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________________ २३२ श्रीमद् राजचन्द्र और उम लाभको लेनेकी इच्छा करनेवालोकी योग्यताको भी मुझे अनेक प्रकारसे न्यूनता मालूम हुआ करती है। इसलिये ये दोनो योग जब तक परिपक्वताको प्राप्त न हो तब तक इच्छित सिद्धिमे विलब है, ऐसी मेरी मान्यता है । वारवार अनुकपा आ जाती है, परन्तु निरुपायताके आगे क्या करूं? अपनी किसी न्यूनताको पूर्णता कैसे कहूँ ? इसलिये ऐसी इच्छा रहा करती है कि अभी तो जैसे आप सव योग्यता प्राप्त कर सकें वैसा कुछ निवेदन करता रहूँ, और जो कुछ स्पष्टीकरण पूठे सो यथामति बताता रहँ, नही तो योग्यता प्राप्त करते रहे, ऐसा बार-बार सूचित करता रहूँ। 'सायमे खीमजोका पत्र है, यह उन्हे दे दें। यह पत्र आपको भी लिखा है, ऐसा समझे। १४३ ववाणिया, द्वि० भादो वदी १३, शनि, १९४६ नीचेकी बातोका अभ्याम तो करते ही रहे - १. चाहे जिस प्रकारसे भी उदयमे आये हुए और उदयमे आनेवाले कपायोको शात करें। २ मभी प्रकारकी अभिलापाकी निवृत्ति करते रहे। ३ इतने काल तक जो किया उस सबसे निवृत्त हो, उसे करनेसे अब रुके । ४ आप परिपूर्ण मुखी हैं, ऐसा मानें, और वाकीके प्राणियोकी अनुकपा किया करें। ५ किसी एक सत्पुरुपको खोजे, और उसके चाहे जैसे वचनोमे भी श्रद्धा रखे। ये पाँचो अभ्यास अवश्य योग्यता देते हैं। और पांचवेमे चारोका समावेश हो जाता है, ऐसा अवश्य मानें । अधिक क्या कहूँ ? चाहे जिस कालमे भी यह पाँचवाँ प्राप्त हुए विना इस पर्यटनका अन्त आनेवाला नही है । वाकीके चार इस पाँचवेंकी प्राप्तिमे सहायक है । पाँचवेंके अभ्यासके सिवाय, उसकी प्राप्तिके सिवाय दूसरा कोई निर्वाणमार्ग मुझे नहीं सूझता, और सभी महात्माओको भी ऐसा ही सूझा होगा-(सूझा है)। अव जैसे आपको योग्य लगे वैसे करें। आप इन सबकी इच्छा रखते हैं, तो भी अधिक इच्छा करें; शीघ्रता न करें। जितनी शीघ्रता उतनी कचाई और जितनी कचाई उतनी खटाई, इस सापेक्ष कथनका स्मरण करें। प्रारब्धजीवी रायचदके यथायोग्य | १४४ ववाणिया, द्वि० भादो वदी ३०, सोम, १९४६ आपका पत्र मिला । परमानंद हुआ। चेतन्यका निरन्तर अविच्छिन्न अनुभव प्रिय है, यही चाहिये है। दूसरी कोई स्पृहा नहीं रहती। रहती हो तो भी रखनेकी इच्छा नही है। एक "तू ही, तू ही" यही यथार्थ अस्खलित प्रवाह चाहिये । अधिक क्या कहना ? यह लिखनेसे लिखा नही जाता और कहनेसे कहा नहीं जाता, मात्र ज्ञानगम्य है। अथवा तो श्रेणिश. समझमे आने योग्य है। बाकी तो अव्यक्तता ही है । इसलिये जिस नि स्पृह दशाको ही रटन है, उसके मिलनेपर ओर इस कल्पितको भूल जानेपर छुटकारा है। कव आगमन होगा? वि० आ० रा. १४५ ववाणिया, आसोज सुदी २, गुरु, १९४६ मेरा विचार ऐसा होता है कि · · पास आप सदा जायें । हो सके तो जीभसे, नही तो लिखकर बता दें कि मेरा अन्त.करण आपके प्रति निर्विकल्प ही है, फिर भी मेरी प्रकृतिके दोपसे किसी भी तरह १ देखें साथका आक १४३
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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