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________________ ३३४ हृदयरूप श्री सुभाग्य, श्रीमद राजचन्द्र यहाँ समाधि है । बाह्योपाधि है । अभी कुछ ज्ञानवार्ता लिखनेका व्यवसाय कम रखा है, उसे प्रकाशित कीजियेगा । ३६४ आपका पत्र प्राप्त हुआ । उपाधि ३६५ आज पत्र आया है । व्यवसाय विशेष रहता है । ‘प्राणविनिमय' नामको मिस्मिरेजमकी पुस्तक पहले पढनेमे आ चुकी है, उसमे बतायी हुई बात कोई बडी आश्चर्यकारक नही है, तथापि उसमे कितनी हो बातें अनुभवकी अपेक्षा अनुमानसे लिखी हैं । उनमे कितनी ही असंभव हैं । हृदयरूप श्री सुभाग्य, जिसे आत्मत्वका ध्येय नही है, उसके लिये यह बात उपयोगी है, हमे तो उसके प्रति कुछ ध्यान देकर समझाने की इच्छा नही होती, अर्थात् चित्त ऐसे विषयकी इच्छा नही करता । यहाँ समाधि है । बाह्य प्रतिबद्धता रहती है । सत्स्वरूपपूर्वक नमस्कार बबई, वैशाख सुदी १२, रवि, १९४८ हृदयरूप श्री सुभाग्य, मनमे वारवार विचार करनेसे निश्चय हो रहा है कि किसी भी प्रकारसे उपयोग फिर कर अन्यभावमे ममत्व नही होता, और अखण्ड आत्मध्यान रहा करता है, ऐसी दशामे विकट उपाधियोगका उदय आश्चर्यकारक है । अभी तो थोडे क्षणोकी निवृत्ति मुश्किलसे रहती है और प्रवृत्ति कर सकनेकी योग्यता - वाला तो चित्त नही है, और अभी वैसी प्रवृत्ति करना कर्तव्य है, तो उदासीनतासे ऐसा करते है, मन कही भी नही लगता, और कुछ भी अच्छा नही लगता, तथापि अभी हरीच्छा के अधीन है । निरुपम आत्मध्यान जो तीर्थंकर आदिने किया है, वह परम आश्चर्यकारक है । वह काल भी आश्चर्यकारक था । अधिक क्या कहे ? 'वनकी मारी कोयल' की कहावत के अनुसार इस कालमे और इस प्रवृत्ति हम हैं । १ मणिभाई सोभाग्यभाईके सवषमें । बबई, वैशाख सुदी ९, गुरु, १९४८ ३६६ बंबई, वैशाख वदी १, गुरु, १९४८ तो रहता है, तथापि आत्मसमाधि रहती है । अभी कुछ ज्ञानप्रसग लिखियेगा । नमस्कार पहुँचे । बबई, वैशाख वदी ६, मंगल, १९४८ बबई, वैशाख सुदी ११, शनि, १९४८ ३६७ ३६८ पत्र प्राप्त हुआ था । यहाँ समाधि है । सट्टे जीव' रहता है, यह खेदकी बात है, परन्तु यह तो जीवको स्वत' विचार किये बिना समझ आ सकता
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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