}
----
1972
ما
"
15153","
पद्मनदीपचविंशति ६४७, ६४८, ६४९, ६५५, ६६४,
६६६, ६६७, ६८१
ܕ 7 ܒ
275 176
Page #1054
--------------------------------------------------------------------------
________________
९१७
10th
-
वृहत्कल्पसूत्र ४०९, ४११
७८६
परिशिष्ट ६ ग्रंथनाम प्रद्युम्न चरित ६८०, ६८१
- विचारमाला ४१२ प्रबोधशतक २७३, २७५, २८९
विचारसागर ३३२, ३५२, ५७० प्रवचनसार ६२९, ६७०, ६८१
'विपाकसूत्र १७५, ५८९ प्रवचनसारोद्धार ७९० . . . विहार-वृदावन ५०५ -: -, ... . प्रवीणसागर १६९, १८३, १९१०,२०६०
वेद १०२, १०४, २५८,४३६, ४६९,४ ४९१, ४१५, प्रश्नव्याकरण १७५, २६१, ५६६, ५८९, ६३८ .. ५११, ५२८, ५५४-५ प्राणविनिमय ३३४
वेदातग्रथप्रस्तावना २७२ ., . . . वाइबिल ४३६
वैराग्यप्रकरण ३२७. . . . . . . .
वैराग्यशतक ६३६ भगवती आराधना ७८४, ७८५, ७८६ ७८९ .'
वृद-शतसई ३१ भगवती सूत्र १७५, २१९, २२६, ३६०, ५८९,६६९,
शातसुधारस ३१८, ३२४, ६२४, ६ , .
शातिप्रकाश २२९ भावनावोध ३४, ५७१, ६३६, ६८७ . " शिक्षापत्र ३९९
- भावार्थप्रकाश ४७१
शूरातन अग (सुदर विलास) ५०० मणिरत्नमाला ३७२, ६१९, ६२१, ७३८ । श्रीपालरास ४९७ मनुस्मृति १३७
श्रीमद् भागवत २६६, २७४, २७६, २७७, २७९, मयूख १३७ - , - 7 .. ३०६, ३९१ मिताक्षरा १३७ । .. ...
षड्दर्शनसमुच्चय ४३२, ४३३, ४३९, ४९३, ५१७, -७४
६७३-४, ६८२, ६८३, ७९८ मूलपद्धतिकर्मग्रन्थ' ६८७३ 7.5
।। ___ समयसार ३४०, ३९४, ४२१,४२३, ४५५, ५४४, मोक्षमार्ग प्रकाश ६२०,३६२१६.६२३, ६२७३६६३०,
६३९, ६५४-५, ६६२-३, ६६६, ६८१ -' ६३६, ६८१-७: 2 3
समयसार नाटक ३१८, ३२२, ३६५, ७५५, ७७९ मोक्षमाला ५९, १९५, ६६९, १६६४, ६६८, ६७५,
समवायाग १७५, ५८९, ५९० - - ६८३, ६८५, ७८३' . .. .
सम्मतितर्क १३४, ३०८ .. मोहमुद्गर ६२१,७७३८५-६ - .
सर्वार्थ सिद्धि ७८८..
. योगकल्पद्रुम ३१२/2.. ' ,
समवजिनस्तवन (आनदधनजी) ६४२ . . . , . योगदृष्टिसमुच्चय २०६, २६२४, ६२५, ६७४,, ६८१,
सातसो महानीति (वचन सप्तशती) १३८ ..., ६८३-७,.५८३४ ।' योगप्रदीप ६४६
सुदृष्टितरगिणी ६६७ योगविन्दु २०६, ६२५, ६८४
सुमतिनाथ स्तवन (देवचद्रजी) ३२० योगवासिष्ठ २२१, २८०, ३९१, ४१५, ४१६, ४१२,
सुदरविलास ६९०
सूत्रकृताग (सूयगडाग) ३६, १७५, २६३, २९०, ४२१, ४२३, ४२९, ४४१,३४४१.४९५, ५२३,
३३८, ३३९, ३४२, ३९७, ४००, ४२१, ४६२, ५४४, ५७०, ५७२, ६१८, -
-
५४०,५६६,५८९ योगशास्त्र ६२५, ६३६, ६६६,.६६७, ६८३-.., स्थानाग, देखें ठाणाग रलकरण्ड श्रावकाचार ६८१,७७५ ...!
स्वरोदयज्ञान १६१ रयणसार ६८१
स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा ६३९, ६४५, ६४६, ६४८, लब्धिसार ६८१
६५२, ६५५, ६८१, ६८३, ७९४ वासुपूज्यस्तवन ३२१
सिद्धप्राभूत ५८२
Page #1055
--------------------------------------------------------------------------
________________
९१८
कच्छ ७९, ६४३
कठोर ४५२
21 ?
अहमदाबाद १९४. ६२९, ६५५, ६५८, ६७८
अजार ३९७, ४१९, ४५२, ६४३ -
आगरा ७९०
आणद ३१०, ३१२, ३१४, ५२८, ५३२, ६२८, ६३६, ७३३, ७४०, ७४२, ७४४
JUAL
कलोल ३३६, ३८५
'काठियावाड ३८६
इगलैण्ड ५३२
-1-25
ईडर ५७७, ६१३, ६३९,६४०, ६४१, ६४५, ७८२
उज्जयिनी २५
उत्तरसडा ( वनक्षेत्र) ६३८
A
६३, १३,
"
つ
ご
i
13
7
3
काविठा ५१६, ६३६, ६५०, ६६७, ६९५-७,
काशी १३७
be
''""
कौशावी ४०, क्षत्रियकुड ९९ खभात (स्तभतीर्थं), २४९, २६८, २८८, २९६, ३.२७, ३३९, ३४९, ३५७, ३७८, ३८९, ४१,१, ४१८, ४२८, ४४१, ४८०, ४९२, ४९६, ५०८, ५०९, ५३६, ६४४, ६४५, ६६०, ६६७, ६८७ खेडा ६२१, ६२२, ६३८, ६५५ ६९२ खेराळु ६४२, ६४३ त
गुजरात ३५३, ३८७, ६४२, ६४३ जावा १०६
जेतपर (मोरवी) २२६
टीकर ६४२, ६४३,, डरबन ४३१, ४५९, ५३२
डाकोर ७०७
विय्बल ६६९
द्वारिका १०५, ४४१ घमंज २४९, ३१०;′३१४ धर्मपुर ६५५, ६५६, ६५७, ६५८
घघुका ७८३
घागना ६४२, ६४३
श्रीमद् राजचन्द्र
सूची ३
स्थल नाम
99776
AD
Fri
प्र
Hiya
_?
17
ܕ ܚ ܘ ܐ ܕ
अंत
TIME PE
1
-
नडियाद ४५३, ५३४, ५६६, ५६७, ५७६, ६५८,
56
६६०, ६६१, ६६४
F
नरोडा ६६१
नाताल ५३२
निंबपुरी देखें लीमडी पुडरिकिणी ५५
पूना १३७
पेटलाद ३८८, ५७१
प्रातिज ६४३
फेणाय ६२३
د
बजाणा १९४
बडौदा ३९७
3.
2855
2
-
U
P
nac
22
15
बवई १६७, १६८, १६९, १७१, १७८, १७९, १९६, २०३-५, २०७-१६, २१७, २१८, २२०, २२,२, २३५-९, २४८-९६, २९७, ३११, ३१४-२०, - ३२२-४९, ३५२, ३५४-६२, ०३६५, २६६, ३६८७८, ३८०, ३८१, ३८३-८७, ३९०-४०१, ४०३, ''.:७, ४११, ४,१३, ४१६ ४१८, ४२०-३, ४२५३१, ४३९, ४०, ४४१, ४४३, ४४५-७, ४४९६५, ४६७-७०, ४७२-८५, ४९१-५०२, ५०५११, ५१३-५, ६१३, ६१५-२७,६२९, ६३२, ६३५,-६३६, ६३९६४५-६५४, ६६९, ६७२, ६७३, ६७९-८२, ६८४, ६८६, ८१३, ८३२ बैंगलोर ६८०
बोटाद ३५६
बोरसदः ६५०, ६६४
भरुच (भृगुकच्छ) ४१, १९५, १९६, ५१७ भारतवर्ष २८७, ४३६,’४८०, ५९१, ६७८'
भावनगर ३५८, ४५५, ४६४,६०७० भीमनाथ ( अहमदाबाद ) ६५८
भोईवाडा (बबई ) ६७९
मगघ ४१, ६३, ८१, ९९ मद्रास ६८३ मलातज २४९
T
2014 EA
इसमे
37 1
प्र
34 न्यू
Page #1056
--------------------------------------------------------------------------
________________
९१९
ववाणिया १३६, १६७, १७०, १७९, १८१, १८२, --- १८३, १८४, १८६, १८९, १९०, १९१, १९५, १९६, २२२, २२३, २२४, २२५, २२७ २२८, २२९, २३१, २३२, २३३, २३४, २३९, २९७, २९८, ३०५-१४, ३८७, ४४४, ४४७, ४५३, ४५६, ४८०, ४८५-७, ४८९, ४९०, ५६८,
मोरबी १८५, १९४/२२२२९ २३४३१४,५६९, ५७०, ५७१, ५७२, ५७७-८१, ६०६६१०, ६१२, ६२२, ६२९, ६३१, ६३२, ६३६, ६४२, ६४३, ६४५, ६५८, ६६०-५.
३८१, ३९३, ४६३, ४९०, ५७६, ५७७, ६२८, ६२९, ६३०, ६४१, ६४४, ६६३, ६६५, ६६७, ६७२-६, ६७८, ६८३/६९३, ७४९, ७७६-८, ७८०-१, ७८३-४, ७८६,१७८८७९०-२, 13 Thiruv ७९४-९
वसो ६३७, ६४१, ६४८, ६५८, ६६०, ६६१, ७८२ विदेह ४४
-
उत ७
४ ३-३०/copy
महाविदेह ५५
मालवा देश २६, २७
७७६
मिथिला ४२, मुक्तागिरि ६८० मूळी ४८५
मेरु ३८७
27
मोहमयी देखें बबई
रतलाम २८३
राजकोट ५३२, ६७०, ६७१ राजगृही ८१, ८३
राजनगर ६४५
राणपुर (हडमतिया ) ४९१ राधनपुर ६२१
परिशिष्ट ६-स्थल नाम
59 d
0
ܙ : ܟ ܐ ܐ ܘ ܟ ܢ
pr, A
S
-
3,73
राळज २९७, २९८, ३०१, ३०१, ३०२, २०४ 1 ,५११, ५१७, ५१८, ५२१, ५२४, ५२६, ५२८, ६९९, ७०७, ७१८.
1
2 लोमडी ३५६, ३७०, ३७६, ४५३, ४९२,,,५२३, ६२८ वडवा - ४१०, - ५२३, ५२४, ५२७ ७२०, ७२२ ७८२
>
पत
वढवाणकेम्प १९४, ४५३, ६६९, ६७०, ६८३
वलसाड ६६९
वीरमगाम ३७६, ४५४, ५०७, ६६० "
ハン
S
वृदावन ७१५
वेणासर ६४२
श्रावस्ती ९३
साणंद ६५५, ६६० सायण ४५२
सायला ३५२, ३५७, ३८७, ३९२, ४२३,४२७, ४३०, ४५१, ४६३, ४६८, ४७०, ४७२, ४७५, ४७८, ४७९, ४८०, ४८२, ४८६, ४९२, ४९९, ५००, ५११, ६१२
सुग्रीवनगर ५१
''...,
सुणाव ५७२
सुरत ४०६, ४०८, ४११, ४१६, ४२०, ४२१, ४२९, ४४०, ४८९
सुपुमारपुर २३६ । सूर्यपुर देखें सुरत
सौराष्ट्र ५७१ हिंदुस्तान ७९५
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९२०
श्रीमद राजचन्द्र
सूची ४
विषयसूची अफाम निजरा ७५०
अपूर्व अवसर ५७२-५ यकाल दोप २९०
अपूर्व वाणी ५४० अघातिनी ६९३
अप्कायिक जीव ५१७ अचक्षुदर्शन ७७४ . . . अभयदान २६, ० सर्वमान्य धर्म ६० अजीव ११९, १२७, ५९०, ६०३, ६८१, ० के भेद अभिनिवेश ४९६, ० लौकिक ५०२
अयत्ना १८६ .. अज्ञान ३७९, ५८०, ७४७, ७५८, ० के भेद ५९९, ० अरूपीके प्रकार १६६ . . . . . . __ और ज्ञानावरणीय कर्ममें भेद ६०७, ० से भय ७१७ अलोक १६६, ५९७, ६०१ . . . अज्ञानपरिपह ३२४, ४४२
अलौकिक दृष्टि ५१९, ५२१ ... अज्ञानी ३३, ७११,७१५, ० को सवर वधका हेतु ७१०; अवगाहना ६८० ० का उपदेश ७१९
अवतार ४३८ अणुन्नत ७९१
अवघान १३६-७ अदत्त ७६८
अवधिज्ञान ५३० अघमाधम पुरुपके लक्षण ७४१ .
अविरति ७६१, ७८७, ८३५ अघमंद्रव्य ५१५, ६०१
-
। अविरति सम्यक दष्टि ७४२ ७६५ अधिकरण क्रिया ४२६-७ .. । ४२६-७ . . . .
. अविवेक ९७-८ अधिष्ठान २७६, २७७ .
. अविषम, उपयोग ५७२, ० भावके बिना अवघता नही अध्यवसाय ५८०,७१७
६२८ अध्यात्मज्ञान, अध्यात्मशास्त्र ७१६.
अशरण भावना २१, • पर मनायीमुनिका दृष्टात ३९ अनत ७६३, • दान-लाभ-वीयं-भोगपभोगलब्धि ६५७ - अशुचि, ० दोष २९०, ० भावनापर सनत्कुमारका अनतानुवधी कषाय ३८४-५, ४२६, ४७८, ४८४, ७१८, दृष्टात ४९; - कसे कहना ? १०० ७५१, ७७१-२
अष्ट महासिद्धि ४७३ अनानुपूर्वी ८६
असत्य ६८८,७९१ अनित्यभावना १७, ३७, ० पर भिखारी का दृष्टात ३८, असद्गुरु १७४, २३४, ५४३, ७०५, ७३२, ७४६-७
असमाधि ४५०, ४५७ अनीति, • और सुनीति ४३७
असगता २६४, २६६, २७२, २७४, ३७१,, ४६४-५, अनुकपा २२९, ६०४, ७२९
४७६ अनुभवउत्साहदशा ६१४
असख्यात ७६३ अनुदोरणा ७८३
असंयम ७१० अनुयोग ७६९,७७०
असोच्याकेवलो ४४५, ५३७,७१५ अन्यत्व भावना ४५
अस्तिकाय ५१४-५, ५९७ अपवतंन ७८३
अह ब्रह्मास्मि २४१ अपवाद ७८७
अहिंसा १८८-९ अपारिणामिक ममता ३८५
अत करण ५५४ अपुत्रकी गति ५१८, ५२२
अतराय ६९३ अपूर्व ३०८
अतर्मुखवृत्ति ४९३, ६२६
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९२१
८१२,७८२
परिशिष्ट ६-विषयसूची नन्तर्वृत्ति ७९३,, - ' ' in ;
विषय सर्वांगसे ग्रहण क्यो नही करता? ४८८ माकाश द्रव्य (आकाशास्तिकाय) १६६, ५१५:६, ६०२, जाननेसें समस्त लोकालोक ' जानना ४८९; ___७२६, ७७.३ . " .
- देखनेका यत्र ५१७; शुद्ध नयसे "सिद्ध आगम १७५, ७७५, समझ में आये, बिना अनर्थकारक । समान' ५६५, ' ५८१; की कीमत चतुर्थांश पाई
२२५ . . . . . . . . . . ६७४, ०अपूर्व पदार्थ ६८९; ०का अनुभव किसे ? आजीविका, की चिंता न करें, ३२१,४६३, ५२४,
६९९, एक या अनेक ? ७१३, ' ०और सद्गुरु में सागोपाग न्यायसम्पन्न ४०५,४०व्यवहार
एक ७३१; °की प्रतीतिके लिये सकलनाका न्यायसम्पन्न ६४५, ६४८ . - - - -
__ दृष्टांत ७९०, ०के बारेमें छ' दर्शनोका मत ८१८ आज्ञा २६३, ४६०, ३८६, ७०८ ... ... . आत्माका अस्तित्व ५४६-८, ७७४, ७९८ . . . आठ रुचक प्रदेश निबंधन २२९
आत्माका कर्तृत्व ५५२-५, १६०० आत्मगुतिका कारण ३८६,. । आत्माका नित्यत्व ५४८-५२,७८२ आत्मगुण का घातक ५३९, कब प्रगट हो ? ७०२
आत्माका भोक्तृत्व ५५५-८, ६०० । " आत्मचारित्र ५०४ ... .. . .. .
आत्मार्थ ५२९, ५३५, ७३८ आत्मज्ञान ३३८,४००, ४५७-८, ४९९,५४०,,७२८,
आत्मार्थी ५३८, के लक्षण ५३६, ५४५-६, का अनुप्रेक्षण किसे होता है ? ५३५-६, होने तक उपदेशक
६६२ का कर्तव्य ४९९, ०की न्यूनता ४५१, प्राप्ति का • . साधन ११,८, से आशा की समाधि ३८३ ,
आप्तपुरुष ३४८, ६१३, ६९७, ७७५, के लक्षण
- ७८८-९, के वचन १७५ (देखे सत्पुरुप, ज्ञानी पुरुष) आत्मदर्शन २०८ .. .
आयुष्य ३८, ९१, ९७, कर्मप्रकृति ७७७-८, - ७८३, आत्मध्यान ३१७, ३३४, ३६३ ..
७९६ आत्मप्राप्ति ४९१, ०का उत्तम पात्र. १७२ का
आरम्भ-परिग्रह ३५९, ४५५, ४५८, ४८०, ४९८, का ___ उपाय ५९६ -
मोह मिटनेसे 'मुमुक्षुता निर्मल ३२५, ०से मतिश्रुतआत्मभावना ५११,८१५ : . .
"अवधि आदि आवरण ४१५, ०का त्याग कर्तव्य आत्मयोग २५१, ४५८
, , ,
५७१-२; °से वृत्ति हटाकर सत्शास्त्र परिचय आत्मवादप्राप्तका अर्थ ३७८. : ...
६१७-८ आत्मविचार ३८३, ४६० -- ..
.
आर्तध्यान १८१, ३११, ४५१,७९९ ' आत्मशाति ६७० 17 जी ; आर्द्रा नक्षत्र ४७७ आत्मसिद्धि ५३४-६८, ५७१, ६२७, ६३६,६६०, आर्य आचार-विचार ५३२-३ ०का उपाय,१२७: । .. , - आर्यधर्म ४३४
। । आत्महित ५७२, ५७३, ६४४, ६६५,. ६७७, ०का आशका ७१८, ७३८, मोहनीय ७१८ ।। बलवान प्रतिवध ६२७
. . '
आशातना ६९८ आत्मा २१७, ७३२, ४५१, ५२७; ही मिन और आश्रमधर्भ २१०, ५१३, ५३३ शत्रु ४१, की महत्ता किसमें है ? ७१, मे
आश्रय ४९९, ०का बल ६३७ मोक्षमार्ग १८४. को जाना तो सब जाना१९१, आश्रयभक्तिमार्ग ४०५,४६०-१, ५२३ ०का स्वरूप २१६-७; ०चंदनवृक्ष ३९३; ०को आसनजय १६४, ६७५ पिता-पुत्र नही ४१८, ७४५, ०क्या है ? वह कुछ आत्या २२९, ७२९, विचारसहित ७७० । करता है ? और उसे कर्म दुख देते हैं।? ४३२, आस्रव ७८०, ७८७, ७०८, भावना ५५; द्रव्य और
के भवात की चौभगी ४४५, के अतापारके भाव ५९४ अनुसार बंध-मोक्ष की व्यवस्था ४५७, ०देखना इनाक्युलेशन ६८२ आत्मा का गुण या सुरज का गुण ? ४८७; पाची इंद्रियजय ११०, १३१, ६८५, फैसे ? ७००, ७१२
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९२४
. श्रीमद् राजचन्द्र, ज्ञानीपुरुप ३५९, ४४५, ४५५, ४९८-९, ६५५,७२, तीन मुमुक्षुता २९१ :
७४३, ७८०, ८१४, ०का योग होनेके बाद ससार-: तृष्णा ९४, ९५, ४६१; ०कैसे - निर्बल हो? ५२४.५० का सेवन करनेवाला तीर्थंकरके मार्गसे बाहर ३६२, ७३५, ७४६, ०पर दृष्टात ९३-५ . - ०की पहचान न होनेमे जीवके तीन, महान दोषः तेरहवें गुणस्थानवर्तीका स्वरूप, ३४२ , ....."
३६४, ०की प्रवृत्ति कैसी ?:३७८, .-९को, सिद्धि- तेजस् शरीर ७६९, ७९२, , ...... ,योग ३८०, के वचन दर्शनका प्रभाव ,३८३, त्याग ४५९, ४९७, ७७१, ०का क्रम ५१९, ५२२, - १.७१३, और अज्ञानीमें भेद ३९०-४७४, ०के वैराग्य की सफलता ५३५- , ,
.. प्रति अभिन्न बुद्धि, ३९१, की प्रवृत्ति प्रारख्यानु- त्रस ५९३ .. - सार ३९९, की । आज्ञाकी महत्ता-४१९, ६८१, त्रिपदी १२३-५, ६३२, ७७३, ७७८ ... .", की पहचानका फल ४२६, ०के सत्सगका फल दया ७०९, सर्वमान्य धर्म ६०, के आठ भेद ६६,. । ,४४७-८, ०के दृढाश्रयका फल,४५४, ०के आश्रयमें ही धर्मका स्वरूप-श्रेणिकके सामतोका दृष्टात ८१ , विरोध - करनेवाले , दोप और उनका निराकरण दर्शन ७९७; ०और ज्ञान एक साथ ७२८ आस्तिक, . --४६१, ०की, भोगप्रवृत्ति पूर्व पश्चात् पश्चात्ताप- ५२८-९
. ___वाली ४६८, १ उपदेशमें सक्षेपसे प्रवृत्ति- क्यो करे ? दर्शनपरिषह ३२४, ४४२ . . - ५०२, ०और. अज्ञानीको वाणीमें , भेद ५०३, ०की दर्शनमोह, ६५२६,६८६: के नाशका उपाय, ५६ ,, दशा .५६५-६, ६९३, का मार्ग. सुलभ ,६८१, ०घटनेके हेतु ६४१, ०घटनेसे द्रव्यानुयोगका
०और शुष्क ज्ञानीमें भेद ६९७, के तीन प्रकार परिणमन,६४३ , " (" . ..६९७, ०की प्रवृत्ति बाह्य : ७०२, की प्रत्येक दर्शनावरणीय ६९३ . . आज्ञा कल्याणकारी ७१८, ०के प्रत मोक्षदायक दासानदास भाव ४४
. . # ,७११, अविरत रहकर व्रत नहीं देते ७१९, ०की दिगबर वृत्ति ६२३, ७७९, ७९२, ७९८ । । , वर्तमानमे प्रतीति नही, ७३४, , , ,ज्ञायकता ३७५ .. ....
दुखनिवृत्तिका 'उपाय ७२०२, ३३८, ४००,०४५७, ज्योतिष, कल्पित क्यो । २७८ .. .. ४५८, ५८७, ६२६, ८३५ ढूंढिया ७१७,७१९,७२३, ,७४३, ,"
दुनिया, ० को अति स्थिति क्या ? '४३७, का प्रलय तत्त्व, समझने पर दृष्टात ७८
.. तत्त्वमसि.२४० -11 . , . .
दुपच्चक्खान २२६, ७०२ , . . तत्त्वावबोध १२०-३९. ० --
दुषमकाल ३५२, ३७२,.३८२,, ४९९, ६३०, ६६८, तप २७, ५७, किस लक्ष्यसे ? ७०७, के छ, प्रकार के कारण ३६६
७३०, -- 371 दृष्टात, चन्द्रसिंहका(जनसिद्धात विषयक) ..२४; तरनेका कामी ७३१-२, ७४४ ७४८ ,
भिखारीका (अनित्य भावना) ३८, ९०, तिथिका आग्रह आत्महितार्थ ७१४,,७१६,,७१९,७३० , ०अनाथीमुनिका (अशरण :; भावना) :३९, ,६३३२ तीर्थयात्रा ६६५ -
१० नमिराजर्षिका-(एकत्व भावना) ४२, भरतेश्वरतीर्थकर ३२१, ३७१, ३७३, ३७,६, और केवलीमें का.(अन्यत्व भावना) ४६, सनत्कुमार का(अशुचि,
भेद १३२, ०का - उपदेशः १३३, कोर देवता कैसे भावना) ४९, ११२, मृगापुत्रका (निवृत्तिवोध)। जाने ? ३०८, ०के भिक्षार्थ जाते हुए। सुवर्णवृष्टि ५१, ०कुडरिकका (आस्रव भावना), ५५,९पुडरिक ३६०, ०का अतिशय ७९४, ०को दर्शन और ज्ञान ___तथा ववस्वामीका (सवर भावना), ५६, दृढ
एक साथ ७९८, गोत्र ७८६ ४८., ivifa प्रहारीका. (निर्जरा भावना) १५७, बाहुबलका तात्र ज्ञानदशा:४६० १ .? - 3
(मान छोड़ने पर) ७१, कामदेव, श्रावकका (धर्म
-
in
दीक्षा ३५७, ३५८, ३७१, ६७०
N
:
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परिशिष्ट ६-विषयसूची
९२५ दृढता पर) ७५; °वसुराजा का (सत्य बोलने पर) ०को दुर्लभता-शिक्षित एव अशिक्षितके लिये १७४, ७६, सुभूम चक्रवर्तीका (परिग्रह मर्यादा) ७८, अन्त शोधनसे प्राप्य १८०, निग्रंन्य प्रणीत धर्म ०कच्छी वैश्योका (तत्त्व समझना) ७८, ०श्रेणिक- अनुपमेय १८३, ०के दो प्रकार-देश और सर्व २०७, के सामतोका (जीव दया) ८१, ०चडालचोरका
के उपदेशका पात्र कौन ? २१२, ही जिसका (विनयसे तत्त्वसिद्धि) ८३, ०सुदर्शन सेठका (ब्रह्म
अस्थि है २२६, ०कहाँ से श्रवण करना योग्य ? चर्य) ८३, गजसुकुमारका (क्षमा) ९१, गौतम
३५७, ०का मर्म ५६२, ०का स्वरूप वैराग्य १०१, गणधरका (राग) ९२, कपिलमुनिका (तृष्णा)
का द्रोह ६७३, ०प्राप्तिकी प्रथम भूमिका ७९१ ९३, ०घनाढ्यका (सुख सम्बन्धी विचार) १०४, धर्मकथा ६९६ भीलका (मोक्षसुख) ११४, षड्दर्शनपर ६९०, धर्मकथानुयोग १६७ ७६९ ०चार गोलोका (जीवके भेद) ६९३, लकडहारो- धर्मद्रव्य (धर्मास्तिकाय) ५१५-६, ६०१, ७७३, ८२५, का (जीवके चार प्रकार) ७०२, महावीर स्वामी ८३३
और सगम देवता ७०३, गौतमस्वामी और आनन्द धर्मद्रोह ६७३ श्रावक ७०४, जौहरीके लडकेका (सद्गुरु- धर्मध्यान ११५-७, १९०, ३११, ७१७ असद्गुरुकी परीक्षा) ७०५, मीराबाई और जीवा घमं सन्यास ७३६ गोसाई ७१५, नाभा भगत ७१५, सन्यासीका ध्यान १६०, २१२, ०करने योग्य १६४, ०कसे करना? (पचमकालके गुरुओपर) ७१६, मुनि और 'सिंह
१८६, सत्सग के बिना तरगरूप २२५, ०का ७१७, सच्चे भक्तका (भक्त तेल) ७३०; ०बोहरे
स्वरूप ३६२-३ का (बीजक मेरे पास है) ७४४
नय २६९, ७३८, ७६३ देह, मूर्छापात्र नही ३६९, ०क्षणभगर ४६८, त्याग- नरक का स्वरूप २४, ५३
के प्रसगमें खेद कर्तव्य नही ५०९, ०मे एक विशे- नवकारमत्र ८५ पता ६१५, ०का धर्म वेदना जानकर सम्यक् प्रकार- नवतत्त्व १२२-८, ५६९ से सहन करना ३८५, वेदनाकी मूर्ति ६६२; निकाचित कर्म ४०३ ।
की असाता अधिक कल्याणकारी ६५६, ०का नित्यनियम १००, ६८७ स्वरूप ७४१,७४५
निमित्तवासो जीव ४८५, को क्या कर्तव्य ? ४९० द्रव्य ५९२, ५९७, ७७८, ८२४: ०और गण ५९२. निरावरण ज्ञान ५०३
५९९, ०और पर्याय ५९७: के तीन अधिकार निरुपक्रम ७७८, ७८३ ५९२, के प्रकार ५२९; के सात भग ५९७,
निर्गन्य ७८२, गुरु ७०४, के धर्ममे श्रद्धा १८३ ०का लक्षण ५९७, के धर्म ७६३
निर्जरा ७११, ७५०, ७५८, ०भावना ५७, ०द्रव्य और द्रव्यअध्यात्मी ७१७
भाव ५९४, ०के भेद तथा क्रम ५९५, ०का मार्ग द्रव्य प्रकाश ५९२
६६५, कसे होती है ? ८६, ८०० द्रव्यानुयोग १६७, ६४३, ७६९
निर्वस परिणाम ४७८, ४८४, ६९५ द्वादश तप ५७
निर्वेद २२९,७२९ द्वादशानुप्रेक्षा १७, ३६, ७४
निवृत्ति, बोध ५०, ६६६-७, ०का फल ४१५, का द्वादशाग ५८९, ६५२, ७७८, ० के नाम १७५
___सर्वोत्कृष्ट उपाय ४४० द्वादशागी का अखण्ड सूत्र ४००
निश्चय धर्म ६६ धर्म २६९, ४५७, ७७५, ०का अस्तित्व ४, ०विषयक निश्च
निश्चय ध्यान ६४१ पद्य ३,१०; के भेद ६६/देखें मदमी के मत- निश्चय सम्यक्त्व ७५५ भद १०२-४, के मतभेद के मख्य कारण १७३; नीति ४०५, ०नियम २३६; वचन १३८-१६१
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९२८
रमता ३७४
राग ९२, ० मोक्षमें विघ्नरूप २३३
रात्रिभोजन, त्यागवत ८०, ०के दोप ७११
रुचक प्रदेश २२९
लक्ष्मी १९, ७०, ० अघता देती है १६९, ०का उपार्जन व्यवहारशुद्धिपूर्वक १८१
लब्धि ६५७-८ ७०९, ७१४
लेश्या ५८०
श्रीमद राजचन्द्र
लोक, ०स्वरूप भावना ५८, ० पुरुषाकार २१३, ०का स्वरूप ५१५-६, ५९७, ०का स्वरूप आलंकारिक भाषा में ६५४
लोकलाज-कहाँ छोडना और कहाँ रखना ? ७१४ लोकोपकार ६५७, ६८४
लोच क्यो ? ७४२
लौकिक अभिनिवेश ५०२
लौकिक दृष्टि ५१९, ५२१, ० और ज्ञानीकी दृष्टिमे
अन्तर ६२४
वचनामृत १५६-६१
वचनावली २६५-६
वर्णाश्रमधर्मं ५३३
वचनाबुद्धि ४३०
वाणीका सयम ३९५
वासित बोध ६७६
विकल्प ५८०
विक्षेप ३७९, ६२९
विचार, ०दशा ४४१, मार्ग ३११, ०योग ५०४ विज्ञान ५८०
विद्या ३९७, ७५७
विनय, ० से तत्त्वसिद्धि ८३, ०मार्ग ५४३ विपर्यासबुद्धि ४१४
विभाव ७७२, ०दशा ६५९, ०योग ८१९ विरति ७६१-२, ०ज्ञानका फल ५७९ विवेक ८०, ९७, ०ज्ञान ४५९
वीतराग, • देव क्यो पूज्य ? ६८३-४; ०घर्मं पूर्ण सत्य ४१३, ६५४, ०के वचन पूर्ण प्रतीति योग्य ४७०, ८२४, ० दर्शन (देखें जैनदर्शन), ०सयम ७१८ वीर्य, भेद-प्रभेद २३३, ०दो प्रकारसे प्रवर्तन ७९६-७
वृत्ति, सक्षेप ४१८, ५२३; ०का क्षय ७००; ०कैसे ठगती हैं ? ७०१, ०को रोकेँ ७३५
वृद्धावस्थाका स्वरूप १८, २३५-६ वेद ४३५
वेदकता ३७५
वेदक सम्यक्त्व ५२७, ७३३, ७७७
वेदना ७९०-१, ०को देहका घर्म मानकर सम्यक् प्रकारसे सहन करना ३८५, ० वेदते विषमभाव होना अज्ञानका लक्षण ४१७, ०पर औषघकी उपकारिता ६०९-११, ० में आत्मार्थीका अनुप्रेक्षण ६६२, ०परम निर्जरारूप ६६५
वेदनीय कर्म ७८८, ७९०, ७९२, ७९५ वेदात ओर जैनधर्मकी तुलना १३४, ४२१, ४६९, ४७०, ५१८, ७५८
वैराग्य २२४, २८४, ४१४, ४५९, ४९७, ५२३, ७७६, ५३५; ०का बोध क्यो दिया ? ९८, ०धर्मका स्वरूप १०१, ० मोहगर्भित ७०७
व्रत ६८५, ७२२; ० निर्दम्भतासे ६९८, ०करना या
नही ? ७३०, ०के प्रकार ७३८ व्यवहार, ०काल ५१५- ६, ०धर्म ६६, ० सत्य ६८७ - ९, • सम्यक्त्व ७२१, ०सयम ४९७, ०शुद्धि १८१ व्याख्यान, किस लक्ष्य से ? २६४, ४९९, ५००, ५३२,
६९०
शम २२९, ७२९
शास्त्र १८५, २२९, ६७४, ० योग्यता वगर शस्त्र ३६७, ०की रचना क्यो ? ७१२
शास्त्रीय अभिनिवेश ४९६ शाति ३९८
शिथिल कर्म ४० ३
शुक्लध्यान १९०, ६४३
शुष्क, ०अध्यात्मी ३६७, ७१७, ०क्रिया ३६७, ०ज्ञानी
५३५, ५३७, ०ज्ञान ६५९ शैलेशीकरण ७७६ शौचाशौचस्वरूप १००, २९०
श्रावक ७४२, ७९५
श्रीमद् - नित्यस्मृति १५; सुख सम्बन्धी विचार १०८, दूसरा महावीर १६७, ०परमेश्वर ग्रह १६७, • लक्ष्मी पर प्रीति न होनेपर भी १६९, ०बायी
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परिशिष्ट ६-विषयसूची
९२९ आँखमे चमकाग १७०, दिनचर्या १७०; oमैं के प्रति उपशात वृत्ति ६४७, सहज दशा ८०५, किसी गच्छमे नही, आत्मामे हूँ १७२; प्रतिमासिद्धि स्वात्मवृत्तात काव्य-धन्य रे दिवस आ अहो ८१६१७५, ० प्रणाम करने लायक ही हूँ १७९, ०व्यव- ७, ०वैश्यवेश और निग्नन्य भावसे स्थिति ८१८, हारशुद्धि १८१, ०समीप ही हूँ १८६, ०स्त्रो ०मौनदशा लोगोके लिये कपायका निमित्त ८१९ सम्बन्धी विचार १९७-८, दुखी मनुष्योका श्रीमान् पुरुषोत्तम २४०, २४१ सिरताज १९९; गृहाश्रम सम्बन्धी विचार २००- श्रुतज्ञान ७५७, ०ठेठ तक अवलम्बन भूत ४६१, ५७८, १, २१८, ०समुच्चयवयचर्या २०५, जूठाभाईके ५८०, ६२१-२ मरणकी पूर्वसूचना २२०, जैनधर्मके आग्रहसे मोक्ष श्वासजय १९०, १९३ नही २२१, परिभ्रमण न करनेके प्रत्याख्यान श्वेताम्वर वृत्ति ४१३, ६२३, ७७९, ७९२, ७९८ २२५, ०एक परमार्थका ही मनन २२७, ०'केवल- पट्चक्र ७७३ ज्ञान हवे पामशु' २३४; ०रेवाशकरसे कैसे व्यवहार पड्दर्शन ५२८, ८१८, ०पर दृष्टात ६९० करना ? २३७-८; ०हे सहजात्मस्वरूपी । २४५, सकामनिर्जरा ७५० केवलज्ञान तकका परिश्रम व्यर्थ नही २४८, सज्जनता ३० आत्माने ज्ञान पा लिया यह नि सशय २५१, सजीवनमूर्ति, °से मार्गप्राप्ति २७१ दृढ़ विश्वाससे मानिये कि २५४, ०अमृतके सत् २४९, २६९, २७०, २७३, २७५, ३०५, ३४५, नारियलका पूरा वृक्ष २५८, मुमुक्षुओकी चरण- की प्राप्तिको जिज्ञासा २८४ सेवाकी ही इच्छा २६०, कोई माधव ले २६६; सत्पुरुष १७२, ३०५, ४०२, ४०५, ६८९, ६९८, ०का ०यम से भी अधिक सग दु खदायक २७४, ० अथाह समागम अमूल्य लाभ १७०, ०के अन्तरात्मामें मर्म वेदना, साता पूछने वाला नही २८७; हम देह- १८५, ०के चरणकमलमे सर्वभावअर्पणतासे मोक्ष घारी हैं या नहीं यह भी मुश्किल से जान पाते हैं १९६; ०को पुराणपुरुपसे अधिक महत्ता २७२, ०को २९२; सर्व हरिमय २९४-६; ०देह होते हुए भी शरण औषधरूप २७३, मूर्तिमान मोक्ष २८९, पूर्ण वीतराग ऐसा निश्चल अनुभव ३२६, हमने में परमेश्वरबुद्धि २९१, ०के प्रति व्यावहारिक कर्म बाँधे इसलिये हमारा दोष ३२८, ०आत्मभाव कल्पना कैसे दूर हो ? ३२५, ०के सम्प्रदायको से जन्म न लेने की प्रतिज्ञा ३४२, ०अशरीरी भाव सनातन करुणावस्था ३७०, ०की पहचानका फल से हमारी आत्मस्थिति, भावनयसे सिद्धत्व ३६१, ४२६, ०की वाणी विषयकपायके अनुमोदनसे
आत्मिक बधनसे हम ससारमें नही ३६२, हममे रहित ६२०; ०का योग शीतलवृक्षकी छाया मार्गानुसारिता, अज्ञानयोगिता नही ३८१, ०सर्वके समान ६२४, ०के वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम प्रति समदृष्टि ३९०, प्रभावना हेतुमें प्रवृत्ति क्यो ६४५, ०का ययार्थ स्वरूप ६९७-८, ०की पहचान नहीं ? ४२५, सर्व सग वडा आस्रव है यह अनु- कैसे हो? ७३२, ०कसे है ? ७४० (देखें ज्ञानी भव सिद्ध ४४७, ०लग्न प्रसग; बाह्य आडवर पुरुष, सद्गुरु) नही ४५२, ०लोगोको मदेह हो ऐसे वाह्य व्यवहार- सत्य १३८, ३१४, ३३०, ७९१, सृष्टिका आधार के उदयमे उपदेश देना मागंके विरोध जैसा ४६४, ७६; के भेद ६८७-८, वोलना सहज ७३७ दूसरे श्री राम अथवा श्री महावीर ५०५-६, सत्शास्य (सल्युत) ६२२, ६२९, ६३२, ६४० छोटी उमर मे मार्ग का उद्धार करने को नभि- सत्सग ७७, २६४, २८९, ३८२, ३८९, ४००, ४२९. लापा और अपनी योग्यता ५२५-६, भीष्मवतका ४७६, ४२१, ६२४, भावमे क्या रिना ? वारवार स्मरण ६१९; मेरी चित्तवृत्तियां इतनी २९७, कल्याण का बलवान कारण ३३८, ०काम शात हो जाये ६३८, तप्त हृदयसे और सात जलानेका बलवान उपाय ४२०, र निपाल आत्माने सहन करनेमे हर्ष ६३९, माघ प्रताप- ४३१, ४७६, ०ल्पी रत्यक्षा ६६४, से समता
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परिशिष्ट ६-विषयसूची
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सुपच्चक्खान ७०२ सूक्ष्म एकेंद्रिय जीव, अग्निसे नहीं जलते ४२० सोपक्रम ७८३ स्कघ १६६, ६०० स्त्री, प्रशसनीय ८, ०सम्बन्धी विचार १९७-८, २००;
०से अनुरोध २३७ स्थविरकल्प ७९५ स्थावर ५९३ स्थितप्रज्ञदशा ४४१ स्थितिदशा ६१४ स्वउपयोग ६९६
स्वच्छद २६३, ३११, ५४२, ७०८ स्वभावस्थिति ७३३ स्वभावजागृतदशा ६१३ स्वधर्म ५१३ स्वयबुद्ध ५३९ स्वरूपस्थिति ५४०-१ स्वाध्यायकाल ४७४ हरि २४७, ०के प्रति विरहाग्निका फल २८७, ०इच्छा
सुखदायक २८७, २९०, २९५, ३११; ०सर्व हरि
२९४
ती अकार :,
कमांक -1.3.9.78..)
परपुर
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श्रीमद राजचन्द्र
६८२, सच्चा मेला ६८३, ०का फल ६९८-९, सर्वसगपरित्याग २०२, ३२६, ४९५-६, ५०२,
से दोष दूर होते हैं ७३९, ०का योग दुर्लभ सकल्प ५८० १७४, ६३२, ६४८
सज्ञा ५८०, ७७२ सद्गुरु १९९, २०२, २३५, २४९, २९५, ३००, सन्यासी ६९०
३०२, ४६२, ४९३, ४९९, ६७१, ६९१, ७०५, सयतिधर्म ५२, १८६-९; ०में पत्र-समाचारादिका निषेध ७२६, ७३१, ७७५, ७८५, नि स्वार्थी गुरु २८, ४०८, अति सकुचित मार्ग क्यो ? ६०६, ७१४,
तत्त्व ६६, व्या महावीर स्वामी विशेष उपकारी? में एकवार आहार ग्रहण ६३८ ४३०, ०से ही मार्ग प्राप्ति ५३७-९, ०के लक्षण सयम ६०६, ६४३, ७५५, ८१४, ०के प्रकार ४९७, ५४०, ६३३-४, ०का अपार उपकार ५६३; के
८०८-९ सत्संगमें झूठ बोलकर न जाना ६९५; ०और
सलेखना ७९२ आत्मा एक ७३१
सवर ७०९, भावना ५६, द्रव्य और भाव ५९४ सद्धर्म तत्त्व ६५
सवेग २२९, ७२९ सद्व्यवहार ५६५
ससार, ०का स्वरूप ७२, की चार उपमाएँ ७३-४, समता ३७४, समभाव १८३, कैसे आये ? ७००
परिभ्रमणके कारण १७८, ७७१, ०में रहना कब समदर्शिता ६३४-५
योग्य ? ३१३, ०के प्रतिकूल प्रसग हितकारी समय ४७४,५०४
३७८, ४००, ०के मुख्य दो कारण ४५६ समाधि ४५०, ४५७, ७३३, सुख ४५९, ०का स्थान ससार अनप्रेक्षा २२, ०पर दुष्टात ५० ६७०
ससारी जीव, और सिद्ध में परमात्मस्वरूपका भेद ४१७, समिति ६०६, ७९१
___ में परमात्मस्वरूप अप्रगट ४६७ सम्यक्त्व (समकित) ५३१, ५४२, ५६९, ५९४, ६३६, सस्कृत अभ्यास ६४७, ६६६
६९८, ७३३-४, ७५३, ७५५, ७६७; कद होता सातवां गुणस्यानक ७६६ है ? १७९, ०का माहात्म्य २०८, .सर्वगुणाश साधु ७४६, ७९८ २०९, के पांच लक्षण २२८, ७५६, का मुख्य सामान्य नित्यनियम १०० लक्षण वीतरागता ३२२; ०के भेद ५२७, ५६२; सामायिक ८७-९, ७३१, ७५४
के बाद पन्द्रह भव ५६१, ६०७-८; के तीन साख्य ५२८ प्रकार आत्मसिद्धिमें ५८०; प्रतीतिरूप ६०९, सास्वादन सम्यक्त्व ५२७, ७०४-५, ७३३ ।।
चार दोषयुक्त जीवको नही होता ६९०, कैसे सिद्ध भगवान ५८१; °का सुख ७३५; ०के भेद ७८०, प्रगट हो? ७२१, ७४६-७, कैसे ज्ञात हो? आत्मा लोकालोक प्रकाशक ८२६ ७२५, ०और व्रत ७३८-९, ०अन्योक्तिसे अपना सिद्धान्त ७६४-५, ०की रचना असत् नही ६९६, ०ज्ञान
दूपण बताता है ७५६, केवलज्ञानसे कहता है ७५७ । ४०६, ०बोध ४१४। सम्यक्त्व मोहनीय ७२२
सिद्धियोग ३२०,३८०.४७३ सम्यग्ज्ञान ५३१, ५६९, ५९४
सिद्धिलब्धि ७९४, ८०० सम्यग्चारित्र ५३१, ५६९, ५९४.
सुख, सच्चा किसमें है ? ३४, सम्बन्धी विचार १०४ - सम्यग्दृष्टि ६९०,७३७, ०की दशा ३८४-५, ७३३, अतरमें २१५, का समय कौनसा ? २३६, ०का
७९३; अभक्ष्य आहार करता है ? ,६२०, के मार्ग ६३१ गुण ७२९
सुखभास ३७५ सरलता, धमके वीजरूप ८
सुदेव, भक्ति २७; तत्त्व ६५ सरागसयम ७१८
सुधारस ३९१-२, ३९४
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परिशिष्ट ६-विषयसूची
९३१ सुपच्चक्खान ७०२
स्वच्छद २६३, ३११, ५४२, ७०८ सूक्ष्म एकेंद्रिय जीव, अग्निसे नही जलते ४२० स्वभावस्थिति ७३३ सोपक्रम ७८३
स्वभावजागृतदशा ६१३ स्कघ १६६, ६००
स्वधर्म ५१३ स्त्री, प्रशसनीय ८, सम्बन्धी विचार १९७-८, २००, स्वयबुद्ध ५३९ __०से अनुरोध २३७
स्वरूपस्थिति ५४०-१ स्थविरकल्प ७९५
स्वाध्यायकाल ४७४ स्थावर ५९३
हरि २४७, ०के प्रति विरहाग्निका फल २८७, ०इच्छा स्थितप्रज्ञदशा ४४१
सुखदायक २८७, २९०, २९५, ३११, ०सर्व हरि स्थितिदशा ६१४
२९४ स्वउपयोग ६९६
कृत भारती मका
प्राकृत मा
क्रमांक 13.918...
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