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श्रीमद् राजचन्द्र वारह कुलकी गोचरी कही है, वैसी कितने ही मुनि नहीं करते। उन्हें वस्त्र आदि परिग्रहका मोह दूर नहीं हुआ है । एक बार आहार लेनेका कहा है, फिर भी दो बार लेते हैं । जिस ज्ञानी पुरुषके वचनसे आत्मा ऊँचा उठे वह सच्चा मार्ग है, वह अपना मार्ग है । हमारा धर्म सच्चा है पर पुस्तकमें है। आत्मामें जब तक गुण प्रगट न हो तब तक कुछ फल नहीं होता । 'हमारा धर्म' ऐसो कल्पना है। हमारा धर्म क्या ? जैसे महासागर किसीका नहीं है, वैसे ही धर्म किसीके बापका नहीं है। जिसमें दया, सत्य आदि हो उसका पालन करें । वे किसीके बापके नहीं हैं । अनादिकालके हैं; शाश्वत हैं । जीवने गाँठ पकड़ी है कि हमारा धर्म है, परंतु शाश्वत धर्म है, उसमें हमारा क्या ? शाश्वत मार्गसे सब मोक्ष गये हैं। रजोहरण, डोरा, मुंहपत्ती, कपड़े इनमेंसे कोई आत्मा नहीं हैं।
कोई एक वोहरा था। वह छकडेमें माल भरकर दूसरे गाँवमें ले जा रहा था। छकडेवालेने कहा, 'चोर आयेंगे इसलिये सावधान होकर रहना, नहीं तो लूट लेंगे।' परन्तु उस बोहरेने स्वच्छंदसे माना नहीं और कहा, 'कुछ फिक्र नहीं !'. फिर मार्गमें चोर मिले। छकडेवालेने माल बचानेके लिये मेहनत करनी शुरू की परन्तु उस बोहरेने कुछ भी न करते हुए माल ले जाने दिया; और चोर माल लट गये। परन्तु उसने माल वापस प्राप्त करनेके लिये कोई उपाय नहीं किया। घर गया तब सेठने पूछा, 'माल कहाँ है ?', तब उसने कहा कि 'माल तो. चोर लूट गये हैं।' तब सेठने पूछा 'माल पकड़नेके लिये कुछ उपाय किया है ?' तब उस बोहरेने कहा, 'मेरे पास बीजक है, इससे चोर माल ले जाकर किस तरह बेचेंगे ? इसलिये वे मेरे पास बीजक लेने आयेंगे तब पकड़ लगा।' ऐसी जीवको मूढ़ता है। हमारे जैन धर्मके शास्त्रोंमें सब कुछ है, शास्त्र हमारे पास हैं।' ऐसा मिथ्याभिमान जीव कर बैठा है । क्रोध, मान, माया, लोभरूपी चोर दिनरात माल चुरा रहे हैं, उसका भान नहीं है । . ... . .
.: तीर्थंकरका मार्ग सच्चा है। द्रव्यमें कोड़ी तक भी रखनेकी आज्ञा नहीं है। वैष्णवके कुलधर्मके कुगुरु आरम्भ-परिग्रह छोड़े बिना ही लोगोंके.पाससे लक्ष्मी ग्रहण करते हैं, और यह एक व्यापार हो गया है। वे स्वयं अग्निमें जलते हैं, तो उनसे दूसरोंकी अग्नि किस तरह शांत हो ! जैनमार्गका परमार्थ सच्चे गुल्से समझना है । जिस गुरुको स्वार्थ होता है वह अपना अकल्याण करता है, और शिष्योंका भी अकल्याण होता है। • जैन लिंगधारी होकर जीव अनंत बार भटका है । बाह्यवर्ती लिंग धारण करके लौकिक व्यवहारमें अनंत वार भटका है। यहाँ हम जैनमार्गका निषेध नहीं करते। जो अन्तरंगसे सच्चा मार्ग वताये वह 'जैन' है। बाकी तो अनादिकालसे जीवने झूठेको सच्चा माना हैं; और यही अज्ञान है। मनुष्यदेहकी सार्थकता तभी है कि जब जीव मिथ्या आग्रह, दुराग्रह छोड़कर कल्याणको प्राप्त करें। ज्ञानी सीधा मार्ग ही बताते हैं। आत्मज्ञान जब प्रगट हो तभी आत्मज्ञानीपन मानना, गुण प्रगट हुए बिना उसे मानना भूल है। जवाहरातकी कीमत जाननेकी शक्तिके. बिना जौहरीपन न मानें । अज्ञानी झूठेको सच्चा नाम देकर संप्रदाय बनाता है । सत्की पहचान हो तो कभी भी सत्य ग्रहण होगा।
• आणंद, भादों वदी ३०, मंगल, १९५२ - जो जोव अपनेको . मुमुक्षु मानता हो, तरनेका कामी मानता हो, समझदार हूँ ऐसा मानता हो, उसे देहमें रोग होते समय आकुल-व्याकुलता होती हो, तो उस समय विचार करे-'तेरी मुमुक्षुता, चतुरता कहाँ चली गयीं ?' उस समय विचार क्यों नहीं करता होगा ? यदि तरनेका कामी है तो तो वह देहको असार समझता है, देहको आत्मासे भिन्न मानता है, उसे आकुलता नहीं आनी चाहिये । देह