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________________ ४५२ श्रीमद् राजचन्द्र परमार्थपूज्यभावना दूर हो जाये, ऐसा जो देखा था, वह वर्तमानमे न हो, ऐसा विशेष उपयोग होनेके लिये सहज लिखा है। पूर्वापर इस बातका माहात्म्य समझमे आये और अन्य जीवोका उपकार हो, वैसा विशेष ध्यान रखियेगा। ५५३ बम्बई, पौष सुदी १, शुक्र, १९५१ एक पत्र प्राप्त हुआ है। यहाँसे निकलनेमे लगभग एक महीना होगा, ऐसा लगता है। यहाँसे निकलनेके बाद समागमसम्बन्धी विचार रहता है और श्री कठोरमे इस वातकी अनुकूलता आनेका अधिक सम्भव रहता है, क्योकि उसमे विशेष प्रतिबन्ध होनेका कारण मालूम नही होता। सभवत. श्री अवालाल उस समय कठोर आ सकें, इसके लिये उन्हे सूचित करूंगा। हमारे आनेके बारेमे अभी किसीको कुछ बतानेको जरूरत नही है, तथा हमारे लिये कोई दूसरी विशेष व्यवस्था करनेकी भी जरूरत नहीं है । सायण स्टेशनपर उतर कर कठोर आया जाता है, और वह लबा रास्ता नहीं है, जिससे वाहन आदिकी हमे कुछ जरूरत नही है। और कदाचित् वाहनकी अथवा और कुछ जरूरत होगी तो श्री अवालाल उसकी व्यवस्था कर सकेंगे। .. कठोरमे भी वहाँके श्रावको आदिको हमारे आनेके बारेमे कहनेको जरूरत नही है, तथा ठहरनेके स्थानकी कुछ व्यवस्था करनेके लिये उन्हे सूचित करनेकी जरूरत नहीं है। इसके लिये जो सहजमे उस प्रसगमे हो जायेगा उससे हमे वाधा नही होगी। श्री अबालालके सिवाय कदाचित् दूसरे कोई मुमुक्षु श्री अंबालालके साथ आयेगे, परन्तु उनके आनेका भी कठोर या सूरत या सायणमे पता न चले, यह हमें ठीक लगता है, क्योकि इस कारण कदाचित् हमे भी प्रतिबंध हो जाये । . हमारी यहाँ स्थिरता है, तब तक हो सके तो पत्र, प्रश्न आदि लिखियेगा। साधु श्री देवकरणजीको, आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो। जिस प्रकार असगतासे आत्मभाव साध्य हो उस प्रकार प्रवृत्ति करना यही जिनेद्रकी आज्ञा है । इस उपाधिरूप व्यापारादि प्रसगसे निवृत्त होनेका वारवार विचार रहा करता है, तथापि उसका अपरिपक्व काल जानकर उदयवश व्यवहार करना पड़ता है। परन्तु उपर्युक्त जिनेद्रकी आज्ञाका प्राय विस्मरण नही होता। और आपको भी अभी तो उसी भावनाका विचार करनेके लिये कहते हैं । आ० स्व० प्रणाम। ५५४ बबई, पौष सुदी १०, १९५१ श्री अजारग्राममे स्थित परम स्नेही श्री सोभागके प्रति, _ श्री मोहमयी भूमिसे लि• आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो। विशेष आपका पत्र मिला है। ___चत्रभुजके प्रसगमे लिखते हुए आपने ऐसा लिखा है कि 'काल जायेगा और कहनी रहेगी', यह __ आपको लिखना योग्य न था । जो कुछ शक्य है उसे करनेमे मेरी विषमता नहीं है, परन्तु वह परमार्थसे अविरोधी हो तो हो सकता है, नही तो हो सकना बहुत कठिन पड़ता है, अथवा नहीं हो सकता, जिससे 'काल जायेगा और कहनी रहेगी', ऐसा यह चत्रभुज सबधी प्रसग नही है, परन्तु वैसा प्रसग हो तो भी बाह्य कारणपर जानेको अपेक्षा अन्तर्धर्मपर प्रथम जाना श्रेयरूप है, इसका विसर्जन होने देना योग्य नही है। रेवाशकरभाईके आनेसे लग्नप्रसगमे जैसे आपके और उनके ध्यानमे आये वैसे करनेमे आपत्ति नही है। परन्तु इतना ध्यान रखनेका है कि बाह्य आडवर जैसा कुछ चाहना ही नही कि जिससे शुद्ध व्यवहार
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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