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________________ २३ वो वर्ष हे अतरात्मा । वे सामान्य सत्समागमी हमे पूछकर सदेहकी निवृत्ति करना चाहते है, और हमारी आज्ञासे प्रवृत्ति करना कल्याणरूप है ऐसा जानकर वशवर्ती होकर प्रवृत्ति करते है। जिससे हमे उनके समागममे तो निजविचार करनेमे भी उनको सभाल लेनेमे पडना पडे, और प्रतिबन्ध होकर स्वविचारदशा बहुत. आगे न बढे, इसलिये सर्दैह तो वैसे ही रहे। ऐसा सदेहसाहचर्य जब तक हो तब तक दूसरे जीवोके अर्थात् सामान्य सत्समागम आदिमे भी आना योग्य नही, इसलिये क्या करना यह नही सूझता। १६३ हे हरि | इस कलिकालमे तेरे प्रति अखड प्रेमका एक क्षण भी बीतना दुर्लभ है, ऐमी निवृत्ति लोग भूल गये हैं । प्रवृत्तिमे प्रवृत्त होकर निवृत्तिका भान भी नही रहा | नाना प्रकारके सुखाभासके लिये प्रयत्न हो रहा है । चाव भी नष्ट प्राय हो गया है । वृद्धमर्यादा नही रही। धर्ममर्यादाका तिरस्कार हुआ । करता है । सत्सग क्या ? और यही एक कर्तव्यरूप है ऐसा समझना केवल दुष्कर हो पड़ा है। सत्सगकी प्राप्तिमे भी जीवको उसकी पहचान होनी महा विकट हो पड़ी है। जीव मायाकी प्रवृत्तिका प्रसग वारवार किया करते हैं । एक बार जिन वचनोकी प्राप्ति होनेसे जीव बधनमुक्त हो और तेरे स्वरूपको प्राप्त करे, वैसे वचन बहुत बार कह जानेका भी कुछ ही फल नहीं होता। ऐसी अयोग्यता जीवोमे आ गयी है। निष्कपटता हानिको प्राप्त हुई है। शास्त्रमे सदेह उत्पन्न करना इसे ' जीवने एक ज्ञान मान लिया है। परिग्रहकी प्राप्तिके लिये तेरे भक्तको भी ठगनेका कार्य उसे पापरूप नहीं लगता । परिग्रहका उपार्जन करनेवाले सगे सम्वन्धियोसे जीवने जैसा प्रेम किया है वैसा प्रेम तुझसे अथवा तेरे ,भक्तसे किया होता तो जीव तुझे प्राप्त कर लेता। सर्व भूतोमे दया रखनी और सबमे तू है ऐसा समझकर दासत्वभाव रखना, • यह परम धर्म स्खलित हो गया है। सर्व रूपोमे तेरा अस्तित्व समान ही है, इसलिये भेदभावका त्याग करना, यह महा पुरुषोका अन्तरग ज्ञान आज कही भी दृष्टिगोचर नही होता । हम कि जो तेरा मात्र निरतर दासत्व ही अनन्य प्रेमसे चाहते है, उसे भी तू कलियुगका प्रसगी सग दिया करता है। • अब हे हरि । यह देखा नही जाता, सुना नही जाता, यह न कराना योग्य है। फिर भी हमारे प्रति 'तेरी ऐसी ही इच्छा हो तो प्रेरणा कर कि जिससे हम उसे केवल सुखरूप ही मान लेंगे। हमारे प्रसगमे आये हुए जीव किसी प्रकारसे दुखी न हो और हमारे द्वेषी न हों (हमारे कारणसे) ऐसा मुझ शरणागतपर अनुग्रह होना योग्य हो तो कर | मुझे बडेसे बडा दु ख मात्र इतना ही है कि जीव तेरेसे विमुख करनेवाली वृत्तियोंसे प्रवृत्ति करते हैं । उनका प्रसग होना और फिर किन्ही कारणोसे उन्हे तेरे सन्मुख होनेका कहनेपर भी उसका अगीकार न होना यह हमे परम दुःख है । और यदि वह योग्य होगा तो उसे दूर करनेके लिये हे नाथ | तू समर्थ है, समर्थ है । हे हरि | वारवार मेरा समाधान कर, समाधान कर । अद्भुत । अद्धत । अद्भत । परम अचिंत्य ऐसा तेरा स्वरूप, हे हरि । मै पामर प्राणी उसका कैसे पार पाऊँ ? मै जो तेरे अनत ब्रह्माडका एक अश वह तुझे कैसे जानूं ? सर्वसत्तात्मक ज्ञान जिसके मध्यमे हैं ऐसे हे हरि | तुझे चाहता हूँ, चाहता हूँ। तेरी कृपा चाहता हूँ। तुझे वारवार हे हरि । चाहता हूँ। हे श्रीमान पुरुषोत्तम ! तू अनुग्रह कर । अनुग्रह कर ॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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