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________________ २७ वा वर्ष ४१३ ५०४ बबई, वैशाख, १९५० मनका, वचनका तथा कारणका व्यवसाय जितना चाहते है, उसकी अपेक्षा इस समय विशेप रहा करता है । और इसी कारणसे आपको पत्रादि लिखना नही हो सकता । व्यवसायके विस्तारकी इच्छा नही की जाती है, फिर भी वह प्राप्त हुआ करता है । और ऐसा लगता है कि वह व्यवसाय अनेक प्रकारसे वेदन करने योग्य है, कि जिसके वेदनसे पुनः उसका उत्पत्तियोग दूर होगा, निवृत्त होगा। कदाचित् प्रबलरूपसे उसका निरोध किया जाये तो भी उस निरोधरूप क्लेशके कारण आत्मा आत्मरूपसे विस्रसापरिणामकी तरह परिणमन नही कर सकता, ऐसा लगता है। इसलिये उस व्यवसायकी अनिच्छारूपसे जो प्राप्ति हो, उसे वेदन करना, यह किसी प्रकारसे विशेष सम्यक् लगता है। किसी प्रगट कारणका अवलम्बन लेकर, विचारकर परोक्ष चले आते हुए सर्वज्ञपुरुषको मात्र सम्यग्दृष्टिरूपसे भी पहिचान लिया जाये तो उसका महान फल है, और यदि वैसे न हो तो सर्वज्ञको सर्वज्ञ कहनेका कोई आत्मा सम्बन्धी फल नही है, ऐसा अनुभवमे आता है। प्रत्यक्ष सर्वज्ञपुरुषको भी यदि किसी कारणसे, विचारसे, अवलम्बनसे, सम्यग्दृष्टिरूपसे भी न जाना हो तो उसका आत्मप्रत्ययी फल नही है। परमार्थसे उसकी सेवा-असेवासे जीवको कोई जाति-( )-भेद नही होता । इसलिये उसे कुछ सफल कारणरूपसे ज्ञानीपुरुषने स्वीकार नही किया है, ऐसा मालूम होता है। कई प्रत्यक्ष वर्तमानोसे ऐसा प्रगट ज्ञात होता है कि यह काल विषम या दुषम या कलियुग हे । कालचक्रके परावर्तनमे दुषमकाल पूर्वकालमे अनत बार आ चुका है, तथापि ऐसा दुषमकाल किसी समय ही आता है । श्वेताम्बर सप्रदायमे ऐसी परपरागत बात चली आती है कि 'असयतिपूजा' नामसे आश्चर्ययुक्त 'हुड'-ढीठ ऐसे इस पचमकालको तीर्थकर आदिने अनत कालमे आश्चर्यस्वरूप माना है, यह बात हमे बहुत करके अनुभवमे आती है, मानो साक्षात् ऐसी प्रतीत होती है । काल ऐसा है । क्षेत्र प्राय अनार्य जैसा है, वहाँ स्थिति है, प्रसग, द्रव्य, काल आदि कारणोसे सरल होनेपर भी लोकसज्ञारूपसे गिनने योग्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावके आलवन बिना निराधाररूपसे जैसे आत्मभावका सेवन किया जाये वैसे सेवन करता है । अन्य क्या उपाय ? ५०५ वीतरागका कहा हुआ परम शान्त रसमय धर्म पूर्ण सत्य है, ऐसा निश्चय रखना । जीवकी अनधिकारिताके कारण तथा सत्पुरुषके योगके विना समझमे नही आता, तो भी जीवके ससाररोगको मिटानेके लिये उस जैसा दूसरा कोई पूर्ण हितकारी औषध नही है, ऐसा वारवार चिंतन करना । यह परम तत्त्व है, इसका मुझे सदैव निश्चय रहो, यह यथार्थ स्वरूप मेरे हृदयमे प्रकाश करो, और जन्ममरणादि बन्धनसे अत्यन्त निवृत्ति होओ। निवृत्ति होओ ।। हे जीव । इस क्लेशरूप ससारसे विरत हो, विरत हो, कुछ विचार कर, प्रमाद छोड़कर जागृत हो । जागृत हो ॥ नही तो रत्नचिन्तामणि जैसी यह मनुष्यदेह निष्फल जायेगी। हे जीव ! अब तुझे सत्पुरुषको आज्ञा निश्चयसे उपासने योग्य है। ॐ शाति शाति शातिः ५०६ वम्बई, वैशाख, १९५० श्री तीर्थकर आदि महात्माओने ऐसा कहा है कि विपर्यास दूर होकर जिसको देहादिमे हुई आत्मबुद्धि और आत्मभावमे हुई देहबुद्धि नष्ट हो गयो है, अर्थात् आत्मा आत्मपरिणामी हो गया है, ऐसे ज्ञानी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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