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[३१] २५० भक्ति पूर्णता पानेके योग्य कव ? व्यवहार २६७ 'जिनवर कहे छे ज्ञान ।' (काव्य) ३०२
चिंताकी व्याकुलता अयोग्य, प्रत्यक्ष दर्शन २८९ २६८ फ्लदय झीश बादी ईश्रो-जीव कैसे पाया २५१ हरीच्छासे जीना, परेच्छासे चलना २९० जाये ।
३०४ २५२ पठनीय और मननीय पुस्तकादि २९०
२६९ मोक्षको अपेक्षा सतकी चरणसमीपता प्रिय ३०४
२७० ज्ञान एक अभिप्रायी, अनुभवज्ञानसे निवटारा ३०४ २५३ अकाल और अशुचि दोष, सेव्य भक्ति और
२७१ परिचय करने योग्य पदार्थ
३०५ स्वरूपचिंतन भक्तिके योग्य काल, सर्व
२७२ महात्माके प्रति मुमुक्षुकी दृष्टि ३०५ शुचिका कारण
२९०
२७३ कलियुगमें सत्पुरुषकी पहचान, कचन२५४ निशकतासे निर्भयता, उससे नि सगता,
कामिनीका मोह, जीवकी वृत्ति ३०५ सबसे बडा दोष, मुमुक्षुता और तीव्र मुमुक्षुता, स्वच्छद-हानिसे बोधबीज योग्य
२७४ 'सत्' अभी तो केवल अप्रगट, मुमुक्षुका
आचरण भूमि, मार्गप्राप्तिके रोधक कारण, परम
३०५ धर्म, परम दीनता, परमयोग्यता, महात्माके
२७५ कलिकालने अनर्थको परमार्थ वना दिया ३०५ प्रति परम प्रेमार्पण, महात्मामोकी शिक्षा २९१
२७६ धर्मज सत्सगार्थ जानेकी आज्ञा ३०६ २५५ हमारी विदेह दशा, हमारी दशा मद योग्य
२७७ चित्तकी उदासीन स्थिति, मतभेदकी बातसे को अलाभकर, बीजज्ञानके साथ सिद्धातज्ञान
हृदयमे मृत्युसे अधिक वेदना
३०६ आवश्यक, हमारा देश, जाति सर्व हरि है २९२
२७८ आत्मारामी मुनि भी भगवद्भक्तिमें ३०६ २५६ जीव, आत्मा आदिके विषयमें समागममें २७९ मतमतातरमें मध्यस्थता
३०६ बतानेका विचार
२९४
२८० बताने जैसा तो मन है, परिपूर्ण प्रेम-भक्ति ३०६ २५७ दोप देखना यह अनुकपा त्याग
२९४ २८१ उपजीविकाके वियोगसे वृत्ति
३०७ २५८ 'विना नयन पावे नहिं '(काव्य) तृषातुर २८२ महात्मा व्यासजीकी तरह भक्तिसम्बन्धी और अतृषातुरको
२९४ विह्वलता, कलियुगकी विषमता, धर्मसम्बन्ध २५९ हरीच्छा सदैव सुखरूप, हमारा वियोग
और मोक्षसम्बन्वसे भी विरक्ति
३०७ रहनेमें हरिको इच्छा, मूल मार्ग पूरी तरह २८३ भगवानकी कृपणता
३०७ कहेंगे, हरि हमारे हाथसे आपको परा- २८४ परसमय, स्वसमय, परद्रव्य, स्वद्रव्य, जितने भक्ति दिलायेंगे, चित्त हरिमय परतु सग
वचन-मार्ग उतने नयवाद, कर्ता और कर्म, कलियुगका
२९५ जीव और शिव
३०७ २६० सर्वोत्तम योगीका लक्षण
२९६ ! २८५ जीवका भुलावा, ठाणागमें आठ वाद, तीर्थ२६१ निवृत्तिके योग्य स्थल
करकी जन्मसे जान-पहचान, परमार्थमौन२६२ सत्सगकी प्राप्तिकी दुर्लभता, वियोगमे
कर्मका उदय
३०८ गुणोत्पत्तिके लिये पुरुषार्थ, निवृत्तिके कारणो- २८६ 'हम परदेशी पखी', काल क्या खाता है ? ३०९ का विचार, दोषस्थितिमें जगतके जीवोके | २८७ भगवत्सम्बन्धी ज्ञान और प्रगट मार्गका तीन प्रकार, सद्विचारसे स्वरूपको उत्पत्ति २९७ प्रकाशन कव?
३०९ २६३ प्रेमरूप भक्तिके विना ज्ञान शून्य २९७ . २८८ आदि पुरुष लीला शुरू करके बैठा है? २६४ 'हे प्रभु, हे प्रभु' (काव्य) भक्तिके वीस i नया पुराना तो एक आत्मवृत्ति ३०९ दोहे-सद्गुरुभक्ति रहस्य २९८ २८९ परमार्थ-पत्रव्यवहार प्रतिकृल
३१० २६५ 'यम नियम सजम आप कियो' (काव्य) ३०० | २९० एक दशासे प्रवृत्ति, उदयानुसार प्रवर्तन २६६ 'जह भावे जड परिणम
३०१ । २९१ पूर्णकाम चित्त, आत्मा ब्रह्म-समाधिमें, मन 'परम पुरुष प्रभु सद्गुरु' (काव्य)
३०२ } वनमे, एक दूसरेके आभाससे देहक्रिया, धर्मज
३०७
२९६