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________________ १७ मोक्षमाला ( वा लाववोध ) उपोद्घात निग्रंथ प्रवचनके अनुसार अति सक्षेपमे इस ग्रथकी रचना करता हूँ । प्रत्येक शिक्षाविषयरूपी म कैसे इसकी पूर्णाहुति होगी । आडबरी नाम ही गुरुत्वका कारण है, यो समझते हुए भी परिणाममे अप्रभु रहा होनेसे इस प्रकार किया है, सो उचित सिद्ध होओ । उत्तम तत्त्वज्ञान और परम सुशीलका उपदे करनेवाले पुरुष कुछ कम नही हुए हैं, और फिर यह ग्रथ उससे कुछ उत्तम अथवा समान नही है; परन विनयरूपमे उन उपदेशकोके धुरधर प्रवचनोके आगे यह कनिष्ठ है । यह भो प्रमाणभूत है कि प्रधान पुरुष समीप अनुचरकी आवश्यकता है, उसी तरह वैसे घुरधर ग्रन्थोके उपदेशबीजको बोनेके लिये तथा अत करणको कोमल करनेके लिये ऐसे ग्रन्थका प्रयोजन है । इस प्रथम दर्शन और दूसरे अन्य दर्शनोमे तत्त्वज्ञान और सुशीलको प्राप्तिके लिये और परिण मत अनत सुखतरगको प्राप्त करनेके लिये जो-जो साध्य - साधन श्रमण भगवान ज्ञातपुत्रने प्रकाशित कि है, उनका स्वल्पतासे किंचित् तत्त्वसंचय करके उसमे महापुरुषोके छोटे-छोटे चरित्र एकत्र करके इ भावनाबोध और इस मोक्षमालाको विभूषित किया है । यह - "विदग्धमुखमडन भवतु ।” - कर्त्ता पुरुष [ सवत् १९४३ ] शिक्षणपद्धति और मुखमुद्रा यह एक स्याद्वाद तत्त्वावबोध वृक्षका बीज है । यह ग्रथ तत्त्वप्राप्तिकी जिज्ञासा उत्पन्न कर सकने की कुछ अशमे भी सामर्थ्य रखता है । यह समभावसे कहता हूँ । पाठक और वाचक वर्गसे मुख्य अनुरोध यह है कि शिक्षापाठोको मुखाग्र करनेकी अपेक्षा यथाशक्ति मनन करे, उनके तात्पर्यका अनुभव करें, जिनकी समझमे न आता हो वे ज्ञाता शिक्षक या मुनियोसे समझे और ऐसा योग न मिले तो पाँच सात बार उन पाठोको पढ जायें । एक पाठ पढ़ जानेके बाद आधी घडो उसपर विचार करके अन्त करणसे पूछे कि क्या तात्पर्य मिला ? उस तात्पर्यमेसे हेय, ज्ञेय और उपादेय क्या ? ऐसा करनेसे पूरा ग्रन्थ समझा जा सकेगा । हृदय कोमल होगा, विचारशक्ति खिलेगी और जैन तत्त्वपर सम्यक् श्रद्धा होगी । यह ग्रन्थ कुछ पठन करनेके लिये नही है, मनन करनेके लिये है । इसमे अर्थरूप शिक्षाकी योजना की है । यह योजना 'बालाववोध ' रूप है । 'विवेचन' और 'प्रज्ञावबोध' भाग भिन्न हैं, यह उनका एक खण्ड है, फिर भी सामान्य तत्त्वरूप है । जिन्हे स्वभाषासवधी अच्छा ज्ञान है, और नव तत्त्व तथा सामान्य प्रकरण ग्रन्थोको जो समझ सकते है, उन्हें यह ग्रन्थ विशेष बोधदायक होगा । इतना तो अवश्य अनुरोध है कि छोटे बालकोको इन शिक्षापाठोका तात्पर्य सविधि समझायें ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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