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________________ ४६८ श्रीमद् राजचन्द्र ५८९ बबई, चैत्र वदी १३, १९५१ आपको वेदात ग्रथ पढ़नेका अथवा उस प्रसगकी बातचीत सुननेका प्रसग रहता हो तो उसे पढनेसे तथा सुननेसे जीवमे वैराग्य और उपशम वर्धमान हो वैसा करना योग्य है। उसमे प्रतिपादन किये हुए सिद्धातका यदि निश्चय होता हो तो करनेमे बाधा नही है, तथापि ज्ञानीपुरुषके समागम और उपासनासे सिद्धातका निश्चय किये बिना आत्मविरोध होना सम्भव है। ५९० ___ बबई, चैत्र वदी १४, १९५१ चारित्र (श्री जिनेन्द्रके अभिप्रायमे क्या है ? उसे विचारकर समवस्थित होना) दशा सम्बधी अनुप्रेक्षा करनेसे जीवमे स्वस्थता उत्पन्न होती है । उस विचार द्वारा उत्पन्न हुई चारित्रपरिणाम स्वभावरूप स्वस्थताके बिना ज्ञान निष्फल है, ऐसा जिनेन्द्रका अभिमत अव्याबाध सत्य है ।। तत्सम्बधी अनुप्रेक्षा बहुत बार रहनेपर भी चचल परिणनिका हेतु ऐसा उपाधियोग तीन उदयरूप होनेसे चित्तमे प्रायः खेद जैसा रहता है, और उस खेदसे शिथिलता उत्पन्न होकर विशेष नही कहा जा सकता । बाकी कुछ बतानेके विषयमे तो चित्तमें बहुत बार रहता है। प्रसगोपात्त कुछ विचार लिखें, उसमे आपत्ति नहीं है । यही विनतो। ५९१ बबई, चैत्र, १९५१ विषयादि इच्छित पदार्थ भोगकर उनसे निवृत्त होनेकी इच्छा रखना और उस क्रमसे प्रवृत्ति करनेसे आगे जाकर उस विषयमाका उत्पन्न होना सम्भव न हो, ऐसा होना कठिन है, क्योकि ज्ञानदशाक बिना विषयकी निर्मलता होना सम्भव नही है । विषय भोगनेसे मात्र उदय नष्ट होता है, परतु यदि ज्ञानदशा न हो तो उत्सुक परिणाम, विषयका आराधन करते हुए, उत्पन्न हुए बिना नही रहते, और उससे विषय पराजित होनेके बदले विशेष वर्धमान होता है। जिन्हे ज्ञानदशा है वैसे पुरुष विषयाकाक्षासे अथवा विषयका अनुभव करके उससे विरक्त होनेकी इच्छासे उसमे प्रवृत्ति नही करते, और यदि ऐसे प्रवृत्ति करने लग तो ज्ञानपर भी आवरण आना योग्य है। मात्र प्रारब्ध सम्बन्धी उदय हो अर्थात् छूटा न जा सके, इसीलिये ज्ञानीपुरुषकी भोगप्रवृत्ति है। वह भी पूर्वपश्चात् पश्चात्तापवाली और मंदमे मद परिणामसयुक्त होती है। सामान्य मुमुक्षुजीव वैराग्यके उद्भवके लिये विषयका आराधन करने जाय तो प्राय उसका बंधा जाना सम्भव है, क्योकि ज्ञानीपुरुष भी उन प्रसंगोको बड़ी मुश्किलसे जीत सके हैं, तो फिर जिसकी मात्र विचारदशा है ऐसे पुरुषको सामथ्यं नही कि वह विषयको इस प्रकारसे जीत सके। 05 वंबई, वैशाख सुदी, १९५१ आर्य-श्री सोभागके प्रति, सायला। , ___पत्र मिला है। श्री अंबालालसे सुधारस सम्बन्धी बातचीत करनेका अवसर आपको प्राप्त हो तो कीजियेगा। ' जो देह पूर्ण युवावस्थामे और सम्पूर्ण आरोग्यमे दिखायी देती हुई भी क्षणभगुर है, उस देहमे प्रीति करके क्या करें? जगतके सर्व पदार्थोंकी अपेक्षा जिसके प्रति सर्वोत्कृष्ट प्रीति है, ऐसी यह देह वह भी दुःखका हेतु है, तो दूसरे पदार्थोमे सुखके हेतुकी क्या कल्पना करना?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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