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श्रीमद् राजचन्द्र दायको जलाकर उत्तरोत्तर शुद्ध होकर वह कर्मरहित हुआ। सर्व प्रकारके ममत्वका उसने त्याग किया। अनुपम केवलज्ञान पाकर वह मुक्तिके अनत सुखानंदसे युक्त हो गया। यह निर्जराभावना दृढ हुई । अब
दशम चित्र लोकस्वरूपभावना
लोकस्वरूपभावना-इस भावनाका स्वरूप यहाँ सक्षेपमे कहना है। जैसे पुरुष दो हाथ कमरपर रखकर पैरोको चौडा करके खडा रहे, वैसा ही लोकनाल किंवा लोकस्वरूप जानना चाहिये। वह लोकस्वरूप तिरछे थालके आकारका है। अथवा खड़े मर्दलके समान है। नीचे भवनपति, व्यतर और सात नरक हैं | मध्य भागमे अढाई द्वीप है। ऊपर वारह देवलोक, नव ग्रेवेयक, पाँच अनुत्तर विमान और उनपर अनन्त सुखमय पवित्र सिद्धोको सिद्धशिला है। यह लोकालोकप्रकाशक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और निरुपम केवलज्ञानियोने कहा है । सक्षेपमे लोकस्वरूपभावना कही गयी।
पापप्रणालको रोकनेके लिये आस्वभावना और संवरभावना, महाफली तपके लिये निर्जराभावना और लोकस्वरूपका किंचित् तत्त्व जाननेके लिये लोकस्वरूपभावना इस दर्शनके इन चार चित्रोमे पूर्ण हुई।
दशम चित्र समाप्त।
जान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहाँ विचार । ए भावे शुल भावना, ते ऊतरे भव पार ॥
१ भावार्य-ज्ञान, ध्यान और वैराग्यमय उत्तम विचारोफे साथ जो इन शुभ भावनाओका चितन करता है। वह समार से पार हो जाता है।