SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 916
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यानसार - २ ७८३ १४. आयुकर्म संबंधी - ( कर्मग्रंथ ) (अ) अपवर्तन = जो विशेष कालका हो वह कर्म थोड़े काल में वेदा जा सकता है। उसका कारण पूर्वका वैसा बंध है, जिससे वह इस प्रकारसे उदयमें आता है और भोगा जाता है । (आ) 'टूट गया' शब्दका अर्थ बहुत से लोग 'दो भाग हुए' ऐसा करते हैं; परन्तु वैसा अर्थ नहीं है । जिस तरह 'कर्जा टूट गया' शब्दका अर्थ 'कर्जा उतर गया, कर्जा दे दिया ऐसा होता है, उसी तरह 'आयु टूट गयी' शब्दका आशय समझें । (इ) सोपक्रम = शिथिल, जिसे एकदम भोग लिया जाये । (ई) निरुपक्रम = निकाचित । देव, नारक, युगलिया, त्रिषष्ठी शलाकापुरुष और चरमशरीरीको वह होता है । (उ) प्रदेशोदय = प्रदेशको आगे लाकर वेदन करना वह 'प्रदेशोदय' । प्रदेशोदयसे ज्ञानी कर्मका क्षय अंतर्मुहूर्तमें करते हैं। (ऊ) 'अनपवर्तन' और 'अनुदीरणा' इन दोनोंका अर्थ मिलता-जुलता है, तथापि अंतर यह है कि 'उदीरणा' में आत्माको शक्ति है, और 'अनपवर्तन' में कर्म की शक्ति है । (ए) आयु घटती है, अर्थात् थोड़े कालमें भोगी जाती है । १५. असाताके उदयमें ज्ञानकी कसौटी होती है । १६. परिणामकी धारा थरमामीटरके समान है । :: ८ मोरवी, आषाढ़ सुदी १०, शनि, १९५६ १. मोक्षमालामेंसे : असमंजसता = अमिलनता, अस्पष्टता । विषम = जैसे तैसे | आर्यं = उत्तम । 'आर्य' शब्द श्री जिनेश्वर, मुमुक्षु, तथा आर्यदेशके रहनेवालेके लिये प्रयुक्त होता है। निक्षेप = प्रकार, भेद, भाग । 'भयत्राण = भयसे तारनेवाला, शरण देनेवाला । २. हेमचंद्राचार्य धंधुका मोढ वणिक थे । उन महात्माने कुमारपाल राजासे अपने कुटुंबके लिये एक क्षेत्र भी नहीं माँगा था, तथा स्वयं भी राजाके अन्नका एक ग्रास भी नहीं लिया था ऐसा श्री कुमारपालने उन महात्माके अग्निदाहके समय कहा था । उनके गुरु देवचंद्रसूरि थे । मोरवी, आषाढ़ सुदी ११, रवि, १९५६ १. सरस्वती = जिनवाणीको धारा । २. (१) बाँधनेवाला, (२) बाँधनेके हेतु, (३) बंधन और (४) बंधनके फलसे सारे संसारका प्रपंच रहता है ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है । ९ मोरवी, आपाढ़ सुदी १२. सोम, १९५६ १. श्री यशोविजयजीने 'योगदृष्टि' ग्रन्थ में छठी 'कांतादृष्टि' में बताया है कि वीतरागस्वरूपके सिवाय अन्यत्र कहीं भी स्थिरता नहीं हो सकती, वीतरागसुखके सिवाय अन्य सुख निःसत्व लगता है, आडंबररूप • लगता है । पाँचवीं 'स्थिरादृष्टि' में बताया है कि वीतरागसुख प्रियकारो लगता है । आटवों 'परादृष्टि' में बताया है कि 'परमावगाढ सम्यवत्व' का संभव है, जहाँ केवलज्ञान होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy