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________________ २५ वॉ वर्ष आदिकी इच्छा रखी जाती है, तो जीवको दर्शनावरणीय प्रायः ज्ञानी, किसीको अपनेसे वैसा प्रतिबन्ध न हो, इस तरह ज्ञानीसे यदि किसी भी प्रकारसे धन कर्मका प्रतिबन्ध विशेष उत्पन्न होता है । प्रवृत्ति करते हैं । ज्ञानी अपना उपजीवन - आजीविका भी पूर्वकर्मानुसार करते है, ज्ञानमे प्रतिबद्धता हो, इस तरह आजीविका नही करते, अथवा इस तरह आजीविका करानेके प्रसगको नही चाहते, ऐसा हम जानते है । ३३५ जिसे ज्ञानीमे केवल निस्पृह भक्ति है, उनसे अपनी इच्छा पूर्ण होती हुई न देखकर भी जिसमे दोष - बुद्धि नही आती ऐसे जीवकी आपत्तिका ज्ञानीके आश्रयसे धैर्यपूर्वक प्रवृत्ति करनेसे नाश होता है, अथवा उसकी बहुत मदता हो जाती है, ऐसा जानते है, तथापि इस कालमे ऐसी धीरज रहनी बहुत विकट है और इसलिये उपरोक्त परिणाम बहुत बार आता हुआ रूक जाता है । हमे तो ऐसी झझटमे उदासीनता रहती है । यह तो स्मरणमे आ जानेसे लिखा है । f हममे विद्यमान परम वैराग्य व्यवहारमे कभी भी मनको लगने नही देता, और व्यवहारका प्रतिबध तो सारे दिनभर रखना ही पडता है । अभी तो उदयकी ऐसी स्थिति है, इससे सभव होता है कि वह भी सुखका हेतु है । हम तो पाँच माससे जगत, ईश्वर और अन्यभाव इन सबसे उदासीन भावसे रह रहे है तथापि यह बात गभीरता के कारण आपको नही लिखी। आप जिस प्रकारसे ईश्वर आदिमे श्रद्धाशील हैं, आपके लिये उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करना कल्याणकारक है, हमे तो किसी तरहका भेदभाव उत्पन्न न होनेसे सब कुछ झझटरूप है इसलिये ईश्वर आदि सहित सबमे उदासीनता रहती है । हमारे इस प्रकारके लिखने को पढकर आपको किसी प्रकारसे संदेहमें पडना योग्य नही है । अभी तो हम इस स्थितिमे रहते है, इसलिये किसी प्रकारकी ज्ञानवार्ता भी लिखी नही जा सकती परतु मोक्ष तो हमे सर्वथा निकट रूपसे रहता है, यह तो नि शंक बात है । हमारा चित्त आत्माके सिवाय किसी अन्य स्थल पर प्रतिवद्ध नही होता, क्षणभरके लिये भी अन्यभावमे स्थिर नही होता, स्वरूपमे स्थि रहता ऐसा जो हमारा आश्चर्यकारक स्वरूप है उसे अभी तो कही भी कहा नही जाता । बहुत मास बीत जानेसे आपको लिखकर सतोष मानते हैं । ३६९ सव कुछ हरिके अधीन है । पत्रप्रसादी प्राप्त हुई है । यहां समाधि है । सविस्तर पत्र अब फिर, निरुपायताके कारण लिखा नही जा सकता । ३७० हृदयरूप श्री सुभाग्यके प्रति, नमस्कार पढियेगा । हम भेदरहित हैं। वंबई, वैशाख वदी ९, शुक्र, १९४० बबई, वैशाख वदी ११, रवि, १९४ अविच्छिन्नरूपसे जिन्हे आत्मध्यान रहता है, ऐसे श्री " प्रणाम पहुँचे । जिसमे अनेक प्रकारकी प्रवृत्ति रहती है ऐसे योगमे अभी तो रहते है । उसमे आत्मस्थिति उत्कृष्टरूप से विद्यमान देखकर श्री · के चित्तको अपने आपसे नमस्कार करते हैं ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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