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________________ ३६० २५ वो वर्ष ३३३ किसी भी प्रकारसे पहले तो जीवका अहंत्व दूर करना योग्य है। जिसका देहाभिमान गलित हुआ है उसके लिये सब कुछ सुखरूप ही है। जिसे भेद नही है उसे खेदका सम्भव नही है। हरीच्छामे दृढ विश्वास रखकर आप प्रवृत्ति करते है, यह भी सापेक्ष सुखरूप है। आप जो कुछ विचार लिखना चाहते है उन्हे लिखनेमे भेद नही रखते, इसे हम भी जानते है। बंबई, चैत्र वदी १२, रवि, १९४८ जहाँ पूर्णकामता है, वहाँ सर्वज्ञता है। जिसे बोधबीजकी उत्पत्ति होती है, उसे स्वरूपसुखसे परितृप्तता रहती है, और विषयके प्रति अप्रयत्न दशा रहती है। जिस जीवनमे क्षणिकता है, उस जीवनमे ज्ञानियोने नित्यता प्राप्त की है, यह अचरजकी बात है। यदि जीवको परितृप्तता न रहा करती हो तो उसे अखण्ड आत्मबोध नहीं है ऐसा समझे। ३६१ बबई, वैशाख सुदी ३, शुक्र (अक्षयतृतीया), १९४८ भावसमाधि है । बाह्यउपाधि है, जो भावसमाधिको गौण कर सके ऐसी स्थितिवाली है, फिर भी समाधि रहती है। ३६२ बंबई, वैशाख सुदी ४, शनि, १९४८ हृदयरूप श्री सुभाग्य, नमस्कार पहुंचे। यहाँ आत्मता होनेसे समाधि है ।। हमने पूर्णकामताके बारेमे लिखा है, वह इस आशयसे लिखा है कि जितना ज्ञान प्रकाशित होता है उतनो शब्द आदि व्यावहारिक पदार्थोंमे नि स्पहता रहती है, आत्मसुखसे परितृप्तता रहती है। अन्य सुखको इच्छा न होना, यह पूर्णज्ञानका लक्षण है। ज्ञानी अनित्य जीवनमे नित्यता प्राप्त करते हैं, ऐसा जो लिखा है वह इस आशयसे लिखा है कि उन्हे मृत्युसे निर्भयता रहती है। जिन्हे ऐसा हो उनके लिये फिर यो न कहे कि वे अनित्यतामे रहते हैं तो यह बात सत्य है। __ जिसे सच्चा आत्मभान होता है उसे, मैं अन्य भावका अकर्ता हूँ, ऐसा बोध उत्पन्न होता हे और उसकी अहप्रत्ययीवुद्धि विलीन हो जाती है। ऐसा आत्मभान उज्ज्वलरूपसे निरतर रहा करता है, तथापि जैसा चाहते हैं वैसा तो नही हे । यहाँ समाधि है। समाधिरूप। बबई, वैशाख सुदी ५, रवि, १९४८ अभी तो अनुक्रमसे उपाधियोग विशेष रहा करता है। अधिक क्या लिखे ? व्यवहारके प्रसगमे धीरज रखना योग्य है। इस बातका विसर्जन नहीं होता हो, ऐसी धारणा रहा करती है।। अनतकाल व्यवहार करनेमे व्यतीत किया है, तो फिर उसकी झझटमे परमार्थका विसर्जन न किया जाये, ऐसी प्रवृत्ति करनेका जिसका निश्चय है, उसे वैसा होता है, ऐसा हम जानते है। वनमे उदासीनतासे स्थित जो योगी-तीर्थकर आदि-हे उनके आत्मत्वकी याद आती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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