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श्रीमद् राजचन्द्र पुरुषको भी जब तक प्रारब्ध व्यवसाय है, तव तक जागृतिमे रहना योग्य है। क्योकि अवकाश प्राप्त होनेपर वहाँ भी अनादि विपर्यास भयका हेतु हमे लगता है। जहाँ चार घनघाती कर्म छिन्न हो गये है, ऐसे सहजस्वरूप परमात्मामे तो सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण जागृतिरूप तुर्यावस्था है, इसलिये वहाँ अनादि विपर्यास निजिताको प्राप्त हो जानेसे किसी भी प्रकारसे उसका उद्भव हो ही नहीं सकता, तथापि उससे न्यून ऐसे विरति आदि गुणस्थानकमे स्थित ज्ञानीको तो प्रत्येक कार्यमे और प्रत्येक क्षणमे आत्मजागृति होना योग्य है । जिसने चोदह पूर्वको अशतः न्यून जाना है, ऐसे ज्ञानीपुरुपको भी प्रमादवशात् अनतकाल परिभ्रमण हुआ है। इसलिये जिसकी व्यवहारमे अनासक्त बुद्धि हुई है उस पुरुषको भी यदि वैसे उदयका प्रारब्ध हो तो उसकी निवृत्तिका क्षण क्षण चिन्तन करना और निजभावकी जागति रखना चाहिये। इस प्रकार महाज्ञानी श्री तीर्थंकर आदिने ज्ञानीपुरुपको सूचना की है, तो फिर जिसका मार्गानुसारी अवस्थामे भी अभी प्रवेश नही हुआ है, ऐसे जीवको तो इस सर्व व्यवसायसे विशेष विशेष निवृत्तभाव रखना, और विचार-जागृति रखना योग्य है, ऐसा बताने जैसा भी नहीं रहता, क्योकि वह तो सहजमे हो समझमे आ सकता है।
ज्ञानीपुरुषोने दो प्रकारसे बोध दिया है। एक तो 'सिद्धान्तबोध' और दूसरा उस सिद्धातबोधके होनेमे कारणभूत ऐसा 'उपदेशबोध' । यदि उपदेगबोध जीवके अन्त करणमे स्थितिमान हुआ न हो तो, उसे सिद्धातबोधका मात्र श्रवण भले ही हो, परन्तु उसका परिणमन नही हो सकता। सिद्धातबोध अर्थात् पदार्थका जो सिद्ध हुआ स्वरूप है, ज्ञानीपुरुपोने निष्कर्ष निकालकर जिस प्रकारसे अन्तमे पदार्थको जाना है, उसे जिस प्रकारसे वाणी द्वारा कहा जा सके उस प्रकार बताया है, ऐसा जो बोध है वह 'सिद्धातबोध' है । परन्तु पदार्थका निर्णय करनेमे जीवको अन्तरायरूप उसकी अनादि विपर्यासभावको प्राप्त हुई बुद्धि है, जो व्यक्तरूपसे या अव्यक्तरूपसे विपर्यासभावसे पदार्थस्वरूपका निर्धार कर लेती है, उस विपर्यासबुद्धिका बल घटनेके लिये, यथावत् वस्तुस्वरूपके ज्ञानमे प्रवेश होनेके लिये, जीवको वैराग्य और उपशम साधन कहे है, और ऐसे जो जो साधन जीवको संसारभय दृढ कराते हैं, उन उन साधनो सम्बन्धी जो उपदेश कहा है, वह 'उपदेशबोध' है।
यहाँ ऐसा भेद उत्पन्न होता है कि 'उपदेशबोध' की आधा तबोध' की मुख्यता प्रतीत होती है, क्योकि उपदेशबोध भी उसीके लिये है, तो फिर यदि सिद्धातबोधका ही पहलेसे अवगाहन किया हो तो वह जीवको पहलेसे ही उन्नतिका हेतु है। यदि ऐसा विचार उत्पन्न हो तो वह विपरीत है, क्योकि सिद्धातबोधका जन्म उपदेशबोधसे होता है। जिसे वेराग्य-उपशम सम्बन्धी उपदेशबोध नही हुआ उसे बुद्धिकी विपर्यासता रहा करती है, और जब तक बुद्धिकी विपर्यासता हो तब तक सिद्धातका विचार करना भी विपर्यासरूपसे होना ही सभव है। क्योकि चक्षुमे जितना धुंधलापन रहता है, वह उतना ही पदार्थको धुंधला देखता है, और यदि उसका पटल अत्यन्त बलवान हो तो उसे समूचा पदार्थ दिखायी नही देता, तथा जिसका चक्षु यथावत् सपूर्ण तेजस्वी है, वह पदार्थको भी यथायोग्य देखता है। इस प्रकार जिस जीवकी गाढ विपर्यासवुद्धि है, उसे तो किसी भी तरह सिद्धातबोध विचारमे नही आ सकता। जिसकी विपर्यासबुद्धि मद हुई है उसे तदनुसार सिद्धातका अवगाहन होता है, और जिसने उस विपर्यासबुद्धिको विशेषरूपसे क्षीण किया है, ऐसे जीवको विशेषरूपसे सिद्धातका अवगाहन होता है।
- गृहकुटुम्ब परिग्रहादि भावमे जो अहता ममता है और उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रसगमे जो रागद्वेष कषाय है, वही 'विपर्यासबुद्धि' है, और जहाँ वैराग्य उपशमका उद्भव होता है, वहाँ अहता-ममता तथा कषाय मद पड जाते हैं, अनुक्रमसे नष्ट होने योग्य हो जाते हैं। गृहकुटुम्बादि भावमे अनासक्तबुद्धि होना 'वैराग्य' है, ओर उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले कषायक्लेशका मंद होना 'उपशम' है।