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________________ . २४ वाँ वर्ष ___१६५ ... बबई, कार्तिक सुदी ५, सोम, १९४७ परम पूज्य-केवलबीज-सम्पन्न, सर्वोत्तम उपकारी श्री सौभाग्यभाई, ___ मोरबी। आपके प्रतापसे यहाँ आनन्दवृत्ति है । प्रभुके प्रतापसे उपाधिजन्य वृत्ति है। भगवान परिपूर्ण सर्वगुणसम्पन्न कहलाते है। तथापि इनमे भी कुछ कम अपलक्षण नहीं है । विचित्र करना यही है इसकी लीला | तो अधिक क्या कहना सर्व समर्थ पुरुष आपको प्राप्त हुए ज्ञानके ही गोत गा गये है। इस ज्ञानको दिन प्रतिदिन इस आत्माको भी विशेषता होती जाती है । मैं मानता हूँ कि केवलज्ञान तकका परिश्रम व्यर्थ तो नही जायेगा। हमे मोक्षकी कोई जरूरत नही है। निःशकताकी, निर्भयताकी, निराकुलताकी और नि.स्पृहताकी जरूरत थी, वह अधिकाशमे प्राप्त हुई मालूम होती है, और पूर्णाशमे प्राप्त करानेकी गुप्त रहे हुए करुणासागरकी कृपा होगी, ऐसी आशा रहती है। फिर भी इससे भी अधिक अलोकिक दशाकी इच्छा रहती है, तो विशेष क्या कहना? अनहद ध्वनिमे कमी नहीं है । परन्तु गाड़ी-घोड़ेकी उपाधि श्रवणका सुख थोडा देती है। निवृत्तिके सिवाय यहाँ दूसरा सब कुछ है। । । जगतको, जगतकी लीलाको बैठे बैठे मुफ्तमे देख रहे हैं। आपकी कृपा चाहता हूँ। ___ वि० आज्ञाकारी रायचन्दका प्रणाम । बबई, कार्तिक सुदी ६, मगल, १९४७ सत्पुरुषके एक-एक वाक्यमे, एक-एक शब्दमे अनत आगम निहित हैं, यह बात कैसे होगी? निम्नलिखित वाक्य मैंने असख्य सत्पुरुषोकी सम्मतिसे प्रत्येक मुमुक्षुके लिये मगलरूप माने हैं, मोक्षके सर्वोत्तम कारणरूप माने हैं : १ मायिक सुखकी सर्व प्रकारकी वाछा चाहे जब भी छोड़े बिना छुटकारा होनेवाला नही है, तो जबसे इस वाक्यका श्रवण किया, तभीसे उस क्रमका अभ्यास करना योग्य हो है, ऐसा समझे।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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