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________________ २१ वा वर्ष १७३ जो आत्मा मुक्त हुए है वे आत्मा कुछ स्वच्छदवर्तनसे मुक्त नहीं हुए है, परन्तु आप्त पुरुप द्वारा उपदिष्ट मार्गके प्रबल अवलबनसे मुक्त हुए हैं। अनादिकालके महाशत्रुरूप राग, द्वेष और मोहके बधनमे वह अपने सम्वन्धमे विचार नही कर सका । मनुष्यत्व, आर्यदेश, उत्तमकुल और शारीरिक सपत्ति ये अपेक्षित साधन है, और अन्तरङ्ग साधन मात्र मुक्त होनेकी सच्ची अभिलापा है। । इस प्रकार यदि आत्मामे सुलभबोधिताकी योग्यता आयी हो तो वह, जो पुरुप मुक्त हुए हैं, अथवा वर्तमानमे मुक्तरूपसे या आत्मज्ञानदशासे विचरते है, उनके उपदिष्ट मार्गमे नि सदेह श्रद्धाशील होगा। __ जिसमे राग, द्वेष और मोह नही है, वह पुरुष इन तीन दोषोसे रहित मार्गका उपदेश कर सकता है अथवा तो उसी पद्धतिसे निःसंदेहरूपसे आचरण करनेवाले सत्पुरुष उस मार्गका उपदेश दे सकते है। सभी दर्शनोकी शैलीका विचार करनेपर राग, द्वेष और मोह रहित पुरुषका उपदिष्ट निग्रंथदर्शन विशेष मानने योग्य है। इन तीन दोषोसे रहित, महातिशयसे प्रतापी तीर्थकरदेवने मोक्षके कारणरूप जिस धर्मका उपदेश दिया है, उस धर्मको चाहे जो मनुष्य स्वीकार करते हो, परन्तु वह एक पद्धतिसे होना चाहिये, यह बात नि शक है। अनेक पद्धतिसे अनेक मनुष्य उस धर्मका प्रतिपादन करते हो और वह मनुष्योमे परस्पर मतभेद का कारण होता हो तो उसमे तीर्थकरदेवकी एक पद्धतिका दोष नही है परन्तु उन मनुष्योकी समझशक्तिका दोष माना जा सकता है। इस तरह हम निग्रंथधर्मप्रवर्तक है, यो भिन्न-भिन्न मनुष्य कहते हो, तो उनमेसे उन मनुष्योको प्रमाणाबाधित गिना जा सकता है कि जो वीतरागदेवकी आज्ञाके सद्भावसे प्ररूपक और प्रवर्तक हो । यह काल 'दुषम' नामसे प्रख्यात है। दुपम काल उसे कहा जाता है कि जिस कालमे मनुष्य महादु खसे आयु पूर्ण करते हो, और धर्माराधनाके पदार्थोंको प्राप्त करनेमे दु.पमता अर्थात् महाविघ्न । आते हो। हालमे वीतरागदेवके नामसे जैनदर्शनमे इतने अधिक मत प्रचलित है कि वे मत, केवल मतरूप है, परन्तु जब तक वीतरागदेवकी आज्ञाका अवलवन करके उनका प्रवर्तन न होता हो तब तक वे सतरूप नही कहे जा सकते। इस मतप्रवर्तनमे इतने मुख्य कारण मुझे सम्भाव्य लगते है-(१) अपनी शिथिलताके कारण कितने । ही पुरुषोने निग्रंथदशाकी प्रधानता कम कर दी हो, (२) परस्पर दो' आचार्योंका वाद-विवाद, (३) मोहनोय । कर्मका उदय और तदनुरूप प्रवर्तन हो जाना, (४) ग्रहण करनेके बाद उस वातका मार्ग मिलता हो तो भी उसे दुर्लभबोधिताके कारण ग्रहण न करना, (५) मतिको न्यूनता, (६) जिसपर राग हो उसको इच्छानुसार प्रवर्तन करनेवाले अनेक मनुष्य, (७) दुषम काल और (८) शास्त्रज्ञानका घट जाना। __इन सब मतोके सबवमे समाधान होकर निःशकतासे वीतरागकी आज्ञा रूप मार्ग प्रवत्तित हो तो महाकल्याण हो, परन्तु ऐसी सभावना कम है । जिसे मोक्षकी अभिलापा है उसको प्रवर्तना तो उसी मार्गमें होती है, परन्तु लोक अथवा ओघदृषिटसे प्रवर्तन करनेवाले पुरुप, और पूर्वके दुर्घट कर्मके उदयके कारण मतकी श्रद्धामे पड़े हुए मनुष्य उस मार्गका विचार कर सके, या वोव ले सकें, ऐसा उनके क्तिने ही दुर्लभबोधी गुरु करने दे और मतभेद दूर होकर परमात्माको आज्ञाका सम्यकरूपसे आराधन करते
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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