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व्यख्यानसार-१
२२२. धर्मसंबंधी (श्री रत्नकरंड श्रावकाचार )
आत्माको स्वभावमें धारण करे वह धर्म है ।
आत्माका स्वभाव धर्म है ।
जो स्वभावमेंसे परभावमें नहीं जाने देता वह धर्म है ।
परभाव द्वारा आत्माको दुर्गतिमें जाना पड़ता है । जो आत्माको दुर्गतिमें न जाने देकर स्वभावमें रखता है वह धर्म है ।
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सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूपाचरण धर्मं है । वहाँ बंधका अभाव है ।
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र इस रत्नत्रयीको श्री तीर्थंकरदेव धर्मं कहते हैं ।
षड्द्रव्यका श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूपाचरण धर्म है ।
जो संसारपरिभ्रमणसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धारण करता है वह धर्म है ।
आप्त अर्थात् सब पदार्थोंको जानकर उनके स्वरूपका सत्यार्थ प्रगट करनेवाला ।
आगम अर्थात् आप्तकथित पदार्थ की शब्दद्वारा रचनारूप शास्त्र । -
आप्तप्ररूपित शास्त्रानुसार आचरण करनेवाला, आप्तप्रदर्शित मार्ग में चलता है वह 'सद्गुरु है।
सम्यग्दर्शन अर्थात् सत्य आप्त, शास्त्र और गुरुका श्रद्धान ।
सम्यग्दर्शन तीन मूढ़ता से रहित, निःशंक आदि आठ अंगसहित आठ मद और छः अनायसे रहित है ।
सात तत्त्व अथवा नव पदार्थके श्रद्धानको शास्त्रमें सम्यग्दर्शन कहा है । परन्तु दोषरहित शास्त्रके उपदेशके बिना सात तत्त्वका श्रद्धान किस तरह होगा ? निर्दोष आप्तके बिना सत्यार्थं आगम किस तरह प्रगट होगा ? इसलिये सम्यग्दर्शनका मूल कारण सत्यार्थ आप्त ही है ।
पुरुष क्षुधातृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित होता हैं ।
धर्मका मूल आप्त भगवान है !
आप्त भगवान निर्दोष सर्वज्ञ और हितोपदेशक है ।
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