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________________ ५८० श्रीमद राजचन्द्र इसका आप विचार करें। कदाचित् अभी आपको यह बात समझमे न आये तो आगे जाकर समझमे आयेगी, इस वातमे आप निःसदेह रहे । दूसरे कुछ सन्मार्गरूप आचार-विचारमे हमारी शिथिलता हुई हो तो आप कहे क्योकि वैसी शिथिलता तो दूर किये विना हितकारी मार्ग प्राप्त नही हो सकता, ऐसी हमारी दृष्टि है।" इत्यादि प्रसगसे कहना योग्य लगे तो कहे, और उनके प्रति अद्वेषभाव है ऐसा स्पष्ट उनके ध्यानमे आये वैसी वृत्ति एव रीतिसे वर्तन करें, इसमे सशय कर्तव्य नही है। दूसरे साधुओके बारेमे आपको कुछ कहना कर्तव्य नहीं है। समागममे आनेके बाद भी उनके चित्तमे कुछ न्यूनाधिकता रहे तो भी विक्षिप्त न होवें। उनके प्रति प्रबल अद्वेष भावनासे बर्ताव करना ही स्वधर्म है। ___७५१ ववाणिया, फागुन वदी ११, रवि, १९५३ ॐ सर्यज्ञाय नम 'आत्मसिद्धि' मे कहे हुए समकितके प्रकारोका विशेषार्थ जाननेकी इच्छा सबधी पत्र मिला है। आत्मसिद्धिमे तीन प्रकारके समकित उपदिष्ट है(१) आप्तपुरुषके वचनको प्रतीतिरूप, आज्ञाकी अपूर्व रुचिरूप, स्वच्छदनिरोधतासे आप्तपुरुषको भक्तिरूप, यह समकितका पहला प्रकार हैं। (२) परमार्थकी स्पष्ट अनुभवाशसे प्रतीति यह समकितका दूसरा प्रकार है। (३) निर्विकल्प परमार्थअनुभव यह समकितका तीसरा प्रकार है। पहला समकित दूसरे समकितका कारण है। दूसरा समकित तीसरे समकितका कारण है । वीतरागने तीनो समकित मान्य किये हैं। तीनो समकित उपासना करने योग्य है, सत्कार करने योग्य हैं; और भक्ति करने योग्य हैं। केवलज्ञान उत्पन्न होनेके अन्तिम समय तक वीतरागने सत्पुरुषके वचनोके आलंबनका विधान किया है; अर्थात् बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानकपर्यंत श्रुतज्ञानसे आत्माके अनुभवको निर्मल करते करते उस निर्मलताकी सपूर्णता प्राप्त होनेपर केवलज्ञान' उत्पन्न होता है। उसके उत्पन्न होनेके पहले समय तक सत्पुरुषका उपदिष्ट मार्ग आधारभूत है, यह जो कहा है वह निःसदेह सत्य है। । ७५२, ववाणिया, फागुन वदी ११, रवि, १९५३ लेश्या-जीवके कृष्ण आदि द्रव्यकी तरह भासमान परिणाम ।, . अध्यवसाय-लेश्या-परिणामकी कुछ स्पष्टरूपसे प्रवृत्ति । संकल्प-कुछ भी प्रवृत्ति करनेका निर्धारित अध्यवसाय । विकल्प-कुछ भी प्रवृत्ति करनेका अपूर्ण अनिर्धारित, सदेहात्मक अध्यवसाय । . . सजा-कुछ भी आगे पोछे को चिंतनशक्तिविशेष, अथवा स्मृति । । परिणाम-जलके द्रवणस्वभावकी तरह द्रव्यकी कथचित् अवस्थातर पानेकी शक्ति है, उस अवस्थातरकी विशेप धारा, वह परिणति है। . . अज्ञान-मिथ्यात्वसहित मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान हो तो वह 'अज्ञान' है।" विभगज्ञान-मिथ्यात्वसहित अतीद्रिय ज्ञान हो वह 'विभगज्ञान' है। , . विज्ञान-कुछ भी विशेषरूपसे जानना यह 'विज्ञान' है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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