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________________ ५५१ २९ वो वर्ष अनुभवमे रही है, जिससे वे भाग जानेका प्रयत्न करते है। किसी प्राणीमे जन्मसे ही प्रीतिकी, किसीमे समताकी, किसीमे विशेष निर्भयताकी, किसीमे गभीरताकी, किसीमे विशेष भय सज्ञाकी, किसीमे काम आदिके प्रति असगताकी, और किसीमे आहार आदिमे अधिकाधिक लुब्धताकी विशेषता देखनेमे आती है। इत्यादि भेद अर्थात् क्रोध आदि सज्ञाकी न्यूनाधिकता आदिसे, तथा वे वे प्रकृतियाँ जन्मसे सहचारीरूपसे विद्यमान देखनेमे आती है, उससे उसका कारण पूर्वके सस्कार ही सभव है। कदाचित् ऐसा कहे कि गर्भमे वीय-रेतके गुणके योगसे उस उस प्रकारके गुण उत्पन्न होते है, परतु उसमे पूर्वजन्म कुछ कारणभूत नहीं है, यह कहना भी यथार्थ नहीं है। जो माता-पिता काममे विशेष प्रीतिवाले देखनेमे आते है, उनके पुत्र परम वीतराग जसे बाल्यकालसे ही देखनेमे आते है । तथा जिन माता-पिताओमे क्रोधकी विशेषता देखनेमे आती है, उनकी सततिमे समताकी विशेषता दृष्टिगोचर होती है, यह कैसे हो सकता है ? तथा उस वीर्य-रेतके वैसे गुण सभव नहीं है, क्योकि वह वीर्य-रेत स्वय चेतन नही है, उसमे चेतन सचार करता है, अर्थात् देह धारण करता है, इसलिये वीर्य-रेतके आश्रित क्रोध आदि भाव नही माने जा सकते, चेतनके विना किसी भी स्थानमे वैसे भाव अनुभवमे नही आते। मात्र वे चेतनाश्रित है, अर्थात् वीर्य-रेतके गुण नही है, जिससे उसकी न्यूनाधिकतासे क्रोध आदिकी न्यूनाधिकता मुख्यत हो सकने योग्य नहीं है। चेतनके न्यूनाधिक प्रयोगसे क्रोध आदिकी न्यूनाधिकता होती है, जिससे वह गर्भके वीर्य-रेतका गुण नही है , परतु चेतनका उन गुणोको जाश्रय है, और वह न्यूनाधिकता उस चेतनके पूर्वके अभ्याससे ही सभव है, क्योकि कारण विना कार्यकी उत्पत्ति नही होती। चेतनका पूर्वप्रयोग तथाप्रकारसे हो, तो वह सस्कार रहते हैं, जिससे इस देह आदिके पूर्वके सस्कारोका अनुभव होता है, और वे सस्कार पूर्वजन्मको सिद्ध करते है, और पूर्वजन्मकी सिद्धिसे आत्माको नित्यता सहज ही सिद्ध होती है । (६७) आत्मा द्रव्ये नित्य छ, पर्याये पलटाय। बाळादि वय अण्यनु, ज्ञान एफने थाय ॥६८॥ आत्मा वस्तुरूपसे नित्य है। समय-समयपर ज्ञान आदि परिणामके परिवर्तनसे उसके पर्यायमे परिवर्तन होता है। (कुछ समुद्र बदलता नही, मात्र लहरें बदलती है, उसो तरह ।) जैसे बाल, युवा और वृद्ध ये तीन अवस्थाएँ है, वे विभावसे आत्माके पर्याय हैं, और बाल अवस्थाके रहते हुए आत्मा वालक जान पडता था। उस बाल अवस्थाको छोडकर जव आत्माने युवावस्था धारण की, तब युवा जान पडा, और जब यवावस्थाको छोडकर वृद्धावस्था अगीकार की तब वृद्ध दीखने लगा। यह तीन अवस्थाओका भेद हुआ, वह पर्यायभेद है, परतु उन तीनो अवस्थाओमे आत्म-द्रव्यका भेद नहीं हुआ, अर्थात् अवस्थाएँ बदली परत आत्मा नही बदला | आत्मा इन तीनो अवस्थाओको जानता है और उन तीनो अवस्थाओकी उसे ही स्मति है। तीनो अवस्थाओमे आत्मा एक हो ता ऐसा हो सकता है परन्तु यदि आत्मा क्षण क्षण बदलता हो तो वैसा अनुभव सभत ही नहीं है ॥६८॥ अथवा ज्ञान क्षणिकन, जे जाणी वदनार । वदनारो ते क्षणिक नहि, कर अनुभव निर्धार ॥६९॥ तथा अमक पदार्थ क्षणिक है, ऐसा जो जानता है और क्षणिकता कहता है, वह कहनेवाला अर्थात जाननेवाला क्षणिक नही हो सकता, क्योंकि प्रथम क्षणमे जो अनुभव हुआ उसे दूसरे क्षणमे कहा जा सकता है। उस दूसरे क्षणमे वह स्वय न हो तो कैस कह सकता है ? इसलिये अनुभवसे भी आत्माकी अक्षणिकताका निश्चय कर ॥६९।। क्यारे कोई वस्तुनो, केवळ होय न नाश । चेतन पामे नाश तो, केमा भळे तपास ॥७॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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