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________________ १७२ श्रीमद् राजचन्द्र बात गुप्त रखिये । हम क्या मानते हैं ? अथवा कैसे बरताव करते है ? उसे जगतको दिखानेकी जरूरत नही है, परन्तु आत्माको इतना ही पूछनेकी जरूरत है कि यदि तू मुक्तिको चाहता है तो सकल्प-विकल्प, रागद्वेष को छोड़ दे और उसे छोडनेमे तुझे कुछ बाधा हो तो उसे कह । वह अपने आप मान जायेगा और वह अपने आप छोड़ देगा। ____ जहाँ-तहाँसे रागद्वेषरहित होना यही मेरा धर्म है, और वह अभी आपको बताये देता हूँ। परस्पर मिलेंगे तब फिर आपको कुछ भी आत्म-साधना बता सकूँगा तो बताऊँगा। बाकी धर्म तो वही है जो मैंने ऊपर कहा है और उसीमे उपयोग रखिये। उपयोग ही साधना है। विशेष साधना मात्र सत्पुरुषके चरणकमल है, यह भी कहे देता हूँ। ___आत्मभावमे सब कुछ रखिये, धर्मध्यानमे उपयोग रखिये, जगतके किसी भी पदार्थ, सगे सबधी, कुटुबी और मित्रका कुछ हर्ष-शोक करना योग्य ही नही है। - परमशातिपदकी इच्छा करे यही हमारा सर्वसम्मत धर्म है और यही इच्छा करते-करते वह मिल जायेगा, इसलिये निश्चित रहे । मै किसी गच्छमे नही हूँ, परन्तु आत्मामे हूँ, इसे न भूलियेगा। जिसकी देह धर्मोपयोगके लिये है, उस देहको रखनेके लिये जो प्रयत्न करता है, वह भी धर्मके लिये ही है। वि० रायचन्द्र ३८ वि० स० १९४४ - (१) सहज स्वभावसे मुक्त, अत्यत प्रत्यक्ष अनुभव स्वरूप आत्मा है, तो फिर ज्ञानी पुरुषोको आत्मा है, आत्मा नित्य है, बध है, मोक्ष है इत्यादि अनेक प्रकारका निरूपण करना योग्य न था। (२) आत्मा यदि अगम अगोचर है तो फिर वह किसीको प्राप्त होने योग्य नहीं है, और यदि सुगम सुगोचर है तो फिर प्रयत्न करना योग्य नही है।। ३९ वि० स० १९४४ नेत्रोकी श्यामता विषे जो पुतलियाँरूप स्थित है, अरु रूपको देखता है, साक्षीभूत है, सो अंतर कैसे नही देखता? जो त्वचा विषे स्पर्श करता है, शीतउष्णादिकको जानता है, ऐसा सर्व अग विषे व्यापक अनुभव करता है, जैसे तिलो विषे तेल व्यापक होता है, तिसका अनुभव कोऊ नही करता । जो शब्द श्रवणइन्द्रियके अन्तर ग्रहण करता है, तिस शब्दशक्तिको जाननेहारी सत्ता है, जिस विषे शब्दशक्तिका विचार होता है, जिसकरि रोम खडे होई आते हैं, सो सत्ता दूर कैसे होवे ? जो जिह्वाके अग्रविषे रसस्वादको ग्रहण करता है, तिस रसका अनुभव करनेहारी अलेप सत्ता है, सो सन्मुख कैसे न होवे ? वेद वेदात, सप्तसिद्धात, पुराण, गीता करि जो ज्ञेय, जानने योग्य आत्मा है तिसको जब जान्या तब विश्राम कैसे न होवे ? ४० बबई, १९४४ विशालवुद्धि, मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियता इतने गुण जिस आत्मामे हो, वह तत्त्व पानेके लिये उत्तम पात्र है। अनत जन्ममरण कर चुकनेवाले इस आत्माकी करुणा वैसे अधिकारीको उत्पन्न होती है और वही कर्ममुक्त होनेका अभिलाषी कहा जा सकता है । वही पुरुष यथार्थ पदार्थको यथार्थ स्वरूपसे समझकर मुक्त होनेके पुरुषार्थमे लग जाता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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