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________________ २४६ श्रीमद राजचन्द्र वह कहा भी गया हो, परन्तु वर्तमान शास्त्रमे वह नही रहा ऐसा समझनेमे क्या हानि ? हानि कुछ नही, परन्तु इस तरह स्थिरता, यथार्थ नही आती । दूसरे भी बहुतसे भावोमे जगह-जगह विरोध दिखायी देता है । आप स्वय भूल हो ? यह भी सत्य है, परन्तु हम सत्य समझने के अभिलापी है । कुछ लाज-शर्म, मान, पूजा आदिके अभिलापी नही है फिर भी सत्य समझमे क्यो नही आता ? ' J सद्गुरुकी दृष्टिसे समझमे आता है । स्वत यथार्थ समझ मे नही आता । सद्गुरुका योग तो मिलता नही है । और हमको सद्गुरुके तौरपर माना जाता है । तो फिर क्या करना ? हम जिस विषयमे शकावाले हैं, उस विषयमे दूसरोको क्या समझायें ? कुछ समझाया नही जाला ओर समय बीतता जाता है। इस कारणसे तथा कुछ विशेष उदयसे त्याग भी नही होता । जिससे सारी स्थिति शकारूप हो गयी है । इसकी अपेक्षा तो हमारे लिये जहर पीकर मर जाना उत्तम है, " सर्वोत्तम है । १ दर्शनपरिवह इसी तरह भोगा जाता है क्या ? यह योग्य है । परन्तु हमको लोगोका परिचय "हम ज्ञानी है" ऐसी उनकी मान्यता के साथ न हुआ होता तो क्या बुरा था ? वही होनहार था । अरे ! हे दुष्टात्मन् । पूर्वमे उचित सन्मति नही रखी और कर्मबन्ध किये तो अब तू ही उनके फल भोगता है । तू या तो जहर पी और या तो उपाय तत्काल कर । 1 योगसाधन करू ? उसमे बहुत अतराय देखनेमे आते है । वर्तमानमे परिश्रम करते हुए भी वह उदयमे नही आता ।, १६२ श्री । आप शकारूप भँवरमे वारवार फँसते हैं, इसका अर्थ क्या है ? नि सदेह होकर रहे, और यही आपका स्वभाव है । हे अन्तरात्मा । आपने जो वाक्य कहा वह यथार्थ है । नि. सदेहरूपसे स्थिति यह स्वभाव है, तथापि जब तक सदेहके आवरणंका सर्वथा क्षय त किया जा सका हो तब तक वह स्वभाव चलायमान अथवा अप्राप्त रहता है और इस कारण से हमे भी वर्तमान दशा प्राप्त है । श्री । आपको जो कुछ सदेह रहता हो उस सदेहका स्वविचारसे. अथवा सत्समागमसे क्षय करें । [1 13 हे अन्तरात्मां । वर्तमान, आत्मदशाको देखते हुए यदि परम सत्समागम प्राप्त हुआ हो और उसके श्रवृत्ति प्रतिवन्धको प्राप्त हुई हो तो वह सदेहकी निवृत्तिका हेतु होना संभव है । अन्यथा दूसरा कोई उपाय दिखायी नही देता, और परम सत्समागम अथवा सत्समागम भी प्राप्त होना अत्यत कठिन है । श्री । आप कहते हैं वैसे सत्समागमकी दुर्लभता है, इसमे सशय नही है, परन्तु वह दुर्लभता यदि सुलभ न हो और वैसा विशेष अनागत कालमे भी आपको दिखायी देता हो तो आप शिथिलताका त्याग करके स्वविचारका दृढ अवलवन ग्रहण करे, और परम पुरुषकी आज्ञामे भक्ति रखकर सामान्य सत्समागममे भी काल व्यतीत करे । "
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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