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________________ ३० वॉ वर्ष ७५३ ( १ ) ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाह रे कंत । रोक्यो साहेब संग न परिहरे रे, भागे सादि अनत ॥ ऋषभ० १ नाभिराजाके पुत्र श्री ऋषभदेवजी तीर्थंकर मेरे परम प्रिय है, जिससे में दूसरे स्वामीको न चाहूँ । ये स्वामी ऐसे है कि प्रसन्न होने पर फिर कभी सग नही छोड़ते । जबसे संग हुआ तबसे उसकी आदि है, परंतु वह सग अटल होनेसे अनत है ॥१॥ विशेषार्थ : - जो स्वरूपजिज्ञासु पुरुष हैं वे, जो पूर्ण शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हुए हैं ऐसे भगवानके स्वरूपमे अपनी वृत्तिको तन्मय करते हैं, जिससे अपनी स्वरूपदशा जागृत होती जाती है और सर्वोत्कृष्ट यथाख्यातचारित्रको प्राप्त होती है। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा ही शुद्धनयको दृष्टिसे आत्माका स्वरूप है । इस आत्मा और सिद्ध भगवानके स्वरूपमे औपाधिक भेद है। स्वाभाविकरूपसे देखें तो आत्मा सिद्ध भगवानके तुल्य ही है । सिद्ध भगवानका स्वरूप निरावरण है, और वर्तमानमे इस आत्माका स्वरूप आवरणसहित है, और यही भेद है, वस्तुतः भेद नही है । उस आवरणके क्षीण हो जानेसे आत्माका स्वाभाविक सिद्धस्वरूप प्रगट होता है । ५८१ ववाणिया, १९५३ और जब तक वह स्वाभाविक सिद्ध स्वरूप प्रगट नही हुआ, तब तक स्वाभाविक शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हुए हैं ऐसे सिद्ध भगवानकी उपासना कर्तव्य है, इसी तरह अहंत भगवानकी उपासना भी कर्तव्य है, क्योकि वे भगवान सयोगी सिद्ध है । सयोगरूप प्रारब्धके कारण वे देहधारी हैं, परतु वे भगवान स्वरूपसमवस्थित हैं । सिद्ध भगवान और उनके ज्ञानमे, दर्शनमे, चारित्रमे या वीर्यमे कुछ भी भेद नही है; इसलिये अर्हत भगवानकी उपासनासे भी यह आत्मा स्वरूपलयको पा सकता है । पूर्व महात्माओने कहा है - 'जे जाणइ अरिहंते, दस्व गुण पज्जयेहि य । सो जाणइ निय अप्प, मोहो खलु जाइ तस्स लयं ॥' जो अर्हत भगवानका स्वरूप द्रव्य, गुण और पर्यायसे जानता है, वह अपने आत्माके स्वरूपको जानता है और निश्चयसे उसके मोहका नाश हो जाता है । उस भगवानकी उपासना किस अनुक्रमसे जीवोको कर्तव्य है, उसे श्री आनदघनजी नौवें स्तवनमे कहनेवाले हैं, जिससे उस प्रसगपर विस्तारसे कहेगे । भगवान सिद्धको नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु इन कर्मोंका भी अभाव है, वे भगवान सर्वथा कर्मरहित है | भगवान अर्हतको आत्मस्वरूपको आवरण करनेवाले कर्मोंका क्षय रहता है, परंतु उपर्युक्त चारकर्मीका पूर्वबध, वेदन करके क्षीण करने तक उन्हें रहता है, जिससे वे परमात्मा साकार भगवान कहने योग्य हैं । उन अर्हत भगवानमे जिन्होने पूर्वकालमे 'तीर्थंकरनामकर्म का शुभयोग उत्पन्न किया होता है, वे ‘तीर्थकर भगवान' कहे जाते हैं। जिनके प्रताप, उपदेशबल आदिकी शोभा महापुण्ययोगके उदयसे आश्चर्यकारी होती है। भरतक्षेत्रमे वर्तमान अवसर्पिणीकालमे ऐसे चौबीस तीर्थंकर हुए हैं- श्री देव श्री वर्धमान तक । वर्तमानकालमे वे भगवान सिद्धालयमे स्वरूपस्थितरूपसे विराजमान है। परतु 'भूतप्रज्ञापनीयनय' से उनमे 'तीर्थकरपद' का उपचार किया जाता है। उस औपचारिक नयदृष्टिसे उन चोवीस भगवानको स्तुतिरूपसे इन चौबीस स्तवनोकी रचना की है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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