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________________ व्यख्यानसार-१ २२२. धर्मसंबंधी (श्री रत्नकरंड श्रावकाचार ) आत्माको स्वभावमें धारण करे वह धर्म है । आत्माका स्वभाव धर्म है । जो स्वभावमेंसे परभावमें नहीं जाने देता वह धर्म है । परभाव द्वारा आत्माको दुर्गतिमें जाना पड़ता है । जो आत्माको दुर्गतिमें न जाने देकर स्वभावमें रखता है वह धर्म है । ७७५ सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूपाचरण धर्मं है । वहाँ बंधका अभाव है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र इस रत्नत्रयीको श्री तीर्थंकरदेव धर्मं कहते हैं । षड्द्रव्यका श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूपाचरण धर्म है । जो संसारपरिभ्रमणसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धारण करता है वह धर्म है । आप्त अर्थात् सब पदार्थोंको जानकर उनके स्वरूपका सत्यार्थ प्रगट करनेवाला । आगम अर्थात् आप्तकथित पदार्थ की शब्दद्वारा रचनारूप शास्त्र । - आप्तप्ररूपित शास्त्रानुसार आचरण करनेवाला, आप्तप्रदर्शित मार्ग में चलता है वह 'सद्गुरु है। सम्यग्दर्शन अर्थात् सत्य आप्त, शास्त्र और गुरुका श्रद्धान । सम्यग्दर्शन तीन मूढ़ता से रहित, निःशंक आदि आठ अंगसहित आठ मद और छः अनायसे रहित है । सात तत्त्व अथवा नव पदार्थके श्रद्धानको शास्त्रमें सम्यग्दर्शन कहा है । परन्तु दोषरहित शास्त्रके उपदेशके बिना सात तत्त्वका श्रद्धान किस तरह होगा ? निर्दोष आप्तके बिना सत्यार्थं आगम किस तरह प्रगट होगा ? इसलिये सम्यग्दर्शनका मूल कारण सत्यार्थ आप्त ही है । पुरुष क्षुधातृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित होता हैं । धर्मका मूल आप्त भगवान है ! आप्त भगवान निर्दोष सर्वज्ञ और हितोपदेशक है । -*
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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