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________________ १७वें वर्षसे पहले ४६. अहंकार न करें। ४७. भले कोई द्वेष करे परतु आप वैसा न करें। ४८. क्षण क्षणमे मोहका सग छोड़ें। ४९ आत्मासे कर्मादिक अन्य है, तो ममत्वरूप परिग्रहका त्याग करें। ५० सिद्धके सुख स्मृतिमे लायें। । ५१ एकचित्तसे आत्माका ध्यान करें। प्रत्यक्ष अनुभव होगा। ५२. बाह्य कुटुम्ब पर राग न करें। ५३. अभ्यतर कुटुव पर राग न करें। ५४ स्त्री पुरुषादिक पर अनुरक्त न हो। ५५. वस्तुधर्मको याद करे। ५६ कोई बाँधनेवाला नही है, अपनी भूलसे बँधता है। ५७ एकको उपयोगमे लायेगे तो सब शत्रु दूर हो जायेंगे । ५८. गीत और गायनको विलापतुल्य जाने । । ५९ आभरण ही द्रव्यभार ( भाव ) भारकर्म। ६० प्रमाद ही भय है। ' ६१. अप्रमाद भाव ही अभयपद है। ६२. जैसे भी हो, त्वरासे प्रमाद छोड़ें। ६३ विषमता छोडें।। ६४. कर्मयोगसे आत्मा नयी नयी देह धारण करते हैं। ६५ अभ्यंतर दयाका चिन्तन करना। . ६६ स्व और परके नाथ बनें। ६७ बाह्य मित्र आत्महितका मार्ग बताये, उसे अभ्यंतर मित्रके रूपमें६८ जो बाह्य मित्र पौद्गलिक बातो और पर वस्तुका संगकरायें, उन्हे त्वरासे छोडा जा सके तो छोड़े और कदाचित् छोडा न जा सके तो अभ्यतरसे लुब्ध एवं आसक्त न हो। उन्हे भी, जो जानते हो उसका बोध दें। ६९ जैसे चेतनरहित काष्ठका छेदन करनेसे काष्ठ दुख नही मानता, वैसे आप भी समदृष्टि - रखिये। ७०. यतनासे चलना। ७१. विकारको घटायें। ७२ सत्पुरुषके समागमका चिंतन करे और मिल जाने पर दर्शनलाभसे न चूकें । ७३. कुटुंबपरिवारके प्रति आन्तरिक चाह न रखें। ७४. अत्यत निद्रा न लें। ७५. व्यर्थ समय न जाने दें। ७६. व्यावहारिक कामसे जिस समय मुक्त हो जायें, उस समय एकातमे जाकर आत्मदशाका विचार करें। ७७ सकट आने पर भी धर्म न चूकें । ७८. असत्य न बोलें। ७९. आर्त एवं रौद्र ध्यानका शीघ्र त्याग करें।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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